________________
पटांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध +ve
कैलायरियरस उवणेति, जाव भोगसमत्थं जै णित्ता बत्तीसाए इब्भकुल बालियाहिं एगदिवसेणं पाणिगिण्हावेइ, बत्तीतो दातो जाव बत्तीसाए इब्भकुलबलियाहिं साई घिउले सह रस फरिस रूप गंधे जाव भुजमाणे विहरइ ॥ ९॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटनेमी सोचेव वण्णओ दसधणुस्सेहे नीलप्पलधवल गुलिय अयसिकुसुमप्पगासे, अट्ठारसेहिं समणे साहसीहिं सद्धिं संपरिवुडे,चत्तालीसाए अज्जिया साहस्तीहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुवाणुपुल्वि चरमाणे
जाव जेणेव बारावई नयरी जेणेव रेवएपन्चए जेणेव नंदणवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्म पनि उसे कला शिखानेवाले आचार्य की पाम लेगइ यावत् भोग भोगने योग्य देख कर वर्तस इन्य श्रोष्टकी बालिकाओं के साथ एक दिन में पाणिग्रहण कर या. दायचे में वत्तीय दातों दो यावत् वत्तस ही बालिकाओं साथ शब्द, रस, स्पर्श, रूप व गंध का यावत् भोग " मागता हुँचा रहता था ॥ १॥ उस काल उस समय में दश धनुष्य की अवगाहनावाले, नीलोत्पल कपल,* पहिप शृंग या अलसी कुसम के पुरुष के समान नीले रंगवाले श्री अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ अठारह हजार साधु, काली हजार पाभीके परिवार से पर्यानपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विच द्वारका गरी में रेवतकपतिकी पास
Nir. मला राज का पांचवा अध्ययन
488
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org