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अर्थ
44- षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम शुरू 48+
देवीए तहत्ति पडणे २ ता जाव भोगं च संवति ॥ ४२ ॥ तते सा पोहिल देवे तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपण्णसं धम्मं संबोहेइ णोचत्रणं से तेयलि पुते बुज्झति ॥ ४३ ॥ तलेणं तस्म पोट्टिलदेवस्स इमेयारूत्रे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था-- एवं खलु कणगज्झए गया तेयलिपुत्तं आद्रात जाव भोगच संवति, तणं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं २ संबोहिजमाणेवि धम्मे नो संबुज्झति ॥ ४४ ॥ तं सेयं खलु ममकणगज्झयं तेतलिपुत्ताओं विष्परिणामित्तर तिकट्टु एवं संपति २ चा कगज्झयं तेयलिपुत्तातो विपरिणामेति ॥ ४५ ॥ ततेगं तेयालिपुत्ते कल्लं
अमात्य को यावत् भोग की वृद्धि की. ॥ ४२ ॥ पोट्टा देव तेनली पुत्र का वारंवार केवली (प्ररूपित धर्म से उपदेश देकर बुझाने लगे परंतु तेतली पुत्र संबुद्ध हुआ नहीं ॥ ४३ ॥ वत्र पोटिला देव को ऐसा विचार हुआ कि कनकध्वज राजा तेतली पुत्र का आदर सत्कार व सन्मान करते हैं यावत भोगकी वृद्धि करते हैं, इससे नेतली पुत्र को वारंवार बोध देते हुए भी बोध नहीं लगता है। | ।। ४४ । अब कनकध्वज राजा को इन से विमुख बनाना मुझे श्रेय है। ऐसा विचार कर कनकध्वज राजा को इन से विमुख बनाया || ४५ ॥ ततली पुत्रने प्रभात होते स्नान किया यावत् प्रायश्चित किया
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कहतेतली पत्र का नवा अध्ययन
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