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अर्थ
488+ ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4
हाय भूमियां हात्थवंधर गया सकोरेंट मल्ल दामेण छत्तेणं धारिजमाणेणं चमराहियं उद्धव्त्रमाणेहिं हयगय जाव परिवुडा सन्बिड्डीए जात्र रेवणं जेणेव सयंवरे मंडवे तेव उत्रागच्छइ २त्ता सयंवरं अणुपत्रिसइ २त्ता पत्तेयं २णामंकिएसु आसणेसु णिमीयंत २त्ता दोवइरायवरकन्नं पडित्राले माणा २चिट्ठति ॥ ११० ॥ ततेणं से दुपएराया कल्लं पाउप्पभाए पहाए जाव विभूतिए हत्थिबंध वरगए सकोरंटमल दामेणं छत्तेनं धारिज्जमागेणं सेयवरचामरेहिं उद्धव्त्रमाणेहि मझ्या हय गय जाब सार्द्ध संपरिवुडे कंपिल्लपुरं यरं मझं मज्झेणं णिग्गच्छति २त्ता जेणेव सयंवर मंडवे जेणेव वामुदेव पामोक्खा बहवे रायवरसहस्सा तेणेव उवागच्छइ २तेसिं वासुदेव पामोक्खाणं करयल जाव वद्धावेत्ता, कण्हरुस घासुविभूषित बनकर हाथी पर स्वार होकर कोरंट वृक्ष के पुष्पों वाला छत्र चामर हय गज यावत् चटक के परिवार सहित यावत् बडे २ बर्दियों के नाद से स्वयंवर मंडप में आये. उस में प्रवेश कर महार अपने २ नाम वाले आसनों थे उनपर बैठ गये और द्रौपदी राजकन्या की प्रतीक्षा करते हुत्रे रहने ॥ ११० ॥ यहां द्रुपद राजा न प्रभात होते स्नान किया यात्रत् सर्वाहार से विभूषित बनकर हाथी की पीठ पर बैठकर कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माछा वाला छत्र त चामर व बड़े २ हाथी तथा सुभटों के परिवार सहित कंपिल पुर नगर की बीच में नीकलकर स्वयंवर मंडप में जहां कृष्ण वासुदेव प्रमुख राजाओं बैठे थे वहां आये वासुदेव प्रमुख राजाओं को जयहो विजयहां शब्द से बधाये और कृष्ण
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428* ट्रैपदी का मोलडवा अध्ययन 496
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