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सूत्र
अर्थ
१०+ षष्ठा ज्ञाताधर्मकथा प्रथम-तस्कंध हे
हत्थाय कलाभियाहिय सत्ता हत्थितएहिं सद्धि संपरिवुडे एगंमहं जोयण परिमंडलं महंति महालयं मंडल घाएसि, जं तत्थ तर्णवा, पत्तंवा, कटुंगा, कंटएवा लयावा बल्लवा, खाणुवा, रुक्खा, खुवा तं स तिक्खुतो आहुणिय २ पाएणं उद्धरेसि हत्थेणं गिव्हइ एगंत पाडेसि ॥ १५४ ॥ एणं तुमं मेहा ! तस्सेव मंडलस्ल अदूर सामंते गंगाए महाणईए दाहिणिलेकुले विज्झगिरि पायले गिरिसु जाव विहरइ ॥ १५५ ॥ तनं तुमं मेहा ! अण्गयाकयाइं मज्झिमए वरिसारचमि महाबुद्धि कार्यसि सणिवा जेणव से मंडले तेणेव उवागच्छइ २ चा दोचंपि मंडलवाए स
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अहो मेघ ! एकदा प्रथम वर्षाकाल में जब बहुत वर्षा हुई तब गंगा महानदी की पास हस्ती यवत् हस्तिनयों के सातसों के परिवार से परवरा हुआ वृक्षों का देखन कर एक योजन का मंडल बडपिर जो तृग, पत्र. काष्ट, कंटक, लना, बल्ली, खूटी वृक्ष व छंटे वृक्ष हिल हिलाकर पांव से नीकाल कर व सूंढ से पकडकर दूर डाल दिये. उस मंडल की पास गंगानदी के दक्षिण कि तारेपर विध्यगिरी पर्वत की | लगा. ॥ १५५ ॥ तसश्चात् अहो मेघ ! अन्यदा मध्य वर्षा काल में बहुत वृष्टि हुई तब अपना मंडल "
वगैरह सब को तीन २ बार ॥ १५४ ॥ अहो मेघ ! तलटी में यावत् तु विचरने
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+8+ उत्क्षिप्त मेघकुमार प्रथम अन
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