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मूत्र
अर्थ
485 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम अतस्कन्ध *
दिसावलोयं करेति २त्ता जं मगसमग चत्तारिपाए पीणइ २ चा ताए उक्किट्ठाए कुम्मगतीए वीतीत्रयमाणे २ जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ २ ता मित्तणाइ णियग सयण सबंधि परियणं सद्धि अभिसमंण्णागएयावि विहरइ ।। १५ ।। एवामे समणाउसो ! जो अहं समणोवा समणीवा पंचयसे इंदियार्णिगुत्ताइं भवंति जाव जहा से कुम्म गुतिदिए ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महवीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, तिबेमि ॥ चउत्थं नायज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ गाथा - विसएस इंदियाई रुमंता । रागदोस विमुक्का || पावंति निव्वुइ सुहं | कुम्मोव
फीर चारों पत्र साथ निकाले और कूर्म की जो उत्कृष्ट शीघ्र गति होती है उस गति से चलते हुवे मृत गंगातीर में गया. वहां मित्रज्ञाति, स्वजन संबंधी व परिजनों की साथ मिलकर सुख पूर्वक विचरने लगा ||| १५ || अहो आयुष्यमान श्रमणो ! जैसे यह कूर्म इन्द्रियों का गोपन करने से सुखी हुवा वैसे ही हमारे मधु साधी इन्द्रियों का गोपन करेंगे तो सुखी होंगे. अहो जम्बू श्रमण भगवान महाबीरने ज्ञाता सूत्र के {चतुर्थ अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण हुबा ॥ ४॥ उपसंहार-जैसे मृत गंगाद्रह के दोनों कूपों में से एक कूर्व इन्द्रियों का गोपन करने से सुखी हुवा वैसे ही विषय में इन्द्रियों का निधन
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488+ दो काचवे का चौथा अध्ययन 40+
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