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षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
णेच्छतिणं तेयाल पुत्त पोटिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुणदरिसणंवा परिभोगं वा ॥ २४ ॥ ततेणं तीमे पोटिलाए अण्णयाकयाई पुनवरत्तावरत्त काल समयंस इमेय रूबे अज्झथिए जाव समुप.जित्या एवं खलु अहं तेयलिस्स पुन्धिइट्ठा ५, आसी; इयाणिं. अणिट्ठा ५, जाया; जाव णेच्छइ तेयालिपुत्ते मम जाव परिभोगंवा उहय मणसंकप्पा जाव झियायति. ॥ २५ ॥ ततेणं तेयलिपुत्ते पोटिलं उहयमणसकप्प जाव झियायमाणं पासति २ ता एवं वयासी- माणं
तुमं देवाणुप्पिए! उहयमणं संकप्पे तुमणं मम महाणसंमि विउलं असणं ४ उवक्खडावेहि मुनने का भी वह नहीं चाहना था तो उस को देखने का व उस की साथ भोग भोगने का तो कहां से हो ॥ २४ ॥ एकदा पोहिला को पूर्व गत्रि ऐसा अध्यवसाय हुवा कि में तेतली पुत्र को पहिले इष्टकारी, कंतकारी, प्रियकारी, मनामकार व मन इ थी आ भनिष्ट यावत् अमनोज ढूं, मेरा नाम गोत्र भी श्रमण करना बह नहीं चाहता है तो देखन की व भोग की इच्छा करना कहां रहा. इस प्रकार मन का मनोरथ नष्ट होने से यावत् आर्त ध्यान करती हुई रहती थी ॥ २५ ॥ इस तरह पोटिला को मात यान करती हुई देखकर सेतली पुत्र कहने लगा कि महो देवानुप्रिये ! तू आर्त ध्यान मत कर. तू मेरी
तली पुत्र का चउदहा अध्ययन 41
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