________________
4.
षष्टा ज्ञाताधेमकथा का प्रथम श्रतस्कंध
जक्खाणिय, इंदाणिय खंदाणिय, रुहाणिय, सिवाणिय,वेसाणिय, वेसमणाणियातस्थणं . बहणं णागपडिमाणिय जाव वेसमणपडिमाणिय महरिहं पुष्फ चणियं करेत्ता, जणुगयवडियाए एवं वइत्ता जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारगंवा दारियंत्रा पयायामि, तेणं अहं तुभं जायंच दायंच भायंच अक्खयणिहिंच अणुबलेमि त्तिकटु, उवाइयं उववाइत्तए, एवं संपेहेइ २ ता कल्लं जाव जलंते जेणामेव धण्णेसत्यवाहे तेणामेव उपागच्छइ २ ता एवं वयासी-एवं खलु अहं .
देवाणुप्पिया! तुम्मेहिं सद्धिं वहूई वासाइं जाव दिति, सल्लावरसु मुहुरेहिं पुणा पुणो । पूना अर्चना करूंगी और घुटने से जपीनपर पडकर उन का नमस्कार करके ऐसा बोलूंगी कि ओ देवानुपिय ! यदि मुझे पुत्र या पुत्री होगा तो मैं तुम्हारी पूना करूंगी, पर्वके दिनों में दान दूंगी,
द्रव्योपार्जन का विभाग करूंगी, अक्षयनिधि जो आप के भंडार हैं उन में द्रव्य की वृद्धि करूंगी. इस 4/कार उस की पास याचना करूं. ऐसा विचार कर प्रभात होते घमासार्थवाह की पाम गई. और
ऐसा बोली अहो देवांनुप्रिय! आप की साथ में पांचों इन्द्रियों संबंधी भोगोपभोग बहुत वर्षों से भोगती हूं." परंतु मुझे पुत्र या पुत्री की प्राप्ति नहीं हुई. याव जो माता अपने पुत्र को पंजुल भाषण कराती हुई।
धन्न सार्थवाह का दूसरा अध्ययन 4
4.20
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org