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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
मरुअ-मणत-मक्खय-मव्वाबाह-मप्पुणरवित्तयं, सासयंट्ठाण मुपगएणं; पंचमस्स अंगस्स . अयम? पण्णत्ते, छटेरसणं अंगरस भंते ! णाय धम्मकहाणं के अट्टे पण्णत्ते ? ॥ ५ ॥ जंबुइ अज जंबूणामं अणगारं एवं पयासी-एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छठस्स अंगस्स दो सुयखंधा पपणत्ता तंजहा-णा याणिय, धम्मकहाओय ॥ ८ ॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं छठरस अंगस्स दो सुयखंधा पण्णत्ता, तंजहा-णायणिय धम्मकहाआय ॥
पढमस्सणं भंते ! सुयखंधरस समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणकात्तियज्झयणा अचल,रोग रहित,अनंत,अक्षय,अव्यावाधव पुन:आवागमन नहीं हो पा शाश्वत सिद्धीस्थानको माप्त हुने उन श्रमण भगवंत महावीरने पांचवा अंग श्री भगवतीजी का जो भाव कहा को मैंने सुना. अब अहो भगवन् ! छठा अंग ज्ञाता धर्मकथांग का क्या भाव प्ररूपा है?॥ ७॥ आर्य सुधर्मा यामी अनगार जम्बू आदि अनगार को संबोध कर ऐसा बोले. अहो जम्बू! श्रमण भगवंत महावीर यावत् मोक्ष प्रास हुने उनोंने छठे अंग के दो श्रुत स्कंध कहे. तद्यथा- ज्ञाता वरधर्मकथा॥८॥अहो भगवन्! जय श्रमण भगवंत महावीर यावत् मोक्ष प्राप्त हुने उनाने छठे अंग के दो श्रुत स्कंध कहे तो उन में से प्रथम श्रुत स्कंध के कितने अध्ययन कहे ?
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी 2
भावाथ
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