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सूत्र
अनुवादक-बालब्रह्म चारी मुनि श्री अमोलक ऋपी
सुहं गुहेणं विहरइ॥१४६॥तएणं तुम मेहा! उमुक्कबालभावे जोवणगमणुपत्ते जूहवइणा कालंधम्मणा संजुत्तेणं तंजूहं सयमेव पडिवजसि॥१४७॥ तएणं तुम मेहा! वणयरेहि णिवत्तिय णामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था ॥ तत्थणं तुममेहा ! सत्तंगपइट्ठिए तहेव जाव पडिरूवे ॥ तत्थणं तुममेहा ! सत्तसयरस जूहस्स आहेवच्चं जाव अभिर मेत्था ॥ १४८ ॥ तएणं तुमं अण्णया कयाई गिम्हकाल समयंसि जिट्ठामूले वणदव जाला पलित्ते मुवणंति सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाएव्व
परिभमंता भीए तत्थे जाव संजायभए बहूहि हत्थीहिय जाव कलभियाहिय सद्धिं संपरिरा हुवा रम्य पर्वत के वन में सुख पूर्वक विचरने लगा ॥१४६॥ अहो मेध ! तू बालभाव से मुक्त होकर योवनावस्था को प्राप्त होते यूथपत्ति के काल धर्म से संयुक्त हाने से तैने उस यूथ को अंगीकार कियामालक बना।।१४७॥ तहां अहो मेघौतेरा बलचरोंने यावत् चार दांतवाला मेरुप्रभ हस्तीरत्न नाम रखा. अहोभ
मेघ ! सातों अंगों में प्रतिष्ठित यावत् प्रतिरूप हुना. अहो मेघ ! तू सातसो हाथियों का आधिपति यावत् ॐ मनोहर था ॥ १४८ ॥ तध अहो मेघ ! एकदा ग्रीष्म ऋतु प्राप्त होते ज्येष्ठ मास की मूल नक्षत्रकी अग्नि में
प्रदीप्त होने से धूम्र से आकुल व्याकुल होकर दशोंदिशि में वास को प्राप्त होते बहुन हाथी ।
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी.
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