SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - . 48 188षष्ठाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहार माहारेति, नन्नत्थ णाणदंसण चरित्ताणं है। वहगट्टयाए. सेणं इहलोएचेव बहूणं समणाणं समणीणं सावगाणं सावियाणय अच्चणिजे जाव पज्जुवासणिज्जे भवति ॥ परलोए वियणं नो वहूणि हत्यच्छेयणाणिय, १९९ कन्नच्छेयणणिय, नासाच्छेयणाणिय एवंहिय उप्पायणांणिय, वसणुप्पायणाणिय, उल्लबणाणिय पाविहिंति ॥ अणःदियचणं अणवदग्गजाववीतिवतिस्सति, जहेव से धण्णसत्यवाहे ॥ एवं खलु जंबु ! समणणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिबेमी ॥ ५६ ॥ वितियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ २ ॥ श्राविका की इस लोक में अर्चना यावत् पूना होगी और परलोक में भी उन के हाथ कान नाकों का छदन नहीं होना है. हृदय में किसी प्रकार का उत्पात नहीं होता है, किसी प्रकार के बंधन भी नहीं पडते हैं, और वे धन्नासार्थवाह जैसे अनादि अनंत संसार को उत्तीर्ण करेंगे. अहो जम्बू ! यह दूसरा * अध्ययन का श्री श्रमण भगवंत महावीर म्वामीने यह अर्थ कहा.।। ५६ ॥ उपसंहार--राजगृही नगरी के स्थान मनुष्य क्षेत्र, धन्नासार्थवाह के स्थान साधु मंयमी पुरुष, विजय चोर के स्थान शरीर, देवदिन्न कुमार के स्थान अनुपम संयम, आभरण के स्थान शब्दादि विषय, इन में शरीर रूप चोर की प्रवर्ती हुई. तब धन्नासार्थवाह का दूसरा अध्ययन BF Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600253
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages802
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy