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सूत्र
अर्थ
488+- षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 418+
उगाई उग्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहङ्ग || परिसाणिग्गया, सेणिओ विणिग्गओ, धम्मकहिओ, परिसापडिगया, ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभुइणामंअणगारे अदूर सामंते जाव सुक्कज्झाणो गए बिरइ ॥ ४ ॥ ततेणं से इंदभूई जाएसड्डे एवं वयासी - कह भंते! जीवा गरुयचंवा लहुयतंत्रा इल्वमागच्छति ? गोयमा 1 से जहा नामए केइ पुरिसे एगंमहंसुकं बणिच्छिदं णिरुवहए दम्भेहिये कुसेहिय वेढेइ २ चामट्टिया लेवेणं लिपतिरत्ता उन्हं दलयति २ चा सुक्कंसमाणं दोचंपि दव्भेहिय कुसेहिय बढेति २त्ता, मट्टिया
अवग्रह याचकर संयम व सप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. परिषदा आई श्रेणिकराजा भी आया. धर्म कथा सुनाइ, परिषदा पीछीगई || ३ || उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महाबार स्वामी के ज्येष्ट अंतेवासी इन्द्रभूति अनगार भगवंत के पास में यावत् शुक्त ध्यानसहित विचर रहेथे { ॥ ४ ॥ इन्द्रभूति अनगार को शंका यावत् श्रद्धा उत्पन्न होने से ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् जीव गुरुत्व व लघुल ( भारीपने व हलके पने को ) कैसे प्राप्त करता ? अहो गौतम ! जैसे कोई
पुरुष छिद्र रहित किसी सूके हुने बढे तुम्बवे को दर्भ व कुश से बांटे ( लपेटे ) फीर उसे मिट्टि के लिन करें और ताप में सूकात्रे, फोर उसे दूसरी बार दर्भ व कुश से लेपेट और मिट्टि का लेप लगाने, फीर
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49498+ तुम्ब का छठा अध्ययन 446++
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