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समोसढे इह चेव रायगिहे गुणसिलए चेइए अहा पडिरूवं जाव विहरइ॥८८॥ तएणं से मेहकुमारे कंचुइज पुरिस्स अंतिए एयमढे सोच्चाणिसम्म हट्ठ तुढे कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव चाउघंटं आसरहं जुत्तमेव उवट्ठवेह तहत्ति उवणेइ ॥ ८९ ॥ तएणं से मेहे हाए जाव सव्यालंकार विभूसिए चाउघंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंद परियाल संपरिवुडे रायगिहस्सणयरस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ २ त्ता जेणामेव गुणसिलए
चेइए तेणामेव उवागच्छइ २ ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइछत्तं पडागाइ नगर के गुणशील उद्यान मे अवग्रहलेकर विचर रहे हैं ! ॥ ८८ ॥ कंचुकी पुरुष की पास से ऐसा मुनकर मघकुमार हृष्ट तुष्ट हप और कौटुम्बिक पुरुष को बोलाकर ऐमा कहा अहो देवानुप्रिय! चार घंटसला अश्व रथ शीघू नैयार करो. कौटुम्बिक पुरुषने उनक बच मान्यकीया रथ स्थापनकर आज्ञापोछी देदी ।।८९॥ तत्पश्चात् मेघकुमारने स्नानकीया यावत् सर्व भू षित बने. चार घंटावाला अश्व रथपर आरूढ होकर
कोरंट पुष्प की मालावाला छत्र धारन करा भट्ट चटक वगैरह पदात्यनिक को साथ लेकर राजगृह नगर की 17मध्य बीच में से नीकलकर गुणशील उद्यान में गये. वहां जाकर छत्रपे छत्र व पताकापे पताका, विद्याधर
षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 13:07
488+ उत्क्षिप्त ( मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 43
अर्थ
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