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जवखस्स जक्खायणे, जेणेव असोगवरपावे, तेणेव उवागष्छइ १चा अहाहरूवं उग्गहं उगिणहत्ता संजमणं सवसा अप्पाणं भावमाणे चिहरंति ॥१०॥ परिसा जिग्गया, धम्मो कहिओ ॥ ७॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे इमीसे कहाए लट्ठ समाणे २१४ कोडुम्बिय पुरिस सहावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरसिय गंभीरमहुरसई कोमुदियं भेरि तालेह ॥॥ ततेणं ते कोडंबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवंवुत्ते समाणे हट्ट जाव मत्थएअंजलि
कटु, एवं क्यासी! तहत्ति जाव पडिसुणेइ रत्ता, कण्हस्स घासुदेवरस अंतियाती पडि. नंदन बन उथान में सुरमिय यक्ष के यक्षायतन की पास अशोक वृक्ष की नीचे यथाप्रतिरूप अवग्रह याचकर संयम ३ तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ १. ॥ परिषदा दर्शन करने को निकली पावत् धर्मोपदेश कहा ॥ ११॥ जय कृष्ण वासुदेव को इस बात की मालूम हुई तब उनोंने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय ! सुधर्मा सभा में मेघ के समुह जैसी घोर गंभीर बन
मधुर सम्दवाली कै.मुदी नाम की मेरी मावो. कृष्ण बासुदेव के ऐसे कहने पर वे कौटुबिक पुरुषों IVा दुष्ट हुए यावन् मस्तक से दोनों हाथ की अंगली करके कहा अहो स्वामी ! तथ्य है, ऐसा करक
* मनुवादक बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ।
भकामकाजावामदर सालामुखदवसहायणी ज्वाखाप्रसादमी।
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