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अर्थ
* पांङ्ग ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 44
तत्थणं दो पुढे परियागए जाव पासित्ता अन्नमन्नं स वेति सदावेता एवं वयासी तं से खलु देवाणुपिया ! अम्हे इमेत्रणमऊरी अंडाए साणं २ जाइमंताणं कुकुडियाणं अंड सुपक्खिवात्तिए, तएणं ताओ जातिमंत्तातो कुकुडियाओ एए अंडए सएय अंडएमएणं पक्खवाएणं सा रक्खमाणीओ संगावेमा गीओ विहरिस्सई ॥ ततेणं अम्हे एत्थ दोकीलावणगा मऊरी पोयगा भविस्संति तिकट्टु, अन्नमन्नस्स एयमट्ठे पडिसुर्णेति सएसए दास चेडए सदात्रैति २ सा एवं वयासी- गच्छहणं तुब्भे देवाणुपिया ! इमे अंडगहाय सगाणं जाइमताणं कुकुडीणं अडएसुपक्खिवह, जात्र तेत्रि पक्खिति ॥ १५ ॥ ततेणं से सत्थवाह दारगा देवदत्ताए गणियाए संद्धि भूभूविभागस्त मयूरी के अण्डे को अपनी २ जात कूकडी के अंडे के साथ रखेंगे और वह अपने अंडे के साथ इन अंडों को भी अपनी पांख नीचे रखकर उस की रक्षा करती हुई व उस का गोपन करती हुई रहेगी. तत्पश्चात् ये दो खेलने के लिये अपन को दो मयूरी के बच्चे होंगे. दोनोंने इस बात का स्वीकार किया और अपने २ दासों को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! इन अंडों को लेकर अपनी २ जानवंत कूकडी के अंडे के साथ रखो, उनोंने वैसा ही काम किया || १५ || वे दोनों सार्थवाह के पुत्रों उस मृभूमी भाग उद्यान में देवदत्ता गणिका की साथ उद्यान की शोभा का अनुभव करके जिस
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458+ मयूरी के अण्डे का तीसरा अध्ययन 49
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