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अर्थ
षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम +
पाणियं
सव्वओ समंता आघावमाणे परिधात्रमाणे एवं चणं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुले अतित्थेनं पाणियपाए उत्तिष्णे ॥ १४० ॥ तत्थणं तुमं मेहा ! तीरमइगए असंपत्ते अंतराचेव सेयसि विसिणे ॥ तत्थणं तु मेहा ! पाणियं पाइएस्सामि तिक, इत्थं पसारेइ सेबियए हत्थे उदगं ण. पावइ । तएणं तुममेहा ! पुणरविकार्य पच्चरिस्सामि तिकडु, वलियतरायं पंक सिक्खुत्तो ॥ १४१ ॥ तएणं तुमं मेहा ! कागे चिर णिज्जुढएगपवरजुवाणे सयाओ जुवाणे सयाओ जूहाओ करचरणदंत मुसलप्पहारेहिं विप्परसमाणे, तंचेव महदहं पाणियपाये समोयरइ दोडता हुवा अल्प उदकवाला एक बडा सरोवर में जमीन से दूर व पानी को अप स ऐसी की स्थिति में ( प्राप्त हुवा || १४० ॥ अहो मेघ ! वहां तू किनारे से निकला व पानी को अप्राप्स बना हुवा बीच में कीचड में फस गया. वहां अहो मेघ! मैं पानी प्राप्त करूंगा ऐसा विचार कर सूंढ लम्बी की परंतु पानी तक पहूंची { नहीं. तब अहो मेघ! तैने यह विचार कीया कि यहां से मैं बाहिर निकल जाऊं परंतु उस की में विशेष निमन्न होने लगा ॥ १४१ ॥ अव अहो मेघ ! एकदा प्रस्तावे तैंने तेरे यूथ में से एक हाथी को बाहिर निकाल ( दिया था, वह हाथी अब युवावस्था को माप्त हुआ था, वह अपने सूंढ पांच व दंताशूल से प्रहार कर मारता
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18+ उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन
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