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स्था का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48
वुढे सवओ समंता दिसोदिसं विप्पलाइत्था ॥ १४९ ॥ तएणं तव मेहा ! तं वणदवं पसित्ता अयमेया रूवेअज्झथिए जाव समुप्पाजत्था कहणं मण्णे मए अयमेया रूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुवे ॥ १५० ॥ तएणं तब मेहा ! लेसाहि विसुज्झमाणीहिं. अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्भाणं खउसमेणं इहापुहमग्गण गवेसणं करेमाणस्स सणिपुव्वे जाइसरणे समुप्पजित्था ॥ १५१ ॥ तएणं तुमं मेहा ! एयमटुं सम्मं अभिसमेइ एवं खलु मया अतीए दोचे भवग्गहणे इह जंबूदीचे २ भारहेवासे वेयड्डगिरि पायमूले जाव सुहं सुहेणं
ओं, हाथी के नर बच्चे व मादी बच्चे वगैरह सब भगने लगे ॥ १.४९ ॥ अहो मेघ ! वन का दवा र लेने को उस समय ऐसा अध्यवसाय हुवा कि मैंने ऐसा अग्नि का उत्पन्न होना किसी स्थान
- अनुभवा हुवा है ॥१५०॥ अब अहो मेघ ! तेरे विशुद्ध लेश्या व अध्यवसाय से शुभ परिणामसे या काय कर्मों के क्षयोपशम से मातज्ञान के इहादि में मार्ग गवेषणा करते पूर्व का जाति स्मरण ज्ञान उस दुधः ॥ १५१. ॥ अहो मेघ ! सेन यह बात सम्यक् प्रकार से जानी कि मैंने गये भव में , इस जम्बूद्रोप के भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के मूल में यावत् सुख पूर्वक विचरता था. वहां ऐमा अनि
4+8+ उक्षित (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन *38
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