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* अनुभदकबाल ब्रह्मचारीमान श्री अफ के ऋषिजी
भीम भेरव वरप्पगारणे महुधारा पडियसित्त उद्धायमाणे धगधगंत समुद्धयेणंदित्त तरफुलिगेणं धूममालाउलेणं साबय संयंत करणेणं वणवेणं जालालोविय णिरुद्ध धूमधयारभीओआयवालोय महंततुं वइय पुण्णकण्णो आकुंचिय धोरपीवरकरो भयव सभयंत दित्तणयणो वेगेणं महामेहोव्व वायणोल्लिय महलरूबो जेणकआते पुरादयग्गिभय भीयहियएणं अवगयतणप्पस रूक्खोदेसो दवाम्गसंताणं कारण.
ट्ठाए जेणेव मंडले तणेव पहारित्थ गमणाए एक्कोतावएसगमो ॥१५७॥ तएणं तुम मेहा! उस का भयंकर शब्द होता है, वृक्षदिक पर से मधु धारा का अग्नि में सिंचन होने से जंचा उछलताई, हुवा ज ज्वल्यमान रस व उत्कृष्ट जलता हुवा क.ष्ट रम से प्रबल बना हुवा दाशनल है. देदीप्यमान है। अनिकण रहे हवे हैं. धूम्र की श्रेणी से व्याकूल है, और सेंकडों श्वापद का विनाश करने वाला है. आम ज्याला से ढका हुवा व इच्छित मार्ग धूम्रादिक के अंधकार से रंधित होने से भय पाया हुना, अगि के ताप को देखकर बड तुम्बे समान कानों वाला, बहुत स्थूल पुष्ट गूढ को संकुचित करने वाला, भय से सब दिशि में खत नयनों बाला, असे वायु में महामेघ महारूप बाला हाये वैसा महारूप वाला, जिमने से दावाग्नि के भय से पहिले तृण वृक्ष रहित प्रदेश बनाया है वैमा हस्ती दानि में अपना रक्षण करने के अपने मंडलं तरफ जाने लगा. यह मयम अलापक ( एक आचार्य का मन)जानना ॥१५॥तत्पश्चत् अहो मेघ !
.प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सरवदेवाय नालापसवानी,
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