Book Title: Kavyashatakam Mulam
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हर्षयुष्यात जैन ग्रन्थमाला रघुवंश - कुमारसंभव - किरातार्जुनीय शिशुपालवध - नैषधीय - मेघदूतात्यक काव्यषट्कं मूलम् / सकाव्याकारादि) संपादक : संशोधक तपोभूर्तिपूज्याचार्यदेव श्रीविजयकपूरसूरीश्वर - पट्टधर-हालारदेशोद्धारककविरत्न पूज्याचार्यदेव श्री विजयाप्तसूरीभर पट्टधर पूज्याचार्य देवश्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वर प्रकाशिका: श्री हर्षपुष्पाइत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावान-शांतिपुरी ( सौराष्ट्र ) / Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *OKxxxxxxxxxxxxxxxxxx श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-प्रन्थांक: 236 - - * श्री महावीरजिनेन्द्राय नमः श्रीमणिबुद्ध्याणंदहर्षकर्पूरामृतसूरिभ्यो नमः रघुवंश-कुमारसंभव-किरातार्जुनीय शिशुपालवध-नैषधीय-मेघदूतात्मक :: काव्यषटक मूलम् :: **********XXXXXXXXXXXXXXXX**"*XXXOK संपादकः संशोधकश्च तपोमूर्ति-पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पूरसूरीश्वर-पट्टधर-हालारदेशोद्धारककविरत्न-पूज्याचार्यदेव श्री विजयामृतसूरीश्वर-पट्टधरः . पूज्याचार्यदेवश्रीविजयजिनेन्द्रसूरीश्वरः प्रकाशिका : श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल-शान्तिपुरी (सौराष्ट्र) * * मूल्य-रू०..१५०-०० OXXXXXXX**********KOK Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका-श्रीहर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाल (लाखाबावल) सौराष्ट्र c/o श्रीमती जशमाबेन वी.शा. मेघजी वी.शा. वेलजी वी. दोढिया .. श्रुत ज्ञान भवन 45 दिग्विजय प्लोट, जामनगर वीर सं० 2317 विक्रम सं० 2047 . सन् 1961 प्रथमावृत्तिः प्रतयः 1000 आभार दर्शन प्राचीन साहित्य प्रकाशन योजनामां रघुवंश कुमारसंभव किरातार्जुनीय शिशुपालवध नैषधीयचरित अने मेघदूत रूप प्रा काव्यषट्कं अभ्यासमां उपयोगी थाय ते माटे प्रगट करेल छे. आ काव्यषट्कनुं संपादन पू. प्रा. श्रीविजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजे कयु छे. पा ग्रन्थ श्वे. मू. जैन भण्डारो ने 500 नकल भेंट आपी शकाय ते माटे पू० प्रा० श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी म. ना सदुपदेशथी श्री हालारी वीशा प्रोसवाल तपागच्छ उपाश्रय अने धर्मस्थानक ट्रस्ट दिग्विजय प्लोट जामनगर तथा श्रीमती चन्द्रावती बालुभाइ खीमचन्द झवेरी ट्रष्ट रत्नपुरी मलाड ट्रस्ट मुम्बई तरफथी सहकार मलेल छे. ते माटे पूज्य श्री तथा प्रा बने ट्रस्टोनो खूब-खूब आभार मानीए छोए. ता० 21-6-61 महेता मगनलाल चत्रभुज शाक मारकेट सामे, व्यवस्थापक जामनगर (सौराष्ट्र) श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक ___संस्कृत साहित्य ए मुख्यतया आध्यात्मिक संस्कृतिनी भाषा छे. तेना अध्ययन मां पा विशेषता रही छे. जैन वाङ्मय संस्कृत अने प्राकृत भाषामां संग्रहायेलुछे. ते शास्त्रो उपरथी गुजराती भाषामां पण पुष्कल साहित्य रचायु छे. मूल शास्त्रोना अध्ययन माटे व्याकरण काव्य साहित्य न्याय वगेरेनु अध्ययन थाय छे. तेमां जैन संस्कृतना अभ्यास माटे काव्योनु अध्ययन थाय छे. कलिकाल सर्वज्ञ पूज्य हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजे रचेल अनेकार्थ संग्रहनी टीकानु संपादन करवानु थयुते कैरवाकरकौमुदी टोका तेप्रोश्रीना पट्टधर रत्न पूज्य महेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजे रचेल छे. ते 800 वर्ष पहेलानी टीकामां सैंकड़ों शास्त्रोना उदाहरणो प्राप्यां छे. तेना प्राधार स्थानो शोधतां सैंकड़ो जैन जैनेतर ग्रन्थो जोवाना थया तेथी जणायु के महाकाव्यो मूल अने पद्योनो अकारादि सार्थ संपादित थाय तो अभ्यास पण उंडाणथी थाय अने आधार स्थानो सुलभ बने. . ___ उपर छल्लो अभ्यास करनारा माटे आमां चंचुपात थवो कठीन छे. बेचार ग्रन्थोनुआ रीते संशोधन करनारे घणु उपलब्ध बनी जाय एथी जन जैनेत्तर काव्योतुं संपादन पा कार्यो माटे जरूरी छे. पा काव्यषट्कमां रघुवंश, कुमारसंभव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, नैषधीयचरित अने मेघदूतनो समावेश थयो छे. ते ग्रन्थोनी अकारादि सूची संयुक्त रीते करी छे. तेमां पद्यनु आद्य पद काव्यनाम, सर्ग अंक, पद्य अंक, अने पृष्ठ अंक प्रापेला छे. जेथी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य जोतानी साथे क्या काव्यनुं छे ते पण जाणी शकाय अने विशेष टीका वैगेरे जोवानी जरूर जणाय तो ते काव्यनी टीका वि० जोइ शकाय. एक साथे काव्यो लेवाथी ग्रन्थ मोटो थइ जाय परन्तु जरूरीपातनी दृष्टिए से जरूरी छे. आ रीते जैन काव्यो आदि माटे पण प्रयत्न करवानी विचारणा छे. ते माटे प्रयत्न चालु छे. अनेकार्थ संग्रह टीका 14000 श्लोक प्रमाण संपादन थया पछी मूल ग्रन्थ- पण कण्ठस्थ करवा आदि माटे जरूरी जणाता गुजराती भाषातर कयु अने ते पण प्रगट थइ गयं छे. आ काव्यो नवलकथा रूपे के तेना भाषान्तरो वाचवा रूपे नथी. कर्ता अने टीकाकारोए प्रा काव्यो द्वारा व्याकरण साहित्य, शब्दो-कोष पर्याये, समासो व्यत्पत्तिग्रो, अलंकारो, बन्धो छन्दो विगरेनु ज्ञान प्रगट कयु छे. अने तेना साधन रूपे उदाहरणो रूपे पा काव्यो, अध्ययन जैन संघमां थाय छे. मति मंदता, समयनो अभाव, साधनोनी प्रतिकुलता, उत्साह अने रसनी न्यूनता पा बधा कारणो थी अभ्यास पण खण्डित थाय छे. परीक्षानी दृष्टि थी अभ्यास करनारा तो वास्तविकता पामी शक्ता नथी. पूर्वना महापुरुषोए जे काव्यो चरित्रो विगेरे रच्यां छे ते जोतां तेमनी केटली मतिनी तिव्रता हशे? केवो क्षयोपशम दृशे ? केटली अप्रमत्तता हशे? केवी कठिनतामां पण केटलो ऊंडो अभ्यास कर्यो हशे? साधनोनी खामी वच्चे पण मरजीवा बनीने तेमणे अगाध खेडाण करीने उडु रहस्य मेलवी अकाट्य अने स्थिर लखाणो कर्यां छे. आजनी अर्थ लक्षी अने प्रमाद भरी केलवणीमां नूर ज हणाइ गयुं छे. त्यां वधु शुं प्राशा रखाइय शास्त्रना अध्ययन कर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारा पोपटना राम राम जेवं अध्ययन न करतां तेमनं अध्ययन तेमने ज बोध प्रापतुं अने ते पोताना ज जीवनने उन्नत्त बनावी देता. मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कार्यमन्यदुरात्मनाम् / मनस्येकं वचस्येकं कार्यमेकं महात्मनाम् // उत्तम पुरुषोने छाजे तेवू शीखवं आचरवू अने तेमां स्थिर रहे ते अध्ययन कर्यानु पाद्य फल छे. सौ ते पामो अने मलेला मानव भवने पाप पापनी मति पापना पक्षपात थी दूर करी सद्गतिनी परंपरा द्वारा जन्म मरण रूप भवना फेराथी मुक्त बनो एज अभिलाषा. 2047 भाद्रपद पूर्णिमा तपागच्छ जैन उपाश्रय 45 दिग्विजय प्लोट जामनगर (सौराष्ट्र) . . हालारदेशोद्धारक पूज्याचार्यदेवश्रीविजयामृतसूरीश्वर पट्टधरः आचार्य जिनेन्द्र सूरि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश-कुमारसंभव-किरातार्जुनीय-शिशुपालवध नैषधीय-मेघदूतात्मकस्य . काव्यषटकस्य अनुक्रमः . प्रथमं काव्यं महाकवि श्री कालिदासविरचितं // रघुवंशम् // सर्गः सर्गनाम पद्यानि 1 वसिष्ठाश्रमामिगमन 2 नन्दिनीवरप्रधान 45 75 4 रघुदिग्विजयः 5 अजस्वयंवराभिधानः 6 स्वयंवरवर्णनः 7 अजेनेन्दुमतीयाणिग्रहणः 8 अजविलापः & मृगयावर्णनः 10 रामावतार: 11 सीताविवाहवर्णन: 12 रावणवधः 13 दण्डकाप्रत्यागमनः 14 सीतापरित्यागः 15 श्रीरामस्वर्गारोहणः 16 कुमुद्वतीपरिणयः 17 अतिथिवर्णनः 18 वंशानुक्रमः 16 अग्निवर्णशृंगारः 104 43 76 114 122 126 57 . 134 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं 136 144 . द्वितीयं काव्यं महाकवि श्रीकालिदासविरचितं कुमारसम्भवम् सर्गः नाम . पद्यानि 1 उमोत्पत्तिः 2 बह्मासाक्षात्कारः 3 मदनदहनः 4 रतिविलापः 5 तपःफलोदयः 6 उमाप्रदान: 7 उमापरिणयः 8 उमासुरतवर्णनः 8 कैलास गमनः 10 कुमारोत्पत्तिः कुमारोत्पत्तिः 12 कुमारसेनापत्यवर्णनं 13 कुमारसेनापत्याभिषेकः देवसेनाप्रयाणं 15 सुरासुरसैन्यसंघटः 16 सुरासुरसैन्यसंग्रामः 17 तारकासुरवधः . . Gm 181 186 167 202 207 11 212 217 222 226 Www 238 242 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ तृतीयं काव्यं / महाकवि श्रीभारविप्रणीतं. किरातार्जुनीयम् पद्यानि पृष्ठं . सर्गः पद्यानि 46 251 10 63 19 258 11. 81 60 263 1254 38 270 13 . 71 276 47 285 - 15 56 40 292 16 64 317 325 Error 9 سه سه مه سه له سه سه 350 360 268 78. 307 18 48 375 304 سلم . चतुर्थ काव्यं महाकवि श्रीमाघकृत शिशुपालवधम् सगः सर्गनाम 1 कृष्णनारदसंभाषणं 2 श्रयके मन्त्रवर्णनं 3 // पुरीप्रस्थानः पद्यानि * 75 . 110 82 पृष्ठं 391 403 412 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानि पृष्ठ 422 432 सर्गः सर्गनाम . 4 श्रयङके रैवतवर्णनं 5 , सेनानिवेशः 6 // ऋतुवर्णनं , वनविहारः विहारवर्णनं , प्रदोषवर्णनं 10 , सुरतवर्णनः 443 454 465 476 460 // अथोत्तरार्द्धम् // . 67 11 श्रयके प्रत्यूषवर्णनः. 12 , प्रयाणवर्णनः 13 , श्रीकृष्णसमागमः 14 . , श्रीकृष्णार्घदानः , अप शकुनाविर्भावः / दूतसंवादः .., यदुवंशक्षोभणः , सकुलयुद्धवर्णनः 501 511 524 535 .. 09 Wor 60 0 0 . . 543 80 573 586 566 - शिशुपालवधः , कविवंशवर्णनम् 608 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 606 145 110 654 2060Gas endos. पञ्चमं काव्यं महाकवि श्री हर्षप्रणीतं // नैषधीयचरितम् // पद्यानि पृष्ठं सर्गः पद्यानि पृष्ठं . 113764 631 . 56 . 811 640 820 93 138 847 222 867 703 603 162 614 163 627 mom ormmmomorrorom WM VM O morror Mour mm o 687 154 884 67. 717 731 756 774 648 क्रमः पृष्ठं षष्ठं काव्यं महाकवि श्रीकालिदासप्रणीतं // मेघदूतम् // विषयः पद्यानि पूर्व मेघः उत्तर मेघः विषयः पद्यानि गुरुपरंपरापद्यावलिः .. 21 पुस्तकारंभविधिः 30 679 पृष्ठ क्रमः 988 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 1 // रघुवंशम् // पृष्ठं पंक्तिः शुद्धं पृष्ठं पंक्तिः शुद्धं 4 21 त्वात्प्रार्थना 61 16 पवन 5. 26 गुरुगुरु० 63 5 अनुभवन्न 7 22 माराधय 68 17 प्राङ्मन्था 10 4 विलोक० 73 20 सैकताम्भा 4 ०रक्षणां 10. कङ्कतसूचाम् 5 पूर्णरन्ः 85 16 वृषस्यन्ती 10 7 कम्पित 86 11 उदायुधाना 11 16 शरं 62 8 धरदानदक्षः 12 13 . प्रयत्नः 18 गन्धश्च 15 2 ०निष्ठयु ___69 21 सौधौद्गत 16 10 वार्थम० ... 103 . 8 संघामिव 17 16 विधिवद्वि० 104 15 रामानुजे 18 10 वक्तुमुत्तरम् 107 24 पाटयामास 15 20 जय० 110 11 हिमक्लिष्ट / 16 16. ०नीवि० 110 16 इवेन्दुना 28 22 प्राप्तः 112 6 कविमाहवा 33 2 तावा. 114 3 भक्ता 33 3 तान्तः 115 20 क्रीडा 37 12 ०दुपमेयका० 116 20 सैन्य 41 18 गोवर्धन० 1 17 10 भूव]सा 48 12. बाला.. 117 20 पौरसखः 52 6 ०धर्मसु 118 15 विमुञ्चदम्भ: Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् 116 3 भगु . 116 - 5 सविशेष 116 13 तत्पराणां 119 24 लोलाश्च 120 5 नितम्बोष्विन्दु पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् 128 18 षष्ठ 126 14 मेकवीरः 130 19 भोग्यम् 133 13 सर्वाङ्गीण 136 11 तमनव // 2 // कुमारसंभवम् // पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् / पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् 142 6 बोदिविलग्नमध्या 169 20 ०बन्धनाय 142 10 नवयौवनेन 200 17 ०राजहंसी 143 7 यदि 205 15 सुधासारैरि० 146 6 दैन्यमाश्रितः सूर्यसंबद्ध 148 19 कामोऽयं 206 22 परितापमवा० 154 3-17 किञ्चि० 207 13 प्रह: 159 14 पास्याति ते स 214 14 स्वर्गकबन्धो 160 1 तदिदं 238 18 बाढं 162 21 कन्दूकलीलयापि 239 15 युद्ध्वा 179 11 विचिन्वन्ति 236 25 अपारेऽसक्सरित्पुरे प्रभावात्प्रसिद्ध० 241 18 प्रत्याश्चसमन्त० 185 5 हरि 247 .10 ०वसुधा० 188 22 माधत्त 250 23. कालिदासकृतौ 192 16 ०रुटजाङ्गणं 184 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 3 // किरातार्जुनीयम् // पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 251 22 न हितं 282 18 दुद्धृतः 262 13 गुप्तानामथ 301 18 पुष्प 308 3 अंशुपाणि 310 15 क्षिप्यमाण. 314 17 हृद्यता० 316 10 मायामिम .. 323 2 नपसुत 323 26 विसृतगुणेव 324 3 ससाध्यसेव 325 14 निसर्गाच्च 326 23 भयंकर .. 327 4 ०दावपप्लवौ 332 16 तत्त्ववियां 332 23 वदनममितो 333 5 . परिकीर्ण० . 333 20. तप्तुम० . 334 3 मंशुभिरु० 334 10 ०वानमिव 338 17 पङ्कविष० 341 13 तपास्यमार्गदायी 347 12 कृतज्ञता 350 21 सर्वमनोरमा 357 18 रनेकमेकावसरं 361 16 तुजेशो .362 3 निशिता० 365 7 रोमाञ्चमञ्चिततरं 366 5 भूरेणुना 366 5 रामभधूसरेण 370 . 1 तां 372 7 घूणित० 375 16 संप्राप्तया 377 20 शान्तचिषं 385 6 वल्गु س سه .. . ' Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 4 // शिशुपालवधम् // पृष्ठं पंक्तिः शुद्धम् पृष्ठं पंक्तिः शुद्धं 361 4 हरिः 415 16 कृतास्यदा 361 17 इत्यबोधि 416 10 वीडादिवा० 362 2 जटाः 417 3 362 5 ०मौजीयुज० 417 .11 मलिन्देषु 364 8 सुमेरु० 418 2 प्रासाद० 364 17 निभैर० 420 5 नीरवधे 365 24 व्यवसीयते 421 25 महाकाव्ये 396 14 फणाभृतां . 422 4 नीलोत्पल. 367 7 कंसादि० 425 10 सवितुः 367 16 दितेः 425 18 जलजनित 367 20 ०निषदनं 426 9 पश्यामी 398 17 विनोद० 428 12. दोधकम् 398 24 ०सदृशं 426 1 विविध० 401 17 नमु 426 22 मुदमपा 401 26 संप्रति 430 2 निरोदधुम् 404 25 संक्षिप्त 430 10 नात्र 405 4 सर्वाङ्गः 431 16 जाम्बनदै४०६ 15 जीवति 432 6 ०नुन्नरुन्नमद्भिः 406 26 लघु० 436 13 उधन्त 411 25 पाण्डोभक्तिभवति 437 3 . जग्मु० 414 20 भुग्नशिरः सहस्र० 437 17 मुक्तमदाम्बुतिक्तं 414 24 रथोघैः 439 20 वलयेन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 445 पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 436 20 वलवेन 436 23 शनक 440 11 भोजयितु० 440 16 वेश्मानि० 440 17 चन्द्राकृतानि 440 21 दर्पोदयो० 441 16 चुर्चु० 442 17 लीला 442 17 तरूणा 443 8 बलाकान्तः 4 ०मम्बुरुहां 446 18 परितापिनः / 455 11 सततमनभि० 455 13 ०बहिस्ततेन 455 16 प्रियमिति 455 19 वनिता . 455 21 चरणगतसखी 456 19 ०पना 456 22 द्वयनिहित० 456 25 कृच्छादुरु० 456 26 ०शिरोधराव० 457 1 ०कलितस्ततेन 457 24 लिभिरलभि 457 24 जगस्य 460 11 ०कमुन्नमय्य 460 16 ०वलयस्वनितेन पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 461 20 पिबतिरहस्त्वाम् 462 6 केसरेण 463 6 घनमहतामिव 463 20 कलभकरोरु० 464 1 ०सा साः प्रकृत्या 464 10 ०मुज्जक्तमेव कामि० 464 13 .निरन्तराव० 464 17 तनरभिलषितं .464 20 त्तरलतया 465 12 ०चलत्पदं 468. 24 ल्लोलोमौं 472 . 4 गुरुरभद्भु० 472 26 छायव 474 13 भ्रश्यद्भि० 474 25 प्रच्योतद्भिः 475 . 25 ०भिलष्यता 400 26 प्रथमप्रबुद्ध० 481 15 ऽग्रकरै-- 481 18 स्मरजन्मधर्म० 483 24 ०मगमत्त० 487 18 ०पगूढवता 591 2 लभ्यते 462 14 फलदं 464 1 जुधर्णर 494 26 ०माशु Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 465 18 तनुरुहाण्यपि 468 7 ०धा-सू० 498 7 ०धाष्टर्थासू० 500 11 ०रताभिरताभ्यः 501 4 ०मुच्चैः 501 16 ०कमपनीय 501 21 शयितु० 503 4 रज्यमानैः 504 12 निध० 506 17 ०धाष्य्योदयानां 509 10 भानोः 510 3 हतमद्रेः. 513 23 खुरैर्मुद्ग० 515 21 ०राक्रुष्ट 515 23 उत्तुङ्ग० 516 26 यथोऽपसस्त्र 0 517 23 रोहिणीः 518 7 व्यासेद० 520 22 ०मुदयाद० 520 25 कलंकषौधाः 521 2 हंसः 521 10 प्रभोनिकासाः 522 24 रतर्यता 522 25 जवेनैव 523 13 मण्डलो 525 4 विनयं पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 525 18 कुरुराज० 526 7 सममेत्य 526 20 नापित 528 26 न्यवलयीकृत० 526 26 स्फुटममूर्न 536 11. भूवः / 540 24 श्रीमुखेन्दु० 543 6 शागिरिण 54.4 17 एष 545 1 नियतमिह 545 2 स्फुटं भवरि 546 16 ऽधिलोक० 550 1 ममीमरद्रषा 551 10 शलत्तमाः 552 23 किमहो 561 20 क्षतासंहतिः 562 22. नित्यविभूषणा 586 15 शीघ्र० 588 16 चिकीर्षु० 561 2 पालापरिव 601 7 अमनोरमतां 601 23 गुर्व्यस्त० 601 26 मषीभवन्तः 607 16 ०मर्मभिस्तम् 607 23 ०लोलाजल * X X Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 5 // नैषधीयचरितम् // पृष्ठं पंक्तिः शुद्धं 612 20 ०दुर्धर्ष 616 3 ०संहितेषणा 618 1 अमी 620 16 वात्यामय० 621 15 ०सचिवेन 623 16 कुसुमाद्० 624 2 ०सुतः 6256 दधद्माल० 625 12 प्रणीत० 625 24 ०वाशयम् . . 626 8 दरोद्गतः 627 4 चञ्चोश्चरण० 627 6 ०विनोदिनम् 627 22 रेजतुरस्य .. 627 23 तथाम्बुज६२६ 12 धरणी 126 14. वैलक्ष्यकृपं नपं 630 5 .निर्गता 631 15. ०चञ्चपुटेन / 18 प्रभु हसति 633 5 पृषती० 633 13 परीक्षणे 634 17 अनुरूपमिम 636 6 वयं क्यः पृष्ठं पंक्तिः 636 26 द्रुचा 637 16 दधदम्बुद० 637 22 ०सौधकन्धरा० 637 26 घनान्यदु० 634 3 अनलः 638 4 ___०पुरीपराय॑ताम् 638 13. दापणे 638 14 गुञ्जन्तमलिं 638 15 सकलाह 636 6 ०शेषशायिनः 636 20 ०वाङ्मुखत्वैः 640 4 ०पटुलक्ष्मी० 641 14 हंसोय्यसौ 641 16 दुपैषि 644 8 यदि विशेष० 645 23 मोहाद्ध्यातः . 651 15 का खलु 652 4 त्वज्र युगं 654 18 सरसीरस० 655 13 विदीर्य 655 26 मगीदृशः 656 2 नुमितनिह्न त० 656 13 तदद्भुत० 2 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 710 21 जिगीषुर्धनुषा 770 23 तनोत्यकोति 710 25. कौँ 775 7 कंचि७१३ 12 ०भरणाविमौ 776 10 सवाल 716 6 प्रवालप्रबलारुणं 782 8 संतरण० . 718 1 रश्मि० . 783 15 शीर्षशेष७१८ 23 निरीक्षितं . 786 4 कोति 720 2 ०भूनिजापि 788. 71 कुमारनिपुणां 720 14 सञ्ज्ञा 760 12 घने 723 22 प्रियाया वचनं 761. 4 भूपमपरं 724 16 माकर्णया० 793 4 वर्न० 726 24 संतिका 766 22 ०मीयूषी 726 26 तदिक्षुः 799 14 यशोभरावलिरस्य 731 2 यदीत्थमथ 801 5 जयतिमसमर्थन 736 1 ह्रियाह 801 18 ०रसून्गोचर० 744 1 लोभात्त 802 14 मेदुरः 749 8 परिचारिकोचिता 803 2 काचिद्बतै० 746 11 अधित्यकासु 807 4 फेनैः 751 16 ममागसा 818 11 किमैलः 753 22 लाञ्छनोन्मजा 822 24 व्यतिभैदिनोऽपि 757 5 भैभ्येव 823 16 निर्वापयिष्यन्निव 756 26 समेतेषु 826 25 ०वाराणसि 761 23 यः स्पर्धया 835 22 स्नपित० 762 16 समाप्तशोभा 835 24 स्वमुाः 767 25 पीतावदाता० 836 3 विधि० 76818 मन्दं 842 6 कलापिसंपदः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 656 18 कृतत० दृढव्यधः 682 4 क्षिप्नुरेन० 661 6 ०निह्न तदर्पताम् 683 2 विदुषापि 662 16 किममीकृता 683 16 मयि दृष्टे 665 11 ०रामरवत्सुधां 684 10 धीरहो 665 12 नापिबः 685 21 भवतां 666 23 षड्ऋतवः 688 12 विश्वकश्यैव 666 25 यद्भवते 606 13 भैमीभ्रमस्यैव 667 3 चेद 660 14 पर्यवश्यन 667 12 तत्क्षणमापिथ६९० 14 त्तधैर्यपूजा 673 16 ०मर्षणऋग्भिः 691 3/9 संघट्ट्य 674 2 स्तावकरतितरां 695 . 7 मोहं च 674 7 कुमारी * 666 15 गन्धर्ववध्वः 675 8 696 21 सुभ्र६७५ 10 उत्तरोत्तर० 666 4 लघूकृतस्वं 675 13 ०मुपधाय . * 664 21 दूत्यं 676 1 पर्वतेन 701 - 1 प्रतिवाचमर्धे 676.6 तद्वारसंक्रमित०. 701 24 बन्धुर्यदि 676 17 यत्पिधित्सु० 702 1 प्रतीपोक्तिमति 676 26 शृण्वति 702 7 सापनीतं 677 5 पृथगथो 703 2 पल्लवितश्चिरं 678 6 ०मपरान्नपपुत्री 705 11 सपक्षकविधोः 676 15 विशिष्य . 705 15 अस्या 676 16. शैशवावधि 705 23 कोशान्धकारादथ 680 26 इत्यम 706 3 व्यधाद्विधे० 680 23 यद्यशो 706 24 कुरङ्गी पृच्छयते Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् पृष्ठं पंक्ति शुद्धम् 843 24 दर्पणार्पणम् 617 13 चक्षुषोः 847 1 इत्यालेपु० 618 1. नमयन्ती 847 2 हंकुर्वत्वनु० * 621 15. पीडयती 869 25 कुरुसैन्यं . 123 14 मीशि. 875 16 ०थैवं . 626 17 ०दीक्षण८७८ 25 नाकस्मात्त्वं 126 16 निर्गतः 880 9 कीर्णाद्वश्मनि नपैस्तद्० 880 22 यत्याधारेऽमरागारे 124 2 करघ्रिका० 885 26 ०यः 3 0 ह स्रङमयः / 887 8 ०मितिवृत्तमाश्रिताः 144 6 निकोचवत्यः 887 11 शंभुदारुवनसंभुजि- 656 1 विवेश क्रियामाघवव्रज० 162 20 विधुवास्तुमन्तम् 866 2 ०दर्शनसुखान्यभुक्त 904 12 शिशिरमहसो 664 . 3 पश्योच्च० 615 21 ०माश्लिष्ट० 666 23 . रङकुमयं 617 7 सखीचित्ते 667 15 ०मुडुगणमगणनम० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 20 // // अहम् // हालारदेशोद्धारक-पूज्याचार्यदेवश्रीविजयामृतमरिभ्यो नमः काव्यषटकम् (रघुवंश-कुमारसंभव-किरातार्जुनीय-शिशुपालवध नैषध-मेघदूतात्मकम् ) - // 1 // प्रथमं काव्यं // महाकवि श्री कालिदासविरचितं :: रघुवंशम् :: 25 // 27 / / वागर्थाविव संपृक्ती वागर्थप्रतिपत्तये / ..... जगतः पितरौ वन्दे पार्वतोपरमेश्वरौं // 1 // * क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया:मतिः। तिखीषु वुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् // 2 // मन्दः कवियश:प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् / .. प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः // 3 // अथवा कृतवारद्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभिः / / मगो वनसमुत्कोणे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः / / 4 / / सोहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम् / .. 10 आसमुद्रभितीशानामानाकरथवर्त्मनाम् // 5 // Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ] काव्यषट्कम् . यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामाचितार्थिनाम् / यथापराधदण्डानां यथाकालप्रबोधिनाम् // 6 // त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् / यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् // 7 // शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयषिणाम् / वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् // 8 // रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन् / तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः // 9 // तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्वयक्तिहेतवः / 10 हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नो विशुद्धिः श्यामिकापि वा // 10 // वैवस्वतो मनु म माननीयो मनीषिणाम् / / आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव // 11 / / तदन्वये शुद्धिमति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः / दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव // 12 // 15 व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुमहाभुजः / आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रितः / / 13 / / सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना / स्थितः सर्वोन्नतेनोर्वी क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना // 14 // आकारसदृशप्रज्ञः प्रशया सडशागमः / आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसहशोदयः // 15 // भीमकान्तैनूपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् / अधष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरत्नरिवार्णवः // 16 / / रेखामात्रमपि क्षुण्णादा मनोवमनः परम् / न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः // 17 // 25 प्रजानामेव भूत्यथं स ताभ्यो बलिममहोत् / सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादते हि रसं रविः // 18 / / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे प्रथमः सर्गः सेना परिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम् / शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिमौर्वी धनुषि चातता // 19 // तस्य संवृतमन्त्रस्य गूढाकारेङ्गितस्य च / फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव // 20 // जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः / अगन्धुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत् // 21 // ज्ञाने मौनं क्षमा शक्ती त्यागे श्लाघाविपर्ययः / गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव // 22 // अनाकृष्टस्य विषयविद्यानां पारदश्वनः / तस्य धर्मरतेरासीद्धवृद्धत्वं जरसा विना // 23 / / प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि / स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः / / 24 / / स्थित्यै दण्डयतो दण्डयान्परिणेतुः प्रसूतये / अप्यर्थकामो तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः // 25 // दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् / संपद्विनिमयेनोभी दधतुर्भुवनद्वयम् // 26 // न किलानुययुस्तस्य राजानो रक्षितुर्यशः / व्यावृत्ता यत्परस्वेभ्यः श्रुतौ तस्करता स्थिता / / 27 / / द्वेष्योऽपि संमतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम् / त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदगुलीवोरगक्षता // 28 // तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना / तथाहि सर्वे तस्यासन्परार्थंकफला गुणाः / / 26 / / स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् / अनन्यशासनामुर्वी शशासैकपुरीमिव // 30 // 25 तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधवंशजा। पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा // 31 // Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यषटकम् कलंत्रवन्तमात्मानमवरोधे महत्यपि / तया मेने मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाधिपः // 32 / / तस्यामात्मानुरूपायामात्मजन्मसमुत्सुकः। विलम्बितफलैः कालं स निनाय मनोरथैः / / 33 / / संतानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता / .. तेन धूर्जगतो गुर्वी सचिवेषु निचिक्षिपे // 34 // अथाभ्यर्च्य विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया / तौ दम्पतो वसिष्ठस्य. गुरोर्जग्मतुराश्रमम् // 35 / / स्निग्धगम्भीरनिर्घोषमेकं स्यन्दनमास्थितौ / 10 प्रावृषेण्यं पयोवाहं विधुदैरावताविव // 66 // मा भूदाश्रमपीडेति परिमेयपुरःसरौ / अनुभाबविशेषात्तु सेनापरिवृताविव // 37 / / सेव्यमानौ सुखस्पर्शः शालनिर्यासगन्धिभिः / पुष्परेणू त्किरैर्वातैराधूतवनराजिभिः // 38 // मनोभिरामाः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः / षड्जसंवादिनीः केका द्विधा भिन्नाः शिखण्डिभिः / / 39 / / परस्पराक्षिसादृश्यमदूरोज्झितवर्त्मसु / मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्धष्टिषू / / 40 / / श्रेणीबन्धाद्वितन्वद्भिरस्तम्भां तोरणस्रजम् / सारसैः कलनिर्दिः क्वचिदुन्नमिताननौ / / 41 / / पवनस्यानुकूलत्वाप्रार्थनासिद्धिशंसिनः / रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालकवेष्टनौ // 42 / / सरसीष्वरविन्दानां वोचिविक्षोभशीतलम् / आमोदमुपजिघ्रन्तौ स्वनिःश्वासानुकारिणम् // 43 // 25 ग्रामेष्वात्मविसृष्टेषु यूपचिलेषु यज्वनाम् / / अमोघाः प्रतिगृह्णन्तावानुपदमाशिषः // 44 / / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे प्रथमः सर्गः हैयंगवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् / ... नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् / / 45 // काप्यभिख्या तयोरासीव्रजतोः शुद्धवेषयोः / हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रमसोरिव // 46 // तत्तद्भूमिपतिः पत्न्यै दर्शयन्प्रियदर्शनः / अपि लवितमध्वानं बुबुधे न बुधोपमः // 47 / / स दुष्प्रापयशाः प्रापदाश्रमं श्रान्तवाहनः / सायं संयमिनस्तस्य महर्षेमहिषीसखः / / 44 // वनान्तरादुपावृत्तः समित्कुशफलाहरैः / / पूर्यमाणम दृश्याग्निप्रत्युद्यातैस्तपस्विभिः // 46 / / आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभिः / अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचितैमृगैः / / 50 / / सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् / विश्वासाय विहंगानामालवालाम्बुपायिनाम् // 51 // 15 आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु निषादिभिः / मृगैर्वतितरोमन्थमुटजाङ्गनभूमिषु // 52 // अभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनाश्रमोन्मुखान् / पुनानं पवनोद्धृतधूमैराहुतिगन्धिभिः // 53 // अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान्विश्रामति सः। 20 तामवारोहयत्पत्नी रथादवततार च // 54 / / तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्ने गुप्ततमेन्द्रियाः / अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे / / 55 / / विधेः सायंतनस्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम् / अन्वासितमरुन्धत्या स्वाहयेव हविर्भुजम् // 56 / / 25 तयोर्जगृहतुः पादाराजा राज्ञी च मागधी / तो गुरुर्गुरुपत्नी च प्रोत्या प्रतिननन्दतुः // 57 / / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यषट्कम् तमातिथ्यक्रियाशान्तरपक्षोभपरिश्रमम् / .. पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनि मुनिः // 58 // अथाथवंनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरः / अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः // 59 // 5 उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु यस्य मे। दैवीनां मानुषीणां व प्रतिहर्ता त्वमापदाम् / / 60 // . तव मन्त्रकृतो मन्त्रैर्दुरात्प्रशमितारिभिः। प्रत्यादिश्यन्त इव में हष्टलक्ष्यभिदः शराः / / 61 // हवीरावजितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु / वृष्टिर्भवति सस्यानामवग्रह विशोषिणाम् // 62 / / पुरुषायुषजोविन्यो निरातङ्का निरीतयः / यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुस्त्वद्ब्रह्मवर्चसम् // 63 / / त्वयैवं चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना / सानुबन्धाः कथं न स्युः संपदो मे निरापदः // 64 // 15 किंतु वध्वां तवैतस्यामहष्टसदृशप्रजम् / न मामवति . सद्वीपा रत्नसूरपि मेदिनी // 65 // नूनं मत्तः पर वश्याः पिण्डविच्छेदशिनः / न प्रकामभुजः श्राद्धे स्वधासंग्रहतत्पराः // 66 // मत्परं दुर्लभं मत्वा नूनमावजितं मया / पयः पूर्वः स्वनिःश्वासैः कवोष्णमुपभुज्यते // 67 / / सोऽहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलितः / प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोक इवाचल: / / 68 // लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् / . संततिः शुद्धवंश्या हि परवेह च शर्मणे " 69 // 25 तया होनं विधाता कथं पश्यन्न दूयसे / सिक्तं स्वयमिव स्नेहाद्वन्ध्यमाश्रमवृक्षकम् / / 70 // Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - रघुवंशे प्रथमः सर्गः / [. असह्यपीडं भगवन्नृणमन्त्यमवेहि मे / अरुंतुदमिवालानमनिर्वाणस्य दन्तिनः / / 71 // तस्मान्मुच्ये यथा तात संविधातु तथार्हसि / इक्ष्वाकूणां दुरापेऽर्थे त्वदधीना हि सिद्धयः // 72 // इति विज्ञापितो राज्ञा ध्यानस्तिमितलोचनः / क्षणमात्रमृषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव ह्रदः // 73 / / सोऽपश्यत्प्रणिधानेन संततेः स्तम्भकारणम् / भावितात्मा भुवो भर्तु रथैनं प्रत्यबोधयत् // 74 / / पुरा शकमुपस्थाय तवोरों प्रति यास्यतः / 10 आसीत्कल्पतरुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि / / 75 / / धर्मलोपभयाद्राजीमृतुस्नातामिमां स्मरन् / प्रदक्षिणक्रियाहयां तस्यां त्वं साधु नाचरः // 76 / / अवजानासि मां यस्मादतस्ते न भविष्यति / मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा / / 77 / / 15 स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रतः / नदत्याकाशगङ्गायाः स्रोतस्युद्दाम दिग्गजे // 78 // ईप्सितं तदवज्ञानाद्विद्धि सार्गलमात्मनः / प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः / / 79 / / हविषे दीर्घसत्रस्य सा चेदानी प्रचेतसः / भूजंगपिहितद्वारं पातालमधितिष्ठति // 80 // सुतां तदीयां सुरभेः कृत्वा प्रतिनिधि शुचिः / आरधाय सपत्नीकः प्रीता कामदुधा हि सा / / 81 // इति वादिन एवास्य होतुराहुतिसाधनम् / अनिन्द्या नन्दिनी नाम धेनुराववृते वनात् // 2 // 25 ललाटोदयमाभुग्नं पल्लवस्निग्धपाटला / बिभ्रती श्वेतरोमाई संध्येव शशिनं नवम् // 83 / / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] काव्यषटकम् भुवं कोष्णेन कुण्डोनी मेध्येनावभृथादपि / प्रस्नवेनाभिवर्षन्ती वत्सालोकप्रतिना / / 84 / / रजःकणः खुरोधूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात् / / तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः / / 85 / / तां पुण्यदर्शनां दृष्ट्वा निमित्तशस्तपोनिधिः / याज्यमाशंसितावन्ध्यप्रार्थनं पुनरब्रवीत् // 86 / / अदूरवर्तिनी सिद्धि राजविगणयात्मनः / उपस्थितेयं कल्याणी नाम्नि कीर्तित एव यत् / / 87 / / वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम् / 10 विद्यामभ्यसनेनेव प्रसादयितुमर्हसि // 88 / / प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः स्थितायां स्थितिमाचरेः / निषण्णायां निषोदास्यां पीताम्भसि पिबेरपः / / 86 / / वधूभक्तिमती चैनामचितामा तपोवनात् / प्रयता प्रातरन्वेतु सायं प्रत्युबजेदपि // 90 / / 15 इत्या प्रसादादस्यास्त्वं परिचर्यापरो भव / अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम् / / 91 / / तथेति प्रतिजग्राह प्रोतिमान्सपरिग्रहः / आदेशं देशकालज्ञः शिष्यः शासितुरानतः // 92 / / अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् / सूनुः सूनृतवाक्स्रष्टुर्विसस|जितश्रियम् // 93 / / सत्यामपि तपःसिद्धी नियमापेक्षया मुनिः / . कल्पविकल्पयामास वन्यामेवास्य संविधाम् // 94 / / निर्दिष्टां कुलपतिना स पर्णशाला मध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः / 20 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वितीयः सर्गः तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां संविष्टः कुशशयने निशां निनाय // 95 // ( प्रहर्षिणीयम् ) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये 5 वसिष्ठाश्रमाभिगमनो नाम प्रथमः सर्गः // 1 // // 2 // अथ द्वितीयः सर्गः // अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् / वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेमुमोच / / 1 / / तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया। 10 मागं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत् // 2 // निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयी सुरभिर्यशोभिः / पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् // 3 // व्रताय तेनानुचरेण धेनोय॑षेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः / न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्य गुप्ता हि मनोः प्रसूतिः / 4 / 15 आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैदशनिवारणैश्च / अव्याहतैः स्वरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् 5 स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धघोरः / जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् / / स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मी तेजोविशेषानुमितां दधानः / आसीदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदावस्थ इव द्विपेन्द्रः / / 7 / / लताप्रतानोद्ग्रथितैः स केशरधिज्यधन्वा विचचार दावम् / रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव दुष्टसत्त्वान् / / 4 // विसृष्टपाश्र्वानु चरस्य तस्य पार्श्वद्रुमाः पाशभृता समस्य / उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं वयसां विरावैः॥९॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] काब्यषट्कम् मरुत्प्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमज़मारादभिवर्तमानम् / अवाकिरन्बाललताः प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः।१०। धनुर्भृतोऽप्यस्य दयाभावमाख्यातमन्तःकरणैर्विशकैः। विकोकयन्त्यो वपुरापुरक्षणं प्रकामविस्तारफलं हरिण्यः / 11 / 5 स कीचकैर्मारुतपूर्णरन्ध्रः कूद्भिरापादितवंशकृत्यम् / शुश्राव कुजेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानं वनदेवताभिः / 12 / पृक्तस्तुषारैगिरिनिर्झराणामनोकहाकम्मिपतपुष्पगन्धी। तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचारपूतं पवनः सिषेवे / / 13 / / शशाम वृष्टयापि विना दवाग्निरासीद्विशेषा फलपुष्पवृद्धिः। ऊनं न सत्त्वेष्वधिको बबाधे तस्मिन्वनं गोप्तरि गाहमाने / 14 / संचारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुम् / प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य मुनेश्च धेनुः // 15 // तां देवतापित्रतिथिक्रियार्थामन्वग्ययो मध्यमलोकपालः / बभौ च सा तेन सतां मतेन श्रद्धेव साक्षाद्विधिनोपपन्ना / 16 / 15 स पल्वलोत्तीर्णवराहयूथान्यावासवृक्षोन्मुखबहिणानि / ययौ मृगाध्यासितशाद्वलानि श्यामायमानानि वनानि पश्यन् / आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद्गृष्टिगुरुत्वाद्वपुषो नरेन्द्रः / उभावलंचक्रतुरञ्चिताभ्यां तपोवनावृत्तिपथं गताभ्याम् / 18 / वसिष्ठधेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनान्तात् / 20 पपौ निमेषालसपक्ष्मपङ्क्तिरुपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम् / पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मपत्न्या / तदन्तरे सा विरराज धेनुदिनक्षपामध्यगतेव संध्या / / 20 // प्रदक्षिणीकृत्य पयस्विनी तां सुदक्षिणा साक्षतपात्रहस्ता / प्रणम्य चानचे विशालमस्याः शृङ्गान्तरं द्वारमिवार्थसिद्धेः।२१ 25 वत्सोत्सुकापि स्तिमिता सपर्या प्रत्यग्रहीत्से ति ननन्दतुस्तौ / भक्त्योपपन्नेषु हि तद्विधानां प्रसादचिह्नानि पुर:फलानि / 22 / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . रघुवंशे द्वितीयः सर्गः [ 11 5 गुरोः सदारस्य निपीडघ पादौ समाप्य सांध्यं च विधि दिलीप।। दोहावसाने पुनरेव दोग्ध्रीं भेजे भुजोच्छिन्नरिपुनिषण्णाम् / 23 / तामन्तिकन्यस्तबलिप्रदीपामन्वास्य गोप्ता गृहिणीसहायः। क्रमेण सुप्तामनु संविवेश सुप्तोत्थितां प्रातरनूदतिष्ठत् / / 24 / / इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीयकीर्तेः / सप्त व्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य / 25 // अन्येधुरात्मानुचरस्य भावं विज्ञासमाना मुनिहोमधेनुः / गङ्गाप्रपातान्तविरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश / / 26 / / सा दुष्प्रधर्षा मनसापि हिंस्त्ररित्यदिशोभाप्रहितेक्षणेन / अलक्षिताभ्युत्पतनो नृपेण प्रसह्य सिंहः किल तां चकर्ष / 27 / तदीयमान्दितमार्तसाधोगुहानिबद्धप्रतिशब्ददीर्घम् / रश्मिष्विवादाय नगेन्द्रसक्तां निवर्तयामास नृपस्य दृष्टिम् / 28 / स पाटलायां गवि तस्थिवांसं धनुर्धरः केसरिणं ददर्श। अधित्यकायामिव धातुमय्यां लोध्रद्रुमं सानुमतः प्रफुल्लम् / 29 / ततो मगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी वधाय वध्यस्य शरं शरण्यः / जाताभिषङ्गो नृपतिनिषङ्गादुद्धतुं मैच्छत्प्रसभोद्धृतारि: / 30 / वामेतरस्तस्य करः प्रहतुनखप्रभाभूषितकङ्कपत्रे / सक्ताङगुलि: सायकपुङ्ख एव चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे / 31 / बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युरभ्यर्णमागस्कृतमस्पृशद्भिः। राजा स्वतेजोभिरदह्यतान्तर्भोगीव मन्त्रौषधिरुद्धवीर्यः / / 3 / / तमार्यगृह्य निगृहीतधेनुर्मनुष्यवाचा मनुवंशकेतुम् / विस्माययन्विस्मितमात्मवृत्तौ सिहोरुसत्त्वं निजगाद सिंहः।३३। अलं महिपाल तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात् / न पादपोन्मूलनशक्ति रहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य / 34 / 25 कैलासंगौरं वृषमारुरुक्षोः पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् / अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम् // 35 // Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] काव्यषटकम् अमुपुरः पश्य सि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन / यो हेमकुम्भस्तन निःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः / 36 // कण्डूयमानेन कटं कदाचिद्वन्यद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य। अथैनम नेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढमिवासुरास्त्रैः / / 37 / / तदाप्रमृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षौ / व्यापारित: सूलभृता विधाय सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्तिः / 38 / तस्यालमेषा क्षुधितस्य तृप्त्यै प्रदिष्टकाला परमेश्वरेण / उपस्थिता शोणितपारणा मे सुरद्विषश्चान्द्रमसी सुधेव // 39 / / स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां गुरोर्भवान्दर्शितशिष्यभक्तिः। शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं न तद्यशः शस्त्रभृतां क्षिणोति / 40 / इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधिराजस्य वचो निशम्य / प्रत्याहतास्त्री गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञां शिथिलीचकार / 41 // प्रत्यब्रवीच्चैनमिषुप्रयोगे तत्पूर्वभङ्ग वितथप्रत्यत्नः / / जडोकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन वज्रमुमुक्षन्निव बज्रपाणिः // 42 // संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः / अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्व भवान्भावमतोऽभिधास्ये / 43 / मान्यः स मे स्थावरजंगमानां सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुः / गुरोरपीदं धनमाहिताग्नेर्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम् // 44 / / स त्वं मदीयेन शरीरवृत्ति देहेन निर्वर्तयितु प्रसीद / दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः // 45 // अथान्धकारं गिरिगह्वराणां दंष्ट्रामयूखैः शकलानि कुर्वन् / भूयः स भूतेश्वरपार्श्ववर्ती किंचिद्विहस्यार्थपति बभाषे / / 46 / / एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च / अल्पस्य हेतोबहु हातुमिच्छन्विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् / 47 25 भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते / जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाःप्रजानाथ पितेव पासि / 48 // Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वितीयः सर्गः [ 13 अथैकधेनोरपराधचण्डाद्गुरोः कृशानुप्रतिमाद्विभेषि / शक्योऽम्य मन्युर्भवता विनेतुगाः कोटिशः स्पर्शयता घटोध्नीः। तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम् / महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः // 50 // एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्र प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन / शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैःप्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव / 51 निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच / धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः। 52 क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः / 10 राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तःप्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा / / 53 // कथं नु शक्योऽनुनयो महर्विश्राणनाच्चान्यपयस्विनीनाम् / इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृतं त्वयास्याम् // 54 // सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण न्याय्या मया मोचयितु भवत्तः / न पारणा स्याद्विहता तवैवं भवेदलुप्तश्च मुनेः क्रियार्थः // 55 // 15 भवानपोदं परवानवैति महान्हि यत्नस्तव देवदारौ। स्थातु नियोक्तुर्नहि शक्यमग्रे विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन / 56 / किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशःशरीरे भव मे दयालुः।। एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेऽवनास्था खलु भौतिकेषु।५७। संबन्धमाभाषणपूर्वमाहुत्तः स नौ संगतयोर्वनान्ते / तद्भूतनाथानुग नार्हसि त्वं संबन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम् / 58 / तथेति गामुक्तवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्तबाहुः / स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य // 59 // तस्मिन्क्षणे पालयितुः प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम् / अवाङ्मुखस्योपरि पुष्पवृष्टि:पपात विद्याधरहस्तमुक्ता // 60 // 25 उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृतायमानं वचो निश्यम्योत्थितमुत्थितः सन् / ददश राजा जननीमिव स्वां गामग्रतः प्रस्रविणीं न सिंहम् // 61 / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] काव्यषट्कम् तं विस्मितं धेनुरुवाच साघो मायां मयोद्भाब्य परीक्षितोऽसि / ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि प्रभुःप्रहतु किमुतान्यहिंस्राः / 62 भक्त्या गुरी मय्यनुकम्पया च प्रोतास्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व / न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम् / / 63 / / ततः समानीय स मानितार्थी हस्तौ स्वहस्ताजितवीरशब्दः / वंशस्य कर्तारमनन्तकोति सुदक्षिणायां तनयं ययाचे / / 64 / / संतानकामाय तथेति कामं राज्ञ प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा / दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपभुक्ष्वेति तमादिदेश // 65 / / वत्सस्य होमार्थविधेश्च शेषमषेरनुज्ञामधिगम्य मातः / औधस्यमिच्छामि तवोपभोक्तुं षष्ठांशमुर्त्या इव रक्षितायाः / 66 इत्थं क्षितीशेन वसिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रोततरा बभूव / तदन्विता हैमवताच्च कुक्षेः प्रत्याययावाश्रममश्रमेण // 67 / / तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसादं गुरुर्नु पाणां गुरवे निवेद्य / प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै शशंस वाचा पुनरुक्तयेव / / 68 // 15 स नन्दिनोस्तन्यमनिन्दितात्मा सद्वत्सलो वत्सहुतावशेषम् / पपौ वसिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः शुभ्र यशो मूर्तमिवातितृष्णः / 66 / प्रातर्यथोक्तव्रतपारणान्ते प्रास्थानिक स्वस्त्ययनं प्रयुज्य / तौ दंपतो स्वां प्रति राजधानी प्रस्थापयामास वशी वसिष्ठः।७० प्रदक्षिणीकृत्य हुतं हुताशमनन्तरं भर्तु ररुन्धती च / 20 धेनुं सवत्सां च नपः प्रतस्थे सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभाव: // 71 // श्रोत्राभिरामध्वनिना रथेन स धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुः / ययावनुद्धातसुखेन मार्ग स्वेनव पूर्णेन मनोरथेन // 72 / / तमाहितोत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रतकर्शिताङ्गम् / नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधोनाम् // 73 // 25 पुरंदरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्यमानः / भुजे भुजंगेन्द्रसमानसारे भूयः स भूमेधु रमाससञ्ज / / 74 / / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे तृतीयः सर्गः अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः . सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठयूतमैशम् / नरपति कुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्ट लोकपालानुभावः / / 75 / / (मालिनी) 5 // इति महकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः // 2 // // 3 // अथ तृतीयः सर्गः॥ अथेप्सितं भर्तु रुपस्थितोदयं सखीजनोद्वीक्षणकौमुदीमुखम् / निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य संततेः सुदक्षिणा दौह दलक्षणं दधौ / 1 (वशंस्थम्) शरोरसादादसमग्रभूषणा मुखेन सालक्ष्यत लोध्रपाण्डुना / तनुप्रकाशेन विचेय तारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी / / 2 / / तदान मत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्यपाघ्राय न तृप्तिमाययौ / करोव सिक्त पृषतः पयोमुचां शुचिव्यपाये वनराजिपल्वलम् / / दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्त विश्रान्तरथो हि तत्सुतः / अतोऽभिलाषे प्रथमं तथाविधे मनो बबन्धान्यरसान्विलजय सा। न मे ह्रिया शंसति किंचिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी। इति स्म पृच्छत्यनूवेलमारतः प्रियासखीरुत्तरकोसलेश्वरः / / 5 // उपेत्य सा दोहददुःखशीलतां यदेव वव्र तदपश्यदाहृतम् / / न हीष्टमस्य त्रिदिवेऽपि भूपतेरभूदनासाद्यमधिज्य धन्वनः / 6 / क्रमेण निस्तोर्य च दोहदव्यथां प्रचीयमानावयवा र राज सा / पुराणपत्रापगमादनन्तरं लतेव संनद्धमनोज्ञपल्लवा / / 7 / / दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं तदीयमानीलमुखं स्तनद्वयम् / तिरश्चकार भ्रमराभिलीनयोः सुजातयोःपङ्कजकोशयोः श्रियम् / / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] काव्यषट्कम् निधानगर्भामिव सागराम्बरां शमीमिवाभ्यन्तरलीनपावकाम् / नदीमिवान्तःसलिलां सरस्वती नृपः ससत्त्वां महिषीममन्यत।९ प्रियानुरागस्य मन:समुन्नते जाजितानां च दिगन्तसम्पदाम् / यथाक्रमं पुंसवनादिकाः क्रिया घृतेश्च धीरः सदृशीय॑धत्त सः।१० * 5 सुरेन्द्रमात्राश्रितगर्भगौरवात्प्रयत्नमुक्तासनया गृहागतः / तयोपचाराञ्जलिखिन्नहस्तया ननन्द पारिप्लवनेत्रया नृपः / 11 कुमारभृत्याकुशलरनुष्ठिते भिषम्भिराप्तैरथ गभर्मणि / पतिःप्रतीतः प्रसवोन्मुखीं प्रियां ददर्श काले दिवमभ्रितामिव / / गृहैस्ततः पञ्चभिरुच्चसंश्रयैरसूर्यगः सूचितभाग्यसम्पदम् / 10 असूत पुत्रं समये शचीसमा त्रिसाधना शक्तिरिवार्थमक्षयम् / / 13 दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखाः प्रदक्षिणाचिहविरग्निराददे / बभूव सवं शुभशंसि तत्क्षणं भवो हि लोकाभ्युदयाय तादृशाम् / / अरिष्टशय्यां परितो विसारिणा सुजन्मनस्तस्य निजेन तेजसा / निशीथदीपाः सहसा हतत्विषो बभूवुरालेख्यसमपिता इव / / 15 15 जनाय शुद्धान्तचराय शंसते कुमारजन्मामृतसम्मिताक्षरम् / अदेयमासोन्त्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे // 16 / / निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम् / महोदधेः पूर इवेन्दुदर्शनाद्गुरुः प्रहर्षः प्रबभूव नात्मनि / / 17 / / स जातकर्मण्यखिले तपस्विना तपोवनादेत्य पुरोधसा कृते / दिलीपसूनुर्मणिराकरोद्भवः प्रयुक्तसंस्कार इवाधिकं बभौ / / 18 सुखश्रवा मङ्गलतूर्यनिस्वनाःप्रमोदनृत्यैः सह वारयोषिताम् / न केवलं सद्मनि भागधीपतेः पथि व्यज़म्भन्त दिवौकसामपि / 19 न संयतस्तस्य बभूव रक्षितुर्विसर्जयेद्यं सुतजन्महषितः / ऋणाभिधानात्स्वयमेव केवलं तदा पितॄणां मुमुचे स बन्धनात् / 25 श्रुतस्य यायादयमन्तमर्भकस्तथा परेषां युधि चेति पार्थिवः / अवेक्ष्य धातोर्गमनार्थमर्थविच्चकार नाम्ना रघुमात्मसंभवम् / 21 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. रघुवंशे तृतीयः सर्गः [ 17 पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयवैदिनेदिने / पुपोष वृद्धि हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमाः / / 22 / / उमावृषाङ्को शरजन्मना यथा यथा जयन्तेन शचीपुरंदरौ। तथा नृपः सा च सुतेन मागधी ननन्दतुस्तत्सदृशेन तत्समौ / / 23 5 रथाङ्गनाम्नोरिव भावबन्धनं बभूव यत्प्रेम परस्पराश्रयम् / विभक्तमप्येकसुतेन तत्तयोः परस्परस्योपरि पर्यचीयत // 24 // उवाच धाश्या प्रथमोदितं वचो, ययौ तदीयामवलम्ब्य चाइगुलिम् / अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया, पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः / / 25 / / तमङ्कमारोप्य शरीरयोगजैः सुखैनिषिञ्चन्तमिवामृतं त्वचि / उपान्त संमीलितलोचनो. नृपश्चिरात्सुतस्पर्शरसज्ञतां ययौ / 26 / अमस्त चानेन पराय॑जन्मना, स्थिते रभेत्ता स्थितिमन्तमन्वयम् / 15 स्वमूर्तिभेदेन गुणायवर्तिना, पतिः प्रजानामिव सर्गमात्मनः // 27 // स वृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः।। लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङमयं नदीमुखेनेव समुद्रमाविशत् / 28 / अथोपनीत विधिद्विपश्चितो विनिन्युरेनं गुरवो गुरुप्रियम् / 20 अवन्ध्ययत्नाश्च बभूवुरत्र ते क्रिया हि वस्तूपहिता प्रसीदति / 29 / धियः समग्रैः स गुणैरुदारधीः क्रमाच्चतस्रश्चतुरर्णवोपमाः / ततार विद्याः पवनातिपातिभिर्दिशो हरिद्भिर्हरितामिवेश्वरः।। स्वचं स मेध्यां परिधाय रौरवीमशिक्षतास्त्रं पितुरेव मन्त्रवत् / न केवलं तद्गुरुरेकपार्थिव: क्षितावभूदेकधनुर्धरोऽपि सः / 31 / / 25 महोक्षतां वत्सतरः स्पृशन्निव द्विपेन्द्रभावं कलभः श्रयन्निव / रघुः क्रमाद्यौवनभिन्नशैशवः पुपोष गाम्भीर्यमनोहरं वपुः // 32 // Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] काव्यषट्कम् अथास्य गोदानविधेरनन्तरं विवाहदीक्षां निरवर्तयं द्गुरुः / नरेन्द्रकन्यास्तमवाप्य सत्पति तमोनुदं दक्षसुता इवाबभुः / 33 / युवा युगव्यायतबाहुरंसलः कपाटवक्षाः परिणद्धकंधरः / वपुःप्रकर्षादजयद्गुरुं रघुस्तथापि नोचविन याददृश्यत / / 34 / / ततःप्रजानां चिरमात्मना धतां नितान्तगुती लघयिष्यता धुरम् / निसर्गसंस्कारविनीत इत्यसो नपेण चके युवराजशब्दभाक् / 35 // नरेन्द्रमूलायतनादनन्तरं तदास्पदं श्रीयुवराजसंज्ञितम् / अगच्छदंशेन गुणाभिलाषिणी नवावतारं कमलादिवोत्पलम् / / विभावसुः सारथिनेव वायुना धनव्यपायेन गभस्तिमानिव / बभूव तेनातितरां सुदुःसह कटप्रभेदेन करीव पार्थिवः / / 37 / / नियुज्य तं होमतुरंगरक्षणे धनुर्धरं राजसुतैरनुद्रुतम् / अपूर्णमेकेन शतऋतूपमः शतं ऋतूनामपविघ्नमाप सः // 30 // ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरंगमुत्सृष्टमनर्गलं पुनः। धनु तामग्रतं एव रक्षिणां जहार शक्र: किल गूढविग्रहः / 39 / विषादलुप्तप्रतिपत्ति विस्मितं कुमारसैन्यं सपदि स्थितं च तत् / वसिष्ठधनुश्च यदृच्छयागता श्रुतप्रभावा ददृशेऽथ नन्दिनी।४०। तदङ्गनिस्यन्दजलेन लोचने प्रमृज्य पुण्येन पुरस्कृतः सताम् / अतीन्द्रियेष्वप्युपपन्नदर्शनो बभूव भावेषु दिलोपनन्दनः / / 41 / / स पूर्वतः पर्वतपक्षशातनं ददर्श देवं नरदेवसम्भवः / 20 पुन: पुन: सूतनिषिद्धचापल हरन्तमश्वं रथरश्मिसंयतम् / 42 / शतैस्तमक्षणामनिमेषवृत्तिभिहरि विदित्वा हरिभिश्च वाजिभिः / अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव / 43 / मखांशभाजां प्रथमो मनीषिभिस्त्वमेव देवेन्द्र सदा निगद्यसे / अजस्रदीक्षाप्रयतस्य मद्गुरोः क्रियाविघाताय कथं प्रवर्तसे / 44) 25 त्रिलोकनाथेन सदा मख द्विषस् त्वया नियम्या ननु दिव्यचक्षुषा / 15 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे तृतीयः सर्गः [ 19 स चेत्स्वयं कर्मसु धर्मचारिणां, त्वमन्तरायो भवसि च्युतो विधिः // 45 // तदङ्गमग्र्यं मघवन्महाऋतो - र# तुरंगं प्रतिमोक्तुमर्हसि / 5 पथः श्रुतेर्दर्शयितार ईश्वरा, मलीमसामाददते न पद्धतिम् / / 46 / / इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं, वचो निशम्याधिपतिदिवौकसाम् / निवर्तयामास रथं सविस्मयः, प्रचक्रमे च प्रतिवक्तुत्तरम् / / 47 / / यदात्थ राजन्यकुमार तत्तथा यशस्तु रक्ष्यं परतो यशोधनैः / जगत्प्रकाशं तदशेषमिज्यया, * भवद्गुरुर्लङ्घयितुं ममोद्यतः // 48 / / हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नापरः / 15 तथा विदुर्मी मुनयः शतक्रतु, - द्वितीयगामी नहि शब्द एष नः / / 46 / / अतोऽयमश्वः कपिलानुकारिणा, पितुस्त्वदीयस्य मयापहारितः / अलं प्रयत्नेन तवात्र मा निधाः, - 20 पदं पदव्यां सगरस्य संततेः / / 50 / / ततः प्रहस्यापभयः पुरंदरं, पुनर्बभाषे तुरगस्य रक्षिता / गृहाण शस्त्रं यदि सर्ग एष ते, . न खल्वनिजित्य रघु कृती भवान् / / 51 // 25 स एवमुक्त्वा मघवन्तमुन्मुखः, करिष्यमाणः सशरं शरासनम् / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] काव्यषट्कम् अतिष्ठदालीढविशेषशोभिना, वपुःप्रकर्षेण विडम्बितेश्वरः / / 52 / / रघोरवष्टम्भमयेन पत्रिणा, हदि क्षतो गोत्रभिदप्यमर्षणः / 5 नवाम्बुदानीकमुहूर्तलाञ्छने, धनुष्यमोघं समधत्त सायकम् / / 53 / / दिलीपसूनोः स बृहद्भ जान्तरं, प्रविश्य भीमासुरशोणितोचितः / पपावनास्वादितपूर्वमा शुगः , कुतूहलेनेव मनुष्यशोणितम् // 54 / / हरेः कुमारोऽपि कुमारविक्रमः, . सुरद्विपास्फालनकर्कशाङ्ग लो। भुजे शचीपत्रविशेषकाङ्किते .. स्वनामचिह्न निचखान सायकम् / / 55 / / 15 जहार चान्येन मयूरपत्रिणा, . शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम् / चुकोप तस्मै स भृशं सुरश्रियः, प्रसह्य केशव्यपरोपणादिव / / 56 // तयोरुपान्तस्थितसिद्धसैनिकं, गरुत्मदाशीविष भीमदर्शनैः / बभूव युद्ध तुमुलं जयैषिणो रधोमुखैरूर्ध्वमुखैश्च पत्रिभिः / / 57 / / अतिप्रबन्धप्रहितास्त्रवृष्टिभि स्तमाश्रयं दुष्प्रसहस्य तेजसः / 25 शशाक निर्वापयितुं न वासवः, .. स्वतश्च्युतं वह्निमिवाद्भिरम्बुदः / / 58 / / 20 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ रधुवंशे तृतीयः सर्गः [21 ततः प्रकोष्ठे हरिचन्दनाङ्किते, प्रमथ्यमानार्णवधीरनादिनीम् / रघुः शशाङ्कार्धमुखेन पत्त्रिणा, ___शरासनज्यामलुनाद्विडोजसः / / 56 / / 5 स चापमुत्सृज्य विवृद्धमत्सरः, प्रणाशनाय प्रबलस्य विद्विषः / महीध्रपक्षव्यपरोपणोचितं, स्फूरत्प्रभामण्डलमस्त्रमाददे / / 60 / / रघु शं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सै काश्रुभिः / निमेषमात्रादवधूय त व्यथां, सहोत्थितः सैनिकहर्षनिःस्वनैः // 61 / / तथापि शस्त्रव्यवहारंनिष्ठुरे, विपक्षभावे चिरमस्य तस्थुषः / 15 तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा, पदं हि सर्वत्र गुणनिधीयते / / 62 / / प्रसङ्गमद्रिष्वपि सारवत्तया, न मे त्वदन्येन विसोढमायुधम् / प्रवेहि मां प्रीतमृते तुरंगमा किमिच्छसीति स्फुटमाह वासवः / / 63 / / ततो निषङ्गादसमग्रमुद्धृतं सुवर्णपुङ्खद्युतिरञ्जिताङगुलिम् / नरेन्द्रसूनुः प्रतिसंहरन्नि प्रियंवदः प्रत्यवदत्सुरेश्वरम् / / 64 / / अमोच्यमश्वं यदि मन्यसे प्रभो , ततः समाप्ते विधिनैव कर्मणि / 25 अजस्रदीक्षाप्रयतः स मद्गुरुः, तोरशेषेण फलेन युज्यताम् / / 65 / / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] काव्यषट्कम् यथा च वृत्तान्तमिमं सदोगतस्त्रिलोचनकांशतया दुरासदः / तवैव संदेशहराद्विशांपतिः शृणोति लोकेश तथा विधीयताम् / 66 तथेति कामं प्रतिशुश्रुवान्रघो यथागतं मातलिसारथिर्ययौ / 5 नृपस्य नातिप्रमनाः सदोगृहं, सुदक्षिणासूनुरपि न्यवर्तत / / 67 / / तमभ्यनन्दप्रथमं प्रबोधितः प्रजेश्वरः शासनहारिणा हरेः / परामृशन्हर्षजडेन पाणिना तदीयमग कुलिशवणाङ्कितम् / 68 / इति क्षितीशो नवतिं नवाधिकां महाऋतूनां महनीयशासनः / समारुरुक्षुर्दिवमायुषः क्षये ततान सोपानपरम्परामिव / / 6 / / अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् / मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलव्रतम् / / 70 / / (हरिणी) // 4 // अथ चतुर्थः सर्गः // स राज्यं गुरुणा दत्तं प्रतिपद्याधिक बभौ / दिनान्ते निहितं तेज: सवित्रेव हुताशनः // 1 // दिलीपानन्तरं राज्ये तं निशम्य प्रतिष्ठितम् / पूर्व प्रधूमितो राज्ञां हृदयेऽग्निरिवोत्थितः // 2 / / पुरुहूतध्वजस्येव तस्योन्नयनपङ्क्तयः / नवाभ्युत्थानदर्शिन्यो ननन्दुः सप्रजाः प्रजा: / / 3 / / सममेव समाकान्तं द्वयं द्विरदगामिना / तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलं चारिमण्डलम् // 4 / / छायामण्डललक्ष्येण तमदृश्या किल स्वयम् / 25 पद्मा पद्मातपत्रेण भेजे साम्राज्यदीक्षितम् // 5 / / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे चतुर्थः सर्गः [ 23 परिकल्पितसांनिध्या काले काले च बन्दिषु / स्तुत्यं स्तुतिभिरर्थ्याभिरुपतस्थे सरस्वती / / 6 / / मनुप्रभृतिभिमन्यिभुक्ता यद्यपि राजभिः / तथाप्यनन्यपूर्वेव तस्मिन्नासीद्वसुंधरा // 7 // स हि सर्वस्य लोकस्य युक्तदण्डतया मनः / आददे नातिशीतोष्णो नभस्वा निव दक्षिणः // 8 // मन्दोत्कण्ठाः कृतास्तेन गुणाधिकतया गुरौ / / " फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः / / 6 / / नयविद्भिर्नवे राज्ञि सदसञ्चोपदर्शितम् / 10 पूर्व एवाभवत्पक्षस्तस्मिन्नाभवदुत्तरः // 10 / / पञ्चानामपि भूतानामुत्कर्ष पुपुषुर्गुणाः / नवे तस्मिन्महीपाले सर्वं नवमिवाभवत् // 11 / / यथा प्रह्लादनाचन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा / तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् / / 12 / / 15 कामं कर्णान्तविश्रान्ते विशाले तस्य लोचने / चक्षुष्मत्ता तु शास्त्रेण सूक्ष्मकार्यार्थदशिना / / 13 / / लब्धप्रशमनस्वस्थमथैनं समुपस्थिता / पार्थिवश्रीद्वतीयेकाजशरत्पङ्कजलक्षणा // 14 / / निर्वृष्टलघुभिर्मेधैर्मुक्तवर्मा सुदुःसहः / 20 प्रतापस्तस्य भानोश्च युगपद्व्यानशे दिशः / / 15 / / वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुज॑त्रं राघुर्दधौ / प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकामुकौ // 16 / / पुण्डरीकातपत्रस्तं विकसत्काशचामरः / ऋतुविडम्बयामास न पुनः प्राप तच्छियम् // 17 / / 25 * प्रसादसुमुखे तस्मिश्चन्द्रे च विशदप्रभे / तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरासीत्समरसा द्वयोः // 18 / / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] काव्यषटकम् हंसश्रेणीषु तारासु कुमुद्वत्सु च वारिषु / / विभूतयस्तदीयानां पर्यस्ता यशसामिव // 16 / / इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम् / प्राकुमारकथोद्धातं शालिगोप्यो जगुर्यशः // 20 / / 5 प्रससादोदयादम्भः कुम्भयोनेर्महौजसः / रघोरभिभवाशङ्कि चुक्षुभे द्विषतां मनः / / 21 / / मदोदग्राः ककुमन्तः सरितां कूलमुद्रुजाः / / / लीलाखेलमनुप्रापुमंहोक्षास्तस्य विक्रमम् / / 22 / / प्रसवैः सप्तपर्णानां मदगन्ध्रिभिराहताः / 10 असूययेव तन्नागाः सप्तधैव प्रसुत्र वुः // 23 / / सरितः कुर्वती गाधाः पथश्चाश्यानकर्दमान् / यात्रायै चोदयामास तं शक्तेः प्रथमं शरत् / / 24 / / तस्मै सम्यग्धुतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ / प्रदक्षिणाचियाजेन हस्तेनेव जयं ददौ // 25 / / 15 स गुप्तमूलप्रत्यन्तः शुद्धपाणिरयान्वितः / षडिवधं बलमादाय प्रतस्थे दिग्जिगीषया // 26 / / अवाकिरन्वयोवृद्धास्तं लाजैः पौरयोषितः / . पृषतैर्मन्दरोद्ध तैः क्षीरोर्मय इवाच्युतम् . / / 27 / / स ययौ प्रथमं प्राची तुल्यः प्राचीनबहिषा / अहितान निलोद्ध तैस्तर्जयन्निव केतुभिः / / 28 / / रजोभिः स्यन्दनोद्ध तैर्गजैश्च धनसंनिभैः / भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन्व्योमेव भूतलम् / / 26 / / प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् / , ययौ पश्चाद्रथादीति चतुःस्कन्धेव सा चमूः / / 30 / / 25 मरुपृष्ठान्युदम्भांसि नाव्याः सुप्रतरा• नदीः / विपिनानि प्रकाशानि शक्तिमत्त्वाञ्चकार सः / / 31 / / 20 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतुर्थः सर्गः / [ 25 स सेनां महतीं कर्षन्पूर्वसागरगामिनीम् / / बभौ हरजटाभ्रष्टां गङ्गामिव भगीरथः // 32 // त्याजितैः फलमुत्खातैर्भग्नैश्च बहुधा नपैः / तस्यासीदूल्बणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः / / 33 / / 5 पौरस्त्यानेवमाक्रामस्तांस्ताञ्जनपदाञ्जयी / प्राप तालीवनश्याममुपकण्ठं महोदधेः / / 34 / / अनम्राणां समूद्धर्तु स्तस्मात्सिन्धुरयादिव / आत्मा संरक्षितः सुह्म वत्तिमाश्रित्य वैतसीम् // 35 // वङ्गानत्खाय तरसा नेता नौसाधनोद्यतान् / 10 निचखान जयस्तम्भान्गङ्गास्रोतोन्तरेषु सः / / 36 / / ग्रापादपद्मप्रणताः कलमा इव ते रघुम् / फलैः संवर्धयामासुरुत्खातप्रतिरोपिताः / / 37 / / स तीर्वा कपिशां सैन्यैर्धद्धद्विरदसेतुभिः / उत्कलादर्शितपथः कलिङ्गाभिमुखो ययौ / / 38 / / 15 स प्रतापं महेन्द्रस्य मूनि तीक्ष्णं न्यवेशयत् / अङकुशं द्विरदस्येव यन्ता गम्भीरवेदिनः / / 36 / / प्रतिजग्राह कालिङ्गस्तमस्त्रैर्गजसाधनः / पक्षच्छेदोद्यतं शकं शिलावर्षीव पर्वतः / / 40 / / द्विषां विषह्य काकुत्स्थस्तत्र नाराचंदुर्दिनम् / 20 सन्मङ्गलस्नात इव प्रतिपेदे जवश्रियम् // 41 / / ताम्बूलीनां दलैस्तत्र रचितापानभूमयः / नारिकेलासवं योधाः शात्रवं च पपुर्यशः / / 42 / / गृहीतप्रतिमुक्तस्य स धर्मविजयी नृपः / श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम् / / 43 / / 25 ततो वेलातटेनैव फलवत्पूगमालिना / अगस्त्याचरितामाशामनाशास्यजयो ययौ // 44 / / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] चतुर्थः सर्गः / स सैन्यपरिभोगेण गजदानसुगन्धिना / . . कावेरी सरितां पत्युः शङ्कनीयामिवाकरोत् // 45 / / बलरध्युषितास्तस्य विजिगीषोर्गताध्वनः / मारीचोद्भ्रान्तहारीता मलयागुरुपत्यकाः // 46 / / 5 ससञ्जुरश्वक्षुण्णानामेलानामुत्पतिष्णवः / तुल्यगन्धिषु मत्तेभकटेषु फलरेणवः // 47 / / . भोगिवेष्टनमार्गेषु, चन्दनानां समपितम् / / नास्रसत्करिणां ग्रैवं त्रिपदीछेदिनामपि // 48 / / दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि / तस्यामेव रघोः पाण्डयाः प्रतापं न विषेहिरे // 46 / / ताम्रपर्णीसमेतस्य मुक्तासार महोदधेः / ते निपत्य ददुस्तस्मै यशः स्वमिव संचितम् // 50 // स निविश्य यथाकामं तटेष्वालीनचन्दनौ / स्तनाविव दिशस्तस्याः शैलौ मलयदर्दुरौ // 51 / / 15 असह्यविक्रमः सह्य दूरान्मुक्तमुदन्वता / नितम्बमिव मेदिन्याः स्रस्तांशुकमलद्धयत् // 52 / / तस्यानीकविसर्पद्भिरपरान्तजयोद्यतैः / रामास्त्रोत्सारितोऽप्यासीत्सह्यलग्न इवार्णवः // 53 / / भयोत्सृष्टविभूषाणां तेन केरलयोषिताम् / 20 अलकेषु चमूरेणुश्चूर्णप्रतिनिधीकृतः // 54 / / मुरलामारुतोद्ध तमगमत्कतकं रजः / / तद्योधवारबाणानामयत्नपटवासताम् // 55 / / अभ्यभूयत वाहानां चरतां गात्रसिञ्जितैः / वर्मभिः पवनोद्ध तराजतालीवनध्वनिः // 56 / / 25 खजूरीस्कन्धनद्धानां मदोद्गारसुगन्धिषु / कटेष करिणां पेतुः पुनागेभ्यः शिलीमुखाः / / 57 / / / 54 / / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः / . [ 27 अवकाशं किलोदवानरामायाभ्यथितो ददौ / अपरान्तमहीपालव्याजेन रघवे करम् // 58 / / मत्तेभरदनोत्कीर्णव्यक्तविक्रमलक्षणम् / / त्रिकूटमेव तत्रोच्चर्जयस्तम्भं चकार सः // 56 / / 5 पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना / इन्द्रियाख्यानिव रिपूस्तत्त्वज्ञानेन संयमी // 60 // यवनीमुखपद्यानां सेहे मधुमदं न सः / बालातपमिवाब्जानामकालजलदोदयः / / 61 // सङ्ग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्त्यैरश्वसाधनैः / शाकूजितविज्ञेयप्रतियोघे रजस्यभूत् // 2 // भल्लापवजितस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीम् / तस्तार सरघाव्याप्तैः . स क्षौद्रपटलैरिव // 63 / / अपनीतशिरस्त्राणाः शेषास्तं शरणं ययुः / प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मनाम् // 64 / / विनयन्ते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमम् / आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलयभूमिषु // 65 / / ततः प्रतस्थे कौबेरी भास्वानिव रघुर्दिशम् / शरैरुस्र रिवोदीच्यानुद्धरिष्यन्रसानिव // 66 / / विनीताध्वश्रमास्तस्य सिन्धुतीरविचेष्टनैः / 20 दुधुवुर्वाजिनः स्कन्धाँल्लग्नकुकुमकेसरान् // 67 / / तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् / कपोलपाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितम् / / 68 / / काम्बोजाः समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वराः / गजालानपरिक्लिष्टरक्षोटैः सार्धमानताः // 66 / / 25 तेषां सदश्वभूयिष्ठास्तुङ्गा द्रविणराशयः / उपदा विविशुः शश्वनोत्सेकाः कोसलेश्वरम् // 70 // Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] ___ चतुर्थः सर्गः / ततो गौरीगुरु शैलमारुरोहाश्वसाधनः / वर्धयन्निव तत्कूटानुद्ध तैर्धातुरेणुभिः / / 71 / / शशंस तुल्यसत्त्वानां सैन्यघोषेऽप्यसंभ्रमम् / गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्यावलोकितम् // 72 / / 5 भूर्जेषु मर्मरीभूताः कीचकध्वनिहेतवः / / गङ्गाशीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरे // 73 / / विशश्रमुर्नमेरूणां 'छायास्वध्यास्य सैनिकाः / दृषदो वासितोत्सङ्गा निषण्णमृगनाभिभिः / / 74 / / सरलासक्तमातङ्गवेयस्फुरितत्विषः / 10 अासन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाः / / 75 / / तस्योत्सृष्टनिवासेषु कण्ठरज्जुक्षतत्वचः / गजवर्म किरातेभ्यः शशंसुर्देवदारवः // 76 / / तत्र जन्यं . रघोोरं पर्वतीयैर्गणरभूत् / नाराचक्षेपणीयाश्मनिष्पेषोत्पतितानलम् // 77 / / 15 शरैरुत्सवसंकेतान्स कृत्वा विरतोत्सवान् / जयोदाहरण बाह्वोर्गापयामास किन्नरान् // 78 / / परस्परेण विज्ञातस्तेषूपायनपाणिषु / राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा / / 76 / / तत्राक्षोभ्यं यशोराशि निवेश्यावरुरोह सः / / पौलस्त्यतुलितस्याद्रेरादधान इव ह्रियम् / / 80 // चकम्पे तीर्णलौहित्ये तस्मिन्प्राग्ज्योतिषेश्वरः / तद्गजालानतां प्राप्त सह कालागुरुद्रुमैः / / 81 // न प्रसेहे स रुद्धार्कमधारावर्षदिनम् / / रथवमरजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम् / / 82 / / 25 तमीशः कामरूपाणामत्याखण्डलविक्रमम् / भेजे भिन्नकट गैरन्यानुपरुरोध यैः . / / 83 / / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः / [ 26 कामरूपेश्वरस्तस्य हेमपीठाधिदेवताम् / रत्नपुष्पोपहारेण छायामानर्च पादयोः / / 84 / / इति जित्वा दिशो जिष्णुर्यवर्तत रथोद्धतम् / रजो विश्रामयन्राज्ञां छत्त्रशून्येषु मौलिषु / / 85 / / 5 स विश्वजितमाजह यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् / आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव / / 86 / / सत्त्रान्ते. सचिवसखः पुरस्क्रियाभि गुर्वीभिः शमितपराजयव्यलीकान् / काकुत्स्थश्चिरविरहोत्सुकावरोधा१० राजन्यान्स्वपुरनिवृत्तयेऽनुमेने // 87 / / ( प्रहर्षिणीयम् ) ते रेखाध्वजकुलिशातपत्रचिह्न ____सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम् / प्रस्थानप्रणतिभिरङ्गुलीषु चक्रु मौलिस्रक्च्युतमकरन्दरेणुगौरम् / / 88 // 51 / / इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये रघुदिग्विजयो नाम चतुर्थः सर्गः / 4 / / // 5 // अथ पञ्चमः सर्गः॥ तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं निःशेषविश्राणितकोषजातम् / उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्स: प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः / / 1 / / स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्पात्रे निधायार्थ्यमनर्घशीलः / श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेयः / / 2 / / तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञस्तपोधनं मानधनाग्रयायी। विशांपतिविष्टरंभाजमारात्कृताञ्जलिः कृत्यविदित्युवाच / 3 / अप्यग्रणीमन्त्रकृतामृषीणां कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते / 25 यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मे / / 4 / / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पञ्चमः सर्गः / कायेन वाचा मनसापि शश्वद्यत्संभृतं वासवधयलोपि / आपाद्यते न व्ययमन्तरायः कच्चिन्महर्षे स्त्रिविधं तपस्तत् / / आधारबन्धप्रमुखैः प्रयत्नैः संवधितानां सुतनिविशेषम् / कञ्चिन्न वाय्वादिरुपप्लवो वः श्रमच्छिदामाश्रमपादपानाम् / 6 / 5 क्रियानिमित्तेष्वपि वत्सलत्वादभग्नकामा मुनिभिः कुशेषु / . तदङ्कशय्याच्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः।७। निर्वर्त्यते यनियमाभिषेको, येभ्यो निवापाञ्जलयः पितृणाम् / तान्युञ्छषष्ठाङ्कितसैकतानि, शिवानि वस्तीर्थजलानि कञ्चित् // 8 / / नीवारपाकादि कडंगरीयैरामृश्यते जानपदैर्न कच्चित् / कालोपपन्नातिथिकल्प्यभागं वन्यं, शरीरस्थितिसाधनं वः / / अपि प्रसन्न न महर्पिणा त्वं सम्यग्विनीयानुमतो गृहाय / कालो ह्ययं संक्रमितुं द्वितीयं सर्वोपकारक्षममाश्रमं ते // 10 // 15 तवाहतो नाभिगमेन तृप्तं, मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे / अप्याज्ञया शासितुरात्मना वा, प्राप्तोऽसि संभावयितुं वनान्माम् / / 11 / / इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य रघोरुदारामपि गां निशम्य / 20 स्वार्थोपपत्ति प्रति दुर्बलाशस्तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः।१२। सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्नाथे कुतस्त्वय्य शुभं प्रजानाम् / सूर्ये त पत्यावरणाय दृष्टे: कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा / 13 / भक्तिः प्रतीक्ष्येषु कुलोचिता ते पूर्वान्महाभाग तयातिशेषे / व्यतीतकालस्त्वहमभ्युपेतस्त्वामथिभावादिति मे विषादः / 14 / 25 शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्नाभासि तीर्थप्रतिपादितद्धिः / पारण्यकोपात्तफलप्रसूतिः स्तम्बेन नीवार इवावशिष्ट. // 15 // Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः / स्थाने भवानेकनराधिपः सन्नचिनत्वं मखजं व्यनक्ति / पर्यायपीतस्य सुरैहिमांशोः कलाक्षयः श्लाघ्यतरो हि वृद्धः।१६। तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो गुर्वर्थमाहर्तु महं यतिष्ये / स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भ शरद्धनं नार्दति चातकोऽपि / 17 / 5 एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं शिष्यं महर्षेन पतिनिषिध्य / किं वस्तु विद्वन्गुरवे प्रदेयं त्वया कियद्वेति तमन्वयुङ्क्त / / 18 / / ततो यथावद्विहिताध्वराय तस्मै स्मयावेशविजिताय / वर्णाश्रमारणां गुरवे स वर्णो विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे / 16 / समाप्तविद्येन मया महर्षिविज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै / 10 स मे चिरायास्खलितोपचारां तां भक्तिमेवागरणयत्पुरस्तात् 20 निर्बन्धसंजातरुषार्थकार्यमचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः। वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति / 21 / . सोऽहं सपर्याविधिभाजनेन मत्वा भवन्तं प्रभुशब्दशेषम् / अभ्युत्सहे संप्रति नोंपरोद्ध मल्पेतरत्वाच्छ तनिष्क्रयस्य / 22 / 15 इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्तिरावेदितो वेदविदां वरेण / एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं जगाद भूयो जगदेकनाथः / / 23 / / गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा रघोः सकाशादनवाप्य कामम् / गतो वदान्यान्तरभित्ययं मे मा भूत्परीवादनवावतारः / / 24 // स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्र्यगारे / द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढ़मर्हन्यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम् / / 25 / / तथेति तस्यावितथं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्संगरमग्रजन्मा। गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य निष्कष्टुमर्थं चकमे कुबेरात् / 26 / वसिष्ठमन्त्रोक्षरणजात्प्रभावाददन्वदाकाशमहीधरेष / मरुत्सखस्येव बलाहकस्य गतिविजघ्ने न हि तद्रथस्य // 27 / / 25 अथाधिशिश्ये प्रयत: प्रदोषे रथं रघुः कल्पितशस्त्रगर्भम् / सामन्तसंभावनयैव धीरः कैलासनाथं तरसा जिगीषुः // 28 // Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] पञ्चमः सर्गः / प्रातःप्रयाणाभिमुखाय तस्म सविस्मयाः कोशगृहे नियुक्ताः। हिरण्मयी कोषगृहस्य मध्ये वृष्टि शशंसुः पतितां नभस्तः / 26 / तं भूपतिर्भासुरहेमराशि लब्धं कुबेरादभियास्यमानात् / दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम् / 30 / .5 जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ। गुरुप्रदेयाधिकनिःस्पृहोऽर्थी नृपोऽथिकामादधिकप्रदश्च / / 31 // अथोष्ट्रवामीशतवाहितार्थं प्रजेश्वरं प्रीतमना महर्षिः / स्पृशन्करेणानतपूर्वक़ायं संप्रस्थितो वाचमुवाच कौत्सः / 32 / किमत्र चित्रं यदि कामसूर्भूर्वृत्ते स्थितस्याधिपतेः प्रजानाम् / 10 अचिन्तनीयस्तु तव प्रभावो मनीषितं द्यौरपि येन दुग्धा / 33 / प्राशास्यमन्यत्पुनरक्तभूतं श्रेयांसि सर्वाप्यधिजन्मुषस्ते / पुत्रं लभस्वात्मगुणानुरूपं भवन्तमीड्य भवतः पितेव // 34 // इत्थं प्रयुज्याशिषमग्रजन्मा राज्ञे प्रतीयाय गुरोः सकाशम् / राजापि लेभे सुतमाशु तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः / 35 // 15 ब्राह्म मुहूर्ते किल तस्य देवी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् / अत पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार 36 रूपं तदोजस्वि तदेव वीर्यं तदेव नैसर्गिकमुन्नतत्वम् / न कारणात्स्वाद्विभिदे कुमारः प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात् 37 उपात्तविद्यं विधिवद्गुरुभ्यस्तं यौवनोद्भेदविशेषकान्तम् / श्रीः साभिलाषापि गुरोरनुज्ञां धीरेव कन्या पितुराचकाङ्क्ष 38 अथेश्वरेण ऋथकैशिकानां स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्याः। प्राप्तः कुमारानयनोत्सुकेन भोजेन दूतो रघवे विसृष्ट: / 36 / तं श्लाघ्यंसंबन्धमसौ विचिन्त्य दारक्रियायोग्यदशं च पुत्रम् / प्रस्थापयामास ससैन्यमेनमृद्धां विदर्भाधिपराजधानीम् // 40 // 25 तस्योपकार्यारचितोपचारा वन्येतरा जानपदोपदाभिः / मार्गे निवासा मनुजेन्द्रसूनोर्बभूवुरुद्यानविहारकल्पाः // 41 / / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चमः सर्गः / [ 33 स नर्मदारोधसि सीकरा;मरुद्भिरानतितनक्तमाले / निवेशयामास विलचिताध्व-क्लान्तं रजोधूसरकेतु सैन्यम् 42 अथोपरिष्टाभ्रमरैभ्रंमद्भिः प्राक्सूचितान्यःसलिलप्रवेशः। निधौतदानामलगण्डभित्तिर्वन्यः सरित्तो गज उन्ममज्ज / 43 / 5 निःशेषविक्षालितधातुनापि वप्रक्रियामृक्षवतस्तटेषु / नीलोर्ध्वरेखाशवलेन शंसन्दन्तद्वयेनाश्मविकुण्ठितेन // 44 / / संहारविक्षेपलघुक्रियेण हस्तेन तीराभिमुखः सशब्दम् / . बभौ स भिन्दन्बृहतस्तरंगान्वार्यर्गलाभङ्ग इव प्रवृत्तः / / 45 / / शैलोपमः शैवलमजरीणां जालानि कर्षन्न रसा स पश्चात् / 10 पूर्व तदुत्पीडितवारिराशिः सरित्प्रवाहस्तटमुत्ससर्प / / 46 // तस्यैकनागस्य कपोलभित्त्योर्जलावगाहक्षणमात्रशान्ता। वन्येतरानेकपदर्शनेन पुनदिदीपे मददुदिनश्रीः / / 48 / / सप्तच्छदक्षीरकटुप्रवाहमसह्यमाघ्राय मदं तदीयम् / विलचिताधोरणतीव्रयत्राः सेनांगजेन्द्रा विमुखा बभूवुः / 48 / 15 स च्छिन्नबन्धद्रुतयुग्यशून्यं भग्नाक्षपर्यस्तरथं क्षणेन / रामापरित्राणविहस्तयोधं सेनानिवेशं तुमुलं चकार / / 49 / / तमापतन्तं नृपतेरवध्यो वन्यः करीति श्रुतवान्कुमारः / निवर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान नात्यायतकृष्टशाङ्ग : 50 स विद्धमात्रः किल नागरूपमुत्सृज्य तद्विस्मितसैन्यदृष्टः / स्फुरत्प्रभामण्डलमध्यवर्ति कान्तं वपुर्योमचरं प्रपेदे / / 51 // अथ प्रभावोपनतैः कुमारं कल्पद्रुमोत्थैरवकीर्य पुष्पैः / उवाच वाग्मी दशनप्रभाभिः संवर्धितोरःस्थलतारहारः / 52 / मतङ्गशापादवलेपमूलादवाप्तवानस्मि मतङ्गजत्वम् / अवेहि गन्धर्वपतेस्तनूजं प्रियंवदं मां प्रियदर्शनस्य / / 53 / / 25 स चानुनीतः प्रणतेन पश्चान्मया महर्षि दुतामगच्छत् / उष्णत्वमग्न्यातपसंप्रयोगाच्छैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य / 54 / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] रघुवंशे पञ्चमः सर्गः / इक्ष्वाकुवंशप्रभवो यदा ते भेत्स्यत्यजः कुम्भमयोमुखेन / संयोक्ष्यसे स्वेन वपुर्महिम्ना तदेत्यवोचत्स तपोनिधिर्माम् / 55 / संमोचितः सत्त्ववता त्वयाहं शापाञ्चिरप्रार्थितदर्शनेन / प्रतिप्रियं चेद्भवतो न कुर्यां वृथा हि मे स्यात्स्वपदोपलब्धिः 56 संमोहनं नाम सखे ममास्त्रं प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम् / . गान्धर्वमादत्स्व यतः प्रयोक्त न चारिहिंसा विजयश्च हस्ते 57 अलं ह्रिया मां प्रति यन्मुहूर्तं दयापरोऽभूः प्रहरन्नपि त्वम् / तस्मादुपच्छन्दयति प्रयोज्यं मयि त्वया न प्रतिषेधरौक्ष्यम् 58 तथेत्युपस्पृश्य पयः पवित्रं, सोमोद्भवायाः सरितो नसोमः / उदङ्मुखः सोऽस्त्रविदस्त्रमन्त्रं, ___ जग्राह तस्मानिगृहीतशापात् // 56 / / एवं तयोरध्वनि दैवयोगादासेदुषोः सख्यमचिन्त्यहेतु / एको ययौ चैत्ररथप्रदेशान्सौराज्यरम्यानपरो विदर्भान् / / 6 / / 15 तं तस्थिवांसं नगरोपकण्ठे तदागमारूढगुरुप्रहर्षः / प्रत्युज्जगाम ऋथकैशिकेन्द्रश्चन्द्रं प्रवृद्धोमिरिवोमिमाली / 61 / प्रवेश्य चैनं पुरमग्रयायी नीचैस्तथोपाचरदर्पितश्रीः / मेने यथा तत्र जनः समेतो वैदर्भमागन्तुमजं गृहेशम् / / 62 / / तस्याधिकारपुरुषः प्रणतः प्रदिष्टां, प्राग्द्वारवेदिविनिवेशितपूर्णकुम्भाम् / रम्यां रघुप्रतिनिधिः स नवोपकार्या, बाल्यात्परामिव दशां मदनोऽध्युवास / / 63 / / (वसंततिलका) तत्र स्वयंवरसमाहृतराजलोकं, कन्याललाम कमनीयमजस्य लिप्सोः / भावावबोधकलुषा दयितेव रात्रौ, निद्रा चिरेण नयनाभिमुखी बभूव / / 64 / / 20 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चमः सर्गः / [ 35 तं कर्णभूषणनिपीडितपीवरांस, शय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम् / सूतात्मजाः सवयसः प्रथितप्रबोधं, प्राबोधयन्न षसि वाग्भिरुदारवाचः / / 65 / / रात्रिर्गता मतिमतां वर मुञ्च शय्यां, धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगतो विभक्ता / तामेकतस्तव बिभर्ति गुरुविनिद्र . स्तस्या भवानपरधुर्यपदावलम्बी / / 66 / / निद्रावशेन भवताप्यनवेक्षमाणा, पर्युत्सुकत्वमबला निशि खण्डितेव / लक्ष्मीविनोदयति येन दिगन्तलम्बी, सोऽपि त्वदाननरुचि विजहाति चन्द्रः // 67 / / तद्वल्गुना युगपदुन्मिषितेन ताव ___ त्सद्यः परस्परतुलामधिरोहतां वे / प्रस्पन्दमानपरुषतरतारमन्त श्चक्षुस्तव प्रचलितभ्रमरं च पद्मम् / / 68 / / वन्ताच्छ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां, संसृज्यते सरसिजैररुणांशुभिन्नः / स्वाभाविकं परगुणेन विभातवायुः सौरभ्यमीप्सुरिव ते मुखमारुतस्य // 69 / / ताम्रोदरेषु पतितं तरुपल्लवेषु, निधौतहारगुलिकाविशदं हिमाम्भः / आभाति लब्धपरभागतयाधरोष्ठे, लीलास्मितं सदशनाचिरिव त्वदीयम् / / 70 / / यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानु रह्नाय तावदरुणेन तमो निरस्तम् / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] रघुवंशे पञ्चमः सर्गः / आयोधनाग्रसरतां त्वयि वीर याते, . . किं वा रिपूस्तव गुरुः स्वयमुच्छिनत्ति // 71 / / शय्यां जहत्युभयपक्षविनीतनिद्राः, स्तम्बेरमा मुखरशङ्खलकर्षिणस्ते / येषां विभान्ति तरुणारुणरागयोगा द्भिन्नाद्रिगरिकतटा इव दन्तकोशाः // 72 / / दीर्घष्वमी नियमिताः पटमण्डपेषु, ' निद्रां विहाय वनजाक्ष वनायुदेश्याः। वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति, * पुरोगतानि, लेह्यानि सैन्धवशिलाशकलानि वाहाः / / 73 / / भवति विरलभक्तिानपुष्पोपहारः, स्वकिरणपरिवेषोद्भदशून्याः प्रदीपाः / अयमपि च गिरं नस्त्वत्प्रबोधप्रयुक्तामनुवदति शुकस्ते मजुवाक्पञ्जरस्थः ।७४।(मालिनी) इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रैः कुमारः, . सपदि विगतनिद्रस्तल्पमुज्झांचकार / मदपटुनिनद्भिर्बोधितो राजहंसः, सुरगज इव गाङ्ग सैकतं सुप्रतीकः / / 75 // अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टं, दिवसमुखोचितमञ्चिताक्षिपक्ष्मा / कुशलविरचितानुकूलवेषः, क्षितिपसमाजमगात्स्वयंवरस्थम् // 76 / / (पुष्पिताग्रा) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये अजस्वयंवराभिगमनो नाम पञ्चमः सर्गः / / 5 / / xx Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षष्ठः सर्गः / [ 37 // 6 // अथ षष्टः सर्गः।। स तत्र मञ्चेषु मनोज्ञवेषा____ सिहासनस्थानुपचारवत्सु / वैमानिकानां मरुतामपश्य दाकृष्टलीलान्नरलोकपालान् ।१।(उपजातिः) रतेग हीतानुनयेन कामं प्रत्यपितस्वाङ्गमिवेश्वरेण / काकुत्स्थमालोकयतां नृपाणां मनो बभूवेन्दुमतीनिराशम् / 2 / वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः वलप्तेन सोपानपथेन मञ्चम् / शिलाविभङ्ग मगराजशावस्तुङ्गनगोत्सङ्गमिवारुरोह / / 3 / / 10 परार्ध्यवर्णास्तरणोपपन्नमासेदिवान्रत्नवदासनं सः / भूयिष्ठमासीदुपमेकान्तिर्मयूरपृष्ठायिणा गुहेन // 4 // तासु श्रिया राजपरम्परासु प्रभाविशेषोदयदुनिरीक्ष्यः / सहस्रधात्मा व्यरुचद्विभक्तः पयोमुचां पङ्क्तिषु विद्युतेव / / 5 / / तेषां महार्हासनसंस्थितानामुदारनेपथ्य भृतां स मध्ये / 15 रराज धाम्ना रघुसूनुरेव कल्पद्रुमाणामिव पारिजातः / / 6 / / नेत्रव्रजाः पौरजनस्य तस्मिन्विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः / मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा गन्धद्विपे वन्य इव द्विरेफाः / / 7 / / अथ स्तुते बन्दिभिरन्वयज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके / संचारिते चागुरुसारयोनौ धूपे समुत्सर्पति वैजयन्तीः / / 8 / / पुरोपकण्ठोपवनाश्रयाणां कलापिनामुद्धतनृत्यहेतौ। प्रध्मातशङ्ख परितो दिगन्तांस्तूर्यस्वने मूर्च्छति मङ्गलार्थे / 9 / मनुष्यवाह्य चतुरस्रयानमध्यास्य कन्या परिवारशोभि / विवेश मञ्चान्तरराजमार्ग पतिवरा क्लुप्तविवाहवेषा / 10 / तस्मिन्विधानातिशये विधातुः कन्यामये नेत्रशतैकलक्ष्ये / 25 निपेतुरन्तःकरणैर्नरेन्द्रा देहैः स्थिताः केवलमासनेषु / / 11 / / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] रघुवंशे षष्ठः सर्गः / तां प्रत्यभिव्यक्तमनोरथानां महीपतीनां प्रणयाग्रदूत्यः / प्रवालशोभा इव पादपानां शृङ्गारचेष्टा विविधा बभूवुः / 12 / कश्चित्कराभ्यामुपगूढनालमालोलपत्राभिहतद्विरेफम् / रजोभिरन्तःपरिवेषबन्धि लीलारविन्दं भ्रमयांचकार / / 13 / / 5 विस्रस्तमंसादपरो विलासी रत्नानुविद्धाङ्गदकोटिलग्नम् / . प्रालम्बमुत्कृष्य यथावकाशं निनाय साचीकृतचारुवक्त्रः / 14 / आकुञ्चिताग्रागुलिना ततोऽन्यः किंचित्समावजितनेत्रशोभः / तिर्यग्विसंसर्पिनखप्रभेण, , . ___पादेन हैमं विलिलेख पीठम् / / 15 // निवेश्य वामं भुजमासनार्धे तत्संनिवेशादधिकोन्नतांसः / कश्चिद्विवृत्तत्रिकभिन्नहारः सुहृत्समाभाषणतत्परोऽभूत् / 16 / विलासिनीविभ्रमदन्तपत्रमापाण्डुरं केतकबहमन्यः / प्रियानितम्बोचितसंनिवेशैविपाटयामास युवा नखात्रैः / / 17 / / 15 कुशेशयाताम्रतलेन कश्चित्करेण रेखाध्वजलाञ्छनेन / रत्नाङ्गुलीयप्रभयानुविद्धानुदीरयामास सलीलमक्षान् / / 18 / / कश्चिद्यथाभागमवस्थितेऽपि स्वसंनिवेशाय तिलङ्गिनीव / वज्रांशुगर्भाङ्गुलिरन्ध्रमेकं व्यापारयामास करं किरीटे / 19 / ततो नृपाणां श्रुतवृत्तवंशा पुंवत्प्रगल्भा प्रतिहाररक्षी / प्राक्संनिकर्ष मगधेश्वरस्य नीत्वा कुमारीमवदत्सुनन्दा / / 20 / / असौ शरण्यः शरणोन्मुखानामगाधसत्त्वो मगधप्रतिष्ठः / राजा प्रजारजनलब्धवर्णः परंतपो नाम यथार्थनामा // 21 // कामं नृपाः सन्तु सहस्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम् / नक्षत्रताराग्रहसंकुलापि ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः / / 22 / / 25 क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्रमाहूतसहस्रनेत्रः। शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान्मन्दारशून्यानलकांश्चकार 23 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षष्ठः सर्गः / [ 39 अनेन चेदिच्छसि गृह्यमाणं पाणि वरेण्येन कुरु प्रवेशे / प्रासादकातायनसंश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुराङ्गनानाम् / 24 / एवं तयोक्त तमवेक्ष्य किंचिद्विस्र सिदूर्वाङ्कमधूकमाला / ऋजुप्रणाम क्रिययैव तन्वी प्रत्यादिदेशैनमभाषमाणा / / 25 / / 5 तां सैव वेत्रग्रहणे नियुक्ता राजान्तरं राजसुतां निनाय / समीरणोत्थेव तरङ्गलेखा पद्मान्तरं मानसराजहंसीम् / / 26 / / जगाद चैनामयमङ्गनाथः सुराङ्गनाप्राथितयौवनश्रीः / विनीतनागः किल सूत्रकारैरैन्द्रं पदं भूमिगतोऽपि भुङ्क्ते 27 अनेन पर्यासयताश्रुबिन्दून्मुक्ताफलस्थूलतमान्स्तनेषु / 10 प्रत्यर्पिताः शत्रुविलासिनीनामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः / 28 / निसर्गभिन्नास्पदमेकसंस्थ ___ मस्मिन्द्वयं श्रीश्च सरस्वती च / कान्त्या गिरा सूनृतया च योग्या, त्वमेव कल्याणि तयोस्तृतीया // 29 / / प्रथाङ्गराजादवतार्य चक्षु- . हीति जन्यामवदत्कुमारी / नासौ न काम्यो न च वेद सम्य- ग्द्रष्टुं न सा भिन्नचिहि लोकः // 30 // ततः परं दुःप्रसहं द्विषद्भिर्नु पं. नियुक्ता प्रतिहारभूमौ / 20 निदर्शयामास विशेषदृश्यमिन्दं नवोत्थानमिवेन्दुमत्यै / / 31 / / अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहु ___विशालवक्षास्तनुवृत्तमध्यः / आरोप्य चक्रभ्रममुष्णतेजा... स्त्वष्ट्रेव यत्नोल्लिखितो विभाति / / 32 / / अस्य प्रयाणेषु समग्रशक्ते रग्रेसरैर्वाजिभिरुत्थितानि / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. रघुवंशे षष्ठः सर्गः। 5 तमित्रप - कुर्वन्ति सामन्तशिखामणीनां . प्रभाप्ररोहास्तमयं. रजांसि // 33 // असौ महाकालनिकेतनस्य / वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः। तमिस्रपक्षेऽपि सह प्रियाभि योत्स्वावतो निर्विशति प्रदोषान् / / 34 / / अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते / सिप्रातरङ्गानिलकम्पितासु विहर्तु मुद्यानपरम्परासु / / 35 / / तस्मिन्नभिद्योतितबन्धुपद्म . . प्रतापसंशोषितशत्रुपके / बवन्ध सा नोत्तमसौकुमार्या कुमुद्वती भानुमतीव भावम् // 36 / / तामग्रतस्तामरसान्तराभा मनूपराजस्य गुणैरनूनाम् / 15 विधाय सृष्टि ललितां विधातु जगाद भूयः सुदतीं सुनन्दा // 37 / / सङ्ग्रामनिर्विष्टसहस्रबाहुरष्टादशद्वीपनिखातयूपः / अनन्यसाधारणराजशब्दो बभूव योगी किल कार्तवीर्यः / / 38 / / अकार्यचिन्तासमकालमेव प्रादुर्भवंश्चापधरः पुरस्तात् / अन्तःशरीरेष्वपि यः प्रजानां प्रत्यादिदेशाविनयं विनेता // 36 // ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन यस्य विनिःश्वसद्वक्त्रपरम्परेण / कारागृहे निजितवासवेन लङ्केश्वरेणोषितमा प्रसादात् // 40 // तस्यान्वये भूपतिरेष जातः प्रतीप इत्यागमवद्धसेवी। येन श्रिय: संश्रयदोषरूढं स्वभावलोलेत्ययशः प्रमृष्टम् // 41 / / 25 आयोधने कृष्णगति सहायमवाप्य यः क्षत्रियकालरात्रिम् / धारां शितां रामपरश्वधस्य संभावयत्युत्पलपत्रसाराम् // 42 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षष्ठः सर्गः ] [ 41 अस्याङ्कलक्ष्मीर्भव- दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकाञ्चीम् / प्रासादजालर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः / 43 / तस्याः प्रकामं प्रियदर्शनोऽपि न स क्षितीशो रुचये बभूव / शरत्प्रमृष्टाम्बुधरोपरोधः शशीव पर्याप्तकलो नलिन्याः / 44 / 5 सा शूरसेनाधिपति सुषेणमुद्दिश्य लोकान्तरगीतकीर्तिम् / आचारशुद्धोभयवंशदीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी // 45 / / नीपान्वयः पार्थिव एष यज्वा गुणैर्यमाश्रित्य परस्परेण / सिद्धाश्रमं शान्तमिवैत्य सत्त्वैनैसर्गिकोऽप्युत्ससृजे विरोधः 46 यस्यात्मगेहे नयनाभिरामा कान्तिहिमांशोरिव संनिविष्टा / हाग्रसंरूढतृणाङकुरेषु तेजोऽविषह्य रिपुमन्दिरेष / / 47 // यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले / कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गङ्गोमिसंसक्तजलेव भाति / 48 / वस्तेन तार्थ्यात्किल कालियेन मणि विसृष्टं यमुनौकसा यः / वक्षःस्थलव्यापि रुचं दधानः सकौस्तुभं ह्र पयतीव कृष्णम् 49 15 संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये / वृन्दावने चैत्ररथादने निविश्यतां सुन्दरि यौवनश्रीः / / 50 / / अध्यास्य चाम्भःपृषतोक्षितानि शैलेयगन्धीनि शिलातलानि / कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं कान्तासु-गोवर्जनकन्दरासु // 51 // नृपं तमावर्त मनोज्ञनाभिः सा व्यत्यंगादन्यवधूभवित्री। महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा सागरगामिनीव / 52 / / अथाङ्गदाश्लिष्टभुजं भुजिष्या हेमाङ्गदं नाम कलिङ्गनाथम् / प्रासेदुषीं सादितशत्रुपक्षं बालामबालेन्दुमुखीं बभाषे / 53 // असौ महेन्द्राद्रिसमानसारः पतिर्महेन्द्रस्य महोदधेश्च / यस्य क्षरत्सैन्यगजच्छलेन यात्रासु यातीव पुरो महेन्द्रः / 54 / 25 ज्याघातरेखे सुभुजो भुजाभ्यां बिभर्ति यश्चापभृतां पुरोगः / रिपुश्रियां साजनबाष्पसेके बन्दीकृतानामिव पद्धती द्वे // 55 // Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् यमात्मनः सद्मनि संनिकृष्टो मन्द्रध्वनित्याजितयामतूर्यः / प्रासादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम् // 56 // अंडेन साधू विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु / द्वीपान्तरानीतलवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भिः // 57 / / ____5 प्रलोभिताप्याकृतिलोभनीया विदर्भराजावरजा तयैवम् / . तस्मादपावर्तत दूरकृष्टा नीत्येव लक्ष्मीः प्रतिकूलदैवात् / 58 / 'अथोरगाख्यस्य पुरस्यं नाथं दौवारिकी देवसरूपमेत्य / इतश्चकोराक्षि विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम् 56 पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन / '10 प्राभाति बालातपरक्तसानुः सनिर्भरोद्गार इवाद्रिराजः।६०। .. विन्ध्यस्य संस्तम्भयिता महाद्रे - निःशेषपीतोज्झितसिन्धुराजः / प्रीत्याश्वमेधावभृथामूर्तेः, सौस्नातिको यस्य भवत्यगस्त्यः // 61 / / 15 अस्त्रं हरादाप्तवता दुरापं येनेन्द्रलोकावजयाय दृप्तः / पुरा जनस्थानविमर्दशङ्की संघाय लङ्काधिपतिः प्रतस्थे / 62 / अनेन पाणौ विधिवद्गृहीते महाकुलीनेन महीव गुर्वी / रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिशः सपत्नी भव दक्षिणस्याः 63 ताम्बूलवल्लीपरिणद्धपूगास्वेलालतालिङ्गितचन्दनासु / तमालपत्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद शश्वन्मलयस्थलीषु // 64 / / इन्दीवरश्यामतनुन पोऽसौ त्वं रोचनागौरशरीरयष्टिः / अन्योन्यशोभापरिवृद्धये वां योगस्तडित्तोयदयोरिवास्तु / 65 / स्वसुविदर्भाधिपतेस्तदीयो लेभेऽन्तरं चेतसि नोपदेशः। .. दिवाकरादर्शनबद्धकोशे नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे / / 66 / / . 25 संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिवरा सा / नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः / / 67 / / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षष्ठः सर्गः ] तस्यां रघोः सूनुरुपस्थितायां, वृणीत मां नेति समाकुलोऽभूत् / वामेतरः संशयमस्य बाहुः, केयूरबन्धोच्छ्वसितैर्नु नोद // 68 / / तं प्राप्य सर्वावयवानवद्यं, व्यावर्ततान्योपगमात्कुमारी / न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य, .. वृक्षान्तरं काङ्क्षति षट्पदाली // 66 / / तस्मिन्समावेशितचित्तवृत्तिमिन्दुप्रभामिन्दुमतीमवेक्ष्य / 10 प्रचक्रमे वक्तुमनुक्रमज्ञा सविस्तरं वाक्यमिदं सुनन्दा / / 7 / / इक्ष्वाकुवंश्यः ककुएं नृपाणां, ___ककुत्स्थ इत्याहितलक्षणोऽभूत् / काकुत्स्थशब्दं यत उन्नतेच्छाः, श्लाघ्यं दधत्युत्तरकोसलेन्द्राः // 71 / / 15 महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्तपिनाकिलीलः / चकार बाणैरसुराङ्गनानां गप्डस्थलीः प्रोषितपत्रलेखाः / 72 / ऐरावतास्फालनविश्लथं यः संघट्टयन्नङ्गदमङ्गदेन / उपेयुषः स्वामपि मूर्तिमग्र्यामर्धासनं गोत्रभिदोऽधितष्ठौ / 73 / जातः कुले तस्य किलोरुकीर्तिः कुलप्रदीपो नृपतिदिलीपः / अतिष्ठदेकोनशतक्रतुत्वे शक्राभ्यसूयाविनिवृत्तये यः / / 74 / / यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां, निद्रां विहारार्धपथे गतानाम् / वातोऽपि नास्र सयदंशुकानि, को लम्बयेदाहरणाय हस्तम् / 75 / पुत्रो रघुस्तस्य पदं प्रशास्ति महाक्रतोविश्वजितः प्रयोक्ता। चतुर्दिगावजितसंभृतां यो मृत्पात्रशेषामकरोद्विभूतिम् // 76 / / 25 प्रारूढमद्रीनुदधीन्वितीर्णं भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् / / ऊर्ध्वं गतं यस्य न चानुबन्धि यशः परिच्छेत्तुमियत्तयालम् 77 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् असौ कुमारस्तमजोऽनुजातस्त्रिविष्टपस्येव पति जयन्तः / गुर्वी धुर यो भुवनस्य पित्रा धुर्येण दम्यः सदृशं विति / 78 // कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैविनयप्रधानैः / त्वमात्मनस्तुल्यममुं वृणीष्व रत्नं समागच्छतु काञ्चनेन।७६। 5 ततः सुनन्दावचनावसाने लज्जां तनूकृत्य नरेन्द्र कन्या / दृष्टया प्रसादामलया कुमार प्रत्यग्रहीत्संवरणस्रजेव // 80 / / सा यूनि तस्मिन्नभिलाषबन्धं, शशाक शालीनतया न वक्तुम् / रोमाञ्चलक्ष्येण स गात्रयष्टि, भित्त्वा निराक्रामदरालकेश्याः // 81 / / तथागतायां परिहासपूर्वं सख्यां सखी वेत्रभृदाबभाषे / आर्ये व्रजामोऽन्यत इत्यथैनां वधूरसूयाकुटिलं ददर्श / / 82 / / सा चूर्णगौरं रघुनन्दनस्य धात्रीकराभ्यां करभोपमोरूः / आसञ्जयामासं यथाप्रदेशं कण्ठे गुणं मूर्तमिवानुरागम् / 83 / 15 तया स्रजा मङ्गलपुष्पमय्या विशालवक्षःस्थललम्बया सः / अमस्त कण्ठापितबाहुपाशां विदर्भराजावरजां वरेण्यः / / 4 / / शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं, . जलनिधिमनुरूप जह्न कन्यावतीर्णा / इति समगुणयोगप्रीतयस्तत्र पौरा:, 20 श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विववः / / 85 / / (मालिनी) प्रमुदितवरपक्षमेकतस्तत्क्षितिपतिमण्डलमन्यतो वितानम् / उषसि सर इव प्रफुल्लपद्मकुमुदवनप्रतिपन्ननिद्रमासीत् / 86 / (पुष्पिताग्रा) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये 25 स्वयंवरवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः // 6 // Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तमः सर्गः ] [ 45 // 7 // अथ सप्तमः सर्गः॥ अथोपयन्त्रा सदृशेन युक्तां स्कन्देन साक्षादिव देवसेनाम् / स्वसारमादाय विदर्भनाथ: पुरप्रवेशाभिमुखो बभूव / / 1 / / सेनानिवेशान्पृथिवीक्षितोऽपि जग्मुविभातग्रहमन्दभासः / 5 भोज्यां प्रति व्यर्थमनोरथत्वाद्रूपेषु वेषेषु च साभ्यसूयाः // 2 // सांनिध्ययोगात्किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः / काकुत्स्थमुद्दिश्य समत्सरोऽपि शशाम तेन क्षितिपाललोकः 3 तावत्प्रकीर्णाभिनवोपचारमिन्द्रायुधद्योतिततोरणाङ्कम् / वरः स वध्वा सह राजमार्ग प्राप ध्वजच्छायनिवारितोष्णम् 4 ततस्तदालोकनतत्पराणां सौधेषु चामीकरजालवत्सु / बभूवुरित्थं पुरसुन्दरीणां त्यक्तान्य कार्याणि विचेष्टितानि / / आलोकमार्ग सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः / बन्धुं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः।६। प्रसाधिकालम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्रवरागमेव / 15 उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाङ्कां पदवी ततान / / 7 / / विलोचनं दक्षिणमज़नेन संभाव्य तञ्चितवामनेत्रा / तथैव वातायनसंनिकर्ष ययौ शलाकामपरा वहन्ती / / 8 / / जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्ध नीवीम् / नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्व्य वासः / / 6 / / 20 अर्धाञ्जिता सत्वरमुत्थितायाः पदे पदे दुनिमिते गलन्ती / कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमङ्गुष्ठमूलार्पितसूत्रशेषा / 10 / तासां मुखैरासवगन्धगर्भाप्तान्तराः सान्द्रकुतूहलानाम् / विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन् / / 11 / / ता राघवं दृष्टिभिरापिबन्त्यो नार्यो न जग्मुविषयान्तराणि / 25 तथाहि शेषेन्द्रियवृत्तिरासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्टा / 12 / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् स्थाने वृता भूपतिभिः परोक्षः स्वयंवरं साधुममंस्त भोज्या। पद्मव नारायणमन्यथासौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम् / 13 / परस्परेण स्पृहणीयशोभ, .. . न चेदिदं द्वन्द्वमयोजयिष्यत् / अस्मिन्द्वये रूपविधानयत्नः, पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत् / / 14 / / रतिस्मरौ नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्रषु तथाहि बाला / गतेयमात्मप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तरसङ्गतिज्ञम् / / 15 / / इत्युद्गताः पौरवधूमुखेभ्यः,.. ___ शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखाः कुमारः / उद्भासितं मङ्गलसंविधाभिः, संबन्धिनः सद्म समाससाद // 16 // ततोऽवतीर्याशु करेणकायाः स कामरूपेश्वर दत्तहस्तः / वैदर्भनिर्दिष्टमथो विवेश नारीमनांसीव चतुष्कमन्तः / / 17 / / 15 महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ सरत्नमय॑ मधुपर्कमिश्रम् / भोजोपनीतं च दुकूलयुग्मं जग्राह साधु वनिताकटाक्षः / / 18 / / दुकूलवासाः स वधूसमीपं निन्ये विनीतरवरोधरक्षैः / वेलासकाशं स्फुटफेनराजिनवैरुदन्वानिव चन्द्र पादैः // 16 / / तत्राचितो भोजपतेः पुरोधा हुत्वाग्निमाज्यादिभिरग्निकल्पः / 20 तमेव चाधाय विवाहसाक्ष्ये वधूवरौ संगमयांचकार // 20 // हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः स राजसूनुः सुतरां चकासे / अनन्तराशोकलताप्रवालं प्राप्येव चूतः प्रतिपल्लवेन / / 21 / / आसीद्वरः कण्टकितप्रकोष्ठः स्विन्नाङ्गुलिः संववृते कुमारी। तस्मिन्द्वये तत्क्षणमात्मवृत्तिः समं विभक्तेव मनोभवेन / 22 / 25 तयोरपाङ्गप्रतिसारितानि क्रियासमापत्तिनिवतितानि / ह्रीयन्त्रणामानशिरे मनोज्ञामन्योन्यलोलानि विलोचनानि 23 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तमः सर्गः ] [ 47 प्रदक्षिणप्रक्रमणात्कृशानोरुदचिषस्तन्मिथुनं चकासे / मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्यसंसक्तमहस्त्रियामम् / / 24 / / नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयुक्ता व विधातृप्रतिमेन तेन / चकार सा मत्तचकोरनेत्रा लज्जावती लाजविसर्गमग्नौ / 25 / 5 हविः शमीपल्लवलाजगन्धी पुण्यः कृशानोरुदियाय धूमः / कपोलसंसपिशिखः स तस्या मुहूर्तकर्णोत्पलतां प्रपेदे / / 26 / / तदजनक्लेदसमाकुलाक्षं प्रम्लानबीजाकुरकर्णपूरम् / वधूमुखं पाटलगण्डलेखमाचारधूमग्रहणाद्वभूव / / 27 / / तौ स्नातकैर्बन्धुमता च राज्ञा पुरंध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम् / 10 कन्याकुमारी कनकासनस्थावाक्षितारोपणमन्वभूताम् / 28 / इति स्वसुर्भोजकुलप्रदीपः संपाद्य पाणिग्रहणं स राजा। महीपतीनां पृथगर्हणार्थं समादिदेशाधिकृतानधिश्रीः / / 26 / / लिङ्गमुदः संवृतविक्रियास्ते ह्रदाः प्रसन्ना इव गूढनकाः / वैदर्भमामन्त्र्य ययुस्तदीयां प्रत्यर्प्य पूजामुपदाछलेन // 30 / / 15 स राजलोकः कृतपूर्वसंविदारम्भसिद्धौ समयोपलभ्यम् / आदास्यमानः प्रमदामिषं तदावृत्य पन्थानमजस्य तस्थौ / 31 / भर्तापि तावत्क्रथकैशिकानामनुष्ठितानन्तरजाविवाहः / सत्त्वानुरूपाहरणाकृतश्री: प्रास्थापयद्राघवमन्वगाच्च / / 32 / तिस्रस्त्रिलोकप्रथितेन सार्धमजेन मार्गे वसतीरुषित्वा / तस्मादपावर्तत कुण्डिनेशः पर्वात्यये सोम इवोष्णरशमेः / 33 / प्रमन्यवः प्रागपि कोसलेन्द्रे प्रत्येकमात्तस्वतया बभूवुः / अतो नपाश्चक्षमिरे समेताः स्त्रीरत्नलाभं न तदात्मजस्य / 34 तमुद्वहन्तं पथि भोजकन्यां रुरोध राजन्यगणः स हप्तः / बलिप्रदिष्टां श्रियमाददानं त्रैविक्रम पादमिवेन्द्रशत्रुः / / 3 / / 25 तस्याः स रक्षार्थमनल्पयोधमादिश्य पित्र्यं सचिवं कुमारः / प्रत्यग्रहीत्पार्थिववाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरंगः / 36 / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् पत्तिः पदाति रथिनं रथेशस्तुरङ्गसादी तुरंगाधिरूढम् / यन्ता गजस्याभ्यपतद्गजस्थं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम् / 37 / नदत्सु तूर्येष्वविभाव्यवाचो नोदीरयन्ति स्म कुलोपदेशान् / बाणाक्षरैरेव परस्परस्य नामोजितं चापभृतः शशंसुः / / 38 / / 5 उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंशचक्रः / विस्तारितः कुञ्जरकर्णतालर्नेत्रक्रमेणोपरुरोध सूर्यम् / / 3 / / मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीर्णैर्मुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि / बभुः पिबन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि / 40 / रथो रथाङ्गध्वनिना विजज्ञे विलोलघण्टाक्वणितेन नागः / 10 स्वभर्तृ नामग्रहणाद्वभूव सान्द्रे रजस्यात्मपरावबोधः // 41 // प्रावृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विज़म्भितस्य / शस्त्रक्षताश्वद्विपवीरजन्मा बालरुणोऽभुद्रुधिरप्रवाहः // 42 // स च्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणुस्तस्योपरिष्टात्पवनावधूतः / अङ्गारशेषस्य हुताशनस्य पूर्वोत्थितो धूम इवाबभासे / / 43 / / प्रहारमूर्छापगमे रथस्था यन्तनुपालभ्य निवतिताश्वान् / यैः सादिता लक्षितपूर्वकेतूंस्तानेव सामर्षतया निजघ्नुः / 44 / / अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भूतां हस्तवतां पृषत्काः / संप्रापुरेवात्मजवानुवृत्त्या पूर्वार्धभागैः फलिभिः शरव्यम् / 45 // आधोरणानां गजसंनिपाते शिरांसि चकैनिशितैः क्षुराणैः / 20 हृतान्यपि श्येननखाग्रकोटिव्यासक्तकेशानि चिरेण पेतुः / 46 / पूर्व प्रहर्ता न जघान भूयः प्रतिप्रहाराक्षममश्वसादी। तुरङ्गमस्कन्धनिषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकाङ्क्ष / 47 / तनुत्यजां वर्मभृतां विकोशैर्वृहत्सु दन्तेष्वसिभिः पतद्भिः / उद्यन्तमग्नि शमयांबभूवुर्गजा विविग्नाः करशीक रेण // 48 // 25 शिलीमुखोत्कृत्तशिरः फलाढ्या च्युतैः शिरस्त्रश्चषकोत्तरेव / रणक्षितिः शोणितमद्यकुल्या रराज मृत्योरिव पानभूमिः / 46 / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तमः सर्ग ] [ 46 उपान्तयोनिष्कुषितं विहंगैराक्षिप्य तेभ्यः पिशितप्रियापि / केयूरकोटिक्षततालुदेशा शिवा भुजच्छेदमपाचकार / / 50 / / कश्चिद्द्विषत्खड्गहतोत्तमाङ्गः सद्यो विमानप्रभुतामुपेत्य / वामाङ्गसंसक्तसुराङ्गनः स्वं नृत्यत्कबन्धं समरे ददर्श / 51 / 5 अन्योन्यसूतोन्मथनादभूतां तावेव सूतौ रथिनौ च कौचित् / व्यश्वौ गदाव्यायतसंप्रहारौ भग्नायुधौ बाहुविमर्दनिष्ठौ / 52 / परस्परेण क्षतयोः प्रहोंरुत्क्रान्तवाय्वोः समकालमेव / अमर्त्यभावेऽपि कयोश्चिदासीदेकाप्सरः प्रार्थितयोविवादः / 53 व्यूहावुभौ तावितरेतरस्माद्भङ्गं जयं चापतुरव्यवस्थम् / 10 पश्चात्पुरोमारुतयोः प्रवृद्धौ पर्यायवृत्त्येव महार्णवोर्मी / / 54 / / परेण भग्नेऽपि बले महौजा ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव / घूमो निव]त समीरणेन यतस्तु कक्षस्तत एव वह्निः / / 5 / / रथी निषङ्गी कवची धनुष्मान्तप्तः स राजन्यकमेकवीरः / निवारयामास महावराहः कल्ण्क्षयोद्वत्तमिवार्णवाग्भः / 56 / 15 स दक्षिणं तूणमुखेन वामं व्यापारयन्हस्तमलक्ष्यताजौ / आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्धमौर्वीव बाणान्सुषुवे रिपुघ्नान् 57 स रोषदष्टाधिकलोहितोष्ठैर्व्यक्तोर्ध्वरेखा भ्र कुटीर्वद्भिः / तस्तार गां भल्लनिकृत्तकण्ठैहुंकारगर्भंद्विषतां शिरोभिः / 58 / सर्वैर्बलाङ्गैद्विरदप्रधानैः सर्वायुधैः कङ्कटभेदिभिश्च / 20 सर्वप्रयत्नेन च भूमिपालास्तस्मिन्प्रजह युधि सर्व एव / 56 / . सोऽस्त्रव्रजैश्छन्नरथैः परेषां ध्वजाग्रमात्रेण बभूव लक्ष्यः / नीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किचित्प्रकाशेन विवस्वतेव // 60 / / प्रियंवदात्प्राप्तमसौ कुमारः प्रायुक्त राजस्वधिराजसूनुः / गान्धर्वमस्त्रं कुसुमास्त्रकान्तः प्रस्वापनं स्वप्ननिवृत्तलौल्यः 61 225 ततो धनुष्कर्षणमूढहस्तमेकांसपर्यस्तशिरस्त्रजालम् / / तस्थौ ध्वजस्तम्भनिषण्णदेहं निद्राविधेयं नरदेवसैन्यम् / 62 / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः / तेन स्वहस्ताजितमेकवीरः पिबन्यशो मूर्तमिवाबभासे / / 63 / / शङ्खस्वनाभिज्ञतया निवृत्ता . . स्तं सन्नशत्रु ददृशुः स्वयोधाः / 5 निमीलितानामिव पङ्कजानां, , मध्ये स्फुरन्तं प्रतिमाशशाङ्कम् / / 64 / / * सशोणितैस्तेन शिलीमुखानिक्षेपिताः केतुषु पार्थिवानाम् / ___ यशो हतं संप्रति राघवेण . 10 . न, जीवितं वः कृपयेति वर्णाः // 65 / / स चापकोटीनिहितकबाहुः शिरस्त्रनिष्कर्षभिन्नमौलिः / ललाटबद्धश्रमवारिबिन्दुर्भीतां प्रियामेत्य वचो बभाषे // 66 / / इतः परान कहार्यशस्त्रान्वैदर्भि पश्यानुमता मयासि / एवंविधेनाहंवचेष्टितेन त्वं प्रार्थ्यसे हस्तगता ममैभिः // 67 / / . 15 तस्याः प्रतिद्वन्द्विभवाद्विषादा-. त्सद्यो, विमुक्त मुखमाबभासे / 'निःश्वासबाष्पापगमात्प्रपन्नः, . ...प्रसादमात्मीयमिवात्मदर्शः // 68 / / हृष्टापि सा- ह्रीविजिता न साक्षा . द्वाग्भिः सखीनां प्रियमभ्यनन्दत् / स्थलीनवाम्भःपृषताभिवृष्टा, मयूरकेका भिरिवाभ्रवृन्दम् / / 66 / / . इति शिरसि स वामं पादमाधाय राज्ञा . . मुदवहदनवद्यां तामवद्यादपेतः / :: रथतुरगरजोभिस्तस्य रूक्षालकाग्रा. 25 . समरविजयलक्ष्मी: सैव. मूर्ता बभूव / / 70 // .. ... .... .. ( मालिनी ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टमः सर्गः ] [ 51 प्रथमपरिगतार्थस्तं रघुः संनिवृत्तं विजयिनमभिनन्द्य श्लाध्यजायासमेतम् / तदुपहितकुटुम्बः शान्तिमार्गोत्सुकोऽभू न हि सति कुलधुर्ये सूर्यवंश्या गृहाय / / 71 / / 5 // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये अजेनेन्दुमतीपाणिग्रहणो नाम सप्तमः सर्गः // 7 // -* // 8 // अष्टमः सर्गः।। अथ तस्य विवाहकौतुक ललितं बिभ्रत एव पार्थिवः / वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमतीमिवापराम् / / 1 / / (वैतालीयं) दुरितैरपि कर्तुमात्मसात्प्रयतन्ते नृपसूनवो हि यत् / तदुपस्थितमग्रहीदजः पितुराज्ञेति न भोगतृष्णया / / 2 / / अनुभूय वसिष्ठसंभृतैः सलिलैस्तेन सहाभिषेचनम् / विशदोच्छ्वसितेन मेदिनी कथयामास कृतार्थतामिव // 3 / / 15 स बभूव दुरासदः परैगुरुणाथर्वविदा कृतक्रियः / पवनाग्निसमागमो ह्ययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा / / 4 / / - रघुमेव निवृत्तयौवनं तममन्यन्त नवेश्वरं प्रजाः / स हि तस्य न केवलां श्रियं प्रतिपेदे सकलान्गुणानपि / / 5 / / अधिकं शुशुभे शुभंयुना द्वितयेन द्वयमेव सङ्गतम् / 20 पदमृद्धमजेन पैतृकं विनयेनास्य नवौं च यौवनम् // 6 / / सदयं बुभुजे महाभुजः सहसोद्वेगमियं व्रजेदिति / / अचिरोपनतां स मेदिनीं नवपाणिग्रहणां वधूमिव / / 7 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् अहमेव मतो महीपतेरिति सर्वः प्रकृतिष्वचिन्तयतु / उदघरिव निम्नगाशतेष्वभवन्नास्य विमानना क्वचित् / / 8 / / न खरो न च भूयसा मृदुः पवमानः पृथिवीरुहामिव / स पुरस्कृतमध्यमक्रमो नमयामास नृपाननुद्धरन् / / 6 / / 5 अथ वीक्ष्य रघुः प्रतिष्ठितं प्रकृतिष्वात्मजमात्मवत्तया / विषयेषु विनाशधमसु त्रिदिवस्थेष्वपि निःस्पृहोऽभवत् / / 10 / / गुणवत्सुतरोपितश्रियः परिणामे हि दिलीपवंशजाः / पदवीं तरुवल्कवाससां प्रयताः संयमिनां प्रपेदिरे // 11 // तमरण्यसमाश्रयोन्मुखं शिरसा वेष्टनशोभिना सुतः / पितरं प्रणिपत्य पादयोरपरित्यागमयाचतात्मनः // 12 // रघुरश्रुमुखस्य तस्य तत्कृतवानीप्सितमात्मजप्रियः / न तु सर्प इव त्वचं पुनः प्रतिपेदे व्यपवजितां श्रियम् // 13 / / स किलाश्रममन्त्यमाश्रितो निवसन्नावसथे पुराहिः / समुपास्यत पुत्रभोग्यया स्नुषयेवाविकृतेन्द्रियः श्रिया // 14 // 15 प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यतनूतनेश्वरम् / नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारुरोह तत् / / 15 / / यतिपाथिवलिङ्गधारिणौ ददृशाते रघुराघवौ जनैः / अपवर्गमहोदयार्थयोभुवमशाविव धर्मयोर्गतौ // 16 / / अजिताधिगमाय मन्त्रिभिर्युयुजे नीतिविशारदैरजः / अनपायिपदोपलब्धये रघुराप्तः समियाय योगिभिः / / 17 / / नृपतिः प्रकृतीरवेक्षितु व्यवहारासनमाददे युवा / परिचेतुमुपांशु धारणां कुशपूतं प्रवयास्तु विष्टरम् // 18 / / अनयत्प्रभुशक्तिसंपदा वशमेको नृपतीननन्तरान् / / अपरः प्रणिधानयोग्यया मरुतः पञ्च शरीरगोचरान् // 16 // 25 अकरोदचिरेश्वरः क्षितौ द्विषदारम्भफलानि भस्मसात् / इतरो दहने स्वकर्मणां ववृते ज्ञानमयेन वह्निना // 20 // Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टमः सर्गः ] [ 53 परणबन्धमुखान्गुणानजः षडुपायुक्त समीक्ष्य तत्फलम् / रघुरप्यजयद्गुणत्रयं प्रकृतिस्थं समलोष्टकाञ्चनः // 21 // न नवः प्रभुराफलोदयात्स्थिरकर्मा विरराम कर्मणः / न च योगविधेर्नरेतरः स्थिरधीरा परमात्मदर्शनात् / / 22 / / 5 इति शत्रुषु चेन्द्रियेषु च प्रतिषिद्धप्रसरेषु जाग्रतौ / प्रसितावूदयापवर्गयोरुभयीं सिद्धिमुभाववापतुः / / 23 / / अथ काश्चिदजव्यपेक्षया गमयित्वा समदर्शनः समाः / तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः / / 24 / / श्रुतदेहविसर्जनः पितुश्चिरमणि विमुच्य राघवः / 10 विदधे विधिमस्य नैष्ठिकं यतिभिः सार्धमनग्निमग्निचित् / 25 / अकरोत्स तदौर्ध्वदैहिकं पितृभक्त्या पितृकार्यकल्पवित् / न हि तेन पथा तनुत्यजस्तनयावजितपिण्डकाक्षिणः / / 26 / / स पराय॑गतेरशोच्यतां पितुरुद्दिश्य सदर्थवेदिभिः / शमिताधिरधिज्यकार्मुकः कृतवानप्रतिशासनं जगत् / / 27 / / क्षितिरिन्दुमती च भामिनी पतिमासाद्य तमग्र्यपौरुषम् / प्रथमा बहुरत्नसूरभूदपरा वीरमजीजनत्सुतम् // 28 / / दशरश्मितोपमद्युति यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम् / दशपूर्वरथं यमाख्यया दशकण्ठारिगुरु विदुर्बुधाः / / 29 / / ऋषिदेवगणस्वधाभुजां श्रुतयागप्रसवैः स पार्थिवः / अनृणत्वमुपेयिवान्बभौ परिधेर्मुक्त इवोष्णदीधितिः / / 30 / / बलमार्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये बहुश्रुतम् / वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजना / / 31 / / स कदाचिदवेक्षितप्रजः सह देव्या विजहार सुप्रजः / नगरोपवने शचीसखो मरुतां पालयितेव नन्दने // 32 // 25 अथ रोधसि दक्षिणोदधेः श्रितगोकर्णनिकेतमीश्वरम् / उपवीणयितु ययौ रुवेरुदयावृत्तिपथेन नारद: / / 33 / / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् कुसुमैर्ग्रथितामपार्थिवैः स्रजमातोद्यशिरोनिवेशिताम् / .. अहरत्किल तस्य वेगवानधिवासस्पृहयेव मारुतः // 34 / / भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः / ददृशे पवनावलेपनं सृजती बाष्पमिवाञ्जनाविलम् / / 35 / / अभिभूय विभूतिमार्तवीं मधुगन्धातिशयेन वीरुधाम् / नृपतेरमरस्रगाप सा दयितोरुस्तनकोटिसुस्थितिम् / / 36 / / क्षणमात्रसखीं सुजातयोः स्तनयोस्तामवलोक्य विह्वला। निमिमील नरोत्तसप्रिया हृतचन्द्रा तमसेव कौमुदी / / 37 / / वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत् / ननु तैलनिषेकबिन्दुना सह दीपाचिरुपैति मेदिनीम् / / 38 / / उभयोरपि पार्श्ववर्तिनां तुमुलेनातरवेण वेजिताः / विहगाः कमलाकरालयाः समदुःखा इव तत्र चुक्रुशुः / / 3 / / नपतेय॑जनादिभिस्तमो नुनुदे सा तु तथैव संस्थिता। प्रतिकारविधानमायुषः सति शेषे हि फलाय कल्पते // 40 / / 15 प्रतियोजयितव्यवल्लकीसमवस्थामथ सत्त्वविप्लवात् / स निनाय नितान्तवत्सलः परिगृह्योचितमङ्कमङ्गनाम् / / 41 / / पतिरङ्कनिषण्णया तया करणापायविभिन्नवर्णया। समलक्ष्यत बिभ्रदाविलां मृगलेखामुषसीव चन्द्रमाः / / 42 / / विललाप स बाष्पगद्गदं सहजामप्यपहाय धीरताम् / 20. अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा शरीरिषु // 43 / / कुसुमान्यपि गात्रसंगमात्प्रभवन्त्यायुरपोहितु यदि / न भविष्यति इन्त साधनं किमिवान्यत्प्रहरिष्यतो बिधेः / 44 / अथवा मृदु वस्तु हिंसितु मृदुनैवारभते प्रजान्तकः / .. हिमसेकविपत्तिरत्र मे नलिनी पूर्वनिदर्शनं मता / / 45 / / 25 स्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम् / विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया / / 46 / / विषमप्यार Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टमः सर्गः] [ 55 अथवा मम भाग्यविप्लवादशनिः कल्पित एष वेधसा। यदनेन तरुन पातितः क्षपिता तद्विटपाश्रिता लता / / 47 / / कृतवत्यसि नावधीरणामपराद्धेऽपि यदा चिरं मयि / कथमेकपदे निरागसं जनमाभाष्यमिमं न मन्यसे / / 48 / / ध्रुवमस्मि शठः शुचिस्मिते ! विदितः कैतववत्सलस्तव / परलोकमसंनिवृत्तये यदनापृच्छय गतासि मामितः / / 46 / / दयितां यदि तावदन्वगाद्विनिवृत्तं किमिदं तया विना। सहतां हतजीवितं मम प्रबलामात्मकृतेन वेदनाम् / / 50 / / सुरतश्रमसंभृतो मुखे ध्रियते स्वेदलवोद्गमोऽपि ते / अथ चास्तमिता त्वमात्मना धिगिमां देहभृतामसारताम् / 51 / मनसापि न विप्रियं मया कृतपूर्वं तव किं जहासि माम् / ननु शब्दपतिः क्षितेरहं त्वयि मे भावनिंबन्धना रतिः / / 52 / / कुसुमोत्खचितान्वलीभृतश्चलयन्भृङ्गरुचस्तवालकान् / करभोरु करोति मारुतस्त्वदुपावर्तनशङ्कि मे मनः // 53 / / 15 तदपोहितुमर्हसि प्रिये प्रतिबोधेन विषादमाशु मे। ज्वलितेन गुहागतं तमस्तुहिनाद्रेरिव नक्तमोषधिः / / 54 / / इदमुच्छ्वसितालकं मुखं तव विश्रान्तकथं दुनोति माम् / निशि सुप्तमिवैकपङ्कजं विरताभ्यन्तरषट्पदस्वनम् / / 55 / / शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम् / इति तौ विरहान्तरक्षमौ कथमत्यन्तगता न मां दहेः / / 56 / / नवपल्लवसंस्तरेऽपि ते मृदु दूयेत यदङ्गमपितम् / तदिदं विषहिष्यते कथं वद वामोरु चिताधिरोहणम् / / 57 // इयमप्रतिबोधशायिनी रशना त्वां प्रथमा रहःसखी / गतिविभ्रमसादनीरवा न शुचा नानुमृतेव लक्ष्यते // 58 / / 25 कलमन्यभृतासु भाषितं कलहंसीषु मदालसं गतम् / पृषतीषु विलोलमीक्षितं पवनाधूतलतासु विभ्रमाः / / 56 / / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] [काव्यषट्के (1) रघुवंशम् त्रिदिवोत्सुकयाप्यवेक्ष्य मां निहिताः सत्यममी गुणास्त्वया / विरहे तव मे गुरुव्यथं हृदयं न त्ववलम्बितुक्षमाः // 60 / / मिथुनं परिकल्पितं त्वया सहकारः फलिनी च नन्विमौ / अविधाय विवाहसत्क्रियामनयोर्गम्यत इत्यसांप्रतम् / / 61 / / 5 कुसुमं कृतदोहदस्त्वया यदशोकोऽयमुदीरयिष्यति / अलकाभरणं कथं नु तत्तव नेष्यामि निवापमाल्यताम् / / 62 / / स्मरतेव सशब्दनूपुरं चरणानुग्रहमन्यदुर्लभम् / अमुना कुसुमाश्रुवर्षिणा त्वमशोकेन,सुगात्रि शोच्यसे // 63 / / तव निःश्वसितानुकारिभिर्बकुलैरर्धचितां समं मया। 10 असमाप्य विलासमेखलां किमिदं किंनरकण्ठि सुप्यते // 64 / / समदुःखसुखः सखीजनः प्रतिपच्चन्द्रनिभोऽयमात्मजः / अहमेकरसस्तथापि ते व्यवसायः प्रतिपत्तिनिष्ठरः // 65 / / धृतिरस्तमिता रतिश्च्युता विरतं गेयमृतुनिरुत्सवः / गतमाभरणप्रयोजनं परिशून्यं शयनीयमद्य मे // 66 / / गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ। करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वा वद किं न मे हृतम् / 67 / मदिराक्षि ! मदाननापितं मधु पीत्वा रसवत्कथं नु मे / अनुपास्यसि बाष्पदूषितं परलोकोपनतं जलाञ्जलिम् // 68 / / विभवेऽपि सति त्वया विना सुखमेतावदजस्य गण्यताम् / 20 अहृतस्य विलोभनान्तरैर्मम सर्वे विषयास्त्वदाश्रयाः / / 6 / / विलपन्निति कोसलाधिपः करुणार्थग्रथितं प्रियां प्रति / अकरोत्पृथिवीरुहानपि उ तशाखारसबाष्पदूषितान् / / 70 / / अथ तस्य कथंचिदङ्कतः स्वजनस्तामपनीय सुन्दरीम् / विससर्ज तदन्त्यमण्डनामनलायागुरुचन्दनधसे // 71 / / 25 प्रमदामनु संस्थितः शुचा नृपतिः सन्निति वाच्यदर्शनात् / न चकार शरीरमग्निसात्सह देव्या न तु जीविताशया / 72 / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टमः सर्गः ] [ 57 अथ तेन दशाहतः परे गुणशेषामुपदिश्य भामिनीम् / ... विदुषा विधयो महर्द्धयः पुर एवोपवने समापिताः // 73 / / स विवेश पुरी तया विना क्षणदापायशशाङ्कदर्शनः / परिवाहमिवावलोकयन्स्वशुचः पौरवधूमुखाश्रुषु // 74 / / 5 अथ तं सवनाय दीक्षितः प्रणिधानाद्गुरुराश्रमस्थितः / अभिषङ्गजडं विजज्ञिवानिति शिष्येण किलान्वबोधयत् / / 75 / / असमाप्तविधिर्यतो मुनिस्तव विद्वानपि तापकारणम् / न भवन्तमुपस्थितः स्वयं प्रकृतौ स्थापयितुपथश्च्युतम् / / 76 मयि तस्य सुवृत्त ! वर्तते लधुसंदेशपदा सरस्वती। 10 शृणु विश्रुतसत्त्वसार! तां हृदि चैनामुपधातुमर्हसि / / 77 / / पुरुषस्य पदेष्वजन्मनः समतीतं च भवच्च भावि च / स हि निष्प्रतिघेन चक्षुषा त्रितयं ज्ञानमयेन पश्यति // 78 / / चरतः किल दुश्चरं तपस्तृणबिन्दोः परिशङ्कितः पुरा / प्रजिघाय समाधिभेदिनीं हरिरस्मै हरिणीं सुराङ्गनाम् / / 7 / / 15 स तपःप्रतिबन्धमन्युना प्रमुखाविष्कृतचारुविभ्रमाम् / अशपद्भव मानुषीति तां शमवेलाप्रलयोमिणा भुवि / / 80 / / भगवन्परवानयं जनः प्रतिकूलाचरितं क्षमस्व मे / इति चोपनतां क्षितिस्पृशं कृतवाना सुरपुष्पदर्शनात् / / 81 / / ऋथकैशिकवंशसंभवा तव भूत्वा महिषी चिराय सा / 20 उपलब्धवती दिवश्च्युतं विवशा शापनिवृत्तिकारणम् / / 2 / / तदलं तदपायचिन्तया विपदुत्पत्तिमतामुपस्थिता। वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः / / 83 / / उदये मदवाच्यमुज्झता श्रुतमाविष्कृतमात्मवत्त्वया / मनसस्तदुपस्थिते ज्वरे पुनरक्लीबतया प्रकाश्यताम् / / 84 // 25 रुदता कुत एव सा पुनर्भवता नानुमृतापि लभ्यते / परलोकजुषां स्वकर्मभिर्गतयो भिन्नपथा हि देहिनाम् / / 8 / / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् अपशोकमनाः कुटुम्बिनीमनुगृह्णीष्व निवापदत्तिभिः। स्वजनाश्रु किलातिसंततं दहति प्रेतमिति प्रचक्षते // 86 // मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृति वितमुच्यते बुधैः / क्षणमष्यवतिष्ठते श्वसन्यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ / / 87 / / 5 अवगच्छति मूढचेतनः प्रियनाशं हृदि शल्यमर्पितम् / / स्थिरधीस्तु तदेव मन्यते कुशलद्वारतया समुद्धृतम् // 88 / / स्वशरीरशरीरिणावपि श्रुतसंयोगविपर्ययौ यदा / विरहः किमिवानुतापयेद्वद बाह्यविषयविपश्चितम् / / 89 // न पृथग्जनवच्छुचो वशं वशिनामुत्तम ! गन्तुमर्हसि / द्रुमसानुमतां किमन्तरं यदि वायौ द्वितयेऽपि ते चलाः / / 90 // स तथेति विनेतुरुदारमतेः प्रतिगृह्य वचो विससर्ज मुनिम् / तदलब्धपदं हृदि शोकघने प्रतियातमिवान्तिकमस्य गुरोः / / 1 / . (तोटकं ) तेनाष्टौ परिगर्मितः समाः कथंचिद्वालत्वादवितथसूनतेन सूनोः / सादृश्यप्रतिकृतिदर्शनैः प्रियायाः स्वप्नेषु क्षणिकसमागमोत्सवैश्च / / 62 / / (प्रहर्षिणी ) तस्य प्रसह्य हृदयं किल शोकशङ्कुः / प्लक्षप्ररोह इव सौधतलं बिभेद / प्राणान्तहेतुमपि तं भिषजामसाध्यं ____ लाभं प्रियानुगमने त्वरया स मेनें / / 63 / / .. ( वसंततिलका ) सम्यग्विनीतमथ वर्महरं कुमार मादिश्य रक्षणविधौ विधिवत्प्रजानाम् / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे नवमः सर्गः ] [ 59 रोगोपसृष्टतनुदुर्वसतिं मुमुक्षुः .. प्रायोपवेशनमति पतिर्बभूव / / 64 / / .. ( वसंततिलका ) तीर्थे तोयव्य तिकरभवे जह नुकन्यासरय्वो देहत्यागादमरगणनालेख्यमासाद्य सद्यः / पूर्वाकाराधिकतररुचा संगतः कान्तयासौ लीलागारेष्वरमत पुनर्नन्दनाभ्यन्तरेषु / / 95 / / . ( मन्दाक्रान्ता ) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये अजविलापो नाम अष्टमः सर्गः / / 8 / / 10 // 9 // नवमः सर्गः॥ पितुरनन्तरमुत्तरकोसलान्समधिगम्य समाविजितेन्द्रियः / दशरथः प्रशशास महारथो यमवतामवतां च धुरि स्थितः / / 1 / / (द्रुतविलवितं ) 15 अधिगतं विधिवद्यदपालयत्प्रकृतिमण्डलमात्मकुलोचितम् / अभवदस्य ततो गुणवत्तरं सनगरं नगरन्ध्रकरौजसः // 2 // उभयमेव वदन्ति मनीषिणः समयवर्षितया कृतकर्मणाम् / बलनिषूदनमर्थपति च तं श्रमनुदं मनुदण्डधरान्वयम् / / 3 / / जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः / क्षितिरभूत्फलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरतेजसि पाथिवे // 4 // दशदिगन्तजिता रघुणा यथा श्रियमपुष्यदजेन ततः परम् / तमधिगम्य तथैव पुनर्बभौ न न महीनमहीनपराक्रमम् / / 5 // समतया वसुवृष्टिविसर्जनैनियमनादसतां च नराधिपः / अनुययौ यमपुण्यजनेश्वरौ सवरुणावरुणाग्रसरं रुचा // 6 // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् न मृगयाभिरतिर्न दुरोदरं न च शशिप्रतिमाभरणं मधु / तमुदयाय न वा नवयौवना प्रियतमा यतमानमपाहरत् // 7 // न कृपणा प्रभवत्यपि वासवे न वितथा परिहासकथास्वपि / न च सपत्नजनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता // 8 // उदयमस्तमयं च रघूद्वहादुभयमान शिरे वसुधाधिपाः / स हि निदेशमलनयतामभूत्सुहृदयोहृदयः प्रतिगर्जताम् / / 3 / / अजयदेकरथेन स मेदिनीमुदधिनेमिमधिज्यशरासनः / जयमघोषयदस्य तु फेवलं गजवती जवतीव्रहया चमूः / / 10 / / अवनिमेकरथेन वरूथिना जितवत: किल तस्य धनुर्भूतः / विजयदुन्दुभितां ययुरर्णवा घनरवा नरवाहनसंपदः / / 11 / / शमितपक्षबलः शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः / स शरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः / 12 / चरणयोर्नखरागसमृद्धिभिर्मुकुट रत्नमरीचिभिरस्पृशन् / नृपतयः शतशो मरुतो यथा शतमखं तमखण्डितपौरुषम् / / 13 / / निववृते स महार्णवरोधसः सचिवकारितबालसुताञ्जलीन् / समनुकम्ष्य सपत्नपरिग्रहाननल कानलकानवमां पुरीम् // 14 // उपगतोऽपि च मण्डलनाभितामनुदितान्यसितातपवारणः / श्रियमवेक्ष्य स रन्ध्रचलामभूदनलसोऽनलसोमसमद्युतिः / / 15 / / तमपहाय ककुत्स्थकुलोद्भवं पुरुषमात्मभवं च पतिव्रता। नृपतिमन्यमसेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु / / 16 / / तमलभन्त पति पतिदेवताः शिखरिणामिव सागरमापगाः / मगधकोसलकेकयशासिनां दुहितरोऽहितरोपितमार्गणम् / / 17 / / प्रियतमाभिरसौ तिसृभिर्बभौ तिसृभिरेव भुवं सह शक्तिभिः / उपगतो विनिनीषरिव प्रजा हरिहयोऽरिहयोगविचक्षणः / / 18 / / 25 स किल संयुगमूनि सहायतां मघवतः प्रतिपद्य महारथः / स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छ्रितं सुरवधूरवधूतभयाः शरैः // 16 // 20 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे नवमः सर्गः ] [ 61 क्रतुषु तेन विजितमौलिना भुजसमाहृतदिग्वसुना कृताः / कनकयूपसमुच्छयशोभिनो वितमसा तमसासरयूतटाः // 20 // अजिनदण्डभृतं कुशमेखलां यतगिरं मृगशृङ्गपरिग्रहाम् / अधिवसंस्तनुमध्वरदीक्षितामसमभासमभासयदीश्वरः / / 21 / / अवभृथप्रयतो नियतेन्द्रियः सुरसमाजसमाक्रमणोचितः / नमयति स्म स केवलमुन्नतं वनमुचे नमुचेररये शिरः // 22 // असकृदेकरथेन तरस्विना हरिहयाग्रसरेण धनुर्भूता। दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम् / 23 / अथ समाववृते कुसुमैर्नवैस्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् / 10 यमकुबेरजलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरञ्चितविक्रमम् / / 24 / / जिगमिषुर्धनदाध्युषितां दिशं रथयुजा परिवर्तितवाहनः / दिनमुखानि रविहिमनिग्रहैविमलयन्मलयं नगमत्यजत् / 25 / कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम् / इति यथाक्रममाविरभून्मधुई मवतीमवतीर्य वनस्थलीम् / 26 / 15 नयगुणोपचितामिव भूपतेः सदुपकारफलां श्रियमथिनः / अभिययुः सरसो मधुसंभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्त्रिणः / 27 / कुसुममेव न केवलमार्तवं नवमशोकतरोः स्मरदीपनम् / किसलयप्रसवोऽपि विलासिनां मदयिता दयिताश्रवणापितः 28 विरचिता मधुनोपवानश्रियामभिमवा इव पत्रविशेषकाः / 20 मधुलिहां मधुदानविशारदाः कुरबका रवकारणतां ययुः / 26 / सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुसुमोद्गमः / / मधुकरैरकरोन्मधुलोलुपैर्बकुलमाकुलमायतपङ्क्तिभिः / / 30 / / उपहितं शिशिरापगमश्रिया मुकुलजालमशोभत किंशुके / प्रणयिनीव नखक्षतमण्डनं प्रमदया मदयापितलज्जया // 31 / / 25 वणगुरुप्रमदाधरदुःसहं जघननिविषयीकृतमेखलम् / न खलु तावदशेषमपोहितुं रविरलं विरलं कृतवान्हिमम् / 32 / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् अभिनयान्परिचेतुमिवोद्यता मलयमारुतकम्पितपल्लवा। अमदयत्सहकारलता मनः सकलिका कलिकामजितामपि 33 प्रथममन्यभृताभिरुदीरितः प्रविरला इव मुग्धवधूकथाः / सुरभिगन्धिषु शुश्रुविरे गिरः कुसुमितासु मिता बनराजिषु 34 5 श्रुतिसुखभ्रमरस्वनगीतयः कुसुमकोमलदन्तरुचो बभुः / उपवनान्तलताः पवनाहतैः किसलयः सलयैरिव पाणिभिः 35 ललितविभ्रमबन्धविचक्षणं सुरभिगन्धपराजितकेसरम् / पतिषु निविविधर्मधुमङ्गनाः स्मरसखं रसखण्डनजितम् 36 शुशुभिरे स्मितचारुतराननाः . स्त्रिय इव श्लथशिञ्जितमेखलाः विकचतामरसा गृहदीर्घिका, मदकलोदकलोलविहंगमाः // 37 / / उपययौ तनुतां मधुखण्डिता हिमकरोदयपाण्डुमुखच्छविः / सदृशमिष्टसमागमनिर्वतिं वनितयानितया रजनीवधूः / / 3 / / अपतुषारतया विशदप्रभैः सुरतसङ्गपरिश्रमनोदिभिः / कुसुमचापमतेजयदंशुभिर्हिमकरो मकरोजितकेतनम् / / 3 / / हुतहुताशनदीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्य यत् / युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम् / / 40 / / अलिभिरञ्जनबिन्दुमनोहरैः, कुसुमपङ्क्तिनिपातिभिरङ्कितः / न खलु शोभयति स्म वनस्थलीं, न तिलकस्तिलक: प्रमदामिव / / 41 / / अमदयन्मधुगन्धसनाथया किसलयाधरसंगतया मनः / कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारुविलासिनी 42 25 अरुणरागनिषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्धपर्दैश्च यवाङकुरैः / परभृताविरुतैश्च विलासिनः स्मरबलैरबलैकरसाः कृताः 43 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे नवमः सर्गः ] उपचितावयवा शुचिभिः कणैरलिकदम्बकयोगमुपेयुषी। सदृशकान्तिरलक्ष्यत मञ्जरी तिलकजालकजालकमौक्तिकैः 44 ध्वजपटं मदनस्य धनु तश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः / कुसुमकेसररेणुमलिव्रजाः सपवनोपवनोत्थितमन्वयुः / / 45 / / अनुभन्नवदोलमृतूत्सवं पटुरपि प्रियकण्ठजिघृक्षया / अनयदासनरज्जुपरिग्रहे भुजलतां जलतामबलाजनः / / 46 / / त्यजत मानमलं बत विग्रहर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः / परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः / 47 / अथ यथासुखमार्तवमुत्सवं समनुभूय विलासवतीसखः / 10 नरपतिश्चकमे मृगयारति स मधुमन्मधुमन्मथसंनिभः / / 48 / / परिचयं चललक्ष्यनिपातने भयरुषोश्च तदिङ्गितबोधनम् / श्रमजयात्प्रगुणां च करोत्यसौ तनुमतोऽनुमतः सचिवैर्ययौ / 46 / मृगवनोपगमक्षमवेषभृद्विपुलकण्ठनिषक्तशरासनः / गगनमश्वखुरोद्धतरेणुभिसविता स वितानमिवाकरोत् / 50 / 15 ग्रथितमौलिरसौ वनमालया तरुपलाशसवर्णतनुच्छदः / तुरगवल्गनचञ्चलकुण्डलो विरुरुचे रुरुचेष्टितभूमिषु // 51 / / तनुलताविनिवेशितविग्रहा भ्रमरसंक्रमितेक्षणवृत्तयः / ददृशुरध्वनि तं वनदेवताः सुनयनं नयनन्दितकोसलम् / / 52 / / श्वगणिवागुरिकैः प्रथमास्थितं व्यपगतानलदस्यु विवेश सः / 20 स्थिरतुरंगमभूमि निपानवन्मृगवयोगवयोपचितं वनम् / 53 / अथ नभस्य इव त्रिदशायुधं कनकपिङ्गतडिद्गुणसंयुतम् / धनुरधिज्यमनाधिरुपाददे नरवरो रवरोषितकेसरी / / 54 / / तस्य स्तनप्रणयिभिमुहुरेणशावै ___हिन्यमानहरिणीगमनं पुरस्तात् / 25 / आविर्बभूव कुशगर्भमुखं मगाणां यूथं तदग्रसरगर्वितकृष्णसारम् // 55 / / (वसंततिलका) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् तत्प्राथितं जवनवाजिगतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृतशरेण विशीर्णपङ्क्ति / श्यामीचकार वनमाकुलहृष्टिपातै तेरितोत्पलदलप्रकरैरिवाः // 56 / / लक्ष्यीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभाव: प्रेक्ष्य स्थितां सहचरी व्यवधाय देहम् / : आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी ____ बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार // 57 / / तस्यापरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः ___ कर्णान्तमेत्य बिभिदे निबिडोऽपि मुष्टि: / त्रासातिमात्रचटुलैः स्मरतः सुनेत्रैः प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि // 58 / / उत्तस्युषः सपदि पल्वलपङ्कमध्या न्मुस्ताप्ररोहकवलावयवानुकीर्णम् / जग्राह स द्रुतवराहकुलस्य मार्ग सुव्यक्तमार्द्रपदपङ्क्तिभिरायताभिः // 56 / / तं वाहनादवनतोत्तरकायमीष द्विध्यन्तमुद्ध तसटाः प्रतिहन्तुमीषुः / / नात्मानमस्य विविदुः सहसा वराहा वृक्षेषु विद्धमिषुभिर्जघनाश्रयेषु // 60 / / तेनाभिघातरभसस्य विकृष्य पत्री वन्यस्य नेत्रविवरे महिषस्य मुक्तः / निभिद्य विग्रहमशोणितलिप्तपुङ्ख स्तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात् // 61 / / प्रायो विषाणपरिमोक्षलघूत्तमाङ्गा- . न्खड्गांश्चकार नृपतिनिशितैः क्षुरप्रैः / 25 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे नवमः सर्गः ] [ 65 शृङ्गं सदृप्तविनयाधिकृतः परेषा मत्युच्छ्रितं न ममषे न तु दीर्घमायुः / / 62 / / व्याघ्रानभीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यः फुल्लन्सनाग्रविटपानिव वायुरुग्णान् / शिक्षाविशेषलघुहस्ततया निमेषा त्तणीचकार शरपूरितवक्त्ररन्ध्रान् / / 63 / / निर्घातोग्रैः कुञ्जलीनाजिघांसु . या॑निर्घोषैः क्षोभयामास सिंहान् / नूनं तेषामभ्यसूयापरोऽभू द्वीर्योदने राजशब्दे मृगेषु / / 64 / / (शालिनी तान्हत्वा गजकुलबद्धतीववैरा न्काकुत्स्थः कुटिलनखाग्रलग्नमुक्तान् / प्रात्मानं रणकृतकर्मणांगजा नामानण्यं गतमिव मार्गणैरमंस्त // 65 / / चमरान्परितः प्रवतिताश्वः क्वचिदाकर्णविकृष्टभल्ल वर्षी / नपतीनिव तान्वियोज्यसद्यः सितबालव्यजनैर्जगाम शान्तिम् // 66 / / . . ( प्रौपच्छन्दसिक ) 20 अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यीचकार / सपदि गतमनस्कश्चित्रमाल्यानुकीर्णे रतिविगलितबन्ध केशपाशे प्रियायाः / / 67 / / ( मालिनी) 25 तस्य कर्कशविहारसंभवं स्वेदमाननविलग्नजालकम् / आचचाम सतुषारशीकरो भिन्नपल्लवपुटो वनानिलः / / 68 / / ( रथोद्धत्ता ) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [काभ्यषट्के (1) रघुवंशम् इति विस्मृतान्यकरणीयमात्मनः - सचिवावलम्बितधुरं धराधिपम् / परिवृद्धरागमनुबन्धसेवया. मृगया जहार चतुरेव कामिनी // 66 / / स ललितकुसुमप्रवालशय्यां ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम् / नरपतिरतिवाहयांबभूव क्वंचिदसमेतपरिच्छदस्त्रियामाम् / / 70 / / (पुष्पिताग्रा) उषसि स गजयूथकर्णतालैः, . पटुपटहध्वनिभिविनीतनिद्रः / / अरमत मधुराणि तत्रशृण्व विहगविकूजितबन्दिमङ्गलानि / / 71 / / अथ जातु रुरागृहीतवा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः / श्रमफेनमुचा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदी तुरंगमेण // 72 // कुम्भपूरणभवः पटुरुच्चै रुच्चचार निनदोऽम्भसि तस्याः / तत्र स द्विरदबृहितशङ्की शब्दपातिनमिषु विससर्ज // 73 // (स्वागता) नृपतेः प्रतिषिद्धमेव तत्कृ ___तवान्पङ्क्तिरथो विलङ्घय यत् / अपथे पदमर्पयन्तिहिश्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः / / 74 / / ( वैतालीयं ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे नवमः सर्गः ] [ 67 हा तातेति ऋन्दितमाकर्ण्य विषण्ण स्तस्यान्विष्यन्वेतसगूढं प्रभवं सः / शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तःशल्य इवासीक्षितिपोऽपि / / 75 / / ( मत्तमयूरं ) तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन . पृष्टान्वयः स जलकुम्भनिषण्णदेहः / तस्मै द्विजेतरतपस्विसुतं स्खलद्भि रात्मानमक्षरपदैः कथयांबभूव / 76 / (वसंत०) तच्चोदितश्च तमनुद्धतशल्यमेव पित्रोः सकाशमवसन्नदृशोनिनाय / ताभ्यां तथागतमुपेत्य तमेकपुत्र मज्ञानतः स्वचरितं नृपतिः शशंस / / 77 / / तौ दंपती बहु विलष्य शिशोः प्रहा शल्यं निखातमुदहारयतामुरस्तः / सोऽभूत्परासुरथ भूमिपति शशाप हस्तापितैर्नयनवारिभिरेव वृद्धः / / 78 / / दिष्टान्तमाप्स्यति भवानपि पुत्रशोका दन्त्ये वयस्यहमिवेति तमुक्तवन्तम् / आक्रान्तपूर्वमिव मुक्तविषं भुजंगं प्रोवाच कोसलपतिः प्रथमापराद्धः / / 76 / / शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभे सानुग्रहो भगवता मयि पातितोऽयम् / - कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो बीजप्ररोहजननी ज्वलनः करोति / / 80 / / 25 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् इत्थंगते गतघणः किमयं विधत्तां वध्यस्तवेत्यभिहितो वसुधाधिपेन / एधान्हुताशनवतः स मुनिर्ययाचे पुत्रं परासुमनुगन्तुमनाः सदारः / / 81 // प्राप्तानुगः सपदि शासनमस्य राजा संपाद्य पातकविलुप्तधृतिनिवृत्तः / अन्तनिविष्टपदमात्मविनाशहेतुं __ शापं दधज्ज्वलनमौर्वमिवाम्बुराशिः / / 82 / / // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये मृगयावर्णनो नाम नवमः सर्गः / / 9 / / // 10 // दशमः सर्गः॥ पृथिवी शासतस्तस्य पाकशासनतेजसः / किंचिदूनमनूनद्धेः शरदामयुतं ययौ / / 1 / / ( अनुटुब् ) न चोपलेभे पूर्वेषामृणनिर्मोक्षसाधनम् / सुताभिधानं स ज्योतिः सद्यः शोकतमोपहम् / / 2 / / अतिष्ठत्प्रत्ययापेक्षसंततिः स चिरं नृपः। . प्रङ्मन्थादनभिव्यक्तरत्नोत्पत्तिरिवार्णवः // 3 // ऋष्यशृङ्गादयस्तस्य सन्तः संतानकाङ्क्षिणः / आरेभिरे जितात्मानः पुत्रीयामिष्टिमृत्विजः / / 4 / / तस्मिन्नवसरे देवाः पौलस्त्योपप्लुता हरिम् / अभिजग्मुनिदाघार्ताश्छायावृक्षमिवाध्वगाः / / 5 / / . ते च प्रापुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपूरुषः / अव्याक्षेपो भविष्यन्त्याः कार्यसिद्धेहि लक्षणम् / / 6 / / भोगिभोगासनासीनं ददृशुस्तं दिवौकसः / . 25 तत्फणामण्डलोदचिर्मणिद्योतितविग्रहम् / / 7 // Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे दशमः सर्गः ] [ 66 श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरितमेखले / अङ्के निक्षिप्तचरणमास्तीर्णकरपल्लवे / / 8 // प्रबुद्धपुण्डरीकाक्षं बालातपनिभांशुकम् / दिवसं शारदमिव प्रारम्भसुखदर्शनम् / / 9 // 5 प्रभानुलिप्तश्रीवत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम् / कौस्तुभाख्यमपां सारं बिभ्राणं बृहतोरसा / / 10 / / बाहुभिविटपाकारैदिव्याभरणभूषितैः / आविर्भूतमपां मध्ये पारिजातमिवापरम् / / 11 / / दैत्यस्त्रीगण्डलेखानां भदरागविलोपिभिः / 10 हेतिभिश्चेतनावद्भिरुदीरितजयस्वनम् / / 12 // मुक्तशेषविरोधेन कुलिशवणलक्ष्मणा / उपस्थितं प्राञ्जलिना विनीतेन गरुत्मता / / 13 / / योगनिद्रान्तविशदैः पावनैरवलोकनैः / भृग्वादीननुगृहन्तं सौखशायनिकानृषीन् / / 14 / / 15 प्रणिपत्य सुरास्तस्मै शमयित्रे सुरद्विषाम् / अथैनं तुष्टुवुः स्तुत्यमवाङ्मनसगोचरम् / / 15 / / नमो विश्वसृजे पूर्वं विश्वं तदनु बिभ्रते / अथ विश्वस्य संहत्रे तुभ्यं त्रेधास्थितात्मने / / 16 / / रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयोऽश्नुते / देशे देशे गुणेष्वेवमवस्थास्त्वम विक्रियः // 17 / / अमेयो मितलोकस्त्वमनर्थी प्रार्थनावहः / अजितो जिष्णुरत्यन्तमव्यक्तो व्यक्तकारणम् / / 18 / / हृदयस्थमना सन्नमकामं त्वां तपस्विनम् / दयालुमनघस्पृष्टं पुराणमजरं विदुः / / 19 // 25 सर्वज्ञस्त्वमविज्ञातः सर्वयोनिस्त्वमात्मभूः / सर्वप्रभुरनीशस्त्वमेकस्त्वं सर्वरूपभाक् / / 20 / / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् सप्तसामोपगीतं त्वां सप्तार्णवजलेशयम् / सप्ताचिमुखमाचख्युः सप्तलोकैकसंश्रयम् / / 21 / / चतुर्वर्गफलं ज्ञानं कालावस्थाश्चतुर्युगाः / चतुर्वर्णमयो लोकस्त्वत्तः सर्वं चतुर्मुखात् / / 22 / / . 5 अभ्यासनिगृहीतेन मनसा हृदयाश्रयम् / ज्योतिर्मयं विचिन्वन्ति योगिनस्त्वां विमुक्तये / / 23 / / अजस्य गृह्णतो जन्म निरीहस्य हतद्विषः / स्वपतो जागरूकस्य याथार्थ्यं वेद्र कस्तव // 24 // . शब्दादीविषयाभोक्तुं चरितुं दुश्चरं तपः / 10 पर्याप्तोऽसि प्रजाः पातुमौदासीन्येन वर्तितुम् // 25 // बहुधाप्यागमैभिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः / / त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया,इवार्णवे // 26 // त्वययवेशितचित्तानां त्वत्समर्पितकर्मणाम् / गतिस्त्वं वीतरागाणामभूयःसंनिवृत्तये / / 27 / / प्रत्यक्षोऽप्यपरिच्छेद्यो मह्यादिमहिमा तव / आप्तवागनुमानाभ्यां साध्यं त्वां प्रति का कथा / / 28 / / केवलं स्मरणेनैव पुनासि पुरुषं यतः / अनेन वृत्तयः शेषा निवेदितफलास्त्वयि // 26 // उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः / स्तुतिभ्यो व्यतिरिच्यन्ते दूराणि चरितानि ते // 30 / / अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते / लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः / / 31 // महिमानं यदुत्कीर्त्य तव संह्रियते वचः / श्रमेण तदशक्त्या वा न गुणानामियत्तया // 32 // 25 इति प्रसादयामासुस्ते सुरास्तमधोक्षजम् / भूतार्थव्याहृतिः सा हि न स्तुतिः परमेष्ठिनः // 33 / / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे दसमः सर्गः ] [ 71 तस्मै कुशलसंप्रश्नव्यजितप्रीतये सुराः / भयमप्रलयोद्वेलादांचख्युर्नैऋतोदधेः / / 34 / / अथ वेलासमासन्नशैलरन्ध्रानुनादिना / स्वरेणोवाच भगवान्परिभूतार्णवध्वनिः / / 35 / / पुराणस्य कवेस्तस्य वर्णस्थानसमीरिता / बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती / / 36 / / बभौ सदशनज्योत्स्ना सा विभोर्वदनोद्गता। निर्यातशेषा चरणाद्गगेवोर्ध्वप्रवर्तिनी // 37 / / जाने वो रक्षसाक्रान्तावनुभावपराक्रमौ / 10 अङ्गिनां तमसेवोभौ गुणौ प्रथममध्यमौ // 38 / / विदितं तप्यमानं च तेन मे भूबनत्रयम् / अकामोपनतेनेव साधोह दयमेनसा // 36 / / कार्येषु चैककार्यत्वादभ्योऽस्मि न वज्रिणा / स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते // 40 // 15 स्वासिधारापरिहृतः कामं चक्रस्य तेन मे / स्थापितो दशमो मूर्धा लभ्यांश इव रक्षसा / / 41 / / स्रष्टुवरातिसर्गात्तु मया तस्य दुरात्मनः / प्रत्यारूढं रिपोः सोढं चन्दनेनेव भोगिनः / / 42 / / धातारं तपसा प्रीतं ययाचे स हि राक्षसः / 20 दैवात्सर्गादवध्यत्वं मर्येष्वास्थापराङ्मुखः // 43 / / सोऽहं दाशरथिभूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम् / करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरःकमलोच्चयम् / / 44 / / अचिराद्यज्वभिर्भागं कल्पितं विधिवत्पुनः / . मायाविभिरनालीढमादास्यध्वे निशाचरैः // 45 / / 25 वैमानिकाः पुण्यकृतस्त्यजन्तु मरुतां पथि / पुष्पकालोकसंक्षोभं मेघावरणतत्पराः / / 46 / / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् मोक्ष्यध्वे स्वर्गबन्दीनां वेणीबन्धानदूषितान्। .. शापयन्त्रितपौलस्त्यबलात्कारकचग्रहैः // 47 / / रावणावग्रहक्लान्तमिति वागमृतेन सः / अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदवे // 48 / / पुरुहूतप्रभृतयः सुरकार्योद्यतं सुराः / अंशैरनुययुविष्णुं पुष्पैर्वायुमिव द्रुमाः / / 46 / / अथ तस्य विशांपत्युरन्ते काम्यस्य कर्मणः / पुरुषः प्रबभूवाग्नेविस्मयेन सहत्विजाम् / / 50 / / हेमपात्रगतं दोामादधानः पयश्चरुम् / 10 अनुप्रवेशादाद्यस्य पुंसस्तेनापि दुर्वहम् / / 51 / / प्राजापत्योपनीतं तदन्नं प्रत्यग्रहीन्नृपः / वृषेव पयसां सारमाविष्कृतमुदन्वता / / 52 / / अनेन कथिता राज्ञो गुणास्तस्यान्यदुर्लभाः / प्रसूति चकमे तस्मिस्त्रैलोक्यप्रभवोऽपि यत् // 53 / / 15 स तेजो वैष्णवं पन्योविभेजे चरुसंज्ञितम् / द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पतिरिवातपम् / / 54 / / अचिता तस्य कौसल्या प्रिया केकयवंशजा / अतः संभावितां ताभ्यां सुमित्रामैच्छदीश्वरः / / 55 / / ते बहुज्ञस्य चित्तज्ञे पत्न्यौ पत्युर्महीक्षितः / चरोरर्धार्धभागाभ्यां तामयोजयतामुभे / / 56 // सा हि प्रणयवत्यासीत्सपत्न्योरुभयोरपि / भ्रमरी वारणस्येव मदनिस्यन्दरेखयोः // 57 / / ताभिर्गर्भः प्रजाभूत्यै दधे देवांशसंभवः / सौरीभिरिव नाडीभिरमृताख्याभिरम्मयः / / 58 / / 25 सममापन्नसत्त्वास्ता रेजुरापाण्डुरत्विषः / अन्तर्गतफलारम्भाः सस्यानामिव संपदः / / 56 / / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे दशमः सर्गः ] [ 73 गुप्तं ददृशुरात्मानं सर्वाः स्वप्नेषु वामनैः / जलजासिगदाशार्ङ्ग चक्रलाञ्छितमूतिभिः // 60 / / हेमपक्षप्रभाजालं गगने च वितन्वता / उह्यन्ते स्म सुपर्णेन वेगाकृष्टपयोमुचा // 61 / / 5 विभ्रत्या कौस्तुभन्यासं स्तनान्तरविलम्बिनम् / प! पास्यन्त लक्ष्म्या च पद्मव्यजनहस्तया / / 62 / / कृताभिषेकैदिव्यायां त्रिस्रोतसि च सप्तभिः / ब्रह्मर्षिभिः परं ब्रह्म गणद्भिरुपतस्थिरे / / 63 / / ताभ्यस्तथाविधास्वप्नात्वा प्रीतो हि पार्थिवः / 10 मेने पराय॑मात्मानं गुरुत्वेन जगद्गुरोः / / 64 / / विभक्तात्मा विभुस्तासामेकः कुक्षिप्वनेकधा / उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव / / 65 / / अथाग्र्यमहिषी राज्ञः प्रसूतिसमये सती। पुत्रं तमोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधिः / / 66 / / 15 राम इत्य भिरामेण वपुषा तस्य चोदितः / नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम् / / 67 / / रघुवंशप्रदीपेन तेनाप्रतिमतेजसा / रक्षागृहगता दीपाः प्रत्यादिष्टा इवाभवन् / 68 / / शय्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ / सैकेताम्भोजवलिना जाह्नवीव शरत्कृशा // 69 / / कैकेय्यास्तनयो जज्ञे भरतो नाम शीलवान् / जनयित्रीमलंचके य: प्रश्रय इव श्रियम् // 70 // सुतौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्रा सुधुवे यमौ / सम्यगाराधिता विद्या प्रबोधविनयाविव / / 71 / / 25 निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत् / अन्वंगादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम् / / 72 / / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] . [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् तस्योदये चतुर्मूः पौलस्त्यचकितेश्वराः / / विरजस्कनभस्वद्भिर्दिश उच्छ्वसिता इव / / 73 / / कृशानुरपघूमत्वात्प्रसन्नत्वात्प्रभाकरः / रक्षोविप्रकृतावास्तामपविद्धशुचाविव // 74 / / दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं राक्षसश्रियः / मरिणव्याजेन पर्यस्ताः पृथिच्यामश्रुबिन्दवः / / 75 / / पुत्रजन्मप्रवेश्यानां तूर्याणां तस्य पुत्रिणः / प्रारम्भं प्रथमं चक्रुर्देवदुन्दुभयो दिवि / / 76 / / संतानकमयी वृष्टिर्भवने चास्य पेतुषी।। सन्मङ्गलोपचाराणां सैवादिरचनाभवत् // 77 / / कुमाराः कृतसंस्कारास्ते धात्रीस्तन्यपायिनः / आनन्देनाग्रजेनेव समं ववृधिरे पितुः / / 78 / / स्वाभाविकं विनीतत्वं तेषां विनयकर्मणा / / मुमूर्छ सहजं तेजो हविषेव हविर्भुजाम् / / 76 / / 15 परस्पराविरुद्धास्ते तद्रघोरनघं कुलम् / अलमुद्दयोतयामासुर्देवारण्यमिवर्तवः / / 80 / / समानेऽपि हि सौभ्रात्रे यथोभौ रामलक्ष्मणौ / तथा भरतशत्रुघ्नौ प्रीत्या द्वन्द्व बभूवतुः / / 81 / / तेषां द्वयोर्द्वयोरैक्यं बिभिदे न कदाचन / 20 यथा वायुविभावस्वोर्यथा चन्द्रसमुद्रयोः / / 82 / / ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च / मनो जह नुनिदाघान्ते श्यामाभ्रा दिवसा इव / / 83 / / स चतुर्धा बभौ व्यस्तः प्रसवः पृथिवीपतेः / . धर्मार्थकाममोक्षाणामवतार इवाङ्गवान् // 84 / / 25 गुणैराराधयामासुस्ते गुरुं गुरुवत्सलाः / तमेव चतुरन्तेशं रत्लैरिव महार्णवाः // 5 // Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकादशमः सर्गः ] [ 75 सुरगज इव दन्तैर्भग्नदत्यासिधारै नय इव पणबन्धव्यक्तयोगैरुपायैः / हरिरिव युगदीर्घ>भिरंशैस्तदीयैः पतिरवनिपतीनां तैश्च काशे चतुभिः / / 86 / / ( मालिनी ) // इति महाकवि श्री कालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये रामावतारो नाम दशमः सर्गः / / 10 / / // 11 // एकादशः सर्गः // कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो राममध्वरविघातशान्तये / काकपक्षधरमेत्य याचितस्तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते / / 1 / / . ( रथोद्धता ) कृच्छलब्धमपिलब्धवर्णभाक्तं दिदेश मुनये सलक्ष्मणम् / 15 अप्यसुप्रणयिनां रघोः कुले न व्यहन्यत कदाचिदर्थिता / / 2 / / यावदादिशति पार्थिवस्तयोनिर्गमाय पुरमार्गसंस्क्रियाम् / तावदाशु विदधे मरुत्सखैः सा सपुष्पजलवर्षिभिर्घनैः / / 3 / / तौ निदेशकरणोद्यतौ पितुर्धन्विनौ चरणयोंनिपेततुः / भूपतेरपि तयोः प्रवत्स्यतोर्नम्रयोरुपरि बाष्पबिन्दवः // 4 // 20 तौ पितुर्नयनजेन वारिणा किंचिदुक्षितशिखण्डकावुभौ / धन्विनौ तमृषिमन्वगच्छतां पौरदृष्टिकृतमार्गतोरणौ // 5 / / लक्ष्मणानुचरमेव राघवं नेतुमैच्छदृषिरित्यसौ नृपः / आशिषं प्रयुयुजे न वाहिनीं सा हि रक्षणविधौ तयोः क्षमा।६। मातृवर्गचरणस्पृशौ मुनेस्तौ प्रपद्य पदवीं महौजसः / 25 रेजतुर्गतिवशात्प्रवतिनौ भास्करस्य मधुमाधवाविव / / 7 / / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् वीचिलोलभुजयोस्तयोर्गतं शैशवाच्चपलमप्यशोभत / तोयदागम इवोद्धयभिद्ययोर्नामधेयसदृशं विचेष्टितम् / / 8 / / तौ बलातिबलयोः प्रभावतो विद्ययोः पथि मुनिप्रदिष्टयोः / मम्लतुर्न मणिकुटिमोचितौ मातृपार्श्वपरिवर्तिनाविव / / 6 / / 5 पूर्ववृत्तकथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः / . उह्यमान इव वाहनोचितः पादचारमपि न व्यभावयत् / 10 / तौ सरांसि रसवद्भिरम्बुभिः कूजितैः श्रुतिसुखैः पतत्त्रिणः / वायवः सुरभिपुष्परेणुभिश्छायया च जलदाः सिषेविरे // 11 // नाम्भसां कमलशोभिनां तथा शाखिनां च न परिश्रमच्छिदाम् / दर्शनेन लघुना यथा तयोः प्रीतिमापुरुभयोस्तपस्विनः / / 12 / / स्थारगुदग्धवपुषस्तपोवमं प्राप्य दाशरथिरात्तकार्मुकः / विग्रहेण मदनस्य चारुणा सोऽभवत्प्रतिनिधिर्न कर्मणा // 13 / / तौ सुकेतुसुतया खिलीकृते कौशिकाद्विदितशापया पथि / निन्यतुः स्थलनिवेशिताटनी लीलयेव धनुषी अधिज्यताम् 14 15 ज्यानिनादमथ गृह्णती तयोः प्रादुरास बहुलक्षपाछविः / ताडका चलकपालकुण्डला कालिकेव निबिडा बलाकिनी / 15 / तीव्रवेगधुतमार्गवृक्षया प्रेतचीवरवसा स्वनोग्रया / अभ्यभावि भरताग्रजस्तया वात्ययेव पितृकाननोत्थया / 16 / उद्यतैक भुजयष्टिमायती श्रोणिलम्बिपुरुषान्त्रमेखलाम् / तां विलोक्य वनितावधे घृणां पत्रिणा सह मुमोच राघवः / 17 / यच्चकार विवरं शिलाघने ताडकोरसि स रामसायकः / अप्रविष्ट विषयस्य रक्षसां द्वारतामगमदन्तकस्य तत् / / 18 / / बाणभिन्नहृदया निपेतुषी सा स्वकाननभुवं न केवलाम् / विष्टपत्रयपराजयस्थिरां रावणश्रिथमपि व्यकम्पयत् / / 19 / / 25 राममन्मथश रेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी / गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसति जगाम सा // 20 // Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकादशमः सर्गः ] [ 77 नैऋतघ्नमथ मन्त्रवन्मुनेः प्रापदस्त्रमवदानतोषितात् / ज्योतिरिन्धननिपाति भास्करात्सूर्यकान्त इव ताडकान्तक: 21 वामनाश्रमपदं ततः परं पावनं श्रुतमृषेरुपेयिवान् / उन्मनाः प्रथमजन्मचेष्टितान्यस्मरन्नपि बभूव राघवः / / 22 / / 5 पाससाद मुनिरात्मनस्ततः शिष्यवर्गपरिकल्पिताहणम् / बद्धपल्लवपुटाञ्जलिद्रुमं दर्शनोन्मुखमृगं तपोवनम् // 23 // तत्र दीक्षितमृषि ररक्षतुर्विघ्नतो दशरथात्मजौ शरैः / लोकमन्धतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः शशिदिवाकराविव / 24 / वीक्ष्य वेदिमथ रक्तबिन्दुभिर्बन्धुजीवपृथुभिः प्रदूषिताम् / 10 संभ्रमोऽभवदपोढकर्मणामृत्विजां च्युतविकततस्र चाम् // 25 // उन्मुखः सपदि लक्ष्मणाग्रजो बाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन् / रक्षसां बलमपश्यदम्बरे गध्रपक्षपवनेरितध्वजम् // 26 / / तत्र यावधिपती मर्खद्विषां तौ शख्यमकरोत्स नेतरान् / कि महोरगविसपिविक्रमो राजिलेषु गरुडः प्रवर्तते / / 27 / / 15 सोऽस्त्रमुग्रजवमस्त्रकोविदः संदधे धनुषि वायुदैवतम् / तेन शैलगुरुमप्यपातयत्पाण्डुपत्रमिव ताडकासुतम् / / 28 / / यः सुबाहुरिति राक्षसोऽपरस्तत्र तत्र विससर्प मायया / तं क्षुरप्रशकलीकृतं कृती पत्त्रिणां व्यभजदाश्रमाद्वहिः / / 29 / / इत्यपास्तमखविघ्नयोस्तयोः सांयुगीनमभिनन्द्य विक्रमम् / ऋत्विजः कुलपतेर्यथाक्रमं वाग्यतस्य निरवर्तयन्क्रियाः।।३०।। तौ प्रणामचलकाकपक्षको भ्रातराववभृथाप्लुतो मुनिः। .. आशिषामनुपदं समस्पृश दर्भपाटिततलेन पाणिना / / 31 / / तं न्यमन्त्रयत संभृतऋतुमै थिलः स मिथिलां वजन्वशी / राघवावपि निनाय विभ्रतौ तद्धनुःश्रवण कुतूहलम् / / 32 / / 25 तैः शिवेषु वसतिर्गताध्वभिः सायमाश्रमतरुष्वगृह्यत / येषु दीर्घतपसः परिग्रहो वासवक्षणकल त्रतां ययौ / / 33 / / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् प्रत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु गौतमवधूः शिलामयी। स्वं वपुः स किल किल्बिषच्छिदां रामपादरजसामनुग्रहः / / 34 / / राघवान्वितमुपस्थितं मुनि तं निशम्य जनको जनेश्वरः / अर्थकामसहितं सपर्यया देहबद्धमिव धर्ममभ्यगात् // 35 / / तौ विदेहनगरीनिवासिनां गां गताविव दिवः पुनर्वसू / मन्यते स्म पिबतां विलोचनैः पक्षमपातमपि वञ्चनां मनः / 36 / यूपवत्यवसिते क्रियाविधौ काल वित्कुशिकवंशवर्धनः / राममिष्वसनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांबभूव सः / / 37 / / तस्य वीक्ष्य ललितं वपुः शिशोः पार्थिवः प्रथितवंशजन्मनः / स्वं विचिन्त्य च धनुर्दु रानमं पीडितो दुहितृशुल्कसंस्थया / 38 / अब्रवीच्च भगवन्मतङ्गजैर्यबृहद्भिरपि कर्म दुष्करम् / तत्र नाहमनुमन्तुमुत्सहे मोघवृत्ति कलभस्य चेष्टितम् / / 3 / / हपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तांत धनुषा धनुर्भृतः / ज्यानिघातकठिनत्वचो भुजान्स्वान्विधूय धिगिति प्रतस्थिरे 40 15 प्रत्युवाच तमृषिनिशम्यतां सारतोऽयमथवा गिरा कृतम् / चाप एव भवतो भविष्यति व्यक्तशक्तिरशनिगिराविव / 41 / एवमाप्तवचनात्स पौरुषं काकपक्षकधरेऽपि राघवे / श्रद्दधे त्रिदशगोपमात्रके दाहशक्तिमिव कृष्णवर्त्मनि / / 42 / / व्यादिदेश गणशोऽथ पार्श्वगान्कार्मुकाभिहरणाय मैथिलः / तैजसस्य धनुषः प्रवृत्तये तोयदानिव सहस्रलोचनः / / 43 / / तत्प्रसुप्तभुजगेन्द्रभीषणं वीक्ष्य दाशरथिराददे धनुः / विद्रुतक्रतुमृगानुसारिणं येन बाणमसृजद्वषध्वजः / / 44 / / आततज्यमकरोत्स संसदा विस्मयस्तिमितनेत्रमीक्षितः / शैलसारमपि नातियत्नतः पुष्पचापमिव पेशलं स्मरः / / 4 / / 25 भज्यमानमतिमात्रकर्षणात्तेन वज्रपरुषस्वनं धनुः / भार्गवाय दृढमन्यवे पुनः क्षत्त्रमुद्यतमिव न्यवेदयत् / / 46 / / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकादशमः सर्गः ] [ 79 दृष्टसारमथ रुद्रकामु के वीर्यशुल्कमभिनन्द्य मैथिलः / राघवाय तनयामयोनिजां रूपिणीं श्रियमिव न्यवेदयत् / 47 / मैथिलः सपदि सत्यसङ्गरो राघवाय तनयामयोनिजाम् / संनिधौ द्युतिमतस्तपोनिधेरग्निसाक्षिक इवातिसृष्टवान् / 48 / 5 प्राहिणोच्च महितं महाद्युतिः कोसलाधिपतये पुरोधसम् / भृत्यभावि दुहितुः परिग्रहाद्दिश्यतां कुल मिदं निमेरिति / 49 / अन्वियेष सदृशीं स च स्नुषां प्राप चैनमनुकूलवाग्द्विजः / सद्य एव सुकृतां हि पच्यते कल्पवृक्षफलमि काङ्क्षितम् / 50 / तस्य कल्पितपुरस्क्रियाविधेः शुश्रुवान्वचनमग्रजन्मनः / उच्चचाल बलभित्सखो वशी सैन्य रेणमुषितार्कदीधितिः / 51 / आससाद मिथिलां स वेष्टयन्पीडितोपवनपादपां बलैः / प्रीतिरोधमसहि सा पुरी स्त्रीव कान्तपरिभोगमायतम् // 52 // तौ समेत्य समये स्थितावुभौ भूपती वरुणवासवोपमौ / कन्यकातनयकौतुकक्रियां स्वप्रभावसदृशीं वितेनतुः / / 53 / / 15 पार्थिवीमुदवहद्रघूढहो लक्ष्मणस्तदनुजामथोमिलाम् / यौ तयोरवरजौ वरौजसौ तौ कुशध्वजसुते सुमध्यमे / / 54 / / ते चतुर्थसहितास्त्रयो बभुः सूनवो नववधूपरिग्रहाः / सामदानविधिभेदविग्रहाः सिद्धिमन्त इव तस्य भूपतेः / / 5 / / ता नराधिपसुता नृपात्मजैस्ते च ताभिरगमन्कृतार्थताम् / . 20 सोऽभवद्वरवधूसमागमः प्रत्ययप्रकृतियोगसंनिभः / / 56 / / एवमात्तरतिरात्मसंभवांस्तान्निवेश्य चतुरोऽपि तत्र सः / अध्वसु त्रिषु विसृष्टमैथिलः स्वां पुरी दशरथो न्यवर्तत / 57 / तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वर्त्मसु ध्वजतरुप्रमाथिनः / चिक्लिशु शतया वरूथिनीमुत्तटा इव नदीरयाः स्थलीम् / 58 / 25 लक्ष्यते स्म तदनन्तरं रविर्बद्धभीमपरिवेषमण्डलः / वैनतेयशमितस्य भोगीनो भोगवेष्टित इव च्युतो मणिः / 59 / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् श्येनपक्षपरिधूसरालकाः सांध्यमेघरुधिरावाससः / ' अङ्गना इव रजस्वला दिशो नो बभूवुरवलोकनक्षमाः // 60 / / भास्करश्च दिशमध्युवास यां तां श्रिताः प्रतिभयं ववासिरे / क्षत्त्रशोणितपितृक्रियोचितं चोदयन्त्य इव भार्गवं शिवाः / 61 / तत्प्रतीपपवनादि वैकृतं प्रेक्ष्य शान्तिमधिकृत्य कृत्यवित् / अन्वयुक्त गुरुमीश्वरः क्षितेः स्वन्तमित्यलघयत्स तद्व्यथाम् / तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनीमुखे / यः प्रमृज्य नयनानि सैनिकैर्लक्षणीयपुरुषाकृतिश्चिरात् / / 63 / / पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूजितं दधत् / 10. यः ससोम इव धर्मदीधितिः सद्विजिह्व इव चन्दनद्रुमः // 64 / / येन रोषपरुषात्मनः पितुः शासने स्थितिभिदोऽपि तस्थुषा / वेपमानजननीशिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो मही / / 6 / / अक्षबीजवलयेन निर्बभौ दक्षिणश्रवणसंस्थितेन यः / क्षत्रियान्तकरणकविंशतेाजपूर्वगणनामिवोद्वहन् / / 66 / / 15 तं पितुर्वधभवेन मन्युना राजवंशनिधनाय दीक्षितम् / बालसूनुरवलोक्य भार्गवं स्वां दशां च विषसाद पार्थिवः / 67 / नाम राम इति तुल्यमात्मजे वर्तमानमहिते च दारुणे। हृद्यमस्य भयदायि चाभवद्रत्नजातमिव हारसर्पयोः / / 68 / / अर्घ्यमय॑मिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः / क्षत्रकोपदहनाचिषं ततः संदधे दृशमुदग्रतारकाम् / / 66 / / तेन कार्मु कनिषक्तमुष्टिना राघवो विगतभीः पुरोगतः / अंगुलीविवरचारिणं शरं कुर्वता निजगदे युयुत्सुना // 70 / / क्षत्त्रजातमपकारवैरि मे तन्निहत्य वहुशः शमं गतः / सुप्तसर्प इव दण्डघट्टनाद्रोषितोऽस्मि तव विक्रमश्रवात् / 71 / 25 मैथिलस्य धनुरन्यपार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः / तन्निशम्य भवता समर्थये वीर्यशृङ्गमिव भग्नमात्मनः / / 72 / / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकादशमः सर्गः ] [ 81 अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द उच्चरित एव मामगात् / वीडमावहति मे स संप्रति व्यस्तवृत्तिरुदयोन्मुखे त्वयि / / 73 / / बिभ्रतोऽस्त्रमचलेऽप्यकुण्ठितं द्वौ रिपू मम मतो समागसौ। धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च कीर्तिमपहर्तु मुद्यतः / / 74 / / 5 क्षत्रियान्तकरणोऽपि विक्रमस्तेन मामवति नाजिते त्वयि / पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि यः 75 / विद्धि चात्तबलमोजसा हरेरैश्वरं धनुरभाजि यत्त्वया। खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तद्रुमम् / / 76 / / तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया सङ्गमय्य सशरं विकृप्यताम् / तिष्ठतु प्रधनमेवमप्यहं तुल्यबाहुत रसा जितस्त्वया / / 77 / / कातरोऽसि यदि वोद्गताचिषा तजितः परशुधारया मम / ज्यानिघातकठिनाङ्गुलिर्वथा बध्यतामभययाचनाञ्जलिः 78 एवमुक्तवति भीमदर्शने भार्गवे स्मितविकम्पिताधरः / तद्धनुर्ग्रहणमेव राघवः प्रत्यपद्यत समर्थमुत्तरम् / / 79 / / 15 पूर्वजन्मधनुषा समागतः सोऽतिमात्रल घुदर्शनोऽभवत् / केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदश चापलाञ्छितः 80 तेन भूमिनिहितैककोटिं तत्कार्मुकं च बलिनाधिरोपितम् / निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धूमकेतनः / / 81 / / तावुभावपि परस्परस्थितौ वर्धमानपरिहीनतेजसौ। 20 पश्यति स्म जनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव / 82 / तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि / स्वं च संहितममोघमाशुगं व्याजहार हरसूनुसंनिभः / / 83 / / न प्रहर्तुमलमस्मि निर्दयं विप्र इत्यभिभवत्यपि त्वयि / शंस कि गतिमनेन पत्त्रिणा हन्मि लोकमुत ते मखाजितम् / 84 / 25 प्रत्युवाच तमृषिर्न तत्त्वतस्त्वां न वेद्मि पुरुषं पुरातनम् / गां गतस्य तव धाम वैष्णवं कोपितो ह्यसि मया दिक्षु णा।८५। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् भस्मसात्कृतवतः पितृद्विष पात्रसाच्च वसुधां ससागराम् / आहितो जयविपर्ययोऽपि मे श्लाघ्य एव परमेष्ठिना त्वया 86 तद्गति मतिमतां वरेप्सितां पुण्यंतीर्थगमनाय रक्ष मे / पीडयिष्यति न मां खिलीकृता स्वर्गपद्धतिरभोगलोलुपम् / 87 / 5 प्रत्यपद्यत तथेति राघवः प्राङ्मुखश्च विससर्ज सायकम् / . भार्गवस्य सुकृतोऽपि सोऽभवत्स्वर्गमार्गपरिघो दुरत्ययः / 88 / राघवोऽपि चरणौ. तपोनिधेः क्षम्यतामिति वदन्समस्पृशत् / निजितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये / / 8 / / राजसत्त्वमवधूय मातृकं पित्र्यमस्मि गमितः शमं यदा / नन्वनिन्दितफलो मम त्वया निग्रहोऽप्ययमनुग्रहीकृतः // 10 / / साधयाम्यहमविघ्नमस्तु ते देवकार्यमुपपादयिष्यतः / ऊचिवानिति वचः सलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजमृषिस्तिरोदधे / / 1 / तस्मिन्गते विजयिनं परिरभ्य राम स्नेहादमन्यत पिता पुनरेव जातम् / 15 तस्याभवत्क्षणशुचः परितोषलाभः कक्षाग्निलचिततरोरिवं वृष्टिपातः / / 62 / / (वसंत०) अथ पथि गमयित्वा क्लप्तरम्योपकार्ये .... कतिचिदवनिपालः शर्वरीः शर्वकल्पः / पुरमविशदयोध्यां मैथिलीदर्शनीनां कुवलयितगवाक्षां लोचनैरङ्गनानाम् / / 3 / / (मालिनी) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये सीताविवाहवर्णनो नामैकादशः सर्गः / / 11 // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वादशः सर्गः ] [ 83 // 12 // अथ द्वादशः सर्गः।। निविष्टविषयस्नेहः स दृशान्तमुपेयिवान् / आसीदासन्ननिर्वाणः प्रदीपाचिरवोषसि / / 1 / / तं कर्णमूलमागत्य रामे श्रीय॑स्यतामिति / 5 कैकेयीशङ्कयेवाह पलितच्छद्मना जरा / / 2 / / सा पौरान्पौरकान्तस्य रामस्याभ्युदयश्रुतिः / प्रत्येकं ह्लादयांचक्रे कुल्येवोद्यानपादपान् / / 3 / / तस्याभिषेकसंभारं कल्पितं क्रूरनिश्चया / दूषयामास कैकेयी शोकोष्णैः पार्थिवाश्रुभिः / / 4 / / 10 सा किलाश्वसिता चण्डी भ; तत्संश्रुतौ वरौ / उद्ववामेन्द्रसिक्ता भूबिलमग्नाविवोरगौ // 5 // तयोश्चतुर्दशैकेन रामं प्रावाजयत्समाः / द्वितीयेन सुतस्यैच्छद्वैधव्यैकफलां श्रियम् / / 6 / / पित्रा दत्तां रुदन् रामः प्राङ्महीं प्रत्यपद्यत / 15 पश्चाद्वनाय गच्छेति तदाज्ञां मुदितोऽग्रहीत् / / 7 / / दधतो मङ्गलक्षौमे वसानस्य च वल्कले / ददृशुविस्मितास्तस्य मुख रागं समं जनाः / / 8 / / सीतालक्ष्मणसखः सत्यातुद्गुरुमलोपयन् / विवेश दण्डकारण्यं प्रत्येकं च सतां मनः / / 9 / / राजाऽपि तद्वियोगातः स्मृत्वा शापं स्वकर्मजम् / शरीरत्यागमात्रेण शुद्धिलाभममन्यत // 10 / / विप्रोषितकुमारं तद्राज्यमस्तमितेश्वरम् / रन्ध्रान्वेषणदक्षाणां द्विषामामिषतां ययौ / / 11 / / अथानाथा: प्रकृतयो मातृबन्धुनिवासिनम् / 25 मौलैरानाययामासुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः / / 12 / / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशे श्रुत्वा तथाविधं मृत्यु कैकेयीतनयः पितुः / ' मातुन केवलं स्वस्याः श्रियोऽप्यासीत्पराङ्मुखः // 13 / / ससैन्यश्चान्वगाद्रामं दर्शितानाश्रमालयः / तस्य पश्यन्ससौमित्रेदश्रुर्वसतिद्रुमान् / / 14 / / 5 चित्रकूटवनस्थं च कथितस्वर्गतिगुरोः / लक्ष्म्या निमन्त्रयांचके तमनुच्छिष्टसंपदा // 15 // स हि प्रथमजे तस्मिन्नकृतश्रीपरिग्रहे / . . परिवेत्तारमात्मानं मेने स्वीकरणाद्भवः / / 16 / / तमशक्यमपाक्रष्टु निदेशात्स्वर्गिणः पितुः / ययाचे पादुके पश्चात्कर्तुं राज्याधिदेवते / / 17 / / स विसृष्टस्तथेत्युक्त्वा भ्रात्रा नैवाविशत्पुरीम् / नन्दिग्रामगतस्तस्य राज्यं न्यासमिवाभुनक् / / 18 / / दृढभक्तिरिति ज्येष्ठे राज्यतृष्णापराङ्मुखः / मातुः पापस्य भरतः प्रायश्चित्तमिवाकरोत् / / 19 / / 15 रामोऽपि सह वैदेह्या वने वन्येन वर्तयन् / चचार सानुजः शान्तो वृद्धेश्वाकुव्रतं युवा / / 20 / / प्रभावस्तम्भितच्छायमाश्रितः स वनस्पतिम् / कदाचिदके सीतायाः शिश्ये किंचिदिव श्रमात् // 21 // ऐन्द्रिः किल नखैस्तस्या विददार स्तनौ द्विजः / प्रियोपभोगचिह्न षु पौरोभाग्य मिवाचरन् // 22 // तस्मिन्नास्थदिषीकास्त्रं रामो रामावबोधितः / आत्मानं मुमुचे तस्मादेकनेत्रव्ययेन सः / / 23 / / रामस्त्वासन्नदेशत्वाद्भरतागमनं पुनः / . आशङ्कयोत्सुकसारङ्गां चित्रकूटस्थली जहौ / / 24 / / 25 प्रययावातिथेयेषु वसन् ऋषिकुलेषु सः / / दक्षिणां दिशमृक्षेषु वार्षिकेष्विव भास्करः / / 25 / / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वादशः सर्गः ] [ 85 बभौ तमनुगच्छन्ती विदेहाधिपतेः सुता / प्रतिषिद्धापि कैकेय्या लक्ष्मीरिव गुणोन्मुखी / / 26 / / अनसूयातिसृष्टेन पुण्यगन्धेन काननम् / सा चकाराङ्गरागेण पुष्पोच्चलितषट्पदम् / / 27 / / 5 संध्याभ्रकपिशस्तस्य विराधो नाम राक्षसः / अतिष्ठन्मार्गमावृत्य रामस्येन्दोरिव ग्रहः / / 28 / / . स जहार तयोर्मध्ये मैथिली लोकशोषणः / / नभोनभस्ययोवृष्टिमवग्रह इवान्तरे / / 26 // तं विनिष्पिष्य काकुत्स्थौ पुरा दूषयति स्थलीम् / 10 गन्धेनाशुचिना चेति वसुधायां निचख्नतुः / / 30 / / पञ्चवट्यां ततो रामः शासनात्कुम्भजन्मनः / अनपोढस्थितिस्तस्थौ विन्ध्याद्रिः प्रकृताविव // 31 / / रावणावरजा तत्र .राघवं मदनातुरा / अभिपेदे निदाघार्ता व्यालीव मलयद्मम् / / 32 / / 15 सा सीतासंनिधावेव तं वने कथितान्वया / प्रत्यारूढो हि नारीणामकालज्ञो मनोभावः / / 33 / / कलत्रवानहं बाले कनीयांसं भजस्व मे / इति रामो वुषस्यन्तीं वृषस्कन्धः शशास ताम् // 34 / / ज्येष्ठाभिगमनात्पूर्वं तेनाप्यनभिनन्दिता / .. 20 साभूद्रामाश्रया भूयो नदीवोभयकूलभाक् // 35 // संरम्भं मैथिलीहासः क्षणसौम्यां निनाय ताम् / निवातस्तिमितां वेलां चन्द्रोदय इवोदधेः / / 36 / / फलमस्योपहासस्य सद्यः प्राप्स्यसि पश्य माम् / मृग्याः परिभवो व्याघ्र यामित्यवेहि त्वया कृतम् / / 37 / / 25 इत्युक्त्वा मैथिली भर्तुरड्के निविशती भयात् / रूपं शूर्पणखा नाम्नः सदृशं प्रत्यपद्यत / / 38 / / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् 10 लक्ष्मणः प्रथमं श्रुत्वा कोकिलामञ्जुवादिनीम् / ' शिवाघोरस्वनां पश्चाबुबुधे विकृतेति ताम् / / 39 / / पर्णशालामथ क्षिप्रं विकृष्टासिः प्रविश्य सः / वैरूप्यपौनरुक्त्येन भीषणां तामयोजयत् / / 40 / / 5 सा वक्रनखधारिण्या वेणुकर्कशपर्वया / . अङ्कुशाकारयागुल्या तावतर्जयदम्बरे / / 41 / / प्राप्य चाशु जनस्थानं खरादिभ्यस्तथाविधम् / रामोपक्रममाचख्यौ रक्षःपरिभवं नवम् / / 42 / / मुखावयवलू नां तां नैऋता यत्पुरो दधुः / रामाभियायिनां तेषां तदेवाभूदमङ्गलम् / / 43 / / उदायूधानापततस्तान्दृप्तान्प्रेक्ष्य राघवः / निदधे विजयाशंसां चापे सीतां च लक्ष्मणे // 44 / / एको दाशरथिः कामं यातुधानाः सहस्रशः / ते तु यावन्त एवाजौ तावांश्च ददृशे स तैः // 45 / / 15 असज्जनेन काकुत्स्थः प्रयुक्तमथ दूषणम् / न चक्षमे शुभाचारः स दूषणमिवात्मनः // 46 / / तं शरैः प्रतिजग्राह खरत्रिशिरसौ च सः / क्रमशस्ते पुनस्तस्य चापात्सममिवोद्ययुः / / 47 / / तैस्त्रयाणां शितैर्बाणैर्यथापूनविशुद्धिभिः / आयुर्देहातिगैः पीतं रुधिरं तु पतत्त्रिभिः // 48 // तस्मिन्रामशरोत्कृत्ते बले महति रक्षसाम् / / उत्थितं ददृशेऽन्यच्च कबन्धेभ्यो न किंचन / / 46 / / सा बाणवर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम् / . अप्रबोधाय सुष्वाप गृध्रच्छाये वरूथिनी // 50 // 25 राघवास्त्रविदीर्णानां रावणं प्रति रक्षसाम् / .. तेषां शूर्पणखैवैका दुष्प्रवृत्तिहराऽभवत् // 51 / / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वादशः सर्गः ] [ 87 निग्रहात्स्वसूराप्तानां वधाच्च धनदानुजः / रामेण निहितं मेने पदं दशसु मूर्धसु // 52 / / रक्षसा मृगरूपेण वञ्चयित्वा स राघवौ / जहार सीतां पक्षीन्द्रप्रयासक्षणविघ्नितः / / 53 / / 5 तौ सीतान्वेषिणौ गधं लूनपक्षमपस्यताम् / प्राणैर्दशरथप्रीतेरनृणं कण्ठतिभिः / / 54 / / स रावणहृतां ताभ्यां वचसाचष्ट मैथिलीम् / आत्मनः सुमहत्कर्म व्रणैरावेद्य संस्थितः / / 55 / / तयोस्तस्मिन्नवीभूतपितृव्यापत्तिशोकयोः / 10 पितरीवाग्निसंस्कारात्परा ववृतिरे क्रियाः // 56 / / वधनिधू तशापस्य कबन्धस्योपदेशतः / मुमूर्च्छ सख्यं रामस्य समानव्यसने हरौ / / 57 / / स हत्वा वालिनं वीरस्तत्पदे चिरकाङ्क्षिते / धातोः स्थान इवादेशं सुग्रीवं संन्यवेशयत् / / 58 / / 15 इतस्तातश्च पैदेहीमन्वेष्टु भर्तृ चोदिताः / कपयश्चेरुरार्तस्य रामस्येव मनोरथाः / / 56 // प्रवृत्तापलब्धायां तस्याः संपातिदर्शनात् / मारुतिः सागरं तीर्णः संसारमिव निर्ममः / / 60 / / दृष्टा विचिन्वता तेन लङ्कायां राक्षसीवृता। 20 जानकी विषवल्लीभिः परीतेव महौषधिः // 61 // तस्यै भर्तुरभिज्ञानमगुलीयं ददौ कपिः / प्रत्युद्गतमिवानुष्णैस्तदानन्दाश्रुबिन्दुभिः / / 62 / / निर्वाप्य प्रियसंदेशैः सीतामक्षवधोद्धतः / स ददाह पुरीं लङ्कां क्षणसोढारिनिग्रहः / / 63 / / 25 प्रत्यभिज्ञानरत्नं च रामायादर्शयत्कृती / हृदयं स्वयमायातं नैदेह्या इव मूतिमत् / / 64 / / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् स प्राप हृदयन्यस्तमरिणस्पर्शनिमीलितः / अपयोधरसंसर्गी प्रियालिङ्गननिर्वृतिम् / / 65 / / श्रुत्वा रामः प्रियोदन्तं मेने तत्सङ्गमोत्सुकः / महार्णवपरिक्षेपं लङ्कायाः परिखाल घुम् // 66 / / 5 स प्रतस्थेऽरिनाशाय हरिसैन्यैरनुद्रुतः / न केवलं भुवः पृष्ठे व्योम्नि संबाधतिभिः / / 67 // निविष्टमुदधेः कूले तं प्रपेदे विभीषणः / स्नेहाद्राक्षसलक्ष्म्येव बुद्धिमाविश्य चोदितः // 68 / / तस्मै निशाचरैश्वर्यं प्रतिशुश्राव राघवः / 10 काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः / / 69 / / स सेतु बन्धयामास प्लवगैर्लवणाम्भसि / रसातलादिवोन्मग्नं शेषं स्वप्नाय शाङ्गिणः // 70 // तेनोत्तीर्य पथा लङ्कां रोधयामास पिङ्गलैः / द्वितीयं हेमप्राकारं कुद्भिरिव वानरैः // 71 / / 15 रणः प्रववृते तत्र भीमः प्लवगरक्षसाम् / दिग्विजम्भितकाकुत्स्थपौलस्त्यजयघोषणः / / 72 / / पादपाविद्धपरिघः शिलानिष्पिष्टमुद्गरः / अतिशस्त्रनखन्यासः शैलरुग्णमतंगजः // 73 / / अथ रामशिरश्छेददर्शनोभ्रान्तचेतनाम् / सीतां मायेति शंसन्ती त्रिजटा समजीवयत् // 74 / / कामं जीवति मे नाथ इति सा विजहौ शुचम् / प्राङ्मत्वा सत्यमस्यान्तं जीवितास्मीति लज्जिता / / 75 / / गरुडापातविश्लष्टमेघनादास्त्रबन्धनः / दाशरथ्योः क्षणक्लेश: स्वप्नवृत्त इवाभवत् / / 76 / / 25 ततो बिभेद पौलस्त्यः शक्त्या वक्षसि लक्ष्मणम् / रामस्त्वनाहतोऽप्यासीद्विदीर्णहृदयः शुचा // 77 / / 20 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे द्वादशः सगः ] स मारुतिसमानीप्तमहौषधिहतव्यथः / लङ्कास्त्रीणां पुनश्चक्रे विलापाचार्यकं शरैः / / 78 / / स नादं मेघनादस्य घनुश्चेन्द्रायुधप्रभम् / मेधस्येव शरत्कालो न किंचित्पर्यशेषयत् / / 76 / / 5 कुम्भकर्णः कपीन्द्रेण तुल्यावस्थः स्वसुः कृतः / रुरोध रामं शृङ्गीव टङ्कच्छिन्नमनःशिलः / / 80 / / अकाले बोधितो भ्रात्रा प्रियस्वप्नो वृथा भवान् / रामेषुभिरितीवासौ दीर्घनिद्रां प्रवेशितः / / 81 / / इतराण्यपि रक्षांसि पेतुर्वानरकोटिषु / / रजांसि समरोत्थानि तच्छोणितनदीष्विव / / 82 / / निर्ययावथ पौलस्त्य पुनयुद्धाय मन्दिरात् / अरावणमरामं वा जगदद्येति निश्चितः / / 83 / / रामं पदातिमालोक्य लंकेशं च वरूथिनम् / हरियुग्यं रथं तस्मै प्रजिघाय पुरंदरः / / 84 / / 15 तमाधूतध्वजपटं व्योमगङ्गोमिवायुभिः / देवसूतभुजालम्बी जैत्रमध्यास्त राघवः // 85 / / मातलिस्तस्य माहेन्द्रमामुमोच तनुच्छदम् / यत्रोत्पलदल क्लैब्यमस्त्राण्यापुः सुरद्विषाम् / / 86 / / अन्योन्यदर्शनप्राप्तविक्रमावसरं चिरात् / 20 रामरावणयोर्यु द्धं चरितार्थमिवाभवत् / / 87 / / भुजमू?रुबाहुल्यादेकोऽपि धनदानुजः / ददृशे ह्ययथापूर्वो मातृवंश इव स्थितः / / 88 / / जेतारं लोकपालानां स्वमुखैरचितेश्वरम् / रामस्तुलितकैलासमराति बह्वमन्यत / / 86 / / 25 तस्य स्फुरति पौलस्त्यः सीतासंगमशंसिनि / निचखानाधिकक्रोधः शरं सव्येतरे भुजे // 10 // Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् रावणस्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः / विवेश भुवमाख्यातुमुरगेभ्य इव प्रियम् // 11 // वचसैव तयोर्वाक्यमस्त्रमस्त्रेण निघ्नतोः / ... अन्योन्यजयसंरम्भो ववृधे वादिनोरिव / / 62 / / विक्रमव्यतिहारेण सामान्याभूद्वयोरपि / . जयश्रीरन्तरा वेदिमत्तवारणयोरिव / / 63 / / कृतप्रतिकृतप्रीतैस्तयोमुक्तां सुरासुरैः / परस्परशरवाताः पुष्पवृष्टि न से हिरे // 64 / / अयःशङ्कुचितां रक्षः शतघ्नीमथ शत्रवे / हृतां वैवस्वतस्येव कूटशाल्मलिम क्षिपत् // 65 / / राघवो रथमप्राप्तां तामाशां च सुरद्विषाम् / अर्धचन्द्रमुखैर्बाणैश्चिच्छेद कदलीसुखम् / / 66 / / अमोघं संदधे चास्मै धनुष्येकधनुर्धरः / ब्राह्ममस्त्रं प्रियाशोकशल्यनिष्कर्षणौषधम् / / 67 / / तद्योम्नि शतधा भिन्नं ददृशे दीप्तिमन्मुखम् / वपुर्महोरगस्येव करालफणमण्डलम् / / 68 // तेन मन्त्रप्रयुक्तेन निमेषार्धादपातयत् / . स रावणशिरःपक्तिमज्ञातवणवेदनाम् / / 66 / / बालार्कप्रतिमेवाप्सु वीचिभिन्ना पतिष्यतः / 20 रराज रक्षःकायस्य कण्ठच्छेदपरम्परा / / 100 // मरुतां पश्यतां तस्य शिरांसि पतितान्यपि / मनो नातिविशश्वास पुनःसंधानशङ्किनाम् // 101 / / अथ मदगुरुपक्षैर्लोकपाल द्विपाना- . ___ मनुगतमलिवृन्दैर्गण्डभित्तीविहाय / उपनतमणिबन्धे मूनि पौलस्त्यशत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्ष पपात / / 102 / / (मालिनी) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे त्रयोदशः सर्गः ] [ 61 यन्ता हरेः सपदि संहृतकामुकज्य मापृच्छय राघवमनुष्ठितदेवकार्यम् / नामाङ्करावणशराङ्कितकेतुयष्टिमूर्ध्वं रथं हरिसहस्रयुजं निनाय / / 103 / / ( वसंत० ) रघुपतिरपि जातवेदोविशुद्धां प्रगृह्य प्रियां प्रियसुहृदि विभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः / रविसुतसहितेन तेनानुयातः ससौमित्रिणा भुजविजितविमानरत्नाधिरूढः प्रतस्थे पुरीम् 104 (हरिणी) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये रावणवधो नाम द्वादशः सर्गः / / 12 / / // 13 // अथ त्रयोदशः सर्गः // अथात्मनः शब्दगुणं गुणज्ञः पदं विमानेन विगाहमानः / 15 रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिधानो हरिरित्युवाच 1 वैदेहि पश्यामलयाद्विभक्तं मत्सेतुना फेनिलमम्बुराशिम् / छायापथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशमाविष्कृतचारुतारम् / / 2 / / गुरोयियक्षोः कपिलेन मेध्ये रसातलं संक्रमिते तुरंगे। तदर्थमुर्वीमवदारयद्भिः पूर्वैः किलायं परिवधितो नः / / 3 / / गर्भं दधत्यर्कमरीचयोऽस्मद्विवृद्धिमत्राश्नुवते वसूनि / अबिन्धनं वह्निमसौ बिभर्ति प्रह्लादनं ज्योतिरजन्यनेन // 4 // तां तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप्य दिशो महिम्ना। विष्णोरिवास्यानवधारणीयमीक्तया रूपमियत्तया वा // 5 // Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् नाभिप्ररूढाम्बुरुहासनेन संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा। अमुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहत्य लोकान्पुरुषोऽधिशेते // 6 // पक्षच्छिदा गोत्रभिदात्तगन्धाः शरण्यमेनं शतशो महीध्राः / नृपा इवोपप्लविनः परेभ्यो धर्मोत्तरं मध्यममाश्रयन्ते / / 7 / / रसातलादादिभवेन पुंसा भुवः प्रयुक्तोद्वहन क्रियायाः / अस्याच्छमम्भः प्रलयप्रवृद्धं मुहूर्तवक्त्राभरणं बभूव / / 8 / / मुखार्पणेषु प्रकृति प्रगल्भाः स्वयं तरङ्गाधरदानदक्षः / अनन्यसामान्यकलत्रवृत्तिः पिबत्यसौ पाययते च सिन्धुः / / 6 / / ससत्त्वमादाय नदीमुखाम्भः संमीलयन्तो विवृताननत्वात् / 10 अमी शिरोभिस्तिमयः सरन्धेरूवं वितन्वन्ति जलप्रवाहान् 10 मातङ्गनकैः सहसोत्पतद्भिभिन्नाद्विधा पश्य समुद्रफेनान् / कपोलसंसर्पितया य एषां व्रजन्ति कर्णक्षणचामरत्वम् / / 11 / / वेलानिलाय प्रसृता भुजङ्गा महोमि विस्फूर्जथुनिविशेषाः / सूर्यांशुसंपर्कसमृद्धरागैर्व्यज्यन्त एते मणिभिः फणस्थैः // 12 // तवाधरस्पधिषु विद्रुमेषु पर्यस्तमेतत्सहसोमिवेगात् / ऊर्ध्वाकुरप्रोतमुखं कथंचित्क्लेशादपक्रामति शङ्खयूथम् / 13 / प्रवृत्तमात्रेण पयांसि पातुमावर्तवेगाभ्रमता घनेन / आभाति भूयिष्ठमयं समुद्रः प्रमथ्यमानो गिरिणेव भूयः / 14 / दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी तमालतालीवनराजिनीला। आभाति वेला लवणाम्बुराशेर्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा // 18 // वेलानिल: केतकरेगुभिस्ते संभावयत्याननमायताक्षि / मामक्षमं मण्डनकालहानेर्वेत्तीव बिम्बाधरबद्धतृष्णम् / / 16 / / एते वयं सैकतभिन्नशुक्तिपर्यस्तमुक्तापटलं पयोधेः / प्राप्ता मुहूर्तेन विमानवेगात्कूलं फलावजितपूगमालम् // 17 // 25 कुरुष्व तावत्करभोरु पश्चान्मार्गे मृगप्रेक्षिणि दृष्टिपातम् / एषा विदूरीभवतः समुद्रात्सकानना निष्पततीव भूमिः // 18 // Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे त्रयोदशः सर्गः ] [ 63 क्वचित्पथा संचरते सुराणां क्वचिद्धनानां पततां क्वचिच्च / यथाविधो मे मनसोऽभिलाषः प्रवर्तते पश्य तथा विमानम् / 16 / असौ महेन्द्रद्विपदानगन्धिस्त्रिमार्गगावीचिविमर्दशीतः / आकाशवायुदिनयौवनोत्थानाचामति स्वेदलवान्मुखे ते // 20 // 5 करेण वातायनलम्बितेन स्पृष्टस्त्वया चण्डि कुतूहलिन्या / प्रामुञ्चतीवाभरणं द्वितीयमुद्भिन्नविद्युद्वलयो घनस्ते / / 21 / / अमी जनस्थानमपोढविघ्नं मत्वा समारब्धनवोटजानि / अध्यासते चीरभृतो यथास्वं चिरोज्झितान्याश्रममण्डलानि 22 सैषा स्थली यत्र विचिन्वता त्वां भ्रष्टं मया नू पुरमेकमुाम् / अदृश्यत त्वच्चरणारविन्दविश्लेषदुःखादिव बद्धमौनम् / 23 / त्वं रक्षसा भीरु यतोऽपनीता तं मार्गमेताः कृपया लता मे। अदर्शयन्वक्तुमशक्नुवत्यः शाखाभिरावजितपल्लवाभिः / / 24 / / मृग्यश्च दर्भाकुरनिळपेक्षास्तवागतिशं समबोधयन्मान् / व्यापारयन्त्यो दिशि दक्षिणस्यामुत्पक्ष्मराजीनि विलोचनानि 25 15 एतद्गिरेर्माल्यवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बरलेखि शृङ्गम् / नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्विप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम् / / 26 / / गग्धश्च धाराहतपल्वलानां कादम्बमोद्गतकेसरं च / स्निग्धाश्च केकाः शिखिनां बभूवु यस्मिन्नसह्यानि विना त्वया मे // 27 / / पूर्वानुभूतं स्मरता च यत्र कम्पोत्तरं भीरु तवोपगूढम् / गुहाविसारीण्यतिवाहितानि मया कथंचिद्धनजितानि / / 28 / / आसारसिक्तक्षितिबाष्पयोगान्मामक्षिणोद्यत्र विभिन्नकोशैः / विडम्ब्यमाना नवकन्दलैस्ते विवाहधूमारुणलोचनश्री: / 26 / 25 उपान्तवानीरवनोपगूढान्यालक्ष्यपारिप्लवसारसा नि / दूरावतीर्णा पिबतीव खेदादमूनि पम्पासलिलानि दृष्टि: / 30 / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् 1 अत्रावियुक्तानि रथाङ्गनाम्नामन्योन्यदत्तोत्पलकेसराणि / द्वन्द्वानि दूरान्तरवर्तिना ते मया प्रिये सस्पृहमीक्षितानि / 31 / इमां तटाशोकलतां च तन्वीं स्तनाभिरामस्तबकाभिनम्राम् / / त्वत्प्राप्तिबुद्ध्या परिरब्धुकामः ___सौमित्रिणा साश्रुरहं निषिद्धः / / 32 / / . अमूविमानान्तरलम्बिनीनां श्रुत्बा स्वनं काञ्चनकिङ्किणीनाम् / प्रत्युद्वजन्तीव खमुत्पतन्त्यो गोदावरीसारसपङ्क्तयस्त्वाम् / / 33 / / एषा त्वया पेशलमध्ययापि घटाम्बुसंवर्धितबालचूता। आनन्दयत्युन्मुखकृष्णसारा दृष्टा चिरात्पञ्चवटी मनो मे।३४। अत्रानुगोदं मृगयानिवृत्तस्तरंगवातेन विनीतखेदः / रहस्त्वदुत्सङ्गनिषण्णमूर्धा स्मरामि वानीरगृहेषु सुप्तः / / 3 / / भ्रूभेदमात्रेण पदान्मघोनः प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकार / तस्याविलाम्भः परिशुद्धिहेतोभौंमो मुनेः स्थानपरिग्रहोऽयम् 36 त्रेताग्निधूमाग्रमनिन्द्यकीर्तस्तस्येदमाक्रान्तविमानमार्गम् / घ्रात्वा हविर्गन्धि रजोविमुक्तः समश्नुते मे लघिमानमात्मा 37 एतन्मुनेर्मानिनि शातकर्णेः पञ्चाप्सरो नाम विहारवारि / आभाति पर्यन्तवनं विदूरान्मेघान्तरालक्ष्यमिवेन्दुबिम्बम् / 38 / पुरा स दर्भाङ्कुरमात्रवृत्तिश्चरन्मृगैः सार्धमृषिर्मघोना। समाधिभीतेन किलोपनीतः पञ्चाप्सरोयौवनकूटबन्धम् / 36 / तस्यायमन्तहितसौधभाजः प्रसक्तसंगीतमृदङ्गधोषः। वियद्गतः पुष्पकचन्द्रशाला: क्षणं प्रतिश्रुन्मुख राः करोति / 40 / 25 हविर्भुजामेधवतां चतुर्णां मध्ये ललाटंतपसप्तसप्तिः / असौ तपस्यत्यपरस्तपस्वी नाम्ना सुतीक्ष्णश्चरितेन दान्तः 41 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे त्रयोदशः सर्गः ] [ 95 अमुं सहासप्रहितेक्षणानि व्याजार्धसंदर्शितमेखलानि / नालं विकतु जनितेन्द्रशङ्क सुराङ्गनाविभ्रमचेष्टितानि / / 2 / एषोऽक्षमालावलयं मृगाणां कण्डूयितार कुशसूचिलावम् / सभाजने मे भुजमूर्ध्वबाहुः सव्येतरं प्राध्वमितः प्रयुङ्क्ते / 43 / 5 वाचंयमत्वात्प्रति ममैष कम्पेन किंचित्प्रतिगृह्य मूर्ध्नः / दृष्टि विमानव्यवधानमुक्तां पुनः सहस्राचिषि संनिधत्ते / 44 / प्रदः शरण्यं शरभङ्गनाम्नस्तपोवनं पावनमाहिताग्नेः / चिराय संतl समिद्भिरग्निं यो मन्त्रपूतां तनुमप्यहौषीत् / 45 / छायाविनीताध्वपरिश्रमेषु भूयिष्ठसंभाव्यफलेष्वमीषु / 10 तस्यातिथीनामधुना सपर्या स्थिता सुपुत्रेष्विव पादपेषु // 46 / / धारास्वनोद्गारिदरीमुखोऽसौ शृङ्गाग्रलग्नाम्बुदवप्रपङ्कः / बध्नाति मे बन्धुरगात्रि चक्षुई प्तः ककुद्मानिव चित्रकूट: / 47 / एषा प्रसन्नस्तिमितप्रवाहा सरिद्विदूरान्तरभावतन्वी। मन्दाकिनी भाति नगोपकण्ठे मुक्तावली कण्ठगतेव भूमेः / 48 / अयं सुजातोऽनुगिरं तमालः प्रवालमादाय सुगन्धि यत्स्य / यवाङ्कुरापाण्डुकपोलशोभी मयावतंसः परिकल्पिस्ते // 46 // अनिग्रहत्रासविनीतसत्त्वमपुष्पलिङ्गात्फलबन्धिवृक्षम् / वनं तपःसाधनमेतदवेराविष्कृतोदग्रतरप्रभावम् // 50 / / अत्राभिषेकाय तपोधनानां सप्तर्षिहस्तोद्धृतहेमपद्माम् / 20 प्रवर्तयामास किलानुसूया त्रिस्रोतसं त्र्यम्बकमौलिमालम् // 51 // वीरासनानजुषामृषीणाममी समध्यासितवेदिमध्याः / निवातनिष्कम्पतया विभान्ति योगाधिरूढ़ा इव शाखिनोऽपि 52 त्वया पुरस्तादुपयाचितो यः सोऽयं वट: श्याम इति प्रतीतः / राशिर्मणीनामिव गारुडानां सपद्मरागः फलितो विभाति / 53 / 25 क्वचित्प्रभालेपिभिरिन्द्रनीलमुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा / अन्यत्र माला सितपङ्कजानामिन्दीवरैरुत्खचितान्तरेव / / 54 / / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्के (1) रघुवंम् क्वचित्खगानां प्रियमानसानां कादम्बसंसर्गवतीव पङ्क्तिः / अन्यत्र कालागुरुदत्तपत्रा भक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव / / 5 / / क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनैः शबलीकृतेव / अन्यत्र शुभ्रा शरदभ्रलेखा रन्ध्रेष्विवालक्ष्यनभःप्रदेशा / 56 / 5 क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य। . पश्यानवद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्न प्रवाहा यमुनातरङ्गः 57 समुद्रपन्योर्जलसंनिपातै पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात् / तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्तनुत्यजां नास्ति शरीरबन्धः 58 पुरं निषादाधिपतेरिदं तद्यस्मिन्मया मौलिमणि विहाय / जटासु बद्धास्वरुदत्सुमन्त्रः कैकेयि कामाः फलितास्तवेति 56 पयोधरैः पुण्यजनाङ्गनानां निविष्टहेमाम्बुजरेणु यस्याः / ब्राह्मं सरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्तमुदाहरन्ति / 60 / जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनु राजधानीम् / तुरंगमेधावभृथावतीर्णैरिक्ष्वाकुभिः पुण्यतरीकृतानि / / 61 / / 15 यां सैकतोत्सङ्गसुखोचितानां प्राज्यैः पयोभिः परिवधितानाम् / सामान्यधात्रीमिव मानसं मे संभावयत्युत्तरकोसलानाम् 62 सेयं मदीया जननीव तेन मान्येन राज्ञा सरयूवियुक्ता / दूरे वसन्तं शिशिरानिलैर्मा तरंगहस्तैरुपगृहतीव / / 63 / / विरक्तसंध्याकपिशं पुरस्ताद्यतो रजः पार्थिवमुज्जिहीते / 20 शङ्क हनूमत्कथितप्रवृत्तिः प्रत्युद्गतो मां भरतः ससैन्यः 64 अद्धा श्रियं पालितसंगराय प्रत्यर्पयिष्यत्यनघां स साधुः / हत्वा निवृत्ताय मधे खरादीन्संरक्षितां त्वांमिव लक्ष्मणो मे 65 असौ पुरस्कृत्य गुरुं पदातिः पश्चादवस्थापितवाहिनीकः / वृद्धैरमात्यैः सह चीरवासा मामग्रंपाणिर्भरतोऽभ्युपैति / 66 / 25 पित्रा विसृष्टां मदपेक्षया यः श्रियं युवाप्यन्तगतामभोक्ता। इयन्ति वर्षाणि तया सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् / 67 / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे त्रयोदशः सर्गः ] [ 97 एतावदुक्तवति दाशरथौ तदीया . मिच्छां विमानमधिदेवतया विदित्वा / ज्योतिष्पथादवततार सविस्मयाभिरुद्वीक्षितं प्रकृतिभिर्भरतानुगाभिः / / 68 / / (वसंत०) तस्मात्पुरःसरविभीषणशितेन सेवाविचक्षणहरीश्वरदत्तहस्तः / यानादवांतरददूरमहीतलेन मार्गेण भङ्गिरचितस्फटिकेन रामः / / 66 / / इक्ष्वाकुवंशगुरवे प्रयतः प्रणम्य सभ्रातरं भरतमयपरिग्रहान्ते / पर्यश्रुरस्वजत मूर्धनि चोपजघ्रौ . तद्भक्त्यपोढपितृराज्यमहाभिषेके / / 70 / / श्मश्रुप्रवृद्धिजनिताननविक्रियांश्च ____ प्लक्षान्प्ररोहजटिलानिव मन्त्रिवृद्धान् / अन्वग्रहीत्प्रणमतः शुभदृष्टिपातै वर्तानुयोगमधुराक्षरया च वाचा / / 71 / / दुर्जातबन्धुरयमृक्षहरीश्वरो मे / पौलस्त्य एष समरेषु पुरःप्रहर्ता / इत्यादृतेन कथितौ रघुनन्दनेन / व्युत्क्रम्य लक्ष्मणमुभौ भरतो ववन्दे / / 72 // . सौमित्रिणा तदनु संससृजे स चैन ___ मुत्थाप्य नम्रशिरसं भृशमालिलिङ्ग / रूढेन्द्रजित्प्रहरणवणकर्कशेन / ... क्लिश्यन्निवास्य भुजमध्यमुरःस्थलेन // 73 / / रामाज्ञया हरिचमूपतयस्तदानीं कृत्वा मनुष्यवपुरारुरुहुर्गजेन्द्रान् / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] . [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् तेषु क्षरत्सु बहुधा मदवारिधाराः शैलाधिरोहणसुखान्युपलेभिरे ते / / 74 / / सानुप्लवः प्रभुरपि क्षणदाचराणां भेजे रथान्दशरथप्रभवानुशिष्टः / मायाविकल्परचितैरपि ये तदीय __न स्यन्दनैस्तुलितकृत्रिमभक्तिशोभाः / / 75 / / भूयस्ततो . रघुपतिविलसत्पताक मध्यास्त कामगति सावरजो विमानम् / दोषातनं बुधबृहस्पतियोगदृश्य __स्तारापतिस्तरलविद्युदिवाभ्रवृन्दम् / / 76 / / तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वी वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः / रामेण मैथिलसुतां दशकण्ठकृच्छा त्प्रत्युद्धतां धृतिमती भरतो ववन्दे / / 77 / / लङ्केश्वरप्रणतिभङ्गदृढव्रतं त ___ द्वन्द्यं युगं चरणयोर्जनकात्मजायाः / ज्येष्ठानुवृत्तिजटिलं च शिरोऽस्य साधो रन्योन्यपावनमभूदुभयं समेत्य // 78 / / क्रोशाधं प्रकृतिपुरःसरेण गत्वा काकुत्स्थः स्तिमितजवेन पुष्पकेण / शत्रुघ्नप्रतिविहितोपकार्यमार्यः साकेतोपवनमुदारमध्युवास / / 76 / / / / इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये दण्डकाप्रत्यागमनो नाम त्रयोदशः सर्गः // 13 / / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे चतुर्दशः सर्गः ] [ 66 // 14 // अथ चतुर्दशः सर्गः॥ भर्तुः प्रणाशादथ शोचनीयं दशान्तरं तत्र समं प्रपन्ने / अपश्यतां दाशरथी जनन्यौ छेदादिवोपघ्नतरोर्वतत्यौ / / 1 / / उभावुभाभ्यां प्रणतो हतारी यथाक्रम विक्रमशौभिनौ तौ / 5 विस्पष्टमस्रान्धतया न दृष्टौ ज्ञातौ सुतस्पर्शसुखोपलम्भात् / 2 / आनन्दजः शोकजमश्रु बाष्पस्तयोरशीतं शिशिरो बिभेद / गङ्गासरय्वोर्जलमुष्णतप्तं हिमाद्रिनिस्यन्द इवावतीर्णः // 3 // ते पुत्रयो ऋतशस्त्रमार्गानार्दानिवाङ्गे सदयं स्पृशन्त्यौ / अपीप्सितं क्षत्त्रकुलाङ्गनानां न वीरसूशब्दमकामयेताम् / / 4 / / 10 क्लेशावहा भर्तुरलक्षणाहं सीतेति नाम स्वमुदीरयन्ती / स्वर्गप्रतिष्ठस्य गुरोर्महिष्यावभक्तिभेदेन वधूर्ववन्दे / / 5 // उत्तिष्ठ वत्से ननु सानुजोऽसौ वृत्तेन भर्ता शुचिना तवैव / कृच्छ महत्तीर्ण इति प्रियाहाँ तामूचतुस्ते प्रियमप्यमिथ्या।६। अथाभिषेकं रघुवंशकेतोः प्रारब्धमानन्दजलैर्जनन्योः / 15 निवर्तयामासुरमात्यवृद्धास्तीहृतैः काञ्चनकुम्भतोयैः / / 7 / / सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षःकपीन्द्ररुपपादितानि / तस्यापतन्मूनि जलानि जिष्णोविन्ध्यस्य मेघप्रभवा इवापः 8: तपस्विवेषक्रिययापि तावद्यः प्रेक्षणीयः सुतरां बभूव / राजेन्द्र नेपथ्यविधानशोभा तस्योदितासीत्पुनरुक्तदोषा / / 6 / / समौलरक्षोहरिभि: ससैन्यस्तूर्यस्वनानन्दितपौरवर्गः / विवेश सौधोद्गतलाजवर्षामुत्तोरणामन्वय राजधानीम् / / 10 / / सौमित्रिणा सावरजेन मन्दमाधूतबालव्यजनो रथस्थः / धृतातपत्रो भरतेन साक्षादुपायसंघात इव प्रवृद्धः / / 11 / / प्रासादकालागुरुधूमराजिस्तस्याः पुरो वायुवशेन भिन्ना / 25 वनानिवृत्तेन रघूत्तमेन मुक्ता स्वयं वेणिरिवाबभासे // 12 // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् श्वश्रूजनानुष्ठितचारुवेषां कीरथस्थां रघुवीरपत्नीम् / प्रासादवातायनदृश्यबन्धैः साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः / 13 / स्फुरत्प्रभामण्डलमानुसूयं सा बिभ्रती शाश्वतमङ्गरागम् / रराज शुद्धेति पुनः स्वपुर्ये संदर्शिता वह्निगतेव भवा॑ / / 14 / / वेश्मानि रामः परिबर्हवन्ति विश्राण्य सौहार्दनिधिः सुहृद्भ्यः / बाष्पायमाणो बलिमनिकेतमालेख्यशेषस्य पितुविवेश / / 15 / / कृताञ्जलिस्तत्र यदम्ब सत्यान्नाभ्रश्यत स्वर्गफलाद्गुरुर्नः / तच्चिन्त्यमानं सुकृतं तवेति ज़हार लज्जां भरतस्य मातुः / 16 / तथैव सुग्रीवविभीषणादीनुपाचरस्कृत्रिमसंविधाभिः / संकल्पमात्रोदितसिद्धयस्ते कान्ता यथा चेतसि विस्मयेन / 17 / सभाजनायोपगतान्स दिव्यान्मुनीन्पुरस्कृत्य हतस्य शत्रोः / शुश्राव तेभ्यः प्रभवादि वृत्तं स्वविक्रमे गौरवमादधानम् / 18 / प्रतिप्रयातेसु तपोधनेषु सुखादविज्ञातगतार्धमासान् / सीतास्वहस्तोपहृताग्र्यपूजान्रक्षःकपीन्द्रान्विससर्ज रामः / 16 / 15 तच्चात्मचिन्तासुलभं विमानं हतं सुरारेः सह जीवितेन / कैलासनाथोद्वहनाय भूयः पुष्पं दिवः पुष्पकमन्वमस्त / / 20 // पितुनियोगाद्वनवासमेवं निस्तीर्य रामः प्रतिपन्नराज्यः / धर्मार्थकामेषु समां प्रपेदे यथा तथैवावरजेषु वृत्तिम् // 21 // सर्वासु मातृष्वपि वत्सलत्वात्स निविशेषप्रतिपत्तिरासीत् / 20 षडाननापीतपयोधरासु नेता चमूनामिव कृत्तिकासु / / 22 // तेनार्थवाँल्लोभपराङ्मुखेन तेन घ्नता विघ्नभयं क्रियावान् / तेनास लोक: पितृमान्विनेत्रा तेनैव शोकापनुदेन पुत्री // 23 // स पोरकार्याणि समीक्ष्य काले रेमे विदेहाधिपतेर्दू हित्रा। उपस्थितश्चारु वपुस्तदीयं कृत्वोपभोगोत्सुकयेव लक्ष्म्या / 24 / 25 तयोर्यथाप्रार्थितमिन्द्रियार्थानासेदुषोः सद्मसु चित्रवत्सु / प्राप्तानि दुःखान्यपि दण्डकेषु संचिन्त्यमानानि सुखान्यभूवन् / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे चतुर्दशः सर्गः ] [ 101 अथाधिकस्निग्धविलोचनेन मुखेन सीता शरपाण्डुरेण / अानन्दयित्री परिणेतुरासीदनक्षरव्यजितदोहदेन // 26 / / तामङ्कमारोप्य कृशाङ्गयष्टि वर्णान्तराक्रान्तपयोधराग्राम् / विलज्जमानां रहसि प्रतीतः पप्रच्छ रामा रमणोऽभिलाषम् 27 5 सा दष्टनीवारबलीनि हिंस्र : संबद्धवैखानसकन्यकानि / इयेष भूयः कुशवन्ति गन्तुं भागीरथीतीरतपोवनानि / / 28 / / तस्यै प्रतिश्रुत्य रघुप्रवीरस्तदीप्सितं पार्श्वचरानुयातः / आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह / / 2 / / ऋद्धापणं राजपथं स पश्यन्विगाह्यमानां सरयू च नौभिः / विलासिभिश्चाध्युषितानि पौरैः पुरोपकण्ठोपवनानि रेमे / 30 / स किंवदन्तीं वदतां पुरोगः स्ववृत्तमुद्दिश्य विशुद्धवृत्तः / साधिराजोरुभुजोऽपसर्प पप्रच्छ भद्रं विजितारिभद्रः / / 31 / / निर्बन्धपृष्टः स जगाद सर्व स्तुवन्ति पौराश्चरितं त्वदीयम् / अन्यत्र रक्षोभवनोषितायाः परिग्रहान्मानवदेव देव्याः / / 32 / / कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीतिविपर्ययेण / - अयोधनेनाय इवाभितप्तं वैदेहिबन्धोह दयं विदद्रे // 33 // किमात्मनिर्वादकथामुपेक्षे जायामदोषामुत संत्यजामि / इत्येकपक्षाश्रयविक्लवत्वादासीत्स दोलाचलचित्तवृत्तिः // 34 / / निश्चित्य चानन्यनिवृन्ति वाच्यं त्यागेन पत्न्याः परिमाष्टुं मैच्छत् / अपि स्वदेहात्किमुतेन्द्रियार्था द्यशोधनानां हि यशो गरीय: / / 35 / / स संनिपात्यावरजान्हतौजा स्तद्विक्रियादर्शनलुप्तहर्षान् / 25 कौलीनमात्माश्रयमाचच: .. तेभ्यः पुनश्चेदमुवाच वाक्यम् / / 36 / / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम् / मत्तः सदाचारशुचेः कलङ्कः पयोदवातादिव दर्पणस्य // 37 // पौरेषु सोऽहं बहुलीभवन्तमपां तरङ्गेष्विव तैलबिन्दुम् / सोढुं न तत्पूर्वमवर्णमीशे आलानिकं स्थाणुमिव द्विपेन्द्रः / 38 / 5 तस्यापनोदाय फलप्रवृत्तावुपस्थितायामपि निर्व्यपेक्षः / त्यक्ष्यामि वैदेहसुतां पुरस्तात्समुद्रनेमि पितुराज्ञयेव / / 39 // अवैमि चैनामनघेति किंतु लोकापवादो बलवान्मतो मे। छाया हि भूमेः शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः 40 रक्षोवधान्तो न च मे प्रयासो व्यर्थः स वैरप्रतिमोचनाय / 10 अमर्षणः शोणितकाङ्क्षया किं पदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्वः 41 तदेष सर्गः करुणार्द्रचित्तैन मे भवद्भिः प्रतिषेधनीयः / यद्यथिता निर्ह तवाच्यशल्यान्प्राणान्मया धारयितुं चिरं वः 42 इत्युक्तवन्तं जनकात्मजायां नितान्तरूक्षाभिनिवेशमीशम् / न कश्चन भ्रातृषु तेषु शक्तो निषेधुमासीदनुमोदितुं वा / 43 // 15 स लक्ष्मणं लक्ष्मणपूर्वजन्मा विलोक्य लोकत्रयगीतकीतिः / सौम्येति चाभाष्य यथार्थभाषी स्थितं निदेशे पृथगादिदेश / 44 / प्रजावती दोहदशंसिनी ते तपोवनेषु स्पृहयालुरेव / स त्वं रथी तद्व्यपदेशनेयां प्रापय्य वाल्मोकिपदं त्यजैनाम् / 45 / स शुश्रुवान्मातरि भार्गवेण पितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत् / प्रत्यग्रहीदग्रजशासनं तदाज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया / / 46 / / अथानुकूलश्रवणप्रतीतामत्रस्नुभिर्युक्तधुरं तुरंगैः / रथं सुमन्त्रप्रतिपन्नरश्मिमारोप्य वैदेहसुतां प्रतस्थे / 47 / / सा नीयमाना रुचिरान्प्रदेशान्प्रियंकरो मे प्रिय इत्यनन्दत् / नाबद्ध कल्पद्रुमतां विहाय जातं तमात्मन्यसिपत्रवृक्षम् / / 48 / / 25 जुगृह तस्याः पथि लक्ष्मणो यत्सव्येतरेण स्फुरता तदक्षणा / आख्यातमस्य गुरु भावि दुःखमत्यन्तलुप्तप्रियदर्शनेन // 49 / / 20 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे चतुर्दशः सर्गः ] [ 103 सा दुनिमित्तोपंगताद्विषादात्सद्यः परिम्लानमुखारविन्दा / राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्याशशंसे करणैरबाह्य H // 50 / / गुरोनियोगाद्वनितां वनान्ते साध्वीं सुमित्रातनयो विहास्यन् / 5 अवार्यतेवोत्थितवीचिहस्तै जेहोर्दु हित्रा स्थितया पुरस्तात् / / 51 / / रथात्स यन्त्रा निगृहीतवाहात्तां भ्रातृजायां पुलिनेऽवतार्य / गङ्गां निषादाहृतनौविशेषस्ततार संधामिव सत्यसंधः / / 52 / / अथ व्यवस्थापितवाक्कथंचित्सौमित्रिरन्तर्गतबाष्पकण्ठः / औत्पातिकं मेघ इवाश्मवर्षं महीपतेः शासनमुज्जगार / / 53 / / ततोऽभिषङ्गानिलविप्रविद्धा प्रभ्रश्यमानाभरणप्रसूना / स्वमूर्तिलाभप्रकृति धरित्री लतेव सीता सहसा जगाम // 54 // इक्ष्वाकुवंशप्रभवः कथं त्वां त्यजेदकस्मात्पतिरार्यवृत्तः / इति क्षितिः संशयितेव तस्यै ददौ प्रवेशं जननी न तावत् / 55 / 15 सा लुप्तसंज्ञा न विवेद दुःखं प्रत्यागतासुः समतप्यतान्तः / तस्याः सुमित्रात्मजयत्नलब्धो मोहादभूत्कष्टतरः प्रबोधः // 56 // न चावदद्भर्तुरवर्णमार्या निराकरिष्णोर्व जिनाहतेऽपि / आत्मानमेव स्थिरदुःखभाजं पुनः पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द / 57 / आश्वास्य रामावरजः सती तामाख्यातवाल्मीकिनिकेतमार्गः / 20 निघ्नस्य मे भर्तृ निदेशरौक्ष्यं देवि क्षमस्वेति बभूव नम्रः / 58 / .. सीता तमुत्थाप्य जगाद वाक्यं प्रीतास्मि ते सौम्य चिराय जीव / बिडोजसा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम् / / 59 / / 25 श्वश्रृजनं सर्वमनुक्रमेण विज्ञापय प्रापितमत्प्रणामः / प्रजानिषेकं मयि वर्तमानं सूनोरनुध्यायत चेतसेति / / 60 / / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम् / मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत्सदृशं कूलस्य / 61 / कल्याणबुद्धेरथवा तवायं न कामचारो मयि शङ्कनीयः / ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जथुरप्रसह्यः / / 62 / / उपस्थितां पूर्वमपास्य लक्ष्मी वनं मया सार्धमसि प्रपन्नः / . तदास्पदं प्राप्य तयातिरोषात्सोढास्मि न त्वद्भवने वसन्ती।६३। निशाचरोपप्लुतभर्तृकाणां तपस्विनीनां भवतः प्रसादात् / भूत्वा शरण्या शरणार्थमन्यं कथं प्रपत्स्ये त्वयि दीप्यमाने / 64 / किंवा तवात्यन्तवियोगमोघे कुर्यामुपेक्षां हतजीवितेऽस्मिन् / 10 स्याद्रक्षणीयं यदि मे न तेजस्त्वदीयमन्तर्गतमन्तरायः / / 65 / / साहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूष प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये / भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः 66 नपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्स एव धर्मो मनुना प्रणीतः / निर्वासिताप्येवमतस्त्वयाहं तपस्विसामान्यमवेक्षणीया / 67 / 15 तथेति तस्याः प्रतिगृह्य वाचं रारानुजे दृष्टिपथं व्यतीते / सा मुक्तकण्ठं व्यसनातिभाराच्चक्रन्द विग्ना कुररीव भूयः / 68 / नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विज़हुर्हरिण्यः / तस्याः प्रपन्ने समदुःखभावमत्यन्तमासीद्रुदितं वनेऽपि // 69 / / तामभ्यगच्छद्रुदितानुसारी कविः कुशेध्माहरणाय यातः / निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः / 70 / तमश्र नेत्रावरणं प्रमृज्य सीता विलापाद्विरता ववन्दे / / तस्य मुनिर्दोहदलिङ्गदर्शी दााश्वान्सुपुत्राशिषमित्युवाच / 71 / जाने विसृष्टां प्रणिधानतस्त्वां मिथ्यापवादक्षुभितेन भ; / तन्मा व्यथिष्ठा विषयान्तरस्थं प्राप्तासि वैदेहि पितुनिकेतम् 72 25 उत्खातलोकत्रयकण्टकेऽपि सत्यप्रतिज्ञेऽप्यविकत्थनेऽपि / त्वां प्रत्यकस्मात्कलुषप्रवृत्तावस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे // 73 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे चतुर्दशः सर्गः ] [ 105 तवोरुकीतिः श्वशुरः सखा मे सतां भवोच्छेदकरः पिता ते / धुरि स्थिता त्वं पतिदेवतानां किं तन्न येनासि ममानुकम्प्या / / 74 / / 5 तस्विसंसर्गविनीतसत्त्वे तपोवने वीतभया वसास्मिन् / इतो भविष्यत्यनघप्रसूतेरपत्यसंस्कारमयो विधिस्ते / / 75 / / प्रशून्यतीरां मुनिसंनिवेशैस्तमोपहन्त्री तमसा वगाह्य / तत्सकतोत्सङ्गबलिक्रियाभिः संपत्स्यते ते मनसः प्रसादः / 76 / पुष्पं फलं चार्तवमाहरन्त्यो बीजं च बालेयमकृष्ट रोहि / 10 विनोदयिप्यन्ति नवाभिषङ्गामुदारवाचो मुनिकन्यकास्त्वाम् / पयोघटैराश्रमबालवक्षान्संवर्धयन्ती स्वबलानरूपैः / असंशयं प्राक्तनयोपपत्तेः स्तनंधयप्रीतिमवाप्स्यसि त्वम् / / 78 / / अनुग्रहप्रत्यभिनन्दिनीं तां वाल्मीकिरादाय दयार्द्रचेताः / सायं मृगाध्यासितवेदिपावं स्वमाश्रमं शान्तमृगं निनाय / 79 / 15 तामर्पयामास च शोकदीनां तदागमप्रीतिषु तापसीष / निविष्टसारां पितृभिहिमांशोरन्त्यां कलां दर्श इवौषाधीष / ता इङ्गुदीस्नेहकृतप्रदीपमास्तीर्णमेध्याजिनतल्पमन्तः / तस्यै सपर्यानुपदं दिनान्ते निवासहेतोरुटजं वितेरुः / / 81 / / तत्राभिषेकप्रयता वसन्ती प्रयुक्तपूजा विधिनातिथिभ्यः / 20 बन्येन सा वल्कलिनी शरीरं पत्युः प्रजासंततये बभार / / 82 / / अपि प्रभुः सानुशयोऽधुना स्यात्किमुत्सुकः शक्रजितोऽपि हन्ता। शशंस सीतापरिदेवनान्तमनुष्ठितं शासनमग्रजाय / / 83 / / बभूव रामः सहसा सबाष्पस्तुषारवर्षीव सहस्यचन्द्रः / कौलीनभीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः / / 84 / / 25 निगृह्य शोकं स्वयमेव धीमान्वर्णाश्रमावेक्षण जागरूकः / स भ्रातृसाधारणभोगमृद्धं राज्यं रजोरिक्तमनाः शशास / 85 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् तामेकभार्यां परिवादभीरोः साध्वीमपि त्यक्तवतो नृपस्य / वक्षस्यसंघट्टसुखं वसन्ती रेजे सपत्नीरहितेव लक्ष्मीः / / 86 / / सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां। तस्या एव प्रतिकृतिसखो यत्क्रतूनाजहार / वृत्तान्तेन श्रवणविषयप्रापिणा तेन भतु : सा दुरिं कथमपि परित्यागदुःखं विषेहे // 87 / / (मन्दाकान्ता) / / इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये ___ सीतापरित्यागो नाम चतुर्दशः सर्गः / / 14 / / // 15 // अथ पञ्चदशः सर्गः॥ कृतसीतापरित्यागः स रत्नाकरमेखलाम् / बुभुजे पृथिवीपालः पृथिवीमेव केवलाम् / / 1 / / लवणेन विलुप्तेज्यास्तामिस्रण तमभ्ययुः / मुनयो यमुनाभाजः शरण्यं शरणार्थिनः / / 2 / / 15 अवेक्ष्य रामं ते तस्मिन्न प्रजह : स्वतेजसा / त्राणाभावे हि शापास्त्राः कुर्वन्ति तपसो व्ययम् // 3 // प्रतिशुश्राव काकुत्स्थस्तेभ्यो विघ्नप्रतिक्रियाम् / धर्मसंरक्षणार्थंव प्रवृत्तिर्भुवि शामिणः / / 4 / / ते रामाय वधोपायमाचख्युविबुधद्विषः / दुर्जयो लवणः शूली विशूलः प्रार्थ्यतामिति / / 5 // आदिदेशाथ शत्रुघ्नं तेषां क्षमाय राधवः / करिष्यन्निव नामास्य यथार्थमरिनिग्रहात् // 6 // यः कश्चन रघृणां हि परमेक: परंतपः / अपवाद इवोत्सर्ग व्यावर्तयितुमीश्वरः / / 7 / / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चदशः सर्गः ] [107 अग्रजेन प्रयुक्ताशीस्ततो दाशरथी रथी / ययौ वनस्थलीः पश्यन्पुष्पिताः सुरभीरभीः / / 8 / / रामादेशादनुगता सेना तस्यार्थसिद्धये / पश्चादध्ययनार्थस्य धातोरधिरिवाभवत् / / 9 / / प्रादिष्टवर्मा मुनिभिः स गच्छंस्तपतां वरः / विरराज रथप्रष्ठालखिल्यैरिवांशुमान् // 10 / / तस्य मार्गवशादेका बभूव वसतिर्यतः / रथस्वनोत्कण्ठमृगे वाल्मीकीये तपोवने // 11 // तमृषिः पूजयामास कुमारं क्लान्तवाहनम् / 10 तपःप्रभावसिद्धाभिविशेषप्रतिपत्तिभिः / / 12 / / तस्यामेवास्य यामिन्यामन्तर्वत्नी प्रजावती / सुतावसूत संपन्नौ कोश.दण्डाविव क्षितिः // 13 / / संतानश्रवणाभ्रातुः सौमित्रिः सौमनस्यवान् / प्राञ्जलिमुनिमामन्त्र्य प्रातर्युक्तरथो ययौ // 14 // 15 स च प्राप मधूपघ्नं कुम्भीनस्याश्च कुक्षिजः / वनात्करमिवादाय सत्त्वराशिमुपस्थितः // 15 / / धूमधूम्रो वसागन्धी ज्वालाबभ्रशिरोरुहः / क्रव्याद्गणपरीवारश्चिताग्निरिव जंगमः // 16 // अपशूलं तमासाद्य लवणं लक्ष्मणानुजः / 20 रुरोध संमुखीनो हि जयो रन्ध्रप्रहारिणाम् / / 17 / / नातिपर्याप्तमालक्ष्य मत्कुक्षेरद्य भोजनम् / दिष्टया त्वमसि मे धात्रा भीतेनेवोपपादितः // 18 // इति संतयं शत्रुघ्नं राक्षसस्तज्जिघांसया / प्रांशुमुत्पाटयमास मुस्तास्तम्बमिव द्रुमम् / / 16 / / 25 सौमित्रेनिशितैर्बाणैरन्तरा शकलीकृतः / गात्रं पुष्परजः प्राप न शाखी नैऋ तेरितः // 20 // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् विनाशात्तस्य वृक्षस्य रक्षस्तस्मै महोपलम् / प्रजिघाय कृतान्तस्य मुष्टि पृथगिव स्थितम् / / 21 / / ऐन्द्रमस्त्रमुपादाय शत्रुघ्नेन स ताडितः / सिकतात्वादपि परां प्रपेदे परमाणुताम् // 22 / / तमुपाद्रवदुद्यम्य दक्षिणं . दोनिशाचरः / एकताल इवोत्पातपवनप्रेरितो गिरिः // 23 // कार्णेन पत्रिणा शत्रुः स भिन्नहृदयः पतन् / आनिनाय भुवः कम्पं जहाराश्रमवासिनाम् / / 24 / / वयसां पङ्क्तय: पेतुर्हतस्योपरि विद्विषः / तत्प्रतिद्वन्द्विनो मूनि दिव्याः कुसुमवृष्टयः / / 25 / / स हत्वा लवणं वीरस्तदा मेने महौजसः। . भ्रातुः सोदर्यमात्मानमिन्द्रजिधशोभिनः // 26 / / तस्य संस्तूयमानस्य चरितार्थस्तपस्विभिः / शुशुभे विक्रमोदग्रं व्रीडयावनतं शिरः // 27 / / 15 उपकूलं स कालिन्द्याः पुरी पौरुषभूषणः / निर्ममे निर्ममोऽर्थेषु मधुरां मधुराकृतिः // 28 // या सौराज्यप्रकाशाभिर्बभौ पौरविभूतिभिः / स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता // 26 // तत्र सौधगतः पश्यन्यमुनां चक्रवाकिनीम् / 20 हेमभक्तिमती भूमेः प्रवेणीमिव पिप्रिये // 30 // सखा दशरथस्थापि जनकस्य च मन्त्रकृत् / संचस्कारोभयप्रीत्या मैथिले यौ यथाविधिः // 31 / / स तौ कुशलवोन्मृष्टगर्भक्लेदौ तदाख्यया / कविः कुशललवावेव चकार किल नामतः // 32 // 25 साङ्ग च वेदमध्याप्य किंचिदुत्क्रान्तशैशवौ।। स्वकृति गापयामास कविप्रथमपद्धतिम् // 33 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चशः सर्गः ] [106 रामस्य मधूरं वृत्तं गायन्तौ मातुरग्रतः / तद्वियोगव्यथां किंचिच्छिथिलीचऋतुः सुतौ / / 34 // इतरेऽपि रघोवंश्यास्त्रयस्त्रेताग्नितेजसः / तद्योगात्पतिवत्नीषु पत्नीष्वासन्द्विसूनवः // 35 // 5 शत्रुधातिनि शत्रुघ्नः सुबाहौ च बहुश्रुते / मधुराविदिशे सून्वोनिदधे पूर्वजोत्सुकः // 36 / / भूयस्तपोव्ययो मा भूद्वाल्मीकेरिति सोऽत्यगात् / मैथिलीतनयोद्गीतनिःस्पन्दमृगमाश्रमम् // 37 / / वशी विवेश चायोध्यां रथ्यासंस्कारशोभिनीम् / 10 लवणस्य वधात्पौरैरीक्षितोऽत्यन्तगौरवम् / / 38 / / स ददर्श सभामध्ये सभासद्भिरुपस्थितम् / रामं सीतापरित्यागादसामान्यपति भुवः / / 39 / / तमभ्यनन्दप्रणतं लवणान्तकमग्रजः / कालनेमिवधात्प्रीतस्तुराषाडिव शाङ्गिणम् / / 40 / / 15 स पृष्टः सर्वतो वार्तमाख्यद्राज्ञे न संततिम् / प्रत्यर्पयिष्यतः काले कवेराद्यस्य शासनात् / / 41 / / अथ जानपदो विप्रः शिशुमप्राप्तयौवनम् / अवतार्याङ्कशय्यास्थं द्वारि चक्रन्द भूपतेः / / 42 / / शोचनीयासि वसुधे या त्वं दशरथाच्च्युता। 20 रामहस्तमनुप्राप्य कष्टात्कष्टतरं गता // 43 / / श्रुत्वा तस्य शुचो हेतु गोप्ता जिह्राय राघवः / ह्यकालभवो मृत्युरिक्ष्वाकुपदमस्पृशत् / / 44 / / स मुहर्त क्षमस्वेति द्विजामाश्वास्य दुःखितम् / यानं सस्मार कौबेरं वैवस्वतजिगीषया / / 45 / / 25 प्रात्तशस्त्रस्तदध्यास्य प्रस्थितः स रघूद्वहः / उच्चचार पुरस्तस्य गूढरूपा सरस्वती // 46 / / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ] . [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् 10 राजन्प्रजासु ते कश्चिदपचारः प्रवर्तते / तमन्विष्य प्रशमयेर्भवितासि ततः कृती / / 47 / / इत्याप्तवचनाद्रामो विनेष्यन्वर्णविक्रियाम् / दिशः पपात पत्त्रेण वेगनिष्कम्पकेतुना // 48 // 5 अथ धूमाभिताम्राक्षं वृक्षशाखावलम्बिनम् / ददर्श कंचिदैक्ष्वाकस्तपस्यन्तमधोमुखम् // 46 // : पृष्टनामान्वयो राज्ञा स किलाचष्ट धूमपः / आत्मानं शम्बुकं नाम शूद्रं सुरपदाथिनम् / / 50 / / तपस्यनधिकारित्वात्प्रजानां तमघावहम् / शीर्षच्छेद्यं परिच्छिद्य नियन्ता शास्त्रमाददे / / 51 // स तद्वक्त्रं हिमाक्लिष्ट किजल्कमिव पडूजम् / ज्योतिष्कणाहतश्मश्रु कण्ठनालादपातयत् // 52 / / कृतदण्डः स्वयं राज्ञा लेभे शूद्रः सतां गतिम् / / तपसा दुश्चरेणापि न स्वमार्गविलचिना // 53 // रघुनाथोऽप्यगस्त्येन मार्गसंदर्शितात्मना / महौजसा संयुयुजे शरत्काल इन्वेन्दुना / / 54 / / कुम्भयोनिरलंकारं तस्मै दिव्यपरिग्रहम् / ददौ दत्तं समुद्रेण पीतेनेवात्मनिष्क्रयम् // 55 / / तं दधन्मैथिलीकण्ठनिर्व्यापारेण बाहुना। पश्चानिववृते रामः प्राक्परासुद्धिजात्मजः // 56 / / तस्य पूर्वोदितां निन्दां द्विजः पुत्रसमागतः / स्तुत्या निवर्तयामास त्रातुर्वैवस्वतादपि // 57 / / तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षःकपिनरेश्वराः / मेघाः सस्यमिवाम्भोभिरभ्यवर्षन्नुपायनैः // 58 / / 25 दिग्भ्यो निमन्त्रिताश्चैनमभिजग्मुर्महर्षयः / न भौमान्येव धिष्ण्यानि हित्वा ज्योतिर्मयान्यपि / / 56 / / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चदशः सर्गः ] [ 111 उपशल्यनिविष्टस्तैश्चतुरमुखी बभौ / / अयोध्या सृष्टंलोकेव सद्यः पैतामही तनुः / / 60 // श्लाघ्यस्त्यागोऽपि वैदेह्याः पत्युः प्राग्वंशवासिनः / अनन्यजानेः सैवासीद्यस्माज्जाया हिरण्मयी // 61 / / 5 विधेरधिकसंभारस्ततः प्रवक्ते मखः / आसन्यत्र क्रियाविघ्ना राक्षसा एव रक्षिणः // 62 / / अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः / मैथिलेयौ कुशलवौ जगतुर्गुरुचोदितौ / / 63 / / वृत्तं रामस्य वाल्मीके: कृतिस्तो किंनरस्वनौ / 10 किं तद्येन मनो हतु मलं स्यातां न शृण्वताम् / / 64 / / रूपे गीते च माधुर्य तयोस्तज्ज्ञैनिवेदितम् / ददर्श सानुजो रामः शुश्राव च कुतूहली / / 65 / / तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ। . हिमनिष्यन्दिनी प्रातनिर्वातेव वनस्थली / / 66 / / 15 वयोवेषविसंवादि रामस्य च तयोस्तदा। जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत / / 67 / / उभयोन तथा लोकः प्रावीण्येन विसिष्मिये / नृपतेः प्रीतिदानेषु वीतस्पृहतया यथा // 68 / / गेये को नु विनेता वां कस्य चेयं कृतिः कवेः / 20 इति राज्ञा स्वयं पृष्टौ तौ वाल्मीकिमशंसताम् / / 66 / / अथ सावरजो रामः प्राचेतसमुपेयिवान् / ऊरीकृत्यात्मनो देहं राज्यमस्मै न्यवेदयत् / / 70 / / स तावाख्याय रामाय मैथिलेयौ तदात्मजौ / कविः कारुणिको ववे सीतायाः संपरिग्रहम् / / 71 / / 25 तात शुद्धा समक्षं नः स्नुषा ते जातवेदसि / दौरात्म्याद्रक्षसस्तां तु नात्रत्याः श्रद्दधुः प्रजाः / / 72 / / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् ताः स्वचारित्रमुद्दिश्य प्रत्याययतु मैथिली / . ' ततः पुत्रवतीमेनां प्रतिपत्स्ये त्वदाज्ञया // 73 / / इति प्रतिश्रुते राज्ञा जानकीमाश्रमान्मुनिः / शिष्यरानाययामास स्वसिद्धि नियमैरिव / / 74 / / 5 अन्येधुरथ काकुत्स्थः संनिपात्य पुरौकसः / कविमाहवाययामास प्रस्तुतप्रतिपत्तये // 75 / / स्वरसंस्कारवत्यासौ पुत्राभ्यामथ सीतया / ऋचेवोचिषं सूर्य रामं मुनिरुपस्थितः / / 76 / / काषायपरिवीतेन स्वपदापितचक्षुषा / अन्वमीयत शुद्धेति शान्तेन वपुषैव सा / / 77 / / जनास्तदालोकपथात्प्रतिसंहृतचक्षुषः / तस्थुस्तेऽवाङ्मुखाः सर्वे फलिता इव शालयः / / 78 / / तां दृष्टिविषये भर्तु, निरास्थित विष्टरः / कुरु निःसंशयं वत्से स्ववृत्ते लोकमित्यशात् / / 76 / / 15 अथ वाल्मीकिशिष्येण पुण्यमावजितं पयः / आचम्योदीरयांमास सीता सत्यां सरस्वतीम् / / 80 / / वाङ्मनःकर्मभिः पत्यो व्यभिचारो यथा न मे / तथा विष्वंभरे देवि मामन्तर्धातुमर्हसि / / 81 / / एवमुक्ते तया साध्व्या रन्ध्रात्सद्योभवाद्भवः / शातह्रदमिव ज्योतिः प्रभामण्डलमुद्ययौ / / 82 / / तत्र नागफणोत्क्षिप्तसिंहासननिषेदुषी / समुद्ररशना साक्षात्प्रादुरासीद्वसुंधरा / / 83 / / सा सीतामङ्कमारोप्य भर्तृ प्रणिहितेक्षणाम् / . मा मेति व्याहरत्येव तस्मिन्पातालमभ्यगात् / / 84 // 25 धरायां तस्य संरम्भं सीताप्रत्यर्पणैषिणः / गुरुविधिबलापेक्षी शमयामास धन्विनः / / 85 / / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे पञ्चदशः सर्गः ] [ 113 ऋषीन्विसृज्य यज्ञान्ते सुहृदश्च पुरस्कृतान् / राम: सीतागतं स्नेहं निदधे तदपत्ययोः / / 86 // युधाजितश्च संदेशात्स देशं सिन्धुनामकम् / ददौ दत्तप्रभावाय भरताय भृतप्रजः // 87 / / 5 भरतस्तत्र गन्धर्वान्युधि निजित्य केवलम् / आतोद्यं ग्राहयामास समत्याजयदायुधम् / / 88 // स तक्षपुष्कलो पुत्री राजधान्योस्तदाख्ययोः / अभिषिच्याभिषेकाही रामान्तिकमगात्पुनः // 86 / / अङ्गदं चन्द्रकेतु च लक्ष्मणोऽप्यात्मसंभवी / 10 शासनाद्रघुनाथस्य चके कारापथेश्वरौ // 10 // इत्यारोपितपुत्रास्ते जननीनां जनेश्वराः / भर्तृ लोकप्रपन्नानां निवापान्विदधुः क्रमात् / / 61 / / उपेत्य मुनिवेषोऽथ काल: प्रोवाच राघवम् / रहःसंवादिनौ पश्येदावां यस्तं त्यजेरिति / / 62 / / 15 तथेति प्रतिपन्नाय विवृतात्मा नृपाय सः / आचख्यौ दिवमध्यास्व शासनात्परमेष्ठिनः / / 63 / / विद्वानपि तयोर्दा:स्थः समयं लक्ष्मणोऽभिनत् / भीतो दुर्वाससः शापाद्रामसंदर्शनार्थिनः // 94 / / स गत्वा सरयूतीरं देहत्यागेन योगवित् / 20 चकारावितथां भ्रातुः प्रतिज्ञां पूर्वजन्मनः / / 65 / / तस्मिन्नात्मचतुर्भागे प्राङ्नाकमधितस्थुषि / राघवः शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपादिव / / 66 / / स निवेश्य कुशावत्यां रिपुनागाङ्कुशं कुशम् / शरावत्यां सतां सूक्तैर्जनिताश्रुलवं लवम् / / 67 / / 25 उदक्प्रतस्थे स्थिरधीः सानुजोऽग्निपुरःसरः / अन्वितः पतिवात्सल्याद्गृहवर्जमयोध्यया // 68 / / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् जगृहुस्तस्य चित्तज्ञाः पदवी हरिराक्षसाः / कदम्बमुकुलस्थूलैरभिवृष्टां प्रजाश्रुभिः / / 66 / / उपस्थितविमानेन तेन उक्तानुकम्पिना / चक्रे त्रिदिवनिश्रेणिः सरयूरनुयायिनाम् // 10 // यद्गोप्रतरकल्पोऽभूत्संमर्दस्तत्र मज्जताम् / प्रतस्तदाख्यया तीर्थ पावनं भुवि पप्रथे / / 101 / / स विभुविबुधांशेषु प्रतिपन्नात्ममूर्तिषु / त्रिदशीभूतपौराणां स्वर्गान्तरमकल्पयत् // 102 / / निर्वत्यैवं दशमुखशिरश्छेदकार्य सुराणां . विष्वक्सेनः स्वतनुमविशत्सर्वलोकप्रतिष्ठाम् / लानाथं पवनतनयं चोभयं स्थापयित्वा कीर्तिस्तम्भद्वयमिव गिरी दक्षिणे चोत्तरे च // 103 // (मन्दाक्रान्ता) // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये 15 श्रीरामस्वर्गारोहणो नाम पञ्चदशः सर्गः // 15 // // 16 // अथ षोडशः सर्गः॥ अथेतरे सप्त रघुप्रवीरा ज्येष्ठं पुरोजन्मतया गुणैश्च / चक्रुः कुशं रत्नविशेषभाजं सौभ्रात्रमेषां हि कुलानुसारि // 1 // ते सेतुवार्तागजबन्धमुख्यैरभ्युच्छ्रिताः कर्मभिरप्यवन्ध्यैः / अन्योन्यदेशप्रविभागसीमां वेलां समुद्रा इव न व्यतीयुः / / 2 / / चतुर्भुजांशप्रभवः स तेषां दानप्रवृत्तेरनुपारतानाम् / सुरद्विपानामिव सामयोनिभिन्नोऽष्टधा विप्रससार वंशः // 3 // अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे शय्यागृहे सुप्तजने प्रबुद्धः / कुशः प्रवासस्थकलत्रवेषामदृष्टपूर्वां वनितामपश्यत् / / 4 / / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवशे षोडशः सर्गः ] [ 115 सा साधुसाधारणपार्थिवर्द्धः स्थित्वा पुरस्तात्पुरुहूतभासः / जेतुः परेषां जयशब्दपूर्व तस्याञ्जलिं बन्धुमतो बबन्ध / / 5 / / अथानपोढार्गलमप्यगारं छायामिवादर्शतलं प्रविष्टाम् / सविस्मयो दाशरथेस्तनूजः प्रोवाच पूर्वार्धविसृष्टतल्पः / / 6 / / 5 लब्धान्तरा सावरणेऽपि गेहे योगप्रभावो न च लक्ष्यते ते / बिषि चाकारमनिर्वतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम् / 7 / का त्वं शुभे कस्य परिग्रहो वा किं वा मदभ्यागमकारणं ते / आचक्ष्व मत्वा वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवृत्ति / 8 / तमब्रवीत्सा गुरुणानवद्या या नीतपौरा स्वपदोन्मुखेन / / 10 तस्याः पुरः संप्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां माम् | वस्वौकसारामभिभूय साहं सौराज्यबद्धोत्सवया विभूत्या / समग्रशक्ती त्वयि सूर्यवंश्ये सति प्रपन्ना करुणामवस्थाम् / 10 / विशीर्णतल्पाट्टशतो निवेशः पर्यस्तशाल: प्रभुणा विना मे / विडम्बयत्यस्तनिमग्नसूर्यं दिनान्तमुग्रानिलभिन्नमेघम् / / 11 / / 15 निशासु भास्वत्कलनूपुराणां यः संचरोऽभूदभिसारिकाणाम् / नदन्मुखोल्काविचितामिषाभिः स वाह्यते राजपथः शिवाभिः / / आस्फालितं यत्प्रमदाकराग्रे दङ्गधीरध्वनिमन्वगच्छत् / वन्यैरिदानी महिषैस्तदम्भः शङ्गाहतं क्रोशति दीघिकाणाम् 13 वृक्षशया यष्टिनिवासभङ्गान्मृदङ्गशब्दापगमादलास्याः / 2.0 प्राप्ता दवोल्काहतशेषबर्हाः क्रीढामयूरा वनबहिणत्वम् / / 14 / / सोपानमार्गेषु च येषु रामानिक्षिप्तवत्यश्चरणान्सरागान् / सद्यो हतन्यकुभिरस्रदिग्धं व्याघ्र : पदं तेषु निधीयते मे / 15 / चित्रद्विपाः पद्मवनावतीर्णाः करेणुभिर्दत्तमृणांलभङ्गाः / नखाङ्कुशाधातविभिन्नकुम्भाः संरब्धसिंहप्रहृतं वहन्ति / / 16 / / 25 स्तम्भेषु योषित्प्रतियातनानामुत्क्रान्तवर्णक्रमधूसराणाम् / स्तनोत्तरीयाणि भवन्ति सङ्गान्निर्मोकपट्टाः फणिभिविमुक्ताः 17 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवशम् कालान्तरश्यामसुधेषु नक्तमितस्ततो रूढतृणाकुरेषु / त एव मुक्तागुणशुद्धयोऽपि हर्येषु मूर्च्छन्ति न चन्द्रपादाः / 18 / आवर्ण्य शाखाः सदयं च यासां, पुष्पाण्युपात्तानि विलासिनीभिः / 5 वन्यैः पुलिन्दैरिव वानरस्ताः, क्लिश्यन्त उद्यानलता मदीयाः // 16 // रात्रावनाविष्कृतदीपभासः कान्तामुखश्रीवियुता दिवापि / तिरस्क्रियन्ते कृमितन्तुजालैविच्छिन्नधूमप्रसरा गवाक्षाः / 20 / बलिक्रियावजितसैकतानि स्नानीयसंसर्गमनाप्नुवन्ति / 10 उपान्तवानीरगृहाणि दृष्ट्वा शून्यानि दूये सरयूजलानि / / 21 / / तदर्हसीमां वसतिं विसृज्य मामभ्युपैतुकुलराजधानीम् / हित्वा तनु कारणमानुषीं तां यथा गुरुस्ते परमात्ममूर्तिम् / / 22 तथेति तस्याः प्रणयं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्प्राग्रहरो रघूणाम् / पूरप्यभिव्यक्तमुखप्रसादा शरीरबन्धेन तिरोबभूव / / 23 / / 15 तदद्भुतं संसदि रात्रिवृत्तं प्रातद्विजेभ्यो नृपतिः शशंस / श्रुत्वा त एनं कुलराजधान्याः साक्षात्पतित्वे वृतमभ्यनन्दन् / 24 कुशावतीं श्रोत्रियसान्स कृत्वा, यात्रानुकूलेऽहनि सावरोधः। . अनुद्रुतो वायुरिवाभ्रवृन्दैः, 20 सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे / / 25 / / सा केतुमालोपवना बृहद्भिविहारशैलानुगतेव नागैः / सेना रथोदारगृहा प्रयाणे तस्याभवज्जंगमराजधानी // 26 // तेनातपत्रामलमण्डलेन प्रस्थापितः पूर्वनिवासभूमिम् / बभौ बलौघः शशिनोदितेन वेलामुदन्वानिव नीयमानः / 27 / 25 तस्य प्रयातस्य वरूथिनीनां पीडामपर्याप्तवतीव सोढम् / / वसुघरा विष्णुपदं द्वितीयमध्यारुरोहेव रजश्छलेन // 28 // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षोडशः सर्गः ] [ 117 उद्यच्छमाना गमनाय पश्चात्पुरे निवेशे पथि च व्रजन्ती / सा यत्र सेना ददृशे नृपस्य तत्रैव सामग्र्यमति चकार / / 29 / / तस्य द्विपानां मदवारिसेकात्खुराभिघाताच्च तुरंगमाणाम् / रेणुः प्रपेदे पथि पङ्कभावं पङ्कोऽपि रेणुत्वमियाय नेतुः / / 30 / / 5 मार्गेषिणी सा कटकान्तरेषु वैन्ध्येषु सेना बहुधा विभिन्ना / चकार रेवेव महाविरावा बद्धप्रतिश्रुन्ति गुहामुखानि // 31 // स धातुभेदारुणयाननेमिः प्रभुः प्रयाणध्वनिमिश्रतूर्यः / व्यलङ्घयद्विन्ध्यमुपायनानि पश्यन्पुलिन्दैरुपपादितानि / / 32 / / तीर्थे तदीये गजसेतुबन्धात्प्रतीपगामुत्तरतोऽस्य गङ्गाम् / 10 प्रयत्नवालव्यजनीबभूवुर्व्हसा नभोलवनलोलपक्षाः // 33 / / स पूर्वजानां कपिलेन रोषाद्भस्मावशेषीकृतविग्रहाणाम् / सुराऽलयप्राप्तिनिमित्तमम्भस्त्रैस्रोतसं नौलुलितं ववन्दे // 34 // इत्यध्वनः कश्चिदहोभिरन्ते कूलं समासाद्य कुशः सरय्वाः / वेदिप्रतिष्ठान्वितताध्वराणां यूपानपश्यच्छशतो रघूणाम् / 35 / 15 प्राधूय शाखाः कुसुमद्रुमाणां स्पृष्ट्वा च शीतान्सरयूतरङ्गान् / तं क्लान्तसैन्यं कुलराजधान्याः प्रत्युज्जगामोपवनान्तवायुः / / 36 / / अथोपशल्ये रिपुमग्नशल्य- . स्तस्याः पुरः पोरसखः स राजा। कुलध्वजस्तांनि चलध्वजानि निवेशयामास बली बलानि / / 37 / / तां शिल्पिसंघाः प्रभुणा नियुक्ता स्तथागतां संभृतसाधनत्वात् / 25 पुरं नवीचक्रुरपां विसर्गा न्मेघा निदाघग्लपितामिवोर्वीम् // 38 / / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् ततः सपर्यां सपशूपहारां पुरः परार्ध्यप्रतिमागृहायाः / उपोषितैर्वास्तुविधानविद्भिनिवर्तयामास रघुप्रवीरः // 36 / / तस्याः स राजोपपदं निशान्तं कामीव कान्ताहृदयं प्रविश्य / यथार्हमन्यैरनुजीविलोकं संभावयामास यथाप्रधानम् // 40 // सा मन्दुरासंश्रयिभिस्तुरंगैः शालाविधिस्तम्भगतैश्च नागैः / पूराबभासे विपणिस्थपण्या सर्वाङ्गनद्धाभरणेव नारी // 41 / / वसन्स तस्यां वसतौ रघूणां पुराणशोभामधिरोपितायाम् / न मैथिलेयः स्पृहयोबभूव भत्रे दिवो नाप्यलकेश्वराय / / 42 / / अथास्य रत्नग्रथितोत्तरीयमेकान्तपाण्डुस्तनलम्बिहारम् / निःश्वासहार्यांशुकमाजगाम धर्मः प्रियावेषमिवोपदेष्टुम् / 43 / अगस्त्यचिह्नादयनात्समीपं दिगुत्तरा भास्वति संनिवृत्ते / आनन्दशीतामिव बाष्पवृष्टि हिमस्र ति हैमवती ससर्ज / 44 / प्रवृद्धतापो दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी / उभौ विरोधक्रियया विभिन्नौ जायापती सानुशयाविवास्ताम् / 15 दिने दिने शैवलवन्त्यधस्तात्सोपानपर्वाणि विमुच्चदम्भः / उद्दण्डपद्म गृहदीर्घिकाणां नारीनितम्बद्वयसं बभूव / / 46 // वनेषु सायंतनमल्लिकानां विजृम्भणोद्गन्धिषु कुड्मलेषु / प्रत्येकनिक्षिप्तपदः सशब्दं संख्यामिवैषां भ्रमरश्चकार / 47 / स्वेदानुविद्वानखक्षताके भूयिष्ठसंदष्ट शिखं कपोले / च्युतं न कर्णादपि कामिनीनां शिरीषपुष्पं सहसा पपात / 48 / यन्त्रप्रवाहै शिशिरैः परीतान्रसेन धौतान्मलयोद्भवस्य / शिलाविशेषानधिशय्य निन्युर्धारागृहेष्वातपमृद्धिमन्तः / / 46 / / स्नानामुक्तेष्वनुधूपवासं विन्यस्तसायंतनमल्लिकेषु / कामो वसन्तात्ययमन्दवीर्यः केशेषु लेभे बलमङ्गनानाम् / 50 / 25 आपिञ्जरा बद्धरजःकणत्वा न्मजयुदारा शुशुभेऽर्जुनस्य / 20 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षोडशः सर्गः ] [ 116 दग्ध्वापि देहं गिरिशेन रोषा त्खण्डीकृता ज्येव मनोभवस्य / / 51 / / मनोशंगन्धं सहकारभर्गु पुराणशीधुं नवपाटलं च / संबन्धता कामिजनेषु दोषाः सर्वे निदाघावधिना प्रमृष्टाः / 52 / 5 जनस्य तस्मिन्समये विगाढ़े बभूवतुद्वौं सविलेषकान्तौ / तापापनोदक्षमपादसेवौ स चोदयस्थौ नृपतिः शशी च // 53 / / अथोमिलोलोन्मदराजहंसे रोधोलतापुष्पवहे सरय्वाः / विहर्तुमिच्छा वनितासखस्य तस्याम्भसि ग्रीष्मसुखे बभूव / 54 / स तीरभूमौ विहितोपकार्यामानायिभिस्तामपकृष्टनकाम् / 10 विगाहितु श्रीमहिमानुरूपं प्रचक्रमे चक्रधरप्रभावः / / 55 / / सा तीरसोपानपथावतारादन्योन्य केयूरविघट्टिनीभिः / सनूपुरक्षोभपदाभिरासीदुद्विग्नहंसा सरिदङ्गनाभिः / / 56 / / परस्पराभ्युक्षणतराणां तासां नृपो मज्जन रागदर्शी / नौसंश्रयः पार्श्वगतां किरातीमुपात्तवालव्यजनां बभाषे / 57 / पश्यावरोधैः शतशो मदीयैविगाह्यमानो गलिताङ्गरागैः / संध्योदयः साभ्र इवैष वर्णं पुष्यत्यनेकं सरयूप्रवाहः / / 58 / / विलुप्तमन्तःपुरसुन्दरीणां यदञ्जनं नौलुलिताभिरद्भिः / तद्वध्नतीभिर्मदरागशोभां विलोचनेषु प्रतिमुक्तमासाम् / 5 / एता गुरुश्रोणिपयोधरत्वादात्मानमुद्वोढुमशक्नुवत्यः / - 20 गाढाङ्गदैर्बाहुभिरप्सु बालाः क्लेशोत्तरं रागवशात्प्लवन्ते 60 अमी शिरीषप्रसवावतंसाः, प्रभ्रंशिनो वारिविहारिणीनाम् / पारिप्लवाः स्रोतसि निम्नगायाः शैवाललोलाष्छलयन्ति मीनान् // 61 // 25 आसां जलास्फालनतत्पराणां मुक्ताफलस्पर्धिषु शीक रेष / पयोधरोत्सर्पिषु शीर्यमाणाः संलक्ष्यते न छिदुरोऽपि हारः 62 15 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् 10 आवर्तशोभा नतनाभिकान्तेर्भङ्गो ध्रुवां द्वन्द्वचराः स्तनानाम् / जातानि रूपावयवोपमानान्यदूरवर्तीनि विलासिनीनाम् / 63 / तीरस्थलीबहिभिरुत्कलापैः प्रस्निग्धकेकैरभिनन्द्यमानम् / श्रोत्रेषु संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदङ्गवाद्यम् / 64 / संदष्टवस्त्रेष्वबलानितम्बेष्विदुप्रकाशान्तरितो/तुल्याः / अमी जलापूरितसूत्रमार्गा मौनं भजन्ते रशनाकलापाः // 65 / / एताः करोत्पीडितवारिंधारा दत्सिखीभिर्वदनेषु सिक्ताः / वक्रेतरात्रैरलकैस्तरुण्यश्चूर्णारुणान्वारिलवान्वमन्ति / / 66 / / उद्बन्धकेशश्च्युतपत्त्रलेखो विश्लेषिमुक्ताफलपत्रवेष्ट: / मनोज्ञ एव प्रमदामुखानामम्भोविहाराकुलितोऽपि वेषः / 67 / स नौविमानादवतीयं रेमे विलोलहारः सह ताभिरप्सु / स्कन्धावलग्नोद्धृतपद्मिनीकः करेणुभिर्वन्य इव द्विपेन्द्रः / 68 / ततो नृपेणानुगताः स्त्रियस्ता, भ्राजिष्णुना सातिशयं विरेजुः / प्रागेव मुक्ता नयनाभिरामाः, . प्राप्येन्द्रनीलं किमुतोन्मयूखम् // 66 / / वर्णोदकैः काञ्चनशृङ्गमुक्तै स्तमायताक्ष्यः प्रणयादसिञ्चन् / तथागतः सोऽतितरां बभासे, सधातुनिष्यन्द इवाद्रिराजः // 70 // तेनावरोधप्रमदासखेन विगाहमानेन सरिद्वरां ताम् / आकाशगङ्गारतिरप्सरोभिवृ तो मरुत्वाननुयातलीलः / / 71 / / यत्कुम्भयोनेरधिगम्य रामः कुशाय राज्येन समं दिदेश / तदस्य जैत्राभरणं विहर्तु रज्ञातपातं सलिले ममज्ज / / 72 / / स्नात्वा यथाकाममसौ सदारस्तीरोपकार्यां गतमात्र एव / दिव्येन शून्यं वलयेन बाहुमपोढनेपथ्यविधिर्ददर्श / / 73 / / 25 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे षोडशः सर्गः ] [ 121 जयश्रियः संवननं यतस्तदामुक्तपूर्व गुरुणा च यस्मात् / सेहेऽस्य न भ्रंशमतो न लोभात्स तुल्यपुष्पाभरणो हि धीरः 74 ततः समाज्ञापयदाशु सर्वानानायिनस्तद्विचये नदीष्णान् / वन्ध्यश्रमास्ते सरयू विगाह्य तमूचुरम्लानमुखप्रसादाः / 75 / 5 कृत: प्रयत्नो न च देव लब्धं मग्नं पयस्याभरणोत्तमं ते / नागेन लौल्यात्कुमुदेन नूनमुपात्तमन्तह्र दवासिना तत् / 76 / / ततः स कृत्वा धनुराततज्यं धनुर्धरः कोपविलोहिताक्षः / गारुत्मतं तीरगतस्तरस्वी भुजंगनाशाय समाददेऽस्त्रम् / / 77 / / तस्मिन्ह्रदः संहितमात्र एव क्षोभात्समाविद्धतरङ्गहस्तः / 10 रोधांसि निघ्नन्नवपातमग्नः करीव वन्यः परुषं ररास / / 7 / / तस्मात्समुद्रादिव मथ्यमानादुद्वृत्तनकात्सहसोन्ममज्ज / लक्ष्म्येव साधं सुरराजवृक्षः कन्यां पुरस्कृत्य भुजंगराजः / 76 / विभूषणाप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशां पतिस्तम् / सौपर्णमस्त्रं प्रतिसंजहार प्रह्वष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः / / 8 / / 15 त्रैलोक्यनाथप्रभवं प्रभावात्कुशं द्विपामङकुशमस्त्रविद्वान् / मानोन्नतेनाप्यभिवन्द्य मूर्ना मूर्धाभिषिक्तं कुमुदो बभाषे / 81 / अवमि कार्यान्तरमानुषस्य विष्णोः सुताख्यामपरां तनुं त्वाम् / सोऽहं कथं नाम तवाचरेयमाराधनीयस्य धतेविघातम् / / 82 / / कराभिघातोत्थितकन्दुकेयमालोक्य बालातिकुतूहलेन / 20 ह्रदात्पतज्ज्योतिरिवान्तरिक्षादादत्त जैत्राभरणं त्वदीयम् / 83 / तदेतदाजानुविलम्बिना ते ज्याघातरेखाकिणलाञ्छनेन / भुजेन रक्षापरिघेरण भूमेरुपैतु योगं पुनरंसलेन / / 84 // इमां स्व सारं च यवीयसी मे कुमुद्वतीं नार्हसि नानुमन्तुम् / आत्मापराधं नुदती चिराय शुश्रूपया पार्थिव पादयोस्ते / / 8 / / 25 इत्यूचिवानुपहृताभरणः क्षितीशं श्लाघ्यो भावन्स्वजन इत्यनुभाषितारम् / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् संयोजयां विधिवदास समेतबन्धुः ___कन्यामयेन कुमुदः कुलभूषणेन / / 86 / / " (वसन्त०) .. 5 तस्याः स्पृष्टे मनुजपतिना साहचर्याय हस्ते, .. माङ्गल्योर्णावलयिनि पुरः पावकस्योच्छिखस्य। . दिव्यस्तूर्यध्वनिरुदचरद्व्यश्नुवानो दिगन्तान्गन्धोदग्रं तदनु ववृषुः पुष्पमाश्चर्यमेघाः / / 87 / / (मन्दा०) इत्थं नागस्त्रिभुवनगुरोरौरस मैथिलेयं, लब्ध्वा बन्धुतमपि चं कुशः पञ्चमं तक्षकस्य / एकः शङ्कां पितृवधरिपोरत्यजद्वैनतेया ___ च्छान्तव्यालामवनिमपरः पौरकान्तः शशास / 88 / // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये 15 कुमुद्वतीपरिणयो नाम षोडशः सर्गः / / 16 / / // 1 // अथ सप्तदशः सर्गः // अतिथिं नाम कात्कुस्थात्पुत्रं प्राप कुमुद्वती। पश्चिमाद्यामिनीयामात्प्रसादमिव चेतना // 1 // स पितुः पितृमान्वंशं मातुश्चानुपमद्युतिः / 20 अपुनात्सवितेवोभौ मार्गावुत्तरदक्षिणौ // 2 // तमादौ कुलविद्यानामर्थमर्थविदां वरः / ' पश्चात्पार्थिवकन्यानां पाणिमग्राहयत्पिता // 3 // जात्यस्तेनाभिजातेन शूरः शौर्यवता कुशः / अमन्यतैकमात्मानमनेकं वशिना वशी / / 4 / / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तदशः सर्गः ] [ 123 10 स कुलोचितमिन्द्रस्य साहायकमुपेयिवान् / जघान समरे दैत्यं दुर्जयं तेन चावधि / / 5 / / तं स्वां नागराजस्य कुमुदस्य कुमद्वती / अन्वगात्कुमुदानन्दं शशाङ्कमिव कौमुदी / / 6 / / तयोदिवस्पतेरासीदेक: सिंहासनार्धभाक् / द्वितीयापि सखी शच्याः पारिजातांशभागिनी / / 7 / / तदात्मसंभवं राज्ये मन्त्रिवृद्धाः समादधुः / स्मरन्त: पश्चिमामाज्ञां भर्तुः सङ्ग्रामयायिनः / / 8 / / ते तस्य कल्पयामासुरभिषेकाय शिल्पिभिः / विमानं नवमुद्वेदि चतुःस्तम्भप्रतिष्ठितम् // 6 // तत्रैनं हेमकुम्भेषु संभृतैस्तीर्थवारिभिः / / उपतस्थुः प्रकृतयो भद्रपीठोपवेशितम् / / 10 / / नदद्भिः स्निग्धगम्भीरं ' तूर्येराहतपुष्करैः / अन्वमीयत कल्याणं तस्याविच्छिन्नसंतति / / 11 / / 15 दूर्वायवाकुरप्लक्षत्वगभिन्नपुटोत्तरान् / ज्ञातिवृद्धः प्रयुक्तान्स भेजे नीराजनाविधीन् // 12 // पुरोहितपुरोगास्तं जिष्णु जैत्ररथर्वभिः / उपचक्रमिरे पूर्वमभिषेक्तु द्विजातयः / / 13 / / तस्यौघमहती मूनि निपतन्ती व्यरोचत / 20 सशब्दमभिषेकश्रीगङ्गव त्रिपुरद्विषः / / 14 / / स्तूयमानः क्षणे तस्मिन्नलक्ष्यत स बन्दिभिः / प्रवृद्ध इव पर्जन्यः सारङ्गरभिनन्दितः / / 15 / / तस्य सन्मन्त्रपूताभिः स्नानमद्भिः प्रतीच्छतः / चक्षे चैातम्याग्नेष्टिमेकादिव तिः / / 16 // 25 स तावदभिषेकान्ते स्नातकेभ्यो ददौ वसु / यावतैषां समाप्येरन्यज्ञाः पर्याप्तदक्षिणाः / / 17 / / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 124 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् ते प्रीतमनसस्तस्मै यामाशिषमुदैरयन् / सा तस्य कर्मनिर्वृत्तैर्दूरं पश्चात्कृता फलैः // 18 // बन्धच्छेदं स बद्धानां वधार्हाणामवध्यताम् / . : धुर्याणां च धुरो मोक्षमदोहं चादिशद्गवाम् / / 19 / / 5 क्रीडापतत्रिणोऽप्यस्य पञ्जरस्थाः शुकादयः / लब्धमोक्षास्तदादेशाद्यथेष्टगतयोऽभवन् / / 20 / / . ततः कक्ष्यान्तरन्यस्तं गजदन्तासनं शुचि / सोत्तरच्छदमध्यास्त नेपथ्यग्रहणाय सः / / 21 / / तं धूपाश्यानकेशान्तं तोयनिणिक्तपाणयः / आकल्पसाधनैस्तैस्तैरुपसेदुः प्रसाधकाः / / 22 // तेऽस्य मुक्तागुणोन्नद्धं मौलिमन्तर्गतस्रजम् / प्रत्यूपु: पद्मरागेण प्रभामण्डलशोभिना // 23 // चन्दनेनाङ्गरागं च मृगनाभिसुगन्धिना। समापय्य ततश्चक्रुः पत्रं विन्यस्तरोचनम् / / 24 / / 15 प्रामुक्ताभरणः स्रग्वी हंसचिह्नदुकूलवान् / आसीदतिशयप्रेक्ष्यः स राज्यश्रीवधूवरः // 25 // नेपथ्यशिनश्छाया तस्यादर्श हिरण्मये। . विरराजोदिते सूर्ये मेरौ कल्पतरोरिव // 26 // स राजककुदव्यग्रपाणिभिः पार्श्ववतिभिः / ययावुदीरितालोकः सुधर्मानवमां सभाम् // 27 / / वितानसहितं तत्र भेजे पैतृकमासनम् / चूडामणिभिरुद्घृष्टपादपीठं महीक्षिताम् / / 28 / / शुशुभे तेन चाक्रान्तं मङ्गलायतनं महत् / श्रीवत्सलक्षणं वक्षः कौस्तुभेनेव केशवम् / / 26 / / 25 बभौ भूयः कुमारत्वादाधिराज्यमवाप्य सः / रेखाभावादुपारूढः सामग्र्यमिव चन्द्रमाः // 30 // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तदशः सर्गः ] [ 125 प्रसन्नमुखरागं तं स्मितपूर्वाभिभाषिणम् / मूर्तिमन्तममन्यन्त विश्वासमनुजीविनः // 31 / / स पुरं पुरुहूतश्रीः कल्पद्रुम निभध्वजाम् / क्रममाणश्चकार द्यां नागेनैरावतौजसा / / 32 / / 5 तस्यैकस्योच्छितं छत्त्रं मूनि तेनामलत्विषा / पूर्वराजवियोगोष्म्यं कृत्स्नस्य जगतो हृतम् / / 33 / / धमादग्ने: शिखाः पश्चादुदयादंशवो रवेः / सोऽतीत्य तेजसां वृत्ति सममेवोत्थितो गुणैः / / 34 / / तं प्रीतिविशदैनॆत्रैरन्वयुः पौरयोषितः / 10 शरत्प्रसन्नोतिभिर्विभावर्य इव ध्रुवम् // 35 / / अयोध्यादेवताश्चैनं प्रशस्तायतनाचिताः / अनुदध्युरनुध्येयं सांनिध्यैः प्रतिमागतः / / 36 / / यावन्नाश्यायते वेदिरभिषेकजलाप्लुता। तावदेवास्य वेलान्तं प्रतापः प्राप दुःसहः / / 37 / / 15 वसिष्ठस्य गुरोर्मन्त्राः सायकास्तस्य धन्विनः / किं तत्साध्यं यदुभये साधयेयुर्न संगताः // 38 / / स धर्मस्थसखः शश्वदर्थिप्रत्यर्थिनां स्वयम् / ददर्श संशयच्छेद्यान्व्यवहारानतन्द्रितः / / 36 / / ततः परमभिव्यक्तसौमनस्यनिवेदितैः / युयोज पाकाभिमुखै त्यान्विज्ञापनाफलैः // 40 // प्रजास्तद्गुरुणा नद्यो नभसेव विवर्धिताः / तस्मिस्तु भूयसीं वृद्धि नभस्ये ता इवाययुः // 41 / / यदुवाच न तन्मिथ्या यद्ददौ न जहार तत् / सोऽभूद्भग्नव्रतः शत्रूनुद्धृत्य प्रतिरोपयन् // 42 // 25 वयोरूपविभूतीनामेकैकं मदकारणम् / तानि तस्मिन्समस्तानि न तस्योत्सिषिचे मनः // 43 // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् इत्थं जनितरागासु प्रकृतिष्वनुवासरम् / अक्षोभ्यः स नवोऽप्यासीदृढमूल इव द्रुमः / / 44 / / अनित्याः शत्रवो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः / अतः सोऽभ्यन्तरान्नित्यान्षट् पूर्वमजयद्रिपून् / / 45 / / 5 प्रसादाभिमुखे तस्मिश्चपलापि स्वभावतः / निकष हेमरेखेव श्रीरासीदनपायिनी // 46 / / कातयं केवला नीतिः शौर्य श्वापदचेष्टितम् / अतः सिद्धि समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः / / 47 / / न तस्य मण्डले राज्ञो न्यस्तप्रणिधिदीधितेः / 10 अष्टमभवकिचिद्वयभ्रस्यैव विवस्वतः / / 48 / / रात्रिदिवविभागेष यदादिष्टं महीक्षिताम् / तत्सिषेवे नियोगेन स विकल्पपराङ्मुखः / / 49 / / मन्त्रः प्रतिदिनं तस्य बभूव 'सह मन्त्रिभिः / स जातु सेव्यमानोऽपि गुप्तद्वारो न सूच्यते / / 50 / / 15 परेषु स्वेषु . च क्षिप्तरविज्ञातपरस्परैः / सोऽपसर्जजागार यथाकालं स्वपन्नपि / / 51 / / दुर्गाणि दुर्ग्रहाण्यासंस्तस्य रोद्धरपि द्विषाम् / / नहि सिंहो गजास्कन्दो भयादिगरिगृहाशयः / / 52 / / भव्यमुख्या: समारम्भा: प्रत्यवेक्ष्या निरत्ययाः / गर्भशालिसधर्माणस्तस्य गूढं विपेचिरे // 53 / / अपथेन प्रववृते न जातूपचितोऽपि सः / वृद्धो नदीमुखेनैव प्रस्थानं लवणाम्भसः / / 54 / / कामं प्रकृतिवैराग्यं सद्यः शमयितुं क्षमः / / कस्य कार्यः प्रतीकारः स तन्नैवोदपादयत् / / 55 / / 25 शक्येष्वेवाभवद्यात्रा तस्य शक्तिमंत: सतः / समीरणसहायोऽपि नाम्भःप्रार्थी दवा नलः / / 56 / / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे सप्तदशः सर्गः ] [ 127 न धर्ममर्थकामाभ्यां बबाधे न च तेन तौ। नार्थ कामेन कामं वा सोऽर्थेन सदृशस्त्रिषु // 57 / / हीनान्यनुपकर्तृणि प्रवृद्धानि विकुर्वते / तेन मध्यमशक्तीनि मित्राणि स्थापितान्यतः // 58 / / 5 परात्मनोः परिच्छिद्य शक्त्यादीनां बलाबलम् / ययावेभिर्बलिष्ठश्चेत्परस्मादास्त सोऽन्यथा / / 56 / / कोशेनाश्रयणीयत्वमिति तस्यार्थसंग्रहः / अम्बुगों हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते // 60 / / परकर्मापहः सोऽभूदुद्यतः स्वेषु कर्मसु / प्रावृणोदात्मनो रन्ध्र रन्ध्रेषु प्रहरन्रिपून् // 61 / / पित्रा संवधितो नित्यं कृतास्त्रः सांपरायिकः / तस्य दण्डवतो दण्डः स्वदेहान्न व्यशिष्यत / 62 / / सर्पस्येव शिरोरत्नं नास्य शक्तित्रयं परः / स चकर्ष परस्मात्तदयस्कान्त इवायसम् / / 63 / / 15 वापीष्विव स्रवन्तीषु वनेषूपवनेष्विव / सार्थाः स्वैरं स्वकीयेषु चेरुर्वेश्मस्विवाद्रिषु / / 64 / / तपो रक्षन्स विघ्नेभ्यस्तस्करेभ्यश्च संपदः / यथास्वमाश्रमैश्चक्रे वर्णैरपि षडंशभाक् / / 65 / / खनिभिः सुषुवे रन्नं क्षेत्रैः सस्यं वनैर्गजान् / दिदेश वेतनं तस्मै रक्षासदृशमेव भूः // 66 / / स गुणानां बलानां च षण्णां षण्मुखविक्रमः / बभूव विनियोगज्ञः साधनीयेषु वस्तुषु // 67 / / इति क्रमात्प्रयुञ्जानो राजनीति चतुर्विधाम् / आतीर्थादप्रतीघातं स तस्याः फलमानशे // 68 / / 25 कूटयुद्धविधिज्ञेऽपि तस्मिन्सन्मार्गयोधिनि / भेजेऽभिसारिकावृत्ति जयश्रीर्वीरगामिनी // 66 / / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् 10 प्रायः प्रतापभग्नत्वादरीणां तस्य दुर्लभः / / रणो गन्धद्विपस्येव गन्धमिन्नान्यदन्तिनः // 70 // प्रवृद्धौ. हीयते चन्द्रः समुद्रोऽपि तथाविधः / स तु तत्समवृद्धिश्च न चाभूत्ताविव क्षयी / / 71 / / सन्तस्तस्याभिगमनादत्यर्थं महतः कृशाः / / उदधेरिव जीमूताः प्रापुर्दातृत्वमर्थिनः / / 72 / / स्तूयमानः स जिहांय स्तुत्यमेव समाचरन् / तथापि ववृधे तस्य तत्कारिद्वेषिणो यशः / / 73 / / दुरितं दर्शनेन घ्नस्तत्त्वार्थेन नुदंस्तमः / प्रजा स्वतन्त्रयांचवे शश्वत्सूर्य इवोदितः / / 74 / / इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदेंऽशवः / गुणास्तस्य विपक्षेऽपि गुणिनो लेभिरेऽन्तरम् / / 75 / / पराभिसंधानपरं यद्यप्यस्य विचेष्टितम् / जिगीषोरश्ववमेधाय धर्म्यमेव बभूव तत् / / 76 / / 15 एवमुद्यन्प्रभावेण शास्त्रनिदिष्टवर्त्मना / वृषेव देवो देवानां राज्ञां राजा वभूव सः / / 77 / / पञ्चमं लोकपालानामूचुः साधर्म्ययोगतः / भूतानां महतां षष्टमष्टमं कुलभूभृताम् / / 78 / / दूरापवजितच्छत्रैस्तस्याज्ञां शासनापिताम् / दधुः शिरोभिभूपाला देवाः पौरंदरीमिव / / 79 / / ऋत्विजः स तथानर्च दक्षिणाभिर्महाऋतौ / . यथा साधारणीभूतं नामास्य धनदस्य च / / 80 / / इन्द्राद्धृष्टिनियमितगदोद्रेकवृत्तिर्यमोऽभू द्यादोनाथः शिवजलपथ: कर्मणे नौचराणाम् / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टादशः सर्गः ] [ 129 पूर्वापेक्षी तंदनु विदधे कोषवृद्धि कुबेर. स्तस्मिन्दण्डोपनतचरितं भेजिरे लोकपालाः / 81 / ( मन्दा० ) / / इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये अतिथिवर्णनो नाम सप्तदशः सर्गः / / 17 / / 5 // 18 // अथ अष्टादशः सर्गः / / स नैषधस्यार्थपतेः सुतायामुत्पादयामास निषिद्धशत्रुः / अनूनसारं निषधान्नगेन्द्रात्पुत्रं यमाहुनिषधाख्यमेव // 1 / / तेनोरुवीर्येण पिता प्रजायै कल्पिष्यमाणेन ननन्द यूना / 10 सुवृष्टियोगादिव जीवलोक: सस्येन संपत्तिफलोन्मुखेन / / 2 / / शब्दादि निविश्य सुखं चिराय तस्मिन्प्रतिष्ठापित राजशब्दः / कौमुद्वतेयः कुमुदावदातैाजितां कर्मभिरारुरोह // 3 // पौत्रः कुशस्यापि कुशेशयाक्षः ससागरां सागरधीरचेताः / एकातपत्रां भुवमेवकीर: पुरार्गलादीर्घभुजो बुभोज / / 4 / / 15 तस्यानलौजास्तनयस्तद ते वंशश्रियं प्राप नलाभिधानः / यो नड्वलानीव गजः परेषां बलान्यमृद्नान्नलिनाभवक्त्रः / / नभश्चरैर्गीतयशाः स लेभे नभस्तलश्यामतनुतनूजम् / ख्यातं नभ शब्दमयेन नाम्ना कान्तं नभोमासमिव प्रजानाम् / 6 / तस्मै विसृज्योत्तरकोसलानां धर्मोत्तरस्तत्प्रभवे प्रभूत्वम् / - 20 मृगैरजर्यं जरसोपदिष्टमदेहबन्धाय पुनर्बबन्ध / / 7 / / तेन द्विपानामिव पुण्डरीको राज्ञामजय्योऽजनि पुण्डरीकः / शान्ते पितर्याहृतपुण्डरीका यं पुण्डरीकाक्षमिव श्रिता श्रीः / 8 / क्षेमधन्वानममोघधन्वा पुत्रं प्रजाक्षेमविधानदक्षम् / क्ष्मां लम्भयित्वा क्षमयोपपन्न वने तपः क्षान्ततरश्चचार / / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् अनीकिनीनां समरेऽग्रयायी तस्यापि देवप्रतिमः सुतोऽभूत् / व्यश्रूयतानीकपदावसानं देवादि नाम त्रिदिवेऽपि यस्य // 10 // पिता समाराधनतत्परेण पुत्रेण पुत्री स यथैव तेन / पुत्रस्तथैवात्मजवत्सलेन स तेन पित्रा पितृमान्बभूव / / 11 / / 5 पूर्वस्तयोरात्मसमे चिरोढामात्मोद्भवे वर्णचतुष्टयस्य / / धुरं निधायैकनिधिगुणानां जगाम यज्वा यजमानलोकम् / 12 / वशी सुतस्तस्य वशंवदत्वात्स्वेषामिवासीविषतामपीष्टः / सकृद्विविग्नानपि हि प्रयुक्त माधुर्यमीष्टे हरिणान्ग्रहीतुम् / 13 / अहीनगुर्नाम स गां समग्रामहीनबाहुद्रविणः शशास। 10 यो हीनसंसर्गपराङ्मुखत्वाधुवाप्यनथैर्व्यसनैविहीनः / / 14 / / गुरोः स चानन्तरमन्तरज्ञः पुंसां पुमानाद्य इवावतीर्णः / उपक्रमरस्खलितैश्चतुर्भिश्चतुगीदिशश्चतुरो बभूव / / 15 / / तस्मिन्प्रयाते परलोकयात्रां जेतर्यरीणां तनयं तदीयम् / उच्चैःशिरस्त्वाज्जितपारियानं लक्ष्मीः सिषेवे किल पारियात्रम्। 15 तस्याभवत्सूनुरुदारशीलः शिलः शिलापट्टविशालवक्षाः / जितारिपक्षोऽपि शिलीमुखैर्यः शालीनतामव्रजदीडयमानः / 17 / तमात्मसंपन्नमनिन्दितात्मा कृत्वा युवानं युवराजमेव / / सुखानि सोऽभुङ्क्त सुखोपरोधि वृत्तं हि राज्ञामुपरुद्धवृत्तम् / 18 / तं रागबन्धिष्ववितृप्तमेव, भोगेषु सौभाग्यविशेषभोग्ययम् / विलासिनीनामरतिक्षमापि जरा वृथा मत्सरिणी जहार / 16 / उन्नाभ इत्युद्गतनामधेयस्तस्यायथार्थोन्नतनाभिरन्ध्रः / सुतोऽभवत्पङ्कजनाभकल्पः कृत्स्नस्य नाभिनुपमण्डलस्य / 20 / ततः परं वज्रधरप्रभावस्तदात्मजः संयति वज्रघोषः / बभूव वज्राकरभूषणायाः पतिः पृथिव्याः किल वज्रणाभः 21 25 तस्मिन्गते द्यां सुकृतोपलब्धां तत्संभवं शङ्खरणमर्णवान्ता / उत्खातशत्रु वसुधोपतस्थे रत्नोपहारैरुदितैः खनिभ्यः / / 22 / / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टादशः सर्गः ] [ 131 तस्यावसाने हरिदश्वधामा पित्र्यं प्रपेदे पदमश्विरूपः / वेलातटेषूषितसैनिकावं पुराविदो यं व्युषिताश्वमाहुः / / 23 / / आराध्य विश्वेश्वरमीश्वरेण तेन क्षितेविश्वसहो विजज्ञे / पातु सहो विश्वसखः समग्रां विश्वंभरामात्मजमूतिरात्मा 24 5 अंशे हिरण्याक्षरिपोः स जाते हिरण्यनाभे तनये नयज्ञः / द्विषामसह्यः सुतरां तरूणां हिरण्यरेता इव सानिलोऽभूत् / 25 / पिता पितृणामनृणस्तमन्ते वयस्यनन्तानि सुखानि लिप्सुः / राजानमाजानु विलम्बिबाहुं कृत्वा कृती वल्कलवान्बभूव / 26 / कौसल्य इत्युत्तरकोसलानां पत्युः पतङ्गान्वयभूषणस्य / 10 तस्यौरसः सोमसुतः सुतोऽभून्नेत्रोत्सवः सोम इव द्वितीयः / 27 / यशोभिराब्रह्मसभं प्रकाशः स ब्रह्मभूयं गतिमाजगाम / ब्रह्मिष्ठमाधाय निजेऽधिकारे ब्रह्मिष्ठमेब स्वतनुप्रसूतम् / 28 / तस्मिन्कुलापीडनिभे विपीडं सम्यङ्महीं शासति शासनाङ्काम् / प्रजाश्चिरं सुप्रजसि प्रजेशे ननन्दुरानन्दजलाविलाक्ष्यः / / 29 / / 15 पात्रीकृतात्मा गुरुसेवनेन स्पष्टाकृतिः पत्त्ररथेन्द्रकेतोः / तं पुत्रिणां पुष्करपत्रनेत्रः समारोपयदग्रसंख्याम् / / 30 / / वंशस्थिति वंशकरेण तेन संभाव्य भावी स सखा मघोनः / उपस्पृशन्स्पर्शनिवृत्तलौल्यस्त्रिपुष्करेषु त्रिदशत्वमाप / / 31 / / तस्य प्रभानिजितपुष्परागं पौष्यां तिथौ पुष्यमसूत पत्नी / ...20 तस्मिन्नपुष्यन्नुदिते समग्रां पुष्टि जनाः पुष्य इव द्वितीये / 32 / महीं महेच्छः परिकीर्य सूनौ मनीषिणे जैमिनयेऽपितात्मा। तस्मात्सयोगादधिगभ्य योगमजन्मनेऽकल्पत जन्मभीरु: / 33 / ततः परं तत्प्रभवः प्रपेदे ध्रुवोपमेयो ध्रुवसंधिरुर्वीम् / यस्मिन्नभूज्ज्यायसि सत्यसंधे संधिधुवः संनमतामरीणाम् / 34 / 25 सुते शिशावेव सुदर्शनाख्ये दर्शात्ययेन्दुप्रियदर्शने सः / मृगायताक्षो मृगयाविहारी सिंहादवापद्विपदं नृसिंहः / / 3 / / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् स्वर्गामिनस्तस्य तमैकमत्यादमात्यवर्गः कुलतन्तुमेकम् / अनाथदीनाः प्रकृतीरवेक्ष्य साकेतनाथं विधिवच्चकार // 36 // नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैकसिंहेन च काननेन / .. रघो: कुलं कुड्मलपुष्करेण तोयेन चाप्रौढनरेन्द्रमासीत् / 37 / 5 लोकेन भावी पितुरेव तुल्यः संभावितो मौलिपरिग्रहात्सः / दृष्टो हि वृण्वन्कलभप्रमाणोऽप्याशा: पुरोवातमवाप्य मेघः 38 तं राजवीथ्यामधिहस्ति यान्तमाधोरणालम्बितमग्र्यवेशम् / षड्वर्षदेशीयमपि प्रभूत्वात्प्रेक्षन्त पौरा: पितृगौरवेण / / 3 / / कामं न सोऽकल्पत पैतृकस्य सिंहासनस्य प्रतिपूरणाय / 10 तेजोमहिम्ना पुनरावृतात्मा तद्व्याप चामीकरपिजरेण / 40 / तस्मादधः किंचिदिवावतीर्णावसंस्पृशन्तौ तपनीयपीठम् / सालक्तको भूपतयः प्रसिद्धर्ववन्दिरे मौलिभिरस्य पादौ / 41 / मणौ महानील इति प्रभावादल्पप्रमाणेऽपि यथा न मिथ्या / शब्दो महाराज इति प्रतीतस्तथैव तस्मिन्युयुजेऽर्भकेऽपि / 42 // 15 पर्यन्तसंचारितचामरस्य कपोललोलोभयकाकपक्षात् / तस्याननादुच्चरितो विवादश्चस्खाल वेलास्वपि नार्णवानाम् / निर्वृत्तजाम्बूनदपट्टशोभे न्यस्तं ललाटे तिलकं दधानः / तेनैव शून्यान्यरिसुन्दरीणां मुखानि स स्मेरमुखश्चकार / 44 / शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्यः खेदं स यायादपि भूषणेन / नितान्तगुर्वीमपि सोऽनुभावाधुरं धरित्र्या बिभरांबभूव / 45 / न्यस्ताक्षरामक्षरभूमिकायां कात्स्न्येन गृह्णाति लिपि न यावत् / सर्वाणि तावच्छ तवृद्धयोगात्फलान्युपायुक्त स दण्डनीतेः 46 उरस्यपर्याप्तनिवेशभागा प्रौढीभविष्यन्तमुदीक्षमाणा / संजातलज्जेव तमातपत्रच्छायाच्छलेनोपजुगृह लक्ष्मीः / 47 / 25 अनशनुवानेन युगोपमानमबद्धमौर्वोकिणलाञ्छनेन / अस्पृष्टखड्गत्सरुणापि चासीद्रक्षावती तस्य भुजेन भूमिः / 48 / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे अष्टादशः सर्गः ] [ 133 न केवलं गच्छति तस्य काले ययुः शरीरावयवा विवृद्धिम् / वंश्या गुणाः खल्वपि लोककान्ताः प्रारम्भसूक्ष्माः प्रथिमानमापुः // 46 / / 5 स पूर्वजन्मान्तरदृष्टपाराः स्मरनिवाक्लेशकरो गुरूणाम् / तिस्रस्त्रिवर्गाधिगमस्य मूलं जग्राह विद्याः प्रकृतीश्च पित्र्याः // 50 // व्यूह्य स्थितः किंचिदिवोत्तरार्धमुन्नद्धचूडोऽञ्चितसव्यजानुः / 10 आकर्णमाकृष्टसबाणधन्वा व्यरोचतास्त्रेषु विनीयमानः // 51 // प्रय मधु वनितानां नेत्रनिर्वेशनीयं मनसिजतरुपुष्पं रागबन्धप्रवालम् / . प्रकृतकविधि विङ्गीणमाकल्पजातं विलसितपदमाद्यं यौवनं स प्रपेदे / / 52 / / 15 प्रतिकृतिरचनाभ्यो दूतिसंदर्शिताभ्यः समधिकतररूपाः शुद्धसंतानकामैः / अधिविविदुरमात्यैराहृतास्तस्य यून: प्रथमपरिगृहीते श्रीभुवौ राजकन्याः / / 53 / / . // इति महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये ... 20 वंशानुक्रमो नाम अष्टादशः सर्गः / / 18 / / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् // 19 // अथ एकोनविंशः सर्गः॥ अग्निवर्णमभिषिच्य राघवः स्वे पदे तनयमग्नितेजसम् / शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिमः पश्चिमे वयसि नैमिषं वशी // 1 // तत्र तीर्थसलिलेन दीर्घिकास्तल्पमन्तरितभूमिभिः कुशैः / 5 सौधवासमुटजेन विस्मृतः संचिकाय फलनिःस्पृहस्तपः // 2 // लब्धपालनविधौ न तत्सुसः खेदमाप गुरुणा हि मेदिनी। भोक्तुमेव भुजनिजितद्विषा न प्रसाधयितुमस्य कल्पिता / / 3 / / सोऽधिकारमभिकः कुलोचितं काश्चनं स्वयमवर्तयत्समाः / संनिवेश्य सचिवेष्वतः परं स्त्रीविधेयनवयौवनोऽभवत् / / 4 / / 10 कामिनीसहचरस्य कामिनस्तस्य वेश्मसु मृदङ्गनादिषु / - ऋद्धिमन्तमधिकद्धिरुत्तरः पूर्वमुत्सवमपोहदुत्सवः / / 5 / / इन्द्रियार्थपरिशून्यमक्षमः सोढुमेकमपि स क्षणान्तरम् / अन्तरेव विहरन्दिवानिशं न व्यपैक्षत समुत्सुकाः प्रजाः // 6 // गौरवाद्यदपि जातु मन्त्रिणां दर्शनं प्रकृतिकाङ्कितं ददौ / तद्गवाक्षविवरावलम्बिना केवलेन चरणेन कल्पितम् // 7 // तं कृतप्रणतयोऽनुजीविनः कोमलात्मनखरागरूषितम् / भेजिरे नवदिवाकरातपस्पृष्टपङ्कजतुलाधिरोहणम् / / 8 / / यौवनोन्नतविलासिनीस्तनक्षोभलोलकमलाश्च दीर्घिकाः। गूढमोहनगृहास्तदम्बुभिः स व्यगाहत विगाढमन्मथः // 6 // तत्र सेकहतलोचनाजनैधौंतरागपरिपाटलाधरैः / अङ्गनास्तमधिकं व्यलोभयन्नर्पितप्रकृतकाभिर्मुखैः / / 10 / घ्राणकान्तमधुगन्धकर्षिणी: पानभूमिरचनाः प्रियासखः / अभ्यपद्यत स वासितासखः पुष्पिताः कमलिनीरिव द्विपः / 11 / सातिरेकमदकारणं रहस्तेन दत्तमभिलेषुरङ्गनाः / 25 ताभिरप्युपहृतं मुखासवं सोऽपिबद्वकुलतुल्यदोहदः / / 12 / / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकोनविंशः सर्गः ] [ 135 अङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिते तस्य निन्यतुरशून्यतामुभे / वल्लकी च हृदयंगमस्वना वल्गुवागपि च वामलोचना // 13 / / स स्वयं प्रहतपुष्करः कृती लोलमाल्यवलयो हरन्मनः / नर्तकीरभिनयातिलवनीः पार्श्ववर्तिषु गुरुष्वलज्जयत् / 14 / 5 चारु नृत्यविगमे च तन्मुखं स्वेदभिन्नतिलकं परिश्रमात् / प्रेमदत्तवदनानिलः पिबन्नत्यजीवदमरालकेश्वरौ // 15 // तस्य सावरणदृष्टसंधयः काम्यवस्तुषु नवेषु सङ्गिनः / वल्लभाभिरुपसृत्य चक्रिरे सामिभुक्त विषयाः समागमाः / / 16 / / अङ्गुलीकिसलयाग्रतर्जनं भ्रूविभङ्गकुटिलं च वीक्षितम् / 10 मेखलाभिरसकृच्च बन्धनं वञ्चयन्प्रणयिनीरवाप सः / / 17 / / तेन दूतिविदितं निषेदुषा पृष्ठतः सुरतवाररात्रिषु / शुश्रुवे प्रियजनस्य कातरं विप्रलम्भपरिशङ्किनो वचः // 18 // लौल्यमेत्य गृहिणीपरिग्रहान्नर्तकीप्वसुलभासु तद्वपुः / वर्तते स्म स कथंचिदालिखन्नङगुलीक्षरणसन्नवतिकः / / 19 / / 15 प्रेमवितविपक्षमत्सरादायताच्च मदनान्महीक्षितम् / निन्युरुत्सवविधिच्छलेन तं देव्य उज्झितरुषः कृतार्थताम् / 20 / प्रातरेत्य परिभोगशोभिना दर्शनेन कृतखण्डनव्यथाः / प्राञ्जलिः प्रणयिनीः प्रसादयन्सोऽधुनोत्प्रणयमन्थरः पुनः / 21 / स्वप्नकीर्तितविपक्षमङ्गनाः प्रत्यभैत्सुरवदन्त्य एव तम् / प्रच्छदान्तगलिताश्रुबिन्दुभिः क्रोधभिन्नवलयविवर्तनैः // 22 // क्लुप्तपुष्पशयनॉल्लतागृहानेत्य दूतिकृतमार्गदर्शनः / अन्वभूत्परिजनाङ्गनारतं सोऽवरोधमयवेपथुत्तरम् / / 23 / / नाम वल्लभजनस्य ते मया प्राप्य भाग्यमपि तस्य काङ्क्षयते। लोलुपं ननु मनो ममेति तं गोत्रविस्खलितमूचुरङ्गनाः / / 24 / / 25 चूर्णबभ्रु लुलितस्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकाङ्कितम् / उत्थितस्य शयनं विलासिनस्तस्य विभ्रमरतान्यपावृणोत् / 25 / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] . [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् स स्वयं चरणरागमादधे योषितां न च तथा समाहितः / लोभ्यमाननयनः श्लथांशुकर्मेखलागुणपदैनितम्बिभिः / / 26 / / चुम्बने विपरिवर्तिताधरं हस्तरोधि रशनाविघट्टने / विनितेच्छमपि तस्य सर्वतो मन्मथेन्धनमभूद्वधूरतम् / / 27 / / 5 दर्पणेषु परिभोगदर्शिनीनर्मपूर्वमनुपृष्ठसंस्थितः / छायया स्मितमनोज्ञया वधूर्तीनिमीलितमुखीश्चकार सः / 28 / ... / कण्ठसक्तमृदुबाहुबन्धनं न्यस्तपादतलमग्रपादयोः / प्रार्थयन्त शयनोत्थितं प्रियास्तं निशात्ययविसर्गचुम्बनम् / 29 / प्रेक्ष्य दर्पणतलस्थमात्मनो राजवेषमतिशक्रशोभिनम् / 10 पिप्रिये न स तथा यथा युवा व्यक्तलक्ष्म परिभोगमण्डनम् / 30 / मित्रकृत्यमपदिश्य पार्वतः प्रस्थितं तमननवस्थितं प्रियाः / विद्म हे शठ पलायनच्छलान्यजसेति रुरुधुः कचग्रहैः / / 31 / / तस्य निर्दयरतिश्रमालसाः कण्ठसूत्रमपदिश्य योषितः / अध्यशेरत बृहद्भुजान्तरं पीवरस्तनविलुप्तचन्दनम् / / 32 / / संगमाय निशि गूढचारिणं चारदूतिकथितं पुरोगताः / वञ्चयिष्यसि कुतस्तमोवृतः कामुकेति चकृषुस्तमङ्गनाः / 33 / योषितामुडुपतेरिवाचिषां स्पर्शनिवृतिमसाववाप्नुवन् / आरुरोह कुमुदाकरोपमां रात्रिजागरपरो दिवाशयः / / 34 / / वेणूना दशनपीडिताधरा वीणया नखपदाङ्कितोरवः / शिल्पकार्य उमयेन वेजितास्तं विजिह्मनयना व्यलोभयन् / 35 / अङ्गसत्त्ववचनाश्रयं मिथः स्त्रीषु नृत्यमुपधाय दर्शयन् / स प्रयोगनिपुणैः प्रयोक्तृभिः संजघर्ष सह मित्रसंनिधौ / / 36 / / अंसलम्बिकुटजार्जुनस्रजस्तस्य नीपरजसाङ्ग रागिणः / प्रावृषि प्रमदबहिणेष्वभूत्कृत्रिमाद्रिषु विहारविभ्रमः // 37 / / 25 विग्रहाश्च शयने पराङ्मुखी नुनेतुमबलाः स तत्वरे / आचकाङ्क्ष घनशब्दविक्लवास्ता विवृत्य विशतीर्भुजान्तरम् 38 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशे एकोनविंशः सर्गः ] [ 137 कार्तिकीषु सवितांनहर्म्यभाग्यामिनीषु ललिताङ्गनासखः / अन्वभुङ्क्त सुरतश्रमापहां मेघमुक्तविशदां स चन्द्रिकाम् / 36 / सैकतं च सरयू विवृण्वती श्रोणिबिम्बमिव हंसमेखलम् / स्वप्रियाविलसितानुकारिणी सौधजालविवरैर्व्यलोकयत् / 40 / 5 मर्मरैरगुरुधूपगन्धिभिर्व्यक्तहेमरशनैस्तमेकतः / जह्र राग्रथनमोक्षलोलुपं हैमननिवसनैः सुमध्यमाः // 41 // अर्पितस्तिमितदीपदृष्टयो गर्भवेश्मसु निवातकुक्षिषु / तस्य सर्वसुरतान्तरक्षमाः साक्षितां शिशिररात्रयो ययुः / 42 / दक्षिणेन पवनेन संभृतं प्रेक्ष्य चूतकुसुमं सपल्लवम् / 10 अन्वनेषुरवधूतविग्रहास्तं दुरुत्सहवियोगमङ्गनाः // 43 / / ताः स्वमङ्कमधिरोप्य दोलया प्रेक्षयन्परिजनापविद्धया। मुक्तरज्जु निबिडं भयच्छलात्कण्ठबन्धनमवाप बाहुभिः / 44 / तं पयोधरनिषिक्तचन्दनमौक्तिकग्रथितचारुभूषणैः / ग्रीष्मवेषविधिभिः सिषेविरे श्रोणिलम्बिमणिमेखलैः प्रियाः 45 15 यत्स लग्नसहकारमासवं रक्तपाटलसमागमं पपौ। तेन तस्य मधुनिर्गमात्कृशश्चित्तयोनिरभवत्पुनर्नवः / / 46 / / एवमिन्द्रियसुखानि निविशन्नन्यकार्यविमुखः स पार्थिवः / प्रात्मलक्षणनिवेदितानृतूनत्यवाह्यदनगवाहितः / / 47 // तं प्रमत्तमपि न प्रभावतः शेकुराक्रमितुमन्यपार्थिवाः / 20 प्रामयस्तु रतिरागसंभवो दक्षशाप इव चन्द्रमक्षिणोत् / / 48 / / दृष्टदोषमपि तन्न सोऽत्यजत्सङ्गवस्तु भिषजामनाथवः / स्वादुभिस्तु विषयह तस्ततो दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते / 49 / तस्य पाण्डुवदनाल्पभूषणा सावलम्बगमना मृदुस्वना / राजयक्ष्मपरिहानिराययौ कामयानसमवस्थया तुलाम् / / 5 / / 25 व्योम पश्चिमकला स्थितेन्दु वा पङ्कशेषमिव धर्मपल्वलम् / राशि तत्कुलमभूत्क्षयातुरे वामनाचिरिव दीपभाजनम् / 51 / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] [ काव्यषट्के (1) रघुवंशम् बाढमेष दिवसेषु पार्थिवः कर्म साधयति पुत्रजन्मने / इत्यदर्शितरुजोऽस्य मन्त्रिणः शश्वदूचुरघशङ्किनीः प्रजाः / 52 / स त्वनेकवनितासखोऽपि सन्पावनीमनवलोक्य संततिम् / वैद्ययत्नपरिभाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्यगात् / / 53 // 5 तं गृहोपवन एव संगताः पश्चिमऋतुविदा पुरोधसा।। रोगशान्तिमपदिश्य मन्त्रिणः संभृते शिखिनि गूढमादधुः / 54 / तैः कृतप्रकृतिमुख्यसंग्रहैराशु तस्य सहधर्मचारिणी। साधु दृष्टशुभगर्भलक्षणा प्रत्यपद्यत नराधिपश्रियम् / / 55 / / तस्यास्तथाविधनरेन्द्रविपत्तिशोका दुष्णविलोचनजलैः प्रथमाभितप्तः / निर्वापितः कनककुम्भमुखोज्झितेन वंशाभिषेकविधिना शिशिरेण गर्भः // 56 / / (वसन्त०) तं भावार्थं प्रसवसमयाकाङ्क्षिणीनां प्रजाना मन्तर्गुढं क्षितिरिव नभोबीजमुष्टि दधाना / मौलैः सार्धं स्थविरसचिवहेमसिंहासनस्था राज्ञी राज्यं विधिवदशिषद्भर्तु रव्याहताज्ञा 57 ' (मन्दाक्रान्ता) // इति महाकविकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये 20. अग्निवर्णशृङ्गारो नामैकोनविंशः सर्ग // 16 / / ************ * // समाप्तं रघुवंशम् // MKXXXXXXXXX** ak:*Ke Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / अहम् / / पू. पं. श्री पाणंदविजयगणिभ्यो नमः / * महाकवि श्री कालिदास-विरचितं // कुमारसम्भवम् // // 1 // अथ प्रथमः सर्गः // ( इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा उपजातिः वा ) अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः / पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः / / यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं, मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे / भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च, पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् / 2 / 10 अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य, हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् / एकोहि दोषो गुणसंनिपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः / 3 / यश्चाप्सरोविभ्रममण्डनानां, संपादयित्रीं शिखरैबिभर्ति / बलाहकच्छेदविभक्तरागा-मकालसंध्यामिव धातुमत्ताम् / / 4 / / आमेखलं संचरतां घनानां, छायामधःसानुगतां निषेव्य / 15 उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते, शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धा / 5 / पदं तुषारस्र तिघौतरक्तं, यस्मिन्नदृष्ट्वापि हतद्विपानाम् / विदन्ति मार्ग नखरन्ध्रमुक्तै-मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः / 6 / न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र, भूर्जत्वचः कुञ्जरबिन्दुशोणाः / व्रजन्ति विद्याधरसुन्दरीणा-मनङ्गलेखक्रिययोपयोगम् / / 7 / / यः पूरयन्कीचकरन्ध्रभागा-न्दरीमुखोत्थेन समीरणेन / उद्गास्यतामिच्छति किनराणां, तानप्रदायित्वमिवोपगन्तुम् 8 कपोलकण्डूः करिभिविनेतुं, विघट्टितानां सरलद्रुमाणाम् / यत्र तक्षीरतया प्रसूतः, सानूनि गन्धः सुरभीकरोति / / 6 / / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] [ कुमारसंभवं वनेचराणां वनितासखानां, दरीगृहोत्सङ्गनिषक्तभासः / भवन्ति यत्रौषधयो रजन्या-मतैलपूराः सुरतप्रदीपाः / / 10 / / उद्वेजयत्यङ्गुलिपाणिभागा-न्मार्गे शिलीभूतहिमेऽपि यत्र / न दुर्वहश्रोणिपयोधरार्ता, भिन्दन्ति मन्दां गतिमश्वमुख्यः / 11 / 5 दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु, लीनं दिवाभीतमिवान्धकारम् / क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, ममत्वमुच्च : शिरसां सतीव / 12 / लागूल विक्षेपविसर्पिशोभै-रितस्ततश्चन्द्रमरीचिगौरैः / यस्यार्थयुक्त गिरिराजशब्द, कुर्वन्ति वालव्यजनैश्चमर्यः / 13 / यत्रांशुकाक्षेपविलज्जितानां, यदृच्छया किंपुरुषाङ्गनानाम् / ' ' दरीगृहद्वारविलम्बिंबिम्बा-स्तिरस्करिण्यो जलदा भवन्ति 14 भागीरथीनिर्भरसीकराणां, वोढा मुहुः कम्पितदेवदारुः / यद्वायुरन्विष्टंमृगैः किरातै-रासेव्यते भिन्नशिखण्डिबर्हः / / 15 / / सप्तर्षिहस्तावचितावशेषा-प्यधों विवस्वान्परिवर्तमानः / पद्मानि यस्याग्रसरोरुहाणि, प्रबोधयत्यूर्ध्वमुखैमयूखैः / / 16 // / यज्ञाङ्गयोनित्वमवेक्ष्य यस्य, सारं धरित्रीधरणक्षमं च / प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं, शैलाधिपत्यं स्वयमन्वतिष्ठत् / 17 / स मानसीं मेरुसखः पितृणां, कन्यां कुलस्य स्थितये स्थितिज्ञः / मेनां मुनीनामपि माननीया-मात्मानुरूपां विधिनोपयेमे / 18 / कालक्रमेणाथ तयोः प्रवृत्ते, स्वरूपयोग्ये सुरतप्रसङ्गे / 5: मनोरमं यौवनमुद्वहन्त्या, गर्भोऽभवद्भ धरराजपत्न्याः // 16 // प्रसूत सा नागवधूपभोग्यं, मैनाकमम्भोनिधिबद्धसख्यम् / क्रुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्रा-ववेदनाशं कुलिशक्षतानाम् / 20 / अथावपमानेन पितुः प्रयुक्ता, दक्षस्य कन्या भवपूर्वपत्नी। सती सती योगविसृष्टदेहा, तां जन्मने शैलवधूं प्रपेदे // 21 // / सा भूधराणामधिपेन तस्यां, समाधिमत्यामुदपादि भव्या / सम्यक्प्रयोगादपरिक्षतायां, नीताविवोत्साहगुणेन संपत् / 22 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] [ 141 प्रसन्नदिक्पांसुविविक्तवातं, शङ्खस्वनानन्तरपुष्पवृष्टि / शरीरिणां स्थावरजंगमानां, सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव / 23 / तया दुहित्रा सुतरां सवित्री, स्फुरत्प्रभामण्डलया चकासे / विदूरभूमिर्नवमेघशब्दा-दुद्भिन्नया रत्नशलाकयेव / / 24 / / 5 दिने दिने सा परिवर्धमाना, लब्धोदया चान्द्रमसीव लेखा। पुपोष लावण्यमयान्विशेषा-ज्योत्स्नान्तराणीव कलान्तराणि / / तां पार्वतीत्याभिजनेन नाम्ना बन्धुप्रियां बन्धुजनो जुहाव / उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा, पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम 26 महीभृतः पुत्रवतोऽपि दृष्टि-स्तस्मिन्नपत्ये न जगाम तृप्तिम् / 10 अनन्तपुष्पस्य मधोहि चूते, द्विरेफमाला सविशेषसङ्गा / 27 / प्रभामहत्या शिखयेव दीपस्त्रिमार्गयेव त्रिदिवस्य मार्गः। संस्कारवत्येव गिरा मनीषी, तया स पूतश्च विभूषितश्च / 28 / मन्दाकिनीसकतवेदिकाभिः, सा कन्दुकैः कृत्रिमपुत्रकैश्च / रेमे मुहुर्मध्यगता सखीनां, क्रीडारसं निर्विशतीव बाल्ये / 26 / 15 तां हंसमाला: शरदीव गङ्गां,महौषधि (धी)नक्तमिवात्मभासः। स्थिरोपदेशामुपदेशकाले, प्रपेदिरे प्राक्तनजन्मविद्याः // 30 / / असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टे-रनासवाख्यं करणं मदस्य / कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं, बाल्यात्परं साथ वयः प्रपेदे।३१। उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं, सूर्यांशुभिभिन्नमिवारविन्दम् / बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्त नवयौवनेन // 32 // अभ्युन्नताङ्गुष्ठनखप्रभाभि-निक्षेपणाद्रागमिवोद्गिरन्तौ / आजह्रतुस्तञ्चरणौ पृथिव्यां, स्थलारविन्दश्रियमव्यवस्थाम् 33 सा राजहंसैरिव संनताङ्गी, गतेषु लीलाञ्चितविक्रमेषु / व्यनीयत प्रत्युपदेशलुब्धै-रादित्सुभिर्नूपुरसिञ्जितानि // 34 // 25 वृत्तानुपूर्वे च न चातिदीर्धे, जो शुभे सृष्टवतस्तदीये। शेषाङ्गनिर्माणविधौ विधातु-विण्य उत्पाद्य इवास यत्नः 35 . 20 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] [ कुमारसंभवं नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वा-देकान्तशैत्यात्कदलीविशेषाः / लब्ध्वापि लोके परिणाहि रूपं, जातास्तदूर्वोरुपमानबाह्याः 36 एतावता नन्वनुमेयशोभि, काञ्चीगुणस्थानमनिन्दितायाः / आरोपितं यद्गिरिशेन पश्चा-दनन्यनारीकमनीयमङ्कम् / 37 / तस्याः प्रविष्टा नतनाभिरन्ध्र, रराज तन्वी नवलोमराजिः / नीवीमतिक्रम्य सितेतरस्य, तन्मेखलामध्यमणेरिवाचिः / 38 / (गम्भीरनाभीह्रदसंनिधाने, रराज नीला नवलोमराजिः / मुखेन्दुभीरुस्तनचक्रवाक-चञ्चच्युता शैवलमञ्जरीव / / ) मध्येन सा वेदिविलग्रमध्या, वलित्रयं चारु बभार बाला। 10 आरोहणार्थं नवयौवनेव, कामस्य सोपानमिव प्रयुक्तम् / / 39 / / अन्योन्यमुत्पीडयदुत्पलाक्ष्याः, स्तनद्वयं पाण्डु तथा प्रवृद्धम् : मध्ये यथा श्याममुखस्य तस्य, मृणालसूत्रान्तरमप्यलभ्यम् / 40 / शिरीषपुष्पाधिकसौकुमायौं, बाहू,तदीयाविति मे वितर्कः / पराजितेनापि कृतौ हरस्य, यौ कण्ठपाशौ मकरध्वजेन / 41 / 15 निर्भत्सिताशोकदलप्रसूति, पाणिद्वयं चारुनखं तदीयम् / नवोदितेन्दुप्रतिमस्य शोभा, व्योम्नः प्रदोषे विफलीचकार / / कण्ठस्य तस्याः स्तनबन्धुरस्य, मुक्ताकलापस्य च निस्तलस्य / अन्योन्यशोभाजननाद्बभूव, साधारणो भूषणभूष्यभावः / 42 / चन्द्रं गता पद्मगुणान्न भुङ्क्त, पद्माश्रिता चान्द्रमसीमभिख्याम् / उमामुखं तु प्रतिपद्य लोला, द्विसंश्रयां प्रीतिमवाप लक्ष्मीः 43 पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्या-न्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् / ततोऽनुकुर्याद्विशदस्य तस्या-स्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य 44 स्वरेण तस्याममृतस्र तेव, प्रजल्पितायामभिजातवाचि / अप्यन्यपुष्टा प्रतिकूलशब्दा, श्रोतुर्वितन्त्रीरिव ताड्यमाना 45 25 (कर्णद्वयस्थं नगराजपुत्र्या-स्ताटङ्कयुग्मं सुतरां रराज / मत्वा भवित्रीं त्रिपुरारिपत्नी, तां सेवमानाविव पुष्पवन्तौ / / 20 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] [ 143 ताटङ्कपत्रं विरराज तस्याः, शैलात्मजाया: श्रवणद्वयस्थम् / मत्वा भवित्री मदनारिपत्नी, सेवासमेताविव पुष्पवन्तौ // ) प्रवातनीलोत्पलनिविशेष-मधीरविप्रेक्षितमायताक्ष्या। तया गृहीतं नु मृगाङ्गनाभ्य-स्ततो गृहीतं नु मृगाङ्गनाभिः 46 5 तस्याः शलाकाञ्जननिमितेव, कान्तिर्धवोरायतलेखयोर्या / तां वीक्ष्य लीलाचतुरामनङ्गः, स्वचापसौन्दर्यमदं मुमोच 47 लज्जा तिरश्चां वदि चेतसि स्या-दसंशयं पर्वतराजपुत्र्याः। तं केशपाशं प्रसमीक्ष्य कुर्य-लिप्रियत्वं शिथिलं चमर्यः / 48 / सर्वोपमाद्रव्यसमुच्चयेन, यथाप्रदेशं विनिवेशितेन / 10 सा निमिता विश्वसृजा प्रयत्ना-देकस्थसौन्दर्यदिदृक्षयेव / / 4 / / तां नारदः कामचरः कदाचि-त्कन्यां किल प्रेक्ष्य पितुः समीपे। समादिदेशैकवर्धू भवित्री, प्रेम्णा शरीरार्धहरां हरस्य // 50 // गुरुः प्रगल्भेऽपि वयस्यतोऽस्या-स्तस्थौ निवृत्तान्यवराभिलाषः / ऋते कृशानोर्न हि मन्त्रपूत-मर्हन्ति तेजांस्यपराणि हव्यम् 51 15 अयाचितारं न हि देवदेव-मद्रिः सुतां ग्राहयितुं शशाक / अभ्यर्थनाभङ्गभयेन साधु-र्माध्यस्थ्यमिष्टेऽप्यवलम्बतेऽर्थे / 52 / यदैव पूर्वे जनने शरीरं, सा दक्षरोषात्सुदती ससर्ज (स्वयमुत्ससर्ज) तदाप्रभृत्येव विमुक्तसङ्गः, पतिः पशूनामपरिग्रहोऽभूत् / 53 / स कृत्तिवासास्तपसे य (जि) तात्मा, गङ्गाप्रवाहोक्षितदेवदारु / 20 प्रस्थं हिमाद्रेर्मुगनाभिगन्धि, किंचित्क्वरणत्किनरमध्युवास 54 गणा नमेरुप्रसवावतंसा, भूर्जत्वचः स्पर्शवतीर्दधानाः / मनःशिलाविच्छुरिता निषेदुः, शैलेयनद्धेषु शिलातलेषु / 55 / तुषारसंघातशिलाः खुराप्रैः, समुल्लिखन्दर्पकलः ककुमान् / दृष्टः कथंचिद्गवयैविविग्नै-रसोढसिंहध्वनि रुन्ननाद / / 56 / / 25 तत्राग्निमाधाय समित्समिद्धं, स्वमेव मूर्त्यन्तरमष्टमूर्तिः / . स्वयं विधाता तपसः फलानां, केनापि कामेन तपश्चचार 57 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] [ कुमारसंभवं अनय॑मर्येण तमद्रिनाथः, स्वौकसामचितमर्चयित्वा / आराधनायास्य सखीसमेतां समादिदेश प्रयतां तनूजाम् / 58 / प्रत्यर्थिभूतामपि तां समाधेः, शुश्रूषमाणां गिरिशोऽनुमेने। विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एवं धीराः 56 अवचितबलिपुष्पा वेदिसंमार्गदक्षा, ___ नियमविधिजलानां बहिषां चोपनेत्री / गिरिशमुपचचार प्रत्यहं सा सुकेशी, नियमितपरिखेदा तच्छिरश्चन्द्रपादैः / / 60 / / . . (मालिनी) 10 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्य उमोत्पत्तिर्नाम प्रथमः सर्गः // 1 // // 2 // द्वितीयः सर्गः // तस्मिन्विप्रकृताः काले तारकेण दिवौकसः / तुरासाहं पुरोधाय धाम स्वायंभुवं ययुः / / 1 / / . 15 तेषामाविरभूद्ब्रह्मा परिम्लानमुखश्रियाम् / सरसां सुप्तपद्मानां प्रातर्दीधितिमानिव // 2 // अथ सर्वस्य धातारं ते सर्वे सर्वतोमुखम् / वागीशं वाग्भिरर्थ्याभिः प्रणिपत्योपतस्थिरे // 3 // नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं प्राक्सृष्टे: केवलात्मने / 20 गुणत्रयविभागाय पश्चाद्भेदमुपेयुषे // 4 // यदमोघमपामन्तरुप्तं बीजमज त्वया।. प्रतश्चराचरं विश्वं प्रभवस्तस्य गीयसे // 5 // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] [ 145 तिसृभिस्त्वमवस्थाभिर्महिमानमुदीरयन् / प्रलयस्थितिसर्गाणामेक: कारणतां गतः // 6 // स्त्रीपुंसावात्मभागौ (वी) ते भिन्नमूर्तेः सिसुक्षया। प्रसूतिभाजः सर्गस्य तावेव पितरौ स्मृतौ // 7 // 5 स्वकालपरिमाणेन व्यस्तरात्रिदिवस्य ते। यौ तु स्वप्नाऽवबोघौ तौ भूतानां प्रलयोदयो // 8 // जगद्योनिरयोनिस्त्वं जगदन्तो निरन्तकः / जगदादिरनादिस्त्वं जगदीशो निरीश्वरः // 9 // प्रात्मानमात्मना वेत्सि सृजस्यात्मानमात्मना। आत्मनां कृतिना च त्वमात्मन्येव प्रलीयसे // 10 // द्रव: संघातकठिन: स्थूल: सूक्ष्मो लघुर्गुरुः / / व्यक्तो व्यक्त तरश्चाऽसि .प्राकाम्यं ते विभूतिषु / / 11 / / उद्धात: प्रणवो यासां न्याय स्त्रिभिरुदीरणम् / कर्म यज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम् / / 12 / / 15 त्वामामनन्ति प्रकृति पुरुषार्थप्रवर्तिनीम् / तद्दशिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः / / 13 / / त्वं पितृणामपि पिता देवानामपि देवता। परतोऽपि परश्चाऽसि विधाता वेधसामपि / / 14 / / त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः / वेद्यं च वेदिता चाऽसि ध्याता ध्येयं ज यत्परम् / / 15 / / इति तेभ्यः स्तुतीः श्रुत्वा यथार्था हृदयंगमाः / प्रसादाभिमुखो वेधाः प्रत्युवाच दिवौकसः / / 16 // पुराणस्य कवेस्तस्य चतुर्मुखसमीरिता / प्रवृत्तिरासीच्छब्दानां चरितार्था चतुष्टयी / / 17 / / 25 स्वागतं स्वानबीकारान्प्रभागैरवलम्ब्य वः / युगपद्युगबाहुभ्यः प्राप्तेभ्यः प्राज्यविक्रमाः / / 18 / / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] : [ कुमारसंभवं किमिदं द्युतिमात्मीयां नः बिभ्रति यथा पुरा / हिमक्लिष्टप्रकाशानि ज्योतीषीव मुखानि वः / / 16 / / प्रशमादर्चिषामेतदनुद्गीर्णसुरायुधम् / वृत्रस्य हन्तुः कुलिशं कुण्ठितास्रीव लक्ष्यते / / 20 / / . 5 किं चायमरिदुर्वारः पाणौ पाशः प्रचेतसः / मन्त्रेण हतवीर्यस्य फणिनो द्वैन्यमाश्रितः / / 21 // कुबेरस्य मनःशल्यं शंसतीव पराभवम् / अपविद्धगदो बाहर्भग्नशाख इव,द्रमः // 22 // यमोऽपि बिलिखन्भूमि दण्डेनास्तमितत्विषा / 10 कुरुतेऽस्मिन्नमोघेऽपि निर्वाणालातलाघवम् // 23 // अमी च कथमादित्याः प्रतापक्षतिशीतलाः / . चित्रन्यस्ता इव गताः प्रकामालोकनीयताम् // 24 // पर्याकुलत्वान्मरुतां वेगभङ्गोऽनुमीयते / अम्भसामोघसंरोधः प्रतीषगमनादिव / / .25 / / 15 आवजितजामौलिविलम्बिशशिकोटयः / . रुद्राणामपि मूर्धानः क्षतहुंकारशंसिनः / / .26 // लब्धप्रतिष्ठाः प्रथमं यूयं किं बलवत्तरः / / अपवादैरिवोत्सर्गाः कृतव्यावृत्तयः परैः / / 27 / / तब्रूत वत्साः ! किमितः प्रार्थयध्वं समागताः / मयि सृष्टिहि लोकानां रक्षा युष्मास्ववस्थिता // 28 // ततो मन्दाऽनिलोद्ध तकमलाकरशोभिंना। . . गुरुं नेत्रसहस्रण नोदयामास वासवः // 26 // . स द्विनेत्रं हरेश्चक्षुः सहस्रनयनाधिकम् / वाचस्पतिरुवाचेदं प्राञ्जलिर्जलजासनम् / / .30 / / 25 एवं यदात्थ भगवन्नामृष्टं नः परैः पदम् / प्रत्येकं विनियुक्तात्मा कथं न ज्ञास्यसि प्रभो / / 31 / / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] [ 147 भवल्लब्धवरोदीर्णस्तारकाख्यो महासुरः। उपप्लवाय लोकानां धूमकेतुरिवोत्थितः / / 32 / / पुरे तावन्तमेवाऽस्य तनोति रविरातपम् / दीपिकाकमलोन्मेषो यावन्मात्रेण साध्यते / / 33 / 5 सर्वाभिः सर्वदा चन्द्रस्तं कलाभिनिषेवते / नादत्ते केवलां लेखां हरचूडामणीकृताम् / / 34 // व्यावृत्तगतिरुद्याने कुसुमस्तेयसांध्वसात् / न वाति वायुस्तत्पार्श्वे तालवृन्ताऽनिलाऽधिकम् / / 35 // पर्यायसेवामुत्सृज्य पुष्पसंभारतत्पराः / / 10 उद्यानपालसामान्यमृतवस्तमुपासते / / 36 / / तस्योपायनयोग्यानि रत्नानि सरितां पतिः / कथमप्यम्भसामन्तरानिष्पत्तेः प्रतीक्षते // 37 / / ज्वलन्मणिशिखाश्चैनं बासुकिप्रमुखा निशि / स्थिरप्रदीपतामेत्य भुजंगाः पर्युपासते / / 38 / / 15 तत्कृताऽनुग्रहापेक्षी तं मुहुर्दूतहारितैः / अनुकूलयतीन्द्रोऽपि कल्पद्रुमविभूषणैः // 36 // इत्थमाराध्यमानोऽपि क्लिश्नाति भुवनत्रयम् / शाम्थेत्प्रत्यपकारेणं नोपकारेण दुर्जनः / / 40 / / तेनाऽमरवधूहस्तैः सदयालूनपल्लवाः / 20 अभिज्ञाश्छेदपातानां क्रियन्ते नन्दनद्रुमाः / / 41 / / वीज्यते स हि संसुप्तः श्वाससाधारणानिलैः / चामरैः सुरबन्दीनां बाष्पसीकरवर्षिभिः / / 42 / / उत्पाटय मेरुशृङ्गाणि क्षुण्णानि हरितां खुरैः / / आक्रीडपर्वतास्तेन कल्पिताः स्वेषु वेश्मसु / / 43 / / 25 मन्दाकिन्याः पयः शेषं दिग्वारणमदाविलम् / हेमाम्भोरुहसस्यानां तद्वाप्यो धाम सांप्रतम् / / 44 // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] [ कुमारसंभवं भुवनालोकनप्रीतिः स्वगिभिर्नानुभूयते / / खिलीभूते विमानानां तदापातभयात्पथि // 45 / / यज्वभिः संभृतं हव्यं विततेष्वध्वरेषु सः / जातवेदोमुखान्मायी मिषतामाच्छिनत्ति नः / / 46 // 5 उच्चरुच्चैःश्रवास्तेन हयरत्नमहारि च / देहबद्धमिवेन्द्रस्य चिरकालाऽजितं यशः / / 47 / / तस्मिन्न पायाः सर्वे, नः क्रूरे प्रतिहतक्रियाः / / वीर्यवन्त्योषधानीव विकारे सांनिपातिके / / 48 / / जयाशा यत्र चास्माकं प्रतिघालोत्थिताऽचिषा / हरिचक्रेण तेनाऽस्य कण्ठे निष्कमिवाऽपितम् // 49 / / तदीयास्तोयदेष्वद्य पुष्करावर्तकादिषु / अभ्यस्यन्ति तटाघातं निजितेरावता गजाः / / 50 / / तदिच्छामो विभो ! स्रष्टुं सेनान्यं तस्य शान्तये / कर्मबन्धच्छिदं धर्म भवस्येव मुमुक्षवः // 51 / / 15 गोप्तारं सुरसैन्यानां यं पुरस्कृत्य गोत्रभित् / प्रत्यानेष्यति शत्रुभ्यो बन्दीमिव जयश्रियम् / / 52 / / वचस्यवसिते तस्मिन्ससर्ज गिरमात्मभूः / गजितानन्तरां सृष्टि सौभाग्येन जिगाय सा / / 53 / / संपत्स्यते वः कामाऽयं कालः कश्चित्प्रतीक्ष्यताम् / न त्वस्य सिद्धौ यास्यामि सर्गव्यापारमात्मना / / 54 / / इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीर्नेत एवार्हति क्षयम् / विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम् // 55 / / वृतं तेनेदमेव प्राङ्मया चाऽस्मै प्रतिश्रुतम् / वरेण शमितं लोकानलं दग्धं हि तत्तपः / / 56 / / 25 संयुगे सांयुगीनं तमुद्यतं प्रसहेत कः / . अंशाहते निषिक्तस्य नीललोहितरेतसः // 57 // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] [ 146 5 स हि देवः परं ज्योतिस्तमःपारे व्यवस्थितम् / परिच्छिन्नप्रभावद्धिर्न मया न च विष्णुना // 58 // उमारूपेण ते यूयं संयमस्तिमितं मनः / शंभोर्यतध्वमाक्रष्टुमयस्कान्तेन लोहवत् // 56 / / उभे एव क्षमे वोढुमुभयो/जमाहितम् / सा वा शम्भोस्तदीया वा मूतिर्जलमयी मम / / 60 / / तस्यात्मा शितिकण्ठस्य सैनापत्यमुपेत्य वः / मोक्ष्यते सुरबन्दीनां वेणी:र्यविभूतिभिः // 61 / / इति व्याहृत्य विबुधान्विश्वयोनिस्तिरोदधे / 10 मनस्याहितकर्तव्यास्तेऽपि देवा दिवं ययुः // 62 / / तत्र निश्चित्य कन्दर्पमगमत्पाकशासनः / मनसा कार्यसंसिद्धौ त्वराद्विगुणरंहसा / / 63 / / अथ स ललितयोषिद्धूलताचारुशृङ्ग रतिवलयपदाङ्के चापमासज्य कण्ठे / 15 सहचरमधुहस्तन्यस्तचूताङ्कुरास्त्रः शतमखमुपतस्थे प्राञ्जलिः पुष्पधन्वा // 64 / / . (मालिनी) // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये ब्रह्म साक्षात्कारो नाम द्वितीयः सर्गः / / 2 / / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] [ कुमारसंभवं // 3 // तृतीयः सर्गः।। तस्मिन्मघोनस्त्रिदशान्विहाय सहस्रमक्षणां युगपत्पपात / प्रयोजनापेक्षितया प्रभूणां प्रायश्चलं गौरवमाश्रितेषु // 1 // स वासवेनासनसन्निकृष्टमितो निषीदेति विसृष्टभूमिः / 5 भर्तुः प्रसादं प्रतिनन्द्य मूर्ना वक्तुं मिथः प्राक्रमतैवमेनम् // 2 // अाज्ञापय ज्ञातविशेष पुंसां लोकेषु यत्ते करणीयमस्ति / अनुग्रहं संस्मरणप्रवृत्तमिच्छामि संवर्धितमाज्ञया ते / / 3 / / केनाभ्यसूया पदकाक्षिणा ते नितान्तदीर्घर्जनिता तपोभिः / यावद्भवत्याहितसायकस्य मत्कार्मकस्याऽस्य निदेशवर्ती / / 4 / / असम्मतः कस्तव मुक्तिमार्ग पुनर्भवक्लेशभयात्प्रपन्नः / बद्धश्चिरं तिष्ठतु सुन्दरीणामारेचितभ्रूचतुरैः कटाक्षः / / 5 / / अध्यापितस्योशनसाऽपि नीति प्रयुक्तरागप्रणिधिद्विषस्ते / कस्याऽर्थधमौं वद पीडयामि सिन्धोस्तटावोध इव प्रवृद्धः / 6 / कामेकपत्नीव्रतदुःखशीला लोलं मनश्चारुतया प्रविष्टाम् / 15 नितम्बिनीमिच्छसि मुक्तलज्जां कण्ठे स्वयंग्राहनिषक्तबाहुम् / 7 / कयासि कामिन् ! सुरतापराधात्पादानतः कोपनयाऽवधूतः / तस्याः करिष्यामि दृढानुतापं प्रवालशय्याशरणं शरीरम् // 8 // प्रसीद विश्राम्यतु वीर ! वज्र शरैर्मदीयैः कतमः सुराऽरिः / .... बिभेतु मोघीकृतबाहुवीर्यः स्त्रीभ्योऽपि कोपस्फुरिताऽधराभ्यः / / 9 / / तव प्रसादात्कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेव लब्ध्वा / कुर्यां हरस्याऽपि पिनाकपाणे२५ धैर्यच्युति के मम धन्विनोऽन्ये // 10 // परति Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ] [ 151 अथोरुदेशादवतार्य पादमाक्रान्तिसम्भावितपादपीठम् / सङ्कल्पिताऽर्थे विवृतात्मशक्तिमाखण्डलः काममिदं बभाषे / 11 . सर्वं सखे ! त्वय्युपपन्नमे तदुभे ममाऽस्त्रे कुलिशं भवांश्च / 5 वज्र तपोवीर्यमहत्सु कुण्ठं : ... त्वं सर्वतोगामि च साधकं च / / 12 / / अवैमि ते सारमतः खलु त्वां कार्ये गुरुण्यात्मसमं नियोक्ष्ये / व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य ... कृष्णेन देहोद्वहनाय शेषः / / 13 / / आशंसता. बाणगतिं वृषाऽङ्के कार्य. त्वया नः प्रतिपन्नकल्पम् / निबोध यज्ञांशभुजामिदानीमुच्चैद्विषामीप्सितमेतदेव / 14 / .. अमी हि वीर्यप्रभवं भवस्य : " .. :: जयाय सेनान्यमुशन्ति देवाः / 15 स च त्वदेकेषुनिपातसाध्यो / , - ब्रह्माङ्गभूर्ब्रह्मणि योजितात्मा / / 15 / / तस्मै हिमाद्रेः प्रयतां तनुजां यतात्मने रोचयितुं यतस्व / योषित्सु तद्वीर्यनिषेकभूमिः सैव क्षमेत्यात्मभुवोपदिष्टम् / 16 / गुरोनियोगाच्च नगेन्द्रकन्या स्थाणुं तपस्यन्तमधित्यकायाम् / :- 20 अन्वास्त इत्यप्सरसां मुखेभ्यः श्रुतं मया मत्प्रणिधिः स वर्गः 17 तद्गच्छ सिद्ध्यै कृरु देवकार्यमर्थोऽयमर्थान्तरभाव्य एव / . अपेक्षते प्रत्ययमुत्तमं त्वां बीजाकुरः प्रागुदयादिवाम्भः / 18 / तस्मिन्सुराणां विजयाभ्युपाये तवैव नामास्त्रगति कृती त्वम् / ... अप्यप्रसिद्ध यशसे हि पुसामनन्यसाधारणमेव कर्म / / 16 / / 25. सुराः समभ्यर्थयितार एते कार्य त्रयाणामपि विष्टपानाम् / "चापेन ते कर्म न चाऽतिहिंस्रमहो बताऽसि स्पृहणीयवीर्यः / 20 / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] - [कुमारसंभवं मधुश्च ते मन्मथ साहचर्यादसावनुक्तोऽपि सहाय एव / समीरणी नोदयिता भवेति व्यादिश्यते केन हुताऽशनस्य / 21 / तथेति शेषामिव भर्तुराज्ञामादाय मूर्ना मदनः प्रतस्थे / ऐरावतास्फालनकर्कशेन हस्तेन पस्पर्श तदङ्गमिन्द्रः / / 22 / / स माधवेनाऽभिमतेन सख्या रत्या च साशङ्कमनुप्रयातः / / अङ्गव्ययप्रार्थितकार्यसिद्धिः स्थाण्वाश्रमं हेमवतं जगाम / 23 / तस्मिन्वने संयमिनां मुनीनां तपःसमाधेः प्रतिकूलवर्ती / सङ्कल्पयोनेरभिमानभूतमात्मानमाधाय मधुर्जजम्भे / / 24 / / कृबेरगुप्तां दिशमुष्णरश्मौ गन्तुं प्रवृत्ते समयं विलय / दिग्दक्षिणा गन्धवहं मुखेन व्यलीकनिश्वासमिवोत्ससर्ज / 25 / असूत सद्यःकुसुमान्यशोक: स्कन्धात्प्रभृत्येव सपल्लवानि / पादेन नापेक्षत सुन्दरीणां सम्पर्कमासिञ्जितनूपुरेण / / 26 / / सद्यः प्रवालोद्गमंचारुपत्रे नीते समाप्ति नवचूतबाणे / निवेशयामास मधुद्विरेफान्नामाक्षराणीव मनोभवस्य / / 27 / / 15 वर्णप्रकर्षे सति कणिकारं दुनोति निर्गन्धतया स्म चेतः / प्रायेण सामग्र्यविधौ गूणानां / पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः / / 28 / / बालेन्दुवक्राण्यविकाशभावाद्वभुः पलाशान्यतिलोहितानि / 20 सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम् / 29 / लग्नद्विरेफाजन भक्तिचित्रं मुखे मधुश्रीस्तिलकं प्रकाश्य / रागेण बालाऽरुणकोमलेन चूतप्रवालोष्ठमलञ्चकार // 30 / / मृगाः प्रियालद्रुममञ्जरीणां रजःकणेविनितदृष्टिपाताः / मदोद्धताः प्रत्यनिलं विचेरुर्वनस्थलीममरपत्रमोक्षाः / / 31 / / 25 चूताङकुरास्वादकषायकण्ठः पुस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूज / मनस्विनीमानविघातदक्षं तदेव जातं वचनं स्मरस्य / / 3 / / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवः तृतीयः सर्गः ] [ 153 हिमव्यपायाद्विशदाऽधराणा-मापाण्डरीभूतमुखच्छवीनाम् / स्वेदोद्गमः किम्पुरुषाङ्गनानां चक्रे पदं पत्रविशेषकेषु / / 33 / / तपस्विनः स्थाणवनौकसस्तामाकालिकी वीक्ष्य मधुप्रवृत्तिम् / प्रयत्नसंस्तम्भितविक्रियाणां कथञ्चिदीशा मनसां बभूवुः / 34 / 5 तं देशमारोपितपुष्पचापे रतिद्वितीये मदने प्रपन्ने / काष्ठागतस्नेहरसाऽनुविद्धं द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवछः / 35 // मधु द्विरेफ: कुसुमैकपात्रे पपो प्रियां स्वामनुवर्तमानः / शृङ्गेण च स्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीमकण्डूयत कृष्णसारः / 36 / ददौ रसात्पङ्कजरेणुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः / 10 अर्कोपभुक्तेन बिसेन जायां सम्भावयामास रथाङ्गनामा / 37 / गीतान्तरेषु श्रमवारिलेशैः किञ्चित्समुच्छ्वासितपत्रलेखम् / पुष्पासवाघूणितनेत्रशोभि प्रियामुखं किम्पुरुषश्चचुम्बे / / 38 / / पर्याप्तपुष्पस्त बकस्तनाभ्यः स्फूरत्प्रवालोष्ठमनोहराभ्यः / लतावधूभ्यस्तरवोऽप्यवापुविनम्रशाखाभुजबन्धनानि // 36 / / 15 श्रुताप्सरोगीतिरपि क्षणेऽस्मिन्हरः प्रसंख्यानपरो बभूव / प्रात्मेश्वराणां न हि जातु विघ्नाः समाधिभेदप्रभवो भवन्ति / लतागृहद्वारगतोऽथ नन्दी वामप्रकोष्ठापितहेमवेत्रः / मुखाऽपितकाङ्गुलिसंज्ञयैव मा चापलायेति गणान्व्यनैषीत् 41 निष्कम्पवृक्षं निभृतद्विरेफ मूकाण्ड शान्तमृगप्रचारम् / 20 तच्छासनात्काननमेव सर्वं चित्रापितारम्भमिवावतस्थे // 42 // दृष्टिप्रपातं परिहत्य तस्य कामः पुरःशुक्रमिव प्रयाणे। प्रान्तेषु संसक्तनमेरुशाखं ध्यानास्पदं भूतपतेविवेश / / 43 / / स देवदारुद्रुमवेदिकायां शार्दूलचर्मव्यवधानवत्याम् / प्रासीनमासन्नशरीरपातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श / / 44 / / 25 पर्यङ्कबन्धस्थिरपूर्वकायमृज्वायतं संनमितोभयांसम् / उत्तानपाणिद्वयसंनिवेशात्प्रफुल्ल राजीवमिवाङ्कमध्ये // 45 / / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] [ काव्यषट्क 10 भुजङ्गमोन्नद्धजटाकलापं कर्णावसक्तद्विगुणाक्षसूत्रम् / कण्ठप्रभासङ्गविशेषनीलां कृष्णत्वचं ग्रन्थिमतीं दधानम् / / 46 / / किञ्चत्प्रकाशस्तिमितोग्रतारैभ्रूविक्रियायां विरतप्रसङ्गः / नेत्रैरविस्पन्दितपक्ष्ममालैर्लक्ष्यीकृतघ्राणमधोमयूखैः / / 47 / / अवृष्टिसंरम्भमिवाम्बुवाहमपामिवाधारमनुत्तरङ्गम् / अन्तश्चराणां मरुतां निरोधान्निवातनिष्कम्पमिव प्रदीपम् / 48 / कपालनेत्रान्तरलब्धमार्गेज्योतिःप्ररोहैरुदितैः शिरस्तः / मृणालसूत्राधिकसौकुमार्यां बालस्य लक्ष्मी ग्लपयन्तमिन्दोः 46 मनो नवद्वारनिषिद्धवृत्ति हृदि व्यवस्थाप्य समाधिवश्यम् / यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यवलोकयन्तम् / / 50 // स्मरस्तथाभूतमयुग्मनेत्रं पश्यन्नदूरान्मनसाप्यधृष्यम् / नालक्षयत्साध्वससन्नहस्तः स्रस्तं शरं चापमपि स्वहस्तात् 51 निर्वाणभूयिष्ठमथास्य वीर्यं सन्धुक्षयन्तीव वपुर्गुणेन / अनुप्रयाता वनदेवताभ्यामदृश्यत स्थावरराजकन्या / / 52 / / 15 अशोकनिर्भत्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकणिकारम् / मुक्ताकलापीकृतसिन्धुवारं वसन्तपुष्पाभरणं वहन्ती // 53 // आवजिता किञ्चदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम् / पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव / 54 / स्रस्तां नितम्बादवलम्बमाना पुनः पुनः केसरदामकाञ्चीम् / न्यासीकृतां स्थानविदा स्मरेण मौवीं द्वितीयामिव कामु कस्य / सुगन्धिनिश्वासविवृद्धतृष्णं बिम्बाऽधरासन्नचरं द्विरेफम् / प्रतिक्षणं संभ्रमलोलदृष्टि-र्लीलारविन्देन निवारयन्ती / / 56 / / तां वीक्ष्य सर्वावयवानवद्यां रतेरपि ह्रीपदमादधानाम् / जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्यसिद्धि पुनराशशंसे / 57 / 25 भविष्यतः पत्युरुमा च शम्भोः समाससाद प्रतिहारभूमिम् / योगात्स चान्तः परमात्मसंज्ञं दृष्ट्वा परं ज्योतिरुपारराम / 58 / 20 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवः तृतीयः सर्गः ] [ 155 ततो भुजंगाधिपतेः फणाय़रधः कथंचिद्ध तभूमिभागः / शनैः कृतप्राणविमुक्तिरीशः पर्यङ्कबन्धं निबिडं बिभेद // 56 // तस्मै शशंस प्रणिपत्य नन्दी शुश्रूषया शैलसुतामुपेताम् / प्रवेशयामास च भर्तु रेनां भ्रूक्षेपमात्रानुमतप्रवेशाम् / / 60 / / 5 तस्याः सखीभ्यां प्रणिपातपूर्व स्वहस्तलूनः शिशिरात्ययस्य / व्यकीर्यत त्र्यम्बकपादमूले पुष्पोच्चयः पल्लवभङ्गभिन्नः।६१। उमापि नीलालकमध्यशोभि विस्र सयन्ती नवकणिकारम् / चकार कर्णच्युतपल्लवेन मूर्ना प्रणामं वृषभध्वजाय // 62 // अनन्यभाजं पतिमाप्नुहीति सा तथ्यमेवाभिहिता भवेन / 10 न हीश्वरव्याहृतयः कदाचित्पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम् / 63 / कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतङ्गवह्निमुखं विविक्षुः / उमासमक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासनज्यां मुहुराममर्श / / 64 / / अथोपनिन्ये गिरिशाय गौरी तपस्विने ताम्ररुचा करेण / विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनीपुष्करबीजमालाम् / 65 / 15 प्रतिग्रहीतुं प्रणयिप्रियत्वात्रिलोचनस्तामुपचक्रमे च। सम्मोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं समधत्त बाणम् / 66 / हरस्तु किञ्चित्परिलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः / उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि / 67 / विवृण्वतो शैलसुतापि भावमङ्ग : स्फुरद्वालकदम्बकल्पैः / 20 साचीकृता चारुतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन // 68 / / अथेन्द्रियक्षोभमयुग्मनेत्रः पुनर्वशित्वाद्बलवन्निगृह्य / हेतुं स्वचेतोविकृतेदिदृक्षुदिशामुपान्तेषु ससर्ज दृष्टिम् / / 6 / / स दक्षिणापाङ्गनिविष्टमुष्टि नतांसमाकुञ्चितसव्यपादम् / ददर्श चक्रीकृतचारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मयोनिम् / / 70 / / 25 तपःपरामर्शविवृद्धमन्योधू भङ्गदुष्प्रेक्ष्यमुखस्य तस्य / स्फुरन्नुचिः सहसा तृतीयादक्ष्णः कृशानुः किल निष्पपात 71 / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] [ काव्यषट्कं क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद्गिरः खे मरुतां चरन्ति / तावत्स वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्माऽवशेष मदनञ्चकार / / 72 / / तीव्राभिषङ्गप्रभवेण वृत्ति मोहेन संस्तम्भयतेन्द्रियाणाम् / मज्ञातभर्तृव्यसना मुहूर्त कृतोपकारेव रतिर्बभूव / / 73 / / 5 तमाशु विघ्नं तपसस्तपस्वी वनस्पति वज्र इवावभज्य / स्त्रीसनिकर्ष परिहर्तुमिच्छन्नन्तर्दधे भूतपतिः सभूतः / / 74 / / शैलात्मजापि पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थ समर्थ्य ललितं वपुरात्मनश्च / सख्योः समक्षमिति चाधिकजातलज्जा शून्या जगाम भवनाभिमुखी कथञ्चित् // 75 / / सपदि मुकुलिताक्षी रुद्रसंरम्भभीत्या दुहितरमनुकम्प्यामदिरादाय दोाम् / सुरगज इव बिभ्रत्पधिनी दन्तलग्ना प्रतिपथगतिरासीद्वगंदी(कृताङ्गः // 76 / / 15 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये मदनदहनो नाम तृतीयः सर्गः / / 3 / / // 4 // चतुर्थः सर्गः॥ अथ मोहपरायणा सती विवशा कामवधूविबोधिता। विधिना प्रतिपादयिष्यता नववैधव्यमसह्यवेदनम् // 1 // (वियोगिनी वृत्तम्) अवधानपरे चकार सा प्रलयान्तोन्मिषिते विलोचने / न विवेद तयोरतृप्तयोः प्रियमत्यन्तविलुप्तदर्शनम् / / 2 / / अयि जीवितनाथ जीवसीत्यभिधायोत्थितया तया पुरः / ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपाऽनलभस्म केवलम् // 3 // 25 अथ सा पुनरेव विह्वला वसुधालिङ्गनधूसरस्तनी। विललाप विकीर्णमूर्धजा समदुःखामिव कुर्वती स्थलीम् // 4 / / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवः चतुर्थः सर्गः ] [ 157 उपमानमभूद्विलासिनां करणं यत्तव कान्तिमत्तया। तदिदं गतमीदृशो दशां न विदीयें कठिनाः खलु स्त्रियः // 5 // क्व नु मां त्वदधीनजीवितां विनिकीर्य क्षणभिन्नसोहृदः / नलिनी क्षतसेतुबन्धनो जलसंघात इवासि विद्रुतः / / 6 / / 5 कृतवानसि विप्रियं न मे प्रतिकूलं न च ते मया कृतम् / किमकारणमेव दर्शनं विलपन्त्य रतये न दीयते // 7 / / स्मरसि स्मर मेखलागुणरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् / च्युतकेशरदूषितेक्षणान्यवतंसोत्पलताडनानि वा // 8 // हृदये वससीति मत्प्रियं यदवोचस्तदवमि कैतवम् / उपचारपदं न चेदिदं त्वमनङ्गः कथमक्षता रतिः / / 9 / / परलोकनवप्रवासिनः प्रतिपत्स्ये पदवीमहं तव / विधिना जन एष वञ्चितस्त्वदधीनं खलु देहिनां सुखम् / / 10 / / रजनीतिमिरावगुण्ठिते पुरमार्गे घनशब्दविक्लवाः / वसति प्रिय कामिनां प्रियास्त्वते प्रापयितुं क ईश्वरः / / 11 / / 15 नयनान्यरुणानि घूर्णयन्वचनानि स्खलयन्पदे पदे / असति त्वयि वारुणीमदः प्रमदानामधुना विडम्बना / / 12 / / अवगम्य कथीकृतं वपुः प्रियबन्धोस्तव निष्फलोदयः / बहुलेऽपि गते निशाकरस्तनुतां दुःखमनङ्ग मोक्ष्यति / / 13 / / हरितारुणचारुबन्धनः कलपुंस्कोकिलशब्दसूचितः / 20 वद संप्रति कस्य बाणतां नवचूतप्रसवो गमिष्यति / / 14 / / अलिपङ्क्तिरनेकशस्त्वया गुणकृत्ये धनुषो नियोजिता / विरुतः करुणस्वनैरियं गुरुशोकामनुरोदितीव माम् // 15 / / प्रतिपद्य मनोहरं वपुः पुनरप्यादिश तावदुत्थितः / रतिदूतिपदेषु कोकिलां मधुरालापनिसर्गपण्डिताम् // 16 / / 25 शिरसा प्रणिपत्य याचितान्युपगूढानि सवेपथूनि च / / सुरतानि च तानि ते रहः स्मर संस्मृत्य न शान्तिरस्ति मे।१७। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] [ काव्यषट्कं रचितं रतिपण्डित त्वया स्वयमङ्गषु ममेदमार्तवम् / ध्रियते कुसुमप्रसाधनं तव तच्चारु वपुर्न दृश्यते // 18 // विबुधैरसि यस्य दारुणैरसमाप्ते परिकर्मणि स्मृतः / तमिमं कुरु दक्षिणेतरं चरणं निर्मितरागमेहि मे // 16 / / 5 अहमेत्य पतङ्गवर्त्मना पुनरङ्काश्रयणी भवामि ते / चतुरैः सुरकामिनीजनैः प्रिय यावन्न विलोभ्यसे दिवि // 20 // मदनेन विनाकृता रतिः क्षणमात्रं किल जीवितेति मे। वचनीयमिदं व्यवस्थितं रमण त्वामनुयामि यद्यपि // 21 // क्रियतां कथमन्त्यमण्डनं परलोकान्तरितस्य ते मया / 10 सममेव गतोऽस्यतर्कितां गतिमङ्गन च जीवितेन च // 22 / / ऋजुतां नयतः स्मरामि ते शरमुत्सङ्गनिषण्णधन्वनः / मधुना सह सस्मितां कथां नयनोपान्तविलोकितं च यत् // 23 // क्व नु ते हृदयंगमः सखा कुसुमायोजितकामुको मधुः / न खलूग्ररुषा पिनाकिना गमितः सोऽपि सुहृद्गतां गतिम् / 24 / अथ तैः परिदेविताक्षरह दये दिग्धशरैरिवाहतः / रतिमभ्युपपत्तुमातुरां मधुरात्मानमदर्शयत्पुरः / / 25 / / तमवेक्ष्य रुरोद सा भृशं स्तनसंबाधमुरो जघान च / स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते // 26 / / इति चैनमुवाच दुःखिता सुहृदः पश्य वसन्त किं स्थितम् / तदिदं कणशो विकीर्यते पवनैर्भस्म कपोतकर्बु रम् / / 27 / / अयि संप्रति देहि दर्शनं स्मर पर्युत्सुक एष माधवः / दयितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृज्जने // 28 // अमुना ननु पार्श्ववर्तिना जगदाज्ञां ससुरासुरं तव / बिसतन्तुगुणस्य कारितं धनुषः पेलवपुष्पपत्रिणः // 29 // 25 गत एव न ते निवर्तते स सखा दीप इवानिलाहतः / अहमस्य दशेव पश्य मामविषयव्यसनेन धूमिताम् / / 30 / / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसभवंः चतुर्थः सर्गः ] [ 156 विधिना कृतमधूवैशसं ननु मां कामवधे विमुञ्चता। अनपायिनि संश्रयद्रुमे गजभग्ने पतनाय वल्लरी // 31 / / तदिदं क्रियतामनन्तरं भवता बन्धुजनप्रयोजनम् / विधुरां ज्वलनातिसर्जनान्ननु मां प्रापय पत्युरन्तिकम् // 32 / / 5 शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडित्प्रलीयते / प्रमदाः पतिवम॑गा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि / / 33 / / अमुनैव कषायितस्तनी सुभगेन प्रियगात्रभस्मना / नवपल्लवसंस्तरे यथा रचयिष्यामि तनुविभावसौ // 34 / / कुसुमास्तरणे सहायतां बहुशः सौम्य गतस्त्वमावयोः / कुरु संप्रति तावदाशु मे प्रणिपाताञ्जलियाचितश्चिताम् / 35 // तदनु ज्वलनं मर्पितं त्वरयेर्दक्षिणवातवीजनैः / विदितं खलु ते यथा स्मरः क्षणमप्युत्सहते न मां विना / 36 / इति चापि विधाय दीयतां सलिलस्याञ्जलि रेक एव नौ / अविभज्य परत्र तं मया सहितः पास्यति स बान्धवः / / 37 / / 15 परलोकविधौ च माधव स्मरमुद्दिश्य विलोलपल्लवाः / निवपेः सहकारमञ्जरी: प्रियचूतप्रसवो हि ते सखा / / 38 / / इति देहविमुक्तये स्थितां रतिमाकाशभवा सरस्वती। शफरीं ह्रदशोषविक्लवां प्रथमा वृष्टिरिवान्वकम्पयत् / / 3 / / कुसुमायुधपत्नि दुर्लभस्तव भर्ता म चिराद्भविष्यति / शृणु येन स कर्मणा गतः शलभत्वं हरलोचनाचिषि / / 40 / / अभिलाषमुदीरितेन्द्रियः स्वसुतायामकरोत्प्रजापतिः / अथ तेन निगृह्य विक्रियामभिशप्तः फलमेतदन्वभूत् / / 41 / / परिणेष्यति पार्नतीं यदा तपसा तत्प्रवरणीकृतो हरः / उपलब्धसुखस्तदा स्मरं वपुषा स्वेन नियोजयिष्यति / / 42 / / 25 इति चाह स धर्मयाचितः स्मरशापावधिदां सरस्वतीम् / अशनेरमृतस्य चोभयोर्वशितश्चाम्बुधराश्च योनयः / / 43 / / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [ काव्यषट्कं ताददं परिरक्ष शोभने भवितव्यप्रियसंगमं वपुः / रविपीतजला तपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी // 44 / / इत्थं रते: किमपि भूतमदृश्यरूपं मन्दीचकार मरणव्यवसायबुद्धिम् / तत्प्रत्ययाच्च कुसुमायुधबन्धुरेनामाश्वासयत्सुचरितार्थपदैर्वचोभिः / / 45 / / (वसंत०) अथ मदनवधूरुपप्लवान्तं व्यसनकृशा परिपालयांबभूव / शशिन इव दिवातनस्य लेखा किरणपरिक्षयधूसरा प्रदोषम् 46 10 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये रतिविलापो नाम चतुर्थः सर्गः / / 4 / / // 5 // पञ्चमः सर्गः॥ तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती / निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता // 1 // (गंशस्थम् ) इयेष सा कर्तुमवन्ध्यरूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः / अवाप्यते वा कथमन्यथा द्वयं तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः / 2 / निशम्य चैनां तपसे कृतोद्यमां सुतां गिरीशप्रतिसक्तमानसाम् / उवाच मेना परिरभ्य वक्षसा निवारयन्ती महतो मुनिव्रतान् / 3 / मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्व च तावकं वपुः / पदं सहेत भ्रमरस्य पेलनं शिरीषपुष्पं नं पुनः पतत्त्रिणः / / 4 / / इति ध्रुवेच्छामनुशासती सुतां 25 शशाक मेना न नियन्तुमुद्यमात् / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसभवं :: पञ्चमः सर्गः ] [ 161 क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत् / / 5 / / कदाचिदासन्नसखीमुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्विनी / अयाचतारण्य निवासमात्मनः फलोदयान्ताय तपःसमाधये / 6 / अथानुरूपाभिनिवेशतोषिणा कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा / प्रजासु पश्चात्प्रथितं तदाख्यया जगाम गौरीशिखरं शिखण्डिमत् / / 7 / / विमुच्य सा हारमहार्यनिश्चया विलोलयष्टिप्रविलुप्तचन्दनम् / बबन्ध बालारुणबभ्र वल्कलं ___ पयोधरोत्सेधविशीर्णसंहति // 8 / / यथा प्रसिद्धर्मधुरं शिरोरुहर्जटाभिरप्येवमभूत्तदाननम् / न षट्पदश्रेणिभिरेव पङ्कजं सशैवलासङ्गमपि प्रकाशते / / 6 / / 15 प्रतिक्षणं सा कृतरोमविक्रियां व्रताय ___मौजी त्रिगुणां बभार याम् / प्रकारि तत्पूर्वनिबद्धया तया सरागमस्या रसनागुणास्पदम् / / 10 / / वितृष्ट रागादधरान्निवतितः ___ स्तनाङ्गरागारुणिताच्च कन्दुकात् / कुशाङ्कुरादानपरिक्षताङ्गुलि: कृतोऽक्षसूत्रप्रणयी तया करः / / 11 / / महार्हशय्यापरिवर्तनच्युतैः स्वकेशपुष्पैरपि या स्म दूयते / 25 अशेत सा बाहुलतोपधायिनी निषेदुषी स्थण्डिल एव केवले / / 12 / / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] [ काव्यषट्कं पुनर्ग्रहीतु नियमस्थया तया द्वयेऽपि निक्षेप इवार्पितं द्वयम् / लतासु तन्वीषु विलासचेष्टितं विलोलदृष्टं हरिणाङ्गनासु च / / 13 / / अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षका न्धटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवर्धयत् / गुहोऽपि येषां प्रथमाप्तजन्मनां न पुत्रवात्सल्यमपाकरिष्यति / / 14 / / अरण्यबीजाञ्जलिदानलालिता स्तथा च तस्यां हरिणा विशश्वसुः / यथा तदीयैर्नयनैः कुतूहला ___त्पुरः सखीनाममिमीत लोचने / / 15 / / कृताभिषेका हुतजातवेदसं त्वगुत्तरासङ्गवतीमधीतिनीम् / दिदृक्षवस्तामृषयोऽभ्युपागमन्न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते / 16 / 15 विरोधिसत्वोज्झितपूर्वमत्सरं द्रुमैरभीष्टप्रसवाचितातिथि / नवोटजाभ्यन्तरसंभृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम् / 17 / यदा फलं पूर्णतपःसमाधिना न तावता लभ्यममस्त काङ्क्षितम् / तदानपेक्ष्य स्वशरीरमार्दवं तपो महत्सा चरितु प्रचक्रमे / / 18 / / क्लमं ययौ कन्दुलीलयापि या तया मुनीनां चरितं व्यगाह्यत / ध्रुवं वपुः काञ्चनपद्मनिर्मितं . मृदु प्रकृत्या च ससारमेव च / / 16 / / शुचौ चतुर्णा ज्वलतां हविर्भुजां शुचिस्मिता मध्यगता सुमध्यमा / 20 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चमः सर्गः ] [ 163 5 विजित्य नेत्रप्रतिघातिनी प्रभामनन्यदृष्टि: सवितारमैक्षत / / 20 / / तथातितप्तं सवितुर्गभस्तिभि ___मुखं तदीयं कमलश्रियं दधौ / अपाङ्गयोः केवलमस्य दीर्घयोः शनैः शनैः श्यामिकया कृतं पदम् / / 21 // अयाचितोपस्थितमम्बु केवलं ___ रसात्मकस्योडपतेश्च रश्मयः / बभूव तस्याः किल पारणाविधि न वृक्षवृत्तिव्यतिरिक्तसाधनः / / 22 / / निकामतप्ता विविधेन वह्निना नभश्चरेणेन्धनसंभृतेन सा / तपात्यये वारिभिरुक्षिता नवै- . भूवा सहोष्माणममुञ्चदूर्ध्वगम् // 23 / / स्थिताः क्षणं पक्ष्मसु ताडिताधराः पयोधरोत्सेधनिपातचूरिणताः / वलीषु तस्याः स्खलिताः प्रपेदिरे चिरेण नाभि प्रथमोदबिन्दवः // 24 / / शिलाशयां तामनिकेतवासिनीं निरन्तरास्वन्तरवातवृष्टिषु / व्यलोकयन्न मिषितैस्तडिन्मयै महातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपाः / / 25 // निनाय सात्यन्तहिमोत्किरानिलाः सहस्यरात्रीरुदवासतत्परा / 25. परस्पराक्रन्दिनि चक्रवाकयोः पुरो वियुक्त मिथुने कृपावति // 26 / / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 ] . [ काव्यषटकं मुखेन सा पद्मसुगन्धिना निशि प्रवेपमानाघरपत्रशोभिना। तुषारवृष्टिक्षतपद्मसंपदां सरोजसंधानमिवाकरोदपाम् // 27 // स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः / तदप्यपाकीर्णमतः प्रियंवदां ___ वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः / / 28 / / मृणालिकापेलवमेवमादिभि व्रतैः स्वमङ्गं ग्लपयन्त्यहनिशम् / तपः शरीरैः कठिनैरुपार्जितं .. तपस्विनां दूरमधश्चकार सा // 26 / / सुराः समुद्वीक्ष्य नगेन्द्रकन्यया ____ कृतं तपः शंभुवशक्रियाक्षमम् / ययाचिरे तं प्रणिपत्य दुःखिताः पति चमूनां सुतमाजिहेतुम् // 1 // (प्र) अथाजिनाषाढधरः प्रगल्भवा ग्ज्वलन्निव ब्रह्ममयेन तेजसा / विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीरबद्ध: प्रथमाश्रमो यथा / / 30 / / तमातिथेयी बहुमानपूर्वया ___सपर्यया प्रत्युदियाय पार्वती / भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां वपुर्विशेषेष्वतिगौरवाः क्रियाः / / 31 / / विधिप्रयुक्तां परिगृह्य सत्क्रियां ___ परिश्रमं नाम विनीय च क्षणम् / उमां स पश्यन्नृजुनैव चक्षुषां प्रचक्रमे वक्तुमनुज्झितक्रमः / / 32 / / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चमः सर्गः ] [ 165 5 अपि क्रियाएं सुलभं समित्कुशं .. जलान्यपि स्नानविधिक्षमाणि ते / * अपि स्वशक्त्या तपसि प्रवर्तसे शरीरमाद्यं खलु धर्ममाधनम् / / 33 / / अपि त्वदावजितवारिसंभृतं ___ प्रवालमासामनुबन्धि वीरुधाम् / चिरोज्झितालक्तकपाटलेन ते - तुलां यदारोहति दन्तवाससा / / 34 / / अपि प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रणयापहारिषु / य उत्पलाक्षि प्रचलैविलोचनै स्तवाक्षिसादृश्यमिव प्रयुञ्जते / / 35 / / यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमित्यव्यभिचारि तद्वचः / तथाहि ते शीलमुदारदर्शने तपस्विनामप्युपदेशतां गतम् / / 36 / / विकीर्णसप्तर्षिबलिप्रहासिभि स्तथा न गाङ्ग : सलिलैदिवश्च्युतः / यथा त्वदीयैश्चरितैरनाविलै महीधरः पावित एष सान्वयः // 37 / / अनेन धर्मः सविशेष मद्य मे त्रिवर्गसारः प्रतिभाति भाविनि / त्वया मनोनिविषयार्थकामया यदेक एव प्रतिगृह्य सेव्यते / / 38 / / 25. . प्रयुक्तसत्कारविशेषमात्मना - न मां परं संप्रतिपत्तुमर्हसि / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] [ काव्यषट्कं यतः सतां संनतगात्रि संगतं ___ मनीषिभिः साप्तपदीनमुच्यते // 39 / / अतोऽत्र किंचिद्भवतीं बहुक्षमां द्विजातिभावादुपपन्नचापलः / अयं जनः प्रष्टुमनास्तपोधने / न चेद्रहस्यं प्रतिवक्तुमर्हसि / / 40 / / कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधस स्त्रिलोकसौन्दर्यमिवोदितं वपुः / अमृग्य मैश्वर्यसुखं नवं वय __ स्तपः फलं स्याकिमतः परं वद / / 41 / / भवत्यनिष्टादपि नाम दुःसहा न्मनस्विनीनां प्रतिपत्तिरीदृशी / विचारमार्गप्रहितेन चेतसा न दृश्यते तच्च कृशोदरि त्वयि / / 42 / / अलभ्यशोकाभिभवेयमाकृति विमानना सुभ्र कुतः पितुर्गु हे / पराभिमझे न तवास्ति कः करं प्रसारयेत्पन्नगरत्नसूचये // 43 / / किमित्यपास्याभरणानि यौवने धृतं त्वया वार्धकशोभि वल्कलम् / वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते / / 44 / / दिवं यदि प्रार्थयसे वृथा श्रमः पितुः प्रदेशास्तव देवभूमयः / अथोपयन्तारमलं समाधिना . न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्ः // 45 / / 25 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसभव :: पञ्चमः सर्गः ] [ 167 निवेदितं.निःश्वसितेन सोष्मणा मनस्तु मे संशयमेव गाहते / " न दृश्यते प्रार्थयितव्य एव ते भविष्यति प्रार्थितदुर्लभ: कथम् / / 46 / / अहो स्थिरः कोऽपि तवेप्सितो युवा चिराय कर्णोत्पलशून्यतां गते / उपेक्षते यः श्लथलम्बिनीर्जटाः कपोलदेशे कलमाग्रपिङ्गलाः / / 47 // मुनिव्रतस्त्वामतिमात्रकशितां _ दिवाकराप्लुष्टविभूषणास्पदाम् / शशाङ्कलेखामिव पश्यतो दिवा सचेतसः कस्य मनो न दूयते / / 4 / / अवैमि सौभाग्यमदेन वञ्चितं ___ तव प्रियं यश्चतुरावलोकिनः / 15 करोति लक्ष्यं चिरमस्य चक्षुषो न वक्त्रमात्मीयमरालपक्ष्मणः // 46 // कियच्चिरं श्राम्यसि गौरि विद्यते ममापि पूर्वाश्रमसंचितं तपः / तदर्धभागेन लभस्व काङ्कितं वरं तमिच्छामि च साधु वेदितुम् / / 50 / / इति प्रविश्याभिहिता द्विजन्मना मनोगतं सा न शशाक शंसितुम् / प्रथो वयस्यां परिपार्श्ववर्तिनी विवर्तितानञ्जननेत्रमैक्षत / / 51 / / 25 . . सखी तदीया तमुवाच वणिनं निबोध साधो तव चेत्कुतूहलम् / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] [ काव्यषटकं यदर्थमम्भोजमिवोष्णवारणं . कृतं तपःसाधनमेतया वपुः / / 52 / / इयं महेन्द्रप्रभृतीनधिश्रिय श्चतुर्दिगीशानवमत्य मानिनी। अरूपहायं मदनस्य निग्रहा पिनाकपाणि पतिमाप्तुमिच्छति / / 53 / / असह्यहुंकारनिवर्तितः पुरा ___ पुरारिमप्राप्तमुख; शिलीमुखः / इमां हृदि व्यायतपातमक्षिणो द्विशीर्णमूर्तरपि पुष्पधन्वनः / / 54 / / तदाप्रभृत्युन्मदना पितुर्गृहे - ललाटिकाचन्दनधूसरालका। न जातु बाला लभते स्म निर्वृति - तुषारसंघातशिलातलेष्वपि / / 55 / / उपात्तवर्णे चरिते पिनाकिनः . - सबाष्पकण्ठस्खलितैः पदैरियम् / अनेकशः किंनरराजकन्यका _ वनान्तसंगीतसखीररोदयत् / / 56 / / त्रिभागशेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्र सहसा व्यबुध्यत / क्व नीलकण्ठ ! ब्रजसीत्यलक्ष्यवा गसत्यकण्ठापितबाहुबन्धना // 57 / / यदा बुधैः सर्वगतस्त्वमुच्यसे न वेत्सि भावस्थमिमं कथं जनम् / इति स्वहस्तोल्लिखितश्च मुग्धया . रहस्युपालभ्यत चन्द्रशेखरः / / 58 / / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चमः सर्गः ) / 169 यदा च तस्याभिगमे जगत्पते. रपश्यदन्यं न विधि विचिन्वती / तदा सहास्माभिरनुज्ञया गुरो रियं प्रपन्ना तपसे तपोवनम् / / 56 / / द्रुमेषु सख्या कृतजन्मसु स्वयं फलं तपःसाक्षिष दृष्टमेष्वपि / न च प्ररोहाभिमुखोऽपि दृश्यते : ____ मनोरथोऽस्याः शशिमौलिसंश्रयः / / 60 / / न वेद्मि स प्रार्थितदुर्लभः कदा. . ___ सखीभिरस्रोत्तरमीक्षितामिमाम् / तपःकृशामभ्युपपत्स्यते सखीं वृषेव सीतां तदवग्रहक्षताम् // 61 / / अगूढसद्भावमितीङ्गितज्ञया निवेदितो नैष्ठिकसुन्दरस्तया। अयीदमेवं परिहास इत्युमा मपृच्छदव्यजितहर्षलक्षणः // 62 // अथाग्रहस्ते मुकुलीकृताङ्गुलौ . समर्पयन्ती स्फटिकाक्षमालिकाम् / कथंचिदनेस्तनया मिताक्षरं - चिरव्यवस्थापितवागभाषत / / 63 / / . . यथा श्रुतं वेदविदांवर ! त्वया ____ जनोऽयमुच्चैःपदलङ्घनोत्सुकः / तपः किलेदं तदवाप्तिसाधनं मनोरथानामगतिर्न विद्यते / / 64 / / अथाह वर्णी विदितो. महेश्वर स्तदथिनी त्वं पुनरेव वर्तसे / 25 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] [ काव्यषट्कं अमङ्गलाभ्यासरति विचिन्त्य तं तवानुवृत्ति न च कर्तु मुत्सहे. / / 65 / / अवस्तुनिबन्धपरे कथं नु ते / करोऽयमामुक्तविवाहकौतुकः / करेण शंभोलयीकृताहिना सहिष्यते तत्प्रथमावलम्बनम् / / 66 / / त्वमेव तावत्परिचिन्तय स्वयं कदाचिदेते यदि योगमर्हतः / वधूदुकूलं कलहंसलक्षणं गजा जिनं शोणितबिन्दुवर्षि च // 67 // चतुष्कपुष्पप्रकरावकीर्णयोः .... परोऽपि को नाम तवानुमन्यते / अलक्तकाङ्कानि पदानि पादयो विकीर्णकेशासु परेतभूमिषु // 68 / / अयुक्तरूपं किमतः परं वद. त्रिनेत्रवक्षः सुलभं तवापि यत् / स्तनद्वयेऽस्मिन्हरिचन्दनास्पदे पदं चिताभस्मरजः करिष्यति // 66 // इयं च तेऽन्या पुरतो विडम्बना यदूढया वारणराजहार्यया / / विलोक्य वृद्धोक्षमधिष्ठितं त्वया महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति / / 70 // द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां __समागमप्रार्थनया पिनाकिनः / कला च सा कान्तिमती कलावत स्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी / / 71 / / 15 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चमः सर्गः ] [ 171 वपुविरूपाक्षमलक्ष्यजन्मता - दिगम्बरत्वेन निवेदितं वसु / वरेषु यद्वालमृगाक्षि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने / / 72 / / निवर्तयास्मादसदीप्सितान्मनः __ क्व तद्विधस्त्वं क्व च पुण्यलक्षणा। अपेक्ष्यते साधुजनेन वैदिकी श्मशानशूलस्य न यूपसत्क्रिया // 73 // इति द्विजातौ प्रतिकूलवादिनि प्रवेपमानाधरलक्ष्यकोपया। विकुञ्चितधूलतमाहिते तया विलोचने तिर्यगुपान्तलोहिते // 74 // उवाच चैनं परमार्थतो हरं न / वेत्सि नूनं यत एवमात्थ माम् / अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम् // 7 // विपत्प्रतीकारपरेण मङ्गलं निषेव्यते भूतिसमुत्सुकेन वा / * जगच्छरण्यस्य निराशिषः सतः / किमेभिराशोपहतात्मवृत्तिभिः // 76 / / अकिंचनः सन्प्रभवः स संपदा .. त्रिलोकनाथः पितृसद्मगोचरः / स भीमरूपः शिव इत्युदीर्यते न सन्ति याथार्थ्यविदः पिनाकिनः / / 77 / / विभूषणोद्भासि पिनद्धभोगि वा गजाजिनालम्बि दुकूलधारि वा / 25 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्क 5 कपालि वा स्यादथवेन्दुशेखरं . . न विश्वमूर्तेरवधायते वपुः / / 78 // तदङ्गसंसर्गमवाप्य कल्पते - ध्रुवं चिताभस्म रजोविशुद्धये / तथाहि नृत्याभिनयक्रियाच्युतं . विलिप्यते मौलिभिरम्बरौकसाम् / / 79 / / असंपदस्तस्य वृषेण गच्छतः - प्रभिन्नदिग्वारणवाहनो वृषा। करोति पादावुपगम्य मौलिना / विनिद्रमन्दाररजोरुणागुली / / 80 / / विवक्षता दोषमपि च्युतात्मना / त्वयकमीशं.प्रति साधु भाषितम् / यमामनन्त्यात्मभुवोऽपि कारणं कथं स लक्ष्यप्रभवो भविष्यति / / 81 // अलं विवादेन यथा श्रुतस्त्वया तथाविधस्तावदशेषमस्तु सः / ममात्र भावकरसं मनः स्थितं ___ न कामवृत्तिर्नचनीयमीक्षते / / 82 / / निवार्यतामालि किमप्ययं बटुः / / पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः / न केवलं यो महतोऽपभाषते . श्रृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् / / 83 / / इतो गमिष्याम्यथवेति वादिनी चचाल बाला स्तनभिन्नवल्कला / स्वरूपमास्थाय च तां कृतस्मितः .. समाललम्बे वृषराजकेतनः // 84 / / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: षष्ठः सर्गः ] [ 173 Ac तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसाङ्गयष्टि। . निक्षेपणाय पदमुद्धृतमुद्वहन्ती / मार्गाचलव्यंतिकराकुलितेव सिन्धुः / / शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ / / 8 / / (वसंत०) प्रद्यप्रभृत्यवनताङ्गि तवास्मि दासः क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौली। प्रहाय सा नियम क्लममुत्ससर्ज ___ क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते // 86 // 10 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये .. तपःफलोदयो नाम पञ्चमः सर्गः // 5 // // 6 // षष्ठः सर्गः // अथ विश्वात्मने गौरी संदिदेश मिथः सखीम् / दाता मे भूभृतां नाथः प्रमाणीक्रियतामिति // 1 // 15 तया व्याहृतसंदेशा सा बभौ निभृता प्रिये / चूतयष्टिरिवाभ्याशे मधौ परभृतोन्मुखी // 2 // स तथेति प्रतिज्ञाय विसृज्य कथमप्युमाम् / ऋषीज्योतिर्मयान्सप्त सस्मार स्मरशासनः / / 3 / / ते प्रभामण्डलैोम द्योतयन्तस्तपोधनाः / 20 सारुन्धतीकाः सपदि प्रादुरासम्पुरः प्रभोः // 4 / / प्राप्लुतास्तीरमन्दारकुसुमोत्किरवीचिषु / व्योमगङ्गाप्रवाहेषु दिङ्नागमदगन्धिषु // 5 // मुक्तायज्ञोपवीतानि बिभ्रतो हैमवल्कलाः / रत्नाक्षसूत्राः प्रव्रज्यां कल्पवृक्षा इवाश्रिताः // 6 // Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] [ काव्यषट्कं अधःप्रस्थापिताश्वेन समावर्जितकेतुना / .. सहस्ररश्मिना साक्षात्सप्रणाममुदीक्षिताः // 7 // आसक्तबाहुलतया सार्धमुद्धृतया भुवा / महावराहदंष्ट्रायां विश्रान्ताः प्रलयापदि // 8 // सर्गशेषप्रणयनाद्विश्वयोनेरनन्तरम् / पुरातनाः पुराविद्भिर्धातार इति कीर्तिताः // 6 // प्राक्तनानां विशुद्धानां परिपाकमुपेयुषाम् / / तपसामुपभुजानाः फलान्यपि तपस्विनः // 10 // तेषां मध्यगता साध्वी पत्युः पादापितेक्षणा। 10 साक्षादिव तपःसिद्धिर्बभासे बहरुन्धती / / 11 / / तामगौरवभेदेन मुनींश्चापश्यदीश्वरः / स्त्रीपुमानित्यनास्थैषा वृत्तं हि महितं सताम् // 12 // तद्दर्शनादभूच्छंभो यान्दारार्थमादरः / क्रियाणां खलु धाणां सत्पन्यो मूलकारणम् // 13 / / 15 धर्मेणापि पदं शर्वे कारिते पार्वतीं प्रति / पूर्वापराधभीतस्य कामस्योच्छ्वसितं मनः // 14 // अथ ते मुनयः सर्वे मानयित्वा जगद्गुरुम् / इदमूचुरनूचानाः प्रीतिकण्टकितत्वचः // 15 // यद्ब्रह्म सम्यगाम्नातं यदग्नौ विधिना हुतम् / 20 यच्च तप्तं तपस्तस्य विपक्वं फलमद्य नः / / 16 / / यदध्यक्षेण जगतां वयमारोपितास्त्वया / मनोरथस्याविषयं मनोविषयमात्मनः // 17 / / यस्य चेतसि वर्तेथाः स तावत्कृतिनां वरः / किं पुनर्ब्रह्मयोनेर्यस्तव चेतसि वर्तते // 18 // 25 सत्यमर्काच्च सोमाच्च परमध्यास्महे पदम् / अद्य तूच्चस्तरं ताभ्यां स्मरणानुग्रहात्तव // 16 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसभवं :: षष्ठः सर्गः ] [ 175 त्वत्संभावितमात्मानं बहु मन्यामहे वयम् / प्रायः प्रत्ययमाधत्ते स्वगुणेषूत्तमादरः // 20 / / या न: प्रीतिविरूपाक्ष त्वदनुध्यानसंभवा / सा किमावेद्यते तुभ्यमन्तरात्मासि देहिनाम् // 21 // 5 साक्षादृष्टोऽसि न पुनर्विद्मस्त्वां वयमञ्जसा / प्रसीद कथयात्मानं न घियां पथि वर्तसे // 22 / / किं येन सृजसि व्यक्तमुत येन बिर्षि तत् / अथ विश्वस्य संहर्ता भाग: कतम एष ते // 23 // अथवा सुमहत्येषा प्रार्थना देव तिष्ठतु / चिन्तितोपस्थितांस्तावच्छाधि नः करवाम किम् // 24 // अथ मौलिगतस्येन्दोविशदैर्दशनांशुभिः / उपचिन्वन्प्रभां तन्वी प्रत्याह परमेश्वरः // 25 / / विदितं वो यथा स्वार्था न मे काश्चित्प्रवृत्तयः / ननु मूर्तिभिरष्टाभिरित्थंभूतोऽस्मि सूचितः / / 26 / / 15 सोऽहं तृष्णातुरैर्वृष्टि विद्युत्वानिव चातकः / अरिविप्रकृतैर्देवैः प्रसूत्ति प्रति याचितः / / 27 / / अत आहर्तुमिच्छामि पार्वतीमात्मजन्मने / उत्पत्तये हविर्भोक्तुर्यजमान इवारणिम् / / 28 / / तामस्मदर्थे युष्माभिर्याचितव्यो हिमालयः / विक्रियायै न कल्पन्ते संबन्धाः सदनुष्ठिताः / / 29 // उन्नतेन स्थितिमता धुरमुद्वहता भूवः / तेन योजितसंबन्धं वित्त मामप्यवञ्चितम् // 30 // एवं वाच्यः स . कन्यार्थमिति वो नोपदिश्यते / भवत्प्रणीतमाचारमामनन्ति हि साधवः // 31 // . 25 आर्याप्यरुन्धती तत्र व्यापारं कर्तुमर्हति / प्रायेणैवंविधे कार्ये पुरंध्रीणां प्रगल्भता // 32 / / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 ] [ काव्यषट्कं तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम् / महाकोशीप्रपातेऽस्मिन्संगमः पुनरेव नः // 33 / / तस्मिन्संयमिनामाये जाते परिणयोन्मुखे / जहुः परिग्रहवीडां प्राजापत्यास्तपस्विनः // 34 // 5 ततः परममित्युक्त्वा प्रतस्थे मुनिमण्डलम् .. / भगवानपि संप्राप्तः प्रथमोद्दिष्टमास्पदम् // 35 // ते चाकाशमसिश्याममुत्पत्य परमर्षयः / आसेदुरोषधिप्रस्थं मनसा समरंहसः // 36 // .. अलकामतिवाह्य व वसतिं वसुसंपदाम् / .. स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशितम् // 37 // गङ्गास्रोतःपरिक्षिप्तं वप्रान्तर्वलितौषधि / बृहन्मणिशिलासालं गुप्तावपि मनोहरम् // 38 / / जितसिंहभया नागा यत्रावा. बिलयोनयः / यक्षाः किंपुरुषाः पौराः योषितो वनदेवताः // 36 / / शिखरासक्तमेघानां व्यज्यन्ते यत्र वेश्मनाम् / अनुगजितसंदिग्धाः करणैमुरजस्वना: // 40 / / यत्र कल्पद्रुमैरेव विलोलविदपांशुकैः / .. गृहयन्त्रपताकाश्रीरपौरादरनिर्मिता / / 41 / / यत्र स्फटिकहर्येषु नक्तमापानभूमिषु / ज्योतिषां प्रतिबिम्बानि प्राप्नुवन्त्युपहारताम् // 42 // यत्रौषधिप्रकाशेन नक्तं दर्शितसंचराः / अनभिज्ञास्तमिस्राणां दुदिनेष्वभिसारिकाः // 43 / / यौवनान्तं वयो यस्मिन्नान्तक: कुसुमायुधात् / रतिखेदसमुत्पन्ना निद्रा संज्ञाविपर्ययः / / 44 / / 25 भ्रूभेदिभिः सकम्पोष्ठेर्ललितागुलितर्जनैः / : यत्र कोपैः कृताः स्त्रीणामाप्रसादार्थिनः प्रियाः / / 45 / / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: षष्ठः सर्गः ] [ 177 संतानकतरुच्छायासुप्तविद्याधराध्वगम् / यस्य चोपवनं बाह्यं गन्धवद्गन्धमादनम् // 46 / / अथ ते मुनयो दिव्याः प्रेक्ष्य हैमवतं पुरम् / स्वर्गाभिसंधिसुकृतं वञ्चनामिव मेनिरे / / 47 / / ते सद्मनि गिरेवेंगादुन्मुखद्वाःस्थवीक्षिताः / अवतेरुर्जटाभारैलिखितानलनिश्चलैः / / 48 / / गगनादवतीर्णा सा यथावृद्धपुरस्सरा / तोयान्तर्भास्करालीव रेजे मुनिपरम्परा / / 46 / / तानानय॑मादाय दूरात्प्रत्युद्ययौ गिरिः / 10 नमयन्सारगुरुभिः पादन्यासर्वसुधराम् // 50 // धातुताम्राधरः प्रांशुर्देवदारुबृहद्भुजः / / प्रकृत्यैव शिलोरस्क: सुव्यक्तो हिमवानिति / / 51 / / विधिप्रयुक्तसत्कारैः स्वयं मार्गस्य दर्शकः / स तैराक्रमयामास शुद्धान्तं शुद्धकर्मभिः / / 52 / / 15 तत्र वेवासनासीनान्कृतासनपरिग्रहः / इत्युवाचेश्वरान्वाचं प्राञ्जलि धरेश्वरः / / 53 / / अपमेघोदयं वर्षमदृष्टकुसुमं फलम् / अतकितोपपन्नं वो दर्शनं प्रतिभाति मे / / 54 / / मूढं बुद्धमिवात्मानं हैमीभूतमिवायसम् / भूमेदिवमिवारूढं मन्ये भवदनुग्रहात् / / 55 / / अद्यप्रभृति भूतानामधिगम्योऽस्मि शुद्धये / यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते / / 56 / / अवमि पूतमात्मानं द्वयेनैव द्विजोत्तमाः / मूनि गङ्गाप्रपातेन धौतपादाम्भसा च वः / / 57 // 25 जङ्गमं प्रेष्यभावे वः स्थावरं चरणाङ्कितम् / विभक्तानुग्रहं मन्ये द्विरूपमपि मे वपुः / / 58 / / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ]. [ काव्यषट्कं भवत्संभावनोत्थाय परितोषाय मूर्च्छते / / अपि व्याप्तदिगन्तानि नाङ्गानि प्रभवन्ति मे / / 56 / / न केवलं दरीसंस्थं भास्वतां दर्शनेन वः / / अन्तर्गतमपास्तं मे रजसोऽपि परं तमः / / 60 // 5 कर्तव्यं वो न पश्यामि स्याच्चेतिक नोपपद्यते / मन्ये मत्पावनायैव प्रस्थानं भवतामिह // 61 / / तथापि तावत्कस्मिंश्चिदाज्ञां मे दातुमर्हथ / विनियोगप्रसादा हि किंकराः,प्रभविष्णुषु / / 62 / / एते वयममी दाराः कन्येयं कुलजीवितम् / 10 ब्रूत येनात्र वः कार्यमनास्था बाह्यवस्तुषु / / 63 / / इत्यूचिवांस्तमेवार्थं गुहामुखविसर्पिणा / द्विरिव प्रतिशब्देन व्याजहार हिमालय: / / 64 / / अथाङ्गिरसमग्रण्यमुदाहरणवस्तुषु / ऋषयो नोदयामासुः प्रत्युवाच स भूधरम् // 65 / / 15 उपपन्नमिदं . सर्वमतः परमपि त्वयि / मनसः शिखराणां च सदृशी ते समुन्नतिः / / 66 / / स्थाने त्वां स्थावरात्मानं विष्णुमाहुस्तथाहि ते / चराचराणां भूतानां कुक्षिराधारतां गतः / / 67 // गामधास्यत्कथं नागो मृणालमृदुभिः फणैः / 20 पा रसातलमूलात्त्वमवालम्बिष्यथा न चेत् // 68 / / अच्छिन्नामलसंतानाः समुद्रोर्म्यनिवारिताः / पुनन्ति लोकान्पुण्यत्वात्कीर्तयः सरितश्च ते / / 66 / / यथैव श्लाघ्यते गङ्गा पादेन परमेष्ठिनः / प्रभवेण द्वितीयेन तथौवोच्छिरसा. त्वया / / 70 / / 25 तिर्यगूलमधस्ताच्च व्यापको महिमा हरेः / त्रिविक्रमोद्यतस्यासीत्स तु स्वाभाविकस्तव / / 71 / / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: षष्ठः सर्गः ] [ 179 यज्ञभागभुजां मध्ये पदमातस्थुषा त्वया / उच्चैहिरण्मयं. शृङ्ग सुमेरोवितथीकृतम् // 72 / / काठिन्यं स्थावरे काये भवता सर्वमपितम् / / इद तु ते भक्तिननं सतामाराधनं वपुः // 73 / / 5 तदागमनकार्यं नः शण कार्य तवैव तत् / श्रेयसामुपदेशात्तु वयमत्रांशभागिनः // 74 / / अणिमादिगुणोपेतमस्पृष्टपुरुषान्तरम् / शब्दमीश्वर इत्युच्चैः, सार्धचन्द्रं बिभर्ति यः // 75 / / कलितान्योन्यसामर्थ्यः पृथिव्यादिभिरात्मभिः / 10 येनेदं ध्रियते विश्वं धुयर्यानमिवाध्वनि / / 76 // योगिनो यं विचिन्वति क्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनम् / अनावृत्तिभयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणः // 77 / / स ते दुहितरं साक्षात्सांक्षी विश्वस्य कर्मणाम् / वृणुते वरदः शंभुरस्मत्संक्रामितैः पदैः // 78 / / 15 तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि / अशोच्या हि पितुः कन्या सद्भर्तप्रतिपादिता / / 76 / / यावन्त्येतानि भूतानि स्थावराणि चराणि च / मातरं कल्पयन्त्वेनामीशो हि जगतः पिता // 80 // प्रणम्य शितिकण्ठाय विबुधास्तदनन्तरम् / 20 चरणौ रञ्जयन्त्वस्याश्चूडामणिमरीचिभिः / / 81 / / उमा वधूभवान्दाता याचितार इमे वयम् / वरः शंभुरलं ह्यष त्वत्कुलोद्भूतये विधिः / / 82 // अस्तोतुः स्तूयमानस्य वन्द्यस्यानन्यवन्दिनः / सुतासंबन्धविधिना भव विश्वगुरोर्गुरुः // 83 / / 25 एवंवादिनि देवर्षों पार्वे पितुरधोमुखी / लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती // 84 / / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] [ काव्यषट्कं शैलः संपूर्णकामोऽपि मेनामुखमुदक्षत / प्रायेण गहिणीनेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः / / 85 / / मेने मेनापि तत्सर्वं पत्युः कार्यमभीप्सितम् / भवन्त्यव्यभिचारिण्यो भतुरिष्टे पतिव्रताः // 86 / / 5 इदमत्रोत्तरं न्याय्यमिति बुद्ध्या विमृश्य सः / आददे वचसामन्ते मङ्गलालकृतां सुताम् / / 87 / / एहि विश्वात्मने बत्से भिक्षासि परिकल्पिता। अर्थिनो मुनयः प्राप्तं गृहमेधिफलं मया / / 88 // एतावदुक्त्वा तनयामृषीनाह महीधरः / / इयं नमति वः सर्वांस्त्रिलोचनवधूरिति // 86 / / ईप्सितार्थक्रियोदारं तेऽभिनन्द्य गिरेनचः / आशीभिरेधयामासुः पुरःपाकाभिरम्बिकाम् / / 60 / / तां प्रणामादरस्रस्तजाम्बूनदवतंसकाम् / अङ्कमारोपयामास लज्जमानामरुन्धती // 61 // 15 तन्मातरं चाश्रुमुखीं दुहितृस्नेहविक्लवाम् / वरस्यानन्यपूर्वस्य विशोकामकरोद्गुणैः // 62 / / वैवाहिकी तिथिं पृष्टास्तत्क्षणं हरबन्धुना / ते त्र्यहादूर्ध्वमाख्याय चेरुश्चीरपरिग्रहाः // 63 / / ते हिमालयमामन्त्र्य पुनः प्राप्य च शूलिनम् / 20 सिद्धं चास्मै निवेद्यार्थं तद्विसृष्टाः खमुद्ययुः // 14 // पशुपतिरपि तान्यहानि कृच्छादगमयदद्रिसुतासमागमोत्कः / कमपरमवशं न विप्रकुयु विभुमपि तं यदमी स्पृशन्ति भावाः 65 .. (पुष्तिाग्रा) // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवै महाकाव्ये 25 उमाप्रदानो नाम षष्ठः सर्गः / / 6 / / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तमः सर्गः ] [ 181 // 7 // सप्तमः सर्गः // अथौषधीनामधिपस्य वृद्धौ तिथौ च जामित्रगुणान्वितायाम् / समेतबन्धुहिमवान्सुताया विवाहदोक्षाविधिमन्वतिष्ठत् // 1 // वैवाहिकः कौतुकसंविधानैर्गुहे गृहे व्यग्रपुरंध्रिवर्गम् / 5 पासीत्पुरं सानुमतोऽनुरागादन्तःपुरं चैककुलोपमेयम् / / 2 / / संतानकाकीर्णमहापथं तच्चीनांशुकैः कल्पितकेतुमालम् / भासोज्ज्वलत्काञ्चनतोरणानां स्थानान्तरं स्वर्ग इवाबभासे 3 एकैव सत्यामपि पुत्रपङ्क्तौ चिरस्य दृष्टेव मृतोत्थितेव / आसन्नपाणिग्रहणेति पित्रोरुमा विशेषोच्छ्वसितं बभूव // 4 // अङ्काद्ययावङ्कमुदीरिताशीः सा मण्डनान्मण्डनमन्वभुङ्क्त / संबन्धिभिन्नोऽपि गिरेः कुलस्य स्नेहस्तदेकायतनं जगाम / / 5 / / मैत्रे मुर्ने शशलाञ्छनेन योगं गतासूत्तरफल्गुनीषु / तस्याः शरीरे प्रतिकर्म चक्रुर्बन्धुस्त्रियो याः पतिपुत्रवत्यः / 6 / सा गौरसिद्धार्थनिवेशवद्भिर्दूर्वाप्रवालैः प्रतिभिन्नशोभम् / 15 निर्नाभि कौशेयमुपात्तबाणमभ्यङ्गनेपथ्यमलंचकार / / 7 / / वभौ च संपर्कमुपेत्य बाला नवेव दीक्षाविधिसायकेन / करेण भानोर्बहुलावसाने संधुक्ष्यमाणेव शशाङ्करेखा / / 8 // तां लोध्रकल्केन हृताङ्गतैलामाश्यानकालेयकृताङ्गरागाम् / वासो वसानामभिषेकयोग्यं नार्यश्चतुष्काभिमुखं व्यनेषुः / / 6 / / विन्यस्तवैदूर्यशिलातलेऽस्मिन्नाबद्धमुक्ताफलभक्तिचित्रे / आवजिताष्टापदकुम्भतोयैः सतूर्यमेनां स्नपयांबभूवुः / / 10 / / सा मङ्गलस्नानविशुद्धगात्री गृहीतपत्युद्गमनीयवस्त्रा। निर्वृत्तपर्जन्यजलाभिषेका प्रफुल्लकाशा वसुधेव रेजे / / 11 / / तस्मात्प्रदेशाच्च वितानवन्तं युक्त मणिस्तम्भचतुष्टयेन / 25 पतिव्रताभिः परिगृह्य निन्ये क्लुप्तासनं कौतुकवेदिमध्यम् 12 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] [ काव्यषट्क तां प्राङ्मुखीं तत्र निवेश्य तन्वीं - क्षणं व्यलम्बन्त पुरोनिषण्णाः / भूतार्थशोभाह्रियमारणनेत्राः प्रसाधने संनिहितेऽपि नार्यः // 13 // 5 धूपोष्मणा त्याजितमाभावं केशान्तमन्तःकुसुमं तदीयम् / पर्याक्षिपत्काचिदुदारबन्धं दूर्वावता पाण्डुमधूकदाम्ना / / 14 / / विन्यस्तशुक्लागुरु चक्रुरङ्गं गोरोचनापत्रविभक्तमस्याः / . सा चक्रवाकाङ्कितसैकताया स्त्रिस्रोतसः कान्तिमतीत्य तस्थौ / / 15 / / लग्नद्विरेफं परिभूय पद्म समेघलेखं शशिनश्च बिम्बम् / तदाननश्रीरलकैः प्रसिद्धैश्चिच्छेद सादृश्यकथाप्रसङ्गम् / 16 / कर्णापितो लोध्रकषायरूक्ष गोरोचनाक्षेपनितान्तगौरे / तस्याः कपोले परभागलाभावबन्ध चढूंषि यवप्ररोहः // 17 // '15 रेखाविभक्तः सुविभक्तगात्र्याः / किंचिन्मधूच्छिष्टविमृष्टरागः / कामप्यभिख्यां स्फुरितैरपुष्य दासन्नलावण्यफलोऽधरोष्ठः / / 18 / / पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन . स्पृशेति सख्या परिहासपूर्णम् / सा रजयित्वा चरणौ कृताशी मौल्येन तां निर्वचनं जघान // 16 / / तस्याः सुजातोत्पलपत्रकान्ते प्रसाधिकाभिनयने निरीक्ष्य / 25 न चक्षुषोः कान्तिविशेषबुद्ध्या ___कालाजनं मङ्गलमित्युपात्तम् / / 20 / / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तमः सर्गः] [ 183 5 सा संभवद्भिः कुसुमैलतेव ज्योतिभिरुद्भिरिव त्रियामा। सरिद्विहंगैरिव लीयमानैरामुच्यमानाभरणा चकासे // 21 // आत्मानमालोक्य च शोभमान मादर्शबिम्बे स्तिमितायताक्षी / हरोपयाने त्वरिता बभूव ___स्त्रीणां प्रियालोकफलो हि वेषः // 22 // प्रथाङ्गुलिभ्यां हरितालमा माङ्गल्यमादाय मनःशिलां च / कर्णावसक्तामलदन्तपत्रं माता तदीयं मुखमुन्नमय्य / / 23 / / उमास्तनोद्भ दमनु प्रवृद्धो मनोरथो यः प्रथमं बभूव / 10 तमेव मेना दुहितुः कथंचिद्विवाहदीक्षातिलकं चकार / / 24 / / बबन्ध चास्राकुलदृष्टिरस्याः स्थानान्तरे कल्पितसंनिवेशाम् / धात्र्यङ्गुलीभिः प्रतिसार्यमाणमूर्णामयं कौतुकहस्तसूत्रम् // 25 // क्षीरोदवेलेव सफेनपुजा पर्याप्तचन्द्रेव शरत्त्रियामा / नवं नवक्षौम निवासिनी सा भूयो बभौ दर्पणमादधाना // 26 // 15 तामचिताभ्यः कुलदेवताभ्यः कुलप्रतिष्ठां प्रणमय्य माता / अकारयत्कारयितव्यदक्षा क्रमेण पादग्रहणं सतीनाम् // 27 // अखण्डितं प्रेम लभस्व पत्यु रित्युच्यते ताभिरुमा स्म नम्रा / तया तु तस्यार्धशरीरभाजा 20 पश्चात्कृताः स्निग्धजनाशिषोऽपि // 28 // इच्छाविभूत्योरनुरूपमद्रि - स्तस्याः कृती कृत्यमशेषयित्वा / सभ्यः सभायां सुहृदास्थितायां / तस्थौ वृषाङ्कागमनप्रतीक्षः // 26 // 25 तावद्भवस्यापि कुबेरशैले तत्पूर्वपाणिग्रहणानुरूपम् / प्रसाधनं मातृभिराहताभिय॑स्तं पुरस्तात्पुरशासनस्य // 30 // Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] [ काव्यषट्कं तद्गौरवान्मङ्गलमण्डनश्रीः सा पस्पृशे केवलमीश्वरेण / स एव वेषः परिणेतुरिष्टं भावान्तरं तस्य विभोः प्रपेदे // 31 // बभूव भस्मैव सिताङ्गरागः कपालमेवामशेखरश्रीः / उपान्तभागेषु च रोचनाको गजाजिनस्यैव दुकूलभावः // 32 // शङ्खान्तरद्योति विलोचनं यदन्तर्निविष्टामलपिङ्गतारम् / सांनिध्यपक्षे हरितालमय्यास्तदेव जातं तिलक क्रियायाः / 33 / यथाप्नदेशं भुजगेश्वराणां करिष्यतामाभरणान्तरत्वम् / शरीरमा विकृति प्रपेदे तथैव तस्थुः फणरत्नशोभाः // 34 / / दिवापि मिष्ठ्य तमरीचिभासा बाल्यादनाविष्कृत लाञ्छनेन / चन्द्रेण नित्यं प्रतिभिन्नमौलेश्चूडामणेः किं ग्रहणं हरस्य / 35 / इत्यद्भुतैकप्रभवः प्रभावात्पसिद्धनेपथ्यविधेविधाता / आत्मानमासन्नगणोपनीते खड्गे निषक्तप्रतिमं ददर्श / / 36 / / स गोपति नन्दिभुजावलम्बी शार्दूलचर्मान्तरितोरुपृष्ठम् / तद्भक्तिसंक्षिप्तबृहत्प्रमाणमारुह्य कैलासमिव प्रतस्थे / / 37 / / 15 तं मातरो देवमनुव्रजन्त्य : स्ववाहनक्षोभचलावतंसाः / मुखैः प्रभामण्डल रेणुगौरः पद्माकरं चक्रुरिवान्तरीक्षम् / 38 / तासां च पश्चात्कनकप्रभाणां काली कपालाभरणा चकासे / बलाकिनी नीलपयोदराजी दूरं पुरःक्षिप्तशतहदेव / / 39 / / ततो गणैः शूलभृतः पुरोगैरुदीरितो मङ्गलतूर्यघोषः / विमानशङ्गाण्यवगाहमानः शशंस सेवावसरं सुरेभ्यः / / 4 / / उपाददे तस्य सहस्ररश्मिस्त्वष्टा ननं निर्मितमातपत्रम् / स तदुकूलादविद्रमौलिर्बभौ पतद्गङ्ग इवोत्तमाङ्गे // 41 // मूर्ते च गङ्गायमुने तदानीं सचामरे देवमसेविषाताम् / समुद्रगारूपविपर्ययेऽपि सहसपाते तव लक्ष्यमाणे / / 42 / / 25 तमभ्यगच्छत्प्रथमो विधाता श्रीवत्सलक्ष्मा पुरुषश्च साक्षात् / जयेति वाचा महिमानमस्य संवर्धयन्तौ हविषेव वह्निम् / 43 / 20 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तमः सर्गः ] [ 185 एकैव मूर्तिबिभिदे-त्रिधा सा सामान्यमेषां प्रथमावरत्वम् / विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदाचिद्वेधास्तयोस्तावपि धातुराद्यौ 44 तं लोकपालाः पुरुहूतमुख्याः श्रीलक्षणोत्सर्गविनीतवेषाः / दृष्टिप्रदाने कृतनन्दिसंज्ञास्तद्दर्शिताः प्राञ्जलयः प्रणेमुः / / 4 / / 5 कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्रयोनि वाचा हरि वृत्रहणं स्मितेन / आलोकमात्रेण सुरानशेषान्संभावयामास यथाप्रधानम् / 46 / तस्मै जयाशीः ससृजे पुरस्तात्सप्तर्षिभिस्तान्स्मितपूर्वमाह / विवाहयज्ञे विततेऽत्र यूयमध्वर्यवः पूर्ववृता मयेति / / 47 / / विश्वावसुप्राग्रहरैः प्रवीणैः संगीयमानत्रिपुरावदानः / 10 अध्वानमध्वान्तविकारलङ्घयस्ततार ताराधिपखण्डधारी 48 . खे खेलगामी तमुवाह वाहः सशब्दचामीकर किंकिणीकः / तटाभिघातादिव लग्नपङ्के धुन्वन्मुहुः प्रोतघने विषाणे / 49 / स प्रापदप्राप्तपराभियोग नगेन्द्रगुप्तं नगरं मुहूर्तात् / पुरोविलग्नहरदृष्टिपातैः सुवर्णसूत्ररिव कृष्यमाण: / / 50 / / 15 तस्योपकण्ठे घननीलकण्ठः कुतूहलादुन्मुखपौरदृष्टः / स्वबाणचिह्नादवतीर्य मार्गादासन्नभूपृष्ठमियाय देवः // 51 / / तमृद्धिमद्वन्धुजनाधिरूढे न्दैगजानां गिरिचक्रवर्ती / / प्रत्युज्जगामागमनप्रतीतः प्रफुल्लवृक्षैः कटकैरिव स्वैः / / 52 / / वर्गावुभौ देवमहीधराणां द्वारे पुरस्योद्धटितापिघाने। 20 समीयतुर्दूरविसपिघोषौ भिन्नैकसेतू पयसामिवौघौ / / 53 / / ह्रीमानभूभूमिधरो हरेण त्रैलोक्यवन्येन कृतप्रणामः / पूर्व महिम्ना स हि तस्य दूरमावर्जितं नात्मशिरो विवेद / 54 / स प्रीतियोगाद्विकसन्मुखश्रीर्जामातुरग्रसरतामुपेत्य / प्रावेशयन्मन्दिरमृद्धमेनमागुल्फकीर्णापणमार्गपुष्पम् / / 55 / / 25 तस्मिन्मुहूर्ते पुरसुन्दरीणामोशानसंदर्शनलालसानाम् / प्रासादमालासु बभूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि 56 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] [ काव्यषट्कं आलोकमार्ग सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः। बद्धं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः / 57 / प्रसाधिकालम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्रवरागमेव / उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाङ्कां पदवी ततान / 58 5 विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा। . तथैव वातायनसंनिकर्ष ययौ शलाकामपरा वहन्ती / / 56 / / जालान्तरप्रेषितष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्ध नीवीम् / नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः / 60 / अर्घाचिता सत्वरमुत्थितायाः पदे पदे दुनिमिते गलन्ती। 10 कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमङ्गुष्ठमूलार्पितसूत्रशेषा / / 61 // तासां मुखैरासवगन्धगर्भाप्तान्तराः सान्द्रकुतूहलानाम् / विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन् / / 62 / / तावत्पताकाकुलमिन्दुमौलिरुत्तोरणं राजपथं प्रपेदे / प्रासादशगाणि दिवापि कुर्वज्योत्स्नाभिषेकद्विगुणद्युतीनि 63 तमेकदृश्यं नयनैः पिबन्त्यो नार्यों न जग्मुर्विषयान्तराणि / तथाहि शेषेन्द्रियवृत्तिरासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्टा // 64 / / स्थाने तपो दुश्चरमेतदर्थ मपर्णया पेलवयापि तप्तम् / या दास्यमप्यस्य लभेत नारी सा स्यात्कृतार्था किमुताङ्कशय्याम् // 65 // परस्परेण स्पृहणीयशोभं न चेदिदं द्वन्द्वमयोजयिष्यत् / अस्मिन्द्वये रूपविधानयत्नः पत्युः प्रजानां विफलोऽभविष्यत् // 66 / / 25 अस्मि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: सप्तमः सर्गः ] [ 187 न नूनमारूढरुषा शरीर मनेन दग्धं कुसुमायुधस्य / व्रीडादमुं देवमुदीक्ष्य मन्ये संन्यस्तदेहः स्वयमेव कामः // 67 / / 5 अनेन संबन्धमुपेत्य दिष्टया मनोरथप्रार्थितमीश्वरेण / मूर्धानमालि क्षितिधारणोच्चमुच्चैस्तरं वक्ष्यति शैलराजः 68 इत्योषधिप्रस्थविलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखास्त्रिनेत्रः / केयूरचूर्णीकृतलाजमुष्टि हिमालयस्यालयमाससाद / / 69 / / तत्रावतीर्याच्युतदत्तहस्तः शरद्धनाद्दीधितिमानिवोक्ष्णः / 10 क्रान्तानि पूर्वं कमलासनेन कक्ष्यान्तराण्य दिपतेविवेश / / 7 / / तमन्वगिन्द्रप्रमुखाश्च देवाः सप्तर्षिपूर्वाः परमर्षयश्च / गणाश्च गिर्यालयमभ्यगच्छन्प्रशस्तमारम्भमिवोत्तमार्थाः / 71 / तत्रेश्वरो विष्टरभाग्यथावत्सरत्नमयं मधुमच्च गव्यम् / नवे दुकूले च नगोपनीतं प्रत्यग्रहीत्सर्वममन्त्रवर्जम् / / 72 / / 15 दुकूलवासाः स वधूसमीपं निन्ये विनीतैरवरोधदक्षैः / वेलासमीपं स्फुटफेनराजिनवैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः / / 73 / / तया प्रवृद्धाननचन्द्रकान्त्या प्रफुल्लचक्षुःकुमुदः कुमार्या / प्रसन्नचेतःसलिलः शिवोऽभूत्संसृज्यमानः शरदेव लोकः / 74 / तयोः समापत्तिषु कातराणि किंचिद्व्यवस्थापितसंहृतानि / 20 ह्रीयन्त्रणां तत्क्षणमन्वभूवन्नन्योन्यलोलानि विलोचनानि / 75 // तस्याः करं शैलगुरूपनीतं जग्राह ताम्राङ्गुलिमष्टमूर्तिः / उमातनौ गूढतनोः स्मरस्य तच्छङ्किनः पूर्वमिव प्ररोहम् / 76 / रोमोद्गमः प्रादुरभूदुमायाः स्विन्नागुलिः पुंगवकेतुरासीत् / वृत्तिस्तयोः पाणिसमागमेन समं विभक्तेव मनोभवस्य / 77 / 25 प्रयुक्तपाणिग्रहणं यदन्यद्वधूवरं पुष्यति कान्तिमय्याम् / ... सांनिध्ययोगादनयोस्तदानीं किं कथ्यते श्रीरुभयस्य तस्य / 78 / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] [ काव्यषटकं प्रदक्षिणप्रक्रमरणात्कृशानोरुदचिषस्त न्मिथुनं चकासे / मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्यसंसक्तमहस्त्रियामम् / / 7 / / तौ दंपती त्रिः परिणीय वह्निमन्योन्यसंस्पर्शनिमीलिताक्षौ। स कारयामास वधूं पुरोधास्तस्मिन्समिद्धाचिषि लाजमोक्षम् / 5 सा लाजधूमाञ्जलिमिष्टगन्धं गुरूपदेशाद्वदन निनाय / कपोलसंसपिशिखः स तस्या मुहूर्तकर्णोत्पलतां प्रपेदे // 1 // तदीषदाारुणगण्डलेखमुच्छ्वासिकालाजनरागमक्ष्णोः / वधूमुखं क्लान्तयवावतंसमाचारधूमग्रहणाद्वभूव / / 82 / / वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से वह्निविवाहं प्रति कर्मसाक्षी। 10 शिवेन भी सह धर्मचर्या कार्या त्वया मुक्त विचारयेति / 3 / आलोचनान्तं श्रवणे वितत्य पीतं गुरोस्तद्वचनं भवान्या / निदाघकालोल्बरणतापयेव माहेन्द्रमम्भः प्रथमं पृथिव्या / 84 / ध्रुवेण भी ध्रुवदर्शनाय प्रयुज्यमाना प्रियदर्शनेन / सा दृष्ट इत्याननमुन्नमय्य ह्रीसन्नकण्ठी कथमप्युवाच / / 8 / / 15 इत्थं विधिज्ञेन पुरोहितेन प्रयुक्तपाणिग्रहणोपचारौ। प्रणेमतुस्तौ पितरौ प्रजानां पद्मासनस्थाय पितामहाय / / 86 / / वधूविधात्रा प्रतिनन्द्यते स्म कल्याणि वीरप्रसवा भवेति / वाचस्पतिः सन्नपि सोऽष्टमूतौं त्वाशास्यचिन्तास्तिमितो बभूव / क्लप्तोपचारां चतुरस्रवेदी तावत्य पश्चात्कनकासनस्थौ / जायापती लौकिकमेषणीयमाक्षतारोपणमन्वभूताम् / / 88 // पत्रान्तलग्नर्जलबिन्दुजालैराकृष्टमुक्ताफलजालशोभम् / तयोरुपर्यायतनालदण्डमाधत्तः लक्ष्मीः कमलातपत्रम् / / 8 / / द्विधाप्रयुक्तेन च वाङ्मयेन सरस्वती तन्मिथुनं नुनाव / संस्कारपूतेन वरं वरेण्यं वधू सुखग्राह्यनिबन्धनेन / / 90 / / 25 तौ संधिषु व्यजितवृत्तिभेदं रसान्तरेषु प्रतिबद्धरागम् / अपश्यतामप्सरसा मुहूर्तं प्रयोगमाद्यं ललिताङ्गहारम् / / 6 / / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: अष्टमः सर्गः ] [ 186 देवास्तदन्ते हरमूढभार्य किरीटबद्धाञ्जलयो निपत्य / शापावसाने प्रतिपन्नमूर्तेययाचिरे पञ्चशरस्य सेवाम् / / 12 / / तस्यानुमेने भगवान्विमन्युापारमात्मन्यपि सायकानाम् / कालप्रयुक्ता खलु कार्यविद्भिर्विज्ञापना भर्तृषु सिद्धिमेति / / 3 / अथ विबुधगणांस्तानिन्दुमौलिविसृज्य ____ क्षितिधरपतिकन्यामाददानः करेण / कनककलशयुक्त भक्तिशोभासनाथं क्षितिविरचितशय्यं कौतुकागारमागात् / 64 / नवपरिणयलज्जाभूषणां तत्र गौरी वदनमपहरन्ती तत्कृताक्षेपमीशः / अपि शयनसखीभ्यो दत्तवाचं कथंचित्प्रमथमुखविकारैर्हासयामास गूढम् / / 65 / / . .... (मालिनी) / / इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये 15 उमापरिणयो नाम सप्तमः सर्गः / / 7 / / // 8 // अष्टमः सर्गः // पाणिपीडनविधेरनन्तरं शैलराजदुहितुर्हरं प्रति / भावसाध्वसपरिग्रहादभूत्कामदोहदमनोहरं वपुः // 1 // (रथोद्धता) 20 व्याहृता प्रतिवचो न संदधे गन्तुमैच्छदवलम्बितांशुका। सेवते स्म शयनं पराङ्मुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः / 2 / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [ काव्यषट्कं कैतवेन शयिते कुतूहलात्पार्वती प्रति मुखं निपातितम् / चक्षुरुन्मिपति सस्मितं प्रिये विद्युताहतमिव न्यमीलयत् // 3 // नाभिदेशनिहितः सकम्पया शंकरस्य रुरुधे तया करः / तदुकूलमथ चाभवत्स्वयं दूरमुच्छ्वसितनीविबन्धनम् / / 4 / / 5 एवमालि निगृहीतसाध्वसं शंकरो रहसि सेव्यतामिति / सा सखीभिरुपदिष्टमाकुला नास्मरत्प्रमुखवर्तिनि प्रिये // 5 // अप्यवस्तुनि कथाप्रवृत्तये प्रश्नतत्परमनङ्गशासनम् / वीक्षितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्धकम्पमयमुत्तरं ददौ // 6 // शूलिनः करतलद्वयेन सा संनिरुध्य नयने हृतांशुका / तस्य पश्यति ललाटलोचने मोघयत्नविधुरा रहस्यभूत् / / 7 / / चुम्बनेष्वधरदानवजितं खिन्नहस्तसदयोपगृहनम् / क्लिष्टमन्मथमपि प्रियं प्रभोर्दुर्लभप्रतिकृतं वधूरतम् // 8 // यन्मुखग्रहणमक्षताधरं दानमवरणपदं नखस्य यत् / यद्रतं च सदयं प्रियस्य तत्पार्वती विषहते स्म नेतरत् // 6 // 15 रात्रिवृत्तमनुयोक्तुमुद्यतं सा प्रभातसमये सखीजनम् / नाकरोदपकुतूहलं ह्रिया शंसितुं तु हृदयेन तत्वरे // 10 // दर्पणे च परिभोगदर्शिनी पृष्ठतः प्रणयिनो निषेदुषः / प्रेक्ष्य बिम्बमुपबिम्बमात्मनः कानि कानि न चकार लज्जया। नीलकण्ठपरिभुक्तयौवनां तां विलोक्य जननी समाश्वसत् / भर्तृवल्लभतया हि मानसीं मातुरस्यति शुचं वधूजनः / / 12 / / वासराणि कतिचित्कथंचन स्थाणुना रतमकारि चानया। ज्ञातमन्मथरसा शनैः शनैः सा मुमोच रतिदुःखशीलताम् 13 सस्वजे प्रियमुरोनिपीडनं प्रार्थितं मुखमनेन नाहरेत् / मेखलाप्रणयलोलतां गतं हस्तमस्य शिथिलं रुरोध सा / / 14 / / 25 भावसूचितमदृष्टविप्रियं दाढय भावक्षणवियोगकातरम् / कैश्चिदेव दिवसैस्तथा तयोः प्रेम गूढमितरेतराश्रयम् / / 15 / / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: अष्टमः सर्गः ] [ 161 तं यथात्मसदृशं वरं वधूरन्वरज्यत वरस्तथैव ताम् / सागरादनपगा हि जाह्नवी सोऽपि तन्मुख रसैकवृत्तिभाक् / 16 / शिष्यतां निधुवनोपदेशिनः शंकरस्य रहसि प्रपन्नया। शिक्षितं युवतिनैपुणं तया यत्तदेव गुरुदक्षिणीकृतम् / / 17 / / 5 दष्टमुक्तमधरोष्ठमम्बिका वेदनाविधुतहस्तपल्लवा / शीतलेन निरवापयत्क्षणं मौलिचन्द्रशकलेन शूलिनः / / 18 / / चुम्बनादलकचूर्णदूषितं शंकरोऽपि नयनं ललाटजम् / उच्छ्वसत्कमलगन्धये ददौ पार्वतीवदनगन्धवाहिने / / 16 / / एवमिन्द्रियसुखस्य वर्त्मनः सेवनादनुगृहीतमन्मथः / 10 शैलराजभवने सहोमया मासमात्रमवसदृषध्वजः // 20 // सोऽनुमान्य हिमवन्तमात्मभूरात्मजाविरहदुःखखेदितम् / तत्र तत्र विजहार संपत (चर)न्नप्रमेयगतिना ककुद्मता / 21 / मेरुमेत्य मरुदारुगोक्षकः पार्वतीस्तनपूरस्कृतः कृती। हेमपल्लवविभङ्गसंस्तरानन्वभूत्सुरतमर्दनक्षमान् // 22 / / 15 पद्मनाभचरणाङ्किताश्मसु प्राप्तवत्स्वमृतविषो नवाः / मन्दरस्य कटकेषु चावसत्पार्वतीवदनपद्मषट्पदः / / 23 / / रावणध्वनित भीतया तया कण्ठसक्तदृढबाहुबन्धनः / एकपिङ्गल गिरौ जगद्गुरुनिविवेश विंशदाः शशिप्रभाः / 24 / तस्य जातु मलयस्थलीरतेधूतचन्दनलतः प्रियाक्लमम् / आचचाम सलवङ्गकेसरश्चाटुकार इव दक्षिणानिलः / / 25 / / हेमतामरसताडितप्रिया तत्कराम्बुविनिमीलितेक्षणा / सा व्यगाहत तरङ्गिणीमुमा मीनपङ्क्तिपुनरुक्तमेखला / / 26 / / तां पुलोमतनयालकोचितैः पारिजातकुसुमैः प्रसाधयन् / नन्दने चिरमयुग्मलोचन: सस्पृहं सुरवधूभिरीक्षितः // 27 // 25 इत्यभौममनुभूय शंकरः पार्थिवं च दयितासखः सुखम् / लोहितायति कदाचिदातपे गन्धमादनवनं व्यगाहत / / 2 / / 20 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] [ काव्यषट्कं तत्र काञ्चनशिलातलाश्रयो नेत्रगम्यमवलोक्य भास्करम् / दक्षिणेतरभुजव्यपाश्रयां व्याजहार सहधर्मचारिणीम् / / 29 / / पद्मकान्तिमरुणविभागयोः संक्रमय्य तव नेत्रयोरिव / / संक्षये जगदिव प्रजेश्वरः संहरत्यहरसावहर्पतिः / / 30 / / 5 सीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति / इन्द्रचापपरिवेषशून्यतां निर्भरास्तव पितुर्वजन्त्यमी / / 31 / / दष्टतामरसकेसरस्रजोः क्रन्दतोविपरिवृत्तकण्ठयोः / निघ्नयोः सरसि चक्रवाकयोरल्पमन्तरमनल्पतां गतम् / / 32 / / स्थानमाह्निकमपास्य दन्तिनः सल्लकीविटपभङ्गवासितम् / 10 आविभातचरणाय गलते वारि वारिरुहबद्धषटपदम् / / 33 / / पश्य पश्चिमदिगन्तलम्बिना निर्मितं मितकथे विवस्वता / लब्धया प्रतिमया सरोम्भसां तापनीयमिव सेतुबन्धनम् / 34 / उत्तरन्ति विनिकीर्य पल्वलं गाढपङ्कमतिवाहितातपाः / दंष्ट्रिणो वनवराहयूथपा दष्टभङ्गुरबिसाङकुरा इव / / 35 / / 15 एष वृक्षशिखरे कृतास्पदो जातरूपरसगौरमण्डल: / हीयमानमहरत्ययातपं पीवरोरु पिबतीव बहिणः / / 36 / / पूर्वभागतिमिरप्रवृत्तिभिर्व्यक्तपङ्कमिव जातमेकतः / खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किंचिदिव शेषवत्सरः / 37 / आविशद्भिरुटजाङ्गण मृगै मूलसेकसरसैश्च वृक्षकैः / आश्रमा: प्रविशदग्र्य (ग्नि) धेनवो बिभ्रति श्रियमुदीरिताग्नयः // 38 / / बद्धकोशमपि तिष्ठति क्षणं सावशेषविवरं कुशेशयम् / षट्पदाय वसति ग्रहीष्यते प्रीतिपूर्वमिन्न दातुमन्तरम् / / 3 / / 25 दूरमग्र (लग्न)परिमेयरश्मिना वारुणी दिगरुणेन भानुना / .. भाति केसरवतेव मण्डिता बन्धुजीवतिलकेन कन्यका / / 40 / / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: अष्टमः सर्गः ] [ 163 सामभिः सहचराः सहस्रशः स्यन्दनाश्वहृदयंगमस्वनैः / भानुमग्निपरिकीर्णतेजसं संस्तुवन्ति किरणोष्मपायिनः / 41 // सोऽयमानतशिरोधरैर्हयैः कर्णचामरविघट्टितेक्षणैः / अस्तमेति युगभुग्नकेसरैः संनिधाय दिवसं महोदधौ // 42 / / 5 खं प्रसुप्तमिव संस्थिते रवी तेजसो महत ईदृशी गतिः / तत्प्रकाशयति यावदुद्गतं मीलनाय खलु तावतश्च्युतम् / 43 / संध्ययाप्यनुगतं रवेर्वपुर्वन्द्यमस्तशिखरे समर्पितम् / येन पूर्वमुदये पुरस्कृता नानुयास्यति कथं तमापदि // 44 // रक्तपीतकपिशाः पयोमुचां कोटयः कुटिलकेशि भान्त्यमूः / 10 द्रक्ष्यसि त्वमिति संध्ययानया वर्तिकाभिरिव साधुमण्डिताः 45 सिंहकेसरसटासु भूभृतां पल्लवप्रसविषु द्रुमेषु च / पश्य धातुशिखरेषु भानुना संविभक्तमिव सांध्यमातपम् / 46 / अद्रिराजतनये तपस्विनः पावनाम्बुविहिताञ्जलिक्रियाः / ब्रह्म गूढमभिसंध्यमाहताः शुद्धये विधिविदो गणन्त्यमी // 47 // 15 तन्मुहूर्तमनुमन्तुमर्हसि प्रस्तुताय नियमाय मामपि / त्वां विनोदनिपुणः सखीजनो वल्गुवादिनि विनोदयिष्यति 48 निर्विभुज्य दशनच्छदं ततो वाचि भर्तुरवधीरणापरा / शैलराजतनया समीपमामाललाप विजयामहेतुकम् / / 46 / / ईश्वरोऽपि दिवसात्ययोचितं मन्त्रपूर्वमनुतस्थिवान्विधिम् / 20 पार्वतीमवचनामसूयया प्रत्युपेत्य पुनराह सस्मितम् / / 50 / / मुञ्च कोपमनिमित्तकोपने संध्यया प्रणमितोऽस्मि नान्यया। किं न वेत्सि सहधर्मचारिणं चक्रवाकसमवृत्तिमात्मनः // 51 // निमितेषु पितृषु स्वयंभुवा या तनुः सुतनु पूर्वमुज्झिता। सेयमस्तमुदयं च सेवते तेन मानिनि ममात्र गौरवम् // 52 / / 25 तामिमा तिमिरवृद्धिपीडितां शैलराजतनयेऽधुना स्थिताम् / एकतस्तटतमालमालिनी पश्य धातुरसनिम्नगामिव // 53 / / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 ] . [ काव्यषटकं सांध्यमस्तमितशेषमातपं रक्तलेखमपरा बिभर्ति दिक् / सांपरायवसुधासशोणितं मण्डलाग्रमिव तिर्यगुज्झितम् // 54 // यामिनीदिवससंधिसंभवे तेजसि व्यवहिते सुमेरुणा / एतदन्धलमसं निरङ्कुशं दिक्षु दीर्घनयने विजृम्भते // 55 // 5 नोर्ध्वमीक्षणगतिर्न चाप्यधो नाभितो न पुरतो न पृष्ठतः / लोक एष तिमिरौघवेष्टितो गर्भवास इव वर्तते निशि / / 56 / / शुद्धमाविलमवस्थित चलं वक्रमार्जवगुणान्वितं च यत् / सर्वमेव तमसा समीकृतं धिङ्महत्त्वमसला हृतान्तरम् // 57 / / नूनमुन्नमति यज्वनां पतिः शार्वरस्य तमसो निषिद्धये / पुण्डरीकमुखि पूनदिङ्मुखं कैतकैरिव रजोभिराहतम् / / 58 / / मन्दरान्तरितमूर्तिना निशा लक्ष्यते शशभृता सतारका / त्वं मया प्रियसखीसमागता श्रोष्यतेव वचनानि पृष्ठतः / 59 / रुद्धनिर्गमनमा दिनक्षयात्पूर्वदृष्टंतनु चन्द्रिकास्मितम् / एतदुद्गिरति चन्द्रमण्डलं दिग्रहस्यमिव रात्रिनोदितम् // 60 // 15 पश्य पक्वफलिनीफलत्विषा बिम्बलाञ्छितवियत्सरोम्भसा / विप्रकृष्टविवरं हिमांशुना चक्रवाकमिथुनं विडम्ब्यते // 61 // शक्यमोषधिपतेर्नवोदयाः कर्णपूररचनाकृते तव / अप्रगल्भयवसूचिकोमलाश्छेत्तुमग्रनखसंपुटैः कराः // 62 / / अङ्गुलीभिरिव केशसंचयं संनिगृह्य तिमिरं मरीचिभिः / 20 कुड्मलीकृतसरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी // 3 // पश्य पानति नवेन्दुरश्मिभिभिन्नसान्द्रतिमिरं नभस्तलम् / लक्ष्यते द्विरदभोगदूषितं सप्रसादमिव मानसं सरः / / 64 / / रक्तभावमपहाय चन्द्रमा जात एष परिशुद्धमण्डलः / विक्रिया न खलु कालदोषजा निर्मलप्रकृतिषु स्थिरोदया।६५। 25. उन्नतेषु शशिनः प्रभा स्थिता निम्नसंश्रयपर निशातमः / : नूनमात्मसदृशी प्रकल्पिता वेधसा हिं गुणदोषयोर्गतिः // 66 // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: नवमः सर्गः ] [ 195 चन्द्रपादजनितप्रवृत्तिभिश्चन्द्रकान्तजलबिन्दुभिगिरिः / मेखलातरुषु निद्रितानमून्बोधयत्यसमये शिखण्डिनः / / 67 // कल्पवृक्षशिखरेषु प्रति संप्रस्फुरद्भिरिव पश्य सुम्दरि / हारयष्टिरचनामिवांशुभिः कर्तु मागतकुतूहलः शशी // 68 / / 5 उन्नतावनतभाववत्तया चन्द्रिका सतिमिरा गिरेरियम् / भक्तिभिर्बहुविधाभिरपिता भाति भूतिरिव मत्तहस्तिनः / 66 / एतदुच्छ्वसितपीतमैन्दवं वोढुमक्षममिव प्रभारसम् / मुक्तषट्पदविरावमजसा भिद्यते कुमुदमा निवन्धनात् / 70 / पश्य कल्पतरुल म्बि शुद्धया ज्योत्स्नया जनितरूपसंशयम् / मारुते चलति चण्डिके बलाद्व्यज्यते विपरिवृत्तमंशुकम् / 71 / शक्यमङ्गुलिभिरुत्थितैरथः शाखिनां पतितपुष्पपेशलैः / पत्रजर्जरशशिप्रभालौरेभिरुत्कचयितु तवालकान् // 72 / / एष चारुमुखि योग्यतारया युज्यते तरलबिम्बया शशी। साध्वसादुपगतप्रकम्पया कन्ययेव नवदीक्षया वरः / / 73 / / 15 पाकभिन्नशरकाण्डगौरयोरुल्लसत्प्रकृतिजप्रसादयोः / रोहतीव तव गण्डलेखयोश्चन्द्रबिम्बनिहिताक्षिण चन्द्रिका 74 / लोहितार्कमणिभाजनापितं कल्पवृक्षमधु बिभ्रति स्वयम् / त्वामियं स्थितिमतीमुपागता गन्धमादनवनाधिदेवता / / 75 // आर्द्रकेसरसुगन्धि ते मुखं मत्तरक्तनयनं स्वभावतः / 20 अत्र लब्धवसतिगुणान्तरं किं विलासिनि मदः करिष्यति / 76 / मान्यभक्तिरथवा सखीजनः सेव्यतामिदमनङ्गदीपनम् / इत्युदारमभिधाय शंकरस्तामपाययत पानमम्बिकाम् / 77 / पार्वती तदुपयोगसंभवां विक्रियामपि सती मनोहराम् / अप्रत_विधियोगनिर्मितामाम्रतेव सहकारतां ययौ / / 78 // 25 तत्क्षणं विपरिवर्तितहियोर्नेष्यतोः शयनमिद्धरागयोः / सा बभूव वशवतिनी द्वयोः शूलिनः सुवदना मदस्य च // 76 / / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] [ काध्यषट्कं घूर्णमाननयनं स्खलत्कथं स्वेदबिन्दु मदकारणस्मितम् / आननेन न तु तावदीश्वरश्चक्षुषा चिरमुमामुखं पपौ / / 80 // तां विलम्बितपनीयमेखलामुद्वहजघनभारदुर्वहाम् / ध्यानसंभृतविभूतिरीश्वरः प्राविशन्मणिशिलागृहं रहः / / 81 // तत्र हंसघवलोत्तरच्छदं जाह्नवीपुलिनचारुदर्शनम् / अध्यशेत शयनं प्रियासखः शारदाभ्रमिव रोहिणीपतिः / 82 / क्लिष्टकेशमवलुप्तचन्दनं व्यत्ययापितनखं समत्सरम् / तस्य तच्छिदुरमेखलागुणं पार्वतीरतमभून्न तृप्तये / / 83 // केवलं प्रियतमादयालुना ज्योतिषामवनतासु पङ्क्तिषु / 10 तेन तत्प्रतिगृहीतवक्षसा नेत्रमीलनकुतूहलं कृतम् // 4 // स व्यबुध्यत बुधस्तवोचितः शातकुम्भकमलाकरैः समम् / मूर्च्छनापरिगृहीतकैशिकः किंनरैरुषसि गीतमङ्गलः / / 8 / / तो क्षणं शिथिलितोपगृहनौ दंपती चलितमानसोमयः। पद्मभेदपिशुनाः सिषेविरे गन्धमादनवनान्तमारुताः // 86 // 15 ऊरुमूलनखमार्गराजिभिस्तत्क्षणं हृतविलोचनो हरः / वाससः प्रशिथिलस्य संयम कुर्वती प्रियतमामवारयत् / / 7 / / स प्रजागरकषायलोचनं ___ गाढदन्तपरिताडिताधरम् / पाकुलालकमरंस्त रागवा न्प्रेक्ष्य भिन्नतिलकं प्रियामुखम् // 18 // तेन भिन्नविषमोत्तरच्छदं __ मध्यपिण्डितविसूत्रमेखलम् / निर्मलेऽपि शयनं निशात्यये नोज्झितं चरणरागलाञ्छितम् // 89 / / 25 स प्रियामुखरसं दिवानिशं हर्षवृद्धिजननं सिषेविषुः / दर्शनप्रणयिनामदृश्यतामाजगाम विजयानिवेदनात् // 10 // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: नवमः सर्गः ] [ 197 समदिवसनिशीथं सङ्गिनस्तत्र शंभोः शतमगमतूनां साग्रमेका निशेव / न तु सुरतसुखेभ्यश्छिन्नतृष्णो बभूव ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतस्तज्जलौघैः / / 1 / / 5 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये उमासुरतवर्णनं नामाष्टमः सर्गः / / 8 / / // 9 // नवमः सर्गः॥ तथाविधेऽनङ्गरसप्रसङ्गे मुखारविन्दे मधुपः प्रियायाः / संभोगवेश्म प्रविशन्तमन्तर्ददर्श पारावतमेकमीशः // 1 // . (उपजाति) सुकान्तकान्तामणितानुकार कूजन्तमाणितरक्तनेत्रम् / प्रस्फारितोन्नम्रविनम्रकण्ठं मुहुर्मुहुर्त्यञ्चितचारुपुच्छम् / / 2 / / विशृङ्खलं पक्षतियुग्ममीषद्दधानमानन्दगति मदेन / शुभ्रांशुवणं जटिलाग्रपादमितस्ततो मण्डलकैश्चरन्तम् // 3 // रति द्वितीयेन मनोभवेन हृदात्सुधायाः प्रविगाह्यमानात् / तं वीक्ष्य फेनस्य चयं नवोत्थमिवाभ्यनन्दत्क्षणमिन्दुमौलिः / 4 / तस्याकृति कामपि वीक्ष्य दिव्यामन्तर्भवश्छद्मविहंगमग्निम् / विचिन्तयन्संविविदे स देवो भ्रूभङ्गभीमश्च रुषा बभूव // 5 // स्वरूपमास्थाय ततो हुताशस्त्रसन्वलत्कम्पकृताञ्जलिः सन् / प्रवेपमानो नितरां स्मरारिमिदं वचो व्यक्तमथाध्युवाच // 6 // असि त्वमेको जगतामधीशः स्वगौंकसां त्वं विपदो निहंसि / ततः सुरेन्द्रप्रमुखाः प्रभो त्वामुपासते दैत्यवरैविधूताः // 7 // त्वया प्रियाप्रेमवशंवदेन शतं व्यतीये सुरतातूनाम् / रहःस्थितेन त्वदवीक्षणा” दैन्यं परं प्राप सुरैः सुरेन्द्रः / / 8 / / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [ काव्यषटकं त्वदीयसेवावसरप्रतीक्षरभ्यथितः शक्रमुखैः सुरैस्त्वाम् / उपागतोऽन्वेष्टुमहं विहंगरूपेण विद्वन्समयोचितेन // 6 // इति प्रभो चेतसि संप्रधार्य तन्नोऽपराधं भगवन्क्षमस्व / पराभिभूता वद किं क्षमन्ते कालातिपातं शरणाथिनोऽमी / 10 / 5 प्रभो प्रसीदाशु सृजात्मपुत्रं यं प्राप्य सेनान्यमसौ सुरेन्द्रः / स्वर्लोकलक्ष्मीप्रभुतामवाप्य जगत्त्रयं पाति तव प्रसादात् / 11 / स शंकरस्तामिति जातवेदो विज्ञापनामर्थवती निशम्य / प्रभूत्प्रसन्नः परितोषयन्ति गीभिगिरीशा रुचिराभिरीशम् // 12 // प्रसन्नचेता मदनान्तकारः स तारकारेर्जयिनो भवाय / शक्रस्य सेनाधिपतेर्जयाय ___ व्यचिन्तयच्चेतसि भावि किंचित् // 13 // 15 युगान्तकालाग्निमिवाविषह्यं परिच्युतं मन्मथरङ्गभङ्गात् / ... रतान्तरेतः स हिरण्यरेतस्यथोर्ध्वरेतास्तदमोघमाधात् // 14 // अथोष्णबाष्पानिलदूषितान्तं विशुद्धमादर्शमिवात्मदेहम् / बभार भूम्ना सहसा पुरारिरेतःपरिक्षेपकुवर्णमग्निः // 15 // .. त्वं सर्वभक्षो भव भीमकर्मा / 20 .. , कुष्ठाभिभूतोऽनल धूमगर्भः / / .... इत्थं शशापाद्रिसुता हुताशं . रुष्टा रतानन्दसुखस्य भङ्गात् // 16 // . . दक्षस्य शापेन शशी क्षयीव प्लुष्टो हिमेनेव सरोजकोशः / 25. वहन्विरूपं वपुरुग्ररेत ___श्चयेन वह्निः किल निर्जगाम // 17 // / व्याप Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: नवमः सर्गः ] [ 166 स पावकालोकरुषा विलक्षां ___स्मरत्रपास्मेरविनम्रवक्ताम् / विनोदयामास गिरीन्द्रपुत्रीं शृङ्गारग:मधुरैर्वचोभिः // 18 // 5 हरो विकीर्णं घनघतोयैर्नेत्राञ्चनाङ्क हृदयप्रियायाः / द्वितीयकौपीनचलाञ्चलेनाहरन्मुखेन्दोरकलङ्किनोऽस्या: / 16 / मन्देन खिन्नाङ्गुलिना करेण कम्प्रेण तस्या वदनारविन्दात् / परामृशन्धर्मजलं जहार हरः सहेलं व्यजनानिलेन // 20 // रतिश्लथं तत्कबरीकलापमंसावसक्त विगलत्प्रसूनम् / 10 स पारिजातोद्भवपुष्पमय्या स्रजा बबन्धामृतमूर्तिमौलिः / 21 / कपोलपाल्यां मृगनाभिचित्रपत्रावलीमिन्दुमुखः सुमुख्याः / स्मरस्य सिद्धस्य जगद्विमोहमन्त्राक्षरश्रेणिमिवोल्लिलेख / 22 / रथस्य कर्णावभि तन्मुखस्य ताटङ्कचऋद्वितयं न्यधात्सः / जगज्जिगीषुर्विषमेषुरेष ध्रुवं यमारोहति पुष्पचापः // 23 // 15 तस्याः स कण्ठे पिहितस्तनाग्रां. न्यधत्त मुक्ताफलहारवल्लीम् / या प्राप मेरुद्वितयस्य मून्धि .. स्थितस्य गागौघयुगस्य लक्ष्मीम् // 24 // नखवणश्रेणिवरे बबन्ध नितम्बबिम्बे रशनाकलापम् / 20 चलस्वचेतोमृगवन्धनाय मनोभुवः पाशमिव स्मरारिः // 25 // ___ भालेक्षणाग्नौ स्वयमञ्जनं स भङ्क्त्वा दृशोः साधु निवेश्य तस्याः / नवोत्पलाक्ष्याः पुलकोपगूढे कण्ठे विनीलेऽङ्गुलिमुज्जघर्ष / / 26 / / 25 अलक्तकं पादसरोरुहाग्रे सरोरुहाक्ष्याः किल संनिवेश्य / स्वमौलिगङ्गासलिजेन हस्तारणत्वमक्षालयदिन्दुचूडः / / 27 / / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] ... [ काव्यषट्कं भस्मानुलिप्ते वपुषि स्वकीये सहेलमादर्शतलं विमृज्य / नेपथ्यलक्ष्म्याः परिभावनार्थमदर्शयज्जीवितवल्लभां सः / 28 / प्रियेण दत्ते मणिदर्पणे सा संभोगचिह्न स्ववपुर्विभाव्य / त्रपावती तत्र घनानुरागं रोमाञ्चदम्भेन बहिर्बभार / / 26 / / नेपथ्यलक्ष्मी दयितोपक्लप्तां सस्मेरमादर्शतले विलोक्य / . अमस्त सौभाग्यवतीषु धुर्यामात्मानमुद्धतविलक्षभावा / / 30 / / अन्तः प्रविश्यावसरेऽथ तत्र स्निग्धे वयस्ये विजया जया च / सुसंपदोपाचरतां कलानामङ्के 10 स्थितां तां शशिखण्डमौले: / / 31 / / व्यधुर्बहिर्मङ्गलगानमुच्चैर्वैतालिकाश्चित्रचरित्रचारु / जगुश्च गन्धर्वगणाः सशङ्खस्वनं प्रमोदाय पिनाकपाणेः / 32 / ततः स्वसेवावसरे सुराणां ___ गणांस्तदालोकनतत्पराणाम् / 15 द्वारि प्रविश्य प्रणतोऽथ नन्दी निवेदयामास कृताञ्जलिः सन् // 33 / / महेश्वरो मानसराजहंसीं करे दधानस्तनयां हिमाद्रेः / संभोगलीलालयतः सहेलं हरो बहिस्तानभि निर्जगाम / / 34 / / क्रमान्महेन्द्रप्रमुखाः प्रणेमुः शिरोनिबद्धाञ्जलयो महेशम् / 20 प्रालेयशैलाधिपतेस्तनूजां देवीं च लोकत्रयमातरं ते / / 35 / / यथागतं तान्विबुधान्विसृज्य प्रसाद्य मानक्रियया प्रतस्थे / स नन्दिना दत्तभुजोऽधिरुह्य वृषं वृषाङ्कः सह शैलपुत्र्या / 36 / मनोतिवेगेन ककुद्मता स प्रतिष्ठमानो गगनाध्वनोऽन्तः / वैमानिकः साञ्जलिभिर्ववन्दे विहारहेलागतिभिगिरीशः // 37 // 25 स्वर्वाहिनीवारिविहारचारी रतान्तनारीश्रमशान्तिकारी। तौ पारिजातप्रसवप्रसङ्गो मरुत्सिषेवे गिरिजागिरीशौ।।३८॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: नवमः सर्गः ] [ 201 पिनाकिनापि स्फटिकाचलेन्द्र: कैलासनामा कलिताम्बरांशः / धृतार्धसोमोऽद्भुतभोगिभोगो विभूतिधारी स्व इव प्रपेदे / 36 / विलोक्य यत्र स्फटिकस्य भित्तौ सिद्धाङ्गनाः स्वं प्रतिबिम्बमारात् / भ्रान्त्या परस्या विमुखीभवन्ति प्रियेषु मानग्रहिला नमत्सु / / 40 / / सुबिम्बितस्य स्फटिकांशुगुप्तेश्चन्द्रस्य चिह्नप्रकरः करोति / गौर्याषितस्येव रसेन यत्र कस्तूरिकायाः शकलस्य लीलाम् / 41 / यदीयभित्तौ प्रतिबिम्बिताङ्गमात्मानमालोक्य रुषा करीन्द्राः।। 10 मत्तान्यकुम्भिभ्रमतोऽतिभीमदन्ताभिघातव्यसनं वहन्ति // 42 // निशासु यत्र प्रतिबिम्बितानि ताराकुलानि स्फटिकालयेषु / दृष्ट्वा रतान्तच्युततारहारमुक्ताभ्रमं बिभ्रति सिद्धवध्वः / 43 / नभश्चरीमण्डनदर्पणश्री: सुधानिधिमूर्धनि यस्य तिष्ठन् / अनर्थ्यचूडामणितामुपैति शैलांधिनाथस्य शिवालयस्य / / 44 / / समीयिवांसो रहसि स्मरार्ता ___रिरंसवो यत्र सुरा: प्रियाभिः / एकाकिनोऽपि प्रतिबिम्बिभाजो विभान्ति भूयोभिरिवान्विताः स्वः / / 45 / / देवोऽपि गौर्या सह चन्द्रमौलिर्यदृच्छया स्फाटिकशैलशृङ्गे / 20 शृङगारचेष्टाभिरनारताभिर्मनोहराभिर्व्यहरच्चिराय / / 46 / / देवस्य तस्य स्मरसूदनस्य हस्तं समालिङ्गय सुविभ्रमश्रीः / सा नन्दिना वेत्रभृतोपदिष्टमार्गा पुरोगेण कलं चचाल / 47 / चलच्छिखाग्रो विकटाङ्गभङ्गः सुदन्तुरः शुक्लसुतीक्ष्णतुण्डः / 25 ध्रुवोपदिष्टः स तु शंकरेण तस्या विनोदाय नर्त भृङ्गी // 48 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ] [ काव्यषट्क कण्ठस्थलीलोलकपालमाला दंष्ट्राकरालाननमभ्यनत्यत् / प्रीतेन तेन प्रभुणा नियुक्ता काली कलत्रस्य मुदे प्रियस्य / 46 / भयंकरौ तौ विकटं नदन्तौ विलोक्य बाला भयविह्वलाङ्गी। सरागमुत्सङ्गमनङ्गशत्रोर्गाढं प्रसह्य स्वयमालिलिङ्ग / 50 / 5 उत्तुङ्गपीनस्तनपिण्डपीडं ससंभ्रमं तत्परिरम्भमीशः / प्रपद्य सद्यः पुलकोपगूढः स्मरेण रूढप्रमदो ममाद / / 51 / / इति गिरिनुजाविलासलीला विविधविभङ्गिभिरेष तोषितः सन् / अमृतकरशिरोमणिगिरीन्द्रे . कृतवसतिर्वशिभिर्गणैर्ननन्द / 52 / (पुष्पिताग्रा) // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये कैलासगमनो नाम नवमः सर्गः / / 6 / / // 10 // दशमः सर्गः // आससाद सुनासीरं सदसि त्रिदशैः सह / 15 एष त्रयम्बकं तीव्र वहन्वह्निमहन्महः / / 1 / / सहस्रण दृशामीशः कुत्सिताङ्ग च सादरम् / दुर्दर्शनं ददर्शाग्नि धूम्रधूमितमण्डलम् // 2 // दृष्ट्वा तथाविधं वह्निमिन्द्रः क्षुब्धेन चेतसा / व्यचिन्तयच्चिरं किंचित्कन्दर्पद्वेषिरोषजम् // 3 // स विलक्ष्यमुखैर्देवैर्वीक्ष्यमाणः क्षणं क्षणम् / उपाविशत्सुरेन्द्रेणादिष्टं सादरमासनम् / / 4 / / हव्यवाह त्वयासादि दुर्दशेयं दशा कुतः / इति पृष्ट : सुरेन्द्रेण स निःश्वस्य वचोऽवदत् // 5 // 20 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: दशमः सर्गः ] [ 203 अनतिक्रमणीयात्ते शासनात्सुरनायक / पारावतं वपुः प्राप्य वेपमानोऽतिसाध्वसात् / / 6 / / अभिगौरि रतासक्तं जगामाहं महेश्वरम् / कालस्येव स्मरारातेः स्वं रूपमहमासदम् // 7 // 5 दृट्वा छद्मविहङ्गं मां सुज्ञो विज्ञाय जम्भभित् / ज्वलद्भालानले होतु कोपनो माममन्यत / / 8 / / वचोभिर्मधुरैः साथै विनम्रण मया स्तुतः / प्रीतिमानभवद्देवः स्तोत्रं कस्य न तुष्टये / / 9 / / शरण्यः सकलत्राता मामत्रायत शंकरः / क्रोधाग्नेज्वलतो ग्रासात्त्रासतो दुनिवारतः // 10 // परिहत्य परीरम्भरभसं दुहितुगिरेः / कामकेलिरसोत्सेकाद्वीडया विरराम स: / / 11 / / रङ्गभङ्गच्युतं रेतस्तदामोघं सुदुर्वहम् / त्रिजगद्दाहक सद्यो मद्विग्रहमधि न्यधात् / / 12 / / 15 विषह्य ण तेनाहं तेजसा दहनात्मना / निर्दग्धमात्मनो देहं दुर्वहं वोढुमक्षमः / / 13 / / रौद्रेण दह्यमानस्य महसातिमहीयसा / मम प्राणपरित्राणप्रगुणो भव वासव / / 14 / / इति श्रुत्वा वचो वह्नः परितापोपशान्तये / हेतु विचिन्तयामास मनसा विबुधेश्वरः / / 15 / / तेजोदग्धानि गात्राणि पाणिनास्य परामृशन् / किंचित्कृपीटयोनि तं दिवस्पतिरभाषत // 16 // प्रीतः स्वाहास्वधाहन्तकारैः प्रीणयसे स्वयम् / देवान्पितॄन्मनुष्यांस्त्वमेकस्तेषां मुखं यतः / / 17 / / 25 त्वयि जुह्वति होतारो हवींषि ध्वस्तकल्मषाः / भुजन्ति स्वर्गमेकस्त्वं स्वर्गप्राप्तौ हि कारणम् // 18 // Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] [ काव्यषट्कं हवींषि मन्त्रपूतानि हुताश त्वयि जुह्वतः / तपस्विनस्तपःसिद्धि यान्ति त्वं तपसां प्रभुः / / 15 / / निधत्से हुतमर्काय स पर्जन्योऽभिवर्षति / / ततोऽन्नानि प्रजास्तेभ्यस्तेनासि जगतः पिता / / 20 / / अन्तश्च रोऽसि भूतानां तानि त्वत्तो भवन्ति च / / ततो जीवितभूतस्त्वं जगतः प्राणदोऽसि च / / 21 // जगतः सकलस्यास्य' त्वमेकोऽस्युपकारकृत् / कार्योपपादने तत्र त्वत्तोऽन्यः कः प्रगल्भते / / 22 / / अमीषां सुरसंघानां त्वमेकोऽर्थसमर्थने / विपत्तिरपि संश्लाघ्योपकारवतिनोऽनल // 23 // देवी भागीरथी पूर्व भक्त्यास्माभिः प्रतोषिता। निमज्जतस्तवोदीर्ण तापं निर्वापयिष्यति // 24 / / गङ्गां तद्गच्छ मा कार्षीविलंम्बं हव्यवाहन / कार्येष्ववश्यकार्येषु सिद्धये क्षिप्रकारिता / / 25 / / 15 शंभोरम्भोमयी मूर्तिः सैव देवी सुरापगा / त्वत्तः स्मरद्विषो बीजं दुर्धरं धारयिष्यति / / 26 // इत्युदीर्य सुनासीरो विरराम स चानलः / तद्विसृष्टस्तमापृच्छय प्रतस्थे स्वधु नीमभि / / 27 / / हिरण्यरेतसा तेन देवी स्वर्गतरङ्गिणी / तीर्णाध्वना प्रपेदे सा निःशेषक्लेशनाशिनी / / 28 / / स्वर्गारोहणनिःश्रेणिर्मोक्षमार्गाधिदेवता / उदारदुरितोद्गारहारिणी दुर्गतारिणी // 26 / / महेश्वरजटाजूटवासिनी पापनाशिनी / सरागान्वयनिर्वाणकारिणो धर्मधारिणी / / 30 / / 25 विष्णुपादोदकोद्भूता ब्रह्मलोकादुपागता / त्रिभिः स्रोतोभिरश्रान्तं पुनाना भुवनत्रयम् / / 31 / / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: दशमः सर्गः ] | [ 205 जातवेदसमायान्तमूमिहस्तैः समुत्थितैः / आजुहावार्थसिद्ध्यै तं सुप्रसादधरेव सा / / 32 / / संमिलद्भिर्मरालः सा कलं कजद्भिरुन्मदैः / ददे श्रेयांसि दुःखानि निहन्मीति तमभ्यधात् / / 33 / / कल्लोलरुद्गतैरर्वाचीनं तटमभिद्रुतैः / प्रीतेव तमभीयाय स्वधुनी जातवेदसम् // 34 // अथाभ्युपेतस्तापातॊ निम मज्जानल: किल / विपदा परिभूताः किं व्यवस्यन्ति विलम्बितुम् / / 35 / / गङ्गावारिणि कल्याणकारिणि श्रमहारिणि / 10 स मग्नो निर्वृति प्राप पुण्यभारिणि तारिणि / / 36 / / तत्र माहेश्वरं धाम संचक्राम हविर्भुजः / गङ्गायामुत्तरंगायामन्तस्तापविपद्धृति / / 37 / / कृशानुरेतसो रेतस्याहते सरिता तया / निश्चक्राम ततः सौख्यं हव्यवाहो वहन्बहु / / 38 / / 15 सुधासौररिवाम्भोभिरभिषिक्तो हुताशनः / यथागतं जगामाथ परां निर्वृतिमादधत् // 36 / / सा सुविहं गङ्गा धाम कामजितो महत् / प्रादधाना परीतापमवाप व्योमवाहिनी / / 40 / / बहिरार्ता युगान्ताग्नेस्तप्तानीव शिखाशतैः / 20 हित्वोष्णानि जलान्यस्या निर्जग्मुर्जलजन्तवः // 41 / / तेजसा तेन रौद्रेण तप्तानि सलिलान्यपि / समुदञ्चन्ति चण्डानि दुर्धराणि बभार सा / / 42 / / जगच्चक्षुषि चण्डांशी किंचिदभ्युदयोन्मुखे / जग्मुः षट् कृत्तिका माघे मासि स्नातु सुरापगाम् / / 43 / / 25 शुभैरभ्रंकषैमिशतैः स्वर्गनिवासिनाम् / / कथयन्तीमिवालोकावगाहाचमनादिकम् / / 44 / / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ] [ काव्यषट्कं सुस्नातानां मुनीन्द्राणां बलिकर्मोचितैरलम् / बहिः पुष्पोत्करैः कीर्णतीरां दूर्वाक्षतान्वितैः / / 45 // ब्रह्मध्यानपर्योगपरैर्ब्रह्मासनस्थितैः / योगनिद्रागर्योगपट्टबन्धैरुपाश्रिताम् / / 46 // - 5 पादाङ्गुष्ठाग्रभूमिस्थैः सूर्यबंद्धदृष्टिभिः / ब्रह्मर्षिभिः परं ब्रह्म गृणाद्भिरुपसेविताम् / / 47 / / अथ दिव्यां नदी देवीमभ्यनन्दन्विलोक्य ताः। के नाभिनन्दयत्येषा दृष्टा पीयूषवाहिनी / / 48 / / चन्द्रचूडामणिर्देवो. यामुद्वहति मूर्धनि / यस्या विलोकनं पुण्यं श्रद्दधुस्ता मुदा हृदि / / 46 / / दिव्यां विष्णुपदीं देवीं निर्वाणपददेशिनीम् / नीबूतकल्मषां मूर्ना सुप्रास्ता ववन्दिरे / / 50 / / सौभाग्यैः खलु सुप्रापां मोक्षप्रतिभुवं सतीम् / भक्त्यात्र तुष्टुवुस्तां ताः श्रद्दधाना दिवोधुनीम् / / 51 / / 15 मुक्तिस्त्रीसङ्गदूत्यतैस्तत्र ता विमलैर्जलैः / प्रक्षालितमला: सस्नुः सस्नातास्तपसान्विताः / / 52 / / स्नात्वा तत्र सुलभ्यायां भाग्यैः परिपचेलिमैः / चरितार्थ स्वमात्मानं बहु ता मेनिरे मुदा // 53 / / कृशानुरेतसो रेतस्तासामभिकलेवरम् / अमोघं संचचाराथ सद्यो गङ्गावगाहनात् / / 54 / / रौद्रं सुदुर्धरं धाम दधाना दहनात्मकम् / परितापवापुस्ता मग्ना इव विषाम्बुधौ // 55 // अक्षमा दुर्वहं वोढुमम्बुनो बहिरातुराः / अग्नि ज्वलन्तमन्तस्ता दधाना इव-निर्ययुः / / 56 / / 25 अमोघं शांभवं बीजं सद्यो नद्योज्झितं. महत् / तासामभ्युदरं दीप्तं स्थितं गर्भत्वमागमत् / / 57 / / 20 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: एकादशः सर्गः ] [ 207 सुज्ञा विज्ञाय ता गर्भभूतं तद्वोढुमक्षमाः / विषादमुदधुः सद्यो गाढं भर्तृ भिया ह्रिया / 58 / / ततः शरवणे साधु भयेन वीडया च ताः / तद्गर्भजातमुत्सृज्य स्वान्गृहानभिनिर्ययुः // 56 / / 5 ताभिस्तत्रामृतकरकलाकोमलं भासमानं तद्विक्षिप्तं क्षणमभिनभोगर्भमभ्युज्जिहानैः / स्वैस्तेजोभिर्दिनपतिशतस्पर्धमानैरमानैर्वक्त्रैः षड्भिः स्मरहरगुरुस्पर्धयेवाजनीव / / 60 / / ( मन्दाक्रान्ता ) 10 // इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये कुमारोत्पत्तिर्नाम दशमः सर्ग / / 10 / / // 11 // एकादशः सर्गः॥ अभ्यर्थ्यमाना विबुधैः समग्रैः प्रह्व सुरेन्द्रप्रमुखैरुपेत्य / तं पाययामास सुधातिपूर्ण सुरापगा स्वं स्तनमाशु मूर्ता / / 1 / / 15 पिबन्स तस्याः स्तनयोः सुधौघं क्षणं क्षणं साधु समेधमानः / प्रापाकृति कामपि षड्भिरेत्य निषेव्यमाणः खलु कृत्तिकाभिः // 2 // भागीरथीपावककृत्तिकानामानन्दबाष्पाकुललोचनानाम् / तं नन्दनं दिव्यमुपात्तुमासीत्परस्परं प्रौढतरो विवादः / / 3 / / अत्रान्तरे पर्वतराजपुत्र्या समं शिव: स्वैरविहारहेतोः / नभो विमानेन विगाहमानो मनोतिवेगेन जगाम तत्र / / 4 / / निसर्गवात्सल्यवशाद्विवृद्धचेतःप्रमोदौ गलदश्रुनेत्रौ / अपश्यतां तं गिरिजागिरीशौ षडाननं षड्दिनजातमात्रम् / 5 / 20 -- Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] [ काव्यषट्कं प्रथाह देवी शशिखण्डमौलि कोऽयं शिशुदिव्यवपुः पुरस्तात् / कस्याथवा धन्यतमस्य पुंसो मातास्य का भाग्यवतीषु धुर्या / / स्वर्गापगासावनलोऽयमेताः षट् कृत्तिकाः किं कलहायमानाः / पुत्रो ममायं न तवायमित्थं मिथ्येति वैलक्ष्यमुदाहरन्ति / / 7 / / एतेषु कस्येदमपत्यमीशाखिलत्रिलोकीतिलकायमानम् / . अन्यस्य कस्याप्यथ देवदैत्यगन्धर्वसिद्धोरगराक्षसेषु / / 8 / / श्रुत्वेति वाक्यं हृदयप्रियायाः कौतूहलिन्या विमलस्मितश्रीः / सान्द्रप्रमोदोदयसौख्यहेतुभूतं वचोऽवोचत चन्द्रचूडः / / 9 / / जगत्त्रयीनन्दन एष वीरः प्रवीरमातुस्तव नन्दनोऽस्ति / 10 कल्याणि कल्याणकरः सुराणां त्वत्तोऽपरस्याः कथमेष सर्गः / / देवी त्वमेवास्य निदानमास्से सर्गे जगन्मङ्गलगानहेतोः / सत्यं त्वमेवेति विचारयस्व रत्नाकरे यूज्यत एव रत्नम् / 11 / अतः शृणुष्वावहितेन वृत्तं बीजं यदग्नौ निहित मया तत् / संक्रान्तमन्तस्त्रिदशापगायां ततोऽवगाहे सति कृत्तिकासु / 12 / 15 गर्भत्वमाप्तं तदमोघमेतत्ताभिः शरस्तम्बमधि न्यधायि / बभूव तत्रायमभूतपूर्वो महोत्सवोऽशेषचराचरस्य / / 13 / / अशेषविश्वप्रियदर्शनेन धुर्या त्वमेतेन सुपुत्रिणीनाम् / अलं विलम्ब्याचल राजपुत्रि स्वपुत्रमुत्सङ्गतले निधेहि / / 14 / / अथेति वादिन्यमृतांशुमौलौ शैलेन्द्रपुत्री रभसेन सद्यः / सान्द्रप्रमोदेन सुपोनगात्री धात्री समस्तस्य चराचरस्य / / 15 / / किरीटबद्धाञ्जलि भिर्नभःस्थैर्नमस्कृता सत्वरनाकिलोकैः / विमानतोऽवातरदात्मजं तं ग्रहीतुमुत्कण्ठितमानसाभूत् / 16 / स्वर्गापगापावककृतिकादी न्कृताञ्जलीनानमतोऽपि भूयः / ____ हित्वोत्सुका तं सुतमासासद . पुत्रोत्सवे माद्यति का न हर्षात् / / 17 / / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: एकादशः सर्गः ] [206 प्रमोदबाष्पाकुललोचना सा न तं ददर्श क्षणमग्रतोऽपि / परिस्पृशन्ती करकुड्मलेन सुखान्तरं प्राप किमप्यपूर्वम् / 18 / सुविस्मयानन्दविकस्वरायाः शिशुर्गलद्वाष्पतरंगितायाः / विवृद्धवात्सल्यरसोत्तराया देव्या दृशोर्गोचरतां जगाम // 19 // 5 तमीक्षमाणा क्षणमीक्षणानां सहस्रमाप्तुं विनिमेषमैच्छत् / सा नन्दनालोकनमङ्गलेषु क्षणक्षणं तृप्यति कस्य चेतः / / 20 / / विनम्रदेवासुरपृष्ठगाभ्यामादाय तं पारिणसरोरुहाभ्याम् / नवोदयं पार्वणचन्द्रचारुं गौरी स्वमुत्सङ्गतलं निनाय / / 21 / / स्वमङ्कमारोप्य सुधानिधानमिवात्मनो नन्दनमिन्दुवक्त्रा। 10 तमेकमेषा जगदेकवीरं बभूव पूज्या धुरि पुत्रिणीनाम् // 22 // निसर्गवात्सल्यरसौघसिक्ता सान्द्रप्रमोदामृतपूरपूर्णा / तमेकपुत्रं जगदेकमाताभ्युत्सङ्गिनं प्रस्रविणी बभूव // 23 / / अशेषलोकत्रयमातुरस्याः पाण्मातुरः स्तन्यसुधामधासीत् / सुरस्रवन्त्याः किल कृत्तिकाभिर्मुहुर्मुहुः सस्पृहमीक्ष्यमाणः / 24 / 15 सुखाश्रुपूर्णेन मृगाङ्कमौलेः कलत्रमेकेन मुग्वाम्बुजेन / तस्यैकनालोद्गतपञ्चपद्मलक्ष्मी क्रमात्षवदनीं चुचुम्ब / 25 / हैमी फलं हेमगिरेलतेव विकस्वरं नाकनदीव पद्मम् / पूर्वेव दिनूतनमिन्दुमाभात्तं पार्वती नन्दनमादधाना // 26 / / प्रीतात्मना सा प्रयतेन दत्तहस्तावलम्बा शशिशेखरेण / 20 कुमारमुत्सङ्गतले दधाना विमानमभ्रंलिहमारुरोह / / 27 // महेश्वरोऽपि प्रमदप्ररूढ रोमोद्गमो भूधरनन्दनायाः / अङ्कादुपादत्त तदङ्कतः सा तस्यास्तु सोऽप्यात्मजवत्सलत्वात् / / 28 // 25 दधानया नेत्रसधैकसत्रं पुत्रं पवित्रं सुतया तयाद्रेः / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] [ काव्यषट्कं : उच्चा संश्लिष्यमाणः शशिखण्डधारी विमानवेगेन गृहाजगाम / / 26 / / अधिष्ठितः स्फाटिकशैलशृगे तुङ्गे निजं धाम निकामरम्यम् / महोत्सवाय प्रमथप्रमुख्यान्पृथून्गणाञ्शंभुरथादिदेश / / 30 / / पृथुप्रमोदः प्रगुणो गणानां ___ गणः समग्रो वृषवाहनस्य / गिरीन्द्रपुत्र्यास्तनयस्य जन्मन्य थोत्सवं सववृते, विधातुम् // 31 // स्फुरन्मरीचिच्छुरिताम्बराणि ___ संतानशाखिप्रसवाञ्चितानि / उच्चिक्षिपुः काञ्चनतोरणानि गणा वराणि स्फटिकालयेषु / / 32 / / दिक्षु प्रसर्पस्तदधीश्वराणामथामराणामिव मध्यलोके / महोत्सवं शंसितुमाहतोऽन्यैर्दध्वान धीरः पटहः पटीयान् / 33 / महोत्सवे तत्र समागतानां गन्धर्वविद्याधरसुन्दरीणाम् / संभावितानां गिरिराजपुत्र्या गृहेऽभवन्मङ्गलगीतकानि / 34 / सुमङ्गलोपायनपात्रहस्तास्तं मातरो मातृवदभ्युपेताः / विधाय दूर्वाक्षतकानि मूनि निन्युः स्वमङ्क गिरिजातनूजम् / / ध्वनत्सु तूर्येषु सुमन्द्रमक्यालिङ्ग्योर्ध्वकेष्वप्सरसो रसेन / सुसंधिबन्धं ननृतुः सुवृत्तगीतानुगं भावरसानुविद्धम् // 36 / / वाता ववुः सौख्यकराः प्रसेदुराशा विधूमो हुतभुग्दिदीपे। जलान्यभूवन्विमलानि तत्रोत्सवेऽन्तरिक्षं प्रससाद सद्यः / 37 / गम्भीरशङ्खध्वनिमिश्रमुच्चैर्गृहोद्भवा दुन्दुभयः प्रणेदुः / दिवौकसां व्योम्नि विमानसंघा विमुच्य पुष्पप्रचयान्प्रसस्र : / / 25 इत्थं महेशाद्रिसुतासुतस्य जन्मोत्सवे संमद्रयांचकार / चराचरं विश्वमशेषमेतत्परं चकम्पे किल तारकश्रीः / / 3 / / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: एकादशःसर्गः] [ 211 ततः कुमारः समुदां निदानैः स बाललीलाचरितैविचित्रैः / गिरीशगौर्योर्ह दयं जहार मुदे न हृद्या किमु बालकेलिः / / 40 // महेश्वरः शैलसुता च हर्षात्सतर्षमेकेन मुखेन गाढम् / अजातदन्तानि मुखानि सूनोर्मनोहराणि क्रमतश्चुचुम्ब / 41 / 5 क्वचित्स्खलद्भिः क्वचिदस्खलद्भिः क्वचित्प्रकम्पैः क्वचिदप्रकम्पैः बालः स लीलाचलनप्रयोगैस्तयोर्मुदं वध यति स्म पित्रोः / 42 / अहेतुहासच्छुरिताननेन्दुर्गृहाङ्गण क्रीडनधूलिधूम्रः / / मुहुर्वदन्किचिदलक्षितार्थं मुदं तयोरङ्कगतस्ततान // 43 / / गृह्णन्विषाणे हरवाहनस्य स्पृशन्नुमाकेसरिणं सलीलम् / 10 स भृङ्गिणः सूक्ष्मतरं शिखाग्रं कर्षन्बभूव प्रमदाय पित्रोः / / 4 / एको नव द्वौ दश पञ्च सप्तेत्यजीगणन्नात्ममृखं प्रसार्य / महेशकण्ठोरगदन्तपङ्क्तिं तदङ्कगः शैशवमौग्ध्यमैशिः॥४५।। कपर्दिकण्ठान्तकपालदाम्नोऽङ्गुलिं प्रवेश्याननकोटरेषु / दन्तानुपात्तु रभसी बभूव मुक्ताफलभ्रान्तिकरः कुमारः / 46 / 15 शंभोः शिरोऽन्तः सरितस्तरंगान्विगाह्य गाढं शिशिरान्रसेन / स जातजाड्य निजपाणिपद्ममतापयद्भालविलोचनाग्नौ / 47 / किंचित्कलं भङ्गुरकंधरस्य नमज्जटाजूटधरस्य शंभोः / प्रलम्बमानं किल कौतुकेन चिरं चुचुम्बे मुकुटेन्दुखण्डम् // 48 // इत्थं शिशोः शैशवकेलिवृत्तमनोभिरामैगिरिजागिरीशौ। 20 मनोविनोदैकरसप्रसक्ती दिवानिशं नाविदतां कदाचित् / / 4 / / इति बहुविधं बालक्रीडाविचित्रविचेष्टितं ___ललितललितं सान्द्रानन्दं मनोहरमाचरन् / अलभत परां बुद्धि षष्ठे दिने नवयौवनं स किल सकलं शास्त्रं शस्त्रं विवेद विभुर्यया / / 50 // 25 . ' (हरिणी) // इति कवि श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये ___ कुमारोत्पत्ति मकादशः सर्गः / / 11 / / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 ] [ काव्वषट्कं // 12 // द्वादशः सर्गः // अथ प्रपेदे त्रिदशैरशेषः क्रासुरोपप्लवदुःखितात्मा / पुलोमपुत्रीदयितोऽन्धकारि पत्रीव तृष्णातुरितः पयोदम् / / 1 / / हप्तारिसंत्रासखिलीकृतात्स कथंचिदम्भोदविहारमार्गात् / . 5 अवातताराभिगिरि गिरीशगौरीपदन्यासविशुद्धमिन्द्रः // 2 // संक्रन्दनः स्यन्दनतोऽवतीर्य मेघात्मनो मातलिदत्तहस्तः / / पिनाकिनोऽथालयमुच्चचाल शुचौ पिपासाकुलितोयथाम्भः / 3 / इतस्ततोऽथ प्रतिबिम्ब भाजं विलोकमानः स्फटिकाद्रिभूमौ / आत्मानमप्येकमनेकधा स व्रजन्विभोरास्पदमाससाद / / 4 / / विचित्रचञ्चन्मणिभङ्गिसङ्गसौवर्णदण्डं दधतातिचण्डम् / स नन्दिनाधिष्ठितमध्यतिष्ठत्सौधाङ्गण द्वारमनङ्गशत्रोः / / 5 / / ततः स कक्षाहितहेमदण्डो नन्दी सुरेन्द्र प्रतिपद्य सद्यः / प्रतोषयामास सुगौरवेण गत्वा शशंस स्वयमीश्वरस्य / / 6 // भ्रूसंज्ञयानेन कृताभ्यनुज्ञः सुरेश्वरं तं जगदीश्वरेण / प्रवेशयामास सुरैः पुरोगः समं स नन्दी सदनं सदस्य / / 7 / / स चण्डिभृङ्गिप्रमुखैर्गरिष्ठगणैरनेकैविविधस्वरूपैः / अधिष्ठितं संसदि रत्नमय्यां सहस्रनेत्रः शिवमालुलोके // 8 // कपर्दमुद्वद्धमहीनमूर्धरत्नांशुभिर्भासुरमुल्लसद्भिः / दधानमुच्चस्तरमिद्धधातोः सुमेरुशृङ्गस्य समत्वमाप्तम् / / 9 / / बिभ्राणमुत्तुगतरङ्गमालां गङ गां जटाजूटतटं भजन्तीम् / गौरी तदुत्सङ गजुषं हसन्तीमिव स्वफेनैः शरदभ्रशुभैः / / 10 / / गङ गातरङगप्रतिबिम्बितैः स्वैर्बहू भवन्तं शिरसा सुधांशुम् / चलन्मरीचिप्रचयैस्तुषारगौरैर्हिमद्योतित मुद्वहन्तम् / / 11 / / भालस्थले लोचनमेधमानधामाधरीभूतरवीन्दुनेत्रम् / 25 युगान्तकालोचितहव्यवाहं मीनध्वजप्लोषणमादधानम् / 12 / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: द्वादशः सर्गः ] [ 213 महार्हरत्नाञ्चितयोरुदारं स्फुरत्प्रभामण्डलयोः समन्तात् / कर्णस्थिताभ्यां शशिभास्कराभ्यामुपासितं कुण्डलयोश्छलेन 13 स्वबद्धया कण्ठिकयेव नीलमाणिक्यमय्या कुतुकेन गौर्याः / नीलस्य कण्ठस्य परिस्फुरन्त्या कान्त्या महत्या सुविराजमानम् कालादितानां त्रिदशासुराणां चितारजोभिः परिपाण्डुराङ गम् / महन्महेभाजिनमुद्गताभ्र प्रालेयशैलश्रियमुद्वहन्तम् // 15 // पाणिस्थितब्रह्मकपालपात्रं वैकुण्ठभाजापि निषेव्यमाणम् / 10 नरास्थिखण्डाभरणं रणान्तमूलं त्रिशूलं कलयन्तमुच्चैः / 16 / पुरातनी ब्रह्मकपालमालां कण्ठे वहन्तं पुनराश्वसन्तीम् / उद्गीतवेदां मुकुटेन्दुवर्षत्सुधाभरौघाप्लवलब्धसंज्ञाम् / / 17 / / सलीलमङ्कस्थितया गिरीन्द्रपुत्र्या नवाष्टापदवल्लिभासा / विराजमानं शरदभ्रखण्डं परिस्फुरन्त्याचिररोचिषेव / / 18 / / 15 दृप्तान्धकप्राणहरं पिनाकं महासुरस्त्रीविधवत्वहेतुम् / करेण गृह्णन्तमगृह्यमन्यैः पुरा स्मरप्लोषणकेलिकारम् / / 16 / / भद्रासनं काञ्चनपादपीठं महार्हमाणिक्यविभङि गचित्रम् / अधिष्ठितं चन्द्रमरीचिगौरैरुद्वीज्यमानं चमरैर्गणाभ्याम् / 20 / शस्त्रास्त्रविद्याभ्यसनैकसक्ते सविस्मयैरेत्य गणैः सुदृष्टे / 20 नीराज्यमाने स्फटिकाचलेन सानन्दनिर्दिष्टदृशं कुमारे / / 21 / / तथाविधं शैलसुताधिनाथं पुलोमपुत्रीदयितो निरीक्ष्य / आसीत्क्षणं क्षोभपरो नु कस्य मनो न हि क्षुभ्यति धामधाम्नि / / 22 / / 25 - विकस्वराम्भोजनश्रिया तं दृशां सहस्रण निरीक्षमाणः / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ] [ काव्यषट्कं रोमालिभिः स्वर्गपतिर्बभासे पुष्पोत्कराकीर्ण इवाम्रशाखी // 23 / / दृष्ट्वा सहस्रण दृशां महेशमभूत्कृतार्थोऽतितरां महेन्द्रः / सर्वाङ्गजातं तदथो विरूपमिव प्रियाकोपकरं विवेद // 24 // 5 ततः कुमारं कनकाद्रिसारं पुरंदरः प्रेक्ष्य धृतास्त्रशस्त्रम् / महेश्वरोपान्तिकवर्तमानं शत्रोर्जयाशां मनसा बबन्ध / / 2 / / श्रीनीलकण्ठ धुपतिः पुरोऽस्ति त्वयि प्रणामावसरं प्रतीच्छन् / सहस्रनेत्रेऽत्र भव त्रिनेत्र दृष्ट्या प्रसादप्रगुणो महेश / / 26 / / इति प्रबद्धाञ्जलिरेत्य नन्दी निधाय कक्षामभि हेमवेत्रम् / 10 प्रसादपात्रं पुरतो भविष्णुरथ स्मरारातिमवाच वाचम् / 27 / पुरा सुरेन्द्रं सुरसङ्घसेव्यं त्रिलोकसेव्यस्त्रिपुरासुरारिः / प्रीत्या सुधासारनिधारिणेव ततोऽनुग्राह विलोकनेन / / 28 / किरीटकोटिच्युतपारिजातपुष्पोत्करैणानमितेन मूर्ना / स्वगैकवन्द्यो जगदेकवन्धं तं देवदेवं प्रणनाम देवः / / 26 / / 15 अनेकलोकैकनमस्क्रियाहं महेश्वरं तं त्रिदशेश्वरः सः / भक्त्या नमस्कृत्य कृतार्थतायाः पात्रं पवित्रं परमं बभूव / 30 / सुभक्तिभाजामधि पादपीठं प्रान्तक्षिति नम्रतरैः शिरोभिः / ततः प्रणेमुः पुरतो गणानां गणाः सुराणां क्रमतः पुरारिम् 31 गणोपनीते प्रभुणोपदिष्ट: शुभासने हेममये पुरस्तात् / प्रापोपविश्य प्रमुदं सुरेन्द्रः प्रभुप्रसादो हि मुदे न कस्य / / 32 / / क्रमेण चान्येऽपि विलोकनेन संभाविताः सस्मितमीश्वरेण / उपाविशंस्तोषविशेषमाप्ता दृग्गोचरे तस्य सुराः समग्राः / 33 / अथाह देवो बलवैरिमुख्यान्गीर्वाणवर्गान्करुणाईचेताः / कृताञ्जलीकानसुराभिभूतान्ध्वस्तश्रियः श्रान्तमुखानवेक्ष्य 34 25 अहो बतानन्तपराक्रमाणां दिवौकसो वीरवरायुधानाम् / हिमोदबिन्दुग्लपितस्य किं यः पद्मस्य दैन्यं दधते मुखानि / 35 / 20 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: द्वादशः सर्गः ] [ 215 स्वगौकसः स्वर्गपरिच्युताः किं स्वपुण्यराशौ सुमहत्तमेऽपि / चिह्न चिरोढं न तु यूयमेते निजाधिपत्यस्य परित्यजध्वम् / 36 / दिवौकसो देवगृहं विहाय मनुष्यसाधारणतामवाप्ताः / यूयं कुतः कारणतश्चरध्वं महीतले मानभृतो महान्तः / 37 / 5 अनन्यसाधारणसिद्धमुच्चैस्त दैवतं धाम निकामरम्यम् / कस्मादकस्मानिरगाद्भवद्भ्यश्चिराजितं पुण्यमिवापचारात् / दिवौकसो वो हृदयस्य कस्मा तथाविधं धैर्यमहार्यमार्याः / अगादगाधस्य जलाशयस्य ग्रीष्मातितापादिवशादिवाम्भः // 36 / / सुराः सुराधीशपुरःसराणां समीयुषां वः सममातुराणाम् / तब्रूत लोकत्रयजित्वरात्कि महासुरात्तारकतो विरुद्धम् / 40 / पराभवं तस्य महासुरस्य निषेधुमेकोऽहमलं भविष्णुः / दावानलप्लोषविपत्तिमन्यो महाम्बुदात्कि हरते वनानाम् / 41 / 15 इतीरिते मन्मथमर्दनेन सुराः सुरेन्द्रप्रमुखा मुखेषु / सान्द्रप्रमोदाश्रुतरङि गतेषु दधुः श्रियं सत्वरमाश्वसन्तः / 42 / ततो गिरीशस्य गिरा विरामे जगाद लब्धेऽसवरे सुरेन्द्रः / भवन्ति वाचोऽवसरे प्रयुक्ता ध्रुवं फलाविष्टमहोदयाय / 43 / ज्ञानप्रदीपेन तमोपहेनाविनश्वरेणास्खलितप्रभेण / 20 भूतं भवद्भावि च यच्च किंचित्सर्वज्ञ सर्वं तव गोचरं तत् / 44 / दुर्वारदोरुद्यमदुःसहेन यत्तारकेणामरघस्मरेण / तदीशतामाप्तवता निरस्ता वयं दिवोऽमी वद किं न वेत्सि।४५॥ विधेरमोघं स वरप्रसादमासाद्य सद्यस्त्रिजगजिगीषुः / सुरानशेषानहकप्रमुख्यान्दोर्दण्डचण्डो मनुते तृणाय / / 46 / / 25 स्तुत्या पुरास्माभिरुपासितेन पितामहेनेति निरूपितं नः / सेनापतिः संयति दैत्यमेतं पुरः स्मरारातिसुतो निहन्ति / 47 / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] [ काव्यषट्कं 5 अहो ततोऽनन्तरमद्ययावत्सुदुःसहां तस्य पराभवातिम् / विषेहिरे हन्त हृदन्तशल्यमाज्ञानिवेशं त्रिदिवौकसौऽमी // 48 / / निदाघधामक्लमविक्लवानां नवीनमम्भोदमिवौषधीनाम् / सुनन्दनं नन्दनमात्मनो नः सेनान्यमेतं स्वयमादिश त्वम् / 46 / त्रैलोक्यलक्ष्मीहृदयैकशल्यं समूलमुत्खाय महासुरं तम् / अस्माकमेषां पुरतोभवन्सन्दुःखापहारं युधि यो विधत्ते // 50 // महाहवे नाथ तवास्य सूनोः शस्त्रैः शितैः कृत्तशिरोधराणाम् / महासुराणां रमणीविलापैदिशो दशैता मुखरीभवन्तु / / 5 / / महारणक्षोणिपशूपहारीकृतेऽसुरे तत्र तवात्मजेन / बन्दिस्थितानां सुदृशां करोतु वेणिप्रमोक्षं सुरलोक एषः / 52 / इत्थं सुरेन्द्रे वदति स्मरारिः सुरारिदुश्चेष्टितजातरोषः / कृतानुकम्पस्त्रिदशेषु तेषु भूयोऽपि भूताधिपतिर्बभाषे / / 53 / / अहो अहो देवगणाः सुरेन्द्र मुख्याः शरणुध्वं वचनं ममैते / विचेष्टते शंकर एष देवः कार्याय सज्जो भवतां सुताद्यैः / 54 / 15 पुरा मयाकारि गिरीन्द्रपुत्र्याः प्रतिग्रहोऽयं नियतात्मनापि / तत्रैष हेतुः खलु तद्भवेन वीरेण यद्वध्यत एव शत्रुः / / 55 / / अत्रोपपन्नं तदमी नियुज्य कुमारमेनं पृतनापतित्वे / निघ्नन्तु शत्रु सुरलोकमेष भुनक्तु भूयोऽपि सुरैः सहेन्द्रः / 56 / इत्युदीर्य भगवांस्तमात्मजं घोरसंगरमहोत्सवोत्सुकम् / नन्दनं हि जहि देवविद्विषं संयतीति निजगाद शंकरः / / 57 / / शासनं पशुपतेः स कुमारः स्वीचकार शिरसावनतेन / सर्वथैव पितृभक्तिरतानामेष एव परमः खलु धर्मः / / 58 / / असुरयुद्धविधौ विबुधेश्वरे पशुपतौ वदतीति तमात्मजम् / गिरिजया मुमुदे सुतविक्रमे सति न नन्दति का खलु वीरसूः / 25 सुरपरिवृढः प्रौढ़ वीरं कुमारमुमापते बलवदमरारातिस्त्रीणां दृगञ्जनभञ्जनम् / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 217 जगदभयदं सद्यः प्राप्य प्रमोदपरोऽभवध्रुवमभिमते पूर्णे को वा मुदा न हि माद्यति / 60 / (हरिणी) // इति कवि-श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये कुमारसैनापत्यवर्णनं नाम द्वादशः सर्गः // 12 // 5 // 13 // त्रयोदशः सर्गः॥ प्रस्थानकालोचितचारुवेषः स स्वर्गिवगैरनुगम्यमानः / ततः कुमारः शिरसा नतेन त्रैलोक्यभर्तु : प्रणनाम पादौ / 1 / जहीन्द्रशत्रु समरेऽमरेशपदं स्थिरत्वं नय वीर वत्स / 10 इत्याशिषा तं प्रणमन्तमीशो मूर्धन्युपाघ्राय मुदाभ्यनन्दत् / 2 / प्रह्वीभवनम्रतरेण मूर्ना नमश्चकाराङ्घ्रियुगं स्वमातुः / तस्याः प्रमोदाश्रुपयःप्रवृष्टिस्तस्याभवद्वीरवराभिषेकः // 3 // तमङ्कमारोप्य सुता हिमाद्रेराश्लिष्य गाढं सुतवत्सला सा / शिरस्युपाघ्राय जगाद शत्रु जित्वा कृतार्थीकुरु वीरसूमाम् / 4 / 15 उद्दामदैत्येशविपत्तिहेतुः श्रद्धालुचेताः . समरोत्सवस्य / आपृच्छय भक्त्या गिरिजागिरीशौ ततः प्रतस्थेऽभिदिवं कुमारः / देवं महेशं गिरिजां च देवीं ततः प्रणम्य त्रिदिवौकसोऽपि / प्रदक्षिणीकृत्य च नाकनाथ पूर्वाः समस्तास्तमथानुजग्मुः // 6 // अथ व्रजद्भिस्त्रिदशैरशेषः स्फुरत्प्रभाभासुरमण्डलस्तैः / नभो बभासे परितो विकीर्णं दिवापि नक्षत्रगणैरिवोग्रैः // 7 // रराज तेषां व्रजतां सुराणां मध्ये कुमारोऽधिककान्तिकान्तः / नक्षत्रताराग्रहमण्डलानामिव त्रियामारमणो नभोन्ते / / 8 / / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] [ काव्यषट्कं गिरीशगौरीतनयेन सार्धं पुलोमपुत्रीदयितादयस्ते / उत्तीर्य नक्षत्रपथं मुहूर्तात्प्रपेदिरे लोकमथात्मनीनम् / / 6 / / ते स्वर्गलोकं चिरकालदृष्टं महासुरवासवशंवदत्वात् / सद्यः प्रवेष्टुं न विषेहिरे तत्क्षणं व्यलम्बन्त सुराः समग्राः / 10 / 5 पुरो भव त्वं न पुरो भवामि नाहं पुरोगोऽस्मि पुरःसरस्त्वम् / इत्थं सुरास्तत्क्षणमेव भीताः स्वर्ग प्रवेष्टुं कलहं वितेनुः / 11 / सुरालयालोकनकौतुकेन मुदा शुचिस्मेरविलोचनास्ते / दधुः कुमारस्य मुखारविन्दे दृष्टि द्विषत्साध्वसकातरान्ताम् 12 सहेलहासच्छुरिताननेन्दुस्ततः कुमारः पुरतो भविष्णुः / स तारकापातमपेक्षमाणो रणप्रवीरो हि सुरानवोचत् // 13 // भीत्यालमद्य त्रिदिवैकसोऽमी स्वर्ग भवन्तः प्रविशन्तु सद्यः / अत्रैव मे हक्पथमेतु शत्रुर्महासुरो वः खलु दृष्टपूर्वः / / 14 / / स्वर्लोकलक्ष्मीकचकर्षणाय दोर्मण्डलं वल्गति यस्म चण्डम् / इहैव तच्छोरिणतपानकेलिमह्नाय कुर्वन्तु शरा ममैते / / 15 / / शक्तिर्ममासावहतप्रचारा प्रभावसारा सुमहःप्रसारा / स्वर्लोकलक्ष्म्या विपदावहारेः शिरो हरन्ती दिशतान्मुदं वः 16 इत्यन्धकारातिसुतस्य दैत्यवधाय युद्धोत्सुकमानसस्य / सर्वं शुचिस्मेरमुखारविन्दं गीर्वाणवृन्दं वचसा ननन्द // 17 // सान्द्रप्रमोदात्पुलकोपगूढः सर्वाङ्गसंफुल्लसहस्रनेत्रः / तस्योत्तरीयेण निजाम्बरेण निरुञ्छनं चारु चकार शक्रः / 18 / घनप्रमोदाश्रुतरंगितामु खैश्चतुभिः प्रचुरप्रसादैः / अथो अचुम्बद्विधिरादिवृद्धः षडाननं षट्सु शिरःसु चित्रम् 19 तं साधु साध्वित्यभितः प्रशस्य. मुदा कुमारं त्रिपुरासुरारेः / आनन्दयन्वीर जयेति वाचा गन्धर्वविद्याधरसिद्धसंघाः / 20 / 25 दिव्यर्षयः शत्रुविजेष्यमाणं तमभ्यनन्दन्किल नारदाद्याः / निरुञ्छन चक्रुरथोत्तरीयैश्चामीकरीयैनिजवल्कलैश्च / / 21 / / 20 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: त्रयोदशः सर्गः ] . [ 216 ततः सुरः शक्तिधरस्य तस्यावष्टम्भतः साध्वसमुत्सृजन्तः / उत्सेहिरे स्वर्गमनन्तशक्तेर्गन्तु वनं यूथपतेरिवेभाः // 22 // अथाभिपृष्ठं गिरिजासुतस्य पुरंदरारातिवधं चिकीर्षोः / सुरा निरीयुस्त्रिपुरं दिधक्षोरिव स्मरारेः प्रमथः समन्तात् / 23 / 5 सुराङ्गणानां जलकेलिभाजां प्रक्षालितैः संततमङ्गरागैः / प्रपेदिरे पिञ्जरवारिपूरां स्वगौकसः स्वर्गधुनी पुरस्तात् / 24 / दिग्दन्तिनां वारिविहारभाजां कराहतीमतरैस्तरंगैः / आप्लावयन्तीं मुहुरालवालश्रेणि तरूणां निजतीरजानाम् / 25 / लीलारसाभिः सुरकन्यकाभिहिरण्मयीभिः सिकताभिरुच्चैः / 10 माणिक्यगर्भाभिरुपाहिताभिः प्रकीर्णतीरां वरवेदिकाभिः / 26 / सौरभ्यलुब्धभ्रमरोपगीतहिरण्यहंसावलिकेलिलोलैः / चामीकरीयैः कमलैविनिद्रेश्च्युतैः परागैः परिपिङ्गतोयाम् / 27 / कुतूहलाद्रष्टुमुपागताभि स्तीरस्थिताभिः सुरसुन्दरीभिः / अभ्यूमिराजिप्रतिबिम्बिताभि मुदं दिशन्तीं व्रजतां जनानाम् // 28 // ननन्द सद्यश्चिरकालदृष्टां विलोक्य शक्रः सुरदीधिकां ताम् / अदर्शयत्सादरमद्रिपुत्रीमहेशपुत्राय ततः पुरोगः / / 29 / स कार्तिकेयः पुरतः परीतः सुरैः समस्तैः सुरनिम्नगां ताम् / अपूर्वदृष्टामवलोकमानः सविस्मयः स्मेरविलोचनोऽभूत् / 30 / उपेत्य तां तत्र किरीटकोटिन्यस्ताञ्जलिर्भक्तिपरः कुमारः। गीर्वाणवृन्दैः प्रणुतां प्रणुत्य नम्रेण मूर्ना मुदितो ववन्दे / 31 / प्रणतितस्मेरसरोजराजिः पुरः परीरम्भमिलन्महोमिः / कपोलपालिश्रमवारिहारि भेजे गुहं तं सरितः समीरः / / 32 / / 25 ततो व्रजन्नन्दननामधेयं लीलावनं जम्भजितः पुरस्तात् / विभिन्न भग्नोद्धृतशालसंघ प्रेक्षांचकार स्मरशत्रुसूनुः / / 33 / / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] [ काव्यषट्कं सुरद्विषोपप्लुतमेवमेतद्वनं बलस्य द्विषतो गतश्रि / इत्थं विचिन्त्यारुणलोचनोऽभू भ्रूभङ्गदुष्प्रेक्ष्यमुखः स कोपात् / / 34 // निनलीलोपवनामपश्यद्दुःसचरीभूतविमानमार्गाम् / विध्वस्तसौधप्रचयां कुमारो विश्वकसाराममरावतीं सः / 35 // गतश्रियं वैरिवराभिभूतां दशां सुदीनामभितो दधानाम् / नारीमवीरामिव तामवेक्ष्य स बाढमन्तः करुणापरोऽभूत् / 36 / दुश्चेष्टिते देवरिपौ सरोषस्तस्याविषण्णः समराय चोत्कः / 10 तथाविधां तां स विवेश पश्यन्सुरैः सुराधीश्वरराजधानीम् / 37 / दैतेयदन्त्यावलिदन्तघातैः क्षुण्णान्तराः स्फाटिकहर्म्यपङ्क्तीः / महाहिनिर्मोकपिनद्धजाला: स वीक्ष्य तस्यां विषसाद सद्यः // 38 / / 15 उत्कीर्णचामीकरपङ्कजानां दिग्दन्तिदानद्रवदूषितानाम् / हिरण्यहंसब्रजवजितानां विदीर्णवैदूर्यमहा शिलानाम् / / 36 / / आविर्भवद्वालतणाञ्चितानां तदीयलीलागृहदीधिकाणाम् / स दुर्दशां वीक्ष्य विरोधिजातां विषादवैलक्ष्यभरं बभार / 40 / तद्दन्तिदन्तक्षतहेमभित्ति सुतन्तुजालाकुलरत्नजालाम् / निन्ये सुरेन्द्रेण पुरोगतेन स वैजयन्ताभिधमात्मसौधम् / / 41 / / निदिष्टवर्मा विबुधेश्वरेण सुरैः समग्रैरनुगम्यमानः / स प्राविशत्तं विविधाश्मरश्मिच्छिन्नेन सोपानपथेन सौधम् 42 निसर्गकल्पद्रुमतोरणं तं स पारिजातप्रसवस्रगाढ्यम् / दिव्यैः कृतस्वस्त्ययनं मुनीन्द्ररन्तःप्रविष्टप्रमदं प्रपेदे / / 43 // 25 पादौ महर्षेः किल कश्यपस्य कुलादिवृद्धस्य सुरासुराणाम् / प्रदक्षिणीकृत्य कृताञ्जलिः सन्षभिः शिरोभिः स नतैर्ववन्दे 44 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 221 स देवमातुर्जगदेकवन्द्यौ पादौ तथैव प्रणनाम कामम् / मुनेः कलत्रस्य च तस्य भक्त्या प्रह्वीभवशैलसुतातनूजः / 45 / स कश्यपः सा जननी सुराणां तमेधयामासतुराशिषा द्वौ / तया यया नैकजगज्जिगीषु जेता मृधे तारकमुग्रवीर्यम् / 46 / . 5 स्वदर्शनार्थं समुपेयुषीणां सुदेवतानामदितिश्रितानाम् / पादौ ववन्दे पतिदेवतास्तमाशीर्वचोभिः पुनरभ्यनन्दन् / 47 / पुलोमपुत्री विबुधाधिभर्तुस्ततः शची नाम कलत्रमेषः / नमश्चकार स्मरशत्रुसूनुस्तमाशिषा सा समुपाचरच्च // 48 / / अथादितीन्द्रप्रमदाः समेतास्ता मातरः सप्त धनप्रमोदाः / 10 उपेत्य भक्त्या नमते महेशपुत्राय तस्मै ददुराशिषः प्राक् / 46 / समेत्य सर्वेऽपि मुदं दधाना महेन्द्रमुख्यास्त्रिदिवौकसोऽथ / आनन्दकल्लोलितमानसं तं समभ्यषिञ्चन्पृतनाधिपत्ये // 50 // सकलविबुधलोकः स्रस्तनिःशेषशोकः कृतरिपुविजयाशः प्राप्तयुद्धावकाशः / 15 अजनि हरसुतेनानन्तवीर्येण तेनाखिलविबुधचमूनां प्राप्य लक्ष्मीमनूनाम् / / 51 / / (मालिनी) // इति श्री कालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये कुमारसैनापत्याभिषेको नाम त्रयोदशः सर्गः / / 13 / / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] [ काव्यषट्कं // 14 // चतुर्दशः सर्गः // रणोत्सुकेनान्धकशत्रुसूनुना समं प्रयुक्तैस्त्रिदशैजिगीषुणा / महासुरं तारकसंज्ञकं द्विषं प्रसह्य हन्तु समनह्यत द्रुतम् / 1 / स दुनिवारं मनसोऽतिवेगिनं | ____जयश्रियः संनयनं सुदुःसहम् / विजित्वरं नाम तदा महारथं धनुर्धरः शक्तिघरोऽध्यरोहयत् / / 2 / / सुरालयश्रीविपदां निवारण सुरारिसंपत्परितापकारणम् / केनापि दधेऽस्य विरोधिदारणं सुचारु चामीकरधर्मवारणम् / / 3 / / . शरच्चरच्चन्द्रमरीचिपाण्डुरैः स / वीज्यमानो वरचारुचामरैः / पुरःसरैः किंनरसिद्धचारणै __ रणेच्छुरस्तूयत वाग्भिरुल्बणैः / / 4 / / प्रयाणकालोचितचारुवेषभृद्व वहन्पर्वतपक्षदारणम् / ऐरावतं स्फाटिकशैलसोदरं ततोऽधिरुह्य धुपतिस्तमन्वगात् / 5 / तमन्वगच्छद्गिरिशङ्गसोदरं मदोद्धतं मेषमधिष्ठितः शिखी। विरोधिविद्वेषरुषाधिकं ज्वलन्महोमहीयस्तरमायुधं दधत् / / 6 / / 20 अथेन्द्रनीलाचलचण्डविग्रहं विषाणविध्वस्तमहापयोधरम् / अधिष्ठितः कासरमुद्धरं मुदा वैवस्वतो दण्डधरस्तमन्वगात् / 7 / मदोद्धतं प्रेतमथाधिरूढवांस्तमन्धकद्वेषितनूजमन्वगात् / महासुरद्वेषविशेषभीषणः सुरोषणश्चण्डरणाय नैऋतः / / 8 / / ___ नवोद्यदम्भोधरदर्शने युद्धाय रूढो मकरे महत्तरें / 4 // 25 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 223 दुर्वारपाशो वरुणो रणोल्बण . स्तमन्वियाय त्रिपुरान्तकात्मजम् / / 9 / / दिगम्बराधिक्रमणोल्बणं क्षणान्मृगं महीयांसमरुद्धविक्रमम् / अधिष्ठितः संगरकेलिलालसो मरुन्महेशात्मजमन्वगाद्रुतम् 10 विरोधिनां शोणितपारणैषिणीं ___गदामनूनां नरवाहनो वहन् / महाहवाम्भोधिविगाहनोद्धतं यियासुमन्वागमदीशनन्दनम् / / 11 / / महाहिनिर्बद्धजटाकलापिनो __ज्वलत्रिशूलप्रबलायुधा युधे / रुद्रास्तुषाराद्रिसखं महावृष ततोऽधिरूढास्तमयुः पिनाकिनः / / 12 / / अन्येऽपि संना महारणोत्सव श्रद्धालव: स्वर्गिगरणास्तमन्वयुः / स्ववाहनानि प्रबलान्यधिष्ठिताः प्रमोदविस्मेरमुखाम्बुजश्रियः / / 13 / / उद्दण्डहेमध्वजदण्डसंकुला . श्चञ्चद्विचित्रातपवारणोज्ज्वलाः / चलद्धनस्यन्दनघोषभीषणाः करीन्द्रघण्टारवचण्डचीत्कृताः / / 14 / / स्फुरद्विचित्रायुधकान्तिमण्डलै..रुद्दयोतिताशावलयाम्बरान्तराः। . दिवौकसां सोऽनुवहन्महाचमूः पिनाकपाणेस्तनयस्ततो ययौ / / 15 / / 25 कोलाहलेनोच्चलतां दिवौकसां महाचमूनां गुरुभिर्ध्वजवजैः / / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] [ काव्यषट्कं धननिरुच्छ्वासमभूदनन्तरं / दिङ्मण्डलं व्योमतलं महीतलम् // 16 / / सुरारिलक्ष्मीपरिकम्पहेतवो __ दिक्चक्रवालप्रतिनादमेदुराः / नभोन्तकुक्षिभरयो घनाः स्वना, निहन्यमानैः पटहैवितेनिरे // 17 / / प्रमथ्यमानाम्बुधिर्जितर्जनैः सुरारिनारीगणगर्भपातनैः / नभश्चमूधूलिकुलैरिवाकुलं . ररास गाढं पटहप्रतिस्वनैः // 18 / / क्षुण्णं रथैर्वाजिभिराहतं खुरैः - करीन्द्रकर्णैः परितः प्रसारितम् / धूतं ध्वजैः काञ्चनशैलजं रजो वातैर्हतं . व्योम समारुहत्क्रमात् / / 19 / / खातं खुरै रथ्यतुरंगपुंगवै रुपत्यकाहाटकमेदिनीरजः। गतं दिगन्तान्मुखरैः समीरणैः सुविभ्रमं भूरि बभार भूयसा / / 20 / / अधस्तथोवं पुरतोऽथ पृष्ठतो ___ऽभितोऽपि चामीकररेणुरुच्चकैः / चमूषु सर्पन्मरुदाहतोऽहर नवोनसूर्यस्य च कान्तिवैभवम् . / / 21 / / बलोद्धृतं काञ्चनभूमिजं रजो बभौ दिगन्तेषु नभःस्थले स्थितम् / अकालसंध्याघनरागपिङ्गलं . घनं घनानामिव वृन्दमुद्यतम् // 22 / / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 225 हेमावनीषु प्रतिबिम्बमात्मनो मुहुविलोक्याभिमुखं महागजाः / रसातलोत्तीर्णगजभ्रमात्क्रुधा दन्तप्रकाण्डप्रहृतानि तेनिरे / / 23 / / 5 सुजातसिन्दूरपरागपिञ्जरैः कलं चलद्भिः सुरसैन्यसिन्धुरैः / शुद्धासु चामीकरशैलभूमिषु नादृश्यत स्वं प्रतिबिम्बमग्रतः / 24 / इति क्रमेणामरराजवाहिनी महाहवाम्भोधिविलासलालसा / अवातरत्काञ्चनशैलतो द्रुतं कोलाहलाक्रान्तविधतकन्दरा / / 25 / / महाचमूस्यन्दनचण्डचीत्कृतै विलोलघण्टेभपतेश्च बृहितैः / सुरेन्द्रशैलेन्द्रमहागुहाशयाः सिंहा महत्स्वप्नसुखं न तत्यजुः / / 26 / / गम्भीरभेरिध्वनितैर्भयंकरै __ महागुहान्तप्रतिनादमेदुरैः / महारथानां गुरुनेमिनिःस्वनै रनाकुलैस्तैर्मृगराजताजनिः / / 27 / / समुत्थितेन त्रिदिवौकसां महा चमूरवेणा द्रितटान्तदारिणा / प्रपेदिरे केसरिणोऽधिकं मदं स्ववीर्यलक्ष्मीमृगराजतावशात् / / 28 // भिया सुरानीकविमर्दजन्मना विदुद्रुवुर्दूरतरं द्रुतं मृगाः / गुहागृहान्ताद्वहिरेत्य हेलया तस्थुर्विशङक नितरां मृगाधिपाः / / 26 / / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] [ काव्यषट्कं विलोकिताः कौतुकिनामरावती ___जनेन जुष्टप्रमदेन दूरतः सुराचलप्रान्तभुवः प्रपेदिरे ___सुविस्तृतायाः प्रसरं सुसैनिकाः // 30 // पीतासितारक्तसितैः सुराचल प्रान्तस्थितैर्धातुरजोभिरम्बरम् / अयत्नगन्धर्व'रोदयभ्रमं बंभार भूम्नोत्पतितरितस्ततः / / 31 // महास्वनः सैन्यविमर्दसंभवः ___ कर्णान्तकूलंकषतामुपेयिवान् / पयोनिधेः क्षुब्धतरस्य वर्धनो बभूव भूम्ना भवनोदरंभरिः / / 32 महागजानां गुरुबृहितैस्तेतैः सुहेषितैर्घोरतरैश्च वाजिनाम् / घनै रथानां गुरुचण्डचीत्कृत स्तिरोहितोऽभूत्पटहस्य निःस्वनः / / 33 / / महासुराणामवरोधयोषितां ___ कचाक्षिपक्ष्मस्तनमण्डलेषु च / ध्वजेषु नागेषु रथेषु वाजिषु क्षणेन तस्थौ सुरसैन्यजं रजः / / 34 / / घनैविलोक्य स्थगितार्कमण्डलै श्चमूरजोभिनिचितं नभःस्थलम् / अयायि हंसरभि मानसं धन भ्रमेण सानन्दमनति केकिभिः / / 35 // सान्द्रैः सुरानीकरजोभिरम्बरे नवाम्बुदानीकनि भैरभिश्रिते। 25 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 227 . चकाशिरे स्वर्णमया महाध्वजाः . परिस्फुरन्तस्तडितां गणा इव / / 36 / / विलोक्य धूलीपटलैभृशं भृतं __ द्यावापृथिव्योरलमन्तरं महत् / किमूर्ध्वतोऽधः किमधस्त ऊर्ध्वतो रजोऽभ्युपैतीति जनैरतयंत / / 37 / / नोवं न चाधो न पुरो न पृष्ठतो ___ न पार्श्वतोऽभूत्खलु चक्षुषोर्गतिः / सूच्यग्रभेद्यः पृतनारजश्चय राच्छादिता प्राणिगणस्य सर्वतः / / 38 // दिगन्तदन्त्यावलिदानहारिभि विमानरन्ध्रप्रतिनादमेदुरैः / अनेकवाद्यध्वनितैरनारत जंग गाढं गुरुभिर्नभस्तलम् / / 36 / / भुवं विगाह्य प्रययौ महाचमूः क्वचिन्न मान्ती महती दिवं खलु / सुसंकुलायामपि तत्र निर्भरा किकांदिशीकत्वमवाप.नाकुला / / 40 // उद्दामदानद्विपवृन्दबृहितै नितान्तमुत्तुङ्गतुरंगहेषितैः / चलद्धनस्यन्दननेमिनिस्वन रभूनिरुच्छ्वासमिवाकुलं जगत् / / 41 / / महागजानां गुरुभिस्तु गजितै विलोलघण्टारणितै रणोल्बणैः / वीरप्रणादैः प्रमदप्रमेदुरै चालतामादधिरेतरां दिशः / / 42 / / P Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] [ काव्वषट्कं दन्तीन्द्रदानद्रववारिवीचिभिः ____ सद्योऽपि नद्यो बहुधा पुपूरिरे / धारा रजोभिस्तुरगैः क्षतै ता याः पङ्कतामेत्य रथैः स्थलीकृताः / / 43 / / निम्नाः प्रदेशाः स्थलतामुपागम निम्नत्वमुच्चरपि सर्वतश्च ते। . तुरंगमाणां. व्रजतां खुरैः क्षता रथैर्गजेन्द्रैः परितः समीकृताः / / 44 / / नभोदिगन्त प्रतिघोषभीषण महामहीभृत्तटदारणोल्बणैः / पयोधिनिधू ननकेलिभिर्जग - द्वभूव भेरीध्वनितैः समाकुलम् / / 45 / / इतस्ततो वातविधूतचञ्चलै नीरन्ध्रिताशागमनैर्ध्वजांशुकैः / लक्षैः क्वणत्काञ्चनकिङ्किणीकुलै रमज्जि धलीजलधौ नभोगते / / 46 / / घण्टारवै रौद्रतरैनिरन्तरं विसृत्वरैर्गर्जरवैः सुभैरवैः / / मत्तद्विपानां प्रथयांबभूविरे न वाहिनीनां पटहस्य नि:स्वनाः / / 47 / / करालवाचालमुखाश्चमूस्वनै ख़स्ताम्बरा वीक्ष्य दिशो रजस्वला: / तिरोबभूवे गहनदिनेश्वरो रजोन्धकारैः परितः कुतोऽप्यसौ / / 48 / / अाक्रान्तपूर्वा रभसेन सैनिक- . दिगङ्गना व्योम रजोभिदूषिता / 25 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चश: सर्गः ] . [ 226 भेरीरवाणी प्रतिशन्दितैर्घन जगर्ज गाढं घनमत्सरादिव / / 46 / / गुरुसमीरसमीरितभूधरा इव गजा गगनं विजगाहिरे / गुरुतरा इव वारिधरां रथा भुवमितीह विवर्त इवाभवत् / / 50 / / बलमदसुरलोकानल्पकल्पान्तकाले निरवधय इवाम्भोराशयो घोरघोषाः / गुरुतरपरिमज्जद्भूभृतो देवसेना ___ बवृधुरपि सुपूर्णा व्योमभूम्यन्तराले / / 51 / / ( मालिनी) / / इति श्रीकालिदासकृती कुमारसंभवे महाकाव्ये देवसेनाप्रयाणं नाम चतुर्दशः सर्गः // 14 // // 15 // पञ्चदशः सर्गः // सेनापति नन्दनमन्धकद्विषो युधे पुरस्कृत्य बलस्य शात्रवः / पन्य रुपैतीति सुरद्विषां पुरो... भूतिकवदन्ती हृदयप्रकम्पिनी / / 1 / / चम्प्रभु मन्मथमर्दनात्मज "विजित्वरीभिविजयश्रियाश्रितम् / 'श्रुत्वा सुराणां पृतनाभिरागतं . चित्ते चिरं चुक्षुभिरे महासुराः / / 2 / / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] [ काव्यषट्क समेत्य दैत्याधिपतेः पुरे स्थिताः .. किरीटबद्धाञ्जलयः प्रणम्य ते / न्यवेदयन्मन्मथशत्रुसूनुना युयुत्सुना जम्भजितं सहागतम् / / 3 / / दासीकृताशेषजगत्त्रयं न मां जिगाय युद्धे कतिशः शचीपतिः / गिरीशपुत्रस्य बलेन सांप्रतं ध्रुवं विजेतेति स काकुतोऽहसत् / / 4 / / ततः क्रुधा विस्फुरिताधराधरः स तारको दर्पितदोर्बलोद्धतान् / युधे त्रिलोकीजयकेलिलालसः सेनापतीन्सनहनार्थमादिशत् / / 5 / / महाचमूनामधिपाः समन्ततः संनह्य सद्यः सुतरामुदायुधाः / तस्थुविनम्रक्षितिपालसंकुले तदङ्गनद्वारवरप्रकोष्ठके / / 6 / / स द्वारपालेन पुरः प्रदर्शिता न्कृतानतीन्बाहुवरानधिष्ठितान् / महाहवाम्भोधिविधूननोद्धता न्ददर्श राजा पृतनाधिपान्बहून् / / 7 / / बली बलारातिबलातिशातनं दिग्दन्तिनादद्रवनाशनस्वनम् / . महीधराम्भोधिनवारितक्रम ययौ रथं घोरमथाधिरुह्य सः / / 8 / / युगक्षयक्षुब्धपयोधिनिःस्वना श्चलत्पताकाकुलवारितातपाः / 25 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 231 धरारजोग्रस्तदिगन्तभास्कराः पति प्रयान्तं पृतनास्तमन्वयुः / / 6 / / चमूरजः प्राप दिगन्तदन्तिनां महासुरस्याभिसुरं प्रसर्पिणः / दन्तप्रकाण्डेषु सितेषु शुभ्रतां ___ कुम्भेषु दानाम्बुधनेषु पङ्कताम् / / 10 / / महीभृतां कन्दरदारणोल्बणै स्तद्वाहिनीनां पटहस्वनैर्घनैः / उद्वेलिताश्चुक्षुभिरे महार्णवा नभःस्रवन्ती सहसाभ्यवर्धत / / 11 / / सुरारिनाथस्य महाचमूस्वन विगाह्यमाना तुमुलैः सुरापगा। अभ्युच्छितैरूमिशतैश्च वारिजै रक्षालयन्नाकनिकेतनावलीम् / / 12 / / अथ प्रयाणाभिमुखस्य नाकिनां द्विषः पुरस्तादशुभोपदेशिनी / अगाधदुःखाम्बुधिमध्यमज्जनं बभूव चोत्पातपरम्परा तव / / 13 / / आगामिदैत्याशनकेलिकाक्षिणी कुपक्षिणां घोरतरा परम्परा / दधौ पदं व्योम्नि सुरारिवाहिनी... रुपयु पर्येत्यनिवारितातपा // 14 // मुहुविभग्नातपवारणध्वज श्चलद्धराधूलिकलाकुलेक्षणः ... धूताश्वमातङ्गमहारथाकरा नवेक्षणोऽभूत्प्रसभं प्रभञ्जनः / / 15 / / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] . [ काव्यषटक सद्यो विभिन्नाञ्जमपुञ्जतेजसो. मुखैविषाग्नि विकिरन्त उच्चकैः / पुरः पथोऽतीत्य महाभुजंगमा भयंकराकारभृतो भृशं ययुः / / 16 / / मिलन्महाभीमभुजगभीषणं प्रभुदिनानां परिवेषमादधौ। महासुरस्य द्विषतोऽतिमत्सरा दिवान्तमासूचयितु भयंकरः / / 17 / / त्विषामधीशस्य पुरोऽधिमण्डलं ___ शिवाः समेताः परुषं ववाशिरे / सुरारिराजस्य रणान्तशोणितं प्रसह्य पातु द्रुतमुत्सुका इव / / 18 / / दिवापि तारस्तरलास्तरस्विनी: - परापतन्तीः परितोऽथ वाहिनीः / विलोक्य लोको मनसा व्यचिन्तय- . प्राणव्ययान्तं व्यसनं सुरद्विषः / / 16 / / ज्वलद्भिरुच्चैरभितः प्रभाभरै ___ रुद्भासिताशेषदिगन्त राम्बरम् / रवेण रौद्रेण हृदन्तदारणं , पपात वज्र नभसो निरम्बुदात् / / 20 / / ज्वलद्भिरङ्गारचयैर्नभस्तलं ववर्ष गाढं सह शोणितास्थिभिः / / धूमं ज्वलन्तो व्यसृजन्मुखै रजो दधुर्दिशोरासभकण्ठधूसरम् / / 21 / / निर्घात घोषो गिरिशृङ्गशातनो घनोऽम्बराशाकुहरोदरंभरिः / 25 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 233 बभूव भूम्ना श्रुतिभित्तिभेदनः . प्रकोपिकालाजितगजितर्जनः / / 22 // स्खलन्महेभं प्रपतत्तुरङ्गमं | परस्पराश्लिष्टजनं समन्ततः / प्रक्षुभ्यदम्भोधिविभिन्नभूधरा दलं द्विषोऽभूदवनिप्रकम्पात् / / 23 / / ऊर्वीकृतास्या रविदत्तदृष्टयः | समेत्य सर्वे सुरविद्विषः पुरः / श्वानः स्वरेण श्रवणान्तशातिना मिथो रुदन्तः करुणेन निर्ययुः / / 24 / / अपीति पश्यन्परिणामदारुणां ___ महत्तमां गाढमरिष्टसंततिम् / दुर्दैवदष्टो न खलु न्यवर्तत क्रुधा प्रयारणव्यवसायतोऽसुरः / / 25 / / अरिष्टमाशङ्कय विपाकदारुणं निवार्यमाणोऽपि बुधैर्महासुरः / पुरः प्रतस्थे महतां वृथा भवे ___ दसद्ग्रहान्धस्य हितोपदेशनम् / / 26 / / क्षितौ निरस्तं प्रतिकूलवायुना . तदीयचामीकरधर्मवारणम् / रराज मृत्योरिव पारणाविधौ प्रकल्पितं हाटकभाजनं महत् / / 27 / / विजानता भाविशिरोनिकृन्तनं प्रज्ञेन शोकादिव तस्य मौलिना / . मुहुर्गलद्भिस्तरलैरलंतरा- . मरोदि मुक्ताफलबाष्पबिन्दुभिः / / 28 / / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] [ काव्वषट्कं निवार्यमाणैरभितोऽनुयायिभि ग्रहीतुकामैरिव तं मुहुर्मुहुः / अपाति गधैरभि मौनिमाकुलै भविष्यदेतन्मरणोपदेशिभिः / / 26 / / सद्यो निकृत्ताञ्जनसोदरद्युति फणामणिप्रज्वलदंशुमण्डलम् / निर्यद्विषोल्कानलगर्भपूत्कृतं . ध्वजे जनस्तस्य महाहिमैक्षत / / 30 / / रथाश्वकेशावलिकर्णचामरं / __ ददाह बाणासनबाणबाणधीन् / अकाण्डतश्चण्डतरो हुताशनस्त स्यातनुस्यन्दनधूर्यगोचरः / / 31 / / इत्याद्यरिष्टैरशुभोपदेशिभि विहन्यमानोऽप्यसुरः पुनः पुनः / यदा मदान्धो न गतान्न्यवर्तता म्बरात्तदाभून्मरुतां सरस्वती / / 32 / / मदान्ध मा गा भुजदण्डचण्डिमा वलेपतो मन्मथहन्तृसूनुना। सुरैः सनाथेन पुरंदरादिभिः समं समन्तात्समरं विजित्वरैः / / 33 / / गुहोऽसुरैः षड्दिनजातमात्रको निदाघधामेव निशातमोभरैः / . विषह्यते नाभिमुखो हि संगरे / कुतस्त्वया तस्य समं विरोधिता / / 34 / / अभ्रंलिहैः शृङ्गशतैः समन्ततो . दिक्चक्रवालैः स्थगितस्य भूभृतः / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 235 क्रौञ्चस्य रन्धं विशिखेन निर्ममे . येनाहवस्तस्य सह त्वया कुतः / / 35 / / लब्ध्वा धनुर्वेदमनङ्गविद्विष स्त्रिःसप्तकृत्वः समरे महीभूजाम् / कृत्वाभिषेकं रुधिराम्बुभिर्धनैः स्वक्रोधवह्नि शमयांबभूव यः / / 36 / / न जामदग्न्यः क्षयकालरात्रिक त्स क्षत्रियाणां समराय वल्गति / येन त्रिलोकीसुभटेन तेन कुतोऽवकाशः सह विग्रहग्रहे // 37 / / त्यजाशु गवं मदमूढ मा स्म ___ गाः स्मरारिसूनोर्वरशक्तिगोचरम् / तमेव नूनं शरणं व्रजाधुना जगत्सुवीरं स चिराय जीव तत् / / 38 / / श्रुत्वेति वाचं वियतो गरीयसी ___ क्रोधादहंकारपरो महासुरः / प्रकम्पिताशेषजगन्त्रयोऽपि सन्नकम्पतोच्चैर्दिवमभ्यधाच्च सः / / 36 / / किं ब्रूथ रे व्योमचरा महासुराः / / स्मरारिसूनुप्रतिपक्षवर्तिनः / मदीयबाणवणवेदना हि साधुना कथं विस्मृतिगोचरीकृता / / 40 / / कटुस्वरैः प्रालपथाम्बरस्थिताः शिशोबलात्षड्दिनजातकस्य किम् / श्वानः प्रमत्ता इव कार्तिके निशि.. स्वैरं वनान्ते मृगधूर्तका इव / / 41 / / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] [ काव्यषट्कं सङ्गन वो गर्भतपस्विनः शिशु ईराक एषोऽन्तमवाप्स्यति ध्रुवम् / अतस्करस्तस्करसङ्गतो यथा तद्वो निहन्मि प्रथमं ततोऽप्यमुम् / / 42 / / इतोरयत्युग्रतरं महासुरे महाकृपाणं कलगत्यलं क्रुधा। परस्परोत्पीडितजानवो भया नभश्चरा दूरतरं विदुद्रुवुः // 43 / / ततोऽवलेपाद्विकटं विहस्य स.. व्यधत्त कोशादसिमुत्तमं बहिः / रथं द्रुतं प्रापय वासवान्तिकं नन्वित्यवोचनिज़सारथि रथी / / 44 / / मनोतिवेगेन रथेन सारथि __ प्रणोदितेन प्रचलन्महासुरः / ततः प्रपेदे सुरसैन्यसागरं भयंकराकारमपारमग्रतः / / 45 / / पुरः सुराणां पृतनां प्रथीयसी विलोक्य वीरः पुलकं प्रमोदजम् / बभार भूम्नाथ स बाहुदण्डयोः प्रचण्डयोः संगरकेलिकौतुकी / / 46 / / ततो महेन्द्रस्य चराश्चमूचरा रणान्तलीलारभसेन भूयसा। . पुरः प्रचेलुमनसोऽतिवेगिनो युयुत्सुभिः किं समरे क्लिम्ब्यते // 47 // पुरःस्थितं देवरिपोश्चमूचरा बलद्विषः सैन्यसमुद्रमभ्ययुः / 25 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: पञ्चदशः सर्गः ] [237 / / 4 / / भुजं समुत्क्षिप्य परेभ्य प्रात्मनो ऽभिधानमुच्चैरभितो न्यवेदयन् / / 48 / / पुरोगतं दैत्य चमूमहार्णवं दृष्ट्वा परं चुक्षुभिरे महासुराः / पुरारिसूनोनयनककोणके ममुर्भटास्तस्य रणेऽवहेलया / / 46 / / द्विषदल त्रासविभीषिताश्चमू दिवौकसामन्धकशत्रुनन्दनः / अपश्यदुद्दिश्य महारणोत्सवं प्रसादपीयूषधरेण चक्षुषा / / 50 / / उत्साहिताः शक्तिधरस्य दर्शना न्मृवे महेन्द्रप्रमुखा मखाशनाः / ग्रहं मधे जेतुमरीनरीरम न्न कस्य वीर्याय वरस्य संगतिः / / 51 / / परस्परं वज्रधरस्य सैनिका द्विषोऽपि योद्ध स्वकरोद्धतायुधाः / वैतालिकश्राविततारविक्रमा भिधानमीयुविजयैषिणो रणे / / 52 / / सङ्ग्रामं प्रलयाय संनिपततो वेलामतिक्रामतो वृन्दारासुरसैन्यसागरयुगस्याशेषदिग्व्यापिनः / कालातिथ्यभुजो बभूव बहलः कोलाहलः क्रोषणः शैलोत्तालतटीविघट्टनपटुब्रह्माण्ड कुक्षिभरः / / 53 / / (शार्दूल०) 25 / / इति श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये सुरा सुरसैन्यसधट्टो नाम पञ्चदशः सर्गः / / 15 / / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] [ काव्यषट्कं // 16 / / षोडशः सर्गः॥ अथान्योन्यं विमुक्तास्त्रशस्त्रजालैर्भयंकरैः / युद्धमासीत्सुनासीर-सुरारिबलयोर्महत् / / 1 / / पत्तिः पत्तिमभीयाय रणाय रथिनं रथी। तुरंगस्थं तुरंगस्थो दन्तिस्थं दन्तिनि स्थितः / / 2 / / युद्धाय धावतां धीरं वीराणामितरेतरम् / वैतालिकाः कुलाधीशा नामान्यलमुदाहरन् / / 3 / / पठता बन्दिवृन्दानां प्रवीरा विक्रमावलीम् / क्षणं विलम्ब्य चित्तानि ददुर्युद्धोत्सुकाः पुरः / / 4 / / सङ्ग्रामानन्दवर्धिष्णौ विग्रहे पुलकाञ्चिते / आसीत्कवचविच्छेदो वीराणां मिलतां मिथः / / 5 / / निर्दयं खड्गभिन्नेभ्यः कवचेभ्यः समुत्थितैः / आसन्व्योमदिशस्तूलैः पलितैरिव पाण्डुराः / / 6 / / खड्गा रुधिरसंलिप्ताश्चण्डांशुकरभासुराः / इतस्ततोऽपि वीराणां विद्युतां वैभवं दधुः / / 7 / / विसृजन्तो मुखैाला भीमा इव भुजंगमाः / विसृष्टाः सुभटै रुष्टर्योम व्यानशिरे शराः / / 8 / / बाढ़ वपूंषि निभिद्य धन्विनां निघ्नतां मिथः / अशोणितमुखा भूमि प्राविशन्दूरमारमाशुगाः / / 6 / / निभिद्य दन्तिनः पूर्वं पातयामासुराशुगाः / पेतुः प्रवरयोधानां प्रीतानामाहवोत्सवे / / 10 / / ज्वलदग्निमुखैर्बाणैर्नीरन्ध्रेरितरेतरम् / उच्चैमानिका व्योम्नि कीणे दूरमपासरन् / / 11 / / विभिन्नं धन्विनां बाणैर्व्यथार्तमिव विह्वलम् / 25 ररास विरसं व्योम श्येनप्रतिरवच्छलात् / / 12 / / 20 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: षोडशः सर्गः ] [ 236 चापैराकर्णमाकृष्टै विमुक्ता दूरमाशुगाः / अधावन्रुधिरास्वादलुब्धा इव रणैषिणाम् / / 13 / / गृहीताः पाणिभिर्वीरैर्वीकोशा: खङ्गराजयः / कान्तिजालच्छलादाजौ व्यहसन्संमदादिव / / 14 / / खडगा शोणितसदिग्धा नृत्यन्तो वीरपाणिष / रजोघने रणेऽनन्ते विद्युतां वैभवं दधुः / / 15 / / / कुन्ताश्चकाशिरे चण्डमुल्लसन्तो रणार्थिनाम् / जिह्वाभोगा यमस्येव लेलिहाना रणाङ्गणे / / 16 / / प्रज्वलत्कान्तिचक्राणि चक्राणि वरचक्रिणाम् / चण्डांशुमण्डलश्रीणि रणव्योमनि बभ्रमुः / / 17 // केचिद्धीरैः प्रणादैश्च वीराणामभ्युपेयुषाम् / निपेतुः क्षोभतो वाहादपरे मुमूहमदात् / / 18 / / कश्चिदभ्यागते वीरे जिंघांसो मुदमादधौ / परावृत्य गते क्षुब्धे विषसादाहवप्रियः / / 16 / / 15 बहुभिः सह युद्वा वा परिभ्रम्य रणोल्बणाः / उद्दिश्य तानुपेयुः केऽपि ये पूर्ववृता रणे / / 20 / / अभितोऽभ्यागतान्योधु वीरान्रणमदोद्धतान् / प्रत्यनन्दन्भुजादण्डरोमोद्गमभृतो भटाः / / 21 / / शस्त्रभिन्नेभकुम्भेभ्यो मौक्तिकानि च्युतान्यधः / अध्याहवक्षेत्रमुप्तकीर्तिबीजाकुरश्रियम् // 22 // वोराणां विषमै?विद्रुता वारणा रणे / शास्यमाना अपि त्रासा जुधू ताकुशा दिशः / / 23 / / रणे बाणगणैभिन्ना भ्रमन्तो भिन्नयोधिनः / निममज्जुमिल द्रक्तनिम्नगासु महागजाः / / 24 / / 25 अपारेऽसृजक्सरित्पूरे रथेषुच्चस्तरेष्वपि / रथिनोऽभिरिपु क्रुद्धा हुंकृतैर्व्यसृञ्शरान् / / 25 / / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] . [ काव्यषट्क खड्गनिलू नमूर्धानो व्यापतन्तोऽपि वाजिनः / प्रथमं पातयामासुरसिना दारितानरीन् / / 26 / / वीराणां शस्त्रभिन्नानि शिरांसि निपतन्त्यपि / प्रधावन्दन्तदष्टोष्ठभीमान्यभिरिपु क्रुधा / / 27 / / शिरांसि वरयोधानामर्धचन्द्रहृतान्यलम् / आददाना भृशं पादैः श्येना व्यानशिरे नभः / / 28 / / क्रोधादभ्यापतद्दन्तिदन्तारूढा: पदातयः / अश्वारोहा गजारोहप्राणान्प्रासैरफाहरन् / / 29 / / शस्त्रच्छिन्नगजारोहा विभ्रमन्त इतस्ततः / युगान्तवातचलिता: शैला इव गजा बभुः / / 30 / / मिलितेषु मिथो योधुदन्तिषु प्रसभं भटाः / अगृह्णन्युध्यमानाश्च शस्त्रैः प्राणान्परस्परम् / / 31 / / रुषा मिथो मिलद्दन्तिदन्तसंघर्षजोऽनलः / योधाञ्शस्त्रहतप्राणानदहत्साहसारिभिः / / 32 / / 15 आक्षिप्ता अपि दन्तीन्द्रैः कोपनैः पत्तयः परम् / तदसूनहरन्खड्गघातैः स्वस्य पुरः प्रभोः / / 33 / / उत्क्षिप्य करिभिर्दूरान्मुक्तानां योधिनां दिवि / प्रापि जीवात्मभिदिव्या गतिर्वा विग्रहैमही / / 34 / / खड्गैर्धवलधारालेनिहत्य करिणां करान् / तैवापि समं विद्धान्संतोषं न भटा ययुः / / 35 / / पाक्षिप्याभिदिवं नीताः पत्तयः करिभिः करैः / दिव्याङ्गनाभिरादातु रक्ताभिद्रुतमीषिरे / / 36 / / धन्विनस्तुरगारूढा गजारोहाशरैः क्षतान् / प्रत्यैच्छन्मूच्छितान्भूयो योद्धमाश्वसतश्चिरम् / / 37 / / 25 क्रुद्धस्य दन्तिनः पत्तिजिघृक्षोरसिना करम् / निभिद्य दन्तमुसलावारुरोह जिघृक्षया / / 38 / / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: षोडशः सर्गः ] [ 241 खड्गेन मूलतो हत्वा दन्तिनो रदनद्वयम् / प्रातिपक्ष्ये प्रविष्टोऽपि पदातिनिरगाद्रुतम् / / 39 / / करेण करिणा वीरः सुगृहीतोऽपि कोपिना / असिनासूञ्जहाराशु तस्यैव स्वयमक्षतः // 40 // 5 तुरंगी तुरगारूढं प्रासेनाहत्य वक्षसि / पततस्तस्य नाज्ञासीत्प्रासघातं स्वके हृदि / / 41 / / द्विषा प्रासहृतप्राणो वाजिपृष्ठदृढासनः / हस्तोद्धृतमहाप्रासो भुवि जीवन्निवाभ्रमत् / / 42 / / तुरंगसादिनं शस्त्रहृतप्राणं मतं भुवि / 10 अबद्धोऽपि महावाजी न साश्रुनयनोऽत्यजत् / / 43 // भल्लेन शितधारेण भिन्नोऽपि रिपुणाश्वगः / नामूर्च्छत्कोपतो हन्तुमियेष प्रपतन्नपि / / 44 / / मिथः प्रासाहतौ वाजिच्युतौ भूमिगतौ रुषा। शस्त्र्या युयुधतुः कौचित्केशाकेशि भुजाभुजि / / 45 / / 15 रथिनो रथिभिर्बाणैर्ह तप्राणा दृढासनाः / क्षतकामुकसंधानाः सप्राणा इव मेनिरे / / 46 / / न रथी रथिनं भूयः प्राहरच्छस्त्रमूच्छितम् / प्रत्याश्वसम्मतन्विच्छन्नातिष्ठधुधि लोभतः / / 47 / / अन्योन्यं रथिनौ कौचिद्गतप्राणौ दिवं गतौ / 20 एकामप्सरसं प्राप्य युयुधाते वरायुधौ / / 48 / / मिथोऽर्धचन्द्रनिलूं नमूर्धानौ रथिनौ रुचा। खेचरौ भूवि नृत्यन्तौ स्वकबन्धावपश्यताम् / / 46 / / रणाङ्गणे शोणितपङ्कपिच्छिले कथं कथंचिन्ननृतु तायुधाः / 25. नदत्सु तूर्येषु परेतयोषितां गणेषु गायत्सु कबन्धराजयः // 50 / / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] [ काव्यषट्कं इति सुररिपुर्वृत्ते युद्धे सुरासुरसैन्ययो _____ रुधिरसरितां मज्जद्दन्तिव्रजेषु तटेष्वलम् / अरुणनयनः क्रोधाद्भीमभ्रमभृकुटीमुखः सपदि ककुभामीशानभ्यामगत्स युयुत्सया // 51 / / ( हरिणी) // इति श्रीकालिदासंकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये सुरासुरसैन्यसङ्ग्रामवर्णनं नाम षोडशः सर्गः / / 16 / / // 17 // सप्तदशः सर्गः॥ दृष्ट्वाभ्युपेतमथ दैत्यपति पुरस्ता त्सङ्ग्रामकेलिकुतुकेन घनप्रमोदम् / योधु मदेन मिमिलुः ककुभामधीशा बाणान्धकारितदिगम्बरगर्भमेत्य / / 1 / / (वसन्ततिलका) देवद्विषां परिवृढो विकटं विहस्य बाणावलीभिरमरान्विकटान्ववर्ष / शैलानिव प्रवरवारिधरो गरिष्ठा नद्भिः पराभिरथ गाढमनारताभिः // 2 // जम्भद्विषत्प्रभृतिदिक्पतिचापमुक्ता बाणाः शिता दनुजनायकबाणसङ्घान् / अह्नाय तामूनिवहा इव नागपूगा न्सद्यो विचिच्छिदुरलं कंणशो रणान्ते / / 3 / / तान्प्रज्वलत्फलमुखैविषमैः सुरारि नामाङ्कितः पिहितग्गगनान्तरालैः / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभव :: सप्तदशः सर्गः ] [ 243 आच्छादितस्तृणचयानिव हव्यवाह श्चिच्छेद सोऽपि सुरसैन्यशराञ्झरौघैः // 4 // दैत्येश्वरो ज्वलितरोषविशेषभीमः सद्यो मुमोच युधि यान्विशिखान्सहेलः / ते प्रापुरुद्भटभुजंगमभीमभावं गाढं बबन्धुरपि तांस्त्रिदशेन्द्रमुख्यान् / / 5 / / ते नागपाशविशिखैरसुरेण बद्धाः ... श्वासानिलाकुलमुखा विमुखा रणस्य / दिङ्नायका बलरिपुप्रमुखाः स्मरारि सूनोः समीपमगमन्विपदन्तहेतोः / / 6 // दृष्टिप्रपात वशतोऽपि पुरारिसूनो स्ते नागपाशघनबन्धविपत्तिदुःखात् / इन्द्रादयो मुमुचिरे स्वयमस्य देवाः सेवां व्यधुनिकटमेत्य महाजिगीषोः / / 7 / / उद्दीप्तकोपदहनोऽथ सुरेन्द्रशत्रु __ रह्नाय सारथिमवोचत चण्डबाहुः / बद्धा मया सुरपतिप्रमुखाः प्रसह्य बालस्य धूर्जटिसुतस्य निरीक्षणेन / / 8 / / मुक्ता बभूवुरघुना तदिमान्विहाय कर्तास्म्यमु समरभूमिपशूपहारम् / तत्स्यन्दनं सपदि वाहय शंभुसूनु द्रष्टास्मि पितभुजाबलमाहवाय / / 6 / / तत्स्यन्दनः सपदि सारथिसंप्रणुन्नः प्रक्षुब्धवारिधरधीरगभीरघोषः / 25 .. चण्डश्चचाल दलिताखिलशत्रुसैन्य .. मांसास्थिशोणितविपकविलुप्तचक्रः / / 10 / / 15 . 20 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] . [ काव्यषटकं दृष्ट्वा रथं प्रलयवातचलद्गिरीन्द्र कल्पं दलद्वलविरावविशेषरौद्रम् / अभ्यागतं सुररिपोः सुरराजसैन्यं क्षोभं जगाम परमं भयवेपमानम् / / 11 / / प्रक्षुभ्यमाणमवलोक्य दिगीशसैन्यं शंभोः सुतं कलहकेलिकुतूहलोत्कम् / उद्दामदोःकलित कामुकदण्डचण्डः प्रोवाच वाचमुपगम्य स कार्तिकेयम् / / 12 / / रे शंभूतापसशिशो बत मुञ्च मुञ्च दोर्दर्पमत्र विरम त्रिदिवेन्द्रकार्यात् / / शस्त्रैः किमत्र भवतोऽनुचितैरतीव बालत्वकोमलभुजातुलभारभूतैः / / 13 / / एवं त्वमेव तनयोऽसि गिरीशंगौर्योः कि यासि कालविषयं विषमैः शरैम / सङ्ग्रामतोऽपसर जीव पितुर्जनन्या स्तूर्णं प्रविश्य वरमङ्कतलं विधेहि / / 14 / / सम्यक्स्वयं किल विमृश्य गिरीशपुत्र जम्भद्विषोऽस्य जहिहि प्रतिपक्षमाशु / एष स्वयं पयसि मज्जति दुर्विगा। पाषाणनौरिव निमज्जयते पुरा त्वाम् / / 15 / / इत्थं निशम्य वचनं युधि तारकस्य कम्प्राधरो विकचकोकनदारुणास्यः / क्षोभात्रिलोचनसुतो धनुरीक्षमाणः प्रोवाच वाचमुचितां परिमृश्य शक्तिम् / / 16 / / दैत्याधिराज भवता यदवादि गर्वा तत्सर्वमप्युचितमेव तवैव किं तु / 25 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तदशः सर्गः ] [ 245 द्रष्टास्मि ते प्रवरबाहुबलं वरिष्ठं ___ शस्त्रं गृहाण कुरु कामु कमाततज्यम् / / 17 / / इत्युक्तवन्तमवदत्त्रिपुरारिपुत्रं दैत्यः ऋधौष्ठमधरं किल निविभिद्य / युद्धार्थमुद्भटभुजाबलदर्पितोऽसि बाणान्सहस्व मम सादितशत्रुपृष्ठान् / / 18 / / दुःप्रेक्षणीयमरिभिर्धनुराततज्यं सद्यो विधाय विषमान्विशिखान्यधत्त / स क्रोधभीमभुजगेन्द्रनिभं स्वचापं चण्डं प्रपञ्चयति जैत्रशरैः कुमारे / / 16 / / कर्णान्तमेत्य दितिजेन विकृष्यमाणं ___ कोदण्डमेतदभितः सुषुवे शरौघान् / व्योमाङ्गणे लिपिकरान्किरणप्ररोहैः सान्द्रैरशेषककुभां पलितंकरिष्णून् / / 20 / / बाणैः सुरारिधनुषः प्रसृतैरनन्यै निर्घोषभीषितभटो लसदंशुजालैः / अन्धीकृताखिलसुरेश्वरसैन्य ईश सूनुः कुतोऽपि विषयं न जगाम दृष्टेः / / 21 / / देवेन मन्मथरिपोस्तनयेन गाढ. माकर्णकृष्टमभितो धनुराततज्यम् / बाणानसूत निशितान्युधि यान्सुजैत्रा स्तैः सायका बिभिदिरे सहसा सुरारेः / / 22 / / रेजे सुरारिशरदुदिनके निरस्ते - सद्यस्तरां निखिलखेचरखेदहेतौ / देवः प्रभाप्रभुरिव स्मरशत्रुसूनुः प्रद्योतन: सुघनदुर्धरधामधामा / / 23 / / 25 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 246 ] [ काव्यषट्कं तत्राथ दुःसहतरं समरे तरस्वी धामाधिकं दधति धीरतरं कुमारे / मायामयं समरमाशु महासुरेन्द्रो मायाप्रचारचतुरो रचयांचकार / / 24 / / अह्नाय कोपकलुषो विकट विहस्य ____ व्यर्थां समर्थ्य वरशस्त्रयुधं कुमारे / जिष्णुर्जगद्विजयदुर्ललितः सहेलं - वायव्यमस्त्रमसुरो धनुषि न्यधत्त // 25 / / संधानमात्रमपि यस्य युगान्तकाल भूतभ्रमं परूषभीषणघोरघोषः / उद्धतधूलिपटलैः पिहिताम्बराशः प्रच्छन्नचण्ड किरणो व्यसरत्समीर: / / 26 / / कुन्दोज्ज्वलानि सकलातफ्वारणानि धूतानि तेन मरुता सुरसैनिकानाम् / उड्डीयमानकलहंसकुलोपमानि मेघाभधूलिमलिने नभसि प्रसस्र : / / 27 / / विध्वस्य तेन सुरसैन्यमहापताका नीता नभस्थलमलं नवमल्लिकाभाः / स्वर्गापगाजलमहौघसहस्रलीलां व्यातेनिरे दिवि सिताम्बरकैतवेन / / 28 / / धूतानि तेन सुरसैन्यमहागजानां सद्यः शतानि विधुराणि दलत्कुथानि / पेतुः क्षितौ कुपितवासववज्रलून पक्षस्य भूधरकुलस्य तुलां वहन्ति / / 26 / / तास्ताः खरेण मरुता रथराजयोऽपि दोधूयमाननिपतिष्णुतुरंगमाश्च / 25 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तदशः सर्गः ] . [ 247 विस्रस्तसारथिकुलप्रवराः समन्ता * व्यावृत्य पेतुरवनौ सुरवाहिनीनाम् / / 30 / / हित्वायुधानि सुरसैन्यतुरंगवाहा वातेन तेन विधुराः सुरसैन्यमध्ये / शस्त्राभिघातमनवाप्य निपेतुरुया . स्वीयेषु वाहनवरेषु पतत्सु सत्सु // 31 / / तेनाहतास्त्रिदशसैन्यपदातयोऽपि स्रस्तायुधाः सुविधुराः परुषं रसन्तः / वात्याविवर्तदलवभ्रममेत्य दूरं नि:पेतुरम्बरतलाद्वशुधातलेऽस्मिन् / / 32 / / इत्थं विलोक्य सुरसैन्यमथो अशेषं दैत्येश्वरेण विधुरीकृतमस्त्रयोगात् / स्वर्लोकनाथकमलाकुशलैकहेतु दिव्यं प्रभावमतनोदतनुः स देवः / / 33 / / तेनोज्झितं सकलमेव सुरेन्द्रसैन्यं ___ स्वास्थ्यं प्रपद्य पुनरेव युधि प्रवृत्तम् / दृष्ट्वासृजद्दहनदैवतमस्त्रमिद्ध . मुद्दीप्तकोपदहनः सहसा सुरारिः / / 34 / / वर्षातिकालजलदद्युतयो नभोन्ते गाढान्धकारितदिशो धनधूमसंघाः। सद्यः प्रसस्र रसितोत्पलदामभासो दृग्गोचरत्वमखिलं न हि सन्नयन्तः / / 35 / / दिक्चक्रवालगिलनैर्मलिनैस्तमोभि लिप्त नभःस्थलमलं घनवृन्दसान्द्रैः / धूमैविलोक्य मुदिताः खलु राजहंसा गन्तुं सरः सपदि मानसमीषुरुच्चैः / / 36 / / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] [ काव्यषटकं जज्वाल वह्निरतुलः सुरसैनिकेषु कल्पान्तकालदहनप्रतिमः समन्तात् / आशामुखानि विमलान्य खिलानि कीला __ जालैरलं कपिलयन्सकलं नभोऽपि / / 37 / / उज्जागरस्य दहनस्य निरर्गलस्य ___ ज्वालावलीभिरतुलाभिरनारताभिः / कीर्णं पयोदनिवहैरिव धूमसंधै योमाभ्यलक्ष्यत कुलस्तडितामिवोच्चैः / 38 / गाढाद्भयाद्वियति विद्रुतखेचरेण ___दीप्तेन तेन दहनेन सुदुःसहेन / दन्दह्यमानमखिलं सुरराजसैन्य . मत्याकुलं शिवसुतस्य समीपमाप / / 36 / / इत्यग्निना घनतरेण ततोऽभिभूतं ___ तद्देवसैन्यमखिलं विकलं विलोक्य / सस्मेरवक्त्रकमलोऽन्धकशत्रुसूनु ोणासनेन समधत्त स वारुणास्त्रम् / / 40 / / घोरान्धकारनिकरप्रतिमो युगान्त ____ कालानलप्रबलधुमनिभो नभोन्ते / गर्जारवैविघटयन्नवनीधराणां शृङ्गाणि मेघनिवहो घनमुज्जगाम / / 41 / / विद्युल्लता वियति वारिदवृन्दमध्ये गम्भीरभीषणरवैः कपिशीकृताशा / घोरा युगान्तचलितस्य भयंकराथ कालस्य लोलरसनेव चमच्चकार / / 42 / / कादम्बिनी विरुरुचे विषकण्ठिकाभि, रुत्तालकालरजनीजलदावलीभिः / 25 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कुमारसंभवं :: सप्तदशः सर्गः ] [ 246 व्योम्न्युच्चकैरचिररुक्परिदीपितांशा दृष्टिच्छदा विषमघोषविभीषणा च / / 43 / / व्योम्नस्तलं पिदधतां ककुभां मुखानि गर्जारवैरविरतैस्तुदतां मनांसि / अम्भोभृतामतितरामनणीयसीभि र्धारावलीभिरभितो ववृषे समूहैः / / 44 / / धोरान्धकारपटलैः पिहिताम्बराणां - गम्भीरगर्जनरवैर्व्यथितासुराणाम् / वृष्ट्या तया जलमुचां वरुणास्त्रजानां विश्वोदरंभरिरपि प्रशशाम वह्निः // 45 // दैत्योऽपि रोषकलुषो निशितैः क्षरप्रै __राकर्णकृष्टधनुरुत्पतितैः सः भीमैः / तद्भीतिविद्रुतसमस्तसुरेन्द्रसैन्यो / गाढं जघान मकरध्वजशत्रुसूनुम् / / 46 / / देवोऽपि दैत्यविशिखप्रकरं सचापं __बाणैश्चकर्त कणशो रणकेलिकारी / योगीव योगविधिशुष्कमना यमाद्यैः सांसारिकं विषयसंघममोघवीर्यम् / / 47 / / भ्रूभङ्गभीषणमुखोऽसुरचक्रवर्ती संदीप्तकोपदहनोऽथ रथं विहाय / क्रीडत्करालकरवालकरोऽसुरेन्द्र स्तं प्रत्यधावदभितस्त्रिपुरारिसूनुम् / / 48 // अभ्यापतन्तमसुराधिपमीशपुत्रो दुर्वारबाहुविभवं सुरसैनिकैस्तम् / दृष्ट्वा युगान्तदहनप्रतिमां मुमोच शक्ति प्रमोदविकसद्वदनारविन्दः / / 25 / उद्दयोतिताम्बरदिगन्तरमंशुजालैः . शक्तिः पपात हृदि तस्य महासुरस्य / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ काव्यषट्क हर्षाश्रुभिः सह समस्तदिगीश्वराणां शोकोष्णबाष्पसलिलैः सह दानवानाम् / / 5 / / शक्तया हृतासुमसुरेश्वरमापतन्तं कल्पान्तवातहतभिन्नमिवाद्रिशृङ्गम् / दृष्ट्वा प्ररूढपुलकाञ्चितचारुदेहा देवाः प्रमोदमगमंस्त्रिदशेन्द्रमुख्याः // 51 / / यत्रापतत्स दनुजाधिपतिः परासुः / / संवर्तकालनिपतन्छिखरीन्द्रतुल्यः / तत्रादधात्फणिपतिर्धरणी फरणाभि स्तद्भरिभारविधुराभिरघो व्रजन्तीम् / / 52 / / स्वर्गापगासलिलसीकरिणीं समन्ता सौरभ्यलुब्धमधुपावलिसेव्यमाना / कल्पद्रुमप्रसववृष्टिरभून्नभस्तः - शंभोः सुतस्य शिरसि त्रिदशारिशत्रोः / / 53 / / 15 पुलकभरविभिन्नवारबाणा भुजविभवं बहु तारकस्य शत्रोः / सकलसुरगणा महेन्द्रमुख्याः प्रमदमुखच्छविसंपदोऽभ्यनन्दन् / 54 / (पुष्पिताग्रा) इति विषमशरारेः सूनुना जिष्णुनाजी त्रिभुवनवरशल्ये प्रोद्धृते दानवेन्द्रे / 20 बलरिपुरथ नाकस्याधिपत्यं प्रपद्य व्यजयत सुरचूडारत्नघृष्टाग्रपाद: / / 55 / / (मालिनी) // इति श्रीकालीदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये तारकासुरवधो नाम सप्तदशः सर्गः // 17 / / 25 // समाप्तमिदं कुमारसंभवकाव्यम् // 2 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // पूज्यमुनिगणपति श्री हर्षविजयेभ्यो नमः / महाकवि श्री भारविप्रणीतं किरातार्जुनीयम् ( वंशस्थवृत्तं ) // 1 // प्रथमः सर्गः॥ श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनी प्रजासु वृत्ति यमयुक्त वेदितुम् / स वरिणलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः / / 1 / / कृतप्रणामस्य महीं महीभूजे जितां सपत्नेन निवेदयिष्यतः / न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियंप्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः / / 2 / / द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो . रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः / स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनी विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे // 3 // क्रियासु युक्तैर्नृप ! चारचक्षुषो व वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः / अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः // 4 // .स किसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 } [ काव्यषट्कं सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रति ___नपेष्वमात्येषु च सर्वसंपदः // 5 / / निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः / तवानुभावोऽयमवेदि यन्मया निगुढतत्त्वं नयवर्त्म विद्विषाम् / / 6 / / विशङ्कमानो भवतः पराभवं नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः / दुरोदरच्छद्मजितां समीहते _____ नयेन जेतु जगतीं सुयोधनः / / 7 / / तथाऽपि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः / समुन्नयन्भूतिमनार्यसङ्गमाद् वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः / / 8 / / कृतारिषड्वर्गजयेन मानवी मगम्यरूपां पदवी प्रपित्सुना / विभज्य नक्तंदिवमस्ततन्द्रिणा वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् / / 6 / / सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान्सुहृदश्च बन्धुभिः / स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपत्यामिव साधु बन्धुताम् / / 10 / / असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया / गुणानुरागादिव सख्य मीयिवान् . न बाधतेऽस्य त्रिगणःपरस्परम् // 11 / / 25 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 253 निरत्ययं साम न दानवजितं न भूरि दानं विरहय्य सत्क्रियाम् / प्रवर्त्तते तस्य विशेषशालिनी गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया / / 12 / / वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः / गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवम् / / 13 / / विधाय रक्षान्परितः परेतरान१० शङ्किताकारमुपैति शङ्कितः / क्रियाऽपवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः / / 14 / / अनारतं तेन पदेषु लम्भिता .. विभज्य सम्यग्विनियोगसत्क्रियाः / फलन्त्युपायाः परिबृहिताय तीरुपेत्य संघर्षमिवार्थसम्पदः / / 15 / / अनेक राजन्यरथाश्वसंकुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरम् / नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः / 16 / सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलै रकृष्टपच्या इव सस्यसंपदः / वितन्वति क्षेममदेवमातृका.. श्चिराय तस्मिन्कुरवश्चकासति / / 17 / / उदारकीर्तेरुदयं दयावतः ___ प्रशान्तवाधं दिशतोऽभिरक्षया / स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी / / 18 / / Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .254 ] [ काव्यषट्कं महौजसो मानधना धनाचिंता धनुर्भूतः संयति लब्धकीर्तयः / नसंहतास्तस्य नभिन्नवृत्तयः _ प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम् / / 16 / / महीभृतां सच्चरितैश्चरै क्रिया: स वेद निश्शेषमशेषितक्रियः / महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः __ प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः / / 20 / / न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुः - कृतं न वा कोपविजिह्ममाननम् / गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम् / / 21 / / स यौवराज्ये नवयौवनोद्धतं' निधाय दुःशासनमिद्धशासनः / मखेष्वखिन्नोऽनुमतः पुरोधसा धिनोति हव्येन हिरण्यरेतसम् / / 22 // प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः / स चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यती रहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता / / 23 / / कथाप्रसङ्गेन जनैरुदाहृता ___दनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः / तवाभिधानाद् व्यथते नताननः ___स दुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः / / 24 / / तदाशु कतु त्वयि जिह्ममुद्यते विधीयतां तत्र विधेयमुत्तरम् / 25 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 255 परप्रणीतानिवचांसि चिन्वतां ___ प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां गिरः / / 25 / / इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये गतेऽथ पत्यौ वनसन्निवासिनाम् / प्रविश्य कृष्णासदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसंनिधौ वचः // 26 / / निशम्य सिद्धि द्विषतामपाकृती स्ततस्ततस्त्या विनियन्तुमक्षमा / नृपस्य मन्युव्यवसायदोपिनी रुदाजहार द्रुपदात्मजा गिरः / / 27 // भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् / तथाऽपि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमया दुराधयः // 28 / / अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभि श्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः / त्वयाऽऽत्महस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता // 26 / / व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं . भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः / प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधा नसंवृताङ्गान्निशिता इवेषवः // 30 // गुणानुरक्तामनुरक्तसाधनः ___ कुलाभिमानी कुलजां नराधिपः / 25 / परैस्त्वदन्यः क इवापहारये न्मनोरमामात्मवधूमिव श्रियम् / / 31 / / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] [ काव्यषट्कं भवन्तमेतहि मनस्विहिते विवर्त्तमानं नरदेव ! वर्मनि / कथं न मन्युवलयत्युदीरितः शमीतरुं शुष्कमिवाग्निरुच्छिखः / / 32 / / अवन्ध्यकोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः / / अमर्षशून्येन ज़नस्य जन्तुना न जातहार्देन न . विद्विषादरः / / 33 / / परिभ्रमँल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तगिरि रेणुरूषितः / महारथः सत्यधनस्य. मानसं दुनोति नो कच्चिदयं वृकोदरः / / 34 / / विजित्य यः प्राज्यमयच्छदुत्तरा न्कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः / स वल्कवासांसि तवाधुनाऽऽहरन् करोति मन्यं न कथं धनञ्जयः / / 35 / / वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ / कथं त्वमेतौ धृतिसंयमौ यमौ विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुम् / / 36 / / इमामहं वेद न तावकी धियं विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः / विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां रुजन्ति चेतः प्रसभं ममाधयः / / 37 / / पुराऽधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः / 25 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 257 अदभ्रदर्भामधिशय्य स स्थली ____ जहासि निद्रामशिवः शिवारुतैः / / 38 / / पुरोपनीतं नृप ! रामणीयकं द्विजातिशेषेण यदेतदन्धसा / तदद्य ते वन्यफलाशिनः परं पति कार्य यशसा समं वपुः / / 39 // अनारतं यो मणिपीठशायिना वरजयद्राजशिरःस्रजां रजः / निषीदतस्तौ चरणौ वनेषु ते मृगद्विजालूनशिखेषु बहिषाम् // 40 // द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलमुन्मूलयतीव मे मनः / परैरपर्यासितवीर्यसम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम् / / 4 / / विहाय शान्ति नृप ! धाम तत्पुनः प्रसीद संधेहि वधाय विद्विषाम् / व्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहा शमेन सिद्धि मुनयो न भूभृतः / / 42 / / पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारमीदृशम् / भवादृशाश्चेदधिकुर्वते रति निराश्रया हन्त ! हता मनस्विता / / 43 / / अथ क्षमामेव निरस्तविक्रम श्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनम् / विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं जटाधरः सञ्जहुधीह पावकम् / / 44 / / 25 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] [ काव्यषट्कं नियां न समयपरिरक्षणं क्षमं ते. निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः / परिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा. विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि / / 45 / / विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिज्ञ ____ शिथिलवसुमगाधे मग्नमापत्पयोधौ / रिपुतिमिरमुदस्योदीयमानं दिनादौदिनकृतमिव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतुभूयः / / 46 / / (मालिनीवृत्तम्) // इति महाकविश्रीभारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः / / 1 / / . // 2 // अथ द्वितीयः सर्गः॥ विहितां प्रियया मनःप्रियामथ निश्चित्य गिरं गरीयसीम् / उपपत्तिमदूजिताश्रयं नपमूचे वचनं वृकोदरः / / 1 / / 15 यदवोचत वीक्ष्य मानिनी परितः स्नेहमयेन चक्षुषा / अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयम् // 2 // विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसामिवाशयः / स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः / / 3 / / परिणामसुखे गरीयसि व्यथकेऽस्मिन्वचसि क्षतौजसाम् / - 20 अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः // 4 // इयमिष्टगुणाय रोचतां रुचिरार्था भवतेऽपि भारती। नतु वक्तृविशेषनि:स्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः // 5 // चतसृष्वपि ते विवेकिनी नप ! विद्यासु निरूढिमागता / कथमेत्य मतिविपर्ययं करिणी पङ्कमिवावसीदति // 6 // Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 256 विधुरं किमतः परं परैरवगीतां गमिते दशामिमाम् / अवसीदति यत्सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषम् / / 7 / / द्विषतामुदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरः सुमर्षणः / न महानपि भूतिमिच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः / / 8 / / 5 अचिरेण परस्य भूयसी विपरीतां विगणय्य चात्मनः / क्षययुक्तिमुपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारमन्यथा // 6 // अनुपालयतामुदेष्यती प्रभुशक्ति द्विषतामनीहया। अपयान्त्यचिरान्महीभुजां जननिर्वादभयादिव श्रियः / / 10 / / क्षययुक्तमपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये / प्रणमन्त्यनपायमुत्थितं प्रतिपञ्चन्द्रमिव प्रजा नपम् / / 11 / / प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः / स विधेयपदेषु दक्षतां नियति लोक इवानुरुध्यते // 12 / / अभिमानवतो मनस्विनः प्रियमुच्चैः पदमारुरुक्षतः / विनिपातनिवर्तनक्षमं मतमालम्बनमात्मपौरुषम् // 13 // 15 विपदोऽभिभवन्त्यविक्रम रहयत्यापदुपेतमायतिः / / नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नपश्रियः // 14 / / तदलं प्रतिपक्षमुन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यताम् / निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन संमं समद्धयः // 15 // अथ चेदवधिः प्रतीक्ष्यते कथमाविष्कृतजिह्मवृत्तिना। धृतराष्ट्रसृतेन सुत्यजाश्चि रमास्वाद्य नरेन्द्रसम्पदः // 16 // द्विषतां विहितं त्वयाऽथवा यदि लब्धा पुनरात्मनः पदम् / जननाथ ! तवानुजन्मनां कृतमाविष्कृतपौरुषैर्भुजैः / / 17 / / मदसिक्तमुखैमृगाधिपः करिभिर्वर्त्तयते स्वयं हतैः / लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिमन्यतः // 18 // 25 अभिमानधनस्य गत्वरैरसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः। अचिरांशुविलासचञ्चला ननु लक्ष्मीः फलमानुषङ्गिकम् // 16 // Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] [ काव्यषट्कं ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयमास्कन्दति भस्मनां जनः / अभिभूतिभयादसूनतः सुखमुज्झन्ति न धाम-मानिनः / / 20 / / किमपेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः / प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नति यया / / 21 / / कुरु तन्मतिमेव विक्रमे नृप ! निधू य तमः प्रमादजम् / ध्रुवमेतदवेहि विद्विषां त्वदनुत्साहहता विपत्तय: / / 22 / / द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोयनिधीनिवायतः / प्रसहेत रणे तवानुजान् द्विषतां कः शतमन्युतेजसः / / 23 / / ज्वलतस्तव जातवेदसः सततं वैरिकृतस्य चेतसि / विदधातु शमं शिवेतरा रिपुनारीनयनाम्बुसन्ततिः / / 24 / / इति शितविक्रियं सुतं मरुतः कोपपरीतमानसम् / उपसान्त्वयितुं महीपतिद्विरदं दुष्टमिवोपचक्रमे / / 25 / / अपवजितविप्लवे शुचौ हृदयग्राहिणि मङ्गलास्पदे / विमला तव विस्तरे गिरां मतिरादर्श इवाभिदृश्यते / / 26 / / स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतमर्थगौरवम् / रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यमपोहितं क्वचित् / / 27 / / उपपत्तिरुदाहृता बलादनुमानेन न चागमः क्षतः / इदमीहगनीहगाशयः प्रसभं वक्तुमुपक्रमेत कः / / 28 / / अवितृप्ततया तथाऽपि मे हृदयं निर्णयमेव धावति / अवसाययितुक्षमाः सुखं न विधेयेषु विशेषसम्पदः / / 26 / / सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् / वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः / / 30 / / अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा / स सदा फलशालिनी क्रियां शरदं लोक इवाधितिष्ठति / / 31 / / 25 शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया। प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः // 32 // Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 261 मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनाम् / सुकृतः परिशुद्ध प्रागमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनम् // 33 / / स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः / विधिहेतु रहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नते: / / 34 / / 5 शिवमौपयिकं गरीयसी फलनिष्पत्तिमदूषितायतिम् / विगणय्य न यन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः / / 35 / / अपनेयमुदेतुमिच्छता तिमिरं रोष मयं धिया पुरः / अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताऽप्युदीयते / / 36 / / बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभव रुणद्धि यः / / 50 क्षयपक्ष इवैन्दवी: कलाः सकलाः हन्ति स शक्तिसम्पदः / / 37 / / समवत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मताम् / अधितिष्ठति लोकमोजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः // 38 क्व चिराय परिग्रहः श्रियां क्व च दुष्टेन्द्रिय वाजिवश्यता / शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छला: श्रियः / / 36 / / 15 किमसामयिक वितन्वता मनसः क्षोभमुपात्तरंहसः / / क्रियते पतिरुच्चकैरपां भवता धीरतयाऽधरीकृतः / / 40 / / श्रतमप्यधिगम्य ये रिपून विनयन्ते न शरीरजन्मनः / जनयन्त्यचिराय सम्पदामयशस्ते खलू चापलाश्रयम् / / 41 / / अतिपातितकालसाधना स्वशरीरेन्द्रियवर्गतापनी / / 20 जनवन्न भवन्तमक्षमा नयसिद्धेरपनेतुमर्हति // 42 / / उपकारकमायतेभृशं प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः / अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासममस्ति साधनम् / / 43 / / प्रणतिप्रवणान्विहाय न: सहजस्नेहनिबद्धचेतसः / प्रणमन्ति सदा सुयोधनं प्रथमे मानभृतां न वृष्णयः // 44 / / 25 सुहृदः सहजास्तथेतरे मतमेषां न विलयन्ति ये / विनयादिव यापयन्ति ते धृतराष्ट्रात्मजमात्मसिद्धये / / 45 / / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] [ काव्यषटकं अभियोग इमान्महीभुजो भवता तस्य कृतः कृतावधेः / प्रविघाटयिता समुत्पतन् हरिदश्वः कमलाकरानिव / / 46 / / उपजापसहान्विलङ्घयन् स विधाता नृपतीन्मदोद्धतः / सहते न जनोऽप्यधः क्रियां किमुलोकाधिकधाम राजकम् / / 47 5 असमापितकृत्यसम्पदा हतवेगं विनयेन तावता / प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदमुत्तम्भयितुं विभूतयः / / 48 / / मदमानसमुद्धतं नपं न वियुङ्क्ते नियमेन मूढता। अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपरज्यते जनः / / 46 / / अपरागसमीरणेरितः क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः / 10 सुकरस्तरुवत्सहिष्णुना रिपुरुन्मूलयितुं महानपि / / 50 / / अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुमन्तःप्रकृतिप्रकोपजः / अखिल हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखाऽन्तनिघर्षजोऽनलः / / 51 / / मतिमान्विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नति द्विषः / सुजयः खलु तागन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः / / 52 / / 15 लघुवृत्तितया भिदां गतं बहिरन्तश्च नपस्य मण्डलम् / अभिभूय हरत्यनन्तरः शिथिलं कूलमिवापगारय: / / 53 / / अनुशासतमित्यनाकुलं नयवाकुलमर्जुनाग्रजम् / स्वयमर्थ इवाभिवाञ्छितस्तमभीयाय पराशरात्मजः / / 54 / / मधुरैरवशानि लम्भयन्नपि तिर्यञ्चि शमं निरीक्षितैः / / परितः पटु बिभ्रदेनसां दहनं धाम विलोकनक्षमम् / / 55 / / सहसोपगतः सविस्मयं तपसां सूतिरसूतिरापदाम् / ददृशे जगतीभुजा मुनिः स वपुष्मानिव पुण्यसञ्चयः / / 56 / / अथोच्चकैरासनतः पराादुद्यन्स धूतारुणवल्कलाग्रः / रराज कीर्णाकपिशांशुजालःशृङ्गात्सुमेरोरिव तिग्मरश्मिः / / 57 25 अवहितहृदयो विधाय सोऽर्हामृषिवदृषिप्रवरे गुरूपदिष्टाम् / तदनुमतमलञ्चकार पश्चात् प्रशम इव श्रुतमासनं नरेन्द्रः।।५८ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: तृतीयः सर्गः ] [ 263 व्यक्तोदितस्मितमयूखविभासितोष्ठ स्तिष्ठन्मुनेरभिमुखं स विकीर्णधाम्नः / तन्वन्तमिद्धमभितो गुरुमंशुजालं लक्ष्मीमुवाह सकलस्य शशाङ्कमूर्तेः // 56 / / 5 // इति महाकविश्रीभारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः // 2 // // 3 // अथ तृतीयः सर्गः॥ ततः शरच्चन्द्रक राभिरामैरुत्सपिभिः प्रांशुमिवांशुजालैः / बिभ्राणमानीलरुचं पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तमिवाम्बुवाहम् / / 1 10 प्रसादलक्ष्मीं दधतं समग्रां वपुःप्रकर्षेण जनातिगेन / प्रसह्य चेतःसु समासजन्तमसंस्तुतानामपि भावमार्द्रम् / / 2 // अनुद्धताकारतया विविक्तां तन्वन्तमन्तःकरणस्य वृत्तिम् / माधुर्यविस्रम्भविशेषभाजा कृतोपसंभाष मिवेक्षितेन // 3 / / धर्मात्मजो धर्मनिबन्धिनीनां प्रसूतिमेनःप्रणुदां श्रुतीनाम् / हेतु तदभ्यागमने परीप्सुः सुखोपविष्टं मुनिमाबभाषे / / 4 / / अनाप्तपुण्योपचयैर्दुरापा फलस्य निर्धू तरजाः सवित्री। तुल्या भवद्दर्शनसंपदेषा वृष्टेदिवो वीतबलाहकायाः / / 5 / / अद्य क्रियाः कामदुघाः ऋतूनां सत्याशिषः संप्रति भूमिदेवाः / आ संसृतेरस्मि जगत्सु जातस्त्वय्यागते यद् बहुमानपात्रम् // 6 20 श्रियं विकर्षत्यपहन्त्यघानि श्रेयः परिस्नौति तनोति कीर्तिम् / संदर्शनं लोकगुरोरमोघं तवात्मयोनेरिव किं न धत्ते // 7 // श्च्योतन्मयूखेऽपि हिमद्युतौ मे न निर्वृतं निर्वृतिमेति चक्षुः / समुज्झितज्ञातिवियोगखेदं त्वत्सन्निधावुच्छ्वसितीव चेतः // 8 निरास्पदं प्रश्नकुतूहलित्वमस्मास्वधीनं किमु निःस्पृहाणाम् / 25 तथापि कल्याणकरी गिरं ते मां श्रोतुमिच्छा मुखरीकरोति / / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] [ काव्यषट्क इत्युक्तवानुक्तिविशेषरम्यं मनः समाधाय जयापपत्तौ / उदारचेता गिरमित्युदारां द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः / / 10 / / चिचीषतां जन्मवतामलध्वं यशोऽवतंसामुभयत्र भूतिम् / अभ्यहिता बन्धुष तुल्यरूपा वृत्तिविशेषेण तपोधनानाम् / / 11 5 तथापि निघ्नं नृप ! तावकीनैः प्रह्वीकृतं मे हृदयं गुणौधैः / वीतस्पृहाणामपि मुक्तिभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः / / 12 सुता न यूयं किमु. तस्य राज्ञः सुयोधनं वा न गुणैरतीताः / यस्त्यक्तवान्वः स वथा बलाद्वा मोहंविधत्तेविषयाभिलाषः / / 13 जहातु नैनं कथमर्थसिद्धिः संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः / असाधुयोगा हि जयान्तरायाः प्रमाथिनीनां विपदां पदानि / / 14 पथश्च्युतायां समितौ रिपूणां धां दधानेन धुरं चिराय / त्वया विपत्स्वप्यविपत्तिरम्यमाविष्कृतं प्रेम पर गुणेषु / / 15 / / विधाय विध्वंसमनात्मनीनं शमैकवृत्तेर्भवतश्छलेन / प्रकाशितत्वन्मतिशीलसाराः कृतोपकारा इव विद्विषस्ते / / 16 15 लभ्या धरित्री तव विक्रमेण ज्यायांश्च वीर्यास्त्रबलैविपक्षः / अतः प्रकर्षाय विधिविधेयः प्रकर्षतन्त्रा हि रणे जयश्रीः / / 17 त्रिःसप्तकृत्वो जगतीपतीनां हन्ता गुरुर्यस्य स जामदग्न्यः / वीर्यावधूतः स्म तदा विवेद प्रकर्षमाधारवशं गुणानाम् / / 18 / / यस्मिन्ननैश्वर्यकृतव्यलीक: पराभवं प्राप्त इवान्तकोऽपि / धुन्वन्धनु: कस्य रणे न कुर्या न्मनो भयक प्रवणं स . भीष्मः / / 16 / / 25 सृजन्तमाजाविषुसंहतीवः सहेत कोपज्वलितं गुरुं कः / Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: तृतीयः सर्गः ] . [ 265 परिस्फुरल्लोलशिखाऽग्रजिह्व . जगज्जियत्सन्तमिवान्तवह्निम् // 20 // निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्य राधेयमाराधितजामदग्न्यम् / असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु जायेत मृत्योरपि पक्षपातः // 21 // यया समासादितसाधनेन सुदुश्चरामाचरता तपस्याम् / एते दुरापं समवाप्य वीर्य मुन्मूलितारः कपिकेतनेन / 22 / / महत्त्वयोगाय महामहिम्ना माराधनी तां नृप ! देवतानाम् / दातु प्रदानोचित ! भूरिधाम्नी. मुपागतः सिद्धिमिवास्मि विद्याम् // 23 // इत्युक्तवन्त ब्रज़ साधयेति प्रमाणयन्वाक्यमजातशत्रोः / प्रसेदिवांसं तमुपाससाद वस . निवान्ते विनयेन जिष्णः // 24 / / निर्याय विद्याऽथ दिनादिरम्या द्विम्बादिवार्कस्य मुखान्महर्षेः / पार्थाननं वह्निकणावदाता दीप्तिः स्फुरत्पद्ममिवाभिपेदे // 25 / / योगं च तं योग्यतमाय तस्मै . तपःप्रभावाद्विततार सद्यः / 25 / येनास्य तत्त्वेष कृतेऽवभासे समुन्मिमीलेव चिराय चक्षुः // 26 // Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] [ काव्यषट्कं 5 आकारमाशंसितभूरिलाभं . . दधानमन्तःकरणानुरूपम् / नियोजयिष्यन्विजयोदये तं तपःसमाधौ मुनिरित्युवाच / / 27 / / अनेन योगेन विवृद्धतेजा निजां परस्मै पदवीमयच्छन् / समाचराचारमुपात्तशस्त्रो ___ जपोपवासाभिषवैमुनीनाम् / / 28 / / करिष्यसे यत्र सुदुश्चराणि प्रसत्तये गोत्रभिदस्तपांसि / शिलोच्चयं चारुशिलोच्चयं तमेष क्षणान्नेष्यति गुह्यकस्त्वाम् / / 29 / / इति ब्रुवाणेन महेन्द्रसूनु महर्षिणा तेन तिरोबभूवे / तं राजराजानुचरोऽस्य साक्षात् प्रदेशमादेशमिवाधितष्ठौ // 30 / / कृतानतिाहृतसान्त्ववादे जातस्पृहः पुण्यजनः स जिष्णौ / इयाय सख्याविव सम्प्रसादं विश्वासयत्याशु सतां हि योगः / / 31 / / अथोष्णभासेव सुमेरुकुजा विहीयमानानुदयाय तेन। . बृहद्युतीन्दुःखकृतात्मलाभं तमः शनैः पाण्डुसुतान्प्रपेदे / / 32 / / असंशयालोचितकार्यनुन्नः . प्रेम्णा समानीय विभज्यमानः / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: तृतीयः सर्गः ] [ 267 तुल्याद्विभागदिव तन्मनोभि दुःखातिभारोऽपि लघुः स मेने // 33 // धैर्येण विश्वास्यतया महर्षे स्तीवादरातिप्रभवाच्च मन्योः / वीर्यं च विद्वत्सु सुते मघोनः, स तेषु न स्थानमवाप शोकः / / 34 / / तान् भूरिधाम्नश्चतुरोऽपि दूरं, ___ विहाय यामानिव वासरस्य / एकौघभूतं तदशर्म कृष्णां विभावरी ध्वान्तमिव प्रपेदे / / 35 / / तुषारलेखाऽऽकुलितोत्पलाभे, पर्यश्रुणी मङ्गलभङ्गभीरुः। / अगूढ भावाऽपि विलोकने, सा न लोचने मीलयितुं विषेहे // 36 / / प्रकृत्रिमप्रेमरसाभिरामं रामापितं दृष्टिविलोभि दृष्टम् / मनःप्रसादाञ्जलिना निकामं जग्राह पाथेयमिवेन्द्रसूनुः / 37 / धैर्यावसादेन हृतप्रसादा वन्यद्विपेनेव निदाघसिन्धुः / निरुद्धबाष्पोदयसन्नकण्ठमुवाच कृच्छादिति राजपुत्री / / 38 / / -- मग्नां द्विषच्छद्मनि पङ्कभूते, . सम्भावनां भूतिमिवोद्धरिष्यन् / प्राधिद्विषामा तपसां प्रसिद्धे . रस्मद्विना मा भृशमुन्मनीभूः / / 36 / / यशोऽधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसंख्यामतिवत्तितुं वा / निरुत्सुकानामभियोगभाजां समुत्सुकेवाङ्कमुपैति सिद्धिः / 40 / 25 . लोकं विधात्रा विहितस्य गोप्तुं, क्षत्रस्य मुष्णन् वसु जेत्रमोजः / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] [ काव्यषट्क तेजस्विताया विजयकवृत्ते, निघ्नन्प्रियं प्राणमिवाभिमानम् / / 41 / / ब्रीडानतराप्तजनोपनीतः,. संशय्य कृच्छे ण नपैः प्रपन्नः / वितानभूतं विततं पृथिव्यां ___यशः समूहन्निव दिग्विकीर्णम् // 42 // वीर्यावदानेषु कृतावमर्षस्तन्वन्नभूतामिव सम्प्रतीतिम् / कुर्वन्प्रयामक्षयमायतीनामर्कत्विषामह्न इवावशेषः / / 46 / / प्रसह्य योऽस्मासु परः प्रयुक्तः, स्मतुं न शक्यः किमुताधिकर्तुम् / नबीकरिष्यत्युपशुष्यदाः, स त्वद्विना मे हृदयं निकारः // 44 / / प्राप्तोऽभिमानव्यसनादसह्य दन्तीव दन्तव्यसनाद्विकारम् / द्विषत्प्रतापान्तरितोरुतेजाः शरद्धनाकीर्ण इवादिरह्नः / / 45 / / 15 सव्रीडमन्दैरिव निष्क्रियत्वान्नात्यर्थमस्त्रैरवभासमानः / यशःक्षयक्षीणजलार्णवाभस्त्वमन्यमाकारमिवाभिपन्नः / / 46 / / दुःशासनामर्षरजोविकीर्णरेभिविनाथैरिव भाग्यनाथैः / केशः कद कृतवीर्यसारः कच्चित्स एवासि धनञ्जयस्त्वम् 47 स क्षत्रियस्त्राणसहः सतां य स्तत्का, कं कर्मसु यस्य शक्तिः / वहन् द्वयीं यद्यफलेऽर्थजाते, करोत्यसंस्कारहतामिवोक्तिम् // 48 / / वीतौजसः सन्निधिमात्रशेषा, भवत्कृतां भूतिमपेक्षमाणाः / समानदुःखा इव नस्त्वदीयाः, सरूपतां पार्थ ! गुणा भजन्ते / / 46 / / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: तृतीयः सर्गः ] [ 269 आक्षिप्यमाणं रिपुभिः प्रमादा नागैरिवालूनसटं मृगेन्द्रम् / त्वां धूरियं योग्यतयाऽधिरूढा, दीप्त्या दिनश्रीरिव तिग्मरश्मिम् // 50 // करोति योऽशेषजनातिरिक्तां, सम्भावनामर्थवती क्रियाभिः / संसत्सु जाते पुरुषाधिकारे, न पूरणी तं समुपैति संख्या / / 51 / / प्रियेषु यः पाथ ! विनोपपत्ते. विचिन्त्यमानैः क्लममेति चेतः / तव प्रयातस्य जयाय तेषां; क्रियादधानां मघवा विघातम् / / 52 / / मा गाश्चिरायैकन्चरः प्रमादं, वसनसम्बाघशिवेऽपि देशे। मात्सर्यरागोपहतात्मनां हि, स्खलन्ति साधुष्वपि मानसानि / / 53 / / तदाशु कुर्वन्वचनं महर्षे मनोरथान्नः सफलीकुरुष्व / प्रत्यागतं त्वाऽस्मि कृतार्थमेघ - स्तनोपपीडं परिरब्धुकामा / / 54 / / उदीरितां तामिति याज्ञसेन्या नवीकृतोद्ग्राहितविप्रकाराम् / प्रासाद्य वाचं स भृशं दिदीपे काष्ठामुदोचीमिव तिग्मरश्मिः / / 55 / / 25 .प्रथाभिपश्यन्निव विद्विषः पुरः पुरोधसाऽऽरोपितहेतिसंहतिः / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] [ काव्यषट्क बभार रम्योऽपि वपुः स भीषणं गतः क्रियां मन्त्र इवाभिचारिकीम् // 56 / / अविलङ्घयविकर्षणं परैः / प्रथितज्यारवकर्म कामुकम् / .. अगतावरिदृष्गिोचरं शित निस्त्रिशयुजौ महेषुधी / / 57 / / यशसेव तिरोदधन्मुहुर्महसा गोत्रभिदायुधक्षतीः / कवचं च सरत्नमुद्वहज्वलितज्योतिरिवान्तरं दिवः / / 5 / / अलकाऽधिपभृत्यदशितं शिवमुर्वीधरवर्त्म संप्रयान् / 10 हृदयानि समाविवेश स क्षणमुद्बाष्पदृशां तपोभृताम् / / 56 / / अनुजगुरथ दिव्यं दुन्दुभिध्वानमाशाः सुरकुसुमनिपातोम्नि लक्ष्मीवितेने / प्रियमिव कथयिष्यन्नालिलिङ्ग स्फुरन्तीं भुवमनिभृतवेलावीचिबाहुः पयोधिः / / 60 / / 15 // इति महाकविश्रीभारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये तृतीयः सर्गः / / 3 / / // 4 // चतुर्थः सर्गः॥ ततः स कूजत्कलहंसमेखलां सपाकसस्याहितपाण्डुतागुणाम् / उपाससादोपजनं जनप्रियः प्रियामिवासादितयौवनां भुवम् / / 1 / / विनम्रशालिप्रसवौघशालि नीरपेतपङ्का ससरोरुहाम्भसः / ननन्द पश्यन्नुपसीम स स्थली रुपायनीभूतशरद्गुणश्रियः / / 2 / / Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्थः सर्गः ] . [ 271 निरीक्ष्यमाणा इव विस्मयाकुलैः . पयोभिरुन्मीलितपद्मलोचनै / हृतप्रियादृष्टिविलासविभ्रमा ___ मनोऽस्य जह.: शफरीविवृत्तयः / / 3 / / तुतोष पश्यन्कलमस्य सोऽधिक सवारिजे वारिणि रामणीयकम् / सुदुर्लभे नार्हति कोऽभिनन्दितु प्रकषलक्ष्मीमनुरूपसंगमे / / 4 / / नुनोद तस्य स्थलपद्मिनीगतं वितकमाविष्कृतफेनसंततिः / अवाप्तकिजल्कविभेदमुच्चकै विवृत्तपाठीनपराहतं पयः / / 5 / / कृतोमिरेखं शिथिलत्वमायता शनैः शनैः शान्तरयेण वारिणा / निरीक्ष्य रेमे. स समुद्रयोषितां तरङ्गितक्षौमविपाण्डुसैकतम् // 6 // मनोरम प्रापितमन्तरं ध्रुवो-. . रलंकृतं केसररेणुनाणुना। अलक्तताम्राधरपल्लवधिया समानयन्तीमिव बन्धुजीवकम् // 7 // नवातपालोहितमाहितं मुहु महानिवेशौ परितः पयोधरौ / चकासयन्तीमरविन्दजं रजः परिश्रमाम्भ पुलकेन सर्पता // 8 // कपोलसंश्लेषि विलोचनत्विषा विभूषयन्तीमवतंसकोत्पलम् / 25 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] . . [ काव्यषट्कं सुतेन पाण्डोः कलमस्य गोपिकां . निरीक्ष्य मेने शरदः कृतार्थता / / 6 / / उपारताः पश्चिमरात्रिगोचराद पारयन्तः पतितुं जवेन गाम् / तमुत्सुकाश्चक्रुरवेक्षणोत्सुकं गवां गणाः प्रस्नुतपीवरोधसः / / 10 / / परीतमुक्षावंजये जयश्रिया . नदन्तमुच्चैः क्षतसिन्धुरोधसम् / ददर्श पुष्टि दधतं स शारदीं. सविग्रहं दर्पमिवाधिपं गवाम् // 11 / / विमुच्यमानैरपि तस्य मन्थरं . गवां हिमानोविशदैःकदम्बकैः / शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं ... गलदुकूलैजघनैरिवादधे / / 12 / / गतान्पशूनां सहजन्मबन्धुतां गृहाश्रयं प्रेम वनेषु बिभ्रतः / ददर्श गोपानुपधेनु पाण्डवः __कृतानुकारानिव गोभिरार्जवे / / 13 / / परिभ्रमन्मूर्धजषट्पदाकुलैः स्मितोदयाशितदन्तकेसरैः / मुखैश्चलत्कुण्डलरश्मिरञ्जितै नवातपामृष्टसरोजचारुभिः // 14 / / निबद्धनिःश्वासविकम्पिताधरा .. ___ लता इव प्रस्फुरितैकपल्लवाः / व्यपोढपार्वैरपतितत्रिका विकर्षणैः पाणिविहारहारिभिः / / 15 // 25 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातर्जुनीयम् :: चतुर्थः सर्गः ] [273 व्रजाजिरेष्वम्बुदनादशङ्किनीः . शिखण्डिनामुन्मदयत्सु योषितः / मुहुः प्रणुन्नेषु मथां विवर्तन नदत्सु कुम्भेषु मृदङ्गमन्थरम् // 16 // स मन्धरावल्गितपीवरस्तनी: परिश्रमक्लान्तविलोचनोत्पलाः / निरीक्षितु नोपरराम बल्लवी रभिप्रनत्ता इव वारयोषितः / / 17 / / पपात पूर्वां जहतो विजिह्मतां वृषोपभुक्तान्तिकसस्यसम्पदः / रथाङ्गसीमन्तितसान्द्रकर्दमान् प्रसक्तसंपातपृथक्कृतान्पथः // 18 // जनरुपग्राममनिन्द्यकर्मभि विविक्तभावेङ्गितभूषणैर्वृताः / भृशं ददर्शाश्रममण्डपोपमाः सपुष्पहासाः स निवेशवीरुधः / / 16 / / ततः स संप्रेक्ष्य शरद्गुणश्रियं . शरद्गुणालोकनलोलचक्षुषम् / उवाच यक्षस्तमचोदितोऽपि गां न हीङ्गितज्ञोऽवसरेवसीदति / / 20 / / इयं शिवाया नियतेरिवायतिः कृतार्थयन्ती जगतः फलैः क्रियाः / जयश्रियं पार्थ ! पृथूकरोतु ते ... शरत्प्रसन्नाम्बुरनम्बुवारिदा / / 21 / / 25 उपैति सस्यं परिणामरम्यता नदीरनौद्धत्यमपङ्कतां महीम् / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] [ काव्यषट्कं नवैर्गुणैः संप्रतिः संस्तवस्थिर . तिरोहितं प्रेम धनागमश्रियः / / 22 / / पतन्ति नास्मिन्विशदाः पतत्रिणो धृतेन्द्रचापा न पयोदपङ्क्तयः / तथापि पुष्णाति नभः श्रियं परां न रम्यमाहार्यमपेक्षते गुणम् / / 23 / / विपाण्डुभिर्लानतया पयोधरै श्च्युताचिराभागुणहेमदामभिः / इयं कदम्बानिलभतु रत्यये .न दिग्वधूनां कृशता न राजते / / 24 // विहाय वाञ्छामुदिते मदात्यया दरक्तकण्ठस्य रुते शिखण्डिनः / श्रुतिः श्रयत्युन्मदहंसनिःस्वनं गुणाः प्रियत्वेऽविकृता न संस्तवः / / 25 / / प्रमी पृथुस्तम्बभृतः पिशङ्गतां गता विपाकेन फलस्य शालयः / / विकासि वप्राम्भसिगन्धसूचितं नमन्ति निघ्रातुमिवासितोत्पलम् // 26 // मृणालिनीनामनुरञ्जितं त्विषा विभिन्नमम्भोजपलाशशोभया। पयः स्फुरच्छालिशिखापिशङ्गितं द्रुतं धनुष्खण्डमिवाहिविद्विषः - // 27 / / विपाण्डु संव्यानमिवानिलोद्धतं निरुन्धतीः सप्तपलाशज रजः / अनाविलोन्मीलितबाणचक्षुषः सपुष्पहासा वनराजियोषितः // 28 // 25 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पंचमः सर्गः ] [ 275 अदीपितं वैद्युतजातवेदसा . सिताम्बुदच्छेदतिरोहितातपम् / - ततान्तरं सान्तरवारिसीकरः शिवं नभोवर्त्म सरोजवायुभिः / / 29 / / सितच्छदानामपदिश्य धावतां रुतैरमीषां ग्रथिताः पतत्त्रिणाम् / प्रकुर्वते वारिदरोधनिर्गताः परस्परालापमिवामला दिशः // 30 / / विहारभूमेरभिघोषमुत्सुकाः शरीरजेभ्यश्च्युतयूथपङ्क्तयः / असक्तमूधांसि पयःक्षरन्त्यमू रुपायनानीव नयन्ति धेनवः // 31 / / जगत्प्रसूतिर्जगदेकपावनी व्रजोपकण्ठं तनयैरुपेयुषी / द्युति समग्रां समितिर्गवामसा पैति मन्वैरिव संहिताहुतिः / / 32 / / कृतावधानं जितबहिणध्वनौ सुरक्तगोपीजनगीतनि:स्वने / इदं जिघत्सामपहाय भूयसीं . न सस्यमभ्येति मृगीकदम्बकम् // 33 // असावनास्थापरयावधीरितः ___ सरोरुहिण्या शिरसा नमन्नपि / उपैति शुष्यन्कलमः सहाम्भसा मनोभुवा तप्त इवाभिपाण्डुताम् // 34 / / अमी समुद्भूतसरोजरेणुना हृता हृतासारकणेन वायुना। 25 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] [ काव्यषट्कं उपागमे दुश्चरिता इवापदां .. गति न निश्चेतुमलं शिलीमुखाः / / 35 / / मुखैरसौ विद्रुमभङ्गलोहितः शिखाः पिशङ्गीः कलमस्य बिभ्रती / शुकावलिय॑क्तशिरीषकोमला धनुःश्रियं गोत्रभिदोऽनुगच्छति // 36 / / इति कथयति तत्र नातिदूरा दथ' ददृशे पिहितोष्णरश्मिबिम्बः / विगलितजलभारशुक्लभासां ... निचय इवाम्बुमुचां नगाधिराजः / / 37 / / लमतनूवनराजिश्यामितोपत्यकान्तं . नगमुपरिहिमानीगौरमासाद्य जिष्णः / व्यपगतमदरागस्यानुसस्मार लक्ष्मी मसितमजरवासो बिभ्रतः सीरपाणेः / / 38 / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये चतुर्थः सर्गः // 4 // // 5 // पञ्चमः सर्गः॥ ( दुतविलम्बितवृत्तम् ) अथ जयाय नु मेरुमहीभृतो . रभसया नु दिगन्तदिदृक्षया / . अभिययो स हिमाचलमुच्छ्रितं समदितं न विलयितु नभः // 1 // तपनमण्डलदीपितमेकतः / सततनशतमोवृतमन्यतः। 15 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पंचमः सर्गः ] [ 277 हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः शिवमिवानुगतं गजचर्मणा // 2 // क्षितिनभःसुरलोकनिवासिभिः कृतनिकेतमदृष्टपरस्परैः। प्रथयितु विभुतामभिनिर्मितं प्रतिनिधि जगतामिव शम्भूना // 3 // भुजगराजसितेन नभःश्रिता कन कराजिविराजितसानुना। समुदितं निचयेन तडित्वतीं लघयता शरदम्बुदसंहतिम् / / / 4 / / मणिमयूखचयांशुकभासुराः सुरवधूपरिभुक्तलतागृहाः / / दधतमुच्चशिलान्तरंगोपुराः / पुर इवोदितपुष्पवना भुवः / / 5 / / अविरतोज्झितवारिविपाण्डभि विरहितैरचिरद्युतितेजसा। उदितपक्षमिवारतनिःस्वनः . पृथुनितम्बविलम्बिभिरम्बुदैः / / 6 / / दधतमाकरिभिः करिभिः क्षतैः ... समवतारसमैरसमैस्तटैः / विविधकामहिता महिताम्भसः / ... स्फुटसरोजवना जवना नदीः // 7 / / नवविनिद्रजपाकुसुमत्विषां द्युतिमतां निकरेण महाश्मनाम् / 25 विहितसान्ध्यमयूखमिव क्वचि निचितकाञ्चनभित्तिषु सानुषु // 8 // Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] [ काव्यषट्कं पृथुकदम्बकदम्बकराजितं ग्रथितमालतमालवनाकुलम् / लघुतुषारतुषारजलश्च्युतं धृतसदानसदाननदन्तिनम् / / / / रहितरत्नचयान्न शिलोच्चया नपलताभवना न दरीभुवः / / विपुलिनाम्बुरुही न सरिद्वधू रकुसुमान्दधतं न महीरुहः / / 10 / / व्यथितसिन्धुमनीरशनैः शनै रमरलोकवधूजघनैर्धनैः / फणभृतामभितो विततं ततं दयितरम्यलताबकुलैः कुलैः // 11 / / ससुरचापमनेकमणिप्रभ - रपपयोविशदं हिमपाण्डुभिः / अविचलं शिखरैरुपबिभ्रतं. ध्वनितसूचितमम्बुमुचां चयम् // 12 / / विकचवारिरुहं दधतं सरः सकलहंसगणं शुचि मानसम् / शिवमगात्मजया च कृतेjया सकलहं सगणं शुचिमानसम् // 13 / / ग्रहविमानगणानभितो दिवं ज्वलयतौषधिजेन कृशानुना। मुहुरनुस्मरयन्तमनुक्षपं त्रिपुरदाहमुमापतिसेविनः // 14 / / विततशीकरराशिभिरुच्छितै : रुपलरोधविवर्तिभिरम्बुभिः / 25 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पंचमः सर्गः ] [279 दधतमुन्नतसानुसमुद्धतां धृतसितव्यजनामिव जाह्नवीम् // 15 // अनुचरेण धनाधिपतेरथो नगविलोकन विस्मितमानसः / स जगदे वचनं प्रियमादरा मखरताऽवसरे हि विराजते / / 16 / / अलमेष विलोकितः प्रजानां सहसा संहतिमंहसां विहन्तुम् / घनवर्त्म सहस्रव कुर्वन्हिम ___ गौरैरचलाधिप: शिरोभिः / / 17 / / इह दुरधिगमैः किञ्चिदेवागमैः सततमसुतर वर्णयन्त्यन्तरम् / अमुमतिविपिनं वेद दिग्व्यापिनं पुरुषमिव परं पद्मयोनिः परम् / / 18 // रुचिरपल्लवपुष्पलतागृहै रुपलसज्जलजलराशिभिः / नयति सन्ततमुत्सुकतामय घतिमतीरुपकान्तमपि स्त्रियः // 16 / / सुलभैः सदा नयवतायवता निधिगुह्यकाधिपरमैः परमैः / अमुना धनैः क्षितिभृतातिभृता ___ समतीत्य भाति जगती जगती / 33 / / अखिलमिदममुष्य गौरीगुरो . स्त्रिभवनमपि नैति मन्ये वामनः / 25 अधिवसति सदा यदेनं जनै-'. रविदितविभवो भहस्रसंख्याम् // 34 // Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ] ... [ काव्यषटकं वीतजन्मजरसं परं शुचि / ___ब्रह्मणः पदमुपैतुमिच्छताम् / प्रागमादिव तमोपहादितः सम्भवन्ति मतयो भवच्छिदः / / 22 / / दिव्यस्त्रीणां सचरणलाक्षारागा रागायाते निपतितपुष्पापीडाः / .. पीडाभाजः कुसुमचिताः साशंसं शंसन्त्यस्मिन्सुरतविशेषं शय्याः / / 23 / / गुणसम्पदा समधिगम्य परं / महिमानमत्र महिते जगताम् / नयशालिनि श्रिय * इवाधिपती विरमन्ति न ज्वलितुमौषधयः / / 24 / / कुररीगणः कृतरवस्तरवः कुसुमानताः सकमलं कमलम् / इह सिन्धवश्च वरणावरणाः .. करिणां मुदे सनलदानलदाः / / 25 / / सादृश्यं गतमपनिद्रचूतगन्धै रामोदं मदजलसेकजं दधानः / एतस्मिन्मदयति कोकिलानकाले . लीनालिः सुरकरिणां कपोलकाष: / / 26 / / सनाकवनितं नितम्बरुचिरं चिरं सुनिनदैर्नदेवतममुम् / . मता फरणवतोऽवतो रसपरा परास्तवसुधा सुधाधिधसति / / 27 / / श्रीमल्लताभवनमोषधयः प्रदीपाः / / शय्या नवानि हरिचन्दनपल्लवानि / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पंचमः सर्गः ] [ 281 अस्मिन्सतश्रमनुदश्चसरोजवाताः स्म दिशन्ति न दिवःसुरसुन्दरीभ्यः // 28 // ईशार्थमम्भसि चिराय तपश्चरन्त्या यादोविलङ्घनविलोलविलोचनायाः / आलम्बताग्रकरमत्र भवो भवान्याः ___ श्च्योतन्निदाघसलिलागुलिना करेण // 26 // येनापविद्धसलिलः स्फुटनागसद्मा देवासुरैरमतमम्बुनिधिर्ममन्थे / व्यावर्तनैरहिपतेरयमाहिताङ्कः खं व्यालिखन्निव विभाति स मन्दराद्रिः / 30 / नीतोच्छायं मुहरशिशिररश्मेरुस्र रानीलाभैविरचितपरभागा रत्नैः / ज्योत्स्नाशङ्कामिह वितरति हंसश्येनी मध्येऽप्यह्नः स्फटिकरजतभित्तिच्छाया / / 31 / / दधत इव विलासशालि नृत्यं मृदु पतता पवनेन कम्पितानि / इह ललितविलासिनीजनभ्र - गतिकुटिलेषु पयःसु पङ्कजानि // 32 / / अस्मिन्नगृह्यत पिनाकभृता सलील माबद्धवेपथुरधीरविलोचनायाः / विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः / / 33 / / कामद्भिर्घनपदवीमनेकसंख्यै स्तेजोभिः शुचिमणिजन्मभिविभिन्नः / 25 . उस्राणां व्यभिचरतीव सप्तसप्तेः पर्यस्यन्निह निचयः सहस्रसंख्याम् // 34 / / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ] [ काव्यषटकं व्यधत्त यस्मिन्पुरमुच्चगोपुरं. पुरा विजेतुधूतये धनाधिपः / स एव कैलास उपान्तसपिणः करोत्यकालास्तमयं विवस्वतः / / 35 / / नानारत्नज्योतिषां सन्निपातै ___श्छन्नेष्वन्तःसानु वप्रान्तरेषु / बद्धांबद्धां भित्तिशङ्काममुष्मि नावानावान्मातरिश्वा निहन्ति / / 36 / / रम्या नवद्युतिरपैति न शाद्वलेभ्यः श्यामीभवन्त्यनुदिनं नलिनीवनानि / अस्मिन्विचित्रकुसुमस्तबकाचितानां शाखाभृतां परिणमन्ति न पल्लवानि // 37 / / परिसरविषयेषु लीढमुक्ता हरिततृणोद्गमशङ्कया मृगीभिः / इह नवशुककोमला मणीनां रविकरसंवलिताः फलन्ति भासः / / 38 / / उत्फुल्लस्थलनलिनीवनादमुष्मा दुद्भूतः सरसिजसम्भवः परागः / वात्याभिवियति विवर्तितः समन्ता दाधत्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीम् // 36 / / इह सनियमयोः सुरापगाया मुषसि सयावकसव्यपादरेखा / कथयति शिवयोः शरीरयोगं विषमपदा पदवी विवर्तनेषु // 40 / / समूर्च्छतां रजतभित्तिमयूखजाल- . रालोलपादपलतान्तरनिर्गतानाम् / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पचमः सर्गः ] [ 283 . ता धर्मातेरिह - मुहुः पटलानि धाम्ना मादर्शमण्डलनिभानि समुल्लसन्ति // 41 / / शुक्लैर्मयूखनिचयैः परिवीतमूर्ति र्वप्राभिघातपरिमण्डलितोरदेहः / शृङ्गाण्यमुष्य भजते गणभर्तु रुक्षा कुर्वन्वधूजनमनःसु शशाङ्कशङ्काम् / / 42 // सम्प्रति लब्धजन्म शनकैः कथमपि लघुनि क्षीणपयस्युपेयुषि भिदां जलधरपटले / खण्डितविग्रहं बलभिदो धनुरिह विविधाः पूरयितु भवन्ति विभवः शिखरमणिरुचः / / 43 / / स्नपितनवलतातरुप्रवाल रमृतलवस्नुतिशालिभिर्मयूखैः / / सततमसितयामिनीष शम्भो _____ रमलयतीह वनान्तमिन्दुलेखा // 44 / / क्षिपति योऽनुवनं विततां बृह बृहतिकामिव रौचनिकी रुचम् / अयमनेकहिरण्मयकन्दरस्तव पितुर्दयितो जगतीधरः // 45 // . सक्ति जवादपनयत्यनिले लतानां वैरोचनैद्विगुणिताः सहसा मयूखैः / रोधोभुवां मुहुरमुत्र हिरण्मयीनां भासस्तडिद्विलसितानि विडम्बयन्ति / / 46 / / कषणकम्पनिरस्तमहाहिभिः क्षणविमत्तमतङ्गजवजितैः / / इह मदस्नपितैरनुमीयते सुरगजस्य गतं हरिचन्दनैः // 47 / / // 44 / / 25 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्क जलदजालधनरसिताश्मना- .. मुपहतप्रचयेह मरीचिभिः / भवति दीप्तिरदीपितकन्दरा तिमिरसंवलितेव विवस्वतः / / 48 / / भव्यो भवन्नपि मुनेरिह शासनेन क्षाने स्थितः पथि तपस्य हतप्रमादः / प्रायेण सत्यपि हितार्थकरे विधौ हि श्रेयांसि लब्धुमसुखानि विनान्तरायैः / / 49 / / मा भूवन्नपथहृतस्तवेन्द्रियाश्वाः सन्तापे दिशतु शिव: शिवां प्रसक्तिम् / रक्षन्तस्तपसि बलं च लोकपालाः कल्याणीमधिकफलां क्रियां क्रियासुः / / 50 / / इत्युक्त्वा सपदि हितं प्रियं प्रिया धाम स्वं गतवति राजराजभृत्ये / सोत्कण्ठं किमपि पृथासुतः प्रदध्यौ संधत्ते भृशमरति हि सद्वियोगः / / 51 / / तमनतिशयनीयं सर्वतः सारयोगा- . दविरहितमनेकेनाङ्कभाजा फलेन / अकृशमकृशलक्ष्मीश्चेतसाशंसितं स स्वमिव पुरुषकारं शैलमभ्याससाद // 52 / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये पञ्चमः सर्गः / / 5 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 285 (3) किरातार्जुनीयम् :: षष्ठः सर्गः ] // 6 // षष्ठः सर्गः॥ रुचिराकृतिः कनकसानुमथो परमः पुमानिव पति पतताम् / धृतसत्पथस्त्रिपथगामभितः स तमारुरोह पुरुहूतसुतः // 1 // तमनिन्द्यबन्दिन इवेन्द्रसुतं विहितालिनिक्वणजयध्वनयः / पवनेरिताकुलविजिह्मशिखा ____जगतीरुहोऽवचकरुः कुसुमैः / / / 2 / / अवधूतपङ्कजपरागकणा स्तनुजाह्नवीसलिलवीचिभिदः / परिरेभिरेऽभिमुखमेत्य सुखाः सुहृदः सखायमिव तं मरुतः // 3 / / उदितोपलस्खलनसंवलिताः स्फुटहंसंसारसविरावयुजः / मुदमस्य माङ्गलिकतूर्यकृतां _ध्वनयः प्रतेनुरनुवप्रमपाम् // 4 / / अवरुग्णतुङ्गसुरदारुतरौ निचये पुरः सुरसरित्पयसाम् / स ददर्श वेतसवनाचरितां प्रणति बलीयसि समृद्धिकरीम् / / 5 / / प्रबभूव नालमवलोकयितु ___परितः सरोजरजसारुणितम् / सरिदुत्तरीयमिव संहतिमत्स तरङ्गरङ्गि कलहंसकुलम् / / 6 / / 25 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] [ काव्यषट्क दधति क्षतीः परिणतद्विरदे. मुदितालियोषिति मदन तिभिः / अधिकां स रोधसि बबन्ध धर्ति __महते रुजन्नपि गुणाय महान् // 7 / / अनुहेमवप्रमरुणैः समतां गतमूर्मिभिः सहचरं पृथुभिः / स रथाङ्गनामवनितां करुण रनुबध्नतीमभिननन्द रुतैः / 8 / / सितवाजिने निजगदू रुचय ___ श्चलवीचिरागरचनापटवः / मणिजालमम्भसिनिमग्नमपि स्फुरितं मनोगतमिवाकृतयः / / 6 / / उपलाहतोद्धततरङ्गधृतं / जविना विधूतविततं मरुता। स ददर्श केतकशिखाविशदं सरितः प्रहासमिव फेनमपाम् // 10 // बहु बहिचन्द्रकनिभं विदधे धृतिमस्य दानपयसां पटलम् / अवगाढमीक्षितुमिवेभपति विकसद्विलोचनशतं सरितः // 11 / / प्रतिबोधजृम्भणविभिन्नमुखी पुलिने सरोरुहशा ददृशे / पतदच्छमौक्तिकमणिप्रकरा गलदश्रुबिन्दुरिव शुक्तिवधूः // 12 / / शुचिरप्सु विद्रुमलताविटप स्तनुसान्द्रफेनलवसंवलितः / 25 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षष्ठः सर्गः ] [287 स्मरदायिनः स्मरयति स्म भृशं दयिताधरस्य दशनांशुभृतः / / 13 / / उपलभ्य चञ्चलतरङ्गधृतं मदगन्धमुत्थितवतां पयसः / प्रतिदन्तिनामिव स सम्बुबुधे ___ करियादसामभिमुखान्करिणः / / 14 / / स जगाम विस्मयमुदीक्ष्य पुरः / ___सहसा समुत्पिपतिषोः फणिनः / प्रहितं दिवि प्रजविभिः श्वसितैः शरदभ्रविभ्रममपां पटलम् / / 15 / / स ततार सैकतवतीरभितः शफरीपरिस्फुरितचारुदृशः / ललिताः सखीरिवं बृहज्जघनाः सुरनिम्नगामुपयती: सरितः // 16 / / अधिरुह्य पुष्पभरनम्रशिखैः परितः परिष्कृततला तरुभिः / / मनसः प्रसत्तिमिव मूनि गिरेः शुचिमाससाद स वनान्तभुवम् // 17 / / अनुसानु पुष्पितलताविततिः .. फलितोरुभूरुहविविक्तवनः / धृतिमाततान तनयस्य हरे... स्तपसेऽधिवस्तुमचलामचलः // 18 / / प्रणिधाय तत्र विधिनाथ धियं दधतः पुरातनमुने, निताम् / 25. श्रममादधावसुकरं न तपः किमिवावसादकरमात्मवताम् // 16 / / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] [ काव्यषट्क शमयन्धतेन्द्रियशमैकसुखः / - शुचिभिर्गुणैरघमयं स तमः प्रतिवासरं सुकृतिभिर्ववृधे विमलः कलाभिरिव शीतरुचिः / / 20 / / अधरीचकार च विवेकगुणाद गुणेषु तस्य धियमस्तवतः / प्रतिघातिनी विषयसङ्गरति निरुपप्लवः शमसुखानुभवः / / 21 / / मनसा जपैः प्रणतिभिः प्रयत: ___समुपेयिवानधिपति स दिवः / सहजेतरौ जयशमौ दधती बिभराम्बभूव युगपन्महसी / / 22 / / शिरसा हरिन्मणिनिभः स वह कृतजन्मनोऽभिषवणेन जटाः / उपमां ययावरुणदीधितिभिः परिष्टमूर्धनि तमालतरौ // 23 / / धृतहेतिरप्यधृतजिह्ममति ___श्चरितैमुनीनधरयञ्शुचिभिः / रचयाञ्चकार विरजाः स मृगांक मिवेशते रमयितुं न गुणाः // 24 / / अनुकुलपातिनमचण्डगति किरता सुगन्धिमभितः पवनम् / अवधीरितार्तवगुणं सुखतां नयता रुचां निचयमंशुमतः / / 25 / / नवपल्लवाञ्जलिभृतः प्रचये बृहतस्तरूनगमयतावनतिम् / 25 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 286 स्तृणता तृणैः प्रतिनिशं मृदुभिः शयनीयामुपयती वसुधाम् // 26 / / पतितैरपेतजलदान्नभसः, पृषतैरपां शमयता च रजः / स दयालुनेव परिगाढकृशः, परिचर्ययानुजगृहे तपसा / / 27 / / महते फलाय तदवेक्ष्य शिवं विकसन्निमित्तकुसुमं स पुरः / न जगाम विस्मयवशं वशिनां / न निहन्ति धैर्यमनुभावगुणः // 28 // तदभूरिवासरकृतं सुकृतै ___ रुपलभ्य वैभवमनन्यभवम् / उपतस्थुरास्थितवषादधियः / _शतयज्वनो वनचरा वसतिम् / / 26 / / विदिताः प्रविश्य विहितानतयः शिथिलीकृतेऽधिकृत्यविधौ / / अनपेतकालमभिरामकथाः / कथयाम्बभूवुरिति, गोत्रभिदे // 30 / / शुचिवल्कवीततनुरन्यतम. स्तिमिरच्छिदामिव गिरौ भवतः / महते जयाय मघवन्ननघः . पुरुषस्तपस्यति तपञ्जगतीम् // 31 / / स बिभर्ति भीषणभुजङ्गभुजः पृथुः विद्विषां भयविधायि धनुः / 25 / अमलेन तस्य धृतसच्चरिता श्चरितेन चातिशयिता मुनयः // 32 // Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] [ काव्यषट्कं मरुतः शिवा नवतृणा जगती .. विमलं नभो रजसि वृष्टिरपाम् / गुणसम्पदानुगुणतां गमितः कुरुतेऽस्य भक्तिमिव भूतगण: / / 33 / / इतरेतरानभिभवेन मृगा __स्तमुपासते गुरुमिवान्तसदः / विनमन्ति चास्य तरवः प्रचये परवान्स तेन ,भवतेव नगः / / 34 / / उरु सत्त्वमाह विपरिश्रमता परमं वपुः प्रथयतीव जयम् / शमिनोऽपि तस्य नवसङ्गमने विभुतानुषङ्गि भयमेति जनः / / 35 / / ऋषिवंशजः स यदि दैत्यकुले यदि वान्वये महति भूमिभृताम् / चरतस्तपस्तव वनेषु सहा न वयं निरूपयितुमस्य गतिम् // 36 / / विगणय्य कारणमनेकगुणं निजयाऽथवा कथितमल्पतया / असदप्यदः सहितुमर्हसि नः क्व वनेचराः क्व निपुणा यतयः / / 37 / / अधिगम्य गुह्यकगणादिति त __ न्मनसः प्रियं प्रियसुतस्य तपः / निजुगोप हर्षमुदितं मघवा ____नयवर्त्मगाः प्रभवतां हि धियः // 38 / / प्रणिधाय चित्तमथ भक्ततया विदितेऽप्यपूर्व इव तत्र हरिः / 25 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 261 5 उपलब्धुमस्य नियमस्थिरता सुरसुन्दरीरिति वचोऽभिदधे // 36 / / सुकुमारमेकमणु मर्मभिदा मतिदूरगं युतममोघतया / अविपक्षमस्त्रमपरं कतम द्विजयाय यूयमिव चित्तभुवः // 40 // भववीतये हतबृहत्तमसा मवबोधवारि रजसः शमनम् / परिपीयमाणमिव वोऽसकलै रवसादमेति नयनाञ्जलिभिः // 41 / / बहुधा गतां जगति भूतसृजा कमनीयतां समभिहृत्य पुरा / उपपादिता विदधता भवतीः. ___ सुरसद्मयानसुमुखी जनता // 42 / / तदुपेत्य विघ्नयत तस्य तपः कृतिभिः कलासु सहिताः सचिवैः / हृतवीतरागमनसां ननु वः सुखसङ्गिनं प्रति सुखावजितिः // 43 // अविमृष्यमेतदभिलष्यति स द्विषतां वधेन विषयाभिरतिम् / भववीतये न हि तथा स विधि: . क्व शरासनं क्व च विमुक्तिपथः / / 44 / / पृथुधाम्नि तत्र परिबोधि च मा भवतीभिरन्यमुनिवद्विकृतिः / स्वयशांसि विक्रमवतामवतां न वधूष्वघानि विमृषन्ति धियः // 45 // 25 / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 ] [ काव्यषटकं आशंसितापचितिचारु पुरः सुरा णामादेश मित्यभिमुखं समवाप्य भतु: / लेभे परां द्युतिममर्त्यवधूसमूहः सम्भावना ह्याधिकृतस्य तनोति तेजः / 46 / प्रणतिमथ विधाय प्रस्थिताः सद्मनस्ताः __स्तनभरनमिताङ्गीरङ्गनाः प्रीतिभाजः / अचलनलिनलक्ष्मीहारि नालं बभूव स्तिमितममरभर्तु द्रष्टुमक्षणां सहस्रम् / / 47 / / / / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये षष्ठः सर्गः // 6 // ... // 7 // सप्तमः सर्गः॥ श्रीमद्भिः सरथगजैः सुराङ्गनानां गुप्तनामथ सचिवैस्त्रिलोक तुः / संमूर्च्छन्नलघुविमानरन्ध्रभिन्नः, प्रस्थानं समभिदधे मृदङ्गनाद: / / 1 / / सोत्कण्ठैरमरगणैरनुप्रकी निर्याय ज्वलितरुचः पुरान्मघोनः / रामाणामुपरि विवस्वतः स्थितानां नासेदे चरितगुणत्वमातपत्रः / / 2 / / धूतानामभिमुखपातिभिः समीरै रायासादविशदलोचनोत्पलानाम् / . आनिन्ये मदजनितां श्रियं वधूना ...मुष्णांशुद्युतिजनितः कपोलरागः / / 3 / / तिष्ठद्भिः कथमपि देवतानुभावा- . . दाकृष्टः प्रजविभिरायतं तुरङ्गैः / Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 263 नेमीनामसप्ति विवर्तने रथौ घेरासेदे वियति विमानवत्प्रवृत्तिः / / 4 / / कान्तानां कृतपुलकः स्तनाङ्गरागे वक्त्रेषु च्यूततिलकेषु मौक्तिकाभः / सम्पेदे श्रमसलिलोद्गमो विभूषां ____रम्याणां विकृतिरपि श्रियं तनोति / / 5 / / राजद्भिः पथि मरुतामभिन्नरूपै रुल्काचिःस्फुटगतिभिर्वजांशुकानाम् / तेजोभिः कनकनिकाषराजिगौरै रायामः क्रियत इव स्म सातिरेक: / / 3 / / रामाणामवजितमाल्यसौकुमार्ये ___ सम्प्राप्ते वपुषि सहत्वमातपस्य / गन्धर्वैरधिगतविस्मंयैः प्रतीये . कल्याणी विधिषु विचित्रता विधातुः / / 7 / / सिन्दूरैः कृतरुचयः सहेमकक्ष्याः स्रोतोभिस्त्रिदशगजा मदं क्षरन्तः / सादृश्यं ययुररुणांशुरागभिन्न वर्षद्भिः स्फुरितशतह्रदैः पयोदैः / / 8 / / प्रत्यर्थं दुरुपसदादुपेत्य . दूरं पर्यन्तादहिममयूखमण्डलस्य / आशानामुपरचितामिवैकवेणी रम्योमि त्रिदशनदीं ययुर्बलानि // 6 // अामत्तभ्रमरकुलाकुलानि धुन्व न्नुद्धतग्रथितरजांसि पङ्कजानि / ‘कान्तानां गगननदीतरङ्गशीतः संतापं विरमयति स्म मातरिश्वा / / 10 / / 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] . [ काव्यषट्कं सम्भिन्नैरिभतुरगावगाहनेन . प्राप्योरिनु पदवीं विमानपङ्कीः / तत्पूर्वं प्रतिविदधे सुरापगाया वप्रान्तस्खलितविवर्तनं पयोभिः / / 11 / / क्रान्तानां ग्रहचरितात्पथो रथानाम क्षारक्षतसुरवेश्मवेदिकानाम् / निःसङ्गं प्रधिभिरुपाददे विवृत्तिः संपीडक्षुभितजलेषु तोयदेषु / / 12 / / तप्तानामुपदधिरे विषाणभिन्नाः / प्रह्लादं सुरकरिणां घनाः क्षरन्तः / युक्तानां खलु महतां परोपकारे कल्याणी भवति रुजत्स्वपि प्रवृत्तिः / / 13 / / संवाता मुहरनिलेन नीयमाने दिव्यस्त्रीजघनवरांशुके विवृत्तिम् / पर्यस्यत्पृथुमणिमेखलांशुजालं सञ्जज्ञे युतकमिवान्तरीयमूर्वोः / / 14 / / प्रत्यार्दीकृततिलकास्तुषारपातैः प्रह्लादं शमितपरिश्रमा दिशन्तः / कान्तानां बहुमतिमाययुः पयोदा नाल्पीयान्बहु सुकृतं हिनस्ति दोषः / / 15 / / यातस्य ग्रथिततरङ्गसकताभे विच्छेदं विपयसि वारिवाहजाले / आतेनुस्त्रिदशवधूजनाङ्गभाजां _____संधानं सुरधनुषः प्रभा मणीनाम् // 16 / / संसिद्धावितिकरणीयसंनिबद्ध रालापैः पिपतिषतां विलङ्घय वीथीम् / 25. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 265 आसेदे दशशतलोचनध्वजिन्या ___ जीमूतैरपिहितसानुरिन्द्रकीलः // 17 / / पाकीर्णा मुखनलिनविलासिनी नामुख़्तस्फुटविशदातपत्रफेना / सा तूर्यध्वनितगभीरमापतन्ती भूभतु : शिरसि नभोनदीव रेजे / / 18 / / सेतुत्वं दधति पयोमुचां विताने - संरम्भादभिपततो रथाजवेन / आनिन्युनियमितरश्मिभुग्नघोणाः कृच्छण क्षितिमवनामिनस्तुरङ्गाः / / 16 / / माहेन्द्र नगमभितः करेणुवर्याः पर्यन्तस्थितजलदा दिवः पतन्तः / सादृश्यं निलयननिष्प्रकम्पपक्ष राजग्मुर्जलनिधिशायिभिनगेन्द्रैः / / 20 / / उत्सङ्गे समविषमे समं महाद्रेः कान्तानां वियदभिपातलाघवेन / आमूलादुपनदि सैकतेषु लेभे ___ सामग्री खुरपदवी तुरङ्गमाणाम् / / 21 / / सध्वानं निपतितनिर्भरासु मन्द्रः सम्मूच्र्छन्प्रतिनिनदैरधित्यकासु / उद्ग्रीवैर्घनरवशङ्कया मयूरैः ___ सोत्कण्ठं ध्वनिरुपशुश्रुवे रथानाम् / / 22 / / संभिन्नामविरलपातिभिर्मयूखे र्नीलानां भृशमुपमेखलं मणीनाम् / 25 . ' विच्छिन्नामिव वनिता नभोन्तराले वप्राम्भःस्र तिमवलोकयांबभूवुः // 23 / / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] [ काव्यषट्कं आसन्नद्विपपदवीमदानिलाय. क्रुध्यन्तो धियमवमत्य धूर्गतानाम् / सव्याजं निजकरिणीभिरात्तचित्ताः __प्रस्थानं सुरकरिणः कथञ्चिदीषुः / / 24 / / नीरन्ध्र पथिषु रजो रथाङ्गनुन्न / पर्यस्यन्नवसंलिलारुणं वहन्ती। आतेने वनगहनानि वाहिनी सा ___घर्मान्तक्षुभितजलेव जह्न कन्या // 25 / / सम्भोगक्षमगहनामथोपगङ्गं - बिभ्राणां ज्वलितमणीनि सैकतानि / अध्यूषुश्च्युतकुसुमाचितां सहाया वृत्रारेरविरलशाद्वलां धरित्रीम् / / 26 / / भूभ तुः समधिकमादधे तंदोाः श्रीमत्तां हरिसखवाहिनीनिवेशः / संसक्तौ किमसुलभं महोदयाना मुछायं नयति यहच्छयापि योगः / / 27 / / सामोदाः कुसुमतरुश्रियो विविक्ताः सम्पत्तिः किसलयशालिनीलतानाम् / साफल्यं ययुरमराङ्गनोपभुक्ताः सा लक्ष्मीरुपकुरुते यया परेषाम् / / 28 / / क्लान्तोऽपि त्रिदशवधूजनः पुरस्ता ल्लीनाहिश्वसितविलोलपल्लवानाम् / सेव्यानां हतविनयरिवावृतानां सम्पर्क परिहरति स्म .चन्दनानाम् / / 29 / / उत्सृष्टध्वजकुथकङ्कटा धरित्री- . मानीता विदितनये. श्रमं विनेतुम् / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 267 पाक्षिप्तद्रुमगहना युगान्तवातः पर्यस्ता गिरय इव द्विपा विरेजुः / / 30 / / प्रस्थानश्रमजनितां विहाय निद्रामामुक्ते गजपतिना सदानपके / शय्यान्ते कुलमलिनां क्षणं विलीनं संरम्भच्युतमिव शृङ्खलं चकाशे // 31 // आयस्त: सुरसरिदोघरुद्धवर्मा सम्प्राप्तुं वनगजदानगन्धि रोधः / मूर्धानं निहितशिताकुशं विधुन्वन् यन्तारं न विगणयाञ्चकारं नागः // 32 // मारोढुः समवनतस्य पीतशेषे साशकं पयसि समीरिते करेण / संमार्जन्नरुणमदस्र ती कपोलो ___ सस्यन्दे मद इव शीकरः करेणोः / / 33 / / आघ्राय क्षणमतितृष्यताऽपि रोषादुत्तीरं निहितविवृत्तलोचनेन / सम्पुक्तं वनकरिणी मदाम्बुसेकै चिमे हिममपि वारि वारणेन // 34 / / प्रश्च्योतन्मदसुरभीणि निम्नगायाः क्रीडन्तो गजपतयः पयांसि कृत्वा / किजल्कव्यवहितताम्रदानलेखै रुत्तेरुः सरसिजगन्धिभिः कपोलैः / / 35 / / पाकीणं बलरजसा घनारुणेन प्रक्षोभैः सपदि तरङ्गितं तटेषु / मातङ्गोन्मथितसरोजरेणुपिङ्गं - माजिष्ठं वसनमिवाम्बु निर्बभासे / / 36 / / 25 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] [ काव्यषट्कं श्रीमद्भिनियमितकन्धरापरान्तैः संसक्तैरगुरुवनेषु साङ्गहारम् / सम्प्रापे निसृतमदाम्बुभिर्गजेन्द्रः प्रस्यन्दिप्रचलितगण्डशैलशोभा // 37 / / निःशेष प्रशमितरेणु वारणानां स्रोतोभिर्मदजलमुज्झतामजस्रम् / : आमोदं व्यवहितभूरिपुष्पगन्धो भिन्नलासुरभिमुवाह गन्धवाहः // 38 / / सादृश्यं दधति गभीरमेघघोष रुन्निद्रक्षुभितमृगाधिपश्रुतानि / आतेनुश्चकितचकोरनीलकण्ठा कच्छान्तानमरमहेभबृहितानि // 39 // शाखावसक्तकमनीयपरिच्छ . दानामध्वश्रमातुरवधूजनसेवितानाम् / जज्ञे निवेशनविभागपरिष्कृतानां ___लक्ष्मीः पुरोपवनजा वनपादपानाम् / / 40 / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये सप्तमः सर्गः // 7 // 20 अष्टमः सर्गः अथ स्वमायाकृतमन्दिरोज्ज्वलं ज्वलन्मणि व्योमसदां सनातनम् / सुराङ्गना गोपतिचापगोपुरं . पुरं वनानां विजिहीर्षया जहुः // 1 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्ठमः सर्गः ] [ 266 यथायथं ताः सहिता नभश्चरः प्रभाभिरुद्भासितशैलवीरुधः / बनं विशन्त्यो वनजायतेक्षणाः __क्षणातीनां दधुरेकरूपताम् / / 2 / / निवृत्तवृत्तोरुपयोधरक्लमः प्रवृत्तनि दिविभूषणारवः / नितम्बिनीनां भृशमादधे धृति / . नभःप्रयाणादवनौ परिक्रमः / / 3 / / घनानि कामं कुसुमानि बिभ्रतः करप्रचेयान्यपहाय शाखिनः / पुरोऽभिसा सुरसुन्दरीजन यथोत्तरेच्छा हि गुणेषु कामिनः // 4 // तनूरलतारुणपाणिपल्लवाः ___ स्फुरन्नखांशूत्करमञ्जरीभृतः विलासिनीबाहुलता वनालयो विलेपनामोदहृताः सिषेविरे // 5 // निपीयमानस्तबका शिलीमुखै रशोकयष्टिश्चलबालपल्लवा। विडम्बयन्ती ददृशे वधूजन रमन्ददष्टौष्ठकरावधूननम् / / 6 / / करौ धुनाना नवपल्लवाकृती - वृथा कृथा मानिनि मा परिश्रमम् / उपेयुषी कल्पलताभिशङ्कया ___ कथं न्वितस्त्रस्यति षट्पदावलीः // 7 // 25 . . जहीहि कोपं दयितोऽनुगम्यतां "पुराऽनुशेते तव चञ्चलं मनः / Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 ] _ [ काव्यषटक इति प्रियं कञ्चिदुपैतुमिच्छती . पुरोऽनुनिन्ये निपुणः सखीजनः / / 8 / / समुन्नतैः काशदुकूलशालिभिः / / परिक्वरणत्सारसपङ्क्तिमेखलैः / / प्रतीरदेशैः स्वकलत्रचारुभि विभूषिताः कुञ्जसमुद्रयोषितः / / 9 / / विदूरपातेन भिदामुपेयुष श्च्युताः प्रवाहादभितः प्रसारिणः / प्रियाङ्कशीताः शुचिमौक्तिकत्विषो वनप्रहांसा इव वारिबिन्दवः / / 10 / / सखीजनं प्रेम गुरूकृतादरं निरीक्षमाणा इव नम्रमूर्तयः / / स्थिरद्विरेफाञ्जनशारितोंद रैविसारिभिः पुष्पविलोचनैर्लताः / / 11 / / उपेयुषीणां बृहतीरधित्यका . मनांसि जह्न सुरराजयोषिताम् / कपोलकाषैः करिणां मदारुण रुपाहितश्यामरुचश्च चन्दनाः / / 12 / / स्वगोचरे सत्यपि चित्तहारिणा विलोभ्यमानाः प्रसवेन शाखिनाम् / नभश्चराणामुपकर्तुमिच्छतां प्रियाणि चक्रुः प्रणयेन योषितः / / 13 / / प्रयच्छतोच्चैः कुसुमानि मानिनी विपक्षगोत्रं दयितेन लम्भिता / न किञ्चिदूचे चरणेन केवलं . लिलेख बाष्पाकुललोचना भुवम् / / 14 / / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्ठमः सर्गः ] [ 301 प्रियेऽपरा यच्छति वाचमुन्मुखी निबद्धदृष्टिः शिथिलाकुलोच्चया। समादधे नांशुकमाहितं वृथा विवेद पुष्पेषु न पाणिपल्लवम् / / 15 / / सलीलमासक्तलतान्तभूषणं समासजन्त्या कुसुमावतंसकम् / स्तनोपपीडं नुनुदे नितम्बिना - घनेन कश्चिज्जघनेन कान्तया / / 16 / / कलत्रभारेण विलोलनीविना गलदुकूलस्तनशालिनोरसा। वलिव्यपायस्फुटरोमराजिना निरायतत्वादुदरेण ताम्यता / / 17 / / विलम्बमानाकुलकेशपाशया , . . कयाचिदाविष्कृतबाहुमूलया / तरुप्रसूनान्यपदिश्य सादरं मनोधिनाथस्य मनः समाददे / / 18 / / व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलैर पारयन्तं किल पृष्पजं रजः / पयोधरेणोरसि काचिदुन्मनाः .. प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी / / 16 / / इमान्यमूनीत्यपजिते शनै ___ यथाभिरामं कुसुमाग्रपल्लवे / विहाय निःसारतयेव भूरुहा न्पदं वनश्रीर्वनितासु सन्दधे // 20 / / प्रवालभङ्गारुणपाणिपल्लवः परागपाण्डूकृतपीवरस्तनः / 25 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] [ काव्यषट्क महीरुहः पुष्पसुगन्धिराददे .वपुर्गुणोच्छ्रायमिवाङ्गनाजनः // 21 // वरोरुभिर्वारणहस्तपीवरै-. श्चिराय खिन्नान्नवपल्लवश्रियः / समेऽपि यातुं चरणाननीश्वरा न्मदादिव प्रस्खलतः पदे पदे // 22 // विसारिकाञ्चीमणिरश्मिलब्धया। मनोहरोच्छायनितम्बशोभया। स्थितानि जित्वा नवसकतधुर्ति श्रमातिरिक्तैर्जघनानि गौरवैः / / 23 / / समुच्छ्वसत्पङ्कजकोशकोमलै रुपाहितश्रीण्युपनीवि नाभिभिः / दधन्ति मध्येषु वलीविभगिषु स्तनातिभारादुदराणि नम्रताम् / / 24 / / समानकान्तीनि तुषारभूषणैः सरोरुहरस्फुटपत्रपङ्क्तिभिः / चितानि धर्माम्बुकणैः समन्ततो ___ मुखान्यनुत्फुल्लविलोचनानि च // 25 // विनिर्यतीनां गुरुखेदमन्थरं सुराङ्गनानामनुसानु वर्त्मनः / सविस्मयं रूपयतो नभश्चरान् विवेश तत्पूर्वमिवेक्षणादरः // 26 // अथ स्फुरन्मीनविधूतपङ्कजा विपङ्कतीरस्खलितोर्मिसंहतिः / पयोऽवगाळ कलहंसनादिनी समाजुहावेव वधूः सुरापगा / / 27 / / Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्ठमः सर्गः ] [ 303 प्रशान्तधर्माभिभवः शनैर्विवान् * विलासिनीभ्यः परिमृष्टपङ्कजः / ददौ भुजालम्बमिवात्तशीकर स्तरङ्गमालान्तरगोचरोऽनिल: / / 28 / / गतैः सहावैः कलहंसविक्रम कलत्रभारः पुलिनं नितम्बिभिः / मुखैः सरोजानि च दीर्घलोचनैः सुरस्त्रियः साम्यगुणान्निरासिरे / / 26 / / विभिन्नपर्यन्तगमीनपङ्क्तयः पुरो विगाढाः सखिभिर्मरुत्वतः / कथंचिदापः सुरसुन्दरीजनैः सभीतिभिस्तत्प्रथमं प्रपेदिरे / / 30 / / विगाढमात्रे रमणीभिरम्भसि प्रयत्नसंवाहितपीवरोरुभिः / विभिद्यमाना विससार सारसा नुदस्य तीरेषु तरङ्गसंहतिः / / 31 / / शिलाघन कसदामुरः स्थलै . वृहन्निवेशश्च बधूपयोधरैः / तटाभिनीतेन विभिन्नवीचिना रुषेव भेजे कलुषत्वमम्भसा / / 32 / / विधूतकेशाः परिलोलितस्रजः - सुराङ्गनानां प्रविलुप्तचन्दनाः / . अतिप्रसङ्गाद्विहितागसो मुहुः . प्रकम्पमीयुः सभया इवोर्मयः / / 33 / / 25 विपक्षचित्तोन्मथना नखवणा स्तिरोहिता विभ्रममण्डनेन ये / Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3.4 ] ... [ काव्यषटकं 10 हृतस्य शेषानिव कुकुमस्य / ____ तान् विकत्थनीयान्दधुरन्यथा स्त्रियः / / 34 / / सरोजपत्रे नु विलीनषट्पदे विलोलदृष्टे: स्विदमू विलोचने / शिरोरुहाः स्विन्नतपक्ष्मसंतते द्विरेफवृन्दं नु निशब्दनिश्चलम् / / 35 / / अगूढहासस्फुटदन्तकेसरं . मुखं स्विदेतद्विकसन्नु पङ्कजम् / इति प्रलीनां नलिनीवने सखीं विदांबभूवुः सुचिरेण योषितः / / 36 / / / प्रियेण संग्रथ्य विपक्षसंनिधा ___ वुपाहितां वक्षसि पीवरस्तने / स्रजं न काचिद्विजहौ जलाविला वसन्ति हि प्रेम्णि मुणा न वस्तुनि / / 37 / / असंशयं न्यस्तमुपान्तरक्ततां __यदेव-रोधु रमणीभिरञ्जनम् / हृतेऽपि तस्मिन्सलिलेन शुक्लतां निरास रायो नयनेषु न श्रियम् / / 38 / / द्युति वहन्तो वनितावतंसका हताः प्रलोभादिव वेगिभिर्जलैः / उपप्लुतास्तत्क्षणशोचनीयतां __ च्युताधिकाराः सचिवा इवाययुः / / 39 / / विपत्रलेखा निरलक्तकाधरा निरञ्जनाक्षीरपि विभ्रतीः श्रियम् / निरीक्ष्य रामा बुबुधे नभश्चरै- . ... रलंकृतं तद्वपुषैव मण्डनम् // 40 / / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्ठमः सर्गः ] [ 305 तथा न पूर्वं कृतभूषणादरः प्रियानुरागेण विलासिनीजनः / यथा जलाो नखमण्डनश्रिया ददाहदृष्टीश्च विपक्षयोषिताम् / / 41 / / शुभाननाः साम्बुरुहेषु भीरवो विलोलहाराश्चलफेनपङ्क्तिषु / नितान्तगौर्यो हृतकुङ्कुमेष्वलं न लेभिरे ताः परभागमूर्मिषु // 42 // ह्रदाम्भसि व्यस्तवधूकराहते रवं मृदङ्गध्वनिधोरमुज्झति / मुहुः स्तनस्तालसमं समाददे ___ मनोरम नृत्यमिव प्रवेपितम् / / 43 / / श्रिया हसद्भिः कमलानि सस्मितै रलंकृताम्बुः प्रतिमागतैमुखैः / कृतानुकूल्या सुरराजयोषितां प्रसादसाफल्यमवाप जाह्नवी / / 44 / / परिस्फुरन्मीनविघट्टितोरवः __ सुराङ्गनास्त्रासविलोलदृष्टयः / उपाययुः कम्पितपाणिपल्लवा: / सखीजनस्यापि विलोकनीयताम् / / 45 / / भयादिवाश्लिष्य झषाहतेऽम्भसि प्रियं मुदानन्दयति स्म मानिनी / अकृत्रिमप्रेमरसाहितैर्मनो हरन्ति रामाः कृतकैरपीहितैः // 46 / / तिरोहितान्तानि नितान्तमाकुलै रपां विगाहादलकैः प्रसारिभिः / 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] [ काव्यषटकं ययुर्वधूनां वदनानि तुल्यतां द्विरेफवृन्दान्तरितैः सरोरुहै / / 47 / / करौ धुनाना नवपल्लवाकृती पयस्यगावे किल जातसंभ्रमा। सखीषु निर्वाच्यमधाष्टर्य दूषितं प्रियाङ्गसंश्लेषमवाप मानिनी / / 48 / / प्रियैः सलीलं करवारिवारितः प्रवृद्धनिःश्वासविकम्पितस्तनः / सविभ्रमाधूतकराग्रपल्लवो __ यथार्थतामाप विलासिनीजनः / / 46 / / उदस्य धैर्य दयितेन सादरं प्रसादितायाः करवारिवारितम् / .. मुखं निमीलनयनं नतभ्रवः श्रियं सपत्नीवदनादिवाददे / / 50 / / विहस्य पाणी विधृते घृताम्भसि प्रियेण वध्वा मदनाचेतसः / सखीव काञ्ची पयसा घनीकृता बभार वीतोच्चयबन्धमंशुकम् // 51 / / निरञ्जने साचिविलोकितं दृशा वयावकं वेपथुरोष्ठपल्लवम् / नतभ्रुवो मण्डयति स्म विग्रहे * वलिक्रिया चातिलकं तदास्पदम् // 52 / / निमीलदाकेकरलोलचक्षुषां प्रियोपकण्ठं कृतगात्रवेपथुः / 25 निमज्जतीनां श्वसितोद्धतस्तनः श्रमो नु तासां मदनो नु पप्रथे / / 53 // Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: नवमः सर्गः ] . [ 307 5 प्रियेण सिक्ता चरमं विपक्षत - श्चुकोप काचिन्न तुतोष सान्त्वनैः / जनस्य रूढप्रणयस्य चेतसः किमप्यमर्षोऽनुनये भृशायते // 54 / / इत्थं विहृत्य वनिताभिरुदस्यमानं पीनस्तनोरुजघनस्थलशालिनीभिः / उत्सपिलोमिचयलङ्घिततीरदेश मौत्सुक्यनुन्नमिव वारि पुरः प्रतस्थे / / 55 / / तीरान्तराणि मिथुनानि रथाङ्गनाम्नां नीत्वा विलोलितसरोजवनश्रियस्ताः / संरेजिरे सुरसरिज्जलधौत हारास्तारावितानतरला इव यामवत्यः / / 56 / / संक्रान्तचन्दनरसाहितवर्णभेदं विच्छिन्नभूषणमणिप्रकारांशुचित्रम् / बद्धोर्मिनाकवनितापरिभुक्तमूक्तं सिन्धोर्बभार सलिलं शयनीयलक्ष्मीम् // 7 // / / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जु नीयेऽष्टमः सर्गः / / 6 // // 9 // नवमः सर्गः॥ ( स्वागतावृत्तम् ) वीक्ष्य रन्तुमनसः सुरनारीरात्तचित्रपरिधानविभूषाः / तत्प्रियार्थमिव यातुमथास्तं भानुमानुपपयोधि ललम्बे // 1 // मध्यमोपलनिभे लसदंशावे कतश्च्युतिमुपेयुषि भानौ। 15 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] [ काव्यषट्कं द्यौरुवाह परिवृत्तिविलोलां . हारयष्टिमिव वासरलक्ष्मीम् / / 2 / / अंसुपाणिभिरतीव पिपासुः पद्मजं मधु भृशं रसयित्वा। क्षीबतामिव गत: क्षितिमेष्य ल्लोहितं वपुरुवाह पतङ्गः / / 3 / / गम्यतामुपगते नयनानां लोहितायति सहस्रमरीचौ / आससाद विरहय्य धरित्री चक्रवाकहृदयान्यभितापः / / 4 / / मुक्तमूललघुरुज्झितपूर्वः पश्चिमे नभसि संभृतसान्द्रः / सामिमज्जति रवौ न विरेजे खिन्नजिह्म इव रश्मिसमूहः / / 5 / / कान्तदूत्य इव कुङ्कुमताम्राः सायमण्डलमभित्वरयन्त्यः / सादरं ददृशिरे वनिताभिः सौधजालपतिता रविभासः // 6 / / अग्रसानुषु नितान्तपिशङ्ग भूरुहान्मृदुकरैरवलम्ब्य / अस्तशैलगहनं नु विवस्वा नाविवेश जलधि नु महीं नु / / 7 / / आकुलश्चलपतत्रिकुलानामारवैरनुदितौषसरागः / आययावहरिदश्वविपाण्डुस्तुल्यतां दिनमुखेन दिनान्तः / / 8 / / आस्थितः स्थगितवारिदपङ्क्तया संध्यया गगनपश्चिमभागः / सोमिविद्रुमवितानविभासा . . रञ्जितस्य जलधेः श्रियमूहे / / 6 / / Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: नवमः सर्गः ] [ 306 प्राञ्जलाकपि जने नतमूनि प्रेम तत्प्रवणचेतसि हित्वा / संध्ययाऽनुविदधे विरमन्त्या चापलेन सुजनेतरमैत्री / / 10 / / 5 औषसातपभयादपलीनं वासरच्छविविरामपटीयः / संनिपत्य शनकैरथ निम्नादन्धकारमुदवाप समानि / / 11 / / एकतामिव गतस्य विवेकः कस्यचिन्न महतोऽप्युपलेभे / भास्वता निदधिरे भुवनाना . मात्मनीय पतितेन विशेषाः / / 12 / / इच्छतां सह वधूभिरभेदं ___यामिनीविरहिणां विहगानाम् / आपुरेव मिथुनानि वियोगं . लङ्घयते न खलु कालनियोगः // 13 / / यच्छति प्रतिमुखं दयितायै ___ वाचमन्तिकगतेऽपि शकुन्तौ / नीयते स्म नतिमुज्झितहर्ष पङ्कजं मुखमिवाम्बुरुहिण्या // 14 / / रञ्जिता नु विविधास्तरुशैला नामितं नु गगनं स्थगितं नु / पूरिता नु विषमेषु धरित्री संहृता नु ककुभस्तिमिरेण // 15 // रात्रिरागमलिनानि विकास पङ्कजानि रहयन्ति विहाय / 25 / स्पष्टतारकमियाय नभः श्री वस्तुमिच्छति निरापदि सर्वः / / 16 / / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '310 ] [ काव्यषट्कं व्यानशे शशधरेण विमुक्तः / केतकीकुसुमकेसरपाण्डुः / चूर्णमुष्टिरिव लम्भितकान्ति सिवस्य दिशमंशुसमूहः / / 17 / / उज्झती शुचमिवा शुतमिस्रा मन्तिकं व्रजति तारकराजे / दिक्प्रसादगुणमण्डनमूहे रश्मिहासविशदं मुखमैन्द्री / / 18 / / नीलनीरजनिभे हिमगौरं शैलरुद्धवपुषः सितरश्मेः / खे रराज निपतत्करजालं वारिधेः पयसि , गाङ्गमिवाम्भः / / 16 / / द्यां निरुन्धदतिनीलघनाभं ध्वान्तमुद्यतकरेण पुरस्तात् / / क्षियमाणमसितेतरभासा शंभुनेव करिचर्म चकासे / / 20 / / अन्तिकान्तिकगतेन्दुविसृष्टे जिह्मतां जहति दीधितिजाले / निःसृतस्तिमिरभारनिरोधा दुच्छ्वसन्निव रराज दिगन्तः // 21 / / लेखया विमलविद्रुमभासा संततं तिमिरमिन्दुरुदासे। . दंष्ट्रया कनकटङ्कपिशङ्गया मण्डलं भुव इवादिवराहः / / 22 / / दोपयन्नथ नभः किरणौधैः / / कुकुमारुणपयोधरगौरः। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: नवमः सर्गः ] [ 311 पा हेमकुम्भ इव पूर्वपयोधे रुन्ममज्ज शनकैस्तुहिनांशुः // 23 // उद्गतेन्दुमविभिन्नतमिस्रां पश्यति स्म रजनीमवितृप्तः / व्यंशुकस्फुटमुखोमतिजिह्मां वीडया नववधूमिव लोकः / / 24 / / न प्रसादमुचितं गमिता द्यौ नॊद्धृतं तिमिरमद्रिवनेभ्यः / दिङ्मुखेषु न च धाम विकीर्ण ____ भूषितैव रजनी हिमभासा // 25 / / मानिनीजनविलोचनपाता नुष्णबाष्पकलुषान् प्रतिगृह्णन् / मन्दमन्दमुदितः प्रययौ खं भीतभीत इव. शीतमयूखः / / 26 / / श्लिष्यतः प्रियवधूरुपकण्ठं तारकास्ततकरस्य हिमांशोः / उद्वमन्नभिरराज समन्ता दङ्गराग इव लोहितरागः // 27 / / प्रेरितः शशधरेण करौघः संहतान्यपि नुनोद तमांसि / 20 क्षीरसिन्धुरिव मन्दरभिन्नः काननान्यविरलोच्चतरूणि / / 28 // शारतां गमितया शशिपादै श्छायया विटपिनां प्रतिपेदे / न्यस्तशुक्लबलिचित्रतलाभि स्तुल्यता वसतिवेश्ममहीभिः // 26 // 25 . आतपे धृतिमता सह वध्वा / यामिनीविरहिणा विहगेन / Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 ] [ काव्यषट्कं सेहिरे न किरणा हिमरश्मे __ दुखिते मनसि सर्वमसह्यम् / / 30 // गन्धमुद्धतरजः कणवाही विक्षिपन्विकसतां कुमुदानाम् / आदुधाव परिलीनविहङ्गा यामिनीमरुदपां वनराजीः / / 31 / / संविधातुमभिषेकमुदासे ____ मन्मथस्य लसदंशुजलौघः / यामिनीवनितया ततचिह्नः ___ सोत्पलो रजतकुम्भ इवेन्दुः / / 32 / / प्रोजसापि खलु नूनमनूनं ___ नासहायमुपयाति जयश्रीः / यद्विभुः शशिमयूखसखः स नाददे विजयि चापमनङ्गः / / 33 / / 15 सद्मनां विरचनाहितशोभैरागतप्रियकथैरपि दूत्यम् / सनिकृष्टरतिभिः सुरदारैर्भूषितैरपि विभूषणमीपे // 34 / / न स्रजो रुरुचिरे रमणीभ्य श्चन्दनानि विरहे मदिरा वा / साधनेषु हि रतेरुपधत्ते रम्यतां प्रियसमागम एव / / 35 / / प्रस्थिताभिरधिनाथनिवासं ____ध्वंसितप्रियसखीवचनाभिः / मानिनीभिरपहस्तितधैर्यः सादयन्नपि मदोऽवललम्बे / / 36 / / कान्तवेश्म बहु सन्दिशतीभि- . र्यातमेव रतये रमणीभिः / 25 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: नवमः सर्गः ] [ 313 मन्मथेन परिलुप्तमतीनां प्रायशः स्खलितमप्युपकारि // 37 / / आशु कान्तमभिसारितवत्या योषितः पुलकरुद्धकपोलम् / निजिगाय मुखमिन्दुमखण्डं खण्डपत्रतिलकाकृति कान्त्या।३८। उच्यतां स वचनीयमशेषं नेश्वरे परुषता सखि साध्वी / आनयन मनुनीय कथं वा विप्रियाणि जनयन्ननुनेयः / / 36 // कि गतेन न हि युक्तमुपैतुं कः प्रिये सुभगमानिनि मानः / योषितामिति कथासु समेतैः कामिभिर्बहुरसा धृतिरूहे // 40 // योषितः पुलकरोधि दधत्या धर्मवारि नवसङ्गमजन्म / कान्तवक्षसि बभूव पतन्त्या मण्डनं लुलितमण्डनतैव / / 41 / / शीधुपान विधुरासु निगृह्णन्मान-माशु शिथिलीकृतलज्जः। सङ्गतासु दयितैरुपलेभे कामिनीषु मदनो नु मदो नु / / 42 / / द्वारि चक्षुरधिपाणि कपोलौ जीवितं त्वयि कुतः कलहोऽस्याः / कामिनामिति वचः पुनरुक्तं प्रीतये नवनवत्वमियाय / / 4 / / 15 साचि लोचनयुगं नमयन्ती रुन्धती दयितवक्षसि पातम् / सुभ्रुवो जनयति स्म विभूषां सङ्गतावुपरराम च लज्जा / 44 / सव्यलीकमवधीरित खिन्न / - प्रस्थितं सपदि कोपपर्दैन / योषितः सुहृदिव स्म रुणद्धि प्राणनाथमभिबाष्पनिपातः / / 45 / / शङ्किताय कृतबाष्पनिपातामीर्ण्यया विमुखितां दयिताय / मानिनीमभिमुखाहितचित्तां शंसति स्म घनरोमविभेदः / 46 / लोलदृष्टि वदनं दयितायाश्चुम्बति प्रियतमे रभसेन / वीडया सह विनीवि नितम्बादंशुकं शिथिलतामुपपेदे // 47 / / 25 ह्रीतया गलितनीवि निरस्यन्नन्तरीयमवलम्बितकाञ्चि / मण्डलीकृतपृथुस्तनभारं सस्वजे दयितया हृदयेशः / / 48 / / Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 ] [ काव्यषटकं आता नखपदैः परिरम्भाश्चुम्बितानि धनदन्तनिपातैः / सौकुमार्यगुणसभृतकीर्तिर्वाम एव सुरतेष्वपि कामः / / 46 / / पाणिपल्लवविधूननमन्तः सीत्कृतानि नयनार्धनिमेषाः / योषितां रहसि गद्गदवाचामस्त्रतामुपययुर्मदनस्य / / 50 / / पातुमाहितरतीन्यभिलेषुस्तर्षयन्त्यपुनरुक्तरसानि / सस्मितानि वदनानि वधूनां सोत्पलानि च मधूनि युवानः 51 कान्तसंगमपराजितमन्यौ वारुणारसनशान्तविवादे / मानिनीजन उपाहितसंधौ संदवे धनुषि नेषुमनङ्गः / / 52 / / कुप्यताशु भवतानचित्ताः कोपितांश्च वरिवस्यत यूनः / इत्यनेक उपदेश इव स्म स्वाद्यते युवतिभिर्मधुवारः / / 53 / / भर्तृभिः प्रणयसंभ्रमदत्तां वारुणीमतिरसां रसयित्वा / ह्रीविमोहविरहादुपलेभे पाटवं नु हृदयं नु वधूभिः / / 54 / / स्वादितः स्वयमथैधितमानं लम्भितः प्रियतमैः सह पीतः। आसवः प्रतिपदं प्रमदानां नैकरूपरसतामिव भेजे / / 55 / / 15 भ्रूविलाससुभगाननुकतुं विभ्रमानिव वधूनयनानाम् / / आददे मृदुविलोलपलाशैरुत्पलैश्चषकवीचिषु कम्पः / / 56 / / प्रोष्ठपल्लवविदंशरुचीनां ह्रदयतासुपययौ रमणानाम् / फुल्ललोचनविनीलसरोजैरङ्गनास्यचषकैर्मधुवारः / / 57 // प्राप्यते गुणवतापि गुणानां व्यक्तमाश्रयवशेन विशेषः / तत्तथा हि दयिताननदत्तं व्यानशे मधु रसातिशयेन / / 58 / / वीक्ष्य रत्नचषकेष्वतिरिक्तां कान्तदन्तपदमण्डनलक्ष्मीम् / जज्ञिरे बहुमता प्रमदानामोष्ठयावकनुदो मधुवाराः / / 56 / / लोचनाधरकृताहृतरागा वासिताननविशेषितगन्धा / वारुणी परगुणात्मगुणानां व्यत्ययं विनिमयं नु वितेने / 60 / 25 तुल्यरूपमसितोत्पलमक्ष्णोः कर्णगं निरुपकारि विदित्वा / योषितः सुहृदिव प्रविभेजे लम्भितेक्षणरुचिर्मदरागः / / 61 / / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: नवमः सर्गः ] क्षीणयावकरसोऽप्यतिपानः कान्तदन्तपदसंभृतशोभः / प्राययावतितरामिव वध्वाः सान्द्रतामधरपल्लवरागः // 62 / / रागकान्तनयनेषु नितान्तं विद्रुमारुणकपोलतलेषु / सर्वगापि ददृशे वनितानां दर्पणेष्विव मुखेष मदश्रीः // 63 / / 5 बद्धकोपविकृतीरपि रामाश्चारुताभिमततामुपनिन्ये / वश्यतां मधुमदो दयितानामात्मवर्गहितमिच्छति सर्वः / 64 / वाससां शिथिलतामुपनाभि ह्रीनिरासमपदे कुपितानि / योषितां विदधती गुणपक्षे निर्ममा मदिरा वचनीयम् / 65 / भर्तृ षपसखि निक्षिपतीनामात्मनो मधुमदोद्यमितानाम् / 10 वीडया विफलया वनितानां न स्थितं न विगतं हृदयेषु / / 66 / / रुन्धती नयनवाक्य विकासं सादितोभयकरा परिरम्भे / वीडितस्य ललितं युवतीनां क्षीबता बहुगुणैरनुजह // 67 // योषिदुद्धतमनोभवरागा मानवत्यपि ययौ दयिताङ्कम् / कारयत्यनिभृता गुणदोषे वारुणी खलु रहस्यविभेदम् / / 68 // आहिते नु मधुना मधुना मधुरत्वे / ___ चेष्टितस्य गमिते नु विकासम् / आबभौ नव इवोद्धतरागः कामिनीष्ववसरः कुसुमेषोः / / / / 66 / / मा गमन्मदविमूढधियो न: .20 प्रोज्य रन्तुमिति शङ्कितनाथा: / योषितो न मदिरा भृशमीषुः, - प्रेम पश्यति भयान्यपदेऽपि / / 70 / / चित्तनिर्वृतिविधायि विविक्तं ____मन्मथो मधुमदः शशिभासः / 25. संगमश्च दयितैः स्म नयन्ति प्रेम कामपि भुवं प्रमदानाम् // 71 / / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 ] [ काव्यषट्कं धाष्टयलचितयथोचितभूमौ निर्दयं विलुलितालकमाल्ये। मानिनीरतिविधौ कुसुमेषुर्मत्तमत्त इव विभ्रममाप / / 72 / / शीधुपानविधुरेषु वधूनां विघ्नतामुपगतेषु वपुःषु / ईहितं रतिरसाहितभावं वीतलक्ष्यमपि कामिषु रेजे / / 73 / / अन्योन्यरक्तमनसामथ बिभ्रतीनां चेतोभुवो हरिसखाप्सरसां निदेशम् / वैबोधिकध्वनिविभावितपश्चिमार्धा सा संहृतेव परिवृत्तिमियाय रात्रिः / / 74 / / निद्राविनोदितनितान्तरतिक्लमाना मायासिमङ्गलनिनादविबोधितानाम् / रामासु भाविविरहाकुलितासु यूनां तत्पूर्वतामिव समादधिरे रतानि / / 75 / / कान्ताजनं सुरतखेदनिमीलिताक्षं सवाहितु समुपयानिव मन्दमन्दम् / हर्येषु माल्यमदिरापरिभोगगन्धा नाविश्चकार रजनीपरिवृत्तिवायुः / / 76 / / प्रामोदवासितचलाधरपल्लवेषु निद्राकषायितविपाटललोचनेषु / व्यामृष्टपतिलकेषु विलासिनीनां शोभा बबन्ध वदनेषु मदावशेषः / / 77 / / गतवति नखलेखालक्ष्यतामङ्गरागे ___समददयितपीताताम्रबिम्बाधराणाम् / विरहविधुरमिष्टासत्सखीवाङ्गनानां हृदयमवललम्बे रात्रिसंभोगलक्ष्मीः / / 78 / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किंराता जुनीये नवमः सर्गः / / 6 / / Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: दशमः सर्गः ] [ 317 // 10 // दशमः सर्गः अथ परिमलजामवाप्य लक्ष्मीमवयवदीपितमण्डनश्रियस्ताः / वसतिमभिविहाय रम्यहावाःसुरपतिसूनुविलोभनाय जग्मुः।१। द्रुतपदमभियातुमिच्छतीनां गगनपरिक्रमलाघवेन तासाम् / अवनिषु चरणैः पृथुस्तनीनामलघुनिम्बतया चिरं निषेदे / / 2 / / निहितसरसयावकैर्बभासे चरणतलैः कृतपद्धतिर्वधूनाम् / अविरलविततेव शक्रगोपैररुणितनीलतृणोलपा धरित्री / / 3 / / ध्वनिरगविवरेषु नूपुराणां पृथुरशनागुणशिञ्जितानुयातः / प्रतिरवविततो वनानि चक्रे मुखरसमुत्सुकहंससारसानि / / 4 / / अवचयपरिभोगवन्ति हिंस्र : सहचरितान्यमृगाणि काननानि / अभिदधुरभितो मुनि वधूभ्यः समुदितसाध्वसविक्लवं च चेतः // 5 // नृपतिमुनिपरिग्रहेण सा भूः सुरसचिवाप्सरसां जहार तेजः / उपहितपरमप्रभावधाम्नां . न हि जयिनां तपसामलङ्घयमस्ति / / 6 / / सचकितमिव विस्मयाकुलाभिः शुचिसिकतास्वतिमानुषाणि ताभिः / क्षितिषु ददृशिरे पदानि जिष्णो रुपहितकेतुरथाङ्गलाञ्छनानि / / 7 / / .अतिशयितवनान्तरद्युतीनां फलकुसुमावचयेऽपि तद्विधानाम् / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 ] [ काव्यषट्कं ऋतुरिव तरुवीरुधा समृद्धया __युवतिजनैर्जगृहे मुनिप्रभावः // 8 // मृदितकिसलयः सुराङ्गनानां ससलिलवल्कलभारभुग्नशाखः / बहुमतिमधिकां ययावशोकः परिजनतापि गुणाय सद्गुणानाम् / / 6 / / यमनियमकृशीकृतस्थिराङ्ग परिददृशो विधृतायुधः स ताभिः / अनुपमशमदीप्ततागरीयान् कृतपदपंक्तिरथर्वणेव वेदः / / 10 / / शशधर इव लोचनाभिराम गगनविसारिभिरंशुभिः परीतः / शिखरनिचयमेकसानुसद्मा सकलमिवापि दधन्महीधरस्य / / 11 / / सुरसरिति परं तपोऽधिगच्छन् विधृतपिशङ्गबृहज्जटाकलापः / हविरिव विततः शिखासमूहैः समभिलषन्नुपवेदि जातवेदाः / / 12 / / सदृशमतनुमाकृतेः प्रयत्नं तदनु गुणामपरैः क्रियामलङ्घयाम् / दधदलघु तपः क्रियानुरूपं विजयवतीं च तपःसमां समृद्धिम् // 13 / / चिरनियमकृशोऽपि शैलसारः __ शमनिरतोऽपि दुरासदः प्रकृत्या / ससचिव इव निर्जनेऽपि तिष्ठ न्मुनिरपि तुल्यरुचिस्त्रिलोकभर्तुः // 14 / / तनुमवजितलोकसारधाम्नी त्रिभुवनगुप्तिसहां विलोकयन्त्यः / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: दशमः सर्गः ] [ 316 प्रवययुरमरस्त्रियोऽस्य यत्न - विजयफले विफलं तपोधिकारे // 15 // मुनिदनुतनयान् विलोभ्य सद्यः प्रतनुबलान्यधितिष्ठतस्तपांसि / अलघुनि बहु मेनिरे च ताः स्वं कुलिशभृता विहितं पदे नियोगम् / / 16 / / अथ कृतकविलोभनं विधित्सौ युवतिजने हरिसूनुदर्शनेन / प्रसभमवततार चित्तजन्मा हरति मनो मधुरा हि यौवनश्रीः / / 17 / / सपदि हरिसखैर्वधूनिदेशाद्ध्वनितमनोरमवल्लकीमृदङ्गः / युगपदतुगणस्य संनिधानं वियति वने च यथायथं वितेने / 18 / सजलजलधरं नभो विरेजे विवृतिमियाय रुचिस्तडिल्लतानाम् / व्यवहितरतिविग्रहेवितेने जलगुरुभिः स्तनितैदिगन्तरेषु // 19 / / परिसुरपतिसूनुधाम सद्यः समुपदधन्मुकुलानि मालतीनाम् / विरलमपजहार बद्धबिन्दुः सरजसतामवनेरपां निपातः / 20 / प्रतिदिशमभिगच्छताभिमृष्टः ककुभविकाससुगन्धिनानिलेन / नव इव विबभौ सचित्तजन्मा गततिराकुलितश्च जीवलोकः // 21 / / व्यथितमपि भृशं मनो हरन्ती परिणतजम्बुफलोपभोगहृष्टा / परभतयुवतिः स्वनं वितेने नवनवयोजितकण्ठरागरम्यम् / 22 / 25 अभिभवति मनः कदम्बवायौ मदमधुरे च शिखण्डिनां निनादे / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 ] ___.. [ काव्यषट्कं जन इव न धृतेश्चचाल जिष्णु . नहि महतां सुकरः समाधिभङ्गः // 23 / / धृतबिसवलयावलिर्वहन्ती कुमुदवनकदुकूलमात्तबारणा / शरदमलतले सरोजपाणौ धनसमयेन वधूरिवाललम्बे / / 24 / / समदशिखिरुतानि हंसनादैः कुमुदवनानि कदम्बपुष्पवृष्ट्या / . श्रियमतिर्शायनी समेत्य जग्मुर्गुणमहतां महते गुणाय योगः / / 25 / / सरजसमपहाय केतकीनां . __ प्रसवमुपान्तिकनीपरेणुकीर्णम् / प्रियमधुरसनानि षट्पदाली __ मलिनयति स्म विनीलबन्धनानि / / 26 / / मुकुलितमतिशय्य बन्धुजीवं धृतजलबिन्दुषु शाद्वलस्थलीपु / अविरलवपुषः सुरेन्द्रगोपा विक चपलाशचयश्रियं समीयुः / 27 / 15 अविरलफलिनीवनप्रसूनः कुसुमितकुन्दसुगन्धिगन्धवाहः / गुणमसमयजं चिराय लेभे विरलतुषारकणस्तुपारकाल: / 28 / __निचयिनी लवलीलताविकासे जनयति लोध्रसमीरणे च हर्षम् / विकृतिमुपययौ न पाण्डुसूनु श्चलति नयान्न जिगीषतां हि चेतः / / 26 / / कतिपयसहकारपुष्परम्य स्तनुतुहिनोऽल्पविनिद्रसिन्दुवारः / सुरभिमुखहिमागमान्तशंसी ____ समुपययौ शिशिरः स्मरैकबन्धुः / / 30 / / 25 कुसुमनगवनान्युपैतुकामा किसलयिनीमवलम्ब्य चूतयष्टिम् / क्वणलिकुलनूपुरा निरासे नलिनवनेषु पदं वसन्तलक्ष्मीः 31 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: दशमः सर्गः ] [ 321 विकसितकुसुमाधरं हसन्ती कुरबकराजिवधूं विलोकयन्तम् / ददृशुरिव सुराङ्गना निषण्णं सशरमनङ्गमशोकपल्लवेषु / 32 / मुहुरनुपतता विधूयमानं विरचितसंहति दक्षिणानिलेन / अलिकुलमलकाकृति प्रपेदे _ नलिनमुखान्त विसपि पङ्कजिन्या: // 33 // श्वसनचलितपल्लवाधरोष्ठे नवनिहितेय॑मिवावधूनयन्ती / / मधुसुरभिरिण षट्पदेन पुष्पे मुख इव शाललतावधूश्चुचुम्बे // 34 / / प्रभवति न तदा परो विजेतं भवति जितेन्द्रियता यदात्मरक्षा / अवजितभूवनस्तथा हि लेभे सिततुरगे विजयं न पुष्पमासः // 35 / / कथमिव तव संमतिर्भवित्री ___सममृतुभिर्मुनिनावधीरितस्य / इति विरचितमल्लिकाविकासः __स्मयत इव स्म मधुं निदाघकालः / / 36 / / बलवदपि बलं मिथोविरोधि प्रभवति नैव विपक्षनिर्जयाय / भुवनपरिभवी न यत्तदानीं तमतुगणः क्षणमुन्मनीचकार / / 37 / / श्रुतिसुखमुपवीणितं सहायै रविरललाञ्छनहारिणश्च कालाः / अविहितहरिसूनुविक्रियारिण त्रिदशवधूषु मनोभवं वितेनुः // 38 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 ] [ काव्यषट्कं न दलति निचये तथोत्पलानां न च विषमच्छदगुच्छयूथिकासु / - अभिरतिमुपलेभिरे यथासां हरितनयावयवेषु लोचनानि // 36 / / मुनिमभिमुखतां निनीषवो याः समुपययुः कमनीयतागुणेन / मदनमुपदधे स एव तासां दुरधिगमा हि गतिः प्रयोजनानाम् / / 40 / / प्रकृतमनुससार नाभिनेयं प्रविकसदगुल पाणिपल्लवं वा / प्रथममुपहितं विलासि चक्षुः सिततुरगे न चचाल नर्तकीनाम् / / 41 / / अभिनयमनसः सुराङ्गनाया निहितमलक्तकवर्तनाभिताम्रम् / चरणमभिपपात षट्पदाली धृतनवलोहितपङ्कजाभिशङ्का 42 अविरलमलसेषु नर्तकीनां ___ द्रुतपरिषिक्तमलक्तकं पदेषु / सवपुषमिव चित्तरागमूहु नमितशिखानि कदम्बकेसराणि // 43 / / नपसुतमभितः समन्मथायाः __ परिजनगात्रतिरोहिताङ्गयष्टेः / स्फुटमभिलषितं बभूव वध्वा ___ वदति हि संवृतिरेव कामितानि // 44 / / अभिमुनि सहसा हृते परस्या घनमरुता जघनांशुकैकदेशे / चकितमवसनोरु सत्रपायाः प्रतियुवतीरपि विस्मयं निनाय // 45 / / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: दशमः सर्गः ] [323 धतबिसवलये निधाय पाणौ मुखमधिरूषितपाण्डुगण्डलेखम् / नपसुतमपरा स्मराभितापादमधुमदालसलोचनं निदध्यो।४६। सखि दयितमिहानयेति सा मां प्रहितवती कुसुमेषुणाभितप्ता। हृदयमहृदया न नाम पूर्व भवदुपकण्ठमुपागतं विवेद // 47 // चिरमपि कलितान्यपारयन्त्या परिगदितुं परिशुष्यता मुखेन / गतरण गमितानि मत्सखीनां " नयनयुगैः सममार्द्रतां मनांसि // 48 / / अचकमत सपल्लवां धरित्रीं मृदुसुरभि विरहय्य पुष्पशय्याम् / भृणमरतिमवाप्य तत्र चास्या स्तव सुखशीतमुपैतुमङ्कमिच्छा // 46 / / तदनघ तनुरस्तु सा सकामा ____ ब्रजति पुरा हिं परासुतां त्वदर्थे / पुनरपि सुलभं तपोऽनुरागी युवतिजनः खलुः नाप्यतेऽनुरूपः / / 50 / / जहिहि कठिनतां प्रयच्छ वाचं ननु करुणामृदु मानसं मुनीनाम् / उपगतमवधीरयन्त्यभव्याः स निपुणमेत्य कयाचिदेवमूचे // 51 // सललितचलितत्रिकाभिरामा शिरसिजसंयमनाकुलैकपाणिः / सुरपतितनये परा निरासे मनसिजजैत्रशरं विलोचनार्धम् / 52 / कुसुमितमवलम्ब्य चूतमुच्चै . स्तनुरिभकुम्भपृथुस्तना नताङ्गी / 25 तदभिमुखमनङ्गचापयष्टि विसृत गुणेव समुन्ननाम काचित् // 3 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं AC .. सरभसमवलम्ब्य नीलमन्या ... विगलितनीवि विलोलमन्तरीयम् / अभिपतितुमनाः ससाध्यसेव च्युतरशनागुणसंदितावतस्थे / 54 / / यदि मनसि शमः किमङ्ग चापं शठ विषयास्तव वल्लभा न मुक्तिः। . भवतु दिशति नान्यकामिनीभ्य स्तव हृदये हृदयेश्वरावकाशम् / / 55 / / इति विषमितचक्षुषाभिधाय / . स्फुरदधरोष्ठमसूयया कयाचित् / अगणितगुरुमानलज्जयाऽसौ स्वयमुरसि श्रवणोत्पलेन जघ्ने / / 56 / / सविनयमपराभिसृत्य साचि स्मितसुभगैकलसत्कपोललक्ष्मीः / श्रवणनियमितेन तं निदध्यौ सकलमिवासकलेन लोचनेन / / 57 / / करुणमभिहितं त्रपा निरस्ता तदभिमुखं च विमुक्तमश्रु ताभिः / प्रकुपितमभिसारणेऽनुनेतुं प्रियमियती ह्यबलाजनस्य भूमिः / / 58 / / असकलनयनेक्षितानि लज्जा गतमलसं परिपाण्डुता विषादः / इति विविधमियाय तासु भूषां प्रभवति मण्डयितुं वधूरनङ्गः // 56 / / 25 अलसपदमनोरमं प्रकृत्या जितकलहंसवधूगति प्रयातम् / स्थितमुरुजघनस्थलातिभारादुदितपरिश्रमजिमितेक्षणं वा 60 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: एकादशमः सर्गः ] [325 भृशकुसुमशरेषुपातमोहादनवसितार्थपदाकुलोऽभिलापः / अधिकविततलोचनं वधूनामयुगपदुन्नमितभ्रु वीक्षितं च / 61 / रुचिकरमपि नार्थवद् बभूव स्तिमितसमाधिशुचौ पृथातनूजे / ज्वलयति महतां मनांस्यमर्षे :. न हि लभतेऽवसरं सुखाभिलाषः / / 62 / / स्वयं संराध्यैवं शतमखमखण्डेन तपसा. परोच्छित्त्या लभ्यामभिलषति लक्ष्मी हरिसुते / मनोभिः सोवेगैः प्रणयविहतिध्वस्तरुचयः सगन्धर्वा धाम त्रिदशवनिताः स्वं प्रतिययुः // 63 / / / / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किराता जुनीये दशमः सर्गः // 10 // 10 // 11 // एकादशः सर्गः // अथामर्षान्निसर्गाच्च जितेन्द्रियतया तया / 15 आजगामाश्रमं जिष्णोः प्रतीतः पाकशासनः // 1 // मुनिरूपोऽनुरूपेण सूनुना ददृशे पुरः / द्राधीयसा वयोतीतः परिक्लान्तः किलाध्वना // 2 // जटानां कीर्णया केशैः संहत्या परितः सितैः / पृक्तयेन्दुकरैरह्नः पर्यन्त इव संध्यया / / 3 / / 20 विशदभ्रूयुगच्छन्नवलितापाङ्गलोचनः / / प्रालेयावततिम्लानपलाशाब्ज इव ह्रदः // 4 / / आसक्तभरनीकाशैरङ्गैः परिकृशैरपि / आद्यूनः सद्गृहिण्येव प्रायो यष्टयावलम्बितः // 5 // Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 ] [ काव्यषट्क गूढोऽपि वपुषा राजन् धाम्ना लोकाभिभाविना / / अंशुमानिव तन्वभ्रपटलच्छन्नविग्रहः // 6 / / जरतीमपि बिभ्राणस्तनुमप्राकृताकृतिः / चकाराकान्तलक्ष्मीक: ससाध्वसमिवाश्रमम् // 7 // 5 अभितस्तं पृथासूनुः स्नेहेन परितस्तरे / अविज्ञातेऽपि बन्धौ हि बलात्प्रह्लादते मनः / / 8 / / आतिथेयीमथासाद्य सुतादपचिति हरिः / विश्रम्य विष्टरे नाम व्याजहारेति भारतीम् / / 6 / / त्वया साधु समारम्भि नवे वयसि यत्तपः / 10 ह्रियते विषयैः प्रायो वर्षीयानपि मादृशः / / 10 / / श्रेयसीं तव संप्राप्ता गुणसपदमाकृतिः / सुलभा रम्यता लोके दुर्लभं हि गुणार्जनम् / / 11 / / शरदम्बुधरच्छायागत्वर्यो यौवनश्रियः / / आपातरम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः // 12 / / 15 अन्तकः पर्यवस्थाता जन्मिनः संततापदः / इति त्याज्ये भवे भव्यो मुक्तावृत्तिष्ठते जनः / / 13 / / चित्तवानसि कल्याणी यत्त्वां मतिरुपस्थिता। विरुद्धः केवलं वेषः संदेहयति मे मनः // 14 / / युयुत्सुनेव कवचं किमामुक्तमिदं त्वया / / 20 तपस्विनो हि वसते केवलाजिनवल्कले // 15 / / प्रपित्सोः किं च ते मुक्ति निःस्पृहस्य कलेवरे / महेषुधो धनुर्भीमं भूतानामनभिद्रुहः // 16 / / भयंकरः प्राणभृतां मृत्योर्भुज इवापरः / / असिस्तव तपःस्थस्य न समर्थयते .शमम् / / 17 / / 25 जयमत्रभवान्नूनमरातिष्वभिलाषुकः / क्रोधलक्ष्म क्षमावन्तः क्वायुधं क्व तपोधनाः / / 18 / / Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: एकादशमः सर्गः ] [ 327 यः करोति वधोदा निःश्रेयसकरीः क्रियाः / ग्लानिदोषच्छिदः स्वच्छाः स मूढः पङ्कयत्यपः // 19 / / मूलं दोषस्य हिंसादेरर्थकामौ स्म मा पुषः / / तौ हि तत्त्वावबोधस्य दुरुच्छेदाबुपालवौ // 20 / / अभिद्रोहेण भूतानामर्जयन् गत्वरीः श्रियः / उदन्वानिव सिन्धूनामापदामेति पात्रताम् // 21 // या गम्या: सत्सहायानां यासु खेदो भयं यतः / तासां कि यन्न दुःखाय विपदामिव संपदाम् / / 22 // दुरासदान रीनुग्रान् धृतेविश्वासजन्मनः / 10 भोगान्भोगानिवाहेयानध्यास्यापन्न दुर्लभा / / 23 / / नान्तरज्ञाः श्रियो जातु प्रियरासां न भूयते / आसक्तास्तास्वमी मूढा वामशीला हि जन्तवः / / 24 / / कोऽपवादः स्तुतिपदे यदशीलेषु चञ्चलाः / साधुवृत्तानपि क्षुद्रा विक्षिपन्त्येव संपदः / / 25 / / 15 कृतवानन्यदेहेषु कर्ता च विधुरं मनः / अप्रियैरिव संयोगो विप्रयोग: प्रियैः सह / / 26 / / शून्यमाकीर्णतामेति तुल्यं व्यसनमुत्सवैः / / विप्रलम्भोऽपि लाभाय सति प्रियसमागमे / / 27 / / तदा रम्याण्यरम्याणि प्रियाः शल्यं तदासवः / 20 तदैकाकी सबन्धुः सनिष्टेन रहितो यदा / / 28 / / युक्तः प्रमाद्यसि हितादपेतः परितप्यसे / यदि नेष्टात्मनः पीडा मा सजि भवता जने / / 29 / / जन्मिनोऽस्य स्थिति विद्वांल्लक्ष्मीमिव चलाचलाम् / भवान्मा स्म वधीन्याय्यं न्यायाधारा हि साधवः / / 30 / / 25 विजहीहि रणोत्साहं मा तपः साधु नीनशः / उच्छेदं जन्मनः कर्तु मेधि शान्तस्तपोधन // 31 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] [ काव्यषट्कं जीयन्तां दुर्जया देहे रिपवश्चक्षुरादयः / जितेषु ननु लोकोऽयं तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः / / 32 / / परवानर्थसंसिद्धौ नीचवृत्तिरपत्रपः / अविधेयेन्द्रियः पुंसां गौरिवैति विधेयताम् / / 33 / / 5 श्वस्त्वया सुखसंवित्तिः स्मरणीयाऽधुनातनी। इति स्वप्नोपमान् मत्वा कामान् मा गास्तदङ्गताम् / / 34 / / श्रद्धया विप्रलब्धारः प्रिया विप्रियकारिणः / सुदुस्त्यजास्त्यजन्तोऽपि कामा: कष्टा हि शत्रवः / / 35 / / विविक्तेऽस्मिन्नगे भूय: प्लाविते जह्न कन्यया / प्रत्यासीदति मुक्तिस्त्वां पुरा मा भूरुदायुधः / / 36 / / व्याहृत्य मरुतां पत्याविति वाचमवस्थिते / वचः प्रश्रयगम्भीरमथोवाच कपिध्वजः / / 37 / / प्रसादरम्यमोजस्वि गरीयो लाघवान्वितम् / साकाङ्क्षमनुपस्कारं विष्वग्गति निराकुलम् / / 38 / / न्यायनिर्णीतसारत्वान्निरपेक्षमिवागमे / अप्रकम्प्यतयाऽन्येषामाम्नायवचनोपमम् / / 36 / / अलङ्घयत्वाज्जनैरन्यैः क्षुभितोदन्वजितम् / औदार्यादर्थसंपत्तेः शान्तं चित्तमृषेरिव / / 40 / / इदमीग्गुणोपेतं लब्धावसरसाधनम् / व्याकुर्यात्क: प्रियं वाक्यं यो वक्ता नेहगाशयः / / 41 / / न ज्ञातं तात यत्नस्य पौर्वापर्यममुष्य ते / शासितुं येन मां धर्म मुनिभिस्तुल्यमिच्छसि / / 42 / / अविज्ञातप्रबन्धस्य वचो वाचस्पतेरपि / ' बजत्यफलतामेव नयद्रुह इवेहितम् . / / 43 / / 25 श्रेयसोऽप्यस्य ते तात वचसो नास्मि भाजनम् / नभसः स्फुटतारस्य रात्रेरिव विपर्ययः // 44 / / Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: एकादशमः सर्गः ] [ 326 क्षत्रियस्तनयः पाण्डोरहं पार्थो धनंजयः / स्थितः प्रास्तस्य दायादैर्धातुज्येष्ठस्य शासने // 45 / / कृष्णद्वैपायनादेशाद्विमि व्रतमीदृशम् / भृशमाराधने यत्तः स्वाराध्यस्य मरुत्वतः // 46 / / 5 दुरक्षान्दीव्यता राज्ञा राज्यमात्मा वयं वधूः / नीतानि पणतां नूनमोदृशी भवितव्यता // 47 / / तेनानुजसहायेन दौपद्या च मया विना। भृशमायामियामासु यामिनीष्वभितप्यते // 48 / / हृतोत्तरीयां प्रसभं सभायामागतह्रियः / / 10 मर्मच्छिदा नो वचसा निरतक्षनरातयः // 46 / / उपाधत्त सपत्नेषु कृष्णाया गुरुसंनिधौ / भावमानयने सत्या: सत्यङ्कारमिवान्तकः // 50 / / तामैक्षन्त क्षणं सभ्या दुःशासनपुर:सराम् / अभिसायार्कमावृत्तां छायामिव महातरोः // 51 // 15 अयथार्थक्रियारम्भैः पतिभिः किं तवेक्षितैः / अरुध्येतामितीवास्या नयने बाष्पवारिणा / / 52 / / सोढवानो दशामन्त्यां ज्यायानेव गुणप्रियः / सुलभो हि द्विषां भङ्गो दुर्लभा सत्स्ववाच्यता / / 53 / / स्थित्यतिक्रान्तिभीरूणि स्वच्छान्याकुलितान्यपि / 20 तोयानि तोयराशीनां मनांसि च मनस्विनाम् / / 54 / / धार्तराष्ट्र: सह प्रीतिर्वैरमस्मास्वसूयत / / असन्मैत्री हि दोषाय ‘कूलच्छायेव सेविता // 55 / / अपवादादभीतस्य समस्य गुणदोषयोः / असद्वृत्तेरहोवृत्तं दुर्विभावं विधेरिव / / 56 / / 25 ध्वंसेत हृदयं सद्यः परिभूतस्य मे परैः / यद्यमर्षः प्रतीकारं भुजालम्बं न लम्भयेत् // 57 / / Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 ] [ काव्यषट्कं अवध्यारिभिर्नीता हरिणस्तुल्यवृत्तिताम् / / अन्योन्यस्यापि जिह्रीमः किं पुनः सहवासिनाम् // 58 / / शक्तिवैकल्यनम्रस्य निःसारत्वाल्लघीयसः / / जन्मिनो मानहीनस्य तृणस्य च समा गतिः / / 56 / / अलङ्घय तत्तदुद्वीक्ष्य यद्यदुच्चैर्महीभृताम् / / प्रियतां ज्यायसीं मागान्महतां केन तुङ्गता / / 60 / / तावदाश्रीयते लक्ष्म्या तावदस्य स्थिरं यशः / पुरुषस्तावदेवासौ यावन्मानान्न हीयते / / 61 / / स पुमानर्थवज्जन्मा यस्य नाम्नि पुरःस्थिते / / नान्यामगुलिमभ्येति संख्यायामुद्यतागुलिः // 62 / / दुरासदवनज्यायान् गम्यस्तुङ्गोऽपि भूधरः / न जहाति महौजस्कं मानप्रांशुमलङ्घयता / / 63 / / गुरुन्कुर्वन्ति ते वंश्यानन्वर्था तैर्वसुंधरा। येषां यशांसि शुभ्राणि हपमन्तीन्दुमण्डलम् / / 64 / / उदाहरणमाशीःषु प्रथमे ते मनस्विनाम् / शुष्केऽशनिरिवाम! यैररातिषु पात्यते / / 65 / / न सुखं प्रार्थये नार्थमुदन्वद्वीचिचञ्चलम् / नानित्यताशनेस्त्रस्यन् विविक्तं ब्रह्मणः पदम् // 66 / / प्रमाष्टुमयशःपङ्कमिच्छेयं छद्मना कृतम् / वैधव्यतापितारातिवनितालोचनाम्बुभिः // 67 / / अपहस्येऽथवा सद्भिः प्रमादो वास्तु मे धियः / प्रस्थानविहितायासः कामं जिहतु वा भवान् / / 68 / / वंशलक्ष्मीमनुद्धृत्य समुच्छेदेन विद्विषाम् / निर्वाणमपि मन्येऽहमन्तरायं जयश्रियः / / 69 // 25 अजन्मा पुरुषस्तावद्गतासुस्तृणमेव वा। यावन्नेषुभिरादत्ते विलुप्तमरिभिर्यशः / / 70 / / Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: एकादशमः सर्गः ] [331 अनिर्जयेन द्विषता यस्यामर्षः प्रशाम्यति / पुरुषोक्तिः कथं तस्मिन् ब्रूहि त्वं हि तपोधन // 71 / / कृतं पुरुषशब्देन जातिमात्रावलम्बिना / योऽङ्गीकृतगुणैः इलाध्यः सविस्मयमुदाहृतः / / 72 / / 5 ग्रसमानमिवौजांसि सदसा गौरवेरितम् / नाम यस्याभिनन्दन्ति द्विषोऽपि स पुमान्पुमान् // 73 // यथाप्रतिज्ञं द्विषतां युधि प्रतिचिकीर्षया / ममैवाध्येति नृपतिस्तृष्यन्निव जलाञ्जलेः // 74 / / स वंशस्यावदातस्य शशाङ्कस्येव लाञ्छनम् / 10 कृच्छे षु व्यर्थया यत्र भूयते भर्तु राज्ञया . / / 75 / / कथं वादायतामर्वाङ्मुनिता धर्मरोधिनी / प्राथमानुक्रमः पूर्वैः स्मर्यते न व्यतिक्रमः // 76 / / पासक्ता धूरियं रूढा जननी दूरगा च मे / तिरस्करोति स्वातन्त्र्यं ज्यायांश्चारवान्नपः // 77 / / 15 स्वधर्ममनुरुन्धन्ते नातिक्रममरातिभिः / पलायन्ते कृतध्वंसा नाहवान्मानशालिनः // 78 // विच्छिन्नाभ्रविलायं वा 'विलीये नगमूर्धनि / आराध्य वा सहस्राक्षमयशःशल्यमुद्धरे // 76 / / इत्युक्तवन्तं परिरभ्य दोभ्यां तनूजमाविष्कृतदिव्यमूर्तिः / 20 अघोपघातं मघवा विभूत्यै भवोद्भवाराधनमादिदेश // 80 // प्रीते पिनाकिनि मया सह लोकपालै __ र्लोकत्रयेऽपि विहिताप्रतिवार्यवीर्यः / लक्ष्मी समुत्सुकयितासि भृशं परेषा ___ मुच्चार्य वाचमिति तेन तिरोबभूवे / / 81 / / 25 // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये एकादशः सर्गः // 11 // Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 ] [ काव्यषट्कं // 12 // बादशः सर्गः॥ (उद्गतावृत्तम् ) .. अथ वासवस्य वचनेन रुचिरवदनस्त्रिलोचनम् / .. 5 क्लान्ति रहितमभिराधयितु विधिवत्तपांसि विदधे धनजंयः / / 1 / / अभिरश्मिमालि विमलस्य धृतजयधृतेरनाशुषः। तस्य भुवि बहुतिथास्तिथयः प्रतिजग्मुरेकचरणं निषीदतः / / वपुरिन्द्रियोपतपनेषु सततमसुखेषु पाण्डवः / 10 व्याप नगपतिरिवस्थिरतां महतां हि धर्यमविभाव्यवैभवम् / 3 / न पपात संनिहितपक्ति सुरभिषु फलेषु मानसम् / / तस्य शुचिनि शिशिरे च पयस्य ___मृतायते हि सुतपः सुकर्मणाम् / / 4 / / 15 न विसिस्मिये न विषसाद मुहुरलसतां न चाददे / सत्त्वमुरुधृति रजस्तमसी न हतः स्म तस्य हतशक्तिपेलवे / 5 / तपसा कृशं वपुरुवाह स विजितजगत्त्रयोदयम् / त्रासजननमपि तत्त्वविदां कमि किमिवास्ति यन्न सुकरं मनस्विभिः / / 6 / / ज्वलतोऽनलादनुनिशीथमधिकरुचिरम्भसां निधेः / धैर्यगुणमवजयन्विजयी ददृशे समुन्नततरः स शैलतः / / 7 / / जपतः सदा जपमुपांशु वदनमभितो विसारिभिः / तस्य दशनकिरणैः शुशुभे परिवेषभीषणमिवार्कभण्डलम् / 8 / 25 कवचं स बिभ्रदुपवीतपदनिहितसंज्यकार्मुकः / शैलपतिरिव महेन्द्रधनुःपरिवीतभीमगहनो विदिद्युते / / 6 // Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: द्वादशमः सर्गः ] 3 प्रविवेश गामिव कृशस्य नियमसवनाय गच्छतः / तस्य पदविनमितो हिमवान् गुरुतां नयन्ति हि गुणा न संहतिः / / 10 // परिकीणमुद्यतभुजस्य भुवनविवरे दुरासदम् / ज्योतिरुपरि शिरसो विततं . जगहे निजान्मुनिदिवौकसां पथः / / 11 / / रजनीषु राजतनयस्य __बहुलसमयेऽपि धामभिः / भिन्नतिमिरनिकर न जहे शशि रश्मिसंगमयुजा नभः श्रिया / / 12 / / महता मयूखनिचयेन. शमितरुचि जिष्णुजन्मना / ह्रीतमिव नभसि वीतमले न विराजते स्म वपुरंशुमालिनः 13 15 तमुदीरितारुणजटांशु मधिगुणशरासनं जनाः / रुद्रमनुदितललाटदृशं ददृशु ___ मिमन्थिषुमिवासुरीः पुरीः // 14 / / मरुतां पतिः स्विदहिमांशुरुत पृथुशिखः शिखी तपः / 20 तप्तमसुकरमुपक्रमते न जनोऽयमित्यवयये स तापसैः / / 15 / / न ददाह भूरुहवनानि हरितनयधाम दूरगम् / न स्म नयति परिशोषमपः सुसहं बभूव न च सिद्धतापसः / / 16 // 25 ... विनयं गुणा इव विवेक मपनयभिदं नया इव / Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 ] [ काव्यषटकं न्यायमवघय इवाशरणाः . __शरणं ययुः शिवमथो महर्षयः / / 17 / / परिवीतमंशुभीरुदस्तदिनकरमयूखमण्डलैः / शंभुमुपहतदृशः सहसा न च ते निचायितुमभिप्रसेहिरे / / 18 / / अथ भूतभव्यभवदीशमभिमुखयितु कृतस्तवाः / तत्र महसि ददृशुः पुरुषं कमनीयविग्रहमयुग्मलोचनम् / / 16 / / ककुदे वृषस्य कृतबाहुमकृशपरिणाहशालिनी / स्पर्शसुखमनुभवन्तमुमाकुचयुग्ममण्डल इवार्द्रचन्दने / / 20 / / स्थितमुन्नते तुहिनशैलशिरसि भुवनातिवतिना। 10 साद्रिजलधिजलवाहपथं सदिगश्नुवानामिव विश्वमोजसा / / 21 अनुजानुमध्यमवसक्त विततवपुषां महाहिना। लोकमखिलमिव भूमिभृता रवितेजसामवधिनाधिवेष्टितम् / / 22 / / परिणाहिना तुहिनरा शिविशदमुपवीतसूत्रताम् / नीतमुरगमनुरञ्जयता शितिना गलेन विलसन्मरीचिना / / 23 / / प्लुतमालतीसितकपाल ___कुमुदमवरुद्धमूर्धजम् / शेषमिव सुरसरित्पयसां शिरसा विसारि शशिधाम बिभ्रतम् / / 24 / / मुनयस्ततोऽभिमुखमेत्य नयनविनिमेषनोदिताः। पाण्डुतनयतपसा जनितं जगतामशर्म भृशमाचचक्षिरे // 25 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: द्वादशमः सर्गः ] [ 335 तरसैव कोऽपि भुवनैक पुरुष पुरुषस्तपस्यति / ज्योतिरमलवपुषोऽपि रवेर भिभूय वृत्र इव भीमविग्रहः / / 26 / / स धनुर्महेषुधि बिभर्ति ___ कवचमसिमुत्तमं जटाः / वल्कमजिनमिति चित्रमिदं मुनिताविरोधि न च नास्य राजते / / 27 / / चलनेऽवनिश्चलति तस्य - करणनियमे सदिङ्मुखम् / स्तम्भमनुभवति शान्तमरुद् ग्रहतारकागणयुतं नभस्तलम् / / 28 / / स तदोजसा विजितसार- . ममरदितिजोपसंहितम् / विश्वमिदमपिदधाति पुरा किमिवास्ति यन्न तपसामदुष्करम् / / 26 // विजिगीषते यदि जगन्ति युगपदथ संजिहीर्षति / प्राप्तुमभवमभिवाञ्छति वा _ वयमस्य नो विषहितुक्षमा रुचः / / 30 / / किमुपेक्षसे कथय नाथ न तव विदितं न किंचन। . त्रातुमलमभयदार्हसि नस्त्वयि __मा स्म शासति भवत्पराभवः / / 31 / / 25 . ' इति गां विधाय विरतेषु मुनिषु वचनं समाददे। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 ] .. [ काव्यषटकं भिन्नजलधिजलनादगुरु ध्वनयन्दिशां विवरमन्धकान्तकः / / 32 / / बदरीतपोवननिवास निरतमवगात मान्यथा / धातुरुदयनिधने जगतां नरमंशमादिपुरुषस्य गां गतम् / / 33 / / द्विषतः परासिसिषुरेष सकलभुवनाभिताविनः / क्रान्तकुलिशकरवीर्यबला न्मदुपासनं विहितवान्महत्तपः // 34 / / अयमच्युतश्च वचनेन सरसिरुहजन्मनः प्रजाः / पातुमसुरनिधनेन विभू भुवमभ्युपेत्य मनुजेषु तिष्ठतः / / 35 / / सुरकृत्यमेतदवगम्य __ निपुणमिति मूकदानवः / हन्तुमभिपतति पाण्डुसुतं त्वरया तदत्र सह गम्यतां मया / / 36 / / विवरेऽपि नैनमनिगूढ ____मभिभवितुमेष पारयन् / पापनिरतिरविशङ्कितया विजयं व्यवस्यति वराहमायया / / .37 / / निहते विडम्बितकिरात नृपतिवपुषा रिपो मया। मुक्तनिशितविशिखः प्रसभं मृगयाविवादमयमाचरिष्यति / / 38 / / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: द्वादशमः सर्गः ] . [ 337 तपसा निपीडितकृशस्य * विरहितसहायसंपदः / सत्त्वविहितमतुलं भुजयो बलमस्य पश्यत मृधेऽधिकुप्यतः / / 39 / / इति तानुदारमनुनीय विषमहरिचन्दनालिना / धर्मजनितपुलकेन लसद् गजमौक्तिकावलिगुणेन वक्षसा / / 40 / / वदनेन पुष्पितलतान्त नियमितविलम्बिमौलिना / बिभ्रदरुणनयनेन रुचं शिखिपिच्छलाञ्छितकपोलभित्तिना / / 41 / / बृहदुद्वहञ्जलदनादि धनुरुपहितैकमार्गणम् / मेघनिचय इव संववृते रुचिरः किरातपृतनापतिः शिवः / / 42 / / अनुकूलमस्य च विचिन्त्य . गणपतिभिरात्तविग्रहैः / शूलपरशुशरचापभृतै महति वनेचरचमूविनिर्ममे / / 43 / / विरचय्य काननविभाग मनुगिरमथेश्वराज्ञया / भीमनिनदपिहितोरुभुवः परितोऽपदिश्य मृगयां प्रतस्थिरे / / 44 / / 25. क्षुभिताभिनिःसृतविभिन्न शकुनिमृगयूथनिःस्वनैः / Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 ] [ काव्यषट्कं पूर्णपृथुवनगुहाविवरः सहसा भयादिव ररास भूधरः / / 45 / / न विरोधिनी रुषमियाय पथि मृगविहङ्गसंहतिः। घ्नन्ति सहजमपि-भूरिभियः सममागताः सपदि वैरमापदः // 46 / / चमरीगणैर्गणबलस्य बलवति भयेऽप्युपस्थिते। वंशविततिषु विषक्तपृथु प्रियबालवालधिभिराददे धृतिः / / 47 / / हरसैनिकाः प्रतिभयेऽपि ____ गजमदसुगन्धिकेसरैः। स्वस्थमभिदशिरे सहसा प्रतिबोधम्भितमुखैमृगाधिपः // 48 / / बिभरांबभूवुरपवृत्त जठरशफरीकुलाकुलाः। पङ्कविषमिततटाः सरितः करिरुग्णचन्दनरसारुणं पयः / / 46 / / महिषक्षतागुरुतमाल नलदसुरभिः सदागतिः / व्यस्तशुकनिभशिलाकुसुमः प्रणुदन्ववौ वनसदां परिश्रमम् / / 50 / / मथिताम्भसो रयविकीर्ण मृदितकदलीगवेधुकाः। क्लान्तजलरुहलताः सरसी विदधे निदाघ इव सत्त्वसप्लवः / / 51 / / Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किराताजु नीयम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 336 इति चालयनचलसानु वनगहनजानुमापतिः / प्राप मुदितहरिणीदशन क्षतवीरुधं वसतिमैन्द्रसूनवीम् // 52 / / स तमाससाद घननील ___ मभिमुखमुपस्थितं मुनेः। पोत्रनिकषणविभिन्नभुवं / * दनुजं दधानमथ सौकरं वपुः // 53 / / कच्छान्ते सुरसरितो निधाय __ सेनामन्वीतः स कतिपयैः किरातवर्यैः / प्रच्छन्नस्तरुगहनैः सगुल्मजालै लक्ष्मीवाननुपदमस्य संप्रतस्थे // 54 / / / / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वादशः सर्गः / / 12 / / // 13 // त्रयोदशः सर्गः // वषुषां परमेण भूधराणा मथ संभाव्यपराक्रमं बिभेदे / मृगमाशु विलोकयांचकार स्थिरदंष्ट्रोग्रमुखं महेन्द्रसूनुः // 1 // स्फुटबद्धसटोन्नतिः स दूरा दभिधावन्नवधीरितान्यकृत्यः / जयमिच्छति तस्य जातशङ्क मनसीमं मुहुराददे वितर्कम् // 2 // घनपोत्रविदीर्णशालमूलो निबिडस्कन्धनिकाषरुग्णवप्रः / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 ] [ काव्यषट्कं अयमेकचरोऽभिवर्तते मां . .. समरायेव समाजुहूषमाणः // 3 // इह वीतभयास्तपोऽनुभावा ज्जहति व्यालमृगाः परेषु वृत्तिम् / मयि तां सुतरामयं विधत्ते विकृतिः किं नु भवेदियं नु माया / / 4 / / अथवैष कृतज्ञयेव पूर्व भृशमासेवितया रुषा न मुक्तः / अवधूय विरोधिनी: किमारा. न्मृगजातोरभियाति मां जवेन / / 5 / / न मृगः खलु कोऽप्ययं जिघांसुः स्खलति यत्र तथा भृशं मनो मे / विमलं कलुषीभवच्च चेतः कथयत्येव हितैषिणं रिपु वा / / 6 / / मुनिरस्मि निरागसः कुतो मे भयमित्येष न भूयतेऽभिमानः / परवृद्धिषु बद्धमत्सराणां किमिव ह्यस्ति दुरात्मनामलङ्घयम् / / 7 / / दनुजः स्विदयं क्षपाचरो वा वनजे नेति बलं बतास्ति सत्त्वे / अभिभूय तथा हि मेघनीलः सकलं कम्पयतीव शैलराजम् // 8 // अयमेव मृगव्यसत्रकामः प्रहरिष्यन्मयि मायया शमस्थे / पृथुभिर्वजिनीरवैरकार्षी- .. च्चकितोद्भ्रान्तमृगानि काननानि / / 6 / / 25 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 341 बहुशः कृतसत्कृतेविधातु प्रियमिच्छन्नथवा सुयोधनस्य / क्षुभितं वनगोचराभियोगाद् गणमाशिश्रियदाकुलं तिरश्चाम् / / 10 / / अवलीढसनाभिरश्वसेनः - प्रसभं खांडवजातवेदसा वा / प्रतिकर्तु मुपागतः समन्युः . कृतमन्युर्यदि वा वृकोदरेण / / 11 / / बलशालितया यथा तथा वा धियमुच्छेदवरामयं दधानः / नियमेन मया निबर्हणीयः परमं लाभमरातिभङ्गमाहुः / / 12 / / कुरु तात तपांस्यामार्गदायी . विजयायेत्यलमन्वशान्मुनिर्माम् / बलिनश्च वधाहतेऽस्य शक्यं ब्रतसंरक्षणमन्यथा न कर्तुम् / / 13 / / इति तेन विचिन्त्य चापनाम प्रथमं पौरुषचिह्नमाललम्बे / उपलब्धगुणः परस्य भेदे * सचिवः शुद्ध इवाददे च बाणः / / 14 / / अनुभाववता गुरु स्थिरत्वा दविसंवादि धनुर्धनंजयेन / स्वबलव्यसनेऽपि पीडयमानं गुणवन्मित्रमिवानति प्रपेदे / / 15 / / प्रविकर्षनिनादभिन्नरन्ध्रः / पदविष्टम्भनिपीडितस्तदानीम् / 25 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 ] [ काव्यषट्कं अधिरोहति गाण्डिवं महेषौ सकलः संशयमारुरोह शैलः / / 16 / / ददृशेऽथ सविस्मयं शिवेन स्थिरपूर्णायतचापमण्डलस्थः / रचितस्तिसृणां पुरां विधातु __ वधमात्मेव भयानकः परेषाम् // 17 / / विचकर्ष च संहितेषुरुच्चै श्चरणास्कन्दननामिताचलेन्द्रः / धनुरायतभोगवासुकिज्या-' ___ वदनग्रन्थिविमुक्तवह्नि शंभुः // 18 / / स भवस्य भवक्षयकहेतोः सितसप्तेश्चं विधास्यतोः सहार्थम् / रिपुराप पराभवाय मध्यं प्रकृतिप्रत्यययोरिवानुबन्धः / / 19 / / अथ दीपितवारिवाहवर्मा रववित्रासितवारणादवार्यः / निपपात जवादिषुः पिनाका ___ महतोऽभ्रादिव वैद्युतः कृशानुः / / 20 / / व्रजतोऽस्य बृहत्पतत्त्रजन्मा कृततार्योपनिपातवेगशङ्कः / प्रतिनादमहान्महोरगाणां हृदयश्रोत्रभिदुत्पपात नादः / / 21 // नयनादिव शूलिनः प्रवृत्तै मनसोऽप्याशुतरं यतः पिशङ्गः / विदधे विलसत्तडिल्लताभैः / किरणैर्योमनि मार्गणस्य मार्गः / / 22 / / 25 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 343 अपयन्धनुषः शिवान्तिकस्थै. विवरेसद्भिरभिख्यया जिहानः / युगपद्ददृशे विशन्वराहं तदुपोढेश्च नभश्चरैः पृषत्कः // 23 / / स तमालनिभे रिपो सुराणां __ घननीहार इवाविषक्तवेगः / भयविप्लुतमीक्षितो नभः स्थै जगतीं ग्राह इवापगां जगाहे / / 24 / / सपदि प्रियरूपपर्वरेखः सितलोहाग्रनखः खमाससाद / कुपितान्तकतर्जनाङ्गुलि श्रीय॑थयन् प्राणभृतः कपिध्वजेषुः / / 25 / / परमास्त्रपरिग्रहोरु तेजः स्फुरदुल्काकृति विक्षिपन्वनेषु / स जवेन पतन् परःशतानां पततां वात इवारवं वितेने // 26 / / अविभावितनिष्क्रमप्रयाणः / शमितायाम इवातिरंहसा सः / स पूर्वतरं नु चित्तवृत्तेर पतित्वा नु चकार लक्ष्यभेदम् // 27 // . स वषध्वजसायकावभिन्नं जयहेतुः प्रतिकायमेषणीयम् / लघु साधयितु शरः प्रसेहे . विधिनेवार्थमुदीरितं प्रयत्नः // 28 / / अविवेकवृथाश्रमाविवार्थ क्षयलोभाविव संश्रितानुरागम् / 15 25 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] [ काव्यषटकं विजिगीषुमिवानयप्रमादा ववसादंविशिखौ विनिन्यतुस्तम् / / 29 / / अथ दीर्घतमं तमः प्रवेक्ष्यन् सहसा रुग्णरयः स संभ्रमेण / निपतन्तमिवोष्णरश्मि मुल् वलयीभूततरं धरां च मेने / / 30 / / स गतः क्षितिमुष्णशोणिताः खुरदंष्ट्राग्रनिपातदारिताश्मा। असुभिः क्षणमीक्षितेन्द्रसूनु विहितामर्षगुरुध्वनिनिरासे // 31 / / स्फुटपौरुषमापपात पार्थ ___ स्तमथ प्राज्यशरः शरं जिघृक्षुः / न तथा कृतवेदिनां करिष्यन् प्रियतामेति यथा कृतावदानः / / 32 / / उपकार इवासति प्रयुक्त: स्थितिमप्राप्य मृगे गतः प्रणाशम् / कृतशक्तिरधोमुखो गुरुत्वा जनितव्रीड इवात्मपौरुषेण / / 33 / / स समुद्धरता विचिन्त्य तेन ___ स्वरुचं कीतिमिवोत्तमां दधानः / अनुयुक्त इव स्ववार्तमुच्चैः परिरेभे नु भृशं विलोचनाभ्याम् / / 34 / / तत्र कामुकभृतं महाभुजः पश्यति स्म सहसा बनेचरम् / संनिकाशयितुमग्रतः स्थितं शासनं कुसुमचापविद्विषः // 35 / / 25 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [345 स प्रयुज्य तनये महीपते रात्मजातिसडशी किलानतिम् / सान्त्वपूर्वमभिनीतिहेतुकं वक्तुमित्थमुपचक्रमे वचः // 36 / / शान्तता विनययोगि मानसं भूरि धाम विमलं तपः श्रुतम् / प्राह ते नु सदशी दिवौकसा मन्ववायमवदातमाकृतिः / / 37 // दीपितस्त्वमनुभावसंपदा .. गौरवेण लघयन्महीभृतः / . राजसे मुनिरपीह कारय नाधिपत्यमिव शातमन्यवम् // 38 / / तापसोऽपि विभुतांमुपेयिवा नास्पदं त्वमसि सर्वसंपदाम् / दृश्यते हि भवतो विना जनै-.... __रन्वितस्य सचिवैरिव द्युतिः / / 36 / / विस्मयः क इव वा जयश्रिया .. ____ नैव मुक्तिरपि ते दवीयसी / ईप्सितस्य न भवेदुपाश्रयः / कस्य निजितरजस्तमोगुणः // 40 // .. हपयन्नहिमतेजसं त्विषा स त्वमित्थमुपपन्नपौरुषः / हर्तुमर्हसि वराहभेदिनं नैनमस्मदधिपस्य सायकम् / / 41 / / ‘स्मयते तनुभृतां सनातनं न्याय्यमाचरितमुत्तमैनुभिः / 25 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 / [ काव्यषट्कं ध्वंसते यदि भवादृशस्ततः कः प्रयातु वद वर्त्मना // 42 // आकुमारमुपदेष्टुमिच्छवः संनिवृत्तिमपथान्महापदः / योगशक्तिजितजन्ममृत्यवः ____शीलयन्ति यतयः सुशीलताम् / / 43 / / तिष्ठतां तपसि पुण्यमासजन् संपदोऽनुगुणयन् सुखैषिणाम् / योगिनां परिणमन् विमुक्तये केन नास्तु विनयः सतां प्रियः // 44 / / नूनमत्रभवतः शराकृति सर्वथायमनुयाति सायकः / सोऽयमित्यनुपपन्नसंशयः' कारितस्त्वमपथे पदं यया / / 45 / / अन्यदीयविशिखे न केवलं निःस्पृहस्य भवितव्यमाहृते / निघ्नतः परनिहितं मृगं वीडितव्यमपि ते सचेतसः // 46 / / सन्ततं निशमयन्त उत्सुका यैः प्रयान्ति मुदमस्य सूरयः / कीर्तितानि हसितेऽपि तानि यं वीडयन्ति चरितानि मानिनम् / / 47 / / अन्यदोषमिव स स्वकं गुणं ख्यापयेत् कथमधष्टताजडः / उच्यते स खलु कार्यवत्तया घिग्विभिन्नबुधसेतुमर्थिताम् // 48 // 15 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: त्रयोदशः सर्गः] [ 347 दुर्वचं तदथ * मा स्म भून्मू गस्त्वय्यसो तदकरिष्यदोजसा / नैनमाशु यदि वाहिनीपतिः प्रत्यपत्स्यत शितेन पत्रिणा // 46 / / को विमं हरितुरङ्गमायुध स्थेयसीं दधतमङ्गसंहतिम् / वेगवत्तरमृते चमूपते हन्तुमर्हति शरेण दंष्टिणम् // 50 // मित्रमिष्टमुपकारि संशये मेदिनीपतिरयं तथा च ते। तं विरोध्य भवता निरासि ___ मा सज्जनकवसतिः कृतज्ञताः // 11 // लभ्यमेकसुकृतेन दुर्लभा . रक्षितारमसुरक्ष्यभूतयः / / स्वन्तमन्तविरसा जिगीषतां मित्रलाभमनु लाभसंपदः // 52 / / चञ्चलं वसु नितान्तमुन्नता मेदिनीमपि हरन्त्यरातयः / भूधरस्थिरमुपेयमागतं. . माऽवमस्त सुहृदं महीपतिम् // 53 / / जेतुमेव भवता तपस्यते ___ नायुधानि दधते मुमुक्षवः / प्राप्स्यते च सकलं महीभृता संगतेन तपसः फलं त्वया // 54 / / वाजिभूमिरिभराजकाननं सन्ति रत्ननिचयाश्च भूरिशः / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 ] [ काव्यषट्क काञ्चनेन किमिवास्य पत्त्रिणा केवलं न सहते विलकनम् // 55 / / सावलेपमुपलिप्सिते पर ' रभ्युपैति विकृति रजस्यपि / अथितस्तु न महान्समीहते - जीवितं किमु धनं धनायितुम् / / 56 / / तत्तदीयविशिखातिसर्जना दस्तु वां गुरु यदृच्छयागतम् / राघवप्लवगराजयोरिव प्रेम युक्तमितरेतराश्रयम् // 57 / / नाभियोक्तुमन्तं त्वमिष्यसे कस्तपस्विविशिखेषु चादरः / सन्ति भूभूति शरा हि नः परे ये पराक्रमवसूनि वज्रिणः // 58 / / मार्गणैरथ तव प्रयोजनं - नाथसे किमु पतिं न भूभृतः / त्वद्विधं सुहृदमेत्य सोऽथिनं किं न यच्छति विजित्य मेदिनीम् / / 56 / / तेन सूरिरुपकारिताधनः कर्तुमिच्छति न याचितं वृथा। सीदतामनुभवन्निवार्थिनां वेद यत्प्रणयभङ्गवेदनाम् / / 60 / / शक्तिरर्थपतिष स्वयंग्रहं प्रेम कारयति वा निरत्ययम / कारणद्वयमिदं निरस्यतः प्रार्थनाऽधिकबले विपत्फला // 61 / / अस्त्रवेदमधिगम्य तत्त्वतः कस्य चेह भुजवीर्यशालिनः / जामदग्न्यमपहाय गीयते तापसेषु चरितार्थमायुधम् / / 62 / / 25 अभ्यघानि मुनिचापलात्त्वया यन्मृगः क्षितिपतेः परिग्रहः / अक्षमिष्ट तदयं प्रमाद्यतां संवृणोति खलु दोषमज्ञता // 63 // 20 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: त्रयोदश. सर्गः ) [ 346 जन्मवेषतपसां विरोधिनी मा कृथाः पुनरमूमपक्रियाम् / आपदेत्युभयलोकदूषणी वर्तमानमपथे हि दुर्मतिम् / / 64 / / यष्टुमिच्छसि पितृन्न सांप्रतं संवृतोऽचिंचयिषुर्दिवौकसः / दातुमेव पदवीमपि क्षमः . किं मृगेऽङ्ग विशिखं न्यवीविशः / / 65 / / सज्जनोऽसि विजहीहि चापलं सर्वदा क इव वा सहिष्यते / वारिधीनिव युगान्तवायवःक्षोभयन्त्यनिभता गुरूनपि / / 66 / / अस्त्रवेदविदयं महीपतिः पर्वतीय इति माऽवजीगणः / 10 गोपितु भूवमिमां मरुत्वता शैलवासमनुनीय लम्भितः / 67 / तत्तितिक्षितमिदं मया मुनेरित्यवोचत वचश्चमपतिः / बाणमत्रभवते निजं दिशनाप्नुहि त्वमपि सर्वसंपदः / / 68 / / आत्मनीनमुपतिष्ठते गुणाः / संभवन्ति विरमन्ति चापदः / इत्यनेकफलभाजी मा स्म भूर्थिता कथमिवार्यसंगमे / / 66 / / दृश्यतामयमनोकहान्तरे तिग्महेतिपतनाभिरन्वितः / साहिवीचिरिव सिन्धुरुद्धतो भूपति: समयसेतुवारितः // 70 // सज्यं धनुर्वहति योऽहिपतिस्थवीयः स्थेयाञ्जयन्हरितुरंगकेतुलक्ष्मीम् / अस्यानुकूलयमति मतिमन्ननेन सख्या सुखं समभियास्यसि चिन्तितानि 71 / 25 / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये त्रयोदशः सर्गः // 14 // Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 ] [ काव्यषट्कं // 14 // चतुर्दशः सर्गः॥ ततः किरातस्य वचोभिरुद्धतः पराहता शैल इवार्णवाम्बुभिः / जही न धैर्य कुपितोऽपि पाण्डवः सुदुर्ग्रहान्तःकरणा हि साधवः // 1 // सलेशमुल्लिङ्गितशात्रवेङ्गितः कृती गिरां विस्तरतत्त्वसंग्रहे / अयं प्रमाणीकृतकालसाधनः प्रशान्तसंरम्भ इवाददे वचः // 2 / / विविक्तवर्णाभरणा सुखश्रुतिः प्रसादयन्ती हृदयान्यपि द्विषाम् / प्रवर्तते नाकृतपुण्यकर्मणां' प्रसन्नगम्भीरपदा सरस्वती // 3 / / भवन्ति ते सभ्यतमा विपश्चितां मनोगतं वाचि निवेशयन्ति ये / नयन्ति तेष्वप्युपपन्ननैपुणा गभीरमर्थं कतिचित्प्रकाशताम् // 4 // स्तुवन्ति गुर्वीमभिधेयसंपदं विशुद्धिमुक्तेरपरे विपश्चितः / इति स्थितायां प्रतिपूरुषं रुची सुदुर्लभाः सर्वमनोरमा गिरः // 5 // समस्य संपादयता गुणैरिमां त्वया समारोपितभार भारतीम् / प्रगल्भमात्मा धुरि धुर्य वाग्मिनां वनेचरेणापि सताधिरोपितः // 6 // 25 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 351 प्रयुज्य सामाचरितं विलोभनं - भयं विभेदाय धियः प्रदर्शितम् / तथाभियुक्तं च शिलीमुखार्थिना यथेतरन्याय्यमिवावभासते // 7 // विरोधि सिद्धेरिति कर्तु मुद्यतः ___स वारितः किं भवता न भूपतिः / हिते नियोज्यः खलु भूति मिच्छता सहार्थनाशेन नृपोऽनुजीविना / / 8 / / ध्रुवं प्रणाशः प्रहितस्य पत्रिणः . शिलोच्चये तस्य विमार्गणं नयः / न युक्तमत्रार्यजनातिलङ्घनं . दिशत्यपायं हि सतामतिक्रमः || 6 || अतीतसंख्या विहिता ममाग्निना शिलीमुखाः खाण्डवमत्तुमिच्छता / अनाहतस्यामरसायकेष्वपि स्थिता कथं शैलजनाशुगे धृतिः // 10 // यदि प्रमाणीकृतमार्यचेष्टितं किमित्यदोषेण तिरस्कृता वयम् / अयातपूर्वा परिवादगोचरं सतां हि वाणी गुणमेव भाषते // 11 // गुणापवादेन तदन्यरोपणाद् भृशाधिरूढस्य समञ्जसं जनम् / द्विधेव कृत्वा हृदयं निगृहतः / ... स्फुरन्नसाघोविवृणोति वागसिः // 12 // वनाश्रयाः कस्य मृगाः परिग्रहा। शृणाति यस्तान्प्रसभेन तस्य ते। 25 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 ] [ काव्यषट्कं प्रहीयतामत्र नृपेण मानिता न मानिता चास्ति भवन्ति च श्रियः // 13 / / न वर्त्म कस्मैचिदपि प्रदीयता मिति व्रतं मे विहितं महर्षिणा / जिघांसुरस्मान्निहतो मया मगो व्रताभिरक्षा हि सतामलंक्रिया // 14 / / मृगान्विनिघ्नन्मृगयु: स्वहेतुना कृतोपकारः कथमिच्छतां तपः / कृपेति चेदस्तु मृगः क्षतः क्षणा दनेन पूर्व न मयेति का गतिः / / 15 / / अनायुधे सत्त्वजिघांसिते मुनौ ___ कपेति बृत्तिर्महतामकृत्रिमा / शरासनं बिभ्रति सज्यसायकं कृतानुकम्पः स कथं प्रतीयते // 16 // अथो * श रस्तेन मदर्थमुज्झितः . फलं च तस्य प्रतिकायसाधनम् / अविक्षते तत्र मयात्मसात्कृते कृतार्थता नन्वधिका चमूपतेः / / 17 / / यदात्थ कामं भवता स याच्यता मिति क्षमं नैतदनल्पचेतसाम् / कथं प्रसह्याहरणैषिणां प्रियाः परावनत्या मलिनीकृताः श्रियः / / 18 / / अभूतमासज्य विरुद्धमीहितं बलादलभ्यं तव लिप्सते नृपः / विजानतोऽपि ह्यनयस्य रौद्रतां . भवत्यपाये परिमोहिनी मतिः // 16 / 25 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 353 असिः शरा वर्म धनश्च नोच्चकै• विविच्य किं प्रार्थितमीश्वरेण ते / अथास्ति शक्तिः कृतमेव याच्या न दूषितः शक्तिमतां स्वयंग्रहः // 20 // सखा स युक्तः कथितः कथं त्वया ___ यदृच्छयाऽसूयति यस्तपस्यते / गुणार्जनोच्छ्रायविरुद्धबुद्धयः प्रकृत्यमित्रा हि सतामसाधवः // 21 // वयं क्व वर्णाश्रमरक्षणोचिताः . क्व जातिहीना मगजीवितच्छिदः / सहापकृष्टैर्महतां न संगतं भवन्ति गोमायुसखा न दन्तिनः / / 22 / / परोऽवजानाति यदज्ञताजड स्तदुन्नतानां न विहन्ति धीरताम् / समानवीर्यान्वयपौरुषेष यः __ करोत्यतिक्रान्तिमसौ तिरस्क्रिया / / 23 / / यदा विगृह्णाति हतं तदा यशः करोति मैत्रीमथ दूषिता गुणाः / स्थिति समीक्ष्योभयथा परीक्षकः ... करोत्यवज्ञोपहतं पृथग्जनम् / / 24 / / मया मगान्हन्तुरनेन हेतुना विरुद्धमाक्षेपवचस्तितिक्षितम् / शरार्थमेष्यत्यथ लप्स्यते गति . . शिरोमणि दृष्टिविषाज्जिघक्षतः // 25 / / इतीरिताकूतमनीलवाजिनं जयाय दूतः प्रतितय॑ तेजसा / 25 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] [ काव्यषट्कं ययौ समीपं ध्वजिनीमुपेयुषः / प्रसन्नरूपस्य विरूपचक्षुषः // 26 / / ततोऽपवादेन पताकिनीपते / श्चचाल निर्झदवती महाचमूः / युगान्तवाताभिहतेव कुर्वती निनादमम्भोनिधिवीचिसंहतिः // 27 / / रणाय जैत्रः प्रदिशन्निव त्वरां तरंङ्गितालम्बितकेतुसततिः / पुरो बलानां सघनाम्बुशीकरः शनैः प्रतस्थे सुरभिः समीरणः // 28 / / जयारवक्ष्वेडितनादमूच्छितः / शरासनज्यांतलवारणध्वनिः / / असंभवन्भूधरराजकुक्षिषु' प्रकम्पयन्गामवतस्तरे दिशः // 26 / / निशातरौद्रेषु विकासतां गतैः प्रदीपयद्भिः ककुभामिवान्तरम् / वनेसदां हेतिषु भिन्नविग्रहै विपुस्फुरे रश्मिमतो मरीचिभिः // 30 / / उढवक्षःस्थगितकदिङ्मुखो विकृष्टविस्फारितचापमण्डलः / वितत्य पक्षद्वयमायतं बभौ विभुर्गुणानामुपरीव मध्यगः // 31 / / सुगेषु दुर्गेषु च तुल्यविक्रम जवादहपूर्विकया गियासुभिः / गणैरविच्छेदनिरुद्धमाबभौ वनं निरुच्छ्वासमिवाकुलाकुलम् // 32 / / 15 25 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्दशः सर्गः ]. [ 355 तिरोहितश्वंभ्रनिकुञ्जरोधसः . समश्नुवानाः सहसा तिरिक्तताम् / किरातसैन्यैरपिधाय रेचिता ___ भूवः क्षणं निम्नतयेव भेजिरे // 33 // पृथूरुपर्यस्तबृहल्लताततिर्ज वानिलाघूर्णितशालचन्दना / गणाधिपानां परितः प्रसा ___रिणी वनान्यवाञ्चीव चकार संहतिः // 34 / / ततः सदर्प प्रतनुं तपस्यया मदस्र तिक्षाममिवैकवारणम् / 10 परिज्वलन्तं निधनाय भूभृतां दहन्तमाशा इव जातवेदसम् 35 अनादरोपात्तधृतैकसायकं जयेऽनुकूले सुहृदीव सस्पृहम् / शनैरपूर्णप्रतिकारपेलवे निवेशयन्तं नयने बलोदधौ / / 36 / / निषण्णमापत्प्रतिकारकारणे शरासने धैर्य इवानपायिनी। अलकनीयं प्रकृतावपि स्थितं. निवातनिष्कम्पमिवापगापतिम् // 37 / / उपेयुषीं बिभ्रतमन्तकद्युति. वधाददूरे पतितस्य दंष्ट्रिणः / पुरः समावेशितसत्पशुं द्विजैः पति पशूनामिव हूतमध्वरे // 38 / / निजेन नीतं विजितान्यगौरवं गभीरतां धैर्यगुणेन भूयसा / वनोदयेनेव घनोरुवीरुधा समन्धकारीकृतमुत्तमाचलम् / / 36 // महर्षभस्कन्धमनूनकन्धरं बृहच्छिलावप्रघनेन वक्षसा / Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 ] [ काव्यषटकं समुज्जिही जगती महामरां महावराहं महतोऽर्णवादिव // 40 / / हरिन्मणिश्याममुदनविग्रहं प्रकाशमानं परिभूय देहिनः / मनुष्यभावे पुरुषं पुरातनं स्थितं जलादर्श इवांशुमालिनम् / / 41 / / गुरुक्रियारम्भफलैरलंकृतं गति प्रतापस्य जगत्प्रमाथिनः / गणाः समासेदुरनीलवाजिनं तपात्यये तोयधना घना इव / / 42 / यथास्वमाशंसितविक्रमाः पुरा ... मुनिप्रभावक्षततेजसः परे। ययुः क्षणादप्रतिपत्तिमूढतां * महानुभावः प्रतिहन्ति पौरुषम् / / 43 / / ततः प्रजह सममेव तत्र तैर . पेक्षितान्योन्यबलोपपत्तिभिः। महोदयानामपि सङ्घवृत्तितां / ___सहायसाध्याः प्रदिशन्ति सिद्धयः / / 44 / / किरातसैन्यादुरुचापनोदिताः समं समुत्पेतुरुपात्तरंहसः / महावनादुन्मनसः खगा इव प्रवृत्तपत्रध्वनयः शिलीमुखाः // 45 / / गभीररन्ध्रेषु भृशं महीभृतः प्रतिस्वनैरुन्नमितेन सानुषु / धनुनिनादेन जवादुपेयुषा .. विभिद्यमाना इव दध्वनुर्दिशः / / 46 / / 25 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 357 विधूनयन्ती गहनानि भूरुहां तिरोहितोपान्तनभोदिगन्तरा / महीयसी वृष्टिरिवानिलेरिता - रवं वितेने गणमार्गणावलिः / / 47 / / त्रयीमृतूनामनिलाशिनः सतः प्रयाति पोषं वपुषि प्रहृष्यतः / रणाय जिष्णोविदुषेव. सत्वरं घनत्वमीये शिथिलेन वर्मणा / / 48 // पतत्सु शस्त्रेषु वितत्य रोदसी समन्ततस्तस्य धनुर्दु धूषतः / सरोषमुल्केव पपात भीषणा बलेषु दृष्टिविनिपातशंसिनी / / 46 / / दिशः समूहन्निव विक्षिपन्निव . __ प्रभां रवेराकुलयन्निवानिलम् / मुनिश्चचाल क्षयकालदारुणः क्षितिं सशैलां चलयन्निवेषुभिः / / 50 / / विमुक्तमाशंसितंशत्रुनिर्जय- . रनेकमकावसरं वनेचरैः / स निर्जधानायुधमन्तरा शरैः / . क्रियाफलं काल इवातिपातितः / / 51 / / गतैः परेषामविभावनीयतां . निवारयद्भिविपदं विदूरगैः / भृशं बभूवोपचितो बृहत्फलैः शरैरुपायैरिव पाण्डुनन्दनः / / 52 / / दिवः पृथिव्याः ककुभां नु मण्डला त्पतन्ति बिम्बादुत तिग्मतेजसः / 25 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 ] [ काव्यषटकं सकृतिकृष्टादथ कार्मु कान्मुनेः शराः शरीरादिति तेऽभिमेनिरे / / 53 / / गणाधिपानामविधाय निर्गतैः परासुतां मर्मविदारणैरपि। .. . जवादतीये हिमवानधोमुखैः कृतापराधैरिव तस्य पत्रिभिः / / 54 / / द्विषां क्षतीर्याः प्रथमे शिलीमुखा विभिद्य देहावरणानि चक्रिरे / न तासु पेते विशिखैः 'पुनर्मू ने ररुन्तुदत्वं महतां ‘ह्यगोचरः / / 55 / / समुज्झिता यावदराति निर्यती ___ सहैव चापान्मुनिबाणसंहतिः / प्रभा हिमांशोरिव पङ्कजावलि निनाय संकोचममापतेश्चमूम् / / 56 / / अजिह्ममोजिष्ठममोघमक्लमं क्रियासु बहीषु पृथनियोजितम् / प्रसे हिरे सादयितुं न सादिताः शरोधमत्साहमिवास्य विद्विषः / / 57 / / शिवध्वजिन्यः प्रतियोधमग्रतः स्फुरन्तमुग्रेषुमयूखमालिनम् / तमेकदेशस्थमनेकदेशगा ___ निदध्युरर्क युगपत्प्रजा इव // 58 / / मुनेः शरौघेण तदुग्ररंहसा बलं प्रकोपादिव विष्वगायता। विधूनितं भ्रान्तिमियाय सङ्गिी महानिलेनेव निदाघजं रजः / / 56 / / 25 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 356 तपोबलेनैवं विधाय भूयसी.. स्तनूरदृश्याः स्विदिषून्निरस्यति / अमुष्य मायाविहतं निहन्ति नः __ प्रतीपमागत्य किमु स्वमायुधम् / / 60 / / हृता गुणैरस्य भयेन वा मुने स्तिरोहिताः स्वित्प्रहरन्ति देवताः / कथं न्वमी संततमस्य सायका भवन्त्य नेके जलेधेरिवोर्मयः / / 65 / / जयेन कचिद्विरमेदयं रणा द्भवेदपि स्वस्ति चराचराय वा / तताप कीर्णा नृपसूनुमार्गणै रिति प्रतर्काकुलिता पतांकिनी / / 62 / / अमर्षिणा कृत्यमिव क्षमाश्रयं ___ मदोद्धतेनेव हित प्रियं वचः / बलीयसा तद्विधिनेव पौरुषं बलं निरस्तं न रराज जिष्णुना // 63 / / प्रतिदिशं प्लवगाँधिपलक्ष्मणा विशिखसंहतितापितमूर्तिभिः / रविकरग्लपितैरिव वारिभिः शिवबलैः परिमण्डलता दधे / / 64 / / प्रविततशरजालच्छन्नविश्वान्तराले ___ विधुवति धनुराविर्मण्डलं पाण्डुसूनौ / कथमपि जयलक्ष्मीर्भीतभीता विहातुं / विषमनयनसेनापक्षपातं विषेहे / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये चतुर्दशः सर्गः / / 14 // 25 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 ] . [.काव्यषट्क // 15 // पञ्चदशः सर्गः॥ अथ भूतानि वात्रघ्नशरेभ्यस्तत्र तत्रसुः / / भेजे दिशः परित्यक्तमहेष्वासा च सा चमूः // 1 // . अपश्यद्भिरिवेशानं रणान्निववते गणैः / मुह्यत्येव हि कृच्छे षु संभ्रमज्वलितं मनः // 2 / / खण्डिताशंसया तेषां पराङ्मुखतया तया / प्राविवेश कृपा केतौ कृतोच्चैर्वानरं नरम् / / 3 / / आस्थामालम्ब्य नीतेषु वशं क्षुद्रेष्वरातिषु / व्यक्तिमायाति महतां माहात्म्यमनुकम्पया / / 4 / / 10 स सासिः सासुसूः सासी येयायेयाययाययः / ललौ लीलां ललोऽलोल: शशीशशिशुशीः शशन् / / 5 / / (एकाक्षरपदः ) त्रासजिह्म यतश्चैतान् मन्दमेवान्वियाय सः / नातिपीडयितु भग्नानिच्छन्ति हि महौजसः / / 6 / / 15 अथाग्रे हसता साचिस्थितेन स्थिरकीर्तिना। सेनान्या ते जगदिरे किञ्चिदायस्तचेतसा / / 7 / / (निरोष्ट्यम् ) मा विहासिष्ट समरं समरन्तव्यसंयतः / क्षतं क्षुण्णासुरगणैरगणैरिव किं यशः / / 8 / / (पादान्तादियमकम् ) विवस्वदंशुसंश्लेषद्विगुणीकृततेजसः / अमी वो मोघमुद्गूर्णा हसन्तीव महासयः / / 6 / / वनेऽवने वनसदा मार्ग मार्गमुपेयुषाम् / . वाणैर्बाणैः समासक्त शङ्कऽशं केन शाम्यति / / 10 / / (पादादियमकम् ) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पञ्चदशः सर्गः ) [ 361 M पातितोत्तङ्गमाहात्म्यः संहृतायतकीतिभिः / गुर्वी कामापदं हन्तुं कृतमावृत्तिसाहसम् // 11 // . नासुरोऽयं न वा नागो घरसंस्थो न राक्षसः / ना सुखोऽयं नवाभोगो धरणिस्थो हि राजसः / / 12 / / (गोमूत्रिकाबन्धः ) मन्दमस्यन्निषुलतां घृणया मुनिरेष वः / प्रणुदत्यागतावनं जघनेषु पशूनिव // 13 / / न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु / नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् / / 14 / / .. ( एकाक्षरः।) वरं कृतध्वस्तगुणादत्यन्तमगुणः पुमान् / प्रकृत्या ह्यमणि: श्रेयान्नालङ्कारश्च्युतोपलः / / 15 / / स्यन्दना नो चतुरगाः सुरेभा वाविपत्तयः / / स्यन्दना नो च तुरगाः सुरेभा वा विपत्तयः / / 16 / / . (समुद्गकः / ) भवद्भिरधुनारातिपरिहापितपौरुषैः / ह्रदैरिवार्कनिष्पीतः प्राप्तः पङ्को दुरुत्तरः // 17 // वेत्रशाककुजे शैलेऽलेशैजेऽकुकशात्रवें / यात किं विदिशो जेतु तुजेशो दिवि किंतया / / 18 / / (प्रतिलोमानुलोमपादः ) अयं वः क्लैब्यमापन्नान् दृष्टपृष्ठानरातिना। इच्छतीशश्च्युताचारान् दारानिव निगोपितुम् / / 16 / / ननु हो मथना राघो घोरा नाथमहो नु न / तयदातवदा भीमा माभीदा बत दायत / / 20 / / ( प्रितिलोमानुलोमार्यशः ) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 ] [ किरातार्जुनीयम् किं त्यक्तापास्तदेवत्वमानुष्यकपरिग्रहैः / ज्वलितान्यगुणगुर्वी स्थिता तेजसि मानिता // 21 // निशतासिरतोऽभीको न्येजतेऽमरणा रुचा। सारतो न विरोधी नः स्वाभासो भरवानुत // 22 // 5 तनुवारभसो भास्वानधीरोऽविनतोरसा। चारुणा रमते जन्ये कोऽभीतो रसिताशिनि / / 23 / / . . (प्रतिलोमानुलोमेन श्लोकद्वयम् ) विभिन्नपातिताश्वीयनिरुद्धरथवर्त्मनि / हतद्विपनगष्ठ्यूतरुधिराम्बुनदाकुले // 24 // 10 देवाकानिनि कावादे वाहिकास्वस्वकाहि वा / काकारेभभरे काका निस्वभव्यव्यभस्वनि / / 25 / / (सर्वतोभद्रः / ) प्रनृत्तशववित्रस्ततुरगाक्षिप्तसारथौ।। मारुतापूर्णतूणीरविक्रुष्टहतसादिनि // 26 / / 15 ससत्त्वरतिदे नित्यं सदरामर्षनाशिनि / त्वराधिककसन्नादे रमकत्वमकर्षति // 27 // ( अधभ्रमकः) आसुरे लोकवित्रासविधायिनि महाहवे। युष्माभिरुन्नतिं नीतं निरस्तमिह पौरुषम् // 28 / / इति शासति सेनान्यां गच्छतस्ताननेकधा / निषिध्य हसता किंचित्तस्थे तत्रान्धकारिणा // 29 // (नीरोष्ठयम् ) मुनीषुदहनातप्ताल्लज्जया निविवृत्सतः / / / शिवः प्रह्लादयामास तानिषेधहिमाम्बुना // 30 / / 25 दूनास्तेऽरिबलादूना निरेभा बहु मेनिरे / भीताः शितशराभीताः शंकरं तत्र शंकरम् // 31 / / (पादाद्यन्तयमकम् ) 20 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [363 महेषजलधौ शत्रोतमाना दुरुत्तरे / प्राप्य पारमिवेशानमाशश्वास पताकिनी // 32 / / स बभार रणापेतां चमू पश्चादवस्थिताम् / पुरःसूर्यादपावृत्तां छायामिव महातरुः // 33 / / 5 मुञ्चतीशे शराजिष्णौ पिनाकस्वनपूरितः / दध्वान ध्वनयन्नाशाः स्फुटन्निव धराधरः // 34 / / तद्गणा ददृशुर्भीमं चित्रसंस्था इवाचलाः / विस्मयेन तयोर्युद्धं चित्रसंस्था इवाचलाः // 35 / / (द्विचतुर्थयमकम् ) 10 परिमोहयमाणेन शिक्षालाघवलीलया। जैष्णवी विशिखश्रेणी परिजह पिनाकिना // 36 / / अवद्यन्पत्रिणः शंभोः सायकैरवसायकैः / पाण्डवः परिचक्राम शिक्षया रणशिक्षया // 37 / / (पाद्यन्तयमकम् ) 15 चारचुञ्चुश्चिरारेची चञ्चच्चीररुचा रुचः / चचार रुचिरश्चारु चारैराचारचञ्चुरः // 38 / / (द्वयक्षरः ) स्फुरत्पिशङ्गमौर्वीकं धुनानः स बृहद्धनुः / / धृतोल्कानलयोगेन तुल्यमंशुमता बभो / / 36 / / पार्थबाणा: पशुपतेरावत्रुविशिखावलीम् / पयोमुच इवारन्ध्राः सावित्रीमंशुसंहतिम् / / 40 / / शरवृष्टि विधूयोर्वी मुदस्तां सव्यसाचिना / रुरोध मार्गणैर्मागं तपनस्य त्रिलोचनः / / 41 / / तेन व्यातेनिरे भीमा भीमार्जनफलाननाः। 25 न नानुकम्प्य विशिखाः शिखाधरजवाससः / / 42 / / ( शृङ्खलायमकम् ) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 ] [ काव्यषट्कं युवियद्गामिनी तारसंरावविहतश्रुतिः / हैमीषुमाला शुशुभे विद्युतामिव संहतिः / / 43 / / (गूढचतुर्थपादः ) विलङ्घय पत्रिणां पङ्क्ति भिन्नः शिवशिलीमुखैः / 5 ज्यायो वीर्यमुपाश्रित्य न चकम्पे कपिध्वजः / / 44 / / जगतीशरणे युक्तो हरिकान्तः सुधासितः / दानवर्षी कृताशंसो नागराज इवाबभौ // 45 / / (अर्थत्रयवाची) विफलीकृतयत्नस्य क्षतबाणस्य शंभुना। गाण्डीवधन्वनः खेभ्यो निश्चक्राम हुताशनः / / 46 / / स पिशङ्गजटावलिः किरन्नुरु तेजः परमेण मन्युना। ज्वलितौषधिजातवेदसा हिमशैलेन समं विदिद्युते / / 47 / / शतशो विशिखानवद्यते भृशमस्मै रणवेगशालिने / प्रथयन्ननिर्वार्यवीर्यतां प्रजिघायेषुमघातुकं शिवः / / 48 / / शंभोधतुर्मण्डलतः प्रवृत्तं तं ___मण्डलादंशुमिवांशुभर्तुः। निवारयिष्यन्विदधे सिताश्वः ___शिलीमुखच्छायवृतां धरित्रीम् // 4 // घनं विदार्यार्जुनबाणपूर्ग ससारवाणोऽयुगलोचनस्य / धनं विदार्यार्जुनबाणपूगं ससार बाणोऽयुगलोचनस्य / / 50 / / रुजन्महेषून्बहुधाशुपातिनो मुहुः शरोघरपवारयन्दिशः। चलाचलोऽनेक इव क्रियावशा न्महर्षिसंघर्बुबुधे धनंजयः // 51 / / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 (3) किरातार्जुनीयम् :: षोडशः सर्गः ] [ 365 विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः / विकाशमीयुर्जगतीशमार्गरणा विकाशमीयुजंगतीशमार्गणाः // 52 / / (महायमकम् / ) संपश्यतामिति शिवेन वितायमानं लक्ष्मीवतः क्षितिपतेस्तनयस्य वीर्यम् / प्रङ्गान्यभिन्नमपि तत्त्वविदां मुनीनां ___ रोमाञ्चञ्चिततरं बिभरांबभूवुः / / 53 / / 10 // इति भारविकृतो महाकाव्ये किरातार्जुनीये पञ्चदशः सर्गः // 15 // . // 16 // षोडशः सर्गः॥ ततः किराताधिपतेरलध्वीमाजिक्रियां वीक्ष्य विवृद्धमन्युः / स तर्कयामास विविक्ततर्कविरं विचिन्वन्निति कारणानि / / 15 मदन तिश्यामितगण्डलेखाः कामन्ति विक्रान्तनराधिरूढाः / सहिष्णवो नेह युधामभिज्ञा नागा नगोच्छायमिवाक्षिपन्त / 2 / विचित्रया चित्रयतेव भिन्नां रुचं रवेः केतनरत्नभासा / महारथौधेन न संनिरुद्धा पयोदमन्द्रध्वनिना धरित्री / / 3 / / समुल्लसत्प्रासमहोमिमालं परिस्फुरच्चामरफेनपङ्क्ति / 20 विभिन्नमर्यादमिहातनोति नाश्वीयमाशा जलधेरिवाम्भः / / हताहतेत्युद्धतभीष्मघोषः समुज्झिता योद्धृभिरभ्यमित्रम् / न हेतयः प्राप्ततडित्त्विषः खे विवस्वदंशुज्वलिताः पतन्ति // 5 // Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं अभ्यायतः संततधूमधूनं व्यापि प्रभाजालमिवान्तकस्य / रजः प्रतूर्णाश्वरथाङ्गनुन्नं. तनोति न व्योमनि मातरिश्वा / / 6 / / भरेगुना रासभधूसरेण * तिरोहिते वर्त्मनि लोचनानाम् / नास्त्यत्र तेजस्विभिरुत्सुकाना ___मह्नि प्रदोषः सुरसुन्दरीणाम् / / 7 / / रथाङ्गसंक्रीडितमश्वहेषा / बृहन्ति मत्तद्विपबंहितानि / संघर्षयोगादिव मूच्छितानि ह्रादं निगृह्णन्ति न दुन्दुभीनाम् / / 8 / / अस्मिन् यशः पौरुषलोलुपाना ___ मरातिभिः प्रत्युरसं क्षतानाम् / मूर्छान्तरायं मुहुरुच्छिनत्ति . . नासारशीतं करिशीकराम्भः // 6 / / असृङ्नदीनामुपचीयमान विदारयद्भिः पदवी ध्वजिन्याः / उच्छायमायान्ति न शोणितौघैः पङ्करिवाश्यानघनस्तटानि // 10 // . परिक्षते वक्षसि दन्तिदन्तैः प्रियाङ्कशीता नभक्षः पतन्ती / नेह प्रमोहं प्रियसाहसानां मन्दारमाला विरलीकरोति // 11 / / निषादिसंनाहमणिप्रभौधे परीयमाणे करिशीकरण / 25 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षोडशः सर्गः ] [ 367 अर्कत्विषोन्मीलितमभ्युदेति - न खण्डमाखण्डलकार्मु कस्य // 12 // महीभृता पक्षवतेव भिन्ना विगाहय मध्यं परवारणेन / नावर्तमाना निनदन्ति भीम मपां निधेपि इव ध्वजिन्यः // 13 / / महारथानां प्रतिदन्त्यनीक मधिस्यदस्यन्दनमुत्थितानाम् / आमूललूनरतिमन्युनेव मातङ्गहस्तैवियते न पन्थाः / / 14 / / धृतोत्पलापीड इव प्रियायाः . शिरोरुहाणां शिथिलः कलापः / न बहभारः पतितस्य शङ्को निषादिवक्षःस्थलमातनोति // 15 // उज्झत्सु संहार इवास्तसंख्य मह्नाय तेजस्विषु जीवितानि / लोकत्रयास्वादनलोलजिह्वां न व्याददात्याननमत्र मृत्युः // 16 / / इयं च दुर्वारमहारथाना माक्षिप्य वीर्य महतां बलानाम् / शक्तिर्ममावस्यति हीनयुद्धे सौरीव ताराधिपधाम्नि दीप्तिः // 17 / / माया स्विदेषा मतिविभ्रमो वा . . ध्वस्तं नु मे वीर्यमुताहमन्यः / गाण्डीवमुक्ता हि यथा पुरा मे पराक्रमन्ते न शराः किराते // 18 / / * . 25 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 ] .. [ काव्यषट्कं पुसः पदं मध्यममुत्तमस्य / द्विवेव कुर्वन्धनुषः प्रणादैः / नूनं तथा नैष यथाऽस्य वेषः प्रच्छन्नमप्यूहयते हि चेष्टा / / 16 / / धनुः प्रबन्धध्वनितं रुषेव सकृतिकृष्टा विततेव मौर्वी। संघानमुत्कर्षमिव व्युदस्य मुष्टेरसंभेद इवापवर्गे // 20 // अंसाववष्टब्धनतौ समाधिः . शिरोधराया रहितप्रयासः / धृता विकारांस्त्यजता मुखेन प्रसादलक्ष्मीः शशलाञ्छनस्य // 21 / / प्रहीयते कार्यवशागतेषु स्थानेषु विष्टब्धतया न देहः / स्थितप्रयातेषु ससौष्ठवश्च लक्ष्येषु पातः सदृश: शराणाम् / / 22 / / परस्य भूयान्विवरेऽभियोगः प्रसह्य संरक्षणमात्मरन्ध्रे / भीष्मेऽप्यसंभाव्यमिदं गुरौ वा न संभवत्येव वनेचरेषु // 23 / / अप्राकृतस्याहवदुर्मदस्य निवार्यमस्यास्त्रबलेन वीर्यम् / . अल्पीयसोऽप्यामयतुल्यवृत्ते महापकाराय रिपोविवृद्धिः / / 24 / / स संप्रधायैव महार्यसारः सारं विनेष्यन् सगणस्य शत्रोः / 25 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षोडशः सर्गः ] [ 366 प्रस्वापनास्त्र द्रुतमाजहार ध्वान्तं घनानद्ध इवार्धरात्रः // 25 / / प्रसक्तदावानलधूमधूम्रा निरुन्धती धाम सहस्ररश्मेः / महावनानीव महातमिस्रा छाया ततानेशबलानि कालो / / 26 / / प्रासादिता तत्प्रथमं प्रसह्य प्रगल्भताया: पदवी हरन्ति / सभेव भीमा विदधे गणानां . निद्रा निरासं प्रतिभागुणस्य // 27 // गुरुस्थिराण्युत्तमवंशजत्वा द्विज्ञातसाराण्यनुशीलनेन / केचित्समाश्रित्य गुणान्वितानि सुहृत्कुलानीव धनू षि तस्थुः // 28 // कृतान्तदुर्वृत्त इंवापरेषां पुरः प्रतिद्वन्द्विनि पाण्डवास्त्रे। अतकितं पाणितलान्निपेतुः / क्रियाफलानीव तदायुधानि // 26 / / अंसस्थलैः केचिदभिन्नधैर्याः स्कन्धेषु संश्लेषवतां तरूणाम् / मदेन मीलन्नयनाः सलीलं ___ नागा इव स्रस्तकरा निषेदुः / / 30 / / तिरोहितेन्दोरथ. शंभुमूर्ध्नः .. प्रणम्यमानं तपसां निवासैः / सुमेरुशृङ्गादिव बिम्बमार्क पिशङ्गमुच्चैरुदियाय तेजः // 31 // 25 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं छायां विनिर्धू य तमोमयीं ता तत्त्वस्य संवित्तिरिवापविद्याम् / ययौ विकासं द्युतिरिन्दुमौले रालोकमभ्यादिशती गणेभ्यः // 32 / / त्विषां ततिः पाटलिताम्बुबाहा सा' सर्वत: पूर्वसरीव संख्या / निनाय तेषां द्रुतमुल्लसन्तो विनिद्रतां लोचनपङ्कजानि / / 33 / / पृथग्विधान्यस्त्रविरामबुद्धाः / शस्त्राणि भूयः प्रतिपेदिरे ते / मुक्ता वितानेन बलाहकानां ज्योतींषि रम्या इव दिग्विभागा: // 34 / / द्यौरुन्ननामेव दिशः प्रसेदुः . स्फुटं विसस्र सवितुर्मयूखैः / क्षयं गतायामिव यामवत्यां पुनः समीयाय दिनं दिनश्री: / / 35 / / महास्त्रदुर्गे शिथिलप्रयत्नं दिग्वारणेनेव परेण रुग्णे / भुजङ्गपाशान्भुजवीर्यशाली प्रबन्धनाय प्रजिघाय जिष्णुः // 36 / / जिह्वाशतान्युल्लसयन्त्यजस्र लसत्तडिल्लोलविषानलानि / / त्रासान्निरस्ता भुजगेन्द्रसेना नभश्चरैस्तत्पदवीं विववे // 37 / / दिङ्नागहस्ताकृतिमुद्वहद्भि- - भॊगैः प्रशस्तासितरत्ननीलः। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षोडशः सर्गः ] [ 371 रराज सर्पावलिरुल्लसन्ती तरङ्गमालेव नभोर्णवस्य // 38 / / निःश्वासधूमैः स्थगितांशुजालं फणावतामुत्फरणमण्डलानाम् / गच्छन्निवास्तं वपुरभ्युवाह विलोचनानां सुखमुष्णरश्मिः // 36 / / प्रतप्तचामीकरभासुरेण . दिश: प्रकाशेन पिशङ्गयन्त्यः / निश्चक्रमुः प्राणहरेक्षणानां ज्वाला महोल्का इव लोचनेभ्यः // 40 // आक्षिप्तसंपातमपेतशोभ-. मुह्नि धुमाकुलदिग्विभागम् / वृतं नभो भोगिकुलैरवस्थां - परोपरुद्धस्य पुरस्य भेजे // 41 // तमाशु चक्षुःश्रवसां समूह मन्त्रेण तार्योदयकारणेन / नेता नयेनेव परोपजापं 'निवारयामास पतिः पशूनाम् // 42 // प्रतीघ्नतीभिः कृतमीलितानि धुलोकभाजामपि लोचनानि / गरुत्मतां संहतिभिविहायः क्षणप्रकाशाभिरिवावतेने // 43 / / ततः सुपर्णव्रजपक्षजन्मा. नानागतिर्मण्डलयञ्जवेन। जरत्तणानीव वियन्निनाय वनस्पतीनां गहनानि वायुः // 44 / / 25 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 ] [ काव्यषट्कं मनःशिलाभङ्गनिभेन पश्चा- . .. निरुध्यमानं निकरेण भासाम् / व्यूढेरुरोभिश्च विनुद्यमानं नभः ससव पुर. खगानाम् / / 45 / / दरीमूखैरासवरागतानं विकासि रुक्मच्छदधाम पीत्वा / जवानिलाघूणितसानुजालो हिमाचलः क्षीब इवाचकम्पे / / 46 / / प्रवृत्तनक्त दिवसंधिदीप्तै-, नभस्तलं गां च पिशङ्गयद्भिः / अन्तहिताकैः परितः पतद्भि श्छायाः समाचिक्षिपिरे वनानाम् / / 47 / / स भोगिसङ्घः शममुग्रधाम्नां सैन्येन निन्ये विनतासुतानाम् / महाध्वरे विध्यपचारदोषः / कर्मान्तरेणेव महोदयेन // 48 / / साफल्यमस्त्रे रिपुपौरुषस्य / ___ कृत्वा गते भाग्य इवापवर्गम् / अनिन्धनस्य प्रसभं समन्युः समाददेऽस्त्रं ज्वलनस्य जिष्णुः // 46 / / ऊवं तिरश्चीनमधश्चकीर्णे ___ोलासटैलचितमेघपङ्क्तिः / आयस्तसिंहाकृतिरुत्पपात प्राण्यन्तमिच्छन्निव जातवेदा // 50 / / भित्त्वेव भाभिः सवितुर्मयूखा जज्वाल विष्वग्विसृतस्फुलिङ्गः। 25 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: षोडशः सर्गः ] [ 373 . 10 विशीर्यमाणाश्मनिनादधीरं ध्वनि वितन्वन्नकृशः कृशानुः // 51 // चयानिवाद्रीनिव तुङ्गशृङ्गान् क्वचित्पुराणीव हिरण्मयानि / महावनानीव च किशुकानां __ ततान वह्निः पवनानुवृत्त्या // 52 / / मुहश्चलत्पल्लवलोहिनीभि . रुच्चैः शिखाभिः शिखिनोऽवलीढाः / तलेषु मुक्ता विशदा बभूवुः सान्द्राञ्जनश्यामरुचः पयोदाः // 53 / / लिलिक्षतीव क्षयकालरौद्रे लोकं विलोलाचिषि रोहिताश्वे / पिनाकिना हूतमहाम्बुवाह.. मस्त्रं पुनः पाशभृतः प्रणिन्ये / / 54 / / ततो धरित्रीधरतुल्यरोधस....... स्तडिल्लतालिङ्गितनीलमूर्तयः / .. अधोमुखाकाशसरिन्निपाति नीरपः प्रसक्त मुमुचुः पयोमुचः।। 55 / / . पराहतध्वस्तशिखे शिखावतो. वपुष्यधिक्षिप्तसमिद्धतेजसि / कृतास्पदास्तप्त इवायसि ___ध्वनि पयोनिपाताः प्रथमे वितेनिरे / / 56 / / महानले भिन्नसिताभ्रपातिभिः समेत्य सद्यः क्वथनेन फेनताम् / वद्भिरा.न्धनवत्परिक्षयं जलवितेने दिवि धूमसंततिः / / 57 / / 25 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] [ काव्यषट्कं स्वकेतुभिः पाण्डुरनीलपाटलैः समागताः शक्रधनुःप्रभाभिदः / असंस्थितामादधिरे विभावसो विचित्रचीनांशुकचारुतां त्विषः / / 58 / / जलौघसंमूर्च्छनमूच्छितस्वनः प्रसक्तविद्युल्लसितैघितद्युतिः / प्रशान्तिमेष्यन्धृतधूममण्डलो बभूव भूयानिव तत्र पावकः // 56 / / प्रवृद्धसिन्धुमिचयस्थवीयसां / . चयविभिन्नाः पयसां प्रपेदिरे / उपात्तसंध्यारुचिभिः सरूपतां पयोदविच्छेदलवैः कृशानवः / / 60 / / उपत्यनन्तद्युतिरप्यसंशयं , विभिन्नमूलोऽनुदयाय संक्षयम् / तथा हि तोयौघविभिन्नसंहतिः - स हव्यवाहः प्रययौ पराभवम् / / 61 / / अथ विहितविधेयैराशु मुक्ता वितान रसितनगनितम्बश्यामभासांघनानाम् / विकसदमलधाम्नां प्राप नीलोत्पलानां __ श्रियमधिकविशुद्धां वह्निदाहादिव द्यौः // 62 / / इति विविधमुदासे सव्यसाची यदस्त्रं बहुसमरनयज्ञः सादयिष्यन्नरातिम् / विधिरिव विपरीतः पौरुषं न्यायवृत्तेः सपदि तदुपनिन्ये रिक्ततां नीलकण्ठः / / 63 / / वीतप्रभावतनुरप्यतनुप्रभावः / प्रत्याच काङ्क्ष जयिनी भुजवीर्यलक्ष्मीम् / 15 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 375 अस्त्रेषु भूतपतिनापहृतेषु जिष्णु- वषिष्यतादिनकृतेव जलेषु लोकः / / 64 / / / / इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये षोडशः सर्गः / / 16 / / 5 10 // 17 // सप्तदशः सर्गः / / अथापदामुद्धरणक्षमेषु मित्रेष्विवास्त्रेषु तिरोहितेष / धृति गुरुश्रीगुरुणाभिपुष्यन् स्वपौरुषेणेव शरासनेन / / 1 / / भूरिप्रभावेण रणाभियोगा ___ प्रीतो विजिह्मश्च तदीयवृद्धया। स्पष्टोऽप्यविस्पष्टवपुः प्रकाशः ___सर्पन्महाधूम इवाद्रिवह्निः // 2 // तेजः समाश्रित्य परैरहार्य . निजं महान्मित्रमिवोरुधैर्यम् / प्रासादयन्नस्खलितस्वभावं भीमे भुजालम्बमिवारिदुर्गे // 3 / / वंशोचितत्वादभिमानवत्या ___संप्रात्पया संप्रियतामसुभ्यः / समक्षमादित्सितया परेण . वध्वेव कीर्त्या परितप्यमानः // 4 // पति नगानामिव बद्धमूल मुन्मूलयिष्यंस्तरसा विपक्षम् / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 ] [ काव्यषट्कं लघुप्रयत्नं निगृहीतवीर्य. स्त्रिमार्गगावेग इवेश्वरेण / / 5 / / संस्कारवत्त्वाद्रमयत्सु चेतः प्रयोगशिक्षागुणभूषणेषु / जयं यथार्थेषु शरेषु पार्थः शब्देष भावार्थमिवाशशंसे / / 6 / / भूयः समाधान विवृद्धतेजा नैवं पूरा युद्धमिति व्यथावान् / स निर्ववामास्रममर्षनुन्न विषं महानाग इवेक्षणाभ्याम् / / 7 / / तस्याहवायासविलोल मौले: संरम्भताम्रायतलोचनस्य / निर्वापयिष्यन्निव रोषतप्तं प्रस्नापयामास मुखं निदाघः / / 8 / / कोघान्धकारान्तरितो रणाय भ्रूभेदरेखाः स बभार तिस्रः / घनोपरुद्धः प्रभवाय वृष्टे रू|शुराजीरिव तिग्मरश्मिः / / 6 / / स प्रध्वनय्याम्बुदनादि चापं - हस्तेन दिङ्नाग इवाद्रिशृङ्गम् / बलानि शंभोरिषभिस्तताप चेतांसि चिन्ताभिरिवाशरीरः / / 10 / / सद्वादितेवाभिनिविष्टबुद्धौ गुणाभ्यसूयेव विपक्षपाते / अगोचरे वागिव चोपरेमे शक्तिः शराणां शितिकण्ठकाये // 11 / / 15 25 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 377 उमापति पाण्डुसुतप्रणुन्नाः . शिलीमुखा न व्यथयांबभूवुः / अभ्युत्थितस्याद्रिपतेनितम्ब मर्कस्य पादा इव हैमनस्य // 12 // संप्रीयमाणोऽनुबभूव तीव्र पराक्रमं तस्य पतिगणानाम् / विषाणभेदं हिमवानसहय वप्रानतस्येव सुरद्विपस्य // 13 / / तस्मै हि भारोद्धरणे समर्थ प्रदास्यता बाहुमिव प्रतापम् / चिरं विषेहेऽभिभवस्तदानीं स कारणानामपि कारणेन // 14 / / प्रत्याहतौजाः कृतसत्त्ववेगः . पराक्रमं ज्यायसि यस्तनोति / तेजांसि भानोरिव निष्पतन्ति ___ यशांसि वीर्यज्वलितानि तस्य // 15 // दृष्टावदानाद्वयथतेऽरिलोकः प्रध्वंसमेति व्यथिताच तेजः / तेजोविहीनं विजहाति दर्पः शान्ताचिष दीपमिव प्रकाशः / / 16 / / ततः प्रयात्यस्तमदावलेपः स जय्यतायाः पदवीं जिगीषोः / गन्धेन जेतुः प्रमुखागतस्य प्रतिद्विपस्येव मतङ्गजौघः // 17 / / एवं प्रतिद्वन्द्विषु तस्य कीर्ति मौलीन्दुलेखाविशदां विधास्यन् / 25 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 ] [ काव्यषटकं इयेष पर्यायजयावसादां . रणक्रियां शंभुरनुक्रमेण // 18 / / मुनेविचित्ररिषुभिः स भूया निन्ये वशं भूतपतेर्बलौघः / / सहात्मलाभेन समुत्पतद्भि र्जातिस्वभावैरिव जीवलोकः / / 19 / / / वितन्वतस्तस्य शरान्धकारं त्रस्तानि सैन्यानि रवं निशेमुः / प्रवर्षतः संततवेपथूनिक्षपाघनस्येव गवां कुलानि // 20 / / स सायकान्साध्वसविप्लुतानां क्षिपन्परेषामतिसौष्ठवेन / शशीव दोषावृतलोचनानां विभिद्यमान पृथगाबभासे / / 21 / / क्षोभेण तेनाऽथ गणाधिपानां भेदं ययावाकृतिरीश्वरस्य / तरङ्गकम्पेन महाह्रदानां छायामयस्येव दिनस्य कर्तुः / / 22 / / प्रसेदिवांसं न तमाप कोपः कुतः परस्मिन्पुरुषे विकारः / आकारवैषम्यमिदं च भेजे दुर्लक्ष्यचिह्ना महतां हि वृत्तिः / / 23 / / 15 विस्फार्यमाणस्य ततो भुजाभ्यां भूतानि भ; धनुरन्तकस्य / भिन्नाकृति ज्यां ददृशुः स्फुरन्तीं क्रुद्धस्य जिह्वामिव तक्षकस्य / / 24 / / सव्यापसव्यध्वनितोपचापं पार्थः किराताधिपमाशशङ्क / 20 पर्यायसंपादितकर्णतालं यन्ता गजं व्यालमिवापराद्धः // 25 // निजनिरे तस्य हरेषुजालैः पतन्ति वृन्दानि शिलीमुखानाम् / ऊर्जस्विभिः सिन्धुमुखागतानि यादांसि यादोभिरिवाम्बुराशेः // 26 // 25 विभेदमन्तः पदवीनिरोध विध्वंसनं चाविदितप्रयोगः / नेताऽरिलोकेषु करोति यद्यत्तत्तच्चकारास्य शरेषु शंभुः // 27 // Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 376 सोढावगीतप्रथमायुधस्य क्रोधोज्झितैर्वेगितया पतद्भिः / छिन्न रपि त्रासितवाहिनीकैः पेते कृतार्थरिव तस्य बाणैः / / 28 / / अलंकृतानामृजुतागुणेन गुरूपदिष्टां गतिमास्थितानाम् / सतामिवापर्वणि मार्गणानां भङ्गः - स जिष्णोधू तिमुन्ममाथ // 26 // बाणच्छिदस्ते विशिखाः स्मरारे रवाङ्मुखीभूतफलाः पतन्तः / अखण्डितं पाण्डवसायकेभ्यः कृतस्य सद्यः प्रतिकारमापुः / / 30 // चित्रीयमाणानतिलाघवेन __ प्रमाथिनस्तान्भवमार्गणानाम् / समाकुलाया निचखान दूरं __बाणान्ध्वजिन्या हृदयेष्वरातिः / / 31 / / तस्यातियत्नादतिरिच्यमाने पराक्रमेऽन्योन्यविशेषणेन / हन्ता पुरां भूरि पृषत्कवर्ष निरास नैदाघ इवाम्बु मेघः // 32 / / अनामृशन्तः क्वचिदेव मर्म प्रियैषिणाऽनुप्रहिता: शिवेन / सुहृत्प्रयुक्ता इव नर्मवादाः शरा. मुनेः प्रीतिकरा बभूवुः // 33 / / . अस्त्रैः समानामतिरेकिणी वा पश्यन्निषूणामपि तस्य शक्तिम् / 25 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 ] [ काव्यषट्कं विषादवक्तव्यबलः प्रमाथी स्वमाललम्बे बलमिन्दुमौलिः // 34 / / . ततस्तपोवीर्यसमुद्धतस्य / पारं यियासोः समरार्णवस्य / . महेषुजालान्यखिलानि जिष्णोरर्कः पयांसीव समाचचाम // 35 // रिक्त सविस्रम्भमार्जुनस्य निषङ्गवक्त्रे निपपात पाणिः / अन्यद्विपापीतजले सतर्ष मतङ्गजस्येव नगाश्मरन्ध्रे / / 36 / / च्युते स तस्मिन्निषुधौ शरार्थावस्तार्थसारे सहसेव बन्धौ / 10 तत्कालमोघप्रणयःप्रपेदे निर्वाच्यताकाम इवाभिमुख्यम्।।३७।। ___ आघट्टयामास गतागतास्यां - सावेगमग्नाङ्गुलिरस्य तूणौ / विधेयमार्गे मतिरुत्सुकस्य नयप्रयोगाविव गां जिगीषोः / / 38 / / बभार शून्याकृतिरर्जुनस्तौ महेषुधी वीतमहेषुजालो। युगान्तसंशुष्कजलौ विजिह्मः पूर्वापरौ लोक इवाम्बुराशी / / 39 / / तेनानिमित्तेन तथा न पार्थ ___ स्तयोर्यथा रिक्ततयाऽनुतेपे / स्वमापदं प्रोज्झ्य विपत्तिमग्नं शोचन्ति सन्तो ह्य पकारिपक्षम् // 40 // प्रतिक्रियायै विधुरः स तस्मा त्कृण विश्लेषमियाय हस्तः / पराङ्मुखत्वेऽपि कृतोपकारा तूणीमुखान्मित्रकुलादिवार्यः // 41 / / 25 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: सप्तदशः सर्गः ) [ 381 पश्चात्क्रिया तूणयुगस्य भर्तु जज्ञे तदानीमुपकारिणीव / - संभावनायामधरीकृतायां पत्युः पुरः साहसमासितव्यम् // 42 / / 5 तं शंभुराक्षिप्तमहेषुजालं लोहैः शरैमर्मसु निस्तुतोद / हतोत्तर तत्त्वविचारमध्ये वक्त व दोषैर्गुरुभिविपक्षम् / / 43 / / जहार चास्मादचिरेण वर्म . ज्वलन्मणिद्योतितहैमलेखम् / चण्ड: पतङ्गान्मरुदेकनीलं तडित्वत: खण्डमिवाम्बुदस्य / / 44 / / विकोशनिधीततनोर्महासेः फणावतश्च त्वचि विच्युतायाम् / प्रतिद्विपाबद्धरुषः समक्षं नागस्य चाक्षिप्तमुखच्छदस्य / / 45 / / विबोधितस्य ध्वनिना घनानां हरेरपेतस्य च शैलरन्ध्रात् / निरस्त धूमस्य च रात्रिवह्नविना तनुत्रेण रुचि स भेजे॥४६।। 15 अचित्ततायामपि नाम युक्तामनूलतां प्राप्त तदीयकृच्छ्र / महीं गतो ताविषुधी तदानीं विवव्रतुश्चेतनयेव योगम् // 47 // स्थितं विशुद्धे नभसीव सत्त्वे धाम्ना तपोवीर्यमयेन युक्तम् / शस्त्राभिघातैस्तमजस्रमीश स्त्वष्टा विवस्वन्तमिवोल्लिलेख // 48 / / संरम्भवेगोज्झितवेदनेषु गात्रेषु बाधिर्यमुपागतेषु। . मुनेर्बभूवागणितेषुराशेलौहस्तिरस्कार इवात्ममन्युः / / 46 / / ततोऽनुपूर्वायतवृत्तबाहुः ___ श्रीमान्क्षरल्लोहितदिग्धदेहः / 25 . . आस्कन्ध वेगेन विमुक्तनादः क्षितिं विधुन्वन्निव पाणिघातैः / / 50 // .20 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 ] [ काव्यपटकं साम्यं गतेनाशनिना मघोनः ___ शशाङ्कखण्डाकृतिपाण्डुरेण / शंभु बिभित्सुर्धनुषा जघान स्तम्बं विषाणेन महानिवेभः / / 51 // 5 रयेण सा संनिदधे पतन्ती भवोद्भवेनात्मनि चापयष्टिः / समुद्धता सिन्धुरनेकमार्गा परे स्थितेनौजसि जह्न नेव / / 52 / / विकार्मुकः कर्मसु शोचनीयः परिच्युतौदार्य इवोपचारः / विचिक्षिपे शूलभृता सलील स पत्रिभिर्दू रमदूरपातैः / / 53 / / उपोढकल्याणफलोऽभिरक्षन् / वीरव्रतं पुण्यरणाश्रमस्थः / जपोपवासैरिव संयतात्मा तेपे मुनिस्तैरिषभिः शिवस्य / / 54 / / ततोऽग्रभूमि व्यवसायसिद्धेः सीमानमन्यैरतिदुस्तरं सः / तेजः श्रियामाश्रयमुत्तमासि साक्षादहंकारमिवाललम्बे / / 5 / / शरानवद्यन्ननवद्यकर्मा चचार चित्रं प्रविचारमार्गः / हस्तेन निस्त्रिशभृता स दीप्तः सार्काशुना वारिधिरूमिणेव / / 56 / / यथा निजे वर्त्मनि भाति भाभि श्छायामयश्चाप्सु सहस्ररश्मिः / तथा नभस्याशु रणस्थलीषु / स्पष्टद्विमूतिर्ददृशे स भूतैः / / 57 / / शिवप्रणुन्नेन शिलीमुखेन त्सरुप्रदेशादपवजिताङ्गः / / 25 ज्वलन्नसिस्तस्य पपात पाणे घनस्य वप्रादिव वैद्यतोऽग्निः / / 58 / / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरातार्जुनीयम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 383 आक्षिप्तचापावरणेषुजालश्छिन्नोत्तमासिः स मधेऽवधूतः / रिक्तः प्रकाशश्च बभूव भूमेरुत्सादितोद्यान इव प्रदेश: / / 5 / / स खण्डनं प्राप्य परादमर्षवान् भुजद्वितीयोऽपि विजेतुमिच्छया / ससज वृष्टि परिरुग्णपादपां द्रवेतरेषां पयसामिवाश्मनाम् / / 60 / / नीरन्धं परिगमिते क्षयं पृषत्क भूतानामधिपातिना शिलाविताने / उच्छ्रायस्थगितनभोदिगन्तरालं चिक्षेप क्षितिरुहजालमिन्द्रसूनुः / / 61 / / निःशेषं शकलितवल्कलाङ्गसारैः कुर्वद्भिर्भुवमभितः कषायचित्राम् / ईशानः सकुसुमपल्लवैनगै स्तैरातेने बलिमिव रङ्गदेवताभ्यः / / 62 / / उन्मज्जन्मकर इवामरापगाया वेगेन प्रतिमखमेत्य बाणनद्याः / गाण्डीवी कनकशिलानिभं भुजाभ्या माजघ्ने विषमविलोचनस्य वक्षः // 63 / / अभिलषतः उपायं विक्रम कीत्तिलक्ष्म्यो.. रसुगममरिसैन्यैरङ्कमभ्यागतस्य / जनक इव शिशुत्वे सुप्रियस्यैकसूनो रविनयमपिसेहे पाण्डवस्य स्मरारिः / / 64 / / ... // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किराता र्जुनीये सप्तदशः सर्गः // 17 / / त Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 384 ] [ काव्यषट्कं // 18 // अष्टादशः सर्गः॥ ( द्रुतविलंबितवृत्तम् ) तत उदग्र इव द्विरदे मुनौ / रणमुपेयुषि भीमभुजायुधे / धनुरपास्य सबाणधि शंकरः प्रतिजघान घनैरिव मुष्टिभिः // 1 // हरपृथासुतयोर्ध्वनिरुत्पतन्नमृदुसंवलिताङ्गुलिपाणिजः / स्फुटदनल्पशिलारवदारुणः प्रतिननाद दरीषु दरीभृतः / / 2 / / शिवभुजाहतिभिन्नपृथुक्षतीः सुखमिवानुबभूव कपिध्वजः / क इव नाम बृहन्मनसां भवेदनुकृतेरपि सत्त्ववतां क्षमः / / 6 / / वरणमुखच्युतशोणितशीकरस्थगितशैलतटाभभुजान्तरः / अभिनवौषसरागभृता बभौ जलधरेण समानमुमापतिः / / 4 / / उरसि शूलभृतः प्रहिता मुहुः प्रतिहतिं ययुरर्जुनमुष्टयः / भृशरया इव सह्यमहोभृतः पृथुनि रोधसि सिन्धुमहोर्मयः / / 15 निपतितेऽधिशिरोधरमायते सममरत्नियुगे युगचक्षुषः / त्रिचतुरेषु पदेषु किरीटिना लुलितदृष्टि मदादिव चस्खले / 6 / अभिभवोदितमन्युविदीपितः समभिसृत्य भृशं जवमोजसा / भुजयुगेन विभज्य समाददे, - शशिकलाभरणस्य भुजद्वयम् / / 7 / / प्रववृतेऽथ महाहवमल्लयोरचलसंचलाहरणो रणः / करणशृङ्खलसंकलनागुरुगुरुभुजायुधर्गावतयोस्तयोः / / 8 / / अयमसौ भगवानुत पाण्डवः स्थितमवाङ्मुनिना शशिमौलिना / समधिरूढमजेन नु जिष्णुना / स्विदिति वेगवशान्मुमुहे गणैः / / 6 / / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्टादशः सर्गः ] 385 प्रचलिते चलितं स्थितमास्थिते . विनमिते नतमुन्नतमुन्नतौ / वृषकपिध्वजयोरसहिष्णुना मुहुरभावभयादिव भूभृता // 10 // करणशृङ्खलनिःसृतयोस्तयोः कृतभुजध्वनि वलगु विवल्गतोः / चरणपातनिपातितरोधसः प्रससृपुः सरितः परितः स्थलीः / / 11 / / वियति वेगपरिप्लुतमन्तरा ___समभिसृत्य रयेण कपिध्वजः / चरणयोश्चरणानमितक्षिति ___ निजगृहे तिसृणां जयिनं पुराम् / / 12 // विस्मितः सपदि तेन कर्मणा कर्मणां क्षयकरः परः पुमान् / क्षेप्तुकाममवनौ तमक्लमं निष्पिपेष परिरभ्य वक्षसा // 13 // 15 तपसा तथा न मुदमस्य ययौ भगवान्यथा विपुलसत्त्वतया / गुणसंहतेः समतिरिक्तमहो निजमेव सत्त्वमुपकारि सताम् / / 14 / / अथ हिमशुचिभस्मभूषितं शिरसि विराजितमिन्दुलेखया / 20 स्ववपुरतिमनोहरं हरं दधतमुदीक्ष्य ननाम पाण्डवः / / 15 / / सहशरधि निजं तथा कामुक ___ वपुरतनु तथैव संवर्मितम् / निहितमपि तथैव पश्यन्नसि __ वृषभगतिरुपाययौ विस्मयम् // 16 / / 25 सिषुचुरवनिमम्बुवाहाः शनैः सुरकुसुममियाय चित्रं दिवः / विमलरुचिभृशं नभो दुन्दुभे+निरखिलमनाहतस्यानशे / 17 / Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 ] [ काव्यषट्कं आसेदुषां गोत्रभिदोऽनुवृत्त्या गोपायकानां भुवनत्रयस्य / रोचिष्णुरत्नावलिभिर्विमानैद्यौराचिता तारकितेव रेजे / 18 / हंसा बृहन्तः सुरसद्मवाहाः संहादिकण्ठाभरणाः पतन्तः / चक्रुः प्रयत्नेन विकीर्यमाणोम्नः परिष्वङ्गमिवाग्रपक्षैः / 16 / 5 मुदितमधुलिहो वितानीकृताः स्रज उपरि वितत्य संतानिकोः। जलद इव निषेदिघांसं वृषे मरुदुपसुखयांबभूवेश्वरम् / / 20 / / कृतधति परिवन्दितेनोच्चकै - गणपतिभिरभिन्नरोमोद्गमैः / तपसि कृतफले फलज्यायसी - स्तुतिरिति जगदे हरेः सूनुना // 21 // शरणं भवन्तमतिकारुणिकं भव . भक्तिगम्यमधिगम्य जनाः / जितमृत्यवोऽजित भवन्ति भये . ससुरासुरस्य जगतः शरणम् // 22 // 15 विपदेति तावदवसादकारी न च कामसंपदभिकामयते / न नमन्ति चैकपुरुषं पुरुषास्तव यावदीश न नतिः क्रियते / 23 / संसेवन्ते दानशीला विमुक्त्यै .. संपश्यन्तो जन्मदुःखं पुमांसः / यनिःसङ्गस्त्वं फलस्यानतेभ्य स्तत्कारुण्यं केवलं न स्वकार्यम् / / 24 / / प्राप्यते यदिह दूरमगत्वा यत्फलत्यपरलोकगताय / तीर्थमस्ति न भवार्णवबाह्य सार्वकामिकमते. भवतस्तत् / 25 / व्रजति शुचि पदं त्वयि प्रीतिमान्प्रतिहतमतिरेति घोरां गतिम् / 25 इयमनघ निमित्तशक्तिः परा तव वरद न चित्तभेदः क्वचित् // 26 / / 20 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 387 10 दक्षिणां प्रणतदक्षिणमूर्ति तत्त्वतः शिवकरीमविदित्वा / रागिणापि विहिता तव भक्त्या संस्मृतिर्भव भवत्यभवाय / 27 / दृष्ट्वा दृश्यान्याचरणीयानि विधाय प्रेक्षाकारी याति पदं मुक्तमपायैः / सम्यग्दृष्टिस्तस्य परं पश्यति यस्त्वां यश्चोपास्ते साधु विधेयं स विधत्ते // 28 / / युक्ताः स्वशक्त्या मुनयः प्रजानां ___. हितोपदेशैरुपकारवन्तः / समुच्छिनत्सि त्वमचिन्त्यधामा ____ कर्माण्युपेतस्य दुरुत्तराणि / / 29 / / संनिबद्धमपहर्तु महार्य भूरि दुर्गतिभयं भुवनानाम् / अद्भुताकृतिमिमामतिमाय स्त्वं बिभर्षि करुणामय मायाम् / / 30 // न रागि चेतः परमा विलासिता वधूः शरीरेऽस्ति न चास्ति मन्मथः / नमस्क्रिया चोषसि धातुरित्यहो निसर्गदुर्बोधमिदं तवेहितम् // 31 // तवोत्तरोयं करिचर्मसाङ्गजं . ___ज्वलन्मणिः सारसनं महानहिः / स्रगास्यपङ्क्तिः शवभस्म चन्दनं कला हिमांशोश्च समं चकासति / / 32 // अविग्रहस्याप्यतुलेन हेतुना समेतभिन्नद्वयमूति तिष्ठतः / 25 तवैव नान्यस्य जगत्सु दृश्यते विरुद्धवेषाभरणस्य कान्तता / / 33 / / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 ] [ काव्यषटकं 5 आत्मलाभपरिणामनिरोधैर्भूतसंघ इव न त्वमुपेतः / तेन सर्वभुवनातिग लोके नोपमानमसि नाप्युपमेयः / / 34 / / त्वमन्तक: स्थावरजङ्गमानां त्वया जगत्प्राणिति देव विश्वम् / त्वं योगिनां हेतुफले रुणसि त्वं कारणं कारणकारणानाम् // 35 // रक्षोभिः सुरमनुदितेः सुतैर्वा यल्लोकेष्वविकलमाप्तमाधिपत्यम् / पाविन्याः शरणगतातिहारिणे तन्माहात्म्यं भव भवते नमस्क्रियायाः // 36 / / तरसा भुवनानि यो बिति ध्वनति ब्रह्म यतः परं पवित्रम् / परितो दुरितानि यः पुनीते शिव तस्मै पवनात्मने नमस्ते / / 37 / / 15 भवतः स्मरतां सदासने जयिनि ब्रह्ममये निषेदुषाम् / दहते भवबीजसंतति शिखिनेऽनेकशिखाय ते नमः / / 38 / / आबाधामरणभयाचिषा चिराय प्लुष्टेभ्यो भव महता भवानलेन / निर्वाणं समुपगमेन यच्छते ते बीजानां प्रभव नमोऽस्तु जीवनाय // 36 / / यः सर्वेषामावरीता वरीयान् सर्वैर्भाव वृतोऽनादिनिष्ठः / मार्गातीतायेन्द्रियाणां नमस्ते- . ऽविज्ञेयाय व्योरूपाय तस्मै // 40 // 25 प्रणीयसे विश्वविधारिणे नमो नमोऽन्तिकस्थाय नमो दवीयसे / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) किरातार्जुनीयम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 386 अतीत्य काचां मनसां च गोचरं स्थिताय ते तत्पतये नमो नमः // 41 / / असंविदानस्य ममेश संविदां तितिक्षितुं दुश्चरितं त्वमर्हसि / विरोध्य मोहात्पुनरभ्युपेयुषां गतिर्भवानेव दुरात्मनामपि // 42 / / आस्तिक्यशुद्धमवतः प्रियधर्म धर्म __धर्मात्मजस्य विहितागसि शत्रुवर्गे / संप्राप्नुयां विजयमीश यया समृद्धया तां भूतनाथ विभुतां वितराहवेषु / / 43 / / इति निगदितवन्तं सूनुमुच्चैर्मघोनः प्रणतशिरसमीशः सादरं सान्त्वयित्वा / ज्वलदनलपरीतं रौद्रमस्त्रं दधानं ___धनुरुपपदमस्मै वेदमभ्यादिदेश / / 44 / / 15 स पिङ्गाक्षः श्रीमान् भुवनमहनीयेन महसा तनुं भीमां बिभ्रत्रिगुणपरिवारप्रहरणः / परीत्येशानं त्रिः स्तुतिभिरुपगीतः सुरगणैः सुतं पाण्डोरिं जलदमिव भास्वानभिययौ // 45 / / अथ शशधरमौलेरभ्यनुज्ञामवाप्य . त्रिदशपतिपुरोगाः पूर्णकामाय तस्मै / अवितथफलमाशीर्वादमारोपयन्तो विजयि विविधमस्त्रं लोकपाला वितेरुः / / 46 / / असंहार्योत्साहं जयिनमुदयं प्राप्य तरसा धुरं गुर्वी वोढुं स्थितमनवसादाय जगतः / 25 स्वधाम्ना लोकानां तमुपरि कृतस्थानममरा स्तपोलक्ष्म्या दीप्तं दिन कृतमिवोच्चैरुपजगुः / / 47 / / Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 ] [ काव्यषट्कं वज जय रिपुलोकं पादपद्मानतः ___सन् गदित इति शिवेन श्लाघितो देवसंधैः / निजगृहमथ गत्वा सादरं पाण्डुपुत्रो धृतगुरुजयलक्ष्मीर्धर्मसूनुं ननाम // 48 / / // इति भारविकृतौ महाकाव्ये किराता र्जुनीयेऽष्टादशः सर्गः // 18 // // किरातार्जुनीयं महाकाव्यं सम्पूर्णम् // 3 // Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् / / पू. पं. श्री पुष्पविजयगणिभ्यो नमः महाकवि माघकृतं // शिशुपालवधम् // // पूर्वार्द्धम् // // 1 // प्रथमः सर्गः॥ ( वंशस्थवृत्तम् ) श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगज्जगनिवासो वसुदेवसद्मनि / वसन्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनि हरि // 1 // गतं तिरश्चीनमनूरुसारथेः प्रसिद्धमूर्ध्वज्वलनं हविर्भुजः / पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः / ___किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः // 2 // चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ... ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् / विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति . क्रमादमुं नारद इत्यभोधि सः / / 3 / / नवानधोऽधो बृहतः पयोधरान् . समूढकर्पूरपरागपाण्डुरम् / 20 क्षणं क्षणोत्क्षिप्तगजेन्द्रकृत्तिना स्फुटोपमं भूतिसितेन शम्भुना // 4 // Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 ] [ काव्यषटकं दधानमम्भोरुहकेसरद्यती जटाः शरच्चन्द्रमरीचिरोचिषम् / विपाकपिङ्गास्तुहिनस्थलीरुहो धराधरेन्द्रं व्रततीततीरिव // 5 / / पिशङ्गमौञ्जयुजीमर्जुनच्छवि वसानमेणाजिनमञ्जनधुति / सुवर्णसूत्राकलिताधराम्बरां विडम्बयन्तं शितिवाससस्तनुम् / / 6 / / विहङ्गराजाङ्गरुहैरिवायतै- . हिरण्मयोर्वीरुहवल्लितन्तुभिः / कृतोपवीतं हिमशुभ्रमुच्चकै घनं घनान्ते तडितां गरिव / / 7 / / निसर्गचित्रोज्ज्वलसूक्ष्मपर्मणा __ लसद्दिसच्छेदसिताङ्गसङिना। चकासत चारुचमूरुचर्मणा / कुथेन नागेन्द्रमिवेन्द्रवाहनम् / / 8 / / अजस्रमास्फालितवल्लकीगुण क्षतोज्ज्वलाङ्गुष्ठनखांशुभिन्नया। पुरः प्रवालैरिव पूरितार्धया विभान्तमच्छस्फटिकाक्षमालया / / 6 / / रणद्भिराघट्टनया नभस्वतः पृथग्विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः। . स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छ नामवेक्षमाणं महतीं मुहुर्मुहुः // 10 / / निवर्त्य सोऽनुव्रजतः कृतानती- . नतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नभःसदः / 25 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 363 समासदत्सादितदैत्यसंपदः पदं महेन्द्रालयचारु चक्रिणः // 11 // पतत्पतङ्गप्रतिमस्तपोनिधिः पुरोऽस्य यावन्न भुवि व्यलीयत / गिरेस्तडित्वानिव तावदुच्चकै जवेन पीठादुदतिष्ठदच्युतः // 12 // अथ प्रयत्नोन्नमितानमत्फणध ते कथञ्चित्फणिनां गणैरधः / न्यधायिषातामभिदेवकीसुतं सुतेन धातुश्चरणौ भुवस्तले / / 13 // तमय॑मादिकमादिपूरुषः सपर्यया साधु स पर्यपूपुजत् / गृहानुपैतुं प्रणयादभीप्सवो भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः // 14 / / न यावदेतावुदपश्यदुत्थितो जनस्तुषाराञ्जनपर्वताविव / / स्वहस्तदत्ते मुनिमासने मुनि श्चिरन्तनस्तावदभिन्यवीविंशत् // 15 // महामहानीलशिलारुचः पुरो ___निषेदिवान् कंसकृषः स विष्टरे / श्रितोदयाद्ररभिसायमुच्चकै रचूचुरच्चन्द्रमसोऽभिरामताम् // 16 / / विधाय तस्यापचिति प्रसेदुषः प्रकाममप्रीयत यज्वनां प्रियः / ग्रहीतुमान्पिरिचर्यया मुहु _ महानुभावा हि नितान्तमर्थिनः // 17 // Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 ] [ काव्यषट्कं अशेषतीर्थोपहृताः कमण्डलो निधाय पाणावृषिणाऽभ्युदीरिताः / अघौघविध्वंसविधौ पटीयसी नतेन मूर्ना हरिरग्रहीदपः / / 18 / / स काञ्चने यत्र मुनेरनुज्ञया नवाम्बुदश्यामवपुर्यविक्षत / जिगाय जम्बूजनितश्रियः श्रियं सुमूरुशृङ्गस्य तदा तदासनम् / / 16 / / स तप्तकार्तस्वरभास्वरांम्बरः कठोरताराधिपलाञ्छनच्छविः / विदिधु ते वाडवजातवेदसः शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्भसां निधिः / / 20 / / रथाङ्गपाणेः पटलेन 'रोचि षामृषित्विषः संवलिता विरेजिरे / चलत्पलाशान्तरगोचरा स्तरोस्तुषारमूर्तेरिव नक्तमंशवः / / 21 / / प्रफुल्लतापिच्छनिर्भरभीषुभिः ___ शुभैश्च सप्तच्छदपांशुपाण्डुभिः / परस्परेण च्चरितामलच्छवी - तदैकवर्णाविव तौ बभूवतुः // 22 / / युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकासमासत् / तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विष स्तपोधनाभ्यागमसंभवा मुदः // 23 / / निदाघघामानमिवाधिदीधिति मुदा विकासं मुनिमभ्युपेयुषी। 25 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 365 . विलोचने बिभ्रदधिश्रितश्रिणी सपुण्डरीकाक्ष इति स्फुटोऽभवत् // 24 // सितं सितिम्ना सुतरां मुनेर्वपु विसारिभिः सौधमिवाथ लम्भयन् / द्विजावलिव्याजनिशाकरांशुभिः शुचिस्मितां वाचमवोचदच्युतः / / 25 / / हरत्यघं संप्रति हेतुरेष्यतः शुभस्यः पूर्वाचरितैः कृतं शुभैः / शरीरभाजां भवदीयदर्शनं व्यनक्ति कालत्रितयेऽपि योग्यताम् / / 26 / / जगत्यपर्याप्तसहस्रभानुना न यन्नियन्तु समभावि भानुना / प्रसह्य तेजोभिरसंख्यतां गतै रदस्त्वया नुन्नमनुत्तमं तमः / / 27 / / कृतः प्रजाक्षेमकृता प्रजासृजा सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना / सदोपयोगेऽपि - गुरुस्त्वमक्षयो निधिः श्रुतीनां धनसंपदामिव // 28 / / विलोकनेनैव तवामुना मुने कृतः कृतार्थोऽस्मि निहितांहसा / तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसी गिरोऽथवा श्रेयसि केन तृप्यते / / 26 / / गतस्पृहोऽप्यागमनप्रयोजनं वदेति वक्तु व्यभसीयते यया। तनोति नस्तामुदितात्मगौरवो गुरुस्तवैवागम एष धृष्टताम् / / 30 / / 25 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 ] [ काव्यषट्कं इति ब्रुवन्तं तमवाच स व्रती / न वाच्यमित्थं पुरुषोत्तम ! त्वया / त्वमेव साक्षात्करणीय इत्यतः किमस्ति कार्य गुरुयोगिनामपि // 31 / / उदीर्णरागप्रतिरोधकं जन रभीक्ष्णमक्षुण्णतयाऽतिदुर्गमम् / उपेयुषो मोक्षपथं मनस्विन स्त्वमग्रभूमिनिरपायसंश्रया // 32 / / उपासितारं निगृहीतमानस हीतमध्यात्मदशा कथञ्चन / बहिर्विकारं प्रकृतेः पृथग्विदुः पुरातनं त्वां पुरुष पुराविदः // 33 / / निवेशयामासिथ हेलयोद् धृतां फणामृतां छादनमेकमोकसः / जगत्त्रयकस्थपतिस्त्वमुच्चकै रहीश्वरस्तम्भशिरःसु. भूतलम् // 34 / / अनन्यगुर्वास्तव केन केवलः पुराणमूर्तमहिमावगम्यते / ' मनुष्यजन्मापि सुरासुरान्गुण भवान्भवच्छेदकरैः करोत्यधः // 35 / / लघूकरिष्यन्नतिभारभङ्ग राममू किल त्वं त्रिदिवादवातरः / उदूढलोकत्रितयेन सांप्रतं गुरुर्धरित्री क्रियतेतरां त्वया // 36 / / निजोजसोज्जासयितुं जगद् द्रुहामुपाजिहीथा न महीतलं यदि / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 397 समाहितरप्यनिरूपितस्ततः पदं दशः स्याः कथमीश! मादृशाम् / / 37 / / उपप्लुतं पातुमदो मदोद्धतै स्त्वमेव विश्वम्भर ! विश्वमीशिषे / ऋते रवेः क्षालयितुं क्षमेत क: क्षपातमस्काण्डमलोमसं नभः / / 38 / / करोति कसादिमहीभृतां वधा ज्जनो मृगाणामिव यत्तव स्तवम् / हरे ! हिरण्याक्षपुरःसरासुर ___द्विपद्विष प्रत्युत सा तिरस्क्रिया / / 36 / / प्रवृत्त एव स्वयमुज्झितश्रमः ___ क्रमेण पेष्टुं भुवनद्विषामसि / तथापि वाचालतया युनक्ति मां मिथस्त्वदाभाषणलोलुपं मनः / / 40 / / तदिन्द्रसंदिष्टमुपेन्द्र ! यद्वचः क्षणं मया विश्वजनीनमुच्यते / समस्तकार्येषु गतेन धुर्यता महिद्वि षस्तद्भवता निशम्यताम् / / 41 / / अभूदभूमिः प्रतिपक्षजन्मनां "भियां तनूजस्तपनद्युतिवितेः / यमिन्द्रशब्दार्थनिसूदनं हरे हिरण्यपूर्व कशिपुं प्रचक्षते // 42 // समत्सरेणासुर इत्युपेयुषा चिराय नाम्न: प्रथमाभिधेयताम् / 25 . ' भयस्य पूर्वावतरस्तरस्विना मनस्सु येन धुसदां न्यधीयत / / 43 / / Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 ] [ काव्यषट्कं दिशामधीशांश्चतुरो यतः ___ सुरानपास्य तं रागहृताः सिषेविरे / अवापुरारभ्य ततश्चला इति प्रवादमुच्चैरयशस्करं श्रियः / / 44 / / पुराणि दुर्गाणि निशातमायुधं बलानि शूराणि घनाश्च कञ्चुकाः / स्वरूपशोभैकफलानि नाकिनां गणैर्यमाशङ्कय तदादि चक्रिरे / / 45 / / स संचरिष्णुर्भुवनान्तरेषु यां यदृच्छयाऽशिश्रियदाश्रयः श्रियः / अकारि तस्यै मुकुटोपलस्खल करैस्त्रिसन्ध्यं त्रिदशैदिशे नमः / / 46 / / सटाच्छटाभिन्नघनेन बिभ्रता __ नृसिंह ! सैंहीमतनुं तनुं त्वया / स मुग्धकान्तास्तनसङ्गभङ्ग रैरुरोविदारं प्रतिचस्करे नखैः / / 47 / / निवोदमिच्छन्नथ दर्पजन्मनो, रणेन कण्ड्वास्त्रिदशैः समं पुनः / स रावणो नाम निकामभीषणं बभूव रक्षः क्षतरक्षणं दिवः // 48 // प्रभुबु भूषुर्भुवनत्रयस्य यः शिरोऽतिरागादशमं चिकतिषुः / अतर्कयद्विघ्नमिवेष्टसाहसः प्रसादमिच्छासशं पिनाकिनः / / 46 / / समुत्क्षिपन्यः पृथिवीभृतां वरं वरप्रदानस्य चकार शूलिनः / 25 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 366 त्रसत्तुषाराद्रिसुताससंभ्रम स्वयंग्रहाश्लेषसुखेन निष्क्रयम् // 50 // * पुरीमवस्कन्द लुनीहि नन्दनं ___ मुषाण रत्नानि हरामराङ्गनाः / विगृह्य चक्रे नमुचिद्विषा बली य इत्थमस्वास्थ्यमहर्दिवं दिवः / / 51 / / सलीलयातानि न भर्तुरभ्रमोर्न चित्रमुच्चैःश्रवसः पदक्रमम् / अनुद्रुतः संयति येन केवलं बलस्य शत्रुः प्रशशंस शीघ्रताम् / / 52 / / अशक्नुवन् सोढुमधीरलोचनः सहस्ररश्मेरिव यस्य दर्शनम् / प्रविश्य हेमाद्रिगुहागृहान्तरं निनाय बिभ्यदिवसानि कौशिकः / / 53 / / बृहच्छिलानिष्ठुरकण्ठघट्टना द्विकीर्णलोलाग्निकणं सुरद्विषः / जगत्प्रभोरप्रसहिष्णु वैष्णवं न चक्रमस्याक्रमताधिकन्धरम् / / 54 / / विभिन्नशङ्खः कलुषीभवन्मुहु मदेन दन्तीव मनुष्यधर्मणः / निरस्तगाम्भीर्यमपास्तपुष्पकं प्रकम्पयामास न मानसं न सः / / 55 / / रणेषु तस्य प्रहिताः प्रचेतसा सरोषहुंकारपराङ् मुखीकृताः / 25 / प्रहर्तु रेवोरगराजरज्जवो जवेन कण्ठं सभयाः प्रपेदिरे // 56 / / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 ] [ काव्यषट्कं परेतभर्तु महिषोऽमुना धनुर्विधातुमुत्खातविषाणमण्डलः / हृतेऽपि भारे महतस्त्रपाभरादुवाह दुःखेन भृशानतं शिरः / 57 / स्पृशन्सशङ्कः समये शुचावपि स्थितः कराग्रैरसमग्रपातिभिः / अधर्मधर्मोदकबिन्दुमौक्तिकैरलञ्चकारास्य वधूरहस्करः / 58 / कलासमग्रेण गृहानमुञ्चता मनस्विनीरुत्कयितुं पटीयसा। विलासिनस्तस्य वितन्वता रति न नर्मसाचिव्यमकारि नेन्दुना / / 56 / / विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिका विधित्सया नूनमनेन मानिना / न जातु वैनायकमेकमुद्धृत विषाणमद्यापि पुनः प्ररोहति / / 60 / / निशान्तनारीपरिधानधूननः स्फुटागसाप्यूरुषु लोल चक्षुषः / प्रियेण तस्यानपराधबाधिताः प्रकम्पनेनानुचकम्पिरे सुराः // 61 / / तिरस्कृतस्तस्य जनाभिभाविना मुहुर्महिम्ना महसां महीयसाम् / बभार बाष्पैदिगुणीकृतं तनु स्तनूनपाद्धमवितानमाधिजैः / / 62 / / परस्य मर्माविधमुज्झतां निजं द्विजिह्वतादोषमजिह्मगामिभिः / तमिद्धमाराधयितुं सकर्णकैः कुलैर्न भेजे फणिनां भुजङ्गता / / 63 / / 25 तदीयमातवटाविघट्टितैः कटस्थलप्रोषितदानवारिभिः / Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 401 गृहोतदिक्करपुननिवर्तिभि श्चिराय याथार्थ्यमलम्भि दिग्गजैः // 64 / / प्रभीक्ष्णमुष्णैरपि तस्य सोष्मणः सुरेन्द्रबन्दीश्वसितानिलैर्यथा / सचन्दनाम्भःकणकोमलैस्तथा वपुर्जलापवनैर्न निर्ववौ // 65 / / तपेन वर्षाः शरदा हिमागमो वसन्तलक्ष्म्या शिशिरः समेत्य च / प्रसूनक्लृप्ति दधतः सदर्तवः पुरेऽस्य वास्तव्यकुटुम्बितां ययुः / / 66 / / अमानवं जातमजं कुले मनो: प्रभाविनं भाविनमन्तमात्मनः / मुमोच जानन्नपि जानकी न ___ यः सदाभिमानकंधना हि मानिनः / / 67 / / स्मरत्यदो दाशरथिर्भवन्भवा नमं वनान्ताद्वनितापहारिणम् / पयोधिमाबद्धचलज्जलाविलं विलङ्घय लङ्कां निकषा हनिष्यति / / 68 // अथोपपत्ति छलनापरोऽपराम वाप्य शैलूष इवैष भूमिकाम् / तिरोहितात्मा शिशुपालसंज्ञया प्रतीयते संप्रति सोऽप्यसः परैः // 66 // स बाल आसीद्वपुषा चतुर्भुजो मुखेन पूर्णेन्दुनिभस्त्रिलोचनः / युवा कराक्रान्तमहीभृदुच्चकै रसशयं संपति तेजसा रविः / / 70 / / 25 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 ] [ काव्यषट्क स्वयं विधाता सुरदैत्यरक्षसा मनु ग्रहावगृहयोर्यदृच्छया / दशाननादीनभिराद्धदेवता वितीर्णवीर्यातिशयान् हसत्यसो // 71 / / बलावलेपादधुनापि पूर्ववत् प्रबाध्यते तेन जगज्जिगीषुणा। सतीव योषित्प्रकृतिः सुनिश्चला पुमांमसभ्येति , भवान्तरेष्वपि / / 72 / / तदेनमुल्लङ्घितशासनं विधे विधेहि कीनाशनिकेतनातिथिम् / शुभेतराचारविपवित्रमापदो ___ निपातनीया हि सतामसाधवः // 73 / / हृदयमरिवघोदयादु दूढ द्रढिम दधातु पुनः पुरन्दरस्य / घनपुलकपुलोमजाकुचाग्र द्रुतपरिरम्भनिपीडनक्षमत्वम् / / 74 / / प्रोमित्युक्तवतोऽथ शाङ्गिण इति व्याहृत्य वाचं नभ स्तस्मिन्नुत्पतिते पुरः सुरमुनाविन्दोः श्रियं बिभ्रति / शत्रूणामनिशं विनाशपिशुनः क्रुद्धस्य चैद्यं प्रति व्योम्नीव भ्रुकुटिच्छलेन वदने केतुश्चकारास्पदम् / 75 / // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये कृष्ण नारदं सम्भाषणं नाम प्रथमः सर्गः // 1 // 20 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 403 // 2 // द्वितीयः सर्गः॥ - (अनुष्टुबवृत्तम् ) यियक्षमाणेनाहूतः पार्थेनाथ द्विषन्मुरम् / अभिचैद्यं प्रतिष्ठासुरासीत्कार्यद्वयाकुलः / / 1 // 5 सार्धमुद्धवसीरिभ्यामथासावासदत्सदः / गुरुकाव्यानुगां विभ्रच्चान्द्रीमभिनभः श्रियम् // 2 // जाज्ज्वल्यमाना जगतः शान्तये समुपेयुषी / व्यद्योतिष्ट सभावेद्यामसौ नरशिखित्रयी // 3 // रत्नस्तम्भेष संक्रान्तप्रतिमास्ते चकाशिरे / 10 एकाकिनोऽपि परितः पौरुषेयवृता इव // 4 / / अध्यासामासुरुत्तुङ्गहेमपीठानि यान्यमी / तैरूहे केसरिक्रान्तत्रिकूटशिखरोपमा // 5 / / गुरुद्वयाय गुरुणोरुभयोरथ कार्ययोः / हरिविप्रतिषेधं तमाचचक्षे विचक्षणः // 6 // 15 द्योतितान्तःसभैः कुन्दकुड्मलाग्रदत: स्मितैः / स्नपितेवाभवत्तस्य शुद्धवर्णा सरस्वती // 7 / / भवगिरामवसरप्रदानाय वचांसि नः / पूर्वरङ्गः प्रसङ्गाय नाटकीयस्य वस्तुनः / / 8 / / करदीकृतभूपालो भ्रातृभिजित्वरैदिशाम् / 20 विनाप्यस्मदलम्भुष्णुरिज्यायै तपसः सुतः // 6 // उत्तिष्ठमानस्तु परो नोपेक्ष्यः पथ्यमिच्छता / समौ हि शिष्टै राम्नातौ वय॑न्तावामयः स च // 10 / / न दूये. सात्वतीसूनुर्यन्मह्यमपराध्यति / यत्त, दन्दह्यते लोक मदो दुःखाकरोति माम् // 11 / / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 ] [ काव्यषट्कं मम तावन्मतमिदं श्रूयतामङग बामपि / / ज्ञातसारोऽपि खल्वेकः सन्दिग्धे कार्यवस्तुनि // 12 / / यावदर्थपदां वाचमेवमादाय माधवः / विरराम महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः // 16 / / 5 ततः सपत्नापनयस्मरणानुशयस्फुरा / ओष्ठेन रामो रामोष्ठबिम्बचुम्बनचुञ्चुना // 18 / / विवक्षितामर्थविदस्लत्क्षण प्रतिसहृताम् / प्रापयन् पवनव्याधेगिरमुत्तरपक्षताम् / / 15 / / घूर्णयन् मदिरास्वादमदपाटलितद्युती। रेवतीवदनोच्छिष्टपरिपूतपुटे दृशौ / 16 / / पाश्लेषलोलुपवधूस्तनकार्कश्यसाक्षिणीम् / म्लापयन्नभिमानोष्णैर्वनमालां मुखानिलः / / 17 / / दधत्सन्ध्यारुणव्योमस्फुरत्तारानुकारिणीः / द्विषद्वेषोपरक्ताङ गसङिगनी: स्वेदविषः // 18 / / प्रोल्लसत्कुण्डलप्रोतपद्मरागदलत्विषा। कृष्णोत्तरासङ गरुचं विदधच्चौतपल्लवीम् / / 16 / / ककुद्मिकन्यावक्त्रातर्वासलब्धाधिवासया।। मुखामोदं मदिरया कृतानुव्याधमुद्वमन् . / / 20 / / जगाद वदनच्छद्मपद्मपर्यन्तपातिनः / नयन्मधुलिहः श्वैत्यमुदग्रदशनांशुभिः / / 21 / / ( कुलकम् ) यद्वासुदेवेनादोनमनादीनवमीरितम् / वचसस्तस्य सपदि क्रिया केवलमुत्तरम् // 22 / / नैतल्लघ्वपि भूयस्या वचो वाचातिशय्यते / इन्धनौषधगप्यग्निस्त्विषा नात्येति पूषणम् // 23 / / 25 सक्षिप्तस्याप्यतोऽस्यैव वाक्यस्यार्थगरीयसः / सुविस्तरतरा वाचो भाष्यभूता भवन्तु मे // 24 // Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 405 विरोधिवचसो मूकान् वागीशानपि कुर्वते / जडानप्यनुलोमर्थान् प्रवाचः कृतिनां गिरः // 25 / / षड्गुणाः शक्तयस्तिस्रः सिद्धयश्चोदयास्त्रयः / ग्रन्थानधीत्य व्याकर्तु मिति दुर्मेधसोऽप्यलम् // 26 / / 5 अनिर्लोडितकार्यस्य वाग्जालं वाग्मिनो वृथा / निमित्तादपराद्धेषोर्धानुष्कस्येव वल्गितम् // 27 / / सर्वकार्यशरीरेषु मुक्त्वाऽङ गस्कन्धपञ्चकम् / सौगतानामिवात्मान्यो नास्ति मन्त्रो महीभताम् // 28 / / मन्त्रो योध इवाधीरः सवाङ्गः संवृतैरपि / चिरं न सहते स्थातुं परेभ्यो भेदशङ्कया / / 29 / / आत्मोदयः परज्यानिर्द्वयं नीतिरितीयती / तदुरीकृत्य कृतिभिर्वाचस्पत्यं प्रतायते // 30 // तृप्तियोगः परेणापि महिम्ना न महात्मनाम् / पूर्णश्चन्द्रोदयाकाङ्क्षी दृष्टान्तोऽत्र महार्णवः / / 31 / / सपदा सुस्थिरंमन्यो भवति स्वल्पयापि यः / कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम् / / 32 / / समूलघातमघ्नन्तः परान्नोद्यन्ति मानिनः / प्रध्वंसितान्धतमसस्तत्रोदाहरणं रविः // 33 / / विपक्षमखिलीकृत्य प्रतिष्ठा खलु दुर्लभा / 20 अनीत्वा पङ्कतां धूलिमुदकं नावतिष्ठते // 34 / / ध्रियते यावदेकोऽपि रिपुस्तावत्कुतः सुखम् / पुरः क्लिश्नाति सोमं हि सँहिकेयोऽसुरद्रुहाम् / / 35 / / सखा गरीयान् शत्रुश्च कृत्रिमस्तौ हि कार्यतः / स्याताममित्रौ मित्रे च सहजप्राकृतावपि / / 36 / / 25 उपकारिणा सन्धिर्न मित्रेणापकारिणा।। उपकारापकारौ हि लक्ष्यं लक्षणमेतयोः / / 37 / / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 ] [ काव्यपटकं त्वया विप्रकृतश्चैद्यो रुक्मिणी हरता हरे / बद्धमलस्य मूलं हि महद्वैरतरोः स्त्रियः / / 38 / / त्वयि भौमं गते जेतुमरौत्सीत्स पुरीमिमाम् / प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव // 39 / / 5 पालप्यालमिदं बभ्रोर्यत्स दारानपाहरत् / कथापि खलु पापानामलमश्रेयसे यतः / / 40 / / विराद्ध एवं भवता विराद्धा बहुधा च नः / निर्वर्त्यतेऽरिः क्रियया स श्रुतश्रवसः सुतः / / 41 / / विधाय वैरं सामर्षे नरोऽरौ यं उदासते / 10 प्रक्षिप्योदचिषं कक्षे शेरते तेऽभिमारुतम् / / 42 / / मनागनभ्यावृत्त्या वा कामं क्षाम्यतु यः क्षमी। क्रियासमभिहारेण विराध्यन्तं क्षमेत कः / / 43 / / अन्यदा भूषणं पुंसः क्षमा लज्जेव योषितः / / पराक्रमः परिभवे वैयात्यं सुरतेष्विव / / 44 / / 15 माजीवन् यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवहति / तस्याजननिरेवास्तु जननीक्लेशकारिणः // 45 / / पदाहतं यदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति / स्वस्थादेवापमानेऽपि देहिनस्तद्वरं रजः / / 46 / / असम्पादयतः कञ्चिदर्थं जातिक्रियागुणः / यहच्छाशब्दवत्पुंसः संज्ञायै जन्म केवलम् // 47 / / तुङ गत्वमितरा नाद्रौ नेदं सिन्धावगाधता / अलङ्घनीयताहेतुरुभयं तन्मनस्विनि / / 48 / / तुल्येऽपराचे स्वर्भानुर्भानुमन्तं चिरेण यत् / . हिमांशुमाशु ग्रसते तन्म्रदिम्नः स्फुटं फलम् / / 46 / / 25 स्वयं प्रणमतेऽल्पेऽपि परवायावपेयुषि / निदर्शनमसाराणां लधुर्बहुतृणं नरः / / 50 / / 20 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 407 तेजस्विमध्ये तेजस्वी दवीयानपि गण्यते / पञ्चमः पञ्चतपसस्तपनो जातवेदसाम् / / 51 / / अकृत्वा हेलया पादमुच्चैमूर्धसु विद्विषाम् / कथङ्कारमनालम्बा कोतिर्यामधिरोहति / / 52 / / 5 अङ्काधिरोपितमृगश्चन्द्रमा मृगलाञ्छनः / केसरो निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथो मृगाधिपः // 53 / / चतुर्थोपायसाध्ये तु रिपौ सान्त्वमपक्रिया। स्वेद्यमामज्वरं प्राज्ञः कोऽम्भसा परिषिञ्चति / / 54 / / सामवादाः सकोपस्य तस्य प्रत्युत दीपकाः / प्रतप्तस्येव सहसा सर्पिषस्तोयबिन्दवः / / 55 / / गुणानामायथातथ्यादर्थं विप्लावयन्ति ये। अमात्यव्यञ्जना राज्ञां दूष्यास्ते शत्रुसंज्ञिताः // 56 / / स्वशक्त्त्युपचये केचित्परस्य व्यसनेऽपरे / यानमाहुस्तदासीनं त्वामुत्थापयति द्वयम् // 57 / / 15 लिलयिषतो लोकानलङ्घयानलघीयसः / यादवाम्भोनिधीन रुन्धे वेलेव भवतः क्षमा / / 58 // विजयस्त्वयि सेनायाः साक्षिमात्रेऽपदिश्यताम् / फलभाजि समीक्ष्योक्ते बुद्धेर्भोग इवात्मनि // 59 / / हते हिडिम्बरिपुणा राज्ञि द्वैमातुरे युधि / 20 चिरस्य मित्रव्यसनी सुदमो दमघोषजः / / 60 / / नीतिरापदि यद्गम्यः परस्तन्मानिनो हिये / विधुविधुन्तुदस्येव पूर्णस्तस्योत्सवाय सः / / 61 / / अन्यदुच्छ्रङ्खलं सत्त्वमन्यच्छास्त्रनियन्त्रितम् / सामानाधिकरण्यं हि तेजस्तिमिरयोः कुतः / / 62 / / 25 इन्द्रप्रस्थगमस्तावत् कारि मा सन्तु चेदयः / आस्माकदन्तिसांनिध्याद्वामनीभूतभूरुहः / / 63 / / Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ] . [ काव्यषट्क निरुद्धवीवधासारप्रसारा गा इव व्रजम् / उपरुन्धन्तु दाशार्हाः पुरी माहिष्मती द्विषः // 64 / / यजतां पाण्डवः स्वर्गमवविन्द्रस्तपत्विनः / वयं हनाम द्विषतः सर्वः स्वार्थ समीहते // 65 / / 5 प्राप्यतां विद्युतां संपत्संपर्कादर्करोचिषाम् / शास्त्रद्विषच्छिरश्छेदप्रोच्छलच्छोणितोक्षितैः / / 66 / / इति संरम्भिणो वाणीर्बलस्यालेख्यदेवताः / सभाभित्तिप्रतिध्वानर्भयादन्ववदन्निव // 67 / / निशम्य ताः शेषगवीरभिधातुमधोक्षजः / शिष्याय बृहतां पत्युः प्रस्तावमदिशद् दृशा / / 68 / / भारतीमाहितभरामथानुद्धतमुद्धवः / तथ्यामुतथ्यानुजवज्जगादाने गदाग्रजम् / / 66 / / सम्प्रत्यसाम्प्रतं वक्त मुक्त मुसलपाणिना / निर्धारितेऽर्थे लेखेन खलूक्त्वा खलु वाचिकम् / / 70 / / 15 तथापि यन्मय्यपि ते गुरुरित्यस्ति गौरवम् / तत्प्रयोजककर्तृत्वमुपैति मम जल्पतः // 71 / / वर्णैः कतिपयैरेव ग्रथितस्य स्वरैरिव / अनन्ता वाङ्मयस्याहो गेयस्येव विचित्रता / / 72 / / बह्वपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते / 20 अनुज्झितार्थसम्बधः प्रबन्धो दुरुदाहरः / / 73 / / म्रदीयसीमपि घनामनल्पगुणकल्पिताम् / प्रसारयन्ति कुशलाश्चित्रां वाचं पटीमिव / / 74 / / विशेषविदुषः शास्त्रं यत्तवोद्ग्राह्यते पुरः / हेतु: परिचयस्थैर्य वक्तुर्गुणनिकैव सा / / 75 / / 25 प्रज्ञोत्साहावतः स्वामी यतेताधातुमात्मनि / तौ हि मूलमुदेष्यन्त्या जिगीषोरात्मसम्पदः / / 76 / / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वितीयः सगः ] [ 406 सोपधानां धियं धीरा: स्थेयसी खट्वयन्ति ये / तत्रानिशं निषण्णास्ते जानते जातु न श्रमम् // 77 / / स्पृशन्ति शरवत्तीक्ष्णाः स्तोकमन्तविशन्ति च / बहुस्पृशापि स्थूलेन स्थीयते बहिरश्मवत् / / 78 / / आरभन्तेऽल्पमेवाज्ञाः कामं व्यग्रा भवन्ति च / महारम्भाः कृतधियस्तिष्ठन्ति च निराकुलाः // 76 / / उपायमास्थितस्यापि नश्यन्त्यर्थाः प्रमाद्यतः / हन्ति नोपशयस्थोऽपि शयालुमृगयुमृगान् / / 80 / / उदेतुमत्यजन्नीहां राजसु द्वादशस्वपि / 10 जिगीषरेको दिनकृदादित्येष्विव कल्पते // 81 / / बुद्धिशस्त्रः प्रकृत्यङ्गो घनसंवृतिकञ्चुकः / चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः / / 82 / / तेजः क्षमा वा नैकन्तं कालज्ञस्य महोपतेः / नैकमोजः प्रसादो वा रसभावविदः कवेः / / 83 / / 15 कृतापचारोऽपि परैरनाविष्ऋतविक्रियः / असाध्यः कुरुते कोपं प्राप्ते काले गदो यथा / / 84 / / मृदुव्यवहितं तेजो भोक्तुमर्थान् प्रकल्पते / प्रदीपः स्नेहमादत्ते दशयाभ्यन्तरस्थया / / 85 / / नालम्बते दैष्टिकतां न निषीदति पौरुषे / शब्दार्थों सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते / / 86 // स्थायिनोऽर्थे प्रवर्तन्ते भावाः सञ्चारिणो यथा। रसस्यैकस्य भूयांसस्तथा नेतुर्महीभृतः // 87 / / तन्त्रावापविदा योगैमण्डलान्यधितिष्ठता / सुनिग्रहा नरेन्द्रेण फणीन्द्रा इव शत्रवः / / 88 / / 25 करप्रचेयामुत्तुङ्गः प्रभुशक्ति प्रथीयसीम् / प्रज्ञाबलबृहन्मूल: फलत्युत्साहपादपः / / 86 / / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 1 [ काव्यषट्कं अनल्पत्वात्प्रधानत्वाद्वंशस्येवेतरे स्वराः / विजिगीषो पतयः प्रयान्ति परिवारताम् / / 60 / / अप्यनारभमाणस्य विभोरुत्पादिताः परैः / वजन्ति गुणतामर्थाः शब्दा इव विहायस: / / 61 // 5 यातव्यपाणिग्राहादिमालायामधिकद्यतिः / एकार्थतन्तुप्रोतायां. नायको नायकायते / / 62 / / षाड्गुण्यमुपयुजोत शक्त्यपेक्षी रसायनम् / भवन्त्यस्यैवमङ्गानि स्थास्नूनि बलवन्ति च // 93 / / स्थाने शमवतां शक्त्या व्यायामे वृद्धिरङ्गिनाम् / अयथाबलमारम्भो निदानं क्षयसम्पदः // 64 / / तदीशितारं चेदीनां भवांस्तमवमस्त मा / निहन्त्यरीनेकपदे य उदात्तः स्वरानिव / / 95 / / मा वेदि यदसावेको जेतव्यश्चेदिराडिति / राजयक्ष्मेव रोगाणां समूहः स महीभृताम् / / 66 / / 15 सम्पादितफलस्तेन सपक्षः परभेदनः / कामुकेणेव गुणिना बाणः संधानमेष्यति // 67 / / ये चान्ये कालयवनशाल्वरुक्मिद्रमादयः / तमःस्वभावास्तेऽप्येनं प्रदोषमनुयायिनः / / 68 / / उपजापः कृतस्तेन तानाकोपवतस्त्वयि / 20 आशु दीपयिताल्पोऽपि साग्नीनेधानिवानिलः / / 66 / / बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति / सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगा / / 100 / / तस्य मित्राण्यमित्रास्ते ये च ये चोभये नपाः / अभियुक्तं त्वयैनं ते गन्तारस्त्वामतः परे / / 101 / / 25 मखविघ्नाय सकल मित्थमुत्थाप्य राजकम् / हन्त जातमजातारेः प्रथमेन त्वयारिणा // 102 / / Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 411 संभाव्य त्वामतिभरक्षमस्कन्धं स बान्धवः / सहायमध्वरधुरां धर्मराजो विवक्षते // 103 / / महात्मानोऽनुगृह्णन्ति भजमानान् रिपूनपि / सपत्नीः प्रापयन्त्यब्धि सिन्धवो नगनिम्नगाः / / 104 / / चिरादपि बलात्कारो बलिनः सिद्धयेऽरिषु / छन्दानुवृत्तिदुःसाध्याः सुहृदो विमनीकृताः // 105 / / मन्यसेऽरिवधः श्रेयान् प्रीतये नाकिनामिति / पुरोडाशभुजामिष्टमिष्टं कर्तु मलन्तराम् // 106 / / अमृतं नाम यत्सन्तो मन्त्रजिह्वेषु जुह्वति / 10 शोभैव मन्दरक्षुब्धक्षुभिताम्भोधिवर्णना / / 107 / / सहिष्ये शतमागांसि सूनोस्त इति यत्वया / प्रतीक्ष्यं तत्प्रतीक्ष्यायै पितृष्वस्र प्रतिश्रुतम् / / 108 / / तीक्ष्णा नारुन्तुदा बुद्धिः कर्म शान्तं प्रतापवत् / नोपतापि मनः सोष्म वागेका वाग्मिनः सतः / / 109 / / स्वयंकृतप्रसादस्य तस्याह्नो भानुमानिव / समयावधिमप्राप्य नान्तायालं भवानपि // 110 // कृत्वा कृत्यविदस्तीर्थेष्वन्तः प्रणिधयः पदम् / विदांकुर्वन्तु महतस्तलं विद्विषदम्भसः // 111 // अनुत्सूत्रपदन्यासा सवृत्तिः सन्निबन्धना / 20 शब्दविद्येव नो भाति राजनीतिरपस्पशा // 112 / / अज्ञातदोषैर्दोष रुद्रूष्योभयवेतनैः / / भेद्याः शत्रोरभिव्यक्तशासनः सामवायिकाः / / 113 / / उपेयिवांसि कर्तारः पुरीमाजातशात्रवीम् / / राजन्यकान्युपायहरेकार्थानि चरैस्तव // 114 / / 25 सविशेषं सुते पाण्डोर्भवति तन्वति / वैरायितारस्तरलाः स्वयं मत्सरिणः परे / / 115 / / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम 412 ] [ काव्यषट्कं य इहात्मविदो विपक्षमध्ये . .. सहसम्वृद्धियुजोऽपि भूभुजः स्युः / बलिपुष्टकुलादिवान्युपुष्टः .. पृथगस्मादचिरेण भाविता तैः / / 116 / / 5 सहजचापलदोषसमुद्धतश्चलितदुर्बलपक्षपरिग्रहः / तव दुरासदवीर्यविभावसौ शलभतां लभतामसुहृद्गणः / 117 / इति विशकलितार्थामौद्धवीं वाचमेना मनुगतनयमार्गामर्गलां दुर्नयस्य / जनितमुदमुस्थादुच्चकैरुच्छ्रितोर:. स्थलनियतनिषण्णश्रीश्रुतां शुश्रुवान् सः / 118 / // इति श्रीमाधकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्क मन्त्रवर्णनं नाम द्वितीयः सर्गः / / 2 / / // 3 // तृतीयः सर्गः / / ( उपजातिवृत्तम् ) 15 कौबेरदिग्भागमपास्य मार्गमागस्त्यमुष्णांशुरिवावतीर्णः / अपेतयुद्धाभिनिवेशसौम्यो हरिहरिप्रस्थमथ प्रतस्थे / / 1 / / जगत्पवित्रैरपि तं न पादैः स्प्रष्टुं जगत्पूज्यमयुज्यतार्कः / यतो बृहत्पार्वणचन्द्रचारु तस्यातपत्रं बिभरांबभूवे / / 2 / / मृणालसूत्रामलमन्तरेण स्थितश्चलच्चामरयोर्द्वयं सः / 20 भजेऽभितःपातुकसिद्धसिन्धोरभूतपूर्वा रुचमम्बुराशेः / / 3 / / चित्राभिरस्योपरि मौलिभाजां भाभिर्मणीनामनणीयसीभिः / अनेकधातुच्छरिताश्मराशेर्गोवर्धनस्याकृतिरन्वकारि // 4 // तस्योल्लसत्काञ्चनकुण्डलाग्रप्रत्युप्तगारुत्मतरत्नभासा / अवाप वाल्योचितनीलकण्ठपिच्छानचूडाकलनामिवोरः / / 5 / / Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: तृतीयः सर्गः | [ 413 तमङ्गदे मन्दरक्ट कोटिव्याघट्टनोत्तेजनया मणीनाम् / बहीयसा दीप्तिवितानकेन चकासयामासतुरुल्लसन्ती / / 6 / / निसर्गरक्तैर्वलयावनद्धताम्राश्मरश्मिरश्मिच्छरितैर्नखाग्रैः / व्यद्योतताद्यापि सुरारिवक्षोविक्षोभजासृक्स्नपितैरिवामौ // 4 // 5 उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाहावाकाशगङ्गापयसः पतेताम् / तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः / / 8 / / तेनाम्भसांसारमय : पयोधेर्दधे मणिर्दीधितिदीपिताशः / / अन्तर्वसन्बिम्बगतस्तदङ्ग साक्षादिवालक्ष्यत यत्र लोकः / / 1 / / मुक्तामयं सारसनावलम्बि भाति स्म दामाप्रपदीनमस्य / अङ्गुष्ठनिष्टय तमिवोर्ध्वमुच्चै स्त्रिस्रोतसः सन्ततधारमम्भः / / 10 / / स इन्द्रनीलस्थलनीलमूर्ती रराज क— रपिशङ्गवासा / विसृत्वरैरम्बुरुहां रजोभिर्यमस्वसुश्चित्र इवोदभारः // 11 / / 15 प्रसाधितस्यास्य मधुद्विषोऽभूदन्यैव लक्ष्मीरिति युक्तमेतत् / वपुष्य शेषेऽखिललोककान्ता सानन्यकान्ता ह्य रसीतरा तु / 12 / कपाटविस्तीर्णमनोरमोरःस्थलस्थितश्रीललनस्य तस्य / आनन्दिताशेषजना बभूव सर्वाङ्गसङ्गिन्यपरैव लक्ष्मीः / / 13 / / प्राणच्छिदां दैत्यपतेर्नखानामुपेयुषां भूषणतां क्षतेन / प्रकाशकार्कश्यगुणौ दधानाः स्तनौ तरुण्यः परिवरेनम् / 14 / ग्राकर्षतेवोर्ध्वमति क्रशीयानत्युन्नतत्वात्कुचमण्डलेन / ननाम मध्योऽतिगुरुत्वभाजा नितान्तमाक्रान्त इवाङ्गनानाम् / यां यां प्रियः प्रेक्षत कातराक्षी सा सा हिया नम्रमुखी बभूव / 25 निःशङ्कमन्याः सममाहितेव् स्तत्रान्तरे जघ्नुरमु कटाक्षैः / / 16 / / 20 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 ] [ काव्यषट्कं तस्यातसीसूनसमानभासो भ्राम्यन्मयूखावलिमण्डलेन / चक्रेण रेजे यमुनाजलौघः स्फुरन्महावर्त इवैकबाहुः / / 17 / / विरोधिनां विग्रहभेददक्षा मूर्तेव शक्तिः क्वचिदस्खलन्ती / 5 नित्यं हरे सन्निहिता निकामं कौमोदकी मोदयति स्म चेतः / / 18 / / न केवलं य: स्वतया मुरारेरनन्यसाधारणतां दधानः / अत्यर्थमुद्वेजयितां परेषां नाम्नापि तस्यैव स नन्दकोऽभूत् / 16 / न नीतमन्येन नति कदाचित्कर्णान्तिकप्राप्तगुणं क्रियासु / विधेयमस्याभवदन्तिकस्थं शाङ्ग धनुमित्रमिव द्रढीयः / 20 / प्रवृद्धमन्द्राम्बुदधीरनादः कृष्णार्णवाभ्यर्णचरैकहंसः / मन्दानिलापूरकृतं दधानो निध्वानमधूयत पाञ्चजन्यः / 21 / रराज सम्पादकमिष्टसिद्धेः सर्वासु दिक्ष्वप्रतिषिद्धमार्गम् / महारथः पुष्यरथं रथाङ्गो क्षिप्र क्षपानाथ इवाधिरूढः / 22 / ध्वजाग्रधामा ददृशेऽथ शौरेः संक्रान्तमूतिर्मणिमेदिनीषु / फणावतस्त्रासयितु रसायास्तलं विवक्षन्निव पन्नगारिः / / 23 / / यियासतस्तस्य महीध्ररन्ध्रभिदापटीयान् पटहप्रणादः / जलान्तराणीव महार्णवौधः शब्दान्तराण्यन्तरयाञ्चकार / 24 / यतः स भर्ता जगतां जगाम ध; धरित्र्याः फणिना ततोऽधः / महाभराभुग्नशिर सहस्रासाहायकव्यग्रभुजं प्रसस्र // 25 / / अथोच्चकैस्तोरणसङ्गभङ्गभयावनम्रीकृतकेतनानि / क्रियाफलानीव सुनीतिभाजं सैन्यानि सोमान्वयमन्वयुस्तम् 26 श्यामारुणैर्वारणदानतोयैरालोडिताः काञ्चनभूपरागाः / आनेमिमग्नैः शितिकण्ठपिच्छक्षोदद्युतश्चक्षदिरे रथौधैः / 27 / 25 न लङ्घयामास महाजनानां शिरांसि नैवोद्धतिमाजगाम / Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: तृतीयः सर्गः ) [ 415 अचेष्टतांष्टापदभूमिरेणुः पदाहतो यत्सदृशं गरिम्णः / / 28 / / निरुध्यमाना यदुभिः कथञ्चि न्मुहुर्यदुच्चिक्षिपुरग्रपादान् / 5 ध्रुवं गुरून् मार्गरुधः करीन्द्रा नुल्लध्य गन्तु तुरगास्तदीषुः / / 26 / / अवेक्षितानायतवल्गमने तुरङ्गिभिर्यत्ननिरुद्धवाहैः / प्रक्रीडितान् रेणुभिरेत्य तूर्णं निन्युर्जनन्यः पृथुकान् पथिभ्यः 30 दिदृक्षमाणाः प्रतिरथ्यमीयुमुरारिमारादनघं जनौघाः / 10 अनेकशः संस्तुतमप्यनल्पा नवं नवं प्रीतिरहो करोति / / 31 / / उपेयुषो वर्त्म निरन्तराभि ___ रसौ निरुच्छ्वासमनीकिनीभिः / रथस्य तस्यां पुरि दत्तचक्षु विद्वान् विदामास शनैर्न यातम् // 32 / / मध्येसमुद्रं ककुभः पिशङ्गी र्या कुर्वती काञ्चनवप्रभासा / तुरङ्गकान्तामुखहव्यवाह ज्वालेव भित्त्वा. जलमुल्ललास // 33 // कृतस्पदा भूमिभृतां सहस्र __ रुदन्वदम्भः परिवीतमूर्तिः / अनिविदा या विदधे विधात्रा पृथ्वी पृथिव्याः प्रतियातनेव // 34 // त्वष्टुः सदाभ्यासगृहीतशिल्पविज्ञानसंपत्प्रसरस्य सीमा। अदृश्यतादर्शतलामलेषु च्छायेव या स्वर्जलधेर्जलेषु / / 35 / / 25 रथाङ्गभत्रैऽभिनवं वराय यस्याः पितेव प्रतिपादितायाः / प्रेम्णोपकण्ठं मुहुरङ्कभाजो रत्नावलीरम्बुधिराबबन्ध / / 36 / / Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 ] [ काव्यषट्कं यस्याश्चलद्वारिधिवारिवीचिच्छटोच्छलच्छङ्खकुलाकुलेव / वप्रेण पर्यन्तचरोडुचक्रं सुमेरुवप्रोऽन्वहमन्वकारि / / 37 / / वणिक्पथे पूगकृतानि यत्र भ्रमागतैरम्बुभिरम्बुराशिः / लोलरलोलद्युतिभाजि मुष्णन् रत्नानि रत्नाकरतामवाप / 38 5 अम्भश्च्युतः कोमलरत्नराशीनपांनिधिः फेनपिनद्धभासः / यत्रातपे दातुमिवाधितल्पं विस्तारयामास तरङ्गहस्तैः / / 3 / / यच्छालमुत्तुगतया विजेतु दूरादुदस्थायत सागरस्य / / महोमिभिर्व्याहतवाञ्छिताएं वोडामिवाभ्यासगतैविलिल्ये / / 40 / / कुतूहलेनेव जवादुपेत्य प्राकारभित्त्या सहसा निषिद्धः / रसन्नरोदीद् भृशमम्बुवर्षव्याजेन, यस्या बहिरम्बुवाहः / / 41 / / यदङ्गनारूपसरूपतायाः कञ्चिद् गुणं भेदकमिच्छतीभिः / आराधितोऽद्धा मनुरप्सरोभि ___श्चक्रे प्रजाः स्वाः सनिमेषचिह्नः / / 42 / / स्फुरत्तुषारांशुमरीचिजालै विनिह्न ताः स्फाटिकसौधपङ्क्तीः / पारुह्य नार्यःक्षणादासु यत्र नभोगता देव्य इव व्यराजन् / / 43 / / 20 कान्तेन्दुकान्तोपलकुट्टिमेषु प्रतिक्षपं हHतलेषु यत्र / उच्चैरधःपातिपयोमुचोऽपि समूहमुहुः पयसां प्रणाल्यः / 44 / रतौ ह्रिया यत्र निशाम्य दीपा जालागताभ्योऽधिगृहं गहिण्यः / 25 बिभ्युविडालेक्षणभीषणाभ्यो वैदूर्यकुडयेषु शशिद्युतिभ्यः / / 45 / / Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: तृतीयः सर्गः ] [ 417 यस्यामतिश्लक्ष्णतया गृहेषु विधातुमालेख्यमशक्नुवन्तः / चक्रयुवानः प्रतिबिम्बिताङ्गाः सजीवचित्रा इव रत्नचित्तीः / / 46 / / सावर्ण्यभाजां प्रतिघागतानां लक्ष्यः स्मरापाण्डुतयाङ्गनानाम् / यस्यां कपोलैः कलधौतधाम . स्तम्भेषु भेजे मणिदर्पणश्रीः // 47 // शुकाङ्गनीलोपलनिमितानां लिप्तेषु भासा गृहदेहलीनाम् / यस्यामलिन्देष न चक्रुरेव मुग्धाङ्गना गोमयगोमुखानि // 48 / / गोपानसीषु क्षणमास्थिताना. मालम्बिभिश्चन्द्रकिरणां कलापैः / हरिन्मणिश्यामतृणाभिराम गुहाणि नीं|रिव यत्र रेजुः / / 46 / / बृहत्तुलैरप्यतुलवितान मालापिनद्धरपि चावितानैः / रेजे विचित्रैरपि या सचित्र गुहैविशालैरपि भूरिशालैः // 50 / / चिकंसया कृत्रिमपत्रिपङ्क्त: - कपोतपालीषु निकेतनानाम् / मार्जारमप्यायतनिश्चलाङ्गं - यस्यां जनः कृत्रिममेव मेने // 51 // क्षितिप्रतिष्ठोऽपि मुखारविन्दै बंधूजनश्चन्द्रमधश्चकार / 25 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 ] [ काव्यषटकं अतीतनक्षत्रपथानि यत्र प्रसादशृङ्गाणि वृथाध्यरुक्षत् // 52 // रम्या इति प्राप्तवतीः पताका रागं विविक्ता इति वर्धयन्तीः / यस्यामसेवन्त नमवलीकाः समं वधूभिर्वलभीयु वानः / / 53 / / सुगन्धितामप्रतियत्नपूर्वां ___ बिभ्रन्ति यत्र प्रमदाय पुंसाम् / मधूनि वक्त्राणि च कामिनीना मामोदकर्मव्यतिहारमीयुः / / 54 / / रतान्तरे यत्र गृहान्तरेषु वितदिनि' हविटङ्कनीडः / रुतानि शृण्वन् वयसां गणोऽन्ते वासित्वमाप स्फुटमङ्गनानाम् / / 55 / / छन्नेष्वपि स्पष्टतरेषु यत्र स्वच्छानि नारीकुचमण्डलेषु / आकाशसाम्यं दधुरम्बराणि न नामतः केवलमर्थतोऽपि / / 56 / / यस्यामजिह्मा महतीमपङ्काः सीमानमत्यायतयोऽत्यजन्तः / जनरजातस्खलनैर्न जातु द्वयेऽप्यमुच्यन्त विलीनमार्गाः / / 57 / / परस्परस्पधिपरार्ध्यरूपाः पौरस्त्रियो यत्र विधाय वेधाः / 20 श्रीनिमितप्राप्तघुणक्षतैकवर्णोपमावाच्यमलं ममाज / / 58 / / क्षुण्णं यदन्तःकरणेन वृक्षाः फलन्ति कल्पोपपदास्तदेव / अध्यूषुषो यामभवञ्जनस्य याः . सम्पदस्ता मनसोऽप्यगम्याः // 59 / / कलादधानः सकलाः स्वभाभिरु द्भासयन्सौधसिताभिराशा / Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: तृतीयः सर्गः ] [ 419 यां रेवतीजानिरियेष हातु . . न रौहिणेयो न च रोहिणीशः // 60 // बाणाहवव्याहतशम्भुशक्त रासत्तिमासाद्य जनार्दनस्य / शरीरिणा जैत्रशरेण यत्र निःशङ्कमूषे मकरध्वजेन / / 61 / / निषेव्यमाणेन शिवैर्मरुद्भिर ___ ध्यास्यमाना हरिणा चिराय / उद्रश्मिरत्नाकुरधाम्नि सिन्धा वाह्वास्त मेरावमरावती या / / 62 / / स्निग्धाञ्जनश्यामरुचिः सुवृत्तो वध्वा इवाध्वंसितवर्णकान्तेः / विशेषको वा विशिशेष यस्याः श्रियं त्रिलोकीतिलकः स एव // 63 / / तामीक्षमाणः स पुरं पुरस्तात्प्रापत्प्रतोलीमतुलप्रतापः / वज्रप्रभोद्भासिसुरायुधश्रीर्या देवसेनेव परैरलङ्घया / / 64 / / प्रजा इवाङ्गादरविन्दनाभेः शम्भोर्जटाजूटतटादिवापः / / मुखादिवाथ श्रुतया विधातुः पुरान्निरीयुर्मुरजिद्ध्वजिन्यः // 65 / / श्लिष्यद्भिरन्योन्यमुखाग्रसङ्ग. स्खलत्खलीनं हरिभिविलोलैः / परस्परोत्पीडितजानुभागा दुःखेन निश्चक्रमुरश्ववाराः / / 66 / / निरन्तरालेऽपि विमुच्यमाने दूरं पथि प्राणभृतां गणेन / तेजोमहद्भिस्तमसेव दीपैद्विपैरसम्बाधमयाम्बभूवे / / 67 / / 25 शनैरनीयन्त रथात्पतन्तो रथाः क्षिति हस्तिनखादखेदैः / सयत्नसूतायतरश्मिभुग्नग्रीवाग्रसंसक्तयुगैस्तुरङ्गः // 68 / / Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 ] [ काव्यषट्कं बलोमिभिस्तत्क्षणहीयमान __रथ्याभुजाया वलयरिवास्याः। प्रायेण निष्कामति चक्रपाणी नेष्टं पुरो द्वारवतीत्वमासीत् // 66 / / 5 पारेजलं नीरनिधपश्यन्मुरारिरानीलपलाशराशीः / / वनावलीरुत्कलिकासहस्रप्रतिक्षणोत्कूलितशैवलाभाः // 70 // लक्ष्मीभृतोऽम्भोधितटाधिवासान् द्रुमानसौ नीरदनीलभासः / लतावधूसम्प्रयुजोऽधिवेलं बहू कृतान् स्वानिव पश्यति स्म / / 71 / / आश्लिष्टभूमि रसितारमुच्चैर्लोलभुजाकारबृहत्तरङ्गम् / फेनायमानं पतिमापगानामसावपस्मारिणमाशशङ्के / / 72 / / पीत्वा जलानां निधिनाऽतिगााद् वृद्धि गतेऽप्यात्मनि नैव मान्तीः / क्षिप्ता इवेन्दोः स रुचोऽधिवेलं मुक्तावलीराकलयाञ्चकार / / 73 / / साटोपमुर्वीमनिशं नदन्तो यैः प्लावयिष्यन्ति समन्ततोऽमी / तान्येकदेशोनिभृतं पयोधेः सोऽम्भांसि मेघान् पिबतो ददर्श / / 74 // उद्धृत्य मेधैस्तत एव तोय मर्थं मुनीन्द्ररिव सम्प्रणीताः / . पालोकयामास हरिः पतन्ती नंदीः स्मृतीर्वेदमिवाम्बुराशिम् // 75 / / 25 विक्रीय दिश्यानि धनान्युरूणि . द्वैप्यानसावुत्तमलाभभाजः / Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: तृतीयः सर्गः ] . [421 तरीषु तत्रत्ययफल्गुभाण्डं . सांयात्रिकानावपतोऽभ्यनन्दत् // 76 // उत्पित्सवोऽन्तर्नदभतुरुच्च गरीयसा निःश्वसितानिलेन / पयांसि भक्त्या गरुडध्वजस्य . ध्वजानिवोच्चिक्षिपिरे फणीन्द्राः / / 77 / / तमागतं वीक्ष्य युगान्तबन्धुमुत्सङ्गशय्याशयमम्बुराशिः / प्रत्युज्जगामेव गुरुप्रमोदप्रसारितोत्तुङ्गतरङ्गबाहुः / / 78 / / उत्सङ्गिताम्भःकणको नभस्वा नुदन्वतः स्वेदलवान् ममार्ज / तस्यानुवेलं व्रजतोऽधिवेल मेलालता स्फालनलब्धगन्धः / / 76 / / उत्तालतालीवनसम्प्रवृत्त समीरसीमन्तितकेतकीकाः / 15 प्रासेदिरे लावणसैन्धवीनां ... ___ चमूचरैः कच्छभुवां प्रदेशाः / / 80 / / लवङ्गमालाकलितावतंसास्ते नारिकेलान्तरपः पिबन्तः / आस्वादिताक्रमुकाः समुद्रादभ्यागतस्य प्रतिपत्तिमीयुः / / 1 / / तुरगशताकुलस्य परितः परमेकतुरङ्गजन्मनः प्रमथितभूभृतः प्रसिपथं मथितस्य भृशं महीभृता। परिचलतो बलानुजबालस्य पुरः सतत धृतश्रिय चिरबिगतश्रियो जलनिवेश्च सदाभवदन्तरं महत् / / 2 / (पञ्चकावलीवृत्तं घृतश्रीवृत्तमिति केचित्) // इति श्रीमाधकृतौ शिशुपालवधे महाकव्ये 25 थके पुरीप्रस्थामो नाम तृतीयः सर्गः / / 3 / / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 ] [ काव्यषट्कं // 4 // चतुर्थः सर्गः॥ निःश्वासधूमं सह रत्नभाभि भित्त्वोत्थितं भूमिमिवोरगाणाम् / नीलोपलस्यूतविचित्रधातु ___मसौ गिरि रैवतकं ददर्श / / 1 / / गुर्वीरजस्र दृषदः समन्तादुपर्युपर्यम्बुमुचा वितानैः / विन्ध्यायमानं दिवसस्य भर्तुर्मार्ग पुना रोद्धमिवोन्नमद्भिः / 2 / क्रान्त रुचा काञ्चनवप्रभाजा. ___नवप्रभाजालभृतां मणीनाम् / श्रितं शिलाश्यामलताभिरामं लताभिरामन्त्रितषटपदाभिः / / 3 / / सहस्रसंख्यैर्गगनं शिरोभिः पादैर्भुवं व्याप्य वितिष्ठमानम् / विलोचनस्थानगतोष्णरश्मि निशाकरं साधु हिरण्यगर्भम् / / 4 / / क्वचिज्जलापायविपाण्डुराणि धौतोत्तरीयप्रतिमच्छबीनि / अभ्राणि बिभ्राणमुमाङ्गसङ्ग विभक्तभस्मानमिव स्मरारिम् / / 5 / / 20 छायां निजस्त्रीचटुलालसानां मदेन किंचिच्चटुलालसानाम् / कुर्वाणमुत्पिञ्जलजातपत्रविहङ्गमानां जलजातपत्रः / / 6 / / स्कन्धाधिरूढोज्ज्वलनीलकण्ठानुर्वीरुहः श्लिष्टतनूनहीन्द्रैः / प्रतितानेकलताभुजाग्रान् रुद्राननेकानिव धारयन्तम् / / 7 / / विलम्बिनीलोत्पलकर्णपूराः कपोलभित्तीरिव लोध्रगौरीः / 25 नवोलपालंकृतसैकताभाः शुचीरपः शैवलिनीर्दधानम् / / 8 / / 15 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्थ सर्गः ] [ 423 राजीवराजीवशलोलभङगं मुष्णन्तमुष्णां ततिभिस्तरूणाम् / कान्तालकान्ता ललनाः सुराणां ... __रक्षोभिरक्षोभितमुद्वहन्तम् / / 6 / / (1-6 कुलकम् ) . मुदे मुरारेरमरैः सुमेरो * रानीय यस्योपचितस्य शृङ्गः / भवन्ति नोद्दामगिरां कवीना मुच्छायसौन्दर्यगुणा मृषोद्याः // 10 // यतः पराया॑नि भृतान्यनूनः प्रस्थैर्मुहुर्भूरिभिरुच्छिखानि। आढयादिव प्रापणिकादजस्र . जग्राह रत्नान्यमितानि लोकः // 11 // अखिद्यतासन्नमुदग्रतापं रविं दधानेऽप्यरविन्दधाने / 15 भगावलियस्य तटे निपीतरसा नमत्तामरसा न मत्ता / / 12 / / यत्राधिरूढेन महीरुहोच्चै रुन्निद्रपुष्पाक्षिसहस्रभाजा / सुराधिपाधिष्ठितहस्तिमल्ल-' लीलां दधौ राजतगण्डशैलः // 13 // विभिन्नवर्णा गरुडाग्रजेन सूर्यस्यरथ्याः परितः स्मरन्त्या / रत्नैः पुनर्यत्र रुचा रुचं स्वा मानिन्यिरे वंशकरीरनीलैः // 14 / / . यत्रोज्झिताभिमुहुरम्बुवाहैः समुन्नमद्भिर्न समुन्नमद्भिः / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ] [ काव्यषट्कं वनं बबाधे विषपावकोत्था विपन्नमानामविपन्नगानाम् / / 15 / / फलभिरुष्णांशुकराभिमर्शा कार्शानवं धाम पतङ्गकान्तैः / शशंस य: पात्रगुणाद् गुणानां संक्रान्तिमाकान्तगुणातिरेकाम् / / 16 / / / दृष्टोऽपि शैलः स मुहुर्मुरारेरपूर्ववद्विस्मयमाततान / क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः / / 17 / / उच्चारणज्ञोऽथ गिरां दधानमुच्चारणत्पक्षिगणास्तटीस्तम् / 10 उत्कन्धरं द्रष्टुमवेक्ष्य शौरिमुत्कन्धरं दारुक इत्युवाच / / 18 / / आच्छादितायतदिगम्बरमुच्चकैर्गा माक्रम्य संस्थितमदनविशालशृङ्गम् / मूनि स्खलत्तुहिनदीधितिकोटिमेन___ मुद्वीक्ष्य को भुवि न विस्मयते नगेशम् / / 16 / / (वसंत०) उदयति विततोलरश्मिरज्जावहि मरुची हिमधाम्नि याति चास्तम् / वहति गिरिरयं विलम्बिघण्टाद्वय परिवारितवारणेन्द्रलीलाम् / / 20 / / वहति यः परितः कनकस्थलीः सहरिता लसमाननवांशुकः / अचल एष भवानिव राजते स हरितालसमाननवांशुकः / / 21 / / पाश्चात्यभागमिह सानुष सन्निषण्णाः पश्यन्ति शान्तमलसान्द्रतरांशुजालम् / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्थः सर्गः ] [ 425 5 सम्पूर्णलब्धललनालपनोपमान मुत्सङ्गसङ्गिहरिणस्य मृगाङ्कमूर्तेः / / 22 / / कृत्वा पुंवत्पातमुच्चै/ गुभ्यो मूनि ग्राव्णां जर्जरा निर्झरौघाः / कुर्वन्ति द्यामुत्पतन्तः स्मरात स्वर्लोकस्त्रीगात्र निर्वाणमत्र / / 23 / / स्थगतयन्त्यमः शमितचातकार्तस्वरा - जलदास्तडित्तुलितकान्तकार्तस्वराः / जगतीरिह स्फुरितचारुचामीकराः सावितः क्वचित् कपिशयन्ति चामी कराः / 24 / (पथ्या) उत्क्षिप्तमुच्छ्रितसितांशुकरावलम्बै रुत्तम्भिोडुभिरतीवतरां शिरोभिः / श्रद्धेयनिर्भरजलव्यपदेशमस्य / विष्वक्तटेषु पततिस्फुटमन्तरीक्षम् / / 25 / / एकत्र स्फटिकतंटांशुभिन्ननीरा / नीलाश्मद्युतिभिदुराम्भसोऽपरत्र / ... कालिन्दीजलनितश्रियः श्रयन्ते / वैदग्धीमिह सरितः सुरापगायाः // 26 / / (प्रहर्षिणी) इतस्ततोऽस्मिन् विलसन्ति मेरोः समानवप्रे मणिसानुरागाः / स्त्रियश्च पत्यो सुरसुन्दरीभिः .. समा नवप्रेमणि सानुरागाः / / 27 / / उच्चैर्महारजतराजिविराजितासौ दुर्वर्णभित्तिरिह सान्द्रसुधासवर्णा / 25 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 ] [ काव्यषट्कं अभ्येति भस्मपरिपाण्डुरितस्मरारे ____ रुद्वह्निलोचनललामललाटलीलाम् // 28 / / अयमतिजरठाः प्रकामगुर्वी ___रलघुविलम्बिपयोधरोपरुद्धाः / सततमसुमतामगम्यरूपाः परिणतदिक्करिकास्तटीबिति // 26 / / (पुष्पताग्रा) धूमाकारं दधति पुरः सौवर्ण वर्णेनाग्नेः सांदशि तटे पश्यामि / 10 श्यामीभूताः कुसुमसमूहेऽलीनां लीना मालीमिह तरवो बिभ्राणाः / / 30 / / (जलधरमाला) व्योमस्पृशः प्रथयता कलधौतभित्ति रुन्निद्रपुष्पचण चम्पकपिङ्गभासः / 15 सौमेरवीमधिगतेन नितम्बशोभा मेतेन भारतमिलावृतवद्विभाति / / 31 / / रुचिरचित्रतनूरुहशालिभिविचलितः परितः प्रियकवजैः / विविधरत्नमयैरभिभात्यसाववयवैरिव जङ्गमतां गतः // 32 // कुशेशयरत्र जलाशयोषिता मुदा रमन्ते कलभा विकस्वरैः। 20 प्रगीयते सिद्धगणैश्च योषितामुदारमन्ते कलभाविकस्वरैः / 33 / प्रासादितस्य तमसा नियतेनियोगा दाकाङ्क्षतः पुनरपक्रमणेन कालम् / पत्युस्त्विषामिह महौषधयः कलत्र- . स्थानं परैरनभिभूतममूर्वहन्ति // 34 / / 25 वनस्पतिस्कन्धनिषण्णबालप्रबालहस्ताः प्रमदा इवात्र / पुष्पेक्षणैर्लम्भितलोचकैर्वा मधुव्रतवातवृतैर्वतत्यः / / 35 / / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्थः सर्गः ] [ 427 विहगाः कदम्बसुरभाविह गाः कलयन्त्यनुक्षणमनेकलयम् / भ्रमयन्नुपैति मुहुरभ्रमयं पवनश्च धूतनवनीपवनः / / 36 / / (प्रमिताक्षरा) विद्वद्भिरागमपरैर्विवृतं कथञ्चि च्छ त्वापि दुर्घहमनिश्चितधीभिरन्यैः / श्रेयान् द्विजातिरिव हन्तुमघानि - दक्षं गूढार्थमेष निधिमन्त्रगणं बिति / 37 / / बिम्बोष्ठ बहु मनुते तुरङ्गवक्त्र श्चुम्बन्तं मुखमिह किन्नरं प्रियायाः / 10 श्लिष्यन्त मुहुरितरोऽपि तं निजस्त्री मुत्तुङ्गस्तनभरभङ्गभीरुमध्याम् / / 38 / / यदेतदस्यानुतटं विभाति वनं ततानेकतमालतालम् / न पुष्पितात्र स्थगितार्करश्मावनन्तताने कतमा लतालम् / 36 / दन्तोज्ज्वलासु विमलोपलमेखलान्ताः सद्रत्नचित्रकटकासु बृहन्नितम्बाः / अस्मिन् भजन्ति घनकोमलगण्डशैला नार्योऽनुरूपमधिवासमधित्यकासु / / 40 / / अनतिचिरोज्झितस्य जलदेन चिर स्थितबहुबुबुदस्य पयसोऽनुकृतिम् / विरलविकीर्णवज्रशकला सकलामिह विदधाति घौतकलधौतमही // 41 / / (कुररीरूता) वर्जयन्त्या जनैः सङ्गमेकान्तत.. स्तर्कयन्त्या सुखं सङ्गमे कान्ततः / 25 योषयैव स्मरासन्नतापाङ्गया / सेव्यतेऽनेकया सन्नतापाङ्गया // 42 / / (स्रग्विणी) 20 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 ] [ काव्यषटकं सङ्कीर्णकीचकवनस्खलितैकवाल विच्छेदकातरधियश्चलितु चमर्यः / अस्मिन् मृदुश्वसनगर्भतदीयरन्ध्र निर्यत्स्वनश्रुतिमुखादिव नोत्सहन्ते / / 43 / / 5 मुक्त मुक्तागौरमिह क्षीरमिवाभ्र पिीष्वन्तीनमहानीलदलासु / शस्त्रीश्यामैरंशुभिराशु द्रुतमम्भश्छायामच्छामृच्छति नीलीसलिलस्य // 44 / / (मत्तमयूरं) 10 या न ययौ प्रियमन्यवधूभ्यः सारतरागमना यतमानम् / तेन सहेह बिभर्ति रहः स्त्री सा रतरागमनायतमानम् / / 45 / / __(दोधिकम) भिन्नेषु रत्नकिरणैः किरणेबिहे - दोरुच्चावचैरुपगतेषु सहस्रसंख्याम् / दोषापि नूनमहिमांशुरसौ किलेति व्याकोशकोकनदतां दधते नलिन्याः / / 46 // अपशङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिता श्चलिताः पुरः पतिमुपैतुमात्मजाः / . अनुरोदितीव करुणेन पत्रिणां विरुतेन वत्सलतयैष निम्नगाः / / 47 / / मधुकरविटपानमितास्तरुपङ्क्तीबिभ्रतोऽस्य विटपानमिताः / परिपाकपिशङ्गलतारजसा रोधश्चकास्ति कपिशं गलता।४८। (आर्यागीतिः) प्राग्भागतः पतदिहेदमुपत्यकासुं। शृङ्गारितायतमहेभकराभमम्भः / 25 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्थः सर्गः ] [ 426 संलक्ष्यतें विवधरत्नकरानुविद्ध मूर्ध्वप्रसारितसुराधिपचापचारु / / 46 / / दधति च विकसद्विचित्रकल्प द्रुमकुसुमैरभिगुम्फितानिवैताः / क्षणमलघूविलम्बिपिच्छदाम्नः शिखरशिखाः शिखिशेखरानमुष्य / / 50 / / (पुष्पिताग्रा) सवधकाः सुखिनोऽस्मिन्ननवरतममन्दरागतामरसदृशः / नासेवेन्ते रसवन्न नवरतममन्दरागतामरसदृशः / / 5 / / (आर्यागीतिः) आच्छाद्य पुष्पपटमेष महान्तमन्त रातिभिर्ग हकपोतशिरोधराभैः / स्वाङ्गानि धूमरुचिमागुरवीं दधान बूं पायतीव पटलैनवनीरदानाम् / / 52 / / अन्योन्यव्यतिकरचारुभिर्विचित्र रत्रस्यन्नवमणिजन्मभिर्मयूखैः / विस्मेरान्गगनसदःकरोत्यमुष्मिनाकाशे रचितमभित्तिचित्रकर्म / / 53 / / (प्रहर्षिणी) समीरशिशिरः शिरःसु वसतां सतां जवनिका निकामसुखिनाम् / विभति जनयन्नयं मुदमपायमपायधवला बलाहकततीः // 54 / / (जलोद्धन गतिः) 25 . मैत्र्यादिचित्तपरिकर्मविदो विधाय क्लेशप्रहाणमिह लब्धसबीजयोगाः / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 ] . [ काव्यषटकं ख्यातिं च सत्त्वपुरुषान्यतयाधिगम्य ... वाञ्छन्ति तामपि समाधिभृतो न रोद्धम् // 55 // मरकतमयमेदिनीषु भानो. स्तरुविटपान्तरपातिनो मयूखाः / प्रवनतशितिकण्ठकण्ठलक्ष्मीमिह दधति स्फुरिताशुरेणुजालाः // 56 / / (पुष्पिताग्रा) या बिति कलवल्लकीगुण स्वानमानमतिकालिमाऽलया / नाम कान्तमुपगीतया तया स्वानमा नमति कालिमालया / / 57 / / , ( रथोद्धता ) सायं शशाङ्ककिरणाहतचन्द्रकान्त निस्यन्दिनीरनिकरेण कृताभिषेकाः / अर्कोपलोल्लसितवह्निभिह्नि तप्ता स्तीव्र महाव्रतमिवात्र चरन्ति वप्राः / / 58 / / एतस्मिन्नधिकपयःश्रियं वहन्त्यः संक्षोभं पवनभुवा जवेन नीताः / वाल्मीकेररहितरामलक्ष्मणानां साधयं दधति गिरां महासरस्यः / / 56 / / इह मुहुर्मुदितैः कलभैः रवः प्रतिदिशं क्रियते कलभैरवः / स्फुरति चानुवनं चमरीचयः कनकरत्नभुवां च मरीचयः / / 60 / / त्वक्साररन्ध्रपरिपूरणलब्धगीति- . रस्मिन्नसौ मृदितपक्ष्मलरल्लकाङ्ग। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्थः सर्गः ] | [ 431 कस्तूरिकामृगविमर्दसुगन्धिरेति . रागीव सक्तिमधिकां विषयेषु वायुः / / 61 / / प्रीत्यै यूनां व्यवहिततपनाः प्रौढध्वान्तं दिनमिह जलदाः / दोषामन्यं विदधति सुरतक्रोडायासश्रमशमपटवः / / 62 / / (भ्रमरविलसितम्) भग्नो निवासोऽयमिहास्य पुष्पैः सदानतो येन विषाणिनाऽगः / तीवाणि तेनोज्झति कोपितोऽसौ सदानतोयेन विषाणि नागः / / 63 / / प्रालेयशीतमचलेश्वरमीश्वरोऽपि ___ सान्द्रेभचर्मवसनावरणोऽधिशेते / सर्वतु निवृतिकरे निवसन्नुपति न द्वन्द्वदुःखमिह किञ्चिदकिञ्चनोऽपि / / 64 / / नवनगवनलेखाश्याममध्याभिराभिः ___ स्फटिककटकभूभिर्नाटयत्येष शैलः / अहिपरिकरभाजो भास्मनैरङ्गरागैरधिगतधवलिम्नः शूलपाणेरभिख्याम् / / 65 / / (मालिनो) दद्भिरभितस्तटौ विकचवारिजाम्बूनदैः विनोदितदिनक्लमाः कृतरुचश्व जाम्बूनदैः / निषेव्य मधु माधवाः सरसमत्र कादम्बरं . हरन्ति रतये रहः प्रियतमाङ्गकादम्बरम् / 66 / (प्रथ्या ) .' दर्पणनिर्मलासु पतिते घनतिमिरमुषि 25 ज्योतिषि रौप्यभित्तिषु पुरः प्रतिफलति मुहुः / Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 ] [ काव्यषटकं ब्रीडमसम्मुखोऽपि रमणैरपहृतवसनाः काञ्चनकन्दरासु तरुणीरिह नयति रविः / / 67 / / ( वंशपत्रपतितम् ) अनुकृतशिखरौघश्रीभिरभ्यागतेऽसौ . त्वयि सरभसमभ्युत्तिष्ठतीवाग्निरुच्चैः / द्रुतमरुदुपनुन्नन्नमद्भिः सहेलं हलघरंपरिधानश्यामलरम्बुवाहैः // 68 / / . (मा (मालिनी) // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्क 10 रैवतकवर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः // 4 // 15 // 5 // पञ्चम सर्गः // (वसंततिलकावृत्तम् ) इत्थं गिरः प्रियतमा इव सोऽव्यलीकाः शुश्राव सूततनयस्य तदाव्यलीकाः / . रन्तु निरन्तरमियेष ततोऽवसाने तासां गिरौ च वनराजिपटं वसाने / / 1 / / तं स द्विपेन्द्रतुलितातुलतुङ्गशृङ्ग मभ्युल्लसत्कदलिकावनराजिमुच्चैः / विस्ताररुद्धवसुधोऽन्वचलं चचाल लक्ष्मी दधत्प्रतिगिरेरलघुर्बलौघ / / 2 / / 20 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 433 भास्वत्करव्यतिकरोल्लसिताम्बरान्ताः सापत्रपा इव महाजनदर्शनेन / संविव्युरम्बरविकाशि चमूसमुत्थं पृथ्वीरजः करभकण्ठकडारमाशाः / / 3 / / प्रावर्तिनःशुभफलप्रदशुक्तियुक्ताः संपन्नदेवमणयो भृतरन्ध्रभागाः / अश्वाः प्यधुर्वसुमतीमतिरोचमाना स्तूर्णं पयोधय इवोमिभिरापतन्तः / / 4 / / आरक्षमग्नमवमत्य सणि शितान मेकः पलायत जवेन कृतार्तनादः / अन्य: पुनर्मुहुरुदप्लवतास्तभार मन्योन्यतः पथि बताबिभितामिभोष्ट्रौ // 5 // आयस्तमैक्षत जनश्चटुलाग्रपादं ___ गच्छन्तमुच्चलितचामरचारुमश्वम् / नागं पुनर्मूदुसलीलनिमीलिताक्षं सर्वः प्रियः खलु भवत्यनुरूपचेष्टः // 6 // त्रस्तः समस्तजनहासकरः करेणो स्तावत्खर: प्रखरमुल्ललयाञ्चकार / यावच्चलासनविलोल नितम्बबिम्ब विस्रस्तवस्त्रमवरोधवधूः पपात / / 7 / / शैलोपशल्यनिपतद्रथनेमिधारा निष्पिष्टनिष्ठुरशिलातलचूर्णगर्भाः / भूरेणवो नभसि नद्धपयोदचक्रा श्चक्रीवदङ्गरुहधूम्ररुचो विसत्र : // 8 / / उद्यत्कृशानुशकलेषु खुराभिघाताद् / भूमीसमायतशिलाफलकाचितेषु / 25 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं पर्यन्तवम॑सु विचक्रमिरे महाश्वाः शैलस्य दर्दुरपुटानिव वादयन्तः // 6 // तेजोनिरोधसमतावहितेन यन्त्रा सम्यक्कशात्रयविचारवता नियुक्तः / प्रारट्टजश्चटुलनिष्ठुरपातमुच्चै श्चित्रं चकार पदमर्धपुलायितेन // 10 // नीहारजालमलिनः पुनरुक्तसान्द्राः कुर्वन्वधूजनविलोचनपक्ष्ममालाः / क्षुण्णः क्षणं यदुबलैर्दिवमातितांसुः ___पांशुदिशां मुखमतुत्थयदुत्थितोऽद्रेः // 11 / / उच्छिद्य विद्विष इव प्रसभं मृगेन्द्रा निन्द्रानुजानुचरभूपतयोऽध्यवात्सः / वन्येभमस्तकनिखातनखाग्रमुक्त- / मुक्ताफलप्रकरभाजि गुहागृहाणि / / 12 / / बिभ्राणया बहलतावकपङ्कपिङ्ग पिच्छावचूडमनुमाधवधामजग्मुः / चञ्च्वग्रदष्टचटुलाहिपताकयान्ये स्वावासभागमुरगाशनकेतुयष्टया // 13 / / छायामपास्य महतीमपि वर्तमाना मागामिनी जगृहिरे जनतास्तरूणाम् / सर्वे हि नोपगतमप्यपचीयमानं वर्धिष्णुमाश्रयमनागतमभ्युपैति // 14 / / अग्रे गतेन वसतिं परिगृह्य ___रम्यामापात्यसैनिकनिराकरणाकुलेन / यान्तोऽन्यतः प्लुतकृतस्वरमाशु . दूरादुबाहुना जुहुविरे जुहुरात्मवाः / / 15 / / Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 435 सिक्ता इवामृतरसेन मुहुर्जनानां क्लान्तिच्छिदो वनवनस्पतयस्तदानीम् / शोखावसक्तवसनाभरणाभिरामाः कल्पद्रुमैः सह विचित्रफलैविरेजुः // 16 / / यानाज्जनः परिजनैरवतार्यमाणा राजीनरापनयनाकुलसौविदल्लाः / . स्रस्तावगुण्ठनपटाः क्षणलक्ष्यमाण वक्त्रश्रियः सभयकौतुकमीक्षते स्म / / 17 / / कण्ठावसक्तमृदुबाहुलतास्तुरंगाद् __ राजावरोधनवधूरवतारयन्तः / आलिंगनान्यधिकृताः स्फुटमापुरेव गण्डस्थलीः शुचितया च चुचुम्बुरासाम् / / 18 / / दृष्ट्वेव निजितकलापभरामधस्ता द्वयाकीर्णमाल्यकबरां कबरी तरुण्याः / प्रादुद्रुवत्सपदि चन्द्रकवान् द्रुमाग्रा त्सङ्घर्षणा सह गुणाभ्यधिकैर्दुरासम् / / 16 / / रोचिष्णुकाञ्चनचयांशुपिशङ्गिताशा वंशध्वजैर्जलदसंहतिमुल्लिखन्त्यः / भूभर्तु रायतविरन्तरसन्निविष्टाः पादा इवाभिबभुरावलयो रथानाम् // 20 / / छायाविधायिभिरनुज्झितभूतिशोभै रुच्छ्रायिभिर्बहलपाटलधातुरागैः / दुष्यैरिव क्षितिभृतां द्विरदैरुदार तारावलीविरचनैर्व्यरचन्निवासाः // 21 / / 25 / 'उत्क्षिप्तकाण्डपटकान्तरलीयमान मन्दानिलप्रशमितश्रमघर्मतोयैः / Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 ] [ काव्यषटकं दूर्वाप्रतानसहजास्तरणेषु भेजे निद्रासुखं वसनसद्मसु राजदारैः // 22 // प्रस्वेदवारिसविशेषविषक्तमङ्गे कूर्पासकं क्षतनखक्षतमुत्क्षिपन्ती / आविर्भवद्घनपयोधरबाहुमूला शातोदरी युवदृशां क्षणमुत्सवोऽभूत् / / 23 / / यावत्स एव समयः सममेव ताव दव्याकुलाः पटमयान्यभितो वितत्य / पर्यापतत्क्रयिकलोकमगण्यपूर्णा ___पणा विपणिनो विपणीविभेजुः / / 24 / / अल्पप्रयोजनकृतोरुतरप्रयासै रुद्गूर्णलोष्टलगुडैः परितोऽनुविद्धम् / उद्यातमुद्रुतमनोकहजालमध्या दन्यः शशं गुणमनल्पमवन्नवाप / / 25 / / त्रासाकुलः परिपतन् परितो निकेतान् पुंभिर्न कैश्चिदपि धन्विभिरन्वबन्धि / तस्थौ तथापि न मृगः क्वचिदङ्गनाना माकर्णपूर्णनयनेषु हतेक्षणश्रीः / / 26 / / आस्तीर्णतल्परचितावसथः क्षणेन वेश्याजनः कृतनवप्रतिकर्मकाम्यः / खिन्नानखिन्नमतिरापततो मनुष्यान् प्रत्यग्रहीच्चिरनिविष्ट इवोपचारैः / / 27 / / सस्नुः पयः पपुरनेनिजुरम्बराणि | जाबिसं धृतविकासिबिसप्रसूनाः / सैन्याः श्रियामनुपभोगनिरर्थकत्व दोषप्रवादममृजन्नगनिम्नगानाम् / / 28 / / 15 25 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 437 नाभिह्रदैः परिगृहीतरयाणि निम्नः . स्त्रीणां बृहज्जघनसेतुनिवारितानि / जग्नुर्जलानि जलमड्डुकवाद्यवल्गु वल्गधनस्तनतटस्खलितानि मन्दम् / / 26 / / आलोलपुष्करमुखोल्लसितैरभीक्ष्ण मुक्षाम्बभूवुरभितो वपुरम्बुवषैः / खेदायत श्वसितवेगनिरस्तमुग्ध मूर्धन्यरत्ननिकरैरिव हास्तिकानि / / 30 / / ये पक्षिणः प्रथममम्बुनिधि गतास्ते येऽपीन्द्रपाणितुलितायुधलूनपक्षाः / ते जग्मुरद्रिपतयः सरसीविंगाढु माक्षिप्तकेतुकुथसैन्यगजच्छलेन / / 31 / / आत्मानमेव जलधेः प्रतिबिम्बताङ्ग मूमौ महत्यभिमुखापतितं निरीक्ष्य / क्रोधादधावदपभीरभिहन्तुमन्य नागाभियुक्त इव युक्तमहो महेभः / / 32 // नादातुमन्यकरिमुक्तामदाम्बुक्ति . धूताङ्कुशेन न विहातुमपीच्छताम्भः / रुद्ध गजेन सरितः सरुषावतारे रिक्तोदपात्रकरमास्त चिरं जनौघः / / 33 / / पन्थानमाशुविजहीहि पुरः स्तनौ ते पश्यन् प्रतिद्विरदकुम्भविशङ्किचेताः / स्तम्बेरमः परिणिनंसुरसावूपैति षिड्गैरगद्यत ससंभ्रममेव काचित् / / 34 / / कीर्णं शनैरनुकपोलमनेकपानां हस्तैविगाढमदतापरुजः शमाय / 25 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 ] [ काव्यषट्कं पाकर्णमुल्लसितमम्बु विकासिकाश __नीकाशमाप समतां सितचामरस्य / / 35 / / गण्डूषमुज्झितवता पयसः सरोषं नागेन लब्धपरवारणमारुतेन / अम्भोधिरोधसि पृथुप्रतिमानभाग . रुद्धोरुदन्तमुसलप्रसरं निपेते / / 36 / / दानं ददत्यपि जलैः सहसाद्धिरूढे को विद्यमानगतिरासितुमुत्सहेत / यद्दन्तिनः कटकटाहतटान्मिमङ्क्षो मङ्ख्दपाति परित पटलैरलीनाम् / / 37 / / अन्तर्जलौघमवगाढवतः कपोलो हित्वा क्षणं विततपक्षतिरन्तरीक्षे / द्रव्याश्रयेष्वपि गुणेषु ररोज नीलो वर्णः पृथग्गत इवालिगणो गजस्य / / 38 / / संसपिभिः पयसि गैरिकरेणुरागै रम्भोजगर्भरजसाङ्गनिषङ्गिणा च / क्रीडोपभोगमनुभूय सरिन्महेभाव न्योन्यवस्त्रपरिवर्तमिव व्यधत्ताम् // 39 // यां चन्द्रकैर्मदजलस्य महानदीनां नेत्रश्रियं विकसतो विदधुर्गजेन्द्राः / तां प्रत्यवापुरविलम्बितमुत्तरन्तो धौताङ्गलग्ननवनीलपयोजपत्रः // 40 / / प्रत्यन्यदन्ति निशिताङ्कुशदूर भिन्ननिर्याणनिर्यदसृजं चलितं निषादी / रोद्धम् महेभमपरिवढिमानमागा दाक्रान्तितो न वशमेति महान् परस्य // 41 // नात्र / 25 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 439 सेव्योऽपि सानुनयमाकलनाय यन्त्रा नीतेन वन्यकरिदानकृताधिवासः / नाभाजि केवलमभाजि गजेन शाखी नान्यस्य गन्धमपि मानभृतः सहन्ते / / 42 / / अद्रीन्द्रकुञ्जचरकुञ्जरगण्डकाष संक्रान्तदानपयसो वनपादपस्य / सेनागजेन मथितस्य निजप्रसून मम्ले यथागतमगामि कुलैरलीनाम् / / 43 / / नोच्चैर्यदा तरुतलेषु ममुस्तदानी ___ माधोरणैरभिहिताः पृथुमूलशाखाः / बन्धाय चिच्छिदुरिभास्तरसात्मनैव नैवात्मनीनमथवा क्रियते मदान्धैः / / 44 / / उष्णोष्णशीकरसजः प्रबलोष्मणोऽन्त रुत्फुल्लनीलनलिनोदरतुल्यभासः / एकान् विशालशिरसो हरिचन्दनेषु नागान् बवन्धुरपरान्मनुजा निरासुः / / 45 / / कण्डूयत: कटभुवं करिणा मदेन ___ स्कन्धं सुगन्धिमनुलीनवता नगस्य / स्थूलेन्द्रनीलशकलावलिकोमलेन कण्ठेगुणत्वमलिनां, वलेयेन भेजे // 46 / / निधू तवीतमपि बालकमुल्ललन्तं यन्ता क्रमेण परिसान्त्वनतर्जनाभिः / शिक्षावशेन शतकैर्वशमानिनाय . शास्त्रं हि निश्चितधियां क्व न सिद्धिमेति / / 47 स्तम्भं महान्तमुचितं सहसा मुमोच दानं ददावतितरां सरसाग्रहस्त: / 45 // 25 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ] [ काव्यषट्कं : // 48 // बद्धापराणि परितो निगडान्यलावी स्वातन्त्र्यमुज्ज्वलमवाप करेणुराजः / / 48 / / जज्ञे जनै, कुलिताक्षमनाददाने संरब्धहस्तिपकनिष्ठुरचोदनाभिः / गम्भीरवेदिनि पुरः कवलं करीन्द्रे मन्दोऽपि नाम न महानवगृह्य साध्यः / / 46 / / क्षिप्तं पुरो न जगृहे मुहुरिक्षुकाण्डं ___नापेक्षते स्म निकटोपगतां करेणुम् / सस्मार वारणपतिः परिमीलिताक्ष मिच्छाविहारवनवासमहोत्सवानाम् / / 50 / / दुःखेन भाजयितुमाशयिता शशाक तुङ्गारकायमनमन्तमनादरेण / उत्क्षिप्तहस्ततलदत्तविधानपिण्ड __स्नेहस्र तिस्नपितबाहुरिभाधिराजम् / / 51 / / शुक्लांशुकोपरचितानि निरन्तराभि र्वेस्मानिरश्मिविततानि नराधिपानाम् / चन्द्राकृतानि गजमण्डलिकाभिरुच्चै र्नीलाभ्रपङ्क्तिपरिवेषमिवाधिजग्मुः / / 52 / / गत्यूनमार्गगतयोऽपि गतोरुमार्गाः स्वैरं समाचकृषिरे भुवि वेल्लनाय / दर्पोदयल्लसितफेनजलानुसार संलक्ष्यपल्ययनवर्धपदास्तुरङ्गाः // 53 / / आजिघ्रति प्रणतमूर्धनि बाह्निजेऽश्वे तस्याङ्गसङ्गमसुखानुभवोत्सुकायाः / नासाविरोकपवनोल्लसितं तनीयो रोमाञ्चतामिव जगाम रजः पृथिव्याः / / 54 / / 25 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 441 गणः / हेम्नः स्थलीषु परितः परिवृत्त्य वाजी धुन्वन् वपुः प्रविततायत केशपङ्क्तिः / ज्वालाकणारुणरुचा निकरेण रेणोः ___ शेषेण तेजस इवोल्लसता रराज // 55 // दन्तालिकाघरणनिश्चलपाणियुग्म मोदितो हरिरिवोदयशैलमूर्ध्नः / स्तोकेन नाक्रमत वल्लभपालमुच्चैः श्रीवृक्षकी पुरुषकोन्नमितानकायः // 56 / / रेजे जनैः स्नपनसान्द्रनरार्द्रमूर्ति वैरिवानिमिषदृष्टिभिरीक्ष्यमाणः / श्रोसन्निधानरमणीयतरोऽश्व उच्चै रुच्चैःश्रवा जलनिधेरिव जातमात्रः / / 57 / / प्रश्रावि भूमिपतिभिः क्षणवीतनिद्रे रश्नन्पुरो हरितकं मुदमादधानः / ग्रीवाग्रलोलकलकिङ्किणिकानिनाद मिश्रं दधद्दशनचचुरशब्दमश्वः / / 58 // उत्खाय दर्पचलितेन सहैव रज्ज्वा कौलं प्रयत्नपरमानवदुर्ग्रहेण / आकुल्यकारि कटकस्तुरगेणं तूर्ण मश्वेति विद्रुतमनुद्रवताश्वमन्यम् / / 56 / / अव्याकुलं प्रकृतमुत्तरधेयकर्म धाराः प्रसाधयितुमव्यतिकीर्णरूपाः / सिद्धं मुखे नवसु वीथिषु कश्चिदश्वं वल्गाविभागकुशलो गमयाम्बभूव // 60 / / 25 . मुक्तास्तृणाहि परितः कटकं चरन्त ___ स्त्रुटयद्वितानतनिकाव्यतिषङ्गभाजः / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 / [ काव्यषट्कं सत्र : सरोषपरिचारकवार्यमाणा दामाञ्चलस्खलितलोलपदं तुरङ्गाः / / 61 / / उत्तीर्णभारलघूनाप्यलघूलपौध __ सौहित्यनिःसहतरेण तरोरधस्तात् / रोमन्थमन्थरचलद्गुरुसास्नमासां चक्रे निमीलदलसेक्षणमौक्षकेण / / 62 / / मृत्पिण्डशेखरितकोटिभिरर्धचन्द्रं शृङ्गः शिखाग्रगतलक्ष्ममलं हसद्भिः / उच्छृङ्गितान्यवृषभाः सरितां नदन्तो - रोघांसि धीरमवचस्करिरे महोक्षाः // 63 / / मेदस्विनः सरभसोपगतानभीकान् ___ भङ्क्त्वा पराननडुहो मुहुराहवेन / ऊर्जस्वलेन सुरभीरनु निःसपत्नं जग्मे जयोद्धरविशालविषाणमुक्ष्णा / / 64 / / बिभ्राणमायतिमतीमवृथा शिरोधि __ प्रत्यग्रतामतिरसामधिकं दधन्ति / लोगोष्ठमौष्ट्रकमुदग्रमुख तरुणा मभ्र लिहानि लिलिहेः नवपल्लवानि / / 65 / / सार्धं कथञ्चिदुचितैः पिचूमर्दपत्र रास्यान्तरालगतमाम्रदलं म्रदीयः / दासेरकः सपदि संवलितं निषादै विप्रं पुरा पतगराडिव निर्जगार // 66 / / स्पष्टं बहिः स्थितवतेऽपि निवेदयन्त श्चेष्टाविशेषमनुजीविजनाय राज्ञाम् / वैतालिकाः स्फुटपदप्रकटार्थमुच्चै भॊगावलीः कलगिरोऽवसरेषु पेठुः / / 67 // 25 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ] / 443 उन्नम्रताम्रपटमण्डपमण्डितंत ___ दानीलनागकुलसंकुलमाबभासे / संध्यांशुभिन्नघनकर्बु रितान्तरीक्षं लक्ष्मीविडम्बि शिबिरं शिवकीर्तनस्य // 68 // धरस्योद्धर्ताऽसि त्वमिति ननु सर्वत्र जगति ___ प्रतीतस्तत्किं मामतिभरमधः प्रापिपयिषुः / उपालब्धेवोच्चैगिरिपतिरिति श्रीपतिमसौ बलकान्तः क्रोडद्विरदमथितोर्वीरुहरवैः / / 66 (शखरिणी) 10 / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रय ( सेना-निवेशो नाम ) पञ्चमः सर्गः / / 5 / / // 6 // षष्ठः सर्गः॥ ( द्रुतविलंबितवृत्तम् ) अथ रिम्सुममु युगपगिरी कृतयथास्वतरुप्रसवश्रिया / ऋतुगणेन निषेवितुमादधे भुवि पदं विपदन्तकृतं सताम् / / 1 / नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम् / मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत्स सुरभिं. सुरभिं सुमनोभरैः / / 2 / / विलुलितालकसंहतिरामृश न्मृगदृशां श्रमवारि ललाटजम् / - तनुतरङ्गतति सरसां दल (कुवलयं वलयन्मरुदाववौ / / 3 / / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 ] [ काव्यषट्कं तुलयति स्म विलोचनतारकाः कुरबकस्तबकव्यतिषङ्गिणि / * गुणवदाश्रयलब्धगुणोदये मलिनिमालिनि माधवयोषिताम् / / 4 / / स्फुटमिवोज्ज्वलकाञ्चनकान्तिभि युतमशोकमशोभत चम्पकैः / विरहिणां हृदयस्य भिदाभृतः कपिशितं पिशितं. मदनाग्निना // 5 / / स्मरहुताशनमुमु रचूर्णतां दधुरिवाम्रवणस्य रजःकणाः / निपतिताः परितः पथिकवजानु परिते परितेपुरतो भृशम् // 6 / / रतिपतिप्रहितेव कृतक्रुधः प्रियतमेषु वधूरनुनायिकाः / बकुलपुष्परसासवपेशल ध्वनिरगान्निरगान्मधुपावलिः / / 7 / / प्रियसखीसदृशं प्रतिबोधिताः किमपि काम्यगिरा परपुष्टया। प्रियतमाय वपुर्ण रुमत्सर च्छिदुरयाऽदुरयाचितमङ्गनाः // 8 // मधुकरै रपवादकरैरिव स्मृतिभुवः पथिका हरिणा इव / कलतया वचसः परिवादिनी स्वरजिता रजिता वशमाययुः // 6 // 25 समभिसृत्य रसादवलम्बितः प्रमदया कुसुमावचिचीर्षया। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 445 अविनमन्न रराज वृथोच्चक रनतया नृतया वनपादपः // 10 / / इदमपास्य विरागि परागिणी रलिकदम्बकसम्बुरुहां ततीः / स्तनभरेण जितस्तबकानम नवलते वलतेऽभिमुखं तव // 11 / / सुरभिणि श्वसिते दधतस्तृष नवसुधामधुरे च तवाधरे / अलमलेरिव गन्धरसावमू ___ मम न सौमनसौ मनसो मुदे // 12 / / इति गदन्तमनन्तरमङ्गना भूजयूगोन्नमनोच्चतरस्तनी। प्रणयिनं रभसादुदरश्रिया __ वलिभयालिभयादिव सस्वजे // 13 / / वदनसौरभलोभपरिभ्रमद् भ्रमरसंभ्रमसंभृतशोभया। चलितया विदधे कलमेखला कलकलोऽलकलोलशान्यया // 14 / / अजगणन् गणशः प्रियमग्रतः प्रणतमप्यभिमानितया न याः / सति मधावभवन्मदनव्यथा विधुरिता धुरिताः कुकुरस्त्रियः / / 15 / / कुसुमकामुककामु कसंहित द्रुतशिलीमुखखण्डितविग्रहाः। / 'मरणमप्यपराः प्रतिपेदिरे किमु मुहुर्मु मुहुर्गतभर्तृकाः // 16 / / 25 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 ] [ काव्यषट्कं रुरुदिषा वदनाम्बुरुहश्रियः / सुतनु सत्यमलङ्करणाय ते / तदपि सम्प्रति सन्निहिते मधा वधिगमं घिगमङ्गलमश्रुणः // 17 // त्यजति कष्टमसावचिरादसून् विरहवेदनयेत्यघशङ्किभिः / प्रियतया गदितास्त्वयि बान्ध वैरवितथा वितथाः सखि मा गिरः // 18 / / न खलु दूरगतोऽप्यतिवर्तते महमसाविति बन्धुतयोदितैः / प्रणयिनो निशमय्य वधूर्बहिः स्वरमृतैरमतैरिव निर्ववौ / / 19 / / (विशेषकम्) मधुरया मधुबोधितमाधवी ___ मधुसमृद्धिसमेधितमेधया। मधुकराङ्गनया मुहुरुन्मद ___ध्वनिभृता निभृताक्षरमुज्जगे // 20 / / अरुणिताखिलशैलवना मुहु विदधती पथिकान् परितापनिः / विककिंशुकसंहतिरुच्चकै रुदवहद्दवहव्यवहश्रियम् // 21 / / रवितुरङ्गतनूरुहतुल्यतां दधति यत्र शिरीषरजोरुचः / उपययौ विदधन्नवमल्लिकाः शुचिरसौ चिरसौरभसम्पदः // 22 / / दलितकोमलपाटलकुड्मले निजवधूश्वसितानुविधायिनि Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ) [ 447 मरुति वाति विलासिभिरुन्मद भ्रमदलौ मदलौल्यमुपाददे // 23 / / * निदधिरे दयितोरसि तत्क्षण स्नपनवारितुषारभृतः स्तनाः / सरसचन्दनरेणुरनुक्षणं __ विचकरे च करेण वरोरुभिः / / 24 / / स्फुरदधीरतडिन्नयना मुहुः प्रियमिवागलितोरुपयोधरा / जलधरावलिरप्रतिपालित स्वसमया समयाञ्जगतीधरम् / / 25 / / गजकदम्बकमेचकमुच्चकै नभसि वीक्ष्य नवाम्बुदमम्बरे / अभिससार न वल्लभमङ्गना . न चकमे च कमेकरसं रहः / / 26 / / 15 अनुययो विविधोपलकुण्डल द्युतिवितानकसंवलितांशुकम् / धृतधनुर्वलयस्य पयोमुचः शबलिमा बलिमानमुषो वपुः // 27 // द्रतसमीरचलैः क्षणलक्षित ___व्यवहिता विटपैरिव मञ्जरी। नवतमालनिभस्य नभस्तरो रचिररोचिररोचत वारिदैः / / 28 / / पटलमम्बुमुचां पथिकाङ्गना सपदि जीवितसंशयमेष्यती। 25 / सनयनाम्बुसखीजनसम्भ्रमा द्विधुरबन्धुरबन्धुरमैक्षत // 26 // Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 ] [ काव्यषट्क प्रवसतः सुतरामुदकम्पय द्विदलकन्दलकम्पनलालितः / / नमयति स्म वनानि मनस्विनी जनमनोनमनो घनमारुतः // 30 // जलदपङ्क्तिरनर्तयदुन्मदं कलकलापि कलापिकदम्बकम् / कृतसमार्जनमर्दलमण्डल ध्वनिजया निजया स्वनसम्पदा // 31 / / नवकदम्बरजोरुणिताम्बर रधिपुरन्ध्रि शिलीन्ध्रसुगन्धिभिः / मनसि रागवतामनुरागिता नवनवा वनवायुभिरादधे // 32 / / शमिततापमपोदमहीरजः प्रथमबिन्दुभिरम्बुमुचोऽम्भसाम् / प्रविरलैरचलाङ्गनमङ्गना जनसुगं न सुगन्धि न चक्रिरे // 33 / / द्विरददन्तवलक्षमलक्ष्यत स्फुरितभृगमृगच्छवि केतकम् / घनघनौघविघट्टनया दिवः. कृशशिखं शशिखण्डमिव च्युतम् // 34 / / दलितमौक्तिकचूर्णविपाण्डवः ___ स्फुरितनिर्भरशीकरचारवः / / कुटजपुष्पपरागकणाः स्फुटं विदधिरे दधिरेणुविडम्बनाम् // 35 / / नवपयः कणकोमलमालती कुसुमसंततिसंततसङ्गिभिः / 25 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 446 5 प्रचलितोडुनिलैः परिपाण्डिमाः - शुभरजोऽलिभिराददे // 36 // निजरजः पटवासमिवाकिरद् धृतपटोपमवारिमुचां दिशाम् / प्रियवियुक्तवघूजनचेतसाम नवनी नवनीपवनावलिः / / 37 / / प्रणयकोपभृतोऽपि पराङ्मुखाः सपदि वारिधरारवभीरवः / प्रणयिन. परिरन्धुमथाङ्गना ववलि रे वलिरेचितमध्यमाः।३८। विगतरागगुणोऽपि जनो न कश्चलति वाति पयोदनभस्वति / अभिहितेऽलिभिरेवमिवोच्चकैरननृते ननृते नवपल्लवैः / / 3 / / अरमयन् भवनादचिरद्युतेः किल भयादपयातुमनिच्छवः / यदुनरेन्द्रगणं तरुणीगणास्तमथ मन्मथमन्थरभाषिणः / / 40 / / ददतमन्तरिताहिमदीधिति खगकुलाय कुलायनिलायिताम् / जलदकालमबोधकृतं दिशामपरथाप रथावयवायुधः / / 41 / / 15 स विकचोत्पलचक्षुषमैक्षत क्षितिभृतोऽङ्कगतां दायितामिव / शरदमच्छगलद्वसनोपमाक्षमघनामघनाशनकीर्तनः // 42 / / जगति नैशमशीतकर: करैवियति वारिदबृन्दमयं तमः / जलजराजिषु नैद्रमदिंद्रवन्न महतामहताः क्व च नारयः / 43 / समय एव करोति बलाबलं प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम् / शरदि हंसरवाः परुषीकृतस्वरमयूरमयूरमणीयताम् / / 44 / / तनुरुहाणि पुरो विजितध्वनेर्धवलपक्षविहङ्गमकूजितः / जगलुरक्षमयेव शिखण्डिन: परिभवोऽरिभवो हि सुदुःसहः / 45 / अनुवनं वन राजिवधूमुखे बहलरागजवाधरचारुणि / विकचबाणदलावलयोऽधिकं रुरुचिरे रुचिरेक्षणविभ्रमाः।४६। 25 कनकभङ्गपिशङ्गदलैर्दधे सरजसारुणकेशरचारुभिः / प्रियविमानितमानवतीरुषां निरसनैरसनैरवृथार्थता / / 47 / / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 ] [ काव्यषट्कं मुखसरोजरुचं मदपाटलामनुचकार चकोरदृशां यतः / धृतनवातपमुत्सुकतामतो न कमलं कमलम्भयदम्भसि / / 48 / / विगतसस्यजिघत्समघट्टयत्कलमगोपवधून मृगव्रजम् / श्रुततदीरितकोमलगीतकध्वनिमिषेऽनिमिषेक्षणमग्रतः / 49 / 5 कृतमदं निगदन्त इवाकुलीकृतजगत्त्रयमूर्जमतङ्गजम् / वभुरयुक्छदगुच्छसुगन्धयः सततगास्ततगानगिरोऽलिभिः / 50 / विगतवारिधरावरणाः क्वचिद्ददृशुरुल्लसितासिलतासिताः / क्वचिदिवेन्द्रगजाजिनकञ्चुकाः शरदि नीरदिनीर्यदवो दिशः / विलुलितामनिल: शरदङ्गना ____ नवसरोरुहकेशरसम्भवाम् / विकिरितुं परिहास विधित्सया . हरिवधूरिव धूलिमुदक्षिपत् / / 52 / / हरितपत्रमयीव मरुद्गुणैः स्रगवनद्धमनारमपल्लवा / मधुरिपोरभिताम्रमुखी मुदं दिवि तता विततान शुकावलिः / / 15 स्मितसरोरुहनेत्रसरोजला ___ मतिसिताङ्गविहङ्गहसद्दिवम् / अकलयन् मुदितामिव सर्वतः स शरदं शरदन्तुरदिङ्मुखाम् // 54 / / गजपतिद्वयसीरपि हैमन स्तुहिनयन् सरितः पृषतां पतिः / सलिलसन्ततिमध्वगयोषिता मतनुतातनुतापकृतं दृशाम् . // 55 / / इदमयुक्तमहो महदेव यद् - वरतनोः स्मरयत्यनिलोऽन्यदा / 25 स्मृतसयौवनसोष्मपयोधरान् सतुहिनस्तु हिनस्तु वियोगिनः // 56 / / Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 451 प्रियतमेन यया सरुषा स्थितं न सह सा सहसा परिरभ्य तम् / श्लथयितु क्षणमक्षमताङ्गना न सहसा सहसा कृतवेपथुः / / 57 / / भृशमयत याऽधरपल्लव क्षतिरनावरणा हिममारुतः / दशनरश्मिपटेन च सीत्कृतै निवसितेव सितेन सुनिर्ववौ // 58 / / व्रणभृता सुतनोः कलसीत्कृतस्फुरितदन्तमरीचिमयं दधे / 10 स्फुटमिवावरणं हिममारुतैमृदुतया दुतयाधरलेखया / / 56 / / धृततुषारकणस्य नभस्वत स्तरुलतागु लितर्जनविभ्रमाः / पृथु निरन्तरमिष्टभुजान्तरं वनितयाऽनितया न विषेहिरे // 60 / / हिमऋतावपि ताः स्म भृशस्विदो युवतयः सुतरामुपकारिणि / प्रकटयत्यनुरागमकृत्रिमं स्म रमयं रमयन्ति विलासिनः / / 61 / / कुसुमयन् फलिनीरलिनीरवै मंदविकासिभिराहितहुकृतिः / उपवनं निरभर्सयत प्रिया वियुवतीयुवतीः शिशिरानिलः / / 62 / / उपचितेषु परेष्वसमर्थतां व्रजति कालवशाद् बलवानपि / 25 . . तपसि मन्दगभस्तिरभीषुमा नहि महाहिमहानिकरोऽभवत् // 63 / / Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 // [ काव्यषट्कं अभिषिषेणयिषं भूवनानि यः स्मरमिवाख्यत लोध्ररजश्चयः / क्षुभितसैन्यपरागविपाण्डुर ____ द्युतिरयं तिरयन्नुदभूद् दिशः / / 64 / / शिशिरमासमपास्य गुणोऽस्य नः क इव शीतहरस्य कुचोष्मणः / इति घियास्तरुषः परिरेभिरे ___घनमतो नमतोऽनुमतान् प्रियाः / / 65 // अधिलवङ्गममी रजसाधिकं मलिनिताः सुमनोदलतालिनः / स्फुटमिति प्रसवेन पुरोऽहस त्सपदि कुन्दलता दलतालिनः / / 66 / अतिसुरभिरभाजि पुष्पश्रियामतनुतरतयेवं सन्तानकः / तरुणपरभृतः स्वनं रागिणामतनुत रतये वसन्तानकः / / 67 / / नोज्झितुं युवतिमाननिरासे दक्षमिष्टमधुवासरसारम् / चूतमालिरलिनामतिरागादक्षमिष्ट मधुवासरसारम् / / 68 / / 15 जगद्वशीकर्तुमिमाः स्मरस्य प्रभावनी केतनवैजयन्तीः / इत्यस्य तेने कदलीमधुश्रीः प्रभावनी केतनवैजयन्तीः // 66 / / स्मररागमयी वपुस्तमिस्रा परितस्तार रवेरसत्यवश्यम् / प्रियमाप दिवापि कोकिले स्त्री परितस्ताररवे रसत्यवश्यम् // 70 / / वपुरम्बुविहारमिह शुचिना रुचिरं कमनीयतरा गमिता / रमणेन रमण्यचिरांशुलतारुचिरङ्कमनीयत रागमिता / / 71 / / मुदमब्दभुवामपां मयूराः सहसायन्त नदी पपाट लाभे / Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 453 अलिना रमतालिनी शिलीन्ध्रे- सह सायन्तनधीपपाटलाभे // 72 // कुटजानि वीक्ष्य शिखिभिः शिख रीन्द्रं समयावनौ घनमदभ्रमराणि / गगनं च गीतनिनदस्य गिरोच्चैः समया वनौधनमदभ्रमराणि / / 73 / / अभीष्टमासाद्य चिराय काले समुद्धृताशं कमनी चकाशे / योषिन्मनोजन्मसुखोदयेषु समुद्धृताशङ्कमनीचकाशे / / 74 / / स्तनयोः समयेन याङ्गनानामभिनद्धारसमा न सा रसेन / 10 परिरम्भरुचि ततिर्जलानामभिनद्धा रसमानसारसेन // 75 / / जातप्रीतिर्या मधुरेणानुवनान्तं ___कामे कान्ते सारसिकाकाकुरुतेन / तत्सम्पर्क प्राप्य पुरा मोहनलीलां कामेकान्ते सा रसिका का कुरुते न / / 76 / / (मत्तमयूरम्) कान्ताजनेन रहसि प्रसभं गृहीतः केशे रते स्मरसहासवतोषितेन / प्रेम्णा मनस्सु रजनीष्वपि हैमनीषु के शेरते स्म रसहासवतोषितेन ॥७७।।(वसंत.) 20 गतवतामिव विस्मयमुच्चकैरसकलामलपल्लवलीलया। मधुकृतामसगिरमावली रसकलामलपल्लवलीलया // 78 / / (द्रुत० ) कुर्वन्तमित्यतिभरेण नगानवाचः पुष्पविराममलिनां चगान नवाचः / 25 श्रीमान् समस्तमनुसानु गिरौ विह बिभ्रत्यचोदि स मयूरगिरा विहर्तुम् ॥७६।।(वसंत.) ... // इति श्रीमाघकृती शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयः ऋतुवर्णनं नाम षष्ठः सर्गः // 6 // Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 ] [ काव्यषट्कं 5 . // 7 // सप्तमः सर्गः॥ ( पुष्पिताग्रा वृत्तम् ) अनुगिरमृतुभिर्वितामानामथ स विलोकयितु वनान्तलक्ष्मीम् / निरगमदभिराद्धमाहतानां. भवति महत्सु न निष्फलः प्रयासः / / 1 / / दधति सुमनसो वनानि बह्वी युवतियुता यदवः प्रयातुमीषुः / मनसिशयमहाऽस्त्रमन्यथामी न कुसुमपञ्चकमप्यलं विसोढुम् // 2 // अवसरमधिगम्य तं हरन्त्यो हृदयमयत्नकृतोज्ज्वलस्वरूपाः / अवनिषु पदमङ्गनास्तदानीं __न्यदधत विभ्रमसम्पदोऽङ्गनासु // 3 // नखरुचिरचितेन्द्रचापलेखं ___ ललितगतेषु गतागतं दधाना / मुखरितवलयं पृथौ नितम्बे भुजलतिका मुहुरस्खलत्तरुण्याः / / 4 / / अतिशयपरिणाहवान् वितेने __ बहुतरमर्पितरत्नकिङ्किणीकः / अलधुनि जघनस्थलेऽपरस्या ध्वनिमधिकं कलमेखलाकलापः // 5 // गुरुनिबिडनितम्बबिम्बभारा क्रमणनिपीडितमङ्गनाजनस्य / . Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 455 चरणयुगमसुस्र वत्पदेषु स्वरसमसक्तमलक्तकच्छलेन // 6 // तव सपदि समीपमानये ताम हमिति तस्य मयाग्रतोऽभ्यधायि / अतिरभसकृतालघुप्रतिज्ञा मनृतगिरं गुणगौरि मा कृथा माम् / / 7 / / न च सुतनु न वेद्मि यन्महीया नसुनिरसस्तवं निश्चयः परेण / वितथयति न जातु मद्वचोऽसा विति च तथापि सखीषु मेऽभिमानः / / 8 / / सततमतभिभाषणं मया ते / ___. परिपणितं भवतीमनानयन्त्या / त्वयि तदिति विरोधनिश्चि ___ तायां भवति भवत्वसुहृज्जनः सकामः / / 6 / / गतधृतिरवलम्बितु बता . सूननलमनालपनादहं भवत्याः / प्रणयिनि यदि न प्रसादबुद्धि भव मम मानिनि जीविते दयालुः / / 10 // प्रयमिति वनित नितान्तमाग: स्मरणसरोषकषायितायताक्षी / चरणगतखीवचोऽनुरोधात् ___किल कथमप्यनुकूलयाञ्चकार // 11 // द्रुतपदमिति मा वयस्य यासी ननु सुतनुं परिपालयानुयान्तीम् / 25 / नहि न विदितखेदमेतदीय स्तनजघनोद्वहने तवापि चेतः / / 12 / / Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 ] ... [ काव्यषट्कं इति वदति सखीजनेऽनुरागा यिततमामपरश्चिरं प्रतीक्ष्य / तदनुगमवशादनायतानि ___ न्यधित मिमान इवावनि पदानि / / 13 / / यदि मयि लघिमानमागतायां तव धृतिरस्ति गतास्मि सम्प्रतीयम् / : द्रुततरपदपातमापपात प्रियमिति कोपपदेन कापि सख्या / / 14 / / अविरलपुलकः सह व्रजन्त्याः प्रतिपदमेकतरः स्तनस्तरुण्याः / घटितविघटितः प्रियस्य वक्ष स्तटभुवि कन्दुकविभ्रसं बभार // 15 / / अशिथिलमपरावसज्य कण्ठे दृढपरिरब्धबृहद्बहिःस्तेन / हुषिततनुरुहाभुजेन भर्तु मृदुममृदु व्यतिविद्धमेकबाहुम् / / 16 / / मुहुरसुसममाघ्नती नितान्तं प्रण दितकाञ्चि नितम्बमण्डलेन / विषमितपृथुहारयष्टि तिर्य ___कुचमितरं तदुरःस्थले निपीड्य / / 17 / / गुरुतरकलनूपुरानुनादं सललितनर्तितवामपादपद्मः / इतरदनतिलोलमादधाना पदमथ मन्मथमन्थरं जगाम॥१८।। लघुललितपदं तदंसपीठ द्वयमिहितोभयपाणिपल्लवान्या / . सकठिनकुचचूचुकप्रणोदं प्रियमबला सविलासमन्वियाय / / 16 / / 25 जघनमलघुपीवरोरु कृच्छदुरुनिबिरीसनितम्बभारखेदि / दयिततमशिरोधरवलम्बिस्वभुजलताविभवेन काचिदूहे / 20 / Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 457 अनुवयुरपरेण बाहुमूलप्रहितभुजाकलितस्तेन निन्ये / __ निहितदशनवाससा कपोले विषमवितीर्णपदं बलादिवान्या 21 अनुवनमसितभ्र वः सखीभिः सह पदवीमपरः पुरोगतायाः / उरसि सरसरागपादलेखा प्रतिमतयानुययावसंशयानः // 22 // मदनरसमहौघपूर्णनाभी ह्रदपरिवाहितरोमराजयस्ताः / सरित इव सविभ्रमप्रयात प्रणदितहंसकभूषणा विरेजुः // 23 / / श्रुतिपथमधुराणि सारसाना मनुनदि शुश्रुविरे रुतानि ताभिः / विदधति जनतामनःशरव्य व्यधपटुमन्मथचापनादशङ्काम् // 24 / / मधुमथनवधूरिवाह्वयन्ति भ्रम रकुलानि जगुर्यदुत्सुकानि / तदभिनयमिवावलिर्वनाना मतनुत. नूतनपल्लवाङ्गुलीभिः / / 25 / / प्रसकलकलिकाकुलीकृता लिस्खलनविकीर्णविकासिकेशराणाम् / मरुदवनिरुहां रजो वधूभ्यः . समुपहरन् विचकार कोरकाणि // 26 // उपवनपवनानुपातदक्षैर लिभिरलाभि यदङ्गनाजनस्य / 25 . परिमलविषयस्तदुन्नताना मनुगमने खलु सम्पदोऽग्रतःस्थाः / / 27 / / Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 ] ( काव्यषट्कं रथचरणधराङ्गनाकराब्ज व्यतिकरसम्पदुपात्तसौमनस्याः। जगति सुमनसस्तदादि नूनं दघति परिस्फुटमर्थतोऽभिधानम् // 28 // अभिमुखपतितैर्गुणप्रकर्षा दवजितमुद्धतिमुज्ज्वलां दधानः / तरुकिसलयजालमग्रहस्तैः प्रसभमनीयत भङ्गमङ्गनानाम् // 26 // मुदितमधुभुजो भुजेन शाखा- . श्चलितविशृङ्खलशङ्खकं धुवत्याः / तरुरतिशयितापराङ्गनायाः शिरसि मुदेव मुमोच पुष्पवर्षम् // 30 // अनवरतरसेन रागभाजा कर-, जपरिक्षतिलब्धसंस्तवेन / सपदि तरुणपल्लवेन वध्वा विगतदयं खलु खण्डितेन मम्ले / / 31 // प्रियमभि कुमुमोद्यतस्य बाहो नवनखमण्डनचारु मूलमन्या / मुहुरितरकराहितेन पीनस्त नतटरोधि तिरोदधेऽशुकेन // 32 / / विततवलिविभाव्यपाण्डुलेखा कृतपरभागविलीन रोमराजिः / कृशमपि कृशतां पुनर्नयन्ती विपुलतरोन्मुखलोचनावलग्नम् / / 33 / / 25 प्रसकलकुचबन्धुरोधुरोरःप्रसभविभिन्नतनूत्तरीयबन्धा / अवनमदुदरोच्छ्वसदुकूलस्फुटतरलक्ष्यगभीरनाभिमूला।३४। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 456 व्यवहितमविजानती किलान्त__ णभुवि वल्लभमाभिमुख्यभाजम् / अधिविटपि सलीलमग्रपुष्प ग्रहणपदेन चिरं विलम्ब्य काचित् // 35 / / मथ किल कथिते सखीभिरत्र क्षणमपरेव ससम्भ्रमा भवन्ती / शिथिलितकुसुमाकुलाग्रपाणिः . प्रतिपदसंयमितांशुकावृताङ्गी // 36 // कृतभयपरितोषसन्निपातं सचकितसस्मितवक्त्रवारिजश्रीः / मनसिजगुरुतत्क्षणोपदिष्टं - किमपि रसेन रसान्तरं भजन्ती // 37 / / अवनतवदनेन्दुरिच्छतीव व्यवधिमधीरतया यदस्थितास्मै / अहंरत सुतरामतोऽस्य चेतः ... स्फुटमभिभूषयति स्त्रियस्त्रपैव // 38 // किसलयशकलेष्ववाचनीयाः पुल किनि केवलमङ्गके निधेयाः / नखपदलिपयोऽपि दीपितार्थाः प्रणिदधिरे दयितैरनङ्गलेखाः / / 39 / / कृतकृतकरुषा सखीमपास्य / - त्वमकुशलेति कयाचिदात्मनैव / अभिमतमभि साभिलाषमाविष्कृत भुजमूलमबन्धि मूनि माला / / 40 / / अभिमुखमुपयाति मा स्म किंञ्चि त्वमभिदधाः पटले मधुव्रतानाम् / . Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 ] . [ काव्यषट्कं मधुसुरभिमुखाब्जगन्धलब्धे रधिकमधित्वदनेन मा निपाति // 41 / / सरजसमकरन्दनिर्भरासु प्रसवविभूतिषु भूरुहां विरक्तः / ध्रुवममृतपनामवाञ्छयासा ___वधरममु मधुपस्तवाजिहीते / / 42 / / . इति वदति सखीजने निमीलद् द्विगुणितसान्द्रतराक्षिपक्ष्ममाला / अपतदलिभयेन भर्तुरङ्क भवति हि विक्लवता गुणोऽङ्गनानाम् / / 43 // मुखकमलकनुन्नमय्य यूना यवभिनवोढवधूर्बलादचुम्बि / तदपि न किल. बालपल्लवान ग्रहपरया विविदे विदग्धसख्या / / 44 / / 15 व्रततिविततिभिस्तिरोहितायां प्रतियुवतों वदनं प्रियःप्रियायाः। यदधयदधरावलोपनृत्यत्करवलस्वनितेन तद्विववे / / 45 / / विलसितमनुकुर्वती पुरस्ता दरणिरुहाधिरहो वधूलतायाः / रमणमृजुतया पुरः सखोना मकलितचापलदोषमालिलिङ्ग // 46 / / सललितमवलम्ब्य पाणिनांसे ___ सहचरमुच्छ्रितगुच्छवाञ्छयाऽन्या / . सकलकलभकुम्भविभ्रमाभ्या मुरसि रसादवतस्तरे स्तनाभ्याम् // 47 // 25 मृदुचरणतलाग्रदुःस्थितत्वा दसहतरा कुचकुम्भयोर्भरस्य / Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तमः सर्गः ] * उपरि निरवलम्बनं प्रियस्य न्यपतदथोच्चतरो चिचीषयाऽन्या // 48 / / उपरिजतरुजानि याचमानां कुशलतया परिरम्भलोलुपोऽन्यः / प्रथितपृथुपयोधरां गृहाण स्वयमिति मुग्धवधूमुदास दोभ्या॑म् / / 46 / / इदमिदमिति भूरुहां प्रसून मुहुरतिलोभयता पुरः पुरोऽन्या / अनुरहसमनायि नायकेन त्वर यति रन्तुमहो जनं मनोभूः // 50 / / विजनमिति बलादमुं गृहीत्वा क्षणमथ वीक्ष्य विपक्षमन्तिकेऽन्या / अभिपतितुमना लघुत्वभीते रभवदमुञ्चति वल्लभेऽतिगुर्वी // 51 // अधिरजनि जगाम धाम तस्याः - प्रियतमयेति रुषा सजावनद्धः / पदमपि चलितुं युवा न सेहे किमिव न शक्तिहरं ससाध्वसानाम् / / 52 / / न खलु वयममुष्य दानयोग्याः पिबति च पाति च यासको हरस्त्वाम् / व्रज विटपममुं ददस्व तस्यै . भवतु यतः सदृशोश्चिराय योगः / / 53 / / तव कितव किमाहितैर्वथा नः - क्षितिरुहपल्लवपुष्पकर्णपूरैः / . ननु जनविदितैर्भवद्वयली कैश्चिरपरिपूरितमेव कर्णयुग्मम् / / 54 / / * 25 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 ] [ काव्यषट्कं मुहुरुपहसितामिवालिनादै वितरसि नः कलिकां किमर्थमेनाम् / वसतिमुपगतेन धाम्नि तस्याः शठ कलिरेष महांस्त्वयाद्य दत्तः / / 55 / / इति गदितवती रुषा जघान स्फुरितमनोरममक्ष्मकेशरेण / . . श्रवरणनियमितेन कान्तमन्या ____सममसिताम्बुरुहेण चक्षुषी च // 56 / / विनयति सुदृशो दृशः परागं प्रणयिनि कौसुममाननानिलेन / तदहितयुवतेरभीक्षणमक्ष्णो द्वयमपि रोषरजोभिरापुपूरे // 57 / / स्फुटमिदमभिचारमन्त्र एव प्रतियुवतेरभिधानमङ्गनानाम् / . वरतनुरमुनोपहूय पत्या मृदुकुसुमेन यदाहताप्यमूर्च्छत् // 58 / / समदनमवतंसितेऽधिकणं प्रणयवता कुसुमे सुमध्यमायाः / व्रजदपि लघुतां बभूव भारः सपदि हिरण्मयमण्डनं सपल्याः / / 56 / / अवजितमधुना तवाहमक्ष्णो रुचिरतयेत्यवनम्य लज्जयेव / . श्रवणकुवलयं विलासवत्या भ्रमररुतैरुपकर्णमाचचक्षे // 6 // अवचितकुसुमा विहाय वल्ली युवतिषु कोमलमाल्यमालिनीषु / 25 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 463 . पदमुपदधिरे कुलान्यलीनां न परिचयो मलिनात्मनां प्रधानम् / / 61 / / श्लथशिरसिजपाशपातभारा दिव नितरां नतिमद्भिरसभागैः / मुकुलितनयनैर्मुखारविन्दै र्घनमहतीमिव पक्ष्मणां भरेण // 62 // अधिकमरुणिमानमुद्वद्भि विकसदशीतमरीचिरश्मिजालैः / परिचितपरिचुम्बनाभियोगा दपगतकुङ्कुमरेणुभिः कपोलैः / / 63 / / अवसितललितक्रियेण बाह्वो ललिततरेण तनीयसा युगेन / सरसकिसलयानुरञ्जितैर्वा करकमलैः पुनरुक्तरक्तभाभिः / / 64 / / स्मरसरसमुरःस्थलेन पत्यु. विनिमयसंक्रमिताङ्गरागरागैः / भृशमतिशयखेदसम्पदेव ___ स्तनयुगलैरितरेतरं निषण्णैः // 65 // अतनुकुचभरागतेन भूयः श्रमजनितानतिना शरीरकेण / 20 अनुचितगतिसादनिःसहत्वं कलभकरोरूरुभिर्दधानः / / 66 / / अपगतनवयावकैश्चिराय ___ क्षतिगमनेन पुनवितीर्णरागैः / कथमपि चरणोत्पलैश्चलद्भि भृशविनिवेशवशात्परस्परस्य // 67 / / . 25. मुहुरिति वनविभ्रमाभिषङ्गा दतमि तदा नितरां नितम्बिनीभिः / Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 ] [ काव्यषट्कं मृदुतरतनवोऽलसा प्रकृत्या चिरमपि ताः किमुत प्रयासभाजः / / 68 / / प्रथममलघुमौक्तिकाभमासी च्छमजलमुज्ज्वलगण्डमण्डलेषु / कठिनकुचतटाग्रपाति पश्चा दथ शतशर्करतां जगाम तासाम् / / 66 / / विपुलकमपि यौवनोद्धतानां घनपुलकोदयकोमलं चकाशे / परमलितमपि प्रियः प्रकामं कुचयुगमुज्ज्वमेव का कामिनीनाम् / / 70 / / अविरतकुसुमावचायखेदा ____ निहितभुजालतयैकयोपकण्ठम् / विपुलतरनिन्तरावलग्नस्त नपिहितप्रियवक्षसा ललम्बे // 71 / / अभिमतमभितः कृताङ्गभङ्गा कुचयुगमुन्नतिवित्तमुन्नमय्य / तनुरभिलषतं क्लमच्लेन व्यवृणुत वेल्लितबाहुवल्लरीका / / 72 / / हिमलवसदृशः श्रमोदबिन्दूनपनयता किल नूतनोढवध्वाः / 20 कुचकलशकिशोरको कथञ्चित्तरलयता तरुणेन पस्पृशाते / 73 / गत्वोद्रेकं जघनपुलिने रुद्धमध्यप्रदेशः क्रामन्नूरुद्रुमभुजलताः पूर्णनाभीहृदान्तः / उल्लङ्घयोच्चैःकुचतटभुवं प्लावयन् रोमकूपान् स्वेदापूरो युवतिसरितां व्याप गण्डस्थलानि / 74 / (मदाक्रान्ता) Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 465 प्रियकरपरिमार्गादङ्गनानां यदाभूत पुनरधिकतरैव स्वेदतोयोदयश्रीः / अथ वपुरभिषेक्तु तास्तदाम्भोभिरीषु वनविहरणखेदम्लानमम्लानशोभाः // 75 / / 5 // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के वनविहारो नाम सप्तमः सर्गः / / 7 / / // 8 // अष्टमः सर्गः॥ ( प्रहर्षिणीवृत्तम् ) प्रायासादलघुतरस्तनैः स्वद्भिः श्रान्तानामविकचलोचनारविन्दैः / अभ्यम्भः कथमपि योषितां समूहैस्तैरुर्वीनिहितचलपदं प्रचेले // 1 / / यान्तीनां सममसितभ्रुवां नत त्वादंसानां महति नितान्तमन्तरेऽपि / संसक्तैविपुलतया मिथो नितम्बैः सम्बाध बृहदपि तद्बभूव वर्त्म // 2 // नीरन्ध्रद्रुमशिशिरां भुवं वजन्तीः साशङ्क मुहुरिव कौतुकात्करैस्ताः / पस्पर्श क्षणमनिलाकुलीकृतानां शाखानामतुहिन रश्मिरन्तरालैः // 3 / / एकस्यास्तपनकरैः करालिताया .. बिभ्राणः सपदि सितोष्णवारणत्वम् / - सेवायै वदनसरोजनिजितश्री रागत्य प्रियमिव चन्द्रमाश्चकार / / 4 / / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 . [ काव्यषट्कं स्वं रागादुपरि वितन्वतोत्तरीयं कान्तेन प्रतिपदवारितातपायाः / सच्छत्रादपरविलासिनीसमूहा- . च्छायासीदधिकतरा तदापरस्याः // 5 // संस्पर्शप्रभवसुखोपचीयमाने सर्वाङ्ग करतललग्नवल्लभायाः / कौशेयं व्रजदपि गाढतामजस्र सस्र से विगलितनीवि नीरजाक्ष्याः / / 6 / / गच्छन्तीरलसमवेक्ष्य विस्मयिन्य स्तास्तन्वीन विदधिरे गतानि हस्यः / बुद्ध्वा वा जितमपरेण काममा विष्कुर्वीत स्वगुणमपत्रपः क एव / / 7 / / श्रीमद्भिर्जितपुलिनानि माधवी नामारोहैनिबिडबृहन्नितम्बबिम्बैः / पाषाणस्खलनविलोलमाशु नूनं वैलक्ष्याद्ययुरवरोधनानि सिन्धोः // 8 // मुक्ताभिः सलिलरयास्तशुक्ति पेशीमुक्ताभिः कृतरुचि सैकतं नदीनाम् / स्त्रीलोक: परिकलयाञ्चकार तुल्यं __ पल्यङ्क विगलितहारचारुभिः स्वैः ||6|| आघ्राय श्रमजमनिन्द्यगन्धबन्धु निश्वासश्वसनमसक्तमङ्गनानाम् / आरण्याः सुमनस ईषिरे न भृङ्ग रौचित्यं गणयति को विशेषकामः / / 10 / / आयान्त्यां निजयुवतौ वना त्सशङ्क बर्हाणामपरशिखण्डिनीं भरेण / 25 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 467 पालोक्य व्यवदधतं पुरो मयूर ___ कामिन्यः श्रदधुरनार्जवं नरेषु // 11 // पालापस्तुलितरवाणि माधवीनां ___ माधुर्यादमलपतत्रिणां कुलानि / अन्तर्धामुपययुरुत्पलावलीषु प्रादुःष्यात्क इव जितः पुरः परेण // 12 // मुग्धायाः स्मरललितेषु चक्रवाक्या नि:शङ्क दयिततमेन चुम्बितायाः / प्राणेशानभि विदधुविधूतहस्ताः ___ सीत्कारं समुचितमुत्तरं तरुण्य: / / 13 / / उत्क्षिप्तस्फुटितसरोरुहार्घ्यमुच्चैः . सस्नेहं विहगरुतैरिवालपन्ती। नारीणामथ सरसी सफेनहासा प्रीत्येव व्यतनुत पाद्यमूमिहस्तैः // 14 / / नित्याया निजवसतेनिरासिरे यद्रागेण श्रियमरविन्दतः कराग्रैः / व्यक्तत्वं नियतमनेन निन्युरस्याः सापत्न्यं क्षितिसुतविद्विषो महिष्यः / / 15 / / पास्कन्दन् कथमपि योषितो न यावद्भीमत्यः प्रियकरधार्यमाणहस्ताः / प्रौत्सुक्यात्त्वरितममूस्तदम्बु ताव संक्रान्तप्रतिमतया दधाविवान्तः / / 16 / / ताः पूर्व सचकितमागमय्य गाधं कृत्वाथो मदु पदमन्तराविशन्त्यः / कामिन्यो मन इव कामिनः सरागैरङ्गस्तज्जलमनुरजयांबभूवुः / / 17 / / . 25 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 ] [ काव्यषट्कं संक्षोभं पयसि मुहुर्मुहेभकुम्भ- . श्रीभाजा कुचयुगलेन नीयमाने / विश्लेषं युगमगमद्रथाङ्गनाम्नो रुद्वृत्तः क इव सुखावहः परेषाम् / / 18 / / आसीना तटभुवि सस्मितेन भर्ना ____ रम्भोरूरवतरितुं सरस्यनिच्छुः / धुन्वाना करयुगमीक्षितुं विला साञ्शीतालुः सलिलगतेन सिच्यते स्म / / 16 / / नेच्छन्ती समममुना सरोऽवगाढुं रोधस्तः प्रतिजलमीरिता सखीभिः / प्राश्लिश्यद्भयचकितेक्षणं नवोढा वोढारं विपदि न दूषितातिभूमिः / / 20 / / तिष्ठन्तं पयसि पुमांसमंसमात्रे तद्दघ्नं तदवयती किलात्मनोऽपि / अभ्येतुं सुतनुरभीरियेष मौग्ध्या दाश्लेषि द्रुतममुना निमज्जतीति / / 21 / / पानाभेः सरसि नतध्रुवावगाढे चापल्यादथ पयसस्तरङ्गहस्तैः। उच्छायिस्तनयुगमध्यरोहि लब्ध स्पर्शानां भवति कुतोऽथवा व्यवस्था / / 22 // कान्तानां कुवलयमप्यपास्त मक्ष्णोः शोभाभिर्न मुखरुचाहमेकमेव / संहर्षादलिविरुतरितीव गाय ल्लोलोमो पयसि महोत्पलं. ननर्त / / 23 / / त्रस्यन्ती चलशफरीविघट्टि तोरुर्वामोरूरतिशयमाप विभ्रमस्य / 15 25 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 469 . क्षुभ्यन्ति प्रसभमहो विनापि हेतो लीलाभिः किमु सति कारणे रमण्यः / / 24 / / प्राकृष्टप्रतनुवपुलतैस्तद्भि स्तस्याम्भस्तदथ सरोमहार्णवस्य / अक्षोभि प्रसृतविलोलबाहुपक्ष ___ोषाणामुरुभिरुरोजगण्डशैलैः // 25 / / गाम्भीयं दधदपि रन्तुमङ्गनाभिः संक्षोभं जघनविघटनेन नीतः / अम्भोधिविकसितवारिजाननोऽसौ मर्यादां सपदि विलङ्घयाम्बभूव / / 26 / / प्रादातुं दयितमिवावगाढमा "रादूर्मीणां ततिभिरभिप्रसार्यमाणः / कस्याश्चिद्विततचलच्छिखाङ्गुलीको लक्ष्मीवान् सरसि रराज केशहस्तः / / 27 / / उन्निद्रप्रियकमनोरमं रमण्याः - संरेजे सरसि वपुः प्रकाशमेव / युक्तानां विमलतया तिरस्क्रियायै नाक्रामन्नपि हि भवत्यलं जलौघः / / 28 / / किं तावत्सरसिं सरोजमेतदारा दाहोस्विन्मुखमवभासते युवत्याः / संशय्य क्षणमिति निश्चिकाय कश्चिद्विव्वोकैर्बकसहवासिनां परोक्षैः / / 26 / / शृङ्गाणि द्रुतकनकोज्ज्वलानि गन्धाः कौसुम्भं पृथुकुचकुम्भसङ्गिवासः / * 25 . मार्दीकं प्रियतमसन्निधानमासन्ना रीणामिति जलकेलिसाधनानि // 30 / / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 / . ( काव्यषट्कं या उत्तङ्गादनिलचलांशुकास्तटान्ता- . __च्चेतोभिः सह भयदर्शिनां प्रियाणाम् / श्रोणीभिर्गुरुभिरतूर्णमुत्पतन्त्य स्तोयेषु द्रुततरमङ्गना निपेतुः // 31 // मुग्धत्वादविदितकैतवप्रयोगा गच्छन्त्यः सपदि पराजयं तरुण्यः / . ताः कान्तैः सह करपुष्करेरिताम्बु व्यात्युक्षीमभिसरणग्लहामदीव्यन् // 32 // योग्यस्य त्रिनयनलोचनानलाचि-. निर्दग्धस्मरपृतनाधिराज्यलक्ष्म्याः / कान्तायाः करकलशोद्यतैः पयोभि वक्त्रेन्दोरकृत महाभिषेकमेक: / / 33 / / सिञ्चन्त्याः कथमपि बाहुमुन्नमय्य प्रेयांसं मनसिजदुःखदुर्बलायाः / सौवर्णं वलयमवागलत्कराग्रा लावण्य श्रिय इव शेषमङ्गनायाः / / 34 / / स्निह्यन्ती देशमपरा निधाय पूर्ण / मूर्तेन प्रणयरसेन वारिणेव / कन्दर्पप्रवणमनाः सखीसिसिक्षा ____लक्ष्येण प्रतियुवमञ्जलिं चकार / / 35 // आनन्दं दधति मुखे करोदकेन श्यामाया दयिततमेन सिच्यमाने / ईर्ण्यन्त्या वदनमसिक्तमप्यनल्प स्वेदाम्बुस्नपितमजायतेतरस्याः / / 36 / / उद्वीक्ष्य प्रियकरकुडमलापविद्ध- . वक्षोजद्वयमभिषिक्तमन्यनार्याः / 25 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 471 अम्भोभिर्मुहुरसिचद्वधरमर्षा दात्मीयं पृथुतरनेत्रयुग्ममुक्तैः // 37 / / कुर्वद्भिर्मुखरुचिमुज्ज्वलामजस्र यस्तोयैरसिचत वल्लभां विलासी। तैरेव प्रतियुवतेरकारि दूरात कालुष्यं शशधरदीधितिच्छटाच्छैः / / 38 / / रागान्धीकृतनयनेन नामधेय व्यत्यासादभिमुखमीरितः प्रियेण / मानिन्या वपुषि पतन्निसर्गमन्दो भिन्दानो हृदयमसाहि नोदवज्रः / / 36 / / प्रेम्णोरः प्रणयिनि सिञ्चति प्रियायाः संतापं नवजलविद्युषो गृहीत्वा / उद्धृताः कठिनकुचस्थलाभिघाता दासन्नां भृशमपराङ्गनामधाक्षुः // 40 / / संक्रान्तं प्रियतमवक्षसोऽङ्गरागं साध्वस्याः सरसि हरिष्यतेऽधुनाम्भः / / तुष्ट्वैवं सपदि हृतेऽपि तत्र तेपे कस्याश्चित्स्फुटनखलक्ष्मणः सपत्न्या / / 41 / / हुतायाः प्रतिसखिकामिनान्यनाम्ना ह्रीमत्याः सरसि गलन्मुखेन्दुकान्तेः / अन्तधि द्रुतमिव कर्तु मश्रुवर्षे मानं गमयितुमीषिरे पयांसि // 42 // सिक्तायाः क्षणमभिषिच्य पूर्व . मन्यामन्यस्याः प्रणयवता बताबलायाः / * 25 / कालिम्ना समधित. मन्युरेव वक्त्रं प्रापापोर्गलदपशब्दमञ्जनाम्भः // 43 / / // 40 // Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 ] [ काव्यषट्कं उद्वोढुं कनकविभूषणान्यशक्तः / सध्रीचा वलयितपद्मनालसूत्रः / प्रारूढ प्रतिवनिताकटाक्षभारः साधोयो गुरूरभवद्भुजस्तरुण्या: // 44 / / आबद्धप्रचुरपराय॑किंकिणीको रामाणामनवरतोदगाहभाजाम्। नारावं व्यतनुत मेखलाकलापः कस्मिन्वा सजलगुणे गिरां पटुत्वम् / / 45 / / पर्यच्छे सरसि हृतेऽशुके पयोभिर्लोलाक्षे सुरतगुरावपत्रपिष्णोः / सुश्रोण्या दलवसनेन वीचिहस्त __ न्यस्तेन द्रुतमकृताब्जिनी सखीत्वम् / / 46 / / नारीभिर्गुरुजघनस्थलाहताना मास्यश्रीविजितविकासिवारिजानाम् / लोलत्वादपहस्तां तदङ्गरागं सञ्जज्ञे स कलुष प्राशयो जलानाम् / / 47 / / सौगन्ध्यं दधदपि काममङ्गनानां दूरत्वाद्गतमहमाननोपमानम् / नेदीयो जितमिति लज्जयेव तासा मालोले पयसि महोत्पलं ममज्ज / / 48 / / प्रभ्रष्टैः सरभसमम्भसोऽवगाह ___ क्रीडाभिर्विदलितयूथिकापिशङ्गः / प्राकल्पैः सरसि हिरण्मयैर्वधना मौर्वाग्निधुतिशकलैरिव व्यराजि // 49 / / पास्माकी युवतिषामसौ तनोति च्छायेव श्रियमानपायिनी किमेभिः / 25 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ) [ 473 मत्वैवं स्वगुणपिधानसाम्यसूर्यः पानीयरिति विदधाविरेऽजनानि / 50 / / निधौते सति हरिचन्दने जलौघ रापाण्डोर्गतपरभागयाङ्गनायाः / प्रहाय स्तनकलशद्वयादुपेये विच्छेदः सहृदययेव हारयष्टया // 51 / / प्रन्यून गुणममृतस्य धारयन्ती सम्फुल्लस्फुरितसरोरुहावतंसा। प्रेयोभिः सह सरसी निषेव्यमाणा / रक्तत्व व्यधित वधूदृशां सुरा च // 52 / / स्नान्तीनां बृहदमलोदबन्दुचित्री ___ रेजाते रुचिरदृशामुरोजकुम्भौ / हाराणां मणिभिरुपाश्रितो . समन्तादुत्सूत्रगुणवेदुपघ्नकाम्ययेव / / 53 / / प्रारूढः पतित इति स्वसम्भवोऽपि स्वच्छानां परिहरणीयतामुपैति / कर्णेभ्यश्च्युतमसितोत्पलं वधूनां वीचीभिस्तटमनु यन्निरासुरापः // 54 / / दन्तानामधरमयावक पदानि / ___ प्रत्यग्रास्तनुमविलेपना नखाङ्काः / पानिन्युः श्रियमधितोयमङ्गनानां शोभायै विपदि सदाश्रिता भवन्ति // 55 / / कस्याश्चिन्मुखमनु धौतपत्रलेख व्यातेने सलिलभरावलम्बिनीभिः / किजल्कव्यतिकरपिञ्जरान्त राभिश्चित्रश्रीरलमलकामवल्लरीभिः // 56 // Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 [ काव्यषट्कं 5 वक्षोभ्यो घनमनुलेपनं यदूना मुत्तं सानहरत वारि मूर्धजेभ्यः / नेत्राणां मदरुचिरक्षतैव तस्थौ चक्षुष्यः खलु महतां परैरलङ्घयः / / 57 / / यो बाह्यः स. खलु जलनिरासि .. रागो यश्चित्ते स तु तदवस्थ एव तेषाम् / धोराणां व्रजतिं हि सर्व एव नान्तः पातित्वादभिभवनीयतां परस्य / / 58 / / फेनानामुरसिरहेषु हारलीला . चैलश्रीर्जघनतलेषु शैवलानाम् / गण्डेषु स्फुटरचनाब्जपत्त्रवल्ली पर्याप्तं पयसि विभूषणं वधूनाम् / / 56 // भ्रश्याद्भिर्जलमभि भूषणैर्वधूना मङ्गेभ्यो गुरुभिरमज्जि लज्जयेव / निर्माल्यरथ ननृतेऽवधीरिताना मप्युच्चैर्भवति लघीयसां हि धाष्टयं म् / / 60 / / आमृष्टास्तिलकरुचः सजो निरस्ता नीरक्तं वसनमपाकृतोऽङ्गरागः / कामः स्त्रीरनुशयवानिव स्वपक्ष . व्याघातादिति सुतरां चकार चारू: / / 61 / / शीताति बलवदुपेयुषेव नीरे रासेकाच्छिशिरसमीरकम्पितेन / रामाणामभिनवयौवनोष्म भाजोराश्लेषि स्तनतटयोर्नवांशुकेन / / 62 / / श्च्योतिद्भिःसमधिकमात्तभङ्ग ..: सङ्गाल्लावण्यं तनुमदिवाम्बु वाससोऽन्तैः / . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 475 / उत्तरे तरलतरङ्गरङ्गलीला निष्णातैरथ सरसः प्रियासमूहैः // 63 / / दिव्यानामपि कृतविस्मयां पुरस्ता दम्भस्तः स्फुरदरविन्दचारुहस्ताम् / उद्वीक्ष्य श्रियमिव काञ्चिदुत्तरन्ती मस्मार्षीज्जलनिधिमन्थनस्य शौरिः // 64 / / श्लक्ष्णं यत्परिहितमेतयोः किलान्त र्धानार्थं तदुदकसेकसक्तमूरू: / नारीणां विमलतरौ समुल्लसन्त्या ___ भासाऽन्तदधतुरुरू * दुकूलमेव // 65 / / वासांसि न्यवसत यानि योषितस्ताः ___ शुभ्राभ्रद्युतिभिरहासि तैम देव / अत्याक्षुः स्नपनगलज्जलानि, यानि स्थूलाश्रुघ्र तिभिररोदि तैः शुचेव / / 66 / / आर्द्रत्वादतिशयिनीमुपेयिवद्भिः संसक्ति भृशमपि भूरिशोऽवधूतैः / अङ्गेभ्यः कथमपि वामलोचनानां विश्लेषो बत नवरक्तकैः प्रपेदे / / 67 / / प्रत्यंसं विलुलितमूर्धजा चिराय . स्नानार्द्र वपुरुदवापयत् किलैका। नाजानादभिमतमन्तिकेऽभिवीक्ष्य स्वेदाम्बुद्रवमभवत्तरां पुनस्तत् // 68 / / सीमन्तं निजमनुबध्नती कराभ्या मालक्ष्यस्तनतटबाहुमूलभागा / भान्या मुहुरभिलष्यया निदध्ये नैवाहो विरमति कौतुकं प्रियेभ्यः / / 66 / / 25 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 ] [ काव्यषट्कं स्वच्छाम्भःस्नपनविधौतमङ्ग मोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो विलासिनीनाम् / वासश्च प्रतनु विविक्तमस्त्वितीयाना ____कल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्य: / / 70 / / इति धौतपुरन्ध्रिमत्सरान्सरसि मज्जनेन श्रियमाप्तवताऽतिशायिनीमपमलाङ्गभासः / अवलोक्य तदैव यांदवानपवारिराशेः / शिशिरेतररोचिषाप्यपां ततिषु मङ्क्तुमीषे / 71 / (प्रतिशायिनी) 1. // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के जल विहारवर्णनं नामाष्टमोः सर्गः / / 8 / / // 9 // नवमः सर्गः॥ (प्रमितक्षरावृत्तम् ) अभितापसंपदमथोष्णरुचिनिजतेजसामसहमान इव / 15 पयसि प्रपित्सुरपराम्बुनिधेरधिरोढुमस्तगिरिमभ्यपतत् / / 1 / / गतया पुरः प्रतिगवाक्षमुखं दधती रतेन भृशमुत्सुकताम् / मुहुरन्तरालभुवमस्तगिरेः सवितुश्च योषिदमिमीत दृशा / / 2 / / विरलातपच्छविरनुष्णवपुः परितो विपाण्डु दधदभ्रशिरः / अभवद् गदतः परिणति शिथिलः परिमन्दसूर्यनयनो दिवसः // 3 // अपराह्णशीतलतरेण शनै रनिलेन लोलितलतांगुलये। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 477 .. निलयाय शाखिन इवाह्वयते ददुराकुलाः खगकुलानि गिरः // 4 // उपसंध्यमास्त तनु सानुमतः शिखरेषु तत्क्षणमशीतरुचः / करजालमस्तसमयेऽपि सता मुचितं खलूच्चतरमेव पदम् // 5 / / प्रतिकूलतामुपगते हि . विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता। अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्रमपि / / 6 / / नवकुङकुमारुणपयोधरया ___स्वकरावसक्तरुचिराम्बरया। अतिसक्तिमेत्य वरुणस्य दिशा भृशमन्वरज्यदतुषारकरः // 7 // गतवत्यराजत जपाकुसुम स्तबकद्युतौ दिनकरेऽवनतिम् / बहलानुरागकुरुविन्ददल प्रतिबद्धमध्यमिव दिग्वलयम् / / 8 / / द्रुतशातकुम्भनिभमंशुमतो वपुरर्धमग्नवपुषः पयसि / रुरुचे विरिञ्चिनखभिन्नबृह ज्जगदण्डककतरखण्डमिव // 6 // अनुरागवन्तमपि लोचनयो र्दघतं वपुः सुखमतापकरम् / / 25 . निरकासयद्रविमपेतवसं वियदालयादपरदिग्गणिका // 10 // Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 ] [ काव्यषट्कं अभितिग्मरश्मि चिरमाविरमा .: दवघादखिन्नमनिमेषतया / विगलन्मधुव्रतकुलाध्रुजलं न्यमिमीलदब्जनयनं नलिनी / / 11 / / .. अविभाव्यतारकमदृष्टहिम द्युतिबिम्बमस्तमितभानु नभः / अवसन्नतापमतमित्रमभाद पदोषतैव विगुणस्य गुणः / / 12 / / रुचिधाम्नि भर्तरि भृशं विमलाः परलोकमभ्युपगते विविशुः / ज्वलनं त्विषः कथमिवेतरथा सुलभोऽन्यजन्मनि स एव पतिः // 13 / / विहिताञ्जलिर्जनतया दधती विकसत्कुसुमारुणताम् / चिरमुज्झितापि तनुरोज्झदसौ न पितृप्रसूः प्रकृतिमात्मभुवः // 14 / / अथ सान्द्रसान्ध्यकिरणारुणितं / हरिहेतिहूति मिथुनं पततोः। - पृथगुत्पपात विरहातिदलद् धृदयस्र तासृगनुलिप्तमिव // 15 / / निलयः श्रियः सततमेतदिति प्रथितं यदेव जलजन्म तथा / दिवसात्ययेत दपि मुक्तमहो। चपलाजनं प्रति न चोद्यमदः // 16 / / दिवसोऽनुमित्रमगमद्विलयं. किमिहास्यते बत मयाबलया। 25 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 476 * रुचिभर्तुरस्य विरहागमादिति सन्ध्ययापि सपदि व्यगमि // 17 // पतिते पतङ्गमृगराजि निज प्रतिबिम्बरोषित इवाम्बुनिधौ। अथ नागयूथमलिनानि जगत् परितस्तमांसि परितस्तरिरे // 18 / / व्यसरन्नु भूधरगुहान्तरतः पटलं बहिर्बहलपङ्करुचि / दिवसावसानपटुनस्तमसो बहि१० . रेत्य चाधिकमभक्तः गुहाः / / 16 / / किमलम्बताम्बरविलग्ननमधः किमवर्धतोर्ध्वमवनीतलतः / विससार तिर्यगथ दिग्भ्य इति प्रचुरीभवन निरधारि तमः / / 20 / / स्थगिताम्बरक्षितितले परि. - तस्तिमिरे जनस्य दृशमन्धयति / दघिरे रसाञ्जनमपूर्वमतः प्रियवेश्मवम सुदृशो ददृशुः // 21 / / अवधार्य कार्यगुरुतामभवन्न - भयाय सान्द्रतमसन्तमसम् / सूतनोः स्तनौ च दयितोपगमे . . तनुरोमराजिपथवेपथवे // 22 / / ददृशेऽपि भास्कररुचाह्नि न यः . स तमी तमोभिरभिगम्य तताम् / - 25 . द्युतिमग्रहीद्ग्रहगणो लघवः प्रकटीभवन्ति मलिनाश्रयतः / / 23 / / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 ] [ काव्यषट्कं अनुलेपनानि कुसुमान्यबलाः कृतमन्यवः पतिषु दीपशिखाः / समयेन तेन चिरसुप्तमनो भवबोधनं सममबोधिषत // 24 / / वसुधान्तनिःसृतमिवाहिपतेः पटल फणामणिसहस्ररुचाम् / स्फुरदंशुजालमथ शीर्तरुचः ककुभं समस्कुरुत माघवनीम् // 25 / / विशदप्रभापरिगतं विबभा वुदयाचलव्यवहितेन्दुवपुः / मुखमप्रकाशदशनं शनकैः सविलासहासमिव शऋदिशः // 26 / / कलया तुषारकिरणस्य पुरः परिमन्दभिन्नतिमिरोघजटम् / क्षणमभ्यपद्यत . जनने मृषां गगनं गणाधिपतिमूर्तिरिति // 27 / / नवचन्द्रिकाकुसुमकीर्णतमः कबरीभतो मलयामिव / ददृशे ललाटतटहारि हरेह रितो मुखे तुहिनरश्मिदलम् // 28 / / प्रथमं कलाभवदथार्धमथो हिमदीधितिर्महदभूदुदितः / दधति ध्रुवं क्रमश एव न तु . द्युतिशालिनोऽपि सहसोपचयम् // 26 / / 25 उदमज्जि कैटभजितः शयनादपनिद्रापाण्डुरसरोजरुजा / प्रथमप्रबद्धनदराजसुतावदनेन्दुनेव तुहिनातिना // 30 // Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 481 अथ लक्ष्मणानुगुतकान्तवपुर्जलधि विलास शशिदाशरथिः। परिवारितः परित ऋक्षगणे- . स्तिमिसैघराक्षसकुलं बिभिदे // 31 / / उपजीवति स्म सततं दधतः परिमुग्धतां वरिणमिवोडुपतेः / घनबीथिवीथिमवतीर्णवतो. निधिरम्भसामुपचयाय कलाः // 32 / / रजनीमवाप्य रुचमाप शशी सपदि व्यभूषयदसावपि ताम् / अविलम्बितक्रममहो महता मितरेतरोपकृतिमच्चरितम् // 33 / / दिवसं भृशोष्णरुचितादहता रुदतीमिवानवरतालिरुतैः। मुहुरामृशन् मृगधरोऽप्रकरै . रुदशिश्वसत् कुमुदिनीवनिताम् // 34 // प्रतिकामिनीति ददृशुश्चकिताः स्मरजन्मधर्मपयसोपचिताम् / सुदृशोऽभिभर्तृ शशिरश्मिगल ___ जलबिन्दुमिन्दुमणिदारुवधूम् // 35 / / अमृतद्रवैर्विदधदब्जशामप - मार्गमोषधिपतिः स्म करैः / परितो विसपि परितापि भृशं . वपुषोऽवतारयति मानविषम् // 36 / / अमलात्मसु प्रतिफलन्नभितस् तरुणीकपोलकेषु मुहुः / Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 ) [ काव्यषट्कं विससार सान्द्रतरमिन्दुरुचा ____मधिकावभासितदिशां निकरः // 37 / / उपगूढवेलमलघूमिभुजैः सरितामचुक्षुभदधीशमपि। रजनीकरः किमिव चित्रमदो यदुरागिणां गणमनङ्गलघुम् // 38 / / भवनोदरेष परिमन्दतया शयितोऽलसः स्फटिकयष्टिरुचः / अवलम्ब्य जालकमुखोपगता नुदतिष्ठदिन्दुकिरणान्मदनः // 39 / / अविभावितेषुविषयः प्रथम मदनोऽपि नूनमभवत्तमसा / उदिते दिश: प्रकटयत्यमुना यदधर्मधाम्नि धनुराचकृषे // 40 / / युगपद्विकासमुदयाद्गमिते शशिनः शिलीमुखगणोऽलभत / द्रुतमेत्य पुष्पधनुषो धनुषः कुमुदेऽङ्गनामनसि चावसरम् // 41 / / ककुभां मुखानि सहसोज्ज्वलयन् दधदाकुलत्वमधिकं रतये / अदिदीपदिन्दुरपरो दहनः __ कुसुमेषुमत्रिनयनप्रभवः / / 42 // इति निश्चितप्रियतमागतयः सितदीधितावुदयवत्यबलाः। प्रतिकर्म कर्तुमुपचक्रमिरे समये हि सर्वमुपकारि कृतम् / / 43 / / 25 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [483 [ 483 // 45 // सममेकमेव दधतुः सुतनोरुरु हारभूषणमुरोजतटौ / घटते हि संहततया जनिता मिदमेव निर्विवरतां दधतोः // 44 // कदलीप्रकाण्डरुचिरोरुतरौ __ जघनस्थलीपरिसरे महति / / रशनाकलापकगुणेन वधूर मकरध्वजद्विरदमाकलयत् अधरेषुवलक्तकरसः सुदृशां विशदं कपोलभुवि लोध्ररजः / नवमञ्जनं नयनपङ्कजयोर् बिभिदे न शङ्कनिहितात्पयसः / / 46 / / स्फुरदुज्ज्वलाघरदलेर विलसद्दशनांशुकेशरभरैः परितः / धृतमुग्धागण्डफलकैविबभुर्. विकसद्भिरास्यकमलैः प्रमदाः // 47 / / भजते विदेशमधिकेन जित स्तदनुप्रवेशमथवा कुशलः / मुखमिन्दुरुज्ज्वलकपोलमतः प्रतिमाच्छलेन सुदृशामविशत् // 48 // ध्रुवमागताः प्रतिहति कठिने मदनेषवः कुचतटे महति / इतराङ्गवन्न यदिदं गरिमग्ल पितावलग्नममगत्तनुताम् न मनोरमास्वपि विशेषविदां निरचेष्ट योग्यमिदमेतदिति / // 49 // 25 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 ] [ काव्यषटकं गृहमेष्यति प्रियतमे सुदृशां - ____ वसनाङ्गरागसुमनःसु . मनः // 50 / / वपुरन्वलिप्त परिरम्भसुख व्यवधानभीरुकतया न वधूः / क्षममस्य बाढमिदमेव हि. यत्प्रियसंगमेश्वनवलेपमदः // 51 // निजपाणिपल्लवलिस्खलना ___दभिनासिकाविवरमुत्पतितः / अपरा परीक्ष्य निकै, मुदै . ___ मुखवासमास्यकमलश्वसनैः / / / 52 / / विधते दिवा सवयसा च पुरः - परिपूर्णमण्डलविकाशभृति / हिमधाम्नि दर्पणतले च मुहुः स्वमुखश्रियं भृगदृशोः ददृशुः // 53 / / अधिजानु बाहुमुपधाय नमत करपल्लवार्पितकपोलतलम् / उदकण्ठि कण्ठपरिवर्तिकल - स्वरशून्यगानपरयापरया // 54 / / प्रणयप्रकाशनविदोमधुराः ___ सुतरामभीष्टजनचित्तहृतः। प्रजिघाय कान्तमनुमुग्धतरस् तरुणीजनो दृश इवाथ सखी // 55 // न च मेऽवगच्छति यथा लघुतां करुणां यथा च कुरुते समय। निपुणं तर्थनमुपगम्य वदे रभिदूति काचिदिति संदिदिशे / / 56 // // 54 // 25 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 485 दयिताय मानपरयाऽपरया त्वरितं ययावगदितापि सखी। किमु नोदिता: प्रियाहितार्थकृतः कृतिनो भवन्ति सुहृदः सुहृदाम् / / 57 / / प्रतिभिद्य कान्तमपराधकृतं ___ यदि तावदस्य पुनरेव मया / क्रियतेऽनुवृत्तिरुचितैव ततः कलयेदमानमनसं संखि माम् // 58 / / अवधीर्य धैर्यकलिता दयितं विदधे विरोधमथ तेन सह / तव गोप्यते किमिव कर्तुं मिदं . न सहास्मि साहसमसाहसिकी / / 56 / / तदुपेत्य मा स्म तमुपालभथाः किल दोषमस्य न हि विद्म वयम् / . इति सम्प्रधार्य रमणाय वध विहितागसेऽपि विससर्ज सखीम् / / 60 / / ननु सन्दिशेति सुदृशोदितया त्रपया म किञ्चन किलाभिदधे / निजमैक्षि मन्दमनिशं निशितैः ऋशितं शरीरमशरीरशरैः / / 61 / / ब्रुवते स्म दूत्य उपसृत्य नरान् . नरवत्प्रगल्भमति गर्धगिरः / सुहृदर्थमीहितमजिह्मधियां प्रकृतेविराजति विरुद्धमपि // 62 / / 25 मम रूपकीतिमहरभृषि यस्तदनुप्रविष्टहृदयेयमिति / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 ] [ काव्यषट्कं त्वयि मत्सरादिव निरस्तदयः सुतरां क्षिणोति खलु तां मदनः / / 63 / / तव सा. कथासु परिघट्टयति . श्रवणं यदगुलिमुखेन मुहः। घनतां ध्रुवं नयति तेन ____ भवद्गुणपूगपूरितमतृप्ततया // 64 // उपताप्यमानमलघुष्णिमभिः श्वसितैः सितेतरसरोजदृशः / द्रवतां न नेतुमधरं क्षमते ' नवनागवल्लिदलरागरसः // 65 // दधति स्फुटं रतिपतेरिषवः शिततां यदुत्पलपलाशदृशः / हृदयं निरन्तरबहत्कठिन- , स्तनमण्डलावरणमत्यभिदन् / 66 / / कुसुमादपि स्मितदृशः सुतरां सुकुमारमङ्गमिति नापरथा। अनिशं निजैरकरुण: करुणं कुसुमेषरुत्तपति यद्विशिखैः // 67 / / विषतां निषेवितमपक्रियया .. समुपैति सर्वमिति सत्यमदः / अमृतस्र तोऽपि विरहाद्भवतो यदमं दहन्ति हिमरश्मिरुचः // 68 / / उदितं प्रियां प्रति सहादमिति ___ श्रदधीयत प्रियतमेन वचः / विदितेङ्गिते हि पुर एव जने .. सपदीरिताः खलु लगन्ति गिरः // 66 / / ( कुलकम् ) 25 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 487 दयिताहृतस्य युवभिर्मनसः परिमूढतामिव गतः प्रथमम् / उदिते ततः सपदि लब्धपदैः क्षणदाकरेऽनुपदिभिः प्रयये // 70 / / निपपात सम्भ्रमभृतः श्रवणा दसितध्रुवः प्रणदितालिकुलम् / दयितावलोकविकसन्नयन प्रसरप्रणुन्नमिव वारिरुहम् // 71 / / उपनेतुमुन्नतिमतेव दिवं ___कुचयोयुगेन तरसा कलिताम् / रभसोत्थितामुपगतः सहसा . परिरभ्य कश्चन वधूमरुधत् / / 72 / / अनुदेहमागतवतः प्रतिमा परिणायकस्य गुरुमुद्वहता। मुकुरेण वेपथुभृतोऽतिभरात् . कथमप्यपाति न वधूकरतः // 73 / / अवनम्य वक्षसि निमग्नकुच द्वितयेन• गाढमुपगगूढवता। दयितेन तत्क्षणचलद्रशना कलकिङ्किणोरवमुदासि वधूः // 74 / / कररुद्धनीवि दयितोपगतो गलित त्वराविरहितासनया। क्षरणदृष्टहाटकशिलासदृश स्फुरदूरुभित्ति वसनं ववसे / / 75 / / - पिदधानमन्वगुपगम्य दृशौ ब्रुवते जनाय वद कोऽयमिति / 25 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 ] [ काव्यषट्कं / / 77 // || 78 / / अभिधातुमध्यवससौ न गिरा _पुलकः प्रियं नववधूयंगदत् / / 76 / / उदितोरुसादमतिवेपथुमत् सुदृशोऽभिभर्तृ विधुरं त्रपया / वपुरादरातिशयशंसि पुनः प्रतिपत्तिमूढमपि बाढमभूत् / / 77 / / परिमन्थराभिरलघुरुभरा दधिवेश्म पत्युरुपचारवियो / स्खलिताभिरप्यनुपदं प्रमदाः प्रणयातिभूमिमगमन्गतिभिः मधुरोन्नतध्रु ललितं च दृशोः सकरप्रयोगचतुरं च वचः / प्रकृतिस्थमेव निपुणागमित स्फुटनृत्यलीलमभवत्सुतनोः तदयुक्तमङ्ग : तव विश्वसृजा न कृतं यदीक्षणसहस्रतयम् / प्रकटीकृता जगति येन खलु ___ स्फुटमिन्द्रताद्य मयि गोत्रभिदा // 80 / / न विभावयत्यनिशमक्षिगता मपि मां भवानतिसमीपतया / हृदयस्थितामपि पुनः परितः कथमोक्षते बहिरभीष्टतमाम् // 81 / / इति गन्तुमिच्छुमभिधाय पुरः क्षणदृष्टिपातविकसददनाम् / स्वकरावलम्बनविमुक्तगलत् कलकाञ्चि काञ्चिदरुणत्तरुणः / / 2 / / // 79 // Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: नवमः सर्गः ] [ 486 य // 84 // अंपयाति सरोषया मिरस्ते : कृतकं कामिनि चुक्षुवे मृगाक्ष्या। कलयन्नपि सव्यथोऽवतस्थे ऽशकुनेन स्खलितः किलेतरोऽपि // 83 / / आलोक्य प्रियतममंशुके विनीवी __ यत्तस्थे नमितमुखेन्दु मानवत्या / तन्नूनं पदमवलोकयाम्बभूवे मानस्य द्रुतमपयानमास्थितस्य // 84 / / सुदृश: सरसव्यलीकतप्तस्। तरसाश्लिष्टवतः सयौवनोष्मा / कथमप्यभवत्स्मरानलोष्णः स्तनभारो न नखपच: प्रियस्य // 85 / / दधत्युरोजद्वयमुर्वशीतलं भुवो गतेव स्वयमुर्वशी तलम् / बभी * मुखेनाप्रतिमेन काचन श्रियाधिका तां प्रति मेनका च न / / 86 / / इत्थं नारीर्घटयितुमलं कामिभिः काममासन् प्रालेयांशोः सपदि रुचयः शान्तमानान्तरायाः। / प्राचार्यत्वं रतिषु विलसन्मन्मथश्रीविलासा ह्रीप्रत्यूहप्रशमकुशलाः शीघवश्चक्रुरासाम् / / 87 / / (मन्दाक्रान्ता) // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के प्रदोषवर्णनं नाम नवमः सर्गः / / 6 / / Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 ] [ काव्यषट्क // 10 // दशमः सर्गः॥ (स्वागतावृत्तम् ) सज्जितानि सुरभीण्यथ यूनामुल्लसन्नयनवारिरुहाणि / आययुः सुघटितानि सुराया: पात्रतां प्रियतमावदनानि / / 1 / / सोपचारमुपशान्तविचारं सानुतर्षमनुतर्षपदेन / ते मुहूर्तमथ मूर्तमपीप्यन् प्रेम मानमवधूय वधूः स्वाः / / 2 / / क्रान्तकान्तवदनप्रतिबिम्बे भग्नबालसहकारसुगन्धौ / स्वादुनि प्रणदितालिनि शीते निर्ववार मधुनीन्द्रियवर्गः / / 3 / / कापिशायनसुगन्धि विघूर्णन्नुन्मदोऽधिशयितु समशेत / 10 फुल्लदृष्टि वदनं प्रमदानामब्जचारु चषकं च षडज्रिः / / 4 / / बिम्बितं भृतपरिस्र ति जानन् भाजने जलजमित्यबलायाः / घ्रातुमक्षि पतति भ्रमरः स्म भ्रान्तिभाजि भवति क्व विवेकः // 5 // दत्तमिष्टतमया मधु पत्युर्बाढ मपि पिबतो रसवत्ताम् / . यत्सुवर्णमुकुटांशुभिरासी ___ च्चेतनाविरहितैरपि पीतम् // 6 // स्वादनेन सुतनोरविचारा दोष्ठतः समचरिष्ट रसोऽत्र / अन्यमन्यदिव यन्मधु यूनः . स्वादमिष्टमतनिष्ट तदेव // 7 // बिभ्रती मधुरतामतिमात्रं रागिभिर्युगपदेव पपाते। आननैर्मधुरसो विकसद्भिर्नासिकाभिरसितोत्पलगन्धः // 8 // // 7 // Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: दशमः सर्गः ] [ 461 पोतवत्यभिमते मधुतुल्यस्वादमोष्ठरुचकं विददक्षौ / * लभ्यस्ते स्म परिरक्ततयात्मा यावकेन वियतापि युवत्याः।।६।। कस्यचित्समदनं मदनीयप्रेयसीवदनपानपरस्य / स्वादितः सकृदिवासव एव प्रत्युत क्षणविदंशपदेऽभूत् / / 10 / / पीतशीधुमधुरैमिथुनानामाननैः परिहृतं चषकान्तः / वीडया रुददिवालिविरावैर्नीलनीरजमगच्छदधस्तात् / / 11 / / प्रातिभं त्रिसरकेण गतानां वक्रवाक्यरचनारमणीयः / गूढसूचित रहस्यसहास: सुध्रुवां प्रववृते परिहासः / / 12 // हावहारि हसितं वचनानां कौशलं दृशि विकारविशेषाः / चक्रिरे भृशमजोरपि वध्वाः ____ कामिनेव तरुणेन मदेन // 13 / / अप्रसन्नमपराद्धरि पत्यौ ___ कोपदीप्तमुररीकृतधैर्यम् / क्षालितं नु शमितं नु वधूनां | द्रावितं नु हृदयं मधुवारैः // 14 / / सन्तमेव चिरमप्रकृतत्वादप्रकाशितमदिद्युतदङ्गे / विभ्रमं मधुमदः प्रमदानां धातुलीनमुपसर्ग इवार्थम् / / 15 / / सावशेषपदमुक्तमुपेक्षा स्रस्तमाल्यवसनाभरणेषु / 20 गन्तुमुत्थितमकारणतः स्म द्योतयन्ति मदविभ्रममासाम् / 16 / मद्यमन्दविगलत्त्रपमीषच्चक्षुरुन्मिषितपक्ष्म दधत्या। वीक्ष्यते स्म शनकैनवबध्वा कामिनो मुखमधोमुखयैव / / 17 / / या कथञ्चन सखीवचनेन प्रागभिप्रियतमं प्रजगल्भे। ... ब्रोडजाड्यमभजन्मधुपा सा स्वां मदात्प्रकृतिमेति हि सर्वः / 18 / 25 छादितः कथमपि त्रपयान्तर्यः प्रियं प्रति चिराय रमण्याः / 15 ता" Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 ] [ काव्यषटकं वारुणीमदविशङ्कमथाविश्चक्षषो__.. ऽभवदसाविव रागः // 16 // श्रागतानगणितप्रतियातान् / वल्लभानभिसिसारयिषूणाम् / प्रापि चेतसि सविप्रतिसारे सुध्रुवामवसरः / सरकेण | // 20 // मा पुनस्तमभिसीसरमाग स्कारिणं मदविमोहितचित्ता / योषिदित्यभिललाष न हाला - दुस्त्यजः खलु सुखादपि मानः // 21 / / ह्रीविमोहमहरद्दयिताना ___ मन्तिकं रतिसुखाय निनाय / सप्रसादमिव सेवितमासीत् / सद्य एव फलदं मधु तासाम् // 22 // दत्तमात्तमदनं दयितेन व्याप्तमातिशयिकेन रसेन / सस्वदे मुखसुरं प्रमदाभ्यो नाम रूढमपि च व्युदपादिः // 23 / / लब्धसौरभगुणो मदिराणा ___ मङ्गनास्य चषकस्य च गन्धः / मोदितालिरितरेतरयोगाद न्यतामभजतातिशयं नु // 24 // मानभङ्गपटुना सुरतेच्छां तन्वता प्रथयता दृशि रागम् / लेभिरे सपदि भावयतान्तर् योषितः प्रणयिनेव मदेन // 25 // Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: दशमः सर्गः / [ 463 ..पानघौतनवयावक रागं सुभ्रुवो निभृतचुम्बनदक्षाः / प्रेयसामधररागरसेन स्वं किलाधरमुपालि ररजुः // 26 / / अपितं रसितवत्यपि नाम ग्राहमन्ययुवतेर्दयितेन / उज्झति स्म मदमप्यपिबन्ती | वीक्ष्य मद्यमितरा तु ममाद // 27 / / अन्ययान्यवनितागतचित्तं चित्तनाथमभिशङ्कितवत्या / पीतभूरिसुरयापि न मेदे निर्वृतिहि मनसो मदहेतु: // 28 // कोपक्त्यनुनयानगृहीत्वा प्रागथो मधुमदाहितमोहा। कोपितं विरहखेदितचित्ता . कान्तमेवः कलयन्त्यनुनिन्ये // 26 / / कुर्वता मुकुलिताक्षियुगाना मङ्गसादमवसादितवाचाम् / ईय॑येव हरता ह्रियमासां 20 तद्गुणः स्वयमकारि मदेन // 30 // गण्डभित्तिषु पुरा सदृशीषु व्याजि नाञ्चितदृशां प्रतिमेन्दुः / पानपाटलितकान्तिषू पश्चा . लोध्रचूर्णतिलकाकृतिरासीत् // 31 // .. 25 . उद्धतरिव परस्परसङ्गा दीरितान्युभयत: कुचकुम्भैः / Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 ] [ काव्यषट्कं योषितामतिमदेन जुघूर्णर् ___विभ्रमातिशयपुंषि वपूंषि // 32 / / चारुता वपुरभूषयदासां तामनूननवयौवनयोगः। .. तं पुनर्मकरकेतनलक्ष्मीस्तां मदो दयितसंगमभूषः / / 33 / / 5 क्षीबतामुपगतास्वनुवेलं तासु रोषपरितोषवतीषु / अग्रहीन्नु सशरं धनुरुज्झामास नूज्झितनिषङ्गमनङ्गः / / 34 / / शङ्कयान्ययुवती वनिताभिः प्रत्यभेदि दयितः स्फुटमेव / न क्षमं भवति तत्त्वविचारे मत्सरेण हतसंवृति चेतः / / 35 / / आननैविचकसे दृषिताभिर्वल्लभानभि तनूभिरभावि / 10 आर्द्रतां हृदयमाप च रोषो लोलति स्म वचनेषु वधूनाम् / 36 / रूपमप्रतिविधानमनोखं प्रेम कार्यमनपेक्ष्य विकासि / चाटु चाकृतकसम्भ्रममासां कार्मणत्वमगमन् रमणेषु / / 37 / / लीलयैव सुतनोस्तुलयित्वा गौरवाढयमपि लावणिकेन / मानवञ्चनविदा वदनेन क्रीतमेव हृदयं दयितस्य / / 38 / / स्पर्शभाजि विशदच्छविचारौ कल्पिते मृगदृशां सुरताय / सन्नतिं दधति पेतुरजस्र दृष्टयः प्रियतमे शयने च / / 36 / / यूनि रागतरलैरपि तिर्यक्पातिभिः श्रुतिगुणेन युतस्य / दीर्घदशिभिरकारि वधूनां लङ्घनं न नयनः श्रवणस्य // 40 // संकथेच्छुरभिधातुमनीशा संमुखी न च बभूव दिदृक्षुः / 20 स्पर्शनेन दयितस्य नतभूरङ्गसङ्गचपलापि चकम्पे / / 41 / / उत्तरीयविनयात्त्रपमाणा रुन्धती किल तदीक्षणमागम् / आवरिष्ट विकटेन विवोढर्वक्षसैव कुचमण्डलमन्या / / 42 / / अंशुकं हृतवता तनुबाहुस्वस्तिकापिहितमुग्धकुचाग्रा। भिन्नशङ्खवलयं परिणेत्रा पर्यरम्भि रभसादचिरोढ़ा / / 43 / / 25 संजहार सहसा परिरब्धप्रेयसीषु विरहय्य विरोधम् / संहितं रतिपतिः स्मितभिन्नक्रोधमासु तरुणेषु महेषुम् / / 44 / / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: दशमः सर्गः ] [ 465 स्रसमानमुपयन्तरि वध्वाः श्लिष्टवत्युपसपत्नि रसेन / आत्मनैव रुरुधे कृतिनेव स्वेदसङ्गि वसनं जघनेन // 45 / / पीडिते पुर उरःप्रतिपेषं भर्तरि स्तनयुगेन युवत्याः / स्पष्टमेव दलतः प्रतिनास्तिन्मयत्वमभवद्धृदयस्य / / 46 / / 5 दीपितस्मरमुरस्युपपीडं वल्लभे घनमभिष्वजमाने / वक्रतां न ययतुः कुचकुम्भौ सुभ्रवः कठिनतातिशयेन / / 47 / / सम्प्रवेष्टुमिव योषित ईषु: लिप्यतां हृदयमिष्टतमानाम् / प्रात्मनः सततमेव तदन्तर् वतिनो न खलु नूनमजानन् / 48 / / स्नेहनिर्भरमधत्त वधूना मार्द्रतां वपुरसंशयमन्तः / यूनि * गाढपरिरम्भिणि वस्त्रक्नोपमम्बु ववृषे यदनेन // 46 / / न स्म माति वपुषः प्रमदा - नामन्तरिष्टतमसङ्गमजन्मा। तबहुबहिरवाप्य विकास ___व्यानशे तनुरुहाण्यमपि हर्षः // 50 / / यत्प्रियव्यतिकराद्वनिता नामङ्गजेन पुलकेन बभूवे / प्रापि तेन भृशमुच्छ्वसिताभिर् नीविभिः सपदि बन्धनमोक्षः // 51 / / ह्रीभरादवनतं परिरम्भे . रागवानवटुजेष्ववकृष्य / .. 25 . अर्पितोष्ठदलमाननपद्म योषितो मुकुलिताक्षमधासीत् // 52 / / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 ] . [ काव्यषट्कं / / 55 / / पल्लवोपमितिसाम्यसपक्षं ___दष्टवत्यधरबिम्बमभीष्टे / .. पर्यऋजि सरुजेव तरुण्यास्. तारलोलवलयेन करेण // 53 / / केनचिन्मधुरमुल्बणरागं बाष्पतप्तमधिकं विरहेषु / प्रोष्ठपल्लवमपास्य. मुहूर्त सुभ्रवः सरसमक्षि चुचुम्बे // 54 / / रेचितं परिजनेन महीयः . केवलाभिरतदम्पति धाम / साम्यमाप कमलासखविष्वक् सेनसेवितयुगान्तपयोधेः , प्रावृतान्यपि निरन्तरमुच्चर् योषितामुरसिजद्वितयेन / रागिणाभित इतो विमृद्भिः पाणिभिर्जगहिरे हृदयानि // 56 / / कामिनामसकलानि विभुग्नैः स्वेदवारिमृदुभिः करजाप्रैः / आक्रियन्त कठिनेषु कथञ्चित् कामिनीकुचतटेषु पदानि सोष्मणः स्तनशिलाशिखरा ग्रादात्तधर्मसलिलैस्तरुणानाम् / उच्छ्वसत्कमलचारुष हस्तैर्. निम्ननाभिसरसीषु निपेते .. // 58 / / मामशद्भिरभितो वलिवीचीर- . लोलमानविततागुलिहस्तैः / // 57 / / Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: दशमः सर्गः ] [ 467 सुभ्रवामनुभवात्प्रतिपेदे मुष्टिमेयमिति मध्यमभीष्टः // 56 / / प्राप्य नाभिनदमज्जनमाशु प्रस्थितं निवसनग्रहणाय। औपनीविकम रुन्ध किल स्त्री':... वल्लभस्य करमात्मकराभ्याम् // 60 / / कामिनः कृतरतोत्सवकालक्षेपमाकुलवधूकरसङ्गि। मेखलागुणविलग्नमसूयां दीर्घसूत्रमकरोत्परिधानम् / / 61 / / अम्बरं विनयतः प्रियपाणेर्योषितश्च करयोः कलहस्य / 10 वारणामिव विधातुमभीक्ष्णं कक्ष्ययां च वलयैश्च शिशिजे 62 ग्रन्थिमुद्ग्रथयितुं हृदयेशे / वाससः स्पृशति मानधनायाः / भ्रयुगेण सपदि प्रतिपेदे / रोमभिश्च सममेव विभेदः // 63 / / श्राशु लवितवतीष्टकराग्रे नीविमर्घमुकुलीकृत दृष्टया। रक्तर्वणिकहताधरतन्त्री - मण्डलक्वणितचारु चुकूजे // 64 / / आयतागुलिरभूदतिरिक्तः सुभ्रवां ऋशिमशालिनि मध्ये / श्रोणिषु प्रियकरः पृथुलासु . स्पर्शमाप सकलेन तलेन चक्रुरेव ललनोरुषु राजीः . __स्पर्शलोभवशलोलकराणाम् / 25 कामिनामनिभृतान्यपि रम्भा- . . स्तम्भकोमलतलेषु नखानि Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 ] [ काव्यषट्कं 5 10 ऊरुमूलचपलेक्षणमघ्नन् यवतंसकुसुमैः प्रियमेताः / चक्रिरे सपदि तानि यथार्थ मन्मथस्य कुसुमायुधनाम // 67 / / धैर्यमुल्बणमनोभवभावा वामतां च वपुरपितवत्यः / व्रीडितं ललितसौरतधाष्टर्यास् ___ तेनिरेऽभिरुचितेषु तरुण्य: // 68 // पाणिरोधमविरोधितवाञ्छं / भर्त्सनाश्च मधुरस्मितगर्भाः / कामिनः स्म कुरुते करभोरूर् हारि शुष्करुदितं च सुखेऽपि // 66 / / वारणार्थपदगद्गदवाचामीग्रंया मुहुरपत्रपया च / कुर्वते स्म सुदृशामनुकूलं प्रातिकूलिकतयैव युवानः / / 70 // 15 प्रन्यकालपरिहार्यमजस्रं तवयेन विदधे द्वयमेव / धृष्टता रहसि भर्तृषु ताभिनिर्दयत्वमितररबलासु / / 71 / / बाहुपीडनकचग्रहणाभ्यामाहतेन नखदन्तनिपातैः / बोधितस्तनुशयस्तरुणीनामुन्मिमील विशदं विषमेषुः / / 72 / / कान्तया सपदि कोऽप्युपगूढः प्रौढपाणिरपनेतुमियेष / संहतस्तनतिरस्कृतदृष्टिर् भ्रष्टमेव न दुकूलमपश्यत् // 73 / / आहतं कुचतटेन तरुण्याः साधु सोढममुनेति पपात ! त्रुटयतः प्रियतमोरसि हारात पुष्पवृष्टिरिव मौक्तिकवृष्टिः // 74 / / Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: दशमः सर्गः ] [ 466 // 78 // सीत्कृतानि मणितं करुणोक्तिः स्निग्धमुक्तमलमर्थवचांसि। हासभूषणरवाश्च रमण्याः कामसूत्रपदतामुपजग्मुः // 75 / / 5 उद्धतैनिभृतमेकमनेकैश्छेदवन्मृगदृशामविरामैः / श्रूयते स्म मणितं कलकाञ्चीनूपुरध्वनिभिरक्षतमेव / / 76 / / ईदृशस्य भवतः कथमेतल्लाघवं मुहुरतीव रतेषु / क्षिप्तमायतमदर्शयदुर्व्या काञ्चिदाम जघनस्य महत्त्वम् / 77 / प्राप्यते स्म गतचित्रकचित्र१०. श्चित्रमाद्रनखलक्ष्म कपोलैः / दध्रिरेऽथ रभसच्युतपुष्षाः स्वेदबिन्दुकुसुमान्यलकान्ताः यद्यदेव रुरुचे रुचिरेभ्य सुभ्रुवो रहसि तत्तदकुर्वन् / प्रानुकूलिकतया हि नराणा " माक्षिपन्ति हृदयानि तरुण्यः // 7 // प्राप्य मन्मथरसादतिभूमि दुर्वहस्तनभराः सुरतस्य / शश्रमः श्रमजलार्द्रललाट - श्लिष्टकेशमसितायतकेश्य: संगताभिरुचितैश्चलितापि प्रागमुच्यत चिरेण सखीव / भूय एव समगस्त रतान्ते ह्रीर्वधूभिरसहा विरहस्य // 81 / / प्रेक्षणीयकमिव क्षणमासन् ह्रीविभङ्गुरविलोचनपाताः / सम्भ्रमद्रुतगृहीतदुकूलच्छाद्यमानवपुषः सुरतान्ताः / / 82 / / अप्रभूतमतनीयसि तन्वी काञ्चिधाम्नि पिहितकतरोरु / क्षौममाकुलकरा विचकर्ष कान्तपल्लवमभीष्टतमेन // 83 // // 80 // Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 ] / काव्यषट्कं मृष्टचन्दनविशेषकभक्तिभ्रंष्टभूषणकथितमाल्यः / सापराध इव मण्डनमासीदात्मनैव सुदृशामुपभोगः / / 84 / / योषितः पतितकाञ्चनकाञ्ची मोहनातिरभसेन नितम्बे / मेखलेव परितः स्म विचित्रा राजते नवनखक्षतलक्ष्मीः / / 5 / 5 भातु नाम सुदृशां दशनाङ्कः पाटलो धवलगण्डतलेषु / / दन्तवाससि समानगुणश्रीः संमुखोऽपि परभागमवाप / / 86 / / सुभ्र वामधिपयोधरपीठं पीडनैस्त्रुटितवत्यपि पत्युः / मुक्तमौक्तिकलघुर्गुणशेषा हारयष्टिरभवृद् गुरुरेव / / 7 / / विश्रमार्थमपगूढमजस्र यत्प्रियैः प्रथमरत्यवसाने / / योषितामुदितमन्मथमादौ तद्वितीयसुरतस्य बभूव / / 88 // आस्तृतेऽभिनवपल्लवपुष्पैरप्यनारतरयाभिरताभ्यः / दीयते स्म शयितुं शयवीये न क्षणः क्षणदयापि वधूभ्यः / / 89 / / योषितामतितरां नखलूनं गात्रमुज्ज्वल तया न खलूनम् / क्षोभमाशु हृदयं नयदूनां रागवृद्धिमकरोन्न यदूनाम् / / 10 / / इति मदमदनाभ्यां रागिणः स्पष्टरागा-. ननवरतरतश्रीसङ्गिनस्तानवेक्ष्य / अभजत परिवृत्ति साथ पर्यस्तहस्ता रजनिरवनतेन्दुर्लज्जयाधोमुखीव // 61 / / प्रभजत इति श्रीमाघकृती शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयते सुरत२० वर्णनो नाम दशमः सर्गः // 10 // 卐 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अथोत्तरार्द्धम् // // 11 // एकादशः सर्गः // ( मालिनीवृत्तम् ) श्रुतिसमधिकमुच्यैः पञ्चमं पीडयन्तः सततमृषभहीनं भिन्नकीकृत्य षड्जम् / प्रणिजगदुरकाकुश्रावकस्निग्धकण्ठाः ___ परिणतिमिति रात्रेगिधा माधवाय / / 1 / / रतिरभसविलासाभ्यासतान्तं न याव नयनयुगममीलत्तावदेवाहतोऽसौ / रजनिविरतिशंसी कामिनीनां भविष्य द्विरहविहितनिद्राभङ्गमुच्चैमृदङ्गः / / 2 / / स्फुटतरमुपरिष्टादल्पमूर्तेधू वस्य . स्फुरति सुरमुनीनां मण्डलं व्यस्तमेतत् / शकमिव महीयः शैशवे शाङ्गपाणे श्चपलचरणकाब्जप्रेरणोत्तुङ्गिताग्रम् / / 3 / / प्रहरकपमनीय स्वं निदिद्रास ..तोच्चः प्रतिपदमुपहूतः केनचिज्जागृहीति / मुहुरविशदवर्णा निद्रया शून्यशून्यां दददपि गिरमन्तबुध्यते नो मनुष्यः / / 4 / / विपुलतरनितम्बाभोगरुढे रमण्याः / सयितुमनधिगच्छजीवितेशोऽवकाशम् / रतिपरिचयनश्यन्नद्रतन्द्रः कथंचिद् गमयति शयनीये शर्वरीं कि करोतु // 5 // Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 ] [ काव्यषट्कं क्षणशयितविबुद्धाः कल्पयन्तः प्रयोगा नुदधिमहति राज्ये काव्यवदुर्विगाहे / गहनमपररात्रप्राप्तबुद्धिप्रसादाः कवय इव महीपाश्चिन्तयन्त्यर्थजातम् / / 6 / / क्षितितटशयनान्तादुत्थितं दानपङ्क प्लुतबहुलशरीरं शाययत्येष भूयः / मृदुचलदपरान्तोदीरितान्दुनिनादं गजपतिमधिरोहः पक्षकव्यत्ययेन // 7 / / द्रुततरकरदक्षाः क्षिप्तवैशाखशैले ___दधति दधनि धीरानारवान्वारिणीव / शशिनमिव सुरौघाः सारमद्धतु मेते कलशिमुदधिगुर्वी बल्लवा लोडयन्ति / / 8 / / अनुनयमगृहीत्वा व्याजसुप्ता पराची रुतमथ कृकवाकोस्तारमाकर्ण्य कल्ये / कथमपि परिवृत्ता निद्रयान्धा किल स्त्री मुकुलितनयनैवाश्लिष्यति प्राणनाथम् / / 6 / / गतमनुगतवीणेरेकतां वेणुनादैः कलमविकलताल गायकैबोधहेतोः / असकृदनवगीतं गीतमाकर्णयन्तः सुखमुकुलितनेत्रा यान्ति निद्रां नरेन्द्राः / / 10 / / परिशिथिलितकर्णग्रीवमामीलिताक्षः क्षणमयमनुभूय स्वप्नमूर्ध्वरेव / रिरसयिषति भूयःशष्पमग्रे विकीर्ण पटुतरचपलौष्ठः प्रस्फुरत्प्रोथमश्वः // 11 / / उदयमुदित दीप्तिर्याति यः संगतौ मे' पतति न वरमिन्दुः सोऽपरामेष गत्वा / 25 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकादशः सर्गः ] [ 503 स्मितरुचिरिव सद्यः साभ्यसूयं प्रभेति . स्फुरति विशदमेषा पूर्वकाष्ठाङ्गनायाः / / 12 / / चिररतिपरिखेदप्राप्तनिद्रासुखानां चरममपि शयित्वा पूर्वमेव प्रबुद्धाः / अपरिचलितगात्राः कुर्वतेन प्रियाणा मशिथिलभुजचक्राश्लेषभेदं तरुण्यः // 13 / / कृतधवलिमभेदैः कुकुमेनेवकिञ्चि ___मलयरुहरजोभिर्भूषयपश्चिमाशाम् / हिमरुचिररुणिम्ना राजते राज्यमान जरठकमलकन्दच्छेदगौरैर्मयूखैः // 14 / / दधदसकलमेकं खण्डितामानमद्भिः श्रियमपरमपूर्णामुच्छ्वसद्भिः पलाशैः / कलरवमुपगीते षट्पदौधेन धत्तः कुमुदकमलषण्डे तुल्यरूपामवस्थाम् / / 15 / / मदरुचिमरुणेनोद्गच्छता लम्भितस्य / ___ त्यजत इव चिरायस्थायिनीमाशु लज्जाम् / वसनमिव मुखस्य नसते सम्प्रतीद सितकरकरजालं वासवाशायुवत्याः / / 16 / / अविरतरतलीलायासजातश्रमाणा ___ मुपशममुपयान्तं निःसहेऽङ्गेऽङ्गनानाम् / पुनरुषसि विविक्तर्मातरिश्वावचूर्ण्य .. ज्वलयति मदनाग्नि मालतीनां रजोभिः / 17 / अनिमिषमविरामा रागिणां सर्वरात्रं ___ नवनिधुवनलीलाः कौतुकेनातिवीक्ष्य / इदमुदवसितानामस्फुटालोकसंप नयनमिव सनिद्रं घूर्णते दैपचिः / / 18 / / 25 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 ]. [ काव्यषट्कं . विकचकमलगन्धैरन्धयन्भृङ्गमालाः सुरभितमकरन्दं मन्दं मन्दमावाति वातः / प्रेमदमदनमाद्यद्यौवनोद्दामरामा रमणरभसखेदस्वेदविच्छेददक्षः / / 16 / / लुलितनयनताराः क्षामवक्त्रेन्दुबिम्बा / * रजनय इव निद्राक्लान्तनीलोत्पलाक्ष्यः। तिमिरमिव दधानाः न सिनः केशपाशा.. नवनिपतिगृहेभ्यो यान्त्यमूरिवध्वः / / 20 / / शिशिरकिरणकान्तं वासरान्तेऽभिसार्य . श्वसनसुरभिगन्धिः साम्प्रतं सत्वरेव / व्रजति रजनिरेषा तन्मयूखाङ्गरागैः परिमलितमनिन्द्यैरम्बरान्तं वहन्ती / / 21 / / नवकुमुदवनश्रीहासकेलिप्रसङ्गा दधिकरुचिरमेषामप्युषां जागरित्वा / अयमपरदिशोऽङ्क मञ्चति स्रस्तहस्तः शिशयिषुरिव पाण्डं म्लानमात्मायमिन्दुः / 22 / सरभसपरिरम्भारम्भसंरम्भभाजा - यदधिनिशमपास्तं वल्लभेनाङ्गनायाः / वसनमपि निशान्ते नेष्यते तत्प्रदातुं __ रथचरणविशालश्रोणिलोलेक्षणेन / / 23 / / सपदि कुमुदिनीभिर्मीलितं हा क्षपापि क्षयमगमदपेतास्तारकास्ताः समस्ताः। . इति दयितकलत्रश्चिन्तयन्नङ्गमिन्दु....... वहति कृशमशेषं भ्रष्टशोभं शुचेव // 24 // व्रजति विषयमक्षणामंशुमाली न याव तिमिरमखिलमस्तं तावदेवारुणेन / 25 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकादशः सर्गः ] [ 505 परपरिभवि तेजस्तन्वतामाशु कतुं . प्रभवति हि विपक्षोच्छेदमग्रेसरोऽपि / / 25 / / .. विगततिमिरपङ्क पश्यति व्योम याव दुवति विरहखिन्नः पक्षती यावदेव / रथचरणसमावस्तावदौत्सुक्यनुन्ना . सरिदपरतटान्तादागता चक्रवाकी // 26 / / मुदितयुवमनस्कास्तुल्यमेव प्रदोषे / - रुचमदधुरुभय्यः कल्पिता भूषिताश्च / परिमलरुचिराभियंकृतास्तु प्रति / युवतिभिरुपभोगान्त्रीरुच: पुष्पमालाः // 27 // विलुलितकमलौघः कीर्णवल्लीवितानः प्रतिवनमवधूताशेषशाखिप्रसूनः / क्वचिदयमनवस्थः स्थास्नुतामेतिवायु वधुकुसुमविमर्दोद्गन्धिवेश्मान्तरेषु // 28 // नखपदवलिनाभीसन्धिभागेषु लक्ष्यः क्षतिषु च दशनानामङ्गनायाः सशेषः / अपि रहसि कृतानां वाग्विहीनोऽपि जातः सुरतविलसितानां वर्णको वर्णकोऽसौ // 26 / / प्रकटमलिनलक्ष्मा मृष्टपत्रावलीकै.. रधिगतरतिशोभैः प्रत्युषः प्रोषितश्रीः / उपहसित इवासी चन्द्रमाः कामिनीनां परिणतशरकाण्डापाण्डुभिर्गण्डभागः // 30 // सकलमपि निकामं कामलोलान्यनारी रतिरभसविमर्दै भिन्नवत्यङ्गरागे / 25 . इदमतिमहदेवाश्चर्यमाश्चर्यधाम्न .. - स्तव खलु मुखरागों यन्न भेदं प्रयातः // 31 // Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ [ काव्यषट्कं प्रकटतरमिमं मा द्राक्षुरन्या रमण्यः .... स्फुटमिति सविशङ्क कान्तया तुल्यवर्णः / चरणतलसरोजाक्रान्ति संक्रान्तयासो वपुषि नखविलेखो लाक्षया रक्षितस्ते / / 32 / / .5 तदवितथमवादीर्यन्मम त्वं प्रियेति .. .... प्रियजनपरिभक्त यदुकुलं दधानः / मदधिवसतिमागाः कामिनां मण्डनश्री व्रजति हि सफलत्वं वल्लभोलोकनेन / / 33 / / नवनखपदमङ्ग गोपयस्यंशुकेन ___ स्थगयसि पुनरोष्ठं पाणिना दन्तदष्टम् / प्रतिदिशमपरस्त्रीसङ्गशंसी विसर्पन् नवपरिमलगन्धः केन शक्यो वरीतुम् / / 34 // इति कृतवचनायाः कश्चिदभ्येत्य बिभ्यद् गलितनयनवारेोति पादावनामम् / करुणमपि समर्थ मानिनां मानभेदे .. रुदितमुदितमस्त्रं योषितां विग्रहेषु // 35 / / मदमदनविकासस्पृष्टधाष्टर्योदयानां रतिकलहविकीर्णभूषणैरचितेषु / विदधति न गृहेषूत्फुल्लपुष्पोपहारं . _ विफलविनययत्नाः कामिनीनां वयस्याः / 36 // करजदशनचिह्न नैशमङ्गेऽन्यनारी ___ जनितमिति सरोषामीjया शङ्कमानाम् / स्मरसि न खलु दत्तं मत्तयैतत्त्वयैव स्त्रियमनुनयतीत्थं वीडमानां विलासी // 37 // 25 कृतगुरुतरहारच्छेदमालिङ्गय पत्यो : परिशिथिलितगात्रे गन्तुमापृच्छमाने / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकादशः सर्गः ] [ 507 विगलितनवमुक्तास्थूलबाष्पाम्बुबिन्दुः / स्तनयुगमबलायास्तत्क्षणं रोदितीव // 38 // बहु जगद पुरस्तात्तस्य मत्ता किलाहं चकर च किल चाट प्रौढयोषिद्वदस्य / विदितमिति सखीभ्यो रात्रिवृत्तं विचिन्त्य व्यपगतमदयाह्नि वीडितं मुग्धवध्वा / / 3 / / अरुणजलजराजीमुग्धहस्तानपादा। .बहुलमधुपमालाकज्जलेन्दीवराक्षी / अनुपतति विरावै पत्रिणां व्याहरन्ती रजनिमचिरजाता पूर्वसन्ध्या सुतेव / / 4 / / प्रतिशरणमशीर्णज्योतिरग्न्याहितानां _ विधिविहितविरिब्धैः सामिधेनीरधीत्य / कृतगुरुदुरितोषध्वंसमध्वर्युवर्य हृतमयमुपलीढे साधु सान्नाय्यमग्निः / / 4 / / प्रकृतजपविधीनामास्यमुद्रश्मिदन्तं ... * मुहरपिहितमोष्ठ्य रक्षरैर्लक्ष्यमन्यः / अनुकृतिमनुवेलं घट्टितोद्घट्टितस्य व्रजति नियमभाजां मुग्धमुक्तापुटस्य // 42 // नवकनकपिशङ्ग वासराणां विधातुः ककुभि कुलिशपाणे ति भासां वितानम् / जनितभुवनदाहारम्भमम्भांसि दग्ध्वा ज्वलितमिव महाब्धेरूध्वमौर्वानलाचिः / 43 / विततपृथुवरत्रातुल्यरूपैर्मयूखैः / कलश इव गरीयान्दिग्भिराकृष्यमाणः / कृतचपलविहंगालापकोलाहलाभि जलनिधिजलमध्यादेष उत्तार्यतेऽर्कः // 44 / / Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 ] [ काव्यषट्कं पयसि सलिलराशेर्नक्तमन्तनिमग्नः स्फुटमनिशमतापि ज्वालया वाडवाग्नेः / यदयमिदमिदानीमङ्गमुद्यन्दघांति - ज्वलतिखदिरकाष्ठाङ्गारगौरं विवस्वान् / 45 / अतुहिनरुचिनासौ केवल नोदयाद्रिः क्षणमुपरिगतेन माभृतः सर्व एव / ... नवकरनिकरेण स्पष्टबन्धूकसून स्तबकरचितमेते शेखरं विभ्रतीव // 46 / / उदयशिखरिशृङ्गप्राङ्गणेष्वेष रिङ्गन् ___ सकमलमुखहासं वीक्षितः पद्मिनीभिः / विततमृदुकराग्र: शब्दयन्त्या वयोभिः परिपतति दिवाऽके हेलया बालसूर्यः / / 47 / / क्षणमयमुपविष्ट: क्ष्मातलन्यस्तपादः प्रणतिपरमवेक्ष्य प्रीतमह्नाय लोकम् / भुवनतलमशेषं प्रत्यवेक्षिष्यमाणः | . क्षितिधरतटपीठादुत्थितः सप्तसप्तिः / / 48 / / परिणतमदिराभं भास्करेणांशुबाणे 'स्तिमिरकरिघटायाः सर्वदिक्षु क्षतायाः / रुधिरमिव वहन्त्यो भान्ति बालातपेन __ छुरितमुभयरोधोवारितं वारि नद्यः / / 46 // दधति परिपतन्त्यो जालवातायनेभ्य स्तरुणतपनभासो मन्दिराभ्यन्तरेषु / प्रणयिषु वनितानां प्रातरिच्छत्सु गन्तुं कुपितमदनमुक्तोत्तप्तनाराचलीलाम् // 50 // 25 , अधिरजनि वधुभिः पीतमैरेयरिक्तं . कनकचषकमेतद्रोचनालोहितेन / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकादशः सर्गः ] [ 509 उदयदहिमरोचिर्कोतिषाक्रान्तमन्त मधुन 'इव तथैवापूर्णमद्यापि भाति // 51 / / सितरुचिशयनीये नक्तमेकान्तमुक्तं दिनकरकरसङ्गव्यक्तकौसुम्भकान्ति / निजमिति रतिबन्धोर्जानतीमुत्तरीयं परिहसति सखी स्त्रीमाददानां दिनादौ / / 52 / / प्लुतमिव शिशिरांशोरंशुभिर्यन्निशासु स्फटिकमयमराजद्राजताद्रिस्थलाभम् / अरुणितमकठोरैर्वेश्म काश्मीरजाम्भ: स्नपितमिव तदेतद्भानुभिर्भाति भानोः / / 53 / / सरसनखपदान्तर्दष्टकेशप्रमोकं ' प्रणयिनि विदधाने योषितामुल्लसन्त्यः / विदधति दशनानां सीत्कृताविष्कृताना मभिनवरविभासः पद्मरागानुकारम् // 54 / / 15 / अविरतदयिताङ्गासङ्गसञ्चारितेन छुरितमभिनवासृक्कान्तिना कुकुमेन / कनकनिकषरेखाकोमलं कामिनीनां भवति वपुरवाप्तच्छायमेवातपेऽपि // 55 / / सरसिजवनकान्तं बिभ्रदभ्रान्तवृत्तिः 20 करनयनसहस्र हेतुमालोकशक्तेः / अखिलमतिमहिम्ना लोकमाक्रान्तवन्तं हरिरिव हरिदश्वः साधु वृत्रं हिनस्ति / / 56 / / अवतमसभिदाय भास्वताम्युद्गतेन प्रसभमुडुगणोऽसौ दर्शनीयोऽप्यपास्तः / निरसितुमरिमिच्छोर्ये तदीयाश्रयेण नियमधिगतवन्तस्तेऽपि हन्तव्यपक्षे / / 7 / / * 25 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 ] काव्यषट्क प्रतिफलति करौघे सम्मुखावस्थितायां रजतकटकभित्तौ सान्द्रचन्द्रांशुगौर्याम् / . बहिरभिहतभद्रेः संहतं कन्दरान्त र्गतमपि तिमिरौघं धर्मभानुभिनत्ति / / 58 / / बहिरपि विलसन्त्यः काममानिन्यिरे यद्- . दिवसकररुचोऽन्तं ध्वान्तमन्तर्गृहेषु। नियतविषयवृत्तेरप्यनल्पप्रताप क्षतसकलविपक्षस्तेजसः स स्वभावः // 56 / / चिरमतिरसलौल्याबन्धनं लम्भितानां पुनरयमुदयाय प्राप्य धाम स्वमेव / दलितदलकपाटः षट्पदानां सरोजे सरभस इव गुप्तिस्फोटमर्कः करोति // 60 / / युगपदयुगसप्तिस्तुल्यसंख्यमयूखे दशशतदलभेदं कौतुकेनाशु कृत्वा / . श्रियमलिकुलगीतैालितां पङ्कजान्त भवनमधिशयानामादरात्पश्यतीव // 61 / / अदयमिव कराय़रेष निष्पीड्य सद्यः शशधरमहरादौ रागवानुष्णरश्मिः / अवकिरति नितान्तं कान्तिनिर्यासमब्द सतनवजलपाण्डु पुण्डरीकोदरेषु // 62 / / प्रविकसति चिराय द्योतिताशेषलोके : दशशतकरमूर्तावक्षिणीव द्वितीये। . सितकरवपुषासौ लक्ष्यते संप्रति द्यौ विगलितकिरणेन व्यङ्गितैकेक्षणेव // 63 / / 25. कुमुदवनमपनि श्रीमदम्भोजषण्डं . त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 511 उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं हतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः / 64 / क्षणमतुहिनधाम्नि प्रोष्य भूयः पुरस्ता दुपगतवति पाणिग्राहद्दिग्वधूनाम् / द्रुततरमुपयाति स्रसमानांशुकोऽसा वर्षपतिरिव नीचैः पश्चिमान्तेन चन्द्रः / / 65 / / प्रलयमखिलतारालोकमह्नाय नीत्वा श्रियमनतिशयश्रो: सानुरागां दधानः / . गगनसलिलराशि रात्रिकल्पावसाने - मधुरिपुरिव भास्वानेष एकोऽधिशेते / / 66 / / कृतसकलजगद्विबोधोऽवधूतान्धकारोदयः क्षयितकुमुदतारकश्रीवियोगं नयन्कामिनः / बहुतरगुणदर्शनादभ्युपेताल्पदोषः कृती ... तव वरंद करोतु सुप्रातमह्नामयं नायकः / 67 / (महामालिका) / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयके प्रत्यूषवर्णनो नामैकादशः सर्गः / / 11 / / 15 . 20 // 12 // बादशः सर्गः॥ ( वंशस्थवृत्तम् ) इत्थं रथाश्वेभनिषांदिनां प्रगे गणो नपाणामथ तोरणाद्वहिः / प्रस्थानकालक्षमवेषकल्पना कृतक्षणक्षेपमुदैवताच्युतम् // 1 // Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 ] ... [ काव्यषट्कं स्वक्षं सुपत्रं कनकोज्ज्वलद्यति जवेन नागाजितवन्तमुच्चकैः / / आरुह्य ताक्ष्य नभसीव भूतले. .. .. . __ ययावनुद्धातसुखेन . सोऽध्वना // 2 // हस्तस्थिताखण्डितचक्रशालिनं... द्विजेन्द्रकान्तं श्रितवक्षसं श्रिया। सत्यानुरक्त नरकस्य जिष्णवो गुणैर्नृपाः शाङ्गिणमन्वयासिषुः // 3 / / शुक्लैः सतारै, कुली कृतैः स्थुलैः कुमुद्वतीनां कुमुदाकररिव / / व्युष्टं प्रयाणं च वियोगवेदना . विदूननारीकमभूत्समं .. तदा // 4 / / उत्क्षिप्तगात्रः स्म विडम्बयनभः समुत्पतिष्यन्तमगेन्द्रमुच्चकैः / आकुञ्चितप्रोहनिरूपितक्रमं करेणुरारोहयते निषादिनम् / 5 / 15 स्वैरं कृतास्फालन लालितान्पुरः स्फुरत्तनून्दर्शितलाघवक्रियाः / वङ्कावलग्नकसवल्गपाणय स्तुरङ्गमानारुरुहुस्तुरङ्गिणः // 6 // अह्नाय यावन्न चकार भूयसे निषेदिवानासनबन्धमध्वने / तीव्रोत्थितास्तावदस ह्यरंहसौ विशृङ्खलं शृङ्खलकाः प्रतिस्थिरे / / 7 / / गण्डोज्ज्वलामुज्ज्वलनाभिचक्रया विराजमानां नवयोदरश्रिया ! 25 कश्चित्सुखं प्राप्तुमनाः सुसारथी रथीं ययोजाविधुरां वधूमिव // 8 / / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 513 उत्थातुमिच्छन्विधृतः पुरो बलानिधीय माने भरभाजि यन्त्रके / अर्घोज्झितोद्गारविझर्भरस्वरः स्वनाम निन्ये रवणः स्फुटार्थताम् // 6 // नस्यागृहीतोऽपि धुवन्विषाणयो युगं ससूत्कारविवर्तितत्रिकः / गोणी जनेन स्म निधातुमुद्धृता ___मनुक्षणं नोक्षतरः प्रतीच्छति / / 10 / / नानाविधाविष्कृतसामजस्वरः . सहस्रवा चपलैर्दुरध्ययः / . गान्धर्वभूयिष्ठतया समानतां . स सामवेदस्य दधौ बलोदधिः // 11 / / प्रत्यन्यनागं चलितस्त्वरावता __निरस्य कुण्ठं दधतान्यमकुशम् / मूर्धानमूर्ध्वायतदन्तमण्डलं धुवन्नरोधि द्विरदो निषादिना // 12 // सम्मू दुच्छङ्खलशङ्कनिःस्वनः स्वनः प्रयाते पटहस्य शाङ्गिणि / ... सत्त्वानि निन्ये नितरां महान्त्यपि व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम् // 13 / / कालीयकक्षोदविलेपनश्रियं दिशदिशामुल्लसदंशुमय ति / खातं खुरेर्मुद्गभुजां विपप्रथे . गिरेरधः काञ्चनभूमिजं रजः / / 14 / / मन्द्रैगजानां रथमण्डलस्वन निजुह्नवे तादृशमेव बृहितम् / 25 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 ] [ काव्यषट्कं तारेर्बभूवे परभागलाभतः - परिस्फुटैस्तेषु तुरङ्गहेषितैः // 15 / / अन्वेतुकामोऽवमताकुशग्रह- . स्तिरोगतं साङ्कुशमुहशिरः / / स्थूलोच्चयेनागमदन्तिकागतां गजोऽग्रयाताग्रकरः करेणुकाम् // 16 / / यान्तोऽस्पृशन्तश्चरपरिवावनि ___जवात्प्रकीर्णरभितः प्रकीर्णकैः / अद्यापि सेनातुरगाः सविस्मय - रलूनपक्षा इव मेनिरे . जनैः / / 17 / / ऋज्वोर्दधानैरवतत्य कन्धरा श्चलावचूडाः कलघर्घरारवैः / भूमिमहत्यप्यविलम्बितक्रमं / क्रमेलकैस्तत्क्षणमेव चिच्छिदे // 18 / / तूर्णं प्रणेता कृतनादमुच्चकैः . प्रणोदितं वेसरयुग्यमध्वनि / आत्मीयनेमिक्षतसान्द्रमेदिनी..रजश्चयाक्रान्तिभयादिवाद्रवत् . // 16 // व्यावृक्तवक्त्रैरखिलैश्चमूचरै वद्भिरेव क्षणमीक्षिताननाः / वल्गद्गरीयः स्तनकम्प्रकञ्चुकं ययुस्तुरङ्गाधिरुहोऽवरोधिकाः // 20 // पादैः पुरः कूबरिणां विदारिताः प्रकाममाक्रान्ततलास्ततो गजैः / भग्नोन्नतानन्तरपूरितान्तरा बभूर्भुवः कृष्टसमीकृता इव // 21 / / 25 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 515 दुर्दान्त मुत्कृत्य निरस्तसादिनं सहासहाकारमलोकयज्जनः / पर्याणतः स्रस्तमुरोविलम्बिन स्तुरङ्गमं प्रदूतमेकया दिशा // 22 / / भूभृद्भिरप्यस्खलिताः खलून्नतै रपह नुवाना सरितः पृथूरपि / अन्वर्थसंज्ञैव परं त्रिमार्गगा ___ ययावसंख्यैः पथिभिश्चमूरसौ // 23 / / त्रस्तौ समासन्नकरेणुसूत्कृता नियन्तरि व्याकुलमुक्तरज्जुके / क्षिप्तावरोधाङ्गनमुत्पथेन गां विलनयलध्वीं करभौ बभञ्जतुः // 24 // स्रस्ताङ्गसन्धौ विगताक्षपाटवे ___ रुजा निकामं विकलीकृते रथे / प्राप्तेन तक्ष्णा भिषजेव तत्क्षणं प्रचक्रमे लङ्घनपूर्वकः क्रमः // 25 / / धूर्भङ्गसंक्षोभविदारितोष्टिका गलन्मधुप्लावितदूरवर्त्मनि / स्थाणौ निषङ्गिण्यनसि क्षणं पुरः शुशोच लाभाय कृतक्रयो वणिक् // 26 / / भेरीभिराक्रष्टमहागुहामुखो .. ध्वजांशुकैस्तजितकन्दलीवनः। उत्तङ्गमातङ्गजितालघूपलों - बलैः स पश्चात्क्रियते स्म भूधरः // 27 / / 25 वन्येभदानानिलगन्धदुर्धराः क्षणं तरुच्छेद विनोदितक्रुधः / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 ] [ काव्यषट्कं व्यालद्विषा यन्तभिरुम्मतिष्णवः . ... कथञ्चिदारादपथेन निन्यिरे // 28 / / तैर्वैजयन्तीवनराजिराजिभि गिरिप्रतिच्छन्दमहामतङ्गजः / बह्वयः प्रसर्पज्जनतानदीशतै भुवो बलैरन्तरयाबभूविरे // 26 / / तस्थे मुहूर्त हरिणीविलोचनैः सहशि दृष्ट्वा नयनानि योषिताम् / मत्वाथ सत्रासमनेकविभ्रम- / क्रियाविकाराणि मृगैः फ्लाय्यत // 30 // निम्नानि दुःखादवतीर्य सादिभिः सयत्नमाकृष्टकशाः शनैः शनैः / उत्तेरुरुत्तालखुरारवं द्रुताः / ___श्लथीकृतप्रग्रहमर्वतां व्रजाः // 31 / / अध्यध्वमारूढवतैव केन चित्प्रतीक्षमाणेन जनं मुहुर्धतः / दाक्ष्यं हि सद्यः फलदं यदग्रत ___श्चखाद दासेरयुवा वनावली: * // 32 / / शौरेः प्रतापोपनतैरितस्ततः समागतः प्रश्रयनम्रमूर्तिभिः / एकातपत्रा पृथिवीभृतां गण रभूद्बहुच्छत्रतया * पताकिनी // 33 / / आगच्छतोचि गजस्य घण्टयोः स्वनं समाकर्ण्य समाकुलाङ्गनाः / दूरादपावर्तितभारवाहणाः पथोऽपत्र स्त्वरितं चमूचराः / // 34 / / 25 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 517 ओजस्विवर्णोज्ज्वलवृत्तशालिनः - प्रसादिनोऽनुज्झितगोत्रसंविदः / श्लोकानुपेन्द्रस्य पुरःस्म भूयसो गुणान्समुद्दिश्य पठन्ति वन्दिनः // 35 / / निःशेषमाक्रान्तमहीतलो जलै_ श्चलन्समुद्रोऽपि समुज्झति स्थितिम् / ग्रामेषु सैन्यैरकरोदवारितः किमव्यवस्थां चलितोऽपि केशवः // 36 / / कोशातकीपुष्पगुलुच्छकान्तिभि ___मुखैविनिद्रोल्बणबाणचक्षुषः / ग्रामीणवध्वस्तमलक्षिता जनै श्चिरं वृतीनामुपरि व्यलोकयन् / / 37 / / गोष्ठेषु गोष्ठीकृतमण्डलासना . सनादमुत्थाय मुहुः स वल्गतः / ग्राम्यानपश्यत्कपिशं पिपासतः . स्वगोत्रसङ्कीर्तनभावितात्मनः // 38 / / पश्यन्कृतार्थेरपि बल्लवीजनो जनाधिनाथं न ययौ वितृष्णताम् / एकान्तमौग्ध्यानवबुद्धिविभ्रमैः प्रसिद्धविस्तारगुणैविलोचनैः // 36 / / प्रीत्या नियुक्तांल्लिहती स्तनन्धया निगृह्य पारीमुभयेन जानुनोः / वर्धिष्णुधाराध्वनि रोहिणाः पय ___श्चिरं निदध्यौ दुहतः स गोदुहः / / 40 / / 25 . अभ्याजतोऽभ्यागततूर्णतर्णका निर्याणहस्तस्य पुरो दुधुक्षतः / Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 ] [ काव्यषट्कं वर्गाद्गवां हुंकृतिचारु निर्यती ' मरिर्मघोरक्षत गोमतल्लिकाम् // 41 // स व्रीहिणां यावदपासितुं गताः / शुकान्मृगैस्तावदुपद्रुतश्रियाम् / कैदारिकाणामभितः समाकुलाः ___सहासमालोकयतिस्म गोपिकाः // 42 / / ज्यासेधुमस्मानवधानतः पुरा चलत्यसावित्युपकर्णयन्नसौ / गीतानि गोप्या: कलमं मृगव्रजो न नूनमत्ताति हरिय॑लोकयत् // 43 / / लीलाचलत्स्त्रीचरणारुणोत्पल स्खलत्तुलाकोटिनिनादकोमलः / शौरेरुपानूपमपाहरन्मनः स्वनान्तरादून्मदसारसारवः / / 44 / / उच्चैर्गतामस्खलितां गरीयसी तदातिदूरादपि तस्य गच्छतः / . एके समूहुर्बल रेणुसंहति शिरोभिराज्ञामपरे महीभृतः // 45 / / प्रायेण नीचानपि मेदिनीभतो जनः समेनैव पथाधिरोहति / सेना मुरारे: पथ एव सा पुन महामहीध्रान्परितोऽध्यरोहयत् // 46 / / दन्ताग्रनिभिन्नपयोदमुन्मुखाः ___ शिलोच्चयानारुरुर्महीयसः। . तिर्यक्कटप्लाविमदाम्बुनिम्नगा विपूर्यमाणश्रवणोदरं द्विपाः // 47 // 25 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 519 * श्च्योतन्मदाम्भ: कणकेन केनचि ___ ज्जनस्य जीमूतकदम्बकधुता / नगेन नागेन गरीयसोच्चक ररोधि पन्थाः पथुदन्तशालिना / / 48 / / भग्नद्रुमाश्चकुरितस्ततो दिशः समुल्लसत्केतनकाननाकुलाः / पिष्टाद्रिपृष्ठास्तरसा च दन्तिन __श्चलन्निजाङ्गाचलदुर्गमा भुवः // 49 / / पालोकयामास हरिर्महीधरा नधिश्रयन्तीगंजताः परःशताः / उत्पातवातप्रतिकूलपातिनी रुपत्यकाभ्यो बृहती: शिला इव / / 50 / / शैलाधिरोहाभ्यसनाधिकोधुरैः पयोधरैरामलकीवनाश्रिताः / तं पर्वतीयप्रमदाश्चचायिरे विकासविस्फारितविश्रमेक्षणाः // 51 // सावज्ञमुन्मील्य विलोचने सक क्षणं मृगेन्द्रेण सुषुप्सुना पुनः / सैन्यान्न यातः समयापि विव्यथे कथं सुराजभवमन्यथाथवा // 52 / / उत्सेधनिघूतमहीरुहां ध्वजै जनावरुद्धोद्धतसिन्धुरंहसाम् / नागैरधिक्षिप्तमहाशिलं मुहु बलं बभूवोपरि तन्महीभृताम् // 53 / / * 25 - श्मश्रूयमाणे मधुजालके तरो गंजेन गण्डं कषता विधूनिते। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 ] . [ काव्यषट्क क्षुद्राभिरक्षुद्रतराभिराकुलं विदश्यमानेन जनेन दुवे // 54 / / नीते पलाशिन्युचिते शरीरवद् गजान्तकेनान्तमदान्तकर्मणा / संचेरुरात्मान इवापरं क्षणा क्षमारुहं देहमिव प्लवंगमाः // 55 / / प्रह्वानतीव क्वचिदुद्धतिश्रितः क्वचित्प्रकाशानथ गह्वरानपि / साम्यादपेतानिति वाहिनी हरे- . स्तदातिचक्राम गिरीन्गुरूनपि // 56 / / स व्याप्तवत्या परितोऽपथान्यपि स्वसेनया सर्वपथीनया तया / अम्भोभिल्लतितुङ्गरोधसः / __ प्रतीपनाम्नीः कुरुते स्म निम्नगाः / / 57 / / यावद्वयगाहन्त न दन्तिनां घटा स्तुरङ्गमैस्तावदुदीरितं खुरैः / क्षिप्तं समीरैः सरितां पुरः ___ पतज्जलान्यनैषीद्रज एव पङ्कताम् // 58 / / रन्तु क्षतोत्तुङ्गनितम्बभूमयो मुहुर्वजन्तः प्रमदं मदोद्धताः / पङ्क करापाकृतशैवलांशुकाः . समुद्रगाणामुदवादयन्निभाः // 56 / / रुग्णोरुरोध: परिपूरिताम्भसः समस्थलीकृत्य पुरातनी दीः। 25 कूलंकषोघाः सरितस्तथापराः प्रवर्तयामासुरिभा मदाम्बुभिः // 60 / / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 521 परनन्वोतवधूमुखद्युतो गता न हंसः श्रियमातपत्रजाम् / दुरेऽभवन्भोजबलस्य गच्छतः शैलोपमातीतगजस्य निग्नगाः // 61 / / स्निग्धाञ्जनश्यामतनूभिरुन्नतै निरन्तराला करिणां कदम्बकैः / सेना सुधाक्षालितसौघसम्पदा पुरां बहूनां परभागमाप सा / / 62 / / प्रासादशोभातिशयालुभिः पथि प्रभोनिवासाः पटवेश्मभिर्बभुः / नूनं सहानेन वियोगविक्लवा पुरः पुरश्रीरपि निर्ययौ तदा / / 63 / / वर्म द्विपानां विरुवन्त उच्चकै वनेचरेभ्यश्चिरमाचचक्षिरे / गण्डस्थलाघर्षगलन्मदोदक द्रवद्रुमस्कन्धनिलायिनोऽलयः // 64 / / पायामवद्भिः करिणां घटाशतै __रधःकृताट्टालकपक्तिरुच्चकैः / दूष्यजितोदग्रगृहाणि सा चमू रतीत्य भूयांसि पुराण्यवर्तत / / 65 / / उद्धृतमुच्चैर्ध्वजिनीभिरंशुभिः प्रतप्तमभ्यर्णतया विवस्वतः / आह्लादिकलारसमीरणाहते - पुरः पपाताम्भसि यामुने रजः / / 66 / / या धर्मभानोस्तनयापि शीतलैः स्वसा यमस्यापि जनस्य जीवनैः / 25 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 ] [ काव्यषट्कं कृष्णापि शुद्धरधिकं विधातृभि विहन्तुमंहांसि जलैः पटीयसी // 67 / / यस्या महानोलतटीरिव द्रुताः प्रयान्ति पीत्वा हिमपिण्डपाण्डुराः / कालीरपस्ताभिरिवानुरञ्जिता: क्षणेन भिन्नाञ्जनवर्णतां घना: / / 68 / / व्यक्तं बलीयान् यदि हेतुराग ___ मादपूरयत्सा जलधिं न जाह्नवी / गाङ्गौघनिर्भस्मितशम्भुकन्धरा सवर्णमणः कथमन्यथास्य तत् / / 66 / / अभ्युद्यतस्य ऋमितुं जवेन गां तमालनीला नितरां घृतायतिः / सीमेव सा तस्य पुरः क्षणं बभौ .. बलाम्बुराशेर्महतो महापगा // 70 / / लोलेररित्रैश्चरणैरिवाभितो / - जवावजन्तीभिरसी सरिज्जनः / नौभिः प्रतेरे परितः प्लवोदित भ्रमीनिमीलल्लनावलम्बितैः // 71 / / तत्पूर्वमंसद्वयसं द्विपाधिपाः क्षणं सहेला परितो जगाहिरे / 20 सद्यस्ततस्तेरुरनारतस्र तस्वदानवारिप्रचुरीकृतं पयः / / 72 / / प्रोथैः स्फुरद्भिः स्फुटशब्दमुन्मुखै ___ स्तुरङ्गमैरायतकीर्णवालधि / उत्कर्णमुद्वाहितधीरकन्धरै रतीयताने तटदत्तदृष्टिभिः // 73 // 25 तीर्खा जनेनैव नितान्तदुस्तरां नदी प्रतिज्ञामिव तां गरीयसीम् / Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 523 शृगैरपस्कीर्णमहत्तटीभुवा मशोभतोच्चैनंदितं ककुद्यताम् // 74 // सीमन्त्यमाना यदुभूभृतां वल भी तरद्भिर्गवलासितद्युतिः / सिन्दुरितानेकपकङ्कणाङ्किता __ तरङ्गिणी वेणिरिवायता भुवः / / 75 / / अव्याहतक्षिप्रगतैः समुच्छिता ननुज्झितद्राधिमभिर्गरीयसः / नाव्यं पयः केचिदतारिषुर्भुजैः क्षिद्भिर्मीनपरैरिवोमिभिः // 76 // विदलितमहाकूलामुक्ष्णां विषाणविघट्टन ... रलघुचरणाकृष्टग्राहां विषाणिभिरुन्मदैः / सपदि सरितं सा श्रीभर्तु बृहद्रथमण्डलस्खलितसलिलामुल्लङ्घय नां जगाम बरूथिनी।७७। 15 / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयः / - प्रयाणवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः // 12 // Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 ] [ काव्यषट्कं // 13 // त्रयोदशः सर्गः॥ यमुनामतीतमय शुश्रुवानमुं तपस स्तनून इति. नाधुनोच्यते / .. स यदाचलग्निजपुरादहनिशं नपते ___स्तदादि समचारि वार्तया // 1 / / यदुभतु रागमनलब्धजन्मनः प्रमदादमानिव पुरे महीयसि / सहसा ततः स सहितोऽनुजन्मभि र्वसुधाधिपोऽभिमुखमस्य * निर्ययौ // 2 // रभसप्रवृत्तकुरुचक्रदुन्दुभिध्वनिभि र्जनस्य बधिरीकृतश्रुतेः / समवादि वक्तृभिरभीष्टसङ्कथा प्रकृतार्थशेषमथ हस्तसंज्ञया // 3 // अपदान्तरं च परितः क्षिति क्षितामपतन्द्रतभ्रमितहेमनेमयः / जविमारुताञ्चितपरस्परोपम क्षितिरेणुकेतुवसनाः पताकिनः . / / 4 / / द्रुतमध्वनन्नुपरि पाणिवृत्तयः पणवा इवाश्वचरणक्षता भुवः / ननुतुश्च वारिधरधीरवारण ध्वनिहृष्टकूजितकला: कलापिन: // 5 // व्रजतोरपि प्रणयपूर्वमेकताम सुरारिपाण्डुसुतसैन्ययोस्तदा / रुरुषे विषाणिभिरनुक्षणम्मिथो मदमूढबुद्धिषु विवेकिता कुत: ?. / / 6 / / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 525 अवलोक एव नृपतेः स्म दूरतो रभसाद्रथादवतरीतुमिच्छतः / अवतीर्णवान्प्रथममात्मना हरि विनयं विशेषयति सम्भ्रमेण सः / / 7 / / वपुषा पुराणपुरुषः पुरःक्षितौ __परिपुज्यमानपृथुहारयष्टिना / भुवनैनतोऽपि विहितात्मगौरव: प्रणनाम नाम तनयं पितृष्वसुः / / 8 / / मुकुटांशुरजितपरागमग्रतः स न यावदाप शिरसा महीतलम् / / क्षितिपेन तावदनपेक्षितक्रमं भुज पञ्जरेण रभसादगृह्यत न ममौ कपाटतटविस्तृतं तनो मुरवैरिवक्ष उरसि क्षमाभुजः / भुजयोस्तथापि युगलेन दीर्घयो . विकटीकृतेन परितोऽभिषस्वजे // 10 / / गतया. निरन्तरनिवासमध्युरः / परिनाभि नूनमवमुच्य वारिजम् / कृरुराजनिर्दयनिपीडनाभया न्मुखमध्यरोहि मुरविद्विषः श्रिया / / 11 / / शिरसि स्म जिघ्रति सुरारिबन्धने __ छलवामनं विनयवामनं तदा / यशसेव वीर्यविजितामरद्रम . प्रसवेन वासितशिरोरुहे नृपः / / 12 / / .25 . सुखवेदनाहृषितरोमकूपया शिथिलीकृतेऽपि वसुदेवजन्मनि / Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 ] [ काव्यषट्कं कुरुभ रङ्गलतया न तत्यजे - विकसत्कदम्बनिकुरम्बचारुता // 13 / / इतरानपि क्षितिभुजोऽनुजन्मनः / प्रमनाः प्रमोदपरिफुल्लचक्षुषः / स यथोचितं जनसभाजनोचितः प्रसभोद्धृतासुरसभोऽसभाजयत् / / 14 / / समयेत्य तुल्यमहसः शिलाघना___घनपक्षदीर्घतरबाहुशालिनः / परिशिश्लिषुः क्षितिपतीन्क्षितीश्वरः ___कुलिशात्परेण गिरयो गिरीनिव // 15 / / इभकुम्भतुङ्गकठिनेतरेतरस्तन भारदूरविनिवारितोदराः / परिफुल्लगण्डफलकाः परस्परं / परिरेभिरे कुकुरकौरवस्त्रियः / / 16 / / रथवाजिपत्तिकरिणीसमाकुलं ___तदनीकयोः समगत द्वयं मिथः / दधिरे पृथक्करिण एव दूरतो महतां हि सर्वमथवा जनातिगम् / / 17 / / अधिरुह्यतामिति महीभृतोदितः कपिकेतुनापितकरो रथं हरिः / अवलम्बितैलविलपाणिपल्लवः / / श्रयति स्म मेघमिव मेघवाहनः // 18 / / रथमास्थितस्य च पुराभिवतिन स्तिसृणां पुरामिव रिपोर्मुरद्विषः / अथ धर्ममूर्तिरनुरागभावितः स्वयमादित प्रवयणं प्रजापतिः // 16 / / Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: त्रयोदशः सर्गः 1 [ 527 शनकैरथास्य तनुजालकान्तर स्फुरितक्षपाकरकरोत्कराकृति / पृथुफेनकूटमिव निम्नगापते मरुतश्च सूनुरघुवत्प्रकीर्णकम् // 20 / / विकसत्कलायकुसुमासितद्युते रलघूडपाण्डु जगतामधीशितुः / यमुनाह्रदोपरिगहंसमण्डलद्युति जिष्णु जिष्णुरभृतोष्णवारणम् // 21 / / पवनात्मजेन्द्रसुतमध्यवतिना नितरामरोचि रुचिरेण चक्रिणा / दधतेव योगमुभयग्रहान्तर स्थितकारितं दुरुधराख्यमिन्दुना // 22 / / वशिनं क्षितेरयनयाविवेश्वरं नियमो यमश्च नियतं यतिं यथा / विजयश्रिया वृतमिवार्कमारु तावनुसस्रतुस्तमथ दस्रयोः सुतौ // 23 / / मुदितैस्तदेति दितिजन्मनां _ रिपावविनीतसम्भ्रमविकासिभक्तिभिः / उपसेदिवद्भिरुपदेष्टरीव तै वृते विनीतमविनीतशासिभिः / / 24 / / गतयोरभेदमिति सैन्ययोस्तयो . रथ भानुजह नुतनयाम्भसोरिव / प्रतिनादितामरविमानमानकै नितरां मुदा परमयेव दध्वने // 25 / / - 25 ... मखमीक्षितुं क्षितिपतेरुपेयुषां परितः प्रकल्पितनिकेतनं बहिः / Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 ] [ काव्यषट्कं - 10 उपरुध्यमानमिव भूभृतां बलैः पुटभेदनं दनसुतारिरेक्षत. // 26 / / प्रतिनादपूरितदिगन्तरः पतन्पु· रगोपुरं प्रति स सैन्यसागरः / रुरुचे हिमाचलगुहामुखोन्मुखः पयसां प्रवाह इव सौरसैन्धवः / / 27 / / असकृद्गृहीतबहुदेहसम्भव .. स्तदसौ विभक्तनवगोपुरान्तरम् / पुरुषः पुरं प्रविशति स्म पञ्चभिः . __सममिन्द्रियैरिव नरेन्द्रसूनुभिः // 28 / / तनुभिस्त्रिनेत्रनयनानवेक्षि- . तस्मरविग्रहद्युतिभिरद्युतन्नराः / प्रमदाश्च यत्र खलु राजयक्ष्मणः परतो निशाकरमनोरमैमुखैः // 26 / / अवलोकनाय सुरविद्विषां द्विषः __पटप्रणादविहितोपहूतयः / अवधीरितान्यकरणीयसत्वराः पतिरथ्यमीयुरथ पौरयोषितः // 30 / / अभिवीक्ष्य सामिकृतमण्डनं यतीः कररुद्धनीवि गलदंशुकाः स्त्रियः / दधिरेऽधिभित्ति पटहप्रतिस्वनैः स्फुटमट्टहासमिव सोधपङ्क्तयः / / 31 / / रभसेन हारपददत्तकाञ्चयः प्रतिमूर्धजं निहितकर्णपूरकाः / परिवतिताम्बरयुगाः समापत न्वलीयकृतश्रवणपूरकाः स्त्रियः // 32 / / 25 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 529 व्यतनोदपास्य चरणं प्रसाधिका करपल्लवाद्रसवशेन काचन / द्रुतयावकैकपदचित्रितावनि पदवी गतेव गिरिजा हरार्धताम् // 33 / / व्यचलन्विशङ्कटकटीरकस्थली शिखरस्खलन्मुखरमेखलाकुलाः / भवनानि तुङ्गतपनीयसंक्रम क्रमणक्वणत्कनकनूपुराः स्त्रियः // 34 / / अधिरुक्ममन्दिरगवाक्षमुल्ल सत्सुदृशो रराज * मुरजिद्दिदृक्षया / वदनारविन्दमुदयाद्रिकन्दरा विवरोदरस्थित मिवेन्दुमण्डलम् // 35 / / अधिरूढया निजनिकेतमुच्चकैः पवनावधूतवसनान्तयकया। विहितोपशोभमुपयाति माधवे नगरं व्यरोचत पताकयेव तत् // 36 // करयुग्मपद्ममुकुलापवजितैः प्रतिवेश्म लाजकुसुमैरवाकिरन् / प्रवदीर्णशुक्तिपुटमुक्तमौक्तिक प्रकरैरिव प्रियरथाङ्गमङ्गनाः // 37 / / हिममुक्तचन्द्ररुचिरः सपद्मको ___ मदयन्द्विजाजनितमीनकेतनः / . प्रभवत्प्रसादितसुरो महोत्सवः - प्रमदाजनस्य स चिराय माधवः / / 38 / / धरणीधरेन्द्रदुहितुर्भयादसौ विषमेक्षणः स्फुटममूर्न पश्यति / .25 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 ] .. [ काव्यषट्कं मदनेन वीतभयमित्यधिष्ठिताः . क्षणमीक्षते स्म स पुरोविलासिनी: / / 36 / / विपुलेन सागरशयस्य कुक्षिणा भुवनानि यस्य पपिरे युगक्षये। मदविभ्रमासकलया पपे पुनः . ___स पुरस्त्रियैकतमयैकया दृशा // 40 / / अधिकोन्नमद्धनपयोधरं मुहुः प्रचलत्कलापिकलशङ्खकस्वना / अभिकृष्णमङ्गुलिमुखेन काचन द्रुतमेककर्णविवरं व्यघट्टयत् / / 41 / / परिपाटलाब्जदलचारुणासकृच्च लिताङ्गुलीकिसलयेन , पाणिना / सशिरः प्रकम्पमपरा रिपुं मधो रनुदीर्णवर्णनिभृतार्थमाह्वयत // 42 / / नलिनान्तिकोपहितपल्लवश्रिया व्यवधाय चारु मुखमेकपाणिना / स्फुरदगुलीविवरनिःसृतोल्लस द्दशनप्रभाकुरमजृम्भतापरा // 43 / / वलयापितासितमहोपलप्रभा बहुलीकृतप्रतनुरोमराजिना। हरिवीक्षणाक्षणिकचक्षुषान्यया करपल्लवेन गलदम्बरं दधे // 44 / / निजसौरभभ्रमितभृङ्गपक्षतिव्य जनानिलक्षयितधर्मवारिणा / . अभिशौरि काचिदनिमेषदृष्टिना . . पुरदेवतेव वपुषा व्यभाव्यत 25 // 45 // Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [531 - अधियाति नः सतृष एष चक्षुषो हरिरित्यखिद्यत नितम्बिनीजनः / - न विवेद यः सततमेनमीक्षते न वितृष्णतां व्रजति खल्वसावपि // 46 / / अकृतस्वसद्मगमनादरः क्षणं लिपिकर्मनिर्मित इव व्यतिष्ठत / गतमच्युतेन सह शून्यतां गतः प्रतिपालयन्मन इवाङ्गनाजनः // 47 / / अलसर्मदेन सुदृश: शरीरकैः स्वगृहान्प्रति प्रतिययुः शनैःशनैः / अलघुप्रसारितविलोचनाञ्जलि द्रतपीतमाधवरसौघनिर्भरैः // 48 / / नवगन्धवारिविरजीकृताः पुरो घनधूपधूमकृतरेणुविभ्रमाः। प्रचुरोद्धतध्वजविलम्बिवाससः * पुरवीथयोऽथ हरिणातिपेतिरे // 46 / / उपनीय बिन्दुसरसो मयेन या ___ मणिदारु चारु .किल वार्षपर्वणम् / विदधेऽवधूतसुरसद्मसम्पदं समुपासदत्सपदि संसदं स ताम् / / 50 / / अधिरात्रि यत्र निपतनभोलिहा कलधौतधौतशिलवेश्मनां रुचौ। पुनरप्यवापदिव दुग्धवारिधिक्षण . गर्भवासमनिदाघदीधितिः // 51 / / 25. लयनेषु लोहितकनिमिता भुवः शितिरत्नरश्मिहरितीकृतान्तराः। // 46 // Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 ] [ काव्यषटकं जमदग्निसूनुपितृतर्पणी रपो वहति स्म या विरलशैवला इव / / 52 / / विशदाश्मकूटघटिताः क्षपाकृतः / क्षणदासु यत्र च रुचकतां गताः / .. गृहपङ्क्तयश्चिरमतीयिरे जनस्त मसीव हस्तपरिमर्शसूचिताः / / 53 / / निलयेषु नक्तमसिताश्मनां चय बिसिनीव●परिभवस्फुटागसः / मुहुरत्रसद्भिरपि यत्र गौरवा च्छशलाञ्छनांशव उपांशु जनिरे / / 54 / / . सुखिनः पुरोऽभिमुखतामुपागतः प्रतिमासु यत्र गृहरत्नभित्तिषु / नवसङ्गमैरबिभरुः प्रियाजनैः / / प्रमदं त्रपाभरपराङ्मुखैरपि // 55 // तृणवाञ्छया मुहुरवाञ्चितानना निचयेषु यत्र हरिताश्मवेश्मनाम् / रसनाग्रलग्नकिरणाङ्कुरानो हरिणान्गृहीतकवलानिवैक्षत / / 56 // विपुलालवालभृतवारिदर्पण __प्रतिमागतरभिविरेजुरात्मभिः / यदुपान्तिकेषु दघतो महीरुहः ___ सपलाशराशिमिव मूलसंहतिम् // 57 / / उरगेन्द्रमूर्धरुहरत्नसन्निधेर्मुहु ___ रुन्नतस्य रसितैः पयोमुचः / अभवन्यदङ्गणभुवः समु च्छ्वसन्नववालवायजमणिस्थलाकुराः।।५८॥ 25 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [ 533 * नलिनी निगूढसलिला च यत्र सा ___ स्थलमित्यधः पतति या सुयोधने / अनिलात्मजप्रहसनाकुलाखिल क्षितिपक्षयागमनिमित्ततां ययौ // 56 / / हसितुं परेण परितः परिस्फुर करवालकोमलरुचावुपेक्षितैः / उदकर्षि यत्र जलशङ्कया जनै मुंहुरिन्द्रनीलभुवि दूरमम्बरम् // 60 / / अभितः सदोऽथ हरिपाण्डवौ रथादमलांशुमण्डलसमुल्लसत्तनू / अवतरतुर्नयननन्दनौ नभः शशिभार्गवावुदयपर्वतादिव / / 61 // तदलक्ष्यरत्नमयकुड्यमादरा दभिधातरीत इत इत्यथो नृपे। धवलाश्मरश्मिपटलाविभावित प्रतिहारमाविशदसौ सदः शनैः / / 62 / / नवहाटकेष्टकचितं ददर्श स क्षितिपस्य पस्त्यमथ तत्र संसदि / गगनस्पृशां मणिरुचां चयेन ____ यत्सदनान्युदस्मयत नाकिना मपि // 63 / / उदयाद्रिमूर्ध्नि युगपच्चकासतो दिननाथपूर्णशशिनोरसम्भवाम् / रुचिमासने रुचिरधाम्नि बिभ्रता ____ वलघुन्यथ न्यषदतां नृपाच्युतौ // 64 / / सुतरां सुखेन सकलक्लमच्छिदा सनिदाघमङ्गमिव मातरिश्वना / 2 // Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 ] [ काव्यषट्कं यदुनन्दनेन तदुदन्वतः पयः ___ शशिनेव राजकुलमाप नन्दथुम् // 65 / / अनवद्यवाद्यलयगामि कोमलं .. . नवनीतमप्यनवगीततां दधत् / / स्फुटसात्विकाङ्गिकमनृत्यदुज्ज्वलं सविलासलासिकविलासिनीजनः // 66 / / सकले च तत्र गृहमागते हरौ ____ नगरेऽप्यकालमहमादिदेश सः / सततोत्सवं तदिति नूनमुन्मुदो रभसेन विस्मृतमभून्महीभृतः // 67 / / हरिराकुमारमखिलाभिधान- . वित्स्वजनस्य वार्तमयमन्वयुङ्क्त च / महतीमपि श्रियमवाप्य विस्मयः सुजनो न विस्मरति जातु किंचन // 68 / / मर्त्यलोकदुरवापमवाप्तरसोदयं नूतनत्वमतिरक्ततयानुपदं दधत् / श्रीपतिः पतिरसाववनेश्च परस्परं सङ्कथामृतमनेकमसिस्वदतामुभौ // 66 / / / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के 20 श्रीकृष्णसमागमो नाम त्रयोदशः सर्गः / / 13 // Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 535 // 14 // चतुर्दशः सर्गः॥ (रथोद्धता) तं जगाद गिरमुगिरन्निव स्नेहमाहितविकासया दृशा / यज्ञकर्मणि मनः समादधद्वाग्विदां वरमकद्वदो नृपः / / 1 / / 5 लज्जते न गदितः प्रियं परो ववतुरेव भवति त्रपाधिका / बीडमेति न तव प्रियं वदन्हीमतात्रभवतैव भूयते // 2 / / तोषमेति वितथैः स्तवैः परस्ते च तस्य सुलभाः शरीरिभिः / अस्ति न स्तुतिवचोऽनृतं तव स्तोत्रयोग्य न च तेन तुष्यसि / 3 / बह्वपि प्रियमयं तव ब्रुवन्न व्रजत्यन्तवादितां जनः / 10 सम्भवन्ति यददोषदूषिते सार्व सर्वगुणसम्पदस्त्वयि / / 4 / / सा विभूतिरनुभाव सम्पदां भूयसी तव यदायतायति / एतदूढगुरुभार भारतं वर्षमद्य मम वर्तते वशे / / 5 / / सप्ततन्तुमधिगन्तुमिच्छत: कुर्वनुग्रहमनुज्ञया मम / मूलतामुपगते प्रभो त्वयि प्रापि धर्ममयवृक्षता मया / / 6 / / 15 सम्भृतोपकरणेन निर्मलां कर्तु मिष्टिमभिवाञ्छता मया / त्वं समीरण इव प्रतीक्षितः कर्षकेण वलजान्पुपूषता / / 7 / / वीतविघ्नमनघेन भाविता सन्निधेस्तव मखेन मेऽधुना / को विहन्तुमलमास्थितोदये वासरश्रियमशीतदीधितौ / / 8 / / स्वापतेयमधिगम्य धर्मतः पर्यपालयमवीवृधं च यत् / 20 तीर्थगामि करवं विधानतस्तज्जुषस्व जुहवानि चानले / / 6 / / पूर्वमङ्ग जुहुधि त्वमेव वा स्नातवत्यवभृथे ततस्त्वयि / सोमपायिनि भविष्यते मया वांछितोत्तमवितानयाजिना॥१०।। ..किं विधेयमनसा विधीयतां त्वत्प्रसादजितयार्थसम्पदा / / Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 536 ] [ काव्यषट्कं शाधि शासक जगत्त्रयस्य मामाश्रवोऽस्मि भवतः सहानुजः // 11 // तं वदन्तमिति विष्टरश्रवाः श्रावयन्नथ समस्तभूभृतः / व्याजहार दशनांशुमण्डलव्याजहारशबलं दधद्वपुः / / 12 / / सादिताखिलनपं महन्महः . ___सम्प्रति स्वनयसम्पदैव ते / किं परस्य स गुणः समश्नुते पथ्यवृत्तिरपि यद्यरोगिताम् // 13 / / तत्सुराज्ञि भवति स्थिते पुनः / ___कऋतु यजतु राजलक्षणम् / उद्धृतौ भवति कस्य वा भवः .. श्रीवराहमपहाय योग्यता // 14 / / शासनेऽपि गुरुणि व्यवस्थितं कृत्यवस्तुषु नियुक्ष्व कामतः / त्वत्प्रयोजनधनं धनञ्जयादन्य एष इति मां च मावगाः / / 15 / / 15 यस्तवेह सवने न भूपतिः कर्म कर्मकरवत्करिष्यति / तस्य नेष्यति वपुः कबन्धतां बन्धुरेव जगतां सुदर्शनः / / 16 / / इत्युदीरितगिरं नपस्त्वयि श्रेयसि स्थितवति स्थिरा मम / सर्वसम्पदिति शौरिमुक्तवानुद्वहन्मुदमुदस्थित ऋतौ / / 17 / / अाननेन शशिन: कलां दधद्दर्शनायतकामविग्रहः / 20 प्राप्लुतः स विमलैजलैरभूदष्टमूर्तिधर मूतिरष्टमी // 18 // तस्य सांख्यपुरुषेण तुल्यतां बिभ्रतः स्वयमकुर्वतः क्रियाः / कर्तृता तदुपलम्भतोऽभवद्वृत्तिभाजि करणे यत्विजि / / 16 / / शब्दितामनपशब्दमुच्चकैर्वाक्यलक्षणविदोऽनुवाक्यया / याज्यया यजन कर्मिणोऽत्यजन्द्रव्यजातमपदिश्य देवताम् / 20 / 25 सप्तभेदकरकल्पितस्वरं साम सामविदसङ्गमुज्जगौ / तत्र सूनृतगिरश्च सूरयः पुण्यमृग्यजुषमध्यगीषत / / 21 / / Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 537 बद्धदर्भमयकाञ्चिदामया वीक्षितानि यजमानजायया। * शुष्मणि प्रणयनादिसंस्कृते तैर्हवींषि जुहवाम्बभूविरे // 22 // नाञ्जसा निगदितुं विभक्तिभिर्व्य क्तिभिश्च निखिलाभिरागमे / 5 तत्र कर्मणि विपर्यणीनमन् मन्त्रमूहकुशलाः प्रयोगिणः // 23 / / संशयाय दधतोः सरूपतां दूरभिन्नफलयोः क्रियां प्रति / शब्दशासनविदः समासयोविग्रहं व्यवससूः स्वरेण ते / / 24 / / लोलहेतिरसनाशतप्रभामण्डलेन लसता हसन्निव / 10 प्राज्यमाज्यमसकृद्वषट्कृतं निर्मलीमसमलीढ पावकः / / 25 / / तत्र मन्त्रपवितं हविः ऋतावश्नतो न वपुरेव केवलम् / वर्णसम्पदमतिस्फुटां दधन्नाम चोज्ज्वलमभूद्धविर्भुजः / / 26 / / स्पर्शमुष्णमुचितं दधच्छिखी यद्ददाह हविरद्भुतं न तत् / गन्धतोऽपि हुतहव्यसम्भवाद् देहिनामदहदोघमंहसाम् // 27 / / -- 15 उन्नमन्सपदि धूम्रयन्दिशः सान्द्रतां दधदधःकृताम्बुदः / द्यामियाय दहनस्य केतनः कीर्तयन्निव दिवौकसां प्रियम् / / 28 / / निजिताखिलमहार्णवौषधिस्यन्दसारममृतं ववल्गिरे / नाकिनः कथमपि प्रतीक्षितुं हूयमानमनले विषेहिरे / / 26 / / तत्र नित्यविहितोपहूतिषु प्रोषितेषु पतिषु द्युयोषिताम् / / 20 गुम्फिताः शिरसि वेणयोऽभवन्न प्रफुल्लसुरपादपस्रजः / / 30 / / प्राशुराशु हवनीयमत्र यत्तेन दीर्घममरत्वमध्यगुः / / उद्धतानधिकमेघितौजसो दानवांश्च विबुधा विजिग्यिरे / 31 / नापचारमगमन्क्वचित्क्रियाः सर्वमत्र समपादि साधनम् / अत्यशेरत परस्परं धियः सत्त्रिणां नरपतेश्च सम्पदः / / 32 / / * 25 दक्षिणीयमवगम्य पङ्क्तिशः पङ्क्तिपावनमथ द्विजव्रजम् / . दक्षिणः क्षितिपतिळशिश्रणदक्षिणाः सदसि राजसूयकीः / 33 / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 ] [ काव्यषट्कं वारिपूर्वमखिलासु सत्क्रियालब्धशुद्धिषु धनानि बीजवत् / भावि बिभ्रति फलं महद्विजक्षेत्रभूमिषु नराधिपोऽवपत् // 34 // किं नु चित्रमधिवेदि भूपतिदक्षयन्द्विजगणानपूयत / राजतः पुपुविरे निरेनसः प्राप्य तेऽपि विमलं प्रतिग्रहम् / 35 / 5 स स्वहस्तकृतचिह्नशासन: पाकशासनसमानशासनः / पा शशाङ्कतपनार्णवस्थितेविप्रसादकृत भूयसी वः / / 36 / / शुद्धमश्रुतिविरोधि बिभ्रतं शास्त्रमुज्ज्वलमवर्णसङ्करैः / पुस्तकैः सममसौ गणं मुहुर्वाच्यमानमशृणोदद्विजन्मनाम् / 37 / तत्प्रतीतमनसामुपेयुषां द्रष्टुमाहवनमग्रजन्मनाम् / 10 आतिथ्यमनिवारितातिथिः कर्तुमाश्रमगुरुः स नाश्रमत् / / 38 / / मृग्यमाणमपि यद् दुरासदं भूरिसारमुपनीय तत्स्वयम् / आसतावसरकाङ्क्षिणो बहिस्तस्य रत्नमुपदीकृतं नृपाः / / 3 / / एक एव वसु यद्ददौ नृपस्तत्समापकमतर्यंत क्रतोः / त्यागशालिनि तपःसुते ययुः सर्वपार्थिवधनान्यपि क्षयम् / 40 / 15 प्रीतिरस्य ददतोऽभवत्तथा येन तत्प्रियचिकीर्षवो नृपाः / स्पशितैरधिकमागमन्मुदं नाधिवेश्म निहितैरुपायनैः / / 41 / / यं लघुन्यपि लघूकृताहितः शिष्यभूतमशिषत्स कर्मणि / सस्पृहं नृपतिभिर्नु पोऽपरैगौरवेण ददृशेतरामसौ // 42 / / आद्यकोलतुलितां प्रकम्पनैः कम्पितां मुहुरनोगात्मनि / वाचि रोपितवताऽमुना महीं राजकाय विषया विभेजिरे।४३। अागताद्वयवसितेन चेतसा सत्त्वसम्पदविकारिमानसः / तत्र नाभवदसौ महाहवे शात्रवादिव पराङ्मुखोऽर्थिनः / / 44 / / नक्षतार्थिनमवज्ञया मुहुर्याचितस्तु न च कालमाक्षिपत् / नादिताल्पमथ न व्यकत्थयद्दत्तमिष्टमपि नान्वशेत सः // 45 / / 25 निर्गुणोऽपि विमुखो स भूपतेर्दानशौण्डमनसः पुरोऽभवत् / वर्ष कस्य किमपः कृतोन्नतेरम्बुदस्य परिहार्यमूषरम् / / 46 / / 20 र Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्दशः सर्गः ] / 536 प्रेम तस्य न गुणेषु नाधिकं न स्म वेद न गुणान्तरं च सः / दित्सया तदपि पार्थिवोऽथिनं ____ गुण्यगुण्य इति न व्यजीगणत् / / 47 / / 5 दर्शनानुपदमेव कामतः स्वं वनीयकजनेऽधिगच्छति / प्रार्थनार्थरहितं तदाऽभवद् दीयतामिति वचोऽतिसर्जने // 48 / / नानवाप्तवसुनाऽर्थकाम्यता नाचिकित्सितगदेन रोगिणा / इच्छताशितुमनाशुषा न च प्रत्यगामि तदुपेयुषा सदः / / 4 / / स्वादयन रसमनेकसंस्कृत-प्राकृतैरकृतपात्रसङ्करैः / 10 भावशुद्धिसहित,दं जनो नाटकैरिव बभार भोजनैः / / 50 / / रक्षितारमिति तत्र कर्मणि न्यस्य दुष्टदमनक्षमं हरिम् / अक्षतानि निरवर्तयत्तदा दानहोमयजनानि भूपतिः // 51 / / एक एव सुसखैष सुन्वतां शौरिरित्यभिनयादिवोच्चकैः / यूपरूपकमनीनमद् भुजं भूश्चषालतुलितागुलीयकम् / / 52 / / इत्थमत्र विततक्रमे ऋतौ वीक्ष्य धर्ममथ धर्मजन्मना / अर्घदानमनु नोदितो वचः सभ्यमभ्यधित शन्तनोः सुतः / 53 / आत्मनैव गुणदोषकोविदः किं न वेत्सि करणीयवस्तुषु / यत्तथापि न गुरून्न पृच्छसि त्वं क्रमोऽयमिति तत्र कारणम् / 54 / स्नातकं गुरुमभीष्टमृत्विज संयुजा च सह मेदिनीपतिम् / 20 अर्धभाज इति कीर्तयन्ति षट ते च ते युगपदागता सदः / 55 / शोभयन्ति परितः प्रतापिनो मन्त्रशक्तिविनिवारितापदः / त्वन्मखं मुखभुवः स्वयम्भुवोः भूभुजश्च परलोकजिष्णवः / 56 / आभजन्ति गुणिनः पृथक्पृथक्पार्थ सत्कृतिमकृत्रिमाममी / एक एव गुणवत्तमोऽथवा पूज्य इत्ययमपीष्यते विधिः // 57 / / * 25 अत्र चैष सकलेऽपि भाति मां प्रत्यशेषगुणबन्धुरर्हति / भूमिदेवनरदेवसङ्गमे पूर्व देवरिपुरर्हणां हारः // 5 // Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 ] [ काव्यषटकं मर्त्यमात्रमवदीधरद्भवान् मैनमानमितदैत्यदानवम् / '' अंश एष जनतातिवतिनो वेधसः प्रतिजनं कृतस्थितेः / / 56 / / ध्येयमेकमपथे स्थितं धियः स्तुत्यनुत्तममतीतवाक्पथम् / प्रामनन्ति यमुपास्यमादराद् दूरवर्तिनमतीव योगिनः / / 60 / / पद्मभूरिति सृजजगद्रजः सत्त्वमच्युत इति स्थिति नयन् / संहरन्हर इति श्रितस्तमस्वैधमेष भजति त्रिभिर्गुणैः / / 61 / / सर्ववेदिनमनादिमास्थित देहिनामनुजिघृक्षया वपुः। . क्लेशकर्मफलभोगवजितं विशेषममुमीश्वरं विदुः / / 62 / / भक्तिमन्त इह भक्तवत्सले सन्ततस्मरणरीणकल्मषाः / यान्ति निर्वहणमस्य संसृति-क्लेशनाटक विडम्बनाविधेः / / 63 / / ग्राम्यभावमपहातुमिच्छवो योगमार्गपतितेन चेतसा / दुर्गमेकमपुननिवृत्तये यं विशन्ति वशिनं मुमुक्षवः // 64 / / आदितामजननाय देहिनामन्ततां च दधतेऽनपायिने / बिभ्रते भूवमधः सदाथ च ब्रह्मणोऽप्युपरि तिष्ठते नमः / / 65 / / 15 केवलं दधति कर्तृवाचिनः प्रत्ययानिह न जातु कर्मणि / धातवः सृजतिसंहशास्तयः स्तौतिरत्र विपरीतकारकः / / 66 / / पूर्वमेष किल सृष्टवानपस्तासु वीर्यमनिवार्यमादधौ / तच्च कारणमभूद्धिरण्मयं ब्रह्मणोऽसृजदसाविदं जगत् / / 67 / / मत्कुणाविव पुरा परिप्लवौ सिन्धुनाथशयने निषेदुषः / गच्छतः स्म मधुकैटभी विभो यस्य नैद्रसुखविघ्नतां क्षणम् // 68 / / श्रौतमार्गसुखगानकोविदब्रह्मषट्चरणगर्भमुज्ज्वलम् / . श्रीमुखे दुसविधेऽपि शोभते यस्य नाभिसरसीसरोरुहम् / / 6 / / 25 सत्यवृत्तमपि मायिनं जगवृद्धमप्युचितनिद्रमर्भकम् / जन्म बिभ्रतमजं नवं बुधा यं पुराणपुरुष प्रचक्षते / / 70 // Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 541 स्कन्धधूननविसारिकेसरक्षिप्तसागरमहाप्लवामयम् / उद्धृतामिव मुहूर्तमैक्षत स्थूलनासिकवपुर्वसुन्धराम् / / 71 / / दिव्यकेसरिवपुः सुरद्विषो नैव लब्धशममायुधैरपि / दुनिवाररणकण्ड कोमलैर्वक्ष एष निरदारयन्नखैः / / 72 / / 5 वारिरिव कराग्रवीचिभिर्दिङ्मतङ्गजमुखान्यभिघ्नतः / यस्य चारुनख शुक्तयः स्फुरन्मौक्तिकप्रकरगर्भतां दधुः / / 73 / / दीप्तिनिजितविरोचनादयं गां विरोचनसुतादभीप्सतः / आत्मभूरवरजाखिलप्रजः स्वर्पतेरवरजत्वमाययौ / / 74 / / किं क्रमिष्यति किलैष वामनो यावदित्थमहसन्न दानवाः / 10 तावदस्य न ममौ नभस्तले लङ्घितार्कशशिमण्डल: क्रमः / / 75 / / गच्छतापि गगनाग्रमुच्चकर्यस्य भूधरगरीयसाघ्रिणा / क्रान्तकन्धर इवाबलो बलिः स्वर्गभर्तु रगमत्सुबन्धताम् / / 76 / / क्रामतोऽस्य ददृशुर्दिवौकसो दूरमूरुमलिनीलमायतम् / व्योम्नि दिव्यसरिदम्बुपद्धतिस्पर्धयेव यमुनौघमुत्थितम् / / 77 / / 15 यस्य किंचिदपकर्तु मक्षमः कायनिग्रहगृहीतविग्रहः / कान्तवक्त्रसदृशाकृति कृती राहुरिन्दुमधुनापि बाधते / / 7 / / सम्प्रदायविगमादुपेयुषीरेष नाशमविनाशिविग्रहः / स्मर्तु मप्रतिहतस्मृतिः श्रुतीर्दत्त इत्यभवदत्रिगोत्रजः // 76 / / रेणुकातनयतामुपागतः शातितप्रचुरपत्रसंहति / 20 लूनभूरिभुजशाखमुज्झितच्छायमर्जुनवनं व्यधादयम् / / 8 / / एष दाशरथिभूयमेत्य च ध्वंसितोद्धतदशाननामपि / राक्षसीमकृत रक्षितप्रजस्तेजसाधिकविभीषणां पूरीम् / / 1 / / निष्प्रहन्तुममरेशविद्विषामथितः स्वयमथ स्वयंभुवा / सम्प्रति श्रयति सूनुतामयं कश्यपस्य वसुदेवरूपिणः / / 82 / / . 25 तात नोदधिविलोडनं प्रति त्वद्विनाथ वयमुत्सहामहे / यः सुरैरिति सुरौघवल्लभो बल्लवैश्च जगदे जगत्पतिः / / 83 / / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 ] [ काव्यषटकं नात्तगन्धमवधूय शत्रुभिश्छायया च शमितामरश्रमम् / ' योऽभिमानमिव वृत्रविद्विषः पारिजातमुदमूलयद्दिवः / / 84 / / यं समेत्य च ललाटलेखया बिभ्रतः सपदि शंभुविभ्रमम् / चण्डमारुतमिव प्रदीपवच्चेदिपस्य निरवाद्विलोचनम् / / 8 / / . यः कोलतां बल्लवतां च बिभ्रद् ___ दंष्ट्रामुदस्याशु भुजां च गुर्वीम् / मग्नस्य तोयापदि 'दुस्तरायां गोमण्डलस्योद्धरणं चकार // 86 / / धन्योऽसि यस्य हरिरेष समक्ष एव दूरादपि ऋतुषु यज्वभिरिज्यते यः / दत्त्वार्घमत्रभवते भुवनेषु यावत् संसारमण्डलमवाप्नुहि साधुवादम् / / 8 / / भीष्मोक्तं तदिति वचो निशम्य सम्यक् साम्राज्यश्रियमधिगच्छता नृपेण / दत्तेऽर्थे महति महीभृतां पुरोऽपि त्रैलोक्ये मधुभिदभूदनर्घ एव // 88 / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के श्रीकृष्णार्घदानो नाम चतुर्दशः सर्गः / / 14 / / Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 543 // 15 // पञ्चदशः सर्गः॥ अथ तत्र पाण्डतनयेन सदसि विहितं मुरद्विषः / मानमसहत न चेदिपतिः परि वृद्धिमत्सरि मनो हि मानिनाम् // 1 / / पुर एव शाङ्गिण सवैरमथ पुनरमुं तदर्चया / मन्युरभजदवगाढतरः समदोषकाल इव देहिनं ज्वरः / / 2 / / अभितर्जयन्निव समस्तनृपगणमसावकम्पयत् / / लोलमुकुटमणिरश्मि शनैरशनैः प्रकम्पितजगत्त्रयं शिरः / / 3 / / 10 स वमन्रुषाश्रु घनघर्मविगलदुरुगण्डमण्डल: / स्वेदजलकणकरालकरो व्यरुचत्प्रभिन्न इव कुञ्जरस्त्रिधा / / 4 / / स निकाममितमभीक्ष्णमधुवदवधूतराजकः / क्षिप्तबहुलजलबिन्दु वपुः प्रलयार्णवोत्थित इवादिशूकरः / / 5 / / क्षणमाश्लिषद् घटितशैलशिखरकठिनांसमण्डलः / 15 स्तम्भमुपहितविधूतिमसावधिकावधूनितसमस्तसंसदम् / / 6 / / कनकाङ्गदद्युतिभिरस्य गसितमरुचत् पिशङ्गताम् / क्रोधमयशिखिशिखापटलैः परितः परीतमिव बाहुमण्डलम् / 7 / कृतसन्निधामिव तस्य पुनरपि तृतीयचक्षुषा / क्रूरमजनि कुटिलभ्रगुरुभ्रुकुटीकठोरितललाटमाननम् // 8 // अतिरक्तभावमुपगम्य कृतमतिरमुष्य साहसे / दृष्टिरगणितभयासिलतामवलम्बते स्म समया सखीमिव / / 6 / / करकुड्मलेन निजमूरुमुरुतरनगाश्मकर्कशम् / / त्रस्तचपलचलमानजनश्रुतभीमनादमयमाहतोच्चकैः // 10 // इति चुऋधे भृशमनेन ननु महदवाप्य विप्रियम् / 25 याति विकृतिमपि संवृतिमत् किमु यन्निसर्गनिरवग्रहं मनः / 11 / Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 ] [ काव्यषट्क प्रथमं शरीरजविकारकृतमुकुलबन्धमव्यथी / भाविकलहफलयोगमसौ वचनेन कोपकुसुमं व्यचीकसत् / / 12 / / ध्वनयन् सभामथ सनीरघनरवगभीरवागभी: / वाचमवददतिरोषवशादतिनिष्ठुरस्फुटतराक्षरामसौ // 13 / / 5 यदपुपुजस्त्वमिह पार्थ मुरजितमपूजितं सताम् / . प्रेम विलसति महत्तदहो दयित्नं जन. खलु गुणीति मन्यते / 14 / यदराज्ञि राजवदिहार्य मुपहितमिदं मुरद्विषि / ग्राम्यमृग इव हविस्तदयं भजते ज्वलत्सु न महीशवह्निः // 15 / / अनृतां गिरं न गदसीति / जगति पटहै विघुष्यसे / / निन्द्यमथ च हरिमर्चयतस्तव कर्मणैव विकसत्यसत्यता // 16 / / 15 तव धर्मराज इति नाम कथमिदमपष्ठु पठ्यते / भौमदिनमभिदधत्यथवा भृशमप्रशस्तमपि मङ्गलं जनाः / / 17 / / यदि वार्चनीयतम एव किमपि भवतां पृथासुताः / . शौरिरवनिपतिभिनिखिलैरवमाननार्थमिह निमन्त्रितैः / / 18 / / अथवा न धर्ममसुबोध समयमवयात बालिशाः / काममयमिह वृयापलितो हतबुद्धिरणिहितः सरित्सुतः // 19 / / स्वयमेव शन्तनुतनूज यमपि गणमय॑मभ्यधाः / तत्र मुररिपुरय कतमो यमनिन्द्यबन्दिवदभिष्टुषे वृथा / / 20 / / 25 अवनीभृतां त्वमपहाय गणमतिजड: समुन्नतम् / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 545 नीचि नियतमिव यच्चपलो निरतः स्फुटं स्वसि निम्नगासुतः // 21 // प्रतिपत्तुमङ्ग घटते च न तव नृपयोग्यमहणम् / कृष्ण कलय ननु कोऽहमिति स्फुटमापदां पदमनात्मवेदिता // 22 / / असुरस्त्वया न्यवधि कोऽपि मधुरिति कथं प्रतीयते / दण्डदलितसरघः प्रथसे मधु. सूदनस्त्वमिति सूदयन्मधु // 23 // मुचुकुन्दतल्पशरणस्य मगधपतिशातितौजसः / सिद्धमबल सबलत्वमहो तव रोहिणीतनयसाहचर्यतः // 24 / / छलयन्प्रजास्त्वमन्तेन कपटपटुरेन्द्रजालिकः / प्रीतिमनुभवसि नग्नजितः सुतयेष्टसत्य इति सम्प्रतीयसे // 25 / / धृतवान्न चक्रमरिचक्र भयचकितमाहवे निजम् / चक्रधर इति रथाङ्गमदः सततं बिभषि भुवनेषु रूढये // 26 / / जगति श्रिया विरहितोऽपि .. यदुदधिसुतामुपायथाः / / ज्ञातिजनजनितनामपदां त्वमतः श्रियः पतिरिति प्रथामगाः / / 27 / / Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 ] ...[ काव्यषट्कं अभिशत्र संयति कदा .. चिदविहितपराक्रमोऽपि यत् / व्योम्नि कथमपि चकर्थ पदं व्यपदिश्यसे जगति विक्रमीत्यतः // 28 // पृथिवीं बिभर्थ यदि पूर्व मिदमपि गुणाय वर्तते / भूमिभृदिति परहारितभूस्त्व ___मुदाह्रियस्व कथमन्यथा जनैः // 26 // तव धन्यतेयमपि सर्वनपति तुलितोऽपि यत्क्षणम् / क्लान्तकरतलधृताचलक: पृथिवीतले तुलितभूभृदुच्यसे // 30 / / त्वमशक्नुवन्न शुभकर्मनिरत ! - परिपाकदारुणम् / जेतुमकुशलमतिर्नरकं यशसे ऽधिलीकमजयः सुतं भुवः // 31 // सकलैर्वपुः सकलदोषसमुदितमिदं गुणैस्तव / त्यक्तमपगुण गुणत्रितयत्यजनप्रयासमुपयासि किं मुधा // 32 / / त्वयि पूजनं जगति जाल्म कृतमिदमपाकृते गुणैः / 20 हासकरमघटते नितरां शिरसीव कङ्कतमपेतमूर्धजे / / 33 / / मृगविद्विषाभिव यदित्थ मजनि मिषतां पृथासुतैः / / अस्य वनशुन इवापचितिः परिभाव एष भवतां भुवोऽधिपाः / / 34 / / 25 अवधीज्जनंगम इवैष. यदि / हतवृषो वृषं ननु ... / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 547 स्पर्शमशुचिवपुरर्हति न प्रति माननां तु नितरां नृपोचिताम् // 35 / / यदि नाङ्गनेति मतिरस्य मृदुरजनि पूतनां प्रति / स्तन्यमघणमनसः पिबतः किल धर्मतो भवति सा जनन्यपि / / 36 / / शकटव्युदासतरुभङ्ग धरणिधरधारणादिकम् / कर्म यदयमकरोत्तरलः स्थिर चेतसां क इव तेन विस्मयः // 37 / / प्रयमुग्रसेनतनयस्य नृपशुरपरः पशूनवन् / स्वामिवधमसुकरं पुरुषैः कुरुते स्म यत्परममेतदद्भुतम् / / 38 / / // प्रक्षिप्तश्लोकाः॥ ननु सर्व एव समवेक्ष्य कमपि गुणमेति पूज्यताम् / 15 सर्वगुणविरहितस्य हरेः परिपूजया कुरुनरेन्द्र को गुणः / / 1 / / न महानयं न च बिति गुणसमतया प्रधानताम् / स्वस्य कथयति चिराय पृथ ग्जनतां जगत्यनभिमानतां दधत् / / 2 / / 20 रहितं कलाभिरखिला भिरकृतरसभावसंविदम् / क्षेत्रविदमपदिशन्ति जनाः पुरबाह्यमेनमगतं विदग्धताम् // 3 // .. . अतिभूयसापि सुकृतेन दुरुपचर एष शक्यते / Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 ] [ काव्यषट्क भक्तिशुचिभिरुपचारपरै रपि न ग्रहीतुमभियोगिभिर्नुभिः / / 4 / / व्रजति. स्वतामनुचितोऽपि . ___सविनयमुपासितो जनैः / नित्यमपरिचितचित्ततया पर एव सर्वजगतस्तथाप्ययम् . / / 5 / / उपकारिणं निरुपकारमन रिमरिमप्रियं प्रियम् / साधुमितरमबुधं बुधमित्य विशेषतः सततमेष पश्यति उपकारकस्य दधतोऽपि बहुगुणतया प्रधानताम् / दुःखमयमनिशमाप्तवतो / ___न परस्य किंचिदुपकर्तुमिच्छति / / 7 / / 15 स्वयमक्रियः कुटिलमेष तृणमपि विधातुमक्षमः / भोक्तुमविरतमलज्जतया फलमीहते परकृतस्य कर्मणः / / 8 / / य इम समाश्रयति कश्चिदुदयविपदोनिराकुलम् / तस्य भवति जगतीह कुतः पुनरुद्भवो विकरणत्वमेयुषः / / 9 / / गुणवन्तमप्ययमपास्य जनमखिलमव्यवस्थितैः / याति सुचिरमतिबालतया धृतिमेक एव परिवारितो जडैः / 10 / सुकृतोऽपि सेवकजनस्य बहुदिवसखिन्नचेतसः / सर्वजनविहितनिविदयं सकृदेव दर्शनमुपैति कस्यचित् / / 11 / / स्वजने सखिष्वनुगतेषु नियतमनुरागवत्स्वपि। . स्नेहममृदुहृदयः क्षपयन्निरपेक्ष एष समुपैति निर्वृतिम् / / 12 / / 25 क्षणमेष राजसतयैव जगदुदयदर्शितोद्यतिः / सत्वहितकृतमतिः सहसा तमसा विनाशयति सर्वमावृतः / 13 / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] ( 546 अभिहन्यते यदभिहन्ति परितपति यच्च तप्यते / नास्य भवति वचनीयमिदं .. चपलात्मिका प्रकृतिरेव हीदृशी // 14 / / 5 प्रतिसत्वयुक्त इति पुंभिरयमतिशयेन वर्ण्यते / सूक्ष्ममतिभिरथ चापगते समुपैति नाल्पमपि सत्वसंकरम् / / 15 / / प्रलयं परस्य महतोऽपि नियतमिह निःसुखे गुणाः / यान्ति जगदपि सदोषमदःस्वरुचैव पश्यति गुणान्विषन्नयम् 16 क्षितिपीठमम्भसि निमग्नमुदहरत यः परः पुमान् / 10 एष किल-स इति कैरबुधैरभिधीयमानमपि तत्प्रतीयते / / 17 / / नरसिंहमूर्तिरयमेव . दितिसुतमदारयन्नखैः / प्राप्तजनवचनमेतदपि प्रतिपत्तुमोमिति जनोऽयमर्हति / / 18 / / अपहाय तुङ्गमपि मानमुचितमवलम्ब्य नीचताम् / स्वार्थकरणपटुरेष. पुरा बलिना परेण सह संप्रयुज्यते / / 16 / / 15 क्रमते नभो रभसयैव विरचयति विश्वरूपताम् / सर्वमतिशयगतं कुरुते स्फुटमिन्द्रजालमिदमेष मायया / / 20 / / किल रावणारिरयमेव किमिदमियदेव कथ्यते / सत्वमतिबलमधिद्युति यत्तदशेषमेष इति धृष्टमुच्यताम् / / 21 / / चलतेष पादयुगलेन ‘गुरु शकटमीषदस्पृशत / 20 दैवकलितमथ चोदलसद्दलितोरुभाण्डचयमात्मनैव तत् / / 22 / / स्तुवतामुना स्तनयुगेन जनितजननीजनादरा / स्त्रीति सदयमविधाय मनस्तदकारि साधु यदघाति पूतना।२३। अभनक्तरू कथमिवैष कृतधरणिरिङ्गणः क्षणात् / बाढमिदमपि न बालकृतं ननु देवताविधिरियं विजृम्भते / 24 / . . 25 विहरन् वने विजन एव महति दधदेष गोपताम् / नाम जगति मधुसूदन इत्यगमद्धतेन मधुना महीयसा / / 25 / / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 ] [ काव्यषट्कं अविमृश्य गोवघसमुत्थमयमघममीरद्रुषा / रिष्टमुपगु समुपोढमदं यदसौ किलासुर इति प्रमाष्टि तत् / 26 / मुखकन्दरान्तरगतोऽपि विकटदशनेन केशिना / नास्य सपदि यदखादि भुजस्त ___दहो तिरश्चि सहजैव मूढता // 27 / / यदुदस्य बाहुमयमेकमधृत गिरिमद्भुतं न तत् / भूरि सलिलमविषह्यमिय जलदे विमुञ्चति गवां सभाग्यता // 28 / / किमिवात्र चित्रमयमन्नमचल महकल्पितं यदि / प्राश निखिलमखिलेऽपि जगत्युवरं | गते बहुभुजोऽस्य न व्यथा // 26 / / 15 अमुना करेण पृथुदन्तमुसलमुदखानि दन्तिनः / तेन यदवधि स एव पुनर्बलशालिनां क इव तत्र विस्मयः / / 30 / / शिशुरेव शिक्षितनियुद्धकरणमकृतक्रिय: स्वयम् / मल्लमल घुकठिनांसतट न्यवधीदेव तददृष्टकारितम् / / 31 / / यदयुध्यमानमपि सन्तमुपहित सुरोघसाध्वसम् / कंसमभियमयमभ्यभवत्समुदा जनेन तदपि प्रशंस्यते / / 32 / / इति निन्दितुं कृतधियापि वचनममुना यदाददे / स्तोतुमनिशमुचितस्य परैःस्तुतिरेव सा मधुनिघातिनोऽभवत् / / यदुवाच दुष्टमतिरेष परिविवदिषुर्मुरद्विषम् / द्वयर्थमपि सदसि चेदिपतेस्तदतोऽपराधगणनामपाद्वचः / / 34 / / // इति प्रक्षिप्तश्लोकाः॥ . t: | Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [551 इति वाचमुद्धतमुदीर्य सपदि सह वेणुदारिणा / सोढरिपुबलभरोऽसहनः स जहास दत्तकरतालमुच्चकैः // 39 // कटनापि चैद्यवचनेन विकृतिमगमन्न माधवः / सत्यनियतवचसं वचसा सुजनं जनाश्चलयितुं क ईशते // 40 / / 5 न च तं तदेति शपमानमपि यदुनपाः प्रचुक्रुधुः / शौरिसमयनिगृहीतधियः प्रभुचित्तमेव हि जनोऽनुवर्तते / / 4 / / .विहितागसो मुहुरलङ्घयनिजवचनदामसंयतः / तस्य कतिथ इति तत्प्रथमं मनसा समाख्यदपराधमच्युतः / 42 / स्मृतिवर्ल्स तस्य न समस्तमपकृतमियाय विद्विषः / 10 स्मर्तु मधिगतगुणस्मरणाः पटवो न दोषमखिलं खलूत्तमा / 43 / नृपतावधिक्षिपति शौरिमथ सुरसरित्सुतो वचः / स्माह चलयति भुवं मरुति क्षुभितस्य नादमनुकुर्वदम्बुधेः / 44 / अथ गौरवेण परिवादमपरिगणयंस्तमात्मनः / प्राह मुररिपुतिरस्करणक्षुभितः स्म वाचमिति जाह्नवीसुतः / / 15 विहितं मयाद्य सदसीदमपमृषितमच्युतार्चनम् / यस्य नमयतु स चापमयं चरणः कृतः शिरसि सर्वभूभृताम् / 46 / इति भीष्मभाषितवचोऽर्थमधिगतवतामिव क्षणात् / क्षोभमगमदतिमात्रमथो शिशुपालपक्षपृथिवीभृतां गणः / / 47 / / शितितारकानुमितताम्रनयनमरुणोकृतं क्रुधा / बाणवदनमुददीपि भिये जगतः सकीलमिव सूर्यमण्डलम् / / 48 / / प्रविदारितारुणतरोग्रनयनकुसुमोज्ज्वलः स्फुरन् / प्रातरहिमकरताम्रतनुविषजद्रुमोऽपर इवाभवद्रुमः / / 49 / / अनिशान्तवैरदहनेन विरहितवतान्तरार्द्रताम् / कोपमरुदभिहतेन भृशं नरकात्मजेन तरुणेव जज्वले // 50 // 25 अभिधित्सतः किमपि राहुवदनविकृतं व्यभाव्यत / ग्रस्तशशधरमिवोपलसत्सितदन्तपङ्क्ति मुखमुत्तमौजसः / 51 / Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 ] [ काव्यषट्कं कुपिताकृति प्रथममेव हसितमशनैरसूचयत् / क्रुद्धमशनिदलिताद्रितटध्वनि दन्तवक्रमरिचक्रभीषणम् / / 52 / / प्रतिघः कुतोऽपि समुपेत्य नरपतिगणं समाश्रयत् / जामिहरणजनितानुशयः समुदाचचार निज एव रुक्मिणः / 53 / 5 चरणेन हन्ति सुबल: स्म शिथिलितमहीध्रबन्धनाम् / तोरतरलजलराशिजलामवभुग्नभोगिफणमण्डलां भुवम् / 54 / कुपितेषु राजसु तथापि रथचरणपाणिपूजया / चित्तकलितकलहागमनो मुदमाहुकिः सुहृदिवाधिकां दधौ / 55 / गुरुकोपरुद्धपदमापदसितयवनस्य रौद्रताम् / 10 व्यात्तमशितुमिव सर्वजगद्विकरालमास्यकुहरं विवक्षतः / / 6 / / विवृतोरुबाहुपरिघेण सरभसपदं निधित्सता / हन्तुमखिलनपतीन्वसुना वसने विलम्बिनि निजे विचस्खले 57 इति तत्तदा विकृतरूपमभजत्तदविभिन्नचेतसम् / मारबलमिव भयंकरता हरिबोधिसत्त्वमभिराजमण्डलम् // 58 / 15 रभसादुदस्थुरथ युद्धमनुचितभियोऽभिलाबुकाः / सान्द्रमुकुटकिरणोच्छलितस्फटिकांशवः सदसि मेदिनीभृतः 59 स्फुरमाणनेत्रकुसुमोष्ठदलमभृत भूभृदध्रिपैः / . धूतपृथुभुजलतं चलितै तयातपातवनविभ्रमं सदः / / 6 / / हरिमप्यमंसत तृणाय कुरुपतिमजीगणन्न वा / 20 मानतुलितभुवनत्रितयाः सरितः सुतादबिभयुर्न भूभृतः / / 61 / / गुरु निःश्वसन्नथ विलोलसदवथुवपुर्वचोविषम् / कोर्णदशनकिरणाग्निकणः फणवानिवैष विससर्ज चेदिपः / 62 / किमहपो नृपाः समममीभिरुपपतिसुतैर्न पञ्चभिः / वध्यमभिहत भुजिष्यममुं सह चानया स्थविरराजकन्यया / 63 / 25 अथवाध्वमेव खलु यूयमगणितमरुद्गणौजसः / / वस्तु कियदिदमयं न मृधे मम केवलस्य मुखमोक्षितुं क्षमः / 64 / Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 553 विदतुर्यमुत्तममशेषपरिषदि नदीजधर्मजौ / यातु निकषमधियुद्धमसौ वचनेन किं भवतु साध्वसाधु वा / 65 / “अचिरान्मया सह गतस्य समरमुरगारिलक्ष्मणः / तीक्ष्णविशिखमुखपीतमसृक्पततां गणैः पिबतु सार्धमुर्वरा / 66 / 5 अभिधाय रूक्षमिति मा स्म गम इति पृथासुतेरिताम् / वाचमनुनयपरा स ततः सहसावकर्ण्य निरियाय संसदः / / 67 / / गृहमागताय कृपया च कथ ___ मपि निसर्गदक्षिणाः / क्षान्ति महितमनसो जननीस्व - सुरात्मजाय चुकुपुर्न पाण्डवाः // 6 // चलितं ततोऽनभिहतेच्छमवनिपति यज्ञभूमितः / तूर्णमथ ययुमिवानुययुर्दमघोषसुनुमवनीशसूनवः // 66 / / विशिखान्तराण्यतिपपात सपदि जवनैः स वाजिभिः / द्रष्टमलघुरभसापतिता वनिताश्चकार न सकामचेतसः // 70 / / 15 क्षणमीक्षितः पथि जनेन किमि दमिति जल्पता मिथः / प्राप्य शिबिरमविशङ्किमनाः सम ____नीनहद्रुतमनीकिनीमसौ |71 / / त्वरमाणशाकिसवेगवदनपवनाभिपूरितः / 20 शैलकटकतटभिन्नरवः प्रणनाद सानहनिकोऽस्य वारिंजः / 72 / जगदन्तकालसमवेतविषदविषमेरितारवम् / धीरनिजरवविलीनगुरुप्रतिशब्दमस्य रणतूर्यमावधि // 73 // सहसा ससम्भ्रमविलोलसकलजनतासमाकुलम् / स्थानमगमदथ तत्परितश्चलितोडुमण्डलनभःस्थलोपमाम्।७४। 25' दधतो भयानकतरत्वमुपगतवतः समानताम् / धूमपटलपिहितस्य गिरेः समवर्मयन्सपदि मेदिनीभृतः / / 75 // Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 ] [ काव्यषट्कं परिमोहिणा परिजनेन कथमपि चिरादुपाहृतम् / वर्म करतलयुगेन महत्तनुचूर्णपेषमपिषद्रुषा परः // 76 / / रणसम्मदोदयविकासिबलकलकलाकुलीकृते / शारिमशकदधिरोपयितुं द्विरदे मदच्युति जनः कथञ्चन / / 77 / / परितश्च धौतमुखरुक्मविलसदहिमांशुमण्डलाः / / तेनुरतनुवपुषः पृथिवीं स्फुटलक्ष्यतेजस इवात्मजाः श्रियः 78 / प्रधिमण्डलोद्धतपरागघनवलयमध्यवर्तिन. / पेतुरशनय इवाशनकैर्गुरुनिःस्वनव्यथितजन्तवो रथाः / / 79 / / दघतः शशाङ्कितशशाङ्करुचि लसंदुरश्छदं वपुः / 10 चक्रुरथ सह पुरन्ध्रिजनैरयथार्थसिद्धि सरकं महीभृतः / / 80 // दयिताय सासवमुदस्तमपतदवसादिनः करात् / कांस्यमुपहितसरोजपतभ्रमरौघभारगुरु राजयोषितः।।१।। भृशमङ्गसादमरुणत्वमविशददृशः कपोलयोः / वाक्यमसकलमपास्य मदं विदधुस्तदीयगुणमात्मना शुचः / 82 / सुदृशः समीकगमनाय युवभिरथ संबभाषिरे / शोकपिहितगलरुद्धगिरस्तरसागताश्रुजलकेवलोत्तराः / / 83 / / विपुलाचलस्थलघनेन जिगमिषुभिरङ्गनाः प्रियैः / पीनकुचतटनिपीडदलद्वरवारबाणमुरसाऽऽलिलिङ्गिरे / / 84 / / न मुमोच लोचनजलानि दयितजयमङ्गलैषिणी / 20 यातमवनिमवसन्नभुजान्न गलद्विवेद वलयं विलासिनी।।८।। प्रविवत्सतः प्रियतमस्य निगडमिव चक्षुरक्षिपत् / नीलनलिनदलदामरुचि प्रतिपादयुग्ममचिरोढसुन्दरी / / 86 / / व्रजतः क्व तात व्रजसीति परिचयगतार्थमस्फुटम् / . धैर्यमभिनदुदितं शिशुना जननीनिर्भर्त्सनविवृद्धमन्युना / / 7 / / 25 शठ नाकलोकललनाभिरविरतरतं रिरंससे / तेन वहसि मुदमित्यवदद्रणरागिणं रमणमीर्ण्ययाऽपरा / / 8 / / Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 555 ध्रियमाणमप्यगलदश्रु चलति दयिते नतभ्रवः / स्नेहमकृतकरसं दधतामिदमेव युक्तमतिमुग्धचेतसाम् / / 89 / / सह कज्जलेन विरराज नयनकमलाम्बुसन्ततिः / गण्डफलकमभितः सुतनोः पदवीव शोकमयकृष्णवर्त्मनः / / 10 / / क्षणमात्ररोधि चलितेन कतिपयपदं नतभ्रवः / स्रस्तभुजयुगगलद्वलयस्वनितं प्रतिक्षुतमिवोपशुश्रुवे // 11 // अभिवर्त्म वल्लभतमस्य विगलदमलायतांशुका / भूमिनभसि रभसेन यती विरराज काचन समं महोल्कया।१२। समरोन्मुखे नृपगणेऽपि तदनुमरणोद्यतैकधीः / 10 दीनपरिजनकृताश्रुजलो न भटीजनः स्थिरमना विचक्लमे / / 3 / विदुषीव दर्शनममुष्य युवतिरतिदुर्लभं पुनः / यान्तमनिमिषमतृप्तमनाः पतिमीक्षते स्म भृशमा दृशः पथः 64 सम्प्रत्युपेयाः कुशली पुनर्युधः सस्नेहमाशीरिति भतु रीरिता। सद्यः प्रसह्य द्वितयेन नेत्रयोः प्रत्याचचक्षे गलता भटस्त्रियाः 65 15 काचित्कीर्णा रजोभिर्दिवमनुविदधे भिन्नवक्वेन्दुलक्ष्मीरश्रीकाः काश्चिदन्तर्दिश इव दधिरे दाहमुद्घान्तसत्त्वाः / भ्रेमुर्वात्या इवान्याः प्रतिपदमपरा भूमिवत् कम्पमापुः प्रस्थाने पार्थिवानामशिवमिति पुरो भावि नार्यः शशंसुः / / 6 / / इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये यके 20 (अपशकुनाविर्भावो नाम) पञ्चदशः सर्गः // 15 / / Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 ] [ काव्यषटकं // 16 // षोडशः सर्गः॥ ( वैतालयवृत्तम् ) ... * दमघोषसुतेन कश्चन प्रतिशिष्ट: प्रतिभानवानथ / उपगम्य हरि सदस्यदः स्फुटभिन्नाथमुदाहरद्वचः / / 1 / / 5. अभिधाय तदा तदप्रियं शिशुपालोऽनुशयं परं गतः / भवतोऽभिमनाः समीहते सरुषः कर्तु मुपेत्य माननाम् / / 2 / / विपुलेन निपीड्य निर्दयं मुदमायातु नितान्तमुन्मनाः / प्रचुराधिगताङ्गनिर्वृति परितस्त्वां खलु विग्रहेण सः / / 3 / / प्रणतः शिरसा करिष्यते सकलैरेत्य समं धराधिपः / 10 तव शासनमाशु भूपति: परवानद्य यतस्त्वयैव सः / / 4 / / अधिवह्निपतङ्गतेजसो नियतस्वान्तसमर्थकर्मणः / तव सर्वविधेयवर्तिनः प्रणति बिभ्रति केन भूभृतः / / 5 / / जनतां भयशून्यधोः परैरभिभूतामवलम्बसे यतः / तव कृष्ण गुणास्ततो नरैरसमानस्य दधत्यगण्यताम् / / 6 / / 15 अहितादनपत्रपस्त्रसन्नतिमात्रोज्झितभीरनास्तिकः / विनयोपहितस्त्वया कुतः सदृशोऽन्यो गुणवानविस्मयः / / 7 / / कृतगोपवधूरतेनतो वृषमुने नरकेऽपि संप्रति / प्रतिपत्तिरधःकृतैनसो जनताभिस्तव साधु वर्ण्यते / / 8 / / विहितापचितिर्महीभृता द्विषतामाहितसाध्वसो बलैः / 20 भव सानुचरस्त्वमुच्चकैर्महतामप्युगरि क्षमाभृताम् / / 6 / / घनजालनिभर्दुरासदाः परितो नागकदम्बकैस्तव / नगरेषु भवन्तु वीथयः परिकीर्णा वनजैर्मुगादिभिः / / 10 / / सकलापिहितस्वपौरुषो नियतव्यापदवधितोदयः / रिपुरुन्नतधीरचेतसः सततव्याधिरनीतिरस्तु ते // 11 / / Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षोडशः सर्गः ] [ 557 विकचोत्पलचारुलोचनस्तव चैद्येन घटामुपेयुषः / यदुपुङ्गवबन्धुसौहृदात्त्वयिपाता ससुरौ नवासवः / / 12 / / चलितानकदुन्दुभिः पुरः सबलस्त्वं सह सारणेन तम् / समिती रभसादुपागतं सगद: संप्रतिपत्तुमर्हसि / / 13 / / 5 समरेषु रिपून् विनिघ्नता शिशुपालेन समेत्य संप्रति / सुचिरं सह सर्वसात्वतैर्भव विश्वस्तविलासिनीजनः / / 14 / / विजितक्रुधमीक्षतामसी महतां त्वामहितं महीभृताम् / असकृज्जितसंयतं पुरो मुदितः सप्रमदं महीपतिः / / 15 / / इति ज़ोषमवस्थितं द्विषः प्रणिधिं गामभिधाय सात्यकिः / 10 वदति स्म वचोऽथ चोदितश्चलितैक भ्रुः रथाङ्गपाणिना / / 16 / / मधुरं बहिरन्तरप्रियं कृतिनाऽवाचि वचस्तथा त्वया / सकलार्थतया विभाव्यते प्रियमन्तर्बहिरप्रियं यथा / / 17 / / अतिकोमल मैकतोऽन्यत: सरसाम्भोरुहवृन्तकर्कशम् / वहति स्फुटमेकमेव ते वचनं शाकपलाशदेश्यताम् / / 18 / / 15 प्रकटं मृदु नाम जल्पतः परुषं सूचयतोऽर्थमन्तरा। शकुनादिव मार्गवतिभिः पुरुषादुद्विजितव्यमीदृशः // 16 // हरिमचितवान्महीपतिर्यदि राज्ञस्तव कोऽत्र मत्सरः / न्यसनाय ससौरभस्य कस्त रुसूनस्य शिरस्यसूयति / / 20 / / सुकुमारमहो लघीयसां हृदयं तद्गतमप्रियं यतः / 20 सरसैव समुगिरन्त्यमी जरयन्त्येव हि तन्मनीषिणः / / 21 / / उपकारपरः स्वभावतः सततं सर्वजनस्य सज्जनः / असतामनिशं तथाप्यहो गुरुहृद्रोगकरी तदुन्नतिः // 22 / / परितप्यत एव नोत्तमः परितप्तोऽप्यपरः सुसंवृतिः / परवृद्धिभिराहितव्यथः स्फुटनिर्भिन्नदुराशयोऽधमः // 23 / / * '21 अनिराकृततापसंपदं फलहीनां सुमनोभिरुज्झिताम् / खलतां खलतामिवासती प्रतिपद्येत कथं बुधो जनः // 24 // Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 ] [ काव्यषट्कं प्रतिवाचमदत्त केशवः शपमानाय न चेदिभूभुजे / अनुहुकुरुते घनध्वनि न हि गोमायुरुतानि केसरी // 25 / / जितरोषरया महाधियः सपदि क्रोधजितो लघुर्जनः / विजितेन जितस्य दुर्मतेर्मतिमद्भिः सह का विरोधिता / / 26 / / 5 वचनैरसतां महीयसो न खलु व्येति गुरुत्वमुद्धतैः / किमपति रजोभिरौर्वरैरवकीर्णस्य मणेर्महार्यता // 27 / / परितोषयिता न कश्चन स्वंगतो यस्य गुणोऽस्ति देहिनः / परदोषकथाभिरल्पकः स्वजनं तोषयितु किलेच्छति / / 28 / / सहजान्धदृशः स्वदुर्नये परदोषेक्षणदिव्यचक्षुषः / 10 स्वगुणोच्चगिरो मुनिव्रता: परवर्णग्रहणेष्वसाधवः / / 26 / / प्रकटान्यपि नैपुणं महत्परवाच्यानि चिराय गोपितुम् / विवरीतुमथात्मनो गुणान्भृशमाकौशलमार्यचेतसाम् // 30 / / किमिवाखिललोककीतितं कथयत्यात्मगुणं महामनाः / वदिता न लघीयसोऽपरः स्वगुणं तेन वदत्यसौ स्वयम् // 31 / / 15 विसृजन्त्यविकत्थिन: परे विषमाशीविषवन्नराः क्रुधम् / दधतोऽन्तरसाररूपतां ध्वनिसाराः पटहा इवेतरे // 32 / / नरकच्छिदमिच्छतीक्षितुं विधिना येन स चेदिभूपतिः / द्रुतमेतु न हापयिष्यते सदृशं तस्य विधातुमुत्तरम् / / 33 / / समनद्ध किमङ्ग भूपतिर्यदि संघित्सुरसौ सहामुना / 20 हरिराक्रमणेन संनति किल बिभ्रीत भियेत्यसंभवः / / 34 / / महतस्तरसा विलयन्निजदोषेण कुधीविनश्यति / कुरुते न खलु स्वयेच्छया शलभानिन्धनमिद्धदीधितिः / / 35 / / यदपूरि पुरा महीपतिर्न मुखेन स्वयमागसां शतम् / अथ संप्रति पर्यपूपुरत्तदसौ दूतमुखेन शाङ्गिणः / / 36 / / 25 यदनर्गलगोपुराननस्त्वमितो वक्ष्यसि किंचिदप्रियम् / विवरिष्यति तच्चिरस्य नः समयोद्वीक्षणरक्षितां क्रुधम् / / 37 / / Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षोडशः सर्गः ] [ 556 निशमय्य तदूजितं शिनेर्वचनं नप्तुरनाप्तुरेनसाम् / पुनरुज्झितसाध्वसं द्विषामभिधत्ते स्म वचो वचोहरः / / 38 / / विविनक्ति न बुद्धिदुविधः स्वयमेव स्वहितं पृथग्जनः / यदुदीरितमप्यदः परैर्न विजनाति तदद्भुतं महत् / / 3 / / 5 विदुरेष्यदपायमात्मना परत: श्रद्दधतेऽथवा बुधाः / न परोपहितं न च स्वतः प्रमिमीतेऽनुभवादृतेऽल्पधीः / / 40 / / कुशलं खलु तुभ्यमेव तद्वचनं कृष्ण यदभ्यधामहम् / उपदेशपराः परेष्वपि स्वविनाशाभिमुखेषु साधवः / / 41 / / उभयं युगपन्मयोदितं त्वरया सान्त्वमथेतरच्च ते / 10 प्रविभज्य पृथङ्मनीषया स्वगुणं यत्किल तत्करिष्यसि / / 42 / / अथवाभिनिविष्टबुद्धिषु व्रजति व्यर्थकतां सुभाषितम् / रविरागिषु शीतरोचिषः करजालं कमलाकरेष्विव / / 43 / / अनपेक्ष्य गुणागुणौ जनः स्वरुचि निश्चयतोऽनुधावति / अपहाय महीशमाचिचत्सदसि त्वां ननु भीमपूर्वजः / / 44 / / 15 त्वयि भक्तिमतः न सत्कृतः कुरुराजा गुरुरेव चेदिपः / प्रियमांसमृगाधिपोज्झितः किमवद्यः करिकुम्भजो मणिः / / 4 / / क्रियते धवलः खलूच्चकैर्धवलैरेव सितेतररधः / शिरसौघमघत्त शङ्करः सुरसिन्धोर्मधुजित्तमङ्घ्रिणा // 46 / / अबुधैः कृतमानसंविदस्तव पार्थः कुत एव योग्यता। 20 सहसि प्लवगैरुपासितं न हि गुजाफलमेति सोष्मताम् / / 47 / / अपराधशतक्षमं नृपः क्षमयाऽत्येति भवन्तमेकया / हृतवत्यपि भीष्मकात्मजां त्वयि चक्षाम समर्थ एव यत् / / 48 / / गुरुभिः प्रतिपादितां वधूमपहृत्य स्वजनस्य भूपतेः / जनकोऽसि जनार्दन स्फुट हतधर्मार्थतया मनोभुवः / / 49 / / * 25 अनिरूपितरूपसंपदस्तमसो वान्यभृतच्छदच्छवेः / तव सर्वगतस्य संप्रति क्षितिपः क्षिप्नुरभीशुमानिव // 50 // Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 ] ( काव्यषट्कं क्षुभितस्य महीभृतस्त्वयि प्रशमोपन्यसनं वृथा मम / प्रलयोल्लसितस्य वारिधेः परिवाहो जगतः करोति किम् / / 11 / / प्रहित: प्रधनाय माधवानहमाकारयितुं महीभृता / न परेषु महौजसश्छलादपकुर्वन्ति मलिम्लुचा इव / / 52 / / 5 तदयं समुपैति भूपतिः पयसां पूर इवानिवारितः / अविलम्बितमेधि वेतसस्तरुवन्माधव मा स्म भज्यथाः / / 53 / / परिपाति स केवलं शिशूनिति तन्नामनि मा स्म विश्वसीः / तरुणानपि रक्षति क्षमी स शरण्यः शरणागतान् द्विषः / / 54 / / न विदध्युरशङ्कमप्रियं महतः स्वार्थपराः परे कथम् / भजते कुपितोऽप्यूदारधीरनुनीति नतिमात्रकेण सः / / 55 / / हितमप्रियमिच्छसि श्रुतं यदि संधत्स्व पुरा न नश्यसि / अनतैरथ तुष्यसि प्रियैर्जयताज्जीव भवाऽवनीश्वरः / / 56 / / प्रतिपक्षजिदप्यसंशयं युधि चेयेन विजेष्यते भवान् / ग्रसते हि तमोपहं मुहुर्ननु राबाहमहर्पति तमः / / 57 / / 15 अचिराज्जितमोनकेतनो विलसन् वृष्णिगणैर्नमस्कृतः / क्षितिपः क्षयितोद्धतान्धको हरलीलां स विडम्बयिष्यति / / 58 / / निहतोन्मददुष्टकुञ्जराद्दधतो भूरिः यशः क्रमार्जितम् / न बिभेति रणे हरेरपि क्षितिपः का गणनाऽस्य वृष्णिषु / / 5 / / न तदद्भुतमस्य यन्मुखं युधि पश्यन्ति भिया न शत्रवः / द्रवतां ननु पृष्ठमोक्षते वदनं सोऽपि न जातु विद्विषाम् / / 60 / / प्रतनूल्लसिताचिरद्युतः शरदं प्राप्य विखण्डितायुधाः / दधतेऽरिभिरस्य तुल्यतां यदि नासारभृतः पयोभृतः / / 61 / / मलिनं रणरेणुभिमु हुद्विषतां क्षालितमङ्गनाश्रुभिः / . नृपमौलिमरीचिवर्णकैरथ यस्याङ्घ्रियुगं विलिप्यते // 62 / / 25 समराय निकामकर्कशं क्षणमाकृष्टमुपैति यस्य च / धनुषा सममाशु विद्विषां कुलमाशङ्कितभङ्गमानतिम् / / 63 // Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: षोडशः सर्गः ] / 561 तुहिनांशुममुं सुहृज्जनाः कलयन्त्युष्णकरं विरोधिनः / कृतिभिः कृतदृष्टिविभ्रमाः स्रजमेके भुजगं यथापरे / / 64 / / दधतोऽसुलभक्षयागमास्तनुमेकान्तरताममानुषीम् / भुवि सम्प्रति न प्रतिष्ठिताः सदृशा यस्य सुरैररातयः // 65 / / 5 अतिविस्मयनीयकर्मणो नृपतेर्यस्य विरोधि किंचन / यदमुक्तनयो नयत्यसावहितानां कलमक्षयं क्षयम् // 66 / / चलितोलकबन्धसम्पदो मकरव्यूहनिरुद्धवर्त्मनः / प्रतरत् स्वभुजौजसा मुहुर्महतः सङ्गरसागरानसौ // 67 / / न चिकीर्षति य: स्मयोद्धतो नृपतिस्तच्चरणोपगं शिरः / 10 चरणं कुरुते गतस्मयः स्वमसावेव तदीयमूर्धनि / / 68 / / स्वभुजद्वयकेवलायुधश्चतुरङ्गामपहाय वाहिनीम् / बहुशः सह शक्रदन्तिना स चतुर्दन्तमगच्छदाहवम् // 66 / / अविचालितचारुचक्रयोरनुरागादुपगूढयोः श्रिया / युवयोरिदमेव भिद्यते यदुपेन्द्रस्त्वमतीन्द्र एव सः // 70 / / 15 भूतभूतिरहीनभोगभाग्विजितानेकपुरोऽपि विद्विषाम् / रुचिमिन्दुदले करोत्यजः परिपूर्णेन्दुरुचिर्महीपतिः // 71 / / नयति द्रुतमुद्धतिश्रितः प्रसभं भङ्गमभङ्गुरोदयः / नमयत्यवनीतलस्फुरद्भुजशाखं भृशमन्यमुन्नतिम् // 72 / / अधिगम्य च रन्ध्रमन्तरां जनयन्मण्डलभेदमन्यतः / खनति क्षतसंहति क्षणादपि मूलानि महान्ति कस्यचित् / / 73 // घनपत्रभृतोऽनुगामिनस्तरसाकृष्य करोति कांश्चन / दृढमप्यपरं प्रतिष्ठितं प्रतिकूलं नितरां निरस्यति / / 74 / / इति पूर इवोदकस्य यः सरितां प्रावृषिजस्तटद्रुमैः / क्वचनापि महानखण्डितप्रसरः क्रीडति भूभृतां गणैः / / 75 / / .25 अलघूपलपंक्तिशालिनी: परितो रुद्धनिरन्तराम्बराः / अधिरूढनितम्बभूमयो न विमुञ्चन्ति चिराय मेखलाः // 76 / / Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 ] [ काव्यषटकं कटकानि भजन्ति चारुभिर्नवमुक्ताफलभूषणभुजैः / / नियतं दधते च चित्रकैरतियोगं पृथुगण्डशैलतः // 77 / / इति यस्य ससंपदः पुरा यदवापुर्भवनेष्वरिस्त्रियः / स्फुटमेव समस्तमापदा तदिदानीमवनीध्रमूर्धसु // 78 / / 5 महतः कुकुरान्धकमानतिमात्रं दववहहन्नपि / अतिचित्रमिदं महीपतिर्यदकृष्णामवनी करिष्यति / / 7 / / परितः प्रमिताक्षरापि सर्व विषयं __ व्याप्तवती गता प्रतिष्ठाम् / न खलु प्रतिहन्यते कुतश्चित्परि भाषेव गरीयसी यदाज्ञा // 8 // यामूढवानूढवराहमूर्तिमुहूर्तमादौ पुरुषः पुराणः / तेनोह्यते सांप्रतमक्षतैव क्षतारिणा सम्यगसौ पुनर्भूः / / 81 / / भूयांसः क्वचिदपि काममस्खलन्त स्तुङ्गत्वं दधति च यद्यपि द्वयेऽपि / कल्लोलाः सलिलनिधेरवाप्य पारं शीर्यन्ते न गुणमहोर्मयस्तदीयाः // 2 // लोकालोकव्याहतं धर्मरश्मेः शालीनं वा धाम नालं प्रसतु म्। लोकस्याग्रे पश्यतो धृष्टमाशु कामत्युच्चैर्भूभृतो तेजः / / 3 / / विच्छित्तिर्नवचन्दनेन वपुषो भिन्नोऽधरोऽलक्तकै रच्छाच्छे पतिताञ्जने च नयने श्रोण्योऽलसन्मेखलाः / प्राप्तो मौक्तिकहारमुन्नतकुचाभोगस्तदीयद्विषा मित्थं नत्यविभूषणा युवतयः संपत्सु चापत्स्वपि / / 8 / / विनिहत्य भवन्तमूर्जितश्रीयुधि सद्यः शिशुपालतां ययार्थाम् / रुदतां भवदङ्गनागणानां करुणान्तःकरणः करिष्यतेऽसौ / 45 / 25 // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयके दूतसंवादो नाम षोडशः सर्गः // 16 // Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 563 - // 17 // सप्तदशः सर्गः॥ ( रुचिरावृत्तम् ) इतीरिते वचसि वचस्विनामुना __युगक्षयक्षुभितमरुद्गरीयसि / प्रचुर्भे सपदि तदम्बुराशिना / ____समं महाप्रलयसमुद्यतं सदः // 1 // सरागया स्र तघनघर्मतोयया कराहतिध्वनितपृथूरुपीठया। मुहुर्मुहुर्दशनविखण्डितोष्ठया रुषा नृपाः प्रियतमयेव भेजिरे।२। अलक्ष्यत क्षणदलिताङ्गदे गदे करोदरप्रहितनिजांसधामनि / समुल्लसच्छकलितपाटलोपलैः स्फुलिङ्गवान्स्फुटमिव कोपपावकः // 3 // अवज्ञया यदहसदुच्चकैर्बलः समुल्लसद्दशनमयूखमण्डल: / रुषारुणीकृतमपि तेन तत्क्षणं निजं वपुः पुनरनयन्निजां रुचिम् / / 4 / / यदुत्पतत्पृथुतरहारमण्डलं व्यवर्तत द्रुतमभिदूतगुल्मकः / बृहच्छिलातलकठिनांसघट्टितं ततोऽभवद्भ्रमितमिवाखिलं सदः // 5 // प्रकुप्यतः श्वसनसमीरणाहति ___स्फुटोष्मभिस्तनुवसनान्तमारुतैः / युधाजितः कृतपरितूर्णवीजनं पुनस्तरां वदनसरोजमस्विदत् // 6 / / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 ] [ काव्यषट्कं प्रजापतिऋतुनिधनार्थमुत्थितं व्यतर्कयज्ज्वरमिवरौद्रमुद्धतम् / समुद्यतं सपदि वधाय विद्विषा मतिधं निषधमनौषधं जनः // 7 / / परस्परं परिकुपितस्य पिषतः क्षतोमिकाकनकपरागपङ्किलम् / करद्वयं सपदि सुधन्वनो निज रनारतस्र तिभिरधाव्यताम्बुभिः // 8 // निरायतामनलशिखोज्ज्वलां ____ज्वलन्नखप्रभाकृतपरिवेषसंपदम् / अविभ्रमभ्रमदनलोल्मुका- . कृति प्रदेशिनी जगदिव दग्धुमाहुकिः / / 9 / / दुरीक्षतामभजत मन्मथस्तथा यथा पुरा परिचितदाहघाष्टर्य या / ध्रुवं पुरः सशरममुं तृतीयया हरोऽपि न व्यसहत वीक्षितुं दृशा // 10 // विचिन्तयन्नुपनतमाहवं रसा दुरः स्फुरत्तनुरुहमग्रपाणिना / परामृशत्कठिनकठोरकामिनी कुचस्थलप्रमुषितचन्दनं पृथुः // 11 / / विलङ्घितस्थितिमभिवीक्ष्य रूक्षया रिपोगिरा गुरुमपि गान्दिनीसुतम् / . जनस्तदा युगपरिवर्तवायुभि विवर्तिता गिरिपतयः प्रतीविरे // 12 / / विवर्तयन्मदकलुषीकृते दृशौ कराहतक्षितिकृतभैरवारवः / 25 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 565 10 'क्रुधा दधत्तनुमति लोहिनीमगू त्प्रसेनजिद्गज इव गैरिकारुणः // 13 / / सकुङ्कमैरविरलमम्बुबिन्दुभि वेषण: परिणतदाडिमारुणैः / / स मत्सरस्फुटितवपुर्विनिःसृत र्बभौ चिरं निचित इवासृजां लवैः / / 14 / / ससंभ्रमं चरणतलाभिताता ___ डनस्फुटन्महीविवरवितीर्णवमभिः / रवेः करैरनुचिततापितोरगं प्रकाशतां शिंनिरनयद्रसातलम् // 15 / / प्रतिक्षणं विधुवति शारणे शिरः शिखिद्युतः कनककिरीटरश्मयः / अशङ्कितं युधमधुना विशन्त्वमी क्षमापतीनिति निरराजयन्निव // 16 // दधौ चलत्पृथुरसनं विवक्षया विदारितं विततबृहद्भुजालतः / विदूरथः प्रतिभयमास्यकन्दरं चलत्फणाधरमिव कोटरं तरुः // 17 / / समाकुले सदसि तथापि विक्रियां मनोऽगमन्न मुरभिदः परोदितैः / घनाम्बुभिर्बहुलितनिम्नगाजलैर्जलं न हि व्रजति विकारमम्बुधेः // 18 / / परानमी यदपवदन्त प्रात्मनः - स्तुवन्ति च स्थितिरसतामसाविति / / निनाय नो विकृतिमविस्मित: स्मितं मुखं शरच्छशधरमुग्धमुद्धवः / / 19 / / Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 ] [ काव्यषट्कं عر निराकृते यदुभिरिति प्रकोपिभिः स्पशे शनैर्गतवति तत्र विद्विषाम् / मुरद्विषः स्वनितभयानकानकं बलं क्षणादथ समन ह्यताजये // 20 / / मुहुः प्रतिस्खलितपरायुधा युधि स्थवीयसीरचलनितम्बनिर्भराः / अदंशयन्नरहितशौर्यदेशनास्तनू रयं नय इति वृष्णिभूभृतः // 21 // दुरुद्वहाः क्षणमपरैस्तदन्तरे ___रणश्रवादुपचयमाशु बिभ्रति / महीभुजां महिमभृतां न संम - मुमुदोऽन्तरा वपुषि बहिश्च कञ्चुकाः / / 22 / / संकल्पनं द्विरदगणं वरूथिन स्तुरङ्गिणो जयनयुजश्च वाजिनः / त्वरायुजः स्वयमपि कुर्वतो नृपाः पुनः पुनस्तदधिकृतानतत्वरन् / / 23 / / युधे परैः सह दृढबद्धकक्षया कलक्वणन्मधुपकुलोपगीतया / अदीयत द्विपघटया सवारिभिः करोदरैः स्वयमथ दानमक्षयम् // 24 // सुमेखलाः सिततरदन्त चारवः समुल्लसत्तनुपरिधानसंपदः / रणैषिणां पुलकभृतोऽधिकंधरं ललम्बिरे सदसिलता: प्रिया इव // 25 / / मनोहरैः प्रकृतमनोरमाकृति भयप्रदैः समितिषु भीमदर्शनः / 25 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ) [ 567 सदैवतः सततमथानपायिभि निजाङ्गवन्मुरजिदसेव्यतायुधैः // 26 / / अवारितं गतमुभयेषु भूरिशः क्षमाभृतामथ कटकान्तरेष्वपि / मुहुर्युधि क्षतसुरशत्रुशोणित प्लुतप्रधि रथमधिरोहति स्म सः / / 27 / / उपेत्य च स्वनगुरुपक्षमारुतं ____दिवस्त्विषा कपिशितदूरदिङ्मुखः / प्रकम्पितस्थिरतरयष्टि तत्क्षणं 10. पतत्पतिः पदमधिकेतनं दधौ // 28 // गभीरताविजितमृदङ्गनादया स्वनश्रिया हतरिपुहंसहर्षया / प्रमोदयन्नथ मुखरान्कलापिनः प्रतिष्ठते नवधनवद्रथः स्म सः // 26 / / निरन्तरस्थगितदिगन्तरं ततः समुच्चलबलमवलोकयञ्जनः / विकौतुकः प्रकृतमहाप्लवेऽभव द्विश्रङ्खलं प्रचलितसिन्धुवारिणि // 30 // बहिरे गजपतयो महानका: प्रदध्वनुर्जयतुरगा जिहेषिरे / असम्भवगिरिवरगह्वरै रभूत्तदा रवैर्दलित इव स्व प्राश्रयः / / 31 / / अनारतं रसति जयाय दुन्दुभौ मधुद्विषः फलदलघुप्रतिस्वनैः / * ' 25 - विनिष्पतन्मृगपतिभिर्गुहामुखै र्गताः परां मुदमहसन्निवाद्रयः // 32 / / Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 ] [ काव्यषट्कं जडीकृतश्रवणपथे दिवौकसां चमूरवे विशति सुराद्रिकन्दराः / अनर्थकैरजनि विदग्धकामिनी रतान्तरक्वणितविलासकौशलैः // 33 / / अरातिभिर्युघि सहयुध्वनो हताजिघृक्षवः श्रुतरणतूर्यनिःस्वनाः / अकुर्वत प्रथमसमागमोचितं चिरोज्झितं सुरगणिकाः प्रसाधनम् / / 34 / / प्रणोदिताः परिचितयन्तृकर्मभि- ' निषादिभिविदितयताकुशक्रियैः / गजाः सकृत्करतललोलनालि काहता मुहुः प्रणदितघण्टमाययुः / / 35 / / सविक्रमक्रमणचलैरितस्ततः / प्रकीर्णकैः क्षिपत इव क्षिते रजः / व्यरंसिषुन खलु जनस्य दृष्टय स्तुरंगमादभिनवभाण्डभारिणः // 36 / / चलाङ्गुलीकिसलयमुद्धतैः करै __रनृत्यत स्फुटकृतकर्णतालया / . मदोदकद्रवकटभित्तिसङ्गिभिः कलस्वरं मधुपगणैरगीयत // 37 // असिच्यत प्रशमितपांशुभिर्मही मदाम्बुभिङ्घ तनवपूर्णकुम्भया / अवाद्यत श्रवणसुखं समुन्न मत्पयोधरध्वनिगुरु तूर्य माननैः // 38 / / उदासिरे पवनविधूतवाससस्त तस्ततो गगनलिहश्च केतवः / 25 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ] 10 यतः पुरः प्रतिरिपु शाङ्गिणः स्वयं व्यघीयत द्विपघटयेति मङ्गलम् // 39 / / न शून्यतामगमदसौ निवेशभूः प्रभूततां दधति बले. चलत्यपि / पयस्य भिद्रवति भुवं युगावधौ सरित्पतिर्न समुपैति रिक्तताम् / / 40 / / यियासितामथ मधुभिद्विवस्वता जनो जरन्महिषविषाणधूसराम् / पुरः पतत्परबलरेणुनालिनीमल- .. क्षयद्दिशमभिधूमितामिव // 41 // मनस्विनामुदितगुरुप्रतिश्रुतिः ...... श्रुतस्तथा न निजमृदङ्गनिःस्वनः / यथा पुरःसमरसमुद्यतद्विष द्वलानकध्वनिरुदकर्षयन्मनः // 42 / / यथा यथा पटहरवः समीपता... मुपागमत् स हरिवराग्रतः सरः / तथा तथा हृषितवपुर्मदाकुला : द्विषां चमूरजनि. जनीव चेतसा / / 43 / / प्रसारिणी सपदि नभस्तले ततः" . समीरणभ्रमितपसगरूषिता / व्यभाव्यत प्रलयजकालिकाकृति विदूरतः प्रतिबलकेतनावलिः // 44 / / क्षणेन च प्रतिमुखतिग्मदीधिति- .... / प्रतिप्रभास्फुरदसिदुःखदर्शना / भयङ्करा भृशमपि दर्शनीयतां ययावसावसुरचमूश्च भूभृताम् // 45 // ताण Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं पयोमुचामभिपततां दिवि द्रुतं विपर्ययः परित इवातपस्य सः / समक्रमः समविषमेष्वथ क्षणात् क्षमातलं बलजलराशिरानशे // 46 / / ममो पुरः क्षणमिव पश्यतो महत्तनूदरस्थितभुवनत्रयस्य तत् / विशालतां दधति नितान्तमायते ____बलं द्विषां मधुमथनस्य चक्षुषि / / 47 / / भृशस्विदः पुलकविकासिमूर्तयो __रसाधिके मनसि निविष्टसाहसाः / मुखे युधः सपदि रतेरिवाभवन् - ससम्भ्रमाः क्षितिपचमूवधूगणाः // 48 / / ध्वजांशुकैवु वमनुकूलमारुतप्रसारितैः प्रसभकृतोपहूतयः / यदूनभि द्रुततरमुद्यतायुधाः क्रुधा परं रयमरयः प्रपेदिरे / / 46 // हरेरपि प्रति परकीयवाहिनी. रघिस्यदं प्रववृतिरे चमूचराः / विलम्बितं न खलु सदा मनस्विनो विधित्सतः कलहमवेक्ष्य विद्विषः / / 50 / / उपाहितैर्वपुषि निवातवर्मभिः ___स्फुरन्मणिप्रसृतमरीचिसूचिभिः / निरन्तरं नरपतयो रणाजिरे रराजिरे शरनिकराचिता इव // 51 // प्रथोच्चकर्जरठकपोतकन्धरा. तनूरुहप्रकरविपाण्डुरद्युतिः / 25 बलेश्चलच्चरणविधूतमुच्च रतनावलीरुदचरत क्षमारजः // 52 // Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ] [71 विषङ्गिभि शमितरेतरं क्वचित्तुरङ्गमरुपरि निरुद्धनिर्गमाः। चलाचलेरनुपदमाहताः खुरविबभ्रमुश्चिरमध एव धूलयः / 53 / गरीयसः प्रचुरमुखस्य रागिणो रजोऽभवद्वयवहितसत्त्वमुत्कटम् / सिसृक्षतः सरसिजजन्मनो जगद् - बलस्य तु क्षयमपनेतुमिच्छतः // 54 / / पुरा शरक्षतिजनितानि संयुगे ____नयन्ति नः प्रसभमसृञ्जि पङ्कताम् / इति ध्रुवं व्यलगिषुरात्तभीतयः / खमुच्चकैरनलसखस्य केतवः // 5 // क्वचिल्लसद्घननिकुरम्बकबुंरः __क्वचिद्धिरण्मयकणपुजपिञ्जरः / क्वचिच्छरच्छशघरखण्डपाण्डुरः खुरक्षतक्षितितलरेणुरुद्ययो // 56 // महीयसां महति दिगन्तदन्तिना - मनीकजे रजसि मुखानुषङ्गिणि / विसारितामजिहत कोकिलावली मलीमसा जलदमदाम्बुराजयः // 7 // शिरोरुहेरलिकुलकोमलरमी ___मुषा मृधे मृषत युवान एव मा। बलोद्धतं धवलितमूर्घजानिति ध्रुवं जनाजरत इवाकरोद्रजः // 58 / / सुसंहतर्दधदपि धाम नीयते . तिरस्कृति बहुभिरसंशयं परैः / .25 यतः शितेरवयवसंपदोऽणव स्त्विषां निधेरपि वपुरावरीषत // 56 // Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं दूतद्रवद्रयचरणक्षतक्षमातलोल्लसद्बहुलरज़ोवगुण्ठितम् / युगक्षयक्षणनिरवग्रहे जगत्पयोनिधेर्जल इव मग्नमाबभौ / / 6 / / समुल्लसद्दिनकरवक्त्रकान्तयो .. रजस्वला: परिमलिताम्बरश्रियः / दिगङ्गनाः क्षणमविलोकनक्षमाः . . शरीरिणां परिहरणीयतां ययुः / / 61 / / निरीक्षितुं वियति समेत्य कौतुकात् .. पराक्रम समरमुखे महीभृताम् / रजस्ततावनिमिषलोचनोत्पल-' व्यथाकृति त्रिदशगणैः पलाय्यत / / 62 / / विषङ्गिणि प्रतिपदमापिबत्यपो ... हताचिरातिनि समीरलक्ष्मणि / शनैः शनैरुपचितपङ्कभारिकाः . पयोमुचः प्रययुरपेतवृष्टयः // 63 / / नभोनदीव्यतिकरधौतमूर्तिभि- .. वियद्गतैरनधिगतानि लेभिरे / चलच्चमूतुरगखुराहतोत्पत न्महीरजःस्नपनसुखानि दिग्गजैः / / 64 / / गजबजाक्रमणभरावनम्रया ... रसातलं यदखिलमानशे भुवा / . नभस्तलं बहुलतरेण रेणुना ततोऽगमत् त्रिजगदिवैकतां स्फुटम् / / 65 / / समस्थलीकृतविवरेण पूरिता . : ... . महीभृतां बलरजसा महागुहाः / रहस्त्रपाविधुरवधरतार्थिनां नभःसदामुपकरणीयतां ययुः // 66 / / Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: सप्तदशः सर्गः ] गते मुखच्छदपटसादृशीं दृशः पथिस्थिरो दधति घने रजस्यपि / मदानिलैरधिमधुचूतगन्धिभि- : द्विपा, द्विपानभिययुरेव रंहसा / / 67 / / मदाम्भसा परिगलितेन सप्तधा गजाजनः शमितरजश्चयानधः / उपर्यवस्थितघनपांशुमण्डलान लोकयत्ततपटमण्डपानिव // 68 / / अन्यूनोन्नतयोऽतिमात्रपृथवः पृथ्वीधरश्रीभृतः * स्तन्वन्तः कनकावलीभिरुपमां सौदामनीदामभिः / वर्षन्तः शममानयन्नुपलसच्छृङ्गारलेखायुधाः काले कालियकायकालवपुषः पासून् गजाम्भोमुचः 66 // इति श्रीमाघकृती शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयः 'यदुवंश क्षोभणे' नाम सप्तदशः सर्गः // 17 // - - // 18 // अष्टादशः सर्गः॥ (शालिनीवृत्तम् ). सजग्माते तावपायानपेक्षी सेनाम्भोधी धीरनादौ रयेण / पक्षच्छेदात्पूर्वमेकत्र देशे वाञ्छन्तौ वा विन्ध्यसह्यौ निलेतुम् / / 1 / / पत्तिः पत्ति वाहमेयाय वाजो नागं नागः स्यन्दनस्थो रथस्थम् / इत्थं सेना वल्लभस्येव रागा. दङ्गेनाङ्ग प्रत्यनीकस्य भेजे / / 2 / / Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 1 [ काव्यषट्क // 5 // रथ्याघोषबु हरिणाना मैक्यंगच्छन् वाजिनां हषया च / व्योमव्यापी सन्ततं दुन्दुभीना मव्यक्तोऽभूदीशितेव प्रणादः // 3 / / रोषावेशाद्गच्छतां प्रत्यमित्रं दूरोत्क्षिप्तस्थूलबाहुध्वजानाम् / दीर्घास्तियंग्वैजयन्तीसदृश्यः पादातानां भ्रजिरे खड्गलेखाः // 4 / / वर्धाबद्धा धौरितेन प्रयाता. ' ___मश्वीयानामुच्चकरुच्चलन्तः / रोक्मा रेजुः स्थासका मूर्तिभाजो दर्पस्येव व्याप्तदेहस्य शेषाः सान्द्रत्वक्कास्तल्पलाश्लिष्टकक्षा प्राङ्गी शोभामाप्नुवन्तश्चतुर्थीम् / कल्पस्यान्ते मारुतेनोपनुन्नाश्चे लुश्चण्डं गण्डशैला इवेमाः // 6 // संक्रीडन्ती तेजिताश्वस्य रागादु. द्यम्यारामग्रकायोस्थितस्य / . रंहोभाजामक्षधूः स्यन्दनानां हाहाकारं प्राजितुः प्रत्यनन्दत् // 7 // कुर्वाणानां साम्परायान्तरायं भूरेणूनां मृत्युना मार्जनाय / सम्मार्जन्यो नूनमुळ्यमाना भान्ति स्मोच्चैः केतनानां पताकाः // 8 // उद्यन्नादं धन्विभिनिष्ठुराणि स्थूलान्युच्चर्मण्डलत्वं दधन्ति / Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ] प्रास्फाल्यन्ते कामु काणि स्म कामं हस्त्यारोहैः कुञ्जराणां शिरांसि // 6 // घण्टानादो निस्वनो डिण्डिमानां ग्रेवेयाणामारवो बृहितानि / प्रामेतीव प्रत्यवोचन् गजाना मुत्साहाथ वाचमाधोरणस्य // 10 // यातश्चातुर्विध्यमस्त्रादिभेदा दव्यासङ्ग: सौष्ठवाल्लाघवाच्च / शिक्षाशक्तिं प्राहरन्दर्शयन्तो मुक्तामुक्तैरायुधरायुधीयाः रोषावेशादाभिमुख्येन कोचि . पाणिग्राहं रहसवोपयाती। हित्वा हेतीमत्तवन्मुष्टिघातं ___घ्नन्तो बाहबाहवि व्यासृजेताम् // 12 // शुद्धाः सङ्ग न क्वचित् प्राप्तवन्तो दूरान्मुक्ताः शीघ्रतां दर्शयन्तः / अन्तःसेनं विद्विषामाविशन्तो युक्तं चक्रुः सायका वाजितायाः // 13 // प्राक्रम्याजेरग्रिमस्कन्धमुच्च रास्थायाथो वीतशङ्क शिरश्च / हेलालोला वम गत्वातिमत्यं द्यामारोहन्मानभाजः सुखेन // 14 // रोदोरन्ध्र व्यश्नुवानानि लोले ___ रङ्गस्यान्तादितः स्थावराणि / केचिद्गुर्वीमेत्य संयनिषद्यां कोणन्ति स्म प्राणमूल्यैर्यशांसि // 15 // Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं वीर्योत्साहश्लाघि कृत्वाऽवदानं सङ्ग्रामाग्रे मानिनां लज्जितानाम् / प्रज्ञातानां शत्रुभिर्युक्तमुच्चैः श्रीमन्नाम श्रावयन्ति स्म नग्नाः / / 16 / / प्राधावन्तः सम्मुखं धारिताना ___मन्यैरन्ये तीक्ष्णको?यकाणाम् / वक्षःपीठेरात्सरोरात्मनैव क्रोवे नान्धाः प्राविशन्पूष्कराणि // 17 / / मिश्रीभूते तत्र' सैन्यद्वयेऽपि . प्रायेणायं व्यक्तमासीद्विशेषः / आत्मीयास्ते ये पराञ्चः पुरस्ता दभ्यावर्ती संमुखो यः परोऽसौ // 18 / / सद्वंशत्वादङ्गसंसङ्गिनीत्वं नीत्वा काम गौरवेणावबद्धा / नीता हस्तं वञ्चयित्वा परेण द्रोहं चक्रे कस्यचित्स्वा कृपाणी // 16 / / नीते भेदं धौतधाराभिघाता- '''' ". दम्भोदाभे शात्रवेणापरस्य / / सासृग्राजिस्तीक्ष्णमार्गस्य मार्गो - विद्युद्दीप्तः कङ्कटे लक्ष्यते स्म / / 20 / / आमूलान्तात्सायकेनायतेन स्यूते बाहौं मण्डुकश्लिष्टमुष्टेः। . प्राप्यासह्या वेदनामस्तधैर्या दप्यभ्रश्यच्चर्म नान्यस्य पाणेः // 21 / / भित्वा घोणामायसेनाधिवक्षः ," स्थूरीपृष्ठो गार्धपक्षण विद्धः / 25 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 577 शिक्षाहेतो!ढरज्ज्वेव बद्धो हतुं वक्त्रं नाशकद् दुर्मुखोऽपि // 22 / / कुन्तेनोच्चैः सादिना हन्तुमिष्टा नाजानेयो दन्तिनस्त्रस्यति स्म / कर्मोदार कीर्तये कर्तुकामान्किवा जात्याः स्वामिनो हृपयन्ति // 23 / / जेतुं जैत्राः शेकिरे नारिसैन्यैः पश्यन्तोऽधो लोकमस्तेषुजालाः / नागारूढा: पार्वतानि श्रयन्तो दुर्गाणीव त्रासहीनास्त्रसानि // 24 // विष्वद्रोचीविक्षिपन्सैन्यवीची राजावन्तः क्वापि दूरं प्रयातम् / बभ्रामको बन्धुमिष्टं दिक्षुः सिन्धौ वाद्यो मण्डलं गोर्वराहः // 25 / / यावच्चके नाञ्जनं बोधनाय व्युत्थानज्ञो हस्तिचारी मदस्य / सेनास्वानाद्दन्तिनामात्मनैव ___स्थूलास्तावत्प्रावहन्दानकुल्याः // 26 / / क्रुध्यन् गन्धादन्यनागाय दूरा- दारोढारं धूतमूर्धावमत्य / घोरारावध्वानिताशेषदिक्के विष्के नागः पर्यणंसीत्स्व एव // 27 // प्रत्यासन्ने दन्तिनि प्रातिपक्षे यन्त्रा नागः प्रास्तवक्त्रच्छदोऽपि / क्रोधाकान्तः करनिर्दारिताक्षः प्रेक्षांचके नैव किञ्चिन्मदान्धः // 28 // 25 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 ] [ काव्यषट्कं तूर्णं यावन्नापनिन्ये निषादी वासश्चक्षुर्वारणं वारणस्य / तावत्पूगैरन्यनागाधिरूढः कादम्बानामेकपातैरसीव्यत् / / 26 / / आस्थद्दष्टेराच्छदं च प्रमत्तो यन्ता यातुः प्रत्यरीभं द्विपस्य / मग्नस्योच्चैहभारेण शङ्कोराववाते वीक्षणे च क्षणेन / / 30 / / यत्नाद्रक्षन्सुस्थितत्वादनाशं _ निश्चित्यान्यश्चेतसा भावितैन / अन्त्यावस्थाकालयोग्योपयोगं ____ दधेऽभीष्टं रागमापद्धनं वा // 31 / / अन्योन्येषां पुष्करैरामृशन्तो दानोभेदानुच्चकैभु ग्नवालाः / उन्मूर्धानः सन्निपत्यापरान्तैः प्रायुध्यन्त स्पष्टदन्तध्वनीभाः / / 32 / / द्राधीयांसः संहता स्थेमभाज चारूदग्रास्तोक्ष्णतामत्यजन्तः / दन्ता दन्तैराहताः सामजानां भङ्ग जग्मुर्न स्वयं सामजाता: / / 33 / / मातङ्गानां दन्तसङ्घट्टजन्मा . . हेमच्छेदच्छायचञ्चच्छिखाग्रः / लग्नोऽप्यग्निश्चामरेषु प्रकामं माञ्जिष्ठेषु व्यज्यते न स्म सैन्यैः / / 34 / / ओषामासे मत्सरोत्पातवाता श्लिष्यद्दन्तक्ष्मारुहां घर्षणोत्थैः / योगान्तैर्वा वह्निभिर्वारणाना मुच्चैमूर्धव्योम्नि नक्षत्रमाला // 35 / / सान्द्राम्भोदश्यामले सामजानां वृन्दे नीताः शोणितैः शोणिमानम् / . हमच्छ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ) [ 576 10. दन्ताः शोभामापुरम्भोनिधीनां कन्दोर्दोदा वैद्रमा वारिणोव // 36 / / प्राकम्प्राणैः केतुभिः सन्निपातं तारोदीर्णग्रेवनादं व्रजन्तः / मग्नानङ्गे गाढमन्यद्विपानां दन्तान्दुःखादुत्खनन्ति स्म नागाः / / 37 / / उत्क्षिप्योच्चैः प्रस्फुरन्तं रदाभ्या - मीषादन्तः कुञ्जरं शात्रवीयम् / शृङ्घप्रोतप्रावृषेण्याम्बुदस्य स्पष्टं प्रापत्साम्यमुर्वीधरस्य // 38 // भग्नेऽपीभे स्वे परावर्त्य देहं योद्धा साधू वीडया मुञ्चतेषून् / साकं यन्तुः संमदेनानुबन्धी दूनोऽभीक्ष्णं वारणः प्रत्यरोधि / / 36 / / व्याप्तं लोकेदु:खलभ्यापसारं संरम्भित्वादेत्य धीरो महीयः / सेनामध्यं गाहते वारणः स्मः ब्रह्मव प्रागादिदेवोदरान्तः // 40 / / भृङ्गश्रेणीश्यामभासां समूहैर्ना राचानां विद्धनीरन्ध्रदेहः / निर्भीकत्वादाहवेनाहतेच्छो हृष्यन्हस्ती हृष्टरोमेव रेजे // 41 / / आताम्राभा रोषभाजः कटान्ता दाशूत्खाते मार्गणे धूर्गतेन / निश्च्योतन्ती नागराजस्य जज्ञे दानस्याहो लोहितस्येव धारा // 42 / / Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषटकं कामन्दन्तौ दन्तिनः साहसिक्या दीषादण्डो मृत्युशय्यातलस्य / / सैन्यैरन्यस्तत्क्षणादाशशङ्क स्वर्गस्योच्चरर्धमार्गाधिरूढः ||43 // कुर्वञ्ज्योत्स्नाविप्रुषां तुल्यरूप स्तारस्ताराजालसारामिव द्याम् / खड्गाघातैर्दारिताहन्तिकुम्भा दाभाति स्म प्रोच्छलन्मौक्तिकौघः // 44 / / दूरोत्क्षिप्तक्षिप्रचक्रेण कृत्तं मत्तो हस्तं हस्तिराजः स्वमेव / 10 भीमं भूमौ लोलमान सरोषः पादेनासृक्पतपेषं पिपेषः / / 45 / / आपस्काराल्लू नगात्रस्य भूमि | निःसाधारं गच्छतोऽवाङ्मुखस्य / लब्धायामं दन्तयोयुग्ममेव स्वं नागस्य प्रापदुत्तम्भनत्वम् / / 46 / / लब्धस्पर्श भूव्यधादव्यथेन स्थित्वा किंचिन्तयोरन्तराले / ऊर्ध्वार्धासिच्छिन्नदन्तप्रवेष्ट जित्वोत्तस्थे नागमन्येन सद्यः // 47 / / हस्तेनाग्रे वीतभीति गृहीत्वा कञ्चिद्वधालः क्षिप्तवानूर्ध्वमुच्चैः / प्रासीनानां व्योम्नि तस्यैव हेतोः स्वर्गस्त्रीणामर्पयामास नूनम् // 48 / / कंचिद् दूरादायतेन द्रढीयःप्रासप्रोतस्रोतसान्तःक्षतेन / ' हस्तानेण प्राप्तमप्यनतोऽभूदानैश्वर्यं वारणस्य ग्रहीतुम् / / 46 / / 25 तन्वाः पुंसी नन्दगोपात्मजायाः कंसेनेव स्फोटिताया गजेन / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 581 दिव्या मूर्तिव्योमगैरुत्पतन्ती वीक्षामासे विस्मितैश्चण्डिकेव // 50 / / प्राक्रम्यैकामग्रपादेन जङ्घा मन्यामुच्चराददानः करेण / सास्थिस्वानं दारुबद्दारुणात्मा कञ्चिन्मध्यात्पाटयामास दन्ती / / 51 / / शोचित्वाग्रे भृत्ययोमृत्युभाजो रर्यः प्रेम्णा नो तथा वल्लभस्य / पूर्व कृत्वा नेतरस्य प्रसाद पश्चात्तापादाप दाहं यथान्तः // 52 / / उत्प्लुत्यारादर्धचन्द्रेण लूने वक्त्रेऽन्यस्य क्रोधदष्टोष्ठदन्ते / सैन्यैः कण्ठच्छेदलीने कबन्धाद् भूयो बिभ्ये वल्गतः सासिपाणेः / / 53 / / तूर्यारावैराहितोत्तालतालैर्गा यन्तीभिः कालहं काहलाभिः / नृत्ते चक्षुःशून्यहस्तप्रयोगं काये कूजन् कम्बुरुच्चैहास // 54 / / प्रत्यावृत्तं भङ्गभाजि स्वसैन्ये - तुल्यं मुक्तैराकिरन्ति स्म कञ्चित् / एकोघेन सुवर्णपुखैद्विषन्तः सिद्धा माल्यैः साधुवादयेऽपि / / 55 / / बाणाक्षिप्तारोहशून्यासनानां . प्रक्रान्तानामन्यसैन्यैर्ग्रहीतुम् / संरब्धाना भ्रम्यतामाजिभूमौ वारी वारैः सस्मरे वारणानाम् / / 56 / / 25 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 / [ काव्यषट्कं पौनःपुन्यादस्रगन्धेन मत्तो मृदुनन्कोपाल्लोकमायोधनोाम् / पादे लग्नामत्र मालामिभेन्द्रः पाशीकल्पामायतामाचकर्ष // 57 / / कश्चिन्मूर्छामेत्य गाढप्रहारः सिक्तः शीतैः शीकरैर्वारणस्य / . उच्छश्वास प्रस्थिता तं जिघर - व्यर्थाकूता नाकनारी मुमूर्च्छ // 58 / / लूनग्रीवात् सायकेनापरस्य ". चामत्युच्चैराननादुत्पतिष्णोः / वेसे मुग्धैः सैहिकेयानुकारा द्रौद्राकारादप्सरोवक्त्रचन्द्रः // 59 // वृत्तं युद्धे शूरमाश्लिष्य कात्रि द्रन्तुं तूर्णं मेरुकुञ्ज जगाम / त्यक्त्वा नाग्नौ देहमेति स्म यावत्पत्नी सद्यस्तद्वियोगासमर्था / / 60 / / त्यक्तप्राणं संयुगे हस्तिनीस्था वीक्ष्य प्रेम्णा तत्क्षणादुद्गतासुः / प्राप्याखण्डं देवभूयं सतीत्वा दाशिश्लेष स्वैव कञ्चित्पुरन्ध्री / / 61 / / स्वर्गवासं कारयन्त्या चिराय / प्रत्यग्रत्वं प्रत्यहं धारयन्त्या / कश्चिद्भेजे दिव्यनार्या परस्मि ल्लोके लोकं प्रीणयन्त्येह कीा / / 62 / / गत्वा नूनं वैबुधं सद्म रम्यं मूर्छाभाजामाजगामान्तरात्मा / 20 / 25 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 583 भूयो दृष्टप्रत्ययाः प्राप्तसंज्ञाः साधोयस्ते यद्रणायाद्रियन्ते // 63 / / कश्चिच्छस्त्रापातमूढोऽपवोढु लब्ध्वा भूयश्चेतनामाहवाय / व्यावतिष्ट क्रोणत: सख्युरुच्चै ___ स्त्यक्तश्चात्मा का च लोकानुवृत्तिः / / 64 / / भिन्नोरस्कौ शत्रुणाकृष्य दूरादासन्नत्वात्कौचिदेकेषुणैव / अन्योन्यावष्टम्भसामर्थ्ययोगादूर्वा देव स्वर्गतावप्यभूताम् / 65 / भिन्नानस्त्रैर्मोहभाजोऽभिजातान् . . हन्तुं लोलं वारयन्तः स्ववर्गम् / जीवग्राहं ग्राहयामासुरन्ये योग्येनार्थः कस्य न स्याज्जनेन / / 66 / / भग्नर्दण्डैरातपत्राणि भूमी ____ पर्यस्तानि प्रौढचन्द्रद्युतीनि / आहाराय प्रेतराजस्य रौप्य - स्थालानीव स्थापितानि स्म भान्ति / / 67 / / रेजुभ्रष्टा वक्षसः कुङ्कुमाङ्का मुक्ताहाराः पार्थिवानां व्यसूनाम् / हासाल्लक्ष्याः पूर्णकामस्य मन्ये , मृत्योर्दन्ताः पीतरक्तासवस्य / / 68 / / निम्नेष्वोधीभूतमस्त्रक्षताना मस्र भूमौ यच्चकासाञ्चकार / रागार्थ तत्कि तु कौसुम्भमम्भः . संव्यानानामन्तकान्तःपुरस्य // 66 / / .25 / रामेणः त्रिःसप्तकृत्वो ह्रदानां चित्रं चक्रे पञ्चकं क्षत्रियास्रः / Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 ] [ काव्यषट्कं रक्ताम्भोभिस्तत्क्षणादेव तस्मि न्संख्येऽसंख्या: प्रावहन्द्वीपवत्यः / / 70 / / संदानान्तादस्त्रिभिः शिक्षितास्त्रै राविश्याधः शातशस्त्रावलूनाः / कौपम्यं व्यक्तमन्तर्नदीना मैभाः प्रापन्नज्रयोऽसृङ्मयीनाम् / / 71 / / पद्माकार्योधवक्वैरिभानां कर्णभ्रष्टैश्चामरैरेव हंसः / सोपस्काराः प्रावहन्नस्रतायाः स्रोतस्विन्यो वीचिषूच्चस्तरद्भिः // 72 / / उत्क्रान्तानामामिषायोपरिष्टा दध्याकाश बभ्रमुः पत्रवाहाः / मूर्ताः प्राणा नूनमद्याप्यवेक्षा-' मासुः काय त्याजिता दारुणास्त्रैः // 73 / / पातन्वद्भिदिक्षु पत्राननादं प्राप्त रादाशु तीक्ष्णमुखाग्रैः / प्रादौ रक्तं सैनिकानामजीवै जीवः पश्चात्पत्रिपूगैरपायिः / / 74 / / ओजोभाजां यद्रणे संस्थिताना मादत्तीवं सार्धमङ्गेन नूनम् / ज्वालाव्याजादुद्वमन्ती तदन्त स्तेजस्तारं दीप्तजिह्वा ववाशे / / 75 / / नैरन्तर्यच्छिन्नदेहान्तरालं दुर्भक्षस्य ज्वालिना वाशितेन / योधुर्बाणप्रोतमादीप्य मांसं / पाकापूर्वस्वादमादे शिवाभिः // 76 / / 25 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 585 ग्लानिच्छेदी क्षुत्प्रबोधाय पीत्वा रक्तारिष्टं शोषिताजीर्णशेषम् / स्वादुकारं कालखण्डोपदंशं __ क्रोष्टा डिम्बं व्यध्वरणद्वयस्वनच्च / / 77 / / ऋव्यात्पूगैः पुष्कराण्यानकानां प्रत्याशाभिर्मेदसो दारितानि / पाभीलानि प्राणिनः प्रत्यव स्यन्कालो नूनं व्याददावाननानि / / 78 / / कीर्णा रेजे साजिभूमिः समन्ता दप्राणद्भिः प्राणभाजां प्रतीकैः / बह्वारम्भैरर्धसंयोजितैर्वा ___ रूपैः स्रष्टुः सृष्टिकर्मान्तशाला / / 76 / / प्रायन्तीनामविरतरयं राजकानीकिनीना मित्थं सैन्यैः सममलघुभिः श्रीपतेरूमिमद्भिः / प्रासीदोघेर्मु हुरिव महद्वारिधेरापगानां दोलायुद्धं कृतगुरुतरध्वानमौद्धत्यभाजाम् / / 80 / / // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के सकुलयुद्धवर्णनो नामाष्टादशः सर्गः / / 18 / / दा१०० Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 ) . [ काव्यषट्कं // 19 // एकोनविंशः सर्गः // . (अनुष्टुब ) . अथोत्तस्थे रणाटव्यामसुहृद्वेणुदारिणा। नृपाङ्घ्रिपौघसंघर्षादग्निवद्वेणुदारिणा / / 1 / / 5 आपतन्तममुं दूरादूरीकृतपराक्रमः / बलोऽवलोकयामास मातंङ्गमिव केसरी // 2 // // एकाक्षरपादः / , जजोजोजाजिजिज्जाजी तं ततोऽतिततातितुत् / भाभोऽभीभाभिभूभाभूरारारिररिरीररः // 3 // भवन्भयाय लोकानामाकम्पितमहीतलः / निर्घात इव निर्घोष भीमस्तस्यापतद्रथः // 4 // रामे रिपुः शरानाजिमहेष्वास विचक्षणे / कोपादथैनं शितया महेष्वा स विचक्षणे / / 5 / / दिशमर्कमिवावाची मूर्छागतमपाहरत् / 15 मन्दप्रतापं तं सूतः क्षीघ्रमाजिविहायसः // 6 // कृत्वा शिनेः शाल्वचमू सप्रभावा चमूजिताम् / . ससर्ज वक्त्रैः फुल्लाब्जसप्रभा वाचमूजिताम् // 7 / / उल्मुकेन द्रुमं प्राप्य संकुचत्पत्रसंपदम् / तेजः प्रकिरता दिक्षु सप्रतापमदीप्यत // 8 // 20 पृथोरध्यक्षिपद्रुक्मी यया चापमुदायुधः / तयैव वाचापगमं ययाचापमुदायुधः // 6 // समं समन्ततो राज्ञामापतन्तीरनीकिनीः / काष्णिः प्रत्यग्रहीदेक: सरस्वानिव निम्नगाः // 10 // दधानैर्घनसादृश्यं लसदायसदंशनैः / . 25 तत्र काञ्चनसच्छाया ससृजे तैः शराशनिः / / 11 / / Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] ( 587 नखांशुमञ्जरीकीर्णामसौ तरुरिवोच्चकैः / बभौ बिभ्रद्धनुःशाखामधिरूढशिलीमुखाम् / / 12 / / “प्राप्य भीममसौ जन्यं सौजन्यं दधदानते / विध्यन्मुमोच न रिपूनरिपूगान्तकः शरैः / / 13 / / 5 कृतस्य सर्वक्षितिपैविजयाशंसया पुरः / अनेकस्य चकारासौ बाणैर्बाणस्य खण्डनम् / / 14 / / या बभार कृतानेकमाया सेना ससारताम् / धनुः स कर्षन् रहितमायासेनाससार ताम् // 15 / / प्रोजो महोजाः कृत्वाधस्तत्क्षणादुत्तमौजसः / 10 कुर्वन्नाजावमुख्यत्वमनमन्नाम मुख्यताम् / / 16 // दूरादेव चमूमल्लैः कुमारो हन्ति स स्म याः / न पुनः सांयुगीं तां स्म कुमारो हन्ति सस्मयाः / / 17 / / निपीड्य तरसा तेन मुक्ताः काममनास्थया / उपाययुविलक्षत्वं विद्विषो न शिलीमुखाः // 18 // 15 तस्यावदानैः समरे सहसा रोमहर्षिभिः / सुरैरशंसि व्योमस्थैः सह सारो महर्षिभिः / / 16 / / सुगन्धयद्दिशः शुभ्रमम्लानि कुसुमं दिवः / भूरि तत्रापतत्तस्मादुत्पपात दिवं यशः // 20 // . सोढुं तस्य द्विषो नालमपयोधरवा रणम् / 20 ऊर्ण नाव यशश्च द्यामपयोधरवारणम् // 21 / / के शप्रचुरलोकस्य पर्यस्कारि विकासिना / शेखरेणेव युद्धस्य शिरः कुसुमलक्ष्मणा // 22 // सादरं युध्यमानापि तेनान्यनरसादरम् / सा दरं पृतना निन्ये हीयमाना रसादरम् / / 23 / / 25. इत्यालिङ्गितमालोक्य जयलक्ष्म्या झषध्वजम् / क्रुद्धयेव क्रुधा सद्य: प्रपेदे चेदिभूपति: / / 24 / / Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 ] [ काव्यषट्कं अहितानभि वाहिन्या स मानी चतुरङ्गया / चचाल वल्गत्कलभसमानीचतुरङ्गया / / 25 / / ततस्ततधनुमौर्वीविस्फारस्फारनिःस्वनैः / / तूतैर्युगक्षये क्षुभ्यदकूपारानुकारिणी // 26 // / सर्वतोभद्र / / स का र ना ना र का स . का यः सा द द सा य का / र सा ह वा वा. ह सा र ... ना द वा द द वा द ना / / 27 / / का | साय he द ना AN nc PU लोलासिकालियकुला यमस्यैव स्वसा स्वयम् / चकीर्षु रुल्लसल्लोहवर्मश्यामा सहायताम् // 28 / / Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [586 / मुरजबन्धः / / सा से ना ग म ना र म्भे र से ना सी द ना र ता / ता र ना द ज ना म त्त घी र ना ग म ना म या / / 26 / / धतधौतासयः प्रष्ठाः प्रातिष्ठन्त क्षमाभृताम् / 5 शौर्यानुरागनिकषः सा हि वेलानुजीविनाम् / / 30 / / दिवमिच्छन्युधा गन्तुं कोमलामलसम्पदम् / दधौ दधानोऽसिलतां कोऽमलामलसम्पदम् // 31 / / कृतोरुवेगं युगपद्वयजिगीषन्त सैनिकाः / विपक्षं बाहुपरिधर्जङ्घाभिरितरेतरम् // 32 / / .. 10 वाहनाजनि मानासे साराजावनमा ततः / मत्तसारगराजेभे भारीहावज्जनध्वनि // 33 / / . // श्लोकप्रतिलोमयमकम् / / निध्वनज्जवहारीभा भेजे रागरसात्तमः / ततमानवजारासा सेना मानिजनाहवा // 34 / / ..' 15 अभग्नवृत्ताः प्रसभादाकृष्टा यौवनोद्वतैः / चक्रन्दुरुच्चकैमुष्टिग्राह्यमध्या धनुर्लताः / / 35 / / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 [ काव्यषट्कं करेणुः प्रस्थितोऽनेको रेणुर्घण्टाः सहस्रशः / ... करेणुः शीकरो जज्ञे रेणुस्तेन शमं ययौ / / 36 / / धृतप्रत्यग्रशृङ्गाररसरागैरपि द्विपैः / / सरोषसम्भ्रमैर्बभ्रे रौद्र एव रणे रसः / / 37 / / 5 . न तस्थौ भर्ततः प्राप्तमानसम्प्रतिपत्तिषु / रणैकसर्गेषु भयं मानसं प्रति पत्तिषु / / 38 / / बाणाहिपूर्णतूणोरकोटरैर्धन्विशाखिभिः / गोधाश्लिष्टभुजाशाखैरभूद्भीमा रणाटवी / / 36 / / ॥प्रतिलोमानुलोमपादः / / 10 नानाजाववजानाना सा जनौघघनौजसा / परानिहाऽहानिराप तान्वियाततयाऽन्विता / / 40 / / विषमं सर्वतोभद्रचक्रगोमूत्रिकादिभिः / श्लोकैरिव महाकाव्यं व्यूहैस्तदभवबलम् / / 41 / / संहत्या सात्वतां चैद्यं प्रति भास्वरसेनया। 15 ववले योद्धमुत्पन्नप्रतिभा स्वरसेन या / / 42 / / विस्तीर्णमायामवती लोललोकनिरन्तरा / नरेन्द्र मार्ग रथ्येव पपात द्विषतां बलम् / / 43 / / वारणागगभोरा सा साराऽभीगगणारवा / . कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका / / 44 / / अधिनागं प्रजविनो विकसत्पिच्छचारवः / पेतुर्बहिणदेशीयाः शङ्कवः प्राणहारिणः // 45 / / // गोमूत्रिकाबन्धः / प्रवृ त्ते वि क स द्ध्वा नं सा ध ने प्य वि षा दि भिः / 25 व वृषे वि क स हा न यु ध मा प्य वि षा रिण भिः / / 46 / / Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व 3 ये वि क स दा (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 561 पुरः प्रयुक्तैर्युद्धं तच्चलितैलब्धशूद्धिभिः / आलापरिव गान्धर्वमदीप्यत पदातिभिः / / 48 / / केनचित्स्वासिनान्येषां मण्डलाग्रानवद्यता। प्रापे कीर्तिप्लुतमहीमण्डलाग्राऽनवद्यता / / 48 / / विहन्तुं विद्विषस्तीक्ष्णः सममेव सुसंहतेः / परिवारात्पृथक्चक्रे खड्गश्चात्मा च केनचित् 46 अन्येन विदधेऽरीणामतिमात्रा विलासिना। उद्गुणेन चमूस्तूर्णमतिमात्राविलाऽसिना / 50 / सहस्रपूरणः कश्चिल्लूनमूर्धाऽसिना द्विषः / तथोर्ध्व एव काबन्थीमभजन्नर्तनक्रियाम् / / 51 / / शस्त्रवणमयश्रीमदलङ्करणभूषितः / . ददृशेऽन्यो रावणवदलङ्करणभूषितः / / 52 / / द्विषद्विशसनच्छेदनिरस्तोरुयुगोऽपरः / सिक्तश्चास्र रुभयथा बभूवारुणविग्रहः / / 53 / / भीमतामपरोऽम्भोधिसमेऽधित महाहवे / दाक्षे कोपः शिवस्येव समेधितमहा हवे / / 54 / / दन्तैश्चिच्छिदिरे कोपात् प्रतिपक्षं गजा इव / परनिस्त्रिशनिलूनकरवालाः पदातयः / / 55 / / रणे रभसनिभिन्नद्विपपाट विकासिनि / न तत्र गतभीः कश्चिद्विपपाट विकासिनि / 56 / यावन्न सत्कृतैर्भ : स्नेहस्यानृण्यमिच्छुभिः / अमर्षादितरैस्तावत्तत्यजे युधि जीवितम् / / 57 / / नं प्र वृ त्ते वि ल स डा नं सा प . ने 'प्य दिशा दिभिः यु 5 मा 5 वि. वा. णि भि: . / समुद्गयमकम् / / अयशोभिदुरालोके कोपधाम-रणाहते / अयशोभिदुरा लोके कोपधा मरणाइते / / 58 / / Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 ] [ काव्यषट्कं स्खलन्ती न क्वचितक्ष्ण्यादभ्यग्रफलशालिनी। अमोचि शक्तिः शाक्तीकर्लोहजा न शरीरजा / / 56 / / प्रापदि व्यापृतनयास्तथा युयुधिरे नृपाः / आप दिव्या पृतनया विस्मयं जनता यथा / / 60 / / 5 स्वगुणैराफलप्राप्तेराकृष्य गणिका इव / . . कामुकानिप नालीकांस्त्रिणताः सहसामुचन् / / 61 / / वाजिन: शत्रुसैन्यस्य समारब्धनवाजिनः / / वाजिनश्च शरा मध्यमविशन्द्रुतवाजिनः / / 62 / / पुरस्कृत्य फलं प्राप्तः सत्पक्षाश्रयशालिभिः / कृतपुङ्खतया लेभे लक्षमप्याशु मार्गणैः / / 63 / / रक्तस्र तिं जपासूनसमरागामिषुव्यधात् / कश्चित्पुरः सपत्नेषु समरागामिषु व्यधात् / / 64 / / रयेण रणकाम्यन्तौ दूरादुपगताविभौ / / गतासुरन्तरा दन्ती वरण्डक इवाभवत् / / 65 / / // यक्षरः / / 15 भूरिभि रिभिर्भीरभू भारैरभिरेभिरे / भेरी रेभिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभरिभाः // 66 / / निशितासिलतालूनैस्तथा हस्तैर्न हस्तिनः। युध्यमाना यथा दन्तैर्भग्नैरापुर्विहस्तताम् / / 67 / / // असंयोगः / / 20 निपीडनादिव मिथो दानतोयमनारतम् / वपुषामदयापातादिभानामभितोऽगलत् // 60 / / रणाङ्गणं सर इव प्लावितं मदवारिभिः / गजः पृथुकराकृष्ट शतपत्रमलोडयत् / / 69 / / शरक्षते गजे भृङगैः सविषादिविषादिनि / 25 रुतव्याजेन रुदितं तत्रासीदतिसीदति / / 70 / / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [563 अन्तकस्य पृथौ तत्र शयनीय इवाहवे / दशनव्यसनादीयुमत्कुणत्वं मतङ्गजाः // 71 / / ।अर्धभ्रमकः / / अ भी क म ति के ने द्धे 5 भी ता न न्द स्य ना श ने / क न त्स का म से ना के म न्द का म क म स्य ति / / 72 // | क | न त्स | का | से | ना | दधतोऽपि रणे भीममभीक्ष्णं भावमासुरम् / हताः परैरभिमुखाः सुरभूयमुपाययुः // 73 / / . 10 येनाङ्गमूहे व्रणवत्सरुवा परतोऽमरैः / / समत्वं स ययौ खड्गत्सरुचापरतोऽमरैः // 74 / / निपातितसुहृत्स्वामिपितृव्यभ्रातृमातुलम् / / पाणिनीयमिवालोकि धोरैस्तत्समराजिरम् / / 75 / / प्रभावि सिन्ध्वा सन्ध्याभ्रसाधिरतोयया / 15 हृते योद्धु जनः पांशी स दृधि रतो यया // 76 / / विदलत्पुष्कराकीर्णाः पतच्छङ्खकुलाकुलाः / तरत्पत्ररथा नद्य: प्रासर्परक्तवारिजाः // 77 // Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594 [ काव्यषट्क असृग्जनोऽस्त्रक्षतिमानवमज्जवसादनम् / रक्षःपिशाचं मुमुदे नवमज्जवसादनम् / / 78 / / चित्रं चापैरपेतज्यैः स्फुरद्रक्तशत ह्रदम् / पयोदजालमिव तद्वीराशंसनमाबभौ // 76 / / 5 बन्धौ विपन्नेऽनेकेन नरेणेह तदन्तिके। . .. अशोचि सैन्ये घण्टाभिर्न रेणे हतदन्तिके / / 80 / / कृत्तः कीर्णा मही रेजे दन्तैर्गात्रैश्च दन्तिनाम् / क्षुण्णलोकासुभिर्मृत्योर्मुसलोलूखलैरिव . // 81 / / युद्धमित्थं विधूतान्यमानवानभियो गतः / 10 चैद्यः परान्पराजिग्ये मानवानभियोगतः // 82 / / अथ वक्षोमणिच्छायाच्छुरितापीतवाससा / स्फुरदिन्द्रधनुभिन्नतडितेव तडित्वता / / 83 / / ॥द्वयक्षरः / / नीलेनानालनलिननिलीनोल्ललनालिना। 15 ललनालालनेनालं लीलालोलेन लालिना / / 84 / / अपूर्वयेव तत्कालसमागमसकामया। . दृष्टेन राजन्वपुषा कटाक्षैविजयश्रिया // 85 / / // यक्षरः / / विभावी विभवी भाभ्रो विभाभावी विवो विभीः / भवाभिभावी भावावो भवाभावो भूवो विभुः / / 86 / / उपैतुकामैस्तत्पारं निश्चितैयोगिभिः परैः।। देहत्यागकृतोद्योगैरदृश्यत परः पुमान् // 87 / / / गतप्रत्यागतम् / / . तं श्रिया घनयाऽनस्तरुचा सारतया तया। 25 यातया तरसा चारुस्तनयाऽनघया श्रितम् / / 88 / / विद्विषोऽद्विषरुद्वीक्ष्य तथाप्यासन्निरेनसः / . अरुच्यमपि रोगघ्नं निसर्गादेव भेषजम् / / 86 / / Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 565 ॥प्रतिलोमेनायमेवार्थः / / विदितं दिवि केऽनीके तं यातं निजिताजिनि / . विगद गवि रोद्धारो योद्धा यो नतिमेति नः // 90 / / नियुज्यमानेन पुरः कर्मण्यतिगरीयसि / 5 प्रारोप्यमाणोरुगुणं भ; कामु कमानमत् // 61 / / तत्र बाणा: सुपरुषः समधीयन्त चारवः / द्विषामभूत्सुपरुषस्तस्याकृष्टस्य चारवः // 92 / / पश्चात्कृतानामप्यस्य नराणामिव पत्रिणाम् / यो यो गुणेन संयुक्तः स स कर्णान्तमाययौ / 93 / / ॥द्वयक्षरः।। प्रापे रूपी पुराऽरेपाः परिपूरी परः परैः / / रोपेरपारैरुपरि पुपूरेऽपि पुरोऽपरै // 64 / / दिङमुखव्यापिनस्तीक्ष्णान्हादिनो मर्मभेदिनः / चिक्षेपैकक्षणेनैव सायकानहितांश्च सः // 65 / / // गूढचतुर्थः / / शरवर्षी महानादः स्फुरत्कामुककेतनः / नीलच्छविरसौ रेजे केशवच्छलनीरदः // 96 / / न केवलं जनस्तस्य लघुसंघायिनो धनुः / मण्डलीकृतमेकान्ताद्वलमैक्षि द्विषामपि // 67 / / . // द्वयक्षरः / / लोकालोकी कलोऽकल्ककलिलोऽलिकुलालकः / कालोऽकलोऽकलिः काले कोलकेलिकिलः किल / / 68 / / अक्षितारासु विव्याध द्विषतः स तनुत्रिणः / दानेषु स्थूल लक्ष्यत्वं न हि तस्य शरासने / / 66 / / // द्वयक्षरः॥ वररोऽविवरो वैरिविवारी वारिरारवः / विववार वरो वैरं वीरो रविरिवौर्वरः // 100 / / * 20 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 ] [ काव्यषट्कं मुक्तानेकशरं प्राणानहरद्भूयसां द्विषाम् / तदीयं धनुरन्यस्य न हि सेहे सजीवताम् // 101 / / // यक्षरः / / राजराजी रुरोजाजेरजिरेऽजोऽजरोऽरजाः / 5 रेजारिजूरजोर्जार्जी रराजर्जु रजर्जरः // 102 / / उद्धतान्द्विषतस्तस्य निघ्नतो द्वितयं ययुः / पानार्थे रुधिरं धातौ रक्षार्थ भुवनं शराः // 103 // . यक्षरः / / . करारिकारि कोरेककारक: कारिकाकरः।। 10 कोरकाकारकरकः करीर: कर्करोऽर्करुक् / / 104 / / विधातुमवतीर्णोऽपि लघिमानमसौ भुवः / अनेकमरिसंघातमकरोद् भूमिवर्धनम् // 105 / / // यक्षर / / / दारी दरदरिद्रोऽरिदारूदारोऽद्रिदूरदः / 15 दूरादरौद्रोऽददरद्रोदोरुदारुरादरी // 106 / / एकेषुणा सङ्घतिथान्द्विषो भिन्दन्द्रुमानिव / स जन्मान्तररामस्य चके सदृशमात्मनः / / 107 / / // यक्षरः // शूरः शोरिरशिशिरैराशाशैराशु राशिशः / 20 शरारुः श्रीशरीरेशः शुशूरेऽरिशिरः शरैः / / 108 / / व्यक्तासीदरितारीणां यत्तदीयास्तदा मुहुः / मनोहृतोऽपि हृदये लेगुरेषां न पत्रिणः / / 106 / / ॥अतालव्यः / / नामाक्षराणां मलना मा भूद्भर्तु रतः स्फुटम् / 25 अगृह्णत पराङ्गानामसूनस्र न मार्गणाः / / 110 / / प्राच्छिद्य योघसार्थस्य प्राणसर्वस्वमाशुगाः / ऐकागारिकवद्भूमो दूराज्जग्मुरदर्शनम् // 111 / / Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 567 भीमास्त्रराजिनस्तस्य बलस्य ध्वजराजिनः / कृतघोराजिनश्चक्रे भुवः सरुधिरा जिनः / / 112 / / मांसव्यधोचितमुखैः शून्यतां दधदक्रियम् / / शकुन्तिभिः शत्रुबलं व्यापि तस्येषुभिर्नभः / / 113 / / // एकाक्षरः॥ दाददो दुदुद्दादी दादादो दूददीददोः / दुद्दादं दददे दुद्दे ददाददददोऽददः // 114 / / प्लुतेभकुम्भोरसिजह दयक्षतिजन्मभिः / प्रावर्तयन्नदीर द्विषां तद्योषितां च सः / / 115 / / ॥अर्थत्रयवाची॥ सदामदबलप्रायः समुद्धृतरसो बभौ / प्रतीतविक्रमः / श्रीमान्हरिहरिरिवापरः // 116 / / द्विधा त्रिधा चतुर्वा च तमेकमपि शत्रवः / पश्यन्तः स्पर्धया सद्यः स्वयं पञ्चत्वमाययुः / / 117 / / 15 ॥समुद्गः // सदैव संपन्नवर्पू रणेषु स दैवसंपन्नवपूरणेषु / महो दधेऽस्तारि महानितान्तं महोदधेस्तारिमहा . नितान्तम् // 118 / / इष्टं कृत्वार्थ पत्रिणः शाङ्गपाणे रेत्याधोमुख्यं प्राविशन्भूमिमाशु।' शुद्धया युक्तानां वैरिवर्गस्य मध्ये भर्ना क्षिप्तानामेतदेवानुरूपम् / / 116 / / // चक्रबन्धः / / - सत्त्वं मानविशिष्टमाजिरभसादालम्ब्य भव्यः पुरो 25 . लब्धापक्षयशुद्धिरुद्धरतरश्रीवत्सभूमिच्दा। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 ] [ काव्यषटकं मुक्त्वा काममपास्तभीः परमगव्याधः स नादं हरे रेकौघैः समकालमभ्रमुदयी रोपैस्तदा तस्तरे / 120 / // इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्के एकोनविंशतितमः सर्गः / / 16 / / INFIR ल शा PRECEDEEMERITERA प भी मा माप ETE5/5 2 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: विंशः सर्गः ] . [ 596 - // 20 // विंशः सर्गः (वैतालीयवृत्तम् ) मुखमुल्लसितत्रिरेखमुच्चै भिदुरभ्रूयुगभीषणं दधानः / समिताविति विक्रमान मृष्यन्गतभीराह्नत चेदिराण्मुरारिम् / / 1 / / शितचक्रनिपातसंप्रतीक्षं वहतः स्कन्धगतं च तस्य मृत्युम् / अभिशौरि रथोऽथ नोदिताश्वः प्रययौ सारथिरूपया नियत्या // 2 / / अभिचैद्यमगाद्रथोऽपि शौरे रवनि जागुडकुकुमाभितानैः / गुरुनेमिनिपीडनावदीर्ण व्यसुदेहस्र तशोणितविलिम्पन् स निरायतकेतनांशुकान्तः ___ कलनिक्वाणकरालकिङ्किणीकः / विरराज रिपुक्षय. प्रतिज्ञामुखरो मुक्तशिखः स्वयं नु मृत्युः / / 4 / / सजलाम्बुधरारवानुकारी .. ध्वनिरापूरितदिङ्मुखो रथस्य / प्रगुणीकृतकेकमूर्ध्वकण्ठः शितिकण्ठेरुपकर्णयाम्बभूवे अभिवीक्ष्य विदर्भराजपुत्री कुचकाश्मीरजचिह्नमच्युतोरः / / / 3 / / Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 ] / काव्यषट्कं चिरसेवितयापि चेदिराजः सहसावाप रुषा तदैव योगम् // 6 // जनिताशनिशब्दशङ्कमुच्चै धनुरास्फालितमध्वनन्नृपेण / चपलानिल चोद्यमानकल्प क्षयकालाग्निशिखानिभस्फुरज्ज्यम् / / 7 / / समकालमिवाभिलक्षणीय ग्रहसंधानविकर्षणापवर्गः / अथ साभिसरं शरैस्तरस्त्री स तिरस्कर्तु मुपेन्द्रमध्यवर्षत् // 8 // ऋजुताफलयोगशुद्धिभाजां गुरुपक्षाश्रयिणां शिलीमुखानाम् / गुणिना नतिमागतेन सन्धिः सह चापेन समञ्जसो बभूव // 9 // अविषह्यतमे कृताधिकार वशिना कर्मणि चेदिपार्थिवेन / अरसद्धनुरुच्चकैई ढाति प्रसभाकर्षणवेपमानजीवम् // 10 // अनुसन्ततिपातिनः पटुत्वं दधतः शुद्धिभृतो गृहीतपक्षाः / वदनादिव वादिनोऽथ शब्दाः क्षितिभर्तु धनुषः शरा: प्रसस्र : // 11 // गवलासितकान्ति तस्य मध्य स्थितघोरायतबाहुदण्डनासम् / ददृशे कुपितान्तकोन्नमद् भ्रूयुगभीमाकृति कार्मुकं जनेन // 12 // 25 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: विंशः सर्गः ] [ 601 तडिदुज्ज्वलजातरूपपुखैः ___ खमयःश्याममुखैरभिध्वनद्भिः / जलदैरिव रंहसा पतद्भिः पिदधे संहतिशालिभिः शरौघैः / / 13 / / 5 शितशल्यमुखावदीर्णमेघक्षरदम्भः स्फुटतोत्रवेदनानाम् / स्रवदस्र ततीव चक्रवालं ककुभामौर्णविषुः सुवर्णपुङ्खाः / / 14 / / ... अमनोरमतां यती जनस्य क्षणमालोकपथानभः सदा वा / रुरुधे पिहिताहिमद्यतिधौ विशिखैरन्तरिता च्युता धरित्री / / 15 / / विनिवारितभानुतापमेकं सकलस्यापि मुरद्विषो बलस्य / शरजालमयं समं समन्तादुरु समे॒व नराधिपेन तेने / / 16 / / इति चेदिमहीभृता तदानीं तदनीक दनुसूनुसूदनस्य / वयसामिव चक्रमक्रियाकं परितोऽरोधि विपाटपञ्जरेण / 17 / 15 इषुवर्षमनेकमेकवीरस्तदरिप्रच्युतमच्युतः पृषत्कैः / / अथ वादिकृतं प्रमाणमन्यैः प्रतिवादीव निराकरोत्प्रमाणः / 18 / प्रतिकुञ्चितकूपरेण तेन श्रवणोपान्तिकनीयमानगव्यम् / ध्वनति स्म धनुर्धनान्तमत्तप्रचुरक्रौञ्चरवानुकारमुच्चैः / 19 / उरसा विततेन पातितांसः स मयूराञ्चितमस्तकस्तदानीम् / . .. क्षणमालिखितो नु सौष्ठवेन - स्थिरपूर्वापरमुष्टिराबभौ वा // 20 / / ध्वनतो नितरां रयेण गुव्यस्तडिदाकारचलद्गुणादसंख्याः / इषवो धनुषः सशब्दमाशु न्यपतन्नम्बुधरादिवाम्बुधाराः / 21 / 25 शिखरोन्नतनिष्ठुरांसपीठः स्थगयन्नेकदिगन्तमायतान्तः / निरवणि सकृत्प्रसारितोऽस्य क्षितिभर्तेव चमूभिरेकबाहुः / 22 / Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 ] .. [ काव्यषटकं 10 तमकुण्ठमुखाः सुपर्णकेतोरिषवः क्षिप्तमिषुव्रजं परेण / विभिदामनयन्त कृत्यपक्षं नृपतेर्नेतुरिवायथार्थवर्णाः / / 23 / / दयितैरिव खण्डिता मुरारेविशिखैः सम्मुखमुज्ज्वलाङ्गलेखैः / लघिमानमुपेयुषी पृथिव्यां विफला शत्रुशरावलिः पपात / 24 / 5 प्रमुखेऽभिहताश्च पत्रवाहाः प्रसभं माधवमुक्तवत्सदन्तैः / परिपूर्णतरं भुवो गतायाः परतः कातरवत्प्रतीपमीयुः / / 25 / / इतरेतरसंनिकर्षजन्मा गलसंघट्टविकीर्णविस्फुलिङ्गः / पटलानि लिहन्बलाहकानामपरेषु क्षणमज्ज्वलत्कृशानुः / 26 / शरदीव शरश्रिया विभिन्ने विभुना शत्रुशिलीमुखाभ्रजाले / विकसन्मुखवारिजाः प्रकामं बभुराशा इव यादवध्वजिन्यः / 27 // स दिवं समचिच्छदच्छरौघैः कृततिग्मद्युतिमण्डलापलापैः / ददृशेऽथ च तस्य चापयष्टयामिषुरेकैव जनैः सकृद्विसृष्टा / 28 / भवति स्फुटमागतो विपक्षान्न सपक्षोऽपि हि निर्वतेविधाता। 15 शिशुपालबलानि कृष्णमुक्तः सुतरां तेन तताप तोमरोघः / / 26 / / गुरुवेगविराविभिः पतरिषवः काञ्चनपिङ्गलाङ्गभासः / विनतासुतवत्तलं भुवः स्म व्यथितभ्रान्तभुजंगमं विशन्ति / 30 / शतशः परुषाः पुरो विशङ्क शिशुपालेन शिलीमुखाः प्रयुक्ताः / परमर्मभिदोऽपि दानवारे ___ रपराधा इव न व्यथां वितेनुः / / 31. / / विहिताद्भुतलोकसष्टिमाये जयमिच्छन्किल मायया मुरारौ / भुवनक्षयकालयोगनिद्रे नृपतिः स्वापनमस्त्रमाजहार // 32 // 25 सलिलार्द्रवराहदेहनीलो विदधद्भास्करमर्थशून्यसंज्ञम् / प्रचला यतलोचनारविन्दं विदधे तद्बलमन्धमन्धकारः / 33 / Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: विंशः सर्गः ] / 603 गुरवोऽपि निषद्य यन्निदद्रु धनुषि क्षमापतयो न वाच्यमेतत् / क्षयितापदि जाग्रतोऽपि नित्यं ननु तत्रैव हि तेऽभवन्निषण्णाः / / 34 / / श्लथतां व्रजतस्तथा परेषा मगलद्धारणशक्तिमुज्झतः स्वाम् / सुगहीतमपि प्रमादभाजां मनसः शास्त्रमिवास्त्रमग्रपाणेः / / 35 / / उचितस्वपनोऽपि नीरराशी . स्वबलाम्भोनिधिमध्यगस्तदानीम् / भुवनत्रयकार्यजागरूकः / स परं तत्र परः पुमानजागः // 36 / / अथ सूर्यरुचीव तस्य दृष्टावुदभूत्कौस्तुभदर्पणं गतायाम् / पटु धाम ततो न चाद्भुतं तद्विभुरिन्द्वर्कविलोचनः किलासौ 37 महतः प्रणतेष्विव प्रसादः स मणेरंशुचयः ककुम्मुखेषु / व्यकसद्विकसालोचनेभ्यो - दददालोकमनाविलं बलेभ्यः // 38 // प्रकृति प्रतिपादुकैश्च पादै श्चक्लपे भानुमतः पुनः प्रसतुंम् / तमसोऽभिभवादपास्य मूर्छा मुपजीवत्सहसैव जीवलोकः // 36 // घनसंतमसैर्जवेन भूयो यदुयोधैर्यु धि रेघिरे द्विषन्तः / 25 ननु वारिधरोपरोधमुक्तः सुतरामुत्तपते पतिः प्रभाणाम् / / 40 / / Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 ] [ काव्यपटकं 10 व्यवहार इवानृताभियोगं तिमिरं निर्जितवत्यथ प्रकाशे।' रिपुरुल्बणभीमभोगभाजां भुजगानां जननी जजाप विद्याम् 41 पृथुदविभृतस्ततः फणीन्द्रा विषमाशीभिरनारतं वमन्तः / अभवन्युगपद्विलोलजिह्वायुगलीढोभयसृक्कभागमाविः / / 42 / / कृतकेशविडम्बनैविहायो विजयं तत्क्षणमिच्छुभिश्छलेन / अमृताग्रभुवः पुरेव पुच्छं वडवाभर्तुरवारि काद्रवेयैः / / 43 / / दधतस्तनिमानमानुपूर्व्या बभुरक्षिश्रवसो मुखे विशालाः / भरतज्ञकविप्रणीतकाव्यग्रथिताङ्का इव नाटकप्रपञ्चा: / 44 / सविषश्वसनोद्धतोरुधूमव्यवधिम्लानमरीचि पन्नगानाम् / उपरागवतेव तिग्मभासा वपुरोदुम्बरमण्डलाभमूहे / / 45 / / शिखिपिच्छकृतध्वजाव चूडक्षणसाशङ्कविवर्तमानभोगाः / यमपाशवदाशुबन्धनाय न्यपतन्वृष्णिगणेषुलेलिहानाः / / 46 / / पृथवारिधिवीचिमण्डलान्त विलसत्फेनवितानपाण्डुराणि / दधति स्म भुजङ्गमाङ्गमध्ये नवनिर्मोकरुचिध्वजांशुकानि / 47 / 15 कृतमण्डलबन्धमुल्लसद्भिः शिरसि प्रत्युरसं विलम्बमानैः / व्यरुचज्जनता भुजङ्गभोगैर्दलितेन्दीवरमालभारिणीव / / 48 / / परिवेष्टितमूर्तयश्च मूलादुरगैराशिरसः सरत्नपुष्पैः / दधुरायतवल्लिवेष्टितानामुपमानं मनुजा महीरुहाणाम् / 46 / बहुलाञ्जनपङ्कपट्टनीलद्यतयो देहमितस्ततः श्रयन्तः / दधिरे फणिनस्तुरङ्गमेषु स्फुट पल्याणनिबद्धवर्धलीलाम् / 50 / प्रसृतं रभसादयोभिनीला प्रतिपादं परितोऽभिवेष्टयन्ती। तनुरायतिशालिनी महाहेर्गजमन्दुरिव निश्चलं चकार / / 5 / / अथ सस्मितवीक्षितादवज्ञाचलितकोन्नमितभ्रु माधवेन। . निजकेतुशिरःश्रितः सुपर्णादुदपप्तन्नयुतानि पक्षिराजाम् / 52 / 25 द्रुतहेमरुच: खगाः खगेन्द्रा दलघुदीरितनादमुत्पतन्तः। 20 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: विंशः सर्गः ] [ 605 क्षणमैक्षिषतोच्चकैश्चभूमि - ज्वलतः सप्तरुचेरिव स्फुलिङ्गाः / / 53 / / उपमानमलाभिलोलपक्षक्षणविक्षिप्तमहाम्बुवाहमत्स्यैः / गगनार्णवमन्तरा सुमेरोः कुलजानां गरुडैरिलाधराणाम् / 54 / 5 पततां परितः परिस्फुरद्भिः / परिपिङ्गीकृतदिङ्मुखैमयूखैः / सुतरामभवदुरोक्ष्यबिम्ब स्तपनस्तत्किरणैरिवात्मदर्शः / / 55 / / दधुरम्बुधिमन्थनाद्रिमन्थ भ्रमणायस्तफणीन्द्रपित्तजानाम् / 10 रुचमुल्लसमानवैनतेयातिभिन्नाः फणभारिणो मणीनाम् // 56 // अभितः क्षुभिताम्बुराशिधीरध्वनिराकृष्टसमूलपादपौधः / / जनयन्नभवद्युगान्तशङ्कामनिलो नागविपक्षपक्षजन्मा // 57 / / प्रचलत्पतगेन्द्रपत्रवातप्रसभोन्मूलितशैलदत्तमार्गः / भयविह्वलमाशु दन्दशूकैविवशैराविविशे स्वमेव धाम / / 8 / / 15 खचरैः क्षयमक्षयेऽहिसैन्ये सुकृतैर्दुष्कृतवत्तदोपनीते / अयुगाचिरिव ज्वलन्रुषाथो रिपुरौदर्चिषमाजुहाव मन्त्रम् / 56 / सहसा दधदुद्धताट्टहासश्रियमुत्त्रासितजन्तुना स्वनेन / विततायतहेतिबाहुरुच्चैरथ वेताल इवोत्पपात वह्निः / / 60 / / चलितोद्धतधूमकेतनोऽसौ रभसादम्बररोहिरोहिताश्वः / 20 द्रुतमारुतसारथिः शिखावान्कनकस्यन्दनसुन्दरश्चचाल // 61 / / ज्वलदम्बरकोटरान्तरालं __बहुलार्द्राम्बुदपत्रबद्धधूमम् / परिदीपितदीर्घकाष्ठमुच्चै - स्तरुवद्विश्वमुबोष जातवेदाः / / 62 / / 25. गुरुतापविशुष्यदम्बुशुभ्राः क्षणमालग्नकृशानुताम्रभासः / स्वमसारतया मषाभवन्तः पुनराकारमवापुरम्बुवाहाः / / 63 / / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 ] [ काव्यषट्कं ज्वलितानललोलपल्लवान्ताः स्फुरदष्टापदपत्रपीतभासः / . क्षणमात्रभवामभावकाले सुतरामापुरिवायति पताकाः / 64 / निखिलामिति कुर्वतश्चिराय द्रुतचामीकरचारुतामिव द्याम् / प्रतिघातसमर्थमस्त्रमग्नेरथमेघंकरमस्मरन्मुरारिः // 65 / / 5 . चतुरम्बुधिगर्भधीरकुक्षे- / वपुषःसन्धिष लीनसर्वसिन्धोः / उदगुः सलिलात्मनस्त्रिधाम्नो ___ जलवाहावलयः शिरोरुहेभ्यः / / 66 / / ककुभः कृतनादमास्तृण ____न्तस्तिरयन्तः पटलानि भानुभासाम् / उदनंसिषुरभ्रमभ्रसङ्घाः सपदि श्यामलिमानमानयन्तः / / 67 / / तपनीयनिकर्षराजिगौरस्फुरदुत्तालतडिच्छटाट्टहासम् / अनुबद्धसमुद्धताम्बुवाहध्वनिताडम्बरमम्बरं बभूव / / 68 / / सवितुः परिभावुकैर्मरीची नचिराभ्यक्तमतङ्गजाङ्गभाभिः / जलदैरभितः स्फुरद्भिरुच्चै विदधे केतनतेव धूमकेतोः / / 66 / / ज्वलतः शमनाय चित्रभानोः प्रलयाप्लावमिवाभिदर्शयन्तः / ववषर्वषनादिनो नदीनां - प्रतटारोपितवारि वारिवाहाः // 70 / / मधुरैरपि भूयसा स मेध्यैः प्रथमं प्रत्युत वारिभिदिदीपे / पवमानसखस्तत: क्रमेण प्रणयक्रोध इवाशमद्विवादैः / / 71 // 25 परितः प्रसभेन नीयमानः शरवर्षैरवसायमाश्रयाशः / प्रबलेषु कृती चकार विशुद्वयपदेशेन घनेष्वनुप्रवेशम् / / 72 / / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शिशुपालवधम् :: विंशः सर्गः ] [607 प्रयतः प्रशमं हुताशनस्य क्वचिदालक्ष्यत मुक्तमूलमचिः / बलभित्प्रहितायुधाभिघातात्त्रुटितं पत्रिपतेरिबैकपत्रम् / / 73 / / व्यगमन् सहसा दिशां मुखेभ्यः शमयित्वा शिखिनां घनाघनौघाः / उपकृत्य निसर्गतः परेषा मुपरोधं न हि कुर्वते महान्तः / / 74 / / कृतदाहमुचिषः शिखाभिः परिषिक्तं मुहुरम्भसा नवेन / विगताम्बुधरवणं प्रपेदे गगनं तापितपायितासिलक्ष्मीम् // 75 / / इति नरपतिरस्त्रं यद्यदाविश्चकार प्रकुपित इव रोगः क्षिप्रकारी विकारम् / भिषगिव गुरुदोषच्छेदिनोपक्रमेण - क्रमविदथ मुरारि: प्रत्यहंस्तत्तदाशु / / 76 / / शुचि गतैरपि परामृजुभिर्विदित्वा __बाणैरजय्यमविघट्टितममभिस्तम् / मर्मातिगैरनजुभिनितरामशुद्ध. क्शिायकरथ तुतोद तदा विपक्षः // 77 / / राहस्त्रीस्तनयोरकारि सहसा येनाश्लथालिङ्गन व्यापारकविनोददुर्ललितयोः कार्कश्यलक्ष्मीर्वृथा। तेनाक्रोशत एव तस्य मुरजित्तत्काललोलामल ज्वालापल्लवितेन मूर्धविकलं चक्रेण चक्रे वपुः / 78 / .. श्रिया जुष्टं दिव्यैः सपटहरवैरन्वितं पुष्पवर्षे. वपुष्टश्चैद्यस्य क्षणमृषिगणैः स्तूयमानं निरीय / // 77 / / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 ] ( काव्यषट्कं प्रकाशेनाकाशे दिनकरकरान्विक्षिपद्विस्मिता: नरेन्द्र रौपेन्द्रं वपुरथ विशद्धाम वीक्षांबभूवे / 76 / / / इति श्रोमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रयङ्क शिशुपालवधो नाम विंशतितमः सर्गः / / 20 // // अथ कविवंशवर्णनम् // सर्वाधिकारी सुकृताधिकारः श्रीवर्मलाख्यस्य बभूव राज्ञः / असक्तदृष्टिविरजाः सदैव देवोऽपरः सुप्रभदेवनामा // 1 // काले मितं तथ्यमुदर्कपथ्यं तथागतस्येव जनः सचेताः / विनानुरोधात् स्वहितेच्छयैव महीपतिर्यस्य वचश्चकार // 2 // 10 तस्याभवद्दत्तक इत्युदात्तः क्षमी मृदुधर्मपरस्तनूजः / यं वीक्ष्य वैयासमजातशत्रोर्वचो गुणग्राहि जनैः प्रतीये / / 3 / / सर्वेण सर्वाश्रय इत्यनिन्द्यमानन्दभाजा जनितं जनेन / यश्च द्वितीयं स्वयमद्वितीयो मुख्यः सतां गौणमवाप नाम / 4 / श्रीशब्दरम्यकृतसर्गसमाप्तिलक्ष्म लक्ष्मीपतेश्चरितकीर्तनमात्रचारु। तस्यात्मजः सुकविकीर्तिदुराशयाऽदः काव्यं व्यधत्त शिशुपालवधाभिधानम् / / 5 / / / / इति कविवंशवर्णनम् / / 15 / / समाप्तोऽयं ग्रन्थः // Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् / / पू. पं. श्री पुष्पविजयगणिभ्यो नमः / महाकविश्रीहर्षप्रणीतं नैषधीयचरितम -- . // 1 // प्रथम सर्गः॥ निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथा स्तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि / नल: सितच्छत्रितकीर्तिमण्डल: स राशिरासीन्महसां महोज्ज्वलः / / 1 / / रसैः कथा यस्य सुधावधीरणी नलः स भूजानिरभूद्गुणाद्भुतः / सुवर्णदण्डैकसितातपत्रित ज्वलत्प्रतापालिकीर्तिमण्डलः / / 2 / / पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता रसक्षालनयेव यत्कथा। कथं न सा मद्गिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति / / 3 / / अधीतिबोधाचरणप्रचारण र्दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः / चतुर्दशत्वं कृतवान्कुतः स्वयं - न वेद्मि विद्यासु चतुर्दश स्वयम् / / 4 / / Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... [ काव्यषट्कं अमुष्य विद्या रसनाग्रनर्तकी त्रयीव नीताङ्गगुणेन विस्तरम् / अगाहताष्टादशतां जिगीषया नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् / / 5 / / दिगीशवृन्दांशविभूतिरीशिता दिशां स कामप्रसरावरोधिनीम् / बभार शास्त्राणिं दृशं द्वयाधिकां ____ निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् / / 6 / / पदैश्चतुभिः सुकृते स्थिरीकृते . कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे / भुवं यदेकान्रिकनिष्ठया स्पृशन्द धावधर्मोऽपि कृशस्तपस्विताम् / / 7 / / यदस्य यात्रासु बलोद्धतं रज: स्फुरत्प्रतापानलधूममञ्जिम / तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधौ दधाति पङ्कीभवदतां विधौ / / 8 / / स्फुरद्धनुनिस्वनतद्धनाशुग प्रगल्भवृष्टिव्ययितस्य सगरे / निजस्य तेजःशिखिनः परश्शता वितेनुरिङ्गालमिवायशः परे / / 6 / / अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलै निजप्रतापैर्वलयं ज्वलद्भुवः। . प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया रराज नीराजनया स राजघः // 10 // निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथमः सर्गः ) . न तत्यजुर्नू नमनन्यविश्रमाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः / / 11 / / सितांशुवर्णैर्वयति स्म तद्गुणै महासिवेम्नः सहकृत्वरी बहुम् / दिगङ्गनाङ्गावरणं रणाङ्गणे यशःपटं तद्भटचातुरीतुरी / / 12 / / प्रतीपभूपैरिव किं ततो भिया विरुद्धधर्मेरपि भेत्तृतोज्झिता। अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स - यद्विचारहवचारगप्यवर्तत / / 13 / / तदोजसस्तद्यशसः स्थिताविमौ वथेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति. भानो: परिवेषकैतवात्तदा विधिः कुण्डलनां विधोरपि / / 14 / / अयं दरिद्रो भवितेति वैधसीं लिपि ललाटेऽर्थिजनस्य जाग्रतीम् / मृषां न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः प्रणीय दारिद्रयदरिद्रतां नलः / / 15 / / विभज्य मेरुन यर्थिसात्कृतो न सिन्धुरुत्सर्गजलव्ययैर्मरुः / अमानि तत्तेन निजायशोयुगं द्विकालबद्धाश्चिकुराःशिरःस्थितम् / / 16 / / अजस्त्रमभ्यासमुपेयुषा समं मुदैव देवः कविना बुधेन च / दघौ पटोयान्समयं नयनयं .. दिनेश्वरश्रीरुदयं दिने दिने / / 17 / / Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... [ काव्यषट्क समानपम् / / अघोविधानात्कमलप्रवालयोः ___शिरःसु दानादखिलक्षमाभुजाम् / पुरेदमूवं भवतीति वेधसा पदं किमस्याङ्कितमूर्ध्वरेखया / / 18 / / जगज्जयं तेन च कोशमक्षयं ____ प्रणीतवान् शैशवशेषवानयम् / सखा रतीशस्य ऋतुर्यथा वनं ___ वपुस्तथालिङ्गदथास्य यौवनम् / / 16 / / अधारि पद्मेषु तदघ्रिणा घृणा क्व तच्छयच्छायलवोऽपि पल्लवे / तदास्यदास्येऽपि गतोऽधिकारितां न शारदः पार्विकशर्वरीश्वरः / / 20 / / / किमस्य लोम्नां कपटेन कोटिभि विधिन लेखाभिरजीगणद्गुणान् / न रोमकूपौघमिषाज्जगत्कृता कृताश्च किं दूषणशून्यबिन्दवः / / 21 / / अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रुवं गृहीतार्गलदीर्घपीनता। उर:श्रिया तत्र च गोपुरस्फुर कपाटतुर्धषतिरःप्रसारिता / / 22 / / स्वकेलिलेशस्मितनिन्दितेन्दुनो निजांशक्जितपद्मसंपदः / अतद्वयोजित्वरसुन्दरान्तरे न तन्मुखस्य प्रतिमा चराचरे / / 23 / / सरोरुहं तस्य दृशैव निजितं जिताः स्मितेनैव विधोरपि श्रियः / Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथमः सर्गः ] कुतः परं भव्यमहो महीयसी तदाननस्योपमितौ दरिद्रता / / 24 / / स्वबालभारस्य तदुत्तमाङ्ग: समं चमर्येव तुलाभिलाषिणः / अनागसे शंसति बालचापलं पुनः पुनः पुच्छविलोलनच्छलात् / / 25 / / महीभृतस्तस्य च मन्मथश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया / द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतध्रुवां मन्मथविभ्रमोऽभवत् / / 26 / / निमीलनभ्रंशजुषा दृशा भृशं निपीय तं यस्त्रिदशीभिरजितः / अमूस्तमभ्यासभरं विवृण्वते निमेषनिःस्वैरधुनापि लोचनैः / / 27 / / अदस्तदाकणि फलाढयजीवितं दृशोयं नस्तदवीक्षि चाफलम् / इति स्म चक्षुःश्रवसां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हृदा तदात्मनः / / 28 / / विलोकयन्तीभिरजस्रभावना वलादमुं नेत्रनिमीलनेष्वपि / अलम्भि माभिरमूष्य दर्शने न विघ्नलेशोऽपि निमेषनिर्मितः / / 26 / / न का निशि स्वप्नगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्खलिते च का न तम् / 'तदात्मताध्यातधवा रते च का चकार वा न स्वमनोभवोद्भवम् / / 30 / / Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीक्षितुं . .. करे तमालोक्य सुरूपया धृतः / विहाय भैमीमपदर्पया कया न. दर्पणः श्वासमलीमसः कृतः // 31 // यथोह्यमानः खलु भोगभोजिना ___ प्रसह्य वैरोचनिजस्य पत्तनम् / विदर्भजाया मदनस्तथा मनो नलावरुद्धं वयसैव वेशितः / / 32 / / नपेऽनुरूपे निजरूपसंपदां , दिदेश तस्मिन्बहुश: श्रुतिं गते / विशिष्य सा भीमनरेन्द्रनन्दना / मनोभवा कवशंवदं मनः / / 33 / / उपासनामेत्य पितुः स्म रज्यते , दिने दिने सावसरेषु वन्दिनाम् / पठत्सु तेषु प्रतिभूपतीनलं. ___ विनिद्ररोमाजनि शृण्वती नलम् / / 34 / / कथाप्रसङ्गेषु मिथः सखीमुखा त्तणेऽपि तन्व्या नल नामनि श्रुते।। द्रुतं विधूयान्यदभूयतानया मुदा तदाकर्णनसज्जकर्णया // 35 / / स्मरात्परासोरनिमेषलोचना द्विभेमि तद्भिन्नमुदाहरेति सा। जनेन यूनः स्तुवता तदास्पदे निदर्शनं नैषधमभ्यषेचयत् // 36 / / नलस्य पृष्टा निषधागता गुणा- .. मिषेण दूतद्विजबन्दिचारणाः / 15 20 25 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथमः सर्गः ] निपीय तत्कीतिकथामथानया चिराय तस्थे विमनायमानया / / 37 / / प्रियं प्रियां च त्रिजगज्जयिश्रियौ लिखाधिलीलागहभित्ति कावपि / इति स्म सा कारुवरेण लेखितं नलस्य च स्वस्य च सख्यमीक्षते / / 38 / / मनोरथेन स्वपतीकृतं नलं . निशि क्व सा न स्वपतो स्म पश्यति / अष्टमप्यर्थमदृष्ट वैभवा करोति सुप्तिर्जनदर्शनातिथिम् / / 36 / / निमीलितादक्षियुगाच्च निद्रया हृदोऽपि बाह्येन्द्रियमौनमुद्रितात् / अदशि संगोप्य कदाप्यवीक्षितो रहस्यमस्या: स महन्महीपतिः / / 40 / / . अहो अहोभिर्महिमा हिमागमे -- ऽप्यभिप्रपेदे प्रति तां स्मरादिताम् / तपतु पूर्तावपि मेदसा भरा विभावरीभिबिभरांबभूविरे / / 41 / / स्वकान्तिकीर्तिव्रजमौक्तिकस्रजः श्रयन्तमन्तर्घटनागुणश्रियम् / कदाचिदस्या युवधैर्यलोपिन नलोऽपि लोकादशृणोद्गुणोत्करम् / / 42 / / तमेव लब्ध्वावसरं ततः स्मरः शरीरशोभाजयजातमत्सरः / अमोघशक्त्या निजयेव मूर्तया तया विनिर्जेतुमियेष नैषधम् / / 43 / / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [ काव्यषट्कं अकारि तेन श्रवणातिथिर्गुणः / क्षमाभुजा भीमनृपात्मजालयः / तदुच्चधैर्यव्ययसहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः / / 44 / / अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी .. तदा खलु ज्यां विशिखैः सनाथयन् / : निमज्जयामास यशांसि संशये स्मरस्त्रिलोकी विजयाजितान्यपि // 45 / / . अनेन भैमी घटयिष्यतस्तथा ___ विधेरवन्ध्येच्छतया व्यलासि तत् / अभेदि तत्तागनङ्गमार्गणे र्यदस्य पौष्पैरपि धैयकञ्चुकम् // 46 / / किमन्यदद्यापि यदस्त्रतापितः पितामहो वारिजमाश्रयत्यहो / स्मरं तनुच्छायतया तमात्मनः शशाक शङ्क स न लवितु नलः / / 47 / / उरोभुवा कुम्भयुगेन जृम्भितं नवोपहारेण वयःकृतेन किम् / त्रपासरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् / / 48 // अपह नुवानस्य जनाय यन्निजा भधीरतामस्य कृतं मनोभुवा। . अवोधि तज्जागरदुःखसाक्षिणी निशा च शय्या च शशाङ्ककोमला / / 49 / / स्मरोऽपतप्तोपि भृशं न स प्रभुविदर्भ राजं तनयामयाचत / 25 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [ 617 त्यजन्त्यसूशर्म च मानिनोवरं त्यजन्ति न त्वेकमयाचितव्रतम् / / 50 / / मृषाविषादाभिनयादयं क्वचिज्जुगोप ___ निःश्वासतति वियोगजाम् / विलेपनस्याधिकचन्द्रभागता विभावनाच्चापललाप पाण्डताम् / / 51 / / शशाक निह्नोतुमयेन तत्प्रिया मयं बभाषे यदलीकवीक्षिताम् / समाज एवालपितासु वैणिक ___ मुमूर्च्छ यत्पञ्चममूर्च्छनासु च / / 52 / / अवाप सापत्रपतां स भूपति जितेन्द्रियाणां धुरि कीर्तितस्थितिः / असंवरे शंवरवैरिविक्रमे क्रमेण तत्र स्फुटतामुपेयुषि // 53 / / अलं नलं रोद्धममी किलाभव न्गुणा विवेकप्रमुखा न चापलम् / स्मरः सरत्यामनिरुद्धमेव ___ यत्सृजत्ययं . सर्वेनिसर्ग ईदृशः / / 54 / / अनङ्गचिह नं स विना शशाक .. नो यदासितुं संसदि यत्नवानपि / क्षणं तदारामविहारकैतवा निषेवितुं देशमियेष निर्जनम् / / 55 / / अथ श्रिया भत्सितमत्स्यलाञ्छनः __ समं वयस्यैः स्वरहस्यवेदिभिः / पुरोपकण्ठोपवनं किलेक्षिता दिदेश यानाय निदेशकारिणः / / 56 / / 25 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 ] [ काव्यषट्कं अभी ततस्तस्य विभूषितं सितं ___जवेऽपि मानेऽपि च पौरुषाधिकम् / उपाहरन्नश्वमजस्रचञ्चलः खुराञ्चलैः क्षोदितमन्दुरोदरम् / / 57 / / प्रथान्तरेणावटुगामिनाध्वना निशीथिनीनाथमहःसहोदरैः / निगालगादेवमणेरिवोत्थित विराजितं केसरकेशरश्मिभिः / / 58 / / अजस्रभूमीतटकुट्टनोत्थित रुपास्यमानं चरणषु रेणुभिः / रयप्रकर्षाध्ययनार्थमागते र्जनस्य चेतोभिरिवाणिमाकितैः / / 56 / / चलाचलप्रोथतया महीभृते ___ स्ववेगदानिव वक्तुमुत्सुकम् / अलं गिरा वेद किलायमाशयं स्वयं हयस्येति च मौनमास्थितम् / / 60 / / महारथस्याध्वनि चक्रवर्तिनः परानपेक्षोद्वहनाद्यशःसितम्। रदावदातांशुमिषादनीदृशां हसन्तमन्तर्बलमर्वतां रवेः / 61 / / सितत्विषश्चञ्चलतामुपेयुषो मिषेण पुच्छस्य च केसरस्य / स्फुटं चलचामरयुग्मचिह्नन रनिहुवानं निजवाजिराजताम् // 62 / / अपि द्विजिह्वाभ्यवहारपौरुषे मुखानुषक्तायतवल्गुवल्गया। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [ 616 उपेयिवांसं प्रतिमल्लतां रय स्मये जितस्य प्रसभं गरुत्मतः / / 63 / / स सिन्धुजं शोतमहःसहोदरं हरन्तमुच्चैःश्रवसः श्रियं हयम् / जिताखिलक्ष्माभृदनल्पलोचन स्तमारुरोह क्षितिपाकशासनः / / 64 / / निजा मयूखा इव तीक्ष्णदीधिति . स्फुटारविन्दाङ्कितपाणिपङ्कजम् / तमश्ववारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः / / 65 // चलन्नलंकृत्य महारयं हयं स्ववाहवाहोचितवेषपेशलः / प्रमोदनि:स्पन्दतराक्षिपक्ष्मभि यंलोकि लोकनगरालयैर्नलः / / 66 / / क्षणादथैष क्षणदापतिप्रभः / . प्रभञ्जनाध्येयजवेन वाजिना। सहैव ताभिर्जनदृष्टिवृष्टिभि बहिः पुरोऽभूत्पुरुहूतपौरुषः // 67 / / ततः प्रतीच्छ प्रहरेति भाषिणी परस्परोल्लासितशल्यपल्लवे / मृषामृधं सादिबले कुतूहला न्नलस्य नासीरगते वितेनतुः / / 68 / / प्रयातुमस्माकमियं कियत्पदं धरा तदम्भोधिरपि स्थलायताम् / इतीव वाहैनिजवेगपितैः ... पयोधिरोधक्षममुद्धत रजः // 66 / / Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 ] [ काव्यषट्कं हरेर्यदक्रामि पदैककेन खं पदैश्चतुभिः क्रमणेऽपि तस्य नः / त्रपा हरीणामिति नम्रिताननै य॑वति तैरर्धनभःकृतक्रमैः / / 70 / / चमूच रास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोक्तिषु श्राद्धतयेव सैन्धवाः / विहारदेशं तमवाय मण्डली मकारयन् भूरितुरंगमानपि / / 71 / / द्विषद्भिरेवास्य विलचिता दिशो यशोभिरेवाब्धिरकारि गोष्पदम् / इतीव धारामवधीर्य मण्डली क्रियाश्रियाऽमण्डि तुरंगमः स्थली / / 72 / / अचीकरच्चारु हयेन या भ्रमी निजातपत्रस्य तलस्थले नलः / मरुत्किमद्यापि न तासु शिक्षते वितत्य वात्यामेयचक्रचक्रमान् / / 73 / / विवेश गत्वा स विलासकाननं ___ततः क्षणाक्षोणिपति तीच्छया। प्रवालरागच्छुरितं सुषुप्सया हरिर्घनच्छायमिवाणसां निधिम् // 74 / / वनान्तपर्यन्तमुपेत्य सस्पृहं क्रमेण तस्मिन्नवतीर्णहक्पथे। न्यवति दृष्टिप्रकरैः पुरौकसा ___ मनुव्रजद्वन्धुसमाजबन्धुभिः // 75 / / ततः प्रसूने च फले च मञ्जुले स संमुखस्थाङ्गुलिना जनाधिपः / Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [ 621 निवेद्यमानं वनपालपाणिना ___ व्यलोकयत्काननकामनीयकम् / / 76 / / फलानि पुष्पाणि च पल्लवे करे वयोतिपातोद्गतवातवेपिते / स्थितैः समादाय महर्षिवार्धका द्वने तदातिथ्यमशिक्षि शाखिभिः / / 77 / / विनिद्रपत्रालिगतालिकैतवा. न्मृगाङ्कचूडामणिवर्जनाजितम् / दधानमाशासु चरिष्णु दुर्यश: . स कौतुको तत्र ददर्श केतकम् / / 78 / / वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कट निधोयसे कणिशरः स्मरेण यत् / ततो दुराकर्षतया तदन्तक द्धिगीयसे मन्मथदेहदाहिना / / 76 / / त्वदग्रसूचीराचिवेन कामिनो मनोभवः सीव्यति दुर्यशःपटौ / स्फुटं स पत्रैः करपत्रमूर्तिभि 'वियोगिहृद्दारुणि दारुणायते // 80 / / धनुर्मधुस्विन्नकरोऽपि भीमजा. परं परागैस्तव धूलिहस्तयन् / प्रसूनधन्वा शरसात्करोति ____ मामिति क्रुधाकुश्यत तेन केतकम् / / 81 / / विदर्भसुभ्रूस्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि धूमस्य धयानधोमुखा.न्स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे / / 82 / / पा Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 ] [ काव्यषट्कं वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ प्रियस्मतेः स्पष्टमुदीतकण्टकाम् / फलस्तनस्थानविदोर्णरागिह . द्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगाम् // 83 / / स्मरार्धचन्द्रेषुनिभे ऋशीयसां स्फुटं पलाशेऽध्वजुषां पलाशनात् / स वृन्तमालोकत खण्डमन्वितं वियोगिहृत्खण्डिनि कालखण्डजम् / / 84 / / नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता करम्बिताङ्गी मकरन्दशीकरैः / / दृशा नृपेण स्मितशोभिकुड्मला दरादराभ्यां दरकम्पिनी पपे // 85 / / विचिन्वतीः पान्थपतङ्गहिंसन ___रपुण्यकर्माण्यलिकज्जलच्छलात् / व्यलोकयच्चम्पककोरकावली: स शम्बरारेबलिदीपिका इव // 86 / / अमन्यतासौ कुसुमेषगर्भगं परागमन्धकरणं वियोगिनाम् / स्मरेण मुक्तेषु पुरा पुरारये तदङ्गभस्मेव शरेषु संगतम् / / 87 / / पिकाद्वने शृण्वति भृङ्गहुंकृत दशामुदञ्चत्करुणे वियोगिनाम् / अनास्थया सूनकरप्रसारिणी ददर्श दून: स्थलपद्मिनी नलः / / 88 / / रसालसाल: समदृश्यतामुना स्फुरविरेफारवरोषहुंकृतिः। 25 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [623 समीरलोले, कुलवियोगिने जनाय दित्सन्निव तर्जनाभियम् / / 86 / / दिने दिने त्वं तनुरेधि रेऽधिकं पुनः पुनर्मूच्र्छ च तापमृच्छ च / इतीव पान्थाशपत: पिकान्द्विजा सखेदमैक्षिष्ट स लोहितेक्षणान् / / 60 / / अलिस्रजा कुड्मलमुच्चशेखरं निपीय चाम्पेयमधीरया धिया। स धूमकेतु विपदे वियोगिना मुदीतमातङ्कितवानशङ्कत // 91 / / गलत्पराग भ्रमिभङ्गिभिः पत त्प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् / स मारनाराचनिघर्षणस्खल ___ज्ज्वलत्कणं शाणमिव व्यलोकयत् / / 92 / / तदङ्गमुद्दिश्य सुगन्धि पातुकाः .शिलीमुखालीः कुसुमाह गुणस्पृशः / स्वचापदुनिर्गतमार्गणभ्रमा स्मरः स्वमन्तीरवलोक्य लज्जितः / / 93 / / * मल्ललत्पल्लवकण्टकः क्षतं समुच्छलच्चन्दनसारसौरभम् / स वारनारीकुचसंचितोपमं ‘ददर्श मालूरफलं पचेलिमम् / / 94 / / युवद्वयीचित्तनिमज्जनोचित. प्रसूनशून्येतरगभंगह्वरम् / स्मरेषधीकृत्य धिया भयान्धया स पाटलायाः स्तबकं प्रकम्पितः / / 65 / / 25 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 ] [ काव्यषट्क मुनिद्रुमः कोरकितः शितिति वनेऽमुनाऽमन्यत सिंहिकाशुतः / तमिस्रपक्षत्रुटिकूटभक्षितं कलाकलापं किल वैधवं वमन् / / 96 / / पुरा हठाक्षिप्ततुषारपाण्डुरच्छदा। वृतेर्वीरुधि ब्रद्धविभ्रमाः / मिलन्निमीलं ससृजुबिलोकिता नभस्वतस्तं कुसुमेषु केलयः // 67 / / गता यदुत्सङ्गतले विशालतां द्रुमाः शिरोभिः फलगौरवेण ताम् / कथं न धात्रीमतिमात्रनामितैः ___स वन्दमानानभिनन्दति स्म तान् / / 98 / / नृपाय तस्मै हि मितं ववानानिलैः ___ सुधीकृतं पुष्परसैरहमहः / विनिर्मितं केतकरेणुभिः सितं वियोगिनेऽदत्त न कौमदीमुदः / 66 / / अयोगभाजोऽपि नृपस्य पश्यता तदेव साक्षादमृतांशुमाननम् / पिकेन रोषारुणचक्षुषा मुहुः कुहूरुताहूयत चन्द्रवैरिणी // 100 / / अशोकमर्यान्वित नामताशया गतान् शरण्यं गृहशोचिनोऽध्वगान् / . अमन्यतावन्तमिवैष पल्लवैः प्रतीष्टकामज्वलदस्त्रजालकम् / / 101 / / विलासवापीतटवीचिवादना त्पिकालिगोते: शिखिलास्यलाघवात् / 15. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [ 625 वनेऽपि तौर्यत्रिकमारराध तं ____ क्व भोगमाप्नोति न भाग्यभाग्जनः / / 102 / / तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पटवस्तमस्तुवन् / स्वरामृतेनोपजगुश्च सारिका स्तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः / / 103 / / इतीष्टगन्धाढ्यमटन्नसौ वनं पिकोपगीतोऽपि शुकस्तुतोऽपि च / अविन्दतामोदभरं बहिश्वरं विदर्भसुभ्रूविरहेण नान्तरम् / 104 / करेण मीनं निजकेतनं दघद्रुमालवालाम्बुनिवेशशङ्कया। 10 व्यतर्कि सर्वर्तुघने वने मधु स मित्रमत्रानुसरन्निव स्मरः / 105 / लताबलालास्यकलागुरुस्तरुप्रसूनगन्धोत्करपश्यतोहरः / प्रसेवतामुं मधुगन्धवारिणि प्रतोतलीलाप्लवनो वनानिलः 106 अथ स्वमादाय भयेन मन्थना चिरत्नरत्नाधिकमुच्चितं चिरात् / निलीय तस्मिन्निव सन्नपांनिधि बने तडाको ददृशेऽवनीभुजा // 107 / / पयोनिलीनाभ्रमुकामुकावली. रदाननन्तोरगपुच्छसुच्छवीन् / जलार्घरुद्धस्य तटान्तभूभिदो मृणालजालस्य मिषाद्वभार यः // 108 / / तटान्तविश्रान्ततुरंगमच्छटा ___ स्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन यः।। बभौ चलद्वीचिकशान्तशातनैः . सहस्रमुच्चैःश्रवसामिवाश्रयन् // 106 / / 25. सिताम्बुजानां निवहस्य यश्छला .. द्वभावलिश्यामलितोदरश्रियाम् / Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 ] [ काव्यषट्कं तमःसमच्छायकलङ्कसंकुलं कुलं सुधांशोर्बहलं वहन्बहु / / 110 / / रथाङ्गभाजा कमलानुषङ्गिणा . शिलीमुखस्तोमसखेन शाङ्गिणा। सरोजिनीस्तम्बकदम्बकैतवा मृणालशेषाहिभुवान्वयायि यः / / 111 / / तरङ्गिणोरङ्कजुषः स्ववल्लभास्तरङ्गरेखा विभरांबभूव यः / दरोद्गतः कोकनदौघकोरकैधुतप्रवालाकुरसंचयश्च यः / 112 / महीयसः पङ्कजमण्डलस्य 'यश्छलेन गौरस्य च मेचकस्य च / नलेन मेने सलिले निलीनयो स्त्विषं विमुञ्चन्विधुकालकूटयोः / / 113 / / चलीकृता यत्र तरङ्गरिङ्गणैरबाल शैवाललतापरम्पराः / ध्रुवं दधुर्वाडवहव्यवाडवस्थितिप्ररोहत्तमभूमधूमताम् / 114 / 15 प्रकाममादित्यमवाप्य कण्टकैः ___ करम्बितामोदभर विवृण्वती। धृतस्फुटश्रीगृहविग्रहा दिवा सरोजिनी यत्प्रभवाप्सरायिता / / 115 / / यदम्बुपूरप्रतिबिम्बितायति __ मरुत्तरगैस्तरलस्तटद्रुमः / निमज्ज्य मैनाकमहीभृतः सत स्ततान पक्षान्धुवतः सपक्षताम् // 116 / / पयोधिलक्ष्मीमुषि केलिपल्वले रिरंसुहंसीकलनादसादरम् / 25 स तत्र चित्रं विचरन्तमन्तिके हिरण्मयं हंसमबोधि नैषधः // 117 / / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथमः सर्गः ] [ 627 प्रियासु बालासु रतक्षमासु च ___ द्विपत्रितं पल्लवितं च बिभ्रतम् / स्मराजितं रागमहीरुहाङ्कुरं मिषेण चञ्चवोश्चरणद्वयस्य च / / 118 / / महीमहेन्द्रस्तमवेक्ष्य स क्षणं शकुन्तमेकान्तमनोविनोनदिम् / प्रियावियोगाद्विधुरोऽपि निर्भर कुतूहलाक्रान्तमना मनागभूत् / / 116 / / अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा - यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / तृणेन वात्येव तयानुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना / / 120 / / अथावलम्ब्य क्षणमेकपादिकां तदा निदद्रावुपपल्वलं खगः / स तिर्यगावजितकंधरः शिरः पिधाय पक्षण रतिक्लमालसः / / 121 / / सनालमात्मानननिजितप्रभं ह्रिया नतं काञ्चनमम्बुजन्म किम् / अबुद्ध तं विद्रुमदण्डमण्डितं स पीतमम्भःप्रभुचामरं नु किम् / / 122 / / कृतावरोहस्य हयादुपानही ___ततः पदे रेजततुरस्य बिभ्रती। तयोः प्रवालैर्वनयोस्तथाम्बुज . नियोद्धकामे किमु बद्धवर्मणी / / 123 / / विधाय मूर्ति कपटेन वामनीं स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीमयम् / .25 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 ] [ काव्यषट्क उपेतपार्श्वश्चरणेन मौनिना नृपः पतग समधत्त पाणिना / / 124 / / तदात्तमात्मानमवेत्य संभ्रमा त्पुनः पुन: प्रायसदुत्प्लवाय सः / / गतो विरुत्योड्डयने निराशतां करौ निरोधुर्दशति स्म केवलम् / / 125 / / ससंभ्रमोत्पातिपतत्कुंलाकुलं सरः प्रपद्योत्कतयाऽनुकम्प्रताम् / तमूर्मिलोलैः पतगग्रहान्नृप न्यवारयद्वारिरुहैः करैरिव / / 126 / / पतत्रिणा तद्रुचिरेण वञ्चितं श्रियः प्रयान्त्याः प्रविहाय पल्वलम् / चलत्पदाम्भोरुहनूपुरोपमा चुकूज कूले कलहंसमण्डली / / 127 / / न वासयोग्या वसुधेयमीदृश स्त्वमङ्ग ! यस्याः पतिरुज्झितस्थितिः / इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः खगास्तमाचुक्रुशुरारवैः खलु / / 128 / / न जातरूपच्छदजातरूपता द्विजस्य दृष्टेयमिति स्तुवन्मुहुः। अवादि तेनाथ स मानसौकसा ___ जनाधिनाथः करपञ्जरस्पृशा / 126 / / धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजन्मनः / तवार्णवस्येव तुषारशीकरै भवेदमीभिः कमलोदय: कियान् / / 130 / / 25 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: प्रथम सर्गः ] [ 626 न केवलं प्राणिवधो वधो मम त्वदीक्षणाद्विश्वसितान्तरात्मनः / विहितं धर्मधनिबर्हणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि / / 131 / / पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते / धिगीदृशं ते नपते ! कुविक्रम कृपाश्रये यः कृपणे पतत्रिणि / / 132 / / फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः / त्वयाद्य तस्मिन्नपि दण्डधारिणा कथं न पत्या धरणो हरणीयते / / 133 / / इतीदृशैस्तं विरचय्य वाङ्मयैः ___ सचित्रवैलक्ष्ककृपं नप खगः / दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथी ___ चकार कारुण्यरसापगा गिरः / / 134 / / मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिन रटा तपस्विनी / गतिस्तयोरेष जनस्तमर्दयन्त्रहो विधे ! त्वां करुणा रुणद्धि न // 135 / / मुहूर्तमानं भवनिन्दया दया . सखाः सखायः स्रवदश्रवो मम / निवृत्तिमेष्यन्ति परं दुरुत्तर स्त्वयैव मातः ! सुतशोकसागरः / / 136 / / मदर्थसंदेशमृणालमन्थरः प्रियः कियदुर इति त्वयोदिते। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं विलोकयन्त्या रुदतोऽथ पक्षिणः . प्रिये ! स कीडग्भविता तव क्षणः / / 137 / / कथं विधातर्मयि पाणिपङ्कजा त्तव प्रियाशैत्यमृदुत्वशिल्पिनः / .. वियोक्ष्यसे वल्लभयेति निर्गता ___ लिपिर्ललाटन्तपनिष्ठुराक्षरा // 138 / / अयि ! स्वयूथ्यैरनिक्षतोपम ममाद्य वृत्तान्तमिमं वतोदिता / मुखानि लोलाक्षि ! दिशामसंशयं दशापि शून्यानि विलोकयिप्यसि / / 136 / / ममैवं शोकेन विदीर्णवक्षसा त्वया विचित्राङ्गि ! विपद्यते यदि / तदास्मि दैवेन हतोऽपि हा हतः ___ स्फुटं यतस्ते शिशवः परासवः / / 140 / / तवापि हा हा विरहात्क्षुधाकुलाः कुलायकूलेष विलुख्य तेषु ते / चिरेण लब्धा बहुभिर्मनोरथै गताः क्षणेनास्फुटितेक्षणा मम / / 141 / / सुताः ! कमाहूय चिराय चुंकृतै विधाय कम्प्राणि मुखानि के प्रति / कथासु शिष्यध्वमिति प्रमील्य सः स तस्य सेकाबुबुधे नृपाश्रुणः / / 142 / / इत्थममुं विलपन्तममुञ्च द्दीनदयालुतयावनिपालः / रूपमदर्शि धृतोऽसि यदर्थ गच्छ यथेच्छमथेत्यभिधाय // 143 / / Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 631 प्रानन्दजाश्रुभिरनुस्रियमाण मार्गा प्राक्शोकनिर्गमितनेत्रपयःप्रवाहान् / चक्रे स चक्रनिभचक्रमणच्छलेन नीराजनां जनयतां निजबान्धवानाम् / / 144 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तञ्चिन्तामणिमन्त्रचिन्तनफले शङ्गारभङ्गया महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽयमादिर्गतः / 145 / // इति महाकविश्रीहर्षप्रणीते नैषधीयप्रकाशे प्रथमः सर्गः समाप्तः // 1 // // 2 // द्वितीयः सर्गः॥ अधिगत्य जगत्यधीश्वरादथ मुक्ति पुरुषोत्तमात्ततः / वचसामपि गोचरो न यः स तमानन्दमविन्दत द्विजः / / 1 / / अधुनीत खगः स नैकघा तनुमुत्फुल्लतनूरुहीकृताम् / 15 करयन्त्रणदन्तुरान्तरे व्यलिखच्चनचुपुटेन पक्षती // 2 / / अयमेकतमेन पक्षतेरधिमध्योर्ध्वगजङ्घमज्रिणा। स्खलनक्षण एव शिश्रिये द्रुतकण्डूयितमौलिरालयम् // 3 / / स गरुद्वनदुर्गदुर्ग्रहान्कटु काटान्दशतः सतः क्वचित् / नुनुदे तनुकण्डु पण्डितः पटुचञ्चूपुटकोटिकुट्टनैः // 4 // 20 अयमेत्य तडागनीड लघु पर्यवियताथ शङ्कितैः / / / उदडीयत वैकृतात्करग्रहजादस्य विकस्वरस्वरैः // 5 / / वहतो बहुशैवलक्ष्मतां धृतरुद्राक्षमधुव्रतं खगः / स नलस्य ययौ करं पुनः सरस: कोकनदभ्रमादिव / / 6 / / .' पतगश्चिरकाललालनादतिविश्रम्भमवापितो नु सः। 25 अतुलं विदधे कुतूहलं भुजमेतस्य भजन्महीभुजः / / 7 / / Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632 ] [ काव्यषट्कं नृपमानसमिष्टमानसः स निमज्जत्कुतुकामृतोमिषु / अवलम्बितकर्णशष्कुलीकलसीकं रचयन्नवोचत / / 8 / / मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्मपारगैः / स्मरसन्दर ! मां यदत्यजस्तव धर्मः स दयोदयोज्ज्वलः / / 9 / / अबलस्वकुलाशिनो झषान्निजनीडद्रमपीडिनः खगान् / अनवद्यतृणादिनो मृगान्मृगयाघाय न भूभुजां घ्नताम् / / 10 / / यदवादिषमप्रियं तव प्रियमाधाय नुनुत्सुरस्मि तत् / कृतमातपसज्वरं तरोरभिवृष्यामृतमंशुमानिव / / 11 / / उपनम्रमयाचितं हितं परिहतु न तवापि सांप्रतम् / 10 करकल्पजनान्तराद्विधेः शुचितः प्रापि स हि प्रतिग्रहः / / 12 / / पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्य तव किं प्रभूयते / इति वेद्मि न तु त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकतु मर्तयः / / 13 / / अचिरादुपकर्तु राचरेदथ वात्मौपयिकीमुपक्रियाम् / पृथुरित्थमथाणुरस्तु सा न विशेषे विदुषामिह ग्रहः / / 14 / / भविता न विचारचारु चेत्तदपि श्रव्यमिदं मदीरितम् / खगवागियमित्यतोऽपि किं न मुद धास्यति कीरगीरिव / / 15 / / स जयत्यरिसार्थसार्थकीकृतनामा किल भीमभूपतिः / यमवाप्य विदर्भभूः प्रभू हसति द्यामपि शभर्तृ काम् / / 16 / / दमनादमनाक्प्रसेदुषस्तनयां तथ्यगिरस्तपोधनात् / वरमाप स दिष्टविष्टपत्रितयानन्यसदृग्गुणोदयाम् / / 17 / / भुवनत्रयसुध्रुवामसौ दमयन्ती कमनीयतामदम् / उदियाय यतस्तनुश्रिया दमयन्तीति ततोऽभिधां दधौ / / 18 / / श्रियमेव परं धराधिपाद्गुणसिन्धोरुदितामवेहि ताम् / / व्यवधावपि वा विधोः कलां मृडचूडानिलयां न वेद कः / / 16 / / 25 चिकुरप्रकरा जयन्ति ते विदुषी मूर्धनि साविति यान् / पशुनाप्यपुरस्कृतेन तत्तुलनामिच्छतु चामरेण कः / / 20 / / Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 633 5 स्वदृशोर्जनयन्ति सान्त्वनां खुरकण्डूयनकैतवान्मृगाः / जितयोरुदयत्प्रमोलयोस्तदखर्वेक्षणशोभया भयात् / / 21 / / अपि लोकयुगं दृशावपि श्रुतदृष्टा रमणीगुणा अपि / श्रुतिगामितया दमस्वसुर्व्यतिभाते सुतरां धरापते ? / / 22 / / नलिनं मलिनं विवृण्वती पृपतीमस्पृशती तदीक्षणे / अपि खञ्जनमञ्जनाञ्चिते विदधाते रुचिगर्वदुर्विधम् / / 23 / / अधरं किल बिम्बनामकं फलमस्मादिति भव्यमन्वयम् / लभतेऽधरबिम्बमित्यदःपदमस्या रदनच्छदं वदत् // 24 // हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा / 10 कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम / / 25 // धृतलाञ्छनगोमयाञ्चनं विधुमालेपनपाण्डुरं विधिः / भ्रमयत्यचितं विदर्भजानननीराजनवर्धमानकम् // 26 / / सुषमाविषये परीक्षणे निखिलं पद्ममभाजि तन्मुखात् / अधुनापि न भङ्गलक्षणं सलिलोन्मज्जनमुज्झति स्फुटम् / / 27 / / 15 धनुषी रतिपञ्चबाणयोरुदिते विश्वजयाय तद्भवो / नलिके न तदुच्चनासिके त्वयि नालीकविमुक्तिकामयोः / / 18 / / सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्थमृणालजिद्भुजा / अपि मित्रजुषां सरोरुहां गृहयालुः करलीलया श्रियः / / 26 / / वयसी शिशुतातदुत्तरे सुदशि स्वाभिविधि विधित्सुनी। 20 विधिनापि न रोमरेखया कृतसीम्नी प्रविभज्य रज्यतः / / 30 / / अपि तद्वपुषि प्रसर्पतोर्गमिते कान्तिझरैरगाधताम् / स्मरयौवनयोः खलु द्वयोः प्लवकुम्भौ भवतः कुचावुभौ / / 31 // कलसे निजहेतुदण्डजः किमु चक्रभ्रमकारितागुणः / स तदुच्चकुचौ भवन्प्रभाझरचक्रभ्रममातनोति यत् / / 3 / / 25 भजते खलु षण्मुखं शिखी चिकुरैनिर्मितबहंगहणः / अपि जम्भरिपुं दमस्वसुजितकुम्भः कुचशोभयेभराट् / / 33 / / Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 ] . [ काव्यषटकं उदरं नतमध्यपृष्ठतास्फुटदगुष्ठपदेन मुष्टिना। चतुरङ्गुलमध्यनिर्गतत्रिवलिभ्राजि कृतं दमस्वसुः / / 34 / / उदरं परिमाति मुष्टिना कुतुकी कोऽपि दमस्वसुः किमु / धृततच्चतुरङ्गुलीव यद्वलिभि ति सहेमकाञ्चिभिः / / 35 / / 5 पृथुवर्तुलतन्नितम्बकृन्मिहिरस्यन्दनशिल्पशिक्षया / विधिरेककचक्रचारिणं किमु निमित्सति मान्मथं रथम् / / 36 / / तरुमूरुयुगेन सुन्दरी किमु रम्भां परिणाहिना परम् / तरुणीमपि जिष्णुरेव तां धनदापत्यतपःफलस्तनीम् / / 37 / / जलजे रविसेवयेव ये पदमेतत्पदतामवापतुः / 15 ध्रुवमेत्य रुतः सहंसकीकुरुतस्ते विधिपत्रदंपती // 38 / / श्रितपुण्यसरःसरित्कथं न समाधिक्षपिताखिलक्षपम् / जलजं गतिमेतु मञ्जुलां दमयन्तीपदनाम्नि जन्मनि / / 36 / / सरसीः परिशीलितुं मया गमिकर्मीकृतनंकनीवृता। अतिथित्वमनायि सा दृशोः सदसत्संशयगोचरोदरी / / 40 / / अवधृत्य दिवोऽपि यौवतैनसहाधीतवतीमिमामहम् / कतमस्तु विधातुराशये पतिरस्या वसतोत्यचिन्तयम् / / 41 / / अनुरूपमिगं निरूपयन्नथ सर्वेष्वपि पूर्वपक्षताम् / युवसु व्यपनेतुमक्षमस्त्वयि सिद्धान्तधियं न्यवेशयम् / / 42 / / अनया तव रूपसीमया कृतसंस्कारविबोधनस्य मे / चिरमप्यवलोकिताद्य सा स्मृतिमारूढवती शुचिस्मिता / 43 / त्वयि वीर! विराजते परं दमयन्तीकिलकिञ्चितं किल / तरुणीस्तन एव दीप्यते मणिहारावलिरामणीयकम् / / 44 / / तव रूपमिदं तया विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः / / इयमृद्धधना वृथावनी स्ववनी संप्रवदत्पिकापि का / / 45 / / 25 अनया सुरकाम्यमानया सह योगः सुलभस्तु न त्वया / घनसंवृतयाम्बुदागमे कुमुदेनेव निशाकरत्विषा / 46 // Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वितीय सर्गः ] [ 635 तदहं विदधे तथा तथा दमयन्त्याः सविधे तव स्तवम् / हृदये निहितस्तया भवानपि नेन्द्रेण यथापनीयते / / 47 / / तव संमतिमेव केवलामधिगन्तुं धिगिदं निवेदितम् / ब्रुवते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् / / 4 / / 5 तदिदं विशदं वचोमतं परिपीयाभ्युदितं द्विजाधिपात् / अतितृप्ततया विनिर्ममे स तदुद्गारमिव स्मितं सितम् / / 46 / / परिमृज्य भुजाग्रजन्मना पतगं कोकनदेन नैषधः / मृदु तस्य मुदेऽकिरद्गिरः प्रियवादामृतकूपकण्ठजाः / / 50 / / न तुलाविषये तवाकृतिन वचोवर्मनि ते सुशीलता। 10 त्वदुदाहरणाकृतौ गुणा इति सामुद्रिकसारमुद्रणा // 51 / / न सुवर्णमयी तनुः परं ननु किं वागपि तावकी तथा / न परं पथि पक्षपातितानवलम्बे किमु मादृशेऽपि सा / / 52 / / भृशतापभृता मया भवान्मरुदासादि तुषारसारवान् / धनिनामितरः सतां पुनर्गुणवत्संनिधिरेव सन्निधिः / / 53 / / 15 शतशः श्रतिमागतैव सा त्रिजगन्मोहमहौषधिर्मम / अमुना तव शंसितेन तु स्वदृशैवाधिगतामवैमि ताम् / / 54 / / अखिलं विदुषामनाविलं सुहृदा च स्वहृदा च पश्यताम् / सविधेऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी वदनालंकृतिमात्रमक्षिणी / / 55 / / अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राघुणकीकृता जनैः / 20 मदनानलबोधने भवेत्खग ! धाय्या धिगधैर्यधारिणः // 56 // विषमो मलयाहिमण्डलीविषफूत्कारमयो मयोहितः / खग ! कालकलदिग्भवः पवनस्तद्विरहानलैघसा // 57 / / प्रतिमासमसौ निशापतिः खग ! संगच्छति यदिनाधिपम् / किमु तीव्रतरैस्ततः करैर्मम दाहाय स धैर्यतस्करैः / / 58 / / . .25 कुसुमानि यदि स्मरेषवो न तु वज्र विषवल्लिजानि तत् / हृदयं यदमूमुहन्नमूर्मम यच्चातितरामतीतपन् / / 56 / / Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 ] [ काव्यषट्कं तदिहानवधौ निमज्जतो मम कंदर्पशराधिनीरधौ। / " भव पोत इवावलम्बनं विधिनाकस्मिक सृष्टसंनिधिः / / 60 / / अथवा भवतः प्रवर्तना न कथं पिष्टमियं पिनष्टि नः / स्वत एव सतां परार्थता ग्रहणानां हि यथा यथार्थता / / 61 / / तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः / अयि ! साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वय वयः ! / / 62 / / इति तं स विसृज्य धैर्यवान्नृपतिः सूनृतवाग्बृहस्पतिः / अविशद्वनवेश्म विस्मितः स्मृतिलग्नैः कलहंसशंसितैः // 63 / / अथ भीमसुतावलोकनैः सफलं कर्तुमहस्तदेव सः / 10 क्षितिमण्डलमण्डनायितं नगरं कुण्डिनमण्डजो ययौ / / 64 / / प्रथमं पथि लोचनातिथिं पथिकप्रार्थितसिद्धिशंसिनम् / कलसं जलसंभृतं पुरः कलहसः कलयांबभूव सः / / 65 / / अवलम्ब्य दिदृक्षयाम्बरे क्षणमाश्चर्यरसालसं गतम् / स विलासवनेऽवनीभृतः फलमैक्षिष्ट रसालसंगतम् / / 66 / / 15 नभसः कलभैरुपासितं जलदैर्भूरितरक्षुपं नगम् / स ददर्श पतङ्गपुंगवो विटपच्छन्नतरक्षपन्नगम् // 67 / / स ययौ धुतपक्षतिः क्षणं क्षणमूर्ध्वायनदुर्विभावनः / विततीकृतनिश्चलच्छदः क्षणमालोककदत्तकौतुक: / / 68 / / तनुदीधितिधारया रयाद्गतया लोकविलोकनामसौ / छदहेम कषन्निवालसत्कषपाषाणनिभे नभस्तले / / 66 / / विनमद्भिरधःस्थितैः खगैर्भटिति श्येननिपातशङ्किभिः / स निरैक्षि दृशैकयोपरि स्यदझांकारितपत्रपद्धतिः / / 70 / / दहशे न जनेन यन्नसौ भुवि तच्छायमवेक्ष्य तत्क्षणात् / . दिवि दिक्षु वितीर्णचक्षुषा पृथुवेगद्रुतमुक्तहक्पथः / / 71 / / 25 न वनं पथि शिश्रियेऽमुना क्वचिदप्युच्चतरद्रुचारुतम् / न सगोत्रजमन्ववादि वा गतिवेगप्रसरद्रचा रुतम् / / 72 / / Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 637 अथ भीमभूजेन पालिता नगरी मञ्जुरसौ घराजिता। पतगस्य जगाम दृक्पथं हरशैलोपमसौधराजिता // 73 / / * दयितं प्रति यत्र संतता रतिहासा इव रेजिरे भुवः / स्फटिकोपलविग्रहा गृहाः शशभृद्भित्तनिरङ्कभित्तयः / / 74 / / 5 नृपनीलमणीगृहत्विषामुपधेर्यत्र भयेन भास्वतः / शरणार्थमुवास वासरेऽप्यसदावृत्युदयत्तमं तमः / / 75 / / सितदीप्रमणिप्रकल्पिते यदगारे हसदङ्करोदसि / निखिलान्निशि पूर्णिमा तिथीनुपतस्थेऽतिथिरेकिका तिथिः।७६। सुदतीजनमज्जनापितघु सृणैर्यत्र कषायिताशया। 10 न निशाखिलयापि वापिका प्रससाद ग्रहिलेव मानिनी / / 77 / / क्षणनीरवया यया निशि श्रितवप्रावलियोगपट्टया। मणिवेश्ममयं स्म निर्मलं किमपि ज्योतिरबाह्यमिज्यते / / 7 / / विललास जलाशयोदरे क्वचन द्यौरनुबिम्बितेव या। परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बानवलम्बिताम्बुनि / / 79 / / 15 व्रजते दिवि यद्गृहावलीचलचेलाञ्चलदण्डताडनाः। व्यतरन्नरुणाय विश्रमं सृजते हेलिहयालिकालनाम् / / 80 / / क्षितिगर्भधराम्बरालयैस्तलमध्योपरिपूरिणां पृथक् / जगतां किल याखिलाद्भुताजनि सारैनिजचिह्नधारिभिः / 81 / दधदम्वुदनीलकण्ठतां वहदत्यच्छसुघोज्ज्वलं वपुः / कथमृच्छतु यत्र नाम न क्षितिभृन्मन्दिरमिन्दुमौलिताम् / 82 / बहुरूपक-शालभञ्जिकामुखचन्द्रेषु कलङ्करङ्कवः / / यदनेककसौधकधराहरिभिः कुक्षिगतीकृता इव / / 83 / / बलिसद्मदिवं स तथ्यवागुपरि स्माह दिवोऽपि नारदः / अधराथ कृता ययेव सा विपरीताजनि भूविभूषया / / 84 / / 25 प्रतिहट्टपथे घरट्टजात्पथिकाह्वानदसक्तुसौरभैः / कलहान्न घनाद्यदुत्थितादधुनाप्युज्झति घर्घरस्वरः / / 85 / / Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 638 ] [ काव्यषटक वरणः कनकस्य मानिनी दिवमङ्कादमराद्रिरागताम् / घनरत्नकपाटपक्षतिः परिरभ्यानुनयन्नुवास याम् / / 86 / / अनलैः परिवेष मेत्य या ज्वलदर्कोपलवप्रजन्मभिः / .. उदयं लयमन्तरा रवेरवहद्वाणपुरोपरार्ध्यताम् / / 87 / / 5 बहुकम्बुमणिर्वराटिकागणनाटत्करकर्कटोत्करः। हिमवालुकयाच्छवालुक: पटु दध्वान यदापणार्णवः / / 88 / / यदगारघटादृकुट्टिमस्रवदिन्दूंपलतुन्दिलापया। मुमुचे न पतिव्रतौचिती प्रतिचन्द्रोदयमभ्रगङ्गया / / 89 / / रुचयोऽस्तमितस्य भास्वतः स्खलिता यत्र निरालयाः किल / 10 अनुसायमभूविलेपनापणकश्मीरजपण्यवीथयः // 60 / / विततं वणिजापणेऽखिलं पणितुं यत्र जनेन वीक्ष्यते / मुनिनेव मृकण्डुसूनुना जगतीवस्तु पुरोदरे हरेः / / 91 / / सममेणमदैर्यदापणे तुलयन्सौरभलोभनिश्चलम् / पणिता न जनारवै-रवेदपि गुञ्जन्तमलि मलीमसम् / / 62 / / 15 रविकान्तमयेन सेतुना सकलाह ज्वलनाहितोष्मणा / शिशिरे निशि गच्छतां पुरा चरणौ यत्र दुनोति नो हिमम् / 63 / विधुदीधितिजेन यत्पथं पयसा नैषधशीलशीतलम् / शशिकान्तमयं तपागमे कलितीव्रस्तपति स्म नातपः / / 64 / / परिखावलयच्छलेन या न परेषां ग्रहणस्य गोचरः / फणिभाषितभाष्यफक्कि काविषमा कुण्डल नामवापिता।।९।। मुखपाणिपदाक्षिण पङ्कजै रचिताङ्गेष्वपरेषु चम्पकैः / स्वयमादित यत्र भीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियम् / / 66 / / जधनस्तनभारगौरवाद्वियदालम्ब्य विहर्तु मक्षमाः / ' ध्रुवमप्सरसोऽवतीर्य यां शतमध्यासत तत्सखीजनः / / 67 / / 25 स्थितिशालिसमस्तवणतां न कथं चित्रमयी बिभर्तु या। स्वरभेदमुपैतु या कथं कलितानल्पमुखारवा न वा / / 68 / / Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नेषधीयचरितम् :: द्वितीयः सर्गः ] [ 639 स्वरुचारुणया पताकया दिनमर्केण समोयुषोत्तृषः / लिलिहर्बहधा सधाकरं निशि माणिक्य मया यदालयाः / / 6 / / लिलिहे म्वरुचा पताकया निशि जिह्वानिभया सुधाकरम् / श्रितमर्कक रैः पिपासु यन्नपसद्मामलपद्मरागजम् // 100 / / / अमृतधतिलक्ष्म पीतया मिलितं यद्वलभीपताकया। वलयायितशेषशायिन सखितामादित पीतवाससः / / 101 / / . अश्रान्तश्रुतिपाठपूतरसनाविभूतभूरिस्तवा ___ जिह्मब्रह्ममुखौघविनितनवस्वर्गक्रियाकेलिना। पूर्वं गाधिसुतेन सामिघटिता मुक्ता नु मन्दाकिनी - यत्प्रासाददुकूलवल्लिरनिलान्दोलेरखेलद्दिवि / 102 यदतिविमलनीलवेश्मरश्मि-. भ्रमरितभाः शुचिसौधवस्त्रवल्लिः / प्रलभंत शमनस्वसुः शिशुत्वं दिवसकराङ्कतले चला लुठन्ती / / 103 / / स्वप्राणेश्वरनर्महर्म्यकटकातिथ्यग्रहायोत्सुकं _पाथोदं निजकेलिसौधशिखरादारुह्य यत्कामिनी। साक्षादप्सरसो विमानकलितव्योमान एवाभवद्यन्न प्राप निमेषमभ्रतरसा यान्ती रसादध्वनि / / 104 / / वैदर्भीकेलिशैले मरकतशिखरादुत्थितैरंशुद:२० ___ ब्रह्माण्डाघातभग्नस्यदजमदतया ह्रीधृतावाङ्मुखत्वैः / कस्या नोत्तानगाया दिवि सुरसुरभेरास्यदेशं गताग्रैयद्गोग्रासप्रदानव्रतसुकृतमविश्रान्तमुज्जृम्भते स्म / 105 / विधुकरपरिरम्भादात्मनिष्यन्दपूर्णैः शशिषदुपक्टुप्तैरालवालस्तरूणाम् / 25 विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण व्यरचि स हृतचित्तस्तत्र भैमीवनेन / / 106 / / Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक عر 640 ] .. [ काव्यषट्कं अथ कनकपतत्रस्तत्र तां राजपुत्रीं ___ सदसि सदृशभासां विस्फुरन्तीं सखीनाम् / उडुपरिषदि मध्यस्थायिशीतांशुलेखा नुकरणपटलक्ष्मीमक्षिलक्षीचकार / / 107 / / भ्रमणरयविकीर्णस्वर्णभासा खगेन . क्वचन पतनयोग्यं देशमन्विष्यताधः / मुखविधुमदसीयं सेवितुं लम्बमानः शशिपरिधिरिवोध्वं मण्डलस्तेन तेने // 108 / / अनुभवति शचीत्थं सा घृताचीमुखाभि न सह सहचरीभिनन्दनानन्दमुच्चैः / इति मतिरुदयासीत् पक्षिणः प्रेक्ष्य भैमी विपिनभुवि सखीभिः सार्धमाबद्धकेलिम् / 109 / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / द्वतीयीकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / 110 / / / इति महाकविहर्षप्रणीते नैषधीयप्रकाशे द्वितीयः सर्गः समाप्तः / / 2 // // 3 // तृतीयः सर्गः॥ 20 आकुञ्चिताभ्यामथ पक्षतिभ्यां नभोविभागात्तरसावतीर्य / निवेशदेशाततधूतपक्षः पपात भूमावुपभैमि हंसः / / 1 / / आकस्मिकः पक्षपुटाहतायाः क्षितेस्तदा यः स्वन उच्चचार / द्रागन्यविन्यस्तदृशः स तस्याः संभ्रान्तमन्तःकरणं चकार / / 2 / / नेत्राणि वैदर्भसुतासखीनां विमुक्ततत्तद्विषयग्रहाणि / 25 प्रापुस्तमेकं निरुपाख्यरूपं ब्रह्मेव चेतांसि यतव्रतानाम् / / 3 / / Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [641 हंसं तनौ सन्निहितं चरन्तं मुनेर्मनोवृत्तिरिव स्विकायाम् / ग्रहीतुकामादरिणा शयेन यत्नादसौ निश्चलतां जगाहे / / 4 / / तामिङ्गितैरप्यनुमाय मायामयं न भैम्या वियदुत्पपात / तत्पाणिमात्मोपरिपातुकं तु मोघं वितेने प्लुतिलाघवेन / / 5 / / 5 व्यर्थीकृतं पत्ररथेन तेन तथाऽवसाय व्यवसायमस्याः / परस्परामर्पितहस्ततालं तत्कालमालीभिरहस्यतालम् / / 6 / / उच्चाटनीयः करतालिकानां दानादिदानी भवतीभिरेषः / यान्वेति मां द्रुह्यति मह्यमेव सात्रेत्युपालम्भि तयालिवर्गः / 7 / धृताल्पकोपा हसिते सखोनां छायेव भास्वन्तमभिप्रयातुः / 10 श्यामाथ हंसस्य करानवाप्तेर्मन्दाक्षलक्ष्या लगति स्म पश्चात् / / शस्ता न हंसाभिमुखी पुनस्ते यात्रेति ताभिश्छलहस्यमाना। साह स्म नैवाशकुनीभवेन्मे भाविप्रियावेदक एष हंसः / / 6 / / हंसोऽप्यसो हसगतेः सुदत्याः पुरः पुमश्चारु चलन्वभासे / वैलक्ष्यहेतोगतिमेतदीयामग्रेऽनुकृत्योपहसन्निवोच्चैः / / 10 / / 15 पदे पदे भाविनि भाविनी त यथा करप्राप्यमवैति नूनम् / तथा सखेलं चलता लतासु प्रतार्य तेनाचकृषे कृशाङ्गी / / 11 / रुषा निषिद्धालिजनां यदैनां छायाद्वितीयां कलयांचकार / तदा श्रमाम्भःकणभूषिताङ्गी स कीरवन्मानुषवागवादीत् / 12 / अये ! कियद्यावदुषि दूरं ___ व्यर्थं परिश्राम्यसि वा किमित्थम् / उदेति ते भोरपि किं नु वाले ! विलोकयन्त्या न घना वनालीः / / 13 / / वृथार्पयन्तीमपथे पदं त्वां मरुल्ललत्पल्लवपाणिकम्पैः / पालीव पश्य प्रतिषेधतीयं कपोतहुंकारगिरा वनाली / / 14 / / 25 धार्यः कथंकारमहं भवत्या विद्विहारी वसुधैकगत्या / अहो! शिशत्वं तव खण्डितं न स्मरस्य सख्या वयसाप्यनेन / 15 // Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642 ] [ काव्यषट्कं सहस्रपत्रासनपत्रहंसवंशस्य पत्राणि पतत्रिणः स्मः / / अस्मादृशां चाटुरसामृतानि स्वर्लोकलोकेतरदुर्लभानि / / 16 / / स्वर्गापगाहेममृणालिनीनां नालामृणालाग्रभुजो भजामः / अन्नानुरूपां तनुरूपऋद्धि कार्य निदानाद्धि गुणानधीते // 17 / / 5 घातुनियोगादिह नैषधीयं लीलासरः सेवितुमागतेषु / हैमेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि भूलोकविलोकनोत्कः / / 18 / / विधेः कदाचिभ्रमणीविलासे ____ श्रमातुरेभ्यः स्वमहत्तरेभ्यः / / स्कन्धस्य विश्रान्तिमदां तदादि श्राम्यामि नाविश्रमविश्वगोऽपि // 19 / / वन्धाय दिव्ये न तिरश्चि कश्चित्पाशादिरासादितपौरुषःस्यात् / एकं विना माशि तन्नरस्य स्वर्भोगभाग्यं विरलोदयस्य / / 20 / / इष्टेन पूर्तेन नलस्य वश्याः स्वर्भोगमत्रापि सृजन्त्यमाः / महीरुहा दोहदसेकशक्तेराकालिकं कोरकमुद्गिरन्ति / / 21 / / 15 सुवर्णशैलादवतीय तूर्णं स्वर्वाहिनीवारिकणावकीर्णैः / / तं वीजयामः स्मरकेलिकाले पक्षपं चामरबद्धसख्यैः / / 22 / / क्रियेत चेत्साधुविभक्तिचिन्ता ___ व्यक्तिस्तदा सा प्रथमाभिधेया। या स्वौजसां साधयितुं विलास स्तावत्क्षमानामपदं बहु स्यात् // 23 / / राजा स यज्वा विवुधवजत्रा कृत्वाध्वराज्योपमयैव राज्यम् / भुङ्क्ते श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्रीः पूर्व त्वहो शेषमशेषमन्त्यम् 24 दारिद्रयदारिद्रविणोघवर्षेरमोघमेघव्रतमथिसार्थे / . संतुष्टमिष्टानि तमिष्टदेवं नाथन्ति के नाम न लोकनाथम् // 25 // 25 अस्मत्किल श्रोतसुधां विधाय रम्भा चिरं भामतुलां नलस्य / तत्रानुरक्ता तमनाप्य भेजे तन्नामगन्धानलकूबरं सा // 26 / / Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [ 643 स्वर्लोकमस्माभिरितः प्रयातैः केलीष तद्गानगुणान्निपीय / हा हेति गायन्यदशोचि तेन नाम्नैव हाहा हरिगायनोऽभूत् // 27 / / 5 शण्वन्सदारस्तदुदारभावं हृष्यन्मुहुर्लोम पुलोमजायाः / पुण्येन नालोकत लोकपालः प्रमोदवाष्पावृतनेत्रमालः // 28 / / सापीश्वरे शृण्वति तद्गुणौघान्प्रसह्य चेतो हरतोऽर्धशम्भुः / अभूदपर्णाङगुलिरुद्धकर्णा कदा न कण्डूयनकैतवेन / / 26 / / अलं सजन्धर्मविधौ विधाता ___ रुणद्धि मौनस्य मिषेण वाणीम् / . तत्कण्ठमालिङ्गय रसस्य तृप्तां न वेद तां वेदजडः स वक्राम् // 30 / / श्रियस्तदालिङ्गनभून नूता व्रतक्षतिः कापि पतिव्रतायाः / समस्तभूतात्मतया न भूतं तद्भतुरीयाकलुषाणुनापि // 31 / / धिक् त विधेः पाणिमजातलज्जं निर्माति यः पर्वणि पूर्णमिन्दुम् / मन्ये स विज्ञः स्मृततन्मुखश्रीः / कृत्वार्धमौज्झद्धरमूनि यस्तम् / / 32 / / निलीयते ह्रीविधुरः स्वजैत्रं श्रुत्वा विधुस्तस्य मुखं मुखान्नः / 20 सूरे समुद्रस्य कदापि पूरे कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्भ // 33 / / संज्ञाप्य न: स्वध्वजभृत्यवर्गान् दैत्यारिरत्यञ्जनलास्यनुत्यै / .. तत्संकुचन्नाभिसरोजपीताद्धातुर्विलज्जं रमते रमायाम् // 34 / / रेखाभिरास्ये गणनादिवास्य द्वात्रिंशता दन्तमयीभिरन्तः / चतुर्दशाष्टादश चात्र विद्या द्वेधापि सन्तीति शशंस वेधाः / 35 // .25 श्रियो नरेन्द्रस्य निरीक्ष्य तस्य स्मरामरेन्द्रावपि न स्मराम / वासेन तस्मिन्क्षमयोश्च सम्यग्बुद्धी न दध्मः खलु शेषबुद्धौ / 36 / Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 ] [ काव्यषट्कं विना पतत्रं विनतातनूजः समीरणैरीक्षणलक्षणीयैः। / मनोभिरासीदनणुप्रमाणैर्न लङ्घिता दिक्कतमा तदश्व : / / 37 / / संग्रामभूमीषु भवत्यरीणामस्र नदीमातृकतां गतासु / तद्वाणधारापवनाशनानां राजव्रजीयैरसुभिः सुभिक्षम् / / 38 / / 5 यशो यदस्याजनि संयुगेषु कण्डूलभावं भजता भुजेन / हेतोगुणादेव दिगापगालीकूलंकषत्वव्यसनं तदीयम् / / 36 / / यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्त स्याः समाप्तिर्य नायुषः स्यात् / पारेपराध गणितं यदि स्या- ' 10 द्गणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् // 40 / / अवारितद्वारतया तिरश्चामन्तपुरे तस्य निविश्य राज्ञः / / गतेषु रम्येष्वधिकं विलेषमध्यापयामः परमाणूमध्याः / / 41 / / पीयूषधारानधराभिरन्तस्तासां / ___ रसोदन्वति मज्जयामः / 15 रम्भादिसौभाग्यरहःकथाभिः काव्येन काव्यं सृजताताभिः // 42 / / काभिर्न तत्राभिनवस्मराज्ञाविश्वासनिक्षेपवणिक् क्रियेऽहम् / जिह ति यन्नव कुतोऽपि तिर्यक्कश्चित्तिरश्चस्त्रपते न तेन / 4 / / वार्तापि नासत्यपि सान्यमेति योगादरन्ध्रे हृदि यां निरुन्धे। 20 विरञ्चिनानाननवादधौतसमाधिशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णः / / 44 / / नलाश्रयेण त्रिदिवोपभोगं तवानवाप्यं लभते वतान्या। कुमुद्वतीवेन्दुपरिग्रहेण ज्योत्स्नोत्सवं दुर्लभमम्बुजिन्या / / 45 / / तन्नेषधानूढतया दुरापं शर्म त्वयास्मत्कृतचाटुजन्म। . रसालवन्या मधुपानुविद्धं सौभाग्यमप्राप्तवसन्तयेव / / 46 / / 25 तस्यैव वा यास्यसि किं न हस्तं दृष्टं मनः केन विधेः प्रविश्य / प्रजातपाणिग्रहणासि तावद्रूपस्वरूपातिशयाश्रयश्च // 47 / / Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [ 645 निशा.शशाङ्क शिवया गिरोशं श्रिया हरि योजयतः प्रतीतः / विधेरपि स्वारसिकः प्रयासः परस्परं योग्यसमागमाय / / 48 / / वेलातिगस्त्रैणगुणाधिवेणिर्न योगयोग्यासि नलेतरेण / संदर्म्यते दर्भगुणेन मल्लीमाला न मृद्वी भृशकर्कशेन / / 46 / / 5 विधि वधूसृष्टिमपृच्छमेव तद्यानयुग्यो नलकेलियोग्याम् / त्वन्नामवर्णा इव कर्णपीता मयास्य संक्रीडति चक्रिचक्रे // 50 / / अन्येन पत्या त्वयि योजितायां विज्ञत्वकोा गतजन्मनो वा। जनापवादार्णवमुत्तरीतुं विधा विधातुः कतमा तरीः स्यात् / / 51 / / प्रास्तां तदप्रस्तुतचिन्तयालं मयासि तन्वि! श्रमितातिवेलम् / सोऽहं तदागः परिमाष्टुं कामः किमीप्सितं ते विदधेऽभिधेहि 52 इतीरयित्वा विरराम पत्री स राजपुत्रीहृदयं बुभुत्सुः / ह्रदे गभीरे हृदि चावगाढे शंसन्ति कार्यावतरं हि सन्तः / / 53 // 15 किंचित्तिरश्चीनविलोलमौलिविचिन्त्य वाच्यं मनसा मुहूर्तम् / . पतत्रिणं सा पृथिवीन्द्रपुत्री जगाद वक्रेण तृणीकृतेन्दुः / / 54 / / धिक्चापले वत्सिमवत्सलत्वं यत्प्रेरणादुत्तरलोभवन्त्या। समीरसङ्गादिव नीरभङ्गया मया तटस्थस्त्वमुपद्रुतोऽसि / 55 / आदर्शतां स्वच्छतया प्रयासि सतां स तावत्खलु दर्शनीयः / 20 प्रागः पुरस्कुर्वति सागसं मां यस्यात्मनीदं प्रतिबिम्बितं ते।५६। अनार्यमप्याचरितं कुमार्या भवान्मम क्षाम्यतु सौम्य ! तावत् / हंसोऽपि देवांशतयासि वन्द्यः श्रीवत्सलक्ष्मेव हि मत्स्यमूर्तिः 57 मत्प्रीतिमाधित्ससि कां त्वदीक्षामुदं मदक्षणोरपि यातिशेताम् / निजामृतैर्लोचनसेचनाद्वा पृथक्किमिन्दुः सृजति प्रजानाम् / 58 / .25 मनस्तु यं नोज्झति जातु यातु मनोरथः कण्ठपथं कथं सः। का नाम बाला द्विजराजपाणिग्रहाभिलाषं कथयेदलज्जा / 56 / Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 ] [ काव्यषट्क वाचं तदीयां परिपीय मृद्वी मृद्वीकया तुल्यरसां स हंसः / तत्याज तोषं परपुष्टघुष्टे घृणां च वीणाक्वणिते वितेने / 60 / मन्दाक्षमन्दाक्षरमुद्रमुक्त्वा तस्यां समाकुञ्चितवाचि हंसः / तच्छंसिते किंचन संशयालुगिरा मुखाम्भोजमयं युयोज / 61 / / 5 . करेण वाञ्छेव विधुं विधतुं / यमित्थमात्थादरिणी तमर्थम् / . .. पातु श्रुतिभ्यामपि नाधिकुर्वे वर्णं श्रुतेर्वर्ण इवान्तिमः किम् / / 62 / / अवाप्यते वा किमियद्भवत्या चित्तैकपद्यामपि विद्यते यः / . यत्रान्धकारः किल चेतसोऽपि जिह्म तरैर्ब्रह्म तदप्यवाप्यम् // 63 / / ईशाणिमैश्वर्यविवर्तमध्ये लोकेशलोकेशयलोकमध्ये / तिर्यञ्चमप्यञ्च मृषानभिज्ञ रसज्ञतोपज्ञसमज्ञमज्ञम् / / 64 / / 15 मध्ये श्रुतीनां प्रतिवेशिनोनां सरस्वती वासवती मुखे नः / ह्रियेव ताभ्यश्चलतोयंमद्धा पथान्न सत्सङ्गगुणेन नद्धा // 65 // पर्यतापन्नसरस्वदङ्का लङ्का पुरीमप्यभिलापि चित्तम् / कुत्रापि चेद्वस्तुनि ते प्रयाति तदप्यवेहि स्वशये शयालु / / 66 / / इतीरिता पत्ररथेन तेन ह्रीणा च हृष्टा च बभाग भैमी / चेतो नलङ्कामयते मदीय नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम् / 67 / विचिन्त्य बालाजनशीलशैलं लज्जानदीमज्जदनङ्गनागम् / आचष्ट विस्पष्टमभाषमाणामेनां स चक्राङ्गपतङ्गशक्रः / 68 / नपेण पाणिग्रहणे स्पृहेति नलं मनः कामयते ममेति / . आश्लेषि न श्लेषकवेर्भवत्याः श्लोकद्वयार्थः सुधिया मया किम् 69 25 त्वच्चेतसः स्थैर्यविपर्ययं तु संभाव्य भाव्यस्मि तमज्ञ एव / लक्ष्ये हि बालाहृदि लोलशीले दरापराद्धेषुरपि स्मरः स्यात् 70 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [647 महीमहेन्द्रः खलु नैषधेन्दुस्तद्वोधनीयः कथमित्थमेव / प्रयोजनं सांयिकं प्रतीक्पृथग्जनेनेव स मद्विधेन / / 71 / / पितुनियोगेन निजेच्छया वा युवानमन्यं यदि वा वृणीषे / त्वदर्थमथित्वकृति प्रतीतिः कीदृङ्मयि स्यान्निषधेश्वरस्य / 72 / 5 त्वयापि किं शङ्कितविक्रियेऽस्मिन्नधिक्रिये वा विषये निधातुम् / इतः पृथक्प्रार्थयसे तु यद्यत्कुर्वे तदुर्वीपतिपुत्रि! सर्वम् / / 73 / / श्रवःप्रविष्टा इव तद्गिरस्ता विधूय वैमत्यधुतेन मूर्ना / ऊचे ह्रियोऽपि श्लथितानुरोधा पुनर्धरित्रीपुरुहूतपुत्री / / 74 / / मदन्यदानं प्रति कल्पना या वेदस्त्वदीये हृदि तावदेषा / 10 निशोऽपि सोमेतरकान्तशङ्कामोंकारमग्रेसरमस्य कुर्याः / / 7 / / सरोजिनीमानसरागवृत्तेरनकसंपर्कमतर्कयित्वा / मदन्यपाणिग्रहशङ्कितेयमहो महीयस्तव साहसिक्यम् / / 76 / / साधु त्वया तर्कितमेतदेव स्वेनानलं यत्किल संश्रयिष्ये / विनामुना स्वात्मनि तु प्रहाँ मृषागिरं त्वां नृपतौ न कर्तुम् 77 15 मद्विपलभ्यं पुनराह यस्त्वां तर्कः स कि तत्फलवाचि मूकः / प्रशक्यशङ्काव्यभिचारहेतुर्वाणी न वेदा यदि सन्तु के तु 78 / अनैषधायैव जुहोति तातः किं मां कृशानौ न शरीरशेषाम् / ईष्टे तनूजन्मतनोः स नूनं मत्प्राणनाथस्तु नलस्तथापि // 79 / / तदेकदासीत्वपदादुदने मदोप्सिते साधु विधित्सुता ते। 20 अहेलिना कि नलिनी विधत्ते सुधाकरेणापि सुधाकरेण / / 8 / / तदेकलुब्धे हृदि मेऽस्ति लब्धं चिन्ता न चिन्तामणिमप्यनय॑म् / चित्ते ममैकः सकलत्रिलोकीसारो निधिः पद्ममुखः स एव / 81 // श्रुतः स दृष्टश्च हरित्सु मोहाध्द्यातः स नीरन्ध्रितवुद्धिधारम् / ममाद्य तत्प्राप्तिरसुव्ययो वा हस्ते तवास्ते द्वयमेकशेषः / / 82 / / 25 संचीयतामाश्रुतपालनोत्थं मत्प्राणविश्राणनजं च पुण्यम् / Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 ] [ काव्यषट्कं निवार्यतामार्य ! वृथा विशङ्का . भद्रेऽपि मुद्रेयमये ! भृशं का // 83 / / अलं विल वय प्रियविज्ञ ! याच्ञां कृत्वापि वाम्यं विविधं विधेये। यशःपथादाश्रवतापदोत्थात्खलु ___ स्खलित्वास्तखलोक्तिखेलात् // 84 / / स्वजीवमप्यातमुदे ददद्भयस्तव त्रपा नेदृशबद्धमुष्टेः / / मह्य मदीयान्यदसूनदित्सोधर्मः कराद्मश्यति कोतिधौतः 85 दत्त्वात्मजीवं त्वयि जीवदेऽपि शुध्यामि जोवाधिकदे तु केन / विधेहि तन्मां त्वरणान्यशोद्धममुद्रदारिद्रयंसमुद्रमग्नाम् / / 6 / / क्रीणीष्व मज्जीवितमेव पण्यमन्यन्न चेदस्ति तदस्तु पुण्यम् / जीवेशदातर्यदि ते न दातुं यशोऽपि तावत्प्रभवामि गातुम् / 87 / वराटिकोपक्रिययापि लभ्यान्नेभ्याः कृतज्ञानथवाद्रियन्ते / प्राणैः पणेः स्वं निपुणं भणन्तः क्रोणन्ति तानेव तु हन्त सन्तः 88 15 स भूभृदष्टावपि लोकपालास्तैर्मे तदेकाग्रधियः प्रसेदे / न हीतरस्माद्धटते यदेत्य स्वयं तदाप्तिप्रतिभूर्ममाभूः / / 8 / / अकाण्डमेवात्मभुवाजितस्य भूत्वापि मूलं मयि वीरणस्य / भवान्न मे कि नलदत्वमेत्य कर्ता हृदश्चन्दनलेपकृत्यम् / / 10 / / अलं विलम्ब्य त्वरितुं हि वेला कार्ये किल स्थैर्यसहे विचारः / 20 गुरूपदेशं प्रतिभेव तीक्ष्णा प्रतीक्षते जातु न कालमतिः / / 61 / / अभ्यर्थनीयः स गतेन राजा त्वया न शुद्धान्तगतो मदर्थम् / प्रियास्यदाक्षिण्यबलात्कृतो हि तदोदयेदन्यवधूनिषेधः / / 92 // शुद्धान्तसंभोगनितान्ततुष्टे न नैषधे कार्यमिदं निगाद्यम् / अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुषारा // 93 / / Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [ 646 त्वया विधेया न गिरो मदर्थाः क्रुधा कदुष्णे हृदि नेषधस्य / पित्तेन दूने रसने सितापि तिक्तायते हंसकुलावतंस ! // 64 / / धरातुरासाहि मदर्थयाञ्चा कार्या न कार्यान्तर चुम्बिचित्ते / तदाथितस्यानवबोधनिद्रा बिभर्त्यवज्ञाचरणस्य मुद्राम् / / 5 / / विज्ञेन विज्ञाप्यमिदं नरेन्द्र ___तस्मात्त्वयास्मिन्समयं समीक्ष्य / प्रात्यन्तिकासिद्धिविलम्बिसिद्धयोः कार्यस्य कार्यस्य शुभा विभाति / / 66 / / इत्युक्तवत्या यदलोपि लज्जा सानौचिती चेतसि नश्चकास्तु / स्मरस्तु साक्षी तददोषताया मुन्माद्य यस्तत्तदवीवदत्ताम् // 97 / / उन्मत्तमासाद्य हरः स्मरश्च द्वावप्यसीमा मुदमुद्वहेते / पूर्वः परस्पर्धितया प्रसून नूनं द्वितीयो विरहाधिदूनम् / / 68 / / 15 तथाभिधात्रीमथ राजपुत्री निर्णीय तां नैषधबद्धरागाम् / अमोचि चञ्चूपुटमौनमुद्रा विहायसा तेन विहस्य भूयः / 66 / / इदं यदि क्ष्मापतिपुत्रि! तत्त्वं पश्यामि तन्न स्वविधेयमस्मिन् / त्वामुच्चकैस्तापयता नृपं च पञ्चेषुणवाजनि योजनेयम् / / 10 / / त्वद्वद्धबुद्धेर्बहिरिन्द्रियाणां तस्योपवासवतिनां तपोभिः / 20. त्वामद्य लब्ध्वामृततृप्तिभाजां स्वदेवभूयं चरितार्थमस्तु / 101 / तुल्यावयोर्मूतिरभून्मदीया दग्धा परं सास्य न ताप्यतेऽपि / इत्यभ्यसूयन्निव देहतापं तस्यातनुस्त्वद्विरहाद्विधत्ते / / 102 / / लिपि दृशा भित्तिविभूषणं त्वां नृपः पिबन्नादरनिनिमेषः / चक्षुझरेरर्पितमात्मचक्षुरागं स धत्ते रचितं त्वया नु / / 103 / / 25. पातुई शालेख्यमयीं नृपस्य त्वामादरादस्तनिमीलयास्ते / ममेदमित्यश्रुणि नेत्रवृत्तेः प्रीतेनिमेषच्छिदया विवादः / 104 / Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 ] _ [ काव्यषट्क त्वं हृद्गता भैमि ! बहिर्गतापि . प्राणायिता नासिकयास्यगत्या / न चित्रमाक्रामतो तत्र चित्र मेतन्मनो यद्भवदेकवृत्ति / / 105 / / अजस्रमारोहसि दूरदीर्घा संकल्पसोपानति तदीयाम् / श्वासान्स वर्षत्यधिक पुनर्यद् ध्यानात्तव त्वन्मयतां तदाप्य / / 106 / / हृत्तस्य यन्मन्त्रयते रहस्त्वां __ तद्व्यक्तमामन्त्रयते मुखं यत् / / तद्वैरिपुष्पायुधमित्रचन्द्र सख्यौचिती सा खलु तन्मुखस्य / / 107 / / स्थितस्य रात्रावधिशय्य शय्यां मोहे मनस्तस्य निमज्जयन्ती। 15. आलिङ्गय या चुम्बति लोचने सा ... निद्राधुना न त्वदृतेऽङ्गना वा / / 108 / / स्मरेण निस्तक्ष्य वृथैव बाणैर्लावण्यशेषां कृशतामनायि / अनङ्गतामप्ययमाप्यमानः स्पर्धा न सार्धं विजहाति तेन / 10 / त्वत्प्रापकात्त्रस्यति नैनसोऽपि त्वय्येष दास्येऽपि न लज्जते यत् / स्मरेण बाणैरतितक्ष्य तीक्ष्णैर्लन: ___ स्वभावोऽपि कियान्किमस्य // 110 / / स्मारं ज्वरं घोरमपत्रपिष्णोः सिद्धागदङ्कारचये चिकित्सौ। 25 निदानमौनादविशद्विशाला साकामिकी तस्य रुजेव लज्जा / / 111 / / 20 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ] [ 651 बिभेति रुष्टासि किलेत्यकस्मात्सत्वां किलापेति हसत्यकाण्डे / यान्तीमिव त्वामनु यात्यहेतोरुक्तस्त्वयेव प्रतिवक्ति मोघम् 112 भवद्वियोगाच्छिदुरातिधारायमस्वसुर्मज्जति निःशरण्यः / मूर्छामयद्वीपमहान्ध्यपके हा हा महीभृद्भटकुञ्जरोऽयम् 113 सव्यापसव्यत्यजनाविरुक्तैः पञ्चेषुबाणैः पृथगजितासु / दशासु शेषा खलु तद्दशा या तया नभ: पुष्प्यतु कोरकेरण // 114 / / त्वयि स्मराधेः सततास्मितेन - प्रस्थापितो भूमिभृतास्मि तेन / आगत्य भूतः सफलो भवत्या भावप्रतीत्या गुणलोभवत्याः // 115 / / धन्यासि वैदभि ! गुणैरुदार र्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्तुति कः खलु चन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति // 116 / / नलेन भायाः शशिना निशेव - त्वया स भायान्निशया शशीव / पुनः पुनस्तद्युगयुग्विधाता योग्यामुपास्ते नु युवां युयुक्षः / / 117 / / स्तनद्वये तन्वि ! परं तवैव पृथौ यदि प्राप्स्यति नैषधस्य / अनल्पवैदग्ध्यविवधिनीनां .. पत्रावलीनां वलना- समाप्तिम् / / 118 / / 25 एकः सुधांशुन कथंचन स्या त्तप्तिक्षमस्त्वन्नयनद्वयस्य / Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652 ] [ काव्यषट्क त्वल्लोचनासेचनकस्तदस्तु नलास्यशीतधुतिसद्वितीयः // 116 / / अहो तपःकल्पतरुनलोयस्त्वत्पाणिजाग्रस्फुरदङकुरश्रीः / त्वद्भूयुगं यस्य खलु द्विपत्री तवाधरो रज्यति यत्कलम्बः 120 5 यस्ते नवः पल्लवितः कराभ्यां स्मितेन यः कोरकितस्तवास्ते / अङ्गम्रदिम्ना तव पुष्पितो यः स्तनश्रिया यः फलितस्तवैव 121 कांसीकृतासीत्खलु मण्डलीन्दोः ___ संसक्तरश्मिप्रकरा स्मरेण / तुला च नाराचलता निजैव ' मिथोनुरागस्य समीकृतौ वाम् / / 122 / / सत्त्वस्र तस्वेदमधूत्थसान्द्रे तत्पाणिपर्दो मदनोत्सवेषु / लग्नोत्थितास्त्वत्कुचपत्रलेखा- ' स्तन्निर्गतास्तं प्रविशन्तु भूयः // 123 / / 15 बन्धाढयनानारतमल्लयुद्धप्रमोदितैः केलिवने मरुद्भिः। प्रसूनवृष्टि पुनरुक्तमुक्तां प्रतीच्छतं भैमि ! युवा युवानौ / 124 / अन्योन्यसंगमवशादधुना विभातां तस्यापि तेऽपि मनसी विकसद्विलासे। स्रष्टुं पुनर्मनसिजस्य तनुं प्रवृत्त / मादाविव द्वयणुककृत्परमाणुयुग्मम् / / 125 / / कामः कौसुमचापदुर्जयममुं जेतुं नृपं त्वां धनु वल्लीमवणवंशजामधिगुणामासाद्य माद्यत्यसौ / ग्रीवालंकृतिपट्टसूत्रलतया पृष्ठे कियल्लम्बया ___ भ्राजिष्णुं कषरेखयेव निवसत्सिन्दूरसौन्दर्यया // 126 / / 25 त्वद्गुच्छावलिमौक्तिकानि गुलिकास्तं राजहंसं विभो घ्यं विद्धि मनोभुवः स्वमपि तां मञ्जु धनुर्मञ्जरीम् / 20 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: तृतीय सर्गः ) [ 653 10 यन्नित्याङ्कनिवासलालिततमज्याभुज्यमानं लस नाभीमध्यबिला विलासमखिलं रोमालिरालम्बते / 127 / * पुष्पेषुश्चिकुरेषु ते शरचयं त्वद्भालमूले धनू रौद्रे चक्षुषि तज्जितस्तनुमनुभ्राष्ट्रं च यश्चिक्षिपे / 5 निविद्याश्रयदाश्रयं स वितनुस्त्वां तज्जयायाधुना पत्रालिस्त्वदुरोज शैलनिलया तत्पर्णशालायते / / 128 / / इत्यालपत्यथ पतत्रिणि तत्र भैमी * सख्यश्चिरात्तदनुसंधिपरा: परीयुः / शर्मास्तु ते विसृज मामिति सोऽप्युदीर्य वेगाज्जगाम निषधाधिपराजधानीम् / / 129 / / चेतोजन्मशरप्रसूनमधुभिर्व्यामिश्रतामाश्रय___ स्प्रेयोदूतपतङ्गपुङ्गवगवीहैयङ्गवीनं रसात् / स्वादं स्वादमसीममिष्टसुरभि प्राप्तापि तृप्ति न सा ___ तापं प्राप नितान्तमन्तरतुलामानछे मूर्छामपि / 130 / 15 तस्या दृशो नृपतिबन्धुमनुव्रजन्त्या स्तं बाष्पवारि न चिरादवधीबभूव / पार्वेऽपि विप्रचकृषे यदनेन दृष्टे रारादपि व्यवदधे न तु चित्तवृत्तेः / / 131 / / अस्तित्वं कार्यसिद्धेः स्फुटमथ कथयन्पक्षतेः कम्पभेदै२० राख्यातुं वृत्तमेतन्निषधनरपतौ सर्वमेकः प्रतस्थे / कान्तारे निर्गतासि प्रियसखि ! पदवी विस्मृता किं नु मुग्धे ! मा रोदीरेहि यामेत्युपहृतवचसो निन्युरन्यां वयस्याः 132 सरसि नृपमपश्यद्यत्र तत्तीरभाजः / स्मरतरलमशोकानोकहस्योपमूलम् / 25 किसलयदलतल्पम्लायिनं प्राप तं स ज्वलदसमशरेषुस्पर्धिपुष्पद्धिमौलेः // 133 / / Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654 ] [ काध्यषट्कं परवति दमयन्ति ! त्वां न किंचिद्वदामि / द्रुतमुपनम किं मामाह सा शंस हंस ! / इति वदति नलेऽसौ तच्छशंसोपनम्रः .. प्रियमनु सुकृतां हि स्वस्पृहाया विलम्बः / / 134 / / 5 कथितमपि नरेन्द्रः शंसयामास हसं किमिति किमिति पृच्छन्भाषितं स प्रियायाः / अधिगतमथ सान्द्रानन्दमाध्वीकमत्तः स्वयमपि शतकृत्वस्तत्तथान्वाचचक्षे // 135 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं 10 श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तार्तीयीकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महाकाव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / 136 / / / कविहर्षविरचित्ते नैषधीयप्रकाशे तृतीयः सर्गः समाप्तः / / 3 / / // 4 // चतुर्थः सर्गः॥ अथ नलस्य गुणं गुणमात्मभूः सुरभि तस्य यशःकुसुमं धनुः / श्रुतिपथोपगतं सुमनस्तया तमिषुमाशु विधाय जिगाय ताम् / / यदतनुज्वरभाक्तनुते स्म सा प्रियकथासरसोरसमज्जनम् / सपदि तस्य चिरान्तरतापिनी परिणतिविषमा समपद्यत / / 2 / / 20 ध्रुवमधीतवतीयमधीरतां दयितदूतपतद्गतवेगतः / . स्थितिविरोधकरी द्वयगुकोदरी तदुदितः स हि यो यदनन्तरः / 3 / अतितमा समपादि जडाशयं स्मितलवस्मरणेऽपि तदाननम् / अजनि पङ्गुरपाङ्गनिजाङ्गणभ्रमिकणेऽपि तदीक्षणखञ्जनः।४। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थ सर्गः ] [ 655 * किमु तदन्तरुभौ भिषजौ दिवः ___ स्मरनलौ विशतः स्म विगाहितुम् / तदभिकेन चिकित्सितुमाशु तां ___मखभुजामधिपेन नियोजितौ // 5 // 5 कुसुमचापजतापसमाकुलं कमलकोमलमैक्ष्यत तन्मुखम् / अहरहर्वहदभ्यधिकाधिका रविरुचिग्लपितस्य विधोविधाम् / 6 / तरुणतातरणिद्युतिनिर्मितढिम तत्कुचकुम्भयुगं तदा। अनलसंगतितापमुपैतु नो कुसुमचापकुलालविलासजम् // 7 / / अधृत यद्विरहोष्मणि मज्जितं मनसिजेन तदूरुयुगं तदा। स्पृशति तत्कदनं कदलीतर्यदि मरुज्वलदूषरदूषितः / / 8 / / स्मरशराहतिनिर्मितसंज्वरं करयुगं हसति स्म दमस्वसुः / अनपिधानपतत्तपनातपं तपनिपीतसरःसरसीरुहम् / / 9 / / मदनतापभरेण विदीयं नो यदुदपाति हृदा दमनस्वसुः / निबिडपीनकुचद्वययन्त्रया तमपराधमधात्प्रतिबन्धती / / 10 / / 15 निविशते यदि शूकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यथाम् / मृदुतनोवितनोतु कथं न ता मवनिभृत्तु निविश्य हृदि स्थितः / / 11 / / मनसि सन्तमिव प्रियमीक्षितुं नयनयोः स्पृहयान्तरुपेतयोः / - 20 ग्रहणशक्तिरभूदिदमीययोरपि न संमुखवास्तुनि वस्तुनि / / 12 / / हृदि दमस्वसुरश्रुझरप्लुते . प्रतिफलद्विरहात्तमुखानतेः। हृदयभाजमराजत चुम्बितुं नलमुपेत्य किलागमि तन्मुखम् // 13 / / 25. . . सुहृदमग्निमुदञ्चयितुं स्मरं मनसि गन्धवहेन मृगीदृशः / Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656 ] काव्यषट्कं अकलि निःश्वसितेन विनिर्गमा नुमितनिह नुतवेशनमायिता // 14 // विरहपाण्डिमरागतमोमषी शितिमतन्निजपीतिमवर्णकैः / दश दिशः खलु तगकल्प यल्लिपिकरी नलरूपकचित्रिताः / / 15 / / स्मरकृतां हृदयस्य मुहुर्दशां बहु वदन्निव नि:श्वसितानिलः / व्यधित वाससि कम्पमदःश्रिते वसति कः सति नाश्रयबाधने // 16 / / करपदाननलोचननामभिः शतदलैः सुतनोविरहज्वरे / रविमहो बहुपीतचरं चिरादनिशतापमिषादुदसृज्यत / / 17 / / उदयति स्म तदद्भुतमालिभि धरणिभृद्भुवि तत्र विमृश्य यत् / 15 अनुमितोऽपि च बाष्पनिरीक्षणाद् व्यभिचचार न तापकरो नलः // 18 / / हृदि विदर्भभुवः प्रहरशरै रतिपतिनिषघाधिपतेः कृते / कृततदन्तरगस्वदृढव्यधैः फलदनीतिरमूर्च्छदलं खलु / / 19 / / विधुरमानि तया यदि भानुमान कथमहो स तु तद्धृदयं तथा। अपि वियोगभरास्फुटनस्फुटी ___ कृतहषत्त्वमजिज्वलदंशुभिः // 20 // हृदयदत्त सरोरुहया तया ___ क्व सदृगस्तु वियोगनिमग्नया / . प्रियधनुः परिरभ्य हृदा रतिः किमनुमर्तु मशेत चिताचिषि // 21 / / Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: चतुर्थ सर्गः ] / 657 अनलभावमियं स्वनिवासिनो न विरहस्य रहस्यमबुध्यत / प्रशमनाय विधाय तृणान्यसू _ ज्वलति तत्र यदुज्झितुमैहत // 22 / / 5 प्रकृतिरेतु गुणः स न योषितां कथमिमां हृदयं मृदु नाम यत् / तदिषुभिः कुसुमैरपि दुन्वता सुविवृतं विबुधेन मनोभुवा / / 23 / / रिपुतरा भवनादविनिर्यतीं विधुरुचिहजालबिलैर्नु ताम् / इतरथात्मनिवारणशङ्कया ज्वरयितुं विशवेशधराविशत् / / 24 / / हृदि विदर्भभुवोऽश्रुभृति स्फुटं विनमदास्यतया प्रतिबिम्बितम् / मुख गोष्ठमरोपि मनोभुवा तदुपमाकुसुमान्यखिलाः शराः // 25 // विरहपाण्डुकपोलतले विधु य॑धित भीमभुवः प्रतिबिम्बितः / अनुपलक्ष्यसितांशुतया मुखं ___निजसखं सुखमङ्कमृगार्पणात् // 26 // विरहतापिनि चन्दनपांशुभि र्वपूषि सापितपाण्डिममण्डना / विषधराभविसाभरणा दधे . रतिपति प्रति शंभुविभीषिकाम् // 27 // विनिहितं परितापिनि चन्दनं हृदि तया धृतबुबुदमावभौ / उपनमन्सुहृदं हृदयेशयं विधुरिवाङ्कगतोड़परिग्रहः // 28 // स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् / श्रयितुमर्धपथे कृतमन्त राश्वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् / / 26 / / 25 प्रियकरग्रहमेवमवाप्स्यति स्तनयुगं तव ताम्यति किं न्विति / जगदतुनिहिते हृदि नीरजे दवथुकुड्मलनेन पृथुस्त नीम् / / 30 / / Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं त्वदितरो न हृदापि मया धृतः ____ पतिरितीव नलं हृदयेशयम् / स्मरहविभु जि बोधयति स्म सा ... विरहपाण्डुतया निजशुद्धताम् . // 31 // 5 विरहतप्ततदङ्गनिवेशिता कमलिनी निमिषद्दलमुष्टिभिः / किमपनेतुमचेष्टत किं पराभवितुमैहत तद्दव| पृथुम् / / 32 / / इयमनङ्गशरावलिपन्नग ___ क्षतविसारिवियोगविषावशा। शशिकलेव खरांशुकरादिता करुणनीरनिधौ निदधौ न कम् / / 33 / / ज्वलति मन्मथवेदनया निजे हृदि तयामृणाललतापिता। स्वजयिनोस्त्रपया सविधस्थयो मलिनतामभजभुजयो शम् // 34 / / 15 पिकातिश्रुतिकम्पिनि शैवलं हृदि तया निहितं विचलद्वभौ। सतततद्गतहृच्छयकेतुना हृतमिव स्वतनूघनघर्षिणा / / 35 / / न खलु मोहवशेन तदाननं नलमनः शशिकान्तमवोधि तत् / इतरथा शशिनोऽभ्युदये ततः कथमसुस्र वदस्र मयं पयः / / 36 / / रतिपतेविजयास्त्रमिषुर्यथा - जयति भीमसुतापि तथैव सा / स्वविशिखानिव पञ्चतया ततो नियतमैहत योजयितुं स ताम् // 37 / / शशिमयं दहनास्त्रमुदित्वरं मनसिजस्य विमृश्य वियोगिनी। झटिति वारुणमश्रुमिषादसौ तदुचितं प्रतिशस्त्रमुपाददे / / 38 / / 25 अतनुना नवमम्बुदमाम्बुदं सुतनुरस्त्रमुदस्तमवेक्ष्य सा। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थ सर्गः ] [656 उचितमायतनिःश्वसितच्छला च्छवसनशस्त्रममञ्चदमं प्रति // 36 / / रतिपतिप्रहितानिलहेतितां प्रतियती सुदती मलयानिले / तदुरुतापभयात्तमृणालिकामयमियं भुजगास्त्रमिवादित / / 40 / / 5 न्यधित तद्धदि शल्यमिव द्वयं ... विरहितां च तथापि च जीवितम् / किमथ तत्र निहत्य निखातवान्- . रतिपतिः स्तनविल्वयुगेन तत् / / 4 / / अतिशरव्ययता मदनेन तां निखिलपुष्पमयस्वशरव्ययात् / स्फुटमकारि फलान्यपि मुञ्चता : तदुरसि स्तनतालयुगार्पणम् // 42 / / अथ मुहुर्बहुनिन्दितचन्द्रया स्तुतविधुंतुदया च तया मुहुः / पतितया स्मरतापमये गदे ____निजगदेऽश्रुविमिश्रमुखी सखी // 43 / / नरसुराब्जभुवामिव यावता भवति यस्य युगं यदनेहसा / विरहिणामपि तद्रतवावक्षणमितं न कथं गणितागमे / / 44 / / ____ जनुरधत्त सती स्मरतापिता __हिमवतो न तु तन्महिमादृता। ज्वलति भालतले लिखितः सती __ विरह एव हरस्य न लोचनम् // 45 / / दहनजा न पृथुर्दवथुव्यथा विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् / दहनमाशु विशन्ति कथं स्त्रियः . प्रियमपासुमुपासितुमुद्धराः // 46 // Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 ] [ काव्यषट्कं हृदि लुठन्ति कला नितराममू विरहिणीवधपङ्ककलङ्किताः / कुमुदसंख्यकृतस्तु वहिष्कृताः सखि ! विलोकय दुविनयं विधो: / / 47 / / अयि ! विधुं परिपृच्छ गुरोः कुतः स्फुटमशिक्ष्यत दाहवदान्यता। ग्लपितशंभुगलाद्गरलात्त्वया किमुदधौ जड ! वा वडवानलात् / / 48 / / अयमयोगिवधूवधपातकै धमिमवाप्य दिवः खलु पात्यते / शितिनिशादृषदि स्फुटदुत्पत करणगणाधिकतारकिताम्वरः // 46 / / त्वमभिधेहि विधुं सखि ! मद्गिरा किमिदमीगधिक्रियते त्वया। न गणितं यदि जन्म पयोनिधी हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मृता // 50 // निपततापि न मन्दरभूभृता त्वमुदधौ शशलाञ्छन ! चूर्णितः / अपि मुनेर्जठराचिषि जीर्णतां बत गतोऽसि न पीतपयोनिधेः // 51 / / किमसुभिग्लपितैर्जड ! मन्यसे मयि निमज्जतु भीमसुतामनः / मम किल श्रुतिमाह तदर्थिकां नलमुखेन्दुपरां विबुधः स्मरः // 52 / / मुखरय स्वयशोनवडिण्डिमं जलनिधेः कुलमुज्ज्वलयाधुना। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थ सर्गः ] / / 54 / / अपि गृहाण वधूवधपौरुषं हरिणलाञ्छन ! मुञ्च कदर्थनाम् / / 53 / / निशि शशिन् ! भज कैतवभानुता मसति भास्वति तापय पाप ! माम् / प्रहमहन्यवलोकयितास्मि ते पुनरहर्पतिनिह नुतदर्पताम् शशकलङ्क ! भयंकर ! मादृशां ज्वलसि यनिशि भूतपति श्रितः / तदमृतस्य तवेदृशभूतताद्भुतकरी परमूर्धविधूननी // 55 / / श्रवणपूरतमालदलाकुरं शशिकुरङ्गमुखे सखि ! निक्षिप / किमपि तुन्दिलितः स्थगयत्यमुं . सपदि तेन तदुच्छ्वसिमि क्षणम् / / 56 / / असमये मतिरुन्मिषति ध्रुवं .. करगतैव गता यदियं कुहूः। पुनरुपैति निरुध्य निवास्यते सखि ! मुखं न विधोः पुनरीक्ष्यते / / 57 / / अयि ! ममैष चकोरशिशुर्मुने व्रजति सिन्धुपिबस्य न शिष्यताम् / प्रशितुमब्धिमधीतवतोऽस्य च . शशिकराः पिबतः कति शीकराः / / 58 / / कुरु करे गुरुमेकमयोधनं . बहिरतो मुकुरं च कुरुष्व मे / .. 25 . विशति तत्र यदैव विधुस्तदा सखि ! सुखादहितं जहि तं द्रुतम् / / 56 / / Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 ] [ काव्यषट्कं उदर एव धृतः किमुदन्वता न विषमो वडवानलवद्विधुः / विषवदुज्झितमप्यमुना न स ___ स्मरहरः किममुं बुभुजे विभुः / / 60 / / असितमेकसुराशितमप्यभून्न ____ पुनरेष विधुर्विशदं विषम् / अपि निपीय सुरैर्जनितक्षयं स्वयमुदेति पुनर्नवमार्णवम् // 61 / / विरहिवर्गवधव्यसनाकुलं कलय पापमशेषकुलं विधुम् / सुरनिपीतसुधाकमपापकं ग्रहविदो विपरीतकथा: कथम् / / 62 / / विरहिभिर्बहुमानमवापि यः / ... स बहुलः खलु पक्ष इहाजनि / तदमिति: सकलैरपि यत्रत ___ळरचि सा च तिथिः किममाकृता / / 63 / / स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमा किमु विधुं ग्रसते स विधुतुदः। . निपतितं वदने कथमन्यथा बलिकरम्भनिभं निजमुज्झति // 64 / / वदनगर्भगतं न निजेच्छया शशिनमुज्झति राहुरसंशयम् / अशित एव गलत्ययमत्ययं सखि ! विना गलनालबिलाध्वना / / 65 / / ऋजुदृशः कथयन्ति पुराविदो " मधुभिदं किल राहुशिरश्छिदम् / / Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थ सर्गः ] -विरहिमूर्धभिदं निगदन्ति न ___ क्व नु शशी यदि तज्जठरानलः / / 66 / / स्मरसखौ रुचिभिः स्मरवैरिणा मखमृगस्य यथा दलितं शिरः / सपदि संदधतुभिषजो दिवः सखि ! तथा तमसोऽपि करोतु क: / / 67 / / नलविमस्तकितस्य रणे रिपोर्मिलति किं न कबन्धगलेन वा। मृतिभिया भृशमुत्पततस्तमोग्रहशिरस्तदसृग्दृढबन्धनम् / / 68 / / . सखि ! जरां परिपृच्छ तमःशिरः सममसो दघतापि कबन्धताम् / मगघराजवपुर्दलयुग्मव त्किमिति न व्यतिसीव्यति केतुना / / 66 / / वद विधुतुदमालि ! मदीरित____ स्त्यजसि किं द्विजराजधिया रिपुम् / किमु दिवं पुनरेति यदीदृशः __ पतित एष निषेव्य हि वारुणीम् / / 70 / / दहप्ति कण्ठमयं खलु तेन किं __ गरुडवविजवासनयोज्झितः / प्रकृतिरस्य विधुतुद ! दाहिका मयि निरागसि का वद विप्रता / / 71 / / सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय यमाय विनिर्मितः / विरहिणीगणचर्वणसाधन विधुरतो द्विजराज इति श्रुतिः / / 72 / / '25 स्मरमुखं हरनेत्रहुताशना ज्ज्वलदिदं चकृषे विधिना विधुः / Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 ] ( काव्यषट्कं बहुविधेन वियोगिवर्धनसा - शशमिषादथ कालिकयाङ्कितः // 73 / / द्विजपतिग्रसनाहितपातक प्रभवकुष्ठसितीकृतविग्रहः / विरहिणोवदनेन्दुजिघत्सया स्फुरति राहुरयं न निशाकरः / / 1 / / इति विधोविविधोक्तिधिगर्हणं व्यवहितस्य वृथेति विमृश्य सा। अतितरां दधती विरहज्वरं हृदयभाजमुपालभत स्मरंम् // 74 / / हृदयमाश्रयसे यदि मामकं ____ ज्वलयसीत्थमनङ्ग ! तदेव किम् / स्वयमपि क्षणदग्धनिजेन्धनः क्व ' भवितासि हताश ! हुताशवत् / / 75 / / पुरभिदा गमितस्त्वमदृश्यतां .. त्रिनयनत्वपरिप्लुतिशङ्कया। . स्मर ! निरैष्यत कस्यचनापि न त्वयि किमक्षिगते नयनस्त्रिभिः / / 76 / / सहचरोऽसि रतेरिति विश्रुति स्त्वयि वसत्यपि मे न रतिः कुतः / अथ न संप्रति संगतिरस्ति वा मनुमृता न भवन्तमियं किल / / 77 / / रतिवियुक्तमनात्मपरज्ञ ! किं स्वमिव मामपि तापितवानसि / . कथमतापभृतस्तव संगमा दितरथा हृदयं मम दह्यते // 78 / / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थः सर्गः ] [665 अनुममार न मार ! कथं नु सा रतिरतिप्रथितापि पतिव्रता / इयदनाथवधूवधपातकी दयितयापि तयासि किमुज्झितः // 79 / / 5 सुगत एव विजित्य जितेन्द्रियस्त्वदुरुकीर्तितनुं यदनाशयत् / तव तनूमवशिष्टवतीं ततः समिति भूतमयीमहरद्धरः / / 8 / / फलमलभ्यत यत्कुसुमैस्त्वया विषमनेत्रमनङ्ग ! विगृह्णता। अहह नीतिरवाप्तभया ततो न. कुसुमैरपि . विग्रहमिच्छति // 81 / / . अपि धयन्नितरामतवत्सुधां त्रिनयनात्कथमापिथ तां दशाम् / भण रतेरधरस्य रसादरादमृतमाप्तघृणः खलु नापिवः / / 82 / / भुवनमोहनजेन किमेनसा ___तव बभूव परेत ! पिशाचता। यदधुना विरहाधिमलीमसा मभिभवन्भ्रमसि स्मर ! मद्विधाम् / / 83 / / वत ददासि न मृत्युमपि स्मर ! - स्खलति तेऽकृपया न धनुः करात् / अथ मृतोऽसि मृतेनं च मुच्यते न खलु मुष्टिरुरीकृतबन्धनः // 84 / / हुगुपहत्यपमृत्युविरूपताः ____ शमयतेऽपरनिर्जरसेविता / अतिशयान्ध्यवपु.क्षतिपाण्डुताः स्मर ! भवन्ति भवन्तमुपासितुः / / 8 / / ' स्मर ! नृशंसतमस्त्वमतो विधिः सुमनसः कृतवान्भवदायुधम् / Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषटकं यदि धनुई ढमाशुगमायसं . तव सृजेत्रिजगत्प्रलयं व्रजेत् // 86 / / स्मररिपोरिव रोपशिखी पुरां - दहतु ते जगतामपि मा त्रयम् / / इति विधिस्त्वदिषून्कुसुमानि किं मधुभिरन्तरसिञ्चदनिर्वृतः / / / 4 / / विधिरनंशमभेद्यमवेक्ष्य ते ____ जनमनः खलुः लक्षमकल्पयत् / अपि स वज्रमदास्यत चेत्तदा त्वदिषुभिर्व्यदलिष्यदसावपि / 88 // अपि विधिः कुसुमानि तवाशुगान् स्मर ! विधाय न निर्वृतिमाप्तवान् / अदित पञ्च हि ते स नियम्य तां स्तदपि तैर्बत जर्जरितं जगत् / 89 // उपहरन्ति न कस्य सुपर्वणः सुमनसः कति पञ्च सुरद्रुमाः / तव तु होनतया पृथगेकिकां घिगियतापि न तेऽङ्ग ! विगर्हणा / / 10 / / कुसुममप्यतिदुर्णयकारि ते किमु वितीर्य धनुर्विघिरग्रहीत् / किमकृतैष तवैकतदास्पदे ___ द्वयमभूदधुना हि नलध्रुवौ // 11 // षड्टतवः कृपया स्वकमेककं कुसुममक्रमनन्दितनन्दनाः / ददति षड्भवते कुरुते भवान् धनुरिवैकमिषूनिव पञ्च तैः // 12 // Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थः सर्गः ) / 667 || 5|| * यदतनुस्त्वमिदं जगते हितं ___ क्व स मुनिस्तव यः सहते हतीः / विशिखमाश्रवणं परिपूर्य चेद विचलद्भुजमुज्झितुमीशिषे // 3 // सह तया स्मर ! भस्म झटित्यभूः पशुपति प्रति यामिषुमग्रहीः / ध्रुवमभूदधुना वितनोः शर स्तव पिकस्वर एव स पञ्चमः // 64 / / .स्मर ! स मदुरितैरफलीकृतो भगवतोऽपि भवदहनश्रमः / सुरहिताय हुतात्मतनुः पुन ननुजनुदिवि . तत्क्षगमापिथ विरहिणो विमुखस्य विधूदये ___ शमनदिक्पवनः स न दक्षिणः / सुमनसो नमयन्नटनौ धनु ___ स्तव तु बाहुरसौ यदि दक्षिणः // 96 / / किमु भवन्तममापतिरेककं मदमुदान्धमयोगिजनान्तकम् / यदजयत्तत एव न गीयते स भगवान्मदनान्धकमृत्युजित् // 97 / / त्वमिव कोऽपि परापकृतौ कृती न ददृशे न च मन्मथ ! शुश्रुवे / स्वमदहो दहनाज्ज्वलतात्मना . ज्वलयितुं परिरभ्य जगन्ति यः / / 8 / / 25 त्वमुचितं नयनाचिषि शंभुना भुवनशांतिकहोमहविः कृतः / Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 ] [ काव्यषटकं तव वयस्यमपास्य मधू मधु हतवता हरिणा बत किं कृतम् / / 66 / / इति कियद्वचसैव भृशं प्रिया धरपिपासु तदाननमाशु तत् / / अजनि पांशुलमप्रियवाग्ज्व लन्मदनशोषणबाणहतेरिव // 100 / / प्रियसखीनिवहेन सहाथ सा व्यरचयद्गिरमर्धसमस्यया / हृदयमर्मणि मन्मथसायकैः क्षततमा बहु भाषितुमक्षमा // 101 / / अकरुणादव सूनश रादसून् . सहजयापदि धीरतयात्मनः / असव एव ममाद्य विरोधिनः | कथमरीन्सखि ! रक्षितुमात्थ माम् / / 102 / / हितगिरं न शृणोषि किमाश्रवे! | प्रसभमप्यव जीवितमात्मनः। सखि ! हिता यदि मे भवसीदृशी मदरिमिच्छसि या मम जीवितम् / / 103 / / अमृतदीधितिरेष विदर्भजे ! भजसि तापममुष्य किमंशुभिः / यदि भवन्ति मृताः सखि ! चन्द्रिकाः शशभृतः क्व तदा परितप्यते / / 104 / / ब्रज घृति त्यज भीतिमहेतुका मयमचण्डमरीचिरुदञ्चति / . ज्वलयति स्फुटमातपमुर्मुरै रनुभवं वचसा सखि ! लुम्पसि / / 105 / / 15 25 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थः सर्गः ] [ 666 अयि ! शपे हृदयाय तवैव तद्यदि विधोर्न रुचेरसि गोचरः / रुचिफलं सखि ! दृश्यत एव तज्ज्वलयति त्वचमूल्ललयत्यसून् / / 106 / / विधुविरोधितिथेरभिधायिनी ननु न किं पुनरिच्छसि कोकिलाम् / सखि ! किमर्थगवेषणया गिरं किरति सेयमनर्थमयीं मयि // 107 / / हृदय एव तवास्ति स वल्लभ.. स्तदपि किं दमयन्ति ! विषीदसि / हृदि परं न बहिः खलु वर्तते सखि ! यतस्तत एव विषद्यते / / 108 / / स्फुटति हारमणौ मदनोष्मणा हृदयमप्यनलंकृतमद्य ते। सखि ! हतास्मि तदा यदि हृद्यपि . प्रियतमः स मम व्यवधापितः // 109 / / इदमुदीर्य-तदैव मुमूर्च्छ सा मनसि मूच्छितमन्मथपावका / क्व सहतामवलम्बलवच्छिदा- मनुपपत्तिमतीमतिदुःखिता // 110 / / अधित कापि मुखे सलिलं सखी ___प्यधित कापि सरोजदलैः स्तनौ / व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं . न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ / / 111 / / उपचचार चिरं मृदुशीतलै जलजनालमृणालजलादिभिः / 25. Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 ] [ काव्यषटकं प्रियसखीनिवहः स तथा क्रमा- . ___ दियमवाप यथा लघु चेतनाम् // 112 / / अथ कले! कलय श्वसिति स्फुटं चलति पक्ष्म चले ! परिभावय / अधरकम्पनमुन्नय मेनके ! किमपि जल्पति कल्पलते ! शृणु / / 113 / / रचय चारुमति ! स्तनयोवृति कलय केशिनि ! कैश्यमसंयतम् / अवगहाण तरङ्गिणि ! नेत्रयो जलझराविति शुश्रविरे गिरः // 114 / / कलकलः स तदा लिजनानना दुदलसद्विपुलस्त्वरितेरितैः / यमधिगम्य सुतालयमीयिवान् धृतदरः स विदर्भपुरंदरः // 115 / / 15 कन्यान्तःपुरबाधनाय यदधीकारान्न दोषा नृपं द्वौ मन्त्रिप्रवरश्च तुल्यमगदंकारश्च तावचतुः / देवाकर्णय सुश्रुतेन चरकस्योक्तेन जानेऽखिलं स्यादस्या नलदं विना न दलने तापस्य कोऽपि क्षमः / 116 / ताभ्यामभूयुगपदप्यभिधीयमानं भेदव्यपाकृति मिथः प्रतिघातमेव / श्रोत्रे तु तस्य पपतुर्नपतेर्न किंचिद्भैम्यामनिष्टशतशङ्कितयाकुलस्य ||117 // द्रुतविगमितविप्रयोगचिह्नामपि तनयां नृपतिः पदप्रणम्राम् / 25 अकलयदसमाशुगाधिमग्नां झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः / / 118 / / Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्थः सर्गः ] [ 671 व्यंतरदथ पिताशिषं सुतायै नतशिरसे सहसोन्नमय्य मौलिम् / दयितमभिमतं स्वयंवरे ! त्वं गुणमयमाप्नुहि वासरैः किद्भिः / / 116 / / तदनु स तनुजासखीरवादी त्तहिन ऋतौ गत एव हीदृशीनाम् / कुसुममपि शरायते शरीरे तदुचितमाचरतोपचारमस्याः // 120 // कतिपयदिवसैर्वयस्यया वः स्वयमभिलष्य वरिष्यते वरीयान् / ऋशिमशमनयानया तदाप्तुं * रुचिरुचिताथ भवद्विधाविधाभिः / / 12 / / एवं यद्वदता नृपेण तनया नापृच्छि लज्जास्पदं यन्मोहः स्मरभूरकल्पि वपुषः पाण्डुत्वतापादिभिः / 15 यच्चाशी:कपटादवादि सदृशी स्यात्तत्र या सान्त्वना तन्मत्वालिजनो मनोब्धिमतनोदानन्दमन्दाक्षयोः / / 122 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं / श्रीहीरः सुषवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तुर्यः स्थैर्य विचारणप्रकरणभ्रातर्ययं तन्महा२०. काव्येऽत्र व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 123 / / / / कविहर्ष विरचिते नैषधीयप्रकाशे . चतुर्थः सर्गः समाप्तः / / 4 / / Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672 ] [ काव्यषट्कं // 5 // पञ्चमः सर्गः॥ यावदागमयतेऽथ नरेन्द्रान्स स्वयवरमहाय महीन्द्रः। तावदेव ऋषिरिन्द्रदिक्षुर्नारदस्त्रिदशधाम जगाम // 1 / / नात्र चित्रमनु तं प्रययौ यत्पर्वतः स खलु तस्य सपक्षः / 5 नारदस्तु जगतो गुरुरुच्चैविस्मयाय गगनं विललधे / / 2 / / गच्छता पथि विनैव विमानं व्योम तेन मुनिना विजगाहे / साधने हि नियमोऽन्यजनानां योगिनां तु तपसाखिलसिद्धिः // 3 / / 10 खण्डितेन्द्रभवनाद्यभिमानॉल्लङ्घते स्म मुनिरेष विमानान् / अथितोऽप्यतिथितामनुमेने नैव तत्पतिभिरङिघ्रविन नैः / / 4 / / तस्य तापनभिया तपनः स्वं तावदेवं समकोचयचिः / यावदेव दिवसेन शशीव द्रागतप्यत न तन्महसैव / / 5 / / पर्यभूद्दिनमणिर्द्विजराजं यत्करैरहह तेन तदा तम् / 15 पर्यभूत्खलु करैद्विजराजः कर्म कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते / / 6 / / विष्टरं तटकुशालिभिरद्भिः पाद्यमय॑मथ कच्छरुहाभिः / पद्मवृन्दमधुभिर्मधुपर्क स्वर्गसिन्धुरदितातिथयेऽस्मै / / 7 / / स व्यतीत्य वियदन्तरगाधं नाकनायकनिकेतनमाप / संप्रतीर्य भवसिन्धुमनादि ब्रह्म शर्मभरचारु यतीव / / 8 / / अर्चनाभिरुचितोच्चतराभिश्चारु तं सदकृतातिथिमिन्द्रः / यावदर्हकरणं किल साधोः प्रत्यवायधुतये न गुणाय / / 6 / / नामधेयसमतासखमद्रेरद्रिभिन्मुनिमथाद्रियत द्राक् / पर्वतोऽपि लभतां कथमर्चा न द्विजः स विबुधप्रभुलम्भी।।१०।। तद्भुजादतिवितीर्णसपर्या२५ द्दय द्रुमानपि विवेद मुनीन्द्रः / Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 673 स्वःसहस्थितिसुशिक्षितया ___ तान्दानपारमितयैव वदान्यान् // 11 // मुद्रितान्यजनसंकथनः सन्नारदं बलरिपुः समवादीत् / आकरः स्वपरभूरिकथानां प्रायशो हि सुहृदोः सहवासः / / 12 / / 5 तं कथानुकथनप्रसृतायां दूरमालपनकौतुकितायाम् / भूभृतां चिरमनागतिहेतुं ज्ञातुमिच्छूरवदच्छतमन्युः // 13 // प्रागिव प्रसुवते नपवंशाः किनु संप्रति न वीरकरीरान् / ये परप्रहरणैः परिणामे विक्षताः क्षितितले निपतन्ति / / 14 / / पाथिवं हि निजमाजिषु वीरा दूरमूर्ध्वगमनस्य विरोधि / 10 गौरवाद्वपुरपास्य भजन्ते मत्कृतामतिथिगौरवऋद्धिम् / / 15 / / साभिशापमिव नातिथयस्ते मां यदद्य भगवन्नुपयन्ति / तेन न श्रियमिमां बह मन्ये स्वोदरैकभूतिकार्यकदर्याम् / / 16 / / पूर्वपुण्यविभवव्ययलब्धाः श्रीभरा विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिविधिदृष्टः / / 17 / / तद्विमृज्य मम संशयशिल्पि स्फीतमत्र विषये सहसाघम् / भूयतां भगवतः श्रुतिसारैरद्य वाग्भिरघमर्षणऋग्भिः // 18 / / इत्युदीर्य मघवा विनधि वर्धयन्नवहितत्वभरेण / चक्षुषां दशशतीमनिमेषां तस्थिवान्मुनिमुखे प्रणिधाय / / 19 / / वीक्ष्य तस्य विनये परिपाकं पाकशासनपदं स्पृशतोऽपि / 20 नारदः प्रमदगद्गदयोक्त्या विस्मितः स्मितपुरःसरमूचे // 20 // भिक्षिता शतमखी सुकृतं यत्तत्परिश्रमविदः स्वविभूतौ / तत्फले यदि परं तव हेला क्लेशलब्धमधिकादरदं तु / / 21 / / संपदस्तव गिरामपि दूरा यन्न नाम विनयं विनयन्ते / श्रद्दधाति क इवेह न साक्षादाह चेदनुभवः परमाप्तः / / 22 / / 25 श्रीभरानतिथिसात्करवाणि स्वोपभोगपरता न हितेति / / पश्यतो बहिरिवान्तरपीयं दृष्टि सृष्टिरधिका तव कापि / / 23 / / Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 ] [ काव्यषट्कं प्राः स्वभावमधुरैरनुभाव स्तावकरतितरां तरलाः स्मः / द्यां.प्रशाधि गलितावधिकालं . साधु साधु विजयस्व बिडोज: ! // 24 / / 5 संख्यविक्षततनुस्रवदस्रक्षालिताखिलनिजाघलघूनाम् / यत्त्विहानुपगमः शणु राज्ञां तज्जगद्युवमुदं तमुदन्तम् / / 25 / / सा भुवः किमपि रत्नमनघ भूषणं जयति तत्र कुमारो। भीमभूपतनया दमयन्ती नाम या मदनशस्त्रम मोघम् / / 26 / / संप्रति प्रतिमुहूर्तमपूर्वा / 10 कापि यौवनजवेन भवन्ती। आशिखं सुकृतसारभृते सा क्वापि यूनि भजते किल भावम् / / 27 / / कथ्यते न कतमः स इति त्वं / ___ मां विवक्षुरसि किं चलदोष्ठः / अर्धवर्त्मनि रुणसि न पृच्छां निर्गमेण न परिश्रमयैनाम् // 28 / / यत्पथावधिरणुः परमः सा योगिधीरपि न पश्यति यस्मात् / . बालया निजमनःपरमाणौ ह्रीदरीशयहरीकृतमेनम् / / 26 / / सा शरस्य कुसुमस्य शरव्यं सूचिता विरहवाचिभिरङ्गैः / 20 तातचित्तमपि धातुरघत्त स्वस्वयंवरमहाय सहायम् / / 30 / / मन्मथाय यदथादित राज्ञां हूतिदूत्यविधये विधिराज्ञाम् / तेन तत्परवशाः पृथिवीशाः संगरं गरमिवाकलयन्ति / / 31 / / येषु येषु सरसा दमयन्ती भूषणेषु यदि वापि गुणेषु / तत्र तत्र कलया पि विशेषो यः स हि क्षितिभृतां पुरुषार्थः / / 32 / / Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 675 शैशवव्ययदिनावधि तस्या यौवनोदयिनि राजसमाजे / आदरादहरहः कुसुमेषोरुल्ललास मृगयाभिनिवेशः // 33 // इत्यमी वसुमतीकमितारः सादरास्त्वदतिथोभवितुं न / / भीमभूसुरभुवोरभिलाषे दूरमन्तरमहो नृपतीनाम् // 34 / / 5 तेन जाग्रदधृतिदिवमागां संख्यसौख्यमनुसतु मनु त्वाम् / यन्मृधं क्षितिभृतां न विलोके तन्निमग्नमनसां भुवि लोके / / 3 / / वेद यद्यपि न कोऽपि भवन्तं हन्त हन्त्रकरुणं विरुणद्धि / पृच्छयसे तदपि येन विवेकप्रोञ्छनाय विषये रससेकः // 36 / / एवमुक्तवति देवऋषीन्द्रे द्रागभेदि मघवाननमुद्रा / 10 उत्तरोत्तरशुभोहि विभूनां कोऽपि मञ्जुलतमः क्रमवादः / / 37 / / कानुजे मम निजे दनुजारी ___ जाग्रति स्वशरणे रणचर्चा / यद्भुजाङ्कमुधाय जयाङ्क शर्मणा स्वपिमि वीतविशङ्कः // 38 / / 15 विश्वरूपकलनादुपपन्नं तस्य जैमिनिमुनित्वमुदीये / _ विग्रहं मखभुजामसहिष्णुर्व्यर्थतां मदनि स निनाय / / 3 / / ईदृशानि मुनये विनयाब्धि स्तस्थिवान् स वचनान्युपहृत्य / प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी वाङ्नारदस्य निरियाय निरोजाः // 40 // स्वारसातलभवाहवशङ्की निर्वृणोमि न वसन्वसुमत्याम् / द्यां गतस्य हृदि मे दुरुदर्कः क्षमातलद्वयभटाजिवितर्कः / / 41 / / वीक्षितस्त्वमसि मामथ गन्तुं तन्मनुष्यजगतेऽनुमनुष्व / किं भुवः परिवृढा न विवोढुं तत्र तामुपगता विवदन्ते / / 42 / / 25 इत्युदोर्य स ययौ मुनिरुवी स्वर्पति प्रतिनिवर्त्य बलेन / वारितोऽप्यनुजगाम सयत्नं तं कियन्त्यपि पदान्यपराणि / 43 / Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 ] | काव्यषट्कं . पर्वतेन परिपीय गभीरं नारदीयमुदितं प्रतिनेदे। .. स्वस्य कश्चिदपि पर्वतपक्षच्छेदिनि स्वयमदर्शि न पक्षः / / 44 / / पाणये बलरिपोरथ भैमीशीतकोमलकरग्रहमहम् / भेषजं चिरचिताशनिवासव्यापदामुपदिदेश रतीशः / / 5 / / ‘नाकलोकभिषजोः सुषमा या पुष्पचापमपि चुम्बति सैव / वेद्मि तादृगभिषज्यदसौ तदारसंक्रमितवैद्यकविद्य: / / 46 / / मानुषीमनुसरत्यथ पत्यौ खर्वभावमवलम्ब्य मघोनी / खण्डितं निज मसूचयदुच्चेर्मानमाननसरोरुहनत्या // 47 / / यो मघोनि दिवमुच्चरमाणे रम्भया मलिनिमालमलम्भि।। वर्ण एव स खलूज्ज्वलमस्याः शान्तमान्तरमभाषत भङ्गया // 48 / / जीवितेन कृतमप्सरसां तत्प्राणमुक्तिरिह युक्तिमती नः / इत्यनक्षरमवाचि घृताच्या दीर्घनिःश्वसितनिर्गमितेन / / 46 / / 15 साधु नः पतनमेवमितः स्यादित्यभण्यत तिलोत्तमयापि / चामरस्य पतनेन कराब्जात्तद्विलोलनचलद्भुजनालात् / / 50 / / मेनका मनसि तापमुदीतं यत्पिधित्सुरकरोदवहित्थाम् / तत्स्फुटं निजहृदः पुटपाके पङ्कलिप्तिमसृजद्वहिरुत्थाम् / / 51 / / उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा तत्क्षणस्तिमितभावनिभेन। 20 शक्रसौहृदसमापनसीमस्तम्भकार्यमपुषद्वपुषैव // 52 / / कापि कामपि बभाण बुभुत्सु शृण्वति त्रिदशभर्तरि किंचित् / एष कश्यपसुतामभिगन्ता पश्य कश्यपसुतः शतमन्युः // 53 / / आलिमात्मसुभगत्वसगर्वा कापि शण्वति मघोनि बभाषे। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 677 वीक्षणेऽपि सघृणासि नृणां किं यासि न त्वमपि सार्थगुणेन // 54 / / अन्वयुर्घ तिपयःपितृनाथास्तं मुदाथ हरितां कमितारः / वर्त्म कर्षतु पुरः परमेकस्तद्गतानुगतिको न महाघः / / 55 / / प्रेषिताः पृथगथो दमयन्त्यै ___ चित्तचौर्यचतुरा निजदूत्यः / तद्गुरुं प्रति च तैरुपहारा: संख्यसौख्यकपटेन निगूढाः चित्रमत्र विबुधैरपि यत्तैः ___ स्वविहाय बत भूरनुसा। . द्यौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चलति यत्र हि चित्तम् / / 57 / / शोघ्रलाकृतपथैरथ वाहर्लम्भिता भुवममी सुरसाराः / वक्रितोन्नमितकंधरबन्धाः शुश्रुवुद्धनितमध्वनि दूरम् / / 58 / / 15 किं घनस्य जलधेरथवैवं नैव संशयितुमप्यलभन्त / स्यन्दनं परमदूरमपश्यनिःस्वनश्रुतिसहोपनतं ते / / 5 / / सूतविश्रमदकौतुकिभावं भावबोधचतुरं तुरगाणाम् / / तत्र नेत्रजनुष: फल मेते नैषध बुबुधिरे. विबुधेन्द्राः / / 6 / / __वीक्ष्य तस्य वरुणस्तरुणत्वं / यद्वभार निबिडं जडभूयम् / . नौचिती जलपतेः किमु सास्य - प्राज्यविस्मयरसस्तिमितस्य // 61 / / रूपमस्य विनिरूप्य तथातिम्लानिमाप रविवंशवतंसः / कीर्त्यते यदधुनापि स देवः काल एव सकलेन जनेन // 62 / / 25 यं बभार दहनः खलु तापं रूपधेयभरमस्य विमृश्य / तत्र भूदनलता जनिकी मा तदप्यनलतैव तु हेतुः / / 63 / / Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678 ] [ काव्यषट्कं कामनीयकमधःकृतकामं काममक्षिभिरवेक्ष्य तदीयम् / कौशिकः स्वमखिलं परिपश्यन्म न्यते स्म खलु कौशिकमेव . // 4 // 5 रामणीयकगुणाद्वयवादं मूर्तमुत्थितममुं परिभाव्य / विस्मयाय हृदयानि वितेरुस्तेन तेषु न सुराः प्रबभूवुः / / 65 / / प्रेयरूपकविशेषनिवेशैः संवदद्भिरमराः श्रुतपूर्वैः / / एष एव स नलः किमितीदं मन्दमन्दमितरेतरमूचुः // 66 / / तेषु तद्विधवधूवरणार्ह भूषणं स समयः स रथाध्वा / 10 तस्य कुण्डिनपुरं प्रतिसर्पन भूपतेर्व्यवसितानि शशंसुः / / 67 / / धर्मराजसलिलेशहुताशैः प्राणतां श्रितममुं जगतस्तैः / प्राप्य हृष्टचलविस्तृततापैश्चेतसा निभृतमेतदचिन्ति / / 68 / / नैव नः प्रियतमोभयथासौ यद्यमुन वृणुते वृणुते वा / एकतो हि धिगमूमगुणज्ञामन्यतः कथमदःप्रतिलम्भः // 69 / / 15 मां वरिष्यति तदा यदि मत्तो वेद नेयमियदस्य महत्त्वम् / ईदृशी च कथमाकलयित्री मद्विशेषमपरन्नृपत्री // 70 / / नैषधे बत वृते दमयन्त्या वीडितो नहि बहिर्भवितास्मि / स्वां गृहेऽपि वनितां कथमास्यं ह्रीनिमीलि खलु दर्शयिताहे // 71 / / इत्यवेत्य मनसात्मविधेयं किंचन त्रिविबुधी बुबुधे न। नाकनायकमपास्य तमेकं ___ सा स्म पश्यति परस्परमास्यम् // 72 / / 25 कि विधेयमधुनेति विमुग्धं स्वानुगाननमवेक्ष्य ऋभुक्षाः / शंसति स्म कपटे पटुरुच्चैर्वञ्चनं समभिलष्य नलस्य / / 73 / / Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 676 सर्वतः कुशलवानसि कञ्चित्त्वं स नैषध इति प्रतिभा नः / स्वासनार्धसुहृदस्त्वयि रेखां वीरसेननृपतेरिव विद्मः / / 74 / / क्व प्रयास्यसि नलेत्यलमृक्त्वा ___ यात्रयात्र शुभयाजनि यन्नः / तत्तयैव फलसत्वरया त्वं नावनोऽर्धमिदमागमितः किम् // 75 / / एष नैषध ! स दण्डभृदेष ___ ज्वालजालजटिलः स हुताशः / यादसां स पतिरेष च शेषं . शासितारमधिगच्छ सुराणाम् 76 / / अथिनो वयममी समुपेम स्त्वां नलेति फलितार्थमवेहि / अध्वनः क्षणमंपास्य च खेदं कुर्महे भवति कार्यनिवेदम् // 77 / / 15 ईदृशीं गिरमुदीर्य बिडौजा जोषमास न विशिप्य बभाषे।। नात्र चित्रमभिधाकुशलत्वे शैशवावधि गुरुगुरुरस्य / / 78 / / अर्थिनामहृषिताखिललोमा स्वं नृपः स्फुटकदम्बकदम्बम् / अर्चनार्थमिव तच्चरणानां स प्रणामकरणादुपनिन्ये / / 7 / / दुर्लभं दिगधिपैः किममीभिस्तादृशं कथमहो मदधीनम् / ईदृशं मनसिकृत्य विरोध नैषधेन समशायि चिराय / / 8 / / जीवितावधि वनीयकमात्रैर्याच्यमानमखिलैः सुलभं यत् / . अथिने परिवढाय सुराणां किं वितीयं परितुष्यतु चेतः / / 85 / / भीमजा च हृदि मे परमास्ते ‘जीवितादपि धनादपि गुर्वी। 25 . ' न स्वमेव मम सार्हति यस्याः षोडशीमपि कलां किल नोर्वी // 82 / / // 77 / / Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 ] [ काव्यषट्कं मीयतां कथमभीप्सितमेषां दीयतां कथमयाचितमेव / तं धिगस्तु कलयन्नपि वाञ्छामर्थिवागवसरं सहते यः / / 83 / / __प्रापितेन चटुकाकुविडम्बं लम्भितेन बहुयाचनलज्जाम् / आर्थिना यदघमर्जति दाता तन्न लुम्पति विलम्ब्य ददानः // 84 / / यत्प्रदेयमुपनीय वदान्यै र्दीयते सलिलमर्थिजनाय / सार्थनोक्तिविफलत्वविशङ्का वासमूछेदपमृत्युचिकित्सा // 85 / / अथिने न तृणवद्धनमात्रं किं तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवज्जलदापी दव्यदानविधिरुक्तिविदग्धः / / 86 / / पङ्कसंकरविहितमहं न श्रियः कमलमाश्रयणाय / 15 अणिपाणिकमलं विमलं तद्वास वेश्म विदधीत सुधीस्तत् // 87 / / याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य / / तेन भूमिरतिभारवतीयं न द्रुमैन गिरिभिर्न समुद्रः / / 8 / / मा धनानि कृपणः खलु जीवंस्तृष्णयार्पयतु जातु परस्मै / 20 तत्र चैष कुरुते मम चित्रं यत्तु नार्पयति तानि मृतोऽपि / / 86 / / माममोभिरिह याचितवद्भि तृजातमवमत्य जगत्याम् / . यदृशो मयि निवेक्षितमेत ___निष्क्रयोऽस्तु कतमस्तु तदीयः // 10 // 25 लोक एष परलोकमुपेता हा विहाय निधने धनमेकः / इत्यम खलु तदस्य निनीषयर्थिबन्धुरुदयद्दयचित्तः / / 6 / / पाट Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 681 दानपात्रमधमणमिहैकग्राहि कोटिगुणितं दिवि दायि / साधुरेति सुकृतैर्यदि कतुं पारलौकिककुसीदमसीदत् / / 12 / / एवमादि स विचिन्त्य मुहूर्त तानवोचत पतिनिषधानाम् / / अथिदुर्लभमवाप्य सहर्षान् याच्यमानमुखमुल्लसितथि / / 3 / / नास्ति जन्यजनकव्यतिभेदः सत्यमन्नजनितो जनदेहः / वीक्ष्य वः खलु तनूममृतादं दृङ्निमज्जनमुपैति सुधायाम् / / 64 / / मत्तपः क्व नु तनु क्व फलं वा यूयमीक्षणपथं व्रजथेति / ईदृशं परिणमन्ति पुनर्नः पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति // 65 / / प्रत्यतिष्ठिपदिलां खलु देवी कर्म सर्वसहनव्रतजन्म / 10 यूयमप्यहह पूजनमस्या यनिजैः सृजथ पादपयोजैः / / 16 / / जीवितावधि किमप्यधिक वा यन्मनीषितमितो नरडिम्भात् / तेन वश्च रणमर्चतु सोऽयं ब्रूत वस्तु पुनरंस्तु किमीहक् // 67 / / 15 एवमुक्तवति वीतविशके वीरसेनतनये विनयेन / वक्रभावविषमा मथ शक्रः कार्यकैतवगुरुगिरमूचे // 68 / / पाणिपीडनमहं दमयन्त्याः कामयेमहि मही मिहिकांशो! / दूत्यमत्र कुरु नः स्मरभीति . निर्जितस्मर ! चिरस्य निरस्य / / 6 / / आसते शतमधिक्षिति भूपा... स्तोयराशिरसि ते खलु कूपाः / किं ग्रहा दिवि न जाग्रति ते ते भास्करस्य कतमस्तुलयास्ते // 10 // 25 विश्वदृश्वनयना वयमेव त्वद्गुणाम्बुधिमगाधमवेमः / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषटकं त्वामिहैवमनिवेश्य रहस्ये निर्वृति नहि लमेमहि सर्वे // 101 / / शुद्धवंशजनितोऽपि गुणस्य स्थानतामनुभवन्नपि शक्रः / क्षिपरेनमृजुमाशु सपक्षं सायकं धनुरिवाजनि वक्र: / / 102 / / 5 तेन तेन वचसैव मघोनः स स्म वेद कपटं पटुरुच्चैः / आचरत्तदुचितामथ वाणी मार्जवं हि कुटिलेष न नीतिः / / 103 / / सेयमुच्चतरता दुरिताना- . मन्यजन्मनि मयैव कृतानाम् / युष्मदीयमपि या महिमानं जेतुमिच्छति कथापथपारम् // 104 / / वित्थ चित्तमखिलस्य न कुर्या धुर्यकार्यपरिपन्थि तु मौनम् / ह्रीगिरास्तु वरमस्तु पुनर्मा स्वीकृतैव परवागपरास्ता / / 10 / / यन्मतौ विमलदर्पणिकायां संमुखस्थमखिलं खलु तत्त्वम् / तेऽपि किं वितरथेशमाज्ञां या न यस्य सदृशी वितरीतुम् // 106 / / यामि यामिह वरीतुमहो तद् दूततां नु करवाणि कथं वः / ईदृशां न महतां बत जाता ___ वञ्चने मम तृणस्य घृणापि // 107 / / उद्धृमामि विरहान्मुहुरस्या मोहमेमि च मुहूर्तमहं यः / ब्रूत वः प्रभवितास्मि रहस्यं रक्षितुं स कथमीहगवस्थः / / 108 / / 25 यां मनोरथमयीं हृदि कृत्वा .. यः श्वसिम्यथ कथं स तदने। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ] [ 683 भावगुप्तिमवलम्बितुमीशे - दुर्जया हि विषया विदुषानि // 106 / / यामिकाननुपमृद्य च माइक् तां निरीक्षितुमपि क्षमते कः / / रक्षिलक्षजयचण्डचरित्रे ___ पुंसि विश्वसिति कुत्र कुमारी // 110 / / आदधीचि किल दातृकृतार्घ ___प्राणमात्रपणसीम यशो यत् / प्राददे कथमहं प्रियया तत् . 10 प्राणतः शतगुणेन पणेन // 111 / / अर्थना मयि भवद्भिरिवास्यै कर्तुमर्हति मयापि भवत्सु / भीमजार्थपरयाचनचाटी यूयमेव गुरवः करणीयाः // 112 / / अथिताः प्रथमतो दमयन्ती यूयमन्वहमुपास्य मया यत् / ह्रीन चेद्वयतियत्तामपि तद्वः / सा ममापि सुतरां न तदस्तु // 113 / / कुण्डिनेन्द्रसुतया किल पूर्व ___ मां वरीतुमुररीकृतमास्ते / वोडमेष्यति परं मयि दृष्टे स्वीकरिष्यति न सा खलु युष्मान् // 114 / / तत्प्रसीदत विधत्त न खेदं दूत्यमत्यसदृशं हि ममेदम् / हास्यतैव सुलभा न तु साध्यं तद्विधित्सुभिरनौपयिकेन // 115 // __ईदृशानि गदितानि तदानी माकलय्य स नलस्य बलारिः / Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684 ] [ काव्यषट्कं शंसति स्म किमपि स्मयमानः ___ स्वानुगाननविलोकनलोल: / / 116 / / नाभ्यधायि नृपते ! भवतेदं रोहिणीरमणवंशभुवैव। लज्जते न रसना तव वाम्या दर्थिषु स्वयमुरीकृतकाम्या // 117 / / भङगुरं न वितथं न कथं वा जीवलोकमवलोकयसीमम् / येन धर्मयशसी परिहातुं धीरहो चलति धीर ! तवापि // 11 / / कः कुलेऽजनि जगन्मुकुटे वः प्रार्थकेप्सितमपूरि न येन / इन्दुरादिरजनिष्ट कलङ्की' कष्टमत्र स भवानपि मा भूत् / / 116 / / यापदृष्टिरपि या मुखमुद्रा याचमानमनु या च न तुष्टि: / त्वादशस्य सकलः स कलङ्कः ___शीतभासि शशक: परमङ्कः // 120 / / नाक्षराणि पठता किमपाठि प्रस्मृतः किमथवा पठितोऽपि / 20 इत्थमथिचयसंशयदोलाखेलनं खलु चकार नकारः / / 121 / / अब्रवीत्तमनलः क्व नलेदं लब्धमुज्झसि यशः शशिकल्पम् / कल्पवृक्षपतिमर्थिनमित्थं नाप कोऽपि शतमन्युमिहान्यः / / 122 / / 25 न व्यहन्यत कदापि मुदं यः स्वःसदामुपनयन्नभिलाषः / Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चमः सर्गः ) [ 685 तत्पदे त्वदभिषेककृतां नः स त्यजत्वसमतामदमद्य / / 123 / / अब्रवीदथ यमस्तमहृष्टं वीरसेन कुलदीप ! तमस्त्वाम् / यत्किमप्यभिबुभूषति तत्कि चन्द्रवंशवसतेः सदृशं ते // 124 / / रोहण: किमपि यः कठिनाना ___ कामधेनुरपि या पशुरेव / नैनयोरपि वृथाऽभवदर्थी . हा विधित्सुरसि वत्स !- किमेतत् / / 125 / / याचितश्चिरयति क्व नु धीरः प्राणने क्षणमपि प्रतिभूः कः / शंसति द्विनयनी दृढनिद्रां / द्राङ्निमेषमिषघूर्णनपूर्णा / / 126 / / अभ्रपुष्पमपि दित्सति शीतं साथिना विमुखता यदभाजि / स्तोककस्य खलु चञ्चुपुटेन __म्लानिरुल्लसति तद्धनसधे / / 127 / / ऊचिवानुचितमक्षरमेनं पाशपाणिरपि पाणिमुदस्य / कीतिरेव भावतां प्रियदारा दाननीरझरमौक्तिकहारा . / / 128 / / चर्म वर्म किल यस्य नभेद्यं यस्य वज्रमयमस्थि च तो चेत् / 25 . ' स्थायिनाविह न कर्णदधीची तन्न धर्ममवधीरय धीर ! // 129 / / Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 ] [ काव्यषट्कं अद्य यावदपि येन निबद्धौ न प्रभू विचलितुं बलिविन्ध्यौ। प्रास्थितावितथतागुणपाश स्त्वादशा स विदुषा दुरपासः // 130 / / प्रेयसी जितसुधांशुमुखश्री र्या न मुञ्चति दिगन्तगतापि / भङ्गिसङ्गमकुरङ्गगर्थे . क: कदर्थयति तामपि कीर्तिम् / / 131 / / यान्वरं प्रति परेऽर्थयितार स्तेऽपि यं वयमहो सं पुनस्त्वम् / नैव नः खलु मनोरथमात्रं शूर ! पूरय दिशोऽपि यशोभिः // 132 / / अथितां त्वयि गतेषु सुरेषु म्लानदानजनिजोरुयशःश्रीः / अद्य पाण्डु गगनं सुरशाखी केवलेन कुसुमेन विधत्ताम् // 133 / / प्रवसते भरतार्जुनवैन्यव स्मृतिधृतोऽपि नल ! त्वमभीष्टदः / स्वगमनाफलतां यदि शङ्कसे तदफलं निखिल खलु मङ्गलम् // 134 / / इष्टं नः प्रति ते प्रतिश्रुतिरभूद्याद्य स्वराह्लादिनी धर्मार्था सृज तां श्रुतिप्रतिभटीकृत्यान्विताख्यापदाम् / त्वत्कीर्तिः पुनती पुनस्त्रिभुवनं शुभ्राद्वयादेशनाद् द्रव्याणां शितिपीतलोहितहरिनामान्वयं लुम्पतु // 135 / / 25 यं प्रासूत सहस्रपादुदभवत्पादेन खञ्जः कथं स च्छायातनयः सुतः किल पितुः सादृश्यमन्विच्छति / 20 Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ) [ 687 एतस्योत्तरमद्य नः समजनि त्वत्तेजसां लङ्घने साहस्र रपि पङ्गुर ज्रिभिरभिव्यक्तीभवन्भानुमान् / / 136 / / इत्याकर्ण्य क्षितोशस्त्रिदशपरिषदस्ता गिरश्चाटुगर्भा वैदर्भीकामुकोऽपि प्रसभविनिहितं दूत्यभारं बभार / 5 अङ्गीकारं गतेऽस्मिन्नमरपरिवृढः संभृतानन्दमूचे भूयादन्तधिसिद्धेरनुविहितभवञ्चित्तता यत्र तत्र / / 137 / / श्रीहर्ष कविराज राजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य श्री विजय प्रशस्तिरचनातातस्य नव्ये महा१० काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्पञ्चमः / / 138 / / / / इति महाकवि श्रीहर्षविरचित्त नैषधीयप्रकाशे पञ्चमः सर्गः समाप्तः / / 5 / / // 6 // षष्ठः सर्गः॥ दूत्याय दैत्यारिपतेः प्रवृत्तो द्विषां निषेद्धा निषधप्रधानम् / 15 स भीमभूमीपतिराजधानी लक्षीचकाराथ रथस्यदस्य / / 1 / / भैम्या समं नाजगणद्वियोगं स दूतधर्म स्थिरघीरधीशः / पयोधिपाने मुनिरन्तरायं दुर्वारमप्यौर्वमिवौर्वशेयः // 2 / / नलप्रणालीमिलदम्बुजाक्षीसंवादपीयूषपिपासवस्ते / तदध्ववीक्षार्थमिवानिमेषा देशस्य तस्याभरणीबभूवुः / / 3 / / तां कुण्डिनाख्यापदमात्रगुप्तामिन्द्रस्य भूमेरमरावतीं सः / मनोरथः सिद्धिमिव क्षणेन रथस्तदीयः पुरमाससाद // 4 // भैमीपदस्पर्शकृतार्थरथ्या सेयं पुरीत्युत्कलिकाकुलस्ताम् / 20 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688 ] - [ काव्यषट्कं नपो निपीय क्षणमोक्षणाभ्यां - भृशं निशश्वास सुरैः क्षताशः // 5 // स्विद्यत्प्रमोदाश्रुलवेन वाम रोमाञ्चभृत्पक्ष्मभिरस्य चक्षुः / अन्यत्पुनः कम्प्रमपि स्फुरत्त्वा __ तस्याः पुरः प्राप नवोपभोगम् // 6 / / रथादसौ सारथिना सनाथा द्राजावतीर्याथ पुरं विवेश / निर्गत्य बिम्बादिव भानवीया . सौधाकरं मण्डलमंशुसङ्घः // 7 / / चित्रं तदा कुण्डिनवेशिनः सा नलस्य मूतिर्ववृते न दृश्या। बभूव तच्चित्रतरं तथापि विश्वकदृश्यैव यदस्य मूतिः / / 8 / / जनैर्विदग्धर्भवनैश्च मुग्धैः / पदे पदे विस्मयकल्पवल्लीम् / तां गाहमानास्य चिरं नलस्य दृष्टिर्ययौ राजकुलातिथित्वम् हेलां दधौ रक्षिजनेऽस्त्रसज्जे लीनश्चरामीति हृदा ललज्जे / द्रक्ष्यामि भैमीमिति संतुतोष दूतं विचिन्त्य स्वमसौ शुशोच // 10 // अथोपकार्याममरेन्द्र कार्या कक्षासु रक्षाधिकृतैरदृष्टः / भैमी दिक्षुर्बहु दिक्षु चक्षु दिशन्नसौ तामविशद्विशङ्कः // 11 / / 25 अयं क इत्यन्यनिवारकाणां गिरा विभुभरि विभुज्य कण्ठम् / // 9 // Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 686 दृशं ददौ विस्मयनिस्तरङ्गां . स लङ्घितायामपि राजसिंहः // 12 / / अन्तःपुरान्तः स विलोक्य बालां कांचित्समालब्धुमसंवृतोरुम् / निमीलिताक्षः परया भ्रमन्त्या संघट्टमासाद्य चमञ्चकार // 13 // अनादिसर्गस्रजि वानुभूता चित्रेषु वा भीमसुता नलेन / जातेव यद्वा जितशम्बरस्य ____सा शाम्बरीशिल्पमलक्षि दिक्षु // 14 / / अलीकभैमीसहदर्शनान्न तस्यान्यकन्याप्सरसो रसाय / भंमीभ्रमस्यैव ततः प्रसादाद भैमीभ्रमस्तेन न तास्वलम्भि // 15 / / भैमीनिराशे हृदि मन्मथेन / . दत्तस्वहस्ताद्विरहाद्विहस्तः / स तामलीकामवलोक्य तत्र क्षणादपश्यन्व्यषदद्विबुद्धः / / 16 / / प्रियां विकल्पोपहृतां स यावद्दिगीशसंदेशमजल्पदल्पम् / 20 अदृश्यवाग्भीषितभूरिभीरुभवो रवस्तावदचेतयत्तम् / / 17 / / पश्यन्स तस्मिन्मरुतापि तन्व्याः .. स्तनौ परिस्प्रष्टुमिवास्तवस्त्रौ। अक्षान्तपक्षान्तमृगाङ्कमास्यं दधार तिर्यग्वलितं विलक्षः // 18 / / 25 अन्तःपुरे विस्तृतवागुरोऽपि बालावलीनां वलितैर्गुणौधैः / न कालसारं हरिणं तदक्षिद्वयं प्रभुर्बद्धमभून्मनोभूः / / 19 / / Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 ] [ काव्यषट्कं दोर्मूलमालोक्य कचं रुरुत्सोस्ततः कुचौ तावनुलेपयन्त्याः / नाभीमथैष श्लथवाससोऽनु मिमील दिक्षु क्रमकृष्टचक्षुः / / 20 / / मीलन्न शेकेऽभिमुखागताभ्यां __धतुनिपीड्य स्तनसान्तराभ्याम् / स्वाङ्गान्यपेतो विजगौ स पश्चात् पुमङ्गसङ्गोत्पुलके पुनस्ते // 21 / / निमीलनस्पष्टविलोकनाभ्यां कथितस्तां कलयन्कटाक्षः / स रागदर्शीव भृशं ललज्जे स्वतः सतां ह्रीः परतोऽतिगुर्वी // 22 / / रोमाञ्चिताङ्गीमनु तत्कटाक्ष . न्तेिन कान्तेन रतेनिदिष्ट: / मोघः शरौघः कुसुमानि नाभू तधर्यपूजां प्रति पर्यवस्यन् // 23 // हित्वैव वत्मकमिह भ्रमन्त्याः / स्पर्शः स्त्रियाः सुत्यज इत्यवेत्य / चतुष्पथस्याभरणं बभूव ___ लोकावलोकाय सतां स दीपः / / 24 / / उद्वर्तयन्त्या हृदये निपत्य ___ नृपस्य दृष्टिय॑वृतद्भुतैव / वियोगिवरात्कुचयोर्नखाङ्क____रर्धेन्दुलीलैर्गलहस्तितेव // 25 // तन्वीमुखं द्रागधिगत्य चन्द्र वियोगिनस्तस्य निमीलिताभ्याम् / द्वयं द्रढीयः कृतमीक्षणाभ्यां / तदिन्दुता च स्वसरोजता च // 26 // 25 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 661 चतुष्पथे तं. विनिमोलिताक्षं चतुर्दिगेताः सुखमग्रहीष्यन् / / संघट्टय तस्मिन्भृशभीनिवृत्ता स्ता एव तद्वर्त्म न चेददास्यन् // 27 / / संघट्टयन्त्यास्तरसात्मभूषा ___ हीराकुरप्रोतदुकूलहारी / दिशा नितम्बं परिधाप्य तन्व्या स्तत्पापसंतापमवाप भूपः // 28 // हतः कयाचित्पथि कन्दुकेन संघट्टय भिन्नः करजैः कयापि। कयाचनाक्तः कुचकुङ्कुमेन संभुक्तकल्पः स बभूव ताभिः // 26 / / छायामयः प्रैक्षि कयापि हारे . निजे स गच्छन्नथ नेक्ष्यमाणः / तञ्चिन्तयान्तनिरचायि चारु ___ स्वस्यैवं तन्व्या हृदयं प्रविष्टः // 30 // तच्छायसौन्दर्यनिपीतधैर्याः ____ प्रत्येकमालिङ्गदमू रतीशः / रतिप्रतिद्वन्द्वितमासु नूनं ____नामूषु निर्णोतरतिः कथंचित् // 31 // तस्माददृश्यादपि नातिबिभ्यू स्तच्छायरूपाहितमोहलोलाः / . मन्यन्त एवाहतमन्मथाज्ञाः प्राणानपि स्वान्सुदृशस्तृणानि // 32 // 'जाति तच्छायदृशां पुरा यः स्पृष्टे च तस्मिन्विससर्प कम्पः / Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 ] | काव्यषट्क द्रुते द्रुतं तत्पदशब्दभीत्या स्वहस्तितश्चारुदृशां परं सः // 33 / / उल्लास्यतां स्पृष्टनलाङ्गमङ्गं तासां नलच्छायपिबाऽपि दृष्टिः / अश्मैव रत्यास्तदनति पत्या छेदेऽप्यबोधं यदहर्षि लोम // 34 / / यस्मिन्नलस्पृष्टकमेत्य हृष्टा भूयोऽपि तं देशमगान्मृगाक्षी। निपत्य तत्रास्य धरारजःस्थे पादे प्रसीदेति * शनैरवादीत् // 35 / / भ्रमन्नमुष्यामुपकारिकाया मायस्य भैमीविरहात्कशीयान् / असौ मुहुः सौधपरम्पराणां ___व्यधत्त विश्रान्तिमधित्यकासु उल्लिख्य हंसेन दले नलिन्या स्तस्मै यथाशि तथैव भैमी / तेनाभिलिख्योपहतस्वहारा ___कस्या न दृष्टाजनि विस्मयाय // 37 / / कौमारगन्धीनि निवारयन्ती वृत्तानि रोमावलिवेत्रचिह्ना / सालिख्य तेनैक्ष्यत यौवनीय द्वाःस्थामवस्थां परिचेतुकामा // 38 / / पश्याः पुरंध्रीः प्रति सान्द्रचन्द्र रजःकृतक्रीडकुमारचक्रे / चित्राणि चक्रेऽध्वनि चक्रवति चिह्न तदध्रिप्रतिमासु चक्रम् // 36 / / 15 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 663 तारुण्यपुण्यामवलोकयन्त्योरन्योन्यमेणेक्षणयोरभिख्याम् / मध्ये मुहूर्त स बभूव गच्छन्नाकस्मिकाच्छादनविस्मयाय / / 40 / / पुरःस्थितस्य क्वचिदस्य भूषा रत्नेषु नार्यः प्रतिबिम्बितानि / व्योमन्यदृश्येषु निजान्यपश्य विस्मित्य विस्मित्य सहस्रकृत्वः / / 4 / / तस्मिन्विषज्यापथात्तपातं - तदङ्गरागच्छुरितं निरीक्ष्य / विस्मे रतामापुरविस्मरन्त्यः क्षिप्तं मिथः कन्दुकमिन्दुमुख्यः // 42 / / पुंसि स्वभर्तृव्यतिरिक्तभूते भूत्वाप्यनीक्षानियमवतिन्यः / छायासु रूपं भुवि वीक्ष्य तस्य फलं दृशोरानशिरे महिष्य: // 43 / / 15 विलोक्य तच्छायमकि ताभिः पति प्रति स्वं वसुधापि धत्ते। यथा वयं कि मदनं तथैनं त्रिनेत्रनेत्रानलकीलनीलम् / / 44 / / रूप प्रतिच्छायिकयोपनीत मालोकि ताभिर्यदि नाम कामम् / तथापि नालोकि तदस्य रूपं 20 हारिद्रभङ्गाय वितीर्णभङ्गम् भवन्नदृश्यः प्रतिबिम्बदेह व्यूहं वितन्वन्मणिकुट्टिमेषु / पुरं परस्य प्रविशन्वियोगी योगीव चित्रं स रराज राजा / / 46 / / 25 / 'पुमानिवास्पशि मया वजन्त्या छाया मया पुंस इव व्यलोकि / // 45 // Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 ] [ काव्यषट्कं ब्रुवन्निवातकि मयापि कश्चि दिति स्म स स्त्रैणगिरः शृणोति // 47 / / अम्बां प्रणत्योपनता नताङ्गी नलेन भैमी पथि योगमाप / स भ्रान्तिभैमोषु न तां व्यविक्त ___ सा तं च नादृश्यतया ददर्श // 48 / / प्रसूप्रसादाधिगता प्रसून माला नलस्योभ्रमवीक्षितस्य / क्षिप्तापि कण्ठाय तयोपकण्ठे स्थितं तमालम्बत सत्यमेव // 46 / / स्रग्वासनादृष्टजनप्रसादः सत्येयमित्यद्भुतमाप भूपः / / क्षिप्तामदृश्यत्वमितां च माला ___ मालोक्य तां विस्मयते स्म बाला // 50 / / अन्योन्यमन्यत्रवदीक्षमाणौ परस्परेणाध्युषितेऽपि देशे / आलिङ्गितालोकपरस्परान्त स्तथ्थं मिथस्तौ परिषस्वजाते // 51 / / स्पर्श तमस्याधिगतापि भैमी मेने पुनर्भ्रान्तिमदर्शनेन / नृपः स पश्यन्नपि तामुदीत स्तम्भो न धतु सहसा शशाक // 52 / / स्पर्शातिहर्षाहतसत्यमत्या प्रवृत्य मिथ्याप्रतिलब्धबाधौ / पुनर्मिथस्तथ्यमपि स्पृशन्तो न श्रद्दधाते पथि तौ विमुग्धौ // 53 / / Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः . सर्वत्र संवाद्यमबांधमानौ रूपश्रियातिथ्यकरं परं तौ। न शेकतुः केलिरसाद्विरन्तुमलीकमालोक्य परस्परं तु / / 54 / / परस्परस्पर्शरसोमिसेका त्तयोः क्षणं चेतसि विप्रलम्भः / 5 स्नेहातिदानादिव दीपिकाचि निमिष्य किंचिद्विगुणं दिदीपे // 55 / / वेश्माप सा धैर्यवियोगयोगाद्वोधं च माहं च मुहुर्दधाना / पुनःपुनस्तत्र पुरः स पश्यन्बभ्रामतां सुभ्रवमुभ्रमेण / / 56 / / पद्भयां नृपः संचरमाण एष चिरं परिभ्रम्य कथंकथंचित् / 10 विदर्भराजप्रभवाभिरामं प्रासादमभ्रंकषमाससाद / / 57 / / सखीशतानां सरसैविलासैः स्मरावरोधभ्रममावहन्तीम् / विलोकयामास सभां स भैम्या स्तस्य प्रतोलीमणिवेदिकायाम् // 58 / / कण्ठः किमस्याः पिकवेणुवीणा. स्तिस्रो जिताः सूचयति त्रिरेखः / इत्यन्तरस्तूयत यत्र कापि . नलेन बाला कलमालपन्ती // 56 / / एतं नलं तं दमयन्ति ! पश्य - त्यजातिमित्यालिकुलप्रबोधान् / श्रुत्वा स नारीकरवर्तिसारी मुखात्स्वमाशङ्कत यत्र दृष्टम् // 60 / / यत्रकयालीकनलीकृताली. . .. कण्ठे मृषाभीमभवीभवन्त्या / 25 तदृक्पथे दोहदिकोपनीता - शालीनमाधायि मधूकमाला // 61 / / Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 ] [ काव्यषट्कं चन्द्राभमानं तिलकं दधाना . ___ तद्वन्निजास्येन्दुकृतानुबिम्बम् / सखीमुखे चन्द्रसमे ससर्ज / चन्द्रानवस्थामिव कापि यत्र . // 62 / / दलोदरे काञ्चनकेतकस्य क्षणान्मसीभावुकवर्णलेखम् / तस्यैव यत्र स्वमनङ्गलेखं लिलेख भैमी नखलेखिनीभिः // 63 / / विलेखितुं भीमभुवो लिपीषु सख्याऽतिविख्यातिभृतापि यत्र / अशाकि लीलाकमलं न पाणि रपारि कर्णोत्पलमक्षि नैव // 64 / / भैमीमुपावीरणयदेत्य यत्र ' कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः / गन्धर्ववध्वःस्वरमध्वरीण तत्कण्ठनालैकधुरीणवीणः / / 6 / / नावा स्मरः किं हरभीतिगुप्ते ___पयोधरे खेलति कुम्भ एव / इत्यर्धचन्द्राभनखाङ्कचुम्बि कुचा सखी यत्र सखीभिरूचे // 66 / / स्मराशुगीभूय विदर्भशुभ्रू वक्षो यदक्षोभि खलु प्रसूनैः / स्रजं सृजन्त्या तदशोधि तेषु यत्रैकया सूचिशिखां निखाय // 67 / / यत्रावदत्तामतिभीय भैमो त्यज त्यजेदं सखि ! साहसिक्यम् / 25 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] [ 667 10 त्वमेव कृत्वा मदनाय दत्से / __ बाणान्प्रसूनानि गुणेन सज्जान् // 68 / / प्रालिख्य सख्याः कुचपत्रभङ्गी मध्ये सुमध्या मकरी करेण / यत्रालपत्तामिदमालि ! यानं _ मन्ये त्वदेकावलिनाकनद्याः // 69 / / तामेव सा यत्र जगाद भूयः पयोधियादः कुचकुम्भयोस्ते / सेयं स्थिता तावकहृच्छयाङ्क प्रियास्तु विस्तारयशःप्रशस्तिः. 70 // शारी चरन्ती सखि ! मारयैता मित्यक्षदाये कथिते कयापि / यत्र स्वघातभ्रमभीरुशारी.. काकूत्थसाकूतहसः स जज्ञे // 71 / / भैमीसमीपे स निरीक्ष्य यत्र - ताम्बूलजाम्बूनदहंसलक्ष्मीम् / कृतप्रियादूत्यमहोपकार - मरालमोहद्रढिमानमूहे . // 72 // तस्मिन्नियं सेति सखीसमाजे . नलस्य संदेहमथ व्युदस्यन् / अपृष्ट एव स्फुटमाचचक्षे स कोऽपि रूपातिशयः स्वयं ताम् // 73 / / भैमीविनोदाय मुदा सखीभि स्तदाकृतीनां भुवि कल्पितानाम् / नातर्कि मध्ये स्फुटमप्युदीतं तस्यानुबिम्बं मणिवेदिकायाम् // 74 / / 15 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 ] [ काव्यषटकं // 75 // हुताशकीनाशजलेशदूती. . निराकरिष्णोः कृतकाकुयाञ्चाः / भैम्या वचोभिः स निजां तदाशां . न्यवर्तयद्रमपि प्रयाताम् विज्ञप्तिमन्तःसभयः स भैभ्या ___ मध्येसभं वासवसम्भलोयाम् / संभालयामास भृशं कृशाश स्तदालिवृन्दैरभिनन्द्यमानाम् // 76 / / लिपिर्न देवी सुपठा भुवीति तुभ्यं मयि प्रेषितवाचिकस्य। 10 इन्द्रस्य दूत्यां रचय प्रसादं विज्ञापयन्त्यामवधानदानैः / / 77 / / सलीलमालिङ्गनयोपपीडमनामयं पृच्छति वासवस्त्वाम् / शेषस्त्वदाश्लेषकथापनिद्रैस्तद्रोमभिः संदिदिशे भवत्यै // 78 / / यः प्रेर्यमाणोऽपि हृदा मघोनस्त्वदर्थनायां ह्रियमापदागः / स्वयंवरस्थानजुषस्तमस्य बघानं कण्ठं वरणस्रजाशु / / 79 / / नैनं त्यज क्षीरधिमन्थनाये रस्यानुजायोद्गमितामरैः श्रीः / अस्मै विमथ्येक्षुरसोदमन्यां श्राम्यन्तु नोत्थापयितु श्रियं ते // 8 // लोकस्रजि द्यौदिवि चादितेया अप्यादितेयेषु महान्महेन्द्रः / किंकर्तु मर्थी यदि सोऽपि रागा ज्जागति कक्षा किमतः परापि // 81 / / पदं शतेनाप मखैर्यदिन्द्रस्तस्मै स ते याचनचाटुकारः / कुरु प्रसादं तदलंकुरुष्व स्वीकारकृघ्नटनश्रमेण // 82 // 25 मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे देवे घवे देवरि माधवे च / Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] / 666 श्रेयः श्रियां यातरि यच्च सख्यां तच्चेतसा भाविनि ! भावयस्व // 83 / / रज्यस्व राज्ये जगतामितीन्द्राद्याञ्चाप्रतिष्ठा लभसे त्वमेव / लघुकृतस्व बलियाचनेन तत्प्राप्तये वामनमामनन्ति // 4 // 5 यानेव देवान्नमसि त्रिकालं न तत्कृतघ्नीकृतिरौचिती ते / प्रसीद तानप्यनृणान्विधातुं पतिष्यतस्त्वत्पदयोस्त्रिसंध्यम् // 85 // इत्युक्तवत्या निहितादरेण भैम्या गृहीता मघवत्प्रसादः / स्रक्पारिजातस्य ऋते नलाशां वासरशेषामपुपूरदाशाम् . // 86 // आर्ये ! विचार्याल मिहेति कापि योग्यं सखि ! स्यादिति काचनापि / प्रोंकार एवोत्तरमस्तु वस्तु ____ मङ्गल्यमत्रेति च काप्यवोचत् // 87 / / अनाश्रवा वः किमहं कदापि वक्तुं विशेषः परमस्ति शेषः / इतीरिते भीमजया न दूती .. मालिङ्गदालीश्च मुदामियत्ता // 8 // भैमी च दूत्य च न किंचिदाप मिति स्वयं भावयतो नलस्य / . पालोकमात्राद्यदि तन्मुखेन्दो __.' रभून्न भिन्न हृदयारविन्दम् // 86 / / 25 ईषत्स्मितक्षालितसृविभामा रक्संजया वारिततत्तदालिः / सजा नमस्कृत्य तयैव शक्रं तां भीमभूरुत्तरयांचकार // 9 // Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 ] [ काव्यषट्कं स्तुती मघोनस्त्यज साहसिक्यं वक्तुं वियत्तं यदि वेद वेदः / मृषोत्तरं साक्षिणि हृत्सु नृणाम ज्ञातृविज्ञापि ममापि तस्मिन् // 61 / / आज्ञां तदीयामनु कस्य नाम __नकारपारुष्यमुपैतु जिह्वा। प्रह्वा तु तां मूनि विधाय मालां ___ बालापराध्यामि विशेषवाग्भिः // 92 / / तप.फलत्वेन हरेः कृपेयमिमं तपस्येव जनं नियुङ्क्ते / 10 भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावपेयमाधुर्यमधैर्यसजि // 93 / / शुश्रूषिताहे तदहं तमेव पति मुदेऽपि व्रतसंपदेऽपि / विशेषलेशोऽयमदेवदेहमंशागतं. तु क्षितिभृत्तयेह // 94 / / अश्रौषमिन्द्रादरिणीगिरस्ते सतीव्रतातिप्रतिलोमतीवाः / स्वं प्रागहं प्रादिषि नामराय किं नाम तस्मै मनसा नराय / / 6 / / 15 तस्मिन्विमृश्यैव वृते हृदैषा मैन्द्री दया मामनुतापिकाभूत् / निर्वातुकामं भवसंभवानां धीरं सुखानामवधीरणेव // 66 / / वर्षेषु यद्भारतमार्यधुर्याः स्तुवन्ति गार्हस्थ्यमिवाश्रमेष / तत्रास्मि पत्युर्वरिवस्ययेह शर्मोमिकिर्मीरितधर्मलिप्सुः / / 17 / / स्वर्गे सतां शर्म परं न धर्मा भवन्ति भूमाविह तच्च ते च / 20 शक्या मखेनापि मुदोऽमराणां कथं विहाय त्रयमेकमीहे / / 8 / / साधोरपि स्वः खलु गामिताधो गमी स तु स्वर्गमितः प्रयाणे / इत्यायतो चिन्तयतो हृदि द्वे द्वयोरुदर्कः किमु शर्करे न / / 6 / / प्रक्षीण एवायुषि कर्मकृष्टे नरान्न तिष्ठत्युपतिष्ठते यः 25 बुभुक्षते नाकमपथ्यकल्पं धीरस्तमापातसुखोन्मुखं कः // 100 / / Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षष्ठः सर्गः ] . [701 عر इतीन्द्रदूत्याः प्रतिवाचमधैं - प्रत्युह्य सैषाभिदधे वयस्याः / किंचिद्विवक्षोल्लसदोष्ठलक्ष्मी जितापनिद्रहलपङ्कजास्याः / / 101 // अनादिधाविस्वपरम्पराया हेतुस्रजः स्रोतसि वेश्वरे वा / प्रायत्तधीरेष जनस्तदार्याः ! किमीदृशः . पर्यनुयोगयोग्यः // 102 // नित्यं नियंत्या परवत्यशेषे कः संविदानोऽप्यनुयोगयोग्यः / अचेतना सा च न वाचमहें- . द्वक्ता लु वक्त्रश्रमकर्म भुङ्क्ते // 103 / / क्रमेलकं निन्दति कोमलेच्छु: क्रमेलक: कण्टकलम्पटस्तम् / 15 प्रीती तयोरिष्टभुजोः समायां मध्यस्थता नैकतरोपहास: // 104 // गुणा हरन्तोऽपि हरेनरं मे न रोचमानं परिहापयन्ति / न लोकमालोकयथापवर्गात्त्रिवर्गम/ञ्चममुञ्चमानम् / 105 / पाकीटमाकैटभरि तुल्यः स्वाभीष्टलाभात्कृतकृत्यभावः / भिन्नस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थ द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम् // 106 / / अध्वाग्रजाग्रनिभृतापदन्धु ... बन्धुर्यदि स्यात्प्रतिबन्धुमर्हः / 25 जोषं जमः कार्यविदस्तु वस्तु प्रच्छया निजेच्छा पदवीं मुदस्तु // 107 / / Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702 ) [ काव्यषट्कं इत्थं प्रतोपोक्तिमति सखीनां / विलुप्य पाण्डित्यबलेन बाला। अपि श्रुतस्वर्पतिमन्त्रिसूक्ति दूतीं बभाषेऽद्भुतलोलमौलिम् // 108 / / परेतभर्तुर्मनसेव दूती नभस्वतेवानिलसख्यभाजः / त्रिस्रोतसेवाम्बुपतेस्तदाशु स्थिरास्थमायातवती निरास्थम् // 109 / / भूयोऽर्थमेनं यदि मां त्वमात्थ तदा पदावालभसे मघोनः / सतीव्रतैस्तीवमिमं तु मन्तु मन्तर्वरं वज्रिणि माजितास्मि // 110 // इत्थं पुनर्वागवकाशनाशा न्महेन्द्रदूत्यामपयातवत्याम् / विवेश लोलं हृदयं नलस्य जीवः पुनः क्षीबमिव प्रबोधः // 111 / / श्रवणपुटयुगेन स्वेन साधूपनितं दिगधिपकृपयाप्तादीदृशः संविधानात् / अलभत मधु बालारागवागुत्थ मित्थं निषधजनपदेन्द्रः पातुमानन्दसान्द्रम् / / 112 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात्क्षोदक्षमे तन्महाकाव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 113 / / ॥इति महाकवि हर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे षष्ठः सर्गः समाप्तः / / प्रलभता 25 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 703 पणा सप्तमः सर्गः॥ अथ प्रियासादनशीलनादौ मनोरथः पल्लवितश्चरं यः / विलोकनेनैव स राजपुत्र्याः पत्या भुवः पूर्णवदभ्यमानि / / 1 / / प्रतिप्रतीक प्रथमं प्रियायामथान्तरानन्दसुधासमुद्रे / .. 5 ततः प्रमोदाश्रुपरम्परायां ममज्जतुस्तस्य दृशौ नृपस्य / / 2 / / ब्रह्माद्वयस्यान्वभवत्प्रमोदं रोमाग्र एवाग्रनिरीक्षितेऽस्याः / यथोचितीत्थं तदशेषदृष्टावथ स्मराद्वैतमुदं तथासौ // 3 / / वेलामतिक्रम्य पृथु मुखेन्दो रालोकपीयूषरसेन तस्याः / नलस्य रागाम्बुनिधी विवृद्धे तुङ्गो कुचावाश्रयतः स्म दृष्टी // 4 // मग्ना सुघायां किमु तन्मुखेन्दो- ... .. लग्ना स्थिता तत्कुचयोः किमन्तः / चिरेण तन्मध्यममुञ्चतास्य 15 . दृष्टिः ऋशीयः स्खलनाद्भिया नु // 5 // ष्टि.. ऋणीयः सतनातिया प्रियाङ्गपान्था कुचयोनिवृत्य निवृत्य लोला नलग्भ्रमन्ती / : बभौतमां तन्मृगनाभिलेप- . तमःसमासादितदिग्भ्रमेव // 6 // विभ्रम्य तच्चारुनितम्बचके दूतस्य इक्तस्य खलु स्खलन्ती। स्थिरा चिरादास्त तदूरुरम्भा - स्तम्भावुपाश्लिष्य करेण गाढम् // 7 // वासः परं नेत्रमहं न नेत्रं किमु त्वमालिङ्गय तन्मयापि / 25 उरोनितम्बोरु कुरु प्रसादमितीव सा तत्पदयोः पपात / / 8 / / Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 704 ] [ काव्यषटकं शोर्यथाकाममथोपहृत्य स प्रेयसीमालिकुलं च तस्याः / इदं प्रमोदाद्भुतसंभृतेन महीमहेन्द्रो मनसा जगाद / / 6 / / पदे विधातुर्यदि मन्मथो वा ममाभिषिच्येत मनोरथो वा / तदा घटेतापि न वा तदेतत्प्रतिप्रतीकाद्भुतरूपशिल्पम् / / 10 / / तरङ्गिणी भूमिभृतः प्रभूता | जानामि शृङ्गाररसस्य सेयम् / लावण्यपूरोऽजनि, यौवनेन यस्यां तथोच्चैस्तनताघनेन // 11 / / अस्यां वपुर्वृहविधानविद्यां / किं द्योतयामास नवां स कामः / प्रत्यङ्गसङ्गस्फुटलब्धभूमा लावण्यसीमा। यदिमामुपास्ते // 12 / / जम्बालजालात्किमकषि जम्बूनद्या न हारिद्रनिभप्रभेयम् / अप्यङ्गयुग्मस्य न सङ्गचिह्नमुन्नीयते दन्तुरता यदत्र / / 13 / / सत्येव साम्ये सदृशादशेषाद् गुणान्तरेणोच्चकृषे यदङ्गः / अस्यास्ततः स्यात्तुलनापि नाम वस्तु त्वमीषामुपमापमानः . // 14 / / पुराकृतिस्त्रैणमिमां विधातु __ मभूद्विधातुः खलु हस्तलेख: / येयं भवद्भाविपुरंध्रिसृष्टि: सास्यै यशस्तज्जयज प्रदातुम् // 15 // भव्यानि हानीरगुरेतदङ्गा ___ द्यथा यथानति तथा तथा तैः / 25 अस्याधिकस्योपमयोपमाता दाता प्रतिष्ठां खलु तेभ्य एव // 16 / / Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [705 नास्पशि दृष्टापि विमोहिकेयं दोषरशेषैः स्वभियेति मन्ये / अन्येषु तैराकुलितस्तदस्यां वसत्यसापत्न्यसुखी गुणौधः / / 17 / / औज्झि प्रियाङ्गघृणयैव रूक्षा ___ न वारिदुर्गात्तु वराटकस्य / न कण्टकैरावरणाच्च कान्ति धूलीभता काञ्चनकेतकस्य // 18 // प्रत्यङ्गमस्यामभिकेन रक्षा ___ कतु मघोनेव निजास्त्रमस्ति / वज्र च भूषामणिमूर्तिधारि नियोजितं तद्दयुतिकामुकं च // 16 // अस्या: सपक्षकविधोः कचौघः स्थाने मुखस्योपरि वासमाप / पक्षस्थतावद्वहुचन्द्रकोऽपि कलापिनां येन जितः कलापः // 20 / / अस्या यदास्येन पुरस्तिरश्च तिरस्कृतं शीतरुचान्धकारम् / स्फुटस्फुरद्भङ्गिकचच्छलेन तदेव पश्चादिदमस्ति बद्धम् // 21 / / अस्याः कचानां शिखिनश्च किनु . . विधि कलापौ विमतेरगाताम् / तेनायमेभिः किमपूजि . पुष्पै रभत्सि दत्त्वा स किमर्धचन्द्रम् / / 22 / / केशान्धकारादथ दृश्यभाल .' स्थलार्धचन्द्रा स्फुटमष्टमीयम् / 25 एनां यदासाद्य जगज्जयाय .. मनोभुवा सिद्धिरसाघि साधु // 23 // Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 706 ] { काव्यषट्कं पौष्षं धनुः किं मदनस्य दाहे . श्यामीभवत्केसरशेषमासीत् / व्यधाद्विधेशस्तदपि ऋधा कि भैमीभ्रुवौ येन विधिय॑वत्त // 24 / / 5 भ्रूभ्यां प्रियाया भवता मनोभूचापेनचापे घनसारभावः / निजां यदप्लोषदशामपेक्ष्य संप्रत्यनेनाधिकवीर्यताजि / / 25 / / स्मारं धनुर्यदिधुनोज्झितास्या यास्येन भूतेन च लक्ष्मलेखा / एतद्भुवौ जन्म तदाप युग्म लीलाचलत्वोचितबालभावम् // 26 // इषुत्रयेणैव जगत्त्रयस्य _ विनिर्जयात्पुष्पमयाशुगेन / शेषा द्विबाणो सफलीकृतेयं प्रियागम्भोजपदेऽभिषिच्य सेयं मृदुः कौसुमंचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टि ग्रहणार्हमध्या / तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुक्तां ___ मोहाय या दृष्टिश रौधवृष्टिम् // 28 / / आपूणितं पक्ष्मलमक्षिपद्म 20 प्रान्तद्युतिश्वैत्यजितामृतांशु / अस्या इवास्याश्चलदिन्द्रनील गोलामलश्यामलतारतारम् // 26 // कर्णोत्पलेनापि मुखं सनाथं लभेत नेत्रद्युतिनिजितेन / यद्येतदीयेन ततः कृतार्था स्वचक्षुषी किं कुरुते कुरङ्गी / / 30 / / 25 त्वचः समुत्तार्य दलानि रीत्या मोचात्वचः पञ्चषपाटनायाम् / सारैगृहीतविधिरुत्पलौघादस्यामभूदीक्षणरूपशिल्पी // 31 // | // 27 // Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 707 // 34 // चकोरनेत्रैणगुत्पलानां निमेषयन्त्रेण किमेष कृष्टः / सारः सुधोद्गारमयः प्रयत्नविधातुमेतन्नयने विधातुः // 32 / / ऋणीकृता किं हरिणीभिरासी दस्याः सकाशान्नयनद्वयश्रीः / भूयोगुणेयं सकला बलाद्य ताभ्योऽनयाऽलभ्यत बिभ्यतीभ्यः // 33 / / दृशौ किमस्याश्चपलस्वभावे न दूरमाक्रम्य मिथो मिलेताम् / न चेत्कृतः स्यादनयोः प्रयाणे विघ्नः श्रवःकूपनिपातभीत्या केदारभाजा शिशिरप्रवेशात् पुण्याय मन्ये मृतमुत्पलिन्या / जाता यतस्तत्कुसुमेक्षणेयं यातश्च तत्कोरकहक्चकोरः // 35 // नासादसीया तिलपुष्पतूणं . जगत्त्रयव्यस्तशरत्रयस्य / श्वासानिलामोदभरानुमेयां ___ दधद्विबाणी कुसुमायुधस्य // 36 // बन्धूकबन्धुभवदेतदस्या : . मुखेन्दुनानेन सहोज्जिहाना / रागश्रिया शैशवयौवनीयां .. स्वमाह संध्यामधरोष्ठलेखा // 37 // अस्या मुखेन्दावधरः सुधाभू बिम्बस्य युक्तः प्रतिबिम्ब एषः / / तस्याथ वा श्रीद्रुमभाजि देशे संभाव्यमानास्य तु विद्रुमे सा // 38 // Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 708 ] ( काव्यषट्कं जानेऽतिरागादिदमेव बिम्ब बिम्बस्य च व्यक्तमितोऽधरत्वम् / द्वयोविशेषावगमाक्षमाणां नाम्नि भ्रमोऽभूदनयोजनानाम् // 39 / मध्योपकण्ठावधरोष्ठभागी ___ भातः किमप्युच्छ्वसितौ यदस्याः / / तत्स्वप्नसंभोगवितीर्णदन्त दंशेन किं वा न मयापराद्धम् / / 4 / / विद्या विदर्भेन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति कत्यन्तरभेदभाजः / इतीव रेखाभिरपश्रमस्ताः संख्यातवान् कौतुकवान्विधाता // 41 / / संभुज्यमानाद्य मया निशान्ते स्वप्नेऽनुभूता मधुराधरेयम् / असीमलावण्यरदच्छदेत्थं कथं मयैव प्रतिपद्यते वा // 42 / / यदि प्रसादीकुरुते सुधांशो रेषासहस्रांशमपि स्मितस्य / तत्कौमुदीनां कुरुते तमेव निमिच्छय देवः सफलं स जन्म // 43 / / चन्द्राधिकैतन्मुखचन्द्रिकाणां दरायतं तत्किरणाद्धनानाम् / पुरःसरत्रस्तपृषद्वितीयं ____रदावलिद्वन्द्वति बिन्दुवृन्दम् // 44 // 25 सेयं ममैतद्विरहातिमूर्छातमीविभातस्य विभाति संध्या। महेन्द्रकाष्ठागतरागकी द्विजैरमीभिः समुपास्यमाना / / 4 / / Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [706 राजौ द्विजानामिह राजदन्ताः संबिभ्रति श्रोत्रियविभ्रमं यत् / उद्वेगरागादिमजावदाताश्चत्वार एते तदवैमि मुक्ताः / / 46 / / शिरीषकोषादपि कोमलाया वेधा विधायाङ्गमशेषमस्याः / प्राप्तप्रकर्षः सुकुमारसर्गे समापयद्वाचि मृदुत्वमुद्राम् // 47 / / प्रसूनबाणाद्वयवादिनी सा काचिद्विजेनोपनिषत्पिकेन / अस्याः किमास्य द्विजराजतो वा नाधीयते भैक्षभुजा तरुभ्य: 48 पद्मासद्मानमवेक्ष्य लक्ष्मी . मेकस्य विष्णोः श्रयणात्सपत्नीम् / प्रास्येन्दुमस्या भजते जिताब्जे सरस्वती तद्विजिगीषया किम् // 46 / / कण्ठे वसन्ती चतुरा यदस्याः सरस्वती वादयते विपञ्चीम् / तदेव वाग्भूय मुखे मृगाक्ष्याः . श्रोतुः श्रुतौ याति सुधारसत्वम् // 50 / / विलोकितास्या मुखमुन्नमय्य किं वेधसेयं सुषमासमाप्तौ / धृत्युद्भवा यच्चिबुके चकास्ति निम्ने मनागगुलियन्त्रणेव // 51 // प्रियामुखीभूय सुखी सुधांशुर्जयत्ययं राहुभयव्ययेन / 20 इमां दधाराधरबिम्बलीलां तस्यैव बालं करचक्रवालम् / / 12 / / अस्या मुखस्यास्तु न पूर्णमास्यं - पूर्णस्य जित्वा महिमा हिमांशुम् / भ्रलक्ष्म खण्ड दधदर्धमिन्दु भलस्तृतीयः खलु यस्य भागः // 53 / / व्यधत्त धाता मुखपद्ममस्याः सम्राजमम्भोजकुलेऽखिलेऽपि / Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 710 / ___[ काव्यषट्कं सरोजराजो सृजतोऽदसीयां . नेत्राभिधेयावत एव सेवाम् // 54 / / दिवारजन्यो रविसोमभीते चन्द्राम्बुजे निक्षिपतः स्वलक्ष्मीम् / आस्ये यदास्या न तदा तयोः श्री___रेकश्रियेदं तु कदा न कान्तम् // 55 / / अस्या मुखश्रीप्रतिबिम्बमेव जलाच्च तातान्मुकुराञ्च मित्रात् / अभ्यर्थ्य धत्तः खलु पद्मचन्द्रौ विभूषणं याचितकं कदाचित् // 56 / / अर्काय पत्ये खलु तिष्ठमाना भृङ्गमिताम क्षिभिरम्बुकेलौ / भैमीमुखस्य श्रियमम्बुजिन्यो ___ याचन्ति विस्तारितपद्महस्ताः // 57 / / 15 अस्या मुखेनैव विजित्य नित्य स्पर्धी मिलत्कुङ्कुमरोषभासा / प्रसह्य चन्द्रः खलु नह्यमान: " स्यादेव तिष्ठत्परिवेषपाशः // 58 / / विधोविधिबिम्बशतानि लोपं लोपं कुहूरात्रिषु मासि मासि / 20 अभगुरश्रीकममुं किमस्या मुखेन्दुमस्थापयदेकशेषम् / / 59 / / कपोलपत्रान्मकरात्सकेतुर्भूभ्यां जिगीपुर्धनुपा जगन्ति / इहावलम्ब्यास्ति रति मनोभू रज्यद्वयस्यो मधुनाधरेण / / 60 / / वियोगबाष्पाञ्चितनेत्रपद्म च्छद्मपितोत्सर्गपयःप्रसूनौ / 25 कर्णो किमस्या रतितत्पतिभ्यां .. निवेद्यपूपौ विधिशिल्पमोदृक् . // 61 / / Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] .. [ 711 इहाविशधेन पथातिवक्रः - शास्त्रौघनिष्यन्दसुधाप्रवाहः / सोऽस्याः श्रवःपत्रयुगे प्रणालीरेखेव धावत्यभिकर्णकूपम् // 62 / / अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुती दध्रतुरर्घमर्धम् / कर्णान्तरुत्कीर्णगभीररेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवाङ्कः // 63 / / मन्येऽमुना कर्णलतामयेन .. पाशद्वयेन च्छिदुरेतरेण / एकाकिपाशं वरुणं विजिग्ये- ऽनङ्गोकृतायासतती रतीशः // 64 / / मात्मैव तातस्य चतुर्भुजस्य ___ जातश्चतुर्दोरुचितः स्मरोऽपि / तच्चापयोः कर्णलते भ्रवोये वंशत्वगंशी चिपिटे किमस्याः // 65 / / ग्रीवाद्भुतैवावटुशोभितापि .. :: प्रसाधिता मागवकेन सेयम् / प्रालिङ्गयतामप्यवलम्बमाना . सुरूपताभागखिलोलकाया // 66 // कवित्वगानप्रियवादसत्या न्यस्या विधाता व्यधिताधिकण्ठम् / रेखात्रयन्यासमिषादमीषां . वासाय सोऽयं विबभाज सीमाः // 67 / / बाहू प्रियाया जयतां मृणालं. द्वन्द्वे जयो नाम न विस्मयोऽस्मिन् / 15 . 25 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712 ] [ काव्यषट्कं उच्चैस्तु तचित्रममुष्य भग्न ___स्यालोक्यते निव्यथनं यदन्तः // 68 / / अजीयतावर्तशुभंयुनाभ्यां ____ दोा मृणालं किमु कोमलाभ्याम् / निःसूत्रमास्ते घनपङ्कमृत्सु मूर्तासु नाकीर्तिषु तन्निमग्नम् // 69 / / रज्यन्नखस्याङ्गुलिपञ्चकस्य मिषादसौ हैङ्गुलपद्मतूणे / हैमैकपुङ्खास्ति विशुद्धपर्वा प्रियाकरे पञ्चशरी स्मरस्य / / 70 / / अस्याः करस्पर्धनगर्धनद्धि बलत्वमापत् खलु पल्लवो यः / भूयोऽपि नामाधरसाम्यगवं कुर्वन्कथ वास्तु ,न स प्रवालः // 71 / / अस्यैव सर्गाय भवत्करस्य सरोजसृष्टिर्मम हस्तलेखः / इत्याह धाता हरिणेक्षणायां किं हस्तलेखोकृतया तयाऽस्याम् // 72 / / किं नर्मदाया मम सेयमस्या दृश्याभितो वाहुलतामृणाली / कुचौ किमुत्तस्थतुरन्तरीपे स्मरोष्मशुष्यत्तरबाल्यवारः ||73 / / ताल प्रभु स्यादनुकतु मेता __ वुत्थानसुस्थौ पतितं न तावत् / . परं च नाश्रित्य तरुं महान्तं कुचौ कृशाङ्गयाः स्वत एव तुङ्गो // 74 / / एतत्कुचस्पधितया घटस्य / ख्यातस्य शास्त्रेषु निदर्शनत्वम् / Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [713 // 77 / / // 78 / / तस्माच्च शिल्पान्मणिकादिकारी प्रसिद्धनामाजनि कुम्भकारः // 75 / / गुच्छालयस्वच्छतमोदबिन्दुवृन्दाभमुक्ताफलफेनिलाङ्के / माणिक्यहारस्य विदर्भसुभ्रूपयोधरे रोहति रोहितश्रीः / / 76 / / 5 निःशङ्कसंकोचितपङ्कजोऽय ___मस्यामुदीतो मुखमिन्दुबिम्बः / चित्रं तथापि स्तनकोकयुग्म न स्तोकमप्यञ्चति विप्रयोगम् आभ्यां कुचाभ्यामिभकुम्भयोः श्री- रादीयतेऽसावनयोन ताभ्याम् / भयेन गोपायितमौक्तिको तो . प्रव्यक्तमुक्ताभरणाविभौ यत् कराग्रजाग्रच्छतकोटिरर्थी ययोरिमौ तौ तुलयेत्कुचौ चेत् / सर्वं तदा श्रीफलमुन्मदिष्णु जातं वटोमप्यधुना न लब्धम् // 76 / / स्तनावटे चन्दनपङ्किलेऽस्या ____ जातस्य यावद्युवमानसानाम् / हाराबलीरत्नमयूखधारा . काराः स्फुरन्ति स्खलनस्य रेखाः / / 80 // . क्षीणेन मध्येऽपि सतोदरेण .. यत्प्राप्यते नाक्रमणं वलिभ्यः / .. सर्वाङ्गशुद्धौ तदनङ्गराज्यं विजृम्भितं भीमभुवीह चित्रम् // 81 / / 25 मध्यं तनूकृत्य यदीदमीयं वेधा न दध्यात्कमनीयमंशम् / // 76 / / मापनशम् / Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 714 ] [ काव्यषट्कं // 82 // केन स्तनौ संप्रति यौवनेऽस्याः सृजेदनन्यप्रतिमाङ्गयष्टे: गौरीव पत्या सुभगा कदाचित्कर्तेयमप्यर्धतनूसमस्याम् / इतीव मध्ये विदधे विधाता रोमावलीमेचकसूत्रमस्याः / / 83 / / 5 रोमावलीरज्जुमरोजकुम्भी गम्भोरमासाद्य च नाभिकूपम् / मदृष्टितृष्णा विरमेद्यदि स्यान्नैषां बतैषा सिचयेन गुप्तिः / / 84 / / उन्मूलितालानविलोभनाभिश्छिन्नस्खलच्छृङ्खलरोमराजिः / मत्तस्य सेयं मदनद्विपस्य प्रस्वापवप्रोच्चकुचास्तु वास्तु / / 85 / / रोमावलिभ्रू कुसुमैः स्वमौर्वी चापेषुभिर्मध्यललाटमूनि / व्यस्तैरपि स्थास्नुभिरेतदीयै जैत्रः स चित्रं रतिजानिवीरः / / 86 / / पुष्पाणि बाणाः कुचमण्डनानि ध्रुवौ धनुर्भालमलंकरिष्णु / रोमावली मध्यविभूषणं ज्या ___तथापि जेता रतिजानिरेतैः // 87 / / अस्याः खलु ग्रन्थिनिबद्धकेशमल्लीकदम्बप्रतिबिम्बवेषात् / स्मरप्रशस्ती रजताक्षरेयं पृष्ठस्थलीहाटकपट्टिकायाम् / / 88 / / चक्रेण विश्वं युधि मत्स्यकेतुः पितुजितं वोक्ष्य सुदर्शनेन / 20 जगज्जिगीषत्यमुना नितम्बमयेन किं दुर्लभदर्शनेन / / 86 / / रोमावलीदण्डनितम्बचके गुणं च लावण्यजलं च बाला / तारुण्यमूर्तेः कुचकुम्भकर्तु बिभर्ति शके सहकारिचक्रम् // 90 / / 25 अङ्गेन केनापि विजेतुमस्या गवेष्यते किं चलपत्रपत्रम् / Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तमः सर्गः ] [ 715 न चेद्विशेषादितरच्छदेभ्य स्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन // 91 / / भ्रूश्चित्रलेखा च तिलोत्तमास्या नासा च रम्भा च यदूरुसृष्टिः / दृष्टा ततः पूरयतीयमेका नेकाप्सरः प्रेक्षणकौतुकानि // 12 // रम्भापि किं चिह्नयति प्रकाण्ड न चात्मनः स्वेन न चैतदूरू / स्वस्यैव येनोपरि सा ददाना पत्राणि जागर्त्यनयोध्रमेण // 93 // विधाय मूर्धानमदश्चरं चे.. न्मुञ्चेत्तपोभिः स्वमसारभावम् / जाड्यं च नाञ्चेत्कदली बलीय ___ स्तदा यदि स्यादिदमूरुचारुः // 64 / / ऊरुप्रकाण्डद्वितयेन तन्व्याः करः पराजीयत वारणीयः / . युक्तं ह्रिया कुण्डलनच्छलेन गोपायति स्वं मुखपुष्करं सः // 65 / / अस्यां मुनीनामपि मोहमूहे / भृगुर्महान्यत्कुचशैलशीली। नानारदाह्लादि मुखं श्रितोरु प्सो महाभारतसर्गयोग्यः // 66 / / क्रमोद्गता पोवरताधिजचं वृक्षाधिरूढं विदुषी किमस्या। अपि भ्रमीभङ्गिभिरावृताङ्गं वासो लतावेष्टितकप्रवीणम् / 67 / 25 अरुन्धतीकामपुरंध्रिलक्ष्मीजम्भद्विषद्दारनवाम्बिकानाम् / चतुर्दशीयं तदिहोचितैव गुल्फद्वयाप्ता यददृश्यसिद्धिः / / 6 / / 20. Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 716 ] [ काव्यषट्क अस्याः पदौ चारुतया महान्ता वपेक्ष्य सौक्ष्म्याल्लवभावभाजः / जाता प्रवालस्य महीरुहाणां जानीमहे पल्लवशब्दलब्धिः // 66 / / 5 जगद्वधूमूर्धसु रूपदर्पाद्यतयादायि पदारविन्दम् / तत्सान्द्रसिन्दूरपरागरागैध्रुवं प्रवालप्रबलारुण तत् / / 100 / / रुषारुणा सर्वगुणैर्जयन्त्या भैम्याः पदं श्रीः स्म विधे... गीते / ध्रुवं स तामच्छलयद्यतः सा भृशारुणैतत्पदभाग्विभाति / / 101 / / यानेन तन्व्या जितदन्तिनाथौ पादाब्जराजौ परिशुद्धपाो / जाने न शुश्रूषयितुं स्वमिच्छू नतेन मूर्ना कतरस्य राज्ञः // 102 / / कर्णाक्षिदन्तच्छदबाहुपाणि पादादिनः स्वाखिलतुल्यजेतुः / उद्वेगभागद्वयताभिमाना दिहैव वेधा व्यधित द्वितीयम् / / 103 / / तुषारनिःशेषितमब्जसर्ग विधातुकामस्य पुविधातुः / पञ्चस्विहास्याङ्ग्रिकरेष्वभिख्या भिक्षाधुना माधुकरीसदृक्षा 104 / / एष्यन्ति यावद्गणनाद्दिगन्ता न्नपाः स्मरार्ताः शरणे प्रवेष्टुम् / इमे पदाब्जे विधिनापि सृष्टा स्तावत्य एवागुलयोऽत्र लेखाः / / 105 / / 25 प्रियानखीभूतवतो मुदेदं व्यधाद्विधिः साधुदशत्वमिन्दोः / Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 717 एतत्पदच्छद्मसरागपद्म सौभाग्यभाग्यं कथमन्यथा स्यात् // 106 / / यश: पदाङ्गुष्ठनखौ मुखं च बिभर्ति पूर्णेन्दुचतुष्टयं या / 5 कला चतुःषष्टिरुपैतु वासं तस्यां कथं सुभ्र वि नाम नास्याम् / / 107 / / सष्टातिविश्वा विधिनैव तावत्तस्यापि नीतोपरि यौवनेन / वैदग्ध्यमध्याप्य मनोभुवेयमवापिता वाक्पथपारमेव // 108 / / इति स चिकुरादारभ्यैनां नखावधि वर्णयन् हरिणरमणीनेत्रां चित्राम्बुधौ तरदन्तरः / हृदयभरणोद्वेलानन्दः संखीवृतभीमजा नयनविषयीभावे भावं दधार घराधिपः / / 10 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिभ्रातर्ययं तन्महाकाव्ये चारुणि वैरसेनिचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः / / 110 / / / / इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे __सप्तमः सर्गः समाप्तः / / 7 / / ॥८॥अष्टमः सर्गः॥ __प्रथाद्भुतेनास्तनिमेषमुद्र मुन्निद्रलोमानममुं युवानम् / दृशा पपुस्ताः सुदृशः समस्ताः सुता च भीमस्य महीमघोनः // 1 / / कियच्चिरं देवतभाषितानि निह्नोतुमेनं प्रभवन्तु नाम / 25 पलालजालैः पिहितः स्वयं हि प्रकाशमासादयतीक्षुडिम्भः / / 2 / / Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 718 ] [ काव्यषट्कं अपाङ्गमप्याप दृशोर्न रस्मिनलस्य भैमीमभिलष्य यावत् / स्मराशुगः सुभ्रवि तावदस्यां प्रत्यङ्गमापुङ्खशिखं ममज्ज / / 3 / / यदक्रम विक्रमशक्तिसाम्यादुपाचरवावपि पञ्चबाणः / कथ न वैमत्यममुष्य चक्रे शरैरनर्धार्धविभागभाग्भिः / / 4 / / 5 तस्मिन्नलोऽसाविति सान्वरज्यत् क्षणं क्षण क्वेह स इत्युदास्त। पुनः स्म तस्यां वलतेऽस्य चित्तं इत्यादनेनाथ पुनर्व्यवति / / 5 / / . कयाचिदालोक्य नलं ललज्जे कयापि तद्भासि हृदा ममज्जे / तं कापि मेने स्मरमेघ कन्या भेजे मनोभूवशभूयमन्या / / 6 / / कस्त्वं कुतो वेति न जातुशेकु स्तं प्रष्टुमप्यप्रतिभातिभारात् / उत्तस्थुरभ्युत्थितिवाञ्छयेव निजासनान्नैकरसाः कृशाङ्गयः // 7 / / स्वाच्छन्द्यमानन्दपरंपराणां भैमी तमालोक्य किमप्यवाप / महारयं निर्भरिणीव वारामासाद्य धाराघरकेलिकालम् / / 8 / / तत्रैव मग्ना यदपश्यदग्रे नास्या दृगस्याङ्गमयास्यदन्यत् / नादास्यदस्यै यदि बुद्धिधारां विच्छिद्य विच्छिद्य चिरान्निमेषः // 6 / / दृशापि सालिङ्गितमङ्गमस्य जग्राह नानावगताङ्गहर्षेः / / 20 अङ्गान्तरेऽनन्तरमीक्षिते तु निवृत्य सस्मार न पूर्वदृष्टम् / / 10 / / हित्वैकमस्यापधनं विशन्ती तद्दष्टिरङ्गान्त रभुक्तिसीमाम् / चिरं चकारोभयलाभलोभात्स्वभावलोला गतमागतं च / / 11 / / निरीक्षित चाङ्गमवीक्षितं च दृशा पिबन्ती रभसेन तस्य / समानमानन्दमियं दधाना विवेद भेदं न विदर्भसुभ्रः / / 12 / / 25 सूक्ष्मे घने नैषधकेशपाशे निपत्य निस्पन्दतरीभवद्भयाम् / Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] / 716 तस्यानुबन्धं न विमोच्य गन्तु मपारि तल्लोचनखजनाभ्याम् // 13 / / भूलोकभर्तु मुखपाणिपादपद्म : परीरम्भमवाप्य तस्य / दमस्वसुई ष्टिसरोजराजिश्चिरं न तत्याज सबन्धुबन्धम् / / 14 / / तत्कालमानन्दमयी भवन्ती ___ भवत्तरानिर्वचनीयमोहा / सा मुक्तसंसारिदशारसाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्क्त मिष्टम् // 15 / / दूते नलश्रीभृति भाविभावा . कलङ्किनीयं जनि मेति नूनम् / न संव्यधान्नैषधकायमायं / विधिः स्वयंदूतमिमां प्रतीन्द्रम् / / 16 / / पुण्ये मनः कस्य मुनेरपि स्यात् __ प्रमाणमास्ते यदधेऽपि धावत् / तच्चिन्ति चित्तं परमेश्वरस्तु ___ भक्तस्य हृष्यत्करुणो रुणद्धि // 17 / / सालीकदृष्टे मदनोन्मदिष्णु-. यथाप शालीनतमा न मौनम् / तथैव तथ्येऽपि नले न लेभे मुग्धेषु क: सत्यमृषाविवेकः // 18 / / व्यर्थीभवद्भावपिधानयत्ना स्वरेण साथ श्लथगद्गदेन / सखीचये साध्वसबद्धवाचि . स्वयं तमूचे नमदाननेन्दुः 25 नत्वा शिरोरत्नरुचापि पाद्यं संपाद्यमाचारविदातिथिभ्यः / प्रियाक्षरालीरसधारयापि वैधी विधेया मधुपर्कतृप्तिः // 20 // / / 16 / / Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 720 ] . [ काव्यषटकं स्वात्मापि शीलेन तृणं विधेयं देया विहायासनभूनि जापि / आनन्दबाष्पैरपि कल्प्यमम्भः पृच्छा विधेया मधुभिर्वचोभिः // 21 / / पदोपहारेऽनुपनम्रतापि __संभाव्यतेऽषां त्वरयापराधः / तत्कर्तु मञ्जिलिसञ्जनेन स्वसंभृतिः प्राज़लतापि तावत् / / 22 / / पुरा परित्यज्य मयात्यसजि स्वमासनं तत्किमिति क्षणं न / 10 अनहमप्येतदलंक्रियेत प्रयातुमीहा यदि चान्यतोऽपि // 23 / / निवेद्यतां हन्त समापयन्तौ शिरीषकोष म्रदिमाभिमानम् / पादौ कियदूरमिमौ प्रयासे निघित्सते तुच्छदयं मनस्ते।।२४।। अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य / त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्रव्यापि नानेन जनेन सज्ञा / / 25 / / तीर्णः किमर्णोनिधिरेव नैष / सुरक्षितेऽभूदिह यत्प्रवेशः / / फलं किमेतस्य तु साहसस्य न तावदद्यापि विनिश्चिनोमि // 26 / / तव प्रवेशे सुकृतानि हेतु मन्ये मदक्ष्णोरपि तावदत्र / न लक्षितो रक्षिभटैर्यदाभ्यां पीतोऽसि तन्वा जितपुष्पधन्वा // 27 / / यथाकृतिः काचन ते यथा वा दौवारिकान्धंकरणी च शक्तिः / 25 रुच्यो रुचीभिजितकाञ्चनीभि-. स्तथासि पीयूष भुजां सनाभिः // 28 / / Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः / [ 721 10 न मन्मथस्त्वं स हि नास्तिमूर्ति न चाश्विनेयः स हि नाद्वितीयः / चिह्न: किमन्यैरथवा तवेयं श्रीरेव ताभ्यामधिको विशेषः // 26 / / ग्रालोकतृप्तीकृतलोक ! यस्त्वा मसूत पीयूषमयूखमेनम् / कः स्पधितु धावति साधु सार्ध . मुदन्वता नन्वयमन्ववायः // 30 // भूयोऽपि बाला नलसुन्दरं तं _____ मत्वामरं रक्षिजनाक्षिबन्धात् / आतिथ्यचाटून्यपदिश्य तत्स्थां ___ श्रियं प्रियस्यास्तुत वस्तुतः सा / / 31 / / वाग्जन्मवैफल्यमस ह्यशल्यं . गुणाद्भुते वस्तुनि मौनिता चेत् / खलत्वमल्पीयसि जल्पितेऽपि - तदस्तु बन्दिभ्रमभूमितैव / / 32 / / कंदप एवेदमविन्दत त्वां पुण्येन मन्ये पुनरन्यजन्म / चण्डीशचण्डाक्षिहुताशकुण्डे * जुहाव यन्मन्दिरमिन्द्रियाणाम् शोभायशोभिजितशैवशैलं - करोषि लज्जागुरुमौलिमलम् / दस्रौ हठश्रीहरणादुदस्रो कंदर्पमप्युज्झितरूपदर्पम् अवैमि हंसावलयो वलक्षा स्त्वत्कान्तिकीर्तेश्चपला: पुलाकाः / // 33 // // 34 // 25 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 722 ] [ काव्यषटकं उड्डीय युक्त पतिताः स्रवन्ती वेशन्तपूरं परितः प्लवन्ते // 35 / / भवत्पदाङ्गुष्ठमपि श्रिता श्रीध्रुवं न लब्धा कुसुमायुधेन / रतीशजेतुः खलु चिह्नमस्मिन्नर्धेन्दुरास्ते नखवेषधारी / / 36 / / राजा द्विजानामनुमासभिन्नः पूर्णां तनूकृत्य त तपोभिः / कुहूषु दृश्येतरतां किमेत्य सायुज्यमाप्नोति भवन्मुखस्य / / 37 / / कृत्वा दृशौ ते बहुवर्णचित्रे किं कृष्णसारस्य तयोगस्य / अदूरजाग्रद्विदरप्रणालीरेखामयच्छद्विधिरर्धचन्द्रम् // 38 / / मुग्धः स मोहात्सुभगान्न देहाद्ददद्भवद्भूरचनाय चापम् / भ्रूभङ्गजेयस्तव यन्मनोभूरनेन रूपेण यदातदाभूत् // 39 / / मृगस्य नेत्रद्वितयं तवास्ये विधौ विधुत्वानुमितस्य दृश्यम् / तस्यैव चञ्चत्कचपाशवेषः पुच्छः स्फुरच्चामरगुच्छ एषः / 40 / आस्तामनङ्गीकरणाद्भवेन दृश्यः स्मरो नेति पुराणवाणी / 15 तवैव देहं श्रितया श्रियेति / नवस्तु वस्तु प्रतिभाति वादः // 41 / / त्वया जगत्युच्चितकान्तिसारे . यदिन्दुनाशीलि शिलोञ्छवृत्तिः / पारोपि तन्माणवकोऽपि मौलौ स यज्वराज्येऽपि महेश्वरेण // 42 / / आदेहदाहं कुसुमायुधस्य विधाय सौन्दर्यकथादरिद्रम् / त्वदङ्गशिल्पात्पुनरीश्वरेण चिरेण जाने जगदन्वकम्पि / / 43 / / मही कृतार्था यदि मानवोऽसि जित दिवा यद्यमरेषु कोऽपि / कुलं त्वयालंकृतमौरगं चेन्नाघोऽपि कस्योपरि नागलोकः / / 44 / / 25 सेयं न धत्तेऽनुपपत्तिमुच्च मच्चित्तवृत्तिस्त्वयि चिन्त्यमाने / 20 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 723 // 45 // // 48 // ममौ स भद्रं चुलुके समुद्र स्त्वयात्तगाम्भीर्यमहत्त्वमुद्रः संसारसिन्धावनुबिम्बमत्र जागति जाने तव वैरसेनिः / बिम्बानुबिम्बौ हि विहाय धातु न जातु दृष्टातिसरूपसृष्टि: // 46 // इयत्कृतं केन महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्यारजःसु पद्मस्रजमारभेते // 47 // ब्रवीति मे कि किमियं न जाने . ____ संदेहदोलामवलम्ब्य संवित् / कस्यापि धन्यस्य गृहातिथिस्त्व मलीकसंभावनयाथवालम् . प्राप्तव तावत्तव रूपसृष्टि निपीय दृष्टिर्जनुषः फलं मे / / 15 अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां / तयोः प्रसादीकुरुषे गिरं चेत् इत्थं मधुत्थं रसमुद्गिरन्ती / .. तदोष्ठबन्धूकधनुविसृष्टां / ... कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चबाणो . . वाणीमिषेणास्य मनो विवेश // 50 // अमज्जदाकण्ठमसौ सुधासु प्रियं प्रिया य वचनं निपोय / द्विषन्मुखेऽपि स्वदते स्तुतिर्या ... तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया // 51 // 25 पौरस्त्यशैलं जनतोपनीतां गृह्णन् यथाह्नःपतिरर्घ्यपूजाम् / तथातिथेयीमथ संप्रतीच्छ प्रियापितामासनमाससाद // 52 // // 49 // Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 724 [ काव्यषट्कं अयोधि तद्धैर्यमनोभवाभ्यां. तामेव भैमीमवलम्ब्य भूमीम् / अाह स्म यत्र स्मरचापमन्त श्छिन्नं ध्रुवौ तज्जयभङ्गवार्ताम् / / 53 / / 5 अथ स्मराज्ञामवधीर्य धैर्यादूचे स तद्वा गुपवीणितोऽपि / विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषोकरोति / / 54 / / हरित्पतीनां सदसः प्रतीहि त्वदीयमेवातिथिमागतं माम् / वहन्तमन्तगुरुणादरेण प्राणानिव स्वःप्रभुवाचिकानि / / 55 / / विरम्यतां भूतवती सपर्या / निविश्यतामासनमुज्झितं किम् / या दूतता नः फलिना विधेया ___ सैवातिथेयी पृथुरुद्भवित्री // 56 // कल्याणि! कल्यानि तवाङ्गकानि कंच्चित्तमां चित्तमनाविलं ते / अलं विलम्बन गिरं मदीया ___ माकणयाकर्णतटायताक्षि ! // 57 / / कौमारमारभ्य गणा गुणानां हरन्ति ते दिक्षु धृताधिपत्यान् / सुराधिराजं सलिलाधिपं च हुताशनं चाय मनन्दनं च / / 58 / / चरच्चिरं शैशवयौवनीयद्वैराज्यभाजि त्वयि खेदमेति / 20 तेषां रुचश्चौरतरेण चित्तं पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् / / 56 / / तेषामिदानी किल केवलं सा हृदि त्वदाशा विलसत्यजस्रम् / प्राशास्तु नासाद्य तनूरुदाराः पूर्वादयः पूर्ववदात्मदाराः 25 अनेन साधं तव यौवनेन कोटिं परामच्छिदुरोऽध्यरोहत् / // 6 // Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 725 प्रेमापि तन्वि ! त्वयि वासवस्य गुणोऽपि चापे सुमनःशरस्य // 61 / / प्राची प्रयाते विरहादयं ते तापाच्च रूपाच्च शशाङ्कशङ्की / परापराधैनिदधाति भानौ रुषारुण लोचनवृन्दमिन्द्रः / / 62 / / त्रिनेत्रमात्रेण रुषा कृतं यत्त देव योऽद्यापि न संवृणोति / न वेद रुष्टेऽद्य सहस्रनेत्रे गन्ता स कामः खलु कामवस्याम् / / 63 / / पिकस्य वाङ्मात्रकृताद्वयली कान्न स प्रभुनन्दति नन्दनेऽपि / बालस्य चूडाशशिनोऽपराधा नाराधनं शीलति शूलिनोऽपि // 64 / / तमोमयीकृत्य दिश: परागैः स्मरेषवः शक्रदृशां दिशन्ति / कुहूगिरश्चञ्चुपुटं द्विजस्य राकारजन्यामपि सत्यवाचम् / / 65 / / 15 शरैः प्रसूनैस्तुदतः स्मरस्य स्मस किं नाशनिना करोति / अभेद्यमस्याहह वर्म न स्यादनङ्गता चेद्गिरिशप्रसादः / / 66 / / धताधतेस्तस्य भवद्वियोगादन्यान्यशय्यारचनाय लूनैः / अप्यन्यदारिद्रयहराः प्रवालैर्जाता दरिद्रास्तरवोऽमराणाम् / 67 / रवैर्गुणास्फालभवैः स्मरस्य स्वर्णाथकणौ बधिरावभूताम् / 20 गुरोः शृणोतु स्मरमोहनिद्राप्रबोधदक्षाणि किमक्षराणि / / 6 / / ". अनङ्गतापप्रशमाय तस्य कदर्थ्यमाना मुहुरामृणालम् / मधौ मधौ नाकनदीनलिन्यो वरं वहन्तां शिशिरेऽनुरागम् 25 . . दमस्वसः ! सेयमुपैति तृष्णा हरेर्जगत्यग्रिमलेख्यलक्ष्मीम् / / / 69 // Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 726 ] [ काव्यषट्कं // 70 // // 7 // // 72 // दृशां यदब्धिस्तव नाम दृष्टि विभागलोभातिमसौ बिति अग्न्याहिता नित्यमुपासते यां देदीप्यमानां तनुमष्टमूर्तेः / . आशापतिस्ते दमयन्ति ! सोऽपि स्मरेण दासीभवितु न्यदेशि त्वद्गोचरस्तं खलु पञ्चबाणः ___ करोति संताप्य तथा विनीतम् / स्वयं यथा स्वादिततप्तभूयः परं न संतापयिता स भूय: अदाहि यस्तेन दशार्धबाणः ___पुरा पुरारेर्नयनालयेन / न निर्दहस्तं भवदक्षिवासी न वैरशुद्धेरधुनाधमणः सोमाय कुप्यन्निव विप्रयुक्तः ___ स सोममाचामति हूयमानम् / नामापि जागति हि यत्र शत्रो स्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते शरैरजस्र कुसुमायुधस्य __ कदर्थ्यमानस्तरुणि ! त्वदर्थे / अभ्यर्चयद्धिर्विनिवेद्य माना दप्येष मन्ये कुसुमाद्विभेति स्मरेन्धने वक्षसि तेन दत्ता सतिका शैवलवल्लिचित्र। चकास्ति चेतोभवपावकस्य धूमाविला कीलपरम्परेव // 73 // // 74 // // 75 // 25 // 76 // Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ) [ 727 // 77 / / // 76 / / पुत्री सुहृद्येन सरोरुहाणां ___ यत्प्रेयसी चन्दनवासिता दिक् / , धैर्य विभुः सोऽपि तवैव हेतोः ___ स्मरप्रतापज्वलने जुहाव 5 तं दह्यमानैरपि मन्मथैधं हस्तैरुपास्ते मलय: प्रवालैः / कृच्छ ऽप्यसौ नोज्झति तस्य सेवां सदा यदाशामवलम्बते यः // 78 / / स्मरस्य की]व सितीकृतानि __तद्दोःप्रतापैरिव तापितानि / अङ्गानि धत्ते स भवद्वियोगात् पाण्डूनि चण्डज्वरजर्जराणि यस्तन्वि ! भर्ता घुसृणेन सायं दिशः समालम्भनकौतुकिन्याः / तदा स चेतः प्रजिघाय तुभ्यं यदा गतो नैति निवृत्य पान्थः // 8 // तथा न तापाय पयोनिधीना मश्वामुखोत्थः क्षुधितः शिखावान् / निजः पतिः संप्रति वारिपोऽपि यथा हृदिस्थः स्मरतापदुःस्थः // 1 / / यत्प्रत्युत त्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रजं गुम्फति दुविनीता। ततो विधत्तेऽधिकमेव तापं तेन श्रिता शैत्यगुणा मृणाली / 82 / न्यस्तं ततस्तेन मृणालदण्डखण्डं बभासे हृदि तापभाजि / तच्चित्तमग्नैर्मदनस्य बाणैः कृतं शतच्छिद्रमिव क्षणेन / / 83 / / 25 इति त्रिलोकीतिलकेषु तेषु मनोभुवो विक्रमकामचारः / अमोघमस्त्रं भवतीमवाप्य मदान्धतानर्गल चापलस्य / / 84 / / Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 728 ] [ काव्यषट्कं 10 सारोत्थधारेव सुधारसस्य __स्वयंवरः श्वो भविता तवेति / संतपयन्तो दमयन्ति ! तेषां श्रुतिः श्रुती नाकजुषामयासीत् // 85 / / 5 समं सपत्नीभवदुःखतीक्ष्णैः स्वदारनासापथिकैर्मरुद्भिः। अनङ्गशौर्यानलतापदुःस्थैरथ प्रतस्थे हरितां मरुद्भिः / / 86 / / अपास्तपाथेयसुधोपयोगैस् त्वच्चुम्बिनैव स्वमनोरथेन / क्षुधं च निर्वापयता तृर्ष च स्वादीयसाऽध्वा गमितः सुखं तैः / / 87 / / प्रिया मनोभूशरदावदाहे देवीस्त्वदर्थेन निमज्जयद्भिः / सुरेषु सारैः क्रियतेऽधुना तैः पादार्पणानुग्रहभूरिय भूः / / 88 / / अलंकृतासन्नमहीविभागैरयं जनस्तै रमरैभवत्याम् / अवापितो जङ्गमलेखलक्ष्मी निक्षिप्य संदेशमयाक्षराणि / / 86 / / 15 एकैकमेते परिरभ्य पीन स्तनोपपीडं त्वयि संदिशन्ति / त्वं मूर्च्छतां नः स्मरभिल्ल शल्यै ___ मुदे विशल्यौषधिल्लि रेधि / / 10 / / त्वत्कान्तिमस्माभिरयं पिपास मनोरथाश्वासनयैकयेव / निजः कटाक्षः खलु विप्रलभ्यः | कियन्ति यावद्भण वासराणि // 91 / / निजे सृजास्मासु भुजे भजन्त्यावादित्यवर्ग परिवेषवेषम् / प्रसीद निर्वापय तापमङ्ग रनङ्गलीलालहरीतुषारैः / / 12 / / 25 दयस्व किं घातयसि त्वमस्माननङ्गचण्डाल शरैरदृश्यैः / भिन्ना वर तीक्ष्णकटाक्षबाणैः प्रेमस्त व प्रेमरसात्पवित्रैः / / 93 / / Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 726 ||67 // त्वदथिनः सन्तु परस्सहस्राः प्राणास्तु नस्त्वच्चरणप्रसादः / विशङ्कसे कैतवनतितं चेदन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् / / 14 / / अस्माकमध्यासितमेतदन्तस्तावद्भवत्या हृदयं चिराय / बहिस्त्वयालंक्रियतामिदानीमुरो मुरं विद्विषतः श्रियेव / / 15 / / ___ दयोदयश्चेतसि चेत्तवाभू दलंकुरु द्यां विफलो विलम्बः / भुवः स्वरादेशमथाचरामो भूमौ धृति यासि यदि स्वभूमौ // 96 / / धिनोति नास्माजलजेन पूजा त्वयान्वहं तन्वि ! वितन्यमाना। तव प्रसादोपनते तु मौलो पूजास्तु नस्त्वत्पदपङ्कजाभ्याम् स्वर्णेवितीर्णैः करवाम वाम नेत्रे ! भवत्या किमुपासनासु / अङ्ग ! त्वदङ्गानि निपीतपीत दर्पाणि पाणिः खलु याचते नः // 68 / / वयं कलादा इव दुर्विदग्धं त्वद्गौरिमस्पधि दहेम हेम / प्रसूननाराचशरासनेन सहैकवंशप्रभवभ्रु ! बभ्रु * / / 99 / / सुधासरःसु त्वदनङ्गताप: शान्तो न नः किं पुनरप्सरःसु / निर्वाति तु त्वन्ममताक्षरेण __ सूनाशुगेषोर्मधुसीकरण // 100 / / खण्ड: किमु त्वद्गिर एव खण्डः कि शर्करा तत्पथशर्करैव / 25 कृशाङ्गि ! तद्भङ्गिरसोत्थकच्छ तृणं नु दिक्षु प्रथितं तदिक्षः // 101 / / Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 730 ] ( काव्यषटकं 5 मिति ददाम किं ते सुधयाऽधरेण त्वदास्य एव स्वयमास्यते हि। . चन्द्र विजित्य स्वयमेव भावि त्वदाननं तन्मखभागभोजि . 02 / / प्रिये ! वृणीष्वामरभावमस्म दिति त्रपाकृद्वचनं न किं नः / स्वत्पादपद्म 'शरणं प्रविश्य स्वयं वयं येन जिजीविषाम // 103 / / नास्माकमस्मान्मदनापमृत्यो स्त्राणाय पीयूष रसायनानि / प्रसोद तस्मादधिकं निजं तु प्रयच्छ पातुं रदनच्छदं नः / / 104 / / प्लुष्टः स्वैश्चापरोपैः सह स हि मकरेणात्मभूः केतुनाऽभू द्धत्तां नस्त्वत्प्रसादादथ मनसिजतां मानसो नन्दनः सन् / 15 भ्रूभ्यां ते तन्वि! धन्वी भवतु तव सितै®त्रभल्लः स्मितैः स्ता. दस्तु त्वन्नेत्रचञ्चत्तरशफरयुगाधीनमीनध्वजाङ्कः / / 10 / / स्वप्नेन प्रापितायाः प्रतिरजनि तव श्रीषु मग्नः कटाक्षः श्रोत्रे गीतामृताब्धी त्वगपि ननु तनूमञ्जरीसौकुमार्ये / नासा श्वासाधिवासेऽधरमधुनि रसज्ञा चरित्रेषु चित्तं 20 तन्नस्तन्वङ्गि! कैश्चिन्न करणहरिणैर्वागुरा लचितासि / / 106 // इति धृतसुरसार्थवाचिकस्र निजरसनातलपत्रहारकस्य / सफलय मम दूततां वृणीष्व स्वयमवधार्य दिगीशमेकमेषु 25 आनन्दयेन्द्रमथ मन्मथमग्नमग्नि केलीभिरुद्धर तनूदरि ! नूतनाभिः / ||107 // Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 731 प्रासादयोदितदयं शमने मनो वा नो वा यदीत्थपथ तद्वरुणं वृणीथाः / / 108 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्यागादयमष्टमः कविकुलादृष्टाध्वपान्थे महाकाव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः / / 10 / / ' / / इति महाकविश्रीहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशेऽष्टमः सर्गः समाप्तः / / 8 / / // 1 / / // 9 // नवमः सर्गः॥ इतोयमक्षिध्रुवविभ्रमेङ्गित स्फुटामनिच्छां विवरीतुमुत्सुका / तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छयाऽशृणो द्दिगीशसंदेशगिरं न गौरवात् तपितामश्रुतवद्विधाय तां दिगीशसंदेशमयीं सरस्वतीम् / इदं तमुर्वीतलशीतलद्युतिः - जगाद वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी मयाङ्ग ! पृष्ट: कुलनामनी भवा नमू विमुच्यैव किमन्यदुक्तवान् / न मह्यमत्रोत्तरधारयस्य किं ह्रियेऽपि सेयं भवतोऽधमर्णता . - अदृश्यमाना क्वचिदीक्षिता क्वचि न्ममानुयोगे भवतः सरस्वती / // 2 // // 3 / / Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 732 ] [ काव्यषटकं क्वचित्प्रकाशां क्वचिदस्फुटार्णसं सरस्वती जेतुमनाः सरस्वतीम् // 4 // गिरः श्रुता एव तव श्रवःसुधाः श्लथा भवन्नाम्नि तु न श्रुतिस्पृहा / पिपासुता शान्तिमुपैति वारिजा न जातु दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि // 5 // बिभर्ति वंश: कतमस्तमोपहं भवादृशं नायकरत्नमीदृशम् / तमन्यसामान्यधियावमानितं त्वया महान्तं बहु मन्तुमुत्स हे इतीरयित्वा विरतां स तां पुन गिरानुजग्राहतरां नराधिपः / विरुत्य विश्रान्त वतीं तपात्यये - घनाघनश्चातकमण्डलीमिव अये ! ममोदासितमेव जिह्वया द्वयेऽपि तस्मिन्ननतिप्रयोजने / गरौ गिरः पल्लवनार्थलाघवे मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता / / 8 / / वृथा कथेयं मयि वर्णपद्धतिः कयानुपूर्व्या समकेति केति च / क्षमे समक्षव्यवहारमावयोः पदे विधातुं खलु युष्मदस्मदी यदि स्वभावान्मम नोज्ज्वलं कुल . ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः / प्रथावदातं तदहो विडम्बना तथा कथा प्रेष्यतयोपसेदुषः // 7 // ||6|| 25 // 10 // Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 733 5 इति प्रतीत्यैव मयावधीरिते तवापि निर्बन्धरसो न शोभते / हरित्पतीनां प्रतिवाचिकं प्रति श्रमो गिरां ते घटते हि संप्रति / / 11 / / तथापि निर्बध्नति ! तेऽथवा स्पृहा मिहानुरुन्धे मितया न कि गिरा। हिमांशुवशस्य करीरमेव मां निशम्य किं नासि फलेग्रहिग्रहा // 12 / / महाजनाचारपरम्परेदशी स्वनाम नामाददते न साधवः / अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुन र्जनः किलाचारमुचं विगायति // 13 / / प्रदोऽयमालप्य शिखीव शारदो बभूव तूष्णीमहितापकारकः / अथास्यरागस्य दधा पदे पदे वासि हंसीव विदर्भजाददे सुधांशुवंशाभरणं भवानिति श्रुतेऽपि नापैति विशेषसंशयः / कियत्सु मौनं वितता कियत्सु वाङ्महत्यहो वञ्चनचातुरी तव / / 15 / / मयापि देयं प्रतिवाचिकं न ते __स्वनाम मत्कर्णसुधामकुर्वते।।। परेण पुंसा हि ममापि संकथा कुलाबलाचारसहासनासहा // 16 // 25 . हृदाभिनन्द्य प्रतिबन्द्यनुत्तरः प्रियागिरः सस्मितमाह स स्म ताम् / // 14 // या Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 734 ] ( काव्यषट्कं वदामि वामाक्षि ! परेषु मा क्षिप . स्वमीदृशं माक्षिकमाक्षिपद्वचः // 17 / / करोषि नेमं फलिनं मम श्रम दिशोऽनुगृह्णासि न कंचन प्रभुम् / त्वमित्थमर्हासि सुरानुपासितुं रसामृतस्नानपवित्रया गिरा // 18 // सुरेषु संदेशयसीदृशीं बहुं रसस्रवेण स्तिमितां न भारतीम् / / मर्पिता दर्पकतापितेषु या - प्रयाति दावादितदाववृष्टिताम् // 19 / / यथा यथेह त्वदुपेक्षयानया निमेषमप्येष जनो विलम्बते / रुषा शरव्यीकरणे दिवौकसां तथा तथाद्य त्वरते रतेः पतिः // 20 // इयच्चिरस्यावदधन्ति मत्पथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिर्न निर्ममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेष्यगुणोऽपि यत्र न // 21 // इदं निगद्य क्षितिभर्तरि स्थिते तयाभ्यधायि स्वगतं विदग्धया। अधिस्त्रि तं दूतयतां भुवः स्मरं मनो दधत्या नयनैपुणव्यये // 22 // जलाधिपस्त्वामदिशन्मयि ध्रुवं परेतराजः प्रजिघाय स स्फुटम् / मरुत्वतैव प्रहितोऽसि निश्चिंतं नियोजितश्चोर्ध्वमुखेन तेजसा // 23 / / 25 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 735 अथ प्रकाशं निभृतस्मिता सती सतीकुलस्याभरणं किमप्यसौ / पुनस्तदाभाषणविभ्रमोन्मुखं मुखं विदर्भाधिपसंभवा दधौ // 24 // वृथापरीहास इति प्रगल्भता न नेति च त्वाशि वाग्विगर्हणा। भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरा दतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते // 25 / / कथं नु तेषां कृपयापि वागसा वसावि मानुष्यकलाञ्छने जने / स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वराः ____ कया न वाचा मुदमुद्गिरन्ति वा / / 26 / / अहो महेन्द्रस्य कथं मयौचिती सुराङ्गनासंगमशोभिताभृतः / ह्रदस्य हंसावलिमांसलश्रियो बलाकयेव प्रबला विडम्बना // 27 / / पुरः सुरीणां भंण केव मानवी न यत्र तास्तत्र तु शोभिकापि सा / अकाञ्चनेऽकिंचन नायिकाङ्गके किमारकूटाभरणेन न श्रियः // 28 // यथा तथा नाम गिरः किरन्तु ते श्रुती पुनर्मे बधिरे तदक्षरे। . पृषत्किशोरी कुरुतामसंगतां कथं मनोवृत्तिमपि द्विपाधिपे // 26 / / 25 . अदो निगद्यैव नतास्यया तया श्रुतौ लगित्वाभिहितालिरालपत् / Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 736 ] [ काव्यषटकं प्रविश्य यन्मे हृदयं ह्रियाहि तद्विनिर्यदाकर्णय मन्मुखाध्वना // 30 / / बिभेमि चिन्तामपि कर्तु मीशी चिराय चित्तापितनैषधेश्वरा / मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थिति लवादपि त्रुटयति चापलास्किल / / 31 / / ममाशयः स्वप्नदशाज्ञयापि वा नलं विलङ्घय तरमस्पृशद्यदि कुतः पुनस्तत्र समस्तसाक्षिणी निजैव बुद्धिविबुधैनं पृच्छयते // 32 / / अपि स्वमस्वप्नमसूषुपन्नमी परस्य दाराननवैतुमेव माम् / स्वयं दुरध्वार्णवनाविकाः कथं स्पृशन्तु विज्ञाय हृदापि तादृशीम् / / 33 / / अनुग्रहः केवलमेष मादृशे मनुष्यजन्मन्यपि यन्मनो जने / स चेद्विधेयस्तदमी तमेव मे प्रसद्य भिक्षां वितरीतुमोशताम् // 34 / / अपि द्रढीयः शृणु मत्प्रतिश्रुतं स पीडयेत्पाणिमिमं न चेन्नृपः / हुताशनोद्वन्धनवारिकारितां निजायुषस्तत्करवै स्ववैरिताम् . // 35 / / निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा / ___घनाम्बुना राजपथे हि पिच्छिले / क्वचिबुधैरप्यपथेन गम्यते // 36 / / Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 737 स्त्रिया मया वाग्मिषु तेषु शक्यते ___ न जातु सम्यग्वितरीतुमुत्तरम् / तदत्र मद्भाषितसूत्रपद्धती / प्रबन्धृतास्तु प्रतिबन्धृता न ते // 37 // निरस्य दूतः स्म तथा विसर्जितः प्रियोक्तिरप्याह कदुष्णमक्षरम् / कुतूहलेनेव मुहुः कुहूरवं _ विडम्ब्य डिम्भेन पिकः प्रकोपितः // 38 / / अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते त्वमप्यमीभ्यो विमुखीति कौतुकम् / क्व वा निधिनिर्धनमेति किंच तं स वाक्कवाट घटयनिरस्यति // 36 // सहाखिलस्त्रीषु वहेऽवहेलया महेन्द्ररागाद्गुरुमादरं त्वयि / त्वमीशि श्रेयसि संमुखेऽपि तं पराङ्मुखी चन्द्रमुखि ! न्यवीवृतः // 40 // दिवौकसं कामयते न मानवी नवीनमश्रावि तवाननादिदम् / कथं न वा दुर्ग्रहदोष एष ते / हितेन सम्यग्गुरुणापि शाम्यते // 41 / / अनुग्रहादेव दिवौकसां नरो निरस्य मानुष्यकमेति दिव्यताम् / प्रयोविकारे स्वरितत्वमिष्यते कुतोऽयसां सिद्धरसस्पृशामपि // 42 / / 25 . हरिं परित्यज्य नलाभिलाषुका न लज्जसे वा विदुषिवा कथम् ? / Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 738 ] [ काव्यषट्कं // 44 // उपेक्षितेक्षोः करभाच्छमीरता दुरुं वदे त्वां करभोरु ! भोरिति // 43 / / विहाय हा सर्वसुपर्वनायक __त्वया धृतः किं नरसाधिमभ्रमः / मुखं विमुच्य श्वसितस्य धारया . वथैव नासापथधावनश्रमः तपोऽनले जुवति सूरयस्तनू दिवे फलायान्यजनु विष्णवे / करे पुनः कर्षति सैव विह्वला बलादिव त्वां वलसे न बालिशे ! // 45 / / यदि स्वमुद्वन्धुमना विना नलं भवेभवन्ती हरिरन्तरिक्षगाम् / दिविस्थितानां प्रथितः 'पतिस्ततो हरिष्यति न्याय्यमुपेक्षते हि कः // 46 // निवेक्ष्यसे यद्यनले नलोज्झिता सुरे तदस्मिन्महती दया कृता / चिरादनेनार्थनयापि दुर्लभं स्वयं त्वयैवाङ्ग ! यदङ्गमर्यते // 47 / / जितं जितं तत्खलु पाशपाणिना विना नलं वारि यदि प्रवेक्ष्यसि / तदा त्वदाख्यान्बहिरप्यसूनसौ पयःपतिर्वक्षसि वक्ष्यतेत राम् करिष्यसे यद्यत एव दूषणा दुपायमन्यं विदुषी स्वमृत्यवे / प्रियातिथिः स्वेन गृहागता कथं त धर्मराजं चरितार्थयिष्यसि ? // 46 / / 15 20 // 48 // Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 736 Ac निषेधवेषो विधिरेष तेऽथवा. तवैव युक्ता खलु वाचि वक्रता / विज़म्भितं यस्य किल ध्वनेरिदं विदग्धनारीवदनं तदाकरः // 50 // भ्रमामि ते भैमि ! सरस्वतीरस प्रवाहचक्रेषु निपत्य कत्यदः / त्रपामपाकृत्य मनाक्कूरु स्फुट ___ कृतार्थनीय: कतमः सुरोत्तमः // 51 // मतः किमैरावतकुम्भकैतव प्रगल्भपीनस्तनदिग्धवस्तवः / सहस्रनेत्रान्न पृथग्मते मम त्वदङ्गलक्ष्मीमवगाहितुं क्षमः // 52 // प्रसीद तस्मै दमयन्ति ! संततं त्वदङ्गसङ्गप्रभवैर्जगत्प्रभुः / पुलोमजालोचनतीक्ष्णकण्टकै स्तनुं घनामातनुतां स कण्टकैः // 53 / / प्रबोधि तत्त्वं दहनेऽनुरज्यसे / स्वयं खलु क्षत्रियगोत्रजन्मनः / विना तमोजस्विनमन्यतः कथं मनोरथस्ते वलते विलासिनि ! // 54 / / त्वयैकसत्या तनुतापशङ्कया ततो निवर्यं न मनः कथंचन / हिमोपमा तस्य परोक्षणक्षणे सतीषु वृत्तिः शतशो निरूपिता // 55 / / 25 / स धर्मराजः खलु धर्मशीलया त्वयास्ति चित्तातिथितामवापितः / Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 740 ] [ काव्यषटकं ममापि साधुः प्रतिभात्ययं क्रम श्चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगम: / / 6 / / अजातविच्छेदलवैः स्मरोद्भवै ___ रगस्त्यभासा दिशि निर्मलत्विषि / धुतावधि कालममृत्युशङ्किता निमेषवत्तेन नयस्व केलिभिः // 57 / / शिरीषमृद्वी वरुणं किमीहसे पयःप्रकृत्या मृदुवर्गवासवम् / विहाय सर्वान्वृणुते स्म किं न सा निशापि शोतांशुमनेन हेतुना // 58 / / असेवि यस्त्यक्तदिवा दिवानिशं श्रियः प्रियेणानणुरामणीयकः / सहामुना तत्र पयःपयोनिधौ कृशोदरि ! क्रीड यथामनोरथम् / / 5 / / इति स्फुटं तद्वचसस्तयादरा सुरस्पहारोपविडम्बनादपि / करासुप्तककपोलकर्णया श्रुतं च तद्भाषितमश्रुतं च तत् // 60 / / चिरादनध्यायमवाङ्मुखी मुखे ततः स्म सा वासयते दमस्वसा / कृतायतश्वासविमोक्षणाथ तं क्षणाद्वभाषे करुणं विचक्षणा // 61 / / विभिन्दता दुष्कृतिनी मम श्रुति दिगिन्द्रदुर्वाचिकसूचिसंचयः / प्रयातजीवामिव मां प्रति स्फुटं कृतं त्वयाप्यन्तकदूततोचितम् // 62 / / 25 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 741 / / 63 / / त्वदास्यनिर्यन्मदलीकदुर्यशो मषीमयं सल्लिपिरूपभागिव / श्रुति ममाविश्य भवदुरक्षरं सृजत्यद: कीटवदुत्कटा रुजः तमालिरूचेऽथ विदर्भजेरिता प्रगाढमौनवतयैकया सखी। त्रपां समाराधयतीयमन्यया __ भवन्तमाह स्वरसज्ञया मया // 64 / / तमचितुं मदरणस्रजा नृपं . स्वयंवरः संभविता परेद्यवि / ममासुभिर्गन्तुमनाः पुरःसरै. स्तदन्तरायः पुनरेष वासरः // 65 / / तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे दिनं निनीषामि भवद्विलोकिनी / नखैः किलाख्यायि विलिख्य पक्षिणा तवैव रूपेण समः स मत्प्रियः // 66 / / दृशोयी ते विधिनास्ति वञ्चिता मुखस्य लक्ष्मी तव यन्न वीक्षते। असावपि श्वस्तदिमां नलानने विलोक्य साफल्यमुपैतु जन्मनः // 67 / / ममैव पाणौकरणेऽग्निसाक्षिक प्रसङ्गसंपादितमङ्ग ! संगतम् / न हा सहाधीतिधृतः स्पृहा कथं तवार्यपुत्रीयमजर्यमजितुम् ? // 68 // 25 . दिगीश्वरार्थं न कथंचन त्वया कदर्थनीयास्मि कृतोऽयमञ्जलिः / प्रय Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 742 ] [ काव्यषटकं प्रसद्यतां नाद्य निगाद्यमीदृशं . . दृशौ दधे बाष्परयास्पदे भृशम् // 69 / / वृणे दिगीशानिति का कथा तथा त्वयोति नेक्षे नलभामपीहया / सतीव्रतेऽग्नौ तृणयामि जीवितं स्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः // 70 / / न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स. धर्मचिन्तामणिरुज्झितो यया। कपालिकोपानलभस्मनः कृते ___ तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं तया // 71 / / निपीय पीयूषरसौरसीरसौ गिरः स्वकंदर्पहुताशनाहुतीः। कृतान्तदूतं न तया यथोदितं कृतान्तमेव स्वममन्यतादयम् // 72 // स भिन्नमर्मापि तदर्तिकाकुभिः स्वदूतधर्मान्न विरन्तुमैहत / शनैरशंसन्निभृतं विनिश्वस विचित्रवाश्चित्रशिखण्डिनन्दनः // 73 // दिवोधवस्त्वां यदि कल्पशाखिनं कदापि याचेत निजाङ्गणालयम् / कथं भवेरस्य न जीवितेश्वरी न मोघयाञ्चः स हि भीरु ! भूरुहः / / 74 / / शिखी विधाय त्वदवाप्तिकामनां स्वयंहुतस्वांशहविः स्वमूर्तिषु / / क्रतुं विधत्ते यदि सार्वकामिक ___ कथं स मिथ्यास्तु विधिस्तु वैदिकः / / 7 / / 15 25 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ). [ 743 // 78 // सदा तदाशामधितिष्ठतः करं . वरं प्रदातुं चलिताद्वलादपि / मुनेरगस्त्यावृणुते स धर्मरा ड्यदि त्वदाप्ति भरण का तदा गतिः / / 76 / / तोः कृते जाग्रति वेत्ति कः कति प्रभोरपां वेश्मनि कामधेनवः ? / त्वदर्थमेकामपि याचते स चेत् / प्रचेतसः पाणिगतैव वर्तसे // 77 // न संनिधात्री यदि विघ्नसिद्धये पतिव्रता पत्युरनिच्छया शची। स एव राजव्रजवैशसात्कृतः परस्परस्पधिवरः स्वयंवर: ? निजस्य वृत्तान्तमजानतां मिथो ___ मुखस्य रोषात्परुषाणि जल्पतः / मृधं किमच्छत्रकदण्डताण्डवं __ भुजाभुजि क्षोणिभुजां दिदृक्षसे // 79 / / अपार्थयन्याजकफूत्कृतिश्रमं ज्वले द्रुषा चेद्वपुषा. तु नानलः / अलं नल: कर्तु मनग्निसाक्षिक विधि विवाहे तव सारसाक्षि ! कम् ? / / 8 / / पतिवराया: कुलजं वरस्य वा यमः कमप्याचरितातिथिं यदि / कथं न गन्ता विफलीभविष्णुतां ___ स्वयंवरः साध्वि ! समृद्धिमानपि ? // 81 / / अपः प्रति स्वामितयाऽपरः सुरः स ता निषेधेद्यदि नैषधक्रुधा / 25 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 744 ] [ काव्यषट्कं नि // 84 // नलाय लोभत्ततपाणयेऽपि ते पिता कथं त्वां वद संप्रदास्यते // 42 / / इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय / सुरेषु विघ्नैकपरेषु को नरः करस्थमप्यर्थमवाप्तुमीश्वरः ? // 83 / / इमा गिरस्तस्य विचिन्त्य चेतसा तथेति संप्रत्ययमाससाद सा। निवारितावग्रहनीरनिर्भरे नभोनभस्यत्वमलम्भयदृशौ स्फूटोत्पलाभ्यामलिदंपतीव तद् विलोचनाभ्यां कुचकुड्मलाशया / निपत्य बिन्दू हृदि कज्जलाविलौ मणीव नीलो तरलौ विरेजतुः // 85 / / धुतापतत्पुष्पशिलीमुखाशुगैः शुचेस्तदासीत्सरसी रसस्य सा / रयाय बद्धादरयाश्रधारया सनालनीलोत्पललीललोचना // 46 // प्रथोद्धमन्ती रुदती गतक्षमा ससंभ्रमा लुप्तरतिः स्खलन्मतिः / व्यधात्प्रियप्राप्तिविघातनिश्चया न्मृदूनि दूना परिदेवितानि सा / / 7 / / त्वरस्व पञ्चेषुहुताशनात्मन स्तनुष्व मद्भस्ममयं यशश्चयम् / विधे ! परेहाफलभक्षणव्रती पताद्य तृप्यन्नसुभिर्ममाफलैः 25 // 8 // Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 745 // 30 // भृशं वियोगानलतप्यमान ! किं विलीयसे न त्वमयोमयं यदि / स्मैरेषुभिर्भेद्य ! न वज्रमप्यसि वीषि न स्वान्त ! कथं न दीर्यसे // 86 // विलम्बसे जीवित ! किं द्रव द्रतं ____ ज्वलत्यदस्ते हृदयं निकेतनम् / जहासि नाद्यापि मृषा सुखासिका मपूर्वमालस्यमिदं तवेदृशम् दृशौ ! मृषा पातकिनो मनोरथाः कथं पथू वामपि विप्रलेभिरे / प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति पातकं स्वमश्रुभिः क्षालयतं शतं समाः // 61 / / प्रियं न मृत्यं न लभे त्वदीप्सितं तदेव न स्यान्मम यत्त्वमिच्छसि / वियोगमेवेच्छ मन: ! प्रियेण मे तव प्रसादान भवत्वसौ मम // 2 // न काकुवाक्यैरतिवाममङ्गजं द्विषत्सु याचे पवनं तु दक्षिणम् / दिशापि मद्भस्म किरत्वयं तया प्रियो यया वैरविधिर्वघावधिः // 13 // अमुनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः कियत्सहिष्ये न हि मृत्युरस्ति मे। स मां न कान्तः स्फुटमन्तरुज्झिता न तं मनस्तच्च न कायवायवः ||4|| मदुग्रतापव्ययशक्तशीकरः / सुराः ! स व: केन पपे कृपार्णवः / Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 746 ] { काव्यपटकं 5 उदेति कोटिर्न मुदे मदुत्तमा किमाशु संकल्पकणश्रमेण वः // 65 / / ममैव वाहदिनमश्रुदुर्दिनैः प्रसह्य वर्षासु ऋतौ प्रसञ्जिते / कथं नु शृण्वन्तु सुषुप्य देवता भवत्वरण्येरुदितं न मे गिरः / / 6 / / इयं न ते नैषध ! दृक्पथातिथि स्त्वदेकतानस्य जनस्य यातना / ह्रदे ह्रदे हा न कियद्गवेषितः / स वेधसाऽगोपि खगोऽपि वक्ति यः / / 17 / / ममापि कि नो दयसे दयाघन ! त्वदध्रिमग्नं यदि वेत्थ मे मनः / निमज्जयन्संतमसे पराशयं विधिस्तु वाच्यः क्व तवागसः कथा ? / / 68 / / कथावशेषं तव सा कृते गते - त्युपैष्यति श्रोत्रपथं कथं न ते ? / दयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे तदापि तावद्यदि नाथ ! नाधुना ||6|| ममादरीदं विदरीतुमान्तरं तदर्थिकल्पद्रुम ! किंचिदर्थये / भिदां हृदि द्वारमवाप्य मा स मे हतासुभिः प्राणसमः समं गमः / / 10 / / इति प्रियाकाकुभिरुन्मिषन्भृशं दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतः / नृपं स योगेऽपि वियोगमन्मथः क्षणं तमुभ्रान्तमजीजनत्पुनः // 101 / / 25 Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नेषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः [ 747 महेन्द्रदूत्यादि समस्तमात्मन स्ततः स विस्मृत्य मनोरथस्थितैः / क्रियाः प्रियाया ललितैः करम्बिता वितर्कयन्नित्थमलीकमालपत् // 102 / / अयि प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते विलिप्यते हा मुखमश्रुबिन्दुभिः / पुरस्त्वयालोकि नमन्नयं न कि तिरश्चलल्लोचनलीलया नलः // 103 / / चकास्ति बिन्दुच्युतकातिचातुरी घनास्त्र बिन्दुस्र तिकैतवात्तव / मसारताराक्षि ! ससारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं. यतः // 104 / / अपास्तपाथोरुहि शायितं करे . करोषि लीलाकमलं किमाननम् / तनोषि हारं कियदस्र णः स्रवै रदोषंनिर्वासितभूषणे हृदि // 105 / / दृशोरमङ्गल्यमिदं मिलज्जलं करेण तावत्परिमार्जयामि ते / अथापराधं भवज्रिपङ्कजं द्वयोरजोभिः सममात्ममौलिना // 106 // मम त्वदच्छाङ्ग्रिनखामृतद्युतेः किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी / / उपासनामस्य करोतु रोहिणी त्यज त्यजाकारणरोषणे ! रुषम् // 107 / / २५तनोषि मानं मयि चेन्मनागपि त्वयि श्रये तद्बहुमानमानतः / Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 748 ] [ काव्यषटकं विनम्य वक्रं यदि वर्तसे किय नमामि ते चण्डि ! तदा पदावधि / / 108 / / * प्रभुत्वभूम्नानुगहाण वा न वा प्रणाममात्राधिगमेऽपि कः श्रमः ? / क्व याचतां कल्पलतासि मां प्रति क्व दृष्टिदाने तव बद्धमुष्टिता ? / / 10 / / स्मरेषुमाथं संहसे मृदुः कथं हदि द्रढीयः कूचसंवते तव / निपत्य वैसारिणकेतनस्य वा व्रजन्ति बाणा विमुखोत्पतिष्णुताम् / / 110 / / स्मितस्य संभावय सक्वणा कणा विधेहि लीलाचलमञ्चलं भ्रवः / अपाङ्गरथ्यापथिकी च हेलया प्रसद्य संधेहि दृशं ममोपरि // 111 / / समापय प्रावृषमस्र विषां स्मितेन विश्राणय कौमुदीमुदः / दृशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी विकासि पकेरुहमस्तु ते मुखम् / / 112 / / सुधारसोद्वेलनकेलिमक्षर स्रजा सृजान्तर्मम कर्णकूपयोः / दृशौ मदीये मदिराक्षि ! कारय स्मितश्रिया पायसपारणाविधिम् // 113 / / ममासनार्धे भव मण्डनं न न प्रिये ! मदुत्सङ्गविभूषणं भव / अहं भ्रमादालपमङ्ग ! मृष्यतां . विना ममोरः कतमत्तवासनम् // 114 / / Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ) . [ 746 अधीतपञ्चाशुगबाणवञ्चने ! . स्थिता मदन्तर्बहिरेषि चेदुरः / स्मराशुगेभ्यो हृदय बिभेतु न प्रविश्य तत्त्वन्मयसंपुटे मम // 115 / / परिष्वजस्वानवकाशबारणता स्मरस्य लग्ने हृदयेद्वयेऽस्तु नौ / दृढा मम त्वत्कुचयोः कठोरयो रुरस्तटीयं परिचारिकाचिता // 116 / / तवाधराय स्पृहयामि यन्मधु स्रवैः श्रवःसाक्षिकमाक्षिका गिरः / अधित्यकास स्तनयोस्तनोतु ते _ममेन्दुलेखाभ्युदयाद्भुतं. नखः . // 117 / / न वर्तसे मन्मथनाटिका कथं प्रकाशरोमावलिसूत्रधारिणी / तवाङ्गहारे रुचिमेति नायकः शिखामणिश्च द्विजराड्विदूषकः // 118 / / शुभाष्टवर्गस्त्वदनङ्गजन्मन . स्तवाघरेऽलिख्यत यत्र लेखया। मदीयदन्तक्षतराजिरञ्जनैः ___स भूर्जतामर्जतु बिम्बपाटलः // 116 / / . गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनैः प्रसीद शुश्रूषयितुं मया कुचौ / निशेव चान्द्रस्य करोत्करस्य यन् __ मम त्वमेकासि नलस्य जीवितम् // 120 / / मुनिर्यथात्मानमथ प्रबोधवान् . प्रकाशयन्तं स्वमसावबुध्यत / 25 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750 ] [ काव्यषट्कं अपि प्रपन्नां प्रकृति विलोक्य ता मवाप्तसंस्कारतयासृजद्गिरः // 121 / / अये ! मयात्मा किमनिह्न तीकृतः / किमत्र मन्ता स तु मां शतक्रतुः / पुरः स्वभक्त्याथ नमन्हियाविलो विलोकिताहे. न तदिङ्गितान्यपि // 122 / / स्वनाम यन्नाम मूधाभ्यधामहो महेन्द्रकार्य महदेतदुज्झितम् / / हनूमदाद्यैयशसा मया पुन द्विषां हसैर्दूत्यपथः सितीकृतः // 123 / / धियात्मनस्तावदचारु नाचरं परस्तु तद्वेद स यद्वदिष्यति / जनावनायोद्यमिनं जनार्दनं क्षये जगज्जीवपिबं शिवं वदन् // 124 / / स्फुटत्यदः किं हृदयं त्रपाभरा द्यदस्य शुद्धिर्विबुधैर्विबुध्यताम् / विदन्तु ते तत्त्वमिदं तु दन्तुरं ___ जनानने कः करमर्पयिष्यति // 125 / / मम श्रमश्चेतनयानया फली बलीयसालोपि च सैव वेधसा / न वस्तु देवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकर्तु मीश्वरः // 126 / / इति स्वयं मोहमहोमिनिमितं . प्रकाशनं शोचति नैषधे निजम् / तथाव्यथामग्नतदुद्दिधीर्षया दयालुरागाल्लधु हेमहंसराट् // 127 / / 25 Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 751 नलं स तत्पक्षरवोलवीक्षिणं . स एष पक्षोति भणन्तमभ्यधात् / नयादयैनामति मा निराशता __मसून्विहातेयमतः परं परम् // 128 / / सुरेषु पश्यन्निजसापराधता मियत्प्रयस्यापि तदर्थसिद्धये / न कूटसाक्षीभवनोचितो भवान् . सतां हि चेतःशुचितात्मसाक्षिका 126 / / इतीरिणापृच्छय नलं विदर्भजा 'मपि प्रयातेन खगेन सान्त्वितः / मृदुर्बभाषे भगिनीं दमस्य स प्रणम्य चित्तेन हरित्पतीन्नृपः // 130 / / ददेऽपि तुभ्यं कियंतीः कदर्थनाः सुरेषु रागप्रसंवावकेशिनीः / अदम्भदूत्येन भजन्तु वा दयां दिशन्तु वा दण्डममी भमागसा / / 131 / / अयोगजामन्वभवं न वेदनां . . हिताय मेऽभूदियमुन्मदिष्णुता / उदेति दोषादपि दोषलाधवं . . कृशत्वमज्ञानवशादिवैनसः / / 132 // तवेत्ययोगस्मरपावकोऽपि मे .. कदर्थनात्यर्थतयाऽगमद्दयाम् / . प्रकाशमुन्माद्य यदद्य कारयन् मयात्मनस्त्वामनुकम्पते स्म सः // 133 / / २५अमी समीहैकपरास्तवामराः ___ स्वकिंकरं मामपि कर्तु मी शिषे / Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 752 ] [ काव्यषट्कं विचार्य कार्य सृज मा विधान्मुधा कृतानुतापस्त्वयि पाणिविग्रहम् // 134 / / उदासितेनैव मयेदमुद्यसे भिया न तेभ्यः स्मरतानवान्न वा / हितं यदि स्यान्मदसुव्ययेन ते तदा तव प्रेमणि शुद्धिलब्धये // 135 / / इतोरितैर्नैषधसूनृतामृत विदर्भजन्मा भृशमल्ललास सा। ऋतोरधिश्रीः शिशिरानुजन्मनः पिकस्वरैर्दूरविकस्वरैर्यथा // 136 / / नलं तदावेत्य तमाशये निजे घृणां विगानं च मुमोच भोमजा / जुगुप्समाना हि मनो धृतं तदा सतीधिया दैवतदूतघावि सा // 137 / / मनोभुवस्ते भविनां मनः पिता निमज्जयन्नेनसि तन्न लज्जसे / अमुद्रि सत्पुत्रकथा त्वयेति सा . स्थिता सती मन्मथनिन्दिनी धिया // 138 / / प्रसूनमित्येव तदङ्गवर्णना न सा विशेषात्कतमत्तदित्यभूत् / तदा कदम्बं तदणि लोमभि मुं दस्र णा प्रावृषि हर्षमागतैः // 139 / / मयैव संबोध्य नलं व्यलापि यत्स्वमाह मद्धमिदं विमृश्य तत् / असाविति भ्रान्तिमसाइमस्वसुः / स्वभाषितस्वोभ्रमविभ्रमक्रमः // 140 / / 25 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सगः ] [ 713 विदर्भ राजप्रभवा ततः परं त्रपासखो वक्तुमलं न सा नलम् / पुरस्तमूचेऽभिमुखं यदत्रपा ___ममज्ज तेनैव महाह्रदे ह्रियः // 141 / / यदापवापि न दातुमुत्तरं शशाक सख्याः श्रवसि प्रियस्य सा। विहस्य सख्येव तमब्रवीत्तदा ह्रियाऽधुना मौनधना भवत्प्रिया // 142 / / पदातिथ्याँल्लिखितस्य ते स्वयं . वितन्वती लोचननिर्भरानियम् / जगाद यां सैव मुखान्मम त्वया प्रसूनबाणोपनिषन्निशम्यताम् / / 143 / / असशयं स त्वयि हंस एव मां. शशंस न त्वद्विरहाप्तसंशयाम् / क्व चन्द्रवंशस्य वतंस ! मद्वधा नशंसता संभविनी भवाशे // 144 / / जितस्त्वयास्येन विधुः स्मरः श्रिया कृतप्रतिज्ञौ मम तौ वधे कुतः / तवेति कृत्वा यदि तज्जित मया न मोघसङ्कल्पधराः किलामराः // 145 / / निजांशुनिर्दग्धमदङ्गभस्मभि मुंधा विधुर्वाञ्छति लाञ्छनोन्भृजाम् / त्वदास्यतां यास्यति तावतापि किं वधूवधेनैव पुनः कलङ्कितः // 146 / / 25 . ' प्रसीद यच्छ स्वशरान्मनोभुवे स हन्तु मां तेधुं तकौसुमाशुगः / Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 754 ] [ काव्यषट्कं त्वदेकचित्ताहमसून्विमुञ्चती त्वमेव भूत्वा तृणवज्जयामि तम् // 147 / / श्रुतिः सुराणां गुणगायनी यदि त्वद िमग्नस्य जनस्य किं ततः / स्तवे रवेरप्सु कृताप्लवैः कृते न मुद्वती जातु भवेत्कुमुद्वती // 148 / / कथासु शिष्य वरमद्य न ध्रिये ममावगन्तासि न भावमन्यथा / त्वदर्थमुक्तासुतया सुनाथ ! मां प्रतीहि जीवाभ्यधिक ! त्वदेकिकाम् / / 149 / / महेन्द्रहेतेरपि रक्षणं भयाद्यदर्थिसाधारणमस्त्रभृव्रतम् / प्रसूनबाणादपि मामरक्षतःक्षतं तदुच्चैरवकोणिनस्तव / / 150 / / तवास्मि मां घातुकमप्युपेक्षसे मृषामरं हाऽमरगौरवात्स्मरम् / अवेहि चण्डालमनङ्गमङ्ग ! तं स्वकाण्डकारस्य मघोः सखा हि सः / / 151 / / लघौ लघावेव पुरः परे बुध विधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः / . तृणे तृणेढि ज्वलनः खलु ज्वलन् ___क्रमाकरीषद्रुमकाण्डमण्डलम् // 152 / / सुरापराधस्तव वा कियानयं स्वयंवरायामनुकम्प्रता मयि / गिरापि वक्ष्यन्ति मखेषु तर्पणा दिदं न देवा मुखलज्जयैव ते // 153 / / 25 वजन्तु ते तेऽपि वरं स्वयंवरं प्रसाद्य तानेव मया वरिष्यसे / Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: नवमः सर्गः ] [ 755 न सर्वथा तानपि न स्पृशेद्दया न तेऽपि तावन्मदनस्त्वमेव वा // 154 / / इतीयमालेख्यगतेऽपि वीक्षिते त्वयि स्मरवीडसमस्ययानया। पदे पदे मौनमयान्तरीपिणी प्रवर्तिता सारघसारसारणी // 155 / / चण्डालस्ते विषमविशिखः स्पृश्यते दृश्यते न ख्यातोऽनङ्गस्त्वयि जयति यः किंनु कृत्तामुलीकः / कृत्वा मित्रं मधुमधिवनस्थानमन्तश्चरित्वा ___ सख्याः प्राणान्हरति हरितस्त्वद्यशस्तज्जुषन्ताम् / / 156 / / अथ भीमभुवैव रहोऽभिहितां नतमौलिरपत्रपया स निजाम् / अमरैः सह राजसमाजति जगतीपतिरभ्युपगत्य ययौ / / 157 / / श्वस्तस्याः प्रियमाप्तुमुद्धरधियो धाराः सृजन्त्या रया नम्रोन्नम्रकपोलपालिपुलकैतस्वतीरस्र णः / 15 चत्वारः प्रहराः स्मरातिभिरभूत्सापि क्षपा दुःक्षया तत्तस्यां कृपयाखिलैव विधिना रात्रिस्त्रियामा कृता / / 158 / / तदखिलमिह भूतं भूतगत्या जगत्याः ___ पतिरभिलपति स्म स्वात्मदूतत्वतत्त्वम् / त्रिभुवनजनयावद्वृत्तवृत्तान्तसाक्षा२० त्कृतिकृतिषु निरस्तानन्दमिन्द्रादिषु द्राक् // 159 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / संरब्धार्णववर्णनस्य नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 160 / / 25 -- // इति महाकवि हर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे नवमः सर्गः समाप्तः / / 6 / / Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 756 ] [ काव्यषट्क // 10 // दशमः सर्गः॥ रथैरथायुः कुलजाः कुमाराः शस्त्रेषु शास्त्रेषु च दृष्टपाराः / स्वयंवरं शंबरवैरिकायव्यूहश्रियः श्रीजितयक्षराजाः / / 1 / / नाभूदभूमिः स्मरसायकानां नासीदगन्ता कुलज: कुमारः। .. 5. नास्थादपन्था धरणेः कणोऽपि व्रजेष राज्ञां युगपद्वजत्सु / / 2 / / योग्यैर्वजद्भिर्नु पजां वरीतु वोरैरनहः प्रसभेन हर्तुम् / द्रष्टुं परैस्तान्परिकर्तु मन्यैः स्वमात्रशेषाः ककुभो बभूवुः / / 3 / / लोकैरशेषैरवनिश्रियं तामुद्दिश्य दिश्यविहिते प्रयाणे। स्ववर्तितत्तज्जनयन्त्रणातिविश्रान्तिमापुः ककुभां विभागाः।४। 10 तलं यथेयुर्न तिला विकीर्णाः सैन्यैस्तथा राजपथा बभूवुः / भैमी स लब्धामिव तत्र मेने यः प्राप भूभृद्भवितु पुरस्तात् // 5 // नृपः पुरःस्थैः प्रतिबद्धवर्मा पश्चात्तनैः कश्चन नुद्यमानः / यन्त्रस्थसिद्धार्थपदाभिषेक ... लब्ध्वाप्यसिद्धार्थममन्यत स्वम् राज्ञां पथि स्त्यानतयानुपूर्व्या .. विलङ्घनाशक्तिविलम्बभाजाम् / माह्वानसंज्ञानमिवाग्रकम्पै- ददुर्विदर्भेन्द्रपुरीपताका: प्राग्भूय कर्कोटक आचकर्ष सकम्बलं नागबलं यदुच्चैः। भुवस्तले कुण्डिनगामि राज्ञां तद्वासुकेश्चाश्वतरोऽन्वगच्छत् // 7 // // 8 // Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 757 प्रागच्छदुर्वीन्द्रवमूसमुत्थैर्भू रेणुभिः पाण्डुरिता मुखश्रीः / विस्पष्टमाचष्ट हरिद्वधूनां रूपं पतित्यागदशानुरूपम् / / 6 / / पाखण्डलो दण्डधरः कृशानुः / पाशीति नाथैः ककुभां चतुभिः / भम्येव बद्ध्वा स्वगुणेन कृष्टैः / स्वयंवरे तत्र गतं न शेषैः // 10 // मन्त्रैः पुरं भीमपुरोहितस्य / ____तद्बद्धरक्षं विशति क्व रक्षः / तत्रोद्यमं दिक्पतिराततान यातु ततो जातु न यातुधानः // 11 / / कतु शशाकाभिमुखं न भम्या मगं गम्भोरुहतजितं यत् / अस्या विवाहाय ययौ विदर्भा स्तद्वाहनस्तेन न गन्धवाहः जातौ न वित्ते न गुणे न कामः - सौन्दर्य एव प्रवणः स वामः / स्वच्छस्वशैलेक्षितकुत्सबेरस् तांप्रत्यगान स्त्रितमां कुबेरः // 13 // भैमीविवाहं सहते स्म कस्मा... दधं तनुर्या गिरिजात्मभर्तुः / तेनाव्रजन्त्या विदधे विदर्भा.. नीशानयानाय तयान्तरायः // 14 / / स्वयंवरं भीमनरेन्द्रजाया दिशः पतिर्न प्रविवेश शेषः / 25 / 'प्रयातु भारं स निवेश्य कस्मिन् नहिर्महीगौरवसासहिर्यः // 15 // // 12 // Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 758 // [ काव्यषट्कं ययौ विमृश्योर्ध्वदिशः पतिर्न __ स्वयंवरं वीक्षितधर्मशास्त्रः / व्यलोकि लोके श्रुतिषु स्मृतौ वा समं विवाहः क्व पितामहेन. // 16 / / भैमीनिरस्तं स्वमवेत्य दूती मुखात्किलेन्द्रप्रमुखा दिगीशाः / स्यदे मुखेन्दौ * च वितत्य मान्द्यं चित्तस्य ते राजसमाजमीयुः // 17 / / नलभ्रमेणापि भजेत भैमी कदाचिदस्मानिति शेषिताशा। अभून्महेन्द्रादिचतुष्टयी सा चतुर्नली काचिदलीकरूपा // 18 // प्रयस्यतां तद्भवितुं सुराणां दृष्टेन पृष्टेन परस्परेण / नवानुमेने नलसाम्यसिद्धिः स्वाभाविकात्कृत्रिममन्यदेव / / 16 / / 15 पूर्णेन्दुमास्यं विदधुः पुनस्ते पुनर्मुखीचक्रुरनिद्रमब्जम् / स्ववक्रमादर्शतलेऽथ दर्श दर्श बभञ्जुर्न तथातिमञ्जु / / 20 / / तेषां तदा लब्धुमनीश्वराणां श्रियं निजास्येन नलाननस्य / नालं तरीतुं पुनरुक्तिदोषं बहिर्मुखानामनलाननत्वम् / / 21 / / प्रियावियोगक्वथितादिवैला ___ चन्द्राच्च राहुग्रहपीडिताते / ध्माताद्भवेन स्मरतोऽपि सारैः स्वं कल्पयन्ति स्म नलानुकल्पम् / / 22 / / नलस्य पश्यत्वियदन्तरं तै भैमीति भूपाविधिराहतास्यै / स्पर्धा दिगीशानपि कारयित्वा तस्यैव तेभ्यः प्रथिमानमाख्यत् // 23 // Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 756 सभा नलश्रीयंमकर्यमाद्यैर्नलं विनाभूद्धृतदिव्यरत्नैः / भामाङ्गणप्राघुणिके चतुभिर्देवद्रुमैौरिव पारिजाते / / 24 / / तत्रागमद्वासुकिरीशभूषाभस्मोपदेहस्फुटगौरदेहः / फणीन्द्रवृन्दप्रणिगद्यमानप्रसीदजीवाद्यनुजीविवाद: // 25 / / द्वीपान्तरेभ्यः पुटभेदनं तत् क्षणादवापे सुरभूमिभूपैः / तत्काल मालम्बि न केन यूना स्मरेषुपक्षानिलतूललीला / / 26 / / रम्येषु हर्येषु निवेशनेन सपर्यया कुण्डिननाकनाथः / प्रियोक्तिदानादरनम्रताद्यैरुपाचरच्चारु स राज चक्रम् / / 27 / / चतुःसमुद्रीपरिखे नृपाणामन्तःपुरे वासितकीर्तिदारे / 10 दानं दया सूनतमातिथेयी चतुष्टयीरक्षणसौविदल्ला / / 28 / / अभ्यागतैः कुण्डिनवासवस्य परोक्षवृत्तेष्वपि तेषु तेषु / जिज्ञासितस्वेप्सितलाभलिङ्ग स्वल्पोऽपि नावापि नविशेषः // 29 / / 15 अङ्के विदर्भेन्द्रपुरस्य शङ्के न संममौ नैष तथा समाजः / यथा पयोराशिरगस्त्यहस्ते यथा जगद्वा जठरे मुरारेः / / 30 / / पुरे पथि द्वारगृहाणि तत्र चित्रीकृतान्युत्सववाञ्छयेव / नभोऽपि किर्मीरमकारि तेषां महीभुजामाभरणप्रभाभिः / / 31 / / विलासर्वदग्ध्यविभूषणश्री स्तेषां यथासीत्परिचारकेऽपि / प्रज्ञासिषुः स्त्रीशिशुबालिशास्तं तथागतं नायकमेव कंचित् // 32 // न स्वेदिनश्चामरमारुतैर्न निमेषनेत्राः प्रतिवस्तुचित्रैः / म्लानस्रजो नातपवारणेन देवा नृदेवा बिभिदुर्न तत्र // 33 / / 25 अन्योन्यभाषानवबोधभीतेः संस्कृतिमाभिर्व्यवहारवत्सु / दिग्भ्यः समेतेष नरेषु वाग्भिः सौवर्गवर्गो न जनैरचिह्नि // 34 / / Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 760 ] [ काव्यषटकं ते तत्र भैम्याश्चरितानि चित्रे चित्राणि पौरैः पुरि लेखितानि / निरीक्ष्य निन्युदिवसं निशां च तत्स्वप्नसंभोगकलाविलासैः // 35 / / सा विभ्रमं स्वप्नगतापि तस्यां निशि स्वलाभस्य ददे यदेभ्यः / तर्थिनां भूमिभुजां वदान्या सती सती पूरयति स्म कामम् // 36 / / वैदर्भदूतानुनयोपहूतैः शृङ्गारभङ्गीरनुभावद्भिः / स्वयंवरस्थानजनाश्रयस्तैदिने परत्रालमकारि वीरैः / / 37 / / भूषाभिरुच्चैरपि संस्कृते यं वीक्ष्याकृत प्राकृतबुद्धिमेव / प्रसूनबाणे विबुधाधिनाथस्तेनाथ साऽशोभि सभा नलेन / / 38 / / धृताङ्गरागे कलिताशोभा तस्मिन्सभा चुम्बति राजचन्द्रे / गता बताक्ष्णोविषयं विहाय क्व क्षत्रनक्षत्रकुलस्य कान्तिः / / 39 / / 15 द्राग्दृष्टयः क्षोरिणभुजाममुष्मिन्नाश्चर्यपर्युत्सुकिता निपेतुः / / अनन्तरं दन्तुरितभ्रवां तु नितान्तमोर्ध्याकलुषा गन्ताः / / 40 / / सुधांशुरेष प्रथमो भुवीति स्मरो द्वितीयः किमसावितीमम् / दस्रस्तृतीयोऽयमिति क्षितीशाः स्तुतिच्छलान्मत्सरिणो निनिन्दुः // 41 // आद्यं विधोर्जन्म स एष भूमौ द्वैतं युवासौ रतिवल्लभस्य / नासत्ययोर्मू तितृतीयतायमिति स्तुतस्तैः कृतमत्सरैः सः / / 42 / / मायानलोदाहरणान्मिथस्तै रूचे समाः सन्त्यमुना कियन्तः / आत्मापकर्षे सति मत्सराणां द्विषः परस्पर्धनया समाधिः // 43 // Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [761 // 45 // गुणेन केनापि जनेऽनवद्ये दोषान्तरोक्तिः खलु तत्खलत्वम् / रूपेण तत्संसददूषितस्य सुरैनरत्वं यददूषि तस्य // 44 / / नलानसत्यानवदत्स सत्यः कृतोपवेशान्सविधे सुवेषान् / नोभाविलाभूः किमु दर्पकश्च भवन्ति नासत्ययुतो भवन्तः / अमी तमोग्जगुरत्र मध्ये कस्यापि नोत्पत्तिरभूदिलायाम् / अदपंकाः स्मः सविधे स्थितास्ते नासत्यतां नात्र बिभर्ति कश्चित् // 46 / / तेभ्यः परान्नः परिकल्पयस्व श्रिया विदूरीकृतकामदेवान् / अस्मिन्समाजे बहुषु भ्रमन्ती भैमी किलास्मासु घटिष्यतेऽसौ // 47 / / असाम यन्नाम तवेह रूप स्वेनाधिगत्य श्रितमुग्धभावाः / तन्नो धिगाशापतितान्नरेन्द्र ! धिक्चेदमस्मद्विबुधत्वमस्तु सा वागवाज्ञायितमा नलेन तेषामनाशङ्कितवाक्छलेन / स्त्रीरत्नलाभोचितयत्नमग्न ... मेनं हि न स्म प्रतिभाति किंचित् / / 46 / / य स्पर्धया येन निजप्रतिष्ठां लिप्सुः स एवाह तदुन्नतत्वम् / 25 कः स्पधितुः स्वाभिहितस्वहाने: स्थानेऽवहेलां बहुलां न कुर्यात् // 50 / / // 48 // Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 ] [ काव्यषटकं ||52 // गीर्देवतागीतयशःप्रशस्तिः श्रिया तडित्त्वल्ललिताभिनेता / मुदा तदाऽवैक्षत केशवस्तं स्वयंवराडम्बरमम्बरस्थ: / / 51 / / ... अष्टौ तदाष्टासु हरित्सु दृष्टीः सदो दिक्षनिदिदेश देवः / / 5 लैङ्गीमदृष्ट्वापि शिर:श्रियं यो दृष्टो मृषावादितकेतकीक: एकेन पर्यक्षिपदात्मनादि चक्षुर्मुरारेरभवत्परेण / तैदिशात्मा दशभिस्तु शेष दिशो दशालोकत लोकपूर्णाः // 53 // प्रदक्षिणं देवतहर्म्यमद्रिं सदैव कुर्वन्नपि शर्वरीशः / द्रष्टा महेन्द्रानुजदृष्टिमूर्त्या न प्राप तद्दर्शनविघ्नतापम् / / 54 / / आलोकमाना वरलोकलक्ष्मी तात्कालिकोमप्सरसो रसोत्काः / जनाम्बुधौ यत्र निजाननानि वितेनुरम्भोरुहकाननानि / / 55 / / न यक्षलक्षैः किमलक्षि नो सा सिद्धैः किमध्यासि सभाप्तशोभा / सा किनरैः किं न रसादसेवि नादशि हर्षेण महर्षिभिर्वा // 56 // वाल्मीकिरश्लाघत तामनेक ___शाखत्रयीभूरुहराजिभाजा / क्लेशं विना कण्ठपथेन यस्य __ दैवी दिवः प्राग्भुवमागमद्वाक् // 57 / / प्राशंसि संसद्गुरुणापि चार्वी चार्वाकतासर्वविदूषकेण। 25 आस्थानपट्ट रसनां यदीयां जानामि वाचामधिदेवतायाः // 8 // Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः / / 763 नाकेऽपि दीव्यत्तमदिव्यवाचि वचःस्रगाचार्यकवित्कविर्यः / देतेयनीतेः पथि सार्थवाहः काव्यः स काव्येन सभामभाणीत् // 56 / / अमेलयद्भीमनपः परं न नाकर्षदेतान्दमनस्वसैव / इदं विधातापि विचिन्त्य यूनः स्वशिल्पसर्वस्वमदर्शयन्नः // 60 / / एकाकिभावेन पुरा पुरारि ___यः पञ्चतां पञ्चशरं निनाय / तद्भोसमाधानममुष्य काय निकायलीलाः किममी युवानः // 61 / / पूर्णन्दुबिम्बाननुमासभिन्नानस्थापयत्क्वापि निधाय वेधाः। तैरेव शिल्पी निरमादमोषां मुखानि लावण्यमयानि मन्ये / / 62 / / 15 मुधापित मूर्धसु रत्नमेभिर्यन्नाम तानि स्वयमेत एव / स्वतःप्रकाशे परमात्मबोधे बोधान्तरं न स्फुरणार्थमर्थ्यम् / / 63 / / प्रवेक्ष्यतः सुन्दरवन्दमुच्च रिदं मुदा चेदितरेतरं तत् / न शक्ष्यतो लक्षयितुं विमिश्रं दस्रौ सहस्र रपि वत्सराणाम् // 64 / / स्थितैरियद्भिर्युवभिविदग्धे दग्धेऽपि कामे जगतः क्षतिः का। एकाम्बुबिन्दुव्ययमम्बुराशेः पूर्णस्य कः शंसति शोषदोषम् // 65 / / 25 इति स्तुवन्हुंकृतिवर्गणाभिर्गन्धर्ववर्गेण स गायतैव / प्रोंकारभूम्ना पठतैव वेदान्महर्षिवृन्देन तथाऽन्वमानि / / 66 / / Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 764 ] | काव्यषटकं न्यवीविशत्तानथ राजसिंहान्सिहासनौघेषु विदर्भराजः / शृङ्गेषु यत्र त्रिदशैरिवैभिरशोभि कार्तस्वरभूधरस्य / / 67 / / विचिन्त्य नानाभुवनागतांस्ता नमर्त्यसंकीर्त्यचरित्रगोत्रान् / कथ्याः कथंकारममी सुताया मिति व्यषादि क्षितिपेन तेन // 68 / / श्रद्धालुसंकल्पितकल्पनायां कल्पद्रुमस्याथ रथाङ्गपाणेः / तदाकुलोऽसौ कुलदैवतस्य स्मृति ततान क्षणमेकतानः / / 6 / / तञ्चिन्तनानन्तरमेव देवः सरस्वती सस्मितमाह स स्म / स्वयंवरे राजकगोत्रवृत्त वक्त्रीमिह त्वां करवाणि वाणि ! / / 7 / / कुलं च शीलं च बलं च यूनां जानासि नानाभुवनागतानाम् / एषामतस्त्व भव वावदूका मूकायितुं कः समयस्तवायम् // 71 / / जगत्त्रयीपण्डितमण्डितैषा सभा न भूता न च भाविनी च / राज्ञां गुणज्ञापनकैतवेन संख्यावतःश्रावय वाङ्मुखानि / / 72 / / इतीरिता तच्चरणात्परागं गीर्वाणचूडामणिमृष्ट शेषम् / 20 तस्य प्रसादेन सहाज्ञयासावादाय मूर्नादरिणी बभार / / 73 / / मध्येसभं सावततार बाला गन्धर्वविद्याधरकण्ठनाला / त्रयीमयीभूतवलीविभङ्गा साहित्यनिर्वतितहक्तरङ्गा // 74 / / आसीदथर्वा त्रिवलित्रिवेदीमूलाद्विनिर्गत्य वितायमाना। नानाभिचारोचितमेचकश्री: श्रुतिर्यदीयोदररोमरेखा / / 7 / / 25 शिक्षव साक्षाचरितं यदीयं कल्पश्रियाकल्पविधिर्यदीयः / Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 765 // 77 // यस्याः समस्तार्थनिरुक्तिरूपै निरुक्तिविद्या खलु पर्यणसीत् // 76 / / जात्या च वृत्तेन च भिद्यमानं छन्दो भुजद्वन्द्वमभूद्यदोयम् / श्लोकार्धविश्रान्तिमयीभविष्णु पर्वद्वयीसन्धिसुचिह्नमध्यम् असंशयं सा गुणदीर्घभाव कृतां दधाना वितति यदीया। विधायिका शब्दपरम्पराणां किं चारचि व्याकरणेन काञ्ची // 78 / / स्थितैव कण्ठे परिणम्य हार ____लता बभूवोदिततारवृत्ता। ज्योतिर्मयी यद्भजनाय विद्या मध्येऽङ्गमकेन भृता विशङ्के / / 6 / / 15 अवैमि वादिप्रतिवादिगाढस्वपक्षरागेण विराजमाने / ते पूर्वपक्षोत्तरपक्षशास्त्रे रदच्छदौ भूतवती यदीयौ / / 80 / / ब्रह्मार्थकर्मार्थकवेदभेदा विधा विधाय स्थितयात्मदेहम् / चक्रे पराच्छादनचारु यस्या मीमांसया मांसलमूरुयुग्मम् // 81 // .. उद्देशपर्वण्यपि लक्षणेऽपि द्विघोदितैः षोडशभिः पदार्थैः / / प्रान्वीक्षिकी यद्दशनद्विमालीं ___ तां मुक्तिकामाकलितां प्रतीमः // 82 / / 25 . ' तर्का रदा. यद्वदनस्य ता वादेऽस्य शक्तिः क्व तथाऽन्यथा तैः / Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766 ] [ काव्यषट्कं पत्रं क्व दातुं गुणशालिपूगं __क्व वादतः खण्डयितुं प्रभुत्वम् // 83 / / सपल्लवं व्यासपराशराभ्यां प्रणीतभावादुभयीभविष्णु / तन्मत्स्यपद्माधुपलक्ष्यमाणं यत्पाणियुग्मं ववृते पुराणम् / / 14 / / आकल्पविच्छेदविवजितो यः स धर्मशास्त्रव्रज एव यस्याः / पश्यामि मूर्धा श्रुतिमूलशाली कण्ठस्थितः कस्य मुदे न वृत्तः // 85 / / ध्रुवौ दलाभ्यां प्रणवस्य यस्या स्तद्विन्दुना भालतमालपत्रम् / तदचन्द्रेण विधिविपञ्ची निक्वाणनाकोणधनु: प्रणिन्ये // 86 / / द्विकुण्डली वृत्तसमाप्तिलिप्याः करागुली काञ्चनलेखनीनाम् / कैश्यं मषीणां स्मितभा कठिन्याः काये यदीये निरमायि सारैः // 87 / / या सोमसिद्धान्तमयाननेव शून्यात्मतावादमयोदरेव / विज्ञान सामस्त्यमयान्तरेव साकारतासिद्धिमयाखिलेव / / 88 / / भीमस्तयागद्यत मोदितुं ते वेला किलेयं तदलं विषद्य / 20 मया निगाद्यं जगतीपतीनां गोत्रं चरित्रं च विचित्रमेषाम् / 89 / अविन्दतासौ मकरन्दलीलां मन्दाकिनी यच्चरणारविन्दे / अत्रावतीर्णा गुणवर्णनाय राज्ञां तदाज्ञावशगास्मि कापि // 6 // 25 तत्कालवेद्यैः शकुनस्वराद्यै राप्तामवाप्तां नृपतिः प्रतीत्य / ||30|| Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 767 / / 92 / / / / 93 // तां लोकपालैकधुरीण एष ___ तस्यै सपर्यामुचितां दिदेश // 91 / / दिगन्तरेभ्यः पृथिवीपतीना माकर्षकौतूहल सिद्धविद्याम् / ततः क्षितीशः स निजां तनूजां ___मध्येमहाराजकमाजुहाव दासीषु नासीरचरीषु जातं स्फीतं क्रमेणालिषु वीक्षितासु / स्वाङ्गेषु रूपोत्थमथाद्भुताब्धि मुद्धेलयन्तीमवलोककानाम् स्निग्धत्वमायाजललेपलोप सयत्नरत्नांशुमृजांशुकाभाम् / नेपथ्यहारद्यतिवारिवति स्वच्छायसंच्छायनिजालिजालाम् // 64 / / 55 विलेपनामोदमुदागतेन तत्कर्णपूरोत्पलसर्पिणा च / रतीशदूतेन मधुव्रतेन कर्णे रहः किंचिदिवोच्यमानाम् / 95 / / विरोधिवर्णाभरणाश्मभासां ___ भल्लाजिकौतूहल मोक्षमाणाम् / स्मरस्वचापभ्रमचालिते नु ध्रुवौ विलासाद्वलिते वहन्तीम् // 66 / / सामोदपुष्पाशुगवासिताङ्गी किशोरशाखाग्रशयालिमालाम् / वसन्तलक्ष्मीमिव राजभिस्तैः कल्पद्रुमैरप्यभिलष्यमाणाम् 25 तावदातारुणनीलभासां देहोपदेहात्किरणैर्मणीनाम् / गोरोचनाचन्दनकुङ्कुमैणनाभीविलेपान्पुनरुक्तयन्तीम् / / 8 / / / / 7 / / Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 768 ] [ काव्यषट्कं स्मरं प्रसूनेन शरासनेन जेतारमश्रद्दधतीं नलस्य / तस्मै स्वभूषादृषदंशुशिल्पं बल द्विषः कार्मुकमर्पयन्तीम् / / 66 / / विभूषणेभ्योऽवरमंशुकेषु __ततोऽवरं सान्द्रमणिप्रभासु / सम्यक्पुनः क्वापि न राजकस्य पातुं दृशा धातृधृतावकाशाम् // 100 / / प्राक्पुष्पववियतः पर्ताद्भ द्रष्टुं न दत्तामथ तद्विरेफैः / तद्भीतिभुग्नेन ततो मुखेन विधेरहो वाञ्छितविघ्नयत्नः // 101 / / एतद्वरं स्यामिति राजकेन ___मनोरथातिथ्यमवापिताय / सखीमुखायोत्सृजतोमपाङ्गा___ कपूरकस्तूरिकयो: प्रवाहम् // 102 / / स्मितेच्छुदन्तच्छदकम्पकिंचि दिगम्बरीभूतरदांशुवृन्दैः / आनन्दितोर्वीन्द्रमुखारविन्दै___ मदं नुदन्तीं हृदि कौमुदीनाम् // 103 / / प्रत्यङ्गभूषाच्छमणिच्छलेन यल्लग्नतन्निश्चललोकनेत्राम् / हाराग्रजाग्रद्गरुडाश्मरश्मि पीनाभनाभीकुहरान्धकाराम् // 104 / / तद्गौरसारस्मितविस्मितेन्दु प्रभाशिरःकम्परुचोऽभिनेतुम् / 25 विपाण्डतामण्डितचामराली नानामरालीकृतलास्यलीलाम् // 10 // Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 766 तदङ्गभोगावलिगायनीनां ' मध्ये निरुक्तिक्रमकुण्ठितानाम् / स्वयं धृतामप्सरसां प्रसादं ह्रियं हृदो मण्डनमर्पयन्तीम् // 106 / / तारा रदानां वदनस्य चन्द्रं रुचा कचानां च नभो जयन्तीम् / प्राकण्ठमक्ष्णोद्वितयं मधूनि महीभुजः कस्य न भोजयन्तीम् / / 107 / / अलंकृताङ्गाद्भुतकेवलाङ्गी स्तवाधिकाध्यक्ष निवेद्यलक्ष्मीम् / इमां विमानेन सभां विशन्तीं . पपावपाङ्गरथ राजराजिः ||108 / / प्रासीदसौ तत्र न कोऽपि भूप स्तन्मूर्तिरूपोद्भवदद्भुतस्य / उल्लेसुरङ्गानि मुदा न यस्य विनिद्ररोमाकुरदन्तुराणि // 106 // अङ्गुष्ठमूर्ना विनिपीडिताना . : मध्येन भागेन च मध्यमायाः / आस्फोटि भैमोमवलोक्य तत्र न तर्जनी केन जनेन नाम // 110 // अस्मिन्समाजे मनुजेश्वरेण तां खञ्जनाक्षीमवलोक्य केन / पुनःपुनर्लोलितमौलिना न .. ध्रुवोरुदक्षेपितरां द्वयी वा // 111 / / स्वयंवरस्याजिरमाजिहानां विभाव्य भैमीमथ भूमिनाथैः / Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 770 ] [ काव्यषटकं दस्यास्ताना इदं मुदा विह्वलचित्तभावा दवादि खण्डाक्षरजिह्मजिह्वम् // 112 / / रम्भादिलोभात्कृतकर्मभिर्मा शून्यैव भूर्भूत्सुरभूमिपान्थैः / इत्येतयालोपि दिवोऽपि पुंसां वैमत्यमत्यप्सरसा रसायाम् // 113 / / रूपं यदाकर्ण्य जनाननेभ्य स्तत्तद्दिगन्ताद्वयमागमाम / सौन्दर्यसारादनुभूयमाना दस्यास्तदस्माद्बहु नाकनीयः // 114 / / रसस्य शृङ्गार इति श्रुतस्य ___ क्व नाम जाति महानुदन्वान् / कस्मादुदस्थादियमन्यथा श्री लावण्यवैदग्ध्यनिधिः पयोधेः // 115 / / साक्षात्सुधांशु खमेव भैम्या दिवः स्फुटं लाक्षणिक: शशाङ्कः / एतद्धृवौ मुख्यमनङ्गचापं पुष्पं पुनस्तद्गुणमात्रवृत्त्या 116 / / लक्ष्ये धृतं कुण्डलिके सुदत्या ताटङ्कयुग्मं स्मरधन्विने किम् / सव्यापसव्यं विशिखा विसृष्टा स्तेनानयोर्यान्ति किमन्तरेव .. ||117 // तनोत्यकीतिः कुसुमाशुगस्य सैषा बतेन्दीवरकर्णपूरौ। यतः श्रवःकुण्डलिकापराद्ध शरं खलः ख्यापयिता तमाभ्याम् / / 118 / / 25 Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 771 रजःपदं षट्पदकीटजुष्टं हित्वात्मनः पुष्पमयं पुराणम् / प्रद्यात्मभूराद्रियतां स भैम्या . भ्रूयुग्ममन्त तमुष्टि चापम् // 116 / / पद्मान्हिमे प्रावृषि खजरीटा- .. क्षिप्नुर्यमादाय विधि: क्वचित्तान् / सारेण तेन प्रतिवर्षमुच्चैः पुष्णाति दृष्टिद्वयमेतदीयम् // 120 / / एतदृशोरम्बुरुहैविशेष भृङ्गो जनः पृच्छतु तद्गुणज्ञो / इतीव धाताकृत तारकालि- . स्त्रीपुंसमाध्यस्थ्यमिहाक्षियुग्मे // 121 / / व्यधत्त सौधे रतिकामयोस्त- .. द्भक्त वयोऽस्या हृदि वासभाजोः / तदग्रजाग्रत्पृथुशातकुम्भ कुम्भौ न संभावयति स्तनौ कः / / 122 / / अस्या भुजाभ्यां विजिताद्विसात् किं पृथक्करोऽगृह्यत तत्प्रसूनम् / इहेष्यते तन्न गृहाः श्रियः, कै नै गीयते वा कर एव लोकैः // 123 / / छद्मैव तच्छम्बरजं बिसिन्या स्तत्पद्ममस्यास्तु भुजाग्रसद्म / उत्कण्टकादुद्गमनेन नाला दुत्कण्टकं शातशिखै खैर्यत् // 124 / / जागति मत्र्येषु तुलार्थमस्या योग्येति योग्यानुपलम्भनं नः / 25 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 772 ] [ काव्यपटकं ||127 // यद्यस्ति नाके भुवनेऽथवाध स्तदा न कौतस्कुतलोकबाधः // 125 / / नमः करेभ्योऽस्तु विधेर्न वास्तु स्पृष्टं धियाप्यस्य न किं पुनस्तैः / स्पर्शादिदं स्याल्लुलितं हि शिल्पं मनोभुवोऽनङ्गतयानुरूपम् // 126 / / इमां न मृद्वीमसृजत्कराभ्यां ___ वेधाः कुशाध्यासनकर्कशाभ्याम् / शङ्गारधारां मनसा न शान्ति विश्रान्तिधन्वाध्वमहीरुहेण उल्लास्य धातुस्तुलिता करेण श्रोणी किमेषा स्तनयोर्गुरुर्वा / तेनान्तरालैस्त्रिभिरङ्गुलीना . मुदीतमध्यत्रिवलीविलासा // 128 / / निजामृतोद्यन्नवनीतजाङ्गी 'मेतां क्रमोन्मोलितपीतिमानम् / कृत्वेन्दुरस्या मुखमात्मनाभू निद्रालुना दुर्घटमम्बुजेन // 126 / / अस्याः स चारुमधुरेव कारु: श्वासं वितेने मलयानिलेन / 20 प्रमूनि सूनविदधेऽङ्गकानि चकार वाचं पिकपञ्चमेन / / 130 // कृतिः स्मरस्यैव न धातुरेषा ___नास्या हि शिल्पीतरकारुजेयः / रूपस्य शिल्पे वयसाऽपि वेधा निजीयते स स्मरकिङ्करेण // 131 / / 25 गुरोरपीमा भणदोष्ठकण्ठं निरुक्तिगर्वच्छिदया विनेतुम् / श्रमः स्मरस्यैव भवं विहाय मुक्तिं गतानामनुतापनाय // 132 / / Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: दशमः सर्गः ] [ 773 पाख्यातुमक्षिव्रजसर्वपीतां भैमी तदेकाङ्गनिखातदक्षु / गाथासुधाश्लेषकलाविलासरलंचकाराननचन्द्रमिन्द्रः / / 133 / / स्मितेन गौरी हरिणी दृशेयं वीणावती सुस्वरकण्ठभासा / हेमेव कायप्रभयाङ्गशेषस्तन्वी मति कामति मेनकापि / / 134 / / ____इति स्तुवानः सविधे नलेन विलोकितः शङ्कितमानसेन / व्याकृत्य मोचितमर्थमुक्ते ___ राखण्डलस्तस्य नुनोद शङ्काम् // 13 // स्वं नैषधादेशमहो विधाय कार्यस्य हेतोरपि नानल: सन् / किं स्थानिवद्भावमघत्त दुष्ट ताहक्कृतक्याकरणः पुनः सः // 136 / / इयमियमधिरथ्यं याति नेपथ्यमञ्जु विशति विशति वेदीमुर्वशी सेयमुाः / 15. इति जनजनित: सानन्दनादैविजने . नलहृदि परभैमीवर्णनाकर्णनाप्तिः // 137 / / श्रीहर्ष कविराजराज़िमुकुटालंकारहीर: सुत श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तर्केष्वप्यसमश्रमस्य दशमस्तस्य व्यरंसीन्महाकाव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 138 / / / / इति महाकवि हर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे दशमः सर्गः समाप्तः // 10 // Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 774 ] [ काव्यषट्कं // 11 // एकादशः सर्गः // .. तां देवतामिव मुखेन्दुवसत्प्रसादा ___मक्ष्णा रसादनिमिषेण निभालयन्तीम् / लाभाय चेतसि धृतस्य वरस्य भीम भूमीन्द्रजा तदनु राजसभां बभाज // 1 / / तन्निर्मलावयवभित्तिषु तद्विभूषा रत्नेषु च प्रतिफल निजदेहदम्भात् / दृष्टया परं न हृदयेन न केवलं तैः सर्वात्मनैव सुतनौ युवभिर्ममज्जे // 2 // द्यामन्तरा वसुमतीमपि गाधिजन्मा यद्यन्यमेव निरमास्यत नाकलोकम् / चारुः स यागभविष्यदभूद्विमान ___.स्ताक्तदभ्रमवलोकितुमागतानाम् // 3 / / कुर्वद्भिरात्मभवसौरभसंप्रदानं . भूपालचक्रचलचामरमारुतौघम् / आलोकनाय दिवि संचरतां सुराणां ___ तत्रार्चनाविधिरभूदधिवासधूपैः // 4 // तत्रावनीन्द्रचयचन्दनचन्द्रलेप नेपथ्यगन्धवहगन्धवहप्रवाहम् / प्रालीभिरापतदनङ्गशरानुसारी संरुध्य सौरभमगाहत भृङ्गवर्गः // 5 / / उत्तुङ्गमङ्गलमृदङ्गनिनादभङ्गी सर्वानुवादविधिवोधितसाधुमेधाः / सौधस्रजः प्लुतपताकतयाभिनिन्यु मन्ये जनेषु निजताण्डवपण्डितत्वम् // 6 / / // 4 // Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] [ 775 .संभाषणं भगवती सदृशं विधाय वाग्देवता विनयबन्धुरकन्धरायाः / ऊचे चतुर्दशजगज्जनतानमस्या __. तत्राश्रिता सदसि दक्षिणपक्षमस्याः // 7 // अभ्यागमन्मखभुजामिह कोटिरेषा . येषां पृथक्कथनमब्दशतातिपाति / अस्यां वृणीष्व मनसा परिभाव्य कचि ___ द्यं चित्तवृत्तिरनुधावति तावकीना // 8 // एषां त्वदीक्षणरसादनिमेषतैषा स्वाभाविकानिमिषतामिलिता यथाभूत् / प्रास्ये तथैव तव नन्वधरोपभोग मुग्धे ! विधावमृतपानमपि द्विधास्तु // 6 // एषां गिरेः सकलरत्नफलस्तरुः स प्राग्दुग्धभूमिसुरभेः खलु पञ्चशाखः / मुक्ताफलं फलनसान्वयनाम तन्व . नाभाति बिन्दुभिरिव च्छरितः पयोधेः / / 10 / / वक्रेन्दुसंनिधिनिमीलदलारविन्द द्वन्द्वभ्रमक्षममथाञ्जलिमात्ममौली / कृत्वापराधभयचञ्चलमीक्षमाणा सान्यत्र गन्तुममरैः कृपयान्वमानि // 11 / / तत्तद्विरागमुदितं शिबिकाधरस्थाः ___ साक्षाद्विदुः स्म न मनागपि यानधुर्याः / आसन्ननायकविषण्णमुखानुमेय- .. * भैमीविरक्तचरितानुमया तु जजुः / / 12 / / रक्षःस्वरक्षणमवेक्ष्य निजं निवृत्तो विद्याधरेष्वधरतां वपुषैव भैम्याः / 15 Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 776 ] ... [ काव्यषट्क गन्धर्वसंसदि न गन्धमपि स्वरस्य तस्या विमृश्य विमुखोऽजनि यानवर्गः / / 13 / / दीनेषु सत्स्वपि कृताफलवित्तरक्ष यक्षैरदर्शि न मुखं त्रपयव भैम्याम् / ते जानते स्म सुरशाखिपतिव्रतां किं तां कल्पवीरुधमधिक्षिति नावतीर्णाम् / / 14 / / जन्यास्ततः फणभृतामधिपं सुरौघा माञ्जिष्ठमञ्जिमवगाहिपदोष्ठलक्ष्मीम् / तां मानसं निखिलवारिचयान्नवीना हसावलीमिव घना गमयांबभूवुः // 15 / / यस्या विभोरखिलवाङ्मयविस्तरोऽय माख्यायते परिणतिर्मुनिभिः पुनः सा। उद्गत्वरामतकरार्धपराय॑भालां बालामभाषत सभासततप्रगल्भा // 16 / / प्राश्लेषलग्नगिरिजाकुचकुङ्कुमेन यः पट्टसूत्रपरिरम्भणशोणशोभः / यज्ञोपवीतपदवीं भजते स शंभोः सेवासु वासुकिरयं प्रसितः सितश्रीः / / 17 / / पाणौ फरणी भजति कङ्कणभूयमैशे सोऽयं मनोहरमणीरमणीयमुच्चैः / कोटीरबन्धनधनुर्गुणयोगपट्ट __ व्यापारपारगममु भज भूतभर्तुः // 18 / / धत्वैकया रसनयामृतमीश्वरेन्दो रप्यन्यया त्वदधरस्य रसं द्विजिह्वः / प्रास्वादयन्युगपदेष परं विशेष निर्णतुमेतदुभयस्य यदि क्षमः स्यात् / / 16 / / 25 Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] [ 777 10 आशीविषेण रदनच्छददंशदान __मेतेन ते पुनरनर्थतया न गण्यम् / बाधी विधातुमधरे हि न तावकीने पीयूषसारघटिते घटतेऽस्य शक्तिः / / 20 / / तद्विस्फुरत्फणविलोकनभूतभीतेः कम्पं च वोक्ष्य पुलकं च ततोऽनु तस्याः / संजातसात्विकविकारधिय: स्वभृत्या नृत्यान्न्यषेधदुरगाधिपतिविलक्षः // 21 / / तद्दशिभिः स्ववरणे फणिभिनिराशै निःश्वस्य तत्किमपि सृष्टमनात्मनीनम् / यत्तान्प्रयातुमनसोऽपि विमानवाहा ___ हा हा प्रतीपपवनाशकुनान्न जग्मुः / / 22 / / ह्रीसंकुचत्फणगणादुरंगप्रधाना तां राजसङ्घमनयन्त विमानवाहाः / संध्यानमद्दलकुलात्कमलाद्विनीय कलारमिन्दुकिरणा इव हासभासम् / / 23 / / देव्याभ्यधायि भव. भीरु ! धतावधाना भूमीभुजो ! भजत भीमभुवो निरीक्षाम् / पालोकितामपि पुनः पिबतां दृशैना ___ मिच्छापि गच्छति न वत्सरकोटिभिर्वः / / 24 / / लोकेश के शवशिवानपि यश्चकार शृङ्गारसान्तरभृशान्तरशान्तभावान् / पञ्चेन्द्रियाणि जगतामिषुपञ्चकेन संक्षोभयन्वितनुतां वितनुर्मुदं वः // 25 / / पुष्पेषुणा ध्रुवममूनिषुवर्षजप्ति हुंकारमन्त्रबलभस्मितशान्तशक्तीन् / 25 Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 778 ] [ काव्यषट्कं शृङ्गारसर्गरसिकद्वयणुकोदरि ! त्वं द्वीपाधिपान्नयनयोर्नय गोचरत्वम् / / 26 / / स्वादूदके जलनिधौ सवनेन सार्घ भव्या भवन्तु तव वारिविहारलीला: / द्वीपस्य तं पतिममु भज पुष्करस्य निस्तन्द्रपुष्करतिरस्करणक्षमाक्षि ! // 27 / / सावर्तभावभवदद्भुतनाभिकूपे! स्वभौममेतदुपवर्तनमात्मनैव / स्वाराज्यमर्जयसि न श्रियमेतदीया मेतद्गृहे परिगृहाण शचीविलासम् / / 28 / / देवः स्वयं वसति तत्र किल स्वयंभू न्यग्रोधमण्डलतले हिमशीतले यः / स त्वां विलोक्य निजशिल्पमनन्यकल्पं सर्वेषु कारुषु करोतु करेण दपम् / / 26 / / न्यग्रोधनादिव दिवः पतदातपादे ___ न्यग्रोधमात्मभरधारमिवावरोहैः / तं तस्य पाकिफलनीलदलद्युतिभ्यां द्वीपस्य पश्य शिखिपत्रजमातपत्रम् // 30 / / न श्वेततां चरतु वा भुवनेषु राज हंसस्य न प्रियतमा कथमस्य कोतिः / चित्रं तु यद्विशदिमाद्वयमादिशन्ती क्षीरं च नाम्बु च मिथः पृथगातनोति / / 31 / / शूरेऽपि सूरिपरिषत्प्रथमाचितेऽपि शृङ्गारभङ्गिमधुरेऽपि कलाकरेऽपि / तस्मिन्नवद्यमियमाप तदेव नाम / यत्कोमलं न किल तस्य नलेति नाम // 32 // 25 Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] [ 776 भ्रूवल्लिवेल्लितमथाकृतिभङ्गिमेषा लिङ्गं चकार तदनादरणस्य विज्ञा / राज्ञोऽपि तस्य तदलाभजतापवह्नि ____श्चिह्नोबभूव मलिनच्छविभूमधूमः // 33 / / राजान्तराभिमुखमिन्दुमुखीमथैनां ____ जन्या जनीं हृदयवेदितयैव निन्युः / अन्यानपेक्षितविधौ न खलु प्रधान वाचां भवत्यवसरः सति भव्यभृत्ये // 34 // ऊचे पुनर्भगवती नृपमन्यमस्यै निर्दिश्य दृश्यतमतावमताश्विनेयम् / आलोक्यतामयमये ! कुलशीलशाली शालीनतानतमुदस्य निजास्यबिम्बन् // 35 / / एतत्पुरःपठदपश्रमबन्दिवृन्द वाग्डम्बरैरनवकाशतरेऽम्बरेऽस्मिन् / उत्पत्तमस्ति पदमेव न मत्पदाना मर्थोऽपि नार्थपुनरुक्तिषु पातुकानाम् // 36 / / नन्वत्र हव्य इति विश्रुतनाम्नि शाक द्वीपप्रशासिनि सुधीषु सुधीभवन्त्या / एतद्भुजाबिरुदबन्दिजयानयापि कि रागि राजनि गिराजनि नान्तरं ते // 37 / / शाकः शुकच्छदसमच्छविपत्रमाल भारी हरिष्यति तरुस्तव तत्र चित्तम् / यत्पल्लवौघपरिरम्भविज़म्भितेन ख्याता जगत्सु हरितो हरितः स्फुरन्ति / / 38 / / स्पर्शेन तत्र किल तत्तरुपत्रजन्मा यन्मारुतः कमपि संमदमादधाति / . Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 780 / / काव्यषट्कं : // 41 // कौतूहलं तदनुभूय विधेहि भूयः श्रद्धां पराशरपुराणकथान्तरेऽपि // 36 / / क्षीराणवस्तव कटाक्षरुचिच्छटाना मन्वेतु तत्र विकटायितमायताक्षि ! / वेलावनीवनततिप्रतिबिम्बचुम्बी ___किर्मीरितोमिचयचारिमचापलाभ्याम् / / 10 / / कल्लोलजालचलनोपनतेन पीवा जीवातुनानवरतेन पयोरसेन / अस्मिन्नखण्डपरिमण्डलितोरुमूर्ति ___ रध्यास्यते मधुभिदा भुजगाधिराजः / / 41 / / त्वद्रूपसपदवलोकनजातशङ्का ___पादाब्जयोरिह करागुलिलालनेन / भूयाच्चिराय कमला कलितावधाना निद्रानुबन्धमनुरोधयितुं धवस्य // 42 / / बालातपैः कृतकगरिकतां कृतां द्वि ... स्तत्रोदयाचलशिलाः परिशीलयन्तु / त्वद्विभ्रमभ्रमणजश्रमवारिधारि पादाङ्गुलीगलितया नखलाक्षयापि / / 43 / / नृणां करम्बितमुदामुदयन्मृगाङ्क शङ्कां सजत्वनघजङ्घि ! परिभ्रमन्त्याः / तत्रोदयाद्रिशिखरे तव दृश्यमास्यं कश्मीरसंभवसमारचनाभिरामम् // 44 // एतेन ते विरहपावकमेत्य ताव- | कामं स्वनाम कलितान्वयमन्वभावि / अङ्गीकरोषि यदि तत्तव नन्दनाये लब्धान्वयं स्वमपि नन्वयमातनोतु / / 4 / / 25 Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] (781 लक्ष्मीलतासमवलम्बभुजद्रुमेऽपि वाग्देवतायतनम मुखाम्बुजेऽपि / सामुत्र दूषणमजीगणदेकमेव __नार्थी बभूव मघवा यदमुष्य देव: / / 46 / / लक्ष्मीविलासवसतेः सुमनःसु मुख्या ___ दस्माद्विकृष्य भुवि लब्धगुणप्रसिद्धिम् / स्थानान्तरं तदनु निन्युरिमां विमान __वाहाः पुनः सुरभितामिव गन्धवाहा: / / 47 / / भूयस्ततो निखिलवाङ्मयदेवता सा हेमोपमेयतनुभासमभाषतैनाम् / एन स्वबाहुबहुवारनिवारितारि चित्ते कुरुष्व कुरुविन्दसकान्तिदन्ति ! / / 4 / / द्वीपस्य पश्य दर्यितं द्यतिमन्तमेतं क्रौञ्चस्य चञ्चलगञ्चलविभ्रमेण / यन्मण्डले स खलु मण्डलसंनिवेश: पाण्डुश्चकास्ति दधिमण्डपयोधिपूरः / / 49 / / तत्रादिरस्ति भवद िविहारयाची क्रौञ्चः स्फुरिष्यति गुणानिव यस्त्वदीयान् / हंसावलीकलकलप्रतिनादवाग्भिः - स्कन्देषुवृन्दविवरैविवरीतुकामः // 50 / / वैदभि ! दर्भदलपूजनयापि यस्य गर्भे जनः पुनरुदेति न जातु मातुः / तस्यार्चनां रचय तत्र मृगाङ्कमौले स्तन्मात्रदैवतजनाभिजनः स देशः / / 51 / / 25 / 'चूडानचुम्बिमिहिरोदयशैलशील स्तेनाः स्तनंधयसुधाकरशेखरस्य / Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782 ] [ काव्यषट्कं तस्मिन्सुवर्णरसभूषणरम्यहर्म्य भूभृद्धटा घटय हेमघटावतंसाः // 52 / / तस्मिन्मलिम्लुच इव स्मरकेलिजन्म धर्मोदबिन्दुमयमौक्तिकमण्डनं ते / जालैमिलन्दधिमहोदधिपूरलोल कल्लोलचामरमरुत्तरुणि ! च्छिनत्तु / / 53 / / एतद्यशो नवनवं खलु हंसवेषं ___वेशन्तसंतरणदूरगमक्रमेण / अभ्यासमर्जयति संतरितु समुद्रा गन्तुं च निःश्रममितः सकलान्दिगन्तान् / / 54 / / तस्मिन्गुणैरपि भृते गणनादरिद्र स्तन्वी न सा हृदयबन्धमवाप भूपे / देवे निरुन्धति निबन्धनतां वहन्ति - हन्त प्रयासपरुषाणि न पौरुषाणि // 55 / / ते निन्यिरे नृपतिमन्यमिमाममुष्मा दंसावतंस शिबिकांशभृतः पुमांसः / रत्नाकरादिव तुषारमयूखलेखां लेखानुजीविपुरुषा गिरिशोत्तमाङ्गम् / / 56 / / एकैकमद्भुतगुणं धुतदूषणं च हित्वान्यमन्यमुपगत्य परित्यजन्तीम् / एनां जगाद जगदञ्चितपादपद्मा पद्मामिवाच्युतभुजान्तरविच्युतां सा // 57 / / ईशः कुशेशयसनाभिशये ! कुशेन द्वीपस्य लाञ्छिततनोर्यदि वाञ्छितस्ते / ज्योतिष्मता सममनेन वनीघनासु तत्त्वं विनोदय घृतोदतटीषु चेतः // 58 / / Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ) [ 783 वातोमिदोलनचलद्दलमण्डलाग्र भिन्नाभ्रमण्डलगलज्जलजातसेकः / स्तम्ब: कुशस्य भविताम्बरचुम्बिचूड श्चित्राय तत्र तव नेत्रनिपीयमानः / / 5 / / पाथोधिमाथसमयोत्थितसिन्धुपुत्री पत्पङ्कजार्पणपवित्रशिलासु तत्र / पत्या सहावह विहारमयविलासै रानन्दमिन्दुमुखि ! मन्दरकन्दरासु // 60 / / आरोहणाय तव सज्ज इवास्ति तत्र सोपानशोभिवपुरश्मवलिच्छटाभिः / भोगीन्द्रवेष्टशत घृष्टिकृताभिरब्धि क्षब्धाचल: कनककेतकगोत्रगात्रि ! // 61 / / मन्था नगः स भुजगप्रभुवेष्टष्टि लेखावलद्धवलनिर्भरवारिधारः / त्वन्नेत्रयोः स्वभरयन्त्रितशीर्षशेष शेषाङ्गवेष्टिततनुभ्रममातनोतु // 62 / / एतेन ते स्तनंयुगेन सुरेभकुम्भौ पाणिद्वयेन दिविषद्रमपल्लवानि / आस्येन स स्मरतु नीरधिमन्थनोत्थं - स्वच्छन्दमिन्दुमपि सुन्दरि ! मन्दराद्रिः / 63 / / वेदैर्वचोभिरखिलैः कृतकीतिरत्ने हेतुं विनैव धृतनित्यपरार्थयत्ने / मीमांसयेव भगवत्यमृतांशुमौली तस्मिन्महीभुजि तयानुमतिर्न भेजे // 64 / / तस्मादिमां नरपतेरपनीय तन्वीं राजन्यमन्यमथ जन्यजनः स निन्ये / Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 784 ] [ काव्यषटकं स्त्रीभावधावितपदामविमश्य याञ्चा ___मर्थी निवर्त्य विधनादिव वित्तवित्तम् / / 65 / / देवी पवित्रितचतुर्भुजवामभागा वागालपत्पुनरिमां गरिमाभिरामाम् / अस्यारिनिष्कृपकृपारणसनाथपाणे: पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् / / 66 / / द्वीपस्य शाल्मल इति प्रथितस्य नाथः / पाथोधिना वलयितस्य सुराम्बुनायम् / अस्मिन्वपुष्मति न विस्मयसे गुणाब्धौ रक्ता तिलप्रसवनासिकि ! नासि किं वा / 67 / विप्रे धयत्युदधिमेकतमं त्रसत्सु यस्तेषु पञ्चसु विभाय न सीधुसिन्धुः / तस्मिन्ननेन च निजालिजनेन च त्वं साधू विधेहि मधुरा मधुपानकेलीः / / 68 / / द्रोणः स तत्र वितरिष्यति भाग्यलभ्य ___ सौभाग्यकार्मणमयीमुपदां गिरिस्ते / तवीपदीप इव दीप्तिभिरोषधीनां चूडामिलज्जलदकज्जलदर्शनीयः // 66 / / तद्द्वीपलक्ष्मपृथुशाल्मलितूलजालैः क्षोणीतले मृदुनि मारुतचारुकीर्णैः / लीलाविहारसमये चरणार्पणानि योग्यानि ते सरससारसकोशमृद्वि ! / / 70 / / एतद्गुणश्रवणकालविजृम्भमाण तल्लोचनाञ्चलनिकोचनसूचितस्य / भावस्य चक्रुरुचितं शिबिकाभृतस्ते तामेकतः क्षितिपतेरपरं नयन्तः // 71 // 20 25 Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] { 785 तां भारती पुनरभाषत नन्वमुष्मि काश्मीरपडूनिभलग्नजनानुरागे। * श्रीखण्डलेपमयदिग्जयकोतिराजि राजद्भजे भज महीभुजि भैमि ! भावम् / 72 / द्वीपं द्विपाधिपतिमन्दपदे ! प्रशास्ति प्लक्षोपलक्षितमयं क्षितिपस्तदस्य / मेधातिथेस्त्वमुरसि स्फुर सृष्टसौख्या - साक्षाद्यथैव कमला यमलार्जुनारेः // 73 / / प्लक्षे महीयसि महीवलयातपत्रे , तत्रेक्षिते खलु तवापि मतिर्भवित्री। खेलां विधातुमधिशाखविलम्बिदोला लोलाखिलाङ्गजनताजनितानुरागे // 74 / / पीत्वा तवाघरसुधां वसुधासुधांशु र्न श्रद्दधातु रसमिक्षुरसोदवाराम् / द्वीपस्य तस्य दधतां परिवेषवेषं सोऽयं चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षि ! / / 7 / / सूरं न सौर इव नेन्दुमवीक्ष्य तस्मि नाश्नाति यस्तदितरविदशानभिज्ञः / तस्यैन्दवस्य भवदास्यनिरीक्षयैव दशेऽश्नतोऽपि न भवत्यवकीणिभावः / / 76 / / उत्सपिणी न किल तस्य तरङ्गिणी या त्वन्नेत्रयोरहह तत्र विपाशि जाता। नीराजनाय नवनीरजराजिरास्ता ___ मत्राञ्जसानुरज राजनि राजमाने // 77 / / 25 . ' एतद्यशोभिरखिलेऽम्बुनि सन्तु हंसा दुग्धोकृते तदुभयव्यतिभेदमुग्धाः / Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 786 ] [ काव्यषट्कं / / 78 / / क्षीरे पयस्यपि पदे द्वयवाचिभूयं नानार्थकोषविषयोऽद्य मृषोद्यमस्तु // 78 / / ब्रूमः किमस्य नलमप्यलमाजुहूषोः कीर्ति स चैष च समादिशतः स्म कर्तुम् / स्वद्वीपसीमसरिदीश्वरपूरपार वेलाचलाक्रमणविक्रममक्रमेण // 76 / / अम्भोजगभरुचिराथ विदर्भसुभ्रू ___स्तं गर्भरूपमपि रूपजितत्रिलोकम् / वैराग्यरूशमवलोकयति स्म भूपं दृष्टि: पुरत्रयरिपोरिव पुष्पचापम् / / 8 / / ते तां ततोऽपि चकृषुर्जगदेकदीपा दंसस्थलस्थितसमानविमानदण्डाः / चण्डद्यतेरुदयिनीमिव चन्द्रलेखां सोत्कण्ठकैरववनीसुकृतप्ररोहाः // 81 / / भूपेषु तेषु न मनागपि दत्तचित्ता विस्मेरया वचनदेवतया तयाथ / वाणोगुणोदयतृणीकृतपाणिवीणा निक्वाणया पुनरभाणि मृगेक्षणा सा / / 2 / / यन्मौलिरत्नमुदितासि स एष जम्बू द्वीपस्त्वदर्थमिलितैयुवभिविभाति / दोलायितेन बहुना भवभीतिकम्प्रः कंदर्पलोक इव खात्पतितस्त्रुटित्वा / / 83 / / विष्वग्वृतः परिजनैरयमन्तरीपै स्तेषामधीश इव राजति राजपुत्रि ! / हेमाद्रिणा कनकदण्डमहातपत्रः कैलासरश्मिचयचामरचक्रचिह्नः // 84 / / 25 118411 Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्ग: ]. [ 787 __10 एतत्तरुस्तरुणि ! राजति राजजम्बूः . स्थूलोपलानिव फलानि विमृश्य यस्याः / सिद्धस्त्रियः प्रिय मिदं निगदन्ति दन्ति यूथानि केन तरुमारुरुहुः पथेति / / 85 / / जाम्बूनदं जगति विश्रुतिमेति मृत्स्ना कृत्स्नापि सा तव रुचा विजितथि यस्याः / तज्जाम्बवद्रवभवास्य सुधाविधाम्बु जम्बूसरिद्वहति सीमनि कम्बुकण्ठि ! / / 86 / / अस्मिजयन्ति जगतीपतयः सहस्र ___मस्रास्र सारिपुतद्वनितेषु तेषु / रम्भोरु ! चारु कतिचित्तव चित्तबन्धि रूपानिरूपय मुदाहमुदाहरामि // 87 / / प्रत्यर्थियौवतवतंसतमालमालो न्मीलत्तमःप्रकरतस्करशौर्यसूर्ये / अस्मिन्नवन्तिनृपतौ गुणसंततीनां . विश्रान्तिधामनि मनो दमयन्ति ! कि ते / / 8 / / तत्रानुतीरवनवासितपस्विविप्रा .. शिप्रा तवोमिभुजया जलकेलिकाले / आलिङ्गनानि ददती भबिता वयस्या . हास्यानुबन्धरमणीयसरोरुहास्या / / 6 / / अस्याधिशय्य पुरमुज्जयिनीं भवानी - जागति या सुभगयौवतमौलिमाला / पत्याऽर्धकायघटनाय मृगाक्षि ! तस्याः शिष्या भविष्यसि चिरं वरिवस्ययापि / / 10 / / निःशङ्कमकुरिततां रतिवल्लभस्य देवः स्वचन्द्रकिरणामृतसेचनेन / श" 25 Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 788 ] { काव्यषट्कं तत्रावलोक्य सुदृशां हृदयेषु रुद्र ___ स्तद्देहदाहफलमाह स किं न विद्मः / / 6 / / आगःशतं विदधतोऽपि समिद्धकामा नाधीयते परुषमक्षरमस्य वामाः / चान्द्री न तत्र हरमौलिशयालुरेका ___ऽनध्यायहेतुतिथिकेतुरपैति लेखा // 62 / / भूपं व्यलोकत न दूरतरानुरक्तं सा कुण्डिनावनिपुरंदरनन्दिनी तम् / अन्यानुरागविरसेन विलोकनाद्वा जानामि सम्यगविलोकनमेव रम्यम् / / 3 / / भैमीङ्गितानि शिबिकामघरे वहन्तः साक्षान्न यद्यपि कथंचन जानते स्म / जज्ञस्तथापि सविधस्थितसंमुखीन भूपालभूषणमणिप्रतिबिम्बतेन // 64 / / भैमीमवापयत जन्यजनस्तदन्य ____गङ्गामिव क्षितितलं रघुवंशदीपः / गाङ्गेयपोतकुचकुम्भयुगां च हार चूडासमागमवशेन विभूषितां च / / 6 / / तां मत्स्यलाञ्छनदराञ्छितचापभासा नीराजितभ्रवमभाषत भाषितेशा / ब्रीडाजडे ! किमपि सूचय चेतसा चेत् क्रीडारसं वहसि गौडबिडौजसीह // 66 // एतद्यशोभिरमलानि कुलानि भासां / तथ्यं तुषारकिरणस्य तृणीकृतानि / स्थाने ततो वसति तत्र सुधाम्बुसिन्धी रङ्कुस्तदकुरवनीकवलांभिलाषात् / / 67 // 25 Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ) [ 786 आलिङ्गितः कमलवत्करकस्त्वयाऽयं ___ श्यामः सुमेरुशिखयेव नवः पयोदः / कंदर्पमूर्धरुहमण्डनचम्पकस्र __ग्दामत्वदङ्गरुचिकञ्चुकितश्चकास्तु / / 18 / / एतेन संमुखमिलत्करिकुम्भमुक्ताः ____ कौ:यकाभिहतिभिविबभुविमुक्ताः / एतद्भुजोष्मभृशनिःसहया विकीर्णाः प्रस्वेदबिन्दव इवारिनरेन्द्रलक्ष्म्या // 66 / / आश्चर्यमस्य ककुभामवधीनवाप दाजानुगाभुजयुगादुदितः प्रतापः / व्यापत्सदाशयविसारितसप्ततन्तु ___ जन्मा चतुर्दश जगन्ति यशःपटश्च / / 10 / / औदास्यसंविदवलम्बितशून्यमुद्रा.. मस्मिन्डशोनिपतितामवगम्य भैम्याः / स्वेनैव जन्यजनतान्यमजीगमत्तां - सुज्ञं प्रतीङ्गितविभावनमेव वाचः / / 101 / / एतां कुभारनिपुणतं पुनरप्यभाणी द्वाणी सरोजमुखि ! निर्भरमारभस्व / अस्मिन्नसंकुचितपङ्कजसख्यशिक्षा निष्णातदृष्टिपंरिरम्भविजृम्भितानि // 102 / / प्रत्यथिपार्थिवपयोनिधिमाथमन्थ पृथ्वीधरः पृथुरयं मथुराधिनाथः / अश्मश्रुजातमनुयाति न शर्वरीशः श्यामाङ्ककर्बु रवपुर्वदनाब्जमस्य // 103 / / बालेघराधरितनकविधप्रवाले ! पाणी जगद्विजयकामणमस्य पश्य / 25 Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 790 ] ___ [ काव्यषट्कं ज्याघातजेन रिपुराजकधूमकेतु तारायमाणमुपरज्य मणि किणेन / / 104 / / एतद्भुजारणिसमुद्भवविक्रमाग्नि चिह्न धनुर्गुणकिणः खलु धूमलेखा / जातं ययारिपरिषन्मशकार्थयात्रु- . ___ विश्राणनाय रिपुदारगम्बुजेभ्यः / / 105 / / श्यामीकृतां मृगमदैरिव माथुरीणां धौतैः कलिन्दतनयामधिमध्यदेशम् / तत्राप्तकालियमहाह्रदनाभिशोभां रोमावलीमिव विलोकयितासि भूमेः / / 106 / / गोवर्धनाचलकलापिचयप्रचार निर्वासिताहिनि धने सुरभिप्रसूने / तस्मिन्ननेन सह निविंश निर्विशङ्क वृन्दावने वनविहारकुतूहलानि // 107 / / भावी करः कररुहाकुरकोरकोऽपि तद्वल्लिपल्लवचये तव सौख्यलक्ष्यः / अन्तस्त्वदास्यहृतसारतुषारभानु शोकानुकारिकरिदन्तजकङ्कणाङ्कः // 108 / / तज्जः श्रमाम्बु सुरतान्त मुदा नितान्त मुत्कण्टके स्तनतटे तव संचरिष्णुः / खजन्प्रभजनजनः पथिक: पिपासुः पाता कुरङ्गमदपङ्किलमप्यशङ्कम् / / 106 / / पूजाविधौ मखभुजामुपयोगिनो ये बिद्वत्कराः कमलनिर्मलकान्तिभाजः / लक्ष्मीमनेन दधतेऽनुदिनं वितीण स्ते हाटकैः स्फुटवराटकगौरगर्भाः / / 110 // 25 Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ]. [ 761 ___ 10 वैरिश्रियं प्रति नियुद्धमनाप्नुवन्यः . किंचिन्न तृप्यति धरावलयैकवीरः / स त्वामवाप्य निपतन्मदनेषुवृन्द स्यन्दीनि तृप्यतु मधूनि पिबन्निवायम् / / 111 / / तस्मादियं क्षितिपतिक्रमगम्यमान ____ मध्वानमैक्षत नृपादवतारिताक्षी / तद्भावबोधबुधतां निजचेष्टयैव ___ व्याचक्षते स्म शिबिकानयने नियुक्ताः।।११२।। भूयोऽपि भूपमपरं प्रति भारती तां .. त्रस्यच्चमूरुचलचक्षुषमाचचक्षे / एतस्य काशिनृपतेस्त्वमवेक्ष्य लक्ष्मी मक्ष्णोः सुख्खं जनय खञ्जनमजुनेत्रे! // 113 / / एतस्य सावनिभुजः कुलराजधानी काशी भवोत्तरणधर्मतरिः स्मरारेः / यामागता दुरितपूरितचेतसोऽपि . पापं निरस्य चिरज विरजीभवन्ति / / 114 / / आलोक्य भाविविधिकर्तृकलोकसृष्टि. कष्टानि रोदिति पुरा कृपयैव रुद्रः / नामेच्छयेति मिषमात्रमधत्त यत्तां . संसारतारणतरीमसृजत्पुरी सः // 115 / / वाराणसी निविशते न वसुधरायां ... तत्र स्थितिमखभुजां. भुवने निवासः / तत्तीर्थमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात्परं पदमुदेतु मुदे तु कीहक् // 116 / / सायुज्यमृच्छति भवस्य भवाब्धियाद स्तां पत्युरेत्य नगरी नगराजपुत्र्याः / Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 ] [ काव्यषट्कं भूताभिधानपटुमद्यतनीमवाप्य . भीमोद्भवे! भवतिभावमिवास्तिधातुः / / 117 / / निविश्य निविरति काशिनिवासि भोगा निर्माय नर्म च मिथो मिथुनं यथेच्छम् / गौरीगिरीशघटनाधिकमेकभावं __ शर्मोमिकञ्चुकितमञ्चति पञ्चतायाम् / / 18 / न श्रद्दधासि. यदि तन्मम मौनमरतु कथ्या निजाप्ततमयैव तवानुभूत्या / न स्यात्कनीयसितरा यदि नाम काश्या राजन्वती मुदिरमण्डनधन्वना भूः / / 116 / / ज्ञानाधिकासि सुकृतान्यधिकाशि कुर्याः ___ कार्य किमन्यकथनैरपि यत्र मृत्योः / एक जनाय सतताभयदानमन्य द्धन्ये ! वहत्यमृतसत्रमवारिताथि / / 120 / / भूभर्तु रस्य रतिरेधि मृगाक्षि ! मूर्ता सोऽयं तवास्तु कुसुमायुध एव मूर्तः ! भातं च ताविव पुरा गिरिशं विराद्ध ___माराद्धमाशु पुरि तत्र कृतावतारौ / / 121 / / कामानुशासनशते सुतरामधीती ____सोऽयं रहो नखपदैर्महतु स्तनो ते / रुष्टाद्रि नाचरणकुकुमपङ्कराग संकीर्णशकरशशाङ्ककलाङ्ककारैः / / 122 / / पृथ्वीश एष नुदतु त्वदनङ्गताप मालिङ्गय कीर्तिचयचामरचारुचापः / सङ्ग्रामसंगतविरोघिशिरोधिदण्ड खण्डिक्षरप्रशरसंप्रसरन्प्रतापः 25 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकादशः सर्गः ] [763 वक्षस्त्वदुविरहादपि नास्य दीणं . वज्रायते पतनकुण्ठितशत्रुशस्त्रम् / तत्कन्दकन्दलतया भूजयोन तेजो वह्निनमत्यरिवधूनयनाम्बुनापि // 124 / / किं न द्रुमा जगति जाग्रति लक्षसंख्या स्तुल्योपनीतपिककाकफलोपभोगाः / स्तुत्यस्तु कल्पविटपी फलसंप्रदानं कुर्वन्स एष विबुधानमतैकवृत्तीन् // 125 / / अस्मै कर प्रवितरन्तु नृपा न कस्मा ___दस्यैव तत्र यदभूत्प्रतिभूः कृपाणः / देवाद्यदा प्रवितरन्ति न ते तदैव नेदंकृपा निजकृपाणकरग्रहाय // 126 / / एतद्वलैः क्षणिकतामपि भूखुराग्र ___ स्पर्शायुषां रयरसादसमापद्भिः / / 15 . दृक्पेयकेवलनभःक्रमणप्रवाहै हैिरलुप्यतु सहस्रहगर्वगर्वः // 127 / / तद्वर्णनासमय एवं समेतलोक.. शोभावलोकनपरा तमसो निरासे / मानी तया गुणविदा यदनादतोऽसौ तद्भूभृतां सदसि दुर्यशसेव मम्लो / / 128 / / सानन्तानाप्य तेजःसखनिखिलमरुत्पार्थिवान्दिष्टभाज श्चित्तेनाशाजुषस्तान्सममसमगुणान् मुञ्चती गूढभावा / पारेवाग्वतिरूपं पुरुषमनु चिदम्भोधिमेकं शुभाङ्गी निःसीमानन्दमासीदुपनिषदुपमा तत्परीभूय भूयः / / 126 / / 25 श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 764 ] [ कान्यषट्कं शृङ्गारामृतशीतगावयमगादेकादशस्तन्महा. काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / 130 / / / इति महाकविश्रीहर्षविरचितेनैषधीयप्रकाश एकादशः सर्गः समाप्तः / / 11 / / // 12 // द्वादशः सर्गः॥ // 1 // प्रियाहियालम्ब्य विलम्बमाविला __ विलासिनः कुण्डिनमण्डनायितम् / समाजमाजग्मुरथो रथोत्तमा __स्तमासमुद्रादपरेऽपरे नृपाः ततः स भैम्या ववृते वृते नपै विनिःश्वसद्भिः सदसि स्वयंवरः / चिरागतैस्तकिततद्विरागितैः स्फुरद्भिरानन्दमहार्णवैनवैः / / 2 / / चलत्पदस्तत्पदयन्त्रणेङ्गित स्फुटाशयामासयति स्म राजके / श्रमं गता यानगतावपीयमि त्युदीर्य धुर्यः कपटाज्जनीं जनः // 3 / / नृपानुपक्रम्य विभूषितासना- ." सनातनी सा सुषुवे सरस्वती / विहारमारभ्य सरस्वतीः सुधा __ सरःस्वतीघार्द्रतनूरनूत्थिताः / // 4 // वृणीष्व वर्णेन सुवर्णकेतकी.. प्रसूनवर्णाहतुपर्णमास्तम् / . Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 765 निजामयोध्यामपि पावनीमयं भवन्मयो ध्यायति नावनीपतिः // 5 / / न पीयतां नाम चकोरजिह्वया / कथचिदेतन्मुखचन्द्र चन्द्रिका / इमां किमा चामयसे न चक्षुषी चिरं चकोरस्य भवन्मुखस्पृशी // 6 / / अपां विहारे तव हारविभ्रमं ___ करोतु नीरे पृषदुत्करस्तरन् / कठोरपीनोच्चकुचद्वयीतट त्रुटत्तर: सारवसारवोमिजः // 7 // अखानि सिन्धुः समपूरि गङ्गया कुले किलास्य प्रसभं स भन्त्स्यते / विलङ्घयते चास्यं यशःशतैरहो ___सतां महत्संमुखधावि पौरुषम् एतद्यशःक्षीरधिपूरगाहि पतत्यगाधे वचनं कवीनाम् / एतद्गुणानां गणनाङ्कपातः / प्रत्यर्थिकीर्तीः खटिकाः क्षिणोति // 9 / / भास्वद्वंशकरीरतां दधंदयं वीरः कथं कथ्यतामध्युष्टापि हि कोटिरस्य समरे रोमाणि सत्त्वाकुराः / / नीतः संयति बन्दिभिः श्रुतिपथं यन्नामवर्णावलीमन्त्रः स्तम्भयति प्रतिक्षितिभृतां दोस्तम्भकुम्भीनसान् 10 ताग्दीर्घविरिञ्चिवासरविधौ जानामि यत्कर्तृतां शङ्क यत्प्रतिबिम्बमम्बुधिपय:पूरोदरे वाडवः / .. व्योमव्यापिविपक्षराजकयशस्ताराः पराभावुकः कासामस्य न स प्रतापतपनः पारं गिरां गाहते / 11 / / / 8 / / 20 Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766 ] [ काव्यषट्कं द्वेष्याकोतिकलिन्दशैलसुतया नद्यास्य यद्दोद यी कीर्तिश्रेणिमयो समागममगाद्गङ्गा रणप्राङ्गणे / तत्तस्मिन्विनिमज्ज्य बाहुजभटैरारम्भि रम्भापरी- रम्भानन्दनिकेतनन्दनवनक्रीडादराडम्बरः / / 12 / / इति श्रुतिस्वादिततद्गुणस्तुतिः सरस्वतीवाङ्मयविस्मयोत्थया / शिरस्तिरःकम्पनयैव भीमजा नः तं मनोरन्वयमन्वमन्यत / / 13 / / यूवान्तरं सा वचसामधीश्वरा स्वरामृतन्यककृतमत्तकोकिला / शशंस संसक्तकरैव तद्दिशा निशाकरज्ञातिमुखीमिमां प्रति / / 14 / / न पाण्डयभूमण्डनमेणलोचने! ‘विलोचनेनापि नृपं पिपाससि / शशिप्रकाशाननमेनमीक्षितुं ' तरङ्गयापाङ्गदिशा (शोस्त्विषः / / 15 / / भूवि भ्रमित्वाऽनवलम्बमम्बरे विहर्तु मभ्यासपरम्परापरा। अहो महावंशममुं समाश्रिता ____ सकौतुकं नत्यति कीर्तिनर्तकी / / 16 / / इतो भिया भूपतिभिवनं वना दर्शद्भरुच्चरटवीत्वमीयुपी / निजापि सावापि चिरात्पुनः पुरी पुनः स्वमध्यासि विलासमन्दिरम् / / 17 / / आसीदासीमभूमीवलयमलयजालेपनेपथ्यकीर्तिः सप्ताकूपारपारीसदनजनघनो द्गीतचापप्रतापः / 15 Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 767 वीरादस्मात्परः कः पदयुगयुगपत्पातिभूपातिभूय श्चूडारत्नोडपत्नीकरपरिचरणामन्दनन्दनखेन्दुः 18 भङ्गाकीर्तिमषीमलीमसतमप्रत्यथिसेनाभट. श्रेणीतिन्दुककाननेषु विलसत्यस्य प्रतापानलः / तस्मादुत्पतिताः स्फुरन्ति जगदुत्सङ्ग स्फुलिङ्गाः स्फुटं भालोद्भ तभवाक्षिभानुहुतभुग्जम्भारिदम्भोलयः 19 एतद्दन्तिबलैविलोक्य निखिलामालिङ्गिताङ्गी भुव सङ्ग्रामाङ्गणसीम्नि जङ्गमगिरिस्तोमभ्रमाधायिभिः / पृथ्वीन्द्रः पृथुरेतदुग्रसमरप्रेक्षोपनम्रामर श्रेणीमध्यचरः पुनः क्षितिधरक्षेपाय धत्ते धियम् / 20 / शशंस दासीङ्गितविद्विदर्भजा ___मितो ननु स्वामिनि ! पश्य कौतुकम् / यदेष सौधाग्रनटे पटाञ्चले .. चलेऽपि काकस्य पदार्पणग्रहः // 21 / / ततस्तदप्रस्तुतभाषितोत्थितैः सदस्तदश्वे ति हस: सदासदाम् / / स्फुटाजनि म्लानि स्तोऽस्य भूपतेः सिते हि जायेत शितेः सुलक्ष्यता / / 22 / / ततोऽनु देव्या जगदे महेन्द्र - पुरंदरं सा जगदेकवन्द्यया / तदार्जवावजिततर्जनीकया जनी कयाचित्परचित्स्वरूपया // 23 // स्वयंवरोद्वाहमहे वृणीष्व हे ! महेन्द्रशैलस्य महेन्द्रमागतम् / कलिङ्गजानां स्वकुचद्वयश्रिया ____कलिं गजानां शृणु तत्र कुम्भयोः // 24 / / Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 768 ] [ काव्यषटकं अयं किलायात इतीरिपोरवा ग्भयादयादस्य रिपुर्वथा वनम् / श्रुतास्तदुत्स्वापगिरस्तदक्षराः पठद्भिरत्रासि शुकैर्वनेऽपि सः // 25 / / इतस्त्रसद्विद्रतभूभृदुज्झिता प्रियाथ दृष्टा वनमानवीजनैः / शशंस पृष्टाद्भुतमात्मदेशजं शशित्विषः शीतलशीलतां किल / / 26 / / इतोऽपि किं वीरयसेन कुर्वतो नपान्धनुर्बाणगुणैर्वशंवदान् / गुणेन शुद्धेन विधाय निर्भर तमेनमुर्वीवलयोर्वशी वशम् // 27 / / एतद्भीतारिनारी गिरिबिलविगलद्वासरा निःसरन्ती स्वक्रीडाहंसमोहग्रहिलशिशुभृशप्रार्थितोन्निद्रचन्द्रा / आक्रन्दद्भरि यत्तन्नयनजलमिलञ्चन्द्रहंसानुबिम्ब प्रत्यासत्तिप्रहृष्यत्तनयविहसितैराश्वसीन्यश्वसीच्च / 28 / अस्मिन्दिग्विजयोद्यते षतिरयं मे स्तादिति ध्यायिनी कम्पं सात्त्विकभावमञ्चति रिपुक्षोणीन्द्रदारा घरा। अस्यैवाभिमुखं निपत्य समरे यास्यद्भिवं निजः 20 पन्था भास्वति दृश्यते बिलमयः प्रत्यर्थिभिः पार्थिवैः / / 29 / / विद्राणे रणचत्वरादरिगणे त्रस्ते समस्ते पुनः कोपात्कोऽपि निवर्तते यदि भटः कीर्त्या जगत्युद्भटः / आगच्छन्नपि संमुखं विमुखतामेवाधिगच्छत्यसौ द्रागेतच्छुरिकारयेण ठणिति च्छिन्नापसर्पच्छिराः // 30 // 25 ततस्तदुर्वीन्द्रगुणामृतादिव स्ववक्त्रपर्दोऽङ्गुलिनालंदायिनी / Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [ 766 विधीयतामाननमुद्रणेति सा जगाद वैदग्ध्यमयेङ्गितैव ताम् // 31 / / अनन्तरं तामवदन्नृपान्तरं तदध्वक्तारतरङ्गरङ्गणा। तृणीभवत्पुष्पशरं सरस्वती स्वतीव्रतेजः परिभूतभूतलम् / / 32 / / तदेव किं नु ! क्रियते न का क्षति यदेष तद्रूतमुखेन काङ्क्षति / प्रसीद काञ्चीमयमाच्छिनत्तु ते - प्रसह्य काञ्चीपुरभूपुरंदरः // 33 // मयि स्थितिनम्रतयैव लभ्यते दिगेव तु स्तब्धतया विलक्यते / इतीव चापं दधदाशुगं क्षिप नयं नयं सम्यगुपादिशद्विषाम् // 34 / / अद:समित्संमुखवीरयौवतत्रुटभुजाकम्बुमृणालहारिणी। द्विषद्गणस्त्रैणहगम्बुनिर्भरे यशोमरारालावलिरस्य खेलति / 35 / 15 सिन्दूरद्युतिमुग्धमूर्धनि धृतस्कन्धावधिश्यामिके व्योमान्तःस्पृशि सिन्धुरेऽस्य समरारम्भोधरे धावति / जानीमो नु यदि प्रदोषतिमिरव्यामिश्रसंध्याधियेवास्तं यान्ति समस्तबाहुनभुजातेजःसहस्रांशवः // 36 / / हित्वा दैत्यरिपोरुर: स्वभवनं शून्यत्वदोषस्फुटासीदन्मर्कटकीटकृत्रिमसितच्छत्रीभवत्कौस्तुभम् / उज्झित्वा निजसद्म पद्ममपि तद्व्यक्तावनद्धीकृतं लूतातन्तुभिरन्तरद्य भुजयोः श्रीरस्य विश्राम्यति // 37 / / सिन्धोर्जेत्रमयं पवित्रमसृजत्तत्कीर्तिपूर्ताद्भुतं यत्र स्नान्ति जगन्ति सन्ति कवयः के वा न वाचंयमाः / 25 यद्विन्दुश्रियमिन्दुरञ्चति जलं चाविश्य दृश्येतरो यस्यासो जलदेवतास्फटिकभूर्जागति यागेश्वरः // 38 / / Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800 ] [ काव्यषट्कं अन्तःसंतोषबाष्पैः स्थगयति न दृशस्ताभिराकर्णयिष्यनङ्गेनानस्तिरोमा रचयति पुल कश्रेणिमानन्दकन्दाम् / न क्षोणीभङ्गभीरुः कलयप्ति च शिरःकम्पनं तन्न विद्मः शृण्वन्नेतस्य कीर्तीः कथमुरगपतिः प्रीतिमाविष्करोति / / 39 / / 5 पाचूडाग्रममज्जयज्जयपटुर्यच्छल्यदण्डानयं संरम्भे रिपुराजकुञ्जरघटाकुम्भस्थलेषु स्थिरान् / सा सेवास्य पृथुः प्रसीदसि तया नास्मै कुतस्त्वत्कुचस्पर्धागधिषु तेषु तान्धृतवते , दण्डान्प्रचण्डानपि // 40 // स्मितश्रिया सृक्वणि लीयमानया वितीर्णया तद्गुणशर्मणेव सा / उपाहसत्कीर्त्यमहत्त्वमेव तं गिरां हि पारे निषधेन्द्र वैभवम् / / 41 / / निजाक्षिलक्ष्मीहसितैरणशावका मसावभाणीदपरं परन्तपम् / पुरैव तदिग्वलनश्रियां भुवा / ध्रुवा विनिर्दिश्य सभासभाजितम् / / 42 / / कृपा नृपाणामुपरि क्वचिन्न ते नतेन हा हा शिरसा रसादृशाम् / भवन्तु तावत्तव लोचनाञ्चला निपेयनेपालनपालपालयः ऋजुत्वमौनश्रुतिपारगामिता यदीयमेतत्परमेव हिंसितुम् / / प्रतीब विश्वासविधायि चेष्टितं बहुमहानस्य स दाम्भिक: शरः // 44 / / 25 रिपूनवाप्यापि गतोऽवकीणिता मयं न यावज्जनरञ्जनव्रती / // 43 // Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [801 10 भृशं विरक्तानपि रक्तवत्तरा निकृत्य यत्तानसृजासृजधुधि // 45 / / पतत्येतत्तेजोहुतभुजि कदाचिद्यदि तदा पतङ्गः स्यादङ्गीकृततमपतङ्गापदुदयः / 5 यशोऽमुष्येवोपार्जयितुसमर्थन विधिना . कथंचित्क्षीराम्भोनिधिरपि कृतस्तत्प्रतिनिधिः / / 46 / / यावत्पौलस्त्यवास्तूभवदुभयहरिल्लोमलेखोत्तरीये सेतुप्रालेयशैलौ चरति नरपतेस्तावदेतस्य कीर्तिः / यावत्प्राक्प्रत्यगाशापरिवृढनगरारम्भणस्तम्भमुद्रावद्री संध्यापताकारुचिरचितशिखाशोणशोभावुभौ च // 47 / / युद्धवा चाभिमुखं रणस्य चरणस्यवादसीयस्य वा बुद्धवाऽन्तः स्वपरान्तरं निपततामुन्मुच्य बाणावलीः / छिन्न वावनतीभवन्निजभियः खिन्न भरेणाथ वा राज्ञानेन हठाद्विलोठितमभूर्भूमावरीणां शिरः // 48 // 15 न तूणादूद्धारे न गुणघटने नाश्रुतिशिखं .. समाकृष्टो दृष्टिन वियति न लक्ष्ये न च भुवि / नृणां पश्यत्यस्य वचन विशिखान्कि तु पतित द्विषद्वक्षःश्वभ्ररनुमितिरमून्गोत्ररयति // 4 / / दमस्वसुश्चित्तमवेत्य हासिका जगाद देवीं कियदस्य वक्ष्यसि / भरण प्रभूते जगति स्थिते गुण रिहाप्यते संकटवासयातना ब्रवीति दासीह किमप्यसंगतं ततोऽपि नीचेयमतिप्रगल्भते / पहो सभा साधुरितीरिणः क्रुधा न्यषेधदेतत्क्षितिपानुगाञ्जनः // 51 // 150 / / Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 802 ] [ काव्यषट्कं ||53 // अथान्यमुद्दिश्य नृपं कृपामयी मुखेन तद्दिङ्मुखसंमुखेन सा। . दमस्वसारं वदति स्म देवता गिरामिलाभूवदतिस्मरश्रियम् .. // 52 / / विलोचनेन्दीवरवासवासितैः सितैरपाङ्गाव्वगचन्द्रिकाञ्चलैः / त्रपामपाकृत्य निभान्निभालय क्षितिक्षितं मालयमालयं रुचः इमं परित्यज्य परं रणादरिः - स्वमेव भग्नः शरणं मुधाविशत् / न वेत्ति यत्त्रातुमितः कृतस्मयो न दुर्गया शैलभूवापि शक्यते // 54 / / अनेन राज्ञाऽथिषु दुर्भगीकृतो भवन्धनबानजरत्नमेतुरः / तथा विदूराद्रिरदूरतां गमी यथा स गामी तव केलिशैलताम् // 55 / / नम्रप्रत्यथिपृथ्वीपतिमुखकमलम्लानताभृङ्गजात च्छायान्तःपातचन्द्रायितचरणनखश्रेणिरैणेयनेत्र ! / दृप्तारिप्राणवातामृतरसलहरीभूरिपानेन पीनं 20 भूलोकस्यैष भर्ता भुजभुजगयुगं सांयुगीनं बिति / / 56 / / अध्याहारः स्मरहरशिरश्चन्द्रशेषस्य शेष स्याहे यःफणसमुचितः काययष्टोनिकायः / दुग्धाम्भोधे, निचुलुकनत्रासनाशाभ्युपायः / कायव्यूहः क्व जगति न जागर्त्यदः कीर्तिपूरः // 7 // 25 राज्ञामस्य शतेन किं कलयतो हेति शतघ्नी कृतं लक्षलक्षभिदो दृशैव जयतः पद्मानि पद्मरलम् / Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] कर्तुं सर्वपरच्छिदः किमपि नो शक्यं परार्धेन वा तत्संख्यापगमं विनाऽस्ति न गतिः काचिद्वतैतद्विषाम् / 58 / वयस्ययाकूतविदा दमस्वसुः स्मितं वितत्याभिदधेऽथ भारती / इतः परेषामपि पश्य याचतां भवन्मुखेन स्वनिवेदनत्वराम् // 56 / / कृतात्र देवी वचनाधिकारिणी त्वमुत्तरं दासि ! ददासि का सती / इतीरिणस्तन्नृपपारिपाश्विका न्स्वभतुं रेव भ्र कुटियवर्तयत् ... // 60 / / धराधिराजं निजगाद भारतो .... तदुन्मुखेषद्वलिताङ्गसूचितम् / / दमस्वसारं प्रति सारवत्तरं / कुलेन शीलेन च राजसूचितम् // 61 / / कुतः कृतैवं वरलोकमागतं . प्रति प्रतिज्ञाऽनवलोकनाय ते / अपीयमेनं मिथिलापुरंदरं .. . निपीय दृष्टि: शिथिलाऽस्तु ते वरम् / / 62 / / न पाहि पाहीति यदब्रवीरमुं ममौष्ठ ! तेनैवमभूदिति क्रुधा। रणक्षितावस्य विरोधिमूर्धभि... विदश्य दन्तैनिजमोष्ठमास्यते // 63 // भुजेऽपसर्पत्यपि दक्षिणे गुणं .. सहेषुणादाय पुरःप्रसपिणे / 25 . धनुः परीरम्भमिवास्य संमदा महाहवे दित्सति बामबाहवे . // 64 / / Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 804 ] [ काव्यषट्कं 10 अस्यो:रमणस्य पार्वणविधुद्वैराज्यसज्जं यशः सर्वाङ्गोज्ज्वलशर्वपर्वतसितश्रीगर्वनिर्वासि यत् / तत्कम्बुप्रतिबिम्बितं किमु शरत्पर्जन्य राजिश्रियः पर्यायः किमु दुग्धसिन्धुपयसां सर्वानुवादः किमु // 65 / / 5 निस्त्रिशत्रुटितारिवारणघटाकुम्भास्थिकूटावट स्थानस्थायुक्रमौक्तिकोत्करकिरः करस्य नायं करः / उन्नीतश्चतुरङ्गसैन्यसमरत्वङ्गत्तरंगक्षुर क्षुण्णासु क्षितिष क्षिपन्निव यश:क्षोणीजबीजब्रजम् / / 66 / / अर्थिभ्रंशबहूभवत्फल भरव्याजेन कुब्जायितः ___सत्यस्मिन्नतिदानभाजि कथमप्यास्तां स कल्पद्रुमः / आस्ते निर्व्ययरत्नसंपदुदयोदग्रः कथं याचकश्रेणीवर्जनदुर्यशोनिबिडितव्रीडस्तु रत्नाचलः // 67 / / सजामि किं विघ्नमिदंनृपस्तुता वितीङ्गितैः पृच्छति तां सखीजने / स्मिताय वक्त्त्रं यदवक्रयद्वधू स्तदेव वैमुख्यमलक्षि तन्नृपे // 68 // दशाथ निर्दिश्य नरेश्वरान्तरं मधुस्वरा वक्तुमधीश्वरा गिराम् / / अनुपयामास विदर्भजाश्रुती निजास्य चन्द्रस्य सुधाभिरुक्तिभिः // 66 / / स कामरूपाधिप एष हा त्वया न कामरूपाधिक ईक्ष्यतेऽपि यः / त्वमस्य सा योग्यतमासि वल्लभा सुदुर्लभा यत्प्रतिमल्लभा परा 25 अकर्णधाराशुगसंभृताङ्गता गतेररित्रण विनास्य वैरिभिः / // 70 // Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [805 5 विधाय यावत्तरणेभिदामहो . निमज्ज्य तीर्णः समरे भवार्णवः // 71 / / यदस्य भूलोकभुजो भुजोष्मभि स्तपतु रेव क्रियतेऽरिवेश्मनि / प्रपां न तत्रारिवधूस्तपस्विनी ददातु नेत्रोत्पलवासिभिर्जलैः // 72 / / एतद्दत्तासिघातस्रवदसृगसुहृद्वंशसाइँन्धनत द्दोरुद्दामप्रतापज्वलदनलमिलद्भूमधूमभ्रमाय / एतद्दिग्जैत्रयात्रासमसमरभरं पश्यतः कस्य नासी१० देतन्नासीरवाजिव्रजखुरजरजोराजिराजिस्थलीषु // 73 / / क्षीरोदन्वदपाः प्रमथ्य मथितादेशेऽमरैनिमिते स्वाक्रम्यं सृजतस्तदस्य यशसः क्षीरोदसिंहासनम् / केषां नाजनि वा जनेन जगतामेतत्कवित्वामृत स्रोतः प्रोतपिपासुकर्णकलसीभाजाभिषेकोत्सवः // 74 / / 15 समिति पतिनिपाताकर्णनद्रामदीर्ण- . प्रतिनृपतिमृगाक्षीलक्षवक्षःशिलासु / रचितलिपिरिवोरस्ताडनव्यस्तहस्त- . प्रखरनखरटङ्करस्य कीर्तिप्रशस्तिः // 75 / / विधाय ताम्बूलपुटी कराङ्कगां बभाण ताम्बूलकरङ्कवाहिनी / दमस्वसुर्भावमवेत्य भारती - नयानया वक्त्रपरिश्रमं शमम् // 76 / / समुन्मुखीकृत्य बभार भारती __रतीशकल्पेऽन्यनृपे निजं भुजम् / ततस्त्रसद्वालपृषद्विलोचना शशंस संसज्जनरञ्जनी जनीम् // 77 / / 20 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 806 ] [ काव्यषट्कं // 76 / / // 8 // अयं गुणोधैरनुरज्यदुत्कलो भवन्मुखालोकरसोत्कलोचनः / स्पृशन्तु रूपामृतवापि ! नन्वमु __तवापि दृक्तारतरङ्गभङ्गयः . ||78 // अनेन सर्वाथिकृतार्थताकृता . हतार्थिनी कामगवीसुरद्रुमौ / मिथ:पयःसेचनपल्लवाशने प्रदाय दानव्यसनं समाप्नुतः नृपः कराभ्यामुदतोलयन्निजे नृपानयं यान्पततः पदद्वये / तदीयचूडाकुरुविन्दरश्मिभिः स्फुटेयमेतत्करपादरऽजना यत्कस्यामपि भानुमान्न ककुभि स्थेमानमालम्बते जातं यद्धनकाननैकशरणप्राप्तेन दावाग्निना / 15 एषैतद्भुजतेजसा विजितयोस्तावत्तयोरौचिती धिक्तं वाडवमम्भसि द्विषि भिया येन प्रविष्टं पुनः / / 81 / / अमुष्योर्वीभतु : प्रसृमरचमूसिन्धुरभवै. रवैमि प्रारब्धे वमथुभिरवश्यायसमये / न कम्पन्तामन्तः प्रतिनृपभटा म्लायतु न तद्वधूवक्त्त्रभोजं भवतु न स तेषां कुदिवसः // 2 // प्रात्मन्यस्य समुच्छितीकृतगुणस्याहोतरामौचिती यद्गात्रान्तरवर्जनादजनयद्भजानिरेष द्विषाम् / भूयोऽहं क्रियते स्म येन च हृदा स्कन्धो न यश्चानम तन्मर्माणि दलं दल समिदलकर्मीणबाणवजः / / 83 / / 25 दूरं गौरगुणैरहंकृतिभृतां जैत्राङ्ककारे चर त्येतद्दोर्यशसि प्रयाति कुमुदं बिभ्यन्न निद्रां निशि / Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः] / 807 धम्मिल्ले तव मल्लिकासुमनसां माल्यं भिया लीयते पीयूषस्रवकैतवाद्धतदरः शीतद्युतिः स्विद्यति // 4 // एतद्गन्धगजस्तृषाम्भसि भृशं कण्ठान्तमज्जत्तनुः फनैः पाण्डुरितः स्वदिक्करिजयक्रीडायशः स्पधिभिः / 5 दन्तद्वन्द्वजलानुबिम्बनचतुर्दन्तः कराम्भोवमिव्याजादभ्रमुवल्लभेन विरह निर्वापयत्यम्बुधः // 85 / / अथैतदुर्वीपतिवर्णनाद्भुतं न्यमीलदास्वादयितु हृदीव सा / मधुस्रजा नैषधनामजापिनी स्फुटीभवद्धयानपुरः स्फुरन्नला // 86 // प्रशंसितु संसदुपान्तरञ्जिनं श्रिया जयन्तं जगतीश्वरं जिनम् / गिरः प्रतस्तार पुरावदेव ता दिनान्तसंध्यासमयस्य देवता तथाधिकुर्या रुचिरे ! चिरेप्सिता . यथोत्सुकः संप्रति संप्रतीच्छति। . अपाङ्गरङ्गस्थललास्यलम्पटाः . कटाक्षधारास्तव कीकटाधिपः // 88 / / इदंयशांसि द्विषतः सुधारुचः .. . किमङ्कमेतद्विषतः किमाननम् / यशोभिरस्याखिललोकधाविभि विभीषिता धावति तामसीमसी . // 86 / / इदंनपप्राथिभिरुज्झितोऽथिभि मणिप्ररोहेण विवृध्य रोहणः / 25 कियद्दिनरम्बरमावरिष्यते / .. मुघा मुनिर्विन्ध्यमरुन्ध भूधरम् // 6 // // 87 // Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 808 ] { काव्यषट्क भूशक्रस्य यशांसि विक्रमभरेणोपाजितानि क्रमा- ' देतस्य स्तुमहे महेभदशनस्पर्धीनि कैरक्षरैः / लिम्पद्भिः कृतकं कृतोऽपि रजतं राज्ञां यशःपारदै रस्य स्वर्णगिरिः प्रतापदहनैः स्वर्णं पुननिर्मितः // 91 / / 5 यद्भर्तु : कुरुतेऽभिषेणनमयं शक्रो भुवः सा ध्रुवं देग्दाहैरिव भस्मभिर्मघवता वृष्टधृतोद्धलना। शंभोर्मा बत सांधिवेलनटनं भाजि व्रतं द्रागिति __क्षोणी नृत्यति मूतिरष्टवपुषोऽसम्वष्टिसंध्याधिया / / 12 / / प्रागेतद्वपुरामुखेन्दु सृजतः स्रष्टुः समस्तस्त्विषां 10 कोषः शोषमगादगाधजगतोशिल्पेऽप्यनल्पायितः / निःशेषयति मण्डलव्ययवशादोषल्लभैरेष बा शेषः केशमय: किमन्धतमसस्तोमैस्ततो निमित: / / 13 / / तत्तदिग्जैत्रयात्रोद्धरतुरगखुराग्रोद्धतैरन्धकारं निर्वाणारिप्रतापानल जमिव सृजत्येष राजा रजोभिः / 15 भूगोलच्छायमायामयगणितविदुन्नेय कायो भियाभू देतत्कीर्तिप्रतानैविधुभिरिव युधे राहुराहूयमानः / / 64 / / आस्ते दामोदरीयामियमुदरदरी यावलम्ब्य त्रिलोकी संमातुं शक्नुवन्ति प्रथिमभरवशादत्र नैतद्यशांसि / तामेतां पूरयित्वा निरगुरिव मधुध्वसिन: पाण्डपद्म___च्छमापन्नानि तानि द्विपदशनसनाभीनि नाभीपथेन / 65 / अस्यासिर्भुजगः स्वकोश सुषिराकृष्टः स्फुरत्कृष्णिमा कम्पोन्मीलदराललोलवलनस्तेषां भिये भूभुजाम् / सङ्ग्रामेषु निजागुलीमयमहासिद्धौषधोवीरुधः . पर्वास्ये विनिवेश्य जागुलिकता यैर्नाम नालम्बिता / / 6 / / 25 यः पृष्ठं युधि दर्शयारभटश्रेणीषु यों वक्रता मस्मिन्नेव विर्भात यश्च किरति क्रूरध्वनि निष्ठुरः / Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वादशः सर्गः ] [809 दोषं तस्य तथाविधस्य भजतश्चापस्य गृह्णन्गुणं विख्यातः स्फुटमेक एष नृपतिः सीमा गुणग्राहिणाम् / / 97 / / प्रस्यारिप्रकरः शरश्च नृपतेः संख्ये पतन्तावुभौ सीत्कारं च न संमुखी रचयतः कम्पं च न प्राप्नुतः / 5 तद्युक्तं न पुननिवृत्तिरुभयोर्जागति यन्मुक्तयो रेकस्तत्र भिनत्ति मित्रमपरश्चामित्रमित्यद्भुतम् // 68 / / धूलीभिर्दिवमन्धयन्बधिरयन्नाशाः खुराणां रवैतिं संयति खजयञ्जवजवै स्तोतन्गुणकयन् / धर्माराधनसंनियुक्तजगता राज्ञामुनाधिष्ठितः 10 सान्द्रोत्फालमिषाद्विगायति पदा स्प्रष्टुं तुरंगोंऽपि गाम् / / 99 / / एतेनोत्कृत्तकण्ठप्रतिसुभटनटारब्धनाट्याद्भुतानां कष्टं द्रष्टव नाभूभृवि समरसमालोंकिलोकास्पदेऽपि / अश्वरस्वरवेगैः कृतखुरखुरलीमविक्षुद्यमान क्ष्मापृष्ठोत्तिष्ठदन्धकरणरणधुरारेणुधारान्धकारात् / / 10 / / 15 उन्मीलल्लीलनीलोत्पलदलदलनामोदमेदस्विपूर क्रोडक्रोडविजालीगरुदुदितमरुत्स्फालवाचालवीचिः / एतेनाखानि शाखानिवहनवहरित्पर्णपूर्णद्रुमालीव्यालीढोपान्तशान्तव्यथपथिकदृशां दत्तरागस्तडागः / / 101 / / वृद्धो वाद्धिरसो तरङ्गवलिभं बिभ्रद्वपुः पाण्डुरं 20 हंसालीपलितेन यष्टिकलितस्तावद्वयोबहिमा / बिभ्रञ्चन्द्रिकया च कं विकचया योग्यस्फुरत्संगतं स्थाने स्नानविधायिधार्मिकशिरोनत्यापि नित्यादतः / / 102 / / तस्मिन्नेतेन यूना सह विहर पयःकेलिवेलासु बाले ! नालेनास्तु त्वदक्षिप्रतिफलनभिदा तत्र नीलोत्पलानाम् / 25 तत्पाथो देवतानां विशतु तव तनुच्छायमेवाधिकारे तत्फुलाम्भोजराज्ये भवतु च भवदीयाननस्याभिषेक: / / 103 / / Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 810 ] | काव्यषट्क - - एतत्कीतिविवर्तघौतनिखिल त्रैलोक्यनिर्वासितै- ' विश्रान्तिः कलिता कथासु जगतां श्यामैः समग्रैरपि / जज्ञे कीर्तिमयादहो भयभरैरस्मादकीर्तेः पुनः सा यन्नास्य कथापथेऽपि मलिनच्छाया बबन्ध स्थितिम् / 104 / अथावदद्भीमसुतेङ्गितात्सखी ___ जनरकोतिर्यदि वास्य नेष्यते / मयापि सा तत्खलु नेष्यते परं सभाश्रवःपूरतमालवल्लिताम् // 105 / / अस्य क्षोणिपतेः परार्धपरया लक्षीकृताः संख्यया 10 प्रज्ञाचक्षुरवेक्ष्यमाणतिमिरप्रख्याः किलाकीर्तयः / गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन वन्ध्योदरा न्मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधे रोधसि / / 106 / / तदक्षरैः सस्मितविस्मिताननां निपीय तामीक्षणभङ्गिभिः सभाम् / इहास्य हास्यं किमभून्न वेति तं . . विदर्भजा भूपमपि न्यभालयत् / / 107 / / नलान्यवीक्षां विदधे दमस्वसुः कनीनिकागः खलु नीलिमालयः / चकार सेवां शुचिरक्ततोचितां मिलनपाङ्गः सविधे तु नैषधे // 108 / / दृशा नलस्य श्रुतिचुम्बिनेषुणा ___ करेऽपि चक्रच्छलनम्रकार्मुकः / स्मरः परागैरनुकल्प्य धन्वितां . ___ जनीमनङ्गः स्वयमार्दयत्ततः // 106 / / उत्कण्टका विलसदुज्ज्वलपत्रराजि रामोदभागनपरागतराऽतिगोरी। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [811 रुद्रक्रुधस्तदरिकामधिया नले सा... वासार्थितामधृत काञ्चनकेतकीव // 110 / / तन्नालोकनले चलेतरमनाः साम्यान्मनागप्यभूदप्यग्रे चतुरः स्थितान्न चतुरा पातुं दशा नैषधान् / 5 प्रानन्दाम्बुनिघौ निमज्ज्य नितरां दूरं गता तत्तलालंकारीभवनाज्ज्नाय ददती पातालकन्याभ्रमम् // 111 / / सर्वस्वं चेतसस्तां नपतिरपि दृशे प्रीतिदायं प्रदाय / प्रापत्तदृष्टिमिष्टातिथिममरदुरापामपाङ्गोत्तरङ्गाम् / प्रानन्दान्ध्येन वन्ध्यानकृत तदपराकूतपातान्स रत्याः पत्या पीयूषधारावलनविरचितेनाशुगेनाशु लीढः / / 112 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियन्नयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य द्वादश एष मातृचरणाम्भोजालिमोलेर्महा काव्येऽयं व्यगलनलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 113 / / 15 // इति महाकवि श्री हर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे द्वादशः सर्गः समाप्तः / / 12 / / // 13 // त्रयोदशः सर्गः // कल्पद्रुमान्परिमला इव भृङ्गमाला मात्माश्रयामखिलनन्दनशाखिवृन्दात् / तां राजकादपगमय्य विमानधुर्या ... निन्युनलाकृतिघरानथ पञ्च वीरान् / / 1 / / साक्षात्कृताखिलजगज्जनताचरित्रा तत्राधिनाथमधिकृत्य दिवस्तथा सा / Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 812 ] [ काव्यषट्कं ऊचे यथा स च शचीपतिरभ्यधायि प्राकाशि तस्य न च नैषधकायमाया / / 2 / / ब्रमः किमस्य वरवणिनि ! वीरसेनोद् ___भूति द्विषदलविजित्वरपौरुषस्य / सेनाचरीभवदिभाननदानवारि वासेन यस्य जनितासुरभीरणश्री: // 3 / / शुभ्रांशुहागणंहारिपयोधराङ्क चुम्बीन्द्रचापखचितामणिप्रभाभिः / अन्वास्यते समिति चामरवाहिनीभि यात्रासु चैष बहुलाभरणाचिताभिः / / 4 / / क्षोणीभृतामतुलकर्कशविग्रहाणा___ मुद्दामदर्पहरिकुञ्जरकोटिभाजाम् / पक्षच्छिदामयमुदग्रबलो विधाय मग्नं विपज्जलनिघौ जगदुज्जहार / / 5 / / भूमीभृतः समिति जिष्णुमपव्यपाय जानीहि न त्वमघवन्तममुं कथंचित् / गुप्तं घटप्रतिभटस्तनि ! बाहुनेत्रं ___ नालोकसेऽतिशयमद्भुतमेतदीयम् // 6 // लेखा नितम्बिनि ! बलादिसमृद्धराज्य प्राज्योपभोगपिशुना दधते सरागम् / एतस्य पाणिचरणं तददेन पत्या ____साधू शचीव हरिणा मुद मुद्वहस्व // 7 // प्राकर्ण्य तुल्यमखिलां सुदती लगन्ती माखण्डलेऽपि च नलेऽमि च वाचमेताम् / रूपं समानमुभयत्र विगाहमाना . थोत्रान्न निर्णयमवापदसौ न नेत्रात् / / 8 / / Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: त्रयोदशः सर्गः ] . [813 शक्रः किमेष निषधाधिपतिः स वेति दोलायमानमनसं परिभाव्य भैमीम् / निर्दिश्य तत्र पवनस्य सखायमस्यां भूयोऽसृजद्भगवती वचसः स्रजं सा / / 6 / / एष प्रतापनिधिरुद्गतिमान्सदाऽयं किं नाम नाजितमनेन धनंजयेन / हेम प्रभूतमधिगच्छ शुचेरमुष्मा नास्येव कस्यचन भास्वररूपसंपत् / / 10 / / प्रत्यर्थहेतिपटुताकवलीभवत्त__ तत्पार्थिवाधिकरणप्रभवाऽस्य भूतिः / अप्यङ्गरागजननाय महेश्वरस्य / . संजायते रुचिरकरिण ! तपस्विनोऽपि // 11 // एतन्मुखा विबुधसंसदसावशेषा ____ माध्यस्थ्यमस्य यमतोऽपि महेन्द्रतोऽपि / एन महस्विनमुपेहि सदारुणोच्च . येनामुना पितृमुखि ! ध्रियते करधीः / / 12 / / नेवाल्पमेघसि पटो रुचिमत्त्वमस्य . मध्येसमिनिवसतो रिपवस्तृणानि / उत्थानवानिह पराभवितुं तरस्वी . शक्यः पुनर्भवति केन विरोधिनायम् // 13 // साधारणी गिरमुषर्बुधनैषधाभ्या...मेतां निपीय न विशेषमवाप्तवत्याः / ऊचे नलोऽयमिति तं प्रति चित्तमेकं ते स्म चान्यदनलोऽयमितीदमीयम् / / 14 / / एतारशीमथ विलोक्य सरस्वती तां संदेहचित्रभयचित्रितचित्तवृत्तिम् / 25 Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 814 ] [ काव्यषट्कं देवस्य सूनुमरविन्दविकासिरश्मे..... रुद्दिश्य दिक्पतिमुदीरयितुं प्रचक्रे / / 15 / / दण्डं बिभर्त्ययमहो जगतस्ततः स्या कम्पाकुलस्य सकलस्य न पङ्कपातः / स्ववैद्ययोरपि मदव्ययदायिनीभि रेतस्य रुग्भिरमरः किमु कश्चिदस्ति / / 16 / / मित्रप्रियोपजननं प्रति हेतुरस्य / संज्ञा श्रुतासुहृद्रय न जनस्य कस्य / छायेगस्य च न कुत्रचिदध्यगायि ... तप्तं यमेन नियमेन तपोऽमुनैव / / 17 / / किं च प्रभावनमिताखिलराजतेजा देवः पिताम्बरमणी रमणीयमूर्तिः / उत्क्रान्तिदा कमनु न प्रतिभाति शक्तिः - कृष्णत्वमस्य च परेषु गदान्नियोक्तुः / / 18 / / एकः प्रभावमयमेति परेतराजी ... तज्जीवितेशधियमत्र निघत्स्व मुग्धे ! / भूतेषु यस्य खलु भूरियमस्य वश्य भावं समाश्रयति दस्रसहोदरस्य / / 16 / / गुम्फो गिरां शमननैषधयोः समानः शङ्कामनेकनलदर्शनजातशके / चित्ते विदर्भवसुधाधिपतेः सुताया ____यन्निर्ममे खलु तदेष पिपेष पिष्टम् // 20 // तत्रापि तत्रभवती भृशसंशयालो रालोक्य सा विधिनिषेधनिवृत्तिमस्याः / पाथःपति प्रति धृताभिमुखामुलीक पाणिः क्रमोचितमुपाक्रमताभिधातुम् / / 21 / / 20 Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नेषधीयचरितम् :: त्रयोदशः सर्गः ] . [815 A .. या सर्वतोमुखतया व्यवतिष्ठमाना. यादोरणैर्जयति नैकविदारकाया / एतस्य भूरितरवारिनिधिश्चमूः सा __यस्याः प्रतीतिविषयः परतो न रोधः // 22 // नासीरसीमनि घनध्वनिरस्य भूया कुम्भीरवान्समकरः सहदानवारिः / उत्पद्मकाननसखः सुखमातनोति रत्नरलंकरणभावमितैर्नदीनः // 23 // सस्यन्दनैः प्रवहणैः प्रतिकूलपातं. का वाहिनी न तनुते पुनरस्य नाम / तस्या विलासवति ! कर्कशताश्रिता या ब्रमः कथं बहुतयासिकता वयं ताः // 24 // शोणं पदप्रणयिनं गुणमस्य पश्य किंचास्य सेवनपरैव सरस्वती सा / एनं भजस्व सुभगे ! भुवनाधिनाथं के बा भजन्ति तमिमं कमलाशया न // 25 // शङ्कालताततिमनेकनलावलम्बां वाणी नवर्धयतु तावदभेदिकेयम् / भीमोद्भवां प्रति नले च जलेश्वरे च : . तुल्यं तथापि यदवर्धयदत्र चित्रम् // 26 / / बालां विलोक्य विबुधरपि मायिभिस्तै.... रच्छzितामियमलीकनलीकृतस्वैः / / आह स्म तां भगवती निषधाधिनाथं निर्दिश्य राजपरिषत्परिवेषभाजम् // 27 / / अत्याजिलब्धविजयप्रसरस्त्वया किं . विज्ञायते रुचिपदं न महीमहेन्द्रः / Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 816 ] [ काव्यषट्कं प्रत्यथिदानवशताहितचेष्टयासो ___ जीमूतवाहनधियं न करोति कस्य // 28 / / येनामुना बहुविगाढसुरेश्वराध्व. राज्याभिषेकविकसन्महसा बभूवे / प्रावर्जनं तमनु ते ननु ! साधु नाम ग्राहं मया नलमुदीरितमेवमत्र / / 26 / / यञ्चण्डिमारणविधिव्यसनं च तत्त्वं बुद्ध्वाशयाश्रितममुष्य च दक्षिणत्वम् / सैषा नले सहजरागभरादमुष्मि. नात्मानमर्पयितुमहंसि धर्मराजे // 30 / / किं ते तथा मतिरमुष्य यथाशयः स्या त्वत्पाणिपीडनविनिर्मितयेऽनपाश: / कान्मानवानवति नो भूवनं चरिष्ण नासावमुत्र नरता भवतीति युक्तम् / / 31 / / 15. श्लोकादिह प्रथमतो हरिणा द्वितीया मध्वजेन शमनेन समं तृतीयात् / तुर्याच्च तस्य वरुणेन समानभावं सा जानती पुनरवादि तया विमुग्धा / / 32 / / त्वं याऽर्थिनी किल नले न शुभाय तस्याः ___ क्व स्यान्निजार्पणममुत्र चतुष्टये ते / इन्द्रानलार्यमतनूजपयःपतीनां प्राप्यैकरूप्यमिह संसदि दीप्यमाने // 33 // देवः पतिविदुषि ! नैष धराजगत्या निर्णीयते न किमु न वियते भवत्या। नायं नलः खलु तवातिमहानलाभो / यद्येनमुज्झसि वरः कतरः परस्ते // 34 / / Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) नैषधीयचरितम् :: त्रयोदशः सर्गः ] [417 इन्द्राग्निदक्षिणदिगीश्वरपाशिभिस्तां ___वाचं नले तरलिताथ समां प्रमाय / सा सिन्धुवेणिरिष वाडववीतिहोत्रं ___ लावण्यभूः कमपि भीमसुताप तापम् / / 35 / / साप्तुं प्रयच्छति न पक्षचतुष्टये तां - तल्लाभशंसिनि न पञ्चमकोटिमात्रे / श्रद्धां दधे निषधराड्विमती मताना ____मद्वैततस्व इब सत्यतरेऽपि लोकः // 36 / / कारिष्यते परिभवः कलिना नलस्य ___ तां द्वापरस्तु सुतनूमदुनोत्पुरस्तात् / भैमीनलोपयमनं पिशुनी सहेते / न द्वापरः किल कलिश्च युगे जगत्याम् / / 37 / / उत्कण्ठयन्पृथगिमां युगपन्नलेषु प्रत्येकमेषु परिमोहयमाणबाणः / जानीमहे निजशिलीमुखशीलिसंख्या ___ साफल्यमाप स तदा यदि पञ्चबाणः / / 38 / / देवानियं निषधराजरुचस्त्यजन्ती रूपादरज्यत बले न विदर्भसुध्रः / जन्मान्तराधिगतकर्मविपाकजन्म वोन्मीलति क्वचन कस्यचनानुरागः / / 39 / / क्व प्राप्यते स पतगः परिपृच्छयते यः प्रत्येमि तस्य हि पुरेव नलं गिरेति / सस्मार सस्मरमतिः प्रति नैषधीयं .. तत्रामरालयमरालमरालकेशी एकैकमैक्षत मुहुर्महतादरेण भेदं विवेद न च पञ्चसु कचिदेषा / // 40 / / Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818 ] [ काब्यषट्कं AC 10 शङ्काशतं वितरता हरता पुनस्त दुन्मादिनेव मनसेयमिदं तदाह // 41 / / - अस्ति द्विचन्द्रमतिरस्ति जनस्य तत्र भ्रान्तौ गन्तचिपिटीकरणादिरादिः / स्वच्छोपसर्पणमपि प्रतिमाभिमाने ___भेदभ्रमे पुनरमीषु न मे निमित्तम् / / 4 / / कि घा तनोति मयि नैषध एव काय व्यूहं विधाय परिहासमसौ विलासी / विज्ञानवैभवभृतः किमु तस्य विद्या सा विद्यते न तुरगाशयवेदितेव / / 43 / / एको नल: किमयमन्यतमः किमैल कामोऽपरः किमु किमु द्वयमाश्विनेयौ / कि रूपधेयभरसीमतया समेषु.. . तेष्वेव नेह नलमोहमहं वहे वा // 44 / / पूर्व मया विरहनिःसहयापि दृष्टः सोऽयं प्रियस्तत इतो निषधाधिराजः / भूयः किमागतवती मम सा दशेयं पश्यामि यद्विलसितेन नलानलीकान् / / 45 / / मुग्धा दधामि कथमित्थमथापशङ्कां . ___संक्रन्दनादिकपटः स्फुटमीदृशोऽयम् / देव्यानयैव रचिता हि तथा तथैषां गाथा यथा दिगधिपानपि ताः स्पृशन्ति / 46 / / एतन्मदीयमतिवञ्चकपञ्चकस्थे नाथे कथं नु मनुजस्य -चकास्तु चिह्नम् / लक्ष्माणि तानि किममी न वहन्नि हन्त। बहिर्मुखा धुतरजस्तनुतामुखानि // 47 / / Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: त्रयोदशः सर्गः ] .. [819 याचे नलं किममरानथवा तदर्थं - नित्यार्चनादपि ममाफलिनैरलं तैः / कंदर्पशोषणशिलीमुखपातपीत कारुण्यनीरनिधिगह्वरघोरचित्तैः // 48 / / ईशा ! दिशां नलभुवं प्रतिपद्य लेखा वर्णश्रियं गुणवतामपि वः कथं वा / . मूर्खान्धकूपपतनादिव पुस्तकाना मस्तङ्गतं बत परोपकृतिव्रतत्वम् / / 4 / / यस्येश्वरेण यदले खि ललाटपट्टे तत्स्यादयोग्यमपि योग्यमपास्य तस्य / का वासनास्तु बिभृयामिह यां हृदाहं नार्कातपैजलजमेति हिमैस्तु दाहम् / / 5 / / इत्थं यथेह मदभाग्यमनेन मन्ये कल्पद्रुमाऽपि स मया खलु याच्यमानः / संकोचसंज्वरदलाङ्गुलिपल्लवान पाणीभवन्भवति मां प्रति बद्धमुष्टिः / / 51 / / देव्या: करे वरणमाल्यमथार्पये वा - यो वैरसेनिरिह तत्र निवेशयेति / सैषा मया मखभुजां द्विषती कृता स्या . स्वस्मै तृणाय तु विहन्मि न बन्धुरत्नम् / 52 / यः स्यादमीषु परमार्थनल: स माला मङ्गीकरोतु वरणाय ममेति चैनाम् / तं प्रापयामि यदि तत्तु विसृज्य लज्जा ... कु. कथं जगति शृण्वति हो विडम्बः / / 53 / / इतरनलतुलाभागेष भेषः सुधाभिः / स्नपति मम चेतो नैषधः कस्य हेतोः / 20 25 Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 820 ] [ काव्यषट्कं सः / / 54 / / प्रथमचरमयोर्वा शब्दयोर्वर्णसख्ये ___विलसति चरमेऽनुप्रासभासां विलासः / / 54 / / इति मनसि विकल्पानुद्यतः संत्यजन्ती __ क्वचिदपि दमयन्ती निर्णयं नाससाद / मुखमथ परितापास्कन्दितानन्दमस्या मिहिरविरचिताबस्कनन्दमिन्दुं निनिन्द // 55 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / स्वादूत्पादभृति त्रयोदशतयादेश्यस्तदोये महा१० काव्येऽयं व्यरमन्नलस्य चरिते सर्गो रसाम्भोनिधिः / / 56 / / / / इति महाकवि श्री हर्षप्रणोते नैषधीयप्रकाशे त्रयोदशः सर्गः समाप्तः / / 13 / / // 14 // चतुर्दशः सर्गः। // 1 // प्रथाधिगन्तुं निषधेश्वरं सा प्रसादनामाद्रियतामराणाम् / यतः सुराणां सुरभिर्नृणां तु सा वेधसासृज्यत कामधेनुः प्रदक्षिगप्रक्रमणालवाल विलेषधूपाचरणाम्बुसेकैः / . इष्टं च मृष्टं च फलं सुवाना। देवा हि कल्पद्रमकाननं नः श्रद्धामयीभूय सुपर्वणस्ता नाम नामग्रहणायकं सा / / / 2 / / Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [821 सुरेषु हि श्रद्दधतां नमस्या सर्वार्थसिद्धयङ्गमिथः समस्या // 3 / / यत्तानिजे सा हदि भावनाया वलेन साक्षादकृताखिलस्थान् / अभूदभीष्टप्रतिभूः स तस्या बरं हि दृष्टा ददते परं ते // 4 / / सभाजनं तत्र ससर्ज तेषां सभाजने पश्यति विस्मिते सा। प्रामुद्यते यत्सुमनोभिरेवं फलस्य सिद्धयं सुमनोभिरेव / / 5 / / वैशद्यहृद्यम्रदिमाभिरामरामोदिभिस्तानथ जातिजातः / 10 प्रानर्च गीत्यन्वितषट्पदैः सा स्तवप्रसूनस्तबकनवीनः / / 6 / / हृत्पद्मसमन्यधिवास्य बुद्धया दध्यावथैतानियमेकताना / सुपर्वणां हि स्फुट भावना या सा पूर्वरूपं फलभावनायाः // 7 // भक्त्या तयैव प्रससाद तस्या स्तुष्टं स्वयं देवचतुष्टयं तत् / स्वेनानलस्य स्फुटतां यियासोः / - फूत्कृत्यपेक्षा कियती खलु स्यात् // 8 // प्रसादमासाद्य सुरैः कृतं सा ___ सस्मार सारस्वतसूक्तिसृष्टेः / / देवा हि नान्यद्वितरन्ति किंतु प्रसद्य ते साधुधियं ददन्ते // 6 // शेषं नलं प्रत्यमरेण गाथा . या या समर्था खलु येन येन / 25 तां तां तदन्येन सहालगन्ती तदा विशेष प्रतिसंदधे सा // 10 // Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 822 ] [ काव्यषट्क एकैकवृत्तेः प्रतिलोकपालं पतिव्रतात्वं जगदिशां याः / वेद स्म गाथा मिलितास्तदासा वाशा इवैकस्य नलस्य वश्या: / / 11 / / या पाशिनैवाशनिपाणिनैव गाथा यमेनैव समाग्निनैव / तामेव मेमे मिलितां नलस्य सैषा विशेषाय तदा नलस्य / / 12 / / निश्चित्य शेषं तमसौ नरेशं ... प्रमोदमेदस्वितरान्तराभूत् / देव्या गिरां भावितभङ्गिराख्य चित्तेन चिन्तार्णवयादसेयम् // 13 // सा भङ्गिरस्याः खलु वाचि कापि __यद्भारती मूर्तिमतीयमेव / श्लिष्टं निगद्यात वासवादी . विशिष्य मे नैषधमप्यवादीत् // 14 / / जग्रन्थ सेयं मदनुग्रहेण - वचःस्रजः स्पष्टयितुं चतस्रः / द्वे ते नलं लक्षयितुं क्षमेते | ममैव मोहोऽयमहो महीयान् // 15 / / श्लिष्यन्ति वाचो यदमूरमुष्याः , कवित्वशक्तेः खलु ते विलासाः / भूपाललीलाः किल लोकपालाः __समाविशन्ति व्यतिमेदिनोऽपि // 16 / / त्यागं महेन्द्रादिचतुष्टयस्य . किमभ्यनन्दत्क्रमसूचितस्य / 15 Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः] . [823 किं प्रेरयामास नले च तन्मां . सा सूक्तिरस्या मम कः प्रमोहः // 17 / / परस्य दारान्खलु मन्यमान __रस्पृश्यमानाममरैधरित्रीम् / भक्त्यैव भर्तुश्चरणौ दधानां नलस्य तत्कालमपश्यदेषा // 18 // सुरेषु नापश्यदक्षताक्ष्णो- . निमेषमूर्वीभृति संमुखी सा / इह त्वमागत्य नले मिलेति.. . संज्ञानदानादिव * भाषमाणम् // 16 // नाबुद्ध बाला विबुधेषु तेषु क्षोदं क्षितेरैक्षत नैषधे तु / पत्ये सृजन्त्याः परिरम्भमुाः संभूतसंभेदमसंशयं सा // 20 // स्वेदः स्वदेहस्य वियोगतापं .. निर्वापयिष्वन्निव संसिसृक्षोः / हीराङकुरश्चारुणि हेमनीव . नले तयालोकि न दैवतेषु // 21 / / सुरेष मालाममलामपश्य नले तु बाला मलिनीभवन्तीम् / इमां किमासाद्य नलोऽद्य मृद्वीं श्रद्धास्यते मामिति चिन्तयेव // 22 // श्रियं भजन्तां कियदस्य देवा ... श्छाया नलस्यास्ति तथापि नैषाम् / 25 / इतीरयन्तीव तया निरैक्षि ... सा नैषधे न त्रिदशेषु तेषुः // 23 // Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 ] [ काव्यषट्कं चिह्न रमीभिर्नलसंविदस्याः संवादमाप प्रथमोपजाता / सा लक्षणव्यक्तिभिरेव देवप्रसादमासादितमप्यबोधि / / 24 / / नले निधातुं वरणस्रजं तां स्मरः स्म रामां त्वरयत्यथैनाम् / अपत्रपा तां निषिषेध तेन द्वयानुरोध तुलितं दधौ सा / / 25 / / स्रजा समालिङ्गयितुं प्रियं सा रसादधत्तैव बहप्रयत्नम् / स्तम्भत्रपाभ्यामभवत्तदीये ___ स्पन्दस्तु मन्दोऽपि न पाणिपद्म / / 26 / / तस्या हृदि वीडमनोभवाभ्यां दोलाविलासं समवाप्यमाने / 10 स्थितं धृतणाङ्ककुलातपत्रे शृङ्गारमालिङ्गदधीश्वरश्रीः / 27 / करः स्रजा सज्जतरस्तदीयः प्रियोन्मुखः सन्विरराम भूयः / प्रियाननस्यर्धपथं ययौ च प्रत्याययौ चातिचल: कटाक्षः // 28 / / 15 तस्याः प्रियं चित्तमुपेतमेव प्रभूबभूवाक्षि न तु प्रयातुम् / सत्यः कृतः स्पष्टमभूत्तदानीं . तयाक्षिण लज्जेति जनप्रवादः // 26 / / कथं कथंचिनिषवेश्वरस्य कृत्वास्यपद्म दरवीक्षितश्रि / वाग्देवताया वदनेन्दुबिम्ब पावतो साकृत सामिदृष्टम्. // 30 // अजानतीवेदमवोचदेनामाकूतमस्यास्तदवेत्य देवी / भावस्त्रपोमिप्रतिसीरया ते न दीयते लक्षयितुं ममापि / / 31 / / 25 देव्याः श्रुतौ नेति नलार्धनाम्नि गृहीत एक त्रपया निपीता। प्रथाङ्गुलीरङ्गुलिभिम शन्ती दूरं शिरः सा नमयांचकार / 32 / Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः ] . [ 825 22 / करे विधृत्येश्वरया गिरां सा पान्था पथीन्द्रस्य कृता विहस्य / वामेति नामैव बभाज साधं पुरन्ध्रिसाधारणसंविभागम् विहस्य हस्तेऽथ बिकृष्य देवी ... नेतुं प्रयाताऽभि महेन्द्र मेताम् / भ्रमादियं दत्तमिवाहिदेहे / ततश्चमत्कृत्य करं चकर्ष // 34 / / भैमी निरीक्ष्याभिमुखीं मघोनः ____स्वाराज्यलक्ष्मीरभृताभ्यसूयाम् / दृष्ट्वा ततस्तत्परिहारिणी तां वीडं बिडोजःप्रवणाभ्यपादि // 35 / / त्वत्तः श्रुतं नेति नले मयातः परं वदस्वेत्युदिताथ देव्या। ह्रीमन्मथद्वैरथरङ्गभूमी भैमी दृशा भाषितनैषधाभूत् / / 36 / / 15 हसत्सु भैमी दिविषत्सु पाणी पाणि प्रणीयाप्सरसां रसात्सा / आलिङ्गय नोत्वाकृत पान्थदुर्गा भूपालदिक्पालकुलाध्वमध्यम् . // 37 / / प्रादेशितामप्यवलोक्य मन्दं . मन्दं नलस्यैव दिशा चलन्तीम् / भूयः सुरानर्धपथादथासौ तानेव तां नेतुमना नुनोद // 38 / / मुखाब्जमावर्तनलोलनालं कृत्वालिटुहुरवलक्ष्यलक्ष्यम् / भीमोद्भवा तां नुनुदेऽङ्कपाली __ देव्या नवोढेव दृढां विवोढुः // 36 / / Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 826 ] [ काव्यषट्कं देवी कथंचित्खलु तामदेव द्रीची भवन्ती स्मितसिक्तसृक्का / प्राह स्म मां प्रत्यपि ते पुनः का ___ शङ्का शशाङ्कादधिकास्यबिम्बे ! / / 40 / / 5 एषामकृत्वा चरणप्रणाममेषामनुज्ञामनवाप्य सम्यक् / सुपर्ववैरे तव वैरसेनि वरीतुमीहा कथमौचितीयम् / / 4 / / इतीरिते विश्वसितां पुनस्ता मादाय पाणौ दिविषत्सु देवी / कृत्वा प्रणम्रां वदति स्म सा तान् भक्तेयमहत्यधुनानुकम्पाम् // 42 / / युष्मान्वृणीते न बहून्सतीयं शेषावमानाच्च भवत्सु नकम् / तद्वः समेतान्नृपमेनमंशान्वरीतुमन्विष्यति लोकपाला: ! / 43 / भैम्या स्रजःसञ्जनया पथि प्राक्स्वयंवरं संजनयांबभूव / संभोगमालिङ्गनयास्य वेधाः शेषं तु कं हन्तुमिद्ययतध्वे / / 44 / / 15 वर्णाश्रमाचारपथात्प्रजाभिः स्वाभिः सहैवास्खलते नलाय / प्रसेदुषो वेदशवृत्तभङ्गया दित्सव कीर्तेर्भुवमानयद्वः / / 4 / / इति श्रुतेऽस्या वचसैव हास्या त्कृत्वा सलास्याघरमास्यबिम्बम् / भ्रूविभ्रमाकूतकृताभ्यनुज्ञे वेतेषु तां साथ नलाय निन्ये / / 46 / / मन्दाक्षनिःस्पन्दतनोर्मनोभू दुष्प्रेरमप्यानयति स्म तस्याः / मधूकमालामधुरं करं सा . _____ कण्ठोपकण्ठं वसुधासुधांशोः // 47 / / 25 अथाभिलिख्येव समर्प्यमाणां राजि निजस्वीकरणाक्षराणाम् / दुर्वाकुराढ्यां नलकण्ठनाले वधूमधूकस्रजमुत्ससर्ज / / 48 / / // 47 // Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः ]. [ 827 तां दूर्वया श्यामलयातिवेलं शृङ्गारभासंनिभया सुशोभाम् / मालां प्रसूनायुधपाशभासं कण्ठेन भूभृद्विभरांबभूव / / 49 / / दूर्वाग्रजाग्रत्पुलकावलि तां .. नलाङ्गसङ्गाभृशमुल्लसन्तीम् / मानेन मन्ये नमितानना सा सासूयमालोकत पुष्पमालाम् // 50 / / कापि प्रमोदास्फुटनिजिहानवर्णेव या मङ्गलगीतिरासाम् / सैवाननेभ्यः पुरसुन्दरीणामुच्चैरुलूलुध्वनिरुच्चचार // 51 / / सा निर्मले तस्य मधूकमाला हृदि स्थिता च प्रतिबिम्बिता च / कियत्यमग्ना कियती च मग्ना पुष्पेषुबाणालिरिव व्यलोकि // 52 / / रोमाणि सर्वाण्यपि बालभावाद्वरश्रियं वीक्षितुमुत्सुकानि / तस्यास्तदा कण्टकिताङ्गयष्टेरुद्ग्री विकादानमिवान्वभूवन् 53 रोमाकुरैर्दन्तुरिताखिलाङ्गी रम्याधरा सा सुतरां विरेजे / शरव्यदण्डै: श्रितमण्डनश्री - स्मारी शरोपासनवेदिकेव / / 54 / / चेष्टा व्यनेश निखिलास्तदास्याः 20 ___ स्मरेषुवातैरिव ता विधुताः / अभ्यर्थ्य नीता: कलिना मुहूर्त लाभाय तस्या बहु चेष्टितु वा // 55 / / तन्न्यस्तमाल्यस्पृशि यन्नलस्य स्वेदं करे पञ्चशरश्चकार / भविष्यदुद्वाहमहोत्सवस्य हस्तोदकं तज्जनयांवभूव // 56 / / 25 तूलेन तस्यास्तुलना मृदोस्तत्कम्प्राऽस्तु सा मन्मथबाणवातैः / चित्रीयितं तत्तु नलो यदुच्चेरभूत्स भूभृत्पृथुवेपथुस्तैः / / 57 / / Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 828 ] [ काब्यषट्कं दृशोरपि न्यस्तमिवास्त राज्ञां रागाद्दगम्बुप्रतिबिम्ब माल्यम् / नपस्य तत्पीतवतोरिवाक्ष्णोः प्रालम्ब्यमालम्बनयुक्तमन्तः / // 58 / / स्तम्भस्तथालम्भितमां नलेन भैमीकरस्पर्शमुदः प्रसादः / / कंदर्पलक्ष्योकरणापितस्य स्तम्भस्य दम्भं स चिरं यथापत् / / 59 / / उत्सृज्य साम्राज्यमिवाथ भिक्षां तारुण्यमुल्लङ्घय जरामिवारात् / तं चारुमाकारमुपेक्ष्य यान्तं निजां तनूमाददिरे दिगीशाः / / 60 / / मायानलत्वं त्यजतो निलोनैः पूर्वैरहपूविकया मघोनः / / 15 भीमोद्भवासात्त्विकभावशोभा दिदृक्षयेवाविरभावि . नेत्रैः // 61 / / गोत्रानुकूलत्वभवे विवाहे तत्प्रातिकूल्यादिव गोत्रशत्रुः / पुरश्चकार प्रवरं वरं यमायन्सखायं ददृशे तया सः / / 62 / / स्वकामसंमोहमहान्धकारनिर्वापमिच्छन्निव दीपिकाभिः / 20 उद्गत्वरीभिश्छुरितं वितेने निजं बपुर्वायुसखः शिखाभिः / 63 / पत्यौ वृते भीमजया न वह्नावह्ना स्वमह्नाय निजुह्न वे यः / जनादपत्रप्य स हा सहायस्तस्य प्रकाशोऽभवदप्रकाशः / / 64 / / सदण्डमालक्तकनेत्रचण्डं तमःकिरं कायमघत्त कालः / तत्काल मन्तःकरणं नृपाणामध्यासितु कोप इवोपनम्रः / / 65 / / 25 दृग्गोचरोऽभूदथ चित्रगुप्तः कायस्थ उच्चैर्गुण एतदीयः / / उध्वं तु पत्रस्य मषीद एको मषेर्ददच्चोपरि पत्रमभ्यः / / 6 / / Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः ] . [ 426 तस्यां मनोबन्धविमोचनस्य कृतस्य तत्काल मिव प्रचेताः / पाशं दधानः करबद्धवासं विभुर्बभावाप्यमवाप्य देहम् / / 67 / / सहद्वितीयः स्त्रियमभ्युपेयादेवं स दुर्बुध्य नयोपदेशम् / अन्यां सभार्यः कथमृच्छतीति जलाधिषोऽभूदसहाय एव / 68 / देव्यापि दिव्याऽनु तनुः प्रकाशी ___ कृता मुदश्चक्रभृतः सृजन्ती / अनिह्न तैस्तामवधार्य चिह्न स्तद्वाचि बाला शिथिलाद्भुताभूत् / / 66 / / विलोकके नायकमेलकेऽस्मिन् ____ रुपान्यताकौतुकशि भिस्तैः / बाघा बतेन्द्रादिभिरिन्द्रजाल विद्याविदो वृत्तिवधायधायि // 70 / / विलोक्य नावाप्तदुरापकामो परस्परप्रेमरसाभिरामौ / अथ प्रभुः प्रीतमना बभाषे जाम्बूनदोर्वीधरसार्वभौमः / / 71 / / वैदभि ! दत्तस्तव तावदेष वरो दुरापः पृथिवीश एव / दूत्यं तु यत्त्वं कृतवानमायं . . नल ! प्रसादस्त्वयि तन्ममायम् // 72 / / प्रत्यक्षलक्ष्यामवलम्ब्य मूर्ति हुतानि यज्ञेषु तवोपभोक्ष्ये / 20 संशेरतेऽस्माभिरवीक्ष्य भुक्त मखं हि मन्त्राधिकदेवभावे / 73 / / भवानपि त्वद्दयितापि शेषे सायुज्यमासादयतं शिवाभ्याम् / प्रेत्यास्मि कीडग्भवितेति चिन्ता संतापमन्तस्तनुते हि जन्तोः // 74 / / तवोपवाराणिसि नामचिह्न / वासाय पारेसि पुरं पुरास्ति / // 74 / / Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 830 ] [ काव्यषट्कं निर्वातमिच्छोरपि तत्र भैमी संभोगसंकोचभियाधिकाशि // 75 / / धूमावलिश्मश्रु ततः सुपर्वा मुखं मखास्वादविदां तमूचे / कामं मदीक्षामयकामधेनोः पयायतामभ्युदयस्त्वदीयः / / 76 / / या दाहपाकोपयिको तनुर्म भूयात्त्वदिच्छावशवतिनी सा / तया पराभूततनोरनङ्गात्तस्याः प्रभुः सन्नधिकस्त्वमेधि / / 77 / / अस्तु त्वया साधितमन्नमोनरसादि पीयूषरसातिशायि / यद्भप ! विद्मस्तव सूपकारक्रियासु कौतूहल शालि शीलम् / 78 / वैवस्वतोऽपि स्वत एव देवस्तुष्टस्तमाचष्ट धराधिराजम् / वरप्रदानाय तवावदानश्चिरं मदीया रसनोद्धरेयम् / / 79 / / सर्वाणि शस्त्राणि तवाङ्गचक्र राविर्भवन्तु त्वयि शत्रुजंत्रे / अवाप्यमस्मादधिकं न 'किंचि ज्जागति वीरव्रतदीक्षितानाम् / / 80 / / कृच्छ गतस्यापि दशाविपाक धर्मान्न चेतः स्खलतु त्वदीयम् / अमुञ्चतः पुण्यमनन्यभक्तेः स्वहस्तवास्तव्य इव त्रिवर्गः / / 81 / / स्मिताञ्चितां वाचमवोचदेनं प्रसन्नचेता नृपति प्रचेताः / 20 प्रदाय भैमीमधुना वरौ तु ददामि तद्यौतककौतुकेन / / 2 / / यत्राभिलाषस्तव तत्र देशे नन्वस्तु धन्वन्यपि तूर्णमर्णः / प्रापो वहन्तीह हि लोकयात्रां ___ यथा न भूतानि तथाऽपराणि / / 83 // 25 प्रसारितापः शुचिभानुनास्तु मरुः समुद्रत्वमपि प्रपद्य / भवन्मनस्कारलवोद्गमेन क्रमेलकानां निलयः पुरेव / / 84 / / Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: चतुर्दशः सर्गः ] [ 831 अम्लानिरामोदभरश्च दिव्यः पुष्पेषु भूयाद्भवदङ्गसङ्गात् / दृष्टं प्रसूनोपमया मयान्यन्न धर्मशर्मोभयकर्मठं यत् / / 8 / / वाग्देवतापि स्मितपूर्वमुर्वी सुपर्वराजं रभसाद्वभाषे / त्वत्प्रेयसीसंमदमाचरन्त्या मत्कि न किंचिद्ग्रहणोचितं ते // 86 / / प्रर्थो विनवार्थनयोपसीद नाल्पोऽपि धीरैरवधीरणीयः / मान्येन मन्ये विधिना वितीर्णः स प्रीतिदायो बहु मन्तुमर्हः / / 87 / / प्रवामावामाघे सकलमुभयाकारघटना विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् / तदन्तर्मन्त्रं मे स्मरहरमयं सेन्दुममलं . . __ निराकारं शश्वज्जप नरपते ! सिध्यतु सते / / 8 / / 15 सर्वाङ्गीणरसामृतस्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः / ___स स्वर्गीयमृगीदशामपि वशीकाराय मारायते / यस्मै यः स्पृहयत्यनेन स तदेवाप्नोति किं भूयसा _ येनायं हृदये स्थितः सुकृतिना मन्मन्त्रचिन्तामणिः / / पुष्पैरभ्यर्च्य गन्धादिभिरपि सुभगैश्चारुहंसेन मां चे२० निर्यान्ती मन्त्रमूर्ति जपति मयि मतिं न्यस्य मय्येव भक्तः। तत्प्राप्ते. वत्सरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयति रुचिरान्कौतुकं दृश्यमस्याः / 60 / गुणानामास्थानी नृपतिलकनारीतिविदितां ___ रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः / भवित्री वैदर्भीमधिकमधिकण्ठं रचयितु परीरम्भक्रीडाचरणशरणामन्वहमहम् / / 61 / / Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 832 ] [ काव्यषट्कं भववृत्तस्तोतुर्मदुपहितकण्ठस्य कवितुः मुखात्पुण्यैः श्लोकैस्त्वयि घनमुदेयं जनमुदे / ततः पुण्यश्लोकः क्षितिभुवनलोकस्य भविता __ भवानाख्यातः सन्कलिकलुषहारी हरिरिव / / 62 / / देवी च ते च जगदुर्जगदुत्तमाङ्गः / रत्नाय ते कथय के वितराम कामम् / किंचित्त्वया न हि पतिव्रतया दुरापं भस्मास्तु यस्तव बत व्रतलोपमिच्छु: / / 93 / / कूटकायमपहाय नो बपुं बिभ्रतस्त्वमसि वीक्ष्य विस्मिता / आप्तुमाकृतिमतो मनोषितां विद्यया हृदि तवाप्युदीयताम् / / 94 / / इत्थं वितीर्य वरमम्बरमाश्रयत्सु . तेषु क्षणादुदल सद्विपुलः प्रणादः / उत्तिष्ठतां परिजनालपनैर्नृपाणां . स्वर्वासिवृन्दहतदुन्दुभिनादसान्द्रः / / 65 / / न दोषं विद्वेषादपि निरवकाशं गुणमये वरेण प्राप्तास्त्रे न समरसमारम्भसदृशम् / जगुः पुण्यश्लोकं प्रतिनृपतय: किंतु विदधुः स्वनिश्वास|मीहृदयमुदयनिर्भरदयम् / / 96 / / भूभृद्धिलम्भिताऽसौ करुणरसनदीमूर्तिमद्देवतात्वं तातेनाभ्यर्थ्य योग्याः सपदि निजसखीर्दापयामास तेभ्यः / वैदास्तेऽप्यलाभात्कृतगमनमनःप्राणवाञ्छां.विजध्नुः सख्याः संशिक्ष्य विद्याः सततधृतवयस्यानुकाराभिराभिः 97 अहह सह मघोना श्रीप्रतिष्ठासमाने निलयमभि नलेऽथ स्वं प्रतिष्ठासमाने / 25 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 833 प्रपतदमरभर्तुर्मुर्तिबद्धेव कीर्ति गलदलिमधुबाष्पा पुष्पवृष्टिर्नभस्तः / / 98 / / स्वस्यामरैर्नृपतिमंशममुं त्यद्भि. रंशच्छिदाकदनमेव तदाध्यगामि / उत्का स्म पश्यति निवृत्य निवृत्य यान्ती __वाग्देवतापि निजविभ्रमधाम भैमोम् / / 66 / / सानन्दं तनुजाविवाहनमहे भीमः स भूमीपतिवैदर्भीनिषधेश्वरौ नपजनानिष्टोक्तिनिर्मष्टये / स्वानि स्वानि घराधिपाश्च शिबिराण्युद्दिश्य.यान्तः क्रमा१० देको द्वौ बहवश्चकार सृजतः स्मातेनिरे मङ्गलम् / / 10 / / श्रीहर्ष कविराज राजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातस्तस्य चतुर्दश: शरदिजज्योत्स्नाच्छसूक्तेमहा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सगों निसर्गोज्ज्वलः / / 101 / / 15 // इति महाकविहर्षप्रणीते नैषधीयप्रकाशे चतुर्दशः सर्गः समाप्तः / / 14 / / // 15 // पञ्चदशः सर्गः // प्रथोपकार्यां निषधावनीपति निजामयासीद्वरणस्रजाञ्चितः / वसूनि वर्षन्सुबहूनि बन्दिनां . विशिष्य भैमीगुणकीर्तनाकृताम् तथा पथि त्यागमयं वितीर्णवा ___ न्यथातिभाराधिगमेन मागधैः / // 1 // Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 834 ] [ काव्यषट्कं || 4|| तृणोकृतं रत्ननिकायमुच्चकै श्चिकाय लोकश्चिरमुञ्छमुत्सुकः / / 2 / / त्रपास्य न स्यात्सदसि स्त्रियान्वया त्कुतोऽतिरूपः सुखभाजनं जनः / अमूदृशी तत्कविबन्दिवर्णनै रवाक्कृता राजकरजिलोकवाक् // 3 / / अदोषतामेव * सतां विवृण्वते द्विषां मृषादोषमणधिरोषणाः / न जातु सत्ये सति दूषणे भवे दलीकमाधातुमवद्यमुद्यम: विदर्भराजोऽपि समं तनूजया प्रविश्य हृष्यन्नवरोधमात्मनः / शशंस देवीमनुजातसंशयों प्रतीच्छ जामातरमुत्सुके ! नलम् / / 5 / / तनुत्विषा यस्य तृणं स मन्मथः कुलश्रिया य: पवितास्मदन्वयम् / जगत्त्रयीनायकमेलके वरं सुता परं वेद विवेक्तुमीदृशम् // 6 // सृजन्तु पाणिग्रहमङ्गलोचिता मृगीदृशः ! स्त्रीसमयस्पृशः क्रियाः / श्रुतिस्मृतीनां तु वयं विदध्महे विधीनिति स्माह च निर्ययौ च सः / / 7 / / निरीय भूपेन निरीक्षितानना शशंस मौहूतिकसंसदंशकम् / गुणैररीणैरुदयास्तनिस्तुषं तदा स दातुं तनयां प्रचक्रमे // 6 // 15 20 25 Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] . [ 835 अथावददूतमुखः स नैषधं . कुलं च बाला च ममानुकम्प्यताम् / स पल्लवत्वद्य मनोरथाकुर श्चिरेण नस्त्वच्चरणोदकैरिति / / 6 / / तथोत्थितं भीमवचःप्रतिध्वनि निपीय दूतस्य स वक्त्रगह्वरात् / व्रजामि वन्दे चरणौ गुरोरिति ब्रुवन्प्रदाय प्रजिघाय तं बहु // 10 / / निपीतदूतालपितस्ततो नलं विदर्भभर्तागमयांबभूव सः / 10 निशावसाने श्रुतताम्रचूडवाग्यथा रथाङ्गस्तपनं धृतादरः / 11 / क्वचित्तदालेपनदानपण्डिता कमप्यहंकारमगात्पुरस्कृता / अलम्भि तुङ्गासनसंनिवेशनादपूपनिर्माणविदग्धयादरः / / 12 / / मुखानि मुक्तामणितोरणोद्गतै-. मरीचिभिः पान्थविलासमाश्रितः / पुरस्य तस्याखिलवेश्मनामपि प्रमोदहासच्छुरितानि रेजिरे // 13 // पथामनीयन्त तथाधिवासना- . न्मधुवतानामपि दत्तविभ्रमाः / वितानतामातपनिर्भयास्तदा / . पटच्छिदाकालिकपुष्पजा: स्रजः // 14 / / विभूषणैः कञ्चकिता बभः प्रजा. विचित्रचित्रैः स्रपितत्विषो गहाः / बभूव तस्मिन्मरिणकुट्टिमैः पुरे . वपुः स्वमुव्यां परिवर्तितोपमम् / / 15 / / 25 तदा निसस्वानतमां धनं धनं / ननाद तस्मिन्नितरां ततं ततम् / Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 836 ] [ काव्यषट्कं 5 अवापुरुच्चैः सुषिराणि राणिता ममानमानद्धमियत्तयाध्वनीत् / / 16 / / विपञ्चिराच्छादि न वेराभिर्न ते प्रणीतगीतैर्न च तेऽपि झझरैः / न ते हुडुक्केन न सोऽपि ढक्कया न मर्दलैः सापि न तेऽपि ढक्कया / / 17 / / विचित्रवादिनिनादमूच्छितः सुदूरचारी जनतामुखारवः / ममौ न कर्णेषु दिगन्तदन्तिनां पयोधिपूरप्रतिनादमेदुरः / / 18 / / उदस्य कुम्भीरथ शातकुम्भजा श्चतुष्कचारुत्विषि वेदिकोदरे / यथाकुलाचारमथावनीन्द्रजां ... पुरन्ध्रिवर्गः,स्नपयांबभूव ताम् / / 16 / / विजित्य दास्यादिव वारिहारिता मवापितास्तत्कुचयोयेन ताः / शिखामवाक्षः सहकारशाखिन स्त्रपाभरम्लानिमिवानतैर्मुखैः // 20 / / असौ मुहुर्जातजलाभिषेचना क्रमाद्कुलेन सितांशूनोज्ज्वला / द्वयस्य वर्षाशरदां तदातनी __सनाभितां साधु बबन्ध संध्यया / / 21 / / पुरा प्रभिन्नाम्बुददुदिनीकृतां निनिन्द चन्द्रद्युतिसुन्दरी दिवम् / शिरोरुहोघेण घनेन वर्षता क्वचिदुकूलेन सितांशुनोज्ज्वला // 22 / / विरेजिरे तच्चिकुरोत्कराः किराः क्षणं गलन्निर्मलवारिविषाम् / Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [837 तमःसुहृच्चामरनिर्जयाजिताः . सिता वमन्तः खलु कीर्तिमुक्तिकाः / / 23 / / म्रदीयसा स्नानजलस्य वाससा प्रमार्जनेनाधिकमुज्ज्वलीकृताः / अदभ्रमभ्राजत साश्मशाणना प्रकाशरोचिःप्रतिमेव हेमजा // 24 / / तदा तदङ्गस्य बिति विभ्रमं विलेपनामोदमुचः स्फुरद्रुचः / दरस्फुरत्काञ्चनकेतकीदला- .. सुवर्णमभ्यस्यति सौरभं यदि // 25 / / अवापितायाः शुचिवेदिकान्तरं कलासु तस्याः सकलासु पण्डिताः / क्षणेन सख्यश्चिरशिक्षणैः स्फुटं प्रतिप्रतीकं प्रतिकर्म निर्ममुः / / 26 / / विनापि भूषामवधिः श्रियामियं व्यभूषि विज्ञाभिरदशि चाधिका / न भूषयेषाधिचकास्ति किं तु . . सानयेति कस्यास्तु विचारचातुरी / / 27 / / विधाय बन्धूकपयोजपूजने कृतां विधोर्गन्धफलीबलिश्रियम् / निनिन्द लब्धाधरलोचनार्चनं - मनःशिलाचित्रकमेत्य तन्मुखम् / / 28 / / महीमघोनां मदनान्धतातमीतमःपटारम्भणतन्तुसंततिः / अबन्धि तन्मूर्धजपाशमञ्जरी कयापि धूपग्रहधूमकोमला।२९। पुन:पुनः काचन कुर्वती कच__च्छटाधिया धूपजधूमसंयमम् / 25 Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 838 ] [ काव्यषट्कं सखी स्मितैस्तकिततन्निजभ्रमा. बबन्ध तन्मूर्धजचामरं चिरात् // 30 / / बलस्य कृष्टेव हलेन भाति या कलिन्दकन्या घनभङ्गभङ्गुरा / तदापितैस्तां करुणस्य कुड्मलै जहास तस्याः कुटिला कचच्छटा / / 31 / / धृतैतया हाटकंपट्टिकालिके बभूव केशाम्बुदविद्युदेव सा / मुखेन्दुसंबन्धवशात्सुधाजुषः स्थिरत्वमूहे नियतं तदायुषः // 32 // ललाटिकासीमनि चूर्णकुन्तला बभूः स्फुटं भीमनरेन्द्र जन्मनः / मनःशिलाचित्रकदीपसंभवा भ्रमीभृतः कज्जलधमवल्लयः / / 33 / / अपाङ्गमालिनय तदीयमुच्चकै रदीपि रेखा जनिताञ्जनेन या। अपाति सूत्रं तदिव द्वितीयया वयःश्रिया वर्धयितुं विलोचने / 34 / / अनङ्गलीलाभिरपाङ्गधाविनः कनीनिकानीलमणेः पुनः पुनः / तमिस्रवंशप्रभवेन रश्मिना स्वपद्धतिः सा किमरजि नाजनैः / / 35 / / असेविषातां सुषमां विदर्भजा दृशाववाप्याञ्जनरेखयाऽन्वयम् / भूजद्वयज्याकिणपद्धतिस्पृशोः स्मरेण बाणीकृतयोः पयोजयोः / / 36 / / Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [836 तदक्षितत्कालतुलागसा नखं - निखाय कृष्णस्य मृगस्य चक्षुषी। वेधिर्यदुद्धतु मियेष तत्तयो रदूरवर्तिक्षतता स्म शंसति // 37 / / विलोचनाभ्यामतिमात्रपीडिते ____वतंसनीलाम्बुरुहद्वयीं खलु / तयोः प्रतिद्वन्द्विधियाधिरोपयां बभूवतुर्भीमसुताश्रुती ततः // 38 / / धृतं वतंसोत्पलयुग्ममेतया . - व्यराजदस्यां पतिते दृशाविव / मनोभूवान्ध्यं गमितस्य पश्यतः . स्थिते लगित्वा रसिकस्य कस्यचित् / / 39 / / विदर्भपुत्रीश्रवणावतंसिकामणीमहःकिंशुककामुकोदरे / उदीतनेत्रोत्पलबाणसंभृतिनलं परं लक्ष्यमवैक्षत स्मरः // 40 // अनाचरत्तथ्यमृषाविचारणां ____तदानन· कर्णलतायुगेन किम् / बबन्ध जित्वा मणिकुण्डले विधू / द्विचन्द्रबुद्धया कथितावसूयकौ // 41 // अवादि भैमी परिघाप्य कुण्डले वयस्ययाभ्यामभितः समन्वयः / त्वदाननेन्दोः प्रियकामजन्मनि / श्रयत्ययं दौरुघरी धुरं ध्रुवम् // 42 / / निवेशितं यावकरागदीप्तये .. लगत्तदीयाधरसीम्नि सिक्थकम् / रराज तत्रैव निवस्तुमुत्सुकं 'मधूनि निधूय सुधासधर्मणि // 43 // Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 840 ] [ काव्यषट्कं AC स्वरेण वीणेत्यविशेषणं पुरा स्फुरत्तदीया खलु कण्ठकन्दली / अवाप्य तन्त्रीरथ सप्त मुक्तिका सरानराजत्परिवादिनी स्फुटम् // 44 / / उपास्यमानाविव शिक्षितुं ततो मृदुत्वमप्रौढमृणालनालया / रराजतुर्माङ्गलिकेन संगतो - भुजौ सुदत्या , वलयेन कम्बुनः / / 45 / / पदद्वयेऽस्या नवयावरञ्जना जनस्तदानीमुदनीयतापिता / चिराय पद्मौ परिरभ्य जाग्रती निशीव विश्लिष्य नवा रविद्युति: / / 46 / / कृतापराधः सुतनोरनन्तरं विचिन्त्य कान्तेन समं समागमम् / स्फुटं सिषेवे कुसुमेधूपावकः स रागचिह्नश्चरणौ न यावक: 47 स्वयं तदङ्गेषु गतेषु चारुतां परस्परेणैव विभूषितेषु च / किमूचिरेऽलंकरणानि तानि तद्- . वृथैव तेषां करणं बभूव यत् // 48 / / क्रमाधिकामुत्तरमुत्तरं श्रियं पुपोष यां भूषणचुम्बनेरियम् / पुरः पुरस्तस्थुषि रामणीयके तया बबाधेऽवधिबुद्धिधोरणिः // 49 / / मणीसनाभौ मुकुरस्य मण्डले बभौ निजास्यप्रतिबिम्बदशिनी / 25 विघोरदूरं स्वमुखं विधाय सा . निरूपयन्तीव विशेषमेतयोः // 50 // Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [841 जितस्तदास्येन कलानिधिर्दधे द्विचन्द्रघोसाक्षिकमायकायताम् / तथापि. निग्ये युगपत्सखीयुग प्रदर्शितादर्शबहूभविष्णुना // 51 / / किमालियुग्मापितदर्पणद्वये तदास्यमेकं बहु चान्यदम्बुजम् / हिमेषु निर्वाप्य निशासमाधिभि स्तदीयसालोक्यमितं व्यलोक्यत / / 52 / / पलाशदामेतिमिलच्छिलीमुख वृता विभूषामरिणरश्मिकामु कैः / प्रलक्षि लक्षर्धनुषामसौ तदा रतीशसर्वस्वलयाऽभिरक्षिता . // 53 / / विशेषतीरिव जह्न नन्दिनी / गुणैरिवाजानिक रागभूमिता। जगाम भाग्यैरिव नीविरुज्ज्वल विभूषणस्तत्सुषमा महार्घताम् // 54 / / नलात्स्ववैश्वस्त्यमनाप्तुमानता नृपस्त्रियो भीममहोत्सवागताः / / तदङ्ग्रिलाक्षामदघन्त मङ्गलं शिरःसु सिन्दूरमिव प्रियायुषे // 55 / / अमोघभावेन सनाभितां गताः ... . प्रसन्नगीर्वाणवराक्षरस्रजाम् / ततः प्रणम्राधिजगाम सा ह्रिया गुरुगुरुब्रह्मपतिव्रताशिषः // 56 / / तथैव तत्कालमत्रानुजीविभिः / प्रसाधनासजनशिल्पपारगैः / 15 25 Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 842 ] [ काव्यषटकं निजस्य पाणिग्रहणक्षणोचिता कृता नलस्यापि विभोविभूषणा / / 57 / / नृपस्य तत्राधिकृता: पुनः पुन विचार्य तान्बन्धमवापिपन्क चान् / कलापलीलोपनिधिर्गरुत्त्यजः स यैरपालापि कलापिसषदः / / 58 / / पतत्रिणां द्राघिमशालिना धनु__ गुणेन संयोगजुषां मनोभुवः / कचेन तस्याजितमाजनश्रिया समेत्य सौभाग्यमलम्भि कुड्मलैः / / 56 / / अनयरत्नौघमयेन मण्डितो रराज राजा मुकुटेन मूर्धनि / वनोपकानां स हि कल्पभूरुह स्ततो विमुञ्चन्निव मञ्जुमञ्जरीम् / / 60 / / नलस्य भाले मणिवीरपट्टिका- निभेन लग्नः परिधिविधोर्बभौ / तदा शशाङ्काधिकरूपतां गते तदानने मातुमशक्नुवन्निव // 61 / / बभूब भैभ्याः खलु मानसौकसं जिघांसतो धैर्यभरं मनोभुवः / 20 उपभ्रं तद्वर्तुलचित्ररूपिणी धनुःसमीपे गुलिकेव संभृता / 62 / प्रचुम्बि या चन्दनबिन्दुमण्डली नलीयवक्त्रेण सरोजतजिना / श्रियं श्रिता काचन तारकासखी . कृता शशाङ्कस्य तयाङ्कवर्तिनी / / 63 / / 25 न यावदग्निभ्रममेत्युदूढता नलस्य भैमीति हरेर्दुराशया / Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [843 स बिन्दुरिन्दुः प्रहितः किमस्य सा __ . न वेति भाले पठितुं लिपीमिव / / 64 / / कपोलपालोजनिजानुबिम्बयोः __समागमात्कुण्डलमण्डलद्वयी। नलस्य तत्कालमवाप चित्तभू रथस्फुरश्चक्रचतुष्कचारुताम् / / 65 / / श्रितास्य कण्ठं गुरुविप्रवन्दना ___द्विनम्रमोलेश्चिबुकानचुम्बिनी / प्रवाप मुक्तावलिरास्यचन्द्रमः स्रबत्सुधातुन्दिलबिन्दुवृन्दताम् // 66 / / यतोऽजनि श्रीबलवान्बलं द्विष-." बभूव यस्याजिषु वारणेन सः। अपूपुरत्तान्कमलाथिनो घना न्समुद्रभावं स बभार तद्भुजः / / 67 / / 15 कृतार्थयन्नथिजनाननारतं बभूव तस्यामरभूरुहः करः / तदीयमूले निहितं द्वितीयवध्रुवं दधे कङ्कणमालवालताम् 68 रराज दोर्मण्डनमण्डलीजुषोः . . स वज्रमाणिक्यसितारुणत्विषोः / मिषेण वर्षन्दशदिङ्मुखोन्मुखी यशःप्रतापाववनीजयाजितो / / 66 / / घने समस्तापघनावलम्बिना विभूषणानां मणिमण्डले नलः / / स्वरूपरेखामवलोक्य : निष्फली . चकार सेवाचणदर्पणार्पणाम् // 70 / / 25 व्यलोकि लोकेन न केवलं चलन्मुदा तदीयाभरणार्पणाद्युतिः / प्रदर्शि विस्फारितरत्नलोचनैः परस्परेणेव विभूषणरपि / 71 / 2. Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 844 ] ___काव्यषट्कं ततोऽनु वार्ष्णेयनियन्तकं रथं युधि क्षितारिक्षितिभृज्जयद्रथः / नृपः पृथासूनुरिवाधिरूढवा न्स जन्ययात्रामुदितः किरीटवान् / / 72 / / विदर्भनाम्नस्त्रिदिवस्य वीक्षित रसोदयादप्सरसस्तमुज्ज्वलम् / गृहाद्गृहादेत्य धृतप्रसाधना व्यराजयभ्राजपचानवाधिकम् // 73 / / अजानती कापि विलोकनोत्सुका / 10 समीरधूतार्धमपि स्तनांशुकम् / कुचेन तस्मै चलतेऽकरोत्पुरः ___ पुराङ्गना मङ्गलकुम्भसंभृतिम् / 74 / / सखी नलं दर्शयमानंयाङ्कतो जवादुदस्तस्य करस्य कङ्कणे / 15 विषज्य हारेस्त्रुटितैरतकितैः कृतं कयापि क्षणलाजमोक्षणम् / / 75 / / लसन्नखादर्शमुखाम्बुजस्मित-- प्रसूनवाणीमधुपाणिपल्लवम् / यियासतस्तस्य नपस्य जज्ञिरे प्रशस्तवस्तूनि तदेव यौवतम् / / 76 / / करस्थताम्बूलजिघत्सुरेकिका विलोकनैकाग्रविलोचनोत्पला / मुखे निचिक्षेप मुखद्विराजता- . रुषेव लीलाकमलं. विलासिनी / / 77 / / 25 कयापि वीक्षाविमनस्कलोचने समाज एवोपपतेः समीयुषः / घनं सविघ्नं परिरम्भसाहसैस्तदा तदालोकनमन्वभूयत 78 / Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: पञ्चदशः सर्गः ] [ 845 दिदृक्षरन्या विनिमेषवीक्षणां नृणामयोग्यां दधती तनुश्रियम् / . पदाग्रमात्रेण यदस्पृशन्महीं न तावता केवलमप्सरोऽभवत् // 79 / / विभूषणन सनशंसनापितैः करप्रहारैरपि धूननरपि / अमान्तमन्तः प्रसभं पुराऽपरा . . सखीषु समापयतीव संमदम् / / 80 / / वतंसनीलाम्बुरुहेण किं दृशा विलोकमाने विमनीबभूवतुः / अपि श्रुती दर्शनसक्तचेतसां न तेन ते शुश्रुवतुर्मूगीदृशाम् / / 81 / / काश्चिन्निर्माय चक्षुःप्रसूतिचुलुकितं तास्वशङ्कन्त कान्ता मौग्ध्यादाचूडमोधैर्निचुलितमिव तं भूषणानां मणीनाम् / 15 साहस्रीभिनिमेषाकृतमतिभिरयं इग्भिरालिङ्गितः कि ज्योतिष्टोमादियज्ञश्रुतिफलजगतीसार्वभौमभ्रमेण // 82 / / भवन्सुद्युम्नः स्त्री नरपतिरभूद्यस्य जननी . .. तमुर्वश्याः प्राणानमि विजयमानस्तनुरुचा / - हरारब्धक्रोधेन्धनमदनसिंहासनमसा . .वलंकर्मीणश्रीरुदभवदलंकर्तुमधुना / / 83 / / . अर्थी . सर्वसुपर्वणां पतिरसावेतस्य यूनः कृते पर्यत्याजि विदर्भराजसुतया युक्त विशेषज्ञया / अस्मिन्नाम तया वृते सुमनसः सन्तोऽपि यन्निर्जरा जाता दुर्मनसो न सोढुमुचिता तेषां तु साऽनौचिती / / 84 / / 25 अस्योत्कण्ठितकण्ठलोठिवरणस्रक्साक्षिभिदिग्भटैः स्वं वक्षः स्वयमस्फुटन्न किमदः शस्त्रादपि स्फोटितम् / 20 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 846 ] [ काव्यषट्कं व्यावृत्योपनतेन हा शतमखेनाद्य प्रसाद्या कथं भैम्यां व्यर्थमनोरथेन च शची साचीकृतास्याम्बुजा / / 85 / / मा जानीत विदर्भजामविदुषीं कीति मुदः श्रेयसी सेयं भद्रमचोक रन्मघवता न स्वं द्वितीयां शचीम् / 5 कः शच्या रचयांचकार चरिते काव्यं स नः कथ्यतामेतस्यास्तु करिष्यते रसधुनीपात्रे चरित्रे न कैः // 86 / / वैदर्भीबहुजन्मनिर्मिततपःशिल्पेन देहथिया नेत्राभ्यां स्वदते युवायमवनीवासः प्रसूनायुधः / गोर्वाणालयसार्वभौमसुकृतप्राग्भारदुष्प्रापया योगं भीमजयानुभूय भजतामद्वैतमद्य त्विषाम् / / 7 / / स्त्रीपुंसव्यतिषजनं जनयतः पत्युः प्रजानामभूदभ्यासः परिपाकिमः किमनयोर्दाम्पत्यसंपत्तये / प्रासंसारपुरन्ध्रिपूरुषमिथःप्रेमार्पण क्रीडया प्येतज्जम्पतिगाढरागरचनात्प्राकर्षि चेतोभुव: / / 88 / / 15 ताभिर्ट श्यत एष यान्पथि महाज्यैष्ठीमहे मन्महे यद्दग्भिः पुरुषोत्तमः परिचितः प्राग्मञ्चमञ्चन्कृतः / सा स्त्रीराट् पतयालुभिः शितिसितैः स्यादस्य दृक्चामरैः सस्ने माघमघातिघातियमुनागङ्गौधयोगे यया / / 86 / / वैदर्भीविपुलानुरागकलनात्सौभाग्यमत्राखिल. ___ क्षोणीचक्रशतक्रतो निजगदे तद्वृत्तवृत्तक्रमैः / किंचास्माकनरेन्द्रभूसुभगतासंभूतये लग्नक देवेन्द्रावरणप्रसादितशचीविश्राणिताशीर्वचः // 90 // पासुत्राममपासनान्मखभुजां भैम्यैव राजबजे तादर्थ्यागमनानुरोधपरया युक्ताजि लज्जामजा। 25 प्रात्मानं त्रिदशप्रसादफलतां पत्ये विधायानया हीरोषापयशःकथानवसरः सृष्टः सुराणामपि / / 61 // Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] [447 इत्यालेपुरनुप्रतीकनिलयालंकारसारश्रिया हकुर्वत्तनुरामणीयकममूरालोक्य पौरप्रियाः / सानन्दाः कुरुविन्दसुन्दरकरस्यानन्दनं स्यन्दन तस्याध्यास्य यतः शतक्रतुहरित्क्रीडाद्रिमिन्दोरिव।। 92 / / 5 श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातः पञ्चदशः कृशेतररसस्वादाविहायं महा-: काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः।।१३।। / / इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे पञ्चदशः सर्गः समाप्तः / / 15 / / // 16 // षोडशः सर्गः // वृतः प्रतस्थे स रथरथो रथी गृहान्विदर्भाधिपतेर्धराधिपः / पुरोधसं गौतममात्मवित्तमं द्विधा पुरस्कृत्य गृहीतमङ्गलः / / 1 / / विभूषणांशुप्रतिबिम्बितेः स्फुट भृशावदातैः स्वविवासिभिर्गुणैः / मृगेक्षणानां समुपासि चामरै ... विधूयमानः स विधुप्रभैः प्रभुः // 2 // पराय॑वेषाभरणैः पुरःसरैः ___ समं जिहाने निषधावनीभुजि / दधे सुनासीरपदाभिधेयतां स रूढिमात्राद्यदि वृत्रशात्रवः // 3 / / नलस्य नासीरसृजां महीभुजां ___ किरीटरत्नैः पुनरुक्तदीपया / Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 848 ] [ काव्यषट्कं अदीपि रात्रौ वरयात्रया तया ___चमूरजोमिश्रतमिस्रसंपदा // 4 / / विदर्भराजः क्षितिपाननुक्षणं ___ शुभक्षणासन्नतरत्वसत्वरः / दिदेश दूतान्पथि यान्यथोत्तरं चमूममुष्योपचिकाय तच्चयः // 5 / / हरिद्विपद्वोपिभिरांशुकैर्नभो नभस्वदाध्मापनपीनितैरभूत् / तरस्वदश्वध्वजिनीध्वजेर्वन विचित्रचीनाम्बरवल्लिंवेल्लितम् // 6 / / ध्रुवा ह्वयन्तीं निजतोरणस्रजा गजालिकर्णानिलखेलया ततः / ददर्श दूतीमिव भीमजन्मनः स तत्प्रतीहारमहीं महीपतिः // 7 // श्लथैदलैः स्तम्भयुगस्य रम्भयो "श्चकास्ति चण्डातकमण्डिता स्म सा / प्रियासखीवास्य मनःस्थितिस्फुर त्सुखागतप्रश्निततूर्यनिःस्वना / / 8 / / विनेतृभर्तृ द्वयभीतिदान्तयोः परस्परस्मादनवाप्तवैशसः / अजायत द्वारि नरेन्द्रसेनयोः समागमः स्फारमुखारवोद्गमः // 9 / / निर्दिश्य बन्धूनित इत्युदीरितं / दमेन गत्वार्धपथे कृतार्हणम् / विनीतमा द्वारत एव पद्गतां गतं तमैक्षिष्ट मुदा विदर्भराट् // 10 // Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] [ 846 प्रथायमुत्थाय विसार्य दोर्यु गं मुदा प्रतीयेष तमात्मजन्मनः / सुरस्रवन्त्या इव पात्रमागतं भृताभितोवीचिगतिः सरित्पतिः / / 11 / / यथावदस्मै पुरुषोत्तमाय तां __स साधुलक्ष्मी बहुवाहिनीश्वरः / शिवामथ स्वस्य शिवाय नन्दनां ददे पतिः सर्वविदे महीभृताम् // 12 / / असिस्वदद्यन्मधुपर्कमर्पितं / स तयाघात्तकमुदर्कदशिने / यदेष पास्यन्मधु भीमजाघरं मिषेण पुण्याहविधिं तदाकृत / / 13 / / वरस्य पाणिः परघातकोतुकी .. . वधूकरः पङ्कजकान्तितस्करः / सुराज्ञि तो तत्र विदर्भमण्डले - ततो निबद्धौ किमु कर्कशैः कुशैः / / 14 / / विदर्भजायाः करवारिजेन यनलस्य पाणेरुपरि स्थितं किल / विशङ्कय सूत्रं पुरुषायितस्य . तद्भविष्यतोऽस्मायि तदा तदालिभिः / / 15 / / . सखा. यदस्मै किल भीमसंज्ञया ..स यक्षसख्याधिगतं ददौ भवः / . ददौ तदेष श्वशुरः सुरोचितं नलाय चिन्तामणिदाम कामदम् / / 16 / / बहोर्दुरापस्य वराय वस्तुन ___श्चितस्य दातुप्रतिबिम्बकैतवात् / 25 Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 850 ] [ काव्यषटकं बभौत रामन्तरवस्थितं दध द्यदर्थमभ्यथितदेयमथिने // 17 / / असिं भवान्याः क्षतकास रासुरं ___वराय भीमः स्म ददाति भासुरम् / ददे हि तस्मै धवनामधारिणे स शंभुसंभोगनिमग्नयानया / / 18 / / अधारि यः प्राङ्महिषासुरद्विषा / ____ कृपाणमस्मै तमदत्त कूकुदः / प्रहायि तस्या हि धार्धमज्जिना स दक्षिणार्धेन पराङ्गदारणः // 16 / / उवाह य: सान्द्रतराङ्गकानन: स्वशौर्यसूर्योदयपर्वतव्रतम् / सनिर्भर: शाणनघौतधारया समूढसंध्यः क्षतशत्रजासृजा // 20 / / यमेन जिह्वा प्रहितेव या निजा तमात्मजां याचितुर्थिना भृशम् / स तां ददेऽस्मै परिवारशोभिनी करग्रहार्हामसिपुत्रिकामपि // 21 / / यदङ्गभूमी बभतुः स्वयोषिता ___मुरोजपत्रावलिनेत्रकज्जले / रणस्थलस्थण्डिलशायिताव्रते र्गहीतदीक्षैरिव दक्षिणीकृते // 22 / / पुरैव तस्मिन्समदेशि तत्सुता ___ भिकेन यः सौहृदनाटिनाग्निना / नलाय विश्राणयति स्म तं रथं नृपः सुलझ्याद्रिसमुद्रकापथम् // 23 // 25 Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] [ 851 प्रसूतवत्ता नलकूबरान्वयप्रकाशितास्यापि महारथस्य यत् / कुबेरदृष्टान्तबलेन पुष्पकप्रकृष्टतैतस्य ततोऽनुमीयते / / 24 / / महेन्द्रमुच्चैःश्रवसा प्रतार्य यनि जेन पत्याऽकृत सिन्धुरन्वितम् / स तद्ददेऽस्मै हयरत्नमर्पितं पुराऽनुबन्धुं वरुणेन बन्धुताम् // 25 / / जवादवारीकृतदूरदृक्पथ स्तथाक्षियुग्माय ददे मुदं न यः / ददद्दिदृक्षादरदासतां यथा __ तयैव तत्पांसुलकण्ठनालताम् // 26 / / दिवस्पतेरादरदर्शिनादरा. दढौकि यस्तं प्रति विश्वकर्मणा / तमेकमाणिक्यमयं महोन्नतं पतग्रहं ग्राहितवान्नलेन सः // 27 / / नलेन ताम्बूलविलासिनोज्झितै- . .. मुखस्य य: पूगकणै तो न वा / / इति व्यवेचि स्वमयूखमण्डला- .. ... दुदञ्चदुचारुणचारुपश्चिरात् // 28 // मयेन भीमं भगवन्तमर्चता . नपेऽपि पूजा प्रभुनाम्नि या कृता / प्रदत्त भीमोऽपि स नैषधाय तां . हरिन्मणेभॊजनभाजनं महत् // 26 // छदे सदैव च्छविमस्य बिभ्रतां - न केकिनां सर्पविषं विसर्पति / 25 ननीलकण्ठत्वमधास्यदत्र चेत् / ___ स कालकूटं भगवान भोक्ष्यत // 30 / / Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 852 ] [ काव्यषट्कं विराध्य दुर्वाससमस्खलद्दिवः स्रजं त्यजन्नस्य किमिन्द्रसिन्धुरः / अदत्त तस्मै स मदच्छलात्सदा यमभ्रमात ङ्गतयेव वर्ष कम् / / 31 / / मदान्मदने भवताथवा भिया / परं दिगन्तादपि यात जीवत / इति स्म यो दिक्करिणः स्वकर्णयो विनव वर्णस्रजमागतगतैः // 32 / / बभार बीजं निजकीर्तये रदौ द्विषामकी] खलुं दानविप्लुषः / श्रवःश्रमैः कुम्भकुचां शिरःश्रियं मुदे मदस्वेदवतीमुपास्त यः // 33 / / न तेन वाहेषु विवाहदक्षिणी ____ कृतेषु संख्यानुभवेऽभवत्क्षमः / न शातकुम्भेषु न मत्तकुम्भिषु प्रयत्नवान्कोऽपि न रत्नराशिषु / / 34 / / करग्रहे वाम्यमघत्त यस्तयोः प्रसाद्य भैम्यानु च दक्षिणीकृतः / कृतः पुरस्कृत्य ततो नलेन स प्रदक्षिणस्तत्क्षणमाशुशुक्षणिः // 35 / / स्थिरा त्वमश्मेव भवेति मन्त्रवा गनेशदाशास्य किमाशु तां ह्रिया / शिला चलेत्प्रेरणया नणामपि स्थितेस्तु नाचालि बिड़ौजसापि सा / / 36 / / प्रियांशुकग्रन्थिनिबद्धवाससं तदा पुरोधा विदधे विदर्भजाम् / Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] . [853 जगाद विच्छिद्य पटं प्रयास्यतो ___नलादविश्वासमिवैष विश्ववित् / 37 / / ध्रुवावलोकाय तदुन्मुखभ्रुवा निर्दिश्य पत्याभिदधे विदर्भजा / किमस्य न स्यादणिमाक्षिसाक्षिक स्तथापि तथ्यो महिमागमोदितः // 38 / / घवेन सादर्शि वधूररुन्धती सतीमिमां पश्य गतामिवाणुताम् / कृतस्य पूर्व हृदि भूपतेः कृते तृणीकृतस्वर्गपतेर्जनादिति / 39 / प्रसूनता तत्करपल्लवस्थितै रुडुच्छवियोमविहारिभिः पथि / मुखेऽमराणामनले रदावले ___रभाजि लाजैरनयोज्झितैर्यु तिः // 40 // तया प्रतीष्टाहुतिधूमपद्धति गता कपोले मृगनाभिशोभिताम् / ययौ दृशोरञ्जनतां श्रुतो श्रिता ..तमाललीलामलिकेऽलकायिता // 41 / / अपह नुतः स्वेदभरः करे तयो - स्त्रपाजुषोर्दानजलैमिनन्मुहुः / दृशोरपि प्रस्र तमस्र सात्त्विकं धनैः समाधीयत धमलङ्घनैः // 42 // बहूनि भीमस्य वसूनि दक्षिणां प्रयच्छतः सत्त्वमवेक्ष्य तत्क्षणम् / जनेषु सोमाञ्चमितेषु मिश्रतां ययुस्तयोः कण्टककुड्मल श्रियः // 43 / / बभूव न स्तम्भविजित्वरी तयोः श्रुतिक्रियारम्भपरम्परात्वरा / Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 854 ] [ काव्यषट्कं न कम्पसंपत्तिमलुम्पदग्रतः स्थितोऽपि वह्निः समिधा समेधितः / / 44 / / दमस्वसुः पाणिममुष्य गृह्णतः पुरोधसा संविदधेतरां विधेः / महर्षिणेवाङ्गिरसेन साङ्गता पुलोमजामुद्वहतः शतक्रतोः . / / 45 / / / स कौतुकागारमगात्पुरंध्रिभिः ___ सहस्ररन्ध्रीकृतमीक्षितुं ततः / अधात्सहस्राक्षतनुत्रमित्रता-' मधिष्ठितं यत्खलु जिष्णुनामुना / / 46 / / तथाशनाया निरशेषि नो ह्रिया न सम्यगालोकि परस्परक्रिया / . विमुक्तसंभोगमशायि सस्पृहं वरेण बध्वा च यथाविधि व्यहम् / / 47 / / कटाक्षणाज्जन्यजनैनिजप्रजाः क्वचित्परोहासमचीकरत्तराम् / / घराप्सरोभिर्वरयात्रयागता नभोजयद्भोजकुलाङ्कुरः क्वचित् / / 48 / / स कंचिदूचे रचयन्तु तेमनो पहारमत्राङ्ग ! रुचेर्यथोचितम् / पिपासतः काश्चन सर्वतोमुखं तवार्पयन्तामपि काममोदनम् // 46 / / मुखेन तेऽत्रोपविशत्वसाविति प्रयाच्य सृष्टानुमति खलाहसत् / वराङ्गभागः स्वमुखं मतोऽधुना स हि स्फुटं येन किलोपविश्यते / / 50 / / // 46 / / 25 Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] . / 855 युवामिमे मे स्त्रितमे इतीरिणौ * गले तथोक्ता निजगुच्छमेकिका / न भास्यदस्तुच्छगलो वदन्निति न्यधत्त जन्यस्य ततः पराकृषत् // 51 // नलाय वालव्यजनं विधुन्वती दमस्य दास्या निभृतं पदेऽपितात् / अहासि लोकः सरटात्पटोज्झिनी भयेन जङ्घायतिलविरंहसः // 52 // पुरःस्थलागूलमदात्खला वृसी मुपाविशत्तत्र ऋजुर्वरद्विजः / / पुनस्तदुत्थाप्य निजामतेर्वदा ऽहसच्च * पश्चात्कृतपुच्छतत्प्रदा // 53 / / स्वयं कथाभिर्वरपक्षसुभ्रवः - स्थिरीकृतायाः पदयुग्ममन्तरा / परेण पश्चानिभृतं न्यधापय द्ददर्श चादर्शतलं हसन्खलु // 54 / / प्रथोपचारोधुरचारुलोचना . . विलासनिर्वासितधैर्यसंपदः / स्मरस्य शिल्पं वरवर्गविक्रिया विलोककं लोकमहासयन्मुहुः तिरोवलद्वक्त्रसरोजनालया स्मिते स्मितं यत्खलु यूनि बालया। तया तदीये हृदये निखाय तद् ... व्यघीयतासंमुखलक्ष्यवेधिता कृतं यदन्यत्करणोचितत्यजा दिक्षु चक्षुर्यदवारि बालया / स्मित नि Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 856 ] [ काव्यषट्कं हृदस्तदीयस्य तदेव कामुके जगाद वार्तामखिलां खलं खलु / / 57 / / जलं ददत्याः कलितानतेर्मु खं ___ व्यवस्यता साहसिकेन चुम्बितम् / पदे पतद्वारिणि मन्दपाणिना प्रतीक्षितोऽन्येक्षणवञ्चनक्षण: / / 58 / / युवानमालोक्य विदग्धशीलया। - स्वपाणिपाथोरुहनालनिर्मितः / श्लथोऽपि सख्यां परिधिः कलानिधौ दधावहो तं प्रति गाढबन्धताम् / / 56 / / नतभ्रवः स्वच्छनखानुबिम्बन __ च्छलेन कोऽपि स्फुटकम्पकण्टकः / पयो ददत्याश्चरणे' भृशं क्षतः स्मरस्य बाणैः शरणे न्यविक्षत // 60 / / मुखं यदस्मायि विभुज्य सुभ्रुवा ह्रियं यदालम्ब्य नतास्यमासितम् / अवादि वा यन्मृदु गद्गदं युवा तदेव जग्राह तदाप्तिलग्नकम् / / 61 / / विलोक्य यूना व्यजनं विधुन्वतो मवाप्तसत्त्वेन भृशं प्रसिष्विदे / उदस्तकण्ठेन मृषोऽमनाटिना विजित्य लज्जां ददृशे तदाननम् / / 62 / / स तत्कुचस्पृष्टकचेष्टिदोर्लता चलद्दलाभव्यजनानिलाकुल: / अवाप नानानल जालशृङ्खला निबद्धनीडोद्भवविभ्रमं युवा / / 63 / / Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] [857 अवच्छटा कापि कटाक्षणस्य सा तथैव भङ्गी वचनस्य काचन / यया युवभ्यामनुनाथने मिथः कृशोऽपि दूतस्य न शेषितः श्रमः // 64 / / पपौ न कोऽपि क्षणमास्यमेलितं __ जलस्य गण्डूषमुदीतसंमदः / चुचुम्ब तत्र प्रतिबिम्बितं मुखं पुरः स्फुरत्याः स्मरकामुकभ्रवः / / 65 / / हरिन्मणेभॊजनभाजनेऽपिते गताः प्रकोपं किल वारयांत्रिकाः / भृतं न शाकैः प्रवितीर्णमस्ति वस्त्विषेदमेवं हरितेति बोधिताः / / 66 / / ध्रुवं विनीतः स्मितपूर्ववाग्युवा किमप्यपृच्छन्न विलोकयन्मुखम् / स्थितां पुरः स्फाटिककुट्टिमे वधूं . - तदध्रियुग्मावनिमध्यबद्धक् // 67 / / अमी लसद्वाष्पमखण्डिताखिलं वियुक्तमन्योन्यममुक्तमार्दवम् / रसोत्तरं गौरमपीवरं रसा दभुञ्जतामोदनमोदनं जनाः // 68 / / वयोवशस्तोकविकस्वरस्तनी ...... तिरस्तिरश्चुम्बति सुन्दरे दृशा / स्वयं किल सस्तमुरःस्थमम्बरं गुरुस्तनी ह्रीणतराऽपराददे // 66 / / .यदादिहेतुः सुरभिः समुद्भवे भवेद्यदाज्यं सुरभिध्रुवं ततः / Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 858 ] { काव्यषट्कं / / 70 / / वघभिरेभ्यः प्रवितीर्य पायसं . . . तदोघकुल्यातटसैकतं कृतम् // 70 / / यदप्यपीता वसुधालयैः सुधा तदप्यदः स्वादु ततोऽनुमीयते / अपि ऋतूषर्बुधदग्धगन्धिने स्पृहां यदस्मै दधते सूधान्धसः / / 71 / / प्रबोधि नो होनिभृतं मदिङ्गितं प्रतीत्य वा नास्तवत्यसाविति / लुनाति यूनः स्म धियं कियद्गता निवृत्य बालादरदर्शनेषुणा / / 72 / / न राजिकाराद्धमभोजि तत्रक मुखेन सीत्कारकृता दधद्दधि / धुलोत्तमाङ्गैः कटुभावपाटवा ___दकाण्डकण्डूयितमूर्धतालुभिः / / 73 / / वियोगिदाहाय कटूभवत्त्विष स्तुषारभानोरिव खण्डमाहृतम् / सितं मृदु प्रागथ दाहदायि तत् खलः सुहृत्पूर्वमिवाहितस्ततः // 74 / / नवौ युवानो निजभावगोपिना वभूमिषु प्राग्विहितभ्रमिक्रमः / दृशोविधत्तः स्म यहच्छया किल ___ विभागमन्योन्यमुखे पुनः पुनः // 75 // व्यधुस्तमां ते मृगमांससाधितं रसादशित्वा मृदु तेमनं मनः / निशाधवोत्सङ्गकुरङ्गजैरदः / पलैः सपीयूषजलैः किमश्रपि // 76 / / 25 Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः / [856 परस्पराकूतजदूतकृत्ययोरनङ्गमाराधुमपि क्षणं प्रति / निमेषणेनैव कियचिरायुषा जनेष यूनोरुदपादि निर्णयः / 77 / अहर्निशा वेति रताय पृच्छति क्रमोष्णशीतान्नकरार्पणाद्विटे / ह्रिया विदग्धा किल तनिषेधिनी ____ न्यधत्त संध्यामधुरेऽघरेऽङ्गुलिम् // 78 / / क्रमेण कूरं स्पृशतोष्मणः पदं सितां च शीतां चतुरेण वीक्षिता / दधौ विदग्धारुणितेऽधरेऽङगुली- . मनौचितीचिन्तनविस्मिता किल / 76 / / कियत्त्यजन्नोदनमानयन्किय स्करस्य ‘पप्रच्छ गतागतेन याम् / अहं किमेष्यामि किमेष्यसीति सा ___व्यधत्त ननं किल लज्जयाननम् / / 8 / / यथामिषे जग्मुरनामिषभ्रमं / निरामिषे चामिषमोहमूहिरे / तथा विदग्धैः परिकर्मनिर्मितं / विचित्रमेते परिहस्यं भोजिताः // 81 / / नखेन कृत्वाधरसन्निभा निभा. धुवा मृदुव्यञ्जनमांसफालिकाम् / ददंश दन्तः प्रशशंस तद्रसं विहस्य पश्यन्परिवेषिकाघरम् / / 82 / / अनेकसंयोजनया तथाकृते..निकृत्य निष्पिष्य च तागर्जनात् / प्रमो कृताकालिकवस्तुविस्मयं जना बहु व्यजनमभ्यवाहरन् / / 83 / / 25 Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 860 ] [ काव्यषट्क पिपासुरस्मीति विबोधिता मुखं निरोक्ष्य बाला सुहितेन वारिणः / पुनः करे कर्तु मना गलन्तिकां हसात्सखीनां सहसा न्यवर्तत / / 84 / / युवा समादित्सुरमत्रगं घतं विलोक्य तत्रैणदृशोऽनुबिम्बनम् / चकार तन्नीविमिवेशिनं करं बभूव तञ्च स्फुटकण्टकोत्करम् // 85 / / प्रलेहजस्नेहधृतानुविम्बनां / चुचुम्ब कोऽपि श्रितभोजनच्छल: / मुहुः परिस्पृश्य कराङ्गुलीमुखै स्ततो नु रक्तैः स्वमवापितमु खम् / / 86 / / अराधि यन्मीनमृगाजपत्रिजैः पलैर्मदु स्वादु सुगन्धि तेमनम् / अशाकि लोकः कुत एव जेमितुं न तत्तु संख्यातुमपि स्म शक्यते / / 87 / / कृलार्थनश्चाटुभिरिङ्गितैः पुरा परासि यः किंचनकुञ्चितभ्रुवा / क्षिपन्मुखे भोजनलीलयाङ्गुलीः पुनः प्रसन्नाननयान्वकम्पि सः / / 88 / / अकारि नीहारनिभं प्रभञ्जना दधूपि यच्चागुरुसारदारुभिः / निपीय भृङ्गारकसङ्गि तत्र तै रवणि वारि प्रतिवारमीदृशम् // 89 / / त्वया विधातर्यदकारि चामृतं कृतं च यज्जीवनमम्बु साधु तत् / Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ]. / 861 वृथेदमारम्भि तु सर्वतोमुख स्तथोचितः कर्तुमिदंपिबस्तव // 60 / / सरोजकोशाभिनयेन पाणिना स्थितेऽपि कूरे मुहुरेव याचते / सखि ! त्वमस्मै वितर त्वमित्युभे मिथो न वादाद्ददतुः किलौदनम् / / 61 / / इयं कियञ्चारुकुचेति पश्यते पयःप्रदाया हृदयं समावृतम् / ध्रुवं मनोज्ञा व्यतरद्यदुत्तरं मिषेण भृङ्गारधृतेः करद्वयी / 12 / अमोभिराकण्ठमभोजि तद्गृहे तुषारधारामृदितेव शर्करा / 10 हयद्विषद्बष्कयणोपयःसुतं सुधाह्रदात्पङ्कमिवोद्धृतं दधि / / 3 / तदन्तरन्तः सुषिरस्य बिन्दुभि . करम्बितं कल्पयता जगत्कृता / इतस्ततः स्पष्टमचोरि मायिना निरीक्ष्य तृष्णाचलजिह्वताभृता // 64 / / ददासि मे तन्न रुचेर्यदास्पदं / न यत्र रागः सितयापि किं तया / इतीरिणे बिम्बफलं पलच्छला. . ___ददायि बिम्बाधरयारुचच्च तत् // 65 / / समं ययोरिङ्गितवान्वयस्ययो - स्तयोविहायोपहृतप्रतीङ्गिताम् / प्रकारि नाकूतमवारि सा यया विदग्धयाऽरजि तयैव भाववित् / / 66 / / सखी प्रति माह युवेङ्गितेक्षिणी _ क्रमेण तेऽयं क्षमते न दित्सुताम् / विलोम तद्व्यञ्जनमर्यते त्वया वरं किमस्मै न नितान्तमथिने // 67 / / Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 862 ] ( काव्यषटकं समाप्तिलिप्येव भुजिक्रियाविधेर्दलोदरं वतु लयालयोकृतम् / अलंकृतं क्षीरवटैस्तदश्नतां रराज पाकार्पितगैरिकश्रिया / 68 / चुचुम्ब नोर्वीवलयोर्वशी परं पुरोऽधिपारि प्रतिबिम्बितां विट: / पुनःपुनः पानकपानकैतवा ___ चकार तच्चुम्बनचुंकृतान्यपि // 6 // घनैरमीषां परिवेषकैर्जन रवर्षि वर्षोपलगोलकावली / चलद्भुजाभूषणरत्नरोचिषा धतेन्द्रचापैः श्रितचान्द्रसौरभा // 100 / / कियद्वहु व्यञ्जनमेतदर्प्यते ममेति तृप्तेर्वदतां पुन:पुनः / अमूनि संख्यातुमसावढौकि तै श्छलेन तेषां कठिनीव भूयसी / / 101 / / विदग्धबालेङ्गितगुप्तिचातुरी प्रवलिकोत्पाटनपाटवे हृदः / निजस्य टीका प्रबबन्ध कामुक: ___ स्पृशद्भिराकृतशतैस्तदौचितीम् // 102 / घृतप्लुते भोजनभाजने पुरः / स्फुरत्पुरंध्रिप्रतिबिम्बिताकृतेः / युवा निधायोरसि लड्डुकद्वयं __नखैलिलेखाथ ममद निर्दयम् // 103 / / विलोकिते रागितरेण सस्मितं ह्रियाथ वैमुख्यमिते * सखीजने / तदालिरानीय कुतोऽपि शार्करी. करे ददौ तस्य विहस्य पुत्रिकाम् / / 104 / / 25 Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ]. [ 863 निरीक्ष्य रम्या: परिवेषिका .. ध्रुवं न भुक्तमेवैभिरवाप्ततृप्तिभिः / प्रशक्नवद्भिर्बहुभुक्तवत्तया यदुज्झिता व्यञ्जनपुञ्जराशयः // 105 / / पृथक्प्रकारेङ्गितशंसिताशयो युवा ययोदासि तयापि तापितः / ततो निराशः परिभावयन्परा मये तयातोषि सरोषयव सः // 106 / / पय:स्मिता मण्डकमण्डनाम्बरा ___ वटाननेन्दुः पृथुलड्डुकस्तनी / पदं रुचे ज्यभुजां भुजिक्रिया प्रिया बभूवोज्ज्वलकूरहारिणी // 107 / / चिरं युवाकूतशतैः कृतार्थन चिरं सरोषेङ्गितया च निर्धतः / 15. सृजन्करक्षालनलीलयाञ्जली- .. नसेचि किंचिद्विधुताम्बुधारया // 108 / / न षड्विधः षिङ्गजनस्य भोजने तथा यथा यौवतविभ्रमोद्भवः / अपारशृङ्गारमयः समुन्मिष . भृशं रसस्तोषमघत्त सप्तमः // 109 / / मुखे निधाय क्रमुकं नलानुगै . रथोज्झि पर्णालिरवेक्ष्य वृश्चिकम् / दमापितान्तर्मुखवासनिर्मितं भयाविलैः स्वभ्रमहासिताखिलः // 110 / / प्रमीषु तथ्यानृतरत्नजातयो वराटराट्चारुनितान्तचारुणोः / . Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 864 } [ काव्यषट्कं स्वयं गृहाणकमिहेत्युदीर्य तद् द्वयं ददौ शेषजिघृक्षवे हसन् / / 111 / / इति द्विकृत्वः शुचिमृष्टभोजिनां दिनानि तेषां कतिचिन्मुदा ययुः / द्विरष्टसंवत्सरवारसुन्दरी परीष्टिभिस्तुष्टिमुपेयुषां निशि // 112 / / उवास वैदर्भहेषु पञ्चषा निशाः कृशाङ्गी परिणीय तां नल: / अथ प्रतस्थे निषधान्सहानया रथेन वार्ष्णेयगृहीतरश्मिना // 113 / / परस्य न स्प्रष्टुमिमामधिक्रिया प्रिया शिशुः प्रांशुरसाविति ब्रुवन् / रथे स . भैमी स्वयमध्यरूरुहन्न / तत्किलाश्लिक्षदिमां जनेक्षितः // 114 / / इति स्मरः शोघ्रमतिश्चकार तं वधू च रोमाञ्चभरेण कर्कशौ / स्खलिष्यति स्निग्धतनुः प्रियादियं - म्रदीयसी पीडनभीरुदोर्युगात् // 115 / / तथा किमाजन्मनिजाङ्कवधितां प्रहित्य पुत्री पितरौ विषेदतुः / विसृज्य तौ तं दुहितुः पति यथा / विनीततालक्षगुणीभवद्गुणम् .. 116 / / निजादनुव्रज्य स मण्डलावधे लं निवृत्तौ चटुलापतां गतः / तडागकल्लोल इवानिलं तटा द्धतानतिविवृते वराट राट् // 117 / / तडा Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: षोडशः सर्गः ] . [865 पितात्मनः पुण्यमनापदः क्षमा . धनं मनस्तुष्टिरथाखिलं नलः / अतः परं पुत्रि ! न कोऽपि तेऽहमि त्युदर रेष व्यसृजन्निजोरसीम् // 118 / / प्रियः प्रियकाचरणाचिरेण तां ___पितुः स्मरन्तीमचिकित्सदाधिनु / तथास्त तन्मातृवियोगवाडवः स . तु प्रियप्रेममहाम्बुधावपि / / 11 / / असौ महीभृद्वहुधातुमण्डित स्तया निजोपत्यकयेव कामपि / भुवा कुरङ्गेक्षणदन्तिचारयो बंभार शोसां कृतपादसेवया // 120 / / तदेकतानस्य नृपस्य रक्षितुं चिरोढया भावमिवात्मनि श्रिया / विहाय सापत्न्यमरजि भीमजा. .. समग्रतद्वाञ्छितपूर्ति वृत्तिभिः // 121 / / मसारमालावलितोरणां पुर . निजाद्वियोगादिव लम्बित्तालकाम् / ददर्श पश्यामिव नैषधः प्रिया . मथाश्रितोद्ग्रीविकमुन्नतैर्गुहै: // 122 // पुरी निरीक्षान्यमना मनागिति .... प्रियाय भैम्या निभृतं विसर्जितः / ययो कटाक्षः सहसा निवर्तिना तदीक्षणेनार्धपथे समागमम् // 123 / / अथ नयरधृतैरमात्यरत्नः पथि समियाय स जाययाभिरामः / 20 . 25 Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 866 ] __ [ काव्यषट्क मधुरिव कुसुमश्रिया सनाथः क्रममिलितरलिभिः कुतूहलोत्कः / / 124 / / कियदपि कथयन्स्ववृत्तजातं श्रवणकुतूहलचञ्चलेषु तेषु / कियदपि निजदेशवृत्तमेभ्यः श्रवणपथं स नयन्पुरी विवेश / / 125 / / अथ पथि पथि लाजैरात्मनो बाहुवल्ली ' मुकुलकुलसकुल्यैः पूजयन्त्यो जयेति / क्षितिपतिमुपनेमुस्तं दधाना जनाना ममृतजलमृणालीसौकुमार्य कुमार्यः / / 126 / / अभिनवदमयन्तीकान्तिजालावलोक - प्रवणपुरपुरन्ध्रीवक्त्रचन्द्रान्वयेन / निखिलनगरसौघाटावलीचन्द्रशालाः क्षणमिव निजसंज्ञां सान्वयामन्वभूवन् / 127 / निषघनृपमुखेन्दुश्रीसुधां सौघवाता यनविवरगरश्मिश्रेणिनालोपनीताम् / पपुरसमपिपासापांसुलत्वोत्परागा ___ण्यखिलपुरपुरन्ध्रीनेत्रनीलोत्पलानि / / 128 / / अबनिपतिपथादृस्त्रणपाणिप्रवाल स्खलितसुरभिलाजव्याजभाजः प्रतीच्छन् / उपरि कुसुमवृष्टीरेष वैमानिकाना मभिनवकृतभैमीसौपभूमि विवेश // 129 / / इति परिणयमित्थं यानमेकत्र याने दरचकितकटाक्षप्रेक्षणं चानयोस्तत् / दिवि दिविषदधीशाः कौतुकेनावलोक्य प्रणिदधुरिव गन्तुं नाकमानन्दसान्द्राः / 130 / Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] . [867 श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / काश्मी रैमहिते चतुर्दशतयीं विद्यां विद्भिर्महा काव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्षोडशः / / 13 / / 5 // इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे ... षोडशः सर्गः समाप्तः / / 16 / / .. // 17 // सप्तदशः सर्गः॥ .... प्रथारभ्य वृथाप्रायं धरित्रीधावन श्रमम् / सुराः सरस्वदुल्लोललीला जग्मुर्यथागतम् 10 भैमी पत्ये भुवस्तस्मै चिरं चित्ते धृतामपि / विद्यामिव विनीताय न विषेदुः प्रदाय ते / / 2 / / कान्तिमन्ति विमानानि भेजिरे भासुराः सुराः / स्फटिकाद्रेस्तटानीव प्रतिबिम्बा विवस्वतः // 3 / / जवाज्जातेन वातेन बलाकृष्टबलाहकैः / श्वसनात्स्वस्य शीघ्रत्वं रथैरेषामिवाकथि / / 4 / / क्रमाद्दवीयसां तेषां तदानीं समदृश्यत / स्पष्टमष्टगुणैश्वर्यात्पर्यवस्यन्निवाणिमा / / 5 / / ततान विद्यता तेषां रथे पीतपताकताम् / लब्धकेतुशिखोल्लेखा लेखा जलमुच: क्वचित् / / 6 / / पुनःपुनर्मिलन्तीषु पथि. पाथोदपङ्क्तिषु / / 'नाकनाथ रथालम्बि· बभूवाभरणं धनुः / / 7 / / जले जलदजालानां वज्रिवनानुबिम्बनैः / जाने तत्कालजस्तेषां जाताशनिसनाथता / / / 8 / / Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 868 ] [ काव्यषट्कं स्फुटं सावणिवंश्यानां कुलच्छत्रं महीभुजाम् / चक्रे दण्डभृतश्चुम्बन्दण्डश्चण्डरुचि क्वचित् / / 9 / / नल भीमभुवोः प्रेम्णि विस्मिताया दधौ दिवः / पाशिपाश: शिरःकम्पस्रस्तभूषश्रवःश्रियम् / / 10 / / पवनस्कन्धमारुहा नत्यत्तरकर: शिखी / अनेन प्रापि भैमोति भ्रमं चक्रे नभःसदाम् / / 11 / / तत्कौँ भारती दूनौ विरहाद्भीमजागिराम् / अध्वनि ध्वनिभिर्वणैरनुकल्पय॑नोदयत् / / / 12 / / अथायान्तमवैक्षन्त ते जनौघमसित्विषम् / तेषां प्रत्युद्गमप्रीत्या मिलद्व्योमेव मूर्तिमत् / / 13 / / अद्राक्षुराजिहानं ते स्मरमग्रेसरं सुराः / अक्षाविनय शिक्षाथं कलिनेव पुरस्कृतम् // 14 / / अगम्यार्थं तृणप्राणा: पृष्ठस्थोकृतभीह्रियः / शम्भलीभुक्तसवस्वा जना यत्पारिपाश्विकाः // 15 / / 15 बिभति लोकजिद्भावं बुद्धस्य स्पर्धयेव यः / यस्येशतुलयेवात्र कर्तृत्वमशरीरिणः ईश्वरस्य जगत्कृत्स्नं सृष्टिमाकुलयन्निमाम् / अस्ति योऽस्त्रीकृतस्त्रीकस्तस्य वैरं स्मरन्निव // 17 / / चक्रे शक्रादिनेत्राणां स्मरः पीतनलश्रियाम् / अपि दैवतवैद्याभ्यामचिकित्स्यमरोचकम् // 18 // यत्तत्क्षिपन्तमुत्कम्पमुत्थायुकमथारुणम् / / बुबुधुविबुधाः क्रोधमाक्रोशाकोशघोषणम् / / 16 / / यमुपासन्त दन्तौष्ठक्षतासृशिष्यचक्षुषः / .. भृकुटोफणिनीनादनिभनिःश्ववासफूत्कृतः // 20 // 25 दुर्ग कामाशुगेनापि दुर्लङ्घयमवलम्ब्य यः / दुर्वासोहृदयं लोकान्सेन्द्रानपि दिधक्षति // 21 / / Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [866 वैराग्यं यः करोत्युच्च रञ्जनं जनयन्नपि / सूते सर्वेन्द्रियाच्छादि प्रज्वलन्नपि यस्तमः // 22 / / पञ्चेषुविजयाशक्ती भवस्य क्रुध्यतो जयात् / येनान्यविगृहीतारिजयकालनयः श्रितः // 23 / / 5 हस्तौ विस्तारयन्निभ्ये बिभ्यदर्धपथस्थवाक् / सूचयन् काकुमाकूतैर्लोभस्तत्र व्यलोकि तैः // 24 // दैन्यस्तैन्यमया नित्यमत्याहारामयाविनः / भुजानजनसाकूतपश्या यस्यानुजीविनः // 25 // धनिदानाम्बुवृष्टेयः पात्रपाणाववग्रहः / स्वान्दासानिव हा निःस्वाद्विक्रीणीतेऽर्थवत्सु यः / / 26 / / एकद्विकरणे हेतू महापातकपञ्चके / न तणे मन्यते कोपकामो यः पञ्च कारयन् / / 27 / / यः सर्वेन्द्रियसमापि जिह्वां बह्ववलम्बते / तस्यामाचार्यकं याच्याबटबे पाटवेऽजितुम् // 28 / / 15 पथ्यां तथ्यामगृह्णन्तमन्धं बन्धुप्रबोधनाम् / शून्यमाश्लिष्य नोझन् मोहमैक्षन्त हन्त ते / / 26 / / श्वः श्वः प्राणप्रयाणेऽपि न स्मरन्ति स्मरद्विषः / मग्नाः कुटुम्बजम्बाले बालिशा' यदुपासिनः // 30 / / पुंसामलब्धनिर्वाणज्ञानदीपमयात्मनाम् / अन्तापयति व्यक्तं यः कज्जलवदुज्ज्वलम् / / 31 / / . ब्रह्मचारिवनस्थायियतयो गहिणं यथा / त्रयो यमुपजीवन्ति क्रोधलोभमनोभवाः // 32 / / जाग्रतामपि निद्रा यः पश्यतामपि योऽन्धता / श्रुते सत्यपि जाडय यः प्रकाशेऽपि च यस्तमः / / 33 / / 25 कुरुसन्यं हरेणेव प्रागलज्जत नाजुनः / . हतं येन जयन्कामस्तमोगुणजुषा जगत् // 34 / / Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 870 ] [ काव्यषट्कं चिह्निताः कतिचिद्देवैः प्राच: परिचयादमी / अन्ये न केचनाचूडमेनःकञ्चुकमेचकाः // 35 / / तत्रोद्रूर्ण इवार्णोधौ सैन्येऽभ्यर्णमुपेयुषि / / कस्याप्याकर्णयामासुस्ते वर्णाकर्णकर्कशान् // 36 / / 5 ग्रावोन्मज्जनवद्यज्ञफलेऽपि श्रुतिसत्यता / / का श्रद्धा तत्र धीवृद्धा: ! कामाध्वा यत्खिलीकृत: / / 37 / / केनापि बोधिसत्त्वेन जातं सत्त्वेन हेतुना / यद्वेदमर्मभेदाय जगदे जगदस्थिरम् / / 38 / / अग्निहोत्रं त्रयीतन्त्रं त्रिदण्डं भस्मपुण्डकम् / 10 प्रज्ञापौरुषनिःस्वानां जोवो जल्पति जीविका / / 39 / / शुद्धिवंशद्वयीशुद्धौ पित्रो: पित्रोर्य देकश: / तदानन्तकुलादोषाददोषा जातिरस्ति का / / 40 / / कामिनीवर्गसंसर्गर्न क: संक्रान्तपातकः / नाश्नाति स्नाति हा मोहात्कामक्षामव्रतं जगत् / / 41 / / ईय॑या रक्षतो नारोधिकूलस्थितिदाम्भिकान् / स्मरान्धत्वाविशेषेऽपि तथा नरमरक्षत: / / 42 / / परदारनिवृत्तिर्या सोऽयं स्वयमनाहतः / अहल्याकेलिलोलेन दम्भो दम्भोलिपाणिना / / 43 / / गुरुतल्पगतौ पापकल्पनां त्यजत द्विजाः ! / येषां वः पत्युरत्युच्चैर्गुरुदारग्रहे ग्रहः / / 44 / / पापात्तापा मुदः पुण्यात्परासोः स्युरिति श्रुतिः / वैपरीत्यं द्रुतं साक्षात्तदाख्यात बलाबले // 45 / / संदेहेऽप्यन्यदेहाप्तेविवयं वृजिनं यदि / त्यजत श्रोत्रियाः ! सत्रं हिंसादूषण संशयात् / / 46 // 25 यस्त्रिवेदीविदां वन्द्यः स व्यासोऽपि जजल्प वः / रामाया जातकामायाः प्रशस्ता हस्तधारणा // 47 // Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [871 सुकृते वः कथं श्रद्धा सुरते च कथं न सा / तत्कर्म पुरुषः कुर्याद्यनान्ते सुखमेधते // 48 / / बलात्कुरुत पापानि सन्तु तान्यकृतानि वः / / सर्वान्बलकृतान्दोषानकृतान्मनुरब्रवीत् // 49 / / स्वागमार्थेऽपि मा स्थास्मिस्तीथिका! विचिकित्सवः / तं तमाचरतानन्दं स्वच्छन्दं यं यमिच्छथ // 50 / / श्रुतिस्मृत्यर्थबोधेषु क्वैकमत्यं महाधियाम् / / व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा सा नोपेक्ष्या सुखोन्मुखी / / 51 / / यस्मिन्नस्मीति धीदेहे तद्दाहे वः किमेनसा / क्वापि तकि फलं न स्यादात्मेति परसाक्षिके / / 52 / / मृतः स्मरति जन्मानि मृते कर्मफलोर्मयः / अन्यभुक्तैर्मृते तृप्तिरित्यलं धूर्तबार्तया जनेन जानतास्मीति कायं नायं त्वमित्यसो / त्याज्यते ग्राह्यते चान्यदहो श्रुत्यातिधूर्तया // 54 / / 15 एकं संदिग्धयोस्तावद्भावि तत्रेष्टजन्मनि / हेतुमाहुः स्वमन्त्रादीनसङ्गानन्यथा विटाः // 55 / / एकस्य विश्वपापेन तापेऽनन्ते निमज्जतः / कः श्रौतस्यात्मनो भीरो ! भारः स्यादुरितेन ते / / 56 / / किं ते वृन्तहृतात्पुष्पात्तन्मात्रे हि फलत्यदः / 20 न्यस्य तन्मूय॑नन्यस्य न्यास्यमेवाश्मनो यदि // 57 / / तृणानीव घृणावादान्विधूनय वधूरनु / तवापि तादृशस्यैव का चिरं जनवञ्चना // 58 / / कुरुध्वं कामदेवाज्ञां ब्रह्माद्यैरप्यलचिताम् / वेदोऽपि देवकीयाज्ञा तत्राज्ञाः! काधिकार्हणा / / 59 / / 25 प्रलापमपि वेदस्य भागं मन्यध्व एव चेत् / / केनाभाग्येन दुःखान्न विधोनपि तथेच्छथ / / 60 / / Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 872 ] [ काव्यषट्कं श्रुति श्रद्धत्थ विक्षिप्ताः प्रक्षिप्तां ब्रथ च स्वयम् / मीमांसामांसलप्रज्ञास्तां यूपद्विपदापिनीम् // 61 / / को हि. वेदास्त्यमुष्मिन्वा लोक इत्याह या श्रुतिः / तत्प्रामाण्यादमुं लोकं लोकः प्रत्येतु वा कथम् / / 62 / / . धर्माधमौं मनुर्जल्पन्नशक्यार्जनवर्जनौ / व्याजान्मण्डलदण्डार्थी श्रदधायि मुधा बुधः // 63 / / व्यासस्यैव गिरा तस्मिन्श्रद्धेत्यद्धा स्थ तान्त्रिका: / मत्स्यस्याप्युपदेश्यान्वः को मत्स्यानपि भाषताम् / / 64 / / पण्डितः पाण्डवानां स व्यासवाटपटः कविः / 10 निनिन्द तेषु निन्दत्सु स्तुवत्सु स्तुतवान्न किम् / / 65 / / न भ्रातुः किल देव्यां स व्यास: कामात्समास जत् / दासीरतस्तदासीद्यन्मात्रा तत्राप्यदेशि किम् // 66 / / देवैद्विजैः कृता ग्रन्थाः पन्था येषां तदाहतौ / गां नतैः किं न तैर्व्यक्तं ततोऽप्यात्माधरीकृतः / / 67 // 15 साधुकामुकतामुक्ता शान्तस्वान्तैर्मखोन्मुखैः / सारङ्गलोचनासारां दिवं प्रेत्यापि लिप्सुभिः / / 68 / / कः शमः क्रियतां प्राज्ञाः ! प्रियाप्रीतौ परिश्रमः / भस्मीभूतस्य भूतस्य पुनरागमनं कुतः / / 66 / / उभयी प्रकृतिः कामे सज्जेदिति मुनेमनः / 20 अपवर्गे तृतीयेति भणतः पाणिनेरपि // 70 / / बिभ्रत्युपरियानाय जना जनितमज्जनाः / विग्रहायाग्रतः पश्चाद्गत्वरोरभ्रविभ्रमम् // 71 / / एनसानेन तिर्यस्यादित्यादि: का विभीषिका / ' राजिलोऽपि हि राजेव स्वैः सुखी सुखहेतुभिः / / 72 / / 25 हताश्चेदिवि दीव्यन्ति दैत्या दैत्यारिणा रणे / तत्रापि तेन युध्यन्तां हता अपि तथैव ते / / 73 / / Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 873 स्वं च ब्रह्म च संसारे मुक्तौ तु ब्रह्म केवलम् / इति स्वोच्छित्तिमुक्त्युक्तिवैदग्धी वेदवादिनाम् // 74 / / मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः // 75 / / 5 दारा हरिहरादीनां तन्मग्न मनसो भृशम् / किं न मुक्ताः कुतः सन्ति कारागारे मनोभूवः / / 76 / / देवश्चेदस्ति .सर्वज्ञः करुणाभागवन्ध्यवाक् / तत्कि वाग्व्ययमात्रान्नः कृतार्थयति नाथिन: / / 77 // भविनां भावयन्दुःखं स्वकर्मजमपीश्वरः / स्यादकारणवैरी नः कारणादपरे परे // 78 / / तप्रितिष्ठया साम्यादन्योन्यस्य व्यतिघ्नताम् / नाप्रामाण्यं मतानां स्यात्केषां सत्प्रतिपक्षवत् // 76 / / अक्रोधं शिक्षयन्त्यन्यैः क्रोधना ये तपोधनाः / निर्धनास्ते धनायैव धातुवादोपदेशिनः // 80 / / 15 किं वित्तं दत्त तुष्टेयमदातरि हरिप्रिया / दत्त्वा सर्वं धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान्बलि: // 81 / / दोग्धा द्रोग्धा च सर्वोऽयं धनिनश्चेतसा जनः। विसृज्य लोभसंक्षोभमेकद्वा यधुदासते / / 82 / / दैन्यस्यायुष्यमस्तैन्यमभक्ष्यं कुक्षिवञ्चना / 20 स्वाच्छन्द्यमृच्छतानन्दकन्दलीकन्दमेककम् / / 83 // इत्थमाकर्ण्य दुर्वर्णं शक्र: सक्रोधतां दधे / - अवोचदुच्चैः कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कृन्तति / / 84 / / लोकत्रयीं त्रयीनेत्रां वज्रवीर्यस्फुरत्करे / . क इत्थं भाषते पाकशासने मयि शासति / / 85 / / 25 वर्णासंकीर्णतायां वा जात्यलोपेऽन्यथापि वा / ब्रह्महादेः परीक्षासु भङ्गमङ्ग ! प्रमाणय / / 86 / / . Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 874 ] / काव्यषटकं / ब्राह्मण्यादिप्रसिद्धाया गन्ता यन्नेक्षते जयम् / तद्विशुद्धिमशेषस्य वर्णवंशस्य शंसति // 87 / / जलानलपरीक्षादी संवादो वेदवेदिते / गलहस्तितनास्तिक्यां धिग्धियं कुरुतेऽनते / / 88 / / 5 सत्येव पतियोगादौ गर्भादेरध्रवोदयात् / पाक्षिप्तं नास्तिकाः कर्म न किं मर्म भिनत्ति वा / / 89 / / याचतः स्वगया श्राद्धं प्रेतस्याविश्य कंचन / नानादेशजनोपज्ञाः प्रत्येषि न कथा: कथम् / / 90 / / नोतानां यमदूतेन नामभ्रान्तेरुपागतौ / 10 श्रद्धत्से संवदन्तीं न परलोककथां कथम् // 61 / / जज्वाल ज्वलन: क्रोधादाचख्यो चाक्षिपन्नम्म् / किमात्थ रे ! किमात्थेदमस्मदने निरर्गलम् / / 62 / / महापराकिणः श्रौतधर्मकंबलजीविनः / क्षणाभक्षणमूर्छाल ! स्मरग्विस्मयसे न किम् // 63 / / 15 पुत्रेष्टिश्येनकारीरीमुखा दृष्टफला मखाः / न वः किं धर्मसंदेहमन्देहजयभानवः // 94 / / दण्डताण्डवनैः कुर्वन्स्फुलिङ्गालिङ्गितं नभः / / निर्ममेऽथ गिरामूर्मीभिन्नमर्मेव धर्मराट // 65 // तिष्ठ भोस्तिष्ठ कण्ठोष्ठं कुण्ठयामि हठादयम् / अपष्ठ पठतः पाठयमधिगोष्ठि शठस्य ते / / 96 / / वेदैस्तद्वेषिभिस्तद्वत्स्थिरं मतशतैः कृतम् / परं कस्ते परं वाचा लोकं लोकायत ! त्यजेत् / / 67 // समज्ञानाल्पभूयिष्ठपान्थवैमत्यमेत्य यम् / लोके प्रयासि पन्थानं परलोके न तं कुतः // 6 // 25 स्वकन्यामन्यसात्कतुं विश्वानुमतिदृश्वनः / लोके परत्र लोकस्य कस्य न स्यादृढं मनः // 6 // 20 Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [ 875 कस्मिन्नपि मते सत्ये हताः सर्वमतत्यजः / तदृष्टया व्यर्थतामात्रमनर्थस्तु न धर्मजः // 100 / / क्वापि सर्वैरवैमत्यात्पातित्यादन्यथा क्वचित् / / स्थातव्यं श्रौत एव स्याद्धर्मे शेषेऽपि तत्कृतेः // 101 / / 5 बभाण वरुण: क्रोधादरुणः करुणोज्झितम् / किं न प्रचण्डात्पाखण्डपाश ! पाशाद्विभेषि नः / / 102 / / मानवाशक्यनिर्माणा कूर्माद्यङ्कबिला शिला / न श्रद्धापयते मुग्धास्तीथिकाध्वनि वः कथम् // 103 / / शतक्रतूरुजाद्याख्याविख्याति स्तिकाः कथम् / 10 श्रुतिवृत्तान्तसंवादैर्न वश्चमदचीकरत् // 104 / / तत्तज्जनकृतावेशान्गयाश्राद्धादियाचिनः / / भूताननुभवन्तोऽपि कथं श्रद्धत्थ न श्रुतीः / / 105 / / नामभ्रमाद्यमं नीतानथ स्वतनुमामतान् / संवादवादिनो जोवान्वीक्ष्य मा त्यजत श्रुतीः // 106 / / संरम्भैर्जम्भजैत्रादेस्तभ्यमानाद्वलाद्वलन् / मूर्धबद्धाञ्जलिर्देवानथैवं कश्चिदूचिवान् // 107 / / नापराधी पराधीनो जनोऽयं नाकनायकाः ! / कालस्याहं कलेर्बन्दी तच्चाटचटुलाननः // 108 / / इति तस्मिन्वदत्येव देवाः स्यन्दनमन्दिरम् / 20 कलिमाकलयांच-परं चापरं पुरः // 106 / / संददर्शोन्नमद्ग्रीवः श्रीबहुत्वकृताद्भुतान् / तत्तत्पापपरीतस्तानाकीयान्नारकीव सः // 110 // गुरुरोढावलीढ: प्रागभून्नमितमस्तकः / स त्रिशङ्कुरिवाक्रान्तस्तेजसेव बिडौजसः / // 111 // 25 विमुखान्द्रष्टुमप्येनं जनंगम इव द्विजान् / एष मत्तः सहेलं तानुपेत्य समभाषत // 112 // Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 876 ) [ काव्यपटकं स्वस्ति वास्तोष्पते ! तुभ्यं शिखिन्नस्ति न खिन्नता / सखे काल ! सुखेनासि पाशहस्त ! मुदस्तव // 113 / / स्वयंवरमहे भैमीवरणाय त्वरामहे / तदस्माननुमन्यध्वमध्वने तत्र धाविने // 114 / / 5 तेऽवज्ञाय तमस्योचैरहंकारमकारणम् / अचिरेऽतिचिरेणैनं स्मित्वा मुष्टमुखा मिथः / / 15 / / पुनर्वक्ष्यसि मा मैव कथमुद्वक्ष्यसे तु सः / सृष्टवान्परमेष्ठी. यं नैष्ठिकब्रह्मचारिणम् // 116 / / द्रोहिणं द्रुहिणो वेत्तु त्वामाकविकोणिनम् / त्वज्जनैरपि वा घातुः सेतुर्लङ्घयस्त्वया न किम् / / 117 / / अतिवृत्तः स वृत्तान्तस्त्रिजगधुवगर्वनुत् / आगच्छतामपादानं स स्वयंवर एव न: // 11 / / नागेषु सानुरागेषु पश्यत्सु दिविषत्सु च / भूमिपालं नरं भैमी वरं साऽववरद्वरम् // 116 / / 15 भुजगेशानसद्वेशान्वानरानितरान्नरान् / अमरान्पामरान्भैमी नलं वेद गुणोज्ज्वलम् // 120 / / इति श्रुत्वा स रोषान्धः परमश्चरमं युगम् / जगन्नाशनिशारुद्र मुद्रस्तानुक्तवानदः // 121 / / कयापि क्रीडतु ब्रह्मा दिव्याः स्त्रीर्दीव्यत स्वयम् / 20 कलिस्तु चरतु ब्रह्म प्रेतु वातिप्रियाय वः // 122 / / चर्येव कतमेयं वः परस्मै धर्मदेशिनाम् / / स्वयं तत्कुर्वतां सर्वं श्रोतुं यद्विभितः श्रुती // 123 // तत्र स्वयंवरेऽलम्भि भुव: श्रीनॆषधेन सा / . जगतो होस्तु युष्माभिर्लाभस्तुल्याभ एव वः // 124 / / 25 दूरान्नः प्रेक्ष्य यौष्माकी युक्तेयं वक्त्रवत्रणा / लज्जयैवासमर्थानां मुखमास्माकमीक्षितुम् // 12 // Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ) [ 877 स्थितं भवद्भिः पश्यद्भिः कथं भोस्तदसांप्रतम् / निर्दग्धा दुर्विदग्धा किं सा दृशा न ज्वलत्क्रुधा / / 126 / / महावंशाननात्य महान्तमभिलाषुका / / स्वीचकार कथकारमहो सा तरलं नलम् // 127 // 5 भवादर्शदिशामीशैर्मुग्यमाणां मृगेक्षणाम् / स्वीकुर्वाण : कथ सोढः कृतरीढस्तृणं नल: // 128 / / दारुण: कूट माश्रित्य शिखो साक्षीभवन्नपि / . नावहर्तिक तदुद्वाहे कूटसाक्षिक्रियामयम् // 126 / / अहो महःसहायानां संभूता भक्तामपि / 10 क्षमवास्मै कलङ्काय देवस्येवामृतद्यतेः // 130 / / सा ववे यं तमुत्सृज्य मह्यमीया॑जुषः स्थ किम् / ब्रतागःसद्मनस्तस्माच्छद्मनाद्याच्छिनद्मि ताम् // 131 / / यतध्वं सहकर्तुं मां पाञ्चाली पाण्डवैरिव / सापि पञ्चभिरस्माभिः संविभज्यैव भुज्यताम् // 132 / / 15 अथापरिवृढा सोढुं मूर्खतां मुखरस्य ताम् / चक्रे गिरा शराघातं भारती सारतीवया // 133 // कोति भैमी वरं चास्मै दातुमेवागमनमी / न लीढे धीरवैदग्धीं धीरगम्भीरगाहिनी // 134 / / वाग्मिनी जडजिह्वस्तां प्रतिवक्तुंमशक्तिमान् / 20 लीलावहेलिलां कृत्वा देवानेवावदत्कलिः // 135 / / प्रौञ्छि वाञ्छितमस्माभिरपि तां प्रति संप्रति / तस्मिन्नले न लेशोऽपि कारुण्यस्यास्ति नः पुनः / / 136 / / वृत्ते कर्मणि कुर्मः किं तदा नाभूम तत्र यत् / कालोचितमिदानीं नः शृणुतालोचितं पुनः // 137 / / 25 प्रतिज्ञेयं नले विज्ञाः ! कलेविज्ञायतां मम / तेन भैमी च भूमि च त्याजयामि जयामि तम् // 138 / / Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 878 ] [ काव्यषट्कं नैषधेन विरोधं मे चण्डतामण्डितौजसः / / जगन्ति हन्त गायन्तु रवेः कैरववैरवत् / / 136 / / द्वापरः साधुकारेण तद्विकारमदीदिपत् / प्रणीय श्रवणे पाणिमवोचन्नमुचे रिपुः // 140 / / 5 विस्मेयमतिरस्मासु साधु वैलक्ष्यमीक्षसे / यद्दत्तेऽल्पमनल्पाय तद्दत्ते ह्रियमात्मनः // 141 / / फलसीमां चतुर्वर्ग * यच्छतांशोऽपि यच्छति / / नलस्यास्मदुपघ्ना सा भक्तिभूतावकेशिनो / / 142 / / भव्यो न व्यवसायस्ते नले साधुमतौ कले ! / 10 लोकपालविशालोऽयं निषधानां सुधाकरः // 143 / / न पश्याम: कलेस्तस्मिन्नवकाशं क्षमाभृति / निचिताखिलधर्म च द्वापरस्योदयं वयम् // 144 / / सा विनीततमा भैमी व्यर्थानर्थग्रहैरहो / कथं भवद्विधैर्बाध्या प्रमितिविभ्रमैरिव // 145 / / 15 तं नासत्ययुगं तां वा वेता स्पधितुमर्हति / एकप्रकाशधर्माणं न कलिद्वापरौ युवाम् / / 146 / / करिष्येऽवश्यमित्युक्तिः करिष्यन्नपि दुष्यसि / दृष्टादृष्टा हि नायत्ता: कार्योया हेतवस्तव / / 147 / / . द्रोहं मोहेन यस्तस्मिन्नाचरेदचिरेण सः / तत्पापसंभवं तापमाप्नुयादनयात्ततः // 148 / / युगशेष तव द्वेषस्तस्मिन्नेष न सांप्रतम् / भविता न हितायतद्वैरं ते वरसेनिना // 146 / / तत्र यामीत्यसज्ज्ञानं राजसं सदिहास्यताम् / इति तत्र गतो मा गा राजसंसदि हास्यताम् / / 150 / / 25 गत्वान्तरा नलं भैमी माकस्मात्त्वं प्रवेक्ष्यसि / षण्णां चक्रमसंयुक्तं पठयमानं डकारवत् // 15 // Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [876 अपरेऽपि दिशामोशा वाचमेतां शचीपतेः / अन्वमन्यन्त कित्वेनां नादत्त युगयोयुगम् // 152 / / कलि प्रति कलिं देवा देवान्प्रत्येकशः कलिः / सोपहासं समर्वणरित्थं व्यररचन्मिथः // 153 / / 5 तवाऽगमनमेवाह वैरसेनौ तया वृते / उद्वेगेन विमानेन किमनेनापि धावता // 154 // पुरा यासि वरीतु यामग्र एव तया वृते / अन्यस्मिन्भवतो हास्यं वृत्तमेतत्त्रपाकरम् // 155 / / पत्यौ तया वृतेऽन्यस्मिन्यदर्थ गतवानसि / / भवतः कोपरोध: स्तादक्षमस्य वृथारुषः // 156 / / यासि स्मरञ्जयन्कान्त्या योजनौघं महार्वता / समूढस्तं वृतेऽन्यस्मिन्कि न होस्तेऽत्र पामर ! // 157 / / नलं प्रत्यनपेताति तार्तीयीकतुरीययोः / युगयोयुगलं बुद्ध्वा दिवि देवा धियं दधुः // 158 / / 15 द्वापरैकपरीवारः कलिमत्सरमूच्छितः / / नलनिग्राहिणी यात्रां जग्राह ग्रहिलः किल // 159 / / नलेष्टापूर्तसंपूर्तेर्दूरं दुर्गान, प्रति / निषेधनिषधान्गन्तुं विघ्नः संजघटे घनः // 160 / / मण्डलं निषधेन्द्रस्य चन्द्रस्येवामलं कलिः / 20 प्राप म्लापयितुं पापः स्वर्भानुरिव संग्रहात् // 161 / / कियतापि च कालेन कालः कलिरुपेयिवान् / भैमीभतु रहमानी . राजधानी महीभुजः // 162 / / वेदानुद्धरतां तत्र मुखादाकर्णयन्पदम् / न प्रसारयितुं काल: कलिः पदमपारयत् // 163 // 25 श्रुतिपाठकवक्त्रेभ्यस्तत्राकर्णयतः क्रमम् / क्रमः संकुचितस्तस्य पुरे दूरमवर्तत // 164 / / Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880 ] [ काव्यघटकं तावद्गतिघृताटोपा पादयोस्तेन संहिता / न वेदपाठिकण्ठेभ्यो यावदश्रावि संहिता / 165 / / तस्य होमाज्यगन्धेन नासा नाशमिवागमत् / तथाऽतत दृशौ नासौ ऋतुधूमकथितः / / 166 / / 5 अतिथीनां पदाम्भोभिरिमं प्रत्यतिपिच्छिले / अङ्गणे गृहिणां तत्र खलेनादेन चस्खले 167 / / पुटपाकमसौ प्राप ऋणुष्ममहोष्मभिः / तत्प्रत्यङ्गमिवाकति पूर्तोमिव्य जनानिलः // 168 / / पितृणां तर्पणे वर्णः कोर्णाद्वश्मनि वेश्मनि / कालादिव तिलात्कालाइ रमत्रसदत्र सः // 169 / / स्नातणां तिलकैर्मने स्वमन्तर्दीर्ण मेव सः / / कृपाणीभूय हृदयं प्रविष्टैरिव तत्र तैः // 170 / / पुमांसं मुमुदे तत्र विदन्मिथ्यावदावदम् / स्त्रियं प्रति तथा वीक्ष्य तमथ म्लानवानयम् / / 171 / / 15 यज्ञयूपधनां जज्ञौ स पुरं शङकुसंकूलाम् / जनधर्मधनैः कीर्णा व्यालक्रोडीकृतां च ताम् / / 172 / / स पार्श्वमशकद्गन्तुं न वराक: पराकिरणाम् / मासोपवासिनां छायालङ्घने घनमस्खलत् // 173 / / प्रावाहितां द्विजैस्तत्र गायत्रोमर्कमण्डलात् / / 20 स संनिदधतीं पश्यन्दृष्ट नष्टोऽभवद्भिया // 174 / / स गृहे गहिभिः पूर्णे वने वैखानसैर्घने / / यत्याधाऽरेमरागारे क्वापि न स्थानमानशे // 175 / / क्वापि नापश्यदन्विष्यन्हिसामात्मप्रियामसौ / स्वमित्रं तत्र न प्राप्नोदपि मूर्खमुखे कलिम् / / 176 / / 25 हिंसागवी मखे वीक्ष्य रिरंसुर्धावति स्म सः / . सा तु सौम्यवृषासक्ता खरं दूरान्निरास तम् // 177 / / Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ] [881 मौनेन व्रतनिष्ठानां स्वाक्रोशं मन्यते स्म सः / वन्द्यवन्दारुभिर्जज्ञो स्वशिरश्च पदाहतम् // 178 / / ऋषीणां स बृसी: पाणी पश्यन्नाचामतामपः / मेने घनरमी हन्तुं शप्तुं मामद्भिरुद्यता: // 176 / / 5 मौजीघतो धताषाढानाशशके स बणिनः / रज्ज्वामी बन्धुमायान्ति हन्तुं दण्डेन मां ततः / / 18 / / दृष्ट्वा पुरः पुरोडाशमासीदुत्त्रासदुर्मनाः / मन्वानः फणिनीस्तत्र स मुमोचान च स्र चः / / 181 / / मुमुदे मदिरादानं विदन्नेष द्विजन्मनः / दृष्ट्वा सौत्रामणीमिष्टि तं कुर्वन्तमदूयत // 182 / अपश्यद्यावतो वेदविदां ब्रह्माजलीनसौ / उदडीयन्त तावन्तस्तस्यास्राञ्जलयो हृदः // 183 / / स्नातकं घातकं जज्ञे जज्ञौ दान्तं कृतान्तवत् / वाचंयमस्य दृष्टयं व यमस्येव बिभाय सः // 104 / / 15 स पाखण्डजनान्वेषी प्राप्नुवन्वेदपण्डितान् / जलार्थीवानलं प्राप्य पापस्तापादपासरत् // 185 / / तत्र ब्रह्महणं पश्यन्नतिसंतोषमानशे / निर्वर्ण्य सर्वमेवस्य यज्वानं ज्वरति स्म सः // 186 / / यतिहस्तस्थितस्तस्य राम्भरारभ्भि तर्जमा / 20 दुर्जनस्यानि क्लिष्टिर्गहिणां वेदयष्टिभिः // 187 / / मण्डलत्यागमेवैच्छवीक्ष्य स्थण्डिलशायिनः / पवित्रालोकनादेष पवित्रासमविन्दत // 188 / / अपश्यजिनमविष्यन्नजिनं ब्रह्मचारिणा / / क्षपणार्थी, सदीक्षस्य स चाक्षपणमैक्षत // 189 // 25 जपतामक्षमालासु बीजाकर्षणदर्शनात् / स जीवाकृष्टिकष्टानि विपरीतहगन्बभूत् // 16 // Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 882 ] [ काव्यषटकं त्रिसंध्यं तत्र विप्राणां स पश्यन्नघमर्षणम् / / वरमैच्छदृशोरेव निजयोरपकर्षषम् // 161 / / अद्राक्षीत्तत्र किंचिन्न कलि: परिचितं क्वचित् / भैमीनलव्यलीकागप्रश्नकाम: परिभ्रमन् // 162 / / 5 तप:स्वाध्याययज्ञानामकाण्डद्विष्टतापसः / स्वविद्विषां श्रियं तस्मिन्पश्यन्नुपतलाप सः // 163 / / कम्र तत्रोपनम्राया विश्वस्या वीक्ष्य तुष्टवान् / स मम्लौ तं विभाव्याथ वामदेव्याभ्युपासकम् // 164 / / वैरिणो शुचिता तस्मै न प्रवेशं ददौ भुवि / 10 न वेदध्वनिरालम्बमम्बरे विततार वा // 165 / / दर्शस्य दर्शनात्कष्टमग्निष्टोमस्य चानशे / जुघूर्णे पौर्णमासेक्षी सोमं सोऽमन्यतान्तकम् // 166 / / तेनादृश्यन्न वीरघ्ना न तु वीरहणो जनाः / नापश्यत्सोऽभिनिर्मुक्ताञ्जीवन्मुक्तानवंक्षत // 167 / / 15 स तुतोषाश्नतो विप्रान्दृष्ट्वा स्पृष्टपरस्परान् / होमशेषोभवत्सोमभुजस्तान्वीक्ष्य दूनवान् // 168 / / श्रुत्वा जनं रजोजुष्टं तुष्टि प्राप्नोज्झटित्यसौ / तं पश्यन्पावनस्नानावस्थं दुःस्थस्ततोऽभवत् // 166 / / अधावत्क्वापि गां वीक्ष्य हन्यमानामयं मुदा / अतिथिभ्यस्तथा बुद्ध्वा मन्दो मन्दं न्यवर्तत // 20 // हृष्टवान्स द्विजं दृष्ट्वा नित्यनैमित्तिकत्यजम् / यजमानं निरूप्यैनं दूरं दीनमुखोऽद्रवत् // 201 // प्राननन्द निरीक्ष्यायं पुरे तत्रात्मघातिनम् / सर्वस्वारस्य यज्वानमेनं दृष्ट्वाथ विव्यथे // 202 / / 25 ऋतौ महाव्रते पश्यन्ब्रह्मचारीत्वरीरतम् / जज्ञे यज्ञक्रियामज्ञः स भण्डाकाण्डताण्डवम् / / 203 / / Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: सप्तदशः सर्गः ) [ 883 यज्वभार्याश्वमेधाश्वलिङ्गालिङ्गिवराङ्गताम् / दृष्ट्वाचष्ट स कर्तारं श्रुतेर्भण्डमपण्डितः / / 204 / / अथ भीमजया जुष्टं व्यलोकत कलिनलम् / / दुष्टग्भिर्दु रालोकं प्रभयेव प्रभाप्रभुम् .. // 205 / / 5 तयोः सौहार्दसान्द्रत्वं पश्यन् शल्यमिवानशे / मर्मच्छेदमिवानछे स तन्नर्मोमिििमथः / / 206 / / अमर्षादात्मनो दोषात्तयोस्तेजस्वितागुणात् / स्प्रष्टुं दृशाप्यनीशस्तौ तस्मादप्य चलत्कलिः // 207 / / अगच्छदाश्रयान्वेषी नलद्वेषी स निःश्वसन् / 10 अभिरामं गहारामं तस्य रामसमश्रियः / // 208 / / . रक्षिलक्षवृतत्वेन बाधनं न तपोधनः / मेने मानो मनाक्तत्र स्वानुकूलं कलि: किल / / 206 / / दलपुष्पफलैर्देवद्विजपूजाभिसंधिना / स नलेनाजितान्प्राप तत्र ‘नाक्रमितुं दुमान् // 210 / / 15 अथ सर्वोद्भिदासत्तिपूरणाय स रोपितम् / विभीतकं ददर्शकं कुटं धर्मेऽप्यकर्मठम् / / 211 / / स तं नैषधसौधस्य.. निकटं निष्कुटध्वजम् / बहु मेने निज : तस्मिन्कलिरालम्बन वने // 212 / / निष्पदस्य कलेस्तत्र स्थानदानाद्विभीतकम् / कलिद्रमः परं नासोदासीत्कल्पद्रुमोऽपि सः // 213 // ददौ पदेन धर्मस्य स्थातुमेकेन यत्कलिः / एक: सोऽपि तदा तस्य पदं मन्येऽमिलत्ततः // 214 / / उद्भिद्विरचितावासः कपोतादिव तत्र सः / राज्ञः साग्नेद्विजादस्मात्संत्रासं प्राप दीक्षितात् // 215 / / 25 बिभीतकमधिष्ठाय तथाभूतेन. तिष्ठता / तेन भीमभुवोऽभीकः स राजर्षिरघर्षि न. // 216 / / Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 884 ] [ काव्यषटकं 10 तमालम्बनमासाद्य वैदर्भीनिषधेशयोः / / कलुषं कलिरन्विष्यन्नवात्सीद्वत्सरान्बहून् // 217 / / यथासीत्कानने तत्र विनिद्रकलिका लता / तथा नलच्छलासक्तिविनिद्रकलिकालता // 218 / / 5 दोषं नलस्य जिज्ञासुर्बभ्राम द्वापर: क्षितौ / प्रदोषः कोऽपि लोकस्य मुखेऽस्तीति दुराशया // 216 / / अमुष्मिन्नारामे सततनिपतद्दोहदतया प्रसूनरुन्निद्रेरनिशममृतांशुप्रतिभटे / असौ बद्धालम्बः कलिरजनि कादम्बविहग च्छदछायाभ्यङ्गोचितरुचितया लाञ्छन मृगः / / 220 / / स्फारे ताशि वैरसेनिनगरे पुण्यैः प्रजानां घनं विघ्नं लब्धवतश्विरादुपनतिस्तस्मिन्किलाभूत्कलेः / एतस्मिन्पुनरन्तरेऽन्तरमितानन्दः स भैमीनला वारा व्यधित स्मरः श्रुतिशिखावन्दारुचूड धनुः / / 221 / / 15 श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं / श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यात: सप्तदशः स्वसुः सुसहशि छिन्दप्रशस्तेमहाकाव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः // 222 / / // इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे सप्तदशः सर्गः समाप्तः / / 17 / / // 18 // अष्टादशः सर्गः॥ सोऽयमित्थमय भीमनन्दिनी दारसारमधिगम्य नैषधः / तां तृतीयपुरुषार्थवारिधेः पारलम्भनतरीमरीरमत् / / 1 / / अात्मवित्सह तया दिवानिशं भोगभागपि न पापमाप सः / 25 पाहता हि विषयकतानता ज्ञानधौतमनसं न लिम्पति / / 2 / / Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टदशः सर्गः ] / 885 न्यस्य मन्त्रिषु स राज्यमादरादारराध मदनं प्रियासखः / नेकवर्णमणिकोटि कुट्टिमे हेमभूमिभृति सोधभूधरे / / 3 / / वीरसेन सुतकण्ठभूषणीभूतदिव्यमणिपङ्क्तिशक्तिभिः / कामनोपनमदर्थतागुणाद्यस्तृणीकृतसुपर्वपर्वतः // 4 / / धूपितं यदुदरान्तरं चिरं मेचकैरगरुसारदारुभिः / जाल जालघृतचन्द्रचन्दनक्षोदमेदुरसमोरशीतलम् // 5 / / क्वापि कामशरवृत्तवर्तयो यं महासुरभितैलदीपिकाः / तेनिरे वितिमिर स्मरस्फुरद्दोःप्रतापनिकराकुरश्रियः // 6 // कुङ्कुमणमदपङ्कलेपिताः क्षालिताश्च हिमवालुकाम्बुभिः / रेजुरध्वततशैलजस्रजो यस्य मुग्धमरिणकुट्टिमा भुवः / / 7 / / नैषधाङ्गपरिमर्दमेदुरामोदमार्दवमनोज्ञवर्णया / यद्भुवः क्वचन सूनशय्ययाभाजि भालतिलकप्रगल्भता / / 8 / / क्वापि यन्निकटनिष्कुटस्फुटत्कोरकप्रकरसौरभोमिभिः / सान्द्रमाद्रियत भीमनन्दनानासिकापुटकुटोकुटुम्बिता / / 6 / / 15 ऋद्धसबैऋतुवृक्षवाटिकाकी रकृत्तसहकारशीकरैः। यज्जुषः स्म कुलमुख्यमाशुगः प्राणवातमुपदाभिरञ्चति / / 10 / कुत्रचित्कनकनिमिताखिलः क्वापि यो विमलरत्नजः किल / . कुत्रचिद्रचितचित्रशालिकः / 20 . क्वापि चास्थिरविधन्द्रजालिकः // 11 / / चित्रतत्तदनुकार्यविभ्रमा - धाय्य मेकविधरूपरूपकम् / वीक्ष्य यं बहु धुवन् शिरो जरा वातकी विधिरकल्पि शिल्पिराट् / / 12 / / 25 भित्तिगर्भगृहगोपितर्जन यः कृताभुतकथादिकौतुकः / Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 886 ] [ काव्यषट्कं लालमा - सूत्रयन्त्रजविशिष्टचेष्टया श्चर्यसजि बहशालभजिकः / / 13 / / / : तामसीष्वपि तमीष मित्तिगै रत्नरश्मिभिरमन्दचन्द्रिकः / 5 यस्तपेऽपि जलयात्रपातुका- . .: सारदूरधुततापतन्द्रिक: // 14 // . यत्र पुष्पशरशास्त्रकारिकासारिकाध्युषितनागदन्तिका। भीमजानिषधसार्वभौमयोः प्रत्यवेक्षत रते कृताकृते / / 15 / / यत्र मत्तकलविङ्कशोलिता- , श्लीलकेलिपुनरुक्तवत्तयोः / क्बापि दृष्टिभिरवापि वापिको तंसहसमिथुनस्मरोत्सव: यत्र वैणरववैणवस्वरैः , - हुंकृतरुपवनीपिकालिनाम् / कङ्कणालिकलहैश्च नृत्यतां ___कुंब्जितं सुरतकूजितं तयोः // 17 // सीत्कृतान्यशृणुतां विशङ्कयो यत्प्रतिष्ठितरतिस्मरार्चयोः / जालकैरपवरान्तरेऽपि तो - त्याजितः कपट कुड्यतां निशि // 18 / / कृष्णसारमृगशृङ्गभङ्गुरा स्वादुरुज्ज्वलरसैकसारिणी / नानिशं त्रटति यन्मुखे पुरा . . किन्नरी विकटगीतिझंकृतिः // 16 / / 25 भित्तिचित्रलिखिताखिलक्रमा यत्र तस्थुरितिहाससंकथाः। . पद्मनन्दनसुतारिरंसुतामन्दसाहसहसन्मनोभुवः. // 20 / / Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टदशः सर्गः ] [887 पुष्पकाण्डजयडिण्डिमायितं यत्र गौतमकलत्रकामिनः / पारदारिकविलाससाहसं देवभर्तुरुदति भित्तिषु / / 21 / / उच्चलत्कलरवालिकैतवा द्वैजयन्तविजयाजिता जगत् / यस्य कीतिरवदायति स्म सा .. कार्तिकीतिथिनिशीथिनीस्वसा // 22 / / गौरभानुगुरुगेहिनीस्मरो सभावमितिवृत्तमाश्रिताः / रेजिरे यदजिरेऽभिनीतिभि नाटिका भरतभारतीसुधा // 23 // शंभुदारुवतसंभुनिक्रियामाधरव्रजवधूविलासयोः / गुम्फितरुशनसा सुभाषितर्यस्य हाटकविटङ्कमङ्कितम् // 24 / / * अह्नि भानुभुवि दाशदारिकां ___ यच्चरः परिचरन्तमुज्जगी / कालदेशविषयासहात्स्मरा दुत्सुकं . शुकपितामहं शुकः // 25 / / नीतमेव करलभ्यपारता .. मप्रतीर्य मुनयस्तपोर्णवम् / अप्सरःकुचघटावलम्बनात् ... स्थायिनः क्वचन यत्र चित्रगाः // 26 / / स्वामिना च वहता च तं मया : स स्मरः सुरतवर्जनाज्जितः / योऽयमीदगिति नृत्यते स्म यत् . केकिना मुरजनिस्वनर्घनैः // 27 // 25 यत्र वीक्ष्य नलभीमसंभवे मुह्यतो रतिरतीशयोरपि। . स्पर्धयेव जयतोर्जयाय ते कामकामरमरणीबभूवतुः / / 28 / / Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 ] [ काव्यषट्कं तत्र सौधसुरभूधरे ययो राबिरासुरथ कामकेलय: / ये महाकविभिरप्यवीक्षिताः पांसुलाभिरपि ये न शिक्षिताः // 26 / / पौरुषं दधति योषिता नले स्वामिनि श्रिततदोयभावया / यूनि शैशवमतीर्णया कियत् प्रापिभीमसूतया. न साध्वसम् / / 30 / / दूत्यसंगतिगतं यदात्मनः प्रागशिश्रवदियं प्रियं गिरः / तं विचिन्त्य विनयव्ययं ह्रिया न स्म वेद करवाणि कोदृशम् / / 31 / / यत्तया सदसि नैषधः स्वयं प्राग्वतः सपदि वीतलज्जया / तन्निजं मनसिकृत्य चापलं सा शशाक न विलोकितुं नलम् / / 32 / / पासने मणिमरीचिमांसले यां दिशं स परिरभ्य तस्थिवान् / तामसूयितवतीव मानिनी न व्यलोकयदियं मनागपि // 33 // हीसरिन्निजनिमज्जनोचित मौलिदूरनमनं दघानया / . द्वारि चित्रयुवतिश्रिया तया भर्तृहूतिशतमश्रुतीकृतम् // 34 / / वेश्म पत्युरविशन्न साध्वसा द्वेशितापि शयनं न साऽभजत् / ||34|| 25 Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [886 ||37 / / भाजितापि सवि न सास्वपत् - स्वापितापि न च संमुखाभवत् // 35 / / केवलं न खलु भीमनन्दिनी दूरमत्रपत नैषधं प्रति / भीमजाहदि जितः स्त्रिया हिया . मन्मथोऽपि नियतं स लज्जितः / / 36 / / प्रात्मनापि हरदारसुन्दरी / ___ यत्किमप्यभिललाष चेष्टितुम् / स्वामिना यदि तदर्थमथिता ___ मुद्रितस्तदनया तदुद्यमः हीभराद्विमुख या तया भियं . . सञ्जितामननुरागशङ्किनि / .. स स्वचेतसि लुलोप संस्मर. न्दूत्यकालकबित तदाशयम् .. // 38 / / पार्श्वमागमि निजं सहालिभि- . स्तेन पूर्वप्रथ सा तयकया / .. क्वापि तामपि नियुज्य मायिना .. स्वात्ममात्रसचिवावशेषिता // 39 / / संनिधावपि निजे निवेशिता मालिभिः कुसुमशस्त्रशास्त्रवित् / प्रानयव्यवधिमानिव प्रिया मङ्कपालिवल येन संनिधिम् // 40 // प्रागचुम्बदलिके. ह्रियानतां. .. तां क्रमाद्दरनंतां कपोलयोः / 25 तेन विश्वसितमानसां झटि ...... त्यानने स परिचुम्ब्य सिध्मिये / / 41 / / Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 860 ] [ काव्यषट्कं | // 42 // लज्जया प्रथम मेत्य हुंकृतः साध्वसेन बलिनाथ तजितः / किंचिदुच्छ्वसित एव तद्धृदि न्यग्वभूव पुनरर्भकः स्मरः वल्लभस्य भुजयोः स्मरोत्सवे दित्सतोः प्रसभमङ्कपालिकाम् / एककश्चिरमरोधि बालया तल्पयन्त्रणनिरन्तरालया // 43 / / हारचारिमविलोकने मृषाकौतुकं किमपि नाटयन्नयम् / 10 कण्ठमूलमदसीयमस्पृशत्पाणिनोपकुचघाविना धवः / / 44 / / यत्त्वयास्मि सदसि खजाञ्चितस्तन्मयापि भवदहणार्हति / इत्युदोर्य निजहारमर्पयन्नस्पृशत्स तदुरोजकोरको / / 45 / / नीविसीम्नि निहितं स निद्रया सुभ्रवो निशि निषिद्धसंविदः / कम्पितं शयमपास यन्नयं दोलनैर्जनितबोधयाऽनया / / 46 / / 15 स प्रियोरुयुगकञ्चुकांशुके न्यस्य दृष्टिमथ सिष्मिये नृपः / प्राववार तदथाम्बराञ्चलैः सा निरावृतिरिव पावता।।४७।। बुद्धिमान्व्य धित तां क्रमादयं किंचिदित्थमपनीतसाध्वसाम् / किंच तन्मनसि चित्तजन्मना ह्रोरनामि धनुषा समं मनाक् / / 48 // सिमिये हसति न स्म तेन सा प्रीणितापि परिहासभाषणैः / स्वे हि दर्शयति ते परेण का नर्घ्यदन्तकुरुविन्दमालिके // 49 / / 25 वीक्ष्य भोमतनयास्तनद्वयं __ मग्नहारमणिमुद्रयाङ्कितम् / Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [861 सोढकान्तपरिरम्भगाढता सान्वमायि सुमुखी सखीजनैः // 10 // याचते स्म परिघापिका सखी: - सा स्वनीविनिबिडक्रियां यदा / . अन्वमिन्वत तदा विहस्य ता वृत्तमत्र पतिपाणिचापलम् // 51 / / कुर्वती निचुलितं ह्रिया कियत्. सौहृदाद्विवृतसौरभं कियत् / कुड्मलोन्मिषितसूनसेविनीं / पद्मिनी जयति सा स्म पद्मिनी // 52 / / नाविलोक्य नलमासितुं स्मरो ह्रीर्न वीक्षितुमदत्त सुभ्रवः / तदृशः पतिदिशाचलन्नथ वीडिताः समकुचन्मुहुः पथः // 53 // 15 नानया पतिरनायि नेत्रयोर्लक्ष्यतामपि परोक्षतामपि / वीक्ष्यते स खलु यद्विलोकने तत्र तत्र नयने ददानया / / 54 / / वासरे विरहनिःसहा निशां . . कान्तसंङ्गसमयं समेहत / - सा ह्रिया निशि पुनदिनोदयं. वाञ्छति स्म पतिकेलिलज्जिता // 15 // तत्करोमि परमभ्युपैषि यन्मा ह्रियं व्रज भियं परित्यज / प्रालिवर्ग इव तेऽहमित्यमं शश्वदाश्वसनमूचिवान्नलः / / 56 / / येन तन्मदनवह्निना स्थितं ह्रीमहौषधिनिरुद्धशक्तिना। सिद्धिमद्भिरुदतेजि तैः पुनः स प्रियप्रियवचोभिमन्त्रणैः / 57 / यद्विधूय दयितापितं करं दोर्द्वयेन पिदधे कुची दृढम् / Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 862 ] [ काव्यषटकं पार्श्वगं प्रियमपास्य सा हिया .. तं हृदिस्थितमिवालिलिङ्ग तत् / / 58 / / अन्यदस्मि भवतीं न याचिता वारमेकमधरं धयामि ते / इत्यसिस्वददुपांशुकाकुवाक्सोपमर्दहठवृत्तिरेव तम् / / 56 / / 5 पोततावकमुखासवोऽधुना भृत्य एष निजकृत्यमर्हति / तत्करोमि भवदूरुमित्यसौ तत्र संन्यधित पाणिपल्लवम् / 60 / चुम्बनादिषु बभूव नाम किं तद्वृथा भियमिहापि मा कृथाः / इत्युदोर्य रसनावलिव्ययं निर्ममे मृगद्दशोऽयमादिमम् / / 61 / / अस्तिवाम्यभरमस्तिकौतुकं __सास्तिधर्मजलमस्तिवेपथु / अस्तिभीति रलमस्तिवाञ्छितं प्रापदस्तिसुखमस्तिपीडनम् // 62 / / ह्रीस्तवेयमुचितैव यन्नवस्तावके मनसि मत्समागमः / तत्तु निस्त्रपमजस्रसंगमाद्वीडमावहति मामकं मनः // 63 / / इत्युपालभत संभुजिक्रिया . रम्भविघ्नघनलज्जितैजिताम् / तां तथा स चतुरोऽथ सा यथा त्रप्तुमेव तमनु त्रपामयात् / / 64 // बाहुवक्रजघनस्तनाघ्रितद्व धगन्धरतसंगतानतीः / इच्छ्रुत्सुकजने दिनेऽस्मि ते वीक्षितेति समकेति तेन सा // 65 / / प्रातरात्मशयनाद्विनिर्यतीं संनिरुध्य यदसाध्यमन्यदा / 25 तन्मुखार्पणमुखं सुखं भुवो . . जम्भजित्क्षितिशचीमचीकरत् // 66 / / 15 Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [863 नायकस्य शयनादहम खे निर्गता मुदमुदीक्ष्य सुध्रुवाम् / प्रात्मना निजनवस्मरोत्सव स्मारिणीयमहणीयत स्वयम् // 67 // तां मिथोऽभिदधतीं सखीं प्रिय स्यात्मनश्च स निशाविचेष्टितम् / पार्श्वगः सुरवरात्पिधां दधद् / . दृश्यतां श्रुतकथो हसन्गतः // 68 / / चक्रदारविरहेक्षणक्षणे बिभ्यती धवहसाय साभवत् / 10 क्वापि वस्तुनि वदत्यनागतं चित्तमुद्यदनिमित्तवैकृतम् // 66 / / चुम्बितं न मुखमाचकर्ष यत् / पत्युरन्तरमृतं ववर्ष तत् / सा नुनोद न भुज. तदपितं . तेन तस्य किमभून्न तर्पितम् // 70 / / 15 नीतयोः स्तनपिधानतां तया दातुमाप भुजयोः करं परम् / . बीतबाहुनि ततो हृदंशुके केवलेऽप्यथ स तत्कुचद्वये / / 71 / / याचनान्न ददती नखक्षतं तां विधाय कथयाऽन्यचेतसम् / वक्षसि न्यसितुमात्ततत्करः स्वं विभिद्य मुमुदे स तन्नखैः / / 72 / / स प्रसह्य हृदयापवारकं हर्तुमक्षमृत सुभ्रुवो बहिः / ह्रीमयं तु न तदीयमान्तरं तद्विनेतुमभवत्प्रभुः प्रभुः / / 73 / / सा स्मरेण बलिनाऽप्यहापिता ह्रीक्षमे भृशमशोभताबला / भाति चापि वसनं विना नतु व्रीडधैर्यपरिवर्जनैर्जनः / / 74 / / पात्थ नेति रतयाचिनं न यन्मामतोऽनुमतवत्यसि स्फुटम् / इत्यमुं तदभिलापनोत्सुकं धूनितेन शिरसा निरास सा // 75 / / 25 या शिरोविधुतिराह नेति ते - सा मया न किमियं समाकलि / Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 864 ] [ काव्यषट्क तनिषेधसमसंख्यता विधि व्यक्तमेव तव वक्ति. वाञ्छितम् / / 76 / / नात्थ नात्थ शृणवानि ते न कि तेन वाचमिति तो निगद्य सः / सा स्म दूत्यगतमाह तं यथा __तज्जगाद मृदुभिस्तदुक्तिभिः / / 77 / / नीविसोम्नि निबिडं पुराऽरुणत् पाणिनाऽथ शिथिलेन तत्करम् / सा क्रमेण न-न-नेतिवादिनी विघ्नमाचरदमुष्य केवलम् // 78 / / रूपवेषवसनाङ्गवासनाभूषणादिषु पृथग्विदग्धताम् / सान्यदिव्ययुवतिभ्रमक्षमां नित्यमेत्य तमगान्नवा नवा / / 7 / / इङ्गितेन निजरागनीरघि संविभाव्य चटुभिर्गुणज्ञताम् / 15 भक्ततां च परिचर्ययानिशं ... साधिकाधिकवशं व्यघत्त तम् / / 80 / / स्वाङ्गमर्पयितुमेत्य बामतां रोषितं प्रियमथानुनीय सा। प्रातदीयहठसंभक्षुतां नान्वमन्यत पुनस्तमर्थिनम् / / 81 / / आद्यसंगमसमादराण्यघाद्वल्लभाय ददती कथंचन / 20 अङ्गकानि घनमानवामताव्रीडलम्भितदुरापतानि सा / / 2 / / पत्युरागिरिशमातरु क्रमात् स्वस्य चागिरिजमालतं वपुः / तस्य चाहमखिलं पतिव्रता क्रीडति स्म तपसा विधाय सा / / 3 / / 25 न स्थली न जलधिर्न काननं . . . नाद्रिभून विषयो न विष्टपम् / Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [895 क्रीडिता न सह यत्र तेन सा * सा विधैव न यया यया न वा // 4 / / नम्रयांशुकविकर्षिणि प्रिये वक्त्रवातहतदीप्तदीपया / भर्तृमौलिमणिदीपितास्तया विस्मयेन ककुभो निभालिताः // 85 / / कान्तमूनि दधती पिधित्सया तन्मणेः श्रवणपूरमुत्पलम् / रन्तुमर्चनमिवाचरत्पुरः सा स्ववल्लभतनोर्मनोभुवः / / 86 / / तं पिघाय मुदिताथ पार्श्वयोर्वीक्ष्य दीपमुभयत्र सा स्वयोः / 10 चित्तमाप कुतुकाद्भुतत्रपातङ्कसंकटनिवेशितस्मरम् / / 87 / / _ एककस्य शमने परं पुन- . ____ र्जाग्रतं शमितमप्यवेक्ष्य तम् / जातह्निवरसंस्मृतिः शिरः / सा विधय निमिमील केवलम् // 88 / / 15 . पश्य भीरु ! न मयापि दृश्यसे . यनिमीलितवती दृशावसि / इत्यनेन परिहस्य सा तमः / संविधाय समभोजि लज्जिता // 89 / / चुम्ब्यसेऽयमयमय से नखैः 20 .. श्लिष्यसेऽयमयमlसे हृदि / नो पुनर्न करवाणि ते गिरं हुं त्यज त्यज इवास्मि किंकरा // 60 / / इत्यलीकरतकातरा प्रियं ....... विप्रलभ्य सुरते ह्रियं च सा / 25. चुम्बनादि विततार मायिनी . ... किं विदग्धमनसामगोचरः // 61 / / युग्मम् Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 866 [ काव्यषट्क स्वेप्सितोद्गमितमात्रलुप्तया दीपिकाचपलया तमोधने / निर्विशङ्करतजन्मतन्मुखाकूतदनसुर्शखान्यभुङ्क्त सः / / 92 / / यद्धृवौ कुटिलिते तया रते मन्मथेन तदनामि कामकम् / 5 यत्तु हुँहुमिति सा तदा व्यधात् तत्स्म रम्य शरमुक्तिहुंकृतम् // 53 / / ईक्षितीपदिशतीव नसितुं तत्क्षणोदित मुदं मनोभुवम् / कान्तदन्तपरिपीडिताघरा पाणिधननमियं वितन्वती / / 64 / / सा शशाक परिरम्भदायिनी गाहितुं वृहदुरः प्रियस्य न / 10 चक्षमे च स न भङ्गुरभ्रवस्तुङ्गपोनकुचदूरतां गतम् / / 9 / / बाहुवल्लिपरिरम्भमण्डली या परस्परमपीड्यत्तयोः / प्रास्त हेमनलिनीमृणालजः पाश एव हृदयेशयस्य सः / / 66 / / वल्लभेन परिरम्भपीडितौ प्रेयसीहृदि कुचाववापतुः / केलतोमदनयोरुपाश्रये तत्र वृत्तमिलितोपधानताम् / / 67 / / 15 मीमजोरुयुगलं नलापितः पाणिजस्य मृदुभिः पदैर्बभौ / तत्प्रशस्ति रतिकामयोर्जयस्तम्भयुग्ममिव शातकुम्भ जम् / 98 / बह्वमानि विधिनापि तावकं नाभिमूरुयुगमन्त राङ्गकम् / स व्यधादधिकवणकैरिदं काञ्चनैर्यदिति तां पुराह स: / 66 / पीडनाय मृदुनी विगाह्य तौ कान्तपाणिनलिने स्पृहावती / 20 तत्कुचौ कलशपीननिष्ठुरौ हारहासविहते वितेनतुः / / 10 / / यो कुरङ्गमदकुङ्कुमाञ्चितौ ___ नीललोहितरुचौ बधूकुचौ / / स प्रियोरसि तयोः स्वयंभूवो राचचार नखकिंशुकार्चनम् // 101 / / 25 अम्बधेः कियदनुत्थितं विधं स्वानबिम्बमिलितं व्यडम्बयत / Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 867 पूगभागबहुताकषायितैर्वासितैरुदयभास्करेण तो। चऋतुनिधुवनेऽधरामृतस्तत्र साधु मधुपानविभ्रमम् // 103 / / प्राह नाथवदनस्य चुम्बतः सा स्म शीतकरतामनक्षरम् / सीत्कृतानि सुदती वितन्वती सत्त्वदत्तपृथुवेपथुस्तदा / / 104 / / चुम्बनाय कलितप्रियाकुचं वीरसेनसुतवक्त्रमण्डलम् / प्राप भर्तु ममृतैः सुधांशुना सक्तहाटकघटेन मित्रताम् // 105 / / वीक्ष्य वीक्ष्य पुनरैक्षि सा मुदा पर्यरम्भि परिरभ्य चासकृत् / चुम्बिता पुनरचुम्बि चादरा - तृप्तिरापि न कथंचनापि च // 106 / / छिन्नमप्यतनु हारमण्डलं मुग्धया सुरतलास्यकेलिभिः / न व्यकि सुशा चिरादपि स्वेदबिन्दुकितवक्षसा हृदि // 107 / / यत्तदीयहृदि हारमोक्तिक- / / . रासि तत्र गुण एन कारणम् / अन्यथा कथममुत्र वतितुं .. .तेरशाकि न तदा गुणच्युतैः // 108 / / एकवृत्तिरपि मौक्तिकावलि.. श्छिन्नहारविततौ तदा तयोः / / / छाययाऽन्यहृदये विभूषणं श्रान्तिवारिभरभावितेऽभवत् // 106 / / वामपादतललुप्तमन्मथ श्रीमदेन मुखवीक्षिणानिशम् / Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 868 ] [ काव्यषट्कं भुज्यमाननवयौवनामुना पारसीमनि चचार सा मुदाम् / / 110 / / पान्तरानपि तदङ्गसंगमैस्तपितानवयवानमन्यत / नेत्रयोरमृतसारपारणां तद्विलोकनमचिन्तयन्नलः // 111 / / 5 भूषणैरतुषदाश्रितैः प्रियां प्रागथ व्यषददेष भावयन् / .. तैरभावि कियदङ्गदर्शने यत्पिधानमयविघ्नकारिभिः / 112 / योजनानि परिरम्भणेऽन्तरं रोमहर्षजमपि स्म बोधतः / तो निमेषमपि वीक्षणे मिथो वत्सरव्यवधिमध्यगच्छताम् // 113 / / वोक्ष्य भावमधिगन्तुमुत्सुकां पूर्वमच्छमणिकुट्टिमे मृदुम् / कोऽयमित्युदितसंभ्रमीकृतां स्वानुबिम्बमददर्शतैष ताम् // 114 / / तत्क्षणावहितभावभावित- ... द्वादशात्मसितदोधितिस्थितिः / स्वां प्रियामभिमतक्षणोदयां भावलाभलघुतां नुनोद सः / / 11 / / स्वेन भावजनने स तु प्रियां बाहुमूलकुचनाभिचुम्बनैः / 20 निर्ममे रतरहःसमापनाशर्मसारसमसंविभागिनीम् / / 116 / / विश्लथैरवयवैनिमीलया लोमभितमितैविनिद्रताम् / सूचितं श्वसितसीत्कृतैश्च तो भावमक्रमकमध्यगच्छताम् // 117 / / प्रास्त भावमधिगच्छतोस्तयोः . संमदेषु करजक्षतार्पणा / Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 866 फाणितेषु मरिचावचूर्णना सा स्फुट कटरपि स्पृहावहा // 118 / / अर्धमीलितविलोलतारके सा दृशौ निधुवनक्लमालसा / यन्मुहूर्तमवहन्न तत्पुनस्तृप्तिरास्त दयितस्य पश्यतः / / 116 / / तत्क्लमस्तमदिदीक्षत क्षणं तालवृन्तचलनाय नायकम् / तद्विधा हि भवदैवतं प्रिया वेधसोऽपि विदधाति चापलम् // 120 / / स्वेदबिन्दुकितनासिकाशिखं तन्मुखं सुखयति स्म नैषधम् / 10 प्रोषिताधरशयालुयावकं सामिलुप्तपुलकं कपोलयोः / / 121 / / ह्रीणमेव पृथु सस्मरं कियत्क्लान्तमेव बहु निर्वृतं मनाक् / कान्तचेतसि तदीयमाननं तत्तदालभत लक्षमादरात् / / 122 / / स्वेदवारिपरिपूरितं प्रियारोमकूपनिवहं यथा यथा / नैषधस्य हगपात्तथा तथा चित्रमापदपतृष्णतां न सा // 123 / / - वोतमाल्यकचहस्तसंयम व्यस्तहस्तयुगया स्फुटीकृतम् / बाहुमूलमनया तंदुज्ज्वलं / . वीक्ष्य सौख्यजलधौ, ममज्ज सः // 124 / / वीक्ष्य पत्युरधरं कृशोदरी ... बन्धुजीवमिव भृङ्गसंगतम् / मञ्जुलं मयनकज्जलैनिजैः संवरीतुमशकस्मित न सा // 12 // तां विलोक्य विमुखश्रितस्मितां पृच्छतो हसितहेतुमीशितुः / ह्रीमती व्यतरदुत्तरं वधः पाणिपङ्करुहि दर्पणार्पणाम् / 126 / 25 लाक्षयात्मचरणस्य चुम्बना चारुभालमवलोक्य तन्मुखम् / / Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 ] ( काव्यषट्कं सा ह्रिया नतनताननाऽस्मर च्छेषरागमुदितं पति निश: // 127 / / स्वेदभाजि हृदयेऽनुबिम्बितं वीक्ष्य मूर्तमिव हृद्गतं प्रियम् / निर्ममे धुतरतश्रमं निजींनतातिमृदुनासिकानिलैः / / 128 / / सुननायकनिदेशविभ्रम रप्रतीतचरवेदनोदयम् / दन्तदंशमघरेऽधिगामुका सास्पृशन्मृदु चमच्चकार च // 126 / / वीक्ष्य वीक्ष्य करजस्य विभ्रमं प्रेयसाजितमुरोजयोरियम् / कान्तमैक्षत हसस्पृशं कियत् कोप कुञ्चितविलोचनाञ्चला // 130 / / रोषरूषितमुखीमिव प्रियां वीक्ष्य भीतिदरकम्पिताक्षराम् / तां जगाद स न वेद्मि तन्वि ! ___तं कश्चकार तव कोपरोपणाम् / / 131 / / रोपकुङ्कुमविलेपनान्मनाङ्नन्ववाचि कृशतन्ववाचि ते / भूदयुक्तसमयैव रञ्जना मानने विधुविधेयमानने / / 132 / / क्षिप्रमस्य तु रुजा नखादिजास्तावकीरमृतसीकरं किरत् / एतदर्थमिदमथितं मया कण्ठचुम्बि मगिदाम कामदम् / 133 / स्वापराधमलुपत्पयोधरे मत्करः सुरधनुष्करस्तव / सेवया व्यजनचालनाभुवा भूय एव चरणौ करोतु वा / 134 / आननस्य मम चेदनौचिती निर्दयं दशनदंशदायिनः / 25 शोध्यते सुदति ! वैरमस्य तत् कि त्वया वद विदश्य नाघरम् / / 135 / / Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टादशः सर्गः ] [ 601 5 दीपलोपमफलं व्यधत्त यस्त्वत्पटाहृतिषु मच्छिखामणिः / नो तदागसि परं समर्थना सोऽयमस्तु पदपातुकस्तव / / 136 / / इत्थमुक्तिमुपहृत्य कोमलां तल्पचुम्बिचिकुरश्चकार सः / आत्ममौलिमणिकान्तिभङ्गिनी तत्पदारुणसरोजसङ्गिनीम् // 137 // तत्पदाखिलनखानुबिम्बनैः स्वैः समेत्य समतामियाय सः / रुद्रभूमविजिगीषया रतिस्वामिनोपदशमूर्तिताभृता / / 138 / / आख्यतैष कुरु कोपलोपनं पश्य नश्यति कृशा मघोनिशा / 10 एतमेव तु निशान्तरे वरं रोषशेषमनुरोत्स्यसि क्षणम् / 136 / साथ नाथमनयत्कृतार्थतां पाणिगोपितनिजाज्रिपङ्कजा / तत्प्रणामधुतमानमाननं स्मेरमेव सुदती वितन्वती / / 140 / / तो मिथो रतिरसायनात्पुनः संबुभुक्षुमनसो बभूवतुः / चक्षमे नतु तयोर्मनोरथं दुर्जनी रजनिरल्पजीवना // 141 / / 15 स्वप्तुमाप्तशयनीययोस्तयोः स्वरमाख्यत वचः प्रियां प्रियः / उत्सवेरघरदानपान H सान्तरायपदमन्तरान्तरा // 142 / / देवदूत्यमुपगम्य 'निर्दयं __ धर्मभीतिकृततादृशाग़सः / .. अस्तु सेयमपराधमार्जना जीवितावधि नलस्य वश्यता // 143 / / स क्षणः सुमुखि ! यत्त्वदीक्षणं तच्च राज्यमुरु येन रज्यसि / तन्नलस्य सुधयाभिषेचनं यत्त्वदङ्गपरिरम्भविभ्रमः / / 144 / / शर्म किं हृदि हरेः प्रियार्पणं किं शिवार्धघटनं शिवस्य वा / 25 कामये तव महेषु तन्वि ! तं नन्वयं सरिदुदन्वदन्वयम् // 145|| Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 ] [ काव्यषटकं घीयतां मयि दृढा ममेति धीवक्तुमेवमवकाश एव कः / यद्विधूय तृणवद्दिवस्पति कोतवत्यसि दयापणेन माम् / 146 / शण्वता निभृतमालिभिर्भव द्वाग्विलासमसकृन्मया किल / मोघराघवविवय॑जानकी श्राविणी भय चलासि वीक्षिता / / 147 / / . छुप्तपत्रविनिमीलितात्क्षुपात् कच्छपस्य धतचापलात्पलात् / * त्वत्सखीसु सरटाच्छिरोधुतः स्वं भियोऽभिदधतीष वैभवम् / / 148 / / त्वं मदीयविरहान्मया निजां भीतिमीरितवती रहःश्रुता / नोज्झितास्मि भवतीं तदित्ययं व्याहरद्वरमसत्यकातरः / / 146 / / 15 संगमय्य विरहेऽस्मि जीविका यैव वामथ रताय तत्क्षणम् / हन्त दत्थ इति रुष्टयावयोनिद्रयाऽद्य किमु नोपसद्यते / 150 / ईदृशं निगदति प्रिये दृशं संमदात्कियदियं न्यमीलयत् / प्रातरालपति कोकिले कलं जागरादिव निश: कुमृद्वती // 151 / / मिश्रितोरु मिलिताधरं मिथः स्वप्नवीक्षितपरस्परक्रियम् / तौ ततोऽनु परिरम्भसंपुटे पीडनां विदधतौ निदद्रतुः / / 152 / / तद्यातायातरंहश्छलकलितरतश्रान्तिनि:श्वासधारा जस्रव्यामिश्रभावस्फुटकथितमिथःप्राणभेदव्युदासम् / 25 बालावक्षोजपत्राकुरकरिमकरीमुद्रितोर्वीन्द्रवक्ष श्चिह्नाख्यातेकभावोभयहृदयमयाद्वन्द्वमानन्दनिद्राम् / 153 / Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ) [603 श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातोऽस्मिशिवशक्तिसिद्धिभगिनीसौभ्रात्रभव्ये महाकाव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गोऽयमष्टादशः / / 154 / / // इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे ऽष्टादशः सर्गः समाप्तः / / 18 / / 5 // 19 // एकोनविंशः सर्गः // निशि दशमितामालिङ्गत्यां विबोधविधित्सुभि निषधवसुधामीनाङ्कस्य प्रियाङ्कमुपेयुषः / श्रुतिमधुपदस्रग्वेदग्धीविभावितभाविक स्फुट रसभृशाभ्यक्ता वैतालिकैर्जगिरे गिरः // 1 // जय जय महाराज ! प्राभातिकी सुषमामिमां सफलयतमां दानादक्ष्णोर्दरालसपक्ष्मणोः / प्रथमशकुनं शोत्थायं तवास्तु विदर्भजा प्रियजनमुखाम्भोजात्तुङ्गं यदङ्ग ! न मङ्गलम् / / 2 / / वरुणगृहिणीमाशामासादयन्तममुं रुची निचयसिचयांशांशभ्रंशक्रमेण निरंशुकम् / तुहिनमहसं पश्यन्तीव प्रसादमिषादसौ निजमुखमितः स्मेरं धत्ते हरेर्महिषी हरित् // 3 / / अमहतितरास्ताक्तारा न लोचनगोचरा. स्तरणिकिरणा द्यामञ्चन्ति क्रमादपरस्पराः / ' कथयति परिश्रान्ति रात्रीतमस्सहयुध्वना मयमपि दरिद्राणप्राणस्तमीदयित स्त्विषाम् / / 4 / / 20 Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 ] काव्यषट्कं स्फुरति तिमिरस्तोमः पङ्कप्रपञ्च इवोच्चकैः पुरुसितगरुच्चञ्चच्चञ्चूपुटस्फुटचुम्बितः / अपि मधुकरी कालिमन्या विराजति धमल च्छविरिव रवेक्षिालक्ष्मी करैरतिपातुकैः / / 5 / / रजनिवमथुप्रालयाम्भ:कणक्रमसंभृतैः / कुशकिसलयस्याच्छै रग्रेशयैरुदबिन्दुभिः / सुषिरकुशलेनाय:सूची शिखाकुरसंकरं किमपि गमितान्यन्तर्मुक्ताफलान्यवमेनिरे / / 6 / / ' रविरुचिऋचामोंकारेषु स्फुटामल बिन्दुतां 10 गमयितुममूरुच्चीयन्ते विहायसि तारका: / स्वरविरचनायासामुच्चैरुदात्ततया हृताः शिशिरिमहसो बिम्बादस्मादसंशयमंशवः / / 7 / / व्रजति कुमुदे. दृष्ट्वा मोहं दृशोरपिधायके भवति च नले दूरं तारापतौ च हतौजसि / लघु रघुपतेर्जायां मायामयोमिव रावणि स्तिमिरचिकुरग्राहं रात्रि हिनस्ति गभस्तिराट् / / 8 / / त्रिदशमिथुनक्रीडातल्पे विहायसि गाहते निधुवनधुतस्रग्भागश्रीभरं ग्रहसंग्रहः / मृदुतरकराकारैस्तूलोत्कररुदरंभरिः परिहरति नाखण्डो गण्डोपधानविधां विधुः / / 6 / / दशशतचतुर्वेदीशाखाविवर्तनमूर्तयः सविधमधुनाऽलंकुर्वन्ति ध्रुवं रविरश्मयः / वदनकुहरेष्वध्येतृणामयं तदुदञ्चति श्रुतिपदमयस्तेषामेव प्रतिध्वनिरध्वनि // 10 / / 25 नयति भगवानम्भोजस्यानिबन्धनबान्धवः किमपि मघवप्रासादस्य प्रघाणमुपघ्नताम् / Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ) [605 अपसरदरिध्वान्तप्रत्यग्वियत्पथमण्डली लगनफलदश्रान्तस्वर्णाचल भ्रमविभ्रमः // 11 // नभसि महसां ध्वान्तध्वाक्षप्रमापणपत्रिणा___ मिह विहरणैः श्यनंपातां रवेरवधारयन् / शशविशसन त्रासादाणामयाच्चरमां शशी तदधिगमनात्तारापारापतैरुदडीयत // 12 // भृशमबिभरुस्तारा हाराच्च्युता इव मौक्तिकाः सुरसुरतजक्रोडाचूनाइय सद्वियदङ्गणम् / बहुकरकृतात्प्रातःसंमार्जनादधुना पुन निरुपधिनिजावस्थालक्ष्मीविलक्षणमीक्ष्यते // 13 // प्रथममुपहत्यार्घ तारैरखण्डिततण्डुलै. स्तिमिरपरिषद पर्वावलीशबलीकृतैः / प्रथ रविरुचां ग्रासातिथ्यं नभः स्वविहारिभिः सृजति शिशिरक्षोदश्रेणीमयैरुदसक्तुभिः // 14 // 15 . असुरहितमप्यादित्योत्थां विपत्तिमुपागतं ___दितिसुतगुरुः प्राणर्योक्तुं न कि कचवत्तमः / पठति लुठती कण्ठे विद्यामयं मृतजीवनी .. यदि न वहते संध्यामोनवतव्ययभीरुताम् // 15 / / उदयशिखरिप्रस्थान्यह्रारणेऽत्र निशः क्षणे दधति विहरत्पूषाण्यूष्मद्रुताश्मजतुस्रवान् / उदयदरुणप्रह्वीभावादरादरुणानुजे मिलति किमु तत्सङ्गाच्छङ्कया नवेष्टकवेष्टना / / 16 / / रविरथहयानश्वस्यन्ति ध्रुवं वडवा बल प्रतिबलबलावस्थायिन्य: समीक्ष्य समीपगान् / 25 निजपरिवृद्धं गाढप्रेमा रथाङ्गविहंगमी स्मरशरपराधीनस्वान्ता वृषस्यति संप्रति / / 17 / / Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 ) [ काव्यषटकं निशि निरशनाः क्षीरस्यन्तः क्षुधाऽश्वकिशोरका मधुरमुधुरं हेषन्ते ते विलोलितवालधि / तुरगसमजः स्थानोत्थायं क्वणन्मणिमन्थभू घरभवशिलालेहायेहाचणो लवणस्यति / / 18 / / उडपरिषद: किं नाहत्वं निश: किमु नौचिती पतिरिह न यदृष्टस्ताभ्यां गणेयरुचीगणः / स्फुटमुडुपतेराश्मं वक्षः स्फुरन्मलिनाश्मन__ श्छवि यदनयोविच्छेदेऽपि द्रुतं बत न द्रुतम् / / 16 / / अरुणकिरणे वह्नौ लाजानुडूनि जुहोति या 10 __परिणयति तां संध्यामेतामवैमि मणिदिवः / इयमिव स एवाग्निभ्रान्ति करोति पुरा यतः __ करमपि न कस्तस्यैवोत्कः सकौतुकमोक्षितुम् / / 20 / / रतिरतिपतिद्वैतश्रीको धुरं' बिभृमस्तरां प्रियवचसि यन्नग्नाचार्या वदामतमां ततः / अपि विरचितो विद्मः पुण्यद्रुहः खलु नर्मणः परुषमरुषे नेकस्यै वामुदेति मुदेऽपि तत् / / 21 // भव लघुयुताकान्तः संध्यामुपास्स्व तपोमल ! त्वरयति कथं संध्येयं त्वां न नाम निशानुजा / द्युतिपतिरथावश्यकारी दिनोदयमासिता हरिपतिहरित्पूर्णभ्रूणायिता कियतः क्षणान् / / 22 / / मुषितमनसश्चित्रं भैमि ! त्वयाद्य कलागृहै निषधवसुधानाथस्यापि श्लथश्लथता विधौ / अजगणदयं सन्ध्यां वन्ध्यां विधाय न दूषणं __नमसितुमना यन्नाम स्यान्न संप्रति पूषणम् / / 23 / / 25 न विदुषितरा कापि त्वत्तस्ततो नियतक्रिया पतनदुरिते हेतुर्भतु मनस्विनि ! मा स्म भूः / 20 Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 607 अनिशभवदत्यागादेनं जनः खलु कामुको सुभगमभिधास्यत्युद्दामा पराङ्कवदावदः / / 24 / / रह सहचरीमेतां राजन्नपि स्त्रितमां क्षणं.. तरणिकिरणः स्तोकान्मुक्त: समालभते नभः / उदधिनिरयद्भास्वत्स्वर्णोदकुम्भदिक्षुतां दधति नलिनं प्रस्थायिन्य: श्रियः कुमुदान्मुदा / / 25 / / प्रथमककुभः पान्थत्वेन स्फुटेक्षितवृत्रहा ण्यनुपदमिह द्रक्ष्यन्ति त्वां महांसि महस्पतेः / पटिमवहनादूहापोहक्षमाणि वितन्वता___ महह युवयोस्तावल्लक्ष्मीविवेचनचातुरीम् // 26 / / अनति शिथिले पुंभावेन प्रगल्भबला: खलु .. प्रसभमलयः पाथोजास्ये निविश्य निरित्वराः / किमपि मुखतःकृत्वानीतं वितीर्य सरोजिनी मधुरसमुषोयोगे जायां नवान्नमचीकरन् // 27 / / 15 मिहिरकिरणाभोगं भोक्तुं प्रवृत्ततया पुर: ___ कलितचुलुकापोशानस्य ग्रहार्थमियं किमु / इति विकसितेनैकेन प्राग्दलेन सरोजिनी ___ जनयति मति साक्षात्कंतु जनस्य दिनोदये / / 28 / / तटतरुखगश्रेणीसांराविणैरिव सांप्रतं सरसि विगलनिद्रामुद्राजनिष्ट सरोजिनी / .. अधरसुधया मध्ये मध्ये वधूमुखलब्धया धयति मधुपः स्वादुंकारं मधूनि सरोरुहाम् / / 29 // . गतचरदिनस्यायुभ्रंशे दयोदयसंकुच कमलमुकुलकोडान्नीडप्रवेश मुपेयुषाम् / 25 इह मधुलिहां भिन्नेष्वम्भो रुहेषु समायतां सह सहचरैरालोक्यन्तेऽधुना मधुपारणाः / / 30 / / Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 ] [ काव्यषटकं तिमिरविरहात्पाण्डूयन्ते दिशः कृशतारकाः ' ' ___ कमलहसितैः श्येनीवोन्नीयते सरसी न का। शरणमिलितध्वान्तध्वंसिप्रभादरधारणाद् गगनशिखरं नोलत्येकं निजैरयशोभरैः / / 31 / / सरसिजवनान्युद्यत्पक्षार्यमाणि हसन्तु न क्षतरुचिसुहम्चन्द्रं तन्द्रामुपैतु न करवम् / हिमगिरिदृषदायादधि प्रतीतमद: स्मितं __ कुमुदविपिनस्याथो पाथोरुहैनिजनिद्रया // 32 / / धयतु नलिने माध्वीकं वा न वाभिनवागतः कुमुदमकरन्दोघेः कुक्षिभरिभ्रमरोत्करः / इह तु लिहते रात्रीतर्षं रथाङ्गविहंगमा मधु निजवधूवक्त्राम्भोजेऽधुनाघरनामकम् / / 33 / / जगति मिथुने चक्रावेव स्मरागमपारगी नवमिव मिथः संभुञाते वियुज्य वियुज्य यौ। 15 सततममृतादेवाहाराद्यदापदरोचकं तदमृतभुजां भर्ता शंभुविषं बुभुजे विभुः / / 34 / / विशति युवतित्यागे रात्रीमुचं मिहिकारुचं दिनमणिमणि तापे चित्तानिजाच्च यियासति / विरहतरलज्जिह्वा बह्वाह्वयन्त्यतिविह्वला___ मिह सहचरी नामग्राहं रथाङ्गविहगमा: / / 35 / / स्वमुकुलमयत्रैरन्ध्रभविष्णुतया जनः किमु कुमुदिनी दुर्व्याचष्टे स्वेरनवेक्षिकाम् / लिखितपठिता राज्ञो दाराः कविप्रतिभासु ये. शृणुत शृणुतासूर्यपश्या न सा किल भाविनी / / 36 / / 25 चुलुकिततमःसिन्धो गैः करादिवं शुभ्यते नभसि बिसिनीबन्धो रन्ध्रच्युतैरुदबिन्दुभिः / Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 606 10 शतदलमधुस्रोतःकच्छद्वयीपरिरम्भणा दनुपदमदःपङ्काशङ्काममी मम तन्वते // 37 / / घुमृणसुमनःश्रेणीश्रोणामनादरिभिः सरः परिसरचरैर्भासां भर्तु : कुमारतरैः करैः / अजनि जलजामोदानन्दोत्पतिष्णुमधुव्रता वलिशबलनाद्गुञ्जापुञ्जश्रियं गृहयांलुभिः / / 38 / / रचयति रुचिः शोणीमेतां कुमारितरा रवे यंदलिपटली नीलीकतु व्यवस्यति पातुका / प्रजनि सरसो कल्माषी तध्रुव धवलस्फुट कमल कलिकाषण्डैः पाण्डूकृतोदरमण्डला // 36 / / कमलकुशलाधाने भानोरहो पुरुषव्रतं यदुपकुरुते नेत्राणि श्रीगृहत्वविवक्षुभिः / कविभिरुपमानादप्यम्भोजतां गमितान्यसा वपि यदतथाभावाम्मुञ्चत्युलकविलोचने / / 40 / / यदतिमहती भक्तिर्भानौ तदेनमुदित्वरं - त्वरितमुपतिष्ठस्वाध्वन्य ! त्वमध्वरपद्धतेः / इह हि समये मन्द्रेहेषु व्रजन्त्युदवज्रता___ मभि रविमुपस्थानोत्क्षिप्ता जलाञ्जलयः किल / / 4 / / उदयशिखरिप्रस्थावस्थायिनी खनिरक्षया शिशुतरमहोमाणिक्यानामहर्मणिमण्डली। रजनिषद ध्वान्तश्यामां विधूय पिधायिकां न खलु कतमेनेयं जाने जनेन विमुद्रिता / / 42 / / सुरपरिवृढः कर्णात्प्रत्यग्रहीत्किल कुण्डल द्वयमथ खलु प्राच्य प्रादान्मुदा स हि तत्पतिः / 25 विधुरुदयभागेकं तत्र व्यलोकि विलोक्यते नवतरकरस्वर्णस्रावि द्वितीयमहर्मणिः // 43 / / Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 ] [ काव्यषट्कं दहनमविशद्दीप्तिर्यास्तं गते गतवासर.. .' प्रशमसमयप्राप्ते पत्यौ विवस्वति रागिणी / अघरभुवनात्सोद्धृत्यैषा हठात्तरणेः कृता मरपतिपुरप्राप्तिर्धत्ते सतीव्रतमूर्तिताम् // 44 / / बुधजनकथा तथ्यवेयं तनौ तनुजन्मनः पितृशितिहरिद्वर्णाद्याहारजः किल कालिमा। शमनयमुनाकोडैः कालैरितस्तमसां पिबा दपि यदमलच्छायात्कायादभूयत भास्वत: / / 45 / / अभजत चिराभ्यासं देवः प्रतिक्षणदात्यये दिनमयमयं कालं भूयः प्रसूय तथा रविः / न खलु शकिता शीलं कालप्रसूतिरसौ पुराः / यमयमुनयोर्जन्माधानेऽप्यनेन यथोज्झितुम् / / 46 / / रुचिरचरण: सूतोरुश्रीसनाथ रथ: शनि शमनमपि स त्रातुं लोकानसूत सुताविति / रथपदकृपासिन्धुर्बन्धुर्ट शामपि दुर्जने यदुपहसितो भास्वान्नास्मान् हसिष्यति कः खलः / 47 / शिशिरजरुजां धर्म शर्मोदयाय तनूभृता मथ खरकरश्यानास्यानां प्रयच्छति यः पयः / जलभयजुषां तापं तापस्पृशां हिममित्ययं परहितमिलत्कृत्यावृत्तिः स भानुरुदञ्चति / / 48 / / इह न कतमश्चित्रं धत्ते तमिस्रततोदिशा___ मपि चतसृणामुत्सङ्गेषु श्रिता धयतां क्षणात् / तरुशरणतामेत्य च्छायामयं निवसत्तमः / __ शमयितुमभूदानश्वयं यदर्यमरोचिषाम् // 46 / / 25 जगति तिमिरं मूर्छामब्जव्रजेऽपि चिकित्सतः पितुरिव निजाइस्रावस्मादधीत्य भिषज्यतः / 20 Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [ 611 अपि च शमनस्यासी तातस्ततः किमु नौचिती यदयमदयः कलाराणामुदेत्यपमृत्यवे / / 50 / / उडुपरिवृढः पत्या मुक्तामयं यदपीडय द्यदपि बिसिनीं भानोर्जायां जहास कुमुदती / तदुभयमतः शङ्क सङ्कोचितं निजशङ्कया . प्रसरति नवार्के कर्कन्धूफलारुणरोचिषि // 51 / / श्रुतिमयतनो नोर्जानेऽवनेरघराध्वना विरहणकृतः शाखाः साक्षाच्छतानि दश त्विषाम् / निशि निशि सहस्राभ्यां दृग्भिः शणोति सहस्वराः 10. पृथगहिपतिः पश्यत्यस्याक्रमेण च भास्वराः / / 52 / / बहुनखरता येषामग्रे खलु प्रतिभासते .. कमलसुहृदस्तेऽमी. भानोः प्रवालरुचः कराः / उचितमुचितं जालेष्वन्तःप्रवेशिभिरायतैः / कियदवयवैरेषामालिङ्गिताङ्गुलिलङ्गिमा // 53 / / नय नयनयोक्पेियत्वं प्रविष्टवतीरमू भवनवलभीजालान्नाला इवाकरागुलीः / भ्रमदगुगणकान्ता भान्ति भ्रमन्त्य इवाशु याः .. पुनरपि धृता कुन्दे किंवा न वर्धकिना दिवः // 54 / / दिनमिव दिवाकीर्तिस्तीक्ष्णः क्षरैः सवितुः करै स्तिमिरकबरीलूनां कृत्वा निशां निरदीधरत् / स्फुरति परितः केशस्तोमैस्ततः पतयालुभि धुवमधवलं तत्तच्छायच्छलादवनीतलम् // 55 / / ब्रमः शङ्ख तव नल ! यशः श्रेयसे सृष्टशब्द यत्सोदर्य स दिवि लिखितः स्पष्टमस्ति द्विजेन्द्रः / अद्धा श्रद्धाकरमिह करच्छेदमप्यस्य पश्य . म्लानिस्थानं तदपि नितरां हारिणो यः कलङ्कः // 56 // Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612] ( काव्यषट्कं ताराशङ्खविलोपकस्य जलजं तीक्ष्णत्विषो भिन्दत: ___सारम्भं चलता करेण निबिडां निष्पीडनां लम्भितः / छेदार्थोपहृताम्बुकम्बुजरजोजम्बालपाण्डूभव च्छङ्खच्छित्करपत्रतामिह वहन्नस्तंगता? विधुः / 57 / जलजभिदूरीभावं प्रेप्सुः करेण निपीडय त्यशिशिरकरस्ताराशङ्खप्रपञ्चविलोपकृत् / रजनिरमणस्यास्तक्षोणीघरार्धपिधावशा धतमधुना बिम्बं कम्बुच्छिद: करपत्रताम् / / यत्पाथोजविमुद्रणप्रकरणे निनिद्रयत्यंशुमा___ दृष्टीः पूर्णयति स्म यज्जलरुहामक्ष्णा सहस्र हरिः / साजात्य सरसीरुहामषि शामप्यस्ति तवास्तवं यन्मूलाद्रियतेतरां कविनृभिः पद्मोपमा चक्षुषः / / 58 / / प्रवैमि कमलाकरे निखिलयामिनीयामिक श्रियं श्रयति यत्पुरा विततपत्रनेत्रोदरम् / 15 तदेव कुमुदं पुनर्दिनमवाप्य गर्भभ्रमद् द्विरेफरवघोरणाघनमुपैति निद्रामुदम् // 56 / / इह किमुषसि पृच्छाशंसिकिशब्दरूप प्रतिनियमितवाचा वायसेनेष पृष्टः / भण फणिभवशास्त्रे तातङ: स्थानिनो का२० विति विहिततुहीवागुत्तर: कोकिलोऽभूत् / / 60 / / दाक्षीपुत्रस्य तन्त्रे ध्रुवमयमभवत्कोऽप्यघीती कपोतः कण्ठे शब्दोघसिद्धिक्षतबहुकठिनीशेषभूषानुयातः / सर्वं विस्मृत्य दैवात्स्मृतिमुषसि गतां घोषयन्यो घुसंज्ञां प्रासंस्कारेण संप्रत्यपि धुवति शिरः पट्टिकापाउजेन / / 61 / / 25 पौरस्त्यायां घुसृणमसृणश्रीजुषो वैजयन्त्याः . स्तोमैश्चित्तं हरिति हरति क्षीरकण्ठमयूखैः / Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकोनविंशः सर्गः ] [613 भानुर्जाम्बूनदतनुरसौ शक्रसोधस्य कुम्भः स्थाने पानं तिमिरजलधे भिरेतद्भवाभिः / / 62 / / द्विरेव तमस्तमालगहनग्रासे दवीभावुकै___ रुस्ररस्य सहस्रपत्रसदसि. व्यश्राणि घस्रोत्सवः / घर्माणां रयचुम्बितं वितनुते तत्पिष्टपिष्टीकृत क्ष्मादिग्व्योमतमोघमोघमधुना मोघं निदाघद्युतिः / 63 / दूरारूढस्तिमिरजलधेर्वाडवश्चित्रभानु र्भानुस्ताम्यद्वनरुहवनीकेलिवैहासिकोऽयम् / / ___ न स्वात्मीयं किमिति दधते भास्वरश्वेतिमानं द्यामद्यापि द्युमणिकिरणश्रेणयः शोणयन्ति / / 64 / / प्रातर्वर्णनयानया निजवपुर्भूषाप्रसादानदादेवी वः परितोषितेति निहितामान्तःपुरीभिः पुरः / सूता मण्डनमण्डली परिदधर्माणिक्यरोचिर्मय क्रोधावेगसरागलोचनरुचा दारिद्रयविद्राविणीम् / / 65 / / 15 प्रागच्छन्भणतामुषः क्षणमथातिथ्यं दृशोरानशे स्वर्गङ्गाम्बुनि बन्दिनां कृतदिनारम्भाप्लुतिर्भूपतिः / प्रानन्दादतिपुष्पकं रथमधिष्ठाय प्रियायौतके . प्राप्तं तैरवरागतरविदितप्रासादतो निर्गमः / / 66 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं 20 श्रीहीरः सुष्वे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / एकामत्यजतो नवार्थघटनामेकानविंशो महा- . काव्ये तस्य कृतो नलीयचरिते सर्गोऽयमस्मिन्नगात् / / 67 / / // इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे एकोनविंशः सर्गः समाप्तः / / 16 / / Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 ] { काब्यषट्कं // 20 // विंशः सर्गः॥ सौधाद्रिकुट्टिमानेकधातुकाघित्यकातटम् / स प्राप रथपायोभृद्वातजातजवो दिवः ततः प्रत्युदगाभमो कान्तमायान्तमन्तिकम् / 5 प्रतीचीसिन्धुवीचीव दिनोंकारे सुधाकरम् // 2 / / स दूरमादरं तस्या वंदने मदनकदृक् / दृष्टमन्दाकिनोहेमारविन्दश्रीरविन्दत / / 3 / / तेन स्वर्देश संदेशमर्पित सा करोदरे / बभ्राजे बिभ्रती पद्म पद्मवोन्निद्रपद्मदृक् प्रियेणाल्पमपि प्रत्तं बहु मेनेतरामसौ / एकलक्षतया दध्यो यत्तमेकवराटकम् प्रेयसाऽवादि सा तन्वि ! त्वदालिङ्गनविघ्नकृत् / समाप्यतां विधिः शेषः क्लेशश्चेतसि चेन्न ते // 6 / / क्वतावान्नर्ममर्माविद्विद्यते विधिरद्य ते / इति तं मनसा रोषादवोचद्वचसा न सा / / 7 / / क्षणविच्छेदकादेव विधेर्मग्वे ! विरज्यसि / विच्छेत्ता न चिरं त्वेति हृदाह स्म तदा कलि: / / 8 / / सावज्ञेवाथ सा राज्ञः सखी पद्ममुखीमगात् / लक्ष्मीः कुमुदकेदारादारादम्भोजिनीमिव 20 ममासावपि मा संभूत्कलिद्वापरवत्परः / इतीव नित्यसो तां स त्रेतां पर्यतूतुषत् // 10 / / क्रियां प्रालेतनी कृत्वा निषेधन्पाणिना सखीम् / कराभ्यां पृष्ठगस्तस्या न्यमिमीलदसौ दृशौ // 11 / / दमयन्त्या वयस्याभिः सहास्याभिः समीक्षितः / 25 प्रसतिभ्यामिवायामं मापयन्प्रेयसीडशोः // 12 // // // Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: विंशः सगः ) . [615 तकितालि ! त्वमित्यर्धवाणीका पाणिमोचनात् / ज्ञातस्पर्शान्तरा मौनमानशे मानसे विनी / / 13 / / सावादि सुतनुस्तेन कोपस्ते नायमौचिती / त्वां प्रापं यत्प्रसादेन प्रिये ! तन्नाद्रिये तपः / / 14 / / निशि दास्यं गतोऽपि त्वां स्नात्वा यन्नाभ्यवीवदम् / तं प्रवृत्तासि मन्तुं चेन्मन्तुं तद्वद वन्धसे // 15 / / इत्येतस्याः पदासत्त्यै पत्यैष प्रेरितौ करौ / रुद्धवा सकोपं सातङ्कतं कटाक्षरमूमुहत् / / 16 / / अवोचत ततस्तन्वीं निषधानामधीश्वरः / / तदपाङ्गचलत्तारझलत्कारवशीकृतः // 17 / / कटाक्षकपटारब्धदूरलङ्घनरंहसा / दृशा भीत्या निवृत्तं ते कर्णकूपं निरूप्य किम् // 18 // सरोषापि सरोजाक्षि ! त्वमुदेषि मुदे मम / तप्तापि शतपत्रस्य सौरभायैव सौरभा // 16 / / 15 छेत्तमिन्दी भवद्वक्त्रबिम्बविभ्रमविभ्रमम् / शके शशाङ्कमानके भिन्नभिन्नविधिविधिः // 20 / / ताम्रपर्णीतटोत्पन्नौक्तिकैरिन्दुकुक्षिज़ः / बद्धस्पर्धतरा वर्णाः प्रसन्नाः स्वादवस्तव // 21 // त्वद्गिरः क्षीरपाथोधेः सुधयेव सहोत्थिताः / अद्ययावदहो घावदुग्धलेपलवस्मिता: // 22 / / पूर्वपर्वतभाश्लिष्टचन्द्रिकश्चन्द्रमा इव / अलंचक्रे स पर्यङ्कमङ्कसंक्रमिताप्रियः प्रावृडारम्भणाम्भोदः स्निग्धां द्यामिव स प्रियाम् / परिरभ्य चिरायास विश्लेषायासमुक्तये // 24 / / चुचुम्बास्यमसौ तस्या रसमग्नः श्रितस्मितम् / नभोमणिरिवाम्भोजं मधुमध्यानुबिम्बित: / / 25 / / Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 ] ( काव्यषटकं अथाहय कलां नाम पाणिना स प्रियासखीम् / पुरस्ताद्वेशितामूचे कतु नर्मणि साक्षिणीम् // 26 / / कस्मादस्माकमब्जास्या वयस्या दयते न ते। ग्रासक्ता भवतीष्वन्यं मन्ये न बहु मन्यते // 27 / / अन्वग्राहि मया प्रेयाग्निशि स्वोपनयादिति / न विप्रलभते तावदालीरियमलीकवाक् . // 28 / / आह स्मैषा नलादन्यं न जुषे मनसेति यत् / यौवनानुमितेनास्यास्तन्मृषाभून्मनोभुवा // 26 / / प्रास्यसौन्दर्यमेतस्याः शृणुमो यदि भाषसे / तद्धि लज्जानमन्मौले: परोक्षमधुनापि नः // 30 / / पूर्णयैव द्विलोचन्या सैषालीरवलोकते / द्राग्दगन्ताणुना मां तु मन्तुमन्तमिवेक्षते न लोकते यथेदानी मामियं तेन कल्पये / योऽहं दूत्येऽनया दृष्टः सोऽपि व्यस्मारिषीदृशा / / 32 / / 15 रागं दर्शयते सैषा वयस्याः सूनृतामृतः / / मम त्वमिति वक्तुं मां मौनिनी मानिनो पुनः / / 33 / / कां नामन्त्रयते नाम नामग्राहमियं सखीम् / कले ! नलेति नास्माकी स्पृशत्याह्वां न जिह्वया // 34 / / अस्याः पीनस्तनव्याप्ते हृदयेऽस्मासु निर्दये / अवकाशलवोऽप्यस्ति नात्र कुत्र विभतु नः // 35 / / अधिगत्येहगेतस्या हृदयं मृदुतामुचोः / प्रतीम एव वैमुख्यं कुचयोयुक्तवृत्तयोः // 36 / / इति मुद्रितकण्ठेऽस्मिन्सोल्लुण्ठमभिधाय ताम् / ' दमयन्तीमुखाधीतस्मितयाऽसौ तया जगे // 37 / / 25 भावितेयं त्वया साधु नवरागा खलु त्वयि / / चिरंतनानुरागार्ह वर्तते नः सखीः प्रति // 38 / / Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: विंशः सर्गः ] [ 617 1144 / / स्मरशास्त्रविदा - सेयं नवोढा नस्त्वया सखी / कथ संभुज्यते बाला कथमस्मासु भाषताम् // 39 / / नासत्यवदनं देव ! त्वां गायन्ति जगन्ति यम् / / प्रिया तस्य सरूपा स्यादन्यथालपना न ते / / 40 / / 5 मनोभूरस्ति चित्तेऽस्याः किंतु देव ! त्वमेव सः। त्वदवस्थितिभूर्यस्मान्मनः सख्या दिवानिशम् / / 41 / / सतस्तेऽथ सखीचित्त प्रतिच्छाया स मन्मथः / त्वयास्य समरूपत्वमतनोरन्यथा कथम् // 42 / / कः स्मरः कस्त्वमति संदेहे शोभयोभयोः / 10 त्वय्येवाथितया सेयं धत्ते चित्तेऽथवा युवाम् // 43 / / त्वयि त्यस्तस्य चित्तस्य दुराकर्षत्वदर्शनात् / शङ्कया पङ्कजाक्षी त्वां गंशेन स्पृशत्यसौ // 44 / / विलोकनात्प्रभृत्यस्या लग्न एवासि चक्षुषो / स्वेनालोकय शङ्का चेत्प्रत्ययः परवाचि कः // 45 / / 15 परीरम्भेऽनयारभ्य कुचकुकुमसंक्रमम् / / त्वयि मे हृदयस्यैवं राग इत्युदितैव वाक् // 46 / / मनसायं भवन्नामकामसूक्तजपव्रती। अक्षसूत्रं सखीकण्ठश्चुम्बत्येकावलिच्छलात् // 47 / / अध्यासिते वयस्याया भवता महता हृदि / स्तनावन्तरसंमान्तो निष्क्रान्ती ब्रमहे बहिः // 48 / / कुचौ दोषोज्झितावस्याः पीडितो व्रणितो त्वया / कथं दर्शयतामास्यं बृहन्तावावृतौ ह्रिया / / 46 / / इत्यसौ कलया सूक्तैः सिक्तः पीयूषवर्षिभिः ईडगेवेति पप्रच्छ प्रियामुन्नमिलाननाम् / / / / 50 / / 25 बभौ च प्रेयसीवक्त्रं पत्युरुन्नमयन्करः / चिरेण लब्धसंधानमरविन्दमिवेन्दुना // 51 / / Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 ] [ काव्यषट्कं ह्रीणा च स्मयमाना च नमयन्ती पुनर्मुखम् / दमयन्ती मुदे पत्यूरुच्चैरप्यभवत्तदा // 52 / / भूयोऽपि भूपतिस्तस्याः सखीमाह स्म सस्मितम् / परिहासविलासाय स्पृहयालुः सहप्रिय: // 53 / / 5 क्षन्तं मन्तं दिनस्यास्य वयस्येयं व्यवस्यतात् / निशीव निशि-धात्वर्थ यदाचरति नात्र नः / / 54 / / दिनेनास्या मुखस्येन्द्रः सखा यदि तिरस्कृतः / / तत्कृता शतपत्राणां तन्मित्राणामपि श्रियः // 55 / / लज्जितानि जितान्येव मयि क्रीडितयाऽनया / 10 प्रत्यावृत्तानि तत्तानि पृच्छ संप्रति के प्रति // 56 / / निशि दष्टाधरायापि सैषा मह्य न रुष्यति / क्व फलं दशते बिम्बोलता कीराय कुप्यतु // 57 / / सृणीपदसुचिह्ना श्रीश्चोरिता कुम्भिकुम्भयोः / पश्यैतस्याः कुचाभ्यां तन्नृपस्तौ पीडयानि न // 58 / / 15 अघरामृतपानेन ममास्यमपराध्यतु / मूर्ना किमपराद्धं यः पादौ नाप्नोति चुम्बितुम् / / 56 / / अपराद्धं भवद्वाणीश्राविणा पृच्छ किं मया। वीणाह परुषं यन्मां कलकण्ठी च निष्ठुरम् / / 60 / / सेयमालिजने स्वस्य त्वयि विश्वस्य भाषताम् / 20 ममताऽनुमताऽस्मासु पुन: प्रस्मयते कुतः // 61 // अथोपवदने भैम्या: स्वकर्णोपनयच्छलात् / संनिधाप्य श्रुतौ तस्या निजास्यं सा जगाद ताम् / / 62 / / अहो मयि रहोवृत्तं धूर्ते ! किमपि नाभ्यधाः / प्रास्स्व सभ्यमिमं तत्ते भूपमेवाभिधापये // 63 / / 25 स्मरशास्त्रमधीयाना शिक्षितासि मयैव यम् / अगोपि सोऽपि कृत्वा किं दाम्पत्यव्यत्ययस्त्वया / / 64 / / Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: विंशः सर्गः ] / 616 मौनिन्यामेव सा तस्यां तदुक्तीरिव शृण्वती / वादं वादं मुहुश्चक्रे हुँ हुमित्यन्त रान्तरा // 65 / / अथासावभिसृत्यास्या रतिप्रागल्भ्यशंसिनी / सख्या लीलाम्बुजाघातमनुभूयालपन्नृपम् // 66 / / 5 दृष्टं दृष्टं महाराज ! त्वदर्थाभ्यर्थनक्रुधा। यत्ताडयति मामेवं यद्वा तर्जयति ध्रुवा // 67 / / वदत्यचिह्नि चिह्नन त्वया केनैष नैषधः / शके शक्रः स्वयं कृत्वा मायामायातवानियम् // 68 / / स्वर्णदीस्वर्णपद्मिन्याः पद्मदानं निदानताम् / नयतीयं त्वदिन्द्रत्वे दिवश्चागमनं च ते // 66 // भाषते नंषधच्छायामायामायि मया हरेः / / प्राह चाहमहल्यायां तस्याकणितदुर्नया // 70 // संभावयति वैदर्भी दर्भाग्राभमतिस्तव / जम्भारित्वं कराम्भोजाइम्भोलिपरिरम्भिणः // 71 / / अनन्यसाक्षिकाः साक्षात्तदाख्याय रहःक्रियाः / शङ्कातङ्क तुदैतस्या यदि त्वं तत्त्वनैषधः // 72 / / इति तत्सुप्रयुक्तत्वनिह नुतीकृतकैतवाम् / वाचमाकर्ण्य तद्भावे संशयालुः शशंस सः // 73 / / स्मरसि छद्मनिद्रालुर्मया नाभौ शयापरणात् / 20 यदानन्दोल्लसल्लोमा पद्मनाभीभविष्यसि / / 74 / / जानासि ह्रीभयव्यग्रा यन्नवे मन्मथोत्सवे / सामिभुक्तैव भुक्तासि मृद्वि ! खेदभयान्मया // 75 / / स्मर जित्वाजिमेतस्त्वां करे मत्पदधाविनि / अङ्गुलीयुगयोगेन यदाश्लिक्षं जने घने // 76 / / 25 वेत्थ मानेऽपि मत्त्यागदूना स्वं मां च यन्मिथः / मदृष्टालिख्य पश्यन्ती व्यवाधा रेखयाऽन्तरा // 77 / / Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 [ काव्यषटकं प्रस्मतं न त्वया तावद्यन्मोहन विमोहितः / प्रतृप्तोऽधरपानेषु रसनामपिबं तव // 78 / / त्वत्कुचानखाङ्कस्य मुद्रामालिङ्गनोत्थिताम् / स्मरैः स्वहृदि यत्स्मेरसखी: शिल्पं तवानवम् / / 76 / / 5 त्वयान्याः क्रीडयन्मध्येमधुगोष्ठि रुषेक्षितः / वेत्सि तासां पुरो मू| त्वत्पादे यत्किलास्खलम् / / 80 / / वेत्थ मय्यागते. प्रोष्य यत्त्वां पश्यति हादिनि / अचुम्बीरालिमालिङ्गय तस्यां केलिमुदा किल / / 81 / / जागति तत्र संस्कारः स्वमुखाद्भवदानने / 10 निक्षिप्यायाचिषं यत्ता न्यायात्ताम्बूलफालिका: / / 62 / / चित्ते तदस्ति कच्चित्त नखजं यत्क्रुषा क्षतम् / प्राग्भावाधिगमागःस्थे त्वया शम्बाकृतं क्षतम् / / 83 / / स्वदिग्विनिमयेनैव निशि पार्श्वविवतिनोः / स्वप्नेष्वप्यस्तवमुख्ये सख्ये सौख्यं स्मरावयोः // 84 / / 15 क्षणं प्राप्य सदस्येव नृणां विमनितेक्षणम् / दशिताधरमदंशा ध्याय यन्मामतर्जयः // 85 / / तथावलोक्य लोलाब्जनालभ्रमणविभ्रमात् / करौ योजयताध्ये (धी) हि यन्मयासि प्रसादिता / / 86 / / ताम्बूलदान मन्यस्तकरजं करपङ्कजे / 20 मम न स्मरसि प्रायस्तव नैव स्मरामि तत् / / 87 / / तदध्ये (घो) हि मृषोद्यं मां हित्वा यत्त्वं गता सखी: / तत्रापि मे गतस्याने लीलयैवाच्छिनस्तृणम् / / 88 / / स्मरसि प्रेयसि ! प्रायो यद्वितीयरतासहा / शुचिरात्रोत्युपालब्धा त्वं मया पिकनादिनी // 86 / / 25 भूञानस्य नवं निम्बं परिवेविषती मधौ।। सपत्नीष्वपि मे रागं संभाव्य स्वरुषः स्मरेः // 60 / / Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: विंशः सर्गः ] . [621 स्मर शाकरमास्वाद्य त्वया राद्धमिति स्तुवन् / स्वनिन्दारोषरक्तात्तु यदभैषं तवाधरात् // 91 / / मुखादारभ्य नाभ्यन्तं चुम्बं चुम्बमतृप्तवान् / न प्रापं चुम्बितुं यत्ते धन्या तच्चुम्बतु स्मतिः / / 62 / / कमपि स्मरकेलिं तं स्मर यत्र भवन्निति / मया विहितसंबुद्धिर्वीडिता स्मितवत्यसि // 63 / / नीलदाचिबुकं यत्र मदाक्तेन श्रमाम्बुना / स्मर हारमणौ दृष्टं स्वमास्यं तत्क्षणोचितम् // 64 / / स्मर तनखमत्रोरो कस्तेऽधादिति ते मृषा / ह्रीदैवतमलुम्पं यद्वतं रतपरोक्षणम् // 65 / / वनकेलो स्मराश्वत्थदलं भूपतितं प्रति / देहि मह्यमुदस्येति मद्गिरा वोडितासि यत् // 96 / / इति तस्या रहस्यानि प्रिये शसति सान्तरा। पाणिभ्यां पिदधे सख्याः श्रवसी ह्रीवशीकृता // 67 / / कणों पीडयति सख्या वीक्ष्य नेत्रासितोत्पले / अप्यपीडयतां भैमीकरकोकनदे तु(नु) तो // 68 / / तत्प्रविष्टं सखोकौँ पत्युरालपितं ह्रिया। पिदधाविव वैदर्भी स्वरहस्याभिसंधिना // 66 / / तमालोक्य प्रियाकेलि नले. सोत्प्रासहासिनि / पारात्तत्त्वमबुद्धवापिसख्यः सिष्मियिरेऽपराः // 10 // दम्पत्योरुपरि प्रोत्या ता धराप्सरसस्तयोः / ववषुः स्मितपुष्पाणि सुरभीणि मुखानिलैः // 101 / / तदास्यहसिताज्जातं स्मितमासामभासत / / आलोकादिव शीतांशोः कुमुदश्रेणिजृम्भणम् // 102 / / 25 प्रत्यभिज्ञाय विज्ञाऽथ स्वरं हासविकस्वरम् / सख्यास्तासु स्वपक्षायाः कला जातबलाऽजनि // 103 / / Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 ) [ कान्यषट्क साहूयोच्चैरथोचे तामेहि स्वर्गेण वञ्चिते ! / पिब वाणी: सुधावेणीनपचन्द्रस्य सुन्दरि ! 104 / / साऽशणोत्तस्य वाग्भागमनत्यात्तिमत्यपि / कल्पग्रामाल्पनिर्घोषं बदरीव कृशोदरी // 105 / / 5 अथ स्वपृष्ठनिष्ठायाः शण्वत्या नैषधाभिधा: / नलमौलि मणौ तस्या भावमाकलयत् कला // 106 / / प्रतिबिम्बेक्षितः सळ्या मुखाकृतैः कृतानुमा / तद्ब्रीडाद्यनुकुर्वाणा पाण्वतीवान्वमायि सा // 107 / / कारं कार तथाकारमूचे साऽशणवंत माम् / 10 मिथ्या वेत्थ गिरश्चैतद्व्यर्थाः स्युभम देवता: / / 108 / मत्कर्णभूषणानां तु राजनिबिडपोडनात् / व्यथिष्यमाणपाणिस्ते निषेधुमुचिता प्रिया // 106 / / इति सा मोचयांचके कौँ सख्या: कर ग्रहात् / पत्युराश्रवतां यान्त्या मुधायासनिषेधिनः / / 10 / / 15 श्रुतिसंरोधजध्वानसंततिच्छेदतालताम् / जगाम झटिति त्यागस्वनस्तत्कर्णयोस्तत: // 111 / / सापमृत्य कियद्रं मुमुदे सिष्मिये ततः / / इदं च तां सखीमेत्य ययाचे काकूभिः कला // 112 / / अभिधास्ये रहस्यं ते यदश्रावि मयानयोः / 20 वर्णयाकणितं मह्यमेह्यालि ! विनिमीयताम् // 113 / / वयस्याभ्यर्थनेनास्या: प्राक्कूटश्रुतिनाटने / विस्मितौ कुरुतः स्मैतौ दम्पती कम्पितं शिरः // 114 / / तथालिमालपन्तीं तामभ्यधानिषधाधिपः / . प्रास्स्व तद्वञ्चितौ स्वश्चेन्मिथ्याशपथसाहसात् / / 11 / / 25 प्रत्यालापीत्कलापीमं कलङ्कः शङ्कितः कुतः / प्रियापरिजनोक्तस्य त्वयैवाद्य मृषोद्यता // 116 / / Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: विंशः सर्गः ) [623 सत्यं खलु तदाश्रीषं परं गुमुगुमारवम् / शणोमीत्येव चावोचं न तु त्वद्वामित्यपि // 17 // प्रामन्य तेन देव ! त्वां तद्वैयर्थ्यं समर्थये / शपथ: कर्कशोदर्कः सत्यं सत्योऽपि देवतः // 118 / / 5 असंभोगकथारम्भर्वञ्चयेथे कथं नु माम् / हन्त सेयमनहन्ती यन्न विप्रलभे युवाम् // 119 / / कर्णे कर्णे ततः सख्यौ श्रुतमाचख्यतुर्मिथः / / मुहुविस्मयमाने च स्मयमाने च ते बहु // 120 / / प्रथाख्यायि कलासख्या कुप्य मे दमयन्ति ! मा। 10 करर्णादिद्वतीयतोऽप्यस्याः संगोप्यैव यदब्रवम् // 121 / / प्रियः प्रियामथाचष्ट दृष्टं कपटपाटवम् / वयस्ययोरिदं तेऽस्मान्मा सखीष्वेव विश्वसी: // 122 / / भालापि कलयापीयं पति लपति क्वचित् / वयस्येऽसौ रहस्यं तत्सम्ये विस्त्रभ्यमीशी // 123 / / . 15 इति व्युत्तिष्ठमानायां तस्यामूचे नल: प्रियाम् / भण भैमि ! बहिः कुर्वे दुविनीते गृहादमू / / 124 / / शिर:कम्पानुमत्याथ सुदत्या प्रीणित: प्रियः / चुलुकं तुच्छमुत्सl सख्योः सलिलमंक्षिपत् // 125 / / तचित्रदत्तचित्ताभ्यामुच्चैः सिचयसेचनम् / 20 ताभ्यामलम्भि दूरेऽपि नलेच्छापूरिभिर्जलः // 126 / / वरेण वरुणस्यायं सुलभैरम्भसां भरैः / एतयोः स्तिमितीचक्रे हृदयं विस्मयरपि ..||127 / / तेनापि नामसर्पन्त्यो दमयन्तीमयं ततः / हर्षेणादर्शयत्पश्य नन्विमे तन्वि ! मे पुरः // 128 / / 25 क्लिन्नीकृत्याम्भसा . वस्त्रं जैनप्रजितीकृते / सख्यो सक्षीमभावेऽपि निविघ्नस्तनदर्शने // 126 / / Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 ] [ काव्यपटकं अम्बुनः शम्बरत्वेन मायैवाविरभूदियम् / / यत्पटावृतमप्यङ्गमनयोः कथयत्यदः / / 130 / / वाससो वाम्बरत्वेन दृश्यतेयमुपागमत् / चारुहारमणिश्रेणितारवीक्षणलक्षणा ||131 / / 5 ते निरीक्ष्य निजावस्थां ह्रीणे निर्ययतुस्ततः / तयोर्वोक्षारसात्सख्यः सर्वा निश्चक्रमुः क्रमात् / / 132 / / ता बहिय वैदर्भीमूचुनीतावधीतिनि ! / / उपेक्ष्ये ते पुन: सख्यौ मर्मज्ञे नाधुनाप्यमू / / 133 / / उच्चरूचेऽथ ता राजा सखीयमिदमाह वः / / 10 श्रुतं मम ममताभ्यां दृष्टं तत्त मयानयोः // 164 / / मद्विरोधितयोर्वाचि न श्रद्धातव्यमेतयो / प्रभ्यषिञ्चदिमे मायामिथ्यासिंहासने विधिः // 135 / / धौतेऽपि कीतिधाराभिश्चरिते चारुणि द्विषः। मृषामषोलवैर्लक्ष्म लेखितुं के न शिल्पिनः // 136 / / ते सख्यावाचचक्षाते न किंचिद् अवहे बहु। वक्ष्यावस्तत्परं यस्मै सर्वा निर्वासिता वयम् // 137 / / स्थापत्यैर्न स्म वित्तस्ते वर्षीयस्त्वचलत्करैः / / कृतामपि तथावाचि करकम्पेन वारणाम् // 138 / / अपयातमितो धृष्टे ! घिग्वामश्लीलशीलताम् / इत्युक्ते चोक्तवन्तश्च व्यतिद्राते स्म ते भिया / / 136 / / आह स्म तद्गिरा ह्रीणां प्रियां नतमुखीं नलः / ईदृग्भण्डसखी कापि निस्त्रपा न मनागपि // 140 / / अहो ! नापत्रपाकं ते जातरूपमिदं मुखम् / नातितापार्जनेऽपि स्यादितो दुर्वर्णनिर्गमः // 141 / / 25 तामथैष हृदि त्यस्य ददौ तल्पतले तनुम् / निमिष्य च तदीयाङ्गसौकुमार्यमसिस्वदत् // 142 / / Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) मैषधीयचरितम् :: विंशः सर्गः ] [ 625 न्यस्य तस्या: -कुचद्वन्द्वे मध्येनीवि निवेश्य च / स पाणेः सफलं चक्रे तत्करग्रहणश्रमम् // 143 // स्थापितामुपरि स्वस्य तां हृदा स मुदा वहन् / तदुद्वहनकर्तृत्वमाचष्ट स्पष्टमात्मनः / / 144 / / स्विद्यत्कराङ्गुलोलुप्तकस्तूरीलेपमुद्रया / पूत्कार्यपीडनौ चक्रे स सखीषु प्रियास्तनी // 145 / / तत्कुचे नखमारोप्य चमत्कुर्वस्तयेक्षितः / सोऽवादीत्तां हृदिस्थं ते कि मामभिनदेष न // 146 // अहो ! अनौचितोयं ते हृदि शुद्धेऽप्यशुद्धवत् / / 10 अङ्कः खलैरिवाकल्पि नखैस्तीक्ष्णमुखैर्मम // 147 // यच्चुम्बति नितम्बोरु यदालिङ्गति च स्तनौ / भुङ्क्ते गुणमयं तत्ते वासः शुभदशोचितम् // 148 / / लीनचीनांशुकं स्वेदि दरालोक्यं विलोकयन् / तन्नितम्बं स निःश्वस्य निनिन्द दिनदीर्घताम् // 146 / / 15 देशमेव ददंशासौ प्रियादन्तच्छदान्तिकम् / . चकाराधरपानस्य तत्रैवालीकचापलम् // 150 / / न क्षमे चपलापाङ्गि ! सोढुं स्मरशरव्यथाम् / तत्प्रसीद प्रसीदेति स तां प्रीताम्रकोपयत् // 15 // नेत्रे निषधनाथस्य प्रियाया वदनाम्बुजम् / ततः स्तनतटौ ताभ्यां जघनं घनमीयतुः // 152 / / इत्यधीरतथा तस्य हठवृत्तिविशङ्किनी / झटित्युत्थाय सोत्कण्ठमसावन्वसरत्सखी: // 153 / / न्यवारीव यथाशक्ति स्पन्दं मन्दं वितन्वता / भैमीकुचनितम्बेन नलसंभोगलोभिना // 14 // 25 अपि श्रोणिभरस्वैरां धतु तामशकन्न सः / तदङ्गसङ्गजस्तम्भो गजस्तम्भोरुदोरपि // 155 // 20 Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 ) ( काव्यषट्क आलिङ्गयालिङ्गय तन्वङ्गि ! मामित्यर्धगिरं प्रियम् / स्मित्वा निवृत्य पश्यन्ती द्वारपारमगादसौ // 156 / प्रियस्याप्रियमारभ्य तमन्त(नयाऽनया / शेके शालीनयालिभ्यो न गन्तुं न निवतितुम् // 157 / / अचकथदथ बन्दिसुन्दरी द्वा:सविधमुपेत्य नलाय मध्य मह्नः / जय नृप ! दिनयौवनोष्म तप्ताप्लवनजलानि पिपासति क्षितिस्ते / / 158 / / उपहृतमधिगङ्गमम्बु ___ कम्बुच्छवि तव वाञ्छति केशभङ्गिसङ्गात् / अनुभवितुमनन्तरं तरङ्गा समशमनस्वसृमिश्रभावशोभाम् // 156 / / तपति जगत एव मूनि , भूत्वा रविरधुना त्वमिवाद्भुतप्रतापः / 15 पुरमथनमुपास्य पश्य ___ पुण्यरधरितमेनमनन्तरं त्वदीयैः / / 160 / / प्रानन्दं हठमाहरन्निव हरध्यानार्चनादिक्षणस्यासत्तावपि भूपति: प्रियतमाविच्छेदखेदालसः / पक्षद्वारदिशं प्रति प्रतिमुहुर्दाङ्गिर्गतप्रेयसीप्रत्यासत्तिधिया दिशन्दृशमसौ निर्गन्तुमुत्तस्थिवान् / / 161 / / श्रोहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / अन्याक्षुण्णरसप्रमेयभणितौ विंशस्तदीये महा- . काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वल: / / 162 / / 25 ॥इति महाकविहर्षविरचिते नैषधीयप्रकाशे विंशः सर्गः समाप्तः / / 20 / / Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ) [927 // 21 // एकविंशः सर्गः॥ तं विदर्भरमणीमणिसौधादुज्जिहानमनुर्शितसेवैः / अर्पणानिजकरस्य नरेन्द्ररात्मनः करदता पुनरूचे / / 1 / / तस्य चीनसिचयैरपि बद्धा पद्धतिः पदयुगात्कठिनेति / तां प्यधत्त शिरसां खलु माल्यै राजराजिरभितः प्रणमन्ती द्रागुपाहियत तस्य नृपैतदृष्टिदानबहुमानकृतार्थैः / / स्वस्य दिश्यमथ रत्नमपूर्व यत्नकल्पित गुणाधिकचित्रम् / / 3 / / 10 अङ्गुलीचलनलोचनङ्गिभ्रूतरङ्गविनिवेदितदानम् / रत्नमन्यनृपढौकितमन्ये तत्प्रसादमलभन्त नृपास्तत् / / 4 / / तानसौ कुशलसूनृतसेकस्तपितानथ पितेव विसृज्य / प्रस्त्रशस्त्रखुरलीषु विनिन्ये शैष्यकोपनमितानमितौजाः / / 5 / / मयंदुष्प्रचरमस्त्रविचारं चारुशिष्यजनतामनुशिष्य / 15 स्वेदबिन्दुकितगोधिरधीरं स श्वसन्नभवदाप्लवनेच्छु: / / 6 / / यक्षकदंम मृदून्मदिताङ्गं प्राक्कुरङ्गमदमीलितमौलिम् / गन्धवाभिरनुबन्धित भृगैरङ्गनाः सिषिचुरुच्चकुचास्तम् / / 7 / / भूभृतं पृथुतपोधनमाप्तस्तं शुचिः स्नपयति स्म पुरोधाः। . संदधज्जलघरस्खलदोघस्तीर्थवारिलहरीरुपरिष्टात् // 8 // प्रेयसीकुचवियोगहविभुंग्जन्मधूमविततीरिव बिभ्रत् / स्नायिनः करसरोरुहयुग्मं तस्य गर्भधृतदर्भमराजत् / / 6 / / कल्प्यमानममुनाचमनाथ गाङ्गमम्बु चुलुकोदरचुम्बि / निर्मलत्वमिलितप्रतिबिम्बद्यामयच्छदुपनीय करे नु / / 10 / / मुक्तमाप्य दमनस्य भगिन्या भूमिरात्मदयितं धृतरागा। 25 मङ्गमङ्गमनुकं परिरेमे तं मृदो नलमृदूर्गृहयालुम् / / 11 / / Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 ] [ काव्यषटकं मूलमध्यशिखरस्थितवेधः शौरिशंभुकरकिाघ्रशिरःस्थैः / तस्य मूनि चकरे शुचि दर्भे- / रिवान्तमिव गाङ्गतरङ्गः / / 12 / / 5 प्राणमायतवतो जलमध्ये मञ्जिमानमभजन्मुखमस्य / . आपगापरिवृढोदरपूरे पूर्वकालमुषितस्य सितांशोः / / 13 / / मर्त्यलोकमदनः सदशत्वं बिभ्रदभ्रविशदद्युतितारम् / अम्बरं परिदधे विधुमौलेः स्पर्शयेव दशदिग्वसनस्य / / 14 / / भीमजामनु चलत्प्रतिवेलं संयियंसुरिव राजऋषीन्द्रः / प्राववार हृदयं न समन्तादुत्तरीयपरिवेषमिषेण // 15 / / स्नानवारिघटराजदुरोजा गौरमृत्तिलक बिन्दुमुखेन्दुः / केशशेषजलमौक्तिकदन्ता तं बभाज़ सुभगाप्लवनश्रीः / / 16 / / श्वैत्यशैत्यजलदैवतमन्त्र स्वादुताप्रमुदितां चतुरक्षीम् / वीक्ष्य मोघधृतसौरभलोभं घ्राणमस्य सलिल घ्रमिवासीत् // 17 / / राज्ञि भानुमदुपस्थितयेऽस्मि नात्तमम्बु किरति स्वकरेण / भ्रान्तयः स्फुरति तेजसि चक्रु __ स्त्वष्ट्रतकुचल दर्कवितर्कम् // 18 / / सम्यगस्य जपतः श्रुतिमन्त्राः संनिधानमभजन्त कराब्जे / . शुद्धबीजविशदस्फुटवर्णाः स्फाटिकाक्षवलयच्छलभाजः // 16 / / 25 पाणिपर्वणि यवः पुनराख्य देवतर्पणयवार्पणमस्य / Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [ 629 न्युप्यमानजलयोगितिलौघः * स द्विरुक्तकरकालतिलोऽभूत् // 20 // पूतपाणिचरणः शुचिनोच्चरध्वनानितरपादहतेन / ब्रह्मचारिपरिचारि सुरा वेश्म राजऋषिरेष विवेश / / 21 / / क्वापि यन्नमसि धूपजधमर्मचकागुरुभवैर्धमराणाम् / भूयते स्म सुमनःसुमनःस्रग्दामधामपटले पटलेन / / 22 / / ___ साकुरेव रुचिपीततमा यै- यः पुरास्ति रजनी रजनीव / / ते घृता वितरितुं त्रिदशेभ्यो . . यत्र हेमतिलका इव दीपाः // 23 / / यत्र मौक्तिकमणेविरहेण प्रीतिकामधृतवह्निपदेन / कुडकुमेन परिपूरितमन्तः शुक्तयः शुशुभिरेऽनुभवन्त्यः / / 24 / / अङ्कचुम्बिधनचन्दनपङ्क . यत्र गारुडशिलाजममत्रम् / 15 प्राप केलिकवलीभवदिन्दोः सिंहिकासुतमुखस्य सुखानि // 25 / / गर्भमैणमदकर्दमसान्द्रं भाजनानि रजतस्य भजन्ति / यत्र साम्यमगमन्नमृतांशोरङ्करकुकलुषीकृतकुक्षेः // 26 // उज्जिहानसुकृताङ्कुरशङ्का ___ यत्र धर्मगहने खलु तेने / भूरिशकरकरम्भबलीना मालिभिः सुंगतसौधसखानाम् / / 27 / / खर्वमाख्यदमरोघनिवासं .. पर्वतं क्वचन चम्पकसंपत् / 25 मल्लिकाकुसुमरांशिरकार्षी द्यत्र च स्फटिकसानुमनुच्चम् // 28 / / Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 ] [ काव्यषट्क स्वात्मनः प्रियमपि प्रति गुप्ति कुर्वती कुलवधूमवजज्ञौ / हृद्यदैवतनिवेद्यनिवेशाद्यत्र भूमिरवकाशदरिद्रा / / 26 / / यत्र कान्तकरपीडितनीलग्रावरश्मिचिकुरासु विरेजुः / गातृमूर्धविधुतेरनुबिम्बात्कुट्टिमक्षितिषु कुट्टिमितानि / / 60 / / 5 नेकवर्णमणिभूषणपूर्णे स क्षितीन्दुरनवद्यनिवेद्ये / / अध्यतिष्ठदमलं मणिपीठं तत्र चित्रसि चयोच्चयचारौ / / 31 / / सम्यगर्चति नलेऽकमतूर्णं भक्तिगन्धिरमुनाकलि कर्णः।। श्रद्दधानहृदयप्रति चातः साम्बमम्बरमणि निरचैषोत् / / 3 / / तत्तदर्यमरहस्यजपेषु स्रङ्भयः शयममुष्य बभाज / 10 रक्तिमान मिव शिक्षितुमुच्च रक्तचन्दनजबीजसमाजः / / 33 / / हेमनामकतरुप्रसवेन त्र्यम्बकस्तदुपकल्पितपूज: / प्रात्तया युधि विजित्य रतीश राजितः कुसुमकाहलयेव / 34 / अर्चयनहरकरं स्मितभाजा नागकेसरतरो: प्रसवेन / सोऽयमापयदतिर्यगवान् दिक्पालपाण्डुरकपालविभूषाम् // 35 // नीलनीररुहमाल्यमयीं स न्यस्य तस्य गलनालविभूषाम् / स्फाटिकीमपि तनुं निरमासी नीलकण्ठपदसान्वयतायै // 36 / / प्रीतिमेष्यति कृतेन ममेटक्कर्मणा पुररिपुर्मदनारिः / तत्पुरः पुरमतोऽयमधाक्षीधूपरूपमथ कामशरं च / / 37 / / तन्मुहूर्तमपि भीमतनूजा विप्रयोगमसहिष्णु रिवायम् / 25 शूलि मौलिशशिभीततयाऽभू यानमूर्च्छननिमीलितनेत्रः // 38 / / Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [ 631 दण्डवद्भुवि लुठन्स ननाम त्र्यम्बकं शरणभागिव कामः / मात्मशस्त्रविशिखासनबाणा न्यस्य तत्पदयुगे कुसुमानि / / 36 / / त्र्यम्बकस्य पदयोः कुसुमानि न्यस्य सैष निजशस्त्रनिभानि / दण्डवद्भुवि लुठन्किमु कामस्तं शरण्यसुपगम्य ननाम / / व्यापृतस्य शतरुद्रियजप्तो पाणिमस्य नवपल्लवलीलम् / भृङ्गभगिरिव रुद्रपराक्षश्रेणिरश्रयत रुद्रपरस्य / / 40 / / उत्तमं स महति स्म महीभृत्पूरुषं पुरुषसूक्तविधानः / 10 द्वादशापि च स केशवमूर्तीादशाक्षरमुदीर्य ववन्दे / / 41 / / मल्लिकाकुसुमदुण्डुभकेन स भ्रमीवलयितेन कृते तम् / प्रासने निहितमैक्षत साक्षा- . त्कुण्डलीन्द्रतनुकुण्डलभाजम् मेचकोत्पलमयी बलिबन्धुस्त द्वलिस्रगुरसि स्फुरति स्म / कौस्तुभाख्यमणिकुट्टिमवास्तु श्रीकटाक्षविकटायितकोटि: // 43 / / स्वर्णकेतकशतानि स हेम्नः पुण्डरीकघटनां रजतस्य / मालयारुणमणे: करवीरं तस्य मूनि पुनरुक्तमकार्षीत् / / 44 / / . नाल्पभक्तबलिरन्ननिवेद्यस्तस्य हारिणमदेन स कृष्णः / / शङ्खचक्रजलजातवदर्चः शङ्खचक्रजलपूजनयाभूत् / / 45 / / राज्ञि कृष्णलघुधूपनधूमाः पूजयत्यहिरिपुध्वजमस्मिन् / निर्ययुर्भवधृता भुजगा भीदुर्यशोमलिनिता इव जालैः / / 46 / / 25 अर्घनिःस्वमणिमाल्यविमिश्रः स्मेरजातिमयदामसहस्र / तं पिधाय विदधे बहुरत्नक्षीरनीरनिधिमग्नमिवैषः / / 47 / / // 42 // 20 Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632 ] / काव्यषट्कं अक्षसूत्रगतपुष्करबीजश्रेणिरस्य करसंकरमेत्य / '' शौरिसूक्तजपितुः पुनरापत्पद्मसचिरवासविलासम् / / 48 / / कैट भारिसदयोनंतमूर्ना सञ्जिता विचकिलम्रगनेन / जह नुजेव भुवनप्रभुणाऽभात्सेवितानुनयतायतमाना / / 49 / / स्वानुरागमनघ: कमलायां सूचयन्नपि हृदि न्यसनेन / गौरवं व्यधित वागघिदेव्याः श्रीगृहोर्ध्व निजकण्ठनिवेशात् // 50 / / इत्यवेत्य वसुना बहुनापि प्राप्नुवन्न मुदमर्चनया सः / 10 मुक्तिमौक्तिकमय रथ हारभक्तिमहंत हरेपहारैः / / 51 / / दूरतः स्तुतिरवाग्विषयस्ते रूपमस्मभिधा तव निन्दा / तत्क्षमस्व यदहं प्रलपामीत्युक्तिपूर्वमयमेतदवोचत् / / 52 / / स्वप्रकाश ! जड एष जनस्ते वर्णनं यदभिलष्यति कर्तुम् / नन्वहर्पतिमहः प्रति स स्यान्न प्रकाशनरसस्तमसः किम् // 53 / / मैत्र वाङ्मनसयोविषयो भू स्त्वां पुनर्न कथमुद्दिशतां ते / उत्कचातकयुगस्य घन: स्या तृप्तये घनमनाप्नुवतोऽपि // 54 / / छद्ममत्स्यवपुषस्तव पुच्छास्फालनाज्जल मिवोद्धतमब्धेः / श्वैत्यमेत्य गगनाङ्गणसङ्गादाविरस्ति विबुधालयगङ्गा / 55 // भूरिसृष्टिधृतभूवलयानां पृष्ठसीमनि किणैरिव चक्रः / 25 चुम्बितावतु जगत्क्षितिरक्षा कर्मठस्य कमठस्तव मूर्तिः / / 56 / / Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] दिक्षु यखुरचतुष्टयमुद्रा-.. मभ्यवैमि चतुरोऽपि समुद्रान् / तस्य पोत्रिवपुषस्तव दंष्ट्रा ____ तुष्टयेऽस्तु मम वास्तु जगत्याः // 7 // उद्घतिस्खलदिलापरिरम्भा ल्लोमभिर्बहिरितैर्बहुहृष्टः / ब्राह्ममण्डमभवद्वलिनीपं - केलिकोल ! तव तत्र न मातः / / 58 / / दानवाद्यगहनप्रभवस्त्वं सिंह ! मामव रवैर्घनघोरैः / : 10 वैरिदारिदिविषत्सुकृतास्त्रनामसंभवभवन्मनुजार्घः / / 56 / / दैत्यभर्तु रुदरान्धुनिविष्टो शक्रसंपदमिवोद्धरतस्ते / / पातु पाणिशृणिपञ्चकमस्मा-. छिन्नरज्जुनिभलग्नतदन्त्रम् // 60 स्वेन पूर्यत इयं सकलाशा - भो बले ! न मम किं भवतेति / त्वं बटः कपटवाचि पटीया न्देहि वामन ! मनःप्रमदं नः // 61 / / दानवारिरसिकायविभूतेर्वश्मि तेऽस्मि सुतरां प्रतिपत्तिम् / 20 इत्युदग्रपुलकं बलिनोक्त त्वां नमामि कृतवामनमायम् / / 62 / / भोगिभिः क्षितितले दिवि वासं, बन्धमेष्यसि चिरं ध्रियमाणः / . पारिणरेष भूवनं वितरेति छद्मवाग्भिरव वामन ! विश्वम् / / 63 / / ...माशयस्य विवृतिः क्रियते किं दित्सु " रस्मि हि भवच्चरणेभ्यः / Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 ] [ काव्यषटकं विश्वमित्यभिहितो बलिनास्मा ___वामन ! प्रणतपावन ! पाया: / / 64 / / क्षत्रजातिरुदियाय भुजाभ्यां . या तवैव भूवनं सृजतः प्राक् / जामदग्न्यवपुषस्तव तस्या स्तो लयार्थमुचितौ विजयेताम् // 65 / / पांसुला बहुपतिनियत' या वेधसारचि रुषा नवखण्डा / तां भुवं कृतवतो द्विज भुक्तां युक्तकारितरता तव जीयात् / / 66 / / कार्तवीर्यभिदुरेण दशास्ये रेणुकेय ! भवता सुखनाश्ये / 10 कालभेदविरहादसमाघि नौमि रामपुनरुक्तिमहं ते / / 67 / / हस्तलेखमसृजत्खलु जन्मस्थान रेणुकमसौ भवदर्थम् / राम ! राममधरीकृततत्तल्लेखकः प्रथममेव विधाता / / 68 / / उद्भवाजतनुजादज ! कामं विश्वभूषण ! न दूषणमत्र / दूषणप्रशमनाय समर्थ येन देव ! तव वैभवमेव // 66 / / 15 नो ददासि यदि तत्त्वधियं मे यच्छ मोहमपि तं रघुवीर ! / येन रावण चमूर्युधि मूढा त्वन्मयं जगदपश्यदशेषम् / / 70 / / प्राज्ञया च पितुरज्ञभिया च श्रीरहीयत महीप्रभया द्विः / लचितश्च भवता किमु न द्विारिराशिरुदकाङ्कगलङ्कः / / 71 / / कामदेव विशिखैः खलु नेशं मार्पयज्जनकजामिति रक्षः / देवतादमरणे वरवाक्यं तथ्ययत्स्वमपुनाद्भवदस्त्रैः / / 72 / / तद्यशो हसति कम्बुकदम्बं शम्बुकस्य न किमम्बुधिचुम्बि / नामशेषितससैन्यदशास्यादस्तमाप यदसौ तब हस्तात् / / 73 / / मृत्युभीतिकरपुण्यजनेन्द्र त्रासदानजमुपायं यशस्तत् / ह्रीणवानसि कथं न विहायक्षुद्रदुर्जनभिया निजदारान् / / 74 / / 25 इष्टदारविरहौर्वपयोधि स्त्वं शरण्य ! शरणं स ममैधि / Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषघोयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [ 635 लक्ष्मणक्षणवियोगकृशानौ यः स्वजीविततणाहुतियज्वा // 75 / / क्रौञ्चदुःखमपि वीक्ष्य शुचा यः श्लोकमेकमसृजत्कविराद्यः / स त्वदुत्थकरुणः खलु काव्यं श्लोकसिन्धुमुचितं प्रबबन्ध / / 76 / / विश्रवःपितृकयाप्तुमनहँ सश्रवस्त्वमनयेत्युचितज्ञः / कि चतिथ न शूर्पणखाया- ' लक्ष्मणन वपुषा श्रवसी वा // 77 / / ते हरन्तु दुरितव्रतति मे यैः स कल्पविटपी तव दोभिः / छद्मयादवतनोरुदपाटि स्पर्धमान इवं दानमदेन / / 78 / / बालकेलिषु तदा यदलावीः / कर्परीभिरभिहत्य तरङ्गान् / भाविबाणभुजमेदनलीला सूत्रपात्र इव पातु तदस्मान् / / 76 / / कर्णशक्तिमफलां खलु कर्तुं सज्जितार्जुनरथाय नमस्ते / केतनेन कपिनोरसिशक्ति . लक्ष्मणं कृतवता हृतशल्यम् // 80 // नापगेयमनयः सशरीरं द्यां वरेण नितरामपि भक्तम् / मा स भूत्सुरवघूसुरतज्ञो दिव्यपि व्रतविलोपभियेति / / 81 / / घातितार्कसुतकर्णदयालुर्जेत्रितेन्दुकुलपार्थकृतार्थः / अर्धदुःखसुखमभ्यनयस्त्वं सास्र भानुविहसद्विधुनेत्रः / / 82 / / 25. प्रारणवत्प्रणयिराध ! न राधा पुत्रशत्रुसखिता सदृशी ते / Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ काव्यषट्कं श्रीप्रियस्य सहगेव तव श्री वत्समात्महृदि धर्तुमजस्रम् // 86 / / तावकापरतनोः सितकेशस्त्वं हली किल स एव च शेपः / साध्वसाववतरस्तव धत्ते सज्जरच्चिकुरनालविलासः / / 84 / / हृद्यगन्धवह ! -भोगवतीश: शेषरूपमपि बिभ्रदशेषः / भोगभूतिमदिरारुचिरश्रीरुल्लसत्कुमुदबन्धुरुचिस्त्वम् / / 8 / / रेवतोश ! -सुषमा किल नीलस्याम्बरस्य रुचिरा तनुभासा। कामपाल ! भवतः कुमुदाविर्भावभावितरुचेरुचितैव / / 86 / / एकचित्तततिरद्वयवादि नत्रयीपरिचितोऽथ बुधस्त्वम् / पाहि मां विधुतकोटि चतुष्क: पञ्चबाणविजयी षडभिज्ञः // 87 / / सत्र मारजयिनि त्वयि साक्षात्कुर्वति क्षणिकतात्मनिषेधौ / पुष्पवृष्टिरपतत्सुरहस्तात्पुष्पशस्त्रशरसंतति रेव // 88 / / तावके हृदि निपात्य कृतेयं मन्मथेन दृढधैर्यतनुत्रे / कुण्ठनादतितमां कुसुमानां छत्रमित्रमुखतैव शराणाम् // 86 / / यत्तव स्तवविधौ विधिरास्ये चातुरी चरति तच्चतुरास्यः / त्वय्यशेषविदि जाग्रति शर्वः - सर्वविद्वतया शितिकण्ठः // 60 / / धूमवत्कलयता युधि कालं म्लेच्छकल्पशिखिना करवालम् / कल्किना दशतयं मम कल्कं त्वं व्युदस्य दशमावतरेण / !61|| 25 देहिनेव यशसा भ्रमतोव्या पाण्डरेण रणरेणुभिरुच्चैः / Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषघोयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [ 637 विष्णुना जनयितुर्भवताभू नाम विष्णुयशसश्च सदर्थम् // 62 // सन्तमद्वयमयेऽध्वनि दत्तात्रेयमर्जुनयशोजनबोजम् / नौमि योगजयितानघसंज्ञं त्वामलर्कभवमोहतमोर्कम् / / 93 / / भानुसूनुमनुगृहा जय त्वं राममूर्तिहतवृत्रहपुत्रः / इन्द्रनन्दनसपक्षमपि त्वां नौमि कृष्ण ! -निहितार्कतनूजम् / / 64 / / वामनादणुतमादनु जीया स्त्वं त्रिविक्रमतनूभृतदिक्कः / वीतहिंसनकथादथ बुद्धा कल्किना हतसमस्त ! नमस्ते // 95 / / मां त्रिविक्रम ! पुनीहि पदे ते किं लगन्नजनि राहुरुपानत् / / किं प्रदक्षिणन कृमिपाशं / - जाम्बवानदित ते बलिबन्धे // 66 / / अर्धचक्रवपुषार्जुनबाहू न्योऽलुनात्परशुनाथ महस्रम् / तेन किं सकलचक्रविलूने . बाणबाहुनिचयेऽऽचति चित्रम् // 67 / / पाञ्चजन्यमधिगत्य करेणा... पाञ्चजन्यमसुरानिति वक्षि / चेतना: स्थ किल पश्यत किं ना चेतनोऽपि मयि मुक्तविरोधः // 68 / / तावकोरसि लसद्वनमाले श्रीफल द्विफलशाखिकयेव / Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 638 ] . [ काव्यषट्कं स्थीयते कमलया त्वदजस्र- . . स्पर्शकण्टकितयोत्कुचया च // 66 / / त्यज्यते न जलजेन करस्ते शिक्षितुं सुभगभूयमिवोच्चैः / प्राननं च नयनायितबिम्बः सेवते कुमुदहासकरांशुः / / 100 / ये हिरण्यकशिपु रिपुमुच्चै सवणं च कुरुवीरचयं च। हन्त हन्तुमभवंस्तव योगा. स्ते. नरस्य च हरेश्च जयन्ति / / 101 / / केयमर्धभवता भवतोहे मायिना ननु भवः सकलस्त्वम् / शेषतामपि भजन्तमशेष, वेद वेदनयनो हि जनस्त्वाम् // 102 / / प्राग्भवैरुदगुदग्भवगुम्फा न्मुक्तियुक्तिविहताविह तावत् / नापरः स्फुरति कस्यचनापि त्वत्समाधिमवधय समाधिः // 103 / / ऊर्ध्वदिक्कदलनां द्विरकार्षीः किं तनुं हरिहरीभवनाय / किं च तिर्यगभिनो नृहरित्वे कः स्वतन्त्रमनु नन्वनुयोगः // 104 / / प्राप्तकाम ! सृजसि त्रिजगत्कि .. किं भिनत्सि यदि निर्मितमेव / पासि चेदमवतीयं मुहुः किं / स्वात्मनापि यदवश्यविनाश्यम् / / 10 / / 25 Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नेपथोयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ) [ 639 जाह्नवीजलजकौस्तुभचन्द्रा * पादपाणिहृदयेक्षणवृत्तीन् / उत्थिताब्धिसलिलावयि लोला किं स्थिता परिचितान्परिचिन्त्य // 106 / / 5 वस्तु वास्तु घटते न भिदाना यौक्तनैक विधबाधविरोधैः / तत्त्वदीहितविजृम्भिततत्तभेदमेतदिति तत्त्वनिरुक्तिः / 107 / वस्तु विश्वमुदरे तव दृष्ट्वा बाह्यवत्किल मृकण्डतनूजः / __ स्वं विमिश्रमुभयं न विविञ्च . निर्ययो स कतमस्त्वमवैषि // 108 / / ब्रह्मणोऽस्तु तव शक्तिलतायां मूनि विश्वमथं पत्युरहीनाम् / बालतां कलयतो जठरे वा सर्वथासि जगतामवलम्बः / 106 / धर्मबीजसलिला सरिदज्रावर्थमूलमुरसि स्फुरति श्रीः / / कामदैवतमपि प्रसवस्ते ब्रह्म मुक्तिदमसि स्वयमेव // 110 / / लीलयापि तव नाम जना ये . गृह्णते नरकनाशकरस्य / तेभ्य एव नरकैरुचिता भी- . - स्ते तु बिभ्यतु कथं नरकेभ्यः // 111 / / मृत्युहेतुषु न वज्रनिपाता२० . भीतिमर्हति जनस्त्वयि भक्तः / यत्तदोच्चरति वैष्णवकण्ठा निष्प्रयत्नमपि नाम तव द्राक् // 112 / / सर्वथापि शुचिनि क्रियमाणे ___ मन्दिरोदर इवावकरा ये / 25 उद्भवन्ति भविनां हृदि तेषां . शोधनी भवदनुस्मृतिधारा ||113 / / Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 940 ] [ काव्यषट्क अस्मदाद्यविषयेऽपि विशेषे रामनाम तव धाम गुणानाम् / अन्वबन्धि भवतैव तु कस्मा दन्यथा ननु जनुस्बिलयेऽपि // 114 / / भक्तिभाजमनुगह्य दृशा मां भास्करेण कुरु वीततमस्कम् / अपितेन मम नाथ ! न तापं लोचनेन विधुना बिधुनासि // 115 / / लक्यन्नहरहर्भवदाज्ञा-. मस्मि हा विधिनिषेधमयीं यः / दुर्लभं स तपसापि गिरैव त्वत्प्रसादमहमिच्छुरलज्जः // 116 // विश्वरूप ! कृतविश्व ! कियत्ते वैभवाद्भुतमणौ हृदि कुर्वे / हेम नाति कियनिज चीरे काञ्चनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः // 117 / / इत्युदीर्य स हरि प्रति संप्र ज्ञातवासिततमः समपादि / भावनाबलविलोकितविष्णौ प्रीतिभक्तिसदृशानि चरिष्णुः // 118 / / विप्रपाणिषु भृशं वसुवर्षी पावसात्कृतपितृऋतुकव्यः / श्रेयसा हरिहरं परिपूज्य प्रह्व एष शरणं प्रविवेश / / 119 / / माध्यंदिनादनु विधेर्वसुधासुधांशु रास्वादितामतमयौदनमोदमानः / 25 प्राञ्चं स चित्रमविदूरितवैजयन्तं वेश्माचलं निजरुचीभिरलंचकार // 120 / / Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [641 भीमात्मजापि कृतदेवतभक्तिपूजा . पत्यौ च भुक्तवति भुक्तवती ततोऽनु / तस्याङ्कमकुरिततत्परिरिप्समध्य मध्यास्त भूषणभरातिभरालसाङ्गी // 121 / / तामन्वगादशितविम्बविपाकचञ्चोः स्पष्टं शलाटुपरिणत्युचितच्छदस्य / कीरस्य कापि करवारिरुहे वहन्ती सौन्दर्यषुञ्जमिव पञ्जरमेकमाली // 122 / / कूजायुजा बहुलपक्षशितिम्नि सीम्ना स्पष्टं कुहूपदपदार्थमिथोऽन्वयेन / तिर्यग्धृतस्फटिकदण्डकवतिनका . तामन्ववर्तत पिकेन मदाधिकेन // 123 / / शिष्याः कलाविधिषु भीमभुवो वयस्या . वीणामृदुक्वणनकर्मणि याः प्रवीणाः / प्रासीनमेनमुपवीणयितु ययुस्ता - गन्धर्वराजतनुजा मनुजाधिराजम् / / 124 / / तासामभासत कुरङ्गदृशां विपश्ची . किंचित्पुरः कलितनिष्कलकाकलीका। भैमीतथामधुस्कण्ठलतोपकण्ठे * शब्दायितु प्रथममप्रतिभावतीव // 125 / / . सा यद्धृताखिलकलागुणभूमभूमी .. भैमीतुलाधिगतये स्वरसंगतासीत् / तं प्रागसावविनयं परिवादमेत्य लोकेऽधुनापि विदिता परिवादिनीति / / 126 / / 25 नादं निषादमधुरं ततमुज्जगार - साम्यासभागवनिभृत्कुलकुञ्जरस्य / Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642) [ काव्यषट्कं स्तम्बेरमीव कृतसश्रुतिमूर्धकम्पा ___वीणा विचित्रकरचापलमाभजन्ती / / 17 / / प्राकृष्य सारमखिलं किमु वल्लकीनां __ तस्या मृदुस्वरमसजि न कण्ठनालम् / तेनान्तरं तरलभावमवाप्य वीणा ह्रीणा न कोणममुचकिमु वालयेषु / / 128 / / तद्दम्पतिश्रुतिमधून्यथ चाटुगाथा वीणास्तथा जगुरतिस्फुटवर्णबन्धम् / इत्थं यथा वसुमतीरतिगृह्यकस्ता: कीरः किरन्मुदमुदोरयति स्म विश्वाः / / 126 / / अस्माकमुक्तिभिरवैष्यथ एव बुद्धे धिं युवामतिमती स्तुमहे तथापि / ज्ञानं हि वागवसरावचनाद्भवद्भया मेतावदप्यनवधारितमेव न स्यात् / / 130 / / भूभृद्भवाङ्कभुविराजशिखामणेः सा त्वं चास्य भोगसुभगस्य समः क्रमोऽयम् / यन्नाकपालकलनाकलितस्य भतु - रत्रापि जन्मनि सती भवती स भेदः / / 131 / / एषा रतिः स्फुरति चेतसि कस्य यस्याः सूते रति द्युतिरथ त्वयि वा तनोति / त्रैयक्षवीक्षणखिलीकृतनिर्जरत्व सिद्धायुरध्वमकरध्वजसंशयं कः // 132 / / एतां घरामिव सरिच्छविहारिहारा मुल्लासितस्त्वमिदमाननचन्द्रभासा। बिभ्रद्विभासि पयसामिव राशिरन्त दिश्रियं जनमनःप्रियमध्यदेशाम् / / 133 / / 25 Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [643 दत्ते जय जनितपत्रनिवेशनेयं ___ साक्षीकृतेन्दुवदना मदनाय तन्वी / मध्यस्थदुर्बलतमत्वफलं किमेत- द्भक्तिर्यदत्र तव भत्सितमत्स्यकेतोः / / 134 / / चेतोभवस्य भवती कुचपत्रराज ____धानीयकेतुमकरा ननु राजधानी / अस्यां महोदयमहस्पृशि मीनकेतोः के तोरणं तरुणि ! न ब्रुवते ध्रुवौ ते / / 135 / / अस्या भवन्तमनिशं भवतस्तथैनां ' कामः श्रमं न कथमृच्छति नाम गच्छन् / छायैव वामथ गतागतमाचरिष्णो स्तस्याध्वजश्रमहरा मकरध्वजस्य / / 136 / / स्वेदाप्लवप्रणयिनी नवरोमराजी रत्यै यदाचरति जागरितव्रतानि / आभासितेन नरनाथ ! मधूत्थसान्द्र- . 'मग्नासमेषुशरकेशरदन्तुराङ्गः // 137 / / प्राप्ता तवापि नृप ! जीवितदेवतेयं . धर्माम्बुशीकरकरम्बनमम्बुजाक्षी / ते ते यथा रतिपतेः कुसुमानि बाणाः . . स्वेदस्तथैव किमु तस्य शरक्षतास्रम् // 13 // रागं प्रतीत्य युवयोस्तमिमं प्रतीची .. भानुश्च किं द्वयमजायत रक्तमेतत् / तद्वीक्ष्य वां किमिह केलिसरित्सरोजैः कामेषुतोचितमुखत्वमधीयमानम् // 136 / / 25. अन्योन्यरागवशयोयुवयोविलास स्वच्छन्दताच्छिदपयातु तदालिवर्गः / Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 ) [ काव्यषट्कं प्रत्याजयन्सिचयमाजिमकारयन्वा दन्तै खैश्च मदनो मदनः कथं स्यात् / / 140 / / इति पठति शुके मृषा ययुस्ता बहु नपकृत्यमवेत्य सांधिवेलम् / कुपितनिजसखीदृशार्धदृष्टाः ___ कमलतयेव तदा निकोचवत्या // 141 / / अकृत परभतः स्तुहि स्तुहीति ___श्रुतवचनस्रगनूक्तिचुञ्चुचञ्चुः / पठितनलनुति प्रतीव कीर। ____ तमिव नपं प्रति जातनेत्ररागः / / 142 / / तुङ्गप्रासादवासादथ भृशकृशतामायती केलि कुल्या मद्राक्षीदर्कबिम्बप्रतिकृतिमविना भीमजा राजमानाम् / वक्रं वक्रं व्रजन्ती फरिणयुवतिमिति त्रस्नुभिर्व्यक्तमुक्तान्योन्यं विद्रुत्य तीरे रथपदमिथुनः सूचितामतिरुत्या / 143: अथ रथचरणौ विलोक्य रक्ता वतिविरहासहताहताविवार / अपि तमकृत पद्मसुप्तिकालं श्वसनविकीर्णसरोजसौरभं सा // 144 / / अभिलपति पति प्रति स्म भैमी सदय ! विलोकय कोकयोरवस्थाम् / मम हृदयमिमौ च भिन्दतीं हा क इव विलोक्य नरो न रोदितीमाम् / / 145 / / कुमुदमुदमुदेष्यतीमसोढा रविरविलम्बितुकामतामतानीत् / प्रतितरु विरुवन्ति किं शकुन्ताः स्वहृदि निवेशितकोककाकुकुन्ताः // 146 / / Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीय चरितम् :: एकविंशः सर्गः ) अपि विरहमनिष्ट माचरन्ता . वधिगमपूर्वकपूर्वसर्वचेष्टौ / इदमहह निदर्शनं विहगौ विधिवशचेतनचेष्टनानुमाने // 147 / / 5 अघ्रिस्थारुणिमेष्टकाविस रणैः शोणं कृपाणः स्फुट -- कालोऽयं विधिना रथाङ्गमिथुनं विच्छेत्तुमन्विच्छता / रश्मिग्राहिगरुत्मदग्रजसमारब्धाविरामभ्रमौ / दण्डभ्राजिनि भानुशाणवलये संसज्य किं निज्यते / 148 // इति स विधुमुखीमुखेन मुग्धा- .. ___लपितसुधासवमपितं निपोय / स्मितशबलवलन्मुखोऽवदत्तां ... स्फुटमिदमोशमीदृशं यथात्थ // 146 / / स्त्रीपुंसौ प्रविभज्य जेतुमखिलावालोचितौचित्ययो नम्रां वेद्मि रतिप्रसूनशरयोश्चापद्वयीं तद्धृवौ / त्वन्नासाच्छलनिह नुतां. द्विनलिकी नालीकमुक्त्येषिणो स्त्वनिःश्वासलते मधुश्वसनजं वायव्यमस्त्रं तयोः / / 150 / / पीतो वर्णगुणः स चातिमधुरः कायेऽपि तेऽयं यथा यं बिभ्रत्कनकं सुवर्णमिति कैराहत्व नोत्कीर्त्यते / का वर्णान्तरवर्णना धवलिमा राजैव रूपेषु य___ स्तद्योगादपि यावदेति रजतं दुर्वर्णतादुर्यशः // 151 / / खण्डक्षोदमृदि स्थले मधुपयःकादम्बिनीतर्पणा त्कृष्टे रोहति दोहदेन पयसां पिण्डैन चेत्पुण्डकः / स द्राक्षाद्रवसेचनैर्यदि फलं धत्ते तदा त्वद्गिरा मुद्देशाय ततोऽप्युदेति मधुराधारस्तमप्प्रत्ययः // 152 / / 25 उन्मीलद्गुडपाकतन्तुलतया रज्ज्वा भ्रमीरर्जयन् दानान्तःश्रतशर्कराचलमथः स्वेनामृतान्धाः स्मरः / Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 ) [ काव्यषट्क नव्यामिक्षुरसोदधेर्यदि सुधामुत्थापयेत्सा भव ज्जिह्वायाः कृतिमा ह्वयेत परमां मत्कर्णयोः पारणाम् / 153 / प्रास्ये या तव भारती वसति तल्लीलारविन्दोल्लस द्वासे तत्कलवैणनिक्वणमिलद्वाणीविलासामृते / 5 तत्केलिभ्रमणाहंगैरिकसुधानिर्माणहधिरे तन्मृक्तामणिहार एव किमयं दन्तस्रजो राजत: / / 154 / / वाणी मन्मथतीर्थमुज्ज्वल रसस्रोतस्वती कापि ते खण्ड: खण्ड इतीदमोयपुलिनस्यालप्यते वालुका / एतत्तीरमृदैव किं विरचिताः पूता: सिताश्चक्रिकाः 10 कि पीयूषमिदंपयांसि किमिदंतीरे तवैवाधरौ / / 155 / / परभृतयुवतीनां सम्यगायाति गातं न तव तरुणि ! वाणोयं सुधासिन्धुवेणी / कति न रसिककण्ठे कर्तुमभ्यस्यतेऽसौ भवदुपविपिनाने ताभिरामेडितेन // 156 / / 15 ऊर्ध्वस्ते रदनच्छदः स्मरधनुर्बन्धकमालामयं मौर्वी तत्र तवाघराधरतटाधःसीमलेखालता। एषा वागपि तावकी ननु धनुर्वेदः प्रिये ! मान्मथः सोऽयं कोणधनुष्मतीभिरुचितं वीणाभिरभ्यस्यते / / 157 / / स ग्राम्यः स विदग्धसंसदि सदा गच्छत्यपाङ्क्तेयतां ___ तं च स्प्रष्टुमपि स्मरस्य विशिखा मुग्धे ! विगानोन्मुखाः / यः किं मध्विति नाधरं तव कथं हेमेति न त्वद्वपु: ___ कोहङनाम सुधेति पृच्छति न ते दत्ते गिरं चोत्तरम् / 158 / मध्ये बद्धाणिमा यत्सगरिममहिमश्रोणिवक्षोजयुग्मा जाग्रच्चेतोवशित्वा स्मितधृतलधिमा मां प्रतीशित्वमेषि / 25 सूक्तौ प्राकाम्यरम्या दिशि विदिशि यशोखब्धकामावसाया भूतीरष्टावपीशस्तददित मुदितः स्वस्य शिल्पाय तुभ्यम् / 156 / Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: एकविंशः सर्गः ] [ 647 त्वद्वाचः स्तूतये वयं न पटवः पीयूषमेव स्तूमस्तस्यार्थे गरुडामरेन्द्रसमरः स्थाने स जानेऽजनि / द्राक्षापानकमानमर्दनसृजा क्षीरे दृढावज्ञया यस्मिन्नाम धृतोऽनया निजपदप्रक्षालनानुग्रहः // 160 / / 5 शोकश्चेत्कोकयोस्त्वां सुदति ! तुदति तद्व्याहराज्ञाकरस्ते गत्वा कुल्यामनस्तं वजितुमनुनये भानुमेतज्जलस्थम् / बद्धे यद्यञ्जलावप्यनुनयविमुखः स्यान्ममैकग्रहोऽयं दत्त्वैवाभ्यां तदम्भोञ्जलिमिह भवतीं पश्य मामेष्यमाणम् 161 तदानन्दाय त्वत्परिहसितकन्दाय भवती 10 निजालीनां लीनां स्थितिमिह मुहूर्तं मृगयंताम् / इति व्याजात्कृत्वालिषु चलितचित्तां सहचरी __ स्वयं सोऽयं सायंतनविधिविधित्सुर्बहिरभूत् // 162 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / 15 तस्यागादयमेकविंशगणनः काव्येऽतिनव्ये कृती भैमीभर्तृचरित्रवर्णनमये सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 163 / / // इति महाकविहर्षप्रणीते नैषधीयप्रकाशे एकविंशः सर्गः समाप्तः / / 21 / / Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 ] [ काव्यषट्क // 22 // द्वाविंशः सर्गः॥ उपास्य सांध्यं विधिमन्तिमाशा रागेण कान्ताधरचुम्बिचेताः। अवाप्तवान् सप्तमभूमिभागे भैमीधरं सौधमसौ घरेन्द्रः // 1 // प्रत्युव्रजन्त्या प्रियया विमुक्तं पर्यङ्कमङ्कस्थितसज्जशय्यम् / अध्यास्य तामप्यधिवास्य सोऽयं संध्यामुपश्लोकयति स्म सायम् // 2 // 10 विलोकनेनानुग्रहाण तावद्दिशं जलानामधिपस्य दारान् / अकालि लाक्षापयसेव येयमपूरि पकैरिव कुङ्कुमस्य / / 3 / / उच्चस्तरादम्बरशैल मौलेश्च्युतो रविगैरिकगण्डशैलः / तस्यैव पातेन विंचूर्णितस्य संध्यारजोराजिरिहोज्जिहीते / / 4 / / अस्ताद्रिचूडालयपक्कणालि च्छेकस्य किं कुक्कुटपेटकस्य / यामान्तकजोल्लसितैः शिखौघ दिग्वारुणी द्रागरुणीकृतेयम् पश्य द्रुतास्तंगतसूर्यनिर्य करावलीहैङगुलवेत्रयात्र। निषिध्यमानाहनि संध्ययापि रात्रिप्रतीहारपदेऽधिकारम् महानट: किं नु सभानुरागे संध्याय संध्यां कुनटीमपीशाम् / तनोति तत्वा वियतापि तार श्रेणिस्रजा सांप्रतमङ्ग ! -हारम् / / 7 / / Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ) [ 946 भूषास्थिदाम्नस्त्रुटितस्य नाट्या त्पश्योडुकोटोकपटं वहद्भिः / "दिङमण्डलं मण्डयतीह खण्डैः / सायंनटस्तारकराकिरीटः // 8 // कालः किरातः स्फुटपद्मकस्य / वधं व्यधाद्यस्य दिनद्विपस्य / तस्येव संध्या रुचिरास्रधारा - ताराश्च कुम्भस्थलमौक्तिकानि // 6 // संध्यास रागः ककुभो विभाग: शिवाविवाहे विभुनायमेव / 10 दिग्वाससा पूर्वमवैमि पुष्पसिन्दूरिकापर्वणि पर्यघायि / / 10 / / सतीमुमामुद्वहता च पुष्प सिन्दूरिकार्थं वसने सुनेत्रे! / - दिशौ द्विसंघोमभि रागशोभे - दिग्बाससोमे किमलम्भिषाताम् // 11 // मादाय दण्डं सकलासु दिक्ष . योऽयं परिभ्राम्यति भानुभिक्षः / अब्धौ निमज्जन्निव तापसोऽयं . संध्याभ्रकाषायमघत्त सायम् // 12 // . प्रस्ताचलेऽस्मिन्निकषोपलाभे संध्याकषोल्लेखपरीक्षितो यः / विक्रीय तं हेलिहिरण्यपिण्डं तारावराटानियमादित द्यौः // 13 / / पचेलिमं दाडिममर्कबिम्ब मुत्तार्य संध्या त्वगिवोज्झितास्य / तारामयं बीजभुजादसीयं कालेन निष्ठ्य तमिवास्थियूथम् // 14 / / Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 ] [ काव्यषटकं तारातति/जमिवादमाद मियं निरष्ठेवि यदस्थियूथम् / तनिष्कुलाकृत्य रवि त्वगेषा. संध्योज्झिता पाकिमदाडिमं वा / / संध्यावशेषे धृतताण्डवस्य चण्डीपतेः पत्पतनाभिघातात् / कैलासशैलस्फटिकाश्मखण्डै रमण्डि पश्योत्पतयालुभिद्यौः // 15 / / इत्थं हिया वर्णनजन्मनेव संध्यामपक्रान्तवतीं प्रतीत्य / तारातमोदन्तुरमन्तरिक्ष निरीक्षमाणः स पुनर्बभाषे / / 16 / / रामेषुमर्मवणनातिवेगा- . द्रत्नाकर: प्रागयमुत्पपात / ग्राहौघकिर्मीरितमीनकम्बु नभो न भोः कामशरासनभ्र! / / 17 / / मोहाय देवाप्सरसां विमुक्ता ___ स्ताराः शराः पुष्पशरेण शके / पञ्चास्यवत्पञ्चशरस्य नाम्नि प्रपञ्चवाची नतु पञ्चशब्दः // 18 / / नभोनदीकूलकुलायचक्री कुलस्य नक्तं विरहाकुलस्य / दृशोरपां सन्ति पृषन्ति ताराः पतन्ति तत्संक्रमणानि धाराः // 19 / / 25 अमूनि मन्येऽमरनिर्भरिण्या यादांसि गोधा मकरः कुलीरः / तत्पूरखेलत्सुरभीतिदूरमग्नान्यधः स्पष्टमितः प्रतीमः // 20 // Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] [ 651 स्मरस्य कम्बुः किमयं चकास्ति दिवि त्रिलोकीजयवादनीयः / कस्यापरस्योडमय: प्रसूनैर्वादित्रशक्तिर्घटते भटस्य / / 21 / / कि योगिनीयं रजनी रतीशं . याऽजीजिवत्पद्मममूमुहच्च / योगद्धिमस्या महतोमलग्न . मिदं वदत्यम्बरचूम्बि कम्बु // 22 / / प्रबोधकालेऽहनि बाधितानि ताराः खपुष्पाणि निदर्शयन्ती / निशाह शून्याध्वनि योगिनीयं __ मृषा जगदृष्टमपि स्फुटाभम् // 23 / / एणः स्मरेणाङ्कमयः सपत्रा- . कृतो भवद्भ्युगधन्वना यः / ... मुखे तवेन्दो लसता स तारा पुष्पालिबाणानुगतो गतोऽयम् // 24 / / 15. लोकाश्रयो * मण्डपमादिसृष्टि __ ब्रह्माण्डमाभात्यनुकाष्ठमस्य / स्वकान्तिरेणूत्करवान्तिमन्ति . - घुणवणद्वारनिभानि भानि // 25 / / शचीसपत्न्यां दिशि पश्य भैमि ! शक्रेभदानद्रवनिर्भरस्य / 20 पोप्लूयते वासरसेतुनाशादुच्छङ्खल: पूर इवान्धकारः / / 26 / / रामालिरोमावलिदिग्विगाहि ध्वान्तायते वाहनमन्तकस्य / यद्वीक्ष्य दूरादिव बिभ्यतः स्वान .. . श्वान्गृहीत्वापसृतो विवस्वान् // 27 // 25 पक्वं महाकालफलं किलासी . प्रत्यग्गिरेः सानुनि भानुबिम्बम् / Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652 ] [ काव्यषट्कं भिन्नस्य तस्यैव दृषन्निपाता द्वीजानि जानामितमां तमांसि / / 28 / / पत्युगिरीणामयशः सुमेरु प्रदक्षिणाद्धास्वदनाहतस्य / दिशस्तमश्चैत्ररथान्यनाम पत्रच्छटाया मृगनाभिशोभि / / 26 / / ऊवं धतं व्योम सहस्ररश्मे दिवा सहस्रप करैरिवासीत् / पतत्तदेवांशुमता विनेदं नेदिष्ठतामेति कुतस्तमिस्रम् / / 30 / / ऊर्ध्वापितन्युब्जकटाहकल्पे __ यद्योम्नि दीपेन दिनाधिपेन / न्यधायि तद्भूममिलद्गुरुत्वं ___ भूमौ तम: कज्जलमस्खलत्किम् / / 31 / / ध्वान्तैणनाभ्या शितिनाम्बरेण दिशः शरैः सूनशरस्य तारैः / मन्दाक्षलक्ष्या निशि मामनिन्दौ सेा भवायान्त्यभिसारिकाभाः / / 32 / / भास्वन्मयीं मीलयतो दृशं द्रा मिथोमिलद्व्यञ्चलमादिपुंसः / पाचक्ष्महे तन्वि ! तमांसि पक्ष्म श्यामत्वलक्ष्मीविजितेन्दुलक्ष्म . // 33 / / विवस्वतानायिषतेव मिश्राः स्वगोसहस्रण समं जनानाम् / 25 गावोऽपि नेत्रापरनामवेया स्तेनेदमान्ध्यं खलु नान्धकारैः // 34 / / Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] [ 653 5 ध्वान्तस्य वामोरु ! विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे / प्रौलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षम तमस्तत्त्वनिरूपणाय / / 35 / / म्लानिस्पृश: स्पर्शनिषेधभूमेः सेयं विशङ्कोरिव संपदस्य / न किंचिदन्यत्प्रति कौशिकीये दृशौ विहाय प्रियमातनोति / / 36 / / मूर्धाभिषिक्तः खलु यो ग्रहाणां तद्भासमास्कन्दितऋक्षशोभम् / दिवान्धकारं स्फुटलब्धरूपमालोकतालोकमुलूकलोकः / / 37 / / दिने मम द्वेषिणि कीडगेषां प्रचार इत्याकलनाय चारीः / / छाया विधाय प्रतिवस्तुलग्नाः प्रावेशयत्प्रष्टुमिवान्धकारः / / 38 / ध्वान्तस्य तेन क्रियमाणयेत्थं द्विषः शशी वर्णनयाऽथ रुष्टः / उद्यन्नुपाश्लोकि जपारुणश्रीनराधिपेनानुनयेच्छयेव / / 36 / / पश्यावृतोऽप्येष निमेषमद्रे रधित्यकाभूमितिरस्करिण्या। प्रवर्षति प्रेयसि. ! चन्द्रिकाभि श्चकोरचञ्चूचुलुकप्रमिन्दुः ध्वान्ते दुमान्तानभिसारिकास्त्वं शङ्कस्व सङ्केतनिकेतमाप्ताः / छायाच्छलादुज्झितनीलचेला ज्योत्स्नानुकूलैश्चरिता दुकूलैः // 41 / / त्वदास्यलक्ष्मीमुकुरं चकोरैः स्वकौमुदीमादयमानमिन्दुम् / दृशा निशेन्दीवरचारुभासा पिबोरु रम्भातरुपीवरोरु ! // 42 / / / / 40 / / Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654 ] ( काव्यषट्कं // 44 // प्रसंशयं सागरभागुदस्था. त्पृथ्वीघरादेव मथः पुरायम् / अमुष्य यस्मादधुनापि सिन्धो स्थितस्य शैलादुदयं प्रतीमः // 43 / / निजानुजेनातिथितामुपेतः प्राचीपतेर्वाहनवारणेन / सिन्दूरसान्द्रे * किमकारि मूनि तेनारुणश्रीरयमुज्जिहीते यत्प्रीतिमद्भिर्वदनैः स्वसाम्या दचुम्बि नाकाधिपनायिकानाम् / ततस्तदीयाधरयावयोगा दुदेतिविम्बारुणबिम्ब एषः // 45 / / विलोमिताङ्कोत्किरणादुरूह गादिना दृश्यविलोचनादि / विधिविधत्ते विधुना वधूनां किमाननं काञ्चनसञ्चकेन // 46 / / अनेन वेधा विपरीतरूपविनिर्मिताङ्कोत्किरणाङ्गकेन / त्वदाननं दृश्यगाद्यलक्ष्यगादिनवाकृत सञ्चकेन / अस्याः सुराधीशदिशः पुरासीद्यदम्बरं पीतमिदं रजन्या। 20 चन्द्रांशुचूर्णव्यतिचुम्बितेन तेनाधुना नूनमलोहितायि / / 47 / / तानीव गत्वा पितृलोकमेन मरञ्जयन्यानि स जामदग्न्यः / छित्त्वा शिरोऽस्राणि सहस्रबाहो विस्राणि विश्राणितवान्पितृभ्यः // 48 / / अकर्णनासस्त्रपले मुखं ते पश्यन्न सीतास्यमिवाभिरामम् / Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषघोयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] [ 655 रक्तोस्रवर्षी बत लक्ष्मणाभि . भूतः शशी शूर्पणखामुखाभः / / 46 / / प्रादत्त दीप्रं मणिमम्वरस्य दत्त्वा यदस्मै खलु सायधूर्तः / रज्यत्तुषारद्युतिकूटहेम तत्पाण्डु जातं रजतं क्षणेन / / 50 / / बालेन नक्तंसमयेन मुक्तं रौप्यं लसद्विम्बमिवेन्दुबिम्बम् / भ्रमिक्रमादुज्झितपट्टसूत्र नेत्रावृति मुञ्चति शोणिमानम् / / 51 / / ताराक्षरर्यामसिते कठिन्या निशालिखव्योमिन तमःप्रशस्तिम् / विलुप्य तामल्पयतोऽरुणेऽपि जातः करे पाण्डरिमा हिमांशोः / / 52 / / सितो यदात्रैष तदान्यदेशे . चकास्ति रज्यच्छविरुज्जिहानः / तदित्थमेतस्य निधेः कलानां . को वेद वा रागविरागतत्त्वम् / / 53 / / कश्मीरजै रश्मिभिरौपसंध्यै म॒ष्टं धृतध्वान्तकुरङ्गनाभि / चन्द्रांशुना चन्दनचारुणाङ्ग क्रमात्समालम्भि दिगङ्गनाभिः // 54 / / विधिस्तुषारतु दिनानि कतं कतं विनिर्माति तदन्तभित्तः / ज्योत्स्नीनं चेत्तत्प्रतिमा इमा वा कथं कथं तानि च वामनानि // 15 // इत्युक्तिशेषे . स वधूं बभाषे सूक्तिश्रुतासक्तिनिबद्धमौनाम् / Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656 ] [ काव्यषट्कं मुखाभ्यसूयानुशयादिवेन्दौ केयं तव प्रेयसि ! मूकमुद्रा / / 56 / / शृङ्गारभृङ्गारसुधाकरेण वर्णस्रजानूपय कर्णकूपो / त्वच्चारुवाणीरसवेणितीर___.तृणानुकारः खलु कोषकारः / / 57 / / अत्रैव वाणीमधुमा तवापि . श्रोतुं समीहे मधुनः सनाभिम् / इति प्रियप्रेरितया तयाथ ___प्रस्तोतुमारम्भि शशिप्रशस्तिः // 58 / / पूरं विधुर्वर्धयितुं पयोधेः शकेऽयमेणाङ्कमणि कियन्ति / पयांसि दोग्धि प्रियविप्रयोंग सशोककोकीनयने कियन्ति // 56 / / ज्योत्स्नामयं रात्रिकलिन्दकन्या पूरानुकारेपसृतेऽन्धकारे / परिस्फुरन्निर्मलदीप्तिदीपं व्यक्तायते सैकतमन्तरीपम् - // 60 / / हासत्विषैवाखिलकैरवाणां ____ विश्वं विशङ्केऽजनि दुग्धमुग्धम् / यतो दिवा बद्धमुखेषु तेषु स्थितेऽपि चन्द्रे न तथा चकास्ति / / 61 / / मृत्युंजयस्यैष वसञ्जटायां न क्षीयते तद्भयदूरमृत्युः / न वर्धते च स्वसुधाप्तजीवस्रग्मुण्डराहूद्भवभीरतीव / / 62 / / 25 त्विषं चकोराय सुधां सुराय कलामपि स्वावयवं हराय / ददज्जयत्येष समस्तमस्य कल्पद्रुमभ्रातुरथाल्पमेतत् / / 63 / / Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ). [ 657 अकैणनाभेविषकृष्णकण्ठः सुधाप्तशुद्धः कटभस्मपाण्डुः / अर्हन्नपीन्दोनिजमौलिधाना न्मृड:कलामर्हति षोडशीं न // 64 / / पुष्पायुधस्यास्थिभिरर्धदग्धैः सितासितश्रीरघटि द्विजेन्द्रः / स्मरारिणा मूर्धनि यद्धृतोऽपि तनोति तत्तौष्टिकपौष्टिकानि / / 65 / / मृगस्य लोभात्खलु सिंहिकायाः सूनुर्मुगाङ्क कवलीकरोति / स्वस्यापि दानादमुमङ्कसुप्तं नोज्झन्मुदा तेन च मुच्यतेऽयम् // 66 / / सुधाभुजो यत्परिपीय तुच्छ - मेतं वितन्वन्ति तदर्हमेव / 15 . पुरा निपीयास्य पितापि सिन्धु . रकारि तुच्छः कलशोद्भवेन // 67 / / चतुर्दिगन्ती परिपूरयन्ती ज्योत्स्नैव कृत्स्ना सुरसिन्धुबन्धुः / क्षीरोदपूरोदरवासहार्दवैरस्यमेतस्य निरस्यतीयम् / / 68 / / . पुत्री विघोस्ताण्डविकास्तु सिन्धो२० . रश्या चकोरस्य दृशोर्वयस्या / तथापि सेयं कुमुदस्य कापि __ब्रवीति नामैव हि कौमुदीति // 66 / / ज्योत्स्नापयःक्ष्मातटवास्तुवस्तु च्छायाछलच्छिद्रधरा धरायाम् / 25. शुभ्रांशुशुभ्रांशकराः कलङ्क . नीलप्रभामिश्रविभा विभान्ति // 70 / / Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 ] [ काव्यषट्क कियान्यथानेन वियद्विभाग- . . स्तमोनिरासाद्विशदीकृतोऽयम् / अद्भिस्तथा लावणसैन्धवीभि . रुल्लासिताभिः शितिरप्यकारि // 71 / / गुणौ पयोनिजकारणस्य __न हानिवृद्धी कथमेतु चन्द्रः / चिरेण सोऽयं भजते तु यत्ते न नित्यमम्भोधिरिवार चित्रम् / / 72 / / प्रादर्शदृश्यत्वमपि श्रितोऽयमादर्शदृश्यां न बिभर्ति मूर्तिम् / 10 त्रिनेत्रभूरप्ययमत्रिनेत्रादुत्पादमासादयति स्म चित्रम् / / 73 / / इज्येव देवव्रजभोज्यऋद्धिः शुद्धा सुधादीधितिमण्डलीयम् / हिंसां यथा सैव तथाङ्गमेषा कलङ्कमेकं मलिनं बिभति / / 74 / / एक: पिपासुः प्रवहानिलस्य च्युतो रथाद्वाहनरङकुरेषः / अस्त्यम्बरेऽनम्बुनि लेलिहास्यः / __ पिबन्नमुष्यामृतबिन्दुवृन्दम् // 75 / / अस्मिशिशौ न स्थित एव रङ्कु युनि प्रियाभिविहितोपदायम् / पारण्यसंदेश इवौषधीभि रङ्के स शङ्के विधुना न्यधायि / / 76 / / अस्यैव सेवार्थमुपागतानामास्वादयन्पल्लबमोषधीनाम् / . घयन्नमुष्यैव सुधाजलानि सुखं वसत्येष कलङ्करकुः / / 77 / / 25 रुद्रेषुविद्रावितमातमारा तारामृगव्योमनि वीक्ष्य बिभ्यत् / Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ) [ 156 / / 78 / / // 79 // मन्येऽयमन्यः शरणं विवेश मत्वेशचूडामणिमिन्दुमेणः // 78 / / पृष्ठेऽपि किं तिष्ठति नाथ नाथ ! ___ रङ्कुर्विघोरङ्क इवेति शङ्का / तत्त्वाय तिष्ठस्व मुखे स्व एवं यद्वैरथे पृष्ठमपश्यदस्य उत्तानमेवास्य वलक्षकुक्षि देवस्य युक्तिः शशमङ्कमाह / तेनाधिकं देवगवेष्वपि स्यां - श्रद्धालुरुत्तानगतौ श्रुतायाम् // 80 / / दूरस्थितर्वस्तुनि रक्तनीले विलोक्यते केवलनीलिमा यत् / शशस्य तिष्ठन्नपि पृष्ठलोम्नां तन्नः परोक्षः खलु रागभागः // 81 / / भक्तु प्रभुाकरणस्य दर्प पदप्रयोगाध्वनि लोक एषः / शशो यदस्यास्ति शशी ततोऽय मेवं मृगोऽस्यास्ति मगीति नोक्तः / / 82 // यावन्तमिन्दुं प्रतिपत् प्रसूते प्रासावि तावानयमब्धिनापि / तत्कालमीशेन धृतस्य मूनि विधोरणीयस्त्वमिहास्ति लिङ्गम् // 83 / / पारोप्यते चेदिह केतकत्व ___मिन्दी दलाकारकलाकलापे / तत्संवदत्यङ्कमृगस्य नाभि कस्तूरिका सौरभवासनाभिः // 84 / / 25 Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 ] [ काव्यषट्कं प्रासीद्यथाज्यौतिषमेष गोलः शशी समक्षं चिपिटस्ततोऽभूत् / स्वर्भानुदंष्ट्रायुगयन्त्रकृष्टपीयूषपिण्याकदशावशेष: / / 85 / / असावसाम्याद्वितनोः सखा नो कर्पूरमिन्दुः खलु तस्य मित्रम् / दग्धौ हि तौ द्वावपि पूर्वरूपाद्यद्वोर्यवत्तामधिकां दधाते / / 86 / / स्थाने विधोर्वा मदनस्य सख्यं स शंभूनेत्रे ज्वलति प्रलीन: / अयं लयं गच्छति दर्शभाजि भास्वन्मये चक्षुषि चादिपुंसः / / 87 / / नेत्रारविन्दत्वमगान्मृगाङ्कः . पुरा पुराणस्य यदेष पुंसः / अस्याङ्क एवायमगात्तदानीं कनीनिकेन्दिन्दिरसुन्दरत्वम् / / 88 / / देवेन तेनैष च काश्यपिश्च साम्यं समीक्ष्योभयपक्षभाजी / द्विजाधिराजौ हरिणाश्रितो च युक्तं नियुक्ती नयनक्रियायाम् / / 89 / / यैरन्वमायि ज्वलनस्तुषारे सरोजिनीदाहविकारहेतोः / तदीयधूमौघतया हिमांशी शके कलङ्कोऽपि समर्थितस्तै / / 90 / / स्वेदस्य धाराभिरिवापगाभि ___ाप्ता जगद्भारपरिश्रमार्ता / छायापदेशाद्वसुधा निमज्ज्य _ सुधाम्बुधावुज्झति खेदमत्र // 91 / / 25 ममानुमैवं बहुकालनीली- . निपातनीलः खलु हेमशैलः / Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] 10 इन्दोर्जगच्छायमये प्रतीके पीतोऽपि भागः प्रतिबिम्बित:स्यात् / / 62 / / भावापदुन्निद्रसरोजपूजाश्रियं शशी पद्धनिमीलितेजाः / / अक्षिद्वयेनैव निजाङ्करकोरलंकृतस्तामयमेति मन्ये / / 63 / / य एष जागति शश: शशाङ्के बुधो विधत्ते क इवात्र चित्रम् / अन्त: किलतत्पितुरम्बुराशे रासीत्तुरङ्गोऽपि मतङ्गजोऽपि // 64 / / गोरे प्रिये भातितमां तमिस्रा ... ज्योत्स्नी च नीले दयिता यदस्मिन् / शोभाप्तिलोभादुभयोस्तयोर्वा सितासितां मूर्तिमयं विति // 95 / / वर्षातपानावरणं चिराय काष्ठौघमालम्ब्य समुत्थितेषु / बालेष ताराकवकेष्विक विकस्वरीभूतममि चन्द्रम् // 96 / / दिनावसाने तरणेरकस्मानिमज्जनाद्विश्वविलोचनानि / अस्य प्रसादादुडुपस्य नक्तं तमोविपद्वीपवती तरन्ति / / 17 / / कि नाक्षिण नोऽपि क्षणिकोऽणुकोऽयं . भानस्ति तेजोमयबिन्दुरिन्दुः / प्रत्रेस्तु नेत्रे घटते यदासी मासेन नाशी महतो महीयान् / / 98 / / त्रातुं पति नौषधयः स्वशक्त्या मन्त्रेण विप्राः क्षयिणं न शेकुः / एनं पयोधिरिणभिर्न पुत्रं सुधा प्रभावन निजाश्रयं वा / / मृषा निशानाथमहः सुधा वा हरेदसौ वा न जराविनाशौ / पीत्वा कथं नापरथा चकोरा विधोमरीचीनजरामराः स्युः / / 25 वाणीभिराभिः परिपक्त्रिमाभिर्नरेन्द्रमानन्दजडं चकार / मुहूर्त माश्चर्यरसेन भैमीहैमीव वृष्टिः स्तिमितं च तं सा / 101 / Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 ]:. [ काव्यषटकं 1 // 104 // इतो मुखाद्वागियमाविरासी. . त्पीयूषधारामधुरेति जल्पन् / अचुम्बदस्याः स. मुखेन्दुबिम्बं संवावदूकश्रियमम्बुजानाम् // 102 / / प्रियेण साथ प्रियमेवमुक्ता विदर्भभूमीपतिवंशमुक्ता / स्मितांशुजालं. विततार तारा दिवः स्फुरन्तीव ,कृतावतारा // 103 / / स्ववर्णना न स्वयमहंतीति नियुज्य मां त्वन्मुखमिन्दुरूपम् / स्थानेऽत्युदास्ते - शशिनः प्रशस्ती धरातुरासाहमिति स्म साह // 104 / / तयेरितः प्राणसमः सुमुख्या गिरं परोहासरसोत्किरां सः / . भूलोकसारः स्मितवाक् तुषार भानु भणिष्यन्सुभगां बभाण // 105 / / तवानने जातचरी निपीय गीति तदाकर्णनलोलुपोऽयम् / हातुं न जातु स्पृहयत्यवैमि विधुं मृगस्त्वद्वदनभ्रमेण / / 106 / / इन्दोर्धमेणोपगमाय योग्ये. जिह्वा तवास्ये विधुवास्तुमन्तम् / गीत्या मर्ग कर्षतु भन्स्यता किं पाशीबभूवे श्रवणद्वयेन // 107 // प्राप्यायनाद्वा रुचिभिः सुधांशो: शैत्यात्तमःकाननजन्मनो. * वा / 2 // यावन्निशायामयं धर्मदुःस्थ- . - स्तावद्वजत्यहि न शब्दपान्थः // 108 / / Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नेषघोयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] [663 दूरेऽपि तत्तावकगानपाना ल्लब्धावधिः स्वादुरसोपभोगे / प्रवज्ञयैव क्षिपति क्षपायाः ___ पतिः खलु स्वान्यमृतानि भासः // 106 / / 5 अस्मिन्न विस्मापयतेऽयमस्मांश्चक्षुर्बभूवैष यदादिपुंसः / तदत्रिनेत्रादुदितस्य तन्वि ! कुलानुरूपं किल रूपमस्य / 110 / प्राभिर्मगेन्द्रोदरि ! कौमुदीभिः क्षीरस्य धाराभिरिव क्षणेन / अक्षालि नीलो रुचिरम्बरस्था तमोमयीयं रजनीरजक्या 111 पयोमुचां मेचकिमानमुच्च रुचाटयामास ऋतु: शरद्या / प्रपारि वामोरु ! तयापि किंचि नप्रोञ्छितुं लाञ्छनकालिमास्य // 112 / / एकादशैकादशरुद्रमौलीनस्तं यतो यान्ति कलाः किमस्य / प्रविश्य शेषास्तु भवन्ति पञ्चपञ्चेषुतूणीमिषवोऽर्धचन्द्रा: 113 15 निरन्तरत्वेन निधाय तन्वि ! तारासहस्राणि यदि क्रियेत / सुधांशुरन्यः स कलङ्कमुक्तस्तदा त्वदास्यश्रियमाश्रयेत / 114 / यत्पद्यमादित्सुतवाननीयां कुरङ्गलक्ष्मा च मृगाक्षि ! लक्ष्मीम् / एकार्थलिप्साकृत एष शङ्के शशाङ्कपकेरुहयोविरोधः 115 लब्धं न लेखप्रभुणापि पातुं पीत्वा मुखेन्दोरधरामृतं ते / निपीय देवैविघसीकृतायां घृणां विघोरस्य दधे सुधायाम् 116 - एनं स बिभ्रद्विधुमुत्तमाङ्गे गिरीन्द्रपुत्रीपतिरोषधीशम् / प्रश्नाति घोरं विषमब्धिजन्म. .. धत्ते भुजङ्ग च विमुक्तशङ्कः // 117 / / 25 नास्य द्विजेन्द्रस्य बभूव पश्य दारान्गुरोर्यातवतोऽपि पातः / प्रवृत्तयोऽप्यात्ममयप्रकाशानह्यन्ति न ह्यन्तिमदेहमाप्तान् // Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यषट्क 1 स्वधाकृतं यत्तनयः पितृभ्यः श्रद्धापवित्रं तिलचित्रमम्भः / चन्द्रं पितृस्थानतयोपतस्थे तदङ्करोचिःखचिता सुत्र / 116 / / पश्यीच सौधस्थितिसौख्यलक्ष्ये त्वत्केलिकुल्याम्बुनि बिम्बमिन्दोः / चिरं निमज्ज्येह सत: प्रियस्य भ्रमेण, यच्चुम्बति राजहंसी // 120 / / सौवर्गवगैरमतं निपीय ___ कृतोऽह्नि तुच्छः शशलाञ्छनोऽयम् / पूर्णोऽमतानां निशितेऽत्र नद्यां मग्नः पुन: स्यात्प्रतिमाच्छलेन // 121 / / समं समेते शशिनः करेण प्रसूनपाणाविह करविण्या: / विवाहलीलामनयोरिवाह मधुच्छलत्यागजलाभिषेक: / / 152 / / विकासिनीलायतपुष्पनेत्रा मगोयमिन्दीवरिणी वनस्था। विलोकते कान्तमिहोपरिष्टान्मृगं तवेषाननचन्द्रभाजम् // 123 / तपस्यतामम्बुनि करवाणां ___ समाधिभङ्ग विबुधाङ्गनायाः / प्रवैमि राबेरमताघरोष्ठं मुखं मयूखस्मितचारु चन्द्रम् // 124 / / अल्पाङ्कपङ्का विधुमण्डलीयं पीयूषनीरा सरसी स्मरस्य / पानात्सुधानामजलेऽप्यमृत्यु चिह्न बिभत्यत्रभवं स मीनम् // 125 / / तारास्थिभूषा शशिजह नुजाभृश्चन्द्रांशुपांशुच्छरितद्युतिद्यौः / छायापथच्छद्मफणीन्द्रहारा स्वं मूर्तिमाह स्फुटमष्टमूर्तः / 126 // 25 एकव तारा मुनिलोचनस्य जाता किलतज्जनकस्य तस्य / Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नंषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] तांताधिका संपदभूदियं तु ___ सप्तान्विता विंशतिरस्य यत्ता: // 127 / / -- मृगाक्षि ! यन्मण्डलमेतदिन्दोः स्मरस्य तत्पाण्डुरमातपत्रम् / यः पूर्णिमानन्तरमस्य भङ्गः सच्छत्रभङ्गः खलु मन्मथस्य // 128 / / दशाननेनापि जगन्ति जित्वा योऽयं पुराऽपारि न जातु जेतुम् / म्लानिविधोर्मानिनि ! संगतेयं ____ तस्य त्वदेकानननिजितस्य / / 126 / / दृष्टो निजां तावदियन्त्यहानि जयन्नयं पूर्वदशां शशाङ्कः / पूर्णस्त्वदास्येन तुलां गतश्चेदनन्तरं द्रक्ष्यसि भङ्गमस्य / / 130 / / क्षत्राणि रामः परिभूय रामात्क्षत्राद्यथाभज्यत स द्विजेन्द्र / तथैव पद्मानभिभूय सर्वांस्त्वद्वत्ववपद्मात्परिभूतिमेति / / 131 / / अन्तः सलक्ष्मीक्रियते सुधांशो रूपेण पश्ये ! हरिणेन पश्य / इत्येष भैमीमदर्शदस्य कदाचिदन्तं स कदाचिदन्तः // 132 / / सागरान्मुनिविलोचनोदराबद्द्यादनि तेन किं द्विजः / एवमेव च भवनयं द्विजःपर्यवस्यति विधुः किमविजः / / 133 / / ताराविहारभुवि चन्द्रमयीं चकार ___ यन्मण्डली हिमभुवं मृगनाभिवासम् / तेनैव तन्वि! सुकृतेन मते जिनस्य स्वर्लोकलोकतिलकत्वमवाप धाता / / 134 / / इन्दं मुखाबहुतृणं तव यद्गृणन्ति नैनं मृगस्त्यजति तन्मृगतृष्णयेव / अत्येति मोहमहिमा न हिमांशुबिम्ब लक्ष्मीविडम्बिमुखि ! वित्तिषु पाशवीषु / 635 / 15 Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 ] [ काव्यषट्क स्वर्भानुना प्रसभपानविभीषिकाभि- . .' दु:खाकृतैनमवधूय सुधा सुधांशुम् / स्वं निह नुते शितिमचिह्नममुष्य रागै स्ताम्बूलताम्रमवलम्ब्य तवाधरोष्ठम् / / 136 / / 5 हर्यक्षीभवतः कुरङ्गमुदरे प्रक्षिप्य यद्वा शशं जातस्फीततनोरमुष्य हरिता सूतस्य पल्या हरेः / भङ्गस्त्वद्वदनाम्बुजादजनि यत्पद्मात्तदेकाकिनः स्यादेकः पुनरस्य स प्रतिभटो यः सिंहिकायाः सुतः / / 137 / / यत्पूजां नयनद्वयोत्पलमयीं वेधा व्यापद्मभू१० वक्पिारीणरुचिः स चेन्मुखमयं पद्मः प्रिये ! तावकम् / क: शीतांशुरसौ तदा मखमृगव्याघोत्तमाङ्गस्थलस्थास्नुस्वस्तटिनोतटाबनिवनीवानीरवासी बकः / / 138 / / जातं शातक्रतव्यां हरिति विहरतः काकतालीयमस्या मश्यामत्वैकमत्यस्थितसंकलकलानिर्मितेनिर्मलस्य / 15 इन्दोरिन्दोवरामं बलविजयिगजग्रामणीगण्डपिण्ड द्वन्द्वापादानदानद्रवलवलगनादङ्कमके विशङ्के // 136 / / अंशं षोडशमामनन्ति रजनीभतुं : कलां वृत्तयन्त्येनं पञ्चदशैव ताः प्रतिपदाधाराकवधिष्णवः / . या शेषा पुनरुद्धृता तिथिमृते सा कि हरालंकृति२० स्तस्याः स्थानबिलं कलङ्कमिह किं पश्यामि सश्यामिकम् / / ज्योत्स्नामादयते चकोरशिशुना द्राधीयसी लोचने लिप्सुर्मूलमिवोपजीवितुमितः संतपणात्मीकृतात् / पके रङ्कमयं करोति च परिस्प्रष्टुं तदेवाहत- .. स्त्वद्वक्त्रं नयनश्रियाप्यनधिकं मुग्धे ! विधित्सुविधुः // 141 / / 25 लावण्येन तवास्यमेव बहुना तत्पात्रमात्रस्पृशा चन्द्रः प्रोञ्छनलब्धतार्धमलिनेनारम्भि शेषेण तु / Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) नैषधीयचरितम् :: द्वाविंशः सर्गः ] [667 निर्माय द्वंयमेतदप्सु विधिना पाणी खलु क्षालितो तल्लेशैरधुनापि नीरनिलयैरम्भोजमारभ्यते // 142 / / लावण्येन तवाखिलेन वदनं तत्पात्रमात्रस्पृशा चन्द्रः प्रोञ्छनलब्धतार्धमलिनेनारम्भि शेषेण यः / 5 तल्लेखापि शिखामणि: सुषमयाऽहंकृत्य शंभोरभू दब्जं तस्य पदं यदस्पृशदतः पद्म च सद्म श्रियः / / 143 / / सपीते: संप्रीतेरजनि रजनीश: परिषदा परीतस्ताराणां दिनमणिमणिग्रावमणिकः। प्रिये ! पश्योत्प्रेक्षाकविभिरभिधानाय सुशक: 10 सुधामभ्युद्धतु धृतशशकनीलाश्मचषकः // 144 / / ग्रास्यं शीतमयूखमण्डलगुणानाकृष्य ते निर्मितं शङ्के सुन्दरि !, शर्वरीपरिवृढस्तेनैष दोषाकरः / / प्रादायेन्दुमृगादपीह निहिते पश्यामि सारं दृशौ त्वद्वक्त्रे सति वा विधौ धृतिमयं दध्यादनन्धः कुतः / / 145 / / 15 शुचिरुचिमुडुगणनणमगममुमति कलयसि कृशतनु ! न गगनतटमनु / प्रतिनिशशशितलविगलदमृतभृत-. - रविरथहयचयखुरबिलकुलमिव // 146 / / उपनतमुडपुष्पजातमास्ते - भवतु जनः परिचारकस्तवायम् / तिलतिलकितपर्पटामिन्दु वितर निवेद्यमुपास्स्व पञ्चबाणम् / / 147 / / स्वर्भानुप्रतिवारपारणमिलद्दन्तौघयन्त्रोद्भव श्वभ्रालीपतयालुदीधितिसुधासारस्तुषारद्युतिः / 25 पुष्पेष्वासनतत्प्रियापरिणयानन्दाभिषेकोत्सवे देवः प्राप्तसहस्रधारकलशश्रीरस्तु नस्तुष्टये // 148 / / Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 [ काव्यषट्क श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / द्वाविंशो नवसाहसाङ्कचरिते. चम्पूकृतोऽयं महा काव्ये तस्य कृती नलीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 146 / / 5 यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयापि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते / मदुक्तिश्चेदन्तमंदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषानादरभरैः / / 150 / / दिशि दिशि गिरिग्रावाणः स्वां वमन्तु सरस्वती तुलयतु मिथस्तामापातस्फुरद्ध्वनिडम्बराम् / स परमपरः क्षीरोदन्वान् यदीयमुदीयते मथितुरमृतं खेदच्छेदि प्रमोदनमोदनम् // 151 / / ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचित्क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राशंमन्यमना हठेन पठिती मास्मिन्खल: खेलतु / श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादयत्वेतत्काव्यरसोनिमज्जनसुखव्यासज्जन सज्जनः / / 152 / / ताम्बूलद्वयमासनं च लभते य: कान्यकुब्जेश्वराद्यः साक्षात्कुरुते समाधि परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् / यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तषु यस्योक्तयः 20 श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् / / 153 / / // इति महाकविहर्षप्रणीते नैषधीयप्रकाशे द्वाविंशः सर्गः समाप्तः // 22 // . समाप्तश्चायं ग्रन्थः // . Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / अहम् / / पूज्याचार्यदेव श्रीविजयामृतसूरिभ्यो नमः महाकवि कालिदासकृत ॐ मेघदूतम्भ पूर्वमेघः / कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः / यक्षच के जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु // 1 // 10 तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामी नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः / प्राषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमांश्लिष्टसान : वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श // 2 // तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाघानहेतो१५ रन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ / मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतः कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे // 3 / / प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी .. जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम् / 20 स ..त्यप्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै .. प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार / / 4 / / Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 ] .[ काव्यषट्कं धूमज्योतिःसलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः संदेशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः / इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेष // 5 / / जातं वंशे भुवन विदिते पुष्करावर्तकानां जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः / तेनाथित्वं त्वयि विधिवशाद्दूरबन्धुर्गतोऽहं याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमें लब्धकामा // 6 // संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाः संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य / गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा / / 7 / / त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीताल कान्ताः प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिता: प्रत्ययादाश्वसन्त्यः / 15 क: संन्नद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेन जायां न स्यादन्योऽप्यमिव जनो यः पराधीन वत्तिः / / 8 / / मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धः / गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः / / 6 / / तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीमव्यापन्नामविहतगतिद्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम् / . आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां सद्यःपाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि // 10 / / 25 कर्तुं यच्च प्रभवति महीमुच्छिलोन्ध्रातपत्रां तच्छ त्वा ते श्रवणसुभगं गजितं मानसोकाः / 20 Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूतं : पूर्वमेघः ] [ 971 प्रा कैलासाद्विसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः / / 11 / / आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलं वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैङ्कितं मेखलासु / काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम् / / 12 / / मार्ग तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं संदेशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम् / खिन्नः खिन्नः शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र 10 क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य / / 13 / / अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्विदित्युन्मुखीभिदृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः / स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदङ्मुखः खं दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान् / / 14 / / 15 रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ता द्वल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्य / येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते बर्हणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः / / 15 / / त्वय्यायत्तं कृषिफल मिति भ्रूविलासानभिज्ञैः प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः / सद्यःसीरोत्कर्षणसुरभि क्षेत्रमारुह्य मालं किंचित्पश्चाद्वज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण // 16 / / त्वामासारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ना वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूटः / 25 न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः / / 17 / / Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 ] [ काव्यषट्कं छन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः कानना- .. स्त्वय्यारूढे शिखरमचलः स्निग्धवेणीसवर्णे / नूनं यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्थां मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः / / 18 / / 5 स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधभूक्तकुंजे मुहूर्त तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस्तत्परं वर्त्म तीर्णः / रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णा भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य / / 16 / / तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टि१० जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः / अन्तःसारं धन तुलयितुं नानिलः शक्ष्यति त्वां रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय / / 20 / / नोपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैरर्धरूढेराविर्भूतप्रथममुकुलाः कन्दलोश्चानुकच्छम् / जग्ध्वारण्येष्वधिकसुरभि गन्धमाघ्राय चोयाः सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम् / / 21 / / उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थ यियासोः कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते / शुक्लापागैः सजलनयनैः स्वागतीकृत्य केकाः प्रत्युद्यातः कथमपि भवान्गन्तुमाशु व्यवस्येत् / / 22 / / पाण्डुच्छायोपवनवृतयः केतकैः सूचिभिन्ननींडारम्भैगुहबलिभुजामाकुलग्रामचैत्याः / त्वय्यासन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ता: संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः / / 23 / / 25 तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानी गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा / . Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूत : पूर्वमेघः } [ 073 तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मा सभ्रभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोमि / / 24 / / * नोचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो स्त्वत्संपर्कात्पुलकितमिव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः / 5 य: पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर्नागराणा मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभियौवनानि / / 25 / / विश्रान्तः सन्वज वननदीतीरजातानि सिञ्चन्नुद्यानानां नवजलकणैथिकाजालकानि / गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां छायादानात्क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम् / / 26 / / वक्र: पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशा सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः / विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां लोलापागैर्यदि न रमसे लोचनैर्वञ्चितोऽसि / / 27 / / 15 वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः संसर्पन्त्या: स्खलितसुभगं दशितावर्तनाभेः / निविन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः संनिपत्य स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु / / 28 / / वेणीभूतप्रतनुस लिलासावीतस्य सिन्धुः 20 पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपणैः / सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती काय येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः / / 29 / / प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धा न्पूर्वोद्दिष्टामनुसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम् / 25. स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां शेषः पुण्यह तमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् / / 30 / / Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 974 ] [ काव्यषटकं दी|कुर्वन्पटु मदकलं कूजितं सारसानां / प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः / यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमङ्गानुकूल: शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः / / 31 / / 5 जालोद्गीर्णैरुपचितवपु: केशसंस्कारधूप बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनत्योपहारः / हम्र्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं नयेथा लक्ष्मी पश्यंल्ललितवनितापादरागाङ्कितेषु / / 32 / / भर्तुः कण्ठच्छविरिति गणेः सादरं वीक्ष्यमाणः 10 पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य / धूतोद्यानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्यास्तोय क्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तमरुद्भिः // 33 / / अप्यन्यस्मिञ्जलघर महाकालमासाद्य काले स्थातव्यं ते नयनविषयं यावदत्येति 'भानुः / कुर्वन्संध्याबलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयामामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गजितानाम् / / 34 / / पादन्यासः क्वणितरशनास्तत्र लीलावधूत रत्नच्छायाखचितवलिभिश्चामरैः क्लान्तहस्ताः / धेश्यास्त्वत्तो नखपदसुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्दू- . नामोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान्कटाक्षान् / / 35 / / . पश्चादुच्चभुजतरुवनं मण्डलेनाभिलोनः सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः / नत्यारम्भे हर पशुपतेरानागाजिनेच्छां शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या // 36 // 25 गच्छन्तीनां रमणवसति योषितां तत्र नक्तुं रुद्धालोके नरपतिपथे. सूचिभेद्यस्तमोभिः / Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूत : पूर्वमेघा ] [ 675 सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वी तोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मा स्म भूविक्लवास्ताः / / 37 / / तां कस्यांचिद्भवनवलभी सुप्तपारावतायां नीत्वा रात्रि चिरविलसनात्खिन्नविद्युत्कलत्रः / 5 दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान्वाहयेदवशेषं मन्दायन्ते न खलु सहदामभ्यूपेतार्थकृत्याः / / 38 / / तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो वम भानोस्त्यजाशु / प्रालेयास्र कमलवदनात्सोऽपि हतु नलिन्याः 10 प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः / / 36 / / गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने छायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम् / तस्मादस्याः कुमुदविशदान्यर्हसि त्वं न धैर्या न्मोघीकतुं. चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि // 40 // 15 तस्याः किंचित्करघृतमिव प्राप्तवानीरशाखं नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम् / प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः / / 41 / / त्वनिष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धसंपर्क रम्यः 20. स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः / नोचैर्वास्यत्युपजिगमिषोर्देवपूर्व गिरि ते शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् / / 42 / / तत्र स्कन्दं नियतवसति पुष्पमेधीकृतात्मा पुष्पासारैः स्तपयतु भवान्व्योमगङ्गाजलाः / 25 रक्षातोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूना___ मत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धि तेजः // 43 / / Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 976 ] . [ काव्यषटकं ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बहं भवानी पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति / घौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूरं पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिर्गजितैर्नतयेथाः // 44 / / पाराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लविताध्वा सिद्धद्वन्द्वर्जलकरणभयाद्वीणिभिमुक्तमार्गः / व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्य स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रम्तिदेवस्य कीर्तिम् / / 45 / / त्वय्यादातुं जलमवनते शाङ्गिणो वर्णचौरे तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्प्रवाहम् / / प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्ण्य दृष्टीरेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् / / 46 / / तामुत्तीर्य व्रज परिचितभ्रूलताविभ्रमाणां पक्ष्मोत्क्षेपादुपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम् / 15 कुन्दक्षेपानुगमधुकरधीमुषामात्मबिम्बं पात्रीकुर्वन्दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम् // 47 / / ब्रह्मावर्त जनपदमथ च्छायया गाहमान: क्षेत्र क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद्भजेथाः / राजन्यानां सितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा 20 घारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुखानि / / 48 / / हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्का बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे। कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीना मन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः / / 46 / / 25 तस्माद्गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतां जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् / / / 47 / / Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूतं : पूर्वमेघः / [ 977 गौरीवक्त्रभ्रंकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः शंभोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोमिहस्ता / / 50 / / तस्या: पातुं सुरगज इव व्योम्नि पूर्वार्धलम्बी त्वं चेदच्छस्फटिकविशदं तर्कयेस्तिर्यगम्भः / 5 संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्रोतसि च्छाययासौ स्यादस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा // 51 / / प्रासीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धर्मगाणां तस्या एवं प्रभवमचलं प्राप्य गौरं तुषारैः / वक्ष्यस्यध्वश्रमविनयने तस्य शृङ्गे निषण्णः 10 शोभा शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपङ्कोपमेयाम् / / 52 / / तं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्धसंघट्टजन्मा बाधेतोल्काक्षपितचमरीबालभारो दवाग्निः / अर्हस्येनं शमयितुमलं वारिधारासहस्र रापन्नात्तिप्रशमनफलाः संपदो ह युत्तमानाम् // 53 / / 15 ये संरम्भोत्पतनरभसा: स्वाङ्गभङ्गाय तस्मि न्मुक्तावानं सपदि शरभा लङ्घयेयुर्भुवन्तम् / तान्कुर्वीथास्तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णाके वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः / / 14 / / तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौलेः 20 शश्वत्सिद्धरुपचितबलि भक्तिनम्रः परीयाः / .. यस्मिन्दृष्टे करणविगमादूर्ध्वमधूतपापाः . संकल्पन्ते स्थिरगणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः // 5 / / शब्दायन्ते मधुरमनिलैः कीचकाः पूर्यमाणाः संसक्ताभिस्त्रिपुरविजयो गीयते किंनरीभिः / 25 नि दस्ते मुरज इव चेत्कन्दरेषु ध्वनिः स्या संगीतार्थो ननु पशुपतेस्तत्र भावी समग्रः // 56 / / Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678 ] [ काव्यषट्कं प्रालेयाद्रेरुपतटमतिक्रम्य तांस्तान्विशेषान्हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम् / तेनोदीची दिशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभी श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः / / 57 // 5 गत्वा चोध्वं दशमुखभूजोच्छ्वासितप्रस्थसंधेः कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथिः स्याः / शृङ्गोच्छायैः कुमुदविशर्यो वितत्य स्थितः खं राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यबकस्याट्टहासः / / 58 / / उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे 10 सद्यःकृत्तद्विरददशनच्छेदगौरस्य तस्य / शोभामद्रः स्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीमंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव // 59 / / हित्वा तस्मिन्भुजगवलयं शंभुना 'दत्तहस्ता क्रीडाशैले यदि च विचरेत्पादचारेण गौरी। 15 भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौघः सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायो / / 60 / / तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनोद्गीर्णतोयं नेष्यन्ति त्वां सुरयुवतयो यन्त्रधारागृहत्वम् / ताभ्यो मोक्षस्तव यदि सखे धर्मलब्धस्य न स्याक्रीडालोलाः श्रवणपरुषैजितैर्भाषयेस्ताः // 61 / / हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्याददानः कुर्वन्कामं क्षणमुखपटप्रीतिमैरावतस्य / धुन्वन्कल्पद्रुम किसलयान्यंशुकानीस्व वातै र्नानाचेष्टैर्जलद ललितैनिविशेस्तं नगेन्द्रम् // 62 / / 25 तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन् / Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूत : उत्तरमेघः ] [ 976 या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैविमाना ., मुक्ताजालग्रथितमलक कामिनीवाभ्रवृन्दम् / / 63 / / इति महाकविश्रीकालिदासविरचिते मेघदूते काव्ये पूर्वमेघः समाप्तः। / / उत्तरमेघः॥ विद्युत्वन्तं ललितवनिता: सेन्द्र चापं सचित्राः संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम् / . अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुगमभ्रंलिहाग्राः प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैविशेषैः / / 1 / / 10 हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डतामानने श्रीः / चूडापाशे नवकुरबकं चारु कणे शिरीषं सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम् // 2 // यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि 15 ज्योतिश्छायाकुसुमरचितान्युत्तमस्त्रीसहायाः / प्रासेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतं त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु // 3 // मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरैः सेव्यमाना मरुद्भि. . मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णाः। 20 अन्वेष्टव्यः कनकसिकतामष्टिनिक्षेपगूढेः संक्रीडन्ते. मणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः // 4 // नीवीबन्धोच्छ्वसितशिथिलं यत्र बिम्बाधराणां क्षौमं रागादनिभृतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु / Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] [ काव्यषट् कं अचिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रत्नप्रदीपान्ह्रीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टि: // 5 // नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानानभूमो रालेख्यानां नवजलकणैर्दोषमुत्पाद्य सद्य: / .. 5 शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस्त्वादृशो जालमार्ग धू मोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति // 6 / / यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजालिङ्गनोच्छ्वासितानामङ्गग्लानि सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः / त्वत्संरोधापगमविशदैश्चन्द्रपादैनिशीथे 10 व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः / / 7 / / अक्षय्यान्तर्भवनिधयः प्रत्यह रक्तकण्ठैरुद्गायद्भिर्धनपतियशः किंनरर्यत्र सार्धम् / वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्यासहाया बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निविशन्ति / / 8 / / गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः पत्रच्छेदः कनककमलैः कर्णविभ्रशिभिश्च / मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्नसूत्रश्च हार - नैशो माग: सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम् / / 6 / / मत्वा देवं धनपतिसख यत्र साक्षाद्वसन्तं प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम् / सभ्रभङ्गप्रहितनयनैः कामिलक्ष्येष्वमोघेस्तस्यारम्भश्चतुरवनिताविभ्रमैरेव सिद्धः / / 10 / / वासश्चित्रं मधु नयनयोविभ्रमादेशदक्षं . पुष्पोद्भदं सह किसलयभूषणानां विकल्पान् / 25 लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्या मेकः सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः // 11 / / Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूतं : उत्तरमेघः ] [681 तत्रागारं धनपतिगृहादुत्तरेणास्मदीयं दूराल्लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तीरणेन / यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वधितो मे हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः // 12 // 5 वापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपानमार्गा हैमैश्छन्ना विकचकमलैः स्निग्धवैदूर्यनालैः / यस्यास्तोये कृतवसतयो मानसं संनिकृष्टं नाध्यास्यन्ति व्यपगतशुचस्त्वामपि प्रेक्ष्य हंसाः / / 13 / / तस्यास्तोरे रचितशिखरः पेशलैरिन्द्रनीलैः क्रीडाशैल: कनककदलीवेष्टनप्रेक्षणीयः / मद्गेहिन्याः प्रिय इति सखे चेतसा कातरेण प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तमेव स्मरामि / / 14 / / रक्ताशोकश्चल किसलयः केसरश्चात्र कान्तः प्रत्यासन्नी कुरबकवृतेर्माधवीमण्डपस्य / एक: सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी काङ्क्षत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्याः / / 15 / / तन्मध्ये च स्फटिकफलका काञ्चनी वासयष्टिद्ले बद्धा मणिभिरनतिप्रौढवंशप्रकाशैः / तालः शिजावलयसुभगर्नेतितः कान्तया मे यामध्यास्ते दिवसंविगमे नीलकण्ठः सुहृदः // 16 / / एभिः साधो हृदयनिहितैर्लक्षणैर्लक्षयेथा द्वारोपान्ते लिखितवपुषौ शङ्खपद्मौ च दृष्ट्वा / क्षामच्छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नूनं सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् / / 17 / / 25 गत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्रसंपातहेतोः क्रीडाशैले प्रथमकथिते रम्यसानो निषण्णः / 20 Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 ] / काव्यषट्कं , . समास प्रहस्यन्तर्भवनपतितां कर्तु मल्पाल्पभासं खद्योतालीविलसितनिभां विद्युदुन्मेषदृष्टिम् // 18 // तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा चकितहरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः। .: 5 श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां या तत्र स्याधुवतिविषये सृष्टि रायेव धातुः // 16 / / तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् / गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां 10 जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम् / / 20 // नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छननेत्रं प्रियाया निःश्वासानामशिशिरतया भिन्नवर्णाघरोष्ठम् / हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वा दिन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेबिति // 21 // 15 पालोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा मत्सादृश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती / पृच्छन्ती वा मधुरवचनां सारिका पञ्जरस्थां कच्चिद्भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति / / 22 / / उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां मद्गोत्राङ्क विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा / तन्त्रीमा नयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद्भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती / / 23 / / शेषान्मासान्विरहदिवसस्थापितस्यावधेर्वा विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पैः / 25 मत्सङ्ग वा हृदयनिहितारम्भमास्वादयन्ती प्रायेणेते रमणविरहेष्वङ्गनानां विनोदाः // 24 // Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूतं : उत्तरमेघः ] [ 983 10 सव्यापारामहनि न तथा पीडयेन्मद्वियोगः , शङ्के रात्री गुरुतरशुचं निविनोदां सखीं ते। मत्संदेशैः सुखयितुमलं पश्य साध्वी निशीथे तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः // 25 // प्राधिक्षामां विरहशयने संनिषण्णकपा/ प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशोः / नीता रात्रिः क्षण इव मया सार्धमिच्छारतर्या तामेवोष्णविरहमहतीमभिर्यापयन्तीम् // 26 // पादानिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्टापूर्वप्रीत्या गतमभिमुखं संनिवृत्तं तथैव / चश्रुः खेदात्सलिलगुरुभिः पक्ष्मभिश्छादयन्ती साभ्रेऽह्रीव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धां न सुप्ताम् // 27 // निःश्वासेनाधरकिसलयक्ले शिना विक्षिपन्ती शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बम् / 15 मत्संभोगः कथमुपनयेत्स्वप्नजोऽपीति निद्रा माकाङ्क्षन्ती नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम् // 28 / / प्राद्ये बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा शापस्यान्ते विगलितशुचा तां मयोद्वेष्टनीयाम् / स्पर्शक्लिष्टामयमितनखेनासकृत्सारयन्ती 20 गण्डाभोगात्कठिनविषमामेकवेणीं करेण // 26 // . सा संन्यस्ताभरणमबला पेशलं धारयन्ती शय्योत्सङ्गे निहितमसकृदुःखदुःखेन गात्रम् / त्वामप्यस्र नवजलमयं मोचयिष्यत्यवश्यं प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिराद्रान्तरात्मा / / 30 / / 25. जाने सख्यास्तव मयि मनः संभृतस्नेहमस्मा दित्थंभूतां प्रथमविरहे तामहं तर्कयामि / Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 984 ] | काव्यषटकं वाचालं मां न खलु सुभगं मन्यभावः करोति प्रत्यक्षं ते निखिलमचिराद्भातरुक्तं मया यत् / / 31 / / रुद्धापाङ्गप्रसरमलकैरञ्जनस्नेहशून्यं प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम् / . 5 त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शके मृगाक्ष्या मीनक्षोभाच्चल कुवलयश्रीतुलामेष्यतीति // 32 // वामश्चास्याः कररुहपदैमुच्यमानो मदीयमक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या / संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानां 10 यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम् / / 33 / / तस्मिन्काले जलद यदि सा लब्धनिद्रासुखा स्यादन्वास्यैनां स्तनितविमखो याममात्र सहस्व / मा भूदस्याः प्रणयिनि मयि स्वप्नलब्धे कथंचित्सद्यःकण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम् // 34 / / तामुत्थाप्य स्वजलकणिकाशीतलेनानिलेन प्रत्याश्वस्तां सममभिनवैर्जालकैर्मालतीनाम् / विद्यद्गर्भः स्तिमितनयनां त्वत्सनाथे गवाक्षे वक्तं धीरः स्तनितवचनैर्मानिनी प्रक्रमेथाः / / 35 / / भतु मित्रं प्रियमविधवे विद्धि मामम्बुवाहं 20 तत्संदेशैर्ह दयनिहितैरागतं त्वत्समीपम् / यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां मन्द्रस्निग्धैर्ध्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि // 36 / / इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा त्वामुत्कण्ठोच्छ्वसितहृदया वीक्ष्य संभाव्य चैवम् / 25 श्रोष्यत्यस्मात्परमवहिता सौम्य सीमन्तिनीनां कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमात्किचिदूनः // 37 / / Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 985 (6) मेघदूतं : उत्तरमेघः ] ताभायुष्मन्मम च बचनादात्मनश्चोपकतुं * ब्रयादेवं तव सहचरो रामगिर्याश्रमस्थः / अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः / पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव // 38 / / 5 अङ्गेनाङ्गं प्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तं सास्रणाश्रद्रुतमविरतोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन / उष्णोच्छवासं समधिकतरोच्छ्वासिना दूरवर्ती संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वरिणा रुद्धमार्गः // 39 / / शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तास्कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात् / सोऽतिक्रान्तः श्रवणविषयं लोचनाभ्यामदृष्टस्त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह // 40 // श्यामास्वङ्ग चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिना बहभारेषु केशान् / 15 उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासा न्हन्तकस्मिन्क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति // 41 / / त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलायामात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम् / अस्रस्तावन्मुहुरुपचितैई ष्टिरालुप्यते मे 20 रस्तस्मिन्नपि न सहते संगम नौ कृतान्तः // 42 / / मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेषहेतो- . लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु / पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानां मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति // 43 / / 25 भित्त्वा सद्यः किसलयपुटान्देवदारुद्रुमाणां ये तत्क्षीरस्र तिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः / Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 ] [ काव्यषट्कं आलिङ्गयन्ते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाताः पूर्व स्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तवेति // 44 // संक्षिप्येत क्षण इव कथं दोर्घयामा त्रियामा सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्दातपं स्यात् / इत्थं चेतश्चटुलनयने दुर्लभप्रार्थनं मे गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्यथाभिः / / 4 / / नन्वात्मानं बहु विगणयन्नात्मनैवावलम्बे तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम् / कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा नोचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण // 46 / / शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शाङ्गपाणौ शेषान्मासान्गमय चतुरो लोचने ' मीलयित्वा / पश्चादावां विरहगुणितं तं तमात्माभिलाष निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु / / 47 / / 15 भूयश्चाह त्वमपि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे निद्रां गत्वा किमपि रुदति सस्वनं विप्रबुद्धा। सान्तसिं कथितमसकृत्पृच्छतश्च त्वया मे दृष्टः स्वप्ने कितव रमयन्कामपि त्वं मयेति / / 4 / / एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद्विदित्वा मा कोलीनाच्चकितनयने मय्यविश्वासिनी भूः / स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति // 46 / / प्राश्वास्यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकां सखीं ते शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान्निवृत्तः / 20 Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) मेघदूत : उत्तरमेघः ] [ 987 साभिज्ञान-प्रहितकुशलैस्तद्वचोभिर्ममापि प्रातःकुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः // 50 // कच्चित्सौम्य व्यवसितमिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे प्रत्यादेशान्न खलु भवतो धीरतां कल्पयामि / निःशब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियेव / / 1 / / एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावतिनो मे सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्धया / इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्री. 10 र्मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः / / 12 / / || महाकविश्रीकालिदासविरचिते मेघदूते काव्ये उत्तरमेघः समाप्तः / / // इति काव्यषट्कम् / / Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 988 ॐ गुरुपरम्परा-पट्टावलिः श्रियेऽस्तु संघस्य स वर्द्धमानः शुभैर्गुणौघैः परिवर्द्धमानः / यस्य प्रसादेन शिवं श्रयन्ति भव्या जना नैव भवे भ्रमन्ति / / 1 / / श्री गौतमो लब्धिमहासमुद्रः श्रीमान् सुधर्मा हत-मोहनिद्रः। . जम्बूमुनिर्भग्न-महाकषायः संघस्य भूयात्प्रभवः शिवाय / / 2 / / शय्यंभवोऽर्हत्प्रतिमाप्रबुद्धः सूरियशोभद्र इति प्रसिद्धः / संभूत-सूरिः श्रुत-भृल्ललामा श्रीभद्रबाहुः सुगृहीतनामा / / 3 / / श्री स्थूलभद्र-कृतभूरिभद्रः सलीलशोलव्रतवाःसमुद्रः / महागिरिः सूरिरघापहारी भूयात्सुहस्ती दशपूर्वधारी / / 4 / / श्रीवज्रसूरिगुणलक्षधारी श्रीजैनधर्मोन्नतिकर्मकारी। अनेकधालब्धि महानिधानं करोतु संघस्य शुभ प्रदानम् / / 5 / / श्री प्रार्यरक्षितमुनीश्वरवृद्धवादि,श्री सिद्धसेनजिन भद्रकपादलिप्ता। श्री देवसूरिपबोधकहेमचंद्र मुख्याः कृतप्रवचनोन्नतयो जयन्तु / / 6 / / श्रीमज्जगच्चन्द्रमुनीन्द्र पट्ट-सरोज हंसावुभयौ हि शिष्यो / देवेन्द्रनामा प्रथमोऽत्र सूरिद्वितीयक: श्रीविजयेन्दुसूरि: / / 7 / / तयोरभूतामुभये च शाखे क्रमेण निर्वाणसुखाभिलाषे / तत्रादिशाखा प्रभवा हि विद्या-नंदादयः श्रीगुरवो बभूवुः / / 8 / / श्रीमान् विद्यानन्द-सूरीश्वरोऽभूत्प्रादुर्भूतप्रातिभा-द्वैत-शोभः / ज्योतिश्छन्दस्तर्कसाहित्यसिद्धान्तालंकाराः सौहृदं यत्र चक्रुः / / 6 / / श्री धर्मघोषगुरवः स्फुरित-प्रभावा, विज्ञातविस्तृतनिजान्यमत-स्वभावाः / चारित्रवंत इह निर्मितचारुशास्त्राः, श्रेयःश्रियं प्रवितरन्तु पवित्रगात्राः / / 10 / / शर्वशैलशिखरो-परिस्फुरद्वद्धमौलिमुकुटेन्दुरश्मिभिः / पूरिते सरसि मानसे सदा कैरवाणि विकसंति वासरे // 11 / / Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 689 घण सज्जण नन्दण सुग्रह संदण सुहयर वन्दण सीलधणा / मुणिसत्तमनायग सुसमय-वायग उवसमदायग सुद्धमणा / हियकर पर अप्पह बहुदेहप्पह सिरि सोमप्पह सूरिवरा, नन्दंतु निरजण वंजण भवभयभंजण दुरियहरा / / 12 / / श्रीविमलप्रभसूरिभूरियशःपूरपूरितदशाशः / कुशलाय, देशनाजलनि शित-मोह-मल-पटलः // 13 / / श्रीमान् परमानन्द: परमानन्दं ददातु संघस्य / / सूरिः सुभूरिविद्यावदातमतिवैभवावासः // 14 / / श्री पद्मतिलकसूरिर्दू रित-दुदंति-मदनमदकंदः / शम-दम-संयम-लक्ष्मी-कटाक्षितः क्षेमकृतयेऽस्तु // 15 // येषां प्रसादादहमस्मि किञ्चिच्छास्त्रादिकं वाचयितुं प्रवृत्तः। परोपकारैकपरायणास्ते चारित्रवंतः सुचिरं जयंतु // 16 // स्पर्शाश्मना स्पृष्टमयोऽपि यद्वत्, सुवर्णभावं भजतेऽत्र तद्वत् / श्रीमत्प्रभूणामुपदेशलेशा-न्मूोऽपि शिष्यो विदुषां धुरि स्यात् / / 17 / / विद्वच्चक्रचकोरचित्तपरमप्रीतिप्रतन्वन्नलं गोवृन्देन सुधामयेन सततं स कैरवानन्दकः / जोयाञ्चन्द्रसमः ससोंमतिलक: सूरीश्वरः किं त्वसौ ... नित्यं पूर्णकलः कलंकविकल' श्चाथो न दोषाकरः // 18 // यदंत्र कूटं मतिमांद्यदोषात्प्रवाचितं किंचन पुस्तकस्थम् / व्याख्यानितं वा विपरीत रूपं मिथ्यात्र मे दुष्कृतमस्तु शस्तम् / / 16 / / यत्संबंधनिवेदना न विदधे कस्यापि कस्यापि य नालाप: पथितो मयोज्ज्वलदशा नालोकितः कश्चन / यत्कोऽपि प्रतिपादितः कटुगिरा नो धर्मलाभो ददे ____ यत्कस्मै चिदयं जनस्तदधुना सर्व मम क्षाम्यतु // 20 / / यद्व्याख्यानमसंगतं यदुचित प्रभ्रष्ट-मालापितं यन्नोत्रैर्न हि वीक्षितं यदुदिता नो धर्मलाभाशिषः / Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 यच्चक्रे किल नानुवंदनविधिः साधुव्रजे सर्वत स्तच्क्षन्तव्यमहो महोत्सवरिपोर्मोहस्य विस्फूजितम् / / 21 / / पुस्तकारंभविधिः जीवानां वल्लभं सौख्यं तच्च मोक्ष विना न हि / / साध्यो ज्ञानक्रियाभ्यां स यतध्वं तत्र सज्जनाः / / 1 / / . पश्यन् ज्ञानेन न सूभ्रा वटे पतति जातुचित् / कुमागं त्यजति प्राज्ञो मार्ग श्रयति तात्त्विकम् / / 2 / / चिलातीनंदनः श्रुत्वा पदमेकं मुनेमुखात् / उपशांतो विविक्तात्मा संवृतश्चाभवच्क्षणात् // 3 // श्री वीराद्वासनाशून्यं श्रुतयाप्येक गाथया / मुक्तौभवव्यानर्थः रोहिणेयो दिवंगतः / / 4 / / क्षेत्रपालेन बालेन कृताः कुंभकृतोऽपि च / गाथा गुणाय संजाता जवराजऋषेस्तथा // 5 // यदि गाथापदं चैकं गुणाय महते भवेत् / धन्याः श्रृण्वन्ति ते ज्ञानं सम्यगाराधयंत्यहो // 6 // जिनोदितं सदा शास्त्रं वाचनीयं सुबुद्धिभिः / श्रोतव्यमुत्तमैर्ज्ञानं तृतीयं नेत्रमिच्छता // 7 / / मंगलमभिधेयं च संबन्धोऽपि प्रयोजनम् / चत्वारिकथनीयानि शास्त्रस्य धुरि धीमता / / 8 / / विघ्नोपशान्तये वाच्यं मंगलं तद्विधा भवेत् / द्रव्यतो भावतस्तत्रादिमं मंगलमुच्यते // 6 // सानुकूलग्रहस्वप्न-पूज्याशी: शकुनोत्सवाः / दघिदूर्वाक्षतादीनि वस्तूनि द्रव्यमंगलम् / / 10 / / द्रव्य मंगलतः श्रेयः पुंसां भवति वा न वा / प्रतिक्षणमवश्यं तत् जाप्यते भावमंगलम् // 11 // Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद् भावमगलं ज्ञेयं सद्देवादिप्रणामतः / देवस्तु स चतुस्त्रिशद्वरातिशयशोभितः // 12 // अभिधेयं पुस्तकान्तर्वक्तव्यार्थप्रकाशनम् / संबन्धोऽयं कथं जज्ञे ग्रंथ इत्यादिभाषणम् / / 13 / / श्रोतुः प्रयोजनं पाप- त्यागो ज्ञानं विवेकिता। श्रद्धा वृद्धिमती धर्म-क्रमात् स्वर्मोक्षगं सुखम् / / 14 / / तच्च वाचयितुर्ज्ञानोपकारौ शर्म-निर्वृतम् / फलं तस्य हि शृण्वन्तु यो वाचयति पुस्तकम् / / 15 / / श्रिय: सफलतां सम्यग्वात्सल्यं गुणशालिषु / दिगंतं प्रापिता कीत्तिर्वाच्यते येन पुस्तकम् / / 16 / / सदोत्थापयतः श्रोतृन स्वव्याख्यायां बुभुक्षितान् / श्रीपूज्यान् मन्यते नैव कस्कः कृपणचक्रिणः / / 17 / / व्याख्ययाप्येकयां सर्वश्रोतनध्यापयंश्चिरम् / धीमभिधु युदाराणां स्थाप्यपकोऽहमेव हि / / 18 / / सकेन विना द्वाभ्यां स्त्रीभ्यामेकं च बालकम् / सभा निमंत्र्यमाणास्ति व्याख्यानावसरे सदा / / 16 / / स ज्ञानं वरमासनं निरुपमस्थालं शुभाभाषणं बोधिः पाणिः शुचिः फलानि विविधस्वादूनि तत्त्वानि च / पक्वान्नानि महाव्रतानि सततं शाल्योदनं मार्दवम्, क्षान्तिर्दालिरकृत्रिमा जिनमते वाक्यानुरागो घृतम् // 20 / / एला यत्र दया क्षमा च लवली सत्यं लवंगं परं कारुण्यं क्रमुकी फलानि विदितश्चूर्णः सुतत्त्वोदयः / कर्पूरं मुनिदानमुत्तमगुणं शीलं सुपत्रोच्चयो गृह्णीध्वं गुणवज्जनैनिगदितं ताम्बूलमेतज्जनाः // 21 / / शालिंतुषमात्र भारो मध्ये पोट्टिलिकमुंदिरोऽपि यथा / मागपि व्याख्याता हास्याय भवी तथा विदुषी // 22 / / Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 992 द्रुमाद् द्रुममूर्ध्वगतौ न शक्ता यद्वानरा अप्युदधिं तरन्ति / श्रीरामदेवस्य विभोः प्रभावं, मन्वन्ति तत्रोत्तमबुद्धिभाजः / / 23 / / यद्दई रः सर्पशिरोऽधिरुह्य निःशंकचेता रमते यथेच्छम् / प्रपोस्फुरीति प्रकट: प्रभावः कस्यापि तत्रोत्तममांत्रिकस्य / / 24 / / व्याख्यास्तु दूरे यदहं निवेष्टुमप्यासनेऽलं परिषद्गतः स्याम् / अचिंत्यमाहात्म्यवतां प्रभावः श्रीमत्प्रभूणामयमत्र सर्वः / / 25 / / चारित्रं चारु येषां समय चतुरता गोचरा नैव वाचां दृक्पातः क्षीरनीरालयलहरिसमः साम्यरम्या च मूत्तिः / वाक्यं पीयूषधारामधुमधुरतरं धीमयं धर्मकृत्यं / श्रीसोमप्रभाख्या भुवि शुभ गुरवस्ते न हर्षाय कस्मै / / 26 / / श्री जम्बूमुनिविश्वविश्वविदितश्रीस्थूलभद्रादयः स्मार्यास्ते मुनिनामुनष न मृगः पुंस्त्वावतारी हरिः / मा कार्षीविधवां च मामपसरेऽत्युक्तोऽपि रत्या पुनयुध्यन्नाम्न्यवशेष्ययविरचितोऽनंगो यथार्थाभिधः // 27 // लक्ष्मीसमाकर्षणनामधेयान् विश्वाधिपत्यप्रदभागधेयान् / भव्याक्षि-भाग्यावधि-रूप धेयान् विज्ञाततत्तत्समयाभिधेयान् / / 28 / / श्रीसंघचित्तगगनांगणसूर्यकल्पान् कर्पूरपूरजयकारिगुणैरनल्पान् / श्रीपूर्वसोमतिलकाभिधसूरिराजान् संस्तौमि तान् सविधसंज्ञि सुधी समाजान् // 26 / / नक्षत्रा-क्षत-पूरितं मरकत-स्थालं विशालं नभः पीयूषद्युतिनालिकेरकलितं चन्द्रप्रभाचन्दनम् / यावन्मेरुगिरेर्गभस्तिकटके धत्ते धरित्रीवधू स्तावन्नंदतु धर्मकर्मनिरतः श्रीसंघभट्टारकः // 30 / / 'न्यग्मुखता पुनरुक्तिद्रुतता स्थिरता नवसरवेदितत्वम् / निष्फलशब्दाश्च तथा, व्याख्यातुर्दोषषट्क मिदम् // 1 // Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- _