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षष्टांझज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रृतस्कन्ध 411
पण्णत्त॥९॥ततेगं जियसत्तू गाया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-माणं तुम देवाणुप्पिय! अप्पाणं च परंच तदुभयच बहुहिय असंभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेणय बुग्गाहेमाणे उप्पाएमाणे विहराहि ॥ १० ॥ ततेणं मुबुद्धिस्स अमच्चस्म इमेय रूवे अज्झथिए, समुप्पजित्था अहोणं जियमत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूते, जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभंति॥ तं सेयं खल मम जियसत्तूरस रण्णो संताणं. तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्रयाए एयम, उायणावेत्तए॥ एवं संपेहेति एवं संपेहेइत्ता पत्तिएहि पुरिमेहि सई अंतरावणाओ भवए घडए गिण्हति
२त्ता संज्झा कालं समयसि विरलमण संसि निसंतपडिनि तसि जेणव फ रेहोदए तेणव । है. ॥ ९ ॥ तप जिनशत्रु राजाने सुद्धि को ऐषा कहा कि अहो देवानु पय ! तुम अपना, अन्य के व उभय के अस्मा की बहुन अपार व मिथा अभिनिवेश से कदाग्रह ग्रहण कर मत रहे। ॥१०॥ सुबुद्ध प्रधान को ऐ। अपवसाय हुवा कि जित शत्रु रामा विद्यगन. तथप, अविनथ्य व मद्भूत जिन " मणतं भावों की नहीं जानना है. इस से ऐसे जिन प्रणत भागे जिनशव राजा को समझाने के लिये उपाय करना मुझे श्रेय है. ऐसा विचार कर विश्व मु पुरुषों की साय बीच में रही हुई कुंभार की दुकानों से घडलेकर संध्या काल में-जब मार्ग शाम हुवा और मनुष्यों रहित मार्ग हुआ तब उस पानीको जानकर
24 सुबद्धपान का बारहवा बध्ययन 4.
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