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सत्र
४८३
पंकणुप्रतियं जाब दुवालसविहांगहि धम्म पडिवजह ॥ ततेणं जियसरतू समणोवासए जाए, अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे विहरह॥१७॥तणं कालेशं तेणं समएणं येरा गमणं जेणव चंपा नयरी जेणेव पृजभई चेइए तेणेव समोसढे जियसत्तूगया जिग्ग.
छति सुबुद्दीवि जिग्गओ सुबुद्धी धम्म साचा जंणवरं जियसत्तुं आपुग्छ मि जाब पन्वयामि? अहासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं करेह ततेणं से जणव जियसत्तू तेणेत्र उवागच्छतिर ता एवं क्यासी-एव खलु सामी!मए थेराणं अंतिए धम्मेनिमत सेरिय धम्मे
इच्छिए पडिपिछए ततेणं अहं सामी संसारभविग्गे भीए जाव इच्छामिणं तुम्भेहि प्रधान की पास से पांच अनुना यावत् बारह प्रकार का श्रावक धर्म अंगीकार किया. सप जितन राजा श्रमणोपासक हुवे, जीवाजीव का स्वरूप जानते हुवे यावत् विचरने लगे ॥ १७॥ उस काल उस समय में स्थविर चंपा नगरी के बाहिर पूर्ण भद्र उद्यान में पधारे. जितशव राजा व मप्रति प्रधान दर्शन करने को गये. धर्म सनकर सुबुद्धि प्रधानने कहा कि मैं जित शत्रु राजा की आज्ञा लेकर पावत् दीक्षित होऊंगा. स्थविर बोले जैसे सुख होवे वैसा करो. विलम्ब मत करो. अब बह-सद्धि प्रघान जिस शव राजा की पास आया और कहा. अहो स्वामिन ! मैंने स्वषिरों की पास से धर्म सुनाई और।
षष्टांगहाताधर्मकथा
मुबुद्धि प्रधान का बारहवा अध्ययन 42th
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