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अनुवादक-अलब्रह्मचारी मुनि श्री भोलक *
. उसहभेजए भसपाणेणं तेगिच्छं आउद्दावमि, तुन्भेणं भंते ! मम जाणसाल सु
समासरहे, फासुए एसणिज पढि फलग सेजा संथारयं उगिण्हित्ताणं विहरह । ततेणं से सेलए अणगारे मंड्डयस्सरण्णो एयमटुं तहति पाडसुइ ॥ तएणं से मड्डय राया सेलए वंदति नमसंति वंदित्ता णमंसित्ता जामेवदिसिं पाउब्भूए तामेवदिसिं पडिगए ॥ ६९ ॥ ततेणं से सेलए कल्लं जाव जलंते सभंडमतोक्करण मायाए पंथय पामोक्खेहि पंचहिंअणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसति २त्ता जेणेव मड्डयस्सरण्णो जाणसालाओ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता फासुयं पीढ जाव विहरइ ॥७०॥ ततेणं
से मड्डुए राया तिगिच्छए सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी तुब्भेणं देवाणुप्पिया!सेलयस्स रायरिसीयोग्य चिकित्सा से व यथायोग्य औषध. भैषज्य, भक्त पान से आपकी चिकित्मा करावू. आप मेरी यानशाला में पधारो और वहां पर ही फ्रासुक एषणिक पीढ, फलक, शैय्या, संथारा ग्रहण कर विचरो. उन शेलग राजर्षिने उन का हितकर कथनका स्वीकार किया॥६८॥ मंडुक राजा शेलग अनगार को वंदना नमस्कार कर अपने स्थान पीछा गया ॥ ६९ ॥ दूसरे दिन शेलग राजर्षि पंथक प्रमुख पांच सो शिष्यों सहित शेलग पुर में प्रवेश किया. और बंदुक राजा की यानशाला में फ्रास्क पीठ, फला वगैरह ग्रहण कर विचरने लग ॥ ७० ॥ मंडक राजाने चिकित्सों को (वैचों को) बुलवाकर कहा कि अहो देवानुपिय !
० प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ०
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