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ARपष्टङ्गज्ञाताधकथा का प्रथम ताप
दलयामो सुक्क सुकुमालियाए ॥ ११॥ ततेणं से सागरदत्ते जिणदत्तस्स एवं बया । एवं खलु देवाणुपिया ! सुकुमालिया दाग्यिा एगा एगजाया इट्ठ। ५, जाव किंमंग पुग पासणयाए तं जो खलु अहं इच्छामि मुकमालियाए दारियाए त खणंमधि विप्पउगं तं अतिण देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घग्जामाउए भवति ताणं अह सागरस्स सुकमालियं दलयामि ॥ ४२ ॥ ततेणं से जिगदत्ते सत्यवाहे सागरदत्सेणं सत्यवाहणं एवं वृत्त समाणे जेणेव सएगिह तणेत्र उवागम्छइ२ तासागरदरियं सदावेइ २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते मम एवं क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया ! सुकुमालियादारिया इट्ठा तंचव, जतिणं सागरदारए ममघर जामाउए भवइ जब
दलयामि ॥ ततेणं से सागरए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एव वुत्ते समाणे तासणए म का क्षण मात्र भी वियोग हम नहीं चाहते हैं. अहो देवानुमा! यदि सागर हमारे यहां गृह में जामाता बनकर रहे तो मैं उन को हमारी कन्या दऊंगा. ॥ ४५ ॥ मानरदत्त की ऐसा बत सुरकर जिनदत्त शेठ अपने गृह आये और सागर को बुलाकर ऐसा कहा अहो पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाहने मुझ ऐपा कहा है कि सुकुमालिका पुत्री मुझे इष्ट है यावत् उन का देखने का तो कहना ही क्या. इस से जो सागर कुमार मेरे वहां गृहजामाता बनकर रह तो में मेरी कम्या द जिनदत्त के ऐसा कहनेपर सागर
ट्रैपदी का सोलहश अध्ययन 44.30"
अर्थ
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