________________
एवं वयासी-धन्नेसिणं तुम देशणुप्पिया ! जान पवइत्तए, अहणं अधयाणे जाव को पवइत्तए तं धन्नसिणं तुम देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले ॥ ततेणं कंडरीए पुंडरीएण एवं वुत्तेतमाणं तुसिणीए संचिति । ततेणं पुंडरीए राया दोच्चपि तवपि । जाब संचिहाते कंडरीएणं एवं वयासी--अट्ठा भंते भोगेहि? हता अट्टो ॥२०॥ ततेण ते पुडरीएराया कोडुविय पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी--खिप्पामेवभो देवाणु-... प्पिया ! कंडरीयस्स महत्थंजाव रायामिसेयं उबटुवेह॥जाव रायाभिसेणं अभिसिंचति ...
॥ २१ ॥ ततेणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोयंकरति, सयमेव चाउज्जामंधम्म आया. यावत् कंडरीक को वंदना नमस्कार कर बोलने लगा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है यावत् प्रत्रजित बने दुवे हो. मैं अधन्य हूं यावत् मैं दीक्षित महीं बना. इस से अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है यावत् तुम्हारा जन्म सफल है. पुंडरीक के ऐमा कहने पर कंडरीक पौन रहा. तब पुंडरीकने: कहा कि अहो देवानुप्रिय ! क्या तुम को भागों मे संबंध है अर्थात् भागों की इच्छा है ? तब कंडरोकने उत्तर दिया कि हां मुझे भोगों की इच्छा है ॥ २० ॥ पुंडरीक गजाने कौटुम्बिक पुरुषों को
बालाकर कहा अहो देवानुप्रिय ! कंडरीक को महा अर्थवाला यावत् राज्याभिषेक करो. यावत् उनोंने 17 वैसे ही राज्याभिषेक किया ॥ २१ ॥ पुंडरीक राजाने स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया, और चस्याम
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिजी
-राभाबहादुर लाला मुखदेवमलयजी ज्वालाप्रसादनी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org