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अर्थ
तेसिंमयूर अंडगंसि निस्संकिए सुचत्तणं मम एत्थ किलावणए मयूरि पोषए भवि स्वति तिकडुतं मयुरिअंडयं अभिक्खणं २ नो उवत्तइ जात्र नो टिहियावेइ तसे मयूर अंडर अणुब्बतिजंमाणे जाव अटिडियावेजमाणे तेणं कालणं तेणं समएणं उज्झणे मयूर पोय एत्थजाते ॥ २० ॥ ततेणं से जिणदत्ते तं मयूरी पोययं पासइ २ चा हट्ट तुट्ठे मयूर पोसए सदा वेइ २ ता एवं वघासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया । इमं मयूरी पोययं बहुहिं मयूर पोसण पाउग्गेहिं दन्देहिं अणुपुत्रेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संह, हलुंगच सिक्खावे ॥ २१ ॥ ततेयं ते मयूरपोसए जिणदत्तस्स पुत्तस्स बना और मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि इस में से मुझे खेलने के लिये मयूरी का बच्चा अवश्यमेव ( होगा इस से उसने उन अण्डो को उठाया नहीं यावत् कान की पास लाकर हिलाया भी नहीं. इस तरह यूटी के अण्डे को नहीं उठाने से पावत् कान पास नहीं हिलाने से जब उस कां काल पूर्ण हुआ तब वह अण्डा फुटकर उस में बच्च नीकला ॥ २० ॥ मयूरी के अण्डे में से बच्चा निकला हुआ देखकर वह अनं देत हुना और 'यूर को पालने वाला व कला शिखलाने वाले को बोलाकर कहा कि अहो देवानुप्रिय! | ब्यूर के पोषण योग्य द्रव्य से इस बच्चे की रक्षा करके उसे बडा करो और नृत्य कला खिलावो. ॥२१॥
48* पष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम असर +
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48* मथुरी के अंडे का तीसरा अध्याय
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