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________________ . षष्टङ्गज्ञाताधमकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध मुवागएणं अप्पडिलद्ध सम्मत्तरयणलभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतराचैव संधारिए, णोचवं णिखित्ते किं मगपुण तुमे मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुठभवेणं जि.रुवहय शरीर दंतलडू पंचिंदिएणं एवं उट्ठाण बलवीरिय पुरिसक्कार परकम संजतेणं ममअतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे समणाणं जिग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए उच्चाररसवा पासवणस्सवा अतिगच्छमाणाणय णिगच्छमाणाणय, हत्य संघटणाणिय जाव रयरेणु गुंडगाणिय को सम्मं सहसि तितिक्खसि अहियासेसि ॥ १६९ ॥ समर प्राणों की नक।। स बीचमेंही पांव रखा परंतु नीचे नहीं रखा तब ऐसा विपुल उत्तमलमें जन्म ले कर उपद्रव रहित,पांचों इन्द्रियों,व उत्थान,कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार पराक्रम से संयुक्त हो कर मेरी पान मंहत बनकर गृयास से साधुपना अंगीकार करके पहिली व पीछली रात्रि मेवांचना पृच्छा यावत् धर्मानुयोग की चिंताना के लिये, उच्चार प्रस्रवण के लिये बहुत 'जाते आते श्रमण ग्रिन्थ के हाथ पाँव के संघर्पण यावत् रजरेणु को सम्यक् प्राकर से तू नहीं सहन कर सका। ॥ १६९ ।। उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी से एसा सुनकर शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय oid उत्क्षप्त मघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 802 अर्थ 8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600253
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages802
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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