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श्री अयो क ऋषिजी
गाथा-सिवसुहसाहणेसु, आहारविरहिओ जं म वहए देहो ॥ तम्ह धण्णोव्व विजयं
साहुणं तेणं पोसिज्जा ॥ १ ॥ इति वियज्झयणं ॥ २ ॥ * * संयमरूप पुष । घात हुई. धन्नासार्थवाह रूप संयति व शरीररूप चोर का एक ही स्थान सो खोडा, राजा के स्थान कर्म, राजपुरुषों के स्थन कर्मप्रकृतियों, मल मूत्र परिठाने के स्थान प्रति
नादि संयम क्रिया साधने के लिये वासो शरीर को आहार देग, गाथा का अर्थ कहते हैं. मुख साधन में आहार रहित देह नहीं रहता है, इस से धन्ना सार्थवाहने जैसे चोर की पापणा की वैसे ही साधु को शरीर पोषणा करना. यह दूसरा अध्ययम संपूर्ण हुवा. ॥ २॥ .
4.भ.पादक-भल ब्रह्मचारीमान
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला खदवमहायजी ज्वालाप्रसादनी.
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