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षष्टांग माताधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 40
सम्माणेत्ता सागरं दारगं सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टय दुरुहावेति २ सीया है. पीतएहिं कलसेहिं मजावेति २ त्ता होमं करावेइ २ त्ता सागरं सुमालियाए दारियाए पाणि गिण्हावेति ॥ ४५ ॥ ततेणं से सागरए सुकुमालियाए दारयाए इमं एयारूवं पाणिफासं पांडसंवेदोत-से जहा णामए असिपत्ते इवा जाव मुम्मुरइवा, एत्तो अगिट्टतराचेव ५, पाणिफास पडिमवेदति ॥ ४६ ॥ ततणं से सागर अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं सचिट्ठति २ ॥ ४७ ॥. ततेणं सागरदत्त सत्यवाह सागरस्स दारगरम अम्मापयरो मित्तणाई विउलं असणं पाणं खाइम
साइमं पुष्फवर जाव सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ॥ ४८ ॥ ततेनं सागरदारए पाटपर ठाया. फोर शेन व त कलशोंने स्नान कराकर अग्निहोम करवाया, और सागरको सुकुम लिका कन्या का पाणिग्रहण करवाय. ॥ ४५ ॥ उसने सुकालिका कन्या का हस्त र्श कर पर्श अनुभवा मानों कि असिपत्र होरे यावत् अंगार के खोरे होवे. उस से भी अनिष्ट उस का हस4 म उस को मालूप हुनरा ॥ ४५ ॥ स गर इच्छा रहिन परवश बनाइमा वहां मुह मात्र रहा ॥ ४॥ मागरदत्त मार्थवाहने मागर के मान पिना ज्ञाति गैरह को अशनादि चरों प्रकार का आहार पुष्प वस्त्र वगैरह से सत्कार सम्मान देकर विसर्जित किये. ॥ १८ ॥ अब वह सागर पुत्र सुकुगालिका
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