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48* षष्टां ज्ञत धर्मकथा का प्रथम श्रुन्+
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सूत्र
सुकुमालियं अकेणिवेसेति अंकेणिवेसेत्ता एवं वयासी - अहोणं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणाणं कम्माणं जाब पच्चणुब्भवमाणी विहरसि तं माणं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जात्र ज्झियाहि तुमणं पुत्ता ! मम माहणसंसि विपुल असणं पाणं खा इमं साइमं
जहा पाहिला जाब परिभाएमाणी विहराहि ॥ ७२ ॥ ततेणं सुकुमालिया दारिया एमट्ठे पडणेति २त्ता महाणसांस विपुलं अमणं ४ जाव दलयमाणी विहरति ॥ ७३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जातो बहुस्सुआ तो एवं बैट'इ, और कहा पुत्री ! तुझे पहिले के कोइ पुराणे कर्म उदय आये हैं कि जिन का तू अनुभव कर रही है. अहो पुत्री ! तू पश्चताप मतकर यावत् आर्तध्यान मतकर. अहो पुत्री ! मेरी भोजनशाला में बहुत अशनादि बनते हैं उस में से श्रमण, माण यावत् भिक्खारी को देती हुई रहे ।। ७२ ।। मुकुमालिकाने उप के पिता के बचन का स्वीकार किया. और भोजन शाला में विपुल अशनादिवनावर यावत् देती हुई विचरने लगी. ॥ ७३ ॥ उस काल उस समय में गोवालिका आर्या बहुन शास्त्रो जानने वाली नगर सत्र तेनेला पुत्र के अध्ययन में सुत्रता आर्या का कहा वैसे ही विचरती हुई आइ. संघडा बनकर पहले प्रहर में स्वाध्याय, दुपरे प्रहर में ध्यान व तीसरे पहर
और वैसे ही उनका
में गोचरी के लिये
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का सोडवा अव्ययत
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