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शाताधर्मकथाना प्रथम श्रुत
भसिं परामुसति २चा सुसुमाए दारियाए उत्तमंगच्छिदंति २ तं गहाय तं आगामयअडर्षि
अणुप्पविटुं ॥ ३० ॥ ततण से चिलाए तीसे आगमियाए अडवीए तणति अभिभूते ' समाणे पम्हट्ठदिसीभाए साहगुहं चोरपाल्लिं असंपत्ते अंतराचेव कालगए ॥ ३१ ॥ एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वतिए समाणे इमरस ओरालिय सरीरा वंतासबस्स जाब विहंसण धम्मस्स वण्णहेउवा जाव आहारं आहारति सेणं इालोएचेत्र बहुगं समणाणं बहुणं समणीणं वहणं साबयाणं बहुणं साबियाणं हीलणि जाव अणुप-- रियहिस्सति ॥ जहा वा से चिलाएतकरे ॥ ३२ ॥ ततेणं से धणे सत्यवाह पंचहिं नही तब वह श्रमित बना हुवा निलोत्पल समान असि उठाकर सुषमादारिका कास्तक उसने छेद डाला. और उस ग्राम विना की अटारे में प्रवेश किया ॥ ३० ॥ अब वह चिलात उस ग्राम विना की अटवि में तृषा से पगभून बना हुवा मार्ग भूलगाने से सिंहगुफा चोर पली को पहुंचे बिना ही बीच में काउ धर्म को प्राप्त हुआ।॥३१॥अहो आयुष्मन्त श्रमणो! हमारे साधु साश्त्री यावत् मनजित बनकर वंताश्रमाया विवंस स्वभावचाला उदारिक शरीर में वर्ण के लिये यावत् आहार करते हैं इस लोक में बहुत साधु, साध्वी, श्रावक / श्राविकाओं हीलनीय निंदनीय होते है यावत संसार में परिभ्रमण करेंगे जैसे चिलास चोर हुभा. ॥ ३१ ॥
सुपा दासका अठराश अध्ययन --
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