________________ (5) नैषधीयचरितम् :: अष्टमः सर्गः ] [ 723 // 45 // // 48 // ममौ स भद्रं चुलुके समुद्र स्त्वयात्तगाम्भीर्यमहत्त्वमुद्रः संसारसिन्धावनुबिम्बमत्र जागति जाने तव वैरसेनिः / बिम्बानुबिम्बौ हि विहाय धातु न जातु दृष्टातिसरूपसृष्टि: // 46 // इयत्कृतं केन महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्यारजःसु पद्मस्रजमारभेते // 47 // ब्रवीति मे कि किमियं न जाने . ____ संदेहदोलामवलम्ब्य संवित् / कस्यापि धन्यस्य गृहातिथिस्त्व मलीकसंभावनयाथवालम् . प्राप्तव तावत्तव रूपसृष्टि निपीय दृष्टिर्जनुषः फलं मे / / 15 अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां / तयोः प्रसादीकुरुषे गिरं चेत् इत्थं मधुत्थं रसमुद्गिरन्ती / .. तदोष्ठबन्धूकधनुविसृष्टां / ... कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चबाणो . . वाणीमिषेणास्य मनो विवेश // 50 // अमज्जदाकण्ठमसौ सुधासु प्रियं प्रिया य वचनं निपोय / द्विषन्मुखेऽपि स्वदते स्तुतिर्या ... तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया // 51 // 25 पौरस्त्यशैलं जनतोपनीतां गृह्णन् यथाह्नःपतिरर्घ्यपूजाम् / तथातिथेयीमथ संप्रतीच्छ प्रियापितामासनमाससाद // 52 // // 49 //