________________
३३५
चारी मुनि श्री अमोलक *
संवच्छरं पडिलहणसि सिरिदामगंडस्स पउमाई एदेवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सति मंपिकलं न अग्घेइ ॥ततेणं सुबुद्धि अभच्चे पडिबुद्धिइक्खागरायं एवं बयासी- वं खलु सामी ! विदेहराय वरकन्ना उपइठिय कुमुन्नय चारुचलणा, वन्न मो ॥ ५५ ॥ तएणं पडिबुद्धिराया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमढे सोच्चाणिसंम. सिरिदामगंड जणियहासे दूयं सदावेइ २ ता एवं क्यासी- गच्छाहिणं तुभं दवाणुपिया ! महिलं रायहाणिं तत्थगं कुभमस्सरन्नोधूयं पभावतीए देवीए अत्तयं मल्लिं विदेहरायवर कन्नग मम भारियत्ताए वरेहि, जइवियणंसा सयरजंसुक्क ॥ ५२ ॥ गांठ के उत्सव में तने दीव्य श्री दाम गेंद देखा वह मल्ल कुंबरी कैसी है ? सबुद्धि प्रबनने इन गवंशी प्रतिबुद्धि राजा को कहा अहो सामिन् ! वह विदेह राजा की कन्या मुपतिष्ठ कूर्म जैसे पांदन बगैरह। संत्र वर्णन जानना ॥ ५५ ॥ सुबुद्धि अमात्य की पास मे एमा सुनकर श्री दाम गेंद के निमित से पूर्व लेह उत्पन्न हवा. और दू। का बालाकर कहा कि अहो दवानुप्रय! तुप मिथिला र पधान में नारी। वहां कुंभराजा की पुत्री व प्रभावतोदेवी की अत्मजा ल्लो नाम की विदेह राजवर कन्या को मेरी भर्या बनाने के लिय मागणी करते. और उसके बदले में राज्य का दान मग तो भी देना ॥ ५२ ॥
पकवाक राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
अर्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org