________________
१२८
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिर्जन
विहरइ, तत्थणं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभए ॥ १५२ ॥ तत्थणं तुम मेहा ! तस्सव दिवसस्स पवावरण्ह कालसमयसि सणियएणं जहेणं सद्धि समण्णागएयावि होत्या । तएणं तमं महा सभुस्सेह जाव सणि जाइसरणे चउदंते भेरुप्पमेणाम हत्थी राया होत्था ॥ १५३ ॥ तरगं तुम मेहा ! अथमेयारूचे अझ थिए जाव समुपजित्था-त सेयं खलु ममइयाणि मंगाए महाणईए दाहिजिल्लं कलंलि विज्झगिरि पायमूले दवग्गि संतागकारला .लए जूहेणं महइ महालयं मंडलं घाइत्तए तिकटु, एवं संपेहइ २ सुई महेण विहरइ ॥ तए तुम महा अाया
कयाइं पढम पाउलियं महाबुट्टिकायंस सगियायमि गंगाए महागाईए अदूर सामने उत्पन्न हुवा था ॥ १५२ ॥ अहो मेघ ! उस दिन के प्रथम प्रहर से पीछे के पहर तक अपने यूथ की। साथ तू आता था. अहो मेघ ! उस समय तू सात हाथ का ऊंचा, नव य का सम्पा, दश हाथ क | चौडा, यावत् जाति स्मरण ज्ञानवाला, चारों दांतवाला व रक्त वर्णवाला ममम नामक हस्ती गजा था ॥ १५३ ।। अहो मेघ! वहां तुझ एसा अध्यवसाय हुआ कि ऐसी दवन से रक्षण करने के लिये गंगा नदी के दक्षिण किनारे पर विध्ययल पर्षन के एक छोटे पहाड के मन में वृक्षादिक का छेदन कर अपने यूथ सहित एक धडा मंडल वनार मुझ श्रेय है. एका विचार कर तू मुख पूर्वक विचरने लगा. तदनंतर
'. प्रकाशमलवडाका डालादाजी पालापमा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org