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कलुससमावणे-किण्हं मम एत्थ कीलावण मऊरी पोयए भविरसंति ? उदाहु जो भविस्मति, तिकटु ॥ तं मऊरी अंडयं अभिक्खण २ उवत्तेति परियत्तेति आसारेइ. संसारेइ, चालइ, फंदेइ, घट्टेइ, खोभेइ, अभिक्खणं २ कण्णमूलं सिटहियावेइ ॥ ततेणं. सा वणमऊरी अंडए अभिक्खणं' २ उवतिजमाणे जाव टिटियाजमाणे पोच्चडेजाएयाविहोत्था ॥ १७ ॥ ततेणं से सागरदत्तपुत्ते सत्थव ह दारए अन्नधाकयाइ जेणेव मयूरी अंडए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तं मयूरी अंडए पोच्चडमेव पासइ २त्ता अहोणं मम एस कीलावणए मयूरी पोहए नजाए तिकटु, ओहयमाणे हुवा, इस में जीव होगा या नहीं वैसे कालुष्यपना प्रप्त हुवा क्या इस में से मुझे खेलने के लिये मयुरी को बच्चा होगया नहीं यों करके उस अण्डे को वारंवार उठाने लगा, उपर नीचे करने लगा, इधर से उधार गिराने लगा, चलाने लगा संघठन करने लमा, क्षोभ पेदा करने लगा, और वारंवार कान की पास लाकर हिलाने लगा. इस तरह करने से वह मयूरी का अंडा खाली जीव रहित हो गया. ॥१७
एकदा उस मयूरी के अण्डे के पाम जाकर उसे मालूप हुवा कि यह अण्डा निर्जीव होगया है तब मन में मिश्च ताप करने लगा. यावत् जलने लगा कि अहो मुझ इम में खेलने के लिये प्रयूरी का बच्चा नहीं।
- षष्ठ अज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रतस्कंध
2... मगरी के अंड का तोसरा अध्ययन
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