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हो मुनि श्री अमोलम्ब ऋषिनी
अंतिए एयटुं सोचा जो अढाइ णो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणेमाषी विहरति .. ॥८३॥ ततणं ताओ अजाओ ममालियं अजं अभिक्खणं २ हीलति जाव परिभवंति
अभिवस्वर्ण २ एयमटुंगियाति ॥८४॥ ततेणं तीसे सुमालीयाए अजाए समणीहिं जिग्गथीहि हीलिजमाणीए भावतार जाव परि भवेजमाणीए इमारूव अज्झत्थत५ जाव समुप्पाजत्था- जयाणं अह अगारवास मञ्झेवासामि तयाणं अहं अप्पवमा, जयाणं अहं मंडाभवित्ता पठवतिए तयाणं परवसा पविचणं मम समाणीता
आढाति इयाणं णो आढाति, त सेयं खलु ममं कहं पाउम्भूए गोवालियाणं । प्रतीति व रुचि की नहीं और इस तरह उन के वचनों का अनादर करती हुइ विचरने लगी. ॥ ८३ ॥ तत्पश्चात वे आर्याओं मुकुमालिका आर्या को वारंवार हीलना निंदा व खिमना करने लगी, उम का पराभव करने लगी व इस कार्य से निवारने का प्रयत्न करने लगी. ॥८॥ जब वे आर्याओं सुकु आर्या की हिलना, निंदा यावत् पराभव करने लगी तब इम को ऐमा अध्यवसाय हुवा कि जब
थी तब मैं अपने वश (स्वतंत्र) थी और जब मैंने दीक्षा अंगीकार की तब से पर पहिले सघ सालीयो मरा आदर सत्कार करती थी. अब मेरा आदर सत्कार नहीं करती है। इस से कल प्रभात में गोगालि का आर्या की पास से नीकलकर पृथक उपाश्रय में जाकर रहना मुझे
काराममहादर लाला सरवदवमहाया
अर्थ
अनुवादक-बालब्रह्म
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