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तलकाक
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ॐ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजीयमहाराज
विरचितया सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्श्री-स्थानाङ्गसूत्रम् ॥ STHANANG
SUTRAM (द्वितीयो भागः)
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशक. राजकोटनिवासी-प्रेष्टिश्री-व्रजलाल दुर्लभजी पारेख
तत्प्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः __ श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति वीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९१ २०२१
मूल्यम्-रू० २५-०-० όφφφφφφφφφφφφφφφφφφέ
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१९६४
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‘भवातुं : श्री म. सा. ३.स्थानचासी જેના
शसोद्धार समिति, है. मच्यिाव! २3, २०४८, (सौराष्ट्र).
Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W Ry, India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूख्यः ३. २५300
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત : ૨૪૯૧ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૧ ઈસવીસન ૧૯૬૪
મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીગ પ્રેસ, ઘી કાંટા રેડ, અમદાવાદ
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આઘસુમીશ્રી,
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પારેખ વૃજલાલ દુર્લભજી રાજકેટ.
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જીદગીભર સાદાઈ તથા કરકસરથી પાઈ પાઈ ખચાવી. જે કઇ ખચત થઇ તે જુદી જુદી સંસ્થાઓમાં દાનમાં આપી દીધું કેમ કે શ્રી વ્રજલાલભાઈ ને કાંઇ સ’તાન નથી.
શ્રી. વ્રજલાલભાઇ જેમ જેમ પૈસા કમાતા ગયા તેમ તેમ અનેક ધામિક કાર્યોંમાં દાનરૂપે આપતા જ રહ્યા છે. તેમના દાનપ્રવાહના ઘેાડાક દાખલાએ નીચે મુજખ છે, રાજકોટ મહાજન શ્રીની પાંજરાપેાળમાં–ચીભડા પાંજરાપેાળમાં પશુવિશ્રાંતિગૃહ, વમાન તપ, આયંબિલ ખાતાએ રાજકોટ તથા મુંબઈમાં સ્થાનકવાસી જૈન માલાશ્રમ – કાઠીયાવાડ નિરાશ્રિત ખાલાશ્રમ – સમેતશિખર ઉપર ભાતાની તિથી – પાવાપુરીમાં ધર્માંશાળામાં એક રૂમ – મુ`બઈમાં સીપી ટેંક ઉપર હાલ મધાતી પાંચ માળની જૈન ધર્મશાળામાં એક રૂમ – ભક્તીનગર જૈન સાસાયટીમાં સસ્તા ભાડાની ચાલમાં એક બ્લોક જૈન દવાખાનામાં – રાજકોટ વણિક મહાજન શ્રી તરફથી ચાલતા દવાખાનામાં પ્રસુતીગૃહ માટે એક રૂમ એ મુજબ છુટક છુટક દરેક ખાતાઓમાં દાન દઇ રાજકોટ વ્રજલાલ દુર્લીભજી પારેખ અંધ મહિલા વિકાસ ગૃહમાં ફા. પચાસ હજાર એક મકાન ખાતામાં તથા ખત્રીસ હજાર પાંચસેા એક પુખ્ત વયની ધ મ્હેના માટેના છાત્રાલયના મકાન માટે આપેલ છે હવેની શેષ જીંદગી મજકુર અ ધ મહિલા વિકાસ ગૃહની સેવામાં ત્યાં રહી શુજારી રહ્યા છે. હયાતી ખાદ્ય તેમની જે મિલ્કત હેાય તે અંધ મહિલા વિકાસ ગૃહને મળે તેવુ' વીલ કરેલ છે.
દશા
તેમનાં મહેન ઝખકમેન દુલભજી ૩૧-૧૨-૬૨ ના રાજ દેવગત થતાં તેમની મિલ્કતમાંથી જૈનાના સસ્તા ભાડાની ચાલમાં એક બ્લોક શ્રીમાળી વણિક મહાજન શ્રી તરફથી ચાલતા દવાખાનામાં પ્રસુતી ગૃહ માટે એક રૂમ તથા રાજકેટમાં મૂ'ગા મહેરાના છાત્રાલયના મકાન માટે રૂપીઆ ત્રીસ હજાર તેમણે દાનમાં આપ્યા છે.
-
વ્રજલાલભાઈ શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના આ કાર્યમાં વખતા વખત હાર્દિક સહકાર આપતા આવ્યા છે, તેમજ શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્રના આ ખીજા ભાગના પ્રકાશન માટે રૂ. ૫૦૦૧) પાંચ હજાર એક આપી સક્રિય સહકાર ખતાવી અમૂલ્ય અને અપ્રાપ્ય લાભ મેળવેલ છે. જે માટે આ સમિતિ તેમનો હાર્દિક આભાર માને છે.
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આધમુરબ્બીશ્રીએ
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રોશ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ
(સ્વ) રશેઠશ્રી છગનલાલ શામળદામ ભાવસાર્–અમદાવાદ.
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(સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઇ વેલજીભાઈ વીરાણી-રાજકોટ.
શેઠશ્રી રામજીભાઇ શામજીભાઇ વીરાણી–રાજકાટ.
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજી સા. જૈન નાના – અનિલકુમાર જૈન (દાયત્તા )
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આઘમુરબ્બીશ્રી
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શ્રી વિનોદકુમાર વિરાણી
કઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજકોટ,
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શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા
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(સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ
બારસી,
સ્વ, શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
બાલિયા પાલી મારવાડ,
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
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(સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ
ભાણવડ
અમદાવાદ,
(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
દરિયા
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શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાલાલભાઈ
અમદાવાદ,
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ,
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આઘમરબ્બીશ્રીઓ
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સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચંદ શાહ
ખંભાત,
, શેઠ તારાચંદ્રની સાથે મેરી
મદ્રાસ,
૧ વચ્ચે બેઠેલા મેટાભાઈ શ્રીમાનું મૂલચંદજી
જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રી લાલજી બરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા
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अनुक्रमाङ्क
७
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१०
११
१२
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- १४
- १५
१६
१७
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स्थानाङ्गसूत्र भा. २ दूसरेकी विषयानुक्रमणिका विषय
तीसरे स्थानका दूसरा उद्देशा
दूसरे उदेशेका विषय विवरण लोक स्वरूपका निरूपण चमरादिकों की परिषद्का निरूपण धर्म विशेषकी प्रतिपत्तिका निरूपण वोधिशब्द से अभिधेय धर्मादिका निरूपण भेदसहित ज्याका निरूपण
तारोपण के कालका निरूपण पुरुपके भेदों का निरूपण
संसारी जीवोंकी प्ररूपणा पूर्वक सर्वजीवका निरूपण
दिशाओंका और दिशाओंके आश्रित होनेसे गत्यागतिका निरूपण
सजीवोंका और उनसे विपरीत स्थावर जीवों के
स्वरूपका निरूपण
जीवपदार्थका निरूपण
दुःख के स्वरूपका निरूपण
परमतका निराकरण पूर्वक स्त्रमतका निरूपण
तीसरा उद्देशा
कपायवाले जीवोंकी मायाका निरूपण
आलोचना आदि करनेवालेका निरूपण शुद्धिकरनेवालोंकी आभ्यन्तर और वाह्य संपत्तिका
निरूपण
वस्त्रग्रहण के कारणोंका निरूपण
पृष्ठाङ्क
१
२-५
.६-९
१०-१४
१५-१६
१७-२२
२३-२६
२६-३९
३९-४३
४४-५३
५३-५६
५५-५७
५८-६२
६२-७१
७२-७७
७८-८१
rt
८१-८३ ८३-८४
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निग्रन्थोंका निरूपण
८४-१०० वचन, मन का और उनके निषेधका निरूपण १००-१०३ वृष्टिकायका निरूपण
१०४-१७ अधुनोपपन्नदेवोंका निरूपण
१०८-१२२ देवों के व्यापारोंका निरूपण
१२२-१२९ देवोंके विमानका निरूपण
१२९-१३४ जीवकी गतिका निरूपण
१३५-१३८ निग्रेन्थ अनगारोके आचारका निरूपण
१३८-१५६ कर्मभूमिका निरूपण
१५६-१५७ कर्मभूमिमें रहे हुवे मनुष्यों के धर्मका निरूपण १५८-१६५ नरकावासका निरूपण
१६६-१७३ मिथ्यात्वका निरूपण
१७३-१८० धर्मके स्वरूपका निरूपण
१८१-१९१ ३२ . अर्थादि विनिश्चयके कारणों की परम्पराका निरूपण १९१-१९७
चौथा उद्देशा ३३ अनगारकी कल्पविधिका निरूपण
१९८-२०२ ३४ काल और वचनकी प्ररूपणा
२०२-२०७ पर्यायान्तरका निरूपण
२०७-२१६ मनुष्यक्षेत्र स्वरूपनिरूपणम्
२१७-२२१ सामान्य पृथिवी देशका निरूपण
२२१-२२८ किल्लिपिक देवका निरूपण
२२८-२३१ इन्द्रकी परिपद्का निरूपण
२३१-२३२ मायश्चित्तवालोंका निरूपण
२३२-२४१ योग्य व्यक्तियोंको प्रव्रज्यादानका निरूपण २४२-२५३ वाचनादि विषयमें योग्यायोग्यका निरूपण २५३-२५८ प्रज्ञापनीय वस्तुका निरूपण
२५८-२६५ ४४ कल्पस्थितिका निरूपण
२६५-२७४ नारकादिकोंके शरीरका निरूपण
२७४-२७६
४०
४१
४५
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प्रत्यनीक स्वरूपका निरूपण
२७६-२८२ मातापिताके अङ्ग के विभागका निरूपण २८३-२८४ श्रामण्यपर्याय को प्राप्त हुवा जीव जिनजिन कारणोसे विशिष्ट निर्जरा करता है उन उन कारणोंका
निरूपण २८४-२८९ पुद्गलोंके परिणाम विशेषका निरूपण
२८९-२९७ भेद सहित ऋद्धिके स्वरूपका निरूपण
२९७-३०५ गौरवादि भेदोका निरूपण
३०५-३११ निवृत्तिके भेदोंका निरूपण
३१२-३२० लेश्याओंका निरूपण
३२०-३२५ मरणका निरूपण
३२५-३३१ मरणके अनन्तर हिताहितके स्वरूपका निरूपण ३३१-३३८ पृथिवीके स्वरूपका निरूपण
३३९-३४२ नारकोंकी उत्पत्तिका निरूपण
३४३-३४९ तीर्थकरके विमानोंका वर्णन
३४९-३५१ कर्मके तीन स्थानोंका निरूपण
३५२-३५४ पुद्गल स्कंधका निरूपण
३५५-३५६ चौथे स्थानकके पहला उद्देशक
५६
३५७
६२
'मङ्गलाचरण अन्तक्रियाका निरूपण
३५८-३६९ वृक्षदृष्टान्तसे पुरुषोंका निरूपण
३७०-३९१ प्रतिमाप्रतिपन्न पुरुषके कल्पनीय भाषादिका निरूपण ३९२-३९४ वस्त्रदृष्टान्तसे पुरुषादिका निरूपण
३९५-४०२ सुतादि दृष्टान्तसे पुरुषादिका निरूपण
४०२-४१२ धुण दृष्टान्तसे पुरुषादिका निरूपण
४१३-४१९ वनस्पतिका निरूपण
४१९-४२७ ध्यानके स्वरूपका निरूपण
४२७-४५९. भेद सहित देवोकी स्थितिका निरूपण
४५९-४६२.
६७
६९ ७०
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७३
मोहके विपयभूत कपायोंका भेद सहित निरूपण ४६२-४७६ ___कालत्रयवर्ती कपागोंका निरूपण
४७६-४८ प्रतिमाके स्वरूपका निरूपण
४८४-४८७ ७४ जीवास्तिकायके विपरीत अजीवास्तिकायका भेद
सहित निरूपण ४८८-४८९ '७५ . फलके दृष्टान्त से पुरुषादिका निरूपण
४९०-४९३ ७६ सत्यासत्य निमित्तक प्रणिधान के स्वरूपका निरूपण १९४-५०० ७७ पुरूपके स्वरूपका निरूपण
५००-५१४ ७८ 'लोकपालादिकों के स्वरूपका निरूपण
५१४-५२६ ७९ प्रमाणके स्वरूपका निरूपण
५२६-५३० - ८० दिक्कुमारि महत्तरिकाओंका निरूपण
५३१-५३४ ८१ भेदसहित दृष्टिवादका निरूपण
५३४-५३६ ८२ प्रायश्चित्तका निरूपण
५३६-५४१ ८३काल के स्वरूपका निरूपण
५४१-५४४ पुद्गलों के परिमाणका निरूपण
५४५-५४६ जीवद्रव्य के परिणामोंका निरूपण
५४६-५५० दुर्गति-सुगतिरूप परिणामों के एवं दुर्गत-सुगतों
के भेदोंका निरूपण ५५१-५५५ क्षयके परिणामों के क्रमका निरूपण ५५५-५५७ हास्यके कारणोंका निरूपण दृष्टान्त दार्टान्तिक पूर्वक अन्तरसूत्रका निरूपण ५५९-५६१ भेदसहित भृतकका निरूपण
५६२-५६५ देवत्वका निरूपण
५६६-५७३ ९२, विकृतिके स्वरूपका निरूपण ९३ . दृष्टान्त और दार्टान्तिक सहित कूटागार आदिका
निरूपण ५७५-५७७ ९४ दार्शन्तिक स्त्री सूत्रका निरूपण ९५ - प्राप्तिका निरूपण
५७८-५७९ ५८०-५८१
५५८
५७३-५७४
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९८
९९
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१०३
१०४ १०५ १०६ १०७
१०८
चौथे स्थानका दूसरा उद्देशा प्रतिसंलीन और अप्रतिसंलीनका निरूपण ५८२-५८५ दीनके स्वरूपका निरूपण
५८६-५९२ आर्यादि पुरुषके स्वरूपका निरूपण
५९३-५९५ वृपभके द्रष्टान्तसे पुरुपके स्वरूपका निरूपण ५९६-६०१ हाथोके दृष्टान्तसे पुरुषके प्रकारका निरूपण ६०२-६११ विकथाके स्वरूपका निरूपण
६१२-६२९ कायविशेषका निरूपण
६२९-६३४ व्याघात के स्वरूपका निरूपण
६३४-६४० स्वाध्यायमें कर्तव्यता-अकर्तव्यताका निरूपण ६४१-६४४ स्वाध्यायमें प्रवृत्त हुवेको लोकस्थितिका निरूपण ६४४-६४६ त्रसपाण विशेष के स्वरूपका निरूपण
६४६-६५२ गह के स्वरूपका निरूपण
६५२-६५६ दोपत्यागी जीवके स्वरूपका निरूपण
६५६-६६८ कारण उपस्थित होने पर साधुको अथवा साध्वीजीको परस्परमें आलापकादिमें आराधकत्वका
निरूपण ६६९-६७० तमस्कायके स्वरूपका निरूपण
६७०-६७५ सेनाके दृष्टान्त द्वारा पुरुषों के प्रकारका निरूपण ६७५-६८१ पर्यत-राज्य आदिके दृष्टान्त से कपायके स्वरूपका
___ और उनको जीतने के प्रकारका निरूपण ६८२-६९७ संसारके स्वरूपका निरूपण
६९७-७०० आहारके स्वरूपका.निरूपण
७००-७०२ कर्मवन्धके स्वरूपका निरूपण
७०२-७२३ एक-कति और सर्व शब्दकी प्ररूपणा
७२३-७३० मानुपोत्तर पर्वत के कूटोंका निरूपण
७३०-७३२ जम्बूद्वीपगत भरत और ऐरवत पर्वतके कालका
निरूपण ७३३-७४६
१०९
। ११०
११३
११६ ११७ ११८
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११९
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१०
जम्बूद्वीपके द्वारोंका निरूपण
- जम्बूद्वीपस्थ अन्तरद्वीपोंका निरूपण
जम्बूद्वीपस्थ लवणसमुद्री अवगाहना आदि का
निरूपण
धातकीखंड द्वीप के वक्रपपमाण आदिका निरूपण raharater वर्णन अञ्जन पत्रवका वर्णन
रविकर पर्वतका वर्णन
सत्य स्वरूपका निरूपण
संयम के स्वरूपका निरूपण reath स्वरूपका निरूपण
समाप्त
७४६-७४८
७४८-७५८
७५८-७७१
७७१-७७२
७७३-७८५
७८५-७९१
७९२-७९६
७९७-७९८
७९९८००-८०१
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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
श्रीजैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री- घासीलालवतिविरचितया सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्-
श्री - स्थानाङ्गसूत्रम् ॥
( द्वितीयो भागः )
अथ तृतीयस्थानस्य द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते-
,
व्याख्यातस्तृतीयस्थानरय प्रथमउद्देशकः साम्प्रतं द्वितीयः प्रारभ्यते, अस्य प्रथमोद्देशकेनायं सम्बन्धः - प्रथमोदेशके प्रायो जीवधर्माउक्ताः इहापि प्रायस्त एव जीवधर्माः प्रतिपादयिष्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्योदेशकस्येदमादिसूत्रम् - तिविहे लोगे ' इत्यादि ।
अथ प्रथमोदेशकस्यान्तिम सूत्रेणास्यादित्रस्यायमभिसम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिसूत्रस्वरूपमुक्तम्, इह तु चन्द्रादीनामेव भावानानाधारभूतो लोक स्वरूपं सूत्रत्रयेणाभिधीयते -
तृतीय स्थानका दूसरा उद्देशा
इस पूर्वोक्त प्रकार से तृतीय स्थान का प्रथम उद्देशक व्याख्यात हो चुका अब द्वितीय उद्देशक का व्याख्यान प्रारंभ होता है इसका प्रथम उद्देशक के साथ यह संबंध है कि - प्रथम उद्देशक में प्रायः जीव धर्म कहे गये हैं इसमें भी प्रायः वे ही जीवधर्म कहे जावेगे - इसी संबंध से प्रारंभ हुए इस उद्देशक का " तिविहे लोगे" इत्यादि यह प्रथम सूत्र है इस प्रथम सूत्र का प्रथम उद्देशक के अन्तिम लून के साथ संबंध ऐसा है कि उस अन्तिम सूत्र में चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि सूत्र का ત્રીજા સ્થાનકના ખીજે ઉદ્દેશો
પહેલા ઉદ્દેશાની પ્રરૂપણા હવે પૂરી થઇ. હવે સૂત્રકાર ત્રીજા ઉદ્દેશાની પ્રરૂપણાના પ્રારંભ કરે છે. પહેલા ઉદ્દેશા સાથે ખીજા ઉદ્દેશાના આ પ્રમાણે સબધ છે—પહેલા ઉદ્દેશામાં મુખ્યત્વે જીવધમથી પ્રરૂપણા કરામાં આવી છે, આ ઉદ્દેશામાં પણ એજ જીવયનું મુખ્યત્વે કથન કરવામા આવશે પહેલા ઉદ્દેશા સાથે આ પ્રકારના સંબંધ ધરાવતા આ બીજા ઉદ્દેશાનુ પ્રથમ સૂત્ર या अभाएँ] छे-“ तिविछे लोगे" त्याहि मा प्रथम सूत्रनेो भागसा उद्देशाना છેલ્લા સૂત્ર સાથે આ પ્રકારનેા સખધ છે તે છેલ્લા સૂત્રમાં ચન્દ્રપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ
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स्थानास्त्रे
मूलम्-तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा-णामलोगे, ठवणलोगे, दबलोगे १ । तिविहे लोगे पण्णते तं जहा-णाणलोगे दंसणलोगे चरित्तलोगे २ । तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा-उद्धलोगे अहोलोगे तिरियलोगे ३ ॥सू० ३० ॥ ___ छाया-त्रिविधो लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामलोकः, स्थापनालोकः, द्रव्यलोकः १ । त्रिविधो लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानलोकः, दर्शनलोकः, चारित्रलोकः २। त्रिविधो लोकः मज्ञप्तः, तद्यथा-ऊर्वलोक', अधोलोकः तिर्यग्लोका३ ॥
टीका-तिविहे लोगे' इत्यादि । लोक्यते-अवलोक्यते केवलालोकेनेति लोकः, स नामस्थापनाद्रव्यभेदात्रिविधः तत्र नामस्थापने नामेन्द्रस्थापनेन्द्रवद् व्याख्येये। द्रव्यलोकोऽपि तथैव । नवरं जशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त स्वरूप कहा है पर यहां उन चन्द्रादिक भावों का जो आधारभूतलोक है उसका स्वरूप कहा जाता है क्यों कि लोक उन चन्द्रादिक भावों का ___आधारभूतक्षेत्र है-(तिविहे लोगे पण्णत्ते ) इत्यादि।
सूत्रार्थ-तीन प्रकार कालोक कहा गया है जैसे-नामलोक, स्थापनालोक और द्रव्यलोक अथवा इस प्रकार से भी लोक विविध कहा गया है जैसे ज्ञानलोक, दर्शनलोक और चारित्रलोक अथवा-इस प्रकार से भी लोक तीन तरह का कहा गया है उर्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक। टीकार्थ-जो केवलज्ञानरूपी आलोक (प्रकाश) के द्वारा देखा जाताहै वह लोक है वह लोक लाखलोक, स्थापनालोक और द्रव्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है इनमें नामलोड और स्थापनालोक नामेन्द्र और સૂત્રનું સ્વરૂપ કહ્યું છે. તે ચદ્રાદિક ભાવના આધારરૂપ જે લોક છે, તેના સ્વરૂપનું અહીં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે લેક એ ચન્દ્રાદિક मावानु आधारभूत क्षेत्र छ-"तिविहे लोगे पण्णत्ते" त्याह
सूत्राथ-सोनार ४१२ छ-(१) नामसी, (२) स्थापना मन (3) દ્રવ્યલોક, અથવા લેકના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પણ કહ્યા છે-(૧) જ્ઞાનક, (૨) દર્શનલેક અને (૩) ચારિત્રલેક. અથવા લેકના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર ५५ ५ छ-(१) serals, (२) मा भने (3) तिय .
ટીકાર્થ-કેવળજ્ઞાન રૂપ આલેક (પ્રકાશ) વડે જેને જોઈ શકાય છે, તે લેક છે. તે લેક નામલોક, સ્થાપનાલેક અને દ્રવ્યલેકના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર તેમાંથી નામલેક અને સ્થાપનાકનું કથન નમેન્દ્ર અને સ્થાપનેન્દ્રના પૂર્વોકત
છે.
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gar aint स्था० ३ उ०२०३० लोकस्वरूपनिरूपणम्
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द्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि जीवाजीवरूपाणि, 'रूप्यरूपीणी - ति सप्रदेशांs: प्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति द्रव्यलोकः । भावलोकमाहविविहे ' इत्यादि । भावलोको द्विविधः - आगमतो नोआगमतथ । तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगः, तदुपयोगानन्यत्वात्पुरुषो वा भावलोकः, नोआगमतस्तु प्रस्तुतसूत्रोक्तो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः । इदं हि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं त्रयं स्थापनेन्द्र की तरह समझना चाहिये अर्थात् किसी पदार्थ का चाहे वह चेतन हो या अचेतन हो अर्थशून्य निरर्थक लोक ऐसा नाम रखना यह नाम लोक है और किसी भी पदार्थ में यह लोक है ऐसी स्थापना कर लेना यह स्थापनालोक है । ज्ञ शरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त जो द्रव्यलोक है वह धर्मास्तिकायादिक द्रव्यरूप, जीवाजीव द्रव्यरूप, रूपी अरूपी द्रव्यरूप और सप्रदेश अप्रदेशद्रव्यरूप है क्यों कि द्रव्यरूप जो लोक है वह द्रव्य लोक है भावलोक दो प्रकार है एक आगमभावलोक और दूसरा नोआगम भावलोक इनमें लोककी पर्यालोचना करने वाला जो उपयोग है वह आगम भावलोक है अथवा उस उपयोग से अनन्य होने के कारण पुरुष भावलोक है तथा नो आगम की अपेक्षा से भावलोक प्रस्तुत सूत्रोक्त ज्ञानदर्शन चारित्ररूप है । नोआगम की अपेक्षा भावलोक ज्ञान है ऐसा जब विवक्षित होगा तब दर्शन और चारित्र उससे अलग नहीं पडेंगे क्यों कि ज्ञान से कहने से ही उन दोनों का ग्रहण हो जावेगा इसी प्रकार नो आगम की अपेक्षा भावलोक दर्शन है ऐसा કથન પ્રમાણે જ સમજવું. એટલે કે કોઇ પણ ચેતન કે અચેતન પટ્ટાનુ 'सो' मेवु नाम रामवु ते नाभसोङ छे, भने अपए यहार्थभां 'मा લાક છે, ’ એવી સ્થાપના કરી લેવું તેનું નામ સ્થાપનાલાક છે. નશરીર અને ભવ્યશરીર સિવાયને જે દ્રવ્યલેક છે તે ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યરૂપ, જીવાજીવ દ્રવ્યરૂપ, રૂપી અરૂપી દ્રવ્યરૂપ અને સપ્રદેશ અપ્રદેશ દ્રવ્યરૂપ છે, કારણ કે દ્રવ્યરૂપ જે લાક છે, તે દ્રવ્યલેાક છે. ભાવલે!ક એ પ્રકારના છે-(૧) આગમ ભાવલાક અને (૨) આગમ ભાલેક લેાની પર્યાલેાચના કરનારા જે ઉપયાગ છે તે આગમ ભાલેક છે. અથવા તે ઉપયાગથી અનન્ય હાવાને કારણે પુરુષ ભાવલાક છે. તથા નેઆગમની અપેક્ષાએ ભાલેક પ્રસ્તુત સૂત્રેાક્ત જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રરૂપ છે. નેઆગમની અપેક્ષાએ ભાવલેાક જ્ઞાન છે એવું જ્યારે વિક્ષિત (પ્રતિપાદિત ) થશે, ત્યારે દર્શન અને ચારિત્ર તેનાથી माग नहीं पडे, अशशु " જ્ઞાન દ્વારા ” પદના પ્રચેાગ કરવાથી તે ખંનેને
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स्थानाङ्गसूत्रे प्रत्येकमितरेतरसव्यपेक्षं, नागम एव केवलो नाप्यनागमः, नो शब्दस्य देशनिषेधकत्वादिति । तत्र ज्ञानं चासौ लोकश्च ज्ञानलोकः । एवं दर्शनलोकचारित्र लोकश्चेति । भावलोकवाचेपां क्षायिकक्षायोपशमिकभावरूपत्वात् क्षायिकादि भावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वात् । एषां विशेषवर्णनमनुयोगद्वारस्त्रस्य मत्कृतायामनुयोगचन्द्रिकाटीकायामावश्यकशन्दव्याख्यायामवलोकनीयम् ।
जब विवक्षित होगा तब भी ज्ञान चारित्र उससे अलग नहीं पडेंगे क्यों कि दर्शन कहने से उन दोनों का ग्रहण उससे हो जावेगा इसी प्रकार नोआगम की अपेक्षा भावलोक चारित्र है ऐसा जब कहा जावेगा तब भी दर्शन ज्ञान उससे भिन्न नहीं होंगे क्यों कि चारित्र के कहने से उन दोनों का भी ग्रहण हो जायेगा इसलिये इतनेपर सापेक्ष ज्ञान दर्शन चारित्र ये प्रत्येक नोआगम की अपेक्षा से भावलोकरूप हो जाते हैं। यहां नो आगम में " नो" शब्द देशनिषेधक है इससे जो पूर्णरूप से आगम नहीं हैं, किन्तु आगम के एक देश हैं वह नोआगम है ऐसे नो आगम भाव लोक ज्ञान दर्शन चारित्र हैं । ये ज्ञानचारित्र क्षायिक एवं क्षायोपशमिकादि भावरूप होते हैं इसलिये इनमें भावलोकना कही गई है क्योंकि क्षायिकादि भावों को भावलोकरूप से शास्त्र में कहा गया है इनका विशेष वर्णन अनुयोगद्वारसूत्र की जो अनुयोगપણ ગ્રહણુ કરી લેવાશે એજ પ્રમાણે ના આગમની અપેક્ષાએ ભ'વલેાક દન છે એવું જ્યારે વિક્ષિત થશે, ત્યારે પણ જ્ઞાન અને ચારિત્ર તેનાથી જુઢાં નહીં પડે, કારણ કે “ દન દ્વારા ” પદના પ્રયાગથી તે બન્નેને પણ ગ્રહણ કરી લેવાશે. એજ પ્રમાણે ને! આગમની અપેક્ષાએ ભાવલાક ચારિત્ર એવું જ્યારે કહેવામાં આવશે ત્યારે પણ જ્ઞાન અને દન તેનાથી જુદા નહીં પડે, કારણુ કે “ ચારિત્ર ” કહેવાથી તે બન્નેને પણ ગ્રહણ કરી લેશે. તેથી ઇતરેતર સાપેક્ષ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્ર, એ પ્રત્યેક ના આગમની અપેક્ષાએ ભાવલેકરૂપ થઈ જાય છે,
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અહીં નાગમના “ના” શબ્દ દેશનિષેધક છે, તેથી જે પૂણુરૂપે भागभ नथी, परन्तु सागमता खेड हेश ( अ ) ३५ छे, तेभने ४ - આગમ કહે છે. એવાં નાચ્યાગમ ભાવલેાક જ્ઞાનદર્શન ચારિત્ર જ છે, તે જ્ઞાનચારિત્ર ક્ષાયિક અને ક્ષાયેાપશમિક આદિ ભાત્રરૂપ હોય છે, તેથી તેમનામાં ભાવલેતા કહી છે, કારણ કે ક્ષાયિક આદિ ભાવાને ભાવલાક રૂપે શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત કરેલ છે. તેમનું વિશેષ વધુન અનુયાગ દ્વારસૂત્રની અનુયાગ
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सुधा टीका स्थो० ३ उ २ सू० ३० लोकस्वरूपनिरूपणम् अथ क्षेत्रलोकमाह-'तिविहे' इत्यादि, इह च वहुसमभूमिमागे रत्नप्रभाभागे मेरुम ध्येऽष्टप्रदेशो रुचकोऽस्ति, तस्योपरितनमतरस्योपरिष्टान्नवयोजनशतानि यावज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परत ऊर्ध्व भागस्थितत्वाद् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनपतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभोगस्थित्वा दधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोको_लोकयोमध्येऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात्तिर्यग्लोक इति ॥ सू०३०॥
चन्द्रिका नामकी टीका है उसमें आवश्यकशब्द की व्याख्या करते समय लिखा गया है ? अतः वहां से यह विषय जाना जा सकता है. __ वहुसमभूमिभागवाले रत्नप्रभाके भागमें मेरुके मध्यमें आठ रुचक प्रदेश हैं उनके उपरितन प्रदेशके ऊपरसे लेकर नौ सौ योजनतक ऊपर में ज्योतिश्चक है उस ज्योतिश्चक के उपरितलतक तिर्यग्लोक है इसके आगे उभाग में अवस्थित होने के कारण उर्वलोक है इसका विस्तार कुछ कम सात राजू का है रुचक के अधस्तन प्रतर के नीचे नौ सौ योजन तक फिर तिर्यग्लोक है, इसके बाद अधोभाग में स्थित होने से अधोलोक है यह कुछ अधिक सातराजूप्रमाण है अधोलोक और उप्रलोक के मध्य में १८ सौ योजन प्रमाण तिर्यग्भाग में स्थित होने के कारण तिर्यग्लोक है ।। सू०३० ।। ચન્દ્રિકા નામની ટીકામાં આવશ્યક શબ્દની વ્યાખ્યા કરતી વખતે લખવામાં આવેલ છે, તો તે વિષય ત્યાંથી વાંચી લે.
બહુસમ ભૂમિવાળા રત્નપ્રભાના ભાગમાં મેરની મધ્યમાં આઠ રુચક પ્રદેશ છે. તેમના ઉપરીતન પ્રદેશથી ઊંચે ૯૦૦ જન સુધી જ્યોતિશ્ચક છે. તે તિક્ષકના ઉપરિતલ સુધી તિર્યક છે. ત્યાંથી આગળ જતાં ઉર્વ. લોક આવે છે. ઉર્વભાગમાં રહેલું હોવાથી તેને ઉર્વક કહે છે. તેને વિસ્તાર સાત રજૂ કરતાં થડે ન્યૂન છે. ચકના અધાસ્તન પ્રતરની નીચે ૯૦૦ એજન પર્યન્તમાં પણ તિર્યશ્લોક છે, તેનાથી નીચે અલોક છે. અધે ભાગમાં તે આવેલું હોવાથી તેને અધોલેક કહે છે. તેને વિસ્તાર સાત રાજૂ પ્રમાણુથી થોડે અધિક છે. અધોલેક અને ઉર્વીલેકની મધ્યમાં ૧૮૦૦ યોજન प्रभा-तिय मामा २खवा-तिया छ. ॥ सू. ३० ॥ .
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स्थानामसूत्र लोकस्वरूपनिरूपणानन्तरं तदाधेयानां चमरादीनां परिपदो निरूपयति
म्लम् चमरस्सणं असुरिंदस्स असुरकुमाररत्नो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ तं जहा-समिया, चंडा, जाया। अमितरिया समिया, मज्झिमया चंडा, बाहिरया जाया । चमरस्त णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सामाणियाणं देवाणं तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-समिया जहेव चमरस्त एवं तायतीसगाण वि । लोगपालाणं तुंबा तुडिया पव्वा । एवं अग्गमहिसीणवि । वलिस्सवि एवं चेव जाव अग्गमहिसीणं । धरणस्स य सामाणियतायत्तीसगाणं च समिया चंडा जाया । लोगपालाणं अग्गमहिसीणं ईसा तुडिया दढरहा जहा धरण. स्स तहा सेसाणं भवणवासीणं । कालस्स णं पिसाइंदस्स पिप्लायरपणो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-ईसा तुडिया दढरहा । एवं सामाणिय अग्गमहिलीणं । एवं जाव गीयरइगीयजसाणं । चंदस्स णं जोइसिंदस्त जोइसरण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तुंवा तुडिया पव्वा । एवं सामाणिय अग्गमहिसणं । एवं सूरस्तवि । सक्कस्त णं देविंदस्त देवरन्नो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा--समिया चंडा जाया । एवं जहा चमरस्त जाव अग्गमहिसीणं । एवं जाव अच्चुयस्स लोगपालाणं ॥ सू० ३१ ॥
लोक स्वरूप के निरूपण के बाद अब लोक में आधेयरूप से रहे हुए चमरादिकों की परिषद का सूत्रकार कथन करते हैं-(चमरस्सणं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो) इत्यादि।
લેકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરીને હવે લોકમાં રહેલા ચમરાદિકની પરિષદનું सूत्रा२ ४थन ४२ छ-" चमरस्सणं असुरिंदस्व असुरकुमाररन्नो" त्याहि
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सुपा टीका स्था०३३.२सू०३१ चमरादीनां परिषदोनिरपणम्
छाया-चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तिस्रः परिषदः मज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता, चण्डा, जाता। आभ्यन्तरिका समिता मध्यमिका चण्डा, वाह्यका जाता । चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य सामानिकानां देवानां तिस्रः परिषदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता यथैव चमरस्य । एवं त्रायस्त्रिंशकानामपि । लोकपालानां तुम्बात्रुटिता पर्वा । एवमग्रमहिपीणामपि । वलेरप्येवमेव यावत्-अग्रमहिषीणाम् । धरणस्य च सामानिकत्रायस्त्रिंशकानां च शमिता, चण्डा, जाता । लोकपालानामग्रमहिषीणाम् ईशा त्रुटिता, दृढरथा, यथा धरणस्य तथा शेषाणां भवन वासिनाम् । कालस्य खलु पिशाचेन्द्रस्य पिशाचराजस्य तिस्रः परिषदः प्रसाः, तद्यथा-ईशा, त्रुटिता, दृढरथा । एवं सामानिकायमहिपी
सूत्रार्थ-असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमरकी तीन परिषदाएँ कही गई हैं जो इस प्रकार से हैं-समिता, चण्डा और जाता, आभ्यन्तर जो परिपदा है उसका नाम समिता है मध्यमिका जो परिषदा है उसका नाम चण्डा है और जो बाह्यपरिषदा है उसका नाम जाता है इसी तरह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के जो सामानिक देव हैं उनकी भी तीन परिषदाएँ कही गई हैं उनका नाम भी पूर्वोक्तरूप से ही है इसी प्रकार से त्रायस्त्रिंशक देवों की भी इन्हीं नामों वाली तीन परिषदाएँ कही गई हैं।
लोकपालों की तीन परिषदाओं के नाम तुम्बा, त्रुटिता और पर्या है इसी प्रकार से जो अग्रमहिषियों की परिषदाएँ है उनके भी ये ही नाम हैं । बलिके परिषद भी यही नाम वाली है । धरण के जो सामा निक और त्रायस्त्रिंशक देव हैं उनकी भी परिषदाओं के शमिता, चण्डा और जाता ये ही नाम हैं तथा लोकपालों की जो अग्रमहिषियां
सूत्रार्थ-भसुरेन्द्र, मसुरमा२२॥य यभरनी त्रय परिषह! ४ही छ-(१) समिता, (२) २२ मन (3) anai. माझ्यन्त२ परिषहने शमिता ४ छ, मध्यभि પરિષદને ચંડા કહે છે અને બાહ્ય પરિષદને જાતા કહે છે. એ જ પ્રમાણે અસુરેન્દ્ર, અસુરકુમારરાય ચમરના સામાનિક દેવેની પણ ત્રણ પરિષદે કહી 'તેમના નામ પણ ચમરની પરિષદ જેવાં જ છે. એ જ પ્રમાણે ચમરના ત્રાય. સિંશક દેવની પણ એ જ નામવાળી ત્રણ પરિષદે કહી છે.
કપાલની ત્રણ પરિષદનાં નામ તુમ્બા, ત્રુટિતા અને પર્વો છે. અગમહિષીઓની ત્રણ પરિષદનાં નામ પણ લોકપાલની ત્રણ પરિષદો જેવાં જ છે. બલીની પરિષદાના પણ એ જ ત્રણ નામો છે. ધરણના જે સામાનિક અને ત્રાયશ્ચિશક દે છે તેમની પરિષદનાં નામ પણ સમિતા, ચંડા અને જાતા
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स्थानासूत्रे णाम् । एवं यावद् गीतरतिगीतयशसां । चन्द्रस्य खलु ज्योतिष्केन्द्रस्य ज्योतिकराजस्य तिस्रः परिपदः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तुम्बा, त्रुटिता, पर्वा । एवं सामानि काग्रमदिपीणाम् । एवं सरस्यापि । शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य तिस्त्र: पदिपदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता, चण्डा, जाता । एवं यथा चमरस्य यावद् अनमहिपीणाम् । एवं यावद् अच्युतस्य लोकपालानाम् ।। सू० ॥ ३१ ॥
टीका-'चमरस्स णं' इत्यादि, सुगमम् । नवरम्-'असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य ' इत्यादौ, इन्द्रऐश्वर्ययोगात् , राजा तु राजनादिति । परिपतूपरिवारः, सा विधा प्रत्यासत्ति भेदेन, तत्र ये परिवारभूता देवा देव्यश्चातिगौरवात् प्रयोजनेहैं उनकी परिषदाएँ ईशा, त्रुटिता और दृढरथा नामकी हैं जैसा कथन धरण के विषय में कहा गया है वैसा ही कथन शेष भवनपतियों के विषय में भी करना चाहिये।
पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की तीन परिषद् कही गई हैं-उनके नाम इस प्रकार से है-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा इसी प्रकार से इसके सामानिक देवों की अग्रमहिषियों की भी परिषदाएँ जानना चाहिये
और उनके नाम भी ये ही जानना । चाहिये गान्धर्व के सेदरूप जो गीतरति और गीतयश हैं उनकी भी परिषदाएँ इन्हीं नामों वाली हैं ज्योतिकेन्द्र ज्योतिष्कराज जो चन्द्र है उसकी भी तीन ही परिषदाएँ कही गई हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं-तुम्घा, त्रुटिता और पर्वा इसी प्रकार से सामानिक और अग्रमहिषियों की परिषदा के विषय में भी जानना चाहिये और इसी प्रकार से सूर्य की परिषदा के विषय में भी જ છે, તથા તેમના લેપ લે અને તેમની અગ્રમહિષીઓની પરિષદનાં નામ ઈશા, ત્રુટિતા અને દઢરથા છે ધરણના વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે એવું જ કથન બાકીના ભવનપતિઓ વિષે પણ સમજી લેવું.
પિશાચેન્દ્ર, પિશાચરાજ કાળની ત્રણ પરિષદનાં નામ આ પ્રમાણે છે, ઈશા, ત્રુટિતા અને દૃઢરથા. એ જ પ્રમાણે તેને સામાનિક દેવ અને અગ્રમહિષીઓની પરિષદે વિષે પણ સમજવું તેમની પરિષદેનાં પણ એજ નામ સમજવાં ગાધર્વના ભેદરૂપ જે ગીતરતિ અને ગીતયશ છે, તેમની પરિષદ પણ એ જ નામવાળી છે. તિર્મેન્દ્ર, અને તિષ્કરાજ. ચન્દ્રની ત્રણ पपिहोनi नाम नाये प्रमाणे ४i छे-(१) तु+मा, (२) त्रुटित मने पा. એજ પ્રમાણે તેમના સામાનિક દેવ અને તેમની અમહિષીઓની પરિષદ વિષે પણ સમજવું, અને સૂર્યની પરિષદ વિષે પણ એવું જ કથન સમજી
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सुधा टीका स्था० ३३०२सू०३१ चमरादीनां परिषदो निरूपणम् वयाहूता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरापरिपत् । ये त्वाहृता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा, ये त्वनाहूना अप्यागच्छन्ति सा बाह्येति । तथा यया सह प्रयोजन पर्यालोचयति साऽऽद्या, यया तु तदेव पर्यालोचितं सत् प्रपञ्चपति सा द्वितीया, यस्यास्तु पर्यालोचितं प्रवर्णयति साऽन्त्येति ॥ सू० ३१ ॥ जानना चाहिये देवेन्द्र देवराजशक की तीन परिपदाएँ कहीं गई हैं। जिनके नाम इस प्रकार से हैं-समिता, चण्डा और जाना जिस प्रकार चमर की अग्रमहिषियों की सभा के विषय में कथन किया है उसी प्रकार से शक के सामानिक देवों की और अग्रमहिषियों की परिपदा के संबंध में भी जानना चाहिये तथा इसी प्रकार से यावत् अच्युत के लोकपालों की परिषदा के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये ऐश्वर्य के योग से इन्द्र और दीप्ति के योग से राजा चमर आदि को कहा गया है परिषदा नाग्न परिवार का है यह परिवाररूप परिषद प्रत्यासत्ति के भेद से तीन प्रकार की कही गई है जो परिवार भूत देव और देवियां अतिगौरव से प्रयोजनों में भी बुलाने पर ही आती हैं वह अभ्यन्तरा परिषदा है तथा जो देव और देवियां बुलाने पर और नहीं बुलाने पर भी आती है वह मध्यम परिषद है तथा जो नहीं बुलाने पर भी आती हैं वे वह बाय परिषद् है तथा-जिसके साथ प्रयोजन का विचार किया जाता है वह आद्य परिषद है तथा विचार किया गया कार्य जिसकी લેવુ. દેવેન્દ્ર, દેવરાજ શક્રની પણ ત્રણ પરિષદ છે, તેમના નામ નીચે પ્રમાણે छे-(१) समिता, (२) २. सन. anal. Aमना सामानि । मने मय. મહિષીઓની સભાઓના વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન શકતા સામાનિક દેવેની અને અગ્રમહિષીઓની પરિપદો વિષે પણ સમજી લેવું, અને એજ પ્રકારનું કથન અય્યતને લોકપાલે પર્યન્તની પરિ. ષદે વિષે પણ સમજવું. ચમર આદિને ઐશ્વર્યાને ચગથી ઈન્દ્ર અને દીપ્તિના
ગથી રાજા કહેવામાં આવેલ છે. પરિષદ એટલે પરિવાર આ પરિવાર રૂપ પરિષદ પ્રયાસત્તિના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની કડી છે જે પરિવાર રૂપ દેવો અને દેવીઓ કઈ ખાસ પ્રજનમાં અતિગૌરવપૂર્વક બોલાવવામાં આવે તે જ આવે છે, તે સભાને અભ્યન્તર પરિષદ કહે છે. જે સભામાં દેવ અને દેવી.
ને બેલાવવામાં આવે ત્યારે પણ આવે છે અને બેલાવ્યા વિના પણ આવે છે. તે સભાને મધ્યમ પરિષદ કહે છે જે સભામાં વિના બોલાવ્યે દેવો અને દેવીઓ આવે છે તે સભાને બાહ્ય પરિષદ કહે છે. જે પરિષદની સાથે પ્રયોજનને વિચાર કરવામાં આવે છે, તે પરિષદને આદ્યપરિષદ કહે છે. વિચારેલા
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स्थानासूत्रे पूर्व परिपदुत्पन्नदेवाः प्ररूपिताः, देवत्वं च कुतोऽपि धर्माद्भवति, तत्मतिपत्तिश्च कालविशेपे भवतीति कालविशेषनिरूपणपूर्वकं तत्रैव धर्मविशेषाणां प्रतिपत्तीराह___मूलम्-तओ जामा पण्णता, तं जहा-पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे। तीहिं जामेहि आया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए, तंजहा-पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । एवं जाव केवलनाणउप्पाडेजा, तं जहा-पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । तओ वया पण्णत्ता तं जहापढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। तीहिं वएहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं जहा-पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। एसो चेव गमो यत्रो, जाव केवलनाणति ॥ सू० ३२ ॥ सलाह से विस्तृत किया जाता है वह दूसरी मध्यमापरिषद् है तथा पर्यालोचित कार्य का विवरण जिसके समक्ष प्रस्तुत किया जाताहै-वह तृतीय अन्यपरिषद् है ।। सू०३१ ।। ___इस प्रकार परिषद् में उत्पन्न देवों की प्ररूपणा की । देवत्व धर्म से प्रास होता है, धर्म की प्रतिपत्ति कालविशेष में ही जीव को होती है अतः अब सूत्रकार कालविशेप की निरूपणा पूर्वक वही धर्मविशेषों की जीव को प्रतिपत्ति होती है इस बात का कथन करते हैं-(तओ जामा पण्णत्ता) इत्यादि।
કાર્યપર જે સભામાં વિસ્તૃત વિચારણા થાય છે, તે પરિષદને બીજી મધ્યમાં પરિષદ કહે છે. પર્યાચિત (વિચારવામાં આવેલ) કાર્યનું વિવરણ જેની સમક્ષ પ્રસ્તુત કરાય છે, તે પરિષદને તૃતીય અન્ય પરિષદ કહે છે કે સૂ૩૧
આ પ્રમાણે ચમર આદિની પરિષદની પ્રરૂપણા પૂરી થઈ. દેવત્વ ધમથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. જીવને ધર્મની પ્રતિપત્તિ (પ્રાપ્તિ) કાળવિશેષમાં જ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર કાળવિશેષની નિરૂપણપૂર્વક એ જ ધર્મ વિશેની જીવને પ્રતિપત્તિ થાય છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે.
" तओ जामा पण्णत्ता" त्या:
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सुधा टीका स्था०३ उ० २ ३०३२ धर्मविशेषप्रतिपत्तिनिरूपणम्
छाया-नायो यामाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो यामः । गिभिर्यामेरात्मा केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभते श्रवणतया, तद्यथा-प्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो यामः । एवं यावत्-केवलज्ञानमुत्पादयति, तद्यथाप्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो यामः । त्रीणि वयांसि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमवयः, मध्यमं वयः, पश्चिमं वयः एवएव गमो ज्ञातव्यः, केवलज्ञानमिति० ॥ ३२॥
टीका--' तओ जामा' इत्यादि सुगमम् । नवरस्-यामः-प्रहरः सार्द्ध सप्तघटीपरिमितः काल. रात्रेर्दिवसस्य च चतुर्थ भाग इत्यर्थः, रात्रिदिवस्याष्ट प्रहरत्वात् , तथापीह विभाग एव यामत्वेन विवक्षितः पूर्वरात्रमध्यरात्रापररात्र
सूत्रार्थ-तीन याम कहे गये हैं जो ये हैं-प्रथम याम, मध्यम याम और पश्चिम याम । इन तीन यामों में आत्मा केवलिप्रज्ञप्त धर्म को श्रवण कर प्राप्त करता है । इसी तरह आत्मा यावत् इन तीन यामों में केवलज्ञान को उत्पन्न करता है । जीव की अवस्थाएँ भी तीन होती हैं-प्रथम अवस्था, मध्यम अवस्था, और पश्चिम अवस्था " इन तीन अवस्थाओं में आत्मा केवलज्ञान को उत्पन्न करता है" ऐसा पाठ, यहां से लगाकर कि आत्मा इन तीनों अवस्थाओं में केवलिप्रज्ञप्त धर्म को श्रवण कर प्राप्त करता है यहां पर भी लगाना चाहिये । टीकार्थ-दिनके चौथे भागका नाम याम-प्रहर है यह याम रातदिनका चतुर्थभागरूप है। क्यों कि रातदिन आठ प्रहर का होता है परन्तु यहां पर रातदिन का तृतीय भाग ही प्रहर शब्द से विवक्षित हुआ है। इसी कारण पूर्वरात्र, मध्यरात्र और अपररात्ररूप प्रहर त्रय को लेकर रात्रि
सूत्रा--त्र याम छे-(१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम मन (3) પશ્ચિમ યામ. આ ત્રણ યામમાં આત્મા કેવલિબજ્ઞ ધર્મને શ્રવણ દ્વારા પ્રાપ્ત કરે છે, એ જ પ્રમાણે આત્મા આ ત્રણ ચામાં કેવળજ્ઞાન પર્વતની વસ્તુઓ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. જીવની અવસ્થાએ પણ ત્રણ હોય છે-(૧) પ્રથમ અવસ્થા, (२) मध्यम अवस्था भने (3) पश्चिम मस्था. “मात्मा - Y 14. સ્થાઓમાં કેલિપ્રજ્ઞત ધર્મને શ્રવણ દ્વારા પ્રાપ્ત કરી શકે છે, ” આ કથનથી લઈને “ આ ત્રણ અવસ્થાઓમાં આત્મા કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન કરી શકે છે,” આ કથન પર્યન્તનું સમસ્ત કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ.
દિવસના ચોથા ભાગને યામ (પ્રહર–પહેર) કહે છે. તે યામ રાત્રિકે દિવસના ચોથા ભાગરૂપ હોય છે, કારણ કે દિવસના ચાર અને રાત્રિના ચાર પહાર હોય છે. પરંતુ આ સૂત્રમાં યામ (પહેરી પદથી રાત્રિ કે દિવસને ત્રીજો ભાગ વર્ણવવામાં , આવ્યા છે. એ જ કારણે પૂર્વત્ર, મધ્યરાત્રિ અને અપરાત્રિ રૂપ ત્રણ પહે
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स्थानागासून लक्षणो यमाश्रित्य रागिस्त्रियामेत्युच्यते, एवं दिनस्यापि । अत्र त्रिस्थानकानुरोधाच्चतुर्थो न विवक्षितः । के ते त्रयो याम ? इत्याह-' पढमे ' इत्यादि, प्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो याम इति । ' तीहिं ' इत्यादि, एभिः पूर्वोक्तैरेव त्रिभिर्यामः त्रिषु यामे वित्यर्थ आत्मा-जीवः केवलिप्रज्ञप्तं-जिनप्रणीतं धर्मश्रवणतया श्रवणविषयीकरणेन लभते-श्रणोतीत्यर्थः। तानाह प्रथमो मध्यमः पश्चिम इति । एवम्-अनेनैव रीत्यो-एभिरेव त्रिभिर्यामरित्यर्थः, 'जाव' यावत्-यावच्छब्दात्'तोहिं जामेहिं आया केवलं वोहिं बुज्जेजा, तीहिं जामे हिं आया मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पयएज्जा, तीहि जामेहिं आया बंभचेरवासमावसेज्जा, एवं तीहि जामेहिं आया संजमेणं संजमेज्जा, तीहि जामेहि आया संवरेणं संवरेज्जा, तीहिं जामेहिं आया आभिणियोहियनाणं उपपाडेज्जा, एवं तीहिं जामे हिं आया सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा तीहिं जामेहिं आया, इत्यन्तं संग्राह्यम् । का नाम वियोमा हुआ है। इसी प्रकार से दिन के भी पूर्वाह्न मध्याह्न और अपराह्न ये तीन प्रहर जानना चाहिये यहां त्रिस्थानक के अनुरोध से चतुर्थ प्रहर विवक्षित नहीं हुआ है। वे तीन याम यहां पर प्रथमयाम, मध्यमयाम और पश्चिम याम के नाम से प्रकट किये गये हैं। इस तरह इन तीन यामों में जीव केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुनता है, यहां यावत् शब्द से " तीहिं जामेहिं आया केवलं वोहिं बुज्ञज्जा, तीहिं जामेहिं आया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पधएज्जा, तीहिं जामेहिं आया बंभचेरवासमावसेज्जा, एवं तीहिं जामेहिं आया संजमेणं संजमेज्जा, तीहिं जामेहिं आया संवरेण संवरेज्जा, तीहिं जामेहिं आया आभिणियोहियनाणं उप्पाરને લીધે રાત્રિનું બીજું નામ ત્રિયામાં પણ છે. એ જ પ્રમાણે દિવસના પણ પૂર્વાહ્ન મધ્યાહ્ન અને અપરાહ્ન રૂપ ત્રણ પહેર (યામ) સમજવા જોઈએ અહીં ત્રણ સ્થાનનું પ્રકરણ હોવાથી ચેથા પહોરની વાત કરી નથી તે ત્રણ યામને અહીં પ્રથમ યામ, મધ્યમ યામ અને પશ્ચિમ યામના નામથી પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. એટલે કે અહીં આ પદેને એ અર્થ સમજવાને છે કે આ ત્રણ यामामा पनि पर्नु वए) ४२ छ. मह “ यावत् ( पय-त)" ५४ वा नायने। सूत्रपा8 अडए) ४२वाना छ-" तीहि जामेहि आया केवल योहि बुझेज्जा, तीहि जामेहि आया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणनारियं पव्व. एज्जा, तीहि जामेहिं आया बंभचेरवासमावसेज्जा, एवं तीहि जामेहिं आया संजमेणं सजमेज्जा, तीहि जाहि आया सवरेणं संवरेजा, तोहि जामेहि
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सुंधाटीका स्था०३३२०सू० ३२ धर्मविशेषप्रतिपत्तिनिरूपणम्
मुण्डो भूत्वा
रात्मा
छाया - ' त्रिमियमैरात्मा केवलां बोधि बुध्यते, त्रिभिर्यामेरात्माआगाराद् अनगारितां प्रव्रजति, त्रिभिर्यामैरात्मा ब्रह्मचर्यवासमावसति, एवं त्रिभिर्यामैरात्मा संयमेन संयच्छति, त्रिभिर्या मैं संवरेण संवृणुयात्, त्रिभिर्या मैरात्माऽऽभिनियोधिक ज्ञानमुत्पादयति, एवं त्रिभिर्या मैरात्मा श्रुतज्ञानम् अवविज्ञानं मन:पर्ययज्ञानमुत्पादयति, त्रिभिर्यामैरात्मा ' इति, ‘केवलां वोवि' इत्यारभ्य यावत् केवलज्ञानमुत्पादयति । तान् यामानाह-प्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो याम इति । यथा काल विशेषे धर्मप्रतिपत्तिर्भवति तथा वयोविशेषेऽपीति तत्र धर्म प्रतिपत्ती राह - ' तओ वया' इत्यादि सुगमं, नवरं प्राणिनां कालकृतावस्था वय इत्युच्यते, तद् प्रथममध्यम - पश्चिमभेदात्रिविधम् । तत्र प्रथमं वयो वालत्वं, मध्यमवयो यौवनं, पश्चिमवयोवृद्धत्वमिति, तल्लक्षणं चेदम्
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"
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डेज्जा, एवं तीहिं जामेहिं आया सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, तीहिं जामेहिं आया इस पाठ का संग्रह हुआ है। तात्पर्य इस पाठ का ऐसा है कि आत्मा तीन यामों में केवलबोधि को, मुंडित होकर अंगारावस्था से अनगारावस्था को, ब्रह्मचर्यव्रत को, संयम को, संवर को, आभिनियोधिक ज्ञान को, श्रुतज्ञान को, अवधिज्ञान को, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान को उत्पन्न करता है ।
जिस प्रकार से कालविशेष में जीव को धर्म की प्रतिपत्ति होती है, उसी प्रकारसे अवस्थाविशेषमें भी उसे धर्मकी प्रतिपत्ति प्राप्ति होती है इसी बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने "तओ क्या" इत्यादि सूत्र कहा है - प्राणियों में जो कालकृत अवस्था होती है उसी का नाम वय है बाल्य अवस्थारूप प्रथम वय, यौवन अवस्थारूप मध्यम वय
आया आभिणिवोहियनाणं उपाडेज्जा, एवं तीहिं जामेहिं आया सुयनाण, ओहि - नाणं, मणपज्जवनाणं उपाडेज्जा, तीहि जामेहिं आया " मा उथनना लावार्थ નીચે પ્રમાણે છે-આત્મા ત્રણ યામામાં શુદ્ધાધિને પામી શકે છે, આગારાવસ્થાના ત્યાગપૂર્ણાંક અણુગારાવસ્થા અંગીકાર કરે છે, બ્રહ્મચર્યંત, સયમ, सांवर, मलिनिमेोधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान भने ठेवण જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરી શકે છે. જેમ કાળવિશેષમાં જીવને ધર્મની પ્રતિપત્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે તેને અવસ્થ વિશેષમાં પણુ ધર્મની પ્રતિપત્તિ થાય છે. એજ वातने सूत्रारे " तओ क्या ” त्यहि सूत्र द्वारा अउट ४री छे. लवोमां જે કાળકૃત અવસ્થા હાય છે તેને વય કહે છે. બાલ્યાવસ્થારૂપ પ્રથમ વચ,
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स्थानाङ्गसूत्र __ " आपोडशाद् भवेद् वालो, यावत्क्षीरान्नवर्तकः ।
मध्यमः सप्तति यावत् , परतो वृद्ध उच्यते " ॥ १ ॥ 'एसो चेव गमो' एप एव-पूर्वोक्त प्रकार एव गमः-आमिलापो वाक्य रचना विशेषः ज्ञातव्यः, 'जाव' यावत्-'केवलनाणंति' केवलज्ञानमिति केवलज्ञानमुत्पादयति, स गमो यथा-'तीहि वएहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए ' इत्यारभ्य ' तीहि वएहिं आया केवलनाणं उपपाडेज्जा' इत्यन्तः पठनीय इति ॥ सू० ३२ ॥
उक्तानेव धर्म विशेषांनिधा-बोधिशब्दाभिधेयात् १, बोधिमतो२, बोधिविपक्षभूतं मोह ३ तद्वतश्च ४ सूत्रचतुष्टयेनाह
मूलम्-तिविहा बोही पण्णत्ता, तं जहा-णाणवोही, दंसणवोही, चरित्तबोही । तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा-णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तवुद्धारा एवं मोहे३, मूढा ४ ॥सू०३३॥ और वृद्धावस्थारूप पश्चिमवय कहा गया है कहा भी है-"आषोडशाद् " इत्यादि। ___एसो चेव गमो" इसी तरह की वाक्यरचना द्वारा ऐसा भी कथन कर लेना चाहिये कि आत्मा " तीहिं वएहिं आया केवलनाणं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए" तीन अवस्थाओं में केवलज्ञान
और केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनता है तथा " तीहिं वएहिं आया केवलनाणं उप्पाडेज्जा" तीनों अवस्थाओं में आत्मा केवलज्ञान को उत्पन्न करता है । सू०३२॥
कथित धर्मविशेष तीन ३ प्रकार के हैं उनमें वोधि शब्द के द्वारा अभिधेयरूप जो धर्म है वे तथा बोधिशाली जीवरूप से, अभिधेय जो યોવનાવસ્થારૂપ મધ્યમ વય, અને વૃદ્ધાવસ્થારૂપ પશ્ચિમ વય ગણાય છે. કહ્યું
छ " आषोडशाद्" त्याल. ___ " एसो चेव गमो” र प्रधानी वायश्यना द्वारा मे नमे है " तीहिं वएहिं आया केवल नाणं केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए". ત્રણ અવસ્થાઓમાં આત્મા કેવળજ્ઞાન અને કેલિપ્રજ્ઞસ ધર્મનું શ્રવણ કરે છે, तथा " तीहिं वएहि केवलनाणं उप्पाडेज्जा" त्र अवस्थामामा मात्मा કેવળજ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરે છે કે સૂ. ૩૨ છે
કથિત ધર્મ વિશેષ ત્રણ પ્રકારનો છે-બધિ શબ્દ દ્વારા અભિધેય રૂપ જે ધર્મ છે તે, તથા બેધિ સંપન્ન વરૂપે અભિધેય જે ધર્મ છે તે, તથા બધિના
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सुधा का स्थान उ० २ स० ३३ योधिशब्दाभिधेयादिनिरूपणम ___ छाया-त्रिविधो बोधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानवोधिः दर्शनवोधिः, चारित्र. बोधिः १ । त्रिविधा बुद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ज्ञानवुद्धाः, दर्शनबुद्धाः, चारित्रबुद्धा: २ । एवं मोहः ३, मूढाः ४ ॥ ३३ ॥
टीका-'तिविहा' इत्यादि । वोधनं वोधिः-सम्यग्वोधः जीवोपयोगरूपः, स ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात्रिविधः । तथाहि-ज्ञानविषयः सम्यग्बोधः-ज्ञानवोधिः, दर्शनविषयः सम्यग्बोधो दर्शनवोधिः, चारित्रविषयः सम्यग्रोधश्चारित्रबोधिरिति। वोधिविशिष्टा बुद्धास्त्रिविधाः-ज्ञानबुद्धाः, दर्शनबुद्धा, चारित्रबुद्धाः । तत्र-ज्ञानधर्म हैं वे तथा बोधिका विपक्षभूत जो मोहरूप अभिधेय है वह और माहवाले जीवरूप जो अभिधेय है वह इस प्रकार से ये सब तीन ३ रूप हैं यही बात अब सूत्रकार सूत्रचतुष्टय द्वारा कहते हैं-(तिविहा घोही पण्णत्ता) इत्यादि।
घोधि तीन प्रकार की कही गई है-जैसे-ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि वुद्ध भी तीन प्रकार के कहे गये हैं-ज्ञानवुद्ध, दर्शबुद्ध, और चारित्रवुद्ध, इसी प्रकार से मोह भी तीन प्रकार का कहा गया है और मृढ भी तीन प्रकार के कहे गये हैं।
सम्यग्बोध का नाम बोधि है यह सम्यग्बोध जीव का उपयोग रूप धर्म है यह ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद तीन प्रकार का है, ज्ञानविषयक सम्यग्रोध का नाम ज्ञानबोधि है दर्शनविषयक सम्यग्बोध का नाम दर्शन बोधि है तथा चारित्रविषयक सम्यक बोध का नाम चारित्रयोधि है, बोधि विशिष्ट जो होते हैं उनका नाम वुद्ध है ये वुद्ध भी પ્રતિપક્ષભૂત જે મેહરૂપ અભિધેય છે તે અને મહવાળા જીવરૂપ જે અભિધેય છે તે, આ પ્રકારે કથિત ધર્મ વિશેષ ત્રણ પ્રકારે છે. એ જ વાત હવે સૂત્ર४१२ सूत्र यतु द्वारा ४ छ-" तिविहा वोही पण्णत्ता" त्याह
माधिना ३ २ ४ा छ-(१) ज्ञानमाधि, (२) शनमाधि मन (3) ચારિત્રબધિ. બુદ્ધના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) જ્ઞાનબુદ્ધ, (૨) દર્શનબુદ્ધ અને (૩) ચારિત્રબુદ્ધ. એ જ પ્રમાણે મોહ પણ ત્રણ પ્રકારનો છે અને મૂઢ પણ ત્રણ પ્રકારને છે.
સમ્યમ્ બોધને બધિ કહે છે. આ સમ્ય બેધ જીવને ઉપગરૂપ ધર્મ છે. તે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનો છે. જ્ઞાનવિષયક સમ્યગૂ બેધને જ્ઞાનધિ કહે છે, દર્શનવિષયક સમ્ય બેધને દર્શનાધિ કહે છે, અને ચારિત્રવિષયક સમ્યગૂ બેધને ચારિત્રબોધિ કહે છે. બોધિથી યુક્ત જેને
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स्थांनाङ्गमत्र " आपोडशाद् भवेद् वालो, यावत्क्षीरान्नवर्तकः ।
मध्यमः सप्तति यावत् , परतो वृद्ध उच्यते "॥१॥ 'एसो चेव गमो' एप एव-पूर्वक्ति प्रकार एव गमः-आभिलापो वाक्यरचना विशेषः ज्ञातव्यः, 'जाव' यावत्-'केवलनाणंति' केवलज्ञानमिति केवलज्ञानमुत्पादयति, स गमो यथा-'तीहिं वएहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए ' इत्यारभ्य ' तीहिं वएहिं आया केवलनाणं उप्पाडेज्जा ' इत्यन्तः पठनीय इति ॥ सू० ३२ ॥
उक्तानेव धर्म विशेषांत्रिधा-बोधिशब्दाभिधेयान १, बोधिमतो२, बोधिविपक्षभूतं मोहं ३ तद्वतश्च४ सूत्रचतुष्टयेनाह___मूलम्--तिविहा बोही पण्णत्ता, तं जहा-णाणवोही, दंसणवोही, चरित्तबोही । तिविहा बुद्धा पणत्ता, तं जहा-णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धारा एवं मोहे३, मूढा ४ ॥सू०३३॥
और वृद्धावस्थारूप पश्चिमवय कहा गया है कहा भी है-" आषोडशाद्" इत्यादि। ___“एसो चेव गमो" इसी तरह की वाक्यरचना द्वारा ऐसा भी कथन कर लेना चाहिये कि आत्मा " तीहिं वएहिं आया केवलनाणं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए " तीन अवस्थाओं में केवलज्ञान
और केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनता है तथा " तीहिं वएहिं आया केवलनाणं उप्पाडेज्जा" तीनों अवस्थाओं में आत्मा केवलज्ञान को उत्पन्न करता है । सू०३२॥
कथित धर्मविशेष तीन ३ प्रकार के हैं उनमें वोधि शब्द के द्वारा अभिधेयरूप जो धर्म है वे तथा बोधिशाली जीवरूप से, अभिधेय जो યોવનાવસ્થારૂપ મધ્યમ વય, અને વૃદ્ધાવસ્થારૂપ પશ્ચિમ વય ગણાય છે. કહ્યું 4 छ " आषोडशाद् " त्याह.
" एसो चेव गमो" मे २नी १४५२यना । म ४ समे है " तीहिं वएहिं आया केवल नाणं केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए". ત્રણ અવસ્થાઓમાં આત્મા કેવળજ્ઞાન અને કેવલિપ્રજ્ઞસ ધર્મનું શ્રવણ કરે છે, तथा " तीहि वएहि केवलनाणं उप्पाडेज्जा" तर अवस्थामामा मात्मा કેવળજ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરે છે કે સૂ. ૩૨ છે - કથિત ધર્મ વિશેષ ત્રણ પ્રકાર છે-બધિ શબ્દ દ્વારા અભિધેય રૂપ જે ધર્મ છે તે, તથા બેધિ સંપન્ન જીવરૂપે અભિધેય જે ધર્મ છે તે, તથા બેધિના
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सुधा का स्था० उ० २ ० ३३ योधिशब्दाभिधेयादिनिम्पणम १५ __छाया-त्रिविधो वोधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानवोधिः दर्शनवोधिः, चारित्र. बोधिः १ । त्रिविधा बुद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ज्ञानबुद्धाः, दर्शनबुद्धाः, चारित्रबुद्धाः २। एवं मोहः ३, मूढाः ४ ॥ ३३ ॥ ___टीका-तिविहा' इत्यादि । बोधनं बोधिः-सम्यग्वोधः जीवोपयोगरूपः, स ज्ञानदर्श नचारित्रभेदात्रिविधः । तथाहि-ज्ञानविषयः सम्यग्बोधः-ज्ञानवोधिः, दर्शनविषयः सम्यग्योधो दर्शनवोधिः, चारित्रविषयः सम्यग्बोधश्चारित्रबोधिरिति। बोधिविशिष्टा बुद्धास्त्रिविधाः-ज्ञानवुद्धाः, दर्शनबुद्धा, चारित्रबुद्धाः। तत्र-ज्ञानधर्म हैं वे तथा बोधिका विपक्षभूत जो मोहरूप अभिधेय है वह और मोहवाले जीवरूप जो अभिधेय है वह इस प्रकार से ये सब तीन ३ रूप हैं यही बात अब सूत्रकार सूत्रचतुष्टय द्वारा कहते हैं-(तिविहा घोही पण्णत्ता) इत्यादि ।
योधि तीन प्रकार की कही गई है-जैसे-ज्ञानबोधि, दर्शनयोधि और चारित्रयोधि वुद्ध भी तीन प्रकार के कहे गये हैं-ज्ञानबुद्ध, दर्शबुद्ध, और चारित्रबुद्ध, इसी प्रकार से मोह भी तीन प्रकार का कहा गया है और मृढ भी तीन प्रकार के कहे गये हैं।
सम्यग्बोध का नाम बोधि है यह सम्यग्बोध जीव का उपयोग रूप धर्म है यह ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद तीन प्रकार का है, ज्ञानविषयक सम्यग्बोध का नाम ज्ञानबोधि है दर्शनविषयक सम्यग्बोध का नाम दर्शन बोधि है तथा चारित्रविषयक सम्यक् बोध का नाम चारियोधि है, बोधि विशिष्ट जो होते हैं उनका नाम बुद्ध है ये वुद्ध भी પ્રતિપક્ષભૂત જે મેહરૂપ અભિધેય છે તે અને મોહવાળા જીવરૂપ જે અભિધેય છે તે, આ પ્રકારે કથિત ધર્મ વિશેષ ત્રણ પ્રકારે છે. એ જ વાત હવે સૂત્ર४१२ सूत्र यतु द्वारा ४ छ-"तिविहा वोही पण्णत्ता" त्याह
माधिना ३ ४२४ा छ-(१) ज्ञानमाधि, (२) शनमाधि मन (3) ચારિત્રબોધિ. બુદ્ધના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) જ્ઞાનબુદ્ધ, (૨) દર્શનબુદ્ધ અને (૩) ચારિત્રબુદ્ધ. એ જ પ્રમાણે મેહ પણ ત્રણ પ્રકારને છે અને મૂઢ પણ ત્રણ પ્રકાર છે.
સમ્યગૂ બોધને બેધિ કહે છે. આ સમ્યગૂ બોધ જીવને ઉપગરૂપ ધર્મ છે. તે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનું છે. જ્ઞાનવિષયક સમગ્ર બેધને જ્ઞાનધિ કહે છે, દર્શનવિષયક સમ્યગ્ર બેધને દર્શનાધિ કહે છે, અને ચારિત્રવિષયક સમ્યગૂ બોધને ચારિત્રધિ કહે છે. બેધિથી યુક્ત જીવોને
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ान
विषयक बोधविशिष्टा ज्ञानवृद्धाः, एवं दर्शनबुद्धाचारित्रबुद्धा अपि विज्ञेयाः २। एवं मोहस्त्रिविधः मूढास्त्रिविधाः तथाहि - " तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा - नाणमोहे " इत्यादि, एवं तिविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा - नाणमूहा " इत्यादि । तत्र - ज्ञानं मोहयति - आच्छादयतीति ज्ञानमोह :- ज्ञानविषयो मोहः ज्ञानावरणीयादिरित्यर्थः । एवं दृष्टिदर्शनं - यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदः तन्मोहयतीति दर्शनमोहः सम्यग्दर्शनमहोदय इत्यर्थ, चारित्रमोहः - चारित्रमालिन्यहेतुरिति । तथा ज्ञानमूढाः- उदितज्ञानावरणाः, ज्ञानानभिज्ञा इत्यर्थः। एवं दर्शन:- मिध्यासिनः चारित्रमूढाः- आच्छादितचारित्राः, अनतिन इत्यर्थः ॥ ०३३ ॥
तीन प्रकार के होते हैं जैसे ज्ञानबुद्ध, दर्शन, और चारित्रबुद्ध, इनमें ज्ञानविषयकघोधि से जो युक्त हैं वे ज्ञानबुद्ध हैं, दर्शनविषयक बोध से जो विशिष्ट हैं वे दर्शनबुद्ध हैं और जो चारित्रविषयक बोधि से विशिष्ट हैं वे चारित्रबुद्ध हैं । इसी तरह से मोह भी तीन प्रकार का है एक ज्ञानमोह, दर्शनमोह और चारित्रमोह, इस त्रिविध मोह से विशिष्ट जो जीव हैं वे त्रिविध मूढ हैं ज्ञान को जो आच्छादित करना है - मोहित कर देता है वह ज्ञानमोह ज्ञानविषयक मोह है ऐसा ज्ञानमोह ज्ञानावरणीय आदि रूप है यथा वस्थित वस्तु का जो परिच्छेदक है उसका नाम दर्शन है इस दर्शन को जो मोहित करता है वह दर्शनमोह है यह सम्यग्दर्शनमोह के उदयरूप है चारित्र में जो मलिनता का हेतु होता है वह चारित्रमोह है, जिनके ज्ञानावरण का उदय है वे ज्ञानमृढ है । अर्थात् जो ज्ञानसे अनभिज्ञ हैं वे जोनमृढ हैं । मिथ्यायुद्ध छे ते युद्धना पत्र प्रहार ह्या छे - (१) ज्ञानयुद्ध, (२) हर्शनબુદ્ધ અને ચારિત્રબુદ્ધ જ્ઞાનવિષયક એધિથી યુક્ત જીવાને જ્ઞાનબુદ્ધ કહે છે, દનવિષયક એધિથી યુક્ત જીવાને દનયુદ્ધ કહે છે અને ચારિત્રવિષયક એ ધિથી યુક્ત જીવાને ચારિત્રબુદ્ધ કહે છે
એ જ પ્રમાણે મેહ પણ ત્રણુ પ્રકારના કહ્યો છે-(૧) જ્ઞાનમેાહ, (૨) દર્શનમેહ અને ચારિત્રમાહ. આ ત્રણે પ્રકારના મેહથી યુક્ત જીવાને ત્રિવિધ મૂઢ કહે છે. જ્ઞાનને જે આચ્છાદિત કરે છે-મૈાહિત કરે છે–તેનું નામ જ્ઞાન મેહ છે. તે જ્ઞાનમે.હ (જ્ઞાનવિષયક મેાહ ) જ્ઞાનાવરણીય આદિ ૨૫ होय छे. યથાવસ્થિત વસ્તુને જે પરિચ્છે≠ છે તેનું નામ દર્શન છે. આ દનને જે માહિત કરે છે, તેને દર્શનમેહ કહે છે. તે સમ્યગ્દર્શન મેાહના ઉડ્ડયરૂપ છે. ચારિત્રમાં જે મલિનતામાં કારણભૂત બને છે તે મેહને ચારિત્રમેહ કહે છે.,
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सुधाटोका स्था०३७० सू० ३४ समेदववज्या निरूपणम
चारित्रबुद्धा मागभिहिताः, ते च प्रवज्यायां सत्यां भवन्तीति तां सभेदं निरूपयतिमूलम् - तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा इहलोगपडिबद्धा, परलोग पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा । तिविहा एवज्जा पण्णत्ता, तं जहा पुरओ पडिबद्धा, नग्गओ पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा । तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा- तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुयावइत्ता | तिबिहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा ओवायपव्वज्जा, अक्खायपव्वज्जा, संसारपव्वज्जा ॥ सू० ३४ ॥
१७
छाया - त्रिविधा ज्या मज्ञता, तद्यथा - इहलोकप्रतिवद्धा, परलोकमातवृद्धा, द्विधाः प्रतिवद्धा । त्रिविधा पत्रज्या प्रज्ञप्ता, तथा पुरतः प्रतिबद्धा', मार्गतः प्रतिवद्धा, द्विधाः प्रतिबद्धा | त्रिविधा प्रवज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा - तोददृष्टि जीव दर्शन है तथा जिनका चारित्र ओच्छादित है जो अव्रती है - वे चारित्रमूढ है ॥ म्रु०३३ ॥
जो चारित्रबुद्ध कहे गये हैं वे प्रव्रज्या के होने पर होते हैं, इसलिये अब सूत्रकार भेदसहित उस प्रव्रज्या का कथन करते हैं
'तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता' इत्यादि ।
२
सूत्रार्थ - प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई है जैसे १ इह लोकप्रतिवद्वा, परलोक प्रतिबद्धा और तीसरी है उभयलोक प्रतिवद्धा' इस प्रकार से भी प्रव्रज्या तीन प्रकारकी कही गई है- एक पुरतः प्रतिवद्वा, दूसरी मार्गतः प्रतिवद्ध और तीसरी द्विघातः प्रतिबद्ध: इस प्रकार से भी
જે જીવેાના જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદય હાય છે તે જીવા જ્ઞાનમૂઢ હાય છે, મિથ્યાદૃષ્ટિ જીવે દશ નમૂઢ હાય છે, જેમનું ચારિત્ર આચ્છાતિ છે—જે અવ્રતી तेभने शास्त्रिभू हे छे. ॥ सू. 33 ॥
પ્રવજ્યા અગીકાર કરીને જ જીવા ચારિત્રબુદ્ધ ખની શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તે પ્રવજ્યાનું ભેદસહિત નિરૂપણ કરે છે-
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तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता " इत्यादि
સૂત્રા–પ્રત્રજ્યાના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) ઇહુ પ્રતિમદ્ધા, (૨) પરલેાક પ્રતિબદ્ધા, અને (૩) ઉભયલેાક પ્રતિબદ્ધા. પ્રત્રજ્યાના નીચે પ્રમાણે પણ श्रृणु 'भ्रमर ४ह्या छे–(१) पुरतः अतिमद्धा, (२) भार्गतः प्रतिद्ध भने (3) દ્વિધાતઃ પ્રતિષ્ઠ પ્રત્રજ્યાના આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) તાકિયા
थ ३
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स्थानासूत्रे यित्वा, प्लावयित्वा, उक्त्वा । त्रिविधा प्रज्ञप्ता प्रव्रज्याः, तद्यथा-अवपातमनज्या, आख्यातप्रव्रज्या, संगारपत्रज्या ॥ मू० ३४ ॥
टीका-'तिविहा ' इत्यादि । त्रिविधा प्रव्रज्या, तथाहि-इहलोकपतिवद्धाइहलोकेन-ऐहलौकिकभोजनादिकार्यनिर्वाहादिना प्रतिवद्धा-संवद्धा इहलोक प्रतिवद्धा-इहलोकनिर्वाहार्थं गृहीतेत्यर्थः ?। परलोकपतिवद्धा जन्मान्तरदेवादि ऋद्धयर्थिना या गृहीता सा २॥ द्विधातः प्रतिवद्धा-या उभयलोकऋद्धयादि प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई है-एक तोदयित्वा दूसरी प्लोवयित्वा
और तीसरी उक्त्वा, इस तरह से भी प्रव्रज्या तीन प्रकारकी है-पहिली अवपात प्रव्रज्यो, दूसरी आख्यात प्रव्रज्या और तीसरी संगार प्रव्रज्या । टीकार्थ-जो प्रव्रज्या इस लोक सम्बन्धी भोजनादि कार्य के निमित्त से प्रतिबद्ध होती है ऐसी वह प्रव्रज्या इहलोक प्रतिबद्धा है, प्रव्रज्या लेनेवाला जीव यदि इस अभिप्राय से प्रेरित बन कर कि मुझे प्रव्रज्या लेने से खाने पीने आदि की तकलीफ दूर हो जावेगी और विना किसी परिश्रम के जीवन में हर तरह से सुख रहेगा प्रवज्या ग्रहण करता है तो ऐसी वह प्रव्रज्या इस लोकप्रतिबद्धा प्रव्रज्या है । तथा जो प्रवज्या इस भावसे ग्रहण की जावे कि मुझे जन्मान्तर में परभव में देवादिकों की ऋद्धि प्राप्त हो जावे ऐसी वह प्रव्रज्या परलोक प्रतिबद्वा प्रव्रज्या है, तथा जो प्रव्रज्या इहलोक और परलोक सम्बन्धी ऋद्धि आदि प्राप्ति के निमित्त ग्रहण की जाती है ऐसी वह प्रव्रज्या द्विधातः प्रतिबद्ध प्रव्रज्या (२) सायना मन (3) weal. प्रबरयाना मा प्रभार पत्र ५४२ at छे-(१) ११५ प्रया, (२) मात Haril मन (3) सार प्रत्या.
ટીકાર્થ-જે પ્રવજ્યા આ લોકસંબધી ભેજનાદિ કાર્ય નિમિત્તે ગ્રહણ કરવામાં આવી હોય છે, તે પ્રત્રજ્યાને ઇલેક પ્રતિબદ્ધા કહે છે. પ્રવજ્યા લેનારો જીવ કદાચ એવી માન્યતાથી પ્રેરાઈને દીક્ષા લેતા હોય કે પ્રવજ્યા લેવાથી મારી ખાવા પીવા આદિની મુશ્કેલીઓ દૂર થઈ જશે અને કેઈ પણ પ્રકારના પરિશ્રમ વિના હું ખૂબ આનંદપૂર્વક મારું જીવન વ્યતીત કરી શકીશ, તે તે પ્રકારની પ્રત્રજ્યાને આ લેક પ્રતિબદ્ધ પ્રવ્રજ્યા કહે છે. પરભવમાં દેવાદિની ઋદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાની ભાવનાથી પ્રેરાઈને જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તે પ્રવ્રજ્યાને પરલેક પ્રતિબદ્ધ પ્રવજ્યા કહે છે જે પ્રવજ્યા આલેક અને પરલોક સંબંધી ત્રાદ્ધિ આદિની પ્રાપ્તિ નિમિત્તે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તે પ્રવજ્યાને દ્વિધાતા પ્રતિબદ્ધ પ્રવ્રજ્યા કહે છે, જે પ્રવજ્યા અનેક શિષ્યોને
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सुबाटीका स्था० ३ उ.२ सू. ३४ समेदा प्रवज्यानिरूपणम् निमित्तं गृहीता ३। पुनश्च त्रिविधा प्रव्रज्या पुरतः प्रतिबद्धा-भाविशिष्यायाशंसा. संवद्धा, 'प्रव्रज्याग्रहणे मम बहवःशिष्या भविष्यन्ति, अहंच तेषां गुरुभविष्यामी त्याशंसया गृहीतेत्यर्थः ११ मार्गतः प्रतिवद्धा-मार्गतः-पृष्टतः स्वजनादिषु प्रति वद्धा-संवद्धा-' दीक्षां गृहीत्वाऽहं स्वजनान् पोषयिष्यामी ' त्याशया गृहीता २॥ तृतीया द्विधातः प्रतिवद्धा-उभयकाशिया गृहीता ३। पुनस्त्रिविधा-मत्रज्या, तथाहि-तोदयित्वा-या देवमायया शरीरे व्यथामुत्पाद्य प्रव्रज्या दीयते सा १। प्लावयित्वा-अन्यत्र नीत्वा या प्रव्रज्या दीयते सा २। उक्त्वा-संभाष्य या प्रव्रज्या दीयते सेति ३। पुनः मत्रज्या त्रिविधा-अवपातप्रव्रज्या अवपातः-सेवा सद्गुरोः, है । जो प्रव्रज्या अनेक शिष्यों को संग्रह करने की इच्छासे ग्रहण की जाती है । अर्थात् जो प्रत्रज्या के ग्रहण कर लेने पर मेरे अनेक शिष्य हो जावेंगे और मैं उनका गुरु हो जाऊंगा। इस आकांक्षा से ग्रहण की, जाती है ऐसी वह प्रत्रज्या पुरतः प्रतिबद्ध प्रत्रज्या है, मागतः प्रतिबद्ध प्रव्रज्या वह है जो मैं दीक्षित हो कर अपने निजजनों का पोषण करूंगा इस अभिप्राय से ग्रहण की जोती है तथा द्विधातः प्रतिबद्ध प्रव्रज्या वह है जो उभय कार्यो को सिद्ध करने के आशय से ग्रहण की जाती है. तोदयित्वा दीक्षा वह है जो देवमाया से शरीर में व्यथा उत्पन्न करा कर प्रव्रज्या दी जाती है । प्लावयित्वा प्रव्रज्या में दीक्षा लेनेवाले को दूसरे स्थान पर ले जा कर दीक्षित किया जाता है। उक्त्वा प्रत्रज्या कह कर दी जाती है। गुरु की सेवा करने से जो प्रव्रज्या ग्रहण की સંગ્રહ કરવાની ઈચ્છાથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, એટલે કે “પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવાથી મને અનેક શિષ્યા મળી જશે અને હું તેમને ગુરુ બની જઈશ,” આ પ્રકારની ભાવનાથી પ્રેરાઈને જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તે પ્રવજ્યાને “પુરતઃ પ્રતિબદ્ધ પ્રવ્રજ્યા કહે છે. “દીક્ષા અંગીકાર કરીને હું મારા સ્વજનેનું પિષણ કરીશ,” આ પ્રકારની ભાવનાથી પ્રેરાઈને અંગીકાર કરેલી પ્રવજ્યાને માર્ગત પ્રતિબદ્ધ પ્રજ્યા” કહે છે ઉપર કહેલી બંને હેતુઓ સાધવાના આશયથી જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરાય છે તેને “દ્વિધાતઃ પ્રતિબદ્ધ પ્રવ્રજ્યા ” કહે છે. દેવમાયાથી શરીરમાં વ્યથા ઉત્પન્ન કરાવીને જે પ્રવ્ર અપાય છે તે પ્રજ્યાને “દયિત્વા પ્રયા” કહે છે. જે પ્રવ્ર જ્યામાં દીક્ષા લેનારને બીજે લઈ જઈને દીક્ષા અપાય છે, તે પ્રવજ્યાને
લાવયિત્વા પ્રવજ્યા ” કહે છે. કહીને જે પ્રવજ્યા અપાય છે તેને “ઉકવા પ્રવજ્યા ” કહે છે. ગુરુની સેવા કરવાથી અથવા કરવા નિમિત્તે જે દીક્ષા
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स्थानासूत्रे
तस्माद् या प्रव्रज्या सा १| आख्यातमव्रज्या आख्यातेन - धर्मदेशनेन, आख्यातस्य वा - गुरुणा कथितस्य वा या मत्रज्या सा २ संगार पत्रज्या - संगारः -सङ्केतः, देशि शब्दोऽयम्, तस्मात् तेन वा सङ्केतकरन या पत्रज्या दीयते गृह्यते वा सा मेवादिवत् । अथवा - ' यदि त्वं मनसि तदाऽहमपि प्रवजिष्यामी ' - त्येवं या ज्या सा संगारत्रज्येति ३ ॥ म्रु० ३४ ॥
पूर्वोक्तवन्तो निर्ग्रन्था भवन्तीति निर्व्रन्यस्य रूपं सूत्रद्वयेनाह
मूलम् - तओ नियंठा णोसण्णोवउत्ता पण्णत्ता, तं जहापुलाए नियंठे सिणार । तओ नियंठा सण्णणो सण्णोवउत्ता पण्णत्ता, तं जहा उसे पडिसेवणाकुसीले कसायकुसीले ॥ सू०३५॥
छाया - त्रयो निर्ग्रन्था नोससज्ञोपयुक्ताः प्रज्ञताः तद्यथा-पुलाक, निर्ग्रन्थः जाती है वह अवपात मव्रज्या है । धर्म की देशना देकर जो पत्रज्या दी जाती है वह अथवा गुरु के कहने से जिसे दीक्षा दी जाती है वह भाख्यात ज्या है । संगार नाम संकेत का है, संकेत करके जो नेतार्य आदिकी तरह दीक्षा दी जाती है या ग्रहण की जाती है यह, अथवा यदि तुम दीक्षा धारण करोगे तो मैं भी दीक्षा धारण कर लूंगा इस प्रकार के संकेत से जो दीक्षा धारण की जाती है वह संगार प्रव्रज्या है ॥ मु०३४ ॥
पूर्वोक्त माज्यावाले निर्यन्त्र होते हैं - अतः अब सूत्रकार निर्व्रन्थका स्वरूप सूत्रद्वय से कहते हैं-' तओ नियंत्र' इत्यादि ।
सूत्रार्थ जो निर्ग्रन्थ आहारादि की अभिलापारूप संज्ञामें उपयुक्त नहीं होते हैं ऐसे वे निर्ग्रन्य पुलाक निर्ग्रन्थ और स्नातक के भेद से तीन
લેવાય છે તેને અવપાત પ્રત્રયા કહે છે. ધર્મની દેશના દઈને જે દીક્ષા અપાય છે તેને અથવા ગુરુના કહેવાથી જેને દીક્ષા આપવામાં આવે છે, તે દીક્ષાને
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આખ્યાત પ્રત્રમા ” કહે છે અ`ગાર એટલે સ`કેતસ્રત કરીને મૈતાય આદિની જેમ જે દીક્ષા આપવામાં આવે છે અથવા ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તે દીક્ષાને * સ`ગાર પ્રવ્રજ્યા ’ કહે છે. અથવા " ले तमे दीक्षा दो तो પશુ દીક્ષા લઉં, ” આ પ્રકારના સકેતપૂર્વક જે પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરાય છે, તે પ્રત્ર. त्याने "संगार असल्या" अड्डे ॥ सू. ३४ ॥
క్ర
પૂર્વોક્ત પ્રત્રજ્યાવાળા નિગ્રથા હાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર નીચેનાં એ सूत्रो द्वारा निर्थ धनुं न रे - " तओ नियंठा " त्याहि
સૂત્રાર્થ –ચે નિગ્ર થા આહારાદિની અભિલાષા રૂપ સ`જ્ઞામાં ઉપયુક્ત હેતા નથી, એવાં તે નિથાના પુલાક નિશ્ અને સ્નાતક આદિના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર
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सुंघाटीका स्थाó ३ उ० २ सू० ३१ समैदाप्रव्रज्यानि रूपणम् स्नातकः, त्रयो निग्रन्थाः सज्ञी नोसज्ञोपयुक्ता प्रज्ञप्ताः तद्यथा बकुशः, प्रति. सेवनाकुशीलः, कपायकुशीलः ।मु० ३२॥
टीका-' तो नियंठा' इत्यादि । निर्गता ग्रन्थाद् बाह्याभ्यन्तररुपात् निम्र न्या:-संयताः, नो-नैव संज्ञायाम्-आहाराघभिलापरूपायां पूर्वानुभूतस्मरणाऽनागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसंज्ञोपयुक्ताः । ते त्रयः प्रज्ञप्ताः । तानेवाहपुलाकः-लब्धिविशेषेणोपजीवनादिना संघमासारताकारकः। निर्ग्रन्यः-उपशान्तप्रकार के हैं। तथा निर्ग्रन्थ आहारादि की अभिलाषारूप सज्ञा में और इस प्रकार की संज्ञाके अभावरूप अस ज्ञा में उपयुक्त होते हैं । अर्थात् संज्ञा और अल ज्ञा इन दोनों से संकीर्ण स्वरूपवाले होते हैं वे भी तीन प्रकार के होते हैं। जैसे बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कपायकुशीला टोकार्थ-बाह्य और आभ्यन्तररूप परिग्रहसे ग्रन्धले जोनीकल चुके होते हैं। अर्थात् बाह्य और आस्यन्तर परिग्रह का जो सर्वथा परित्याग कर देते हैं वे निर्ग्रन्थ है, इनमें कितनेक निर्घन्ध ऐसे होते हैं जो आहारादि की संज्ञा से पूर्वोपयुक्त आहारादि के विचार से और अनागत (भविव्यत् ) आहारादि की प्राप्ति की चिन्ता मे उपयुक्त नहीं होते हैं । ऐसे
आहारादि की संज्ञामे अनुपयुक्त निर्ग्रन्थ पुलाक आदिके भेद से तीन प्रकार के होते हैं-इनमे जो निन्ध लब्धिविशेषवाले होते हैं तथा संयम से जिन्हें विशेप-अनुराग नहीं होता है वे पुलाक है । तात्पर्य इसका ऐसा है कि ये पुलाक उत्तर गुणों की उत्तमता से नहीं पालते છે. તથા જે નિગ્રંથ આહારાદિની અભિલાષારૂપ સંજ્ઞામાં ઉપયુક્ત હોય છે અને તે પ્રકારની સંજ્ઞાના અભાવરૂપ અસંજ્ઞા માં ઉપયુક્ત હોય છે, એટલે કે સત્તા અને અસંજ્ઞા એ બન્નેમાં સંકીર્ણ સ્વરૂપવાળા હોય છે એવા નિગ્રંથ ५ त्रय प्रा२ना हाय छ-(१) म ११, (२) प्रतिसेवनाga मने (3) ४ायशीस
ટીકાર્થ–બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહને જેમણે તદ્દન પરિત્યાગ કર્યો હોય છે તેમને નિગ્રંથ કહે છે તે નિગ્રંથો માંના કેટલાક નિર્ચ છે એવાં હોય છે કે જેઓ આહારાદિ ની સંજ્ઞામાં ઉપયુક્ત હોતા નથી એટલે કે તેઓ પૂપભુક્ત આહાશદિના વિચારમાં અથવા અનાગત (ભવિષ્યના) આહારની ચિન્તામાં ઉપયુક્ત હોતા નથી. એવાં આહારાદિ સંજ્ઞામાં અનુપયુક્ત નિર્ચ થના પુલાક આદિ ત્રણ પ્રકાર પડે છે જે નિગ્રંથ વિશિષ્ટ લબ્ધિસંપન્ન હોય છે તથા સંયમ પ્રત્યે જેમને વિશેષ અનુરાગ નથી, તે નિર્ચને પુલાક કહે છે.
આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-પુલાક નિર્ચ ઉત્તરગુણેનું ઉત્તમ રીતે પાલન કરતા નથી એટલું જ નહીં પણ તેઓ મૂલગુણેમાં પણ પૂર્ણતા
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नासू
मोहः क्षीणमोदोवेति । स्नातकः - ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय मोहनीयान्तरायलक्षणचतुर्विधधातिकर्ममलक्षालनाचात शुद्धज्ञानस्वरूपः १ | संज्ञानोसंज्ञोपयुक्ताःसंज्ञा आहारादिविपया,
नोसंज्ञा
तदभावरूपा,
तयोरुपयुक्ताः
,
संकीर्ण स्वरूपा इत्यर्थः - ते त्रयस्तथाहि - चकुशः - शरीरोपकरणविभूपादिना शवलचारित्र । प्रतिसेवनाकुशील' - प्रतिसेवनया - मूलगुणादिविपयया कुशीला कुत्सितं शीलं यस्य स तथा । कपायकुशीलः - रुपायेण - क्रोधादिरूपेण कुशीलः यः स तथेति २ ।। सू० ३५ ॥
-
है, किन्तु मूलगुणों में भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते हैं । इतना होने पर भी ये वीतराग प्रणीत आगम से कभी अस्थिर नहीं होते हैं । पुलाक नाम पुले का है । वह जैसे सार भागसे रहित होता है वैसे ही निर्ग्रन्थ होते हैं । जिन्हों ने रागद्वेष का अभाव कर दिया है और जो एक अन्तर्मुहूर्त के बाद में केवलज्ञान को प्राप्त करनेवाले होते हैं वे निर्ग्रन्थ हैं । ऐसे ये जीव उपशान्त मोह अथवा क्षीणमोह नाम के गुणस्थानवर्ती होते हैं । जिनमें सर्वज्ञता प्रकट हो चुकी है - अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म जिन्हों ने नष्ट कर दिये हैं और सर्वज्ञता को पा लिया है वे स्ना तक हैं । तथा संज्ञा नोसंज्ञोपयुक्त जो निर्ग्रन्थ हैं वे वकुश आदि के भेदसे तीन प्रकार के कहे गये हैं, इनमें जो शरीर और उपकरणोंको संस्कारित करते रहते हैं, ऋद्धि और यश की अभिलाषा रखते हैं परिवार से लिपटे रहते हैं और मोहजन्य दोष से युक्त होते हैं वे चकुश हैं, યુક્ત હાતા નથી. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં પણ તેએ વીતરાગપ્રણીત આગમથી કદી ચલિત થતા નથી. પુલાક એટલે ઘાસના પુળા જેમ પુળા સારભાગથી રહિત હાય છે, તેમ તે પુલાક નિશ્ર્વ ાપણુ સારભાગથી રહિત હાય છે. જેમણે રાગદ્વેષને અભાવ કરી નાખ્યા છે અને જેએ અન્તર્મુહૂત બાદ કેવળજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવાના છે, તેમને નિગ્રંથ કહે છે. એવાં તે જીવા ઉપ શાન્ત માહ અથવા ક્ષીણુમાહ નામના ગુરુસ્થાને પહોંચેલા હાય છે. જેમનામાં સ॰જ્ઞતા પ્રકટ થઈ ચુકી છે, એટલે કે જેમણે જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મેાહનીય અને અન્તરાય, આ ચાર ઘાતીકર્મોનેા નાશ કરીને સર્વજ્ઞતા પ્રાપ્ત કરી લીધી હાય છે, તેમને સ્નાતક કહે છે. તથા સંજ્ઞા નાસનાયુકત જે નિગ્ર ચેા છે તેમના ખકુશ આદિ ત્રણ ભેદ કહ્યા છે. જે નિગ્ર થા શરીર અને ઉપકરાને સંસ્કારિત કરતા રહે છે, ઋદ્ધિ અને યશની અભિલાષા રાખે છે, પરિવારથી વીંટળાયેલા રહે છે અને માહજન્ય દેષથી યુક્ત હાય છે તેમને
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सुधा टीका स्था०३ ७० २ सू० ३६ व्रतारोपणकालनिरूपणम् २३
निम्रन्थाश्चारोपितव्रताः केचिद् भवन्तीति व्रतारोपणकालविशेषान्निरूपयन् शैक्षभूमीः स्थविरभूमीश्वाह____ मूलम्-तओ सेहभूमिओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहन्ना सत्तराइंदिया । तओ थेरा पण्णत्ताओ,तं जहा-जाइथेरे सुयथेरे परियायथेरे । सदिवासजाए समणे णिग्गंथे जाइथेरे, ठाणंगसमवायधरेणं समणे णिग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए णं णिग्गंथे परियायथेरे ॥ सू० ३६ ॥ वे यकुश व्रतों को पूरी तरह से पालते हैं । परन्तु इनका चारित्र शबल अतिचार दोषों से युक्त होता है । परिग्रह से जिनकी आसक्ति नहीं घटी है तथा मूलगुणों और उत्तर गुणों को जो पालते हैं तो भी कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर देते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं । जो अन्यकषायों पर विजय पा कर भी संज्वलनकषाय के अधीन हैं वे कषायकुशील निम्रन्थ है ॥ सू०३५ ॥
निर्ग्रन्थ होकर भी कितनेक जीव आरोपित व्रतवाले होते हैं। अतः अब सुन्नकार व्रतारोपणकाल विशेपों की निरूपणा करते हुए शैक्षभूमि और स्थविरभूमि का कथन करते हैं
'तओ सेह भूमिओ पण्णत्ताओ' इत्यादि । બકુશ કહે છે. તે બકુશ નિગ્રોથ વ્રતનું બરાબર પાલન કરે છે પણ તેમનું ચારિત્ર અતિચાર થી યુક્ત હોય છે. પરિગ્રહ પ્રત્યેની એમની આસકિત ઘટી નથી, તથા મૂલગુણે અને ઉત્તરગુણેને પાળવા છતાં પણ જેઓ કયારેક ઉત્તરગુણેની વિરાધના કરી નાખે છે, તેમને પ્રતિસેવનાકુશીલ કહે છે, જે નિર્ચ થે અન્ય કષાયપર કાબૂ રાખવા છતાં પણ સંજવલન કષાયને અધીન છે તેમને કષાયકુશીલ નિગ્રંથ કહે છે. જે સૂ. ૩૫ છે
નિર્ગથ થયેલા કેટલાક છ આરેપિત વ્રતવાળા પણ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વતારોપણ કાળવિશેની પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે શૈક્ષભૂમિ અને स्थविरभूभिनु ४थन ४२ छ-" तओ सेहभूमिओ पण्णत्ताओ" त्या:
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स्थानाङ्गसूत्रे २४
छाया-तिस्रः शैक्षभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उत्कृष्टा, मध्यमा, जघन्या। उत्कृष्टा पाण्मासिकी, मध्यमा चातुर्मासिकी, जघन्या सप्तरात्रिंदिवा । तित: स्थविरभूमयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-जातिस्थविरः, श्रुतस्थविर, पर्यायस्थविरः । पष्टिवर्पजातः श्रमणो निर्ग्रन्थो जातिस्थविरः । स्थानाङ्गसमवायधरः खलु श्रमणो निग्रन्थः श्रुतस्थविरः । विंशतिवर्षपर्यायः खलु श्रमगो निर्ग्रन्थः पर्यायस्थविरः ॥मू० ३६॥ ___टीका-'तो' इत्यादि । तिस्त्रः शैक्षभूमयः सेधमूमयो वा । तत्र शिक्षाग्रहणाप्तेवनारूपामधीत इति शैक्षः, यद्वा-' पिधू संराद्वौ ' इति वचनात् सेध्यते
शैक्षभूमियां तीन कही गई है -एक उत्कृष्ट शैक्षभूमि, दूसरी मध्यम शैक्षभूमि और तीसरी जघन्य शैक्षभूमि । उत्कृष्ट शैक्षभूमिका कोल छह मासका है । मध्यम शैक्षभूमिका काल चार मासका है और जघन्य शैक्ष भूमि का काल सात रातदिनका है।।
सूत्रार्थ-स्थविर भूमियां भी तीन कही गई हैं-एक जातिस्थविर की भूमि, दूसरी श्रुतस्थविर की भूमि और तीसरी पर्यायस्थविर की भूमि, जो ६० वर्ष की आयुवाला होता है वह जातिस्थविर है, रथानांग और समवायांग श्रुत का जो धारक है वह श्रुतस्थविर है, और जो २० बीस वर्ष के प्रव्रज्याकाल से स्थविर है वह पर्यायस्थविर है। टीकार्थ-शैक्षभूमियां अथवा सेधभूमियां जो तीन प्रकारकी कही गई है उनमें ग्रहणरूप अथवा आसेवनरूप शिक्षा का जो अध्ययन करता है वह शैक्ष है अथवा , पिधूसरोद्धौ" के अनुसार जो तैयार कियाजाता
शक्षाभिमा ! २नी ही 2-(1) L शैक्षभूमि, (२) मध्यम શક્ષભૂમિ અને (૩) જઘન્ય શિક્ષભૂમિ. ઉત્કૃષ્ટ શૈક્ષભૂમિને કાળ છ માસને, મધ્યમ શૈક્ષભૂમિને કાળ ચાર માસને અને જઘન્ય ક્ષભૂમિને કાળ સાત રાત્રિદિવસને હેાય છે.
સવાર્થ-સ્થવિર ભૂમિએ પણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે-(૧) જાતિ વિરની ભૂમિ, (૨) શ્રત સ્થવિરની ભૂમિ અને (૩) પર્યાય સ્થવિરની ભૂમિ. ૬૦ વર્ષની ઉપરના નિર્મથને જાતિસ્થવિર કહે છે, સ્થાનાંગ અને સમવાયાંગસૂત્રના ધારક નિગ્રથને શ્રતવિર કહે છે અને જેણે પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કર્યાને ૨૦ વર્ષ થઈ ગયાં છે એવા સ્થવિરને પર્યાય સ્થવિર કહે છે.
ટીકા–શક્ષભૂમિઓ અથવા સેધભૂમિઓ જે ત્રણ પ્રકારની કહી છે તેમાં ગ્રહણ અથવા આસેવનરૂપ શિક્ષાનું જે અધ્યયન કરે છે તેને શૈક્ષ કહે છે. અથવા " पिधूस राद्धौ " ना अनुसार रे तैयार ४२१य छ तेने से छे तनी
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सुधा टीका स्था० ३ १ २ सू० १९ तारोपणकालनिरूपणम् निष्पाद्यते यः स सेवः तस्य भूमयः-महान तारोपणकालरूपा अवस्था इति । तास्तिस्रः-उत्कृष्टा-पाण्मासिकी, यस्यां पइभिर्मासैरुत्थाप्यते पुनदीक्षायां समारोप्यत इत्यर्थः । न साऽतिक्राम्यते, मध्यमा-चातुर्मासिकी, यस्यां चतुभिर्मासैरुस्थाप्यते । जघन्या सप्तरात्रिन्दिवा यस्यां सप्तमिरेव रात्रिन्दिवैरुत्थाप्यते गृही. तशिक्षत्वादिति । शैक्षस्य च विपर्यस्तः स्थविरो भवतीति स्थविरभूमिनिरूपणा. याह-' तो थेरभूमीभो' इत्यादि, तिस्रः स्थविरभूमयः, स्थविरो-वृद्धस्तस्य भूमयः-अवस्थाविशेषाः। तान् स्थविरान् दर्शयति-जात्या-जन्मना स्थविरोजाति स्थविरः । श्रुतम्-आगमः, तेन स्थविर:-श्रुतस्थविरः २। पर्याय:-प्रत्रज्याकालः, तेन स्थविरः प्रत्रज्या स्थविरः । इह च भूमिभूमिवतोरभेदोपचारादेव मुपन्यासः । एतानेव विशिनष्टि-' सहि० ' इत्यादि, पष्टिवर्पजात:-पष्टिवर्पाहै वह सेध है इसकी जो भूनियां हैं-महावतारोपण कालरूप जो अवस्थाएँ हैं वे शैक्ष भूमियां हैं ये उत्कृष्ट आदि के भेद से तीन प्रकारकी कही गई हैं, छह मास में ही इससे अधिक मैं नहीं पुनः जो दीक्षा में आरोपित किया जाता है वह पाण्मासिकी उत्कृष्ट शैक्षभूमि है, जिसमें चार मासमें ही पुनः दीक्षा में जो आरोपित किया जाता है वह मध्यमा शैक्षभूमि है । और जो सात दिनरातमें ही पुनः दीक्षा में आरोपित किया जाता है वह जघन्य शैक्षभूमि है । स्थविर भूमियां वृद्धकी भूमियां जो तीन प्रकार की कही गई हैं उनमें जाति से जन्मसे जो स्थविर होता है वह जातिस्थविर है ? श्रुत नाम आगम का है-इस आगम से जो स्थविर होता है वह श्रुतस्थविर है तथा प्रत्रज्याकाल से जो स्थविर होता है वह प्रवज्यास्थविर है यहां भूमि और भूमिवान् का अभेद ભૂમિઓ છે-મહાવતાર પણ કાળરૂપ જે અવસ્થાઓ છે, તેમને શૈક્ષભૂમિ કહે છે. તેના ઉત્કૃષ્ટ આદિ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે છ માસમાં જ (તેનાથી અધિક સમયમાં નહીં) જેને આપિત (આરાધિત) કરાય છે, તેનું નામ છમાસિક ઉત્કૃષ્ટ શૈક્ષભૂમિ છે. ચાર માસમાં જ જેને આરેપિત કરાય છે, તેનું નામ મધ્યમાં શૈક્ષભૂમિ છે. સાત દિનરાતમાં જ જેને આરેપિત કરવામાં આવે છે, તેનું નામ જઘન્ય શૈક્ષભૂમિ છે. સ્થવિર ભૂમિઓ (વૃદ્ધની ભૂમિઓ) ના પણ ત્રણ પ્રકાર છે-(૧) જાતિસ્થવિરની ભૂમિ અને (૨) શ્રુતસ્થવિરની ભૂમિ અને (3) पर्याय स्थविरनी भूमि. तिथी (मथी ) २ थपिर डाय छ-१० વર્ષની જેમની ઉમર હોય છે-એવા સ્થવિરને જાતિસ્થવિર કહે છે. શ્રત એટલે આગમ. તે આગમના જ્ઞાનની અપેક્ષાએ જે સ્થવિર હેય છે, તેમને શ્રત
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स्थानाइने युष्कः श्रमणो निग्रन्थो जातिस्थविरउच्यते । स्थानाद्गसमवायागधारकः श्रमणो निर्ग्रन्थः श्रुतस्थविरः प्रोच्यते । विंशतिवर्षपर्यायः-विंशतिवर्षप्रव्रज्यापालका श्रमणो निर्ग्रन्थः पर्यायस्थविरः कथ्यत इति ॥ मू० ३६ ॥
स्थविरास्तुपुरुषा एवेति तदधिकारात् पुरुपमकारान् प्ररूपययन् सप्तविंशस्यधिकशतैकसूत्राण्याह
__ मूलम्-तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सुमणे, दुम्मणे, णो सुमणे णो दुम्मणे १ । तओ पुरिसजाया पपणत्ता, तंजहागंता णामेगे सुमणे भवइ, गंता णामेगे दुम्मणे अवइ, गंता णामेगे जोसुमणे णोदुम्मणे भवइ। तओ पुरिसजायापण्णत्ता, तं जहा-जामीतेगे सुमणेभवइ, जामीतेगे दुम्मणे भवइ,जामीतेगे, जोसुमण्णे णोदुम्मणे भवइ ३। एवं जाइस्सामीतेगे सुमणे भवइ ३।४। तओ पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-अगंता णामेगे सुमणे भवइ ३।५। तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाण जामीतेगे सुमणे भवइ ३ ६ तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-ण जाइस्लामीतेगे सुमणे भवइ ३७ एवं आगंता णामेगे उपचार से ऐसा कहा गया है जो श्रमण निर्गन्ध ६० वर्षकी आयुवाला होता है वह श्रमण निग्रन्थ जातिस्थघिर है स्थानांग और समवायांग का धारक श्रमण निर्गन्ध होता है वह श्रुतस्थविर है, बोस वर्ष से जो प्रव्रज्याका पालन कर रहा है वह पर्यायस्थविर है ॥सू०३६।। સ્થવિર કહે છે. પ્રવજ્યાના અમુક (૨૦ વર્ષના) કાળને કારણે જેઓ સ્થવિર ગણાય છે, તેમને પર્યાયસ્થવિર કહે છે. અહીં ભૂમિ અને ભૂમિવાનું વચ્ચે અભેદપચારની અપેક્ષાએ આ પ્રકારનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. ૬૦ વર્ષની ઉમર વાળા શ્રમણનિયને જાતિસ્થવિર કહે છે. સ્થાનાંગ અને સમવાયાંગના ધારક શ્રમણનિગ્રથને શ્રતસ્થવિર કહે છે. ૨૦ વર્ષથી જે પ્રવજ્યાનું પાલન કરી રહ્યા खाय छ भने पयायस्यवि२ ४ छे. ॥ ५. ६ ॥
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सुधा टीका स्था० ३ उ०२० ३७ पुरुषप्रकार निरूपणम् सुमणे भवइ ३।८। एमी तेगे सुमणे भवइ ३९। एस्सामी तेगे सुमणे भवइ ३।१०। एवं एएणं अभिलावेणं(एत्थ संगहगाहा :)" गंता य अगंता य १, आगंता खलु तहा अणागंता २। चिद्वित्तमचिट्टित्ता ३, णिसिइत्ता चेव नो चेव ४ ॥१॥ हंता य अहंता य ५, छिंदित्ता खलु तहा अछिंदित्ता । बूइत्ता अबूइत्ता ७, भासित्ता चेव णो चेव ८ ॥२॥ दच्चा य अदच्चा य९, भुंजित्ता खल्लु तहा अभुंजित्ता।१०। लंभित्ता अलंभित्ता११, पिइत्ता चेव नो चेव १२ ॥३॥ सुइत्ता असुइत्ता १३, जुज्झित्ता खलु तहा अजुज्झित्ता १४॥ जइत्ता अजइत्ता य१५, पराजिणित्ता य चेव नो चेव१६॥४॥
सदा १७ रूवा १८ गंधा १९, रसाय २० फासा २१ (२१४६=१२६-१-१२७) तहेव ठाणा य ।
निस्सीलस्स गरहिया, पसत्था पुण सीलवंतस्स ॥ ५॥ एवमिक्कक्के तिन्नि उ तिन्नि उ आलावगा भाणियव्वा ।
___ सदं सुणेत्ता णामेगे सुमणे भवइ ३, एवं सुणेमीति३, सुणिस्सामीति ३ । एवं असुणेत्ता गामेगे सुमणे भवइ ३, न सुणमिति ३, ण सुणिस्लामीति३ । एवं रूवाई गंधाई रसाई फासाई, एक्केक्के छ छ आलावगा भाणियबा, एवं सत्तावीसं सयमेगं च १२७ आलावगा भवंति।
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स्थानाङ्गले तओ ठाणा णिस्सीलस्त णिव्वयस्स मिरगुणस्स हिम्मेरस्त णिप्पच्चएखाणपोसहोववासस्स गरहिया भवति, तं जहाअस्सि लोगे गरहिए भवइ, उववाए गरहिए भवइ, आजाई गरहिया भवइ । तओ ठाणा ससीलस्स सव्वयस्स सगुणस्त समेरस्त सपच्चरखाणपोसहोववासस्स पसत्था भवंति, तं जहाअस्सिलोए पलत्थे भवइ, उववाए पसत्थे भवइ, आजाई पसत्था भवइ ॥ सू०३७ ॥
छाया-त्रीणि पुरुपजातानि प्राप्तानि, तद्यथा-मुमनाः, दुर्मनाः, नो सुमना नो दुर्मनाः १। त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गत्वा नामकः मुमना भवति, गत्वा नामको दुर्मना भाति, गत्वा नामैको नो मुमना नोदुर्मना भवति २। त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा यामीत्येकः सुमना भवति, यामीत्येको दुर्मना भवति, यामीत्येको नोसुमना नोदुर्मना भवति । एवं यास्यामीत्येकः सुमना भवति ३।४। त्रीणि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अगत्या नामैकः नृमना भवति ३.५ त्रीणि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-नयामीत्येकः समना भवति ३।६। त्रीणि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-न यास्यामीत्येकः सुमना भवति । ७। एवम्-आगत्य नामैकः सुमना भवति ३. ८ एमीत्येकः सुमना भवति । ९। एण्यामीत्येकः सुमना भवति ३॥ १०। एवमेतेनाभिलापेन( अत्र संग्रह गाथा:)
"गत्वा च-अगत्वा च १, आगत्य खलु तथा-अनागत्य । स्थित्वा-अस्थित्वा ३, निपध चैत्र नो (अनिपद्य) चैत्र ४ ॥१॥ हवा च-अहत्वा च ५, छित्वा खलु तथा-अच्छित्वा ६। उक्त्वा-अनुक्त्वा ७, भापित्वा चैव नो (अभापित्वा ) चैत्र ८॥२॥ दत्त्वा च अदत्त्वा च ९, भुक्त्वा खलु तथा अभुक्त्वा १०॥ ‘लब्ध्वा-अलव्ध्या ११, पीत्वा चैत्र नो ( अपीत्वा ) चैत्र १२॥ ३॥ सुप्त्वा-अमुप्त्या १३, युवा-खलु तथा अयुदध्या १४६ जित्वा अजित्वा च १५, पराजित्य चैव नो (पराजित्य) चैव १६॥४॥ शब्दाः १७ रूपाणि १८ गन्धाः १९ रसाश्च २० स्पर्शाः २१ ( २१४६% १२६-१-१२७) तथैव स्थानानि च ।
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सुंघाटीका स्था० ३ उ.२ सू. ३७ पुरुषप्रकारनिरूपणम् निश्शीलस्य गर्हिताः, प्रशस्ताः पुनः शीलवतः ॥ ५ ॥" एवमेककस्मिन् त्रयस्तु त्रयस्तु आलापका भणितव्याः।
शब्द श्रुत्वा नामैकः सुमना भवति ३॥ एवं श्रृणोमीति ३, श्रोष्यामीति ३। एवं अश्रुत्वा नामेकः सुमना भवति । न श्रृणोमीति ३, न श्रोष्यामीति ३। एवं रूपाणि, गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः । एकैकस्मिन् पट् पट आलापका भणितव्याः । एवं सप्तविंशतिः शतमेकं (१२७) चालापका भवन्ति ।।
त्रीणि स्थानानि निश्शीलस्य निर्वतस्य निर्गुणस्य निमर्यादस्य निष्प्रत्या ख्यानपौपधोपवासस्य गर्हितानि भवन्ति, तद्यथा-अयं लोको गर्हितो भवति, उप. पातो गर्हितो भवति, आयातिगेंहिता भवति । त्रीणि स्थानानि सशीलस्य सवतस्य सगुणस्य समर्यादस्य सपत्याख्यानपौषधोपवासस्य प्रशस्तानि भवन्ति, तद्यथा-अयं लोकः प्रशस्तो भवति, उपपातः प्रशस्तो भवति, आयातिः प्रशस्ता भवति।।मु०३७॥ ___टीका-'तओ पुरिसजाया' इत्यादि । पुरुषजातानि-पुरुषप्रकाराः, त्रोणि भवन्ति, तान्येवाह-'सुमणे' इत्यादि, सु-सुष्टु शोभनं मनः-चित्तं यस्यासौ सुमनाः-हर्पवान् , रक्त इत्यर्थः । एवं दुर्मनाः-दु:-दुष्टमशोभनं मनश्चित्तं यस्यासौ तथा, द्विष्ट इत्यर्थः । नोमुमना नोदुर्मनाः-मध्यस्थः, सामायिक__स्थविर पुरुष ही होते हैं इसलिये अब सूत्रकार पुरुष के भेदों का १२७ सूत्रों द्वारा कथन करते हैं-'तओ पुरिसजाया पण्णत्ता' इत्यादि
टीकार्थ-पुरुषके तीनप्रकार कहे गयेहैं-१ सुमन, २दुमैन और ३ नोसुमन नोदुर्भन जिसका मन चित्त शोभन होता है ऐसा वह हर्षवाला पुरुष सुमना कहा गया है तथा जिसका मन अशोभन-दुष्ट होता है ऐसा दुष्ट पुरुष दुर्मना कहा गया है तथा जो न सुमना है और न दुर्मना है, किन्तु मध्यस्थ भाववाला है वह नोसुमना नोदुमना पुरुष है १, इस तरह से इस प्रथम सूत्र में ये पुरुष प्रकार सामान्यरूप से कहे गये हैं।
પુરુષે જ સ્થવિર હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પુરુષના ભેદનું ૧૨૭ सूत्री द्वारा नि३५ ४२ छ-" तओ पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याहि
साथ-पुरुषना त्रय ४२ ४ा छे-(१) सुमन, (२) भन मन (3) ना. સુમન નેમન. જેનુ મન (ચિત્ત) શેભાન હોય છે એવા તે હર્ષવાળા, પુરુષને સુમના પુરુષ કહે છે. જેનું ચિત્ત અશોભન (દુષ્ટ) હોય છે, એવા દુષ્ટ પુરુષને દુમના પુરુષ કહે છે. જે સુમના પણ નથી અને દુર્મના પણું નથી, પરંતુ મધ્યસ્થ ભાવવાળે છે તેને નેસુમના નેદુર્મના પુરુષ' કહે છે આ રીતે આ પહેલા સૂત્રમાં સામાન્યરૂપે આ પુરુષ પ્રકારનું કથન થયું છે,
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খানা वानित्यर्थः १। उक्ता प्रथमसूत्रे सामान्यतया पुरूषप्रकाराः, सांप्रतं तानेव गत्यादि क्रियाऽपेक्षया विशेषतः सप्तविंशत्यधिकशत (१२७ ) सुत्रैः प्राह-'तो' इत्यादि, गत्वा-ऽतीतकाले क्वचिद् मगधविदेहक्षेत्रादौ, नामेति सम्भानावयाम् , एक:-कश्चित् सुमना भवति-हृष्यति, एवमन्यः कश्चिद् दुर्मना भाति-शोचति, तृतीयः कश्चित् नोसुमना नोदुमना इति-समभाववानेव भवतीति २। अतीतकालमूत्रमिव ' यामी ' ति वर्तमानकालविषयं, 'यास्यामी' ति भविष्यत्काल.
__ अब सूत्रकार इन्हीं पुरुष प्रकारों को गत्यादि क्रिया की अपेक्षारूप विशेषता को लेकर १२७ सूत्रों द्वारा कहते हैं जो अतीतकालमें किसी मगधविदेह आदि क्षेत्र में जाकर हर्षित होता है १, कोई हर्षित नहीं होताहै-दुर्मना होताहै २ 1 दुःखित होताहै, तथा कोई एक ऐसा भी होताहै जो न हर्षित होता है और न दुःखित होता है । किन्तु समभाववाला ही रहता है, इसी तरह से इस अतीतकाल सूत्रकी तरह वर्तमानकाल विषयक और भविष्यकाल विषयक सूत्रव्य भी समझना चाहिये । वर्तमान काल के सूत्र में "यामि" ऐसा क्रियापद लगा कर और भविष्यत्कालके सूत्र में “ यास्यामि" ऐसो क्रियापद लगाकर व्याख्यान करना चाहिये; तात्पर्य ऐसा है कि कोई एक मनुष्य " मगधादि भूमि में मैं जाता हूं" इस प्रकार के विचार से हर्पित होता है और कोई एक इस विचार से दुःखित होता है और कोई एक न दुःखी होता है और न सुखी होता है । दोनों अवस्थामें समभाव रहता है । इस प्रकार से ये - હવે સૂત્રકાર એ જ પુરુષ પ્રકારનું ગતિ આદિ ક્રિયાની અપેક્ષારૂપ વિશે. ષતાની અપેક્ષાએ ૧૨૭ સૂત્રો દ્વારા કથન કરે છે, (૧) જે ભૂતકાળમાં કોઈ મગધ, વિદેહ આદિ ક્ષેત્રમાં જઈને હર્ષિત થાય છે, (૨) કોઈ હર્ષિત થતાં નથી–દુઃખી થાય છે, અને (૩) કેઈક પુરુષ એ પણ હોય છે કે જે હર્ષિત પણ થતું નથી અને દુઃખિત પણ થતું નથી, પરંતુ સમભાવવાળો રહે છે. આ ભૂતકાળ વિષયક સૂત્રનાં જેવા, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળ વિષયક मे सूत्र पर सभ सेवi. वर्तमानजना सूत्रमा “ यामि" भने भविष्य४जना सूत्रमा “ यास्यामि " प्रिया५४ वापरीने त भन्ने सूत्री मनापी शाशे. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મગધાદિ ભૂમિમાં હું જાઉં છું, ” આ પ્રકારના વિચારથી કેઈક માણસ હર્ષિત થાય છે, તે કઈકે માણસ આ પ્રકરના વિચારથી દુખિત થાય છે, અને કેઈક માણસ આ પ્રકારના વિચારથી દુખી પણ થતો નથી અને સુખી પણ થતું નથી, પણ બને અવસ્થામાં
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सुघाटीका स्था० ३ उ०२ सू० ३७ पुरुष प्रकारनिरूपणम्
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विषयं चेति सूत्रद्वयमपि बोध्यम् ३-४ कालत्रयविशिष्टं चतुर्थसूत्रम् इत्यादि क्रमशो बोध्यम् । ' तओ' इत्यादि प्रकारान्तरेणाह अता ' इति, एवम् ' अगंता ' अगत्वा, इत्यादीनि त्रीणि प्रतिषेधसूत्राणि ७, ' आगंता ' आगत्य, इत्यादीनि त्रीण्यागमनमूत्राणि च सुमनो दुर्मनस्तन्निषेधरूपाणि भूत - वर्तमान भविष्यत्कालविषयाणि वोध्यानि । ' एवं ' इति, एवमेतेनाभिलापेनाऽन्यान्यपि सूत्राणि विज्ञेयानीति भावः । अथोक्तानुक्तसूत्रसंग्रहणार्थ ४ सूत्र होते हैं । इसी प्रकार से " यास्यामि " पद जोड़कर सुमना आदिकों का कथन कर लेना चाहिये ।
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" तओ पुरिसजाया पण्णत्ता " इस प्रकार से भी पुरुष तीन होते हैं- जैसे - " अगंता " कोई एक पुरुष वहां विहार आदि क्षेत्र में नहीं जा कर सुमना हुआ है, कोई नहीं जा कर दुर्मना हुआ है और कोई जाकर भी मध्यस्थ रहा है ये इसी प्रकार से न यामि न यास्यामि " तीन सूत्र प्रतिषेध सूत्र हैं । तथा " आगंता " इत्यादि तीन सूत्र आगमन सूत्र हैं, ये भी सुमन, दुर्मन, और इन दोनों के निषेधरूप हैं, तथा भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल के सम्बन्ध रखनेवाले हैं, अर्थात् कोई जीव मगध विदेह भूमि में भूतकाल में पीछे आ कर के सुमना हुआ है, कोई दुर्मना हुआ है और कोई मध्यस्थ रहा है । इसी प्रकार कोई वहां से आकर के सुमना है, कोई दुर्मना होता है और कोई मध्यस्थ रहता है, इसी प्रकार कोई वहांसे पीछे आऊँगा " इस विचार से सुमना होगा, कोई दुर्मना होगा और कोई मध्यस्थ रहेगा, समभाववाणो रहे छे. मे ४ प्रमाणे " यास्यामि " ક્રિયાપદ વાપરીને सुभना ( हर्षित ) माहि अनुं स्थन थवं लेखे.
८८
CC
" तओ पुरिसजाया पण्णत्ता " नीचे प्रभा अभरना पुरुषा पशु ४ह्या छे-भ} “ अगंता " । पुरुष त्यां विहार आदि क्षेत्रमां नहीं भाववा છતાં પણુ હર્ષિત થાય છે, કેાઈ નહીં જવાથી દુઃખીત થાય છે અને કોઈ ત્યાં નહીં જવા છતાં પણ શાકથી રહિત ( સમભાવયુક્ત ) જ રહ્યા છે. આ न यामि, न यास्यामि " त्रयु सूत्र प्रतिषेधसूत्र छे तथा आगता " ઈત્યાદિ ત્રણ સૂત્ર આગમન સૂત્ર છે. તે પણ સુમન, દુમન અને તે બન્નેના નિષેધરૂપ છે, તથા ભૂત, ભવિષ્ય અને વર્તમાનની સાથે સબધ રાખનારાં છે. એટલે કે ફાઈ જીવ મગધ, વિદેહ આદિ ભૂમિમાંથી ભૂતકાળમાં પા કરીને હર્ષિત થયા છે, કાઈક ત્યાંથી પાછે ફરીને દુઃખી થયેા છે, અને કાઈ ત્યાંથી પા કરીને મધ્યસ્થ ભાવમાં રહ્યો છે એ જ પ્રમાણે “ ત્યાંથી પાછે ફરીશ એવા ખ્યાલથી કાઈ હર્ષિત થશે, કાઈ દુઃખી થશે અને કોઈ મધ્યસ્થ ભાવમાં
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स्थानाइसूत्रे गाथापञ्चकमाह-'गंता' इत्यादि, 'गंता ३, अगंता ३, आगंता ३' इति नत्र सूत्राणि पूर्वमुक्तानि, अनुक्तानि-सूत्राण्याह-' अगागंता' इत्यादि, आलापकइन्हीं उक्त अनुक्त सूत्रों को संग्रह करने के लिये सूत्रकारने इस गाथा पंचक को कहा है -'गंता य आगंता य' इत्यादि । इस प्रकार से गत्वा के ३, अगत्वा के ३, और आगम्य के ३ ये यहाँ ९ सत्र तो कहे गये हैं । जो " गंता य अगंता य आगंता" इन गाथास्थ तीन पदों द्वारा प्रकट किये गये हैं। तथा जो यहां पर नहीं किये गये हैं वे पद इन गाथाओं द्वारा सूचित किये गये हैं " जैसे “अणागंता-अनागत्य, चिद्वित्ता-स्थित्वा, अचिट्टित्ता-अस्थित्वा, णिसिहत्ता-निषद्य, अणिसिइत्ता-अनिषिद्य, हंता-हत्या, अहंता-अहत्वा, छिदिता-छित्त्वा, अछिदित्ता-अच्छित्वा, बूइत्ता-उक्त्वा, अबूहत्ता-अनुक्त्वा, भासित्ता -आषित्वा, अभासित्ता-अभाषित्वा, दत्ता-दत्वा, अदत्ता-अदत्त्वा, भुंजित्ता-भुक्त्वा, अभंजित्ता-अभुक्त्वा, लंभित्ता-लब्ध्वा, अलंभित्ताअलब्ध्वा, पिइत्ता-पीत्वा, अपिइत्ता-अपीत्वा, सुइत्ता-लुप्त्वा, असु. इत्ता-असुप्त्वा, जुज्झित्ता-युद्ध्वा, अजुज्झित्ता-अयुद्ध्वा, जहत्ताजित्वा, अजइत्ता-अजित्वा, पराजिणित्ता-पराजित्य, अपराजित्य, शब्द જ રહેશે, આ ઉક્ત અનુક્ત સૂત્રને સંગ્રહ કરવાને માટે સૂત્રકારે આ ગાથાપંચકનું કથન કર્યું છે.
"गंताय, आगंताय" त्याह
मा प्रारे, गत्वा (धन) । , अगत्वा (गया विना) ॥ 3, भने आगम्य ( मावान ) न 3 भजीत दस नव सूत्रानुं तो सूत्रमारे मडी ४थन ४२॥ सीधु छ, रे " गंता य अगंता य आगता" मा थाना न पह! દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તથા જેમનું અહીં કથન કરવામાં આવ્યું નથી, તે પદનું ગાથા દ્વારા સૂચન કરવામાં આવ્યું છે – ___“ अणागता-अनागत्य, चिद्वित्ता-स्थित्वा, अचिद्वित्ता-अस्थित्वा, णिसिइत्ता निषद्य, अणिसिइता-अनिषिध, ह ता-हत्वा, अहंता-अहत्वा, छिदित्ता-छिया, अछिंदित्ता-अच्छित्वा, बूइत्ता-उक्त्वा, अवूइत्ता-अनुक्त्वा, भासित्ता-भाषित्वा, अभासित्ता-अभाषित्वा, दत्ता-दत्वा, अदत्ता-अदत्वा, भुंजित्ता-भुक्त्वा, अभुजित्ता अभुक्त्वा, लंभित्ता-लब्ध्वा, अलभित्ता-अलव्ध्वा, पिइत्ता-पीत्वा, अपिइत्ता-अपीत्वा, -सुरत्ता-सुप्त्वा असुइत्ता-असुवा, जुज्झिचा-युद्ध्वाा , अजुज्झित्ता-अयुवा, जइत्ताजित्वा अजइत्ता-अजित्वा, पराजिणित्ता-पराजित्य, अपराजित्य, शब्द, रूप, गंध, रस,
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पुषा रीका स्था० ३ उ०२ सू०३७ पुरुषप्रकारनिरूपणम्
३३ प्रकारश्चायम्-" अगागतानाममेगे सुमणे भवइ, १ अणागंतानाममेगे दुम्मणे भवइ, अगागंतानामेगे नोसुमणे नोदुम्मणे भवइ ? एवं न आगच्छामीति २, एवं, न आगमिष्यामीति ३ कालत्रयविपयाणि त्रीणि सूत्राणि, पूर्वोक्तदशभिः रूप, गंध, रस, और स्पर्श" ये पदकुल २१ हैं। इन २१ पदों के ही १२७ सूत्र होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार से है। गत्वा के तीन और अगत्वा के तीन, आगंता के तीन अणागंता के तीन इत्यादि रूपसे १-१ पद के ६-६ आलापक होते हैं। "आगंता" तकके तो तीन ३ आलापक भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल को लेकर सुमना, दुर्मना और मध्यस्थ होने के विषयमें सूत्रकारने प्रकट ही कर दिये हैं। अब "अणोगंता" जो पद है, उसका आलापकका प्रकार इस प्रकार से है'अणागंता' नामेगे सुमणे भवद १, अणागंतानामेगे दुम्मणे भवइ, अणागंतानामेगे नोसुमणे णोदुम्मणे भव" इसी तरहसे "न आगच्छामि "क्रियापद को लगोकर ऐसा ही कहना चाहिए-कि कोई जीव " मैं नहीं आता है ऐसा ख्याल कर सुमना होता है, कोई दुर्मना होता है और कोई जीव मध्यस्थ होता है। इसी तरह से "न आगमिष्यामि" ऐसा क्रियापद लगाकर भी इसी प्रकार से कहना चाहिये कि कोई जीव " मैं नहीं आऊंगा" ऐसा ख्याल कर सुमना स्पर्श' मा पुस २१ ५४ छे. ते २१ पहोने मनुतक्षीत. ४. १२७ सूत्र थाय છે. જેમનું વિવરણ નીચે પ્રમાણે છે–
ગત્વાના ત્રણ અને અગત્વાના ત્રણ, આગંતાના ત્રણ અને અણગંતાના त्र त्याहि ३ ४ मे पहना-६ मासा५४ थाय छे. “ आगंता" પર્યાના ત્રણ આલાપક ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળમાં સુમન (હર્ષિત), દિને (દુખિત) અને મધ્યસ્થ ભાવયુકત હોવા વિષે, સૂત્રકારે આગળ પ્રકટ ४२ वीच . “अणागंता" ५हना २ मासा५ भने छे ते नये प्रस्ट ४२॥मा माया छ-" अणाग ता नामेगे सुमणे भवइ १, अणागंता नामेगे दुम्मणे भवइ२, अणागंता नामेगे नोसुमणे णोदुम्मणे भवइ " ये प्रमाणे "न आगच्छामि " AL५६ सन मा प्रमाणे ४ नो -" ई भावत। નથી,” આ પ્રકારના વિચારથી કઈક જીવ સુમન (હર્ષિત) થાય છે, કેઈક જીવ દમના ( દુઃખિત) થાય છે અને કેઈક જીવ મધ્યસ્થ ભાવમાં જ રહે छ. “ न आगमिष्यामि" माठियाप वापरीने मा प्रभारी मासा५४ मनीવવા જોઈએ-“હું નહીં આવું” એવો ખ્યાલ કરીને કઈક જીવ સુમન થાય
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स्थानागसूत्रे
सूत्रैः सहसंकलनया । द्वादशसूत्राणि भवन्ति ।" 'चिद्वित्ता' इति स्थित्वाऊर्ध्वस्थानेन, सुमना दुर्मना अनुभयात्मकश्च भवन्ति । एवं ' चिट्ठामीति, चिटि. स्सामी ति ३ ( ) 'अचिद्वित्ता' इहापि कालतः सूत्रत्रयमिति सर्वसंकलनयाsटादशमूत्राणि भवन्ति । एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । नवरं-निपद्य-उपविश्य ३, नो चैवेति-अनिपद्य-अनुपविश्य ३। हत्वा-विनाश्य कश्चित् ३, अहत्वा-अविनाश्य ३, छित्त्वा-द्विधा कृत्वा ३, अच्छिच्चा-न छित्वेत्यर्थः ३, 'वुइत्ता' इतिउक्त्वा-भणित्वा पदवाक्यादिकम् ३, ' अवुइत्ता' इति-अनुक्त्वा ३, भापित्वासंभाष्य कञ्चन संभाषणयोग्यम् ३, ‘नो चैव' इति-अभापित्वा-असंभाष्यकञ्चन ३, दत्त्वा ३, अदत्त्वा ३, भुक्त्वा ३, अभुक्त्वा ३, लब्ध्वा ३, अलब्ध्वा ३, पीत्वा ३, नो चैवेतिअपीत्वा ३, सुप्त्वा ३ असुप्त्वा ३, युद्ध्वा ३, अयुहोता है, कोई दुर्मना होता है और कोई जीव मध्यस्थ रहता है। इस प्रकार के ये सुमना दुर्मनादि होने के विषय में कालत्रय को लेकर कहे गये तीन सूत्र पूर्वोक्त सूत्रों के साथ मिलाने से १३ सूत्र हो जाते हैं। इसी प्रकार से कोई मनुष्य खडा रह कर सुमना होता है, कोई मनुष्य दर्मना होता है और कोई मनुष्य मध्यस्थ रहता है। इसी तरह से सुमना दुर्भना और मध्यस्थ होने के विकल्प 'चिहामि, चिहिस्सामि" यहां पर भी होते हैं। इस तरह से यहां तक १८ सूत्र हो जाते है। इसी प्रकार ले सर्वत्र जानना चाहिये अर्थात् निषद्य, अनिषद्य, हत्या, अहत्वा, छित्त्वा, अच्छित्वा, उक्त्वा, अनुक्त्वा, भाषित्वा, अभाषित्वा, दत्वा, अदत्वा, भुक्त्वा, अभुक्त्वा, लब्ध्घा, अलब्ध्वा, पीत्वा, अपीत्वा, सुप्त्वा, अस्लुप्त्वा, युवा, अयुद्ध्वा, जित्वा, अजित्वा, पराजित्य, છે, કેઈક જીવ દુર્મના થાય છે અને કેઈક જીવ મધ્યસ્થભાવમાં જ રહે છે.
આ રીતે સુમન દુર્મના આદિ થવા વિષેના ત્રણે કાળવિષયક ત્રણ સૂત્રને પૂર્વોક્ત સૂત્રમાં ઉમેરવાથી ૧૨ સૂત્રનું કથન પૂરું થાય છે. એ જ પ્રમાણે કે મનુષ્ય ઊભું રહીને સુમના થાય છે, કેઈ મનુષ્ય ઊભો રહીને કર્મના થાય છે અને કઈ મનુષ્ય ઊભો રહીને સુમના કે દુર્મના થવાને બદલે મધ્યસ્થ ભાવમાં જ રહે છે. એ જ પ્રમાણે સુમના, દુર્મના અને મધ્યસ્થ ભાવसात थवाना वि “ चिट्ठामि चिहिस्सामि" मही य थाय छे. माशते ૧૮ સૂત્રોનું કથન પૂરૂ થાય છે એ જ પ્રમાણે બધાં ક્રિયાપદે સાથે પણ सभा. मेट निषद्य अनिषद्य, हत्वा अहवा, छित्वा, अच्छित्वा, उक्त्वा, अनुक्त्त्वा, भाषित्वा, अभाषित्वा, दत्वा, अदत्वा, मुक्बा, अभुक्त्वा, लब्ध्वा, अलब्ध्वा पीत्वा, अपीत्वा, सुप्त्वा, असुप्त्वा, युवा, अयुवा, जित्वा, अजित्वा,
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सुधा टोका स्था०३३०२ सू०३७ पुरुषर्षकारनिरूपणम् द्ध्वा ३, 'जइत्ता'-इति जित्वा-युद्धे जयं प्राप्य ३, अजित्वा-जयमप्राप्य ३, पराजित्य-परपराजयं प्राप्य सुमना भवति, संभावितमहावित्तव्ययाद्यनर्थविनिमुंक्तत्वात् ३। 'नो चेय' इति-अपराजित्य-पराभवममाप्य मुमना भवतीत्यादि अपराजित्य" इन पदों के साथ भी ऐसा ही सुमना और दुर्मना और मध्यस्थ होनेके विषय का कालत्रय को लेकर कथन करना चाहिये, इन शब्दों का अर्थ इस प्रकार से है। निषिध बैठ करके, अनिषद्य नहीं बैठ करके, हत्वा-मार करके, अहत्वा नहीं मार करके, छित्वा छेदन करके, अछित्वा नहीं छेदन करके, उक्त्वा= पद वाक्यादि कह करके, अनुक्त्वा नहीं करके, भाषित्वा-भाषण करनेयोग्य किसीके साथ भाषण करके,अभाषित्वा नहीं भाषण करने योग्यके साथ नहीं भाषण करके, दत्त्वा-दे करके, अदत्त्वा-नहीं दे करके, भुक्त्वा-खाकरके, अभुक्त्वा नहीं खाकरके, लब्ध्वा-प्राप्तकरके, अलध्वा नहीं प्राप्त करके, पीत्वो-पीकरके, अपीत्वा नहीं पीकरके, सुप्त्वा
सो करके, असुप्त्वा-नहीं सो करके, युद्ध्वा युद्ध करके,अयुध्वा युद्ध 'नहीं करके, जित्वा-जीतकर के, अजित्वा-नहीं जीत करके पराजित्यहार प्राप्त करके, अपराजित्य-पराजय प्राप्त नहीं करके कोई मनुष्य सुमना होता है, कोई दुर्मना होता है और कोई मध्यस्थ रहता है इस पराजित्य मने अपराजित्य मा पोनी साथे ५ सुमना, हुमना सन મધ્યસ્થ હોવાનું કથન ત્રણે કાળને અનુલક્ષીને કરવું જોઈએ. હવે આ પદોને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે –
निषिद्य-मेसीन, अनिषिद्य-mai बिना, हत्त्वा-डीने, अहत्त्वा=३९या विना, छित्त्वा छहीने, अछिवा छेधा विना, उक्त्त्वा-५६, पाठ्य मामालीन, अनुकत्वा=नही मालीन, भाषित्वा साष ४२१॥ योग्य ना साथे सापy ४शन, अभाषित्वानही साप! ४२१॥ योग्य सेवा | यति साथै भाषा नही ४शन, दत्वा-माधान, अदत्वा=नही मापान, भुक्त्वा-माने, अभुक्त्वा नही पान, लब्ध्वा=पास ४ीने, अलब्ध्वा पास नही ४शन, पीत्वा पान, अपीत्वा पीया विना, सुप्त्वा-सून, असुप्त्वा-शयन नही शने, युद्ध्वा= युद्ध ४शन, अयुवा-युद्ध नही रीने, जित्वातीन, अजित्वा=नडी तान, पराजित्य-२ श्रास ४शने, अपराजित्य-५२४य प्राप्त नही ४शन, २ मधी ક્રિયાઓ કરીને કેઈ મનુષ્ય હર્ષિત થાય છે, કેઈ મનુષ્ય દુ.ખિત થાય છે અને કે મનુષ્ય મધ્યસ્થભાવમાં રહે છે, આ પ્રકારનું કથન ત્રણે કાળને
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फँसूत्रे स्थाना
કુદ
३। ' णिसिइत्ता-निपद्य ' इत्यारभ्य ' पराजिणित्ता' इत्यन्तं यावत् त्रयोदशपदानां प्रत्येकं पट् पद् मुत्रनिर्माणेन भवन्त्यष्टसप्ततिः सूत्राणि, एतानि पूर्वोक्ताष्टादशभिः सूत्रैः सह संकलनया पण्णवतिः सूत्राणि भवन्ति ( ९६ ) | 'सद्दा ' इत्यादि, एवं शब्दरूपगन्धरसस्पर्शानधिकृत्यैकैकस्मिन् विषये विधिप्रतिषेधाभ्यां यंत्र आलापका भूत वर्त्तमान भविष्यत्कालाश्रयाः 'सुमना दुर्मनाअनुभयरूपपद यवन्तो विज्ञेया इति शब्दादि स्पर्शपर्यन्तानां पञ्चानां विषयाणां प्रत्येकं पद् तरह का कथन त्रिकाल को लेकर लगाने से एक २ पद के ३-३ सूत्र बन जाते हैं " णिसिहत्ता " से लेकर " पराजिणित्ता " तक १३ पद बनते हैं । इन १३ पदों के ६-६ सूत्र बन जाने के कारण ७८ सूत्र हो जाते हैं इन ७८ सूत्रों में पूर्वोक्त १८ सूत्रों को मिला देने से कुल ९६. सूत्र हो जाते हैं । इसी तरह से - " शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इनको लेकर एक एक विषय में विधि प्रतिषेध की अपेक्षा से भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल संबंधी ६-६ सूत्र बन जाते हैं अर्थात् कोई मनुष्य शब्द को सुनकर भूतकाल में सुमना हुआ है, दुर्मना हुआ है और मध्यस्थ हुआ है, वर्तमान काल में कोई एक मनुष्य सुमना होता है, दुर्मना होता है और मध्यस्थ रहता है भविष्यत् काल में कोई एक मनुष्य सुमना होगा, दुर्मना होगा और मध्यस्थ रहेगा । इस प्रकार के ये विधिविषयक तीन ३ सूत्र हैं, इसी तरह से प्रतिषेध को लेकर तीन ३ सूत्र बनते हैं इस प्रकार शब्द में विधिप्रतिषेध को लेकर ये ६ अनुसक्षीने अश्वाथी प्रत्ये पहना शुभ सूत्र जने छे. " निषिद्य " थी सने " अपराजित्य " पर्यन्तना १३ पहानां मुझे १३४६=७८ मयोनेरसूत्र भने छे. આ ૭૮ સૂત્રાને પૂર્વકત ૧૮ સૂત્રેામાં ઉમેરવાથી કુલ ૯૬ સૂત્ર ખને છે. अभा “श, ३५, गंध, रस भने स्पर्श " नी अपेक्षा प्रत्ये વિષયમાં વિધિ પ્રતિષેધની અપેક્ષાએ ભૂત, વતમાન અને ભવિષ્યકાળ સબધી ६-६ सूत्र भने छे. नेम.....
કોઈ મનુષ્ય શબ્દને સાંભળીને ભૂતકાળમાં સુમના (પિત) થયા હાય છે, કાઇ દુના થયા હાય છે અને કઈ મધ્યસ્થભાવમાં રહ્યો હાય છે. શબ્દને સાંભળીને વર્તમાન કાળે કાઈ સુમના થાય છે, કઈ દુર્માંના થાય છે અને કાઈ મધ્યસ્થભાવમાં રહે છે. શબ્દને સાંભળીને કાઈ ભવિષ્યમાં સુમના થશે, કોઇ દુના થશે અને કાઈ મધ્યસ્થભાવમાં રહેશે. આ પ્રમાણે વિધિ વિષયક ત્રણ સૂત્ર છે, એ જ પ્રમાણે પ્રતિષેધની અપેક્ષાએ પણ ત્રણ સૂત્ર અને છે. આ રીતે શબ્દમાં વિધિપ્રતિષેધને અનુલક્ષીને કુલ ૬ સૂત્ર મને છે. આ
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सुघाटीका स्था० ३ उ०२ सू० ३७ पुरुषप्रकारनिरूपणम्
૩૭
षट् पद कल्पनेन त्रिंशत्सूत्राणि भवन्ति । एवमेतेषां षण्णवत्या सूत्रैः सह संकलनया षड्राविंशत्यधिकं शतमेकं ( १२६ ) सूत्राणि भवन्ति, आदिमस्य सामान्यसूत्रस्य च संमेलनेन सप्तविंशत्यधिकमेकं शतं सूत्राणि भवन्ति ( १२७ ) ।
,"
पञ्चम्यां संग्रहगाथायां " तदेव ठाणा य इति यदुक्तं तद् भावयन् सूत्रद्वयमाह - ' तओ ठाणा ' इत्यादि, त्रीणि स्थानानि निश्शीलस्यशीलरहितस्य सामान्यतः शुभस्वभाववर्जितस्य, निर्व्रतस्य - विशेषतः पुनः प्राणातिपातादिनिवृत्तिरहितस्य, निर्गुणस्य - उत्तरगुणापेक्षया गुणरहितस्य, निर्मर्यादस्य - धर्ममर्यादावर्जितस्य, निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासस्य - पौरण्यादि प्रत्याख्यानपर्वोआलापक होते हैं । इसी पद्धति से रूप, गंध, रस और स्पर्श इनमें भी ६-६ आलापक कहना चाहिये इस तरह ३० आलापक हो जाते हैं ९६ में ३० मिला देने पर कुल १२६ सूत्र होते हैं इनमें एक सामान्य सूत्र और मिलाने से इनकी सब संख्या १२७ हो जाती है। पांचवीं संग्रह में जो " तहेव ठाणा य" ऐसा कहा है उसका तात्पर्य ऐसा कि ये वक्ष्यमाण तीन स्थान शीलरहित - सामान्यतः शुभभाववर्जिन, निर्मत विशेषतः - प्राणातिपातादि की निवृत्ति से रहित, निर्गुण-उत्तर गुण की अपेक्षा से गुणरहित, निर्मर्याद-धर्ममर्यादा वर्जित तथा पौरुषी आदि के प्रत्याख्यान से एवं पर्वसंबंधी उपवास से रहित जीव गर्हित होते हैं तीन स्थान ये हैं - इहलोक, उपपात और आयति जिस पर्याय में ऐसे जीव ने जन्म लिया होता है वह पर्याय उसकी गर्हित होती है
गाथा
પદ્ધતિથી રૂપ, ગ ધ, રસ અને સ્પશ વિષયક પણ ૬-૬ આલાપક સમજવા. આ રીતે ખીજા ૩૦ આલાપક અને છે. આગલા ૯૬ સૂત્રમાં આ ૩૦ સૂત્ર ઉમેરવાથી કુલ ૧૨૬ સૂત્ર બને છે, તેમાં એક સામાન્ય સૂત્ર ઉમેરવાથી કુલ ૧૨૭ સૂત્રેા થઈ જાય છે.
पांग्रभी सौंश्रद्धगाथाभां ? " तदेव ठाणा य " આ પ્રકારના પાઠ કહ્યો છે તેના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે–નીચે કહેલાં ત્રણ સ્થાન શીલરહિત-સામાન્ય રીતે શુભ ભાવવર્જિત, નિત-ખાસ કરીને પ્રાણાતિપાત આદિની નિવૃત્તિથી રહિત, નિર્ગુ ́ણુ–ઉત્તરગુણની અપેક્ષાએ ગુણુરહિત, નિયંદ-ધાઁમર્યાદા રહિત તથા પૌરુષી (પારસી) આદિના પ્રત્યાખ્યાનથી રહિત અને પદિનના પાષધ ઉપવાસથી રહિત જીવમાં ગહિત હાય છે. તે ત્રણે સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે~~ (१) धडुलाउ, (२) उपयात मने (3) आयाति के पर्यार्थमां सेवा वे भन्स લીધેા હોય છે, તે પર્યાય ગહિત હૈાય છે, કારણ કે તનિયમ આદિથી રહિત
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स्थान सू
३८
पवासरहितस्य गर्हितानि - जुगुप्सितानि भवन्ति, तद्यथा - तानि त्रीणि स्थानान्याह -' अस्सि ' इत्यादि, 'अस्सि' इति विभक्तिव्यत्ययेन - अयं लोकः - भवः, यस्मिन् जन्मगृहीतं सः, गर्हितो भवति-वनियमादि रहितत्वेन पापकृत्या विशिष्ट जन जुगुप्सितत्वात् । तथा उपपातः - नारकादिभवः, स गर्हितो भवति, मरणानन्तर ं पापपुरुषाणां नरकादिगदिसद्भावात्, आयातिः - नरकाद्युद्वर्त्तनं, नरकादिगते निस्सरणमित्यर्थः । साऽपि गर्हिता भवति, कुमानुषत्वतिर्यक्त्वमाप्तिसद्भावादिति १ । अथैतानि त्रीणि कस्य प्रशंसितानि भवन्ति ? इति तद्विपर्ययमाह - ' तओ ' इत्यादि, पूर्वोक्तानि त्रीणि स्थानानि पूर्वोक्तविशेषणरहितस्य सशीलादिविशेषण विशिष्टस्य प्रशस्तानि भवन्ति, तद्यथा - अयं लोकः - प्रशस्तो भवति, व्रतनियमादिविशिष्टत्वेन पवित्रप्रवृत्त्या शिष्टजन - प्रशंसितत्वात् । तथा मरणानन्तरं तस्योपपाक्यों कि व्रतनियम आदि से रहित होने के कारण वह पापवृत्ति से युक्त होती है अतः वह विशिष्टजन से जुगुप्सित ( निन्दित ) होती है आगामी भव यहां उपपात शब्द से लिया गया है मरने के बाद पापात्माओं को नरकादिगति की प्राप्ति होती है अतः यह नरकादिभव उसका गर्हित होता है इसी तरह से जब ऐसा जीव नरकादिगति से निकलता है तब वह कुमानुषत्व या तिर्थचगति को प्राप्त होता है इसलिये इसकी आयति भी गर्हित होती है । तथा ये ही तीन इहलोक, उपपात और आपति - शीलादि विशिष्ट जीव के प्रशंसित होते हैं क्यों कि वह व्रत नियम आदि से युक्त रहा करता है अतः पवित्र प्रवृत्तिवाला होने से वह शिष्टजनों द्वारा प्रशंसा का पात्र होता है तथा मरण के बाद वैमानिकादिकों में उसका उपपात होता है इसलिये उसका
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હાવાને લીધે તેની તે પર્યાય પાપવૃત્તિથી યુક્ત હાય છે, તેથી તે વિશિષ્ટજને દ્વારા નિન્દાને પાત્ર મને છે. અહીં ઉષપાત શબ્દ દ્વારા આગામી ભવગ્રહણ કરાયેા છે. મૃત્યુ ખાદ પાપાત્માઓને નરકાદિ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી તેને આગામી ભવ પણુ ગાઁ ( નિન્દા ) ને પાત્ર બને છે. એ જ પ્રમાણે એવે જીવ જ્યારે નરકાદિ ગતિમાંથી નીકળે છે, ત્યારે કુમાનુષત્વ અથવા તિય ચગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તેથી તેની આયિત પણુ ગર્હુિત ( નિન્દાને પાત્ર) હાય પરન્તુ જે જીવેા શીલાદિથી યુક્ત હોય છે તેમના ઇહલેાક, ઉપપાત અને આયતિ પ્રશસ્ય હોય છે, કારણ કે તે તનિયમ આદિથી યુકત રહે છે. આ રીતે પવિત્ર પ્રવૃત્તિવાળા તે જીવને આ જન્મ પણ પ્રશંસાને પાત્ર છાને છે, મરણ થયા પછી વૈમાનિક આદિમાં તેના ઉપપાત થાય છે,
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सुघाटीका स्था०३३०२सू० ३८ संसारिजीवप्ररूपणपूर्वकं सर्पजीवनिरूपणम् ३९ तोऽपि प्रशस्तो भवति धार्मिकाणां वैमानिकादिषूपपातसद्भावात् । आयातिःततश्च्युतिः, साऽपि प्रशस्ता भवति, देवभवात् सुमानुपत्वमाप्ति सद्भावादिति ।। सू० ३७ ॥
एतानि गर्हितानि प्रशस्तानि च स्थानानि संसारिजीवानामेव भवन्तीति संसारिजीवमरूपणापूर्वकं सर्वजीवान् प्ररूपयितुं सप्तसूत्रीमाह___ मूलम्--तिविहा ससारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहाइत्थी, पुरिसा, नपुंसगा १ । तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सम्माद्दहि मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी य२ । अहवा, तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा--पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा णो पजत्तगा, णो अपज्जत्तगा १। एवं-“सम्सदिद्विपरित्ता, पज्जत्तगKहुमसन्निभर्विया य ॥ सू० ॥३८॥
छाया-त्रिविधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः, पुरुषाः नपुंसकाः १ । त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः, उपपात भी प्रशंसित होताहै फिर जब वह वहां से चवताहै तब उसे सुमानुषत्वकी प्राप्ति होतीहै अतः उसकी आयतिभी प्रशस्त होती है ॥.३७ ॥ __ ये स्थान गर्हित और प्रशस्त संसारी जीवों को ही होते हैं अतः अब सूत्रकार संसारी जीवों की प्ररूपणापूर्वक सर्वजीवों की प्ररूपणा सातमत्रों से करते हैं-(तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा) इत्यादि। सूत्रार्थ-संसारसमापन्नकजीव-संसारी जीव तीन प्रकारके कहे गये हैं जैसे स्त्री. पुरुष और नपुंसक १, समस्त जीव तीन प्रकार के कहे गये हैंसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमियादृष्टि २, अथवा-समस्त जीव તેથી તેને ઉપપાત પણ પ્રશંસનીય બને છે વળી ત્યાંથી એવીને તે સમાનપર્વની પ્રાપ્તિ કરે છે, તેથી તેની આયતિ પશુ પ્રશંસનીય બને છે. સૂ. ૩૭ |
ઉપર્યુકત સ્થાનેને સદૂભાવ ગહિત અને પ્રશસ્ત સંસારી જીવમાં જ હોય છે, તેથી સૂત્રકાર સંસારી જીની પ્રરૂપણપૂર્વક સર્વ જીવોની પ્રરૂપણ सात सूत्र वा। ४२ छ-" तिविहा ससारसमावन्नगा जीवा " त्या
સૂત્રાર્થ–સંસાર સમાપન્નક જીવના (સંસારી જીના) નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર ४ा छ-(१) स्त्री, (२) पुरुष भने (3) नपुंस४. समस्त वाना २
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स्थानाङ्ग
सम्यग्मिथ्यादृष्टश्च । अथवा त्रिविधाः सर्वजीवाः - प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाः अपर्याप्तकाः, नोपर्याप्तका नोअपर्याप्तकाः ३ । एवम् - " सम्यग्दृष्टिपरित्ताः, पर्याप्तक - सूक्ष्म - सञ्ज्ञि - भाविकाश्च " ॥ सू० ३८ ॥
टीका - ' तिविहा ' इत्यादि -- संसारसमापन्नकाः - संसरणं - संसारः - नारकतिर्यङ्नरामरभवानुभवलक्षणः, तं सम्यग् - एकीभावेन आपन्नाः - प्राप्ता आश्रिता इति ते तथा संसारिण इत्यर्थः ते स्त्रीपुरुषनपुसकभेदेन त्रिविधा भवन्ति १ | जीवाधिकारात् पुनः सर्वजीवां तीन प्रकार से इस तरह से भी कहे गये हैं जैसे-पर्यातक, अपर्याप्तक और नो पर्याप्त नो अपर्याप्तक तथा समस्त जीव परित्त, अपरित्त और नो परिन्त नो अपरित इस तरह से भी तीन प्रकार के कहे गये हैं तथा सुक्ष्म, बादर, नो सूक्ष्म नो बादर इस तरह से भी तीन प्रकार के समस्त जीव कहे गये हैं तथा संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी नोअसंज्ञी, इस प्रकार से भी सब जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं तथा भव्य, अभव्य और नोभव्य नोअभव्य के भेद से भी समस्त जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं ।
टीकार्थ - परिभ्रमण करनेका नाम संसार है, जीवका परिभ्रमण नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन गतियों में होता है - अतः इन चार गति रूप ही संसार है, इस संसार को जो अच्छी तरह से एकी भावरूप से प्राप्त करते हैं वे संसारी समापन्नक-संसार जीव हैं । ये संसारी जीव स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से तीन प्रकारके कहे गये हैं ।
४०
ह्या छे- (१) सभ्यग्दृष्टि, (२) मिथ्यादृष्टि, भने ( 3 ) सभ्यभूमिथ्यादृष्टि अथवा समस्त लवाना या प्रभा पत्र प्रार पडे छे- १) पर्यास, (२) अय. यति भने ( 3 ) नापर्यासनापर्यास समस्त संसारी भवना (१) परित्त, (२) अपरित भने ( 3 ) नोपरित नामपरित, सेवा प्रभु प्रार पडे छे. तथा (१) सूक्ष्म, (२) माहर भने (3) नासूक्ष्म नोणाहर, मेवा ત્રણ પ્રકાર પડે છે अथवा (१) सज्ञी, (२) असज्ञी मने (3) नास ज्ञी નાઅસ ફ્રી, એવા ત્રણ પ્રકાર પણ પડે છે અથવા (૧) ભવ્ય, (૨) અભવ્ય अने (3) नालव्य नाखभव्य सेवा त्रयु प्रहार पशुपडे छे.
ટીકા –પરિભ્રમણ કર્યા કરવુ તેનું નામ જ સ`સાર છે. જીવ નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિમા પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે. તેથી આ ચાર ગતિએ રૂપ જ સસાર છે. જે જીવેાએ એકીભાવ રૂપે આ સ’સારને પ્રાપ્ત કરલે છે તે જીવાને સ’સારસમાપન્નક જીવેા છે. તે સ'સારી જીવાના સ્ત્રી, પુરુષ અને નપુંસક, આ ત્રણુ સ'સારી જીવા કહે પ્રકાર
અથવા
પડે
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सुधा टीका स्था०३३ २ सू०३. संसारीजीवप्रहपणपूर्वकं सर्वजीवनिरूपणम् ४१ त्रिस्थानकावतारेण षभिः सुराह-'तिविहा' इत्यादि, सर्वजीवाः-सम्य मिथ्यामिश्रदृष्टिभेदान्त्रिविधाः २ । अथवा पर्याप्तापर्याप्त-नो तदुभयभेदात्त्रिविधाः सर्वजीवाः तत्र पर्याप्ताः-पर्याप्तिसंपन्नाः, अपर्याप्ताः-पर्याप्तिविकलाः, नोपर्याप्ता नोअपर्याप्ताः-सिद्धा इत्यर्थः । एवम्-अनेन प्रकारेण-पूर्वक्रमेणेत्यर्थः क्यों कि इन तीनों में हो समस्त संसारी जीवोंका अन्तर्भाव हो जाता है। इनसे बाहर कोई नहीं बचता है। जीवाधिकार को लेकर अब सूत्रकार समस्त जीवोंका कथन त्रिस्थानकके अनुरोधसे करते हैं जो इस प्रकार से है-जितने भी जीव हैं-वे सब सम्यग्दृष्टि, मियादृष्टि और मिश्रदृष्टि के भेद से जो तीन प्रकार के कहे गये हैं उनमें सिद्ध जीव सम्यग्दृष्टि पदसे गृहीन हो जाते हैं । पूर्व में जो भेद कहे गये हैं वे संसारी जीवों के कहे गये हैं। यहां सामान्य रूपले ये भेद कहे गये हैं। इनमें संसारी और असंसारी इन दोनों का ग्रहण हो जाता है। इसी प्रकार का कथन आगे के सूत्रों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। जो जीव पर्याप्तिसे सम्पन्न होतेहैं वे पर्याप्त है, पर्याप्तिले विकल अपर्याप्त हैं। और जो न पर्याप्त हैं और न अपर्याप्त है ऐसे सिद्ध जीव नोपर्याप्त नो. अपर्याप्त जीव हैं। इस प्रकार के ये दो सूत्र और संसारी जीवों का છે, કારણ કે સમસ્ત સંસારી જીવેને આ ત્રણેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. એકે સંસારી જીવ એ નથી કે જે આ પ્રકારોમાં આવી જતે ન હોય. જીવાધિકારની અપેક્ષાએ હવે સૂત્રકાર સમસ્ત સંસારી જીવનું ત્રણ સ્થાને અનુલક્ષીને કથન કરે છે–સમસ્ત સ સારી જીવોના સમ્યગ્દષ્ટિ, મિથ્યાષ્ટિ અને મિશ્રદષ્ટિના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર પડે છે આ કથનને આધારે સિદ્ધજીને સમ્યગ્દષ્ટિ જી તરીકે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. આગળ જે ભેદે કહ્યા છે તે સંસારી જીના ભેદ કહ્યા છે
અહીં સામાન્ય રીતે એ ભેદનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ સામાન્ય કથનમાં સંસારી અને અસંસારી, આ બન્નેને સમાવેશ થઈ જાય છે. એજ પ્રકારનું કથન હવે જેમનું કથન કરવામાં આવે છે તે જ વિષે પણ સમજવું.
જે જ પર્યાતિથી યુક્ત હોય છે તેમને પર્યાપ્ત કહે છે અને જે જ પર્યામિ વિનાના હોય છે તેમને અપર્યાપ્ત કહે છે જે જીવો પર્યાપ્ત પણ નથી અને અપર્યાપ્ત પણ નથી તેમને પર્યાપ્ત ને અપર્યાપ્ત કહે છે. આ ત્રીજા વિભાગમાં સિદ્ધ ને સમાવેશ થાય છે. આ પ્રકારના આ બે સૂત્ર અને સંસારી
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स्थानानने उक्तानुक्तमूत्रसंग्रहार्थं गाथार्द्धमाह-'सम्मदिट्ठी' इत्यादि, सम्यग्दृष्ट्यादिपर्याप्तादि सूत्रो पूर्वमुक्ते, अथानुक्तानि परित्तसूक्ष्मसज्ज्ञिभाविकादि सूत्राणि चत्वा
हि, तदालापको यथा-"तिविहा सव्यजीवा पण्णत्ता, तं जहा-परित्ता, अपरित्ता, नोपरित्ता नोअपरिचा ४ । तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमा वायरा, नोमुहुमा नोवायरा ५। तिविहा सव्यजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सणिणो असण्णिणो, णोसणिणो णोअसण्णिणो ६ । तिविहा सव्यजीवा पण्णत्ता, तं जहा-भव्या, अभव्या, नोभव्या नोअभव्या ७ ।" इति, ___ छाया-त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा परित्ता, अपरित्ताः, नोपरित्ता नोअपरित्ताः ४ । त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्माः, बादराः, नो एक सूत्र लिल कर तीन सूत्र हो जाते हैं तथा इनसे अतिरिक्त और जो चार सूत्र हैं वे इस प्रकार से हैं-'सरमट्ठिी ' इत्यादि । इनमें परित्त, सूक्ष्म, संझी और भविक जन सम्बन्धी सूत्र लिये गये हैं। इनके आलापक इस प्रकार से हैं-'तिविहा सव्व जीवा पणत्ता-तं जहापरित्ता अपरित्ता नोपरित्ता नोअपरित्ता तिविहा सच जीवा पण्णत्ता -तं जहा-सुखमा, वायरा, नोसुहमा, नोवायरा, तिविदा सणिजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सणिणो, असणिणो, णोसणिणो णोअसणिणो तिचिहा सव्व जीवा पण्णत्ता-तं जहा-भव्या, अभव्या, नो भन्वा, नो अभवा" इन सूत्रों का अर्थ सुगम है। प्रत्येक शरीर जिनको है वे परित्त जीव हैं और साधारण शरीर जिनका है वे अपरित्त जीव हैं। इन दोनों प्रकार के शरीर से जो रहित हैं वे नोपरित्त नोअपरित्त जीव हैं ऐसे वे सिद्ध जीव हैं । सूक्ष्म शरीर जिनका है वे मूक्ष्म हैं જીનું એક સૂત્ર મળીને ત્રણ સૂત્ર થાય છે, તે સિવાયના ચાર સૂત્ર નીચે प्रभारी छ-" सम्म दिदी " त्यादि.
तन मासा५४ २मा प्रमाणे -"तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-तजहा परित्ता, अपरित्ता, नोपरित्ता नोअपरित्ता । तिविहा सव्व जीवा पण्णत्ता-तंजहाँ सुहुमा, बायरा, नोहुमा नोवायरा । विविहा सब जीवा पण्णत्ता-तंजहा सण्णिणो, असणिणो णोसणिणो णोअसणिणो । तिविहा सव्व जीवा पण्णत्ता तंजहा-भव्वा अभव्वा, नो भव्या नो अभव्वा " मा सूत्रानो म सरण छे. પ્રત્યેક શરીર જેમને હોય છે, તે જીવેને પરિત જી કહે છે. સાધારણ શરીર જેમને હોય છે તેમને અપરિત્ત કહે છે. આ બંને પ્રકારના શરીરથી જેઓ રહિત છે, તેમને પરિત્ત ને અપરિગ્ન જી કહે છે. એવાં છે સિદ્ધ જીવે છે. સૂમ શરીર જેમનું છે તેમને સૂક્ષ્મ જીવે કહે છે, બાદર
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सुघा टोको स्था०३३०२ सुं०३८ सेसारीजी प्ररूपणपूर्वक सर्वजीवनिरूपणम् ४३ सूक्ष्मा नोवादराः५। त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सज्ञिनः, असज्ञिनः नोसज्ञिनो नोअसज्ञिनः त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भव्याः, अभव्याः, नोभव्या नोअभव्याः ७ । सुगमानि चैतानि, नवर-परित्ताः-प्रत्येकशरीराः, अपरित्ताः साधारणशरीराः, नोपरित्ता नोअपरित्ताः सिद्धा इत्यर्थः ४ । एवं सूक्ष्माः-सूक्ष्मशरीराः, बादराः-वादरशरीराः, नोसूक्ष्मा नोवादराः-सिद्धाः ५। सज्ञिनः-आहारादिसज्ञासम्पन्नाः, असज्ञिना-मनोविकलाः, नोसज्ञिनो नो असज्ञिना-सिद्धाः ६ । भव्याः-मुक्तिगामिनः, अभव्याः-मुक्तिगमनायोग्याः, नो भव्या नो अभव्याः-सिद्धाः ७ । इति ॥ सू०३८ ॥ ___ सर्व एव चैते लोके व्यवस्थिताः, तत्र च जीवानां दिशोऽधिकृत्वा गत्यामत्यादि भवतीति लोकस्थितिनिरूपणपूर्वकं दिगनिरूपणं, तदाश्रयत्वाद् गत्यागत्यादि निरूपणं च कुर्वनाह,- मूलम्-तिविहा लोगट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-आगासपइदिए वाए, वायपइटिए उदही, उदहिपइट्रिया पुढवी १ । तओ
और वादर शरीर जिनका है वे बादर हैं तथा जो न सूक्ष्म शरीरवाले हैं और न बादर शरीरवाले हैं ऐसे सिद्ध जीव नो सूक्ष्म नो बाद जीव है, आहार आदि सज्ञा जिनके है वे संज्ञी जीव हैं और मनोविकल जो है बे अस ज्ञीजीव हैं तथा जो न संज्ञी हैं और न असंज्ञी है ऐसे सिद्ध जीव नो संज्ञी नो असंज्ञी हैं । जिन्हें आगामी कालमें नियम से मुक्ति प्राप्त होती है वे भव्य जीव है। इनसे विपरीत अभव्य है। तथा जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं ऐसे सिद्ध जीच नो भव्य नो अभव्य हैं । सू०३८ ॥ શરીરવાળા જીવોને બાદર જી કહે છે અને જે જ સૂક્ષ્મ શરીરવાળા પણ નથી અને બાદર શરીરવાળા પણ નથી તેમને ને સૂક્ષમ ને બાદર કહે છે. સિદ્ધ જીને નાસૂમ બાદર જીવો કહે છે. આહાર આદિ સત્તા જેમને હોય છે તે અને સંજ્ઞી કહે છે મનથી રહિત છને અસંસી કહે છે, તથા જે જીવે સંજ્ઞી પણ નથી અને અસંસી પણ નથી તેમને સંજ્ઞા ને અસંજ્ઞી કહે છે. એવાં સિદ્ધ જીવે જ હોય છે જેમને આગામી કાળમાં અવશ્ય મુકિત મળવાની જ છે એવાં જીવેને ભવ્ય જી કહે છે. તેમના કરતા વિપરીત અભવ્ય જીવે છે. જે ભવ્ય નથી અને અભિવ્ય પણ નથી એવાં સિદ્ધ જીવેને ને ભવ્ય ને અભવ્ય કહે છે. એ સૂ. ૩૮ છે
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स्थान
दिसाओ पष्णताओ, तं जहा - उड्डा, अहा, तिरिया १| तीहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवन्तइ, तं जहा उडाए अहाए तिरियाए २ । एवं आगई३, वस्कंती४, आहारे५, बुड्ढी६, णिवुड्ढी, गइ परियाए ८, मुग्धा ९, कालसंजोगे १० दंसणाभिगमे ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३ । तीहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पण्णत्ते, तं जहा - उडाए, अहाए, तिरिचाए १४| एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । एवं मणुस्लाणवि ॥ सू०३९
ર
छाया -- त्रिविधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा - आकाशप्रतिष्ठितो वातः, वातप्रतिष्ठित उदधि, उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी १ | तिस्रो दिशः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ऊर्ध्वा, अधः, तिरथी १ | विष्टभिर्दिग्भिर्जीवानां गतिः प्रवर्त्तते, तद्यथाऊया, अधोदिया, तिच्या २ एवम् आगतिः ३, व्युत्क्रान्तिः ४, आहारः
ये सब जीव लोक में व्यवस्थित ( विद्यमान ) हैं । जीवों का परलोक में गमनागमन दिशा के अनुसार होता है, इसलिये अब लोकस्थिति के निरूपणपूर्वक सूत्रकार दिग् निरूपण एवं दिशा आश्रित होने से त्या गत्यादिका निरूपण करते हैं । 'तिविहा लोगट्टिई पण्णत्ता' इ.
सूत्रार्थ - लोककी स्थिति तीन प्रकार की कही गई है जैसे - आकाश प्रति ष्ठित वायु वायु प्रतिष्ठित धनोदधि, घनोदधि प्रतिष्ठित पृथिवी दिशाएँ तीन कही गई है जैसे- उर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यग्दिशा इन तीन दिशाओं से हो कर ही जीवों की गति होती है, एक उर्ध्व - दिशा से एक अधोदिशा से और एक तिर्यग्दिशा से, इसी तरह
આ ખધાં જીવે લેાકમાં વ્યવસ્થિત વિદ્યમાન ) છે. જીવેાનું પરલેાકમાં ગમનાગમન દિશા અનુસાર થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વૈકસ્થિતિના નિરૂપણુ પૂર્ણાંક દિશાએનુ નિરૂપણ કરે છે અને દિશાએને આશ્રિત હોવાને કારણે गत्यागति माहितुं पशु नि३५णु रे - " तिविहा लोगट्टिई पण्णत्ता " इत्यादि.
सूत्रार्थ - सोनी स्थिति त्रयु प्राश्नी ही छे - (१) खाश प्रतिष्ठित वायु, वायुપ્રતિષ્ઠિત ઘનેદધિ અને (૩) ઘનાદધિ પ્રતિષ્ઠિત પૃથ્વી. દિશાઓ ત્રણ કહી છે (१) ७ध्वहिशा भने (२) अधोदिशा भने (3) तिर्यगूहिशा, या त्रयु हिशा
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सुँघा टीका स्था०३०२ सू० ३९ दिग्निरूपणं गत्यागत्यादिनिरूपणेचे
પ્રધ
५, वृद्धिः ६, निर्वृद्धिः ७, गतिपर्यायः ८, समुद्घातः ९, कालसयोगः ९०, दर्शनाभिगमः ११, ज्ञानाभिगमः १२, जीवाभिगमः १३ । त्रिभिर्दिग्भिर्जीवानामजीवाभिगमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ऊर्ध्वया, अधोदिशया, तिरश्च्या १४। एवं पञ्चेन्द्रि न्द्रिय तिर्यग्योनिकानाम् । एवं मनुष्याणामपि || सू० ३९ ॥
|
टीका - ' तिविहा ' इत्यादि लोकस्य स्थितिः - लोकस्थितिः - लोकव्यवस्था, सा त्रिविधा, तथाहि - आकाशे प्रतिष्ठितः - आश्रितः - आकाशप्रतिष्ठितः, सर्वद्रव्याणामाकाशमतिष्ठितत्वात्, आकाशंतु स्वमतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठा चिन्तनं कृतमिति । वातः - तनुत्रातः घनवातः पूर्वं तनुवातः, तदुपरि घनत्रात इति भावः, सच धनवातस्तमस्तमादिनरकपृथिवीनामाधारतया व्यवस्थितोऽघोवर्ती - अत्यन्त - आगति, व्युत्क्रान्ति, आहार, वृद्धि, निवृद्धि गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, दर्शनाभियोग, ज्ञानाभिगम और जीवाभिगम ये सब भी इन दिशाओं के अनुसार ही होते हैं ।
इन तीन दिशाओं से ही जीवों के अजीवाभिगम कहा गया है। इसी तरह से मनुष्यों की और तिर्यश्च योनिकों की गति आगति आदि के विषय में भी समझना चाहिये ।
टीकार्थ-समस्त द्रव्य आकाश में प्रतिष्ठित है - इसलिये यहां वायु को आकाश प्रतिष्ठित कहा गया है वात से यहां तनुवात और घतवात लिये गये हैं। आकाश किसी अन्यद्रव्य के आधार पर नहीं है- क्योंकि वह सब से बड़ा है इसलिये वह अपने ही आधार पर है इसीलिये सूत्रकार ने उसके आधार के विषय में यहां नहीं कहा है पहिले तनुवात है और એમાંથી જ જીવેાની ગતિ થાય છે. (૧) ઉધ્વદિશામાથી, (૨) અધાદિશામાંથી मने (3) तियंहिशाभांथी. मे ४ प्रमाणे भागति, व्युत्अन्ति, आहार, वृद्धि, निवृद्धि, गतिपर्याय, समुद्द्धात, असस योग, दर्शनालियोग, ज्ञानालिगम भने જીવાભિગમ, આ બધું પણ દિશાઓને અનુસાર જ થાય છે.
આ ત્રણુ ક્રિશાએમાંથી જ જીવાના અજીવાભિગમ કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે મનુષ્યા અને તિય ચાની ગતિ, આગતિ આદિના વિષયમાં પણ સમજવું, ટીકા-સમસ્ત દ્રવ્ય આકાશમાં પ્રતિષ્ઠિત (વિદ્યમાન) છે, તેથી અહીં વાયુને આકાશ પ્રતિષ્ઠિત કહ્યો છે વાત પદ્મ દ્વારા અહીં તનુવાત અને ઘનવાતને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આકાશ કોઇ અન્ય દ્રવ્યને આધારે રહેલુ નથી, કારણ કે તે સૌથી મેહુ` છે, તે પાતાને આધારે જ રહેલુ છે. તેથી સૂત્રકારે તેના આધાર વિષે અહીં કંઇ પણ કહ્યું નથી, પહેલા તનુવાત છે અને તેની ઉપર
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स्थानासूत्रे
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घनः पिण्डीभूतो वातविशेषः । वातप्रतिष्ठितः - घनवाताश्रितः उदधिः - घनोदधिः, सच हिमशिलाबज्जलनिचयः । उदधिप्रतिष्ठिता - घनोदधिसमाश्रिता पृथिवी तमस्तमादिरूपा १। यद्यपि ' ईपत्याग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठिता ' इत्यादिक्रमेणापि लोकस्थितिर्वक्तुं शक्या, तथापि ' आगासपट्ठिएवाए ' इत्यादि क्रमेण या लोकस्थितिरुक्ता, सा अघोभागादारभ्यैव लोकस्थिति भवतीति सूचयितुमिति । अथ दिशोऽधिकृत्य गत्यागत्यादि निरूपयन् चतुर्दशसूत्राण्याहar दिसाओ' इत्यादि दिश्यते - व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक् फिर उसके ऊपर घनवात है. यह घनवात तमस्तमा आदि नाम की जो नरक पृथिवियां हैं उनका आधारभूत है अतः उनके यह अधोवर्ती है और अत्यन्तघनरूप पिण्डीभूत है इस घनवात के आश्रित जो उदधि है वह घनोदधि है यह घनोदधि हिमशिला की तरह जल का निचयसमूह रूप है इस घनोदधिके आश्रित तमस्तमादिरूप पृथिवियहि । यद्यपि “ ईषत्प्रागभारा पृथिवी आकाशप्रतिष्टित " इत्यादि क्रम से भी लोकस्थिति कह सकते है फिर भी " आगसपइट्ठिए बाए" इत्यादि क्रम से जो लोकस्थिति कही गई है वह इस अभिप्राय से कही गई है कि अधोभाग से लेकर ही लोकस्थिति होती है ।
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अब सूत्रकार दिशा को लेकर गति आगति का निरूपण करने के निमित्त १४ सूत्रों का कथन करते हैं- “ तओ दिसाओ " इत्यादि पूर्वादिरूप से वस्तु जिसके कारण कही जाती है वह दिशा है, यह दिशा
ઘનવાત છે. તે ઘનવાત તમસ્તમા આદિ જે સાત નારકેા છે તેમના આધારરૂપ છે, તેથી તે તેમની નીચે રહેલા છે અને અત્યન્ત ઘનરૂપ-પિંડીભૂત છે. આ ઘનવાતને આશ્રિત જે ઉદ્ધિ છે તેનું નામ ઘનેાધિ છે તે ઘનેદધિ હિમશિલાની જેમ પાણીના નિશ્ચય ( ભંડાર ) રૂપ છે. આ નૈતિને આશ્રિત તમસ્તમા આદિ નરકે છે જો કે “ આકાશ પ્રતિષ્ઠિત ઈષદ્ભાગ્ભારા પૃથ્વી ’ ઇત્યાદિ ક્રમથી પણુ લેકસ્થિતિનું કથન કરી શકાય છે, છતાં પણુ આકાશ પ્રતિષ્ઠિત વાયુ ” ઈત્યાદિ ક્રમથી જે લાકસ્થિતિ કહેવામાં આવી છે તે એ અભિપ્રાયથી જ કહી છે કે અધેાભાગથી લઇને (શરૂ કરીને) જ લેાકસ્થિતિ હાય છે હવે સૂત્રકાર દિશાઓને અનુલક્ષીને ગતિ, ગતિનું નિરૂપણુ કરવા નિમિત્તે ૧૪ સૂત્રાનું કથન કરે છે. તે સૂત્ર આ પ્રમાણે છે
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" तओ दिखाओ " इत्यादि.
અમુક વસ્તુ પૂર્વ આદિમાં છે એવું જેને કારણે કહેવાય છે, તેનું નામ दिशा छे, तेना भयु लेह नीचे प्रभाछे- (१) व दिशा, (२) अधोदिशा
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सुधा टोका स्था०३ उ० २ सू० ३८ दिग्निरूपणं गत्यागत्यादिनिरूपणंच
सा त्रिविधा ऊधस्तग् भेदात् । ' तीहिं ' इत्यादि, तिसृभिर्दिग्भिरूर्ध्वाधस्तिर्यगुरूपाभिर्जीवानां गतिः- गमनं प्रवर्त्तते । तत्र दिक नामादिभेदेन सप्तविधा, तथाहि – “ नामं १ ठवणा २ दविए ३, खेतदिसा ४ तावखेत्त ५ पनवए ६ । सत्तमिया भावदिसा ७, सा हो अट्ठारस विहा य ॥ १ ॥ 93 छाया - नाम १स्थापना २- द्रव्य ३, क्षेत्र दिशः ४ तायक्षेत्र ५ प्रज्ञापकाः ६ । सप्तमिका भावदिक् सा भवत्यष्टादशविधा च ॥ तत्र नामस्थापनादिशे प्रसिद्धे २ | द्रव्यस्य - पुद्गलस्कन्धादेर्दिक द्रव्यदि ३। क्षेत्रस्य - आकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक, अस्यास्तिर्यग्लोकमध्यस्थिताष्टमदेशरूचकात् प्रवृत्ति र्भवति, उक्तञ्च - " अपएसो रुवगो, तिरियलोयस्स मज्झयारम्मि | एसपभवो दिसाणं, एसे व भवे अणुदिसाणं ॥ १॥ " छाया - अष्टप्रदेशो रुचकः, तिर्यग्लोकस्य मध्ये । एष ममत्रो दिशाम्, एप एत्र भवेद् अनुदिशाम् || दिशां नामानि यथा
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उर्ध्व, अधः और तिर्यग के भेद से तीन प्रकार की है इन तीन दिशाओं से जीवों का गमन होता है नामादि के भेद से दिक् सात प्रकार की भी है - जैसे - नामदिशा १, स्थापनादिशा २, द्रव्यदिशा ३, क्षेत्र दिशा ४, तापक्षेत्र ५, प्रज्ञापना ६ और भावदिशा ७, यह भावदिशा १८ प्रकार की होती है । नामदिशा और स्थापनादिशा ये प्रसिद्ध हैं । पुद्गल स्कन्ध आदि की जो दिशा वह द्रव्यदिशा है, आकाश की जो दिशा है वह क्षेत्रदशा है इस क्षेत्र दिशा की प्रवृत्ति तिर्यग्लोक के मध्यमार्ग में स्थित जो ८ आठ रुचकप्रदेश हैं वहां से होती है कहा भी है- " अट्ठपएसो aat " इत्यादि । तात्पर्य यह है कि तिर्यग्लोक के मध्य में आठ प्रदेश रुचक हैं ये रुचक ही दिशाओं के कारण हैं और ये ही अनुदिशाओं
અને તિય`દિશા. આ ત્રણ દિશાઓમાંથી જ જીવાનું ગમન થાય છે. નામા દિકના ભેદથી દિશાના સાત પ્રકાર પશુ પડે છે–(૧) નામિદેશા, (૨) સ્થાપના दिशा, (3) द्रव्यदिशा, (४) क्षेत्रविशा, (4) तापक्षेत्र, (६) अज्ञायना अने (७) भावहिशा. तेमांनी लावद्विशाना १८ अक्षर से नामहिशा मने स्थापना દિશા, આ બન્ને દિશાએ પ્રસિદ્ધ છે. પુદ્ગલ કન્ય આદિની જે દિશા છે તેને દ્રવ્યદિશા કહે છે. આકાશની જે દિશા છે તેને ક્ષેત્રદિશા કહે છે, આ ક્ષેત્રદિશાની પ્રવૃત્તિ તિય ગ્લાકના મધ્યમાગમાં સ્થિત (રહેલા ) જે આઠ રુચક प्रदेश छे त्यांथी थाय छे, उद्धुं पशु छे - " अट्ठपएसो रुयतो " त्याहि.
આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-તિગ્લાકની મધ્યમાં આઠ રુચક પ્રદેશ છે, તે રુચક પ્રદેશ જ દિશાએ અને અનુદિશાએના કારણરૂપ છે.
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स्थान सूत्रे ___" इंद १ ग्गेयी २ जम्मा ३ य नेरई ४ वारुणी य ५ वायव्या ६ ।
__ सोम्मा ७ ईसाणावि य ८, विमला ९ य तमा १० य वोद्धव्या ॥१॥" छाया-ऐन्द्री १ आग्नेयो २ याम्या ३ च नैर्ऋती ४ वारूगी ५ च वायव्या ६।
सौम्या ७ ऐशान्यपि च विमला ९ च तमा १० च वोद्धव्या ॥ १॥ तत्र-ऐन्द्री-पूर्वा १, आग्नेयी-अग्निकोणः २, याम्या-दक्षिणा ३, नैऋतीनैऋत्यकोणः ४, वारुगी-पश्चिमा ५, वायव्या-वायुकोणः ६, सौम्या-उत्तरा ७, ऐशानीव-ईशानकोणः ८, विमला-ऊबैदिक ९, तमा-अधोदिक् १०। इति । तापः-सविता, तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक, सा चा नियता, उक्तश्च__ " जेसि जत्तो सूरो, उदेइ तेसिं तई हवइ पुव्वा ।
तावक्खेत्तदिसाओ, पयाहिणा सेसियाओसिं ॥१॥" छाया-येपां यतः सूर्य उदेति तेषां सा भाति पूर्वा ।
तापक्षेत्रदिक, प्रदक्षिणात् शेषां अस्याः ।। तत्र-प्रदक्षिणात्-दक्षिणावर्तभ्रमणात् । तथा । प्रज्ञापकस्य-आचार्यादेर्यादिक सा प्रज्ञापकदिक्, सा यथाके कारण हैं । दस १० दिशाओं के नाम इस प्रकार से हैं-" इंदग्गेयी जम्मा य" इत्यादि। इनमें-ऐन्द्री-पूर्वदिशा का नाम है आगेयी अग्निकोण का नाम है याम्या दक्षिणदिशा का नाम है नैऋनी नैऋत्य कोण का नाम है वारुणी पश्चिम दिशा का नाम है वायव्य वायुकोण का नाम है सौम्या उत्तरदिशा का नाम है ऐशानी-ईशान कोण का नाम है विमला उर्वदिशा का नाम है तमा अधोदिशा का नाम है सूर्य से उपलक्षित जो क्षेत्रदिशा है वह तापक्षेत्रदिशा है यह नियत होती है। कहा भी है-" जेसि जत्तो" इत्यादि ।
सामाना नाम नाय प्रमाणे छे-" इंदग्गेयी जम्माय " त्याहि. (१) मद्री अथवा पूर्वडिशा, (२) माथी अथवा ममि, (3) याभ्या अथवा દક્ષિણ દિશા, (૪) નૈઋતિ અથવા નૈઋત્યકેણ, (૫) વારુણિ અથવા પશ્ચિમ हिशा, (६) पायव्योष्ण, (७) सौम्या अथ! उत्तर हिशा, (८) ओशानी अथवा ઈશાન કેણ, (૯) વિમલા અથવા ઉદિશા અને (૧૦) તમા અથવા અ દિશા. સૂર્ય વડે ઉપલક્ષિત જે ક્ષેત્રદિશા છે, તેને તાપક્ષેત્રદિશા કહે છે તે नियत साय छे. युं ५ छ है-" जे सिं जत्तो" त्याह
અહીં પ્રદક્ષિણા શબ્દ દ્વારા દક્ષિણાવર્ત ભ્રમણ ગૃહીત કરાયું છેપ્રજ્ઞાપક-આચાર્ય
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सुधा टीका स्था० उ०२० ३९ दिग्निरूपणम् गत्यागत्यादिनिरूपणंच
" पनवओ जयभिमुो, सा पुना सेसिया पयाहिणओ । तस्सेव गंतव्वा, अग्गेबाई दिसा नियमा ॥ १ ॥ " छाया - प्रज्ञापको यदभिमुखः, सा पूर्वा शेषाः प्रदक्षिणतः । तस्यैवानुगन्तव्याः आग्नेय्याद्या दिशो नियमात् ॥
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भावदिक्-पृथिवी १ जल २ ज्वलन ३ वायु ४ मूलवीज ५ स्कन्धवीजा ६ ग्रबीज ७ पर्ववीज ८ द्वि ९ त्रि १० चतुरिन्द्रिय ११ पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्क १२ नारक १३ देव १४ संमूच्छिम १५ कर्मभूमिजा १६ कर्मभूमिजा १७ न्तरद्वीपज १८ । इह च क्षेत्रताप-प्रज्ञापकदिग्भिरेवाधिकारः । तत्र च तिर्यग्ग्रहणेन पूर्वाद्याश्वतत्रो दिश एव गृह्यन्ते, न विदिशः, वासु जीवानामनुणिगामित्वेन वक्ष्पमागत्यागतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमानत्वात्, शेपपदेषु च
यहां प्रदक्षिण शब्द से दक्षिणावर्त भ्रमण गृहीत हुआ है। प्रज्ञापक - आचार्य आदि की जो दिशा है वह प्रज्ञापक दिकू है वह इस प्रकार से है - (पन्नओ) इत्यादि पृथिवी १ जल २ ज्वलन ३ वायु ४ मूलबीज ५ स्कन्धवीज ६ अग्रबीज ७ पर्वबीज ८ द्विइन्द्रिय ९ श्रीन्द्रिय १०, चतु रिन्द्रिय ११, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च १२ नारक १३, देव १४, संसूच्छिम १५, कर्मभूमिज १६, अकर्मभूमिज १७ और अन्तरद्वीपज १८ इस प्रकार के भेदों से भावदिशा १८ प्रकार की है। यहां क्षेवदिशा, तापदिशा, और प्रज्ञापकदिशा इनका ही अधिकार है। यहां तिर्यग्ग्रहण से पूर्वादिक चार दिशाएँ ही गृहीत हुई हैं । विदिशाएँ नहीं । क्यों कि जीवों की गति आकाश के प्रदेशों की पंक्ति के अनुसार ही होती है इसलिये उनकी गति, आगति और व्युत्क्रान्ति उत्पत्ति के ये सब विदिमाहिनी ने हिशा छे, तेतु नाम प्रज्ञाया छे. ते या प्रभा छे “पन्नवओ” छत्याहि. (१) पृथ्वी, (२) ४स, (3) वसन, (४) वायु, (4) भूझणी, (६) सुन्ध जर, (७) अमीर, (८) पनजी ४, (ङ) द्वीन्द्रिय, (१०) त्रीन्द्रिय, (११) चतुरि न्द्रिय, (१२) पचेन्द्रिय तिर्यय, (१३) ना२४, (१४) हेव, (१५) सभूर्च्छिम, (११) भूमि, (१७) सम्म लूमिन भने (१८) अन्तरद्वीप या प्रकारना ભેદોથી ભાવદિશા ૧૮ પ્રકારની છે. અહીં ક્ષેત્રર્દિશા, તાપદિશા અને પ્રજ્ઞાપક દિશાને જ અધિકાર છે. અહીં તિગૂ ગ્રહણુ દ્વારા પૂર્વાદિ ચાર દિશાને જ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે, વિદિશાઓને ગ્રડુણુ કરવામાં આવેલ નથી, કારણ કે જીવેાની ગતિ આકાશના પ્રદેશેાની પ'ક્તિ અનુસાર જ થાય છે તે કારણે તેમની ગતિ, ગતિ અને વ્યુત્ક્રાન્તિ ( ઉત્પત્તિ ) આ બધું વિદિશાઓને અનુસાર થતું નથી. એ જ કારણે બાકીનાં પદેામાં વિદિશાએાના ઉલ્લેખ થયા નથી.
श
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स्थामा सूत्रे
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विदिशामविवक्षितत्वात्, ' छर्हि दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तइ ' इत्यादेरत्रैव वक्ष्यमाणत्वाच्च । प्रस्तुतमाह —' तीहिं दिसाहिं ' इत्यादि, अत्र " तिसृभिर्दिग्भिः " इत्यनेन सप्तसु दिक्षु सप्तमी भावदिक, तृतीया द्रव्यदिक, पञ्चमी तापक्षेत्र दिग् वा यथायोग्यं व्याख्यातुं शक्यते । तिसृभिरूर्ध्वास्तिर्यग्रूपाभिर्दिग्भिर्जीवानां गतिः प्रवर्त्तते, तत्र गतिः - प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम् २ एवं - पूर्वोक्ताभिलापवत् स यथा - " तीहिं दिसाहिं जीवाणं आगईपवत्त, तं जहा - उड्ढाए आहार तिरियाए " एवं सर्वत्र संयोज्यम् । आगतिः - प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने समागमनम् ३। व्युत्क्रान्तिः - उत्पत्तिः आहारः प्रसिद्ध: ५, वृद्धि: - शरीरस्य वर्द्धनम् ६, निरृद्धिः - तस्यैव हानि: ७, गतिपर्यायः - मृत्वा गत्यन्तरे गमनं शाओं के अनुसार नहीं होते हैं । इसी कारण शेपरदों में विदिशाओं की विवक्षा नहीं हुई है । " छहिं दिसाहि जीवाणं पवत्तद्द " ऐसा कथन सूत्रकार आगे स्वयं करने वाले है । " तीहि दिसाहिं " इत्यादि - यहां सात दिशाओं में जो सातवीं भावदिशा है वह, या तीसरी जो द्रव्यदिशा है या पांचवीं जो तापक्षेत्रदिशा है वह यथायोग्यरूप से व्याख्यात हो सकती है उर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा इन दिशाओं से जीव की गति होती है प्रज्ञापक के स्थान की अपेक्षा से, मरकर अन्यन्त्र जाना इसका नाम गति है, २ इसी तरह से पूर्वोक्त अभिलाप की तरह से ही तीन दिशाओं से जीवों की आगति होती है प्रज्ञापक के नजदीक के स्थान में आना इसका नाम आगति है ३ व्युत्क्रान्ति नाम उत्पत्ति का है ४, आहार प्रसिद्ध है ५, शरीर के वर्द्धन का नाम वृद्धि है ६ शरीर के ह्रास-हानि का नाम निर्वृद्धि है ७, मर 'छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तइ " या प्रकार उथन सूत्रार भागन रवाना छे. " तीहि दिसाहिं " त्याहि
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અહીં સાત દિશાઓમાંની જે સાતમી ભાવિશા છે તેનું, અથવા ત્રીજી જે દ્રવ્યદિશા છે તેનું અથવા પાંચમી જે તાપક્ષેત્રક્રિશા છે તેનું યથાચેાગ્ય રીતે વણુન થઈ શકે છે. ઉર્ધ્વ દિશા, અધેાદિશા અને તિગ્દિશા, આ દિશામાંથી જીવની ગતિ થાય છે. (૨) પ્રજ્ઞાપકના સ્થાનની અપેક્ષાએ, મરીને અન્યત્ર જવું તેનું નામ ગતિ છે. (૩) એજ પ્રમાણે-પૂર્વોક્ત અભિલાપની જેમ જ ત્રણ દિશાઓમાંથી જીવાની આગતિ થાય છે. પ્રજ્ઞાપકની સમીપના સ્થાનમાં भाववुं तेनुं नाम भगति छे (४) व्युत् अन्तिनुं नाम उत्पत्ति है. (4) 'भाÈार’ પદ સમજી શકાય એવું છે. (૬) શરીર વધવું તેનું નામ વૃદ્ધિ છે. (૭)
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सुधा टीका स्था०३ उ०२ सू०३९ दिग्निरुपणम् गत्यागत्यादिनिरूपणंच ५१ वैक्रियलब्धिमतः संग्रामार्थे प्रदेशतो गर्भावहिनिस्सरणं वा, सगुवातः-वेदनादिरूपः ९, कालसंयोगः-वर्तनादिकाललक्षणानुभूतिः, मरणयोगो वा कालसंयोगः १०, दर्शनेन-अवध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमः-योधो दर्शनाभिगमः ११, एवं-ज्ञानाभिगमः १२, जीवानां ज्ञेयानामवध्यादिनैवाभिगमो जीवाभिगम १३ इति । ' तीहिं ' इत्यादि, सुगम, नवरम्-अनीवाभिगमः, अजीवानां-धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायाद्वासमयानां अभिगमःबोधः-अजीवाभिगमः १४ । ' एवं ' इत्यादि, एवम्-पूर्वोक्ताभिलापेन यथा सामान्यस्त्रेषु गत्यागत्यादीन्यजीवाभिगमपर्यन्तानि त्रयोदशपदानि तिसपु दिवभिहितानि, तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकर के गत्यन्तर में जाना इसका नाम गतिपर्याय है ८, अथवा क्रियलब्धिवाले जीव का संग्राम के लिये प्रदेश से गर्भ से बाहर निकलना यह गतिपर्याय है वेदनादिरूप समुद्घात होता है , वर्तनादिरूप काल लक्षण की अनुभूति का नाम कालसंयोग है अथवा मरणयोग का नाम कालसंयोग है १०, प्रत्यक्षप्रमाणभूत अवधि आदि के द्वारा जो बोध होता है उसका नाम दर्शनाभिगम है ११, इसी तरह का ज्ञानाभिगम है १२, जीवों को जेयपदार्थों का जो अवधि आदि के द्वारा अभिगम वोध होता है वह जीवाभिगल है १३, " तीहिं" इत्यादि धर्म, अधर्म, आकाश, पुगल इन अस्तिकाओं का तथा अद्वासनयरूप काल का बोध होना यह अजीवाभिगम है "एवं" इत्यादि-जिस तरह पूर्वोक्त अभिलाय द्वारा सामान्य स्त्रों में गति आगति से लेकर अजीवाभिगम तक १३ पद तीन दिशाओं में कहे गये हैं उसी प्रकार से पंचेन्द्रिय શરીરને હાસ (હાનિ) થી તેનું નામ નિવૃદ્ધિ છે. (૮) મરીને અન્ય ગતિમાં જવુ તેનું નામ ગતિપર્યાય છે. અથવા વૈક્રિય લબ્ધિવાળા જીવનું સંગ્રામને માટે પ્રદેશમાંથી ગર્ભમાંથી નીકળવું તેનું નામ ગતિ પર્યાય છે (૯) વેદનારૂપ સમુદ્દઘાત હોય છે. (૧૦) વર્તાનાદિ રૂપ કાલલક્ષણની અનુભૂતિનું નામ કાળસગ છે અથવા મરણયોગનું નામ કાળસંગ છે (૧૧) પ્રત્યક્ષ પ્રમાણભૂત અવધિ દ્વારા જે પ થાય છે તેનું નામ દર્શનાભિગમ છે એજ પ્રકારને જ્ઞાનાભિગમ છે. (૧૨) જીવોને ય પદાર્થોને જે અવધિ આદિ દ્વારા અભિગમ (ोध) थाय छ, तर लिगम छे. “ तीहिं" प्रत्याहि
(૧૩) ધર્મ, અધમ, આકાશ અને પુદ્ગલ આ અસ્તિકાને તથા मद्धासभय ३५ जनमा यो तेनुं नाम मालिगम छे. "एव" त्यादि.
જે રીતે પૂર્વોક્ત અભિલાપ દ્વારા સામાન્ય સૂત્રોમાં ગતિ આગતિથી લઈને અછવાભિગમ સુધીના ૧૩ પદોનું ત્રણ દિશાઓને અનુલક્ષીને કથન
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स्थाना -" तीहिं
कानामपि विज्ञेयानि । एवं मनुष्याणामपि बोध्यम् । तदभिलापो यथादिसाहिं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं गई पचत्तई " एवमागत्यादिपदेष्वपि संयोजनीयम् | मनुष्याभिलाषो यथा--" तीहिं दिसाहिं मणुस्सा गई पवत्तइ " एवमागत्यादिषु सर्वेषु पदेषु संयोजनीयम् । एवं चैतानि सर्वाणि गत्यागत्याद्यपेक्ष्य पड़र्विशतिः सूत्राणि भवन्तीति । एतानि गत्यादीन्यजीवाभिगमान्तानि सामान्यजीवमूत्राणि सन्ति । चतुर्विंशति दण्डकचिन्तायां तु नारकादिपदेषु दिक्त्रये गत्यादीनां त्रयोदशानामपि पदानां सामस्त्येनासंभवः, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु मनुतियैचयोनिकों के भी यति आदि पद जानना चाहिये तथा मनुष्यों के भी जानना चाहिये इनका अभिलाप इस प्रकार से है " तीहिं दिसाहि पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं गई पवत्तह" इसी तरह का अभिलाप आगति आदिपदों में भी करना चाहिये मनुष्याभिलाप इस प्रकार से है - " तीहि दिसाहिं मणुस्साणं गई पवत्तइ " इसी तरह का अभिलाप आगति आदि समस्तपदों में करना चाहिये इस प्रकार से ये सब गति आगति आदि की अपेक्षा करके २६ सूत्र होते हैं गति आदि से लेकर अजीवाभिगम तक के मुत्र सामान्य जीवसूत्र हैं चौधीसदण्डक के विचार की अपेक्षा से नरकादिपदों में दित्रय में गत्यादिक १३ पदों का सम्पूर्ण रूप से संभव नहीं हैं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में और मनुष्यों में इनका संभव है सो पंचेन्द्रियतिर्यचों के और मनुष्यों के सूत्र कहे हैं । इन पदों का सामस्त्यरूप से नारकादिकों से संभव क्यों नहीं है ? तो
થયુ છે, એજ પ્રમાણે પચેન્દ્રિય તિ ચ ચેાનિકામાં પણ ગતિ આદિ પદનું કથન સમજવુ જોઈએ, અને એ જ પ્રમાણે મનુષ્યેામાં પણ સમજવું. તેમને अभिसाप या प्रमाणे छे-" तीहि दिसाहि पंचिदियतिरिक्खजोणियाण गई पवत्तइ " मे ४ प्रहारनो अभिसाप भगति आदि होभां पशु समल सेवा. मनुष्याना गतिविषय अभिसाप या प्रमाणे छे - " तीहि दिसाहिं मणुस्साणं गई पत ” એજ પ્રકારને અલિલાપ ગતિ આદિ પદોમાં પણ સમજવા ોઈએ. આ રીતે ગતિ, આગતિ પદને અનુલક્ષીને કુલ ૨૬ સૂત્ર થાય છે. ગતિ આઢિથી લઈને અજીવાભિગમ સુધીનાં સૂત્રા સામાન્ય જીવ સૂત્રેા છે ચાવીસ દંડકના જીવાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે નારકાદિ પદોમાં ત્રણ દિશમાં ગતિ આદિ ૧૩ પદોના પૂર્ણરૂપે સભવ નથી. પંચેન્દ્રિય તિય ચેા અને મનુષ્યામા તેમના સંભવ હાવાથી અહીં પચેન્દ્રિય તિય ચા અને મનુષ્યાનાં સૂત્રેા કહેવામાં આવ્યાં છે. આ પદે નારકાદિમાં સપૂર્ણરૂપે
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सुधां टीका स्था०३ उ०२ सू०४० सनिरूपणपूर्वक स्थावरनिरूपणम् ५३ ज्येषु च तत्सभव इति पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च सूत्रमभिहितमिति । अथे. तेषां पदानां नारकादिषु कथमसंभवः ? इत्याशङ्कायामाह-नारकादीनां तिर्यक्षश्वेन्द्रियमनुष्यवर्जितानां द्वाविंशतिदण्डकजीवविशेषाणां नारकदेवेषुत्पादाभादा
वधिो रूपस्य दिग्द्वयस्य विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञान--जीवाजीवाभिगमागुणप्रत्यया अवध्यादि-प्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव । भत्रमत्यावधिपक्षे तु नारकज्योतिष्फास्तिर्यगवधयः, भवनपतिव्यन्तरा ऊर्वावधयः, वैमानिका अधोऽवधयः सन्ति । एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां त्ववधिनास्त्येवेति ॥०३९॥
पूर्वोक्तानि च गत्यादिपदानि बसानामेव संभवन्तीति सम्बन्धेन त्रसान् निरूपयन् तद्विपरीतान् स्थावरान् निरूपयति
मूलम्-तिविहा तसा पण्णत्ता, तं जहा-तेउकाइया, वाउ. काइया, उरालातसा पाणा । तिविहा थावरा पण्णत्ता, तं जहा -पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्लइकाइया ॥ सू० ४० ॥ इसका उत्तर ऐसा है कि तिर्यक पंचेन्द्रिय और मनुष्य इनको छोड़कर २२ बावीस दण्डक जीव विशेषों का नारक और देवों में उत्पाद का अभाव है इसलिये उर्ध्व और अधोरूप दो दिशा की विवक्षा से वहां गति आगति का अभाव है तथा दर्शन, ज्ञान, जीवाभिगम, अजीवाभिगम, गुणप्रत्यय अवधिआदि प्रत्यक्षरूप अभिगम ये सब तीनदिशामें होते ही नहीं हैं भवप्रत्ययावधिपक्ष में तो नारक और ज्योतिष्क तिर्य गवधिवाले होते हैं भवनपति और व्यन्तर उर्व अवधिवाले होते हैं तथा वैमानिक अधोवधिवाले होते हैं एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में अवधिज्ञान होता ही नहीं है । सू०३९ ॥ કેમ સંભવ નથી? તે તેને ઉત્તર એ છે કે પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ અને મનુષ્ય સિવાયના બાવીશ દંડકના જીવવિશેષને નારકે અને જેમાં ઉત્પાદ સંભવી શકતે નથી, તેથી ઉર્વ અને અધે, આ બે દિશાઓની અપેક્ષાએ તે જીવોમાં गति, सागतिना मसाव छ. तथा शन, ज्ञान, निगम, २मालिगम, ગુણપ્રત્યય અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષરૂપ અભિગમને સદૂભાવ એ ત્રણે દિશાઓમાં હેતે જ નથી. ભવપ્રત્યયા અવધિની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે નારક અને તિષ્ક તિર્યગવધિવાળાં હોય છે, ભવનપતિ અને વ્યન્તર ઉર્વ અવધિવાળા હોય છે અને વિમાનિક અધે અવધિવાળા હોય છે. એકેન્દ્રિય અને વિકલેન્દ્રિમાં અવધિજ્ઞાન હતું જ નથી. એ સૂ, ૩૯ છે
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स्थानागपत्र छाया-त्रिविधास्त्रसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, उदारास्त्रसाः प्राणाः त्रिविधाः स्थावराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकायिकाः, अप्कायिकाः, वनस्पतिकायिकाः ॥ सू० ४०॥ _____टीका-'तिविहा ' इत्यादि, मुगमम् , नवरम्-त्रसन्तीति त्रसाः-चलनध
र्माणः, ते तेजोवायूदार त्रसभेदात्रिविधाः। तेजोवायवो गतियोगात्रसा उच्यन्ते । उदाराः-स्थूलाः, त्रसा:-बसनामकर्मोदयवर्तित्वात् , प्राणाः-व्यक्तोन्छवासादि. प्राणयोगात् , गतियोगादेव साः-द्वीन्द्रियादय इति । अथ तद्विपर्यय स्थावरम___ये पूर्वोक्त गत्यादिक पद त्रस जीवों के ही संभवित होते हैं इसलिये अब सूत्रकार त्रस जीवों का निरूपण करते हुए तद्विपरीत स्थावरों का निरूपण करते है-(तिविहा तसा पण्णत्ता) इत्यादि।
सूत्रार्थ-ब्रस जीव तीन प्रकारके कहे गये हैं जैसे तेजस्कायिक, वायुकायिक, और उदार द्वीन्द्रियादिक प्राणी, स्थावर भी तीन प्रकार के कहे गये हैं-पृथिवीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक।
टीकार्थ-"वसन्तीति.बलाः" इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो चलनधर्मवाले होते हैं वे त्रस हैं ये त्रस तेजः, वायु, और उदारत्रस, के भेद से तीन प्रकार के है तेजस्कायिक और वायुकायिक ये गतित्रस हैं क्यों कि ये चलनधर्म वाले हैं, उदार नाम स्थूल का है जो स्थूलत्रस हैं वे उदारत्रल है, इन उदारत्रसों के त्रसनामकर्म का उदय रहता है उचास आदि प्राण इनके व्यक्त होते हैं गतित्रस और लब्धित्रस के भेद से त्रसजीव
પૂર્વોક્ત ગતિ આદિ પદોને સદૂભાવ ત્રસજીમાં જ સંભવી શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ત્રસ જીવોનું નિરૂપણ કરે છે અને ત્યારબાદ તેમનાથી विपरीत वां स्थान नि३५ ४२ छ-" तिविहा तसा पण्णता" त्याह.
सूत्राथ-सनात्र प्रा२४i -(१) तेयि , (२) वायुयि भने (3) २ हान्द्रियाहि ७३. स्था१२ सपना पY ४२ ४ा छ-(१) पृथ्वीयि४, (२) २५५४यि मने (3) वनस्पतिशायि४.
टी-"बसन्तीति त्रसाः" मा व्युत्पत्ति अनुसार २ ७३ व्यसन या હોય છે, તેમને ત્રસ કહે છે તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને ઉદાર ત્રસના ભેદથી તેમના ત્રણ પ્રકાર છે. તેજ કાયિક અને વાયુકાવિક, એ ગતિત્રસ છે, કારણ કે તેઓ ચલન ધર્મવાળા છે ઉદાર એટલે સ્કૂલ-જે સ્થૂલત્રસ છે, તેમને ઉદારત્ર કહે છે.
તે ઉદાર ત્રસેના ત્રણ નામકર્મને ઉદય હોય છે. તેમના ઉવાસ આદિ પ્રાણ વ્યક્ત હોય છે. ત્રસજીવના ગતિગ્રસ અને લબ્ધિત્રસ નામના બે પ્રકાર
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सुधा टीका स्था०३३०२ सू० ४१ जीवपदार्थनिरूपणम्
रूपणामाह:- तिविहा' इत्यादि, स्थितिशीलत्वात् स्थावर नामकर्मोदयाच्च स्थावराः । ते पृथिव्यववनस्पति भेदात्त्रिविधाः । शेषं स्पष्टम् ॥ सू० ४० ॥
उक्ताः पृथिव्यादयो जीवपदार्थाः संमति तत्प्रतिपक्षभूतान् जीवपदार्थान् प्ररूपयन्नष्टसूत्रीमाह
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मूलम् - तओ अच्छेजा पण्णत्ता, तं जहा - समाए परसे परमाणू १ । एवभभेज्जार, अडज्जार, अगिज्झा४, अणड्डा५, अमज्झाद, अपएसा७, तओ अविभाइमा पण्णत्ता, तं जहासमए पसे परमाणू ॥ सू० ४१ ॥
"
छाया - त्रयोऽच्छेद्याः प्रज्ञप्तास्तद्यथा - समयः प्रदेशः परमाणुः १ । एवमभेद्याः अदाह्याः ३, अग्राह्याः ४, अनद्धः ५, अमध्याः ६, अमदेशाः ७, त्रयोविभाज्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समयः प्रदेशः परमाणुः ८ ॥ मृ० ४१ ॥
दो प्रकार के कहे गये हैं तेजरकायिक और वायुकाधिक जीवों को जो
कहा गया है वह स कैसा कहा गति वाले होने के कारण कहा गया है वैसे तो ये स्थावर ही जीव हैं लब्धित्रस हीन्द्रियादिक जीव हैं स्थावर जीव स्थिति शील होने से और स्थावर नामकर्म के उदयवाले होने से पृथिवीकायिक अपकायिक और वनस्पतिकायिक के तीन स्थावर जीव हैं | ०४० ॥
पृथिवी आदिक जीवपदार्थ कहे अब सूत्रकार अजीव पदार्थों का कथन करते हैं - (तओ अच्छेज्जा पण्णत्ता ) इत्यादि ।
सूत्रार्थ - ये तीन पदार्थ अच्छे कहे गये हैं जैसे- समय, प्रदेश और परमाणु इसी प्रकार से ये अभेद्य १, अदाह्य २, अग्राह्य ३ अनई ४
પડે છે. વાયુકાયિક અને તેજસ્કાયિક જીવેાતે ત્રસ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે ગતિવાળા છે આમ તે તેઓ સ્થાવર જીવા જ છે. દ્વીન્દ્રિયાદિ જીવા લબ્ધિત્રસ છે. સ્થાવર જીવે સ્થિતિશીલ હોય છે. પૃથ્વીકાયિક, અકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક જીવેા સ્થિતિશીલ હાવાથી તેમને સ્થાવર જીવા કહે છે. સૂ ૪૦ પૃથ્વીકાયિક સ્માદ્વિ જીવપદાર્થોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર અજીવ यहार्थेनुं निइय ४२ छे - " तओ अच्छेज्जा पण्णत्ता त्याहिसूत्रार्थ - आ त्रषु पार्थेने अद्य उद्यां छे - (१) समय, (२) अद्देश भने (3) પરમાણુ એ જ પ્રમાણે આ ત્રણે પદાર્થો અભેદ્ય ૧, અદાહ્ય ૨, અગ્રાહ્ય ૩, અનદ્ધ, ૪
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स्थानागसूत्रे टीका-'तओ अच्छेज्जा' इत्यादि । त्रयः अच्छेयाः-छेत्तुमशक्या बुद्धधा क्षुरिकादि शस्त्रेण वेति तथा, तानेवाह-समयः कालविशेषः प्रदेवः-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां निरवयंवोंऽशः, परमाणु:-परमः-आत्यन्तिस, अणु:-मुक्ष्मः द्वयणुकादिस्कन्धानां कारणभूतः प्रदेशरहितः पुद्गलः । उक्तश्च परमाणुलक्षणम् -
" सत्येण सुतिक्खेणवि, छेत्तुं भेत्तुं च ज किर न सका ।
तं परमाणुं नाणी वयंति आई पमाणाणं ॥ १ ॥" छाया-शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि, छेत्तुं भेत्तुं च यः किल न शक्यः ।
तं परमाणुं ज्ञानिनः वदन्ति आदि प्रमाणानाम् ।। १ ॥ ‘एवं ' इत्यादि, एवम् पूर्वोक्ताऽच्छेद्यसूत्रबद् अभेद्यादयोऽपि बोध्याः। अभिलापो यथा-" तभी अभेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-समए परसे परमाणु" एवं अमध्य ५ और अप्रदेशरूप ६ भी कहे गये हैं, तीन पदार्थ अविभाज्य कहे गये हैं जैसे-समय, प्रदेश, परमाणु.
टीकार्थ-जो छेत्तुम् अशक्य होता है वह अच्छेद्य है अथवा अपनी बुद्धि द्वारा जिसका क्षुरिका आदि से भी छेदन नहीं हो सकता है वह अच्छे है ऐसे अच्छेय ये समयादि तीन पदार्थ हैं-समय कालविशेष रूप होता है, प्रदेश धर्म अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गलों का निरवयव अंशरूप होता है तथा परमाणु आत्यन्तिक सूक्ष्मरूप होता है तथा यह दयणुकादिक स्कन्धों का कारणभृन होता है और प्रदेशों से रहित होता है, परमाणु का लक्षण ऐसा कहा गया है-" सत्थेण स्तुतिक्खेण वि" इत्यादि । जैसा यह अच्छेद्य सूत्र कहा गया है उसी तरह ले अभेद्य आदि विषयक मूत्र भी कहना चाहिये अभिलाप इसका ऐसा है-" तओ अलेजा पण्णत्ता इत्यादि અમધ્ય પ,અને અપ્રદેશ ૬ રૂપ પણ છે. આ ત્રણ પદાર્થોને અવિભાજ્ય કહ્યાં છે. સમય, પ્રદેશ અને પરમાણુ
ટીકાઈ-જે પદાર્થોનું છેદન કરી શકાતું નથી તે પદાર્થોને અદ્ય કહે છે અથવા પિતાની બુદ્ધિથી જેનું છરી આદિ વડે છેદન થઈ શકત નથી, તે અચ્છેદ્ય ગણાય છે. એવાં અચ્છેદ્ય પદાર્થો સમય, પ્રદેશ અને પરમાણુ છે. સમય કાળવિશેષરૂપ હોય છે. પ્રદેશ, ધર્મ, અધર્મ, આકાશ, જીવ અને પદ્રના નિરવયવ અંશરૂપ હોય છે, તથા પરમાણુ અતિ સૂક્ષ્મરૂપ હોય છે. તથા તે બે આદિ અણુવાળા સ્કન્ધાના કારણરૂપ હોય છે અને પ્રદેશોથી રહિત होय छे. ५२मार्नु सक्षम प्रभारी छु छ-" सत्येण सुतिक्खेण वि" या
અને છેલ્લે સૂત્રનું જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે એવું જ કથન અભેદ્ય, અદિ વિષયક સૂત્રમાં પણ સમજી લેવું તેમને વિષે આ પ્રકારનો અભિલાપ બનશે–
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सुषा टीका स्था०३ ९०२ सू०४१ जीवपदार्थनिरूपणम् 'अगिज्झा' इत्यादिपदेष्वप्यमिलापकः संयोजनीयः । अभेद्याः सूच्यादिना २, अदाह्या अग्निक्षारादिना ३, अग्राह्याः हस्तसंदंशकादिना ४, अनार्दाः-अर्द्धभागरहिताः विभागद्वयाभावात् ५, अमध्या--मध्यभागरहिता विभागत्रयाभावात् ६, अतएच-अपदेशाः-निरवयवाः ७, निरवयवत्वेनैवाविभाज्या:-विभक्तुमशक्याः, यद्वा-'अविभागिमाः' इति च्छाया, तत्र विभागेन नित्ता विभागिमाः तन्नि. षेधाद् अविभागिमाः, पूर्वोक्त सर्व विशेषणविशिष्टास्त्रयः प्रज्ञप्तास्ते यथा-समयः प्रदेशः परमाणुरिति ८ ॥ सू० ४१ ।। इत्यादि इसी तरह से अगिज्झा आदि पदों के अभिलाप
भी बना लेना चाहिये जो सूची आदि के द्वारा भेद युक्त नहीं किये जावे यह अभेद्य है, अग्नि क्षार आदि के द्वारा जो जलाया नहीं न जा सके वह अदाय है. हाथ या संदंशक संडासी आदिसे जो पकडा जा सके वह अग्राय है अर्धभाग से जो रहित होता है वह अनर्द्ध है। क्यों कि समयादिकों के दो विभाग नहीं हो सकते हैं इसलिये इन्हें अनर्द्ध कहा गया है । इनका मध्मभाग नहीं होता है इसलिये अमध्य हैं क्यों कि इन को दो भाग नहीं होता है इसी कारण इन समघादिकों को अप्रदेश-निरवयव कहा गया है निरवयव होने से ही ये अविभाज्य भाग नहीं कर सकते है अथवा अविभागिम कहे गये हैं विभाग से जो धनते हैं वे विभागिम हैं-ऐसे विभागिम ये नहीं हैं अतः अविभागिम हैं। ऐसे इन पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट ये समयादिक तीन कहे गये हैं ।। सू०४१ ॥ " तओ अभेज्जा पण्णत्ता-त्याहि.
એ જ પ્રમાણે અગ્રાહ્ય આદિ વિષયક અભિલાય પણ સમજી લેવા. સેય આદિથી જેને ભેદી શકાતું નથી તેને અભેદ્ય કહે છે. અગ્નિ, ક્ષાર આદિ દ્વારા જેને બાળી શકાતું નથી તેને અદાઢ્યા કહે છે હાથ, સાણસી આદિ વડે જેને પકડી શકાતું નથી તેને અગ્રાહ્ય કહે છે અર્ધભાગથી જે રહિત હોય છે તેને અનદ્ધ કહે છે સમયાદિકના બે ભાગ થઈ શકતા નથી, તેથી તેમને અનદ્ધ કહ્યા છે. તેમને મધ્ય ભાગ પણ હેત નથી માટે તેમને અમધ્ય કહ્યા છે. તેમના બે ભાગ થતા નથી, તે કારણે તેમને (સમયાદિકેને) અપ્ર. દેશરૂપ (નિરવયવો કહ્યા છે. જેને ભાગ ન પડી શકે તેને અવિભાજ્ય કહે છે તેઓ નિરવયવ હોવાથી જ અવિભાજ્ય અથવા અવિભાગિમ છે. વિભાગમાંથી જે બને છે તેને વિભાગિમ કહે છે સમયાદિક એવાં વિભાગિમ નહીં હેવાથી તેમને અવિભાગિમ કહેલ છે સમયાદિ પૂકત ત્રણ પદાર્થો પૂર્વોક્ત વિશેષથી સંપન્ન છે . સૂ. ૪૧
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स्थानास्त्रे ___पूर्वतरसूत्रोक्तास्त्रसस्थानराः पाणिनो दुःखभीरव इति प्राणिनां दुःखस्वरूपं भगवान् वर्णयति
मूलम् अज्जो-त्ति समणे भगवं महावीरे गोयमाई समणे णिग्गंथे-आमंतेत्ता एवं वयासी-किं भया पाणा? समणाउसो! गोयमाई समणा णिरगंथा सम्मणं भगवं महावीरं उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासीणो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एयमद्रं जाणासो वा पासामो वा, तं जइ णं देवाणुप्पिया एयमंटू णो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयलटुं जाणित्तए। अज्जो ति समणे भगवं महावीरे गोयमाई समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं क्याली-दुक्खभया पाणा समणाउसो १ । से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमाएणं २ । से गंभंते ! दुक्खे कहं वेइज्जइ ? अप्पमाएणं ३ ॥ सूण ४२ ॥
छाया-आर्याः इति श्रमणो भगवान् महावीरः गौतमादीन् श्रमणान् निग्रन्थान् आमन्त्र्य एवमवादी-किं भयाः प्राणाः ? । श्रमणा आयुष्मन्तः। गौतमा.
ये सूत्रोक्त त्रस और स्थावर जीव दुःखभीरु (दुःख से डरनेवाले) होते हैं अतः मंत्रकार अब प्राणियों के दुःख के स्वरूप का वर्णन करते हैं
(अज्जो-त्ति समणे भगवं महावीरे ) इत्यादि। सूत्रार्थ-हे आर्यो ! इस प्रकारसे गौतमादिक श्रमण निर्ग्रन्थोंको सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने उनसे ऐसा कहा-हे आयुष्मन्त श्रमणो! प्राणियों को भय कहां से होता है ? कहो-तय गौतमादिक
પહેલાના સૂત્રમાં જેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તે ત્રસજી અને સ્થાવર જી દુઃખભીરુ (દુખથી ડરનારા) હોય છે. તેથી સૂત્રકાર હવે वाना हुमना २१३५नुं वन 3रे छ “ अज्जो ! त्ति समणे भगवं महावीरे" त्यादि
સૂવાર્થ-“હે આર્યો ! ” આ પ્રમાણે સંબોધન કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ગતમાદિક શ્રમણ નિગ્રંથને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછ–“હે આયુષ્યન્ત श्रभो!! प्राणामाने (वाने ) ये लय उदय छे ?"
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सुधा टीका स्था०३ उ०२ सू० ४२ दुःखेस्वरूपनिरूपणम् दयः श्रमणा निर्ग्रन्थाः श्रमणं भगवन्तं महावीरमुपसंक्रामन्ति, उपसंक्रम्य वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषुः-नो खलु वयं देवानुपियाः । एतमर्थ जानीमो वा पश्यामो वा, तद् यदि खलु देवानुप्रिया एतमथ नो ग्लायन्ति परिकथयितुं तद् इच्छाम' खलु देवानुपियाणामन्ति के एतमर्थं ज्ञातुम् । आर्याः । इति श्रमणो भगवान् महावीरः गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्र्य एवमवादीत-दुःखभयाः प्राणाः श्रमणा आयुष्मन्।१। तद् खलु भदन्तादुःखं केन कृतम् ?जीवेन कृतं प्रमादेन २। तत् खलु भदन्त । दुःखं कथं वेद्यते ? अप्रमादेन ३। सू० ४२॥ श्रमण निर्ग्रन्थ श्रमण भगवान महावीर के पास आये-वहां आकर उन्हों ने वंदना की, और नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर फिर वे इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रिय! हम इस अर्थ को नहीं जानते हैं और न हम लोगों ने ऐसा देखा ही है अतः यदि आप देवानुप्रिय ! इस अर्थ को समझाने के लिये परिश्रमशील नहीं होते हैं तो हम लोग आप देवानुप्रिय के पास इस अर्थ को सुनना चाहते हैं तब हे आर्यों ! इस प्रकार से सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने उन गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों से ऐला कहा-हे आयुष्मन्त श्रमणो! समस्त प्राणी मरणादि रूप भयवाले हैं तब गौतमादिकने पुनः ऐसा पूछा-हे भदन्त ! वह दुःख किसके द्वारा किया गया है ? क्या जीव के द्वारा किया गया है ? या प्रमाद के द्वारा किया गया है ? उत्तर में प्रसु ने कहा-हे गौतम ! दुःख का कारण भूत वह कर्म अज्ञानादिवन्ध के हेतु
ત્યારે તમાદિક શ્રમણ નિ મહાવીર પ્રભુની પાસે આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે તેમને વંદણુ કરી અને નમસ્કાર કર્યા. વંદણા નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું-“હે દેવાનુપ્રિય! આ અર્થને (વાતને) અમે જાણતા નથી અને અમે એવું દેખ્યું પણ નથી. તે હે દેવાનુપ્રિય ! આપ કૃપા કરીને આ વિષય અમને સમજાવો.”
ત્યારે હું આ ! ” એવું સંબોધન કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું–“હે આયુષ્યન્ત શ્રમણે! સમસ્ત પ્રાણીઓને મરશુદિને ભય લાગે છે.” ત્યારે ગૌતમાદિ શ્રમણએ તેમને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછ–“હે પ્રભો ! તે દુઃખ કેના દ્વારા કરાયું છે? શું જીવના દ્વારા કરાયું છે કે પ્રમોદ દ્વારા કરાયું છે?
મહાવીર પ્રભુનો ઉત્તર—-“હે ગૌતમ ! દુઃખના કારણભૂત તે કમ અજ્ઞાનાદિ બન્ધના હેતુભૂત પ્રમાદથી યુક્ત થયેલા જીવ દ્વારા કરાયું હોય છે.
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स्थानासूत्र टीका-' अजोति' इत्यादि-सुगमम् । नवरम्-' अज्जोत्ति' आर्या * इति, हे आर्या' । आरात्-सर्वहेयधर्मभ्यो याताः-बहिर्भूता इत्याः , तत्सम्बुद्धौ हे आर्यांः । इति-एवमभिलापेनाऽऽमन्व्य श्रमणो भगवान् महावीरः गौतमादीन् श्रमणान् एवं-वक्ष्यमागप्रकारेणावादीत् । किमवादीत् । इत्याह-' किं भया' इत्यादि, कस्माद् भयं येषां ते किं भयाः कुतो विभ्यतीत्यर्थः, प्राणाः-प्राणिनः, 'समणाउसो' इति-हे श्रमणा! आयुष्मन्तः । इति गौतमादीनामामन्त्रणम् । मगवतोऽयं प्रश्नः शिष्याणां व्युत्पादनार्थ एव । अनेन च-अपृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्वयाख्येयम्' इति सूचयति, उक्तश्चभूत प्रमाद से युक्त हुए जीव के द्वारा किया गया है अर्थात् प्रमाद वशवर्ती हुए जीव के द्वारा वह कर्म किया गया है अर्थात् दुःख से प्राणी डरते हं हे अदन्त ! वह दुःख किस उपाय से नष्ट किया जाता है? तब प्रभु ने कहा-हे गौतम! वह दुःख बन्ध हेतु के प्रतिपक्षभूत ज्ञानादिक से नष्ट किया जाता है। टीकार्थ-समस्त हेयधर्मीले जो दूर हैं वे आये हैं अर्थात् सब त्याज्य धर्म को छोड़ने वाले वे आर्य है हे आर्यो! इस प्रकार के सम्बोधन से श्रमण भगवान महावीर ने गोतमादिकों को सम्बोधित किया है और इस प्रकार से सम्बोधित कर फिर उन्हें समझाने के अभिप्राय से उनसे ही ऐसा पूछा है कि हे श्रमणों ! कहो, प्राणियों को भय किससे है ? इस प्रकार के प्रभु के पूछने ले यहां ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि गुरु से એટલે કે પ્રમાદને અધીન થયેલા જીવ દ્વારા તે કર્મ કરાયુ છે. અને તે કર્મ, જનિત દુઃખથી જી ડરતાં હોય છે.
प्रश्न-3 मावन् ! हुमन नाया पायथी ४शय छे ?
મહાવીર પ્રભુનો ઉત્તર–હે ગૌતમ ! બન્ધહેતુના પ્રતિપક્ષભૂત જ્ઞાનાદિકથી તે દુઃખને નાશ કરી શકાય છે. ___टी-सभरत य (त्याल्य) यानी त्यास ४२नारने भाई छ. " આર્યો !” આ પ્રકારના સંબોધનથી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ગૌતમાદિ શ્રમણ નિગ્રથને સંબોધિત ક્યાં છે. તેમને ધર્મતત્વ સમજાવવાના આશયથી આ પ્રકારનું સંબોધન કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છે–
" श्रभो ! 31, प्राणीमान न मय हाय छ ? ” महावीर પ્રભુના આ પ્રકારના પ્રશ્નને એ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે શિષ્ય પૂછે કે ન પૂછે તે પણ ગુરુજનેએ તેમના હિતને વિચાર કરીને તેમને ધર્મતત્વ સમ
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सुधा कारी स्था०३ उ०२ सू०४२ दु खस्वरूपनिरूपणम् "कथइ पुच्छइ सीसो, कहिचडपुट्टा वयंति आयरिया ।
सीसाणं तु हियट्ठा, विउलतराग तु पुच्छाए ॥१॥” इति । छाया-कथयति पृच्छति शिष्यः कुत्रचिदपृष्टा वदन्त्याचार्या ।
शिष्याणां तु हितार्थे विपुलतरकं तु पृच्छायाम् ॥ ततश्च ते गौतमादयः श्रमणा निर्ग्रन्था भगवन्तं महावीरम् उपसंक्रामन्तिउपगच्छन्ति, भगवतः समीपमागच्छन्तीत्यर्थः । इह च तत्कालापेक्षया क्रियाया वर्तमाननिर्देशो न दुष्टः । उपसंक्रम्य च वन्दन्ते स्तुत्या, नमस्यन्ति प्रणामतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा च एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः-उक्तवन्तः-हे देवानुमियाः । वयं नो जानीमो विशेषतः नो पश्यामः-सामान्यतो नो जानीमः इति तत्तस्माद् यदि एतमर्थं " किं भयाः प्राणाः" इत्येवंरूपमर्थ परिकथयितु-प्रतिपादयितुं देवानुमियाः-भगवन्तः नो ग्लायन्ति-न श्राम्यन्ति तत्-तर्हि वयं देवानुप्रियाणां-भगवताम् अन्तिके-समीपे एतमथं ज्ञातुमिच्छामि० इति । ततो भगवान् गौतमादीन् श्रमणान् आमन्त्र्यवमवादीत-हे श्रमणाः। आयुष्मन्तः । दुःखाद-मरणादिरूपाद भयमेषामितिदुःखभयाः प्राणा:-पाणिनः सन्ति ? । पुनश्च गौतमादयः पृच्छन्ति-हे भदन्त । तद् दुःखं केन कृत ? मिति । भगवानाह-दुःखकारणभूत कर्मतो जीवेन तदुःखं कृतम् । कथं कृतमित्याह-प्रमादेनअज्ञानादिना वन्धहेतुना करणभूतेन प्रमावशवर्तिना जीवेन कृतमित्यर्थः । प्रमादश्चाष्टविधः, उक्तश्चशिष्य न भी पूछे तय भी शिष्यजन की हितकामना से गुरु को तत्व कहना चाहिये कहा भी है-" कत्थइ पुच्छह " इत्यादि । " उपसंक्रामन्ति" इस प्रकार से जो यहां वर्तमान कालिक क्रिया का निर्देश किया है वह तत्काल की अपेक्षा से किया है, कर्म का कर्ता जीव ही है परन्तु ऐसा कर्म जीव ही करता है जो प्रमाद के वशवर्ती होता है अतः इस कथन से सूत्रकार ने ऐसा समझाया है कि मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से रहित हुआ जीव कम नहीं करता है। q न. ४घु ५५ छ 3-" कत्थइ पुच्छइ" त्याहि.
" उपसंक्रामन्ति " म त मानलिलियाना महा २ नि ५ थय। છે તે તત્કાલની અપેક્ષાએ જ કર્યો છે. કર્મને કર્તા જીવ જ છે, પરંતુ પ્રમાઇને અધીન થયેલ જીવ જ એવું કર્મ કરે છે. આ કથન દ્વારા સૂત્રકારે એ વાત પ્રકટ કરી છે કે મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને રોગથી રહિત હોય એ જીવ કર્મ કરતું નથી. પ્રમાદના આઠ પ્રકારના છે કહ્યું પણ
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स्थानासूत्र
"पमाओ य मुणिं देहि, भणिओ अट्ठभेयओ।
अन्नाणं १ संसओ २ चेत्र, मिच्छाणाण ३ तहेव य ॥१॥ रागो ४ दोसो ५ मइब्भंसो ६, धम्मम्मि य अणायरो ७ ।
जोगाणं दुप्पणीहाणं ८, अट्टहा वज्जियव्यओ ॥ २ ॥” इति । छाया-प्रमादव मुनीन्द्रे भणितोऽटभेदकः।
अज्ञानं १ संशय २ श्चैव, मिथ्याज्ञानं ३ तथैव च ॥ १ ॥ रागो ४ द्वेपो ५ मतिभ्रंशः ६ धर्मचानादरः ७) योगानां दुष्प्रणिधानम् ८, अष्टधा वर्जितव्यः ॥ २ ॥ पुनौतमादयः पृच्छन्ति-हे भदन्त ! यद्येवं तर्हि तदुःखं कथं केनोपायेन वेद्य ते-क्षिप्यते ? । उत्तरमाह-अप्रमादेन बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतेन ज्ञानादिना तददःखं क्षिप्यते इति ३ । अत्र मूत्रे त्रिस्थानकावतारत्वं कथमित्याह-अस्य मुत्रस्य " दुक्खभयापाणा १ जीवेणं कडे दुक्खे पमाएणं २ अप्पमाएणं वेइज्जइ ३" इत्येवंरूपं प्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारत्वं विज्ञेयमिति ॥ सू० ४२ ॥
पूर्व ' जीवेन कृतं दुःखम् ' इत्युक्तम्, साम्प्रतं परमतं निरस्यैतदेव समर्थयन्नाह
मूलम् अण्ण उत्थियाणं भंते ! एवं आइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेति, एवं परूवेंति-कहपणं समणाणं निग्गंथाणं किरिया प्रमाद आठ प्रकार का है-कहा भी है-"पमाओ य" इत्यादि । अज्ञान १, संशय २, मिथ्याज्ञान ३, राग ४, देष ५, मतिभ्रंश ६, धर्मानादर ७,
और योगों का दुष्प्रणिधान ८, इस सूत्र में त्रिस्थानक की अवतारता इस प्रकार से है-“दुक्खभया पाणा १, जीवेणं कडे दुक्खे पमाएणं २, अप्पाएणं वेइज्जइ ३॥ ये यहां प्रश्नोत्तर तीन हैं इससे यहां त्रिस्थानकावतारता जानी जाती है । सू०४२ ॥
छ “ पमाओ य" त्या (1) मसान, (२) सशय, (3) भिथ्याज्ञान, (४) २२१, (५) द्वेष, (६) भतिश, (७) यांनाह२, सने (८) योगानु हुप्रति धान. ४यु ५ छे ४-" पमाओय " त्याल.
ત્રિસ્થાનકના પ્રકરણમાં આ સૂત્રને સમાવેશ કરવાનું કારણ એ છે કે महा नायना १५ प्रश्नोत्तरानु नि३५ ४२रायुं छ-" दुक्खभयापाणार, जीवेणं फडे दुक्खे पमाएणं२, अप्पमाएणं वेइज्जइ३ ॥ २॥ निस्थानाना मधि. કારમાં આ સૂત્રને સમાવેશ કરવામાં કઈ બાધ નથી. છે સૂર કરે છે
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सुषा टीका स्था०३ उ०२ २०४३ स्वमतनिरूपणम् कज्जइ ? तत्थ जा सा कडा कज्जइ नो तं पुच्छति, तत्थ जा सा कडा नो कज्जइ, नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा नो कज्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कन्जइ तं पुच्छति, से एवं वत्तव्वं सिया? अकिञ्चं दुक्खं, अप्फुस्सं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं अक? अकपाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेति-त्ति वत्तव्वं । जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं
पुणएवसाइक्खामि, एवं भासामि, एवं पन्नवेमि, एवं परूवेमि __ --किच्चं दुक्खं, फुस्संदुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं,कटु कह पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदत-त्ति वत्तव्वं सिया ॥ सू० ४३॥
॥ तइयट्ठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ ३-२ ॥ छाया-अन्ययूथिकाः खलु भदन्त । एवमाख्यान्ति, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति-कथं खलु श्रमणानां निर्ग्रन्थानां क्रिया क्रियते ? तत्र या सा कृता क्रियते नो तां पृच्छन्ति १, तत्र या सा कृता नो क्रियते, नो तां पृच्छन्ति २, तत्र या सा अकृता नो क्रियते नो तां पृच्छन्ति ३, तत्र या सा अकृता क्रियते तां पृच्छन्ति ४, तदेवं वक्तव्यं स्यात् ? । अकृत्यं दुःखं, अस्पृश्यं दुःखम् , अक्रियमाणकृतं दुःखम् अकृत्वा अकृत्वा प्राणा भूता जीवाः सत्त्वा वेदनां वेदयन्ति, इति वक्तव्गम् । ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनरेवमाख्यामि, एवं भाषे, एव प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि- कृत्यं दुःखं, स्पृश्यं दुःखं, क्रियमाणकृतं दुःखं, कृत्वा पाणा भूता जीवाः सत्त्वा वेदनां वेदयन्तीति वक्तव्यं स्यात् ॥ सू० ४३ ॥
॥ तृतीयस्थानस्य द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥ ३-२ ॥ प्रमादवशवर्ती हुए जीव के द्वारा दुःख किया जाता है ऐसा कहा अथ सूत्रकार परमत का निराकरण करके इसी विषय का समर्थन करने के निमित्त ऐसा कहते हैं-" अन्न उत्थियाणं भंते !" इत्यादि ।
પ્રમાદને વશ થયેલા જીવ દ્વારા દુઃખ કરાય છે, આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર પરમતનું ખંડન કરવાને માટે અને જૈન સિદ્ધાંતનું સમર્થન ४२वा निमित्ते मा सूत्रनुं ४थन ४२ छे-“ अन्न उत्थियाणं भवे !" त्या:
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स्थानङ्गसूत्रे टीका-'अण्ण उत्थियाणं ' इ यादि । जैनयूथाद् अन्यो यूथः संघः अन्ययूथः सः अस्ति येषां ते-अन्ययूथिकाः-चरकपरिबाज कशाक्यादयः परतीथिकाः खल, इह च अन्ययूथिकशब्देन विभङ्गज्ञानवन्तस्तापसागृह्यन्ते, एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेण आख्यान्ति सामान्यतः, भापन्ते विशेषतः, एवं क्रमेणेतदेव प्रज्ञापयन्तिबोधयन्ति, प्ररूपयन्ति-भेदानुभेदेन कथयन्ति । किं तदित्याह-श्रमणानां नि न्यानां जैनमतानुयायिनामित्यर्थः, मते इति शेषः, कथं-केन प्रकारेण कियाक्रियत इति क्रिया कर्म सा क्रियते-कृतं कर्म, कथं दुःखाय भवतीति विवक्षया. प्रश्नः । अस्मिन् प्रश्ने चत्वारो भगा वर्तन्ते, तथाहि-कृता क्रियते '१, कृता नो क्रियते २, अकृता नो क्रियते ३, अकृता क्रियते ४ इति । तत्र प्रथम द्वितीय टीकार्थ-हे भदन्त ! अन्ययूथिक जन ऐसा कहते हैं, ऐसा भापण करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि श्रमण निर्ग्रन्थों के यहां क्रिया कैसी की जाती है जैनधर्म से अन्यधर्म-संघ का नाम अन्ययूध है यह अन्ययूथ जिनका है वे अन्ययूधिक है ऐसे अन्यधिक चरक, परिव्राजक, शाक्य आदि परतीथिकजन हैं यहां अन्यूथिक शब्द से विभङ्गज्ञानवाले तापसजन गृहीत हुए हैं वे सामान्यरूप और विशेषरूप से इसी प्रकार से कहते है इसी प्रकार से समझाते हैं और भेदानुभेद पूर्वक इसी प्रकार से पुष्ट करते हैं कि जो जैनमतानुयायी श्रमण निग्रन्थ हैं उनके यहां कृतकर्म जीव को दुःख के लिये कैसे होता है ? यहां क्रिया शब्द से कर्म लिया गया है अर्थात् कृतकर्म जीव के लिये दुःख कैसे देता है ? इस प्रश्न में चार भङ्ग हैं-वे इस प्रकार से हैટિકાર્થ–હે ભગવન ! અન્યમૂથિકે (અન્ય મતવાદીએ) એવું કહે છે, એવું ભાષણ કરે છે, એવી પ્રજ્ઞાપના કરે છે અને એવી પ્રરૂપણ કરે છે કે શ્રમણ નિર્ચ
ને ત્યાં ક્રિયા કેવી કરાય છે? જૈન સિવાયના અન્ય ધર્મ સ ઘોને અન્યયુથ કહે છે. આ અન્યયૂથને માનનારા લેકેને અન્યયુથિક કહે છે એવાં અન્યયુથિકમાં ચરક, પરિવ્રાજક, શાકય આદિ પરતિર્થિકોને સમાવેશ થાય છે. અહીં અન્યયુથિક શબ્દ દ્વારા વિભંગ જ્ઞાનવાળા તાપસજન ગૃહીત થયા છે. તેને સામાન્ય રૂપે અને વિશિષ્ટ રૂપે એવું કહે છે, એવું સમજાવે છે, અને મેદાનભેદપૂર્વક એવું સમર્થન કરે છે કે જે જૈનનમતાનુયાયી શ્રમણ નિર્ચ થે છે તેમની એવી જે માન્યતા છે કે “કૃતક જીવને માટે દુઃખના કારણરૂપ બને છે. તે માન્યતાને સ્વીકાર કેવી રીતે કરી શકાય ? અહીં “કિયા ” શબ્દ દ્વારા “કર્મ” ગ્રહીત થયુ છે એટલે કે કૃતકર્મ જીવને દુઃખ કેવી રીતે
छ १ मा प्रनिता यार Hit छ-" (१) कृता क्रियते, (२) कृता नो क्रियते,
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सुपारीका स्था० ३ ० २ सू० ४३ स्वमतनिरूपणम् तृतीयं च न पृच्छन्ति एतत्त्रयस्याऽत्यन्तरुचेरविषयकया तेषां तद्विपयकप्रश्नेऽ. प्यमवृत्तेः । तत्र या सा कृताा क्रियते यत्तत्कर्म कृतं भवति दु.खायेति नो तत्ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन जैनदर्शनसंमतत्वेन च तेपामसंमतत्वादिति ११ 'तत्र या सा कृता नो क्रियते ' इति, तत्र-तेषु भङ्गकेषु मध्ये यत्तत्कर्म, कृतं न भवति नो तत्पृच्छन्ति, 'कृतं न भवति' इत्यनयोरस्यन्तविरोधेनाऽसम्भवात्, विरोधो यथा-कृतं चेत् कर्म कथं ' न भवति' इत्यु. " कृता क्रियते १, कृता नो क्रियते २, अकृता नो क्रियते ३, अकृता क्रियते ४" इनमें प्रथम, द्वितीय, और तृतीय भंग को उन्हों ने नहीं पूछा है क्योंकि ये तीन रूचि के अत्यन्त-बिलकुल अविषय हैं अतः तद्विषयक प्रश्न में भी उनकी प्रवृत्ति नहीं हुई है "कता क्रियते"जो कम कृत होता है वह दुःख के लिये होता है ऐसा जो वे नहीं पूछ रहे हैं उसका कारण ऐसा है कि जो पूर्वकाल में कृत होता है वह अप्रस्यक्ष होता है अतः उसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है यद्यपि जैनदर्शन उनकी इस बात को नहीं मानता है पर वे तो ऐसा मानते हैं इसीलिये उन्हों ने ऐसा नहीं पूछा है “या सा कृता नो क्रियते "ऐसा भी उन्हों ने जो नहीं पूछा है-उसका कारण ऐसा है कि जो "कृतं " होता है वह " न भवति" ऐसा नहीं होता है क्यों कि " कृतं" में और "न भवति" में परस्पर में अत्यन्त विरोध आता है अतः यह वात असंभव है विरोध इस तरह से है यदि वह कर्म कृत है तो " न भवति" (3) अकृता नो क्रियते, (४) अकृता क्रियते " मा यार मांगामाथी पडता, બીજે, અને ત્રીજો ભાંગે તેમણે પૂછયે નથી, કારણ કે ત્રણ રુચિના બિલકુલ भविषयभूत छे; तेथी त विना प्रश्नोमा तमनी प्रवृत्ति थ नथी. “ कृता क्रियते” “२ मत खसय छे ते मना निमित्त ३५ मने छ " ! પ્રકારને પ્રશ્ન તેઓ પૂછતા નથી કારણ કે જે પૂર્વકાળમાં કૃત હોય છે તે અપ્રત્યક્ષ હોય છે, તેથી તેની સત્તા સિદ્ધ થતી નથી. જો કે જૈનદર્શન તેમની આ વાતને માનતું નથી, પરંતુ તેઓ તે એવું માને છે, તેથી તેમણે એ પ્રશ્ન કર્યો નથી.
“या सा कृता नो क्रियते " मा प्रारी प्रश्न पY भरे पछया नथी २९ " कृतं" य छे ते “न भवति" मे तु नथी २ "कृत" मन “भवति" मा भन्न १२ये ५२२५२मा अत्यन्त विरोध छ, તેથી આ વાત અસંભવિત છે. વિશેષ આ પ્રમાણે છે-જે તે કર્મકૃત હોય
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स्थानासो च्यते ? न भवति चेत् कथं तत् ' कृत '-मिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात् २ तत्र तेषु मध्ये ' या सा अकृता नो क्रियते । यत्तत् कृतं कर्म न भवति नो तत् पृच्छन्ति, अकृतस्यासतश्च कर्मणः खरविपाणकल्पत्यादिति । अमुमेव च भगकत्रयनिषेधमाश्रित्यास्य मुत्रस्य प्रिस्थानकावतास्त्वमिति संभाव्यते । चतुर्थभन्न कम्तु तेषां संमत इति तं पृच्छन्तीत्याह-'तत्थे'-त्यादि 'तत्र या सा अकृता क्रियते ' यकृतं-पूर्वमविहितं कर्म तत् क्रियते भवति-दु:खाय संपद्यत इत्यर्थः, तत् पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन दुःखानुभूतेश्च प्रत्यक्षतया ऐसा कैसा कहा जा सकता है, तथा " न भवति " यदि वह नहीं है तो "कृतं" ऐसा वह कैसे हो सकता है क्यों किकृत पार्म में अभवन् का अभाव है अर्थात् जो कृत होता है वह सत्त्वयुक्त होता है असत्य युक्त नहीं होता है तथा "अकृता नो क्रियते " ऐसा जो नहीं पूछा है उसका कारण ऐसा है कि जो अकृत होता है वह 'खरविषाण' (शाला का शृग) की तरह अस्मत् होता है इस प्रकार से इन भनत्रय के निषेध को लेकर इस सूत्र में विस्थानकता का अवतार है ऐसा संभवित होता है चतुर्थभंग उन्हें संमत है इसी लिये उरो उन्हों ने पूछा है -यही यात सूत्रकार ने-" तत्व जा सा अकडा" इत्यादि सप्रपाठ द्वारा प्रकट की है इसमें यह कहा गया है कि जो वार्म पूर्व में अविहित होता है, वह दुःख के लिये होता है तात्पर्य इसका ऐसा है कि पूर्वकाल कृत कर्म अप्रत्यक्ष होता है अतः वह असत्त्वरूप होता है, परन्तु दुःखातुतो " न भवति" मे वी शते ही राय छ १ तथा "न भवति" नत નથી તો “કૃત” કેવી રીતે હેઈ શકે છે? કારણ કે કૃતકર્મમાં અભવનને અભાવ હોય છે. એટલે કે જે કૃત હોય છે તે સત્વયુક્ત હોય છે-અસત્વયુક્ત खात नथी. तथा “ अकृता नो क्रियते " मेरे ५७युं नथी तेनुं सर से નથી કે “જે અકૃત” હોય છે તે સસલા અથવા ગધેડાને શિંગડાં જેવું અસત્ (અવિદ્યમાન, અસંભવિત) હેાય છે. આ પ્રકારે આ ત્રણ ભંગના નિષેધને કારણે આ સૂત્રમાં ત્રિસ્થાનકતા સંભવી શકે છે. ચાચા ભંગ સાથે તેઓ સંમત થાય છે, તેથી જ તેમણે ચોથા ભંગ વિષયક પ્રશ્ન પૂછ્યો છે. सन पात सूत्रारे “ तत्थ जा सा अकष्ठा" त्या सूत्रपा द्वारा प्र४८ ४री છે. તેમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે જે કર્મ પૂર્વે અવિહિત હોય છે, તે રાખને માટે હેય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે–પૂર્વ કાળકૃત કર્મ અપ્રત્યક્ષ હોય છે, તેથી તે અસત્વરૂપ હોય છે, પરંતુ દુખાનુભૂતિ પ્રત્યક્ષ
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सुंधा टीका स्था० ३ ३०१ सू० ४३ म्वमतनिरूपणम् सत्त्वेनाकृतकर्मभवनपक्षस्य सम्मतत्वादिति । प्रश्नकतृणामभिमायमाह-यदिश्रमणा निर्ग्रन्था अपि-अकृतमेव कर्म देहिनां दुःखाय भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः शोभनं स्यात् , अस्मत्समानवोधत्वादत आद्यान् चीन भङ्गकान अपृच्छन्तश्चतुर्थमेव भङ्गक पृच्छन्तीति । ' से ' इत्यादि, से-अथ पुनस्तेपामकृतकर्माभ्युपगमवताम् एवंवक्ष्यमाणप्रकारेण वक्तव्यम्-समुल्लापःस्यात् । यद्वा-ते एवं वक्ष्यमाणं कथयन्ति परान् प्रति, यन्त-अथैवं वक्तव्यं-प्ररूपणीयं तत्त्वादिनां स्याव-भवेत् । किं तदित्याह-' अकिच्चे ' इत्यादि, अकृते सति कर्मणि दुःखाभावाद् अकृत्यम्-अक रणीयम् , अवन्धनीयम्-अप्राप्तव्यसनागते काले जीवानामिति भावः, किम्? दुःखभूति प्रत्यक्ष होती है अतः उसके सत्व से अकृतकर्मभवनपक्ष संमत हुआ है प्रश्नकर्ता ने यहां ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट किया है-यदि श्रमण निर्ग्रन्थ भी " अकृत ही वार्म देहधारियों को दुःख के लिये होता है " ऐसा स्वीकार कर लेते हैं तो यह बड़ी अच्छी बात है क्यों कि हमारी और उनकी मान्यता में समानता आ जाती है इसी कारण आद्य तीन भङ्गको नहीं पछते हुए उन्हों ने इस चौथे भङ्ग को पूछा है इसी लिये अकृत कर्म को स्वीकार करने वाले उसका ऐसा साल्लाप है इसी प्रकार से वे दूसरों के प्रति प्रतिपादन करते हैं, कि "अकृत्यं दुःखं, अस्पृश्यं दुःखस्, अक्रियमाणकृतं दुःखम, अकृत्वा २ प्राणा २ भूता जीवाः लत्या वेदनां वेदयन्ति" कर्म अकृत्य है-कर्म के कृत नहीं होने पर दुःख के लद्भाव से वह अकृत्य-अकरणीय है-अथन्धनीय है अनागत ( भविष्यत् ) काल में जीवों के द्वारा वह अप्राप्तव्य હોય છે તેથી તેના સત્વથી અકૃત કર્મભવન પક્ષ સંમત થયા છે. પ્રશ્નકર્તા એ અહીં પોતાને એ અભિપ્રાય પ્રકટ કર્યો છે કે-“જે શ્રમણ નિગ્રંથ પણ એ વાતનો સ્વીકાર કરતા હોય કે અકૃત કર્મ જ દેહધારીઓના દુખનું કારણ બને છે, તે અમારી અને તેમની માન્યતા વચ્ચે સમાનતા આવી જાય છે.” તે કારણે શરૂઆતના ત્રણ ભાંગાએ (વિકલ) તેમણે પૂછયા નથી પણ ચોથે વિકલ્પ જ પૂછો છે તેથી જ અકૃત કર્મને સ્વીકાર કરનારા એવા તેમને આ પ્રકારને સમુદલાપ (મત-માન્યતા) છે. એ જ પ્રકારનું તેઓ भन्यनी सभीचे प्रतिपाइन ४२ छे. तेश। ४ छ -“ अकृत्य दुःखं, अस्पृश्य दुःखम्, अक्रियमाणकृत दुःखं, अकृत्वा२, प्राणा भूता जीवा सत्वा वेदनां वेदयन्ति " કર્મ અકૃત્ય છે-કમ કૃત નહીં હોવાથી દુખના સદૂભાવથી તે અકૃત્ય-અકરણીય છે छ-मननीय छ-मनात (विष्य) is द्वारा मान्य छे.
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dার্বাই कर्म दुःखहेतुकत्वात् । तथा-अस्पृश्यम्-अश्लिष्टं जीवेन सह दुःखं कर्म अकृतत्वा देव । तथा अक्रियमाणकृतं-क्रियमाणं च वर्तमानकाले वध्यमानं, कृतं चातीतकाले बद्धं क्रियमाणकृतं, द्वन्द्वैकत्वं, कर्मधारयो वा, न क्रियमाणकृतम्-अक्रियमाणकृतं-वध्यमानं वद्धं चेत्यर्थः, दुःख-कर्म । अनेन किम् ? इत्याह-'अहुर' इत्यादि, अकृत्वा अकृत्वा कर्म प्राणाः-द्वीन्द्रियादयः, भूता.-वनस्पतयः, जीवाःपञ्चेन्द्रियाः, सत्त्वाः-पृथिव्यादयः वेदनां-पीहां वेदयन्तीति तेषां वक्तव्यम्उल्लापः । एतद् वा ते विभङ्गज्ञानवन्तः अज्ञानोपहतबुद्धयः परान् प्रति मापन्ते-यदुतएवं वक्तव्यं स्यादिति । एवमन्यतीर्थिकसतमुपदच ते निराकुर्वनाह–'जे ते' इत्यादि, य एते-अन्यतीथिका यद् एवं-पूर्वोक्तमकारम् ‘आइंसु' त्ति अवो. चन्-कथितवन्तः तत्ते-अन्यतीथिकाः मिथ्या-असम्यक् एवमुक्तवन्तः, अकृतायाः है अकृत होने से ही वह अस्पृश्य जीव के साथ अश्लिष्ट है अक्रियमाणकृत-वर्तमानकाल में बाधमान को नाम क्रियमाण है, और अतीतकाल में जो बद्ध है वह कृत है, जो ऐसा नहीं है वह अक्रियमा. णकृत है । अर्थात् कर्म न बध्यमान है और न बद्ध है अतः कर्म को नहीं करके द्वीन्द्रियादिक रूप प्राण, वनस्पतिरूप भूत, पंचेन्द्रियरूप जीव
और पृथिव्यादिक रूप सत्त्व ये सब पीडा को भोगते रहते हैं ऐसा उनका उल्लाप-मत है अर्थात् अज्ञानोपहत वुद्धि वाले वे विभङ्गज्ञानी दूसरों के प्रति ऐसा कहते हैं इस प्रकार से यहांतक अन्यतीथिकों का मत प्रदर्शित करके अब सूत्रकार उसका निराकरण करने के अभिप्राय से ऐसा कहते हैं-"जे तं" इत्यादि-जो इन अन्यतीर्थिकों ने इस प्रकार से कहा है-वह उनका कथन सर्वथा मिथ्या है क्यों कि जो अकृत અકૃત હેવાથી જ તે જીવની સાથે અસ્પષ્ટ (અલિષ્ટ) છે. અક્રિયમાણકૃત છે–વર્તમાનકાળમાં મધ્યમાનનું નામ ક્રિયમાણ છે, અને ભૂતકાળમાં જે બદ્ધ છે તેનું નામ કૃત છે, જે એવું નથી તે અક્રિયમાણુકત છે. એટલે કે કર્મ બધ્યમાન પણ નથી અને બદ્ધ પણ નથી. તેથી તે કર્મ નહીં કરીને (નહીં કરવાને કારણે) તીન્દ્રિય આદિ રૂપ પ્રાણ, વનસ્પતિરૂપ ભૂત, પંચેન્દ્રિયરૂપ જીવ અને પૃથ્વીકાય આદિ રૂપ સત્વ પીડા ભેગવ્યા કરે છે, એ તેમનો ઉલાપ (મત) છે એટલે કે અજ્ઞાને પહત બુદ્ધિવાળા તે વિર્ભાગજ્ઞાની લોકોની પાસે ઉપર્યુક્ત મતનું પ્રતિપાદન કરે છે. અહીં સુધીમાં અન્ય તીથિકેનો મત પ્રકટ કરવામાં આવ્યે છે હવે તેમના તે મતનું ખંડન કરવામાં આવે છે"जे त" त्या
તે અન્યતીર્થિક આ પ્રમાણે જે કહે છે, તે તેમનું કથન બિલકુલ અસત્ય છે, કારણ કે જે અકૃત હોય છે તેને ક્રિયા જ કહી શકાતી નથી.
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संधी टीका स्था० ३ ० १ ०सू ४३ स्वमतनिरूपणम् क्रियायाः क्रियात्वानुपपत्तेः, ' क्रियते' इतिहि क्रियेति कथ्यते, यस्यास्तु कथ
नापि करणं नास्ति सा क्रियेति कथमुच्यते ?, यद्यकृतकर्माभवनं मन्यते तदा बद्ध-मुक्त-मुखित-दुःखितादि नियतव्यवहारोऽपि न प्रसज्येतेति । अथ भगवान् स्वमतमाविष्कुर्वन्नाह-'अहं पुण' इत्यादि, अहमेव नान्यतीथिकाः पुनः शब्दः पूर्ववाक्यादुत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणतासूचकः, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यामि, एवं भाषे, एवं प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि, व्याख्या पूर्ववत् । किं तदित्याहहोती है वह क्रिया ही नहीं कहलाती है-अर्थात् अकृतक्रिया में क्रियापन ही नहीं आ सकता है। जो कि जाती है वह क्रिया कहलाती है जिसका किसी भी तरह से करना नहीं होता है वह यह "क्रिया है " सा कैसे कहा जा सकता है यदि “अकृतं कर्म का अनुभव होता है" ऐसा माना जावे तो यह बद्ध है, यह मुक्त है, यह सुखित (सुखी) है, यह दुःखित (दुखी ) है ऐसा जो नियत व्यवहार होता है वह भी नहीं हो सकेगा इसी बात को भगवान् अपने मत के अनुसार प्रकट करते हुए कहते हैं-" अहं पुण इत्यादि-यहां जो " पुनः" यह शब्द आया है वह पूर्वकथन की अपेक्षा उत्तर कथन में विलक्षणता की सूचना के निमित्त आया है-अतः प्रभु कहते हैं कि हे गौतम ! मैं तो ऐसा कहता हूं, ऐसा भाषण करता हूं, ऐसी प्रज्ञापना करता हूं, ऐसी प्ररूपणा करता हूं कि अनागत काल में दुःख का हेतु होने से कर्म जीव એટલે કે અકૃત ક્રિયામાં ક્રિયાપણું ( કિયત્વ) જ સંભવી શકતું નથી. જે કરાય છે તેનું નામ જ ક્રિયા છે. જે કઈ પણ રીતે કરવામાં જ ન આવે તેને ક્રિયા કેવી રીતે કહી શકાય ? “ અકૃતકર્મનું અનુભવન થાય છે,” આ વાતને ने भानवामा भाव, तो मा मद्ध छ, म भुत छ, मा सुमित (सुभी) છે, આ દુખિત છે, એ જે નિયત વ્યવહાર થાય છે તે પણ થઈ શકે નહીં. એજ વાતને પિતાના મત અનુસાર પ્રકટ કરતાં મહાવીર પ્રભુ કહે છે है-" अहं पुण" याह
અહીં “પુર” શબ્દને પ્રગ કરવાનું કારણ એ છે કે અન્યયુથિકેની માન્યતા કરતા જૈન ધર્મની માન્યતામાં રહેલે તફાવત મહાવીર પ્રભુના નીચેના કથન દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે–
મહાવીર પ્રભુ ગીતમાદિ નિને કહે છે કે હું તે એવું કહું છું, मे लापा (विशेष ४थन-प्रतिपान ) ४३ छु, मेवी प्रज्ञापन। ४३ छु' અને એવી પ્રરૂપણ કરું છું કે અનાગત (ભવિષ્ય ) કાળમાં દુખના હેતુ
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स्थानाङ्गवः 'किच्चं' इत्यादि, कृत्यं-करणीयमनागतकाले दुःख-दुःखहेतुकत्यात् कर्म, स्पृश्यस्पृष्टलक्षणवन्धावस्थायोग्यं दुःख-कर्म, क्रियमाणकृत-क्रियमाणं वर्तमानकाले, कृतमतीतकाले-वध्यमानं वद्धं च दुःख-कर्म, कथञ्चनापि कर्मणोऽकरणं नास्तीति भावः, अनेन किम् ?-इत्याह-'कट्ठ' इत्यादि, कृत्वा कृत्वेति कर्म वधैव प्राणादयो वेदनां-कर्मकृत शुभाशुभानुभूतिं वेदयन्ति-अनुभवन्तीति वक्तव्यं स्यात् सम्यग्वादिनामिति ॥ सू० ४३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजमद – 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-चालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री-घासीलाट
तिविरचितायां ' स्थानान' त्रस्य सुधाख्यायां - व्याख्यायां तृतीयस्थानस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥३-२॥ के द्वारा करणीय कहा गया है अर्थात् जीव आगामी काल में दुःख भोगते हैं अतः वह कर्म जीव के द्वारा करणीय हुआ है-ऐसा मानना चाहिये यदि वह करणीय नहीं होता तो जीव उसे नहीं करता और न वह उसके लिये भविष्यत् काल में अपने उदय से दुःख का ही हेतु होता, अतः जब वह भविष्यत् काल में उसे दःख का हेतु होता है तो यह मानना ही चाहिये कि दुःख का हेतुभूत वह कर्म जोव के द्वारा करणीय है करणीय होने पर भी यदि वह स्पृश्य नहीं है बन्धावस्था के योग्य नहीं है तो वह उसे दुःख का हेतु भी नहीं होता है और जय वह उसे दुःख का हेतु है तो इससे यह भी मानना चाहिये कि करणीय हुआ भी वह बन्धअवस्थाकेयोग्य है, यह बन्धावस्था की योग्यता भी उसमें जीव के परिणामानुसार कृतक हुई है इसी तरह वर्तमान (કારણ) રૂ૫ હેવાથી જીવના દ્વારા કર્મને કરણીય કહ્યું છે. એટલે કે જીવ આગામી કાળમાં દુઃખ ભોગવે છે, તેથી તે કર્મ જીવના દ્વારા કરાશય થયું છે, એવું માનવું જોઈએ જે તે કરણય ન હોત તે જીવ તેને કરત નહીં અને ભવિષ્યકાળમાં તેના ઉદય કાળે તે જીવના દુઃખનું કારણ પણ બનત નહીં. જે તે ભવિષ્યકાળમાં તેને દુઃખનું કારણ બને છે, તે એ માનવું જ જોઈએ કે દુખના હેતુભૂત તે કર્મ જીવના દ્વારા કરણીય છે કરણીય હોવા છતાં પણ જે તે સ્પૃશ્ય નથી-બન્ધાવસ્થાને ગ્ય નથી–તે તે તેના દુઃખવું કારણ પણ બનતું નથી. પરંતુ જે તે તેના દુખના કારણરૂપ બનતું હોય તે એ વાત પણ માનવા જ જોઈએ કે કરણીય હોવા છતાં પણ તે બન્ધાવસ્થાગ્ય છે. ખા બન્ધાવસ્થાની યોગ્યતા પણ તેમાં જીવના પરિણામાનુસાર કૂતક થઈ છે.
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सुपारीका स्था० ३ ७०२ सू०४३ स्वमतनिरूपणम् काल में भी जब वह कर्म बध्यमान है और अतीत काल में वह बद्ध हुआ है, तो फिर धर्म अकरणरूप है यह बात कैसे मानी जा सकती है अतः यह कथन ऐसा है कि जैसे कोई यह है कि " माता मे बन्ध्या पुरुषसंयोगे प्यगर्भवत्वात् " मेरी माता वंध्य है क्योंकी पुरष संयोग होने पर भी अगर्भवाती होने से । इसलिये कर्म में किसी तरह से किसी भी काल में अकरणता नहीं आती है इसी लिये प्राण से लेकर सत्त्वान्त तक के सब जीव उस कम को बांध बांध करके वेदना को उस कर्म कृत शुभ अशुभ अनुभूति का वेदन करते रहते हैं ऐसा यह कथन जो सम्यग्वादी है उनका है । सू०४३ ॥ श्री जैनाचाय-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचित स्थानाङ्गमत्रकी सुधाख्य टीकाके तीसरे स्थानकका दूसरा
उद्देशक समाप्त ॥ ३-२॥ એજ પ્રમાણે વર્તમાનકાળમાં પણ જે તે કમ મધ્યમાન છે અને અતીત (ભૂત) કાળમાં તે બદ્ધ થયેલું છે, તે એ વાત કેવી રીતે માની શકાય કે म म४२९३५ छ ? मा ४थन । “ माता मे वन्ध्या पुरुपसंयोगे प्यगर्भवत्वात् " મારી મા વધ્યા છે કારણ કે તે પુરુષ રોગ થવા છતાં પણ અગર્ભવતી હેવાથી આ કથનના જેવું અસંભવિત છે.
તેથી કર્મમાં કોઈ પણ રીતે કઈ પણ કાળે અકરણતા સંભવતી નથી. તેથી સમસ્ત પ્રાણ, ભૂત, જીવ અને સત્વ તે કર્મને બાંધતા રહે છે અને તે કર્મકૃત વેદનાનું–તે કર્મકૃત શુભ અશુભ અનુભૂતિન-વેદન કરતાં રહે છે, એવું આ જે કથન છે તે સમ્યગ્વાદીઓનું કથન છે. | સૂ ૪૩ છે શ્રી જૈનાચાર્ય–જૈનધર્મદિવાકર-પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલ મુનિવિરચિત સ્થાનાંગસૂત્રની સુધા નામની ટીકાઈના ત્રીજા સ્થાનકને બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૩-૨
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अथ तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते-- उक्तो द्वितीय उद्देशकः, साम्प्रतं तृतीयः प्रारभ्यते, अस्य च पूर्वोदेशकेन सहायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके विचित्रा जीवधर्माः प्रतिपादिताः, इडापि त एव प्ररूप्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येदमादिमं मूत्रत्रयम् , -- 'तीहिं ठाणेहि ' इत्यादि। ___अस्यादिमुत्रस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-पूर्व द्वितीयोदेशकान्तिममूत्रे मिथ्यादर्शनवतामन्ययूथिकानामसमञ्जसता प्रोक्ता, इह तु कपायवतां माया प्ररूप्यते, इत्येव सम्बन्धेन संवद्धमिदमादिमूत्रत्रयमाह
मूलम्-तीहिं ठाणेहि मायी मायं कटु णो आलोएज्जा, ___णो पडिकमेज्जा, णो णिदिज्जा, णो गरहिज्जा, णो विउद्देज्जा,
तीसरे स्थानका तीसरा उद्देशा दूसरा उद्देशक कहा अब तीसरा उद्देशक प्रारंभ होता है इसका पूर्व उद्देशक के साथ ऐसा सम्बन्ध है कि द्वितीय उद्देशक में विचित्र जीव धर्मो का प्रतिपादन हुआ है यहां पर भी उन्हीं का प्रतिपादन होता है, इस उद्देशे के आदिम सूत्र का पूर्व उद्देशक के अन्तिम सूत्र के साथ ऐसा सम्बन्ध है कि उसमें मिथ्यादर्शनवाले अन्ययूथिकों ( अन्यधर्मियों) की असमञ्जसता (उलट प्ररूपणा) प्रकट की गई है -यहां जो कषाय वाले जीव हैं उनकी माया की प्ररूपणा की जाती है अतः इसी सम्बन्ध से सम्बद्ध हुए इस तीन सूत्रों को सूत्रकार ने कहा है-(तीहि ठाणेहिं मायी मायं कटु णो आलोएज्जा) इत्यादि।
- ત્રીજા સ્થાનનો ત્રીજો ઉદ્દેશક ૩
બીજે ઉદ્દેશક પૂરો થશે. હવે ત્રીજા ઉદ્દેશકનો પ્રારંભ થાય છે. બીજા ઉદ્દેશક સાથે આ ઉદ્દેશકને આ પ્રકારને સંબંધ છે. બીજા ઉદ્દેશકમાં વિવિધ છવધર્મોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, આ ઉદ્દેશકમાં પણ તેમનું જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. આ ઉદ્દેષકના પ્રથમ સૂત્રને પૂર્વઉદ્દેશકના છેલા સૂત્ર સાથે એ સંબધ છે કે ત્યાં મિથ્યાદર્શનવાળા અન્યમૂથિક (અન્ય ધર્મને માનનારાઓ) ની વિપરીત પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે, ત્યારે અહીં કાયયુક્ત જીવોની માયાની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. તે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ ત્રણ સૂત્રોની અહીં પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. ___“ तीहिं ठाणेहि मायी मायं कट्टु णो आलोएज्जा" त्याहि
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सुधाटोका स्था०३३०३सू० ४४ कषायवतां मायानिरूपणम णो विसोहेज्जा, णो अकरणयाए सब्सुटेज्जा, जो अहारिहं पायच्छित्तं तबोकम्म पडिबज्जेज्जा, तं जहा अकरिंसु वाऽहं, करेमि वाऽहं, करिस्सासि वाऽहं १ । तीहि ठाणेहिं मायी सायं कट्ट णो आलोएज्जा,णोपडिकमिज्जा जाव णो पडिवज्जेज्जा, तं जहा-अकित्ति वा से सिया, अवणे वा से लिया अविणए वा मे सियार । तीहि ठाणेहि साथी मायं कह णो आलोएज्जा जाव नोपडिवज्जेज्जा, तं जहा-कित्ती वा मे एरिहाइसइ जसो वा मे परिहाइस्सइ, पूयातरकारे वा से परिहाइरसइ३ ॥सू०४४॥ ___ छाया-त्रिभिः स्थानीयी मायां कृत्वा नो आलोचयति, नो पतिकामति, नो निन्दति, नो गई ते, नो विकुट्टयति, नो विशोधयति, नो अफरणतयाऽभ्युत्तिष्ठते, नो यथाई प्रायश्चित्तं तपः कर्म मतिपद्यते, तद्यथा-अकादाऽहं करोमि चाऽई, करिष्यामि वाऽहम् १। त्रिभिः स्थानर्मायी मायां कृत्वा नो आलोचयति, नो प्रतिक्रामति, यावत् नो प्रतिपद्यते, तद्यथा-अकीर्तिी मे स्यात्, अवर्णोवा मे स्यात, अविनयो वा मे स्यात् । त्रिभिः स्थानायी मागं कृत्वा नो आलोचयति यावत् नो प्रतिपद्यते, तद्यथा-कीर्तिर्वा मे परिहास्यति, यगो वा मे परिहास्यति, यशो वा मे परिहास्यति, पूजासत्कारं वा मे परिहास्यति ३ ॥सू० ४४॥
टीका-तीहिं ठाणेहिं ' इत्यादि । त्रिभिः-त्रिसंख्यकै स्थानः-वक्ष्यमाणभूतवर्तमानभविष्यत्कालविपर्यायी-गुरुकर्मामायावान् माया मायाविषयं गोपनीयमकार्य प्रच्छन्नं कृत्वा नो आलोचयति प्रायश्चित्तार्थ स्वकृतमायां गुरोः पुरस्तान प्रकाशयति । एवं नो प्रतिक्रामति-मिथ्यादुप्कृतदानादि पूर्वक पापानो
टीकार्थ-भूत, वर्तमान, और भविष्यत् काल विषयवाले इन तीन स्थानों को लेकर मायी गुरुकलवाला मायी जीव-माया के विषयभूत बने हुए -गोपनीय अकार्य को गुप्त रूप से करके उसकी आलोचना नहीं करता है-प्रायश्चित्त लेने के लिये स्वकृत मायो को गुरु के समक्ष प्रकाशित
ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળ જેને વિષય છે એવા ત્રણ સ્થાને (કારણે) ની અપેક્ષાએ માયી (ભારે કમી માથી છવ) કપટને કારણે સેવાયેલા ગોપનીય અકાર્યને (દુષ્કૃત્યને પા૫) ગુપ્ત રીતે કરીને તેની આલોચના કરતું નથી, પ્રાયશ્ચિત લેવા માટે પિતાની તે માયાને ગુરુ સમક્ષ જાહેર કરે
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म्थानाडसूत्रे निवर्तते । नो निंदति आत्मसाक्षिकं पापनिन्दा न करोति, नो गई ते-गुरुसाक्षिक स्वापराधगहीं न करोति । नो विछट्टयति-तद्ध्यवसाय न विछिनत्ति । न विशोधयति-पापप्रायश्चित्तपूर्वकमात्मनश्चारित्रस्य चातीचारमलक्षालनेनात्मशुद्धि न करोति । अकरणतया-पुतरवारणप्रतिक्षया नो-नैव अभ्युत्तिष्ठते-प्रयतते न सज्जो भवतीत्यर्थः । तथा यथाई-यथायोग्य पापानुरूपमित्यर्थः, मायश्चित्त-पापप्रणाशकं तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानमनशनादिकं निर्विकृतिकादिकं वा न प्रतिपद्यतेन स्वीकुरुते, तद्यथा-तान्येवस्थानानि दर्शयति-अकार्प वाऽहम्-' इदममुकं कार्य भूतकालेऽहं कृतवान् अतः कथमिदं निन्धम् ? अपि तु नैन नि, किमर्थमालोच
यामि, एवंकरणे रवमाहात्म्यहानि र्जायते, इत्येवमभिमानान्नो आलोचयति नो '. 'पतिक्रामतीत्यादि भक्रमः । तथा करोमि वाऽहं-वर्तमानकालेऽप्याचरामीकार्य- नहीं करता है, उसका प्रतिक्रमण नहीं करताहे-मिथ्यानुप्कृतदानादिपूर्वक
पाप से पीछे नहीं हटता है उसकी निन्दा नहीं करता है-आत्मसाक्षी. पूर्वक पाप की निन्दा नहीं करता है उसकी नहीं नहीं करता है-गुरु साक्षी पूर्वक अपने अपराध की नहीं नहीं करता है उसकी विकुट्टना नहीं करता है उस कार्य करने के अध्यवमाय को नहीं छोड़ता है, उसकी .विशोधना नहीं करता है-पाप के प्रायश्चित्त करण पूर्वक अपने और
चारित्र में लगे गए अतीचार रूप मल की सफाई करने से आत्मशुद्धि नहीं करता है भविष्य में मैं ऐसा नहीं करूंगा इस प्रकार की अकरणप्रतिज्ञा से वह अपने आप को तैयार नहीं करता है और न वह पापानुरूप प्रायश्चित्त को पापप्रणाशक तपः मतो-अनशनादिरूप या निविकृतिकादिरूप तप को-स्वीकार करता है वे तीन स्थान इस प्रकार से हैं-" अकार्ष वाऽहम् " " करोमि चाऽहम् " "करिष्यामि वाऽहम्" નથી, તેનું પ્રતિક્રમણ કરતા નથી–મિથ્યાદુષ્કૃત દાનાદિપૂર્વક પાપમાગથી પાછો વળતો નથી, તેની નિન્દા કરતો નથી–આત્મસાક્ષી પૂર્વક પોતાના પાપની નિદા કરતો નથી, તેની ગર્લો કરતો નથી, ગુરુસાક્ષી પૂર્વક પિતાના દોષની ગહ કરતો નથી. તેની વિટ્ટના કરતો નથી એટલે કે એ કાર્ય કરવાને અધ્યવસાય છેડતો નથી, તેની વિશેધના કરતા નથી એટલે કે પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને, પોતાના ચારિત્રને લાગેલા અતિચારરૂપ મળની સફાઈ કરીને આત્મશુદ્ધિ કરતું નથી, ” ભવિષ્યમાં એવું નહિ કરૂ એવી અકરણ પ્રતિજ્ઞાથી તે પોતાની જાતને તૈયાર કરતું નથી, અને પાપને અનુરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને તે સાકાર કરતા નથી એટલે કે પાપનાશક તપકને–અનશનાધિરૂપ કે નિર્વિકૃતિકાદિરૂપ તપને રવીકાર ४२ता नथी. ते ऋण स्थान ( २ ) नीये प्राणे -" अकार्प वाऽहम्"
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सुघाटीका स्था० ३ ० ३ सू० ४४ कषायवता मायानिरूपणम् मिति 'कथमिदमसाधु ' इति कथयामीति नालोचयति न प्रतिक्रासतीत्यादि । करिष्यामि वाऽहं-करिष्यामि-समाचरिष्यामि वाऽहमनागतकालेऽपीदं तर्हि प्रायश्चित्तं कथं प्रतिपद्य इति कृत्वा नो आलोचयति नो प्रतिक्रामतीत्यादि ३॥ १॥ 'तीहिं ' इत्यादि, त्रिमि. स्थानः कारणैरकीयाधपवादभयरूपैः माथी मागं इस अमुक कार्य को मैं भूतकाल में कर चुका हूं अतः यह निंध कैसे हो सकता है-अर्थात् नहीं हो सकता है तो फिर मैं इसकी आलोचना क्यों करूं यदि मैं ऐसा करता हूं तो इसमें मेरे साहात्म्य की हानि होती है अतः वह इस प्रकार के अभिमान ले उसकी आलोचना नहीं करता है उसका प्रतिक्रमण नहीं करता है, इत्यादि १ तथा वर्तमान काल में भी मैं इस कार्य को करता हूं, अतः यह अप्रशरत है ऐसा मैं कैसे कहूं ऐसा ख्याल करके भी वह उसकी आलोचना प्रतिक्रमण आदि नहीं करताहै तथा भविष्यकाल में भी मे इल कार्यको करूंगो तब फिर प्रायश्चित्त कैसे लूं इस प्रकारका विचार करके वह आलोचना आदि नहीं करता है यावत् वह थवाई प्रायश्चित्तरूप लप कर्म को स्वीकार नहीं करताहै ?" तीहिं" इत्यादि-इन्न तीन स्थानों को लेकर भी मायी माया "करोमि वाऽहम् ” करिष्यामि वाऽहम् ' (१) am विया२ घरेल ભૂતકાળમાં મેં અમુક કાર્ય કર્યું છે, તે નિંઘ કેવી રીતે હોઈ શકે ! એટલે કે નિંદ્ય હોઈ શકે જ નહીં. તો પછી મારે શા માટે તેની આલોચના કરવી જોઈએ? જે હુ આચના કરૂ તે મારા માહાસ્યની હાનિ થાય. આ પ્રકારના પિતાના અભિપ્રાયને કારણે તે ભૂતકાળમાં કરેલા દુષ્કૃત્યની આલોચના કરતું નથી. અને પ્રતિક્રમણ, નિંદા, ગહ આદિ પણ કરતા નથી,
તે એવો વિચાર કરે છે કે વર્તમાનકાળમાં પણ હુ આ કાર્ય કરૂં છું. તે કાર્ય અપ્રશસ્ત હોવાનું મારાથી કેવી રીતે કહી શકાય ! આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાયેલે તે તેની આલયના આદિ કરતા નથી. (૩) ભવિષ્યકાળમાં પણ હું આ કાર્ય કરવાનો જ છું, તે મારે શા માટે તેની આલોચના, પ્રતિ ક્રમણ, નિંદા, ગહ વગેરે કરવા જોઈએ ! આ પ્રકારની વિચારધારાથી ગેર રસ્તે દેરવાયેલ તે પિતાના પાપકૃત્યની આલેચના આદિ કરતા નથી. અહીં
આદિલ્મ પદથી પાપને અનુરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તરૂપ તપ કર્મને સ્વીકાર કરતા नथी, " त्या सुधानी पूरित सूत्रा8 अ ४२ नये. “तीहि त्यादि.
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她
स्थानासूत्रे
कृत्वा नो आलोचयति, इत्यादि - यावत् नो यथाई प्रायश्रितं तपःकर्म प्रतिपद्यते, तद्यथा - तानि त्रीणि स्थानानि यथा - अकीर्त्तिर्वा मे स्यात् कीर्तिः सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिः, न कीर्त्तिरकीर्त्तिः सर्वदिग्व्यापिनी निन्दा स्याव - ' अयं मायावान्' इत्यादिरूपाऽपकीर्त्तिः प्ररारेत् इति कृत्वाऽसौ नो आलोचयति नो प्रतिक्रामतीत्यादि । अवर्णो वा मे स्यात् अवर्णः - एकदिग्गा मिचापयशः, आलोचनादिकरणे 'लोका मां निन्दिष्यन्तीति कृत्वा नो आलोचयति नो मतिक्रामतीत्यादि २| अविनयो वा मे स्यात् विनयः- देशकालाद्यपेक्षया यथोचितमतिपत्तिरूपः, न विनयः - अविनयः - आलोचनाद्यनीकारेऽन्वे मुनयो मम 'विनयं न करिकरके उस की आलोचना नहीं करता है इत्यादि के तीन रधान इस प्रकार से है - अकीर्ति मेरी होनी, अवर्ण अयश मेरा होगा, अविनय मेरा होगा, सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धि का नाल कीर्ति है । यदि मैं माया करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता हूं, यावत् बधाई प्रायश्चित्त लेता हूं तो मेरी चारों दिशाओं में निन्दा हो जावेगी- "यह मायावान् है " इत्यादि रूप से मेरी अपकीर्ति फैल जावेगी ऐसा ख्याल करके वह न आलोचना करता है और न प्रतिकण आदि करता है ? एक देश से अपया का फैलना अवर्ण है, यदि से आलोचना आदि करता हूं तो लोक मेरी निन्दा करेंगे इस प्रकार के अभिप्राय से वह आलोचन आदि नहीं करता है देश काल आदि की अपेक्षा से यथोचित प्रतिपत्तिका नाम विनय है । इससे विपरीत अविनय है आलोचना आदि के अङ्गीकार करने पर अन्य मुनिजन मेरा विनय नहीं करेंगे ऐसे
નીચે દર્શાવેલા ત્રણ સ્થાનેા (કારા) ને લીધે પણ માથી જીવ માયા કરીને તેની આલેચના આદિ કરતે નથી−(૧) જો માયા કરીને હુ તેની આલે ચના કરીશ, તેનું પ્રતિક્રમણું કરીશ, નિંદા, ગર્લ્સ, પ્રાયશ્ચિત આદિ કરીશ तो भारी अडीर्ति थशे. भेटते है “म भाषस भायावान् छे, " शेवी भारी અપકીર્તિ ચોરે દિશામાં ફેલાઈ જશે. આ પ્રકારના વિચાર કરીને તે પેાતાના પાપકૃત્યની આલાચના આદિ કરતા નથી ( ચારે દિશામાં અપશયને ફેલાવે થવા તેનું નામ અકીર્તિ છે ) (૨) તેને એવા વિચાર આવે છે કે મારા પાપકર્મીની આલાચના આદિ કરવાથી મારા અવણું ( અપશય ) થશે. (એક દેશની અપેન્નાએ અપશયના ફેલાવેા થવા તેનુ નામ અવણુ છે ) લેાકેા મારી નિંદા કરશે, એવા ખ્યાલથી તે આલેચના કરતેા નથી (૧) તેને એવે વિચાર ' આવે છે કે પાપકર્મીની આલાચના કરવાથી મારા અવિનય થશે-અન્ય મુનિજન તથા લેકે મારેા વિનય નહીં કરે. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરિત થઈને
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सुधा टीका स्था०३ उ० ३ ० ४४ कपायवतां मायानिरूपणम्
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व्यन्ति ' इति कृत्वा नो आलोचयति नो प्रतिक्रामतीत्यादि ३ । २। इदं च सूत्रममाप्तमसिद्धिपुरुषापेक्षम् । सामान्यजनस्यैवापकीर्ति सद्भावात् । ' वीहि ' इत्यादि, त्रिभिः स्थानैः कारणैः - की यदिहानिरूपैर्मायावी मायां कृत्वा नो आलोचयति यावत् नो प्रतिपद्यते । तानि स्थानान्याह - कीर्त्तिर्वा मे परिहास्वति - कीर्त्तिः- पूर्वकालोपार्जिता प्रसिद्धिः परिहास्यति - हीना भविष्यति, यज्ञो वा में परिहास्यति - यशः - लोकप्रसृतं प्रशंसारूपं तन्मे परिहास्यति नष्टं भविष्यति २। पूजासत्कारं वा मे परिहास्यति - पूजासत्कारमित्येकपदम् । तत्र - पूजा - वस्त्रादिना, सत्कारः-अभ्युत्थानादिना तदुभयं मे परिहास्यति ३ । इदं तु सूत्रं प्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षं समुपार्जितमसिद्धिकस्यैव कीर्त्यादि हानि सद्भावात्॥सू. ४४ ॥ अभिप्राय से वह आलोचना आदि नहीं करता है यह सूत्र अप्राप्तप्रसिद्धि वाले पुरुष की अपेक्षा से है, क्यों कि सामान्यजन की ही अपकीर्ति का सद्भाव होता है ।
इन स्थानों को लेकर भी मायी माया को करके उसकी आलोचना नहीं करता है यावत् वह यथार्थ प्रायश्चित्त नहीं लेता है वे तीन स्थान इस प्रकार से हैं- " कीर्ति र्घा में परिहास्यति सब दिशा में यशका फैलना उसका नाम कीर्ति है यदि मैं आलोचना आदि करता हूं तो मेरी वह कीर्ति हीन हो जावेगी, अथवा मेरा यश कम हो जावेगा यहां यश से लोक में फैली हुई प्रशंसा गृहीत हुई है अथवा लोक में जो मेरा पूजा सत्कार होता है वह भी नष्ट हो जावेगा यहां (6 पूजासत्कार " यह एकपद हैं वस्त्र आदि की प्राप्ति हो जाना इसका नाम पूजा है, और मुझे देखकर जो अन्यजन खड़े आदि हो जाते हैं
ܪܐ
પશુ તે આલેચના આદિ કરતે નથી. આ સૂત્ર અપ્રાપ્ત પ્રસિદ્ધવાળી વ્યક્તિની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યુ છે, કારણ કે સામાન્ય માણસની જ અપકીર્તિને સાવ સભવી શકે છે.
નીચેના ત્રણ સ્થાને ( કારણે ) ને લીધે માયીજીવ માયા કરીને તેની आसोयना, तेनुं प्रति भय, निहा, गड, आयश्चित आहि उरतो नथी, कीर्तिर्वा मे परिहास्यति ” ले हु मासेोयना आदि पुरीश तो पूर्व असो याति મારી કીર્તિના લેાપ થશે, (૨) અથવા મારા યશ એ થશે અહીં શ” પદ્મ દ્વારા લેાકેામાં વ્યાપેલી કીતિ અથવા પ્રશસાની ભાવના ગ્રહણ કરવી लेहये. ( 3 ) " पूजासत्कार " सोभां ने भारी पूलसार थाय छे ते पाथ મધ પડી જશે. વસ્ત્રાદિ પ્રાપ્તિ થવી તેનુ નામ પૂજા છે, ઊભા થઈને માન આપવું વગેરેને સત્કાર કહે છે. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે દૃષ્કૃત્યની
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स्थांना सूत्रे
अथैतद्विपर्ययमालोचनादि कर्तृकविपय सूत्रत्रयमाह - मूलम् - तीहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा जाव पडिवज्जेज्जा, तं जहा साथिस्स णं अस्सि लोगे गरहिए भवइ, उववाए गरहिए भवइ, आयाई गरहिया भवइ |१| तीहिं ठाणेहिं साथी सायं कट्टु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेज्जा, तं जहा -- अमायिस्स णं अस्सि लोगे पसत्थे भवइ, उववाए पसत्थे भवइ, आचाई पसत्था भवइ |२| तीहि ठाणेहिं माथी सायं कट्टु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेज्जा, तं जहा - जाणट्टयाए, दंसणट्टयाए, चरितट्टयाए ३ ॥ सू० ४५ ॥
..
छाया -- त्रिभिः स्थानैर्मायी मायां कृत्वा आलोचयति, मतिक्रामति, यात्रत् प्रतिपद्यते, तद्यथा - मायिनः खलु असौ लोको गर्हितो भवति, उपपानो गर्हितो वह मेरा सत्कार है ये दोनों बातें मेरी कम हो जायेंगी ३ इस अभि प्राय से भी वह आलोचना आदि नहीं लेता है यह सूत्र प्राप्तप्रसिद्धि वाले पुरुषकी अपेक्षा से कहा गया है क्यों कि जिसने प्रसिद्धि उपाजित कर ली है ऐसे पुरुष का ही यश आदि की हानि होने के सद्भाव होता है || सृ०४४ ।।
अथ सूत्रकार इस पूर्वोक्त कथन से विपरीत हुए पुरुष के विषय में अर्थात् आलोचना आदि करनेवाले के विषय में तीन सूत्र का कथन करते हैं-' तीहि ठाणेहिं मायी मायं कटूड ' हत्यादि । सूत्रार्थ-तीन स्थानको लेकर माघी माया करके उसकी आलोचना करता है । प्रतिक्रमण करता है यावत् यथाई प्रायश्चित्त करता है, क्योंकि वह ऐसा આલેાચના આદિ કરતા નથી. આ સૂત્ર પ્રાપ્તપ્રસિદ્ધિવાળા પુરુષને અનુલક્ષીને કહેવામાં આવ્યું છે, કારણ કે જેણે પ્રસિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લીધી હેાય એવા માણુસની કીર્તિ આદિની હાની થવાની વાત સંભવી શકે છે. ૫ સૂ. ૪૪ ૫ હવે સૂત્રકાર પૂર્વસૂત્રમાં જેનુ પ્રતિપાદન કરાયું એવા પુરુષ કરતા વિષેરીત પુરુષનું એટલે કે આલેચના અદિ કરનારનું ત્રણ સૂત્રેા દ્વારા કથન કરે छे-'' तीहि ठाणेहि मायी मायं कट्टु " त्याहि
સૂત્રા-ત્રણ સ્થાને (કારણેા) ને લીધે માયી માયા કરીને તેની આલેચના કરે છે, પ્રતિક્રમણ કરે છે, પાપને અનુરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત પન્તની પૂર્વોક્ત
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सुधाडीका स्था० ३ ३३ सू० ४५ आलोचनादि कर्तविषयनिरूपणम् भवति, आयतिर्हिता भवति, निभिः रथानैर्मायी मायाँ कृत्वा-आलोचयति यावत् प्रतिधपते, तद्यथा अमायिनः खलु असौ लोकः प्रशस्तो भवति उपपातः प्रशस्तो भवति, आयतिः प्रशरता भवति ।२। त्रिभिः स्थानीयी मायां कृत्वा आलोचयति यावत् प्रतिपचते, तद्यथा-ज्ञानार्थतया, दर्शनार्थतया, चारित्रार्थतया ३ सू०४५॥
टीका-'तीहिं' इत्यादि, सूत्रत्रयं प्रायो व्याख्यात पूर्वम् । नवरम् मायीमायावान् , यद्यपि मायी तथापि लघुकर्मा आलोचनाधङ्गीकारात् , मायां कृत्वा मालोचयति । अयं हि मायी अकृत्यकरणकाल एच, आलोचनादिकाले तु-अमाजानताहै कि भायीका यह लोक गहित होता है, उपपात माहित होताहै, और आयतिगहित होती है । इन अन्य तीन स्थानोंको ले कर माथी माया करके उसकी आलोचना करता है यावत् यथार्ह प्रायश्चित्त करता है । वे तीन स्थान इस प्रकारसे हैं। एक अमाघी का यह लोक प्रशस्त होता है इस ख्यालले, दूसरा उसका उपपात प्रशस्त होता है इस ख्यालसे तथा तीसरा उसकी आयति प्रशस्त होती है तथा इन स्थानों को लेकर मायी माया करके आलोचना करता है यावत् यथार्ह प्रायश्चित करता है इन में एक स्थान है ज्ञान की प्राप्ति करने का, दूसरा स्थान है दर्शन की प्राप्ति करने का और तीसरा स्थान है चारित्र की प्राप्ति करने का। टीकार्थ-यहां मायी शब्दसे लघुकर्मा (हलुकर्मी) यावत् जीव लिया गया है। क्यों कि एसा ही जीच आलोचना आदि को करता है । मायावान् दीर्घ कर्मा जीव नहीं, यह मायी जीव अकृत्य करणकालमें ही मायावान् વિધિઓ કરે છે તે ત્રણ સ્થાને નીચે પ્રમાણે છે-(૧) તે એ વાત સમજે છે કે માયી જીવને આલેક ગહિંત બને છે, (૨) ઉપપાત પણ ગહિંત હોય છે અને આયતિ પણ ગહિંત હોય છે. નીચેના ત્રણ કારણોને લીધે પણ મારી જીવ માયા કરીને તેની આલોચના આદિ કરે છે–(૧) તે એ વાત સમજે છે કે અમાયીનો આલેક પ્રશસ્ત હોય છે, (૨) અમાયીને ઉપપાત પ્રશત હોય છે અને તેની આયતિ પ્રશસ્ત હોય છે. નીચેના ત્રણ કારણોને લીધે પણ માયી જીવ માયા કરીને તેની આલોચના, પ્રતિક્રમણ, ગહ, નિંદા, પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ કરે છે--(૧) જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરવાના હેતુથી, (૨) દર્શનની પ્રાપ્તિ કરવાના હેતુથી અને (૩) ચારિત્રની પ્રાપ્તિ કરવાના હેતુથી
અહીં માયી પદથી લઘુકમ આદિ જીવ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. હેલકમ જીવ જ આલેચના આદિ કરે છે, માયાવાન દીર્ઘકમ જીવ આલેના આદિ કરતા નથી. તે માયી જીવ અયકરણુકાળમાં જ માયાવાનું રહે
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स्थानाङ्गसूत्रे य्येव, अन्यथाऽऽलोचनाउनुपपत्तेरिति । मायाविनः । अस्सि । इति,विभक्तिपरिणामादयं लोकः - इदं जन्म अयं लोको गर्हितो भवति, मायाप्रादुर्भावे निन्दादिसद्भावात् । उपपातो-गर्षितो भवति, मायाविनः किल्विपिकादि देवेषु नारकादिषु च जन्मसंभवात् । आयतिः-देव नारक मवादागमन, साऽपि तस्य गर्हिता भवति, मायाविनः कुमानपत्व तिर्यक्त्वजन्मभावात् । लघुकर्मा मायावी मायां कृत्वाऽणि इहलोक परलोकादिभयादा. रहता है । आलोचना आदि करने के काल में मायावान नहीं होता है, उस समय तो यह अमायी ही रहता है। यदि उस समय यह अमायी न हो तो उसके द्वारा आलोचना आदि करना नहीं बन सकता है। मायावान बन कर पुनः मायाचारी से आलोचना करने वाले की आलो चना सच्ची आलोचना नहीं कहलाती है, वह तो एक ढोंग मात्र है जो उल्टी कर्म की गाढतर बन्ध करानेवाली होती है। आलोचना वह इसी अभिप्रायसे करताहै कि मायावी जीवका यह लोक गहित (निदिता) होता है, क्यों कि माया का प्रगट होने पर मायावी की निन्दा आदि के होने को सद्भाव होता है । उपपात मायावी का इसलिये गर्हित होता है कि उसका जन्म किल्विषिक आदि देवों में और नारकादि जीवों में होता है तथा आयति उसकी इसलिये गर्हित होती है कि देव एवं नारकभव से आकर उसका जन्म कुमानुष में या तिर्यञ्चों में होता है। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है लघुकर्मा मायाघी माया करके भी इहलोक और છે-આલેચના આદિ કરવાને કાળે માયાવાન હેતે નથી, તે સમયે તે તે અમારી જ રહે છે. જે તે સમયે અમારી ન હોય તો તેના દ્વારા આલેચના આદિ કરવાનું સંભવી શકે જ નહીં માયાવાન બનીને માયાચારીથી આલેચના કરનારની આલોચનાને સાચી આલેચના કહેવાતી નથી, તે તે માત્ર ઢગરૂપ જ હોય છે અને એવી આલોચનાથી તે કર્મને બંધ ગાઢતર બને છે. તે એવું સમજીને આલેચના કરે છે કે માયાવી જીવને આલોક ગહિંત બને છે, કારણ કે માયાને પ્રાદુર્ભાવ થાય ત્યારે માયાવીની નિન્દા આદિ થવાને સદુ ભાવ રહે છે તેને ઉપપાત ગહિત બનવાનું કારણ એ છે કે તેને ઉપપાત કિલ્વિષિક આદિ દેવામાં તથા નારકાદિ જમાં થાય છે. તેની આયતિ (ભાવજન્મ) ગહિંત બનવાનું કારણ એ છે કે દેવ અને નારકમાંથી આયુકાળ પૂરે કરીને તેઓ કમાનુષમાં અથવા તિર્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે લઘુકર્મા માથી જીવ માયા કરીને પણ આલેક અને પરલેક આદિના
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सुधा टीका स्था०३३०३७०४६ शुद्धिकारिणामाभ्यन्तरवायस पदनिरूपणम् । ८१ लोचनादि करोतीति भावः । अमायिन इहलोक परलोकादयः प्रशस्ता भवन्ति, यत आलोचनादिना संजातनिरतिचाररय मम ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्तेऽतो हममायी भूत्वाऽऽलोचनादिकं करोमीति मनसि निधाय लघुकर्मा जीव आलोचनादि करोतीति भावः ॥ सू० ४५ ॥ ___पूर्व शुद्धिरुक्ता. साम्मतं तत्कारिणामाभ्यंतरसम्पदं वाह्यसंपदं च प्रख्पयन् सूत्रत्रयमाह
मूलम्-तओ पुरिलजाया षण्णत्ता, तं जहा - सुत्तधरे अत्थधरे तदुभयधरे १ । कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तओ वत्थाई धरित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-जंगिए भंगिए खोमिए २ । कप्पइ णिगंथीण वा तओ पायाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा- लाउयपाए वा दारुपाए वा मट्टियाए वा ॥ सू० ४६ ॥ परलोक आदि के भय से आलोचना आदि करता है । इसीसे अमायी के इहलोक और परलोक आदि प्रशस्त होते हैं। क्यों कि वह ऐसा जानता है कि आलोचित आदिसे निरतिचार हुए मेरे ज्ञान आदि अपने २ स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् ज्ञानादि निर्मल हो जाते हैं इस लिये मुझे अमायी होकर आलोचना आदि करना चाहिये । इस प्रकार समझकर वह लघुकर्मा जीव आलोचना करनेमें निरत होता है ॥सू.४५॥
अब सूत्रकार उक्त शुद्धि करने वालोंकी अभ्यन्तर और वाय सम्पदा की प्ररूपणा तीन सूत्र से करते हैं-'तओ पुरिल जाया पणत्ता' इ० ભયથી આલેચના આદિ કરે છે, અને તેથી જ તેના આલોક અને પરલેક પ્રશસ્ત હેય છે, કારણ કે તે એટલું સમજી શકે છે કે આલોચના આદિ કરવાથી નિરતિચાર બનેલાં મારા જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર પિતાના મૂળ સ્વભાવને પ્રાપ્ત કરી લેશે એટલે કે નિર્મળ બની જશે, તેથી જ તે આલોચના આદિ કરે છેઆ રીતે આલેચના આદિ કરવાથી તેને આલોક પ્રશરત બને છે, ઉપપાત પ્રશસ્ત ને છે અને આયતિ (ભાવ જન્મ) પણ પ્રશસ્ત બને છે. સૂ.૪પા ' હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત શુદ્ધિ કરનારા જીવોની આભ્યન્તર અને બાહ્ય 'सम्यहानी ५३५४२ छ-" तओ पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याहि--
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स्थानाचे छायाः-त्रीणि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सूत्रधरः, अर्थधरः, तदुमयधरः १। कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा त्रीणि वस्त्राणि धारयितुं वा परिहत्तं वा, तद्यथा-जाङ्गमिकं, भाषिक, क्षौमिकम् ।२। कल्पते निर्गन्धानां वा त्रीणि पात्राणि धारयितुं वा परिएत्तु वा, तद्यथा-अलावुपानं वा, दारुपानं चा, मृत्तिकापात्रं वा ॥ सू० ४६ ॥
टीका-तओ' इत्यादि, सुगमम् । नवरम्-मुधगर्यधरतदुभयधराणां मध्ये यथोत्तरं प्रधाना इति ।१। वाह्यसम्पदमाह-कापड ' इत्यादि, सुगमम् । नवरम्-धत्तु-परिग्रहीतुं, परिहत्तु-परिभोवतुमिति । त्रीणि वस्त्राण्याह-जंगियं' इत्यादि, जाङ्गमिकं-जङ्गमजीवोद्भवमौर्णिकादि, भाङ्गिकं-डक्त्वा-कुकृयित्वा
चूनार्थ-तीन प्रकारके पुरुष कहे गये हैं-जैसे-हम्रधर १, अर्थधर२, और तीसरा तदुभयधर ३, निर्ग्रन्थों अथवा निन्थियोंको तीन प्रकार के बन्न लेना और उनका परिभोग करना कल्पित कहा गया है-एक जागमिक, दूसरा भाङ्गिक, तीसरा क्षौमिक ।
निर्ग्रन्थों को अथवा निग्रन्थियों को तीन प्रकार के पात्र धारण करनेयोग्य कहे गये हैं-जैसे-तूंवे का पात्र, लकड़ीका बना पात्र अथवा स्मृत्तिका का पात्र (इससे अतिरिक्तपात्र कल्पता नहीं है, सूत्रधर की अपेक्षा. अर्थधर और अर्थधर की अपेक्षा तदुभयधर इस तरह से इनमें उत्तरोत्तर प्रधान कहे गये हैं। बाय सम्पदा का कथन करने के लिये स्त्रकार ने "कप्पह" इत्यादि सूत्र कहा हैजनम जीवों के बालों से उनले जो बञ्ज बनता है वह जाङ्गमिक वस्त्र है जैसे ऊनी कस्थल वगैरह, कूटकर जिनके रेशों से वस्त्र बनाया जाता है वह आङ्गिकवस्त्र है जैसे अलसी आदि के डोरों से बना हुआ वस्त्र, सूत्रार्थ-त्र प्रा२ना पुरुषो ४ाछे-(१) सूत्रध२, (२) मध२ अने (3) तदुमयધર. નિર્ગથે (સાધુઓ) અને નિર્ચથીઓને (સાધ્વીઓને) ત્રણ પ્રકારનાં पक्षी सेवार्नु मने तमना ५१ ४२पार्नु ४८ -(१) भिट, (२) Hits અને (૩) ભૌમિક. નિગ્ર"થે અને નિર્ચ થીઓને ત્રણ પ્રકારનાં પાત્ર કપે છે એટલે કે ત્રણ પ્રકારનાં પાત્ર તેમણે ધારણ કરવા ચગ્ય ગણાય છે-(૧) ટૂંકી પાત્ર, (૨) કાષ્ટ નિર્મિત પાત્ર અને (૩) માટીના પાત્ર એ સીવાયના પ્લાસ્ટીક આદીના પાત્ર કલ્પતા નથી સૂત્રધર કરતાં અર્થ ધરમાં અને અર્થધર કરતાં તદુભયધરમાં (સૂત્ર અને અર્થ બનેને ધારણ કરનાર) ઉત્તરોત્તર પ્રધાનતા સમજવી. બાહ્યા સમ્મદાનું પ્રતિપાદન કરવા निमित्त सूत्र "कप्पइ" त्याहि सूत्र ४i छ. धेटा माहिमवाना વાળમાંથી જે વસ્ત્રો બને છે તેને જાંગમિક વસ્ત્રો કહે છે, જેમકે ઉનની કામળ વગેરે. શણુ, અળસી આદિને કૂટીને તેના રેસામાંથી બનાવેલાં વસ્ત્રોને ભાંગિક
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सुधा टीका स्था०३ उ० ३ स० ४७ वस्त्रग्रहणझारणनिरूपणम् यत्क्रियते तद् अतसीमयम् , क्षौमिक-काासिकमिति । पात्रविषयं सुत्रमाह'कप्पइ , इत्यादि स्पट, नवरस्-अलाबुपात्रं-तुम्बकं, दारुपात्रं काष्ठनिर्मितं, मृत्तिकापात्रं-मृण्मयम् ॥ सु० ४६॥
अथ वस्त्रप्रस्तावाद् वस्त्रग्रहणकारणन्याह___ मूलम्-तीहिं ठाणेहिं वत्थे धरेजा, तं जहा-हिरिवत्तियं, दुगुंछावलियं, परिसहवत्तियं ॥ सू० ४७॥
छाया-त्रीभिः स्थानवसं धारयति, तद्यथा-ड्रीमत्ययिकं, जुगुप्सामत्ययिकं, परीषहमत्ययिकम् ।। मु० ४७ ॥ ___टीका-'तीहि' इत्यादि । त्रिभिः स्थानः-कारणैः कारणत्रयमाश्रित्येत्यर्थः, वस्त्रं धारयति, तान्येवाह-'हिरिवत्तियं ' इत्यादि, ह्रीमत्ययिकं हीः-लजा कपास से जो वस्त्र बनता है वह क्षौभिक वहा है-जैसे सूती चादर वगैरह इसी प्रकार से जो तीन प्रकार के पात्र हैं उनका नाम सूत्रकार ने प्रकट ही कर दिया है ।। मू०४६ ॥ __ अब सूत्रकार वस्त्र के प्रकरण से वस्त्राग्रहण करने के कारणों का कथन करते हैं-'तीहि ठाणे िवत्थं धरेज्जा' इत्यादि। टीकार्थ-निर्ग्रन्थ अथक्षा निग्रंन्थीले जो वस्त्र धारण करते हैं उसमें ये तीन कारण है-लज्जा और सयम की रक्षा करना, प्रवचन की हीलना का वारण करना और शीतल आदि परीषह का निवारण करना सूत्र में जो " ही प्रत्यथिकं, जुगुप्सा प्रत्ययिक, परीषहात्ययिक " ऐसा कहा हैउसका तात्पर्य ऐसा है कि जिसे धारण करने का निमित्त ही-लज्जा વસ્ત્રો કહે છે કપાસમાંથી જે વસ્ત્રો બને છે તેમને લૌમિક વસ્ત્રો કહે છે જેમકે સૂતરાઉ ચાદર વગેરે. એ જ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકારનાં પાત્રેના નામે સૂત્રકારે પ્રકટ કરેલા જ છે | સૂ. ૪૬ છે
વસ વિષે વાત કરીને હવે સૂત્રકાર વગ્રહણ કરવાના કારણેનું નિરૂપણ अरे छे-“ तीहि ठाणेहि वत्थं धरेज्जा" त्याह
નિર્ગથ અને નિર્ગ થી નીચે દર્શાવેલાં ત્રણ કારણને લીધે વસ્ત્રો ધારણ ४३ छ-(१) Acron सयभनी २क्षा ५२वाने माटे, (२) अवयन शुसानु વારણ કરવા માટે અને (૩) શીત આદિ પરીષહનું નિવારણ કરવા માટે. सूत्रमारे " ही प्रत्ययिकं, जुगुप्साप्रत्ययिकं, परीषहप्रत्ययिकं " प्रभारी કહ્યું છે તેને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે- હી પ્રત્યયિક એટલે લજજા મર્યાદાના
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संयमो वा, सा प्रत्ययो - निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा लज्जासंयमरक्षार्थमित्यर्थः १। जुगुप्साप्रत्ययिकं - जुगुप्सा - निन्दा ' विकृताङ्गदर्शनेन लोके मवचनजुगुप्सा मा भूत् ' इत्येवं प्रत्ययोनिमित्तं यत्र तत्तथा प्रवचन दीलनावारणामित्यर्थः २| परीपह- प्रत्ययिकं - परीपदाः - शीतोष्णदंशमशकादि जनिताः, ते प्रत्ययो निमित्तं यत्र तत्तथा शीतादिपरी पहनिवारणार्थमित्यर्थः ३ ॥ मु० ४७ ॥
निर्ग्रन्थप्रस्तावाभिर्यन्थानेवानुष्ठानतो वर्णयन् सप्तसूत्रीमाह -
मूलम् - तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं जहा धम्सियाए पडिवोयणाए पडिचोएत्ता भवइ, तुसिणीओ वा सिया, उहित्ता वा आयाए एतमंतमवकमेजा १ । निग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पंति तओ वियडदत्तीओ एडिगाहितए, तं जहा -- उकोसा, मज्झिमा, जहन्ना २ | तीहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे सोहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णाइक्कमइ, तं जहासयं वा दहुं, सस्स वा निसम्म, तचं मोस आउछ चउत्थं नो आउह ३ । तिविहा अणुन्ना पण्णत्ता, तं जहा - आयरि यत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्तार ४ । तिविहा समजुना पपणत्ता, तं जहा आयरियन्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्तार ५ एवं उदसंपया ६ । एवं विजहणा ७ || सू० ४८ ॥
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या सगम है वह ही प्रत्यधिक है विना के देखने से लोकमें प्रवधन जुगुप्सा - निन्दा लघुता न हो इस प्रकार का निमित्त जिस धारण करने का है वह जुगुप्सा प्रत्ययिक है, शीत उष्ण दंशमशक आदि से जनित जो परीवह है वे जिस धारण करने के निमित्त है वह परीषह प्रत्ययिक है ।। ।। सू० ४७ ।।
રક્ષણ નિમિત્તે જુગુપ્સા પ્રત્યયિક એટલે લેાકામાં જુગુપ્સા-ઘૃણ્ણા ન થાય તે કારણે વિકૃતાંગ અથવા નગ્નતા લેાકેામાં જુગુપ્સા પેદા કરે છે, અને નિન્દા થાય છે તેના નિવારણુ નિમિત્તે સાધુએ વસ્ત્ર ધારણ કરે છે. શીત, ઉષ્ણુ, દશમશક આદિ જન્ય પરીષહેાના નિવારણ નિમિત્તે પણ નિથા વસ્ત્ર ધારણ
४२ ॥ सू. ४७ ॥
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सुघाटीका स्था०३७३०सू० ४८ निग्रंथनिरूपणम्
छाया- त्रय आत्मरक्षकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धार्मिक्या प्रतिनोदनया प्रतिनोदयिता भवति, तूष्णीको वा स्यात् , उत्थाय वा आत्मना एकान्तमबक्रामेत् ।। निर्ग्रन्थस्य खलु ग्लायतः कल्पन्ते तिस्रो विकृतदत्तयः प्रतिग्रहीतुं, तद्यथा-उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या ।२। त्रिभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थः साधर्मिकं साम्भोगिकं विसा. म्भोगिकं कुर्वन् नातिक्रामति, तद्यथा-स्वयं वा हटवा, श्राद्धस्य वा निशम्य, तृतीयं मृषा आवर्तते चतुर्थ नो आवत्तते ।३। त्रिविधा अनुज्ञा प्रज्ञप्ता, तद्यथाआचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया ।४। त्रिविधा समनुज्ञा प्रज्ञता, तद्यथाआचार्यतया, उपाध्यायतया, गणितया।९।एवमुपसंपत् ।६। एवं विहाना॥७॥सू.४८ _____टीका-'तओ ' इत्यादि । त्रयः आत्मरक्षाः, आत्मानं प्रतिकूलोपसर्गकारिपुरुषात् , रागद्वेषादेरकृत्याद् भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः प्रज्ञप्ताः । तानेवाह-धार्मिक्या-धर्मसम्बन्धिन्या नोदनया-प्रेरणया उपदेशेनेत्यर्थः, मतिनोदयिता-प्रेरयिता-उपदेष्टा भवति, प्रतिकूलोपसर्गकारिण उपदेशदानात्स उपसर्गकरणानिवर्तते, इत्येव न, प्रत्युत सोऽतुवूलो भवति, ततोऽनाचरणीयाचरणं न
निग्रंथ के प्रकरण से अब सुत्रकार निथों का ही अनुष्टान की अपेक्षा वर्णन सात सूत्रों से करते हैं-'तओ आयरखा पण्णत्ता'६० टीकार्थ-तीन आत्मरक्ष कहे गयेह-जैसे-धार्मिक उपदेशसे प्रेरणा करनेवाला १, दूसरा तूप्णीक-उपेक्षक और तीसरा उस स्थानसे स्वयं उठकर दूसरे एकान्त स्थान में चले, जानेवाला प्रतिकूल उपसर्गकारी पुरुष से अथवा रागद्वेपरूपी अकृत्य से अथवा अवकूपसे अपनी जो रक्षा करते हैं वे आत्मरक्षक हैं। इनमें जो धर्मसम्बन्धी उपदेश से अन्य को प्रेरित करता है ऐसा उपदेष्टा प्रथम आत्मरक्षक है । यह आत्मरक्षक प्रतिकूल उपसर्गकारी को उपदेश देकर उसे उपसर्ग करने से हटा देता है
નિગ્રંથને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તેમના અનુ४ाननु वा न ४२di सात सूत्र ४ छ-" तओ आयरक्खा पण्णत्ता" त्याल. ત્રણ આત્મરક્ષક કહ્યાં છે–(૧) ધાર્મિક ઉપદેશથી પ્રેરણા દેનાર, (૨) તૂચ્છક (મૌન રાખનાર) ઉપેક્ષક અને (૩) તે સ્થાનેથી ઉઠીને જાતે જ એકાન્ત સ્થળે ચાલ્યા જનાર, પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગકારી પુરુષથી અથવા રાગદ્વેષરૂપી અકૃત્યથી અથવા ભવફૂપથી પિતાની રક્ષા કરનાર જીવને આત્મરક્ષક કહે છે. તે આત્મરક્ષકને ત્રણ પ્રકાર છે-જે નિર્ચ થ ધર્મોપદેશથી અન્યને પ્રેરણા આપે છે એવા ઉપદેખાને પહેલા પ્રકારનો આત્મરક્ષક કહે છે. આ પ્રકારને આત્મરક્ષક પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગ કરનારને ઉપદેશ આપીને. ઉપસર્ગ કરતો વારે છે. પિતાને પ્રતિકૂળ થઈ પડે.
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स्थान सूत्रे
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भवेदित्त आत्मा रक्षितो भवतीति । यद्येवं कर्तुमशक्तस्तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह- तूष्णीको वा मौनाचलस्वनादुपेक्षकः स्यादिति २। उपेक्षणाऽसामर्थ्य यत्कुर्यात्तदाह- आत्मना - स्वयंभू उत्थाय - ततः स्थानादपसृत्य एकान्तं - विजनम् - अन्तं - भूभागम् अवक्रामेत् गच्छेत् ३ |१| 'निग्गंथस्स गं' इत्यादि, निर्ग्रन्थस्यबाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितस्य मुनेः ग्लायतः - तृवेदनादिनाऽभिभूयमानस्य कल्पन्ते
अर्थात् अपने प्रतिकूलवर्ती के साथ वह प्रतिकूल आचरण नहीं करता है प्रत्युत उसे धार्मिक उपदेश देता है, प्रतिकूल के प्रति भी आत्मा में अशुभ चिन्तन के अभाव से वह अपनी आत्मा की रक्षा करता है । क्यों कि इस अवस्था में वह उसके अनुकूल हो जाता है । अतः उससे उसके प्रति अनाचरणीय आचरण नहीं हो पाता है । यदि वह इस प्रकार से करने में असमर्थ है तो वह मौन को धारण कर देता है मौन धारण करने से बातचीत में उत्तर प्रत्युत्तर नहीं होता है - इस तरह से भाषासमिति के पालन हो जाने से भी वह आत्मरक्षक हो जाता है यदि वह ऐसा भी नहीं कर सकता है तो उसे उस स्थान से किसी एकान्त स्थान में चले जाना चाहिये, इस से भी अशुभ संकल्प विकल्पों की धारा निमित्त के असान्निध्य से रुक जाती है-अ -अतः इस प्रकार से भी वह आत्मरक्षक हो जाता है ।
जो निर्ग्रन्थ-- बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित सुनि तृष्णा आदिको वेदना से अभिभूयमान हो रहा है उसे ये तीन विकृतदत्तियां એવું આચરણુ કરનારની સાથે તે પ્રતિકૂલ આચરણુ કરતા નથી, પરન્તુ તેને ધાર્મિક ઉપદેશ દે छे. આ રીતે પ્રતિકૂળ પ્રત્યે પશુ તે ક્ષમાભાવ રાખે છે—પેાતાના અતઃકરણમાં તેનું અહિત ઈચ્છતા નથી. પ્રતિકૂળ પુરુષનું પણુ અશુભ ચિન્તવન નહીં કરીને તે પેાતાના આત્માની રક્ષા કરે છે, કારણ કે આ અવસ્થામાં તે તેને અનુકૂળ થઈ જાય છે, તેથી તેના દ્વારા તેના પ્રત્યે અન ચરણીય આચરણ થઇ જતું નથી જે તે આમ કરવાને અસમર્થ હાય, તેા સૌન ધારણ કરે છે. મૌન ધારણ કરવાથી વાતચીતમાં ઉત્તર પ્રત્યુત્તર થતા નથી, આ રીતે ભાષાસમિતિનું પાલન થઈ જવાથી તે આત્મરક્ષક થઈ જાય છે. જો તે એમ કરવાને પણ અસમર્થ હાય તા તેણે તે સ્થાન છેડી કાઈ એકાન્ત સ્થાને ચાલ્યા જવું જોઇએ આ પ્રમાણે કરવાથી અશુભ સંકલ્પ વિકલ્પેાની ધારા, તેમના નિમિત્ત રૂપ પ્રતિકૂળ વ્યક્તિ આદિથી દૂર જવાથી, અટકી જાય છે. તેથી આ રીતે પણ તે આત્મરક્ષક બની શકે છે
જે નિગ થ−( ખાદ્ય અને આભ્યન્તર ગ્રન્થિથી રહિત મુનિ ) તૃષ્ણા આદિ
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सुधा टीका स्था० ३ उ०३ सू० ४८ निर्ग्रथनिरूपणम्
तिस्रः विकृतदत्तयः - विकृतस्य प्रासुकपानकरय दत्तयः - एकवारमक्षेपदानरूपाः प्रतिग्रहीतुं वेदनोपशमाय आदातुम् । ता आह- उत्कर्पा - उत्कृष्टा प्रचुरपानलक्षणा, मध्यमा - ततो हीना । जघन्या अल्पप्रमाणा यथा सकृदेव तृष्णा विनश्यति निर्वाहमानं वा लभते । अथवा दत्तीनामुत्कृष्टमध्यमजघन्यत्वं पानकविशेषादपि विज्ञेयम् तथाहि - कलमकाञ्जिकावखावणादेः द्राक्षाखर्जूरिकादेव - उत्कृष्टा, षष्ठिक तन्दुलादिकाञ्जिकादि पानकस्य मध्यमा, तृणधान्यका ञ्जिकादेरुष्णोदकस्य वा जघन्येति । । २।' तीहिं ' इत्यादि, त्रिभिः स्थानैः कारणैः श्रमणो निग्रन्थः साधर्मिकं ग्रहण करनेयोग्य कही गई हैं। विकृत नाम प्रशस्सुक पानका है और इस प्राक पानका एक बार दाता के द्वारा पात्र में प्रक्षेप करना और सुनि को अपनी वेदना के उपशमन के लिये उसे ग्रहण करना इसी का नाम विकृतदत्तियों का ग्रहण करना है । ये विकृतदतियां उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप से तीन प्रकारकी कही गई हैं। इससे हीन जो विकृत दत्ति है वह मध्यम विकृतत्ति है । तथा अल्पप्रमाणवाली जो विकृत दत्ति है वह जघन्य विकृतदत्ति है या उससे उसका निर्वाह हो जाता है अथवा दत्तियों में उत्कृष्टता, मध्यमता, और जघन्यता पानक विशेषसे भी होती है, जैसे- कलमकञ्जिक, ओसामण आदि रूप पानककी अथवा द्राक्षा, खजूरिका से पानक आदि की दत्ति उत्कृष्ट दति है । षष्ठिक तन्कुल (साठ दिनमें पकनेवाला धान्य विशेष ) आदि के काञ्जिक आदि का पानककी दत्ति मध्यमदत्ति है, तृण धान्यके काजिक आदिकी अथवा उष्णोदकी दत्ति जघन्य दत्ति है । इसी प्रकार के पानक में उत्कृष्टता
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વેદનાના અનુભવ કરી રહ્યો હાય, તેણે આ ત્રણ વિકૃત દત્તિા ગ્રહણ કરવા ચેાગ્ય કહી છે. પ્રાસુક પાનને ( પીણાને ) વિકૃત કહે છે તે વિકૃતને ( પ્રાસુક પાનનેા ) દાતા દ્વારા એકવાર પાત્રમાં નિક્ષેપ થવા અને પેાતાની વેદનાનું શમન કરવા માટે સાધુ દ્વારા તેને ગ્રહણ કરાવવું તેને કૃિત દૃત્તિયાનું ગ્રહણ કહે છે તે વિકૃત દત્તિયેાના ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યમ અને જઘન્યરૂપ ગણુ પ્રકાર કહ્યા છે. ઉત્કૃષ્ટ વિકૃતઃત્તિ કરતાં હીન વિકૃતત્તિને મધ્યમ વિકૃતત્તિ કહે છે, તથા અલ્પ પ્રમાણવાળી જે વિકૃતત્તિ છે તેને જઘન્ય વિકૃતત્તિ કહે છે આ પ્રકારની વિકૃત ઇન્દ્રિયાથી તેના નિર્વાહ થઇ જાય છે. અથવા પાનક વિશેષ ( વિશિષ્ટ પીણા ) ની અપેક્ષાએ પણ તેમાં ઉત્કૃષ્ટતા, મધ્યમતા અને જઘન્યતા સભવી શકે છે. જેમકે ચેાખાની કાંજી, આસામણ આદિ રૂપ પાનકની અથવા દ્રાક્ષ, ખજૂર આદિના પાનકની દન્તિને ઉત્કૃષ્ટ દન્તિ કહે છે, ષષ્ઠિક તન્તુક આદિને પાનકની મધ્યમ ત્તિ કહે છે. તૃણુધાન્યની ( જારની) કાજી આદિ પાનકને તથા ગરમ પાણીની ત્તિને જઘન્ય દત્ત કહે છે, એ જ પ્રમાણે પાન
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स्थानासूत्रे
समानेन धर्मेण वर्तत इति साधर्मिकस्तम् । सम् - एकत्र भोगो भोजनं सम्भोगः समानसामाचारीकतया साधूनां परस्परमाहारोपध्यादिदानग्रहण संव्यवहारलक्षणः, स विद्यते यस्य स साभ्योगिकस्तं, विसाम्भोगिक विसम्भोग :- आहारोपय्यादिदानग्रहणयोरसंव्यवहारः स यस्यास्तीति विसाम्भोगिकस्तं कुर्वन् नातिक्रामतिभगवदाज्ञां नोलनयति विहितकारित्वादिति । तान्येव स्थानान्याह - स्वयमाआदि देश काल और अपनी रुचिके विशेष से भी होती है ऐसा जानना चाहिये २ |
इन तीन कारणों से श्रमणनिन्थ साधर्मिक सांयोगिक को असांभोगिक करता हुआ भगवदाज्ञाका उल्लंघन नहीं करता है - वे ३ तीन कारण इस प्रकार से हैं स्वयं देखना, किसी दूसरे सुनिजन से सुनना, तीन बार के हृपावादकी आलोचना आदि देने पर चौथी बार के मृषावाद की आलोचना आदि नहीं देना, जो समान धर्मवाला होता है वह साधार्मिक है तथा सम्मान सामाचारीचाले होने के कारण साधुओं का परस्पर में जो आहार उपधि आदिका आदान प्रदानरूप व्यवहार होता है उसका नाम संभोग है यह संभोग जिसको है वह सांभोगिक है तथा ऐसे ऐसे आहार उपधि आदिके आदान प्रदानरूप व्यवहार का नहीं होना इसका नाम विसंभोग है, यह विसंभोग जिस के साथ हो वह विमाभोगिक है, साधर्मिक सांभोगिक को बिसांभोगिक કમાં ઉત્કૃષ્ટતા આદિ દેશકાળ અને પેાતાની રુચિવિશેષની અપેક્ષાએ પણ સભવી શકે છે, એમ સમજવું જોઇએ ર્
આ ત્રણ કારણેાથી શ્રમણ નિગ્રંથ સાધર્મિક સાંભાગિકને વિસાંભેાગિક કરતા હાય તે ભગવદાત્તાનું ઉલ્લઘન કરતા નથી-તે ત્રણ કારણેા નીચે પ્રમાણે छे-(१) लते ४ लेवु, (२) अर्ध भुनि पासे सांलजवु, भने ( 3 ) भृषावाह આદિની ત્રઝુવાર આલેચના કરાવ્યા બાદ ચેાથીવારના મૃષાવાદ આદિની આલાચના નહીં દેવાથી. જેઓ સમાન ધવાળા હોય છે તેમને સાર્મિક કહે છે તથા સમાન સમાચારીવાળા હોવાને કારણે સાધુએમાં પરસ્પરને જે આહાર, ઉપષિ આદિનુ આદાન પ્રદાન થાય છે તે આદાન પ્રદાનરૂપ વ્યવહારને સભેગ કહે છે. આ સક્ષેત્ર જેમની વચ્ચે ચાલે છે તેને સાંભાગિક કહે છે. તથા એવા આદાનપ્રદાનરૂપ વ્યવહારને અભાવ હવે તેનું નામ વિસèાગ છે, આ વિસ‘ભાગ જેની સાથે હાય છે તેને વિસાંભેાગિક કહે છે.
હવે સૂત્રકાર એ વાતનું
પ્રતિપાદન કરે છે કે સાર્મિક સાંભગિકને
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सुधा टीका स्था० ३ ३ ३ सू०४८ निग्रंथनिरूपणम् त्मना साक्षाद् दृष्ट्वा असाम्भोगिकेन सह क्रियमाणां सम्भोगरूपामसामाचारीमन्यं वा दोषम्, १, वा-तथा श्राद्धस्य, श्रद्धा-श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्रद्धःश्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यो सुनिस्तस्य सकाशात् निशस्य-दोषमाचरतो मनेवारी हयवधार्य २। तथा- तच्च ' ति तृतीयम् एकं द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोस, ति मृपा-मृषावादम् अकल्प्यग्रहणं पार्श्व स्थदानादिभिः सावद्यविषयप्रतिज्ञाभङ्गल. क्षणम् आवर्तते-आलोचयति मायश्चित्तदानादिना विशोधयतीत्यर्थः, वारत्रयस्याकरनेवाला श्रमण निन्थ भगवदाज्ञा का उल्लंघन करनेवाला इसलिये नहीं माना गया है कि इस प्रकारसे कर देने की स्वयं भगवान की आज्ञा है। अतः उसके अनुसार वह प्रवृत्ति कर्ता है, यदि वह स्वयं साधर्मिक सांभोगिक साधु को किसी अन्य असांभोगिक साधु के साथ संभोगरूप सामाचारी को करते हुए देख लेता है या अन्य किसी दोप को करते हुए देख लेता है तो ऐसी स्थिति में वह उसे असोगिक कर सकती है ऐसा करने से वह भगवदाज्ञा का उल्लंघनकता नहीं बनता है। जिसके ऊपर उसे विश्वास है, जिसका वजन उसे श्रद्धेय है ऐसे श्रद्धा शील से-किसी अन्य मुनिजनसे यदि वह इस बातको सुन लेता है कि यह मुनि अमुक दोष का सेवन कर रहा था तो श्रमण निन्थ उस सार्मिक सांभोगिक साधु को असांभोगिक कर देता है, इसी प्रकारसे यदि वह पृषावाद का सेवन कर लेता है-जो उसे अकल्प्य है उसे ग्रहण कर लेता है, या पावस्थ के दान आदि को लेकर सावधविषयक प्रतिज्ञा વિસાભેગિક કરનાર શ્રમણ નિર્ચ થને કયા કયા સંજોગોમાં ભગવદજ્ઞાનનું ઉલ્લંઘન કરનાર મનાતું નથી–
(૧) જે તે પિતે સાધર્મિક સાંભોગિક સાધુને કોઈ અન્ય સર્ભિગિક સાથે સંગરૂપ સમાચારી કરતો જોઈ જાય છે, અથવા અન્ય કોઈ દેષ કરતે જોઈ જાય છે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેને અસોગિક કરી શકે છે. આમ કરવામાં તે ભગવદાશાને ઉલંધનકર્તા બનતું નથી. (૨) જેના ઉપર તેને વિશ્વાસ છે, જેનાં વચનને તે શ્રદ્ધા મૂકવાપાત્ર ગણે છે, એવા કેઈ મુનિજન તેને એવી વાત કરે કે અમુક મુનિ અમુક દેશનું સેવન કરતો હતો, તે તે શ્રમણ નિગ્રંથ તે દેષિત સાધર્મિક સાંગિક સાધુને અભિગિક જાહેર કરી શકે છે. (૩) એજ પ્રમાણે જે તે સાધર્મિક સાંગિક સાધુ મૃષાવાદનું સેવન કરે–તેને કપે નહીં એવી વસ્તુને ગ્રહણ કરે, અથવા પાસ્થના દાન આદિને સ્વીકારીને સાવધ વિષયક પ્રતિજ્ઞાને ભંગ કરે, અને આ
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स्थानासो नाभोगतोऽपि सद्भावात् । किन्तु चतुर्थ-चतुर्थवारं से वितं शृपावादं नो आवर्त्तते, नो आलोचयति-आलोचनां न ददाति, तस्य चतुर्थवारसेवितमृपावादस्य दर्पकई कत्वादिति, चतुर्थवारमालोचनेऽपि प्रायश्चित्तदानानधिकारान्नासौ प्रायश्चित्ताई इत्यतश्चतुर्थासम्भोगकारणभूतपापाचारसे विनं साम्भोगिकमपि विसाम्भोगिकं कुर्वनातिक्रामतीति भावः। ___उक्तं च-" एग व दोवतिन्नि व आउई तस्स होइ पच्छित्तं ।
आउट्ट तेऽवि तओ, परिणे तिण्डं विसंभोगो" ॥१॥ छाया-एकं वा द्वौ वा त्रीन् वा (वारान् ) आवर्तमानस्य भवति प्रायश्चित्तम् ।
आवर्तमानेऽपि ततः परतस्त्रयाणां विसम्भोगः ॥१॥ का भंग कर लेता है और इस प्रकार ले यह तीन बार कर लेता है और फिर प्रायश्चित्त आदि द्वारा उसकी विशोधना भी कर लेता है परन्तु इतना होने पर भी यदि यह साधर्मिक सांभोगिक साधु चौथी धार भी उस पृषावाद का सेवन करता है तो ऐसी स्थिति में यह आलोचना नहीं करताहै, क्योंकि उसने जो चौथीधार मृषावादका सेवन किया है वह उसने दर्प (अहंकार ) का वशवर्ती हो कर किया है अतः चतुर्थवार वह आलोचना करे ली तो भी वह प्रायश्चित्त आदिका अधिकारी नहीं रहता है । इसलिये यह प्रायश्चित्ताह ( प्रायश्चित्त के योग्य) नहीं होने के कारण विसांभोगिक कर दिया जाता है । क्यों कि अस. भोग का कारण पापाचारका उसने चतुर्थ बार सेवन किया है, अतः ऐसी अवस्था में उस सांभोगिक को असांभोगिक फरने वाला श्रमण निन्य પ્રકારનું મૃષાવાદી આચરણ તે ત્રણવાર કરે અને પ્રાયશ્ચિત આદિ દ્વારા તેની વિશુદ્ધિ પણ કરી લે. ત્યારબાદ જે તે સાધર્મિક સાંગિક સાધુ ચોથીવાર પણ મૃષાવાદનું સેવન કરે, તે તેને તે દુષ્કૃત્યની આલોચના દઈ શકાતી નથી, કારણ કે ચોથીવાર જે મૃષાવાદનું સેવન કર્યું હોય તે દર્પ (અહંકાર) ને અધીન થઈને કર્યું હોય છે, તેથી ચેચીવાર જે તે તેની આલોચના કરે તે પણ તે પ્રાયશ્ચિત્ત આદિને અધિકારી રહેતો નથી આ રીતે પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાને પાત્ર નહીં હોવાથી તેને વિસંગિક જાહેર કરવામાં આવે છે. આમ કરવાનું કારણ એ છે કે તેને આસંગિક જાહેર કરી શકાય એવા પાપાચારનું તેણે ચોથીવાર સેવન કર્યું હોય છે. આ પ્રકારના દેષને કારણે સાધમિક સાંગિકને વિસાંગિક જાહેર કરનાર શ્રમણ નિથ પ્રભુની આજ્ઞાનું ઉલંઘન કર્તા ગણાતું નથી, કારણ કે એમ કરીને તે ભગવદજ્ઞાનું જ પાલન
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सुधा ठीका स्था० ३ ४०३० ४८ निर्यथनिरूपणम्
अत्रायमाशय - अशुद्धमाहारादिक गृह्णन् साम्भोगिकोऽन्यमुनिना प्रेरितो भगति - भवतां सम्यक् प्रेरणा 'मिच्छामि दुक्कडं ' ( मिथ्यामे दुष्कृतं ) न पुन - रेवं करिष्यामि, एवमालोचयन् यथाई प्रायश्चित्तं दत्त्वा साम्भोगिक एवं क्रियते । एवं द्वितीयारं तृतीयवारमपि कुर्यात् ततः परं चतुर्थवारं तमेवातिचारमुपसेव्य यद्यालोचयति तथाऽपि तस्यै आलोचनामदत्त्वा विसाम्भोगिक एव कर्तव्य इति भावः । इह च दृष्ट श्रुतं चेति द्वयं स्थानं गुरुतरदोपाश्रयवतो विसम्भोगः क्रियते। प्रभुकी आज्ञा का अतिक्रमण कर्ता नहीं पनता है । कहा भी है-' एगं व दो व तिन्निव ' इत्यादि ।
तापर्य इस कथनका ऐसा है कि कोई सांभोगिक साधु यदि अशुद्ध आहारादिक सेवन करता है और उसे अन्य मुनिजन ऐसा करने से मना करता है तो वह कह देता है कि आपका यह कथन ठीक है मैं "मिच्छामि दुष्ट्कडं " करता हूँ, अब आगे मैं पुनः ऐसा नहीं करुगा, इस प्रकार से वह अपने दोषकी आलोचना कर लेता है तो वह प्रायचित्त देकर सांभणिक ही बना लिया जाता है इसी प्रकार से यदि वह दुबारा भी कर लेता है या तृतीय घार भी कर लेता है तो भी उसे प्रायश्चित्त देकर लांभोगिक कर लिया जाता है, परन्तु यदि वह चौथी बार भी उसी अतिचार का सेवन करके आलोचना नहीं करता है तो उसकी आलोचना नहीं करनेवाले उस साधुको बिसयोगिक ही कर दिया जाता है । दृष्ट (देखा हुआ) और श्रुत ( सुना हुआ) ये दो स्थान रता होय छे छे - " एग व दोव तिन्नि व " त्याहि
ન
આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-કેાઈ સાંલે.ગિક સાધુ જ્યારે અશુદ્ધ આહારાદિકનું સેવન કરે છે અને અન્ય મુનિજન તેને તેમ ન કરવાની સલાહ આપે છે, ત્યારે તે તેમને એમ કહે છે કે આપની વાત સાચી છે. હું “ મિચ્છામિ દુક્કડં ” કરૂ છું, હવે ફરીથી હુ આ પ્રકારના દોષ નહીં કરૂં.
આ પ્રકારે તે પેાતાના દોષની આલેચના કરી લે છે આવા સ જોગેમાં તેને પ્રાયશ્ચિત્ત આપીને સાંભેાગિક સાધુ તરીકે ચાલુ રાખી શકાય છે. બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ જે તે દોષ કરે તે તેને પ્રાયશ્ચિત્ત દઈને સાંભેાગિક સાધુ તરીકે ચાલુ રાખી શકાય છે પરન્તુ ચેાથીવાર પણ જો તે સાધુ એ જ અતિચારનું ( દોષનુ' ) સેવન કરે, તે તેને આલેચના કરાવી શકાતી નથી એવા સાધુને તે વિસ ભાગિક જ જાહેર કરવાની ભગવાનની આજ્ઞા છે ષ્ટ (દેખેલાં) અને શ્રુત ( સાભળેલા), આ બે સ્થાન ગુરુત્તર દોષાશ્રયવાળા સાંભાગિક સાધુમાં
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ફર
स्थानास
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तृतीयं तु स्थानं स्वल्पतरदोपाश्रयवतस्तत्र चतुर्थवारं दोपाचरणं विसम्भोगो विधीयते इति ३ | 'तिहिा अणुन्ना ' इत्यादि, त्रिविधा अनुज्ञा, अनुज्ञानमनुज्ञाअधिकारदानम् । ता एवाह - आचार्यतया, आपते-मर्यादावृत्तितया सेव्यते इत्याचार्यः पञ्चप्रकारे वाऽऽचारे साधुरित्याचार्यः,
"
उक्तंच - " पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता । आया सेता, आयरिया तेण वच्चति ॥ १॥ किश्च - " सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य । गणत त्तिविमुको, अत्थं वा आयरिओ ||२|| छाया - पञ्चविधमाचारमाचरन्तस्तथा प्रकाशयन्तः । आचारं दर्शयन्त आचार्यास्तेन उच्यन्ते ॥ १ ॥
در
गुरुतर (घडा प्रायश्चित्त) दोषाश्रयवाले सांभोगिक साधु विसंभोग करते हैं तथा तृतीयस्थान स्वल्पतर दोषवाले सांभोगिक साधु में विसंभोग करता है परन्तु चतुर्थ बार के दोषाचरण में तो उसमें विसंभोग का विधान ही कर दिया जाता है ३ "( तिविहा अणुन्ना " इत्यादि । अनुज्ञान का नाम अनुज्ञा है अर्थात् अधिकार देने का नाम अनुज्ञा हैयह अधिकाररूप अनुज्ञा आचार्यरूप से, उपाध्याय रूप से, और गणि रूपसे दी जाने के कारण तीन प्रकार की कही गई है - जिसके द्वारा यह अनुज्ञा मर्यादावृत्तिरूप से सेवित की जाती है वह आचार्य है अथवाजो पांच प्रकार के आचार में साधु है वह आचार्य है । कहा भी हैपंचविहं आयार' इत्यादि ।
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अर्थात- जो पांच प्रकार के आचार का पालन करते हैं तथा प्रकाशित करते हैं और पांच प्रकार के आचार का उपदेश करते हैं वे आવિસભાગ કરે છે, તથા તૃતીય સ્થાન સ્વલ્પતર દોષવાળા સાથેોગિક સાધુમાં વિસ ભેગ કરે છે, પરન્તુ ચેાથીવારના દેષાચરણમાં તે તેને વિસ ભેાગિક જાહેર ४२वानु' विधान ४ ४श्वासां भाव्युं छे. " तिविधा अणुन्ना " त्याहि
અનુજ્ઞાનને અનુજ્ઞા કહે છે. અથવા અધિકાર દેવા તેનું નામ અનુજ્ઞા છે તે અધિકારરૂપ અનુજ્ઞા આચાર્ય રૂપે, ઉપાધ્યાયરૂપે અને ગણરૂપે અપાતી હેવાને કારણે ત્રણ પ્રકારની કહી છે. જેના દ્વારા આ અનુજ્ઞા મર્યાદાવૃત્તિ રૂપે સેવાય છે તે આચાય કહેવાય છે. અથવા જે પાંચ પ્રકારના આચારમાં साधु छे तेने मायार्य आहे हे उपाय छे - " पंचविह आयार " त्याहि. કહેવાનુ તાત્પય એ છે કે જે પાંચ પ્રકારના આચારનું પાલન કરે છે, તથા પાંચ પ્રકારના આચારને પ્રકાશિત (પ્રકટ) કરે છે અને તેના ઉપદેશ
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सुर्धा टीको स्था० ३ ३ सू० ४८ निग्रंथनिरूपणम् तथा-सूत्रार्थविद् लक्षणयुक्तः गच्छस्य मेधीभूतश्च ।
गणतप्तिविप्रमुक्तः, अर्थ वाचयति आचार्यः ॥२॥ तद्भावस्तत्ता-आचार्यता, तया, अग्रे गणाचार्यग्रहणाद् अनुयोगाचार्थतयेत्यर्थः अनुयोगाचार्यस्यौत्सर्गिकगुणा यथा
" तम्हावयसंपन्ना कालोचिय गहियसयलसुत्तत्था ।
अणुजोगाणुण्णाए, जोग्गा भणिया जिणिदेहि ॥१॥ इयरहा मोसावाओ, पवयणखिंसा य होइ लोयम्मि ।
सेसाणवि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ य भावेणं ॥२॥" छाया-तस्माद् व्रतसंपन्नाः कालोचितगृहीतसकलसूत्रार्थाः ।
अनुयोगानुज्ञाया योग्या भणिता जिनेन्द्रैः ॥१॥ चार्य कहलाते हैं ॥ १ ॥ तथा जो सूत्र और अर्थ को जाननेवाले हों शास्त्रोक्त लक्षणों से युक्त हों, तथा गच्छ में मेढीभूत अर्थात् आधारभूत हों, तथा गणकी चिन्ता से विप्रमुक्त-रहित हो, तथा सूत्रों के अर्थ की वाचना करते हों वे आचार्य कहलाते हैं ॥ २ ॥ __इस आचार्य का जो भाव है वह आचार्यता है, आगे गणाचार्य का ग्रहण हुआ है इसलिये यहां आचार्यता से अनुयोगाचार्यता गृहीत हुई है । अनुयोगाचार्य के स्वाभाविक गुण इस प्रकार से हैं'तम्हा वय संपन्ना' इत्यादि ।
अर्थात् व्रतसंपन्नता कालोचित समस्त सूत्रार्थका ग्रहण करना ये अनुयोगकी अनुज्ञा (आज्ञा) के योग्य हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है। ऐसा न होने पर मृषाबाद का दोष लगता है, लोक में प्रवचन की આપે છે તેને આચાર્ય કહે છે ! ૧ તથા જે સૂત્ર અને અર્થને જાણનારા હેય, શાસ્ત્રોક્ત લક્ષણોથી યુક્ત હોય, ગચ્છના આધારરૂપ હોય, ગણની ચિન્તાથી હિત હોય, તથા સૂત્રોના અર્થની વાચના કરતા હોય, તેમને આચાર્ય કહે છે કે ૨ આ આચાર્યને જે ભાવ તેનું નામ આચાર્યતા છે. આગળ ગણાચાર્ય ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે, તેથી અહીં આચાર્યતાથી અનુગાચાર્યના ગૃહીત થઈ છે. અનુગાચાર્યના રવાભાવિક ગુણ આ પ્રમાણે છે –
" सम्हा वय संपन्ना" त्याह
એટલે કે વ્રતસંપન્નતા, કાલોચિત સમસ્ત સૂત્રાર્થને ગ્રહણ કરે તે અનુગની અનુજ્ઞા (આજ્ઞા) ના પેગ જિનેન્દ્ર ભગવાને કહ્યા છે. એવું ન થાય તે મૃષાવાદને દેષ લાગે છે, લોકમાં પ્રવચનની હીલના (નિન્દા) થાય
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स्थानासूत्र इतरथा मृपावादः प्रवचनखिंसा च भवति लोके ।
शोपाणामपि गुणहानिः तीर्थीन्छेदश्च भावेन ॥२॥ तथा-उपाध्यायतया - उप-समीपे गत्वाऽधीयते यस्मात्म उपाध्यायः, उक्तश्च-" सम्पत्तनाणदंसणजुत्तो मुत्तत्थ तदुभयविहिन्नू । आयरियठाण जोग्गो, मुत्तं वाएइ उवज्झाओ॥१॥ छाया-सम्यक्त्वज्ञानदर्शनयुक्तः सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः ।
आचार्यस्थानयोग्यः सूत्रं वाचयत्युपाध्यायः ॥१॥ तद्धावस्तत्ता-उपाध्यायता, तया । तथा-गणितया-गण:-साधुसमुदायः, सोऽस्यास्ति स्व स्वामि सम्बन्धेनेति गणी-गणाचार्य , अरौत्सर्गिकगुणा यथा
" सुत्तत्थे निम्माओ, पियदधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो ।
जाईकुलसंपन्नो, गंभीरो लद्धिमंतो य ।। १ ।। संगहुवग्गहनिरओ, कयकरणो परयणाणुरागीय ।
एवं बिहोउ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥२॥ हीलना (निन्दा) होती है, ऐसा करने से शेष अन्य साधुओं में गुणों की हानि होती है, यहांतक कि भाव से तीर्थ का उच्छेद (नाश)भी हो जाता है ॥ १ ॥२॥
जिसके पास जा कर मुनिजन पढ़ते हैं उसका नाम उपाध्याय है। कहा भी है-'सम्मतनाणदलणजुत्तो' इत्यादि । अर्थात् जो सम्यपत्व ज्ञानदर्शन ले युक्त हों, सूत्र अर्थ और तदुभयकी विधि के जानने घाले हो, अविष्य में आचार्यपदके योग्य हो, सत्र की वाचना देनेवाले हों वे उपाध्याय कहलाते हैं । उपाध्याय का जो भाव है वह उपाध्यापत्ता है-साधु समुदाय का नाम गण है । यह मण जिसका होता है उसका नाम गणी है-गणाचार्य है । इसके स्वाभाविक गुण इस प्रकार છે, અન્ય સાધુઓમાં ગુણોને હાસ થાય છે, અને ભાવની અપેક્ષાએ તીર્થને ઉચ્છેદ થવાની પરિસ્થિતિ પણ સર્જાય છે. જે ૧ ૨
જેની પાસે જઈને મુનિઓ અધ્યયન કરે છે તે વ્યક્તિને ઉપાધ્યાય ४९ छे. ४घु ५९ छ -“ सम्मत्त नाणसणजुत्तो" त्यादि. मेटले रे સમ્યકત્વ જ્ઞાનદર્શનથી યુક્ત હોય, સૂત્ર, અર્થ અને તદુભય (તે બને)ની વિધિને જાણનારા હોય, ભવિષ્યમાં આચાર્ય પદને માટે ગ્ય હોય, સૂત્રની વાચના દેનારા હોય તેમને ઉપાધ્યાય કહે છે
ઉપાધ્યાયને જે ભાવ તેનું નામ ઉપાધ્યાયતા છે સાધુસમુદાયને ગણ કહે છે, તે ગણુ જેને અધીન હોય છે તેને ગણી કે ગણાચાર્ય કહે છે.
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सुधा डीका स्था०३ ३०३ सू० ४८ निर्ग थनिरूपणम् छाया - सूत्रार्थयो निर्माता मियदृढधर्मानुवर्त्तनाकुशलः । जातिकुलसंपन्नो गम्भीरो लब्धिमांश्च ॥१॥ संग्रहोपग्रह निरतः कृतकरणः प्रवचनानुरागी च । एवं विधस्तु भणितो गणस्वामीजिनवरेन्द्रैः ||२||
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तद्भावस्तता - गणिता, तथा गणनायक तथेत्यर्थः |४| ' तिविहा - समणुन्ना ' इत्यादि, त्रिविधा समनुझा, समिति सङ्गता औत्सर्गिकगुणयुक्तत्वेनोचित आचार्यादितया अनुझा समनुज्ञा - विशेषतयाऽधिकारमदानम् । सा - आचार्यादिभेदैस्त्रिविधासे हैं—' सुत्तत्थे निम्माओ ' इत्यादि । जो सूत्रों के अर्थका निश्चय करनेवाले हों, प्रियधर्मी दृढधर्मी हों अर्थात् जिनको धर्म में प्रेम और दृढता हों ऐसे, तथा जो अनुवर्त्तना अर्थात् शास्त्रानुकूल प्रवृत्ति में कुशल हों तथा जाति (मातृवंश ) और कुल ( पितृवंश) से सम्पन्न हो, स्वभाव के गंभीर और लब्धिधारी हों, तथा संग्रहोपग्रह - अर्थात् गण के योग्य पात्रादि की व्यवस्था करनेवाले तथा यथायोग्य गणके साधुओं को यथावसर वस्त्र पात्रादि के देनेमें कुशल हों, कृतकरणहेयोपादेयके यथायोग अभ्यासी तथा मवचनानुरागी हों, इस प्रकार के सुनि गणस्वामी-गणी होते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवानने फरमाया है ॥ १॥ १ ॥
इस गणाचार्य का जो भाव है वह गणिता है, यह गणी स्वस्वामि सम्बन्ध से अपने गण का नायक होते हैं। समनुज्ञा तीन प्रकारकी कही गहना स्वाभावि थे। नीथे अभाये हैं- " सुत्तस्थे निम्माओ " इत्याहिજેએ સૂત્રના અને નિર્ણય કરનારા હાય, ધર્મપ્રેમી, અને ધર્મના વિષયમાં દૃઢતાવાળા હાય છે, તથા જેઓ અનુવનામાં ( શાસ્ત્રાનુકૂળ પ્રવૃત્તિમાં ) पुराण होय, तथा भति ( भातृवश ) भने भुज ( पितृवश ) थी सपन्न होय, સ્વભાવે ગંભીર અને લબ્ધિધારી હોય, તથા સંગ્રહેાપગ્રહ-એટલે કે ગણુને ચૈાગ્ય વઅપાત્રાદિની વ્યવસ્થા કરનારા હાય તથા યાચેાગ્ય ગણુના સાધુઓને અવસર પ્રમાણે વજ્રપાત્રાદિ દેવામાં કુશળ ડાય, કૃતકરણ એટલે કે ઉંચેપા દેયના યથાાગ્ય અભ્યાસી તથા પ્રવચનાનુરાગી હાય, આ પ્રકારના મુનિને ગથુિં ( ગણુના અધીશ ) કહી શકાય છે, એવું જિનેશ્વર ભગવાનનું ફરમાન છે. ॥ ૧ ॥ ૨ ॥
આ ગણુાચાયના જે ભાવ છે તેને ગણિતા કહે છે. તે ગણી સ્વસ્વામિ સ’બધથી પેાતાના ગણના નાયક હાય છે. સમનુજ્ઞા ત્રણ પ્રકારની કહી છે,
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स्थानासूत्रे
अथाचार्य-स्यैवंविधगुणाभावेऽनुज्ञाया अध्यभावः समापद्यते तर्हि कथं समनुज्ञायाः सम्भवः ? अत्रोच्यते-उक्तगुणानां मध्यादन्यतमगुणाभावेऽपि कदाचित् कारणविशेषादाचार्यः संभवत्येव, अन्यथा
" जेयावि संदत्तिगुरुं वित्ता, डहरे इमे अप्पए-त्ति नच्चा ।
"
हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ १॥" इति दशवेकालिकसूत्रोक्तं व्यर्थ भवेदिति, अतः केपाश्चित् गुणानामभा'वेऽप्यनुज्ञा, समग्रगुणानां सद्भावे तु समनुज्ञेति निष्कर्षः । अथवा समणुण्णा इत्यस्य ' स्वमनोज्ञा: ' इति ' समनोज्ञा' ' इतिवा छाया, तत्र स्वस्य मनोज्ञाः गई है औत्सर्गिक गुणों से युक्त होने के कारण आचार्यादिरूप से जो उचित विशेष अधिकार दिया जाता है वही समनुज्ञा है, यह आचा यदि के भेद से तीन प्रकार की कही गई है ।
शंका- आचार्य को यदि इस प्रकार के गुणों का अभाव हो तो फिर अनुज्ञा का भी अभाव हो सकता है । अतः समनुज्ञा का सद्भाव कैसे माना जा सकता है ।
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उ०- उक्त गुणों के मध्य में से अन्यतम गुणों के अभाव में भी कारण विशेष को लेकर कदाचित् आचार्य तो होता है नहीं तो फिर " जे याचि संदत्ति गुरुं विज्ञत्ता इत्यादि " | ऐसा यह दशवैकालिक सूत्र का कथन व्यर्थ हो जावेगा । इसलिये क्तिनेक गुणों के अभाव में भी अनुज्ञा संभवित होती है और जय समग्र गुणों का सद्भाव होता है वहां समनुज्ञा बन जाती है अथवा " समणुण्णा " इस ઔત્સગિ'ક ગુણેાથી યુક્ત હાવાને કારણે આચાર્યાદિ રૂપે જે ઉચિત વિશેષ અધિકાર આપવામાં આવે છે, તેનું નામ જ સમનુજ્ઞા છે તે સમનુજ્ઞા આચાય આદિના ભેદથી ત્રણુ પ્રકારની કહી છે.
શંકા—આચાય માં જો આ પ્રકારના ગુથેાના અભાવ હાય, તે અનુ જ્ઞાનેા પણ અભાવ હાઇ શકે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં સમનુજ્ઞાને સદ્ભાવ
કેવી રીતે માની શકાય ?
ઉત્તર—ઉપર્યુક્ત ગુણે માંથી અન્યતમ ગુણેાના અભાવમાં પણ કારણ વિશેષને લીધે કયારેક આચાર્યંતા તા સભવી શકે છે. જો આ વાતને સ્વીકાश्वासां न यावे तो दृशवै असि४ सूत्र “जे यावि मंदत्ति गुरू विइत्ता इत्यादि. આ કથન વ્યય* ખની જાય છે. તેથી કેટલાક ગુણેાના અભાવમાં પશુ અનુજ્ઞા સંભવિત હોય છે અને જ્યાં સમગ્ર ગુણેાના સદ્ભાવ ચાય ત્યાં સમનુજ્ઞા સ ́ભવી શકે છે, અથવા समण्णा આ પન્નુની સસ્કૃત છાયા
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सुधा का स्था० ३ ४ ३ सू० ४८ निग्रंन्धनिरूपणम् समानसामाचारीकतयाऽभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः, सहवा मनोहर्जानादिभिरिति समनोशाः-एक साम्भोगिकाः साधवस्ते विविधाः । तानेवाह-आचार्यतयेत्यादि। एषां प्रवर्तकगणावच्छेदकादयोऽन्येऽपि भेदा भवन्ति किन्त्वत्र त्रिस्थानकाधिका रात्ते न विवक्षिता इति ।
'एवं उपसंपया' इत्यादि, एवम्-यथा-आचार्यत्वादिभेदत्रयभिन्ना समनुज्ञा तथा उपसंपदाऽपि वाच्या। तत्र-उपसंपत्तिरुपसम्पत-ज्ञानाद्यर्थ । भवदीयोऽह' मित्यभ्युपगमः, यथाकश्चित् स्वाचार्यादिसमनुज्ञातो मुनिः सम्यक् श्रुतग्रन्थानां जिनप्रवचनप्रभावकशास्त्राणां या सूत्रार्थयोर्ग्रहण-स्थिरीकरण-विस्मृतसन्धानार्थ, पदकी छाया "स्वमनोज्ञाः" या " समनोज्ञाः" ऐसी भी होती है, इस में जो समान समाचारीरूप से अपने को अभिरुचित हों वे स्वमनोज्ञ अथवा मनोज्ञ-ज्ञानादिकों से सहित हों वे समनोज्ञ हैं ऐसा अर्थ होता है । ऐसे समनोज्ञ एक सांभोगिक साधु होते हैं। ये सांभोगिक साधु तीन प्रकारके होते हैं-आचार्यरूप से दूसरे उपाध्यायरूपसे और तीसरे गणिरूपसे यद्यपि इनके प्रवर्तक गणावच्छेदक आदि और भी अनेक भेद होते हैं परंतु वहां पर त्रिस्थानकका अधिकार चल रहा है इसलिये इनकी विवक्षा नहीं हुई है-" एवं संपया" इत्यादि । जिस प्रकार आचार्यत्वादि के भेदसे समनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है उसी प्रकार से उपसम्पदा भी तीन प्रकारकी वही है । उपसम्पत्ति का नाम उपसंपत् है । ज्ञानादिक प्राप्ति के निमित्त " भवदीयोऽहं " मैं आपका ही हूँ ऐसा अपने को प्रकट करना या मानना इसका नाम उपसम्पदा है। जैसे " स्वभनाज्ञा " अथवा " समनोज्ञा " प थाय छे. समान सभायारी ३ પિતાને અભિરુચિત હોય તેમને સ્વમણ કહે છે અથવા જેઓ મનેz કહે છે અથવા જેઓ મનેઝ જ્ઞાનાદિથી યુક્ત હોય છે, તેઓ સમજ્ઞ ગણાય છે, આ પ્રકારને તે સંસ્કૃત છાયાનો અર્થ થાય છે. એવા સમજ્ઞ માત્ર સાંગિક સાધુ જ હોય છે. તે સાંગિક સાધુ ત્રણ પ્રકારનાં હોય છે-(૧) भायाय ३५, (२) Bाध्याय ३५ मने (3) गणि३५. न भन प्रपत्त, ગણાવચ્છેદક આદિ બીજા પણ અનેક ભેદ છે, પરંતુ અહીં ત્રણ સ્થાનકેને माधान न्यासता डावाथी तभन सेम राय नथी. “ एव. उपसंपया" त्याल.
જેમ આચાર્ય આદિના ભેદથી સમનુજ્ઞા ત્રણ પ્રકારની કહી છે, એ જ પ્રમાણે ઉપસંપદા પણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે. ઉપસંપત્તિને ઉપસંપત કહે છે. ज्ञानाहिनी प्रातिनिभित्ते “ भवदीयो ऽहं" "हुमायन छुमे. शेत પિતાને પ્રકટ કરે કે માનવું તેનું નામ ઉપસ પેદા છે. જેમકે કઈ મુનિ
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स्थानापने तथा चारित्रविशेषभूताय वैयावृत्त्याय क्षपणाय वा समादिष्टमाचार्यान्तरं यदुपसंपद्यते सोपसम्पत् , उक्तञ्च" उवसंपया य तिविहा, णाणे तह दसणे चारित्ते य ।
दसणणाणे तिविहा, दुविहा य चरित्त अट्ठाए ॥१॥" छाया-उपसम्पच्च त्रिविधा, ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च ।
दर्शनज्ञाने त्रिविधा, द्विविधा च चारित्रार्थतया ॥१॥
सेयमाचार्योपसम्पत् । एवमुपाध्यायस्य गणिनोऽपीति । तथा-' एवं विजहणा' इति, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विहानिः-परित्यागः वोध्या । सा च शिष्येकोई मुनि अपने आचार्य से समनुज्ञात हुआ सम्यक् श्रुत शास्त्रों के अथवा जिनप्रवचन प्रभावक शास्त्रों के सूत्र और अर्थ को ग्रहण करने के लिये, स्थिर करने के लिये, भूले हुए को पुनः याद करने के लिये तथा चारित्र विशेषभूत वैयावृत्य के लिये अथवा क्षपण करने के लिये समादिष्ट हुए अन्य आचार्य के पास जो जाता है वह उपसंपत् है। कहा भी है- उवसंपया य' इत्यादि। ___ अर्थात्-उपसंपदा तीन प्रकार की होती है, ज्ञान के लिये, दर्शन के लिये, चारित्र के लिये, उनमें ज्ञान और दर्शन की उपसंपदा तीन तीन प्रकार की है उसमें ज्ञानोपसंपदा के तीन प्रकार ये हैं-सम्रार्थ का ग्रहण करना १, ग्रहण किये हुए को स्थिर करना २, और विस्मृत का अनुसंधान ३ । दर्शन के दो प्रकार ये हैं-वैयावृत्त्य और क्षपण-मासक्षपणादितपस्या २ ॥ १॥ इसी प्रकार से उपाध्यायसंपत् और गणिપિતાના આચાર્ય દ્વારા સમનુજ્ઞાત થયેલા સભ્ય શ્રતશાના અથવા જિન પ્રવચન પ્રભાવક શાસ્ત્રોના સૂત્ર અને અર્થને ગ્રહણ કરવાને માટે, ભૂલી જવાચેલાને ફરી યાદ કરવા માટે તથા ચારિત્ર વિશેષરૂપ વિયાવૃત્યને માટે અથવા ક્ષપણને માટે, સમદિષ્ટ થયેલા અન્ય આચાર્યની પાસે જે જાય છે, ते 6५सयत् छे. युं ५५ छ है-" उवसंपया य" त्याह
मेट है ५५ त्रप्रा२नी -(१) ज्ञानन माटे, (२) शनने માટે અને (૩) ચારિત્રને માટે જ્ઞાન અને દર્શનની ઉપસંપદા ત્રણ ત્રણ પ્રકારની છે. જ્ઞાનેપસંપદાના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે-(૧) સૂત્રાર્થને ગ્રહણ ४२वी, (२) घड ४२येसने स्थि२ ४२, सने (3) विरभृतनु मनुसथान. દર્શનના બે પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે-(૧) વૈયાવૃત્ય અને ક્ષપણુ–માસક્ષપણાદિ તપસ્યા. છે ૧. આ પ્રકારની આ આચાર્ય ઉપસંપત છે. એ જ પ્રકારની ઉપાધ્યાયસંપતું અને ગણિસંપર્ પણ હોય છે.
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सुघाटीका स्था० ३ उ.३ सू० ४८ निन्थनिरूपणम् । णकृत आचार्यस्य परित्यागः, स च स्वकीयस्याचार्यस्य प्रमाददोषमाश्रित्य वैयावृत्त्य क्षपणार्थमाचार्यान्तरोपसम्पत्त्या भवतीति, उक्तंच
" नियगच्छादन्नम्मि उ सीयणदोसाइणाहोइ ।"
छाया-निजगच्छादन्यस्मिंस्तु सीदन् दोपादिना ( आचार्यादेः परित्यागः) भवति । अथवा-आचार्येण कृतः शिष्यस्य परित्यागः, यथा-आचार्योंज्ञानाद्यर्थमुपसम्पन्नं किन्तु तमर्थमननुतिष्ठन्तं ज्ञानाद्यनुष्ठानेन सिद्धप्रयोजन वा मुनिं यद् विजहाति सा-आचार्यविहानिः, उक्तञ्चसंपत् भी है। " एवं विजहणा" इसी प्रकार से विहानि-परित्याग के सम्बन्ध में भी कथन जान लेना चाहिये यह परित्यागरूप विहानि शिष्य द्वारा आचार्य का परित्याग कर देने रूप होती है, अर्थात् अपने आचार्य के प्रमाद रूप दोप को लेकर वैयावृत्य एवं क्षपणा (तपस्या) के लिये शिष्य का अन्य आचार्य के पास चले जाना यह विहानि है। कहा भी है “ नियगच्छादन्नम्मि उ सीयणदोसाइणा होइ "॥ ___अर्थात्-निजगच्छ से दूसरे गच्छ में संयम सीदन दोष आदि से होती है। अथवा-यह विहानि आचार्य द्वारो शिष्य के परित्याग कर देने रूप भी होती है। जैसे-कोई आचार्य ज्ञानादि अर्थ के लिये अपने पास आये तथा जो जिस अर्थ के लिये आया है उस अर्थ का अनुष्ठान -आचरण नहीं करने वाले मुनि को अथवा ज्ञानादिक के अनुष्ठान से
" एवंविजहणा" मे प्रभार विहान ( परित्यास) ना विषयमा પણ કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ પરિત્યાગરૂપ વિહાનિ શિષ્ય દ્વારા આચાર્યને પરિત્યાગ કરવારૂપ હોય છે. એટલે કે પિતાના આચાર્યના પ્રમાદ રૂપ દોષને લીધે વૈયાવૃત્ય અને ક્ષપણું (તપસ્યા) ને માટે શિષ્યનું અન્ય આચાર્ય પાસે ચાલ્યા જવું તેનું નામ વિહાનિ છે. કહ્યું પણ છે કે –
" नियगच्छादन्नम्मि उ सीयणदोसाइणा होइ"
એટલે કે પિતાના ગચ્છમાંથી બીજા ગરછમાં જવારૂપ નિહાનિ સંયમ સદન (દોષ) આદિને લીધે થાય છે. અથવા આચાર્ય દ્વારા શિષ્યને પરિ. ત્યાગ કરાવારૂપ પણ તે વિહાનિ હોઈ શકે છે. જેમકે–પિતાની પાસે જ્ઞાનાદિની પ્રાપ્તિ અર્થે આવેલા મુનિને નીચેના બે કારણેથી આચાર્ય પેતાની પાસેથી રજા આપી દે છે, તેનું નામ વિહાનિ છે. જે નિમિત્તે તે મુનિ તેમની પાસે આવ્યો છે તે અર્થનું અનુષ્ઠાન (આચરણ) ન કરનાર મુનિને આચાર્ય પરિ. ત્યાગ કરે છે. (૨) જે નિમિત્તે તે મુનિ તેમની પાસે આવેલ છે, તે જ્ઞાનાદિ
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स्थानाइसूत्रे १०० " उवसंपन्नो ज कारणं तु तं कारणं अपूरितो।
अहवा समाणियम्मी, सारणया वा विसग्गो वा ॥१॥" छाया-उपसंपन्नो यत्कारणं तु तत्कारणम् अपूरयन् ।
अथवा समानीते सारणता च विसर्गों वा ॥१॥ एवमुपाध्यायस्य गणिनोऽपीति ।। सू० ४८ ।।
पूर्व विशिष्टा साधुकायचेष्टा त्रिस्थानकावतारेण मोक्ता, साम्प्रतं वचनमनसी तनिषेधौ च त्रिस्थान केऽवतारयन् सूत्रचतुष्टयमाह
मूलम्-तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा तवयणे तदन्नवयणे णो अवयणे १ । तिविहे अवयणे पण्णत्ते, तं जहा--णो तबयणे, णो तदन्नवयणे अक्यणे २। तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहा-तम्मणे तदन्नमणे णो अमणे ४ । तिविहे अमणे पण्णत्ते, तं जहा-णो तम्मणे, णो तदन्नमणे अमणे ४ ॥ सू० ४९ ॥ सिद्धप्रयोजन वाले बने हुए मुनि को जो छोड़ देता है वह आचार्यवि. हानि है। कहा भी है-उवसंपन्नो जे कारणं इत्यादि ।। ___अर्थात्-जिस कारण को लेकर जो मुनि आया है उसको नहीं पूरा करते हुए का अथवा सारणा द्वारा उस कारण को पूरा किये हुए का जो त्यागना पीछा भेजना वह आचार्य विहानि है ॥ १ ॥
इसी प्रकार से उपाध्यायविहानि और गणिविहानि के संबंध में भी कथन करना चाहिये ॥ सू०४८॥
विशिष्ट साधुकी कायचेष्टा त्रिस्थानक के प्रकरण से कह दी गई है अब सूत्रकार वचन मन को और इनके निषेध को तीन भेद से कहते પ્રાપ્તિરૂપ કાર્ય સિદ્ધ થઈ જાય ત્યારે પણ આચાર્ય તેને પિતાની પાસેથી જવા है छ, तेनु नाम पर विहान छे. ४थु पर छ-उवसंपन्नो ज कारणं इत्यादि , “જે કારણે મુનિ તેમની પાસે આવેલ છે, તે કારણ પૂરું નહીં કરવાથી
અથવા તેને અનુરૂપ આચરણ નહીં કરવાથી, અથવા સારણ દ્વારા તે કારણને પૂર્ણ કરનારને જે ત્યાગ કરો. તેને પાછા જવાની રજા આપવી, તેનું નામ આચાર્ય વિહાની છે ઉપાધ્યાય વિહાનિ અને ગણિવિહાની વિષે પણ આ પ્રકારનું જ કથન સમજવું કે સૂ. ૪૮ છે
વિશિષ્ટ સાધુની કાયચેષ્ટાનું ત્રિસ્થાનકને આધારે પ્રતિપાદન થઈ ગયું. હવે સૂત્રકાર વચન, મન અને તેમના નિષેધનું ત્રણ ભેદની અપેક્ષાએ પ્રતિ
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सुंघा टीका स्था०३७० ३०४९ वचनमनसो तन्निषेधत्रित्वनिरूपणम्
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छाया - त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तं, तद्यथा तद्वचनं, तदन्यवचनं, नो अवचनम् १। त्रिविधमवचनं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नोतद्वचनं, नोतदन्यवचनं, अवचनम् २। त्रिविधंमनः प्रज्ञप्तं, तद्यथा - तन्मनः, तदन्यमनः, नो अमनः ३ । त्रिविधममनः प्रज्ञप्तं, तद्यथा नोतन्मनः नोतदन्यमनः, अमनः ४ ॥ सू० ४९ ॥
टीका - ' तिविहे वयणे ' इत्यादि, सूत्र चतुष्टयस्य संक्षिप्ता व्याख्यात्रिविध वचनम् । तदेवाह - तद्ववचनम् - तस्य विवक्षितार्थस्य घटादेर्वचनं भणनं तद्वचनं घटार्थापेक्षया घटवचनवत् । तदन्यवचनम् - तस्माद् विवक्षितघटादेरन्यः पटादिः, तस्य वचनं तदन्यवचनम्, घटापेक्षया पटवचनवत् । नो अवचनम् - अभ णननिवृत्तिर्वचनमात्रं डित्यादिवदिति । [ अथवा सः - शन्दव्युत्पत्तिनिमित्त-धर्महुए चारसूत्र का कथन करते हैं - ( तिविहे वयणे पण्णत्ते ) इत्यादि ।
सूत्रार्थ- वचन तीन प्रकारका कहा गया है जैसे - तद्वचन, तदन्यवचन और नो अवचन, अवचन भी तीन प्रकारका कहा गया है - जैसे-नो तहचन, नो तदन्यवचन और अचचन, मन भी तीन प्रकार का कहा गया है जैसे तन्मन, तद्न्य मन और नोअमन, अमन भी तीन प्रकार का कहा गया है - जैसे नोतन्मन, नोतदन्यमन और अमन ।
टीकार्थ - इस सूत्र की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार से है - घटादिरूप दिवक्षित अर्थ का कहनेवाला वचन तद्वचन है जैसे घटादि अर्थ की अपेक्षा घटवचन तद्वचन होता है विवक्षित घटादि से अन्य जो पटादि है वह अन्य है उनका कहने वाला वचन तदन्यवचन है जैसे घटापेक्षा से पटवचन तद्न्यवचन होता है, वचनमात्र का नाम नो अवचन है यह नो पाहन ४२तां यार सूत्रो न पुरे छे-" तिविहे वयणे पण्णत्ते " छत्याहिवयन त्रषु अारनां ह्यां छे - ( १ ) तद्ववयन, (२) तहन्यवयन भने (3) નામવચન, વચનના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે-(૧) નૈાતદ્વવચન, (२) नोतहन्यवयन, भने (3) अवयन भन यागु त्रषु प्रहार अह्यु छे-(१) तन्भन, (२) तहन्यभन, अने (3) नोभन, अमन यात्रा अभरनु धुं छे- (१) नो तन्भन, (२) नो तहन्यभन भने (3) असन,
આ સૂત્રનુ' ‘સ‘ક્ષિપ્ત વિવેચન આ પ્રમાણે છે-(૧) ઘટાદિપ અમુક અને કહેનારા વચનને તદ્નચન કહે છે. જેમકે ઘટાદિ અની અપેક્ષાએ ઘટરૂપ વચનને તદ્વવચન કહેવાય છે. વિક્ષિત ( અમુક ) ઘટાદિ સિવાયના જે પટાદ છે, તે અન્ય પદાર્થ રૂપ હાવાથી તેમનુ કથન કરનાર વચનને તદન્ય વચન કર્યુ છે, જેમકે ઘટની અપેક્ષાએ પુરૂપ વચન તન્ય વચન ગણુાય છે.
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स्थानानसूत्रे १०२ विशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यत इति तद्वचनं-यथार्थनामेत्यर्थः, ज्वलन्तपनादिवत् । तथा तस्मात्- शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टादन्यः-शब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यतेऽनेनेति तदन्याचनम् , अयथार्थमित्यर्थः, मण्डनादिवत् । तथा उभयव्यतिरिक्तं नो अवचनं, निरर्थकमित्यर्थः, डित्यादिवत् । ( अथवा-तस्यअवचन अभणन की निवृत्तिरूप होता है अथवा-"सोऽर्थोऽनेन उच्यते इति तद्वचनम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार शब्द की व्युत्पत्ति के निमितभूत धर्म से विशिष्ट अर्थ जिसके द्वारा कला जाता है वह तद्वचन है तात्पर्य इसका ऐला है कि जेला अर्थ है उसको उसी रूप से करने वाला वचन तद्वचन है। यह नवचन ज्वलनतपनादि की तरह यथार्थनामरूप है, ज्वलन में ज्वलन (अग्नि) इस शब्द की व्युत्पत्ति का निमित्त जलानारूप धर्म है अतः इस धर्म से विशिष्ट वह ज्वलनपदार्थ है और ज्वलन पदार्थ को कहने वाला ज्वलनशब्द तवचन है इसी प्रकार से अन्यत्र भी समझना चाहिये (तस्मात् अन्धः अर्थः उच्यतेऽनेन इति तदन्यवचनम् ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार शब्द की व्युत्पत्ति का निमित्त भूत जो धर्म है उस धर्म से विशिष्ट जो पदार्थ है उस पदार्थ को उस शब्द द्वारा न कहकर अन्य शब्द द्वारा कहने वाले का वचन तदन्यवचन है जैसे सीप को चांदी कहने वाला वचन तथा जो वचन डित्यादि वचन की तरह निरर्थक होता है वह नोअवचन है अथवा तद्वचन વચનમાત્રનું નામ ને અવચન છે, તેને વચન અભણની નિવૃત્તિરૂપ હોય છે. मथवा सोऽर्थानेन उच्यते इति तद्वचनम् " । व्युत्पत्ति अनुसार शहनी વ્યુત્પત્તિના નિમિત્તભૂત ધર્મથી વિશિષ્ટ અર્થ જેના દ્વારા કહેવામાં આવે છે, તે તદ્રવચન છે. આ કથનને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-જે અર્થ (પદાર્થ) છે, એવાં જ રૂપે તેને કહેનારા વચનને તકવચન કહે છે. આ તદ્રવચન, જલન, તપન આદિની જેમ યથાર્થ નામરૂપ હોય છે. જવલનમાં જવલન (અગ્નિ) આ શબ્દની વ્યુત્પત્તિના નિમિત્તરૂપ બાળવારૂપ ધર્મ છે. તેથી આ ધર્મથી યુક્ત તે વલા પદાર્થ છે અને જ્વલન પદાર્થને કહેનારે જવલન શબ્દ તદ્રવચન छ. मे प्रभारी तपन माह विष ५५] समन. “ तस्मात् अन्यः अर्थः उच्यतेऽनेन इति तदन्यवचनम् ॥ २॥ व्युत्पत्ति भनुसा२ शनी व्युत्पत्तिना નિમિત્તભૂત જે ધર્મ છે, તે ધર્મથી યુક્ત જે પદાર્થ છે, તે પદાર્થને તે શબ્દ દ્વારા કહેવાને બદલે અન્ય શબ્દ દ્વારા તેનું કથન કરનાર વચનને તદન્ય વચન કહે છે જે पयन “हित्य" मानियननी रेभ निरथ डाय छे ते नसयन डे छे.
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सुघाटीका स्था०३ उ०३ सू०४९ वचनमनसो तन्निषेधनित्वनिरूपणम् १०३ आचार्यादेवचनं तद्वचनम् । तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनम्-अविवक्षितप्रणेत विशेषम् । नो अवचनं वचनमात्रमित्यर्थः ।१।।
तिविहे अवयणे इत्यादि, त्रिविधवचन मतिषेधस्त्वचनं, तत्त्रिविधं, तथाहिनो तद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत्, नोतदन्यवचनं घटे घटवचनवत् , अवचनं वचननिवृत्तिमात्रमिति । एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि विज्ञेयम् ।२। । ___ 'तिविहे मणे' इत्यादि, त्रिविधं मनस्तथाहि-तस्य जिनदत्तादेः, तस्मिन्वा घटपटादौ मनस्तन्मनः तत्-तस्माद्-जिनदत्ताद् अन्यस्य ऋषभदत्तादेघटादन्यस्मिन् पटादौ वा मनस्तदन्यमनः अविवक्षितस्वजनविशेषं तु मनोमात्रं नो अमनइति ।३। आदि शब्द का अर्थ इस प्रकार से भी होता है (तस्य वचनम् तद्वच. नम् ) आचार्य आदि का जो वचन है वह तद्वचन है इनसे भिन्न का जो वचन है वह तदन्यवचन है और वचनमात्र का नाम नो अबचन है (तिविहे अश्यणे) इत्यादि पूर्वोक्त त्रिविधवचन का प्रतिषेधरूप अवचन होता है यह अवचन भी तीन प्रकार का कहा गया है जैसे नो तद्वचन ? यह नो तवचन घटादि की अपेक्षा पटवचन रूप होता है। अर्थात् घटवचन से पटवचन नो तद्वचन है । घट में घटवचन की तरह जो वचन है वह नो तदन्यवचन है तथा वचन की निवृत्तिमात्र अवचन है इसी तरह से यहां अन्य व्याख्या की अपेक्षा भी कथन कर लेना चाहिये। ___ “तिविहे मणे" इत्यादि जिनदत्त आदि का जो मन है वह अथवा घः पटादि में लगा हुआ जो मन है वह तन्मन है जिनदत्त के सिवाय अन्य ऋषभादि का जो सन है यह अथवा घटादि से अन्य पटादि में अथवा तद्वयन या शहाना मा प्रारना म° ५ थाय छ-" तस्य वचनम् नद्वचनम् " मायाय मानि २ क्यन ते तवयन ४ाय छे. तमनाथी ભિન્ન વ્યક્તિના વચનને તદન્યવચન કહે છે, અને વચનમાત્રનું નામ ને અવચન छ. “तिविहे अवयणे" त्याह
પૂર્વોક્ત ત્રણ પ્રકારના વચનના પ્રતિધરૂપ અવચન હોય છે. આ અવચનના પણ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) નેતદ્વચન આ નેતદ્વચન ઘટાદિની અપેક્ષાએ પટવચનરૂપ હોય છે. એટલે કે ઘટવચનની અપેક્ષાએ પટવચન નેતદ્વચન છે ઘટમાં ઘટવચનની જેમ જે વચન છે તે તદન્યવચન છે, તથા વચનમાત્રની નિવૃત્તિનું નામ અવચન છે. એ જ પ્રમાણે અહીં અન્ય વ્યાખ્યાની અપેક્ષાએ ५९ ४थन सभल नये. “तिविहे मणे" त्यादि
જિનદત્ત આદિનું જે મન છે તેને, અથવા ઘટપટાદિમાં લાગેલું જે મન છે તેને તમ્મન કહે છે. જિનદત્ત સિવાયના જે બાષભાદિનું મન છે તેને
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स्थानास्त्रे ‘तिविहे अमणे' इत्यादि, त्रिविधममनः, तद् अवचनवद् व्याख्येयम् ।६।। मू० ४९ ॥
पूर्व संयतमनुष्यादि व्यापारा उक्ताः, साम्मतं तु प्रायो देवव्यापारान् परू. पयन् प्रथमं दृष्टिकायारूपणां मूत्रद्वयेनाह--
मूलम्--तीहि ठाणेहि अप्पबुटिकाए सिया, तं जहा-तस्सि चणं देसंसि वा पएसंसि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उद्गयाए वक्कमति विउक्कमति चयंति उववज्जति १, देवा णागा जक्खा भूया णो सम्समाराहिया भवंति, तत्थ समुहियं उद्गपोग्गलं परिणयं वासिउकामं अन्नं देसं साहरांति २ । अब्भवद्दलगं च णं समुट्रियं परिणयं वासिउकामं वाउकाए विधुणइ ४ । इच्चएहिं तीहिं ठाणेहि अप्पबुटिकाए सिया १। तीहि ठाणेहिं महावुष्टिकाए सिया, तं जहा -तंलि च णं देसंति वा पएसंसिं वा बहवे उदगजोणिया जीवा यपोग्गला य उदगयाए वक्रमति विउकसंति चयंति उववजंति १, देवा नागा जक्खा भूया सम्ममाराहिया, भवति अन्नत्थ समुट्टियं उदगपोग्गलं परिणयं वालिउकामं तं देसं साहरंति२ अभवद्दलगं च णं समुष्टियं परिणयं वासिउकामं णो वाउकाओ विधुणइ४। इच्छेएहिं तीहि ठाणेहि महाबुट्रिकाए सिया २॥५०॥ संलग्न जो मन है वह तदन्यमन है मनोमात्र का नाम नो अमन है त्रिविध अमन अवचन की तरह व्याख्यात कर लेना चाहिये । सू०४९॥ અથવા ઘટાદિ સિવાયના પટાદિમાં લીન થયેલું જે મન છે તેને તદન્યમન કહે છે મને માત્રનું નામ નો અમન છે. ત્રિવિધ અમનની વ્યાખ્યા પણ અવચનના वी०४ समावी. ॥ सू. ४८ ॥
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सुधा टीका स्था० ३ उ०३ सू० ५० वचनमनसो तन्निषेत्रित्वनिरूपणम् १०५ छाया-त्रिभिः स्थानरल्पवृष्टिकायः स्यात् , तद्यथा-तस्मिंश्च खलु देशेवा प्रदेशे वा नो वहव उदकयोनिका जीवाश्च पुद्गलाश्च उदकतयाऽवक्रामन्ति, व्युत्क्रामन्ति, च्यवन्ते, उपपद्यन्ते १, देवा नागा यक्षाभूता नो सम्यगाराधिता भवन्ति, तत्र समुत्थितमुदकपौद्गलं परिणतं वर्पितुकाममन्यं देशं संहरन्ति २, अभ्रवादलकं च खलु समुत्थितं परिणतं वषितुकामं वायुकायो विधुनोति ३, इत्येतस्त्रिभिः स्थानरल्पदृष्टिकायः स्यात् ।। १।। त्रिभि- स्थानैमहारप्टिकायः स्यात् , तद्यथा-तस्मिंश्च खलु देशे वा प्रदेशे वा वढव उदकयोनिका जीवाश्च पुद्गलाश्च उदकतयाऽवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति च्यवन्ते उपपद्यन्ते १, देवा नागा यक्षा भूताः सम्यगाराधिता भवन्ति, अन्यत्र समुत्थितमुदकपौद्गलं परिणतं वर्षितुकामं तं देशं संहरन्ति २, अभ्रवादलकं च खलु समुत्थितं परिणतं वर्पितुकामं नो वायुकायो विधुनोति ३ इत्येतैत्रिभिः स्थानैर्महादृष्टिकायः स्यात् ।।२॥ सू० ५० ॥ ___टीका-' तीहिं' इत्यादि । त्रिभिः स्थानः-कारणों केऽल्पवृष्टिकायःअल्पः-स्तोकः अविद्यमानो वा वर्पणं-वृष्टिः-अपामधः पतनम् , तत्प्रधानः काय:जीवनिकायो व्योमनिपतदप्काय इत्यर्थः, अथवा वर्षणधर्मयुक्तमुदकं वृष्टिः, तस्याः कायो-राशिष्टिकायः, अल्पश्चासौ वृष्टिकायश्चेति-अल्पदृष्टिकायः, स स्यात्
पहिले संयतमनुष्य आदि के व्यापार कहे जा चुके हैं, अब सूत्रकार प्रायः देव व्यापारों की प्ररूपणा करने के निमित्त प्रथम वृष्टिकाय की प्ररूपणा दो सूत्रसे करते हैं-(तीहिं ठाणेहिं अप्पवुष्टिकाए)इत्यादि । टीकार्थ-तीन कारणोंसे लोकमें अल्पवृष्टिकाय होता है यहां अल्प शब्द का अर्थ स्तोक अथवा नहीं होता है । वृष्टि शब्द का अर्थ वर्षी-ऊपर से पानी का नीचे पड़ना ऐसा है, और काय शब्द का अर्थ जीवनिकाय अथवा राशि है लोक में जो अपकायिक जीवों का अल्पमात्रा में नीचे गिरना होता है या नहीं वरसना होता है अर्थात् जो अल्पवर्षा होती
સંયત મનુષ્ય આદિની પ્રવૃત્તિનું કથન આગળ કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર સામાન્ય રીતે દેવવ્યાપારની પ્રરૂપણું કરવા નિમિત્તે પહેલાં તે वृष्टिायनी प्र३५ मे सूत्री द्वा२।४२ छ-" तीहिं ठणेहि अल्पवुद्विकाए" त्याहि.
ટીકાર્ય–ત્રણ કારણને લીધે લોકમાં અલ્પવૃષ્ટિકાય થાય છે. અહીં “અલ્પ सटले 'स्त' (साछी) अथवा “मिस नहीं" अर्थ थाय छे वृष्टि એટલે વરસાદ અથવા ઉપરથી પાણી નીચે પડવું તે અને “કાય’ શબ્દને અર્થ જવનિકાય અથવા રાશિ થાય છે લેકમાં જે અકાયિક છે અલ્પ પ્રમાણમાં નીચે પડવાનુએટલે કે અલ્પવૃષ્ટિ અથવા અનાવૃષ્ટિ થાય છે, તેના
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स्थानानसूत्रे
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भवेत्, तद्यथा - तानि कारणानि यथा - तरिमन् प्रसिद्धे च शब्दः कारणान्तरसमुच्चयार्थः णमिति वाक्यालङ्कारे, देशे - मगधादौ वा - अथवा प्रदेशे - तस्यैवैकदेशे नोनैव बहवः - बहुलाः उदकयोनिका :- उदकस्प - जलस्य योनयः - परिणामकारणभूता उदकयोनयस्तएव तथा - उदकोत्पादनस्वभावाः के ? इत्याह- जीवाः - अष्कायप्राणिनः तथा पुद्गलाः- अप्कायोत्पादका पुद्गलस्कन्धा उदकतया - उदकरूपेणनो - अवक्रामन्ति - सामान्यतः नो उत्पद्यन्ते नो व्युत्क्रामन्ति - विशेषतः नो उत्प द्यन्ते, नो च्यवन्ते - उदकतयोत्पतितुमन्ययोनितो नो निस्मरन्ति, नो उपपद्यन्तेक्षेत्रस्वभावादुत्पन्नानो भवन्तीति प्रथमं स्थानम् १, तथा देवा: - वैमानिका - ज्योतिकाश्च नागाः - नागकुमाराः - भवन पतिविशेषाः, यक्षा - भूताथ व्यन्तरविशेषाः, एतद् ग्रहणं चैषां प्रायस्तथाविधकर्मणि महत्तिसद्भावादिति, एते नो सम्यगारा - धिर्ता भवन्ति, तस्मात्कारणात्ते देवादयः तत्र - मगधादौ समुत्थितम् - उत्पन्नम् उदकहै या वर्षा नहीं होती है वह अल्पवृष्टि है, उसके तीन कारण हैं- इनमें प्रथम कारण ऐसा है कि उस देश में मवधादि देश में अथवा उसके एक भाग में उदक के परिणाम कारणभूत-उदक उत्पादन स्वभावरूप अनेक अकायिक प्राणी तथा अष्कायोत्पादक पुद्गलस्कन्ध उदकरूप से उत्पन्न नहीं होते हैं अन्ययोनि से उदकरूप में बनने के लिये निकले नहीं हैं, या क्षेत्रस्वभाव से वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं, द्वितीय कारण इस प्रकार से है - देव वैमानिक और ज्योतिष्क तथा नाग - लागकुमार भवनपतिविशेष और यक्षभूत व्यन्तर विशेष ये वहां पर सम्यक रूप से आराधित नहीं हुए हैं क्यों कि दृष्टिरूप कार्यके करने में इनकी प्रवृत्तिका सद्भाव माना जाता है, अतः जब ये वहां सम्यक रूप से आराधित नहीं होते हैं तो ये देवादिक मगवादि देश में बरसने को उद्यत हुए उदक
ત્રણ કારણેા નીચે પ્રમાણે છે-(૧) તે દેશમાં-મગધાદિ દેશમાં કે તેના એક ભાગમાં ઉદ્યક ( પાણી ) ના પરિણામ કારણભૂત–ઉદક ઉત્પાદન સ્વભાવરૂપ અનેક અપ્રકાયિક જીવા તથા અપ્રકાયાપાદકો પુદ્ગલ કન્ય ઉદક રૂપે ઉત્પન્ન થતા નથી, અન્ય ચેાનિમાંથી ઉદક રૂપમાં આવવાને માટે નીકળ્યા હાતા નથી, अथवा क्षेत्रस्वभावथी त्यां उत्पन्न थया नथी. (१) वैभानिओ, भ्योतिष्डौ, नागકુમારાદિ ભવનપતિ, યક્ષરૂપ ન્યન્તર વિશેષ વગેરેની ત્યાં સારી રીતે આરાધના હાતી નથી વરસાદ વરસાવવામાં આ દેવેની પ્રવૃત્તિને સદ્ભાવ જરૂરી ગણાય છે. જો મગધાદિ દેશમાં તેમની આરાધના સારી રીતે ન થતી હોય તે આ દેવા મગધાદિ દેશમાં વરસવાને પ્રવૃત્ત થયેલા ઉકપ્રધાન પુદ્ગલ સમૂહને મેઘને ત્યાંથી ખ’ગાળા, અંગદેશ આદિ દેશામાં લઇ જાય છે.મેઘેાને, ચમકતી વિજળીને અને મેઘાની
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सुधा डीका स्था०३०३ ०५० वचनमन सो तन्निषेधत्रित्वनिरूपणम्
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पौद्गलम् - उदकमधानः पुद्गलसमूह - उदक पौद्गलो मेघ इत्यर्थस्तं, तथा परि तम् उदकवर्षणावस्थां प्राप्तमत एव विद्युद्गर्जनादिकरणाद् वर्षितुकामम्, अन्य देशमङ्गबङ्गादिकं संहरन्ति नयन्तीति द्वितीयं कारणम् २। अभ्रवालकम्अ - आकाशे समागतं चार्दलकं- मेवं, वायुकायः - प्रचण्डकायः विधुनोति दिशिदिशि विकरतीति तृतीयं कारणम् ३ । इत्येतैस्त्रिभिः कारणैरल्पवृष्टिकायः स्यादिति ॥१॥ अथ महावृष्टिकायन्त्रमाह-' तीहि ' इत्यादि सुगमं नवरं - महान् - पुष्कलःदृष्टिकायो महावृष्टिकायः पुष्कलाब्जीवनिकायः अत्र देवादयः सम्यगाराधिता:सन्तः अन्यत्र - अन्यदेशे अङ्ग वङ्गादौ समुत्थितमुदकपौद्गलं परिणतं वर्षितुकामं
प्रधान पुगल समूह को - सेव को कि जिसमें बिजली चमकती है, बड़े जोर की गर्जना होती है और इससे ऐसा आभास होने लगता है कि पानी अब बरसने वाला ही है, अन्यदेश में अङ्ग बङ्ग आदि देश में वहां से ले जाते हैं । तृतीय कारण- आकाश में वर्षा उत्पन्न करने वाले बादलों का प्रचण्डपवन से इधर उधर हरएक दिशा में विखेर देना है । इन तीन कारणों को लेकर अल्पवृष्टिकाय होता है । महावृष्टिकाय सूत्र - ' -" तीहिं " इत्यादि रूप है इसका अर्थ अल्पवृष्टिकाय के सूत्र से बिलकुल विपरीत है अर्थात् वहां जो कारण अल्पवृष्टिकाय के लिये कहे गये हैं - वे ही कारण यहां विपरीत रूप में कहे गये हैं । पुष्कल वृष्टिकाय का नाम महावृष्टिकाय है इस महावृष्टिकाय में पुष्कल अप जीवनिकाय रहता है यहां सम्यक्रूप से आराधित हुए देवादिक
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ગર્જનાને સાંભળીને લેાકેા એવા ભ્રમમાં પડે છે કે હમણાં જ વરસાદ વરસવા માંડશે, પણ ઉપયુક્ત કારણે તેમની તે માન્યતા ઠગારી નિવડે છે. કેટલીકવાર પ્રચંડ પ્રવચનને લીધે વરસાદ વરસાવનારાં વાદળાએ આમ તેમ વિખરાઇ જવાને લીધે પણ વરસાદ પડતા નથી. આ પ્રકારના ત્રણ કારણેાને લીધે અલ્પવૃષ્ઠિકાય ( આછે વરસાદ અથવા અનાવૃષ્ટિ) થાય છે. મહાવૃષ્ટિકાયસૂત્ર 'तीहि " ઇત્યાદિ રૂપ છે. અલ્પવૃષ્ટિકાયના સૂત્ર કરતાં આ સૂત્ર બિલકુલ વિપરીત અ་વાળુ' છે. ત્યાં અપવૃષ્ટિના જે ત્રણ કારા કહ્યાં છે, તેમના કરતાં મહાવૃષ્ટિનાં વિપરીત કારણા કહ્યા છે. પુષ્કળ માત્રામાં વરસતા વૃષ્ટિકાયને મહાવૃષ્ટિકાય કહે છે. મહાવૃષ્ટિકાયમાં પુષ્કળ અપૂછવનિકાય રહે છે. મહાવૃષ્ટિ ક્યારે થાય છે ? ઉપર્યુક્ત દેવાની જ્યારે સમ્યક્ આરાધના કરવામાં આવે છે, ત્યારે અન્ય દેશમાં જવાને પ્રવૃત્ત થયેલા મેઘને તે પેાતાની જ્યાં સમ્યક્ આરાધના
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स्थानिमसूत्र तं देशं मगधादिकं संहरन्ति-आनयन्ति ।२। नो वायुकायस्तं विधुनोति । शेष पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० ५० ॥
देवव्यापारानेव प्ररूपयन् अधुनोपपन्नदेवप्ररूपणं मूत्रद्वयेनाह
मूलम्-तीहि ठाणेहि अहणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तं जहा--अहणोववन्ने देवे देवलोएसु दिवेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने, से णं माणुस्सए कामभोगेणो आढाइ णो परियाणाइ णो अठं बंधइ णो नियाणं पगरेइ णो ठिइपकप्पं पकरेइ १ । अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिवेसु कालभोएसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने, तस्स णं माणुस्सए पेम्सेवोच्छिपणे दिवे संकेते भवइ २ । अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिवेसुकामभोएसुमुच्छिए जाव अज्झोववन्ने तस्स णं एवं भवइ-इयहिं न गच्छं मुहुत्तं गच्छं, तेणं कालेणं अप्पाउया अणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति ३। इच्चेएहिं तीहिं ठाणेहि अहणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुस्सलोगं हवमागच्छित्तए,णो चेवणं संचाएइ हव्वमागच्छितए॥१॥तीहि ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तं अन्यत्र देश में समुत्थित मेध को विवक्षित देश में वर्षाने के लिये ले आते हैं। वायुकाय इन अभ्रवादलिकों को एक स्थान से दूसरे स्थान में उड़ाकर नहीं ले जाता है ।। सू०५० ॥
થતી હોય એવા દેશમાં લઈ જઈને વરસાવે છે. વળી વાયુકાયરૂપ પ્રચંડ પવન તે વાદળાઓને બીજે સ્થાને લઈ જવાને બદલે ત્યાં જ રહેવા દઈને પુષ્કળ વરસાદ વરસાવવામાં મદદરૂપ બને છે. જે સૂ, ૫૦ છે
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सुधा टोका स्था०३ ७०३ सू०५१ अधुनोपपन्नदेवनिरूपणम् १०६ जहा-अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोएसु अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने तस्ल णमेवं भवइअस्थि णं मम माणुस्सए भवे आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पवत्तएइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणहरेइ वा गणावच्छेदएइ वा, जेसि पभावेणं भए इमा एयारूवा दिवा देविड्डीदिव्या देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि गमंसामि सकारोमि सम्माणमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि १, अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु काममोएसु अमुच्छिए जाव अणज्झोववन्ने तस्स णं एवं भवइ एस णं माणुस्सए भवे णाणीइ वा तवस्सीइ वा अइदुकर दुकरकारए, तं गच्छामि णं भगवंतं वंदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि २, आहुणोववन्ले देवे देवलोएसु जाव अणज्झोववन्ने तस्ल णमेवं भवइ-अस्थिणं मम माणुस्सए भवे मायाइ वा पियाइ वा भजाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, पुत्ताइ वा, धूयाइ वा, सुण्हाइ वा, तं गच्छामि णं तेसिं. मंतियं पाउब्भवामि पासंतु ता मे इमं एयारूवं दिव्यं देविड्डूि दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमन्नागयं ३, इच्चेएहिं तीहि ठाणेहिं अहणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छित्तए संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ॥२॥ सू० ॥ ५१ ॥
छाया-त्रिभिः स्थानरधुनोपपन्नो देवी देवलोकेषु इच्छति मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं, नो चैव खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम् , तद्यथा-अधुनोपपनो देवो
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स्थानसूत्रे
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देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु सूच्छितो गृद्धः प्रथितः अभ्युपपन्नः, स खलु मानुव्यकान् कामभोगान् नो आद्रियते नो परिजानाति, नो अर्थ बध्नाति, नो निदर्शनं प्रकरोति, नो स्थिति प्रकल्पं प्रकरोति १ | अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितः अभ्युपपन्नः, तस्य खलु मानुष्यकं प्रेमव्युच्छिन्नं दिव्यं संक्रान्तं भवति २ | अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेपु मूच्छितो यावत्-अध्युपपन्नः, तस्य ख एवं भवति-द्वानों न गच्छामि मुहूर्त्त गमिष्यामि तेन कालेनाल्पायुष्का मनुष्याः कालधर्मेण संयुक्ता भवन्ति ३ । इत्ये
भः स्थाryalaya देवो देवलोकेषु इच्छति मानुष्यलोकं हव्यमागन्तु नो चैव खलु शक्नोति इन्यमान्तुम् ॥ १ ॥ त्रिभिः स्थानैरधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छति मानुष्यं लोक हव्यमागन्तुं शक्नोति हव्यमागन्तुं तथा अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु अमूर्च्छितः अगृद्धः जग्रथितः अनध्युपपन्नः, तस्य खल्वेवं भवति - अस्ति खलु मम मानुष्यके भने आचार्य इति वा, उपाध्याय इति वा, प्रवर्त्तक इति वा, स्थविर इति वा, गणीति वा, गणधर इति वा, गणाचच्छेदक इति वा, येषां प्रभावेण मया इयमेनपा दिव्या देवद्धिः, दिव्या देवद्युतिः, दिव्यो देवानुभावो लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः, तद् गच्छामि खलु तान् भगवतो बन्दे नमस्यामि सत्करोमि संमानयामि, कल्याणं सङ्गलं दैवत चेत्यं पर्युगसे १, अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु अमृच्छितो यावत् जनयु पपन्नः, तस्य खल्वेचं भवति - एष खलु मानुष्य के भवे ज्ञानीति वा तपस्वीति वा अतिदुष्करदुष्करकारकः, तद् गच्छामि तं भगवन्तं वन्दे नमस्यामि यावत् पर्यु - पासे २, अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु यावत् अनभ्युपपन्नः, तस्य खल्वेवं भवति अस्ति खलु मम मानुष्यके भवे मातेति चा, पितेति वा भार्येति वा, भ्रातेति वा, भगिनीति वा, पुत्र इति वा दुहितरइति वास्तुषेति वा तद् गच्छामि खल तेपामन्तिकं प्रादुर्भवामि पश्यन्तु तावत् मे इमामेतद्रूपां दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं लब्धं प्राप्तमभिसमन्वागतम् ३, इत्येतैस्त्रिभिः स्थानैरधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छति मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं शक्नोति हव्यमागन्तुम् | २|०५१ |
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देवव्यापारों की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार अधुनोपपन्नक देव की प्ररूपणा दो सूत्र से करते हैं - ( तीहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे ) इत्यादि ।
દેવવ્યાપારાની પ્રરૂપણા ચાલી રહી છે, તેથી હવે સૂત્રકાર અધુનાપન્ન ધ્રુવની ( તત્કાલ ધ્રુવલેાકમાં ઉત્પન્ન થયેલા દેવની) એ સૂત્ર દ્વારા પ્રરૂપણા
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सुधा ठीका स्था०३ उ०३ सू० ५१ अधुनोपपन्नदेव निरूपणम्
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टीका- 'तीहिं' इत्यादि, सुगमं, नवर-अधुना - तत्कालम् उपपन्नः - उपपातं प्राप्तः - अधुनोपपन्नः तत्क्षणदेवभव प्राप्त इत्यर्थः देवः क्व ? इत्याह- देवलोकेषु देवलोकानां मध्ये क्वचिद्देवलोक इत्यर्थः । ' देवलोकेषु ' इति बहुवचनमेकार्थ वाचकमेकस्यैकदाऽने के प्रत्यादासम्भवात् अथवा बहुवचनं देवलोकस्यानेकत्वोप दर्शनार्थम् । इच्छति-अभिलपति पूर्वसांगतिक दर्शनाद्यर्थं मानुष्यं - मनुष्याणामयं मानुष्यः४ । मनुष्यसम्बन्धी, तं लोकं मनुष्यलोकमित्यर्थः हन्यमिति शीघ्रम् आगन्तुं वैक्रियलब्ध्या, किन्तु नो-नैत्र न स शक्नोति - समर्थो भवति मनुष्यलोकमागन्तुमिति प्रक्रमः । तान्येव कारणान्याह - अधुनोपपन्नो देवस्तत्र देवलोके टीकार्थ-देवलोकों में से किसी एक देवलोकों में अधुनोपपन्नदेव-तत्काल उत्पन्न हुआ उसी क्षण में देवभव को प्राप्त हुआ-देव मनुष्यलोक में शीघ्र ही आने की इच्छा करता है- अर्थात् देवलोक में उत्पन्न हुआ नवीन देव यह चाहता है कि मैं इसी समय अपनी वैक्रिय लfor से मनुष्यलोक में चला जाऊं - परन्तु वह मनुष्यलोक में आने के लिये जो वहां से समर्थ नहीं होता है, इसके तीन कारण हैं " देवलोकेषु " ऐसा जो यहां बहुवचन का निर्देश किया गया है सो उसका तात्पर्य ऐसा हैं कि देवलोकों में से किसी एक देवलोक में “अधुनोपपन्नदेव " तत्क्ष
देवभव को प्राप्त हुआ देव इस तरह यहां बहुवचन एकार्थवाचक है क्यों कि एक का एक काल में अनेक देवलोकों में उत्पत्ति नहीं हो सकती है | अथवा देवलोक अनेक हैं- इस बात को दिखाने के लिये यह वहुमेरे - " तीहि ठाणेहि अहुणोववन्ने देवे " त्याहि
ટીકા દેવલેાકેામાંના કાઈપણ એક દેવલાકમાં અનેાપપન્નક દેવ-હમણાંજ ઉત્પન્ન થયેલા દેવ-આ ક્ષણે જ જેણે દેવભવ પ્રાપ્ત કર્યાં છે એવા દેવ-મનુષ્ય લાકમાં તુરત જ આવવાની ઇચ્છા કરે છે, એટલે કે દેવલાકમાં દેવની પોંચે ઉત્પન્ન થયેલા નવીન દેવ એવું ચાહે છે કે હુ અત્યારે જ મારી વૈક્રિયલબ્ધિ વટે મનુષ્યલેાકમાં ચાલ્યા જઉં. પરન્તુ નીચે દર્શાવેલા ત્રણ કારણેાને લીધે તે भनुष्यलोभां भाववाने समर्थ थतेो नथी - " देवलोकेषु " म यह द्वारा यहीं જે મહુવચનના પ્રયાગ થયેા છે તેના દ્વારા એ સૂચિત થાય છે કે જે દેવसोछे तेमांना पशु देवोभां ' अधुनोपपन्नदेव દેવની પાઁચ ઉત્પન્ન થયેલા દેવની અહીં વાત કરવામાં આવી છે, આ રીતે અહીં મહુવચન એકા વાચક છે, કારણ કે એક દેવની એક જ કાળે અનેક દેવલેકેટમાં ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી. અથવા દેવલાક અનેક છે એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે અહીં બહુવચન વપરાયુ છે. તે મનુષ્યલેકમાં આવવાની ઈચ્છા
" मा क्षोभ
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दिवि भवा दिव्या देवसम्वन्धिनस्तेषु दिव्येषु कामभोगेषु तत्र कामाः - शब्दरूप - लक्षणाः, भोगाः - गन्धरसस्पर्शलक्षणाः कामभोगास्तेषु, अथवा काम्यन्ते - अमिलव्यन्त इति कामाः - मनोज्ञाः, भुज्यन्ते - भोगविषयीक्रियन्त इति भोगाः शब्दादयः, कामाश्च ते भोगाइवेति कामभोगास्तेषु मूच्छित इव मूच्छितः, तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेवबोधक्षमत्वात् गृद्धः - तदाकांक्षातिशयवान् अतृप्तइत्यर्थः, ग्रथित ग्रथितः तद्विपयस्नेहरज्जुभिः संदर्भितः, अध्युपपन्नः - तदध्यवसाया तिशयनशा दाधिक्येनासक्तः, अत्यन्ततन्मना इत्यर्थ, एतादृशः स देवो मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् नो आद्रियते न तान् आदरभावेन चिन्तयति न तेष्वादवान् भवतीत्यर्थः, नो परिजानाति तान् वस्तुत्वेन नो मन्यते, नो-नैव तेषु अर्थ - प्रयोजनं बध्नाति - ' एतैर्मम प्रयोजनम् ' इति न निश्चिनोति, तथा नो नैव तत्प्राप्त्यर्थं
वचन प्रयुक्त हुआ है । वह मनुष्यलोक में इसलिये आने की कोमनो करता है कि वह इसके पूर्व में यहां रहा है सो पूर्वसांगतिक (पूर्वपरिचित) को देखने की उसे कामना रहती है इस बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने ऐसा कहा है। वह यहां जो आना चाहता है सो वैकिलब्धि से ही आना चाहता है यह अनुक्त बात यहां जाननी चाहिये क्यों कि देव मूलशरीर से नहीं आता है । परन्तु आने की कामना वाला भी वह यहां जो नहीं आ पाता है सो उसके ये तीन कारण हैंइनमें पहिला कारण ऐसा है कि वह अधुनोपपन्न देव देवलोक में जो दिव्य कामभोग हैं उनमें सूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हो जाता है अतः मनुष्य संबंधी कामभोगों के प्रति उसका आदरभाव नहीं रहता है वह उन्हें अच्छा नहीं मानता है उन्हें अपने काम को नहीं
એ કારણે ઇચ્છા કરે છે કે પૂર્વ ભવના આયુકાળ તેણે ત્યાં પસાર કરેલેા છે, પૂપરિચિત સ્નેહીઓને દેખવાની તેને કામના રહે છે, આ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકારે અહીં આ પ્રમાણે કહ્યું છે—
તે અધુનેપપન્નક દેવ, અહીં આવવા ચાહે છે તે વૈક્રિયલબ્ધિથી જ આવવા ચાહે છે, તે વાતને અયુક્ત માનવા જેવી નથી, કારણ કે પેાતાના મૂળ શરીરે અહીં આવતા નથી. આ મનુષ્યલેાકમાં આવવાની કામનાવાળા દેવ પણ અહીં જે આવી શકતા નથી તેના ત્રણ કારણેા નીચે પ્રમાણે છે— (१) अधुनापन्न हेव (मा क्षोभ हेवनी पर्याये उत्पन्न_ थयेोा देव) देवसेोऽना हिव्य अभलोगोभां मेव। भूछित, गृद्ध ( सुध ), ग्रथित (उडा ચેલેા) અને અધ્યુપપન્ન ( તલ્લીન ) થઈ જાય છે કે મનુષ્યસમ ધી કામભાગે પ્રત્યે તેને આદરભાવ રહેતા નથી—તેની નજરે મનુષ્યના કામભાગે તેા તુચ્છ
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सुधा टीका स्था०३ उ०३ सू० ५१ अधुनोपपनदेवनिरूपणम् ११३ समझता है उनमें निदान से नहीं बंधता है ये मुझे सदा मिलें ऐसा उनमें संकल्प नहीं करता है शब्द और रूप कामशब्द से, गंध, रस,
और स्पर्श ये भोग शब्द से यहां लिये गये हैं अथवा-"काम्यन्ते इति कामाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अभिलषित होते हैं वे काम हैं -मनोज्ञ और “भुज्यन्ते इति भोगाः" जो भोगे जाते हैं वे भोग हैं ऐसे भोग शब्दादि रूप होते हैं इस तरह मनोज्ञ जो शब्दादिक हैं वे कामभोग हैं ऐसा अर्थ कामभोग शब्द का हो जाता है इन कामभोगों में वह मूञ्छित हुए की तरह मृच्छित हो जाता है क्यों कि वह इस पात के जानने में असमर्थ होता है कि इनका स्वरूए अनित्यादिरूप से बंधा हुआ है इसलिये वह उनमें गृह हो जाता है उनकी अधिक से अधिक आकांक्षा वाला बन जाता है-अतृप्त रहता है उनमें उसको इतना प्रबल स्नेह हो जाता है कि जैसे कोई रस्सी से जकड़ा हुआ होता है वैसा वह उस स्नेह से उनमें जकड़ जाता है अतः वह उनमें तन्मय
લાગે છે. તે કામોને તે સારા ગણતો નથી, તેમને તે પિતાના કામના માનતું નથી, તે કામમાં તે નિદાનથી બંધાતું નથી એટલે કે તે કામ ભોગોની પિતાને પ્રાપ્તિ થાય એવો સંકલ્પ કરતો નથી અહીં “કામ” પદથી શબ્દ અને રૂ૫ ગ્રહણ કરવા જોઈએ અને “ભોગ” પદથી ગંધ, રસ અને २५श हाय ४२ . अथवा " काम्यन्ते इति कामाः " मा व्युत्पत्ति मनुसा२ २ मनिषित ( छत) डाय छे तेनुं नाम म छ. "भुज्यन्ते इति भोगा. " सागवामा मावे छ तेन सा छ, वा nvaro રૂપ હોય છે. આ રીતે મનેz શબ્દાદિકને કામગ કહે છે, એમ સમજવું.
તે નવીન દેવ આ કામગોમાં મૂર્શિત થઈ જાય છે. જેમ મૂર્શિત વ્યક્તિને આજુબાજુનું ભાન રહેતું નથી, તેમ તે નવા ઉત્પન્ન થયેલા દેવને પણ તે કામમાં લીન થઈ જવાને લીધે બીજુ કઈ ભાન રહેતું નથી. તે કામમાં તે વૃદ્ધ (લાલુપ) થઈ જાય છે કારણ કે તે એ વાતને સમજવાને અસમર્થ બને છે કે તેનું સ્વરૂપ અનિત્ય આદિ લક્ષણોવાળું છે. તે આ કામગોની અધિકમાં અધિક આકાંક્ષાવાળો બની જાય છે અને તેનાથી તૃપ્ત થતું જ નથી આ કામગ પ્રત્યે તેને એટલો બધે નેહ બંધાય છે કે દેરીથી જકડાયેલા માણસની જેમ તે આ સ્નેહના બંધનથી જકડાયેલ માણસની જેમ તે આ સ્નેહના બંધનથી જકડાયેલો રહે છે, અને તે કારણે
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स्थामाङ्गसूत्र निदान-अमाप्तवस्तुप्राप्त्यभिलापरूपं प्रकरोति 'एते मेऽनागतकाले भूयासुः' इति न चिन्तयतीत्यर्थः । तथा नो-नैव स्थितिप्रकल्पं, स्थितौ-अवस्थाने प्रकल्पःसंकल्पः स्थिति प्रकल्पः-अवस्थान विकल्पः, 'एतेष्वहं तिष्ठेयम्' एते वा मम तिष्ठन्तु-स्थिरीभवन्तु ' इत्येवं रूपस्तम् , अथवा विशिष्टः प्रकल्पः-विप्रकल्पःआचार आसेवेत्यर्थः, स्थित्या-मर्यादया विप्रकल्पः स्थितिविप्रकल्पस्तं प्रकरोतिकत्तुर्ममारभते । एतद् अधुनोपपन्नदेवस्य दिव्यविपयप्रसक्तिरूपमेकं कारणम् १ । अथ द्वितीयं कारणमाह-अधुनोपपन्नो देवो यतो दिव्यकामभोगेषु मूर्छितादि विशेषणविशिष्टो भवति ततः कारणात्तस्य मानुप्यकं-मनुष्यभवसम्बन्धि प्रेम-स्नेहः हो जाता है इस तरह की परिस्थिति में संपन्न हुआ वह देव मनुष्य संबंधी कामलोगों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता है उन्हें वह वस्तुरूप से यथार्थरूप से नहीं मानता है, इनसे मेरा प्रयोजन सध जावेगा ऐसा नहीं निश्चित करता है, ये सुझे अनागतकालमें भी प्राप्त ही। ऐसी भावना उनमें नहीं रखता है अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की अभिलाषा का नाम निदान है ऐला निदान वह उनमें नहीं करता है यथा वह उनमें ऐसा भी भाव नहीं रखता है कि ये मेरे साथ रहे तथा मैं इनके साथ रहूं। इस तरह का यह दिव्य विशेषों में सक्ति होने रूप प्रथम कारण है कि जिसकी वजह से वह अधुनोपपनदेव मनुष्यलोक में आने की कामना वाला होने पर भी नहीं आसकता है। द्वितीय कारण ऐसा है कि वह अधुनोपपन्न देव दिव्यकामभोगों में जब मूच्छित आदि विशेषणोंवाला हो जाता है-तक इस कारण उसका मनुष्यभव संबंधी स्नेह તે તેમાં તન્મય થઈ જાય છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં મૂકાયેલો તે દેવ મનુષ્યભવ સંબંધી કામભેગોને તુચ્છ ગણો થઈ જાય છે, તેમને તે યથાર્થ રૂપે માનતો નથી, તે કામગોથી પોતાનું પ્રોજન સાધી શકાશે, એવું તેને લાગતું નથી, ભવિષ્યકાળમાં પણ તેમને પ્રાપ્ત કરવાની ભાવના રાખતો નથી. અપ્રાપ્ત વસ્તુને પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા કરવી તેનું નામ નિદાન (નિયાણું) છે, એવું નિયાણું તે બાંધતું નથી. વળી તે એવી પણ ભાવના રાખતા નથી કે તે (કામગ) મારી સાથે રહે અને હું તેમની સાથે રહું. આ રીતે દિવ્ય વિષયમાં પ્રસક્તિ (આસક્તિ) હોવા રૂપ પહેલા કારણને લીધે, તે અધુનેપપન્ન દેવ મનુષ્યલોકમાં આવવાની કામનાવાળો હોવા છતાં પણ આવી શક્ત નથી હવે બીજું કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–તે અનોપપન્ન દેવ જ્યારે દિવ્ય કામગોમાં મૂચ્છિત, લુખ્ય આદિ વિશેષણવાળો થાય છે, ત્યારે તેને
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. सुधा टीका स्था०३ ० ३ ०५१ अधुनोपपन्नदेव निरूपणम्
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यदवलम्व्य मनुष्यलोके आगच्छति तद् व्यवच्छिन्नं- नष्टं दिव्यं देवलोकविपयं प्रेम तु संक्रान्तं प्रविष्टमिति दिव्यप्रेमसंक्रान्तिरूपं द्वितीयं कारणम् २ | अथ तृतीयं कारणमाह-यतरतस्य दिव्य काम भोगेपु मूर्छितादि विशेषणविशिष्टस्य दिव्य प्रेमप्रतिबन्धान्मनसि एवं वक्ष्यमाणो विचार सजायते - उत्पद्यते -' इयहि ' इति - इदानीं - किञ्चित्कालं न गच्छामि - दिव्य भोगानुभवमनस्कत्वात् किन्तु मुहूर्त - मुहर्त्तानन्तरं गमिष्यामि, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् येन यावता कालेन मनुष्यलोकागमनशक्तो भवति तेन -- तावता कालेन गतेन तस्मिन् काले गते सतीत्यर्थः मनुष्याः - मातापित्रादयः यद्दर्शनार्थं स आजिगमिपति ते स्वभावादेव - अल्पायुष्काः मनुष्याणामायुषोऽल्पत्वात् कालधर्मेण - मृत्युना संयुक्ताः - मरणमाता भवन्ति तेन कि जिसको लेकर वह मनुष्यलोक में आने का अभिलाषी होता है वह उसका नष्ट हो जाता है, और देवलोक संबंधी प्रेम उसमें प्रविष्ट हो जाता है इस तरह से यह दिव्य प्रेमसंक्रान्तिरूप द्वितीय कारण है २ । तृतीय कारण इस प्रकार से है - दिव्यकामभोगों में मूच्छित आदि विशेषणों से विशिष्ट हुए उस देव के दिव्यप्रेम द्वारा बंध जाने के कारण मन में ऐसा विचार उठने लगता है कि मैं अभी दिव्यकामभोगों में तल्लीन मन होने के कारण कुछ समयतक तो नहीं जा सकता हूंयाद में थोड़ी देर में चला जाऊँगा ऐसा विचार आते २ ही ज्यों ही वह मनुष्य लोक में आने का विचार ही विचार करता रहता है त्यों २ उसका समय निकलता रहता है- इतने में ही जिनके देखने की अभिलाषा से वह यहां मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता था, वे स्वभावतः अल्पायुवाले उसके माता पिता आदि मृत्यु के वशवर्ती हो जाते મનુષ્યભવ સ'મ ́ધી સ્નેહ-(જે સ્નેહુને લીધે તે મનુષ્યલેકમાં આવવાની અભિલાષા કરતા હતા, ) જ નષ્ટ થઈ જાય છે, અને તેની જગ્યા દેવલાક સબંધી પ્રેમ લઈ લે છે. આ રીતે ટ્વિન્ય પ્રેમ સક્રાન્તિરૂપ આ ખીજુ' કારણુ સમજનું હવે ત્રીજુ કારણુ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-ઢિન્ય કામભાગમાં મૂર્છાભાવ આદિથી થયેલા ધ્રુવ તે દિવ્ય કામભાગેામાં એવા તા જકડાઈ જાય છે કે તેના મનમાં એવા વિચાર આવે છે કે હમણાં થેાડીવાર તે આ ભેાગે! ભાગવી લઉં, ત્યારખાદ ઘેડીવારમાં જ મનુષ્યલેાકમાં જ ચાલ્યેા જઇશ. આ પ્રમાણે તે વિચાર કરતા જ રહે છે અને વિચારમાં ને વિચારમાં સમય પસાર થતા જ રહે છે. આ રીતે એટલેા દ્વીધ કાળ વ્યતીત થઈ જાય છે કે જ્યારે તે મનુષ્યલેાકમાં આવવાને પ્રવૃત્ત થાય છે ત્યારે તેને ખબર પડે છે કે જેમને હું મળવા માગું છું' તે માતા, પિતા આદિ તા ક્યારનાય મૃત્યુ પામી ચુકયાં છે. હવે
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स्थानोगसूत्र कस्य दर्शनार्थ स आगच्छतु इत्यसमाप्तकर्तव्यतारूपं तृतीय कारणमिति ३ । इत्येतैत्रिभिः कारणैरित्यादि स्पष्टम् ॥ १ ॥
गता दिव्यभोगेपु मूर्छितादिविशेषणविशिष्टस्याऽधुनोपपन्नदेवस्य वक्तव्यता, साम्प्रतमच्छिनादि विशेपणस्य तस्य तामाह-' तीहिं ' इत्यादि । अधुनोपपन्न: कश्चिदमच्छितादिविशेषणयुक्तो भवति स त्रिभिः कारणैर्मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुमिच्छति, शक्नोति च स हव्यमागन्तुम् । तान्येवाह-यो दिव्यकामभोगेषु मूछौंदि हैं इससे वह अब किसके दर्शन के लिये यहां आवे इस तरह से अस. माप्तकर्तव्यतारूप यह तृतीय कारण है इस प्रकार के इन तीन कारणों को लेकर वह अधुनोपपन्नदेव मनुष्यलोक में आने का अभिलाषी होता हुभा भी नहीं आ सकता है।
वृद्धसंप्रदाय ऐसा है कि देवता का एक मुहूर्त के नाटक में अपने यहां दो हजार वर्ष व्यतीत हो जाते हैं, और दो हजार वर्ष में अल्पायु अपने मातापितादि परलोकवासी हो जाते हैं फिर विचार करता है मातापितादि तो हैं नहीं फिर कहां जाऊं इसलिये मनुष्य लोक में नहीं आता है। ___ अब सूत्रकार यह समझाते हैं कि जो अधुनोपपन्नदेव दिव्यकामभोगों में अमूञ्छित आदि विशेषणों वाला होता है, वह इन तीन कारणों को लेकर देवलोक से इस मनुष्यलोक में आना चाहता है और जल्दी आ भी सकता है वे तीन कारण इस प्रकार से हैं-पहिला कारण કેને મળવાને માટે ત્યાં જવાનું રહે છે! આ રીતે અસમાપ્ત કર્તવ્યતારૂપ આ ત્રીજા કારણને લીધે તે અધુને પપન્ન દેવ મનુષ્યલકમાં આવવાની કામના વાળા હોવા છતાં પણ આવવાને અસમર્થ બને છે.
વૃદ્ધસંપ્રદાય એ છે કે દેવતાઓના એક મુહૂર્તના નાટકમાં આ મનુષ્યલકને બે હજાર વર્ષને કાળ વ્યતીત થઈ જાય છે. તે બે હજાર વર્ષમાં તે અપાયુસંપન્ન તેના માતાપિતા આદિ સગાંસંબંધીઓ પરલેક સિધાવી ગયાં હોય છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં અહીં તે તેને મળવા માટે આવે? આ કારણે તે મનુષ્યલોકમાં આવતું નથી.
હવે સૂત્રકાર એ સમજાવે છે કે જે અધુને પપન દેવ દિવ્યકામગોમાં અમૂચ્છિત, અલુબ્ધ આદિ વિશેષણવાળો હોય છે તે નીચેનાં ત્રણ કારણને લીધે આ મનુષ્યલોકમાં આવવાનું ઇચ્છે છે અને જલ્દી આવી પણ શકે છે. (૧) તેને એ વિચાર આવે છે કે મને પ્રતિબંધ કરનારા અને પ્રવજ્યા
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पुर्धा टीका स्था०३ उ०३ सू०५१ अधुनोपपन्नदेवनिरूपणम् रहितस्तत्कालोत्पन्नो देवो भवति तस्य एवं भवति-मनस्येवं विचारः समुत्पद्यते । तदेवाह-अस्ति मम मानुष्य के भवे आचार्य इति वा, आचार्य:-प्रतिबोधकमत्रज्यादायकादिः, अनुयोगाचार्यों वा, 'इति वे'-ति सर्वत्र वाक्यालङ्कारे । उपाध्यायः-सूत्रपाठकः, प्रवर्त्तयति संयोजयति-साधूनां चार्योपदिष्टेषु विनय चैयाहत्यादिकार्येष्विति प्रवर्तकः, उक्तञ्च" तवसंजमजोगेसुं, जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ ।
असहं नियत्तेई, गणतत्तिल्लो पवत्ती उ" ॥ १ ॥ छाया-तपः संयमयोगेषु यो योगरतत्र तं प्रदत्तयति ।
___ असहं च निवर्तयति जगचिन्ताकरः प्रवर्तितं ॥ १ ॥
तथा प्रवर्तकमवर्तितान् संयमयोगेषु सोदतो मुनीन् स्थिरीकरोतीति स्थविरः, उक्तञ्च" थिरशारणा पुण थेरो, पबत्तिवाधारिएसु अत्थेसु ।
जो जत्थ सीयइ जई, संतबलो तं थिरं कुणइ ॥१॥ इति ।। छाया-स्थिरकरणात्पुनः स्थविरः प्रवर्तिव्यापारितेप्वर्थेषु ।
यो यत्र सीदति यतिः सबलस्तं स्थिर करोति ।। १॥ तथा गणोऽस्यास्तीति गणी-गणाचार्यः, गणधर:-गुर्वादिष्ट गृहीतकतिपय साधुसमूहद्धारकः। ऐसा है कि उसके मन में ऐसा विचार आता है कि मुझे प्रतिबोध करने वाले एवं प्रवज्या आदि देनेवाले आचार्यपरमेष्ठि हैं, अथवा अनुयोगाचायें हैं सूत्रपाठक उपाध्याय हैं, साधुजनों को आचार्योपदिष्ट विनय वैयावृत्य आदि कार्यों में प्रवृत्त करने वाले प्रवर्तक हैं। कहा भी है
(तवसं जमजोगे सुं) इत्यादि । तथा-प्रवर्तकों को प्रवर्तित करने वाले संयम योगों में शिथिल होते हए मुनिजनों को स्थिर करने वाले स्थविर हैं। कहा भी है-"थिरकरणा पुण थेरो" इत्यादि।
આદિ દેારા આચાર્યપરમેષ્ટિ છે, અથવા અનુગાચાર્ય છે, સૂત્રપાઠક ઉપાથાય છે, અને સાધુઓને આચાર્યોપદિષ્ટ વિનય, વૈયાવૃત્ય આદિ કાર્યોમાં प्रवृत्त ३२ना२। प्रपत्त। छ. ४घु ५] छ है-" तवसंजयजोगेसुं" त्यालि.
તથા પ્રવકોને પ્રવર્તિત કરનારા–સંયમયેગોમાં શિથિલ થયેલા मुनिमान सयममा स्थिर ४२।२। स्थ१ि२। छे. यु ५५ छ-" थिर करणी 'पुण थेरो" त्या
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स्थानानसूत्र उक्तञ्च-" पियधम्मे दधम्मे, संविग्गो उज्जुओ व तेयसी ।
___ स गहुबग्गहसलो मुत्तत्थविज गणाहिबई ॥ १ ॥ इति । छाया-प्रियधर्मा दृढधर्मा स विग्न ऋजुरुश्च तेजस्वी ।
संग्रहोपग्रहकुशलः सूत्रार्थविद् गणाधिपतिः ॥ १ ॥ गणस्वावन्छेदो-विभागांऽशोऽरयास्तीति गणावच्छेदकः, यो दि गणांश गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भाय वस्त्रपात्राद्युपधिमार्गणानिमित्रं विहरति सा, उक्तश्च-" उभाषणप्पभावणखेत्तोवदिमागणासु अविसाई ।।
सुत्तत्य तदुभयविक्र, गणवच्छो एरिसो होट ॥ १ ॥ इति । छाया-उद्भावन प्रभावनक्षेत्रोपधिमार्गगागु-अधिपादी।
सूत्रार्थ तदुभयविद् गणावच्छेदक ईदृशो भवति ।। १ ।। तथा गणाचार्य हैं, गणधर हैं एवं गणावच्छेदक हैं जिनका गण होता है वे गणाचार्य, तथा गुरू से आदिष्ट होकर जो कितीक साधुसगृह को अपने साथ में रखते हैं वे गणधर है। कहा भी है-(पियधम्मे दृढधम्मे ) इत्यादि । __ गण का-अवच्छेद-विभाग अंश जिनका होता है वे गणावच्छे. दक हैं ये गणांश को लेकर गच्छके उपटल्लके लिये वस्त्र पात्र आदि उपधि का मार्गणा के निमित्त विहार करते हैं। कहा भी -उभा. वणप्पभावण' इत्यादि । इनके प्रभाव से ही मैंने यह इस रूपवाली दिव्य देवद्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव लब्ध किया है प्राप्त
વળી ત્યાં ગણાચાર્ય છે, ગણધર છે, અને ગણાવછેદક છે. જેમનું જે ગણ હોય છે તે ગણુના આચાર્યને તે ગણના ગણાચાર્ય કહે છે. ગુરુનો આદેશ થતાં જે સાધુ કેટલાક સાધુસમૂહને પિતાની સાથે રાખે છે તેને ગણ५२ ४ छे ४युं ५५ -" पियधम्मे दढधम्मे" त्यादि
જેમને આધીન ગણને અવછેર (વિભાગ, અંશ) હેય છે તેમને ગણુછેદક કહે છે તેઓ ગણાંશને લઈને ગછના ઉપષ્ટભને–આધાર માટે પાત્ર આદિ ઉપધિની માર્ગણાને નિમિત્તે વિહાર કરે છે. કહ્યું પણ છે કે
" उन्भावणप्पभावण " याह
ઉપર્યુક્ત આચાર્ય આદિના પ્રભાવથી જ મેં આ પ્રકારની દિવ્ય દેવધિ. દિગ્ય દેવઘુતિ, અને દિવ્ય દેવાનુભાવ લબ્ધ કર્યો છે. પ્રાપ્ત કર્યો છે, અભિ
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सुषा टीका स्था०३७०३सू० ५१ अधुनोपपन्नदेवनिरूपणम्
११९ येषां पूर्वोत्तानामाचार्यादीनां प्रभावेण सया 'इम'-त्ति-इय प्रत्यक्षाआसन्ना च एतदेव रूपं यस्या न स्वल्पकालेन रूपान्तरमाग् भवति सा एतद्रूपा दिव्या-देवलोकगम्भूता प्रधाना वा देवद्धिः-देवसमृद्धिः विमानरत्नादि संपत्तिः, तथा दिव्या द्युति:-शरीगभरणादि समुद्भवा. अथवा दिव्या देवयुतिः-इप्टपरिचारादि संयोगरूपा, दिव्यो देवानुभावः-वैक्रियकरणादिरूपाऽचिन्त्यसामर्थ्य लब्धः-उपार्जितः जन्मान्तरे शुभक्रियाकरणेन, प्राप्त:-इदानीमुपनतः, अभिसमकिया है, उसे अभिसमन्वागत किया है, अतः मे चलू और उन भगवन्तोंके लिये वन्दनकर, नमस्कार करूं, उनका सत्कार करूं, सन्मानकरूं, क्योंकि वे मेरे लिये कल्याणरूप हएहैं, जंगलरूप हएहैं. देवतरूप हुए हैं और चैत्यरूप अर्थात् ज्ञानरूप हए हैं अतः उनकी सविधि से वो करूं। यह अधुनोपपन्न देव के यहां आने का प्रथम कारण है, ये जो " इमत्ति" आदि पद हैं-3 से यहां यह प्रकट किया गया है कि जिन महाऋद्धि आदि की प्राप्ति इसे हुई है वह सब इसके प्रत्यक्षमृत और आसन्न है, तथा स्वल्पकाल में रूपान्तर को प्राप्त करने वाली-बदल जाने वाली नहीं है ऐसी यह देवलोक संबंधी विमानरत्नादिरूप संपत्ति है तथा दिव्य वह शरीराभरणादि की युति है। अथवा “दिव्या देवयुतिः " ऐसी जब इसकी संस्कृत छाया होगी तो इस पक्ष में यह दिव्य इष्ट परिवारादि संयोगरूप देवयुति है ऐसा अर्थ हो जायगा तथा दिव्य यह वैक्रिय સમન્વાગત કર્યો છે (તેના પર મારે અધિકાર જમાવ્યું છે ) તે મારે તેમની પાસે જવું જોઈએ, તે ભગવાને વંદણ કરવી જોઈએ, તેમને નમસ્કાર કરવા જોઈએ, તેમને મારે સત્કાર કરે જોઈએ, સન્માન કરવું જોઈએ, કારણ કે તેઓ મારે માટે કલ્યાણરૂપ છે, મંગળરૂપ છે, દેવતરૂપ છે, અને ચૈત્યરૂપ-સન સ્વરૂપ છે તેથી મારે તેમની વિધિસહિત પર્ય પાસના કરવી જોઈએ આ પ્રકા રની વિચારધારાને કારણે તે અધુને ૫૫ન્ન-તત્કાલ ઉત્પન્ન થયેલ દેવ આ મનુષ્યલોકમાં જદી આવવાને સમર્થ થાય છે
१ पात सूत्रा३ डी इमति " माहि यथा ट ४श छ. ते દેવ એવું માને છે કે આ જે મહાદ્ધિ આદિની મને પ્રાપ્તિ થઈ છે તે તેમના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત થયેલી છે. આ મહાદ્ધિ આદિ સ્વપકાળમાં રૂપાન્તર પામે એવી નથી–અદલાઈ જાય એવી નથી. એવી આ દેવલોકની વિમાન, રત્ન माहि३५ मपत्ति छे गने शरीरामरए मालिनी धुति छ अथवा “ दिव्या देवयुति. " प्रा२नी तनी सस्त छाया सेवामा आवे, “तयट પરિવાર આદિને સંગરૂપ દેવયુતિ” એ પણ તેને અર્થ થાય છે. વળી
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स्थानास्त्रे न्वागत:-भोग्यरूपेणोपस्थितः तत्-तस्मात्कारणात् गच्छामि तगा तान्-मदुपकारिणः भगवतः पूज्यान वन्दे-चाचा स्तौमि नमस्यामि-प्रणमामि कायेन नम्री भवामीत्यर्थः, सत्करोमि-अभ्युत्थानादिना, संमानयामि-उचितविनयादिप्रति. पत्त्या तथा कल्याण-कल्याणस्वरूपान् मङ्गलं-पङ्गलस्वरूपान् दैवतं-धर्मदेवस्वरूपाल् चैत्यं-ज्ञानस्वरूपान् , कल्याणादि शव्देष्वेकवचनमार्फत्वात्, एपां विशेपच्यारख्याऽऽवश्यकमूत्रस्य मत्कृतायां मुनितोपिणी टीकायामवलोकनीया। तान् पर्युपासे-स विधि सेवे । इति धर्माचार्या दिवन्दनविपयकं कारणम् १।।
अथ द्वितीय कारणं पदर्शयति 'अहुगोववन्ने' इत्यादि-योऽधुनोपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्यकामभोगेपु-अमूच्छितादिविशेषणयुक्तो भवति तस्यैव विचारः संजायते । करने आदि रूप अचिन्त्य सामर्थ्य है सो ये सब मैंने उन्हीं के प्रभाव से पूर्वभव में कृतशुभ क्रिया करने द्वारा उपार्जित किया है, और अब इस भव में उसे प्राप्त कर लिया है। तथा भोग्यल्प वह सब मेरे लमक्ष उपस्थित भी हो चुका है। अतः मै अघ जाऊं और उन्हीं मेरे उपकारी पूजनीयों को वन्दना करूं वचन ले स्तुति करूं, शरीर से उनके समक्ष चिनन हो जाऊं, अभ्युत्थान आदि द्वारा उनका सत्कार करूं, उचित विनयादि की प्रतिपत्ति से उनका सम्मान करूं, तथा कल्याणस्वरूप, मंगलस्वरूप, धर्मदेवस्वरूप और ज्ञानस्वरूप उनकी सविधि पर्युपासना करू । इनकी विशेष व्याख्या आवश्यकस्त्र की जो मुनितोपिणी टीका है उसमें की गई है अतः वहां से इसे देखना चाहिये। इस प्रकार का यह धर्माचार्यादि की वन्दनविषयक प्रथम कारण है। द्वितीयकारण इस प्रकार से है-(अहुणोववन्ने ) इत्यादि । વિકિય આદિ કરવારૂપ જે અચિત્ય સામર્થ્યની મને પ્રાપ્તિ થઈ છે તે તેમના જ ઉપદેશને લીધે પૂર્વભવમાં કરેલાં શુભ કર્મોના પ્રભાવથી ઉપાર્જિત કરે છે, અને આ ભવમાં મને તેની પ્રાપ્તિ થયેલી છે, તથા ભાગ્યરૂપે તે સઘળી સામગ્રી મારી સામે ઉપસ્થિત પણ થઈ ચુકેલી છે. તે અત્યારે જ હું મનુષ્યલોકમાં ४, ५री पुरुषाने ! ४३-क्यनथी तभनी स्तुति ७३, शसी२ नमाવિને વિનમ્રતાપૂર્વક તેમને નમસ્કાર કરૂ, ઉચિત વિનયદિન પ્રતિપત્તિથી તેનું સન્માન કરું, તથા કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગળવરૂપ, ધર્મદેવસ્વરૂપ, અને જ્ઞાનસ્વરૂપ તે ભગવન્તોની વિધિસહિત પર્યું પાસ કરૂં. આ પદે વિશેષ વિવરણ આવશ્યકસૂત્રની મુનિતાપિણ ટીકામાં આપ્યું છે, તે ત્યાથી વાચી લેવું. આ પ્રકારનું ધર્માચાર્ય વગેરેની વન્દનાવિષયક પ્રથમ કારણ છે. બીજું કારણ આ प्रमाणे छ-" अहुणोववन्ने " त्यादि
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सुधा टीका स्था०३उ० सू० ५१ अधुनोपपग्नदेवनिरूपणम्
॥ सदेव दर्शयति-एषः-अवधिना प्रत्यक्षीकृतः मानुष्यके भवे वर्तमानो मनुष्याजानी-अवध्यादिज्ञानवान्, तपस्वी-अनशनादिद्वादशविधतपोविधायका, मनेन किम् ? इत्याह-एवम्-अतिदुष्करदुष्करकारकः-दुष्करं दुश्चरं-षष्ठ षष्ठ तपोकपम् , अतिशयेन दुष्करम्-अतिदुष्करम् आतिशय्यं च पारणकदिने आचामाम्बकरणात् । तत्रापि दुष्करं पारण केऽपि संसृष्टहस्तादि पदत्तस्योज्झितर्मिकस्य पारारस्य ग्रहणरूपं, तत्करोतीति-अतिदुष्करदुष्करकारकः । धन्यनामानगारबद, अस्ति, तत्-तस्मात्कारणात् गच्छामि तथा ण-तं भगवन्तं तपः संयमैश्वर्यादियुक्त जो अधुनोपपन्न देव देवलोक में दिव्य कामभोगों में अमृच्छित आदि विशेषणों वाला होता है उसको इस द्वितीय कारण में ऐसा विचार होता है कि इस मनुष्यलोक में जो ये मेरे अवधिज्ञान का विषपभूत मनुष्यभव में वर्तमान ज्ञानी अवधि आदि ज्ञानवाला जीव है,तथा अनशनादिरूप १२ प्रकार के तपों का आचारण कर्ता जो यह तपस्वी. जन है-कि जो षष्ठ षष्ठ तपोरूप दुश्चर तपस्याओं को करता रहता
और पारणा के दिन भी जो आचाम्ल की तपस्या करता है तथा उस पारणा में भी जो संसृष्ट हस्तादि प्रदत्त (1) एवं उज्झितधर्मवाला (1) आहार का ग्रहण करता है ऐसे अतिदुष्कर दुष्करतपस्या को, जो धन्य नाम अनगार के समान करते हैं, अतः ऐसे उन तप संयमरूप ऐव. योदि से संपन्न तपस्वी भगवन्तों की वन्दनादि करने के लिये म जा, इस प्रकार का ऐला यह उसका ज्ञानि तपस्विजन की परिचर्या करने की
દેવકના દિવ્ય કામોમાં મુØભાવ આદિથી રહિત હોય એવા અધુને પપન્ન દેવના મનમાં એવો વિચાર આવે છે કે “આ મનુષ્યલોકમાં મારા અવધિજ્ઞાનના વિષયભૂત મનુષ્યભવમાં અવધિ આદિ જ્ઞાનસંપન્ન છો , અનશનાદિ ૧૨ પ્રકારના તપનું આચરણ કરનારા તપસ્વી જીવો છે, જે છે છઠ્ઠના તપરૂપ દુષ્કર તપસ્યા કરતા રહે છે અને પારણાને દિવસે પણ આયંબિલની તપસ્યા કરે છે તથા તે પારણાને નિમિત્તે પણ જે સંસૃષ્ટહસ્તાતિ (रेसा हाथे ) प्रत्त मन जितानि (नामवाना माqqian) मासा રને ગ્રહણ કરે છે, જેઓ ધન્ય નામના અણુગારની જેમ દુષ્કરમાં હાજર તપસ્યા કરનારા છે, એવાં તપસંયમરૂપ એશ્વર્યાદિથી સંપન્ન એવા તપસ્વી ભગવન્તને વંદણું આદિ કરવાને માટે મારે જવું જોઈએ. આ પ્રકારનું જ્ઞાની તપસ્વી મુનિઓની પયું પાસના કરવાની અભિલાષારૂપ બીજું કારણ છે. જે ત્રીજું કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે.
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स्थानास्त्रे पन्दे नमस्यामि यावत् पर्युपासे,-व्याख्या पूर्ववत् । इति ज्ञानितपस्विपर्युपासनाभिलापरूपं द्वितीयं कारणम् २। अथ तृतीयं कारणमाह-'अहुणोववन्ने ' इत्यादि, अधुनोपपन्नो देवो दिध्यकामभोगेषु अमूच्छितो यावत् अनध्युपपन्नो भवति तस्यैवं विचारः संजायते । एतदेवाह-अस्ति खलु मम मानुप्यके भवे 'मायाइवा' इत्यादि, तत्र-माता-पिता,-भार्या, भ्राता,-भगिनी, पुत्रः,-दुहितरः,-स्नुपापुत्भार्या वा वर्तन्ते तत्-तस्मात्कारणात् गच्छामि तेषामन्तिके-समीपे प्रादुभवामि । किमर्थमित्याह-'पासंतु ' इत्यादि, पश्यन्तु तावत्-ते मात्रादयो मेमम इमामेतद्रपां दिव्यां देवद्धिम् , इत्यादि पूर्ववत् । इति मात्रादीनामन्तिके पादु. भयनरूपं तृतीयं कारणम् ३॥ . इत्येतैत्रिभिः स्थानैरित्यादि सर्व व्याख्यातपूर्वम् r: ०५१॥
अथ देवव्यापारानेव सूत्रचतुष्टयेनाहFF मूलम्-तओ ठाणाई देवे पीहेजा, तं जहा-माणुस्सं भवं १,
ऑरिए खेत्ते जम्मं २, सुकुलपच्चायाइं३ ॥ १॥ तीहिं ठाणेहि देवे, परितपेज्जा, तंजहा-अहो णं मए संते बले संते वीरिए संते पुरिसक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसिआयरिय उवज्झाएहिं विज्जअभिलाषारूप द्वितीय कारण है अय तृतीयकारण इस प्रकार से है(अहणोववन्ने) इत्यादि-देवलोक में अधुनोपपन्नदेव जो दिव्यकामभौगों में अमृच्छित आदि विशेषणों वाला होता है उसका ऐसा विचार होता है-कि मेरे पूर्वभव के ये मनुष्यलोक में माता, पिता, भार्या, . भ्राता, भगिनी, पुत्र, एवं पुत्रवधू आदि हैं सो मैं उनके पास जाकर प्रकट हो जाऊं-ताकि वे मेरी इस प्रकार की इस दिव्य देवर्द्धि आदि को अपनी आंखों से देखलें, इस प्रकार का यह माता आदि के पास में प्रादुर्भवनरूप तृतीय कारण है ३॥ सू०५१ ॥
अहणोववन्ने" त्या:flies.દિવ્ય કામોમાં અમૂચ્છભાવ આદિ વિશેષણવાળો તે અધુપપન્ન રેએ વિચાર કરે છે કે મારા પૂર્વભવના માતા, પિતા, પત્ની, ભાઈ, બઈ, પુત્ર, પુત્રી, પુત્રવધૂ આદિ સૌ સગાંસંબંધી મનુષ્યલકમાં રહે છે. તે હું તેમની પાસે જઈને પ્રકટ થઉં અને મારી આ પ્રકારની દિવ્ય દેવદ્ધિ અને તેઓ પ્રત્યક્ષ જોઈ લે આ પ્રકારનું માતાપિતા આદિની સમક્ષના प्रीमन३५" log ॥२ छ. ॥ सू. ५१ ॥
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सुधा टी की स्था० ३ उ० ३ सु० ५२ देवव्यापारनिरूपणम् --- रई माणेहि कल्लसरीरेणं णो बहुए सुए अहीए १, अहो ण, मए इहलोगपडिबद्धेणं परलोगपरंसुहेणं विसयतिसिएणं णो दोहे सामण्णपरियाए अणुपालिए २, अहोणंमए इड्डिरससायगुरुएण भोगामिसगिद्धेणं णो विसुद्धे चरित्ते फासिए ३। इच्चेएहि तीहि ठाणेहिं देवे परितापेज्जा ॥२॥ तीहिं ठाणेहि देवे चइसीमि -त्ति जाणाइ, तं जहा-विभाणाभरणाइं णिप्पभाई पासित्ता १, कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्तार, अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणिं जाणित्ता ३, इच्चेएहिं तीहि ठाणेहिं देवे. परितप्पज्जा ॥३॥ तीहि ठाणेहि देवे उव्वेगमागच्छेज्जा, तं जहां-अहो णं मए इमाओ एयारूवाओ दिव्वाओ देवड्डीओ, दिवाओं देवजुईओ, दिव्वा देवाणुभावा लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया-चईयव्वं भविस्लइ १, अहो णं मए माउओयं पिउसुकं तं तदुभय: संसट्र तप्पढमयाए आहारो आहारेयव्वो भविस्सइ२, अहो णं मए कलमलजंबालए असुइयाए उव्वेयणिज्जाए भीमाए, गभवसहीए वसियत्वं भविस्सइ ३ । इच्चेएहिं तीहिं ठाणेहि देवें उल्वेगमागच्छेज्जा ॥ ४ ॥ सू० ५२ ॥
छाया- त्रीणि स्थानानि देवः स्पृहयति, तद्यथा-मानुष्यं भवम् -१, आर्य क्षेत्रे जन्म २, सुकुलप्रत्यायातिम् ३ ॥१॥ त्रिभिः स्थानैर्देवः परितपति, तद्यथाअहो ! खलु मया सति वले सति वीर्ये सति पुरुषाकारपराक्रमे क्षेमें सुभिक्षे
आचार्योपाध्यायेषु विद्यमानेषु कल्पशरीरेण नो बहुकं श्रुतमधीतम् १, अहो खेल मया इहलोकप्रतिवद्धेन परलोकपराङ्मुखेन विपयंतृषितेन नो दीर्घः श्रामण्यपर्यायोऽनुपालितः २, अहो ! खलु मया ऋद्धिरससातगुरुकेण भोगामिपद्धन नो विशुद्धं चारित्रं स्पृष्टम् । इत्येतैत्रिभिः स्थानै देवः परितपति ॥२॥ त्रिभिः
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स्थानमिन स्थाने देवः 'ज्यविष्ये ' इति जानाति, तद्यथा-विमानाभरणानि निष्प्रभाणि 'टा १, कल्पवृक्षक:म्लायन्तं दृष्टा २, आत्मनस्तेजोलेश्यां परिहीयमानां ज्ञात्वा
श इत्येतैत्रिभिः स्थानर्देवः ' च्यविष्ये' इति जानाति । ३॥ त्रिभिः स्थानैर्देव उद्वेगमागच्छति, तद्यथा-अहो ! खलु मया इमा एतद्रूपा दिव्या देवद्धयः, दिव्यादेवधुतया, दिव्या देवानुभावा लब्धाः प्राप्ताः अभिसमन्वागताः, च्यवितव्यं भविष्यति १, अहो खलु मया मातुरोजः, पितुः शुक्र, तत्तदुभयसंसृष्टं तत्प्रथमतायां आहार आहर्तव्यो भविष्यति २, अहो ! खलु मया कलमलजम्बालायामअधि कायामुद्वेजनीयायां भीमायां गर्भवसत्यां वस्तव्यं भविष्यति ३। इत्येतैत्रिभिः स्थानैर्देव उद्वेगमागच्छति ॥ ४ ॥ सू० ५२ ।।
टीका-'तो' इत्यादि । त्रीणि स्थानानि-वस्तूनि देवः स्पृष्यति-अभिपति, तान्येवाह-मानुष्यं भवम् १, आर्य क्षेत्रं च सार्द्धपञ्चविंशतिदेशात्मकं मगपादि तस्मिन् जन्म २, सुकुले-ऐक्ष्वाकादौ प्रत्यायातिः-देवलोकात्मत्यागमनं सहलमत्यायातिस्तां स्पृहयतीति प्रक्रमः ॥१॥ ' तीहिं ' इत्यादि, त्रिभिः स्थानरेषः परितपति-पश्चात्ताप करोतीत्यर्थः । तान्येवाह-'अहो' इत्याश्चर्ये-आश्चयमेतद् यन्मया सति विद्यमाने वले-शारीरे, वीर्य-आत्मोल्लासरूपे पुरुषाकारपराक्रमे-पुरुषाकारः-पुरुषत्वाभिमानः, पराक्रम-निष्पादितस्वविपयउत्साहः, .. अप सूत्रकार चार सूत्रों द्वारा देव व्यापारों का कथन करते हैं(तमओ ठाणाई देवे पीहेज्जा) इत्यादि ।
टीकार्थ-देव तीन स्थानों की चाहना करता है-जैसे-मनुष्यभव की १, भार्यक्षेत्र में जन्म ग्रहण करने की २ और देवलोक से चव कर सुकुल में उत्पन्न होने की ३। इन तीन स्थानों को लेकर देव पश्चात्ताप करता है
असे शारीरिक पल के होने पर, आत्मोल्लासरूप वीर्य के होने पर, पुरुषाकारपराक्रम-पुरुषार्थ और उत्साह के होने पर, उपद्रवाभावरूप
હવે સૂત્રકાર નીચેના ચાર સૂત્રો દ્વારા દેવવ્યાપારનું કથન કરે છે–
"ओ ठोणाई देवे पीहेज्जा" त्याहટકાથ-નીચે દર્શાવેલાં ત્રણ સ્થાનની દેવ ચાહના કરે છે-(૧) મનુષ્યભવની, ૨) આર્યક્ષેત્રમાં જન્મ લેવાની, અને (૩) દેવકમાંથી ચ્યવને સુકુલમાં ઉત્પન થવાની. આ ત્રણ કારણને લીધે દેવ પશ્ચાત્તાપ કરે છે-(૧) શારીરિક બળ બાલાસ રૂપ વીર્ય, પુરુષકાર પરાક્રમ આત્મબળ-પુરુષાર્થ અને ઉત્સાહ, પાવના અભાવરૂપ ક્ષેમ સુકાલ થાય ત્યારે આચાર્યને ઉપાધ્યાયને સદ્ભાવ થતા
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बुधा टीका स्था०३ उ ३ सू० ५२ देवघ्यापारनिरूपणम् तयोः समाहारे पुरुषाकारपराक्रम, तस्मिन् , ' सति' इति सर्वत्र संयोज्यम् । सति-विधमाने क्षेमे-उपद्रवाभावे, सुभिक्षे-मुकाले सति, तथा आचार्योपाध्यायेषु सत्सु सतिकल्यशरीरे-नीरोगदेहे च, एवंविध सामग्रीसद्भावेऽपि नो वहुकं श्रुतमधीतं मयेति पूर्वण सम्वन्धः इति श्रुतानधीतविषयमेकं स्थानम् १। अथ द्वितीयमाह- अहो' इत्यादि, अहो ! मया इहलोकप्रतिवद्धन-भोजनवस्त्रादिनिर्वाह मात्रार्थिना परलोकपराङ्मुखेन-परलोकवान्छारहितेन विषयतृषितेन-विषयलोलुपेन सता नो दीर्घः-बहुकालपरिमितः श्रामण्यायः-दीक्षापर्यायः अनुपालितःपरिपालितः । इति दीर्घकालश्रामण्यपरिपालनपरिवर्जनरूपं द्वितीय स्थानम् २। अथतृतीयमाह-'अहो' इत्यादि, ऋद्धिरससातगुरुकेण-ऋद्धिः-आचार्यत्वाद्य
क्षेम के होने पर सुकाल के होने पर, आचार्य एवं उपाध्याय के होने पर ____ तथा नीरोग शरीर के होने पर-इस प्रकार की यह सब सामग्री के
होने पर भी-जो मैं ने बहुतश्रुतका अध्ययन नही किया-ऐसा यह श्रुत अनधीतविषयक प्रथम पश्चात्ताप करने का स्थान है द्वितीयस्थान इस प्रकार से है-"अहो खलु मया इहलोक प्रतिबद्धेन" इत्यादि मैं भाजन वस्त्र आदिकों द्वारा ही केवल अपना निर्वाह करने का अभिलाषी बना रहा, परलोक सुधारने की मैंने कोई परवाह नहीं की, विषयों में ही मेरी लोलुपता रही अतः बहुत समयतक मैं श्रामण्य पर्याय का पालन नहीं कर पाया, इस प्रकार का यह दीर्धकाल श्रामण्यपर्यायपरिपालनपरिवर्जनरूप द्वितीय कारण है तृतीय कारण इस प्रकार से है-मैं ऋद्धि નીરોગી શરીર આટલી આટલી સામગ્રીને સદૂભાવ હોવા છતાં પણ મેં બહુશ્રુતનું અધ્યયન જ ન કર્યું. અર્થાત્ શાસ્ત્ર ભણ્યો નથી. આ પ્રકારનું આ શ્રત ન જાણવા રૂપ વિષયક પશ્ચાત્તાપ કરવાનું પ્રથમ સ્થાન છે
भी स्थान (२) मा प्रमाणे छ-" अहो खलु मया इहलोक प्रतिबद्धन "
त्यान, वन, माहिनी प्राति ६०१ मारे। निवड ચલાવવામાં રપ રહ્યો, પરલોક સુધારવાની મેં બિલકુલ પરવા ન કરી, હું વિષયમાં જ લેપ રહ્યો, અને તે કારણે દીર્ઘ સમય (ઘણું કાલ) સુધી હું શ્રામય પર્યાયનું પાલન કરી શક્યો નહીં, આ પ્રકારનું દીર્ઘકાળ શ્રામસ્યપર્યાય નહીં પાળવા રૂપ પરિવર્જન રૂપ, પશ્ચાત્તાપનું આ બીજું કારણું છે.
હવે તેના પશ્ચાત્તાપનું ત્રીજું કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–ઝદ્ધિ, આચાર્યપદ પ્રાપ્તિ આદિ અવસ્થામાં નરેન્દ્રાદિકે દ્વારા મારી પૂજા થતી રહે એવી મનેકામનાથી ચુકત અને મનેજ્ઞ રસોની કામનાથી યુક્ત રહ્યો તથા
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स्थानी वस्थायां नरेन्द्रादि प्राप्तपूजारूपा, ' रसाः-मधुरादयो मनोज्ञाः, सात-शरीरादि मुखम् । एतानि गुरूणि-आदरविपया यस्य सोऽयम्-ऋद्धिरससातगुरुलोकस्तेन, अथवा, एतैः पूर्वोक्त रुकः-तत्माप्ताभिमानवशात् , अप्राप्तौ च तत्मार्थनातोऽशुभभावोपात्त कर्मभारतया गुरुपरिणामस्तेन, भोगामिपद्धेन, भोगाः-मनोज्ञशन्दा
द्यः आमिरमिवामिपमत्यन्तगृद्धिहेतुत्वेनेति भोगामिपं, तत्र गृद्धः-आसक्तःभोगामिपद्धस्तेन नो विशुद्धम्-अनतिचारं चारित्रं स्पृष्टं-समाचरितमिति विशुद्धचारित्रानाचरणरूपं तृतीय स्थानम् ३। इत्येतेत्रिभिरित्यादि मुगमम् ॥२॥ 'तीहि ' इत्यादि, त्रिभि. स्थानैर्देवः ' च्यविण्ये-स्वर्गाच्चुतो भविष्यामि' इति--
आचार्य प्राप्ति आदि की अवस्था में नरेन्द्रादि द्वारा प्राप्त पूजा की अधिक वाच्छावाला बना रहा, मधुरादिक मनोज्ञ रसों की कामना करता रहा, तथा शारीरिक सुख प्राप्ति की ओर ही अधिक मेरा उस अवस्था में ध्यान रहा हलसे में बहुत गुरु भारी बना उनकी प्राप्ति के अभियान के वंश से तथा उनकी अप्राप्ति में उनकी प्रार्थना-चाहना से अर्जित अशुभ भावों के सम्बन्ध में जायमान कर्मों के भार से भारी तथा आमिष की तरह अत्यन्त गृद्धि के हेतुभूत होने के कारण भोग रूपमनोज्ञ शब्दादिरूप आमिप में अत्यन्त आसक्त रहा इस कारण मैंने विशुद्ध अतिचार रहित-चारित्र का पालन नहीं किया इस प्रकार का यह विशुद्ध चारित्र का अनाचरणरूप तृतीयस्थान है इस प्रकार के इन तीन स्थानों को लेकर देव पश्चात्ताप करता है।
तीन स्थानों को लेकर देव यह जान लेता है कि मैं यहां से-स्वर्ग से चवंगा जैसे-जय वह अपने विमानों को एवं आभरणों को શારીરિક સુખપ્રાપ્તિ તરફ જ મારું અધિક ધ્યાન રહ્યું. તે કારણે હું બહુ જ ગુરુકર્મા ભારે કર્મવાળે થતે ગયે. તે વસ્તુઓની પ્રાપ્તિના અભિયાનને (કમના રોગથી) આધીન થઈને અને તેમની અપ્રાપ્તિમાં તેમની ચાહનાને કારણે ઉપાર્જિત અશુભ ભાવના સંબંધથી ઉત્પન્ન થયેલા કર્મોના ભારથી હું ભારે બં, ભેગરૂપ–મને શબ્દાદિરૂપ આમિષમાં અત્યન્ત આસક્ત રહ્યો, અને તે કારણે મેં વિશુદ્ધ (અતિચાર રહિત) ચારિત્રનું પાલન કર્યું નહીં. આ પ્રકારે વિશુદ્ધ ચારિત્રના અનાચરણ (આચરણ ન કરવા ૫) રૂપ, આ ત્રીજું કારણ સમજવું. ઉપર્યુક્ત ત્રણ કારણને લીધે દેવ પશ્ચાત્તાપ કરે છે.
ત્રણ કારણને લીધે દેવ એ વાત જાણે લે છે કે અહીંથી (દેવલેકમાંથી) મા સ્થવન થવાને સમય આવી પહોંચ્છે છે-(૧) પિતાના વિમા તથા
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सुधा टीका स्था०३ उ०३ सू०५२ देवव्यापारनिरूपणम् __ . १२७ एवं जानाति, तद्यथा-तानि स्थानानि यथा-स्वस्य विमानाभरणानि निष्प्रभाणिकान्ति रहितानि दृष्ट्वी, निष्प्रभत्वं चैषामौत्पातिकं तम्चक्षुर्विभ्रमरूपं वा न तु वास्तविकम् १। कल्पवृक्षं म्लायन्तं-निस्तेजोभवन्त दृष्ट्वा २॥ तथा-आत्मनःस्वस्य तेजोलेश्यां शरीरदीप्तिं परिहीयमानां-क्षीयमाणां दृष्टा देवः स्वच्यवनं जानाति, देवानां च्यवनकाले तथाविधचिनसभावात्, उक्तश्च-"माल्यम्लानिः कल्पवृक्षपकम्पः श्री ही नाशो वाससां-चोपरागः । दैन्यं तंद्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टिभ्रान्ति पथुश्चारतिश्च ॥१॥” इति । इत्येतैत्रिभिः स्थानैरित्यादि निगमनम ॥३॥ ' तीहिं ' इत्यादि, त्रिभिः स्थानै दैव उद्वेगं-मनोमालिन्यम् आगच्छतिकान्तिरहित देखता है तो वह यह जाना जाता है कि मैं यहां से चर्बु गा, इनमें निष्प्रभता औत्पातिक होती है अथवा चक्षु में विभ्रम के आने रूप होती है परन्तु वह निष्प्रभता उनमें वास्तविक नहीं होती है यह प्रथम कारण है, द्वितीयकारण काल्पवृक्षों को म्लान होते हुए देखना है तथा तृतीय कारण है अपनी शरीर दीतिरूप तेजोलेश्या को नष्ट हो रही देखना इस प्रकार के ये चिह्न देवों को च्यवनकाल में हो जाते है इससे वह वहां. अपने होने वाले च्यवन को जान लेता है। कहा भी
है-"माल्यम्लानिः" इत्यादि । इन्हीं तीनों स्थानों को लेकर देव परि___तप्त होता है।
इन तीन कारणों को लेकर देव उछेग को मनोमालिन्य को प्राप्त होता है जैसे-वह यह सोचता है कि यह कितने आश्चर्य की बात है जो मैंने इस प्रत्यक्ष रही हुई तथा मेरे समीप वर्तमान दिव्य देवद्धिको આભરણેને જ્યારે તે કાનિરહિત થયેલા ભાળે છે, ત્યારે તેને સમજણ પડી જાય છે કે હવે અહીંથી મારું વન થશે. તેમાં નિષ્પભતા ઔત્પાતિક હોય છે અથવા ચક્ષુમાં વિભ્રમ થવાને કારણે દેખાય છે. તે વિમાન વગેરેમાં તે નિષ્ણભતા સ્વાભાવિક રહેતી નથી. (૨) કલ્પવૃક્ષો પ્લાન થતાં દેખાય છે અને (૩) પિતાની શરીર-દીપ્તિરૂપ તેજલેશ્યા તેને નષ્ટ પામતી દેખાય છે. આ ત્રણે પ્રકારનાં ચિહ્નોને દેવોના વનકાળે સદૂભાવ રહે છે. તે કારણે પિતાનું २ यवन यवानु छ तर हे tell onय यु पार छ है-'माल्यम्लानि" त्याल. એ જ ત્રણ કારણને લીધે દે પરિતસ (સંતાપયુક્ત) થાય છે.
નીચે દર્શાવેલાં ત્રણ કારણને લીધે દેવ ઉદ્વિગ્ન-મનમાલિન્ય યુક્ત થાય થાય છે. તેને એ વિચાર આવે છે કે “આ કેવા આશ્ચર્યની વાત છે કે આ પ્રત્યક્ષ રહેલી તથા મારી સમીપે વર્તમાન (વિદ્યમાન) એવી જે દિવ્ય
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स्थानाशसूत्र पाप्नोति । तान्येवस्थानान्याह-अहो ! इत्याश्चर्य-आश्चर्यमेतद् यन्मया इमा पत. द्रपा प्रत्यक्षमासना दिव्य। देवर्द्धयः, देवद्युतयः देवानुभावाः लब्धाः प्राप्ताः अभिसमन्वागताः स्वायत्तीकृताः सम्प्रत्येतत्सर्वमुक्त्वा च्यवितव्यं मम च्यवनं भविष्यतीत्येकम् १॥ अथ द्वितीय स्थानमाह- अहोणं' इत्यादि, अहो! तिर्यग्लोकं गच्छता मया मातुरोजः-आर्तवं, पितुःशुक्र, तत् तथाविधं किमपि विलीनानामतिविलीनं तदुभयसंसृष्टं-तयोः-ओजः-शुक्रयोरुभयं-द्वयं तदुभय, तेन संसृष्टं संश्लिष्टं परस्परमेकीभूतं तदुभयसंसृष्टं, तदुभयसंश्लिष्टं वा, एवम्भूतो य आहारः सः, तत्पथमतया-तस्य-गर्भावासकालस्य प्रथमता-तत्प्रधमता, तस्यां प्रथमसमय एवेत्यर्थः आइतव्य:-शरीरनिर्माणनिमित्तमभ्यवहार्यो भविष्यतीतिद्वितीयम् २। तृतीय स्थानमाह--' अहोणं ' इत्यादि, अहो ! मया कलमलजम्बा. देवद्युति को, दिव्य देवानुभाव को लब्ध किया है, प्राप्त किया है और उसे अभिसमन्वागत स्वाधीन किया है, यह उद्वेग होने का प्रथम स्थान है, क्योंकि उसे इसलिये उद्वेग होता है कि वह यह जय विचारता है कि मैं इस सब दिव्य देवर्द्धि आदिको छोड कर यहां से चबुंगा उद्वेग होने का द्वितीय स्थान इस प्रकार से है-ओह ! तिर्यग्लोक को जाते हुए जब मैं किसी माता के गर्भ में अवतरित होऊंगो तो वहां मुझे गर्भ में माता के आर्तव ( रज) और पिता के शुक्र को तथा इन दोनों से संसृष्ट या संश्लिष्ट-एकीभूत हुए आहार को सर्व प्रथमप्रथम समय में ही शरीर निर्माणनिमित्त ग्रहण करना होगा। उद्वेग होने का तृतीय कारण ऐसा है-'अहो णं' इत्यादि । अरे ! मुझे उस દેવદ્ધિ, દિવ્ય દેવઘતિ, દિવ્ય દેવપ્રભાવ આદિને મેં લબ્ધ કર્યા છે, પ્રાપ્ત કર્યા છે અને અભિસમન્વાગત (સ્વાધીન) કર્યા છે. તેમને છેડીને મારે આ દેવકમાંથી અને આ દેવપર્યાયમાંથી યુત થવું પડશે.”
દેવના ઉદ્વેગનું બીજું કારણ આ પ્રમાણે છે–તેને એ વિચાર આવે છે કે “ અરે ! આ કેવા દુઃખની વાત છે કે અહીંથી તિર્થંકમાં જઈને મારે કઈ તિર્યમાતાના ગર્ભમાં રહેવું પડશે. ત્યાં મારે ગર્ભમાં માતાના આર્તવ (રજ) અને પિતાના શુક્રને તથા એ બન્નેની સાથે સંસ્કૃષ્ટ-સંશ્લિષ્ટ (એક રૂપ થયેલા) અશુચીરૂપ આહારને સર્વ પ્રથમ (પ્રથમ સમયમાં જ) શરીરનિર્માણ નિમિત્તે ગ્રહણ કરે પડશે.”
त ना देगनु नीag १२ नाय प्रभार.-“अहोणं " त्या
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पुषा टीका स्था०३ ३० ३ सू०५२ देवव्यापारनिरूपणम् लायां, कलमलः - उदरगतशोणिताद्धशुचिद्रव्यसमूहः, सएव वा जम्बाल:कर्दमो यस्यां सा तथा तस्यास् , अतएव-अशुचिकायाम्-अशुचिरूपायाम् , उद्वेजनीयायाम् - उद्वेगोत्पादिकायां, भीमायां - भयङ्करायां गर्भवसत्यां -गर्भएव वसतिः-निवासस्थानं गर्भवसतिः-गर्भावासस्तन वस्तव्यं भविष्यतीति तृतीय स्थानम् ३॥ अत्रार्थ गाथाद्वयम्" देवा वि देवलोए, दिवाभरणाणुरंजियसरीरा। , जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसि ॥ १॥ तं सुरविमाणविभव, चिंति य चयणं च देवलोगाओ।
अइवलियं चिय जं नवि, फुटइ सयसकर हिययं ॥ २ ॥” इति । छाया-देवा अपि देवलोके दिव्याभरणानुरक्षितशरीराः।
यत्परिपतन्ति ततस्तद् दुःखं दारुणं तेषाम् ॥ १ ॥ । तं सुरविमानविभव, चिन्तयित्वा च्यवनं च देवलोकात् ।
. अतिवलिकं चैव यत्रापि स्फुटति शतशर्कर हृदयस् ? ॥२॥ इत् यतैत्रिभि स्थानैरित्यादि स्पष्टम् ॥ ४ ॥ ० ५२ ॥ उक्ता देववक्तव्यता, साम्प्रतं तदाश्रयविमानवक्तव्यतां भूत्रत्रयेणाह
मूलम्-ति संठिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-वहा तंसा चउरंसा । तत्थ णं, जं ते वट्टा विलाणा तेणं पुक्खरकणिया संठाणसंठिया सवओ समंता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा भयंकर गर्भस्थानरूप वसति में कि जो जननी के उदरगत शोणित
आदि अशुचि द्रव्य समूहरूप कलमलरूपकीचड़ भरी हुईहै और इसी कारण जो सर्वथा अपवित्र बनी हुई है। एक समय भी जहां रहने को जी नहीं करता है, रहना होगा इस विषय में ये दो गाथाए हैं-'देवा वि देवलोए' इत्यादि । इस तरह के इन तीन स्थानों को लेकर देवको उद्वेग होता है ॥ सू०५२ ॥
તેને એવો વિચાર આવે છે કે ““મારે જનનીના ઉદરગત શેણિત આદિ અશુચિ દ્રવ્યના સમૂહરૂપ કલમલ રૂપકાદવથી ભરેલી એવી ગર્ભસ્થાનરૂપ જગ્યામાં, કે જે બિલકુલ અપવિત્ર થયેલી છે અને જ્યાં એક સમય પણ રહેવાનું ન ગમે એવી છે, ત્યાં રહેવું પડશે. આ વિષયને અનુલક્ષીને બે माया माया छ-"देवा वि देवलोए " त्याह. २मा ४२ri 10 शाने લીધે દેવને ઉગ થાય છે. સૂ. પરા ' स १७
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स्थानासूचे पन्नत्ता । तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा तेणं सिंघाडगसंठाणसंठिया दुहओ पागारपरिक्खित्ता, एगओ वेइया परिक्खित्ता ति दुवारा पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते चउरसा विमाणा तेणं अक्खाडगसंठाणसंठिया, सबओ समंता वेइयापरिक्खित्ता, घउदुवारा पण्णत्ता ॥१॥ तिपइट्रिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहाघणोदहिपइट्ठिया, घणवायपइट्ठिया, ओवासंतरपइट्रिया ॥२॥ तिविहा विमाणा पण्णत्ता तं जहा-अवट्ठिया, वेउव्विया, परिजाणिया ॥ ३॥ सू०५३ ॥ ___ छाया-त्रिसंस्थितानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वृत्तानि, व्यस्राणि, चतुरस्राणि । तत्र खलु यानि तानि वृत्तानि विमानानि तानि खलु पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थितानि सर्वतः समन्तात् प्राकारपरिक्षिप्तानि एकद्वाराणि प्रज्ञप्तानि । तत्र खलु यानि तानि व्यस्त्राणि विमानानि तानि खलु श्रङ्गाटकसंस्थानसंस्थितानि द्विधातः प्राकारपरिक्षिप्तानि, एकतो वेदिकापरिक्षिप्तानि त्रिद्वाराणि प्रज्ञप्तानि । तत्र खलु यानि तानि चतुरस्राणि विमानानि तानि खलु अक्षाटकसंस्थानसंस्थितानि सर्वतः समन्ताद् वेदिकापरिक्षिप्तानि चतुर्दाराणि प्रज्ञप्तानि ॥१॥ त्रिपति. ष्ठितानि विमानानि प्राप्तानि, तद्यथा-घनोदधिप्रतिष्ठितानि घनवातप्रतिष्ठितानि अवकाशान्तरप्रतिष्ठितानि ॥२॥ त्रिविधानि विमानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-अबस्थितानि वैक्रियाणि पारियाणिकानि ॥ ३ ॥ सू० ५३॥
टीका-ति संठिया' इत्यादि सूत्रत्रयं सुगम, नवरं-त्रिसंस्थितानि-त्रीणिसंस्थितानि संस्थानानि येषां तानि त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थितानि तानि तथा ।
इस प्रकार से देववक्तव्यता का कथन करके अथ सूत्रकार इनके आश्रयभूत विमानों की वक्तव्यता तीन सूत्रों द्वारा. कहते हैं-तिसं. ठिया विमाणा पण्णत्ता' इत्यादि ।
टीकार्थ-तीन प्रकारके आकारयाले विमान कहे गये हैं-अथवा तीन प्रकारोंसे संस्थित विमान कहेगये हैं जैसे-एक वृत्त-वलयाकार (गोलाकार)
આ પ્રમાણે દેવસંબંધી પ્રરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના આશ્રયસ્થાન ३५ विमानानुं न रे छ-" सिसंठिया विमाणा पण्णता" त्याहि
ટીકાર્યું–ત્રણ પ્રકારના આકારવાળાં દેવવિમાને કહ્યાં છે. અથવા ત્રણ પ્રકારે सस्थित विमान! घi छ-(१) वृत्त-सया॥२वाजा, (२) व्यस- भूपाणi,
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सुधा का स्था० ३ उ०३ सू०५३ देवविमाननिरूपणम् १३१ तत्र-वृत्तानि-वलयाकाराणि, व्यस्राणि-त्रिकोणानि चतुरस्राणि-चतुष्कोणानि । 'तत्थणं' इति तत्र खलु तेषु तेषां मध्ये इत्यर्थः, यानि तानि वृत्तानि विमानानि तानि खलु पुष्करकणिका संस्थानसंस्थितानि-पुष्कराणि कमलानि तेषां कर्णिका-मध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवतीति तद्ग्रहणम् , तत्संस्थानेन-तदाकारेण संस्थितानि-युक्तानि यानि तानि तथा । तेषु यानि तानि ज्यस्राणि विमानानि तानि खलु शृङ्गाटकसंस्थानसंस्थितानि-शृङ्गाटकानि 'सिंघाडा' इति प्रसिद्धानि तत्संस्थानसंस्थितानि-तदाकाराणि 'दुहओ' इति द्विधातः उभयपावतः इत्यर्थः । एकतः एकपाश्वतः-एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानानि सन्ति तस्यां दिशीत्यर्थः वेदिकापरिक्षिप्तानि-वेदिका-मुण्डाप्राकारलक्षणा, तया परिक्षिप्तानि-परिवेष्टितानि । तेषु यानि चतुरस्राणि विमानानि तानि वाले, दूसरे व्यत्र-तीन कोनेवाले और तीसरे-चतुष्कोण-चार कोनेवाले 'तस्थणं' इत्यादि इनमें जो विमान वृत्त-(गोल) है-वे पुष्करकमल की कणिका-मध्यभाग का जैसा आकार होता है वैसे आकारवाले हैं और सब ओर चारों दिशाओं में प्राकार से परिक्षिप्त हैं. तथा एक एक द्वार वाले हैं तथा जो घस्र विमान हैं वे श्रृंगाटक के संस्थान जैसे संस्थानवाले हैं अर्थात सिंघाडे का जैसा आकार होता है वैसा ही इनका आकार है. ये अपने दो पार्श्वभाग में-एक २ दिशा में जहां वृत्त-(गोल) विमान है-उसमें एक दिशा में तो ये दोनों ओर प्राकार से परिक्षिप्त हैं और एक दिशा में वेदिका से परिक्षिप्त है तथा इनके तीन २ दरवाजे हैं। शुण्डादण्ड के जैसा जो प्राकार होता है उसका नाम यहां वेदिका कहा गया है तथा जो चतुरस्र विमान हैं वे अक्षाटक मन (3) यतु]-या२ मा . “ तत्थ णं" त्या:- તેમાંથી વૃત્ત અથવા ગળાકારના જે વિમાને છે, તેઓ કમળની કર્ણિકા (मध्यमाम) ना २१ मारा । डीय छ, भने मधा त२६-यारे शा. એમાં પ્રાકાર (કેટ) થી ઘેરાયેલાં છે, તેમને એક એક દ્વાર હોય છે, જે જે વ્યગ્ન વિમાનો છે તે અંગાટકના સંસ્થાનવાળા એટલે કે શિંગડા જેવા આકારવાળા હોય છે. તે વિમાને પિતાના બે પાશ્વભાગમાં-પ્રત્યેક દિશામાં
જ્યાં વૃત્ત (ગોળ) વિમાન છે-તે દિશામાં તે તેઓ બંને તરફ પ્રાકારથી પરિક્ષિસ (ઘેરાયેલાં) છે, અને એક દિશામાં વેદિકાથી પરિક્ષિત છે, તથા તેમને ત્રણ ત્રણ દરવાજા છે. શુંડાદંડના જે જે પ્રાકાર હોય છે, તેનું નામ અહીં વેદિકા કહ્યું છે. જે ચતુરસ્ત્ર ( ચાર ખૂણાવાળાં) વિમાને છે, તેઓ
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स्थान
अक्षाटकसंस्थानसंस्थितानि - अक्षाटकं ' अक्खाडा ' इति भाषामसिद्धं चतुष्कोण मल्लयुद्वस्थानं तत्संस्थानसंस्थितानि तदाकाराणीत्यर्थः, तानि सर्वतः समन्ताद Taraft दिवित्यर्थः वेदिकापरिक्षिप्तानि सन्ति । एतानि चैवंक्रमाण्येवाssवकामविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानि विमानानि त्वन्यथाऽपि भवन्ति तेपामनेकविधरूपसंस्थानवत्त्वादिति । सन्ति चात्रार्थे गाथा:
" सव्वेस पत्थडे, मज्झे वहं अणंतरे तसं । एयंतरच उरंस, पुणो विवधूं पुणो तसं ॥ १ ॥ व वस्सुवरिं, तसं तसस्स उन्चरिं होई । चउरंसे चउरं, उड्डू तु विमाणसेढीओ ॥ २ ॥ व च वलय पित्र, तंस सिंघाडगे पित्र विमाणं । चउरंसविमाणं पिय, अक्वाडगस ठियं भणियं ॥ ३ ॥ सव्वे वट्ट विसाणा, एगदुवारा हवंति विन्नेया । तिनिय तसविमाणे, चत्तारि य होंति चउरंसे ॥ ४ ॥ पागारपरिक्खित्ता, विमाणा एवंति सव्वैवि । चउरंसविमाणाणं, चउद्दिर्सि वेड्या होंति ॥ ५ ॥ जत्तो वट्टविमाणं तत्तो तंसस्स वेइया होई | पागारो बोद्धवो, अवसे सेहिं तु पाहि ||६||
"
૨
-
के जैसे आकारवाले हैं. अक्षाटक- अखाडा - चौकोर होता है. इसी प्रकार का इनका ओकार है. ये चारों दिशाओं में वेदिका से परिक्षिप्त हैं । और चार २ द्वारों वाले हैं। तथा जो पुष्पावकीर्ण विमान हैं वे अन्य प्रकार से भी हैं. क्यों कि इनका संस्थान विविधरूप वाला होता है, अतः पुष्पावकीर्णक विमान आवलिका प्रविष्ट नहीं हैं ये वृत्त ( गोल ) आदि संस्थानवाले विमान ही आवलिका प्रविष्ट हैं । इस विषय में गाथाएँ इस प्रकार से हैं - ' सव्वेसु पत्थडे सुं ' इत्यादि । अक्षार (अभाडा ) ना देवां भारवाणां होय छे. अक्षाट ( सभाओ ) ચાર ખૂણાવાળા અથવા ચાકાર હાય છે, અખાડાના જેવા જ તેમને આકાર “છે. તેમની ચારે દિશામાં વેદિકાઓ આવેલી છે, તે વિમાનાને ચાર ચાર દરવાજા હાય છે. તથા જે પુષ્પાવકી વિમાના છે, તેએ અન્ય પ્રકારનાં પણુ છે, કારણ કે તેમના આકાર વિવિધ પ્રકારના હાય છે, તેથી પુષ્પાવકીણું ક વિમાન અવલિકા પ્રવિષ્ટ હાતાં નથી, વૃત્ત (ગાળ ) આદિ આકારવાળાં • વિમાને જ આવલિકા પ્રવિષ્ટ હાય છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને નીચે પ્રમાણે गाथामा छे-" सव्वेषु पत्थडेसुं " त्याहि
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सुधा टीका स्था० ३ उ.३ सू०५३ देवविमाननिरूपणम्
आवलियासु विमाणा, वट्टा तंसा तहेव चउरंसा ।
पुप्फावगिन्नया पुण, अणेगविहरूबस ठाणा ॥७॥ इति । छाया-सर्वेषु प्रस्तटेषु, मध्ये वृत्तमनन्तरे व्यत्रम् ।
एतदनन्तरं चतुरस्र पुनरपि वृत्त पुनस्व्यस्रम् ॥१॥ वृत्तं वृत्तस्योपरि, व्यस्त्रं व्यस्योपरि भवति । चतुरस्र चतुरस्रं, ऊर्ध्वं तु विमानश्रेयसः ॥२॥ वृत्तं च वलपकमिव, व्यसं श्रृङ्गाटकमिव विमानम् । चतुरस्रविमानमपि च, अक्षाटकस स्थित भणितम् ॥३॥ सर्वाणि वृत्तविमानानि, एकद्वाराणि भवन्ति विज्ञेयानि । त्रीणि च ( द्वाराणि ) व्यस्रविमाने, चत्वारिच भवन्ति चतुरस्र ॥४॥ प्राकारपरिक्षिप्तानि, वृत्तविमानानि भवन्ति सर्वाण्यपि । चतुरस्त्रविमानानां चतुर्दिशं वेदिका भवन्ति ॥५॥ यतो वृत्तविमानं, ततस्त्र्यस्रस्य वेदिका भवन्ति । प्राकारो बोद्धव्योऽवशेषेषु तु पार्थेषु ॥ ६ ॥ आवलिकासु विमानानि वृत्तानि व्यस्राणि तथैव चतुरस्राणि । पुष्पावकीर्णकानि पुनरनेकविधरूपसं स्थानानि ॥७॥१॥ अथ प्रतिष्ठानमुत्रमाह-'तिपइडिया' इत्यादि, सुगमं नवरं-त्रिपतिष्ठितानि-त्रिषु-घनोदधि-घनाता - ऽवकाशान्तररूपेषु प्रतिष्ठितानि-अवस्थितानि यानि तानि तथा । तान्येवाह-घनोदधिपतिष्ठितानि - घनोदध्युपरिस्थितानि, एतानि द्वयोराद्ययोर्देवलोकयोः सन्ति १। घनवातप्रतिष्ठितानि-धनवाताश्रयावस्थितानि, एतानि तृतीयचतुर्थपञ्चमदेवलोकेपु सन्ति । तदुपरि त्रिषु षष्ठसप्तमाष्टमदेवलोकेषु घनोदधिधनवातोभयस स्थितानि सन्ति, तानि त्वत्र त्रिस्थानका___“ति पइडिया' इत्यादि । ये विमान घनोदधि, धनवात और अवकाशान्तर इन तीनों पर अवस्थित हैं । इनमें घनोदधि के ऊपर स्थित ये विमान आदि दो देवलोकों में स्थित हैं। घनचात के आश्रय स्थित ये विमान तृतीय, चतुर्थ और पंचम देवलोक में हैं। छठे, सातवें, और आठवें देवलोकों में ये विमान घनोदधि और धन
“ति पइट्रिया" त्या-त विभाना बनाधि, धनपात अन मा શાન્તર, આ ત્રણપર અવસ્થિત (રહેલાં) છે. શરૂઆતના દેવલોકના વિમાને ઘને દધિના ઉપર અવસ્થિત છે. ત્રીજા, ચોથા અને પાંચમાં દેવકનાં વિમાન નવાતને આધારે રહેલાં છે. છઠ્ઠા, સાતમા અને આઠમા દેવલોકના વિમાન
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नुरोधान्न गृहीतानि ३। अवकाशान्तरपतिष्ठितानि-आकाशमात्राधाराणि अप्टम देवलोकार्ध्वं च सर्वाणि विमानानि-आकाशप्रतिष्ठितान्येव सन्तीति ३। उक्तंच" घणउदहि पइटाणा, सुरभवणा होति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपइटाणा, तदुभयमुपइडिया तिसु ॥१॥
तेण परं उपरिमगा, आगास तरपइटिया सव्वे । " इति । छाया-घनोदधिप्रतिष्ठानि सुरभवनानि भवन्ति द्वयोः कल्पयोः ।
त्रिषु वायुप्रतिष्ठानि, तदुभयसुप्रतिष्ठानि त्रिषु ॥१॥
तेन परमुपरिगानि, आकाशान्तरपतिष्ठितानि सर्वाणि ॥" अथ तृतीयं सूत्रमाह-'तिविहा' इत्यादि, त्रिविधानि विमानानि, तान्येवाह-अवस्थितानि-अनादिकालतः स्थितिरूपेण, शाश्वतानीत्यर्थः, वैक्रियाणिभोगाद्यर्थ वैक्रियलब्ध्या निष्पादितानि, भगवतीसूत्रोक्त-शक्रेन्द्रनिष्पादितवत् २, पारियानिशानि-परियान-तीर्थकरजन्माधवसरे तिर्यग्लोकावतरणादि, तदेव प्रयोजनं येषां तानि तथा पालक-पुष्कादीनि वक्ष्यमाणानीति ।।३।। मू० ५३ ।। वात इन दोनों के सहारे स्थित हैं परन्तु ये यहां त्रिस्थानक के अनु रोध से गृहीत नहीं हुए हैं २। केवल अवकाशान्तर प्रतिष्ठित ये सय विमान अष्टमदेवलोक से ऊपर हैं३। कहा भी है-"घण उहि पट्टाणा' इत्यादि । 'तिविहा" इत्यादि-विमान तीन प्रकार के कहे गये हैं-अव. स्थित, वैक्रिय पारियानिक, जो विमान शाश्वत हैं-अनादिकाल से स्थित है-वे अवस्थित विमान हैं भोगादि निमित्त के वश होकर जो देवों द्वारा अपनी वैक्रियलब्धि से निप्पादित होते हैं वे वैक्रियविमान हैं तीर्थंकर के जन्म के अवसर पर जिनमें बैठ कर तिर्यग्लोक में जाया ઘનેદધિ અને ઘનવાત, એ બનેને આધારે રહેલાં છે, પરંતુ ત્રિસ્થાનકને અહીં અધિકાર ચાલતું હોવાથી અહીં તેમને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ નથી. માત્ર અવકાશાન્તરને સહારે સ્થિત વિમાને આઠમા દેવલોકથી ઉપરના દેવसाभार छ ४धु पर छे :-" घणउहि पइट्टाणा" त्यादि
___“तिविहा" त्यादि-विमानाना र प्रा२ ४i छ-(१) मपस्थित (२) वैठिय, मन (3) परियानि 2 विमानी शाश्वत छ-मनाथी સ્થિત છે તેમને અવસ્થિત વિમાને કહે છે. ભેગાદિ નિમિત્તે દેવે દ્વારા પિતાની ક્રિયલબ્ધિથી નિર્મિત વિમાનેને વિક્રિય વિમાને કહે છે. તિર્થ કરના. જન્મના અવસરે જે વિમાનમાં બેસીને દેવે તિર્યલેકમાં આવે છે, તે પાલક,
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सुधी टीका स्था० उ० ३ ० ५४ जीवगति निरूपणम्
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पूर्वतरसूत्रेषु देवा वर्णिताः, साम्प्रतं वैकियादि साधर्म्याभारकादि दृष्टि निरूपणपूर्वकं गतिवक्तव्य प्ररूपयन् सूत्रपञ्चकमाह—
मूलम् --तिविहा नेरइया पण्णत्ता, तं जहा सम्मादिट्ठी, मिच्छादिट्टी, सम्मामिच्छादिट्ठी । एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं ॥ १ ॥ तओ दुग्गइओ पण्णत्ताओ, तं जहा-णेरइय दुग्गई तिरिक्खजोणिय दुग्गई, मणुस्स दुग्गई ॥२॥ तओ सुगईओ पण्णत्ताओ, तं जहा -- सिद्धिसुगई, देवसुगई, मणुस्स सुगई ॥३॥ तओ दुग्गया पण्णत्ता, तं जहा -- णेरइय दुग्गया, तिरिक्खजो - णियदुग्गया, मणुस्सदुग्गया ॥ ४ ॥ तओ सुगया पण्णत्ता, तं जहा - सिद्धसुगया, देवसुगया, मणुस्ससुगया ॥ ५॥ ५४ ॥
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छाया-त्रिविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - सम्यग्दृष्टयः मिथ्यादृष्टयः, सम्यग्मिथ्यादृष्टयः । एवं विकलेन्द्रियवजे यावद् वैमानिकानाम् । तिस्रो दुर्गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - नैरयिकदुर्गतिः तिर्यग्योनिकदुर्गतिः, मनुष्य दुर्गतिः ॥ २ ॥ तिस्रः सुगतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सिद्धि सुगतयः, देवसुगतयः, मनुष्यनुगतयः ॥ ३॥ त्रयो दुर्गताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-नैरयिकदुर्गताः, तिर्यग्योनिकदुर्गताः, मनुष्य दुर्गताः ||४|| त्रयः सुगताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सिद्धसुगताः, देवसुगताः मनुष्यनुगताः ||५|| सू० ५४ ॥
जाता है वे पालक, पुष्पक आदि विमान पारियानिक विमान हैं । शास्त्रकार इन्हें स्वयं आगे चलकर कहेगे ३ ॥ सू० ५३ ॥
देवों का वर्णन करके अब सूत्रकार वैक्रिय आदि के साधर्म्य से नारकादि दृष्टि के निरूपणपूर्वक पांच सूत्र गति वक्तव्यता की प्ररूपणा के लिये कहते हैं - ' तिविहा नेरइया पण्णत्ता' इत्यादि ।
પુષ્પક આદિ વિમાનાને પારિયાનિક વિમાના કહે છે. શાસ્ત્રકાર પાતે જ તેમનું નિરૂપણુ આગળ કરવાના છે. " સૂ. ૫૩ ॥
દેવેનું વર્ણન કરીને હવે સૂત્રકાર વૈક્રિય આદિના સાધને લીધે નાર. કાદિ જીવાની દૃષ્ટિના નિરૂપણુપૂર્વક ગતિવક્તવ્યતાની પ્રરૂપણા કરવા નિમિત્તે यांश सूत्रनुं उथन उरे छे - " तिविहा नेरइया पण्णत्ता " त्याहि
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स्थानानसत्रे
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टीका - ' तिविहा ' इत्यादि सुगमं, नवरं - नारका दृष्टितः सम्यङ् - मिथ्यामिश्रेति त्रिविधदृष्टिसं पन्ना भवन्ति, तत्र केचित् सम्यग्दृष्टयः के चिन्मिथ्यादृष्टयः इति । शेपजीवानतिदेशत आह-' एवं ' इत्यादि एवं नैरयिरुवत् विकलेन्द्रियबजे ? एकेन्द्रियविकलेन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः यतः पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वस्यैव सद्भावात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु मिश्रत्वाभावान्नैषां तिस्रो दृष्टय इकि ' विकलेन्द्रियवर्जम्' इत्युक्तम् । कियदवधि ? इत्याह - ' जा ' इत्यादि, यावद् वैमानिकानां वैमानिकपर्यन्तमित्यर्थः विज्ञेयमिति ॥ १ ॥ त्रिविधदर्शनवन्तश्व दुर्गति - सुगवियोगाद् दुर्गताः सुगताथ भवन्तीति दुर्गत्यादिकं प्रदर्शयन् सूत्रचतु
टीकार्थ- नैरयिक तीन प्रकार के कहे गये हैं- जैसे - सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि अर्थात् दृष्टिकी अपेक्षा नारक सम्पष्टि मिथ्यादृष्टि और मिश्र दृष्टि से संपन्न होने के कारण तीन प्रकार के होते हैं इनमें कितने मिथ्यादृष्टि से संपन्न होने के कारण मिध्यादृष्टि होते हैं, कितनेक सम्यक दृष्टि से संपन्न होने के कारण सम्यग्दृष्टि होते हैं और कितने दोनों प्रकार की दृष्टि से युक्त होने के कारण मिश्र दृष्टि होते हैं । इसी प्रकार से इन दृष्टियों से संपन्न होने का कथन एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक तक के जीवों में कर लेना चाहिये - एकेन्द्रिय जीवों में केवल मिध्यात्व - मिध्यादृष्टि ही होता है तथा विकलेन्द्रियों में दोइन्द्रिय, तेहन्द्रिय और चौरन्द्रियइनमें मिश्रदृष्टि का अभाव रहता है-अतः इनमें तीनों दृष्टियों का सद्भाव नहीं होता है इसलिये इनका परिवर्जन यहां कहा है. त्रि वध दर्शनवाले जीव दुर्गति और सुगति के योग से दुर्गत और सुगत होते
ટીકા-દૃષ્ટિની અપેક્ષાએ નારકેા ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે–(૧) સમ્યગ્દષ્ટિ मिथ्यादृष्टि भने (3) सभ्यग् मिथ्यादृष्टि ( भिश्रदृष्टि ). टसा नार। मिथ्याદૃષ્ટિવાળા હાય છે, તેથી તેમને મિથ્યાદૃષ્ટિ કહે છે કેટલાક નારકે સમ્યક્ દૃષ્ટિવાળા હાય છે, તેથી તેમને સમ્યગ્દષ્ટિ કહે છે. કેટલાક નારકો બન્ને પ્રકારની ષ્ટિથી યુક્ત હાય છે, તેથી તેમને મિશ્રષ્ટિ કહે છે. એકેન્દ્રિયા અને વિકલેન્દ્રિચા સિવાયના વૈમાનિક પન્તના સમસ્ત જીવેા પણ આ ત્રણે પ્રકારની દૃષ્ટિએવાળા હાય છે. એકેન્દ્રિયેામાં માત્ર મિથ્યાત્વ-મિથ્યા દૃષ્ટિના જ સદ્ન ભાવ હાય છે. વિકલેન્ડ્રિયામાં ( દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય જીવેામાં) મિશ્રદૅષ્ટિના ભાવ હોય છે. આ રીતે એકેન્દ્રિયા અને વિકલેન્દ્રિયેામાં ત્રણે ત્રણ દૃષ્ટિઓને સદ્ભાવ નહીં હાવાને કારણે ઉપરના કથનમાં તેમનું પરિ
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सुधा टीका स्था० ३ उ.३ सू०५४ जीवतिनिरूपणम् पृयमाह-'तओ' इत्यादि, तिस्रो दुर-दुष्टा दुःखरूपा गतयो दुर्गतयः । ता आह-नैरयिकदुर्गतयः, तत्र दुःखस्यैव सद्भावात् , तिर्यग्गेनिकदुर्गतयः, तत्र वधवन्धनछविच्छेदातिभासदिसनावात् , मनुष्यदुतयः अत्रापि प्रायः शारीरिक मानसिकाधनेरुविध दुःख सद्भावादिति । २॥ ' तओ सुगइओ' इत्यादि, तिस्रः सुगतयः प्रज्ञप्तारतवाहि-सिद्धिनुगतयः, तत्रानन्तज्ञानर्शनचारित्रसुखवीर्यादिसद्भावात् , देवसुगतयः, तत्र दिव्यदेवादियभावात् , मनुष्यसुगतयः, अत्र है इसलिये इनकार दुर्गति आदि की शपणा करनेके निमित्त कहते हैं-तओ' इत्यादि-दुर्गलियां-दुःखरूप लियो तीन कही गई हैंनैरयिक दुर्गति, तिर्यञ्च दुर्गति और मनुष्य दुर्गति. नैरथिक दुर्गति में दुख को ही सद्भाव है. तियच दुर्गति में वध, बंधन और छविच्छेदन तथा अतिभानारेषण आदिका दुःख है, मनुष्य दुर्गति में प्रायः शारीरिक मानसिक आदि अनेक प्रकार के दुःखों का सद्भाव है। "तओ सुगइओ" इत्यादि-लुगतियां तीन कही गई है जैसे-सिद्धि सुगतिइसमें अनन्त ज्ञान, दर्शन आदिका रूझाब रहता है, देवलुगति इनमें दिव्यदेवद्धि आदिका सदभाव रहता है. मनुप्य सुगलि-इसमें पूर्वपुण्यले उदयले प्रायः शारीरिक मानसिक,कोहस्तिक आदि सुखके अनुभन्का सद्भाव रहता है तमा देवादि सोक्षपर्यन्त के सुख की प्राप्ति का यह कारण होता है. " तो दुमया पणता" तथा " तओ सुगयो વર્જન કરવાનું કહ્યું છે. વિવિધ દર્શનવાળા દુર્ગતિ અને સુગતિના નથી દુર્ગત અને સુરત થાય છે, તે કારણે સૂત્રકાર હવે દુર્ગતિ અને સુગતિની ५३५। ४२ छ-" तओ" प्रत्याहि
ति-दुः३५ गति-त्रए ४ीछे-(१) २शिति , (२) निय"य દુર્ગતિ અને (૩) મનુષ્ય દુર્મતિ નૈવિક દુર્ગતિમાં માત્ર દુખને જે સદૂભાવ હોય છે તિર્ય ચ દુર્ગતિમા વધ, ધન, શરીરછેદન, અતિક્ષારોપણ આદિ દુખ ભોગવવું પડે છે. મનુષ્ય દુર્ગતિમાં સામાન્ય રીતે શારીરિક, માનસિક माहि मने प्रारनामाना समान हाय छे. "तओ सुपइओ"त्यहि
मुगति पy aए ही छ-(१) द्धि सुगति-भां मनत ज्ञान, દર્શન આદિને સદ્ભાવ રહે છે (૨) દેવ સુમતિ-તેમા દિવ્ય દેવદ્ધિ આદિન સદૂભાવ રહે છેમનુષ્ય સુગતિ–તેમાં પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી સામાન્ય રીતે શારીરિક, માનસિક, કૌટુંબિક આદિ સુખ નુભવનો સદ્ભાવ રહે છે. તથા દેવાદિ મેક્ષ પર્યરતના સુખની પ્રાપ્તિના કારણરૂપ આ ગતિ હોય છે.
" तओ दुग्गया पण्णत्ता " तथा तओ सुगया पण्णत्ता” २१ मे सूत्रने स १८
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स्थामाङ्गयो मायः पूर्वपुण्येन शारीरमानसकौटुम्बिकादिसुखानुभवसद्भावात् , देवादि मोक्ष. पर्यन्तसुखप्राप्तिकारणत्वाच ॥३॥ ' तो दुग्गया' इत्यादि, सूत्रद्वयं स्पष्टं, नवरंदुर्गताः दुःस्थाः ॥४॥ सुगताः-सुस्था इति ॥५॥ सू०५४ ॥ :, सिद्धादिसुगताश्च तपस्विनः सन्तो भवन्तीति तेषां कर्तव्य-परिहर्तव्यविशेपं निरूपयन् निग्रन्थानगाराचारप्ररूपणं सूत्रचतुर्दशकेनाह। मूलम्--चउत्थभत्तियस्त णं भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा--उस्सेइमे, संसेइमे, चाउलधोवणे१॥ छहभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा-तिलोदए, तुसोदए, जवोदए२, अट्ठमभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा--आयामए, सोवीरए, सुद्धवियडे ३ । तिविहे उवहडे पण्णत्ते, तं जहाफलिओवहडे, सुद्धोवहडे, संसट्टोवहडे ४ । तिविहे उग्गहिए, पण्णत्ते, तं जहा-जंच ओगिण्हइ जं च साहरइ जं च आसगंसि पक्खिवइ ५ । तिविहा ओमोयरिया पण्णत्ता, तं जहा-उवगरणामोयरिया, भत्तपाणोमोयरिया, भावोमोयरियाद। उवगरणोमोयरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगे वत्थे, एगे पाए, घियतोवहिसाइजणया ७ । तओ ठाणा णिग्गंथीणं वा अहियाए असुहाए अक्खमाए अणिस्सेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहां-कूयणया ककरणया अवज्झाणया ८। तओ ठाणा पभत्ता" इन दो सूत्रों का अर्थ स्पष्ट है. यहां सुगति से दुःखमय अवस्था जीव की जहां होती है ऐसे स्थान लिये गये हैं और सुगतसे सुखमय अवस्था जीवकी जहां होती है ऐसे स्थान लिये गये हैं।मु०५४॥ અર્થ સ્પષ્ટ છે. અહીં દુર્ગતિ પદ દ્વારા એવા સ્થાનની વાત કરવામાં આવી કે જ્યાં જીવની અવસ્થા દુઃખમય હોય છે, અને સુગતિથી એવાં સ્થાનોને ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે કે જ્યાં જીવની અવસ્થા સુખમય હોય છે કે સૂ. ૫૪
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सुधा टीका स्था० ३ उ०३ ० ५५ निर्ग्रन्थानगाराचारनिरूपणम् १३९ णिग्गंथीण वा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामि-' ययाए भवंति, तं जहा-अकूयणया, अककरणया, अणवज्झाणया ९ । तओ सल्ला पण्णत्ता, तं जहा-मायासल्ले, नियाणसल्ले, मिच्छादसणसल्ले १० । तीहि णाणेहि समणे णिग्गंथे संखित्तवि. उलतेउलेस्से भवइ, तं जहा-आयावणाए, खतिखमाए, अपाणएणं तवो कम्मेणं ११ । तिमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति तओ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए तओ पाणगस्स१२॥ एगराइयं भिक्खुपडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाए असुहाए अक्खमाए अणिस्सेयसाए अणाणुगामियाए भवंति, तं जहा-उम्मायं वा लभिजा, दीहकालियं वा रोगायकं पाउणेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा १३ । एगराइयं भिक्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्त तओ ठाणा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामिययाए भवति, तं जहा-ओहिणाणे वा से समुप्पज्जेजा, मणपज्जवनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा केवलणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा १४॥ सू० ५५ ॥
छाया-चतुर्थभक्तिकस्य खलु भिक्षोः कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं, तद्यथा-उत्स्वेदिम, संसेकिमं, तन्दुलधावनम् १। पष्ठभक्तिकस्य खलु भिक्षो. कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं, तद्यथा-तिलोदकं, तुषोदकं, यवोदकम् । अष्टमभक्तिकस्य खल मिक्षोः कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं, तद्यथाआयामकं, सौवीरकं, शुद्धविकटम् ३। त्रिविधमुपहत प्रज्ञप्तं तद्यथा-फलिकोपहृतं, शुद्धोपहतं, संसृष्टोपहतम् ४। त्रिविधमवगृहीतं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-यचावगृहाति, यच्च संहरति, यच्च आस्यक प्रक्षिपति ५। त्रिविधा अवमोदरिका प्रज्ञप्ता, तद्यथाउपकरणावमोदरिका, भक्तपानावमोदरिका, भावावमोदरिका ६। उपकरणावमोदरिका त्रिविधा मज्ञप्ता, तद्यथा-एकं वस्त्रम् , एकं पात्रम् , स्यक्तोपधिस्वादनता
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१५० ७। त्रीणि स्थानानि निर्ग्रन्थानां या निर्बन्धीनां वा-अहिताय अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयसाय अनानुगामिकतायै भवन्ति, तघया-कूजनता, करणता, अपध्यानता ८ त्रीणि स्थानानि निग्रन्थानां वा निर्गन्धीनां वा हिताय, स्मुखाय, क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामिकतायै भवन्ति, तद्यथा-मजनता, अरुकरणता, अनपध्यानता ९। त्रीणि शल्यानि प्रज्ञप्तानि, तप्रथा-मायागल्यं, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्यम् १० । त्रिभिः स्थानः श्रमणो निर्जन्यः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यो भवति, तद्यथा-आतापनया, क्षान्तिक्षमया, अपानकेन तपःकर्मणा ११। त्रैमासिकी खलु भिक्षुप्रतिमा प्रतिपक्षस्यानमारस्य कल्पन्ते तिस्रो दत्तयो भोजनस्य प्रतिग्रहीतुं विसः पानकस्य १२। एकरात्रिकी भिक्षुमतिमां सम्यक् अननुपाल्य. मानस्याऽनगारस्य इमानि त्रीणि स्थानानि अहिताय, अलुखाय, अक्षमाय, अनिः श्रेयसाय अनानुगामिकतायै भवन्ति, सद्यया-उन्माद वा लभेत, दीर्घकालिकं वा रोगातङ्क प्राप्नुयात् , केलिप्राप्ताद् वा धर्माद् अश्येत् १३। एकरात्रिकी भिक्षु. प्रतिमां सम्यग अनुपालयमानस्याऽनगारस्य त्रीणि स्थानानि हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसाय आनुगामिकतायै अवन्ति, तद्यथाअवधिज्ञानं वा तस्य समुस्पधेत, मनःपर्यवज्ञानं वातस्य समुत्पोत, केवलज्ञानं वा तस्य समुन्प्रद्येत १४॥सु.५५॥
टीका-'चउथ मत्तियस्स' इत्पादि सुनगं, नवरं-पूर्वदिने एकं, प्रतिशातदिने द्वे, पारणकदिने एकनिति चतुर्थम्, एवचतुष्टयं भक्तंभोजनं परिहरति
जीव सिहादि अवरोधाले तथा सुखलय अवरथावाले तपस्या करने के कारण से ही होते हैं-इसलिये सूत्रकोर अब जनतपस्थाशाली जीवों के कर्तव्यविशेषों का और परिहतब्ध (त्याग के योग्य ) विशेषों का निरूपण करते हुए निर्ग्रन्थ अनगार के आधार की प्ररूपणा १४ सूत्रों से करते हैं-'चउत्थ मसियरसणं लिक्सुस्त कपंति' इत्यादि। टीकार्थ-जिसने एक उपमाल किया है ऐसे भिनुको तीन पानक (तीन जात का पानी), स्वीकार करना कल्पता है, चतुर्थ सक्तका तात्पर्य ऐसा
તપસ્યા કરવાને કારણે જ જીવ સિદ્ધાદિ અવરથાવાળો તથા સુખમય અવસ્થાવાળે થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તે તપાસ્યાવાન જીવના કર્તવ્યવિશેની, અને પરિહર્તવ્ય વિશેની (ત્યાગ કરવા યોગ્ય વસ્તુઓની) પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે નિર્ગથ અણુગારના આચારનું પ્રતિપાદન કરતાં ૧૪ -सूत्रानुं ४थन ४२ छ-"चरस्थ भत्तियस्स गं भिक्खुस्स कपति” त्याह
ટીકાર્થ-જેણે ચતુર્થભક્ત (એક ઉપવાસ) કરે છે એવાં ભિક્ષુને ત્રણ પાનક .(કણ જાતના પાણ) ને સ્વીકાર કરવાનું કપે છે. ચતુર્થભક્તમાં ઉપવાસના
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सुधा गैका स्था०३ उ० ३ सू० ५५ निन्थानगाराधारनिरपणम् १४ यत्र तत्-चतुर्थभक्तम्-उपवासः, तद्यस्याऽस्ति स चतुर्थभक्तिकस्तस्य कृतैकोपवासस्येत्यर्थः एवमन्यत्रापि भिक्षोःक्षुध्यति- बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसार यस्मादिति क्षुत्-संपदादित्वात्सिद्धिः-अष्टप्रकारं कर्मेत्यर्थः, तां तपःप्रभृ. तिभिनित्तीति भिक्षुः, पृषोदरादित्वात्सिद्धिः, तपस्वीत्यर्थः, तस्य कल्पन्ते त्रीणि पानकानि-पानाहाराः प्रतिग्रहीतुं-खीकत्तुम् । तद्यथा-तान्येवाह-उत्स्वेदिमम्उत्स्वेदेन निर्वृत्तं उत्स्विन्नं वाष्पितं यत् गोधूमतिलादि तत् येन जलेन उत्सिच्यते धाव्यते तत् गोधूमादि पिष्टस्थालीधावनजलं वा । संसेकिम-ससे केन निर्वृत्तम्है-पहिले दिनका एक बार का भोजन, तथा उपवास के दिन का दो बार का भोजन और पारणा के दिन का एक बार का भोजन जिस में छोड़ा जाता है वह चतुर्थभक्त है-अर्थात्.एक उपवास का चतुर्थभक्त है यह चतुर्थभक्त जिसने किया है वह चतुर्थभक्तिक है "क्षुध" नाम अष्ट प्रकार के कर्म का है। क्योंकि इसके प्रभाव से ही जीव चतुर्गतिक संसार को भोगनेकी इच्छा करता है-'सम्पदादित्वात् सिद्धिः।" इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से है-क्षुध्यति-वुभुक्षते-भोक्तुं इच्छति-- चतुर्गतिकमपि संसारं यस्मात् इति क्षुधः " इस क्षुत् को अष्ट प्रकार कर्म को जो तप आदि के द्वारा नष्ट कर देता है उसका नाम भिक्षु है. तपस्वी है ऐसे भिक्षु को ये तीन पानक लेना कल्प्य हैं । जैसे-उत्सेदिम १, संसेकिमर और तंदुलधावन३ उत्स्वेद से जो निवृत्ति होता है है वह उत्सेदिम पानक है-अर्थात् बाफे हुए गेहूं तिल आदि जिस पानीसे આગલા દિવસને એક ટંકના ભજનને, ઉપવાસના દિનને બને વારના ભેજનને અને પારણના દિવસના એકવારના ભેજનને ત્યાગ કરવામાં આવે છે, એટલે કે એક ઉપવાસનું નામ જ ચતુર્થભક્ત છે. આ ઉપવાસ જેણે કર્યો હોય છે તેને ચતુર્થભક્તિક કહે છે. આઠ પ્રકારનાં કર્મોનું નામ જ ક્ષધ છે, કારણ કે તેના પ્રભાવથી જ જીવ ચાર ગતિવાળા સંસારને ભેગવવાની २छ। ४२ छ-" संपदादित्वात् सिद्धिः " मा 'क्षुध ' पहनी व्युत्पत्ति मा प्रभा छ-" क्षुध्यति बुभुक्षते-भोक्तु इच्छति-चतुर्गतिकमपि संसार यस्मात् इति क्षुत् " मा क्षुधाने-18 प्र२नां भी रे 'त५ मा नष्ट ४श નાખે છે, તેનું નામ' ભિક્ષુ તપસ્વી છે. એવા ભિક્ષુને આ ત્રણ પ્રકારના પાન (4) ४६ छ-(१) भि,' (२) सभि भने (3) ताम ઉર્વેદથી જે પાનક નિષ્પાદિત થાય છે તે પાનકને ઉત્સદિમ પાનક કહે છે, એટલે કે બાફેલાં ઘઉં, તલ આદિને જે પાણીથી ધોયા હોય તે પાણી, અથવા
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ફર
स्थानी
उत्काळित वास्तुकतन्दुलीयकादि-पत्रशाकं येन जलेन संसिध्यते तत् । तदुलोदर्क - तन्दुलधावनजल प्रसिद्धमेव १।' छडे ' इत्यादि, पष्ठभक्तिकस्य कुतोपवासद्वयस्य वक्ष्यमाणानि त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं कल्पन्ते, तान्याह - तिलोदकं तुपोदकं यवोदकमितित्रयं तत्तत्मक्षालनजलं नवर-तुपोदकं श्रीदकमिति २ । अमे 'त्यादि, अष्टमभक्तिकस्य - उपवासत्रययुक्तस्य कल्पन्ते त्रीणि पानकानीमानि - आयामकं - तन्दुलमुद्गादीनामवस्रावणं ' ओसामण' इति प्रसिद्धं, सौवीरकं= काञ्जिकं, शुद्ध विकटम् - उष्णोदकम् ३ | 'तिवि उवहढे ' इत्यादि उपहृतम्
C
धोचे जाएँ वह पानी अथवा गेहूं आदि के पिष्ट (आँटा) की थाली (कठौती) का धन - धावनजल, तथा संसेक से जो निवृत्त वनता होता है वह ससेकिम पानक है - जैसे- उकाला हुआ वास्तुक- तन्दुलीयक मेथीदाना आदिका पत्र साक जिस जलसे धोया जाता है वह जल, तथा चावलोंका धोवनजल यह तंदुलधावन पानक है । " छडे " इत्यादि । जिसने दो उपवास किये हैं ऐसे भिक्षुको ये तीन पानक लेना कल्प्य हैं- जैसे-तिलो दक१, तुषोदकर और यवोदकर, तिलके धावनजलका नाम तिलोदक है तुषोदक ब्रीहिका धावनजल है और यवका - जौंका धावनजल यवोदक है । 'अमभत्तिस्स' इत्यादि - जिस भिक्षुने तीन उपवास किये हैं उसके लिये ये तीन पानक लेना कल्प्य हैं- आयामक, सौवीरक और शुद्ध
ઘઉં આદિના લેટની કણેક જે કથરોટ આદિ પાત્રમાં બાંધી હોય, તે કથરેટ આદિના ધાવણના પાણીને ઉત્સેદિમ પાનક કહે તથા છે, જે પાણી સંસેક દ્વારા નિવૃત થાય છે તે પાણીને સ’સેકમ પાનક કહે છે. જેમકે ખાધેલા તંદુલીયક (તાંજળજો ), મેથીદાજીા વગેરે પાંદડાંવાળા શાકને જે પાણીથી ધાવામાં આવે છે, તે પાણી તથા ચાખાના ધાવણજળને ત'દુલધાવન પાનક કહેવાય છે. 'छट्टे " इत्यादि.
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જેણે એ ઉપવાસ કર્યા છે એવા ભિક્ષુને આ ત્રણ પ્રકારના પાનક (પાણી) सेवानुं ४ध्ये छे - (१) तिबोहर, (२) तुषेो भने ( 3 ) यवोह तलना घोषाणु भजने ति ४ छे. वीडि (भेड प्रहारमा योमा) ना धोवायुभने सुषादृङ उडे छे भने भवना धावयवाह हे छे. “ अट्टमभत्तियस्स " त्यादि
જે ભિક્ષુએ 'ત્રણ ઉપવાસ કર્યા છે તેને નીચેના ત્રણ પાનક લેવા કલ્પે छे- (१) आयास, (२) सौवीरङ भने (3) शुद्धवि४९ मग आहिना खोसा
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सुपाटीका स्था०३ उ०३ सू० ५५ निथानगाराधारनिरूपणम् उपहितं वा भोजनस्थाने आनीतं भक्तमिति भावः, तत्रिविधं, तथाहि-फलिकोपहुतं, तत्र फलिकं-प्रहेणक भोजनोपायनं यद् उत्सवादि संपादित भोज्यपदार्थानामन्यगृहादौ प्रेषणं ' लहाणी ' अथवा 'परोसा' इति भाषा प्रसिद्ध, तच्च तद् उपहतं फलिकोपहृतम्-इदमवगृहीताभिधपञ्चमपिण्डेपणा विषयभूतमिति । उक्तञ्च-" फलियं पहेणगाई, वंजणभक्खेहि वाऽविरहियं ।।
भोत्तुमणस्सोवहियं, पंचमर्पिडेसणा एसा ॥ १ ॥ इति । छाया-फलिक प्रहेणकादि व्यञ्जनभक्ष्यैर्वा अविरहितं यत् । ..
भोक्तुमनस उपहृतं, पञ्चमपिण्डैपणा एपा ॥१॥ व्यजनभक्ष्यैरविरहितं व्यजनादिभिर्युक्तमित्यर्थः । शुद्धोपहतं, शुद्धमअलेपकृतं शुद्धोदनं च तच्च तद् उपहृतं शुद्धोपहृतम् , एतच्चाल्पलेपाभिधचतुर्थेविकट. तन्दुक, मुद्ग आदि का जो ओसामण है उसका नाम आया. मक है कालिक का नाम सौवीरक है तथा उष्णोदक का नाम शुद्ध विकट है."तिविहे उवहणे पण्णत्ते" तीन प्रकार का उपहृत-अथवा उपहित कहा गया है-भोजन स्थान में आनीत भक्त का नाम उपहित अथवा उपहृत है. उसके तीन प्रकार ये हैं-जैसे-फलिकोपहृत, शहोपहृत और संसृष्टोपहृत. उत्सव आदि के समय सम्पादित भोज्यपदार्थों का अन्य गृह आदि में जो भेजना होता है इस का नाम फलिकोपाहत है। भाषामें इसे लहाणी या परोसा कहते हैं । यह फलिकोपहृत अवगृहीता नामकी जो पंचमपिण्डैषणा है उसका विषयभूत होता है। कहा भी है- फलियं पहेणगाई' इत्यादि ।। ___ यह व्यञ्जनादिकों से युक्त होता है, अलेपकृत अथवा शुद्ध ओदन को नाम शुद्धोपहृत है यह शुद्धोपहृत अल्पलेपा नामकी चौथी एषणा મણને આયામક કહે છે. કાંજિક (કાંજી) ને સૌવીરક કહે છે અને ગરમ पायीन शुद्धविट ४९ छे. “तिविहे उवहणे पण्णत्ते"
ત્રણ પ્રકારના ઉપકૃત અથવા ઉપહિત કહ્યા છે. ભજન સ્થાનમાં આનીત (aqाभां मावा) सततुं (माहारनु) नाम पडित अथवा पाइत छे. तेना ४२ नाये प्रमाणे छे-(१) सिपाहत, (२) शुद्धोपहत, भने સંસ્કૃષ્ટ પહૃત. ઉત્સવ આદિને નિમિત્તે સંપાદિત ભોજ્ય પદાર્થોને અન્ય ગ્રહ આદિમાં જે મોકલવામાં આવે છે તેને ફલિકોપહૃત કહે છે. ગુજરાતી ભાષામાં તેને લહાણી અથવા પિરસશું કહે છે. આ ફલિકેપડ્ડત અવગૃહીતા નામની જે પંચમર્પિવૈષણા છે તેના વિષયભૂત હોય છે. કહ્યું પણ છે કે
" फलियं पहेणगाई" त्याहि.
તે વ્યંજનાદિકેથી યુક્ત હોય છે. અપકૃત અથવા શુદ્ધ ઓદનનું નામ શુદ્ધ પહૃત છે. આ શુદ્ધ પહૃત અપેલેપા નામની ચેથી એષણાના વિષયભત છે. ખાનારે જ્યાં સુધી ગૃહીત ભક્તમાં (અન્નમાં) હાથ નાખતું નથી, ત્યાં
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स्थानानने पणाविषयभूतमिति । तथा-संसृष्टोपहृतं, संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतकूरादौ हस्तःक्षिप्तो न तावत्तत्कूरादिक मुखे क्षिपति, तच्च लेपाटेपकरणस्वभावमिति, तदेवम्भूतमुपहृतं संसृष्टोपहृतम् , इदं चतुर्थ पणात्वेन भजनीयं पालेपकृतादिरूपत्वादस्येति । उक्तश्च
" सुद्धं च अलेवकडं, 'अहवण सुद्धोदणो भवेसुद्धं ।
संसट्ठ आउत्तं लेवाडमलेवडं वावि ॥ १ ॥" . १ ' अहवण' अथवा, इत्यर्थे । छाया-शुद्धं चाऽलेपकृतम् , अथवा शुद्धोदनं भवेत् शुद्धम् ।
संसृष्टमायुक्तं (भोक्तुमारब्धमित्यर्थः) लेपकृतमलेपकृतं वाऽपि ॥१॥ इह च त्रिके एकद्वित्रिस योगैः सप्ताभिग्रहवन्तः साधवो भवन्तीति ४ । 'तिविहे उग्गहिए' इत्यादि, त्रिविधमवगृहीतम् , अवगृहीतं नाम केनचित् प्रकारेण दायकेन गृहोतं भक्तादि । तत् त्रिविधं, तदेव दर्शयति-यच्चारगृह्णातिदायकोऽवगृहीतं भक्तादि इस्तेन-आदत्ते तदेकम् । एतच्च पष्ठी पिण्डैपणेति । का विषयभूत है खानेवाला जब तक गृहीत भक्तमें हाथ नहीं डालता है, तब तक वह मुख में नहीं रखा जाता है इसलिये यह संसृष्टोपहत लेपालेपकरण स्वभाववाला होता है। इस तरह का उपहृत संसृष्टोपतृत है। यह चौथी एषणा में भजनी कहा गया है । क्यों कि यह लेप अलेपकृतादि रूप होता है। कहा भी है-" सुद्धं च अलेवकर्ड' इत्यादि
यहां त्रिक में एक दो तीन संयोगों से सातं अवग्रहवाले साधु होते हैं ४"तिविहे उग्गहिए " इत्यादि-अवगृहीत तीन प्रकार का है, किसी भी प्रकार से दाता के द्वारा गृहीत भक्तादि वस्तु का नाम अव. गृहीत है। इसके तीन प्रकार ये हैं-दाता जिस भक्तादि को देने के लिये हाथ से लेता है एक वह, यह छठी पिण्डैषणा है। इस पर वृद्ध સુધી તેને મુખમાં મૂકી શકાતું નથી, તેથી તે સંસૃષ્ટાપહત હોય છે. આ એથી એષણામાં ભજના (વૈકલિપક સ્વીકાર) કહી છે, કારણ કે તે લેપ ५ ता३ि५. डाय छे. ४ पात्र छ -“ सुद्धं च अलेवकड " त्याह
અહીં ત્રિકસંગની અપેક્ષાએ એક, બે અને ત્રણના સંગથી સાત भवडाणा साधु डाय छ । १ । “तिविहे उग्गहिए" त्याहि
અવગૃહીત ત્રણ પ્રકારનું હોય છે કેઈપણ પ્રકારે દાતા દ્વારા ગૃહીત ભક્તાદિ વસ્તુનું નમ - અવગૃહીત છે તેના ત્રણ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે – (૧) દાતા જે ભક્તાદિનું દાન દેવાને માટે હાથ વડે લે છે તે આ છઠ્ઠી પિષણું છે. તેને અનુલક્ષીને વૃદ્ધ વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે છે-પિરસનાર (દાતા)
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सुधा टीका स्था० ३ उ०३ सू० ४५ निर्बंधाननाराचार निरूपणम्
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बुद्धव्याख्या चैवम् – परिवेषकः - परिवेषणपात्राद् ओदनादि गृहीत्वा यस्मै दातुकामस्तद्भाजने क्षेप्तुमवस्थितः तेन च 'मा देही' - ति भणितम्, अत्रावसरे भिक्षार्थं समागतं मुनिं दृष्ट्वा परिवेषकः कथयति-' प्रसार्यतां मुने । पात्रम् ' ततः साधुना प्रसारिते पात्रे परिवेषकेण क्षिप्तमोदनम् । इह च संयतप्रयोजने गृहस्थेन इस्तएवैकतोऽन्यत्र परिवर्तितः किन्तु नान्यद् गमनादिकृतमिति जघन्योपहृतजातमिति । उक्तञ्च -
" भुंजमाणस्य उक्खित्तं, पडिसिद्धं तं च तेण उ । जहम्नोवहडं तं तु, इत्थस्स परिवत्तणा ॥ १ ॥ " छाया - भुञ्जानायोत्क्षिप्तं, प्रतिषिद्धं तच्च तेन तु ।
जघन्योपहृतं (प्रथममत्रगृहीतमित्यर्थः ) तत्तु, हस्तस्य परिवर्तना ॥
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व्याख्या ऐसी है परोसने वाला दाता परोसने के पात्रसे ओदनादिक जिस पात्रमें रखा हुआ है - उस घाली आदिसे ओदनादिको लेकर जिसकेलिये देना चाहता है परोसना चाहता है उसके पात्र में उसे देनेके लिये उपस्थित हो गया हो, परन्तु गृहीता ( लेनेवाला ) " मा देही " मत दीजिये ऐसा कहता है । और इसी अवसरपर भिक्षा के लिये कोई मुनिजन आ जाता है तो आये हुए मुनि को देखकर परिवेषक उस मुनि से कहता है कि मुने! आप अपना पात्र रखिये । इस प्रकार दाता के कहने पर मुनि अपना पात्र उसके समक्ष रख देता है, दाता उसमें ओदनादिक भोज्य वस्तु दे देता है । इस अवस्था में संयत का प्रयोजन सघ जाने पर गृहस्थने अपने हाथ को एक ओर से दूसरी ओर ही किया है वहां से उसने गमनादि नहीं किया है । यह जघन्योपहृत है । कहा भी
પિરસવાના પાત્રમાંથી આદનાદિ-ભાત વગેરે જે પાત્રમાં રાખેલ છે તે થાળી આદિ પાત્રમાંથી એદનાદિ લઇને જેને અણુ કરવા ઈચ્છે છે ( પરસા માગે છે) તેના પાત્રમાં તે આદનાદિ આપવાને માટે ઉપસ્થિત થઇ ગયા છે, પરન્તુ લેનાર “ मा देहि " " भने ते खायशी भा' मेनुं आहे छे, नेवते ભિક્ષા પ્રાપ્તિ નિમિત્તે નીકળેલા કાઇ મુનિજન ત્યાં આવી જાય છે. હવે ત્યાં पधारेसा ते भुनिने लेडने परिवेष ( हाता ) ते भुनिने डे छे " हे भुने ! આપ આપનું પાત્ર અહીં મૂકા, દાતાના આવા વચન સાંભળીને મુનિ પેાતાનું પાત્ર તેની સમક્ષ મૂકી દે છે, દાતા તેમાં એદનાદિક ભાજ્ય વસ્તુ ઇ દે છે. આ અવસ્થામાં સયતનું પ્રત્યેાજન પૂર્ણ કરવામાં ગૃહસ્થે પેાતાના હાથને એક તરફથી ખીજી તરફ જ કર્યાં છે, ત્યાંથી તેણે ગમનાઢિ
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स्थानानसूत्रे
इति प्रथमम् १ | यच्च संहरति यच्च भक्तादि परिवेषकः स्थानादविचलन् तत्र स्थित एव संहरति- भक्तभाजनाद् भोजनभाजनेषु क्षिपति तत् । उक्तञ्च अह साहीरमाणं तु, वर्द्धतो जो उदायओ ।
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दलेज्जाsविचलो तत्तो, छटा एसावि एसणा ॥ १ ॥ इति । “छाया - अथ संह्रियमाणं तु वर्त्तयन् । परिवेषयन्नित्यर्थः ) यस्तुदायकः । दद्यादविचस्ततः पष्ठी एपाऽप्येपणा ॥ इति द्वितीयमवगृहीतम् ३ । earth प्रक्षिपति — यच्च भक्तादिकम् आस्य के स्थास्यादिमुखे प्रक्षिपतीति । एवं चात्रवृद्धव्याख्या - ओदनं तद्गतपानीयनिस्सारणार्थे शीतलकरणार्थं वा विशालत्तानरूपे वंशनिर्मितवृहद्राजने क्षिप्तं, पश्चात्ततो णिःसार्य भोक्तुकामेभ्यो दत्तं, पश्चात्तत्पात्रेऽवशिष्टं यद् भूयः प्रकाशमुखे पिठरके क्षिपन्ती दायिका दद्याहै - ' भुंजमाणस्स उक्खित्तं ' इत्यादि ।
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यच सहरति" परिवेषक जिस भक्तादि को अपने स्थान से चलायमान नहीं होता हुआ वहीं पर रहता हुआ ही भक्त भाजन से भोजनपात्र में रख लेता है यह द्वितीय अवगृहीत है । कहा भी है
अह साहीरमाणं तु ' इत्यादि । " यच्चास्य के क्षिपति " जो भक्तादिक थाली आदि रखा जाता है यह तृतीय अवगृहीत है, इस पर वृद्धव्याख्या ऐसी है- -भात में से उसके पानीको निकालने के लिये मांड को दूर करने के लिये या उसे ठण्डा करने के लिये किसी एक छचले आदिमें रख देना और बाद में उसमें से उसे लेकर खानेवालों के लिये परोस देना इस क्रिया के बाद जो बाकी भात उस में बचा है उस भात को पिट
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यु ं नथी, भानुं नाम ४धन्याहृत छे छुपा हे "भुजमाणस्स उक्खित्तं" हत्याहि यच्च संहरति " परिवेष ( हाता ) लताहिने ( लोन्त्य पढार्थाने ) પેાતાને સ્થાનેથી ચલાયમાન થયા વિના ( પેાતાને સ્થાને જ રહીને ) ભક્ત ભાજતમાંથી (ભેાજ્ય પદાર્થ જેમાં રાંધેલા છે તે પાત્રમાંથી) ભેાજનપાત્રમાં મૂકી દે છે, તેનું નામ દ્વિતીય મવગૃહીત છે. કહ્યું પણુ છે કે— अह साहीरमाणं तु " त्याहि
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" यच्चास्यके क्षिपति " ने लडताउने थाली महिमां नामवाभां भावे !छ, 'तेने तृतीय भवगृहीत हे छे. तेने 'विषे नीचे प्रमाणे वृद्धव्याच्या छे. ભાતમાંથી પાણીને અલગ કરવાને માટે—આસામણને જુદું પાડવા માટે, અથવા તેને ઠંડા પાડવા માટે કોઈ એક તાસ આદિમાં રાખીને તેમાંથી લઇને ખાનારને પિરસ્યા માદ જે ભાત વધ્યા હોય તેને પાંજરા આદિમાં રાખનારી ગૃહસ્થ સ્ત્રી જો કોઈને આપી દે છે, તે તેનું નામ તૃતીય અવગૃહીત છે.
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टीका स्था० ३ ०३ ० ५५ निर्बंधानगाराचारनिरूपणम्
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'तत् तृतीयमवगृहीतम् ५। 'तिविहा ओमोयरिया' इत्यादि, अवमोदरिका - अवमम् ऊनम् उदरं - अमोदरं तदेवावमोदरिका, सा त्रिविधा, तथाहि - उपकरणावमोदरिका - अल्पोपकरणता । भक्तपानावमोदरिका - आत्मीयकुक्षिपूराहारपानपरिमाणतो न्यूनभोजनम् । भावावमोदरिका क्रोधादिकपायाणामनुदिनं त्यागः उक्तञ्च - कोहाईणमणुदिणं, चाओ जिणवयणभावणाओ उ ।
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भावेणोमोयरिया पन्नत्ता वीरागेहिं ॥१॥ १ ॥ छाया - क्रोधादीनामनुदिनं त्यागो जिनवचनभावनातस्तु । मावेनावमोदरिका प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥ १ ॥ ६ ।
उपकरणावमोदरिकाया भेदान् प्ररूपयन्नाह - ' उवगरणोमोयरिया' इत्यादि, उपकरणावमोदरिका त्रिविधा भवति, तथाहि - एकं वस्त्रम्, एकं पात्रम्, त्यक्तोपरकमें रखनेवाली गृहस्थ स्त्री यदि दे देती है तो यह तृतीय अवगृहीत है " तिविहा ओमोयरिया" इत्यादि । अवमोदरिका तीन प्रकारकी होती है- ऊन उदका नाम अवमोदरिका है- पेट का पूरा नहीं भरना - अर्थात् भूख से कम खाना, यही अवमोदरिका या अवमौदर्य है, इसके तीन प्रकार ऐसे हैं - एक उपकरणावमोदरिका, दूसरी भक्तपानावमोदरिका और तीसरी भावावमोदरिका उपकरणों को अल्प रखना इसका नाम उपकरणावमोरिका है, जितनी भूख लगी है उस से कम आहार पान करना इसका नाम भक्तपानावमोदरिका है। तथा कोधादि कषायों का प्रतिदिन त्याग करना इसका नाम भावावमोदरिका है। कहा भी हैकोहाईणमणुदिणं " इत्यादि ।
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" वगरणोमोपरिया " इत्यादि । उपकरणावमोदरिका एक वस्त्र, एक पात्र और व्यक्तोपधिस्वादनता के भेद से तीन प्रकारकी है । अन्य तिविद्दा ओमोयरिया " त्याहि
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અવાઢરિકા ત્રણ પ્રકારની હાય છે. ઊણેાદરી (એટલે કે ભૂખ કરતાં પણુ એવું ખાવું તે) નું નામ અવમેારિકા અથવા વૌદ છે. તેના ત્રણ अकार छे-(१) ७५४२षु भवमोहरिअ, (२) लस्तयानाव भोहरि, (3) भावाव મારિકા. આછા પ્રમાણુમાં ઉપકરણા રાખવા તેનું નામ ઉપકરણાવમારિકા છે. જેટલી ભૂખ લાગી હોય તેના કરતાં ન્યૂન આહારપાણી લેવા તેનું નામ ભક્તપાનાવમેરિકા છે. ક્રોધાદિ કષાયેાના પ્રતિદિન ત્યાગ કરવા તેનું નામ भावावमोहरिया छे. ह्युं पशु छे - " कोहाईणमणुदिणं " इत्याहि
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“ उवगरणोमोयरिया ” त्याहि- उपर अवमेोहरिमाना त्रयुअर है. (१) खेड वरख, (२) शो यात्र, मने (3) त्यस्तोपधि स्वाहनता मन्यं मुनि
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- स्थानमा धिस्वादनता-त्यक्तस्य-अन्यमुनिना व्यापृत्य-प्रदत्तस्योपधेः-वस्त्रपात्रादेः स्वादनः -सेवयिता त्यक्तोपधिस्वादनः, तस्य भावस्तत्ता-'संयमोपकारकोऽय'-मितिमत्वा जीर्णमलिनायुपधेर्मध्यस्थभावेन धारणमित्यर्थः ७ । अथाऽहितहितमपेक्ष्य निर्ग्रन्थवक्तव्यतामाह-'तओ' इत्यादि, त्रीणि स्थानानि निर्ग्रन्थानां-निर्गता ग्रन्थिःद्रव्यतो मर्यादातिरिक्तवस्त्रपात्रादिरूपा, भावतो रागद्वेपादिरूपा तेषां ते तथा, तेपां निष्परिग्रहमुनीनां निर्ग्रन्थीनां-साध्वीनां वा अहिताय-अनिष्टाय, असुखायदुःखाय, अक्षमाय -अयुक्तत्वाय, अनिःश्रेयसाय-अकल्याणाय, अनानुगामिकतायैअनुगच्छति कालान्तरमुपकारित्वेनाऽनुयाति यत्तद् भानुगामिकं तस्य भावः मुनिजन द्वारा अपने काम में लेने के बाद दिये गये वस्त्रपात्र आदिका सेवन करना यह त्यक्तोपधि स्वादनता है । यह स यम का उपकारक है ऐसा मान कर जीर्ण मलिन आदि उपधिका माध्यस्थ्यभावसे धारण करना इसका निष्कर्षार्थ है । अब सूत्रकार अहितहितकी अपेक्षा लेकर निर्ग्रन्थ के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करते हैं। "तओ" इत्यादि-जिन्हों ने मर्यादा के अतिरिक्त वस्त्रपात्रादि रूप द्रव्यग्रन्धिका तथा रागद्वेषादिरूप भावग्रन्थिका त्याग कर दिया है वे निर्ग्रन्थ हैं ऐसे निर्ग्रन्थ मुनिजनों को और साध्वीजनों को तीन ३ स्थान अहित के लिये-अनिष्टके लिये, असुख-दुःख के लिये, अक्षमअयुक्त के लिये, अनिःश्रेयस-अकल्याणके लिये, और अननुगामिकता के लिये-अशुभानुबन्धके लिये हैं। उपकारीरूप से जो कालान्तर में साथ जाता है वह आनुगामिक है इससे विपरीत अनानुगामिक है, ऐसा જ દ્વારા ઉપયોગમાં લેવાયેલા વસ્ત્ર, પાત્ર આદિને જ ઉપયોગ કરે તેનુ નામ ત્યકતે પધિ - સ્વાદનતા છે. આ પ્રકારના વસ્ત્ર આદિને ધારણ કરવું તે સંયમ પાલનમાં ધારણ કરવા જોઈએ, એ આ કથનથી ફલિત થાય છે. હવે સૂત્રકાર અહિત હિતની અપેક્ષાએ નિર્ચ થના સંબંધમાં વક્તવ્યતાનું કથન ४२ छ-" तओ" त्याहि- , " જેમણે મર્યાદાથી અધિક વચ્ચપાત્રાદિ રૂપ દ્રવ્યગ્રંથિને તથા રાગદ્વેષાદિ રૂપ ભાવગ્રંથિને ત્યાગ કરી નાખે હેય છે, તેમને નિગ્રંથ કહે છે. એવા નિર્ગથ મુનિજને અને સાધ્વીઓને માટે ત્રણ સ્થાને અહિતકર્તા, અનિષ્ટકર્તા, मसुम (हुम):४il, सक्षम (अयुत), अनिःश्रेयस (२५४८या) ४१२४, અનનુગામિકતા (અશુભાનુબન્ધ) ના કર્તા ગણાય છે. ઉપકારી રૂપે જે કાલાન્તરે સાથે જાય છે, તેને આનુગામિક કહે છે, અને તેનાથી વિપરીત
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(घाटीका स्था० ३ उ० ३ सू०५५ निर्ग्रन्थानगाराचारनिरूपणम् १४६ आनुगामिकता तन्निषेधाद् अनानुगामिकता, तस्यै अशुभावुबन्धायेत्यर्थः । तान्येवाह-कूजनता–आर्तनादकरणम् , कर्करणता-बसत्युपध्यादिदोषप्रकटनपूर्वक प्रलपनम् , अपध्यानता-आत्तरौद्रध्यानध्यायित्वमिति ८। उक्तविपर्ययसूत्रं तद्विपर्ययेण व्याख्येयम् ९। अथ निर्ग्रन्थानामेव परिहर्त्तव्यत्रयमाह-'तओ सल्ला'इत्यादि, शल्यते-वाव्यते-पीडयतेऽनेनेति शल्यं, तदद्विविधं-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतस्तोमरादिक, भावतस्तत्रिविधं, तदेवाह-मायाशल्य-मायैव-शल्यवद्वाधकत्वात्शल्यम् । निदानम्-अनिन्यानशनब्रह्मचर्यादित पोविधानेन देवद्धर्यादि प्रार्थन, तदेव शल्यं निदानशल्यम् । मिथ्या-विपरीतदर्शनं-दृष्टिमिथ्यादर्शनं, तदेव शल्यं अनानुगामिक अशुभानुबन्ध होता है । वे तीन स्थान इस प्रकारसे हैं-एक कूजनता-आत्तनाद करना, दूसरा-ककरणता वसति उपधि आदिके दोषों को प्रकट न करते हुए प्रलपन करना और तीसरा अपध्यानता-आतंगैद्रध्यान करना । इन तीन स्थानों से विपरीत वृत्ति रखना निर्ग्रन्थों को हित के लिये, सुखके लिये, क्षमाके लिये, निःश्रे. यस के लिये और ओनुगामिकता के लिये होता है । " तो सल्ला" इत्यादि । निर्ग्रन्थों के लिये ये तीन शल्य छोड़ने योग्य हैं। जिस से जीव को बाधा पहुँचती है उसका नाम शल्य है, यह शल्य द्रव्य और भावके भेद से दो प्रकार का कहा गया है । तोमर-बोण आदि द्रव्य शल्य है भावकी अपेक्षा-माया, निदान और मिथ्यात्व के भेदसे तीन प्रकारका शल्य है, (शल्य-टूटा हुआ बाण के अग्र भाग) की तरह बाधक होने से मिथ्या-मिथ्यादर्शन को शल्य कहा गया है। अनिन्द्य અનનુગામિક અશુભાનુબંધ હોય છે.) , હવે તે અહિતકારી સ્થાનેના ત્રણ
१२ ४८ ४२वामा .माव छ-(१) नत (सतना ४२वत), (२) કર્ક રણુતા–વસવાટનું સ્થાન, ઉપાધિ આદિના દેને પ્રકટ કરતો બકવાદ કરે તેનું નામ કર્ક રણુતા છે. અને (૩) અપધ્યાનતા-આત્તરૌદ્રધ્યાન કરવું તેની નામ અપધ્યાનતા છે. પરન્તુ આ ત્રણ સ્થાને કરતાં વિપરીત વૃત્તિ રાખવાથી નિગ્રંથનું હિત થાય છે, તેમને સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે તેમના ક્ષમાગુણની वृद्धि थाय छ, तभनु श्रेय (दया) थाय छ, भने मनुमाभिता (शुमान. गन्ध) ३ बान्तरे ते तेभनी साथ तय छे. " तओ सल्ला " अत्याहि
નિ એ આ ત્રણ શ૯થને પરિત્યાગ કરવો જોઈએ-જેના દ્વારા જીવને હાનિ ( તકલીફ) પહોચે છે તેનું નામ શથિ છે આ શલ્યના દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ બે ભેદ કહ્યા છે. બાણ આદિને દ્રવ્ય-શલ્ય કહે છે, અને ભાવની અપેક્ષાએ માયા, નિદાન અને મિથ્યાત્વના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના શય છે. શલ્યની જેમ (છેડવામાં આવેલા બાણુના અગ્રભાગની જેમ) માધક
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स्थानासूत्र मिथ्यादर्शनशल्यमिति १० निर्ग्रन्थानामेव लब्धिमाप्तौ कारणत्रयमाह-वीहि इत्यादि, त्रिभिः स्थानः-कारणैः क्रियाविशेषाचरणरूपैः श्राम्यति-विश्राम्यतिशब्दादि विषयेभ्यो यः, यद्वा-श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः,-मुनिः कीदृशः ? इत्याह-निर्ग्रन्थः-द्रव्यभावग्रन्थिरहितः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः-विपुला विस्तीर्णाअनशन ब्रह्मचर्य आदि तप का सेवन करते हुए देवद्धि आदिकी प्राप्ति की कामना करनी यह निदान है । यह निदान भी जीव को शल्य की तरह दुःखदायक होता है । मिथ्यादर्शन भी जीवकी परिणति सुधरने नहीं देता है-आत्मस्थ नहीं होने देता है-यथार्थ श्रद्धा को रोकता है-अतः वह भी शल्य की तरह सदा जीव को दुःखदायक होने से मिथ्यादर्शन शल्य कहा गया है । अब सूत्रकार निर्ग्रन्थों को ही लब्धि की जो प्राप्ति होती है। उसमें कारणत्रय का कथन करते हैं-" तीहि ठाणेहि समणे' इत्यादि । शब्दादिक विषयों से जो विश्राम-विराम प्राप्त कर लेता है, अथवा तपस्या करता है-उसका नाम श्रमण मुनि है। श्रमण इन तीन क्रिया विशेषाचरणरूप कारणों से संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्यावाला होता है अर्थात् अपने में छिपाकर रखता है। यहां श्रमण के साथ निर्ग्रन्थ ऐसा जो पद रक्खा गया है वह यह प्रकट करता है कि जो श्रमण द्रव्यग्रन्थि और भावग्रन्धि से रहित होता है वही सच्चा श्रमण कहलाता है ऐसा श्रमण (પીડાકારક) હોવાને કારણે મિથ્યાદર્શનને શલ્યરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. અનિંદ્ય, અનશન, બ્રહ્મચર્ય આદિ તપનું સેવન કરતાં કરતાં દેવદ્ધિ આદિની પ્રાપ્તિની કામના કરવી તેનું નામ નિદાન છે. આ નિદાન પણ જીવને શયની ' જેમ દુઃખદાયક નિવડે છે. મિથ્યાદર્શન પણ જીવની પરિણતિને સુધારવા દેતું નથી-આત્મસ્થ થવા દેતું નથી-યથાર્થ શ્રદ્ધાને રેકે છે, તેથી તે પણ શયની જેમ જીવને માટે સદા દુઃખદાયક જ હોવાથી તેને મિથ્યાદર્શન શલ્ય કહેવામાં આવ્યું છે. નિર્ચ ને જે કારણેને લીધે લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે ત્રણ ४२ वे सूत्र४२ ४थन ४२ छ-" तोहिं ठाणेहिं " त्याह
શબ્દ દિક વિષયમાંથી જે વિશ્રામ (વિરામ) પ્રાપ્ત કરે છે એટલે કે શબ્દદિક વિષયનો જે પરિત્યાગ કરે છે, અથવા તપસ્યા કરે છે તેને મુનિ કહે છે. શ્રમણ નિર્ગથે આ ત્રણ ક્રિયાવિશેષાચરણરૂપ કારણોને લીધે સંક્ષિપ્ત વિપુલ તેલેક્ષાવાળો હોય છે. અહીં શ્રમણની સાથે જે નિર્ચપદનો પ્રયોગ કરાયો છે તે એ વાતને પ્રકટ કરે છે કે જે શ્રમણ દ્રવ્યગ્રંથિ અને ભાવ અંથિથી રહિત હોય છે, તેને જ સાચે શ્રમણ કહેવાય છે. એ શ્રમણ
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- सुधा ठीका स्था० ३ उ. ३ सू० ५५ निभ्थानगाराधारनिरूपणम् अनेक योजन परिमित क्षेत्रगत वस्तुजातदहनसमर्थत्वाद्विशाला तेजोलेश्या विशिष्टतपसाऽऽविर्भूतलब्धिविशेषसमुद्भूता तेजोज्वाला, सा संक्षिप्ता- शान्त्युद्रेकेण शरीरान्तलींना ह्रस्वतां वा गता यस्य स तथोक्तः शरीरान्तर्भूततेजोज्वालायुक्त इत्यर्थः, अन्यथा स तस्य प्रभावेणादित्यविम्ववदुर्दर्शः अनेकप्राणिस तापोत्पादकश्च स्यादिति, भवति - जायते । तान्येव करणान्याह - आतापनया - आतापना - विशिष्ट तपस्या के बल ऐसी तेजोलेश्या को प्राप्त कर लेता है जो अनेक योजन परिमित क्षेत्र तककी वस्तुओं को भस्मसात् करने में समर्थ होती है - यह तेजोलेश्या विशिष्ट तपस्या के प्रभाव से आविर्भूत लब्धिविशेष से जन्य होती है । जिस महर्षि श्रमण निर्ग्रन्थ को यह तेजोलेश्या होती है वह उसके प्रभाव से सूर्यधि की तरह दुर्दश होता है और अनेक प्राणियों को सन्ताप का कारण होता है परन्तु इस विशिष्ट प्रभावशालिनी तेजोलेश्या को प्राप्त किये हुए वह श्रमण निर्ग्रन्थ जो इस परिस्थितिवाला नहीं बनता है उसको कारण प्राप्त हुई उस तेजोलेश्या को वह अपने भीतर ही संक्षिप्त करके रखता है क्यों कि शान्ति का उद्रेक उसके पास इतना अधिक होता है कि जिसके कारण वह तेजोलेश्या उसके शरीर के भीतर ही या तो लीन हो जाती है यो ह्रस्वता को प्राप्त हो जाती है, ऐसा न हो तो वह जैसा की ऊपर कहा गया है सूर्य के बिम्ब की तरह दुर्दर्शनीय और अनेक प्राणिगणों को सन्तापकारक हो जाय। जिन कारणों से प्राप्त तेजोलेश्या
વિશિષ્ટ તપસ્યાના પ્રભાવથી એવી તૈલેશ્યાને પ્રાપ્ત કરી લે છે કે જે અનેક ચેાજન પરિમિત ક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુએને ખાળીને ભસ્મ કરી નાખવાને સમર્થ હાય છે. તે તેોલેસ્યા વિશિષ્ટ તપસ્યાના પ્રભાવથી આવિર્ભૂત, લબ્ધિવિશેષ દ્વારા પેદા થઈ હેાય છે. જે મહર્ષિ શ્રમણુ નિગ્રંથને આ તેોલેશ્યાની પ્રાપ્તિ થઈ હોય છે તે તેના પ્રભાવથી સૂર્યબિંખની જેમ દુશ (જેની સામે જોવામાં પશુ તકલીફ પડે એવા ) હાય છે, અને અનેક જીવામાં સંતાપના ઉત્પાદક થાય છે. પરન્તુ આ વિશિષ્ટ પ્રભાવશાલિની તેોલેસ્યાને પ્રાપ્ત કરનાર શ્રમણુ નિગ્રથની ખાખતમાં એવું મનતું નથી, કારણ કે પેાતે પ્રાપ્ત કરેલી તેજોલેશ્યાને તે પેાતાની અંદર જ સક્ષિપ્ત કરીને રાખે છે, કારણ કે શાન્તિને ઉદ્વેગ તેની અંદર એટલે અધિક હાય છે કે જેના કારણે તે તેોલેશ્યા તેના શરીરની અંદર કાંતા લીન થઇ જાય છે, અથવા તે હસ્વતા પ્રાપ્ત કરે છે જો એવું થતું ના હાત તેા તે સૂર્યના બિષની જેમ દુઃશનીય અને અનેક પ્રાણીગા માટે સંતાપકારક થઈ પડત. જે કારણેાને લીધે પ્રાપ્ત થયેલી તેોલેશ્યાને સ‘ક્ષિપ્ત
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स्थामा ग्रीष्मकाले मूर्याभिमुखमूववाहुर्भूत्वाऽऽतापस्य सेवनं, हेमन्ते प्रावरणराहित्य, वर्षामु-इन्द्रियकपाययोगान् संगोप्य विविक्तगय्यासनसे वित्वं च, तया । क्षान्तिक्षमया-क्षान्त्या-क्रोधनिग्रहेण नत्वशक्तत्वेन क्षमा-अन्यापराधस्य सहन शान्तिःक्षमा, तया । तथा-अपानकेन तपः कर्मणा, तत्रापानकेन-पारणककालादन्यत्रपानीयवर्जितस्तेन तपः कर्मणा-निरन्तरं पण्मासान् यावत् पष्टपष्ठादिरूपेण मुनिः संक्षिप्त विपलतेजोलेश्यो भवतीति पक्रमः। उक्ता निर्गन्यव्यापारवक्तव्यता, साम्प्रतं भिक्षुप्रतिमायक्तव्यतामाह-'विमासियं णं' इत्यादि, त्रैमासिकी मासजयप्रतिवद्ध भिक्षुपतिमां-भिक्षोः-साधोः प्रतिमा प्रतिज्ञा-अभिग्रहविशेष इत्यर्थः, संक्षिप्त कर दी जाती है-सूत्रकार उन्हीं ३ तीन कारणों को यहां प्रकट कर रहे हैं-उनमें एक कारण है आतापना जब ग्रीष्मकाल का समय होता है उस समय सूर्य के अभिमुख हो कर और उर्ध्वया होकर सेवन करना, हेमन्त में प्रावरण (मुखवस्त्रिका चोलपट्टक के सिवाय
और शरीर के सब वस्त्र को हटा देना) रहित होना वर्षाकाल में इन्द्रिय कपाय और योगों को रोक कर विविक्तस्थान में शय्यासन का सेवन करना यह आतापना है। क्रोधादि का निग्रह करते हुए आसक्त होते हुए नहीं अन्य व्यक्तियों द्वारा कृत अपराधको सहन करना यह क्षान्ति क्षमा है तथा-पारणकाल के सिवाय अन्य समय में पानी को वर्जनेवाले तपाकर्म से निरन्तर छह मास तक पष्टपष्टादि रूप तपस्या करना यह अपानक तपाकर्म है । इस तरह के इन आतापना शान्ति क्षमा और ४॥ देवामां आवे छे. .
. २०! वे ५४८ ४२पामा मावे छ-(१) सातायना-क्यारे ગ્રીષ્મ ઋતુ ચાલતી હોય ત્યારે સૂર્યની તરફ મુખ રાખીને અને ગને ભુજાઓ ઊંચી રાખીને આતાપનાનું સેવન કરવું, હેમન્ત ઋતુમાં પ્રાવરણ રહિત થવું એટલે કે મુહપત્તિ અને ચલપટ્ટક સિવાયના બધાં કપડાં ઉતારી નાખવા, અને વર્ષાકાળમાં ઈન્દ્રિય, કષાય અને જેગોને રેકીને વિવિક્ત સ્થાનમાં શાસનનું સેવન કરવું તેનું નામ આતાપના છે. (૨) ધાદિને નિગ્રહ કરીને-નહીં કે અશક્ત હોવાને લીધે-અંધ વ્યક્તિઓ દ્વારા કરાયેલા અપરાધને સહન કરે તેનું નામ ક્ષાન્તિક્ષમા છે. (૩) પારણના સમય સિવાયના અન્ય સમય દરમિયાન પાણીના વર્જન ( ત્યાગ) વાળી છઠ્ઠ છઠ્ઠાદિ રૂપ તપસ્યા નિરન્તર છ માસ પર્યન્ત કરવી તેનું નામ અપાનક તપ કર્મ છે. આ પ્રકારના આતાપના, ક્ષાન્તિક્ષમા અને અપાનક તપકમરૂપ ત્રણ કારણને લીધે તેલેશ્યાની
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सुधा टोका स्था० ३:३० ३ सू० ५५ निम्रन्थानगाराचारनिरूपणम् १५३ ताश्चकमासिक्यादयो द्वादश भवन्ति, . उक्तञ्च" मासाईसरता ७, पढमा १ विइ २ तइय ३ सत्तराइंदिणा १०॥
___ अहराइ ११ एगराई १२, भिक्खूपडिमाण वारसंग । १॥" अत्रायं भावः-एकमासिक्यादयो मासोत्तराः सप्तमतिमाः, ७ तिस्रः-अष्टमीनवमी-दशमीरूपाः प्रत्येकं सप्तरात्रिन्दिवप्रमाणा भवन्ति १०, पश्चाद एकाएकादशीप्रतिमा अहोरात्रिकी भवति ११, एका च द्वादशी मतिमा-एकरात्रि. अपानक तपाकर्मरूप तीन कारणों से तेजोलेश्या की लब्धि उत्पन्न होती है उसको संक्षिप्त करके रखते हैं।
..तीन मासकी अवधिवाली भिक्षु प्रतिमा को धारण किये हुए अनगार को भोजन एवं पानकी तीन दत्तियां लेनी कल्प्य है । वैसे भिक्षु प्रतिमाएँ १२ बारह होती है। कहा भी है-“मासाई सत्ता " इत्यादि
इसका भाव ऐसा है-पहिली भिक्षु प्रतिमा एक १ मालकी है, दूसरी भिक्षु प्रतिमा २ दो मास की है, तीसरी ३ भिक्षुप्रतिमा ३ मास की है, चौथी भिक्षु प्रतिमा चार ४ मास की है, पांचवीं भिक्षु प्रतिमा ५ मास की है, छठी भिक्षु प्रतिमा छह ६ मासकी है और सातवीं भिक्षु प्रतिमा ७ मास की है। इस तरह एक से लेकर सात तककी भिक्षु प्रतिमाएँ एक २ मास की उत्तरोत्तर वृद्धिवाली हैं। तीन प्रतिमाएँ आठवीं नवमी और दशवीं ये प्रत्येक सात सात दिन रात की प्रमाण वाली हैं । ग्यारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक अहोरात की है १२ वी भिक्षु લબ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે, અને શ્રમણ નિગ્રંથ તેને સંક્ષિપ્ત કરીને શરીરની અંદર જ રાખે છે. - ત્રણ માસની અવધિ (સમય મર્યાદા) વાળી ભિક્ષુપ્રતિમાને ધારણ કરનાર અણુગારને ભોજન અને પાનની ત્રણ દત્તિ લેવી કપે છે, જે કે भिक्षुपतिमामात १२ ५४२नी जाय छे. ४घु ५५ छ । “मासाई सत्ता" त्याल
તેને ભાવ આ પ્રમાણે છે-પહેલી ભિક્ષુપ્રતિમા એક માસની છે, બીજી ભિક્ષુપ્રતિમા બે માસની છે, ત્રીજી ભિક્ષુપ્રતિમા ત્રણ માસની છે, જેથી ભિક્ષુ પ્રતિમા ચાર માસની છે, પાંચમી શિક્ષુપ્રતિમા પાંચ માસની છે, છઠ્ઠી ભિક્ષુપ્રતિમા છ માસની છે અને સાતમી ભિક્ષુપ્રતિમા સાત માસની છે. આ રીતે એકથી લઈને સાત સુધીની ભિક્ષપ્રતિમાઓ ઉત્તરોત્તર એક એક માસની વૃદ્ધિવાળી છે. ત્રણ પ્રતિમાઓ એટલે કે આઠમી, નિવમી અને દસમી ભિક્ષપ્રતિમાઓ સાત સાત દિનરાતના પ્રમાણવાળી છે. અગિયારમી ભિક્ષુપ્રતિમા એક અહોરાતની ૮ દિવસરાતની અવધિવાળી) છે અને બારમી ભિક્ષુપ્રતિમા था २०
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ान
कीति द्वादशेति । अत्र तु त्रिस्थानकानुरोधाद दत्तित्रयग्रहणविपया त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा गृहीता । तां भिक्षु रतिमां प्रतिपन्नस्य - अङ्गीकृतस्य अनगारस्य-न अगारंगृहं यस्य सोऽनगारस्तस्य भिक्षोरित्यर्थः कल्पन्ते युज्यन्ते तिस्रो दत्तयः - एकवारपतिवाहारादिद्रव्यरूपाः भोजनस्य - तिस्र एव पानकस्य - पानकद्रव्यस्य प्रतिग्रहीतुमिति १२ । अथैकरात्रिकी प्रतिमायाः सम्यक्तयाऽननुपालनतोऽनुपालनतथ यद् भवति तदाह - ' एगराइयं ' इत्यादि, एकरात्रिकी द्वादशीत्यर्थः, तां प्रतिमां सम्यक् - शास्त्रोक्तप्रकारेण अननुपालयतः - अनाराधयतोऽनगारस्य इमानि - वक्ष्यमाणानि त्रीणि स्थानानि अहिताय यावत् अननुगामिकतायें भवन्ति, तान्येवाहउन्मादः - चित्तविभ्रमस्तं लभेत । वा अथवा दीर्घकालिक - चिरकालस्थायि-कष्टसाध्यमसाध्यं वा रोगातङ्कं तत्र- रोगः-कुष्ठादिः, आतङ्कः-सद्योघाती मस्तकशूल विस्
प्रतिमा केवल एक रात की है, परन्तु यहां त्रिस्थानक के अनुरोध से दत्तत्र ग्रहण करनेरूप विपयवाली त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा गृहीत हुई है, इस भिक्षु प्रतिमाको अङ्गीकार करनेवाले अनगारको गृहत्यागी भिक्षु को एक बार में पड़ी हुई आहारादि द्रव्यरूप भोजनदत्तियां तीन और पानक दत्तियां ३ तीन ही लेनी कल्पती हैं ।
अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि एक रात्रिकी प्रतिमाको सम्यक्रूपसे नहीं पालने से और पालने से क्या होता है और क्या नहीं होता है ' एगराइयं' इत्यादि । १२वीं जो भिक्षुप्रतिमा है उसे शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आराधित नहीं करनेवाले अनगार को ये तीन स्थान अहित के लिये यावत् अननुगामिकता के लिये होते हैं वे तीन स्थान इस प्रकार से हैं - उन्माद का प्राप्त होना, दीर्घकालिक रोगातङ्क का प्राप्त માત્ર એક રાતની જ અવધિવાળી છે. પરન્તુ અહીં ત્રિસ્થાનકને અધિકાર ચાલતા હાવાથી ત્રણ ત્તિયેા ગ્રહણ કરવા ંપ ત્રૈમાસિકી ભિક્ષુપ્રતિમાનું જ વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રતિમાને અંગીકાર કરનાર અણુગારને ગૃહત્યાગી ભિક્ષુને—એક વારમાં પડેલી આહારાદિ દ્રવ્યરૂપ ત્રણ ભાજન ત્તિયેા અને ત્રણ પાનક હૃત્તિયે જ લેવી ક૨ે છે.
હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે એક રાત્રિની પ્રતિમાને સમ્યક્ રીતે નહીં પાળવાથી શું થાય છે અને શું નથી થતું, તથા સમ્યક્ રીતે પાળવાથી शुं थाय छे भने शुं नथी थर्तु-" एगराइये ?' त्याहि
ખારમી ભિક્ષુપ્રતિમાની શાઓક્ત વિધિ અનુસાર આરાધના નહીં કરનાર અણુગારના ત્રણ સ્થાન અહિતથી લઈને અનનુગામિકતા પન્તના હેતુરૂપ અને छे. ते त्रशु स्थान नीथे अभा छे - ( १ ) उभाहनी प्राप्ति थाय छे, (२) हीधे
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सुधा टीका स्था०३ ७०३ सू० ५५ निर्ग्रन्थानगाराबारनिरूपणम् १५५, चिकादिः, तयोः समाहारे रोगातकं तत् माप्नुयात् । वा-अथवा केवलिमज्ञप्ताद्जिनमाणीतात् धर्मात्-श्रुत वारित्ररूपात्. धर्मात् भ्रश्येत् भृष्टो भवेत् , अनेन सम्यक्त्वस्यापिहानिर्भवेदिति१३! एतद्विपर्ययसूत्रमाह-'एगराइयं इत्यादि, एकरात्रिकी द्वादशी भिक्षुप्रतिमां सम्यक्तया अनुपालयता-समाचरतस्त्रीणि स्थानानि हिताय यावद अनुगामिकतायें भवन्ति । तान्येवाह-तस्य-एकरात्रिकी भिक्षुमतिमा सभ्यगनुपालयतः भवधिज्ञानं से 'तस्य' समुत्पधेता वा-अथवा मनःपर्यवज्ञानं तस्य समुत्प- : घेत । एतावदेव न, केवलज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत। एकरात्रिक्या भिक्षुमतिमायाः होना और केवलिप्रज्ञप्त धर्मसे भ्रष्ट पतित हो जाना चित्त में विभ्रमका
आ जाना इसका नाम उन्माद है. इस उन्माद को यदि वह प्राप्त हो जाता है, तो वह उसके अहित आदि के लिये हो जोता है इसी प्रकार . कष्टसाध्य या असाध्य रोग-कुष्ठादि और सद्यः प्राणहर शूल, विसचिका
आदि आतङ्कः उसे प्राप्त हो जाते हैं तो वे भी उसके अहित आदिके लिये हो जाते हैं, इसी प्रकार से यदि वह जिनप्रणीत धर्मसे श्रुतचारित्ररूप धर्म से पतित हो जाता है तो इससे सम्यक्त्व की भी हानि हो जाने के कारण वह उसके अहित आदि के लिये हो जाता है।
यदि वह एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा का पालन सम्यकूरूपसे करने में लगा रहता है-तो उसके लिये ये तीन स्थान हितकारक, सुखकारक क्षमाकारक, मङ्गलकारक और अनुगामिताकारक होते हैं-वे तीन स्थान में हैं-जैसे अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अथवा केवलज्ञान तात्पर्य यह કાલિક રોગાતકની પ્રાપ્તિ થાય છે અને (૩) કેવલિપ્રજ્ઞસ ધર્મમાંથી યુત (પતિત) થઈ જાય છે. ચિત્તમાં વિશ્વમ કે તેનું નામ ઉન્માદ છે. જે તેને તે ઉન્માદની પ્રાપ્તિ થાય છે તે તેને કારણે તેનું અહિત આદિ થાય છે. કષ્ટસાધ્ય અથવા અસાધ્ય રોગને પણ તે ભોગ બને છે. કે આદિ અસાધ્ય રેગે છે અને તુરત જ પ્રાણ હરી લેનારૂ હૃદયશૂલ (હાર્ટ ફેલ), વિસૂચિકા (કેલેરા) આદિ આતંક પણ તેને માટે અહિત આદિનું કારણ બને છે. એ જ પ્રમાણે જે તે જિનપ્રણીત ધર્મથી (શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મથી) ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, તે સમ્યકત્વની પણ હાનિ થાય છે અને તે પણ તેનું અહિત આદિ કરવામાં કારણભૂત બને છે જે તે એક 'રાત્રિની ભિક્ષુપ્રતિમાનું સમ્યફ રીતે પાલન કરવામાં લીન રહે છે, તો તેને માટે ત્રણ સ્થાન હિતકારક, સુખકારક, ક્ષમાકારક, મંગલકારક અને અનુગામિતાકારક (શુભ બંધ કરનારા) થઈ પડે છે તે ત્રણ સ્થાન નીચે પ્રમાણે સમજવા-(૧) અવધિજ્ઞાન, (૨) મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે એક રાત્રિની અવધિવાળી
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स्थानाङ्गो सम्यगनाराधनत उन्माद-रोगातङ्क-धर्मभ्रंशरूपा अहिताधर्थाः भवन्ति, तस्याः सम्यगाराधनतश्चावधिमन पर्यवकेवलज्ञानप्राप्तिरूपा हिताद्यर्थी भवन्तीति त्रयोद-, शचतुर्दशसूत्रयोस्तत्वमिति १४ ।। सू० ५५॥
पूर्वोक्तानि मुनीनामनुप्ठानानि कर्मभूमिष्वेव भवन्तीति तन्निरूपणाय पञ्च. सूत्रीमाह
मूलम्-जंबुद्दोवे दीवे तओ कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-भरहे एरवए महाविदेहे १ । एवं धायईसंडे दीवे पुरस्थिमद्धे जाव पुक्खरवरदीवडुपच्चत्थिमद्धे ५ ॥सू०५६ ॥ है-शास्त्रोक्त विधि अनुसार एक रात्रि की १२ ची भिक्षुप्रतिमा का यथावत् पालन करनेवाला अनगार या तो अवधिज्ञानको प्राप्त कर लेता है या मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, या केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है, तेरहवें सूत्र सम्यकूतथा भिक्षुप्रतिमा नहीं पालनेवाला और चौदहवे सूत्र सम्यक्तयाभिक्षुप्रतिमा पालनेवाला सूत्रोंका.निष्कर्षार्थ यही है कि एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा को सम्यकप से आरा. धित नहीं करनेवाले भिक्षुको उन्माद, रोगातक और धर्म से भ्रष्टतारूप अहितादि विधायक अर्थ प्राप्त होते हैं और इसका सम्यकपसे पालन करनेवाले भिक्षु को अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन तीन ज्ञान में से कोई भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जो इसका हित आदि कारक होता है १४ ॥ सू० ५५ ॥ બારમી ભિક્ષુપ્રતિમાની શાસ્ત્રોક્ત વિધિ અનુસાર આરાધના કરનાર અણગારને કાં તે અવધિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને કાં તે કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે. ૧૩ માં સૂત્રમાં સમ્યક્ રીતે આ પ્રતિમાની આરાધના નહીં કરનારના શા હાલ થાય છે તે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. તેમાં એવું કહ્યું છે કે એક રાત્રિની ! બારમી ભિક્ષુપ્રતિમાની સભ્ય રૂપે આરાધના ન કરનાર અણગારને ઉન્માદ, રિગાતંક અને ધર્મભ્રષ્ટ થવા રૂપ અહિતાદિ વિધાયક અર્થ પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૪ માં સૂત્રમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે બારમી ભિક્ષુપ્રતિમાનું સમ્યક્ રૂપે પાલન કરનાર અણગારને અવધિજ્ઞાન અથવા મન પર્યાવજ્ઞાન અથવા કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, જે તેનું હિતકારક, સુખકારક આદિ થઈ પડે છે. એ સૂ, પપ છે
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सुघाटीका स्था० ३ उ० ३ ० ५६ कर्मभूमिनिरूपणम्
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छाया - जर द्वीपे द्वीपे तिस्रः कर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - भरतम्, ऐरवतं, महाविदेहः । एवं धातकीखण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्धे यावत् पुष्करवरद्वीपार्दे पश्चि मार्डे ५|| सू० ५६ ।।
टीका - जंबुद्दीचे ' इत्यादि, सूत्राणि पञ्चापि सुगमान्येच, नवरं - जम्बूद्वीपे भरतैवतमहाविदेहरूपाणि त्रीणि क्षेत्राणि कर्मभूमयः सन्ति । असिमषीक्क - पितपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधानाः भूमयः कर्मभूमयः । ताः पञ्चदश भवन्ति, जम्बूद्वीपधातकीखण्डपूर्वार्द्ध तत्पश्चिमाद्ध पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्धतत्पथि मार्द्धरूपेषु पञ्चसुप्रत्येकं भरतादि त्रयसद्भावात् ५ ॥ स्रु० ५६ ।।
ये मुनियों के पूर्वोक्त अनुष्ठान कर्मभूमि में ही होते हैं - अतः कर्मभूमियों के निरूपण के लिये सूत्रकार पचसूत्र कहते हैं - ' जंबूद्दीवे दीवे तओ कम्मभूमीओ ' इत्यादि ।
'टीकार्थ- जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें तीन कर्मभूमियां कही गई हैं-जैसे एक भरत क्षेत्र दूसरा ऐरवत क्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र | इसी तरहका कथन पूर्वाद्ध घातकीखण्ड द्वीपमें भी कर लेना चाहिये और इसी तरह का कथन यावत् पश्चिमा पुष्करवरद्वीपार्ध में कर लेना चाहिये ।
जो भूमियां असि. मषी, कृषि और तपःसंयमानुष्ठानादिरूप कर्म प्रधान होती हैं वे कर्मभूमियां हैं, ऐसे ये कर्मभूमियां जम्बूद्वीप में भरत ऐरवत और महाविदेहरूप हैं । ये कर्मभूमियां ढाई द्वीपमें कुल १५ हैं । जम्बूद्वीपमें तीन धातकीखण्ड में पूर्वाद्ध और पश्चिमाद्ध में ६ और पुष्करदीपा के पूर्वार्द्ध पश्चिमार्धमें६ इस प्रकार से ये १५ हो जाती हैं ॥ ५६ ॥ મુનિએનાં પૂર્વક્ત અનુષ્ઠાન કર્યું ભૂમિએમાં જ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર કમ ભૂમિઓનું નિરૂપણુ પાંચ સૂત્રેા દ્વારા કરે છે—
""
जंबूदीवे दीवे तओ कम्मभूमिओ " त्याहि
કહી છે
ટીકા-જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં નીચે પ્રમાણે ત્રણ કભૂમિ (१) भरतक्षेत्र, (२) भैरवतक्षेत्र, भने (3) भडाविहेडक्षेत्र मा अारनं धातडीખંડ દ્વીપમાં પણ સમજી લેવું. એ જ પ્રકારનુ કથન દ્વીપાધ પર્યન્તના વિષયમાં પણ સમજવું.
પશ્ચિમા પુષ્કરવર
જે ભૂમિએ અસિ, મષી, કૃષિ અને તપઃસયમાનુષ્ઠાન આદિ રૂપ કેમ་પ્રાધાન હાય છે, તે ભૂમિઓને કમભૂમિએ કહે છે. એવી તે કભૂમિએ ભરતક્ષેત્ર, એરવતક્ષેત્ર અને મહાવિદેહક્ષેત્ર રૂપ છે. અઢી દ્વીપમાં કુલ ૧૫ કમ ભૂમિ છે જ બુદ્વીપમાં ૩, ધાતકીખડના પૂર્વાધ અને પશ્ચિમા માં મળીને કુલ ૬, અને પુષ્કરવર દ્વીપાના પૂર્વાધ અને પશ્ચિમામાં મળીને ६, मा रीते मेरे ६+६=१५ भूभि छे. ॥ सू. ५६ ॥
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स्थानस्त्रि उक्ताः कर्मभूमयः, सम्पतं तद्गतमनुष्यधर्मनिरूपणायैकादशसूत्राण्याह
मूलम्-तिविहे दसणे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मईसणे, मिच्छदंसणे सम्मामिच्छदसणे १ । तिविहा रुई पण्णता, तं जहासम्मारुई मिच्छारुई सम्मामिच्छारूई २ । तिविहे पओगे पण्णत्ते तं जहा-सम्मापओगे, मिच्छप्पओगे, सम्मामिच्छप्पओगे ३। तिविहे वयसाए पण्णत्ते, तं जहा:धम्सिए ववसाए, अधम्मिए क्वसाए, धम्मियाधम्मिए ववसाए ४ । अहवा तिविहे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, पच्चइए, आणुगामिए ५ । अहवा तिविहे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा-इहलोइए, परलोइए इहलोइयपरलोइए ६ । इहलोइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहालोइए, वेइए, समाइए ७ । लोइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थे धम्मे कामे ८ । वेइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-रिउठवेए, जउव्वेए, सामवेए ९ । सामाइए, क्वसाए तिविहे पणत्ते, तं जहा-णाणे दसणे चरित्ते १०। तिविहा अत्थजोणी पण्णत्ता, तं जहा-सामे दंडे भेए ११ ॥ सू० ५७॥ .
छाया-त्रिविधं दर्शन प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सम्यग्दर्शनं, मिथ्यादर्शनं, सम्यङ्मिथ्यादर्शनम् १। त्रिविधा रुचिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सम्यगूरुचिः, मिथ्यारुचिः
कर्मभूमियों का निरूपण करके अब सूत्रकार तद्गत मनुष्यधर्म का निरूपण करने के लिये ११ सूत्र कहते हैं-'तिविहे दंसणे पण्णत्ते' इ० .
सूत्रार्थ-दर्शन तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे-सम्यग्दर्शन, मिथ्या: दर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन, रुचि तीन प्रकारकी कही गई है। जैसे
કર્મભૂમિઓનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમાં રહેલા મનુષ્યના धनु नि३५ ४२ छ-"तिविहे दंसणे पण्णत्ते" त्याह
सूत्रार्थ-शन प्रा२ हा छ-(१) सभ्य शन, (२) भिथ्याशन भर (3) सभ्य मिथ्याशन. २थि त्रय मानी ४ीछे-(१) सभ्य रुथि,
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सुधा का स्था० ३ उ०३२सू०५७ कर्मभूमिस्थमनुष्यधर्मनिरूपणम् १५९ सम्यमिथ्यारुचिः । त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा सम्यक्रमयोगः, मिथ्याप्रयोगः, सम्यमिथ्यामयोगः ३। त्रिविधो व्यवसायः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-धार्मिको व्यवसायः, अधार्मिको व्यवसायः, धार्मिकाधार्मिको व्यवसायः ४। अथवा त्रिविधी व्यवसाय: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रत्यक्ष प्रात्ययिकः आनुगामिकः ५। अथवा त्रिविधी व्यवसायः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ऐहलौकिकः, पारलौकिकः, ऐहलौकिकपारलौकिका ६। ऐहलौकिको व्यवसायत्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा लौकिका, वैदिकः, सामयिका ७। लौकिको व्यवसायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्थों धर्मः कामः ८। वैदिको व्यवसायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यया-ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः ९। सामयिको व्यवसायत्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यया-ज्ञानं, दर्शन, चारित्रम् १०। त्रिविधाऽर्थयोनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-साम, दण्डः, भेदः ११ ॥सू० ५७॥ -सम्यग्रुचि, मिथ्यारुचि और सम्यमिथ्यारुचि, प्रयोग तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे-सम्यक् प्रयोग, मिथ्याप्रयोग और सम्यक् मिथ्या. प्रयोग, व्यवसाय तीन प्रकारका कहा गया है जैसे-धार्मिक व्यवसाय, अधार्मिक व्यवसाय, और धार्मिकाधार्मिक व्यवसाय-अथवा इस तरह से भी व्यवसाय के तीन भेद कहे गये हैं-एक प्रत्यक्ष, दुसरा प्रात्यधिक और तीसरा आनुगामिक अथवा-ऐहिलौकिक, पारलौकिक और ऐहलौकिक पारलौकिक, इनमें ऐहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे लौकिक, वैदिक सामायिक, इनमें लौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है-जैसे-अर्थ, धर्म और काम, वैदिक व्यवसाय तीन प्रकारका कहा गया है। जैसे-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, सामयिक व्यवसाय भी तीन प्रकार का कहा गया है। जैसे(२) भिथ्याशयि अन (3) सभ्य भिथ्यारुन्थि. प्रयो॥ त्र' प्रा२ना ४ छ (१) सभ्य प्रयास, (३) मिथ्याप्रयाग मन (3) सभ्य मिथ्याप्रयास, व्यq. સાય ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે-(૧) ધાર્મિક વ્યવસાય, (૨) અધાર્મિક વ્યવસાય અને (૩) ધાર્મિક ધાર્મિક વ્યવસાય. અથવા વ્યવસાયના આ પ્રમાણે ત્રણ ભેદ પણ ५ छ-(१) प्रत्यक्ष, प्रात्ययि४ भने (3) मानुभि . 4211 (१) ओडी (૨) પારલૌકિક અને (૩) એહલૌકિક પારલૌકિક તેમાંના ઐહલૌકિક વ્યવસાया त्रय ४२ ४ा छ-(१) ४, (२) वै िमने (3) सामयि. qणी alls व्यवसायना ५ नये प्रमाणे तY २ ४ा छ-(१) मथ, (२) ધર્મ અને (૩) કામ. વિદિક વ્યવસાયના પણ આ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧)
વેદ, (૨) સામવેદ અને (૩) યજુર્વેદ, સામયિક વ્યવસાયના પણ નીચે
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स्थानासूत्रे.
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टीका - तिविहे ' इत्याचेकादशापि सूत्राणि सुगमानि, नवरं दर्शनंदर्शनमोहनीयं तथाविधदर्शन हेतुत्वात् तत् सम्यङ् मिथ्या - मिश्रभेदात् त्रिवि धम् १ | रुचिः- तत्वानां श्रद्धानम्, साऽपि दर्शनत्रयसंपाद्या पूर्वोक्तभेदात् त्रिविधा २। प्रयोगः - मनःप्रभृतिव्यापारः औषधादि व्यापारो वा । स त्रिविधः - सम्यङ् मिथ्यामिश्ररूपः - उचितानुचित तदुभयात्मको वेति ३। व्यवसाय:- वस्तुनिर्णयः, पुरुषार्थ सिद्धयर्यमनुष्ठानं वा । सच धार्मिका धार्मिकतदुभयभेदात् त्रिविधः । त्रिविधोऽयं व्यवसायः संयताऽसंयत देश विरतानां क्रमेण भवति । यद्वा-धार्मिको व्यवसायः संयमरूपः, अधार्मिकोऽसंयमरूपः, धार्मिकाधार्मिको- देशसं यमलक्षण इति | व्यवसाय:- निश्रयः, स त्रिविधस्तथाहि - प्रत्यक्षः - अवधि - मनः पर्यव - ज्ञान, दर्शन और चारित्र, अर्थयोनि तीन प्रकार की कही गई है— जैसे - साम, दण्ड और भेद ।
टीकार्थ - यहां दर्शन शब्द से दर्शनमोहनीयका तथाविध दर्शनका हेतु होने से ग्रहण हुआ है यह दर्शनमोहनीय कर्म सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व प्रकृति और मिश्रप्रकृति के भेद से तीन प्रकारका है, तत्त्वों को श्रद्धान करना इसका नाम रुचि है - यह रुचि भी दर्शनत्रयसंपाद्य होती है इस लिये पूर्वोक्त भेद से तीन प्रकार की है । मनः आदि के व्यापारका नाम प्रयोग है । अथवा औषधादि व्यापार का नाम प्रयोग है । यह प्रयोग भी सम्यक्, मिथ्या और मिश्रप्रयोग के भेद से तीन प्रकारका कहा गया है । अथवा- - उचित, अनुचित और उचितातुचित के भेद से भी... प्रयोग तीन प्रकार का कहा गया है, वस्तुके निर्णय का नाम व्यवसाय है । अथवा - पुरुषार्थ सिद्धिके निमित्त किया गया अनुष्ठान का नाम भुल्भ त्रयु अार ४ह्या छे - ( १ ) ज्ञान, (२) दर्शन भने ( 3 ) यास्त्रि, अर्थयोनि त्रयु प्रहारनी उही छे - (१) साम, (२) :'उ मने (3) लेह.
ટીકા –અહીં દર્શન શબ્દથી દશ નમેાહનીય ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે તે તથાવિધ દર્શનના હેતુ ( કારણ ) રૂપ હાય છે આ દશ નમેાહનીય કમના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે-સમ્યક્ પ્રકૃતિ, મિથ્યાત્વ પ્રકૃતિ અને મિશ્ર પ્રકૃતિ. તત્ત્વા પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખવી તેનું નામ રુચિ છે. તે રુચિ પણ હનત્રયસ પાદ્ય હોય છે, તેથી તેના પણ પૂર્વોક્ત ત્રણ ભેદ જ પડે છે. મન આદિના વ્યાપારનુ ( પ્રવૃત્તિનું) નામ પ્રયાગ છે, અથવા ઔષધાદ્ધિ વ્યાપારનું નામ પ્રયાગ છે. આ પ્રયેાગ પણ સમ્યક્રૂ, મિથ્યા અને મિશ્ર પ્રયેાગના ભેદ્રથી ત્રણ પ્રકારને કહ્યો છે અથવા ઉચિત, અનુચિત, અને ઉચિતાનુચિતના ભેદથી પણ પ્રયેાગ ત્રણ પ્રકારના કહ્યો છે. વસ્તુના નિષ્ણુયનું નામ વ્યવસાય છે,
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सुषा का स्था०३ उ०३ सू०५७ कम भूमिस्थमनुष्यधर्म निरूपणम् १६१ केवलज्ञानजनितः । प्रात्ययिका-प्रत्ययजन्यः-इन्द्रिय-नोइन्द्रियरूपनिमित्ताज्जात इत्यर्थः । आनुगामिकः-अनुगच्छति-साध्यमग्न्यादिकं, साध्याभावे च न भवति यो धूमादि हेतुः सोऽनुगामी, ततो जातम् आनुगामिकम्-अनुमान, तद्पो यः स आनुगामिकः-अनुमानरूप इत्यर्थः । यद्वा-प्रत्यक्षा-स्वयंदर्शनलक्षणः पात्यभी व्यवसाय है । यह धार्मिकादि के भेद से तीन प्रकारका प्रकट किया किया है, यह त्रिविध व्यवसाय क्रमशः संयत, असंयत और देशवि. रतों के होता है अथवा-संयमरूप व्यवसाय का नाम धार्मिक व्यवसाय है, असंयमरूप व्यवसाय का नाम अधार्मिक व्यवसाय है और जो देश. संयम है वह धार्मिक अधार्मिक दोनों व्यवसायरूप है । अथवा व्यव. साय का अर्थ निश्चय है । यह निश्चयरूप व्यवसाय अवधिज्ञान मनः पर्य यज्ञान और केवलज्ञानजनित जव होता है तब वह प्रत्यक्षरूप व्यवसाय कहलाता है। इन्द्रिय और नोइन्द्रियरूप निमित्त से जन्य जो व्यवसाय है वह प्रात्ययिक व्यवसाय है, तथाअनुमानरूप जो व्यवसाय होता है वह आनुगामिक व्यवसाय हैं जो अपने साध्य के अभाव में नहीं होता है ऐसा धुमादिक हेतु अनुगामी है । इस अनुगामी से जो व्यवसाय उत्पन्न होता है वह आनुगामिक व्यवसाय है, ऐसा आनुगा. मिक व्यवसाय अलुमानरूप होता है अथवा स्वयं देखना यह प्रत्यक्ष અથવા પુરુષાર્થસિદ્ધિને નિમિત્તે કરાયેલા અનુષ્ઠાનને પણ વ્યવસાય કહે છે. તે ધાર્મિકાદિના ભેદથી ત્રણ પ્રકારને પ્રકટ કર્યો છે.
આ ત્રણ પ્રકારના વ્યવસાયને સદ્ભાવ અનુક્રમે સંયત, અસંયત અને દેશવિર માં હોય છે અથવા સંયમરૂપ વ્યવસાયને ધાર્મિક વ્યવસાય કહે છે. અસંયમરૂપ વ્યવસાયને અધાર્મિક વ્યવસાય કહે છે અને દેશસંયમરૂપ વ્યવસાયને ધાર્મિક ધાર્મિક વ્યવસાય કહે છે અથવા વ્યવસાયને અર્થ નિશ્ચય પણ થાય છે. આ નિશ્ચયરૂપ વ્યવસાય જ્યારે અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યયજ્ઞાન અથવા કેવળજ્ઞાનથી જનિત હોય છે, ત્યારે તેને પ્રત્યક્ષ વ્યવસાય કહે છે. ઈન્દ્રિય અને નેઈન્દ્રિયરૂપ નિમિત્ત દ્વારા જન્ય જે નિશ્ચય હોય છે, તેને પ્રાયયિક વ્યવસાય કહે છે. અનુમાનરૂપ જે વ્યવસાય હોય છે, તેને આનુગામિક વ્યવ. સાય કહે છે. જે પિતાના સાધ્યના અભાવમાં ઉદ્ભવતું નથી એવાં ધૂમાદિક હેતુને અનુગામી કહે છે આ અનુગામિ દ્વારા જે વ્યવસાય (નિશ્ચય) ઉત્પન્ન થાય છે, તેને આનુગામિક વ્યવસાય કહે છે. દા. ત. ધુમાડાને જોઈને અગ્નિના આસ્તિત્વને જે નિશ્ચય થાય છે તેને આનુગામિક વ્યવસાય કહે છે. એ આનુગામિક વ્યવસાય અનુમાનરૂપ હોય છે, અથવા જાતે જ જેવું તેનું નામ स २१
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स्थानाङ्गसूत्रे
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यिक:- आप्तवचनमभवः, तृतीयस्तद्रूप एवेति ५ तथा व्यवसायः - निश्चयोऽनुष्ठानं वा । स विविधस्तथाहि-- ऐहलौकिकः - इहलोकसम्बन्धी, पारलौकिकः - परलोकसम्बन्धी, ऐहलौकिकपारलौकिकः: - य इह परत्र च भवति सः, उभयलोक सम्ब ates: ६ । ऐहलौकिको व्यवसाय स्त्रिविधस्तथाहि - लौकिकः, वैदिक, सामयिकः । तत्र लौकिकः - सामान्यलोकाश्रितः, वैदिकः - ऋगादि वेदाश्रितः, समय:- सांख्यादिसिद्धान्तः, तदाश्रितो यः स सामयिकः | ७| इमे लौकिकादयोव्यवसायाः प्रत्येकं त्रिविधाः तेषु प्रथमं लौकिकव्यवसाय भेदानाह - ' लोइए - रूप व्यवसाय है, आप्त के वचन से उत्पन्न हुआ जो ज्ञान है वह प्रात्यकि व्यवसाय है | तथा अनुमानरूप जो व्यवसाय है वह आनुगासिक व्यवसाय है तथा ऐहलौकिक, पारलौकिक और ऐहलौकिक और पारलौकिक के भेद से भी व्यवसाय तीन प्रकारका है - इहलोक सम्बन्धी जो व्यवसाय है वह ऐहलौकिक व्यवसाय है, परलोक सम्बन्धी जो व्यवसाय है वह पारलौकिक व्यवसाय है तथा इस लोक और परलोक के सम्बन्ध में जो व्यवसाय है वह ऐहलौकिक पारलौकिक व्यवसाय है । इनमें जो ऐहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकारका कहा गया है। उस सम्बन्ध में ऐसा जानना चाहिये कि सामान्य लोकके आश्रित जो व्यव साय है वह लौकिक व्यवसाय है । ऋग्वेद आदि वेदों के आश्रित जो व्यवसाय है तथा सांख्य सिद्धान्त आदि के आश्रित जो व्यवसाय है वह सामयिक व्यवसाय है, ऐहलौकिक व्यवसाय के जो ये तीन भेद कहे हैं सो इन भेदों के भी प्रत्येक के ३-३ भेद कहे गये हैं । इन में પ્રત્યક્ષ વ્યવસાયછે, આમનાં વચને દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલા જ્ઞાનને પ્રાત્યયિક વ્યવસાય કહે છે, તથા અનુમાન રૂપ જે વ્યવસાય છે તેને આનુગામિક વ્યવસાય કહે છે.
તથા અહલૌકિક, પારલૌકિક અને અહલૌકિપારલૌકિકના વ્યવસાયના अार पडे - धड होउ ( भा बोर्ड ) संबंधी ने व्यवसाय छे, तेने ઐહલૌકિક વ્યવસાય કહે છે, પરલેાક સંબધી જે વ્યવસાય છે તેને પારલૌકિક વ્યવસાય કહે છે, તથા આલેાક અને પરલેાક સબંધી જે વ્યવસાય છે તેને અહલૌકિકપારલૌકિક વ્યવસાય કહે છે. અહલૌકિક વ્યવસાયના પણ ત્રણ ભેદ પડે છે—લૌકિક, વૈશ્વિક અને સામયિક, સામાન્ય લેાકને આશ્રિત જે વ્યવહાર છે તેને લૌકિક વ્યવસાય કહે છે, ઋગ્વેદ આદિ વેદને આશ્રિત્ત જે વ્યવસાય છે. તેને વૈશ્વિક વ્યવસાય કહે છે, અને સાંખ્ય સિદ્ધાંત આદિને આશ્રિત જે વ્યવસાય છે તેને સામયિક વ્યવસાય કહે છે. ઐહલૌકિક વ્યવ સાયના જે ત્રણ ભૈ કહ્યા છે, તે પ્રત્યેક ભેદના પણ ત્રણ ત્રણ પ્રકાર પડે છે
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सुंधा का स्था० उ०३ ० ५७ कर्मभूमिस्थमनुष्यधर्मनिरूपणम् १६६ ववसाए ' इत्यादि, लौकिको व्यवसायत्रिविधो यथा-अर्थो, धर्मः-काम इति, अर्थविषयोधर्मविषयः कामविषयश्च निर्णयः इत्यर्थः । स यथा___" अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्यस्य दानं च दया दमश्च ।। । कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥१॥"
इत्यादिरूपः, तदर्थमनुष्ठानं वाऽर्थादिरेव व्यवसाय उच्यते ८ वैदिको व्यवसाय:-ऋग्वेदाघाहितो निर्णयो व्यापारो वा ऋग्वेदादिरेव व्यवसाय इति ९। सामयिको व्यवसायः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, तत्र ज्ञान व्यवसाय एव पर्याय. शब्दत्वात् । दर्शनमपि श्रद्धानलक्षणं व्यवसायः, व्यवसायांशत्वात्तस्य । चरित्रमणि लौकिक व्यवसाय अर्थ, धर्म और काम के भेद से तीन भेदवाला है। अर्थविषयक, धर्मविषयक और कामविषय जो निर्णय है वही अर्थरूप, धर्मरूप और कामरूप लौकिक व्यवसाय है । जैसे-'अर्थस्य मूलं' इ०
अर्थ का मूल निकृति-छलकपट पूर्ण व्यवहाररूप परवंचन, धर्मका मूल क्षमा, दया, दान और दा, कामका मूल वित्त, शरीर, यौवनावस्था और मोक्षका मूल समस्त शुभाशुभ क्रियाओंसे विरक्ति है सो इत्यादि रूप ही यह अर्थादि व्यवसाय है-वैदिक व्यवसाय भी ऋग्वेद यजुर्वेद, सामवेदद्वारा किया गया निर्णयरूप होता है । तथा सामयिक व्यवसाय भी ज्ञानदर्शन और चारित्ररूप होता है। ज्ञानको जो यहां व्यवसायरूप कहा गया है सो उसका कारण व्यवसाय को उसका पर्याय शब्द होने के कारण कहा गया है । तथा दर्शन को जो व्यवसायरूप कहा गयो લૌકિક વ્યવસાયના અર્થ, ધર્મ અને કામ, આ ત્રણ ભેદે છે. અર્થવિષયક, ધર્મવિષયક અને અને કામવિષક જે નિર્ણય છે તેને અનુક્રમે અર્થરૂપ અને म३५ दौडि ०५वसाय ४९ छ रेम-" अर्थस्य मूल " त्याह
અર્થનું મૂળ નિકૃતિ–છળકપટપૂર્ણ વ્યવહારરૂપ પરવચન, ધર્મનું મૂળ ક્ષમા, દયા, દાન અને દમ, કામનું મૂળ ધન શરીર, યૌવનાવસ્થા અને મોક્ષનું મૂળ સમસ્ત શુભાશુભ ક્રિયાઓમાંથી વિરકિત છે. અર્થાદિ ત્રણે વ્યવસાયોનું સ્વરૂપ આ ગાથા દ્વારા સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. વૈદિક વ્યવસાય પણ ગવૅદ આદિને આધારે કરેલા નિર્ણયરૂપ હોય છે. તથા સામયિક વ્યવસાય જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ હોય છે. જ્ઞાનને અહીં જે વ્યવસાયરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે વ્યવસાય તેને પર્યાયી શબ્દ છે, તથા દર્શનને જે વ્યવસાય રૂપ કહ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે શ્રદ્ધારૂપ દર્શન પણ વ્યવસાય રૂપ જ હેય
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स्थानीजानी समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात् , यच्चोच्यते
" सञ्चरणमणुट्टाणं विहपडिसेहाणुगं तत्थ " इति ।
छाया-सच्चरणमनुष्ठानं विधिप्रतिषेधानुगं तत्र ॥ तत्र तद् वाह्य चारित्रापेक्षमगवन्तव्यमिति । अथवा ज्ञानादौ विपये यो व्यवसायोबोधोऽनुष्ठानं वा, स विषयभेदात् त्रिविध इति । सामयिकता चास्य सम्यङ्मिथ्याशब्दविशेपितस्य ज्ञानादित्रयस्य सर्वसमयेष्वपि भावादिति १० । 'तिविहा अत्थजोणी ' इत्यादि, अर्थस्य राजलक्ष्म्यादिरूपस्य योनिः-उपायः, अर्थयोनिः, सा त्रिविधा-सामप्रियवचनादि दण्ड:-वधादिरूपः परनिग्रहः, भेदः-जिगीपितहै सो श्रद्धानरूप दर्शन भी व्यवसायरूप ही होता है इसलिये कहा गया है क्यों कि दर्शन व्यवसाय का एक अंशरूप होता है, तथा समभोव चारित्र है वह भी व्यवसायरूप ही होता है। क्यों कि वह घोधस्वभावरूप आत्मा को एक परिणनिविशेषरूप होता है । तथा ऐसा जो कहा गया है कि-" सच्चरणमणुट्ठाणं विहपडि संहणाणुगं तत्व" सो यह वाद्यचारित्र की अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये। अथवा ज्ञानादिकके विषय में जो व्यवसाय-बोध अथवा अनुष्ठान है वह विषय के भेद से तीन प्रकार का हो गया है, ऐसा जानना चाहिये । इनमें जो सामायिकता कही गई है वह सम्यक् एवं मिथ्या शब्दों से विशेषित हो कर इस ज्ञानादित्रय को समस्त समयों में भी मद्भाव होनेके कारण से कही गई है । राजलक्ष्मी आदिरूप अर्थ की जो योनि है वह अर्थयोनि है-योनि शब्दका वाच्य यहां उपाय लिया गया है। राजलक्ष्मी. आदिरूप अर्थप्राप्ति के उपाय जो साम, दण्ड, और भेद कहे गये हैं सो છે, અને દર્શન વ્યવસાયના એક અંશરૂપ હોય છે. તથા સમભાવરૂપ જે ચારિત્ર છે તે પણ વ્યવસાયરૂપ જ હોય છે, કારણ કે તે બેધ સ્વભાવરૂપ આત્માને માટે એક પરિણતિ વિશેષરૂપ હોય છે. તથા એવું જે કહેવામાં मायुं छे , “ सच्चरणमणुद्वाणं विहपडिसंहणाणुगं तत्थ" ते माह्ययारित्रनी અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. અથવા જ્ઞાનાદિકના વિષયમાં જે વ્યવસાયબોધ અથવા અનુષ્ઠાન છે તે વિષયના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના થઈ ગયા છે, એમ સમજવું. તેમનામાં જે સામાયિકતા કહેવામાં આવી છે તે તે સમ્યક્ અને મિથ્યા શબ્દોથી વિશેષિત (યુક્ત) થઈને આ જ્ઞાનાદિત્રયને સમસ્ત સમયમાં સભાન હોવાને કારણે કહેલી છે. રાજલક્ષ્મી આદિરૂપ અર્થની જે નિ છે તેનું નામ અર્શનિ છે-અહીં નિ શબ્દને વાચ્યાર્થ ઉપાય” સમજેવો જોઈએ. રાજલક્ષમી આદિરૂપ અર્થ પ્રાપ્તિના ઉપાય
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सुधा टीका स्था०३ उ०३ २०५७ कर्मभूमिस्र्थमप्नुयधर्मनिरूपणम् १६५ परपक्षस्य स्वाम्यादितः स्नेहापनयनादिसम्पादनम् । तथाहि-तल्लक्षणानि
" परस्परोपकाराणां, दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २।
सम्बन्धस्य समाख्यान ३,-मायत्याः संप्रकाशनम् ४ ॥१॥ , (अस्मिन्नेव कृते इदमावयोर्भविष्यती 'त्याशाजननम् आयतिसंप्रकाशनम् )
वाचा पेशलया साधु, तवाहमिति चार्पणम् ५ । इति सामप्रयोगज्ञैः, सामपञ्चविधं स्मृतम् ।। १ ॥ वधश्चैव १ परिक्लेशो २, धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधानझै,-दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥२॥ स्नेहरागापनयनं १, संघर्पोत्पादनं २ तथा।
संतर्जनं ३ च भेदह,-मैं दस्तु त्रिविधः स्मृतः ॥ ३ ॥” इति । . तत्र संघर्षः-स्पर्धा, सन्तर्जन च- अस्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो । भविष्यती'-त्यादि राज्यव्यवहार्यरूपमिति ११ ॥ सू० ५७॥ उनका अर्थ ऐसा है कि प्रियवचन आदिरूप साम है, बधादिरूप जो पर का निग्रह है वह दण्ड है तथा जिगीषित-जीतने की इच्छावाले परपक्षके ऊपर से स्वामी आदिका स्नेह हटा देना-उनमें भिन्नता कर देना यह भेद है-सो ही कहा है-'परस्परोपकाराणां ' इत्यादि।
ऐसा करने पर इस विषयमें हम दोनों को ऐसा होगा ऐसी आशा करना इसका नाम आयति संप्रकाशन है। 'वाचा पेशलया साधु "इ०
यहां स्पर्धा का नाम संघर्ष है, इस मेरे मित्रविग्रह का परित्राण मुझ से होगा इत्यादि राज्यव्यवहार्यरूप, संतर्जन है ११-५७ ॥ સામ, દંડ અને ભેદ કહ્યા છે. પ્રિયવચન આદિરૂપ સામ હોય છે, વધારિરૂપ જે પરને નિગ્રહ છે તેને દંડ કહે છે, તથા જીતવાની ઈચ્છાવાળા પરપક્ષના માણમાં ભેદ પડાવવા–સ્વામી આદિ પરથી તેમને સ્નેહ તેડી પડાવ તેનું नाम छ. मे पात " परस्परोपकाराणां" त्याहि सूत्र द्वारा प्रस्ट કરવામાં આવી છે.
આ વિષયમાં આ પ્રમાણે કરવાથી આપણને બનેને આ પ્રમાણે લાભ थी, मेवी माश॥ ४२वी तनुं नाम मायतिस प्राशन छ. “पाचा पेशलया साधु " त्या
અહીં સ્પર્ધાનું નામ સંઘર્ષ છે. આ મારા મિત્રવિગ્રહનું પરિત્રાણ મને થશે, ઈત્યાદિ રાજ્યવ્યવહાર્યરૂપ સંતર્જન છે. (૧૧) છે સૂ. ૫૭ છે
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स्थानाशास्त्र पूर्व जीवा धर्मतो निरूपिताः, साम्प्रतं तथैव पुद्गलान् तदनु तत्प्रस्तावाद् विस्रसापरिणतपुद्गलरूपान् नरकावासांश्च निरूपयन्नाह
मूलम्-तिविहा पोरगला पण्णत्ता, तं जहा-पओगपरिणया मीसापरिणया वीससापरिणया १॥ तिपइछिया णरगा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविपइटिया, आगासपइट्रिया, आयपइटिया२ । णेगमसंगहववहाराणं पुढविपइडिया, उज्जुसुयस्ल आगासपइडिया, तिण्हं सद्दणयाणं आयपइट्रिया ३ ॥ सू० ५८ ॥
छाया-त्रिविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रयोगपरिणताः, मिश्रपरिणताः, विस्रसापरिणिताः १ । त्रिप्रतिष्ठिता नरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीमतिष्ठिताः आकाशप्रतिष्ठिताः, आत्मप्रतिष्ठिताः । नैगमसंग्रहव्यवहारा पृथिवीप्रतिष्ठिताः, ऋजुश्रुतमूत्रस्य आकाशमतिष्ठिताः, त्रयाणां शब्दनयानाम् आत्मपतिष्ठिताःगार.५८॥ 'टीका-'तिविहा' इत्यादि । त्रिविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते यथा -प्रयोगपरिणताः, प्रयोगेण-जीवव्यापारेण परिणताः-तथाविधपरिणतिमुपनीताः,
पहिले जीव धर्मकी अपेक्षा लेकर निरूपित किये। अय सूत्रकार पुद्गलों का और विरसा परिणत पुगलरूप नरकावासों का वर्णन करते है-'तिविहा पोग्गला पण्णत्ता' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-पुद्गल तीन प्रकारके कहे गये हैं-जैले-प्रयोगपरिणत मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत । नरकायास तीनमें प्रतिष्टित कहेगये हैं-जैले पृथिवी प्रतिष्ठित, आकाश प्रतिष्ठित, और आत्मप्रतिष्ठित, नैगम, संग्रह और व्यवहार ये पृथिवीप्रतिष्ठित हैं। ऋजुश्रुत आकाशप्रतिष्ठित है तीन शन्दनय आत्मप्रतिष्ठित हैं।
આગલા સૂત્રમાં છવધર્મોની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. હવે સૂત્રકાર પુનું અને વિશ્વસાપરિણત પુતલરૂપ નરકાવાસનું વર્ણન કરે છે– ', ___“तिविहा पोग्गला पण्णत्ता" त्या:
सूत्राध-पुस a ti Hai छ-(१) प्रयोगपरित, (२) भिश्रपरिश्त (3) विस्त्रसापरित. न२४पास ३५ स्थानमा प्रतिष्ठित ( २ ) छ-(१) પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત, (૨) આકાશ પ્રતિષ્ઠિત અને આત્મપ્રતિષ્ઠિત, નૈગમ સંગ્રહ, અને વ્યવહાર, એ પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત છે. જુશ્રુત આકાશપ્રતિષ્ઠિત છે ત્રણ શબ્દ નય આમપ્રતિષ્ઠિત છે.
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सुधा टीका स्था०३उ०३सू० ५८ नरकावासनिरूपणम्
१६७ यथा घटपटादिषु ज्ञानावरणीयादि कर्मसु वा १ । 'मीसा' इति मिश्रतयाप्रयोगविस्त्रसाभ्यां-जीवव्यापारेण स्वभावेन चेत्यर्थः परिणताः - परिणामान्तर प्राप्ताः मिश्रपरिणताः, यथा पटपुद्गलाः, ते च प्रयोगेण पटतया परिणताः २ । वित्रसापरिणामेन चाभोगेऽपि पुराणत्या परिणताः। विस्रसाः-स्वभावः तत्परिणता विस्रसापरिणताः, इन्द्रधनुरादिवदिति ३ (१)। पुद्गलप्रस्तावान्नरकावास. निरूपणायाह-'तिपइडिया ' इत्यादि, त्रिषु प्रतिष्ठिता ये ते त्रिप्रष्टिताः नरकाः - टीकार्थ-पुद्गल जो प्रयोग परिणत आदिके भेदसे तीन प्रकारके कहे गये हैं उनका भाव ऐसा है-जो पुद्गल जीवके व्यापारसे तथाविध परिणमन को प्राप्त करते हैं वे प्रयोगपरिणत पुद्गल हैं-जैसे घटपटादिकों में अथवा ज्ञानावरणीय आदि कमें में जीव के व्यापार से गृहीत पुद्गल घटपटादिरूप परिणति को अथवा ज्ञानावरणीयादिरूप परिणति को प्राप्त करते रहते हैं । जो पुद्गल जीव के व्यापारसे और स्वभावसे दोनों से परिणामान्तर को प्राप्त होते हैं वे पुगलमिश्र परिणत हैं। जैसे-पटपुद्गल-पटपुद्गल प्रयोग से पटरूप में परिणम जाते हैं और विसलापरिणाम से वस्त्र को अपने काम में नहीं लेने पर भी वह पुराने आदिरूप में परिणत होता रहता है । इन्द्रधनुष आदि की तरह जो पुद्गल स्वभावतः परिणभते रहते हैं वे विसलापरिणतपुद्गल हैं। : अब सूत्रकार पुद्गल के प्रकरण को लेकर नरकावासों की निरूपणा करने के लिये कहते हैं-'तिपइडिया' जो तीन में प्रतिष्ठित होते हैं - ટીકાઈ-પુલના જે પ્રયોગપરિણત આદિ ત્રણ ભેદ કહ્યા છે તેને ભાવાર્થ આ પ્રકાર છે-જે દ્રલે જીવના વ્યાપારથી તથાવિધ (તે પ્રકારના) પરિણમનને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમને પ્રયોગપરિણત પુલે કહે છે. જેમકે ઘટપટાદિકમાં અથવા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોમાં જીવના વ્યાપારથી ગૃહીત પુલે ઘટપટાદિ રૂપ પરિણતિને અથવા જ્ઞાનાવરણીય આદિ રૂપ પરિણતિને પ્ર પ્ત કરતાં રહે છે. જે પુદ્ગલે જીવના વ્યાપારથી અને સ્વભાવથી, આ બને રીતે અન્ય પરિણામને પ્રાપ્ત કરતાં રહે છે, તે પુલેને મિશ્રપરિણત કહે છે. જેમકે પટપુલ–પટપુદ્ગલ પ્રગથી પટરૂપે પરિણમી જાય છે અને વિસસા પરિણામથી વઅને પોતાના ઉપયોગમાં નહીં લેવા છતાં પણ પુરાણ આદિરૂપે પરિણત થતું રહે છે. ઈન્દ્રધનુષ આદિની જેમ જે પુતલે સ્વભાવથી જ પરિણમતા રહે છે તેમને વિસસાપરિણત પુતલે કહે છે. હવે સૂત્રકાર પુકલ પ્રકરણની अपेक्षा न२४वासीनी प्र३५! ४२ मिभित्ते छ -“तिपइदिया" या ' ' જે ત્રણમાં પ્રતિષ્ઠિત હોય છે તેને ત્રિપ્રતિષ્ઠિત કહે છે. અહીં નરકાવાસને
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स्थानागयो -नरकावासाः प्रज्ञप्ताः । तानेवाह-पृथिवीमतिष्ठिताः-रत्नप्रभाशर्करामभादिपृथिवीसमाश्रिताः १, आकाशप्रतिष्ठिताः-आकागाश्रिताः २, आत्मप्रतिष्ठिता:स्वस्वरूपप्रतिष्ठिताः २ (२) । सम्पति तत्पतिष्ठानं नयानाश्रित्याह-'णेगमे। इत्यादि । नैकेन सामान्य विशेषयाहकत्वादस्यानेकेन ज्ञानेनेत्यर्थः मिनोतिपरिच्छिनत्तीति नैगमः, अथवा नैक:-अनेका गमः-अर्थमार्गों यस्य स नैगमः, पृपोदरादित्वात्कलोपः । यद्वा-निगमेषु-निश्चितार्थबोधेषु कुशलो नेगमः, यद्वावे त्रिप्रतिष्ठित नरकावास कहे गये हैं। पृथिवीप्रतिष्ठित से यह सम. झाया गया है कि ये नरकावास रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि सातो नरक पृथिवियों के आश्रित हैं, आकाश प्रतिष्ठित पदसे वह समझाया गया है कि ये नरकावास आकाश से आश्रित है तथा ये सब नरकावास पृथिव्यादि प्रतिष्ठित होने पर भी अपने निजरूपमें आश्रित हैं। ___ अब सूत्रकार इनका प्रतिष्ठान नयों को आश्रित करके कहते हैं'णेगमसंगह' इत्यादि-नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन नयों की मान्यतानुसार नरकावास पृथिवी प्रतिष्ठित हैं। जो नय अनेक ज्ञानसेअनेक प्रकारसे-पदार्थका परिच्छेदक होता है वह नैगमनय है अर्थात् नैगमनयका वह विचार है जो लौकिकरूढि अथवा लौकिक संसार के अनुसरण में से पैदा होता है क्यों कि वह नय सामान्य और विशेष दोनों का ग्राहक होता है इसीलिये इस नय का एक गम बोधमार्ग नहीं है, किन्तु अनेक गम हैं-अनेक तरह से वस्तु को समझाने का मार्ग है ત્રિપ્રતિષ્ઠિત કહ્યા છે. પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત પદના પ્રયોગ દ્વારા એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે તે નરકાવાસ રત્નપ્રભા, શકરપ્રભા વગેરે સાતે નરકપૃથ્વીઓને આશ્રિત છે. આકાશ પ્રતિષ્ઠિત પદ દ્વારા એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે તે નરકવાસો આકાશને આશ્રિત છે, તથા તે નરકાવાસે પૃથ્વી આદિ પ્રતિષ્ઠિત હોવા છતાં પણ પિતાના નિજરૂપે આશ્રિત છે. હવે સૂત્રકાર તેમનું પ્રતિષ્ઠાન नयाने माश्रित शन ४ छ-"णेगमसंगह " त्याह
નેગમ, સંગ્રહ અને વ્યવહાર, આ ત્રણ નાની માન્યતા અનુસાર નરકાવાસ પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત છે. જે નય અનેક પ્રકારે પદાર્થને પરિચછેદક નિર્ણય કરનાર હોય છે, તે નયનું નામનગમ નય છે એટલે કે નૉગમ નયમાં એ વિચાર કરે છે કે જે લૌકિક રૂઢિ અથવા લૌકિક સંસારના અનુસરણમાંથી પેદા થાય છે, કારણ કે તે નય સામાન્ય અને વિશેષ, બન્નેનો ગ્રાહક હોય છે. તેથી આ નયને એક ગમ (બધમાર્ગ) નથી પણ અનેક ગામ છે--અનેક પ્રકારે વસ્તુને सभपाना भाग 2. " नेके गमः नैगमः "-2AL नय तनी व्युत्पत्ति छे. अथवा
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सुधा टीका स्था० ३ उ०३ सू० ५८ नरकावासनिरूपणम् .. . . निगमेषु भवो नैगमः १ । संग्रहण-भेदानामेकत्रीकरणं संग्रहः, यद्वा - संगृह्णाति भेदानिति संग्रहः, अथवा-संगृह्यन्ते भेदा येन स संग्रहः। सामान्यमात्राभ्युपगमपरोनय इति२ । व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहियते वा व्यवहारः, यद्वा वि विशेषेण सामान्यम् अवयिते-निराक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः, लोकव्यवहारपरो वा व्यवहारः-विशेषमात्राभ्युपगमपरो नयः३। एतेषां त्रयाणां नयानां मतेन नरकावासा: पृथिवीप्रतिष्ठिताः सन्ति । ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुतं-श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजुश्रुतः, यद्वा-अतीतानागतरूपचक्र परित्यागाद्-'ऋजु' इति वर्तमानं वस्त, तत् सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः-प्रत्येक वस्तु स्वकीयं वर्तमानकालीनं च नान्यत् इत्यभ्युपगमपरो नयः, तस्य मतेन नरकावासा आकाशप्रतिष्ठिताः सन्ति । शब्द्यते-- "नैके गमः नैगमः " जिमको समझाने का एक गम-मार्ग नहीं है वे नैगम हैं ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है। अथवा निगमों में निश्चित अर्थबोधों को कराने में यह नय कुशल होता है। इस लिये भी यह नेगम कहा गया है । अथवा जहां जैसा व्यवहार होता है उसके अनुसार जो बोध कराता है वह नेगम है, भेदों का एकर करके कथन करना इसका नाम संग्रह है यह नैगमनयकी तरह सामान्य विशेष का ग्राहक नहीं होता है किन्तु केवल सामान्य का ही ग्राहक होता है। जो नय लोकव्यवहार के अनुसार प्रवृत्ति करता है वह व्यवहारनय है, इस नयका विषय भेदप्रधान होता है अर्थात् यह नय विशेषग्राहक ही होता है। ऋजुसूत्र अथवा ऋजुश्रुत नय के अभिप्राय से नरकावास आकाश प्रतिष्टित हैं। जो नय अतीत अनोगतरूप वक्रता का परिहार कर के केवल वर्तमानकालवी पर्यायको ही बताता है-- या प्रतिपादन करता है वह ऋजुसूत्रनय है। तथा शब्द समभिरूढ નિગમમાં-નિશ્ચિત અર્થ બે કરાવવામાં–આ નય કુશળ હોય છે, તેથી પણ તેને નગમ કહે છે અથવા જ્યાં જે વ્યવહાર થાય છે તેને અનુરૂપ જે બંધ કરાય છે તેને નૈગમ કહે છે. ભેદને એક કરીને તેમનું કથન કરવું તેનું નામ સંગ્રહ છે. તે નિગમ નયની જેમ સામાન્ય વિશેષને ગ્રાહક હેતે નથી, પરંતુ કેવળ સામાન્ય જ ગ્રાહક ' હોય છે. જે ય લેકવ્યવહાર અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરે છે તેને વ્યવહાર નય કહે છે આ નયને વિષય ભેદ. પ્રધાન હોય છે એટલે કે આ નય વિશેષ ગ્રાહક જ હોય છે૩. અથવા જુસૂત્ર જુશ્રુત નયની માન્યતા પ્રમાણે નરકાવાસ આકાશ પ્રતિષ્ઠિત છે જે નય અતીત (ભૂતકાલિન) અનાગત (ભવિષ્યકાલિન) રૂપ વક્રતાને પરિહાર કરીને માત્ર વર્તમાનકાળની પર્યાયને જ બતાવે છે–એટલે કે તેનું પ્રતિપાદન કરે છે, તે નયનું નામ ઋજુસૂત્ર નય છે. તથા શબ્દ, સમભિરૂઢ અને એવભૂતનની માન્યતા અનુસાર નરકાવાસ આત્મપ્રતિષ્ઠિત છે. શબ્દપ્રધાન નય ત્રણ છે-(૧)
श २२
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स्थानासूत्र १७० अभिधीयतेऽनेनेति शब्दा-वाचको ध्वनिः, तत्मधाना नयाः शब्दनयाः, ते च अयः-शब्द-समभिरुढे-वम्भूताख्याः तत्र शब्दनम्-अभिधानं, शब्धते यः येन वा वस्तु स शब्दः, शब्दाभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, स च भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति १ । समभिरोहयति-वाचकं वाचकं (शब्दं शब्दं ) प्रति वाच्य (अर्थ) भेदम् समाश्रयति यः स समभिरूढः, अयं हि-अनन्तरोक्त विशेषणविशिष्टस्य वस्तुनः शक्रपुरन्दरादिवाचक (शब्द ) भेदेन भेदमभ्युपगच्छति घटपटादिवदिति, शब्दार्थों यथा-घटते-चेष्टत इति घटः, इत्यादि लक्षणः २। एवम्भूतः-तथा भूतः
और एवं भूतनयों की अपेक्षा से नरकावास आत्मप्रतिष्ठित है शब्द प्रधाननय तीन हैं--शन्दनय, समभिढनयं और एवं भूतनय-इनमें जो नयलिङ्ग संख्याकारक आदिके भेद से अर्थ में भेद मानता है वह शब्दनय है । यह नय भावनिक्षेपरूप वस्तु को ही वास्तविक मानता है, वर्तमानकालवत्ती पर्याय को ही पर्याय मानता है। भूत अविष्यत्काल को यह वास्तविक नहीं मानता है। तथा जिन शब्दों का लिग अभिन्न है उनका अर्थ भी एक है ऐसा मानता है. समभिरूढ नय एक लिङ्गवाले शब्दों का भी अर्थ भिन्न २ है ऐसो मानता है जब कि शब्दनय शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि एक लिङ्गवाले शब्दों का अर्थ एक मानता है तब यह नय पुरन्दर, शक्र और इन्द्र इन शब्दों के अभिधेय को घटपटादि शब्दों के अभिधेय की तरह भिन्न २ मानता है । इस तरह जितने भी एकार्थक शब्द हैं उन सय के अर्थ श५४नय, (२) समलि३ढनय मन (3) मे भूतनय. २ नय विंगी, सध्या , १२४ આદિના ભેદથી અર્થમાં ભેદ માને છે તે નયને શબ્દનય કહે છે. આ નય ભાવનિક્ષેપરૂપ વસ્તુને જ વાસ્તવિક માને છે, વર્તમાનકાળવતી પર્યાયને જ પર્યાય માને છે, ભૂત ભવિષ્યકાળને તે વાસ્તવિક માનતા નથી, તથા જે શબ્દોનું લિંગ (જાતિ) અભિન્ન છે તેમને અર્થ પણ એક છે એવું માને છે.
સમભિરૂઢ નય એક લિંગવાળા શબ્દોને અર્થ પણ ભિન્ન ભિન્ન હોય છે, એમ માને છે, તથા જ્યારે શબ્દ નય શકે, પરન્ટર, ઈન્દ્ર આદિ એક લિંગ વાળા શબ્દનો અર્થ એક માને છે, ત્યારે આ નય (સમભિરૂઢ નય) પુરન્દર, શક અને ઈન્દ્ર આ શબ્દોના અભિધેયને ઘટપટાદિ શબ્દના અભિધેયની જેમ ભિન્ન ભિન્ન માને છે. આ રીતે જેટલા એકાઈક શબ્દ છે, તે બધાને અર્થ ભિન્ન ભિન્ન જ હોય છે એવી આ નાની માન્યતા છે. જો કે કઈ કેઈ વખત એક જ શબ્દના અનેક અર્થ પણ થાય છે, પરંતુ આ નય એ વાતને સ્વીકારતા નથી, એ તો એમ જ કહે છે કે જેમ શક, પુરકર આદિ
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सुधा टीका स्था० ३ ९० ३ सू० ५८ नेरकावासनिरूपणम् 'सत्यो घटादिरों नान्यथे' त्येवमभ्युपगमपर एवम्भूतः, अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं व्युत्पत्यर्याविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाहरणादि चेष्टावन्तं घटमि. वेति ३ । इत्येतेषां त्रयाणां शब्दनयानां-शब्दसमभिरुदैवम्धूताभिधानानां मतेन नरकावासा आत्मप्रतिष्ठिता भवन्तीति ३। एषु सप्तम नयेष्वायत्रयस्याशुद्धत्वात् भिन्न २ ही है ऐसा विचार इस नयका है यद्यपि कहीं २ एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं. परन्तु यह नय इस बात को नहीं कहता है। यह तो यही कहता है कि जिस प्रकार शक्र, पुरन्दर आदि अनेक शब्दोंका एक अर्थ नहीं होता उसी प्रकार से एक शब्द के भी अनेक अर्थ नहीं होते हैं । इस प्रकार शब्दके भेदके अनुसार अर्थभेद करनेवाला विचार समभिरूढ नय कहा गया है।
एवं भूत नय इस नय के विचार से भी आगे बढ जाता है। यह नय यह कहता है कि भले ही अनेक शब्दों के अनेक अर्थ हों-परन्तु वह अर्थ उस शब्द का वाच्य तभी माना जा सकता है कि जब उस शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत व्युत्पत्ति उसमें घटित होती हो इस तरह व्युत्पत्यर्थ घटित होने पर ही उस शब्द का वह अर्थ लिया जा सकता है । यद्यपि इस नय का विषय भावनिक्षेप होता है। परन्तु फिर भी वह भावनिक्षेप उसका विषय तभी हो सकता है कि जब वह व्युत्पत्त्यर्थ से विशिष्ट हो घट जब जलाहरण क्रिया को कर रहा हो तभी वह घट है अन्य समय में इस क्रिया से रहित वह घट नहीं है ऐसा इस नय का विचार है-अतः इन तीन नयों के कथन के अनुसार नरकावास आत्मप्रष्ठित हैं-स्वस्वरूपाश्रित हैं ऐसा कहा गया है। અનેક શબ્દોને એક અર્થ થતો નથી, એ જ પ્રમાણે એક શબ્દના પણ અનેક અર્થ થતા નથી. આ પ્રમાણે શબ્દના ભેદ અનુસાર અર્થભેદ કરનારા વિચારને સમભિરૂઢ નય કહેવાય છે.
એવંભૂત નય આ નયના વિચારથી પણ આગળ જાય છે. આ નય એમ બતાવે છે કે ભલેને અનેક શબ્દોના અનેક અર્થ હોય, પરંતુ તે અને તે શબ્દને વાગ્યે ત્યારે જ માની શકાય કે જ્યારે તે શબ્દની પ્રવૃત્તિના નિમિત્ત વ્યુત્પત્તિ તેમાં ઘટાવી શકાતી હોય એટલે કે સંભવિત હાય. આ રીતે વ્યુત્પત્તિ અર્થ ઘટાવી શકાતું હોય તે જ તે શબ્દને તે અર્થે લઈ શકાય છે. જો કે આ નયને વિષય ભાવનિક્ષેપ હોય છે, પરંતુ તે ભાવનિક્ષેપ તેને વિષય ત્યારે જ સંભવી શકે છે કે જ્યારે તે વ્યુત્પત્તિ અર્થથી વિશિષ્ટ (યુક્ત) હોય. જેમકે જ્યારે ઘડો પાણી લઈ જવાની ક્રિયા કરી રહ્યો હોય ત્યારે જ તેને ઘડે કહેવાય છે, પણ જ્યારે તે આ ક્રિયાથી રહિત હોય છે ત્યારે તેને
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स्थानिक सूत्रे
प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रतिष्ठितत्वं नरकाणामिति । चतुर्थस्य ऋजुमुत्रनयस्य शुद्धत्वात्, आकाशस्य च गच्छतां तिष्ठतां वा सर्वभावानामैकान्तिका धारत्वात्, भुवोऽनैकान्तिकत्वाच्चाकाशमतिष्ठितत्वमिति । त्रयाणां शब्दसमभिरूढैवम्भूताख्यानां नयानी शुद्धतत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाधिकरणस्यान्तरङ्गत्वादव्यभिचारित्वाच्च - आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति । नहि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणाभावाः कदाचनापि भवन्तीति अनुमेवार्थमाह
"
वत्युं वस सहावे, सत्ताओ वेयणन्त्र जीवम्मि ।
न विलक्खणत्तणाओ, भिन्ने छाया तवे चेत्र ॥ १ ॥ " इति ।
इन नैगम, संग्रह, व्यवहार, शब्द, समभिरूढ एवं एवंभूत सात नयों में आदिके तीन नय अशुद्ध होने से एवं लौकिक व्यवहार के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले होने से नारकावासों को पृथिवी के ये आश्रित हैं ऐसा घोषित करते हैं तथा ऋजुसूत्र नय शुद्ध होने से उन्हें आकाशप्रतिष्ठित ये हैं ऐसा कहता है क्योंकि संसार में जितने भी पदार्थ हैं चाहे वे स्थिर हों या अस्थिर हो उन सब का एकान्तरूप से आधार आकाश का ही है पृथिवी इस प्रकारकी आधारभूत नहीं है । तथा शब्द समभिस्ट और एवं भूत नय शुद्धतर हैं अतः ये नय समस्त भाव किसी अन्य दूसरे के आश्रित नहीं होते हैं किन्तु अपने ही स्वरूप के आश्रित रहते हैं ऐसा कथन करते हैं क्योंकि निज स्वरूप ही प्रत्येक पदार्थ का अव्यभिचरित अन्तरंग आश्रयस्थान हैं इसी विचारधारा से
ઘટા કહી શકાય નહીં, એવી આ નયની માન્યતા છે. તેથી આ ત્રણે નચાની માન્યતા અનુસાર નરકાવાસ આત્મપ્રતિષ્ઠિત – સ્વસ્વરૂપાશ્રિત છે, એમ પહેલાં કહેવામાં આવ્યુ છે.
या नैगम, सौंथडे, व्यवहार, ऋसूत्र, शज्ड, समलिइ मने शेवंभूत રૂપ સાત નચેામાંથી પહેલા ત્રણ નય અશુદ્ધ હાવાથી અને લૌકિકવ્યવહાર અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરનારા હેાવાથી એવું જાહેર કરે છે કે નરકાવાસે પૃથ્વીને આશ્રિત છે. ઋજુસૂત્ર નય શુદ્ધ હાવાથી તેમને આકાશ પ્રતિષ્ઠિત કહે છે, કારણ કે સ ́સારમાં જેટલા પદાર્થોં છે, ભલે તે સ્થિર હાય કે અસ્થિર હાય પણ તે સૌના એકાન્તરૂપે (સંપૂર્ણ રૂપે) આધાર આકાશ જ છે, પૃથ્વી આ પ્રકારે આધારભૂત નથી. તથા શબ્દ સમભિરૂઢ અને એવભૂત નય શુદ્ધતર (વધારે શુદ્ધ) છે. તેથી તે નયની માન્યતા એવી છે કે સમસ્ત ભાવ કેાઈ અન્ય વસ્તુને આશ્રિત હાતા નથી, પણ પેાતાના જ સ્વરૂપને આશ્રિત રહે છે, કારણ કે નિજસ્વરૂપ જ પ્રત્યેક પદાર્થનું અવ્યભિચરિત અન્તર’ગ આશ્રયસ્થાન છે. આ વિચારધારાને અનુસરીને આ ત્રણે નય તેમને (નરકાવાસેાને) આત્મપ્રતિષ્ઠિત
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संधी का स्था०३ उ०३ सू० ५८ मिथ्यात्वरूपनिरूपम् छाया-बरतु वसति स्वभावे सत्तातश्चेतनेच जीवे ।
न विलक्षणताया भिनौ छायातपाविव ॥ १ ॥ अयमर्थः-वस्तु, जीवे चेतनेव स्वभावे--आत्मभावे वसति-तिष्ठति, सत्वात् , न तु भिन्नौ छायातपाविव वैलक्षण्याद् भेदतस्तिष्ठतीति ॥ सू० ५८ ॥ । पूर्व नरकाः, प्ररूपिताः, तेषु च मिथ्यात्वाद् गतिर्भवति जन्तूनामिति, यद्वा अन्यनिरपेक्षानया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति सम्बन्धान्मिथ्यात्वस्वरूपं निरूपयन् सप्तमंत्रीमाह___ मूलम्-तिविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते तं जहा-अकिरिया, अविगए, अन्नाणे १ । अकिरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पओ. गकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाणकिरिया २। पओगकिरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा मणप्पओगकिरिया, वइपओगकिरिया, कायप्पयोगकिरिया ३ । समुदाणकिरिया तिविहा पपणत्ता, तं जहा-अणंतरसमुदाणकिरिया, परंपरसमुदाणकिरिया, तदुभयसमुदाणकिरिया ४ । अन्नाणकिरिया तिविहा पण्णत्ता तं जहा -मइअन्नाणकिरिया, सुयअन्नाणकिरिया, विभंग अन्नाणकिरिया अविणए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--देसच्चाई, निरालंबणया, ये नय उन्हें आत्मप्रतिष्ठित कहते हैं । सो ही कहा है-" वत्थु वसह सहावे' इत्यादि । .
जीव जिस प्रकार अपने चेतन स्वभाव में वसता है उसी प्रकार से प्रत्येक वस्तु अपने २ स्वभाव में वसती है, क्यों कि सबकी सत्ता निज स्वभाव से ही कही गई है। छाया और आतप जिस प्रकार एक दूसरे के आश्रित नहीं होते हैं उसी प्रकार कोई भी वस्तु किसी दूसरी वस्तु के आश्रित नहीं होती है ॥ सू० ५८ ॥ ४. छे. मे ४ पात मा सूत्रा3 वा ४८ रीछ-" वत्यु वसइसहावे" त्यात વસ્તુ વસતી સ્વભાવે અર્થાત્ વસ્તુ પિતાના સ્વભાવમાં રહે છે.
જીવ જે પ્રકારે પિતાના ચેતન સવભાવમાં વસે છે, એ જ પ્રમાણે પ્રત્યેક વસ્તુ પણ પિતપોતાના સ્વભાવમાં વસે છે, કારણ કે સૌની સત્તા (અસ્તિત્વ) નિજસ્વભાવથી જ હોય છે. કહ્યું છે. જેમ છાયડે અને તડકો એકબીજાના આશ્રિત હેતા નથી, એ જ પ્રમાણે કઈ પણ વસ્તુ બીજી કેઈ વસ્તુને આશ્રિત હેતી નથી. છે સૂ. ૫૮ છે
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स्थानीय नाणापेजदोसे ६ । अन्नाणे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-देसण्णाणे सव्वण्णाणे, भावण्णाणे७ ॥ सू० ५९॥ ___ छाया-त्रिविधं मिथ्यात्वं प्रज्ञप्तं तद्यथा-अक्रिया, अविनयः, अज्ञानम् १ । अक्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-प्रयोगक्रिया, समुदानक्रिया, अज्ञानक्रिया २। प्रयोगक्रिया, त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-मनःप्रयोगक्रिया, वाक्प्रयोगक्रिया, कायप्रयोगक्रिया ३ । समुदानक्रिया, त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अनन्तरसमुदानक्रिया, परम्परासमुदानक्रिया, तदुभयसमुदानक्रिया ४ । अज्ञानक्रिया त्रिविधा प्रज्ञप्ता,
पूर्व में नरक प्ररूपित किये अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि इन नरकों में जीव की गति मिथ्यात्व से होती है। अथवा नय जब अन्य नय की अपेक्षा से रहित हो जाते हैं तब वे मिथ्यादृष्टिवाले हो जाते हैं-सो इसी सम्बन्ध को लेकर अब सूत्रकार मिथ्यात्व के स्वरूप का प्ररूपण करते हैं-तिविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते' इत्यादि।
सूत्रार्थ-मिथ्यात्व तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे अक्रिया, अविनय और अज्ञान १, इनमें अक्रिया तीन प्रकारकी कही गई है । जैसे-प्रयोग क्रिया समुदाननिया, और अज्ञानक्रिया२, प्रयोगक्रिया भी तीन प्रकारकी कही है-जैसे-मनःप्रयोग क्रिया, वचनप्रयोग क्रिया और कायप्रयोग क्रिया ३, समुदान क्रिया-कोको प्रकृतिस्थित्यादिरूपसे व्यवस्थित करनेवाली क्रिया अथवा भिक्षा-अनन्तर समुदान किया, परम्परासमुदान क्रिया, और तदुभय समुदानक्रिया ४, इस प्रकार से तीन भेदवाली कहो गई
પહેલા સૂત્રમાં નરકની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે મિથ્યાત્વને કારણે જીવને તે નરકમાં જવું પડે છે. અથવા નય જ્યારે અન્ય નયની અપેક્ષાથી રહિત થઈ જાય છે, ત્યારે તેઓ મિથ્યાદષ્ટિવાળા થઈ જાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર મિથ્યાત્વના २१३५नी ५३५ए। रे छ-"तिविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते" त्या:-।
सूत्राथ-भिथ्यात्व प्रा२तुं ४घुछ-(१) माठिया, (२) मविनय मन (3) भज्ञान. तमाथी मठियाना पत्र प्रा२ छ-(१) प्रयोगठिया, (२) सभुः हानया भर (3) भज्ञानष्ठिया. प्रयोगठियाना ५ त्र] प्रा२ छ-(१) भन: प्रयोग ठिया, (२) १.५प्रयोग ठिया, मने (3) अयप्रयोग लिया. સમુદાનકિયાના કર્મોને પ્રકૃતિ સ્થિતિ આદિરૂપે વ્યવસ્થિત કરવાવાળો ક્રિયા પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ કહ્યા છે-(૧) અનન્તર સમુદાનકિયા, (૨) પરમ્પરા સમુદાનક્રિયા અને (૩) તદુભય સમુદાનક્રિયા. અજ્ઞાન ક્રિયાના પણ નીચે
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सुधा टीका स्था०३३०३ २०५९ मिथ्यात्वस्वरूपनिम्पणम्
१७५ तद्यथा-मत्यज्ञानक्रिया, श्रुताज्ञानक्रिया, विभङ्गाज्ञानक्रिया५ । अविनयस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-देशत्यागी, निरालम्बनता, नानाप्रेमद्वेषम् ६ । अज्ञानं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-देशज्ञानं, सर्वाज्ञानं, भावाज्ञानम् ।। सू० ५९ ॥
टीका-तिविहे ' इत्यादि, मिथ्यात्वम् । अत्र-विपर्यस्त श्रद्धानरूपं मिथ्यात्वं न विवक्ष्यते, वक्ष्यमाणानां प्रयोगक्रियादि तद्भेदानामसम्बन्ध्यमानत्वात् , अतोऽत्र मिथ्यात्वमिति-क्रियादीनामसम्यग्रूपता, दुष्टत्वमशोभनत्वमिति भावः । तत्रिविधम्-अक्रिया, अविनयः, अज्ञानम् । तत्र 'अक्रिया' इत्यत्र नञ्-दुःशब्दार्थः, है, अज्ञानक्रिया-मत्यज्ञानक्रिया, श्रुतज्ञानक्रिया और विभंगाज्ञानक्रिया के भेद से तीन भेद वाली कही गई है अविनय तीन प्रकार का कहा गया है-जैसे देशत्यागी, निरालम्बनता और नानाप्रेमद्वेष, अज्ञान भी तीन प्रकार का कहा गया है जैसे-देशाज्ञान, सर्वाज्ञान, और भावाज्ञान,
टीकार्थ-यहां मिथ्यात्वसेविपर्यस्तश्रद्धानरूप मिथ्यात्व विवक्षित नहीं हुआ है क्यों कि कही जानेवाली प्रयोगक्रिया आदिकों के साथ इसका संबंध नहीं बैठता है इसलिये यहां क्रियापदों की जो असम्यक्रूपता है, उनकी दुष्टता है, अशोभनता है वह मिथ्यात्व है ऐसा जानना चाहिये वह मिथ्यात्व अफ्रिया आदि के भेद से जो तीन प्रकार का कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि मिथ्यात्व आदि से उपहत हुए व्यक्ति का जो संसारवृद्धिसाधक अनुष्ठान है वह अक्रिया है अक्रिया में जो नञ् का प्रयोग हुआ है वह दुःशब्दार्थ में हुआ है जैसे आशीलापद में।
प्रमाणे ४ ४ह्या छ-(१) भत्यज्ञान लिया, (२) श्रुतज्ञान या मन (3) विज्ञान छिया. भविनयना १२ ह्या छ-(१) शित्यागी, (२) नि२।
मनता मन (3) नानाप्रेमद्वेष. अज्ञानन पY Y ५५२ छ-(१) शाज्ञान, (२) सज्ञान मन (3) मावाज्ञान.
ટીકાર્ચ–અહીં મિથ્યાત્વ પદ દ્વારા વિપર્યસ્ત શ્રદ્ધારૂપ મિથ્યાત્વનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે પ્રગક્રિયા આદિની સાથે તેને સંબંધ સંભવી શકતું નથી. કિયાદિકની અસમ્યકરૂપતા, તેમની દુષ્ટતા, અને અશોભનતાને જ અહીં મિથ્યાત્વરૂપે ઓળખાવવામાં આવેલ છે, એમ સમજવું તે મિથ્યાત્વને અક્રિયા આદિના ભેદથી જે ત્રણ પ્રકારનું પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે મિથ્યાત્વથી ઉપહત (સંપન્ન) થયેલી વ્યક્તિનું જે સંસારવૃદ્ધિ સાધક અનુષ્ઠાન છે તે અક્રિયા છે. અકિયામાં જે નકારવાચક ને પ્રયોગ
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स्थानशास्त्र यथा-अशीला-दुःशीलेत्यर्थः, ततश्च-अक्रिया - दुष्टक्रिया-मिथ्याखाधुपहतस्य. संसारद्धिसाधकमनुष्ठानं, यथा मिथ्यादृष्टेनिमपि अज्ञानमेवेति । अविनयःअविनयरूपमिथ्यात्वमप्येवमेव व्याख्येयमिति । अज्ञानम्-असम्यग्ज्ञानमिति १ । 'अकिरिया' इत्यादि, अक्रिया त्रिविधा, तत्त्रैविध्यमाह-प्रयोगक्रिया, प्रयुज्यते -वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुद्भूतवीर्येणात्मना व्यापार्यते यः स प्रयोगः-मनोवाकायरूपः, तस्य क्रिया-करणं-व्यापार इति । अथवा प्रयोगैः-मनःप्रभृतिमिः यहां अशीला का तात्पर्य दुष्ट स्वभाववाली कन्या से है अतः दुष्टक्रिया
अक्रिया है। ऐसी अक्रिया मिथ्यादृष्टि जीव की होती है क्यों कि उसकी क्रिया से उसका संसार बढता है अतः संसार की वृद्धि का साधक जितना भी मिथ्यादृष्टि का अनुष्ठान है वह सब अक्रिया दुष्टक्रिया रूप है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी अज्ञानरूप ही होता है इसी तरह से अविनय भी मिथ्यात्वरूप ही होता है अज्ञान से ज्ञानाभाव नहीं लिया गया है किन्तु असम्यग्ज्ञान लिया गया है। १ । (अकिरिया) इत्यादि मिथ्योत्व की प्रथमभेदरूप जो अक्रिया कही गई है और उसके तीन भेद जो प्रयोग क्रिया आदि कहे गये हैं उनका भाव ऐसा है-वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्नवीर्यवाले आत्मा के द्वारा जो व्यापार किया जाता है उसका नाम प्रयोग है यह प्रयोग मन, वचन और कायरूप है इस प्रयोग का जो करना है वहीं प्रयोगक्रिया है अथवा થયો છે તે દુઃશબ્દાર્થમાં થયે છે જેમકે અશીલા. અહીં અશીલા કન્યાએટલે દુષ્ટ સ્વભાવવાળી કન્યા. તેથી અક્રિયાને અહીં દુષ્કિય રૂ૫ ગ્રહણ કરવી જોઈએ. એવી અક્રિયા મિથ્યાદષ્ટિ છવ જ કરે છે, કારણ કે તેની ક્રિયાથી તેને સંસાર વધે છે. તે કારણે સંસારની વૃદ્ધિનું સાધક જે જે અનુષ્ઠાન મિથ્યાદિષ્ટ જીવ કરે છે, તે તે અનુષ્ઠાન દુષ્ટ કિયા અથવા અયિારૂપજ હોય છે મિથ્યાદષ્ટિજીવથી કરે છે, તેને અનુષ્ઠાન દુષ્ટ કિયા અથવા અકિયા રૂપ જ હોય છે. મિથ્યાદષ્ટિ જીવનું જ્ઞાન પણ અજ્ઞાનરૂપ જ હોય છે તેને અવિનય પણ મિથ્યાત્વરૂપ જ હોય છે. અહીં “અજ્ઞાન” પદ વડે જ્ઞાનાભાવ ગ્રહણ કરી નથી પણ मसभ्य ज्ञान ४ अडएरायुं छे ॥1॥ " भकिरिया" त्याह
મિથ્યાત્વના પ્રથમ ભેદરૂપ જે અકિયા કહી છે, તેના પ્રગકિયા આદિ ત્રણ ભેદનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–વર્યાન્તરાયના ક્ષયપશમથી ઉત્પન્ન વિર્યવાળા આત્મા દ્વારા જે વ્યાપાર (પ્રવૃત્તિ) કરવામાં આવે છે તેને પ્રયોગ કહે છે. તે પ્રયોગ મન, વચન અને કાયરૂપ છે. આ પ્રયોગ કરવાની
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सुघाटीका स्था० ३ उ३ सू० ५५ मिथ्यात्वस्वरूपनिरूपणम् क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया-कर्मेत्यर्थः । सा च दुष्टत्वादक्रिया । अक्रिया च मिथ्यात्वमिति सर्वत्र प्रक्रमः । समुदानक्रिया-सम-सम्यक्पयोग क्रियाद्वारा एकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां प्रकृतिवन्धादिभेदेन, देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं स्वीकरणं समुदानं, तदेव क्रिया-कर्मेति समुदानक्रिया । 'समुदानमितिनिपातनात् सिद्धिः । तथा या अज्ञानात् चेष्टाकर्म वा सा अज्ञानक्रियेतिर, प्रयोगक्रिया त्रिविधा मनोवाकायभेदाद् व्याख्यातपूर्वा३। समुदानक्रिया त्रिविधा -अनन्तरपरम्परतदुभयभेदात् । तत्र नास्त्यन्तरं-व्यवधानं यस्याः क्रियायाः प्रयोगों द्वारा-मन, वचन और काय इनके द्वारा जो किया जाता है घांधा जाता है वह प्रयोगक्रिया है ऐसी वह प्रयोगक्रिया कर्मरूप है यह दृष्ट होने से अफ्रिया रूप कही गई है और जो अक्रियारूप होता है, वह मिथ्यात्व होता है ससुदानक्रिया का तात्पर्य ऐसा है कि सम्यक् प्रयोगक्रिया द्वारा एकरूप से गृहीत हुई कर्मवर्गणाओं का जो प्रकृतिबन्ध आदि के भेदरूप से और देशघाती तथा सर्वघातीरूप से जो आदान परिणमन होना है यह समुदान है, इस समुदानरूप जो क्रिया है वह समुदानक्रिया है, यह समुदानक्रिया भी कर्मरूप ही है "समुदान" शब्द की सिद्धिनिपात से हुई है। तथा अज्ञान से जो चेष्टा या कर्म होताबंधता है वह अज्ञानक्रिया है । मनोवाकाय के भेद से जो प्रयोगक्रिया तीन प्रकार की कही गई है उसके विषय में कथन पहिले किया जा चुका है। समुदानक्रिया जो तीन प्रकार की कही गई है उसका भाव જે ક્રિયા છે તેનું નામ પ્રગકિયા છે અથવા પ્રો દ્વારા (મન, વચન અને કાયાદ્વારા) જે કરાય છે (જે કર્મબંધ બંધાય છે) તેનું નામ પ્રચાગક્રિયા કર્મરૂપ હોય છે. તે દુષ્ટ હોવાથી અક્રિયારૂપ ગણાય છે અને અદિયા રૂપ હોવાને લીધે તેને મિથ્યાત્વરૂય પ્રકટ કરેલ છે.
હવે સમુદાન ક્રિયાનો અર્થ સમજાવવામાં આવે છે–સમ્યફ પ્રયોગક્રિયા દ્વારા એકરૂપે ગૃહીત થયેલી કર્મવર્ગણાઓનું જે પ્રકૃતિબંધ આદિના ભેદરૂપે અને દેશદ્યાતિ તથા સર્વ ઘાતિ રૂપે જે આદાન (પરિણમન) થાય છે તેનું નામ સમુદાન છે. આ સમુદાન રૂપ જે ક્રિયા છે તેનું નામ સમુદાનક્રિયા છે. આ સમુદાનક્રિયા પણ કર્મરૂપ જ હોય છે “સમુદાન” શબ્દની સિદ્ધિ નિપાતથી થઈ છે. અજ્ઞાનથી જે ચેષ્ટા થાય છે અથવા કર્મ બંધાય છે તેને અજ્ઞાનક્રિયા કહે છે. મનપ્રવેગ, વચનપ્રવેગ અને કાયપ્રગના ભેદથી પ્રયોગ ક્રિયા ત્રણ પ્રકારની કહી છે. તેને વિષે આગળ પષ્ટતા થઈ ચુકી છે. સમુદાન ક્રિયાના ત્રણ ભેદે હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે-જે સમુદાન ક્રિયામાં વ્યવધાન
श २३
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स्थानासो २७८ साऽनन्तरा, सा चासौ समुदानक्रिया चेति अनन्तरसमुदानक्रिया-प्रथमसमयत्तिनी क्रियेत्यर्थः । परस्परसमुदानक्रिया-द्वितीयादि समयवर्तिनी। तदुभयसमुदानक्रिया-प्रथमाऽप्रथमोभयसमयवर्तिनीति ४ । अज्ञानक्रिया-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानविभगाज्ञानभेदात्रिविधा । तत्र-मत्यज्ञानं-मिथ्यादृष्टेमतिः, तस्मात् क्रिया मत्यज्ञानक्रिया-श्रुताज्ञान-मिथ्यादृष्टेः श्रुतं तस्माक्रिया-श्रुताज्ञानक्रिया। विभङ्ग:मिथ्यादृष्टेरवधिः, स एवाज्ञान विभङ्गाज्ञान, तस्माक्रिया-विभङ्गज्ञान क्रियेति ५। इदम क्रियामिथ्यात्वं प्रोक्तं, साम्प्रतमविनयमिथ्यात्वं व्याख्यायते-'अविणए । इत्यादि, विशिष्टो नयो-विनयः-प्रतिपत्तिविशेषः, न विनयोऽविनयः, स त्रिविधऐसा है जिस समुदायक्रिया का व्यवधान नहीं होता है ऐसी वह अनन्तरा समुदानक्रिया है अर्थात् एक समयवर्तिनी समुदानक्रिया अनन्तरसनुदानक्रिया है द्वितीयादिसमयवर्तिनी समुदानक्रिया परम्परसमुदानक्रिया है तथा प्रथम अप्रथम दोनों समयवर्तिनी जो समुदान क्रिया है वह तदुभयसमुदानक्रिया है, अज्ञानक्रिया मत्यज्ञान आदि के भेद से जो तीन प्रकार की कही गई है उसका तात्पर्य ऐसा है कि मिथ्याष्टि की मति से जो क्रिया होती है वह मत्यज्ञानक्रिया है। मिथ्याष्टिके श्रुत से जो क्रिया होती है वह श्रुताज्ञान क्रिया है, मिथ्यादृष्टि की जो अवधि है वही विभंगज्ञान है इस विभंगज्ञान से जो क्रिया होती है वह विभगाज्ञान क्रिया है। यहांतक अक्रिया मिथ्यात्वका कथन किया गया है अप अविनय मिथ्यात्व का कथन सूत्रकार ( अविणए ) इत्यादि सूत्र द्वारा करते हैं-विशिष्ट नय का नाम विनय है-यह विनय प्रतिपत्तिविशेषरूप (मात) ५७तुं नयी, ते समुहानष्ठियाने मनन्त। समुहान या 8 छे. એટલે કે એક સમયવર્તિની સમુદાન ક્રિયાને અનન્તર સમુદાને કિયા કહે છે. દ્વિતીયાદિ સમયાવત્તિની ક્રિયાને પરસ્પર સમુદાને કિયા કહે છે. તથા પ્રથમ, અપ્રથમ અને સમયાવત્તિની જે સમુદાન ક્રિયા છે તેને તદુભય સમુદાન ક્રિયા કહે છે હવે અજ્ઞાન ક્રિયાના મત્યજ્ઞાન આદિ ત્રણ ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-મિથ્યાદષ્ટિની મતિથી જે ક્રિયા થાય છે તેને મતિજ્ઞાન કહે છે, મિથ્યાદષ્ટિના કૃતથી જે ક્રિયા થાય છે તેને શ્રુતજ્ઞાન ક્રિયા કહે છે. મિથ્યાદષ્ટિની જે અવધિ છે એજ વિસંગાજ્ઞાન છે. આ વિસંગજ્ઞાનથી જે ક્રિયા થાય છે તેને વિસંગાજ્ઞાન ક્રિયા કહે છે. આ સૂત્રમાં અહીં સુધી અક્રિયા મિથ્યાત્વનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર અવિનય મિથ્યાત્વનું ४यन ४३ छ-" अविणए " त्याह
વિશિષ્ટ નયનું નામ વિનય છે. તે વિનય પ્રતિપત્તિ સેવા વિશેષરૂપ હોય
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सुधा टीका स्था०३ ०३ सू० ५९ मिथ्यात्वस्वरूपनिरूपणम्
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स्तथाहि - देशत्यागी, - देशस्य - जन्मभूम्यादेस्त्यागः- ततो निस्सरणं देशत्यागः, स यस्मिन्नविनये - स्वामि गालीप्रदानादिरूपेऽस्ति स देशत्यागी । अनेन गालीप्रदानादि रूपेणाविनयेन रुष्टे स्वामिनि तदाज्ञया देशत्यागो भवतीति भावः १ । निरालम्बनता - निर्गत आलम्बनाद्-आश्रयणीयगच्छकुटुम्बादि रूपादिति निरालम्बनः, तद्भावस्तत्ता-आश्रयणीयापेक्षाराहित्य मित्यर्थः २ । नानाप्रेमद्वेषः - प्रेम च द्वेषश्चेति प्रेमद्वेषं, नाना-नानाप्रकारं क्रमरहितं प्रेमद्वेषं यत्र स नानाप्रेमद्वेषः, यत्र स्वाम्यादौ स्वाम्यादिसंमते वा प्रेमकरणीयं तत्र द्वेषः क्रियते, यत्र च स्वाम्याद्यसंम द्वेषः करणीयस्तत्र प्रेम क्रियत इति भावः । एतद्रूपोऽविनयः नानाप्रेमद्वेषा
है इस विनय का नहीं होना इसका नाम अविनय है यह अविनय तीन प्रकार का जो कहा गया है उसका भाव ऐसा है - स्वामी को गाली देनारूप अविनय जिस देशत्याग में होता है वह देशत्यागी अविनय, है जन्मभूमि आदि का नाम देश है इस देश का त्याग वहां से निक लना यह देशत्याग है यह देशत्याग जिस अविनय में होता है वह देशत्यागी है क्योंकि स्वामी जब गाली आदि के देनेरूप अविनय रूप हो जाता है तब वह उस व्यक्ति को अपने देश से बाहर निकाल' देता है अतः जो अविनय देशत्याग कराने में कारण होता है वह देशत्यागी अविनय है १ । तथा जिस अविनय से अविनयकर्ता आलम्बन से आश्रयणीय गच्छ कुटुम्बादिरूप सहारे से निर्गतरहित हो जाता है वह निरालम्बनता अविनय है तथा स्वामी आदि में या स्वाम्यादि
છે. વિનય ન હેાવા તેનું નામ અવિનય છે. હવે તેના ત્રણ પ્રકારેા સમજાવવામાં આવે છે–(૧) દેશત્યાગી અવિનય સ્વામીને ગાળ દેવા રૂપ અવિનય જે દેશત્યાગમાં કારણભૂત બને છે, તે અવિનયને દેશત્યાગી અવિનય કહે છે. જન્મભૂમિ આદિનું નામ દેશ છે. આ દેશમાંથી નીકળવાની કે દેશને ત્યાગ કરવાની ક્રિયાને દેશત્યાગ કહે છે, જે અવિનયને કારણે દેશત્યાગ કરવાની પરિસ્થિતિ પેદા થાય છે તે અવિનયને દેશત્યાગી અવિનય કહે છે, કારણ કે સ્વામી જ્યારે ગાળ આદિ દેવારૂપ અવિનયથી કાપાયમાન થાય છે, ત્યારે તેના દ્વારા તે વ્યક્તિને દેશમાંથી હાંકી કાઢવામાં આવે છે. આ રીતે જે અવિનય દેશત્યાગ કરાવવામાં કારણભૂત ખને છે, તે અવિનયને દેશત્યાગી અવિનય કહે છે. (२) ने अविनयने श्ये अविनयस्तने अवस जनथी-माश्रयस्थान ३५, १२छ, કુટુંબ આદિ રૂપ સહારથી રહિત કરવામાં આવે છે એટલે કે ગચ્છ અથવા કુટુંબમાંથી અલગ કરવામા આવે છે, તે અવિનયને નિરાલ બનતા અવિનય કહે છે. (૩) સ્વામી આદિ પ્રત્યે અધવા સ્વામ્યાદિ સમત પ્રતિ પ્રેમ કરવાને
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स्थान सू
भिधानोऽविनयः प्रोच्यते अनियतविषयत्वादिति । ६ । अथाज्ञानमिथ्यात्वमाह - ' अन्नाणे ' इत्यादि । ज्ञानं द्रव्यपर्यायविषयो वोधः, तन्निषेधाद्-अज्ञानं तत्त्रिविधं तथाहि - देशज्ञानं, देशतो विवक्षितद्रव्यस्यानभिज्ञत्वम् १ | एवं सर्वतोऽज्ञानं सर्वाज्ञानम् २ | भावाज्ञानं - वस्तुनो विवक्षितपर्यायतोऽनभिज्ञत्वमिति३ |७|| सू० ५९ ॥ पूर्व मिध्यात्वं वर्णितं तच्चाधर्म इत्यधुना तद्विपर्ययंधर्म प्ररूपयन् नत्रसूत्रीमाह
मूलम् - तिविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुयधम्मे, चरित - धम्मे, अस्थिकाम्मे १ । तिविहे उपक्कमे पण्णत्ते, तं जहाधम्मिए उवक्कमे अधम्मिए उवक्कमे धम्मियाधम्मिए उवक्कमे २ | अहवा तिविहे वक्कमे पण्णत्ते, तं जहा आओवक्कमे,
संमत में प्रेम करने की जगह द्वेष करना और उनसे असंमतमें द्वेष करने की जगह प्रेम करना यह नानाप्रेमद्वेष अविनय है ऐसा अविनय नाना प्रेमद्वेषरूप नामसे इसलिये कहा गया है कि यह अविनयविषयवाला है । अब सूत्रकार अज्ञानमिथ्यात्व के विषय में कहते हैं - ( अन्नाणे तिविहे पण्णत्ते) अज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है द्रव्य और पर्याय विषयक जो बोध है उसका नाम ज्ञान है, ऐसा जो ज्ञान नहीं है वह अज्ञान है विवक्षित द्रव्य की एकदेश से जो अनभिज्ञता होती है वह देशाज्ञान है तथा सर्वरूप से विवक्षित द्रव्य का ज्ञान नहीं होना इसका नाम सर्वाज्ञान है और वस्तु की विवक्षितपर्याय का ज्ञान नहीं होना इसका नाम भावाज्ञान है || सू०५९ ॥
બદલે દ્વેષ કરવાથી અથવા તેમના દ્વારા અસંમત હોય એવા પદાર્થ કે માન્યતા પ્રત્યે દ્વેષ કરવાને બદલે પ્રેમ કરવા તેનું નામ નાનાપ્રેમહેષરૂપ અવિનય છે. એવા અવિનયને નાનાપ્રેમદ્વેષરૂપ નામથી ઓળખવાનુ' કારણ એ છે કે તે અવિનય વિષયવાળા છે. હવે સૂત્રકાર અજ્ઞાન મિથ્યાત્વનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે. " अन्नाणे तिविहे पण्णत्ते " त्याहि
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અજ્ઞાન ત્રણ પ્રકારનુ કહ્યુ છે. દ્રવ્ય અને પર્યાય વિષયક ધનુ' નામ જ્ઞાન છે. એવું જે જ્ઞાન નથી તેને અજ્ઞાન કહે છે, વિક્ષિત (અમુક ) દ્રવ્યની એક દેશથી જે અનભિજ્ઞતા હાય છે તેનું નામ દેશજ્ઞાન છે. વિવક્ષિત દ્રવ્યનું સરૂપે જ્ઞાન ન હાવું તેનું નામ સજ્ઞાન છે, અને વસ્તુની વિક્ષિત પર્યાંથનું જ્ઞાન ન હેાવું તેનું નામ ભાવાજ્ઞાન છે. ા સૂ. પ ા
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सुधा टीका स्था०३७०३ सू० ५९ धर्मस्वरूपनिरूपणम् __ १८१ परोवक्कमे, तदुभयोवक्कमे ३ । एवं वैयावच्चे४, अणुग्गहे ५, अणुसिट्टी ६, उवालंभे ७ । एवमेकेके तिन्नि तिन्नि आलावगा जहेव उवक्कमे । तिविहा कहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थकहा, धम्मकहा, कामकहा ८ । तिविहे विणिच्छए पण्णत्ते, तं जहाअत्थविणिच्छए, धम्मविणिच्छए, कामविणिच्छए९ ॥सू०६० ॥ ___ छाया-त्रिविधो धर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रुतधर्मः, चारित्रधर्मः, अस्तिकायधर्मः १ । त्रिविध उपक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-धार्मिक उपक्रमः, अधार्मिक उपक्रमः, धार्मिकाधार्मिक उपक्रमः १ । अथवा त्रिविध उपक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आत्मोपक्रमः, परोपक्रमः, तदुभयोपक्रमः २ । एवं वैयात्त्यम् ३, अनुग्रहः४, अनुशिष्टिः ५, उपालम्भः ६ । एवमेकैकस्मिन् त्रयस्त्रय आलापका यथैवोपक्रमे । त्रिविधाकथा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थकथा. धर्मकथा, कामकथा ८ । त्रिविधो विनिश्चयः प्रज्ञप्तः,
पहिले मिथ्यात्व का वर्णन किया और उसमें गह कहा गया कि यह मिथ्यात्व अधर्म है अब सूत्रकार उसके विपरीत जो धर्म है उसकी प्ररूपणी करते हुए नौ सूत्रों को कहते हैं-(तिविहे धम्मे पण्णत्ते) इत्यादि। - सूत्रार्थ-धर्म तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे श्रुतधर्म, चारित्रधर्म,
और अस्तिकायधर्म उपक्रम तीन प्रकारका कहा गया है-जैसे धार्मिक उपक्रम अधार्मिक उपक्रम और धार्मिकाधोमिक उपक्रम अथवा इस प्रकार से भी उपक्रम तीन प्रकार का कहा गया है-जैसे आत्मोपक्रम, परोपक्रम और तदुभयोपक्रम इसी प्रकार के वैयावृत्य के, अनुग्रह के, अनुशिष्ठि और उपालम्भ के संबंध में तीन २ आलापक उपक्रम के आलापक के अनुसार कहना चाहिये कथा तीन प्रकार की कही गई है-जैसे अर्थ.
પહેલાના સૂત્રમાં મિથ્યાત્વનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું અને ત્યાં મિથ્યાત્વને અધર્મ રૂપે પ્રકટ કરાયુ છે. હવે સૂત્રકાર અધર્મથી વિપરીત એવા ધર્મનું નવ સૂત્રો દ્વારા વર્ણન કરે છે–
सूत्रार्थ-धभत्र मारने उलो छ-(१) श्रुनयम, (२) यात्रियम भने (3) मस्तिय . ७५४म त्रय ४२॥ ४ -(१) धामि 648म, (२) અધાર્મિક ઉપક્રમ અને (૩) ધાર્મિક ધાર્મિક ઉપક્રમ. અથવા ઉપક્રમના નીચે प्रभाय न २ ५५ ४ा छ-(१) मात्मा५४म, (२) ५२।५४. अन (3) તદુભપક્રમ. વૈયાવૃત્ય, અનુગ્રહ, અનુશિષ્ટ અને ઉપાલંભના પણ ત્રણ ત્રણ મકારે ઉપક્રમના પ્રકારે પ્રમાણે જ સમજી લેવા. કથા ત્રણ પ્રકારની કહી
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स्थानासूत्र तद्यथा-अर्थविनिश्चयः, धर्मविनिश्चयः, कामविनिश्चयः ९ ॥ मू० ६० ॥ _____टीका-'तिविहे ' इत्यादि । धर्मस्त्रिविधः। तमेवाह-श्रुतमेवधर्मः श्रुतधर्म:-स्वाध्यायः, चारित्रधर्म:-क्षान्त्यादि दशविधः श्रमणधर्मः, श्रुतचारित्ररूपो द्विविधोऽपि धर्मों भावधर्मउक्तः, उक्तञ्च
" दुविहो उ भावधम्मो सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य ।
सुयधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ १ ॥ छाया-द्विविधस्तु भावधर्मः, श्रुतधर्मः खल्ल चारित्रधर्मश्च ।
श्रुतक्षमः स्वाध्यायः, चारित्रधर्मः श्रमणधर्मः ॥१॥” इति । अस्तिकायधर्मः, अस्तिशब्देनात्र प्रदेशा उच्यन्ते, तेषां कायोराशिरस्तिकायः स चासौ संज्ञया धर्मश्चेत्यस्तिकायधर्मः-गत्युपष्टम्भलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यर्थः । कथा, धर्मकथा और कामकथा विनिश्चय तीन प्रकार का कहा गया है जैसे अर्थविनिश्चय, धर्मविनिश्चय और कामविनिश्चय । टीकार्थ-धर्मके जो तीन प्रकार कहेगये हैं-उनका तात्पर्य ऐसा है श्रुतरूप जो धर्म है वह श्रुतधर्म है श्रुतधर्म स्वाध्यायरूप है तथा उत्तमक्षमा आदि रूप जो दश प्रकार का श्रमणधर्म है वह चारित्रधर्म है यह श्रुतचारित्ररूप जो दोनों प्रकार का धर्म है वह भावधर्म कहा गया है। कहा भी है-" दुविहोउ भावधम्मो ” इत्यादि । ____ अस्तिकाय धर्म में अस्ति शब्द है उससे प्रदेश कहे गये हैं तथा काय से इन की राशि कधित हुई है संज्ञा से जो अस्तिकायरूप धर्म है वह अस्तिकायधर्म है ऐसा अस्तिकायरूप धर्म गतिक्रिया में सहायता पहुँचानेरूप लक्षणवाला धर्मास्तिकाय है यह द्रव्यधर्म है। छे-(१) अथथा, (२) यथा मन (3) म४या. विनिश्चय त्रए प्रश्न ४wो छ-(१) अर्थ विनिश्चय, (२) धर्मविनिश्चय भने (3) विनिश्चय.
ટીકા–હવે ધર્મના જે ત્રણ પ્રકારે કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-કૃતરૂપ-શાસ્ત્રરૂપ જે ધર્મ છે તેને મૃતધર્મ કહે છે મૃતધર્મ સ્વાધ્યાયરૂપ છે. ઉત્તમ ક્ષમા આદિ જે દસ પ્રકારના શ્રમણધર્મ છે તેનું નામ ચારિત્રધર્મ છે. આ શ્રતચારિત્રરૂપ બને પ્રકારને જે ધર્મ છે તેને ભાવધર્મ કહ્યો છે. કહ્યું પણ छ :-" दुविहोउ भावधम्मो" त्या
અસ્તિકાય ધર્મમાં અસ્તિ પદથી તેના પ્રદેશો ગ્રહણ કરાયા છે, તથા કાય પદથી તેમની રાશિ ગ્રહણ થઈ છે સંજ્ઞાની અપેક્ષાએ જે અસ્તિકાયરૂપ ધર્મ છે, તેનું નામ અસ્તિકાય ધર્મ છે. ગતિક્રિયામાં સહાયભૂત થવાના લક્ષણવાળું ધર્માસ્તિકાય છે. આ દ્રવ્યધર્મ છે.
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सुमा टीका स्था०३ उ ३ सू० ६० धर्मस्वरूपनिरूपणम्
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अयं च द्रव्यधर्म इति १ । उक्तौ श्रुतचारित्रधर्मै, साम्प्रतं तद्विशेषानाह - ' तिविहे उबक्कमे ' इत्यादि सूत्राण्यष्टौ । त्रिविध उपक्रम, उपक्रमणमुपक्रमः - उपाय पूर्वकआरम्भः । उपक्रमत्रैविध्यमाह - धार्मिकः, धर्मे - श्रुतचारित्ररूपे भवः, स वा प्रयोजनमस्येति स तथा एवमधार्मिकः असंयमार्थः, धार्मिकाधार्मिकः, तत्र धार्मिकोदेशतः संयमरूपत्वात्, अधार्मिक, तथैवार्सयमरूपत्वात् उभयात्मक आरम्भः देशविरस्यारम्भ इत्यर्थः । अथवा उपक्रमो नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्रकालभावभेदात् पविधोऽपि भवति किन्त्वत्र त्रिस्थानकानुरोधास्त्रिविध एवोपात्तः । अस्य षड्विधस्योपक्रमस्य व्याख्यानमनुयोगद्वारसुत्रस्य मत्कृतायामनुयोगचन्द्रिकाटीकायामच
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अब सूत्रकार त्रिविध उपक्रम का कथन करते हैं - यहां ये आठ सूत्र हैं- उपक्रमणका नाम उपक्रम है अर्थात् आरंभ का नाम उपक्रम है यह उपक्रम धार्मिक आदि के भेद से जो तीन प्रकार का प्रकट किया गया है-उसका तात्पर्य इस प्रकार से है श्रुतचारित्ररूप धर्म में जो होता है, अथवा तचारित्ररूप धर्म जिसका प्रयोजन है वह धार्मिक है असंयमरूप जो आरंभ है वह अधार्मिक उपक्रम है देशतः संयमरूप होने से धार्मिक और देशतः असंयमरूप होने से अधार्मिक ऐसा जो उभयात्मक आरंभ है देशविरत्यारंभ है वह धार्मिकाधार्मिक उपक्रम है अथवा - नाम उपक्रम, स्थापना उपक्रम, द्रव्यउपक्रम, क्षेत्र उपक्रम, काल उपक्रम और भाव उपक्रम के भेद से उपक्रम छ प्रकार का भी होता है किन्तु यहां त्रिस्थानक का कथन होने से तीन प्रकार का उपक्रम ही गृहीत हुआ है इस ६ प्रकार के उपक्रम का व्याख्यान अनुयोगद्वारसूत्र
હવે સૂત્રકાર ત્રણ પ્રકારના ઉપક્રમનું કથન કરે છે—તેને અનુલક્ષીને સૂત્રકારે આઠ સૂત્રેા કહ્યાં છે. ઉપક્રમણનુ નામ ઉપક્રમ છે, એટલે કે વસ્તુના આરભને ઉપક્રમ કહે છે.
હવે તેના ધાર્મિક આદિ ભેદોનુ પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે-શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને નિમિત્તે જે થાય તેનું નામ ધાર્મિક ઉપક્રમ છે. અસયમ રૂપ જે આરંભ છે. તેનું નામ અધાર્મિક ઉપક્રમ છે. દેશતઃ સયમરૂપ હોવાને લીધે દેશતઃ ધાર્મિક અને દેશતઃ અસયમરૂપ હાવાને લીધે દેશતઃ અધાર્મિક એવા જે ઉભયાત્મક આરંભ છે તેને એટલે કે દેશવિરતિરૂપ અરભુને ધાર્મિકા ધાર્મિક ઉપક્રમ કહે છે. અથવા નામ ઉપક્રમ, સ્થાપના ઉપક્રમ, દ્રવ્ય ઉપક્રમ, ક્ષેત્ર ઉપક્રમ, કાળ ઉપક્રમ અને ભાવ ઉપક્રમના ભેથી ઉપક્રમ છ પ્રકારને હાય છે. પરન્તુ અહીં ત્રણુ સ્થાનાનું જ કથન ચાલુ હાવાથી ત્રણુ પ્રકારના ઉપક્રમ જ ગૃહીત થયા છે. આ છ પ્રકારના ઉપક્રમનું વન અનુયાગ દ્વાર
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स्थानानसूत्रे लोकनीयम् । तत्र धार्मिकस्य संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थ द्रव्यक्षेत्रकालभावानामुपक्रम उक्तस्वरूपः स धार्मिकः, त एवोपक्रमः धार्मिकोपक्रमः। एवम्-अधार्मिकस्य-असंयतस्यासंयमार्थं यः सोऽधार्मिकः, स एव उपक्रमः-अधार्मिकोपक्रमः । धार्मिका धार्मिकस्य-देशविरतस्य यः स धार्मिकाधार्मिकः, स एवोपक्रमः-धार्मिकाधार्मिकोपक्रम इति ।२। अथ स्वाभ्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधा वर्णयति-'अहवा तिविहे उवक्कमे ' इत्यादि, अथवा-प्रकारान्तरेण उपक्रमस्त्रिविधस्तथाहि-आत्मोपक्रमः । परोपक्रमः, तदुभयोपक्रमः । तत्र आत्मनः-स्वस्यानुकूलोपसर्गादौ शीलरक्षणनिकी अनुयोगचन्द्रिका नाम की टीका में मैंने किया है अतः वहां से इसे जाना जा सकता है धार्मिक संयत का जो चारित्र आदि के निमित्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों का उक्त स्वरूपवाला उपक्रम है वह धार्मिक उपक्रम है तथा असंयत का जो असंयत के लिये उपक्रम है वह अधार्मिक उपक्रम है तथा धोमिकाधार्मिक का देशविरतिवाले का जो धार्मिकाधार्मिक उपक्रम है वह धार्मिकाधार्मिक उपक्रम है अथवा प्रकारान्तर से भी उपक्रम आत्मोपक्रम आदि के भेद से तीन, तरह का कहा गया है-अपने अनुकूल उपसर्गादिक के आ जाने पर शील रक्षण के निमित्त जो वैहायस (अधर लटक कर भरना) आदि विनाश करना अथवा परिकर्म करना, अथवा आत्मार्थ अन्य वस्तुका उपक्रम करना यह आत्मोपक्रम है इसी तरह परार्थ उपक्रम करना यह परोपक्रम है आत्मार्थ और परार्थ दोनों के निमित्त उपक्रम करना સૂત્રની અનુગચન્દ્રિકા નામની મેં લખેલી ટીકામાં આપવામાં આવ્યું છે, તો ત્યાંથી વાંચી લેવું.
ધાર્મિક સંયતને જે ચારિત્ર અદિને નિમિત્તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવોના ઉક્ત સ્વરૂપવાળે જે ઉપક્રમ છે તેનું નામ ધાર્મિક ઉપક્રમ છે, તથા અસંયતનો જે અસંયમને નિમિત્તે ઉકસ છે તેનું નામ અધાર્મિક ઉપક્રમ છે. તથા ધામિકા ધાર્મિક (દેશવિરતિવાળાને) જે ધાર્મિકા ધાર્મિક ઉપક્રમ છે તેનું નામ ધાર્મિકા ધાર્મિક ઉપક્રમ છે. બીજી રીતે પણ ઉપક્રમના ત્રણ પ્રકાર પડે છે–(૧) આમેપક્રમ–પિતાને અનુકૂળ એવાં ઉપસર્ગો વગેરે આવી પડે ત્યારે શીલરક્ષણને નિમિત્તે જે વૈહાયસ ( ઊંચે લટકીને ફાંસો ખાઈને મરવાની ક્રિયા) આદિ દ્વારા પિતાને વિનાશ કરવામાં આવે છે અથવા પરિકર્મ કરવામાં આવે છે અથવા આત્માથે અન્ય વસ્તુને જે ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે તેને આપકમ કહે છે. એ જ પ્રમાણે અન્યને નિમિત્ત ઉપક્રમ
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सुधा टीका स्था० ३ ० ३ सु० ६० धर्मस्त्ररूपनिरूपणम्
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मित्तमुपक्रम:- बैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा यद्वा- आत्मार्थमन्यस्य वस्तुन उपक्रम आत्मोपक्रमः । एवं परस्य परार्थ वोपक्रमः । तदुभयस्य - आत्मपररूपस्य तदुभयाथैवोपक्रमस्तदुभयोपक्रम इति ३ । एवम् उपक्रमसूत्रवद् आत्मपरतदुभयभेदेन वैयावृत्यानुग्रहाऽनुशिष्ट्यु ६ पालम्भ७ सूत्राणि बोध्यानि । एवम् - उपक्रम सूत्रवत् एकैकस्मिन् वैयावृत्यादिसूत्रे त्रयस्त्रयः - आत्मपरतदुभयरूपात्रित्रिसंख्यका आलापका वाच्या यथैव येनैव प्रकारेण उपक्रमे - उपक्रमसत्रेऽभवन् तथैवाप्रापीति भावः । नवरं - व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्य - भक्तादिभिः शुश्रूषणम् । तत्र - आत्मवैयावृत्त्य गच्छनिर्गतस्य जिनकल्पिकादेरेव, परवैयावृत्यं ग्लानादि शुश्रूषकस्य, तदुभयवैयावृत्त्यं गच्छगतस्येति |४| अनुग्रहः - ज्ञानाद्युपकारः, तत्र - मात्मानुग्रहोऽध्ययनादि प्रवृत्तस्य, परानुग्रहो वाचनादि मवृत्तस्य तदुभयानुग्रहः
यह तदुभय उपक्रम है उपक्रम सूत्र की तरह आत्म, पर और तदुभय के भेद से वैयावृत्य, अनुग्रह, अनुशिष्टि और उपालंभ विषयक सूत्र भी कहना चाहिये अर्थात् उपक्रमसूत्र की तरह एक २ वैयावृच्यादिसूत्र संबंधी आत्मवैयावृत्यादि के भेद से तीन २ आलापक कहना चाहिये भक्त आदि जो गुर्वादिजनों की सेवा करना है उसका नाम वैयावृत्त्य है गच्छ से निर्गत जिनकल्पिक आदि के ही आत्मवैयावृत्त्य होता है ग्लानादि की शुश्रूषा करने वाले के पर वैयावृत्त्य होता है तथा गच्छगत के तदुभयवैयावृत्य होता है ज्ञानादि के उपार्जन में उपकार करना इसका नाम अनुग्रह है स्वयं अध्ययन करना यह आत्मानुग्रह है, वनादि में प्रवृत्त होना यह परानुग्रह है तथा शास्त्र का व्याख्यान
કરવા તેનુ નામ પાપક્રમ છે, આત્માને માટે અને અન્યને માટે ઉપક્રમ કરવા તેનુ નામ તદુંભય ઉપક્રમ છે. ઉપક્રમના જેવા ત્રણ ભેદ બતાવ્યા છે એવાં જ ત્રણ ભેદ થૈયા નૃત્ય, અનુગ્રહ, અનુશિષ્ટ અને ઉપાલભના વિષયમાં પણ સમજવા, જેમકે વૈય નૃત્યના આત્મવૈયાનૃત્ય, પરવૈયાનૃત્યઅને તદ્રુભય વૈયાવૃત્ય નામનાત્રણ ભેદ પડે છે એ જ પ્રમાણે અનુગ્રહ આદિના પણ આમાનુગ્રહ પરાનુગ્રહ અને તદભયાનુગ્રહ ત્રણ ભેદ સમજવા. શિષ્ય, ભક્ત આદિ દ્વારા ગુરુજનાની જે સેવા કરવામાં આવે છે તેનુ નામ વૈંયાનૃત્ય છે. ગચ્છમાંથી નિત ( નીકળી ગયેલા ) જિનકલ્પિક આદિ દ્વારા આત્મવૈયાનૃત્ય થાય છે. उखान (श्रीभार, अशक्त ) आहिनी शुश्रूषा उश्नार परवैयावृत्य थाय छे, તથા ગચ્છગત શ્રમણાદિ દ્વારા તદ્રુભયવૈયાવૃત્ય થાય છે. જ્ઞાનાદિના ઉપાર્જન નિમિત્તે ઉપકાર કરવા તેનું નામ અનુગ્રહ છે. પેાતે જ અધ્યયન કરે તેનું નામ આત્માનુગ્રહ છે, વાચનાદિમાં પ્રવૃત્ત થવું અને શિષ્ય જનાને સૂત્રાથ
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स्थानाङ्ग शास्त्रव्याख्यानशिष्यसंग्रहादिप्रवृत्तस्येति । ५। अनुशिप्टिः - अनुशासनम् । तंत्रात्मानुशिष्टि:-स्वात्मानं प्रत्यनुशासनं, यथा
" वायालीसे सणसंकडम्मि गहणंमि जीव ! न हु छलिओ।
__इण्डिं जह न छलिज्जसि, झुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥" छाया-द्विचत्वारिंशदेषणासंकटे गहने जीच । नैव छलितः ।
इदानीं यथा न छल्यंसे भुञ्जानो रागद्वेषाभ्यां (तथा विधेयम् ) इति ॥१॥ परानुशिष्टि:-परं प्रत्यनुशासनं, यथा" ता तंसि भाववेज्जो, भवदुक्खनिपीडिया तुहं एए ।
इंदि सरणं पपन्ना, मोएयव्वा पयत्तेणं ।। १॥" छाया-तावत्त्वमसि भाववैधो भवदुःखनिपीडितास्तवैते ।
हंदि ! शरणं प्रपन्ना मोक्तव्याः प्रयत्नेन ॥ १ ॥ करना एवं शिष्यजन के संग्रहादि करने में प्रवृत्ति करना यह तटुभयानु ग्रह है अनुशासन का नाम अनुशिष्टि है अपनी आत्मा के प्रति अनुशासन रखना यह आत्मानुशिष्टि है। जैसे-"बायालीसेसण संकञ्चम्मि" इत्यादि अर्थात्-हे जीव ! जैसे आहारग्रहण के बयालीस दोषों के गहन संकट में नहीं ठगाया तो लाये हुए शुद्ध आहार को भोगता हुआ सब रागद्वेष से न ठगाना अर्थात् मांडले के पांच दोषों से बचना। ___ दूसरों के प्रति अनुशासन रखना यह परानुशिष्टि है जैसे-"ता तंसि भाववेज्जो" इत्यादि । अर्थात्-जव तूं भाववैद्य है तो भवदुःख से पीडित हुए ये प्राणी तेरे शरण आये हुए हैं तो इनको भी यत्नपू. र्षक भवदुःख से छुडाना चाहिये ॥ આદિ સમજાવવું તેનું નામ પાનુગ્રહ છે. શાસ્ત્રનું વ્યાખ્યાન કરવું અને શિષ્યજનના સંગ્રહાદિ કરવામાં પ્રવૃત્ત થવું તેનું નામ તદુભયાનુગ્રહ છે. અનુશાસનને અનુશિષ્ટિ કહે છે. પિતાના આત્માનું અનુશાસન કરવું તેનું नाम मात्मानुशिष्ट छ. म " बायालीसे सणसंकडम्मि" त्या:
“હે જીવ! આહાર ગ્રહણના બેંતાલીસ દેના સંકટમાં તું ઠગા નહીં, તે પ્રાપ્ત આહારને ઉપલેગ કરતાં, રાગદ્વેષથી તું રખે ઠગાતે !” એટલે કે માંડલાના પાંચ દોષોથી બચવું. આ રીતે પોતાના આત્માનું અનુશાસન કરવાની ક્રિયાને આત્માનુશિષ્ટિ કે આત્માનુશાસન કહે છે. બીજાની प्रत्ये अनुशासन शमवु तनु नाम ५२२नुशिष्ट छे. सभडे-“ता तसि भाववेज्जो" ઈત્યાદિ. જેમકે “જો તું ભાવેદ્ય છે, તે ભવદુઃખથી પીડાતા જે છે તારે શરણે આવ્યા છે, તેમને યત્નપૂર્વક .તારે ભવદુઃખમાંથી છોડાવવા જોઈએ,”
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मुंधा टीका स्था० ३ उ०३ सू० ६० धर्मस्वरूपनिरूपणम् तदुभयानुशिष्टिः-खपरोभयं प्रत्यनुशासनं, यथा
" कहकहऽवि माणुसत्ताई यावियं चरण पवररयणं च ।
ता भो । एत्थ पमाभो कइयावि न जुज्जाए अम्हं ॥ १ ॥ छाया-कथं कथमपि मानुषत्वादि प्राप्तं चरणं प्रवररत्न च । तस्मात् भो ! अत्र प्रमादः कदापि न युज्यतेऽस्माकम् ॥ १॥” इति ।६।
उपालम्भः-अनौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भाऽनुशिष्टिरेव, तत्र-आत्मोपालम्भः आत्मानं प्रत्यनौचित्यप्रवृत्तिकथनं, यथा
"चोल्लगदिटुं तेणं, दुलह लहिऊण माणुसं जम्मं ।।
जं न कुणसि जिणधम्म, अप्पा कि वेरिओ तुज्झ ? ॥१॥ छाया-चोल्लक (चक्रवर्तिभोजन ) पृष्टान्तेन दुर्लभं लब्ध्वा मानुष्यं जन्म ।
यन्नकरोपि जिनधर्मस् , आत्मा किं वैरिकस्तव ? ॥ १॥ इति । • अपने और पर दोनों के प्रति अनुशासन रखना इसका नाम स्वपरानुशिष्टि है। जैसे-(का कहऽवि माणुसत्ताइं) इत्यादि। हमने किसी किसी प्रकार से मनुष्य जन्म आदि सामग्री प्राप्त की है, उसमें भी फिर चारित्ररूप प्रवररत्ल पाया है तो अब यहां हम को इसमें प्रमाद करना कदापि युक्त नहीं है ॥
यह तुम्हारी प्रवृत्ति अनुचित है इस प्रकार के प्रतिपादनरूपवाली अनुशिष्टि ही उपालभ है इसमें आत्मा के प्रति अनुचितप्रवृत्ति करते समय ऐसा उलाहना देना कि हे आत्मन् ! यह तेरी प्रवृत्ति ठीक नहीं है यह आत्मोपालंभ है । जैसे-(चोल्लगदिह्र तेणं इत्यादि ।
चोल्लकदृष्टान्त से अर्थात् चक्रवर्ती के भोजन के दृष्टान्त से दुर्लभ આ પ્રકારની ભાવનાથી પરાનુશિષ્ટિ (પરનું અનુશાસન) થાય છે પિતાનું माने परनु मनुशासन ४२ तेनु' नाम २१५२रानुशिष्ट छ. रेम-" कह कह ऽवि माणुसत्ताई" त्याल. “ म प प्रयत्नाथी भनुष्यरममा सामश्री પ્રાપ્ત કરી છે, વળી તે મનુષ્ય જન્મમાં ચારિત્રરૂપી ઉત્તમ રત્ન પામ્યા છીએ, તે હવે આ મનુષ્યજન્મ પ્રમાદ કરીને એળે જવા દેવો જોઈએ નહીં.”
આ તમારી પ્રવૃત્તિ અનુચિત છે,” આ પ્રકારના પ્રતિપાદન દ્વારા જે અનુશાસન કરાય છે તેનું નામ જ ઉપાલંભ છે. તથા કઈ અનુચિત પ્રવૃત્તિ થઈ જતાં પિતાના આત્માને જ આ પ્રકારને ઠપકે આપ કે “હે આત્મન ! આ તારી પ્રવૃત્તિ ઠીક નથી.” તેનું નામ જ આભોપાલંભ છે.
भो-चोल्लगदिद्ववेणं" त्याह
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स्नाङ्गसूत्रे परोपालम्भः-परं प्रत्ययनौचित्यप्रवृत्तिकथनं, यथा
" उत्तमकुलस भूओ, उत्तमगुरुदिक्खिओ तुम बच्छ ।
____ उत्तमनाणगुणड्रो, कह सहसा क्वसिओ एवं ? ॥ १ ॥ छाया-उत्तमकुलसंभूतः, उत्तमगुरुदीक्षितस्त्वं वत्स ।।
उत्तमज्ञानगुणाढयः, कथं सहसा व्यवसित एवम् ? ॥ इति । तदुभयोपालम्भः स्वपरं प्रत्यनौचित्यप्रवृत्तिप्रकटनं, यथा-- " एगस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ ।
दुक्खे ठवंति जे केवि ताण किं सासयं जीयं ? ॥ १॥" छाया-एकस्य कृते निज जीवितस्य बहुका जीवकोटीः ।
दुःखे स्थापयन्ति ये केऽपि तेपां कि शाश्वतं जीवितम् ॥ १॥" इति
मनुष्य जन्म पाकर यदि जिनधर्म का पालन नहीं करता है तो तेरी आत्मा का तूं क्या दुश्मन है ? अर्थात् आत्मा का दुश्मन मत यन ।
तुम अनुचित प्रवृत्ति करते हो इस प्रकार से दूसरों की अनुचित प्रवृत्ति के प्रति उपालंभ देन। इसका नाम परोपालंभ है । जैसे-(उत्तम कुलसंभूओ) इत्यादि । हे वत्स ! हे जीव | तू उत्तमकुल में जनमा है, उत्तम गुरु से दीक्षित हुआ है और उत्तम गुणों से तूं युक्त है, ऐसी सामग्री मिलने पर भी तूं इस प्रकार से पापव्यवसाय में अचानक कैसे लग गया है।
अपनी प्रवृत्ति के प्रति और पर की प्रवृत्ति के प्रति अनौचित्य का कथन करना यह तदुभयोपालंभ है। जैसे-(एगस्त कए नियजीवियस्स)
ચિલકના દૃષ્ટાંતથી એટલે કે ચક્રવર્તીના દષ્ટાંતથી આ વાત સમજાવી છે. “દુર્લભ મનુષ્યજન્મ પામીને જે જિનધર્મનું પાલન કરતા નથી, તે શું તું તારા આત્માને દુશ્મન છે.” આ રીતે આત્માને દુશ્મન ન બને, એવું પ્રતિપાદન અહીં કરવામાં આવ્યુ છે. “તે અનુચિત પ્રવૃત્તિ કરે છે, આ પ્રમાણે અન્યની અનુચિત્ત પ્રવૃત્તિને ઉપાલંભ કરવો તેનું નામ પોપાલંભ छ. रेभ-" उत्तमकुरसंभूओ" त्याह. " पत्स ! ! तु उत्तम કુળમાં જન્મે છે, ઉત્તમ ગુરુ પાસે તે દીક્ષા લીધી છે, તું ઉત્તમ ગુણેથી યુક્ત છે, આ પરિસ્થિતિ હોવા છતાં તે આ પ્રકારની પાપપ્રવૃત્તિમાં અચાનક કેવી રીતે પડી ગયે ?
પિતાની અને અન્યની પ્રવૃત્તિ અનુચિત હોવાનું કથન કરવું તેનું નામ तमयोपाम छ. रेभ “ एगस्स कए निय जीवियस्स" त्या “शु
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__ सुंधा टीका स्था० ३ उ.३ सू० ६० धर्मस्वरूपनिरूपणम्
___ एवम्-अनेन पूर्वोक्तेन प्रकारेणैकैकस्मिन् पदे त्रयस्त्रय आलापका विज्ञेया यथैवोपक्रमे, इति पूर्व व्याख्यातमिति । ७ । अथ श्रुतभेदा विवियन्ते-'तिविहा कहा' इत्यादि । कथा उपायप्रतिपादनपरावाक्यप्रवन्धरूपा, सा त्रिविधा, तथाहि -अर्थ कथा, धर्मकथा, कामकथा । तत्र अर्थस्य-धनस्य कथा-अर्थकथा-अर्योत्पा दकधातुवादकृष्यादिमतिपादिका । उक्तश्च___ “सामादिधातुवादादि कृष्यादि प्रतिपादिका ।
अर्थोपादानपरमा कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता ॥१॥" इयं कामन्दकाधर्थशास्त्ररूपा । एवं धर्मोपायप्रतिपादनपरा धर्मकथा, उक्तञ्चइत्यादि । जो कोई व्यक्ति इस एक अपने जीवन के लिये बहुत से करोड़ों जीवों को दुःख में स्थापित करते हैं अर्थात् दुःख पहुँचाते हैं तो क्या उनका जीवन शाश्वत अविनाशो है ? अर्थात् नहीं ॥ इस पूर्वोक्त प्रकार से एक २ पद में उपक्रम की तरह तीन २ आलापक जानना चाहिये। अब सूत्रकार सुत भेदों का कथन करते हैं “तिविहा कहा" इत्यादि-उपाय के प्रतिपादन करने में तत्पर जो वास्यप्रपंधरूप रचना है उसका नाम कथा है वह जो तीन प्रकार की कही गई है उसका तात्पर्य ऐसा है-धन की जो कथा है वह अर्थ कथा है अर्थात् अर्थोपार्जन के या अर्थोत्पाद के कारणभूत सुवर्ण आदि की कथा या खेतीवाड़ी की कथा अर्थकथा है । कहा भी है-“सामादि धातुवादादि" इत्यादि। यह कथा कामन्दकाद्यर्थशास्त्ररूप है, इसी प्रकारसे धर्मके उपायों के प्रतिपादन करने में तत्परा जो कथा है वह धर्मकथा है। कहा भी है કઈ પણ જીવ પિતાના જીવનને માટે અનેક જીવને દુખ પહોંચાડે, તો શું તેનું પિતાનું જીવન શાશ્વત (અવિનાશી) છે? એટલે કે મારે અને તમારે જરૂર એકવાર તે મરવાનું જ છે, તે શા માટે એવી પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ ?”
આ પૂર્વોક્ત પ્રકારે પ્રત્યેક પદમાં ઉપક્રમની જેમ ત્રણ ત્રણ આલાપક सभरा. 6वे. सूत्र४२ थाना सेतुं नि३५ ४२ छ-" तिविहा कहा " त्याल આય (આવક) નું પ્રતિપાદન કરવામાં તત્પર જે વાકયપ્રબંધ રૂપ રચના છે તેને કથા કહે છે. તેને ત્રણ પ્રકારો નીચે પ્રમાણે છે. (૧) ધનની જે કથા છે તેને અર્થકથા કહે છે. એટલે કે અર્થોપાર્જન અથવા અર્થોત્પાદનના કારણે રૂપ સુવર્ણ આદિની કથાને કે ખેતીવાડીની કથાને અર્થકથા કહે છે. કહ્યું પણ छे “सामादि धातुवादादि " स्याह. मा ४था महायशास३५ छे. (૨) ધર્મના ઉપાયોનું પ્રતિપાદન કરનારી જે કથા છે તેને ધર્મકથા કહે છે,
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स्थानान
" दयादानक्षमाद्येषु, धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता । इयमुत्तराध्ययनादिरूपा, एवं कामगुणप्राप्तकथा, कामकथा | उक्तञ्च - " कामोपादानगर्भा च, वयोदाक्षिण्यमूचिका । अनुरागेङ्गितायुत्था, कथा कामस्य वर्णिता ॥ १ ॥ " इति । वात्स्यायनादि प्रणीतकामसूत्रादिरूपा | ७| 'तिविहे विच्छिर' इत्यादि, विविशिष्टो निश्वयः - विनिश्चयः - स्वरूपपरिज्ञानं सोऽर्थ धर्म - कामभेदात्त्रिविधः । तत्रार्थं विनिश्वयः - अर्थस्य स्वरूपपरिज्ञानं ।
यथा - अर्थानामर्जने दुःख, - मर्जितानां च रक्षणे ।
नाशे दुःखं व्यये दुःखं, धिगथै दुःखकारणम् || १ || इत्यादि । धर्मविनिश्चयः - धर्मस्वरूपपरिज्ञानं तथाहि
" धनदो धनार्थिनां धर्मः कामदः सर्वकामिनाम् । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ १ ॥ इत्यादि ।
(6
-" दयादानक्षमाद्येषु " इत्यादि । यह धर्मकथा उ त्तराध्ययन आदिरूप है । काम को घढानेवाली कथा कोम कथा है। कहा भी है- " कामोपादानगर्भा च" इत्यादि । यह कथा वात्स्यायनादि प्रणीत कामसूत्रादिरूप है ॥ तिविहे विणिच्छए " इत्यादि - विशिष्ट निश्चय का नाम विनिश्चय है अर्थात् स्वरूप के परिज्ञान का नाम विनिश्चय है यह विनिश्चय अर्थ धर्म और काम के भेद से तीन प्रकार का है- अर्थ के स्वरूप का परिज्ञान होना इसका नाम अर्थविनिश्चय है जैसे - " अर्थानामर्जने दुःखं " इत्यादि । धर्मस्वरूपका परिज्ञान होना इसका नाम धर्मविनिश्चय है जैसे ( धनदो धनार्थिनां धर्मः) इत्यादि । कामके स्वरूपको परिज्ञान होना इसका
उछु ! छे - " दयादानक्षमाद्येषु ” हत्याहि मा धर्म या उत्तराध्ययन साहि સૂત્ર રૂપ છે. (૩) કામ (વાસના ) ને વધારતારી જે કથા છે તેને કામકથા हे छे. ह्युं लुछे है-" कामोपादानगर्भाच " इत्यादि वात्स्यायन महि પ્રણીત કામસૂત્રને કામકથારૂપ ગણી શકાય છે.
" तिविहे विणिच्छए " त्यिाहि विशिष्ट निश्चयतु नाम विनिश्चय छे, એટલે કે સ્વરૂપના પરિજ્ઞાનનુ નામ વિનિશ્ચય છે. તેના પણ અં, ધમ અને કામરૂપ ત્રણ ભેદ પડે છે. (૧) અર્થાના સ્વરૂપનુ. પિજ્ઞાન થવુ. તેનું નામ अर्थविनिश्चय छे. प्रेम - " अर्थानामर्जने दुःख " त्याहि (२) धर्मना स्व यतुं परिज्ञान थर्पु तेनु नाम धर्मविनिश्चय छे. प्रेम "धतो धनार्थिन धर्मः " त्याहि (3) अमना स्वयतु प्ररिज्ञान डवु' तेनु' नाम अमविनिश्चय
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सुधा टीका स्था०३ ९०३ सू०६१ अर्थादिविनिश्चयकारणपरम्परानिरूपणम् १९१
कामविनिश्चयः-कामस्वरूपपरिज्ञानम् , आह च" सल्लं कामा विसंकामा, कामा आसी विसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गई ॥१॥ छाया-शल्यं कामा विष कामाः, कामा आशीविषोपमाः। ___ कामान् मार्थयन्तः, अकामा यान्ति दुगतिम् । इत्यादि स्वरूपा अर्थादि वि. निश्चया बोध्या इति ।। सू० ६० ॥
पूर्वमर्थादि चिनिश्चय उक्त इति तत्कारण फलपरम्परां त्रिरथानकानवतारिणीमपि प्रसङ्गतो भगवत्प्रश्नोत्तरद्वारेण निरूपयन्नाह
मूलम्-तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किं फला पज्जुवासणा ? सवणफला । से णं भंते ! सवणे किं फले ? णाणफले। से णं भंते! णाणे किं फले ? विण्णाणफले । एवमेतेणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्वा"सवणे णाणे य विन्लाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरियनिव्वाणे ॥१॥” जाव से गं भते! अकिरिया किं फला ? निव्वाणफला। से णं भंते निव्वाणे किं फले ? सिद्धिगइगमणपज्जवसाणफले पन्नत्ते समणाउसो! ॥सू०६१॥
॥ तइयस्स तीओ उद्देसो सभत्तो॥ ३-३॥ नाम कामविनिश्चय है, कहा भी है-"सल्लं कामा, विसं कामा" इत्यादि। इस पूर्वोक्त प्रकार से अर्थादि का विनिश्चय जानना चाहिये ॥ सू०६०॥
इस प्रकार अर्थादि का विनिश्चय कह कर अब सूत्रकार उसके कारण एवं फल की परम्परा को जो कि तीन स्थान में अनवतारिणी है -तीन स्थान में उनका समावेश नहीं हो सकता है तो भी प्रसङ्गतः छ. यु पार छ है-" सल्लं कामा, विसं कामा” मा प्रभाए अर्थान नि३५ मही ५३ थाय छे. ॥ सू. १० ॥
પહેલાના સૂત્રમાં અદિના વિનિશ્ચયની પ્રરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેના કારણે અને ફળની પરમ્પરાનું કથન કરે છે. જો કે ત્રણ સ્થાનમાં તેમને સમાવેશ થતો નથી, છતાં પણ પ્રસંગતઃ ભગવત્મશ્નોત્તર રૂપે અહીં તેમનું
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स्थानास छाया-तथाख्खलु भदन्त ! श्रमण वा माहनं वा पर्युपासीनस्य किं फला पर्यु. पासना ? श्रवणफला । तत् खलु भदन्त ! श्रवणं किं फलम् ? ज्ञानफलम् । तत् खलु भदन्त ! ज्ञानं किं फलम् ? विज्ञानफलम् । एवमेतेनाभिलापेनेयं गाथाऽनुगन्तव्या । श्रवणे ज्ञाने च विज्ञाने प्रत्याख्याने च संयमे । अनास्त्रवस्तपश्चैव, व्यवदानयक्रिया निर्वाणम् ॥१॥" यावत् सा खलु भदन्त । अक्रिया किम्फला ? निर्वाणफला । तत् खलु भदन्त ! निर्वाणं किम्फलम् १ सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं प्रज्ञप्त श्रमणायुप्मन् । ।। मू० ६१ ॥
॥ तृतीयस्थानस्य तृतीय उद्देशक समाप्तः ॥ ३-३ ॥
भगवत्प्रश्नोत्तरछार से निरूपित करते हैं-तिहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा ) इत्यादि।
मुत्रार्थ-हे भदन्त ! तथारूपवाले श्रमण अथवा माहणकी पर्युपासना करनेवाले पुरुषकी पर्युपासना किस फलवाली होती है ? उसकी वह पर्युपासना श्रवण फलवाली होती है । हे भदन्त ! वह श्रवण किस फलवाला होता है ? उसका वह श्रवण ज्ञानफलवाला होता है, हे भदन्त ! उसका । यह ज्ञान किस फलवाला होता है ? उसका वह ज्ञान विज्ञानरूप फल वाला होता है, इस प्रकार इस अभिप्राय से यह गाथा जानना चाहिये "सवणे जाणे य विनाणे" इत्यादि। यावत् हे भदन्त ! वह अक्रिया किल फलवाली होती है ? वह अक्रिया निर्वाणफलवाली होती है। हे
नि३५९४ ४२वामा मायुं छ-" तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा "त्यादि
સૂત્રાર્થ–પ્રશ્ન-હે ભગવન તથારૂપવાળા શ્રમણ અથવા માહણની પણું પાસના કરનારા પુરુષની પર્યું પાસના કરું ફળ દેનારી હોય છે?
ઉત્તર–તેની તે પર્યું પાસના શ્રવણ ફલવાળી હોય છે. પ્રશ્ન–હે ભગવન્ ! તે શ્રવણ કયા ફળવાળું હોય છે? ઉત્તર–તેનું તે શ્રવણ સાન ફળવાળું હોય છે. પ્રશ્ન–હે ભગવન્ ! તેનું તે જ્ઞાન કયા ફળવાળું હોય છે?
ઉત્તર–તેનું તે જ્ઞાન વિજ્ઞાનરૂપ ફળવાળું હોય છે. આ પ્રમાણે આ भनिसाथी भी गाथा सभी स. “ सवणे णाणे य विन्नाणे" त्याह.
હે ભગવન્ ! તે અક્રિયા ક્યા ફળવાળી હોય છે ?” આ પ્રશ્ન પર્ય न्त प्रश्नो मही ' यावत् ' ५४थी घडण थय। छे.
ઉત્તર–તે અકિયા નિર્વાણ ફળવાળી હોય છે, પ્રત–હે ભગવન્ ! તે નિર્વાણ કયા ફળવાળું હોય છે?
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ger ater स्था० ३ उ०३०६१ अर्थादिविनिश्चय कारणपरम्परानिरूपणम् १९३
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टीका- तारूं ' इत्यादि । भदन्त ! हे भगवन् ! तथारूपम् - शास्त्रोक्तक्रियाकारकं श्रमणं वा तपस्विनं सुनिं माहनं- स्वयं साधव्यापारविरतः सन् परं प्रति 'माइन' इत्युपदिशति यः स माहनस्त वा पर्युपासीनस्य - तत्पर्युपासनां कुर्वतो जनस्य पर्युपासना किम्फला - कीटक्फलदात्री भवति ? इति प्रश्नः । इ- ' सवणे -त्यादि सा पर्युपासना श्रवणफला सिद्धान्तश्रवणफला भवति, तथारूपश्रमणमाहनपर्युपासनया श्रुतचारित्ररूपधर्मस्य श्रवणं प्राप्यत इति
उत्तरमाह
भदन्त | वह निर्वाण किस फलवाला होता है ? वह निर्वाण सिद्धिगतिगमन फलवाला होता है ऐसा है श्रमण ! आयुष्यमन् | तीर्थकरों ने कहा है ।
टीकार्थ- नथारूप पद इस बातको प्रकट करता है कि जो श्रमण शास्त्रीक्रिया को करते हैं ऐसे तपस्वी मुनिकी, तथा जो स्वयं सावयव्यापार से विरत हुए दूसरे को " माहन मत मारो " इस प्रकार को उपदेश देते हैं ऐसे माहन की जो पुरुष पर्युपासना करता है उसकी वह पर्युपासना उसे किल फल को देनेवाली होती है ? इस प्रकार के इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं उसकी वह पर्युपासना उसे सिद्धान्तवणरूप फल दाता होती है अर्थात् तथारूप श्रमण की एवं माहन की पर्युपासना करने से वह पर्युपासक जन श्रुतचारित्ररूप धर्म के श्रवण को पा लेता है तथारूप श्रमण के एवं माहन के समीप सिद्धान्त का श्रवणकर्त्ता श्रुतज्ञानरूपफलवाला होता है क्यों कि सिद्धान्त श्रवण 'श्रोता को अज्ञान के लाभ में हेतु होता है इसलिये वह सिद्धान्त
ઉત્તર—ડ઼ે શ્રમણ ! હું આયુષ્મન્ ! તે નિર્વાણુ સિદ્ધિગતિગમન ફળવાળું હાય છે, એવું તિથ`કરાએ કહ્યુ છે
टीअर्थ " તથારૂપ ” પદ એ વાતને પ્રકટ કરે છે કે જે શ્રમણ શાસ્ત્રોક્ત ક્રિયા કરે છે, એવા તપી મુનિની તથા જે પોતે જ સાવદ્ય વ્યાપારથી નિવૃત્ત થયેલા છે અને અન્યને “ મા હણેા, મા ણા ” એવા ઉપદેશ આપે છે એવા માહણુની જે પુરુષ પયુ પાસના કરે છે, તે પુરુષને તે પ પાસના વડે ક્રયા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે ?
આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતા મહાવીર પ્રભુ કહે છે કે “ તેની તે પર્યું. પાસના તેને સિદ્ધાન્ત શ્રવણુરૂપ ફલદાતા થાય છે એટલે કે તથારૂપ શ્રમણુ કે માહણુની પર્યું પાસના કરવાથી તે પર્યું`પાસક વ્યક્તિ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધને શ્રવણુ કરવારૂપ ફળ પ્રાપ્ત કરે છે. તથારૂપ શ્રમણુ અને માણુની સમીપે સિદ્ધાન્તનું શ્રવણ કરવાથી શ્રવણુ કરનારને શ્રુતજ્ઞાનરૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે,
स
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स्थानागसूत्रे भावः । नत्-श्रवणं-तत्समीपे सिद्धान्त श्रवणं शानफलं श्रुतज्ञानफलं भवति, श्रवणेन ज्ञानं लभ्यते सिद्धान्तश्रवणस्य श्रुतज्ञानलाभहेतुत्वात् । ज्ञान-श्रुतज्ञान विज्ञानफलं - विशिष्टज्ञानफलं-श्रुतेन विशिष्टज्ञानलाभो भवतीत्यर्थः, श्रुतज्ञानस्य हेयोपादेयविवेचकविज्ञानोत्पादकत्वात् । विज्ञान-प्रत्याख्यानफलं-प्रत्याख्यानत्यागवाक्येन प्रतिज्ञाकरणमित्यर्थः, तत्फलं - विनिवृतिफलं भवति हेयोपादेयविवेचकविज्ञानेन पापप्रत्याख्यानस्य सद्भावात् । प्रत्याख्यान-संयमफलं, संयमःप्राणातिपातादेविरमणम् । उक्तञ्च--
" पञ्चास्त्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कपायजयः ।
दण्ड त्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१॥” इति । तत्फलं संयमजनकमित्यर्थः, कृतप्रत्याख्यानस्यैव संयमसद्भावात् । संयमः - श्रवण से ज्ञान प्राप्त करता है । श्रुतज्ञान विज्ञानफल वाला होता है क्यों कि विशिष्ट ज्ञानरूप फल श्रोता को श्रुत से ही प्राप्त होता है हेय और उपादेय भूत पदार्थों का विवेचनरूप विशिष्टज्ञान श्रुतज्ञान से ही लभ्य है अन्य से नहीं क्यों कि वही उस विज्ञान का उत्पादक होता है जीव जय विज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह प्रत्याख्यान करता है प्रत्याख्यान करने का तात्पर्य त्यागवाक्य से प्रतिज्ञा करना है, प्रत्याख्यान का फल निवृत्तिरूप होता है क्यों कि हेय और उपादेय के विवेचक विज्ञान से पापप्रत्याख्यान का सद्भाव होता है प्रत्याख्यान संयमफलवाला होता है प्राणातिपात आदि से विरमण होने का नाम संयम है। कहा भी है-“पञ्चास्त्रवाद्विरमणं" इत्यादि। प्रत्याख्यान संयमरूपफलयाला होता है इसका तात्पर्य ऐसा है कि कृतप्रत्याख्यानवाले जीव કારણ કે સિદ્ધાન્તનું શ્રવણ શ્રોતાને શ્રુતજ્ઞાનને લાભ આપવામાં કારણભૂત બને છે, તેથી તે સિદ્ધાતશ્રવણ દ્વારા જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે. શ્રુતજ્ઞાન વિજ્ઞાન ફળવાળું હેય છે, કારણ કે વિશિષ્ટ જ્ઞાનરૂપ ફળની પ્રાપ્તિ શ્રેતાને શ્રત દ્વારા જ થાય છે. હેય અને ઉપાદેય ભૂત પદાર્થોના વિવેચનરૂપ વિશિષ્ટ જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનથી જ લભ્ય બને છે–અન્યજ્ઞાનથી લભ્ય થતું નથી, કારણ કે તે શ્રતજ્ઞાન જ વિજ્ઞાનનું ઉત્પાદક બની શકે છે. જીવ જ્યારે વિજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લે છે, ત્યારે તે પ્રત્યા
ખ્યાન કરે છે. પ્રત્યાખ્યાન કરવા એટલે ત્યાગવાક્ય દ્વારા વસ્તુને છોડવી. પ્રત્યાખ્યાનનું ફલ નિવૃત્તિરૂપ હોય છે, કારણ કે હેય અને ઉપાદેયના વિવેચક વિજ્ઞાન દ્વારા પાપ પ્રત્યાખ્યાનને સદ્ભાવ થાય છે પ્રત્યાખ્યાન સંયમરૂપ ફુલવાળા હોય છે. પ્રાણાતિપાત આદિ કિયા કરતા વિરમવું તેનું નામ સંયમ छ. धु पक्ष्य छ -“ पञ्चास्त्रवाद्विरमणं " त्याहि
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सुँघा टीका स्था०३'४०३ सू० ६१ अर्थादिविनिश्चयकारणपरंपरा निरूपणम् १५५ अनास्रत्रफलः, अनास्रवः– आत्मन्यागच्छत्कर्मकलापनिरोधः, तत्फलः संयमेनात्मनि नूतनकर्माणि न प्रविशन्तीत्यर्थः, तस्य नूतनकर्मानुपादानस्वभावत्वात् । अनास्रवः - आस्रवराहित्यं तपः फलः - तपोजनको भवति, तेन तपसः सद्भावात् अनास्रवो लघुकर्मत्वेन तपस्वी जायत इति भावः । तपो व्यवदानफलं भवति, तत्र व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनलवनं कर्मकचवर परिशोधनं वा, कर्मनिर्जरणमित्यर्थः, 'तपसाक्षीयते कर्म' इति वचनात्, तत्फलं भवति तपसः संचितकर्मनाशकत्वात् । व्यवदानम् को ही संयम का सद्भाव होता है संयम अनालचफलवाला होता है अर्थात् आत्मा में आते हुए कर्मसमूह का निरोध कराने वाला होता है आत्मा में जो नूतनकर्म आनेवाले होते हैं वे संयम के प्रभाव से आत्मा के पास नहीं आते हैं उनका आना रुक जाता है क्यों कि संयम का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह अपने आराधक नूतनकर्मों के उपादान करने से बचाता रहता है आस्रव से रहित होना यह तपरूपफल वाला होना है अर्थात् तपजनक होता है क्यों कि जहां अनास्रवस्थिति होती है वहां तप का सद्भाव होता है अनास्रव जीव लघुकर्जा होने से तपस्वी हो जाता है पूर्वकृत कर्म का लवन ( नाश) होना इसका नाम व्यवदान है कर्म की निर्जरा होनी यही कर्मरूपी कचरे की सफाई होना है क्यों कि - " 'तपसा क्षीयते कर्मः " ऐसा आगम का वचन है इस व्यवदानफलवाला तप होता है तप से संचित कर्मों का नाश होता है इसलिये तप को व्यवदानफलवाला कहा गया है व्यवदान का फल પ્રત્યાખ્યાન ' સયમરૂપ ફૂલવાળું હોય છે ' આ કથનના ભાવાર્થે આ પ્રમાણે છે જેણે પ્રત્યાખ્યાન કર્યો છે એવા જીવમાં જ સંયમના સાવ હાય છે. સંયમ અનાસ્રવ ફળવાળા હોય છે-એટલે કે તે આત્મામાં પ્રવેશનાં કમસમૂહના નિરોધ કરનારા હોય છે, સંયમના પ્રભાવથી નવા કર્મી આત્માની પાસે આવી શકતા નથી તેમનું આગમન જ અટકી જાય છે, કારણ કે સયમના સ્વભાવ જ એવા છે કે તે પેાતાના આરાધકને નૂતન કર્માનું ઉપાદાન કરવામાંથી અચાવી લે છે આસવથી રહિત થવાથી તપરૂપ ફૂલની પ્રાપ્તિ થાય છે, કારણ કે જ્યાં અનાસ્રવની સ્થિતિ હાય છે, ત્યાં તપના પણ સદ્ભાવ હાય છે. અનાસવયુક્ત જીવ હળુકર્મી હાવાથી તપસ્વી અની શકે છે, પૂર્વીકૃત કર્મોનું જ્વલન ( નાશ ) થવા તેનુ નામ વ્યદાન છે. કની નિરા થવી એટલે अर्भ३यी अथरानी साह थवी, येवो अर्थ थाय छे, अरशु है " तपसा क्षीयते कर्म " तपथी अमन क्षय थाय छे, ” मेवुं भागभवयन छे व्यवहान३य ફુલવાળુ' તપ ાય છે. તપના પ્રભાવથી સ'ચિત ક્રમે'ના નાશ થાય છે, તેથી જ
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स्थानांगर - अक्रिया-फलम् , अक्रिया-मनोवाक्काययोगनिरोधः, तत्फलं कर्मनिर्जरानन्तरमयोगिकेवलिगुणस्थानसद्भावात् । अक्रिया निर्वाणफला निर्वाणं-सर्वथा-कर्मविकाराभावः, तत्फला निष्क्रियत्वेन कर्मकृतविकारराहित्यात् । निर्वाणं च सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं, तत्र-सिद्धिः-लोकाग्रभागरूपा, सैव गम्यमानत्वात् गतिः तस्यां गमनं, तदेव पर्यवसानं-सर्वान्तिमफलं-प्रयोजनं यस्य निर्वाणस्य तत्तथोक्त भवति, कर्मविकारस्य सर्वथा विनाशादात्मा सर्वान्तिमं सिद्धिगतिप्राप्तिरूपं फलं अक्रिया होती है मन वचन और काय का निरोध होना इसका नाम अक्रिया है व्यवदान अक्रिया फल वाला इसलिये कहा गया है कि कर्मनिर्जरा के बाद ही अयोगिकेवली गुणस्थान का सद्भाव हो जाता है जीव में अक्रिया आते ही उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है इसलिये अक्रिया का फल निर्वाण कहा गया है । सर्वथा कर्म का अभाव होना इसका नाम निर्वाण है जीव जब निष्क्रिय हो जाता है तब वह कर्मकृतविकार से रहित हो जाता है निर्वाण का फल सिद्धिगति में जीव का पहुँच जाना है यह सिद्धिगति लोक के अग्रभाग में है जीव को गम्यमान होने से सिद्धि को गतिरूप कहा गया है उस गति में जीव का गमन होना यही सर्व अन्तिम प्रयोजन निर्वाण का है अतः जब आत्मा से कर्म सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं तब वह सर्वान्तिम सिद्धिगति की प्राप्ति रूप तपने व्यवहान सवाणु यु छे. व्यवहान माया३५ ३१.
गुय छे. मन, વચન અને કાયને નિરોધ થવે તેનું નામ જ અક્રિયા છે. વ્યવદાનને અક્રિયા૩૫ કુલવાળું કહેવાનું કારણ એ છે કે કર્મનિર્જરા થયા બાદ જ અગિ કેવલિ ગુણસ્થાનને સદ્દભાવ સંભવી શકે છે. જીવમાં અક્રિયાને સદ્ભાવ થતાં તેને નિર્વાણની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે, તેથી અક્રિયાને નિર્વાણ ફલવાળી કહી છે. કર્મોને સર્વથા અભાવ થે તેનું નામ જ નિર્વાણ છે. જીવ જ્યારે નિષ્ક્રિય થઈ જાય છે, ત્યારે તે કમકૃત વિકારથી રહિત થઈ જાય છે. નિર્વાણના ફલસ્વરૂપે સિદ્ધિગતિમાં પહોંચી જાય છે. આ સિદ્ધિગતિ લેકના અગ્રભાગમાં છે.
ત્યાં જવાનું ગમન થતું હોય છે. સિદ્ધિને ગતિરૂપ કહેલ છે, તે ગતિમાં , જીવનું ગમન થવું, એ જ નિર્વાણનું સર્વ અનિત્તમ પ્રયોજન છે. આ રીતે આત્મામાંથી જ્યારે કર્મોને સંપૂર્ણતઃ નાશ થઈ જાય છે, ત્યારે જીવ સર્વામિ
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सुघाटीका का स्था०३३०३०६९ अर्थादिविनिश्वंय कारणपरम्परानिरूपणम्
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प्राप्नोतीति भावः, प्रज्ञप्तं - प्ररूपितं हे श्रमणायुष्मन्तः ! हे गौतमादयः ! मया, अन्यैश्व केवलि भिरिति गौतमादि शिष्यान् प्रति भगवत आमन्त्रणवाक्यमिति । मू०६१ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकला पालापक-प्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक - वादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित- कोल्हापुर राजगुरु - बाळब्रह्मचारि जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां स्थानाङ्गसूत्रस्य सुधाख्यायां व्याख्यायां तृतीयस्थानस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३-३॥
फल को प्राप्त कर लेता है ऐसा कथन हे श्रमणायुष्मन् ! गौतमादिक ! मैंने तथा अन्य केवलियों ने किया है ऐसा गौतमादिक शिष्यों के प्रति भगवान् का यह आमंत्रण वाक्य है | सू०६१ ॥
श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल प्रतिविरचित स्थानाङ्गसूत्रकी सुधारूप टीका के तीसरे स्थानकका तीसरा उद्देशक समाप्त || ३-३ ॥
સિદ્ધિગતિ પ્રાપ્તિરૂપ ફળને પ્રાપ્ત કરી લે છે, “ હે શ્રમણુયુધ્મન્ ! હે ગીતમાદિક શ્રમણા ! આ પ્રમાણે અન્ય કેટલીઓએ પણ કહ્યુ છે અને હું પણ उहु छ . ॥ सू. ६१ ॥
,"
શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર-પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલ મુનિવિરચિત સ્થાનાંગસૂત્રની સુધા નામની ટીકાના ત્રીજા સ્થાનકના ત્રીજે ઉદ્દેશક સમાપ્ત. ॥ ૩-૩ ॥
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अथ चतुर्थोद्देशकः प्रारभ्यते-- व्याख्यावस्तृतीय उवेशकः, अध चतुर्थः प्रारभ्यते, अस्य पूर्वोदेशकेन सहायमभिसम्बन्धः-तृतीयोद्देशके पुद्गलजीवधर्मास्त्रिस्थानकेनोक्ताः, अत्रापि त एवं त्रिस्थानकेन प्रोच्यन्ते । इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-' पडिमापडिवनस्स' इत्यादि सूत्रपट्कम् । अस्यादि सूत्रस्य पूर्वमुत्रेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वमूत्रे श्रमणमाहनस्य पर्युपासनायाः फलपरम्परा प्रोक्ता, श्रमणमाहनाश्चानगारा एवेत्यत्रानगारस्य कल्पविधिमाह
मूलम्-पडिमापडिवनस्स अणगारस्त कप्पंति तओ उवस्सया पडिलेहित्तए, तं जहा-अहं आरामगिहंसि वा, अहे
तीसरे स्थानकना चौथा उद्देशक प्रारम्भतृतीय उद्देशा व्याख्यात हो चुका-अब चौधा उद्देशा प्रारंभ होता है इसका तृतीय उद्देशाके साथ संबंध ऐसा है कि तृतीय उद्देशामें पुद्गल
और जीव के धर्म तीन स्थान से कहे गये हैं इस उद्देशा में भी वे तीन स्थान से ही कहे जावेंगे इसी संबंध से आये हुए इस उद्देशा का यह "पडिमापडिवनस्स" इत्योदि प्रथम सूत्र छहसूत्रों से युक्त कहा गया है इस आदि के सूत्र का भी पूर्वसूत्र के साथ ऐसा संबंध है कि तृतीय उद्देशा के अन्तिमसूत्र में श्रमण-माहन की पर्युपासना की फलपरम्परा प्रकट की गई है ये श्रमण माहन अनगार ही होते हैं इसलिये यहां सूत्रकार ने अनगार की कल्पविधि कही है-(पडिमापडिवनस्स अणगा. रस्त ) इत्यादि।
- ત્રીજા સ્થાનના ચેથા ઉદેશકનો પ્રારંભ
ત્રીજે ઉદ્દેશક પૂરે થયો. હવે ચેથા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ થાય છે. આ ચાથા ઉદ્દેશાને ત્રીજા ઉદ્દેશા સાથે આ પ્રમાણે સંબંધ છે–ત્રીજા ઉદ્દેશામાં પુલ અને જીવના ધર્મ ત્રણ સ્થાની અપેક્ષાએ પ્રરૂપિત કરવામાં આવ્યા છે. આ ઉદ્દેશામાં પણ તેમનું વિશેષ કથન ત્રણ સ્થાનોને આધારેજ કરવામાં આવશે. • આ પ્રકારના સંબંધવાળા આ ઉદ્દેશાના છ સૂત્રે માંનું સર્વપ્રથમ સૂત્ર આ प्रभारी छ-" परिमापडिवनस्स" त्याह
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सुधा टीका स्था० ३ ० ४ सू० ६२ अनगारस्य कल्पविधिनिरूपणम्
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वियडगिहंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा १ । एवं अन्नवित्त। उवाइणित्त३ | पडिमा पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पंति तओ संथारगा पडिलेहित्तए, तं जहा - पुढविसिला, कट्ठसिला, अहा संथडमेव ४ । एवं अणुण्णवित्तए । उवाइणित्तए ६ |सू. ६२॥
छाया -- प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रय उपाश्रयाः प्रतिलेखयितुम्, तद्यथा-अध आरामगृहे वा, अधो विवृतगृहे वा, अधो वृक्षमूलगृहे वा१| एवम् - अनुज्ञापयितुम् २ । उपादातुम् ३ । प्रतिमाप्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते त्रयः संस्तारकाः प्रतिलेखयितुम्, तद्यथा- पृथिवीशिला, काष्ठशिला, यथा सस्तृतमेव । ४ । एवम् - अनुज्ञापयितुम् । ५ । उपादातुम् | ६ || स्रु० ६२ ।।
टीका--' पडिमा पडिवन्नस्स ' इत्यादि । प्रतिमा - मासिक्यादि भिक्षुप्रतिज्ञा लक्षणां प्रतिपन्नस्य- स्त्रीकृतस्य - प्रतिपन्नमासिक्यादि प्रतिमस्येत्यर्थः अनगारस्य=
टीकार्थ- प्रतिमा (अभिग्रहविशेष) प्रतिपन्न अनगारको तीन उपाश्रय षणा करने के लिये कल्पते हैं जैसे- एक अधः आरामगृह (बगीचा में बने हुए घर ) में, दूसरा अधो विवृतगृह ( ऊपर से ढका हुआ और चारों ओर से खुला ) में, और तीसरा अधोवृक्षमूल में, तात्पर्य कथन का ऐसा है कि जिस भिक्षु ने मासिकी आदि प्रमाणवाली भिक्षुप्रतिमा स्वीकार - धारण करली है ऐसे उस अनगार भिक्षु को धर्मध्यान
इस
C
આ સૂત્રના પૂસૂત્રની સાથે
પ્રકારને સંબધ છે-પહેલા સૂત્રમાં શ્રમણ અને માહનની પયુ પાસનાની ફુલપરમ્પરા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તે શ્રમણ્ કે માહન અણુગાર જ હાય છે આ સંબંધને અનુલક્ષીને સૂત્રકારે અહીં અણુગારની કલ્પવિધિનું નિરૂપણ કર્યુ છે.
" पडिमा पडिवन्नस्स अणगारस्स " त्याहि
આ
ટીકાથ—પ્રતિમા ( અભિગ્રહ વિશેષ ) ધારણુ કરનાર અણુગારને નીચેના ત્રશુ ઉપાશ્રય ( આશ્રયસ્થાનેા ) ગવેષણા કરવા નિમિત્ત કલ્પે છે-(૧) અધઃઆરામ ગૃહ ( બગીચામાં ખનાવેલાં ઘર), (૨) અર્ધવિદ્યુત ગૃહ ( ઉપરથી આચ્છાદિત પણ ચારે તરફ ખુલ્લું આશ્રયસ્થાન ) (૩) અધેવૃક્ષ મૂળ. આ કથનને ભાવા નીચે પ્રમાણે છે જે ભિક્ષુએ માસિકી આદિ વિધવાથી પ્રતિમાની આરાધના
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स्थानासूत्रे
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कल्पन्ते त्रय उपाश्रयाः, उपाश्रीयन्ते - आश्रीयन्ते धर्मध्यानार्थं वेति उपाश्रयाः, वसतयः, तान् प्रत्तिलेखयितुं - गवेपयितुं निवासार्थं याचितुमित्यर्थः । तानेवाहअध आरामगृहे - यः अधः - अधोभागभूत उपाश्रयस्तदेकदेशः - उपाश्रयत्वेन प्रतिलेखयितुं कल्पत इति भावः । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा अधो विवृतगृहे - अधःअधोभागे चतुर्दिक्षु विवृतम् - भित्यादिरहितम्, उपरिसमाच्छादितमित्यर्थः यद् गृहस्थानं, तस्मिन यो भूभागः । तथा अधोवृक्षमूळे, तत्र वृक्षस्य बटादेर्मूलंमूलभागः, तदेवगृहं वृक्षमूलगृहं तस्मिन् अधः - तदेकदेशः | १ | उपाश्रया अनुज्ञां विना न कल्पन्ते, इत्यनुज्ञामूत्रमाह - एवम् - पूर्वोक्तालापकवत्, स यथा - "पडिमा परिवन्नस्स अणगारस्स कंति तभ उवस्सया- अणुन्नवित्तए " इति । पूर्वप्रति
9
"
करने के निमित्त ये तीन स्थान उपाश्रयरूप से कल्पित कहे गये हैंअर्थात् इन तीन स्थानों में रहकर धर्मध्यान कर सकता है धर्मध्यान करने के निमित्त जहां पर रहा जाता है वही उपाश्रय है आराम वाटिकास्थान में कोई एक स्थान पर रह कर वह धर्मध्यान कर सकता है अथवा भित्यादि से रहित किन्तु ऊपर से आच्छादित ऐसे चारों ओर से खुले स्थान में रहकर वह धर्मध्यान कर सकता है तथा वट वृक्ष के नीचे रहकर वह धर्मध्यान कर सकता है उपाश्रय अनुज्ञा प्राप्त किये विना कल्प्य नहीं होते हैं अतः इसी बात को दिखाने के लिये सूत्रकार ने “ एवं अणुन्नवित्तए " ऐसा सूत्र कहा है इसका पूर्व सूत्र के साथ इस प्रकार से संबंध कहना चाहिये "पडिमापडिवन्नस्स अणगारस्स पंति तओ उवस्सया अणुन्नवित्तए " पूर्वोक्त स्वरूपवाले तीन उपाश्रय શરૂ કરી છે, એવા તે અણુગાર ભિક્ષુને ધર્મધ્યાન કરવા નિમિત્તે આ ત્રણ સ્થાન ઉપાશ્રયસ્થાન રૂપે ક૨ે છે-એટલે કે આ ત્રણ સ્થાનમાં રહીને તે અમધ્યાન કરી શકે છે. ધર્મધ્યાન કરવાને માટે જ્યાં રહેવામાં આવે છે તે સ્થાનને જ ઉપાશ્રય કહે છે. (૧) આરામગૃહ ( વાટિકાગૃહ ) માં કોઇ પણ એક સ્થાને રહીને તે ધર્મધ્યાન કરી શકે છે. (૨) દીવાલઆદિથી રહિત પશુ ઉપરથી આચ્છાદિત એવા ચારે દિશામાં ખુલ્લા સ્થાનમાં રહીને પશુ તે ધર્મધ્યાન કરી શકે છે, અને (૩) વડવૃક્ષની નીચે રહીને પણ તે ધર્મધ્યાન કરી શકે છે.
"
" एवं अन्न वित्तप આ સૂત્ર દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે તે અણુગારને તે ઉપાશ્રયભૂત સ્થાને તેમને (તે સ્થાનેાના) માલિકની આજ્ઞા વિના કલ્પતા નથી-આ સૂત્રને પૂર્વસૂત્રની સાથે આ પ્રકારનેા સંબંધ
रु ४२वा - " पढिमा पडिवन्नस्स अणगाररस कप्पति तओ उवस्सया अणुभवित्तए "
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सुधा टीका स्था०३ उ० ४ सू० ६२ अनगारस्य कल्पविधिनिरूपणम् २०१ पादितस्वरूपात्रय उपाश्रया अनुज्ञापयितुं-तत्र निवसनाय तत्स्वामिनिदेशं ग्रहीतुं कल्पन्त इति । २ । तत्स्वामिनाऽनुज्ञाते सत्युपादानं भवतीत्युपादानमूत्रमप्येवमेव वाच्यम् । तत्र-उपादातुं-ग्रहीतुं प्रवेष्टुं कल्पन्त इति । ३ । उपाश्रये प्रवेशानन्तरं संस्तारकः कत्तुं युज्यत इति सस्तारसमूत्रमाह-'पडिमापडिवनस्स' इत्यादि। प्रतिमाधारिणोऽनगारस्य त्रयः सस्तारका प्रतिलेखयितुं कल्पन्ते, ते यथा-पृथिवीमें रहने के लिये उनके स्वामी की आज्ञा प्राप्त करना उस प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्ष अनगार के लिये आवश्यक है अतः अब उन स्थानों का स्वामी आज्ञा दे देता है तभी वहां पर रह सकता है उसे धर्मध्यान करने के लिये स्वीकार किया जा सकता है यही बात (उवाइणित्तए) उपयोग में लेने के लिये इस तृतीय सूत्र द्वारा सूत्रकार ने प्रकट की है, प्रतिमा निभाने के निमित्त पूर्वोक्त स्थानों को चुनने के बाद उनमें रहने की उनके स्वामियों से आज्ञा प्राप्त करना और बाद में उनमें रहना यही क्रम भिक्षु के लिये कल्प्य है उपाश्रय में प्रवेश करने के बाद उस प्रतिमा प्रतिपन्न साधु को संस्तारक करना युक्त है-यही बात अय सूत्रकार ने "पडिमापडियन्नस्स अणगारस्त कप्पंति तओ संथारगा पडिलेहित्तए" इस सूत्र द्वारा प्रकट की है इसमें उन्होंने यह कहा है कि प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार को ये तीन संस्तारक की प्रतिलेखना करना પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળા ત્રણ ઉપાશ્રયમાં રહેવાને માટે તે સ્થાનેના માલિકની અનુજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવાનું તે પ્રતિમા ધરક ભિક્ષુ અણગારને માટે આ વશ્યક કહ્યું છે, તેથી તે સ્થાને સ્વામી ત્યાં રહેવાની તેમને રજા આપે, તે જ તે અણગાર ત્યાં રહી શકે છે તે જ ધમયાન કરવા નિમિત્તે તે સ્થાનનો સ્વીકાર થઈ श छ. मे २१ पात · उबाइणित्तए " २॥ सूत्र १२॥ सूत्रारे'४८ ४३ छ.
આ સૂત્રમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે પ્રતિમાની આરાધના કરવા નિમિત્તે પૂર્વોક્ત જે સ્થાનને પસંદ કરવામાં આવ્યું હોય, તે સ્થાનના સ્વામીની ત્યાં રહેવા માટે આજ્ઞા પ્રાપ્ત કર્યા બાદ જ તે અણગારે તે સ્થાનમાં પ્રવેશ કરવો જોઈએ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કર્યા બાદ આજ્ઞા મેળવવી તે યુક્ત નથી.
ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કર્યા બાદ તે પ્રતિમાધારક સાધુને સંસ્તારક (પાથરણું). रंतु ४६१ छ. स. २१ पात सूत्र “ पडिमापडिवनस्स अणगारस्स कप्पति तओ सथारगा पडिलेहित्तए " 21 सूत्र द्वारा ५४ ४२री छे. मा सूत्रमा सूत्रधारे એવું કહ્યું છે કે પ્રતિમાપ્રતિપન્ન અણગારને આ ત્રણ સંસ્તારકની પ્રતિલેખના
स २६
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स्थानाङ्ग त्रे
शिला - शिलारूपा पृथिवी, काष्ठशिला - स्वाभाविककाष्ठरूपा न तु घटिता शिलेवायामविस्ताराभ्यां शिला सा काष्ठशिला, तथा यथा संस्कृतमेवयत्तृणादि योपभोगा भवति तथैव लभ्यते तत् कल्पते४। एवं पूर्वोक्तालापकवत् त्रयः पूर्वप्रतिपादिताः संस्तारका अनुज्ञापयितुम् | ५ | उपादातुं च कल्पन्त इति ६||सू०६२॥ प्रतिमाश्च नियतकाला भवन्तीति कालप्ररूपणां तत्प्रस्तावाद् वचनप्ररूपणां चाह
"
मूलम् - तिविहे काले पण्णत्ते, तं जहा-तीए, पडुप्पण्णे, अणागए । तिविहे समए पण्णत्ते, तं जहा-तीए, पडुप्पन्ने अनागए | एवं आवलिया, आणापाणू, थोवे, खणे, लवे, मुहुत्ते अहोर जाव वाससयसहस्से, वासकोडी, पुव्वंगे पुब्वे जाव ओसपिणी । तिविहे पोग्गले परियहे पण्णत्ते, तं जहा- तीए
-
कल्प्य हैं जैसे - १ शिलारूपपृथिवी २ काष्टशिला - विना बना हुआ काष्ठ का पटिया वगैरह इसे शिला जैसे आयाम विस्तार को लेकर शिला कह दिया गया है और ३ यथासंस्तृत जो तृण आदि उपभोग के योग्य जिस प्रकार से होते हैं उसी प्रकार से वे यदि मिलते हैं प्राप्त हो जाते हैं तो संस्तारक के योग्य कल्प्य हैं । ये तीन वस्तुएँ संस्तारक के लिये इनके स्वामी की आज्ञा प्राप्त किये बिना लिये नहीं जा सकते हैं अतः इन्हें प्राप्त करने निमित्त इनके स्वामियों की आज्ञा प्राप्त करना और फिर उन्हें संस्तारक के काम में यह सब कथन उपाश्रय के प्रकरण में जैसा कहा जा चुका है वैसा ही यहां पर भी कहना चाहिये ॥ मु०६२॥
કરવી કલ્પ્ય ગણાય છે–(૧) શિલારૂપ પૃથ્વી, કાશિલા,-ઘડયા વિનાનું લાકડાનું પાટિયું વગેરે. શિલા જેવા આયામ અને વિસ્તારને લીધે તેને અહીં કાઇશિલા કહેલ છે. (૩) તૃણુ આદિ ઉપભાગને પાત્ર પદ્યાર્થી—જે પ્રકારે હાય એ જ પ્રકારે જો પ્રાપ્ત થાય તે સસ્તારકને ચેાગ્ય ગણી તેમને માટે કલ્પ્ય અને છે સસ્તારકને નિમિત્તે જરૂરી એવી આ ત્રણ વસ્તુએ તેના માલિકની આજ્ઞા લીધા વિના લઈ શકાતી નથી. તેથી તેમને પ્રાપ્ત કરવા નિમિત્તે તેમની આજ્ઞા પહેલાં પ્રાપ્ત કરવી અને ત્યારબાદ તેમને! સસ્તારકના કામમાં ઉપયેગ કરવા જોઈએ ઉપાશ્રયના વિષયમાં આજ્ઞા પ્રાપ્તિ વિષયક જેવું કથન આગળ કરાયુ છે એવું જ સમસ્ત કથન સ સ્તારક વિષે પણ અહીં ગ્રહણુ કરવું જોઈએ, ૫ સૂ. ૬૨
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सुधा टीका स्था० ३ ३.४ सू० ६२ काल-वयनप्रेलपणम्
२०३ पडप्पन्ने अणागए । तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा-एगवयणे दुवयणे बहुवयणे, अहया तिविहे वयणे पण्णत्तेतं जहा इत्थिवयणे, पुंवयणे, नपुंसगवयणे । अहवा तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा-तीयवंयणे पडुपन्नवयणे अणागयवयणे ॥ सू० ६३॥
छाया-त्रिविधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथा, अतीतः, प्रत्युत्पन्नः, अनागतः । त्रिविधः समयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अतीतः प्रत्युत्पन्न अनागतः । एवमावलिका, आनमाणः, स्तोकः, क्षणः, लवः, मुहूत्तः, अहोरात्रं-यावद् वर्षशतसहस्रं, वर्षकोटिः पूर्वाङ्ग, पूर्व, यावत्-अवसर्पिणी । त्रिविधः पुद्गलपरिवर्तः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अतीतः प्रत्युत्पन्नः, अनागतः। त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-एकवचनं, द्विवचनं, वहुवचनम् ।
प्रतिमाएँ नियतकालवाली होती हैं इसलिये अब सूत्रकार काल की प्ररूपणा को और इसके प्रकरण से वचन की प्ररूपणा को कहते हैं -(तिविहे काले पण्णत्ते ) इत्यादि । सूत्रार्थ-काल तीन प्रकारका कहा गया है जैसे-अतीतकाल,वर्तमानकाल और अनागतकाल, समय भी तीन प्रकार का कहा गया है जैसे अती. तसमय, वर्तमानसमय और भविष्यत् समय, इसी प्रकार से आवलिका, श्वासोच्छ्चास, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, यावत् वर्षशतसहस्र, वर्षकोटि, पूर्वाङ्ग, पूर्व और यावत् अवसर्पिणी के विषय में भी कथन जानना चाहिये पुदलपरिवत्त तीन प्रकार का कहा गया है जैसे अतीत पुद्गलपरावर्त, वर्तमानपुद्गलपरावर्त और भविष्यत्पुद्गलपरावर्त, वचन भी तीन प्रकार का कहा गया है-एकवचन द्विवचन और बह
નિયત કાળવાળી હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર કાળની પ્રરૂપણ કરે છે. અને ત્યારબાદ તેની સાથે સંબંધ ધરાવતા વચનની પ્રરૂપણ કરે છે.
“तिविहे काले पण्णत्ते" त्या:
सूत्रा:- १५ रन। ४ो छ-(१) मातीत (भूत ), (२) વર્તમાનકાળ અને (૩) અનાગતકાળ (ભવિષ્યકાળ). એ જ પ્રમાણે સમયના પણ त्र २ छ-(१) मतीत समय, (२) वर्तमान समय मने (3) अनागत समय में प्रभारी भापति श्वासोश्वास, स्ते, क्षY, सव, मुहूत, અહોરાત્ર, આદિથી લઈને વર્ષશતસહસ, વર્ષર્કેટિ, પૂર્વાગ, પૂર્વ વગેરેથી લઈને અવસર્પિણું પર્યતન પણ ઉપર્યુક્ત ત્રણ ત્રણ પ્રકાર સમજવા. પુદ્ગલ પરિવર્ત ત્રણ પ્રકારનું કહ્યું છે-(૧) અતીત પુદ્ગલ પરાવર્ત, (૨) વર્તમાન પુલ પરાવત (૩) અનાગત પુલ પરાવર્ત. વચન પણ ત્રણ પ્રકારના કહ્યાં છે–(૧) એકવચન
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स्थानागसूत्रे ૨૦થે अथवा त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तं तद्यथा-स्त्रीवचनं, पुंवचनं, नपुंसकवचनम् । अथवा त्रिविधं वचनं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अतीतवचनं, प्रत्युत्पन्नवचनं अनागतवचनम् ॥सू०६२॥
टीका-'तिविहे काले ' इत्यादि । कलनं कालः परिच्छेदः । यद्वा-- कल्यते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कालः । स त्रिविधस्तथाहि-अतीतः, अतीतः, अतिशयेन इतः-गतः-अतीतः - व्यतीतः वर्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः । पतिसम्मति उत्पन्नः प्रत्युत्पन्नः-वर्तमान इत्यर्थः । अनागतः-न आगतः-अनागत:- . वर्तमानत्वमप्राप्तः भविष्यनित्यर्थः । कालसामान्यं त्रिधात्वेन प्रोच्य साम्मतं वचन, अथवा इस रूप से भी बचन तीन प्रकार का कहा गया हैस्त्रीवचन, पुंवचन और नपुंसकवचन अथवा-अतीतवचन, वर्तमानवचन
और अनागतवचन के भेद से भी वचन तीन प्रकार का कहा गया है द्रव्यों के रूप के परिवर्तन कराने में जो निमित्त कारण होता है वह व्यवहार काल है और वर्तमानलक्षण जिसका होता है वह निश्चय काल है। कहा भी है-" दवपरिवहरूंवो" इत्यादि । ___टीकार्थ-यही बात टीकाकारने "कलनं कालः परिच्छेदः यद्वा कल्यते परिच्छिद्यते वस्तु अनेन इति कालः" इस व्युत्पत्तिसे प्रदर्शित की है जो काल वर्तमानता को अतिक्रान्त कर चुका है उस काल का नाम अतीत -भूत काल है, जो वर्त रहा है वह वर्तमान काल है तथा जो वर्तमानता को अप्राप्त है वह भविष्यत् काल है इस तरह से काल सामान्य के भेदों का कथन करके अब सूत्रकार उनके भेदों के भेदों का कथन करते (૨) દ્વિવચન અને (૩) બહુવચન અથવા વચનના આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર ५८-५९ छ (1) श्रीवयन, (२) पुपयन मन (3) नस क्यन अथवा (१) मतीत क्यन (२) पतमान क्यन अने मनात क्यनना थी पर વચનને ત્રણ પ્રકાર કહ્યાં છે. દ્રવ્યોના રૂપમાં પરિવર્તન કરાવવામાં જે નિમિત્ત કારણું હોય છે, તેનું નામ વ્યવહાર કાળ છે અને વર્તમાન ક્ષણજેની હોય છે એવા કાળને નિશ્ચયકાળ કહે છે. કહ્યું પણ છે કે– ___“दव्वपरिवट्टरूवो" त्यादि ।
साथ-2 पतरे "कलन कालः परिच्छेदः यद्वा-कल्यते परिच्छिद्यते यस्तु अनेन इति काल." मा व्युत्पत्ति द्वारा ४८ ४ी छ. २१ पत:માનતાને કરી ચુક્યા છે-વ્યતીત કરી ચુક્યું છે તે કાળને અતીતકાળ અથવા ભૂતકાળ કહે છે. જે કાળ વત (ચાલી), રહ્યો છે તેને વર્તમાનકાળ કહે છે, તથા જે વર્તમાનતાને અપ્રાપ્ય છે એવા કાળને અનાગત અથવા ભવિષ્યકાળ
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सुधाटोको, स्था० ३ ० ४ सू० ६३ कोल-वैवनप्ररूपणम्
२०५ तभेदांत्रिधा विभजमानआह–'तिविहे समए ' इत्यादि समयादयोऽवसर्पिणीपर्यन्ताः कालभेदा अत्रत्य-द्विस्थान चतुर्थो देशकगतसप्तत्रिंशत्तमसूत्रवद् व्याख्येया। अथावसर्पिण्या अप्युपरि यः कालभेदस्त प्ररूपयन्नाह-' तिविहे-पोग्गलपरियट्टे' इत्यादि, पुद्गलानां-रूपि द्रव्याणामाहारकवर्जितानामौदारिकादिप्रकारेण ग्रहणात् एकजीवापेक्षया परिवर्तनं सामस्त्येन स्पर्श : पुद्गलपरिवर्तः, स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः । अयं चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूप इति । पुद्गलपरिवर्तस्य विस्तरतो विवरणमनुत्तरोपपातिकसूत्रस्य मत्कृतायामर्थहुए कहते हैं-"तिविहे समए" इत्यादि-समय से लेकर अवसर्पिणी तक के कालभेद यहां के द्विस्थानक के चौथे उद्देशक के २७ वे सूत्र में कहे गये अनुसार समझना चाहिये। ___अयं सूत्रकार यह कहते हैं कि अवसर्पिणी के ऊपर भी काल का भेद है-जो इस प्रकार से है-"तिविहे पोग्गलपरिय? " इत्यादि, आहारवजित रूपि द्रव्यों का औदारिक आदि प्रकार से एक जीव द्वारा जो क्रमशः ग्रहण होते २ जब सम्पूर्णरूप से ग्रहण हो लेता है वह पुद्गल परावर्त है इसमें गृहीत रूपिद्रव्य का ग्रहण गिनती में नहीं आता है इस तरह से होते २.जितने काल में यह हो जाता है उतने काल का नाम एक पुद्गलपरावर्त है यह पुद्गल परावर्त अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसपिणीरूप होता है पुद्गलपरावर्त का विस्तार से स्वरूप जानने वालों को अनुत्तरोपपातिक सूत्र की अर्थ કહે છે. આ રીતે કાળ સામાન્યનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના ઉપसहानुं ४थन ४२ छ-"तिविहे समए " त्या:
સમયથી લઈને અવસર્પિણી પર્યન્તના કાળભેદનું નિરૂપણ દ્રિસ્થાનકના ચોથા ઉદ્દેશાના ૨૭ મા સૂત્રમાં આપ્યા અનુસાર અહીં પણ સમજી લેવું.
હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે અવસર્પિણીની ઉપર પણ પત્રલ પરાવર્ત નામને કાળભેદ છે. હવે તે કાળભેદની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે.
"तिविहे पोग्गलपरिय?" त्या:
આહારક સિવાયના રૂપિદ્રનું દારિક આદિ પ્રકારે એક જીવ દ્વારા ક્રમશઃ ગ્રહણ કરાતા જ્યારે સંપૂર્ણ રૂપે ગ્રહણ થઈ જાય છે, એટલા કાળન નામ પુલ પરાવર્ત છે. તેમાં ગૃહીત રૂપી દ્રવ્યનું ગ્રહણ ગણતરીમાં આવતું નથી. આ પ્રમાણે થતાં થતાં જેટલા કાળમાં તે થઈ જાય છે એટલા કાળનું નામ એક પુદ્ગલ પરાવર્તે છે. તે મુદ્દલ પરાવર્ત અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણ રૂપ હોય છે અનુત્તરપપાતિક સૂત્રની અર્થાધિની ટીકામાં પુલ
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स्थानासो बोधिनी टीकायामवलोकनीयम् । एते च समयादयः पुद्गलपरिवर्त्तान्ताः स्वरूपेण वहवोऽपि तत्सामान्यलक्षणमेकमर्थ माश्रित्यैकवचनान्ततयोक्ताः । भवन्ति चैकादिवर्थेष्वेकवचनादीनीत्येकवचनादि प्ररूपणामाह-'तिविहे ' इत्यादि, त्रिविधंत्रिप्रकारं वचनं प्रज्ञप्त, तदेवाह-एकवचनम् एकोऽर्थ उच्यतेऽने नेत्येकवचनम् , एका-उक्तिर्वा एकवचनं, यद्वा-एकस्यार्थस्य वचनमेकवचनम् । एवं द्विवचनं, वहुवचनं चापि व्याख्येयम् । तदुदाहरणं यथा-संयतः, संयती, संयताः।" अथवेत्यादि सूत्रगतस्न्यादिवचनोदाहरणं, तत्र स्त्रीवचनं यथा-'क्षमा, दया, अहिंसा इत्यादि, पुंवचनं यथा-धर्मः, त्यागः, पुरुपः, इत्यादि, नपुंसकवचनं यथा बोधिनी टीका देखनी चाहिये वहां इस विषय का मैंने विस्तृतरूप से विवेचन किया है समय से लगाकर पुद्गल परिवर्तक के काल यद्यपि स्वरूप से बहुत हैं-तो भी सामान्यरूप एक अर्थ को आश्रित करके यहां सूत्रकार ने इन सब में एकवचन का प्रयोग किया है एक आदि अर्थों में एकवचन आदि का प्रयोग होता है अतः इसी विचार को लेकर अब सूत्रकार एकवचन आदि की प्ररूपणा करते हैं-(तिविहे) इत्यादि जिस वचन से एक अर्थ कहा जाता है वह एकवचन है अथवा एक उक्ति का नोम एकवचन है अथवा एक अर्थ का कहना एकवचन है इसी प्रकार से द्विवचन और बहुवचन के संबंध में भी जानना चाहिये जैसे " संयत" यह एकवचन है " संयती" यह द्विवचन है और "संयताः" यह बहुवचन है अथवा स्त्रीलिङ्ग के शब्दों का प्रयोग करना यह स्त्रीवचन है जैसे क्षमा, दया, अहिंसा आदि वचन पुल्लिङ्ग शब्दों પરાવર્તનું સ્વરૂપ વિસ્તારપૂર્વક સમજાવવામાં આવ્યું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે વાંચી લેવું. સમયથી લઈને પુલ પરાવર્ત પર્યંતના અનેક કાળભેદ હોવા છતાં, સામાન્ય રૂપે એક અને આશ્રિત કરીને અહીં સૂત્રકારે તે બધામાં એકવચનને પ્રયોગ કર્યો છે એક આદિ અર્થોમાં એક વચન આદિને પ્રયોગ થાય છે, તે સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂવકાર વયનની પ્રરૂપણ ४३ छ-" तिविहे" त्याह
જે વચનથી એક અર્થ (વસ્તુ) નું કથન થાય છે તે વચનનું નામ એકવચન છે. અથવા એક ઉક્તિનું નામ એકવચન છે. અથવા એક વસ્તુને નિર્દેશ કરનારૂ એકવચન છે. એ જ પ્રમાણે દ્વિવચન અને બહુવચન વિષે પણ सभा.भ. “संयत" मेवयन छ, “संयतौ" द्विवयन छे भने “संयताः" એ બહુવચન છે અથવા સ્ત્રીલિંગવાળા શબ્દનો પ્રયોગ કરે તે સીવચન છે, જેમકે ક્ષમા, દયા, અહિંસા આદિ વચન. પુલિંગ (નરજાતિના) શબ્દોને
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सुधा डीका स्था०३ उ० ४० ६४ पर्यायान्तर निरूपणम्
'ज्ञानं, ध्यानं, दानम् ' इत्यादि, तथा अतीतादिरूपं वचनत्रयं यथा-अभूत्, भवति, भविष्यतीति ॥ म्रु०६३ ॥
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वचनं हि जीवपर्यायः, तदधिकारात् तत्पर्यायान्तराणि त्रिस्थान के अवतारयनेकोनविंशति सूत्राण्याह
मूलम् — तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता, तं जहा णाणपण्णत्रणा, दंसणपण्णवणा, चरित्रपण्णवणा १ । तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा - णाणसम्मे, दंसणसम्मे, चरित्तसम्मे२ । तिविहे उवघाए पण्णत्ते, तं जहा - उग्गमोवघाए, उप्पायणोवघाए, एसणोवधाए ३ । एवं विसोही ४ । तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं जहाजाणाराहणा, दंसणा राहणा, चरिताराहणा ५ । णाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - उक्कोसा, सज्झिमा, जहन्ना ६ । एवं दंसणाराहणा वि७ | चरिताराहणा वि ८ । तिविहे संकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा णाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, चरितसंकिले से ९, एवं असंकिले से वि १० । एवमइक्कमेवि ११, वइक्कमे वि १२, अइयारे वि१३, अणायारे वि १४ । तिण्हं अइकमाणं आलो
का प्रयोग करना यह पुंवचन है जैसे धर्मत्याग, पुरुष आदि वचन नपुंसकलिङ्ग शब्दों को प्रयोग करना यह नपुंसकवचन है जैसे ज्ञान, ध्यान, दान इत्यादि शब्द इस प्रकार लिङ्गादिक के भेद से भी वचन ३ प्रकार के कहे गये है तथा "अभूत् भवति, भविष्यति " इत्यादिरूप से अतीतादि क्रिया के प्रतिपादक होने से अतीतादिवचन तीन प्रकार के कहे गये हैं || सू० ६३ ॥
प्रयोग उरखे। ते युवयन है. नेम धर्म, त्याग, पुरुष आदि शब्दो, नथुः સકલિંગના શબ્દોના પ્રયોગ કરવા તે નપુંસક વચન છે જેમકે જ્ઞાન, ધ્યાન દાન વગેરે શબ્દો. આ રીતે લિંગાદિકના ભેદની અપેક્ષાએ વચનના ત્રણ ભેદ ह्या छे. मे ४ प्रमाणे "अभूत्, भवति, भविष्यति " इत्यादि ३पे अतीताहि ક્રિયાના પ્રતિપાદક હાવાથી અતીત વચન, વતમાન વચન, અને અનાગત વચનના ભેથી પણ ત્રણ પ્રકારનાં વચન કહ્યાં છે. ! સુ. ૬૩ ૫
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स्थानात्रे
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एजा, पडिक्कमेज्जा, निंदिज्जा, गरहिज्जा जाव पडिवज्जिज्जा, तं जहा णाणाइक्कमस्स, दंसणाइक्कमस्स, चरित्ताइक्कमस्स १५| एवं वइक्कमस्स वि १६, अइयारस्स वि १७, अणायारस्स वि १८ । तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा आलोयणारिहे, पडि. कमणार, तदुभयारि ९९ ॥ सू० ६४ ॥
छाया-त्रिविधा प्रज्ञापना मज्ञप्ता, तद्यथा - ज्ञानप्रज्ञापना, दर्शनप्रज्ञापना, चारित्र प्रज्ञापना१। त्रिविधं सम्यक् प्रज्ञप्तं, तद्यथा - ज्ञानसम्यक् दर्शनसम्यक्, चारित्रसम्यक् २। त्रिविध उपघातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - उद्गमोपघातः, उत्पादनोपघातः एपणोपघातः ३ । एवं विशोधिः ४ । त्रिविधा आराधना प्रज्ञप्ता - तद्यथा - ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना चारित्राराधना ५ । ज्ञानाराधना त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - उत्कृष्टा, मध्यमा, जघन्या ६ । एवं दर्शनाराधनाऽपि ७ | चारित्राराधनाऽपि ८ । त्रिविधः संक्लेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानसंक्लेशः, दर्शनसंक्लेशः, चारित्रसंक्लेश. ९ । एवमसंक्लेशोऽपि १० । एवमतिक्रमोऽपि ११, व्यतिक्रमोऽपि १२, अतिचारोऽपि १३, अनाचारोऽपि १४ । त्रीन् अतिक्रमान् आलोचयेत्, प्रतिक्रमेत्, निन्देत् गर्हेत् यावत् प्रतिपद्येत, तद्यथा - ज्ञानातिक्रमं दर्शनातिक्रमं चारित्रातिक्रमम् १५ । एवं व्यतिक्रममपि १६, अतिचारमपि १७ अनाचारमपि १८ । त्रिविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - आलोचनाई, प्रतिक्रमणाहं तदुमयाईम् १९ ।। सु० ६४ ।।
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टीका - ' तिविहा ' इत्यादि, सूत्रकोनविंशतिः सुगमा | नवरं - प्रज्ञापना - भेदादि कथनम् । सा त्रिविधा - ज्ञानपज्ञापना - आभिनिवोधिकादिज्ञानभेदपञ्चक
वचन जीव की पर्यायरूप है इसलिये इस बात को लेकर अब सूत्रकार उसके पर्यायान्तरों को त्रिस्थानक में उतारते हुए १९ सूत्रों को कहते हैं - (तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता ) इत्यादि ।
सुत्रार्थ - प्रज्ञापना तीन प्रकार की कही गई है जैसे ज्ञानप्रज्ञापना, दर्शनप्रज्ञापना और चारित्रप्रज्ञापना, इनमें आभिनियोधिक आदि पांच
વચન જીવની પર્યાયરૂપ છે, તેથી એ વાતના આશ્રય લઇને હવે સૂત્રકાર તેના પર્યાયાન્તરાનું ત્રિસ્થાનકમાં પ્રતિપાદન કરનારા ૧૯ સૂત્ર કહે છે— " तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता " त्याहि
સૂત્રા–પ્રજ્ઞાપના ત્રણ પ્રકારની કહી છે-(૧) જ્ઞાન પ્રજ્ઞાપના, (૨) દેન પ્રજ્ઞાપના અને (૩) ચારિત્ર પ્રજ્ઞાપના. આભિનિષેાધિક આદિ પાચ જ્ઞાનેનું પ્રતિપાદન
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सुधाटीका स्था०३ उ० सू० ६४ पर्यायान्तरनिरूपणम्
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आहारशय्यासना
प्रतिपादनस् दर्शनप्रज्ञापना १ चक्षुरादिदर्शन- चतुष्ककथनम् । चारित्रम ज्ञापना - सामायिकादि चारित्रपश्ञ्चक - प्ररूपणस् 'तिविहे सम्मे' इत्यादि । सम्यक् - सम्-अञ्चतीति सम्यक - अश्पिरीतं मोक्षसिद्धि प्रतिप्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः, तत्त्रिविधम् — ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् २ । उपहननमुपघातः दीनामकल्पनीयता, सत्रिविधः - उद्गमोपघातः, उत्पादनोपघातः, एषणोपघातः । तत्र - उद्गमनम् - उद्गमः पिण्डाद्युत्पाद, तस्याधाकर्मों द्देशिकादया षोडशदोषाः शास्त्रसिद्धा । अत्र चाभेदविवक्षया उद्धमदोषा एवोगसशन्टेन कथिताः अतस्तेनोद्गमेन उपघातः- आहारा देव ल्पनीयताकरणम् एवमन्यावपि द्वौ भेदौ
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ज्ञानोंका प्रतिपादन करना यह ज्ञागज्ञापना है चक्षुरादि चार दर्शन का कथन करना यह दर्शनप्रज्ञापना है सामायिक आदि चारित्रपञ्चक का कथन करना यह चारित्रप्रज्ञापना है (तिविहे सम्मे) इत्यादि - सम्यक् तीन प्रकार का कहा गया है अर्थात् मोक्षसिद्धि के प्रति अनुकूल जो होता है वह सम्यक्त्व है, ऐसा वह सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन एवं चारित्र रूप कहा गया है, उपघात आहार, शय्यासन आदि की जो अकल्पनीयता है द्र होता है यह उपघात उद्गमोपघात, उत्पादनोपघात, और एषणोपघात के भेद से तीन प्रकार का होता है पिण्डादि के उत्पाद का नाम उद्गम है इस के आधाकर्म औदेशिक आदि १६ दोष शास्त्रप्रसिद्ध हैं। यहां अभेद विवक्षा से उद्गमदोष ही उद्गम शब्द से कहा गया है इस उद्गम से जिस आहारक का उपपात हो वह उद्गमोपघात कहा गया है अर्थात् आहारादिक में अकल्पनीयता इस उद्ग
કરવું' તેનુ નામ જ્ઞ'નપ્રજ્ઞાપના છે ચક્ષુ આદિ પાંચ દનાનું પ્રતિપાદન કરવુ તેનુ' નામ દર્શન પ્રજ્ઞાપના છે. સામાયિક આદિ પાંચ ચારિત્રનુ` કથન કરવુ" તેનુ' નામ ચારિત્ર પ્રજ્ઞાપના છે. "fafata" Scaleસમ્યક્ ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે ( મેાક્ષસિદ્ધિમાં જે અનુકૂળ થાય છે તેને સમ્યકત્વ કહે છે એવુ સમ્યકત્વ જ્ઞાન, દન અને ચારિત્રરૂપ કહ્યુ છે. ઉપઘાત આહાર, શય્યાસન આદિની અકલ્પનીયતા રૂપ ઉપઘાત હાય છે તે ઉપઘાતના ત્રણ ભે નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે~~
(१) भोपघात, (२) उत्पादनात अने (3) शेषशेोपधात पिंडाहिना ઉત્પાદનુ નામ ઉદ્ગમ છે તેના આધાક, ઔદ્દેશિક આદિ ૧૬ દેષ શાસ્ત્રપ્રસિદ્ધ છે. અહીં અભેની અપેક્ષાએ ઉદ્ગમ પદથી ઉદ્ગમદોષાને જ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ ઉદ્ગમપૂર્વક જે આકારાદિના ઉપઘાત થાય છે તેને ઉમેાપઘાત
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रथानामसूत्रे
विज्ञेयौ, नवरं - उत्पादनमुत्पादना-संपादनं गृहस्थादाहारादेरुपार्जनम्, उत्पादनादोपख्या तथा उपघातः धात्रीखादिदो पैर्दुष्टता - उत्पादनोपघातः । उत्पादनादोपाः षोडशशास्त्रप्रसिद्धाः । एषणा - दात्रा दीयमानाहारादेर्ग्रहणम् । एपणाशब्देन तद्विपया दोषा गृह्यन्ते, ते शङ्कितादय उभयसमुत्थाः शास्त्र प्रसिद्धा दश, तद्रूपैपणया उपघातः- दुष्टता - एषणोपघातः ३ । एवं पूर्वोक्तालापकवद् विशोधिरपि ' विज्ञेया । तत्र विशोधिः उद्गमादिदोषैः तेषामविद्यमानतया वा त्रिशुद्धिः-निर्दोषता । सा उत्पादनेपणाभेदात्रिविधा ४ । सा च ज्ञानाद्याराधनया भवतीत्याराधना दोष से आती है इसी प्रकार से अन्य दो भी भेद इसके जानना चाहिये उत्पादनका नाम उत्पादना है अर्थात् गृहस्थसे आहार आदिका उपार्जन करना उत्पादना है यह उत्पादना दोषरूप होती है इस दोपरूप उत्पादनासे जो उपघात है वह उपघात दोष है धात्रीत्व आदि दोषों से जो दुष्टता है वह उत्पादनोपघात है उत्पादनादोष शास्त्र में १६ कहे गये हैं जो प्रसिद्ध हैं। दाता के द्वारा दीयमान आहारादि वस्तुका ग्रहण एषणा है एषणाशन्दसे यहां तद्विषयक दोष गृहीत हुए हैं ये शङ्कित आदिरूप होते हैं और उभय समुत्थ होते हैं ये संख्या में १० हैं शास्त्रों में लिखे हुए हैं। इस एषणा से जो उपघात है दुष्टता है, वह एषणोपघात है इसी तरह पूर्वोक्त आलापक की तरह विशोधि भी तीन प्रकार की जाननी चाहिये अर्थात् उद्गमादि दोषों की अविद्यमानता से जो आहारादिक की विशुद्धिनिर्दोषता है यह विशोधि है यह विशोधि भी उद्गम, उत्पादना और एषणा की विशुद्धि से उद् गमविशोधि, उत्पादनाविशोध और एष
કહે છે. એટલે કે આ ઉમદાષાને લીધે આહારાદિકમાં અકલ્પનીયતા આવી જાય છે. એંજ પ્રમાણે તેના અન્ય બે ભેક વિષે પશુ સમજવું, ઉત્પાદનને ઉત્પાદના કહે છે, એટલે કે ગૃહસ્થ પાસેથી આહારાદિનું ઉપાર્જન કરવું તેનુ નામ ઉત્પાદના છે. આ ઉત્પાદના દોષરૂપ પણ હાઈ શકે છે ધાત્રીત્ર આદિ ૧૬ પ્રકારના ઉત્પાદના દોષ શાસ્ત્રમાં કહ્યાં છે. આ ધાત્રીત્વ આદિ દોષાને લીધે આહારાદિકામાં જે કૃષિતપણું આવે છે તેને ઉત્પાદને પઘાત કહે છે. આ ઉત્પાદના ઢાપાવાળા આહાર વણુ સાધુઓને કલ્પતે નથી. દાતાના દ્વારા અપાતી આહારાદિ વસ્તુના ગ્રહણુને એષણા કહે છે. એષણા પટ્ટ દ્વારા અહીં એષણા સંબધી દેાષા ગ્રહણ કરાયા છે શાઓમાં તેના શક્તિ આદિ ૧૦ ભેદ કહ્યા છે. આ એષણાપૂર્વકના જે ઉપઘાત ( દુષ્ટતા ) છે તેનું નામ એષોાપાત છે એ જ પ્રમાણે વિશેાધિ ( વિશુદ્ધિ) પણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે. ઉમાદિ દોષોને સદૂભાવ ન હેાવાથી આહારાદિકમાં જે નિર્દોષતા જળવાય છે તેને વિશેાધિ
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सुवा टीका स्था० ३ ० ४ ० ६४ पर्यायान्तरनिरूपणम्
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सूत्रचतुष्टयमाह -- ' तिविहा आराहणा ' इत्यादि, आराधना त्रिविधा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा । तत्र - ज्ञानस्य - श्रुतस्य आराधना कालाध्ययनादिष्वष्टस्वाचारेश प्रवृत्त्या निरतिचारतया परिपालना ज्ञानाराधना, एवं दर्शनस्य आराधना- निःश ङ्किताद्याचारेषु प्रवृत्या निरतिचारपरिपालना दर्शनाराधना, चारित्रस्य आराधनासमितिगुप्त्याद्याचारप्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना चारित्राराधना ५ । ज्ञानाराधना-उत्कृष्ट मध्यमजघन्यभेदेन त्रिविधा ६ । एवम् अनेनैव उत्कृष्ट-मध्यमणाविशोधि इस तरह से तीन प्रकार की है यह विशोधि ज्ञानादि की आराधना से होती है अतः अब सूत्रकार आराधना संबंधी सूत्रचतुष्टय का कथन करते हैं - ( तिविहा आराहणा ) इत्यादि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से आराधना तीन प्रकार की है इनमें ज्ञान की श्रुतज्ञान की जो आराधना है वह ज्ञानाराधना है यह ज्ञानारोधना कालाध्ययन, विनय आदिरूप आठ आचारों में निरतिचार पूर्वक प्रवृत्ति करने से पालित होती है इसी तरह से निःशंकित आदि ओठ आचारों में निरतिचार पूर्वक प्रवृत्ति करना इसका नाम दर्शनाराधना है | दर्शन की आराधना निःशंकित, निष्कांक्षित आदि जो आठ अंगरूप आचार कहे गये हैं उनमें प्रवृत्ति करने से उनकी अतिचार रहित पालन करने से होती है चारित्र की आराधना समिति, गुप्ति आदि आचारों में निरतिचारपूर्वक प्रवृत्ति करने से होती है ५ ज्ञोनाराधना उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की होती है६ કહે છે. ઉદ્ભ, ઉત્પાદના અને એષણુાની વિશુદ્ધિની અપેક્ષાએ તેના ત્ર अहार पडे छे–(१) उद्गम विशेोधि, (२) उत्पादना विशेोधि भने ( 3 ) शेषया વિશેાધિ. આ વિશેષધિ જ્ઞાનાદિની આરાધનાથી સંભવિત બને છે. તેથી હવે સૂત્રકાર आराधना संबंधी सूत्रयतुष्टयनु' स्थन रे छे - " तिविहा आरोहणा " त्याहिજ્ઞાનની, દર્શનની, અને ચારિત્રની, એમ ત્રણ પ્રકારની આરાધના કહી છે. શ્રુતજ્ઞાનની જે આરાધના છે તેને જ્ઞાનારાધના કહે છે. કાલાધ્યયન, વિનય આદિ રૂપ આઠમાચારાની નિરતિચારપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાથી જ્ઞાનારાધનાનું પાલન થાય છે. એ જ પ્રમાણે નિઃશકિત આદિ આઠ આચારામાં નિરતિચાર પૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવી તેનુ નામ દનારાધના છે. નિશ'તિ, નિકાંક્ષિત આદિ જે આઠ અ ગરૂપ આચાર કહ્યા છે, તેમાં પ્રવૃત્તિ કરવાથી તેમનુ નિરતિચાર પૂર્ણાંક પાલન કરવાથી દશનારાધના થઇ શકે છે. સમિતિ, ગુપ્તિ આદિ આચા રામાં નિરતિચારપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાથી ચારિત્રની આરાધના થાય છે. ા પ ા જ્ઞાનારાધના ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યપ અને જઘન્યના ભેદથી ત્રણ, પ્રકારની હાય છેç, એજ
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धानाङ्गसूत्रे जघन्यभेदेन दर्शनाराधनाऽपि त्रिविधा ७ । चारित्राराधनाऽपि विविधा ८। संक्लेशसूत्रम्-'तिविहे संकिले से' इत्यादि, संक्लेशः-प्रतिपतनलक्षणः संक्लिश्यमानपरिणामनिवन्धनः ज्ञानदर्शनचारित्रभेदेन त्रिविधः९ । एवम्-संक्लेशमंत्रवत् असंक्लेशः-ज्ञानदर्शनचारित्रशुद्धिलक्षणो विशुध्यमानपरिणामहेतुकः १०। एवम्अनेनैव प्रकारेण ज्ञानदर्शनचारित्रभेदेन अतिक्रमोऽपि११, व्यतिक्रमोऽपि१२, अतिचारोऽपि१३,अनाचारोऽपि प्रत्येकं त्रिविधः। तत्राधाकर्माश्रित्यातिकमादीनां चतुर्णां इसी प्रकार से दर्शनाराधना भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकारकी होती है, चारित्राराधना भी इसी तरह से तीन प्रकार की होती है ८, "तिविहे सकिलेसे" इत्यादि-संहिश्यमान परिणाम है कारण जिसका ऐसा है जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र जीव का पतन है वह संक्लेश है यह संक्लेश ज्ञानसंक्लेश, दर्शनसंक्लेश और चारित्रसंक्लेश के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है इसी तरह से असंक्लेश भी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धिरूप होता है तथा यह असंक्लेश विशुद्धमाल परिणाम हेतुक होता है अर्थात् असंक्लेश के हेतु क्षण २ में विशुद्ध होते हुए परिणाम होते हैं। इसी तरह से ज्ञानातिक्रम, दर्शनातिकम और चारित्रातिक्रन, के भेदसे अतिकम भी तीन प्रकार का होता है ज्ञान का अतिक्रम ज्ञानातिक्रम है इसी प्रकार से दर्शनातिक्रम और चारित्रातिकम को भी जानना चाहिये व्यतिक्रम भी तीन प्रकार का है अतिचार भी तीन प्रकार का है और अनाचार भी तीन प्रकार को है आधाकर्म को आथित करके अतिक्रम आदि પ્રમાણે દર્શનારાધના પણ ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યમ અને જઘન્યના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની કહી છે એ જ પ્રમાણે ચારિત્રારાધનાના પણ ત્રણ ભેદ સમજવા.
"तिविहे संकिलेसे" त्यात
સંકિલશ્યમાન પરિણામ જેના કારણરૂપ છે એવાં જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રમાથી જીવનું જે પતન થાય છે તેનું નામ સંકલેશ છે. તે સંક્લેશના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે-જ્ઞ ન સકલેશ, દર્શન અંકલેશ અને ચારિત્ર સંકલેશ, એ જ પ્રમાણે અસ કલેશના પણ ત્રણ પ્રકાર પડે છે અસંકલેશ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રની શુદ્ધિરૂપ હોય છે, તથા તે અસંકલેશ વિશુદ્ધમાન પરિણામ હતક હોય છે, એટલે કે અસંકલેશના હેતુ (કારણે) ક્ષણે ક્ષણે વિશુદ્ધ પરિણામને પ્રાપ્ત કરતાં રહે છે એ જ પ્રમાણે જ્ઞાનાતિકમ, દર્શનાતિકમ અને ચાગ્નિાતિક્રમના ભેદથી અતિક્રમ પણ ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે જ્ઞાનના અતિક્રમને જ્ઞાનાતિક્રમ કહે છે. એ જ પ્રમાણે દર્શનાતિકમ અને ચારિત્રાતિક્રમ વિષે પણ સમજવું. વ્યતિક્રમ પણ ત્રણ પ્રકારના છે, અતિચાર પણ ત્રણ પ્રકારના છે અને અનાચાર પણ ત્રણ પ્રકારના છે. આધાકર્મને આશ્રિત કરીને અતિક્રમ
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सुंधाटीका स्था० ३ उ० ४ ० ६४ पर्यायानन्तरनिरूपणम्
स्वरूपं यथा-आधा कर्माहारायामन्त्रणस्य स्वीकरणेऽविचारः १, तदग्रहणार्थं गमने व्यविक्रमः २, तद्ग्रहणेऽतिचारः ३, तस्य गिलने चानाचारो ४ भवति । उक्तञ्च " अहाकम्मामंतण, - पडिसुणमाणे अइकमो होर १ । पचभैया इक्कम २, गहिए तइ ३ एयरो गिलिए ४ ॥ १ ॥ छाया - आधाकर्मामन्त्रण प्रतिश्रवणेऽतिक्रमो भवति ।
पदभेदादौ व्यतिक्रमः गृहीते तृतीयः इतरो गिलिते " ॥ १॥ इति । इत्थमेवोत्तरगुणरूपचारित्रस्य चत्वारोऽपि वाच्याः । एतदुद्देशेन ज्ञानदर्शनयोस्वदुपग्रहारिद्रव्याणां भण्डोपकरणादीनां मुनिवेषस्य चोपघाताय मिथ्यादृष्टीनां प्रभावनार्थे वा निमन्त्रणप्रतिश्रवणादिभिश्चतुर्भिरतिक्रमादयश्चत्वारोऽप्यायोजनीया इति १४ । 'विष्हं अइकमाणं' इत्यादि, अत्र प्राकृतत्वाद्वितीयार्थे पप्ठी, एवमग्रेऽपि।
चारों का स्वरूप इस प्रकार से समझना चाहिये - आधाकर्म दोष से दूषित ओहारादिक का आमन्त्रण स्वीकार करना इसमें अतिक्रम लगता है उसे लाने के लिये गमन करने में व्यतिक्रम दोष लगता है उसे ग्रहण करने में अतिचार लगता है और उसे खालेने में अनाचार दोप लगता हैं। कहा भी है- (आहाकम्माण ) इत्यादि ।
इसी तरह से उत्तर गुणरूप चारित्र के संबंध में भी ये चार कहना चाहिये । इस उद्देश से ज्ञान और दर्शन के उपकारी द्रव्यरूप भाण्ड उपकरण आदिको के और मुनिवेष के उपघात करने के लिये अथवा मिथ्यादृष्टियों की प्रभावना करने के लिये निमंत्रण स्वीकार करने आदि रूप चारों कर्मों से अतिक्रम आदि चारों लगते हैं ऐसा लगाना चाहिये १४ ।
"तिपहं अइकमाणं " इत्यादि अतः तीन अतिक्रमों की आलोचना આદિ ચારેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે સમજવું. આધાકમ દોષથી દૂષિત થયેલા આહારાદિકનુ આમ ત્રણ સ્વીકારવાથી અતિક્રમ લાગે છે, તેને લેવા માટે ગમન કરવામાં વ્યતિક્રમ ઢોષ લાગે છે, તેને ગ્રહણુ કરવામાં અતિચાર લાગે છે અને तेने या सेवाथी अनाचार होष लागे छे. पण छे ! " आहाकम्पामतण " त्याहि એ જ પ્રમાણે ઉત્તર ગુણુરૂપ ચારિત્રના સબધમાં પણ આ ચારેનું કથન થવું જોઈએ. આ ઉદ્દેશથી જ્ઞાન અને દનમાં ઉપકારી દ્રવ્યરૂપ ભાંડ, ઉપકરણુ આદિને અને મુનિવેષને ઉપઘાત કરવા નિમિત્તે અથવા મિથ્યાદષ્ટિચેની પ્રભાવના કરવાને માટે નિમત્રજીના સ્વીકાર આદિ રૂપ ચારે કામેાથી અતિક્રમ આદિ ચારે દોષ લાગે છે, એમ સમજવું. !! ૧૪ ૫ " तिन्ह अइकमाण " इत्याहि
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स्थानासूत्रे
तेन त्रोन् अतिक्रमानित्यर्थः, आलोचयेत् - गुरवे निवेदयेत्, प्रतिक्रामेत् - मिथ्यादुष्कृतदानादिपूर्वकं ततो निवर्तेत, निन्देत् स्वसाक्षिकं गर्हेत गुरुसाक्षिकम्, जाव' इति यावच्छन्देन - विउट्टेज्जा, विसोहेज्जा, अकरणताए अन्सुट्टेज्जा, आहार aataम्मं पायच्छित्तं ' इति संग्राह्यम् ।
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छाया - विकुट्टयेत् विशोधयेत् अकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठेत, यथां तपः कर्म प्रायश्चित्तम् । तत्र विकुट्टयेत् - तदध्यवसायं छिन्द्यात्, विशोधयेत् - अतिक्रमादिजन्य पापप्रायश्चित्तपूर्वकमात्मनश्चास्त्रिस्य चाविचारमलक्षालनेनात्मशुद्धिं कुर्यात्, अकरणतया - पुनरकरणप्रतिज्ञया अभ्युत्तिष्ठेत - प्रयतेत, तथा यथार्ह - यथायोग्यं पापाकरना चाहिये ऐसा यहां अर्थ करना चाहिये आलोचना का अर्थ गुरु से निवेदन करना अर्थात् अतिक्रमों को गुरू के समक्ष कहना - मिथ्यादुष्कृतदानादिपूर्वक उनसे हट जाना अपनी साक्षी से उनकी निन्दा करना और गुरु की साक्षी से उनकी गर्दा करनी यह लगे हुए अतिक्रमादिकों को टालने का साधन है । " यावत् प्रतिपद्येत " में आये हुए यावत् शब्द से "विट्टेज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयोए अभुट्ठेज्जा, आहारियं तवोकम्मं प्रायश्चित्तं " यह पाठ संगृहीत हुआ है । अतिक्रम आदि के अध्यवसाय का छेदन करना विकुट्टन है, अतिक्रम आदि जन्य पापों के प्रायश्चित्त करने पूर्वक अपने चारित्र के अतिचाररूप मल के प्रक्षालन से आत्मशुद्धि करना विशोधना है, “अब पुनः मैं ऐसा नहीं करूंगा " इस तरह से पुनः अकरण की प्रतिज्ञा करना अकरणता है तथा पाप के अनुरूप अनशन आदिरूप अथवा निर्विकृति आदि रूप
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તેથી ત્રણે પ્રકારના અતિક્રમાની આલેાચના કરવી જોઇએ. આલેાચના એટલે ગુરુની સમક્ષ અતિક્રમાદિનુ નિવેદન કરવું તે-મિથ્યાદુષ્કૃતાનાદિપૂર્વક તે દોષોથી મુક્ત થવું, પેાતાની સાક્ષીએ તે અતિક્રમની નિન્દા કરવી, ગુરુની સાક્ષીએ તે અતિક્રમે ની ગાઁ કરવી, એ જ અનિકાદિકામાંથી છુટવાના साधना छे " यावत् प्रतिपद्येत्” मा सूत्रमां वपरायेला “ यावत् ( पर्यन्त ) पहथी अह "विट्टेज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अभुट्टेज्जा, आहारियं तवो. कम्मं पायच्छित्तं " या पाठ संगृहीत थयो छे.
અતિક્રમ આદિના અધ્યવસાયનું છેદન કરવુ તેનું નામ વિદ્યુત છે. અતિક્રમ આદિ જન્ય પાપાના પ્રાયશ્ચિતપૂર્ણાંક, પેાતાના ચારિત્રના અતિચાર રૂપ મળના પ્રક્ષાલન દ્વારા આત્મશુદ્ધિ કરવી તેનું નામ વિશેાધના (વિશુદ્ધિ ) છે. “હવે ફરી હુ એવું નહીં કરૂ ?' આ પ્રમાણે પુન. અકરણની પ્રતિજ્ઞા કરવી તેનું નામ અકરણુતા છે પાપને અનુરૂપ અનશન દિપ અથવા નિવિકૃતિ
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सुधा टीका स्था० ३ उ ४ सू० ६४ पर्यायान्तरनिरूपणम्
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नुरूपमित्यर्थः तपः कर्म - तपोऽनुष्ठानमनशनादिकं निर्विकृतिकादिकं वा - प्रायश्चित्तं पापप्रणाशक मनुष्ठानरूपं प्रतिपद्येत - स्वीकुर्वीत । तानेवाह - ज्ञानातिक्रमं चारित्रातिक्रमम् १५ । एबम् - अने नैवालाप केन व्यतिक्रममपि १६, अतिचारमपि १७ | अनाचारमपि आलोचयेत् यावत् प्रायश्चित्तं प्रतिपचैत १८ । पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा, प्रायश्चित्तम् उक्तञ्च -
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मायः पाप विजानीयात्, चित्तं तस्य विशोधनम् ॥ " इति । अनेन प्रायश्चित्तमिति शुद्धिरुच्यते, अत्र तद्विषयः शोधनीया तिचारोऽपि प्राय
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प्रायश्चित्त करना यह यह तपः कर्मप्रायश्चित्त है इन क्रियाओं के करने . से भी अतिक्रम आदि से जायमान दोषों की शुद्धि होती है इस तरह ज्ञानातिक्रम, दर्शनातिक्रम और चारित्रातिक्रम के भेद से अतिक्रम तीन प्रकार का हो जाता है, इसी तरह से ज्ञानव्यतिक्रम, दर्शनव्यतिक्रम, और चारित्रयतिक्रमके भेद से व्यतिक्रमतीन प्रकारका हो जाता है, ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार और चारित्रातिचार के भेद से अतिचार तीन प्रकार का हो जाता है इनके विषय में हुए अनाचार से अनाचार भी तीन प्रकोर का हो जाता है इन सब की आलोचना यावत् प्रायश्चित करने से गृहीत व्रतों की या दर्शन, ज्ञान चारित्र की शुद्धि होती है प्रायश्चित्त पाप का छेदक होता है तथा विशोधक होता है। कहा भी है - " प्रायः पापं विजानीयात्" इत्यादि । प्रायः नाम पाप का है और चित्त नाम शोधन का है इस पाप की शुद्धि जिससे होती है वह
આરૂિપ પ્રાયશ્ચિત કરવુ' તેનું નામ “યથા તપઃકમ પ્રાયશ્ચિત્ત ” છે. આ ક્રિયાઓ કરવાથી પણ અતિક્રમ આદિ જન્ય દોષાની શુદ્ધિ થાય છે આ રીતે જ્ઞાનતિક્રમ, દર્શનાતિક્રમ અને ચારિત્રાતિક્રમના ભેદથી અતિક્રમના ત્રણ પ્રકાર પડે છે, એ જ પ્રમાણે વ્યતિક્રમના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પડે છે, જ્ઞાનવ્યતિક્રમ, દશનવ્યતિક્રમ અને ચારિત્ર વ્યતિક્રમ. એજ પ્રમાણે અતિચારના પણ આ ત્રણુ પ્રકાર પડે છે–જ્ઞાનાતિચાર, દનાતિચાર અને ચારિત્રાતિચાર. અનાચારના પણ ત્રણ પ્રકાર પડે છે-જ્ઞાનાચાર, દનાચાર અને ચારિત્રાનાચાર આ બધાં ઢાષાની આલેચના આદિ કરવાથી ગૃહીત તેની અથવા જ્ઞાન, દર્શીન અને ચારિત્રની શુદ્ધિ થાય છે, પ્રાયશ્ચિત્ત પાપનુ છેદક તથા विशोध होय छे छे - " प्रायः पापं विजानीयात् " त्याहिપ્રાય એટલે પાપ અને ચિત્ત એટલે શાષન એટલે કે પાપની શુદ્ધિ જેના દ્વારા થાય છે તેને પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે, એવા પ્રાયશ્ચિત્તને આ નિરુકત્યથ
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स्थानाङ्गसूत्रे चितमिति । तत्त्रिविधं तथाहि - आलोचनाहं, प्रतिक्रमणाहं तदुभयार्हम् । तत्र आलोचनमालोचना-गुरवे पापप्ररूपणं तां शुद्धिभूतामर्हति तथैव शुध्यति यदतिचारजातं भिक्षाचर्यादिसमुत्थं तद् आलोचनार्हमिति । एवं प्रतिक्रमणं - पापात् पृथग् भवनार्थं मिथ्यादुष्कृतं, तदहं प्रतिक्रमणाहं सहसा असमितस्वरूपोऽगुप्तत्वरूपञ्चातिचार इति । तदुभयं-पूर्वोक्तालोचना प्रतिक्रमणेतिद्वयरूपम् अर्हति यत्तत् तदुभयार्ह - मनसा रागद्वेषगमनादिकरणमिति १९ । सु० ६४ ॥
प्रायश्चित्त है - ऐसा यह प्रायश्चित्त का निरुक्त्यर्थ है प्रायश्चित्त यह शुद्धि है तथा शोधनीय जो अतिचार आदि है - वह भी प्रायश्चित्त है यह तीन प्रकार का होता है आलोचनाई, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयार्ह गुरू के समक्ष पाप का कथन करना इसका नाम आलोचना है इस आलोचना से जिसकी शुद्धि हो जाती है वह आलोचनाएं प्रायश्चित है जो अतिचार भिक्षाचर्या आदि के समय लग जाते हैं वे आलोचनार्ह होते हैं पाप से पृथक होने के लिये जो मिथ्यादुष्कृत किया जाता है वह प्रतिक्रमण है इस प्रतिक्रमण से जिसकी शुद्धि हो जाती है वह प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित है प्रतिक्रमणार्ह प्रायवित्त समितत्वरूप और अगुप्तस्वरूप होता है आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों से जिस अतिचार की शुद्धि होती है वह अतिचार आलोचना प्रतिक्रमणहि है आलोचनाप्रतिक्रमपाई अतिचार मन से रागद्वेष करने पर और गमनादि करने पर होते हैं । १९ ।। ०६४ ॥
છે. પ્રયશ્ચિત્ત એ શુદ્ધિ છે તથા શેાધનીય જે અતિચાર આદિ છે, તે પણ प्रायश्चित्त छे. ते त्र अारनु छे - (१) भातायनाई, (२) प्रतिभाषाई અને (૩) તદ્રુભયા ગુરુની સમક્ષ પાપને પ્રકટ કરવું તેનુ નામ આલેચના છે. તે આલેાચના વડે જેની શુદ્ધિ થઈ જાય છે તેને અલેાચનાડુ પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. જે અતિચાર ભિક્ષાચર્યાં આદિ સમયે લાગી જાય છે, તે આલેચનારૂં ઢાય છે. પાપથી છુટવા માટે જે મિથ્યાદુષ્કૃત્ય કરવામાં આવે છે તેને પ્રતિક્રમણ કહે છે. આ પ્રતિક્રમણ વડે જેની શુદ્ધિ થઈ જાય છે તેને પ્રતિક્રમણાહુ પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિના પાલનમાં જે દેષા લાગી ગયા હૈાય છે તે અસમિતત્વરૂપ અને અનુપ્તત્વરૂપ દોષા પ્રતિક્રમણાતુ હાય છે, જે અતિચારની આલેચના અને પ્રતિક્રમણ આ ખને વડે શુદ્ધિ થતી ઢાય છે, તે અતિચારને તદ્રુભયાહૂ ( આલેચના અને પ્રતિક્રમણા ) કહે છે મનથી રાગદ્વેષ કરવાથી અને ગમનાદિ કરવાથી આલેચના પ્રતિક્રમણુ' अतियार लागे छे ॥ १७ ॥ ॥ सु. ६४ ॥
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सुधा टीका स्था० ३ १०४ सू० ६५ मनुष्यक्षेत्र म्वरूपनिरूपणम् २१७ एते च प्रज्ञापनादयो धर्माः प्रायो मनुष्यक्षेत्र एव भवन्तीति तद्वक्तव्यतामाह
मूलम् --जंबुद्दीवे दीये संदररूस पव्वयस्स दाहिणेणं तओ अकस्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हेनदए हरिवासे देवकुरा १ । जंबुद्दीवे दीवे संदरस्त पव्ययम्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहां-उत्तरकुरा, रम्लगवासे, एरण्णवए। जंबू मंदरस्त दाहिणेणं तओ वाला पण्णता, तं जहा-भरहे, हेमवए, हरिबासे३। जंबू संदरत उत्तरेणं तओ वासा पण्णत्ता, तं जहा-रम्मगवाले, हेरण्णवए, एरवए ४ । जंबू मंदरदाहिणणं तओ वासहरपब्धया पण्णत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, णिसढे ५ । जंबू संदरस्स उत्तरेणं तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-णीलवंते, रुप्पी, सिहरी ६ । जंबूमंदरदाहिणेणं तओ सहादहा पणता, तं जहा-पउमदहे, महापउमद्दहे, तिगिंछदहे, तत्थ णं तो देवयाओ सहिड्डियाओ जाव पलिओवहिइयाओ परिवसति, तं जहा-लिरी, हिरी, धिई ७ । एवं उत्तरेणवि, णवर-केसरिदहे, महापोंडरीयहहे, पोंडरीयदहे, देवयाओ-कित्ती, बुद्धी, लच्छी ८। जंबूसंदरदाहिणेणं चुल्लहिमवंताओ वासहरपवयाओ, पउमद्दहाओ महादहाओ तओ महाणईओ पवहंति, तं जहा गंगा, सिंधू, रोहितंसा९। जंबूमंदर उत्तरेण सिहरीओ वालहरपव्वयाओपोंडरीयद्दहाओमहादहाओ तओ महानईओ पवहंति, तं जहा-सुवन्नकूला, रत्ता, रत्तबई१०॥ जंबूमंदरपुरस्थिमेणं सोयाए सहाणईए उत्तरेणं तओ अंतरण
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स्थानास्त्रे इओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गाहाबई, दहबई, पंकवई ११ । जंबू मंदरपुरस्थिमेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं तओ अंतरणइओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्तजला, मत्तजला, उम्मत्तजला १२ । जंबूमंदरपञ्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए दाहिणेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-खीरोदा, सीयसोया, अंतोवाहिणी १३ । जंबूमंदरपञ्चस्थिमेणं सीओदाए महाणईए, उत्तरेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उम्भिमालिणी फेणमालिणी,गंभरिमालिणी१४। एवं धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धेवि अकम्मभूमीओ आढवेत्ता जाव अंतरणईओत्ति णिरवसेसं भाणियव्यं १४, जाव पुक्खरवरदीवड्डपञ्चस्थिमड्ढे तहेव निरवसेसं भाणियव्वं १४ (४२) ॥ सू०६५ ॥ ___ छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां तिस्रोऽकर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हैमवतं, हरिवर्ष, देवकुरवः १ । जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य उत्तरस्यां तिस्रोऽकर्मभूमयः प्रज्ञप्ता', तद्यथा-उत्तरकुरत्रा, रम्यकवर्षे, ऐरण्यवतम् २ __ ये प्रज्ञापनादिक धर्म प्रायः मनुष्यक्षेत्र में ही होते हैं-अतः इस विषय में सूत्रकार अब कथन करते हैं-(जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स) इत्यादि ।
सूत्रार्थ-जम्बुद्धीप नामके द्वीपमें मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें तीन अकर्म भूमियाँ कही गई हैं-जैसे हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरु । जम्बू द्वीप नामके द्वीपमें भन्दपर्वतकी उत्तरदिशामें तीन अकर्मभूमियां कही
આ પ્રજ્ઞાપના આદિને સદ્ભાવ મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તે વિષયને અનુલક્ષીને કથન કરે છે–
" जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स" त्या
જંબુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ અકર્મभूभिय। ४ी छे-(१) भवत, (२) रिवर्ष' मने (3) १२. भूदी५ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં ત્રણ અકર્મભૂમિ કહી છે.
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सुधा टीका स्था० ३ उ०४ सू० ६५ मनुष्यक्षेत्रनिरूपणम् २१९ जम्बूमंदरस्य दक्षिणस्यां त्रीणि वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भरतं, हैमवतं, हरिवर्षम्३ जम्बू मन्दरस्य उत्तरस्यां त्रीणि वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-रम्यकवर्ष, हैरण्यवतं, ऐरवतम् ४ । जम्बू मन्दरदक्षिणस्यां त्रयो वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-चुल्लहिमवान् , महाहिमवान् , निषधः५ । जम्बुमन्दोत्तरस्यां त्रयो वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-नीलवान् , रुक्मी, शिखरी ६ । जम्बूमन्दरदक्षिणस्यां त्रयो महाहदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पन्नहदः, महापद्महूदः, तिगिच्छहदः, तत्र खलु तिम्रो देवता महद्धिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-श्रीः, हीः, धृतिः ७ । एवमुत्तरस्यामपि, नवर-केसरिहूदः, महापुण्डरीकहदः, पुण्डरीकहूदः, देवताःगई हैं जैसे उत्तरकुरु, रम्यकवर्ष और ऐरण्यवतवर्ष, । जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें मन्दर पर्वतकी दक्षिणदिशामें तीन वर्ष कहे गये हैं-जैसे भरत, हैमवत, और हरिवर्ष। जम्बूद्वीप नामके द्वीप में उत्तरदिशा में तीन वर्ष कहे गये हैं जैसे रम्यकवर्ष, हैरण्यवत और ऐरक्त । जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दरपर्वत की दाहिनी और दक्षिणदिशा में तीन वर्षधरपर्वत कहे गये हैं जैसे क्षुल्लहिमवान्, महाहिलवान और निषध ५। जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दपर्वत की उत्तरदिशा में तीन वर्षधर पर्वत कहे गये हैं-जैसे नीलवान , रुक्मी और शिखरी ६। जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दरपर्वत की दक्षिण दिशा में तीन महाहूद् द्रह कहे गये हैं जैसे पद्महूद, महापद्महूद और तिगिच्छहूद यहां महद्धिक(महाऋद्धिवाली) तीन देवियां रहती है इनकी यावत् एकपल्योपम की स्थिति है इनके नाम श्रीदेवी, हीदेवी और धृतिदेवी है इसी तरह (१) उत्तरशुरु, (२) २भ्य: १५ मन (3) मेरठ्यक्त . मूद्रीय नामना દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ વર્ષક્ષેત્ર કહ્યાં છે-(૧) ભરત (૨) હૈમવત અને ૩) હરિવર્ષ. જંબુદ્વિપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની ઉત્તરે जप वर्ष ४i छ-(१) २भ्य४वर्षः, (२) डै२९यक्त गने (3) भरपत. भूदाय નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ વર્ષધર પર્વત કહ્યાં છે. (१) क्षुद्र भिवान् , (२) मा भिवान् अन (3) निषध ॥ ५॥ द्वीप નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં ત્રણ વર્ષધર પર્વત કહ્યા છે. (१) नीसवान्, (२) २४भी मने (3) शिमरी. डी५ नामना द्वीपमा મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ મહા હદ (દ્રહ) કહ્યાં છે પદ્મહદ, મહાપહદ, અને તિગિ૭ હદ તેમાં મહદ્ધિક આદિ વિશેષણવાળી ત્રણ દેવીઓ રહે છે તેમની એક પોપમની સ્થિતિ કહી છે. તેમનાં નામ શ્રીદેવી, હીદેવી અને ધૃતિદેવી છે એ જ પ્રમાણે મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં પણ ત્રણ
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स्थानाशास्त्र कीर्तिः, बुद्धिः, लक्ष्मीः ८, जम्बूमन्दरदक्षिणस्यां चुल्लहिमवतो वर्पधरपर्वताद पाहदान्महादात् तिस्रो महानद्यः प्रवहन्ति, तद्यथा-गङ्गा, सिन्धुः, रोहितांशा९ जम्बूमन्दरोत्तरस्यां शिखरितो वर्पधरपर्वतात् पुण्डरीकहूदान्महादात् तिस्रो महानद्यः प्रवहन्ति, तद्यथा-सुवर्णकला, रक्ता, रक्तवती १० । जम्बूमन्दरपूर्व स्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां तिस्रोऽनन्तरनद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ग्राहावती, ह्रदवती, पङ्कवती ११ । जम्बूमन्दरपूर्व स्यां शीताया महानद्या दक्षिणस्यां तिस्रोऽन्त. से मन्दपर्वत की उत्तरदिशा में भी जानना चाहिये यहां केसरिहद् (द्रह), महोपुण्डरीकहूद (द्रह) और पुण्डरीकहद (द्रह ) हैं यहां जो महर्द्धिक आदि विशेषणों वाली तीन देवियां रहती हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं-कीर्तिदेवी, बुद्धिदेवी और लक्ष्मीदेवी। जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में मन्दरपर्वत की दक्षिणदिशा में क्षुल्लहिमवान् पर्वत है और इस पर्वत के ऊपर जो पद्महूद है उसले गंगा, सिन्धु और रोहितांशा ये तीन महानदियां निकली हैं । ९ । जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दरपर्वत की उत्तरदिशा में जो शिखरिपर्वत है और इस शिखरीपर्वत पर जो पुण्डरीक नाम का महाहूद है उससे भी ये तीन महानदियां निकली हैं-जिनके नाम इस प्रकार से हैं-सुवर्णकूला १, रक्ता २, और रक्तवती ३ । जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दपर्वत की पूर्व दिशा में स्थित शीता महानदी की उत्तर दिशा में तीन अन्तर नदियां हैं इनके नाम इस प्रकार से हैं-ग्राहावती, हृवती और पक्वती ११ । जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में मन्दरपर्वत की पूर्वदिशा में स्थित शीतामहानदी की दक्षिणदिशा મહેઠંદ નીચે પ્રમાણે છે-કેસરી હદ, મહાપુંડરિક હદ અને પુડરીક હદ. ત્યાં જે મહદ્ધિ આદિ વિશેષણોવાળી ત્રણ દેવીઓ રહે છે, તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે-કીર્તિદેવી, બુદ્ધિદેવી અને લક્ષ્મીદેવી. જંબુદ્વીપ નામના દીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં જે ક્ષુદ્રહિમવાનું પર્વત છે, અને તે પર્વત પર જે પદ્મહદ છે, તેમાંથી ગંગા, સિંધુ અને હિતાંશા નામની ત્રણ મહાનદીઓ નીકળે છે. જંબુદ્વીપ નામના મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં જે શિખરી પર્વત પર જે પુંડરીક નામનું મહાહદ છે, તેમાંથી સુવર્ણકૂલા, રતા અને રકતવતી નામની ત્રણ મહાનદીઓ નીકળે છે. જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં આવેલી શીતા નામની મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં ત્રણ અન્તર નદીઓ વહે છે, તેમના નામ આ પ્રમાણે છે–ગ્રાહાવતી, હદવતી અને પંકવતી. | ૧૧ જંબુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં આવેલી શીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં જે ત્રણ અન્તર નદીઓ કહી છે તેમના નામ આ
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सुंधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ६६ सामान्यपृथिवीदेशनिरूपणम् २२१ रनद्यः प्राप्ताः, तद्यथा-तप्तजला, महाजला, उन्मत्तजला १२ । जम्बूमंदरपश्चिमायां शीतोदाया महानद्या दक्षिणस्यां तिस्रोऽन्तरनधः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षीरोदा, शीतस्रोताः, अन्तर्वाहिनी १३ । जम्बूमन्दरपश्चिमायां शीतोदाया महानद्या उत्तरस्यां तिस्रोऽन्तरनद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रुक्मिमालिनी, फेनमालिनी, गम्भीरमा लिनी १४ । एवं धातकीपण्डे द्वीपे पूर्वाऽपि अर्मभूमीरावेष्टय यावत् - अन्तरनद्य इति निरवशेष भणितव्यं १४ । यावत् - पुष्करवरद्वीपार्द्धपश्चिमाः तथैव निरवशेष भणितव्यम् १४ (४२) " ॥ सू० ६५ ।।
टीका-'जम्बूद्दीवे' इत्यादि । सुगमम् ॥म०६५॥
पूर्व मनुष्यक्षेत्रलक्षणक्षितिखण्डमरूपणा मोक्ता, साम्प्रतं भङ्गयन्तरेण सामान्यपृथिवीदेशप्ररूपणामाह
मूलम्-तीहि ठाणेहिं देने पुढवीए चलेज्जा, तं जहा-अहे णं इमीसे रयणप्रभाए पुढवीए उराला पोग्गला णिवएज्जा, में तीन अन्तर महानदियां कही गई हैं-उनके नाम इस प्रकार से हैंतप्तजला, मत्तजला, और उन्तलजला १२ । जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में मन्दरपर्वत की पश्चिम दिशा में स्थित शीतोदा लहानदी की दक्षिण दिशा में तीन अन्तर महानदियां हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं-क्षीरोदा, शीतस्रोता और अन्तरवाहिनी १३। जम्बूदीप नामके द्वीप में मन्दरपपत की पश्चिमदिशा में स्थित शीतोदा महानदी की उत्तरदिशा में तीन अन्तर महानदियां हैं-उनके नाम इस प्रकार से हैं-रुक्मिमालिनी, फेनमालिनी और गंभीरमालिनी १४ । इसी प्रकार का कथन पूर्वाध धातकीखण्डद्वीप में भी अकर्मभूमि से लेकर थावत् अन्तरनदियों तक का सम्पूर्णरूप से कहना चाहिये यावत् पुष्कर वरद्वीप के पश्चिमाध में भी इसी तरह का सम्पूर्ण कथन कर लेना चाहिये १४-(४२) ॥०६५॥ પ્રમાણે છે-તમજલા, મહાજતા અને ઉન્મત્ત જલા. ૧૨ જંબુદ્વિપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલી સીતાદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ અન્તર મહાનદીઓ છે. તેમના નામ આ પ્રમાણે છે-ક્ષીરદા, શીતસ્રોતા અને અન્તરવાહિની. ! ૧૩ જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલી શીતાદા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં ત્રણ મહાનદીઓ છે, તેમના નામ આ પ્રમાણે છે-રુકિમમાલિની ફેનમાલિની અને ગંભીરમાલિની આ પ્રકારનું જ અકર્મભૂમિઓથી લઈને અત્તરનદીઓ સુધીનુ સમસ્ત કથન પૂર્વાર્ધ ધાતકીખંડ દ્વિીપમાં પણ સમજવું. પુષ્કરવાર દ્વીપાર્ધના પશ્ચિમાઈ પર્યન્તના દ્વિીપમાં પણ આ પ્રકારનું જ કથન સમજી લેવું. ૩૧૪ ૪રા સૂપ,
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स्थानास्त्रे तएणं उराला पोग्गला णिवयमाणा देसं पुढवीए चलेज्जा १, महोरए वा महिड्डीए जाव महेलक्खे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उम्मज्जणिमज्जियं करेमाणे देसं पुढबीए चलेज्जा २, णागसुवन्नाण वा संगामंसि वहमाणंसि देसे पुढवीए चलेज्जा ३। तीहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेजा, तं जहा-अहेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए गुप्पेज्जा, तएणं से घणवाए गुविए समाणे घणोदहिमेएज्जा, तएणं से घणोदही एइए समाणे केवलकप्पं पुढविं चालेज्जा१, देवे वा महिड्डीए जाव महेसखे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्त वा इड्डिं जुई बलं वीरियं पुरिलक्कारपरक्कम उवदंसमाणे केवलकप्पं पुढविं चालेज्जार, देवासुरसंगामंलि वा वट्टमाणसि केवलकप्पा पुढवी चलेजा ३, इच्चेएहिं तीहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा २ ॥ सू० ६६ ॥ ___ छाया-त्रिभिः स्थानर्देशः पृथिव्याश्चलति, तद्यथा-अधःखलु अस्या रत्न प्रभायाः पृथिव्या उदाराः पुद्गला निपतेयुः, ततः खलु उदारा पुगला निपतन्तो
इस प्रकार से मनुष्यक्षेत्ररूप भूमिखण्ड की प्ररूपणा करके अय सूत्रकार दूसरी हौली से सामान्यपृथिवी देश की प्ररूपणो करते हैं__ तीहिं ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा ) इत्यादि।
सूत्रार्थ-तीन कारणों को लेकर पृथिवीको एकदेश चलायमान होता है वे कारण इस प्रकार हैं-इस रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभागमें जव चादर पुद्गल विस्रसा परिणाम से अपने स्थान से उछलते हैं अथवा दूसरे
આ પ્રકારે મનુષ્યક્ષેત્રરૂપ ભૂમિખંડની પ્રરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર બીજી શૈલીથી સામાન્ય પૃથ્વીદેશની પ્રરૂપણ કરે છે–
" तीहिं ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा" याह
સૂત્રાર્થ–આ ત્રણ કારણને લીધે પૃથ્વીને એક દેશ (હિરસો) કંપાયમાન થાય છે-(૧) રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અભાગમાં જ્યારે બાદર પુદ્ગલ વિસા પરિણામ દ્વારા પિતાના સ્થાનમાંથી ઉછળે છે, અથવા બીજે સ્થાનેથી આવીને પડે છે,
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मुभा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ६६ सामान्यपृथिवीदेशनिरूपणम् २२३ देशं पृथिव्या चालयन्ति १, महोरगो वा महद्धिको यावत् महेशाख्यः, अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधउन्मज्जनिमज्जिकां कुर्वन् दे पृथिव्याथालयति २, नागसुवर्णानां वा संग्रामे वर्तमाने देशः पृथिव्याश्चलति ३, त्रिभिः स्थानः केवलपल्पा पृथिवीचलति, तद्यथा - अधः खलु अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनवातो गुप्येत् , ततः खलु स धनवातो गुप्तः सन् घनोदधिमेजयेत् , ततः खलु स घनोदधिरेजितः सन् केवलकल्पां पृथिवीं चालस्थानसे आकर उत्पन्न होते हैं, तब वे पृथिवी के एकदेशको कम्पित कर देते हैं, यह प्रथम कारण हैं। द्वितीय कारण इस प्रकार से है महर्दिक यावत् महेश्वर रूप से प्रसिद्ध कोई महोरग व्यन्तरविशेष इस रत्न प्रभापृथिवी के अधोभाग में उत्पतन निपतन करता है तब पृथिवी का एकदेश चलायमान होता है अथवा तीसरा कारण इस प्रकार से है नागकुमार और सुवर्णकुमार इन दोनों का जब आपस में संग्राम छिड़ जाता है तब उस समय भी पृथिवीका एकदेश चलायमान होता है इस प्रकार के इन तीन कारणों से पृथिवी का एकदेश चलायमान होता है।
इन तीन कारणों से केवलकप्पा सम्पूर्ण पृथिवी चलायमान होती है घे तीन कारण इस प्रकार से हैं जब रत्नप्रभापृथिवी के अधोभाग में. रहा हुआ घनवात कारण विशेष से व्योकुल क्षुभित होता है तब वह व्याकुल होता हुआ घनवात घनोदधि को कम्पित कर देता है घनोदधि के कम्पित होने से सम्पूर्णपृथिवी कंपित हो जाती है-अर्थात् कंपित ત્યારે તેઓ પૃથ્વીના એક દેશને કંપાવી નાખે છે. (૨) બીજું કારણ નીચે પ્રમાણે સમજવું કે ઈ મહદ્ધિક આદિ વિશેષણોવાળ, મહેશ્વરરૂપે પ્રસિદ્ધ એ કઈ મહોરોગ વ્યન્તરવિશેષ જ્યારે આ રત્ન ખભા પૃથ્વીના અધોભાગમાં ઉત્પતન નિપતન (ઉંચે કૂદવું અને નીચે પડવું એવી ક્રિયા) કરે છે, ત્યાર પૃથ્વીને એકદેશ ચલાયમાન થાય છે. હવે ત્રીજુ કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે જ્યારે નાગકુમાર અને સુવર્ણકુમાર વચ્ચે સ ગ્રામ મચે છે, ત્યારે પણ પૃથ્વીને એકદેશ ચલાયમાન થઈ જાય છે. આ પ્રકારના ત્રણ કારણોને લીધે पृथ्वीना मेहेश (24) यसायमान थाय छे.
હવે જે ત્રણ કારણોને લીધે આખી પૃથ્વી ચલાયમાન થાય છે, તે કારણેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-(૧) રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અભાગમાં રહેલા ઘનવાત જ્યારે કેઈ વિશિષ્ટ કારણને લીધે શ્રુભિત થાય છે, ત્યારે તે મુખ્ય ઘનવાત ઘોદધિને કમ્પાયમાન કરી નાખે છે, અને ઘનેદધિ કપિત થવાથી
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स्थानाङ्गसूत्रे यति १, देवो वा महर्दिको यावत्-महेशाख्यः तथारूपाय श्रमणाय वा माहनाय वा ऋद्धिं द्युतिं वलं वीर्य पुरुषाकारपराक्रममुपदर्शयन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयति २, देवासुरसंग्रामे वा वर्तमाने केवलकल्पा पृथिवीचलति ३, इत्येतैत्रिभिः स्थानः केवलकल्पा पृथिवी चलति २ ॥ स० ६६ ॥ ___टीका- तीहि । इत्यादि, सूत्रद्वयं प्रायः सुगमम् , नवरं-त्रिभिः स्थानः कारणैः पृथिव्या देशः-भागः चलति, तद्यथा-तान्येव कारणान्याह-अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः-प्रथम नरकपृथिव्या अधः-अधोभागे उदाराः-वादाः पुद्गलाः हुआ धनोदधि सम्पूर्ण पृथिवी को कंपित कर देता है यह संपूर्ण पृथिवी को कंपित होने का प्रथम कारण है, द्वितीय कारण इस प्रकार से हैमहाऋद्धि वाला यावत् महेश्वररूप से प्रसिद्ध हुआ कोई महोरग नाम का व्यन्तरविशेष तथारूपवाले श्रमण को अथवा माहन को अपनी ऋद्धि, यति, यश, बल, वीर्य, और पराक्रम को दिखाता है तब वह पूरी पृथिवी को कल्पित कर देता है, तीसरा कारण इस प्रकार से हैजय वैमानिक और भवनपतियों का आपस में संग्राम छिड़ जोता है तब उस समय भी यह सपूर्ण पृथिवी कम्पित हो उठती है इस प्रकार से ये तीन कारण केवलकल्पा संपूर्ण पृथिवी के कंपित होने के हैं।
टीकार्थ-पृथिवी के एकदेश को कल्पित होने में जो यहां तीन कारण कहे गये हैं उनमें प्रथम कारण ऐसा है कि इस प्रथम नरक पृथिवी के अधोभाग में जो उदार बादर पुगल हैं वे जब विस्रसापरिणाम को આખી પૃથ્વી કમ્પાયમાન થાય છે એટલે કે કપિત થયેલો ઘનેદધિ આખી પૃથ્વીને પણ કપિત કરી નાખે છે.
સંપૂર્ણ પૃથ્વીને કંપિત કરનારૂ બીજું કારણ આ પ્રમાણે છે–મહદ્ધિક આદિ વિશેષણાવાળે અને મહેશ્વર રૂપે પ્રસિદ્ધ એ કઈ મહારગ નામને વ્યસ્તરવિશેષ તથારૂપ શ્રમણને અથવા માહનને જ્યારે પિતાની ઋદ્ધિ, ઘુતિ, બલ, વીર્ય અને પરાક્રમ બતાવે છે, ત્યારે તે આખી પૃથ્વીને કંપાવી નાખે છે હવે ત્રીજું કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-જ્યારે વૈમાનિક અને ભવનપતિઓ વચ્ચે સંગ્રામ મચે છે, ત્યારે પણ આખી પૃથ્વી કંપી ઉઠે છે. આ પ્રકારના ત્રણ કારણને લીધે કેવકલ્પ (સંપૂર્ણ) પૃથ્વી કંપિત થાય છે.
ટીક–પૃથ્વીના એક દેશને ચલાયમાન કરનારા ત્રણ કારણેનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ પહેલું કારણ એવું છે કે રત્નપ્રભા નામની પહેલી નરકમૃથ્વીના અભાગમાં જે ઉદાર બાદર પુલ છે તેઓ જ્યારે વિશ્વસા પરિણામને લીધે તે સ્થાનેથી
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ६६ सामान्यपृथिवीदेशनिरूपणम् निपतेयुः - विस्रसा परिणामात्ततः स्थानादुच्छलेयुः, अन्यस्थानाद्वा समागत्य यन्त्रोमुक्तमहोपलवत्तत्र संपतेयुः ततः खलु ते वादराः पुद्गला निपतन्तः सन्तः पृथिव्या देशम् - एकदेशं चालयन्ति - कम्पयन्तीत्यर्थः, पूर्वोक्तकारणमाश्रित्य पृथिवी देशवलतीति भावः १, दा - अथवा महोरगः - कोऽपि व्यन्तरविशेषः, स कीदृशः 2 इत्याह- 'महिडिए ' इत्यादि, महर्द्धिकः - परिवारादिऋद्धि सम्पन्नः ' जावे'ति यावत्कारणात् - ' महज्जुइए,, महावले, महाणुभागे ' इति सग्राह्यम्, तत्र महाद्युतिकः - शरीरादिदीप्तिसम्पन्नः महाबलः - वलसम्पन्नः, महानुभागः - वैक्रियादि प्रभाव सम्पन्नः, महेशाख्यः - महेश्वरत्वेन प्रसिद्धः, स अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधः - अधोभागे उन्मज्जनिमज्जिकां - उत्पतननिपतनं कुर्वन् पृथिष्या देशं चालयति २, वा-अथवा नागसुपर्णानां - नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां च भवनपति विशेषाणां परस्परं संग्रामे वर्त्तमाने - जायमाने सति पृथिव्या देशश्चलति लेकर उस स्थान से उछलते हैं या अन्य स्थान से आकर वे यंत्रोन्मुक्त महोपल (यंत्र के द्वारा छोड़े गये पत्थर ) की तरह वहां गिरते हैं तब गिरते हुए वे बादर पुल पृथिवी के एकदेश को कम्पित कर देते हैं तात्पर्य कहने का यह है कि इस प्रथम कारण को लेकर पृथिवी का एक देश चलायमान हो जाता है अथवा परिवार आदि रूप ऋद्धि से संपन्न हुआ यावत् शरीरादि की दीप्ति से संपन्न हुआ, बलसम्पन्न हुआ वैक्रियादि रूप प्रभाव से संपन्न हुआ एवं महेश्वर रूप से प्रसिद्ध हुआ कोई महोरग नाम का व्यन्तरविशेष जब रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में नीचे से ऊपर को और ऊपर से नीचे को उछलता है तब भी पृथिवी का एकदेश चंचल हो उठता है तृतीय कारण पृथिवी के एकदेश के चंचल होने में नागकुमार और सुपर्णकुमारों का आपस में संग्राम का
ઉછળે છે, અથવા અન્ય સ્થાનેથી આવીને, યંત્રની દ્વારા ફેકાયેલા પથ્થરની જેમ ત્યાં પડે છે, ત્યારે પતન પામતાં તે ખાદર પુદ્ગલેા પૃથ્વીના એકદેશને કપાવી નાખે છે. એટલે કે આ પ્રથમ કારણને લીધે પૃથ્વીના એકદેશ ચલાયમાન થઈ જાય છે ખીજા કારણનુ સ્પષ્ટીકરણ-પરિવાર આદિ રૂપ ઋદ્ધિથી સપન્ન, શરીરાદિની દ્રીપ્તિથી સપન્ન, ખલસપન્ન, વૈક્રિયાક્રિરૂપ પ્રભાવથી સંપન્ન હાય એવા અને મહેશ્વર રૂપે પ્રસિદ્ધ થયેલા હોય એવા કોઇ મહારગ નામના વ્યન્તરવિશેષ જ્યારે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અધેાભાગમાં નીચેથી ઉપર અને ઉપરથી નીચે કૂદાકૂદ મચાવે છે, ત્યારે પણ પૃથ્વીને એ દેશ કપાયમાન થવા માંડે છે. હવે ત્રીજા કારણનું સ્પષ્ટીકરણ કરવમાં આવે છે જ્યારે નાગકુમાર અને સુવર્ણ કુમાર વચ્ચે સગ્રામ મચી જાય છે, ત્યારે પણ પૃથ્વીના એકદેશ ચલા
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स्थानासूत्रे
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३, इत्येतैः-पूर्वोक्तैस्त्रिभिः कारणैः पृथिव्या देशचलनमुत्रमुक्त्वा संप्रति तस्याः सर्वतश्चलनमाह' वीहि ' इत्यादि, त्रिभिः स्थानै केवलकल्पा- केवलैव परिपूर्णेत्यर्थः ईपटूनताचे न विवक्ष्यते परिपूर्ण माया वा पृथिवी चलति, तद्यथा-तान्येवाह — अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधः - अधोभागचर्त्ती घनवातः - स्त्यानवायुः गुप्येत् - कारणविशेपाद व्याकुलो भवेत् क्षुग्येदित्यर्थः, ' गुप व्याकुलत्वे ' इति दिवादि गणगतः परस्मैपदी धातुः, ततः स घनवातः गुप्तः - क्षुधः सन् घनो. दधि - घनवातोपरिस्थितं कठिनजलसमूह एजयेत् कम्पयेत्, ततः घनवातेन जितः - कम्पितः स घनोदधिः केवलकल्पां - सम्पूर्ण पृथिवीं चालयति १, वाअथवा महर्द्धिकः यावत् - महेशाख्यो देवः तथा रूपाय - उत्तमगुणयुक्ताय श्रमणाय -- अनगाराय, माहनाय - - अहिंसादि महागुणसम्पन्नाय - ऋद्धिपरिवाराछिड़ जाना है नागकुमार और सुपर्णकुमार ये भवनपतिदेव हैं यह तो कहा पृथिवी के एकदेश को कंपित होने का कारण अब समस्त पृथिवी को कंपित होने का क्या कारण है यह कहा जाना है- " केवलकल्प " शब्द से यहां " पूर्ण " ऐसा अर्थ लिया गया है कुछ कम नहीं अर्थात् इन तीन कारणों से पूरी की पूरी पृथिवीं कंपित होती है-थोड़ी बहुत कम नहीं पूरी पृथिवी के कंपित होने में यह प्रथम कारण ऐसा है कि - इन रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में घनवात - स्त्यानवायु है वह जब कारणविशेष से व्याकुल- क्षुमित हो उठता है तो ऐसी स्थिति में घनबात के ऊपर स्थिति में घनवात के ऊपर स्थित कठित जलसमूहरूप घनोदधि कंपित हो उठता है इससे यह संपूर्ण पृथिवी चंचल हो उठती है अथवा महेश नामका कोई देव उत्तरगुणयुक्त भ्रमणके लिये अनगारके लिये या माहन के लिये अपनी परिवार आदि रूप ऋद्धिको, शरीरादि की યમાન થાય છે. નાગકુમાર અને સુવર્ણકુમાર ભવનપતિનિકાયના દેવા છે,
હવે સમસ્ત પૃથ્વીને કપાયમાન કરનારા કારણેાનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-સૂત્રમાં જે "वस ४८ ” શબ્દને પ્રયાગ થયા છે તેના અર્થ · સ'પૂર્ણ'' સમજવા. એટલે કે સંપૂર્ણ પૃથ્વીને કપિત કરવામાં આ ત્રણ કારણેા નિમિત્તરૂપ બને છે—
પહેલુ કારણ—આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અધેાભાગમાં ઘનવાત-સ્ત્યાનવાયુ રહેલા છે. તે ઘનવાત જ્યારે કાઇ વિશિષ્ટ કારણને લીધે વ્યાકુલ ( ક્ષુભિત ) થઇ જાય છે, ત્યારે ઘનવાતની ઉપર રહેલે કઠિન જળસમૂહ રૂપ ઘનેાદિધ પશુ કપિત થઈ ઉઠે છે અને તે ઘનેાધિકપિત થવાને લીધે આ સપૂર્ણ પૃથ્વી પણ ક‘પિત થઈ ઉઠે છે.
હવે ત્રીજા કારણનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–મહેશ નામના કોઈ દેવ ઉત્તર શુછુયુક્ત કાઇ શ્રમણુને ( અણુગારને ) અથવા માહનને, અહિંસાદિ
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सुंधा टीको स्था० ३ उ० ४ सुं० ६६ सामान्यपृथिवीदेश निरूपणम्
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दिरूपां घुर्ति - शरीरादिकान्ति, यशः पराक्रमोपार्जितां ख्याति, बलं - शारीरिकशक्ति - वीर्यम् - आत्मबलं पुरुपकारं - स्वाभिमानगर्भितं व्यवसाय, पराक्रमं - निष्पन्नफलं व्यवसायम् - उपदर्शयन् पृथिव्यादिचालने नैव चलवीर्याद्युपदर्शनं भवतीति तद्दर्शयन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयति २, वा अथवा देवा सुर संग्रामे, देवाः वैमानिकाः, अमुराः - भवनपतय, तेषां संग्रामे, किं तेषा संग्राम कारणम् १ इति, प्रश्ने भवमत्यधिकमेव तेषां वैरं भवति, आह" किं पत्तियं णं ते! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य ? गोयमा ! तेसिणं देवाणं भवपच्चए - वेराणुबंधे " ( भगवती ) छाया - किं प्रत्ययिकं खलु कान्तिको, पराक्रमोपार्जित ख्यातिको, शारीरिक शक्तिरूप बलको, आत्मरूप वीर्यको स्वाभिमानगर्भित व्यवसायरूप पुरुषकार को, निष्पन्नफल वाले व्यवसायरूप पराक्रम को दिखाता है तब वह पूरी की पूरी पृथिवी को कंपित कर देता है क्यों कि पृथिवी आदि के कम्पित कर देने से ही कंपाने वाले के बलवीर्यादि का उपदर्शन होता है अथवा जब देवों वैमानिक देवों का और असुरों का भवनपतियों का संग्राम होता है तब भी यह पी पृथिवी कंपित हो उठती है । इनके संग्राम का क्या कारण है ? इनके संग्राम का कारण चैर है और यह वैर इनमें भवयिक होता है । ऐसा ही कहा है- " किं पत्तियं णं संले ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं गया व गमिस्संस्ति य ? गोयमा ! तेहिं णं देवाणं भवपच्चइए वेराणुबंधे " तात्पर्य इसका ऐसा है कि यहां प्रभु
"
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રૂપ ઋદ્ધિ, શરીરાદિની કાન્તિ, પરાક્રમે પાર્જિત ખ્યાતિ, શારીરિક શક્તિરૂપ મળ, આત્મબળરૂપ ની, સ્વાભિમાનગર્ભિત વ્યવસાયરૂપ પુરુષકાર, અને નિષ્પન્ન ફુલવાળા વ્યવસાયરૂપ પરાક્રમ ખતાવે છે, ત્યારે તે પૂરેપૂરી પૃથ્વીને કપાયમાન કરી નાખે છે, કારણ કે પૃથ્વી આદિને કપાવી નાખવાથી જ કપુર વનારના મળ, વીર્ય આદિનુ ઉપદશન થાય છે.
ત્રિજા કારણનું નિરૂપણ—જ્યારે વૈમાનિક દેવા અને ( ભવનપતિ દેવા) વચ્ચે સંગ્રામ મચે છે, ત્યારે પણ આખી પૃથ્વી કપાયમાન થઈ જાય છે. તેમની વચ્ચેના સંગ્રામનુ' કારણ નીચે પ્રમાણે હાય છે-તેમની વચ્ચે વેર હાય छे, रमने तेमनु' ते वेर लवप्रत्ययिक होय छे, उछु यागु छे है-" किं पत्तियं णं भते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं गया य गमिस्संति य ? गोयमा ! तेसि णं देवाण भवपचइए वेराणुत्रधे " आ सूत्रना लावार्थ मा प्रभा - गौतम स्वामीना
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स्थानाङ्गसूत्रे भदन्त ! असुरकुमारा देवाः सौधर्म कल्पं गताश्च गमिष्यन्ति च ? गौतम ! तेषां खलु देवानां भवप्रत्ययिको वैरानुबन्धः, इति, ततश्च स ग्रामो भवति, तस्मिन् संग्रामे वर्तमाने सति केवलकल्पा-सम्पूर्णा पृथिवी चलति ३, इत्येतैः पूर्वोक्तैः कारणैः केवलकल्पा पृथिवी चलतीति । २ ॥ सु० ६६ ॥
पूर्व स ग्रामकारितया देवासुराः प्रोक्ताः, ते चन्द्रादिभेदेन दशविधा इति तन्मध्यवर्तिनस्विस्थानकावतारिणः किल्विपिकाः सन्तीति तानभिधित्सुराह___ मूलम्-तिविहा देवकिदिवसिया पण्णत्ता, तं जहा-तिपलि
ओवसट्रिइया १, तिसागरोवमट्टिइया२, तेरसलागरोवमट्टिइया ३ । १ । कहि णं भंते ! तिपलिओवमट्टिइया देवकिदिवसिया परिवमति ? उदि जोइसियाणं हिदि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु एत्थणं तिपलिओवमाहिइया देवकिब्धिलिया परिवसंति । १ । कहि णं संते ! तिसागरोवमहिइया देवकिदिबसिया परिवसंति१, उप्पिं सोहम्मीलाणाणं कप्पाणं हेर्टि सणकुमारमाहिंदेसु कप्पसु एत्थ णं तिसागरोवमट्रिइया देवकिबिलिया परिवसंति । २ । कहि णं भंते ! तेरसलागरोवमाहिइया देवकिबिसियापरिवसति ? उप्पि बंभलोगस्स कप्पल हिटिं लंतगे कप्पे एत्थ णं तेरससागरोवमहिइया देवकिदिबसिया परिवसंति । ३ । सू० ६७ ॥ से ऐसा पूछा गया है-हे भदन्त ! अस्तुरकुमार देव सौधर्मकल्प में पहिले क्यों पये और आगे भी क्यों जावेंगे ? उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम! उन देवों का वैरानुबंध भवप्रत्ययिक होता है इससे संग्राम होता है इस संग्राम के होने पर संपूर्ण पृथिवी कंपित हो उठती है इस प्रकार के इन तीन कारणों को लेकर संपूर्ण पृथिवी चलायमान होती है। २॥६६॥ પ્રશ્ન-“હે ભગવન્! અસુરકુમાર દે સૌધર્મક૫માં ભૂતકાળમાં શા કારણે કે ગયા હતા અને ભવિષ્યમાં શા કારણે જશે?”
મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર–હે ગૌતમ! તે દેને વૈરાનુબંધ ભવપ્રત્યયિક હોય છે તે કારણે તેમની વચ્ચે સ ગ્રામ મચે છે, અને તે સંગ્રામ થાય ત્યારે આખી પૃથ્વી કંપી ઉઠે છે આ પ્રકારના ત્રણ કારણોને લીધે આખી પૃથ્વી यसायमान थाय छ. । २। ॥ सू. ६६ ॥
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भुधा टीका स्था० ३ उ.४ सू० ६७ किल्बिपिकदेवनिरर्पणम् २२९ ___ छाया-त्रिविधाः देव किल्विपिकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-त्रिपल्योपमस्थितिकाः १, त्रिसागरोपमतिकाः २, त्रयोदशसागरोपमस्थितिकाः ३ । १ । कुत्र खलु भदन्त ! त्रिपल्योपमस्थितिको देवकिल्विपिकाः परिवसन्ति ?, उपरिज्योतिष्काणाम् , अधः सौधर्मशानयोः कल्पयोः अत्र खलु त्रिपल्योपमस्थितिका देवकिल्विपिकाः परिवसन्ति । १ । कुत्र खलु भदन्त ! त्रिसागरोपमस्थितिका 'देवकिल्बिपिका परिवसन्ति ? उपरि सौधर्म शानयोः कल्पयोः अधः सनत्कुमारमहेन्द्रयो. कल्पयोः, अत्र खलु त्रिसागरोपमस्थितिका देवकिल्विपिकाः परिवसन्ति । २ । कुत्र खलु भदन्त ! त्रयोदशसागरोपय स्थितिका देवकिल्बिपिकाः परिवसन्ति । उपरिब्रह्मलोकस्य कल्पस्य, अधोलान्तकास्य कल्पस्य अत्र खलु त्रयोदशसागरोपमस्थितिका देवकिल्विपिकाः परिवसन्ति ३ ॥ सू० ६७ ॥
टीका-'तिविहा' इत्यादि । त्रिविधा:-त्रिप्रकाराः देवकिल्विपिकाः प्रज्ञप्ताः किलिव-किल्विपिकाभावनोपात्तं पापमुदये विद्यते येषां ते किल्विपिकाः, सा मावना चेत्थम् -
" नाणस्स केवलीणं धम्मायरियरस संघसाहूणं ।
माई अवनवाई किधिसियं भावणं कुणइ ॥ १॥ छाया-ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्यस्य संघसाधूनाम् ।
मायी अवर्णवादी किल्बिपिका भावनां करोति ॥१॥" इति। देवानां मध्ये किल्बिषिका:-पापी मनुष्येषु चाण्डाला इवा स्पृश्या देवा देवकिल्विपिकाः । ते यथा-त्रिपल्योपमस्थितिकाः १, निसागरोपमस्थितिकाः २,
देव और असुर आपस में संग्रामकारी होते हैं यह कहा है, तथा ये इन्द्रादिक के भेद से १० प्रकार के होते हैं, इन १० प्रकारों में एक किल्बिषिकों का भी है अतः अब सूत्रकार त्रिस्थानक के अवतारी इन किल्बिषिकों का कथन करते हैं-"तिविहा देवकिञ्चिसिया-" इत्यादि सत्र में जो किल्पिषिक हैं-वे तीन प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-एक तीन पल्योपम की स्थितिवाले, दूसरे तीन सागरोपम की स्थितिवाले, और तीसरे १३ सागरोपम की स्थिति वाले।
આગલા સૂત્રમાં એ ઉલ્લેખ થયે છે કે દે અને અસુરે વચ્ચે કઈ કઈ વખત સંગ્રામ મચી જાય છે ઇન્દ્રાદિકના ભેદથી તે દેના ૧૦ પ્રકાર કહ્યા છે. તે દસ પ્રકારના દેવામાં એક પ્રકાર કિલિબષિકેને પણ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ત્રિસ્થાનકને આધારે તે કિબિષિકેનું કથન કરે છે
“तिविहा देवकिदिवसिया " त्यादिકિબિષિક દેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે(૧) ત્રણ પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા (૨) ત્રણ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા અને (૩) ૧૩ સાગરેપમની સ્થિતિવાળા,
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स्थानालस्त्र त्रयोदशसागरोपमस्थितिका३श्चेति । प्रस्तावात्तेषां निवासस्थानानि प्रश्नोत्तरद्वारेण पाह-'कहि णं अंते' इत्यादि-त्रिएल्योपमस्थितिकाः पल्योपमत्रयस्थितिमन्तः किल्विपिकादेवा कुत्र परिवसन्ति ? भगवानाह-गौतम किल्विपिकादेवा ज्योतिरुपरि ज्योतिप्काणामुपरि सौधर्म शानयोः प्रथमद्वितीयकल्पयोरधस्तात् परिवसन्ति १ । स्त्रे पष्ठयर्थे सप्तमी प्राकृतत्वात् , एवमग्रेऽपि । त्रिसागरोपमस्थितिका देवकिल्विपिकाः सौधर्म शानयोः कल्पयोरुपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रयोस्तृतीय चतुर्थकल्पयोरथः परिवसन्ति २ । त्रयोदगसागरोपम स्थितिकाः किल्वि.
प्र.-भदन्त ! तीन पल्योपम की स्थितिवाले देवकिल्बिषिक कहां रहते हैं ? ___ उ०-वे देवकिल्यिषिक जिन्की स्थिति तीन पल्योपम की होती है ज्योतिष्क मण्डल से ऊपर और सौधर्म ईशान कल्पों के नीचे रहते हैं!
प्र०-हे भदन्त ! जिन देवकिल्बिपिकों की स्थिति तीन सागरोपम की होती है वे कहां रहते हैं ?
उ०-तीन सागरोपन की स्थितियाले किल्बिषिक देव सौधर्म ईशान कल्पों के ऊपर और सनत्कुमार माहेन्द्र कल्पों के नीचे रहते हैं।
प्र०-हे भदन्त ! जिन किल्बिपिकों की स्थिति १३ सागरोपस की होती है वे कहां पर रहते हैं ?
उ०–१३ सागरोपम की स्थितियाले किल्विषिक ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर और लान्तक कल्प के नीचे रहते हैं। देव किरियधिक का मात्पर्य उन देवों से है कि जो देवों के बीच में मनुष्यों के बीच में
પ્રશ્ન–હે ભગવન ! ત્રણ પલ્યોપમી સ્થિતિવાળા દે કયાં રહે છે ?
ઉત્તર–ત્રણ પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા કિલિબષિક દે તિષ મંડળની ઉપર અને સૌધર્મ તથા ઈશાન કમ્પની નીચે રહે છે.
પ્રશ્ન–હે ભગવન્! ત્રણ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા કિબિષિક દે ४यां २४ छ ?
ઉત્તર-ત્રણ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા કિલિબષિક દેવ સૌધર્મ અને ઈશાન કની ઉપર તથા સનસ્કુમાર અને મહેન્દ્ર કપની નીચે રહે છે. કે
પ્રશ્ન- હે ભગવન ! તેર સાગરોપમની સ્થિતિવાળા કિલિબષિક દે કયાં રહે છે? : ઉત્તર-તેઓ બ્રલેક કલપની ઉપર અને લાન્તક કપની નીચે રહે છે.
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सुधी टीका स्था०३ ०४ सू०६८ इन्द्रपरिषन्निरूपणम्
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पिका देवा ब्रह्मलोकस्य कल्पस्य पञ्चमदेवलोकस्योपरिलान्तकस्य कल्पस्य षष्ठ देवलोकस्याऽधस्तात् परिवसन्तीति ॥ मु० ६७ ॥
अथ देवाधिकारादिन्द्रपरिषद्वक्तव्यतां प्ररूपयन् सूत्रत्रयमाह
गुलम् - सक्कल्स णं देविंदरूस देवरण्णो बाहिरपरिसाए देवाणं तिन्निपलिओ माई ठिईपन्नत्ता १ । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अभितर परिसाए देवाणं तिन्नि पलिओ माई ठिई पन्नत्ता २ । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो बाहिरपरिसाए देवाणं तिन्ति पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ३ ॥ सू० ६८ ॥
छाया - शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य वाह्यपरिपदो देवानां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । १ । शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य आभ्यन्तरपरिपदो देवानां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता | २ | ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य वापरिषदो देवानां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ३ | | ० ६८ ॥
चाण्डाल आदि के समान अस्पृश्य होते हैं। ये देवकिल्यिषिक किल्बिष की भावना से उपान्त पाप के उदद्यवाले होते हैं। वह भावना इस प्रकार से है - "नाणस्स केवलीणं-" इत्यादि, जो ज्ञान का केवलियों का धर्माचार्य का - संघ का एव साधु का अवर्णवाद करता है, तथा स्वयं जो मायी है वह मनुष्य किल्विपिकी भावना वाला बनता है, ये तीनों प्रकार के देवकिषक कहां रहते हैं यह सब ऊपर प्रकट कर दिया है । ६७॥
હવે એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે દેવામાં આ કલ્મિષિકાનું સ્થાન કેવું છે—જેમ મનુષ્યેામાં ચાંડાળ આદિને અસ્પૃશ્ય ગણવામાં આવે છે તેમ દેવામાં કિિષકાને પણ અસ્પૃશ્ય ગણવામાં આવે છે તે ફિલ્મિષિકા કિમિષિકી ભાવનાથી ઉપાત્ત પાપના ઉદયવાળા હાય છે તે ભાવના આ પ્રકારની छे- " नाणस्स केवलीणं " इत्याहि-
જે જ્ઞાનના કેવલીએના, ધર્માચાય ના, સધના અને સાધુના અવવાદ કરે છે, તથા જે પાતે માયી ( માયાયુક્ત ) હાય છે, એવા મનુષ્ય કિલ્મિષિકી ભાવનાવાળે અને છે. આ ત્રણે પ્રકારના કિમિષિક દેવે કયાં રહે છે તે ઉપર अट ४२वामां यान्यु ॥ सू. ६७ ॥
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२३२
स्थानानसूत्र
टीका-'सकस्स णं' इत्यादि । सूत्रत्रयमपि सुगमं, नवरं शक्रेन्द्रस्य बाह्यपरिषद्गतदेवानाम् ( १ ) आभ्यन्तरपरिपद्गतदेवानां च स्थितिः पल्योपमत्रयपरिमितोक्ता । २ । ईशानेन्द्रस्य च वाह्यपरिपद्गत देवानां त्रिपल्योपमपरिमिता स्थितिरुक्तेति । ३ ॥ ० ६८ ॥
पूर्वदेवानां स्थितिः प्रोक्ता, देवत्वं च पूर्वभवे स प्रायश्चित्तवतानुष्ठानात माप्नोतीति प्रायश्चित्तवतां च प्ररूपणां सूत्रचतुष्टयेनाह--
__ मूलम्—तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते १ । तओ अणुग्धाइमा पण्णत्ता, तं जहा-हत्थकम्मं करेसाणे, मेहणं सेवमाणे, राइभोयणं सुंजमाणे २ । तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहादुपारंचिए, पमत्तपारंचिए, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३ । तओ अणवटुप्पा पणत्ता, तं जहा-साहम्मियाणं तेणं करेमाणे, अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणे, हत्थातालंदलयमाणे४॥सू०६९॥
__अब सूत्रकार देवाधिकार को लेकर इन्द्रपरिषद् सम्बन्धी वक्तव्यता की प्ररूपणा करने के लिये कहते हैं-"सकस्स णं देविंदस्स देवरणो" इत्यादि सूत्र ।
देवेन्द्र-देवराज शक्र की बायपरिषदा के देवों की तीन पल्योपम की स्थिति कही गई है। देवेन्द्र-देवराज शाक की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की तीन पल्योपम की स्थिति कही गई है। देवेन्द्र-देवराज ईशानेन्द्र की बाह्य परिषदा की देवों की तीन पल्योपम की स्थिति कही गई है, इन तीनों सूत्रों की व्याख्या सुगम है ।।मू०६८॥
દેવાધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પરિષદ સંબંધી 4zतव्यतार्नु [३५ ४२ छ-" सकरस णं देविंदस्स देवरणो" त्याह
દેવેન્દ્ર, દેવરાજ શકની બાહ્ય પરિષદના દેવોની સ્થિતિ ત્રણ પોપમની કહી છે. દેવેન્દ્ર, દેવરાજ શકની આભ્યન્તર પરિષદના દેવોની સ્થિતિ ત્રણ પાપમની કહી છે. દેવેન્દ્ર, દેવરાજ ઈશાનેદ્રની બાહ્ય પરિષદની દેવાની સ્થિતિ ત્રણ પશેપમની કહી છેઆ ત્રણે સૂત્રે સરળ હોવાથી વધુ સ્પષ્ટીકરણની જરૂરરહેતી નથી. એ સ. ૬૮ છે
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सुधा टीका स्था० ३ उ०४ सू. ६९ प्रायश्चित्तवतां निरूपणम्
छाया-त्रिविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्त, तद्यथा-ज्ञानप्रायश्चित्तं, दर्शनप्रायश्चित्तं, चारित्रप्रायश्चित्तम् १ । त्रयः अनुद्धातिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - हस्तकर्मकुर्वाणः, मैथुन सेवमानः, रात्रिभोजनं भुञ्जानः ।२। त्रयः पाराञ्चिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथादुष्टपाराश्चिकः, प्रमत्तपाराञ्चिका, अन्योन्यं कुर्वन् पाराश्चिकः ३ । त्रयोऽनवस्थाप्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-साधार्मिकाणां स्तन्यं कुर्वाणः, अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः, हस्तातोलं ददत् ४ ॥ मू० ६९ ॥
देवो की स्थिति कही इस देवपद की प्राप्ति जीव को पूर्व भवमें प्रायश्चित्त सहित अनुष्ठानसे होती है अतः अब सूत्रकार प्रायश्चित्तबालों की प्ररूपणा सूत्रचतुष्टय से करते हैं-"तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते" इत्यादि ___ मूत्रार्थ - प्रायश्चित्त तीन प्रकार का कहा गया है जैसे-ज्ञान प्रायश्चित्त दर्शन प्रायश्चित्त, और चारित्रप्रायश्चित्त ? अनुहालिमा-तीन प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-हस्तकम करनेवाले, मैथुन सेवन करनेवाले,
और रात्रि भोजन करनेवाले २, पाराश्चिक तीन प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-दुष्ट पाराश्चिक, प्रमत्तपाराश्चिक, और परस्पर में मैथुन करनेवाला पाराश्चिक-३ अनवस्थाप्य तीन कहे गये हैं, जैसे-साधर्मिकों की चोरी करने वाला, अन्यधार्मिकों की चोरी करने वाला, और हाथ से ताल ताडन करने वाला प्रहार करने वाला ४ ।
પહેલાના સૂત્રમાં દેવોની સ્થિતિ પ્રકટ કરવામાં આવી. પૂર્વભવમાં પ્રાયશ્ચિત્ત સહિત અનુછ ન કરવાથી જીવને દેવ પદની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર પ્રાયશ્ચિત્તવાળા જીની પ્રરૂપણું સૂત્ર ચતુષ્ટય (यार सूत्री) १२१ ५४२ ४२ छ- 'तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते" त्याह
સત્રાર્થ–પ્રાયશ્ચિત્તના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) જ્ઞાન પ્રાયશ્ચિત્ત, (२) शन प्रायश्चित्त भने (3) यास्त्रि प्रायश्चित्त । १।।
अनुद्धातिभाना त्रशु प्रा२ ह्या छ-(१) सतम ४२ना२१, (२) भैथुन सेवन ४२ना२। मन (3) निसान ४२ना२। । २ । ___पायित ऋण AIR ४ छ-(१) ६ पाय४, (२) प्रभात पा२१. ચિક અને (૩) પરસ્પરમાં મિથુન કરનાર પારાંચિક ! ૩.
અનવસ્થાપ્ય ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે– (૧) સાધર્મિકોને ત્યાં ચેરી કરનાર (२) अन्य धार्मिीने त्यां योरी ४२नार माने (3) डायथा ताs४ (१९४२) ४२ना२ १४
श ३०
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स्थानानसूत्रे
टीका- ' तिविहे पायच्छित्ते ' इत्यादि । सूत्रचतुष्टयं सुगमं, नवर- अतिचारशुद्धयर्थं यदालोचनादि तत्मायश्चित्तं कथ्यते तत् ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात्रिविधं, तत्र ज्ञानप्रायश्चित्तं - ज्ञानातिचारशुद्धयर्थं यदालोचनादिकरणम् । यद्वा-प्रायश्चित्तशब्दोऽविचार - वाचकस्तेन ज्ञानस्य प्रायश्चित्तमतिचारो ज्ञानमायश्चित्तम् । १ । एवं दर्शनचारित्रयोरपि विज्ञेयम् । तत्र ज्ञानस्याकालाध्ययनादयोऽष्टावतिचाराः, दर्शनस्य शङ्किताकाङ्क्षितादयोऽष्टौ चारित्रस्य त्वतिचाराः, मूलोत्तरगुण विराधनारूपा अनेकविध इति । ' त अणुग्धाइमा ' इत्यादि, अनुद्धातिमाः, उद्घातः- भागपातस्तेन निर्वृत्तम् उद्घातिनं लघुप्रायश्चित्तं-न उद्घातिमम्, अनुद्धा
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टीकार्थ - अतिचारों की शुद्धि के लिये जो आलोचनादि किये जाते हैं वे सब प्रायश्चित्त कहलाते हैं, वह प्रायश्चित्त ज्ञानदर्शनऔर चारित्र के भेद से तीन प्रकार का जो कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि ज्ञान में लगे हुवे अतिचारों की शुद्धि के लिये जो आलोचना आदि करना होता है वह ज्ञानप्रायश्चित्त है अथवा - प्रायश्चित्त शब्द अतिचार का वाचक है इससे यह अर्थ निकलता है कि- ज्ञान का जो प्रायश्चित्त अतिचार है वह ज्ञानप्रायश्चित्त है ? इसी तरह का कथन दर्शन और चारित्र के विषय में भी जानना चाहिये अकाल अध्ययन आदि आठ अतिचार ज्ञान के और शंकित कांक्षित आदि ओठ अतिचार दर्शन के तथा मूलोत्तर गुणों की विराधना रूप अनेकविध अतिचार चारित्र के हैं । तओं अणुग्धामा " इत्यादि भागपात का नाम उद्घात है इस भागपात से जो निर्दिष्ट होता है वह
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ટીકા હવે આ ચાર સૂત્રેાનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે અતિચારાની શુદ્ધિનિમિત્તે જે આલેચના વગેરે કરવામા આવે છે તેનું નામ પ્રાયશ્ચિત્ત છે
તે પ્રાયશ્ચિત્ત જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનુ ગૃહ્યું છે. જ્ઞાનમાં લાગેલા અતિચારાની શુદ્ધિને નિમિત્તે જે આલેાચના આદિ કરવામાં આવે છે, તેને જ્ઞાન પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. અથવા પ્રાયશ્ચિત્ત શખ્ત અતિચારને વાચક છે, તેથી એવા અથ નીકળે છે કે જ્ઞાનનું જે પ્રાયશ્ચિત્ત-અતિચાર છે, તેનું નામ જ્ઞાનપ્રાયશ્ચિત્ત છે. એ જ પ્રકારનુ કથન દન અને ચારિત્રના વિષયમાં પણ સમજવું અકાલ અધ્યયન આદિ આઠ અતિચાર જ્ઞાનના કહ્યા છે, શકિત, કાંક્ષિત આદિ આઠ અતિચાર દર્શનના કહ્યા છે, તથા મૂલાત્તર શેાની વિરાધના રૂપ અનેક અતિચાર ચારિત્રના કહ્યા છે । ૧ ।
" इत्यादि
" तओ अणुग्धाइमा
ભાગપાતનું (પ્રાયશ્ચિત્તના વિભાગ) નામ ઉદ્ધૃાત છે. તે ભાગપાતથી જે
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सुघाटीका स्था० ३ उ३४ ० ६९ प्रायश्चित्तवतां निरूपणम्
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तिमं - गुरु प्रायश्चित्तमित्यर्थः, गुणगुणिनोरभेदात् साधवोऽप्यनुद्धातिमाः - गुरुमायश्चित्तयोग्या इत्यर्थः, ते त्रयः मज्ञप्ताः, तथाहि - हस्तकर्म-आगमप्रसिद्धं तत्कुर्वाणः तदाचरन् अन्यद्वयं प्रसिद्धम् । २ । ' तभी पारंचिया' इत्यादि, त्रयः पाराञ्चिकाः पारं - तीरं तपसाऽपराधस्य अञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराची, स एव पाराश्चिकः, तस्य यदनुष्ठानं तत् पाराश्चिकं दशमं प्रायश्चित्तं लिङ्गक्षेत्रकाल
-
उद्धातिम है, उद्वातिम शब्द का अर्थ लघुप्रायश्चित्त है ऐसा जो प्रायचिप्त नहीं होता है- अर्थात् जो गुरु प्रायश्चित्त होता है वह अनुद्धातिम है यहां गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध से साधुजन भी " उद्वातिम" शब्द के वाच्यार्थ हो जाते हैं इसलिये जो गुरुप्रायश्चित्त के योग्य होते हैं वे अनुद्धातिम होते हैं, ऐसे अनुद्घातिन साधु तीन प्रकार के जो कहे गये हैं उनका तात्पर्य ऐसा है कि आगम प्रसिद्ध हस्तकर्म को जो साधु करता है, वह तथा मैथुनसेवन जो करता है, वह और जो रात्रि भोजन करता है, वह महाप्रायश्चित्त का पात्र होता है, "तओ पारचिया " इत्यादि - इस सूत्र के द्वारा जो पाराञ्चिक तीन प्रकार के कहे गये हैं उनका तात्पर्य ऐसा है जो साधु तपस्याद्वारा अपराधके तीर (अन्तिम अवस्था ) को प्राप्त कर लेता है, बाद में पुनः दीक्षित किया जाता है, ऐसा वह साधु पाराची है पाराची ही पाराचिक है उसका जो अनुष्ठान है वह
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નિટ્વિટ થાય છે તે ઉદ્ઘાતિમ છે. ઉદ્ઘાતિમ એટલે લઘુપ્રાયશ્ચિત્ત, અને અનુદ્ધાતિમ એટલે ગુરુપ્રાયશ્ચિત્ત જે પ્રાયશ્ચિત્ત લધુ હાતું નથી પણ ગુરુ હોય છે, તે પ્રાયશ્ચિત્તને અનુદ્ધાતિમ કહે છે ગુણુ અને ગુણીમાં અભેદ સંબધની અપેક્ષાએ અહીં સાધુજન પણ ઉદ્ધાતિમ' પદના વાચ્યા રૂપે ગ્રહણુ કરી શકાય છે. તેથી ગુરુપ્રાયશ્ચિત્તને પાત્ર હાય એવા સાધુને અનુષ્કૃતિમ કહે છે એવા અનુદ્ધાતિમ સાધુઓના જે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે, તેનુ સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે–(૧) આગમ પ્રસિદ્ધ હસ્તક કરનાર જે સાધુ હાય છે, તે મહાપ્રાયचित्तने यात्र गाय छे, (२) मैथुन ( मप्र ) तु सेवन ४२नार साधु प મહાપ્રાયશ્ચિત્તને પાત્ર ગણાય છે. (૩) રાત્રિભાજન કરનાર સાધુ પણ મહાप्रायश्चित्तने पात्र गाय छे. " तओ पार चिया " त्याहि
પહેલાં તે આ સૂત્રમાં વપરાયેલા · પારચિક ' પદ્મના અર્થ સમજાવવામાં આવે છે–જે સાધુ તપસ્યા દ્વારા અપરાધના તીરને પ્રાપ્ત કરી લે છે, ત્યારખાદ ફરીથી દીક્ષિત કરવામાં આવે છે, એવા તે સાધુને પારાંચી કહે છે. ધારાંચી જ પારાચિક ગણાય છે. તે પારાચિકતુ જે અનુષ્ઠાન છે તેને પારાંચિક
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स्थानाङ्गसूत्रे
,
66
के
तपोभिर्वहिष्करणमितिभावः, तद्योगात्साधुरपि पाराश्चिकः । स संक्षेपेण द्विविधः आशातना पाराश्चिकः, प्रतिसेवनापाराचिकञ्च । तत्र स प्रत्येकं स चारित्राचरित्रभेदेन द्विविधः तथाहि-- सचरित्र अशातनापाराञ्चिकः, अचरित्र आशातना पाराश्चिको वा । एवं सचरित्रः प्रतिसेवनापाराञ्चिकः, अचरित्रः प्रतिसेवनापाराचिको वा । परिणाममपरावं चाश्रित्य कुत्रचित् केनाऽपि प्रतिसेवितेन पदेन सर्वं चारित्रं भ्रश्यति, कुत्रचिदेशतो भ्रश्यति । एवं कुत्रचित्तुल्येऽपराधेऽपि परिणामवशान्नानाप्रकारेण प्रायश्चित्तदानं भवति, कुत्रचित्तुल्ये परिणामेऽपि अपराधनानालं पाराचिक है, पाराचिक "" यह दशवां प्रायश्चित्त है इसमें लिङ्ग क्षेत्रकाल-तप इनसे पाराची को बाहर करना होता है इस कारण इस प्रायसे साधु को भी पाराचिक कह दिया गया है, यह संक्षेप से दो प्रकार का होता है- एक आशानना पाराश्चिक, और दूसरा - प्रतिसेवना पाराश्चिक, इनमें प्रत्येक के भी दो दो भेद हैं, जैसे-सचरित्र आशातना पाराश्चिक, और अचरित्र आशातना पाराश्चिक, सचरित्र प्रतिसेवना पाराश्चिक, और अचरित्र प्रतिसेवना पाराचिक, परिणाम और अपराध की अपेक्षा के अनुसार कहीं पर किसी भी प्रतिसेवित हुए पद से सम्पूर्ण चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है और कहीं पर देशतः चारित्र भ्रष्ट होता है इसी तरह कहीं पर तुल्य अपराध के होने पर भी परिणाम के अनुसार नाना प्रकार से प्रायश्चित्त दिया जाता है तथा - कहीं पर तुल्य परिणाम के होने पर भी अपराध में भिन्नता अनेकता अनुष्ठान हे छे, “ पाराचि " मा शभुं प्रायश्चित्त छे, तेमां सिंग, क्षेत्र, કાળ અને તપથી પારાંચિકને વારવાના હોય છે તે કારણે આ પ્રાયશ્ચિત્તના સંબધને અનુલક્ષીને સાધુને પણુ પારાંચિક કડી દેવામાં આન્યા છે. તે પારાંચિકના બે પ્રકાર પડે છે–(૧) આશાતના પારાચિક અને (૨) પ્રતિસેવના પારાંચિક આ દરેકના પણ ખબ્બે ભેદ કહ્યા છે–સચરિત્ર આશાતના પારાંચિક અને અચરત્ર આશાતના પારાંચિક, આ બે ભેદો આશાતના પારાંચિકના સમજવા, પ્રતિસેવના પારચિકના પણ નીચે પ્રમાણે એ ભેદ કહ્યા છે–(૧) સચરિત્ર પ્રતિસેવના પારાંચિક અને (૨) અચરિત્ર પ્રતિસેવના પારાંચિક,
પરિણામ અને અપરાધની અપેક્ષાએ કયારેક કાઇપણ પ્રતિસેવિત થયેલા પદ્મથી સ પૂર્ણ ચારિત્રભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, અને કયારેક દેશતઃ ( અંશતઃ ) ચારિત્ર ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. આ રીતે કયારેક તુલ્ય અપરાધને સદ્ભાવ હાવા છતાં પણ પરિણામાનુસાર વિવિધ પ્રકારે પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે, તથા કયારેક તુલ્યપરિણામના સદ્ભાવ હોવા છતા પશુ અપરાધમાં ભિન્નતા દેખાતી
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सुधा टीको स्था०३ उ ३४ सू० ६९ प्रावश्चित्तवतां निरूपणम् भवति । तीर्थकर-प्रवचनश्रुता-ऽऽचार्य-गणधरमहर्द्धिकानामाशातनाकारक आशातनापाराञ्चिको भवति ।
उक्तश्च-" सव्वे आसायंते पावइ पारंचियं ठाणं " छाया-सर्वान् आशातयन् प्राप्नोति पाराश्चि स्थानम् , इति ।
प्रतिसेवनापाराश्चिकत्रिविधः-दुष्टपाराधिका प्रमत्तपाराश्चिकः, अन्योन्यपाराश्चिकश्चेति, उक्तञ्च
" पडिसेवणपारंची, तिविहो सो होइ आणुपुबीए ।
दुढे य पमत्ते य, नायव्यो अन्नपन्ने य ॥ १ ॥ छाया-प्रतिसेवनापाराश्विकस्त्रिविधः स भवति आनुपूा ।
दुष्टश्च प्रमत्तश्य, ज्ञातव्योऽन्योऽन्यश्चेति ॥ १ ॥ इति । पारञ्चिकनैविध्यमाह-दुष्टपाराञ्चिकः, दुष्टो-दोपवान् पाराश्चिकः । प्रमत्तपाराश्चिकः, प्रमत्तः-पञ्चमनिद्राप्रमादबान् , स एव पाराश्चिकः । अन्योन्यं कुर्वन् पाराश्चिकः, अन्योन्यं-परस्पर मैथुनं पाराश्चिकः पुरुषयुग्मरूप इत्यर्थः। तत्रआती है तीर्थकर प्रवचन श्रुत-आचार्य गणधर और महद्धिक इनकी आशातना करने वाला जीव आशातना पाराश्चिक होता है, कहा भी है-" सव्व आसायंते पाबाइ पारंचियंठाण-" प्रतिसेवना पाराञ्चिक तीन प्रकार का होता है, एक दुष्टपाराञ्चिक दूसरा प्रमत्तपाराश्चिक, और तीसरा अन्योन्यपाराश्चिक, कहा भी है-"पडिसेवणपारंची तिविहो-" इत्यादि, जो दुष्ट दोषवाला होता है वह दुष्टपासंचिक है, जो पांचवां निद्रारूप प्रमादवाला होता है वह प्रमत्सपाराश्चिकहै, तथा-परस्परमें मैथुन करता है वह-अन्योन्यपाराञ्चिक है। इनमें जो दुष्ट पाराञ्चिक है वह कपाय विषय की अपेक्षा से दो प्रकार का है, तथा-कपायदुष्टपाराश्चिक હોય છે તીર્થંકર-પ્રવચન, શ્રત, ગણધર, આચાર્ય અને મહદ્ધિકની આશા તના કરનાર જીવ આશાતના પારચિક હોય છે કહ્યું પણ છે કે
" सव्व आसायंते पावइ पारेंचियं ठाणं " त्यादि
પ્રતિસેવના પારાચિક ત્રણ પ્રકારનાં હોય છે-(૧) દુષ્ટ પારાચિક (૨) પ્રમત્ત પારાચિક અને (૩) અન્ય પારાંચિક કહ્યું પણ છે કે
" पडिसेवणपारची तिविहो" त्याहि
જે દુષ્ટ (દોષવાળે) હોય છે તેને દુષ્ટ પારાંચિક કહે છે. જે પંચમ નિદ્રારૂપ પ્રમાદવાળો હોય છે તેને પ્રમત્ત પારાંચિક કહે છે, તથા જે પરસ્પરમાં મૈથુન (અબ્રહ્મ) નું સેવન કરે છે તેને અ ન્ય પારાચિક કહે છે. આ ત્રણ પ્રકારના પારાચિકમાંથી જે દુષ્ટ પારાચિક છે તે કષાય–વિષયની અપેક્ષાઓ બે પ્રકાર છે-(૧) કષાય દુષ્ટ પારાચિક અને (૨) વિષય દુષ્ટ પારાંચિક
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स्थानाक्षसूत्रे दुष्टपाराश्चिको-कपायतो विपयतश्चेति द्विविधः, पुनरे कंकः सपक्षविपक्षभेदा द्विविधः, उक्तञ्च
" दुविहो य होइ दुट्टो, कसायदुट्टो य विसयदुट्ठो य ।
दुविहो कसायदुट्ठो सपक्खपरपक्ख चउभंगो ॥ १ ॥ छाया-द्विविधश्च भवति दुष्टः कपायदुष्टश्च विपयदुष्टश्च ।
द्विविधः कपायदुष्टः सपक्षपरपक्षयोश्चर्तुमङ्गी" ॥ इति । तत्र-स्वपक्षकपायदुप्टो यथा-सर्पपनालिकाशाकमर्जिकाग्रहणकुपितो मृताचार्यदन्तमञ्जको मुनिः । विषयदुष्टस्तु साध्वीगामी साध्व्या सह कामभोगामिलाषुक इत्यर्थः, एकसाव्या आशातनाकारकेण सुनिना सर्वजिनानामाः आशा. तिताः सङ्घोऽप्याशातितो भवति, तथा चोक्तम्- " लिंगेण लिंगिणीए, संपत्ति' जोणिगच्छई पायो ।
सव्वजिणाणऽज्जाओ संघो वाऽऽसाइओ तेणं ॥ १ ॥ छाया-लिङ्गेन ( मुनिवेषेण सहितो मुनिः ) लिङ्गिन्या (मुनिवेपवत्याः और विषयदुष्टपाराश्चिक, ये दोनों भी सपक्ष और विपक्ष के भेद से दो दो प्रकार के होते हैं। कहा भी है- दुविहो होह दुट्टो-" इत्यादि, सर्षपनालिका की शाकभाजी को ग्रहण करने से कुपित हुवा ऐसा मृताचार्य के दांतों को उखाडलेवाला मुनि स्वपक्ष कषाय दुष्टपाराश्चिक कहा गया है तथा-विषयदुष्टपाराश्चिक वह है जो साध्वी के साथ भोग करने का अभिलाषी होता है जो एक साध्वी की अशातना करने वाला होता है ऐसा वह मुनि समस्त जिन भगवानों की आर्याओं की आशातना कारक होता है और श्रीसंघ की भी आशातना कारक होता है। कहा भी है-" लिंगेण लिगिणीए-" सुनिवेष सहित जो मुनि मुनिवेष તે દરેકના પણ સપક્ષ અને વિપક્ષના ભેદથી બન્ને પ્રકાર પડે છે. કહ્યું પણ छ :-" दुविहो होइ दुट्ठो” त्याह| સર્વપનાલિકાની શાકભાજી ગ્રહણ કરવાથી કે પાયમાન થયેલા મૃતાચાર્યના દાંતને ઉખેડી નાખનાર મુનિને સ્વપક્ષ કષાય દુષ્ટ પારાચિક કહેવામાં આવેલ છે
- સાધ્વીની સાથે વિષયભેગ સેવવાની અભિલાષા કરનાર સાધુને વિષય દુષ્ટ પારાચિક કહે છે. એક સાધીની અશ તન કરનાર મુનિ જિન ભગવાનની સમસ્ત આર્મીઓની (સાધ્વીઓની) અશાતના કરનારો હોય છે, એટલું જ નહીં પણ શ્રીસંઘની પણ અશાતના કરનારો હોય છે. કહ્યું પણ છે કે–
" लिंगेण लिंगिणीए " त्या
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सुधा टीका स्था०३३०३४ सू० ६९ प्रायश्चित्तवतां निरूपणम्
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साध्याः ) संप्राप्ति यो निगच्छति पापः । सर्व जिनानामार्याः संघो वा आशातितस्तेन ॥ १ ॥ इति । एतादृशो मुनिर्द्रष्टुमप्ययोग्यः अनन्तसंसार भ्रमणहेतुकर्मकारित्वात् उक्तञ्च --
" (6
पावाण पावयरो दिद्विष्फासेवि सोन कप्पइ उ । जो जिण पुगववेसं नमिऊण तमेव धरिसेइ ॥ १ ॥ संसारमणत्रयगं, जाइजरामरणवेयणाय उरं ।
पावस पडलछन्ना, समंति मुद्दाधरिसणेणं ॥ छाया - पापानां पापतरो दृष्टिस्पर्शेऽपि स न कल्पते तु । यो जिनपुङ्गववेषं, नत्वा तमेव धर्षति ॥ १ ॥ संसारमनवद जातिजरामरणवेदनाप्रचुरम् ।
पापमलपटलच्छन्ना भ्रमन्ति मुद्रा (वेष ) घर्षणेन ॥ २ ॥ इति । परपक्षकपाय दुष्टः- राजमारकः, परपक्षविपयदुष्टः राजाग्रमहिपीगामी राजाग्रमीण्यासह कामभोगाभिलाषुक इत्यर्थः । प्रमत्तपाराञ्चिको यथा- पञ्चमनिद्रा
वाली आर्या के साथ मैथुन करता है वह सुनि पापी है और ऐसे उस मुनि के द्वारा सर्व जिनेन्द्रों की आर्याएँ आशातित की हुई मानी जाती हैं, तथा संघ भी उससे आशातित हुवा समझा जाता है ऐसा मुनि देखने के योग्य भी नहीं रहता है क्यों कि अनन्त संसार में भ्रमण कराने वाले कर्म का वह कर्ता वन गया होता है। कहा भी है-" पावाण पावयरो -" इत्यादि, जो मुनि राज भारक होता है वह परपक्षकषाय दुष्ट है तथा - परपक्षविषय दुष्ट वह है जो राजा की : पट्टरानी के साथ विषयभोग करने का अभिलाषी होता है, प्रसन्तपाराचिक वह सुनि है जो स्त्यानद्विनिद्रावाला मांसाशी होता है ऐसा वह मुनि सद्गुणोज्वल
મુનિવેષધારી જે મુનિ સુનિવેષધારી આર્યાં ( સાધ્વી ) ની સાથે મૈથુન કરે છે, તે મુનિ પાપી છે. એવા મુનિ દ્વારા જિનેન્દ્રોની સઘળી આર્યાએની આશાતના કરવામાં આવી છે, એવું માનવામાં આવે છે. એટલુ જ નહીં પણ તેના દ્વારા સંઘની પણ આશાતના થઇ ગણુાય છે. એવા મુનિ ઇન કરવાને પાત્ર પણ ગણાતા નથી, કારણ કે અનંત સંસારમાં ભ્રમણ કરાવનાર કમને
ते मनी गयो होय छेउछु पशु छे है-" पावाण पवियरो " त्याहि. જે મુનિ રાજભારક હાય છે તેને પરપક્ષ કષાય દુષ્ટ કહે છે. જે મુનિ રાજાની પટ્ટરાણીની સાથે વિષયભાગ સેવવાના અભિલાષી હાય છે, તેને પરપક્ષ વિષય દુષ્ટ કહે છે.
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स्थानाङ्गसूत्रे प्रमादवान् मांसाशिपवजितमुनिः, अयं च सद्गुणोऽपि त्याज्य एव । अन्योन्यं कुर्वन् पाराश्चिकः अन्योन्यं पुरुषः पुरुषेण सह मुखपायुपयोगतः अनङ्गे वा मैथुनं कुर्वन् पाराश्चिको भवति । अस्य दीक्षादाने विवेकः कार्यः, उक्तश्चात्र___ " आसयपोसयसेवी, केवि मणसा दुवेयगा होति ।
तेसिं वेसविवेगो " छाया-आस्यकपोपकसे विनः केऽपि मनुष्या द्विवेदका भवन्ति तेषां वेषविवेकः ( कार्यः ) इति । ३। ' तो अणवट्ठप्पा' इत्यादि । त्रयः अनवस्थाप्याः, अवस्थापयितु महाव्रतेपु स्थापयित योग्या अवस्थाप्याः, न अवस्थाप्या अनवस्थाप्या:-आसेवितातिचारविशेपाः सन्तोऽनाचरिततपोविशेषास्तद्दोपोपरता अपि महावतेषु नावस्थाप्यन्ते, आचरितहोने पर भी त्याज्यकोटि में ही कहा गया है, अन्योन्यपाराश्चिक वह होता है जो दूसरे पुरुप के साथ मुख में पायु-शुदा में कामक्रीडा करता है, अथवा जो कामसेवन के अङ्ग नहीं हैं उनमें कामसेवन करता है ऐसे को तो दीक्षा देने में विवेक कर्तव्य कहा गया है। कहा भी है"आसयपोलय सेवी-" इत्यादि, " तओ अणवप्पा-” इत्यादि, जो महाव्रतों में स्थापना के योग्य होते हैं वे अवस्थाप्य हैं, और जो ऐसे नहीं होते हैं-वे अनवस्थाच्य हैं, ये अनवस्थाप्य अतिचार विशेषों का आसेवन करते रहते हैं और तपोविशेष को आचरण करने की ओर ध्यान से रहित होते हैं ऐसे ये जीव यदि अतिचाररूप दोषों से उपरत हो भी जावे तो भी महोत्रतों में ये अवस्थापित नहीं किये जाते हैं,
પાંચમી નિદ્રા પ્રમત્ત માંસ ભક્ષી મુનિને પ્રમત્ત પારાચિક કહે છે. એ મુનિ સગુણજિજવલ હોવા છતા પણ ત્યાજ્ય કે ટિમાં જ મૂકી શકાય છે.
કામસેવનના અંગો ન હોય એવાં અંગમાં અન્ય પુરુષની સાથે કામસેવન કરનાર મુનિને અન્ય પારાચિક કહે છે. એવા મુનિને પણ દીક્ષા દેવામાં પણ વિવેક शमवानु' ४थु छ. ४यु पाय छ है-" आसय पोसयसेवी" त्याहि. " तओ अणवठ्ठप्पा" त्याहि
જે મુનિઓ મહાવ્રતમાં સ્થાપનાને ગ્ય હોય છે, તેમને અવસ્થાપ્ય કહે છે, પરંતુ જે મુનિઓ એવા હોતા નથી તેમને અનવસ્થાપ્ય કહે છે. એ અવસ્થાપ્ય મુનિએ અતિચાર વિશેનું સેવન કરતા રહે છે અને તપવિશેષનું આચરણ કરવા પ્રત્યે ધ્યાન રાખવાથી રહિત હોય છે. એવા તે સાધુઓ અતિચાર રૂપ દેચી ઉપરત (તે પ્રકારના દેનું સેવન કરતા અટકી જવું તે) થઈ જાય તે પણ મહાવ્રતોમાં તેમને અવસ્થાપિત કરી
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सुधा टीका स्था०३उ०४ सू०६९ प्रायश्चित्तवतां निरूपणय
२४१ तपोविशेषास्तु पुनर्दीक्षायोग्या भवन्तीति भावः । तानेबाह-साधर्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वन् साधर्मिका:-एकमाण्ड लिकाः साम्भोगिकामुनयः तेषां तत्सत्तकोत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वाचौयं कुर्वन् , तान् प्रति प्रद्विष्टचित्तो वा । अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वन् अन्यसाधर्मिका.-शाक्यादयो गृहस्था वा तेषां तत्सत्तकोपध्यादेश्चौर्य कुर्वन् । तथा-हस्तातालं ददत् । हस्तेनाऽऽतालनमाताडनं हस्तातालस्तं ददत-यष्टिमुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्षः स्वस्य परस्य वा प्रहरन् घोरपरिणामइत्यर्थः अनवस्थाप्यो भवतीति प्रक्रमः ४ ॥ न० ६९ ॥ परन्तु जब ये तपोविशेष को आचरित करने लगते हैं तो ही ये पुनः दीक्षा के योग्य हो जाते हैं इसी बात को सूत्रकार ने इस प्रकार से कहा है जो एक माण्डलिक साम्भोगिक सुनि हैं, वे साधर्मिक कहे गये है-ऐसे साधर्मिक मुनिजनों की उत्कृष्ट उपधिकों अथवा-उनके शिष्यादिकों को चुराने वाला अथवा उनके प्रति प्रद्विष्टचित्त रखने वाला मुनि साधर्मिकों की चोरी करने वाला अनवस्थाप्य कहा गया है। अन्य साधर्मिक से यहां शाक्य ओदि अथवा-गृहस्थजन गृहीत हुवे हैं सो 'इनकी जिस वस्तु पर सत्ता है उस वस्तु को उपधि आदि को चुराने वाला मुनि अनवस्थाप्य के द्वितीय भेद में परिगणित हुवा है हस्तताल को देनेवाला, अर्थात्-यष्टि से मुष्टि से, लकुट (लकडी) आदि से अपने શકાતા નથી. પરંતુ જ્યારે તેઓ તપોવિશેષને આચરવા માંડે છે, ત્યારે જ તેમને ફરીથી દીક્ષા આપવાને ચગ્ય ગણી શકાય છે. એ જ વાતને સૂત્રકારે આ રીતે કહી છે.
હવે અનવસ્થાપ્યના ત્રણ પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે—જે સાધુઓ એક જ મંડળમાં (સમૂડમાં) સાનિક મુનિરૂપે રહે છે તેમને સાધર્મિક કહે છે એવાં સાધર્મિક મુનિજનેની ઉત્કૃષ્ટ ઉપધિ (પાત્ર, વસ્ત્ર આદિ) ની ચેરી કરનારા, અથવા તેમના શિષ્યાદિકેની ચોરી કરાવનારા, અથવા તેમના પ્રત્યે પ્રદ્વિષ્ટ ચિત્ત રાખનારા મુનિને સાધર્મિકેની ચોરી કરનારો અનવસ્થાપ્ય કહ્યો છે
અન્ય સાધર્મિક પદથી અહીં શાય આદિ અથવા ગૃહસ્થજન ગૃહીત થયેલ છે. આ પ્રકારના અન્ય સાધમિકની માલિકીની જે વસ્તુ છે તેની ચોરી કરનાર સાધુને અહીં અનવસ્થાપ્યના બીજા ભેદ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે
(3) मानवस्थाप्यन। श्रीन मेह-डायथी साउन ४२ना२, सोटी, alsी, મુઠી આદિ વડે-મરણની પરવા કર્યા વિના–પિતાની ઉપર કે અન્ય વ્યક્તિની
श ३१
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२४२
स्थानिास्त्रे ____ पूर्वोक्तानि प्रायश्चित्तानि प्रव्रज्यादायकानां भवन्ति । प्रव्रज्यादानं चायोग्यानिरस्य योग्यानां विधेयमिति तदयोग्यान् मत्रपट केन निरूपयति
मूलम्-तओ णो कप्पंति पवावेत्तए, तं जहा-पंडए, वाइए (वाहिए) कीवे १ । एवं सुंडावित्तए२, सिक्खावित्तए३, उव. हावित्तए ४, लंभुजित्तए ५, संवासित्तए ६ ॥ सू० ७० ॥ ____ छाया-त्रयो नो कल्पन्ते प्रवाजयितुं, तबथा-पण्डकः, वातिकः, (व्याधितः) क्लीयः । १ । एवं मुण्डयितुं २, शिक्षयितु ३, उपस्थापयितु ४, सं मोजयितुं ५, संवासयितुम् ६॥ सु० ७० ॥ भरणकी परवाह नहीं करता हुवा अपने ऊपर या परके अपर प्रहार करने वोला अनवस्थाप्य के तृतीय भेद में परिणत किया गया है ऐसा व्यक्ति घोर परिणामों वाला होता है । सू०६९॥ __ ये पूर्वोक्त प्रायश्चित्त प्रव्रज्यादायकों को होते हैं, अतः प्रव्रज्यादान अयोग्यों को छोडकर योग्यों को दिया जाता है इसलिये सूत्रकार सूत्र षटक से अयोग्यों का निरूपण करते हैं "तओणो कप्पंति पत्यावे. त्तए-" इत्यादि
सूत्रार्थ-ये तीन प्रत्रज्या देने के योग्य नहीं होते हैं, जैसे-एक पण्डक द्विसीय वातिक और तृतीय व्याधिन, इसी प्रकार से पे मुण्डित करने के लिये, शिक्षा ग्रहण करने के लिये, महावतों में व्यवस्थापित करने के लिये, उपधि-आहार आदि से साथ में संभोग करने के लिये और -अपने पास रखने के लिये योग्य नहीं होते हैं। ઉપર પ્રહાર કરનાર સાધુને અનવસ્થાપ્યના ત્રીજા ભેદમાં મૂકી શકાય છે, એ સાધુ ઘેર પરિણામવાળા હોય છે. જે સૂ. ૬૯
* સૂત્રાર્થ–પ્રવજ્યાદાયકોને આ પૂર્વોક્ત પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. તેથી અમેગ્ય વ્યક્તિઓને પ્રવજ્યા અપાતી નથી પણ ચગ્ય વ્યક્તિઓને જ પ્રવ્રયા અપાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર નીચેનાં ૬ સૂત્ર દ્વારા એવી અગ્ય વ્યક્તિઓનું नि३५२४ २ छ-" तओ णो कप्पंति पवावेत्तए " त्या
સૂત્રાર્થ–નીચે બતાવેલી ત્રણ પ્રકારની વ્યક્તિએ પ્રવ્રયા દેવાને પાત્ર ગણાતી नया-(१) ५४, (२) पाति:, (3) व्याधीत. मात्र प्र४२ना मनुष्यो मुंडित કરવાને ચગ્ય ગણાતા નથી, શિક્ષાગ્રહણ કરવાને ચગ્ય ગણાતા નથી, મહા વ્રતોમાં સ્થાપિત કરવાને યોગ્ય ગણાતા નથી, ઉપધિઆહાર આદિની અપેક્ષાએ સાંગિક કરવાને ચગ્ય ગણાતા નથી અને પિતાની સાથે રાખવાને ગ્ય પણ ગણતા નથી.
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ सू० ७0 योग्यानां प्रबंज्यादाननिरूपणम् २४३ ___टीका-'तओ' इत्यादि । सूत्रपटकं सुगम, नवर-त्रयः प्रव्राजनयोग्या न भवन्ति । तानेवाह -- पण्डकः - पण्डकलक्षणपट्कयुक्तो नपुंसकविशेषः, तल्लक्षणानि यथा--
" महिलासहावो १ सरवन्नभेओ २, मेंढ महंतं ३ मउई य बाया।
ससदगंमुत्त ५ मफेणगं ६ य, एयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥१॥' छाया-महिलास्वभावः १ स्वरवर्णभेदः२, मेट्रं महत् ३ मृद्वी च वाचा ४ । सशब्दकं मूत्र ५ मफेनकं ६ च, एतानि षट् पण्डकलक्षणानि ।। १ ।। इति ।
इत्यादि लक्षणैर्विज्ञाय पण्डकः परिहत्तव्यः । वातोऽस्यास्तीति वातिक:वातप्रकृतिकः, अयं स्वपररूपेण केनापि निमित्तेन वेदोदयं धत्तुं न शक्नोति
टीकार्थ-सूत्रकार ने “ये तीन प्रमाजना प्रत्रज्या योग्य नहीं होते हैं" ऐसा जो कहा है इसी बात को यहां स्पष्ट किया गया है, पाण्डक-एक जाति का नपुंसकविशेष होता है इसके ६ लक्षण इस प्रकार से कहे गये हैं-"महिलासहावो " इत्यादि, इसका स्वभाव स्त्री के स्वभाव जैसा होता है स्वर में और वर्ण में इसको सेद होता है इसका लिङ्ग बडा होता है इसकी वाणी पतली होती है पेशाब करते समय इसकी पेशाब में से शब्द निकलता है, और-इसकी पेशाब में फेन नहीं उठता है ये पण्डक के लक्षण हैं। इन लक्षणों से पण्डक को जानकर उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिये ? वात जिसको होता है वह वातिक वात प्रकृतिवाला है, वह वातिक स्व पर रूप से किसी निमित्त से वेदोदय को धारण करने में समर्थ नहीं हो
ટીકાર્થ–“આ ત્રણ પ્રકારના મનુષ્ય પ્રવજ્યા આપવા ગ્ય ગણાતા નથી, એવું સૂત્રકારે જે વિધાન કર્યું છે, તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–(૧) પડકને પ્રવજ્યા આપવા ગ્ય ગ નથી. પંડક એક જાતને નપુસક વિશેષ હોય છે, તેના છ લક્ષણ નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે–
“ महिला सहावो" त्याह
તેને સ્વભાવ સ્ત્રી જે હોય છે, તેના સ્વરમાં અને વર્ણમાં ભેદ હોય છે, તેનું લિંગ મેટું હોય છે, તેની વાણી પાતળી હોય છે, પિશાબ કરતી વખતે તેના પેશાબમાથી વિશિષ્ટ અવાજ નીકળે છે અને તેના પિશાબમાં ફીણ વળતાં નથી આ છ લક્ષણેથી પડકને ઓળખી શકાય છે, અને આ લક્ષણોથી તેને ઓળખી લઈને તેને પ્રત્રજ્યા આપવી જોઈએ નહીં.
(૨) વાતિકને પણ દીક્ષા આપવાનો નિષેધ ફરમાવ્યું છે. વાત-વાયુથી પીડાતી વ્યક્તિને વાતિક કહે છે આ વાતપ્રકૃતિવાળો મનુષ્ય જ્યાં સુધી તેની પ્રતિસેવા કરી લેતા નથી, ત્યાં સુધી સ્વ–પર રૂ૫ કઈ પણ નિમિત્તે
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स्थानागसूत्र यावत्तस्य प्रतिसेवा कृता न स्यात् , निरुद्धवेदोऽसौ नपु सकतया परिणमति, एता
शः पुरुपो वातिकः कथ्यते । यद्वा-व्याधितः' इति एक्षेव्याधियुक्तः, चिरका. लिक राजयक्ष्मादि व्याधिसम्पन्न इत्यर्थः, क्लीव-स्त्रियं सेवितुमसमर्थः, स चतु. विधः-दृप्टिक्लीवः, शब्दक्लीवः, आदिग्धक्लीवः, निमन्त्रणक्लीवश्चेति । तत्र यो विवस्त्राद्यवस्थां स्त्री दृष्ट्वै स्खलति स दृष्टिक्लीवः १ । यः कस्यापि युग्मस्य सुरतसमयसमुद्भूतसीत्कारादि शब्द-श्रवणमात्रेण स्खलति स शब्दक्लीवः २ । सकता है, जब तक कि वह उसकी प्रतिलेखन न करले यदि यह निरुद्ध वेदवाला हो जाता है तो यह नपुंमकरूप से परिणम जाता है ऐसा पुरुप वातिक कहा गया है, यह भी दीक्षा देने को योग्य नहीं माना गया है। यहा-" वाइए वाहिए" की संस्कृतछाया व्याधित भी हो सकती है, इस पक्ष में जो व्याधि से चिरकालिक राजयक्ष्मा आदि व्याधि से सम्पन्न होता है वह व्याधित है, ऐसा व्याधित भी दीक्षा देने योग्य नहीं माना गया है-२ जो स्त्री को सेवन करने में असमर्थ होता है वह क्लीय है, यह क्लीब चार प्रकार का होता है, एक दृष्टिक्लीव, दूसरा शब्दक्लीव, तीसरा आदिग्धक्लीव, और चौथा निमिन्त्रणक्लीव इनमें जो नग्न अवस्थावाली वस्त्र से रहित स्त्री को देखते ही स्खलित हो जाता है वह दृष्टिक्लीव है १ जो सुरतक्रिया में लवलीन स्त्री पुरुष के सुरत समय के सीत्कार आदि शब्द को सुनते ही स्वलित हो जाता है, वह शब्दक्लीब है २ जो स्त्री को आलिङ्गन करते ही स्खलित हो કરીને વેદયને ધારણ કરવાને સમર્થ હોઈ શકતા નથી. જે તે નિરૂદ્ધ વેદવાળો થઈ જાય છે, તે તે નપુંસક રૂપે પરિણમી જાય છે. એવા પુરુષને વાતિક કહ્યો છે, અને તેને દીક્ષા દેવાને ચગ્ય ગણે નથી
___-" वाइए-वाहिए " मा ५४नी सकृत छाया व्याधित याय ४ શકે છે. જે ચિરકાળથી ક્ષયરોગ આદિ વ્યાધીથી પીડાતા હોય તેને વ્યાધિત કહે છે, એવી વ્યાધીત વ્યક્તિને પણ દીક્ષા આપવાને પાત્ર ગણાવી નથી.
કલીબને પણ દીક્ષા આપવાનો નિષેધ છે જે મનુષ્ય સ્ત્રીનું સેવન કરવાને અસમર્થ હોય છે, તેને કલીબ કહે છે. તે કલબ ચાર પ્રકારના કહ્યા छ-(१) दृष्टि ४ीम, (२) २७४ 30, (3) साधि दी मन (४) निभત્રિત કલીબ. નગ્ન અવસ્થાવાળી (વસ્ત્રરહિત) સ્ત્રીને દેખતાંની સાથે જ જેના વીર્યનુ ખલન થઈ જાય છે તેને દૃષ્ટિ કલબ કહે છે. કામક્રીડામાં રત થયેલા સ્ત્રી-પુરુષના સીત્કાર આદિ શબ્દોને સાંભળતાં જ જેના વીર્યનું ખલન થઈ
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सेंधा टीका स्था० ३ उ०४ सू० ७० योग्यानां प्रवज्यादाननिरूपणम् २४५ यः स्त्रिया-आलिङ्गनमात्रोण स्वलति स आदिग्धक्लीवः ३ । यः स्त्रीजनस्य निम त्रणमाोण स्खलति स निमन्त्रितक्लीव इति ४ । चतुर्विधोऽप्ययं वेदनिरोधेन नपुंसकत्वं प्राप्नोतीत्यतः क्लीवत्वेन कथ्यते, वाति कक्लीवयोस्तु परिज्ञान तन्मिन्त्रादीनां समीपे श्रवणादेव भवतीति । किमर्थ मेते प्रव्राजनयोग्या न सन्ति । इति चेदाइ-एते चोत्कट वेदवत्त्वात् निर्वलमनोत्तिकत्याच व्रतपालनासमर्था भवन्ति, मनज्या प्रदातुरप्याज्ञाभङ्गदोपप्रसङ्ग इति प्रवाजयितुं न कल्पन्ते, उक्तश्च
" जिणवयणे पडिकुट, जो पब्यावेइ लोभदोसेणं ।।
चरणढिओ तबस्सी, लोवेइ तमेव उ चरित्तं ॥ १ ॥" छाया-जिनवचने मतिक्रुष्टं (निषिद्धं ) यः प्रव्राजयति लोभदोषेण । ।
चरणस्थितस्तपस्वी, लोपयति तदेव चारित्रम् ॥ १ ॥ इति । जाता है, वह आदिग्धक्लीव है ३ तथा जो स्त्री के बुलाने मात्र से ही स्खलित हो जाता है, वह निमन्त्रितक्लीय है ४ चारों प्रकार के ये क्लीय वेदनिरोधन से नपुंसकता को प्राप्त हो जाते हैं। अतः ये क्लीव रूप से कह दिये गये हैं। वातिक और क्लीव का परिज्ञान उनके मित्रादिकों के पास में सुनने से ही हो जाता है तो फिर ये क्यों प्रव्रज्या के योग्य नहीं हैं ३ तो इसका उत्तर ऐसा है कि ये उत्कटवेद वाले होते हैं अतः इनकी मनोवृत्ति निर्बल होने के कारण ये व्रतपालन करने में असमर्थ रहते हैं, तथा ऐसों को प्रव्रज्या देने की आज्ञा भी नहीं है, अतः जो इन्हे प्रव्रज्या देगा, उसे भी आज्ञाभंग करने का दोष लगेगा, इसीलिये ये प्रव्रज्या देने के योग्य नहीं कहे गये हैं। कहा भी है-"जिणवयणे पडिकुटुं" इत्यादि, तात्पर्य कहने का यह है कि जिन वचन में जिन्हें જાય છે તેને શબ્દ ક્લીબ કહે છે સ્ત્રીને આલિંગન કરતાં જ જેના વીર્યનું ખલન થઈ જાય છે તેને આદિધ કલીબ કહે છે કોઈ સ્ત્રીના નિમંત્રણ બેલાવવા માત્રથી જેનું ખલન થઈ જાય છે તેને નિયંત્રિત કલીબ કહે છે. ઉપર્યુક્ત ચારે પ્રકારના કલીબ વેદનિરોધનથી નપુસકતા પ્રાપ્ત કરી લે છે, તેથી તેમને કલીબરૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે.
પ્રશ્ન-વાતિક અને કલીનનું પરિજ્ઞાન તેમના મિત્રાદિક દ્વારા પણ થઈ શકે છે તેમને શા કારણે પ્રવજ્યા આપવા યોગ્ય ગણ્યા નથી?
ઉત્તર–તેઓ ઉકટ વેદવળા હોય છે, તેથી તેમની મનોવૃત્તિ નિર્બળ હોય છે. નિર્બળ મનોવૃત્તિને કારણે તેઓ વ્રત પાલન કરવાને સમર્થ હોતા નથી તથા એવાં મનુષ્યોને પ્રવજ્યા દેનારને પણ શાસ્ત્રજ્ઞાને ભંગ કરવાનો દેષ લાગે છે, તેથી તેમને પ્રવ્રયા દેવી જોઈએ નહીં. કહ્યું પણ છે કે- '
" जिणवयणे पडिकुटुं" याह
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स्थानमास्त्र अत्र त्रिस्थानकानुरोधात्त्रय एव गृह्यन्ते, अन्यथा तु-विंशति-संख्यका जना मनाजयितुमयोग्या भवन्ति, तथाहि-- " वाले ण बुड्डेर नपु से ३ य, ज ४ कोढे ५ वाइए ६ ( वाहिए)। तेणे ७ रायावगारी ८ य, उस्मसे ९ य अदंगणे १० ॥ १ ॥
दासे ११ दुढे १२ य मृढे १३ य, अणत्त १४ जुंगिए१५ इयं । उद्धाए १६ य १७, भयए सेहणिप्फेडिया १८ इयं ॥ २॥
गुम्विणी १९ वालवच्छा२० य, पब्बावेउन कप्पइ । छाया-वालो वृद्धो नपुंसकश्च, जडः क्लीवश्च वातिकः (व्याधितः )।
स्तेनो राजापकारी य, उन्मत्तचा दर्शनः ॥ १ ॥ दासो दुष्टश्च मूढश्च, ऋणात्तॊ जुजित इति च । उद्वद्धकश्च भृतकः शैक्ष निष्फेटित इति च ।। २ ।।
गुर्विणी वालवत्सा च, वाजयितुं न कल्पते ।। इति । तत्र - बालः-अष्टवान्न्यूनः १ । वृद्धः पप्टिवादधिकः २। नपुंसकःप्रसिद्धः ३ । जड़ः-स्थूलः स त्रिविधः, भापा-शरीर-क्रिया भेदात् । भापाजड़दीक्षा देना निषिद्ध किया गया है, उन्हें जो शिष्य बनाने के लोभ रूप दोष से दीक्षा देता है ऐसा वह चरणस्थित तपस्वी चारित्र धर्म का लोप करता है। यहां त्रिस्थानक के अनुरोध ले ये तीन ही गृहीत हुवे हैं, नहीं तो प्रवज्या देने के लिये २० पुरुष अयोग्य कहे गये हैं, जैसे -" बाले बुड़े नपुंसे-" इत्यादि, आठ वर्ष से जो न्यून है वह घाल माना गया है-१, ६० वर्ष से जो अधिक है वह वृद्ध माना गया है २ नपुंसक प्रसिद्ध है, स्थूल का नाम जड़ है, यह तीन प्रकार को होता है भाषा
આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-જિનેન્દ્ર ભગવાને જેમને દીક્ષા દેવાનો નિષેધ કર્યો છે, તેમને શિષ્ય બનાવવાના લેભરૂપ દેષથી જે દીક્ષા આપે છે, એ ચરણસ્થિત તપસ્વી ચારિત્રધર્મને લેપ કરે છે. અહીં વિસ્થાનકનું પ્રકરણ ચાલુ હોવાથી આ ત્રણનું જ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. આમ તે નીચે ગણાવેલા ૨૦ પ્રકારના પુરુષને પ્રત્રજ્યા આપવાને માટે अयोग्य गमाव्या छ रेभडे-“बाले वुढे नपु से" त्याहि- આઠ વર્ષથી ઓછી ઉમરવાળાને બાળક કહ્યો છે. (૨) ૬૦ વર્ષથી વધુ ઉમરવાળાને વૃદ્ધ કહ્યો છે. (૩) નપુંસક–આ શબ્દ જાણતો હોવાથી તેનું વિવેચન કર્યું નથી. (૪) સ્થૂલ-જે માણસ જડ જેવો હોય છે તેને સ્થૂલ કહે છે. તેના ત્રણ પ્રકાર છે-(૧) ભાષાની અપેક્ષાએ જડ, (૨) શરીરની અપેક્ષાએ જડ અને (૩) કિયાની અપેક્ષાએ જડ.
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सुधा रीका स्था०३ उ०४ सू० ७० योग्यानां प्रवज्यादाननिरूपम्
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श्चतुर्विधः-जलमूकः १, मन्मनमूकः २, एलकमका ३, दर्मेधश्च ४ । जलमग्न इव वुडवुडायमानो यो वक्ति स जलमूकः १ । यस्य वदतः खच्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः ' तोतला ''बोबडा' इति प्रसिद्धः २। यश्चैलक इव मृकतया शब्दमात्रमेव करोति न तु व्यक्तराचा वक्तुं शक्नोति स एलकमूकः ३ । दुर्मेधः-धारणाविकलः, अस्य पुनः पुनः पाठनेऽपि न किञ्चिदपि स्मृतिपथे समायाति, विस्मरणस्वभावत्वात ४ ।१। भापाजडश्चत विधोऽपि ज्ञानग्रहणेऽसमर्थस्वान्न प्रव्रज्यायोग्यः१ । शरीरजड़ -शरीरेण स्थूलः, यो विहारे पथि, भिक्षाचर्यायामटने, वन्दनादिषु चातीवस्थूलतयाचाऽशक्तो भवति । क्रियाजड़ा-करणंसे शरीर से और क्रिया से, इनसे भाषाजड़ चार प्रकार का होता हैजलमूक १ मन्मनमूक २ एलकलूक ३ और दुर्मेध ४ जल में मग्न हुवे की तरह बुडवुड जैसा होकर बोलता है वह जलसूक है, बोलते समय जिसके वचन बीच २ में रुककर निकलते हैं वह मन्मनमूक है, इसे भाषा में " तोतला" तथा गुजरात में " बोबडा" कहते हैं। मूक होने के कारण एलक [चकरा ] की तरह शब्दमात्र ही करता है वोलता है, स्पष्ट वाणी नहीं बोल सकता है वह एलकसूक है। धारणा से जो विकल होता है वह दुमेध है बार २ पढाने पर भी इनकी स्मृति में कुछ भी नहीं जमता है क्योंकि इसका स्वभाव विस्मरणवाला होता है-४ चार प्रकार का यह भाषाजड ज्ञान के ग्रहण में असमर्थ होने के कारण प्रव्रज्या के अयोग्य कहा गया है। शरीरजड़ वह है जो शरीर से स्थूल होता है ऐसा शरीरजड़ विहारमार्ग में, भिक्षाचर्या करने में, और
भाषा:ना पर या२ प्रा२ ५3 छ-(१) सभू, भन्मनभू, (3) એલકમૂક અને (૪) દુધ. જળમાં મગ્ન થયેલાની જેમ “બડબડ ' જેવો અવાજ કરનારને જલમૂક કહે છે બોલતી વખતે વચ્ચે વચ્ચે અટકીને જેના શબ્દ નીકળે છે તેને મન્મનમૂક અથવા બોબડે કહે છે. જે માણસ મૂગો હોવાથી બકરાની જેમ “બે બે ” જેવી અસ્પષ્ટ વાણી જ બોલી શકે છે તેને એલકમૂક કહે છે (એલક એટલે બેકડે). ધારણાથી જે વિકલ (રહિત) હેય છે તેને દુધ કહે છે. વારંવાર સમજાવવા છતાં પણ તેના મગજમાં કંઈપણ ઉતરતું નથી, કારણ કે તેને સ્વભાવ જ વિસ્મરણશીલ હોય છે. આ ચારે પ્રકારના ભાષાજડ માણસ જ્ઞાનને ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ હોય છે, તે કારણે તેમને પ્રવજ્યા આપવા એગ્ય ગણાવ્યા નથી
જેનું શરીર ખૂબ જ સ્થૂલ હોય છે તેને શરીરજડ કહે છે એ માણસ વિહાર માર્ગમાં, ભિક્ષાચર્યા કરવામાં અને વન્દ્રણાદિ ક્રિયાઓ કરવામાં અસ
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स्थानासूत्रे
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क्रिया, तस्यां जड़:- अलस इत्यर्थः, समिति - गुप्ति - प्रतिलेखनादि क्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीचजड़तया यः कर्त्तुं न शक्नोति सः ३ । क्लीव: ५, वातिकः ( व्याधित ) श्रोतलक्षणः ६ । स्तेनः - चौरः ७, राजापकारी- राजापराधी ८, उन्मत्तः-- प्रसिद्धः ९ | अदर्शन: - दृष्टिहीनः अन्ध इत्यर्थः १० | दासः ११, दुष्टः १२, मूढः १३ एते प्रसिद्धाः । ऋणात्तः - ऋणपीडितः १४, जुङ्गिकः व्यङ्गितः हीन इत्यर्थः अयं जाति - कर्म - शिल्प - शरीरभेदा - चतुर्विधः । तत्र जातिजुङ्गिकाः - जात्या जुनिकाः - हीनाः । ते चत्वारः - पाणा, डोम्बा किणिकाः श्वपचाच । तत्र पाणाः- ये ग्रामनगरा देवहि काशेऽनावृतस्थाने वसन्ति, डोम्बा:वन्दनादिक्रिया में अतीतस्थूल होने के कारण अशक्त होता है २ । जो क्रिया करने में अलस (आलसी ) होता है वह क्रियाजड़ है, ऐसा यह क्रियाजड़ समिति गुप्ति प्रतिलेखना आदि क्रियाओं को बार बार सम झाने पर भी अतीव जड़ होने के कारण यथावत् कर नहीं सकता है३ | क्लीव और वातिक ( व्याधित) इनका लक्षण तो कह ही दिया गया है ६ स्तेन चोर ७ राजापकारी राजापराधी ८ उन्मत्त पागल ९ अदर्शन दृष्टिहीन ( अन्धा ) १०, दास ११ दुष्ट १२ मृढ १३ ऋणार्त ऋण से पीडित १४ एवम् जुङ्गिक व्यङ्गित अङ्गहीन, ये सब दीक्षा देने के अयोग्य कहे गये हैं । यह जुङ्गिक-जाति, कर्म, शिल्प, और शरीर के भेद से चार प्रकार का कहा गया है जो जाति से हीन होता है वह जातिजुङ्गिक है । जातिजुङ्गिक भी चार प्रकार के होते हैं- पाण, डोम्ब,
મર્થ નિવડે છે, માટે તેને પ્રવ્રજ્યા દેવાને ચેગ્ય કહ્યો નથી. જે માણુસ ક્રિયા કરવામાં આળસ કરનારા હાય છે, તેને ક્રિયાજડ કહે છે એવેા ક્રિયાજડ માણુસ વારંવાર સમજાવવા છતાં પણ સમિતિ, ગુપ્તિ, પ્રતિàખના આદિ ક્રિયાઓ, પેાતાની જડતાને કારણે ચેાગ્ય રીતે કરી શકતા નથી (૫) કલીખ અને (૬) વાતિક ( વ્યાધિત ), આ બન્નેનાં લક્ષણે તે આ સૂત્રમાં જ પહેલાં ताववामां आवे छे (७) स्तेन ( यार ), (८) शब्नयारी भेटले रान्तयराधी, (८) उन्मत्त (पागल - गां31), (१०) अहर्शन - दृष्टिहीन - अध, (11) हास, (१२) हुष्ट, (१३) भूढ-सू (१४) ( 14 ) ऋथार्त - हेवाहार, तथा જુગિક, વ્યગિત અને ગહીનને પણુ દીક્ષા દેવા ચેાગ્ય કહ્યા નથી.
જુગિક મનુષ્યના જાતિ, કર્મ, શિલ્પ અને શરીરના ભેદ્રથી ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. જે જાતિની અપેક્ષાએ હીન હાય છે, તેને જાતિક્રુત્રિક કહે છે જાતિજુ ગિક પણ ચાર પ્રકારના હોય છે-પાણુ, ડામ્બ, કિણિક અને વચ,
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सुधा टोका स्था० ३ उ० ३ सू० ५८ योग्यानां प्रवज्यादाननिरूपणम्
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ये गृह निवासिनो गीत च गायन्ति । किणिका:- ये वादित्राणि परिणयन्ति-मण्डयन्तीत्यर्थः, श्वपचाश्चाण्डालाः । उपलक्षणादन्येऽप्येतादृगाधिजातीयाः वरु डादयो ग्राह्याः । एते जातिजुङ्गिकाः १ । कर्मजुङ्गिकाः - कर्मणा जुङ्गिकाः- हीनाः, तेऽष्टविधा. - पोषक - संवर-नट-लख-व्याध - मत्स्यबन्ध - रजक -- - वागुरिकभेदात् । तत्र पोषकाः ये स्त्री कुक्कुट - मयूरान् जीविका निमित्त पोपयन्ति १, संवरा :तिरस्करणिकाकारका ये तृणविशेषेण कुव्यादिकमाच्छादयन्ति २, नटाः ये नाटकानि नर्त्तयन्ति ३ | लेखाः- ये वशादेरुपरिस्थित्वा स्वकलां दर्शयन्ति ४ | किणिक, और श्वपच, इनमें जो ग्राम नगर आदि के बाहर बिलकुल खुले हुवे मैदान में रहते हैं, वे पाणजातिजुङ्गिक हैं जो घर बना कर रहते हैं और गीत गाते हैं, वे डोम्य हैं। जो वादित्रों को मढते हैं, वे किणिक हैं, और जो चाण्डाल हैं वे श्वपच हैं । उपलक्षण से और भी इसी तरह के नीच जाति के वरुड आदि जातिजुनिक जानना चाहिये । जो कर्म से जुङ्गिक हीन होते हैं वे कर्मजुङ्गिक हैं, वे कर्मजुङ्गिक आठ प्रकार के होते हैं, पोषक १ संवर २ नट ३ ख ४ व्याध ५ मत्स्यबन्ध ६ रजक धोबी ७ और वागुरिक ८ । इनमें जो स्त्री, कुक्कुट, एवं मयूरों को अपनी आजीविका के निमित्त पालते हैं वे पोषक हैं १ जो तृणविशेषों से दीवाल वगैरह को आच्छादित करते हैं, अर्थात् जो कनात वगैरह बनाते हैं वे संवर हैं २ जो लाटकों को करते हैं उनमें नाचते हैं वे नट हैं - ३ जो वांस आदि के ऊपर खेलकर अपनी कला का प्रदर्शन ગામ, નગર આદિની બહાર તદ્દન ખુલ્લા મેદાનમાં રહે છે તેમને પણ જાતિજુ'ગિક કહે છે. જેએ ઘર મનાવીને રહે છે અને ગીત ગાવાના ધંધા કરે છે, તેમને ડામ્બ કહે છે. જે લેાકેા વાજિંત્રાને 'મઢવાના ધંધા કરે છે તેમને કિણિક કહે છે, અને ચાંડાલને શ્વપચ કહે છે. ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ એ જ પ્રકારની વરુડ આદિ અન્ય નીચ જાતિના મનુષ્યાને પણ જાતિજુગિક સમજવા ોઇએ જે લેાકેા કની અપેક્ષાએ જુગિક ( હીન ) હેાય છે, તેમને કમ જુગિક કહે છે તે ક*જુગિક આઠ પ્રકારના હેાય છે-(૧) પેષક, (२) स ंवर, (3) नट, (४) संयम, (4) व्याध, (६) मत्स्यअन्ध, (७) २४४ ( धोणी ) भने (८) वारि ने सोडी ई४डा, भरधी, भोर, स्त्री महिने પેાતાની આજીવિકાને નિમિત્તે પાળે છે, તેમને પૈાષક કહે છે (૨) જે લેાકેા તૃવિશેષાથી દીવાલ વગેરેને આચ્છાદિત કરે છે અથવા જે લેાકેા કનાત વગેરે બનાવે છે તેમને સવર કહે છે. (૩) જે લેાકેા નાટકા ખેલે છે અને તેમાં નાચે છે તેમને નટ કહે છે. (૪) જે વાસ, દારડા આદિ ઉપર ખેલ કરીને
જે
स ३२
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स्थानासूत्रे
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व्याधाः - लुब्धकाः ५ | मत्स्यवन्धाः - धीवराः ६ | रजकाः - वस्त्रमक्षालकाः ७ । वागुरिकाः - मृगजालिकाः ८ । शिल्पेन जुङ्गिकाः - ये पटकारा: ' वणकर ' इति प्रसिद्धाः नापितादयो वा ३ । शरीरजुङ्गिकाः - शरीरेण हीनाः- ये हस्तपादकर्णनासिकोष्ठवर्जिताः, वामनका :- लघुहस्तपादाद्यवयवाः, कुजाः - वहिर्निस्सृतपीठहृदयास्थिकाः, कुष्टव्याथ्युपहताः, काणाः, प्रसिद्धाः पङ्गवः - पादगमनशक्ति विकलाः करते हैं वे लस हैं ४ लुब्धक- शिकारी जो होते हैं वे व्याध हैं-५ मछलियों को पकड़ने वाले धीवर मत्स्यवन्ध हैं ६ कपडों को धोने वाले धोवी रजक हैं ७ मृगों को जालडालकर जो पकडते वे वागुरिक हैं ८ पटकार बुनकर, अथवा - नापित नाई आदि शिल्पजुङ्गिक हैं ३ शरीर से अङ्गोपाङ्ग से जो हीन होते हैं, वे शरीरजुङ्गिक हैं, जैसे - कोई हाथसे हीन होता है, कोई चरण से हीन होता है, कोई कर्ण से तो कोई नासिका से हीन होता है, और कोई ओट से हीन होता है, ऐसे ये सब शरीर जुङ्गिक कहे गये हैं, तथा वामनक वे होते है जो शरीर से बौने होते हैं लघु हस्तपाद आदि अवयवों वाले होते हैं, वे कुबक - कूबडे होते हैं, जिसकी पीठ की, अथवा हृदय की हड्डी बाहर निकल आती है तथा -कुष्ठ से जिनके हाथ पग आदि अवयव गल जाते हैं, वे तथा जो काने होते हैं वे, तथा जो पंगु होते हैं वें, चलने फिरने में जो चरणों की शक्ति
पोतानी सानुं अदर्शन उरे छे, तेभने सम ( अभागीया ) उडे थे, (4) શિકારીને વ્યાધ કહે છે. (૬) માછલાં પકડવાના ધંધા કરનાર ધીવરને ( માછીમારને ) મત્સ્યમધ કહે છે (૭) કપડા ધેાવાના ધંધા કરનારને રજક ધાણી કહે છે. (૮) જાળ નાખીને મૃગાને પકડનાર માસને વારિક કહે છે.
પટકાર ( વણકર ) અથવા નાઈ આદિને શિલ્પજુ ગિક કહે છે. જે લેાકેા શારીરિક ખેાડ-ખાપણવાળા હોય છે તેમને શરીરજુગિક કહે છે. જેમકે કેાઈ ફૂલા હાય છે, તેા કાઈ હુંઠા હાય છે, તે કોઈ નકટા ( ना छेहायसा ) હાય છે, કાઈ કણૢહીન હાય છે, તે કાઇ હાટ વિનાના હાય છે, એ બધાં મનુષ્યેાને શરીરજુગિક કહ્યા છે.
તથા જે વામનરૂપ ( ઠીંગુજી ) હોય છે, લલ્લુ હાથપગ આદિ અવચવાવાળા હાય છે. જે ફૂમડા હાય છે, જેના વાંસાના અથવા છાતીના હાડકાં બહાર નીકળી આવ્યા હોય છે, જેના હાથપગ આદિ અવયવે કાઢને લીધે ગળી ગયાં હોય છે, તથા જે લેાકેા એક આંખે કાણા હાય છે, તથા જે લૂલા ઢાય છે, હાલવા ચાલવારૂપ ચરણાની શક્તિથી જે રહિત હોય છે, એવાં
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सुंधा टीका स्था०३ उ०४ सू० ७० योग्यानां प्रव्रज्यादाननिरूपणम् २५१ इत्यादयः शरीरजुङ्गिकाः । एते सर्वेदीक्षयितुं न योग्याः१५।। उबद्धकः-शिक्षणादिनिमित्तेन नियतकालं यावद् वद्धः सेवाभावेन-आयत्तीभूतः, यद्वा केनचित् मूल्यग्रहणेन नियतावधिं यावद् वद्धः-वचनबद्धः कृतः स्वाधीनीकृत इत्यर्थः, एतावकालं यावद्भवत्पावें स्थास्यामि, यद्वा-त्वयैतावत्कालं यावन्ममपार्वेऽवश्यं स्थातव्यमित्यादिरूपेण स्वपरतोवचनवद्धः-उबद्धः स एव-उवद्धः । स कम-शिल्प -विद्या-मन्त्रयोगभेदेन पञ्चविधः । तत्र कर्म-अनुपदेशपूर्वकं गृहकार्यक्षेत्रकर्षणादिकम् १। शिल्प-आचार्योपदेशपूर्वकचित्रकर्मादिरूपः२ । एवं विद्या-लेखादिका शकुनरुतपर्यवसाना ३। मन्त्रः-विद्वेषणवशीकरणादिरूपः ४ । योगः-चूर्णादि से रहित होते हैं इत्यादि वे सब, ऐसे अनुष्य शरीरजुङ्गिक कहे गये हैं । ये सब दीक्षा के अयोग्य कहे गये हैं। शिक्षण आदि के निमित्त से जो नियमितकाल तक सेवाभाव से बद्ध हो, अथवा-सूल्य देकर किसीने जिसे नियत समयतक बचनबद्ध करलिया हो, अपने अधीन वना लिया हो कि इतने समयतक तुम्हें (झे) मेरे पास रहना होगा, अथवा इतने समयतक से तुम्हारे पास रहूंगा, इस प्रकार से जो स्व पर से वचनबद्ध हो गया हो वह उद्बद्ध है उद्बद्ध ही उद्बद्धक है यह उद्बद्धककर्म, शिल्प विद्या सन्त्र और योग के भेद से पांच प्रकार का होता है अनुपदेश पूर्वक गृहकार्य क्षेत्रकर्षण आदि से जो बद्ध होता है वह कर्म उद्बद्ध है आचार्योपदेश पूर्वक त्रिकर्म आदिरूप शिल्प से जो बद्ध होता है वह शिल्प उद्बद्ध है लेखनकला से लेकर पक्षी के મનુષ્યને શરીરજુ ગિક કહે છે. તે દરેક પ્રકારના શરીરજુ ર્ગિકેને દીક્ષા આપવાને ચગ્ય ગણ્યા નથી
શિક્ષણ આદિને નિમિત્તે જે લોકો નિયમિત કાળપર્યન્ત સેવાભાવથી બંધાયેલા હોય, અથવા વેતન આપીને જેને કોઈએ નિયત સમય સુધી કામ કરવાને માટે વચનબદ્ધ કરી લીધા હોય-એટલે કે “આટલા સમય સુધી તમારે મારી પાસે રહેવું પડશે અથવા આટલા સમય સુધી હું તમારી સાથે રહીશ,” આ પ્રકારે જે પોતે અન્યની સાથે વચનથી બંધાયેલ હોય તેને ઉદ્દબદ્ધ કહે છે, એવા ઉદબદ્ધને જ ઉદ્દબદ્ધક કહે છે આ ઉદ્દબદ્ધકને કર્મ, શિલ્પ, વિદ્યા, મંત્ર અને ગન ભેદથી પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે–અનુપદેશપૂર્વક રે ગૃહકાર્ય, કૃષીકર્મ આદિ કરવાને બંધાય છે તેને કર્મઉદ્દબદ્ધક કહે છે. આવા ર્યોપદેશ પૂર્વક જે ચિત્રકાર્ય આદિ રૂપ શિલ્પ કરવાને બધાયેલું હોય છે તેને શિલ્પઉદ્દબદ્ધક કહે છે લેખનકલાથી લઈને પક્ષીની બેલીને જાણવા પર્યન્તની
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स्थानासू
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प्रयोगः ५ । पञ्चविधोऽप्येष दीक्षयितुं न कल्पते । उक्तञ्च" कम्से ९ सिप्पे २ विज्जा २, संते जोगे य होइ उवयरओ । उद्धओ उ एसो, न कप्पए तारिसे दिक्खा ॥ १ ॥
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छाया - कर्मणि १ शिल्पे २ विद्यायां ३ मन्त्रे ४ योगे ५ च भवत्युपचरकः । उद्वद्धस्त्वेष न कल्पते ताशे दीक्षा ॥ इति १६ ।
भृतकः - भृत्यः - प्रसिद्धः १७ शैक्षनिप्फेटित - निष्फेटितः शैक्ष इत्यर्थः, यो गृहकलहादिकारणमाश्रित्य मातापित्रोरननुज्ञात एव दीक्षां ग्रहीतुमिच्छति सः, यद्वा-अन्यतः कश्चिदीक्षाभिलाषी दीक्षितो वा पलाय्य समागतः सोऽपि दीक्षयितु ं न कल्पत इति १८ । गुर्विणी - सगर्भा १९ बालवत्सा - लघुवालमाता २० शब्दों जानने तक की कलाओं में जो निपुण होता है वह विद्यावद्ध है, विद्वेषण उच्चाटन मारण ताडन, एवं वशीकरणरूप मन्त्र विद्या में जो निपुण होता है, वह मन्त्रउद्बद्ध है, और चूर्णादिप्रयोग करने में जो चतुर होता है वह योग उद्बद्ध है ये पांचो प्रकार के उद्यद्ध भी दीक्षा देने के योग्य नहीं कहे गये हैं । कहा भी है- " कम्मे सिप्पे विज्जा" इत्यादि, जो दूसरों के यहां आजीविका के निमित्त नोकरी करता है वह मृतक है, वह तथा - गृहकलह आदिरूप कारण को लेकर जो मातापिता की आज्ञा प्राप्त किये बिना ही दीक्षा को उद्यत होता है ऐसा वह निष्फेटित शैक्ष कहाते हैं । अथवा दीक्षाभिलापी बना हुवा, या दीक्षित हुवा जो दूसरी जगह से भगकर आया हो, वह भी दीक्षा देने के योग्य नहीं कहा गया है १८, जो गर्भवती है ऐसी गुर्विणी स्त्री, तथा जिसका उसायामां ने निपुणु होय छे, तेने विद्याउहूद्ध डे छे. विद्वेषणु - उभ्याटन, સારણુ–તાડન અને વશીકરણુ રૂપ મ`ત્રવિદ્યામાં જે નિપુણુ હાય છે તેને મત્રઉબદ્ધ કહે છે અને રૂઢિ પ્રયાગ-રસાયણ પ્રયોગ કરવામાં જે નિંપુછુ હોય છે તેને ચૈગઉદ્દ્ધ કહે છે. આ પાંચે પ્રકારના ઉષદ્ધકને દીક્ષા આપવાને ચાગ્ય उद्या नथी उद्धुं पशु छे - " कम्मे सिप्पे विज्जा " त्याहि
જે આજીવિકા નિમિત્તે ખીજાને ત્યાં નાકરી કરે છે તેને ભૃતક કહે છે, તેને પણુ દીક્ષા આપવા ચેાગ્ય કહ્યો નથી. ગૃહકલડુ આદિ કારાને લીધે માતાપિતાની આજ્ઞા લીચા વિના દીક્ષા લેવાને તૈયાર થયેલ વ્યક્તિને પણ દીક્ષા આપવા યોગ્ય ગણેલ નથી એ પ્રકારના દીક્ષાર્થીને निड्रेटित शैक्ष " કહે છે અથવા દીક્ષાભિલાષી મનીને ખીજી જગ્યાએથી ભાગી આવેલને, અને એક વાર દીક્ષા લઈને ત્યાંથી ભાગીને આવેલા માણસને પણ દીક્ષા આપવાને
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मुंघा टीका स्था०३उ०४सू० ७१ वाचनादिविषये योग्यायोग्यनिरूपणम् २५३ 'एव' मिति एवं - यथा पूर्वोक्ता एते प्रवाजयितुं न कल्पन्ते तथैत एव कथञ्चिच्छलनादिना प्रबाजिता अपि सन्तो मुण्डयितु-शिर केशान् लुञ्चयितुम् , शिक्षयितुं-ग्रहणासेवनी शिक्षा ग्राहयितुम् ३, उपस्थापयितुं-महावनेषु व्यवस्थापयितुम् ४, संभोक्तुम्-उपध्याहारादिना तेन सह सम्भोग कर्तुम् ५, तथा यधनाभोगेन संभोगविषयीकृता भवेयुस्तदा संवासयितुम्-आत्मसमीपे स्थापयितुं न कल्पन्त एवेति ॥ ० ७० ॥
पूर्व प्रव्राजनाद्ययोग्याः प्रोक्ताः, साम्प्रतं तत्प्रसङ्गाद वाचनादिविपयेऽयोग्ययोग्यान् कथयन सूत्रचतुष्टयमाह
मूलम्-तओ आवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा-अविणीए, विगइपडिवद्धे, अविओसियपाहुडे । १ । तओ कप्पति वाइ. त्तए, तं जहा-विणीए अविगइ पडिबद्धे, विओसिय पाहडे।२। तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता, तं जहा-दुट्टे मूढे वुरगाहिए।३। तओ सुसन्नप्पा पण्णत्ता, तं जहा--अदुहे, असूढे, अतुग्गाहिए। ४ ॥ सू० ७१ ॥ बच्चा अभी छोटा है, ऐली बालवत्सा स्त्री भी दीक्षा देने के योग्य नहीं कही गई है। तो जिस प्रकार से ये सब दीक्षा देने के योग्य नहीं कहे गये हैं उसी प्रकार से ये कथञ्चित् छलना आदि से प्रचाजित हो जाने पर भी शिर के केशों का लुश्चन करवाने योग्य तथा ग्रहण, शिक्षा
और आसेविनी शिक्षा को ग्रहण कराने योग्य शिक्षित महाव्रतों में इन्हें व्यवस्थापित करना उपधि और आहारादि का इनके साथ संबन्ध रखना, और इन्हे अपने पास रखना ये सब बाते भी इनके साथ किसी भी तरह से (करनी) योग्य नहीं हैं ॥सू० ७०॥ રોગ્ય ગણાવેલ નથી. ગર્ભવતી સ્ત્રી તથા બલવત્સા સ્ત્રી–જેનું બાળક નાનું હેય એવી સ્ત્રીને પણ દીક્ષા આપવાને કહી નથી.
ઉપર્યુક્ત ૨૦ પ્રકારના માણસને દીક્ષા આપવાને યોગ્ય કહ્યા નથી, એટલું જ નહીં પણ કેઈ પ્રકારના છળથી તેઓ દીક્ષિત થઈ ગયા હોય તે પણ તેમના શિરના કેશોનો લેચ કરવા તે યોગ્ય નથી, તથા ગ્રહણ-શિક્ષો આસેવિની શિક્ષાને ગ્રહણ કરાવવા યોગ્ય નથી મહાવ્રતમાં સ્થાપિત કરવા યોગ્ય પણ નથી અને ઉપધિ-(આહારાદિ) ને તેમની સાથે સ બ ધ રાખવા યોગ્ય પણ નથી, અને પિતાની સાથે રાખવા યોગ્ય પણ નથી. સૂ૭૦ છે
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स्थानागसूत्र छाया-त्रयः अवाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अविनीतः, विकृतिपतिबद्धः, अव्यवसितमाभृतः । १। त्रयः कल्पन्ते वाचयितु, तद्यथा-विनीतः, अविकृति. प्रतिवद्धः, व्यवसितमाभृतः २ । त्रयो दुरसज्ञाप्याः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-दुप्टः, मृदो', व्युद्ग्राहितः ३ । त्रयः सुसज्ञाप्या: प्रज्ञप्ता, तद्यथा- अदुष्टः, अमृट, अव्युद्ग्राहितः ४ । सू० ७१ ।।
टीका-' तओ अवायणिज्जा' इत्यादि । त्रयः अवाचनीया:-वाचयितुंसूत्र पाठयितुं न योग्याः, अत एवार्थमपि श्रावयितुं न योग्या., सूत्रादर्थस्य मह
इस प्रकार प्रजाजना (प्रत्रज्या) आदि के अयोग्यों का कथन करके अब सूत्रकार उसी प्रसङ्ग से वाचना आदि के विषय में जो अयोग्य हैं उनके सम्बन्ध में और जो योग्य हैं उनके सम्बन्ध में कथन करने के लिये चार सूत्र कहते हैं-" तओ अवायणिज्जा पण्णत्ता" इत्यादि। मुत्रार्थ-ये तीन अवाचनीय (बांचना देने के योग्य नहीं) कहे गये हैं, जैसे अविनीत, विकृतिप्रतिबद्ध, और अव्यवसितप्राभृत । ये तीन वाचना के योग्य कहे गये हैं, जैसे-विनीत अविकृतिप्रतिवद्ध और व्यवसितनाभृत ! ये तीन दुःसंज्ञाप्य कहे गये हैं, जैसे-दुष्ट सूढ और व्युद्ग्राहित ये सीन सुसज्ञाप्य कहे गये हैं, जैसे-अदुष्ट अमूढ और अव्युद्ग्राहित, तात्पर्य इन सूत्रों का इस प्रकार से है जो सूत्र और अर्थ का अपने को अध्ययन कराने वाले हैं, या जो अपनी अपेक्षा सम्यग्दर्शन ज्ञान और
સૂત્રાર્થ–પ્રવજ્યા આદિને માટે અગ્ય મનુષ્યનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર વાચના આદિના વિષયમાં અયોગ્ય અને યોગ્ય મનુષ્યનુ નિચેના ચાર સૂત્રો २१ ४थन ४२ छ-" तओ अवायणिज्जा पण्णत्ता " त्याहનીચે દર્શાવેલા ત્રણ પ્રકારના માણસને અવાચનય (વિદ્યા આપવાને માટે अपात्र) ह्या छ-(१) विनीत, (२) विकृति प्रतिमा मने (3) अव्यवसित. પ્રાત, નીચે દર્શાવેલા ત્રણ પ્રકારના માણસોને વાચનીય (વાચના દેવાને ગ્ય) yा छ-(१) विनीत, (२) मविकृति प्रतिमा अने (3) व्यवसितामृत. નીચે દર્શાવેલા ત્રણ પ્રકારના માણસોને દુ સંજ્ઞા કહ્યા છે-(૧) દુષ્ટ, (૨) મૂઠ અને (૩) ચુદ્રાહિત. નીચે દર્શાવેલા ત્રણ પ્રકારના માણસોને સુસંજ્ઞાપ્ય કહા छ-(१) महुट, (२) मभू८ मते (3) अयुन्द्राडित.
આ સૂત્રને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જે સૂત્ર અને અર્થનું અધ્યયન કરાવનાર હોય છે, તથા જેઓ પોતાના કરતાં સમ્યગ્ગદર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ सू०७१ वाचनादिविषये योग्यायोग्यनिरूपणम् २५५ त्वात् । तानेवाह-अविनीतः-मूत्रार्थदायकस्य रत्नाधिकस्य वा वन्दनादिविनयविकलः तस्मैदत्ता विद्या न फलदा भवति । यत उक्तम्-" विणया हीज्जाविज्जा देइफलं इह परे य लोगम्मि ।
न फलंतऽविणयगहिया, सस्साणि व तोयहीणाई ॥ १॥ छाया-विनयाधीता विद्या ददाति फलमिह परस्मिंश्च लोके ।
न फलन्त्यविनयगृहीताः सस्यानीवतोयहीनानि ॥ १॥ विकृतिप्रतिवद्धः-दुग्धादिरसगृद्धः, अयं हि-वाचनाग्रहणेऽसमर्थों भवति । रसास्वादैकदत्तचित्तत्वात् । अव्यवसितमाभृतः, अव्यवसितम्-अनुपशान्तं (उपहार) पाभृतमिव प्राभृतं-नरकपालझौशलिकं परमक्रोध- इत्यर्थः, यस्य सः अव्यवसित्तअनन्तानुवन्धिक्रोधयुक्त इत्यर्थः, यः क्षामितोऽयक्षान्त इत्येव न प्रत्युत बहुशः चारित्र रूपरत्न से अधिक हैं उनकी चन्दना आदि करने रूप विनय से जो रहित होते हैं, ऐसे जीव अविनीत कहे जाते हैं ऐसे अविनीतों को दी गई विद्या फलप्रद नहीं होती है। कहा भी है-"विधणाहीयाविजा" इत्यादि, जिस प्रकार जलहीन सस्य (अनाज) फलित नहीं होता है, उसी प्रकार अविनय संगृहीत विद्या भी फलित नहीं होती है। क्यों कि-विनयाधीन विद्या ही फलित होती कही गई है, जो दुग्धादिरसों में गृद्ध होता है वह विकृतिप्रतिबद्ध है यह विकृतिप्रतिबद्ध वाचना ग्रहण करने में असमर्थ होता है, क्यों कि-इसका चित्त रसास्वाद में ही मग्न बना रहता है तथा जो अनन्तानुबन्धी क्रोध से युक्त होता है घह अव्यवसित प्राकृत है। अव्यवसित शब्द का अर्थ अनुपशान्त है, રૂપ ત્રિરત્નની અપેક્ષાએ ચડિયાતા છે, તેમને વંદણા આદિ કરવારૂપ વિનયથી જે જીવ રહિત હોય છે તેને અવિનીત કહે છે એવા અવિનીતને જે વિદ્યાદાન वामां मावे ते व्यर्थ तय छे छुप छे ?- विणया हिया विज्जा " त्याह
જેમ પાણી ન મળે તે અનાજ પાકતું નથી એ જ પ્રમાણે અવિનય સંગૃહીત વિદ્યા પણ ફળદાયી નિવડતી નથી, કારણ કે વિનયથી જ વિદ્યા શોભે છે-વિનયાધીન વિદ્યા જ ફલિત થાય છે, એવું આગમવાક્ય છે.
દૂધ આદિ રસમાં જે લેપ (ગૃદ્ધ) હોય છે તેને વિકૃતિ પ્રતિબદ્ધ કહે છે એવા વિકૃતિ પ્રતિબદ્ધ છ વાચન ગ્રહણ કરવાને અસમર્થ હોય છે, કારણ કે તેમનું ચિત્ત રસાસ્વાદમાં જ લીન રહ્યા કરે છે.
જે મનુષ્ય અનન્તાનુબંધી ઇંધથી યુક્ત હોય છે તેને અવ્યવસિત પ્રાભૂત छ । अव्यवसित' मेटले “ अनुपान्त, " मने “ मालत" सटसे ઉપહાર” તેથી પ્રાભતની જેમ (પરમાઘામિકની જેમ) જીવ અતિશય કાધી
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स्थानाजसो क्रोधमुदीरयति सः, उक्त च-" अपेवि पारमाणिं अवराहे चयइ खामियं तं च ।
बहुसो उदीरयंतो, अविओसिय पाहडो स खल्लु ॥ १ ॥ छाया-अल्पेऽपि पारमाणि (परमक्रोध समुद्धात) अपराधे ब्रजति क्षामितं तं च ।
बहश उदीरयन् अव्यवसित माभृतः स खलु ।। १ ।।" इति ।
एतस्य वाचनादाने लोकद्वयहानि', तोटलोकहानिस्तत्प्रेरणायां कलहसंभवात् परलोकहानिः-दत्तस्य श्रुतस्य ऊपरक्षिप्तवीजवनिष्फलत्वात् क्रोशवेगेन भगवद्वचनस्याऽनादरकरणाच्चेति १ । एतद्विपरीतमूत्रमाह-' तओ कप्पंति' इत्यादि ।
और प्राकृत शब्द का अर्थ उपहार है. अतः प्राकृत की तरह प्राभृतपरधार्मिक की तरह परमकोधी है वह अव्यवन्ति प्रामृत है, ऐसा अव्यवसित प्राभृतवाला जो अनन्तानुबन्धी क्रोधवाला होता है वही होता है, क्यों कि-इससे क्षमा मांगने पर भी यह उल्टा अधिक अशांत ही बनता है, अधिक से अधिक क्रोध को प्रकट करता है। कहा भी है -"अप्पेविपारमाणि-" इत्यादि, हसको बाचना देने में उभयलोक की हानि होती है देनेवाले की इहलोक सम्बन्धी हानि उसे प्रेरणा करने पर कलह होने की संभावना सी होती है, तथा परलोक की हानि दिये गये अत को अपरभूमि में डाले गये बीज की तरह निष्फल हो जाने से होती है । क्यों कि-वह क्रोधावेश से भगवान के वचनों का आदर कारक नहीं होता है इसलिये ये सूत्र पढाने के योग्य नहीं कहे गये हैं, जब ये मन्त्र पढाने के भी लायक नहीं कहे गये हैं, तो इन्हें अर्थ सुनाना હિય છે તેને અવ્યવસિત પ્રાત કહે છે એ અવ્યવસિત પ્રાભૂત જીવ અનન્તાનુબંધી ક્રોધવાળો જીવ જ હોઈ શકે છે, કારણ કે તેની પાસે ક્ષમા માગવા છતાં પણ તે ઉલટે અધિક આશાન્ત બને છે અને વધારેને વધારે ક્રોધ ५४८ ४२ छ. ४यु ५Y छ 8-" अप्पेविपारमाणिं " त्याह
તેને વાચના દેવાથી હાનિ થાય છે–તેને વાચના દેનારના આલોક સંબંધી હાનિ આ રીતે થાય છે–તેને પ્રેરણા કરવાથી કલહ થવાને સંભવ રહે છે, એ રીતે વાચના દેનારના આલોકની હાનિ થાય છે. જેમ ઉપર (સારહીન). ભૂમિમાં બીજ વાવવાથી ફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી, તેમ એવા માણસને શ્રુતજ્ઞાન આપવાથી તેનું કેઈ સારૂ પરિણામ આવતું નથી, આ રીતે તેના પરાકની પણ હાનિ જ થાય છે, કારણ કે એ માણસ ક્રોધને વશ થઈને ભગવાનનાં વચનને પણ આદર કરતો નથી, તેથી તેને સૂત્રને અભ્યાસ કરાવે તે યોગ્ય નથી. જ્યારે તેમને સૂત્રને અભ્યાસ કરાવવાને પણ યોગ્ય કહ્યા નથી,
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ ०७१ वाचनादिविषये योग्यायोग्यनिरूपणम् २५७ प्रयः-एतद्विपरीता विनीतादयो वाचयितुं कल्पन्ते । शेषं स्पष्टम् । २ । पूर्व श्रुत. दानायोग्यावर्णिताः, साम्प्रतमयोग्यप्रस्तावान्सम्यक्त्वस्याप्ययोग्यान् वर्णयति'तओ दुस्सन्नप्पा' इत्यादि। सुगम, नवरं-दुःदुःखेन कष्टेन संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोधविषयी क्रियन्त इति दुस्संज्ञाप्या: - अप्रज्ञापनीया इत्यर्थः । ते त्रयः प्रज्ञप्ताः, तथाहि-दुष्टः, द्विष्टो वा तत्त्वं प्रति तत्वप्रज्ञापकं प्रति वा । अयं चा-यज्ञापनीयः यतोऽस्य द्वेषेण दुष्टत्वेन बोपदेशस्य सफलता न जायत इति १ । मूहः-मूर्खःकदापि योग्य नहीं है। क्यों कि सूत्र की अपेक्षा अर्थ का महत्व होता है इन पूर्वोक्त अविनीत आदिकोंसे जो विपरीत हैं वे विनीत आदिक सूत्र पढाने के और अर्थ सुनाने के योग्य होते हैं, यह बात अब सूत्रकार कहते हैं इसमें यह कहा गया है कि जो विनीत, अविकृतिप्रतिबद्ध और व्यवसितप्राभूत होते हैं ये वाचना देने के योग्य कहे गये हैं। अयोग्य का प्रकरण होने से जो सम्यक्त्व के भी अयोग्य हैं, उन्हेंसूत्रकार-" तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता" इत्यादि, इस सूत्र द्वारा कहते हैं-जो बड़ी मुश्किल से बोध के विषयभूत किये जाते हैं ऐसे वे दुःस
ज्ञाप्य अप्रज्ञापनीय तीन कहे गये हैं, एक दुष्ट, अथवा द्विष्ट, दूसरा मूढ, और तीसरी व्युद्ग्राहित, इनमें जो तत्त्व के प्रति अथवा-तत्त्वप्रज्ञापक के प्रति द्वेष रखता हो या दुष्टप्रकृति संपन्न बना रहता हो वह प्रथम नम्बर का अप्रज्ञापनीय है इसे अप्रज्ञापनीय इसलिये कहा गया તે અર્થ સંભળાવવાનું તે કેવી રીતે યોગ્ય હોઈ શકે ! સૂવ કરતાં અર્થનું મહત્વ વિશેષ હોય છે, એટલે અર્થ સમજાવવાનું તે એથી પણ વધારે અયોગ્ય ગણી શકાય. પૂર્વોક્ત અવિનીત આદિથી વિપરીત એવા વિનીત આદિ ગુણોવાળા શિષ્ય જ સૂત્ર શીખવવાને અને અર્થ સભળાવવાને યોગ્ય હોય છે, એ જ વાત હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે
વિનીત, અવિકૃતિ પ્રતિબદ્ધ અને વ્યવસિત પ્રાભૂત કૈધને વશ રાખનાર શિષ્યો જ વાચના દેવાને ચગ્ય કહ્યા છે. અયોગ્યનું પ્રકરણ હોવાથી હવે સત્રકાર સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ માટે જેઓ અયોગ્ય છે તેનું કથન કરે છે–
" तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता" त्या:
જેઓ મહા મુશ્કેલીથી બેધને પ્રાપ્ત કરી શકે છે તેમને સંજ્ઞાપ્ય (અપ્રજ્ઞાપનીય) કહ્યા છે. એવા દુ સંજ્ઞાપ્ય ત્રણ કહ્યા છે-(૨) દુષ્ટ અથવા કિણ, (૨) મૂઢ અને (૩) ચુદ્રાહિત. જે તત્વ પ્રત્યે અથવા તત્વપ્રજ્ઞાપક પ્રત્યે છેષ રાખે છે અથવા દુષ્ટ પ્રકૃતિસંપન્ન જ ચાલુ રહે છે તેને દુષ્ટ અપ્રજ્ઞાપનીય
स ३३
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स्थानाङ्ग
अयं हेयोपादेय विवेक विकलत्वेन उपदेशग्रहणासमर्थत्वात् मज्ञापयितुं न योग्यः व्युग्राहितः- विमोहितमतिकः- कुगुरु दृढीकृतविपर्यास इत्यर्थः । एषोऽप्युपदेष्टुं न योग्यः ३ । एतद्विपरीतादुष्टादिविशेषणविशिष्टाः सुमुखेन - अनायासेन संज्ञाप्यन्ते - बोध्यन्त इति सुसज्ञाप्या भवन्ति । शेषं स्पष्टम् । ४ ॥ सु. ७१ ॥ पूर्व प्रज्ञापनाः पुरुषा वर्णिताः सम्प्रति तत्मशापनीयवस्तुनि त्रिस्थानकावतारयोग्यान्याह --
"
मूलम् -- तओ मंडलिया पव्वया, पण्णत्ता, तं जहा माणुसुत्तरे, कुंडलवरे, रुयगवरे ॥ १ ॥ तओ महाइमहालया पण्णत्ता, तं जहा - जंबुद्दीवे मंदरे मंदरेसु १, सयंभुरसणे समुद्दे ससुदेसु २, बंभलोए कप्पे कप्पेसु ॥ सू० ७२ ॥
है कि दुष्ट होता है, अथवा द्वेष रखनेवाला होता है, इस लिये दियो गया तोपदेश इसमें सफलताशाली नहीं होता है । मूढ मृर्ख जो होता है वह इसलिये अप्रज्ञापनीय कहा गया है कि यह हेयोपादेय विवेक से विकल होता है, अतः उपदेश ग्रहण करने में असमर्थ बना रहता है तथा जो व्यग्राहित होता है विमोहित मतिवाला होता है अर्थात् गुरु की शिक्षा से जिलका विपर्यास मजनूम पर दिया गया होता है ऐसा वह व्युद्माहित प्रतिबाला पुरूष भी उपदेश देने के योग्य नहीं कहा गया है, किन्तु इनसे विपरीत जो होते हैं अर्थात्-अदुष्टादि विशेषण से विशिष्ट जो मनुष्य होते हैं ये बिना किसी आयास के सुख पूर्वक समझाये जा सकते हैं, इसलिये उन्हें सूत्रकारों ने सुसंज्ञाप्य कहा हे अवशिष्ट स्पष्ट है । हृ०७१ ॥
કહે છે. તેને અપ્રજ્ઞાપનીય કહેવાનું કારણ એ છે કે તે દુષ્ટ હોય છે, અથવા દ્વેષ રાખનારા ઢાય છે, તેથી તેને જે તત્વેપદેશ આપવામાં આવે છે તે વ્યર્થ જાય છે. મૂર્તને ( મૂખને ) અપ્રજ્ઞાપનીય કહેવાનું કારણ એ છે કે તે હેયોપાદેયના વિવેકથી વિહીન ાય છે, તેથી ઉપદેશ ગ્રહણ કરવાને અસમય જ હાય છે. વિમાહિત મતિવાળાને બ્યુગ્રાહિત કહે છે એટલે કે કુગુરુના ઉપદેશથી જેના (વપર્યાસ મજબૂત રીતે થઈ ગયો હાય છે એવા યુદ્ઘાહિત સ્મૃતિવાળા પુરુષને પશુ ઉપદેશ દેવાને પાત્ર કહ્યો નથી. પરંતુ તેના કરતાં વિપરીત અદૃષ્ટ, મૂઢ અને અવ્યુાહિત આદિ વિશેષાવાળે મનુષ્ય સુસ
જ્ઞાપ્ય હોય છે, કારણ કે તેને તત્વપદેશ સહેલાઈથી સમજાવી શકાય છે, ત્યાં ઉપદેશ દાતાના ઉપદેશ નિષ્ફળ જતેા નથી. !! સૂ. ૭૧ ૫
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सुषां टीका स्था०३ उ०४ सू०७२ प्रज्ञापनीयवस्तुनिरूपणम् .. २५९ . छाया-त्रयो माण्डलिकाः पर्वताः प्राप्ताः, तद्यथा-मानुषोत्तरः, कुण्डलवरः रुचकवरः ॥ १॥ त्रयो महातिमहालयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जम्बूद्वीपे मन्दरो मन्दरेषु १, स्वयम्भूरमणः समुद्रः समुद्रेषु२, ब्रह्मलोकः कल्पः कल्पेषु३ ।मु०७२।।
टीका-' तओ मडलिया' इत्यादि । माण्डलिकाः, मण्डलं-चक्रवालं, तदस्ति येषां से माण्डलिकाः माकारवलयवदवस्थिताः पर्वतात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते यथा -मानुषोत्तरः, मानुषेभ्यो मानुपक्षेत्राद्वा उत्तरः परतोवर्ती यो मानुषलोकविभाजकः
इस प्रकार प्रज्ञापनाह पुरुषों का वर्णन करके अप सूत्रकार त्रिस्था. नायतरण योग्य तत्त्वज्ञापनीय वस्तुओं को कहते हैं "तओ मंडलिया पक्या पण्णता" इत्यादि,
सूत्रार्थ - तीन माण्डलिक पर्वत कहे गये हैं, जैसेमानुषोत्तर १ कुण्डलबर २ और रुचकवर ३ ये तीन सय से बहुत बडे कहे गये हैं, जैसे जम्बहीप अन्य मन्द के बीच में मन्दर पर्वत १ समुद्रों के बीच में स्वयम्भूरमण २ और कल्पों के बीच में ब्रह्मलोक कल्प ३ ____टीकार्थ-इल सूत्रका विस्तृत अर्थ ऐसा है-मण्डल नाम चक्रवाल का है यह चक्रवाल जिनको है वे भाण्डलिक हैं, प्राकार की तरह जो गोल रूप में अवस्थित होते हैं वे मालिक कहलाते हैं ऐसे माण्डलिक पर्वत तीन कहे गये हैं, एक मानुषोत्तर पर्वत यह मानुषोत्तर पर्वत पुष्करवर द्वीप के बीच में हैं इसके आगे मनुष्य नहीं हैं इसके पहले २ मनुष्य हैं इसलिये इसका नाम मानुषोत्तर है । अथवा-मनुष्यक्षेत्र अढाई द्वीप
પ્રજ્ઞાપનીય પુરુષોનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર ત્રિસ્થાનકને આશ્રય લઈને પ્રજ્ઞાપનીય વસ્તુઓનું વર્ણન કરે છે–
" तओ मंडलिया पव्वया पण्णत्ता " त्याह
सूत्राय-त्रय भ6ि पति या छ-(१) मानुषतर, (२) ११२ मन (3) - રુચકવર. આ ત્રણેને સૌથી મોટા કહ્યા છે-બધા મન્દર પર્વતેમાંથી જે ખૂઢીપમાં આવેલો મન્દર પર્વત સૌથી મોટો છે. (૨) સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર બધા સમદ્રો કરતાં મટે છે. (૩) બ્રહ્મલેક કપ બધા કલમાં સૌથી મોટું છે.
ટીકાઈહવે આ સૂત્રને વિશેષાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-મંડલ એટલે ચકવાલ. આ ચક્રવાલ (ગોળાકાર) થી યુક્ત જે હોય છે તેને મંડલિક કહે છે. પ્રાકાર (કેટ) ની જેમ જે પર્વતે ગોળાકારે અવસ્થિત હોય છે તેમને મંડલિક પર્વતે કહે છે. એવા મંડલિક પર્વત ત્રણ કહ્યા છે-(૧) માનુષેત્તર પર્વત, આ પર્વત પુષ્કરવર દ્વીપની મધ્યમાં છે, ત્યાંથી આગળ જતાં મનુષ્યોને સદ્દભાવ નથી, પરંતુ તે પર્વતની પહેલા મનુષ્યોને સદભાવ છે, તેથી તેનું નામ માનુષેત્તર પર્વત છે. અથવા મનુષ્યક્ષેત્ર-અઢી દ્વીપને તે વિભાગ કરે
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स्थानी
तथा । कुण्डलवर:- एकादशे कुण्डलवरनाम्नि द्वीपे स्थितः प्राकारकुण्डलाकतिकः कुण्डलद्वीपं विभजमानः पर्वतः । रुचकचरः - त्रयोदशे रुचकवरे द्वीपे वर्त्त - मानः कुण्डलाकृतिकः रूचकद्वीपं विभजमानः पर्वतविशेषः । तत्र प्रथममानुषोत्तरपर्वतस्वरूपं यथा
"
'पुक्खरवर दीवहूं, परिखियइ माणुसूत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवा विभजतो माणुसं लोगं ॥ १ ॥ सत्तरस एगवीसाइ जोयण सयाइ सो समुविद्धो । चत्तारि यतीसाई मूले कोस च ओगाढो ॥ २ ॥ दसवावीसाइ अहे, वित्थिन्नो होइ जोयणसयाई । सत्तय तेवीसाई, वित्थिनो हो मज्झमि ॥ ३ ॥ चत्तारिय चवीसे, वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अड्डाइज्जे दीवे, दो य समुद्दे अणुपरोह ॥ ४ ॥
छाया - पुष्करवरद्वीपा परिक्षिपति मानुपोत्तरः शैलः 1
प्राकारसदृशरूपो विभजमानो मानुषं लोकम् ॥ १ ॥
सप्तदश एकविंशत्या ( अधिकानि ) योजनशतानि ( एकविंशत्यधिकसप्तदश योजनशतानीत्यर्थः ) समुद्विद्धाः । चत्वारि च त्रिंशत् ( त्रिंशदधिकचतुश्शतानीत्यर्थः ) क्रोशं चावगाढः ॥ २ ॥
का यह विभाग करता है इसलिये भी इसका नाम मानुषोत्तर पर्वत है ११ वां द्वीप जो कुण्डलवर है उस द्वीप में यह पर्वत है और इसकी आकृति कुण्डल के जैसी गोल है यह पर्वत कुण्डलद्वीप का विभाग करता है। रुचकवर यह पर्वत तेरहवां जो रुचकवर द्वीप है उसमें वर्त मान है, यह भी कुण्डल की आकृति जैसा गोल है, और earer ate का विभाग करता है इनमें मानुषोत्तर पर्वत का स्वरूप इस प्रकार से है-" पुक्खरवरदीवडुं" इत्यादि, तात्पर्य इन गाथाओं का इस ७ છે તેથી પણ તેનું નામ માનુષેાત્તરપત પડયું છે. (૨) કુંડલવર પત કુંડલવર નામના અગિયારમાં દ્વીપમાં આવેલા છે. તે કુંડલના જેવા ગાળ આકારવાળા છે અને તે પર્વત કુંડલદ્વીપના વિભાગ કરે છે. (૩) રુચકવર પર્વત ૧૩ માં રુચકવર દ્વીપમાં આવેલા છે, તેને આકાર પશુ કુડલના જેવો ગાળ છે, આ પર્વત રુચકવર દ્વીપના વિભાગ કરે છે. હવે માનુષાત્તર पर्वतना स्वपनुं नि३याय उरवामां आवे छे - " पुक्खरखरदीवढं " त्याहि
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सुधा टीका स्था० ३ उorसू०७२ प्रतापनीयवस्तुनिरूपणम्
उ०५सू०७२ प्रतापनीयवस्तुनिरूपणम्, २६१ दशद्वाविंशतिः अधो विस्ती भवति योजनशतानि ( द्वाविंशत्यधिकदशयोजनशतानीत्यर्थः ) सप्त च त्रयोविंशतिः (त्रयोविंशत्यधिकसप्तशतानीत्यर्थः) विस्तीर्णा भवति मध्ये ॥ ३ ॥
चत्वारि च चतुर्विंशतिः (चतुर्विंशत्यधिकचतुःशतानीत्यर्थः) विस्तारो भवति उपरि शैलस्य । सार्धद्वयद्वीपान द्वौ समुद्रावनपर्येति ॥ ४ ॥ इति ।
षोडशद्वीपेषु कुण्डलवरद्वीपस्यैकादशत्वे क्रममाह" जंबुद्दीवो १ धायइ २, पुक्खरदीवो ३ य वारुणिवरो ४ ।
खीरवरोऽवि ५ य दीवो, घयवरदीवो ६ य खोयवरो ७॥१॥ नदीसरो ८ य अरुणो ९, अरुणोवाओ १० य कुण्डलवरो ११ य ।
तह संख१२ रुयग १३ भुयवर १४ कुस१५ कुंचवरो१६ तओ दीवो"॥२॥ छाया-जम्बूद्वीपो १ धातकी २ पुष्करद्वीपश्च ३ वारुणीवरच ४।
क्षीरवरोऽपि ५ च द्वीपो, घृतवरद्वीपश्च ६ क्षोदवरः ७ ॥ १ ॥
नन्दीश्वरश्च ८ अरुणः ९ अरुणोपपातश्च १० कुण्डलवरश्च ११ । "प्रकार से है-यह मानुषोत्तरपर्वत भीतर की ओर १७२१ योजन ऊंचा है ४३० कोशतक नीचे जमीन के भीतर ईसका अवगाढ (गहराई ) है जमीन पर इसकी चौडाई १ हजार बोईस योजन की है मध्य में ७२३ योजन की है और ऊपर में ४२४ योजन की यह अढाई द्रीप का विभाग करता है सोलह द्वीपों में कुण्डलवर द्वीप को जो ११ वां द्वीप कहा गया है उसमें यह प्रमाण है "जंबुद्दीवो धायइ" इत्यादि, जम्बद्धीप यह प्रथम द्वीप है धातकीखण्ड यह द्वितीय द्वीप है पुष्करवरद्वीप यह तृतीय द्वीप है वारुणिवर यह चौथा द्वीप है क्षीरवर यह पांचवां दोप है घृतघरद्वीप यह छटा द्वीप है क्षोदवर इक्षुरस यह सातवां द्वीप है नन्दीश्वर
આ ગાથાઓનું તાત્પર્ય આ પ્રકારનું છે-આ માનુષેત્તર પર્વત બાજુએ ૧૭૨૧ યોજન ઊંચો છે, જમીનની નીચે ૪૩૦ કેશ પર્વતની તેની ઊંડાઈ છે, જમીનપર તેની પહોળાઈ એક હજાર યોજનની છે, મધ્યમાં તેની પહોળાઈ ૭૨૩ યોજનની છે અને સૌથી ઉપરની બાજુએ તેની પહોળાઈ ૪ર૪ યોજનની છે. આ પર્વત અઢી દ્વીપને વિભાગ કરે છે કે ૧૬ દ્વીપમાં કડલવર દ્વીપને જે અગિયારમો દ્વીપ ક છે, તેનું પ્રમાણ નીચે મુજબ છે.
"जबूहीवो-घायइ " त्यादि
પહેલે દ્વિીપ જંબૂઢીપ છે, બીજે દ્વીપ ઘાતકીખંડ કપ છે, ત્રીજો પુષ્ક ૨વર દ્વીપ, ચેાથે વારુણિવરે દ્વિીપ છે, પાંચમે ક્ષીરવર દ્વીપ છે, છઠ્ઠો ઘતવર હીપ છે, ભેદવર-ઈશ્નરસ સાતમે દ્વિીપ છે, આઠમે નન્દીશ્વર દ્વીપ છે, નવમો
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स्थानाजी तथा शङ्कः १२ रुचकः १३ भुजगवरः १४ कुशः १५ क्रौञ्चवरः १६ स्ततो द्वीपः ॥ २ ॥ इति । कुण्डलबरपर्वतस्वरूपं यथा
" कुण्डलवरस्स सज्झे णगुत्तमो होइ कुण्डलो सेलो। पागारसरिसल्वो, विभयंतो कुण्डलं दीवं ॥ १ ॥ . वायालीससहरसे, उदितो कुण्डलो हबइ सेलो । एगं चेव सहरसं, धरणियलमहे समोगाढो ॥ २ ॥ दस चेव जोयणसए, वावीसे पित्थडो य मूलम्मि । सत्तेव जोयणसए, बावीसे वित्थडो मज्झे ॥ ३॥
चत्तारि जोयणसए, चउवीसे वित्थडो उसिहरतले ॥" छाया-कुण्डलवरस्य मध्ये, नगोत्तमो भवति कुण्डलः शैलः ।
प्राकारसदृशरूपो विमनमानः कुण्डलं द्वीपम् ॥ १ ॥ द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि (द्विचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानीत्यर्थः) उद्विद्धः कुण्डलो भवति शैलः । एकं चैव सहस्रं धरणितलमधः समवगाढः ॥ २ ॥
दश चैव योजनशतानि द्वाविंशतिः (द्वाविंशत्यधिकानीत्यर्थः) विस्तृतश्च मूले । सप्तैव योजनशतानि द्वाविंशतिः (द्वाविंशत्यधिकानीत्यर्थः) विस्तृतो मध्ये।।३।। यह ८ वां द्वीप है अक्षणवर यह नौवा द्वीप है अरुणोपपात यह १० घां द्वीप है कुण्डलघर यह ११ वां द्वीप है शाह यह १२ वां द्वीप है रुचक यह तेरहवां द्वीप है भुजगवर यह १४ वां दीप है कुश यह १५ वां द्वीप है और क्रौंचवर यह १६ वां जीप है, कुण्डलवर पर्वत का स्वरूप इस प्रकार से है-" कुंडलवरस्त मज्झे-" इत्यादि, तात्पर्य इन गाथाओं का ऐसा है-कुण्डलवर पर्वत कुण्डलवर दीपके मध्य में है प्राकार कोट के जैसा इसका आकार है कुण्डलवर द्वीप का यह विभाग करता है इसका उद्वेग ऊंचाई ४२ हजार योजन का है पृथिवी के भीतर नीचे १ हजार योजन तक यह है १०२२ एक हजार बावीस योजन की जमीन અણવર દ્વીપ છે, દસમે અરુણપતિ દ્વીપ છે, ૧૧ મે કુંડલવર દ્વીપ છે, બારમે શંખ દ્વીપ છે, તેર ચક દ્વીપ છે, ૧૪ મે, ભુજગલર દ્વીપ છે, ૧૫ મે કુશ દ્વીપ છે, અને ૧૬ મે કચવર દ્વીપ છે. કુંડલવર પર્વતનું ५१३५ मा ५२नु छ-कुंडलवरस्स मज्झे" त्याह
આ ગાથાઓને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-કુંડલવર પર્વત કુંડલવર દ્વીપની મધ્યમાં છે પ્રાકાર (કેટ) જે તેને આકાર છે-આ પર્વત કુડલવર દ્વીપને વિભાગ કરે छ. त द्वेध (या) ४२००० मे तालीस M२ योनी छे, भाननी नीय ૧૦૦૦ એક હજાર જનની ઊંડાઈ સુધી તે વ્યાપેલે છે. જમીન પર તેની પહોળાઈ
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सुधाटीका स्था० ३ उ० ४ सू० ७२ प्रज्ञाएनीयवस्तुनिरूपणम्
चत्वारि योजनशतानि चतुर्विंशतिः ( चतुर्विंशत्यधिकानीत्यर्थः ) विस्तृतस्तु शिखरतले ॥ इति ।
प्रयोदशतमरुचकवरद्वीपस्थितस्य रुचकवरपर्वतस्य स्वरूपं । यथा-" रुयगवरस्स उ मज्झे, नगुत्तमो होइ पव्वओ रुयगो।
पागारसरिसरूवो, रुयगं दीवं विभयमाणो ॥१॥ . रुयगस्स उ उस्सेहो, चउरासीई भवे सहस्साई। एगं चेव सहस्सं, धरणियलमहे समोगाढो ॥२॥ दस चेव सहस्सा खल, बावीसा जोयणाण बोद्धब्बो।
मूलम्मि उ विक्वंभो, साहिओ रुयगसेलस्स" ॥ ३॥ . छाया-रुचकवरस्य तु मध्ये, नगोत्तमो भवति पर्वतो रुचकः।
प्राकारसदृशरूपः, रुचकं द्वीपं विभजमानः ॥ १॥ । रुचकस्य तु उत्सेधः, चतुरशीतिभवेत् सहस्त्राणि ।।
एकं चैव सहस्रं धरणितलमधः समवगाढ ॥२॥ ‘दश चव सहस्राणि खलु द्वाविंशतिः ( द्वाविंशत्यधिक दशयोजनशतानीत्यर्थः ) बोद्धव्यः। मूले तु विष्कम्भः साधिको रुचक शैलस्य ॥ ३ ॥ इति ।। - अस्य रुचकवरपर्वतस्य मध्यविस्तारो द्वाविंशत्यधिकानि सप्तसहस्त्रयोजनानि, उपरिविस्तरतस्तु चतुर्विंशत्यधिकानि योजनसहस्राणीति ॥ १ ॥ पर इसकी चौडाई है, मध्य में ७२२ योजन विस्तीर्ण है और ४२४ योजन ऊपर है। तेरहवां जो रुचकद्वीप है उस द्वीप में स्थित जो रुच. कवरपर्वत है उसका स्वरूप इस प्रकार से है-" रुचगवरस्स उ मज्झे" इत्यादि । यह पर्वतों में श्रेष्ठ रुचकवर पर्वत उचकवर द्वीप के मध्य में है इसका आकार भी प्राकार-कोटके जैसा है यह रुचकवरद्वीपका विभाग करता है, इसका उत्सेध ऊंचाई-८४ हजार योजन की है तथा १ हजार योजन यह प्रथिवी के अन्दर है दश हजार २२ योजल से कुछ अधिक इसकी मूल में चौडाई है मध्य में इसका विस्तार ७ हजार २२ योजन ૧૦૨૨ યોજનની છે, મધ્યમાં ૭૨૨ જનને તેને વિસ્તાર છે અને ઊંચે ૪૨૪ એજનને વિસ્તાર છે ૧૩ માં ચકવર દ્વીપમાં આવેલા ચકવર પર્વતના स्१३५नुं व नि३५ ४२वामा माव छ-" रुयगवरस्स उ मज्झे" त्याहપર્વમાં શ્રેષ્ઠ એવો ચશ્વર પર્વત ચકવર દ્વીપની મધ્યમાં છે. તેનો આકાર પ્રાકાર (કેટ) ના જે છે, તે રુચકવર દ્વીપને વિભાગ કરે છે તેને ઉસેધ ઉંચાઈ ૮૪ હજાર જનની છે, તે પૃથ્વીની અંદર એક હજાર જન સુધી ફેલાયેલું છે, જમીનપરને તેને વિસ્તાર દસ હજાર બાવીસ એજન કરતાં
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રાષ્ટ
स्थानाचे ____ मानुषोत्तरादयो महान्त उक्ता इति महत्मसङ्गादति महतः पदार्थानाह'तओ माइ०' इत्यादि, अतिमहान्तश्च ते आलयाश्च आश्रया इति-अतिमहालयाः, महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति महातिमहालयाः । महच्छब्दस्य द्विरुच्चारणं मन्दरादीनां सर्वगुरुत्वख्यापनार्थ, तेन-अन्येभ्यः स्वस्वजातीयेभ्योऽति महान्त इत्यर्थः, ते त्रयः प्रज्ञप्ताः, तानेवाह-मन्दरेषु-पञ्चानां मन्दरपर्वतानां मध्ये इत्यर्थः, जम्बूद्वीपे यो मन्दरः प्रध्यजम्बूद्वीपस्थमेरुपर्वतः स महान् वर्तते यतोऽयं लक्ष योजनपरिमितः, शेषाश्चत्वारो मन्दराः सातिरेकपञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणा का है, और ऊपर में इसका विस्तार १ हजार २४ योजन का है। ये मानुषोत्तर पर्चन महान हैं ऐसा कहा, अब सूत्रकार इनमें भी जो
और अधिक महान हैं उन्हें प्रगट करते हैं-" तओ मएह" इत्यादि, यहां जो ' महत्' शब्द का दो बार प्रयोग किया गयो है वह इस यात को ख्यापन करने के लिये किया गया है, कि ये मन्दरादि पदार्थ सय से महान हैं, इनसे महान और कोई नहीं हैं, अर्थात्-अपनी जाति के जो पदार्थ हैं उनमें ये अति महान हैं, इन अति महानों के बीच में पांच मन्दर पर्वतों के बीच में जो जम्बुद्वीप में मन्दरपर्वत है वह महान है क्यों कि-इसका विस्तार १ लाख योजन का कहा गया है
और बाकी के जो चार मन्दर पर्वत हैं-धातकीखण्ड के दो, और पुष्करवर द्वीपार्थ के दो-इसका विस्तार केवल ८२ हजार योजन का ही પણ વધારે છે, મધ્યમાં તેને વિસ્તાર ૭૦૨૨ યોજનાને છે અને સૌથી ઉપર તેને વિસ્તાર ૧૦૨૪ યોજનને છે.
આ માનાર પર્વતે મહાન છે, એવું કહ્યું. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ १३ सोथी महान पर्वत श्ये -" तओ मएइ" या
॥ सूत्रमारे " महत महान " Avन प्रयोग वाम भाव्या छ તે એ વાતનું પ્રતિપાદિત કરવાને માટે કરાય છે કે –
આ મન્દરાદિ પદાથે સૌથી મહાન છે-તેમનાથી અધિક મહાન બીજે કઈ પદાર્થ નથી. એટલે કે પિતાની જાતિના જે પદાર્થો છે તેમનામાં તે અતિ મહાન છે, વળી તે પાંચ પર્વત અતિ મહાન મન્દર પર્વતમાં પણ સૌથી મહાન પર્વત તે જંબુદ્વીપમાં આવેલ મન્દર પર્વત જ છે. ધાતકીખંડના બે મન્દર પર્વતેને અને પુષ્કરવર દ્વીપાઈના બે મન્દર પર્વતને વિસ્તાર કેવલ ૮૫૦૦૦ એજનને જ કહ્યો છે, પરંતુ જે બૂદ્વીપના મદર પર્વતને વિસ્તાર તે એક લાખ જનને કહ્યું છે.
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सुधा टोका स्था० ३ उ0 ४ सू० ७३ कल्पस्थितिनिरूपणम एव सन्तीति । समुद्रेषु-सर्वसमुद्राणां मध्ये इत्यर्थः, स्वयम्भूरमणः समुद्रो महान् वर्तते तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्यात् । कल्पेषु-सर्वदेवलोकेषु मध्ये ब्रह्मलोकः कल्पः-पञ्चमदेवलोको महान् अस्ति, तत्पदेशे लोकविस्तरस्य पश्चरज्जुप्रमाणत्वात् , तत्पमाणतया च ब्रह्मलोकस्य विवक्षितत्वादिति ॥०७२॥
अनन्तरं ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधात् कल्पस्थितिं सूत्रद्वयेनाह___ मूलम्-तिविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-सामाइयकप्पठिई, छेदोवट्ठावणियकप्पटिई, निविसमाणकप्पट्टिई । १। अहवा तिविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-णिविटकप्पहिई, जिणकप्पट्टिई, थेरकप्पट्टिई । २ ॥ सू० ७३ ॥
छाया-त्रिविधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता, तथथा सामायिककल्पस्थितिः, छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिः निर्विशमानकल्पस्थितिः।१।अथवा त्रिविधा कल्पस्थितिः कहा गया है समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र है वह सब से बडा कहा गया है, क्यों कि-सब द्वीपों और समुद्रों से इसका प्रमाण अधिक है, कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प हैं पांचवां देवलोक है-वह सबसे बडा कल्प है, क्यों कि-इसके प्रदेश में लोक विस्तार पांच राज का कहा गया है सो इतने ही बडे प्रमाणवाला यह ब्रह्मलोक भी कहा गया है । सू०७२
ब्रह्मलोक कल्पगत कल्प शब्द के साधर्म्य को लेकर अब सूत्रकार कल्पस्थिति का कथन दो सूत्र से करते हैं-"तिविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता" इत्यादि, सूत्रार्थ-कल्पस्थिति तीन प्रकारकी कही गई है जैसे-सामायिककल्प
બધા સમુદ્રોમાં સૌથી મટે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર છે, કારણ કે સઘળા દ્વીપ અને સમદ્રો કરતાં તેનું પ્રમાણ અધિક કહ્યું છે.
બધાં કલ્પમાં બ્રહ્મલોક કપ સૌથી મોટું છે, બ્રહ્મલેક કલ્પ પાંચમું દેવલોક છે તેને સૌથી મોટું કા કહ્યું છે કારણ કે તેના પ્રદેશમાં કવિસ્તાર પાંચ રાજૂપ્રમાણુ કહ્યો છે. આ બ્રહ્મલેક કપ પણ પાંચ રાજુપ્રમાણ વિસ્તારવાળું કહ્યું છે. જે સૂ. ૭ર છે
બ્રહ્મલોક ક૯૫ગત ક૫ શબ્દના સાધમ્યને હવે સૂત્રકાર કહ૫સ્થિતિનું કથન કરવા નિમિત્તે બે સૂત્રે કહે છે–
“तिविहा कप्पद्विई पण्णत्ता" त्यादि
सूत्राथ-४८पस्थिति प्रा२नी ४ही छ-(१) सामायि ४६५ स्थिति, (२) छेडे।५स्थापनीय ४८पस्थिति, मन (3) निविशमान ४८५स्थिति.
पा
३४
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प्रज्ञप्ता, तद्यथा-निविष्टकल्पस्थितिः, जिनकल्पस्थितिः, स्थविरकल्पस्थितिः ।२॥ सु० ७३॥
टीका-'तिविहा' इत्यादि, सूत्रद्वयम् । कल्प:-करणमाचारः, तस्य तत्र वा स्थितिः-मर्यादाकल्परिथतिः । सा त्रिविधा, तघथा-तथाहि-सामायिककल्प. स्थितिः, समानि-ज्ञानादीनि तेपामायो लाभः समायः, स एव सामायिक-संयम विशेषः, तस्य तदेव वा कल्पः सामायिकाल्पः अयं च प्रथमचरमतीर्थयोः साधनां स्वल्पकालिकः, छेदोपस्थापनीयस्य सद्भावात , मध्यतीर्थेषु महाविदेहेपु च स्थिति छेदोष स्थापनीयकल्पस्थिति, और निविंशमानकल्पस्थिति, अथवा इस तरह से भी कल्पस्थिति तीन प्रकार की कही गई है जैसे-निविष्टकल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति।
टीकार्थ-कल्प नाम-करण आचार का है उसमें, या उसकी जो स्थिति-लयांदा है वह कल्पस्थिति है यह कल्पस्थिति जो तीन प्रकार की कही गई है, लो उसका तात्पर्य ऐसा है, अर्थात् सामाविक कल्प स्थिति में जो सामायिकपद है वह ज्ञानादिकों के लाखल्प है अर्थात् सम शब्द का अर्थ ज्ञानादिरूप है इस ज्ञानादिकों का जो लाभ है वह समाय है यह समाय ली सामायिक है सामायिक एक संयमविशेष कहा गया है इस लोमायिक का जो कल्प है वह सोमायिक कल्प है अथवा-लासायिक रूप जो कल्प है वह सामायिककल्प है, ऐसा इसका वाच्यार्थ होता है यह सामायिक कल्प प्रथम और चरस तीर्थकरके साधुओं का अल्पकालिकहै । क्यों कि-उस समय छेदोपस्थापनीयका सद्भावहे मध्य
અથવા આ પ્રમાણે પણ ક૯પસ્થિતિ ત્રણ પ્રકારની કહી છે-(૧) નિર્વિષ્ટ पश्थिति, (२) लिन ४८पस्थिति मर (3) स्थविर ४६५स्थिति..
ટીકાઈ–કપ નામ કરણ–આચારનું છે. તેમાં અથવા તેની. જે સ્થિતિ (મર્યાદા) હોય છે તેનું નામ ક૫સ્થિતિ છે. તે ક૯પસ્થિતિ ત્રણ પ્રકારની કહી છે. (૧) સામાયિક કલ્પસ્થિતિને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે –
સામાયિક કલ્પસ્થિતિમાં જે “સામાયિક પદ છે તે જ્ઞાનાદિકના લાભરૂપ છે, એટલે કે સમ શબ્દનો અર્થ જ્ઞાનાદિરૂપ છે. આ જ્ઞાનાદિકને જે લાભ છે તેનું નામ “સમાય” છે તે સમાય જ સામાયિકરૂપ છે, સામાયિકને એક સંયમવિશેષ કહ્યું છે. આ સામયિકને જે ક૯પ છે (આચાર છે) તેને સામાયિક ક૯પ કહે છે અથવા-સામાયિક રૂપ જે કુ૫ છે તેનું નામ સામાયિક ક૯પ છે, એ તેને વાર્થ થાય છે. તે સામાયિક કલ્પ પ્રથમ અને ચરમ તીર્થકરના સાધુએનું કલ્પકાલિક છે, કારણ કે તે સમયે છેદેપ
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રહે
सुघाटी का स्था०३ उ०४ सू० ७३ कल्पस्थितिनिरूपणम् यावत्कथिकः तत्र छेदोषस्थापनीयाभावात् , तस्य तत्र वा स्थितिः सामायिककल्यस्थितिः । सा च मध्यद्वाविंशतितीर्थसाधूनां महाविदेहस्थसाधूनां च शय्यातरपिण्डपरिहारे चतुर्यामपालने पुरुषज्येष्ठत्वे बृहत्पर्यायस्येतरेण वन्दनकदाने च नियमलक्षणा, शुक्लप्रमाणोपेतवस्त्रापेक्षया यदचेलत्वं तत्र १, तथा-औ देशिकमक्तादिग्रहणे २, राजपिण्डग्रहणे ३, प्रतिक्रमणकरणे ४, मासकल्पकरणे ५, पर्युपणकल्पकरणे ६, चानियमलक्षणाचेति, उक्त चात्र"सिज्जायरपिंडे य १, चाउज्जामे य २, पुरिसजेटे य ३ । किइकम्मस्स य करणे ४, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ।। १॥ आचेलुक्कु १ देसिय २. सपडिकमणे ३ य रायपिंडे ४ य ।
मासं ५ पज्जोसवणा ६, छप्पे अणवटिया कप्पा ॥२॥" छाया-शय्यातरपिण्डे १ च, चातुर्यामे २ च पुरुषज्येष्ठे च ३ ।
कृतिकर्मणश्च करणे ४ च चत्वारोऽवस्थिताः कल्पाः ॥१॥ आचेलक्य १ मोदेशिकं २ सप्रतिक्रमणश्चे ३ राजपिण्डश्च ४।
मासः ५ पर्युषणा ६ पडप्येतेऽनवस्थिताः कल्पाः ॥ २॥ अचेलकत्वं चैवम् - के तीर्थंकरों में और महाविदेहों में यह यावत्कथिक है, क्यों कि-वहां छेदोपस्थापनीय काअोव है, उस सामायिककल्प फी अथवा-लामायिक कल्प में जो स्थिति है वह सामायिककल्पस्थिति है यह मध्य के २२ तीर्थंकरों के साधुओं की और महाविदेहस्थ साधुओं की शय्यातर के पिण्ड परिहार में, चातुर्यामपालन में, और पुरुष के ज्येष्ठत्व में, उसकी वन्दना में विलयरूप है, और-शुक्लप्रमाणोपेत वस्त्र की अपेक्षा से जो अचेलकता है १ उसमें, तथा-औद्देशिकभक्तादि ग्रहण में २ राजपिण्डग्रहण में ३ प्रतिक्रमण करने में ४ मासकल्प करने में ५ और पयूषणकल्प करने में अनिवार्यरूप है। कहा भी है "सिज्जायरपिंडे य"
સ્થાપનીયને સદભાવ છે મધ્યના તિર્યકરોમાં અને મહાવિદેહમાં તે યાવત્રુથિક છે, કારણ કે ત્યાં છેદપિસ્થાપનીયને અભાવ છે તે સામાયિક કલ્પની અથવા સામાયિક કલ્પમાં જે સ્થિતિ છે, તેને સામાયિક કલ્પસ્થિતિ કહે છે. તે મધ્યના ૨૨ તિર્થકારોના સાધુઓની અને મહાવિદેહસ્થ સાધુઓની શય્યાતરના પિંડના પરિહારમાં, ચતુર્યામ પાળવામાં અને પુરુષના મૃત્વમાં તેની વન્દનામાં વિનયરૂપ છે, અને શુકલ પ્રમાણપત વસ્ત્રની અપેક્ષાએ જે અર્થકતા છે તેમાં શિક ભક્તાદિ ગ્રહણમાં, (૩) રાજપિંડ ગ્રહણમાં, (४) प्रतिभा ४२वाभां, (५) भास४६५ ४२वामा, मन (6) ५युष्य ४६५
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स्थानाङ्गो
... ... .......... " दुविहो होइ अचेलो, असंतचेलो य संतचेलो य । तत्थ असंतेहिं जिणा, संतचेला भवे सेसा ॥ १ ॥ सीसावेढियपोतं, नइउत्तरणम्मि नग्गयं वेंति । जुन्नेहिं नग्गियम्हि तुर सालिय ! देहि मे पोत्तिं ॥२॥ जुन्नेहिं खंडिएहिं, असव्व तणुयाउएहि ण य णिच्च ।
संतेहि वि णिग्गंथा अचेलया होति चेलेहिं ॥ ३ ॥" छाया-द्विविधो भवत्यचेलो तच्चेलश्च सच्चेलश्च ।
तत्राऽसद्भिः ( वस्त्रैः ) जिनाः, सदचेला भवन्ति शेषाः ॥१॥ शोपवेष्टितपोतं नद्युत्तरणे नग्नकं ब्रुवन्ति । जीर्णैः ( वस्त्रैः ) नग्नकोऽस्मि त्वरितं शालिक | देहिमे पोतीम्
(शाटिकां ) ॥२॥ जीर्णे ः खण्डितैः असर्वतनुप्रावृतेन च नित्यम् ।
सद्भिरपि (वस्त्रैः) निम्रन्था अचेलका भवन्ति चेलैः ॥३॥" इति । एवं जीर्णखण्डितप्रमाणोपेतवस्त्रेषु सत्स्वपि अचेलत्वेन लोके व्यवहारो दृश्यते १। छेदोपरथापनीयकल्पस्थितिः, छेदेन - पूर्वपर्यायच्छेदेन उपस्थापनीयम्आरोपणीयं छेदोपस्थापनीयं व्यक्तितो महावतारोपणमित्यर्थः, तच्च प्रथमचरइत्यादि, । अचैलकता इस प्रकार से है "दुविहो होइ अचेलो" इत्यादि, इस तरह जीण खण्डित एवं प्रमाणोपेत वस्त्रों के होने पर भी, रखने पर भी, अचेलनारूप से लोक में व्यवहार देखा जाता है १ छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति पूर्वपर्याय के छेद से जो पुनः आरोपणीय होता है वह छेदोपस्थापनीय है, यह अन्यव्यक्ति में जो आरोप की अपेक्षा महाव्रतारोपणरूप होता है। यह छेदोपस्थापनीय प्रथम तीर्थकर और अन्तिम ४२पामा मनिवा३५ छ. ४धु पय छ -“ सिज्जायरपिंडे य" त्याह. मयतता मा परे डाय छ-" दुविहो होइ अचेलो" त्याह
આ રીતે જી–ખંડિત અને પ્રમાણપત વસ્ત્રો હોવા છતાં પણ, રાખવા છતાં પણ, અચલતારૂપ વ્યવહાર લેકમાં જોવામાં આવે છે.
હવે છે પસ્થાપનીય કલ્પસ્થિતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-પૂર્વ પર્યાયના છેદથી જે પુનઃ આપણીય થાય છે તેનું નામ છેદેપસ્થાપનીય છે. તે અન્ય વ્યક્તિમાં આપની અપેક્ષાએ તારેપણુરૂપ હોય છે. આ છેદેપસ્થાપનયને સદ્ભાવ પહેલા અને છેલ્લા તીર્થકરના સમયમાં જ કહ્યો છે.
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सुंघाटीको स्था ३ ० ४ सू० ७३ कल्पस्थितिनिरूपणम् मतीर्थयोरेव । तस्य तदेव वा कल्पः तस्य स्थितिः-मर्यादा सा तथोक्ता, इयं च दशसु स्थानकेष्ववश्यं पालनरूपेति । उक्तञ्च
" दसठाणठिओ कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स ।
एसो धुयरयकप्पो, दसठाणपइटिओ होइ ॥ १ ॥ छाया-दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य । । एष धूतरजःकल्पो दशस्थानप्रतिष्ठितो भवति ॥ १॥ इति । तानि दश स्थानानि यथा" आचेलक्कु १ देसिय २ सिज्जायर ३ रायपिंड४ किइकम्मे ५।
वय ६ जेट्ट ७ पडिक्कमणे ८, मासं ९ पन्जोसवणकप्पे १० ॥१॥ छाया-आचेलक्यौ १ देशिक-शय्यातर-राजपिण्ड ३-४ कृतिकर्माणि ५।
व्रत६ ज्येष्ठ ७ प्रतिक्रमणानि ८ मास पर्युपणकल्पः ९-१० ॥१॥ तत्र-आचेलक्यं असत्सद् भेदेन द्विविधम् , सर्वथा वस्त्राभावरूपमसदचेलत्वं तीर्थकर के समय में ही कहा गया है, इस छेदोपस्थापनीय का जो कल्प है वह छेदोपस्थापनीय कल्प है अथवा छेदोपस्थापनीयरूप जो कल्प है वह छेदोपस्थापनीय कल्प है, इसकी जो स्थितिल्प मर्यादा है वह छेदोपस्थापनीय कल्प है, यह दश स्थानको में अवश्य पालनरूप कही गई है। कहा भी है-" दसठाणठिओ कप्पो" इत्यादि, यह दश स्थान स्थितकल्प पूर्व और पश्चिम जिनमे की है यह पापरूप रजको नष्ट करने घाला कल्प दश स्थान प्रतिष्ठित होता है १ वे दश स्थान इस प्रकार से हैं-"आचेलक्कुसिय" इत्यादि, इनमें आचेलक्य असत् और सत् के भेद से दो प्रकार का कहा गया है सर्वथा-वस्त्राभावरूप असत अचेलता जिन तीर्थकरों को होती है और जीर्ण, खण्डित एवं प्रमाणो. આ છેદેપસ્થાપનીયને જે કપ છે (આચાર છે) તેનું નામ છેદે સ્થાપનીય કલ્પ છે. અથવા-છેદેપસ્થાપનીયરૂપ જે કલ્પ છે, તે છેદે સ્થાપનીય કલપ છે, અને તેની જે સ્થિતિ (મર્યાદા) છે, તે છેદેપસ્થાપનીય ક૫સ્થિતિ છે. તે દસ સ્થાનમાં અવશ્ય પાલનરૂપ કહી છે. કહ્યું પણ છે કે
" सठाणठिओ कप्पो" त्याहि..
આ દસ સ્થાન સ્થિતિને કલ્પને સદૂભાવ પહેલા અને છેલ્લા જિનમાં કહ્યો છે. આ પાપરૂપ રજને નષ્ટ કરનાર ક૫ જે દસ સ્થાન પ્રતિષ્ઠિત છે, તે इस स्थान नाय प्रमाणे -" आचेलकुदेसिय" त्याल-भांथी (१) माये. લકય સત્ અને અસતુના ભેદથી બે પ્રકારનું કહ્યું છે. સર્વથા વસ્ત્રાભાવરૂપ
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२७
स्थांनाङ्गसूत्र जिनानां, जीर्णखण्डितममाणोपेतवस्त्ररूपं सदचेलत्वं शेषमुनीनां भवति १ । औद्देशिकपिण्ड-शय्यातरपिण्ड-राजपिण्डग्रहणरूपं त्रयं प्रसिद्धम् ४ । कृतिकर्म-रत्नाधिकमर्यादया वन्दनव्यवहारः५ । व्रतानि-पञ्चमहाव्रतानि६, ज्येष्ट:-पुरुपज्येष्ठो. धर्मः, प्रतिक्रमणं-सातिचारत्वे-निरतिचारत्वेऽपि प्रतिक्रमणकग्णस् ८ । मास:-मासकल्पःशेषकाले मासं यावदेकत्रवसनम् ९ । पर्युपणकल्पः-पर्युपणपाराधना१० । एते दश कल्पाः प्रथमचरमतीर्थकरयोस्तीर्थे भवन्ति न मध्यम द्वाविंशतितीर्थकराणामिति २।
तथा निर्विशमानकल्पस्थितिः-निर्विशमानाः-परिहारविचद्धितपोऽनुचारकाः परिहारका इत्यर्थः, तेषां कल्पे या स्थितिः सा तथोक्ता । स च कल्पो यथापेत वस्त्र रखने रूप सत् अचेलता शेष मुनियों को होती है ? औद्देशिकपिण्ड, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड इनको ग्रहण करने ल्प३ स्थान प्रसिद्ध हैं ४ रत्नाधिक की मर्यादानुसार वन्दना करने का जो व्यवहार है वह कृतिकर्म है ५ पांच महावत ये व्रत हैं ज्येष्ठ पुरुपश्रेष्ठ धर्म हैं, सातिचार अवस्था में और निरतिचार अवस्था में भी प्रतिक्रमण करना यह प्रतिक्रमण है ८ मास से यहां मासकल्प लिया गया है शेषकाल में एक मास तक एक जगह रहना ९ यह इसका तात्पर्य है, तथापयूषण पर्व की आराधना करना लिया गया है १० ये १० कल्प प्रथम
और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में होते हैं, बीच के २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होते हैं। निर्विशमानकल्पस्थिति परिहारविशुद्ध तप का અસત્ અલતા જિનતીર્થકરમાં હોય છે, અને જીર્ણ, ખંડિત અને પ્રમાપેત વસ્ત્ર રાખવારૂપ સત્ અલતા બાકીના મુનિઓમાં હોય છે. (૧)
શિક પિંડ, (૨) શય્યાતર પિડ અને (2) રાજપિંડ ગ્રહણ કરવા રૂપ ત્રણ સ્થાન તે જાણીતા છે, તેથી અહીં તેમનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું નથી. (૪) રત્નાધિકની મર્યાદા અનુસાર વંદણા કરવાને જે વ્યવહાર છે તેનું નામ કૃતિકમ છે. (૫) પાંચ મહાવ્રતને શ્રત શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા छ. (६) ज्ये४-पुरुष श्रे४ धम छ (७) सातियार अवस्थामा भने निरतियार અવસ્થામાં પણ પ્રતિક્રમણ કરવું તેનું નામ પ્રતિક્રમણ છે. (૮) માસ પદથી અહીં માસક ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. શેષકાળમાં એક માસ સુધી એક જગ્યાએ રહેવું તેનું નામ માસકલ્પ છે (૯) પર્યુષણ પર્વની આરાધના કરવી (૧૦) આ દસ કલ્પ (આચાર) ને સદૂભાવ પહેલા અને છેલા તીર્થંકરના તીર્થમાં હે છે-વચ્ચેના ૨૨ તીર્થંકરના તીર્થમાં તેમને સદ્દભાવ હેતે નથી.
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सुधा टोका स्था० ३ उ. ४ सू० ७३ कल्पस्थितिनिरूपणम्
२७१
ग्रीष्म-शीत- वर्षाकालेषु क्रमेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपं तपो भवति, तत्र ग्रीष्मकाले जघन्यं चतुर्थषष्ठाष्टमरूपम्, शीतकाले मध्यमं पत्राष्टमदशमरूपम्, वर्षाकाले उत्कृटमष्टमदशमद्वादशरूपमिति, पारणमाचासाम्लेनैव पिण्डेषणासप्तके च प्रथमद्वितीययोरभिग्रह एव, शेषासु तृतीयादि पञ्चसु पिण्डेपणा पुनरेकया भक्तमेकया च पानमित्येवं द्वयोरभिग्रह इति उक्तञ्च -
46
वारस १ दस २ अह ३ दस दस १२ छट्ट ३ अट्ठेव ९ छ २ चउरो३ य । उक्कोसमज्झिमजन्नगा उ वासासिसिर गिम्हे १ ॥ १ ॥
पारणगे आयामं पचसु गहो दोसऽभिगाहो भिक्खा " इति ।
छाया - द्वादशं १ दशमं २ अष्टमं ३ दशमं १ अष्टमं २ षष्ठं ३ अष्टममेव १ षष्ठं- चतुथं च । उत्कृष्टमध्यमजघन्यकावर्षा शिशिरग्रीष्मेषु ॥ २ ॥
पारणके आचामाम्लं पञ्च ग्रहो द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् || इति ।
पालन करने वाले परिहारों का जो कल्प है उस कल्प में जो उनकी स्थिति है, वह निर्विश्यमान कल्पस्थिति है, उनका वह कल्प इस प्रकार से है ग्रीष्मऋतुसे, शीतऋतु में, और वर्षाऋतु में इनका क्रमशः जघन्य मध्यम और उत्कृष्टरूप तप होता है, ग्रीष्मकाल में जघन्यतप चतुर्थ षष्ट अष्टमरूप और शीतकाल में षष्ठ अष्टम और दशम रूप होता है तथा वर्षाकाल में उत्कृष्ट तप अष्टम, दशम, और द्वादशरूप होता है, तथा-पारणा आयंबिल से ही होता है, पिण्डेषणा सप्तक में प्रथम द्वितीय पिण्डेषणाओं में अभिग्रह ही होता है, तथा - पिण्डेषणाओं में तीसरी से लेकर सातवीं पिण्डेषणा तक में एक भक्त एक पान इस प्रकार से दो का अभिग्रह होता है । कहा भी है - " बारस दस अट्ठ-" इत्यादि । अब सूत्रकार प्रकारान्तर से भी
હવે નિવિંશમાન કલ્પસ્થિતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-પરિહાર વિશુદ્ધિ તપનું પાલન કરનાર પરિહારિકાના આચારરૂપ જે કલ્પ છે, અને તે કલ્પમાં તેની જે સ્થિતિ છે, તેનું નામ નિશ્યિમાન કલ્પસ્થિતિ છે. તેના તે કલ્પ ( આચાર ) આ પ્રમાણે હોય છે-તેએ ગ્રીષ્મ ઋતુમાં, શીત ઋતુમાં અને વર્ષા ઋતુમાં અનુક્રમે જધન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટ તપ કરે છે. ગ્રીષ્મકાળમાં તપની જ‰ન્યતા ાતુ ષષ્ઠ અને અઠ્ઠમ રૂપે અને શીતકાલમાં छठे (उपवास), अभ (त्रा उपवास ) भने દસ ઉપવાસપ હાય છે. વર્ષાકાળમાં ઉત્કૃષ્ટ તપ અષ્ટમ દશમ અને દ્વાદશ ૫ होय छे, તથા આય બિલથી જ તેના પારણાં કરવામાં આવે છે પિંડૈષણા સપ્તકમાંની પહેલી અને બીજી પિંડૈષણામાં અભિગ્રહ જ કરાય છે. ત્રીજીથી લઈને સાતમી પર્યંન્તની પાંચ પિંડૈષણાએમાં એક ભક્ત ( આહાર ) અને એક પાન ( પીણું ), એમ એ વસ્તુને જ અભિગ્રહુ થાય છે. કહ્યું પણ -" वारस दस अट्ठ " इत्यादि
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૨૭૨
स्थानागसूत्रे अथ प्रकारान्तरेण कल्पस्थितिमाह-'अहवा' इत्यादि ।
अथवेति प्रकारान्तरेण कल्पस्थितिस्त्रिविधा, तथा निर्विष्टकल्पस्थितिः, जिनकल्पस्थितिः, स्थविरकल्पस्थितिश्चेति । तत्र-निर्विष्टा-आसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपहारिका इत्यर्थः, तेषां कल्पः-आचारस्तस्य स्थितिः-मर्यादा निर्विष्टकल्पस्थितिः, यथा प्रतिदिनमाचाम्लमात्रं तपः, भिक्षा पूर्वोक्तप्रकारैवेति । उक्तञ्च
"कप्पडियावि पइदिणं, करंति एमेव चायामं” इति । छाया-कल्पस्थिता अपि प्रतिदिन कुर्वन्ति एवमेव चाचामाम्लम् ।
एते पूर्वमूत्रोक्ता निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते, तेपां च नवको गणो भवति, तेचैवं विधा भवन्ति" सव्वे चरित्तवंतो उ, दंसणे परिनिटिया । नवपुब्धिया जहन्नेणं, उक्कोसा दसपुन्चिया ॥ १ ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पंमि दुविहंमि य ।
दसविहेय पच्छित्ते, सम्वे ते परिनिटिया ॥२॥" कल्पस्थिति का कथन करते हैं-"अहवा-" इत्यादि, अथवा कल्पस्थिति इस प्रकारान्तर से तीन प्रकार की है, जैसे-निविष्टकल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति, और स्थविरकल्पस्थिति, निर्विष्टों का आसेवित विवक्षित चारित्रवालों का अनुपरिहारिकों का जो कल्प है आचार है, उस आचार की जो स्थिति है-मर्यादा है, वह निविष्ट कल्पस्थिति है, जैसे-प्रतिदिन आचाम्ल मात्र तप करना, और पूर्वोक्त प्रकार की ही भिक्षा करना। कहा भी है-" कप्पटिया वि पइदिणं-" इत्यादि, पूर्वसूत्रोक्त निविंशमानक, और ये निर्विष्ट दोनों परिहार विशुद्धिक कहलाते हैं, इनका गण ९ नौ का होता है ये इस प्रकार से होते हैं-" सव्वे चरित्तवंतो-"
व सूत्रा२ मील शत ४६पस्थितिनी ५३५॥ ४२ छ-" अहवा" ઈત્યાદિ-અથવા ક૫સ્થિતિના આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) નિષ્ટિ ४८पस्थिति, (२) लिन पस्थिति मन (3) स्थवि२४६५स्थिति.
નિવિટેનો-આસેવિત વિવક્ષિત ચારિત્રવાળાન–અનુપરિહાર કે જે કલ્પ (આચાર) છે, તે આચારની જે સ્થિતિ છે, મર્યાદા છે તેને નિર્વિષ્ટ કલ્પસ્થિતિ કહે છે. જેમકે પ્રતિદિન આચાર્લી માત્ર તપ કરવું, અને પૂર્વોક્ત प्रा२नी ४ मिक्षा 98] ४२वी. ४यु ५ छ -“कापट्ठियावि पइदिणं " त्यात
પૂર્વ સૂત્રોક્ત નિર્વિશમાનક અને આ નિવિષ્ટ, બન્નેને પરિહાર વિશુદ્ધિક हे छ, तमना नाय डाय छे. तो मा २ना डाय छ-" सव्वे चरित्तवंतो" त्याहि-तसा यात्रिशाणी डाय छ, ६शन ५२निष्ठित (परिपू)
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ७३ कलास्थितिनिरूपणम्
२७३ छाया-सर्वे चारित्रवन्तस्तु, दर्शने परिनिष्ठिताः ।
नवपूर्विका जघन्येन, उत्कृष्टा दगपूर्विकाः ॥ १ ॥ पञ्चविधो व्यवहारः, कल्पे द्विविधे च (जिनकल्पे स्थविरवल्पेचेत्यर्थः ) दशविधे च मायश्चित्ते, सर्वे ते परिनिष्ठिताः ॥२॥ इत्यादि १। जिनकल्पस्थितिः, जिनाः-गच्छनिर्गतसाधुविशेपा, नेपां कल्पस्थितिः । जिनकल्परवरूपगुत्तराध्ययनमंत्रस्य मत्कृतायां प्रियदर्शिनीटीकायां द्वितीयेऽध्ययनेऽचेलपरीपद स्वरूपेऽवलोकनीयम् ।२। ___ स्थविरकल्पस्थितिः-स्थविराः गच्छपतिबद्धा आचार्यादयः, तेषां कल्पस्थितिः । तत्स्वरूपं यथा -
" पयज्जा सिक्खावय मत्थग्गहणं च अनियओ चासो। -
निष्फत्तीय विहारो, समायारी ठिई चेव ॥१॥ इति । इत्यादि,। ये सर चारित्रशाली होते हैं दर्शन में परिनिष्ठित परिपूर्ण होते हैं कम से कम ये नव पर्वतक के पाठी होते हैं और उत्कृष्ट से १० पूर्वतक के पाठी होते हैं, इनका व्यवहार पांच प्रकार का होता है जिनकल्प और स्थविरकल्प में और दश प्रकार के प्रायश्चित्त में ये सब परिनिष्ठित होते हैं। जिनकल्पस्थिति-गच्छ ले निर्गत जो साधु होते हैं वे जिन हैं, इन जिलों के कल्प की जो मर्यादा है वह जिनकल्पस्थिति है। जिनकल्प का स्वरूप उत्तराध्ययन मन्त्र की प्रियदर्शिनी टीका में मैंने द्वितीय अध्ययन में अचेल परीघह के स्वरूप में चर्चित किया है, अतः वहां से देवि लेना चाहिये। स्थविरकल्पस्थिति गच्छतिबद्ध आचार्य आदि स्थविर है इनके कल्प की जो स्थितिरूप पर्यादा है वह स्थविर હોય છે, ઓછામા ઓછા નવ પૂર્વના પાડી હોય છે, અને વધારેમાં વધારે દસ પૂર્વના પાડી હોય છે તેમને વ્યવહાર આગમાદિ પાંચ પ્રકારના હોય છે, તેઓ જિનકલ્પ અને સ્થવિરકપમા અને દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તોમાં પરિનિષિત (परिपू) हाय छ - હવે જિનકલ્પસ્થિતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-ગચ્છમાંથી નિર્ગત જે સાધુઓ હોય છે તેમને જિન કહે છે તે જિનેના ક૫ (આચાર) ની જે મર્યાદા છે તેને જિનક૯પસ્થિતિ કહે છે જિનકલ્પનું સ્વરૂપ મેં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની પ્રિયદર્શની ટીકાના બીજા અધ્યયનમાં અચેલ પરીષહના સ્વરૂપનું વર્ણન કરતાં, સ્પષ્ટરૂપે પ્રકટ કર્યું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકએ તે ત્યાંથી વાંચી લેવું.
હવે સ્થવિર કલ્પસ્થિતિની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે-ગચ્છ પ્રતિબદ્ધ આચાર્ય આદિને રવિર કહે છે તેમના ક૯૫ (આચાર) ની સ્થિતિરૂપ જે મર્યાદા છે, તેને સ્થવિર ક૯પસ્થિતિ કહે છે તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે –
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स्थानाङ्गसूत्रे
२७४
छाया-प्रव्रज्या शिक्षाव्रतानि अर्थग्रहणं चानियतो वासः ।
निष्पत्तिश्च विहारः, सामाचारी स्थितिश्चैव ॥१॥ ___ इत्यादिरूपा स्थविरकल्पस्थिति रिति ३। इहच मूत्रद्वयेऽयं क्रमोपन्यासः सामायिके सति छेदोपस्थापनीयं भवति तस्मिंश्च सति परिकारविशुद्धिकभेदरूप निर्वि. शमानकं, तदनन्तरं निर्विष्टकायिकं, तत्पश्चाग्जिनकल्पः स्थविरकल्पो वा भवतीति सामायिकाल्पस्थित्यादीनां क्रम इति ।। सू० ७३ ।।
पूर्वोक्तकल्पस्थितीनां व्यतिक्रमविपरीतविधायका नारकादि शरीरिणो भवन्तीति नारकादिशरीरनिरूपणमाह
मूलम्--नेरइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-वेउविए तेयए, कम्मए । असुरकुमाराणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-एवं चेव । एवं लव्वेसिं देवाणं । पुढवीकाइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए । एवं वाउकाइयावज्जाणं जाव चउरिदियाणं ॥ सू० ७४ ॥ कल्पस्थिति है इसका स्वरूप इस प्रकार है-"पवज्जा सिकवावय" इत्यादि, इत्यादिरूप यह स्थविरकल्पस्थिति है ३ यहां दो सत्रों में यह क्रमोपन्यास है-सामायिक के होने पर छेदोपस्थापनीय होता है, छेदोपस्थापनीय के होने पर परिहार विशुद्धिक का भेदरूप निर्विशमानक होता है, बाद में-निविष्टकायिक होता है इसके बाद जिनकल्प होता है, अथवा स्थविरकल्प होता है, इस प्रकार से यह सामायिक कल्पस्थिति आदिकों का क्रम है। मू०७३।
इन पूर्वोक्त कल्पस्थितियों का व्यतिक्रम विपरीत करनेवाले नारकादि शरीरबाले होते हैं, अतः अब सूत्रकोर नारकादि शरीर का निरूपण करते हैं" पवजा सिक्खावय" त्यादि ३५ 21 स्थविर ४६५स्थिति राय छ महा બે સૂત્રામાં કેમપન્યાસ ( ઉલટ કમ) છે–સામાયિકના ભાવમાં છેદેપસ્થાપનીય થાય છે, છેદેપસ્થાપનીયના સદુભાવમાં પરિહાર વિશુદ્ધિક ભેદરૂપ નિર્વિશમાન થાય છે, ત્યારબાદ નિર્વિષ્ટકાયિક થાય છે, ત્યારબાદ જિનક૫ થાય છે, અથવા સ્થવિરક૯૫ થાય છે આ પ્રમાણે આ સામાયિક સ્થિતિ माहिना भ छ. ॥ सू. ७३ ॥
આ પૂર્વેત કાસ્થિતિના વ્યતિક્રમ (વિપરીતતા) કરનારા નારકાદિ શરીરવાળા હોય છે તેથી હવે સૂત્રકાર નારકાદિના શરીરનું નિરૂપણ કરે છે.
" तओ सरीरगा पण्णत्ता" त्यादि
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सुंधा टीका स्था० ३ 30 ४ सू० ७४ नारकादिशरीरनिरूपणम् २७५
छाया-नैरयिकाणां त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वैक्रियं, तेजर्स, कार्मणम् १। असुरकुमाराणां त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एवमेव २। एवं सर्वेषां देवानाम् ३। पृथिवीकायिकानां त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिक, तेजसं, कार्मणम् ४ा एवं वायुकायिकवर्जानां यावच्चतुरिन्द्रियाणाम् ५॥.७४॥ ___टीका-' नेरइयाणं ' इत्यादि सूत्रपञ्चकं सुगम, नवर-नैरयिकाणां वैक्रियतेजसकार्मणरूपाणि त्रीणि शरीराणि भवन्ति ।१। असुरक्छमाराणामपि ' एवं चेवे' ति एवमेव-एतान्येव पूर्वोक्तानि वैक्रियादीनि त्रीणि शरीराणि सन्तीति । एवम्यथा नैरयिकाणाममुरकुमाराणां च वैक्रियादीनि त्रीणि शरीराणि तथा सर्वेषां नाग
टीकार्थ-"तओ सरीरगा पण्णत्ता-" इत्यादि, ये पांच सूत्र हैं-इनका अर्थ सुगम है, फिर भी सूत्रकार ने हनमें यह प्रकट किया है कि नैर. यिकों के तीन शरीर होते हैं वैक्रिय तेजल और कार्मण तैजस कार्मण इन दो शरीरों का सम्बन्ध तो प्रत्येक जीव को होता ही है, उसके साथ नैरयिक जीवों को वैक्रिय शरीर होतो है, असुरकुमारों को भी ये ही ३ शरीर होते हैं। इसी तरह से-नागकुमार आदि भवनपतियों को, व्यन्तर देवों को, ज्योतिष्क देवों को और वैमानिक देवों को, कल्पोपपन्न कल्पातीतों को भी ये ही ३ शरीर होते हैं। पृथिवीकायिक, अपकायिक, तैजलकायिक और वनस्पतिकायिक, इन एकेन्द्रिय स्थविर जीवों को औदारिक तैजस एवं कामण शरीर होते हैं, दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों को भी ये ही तीन शरीर होते हैं। वायुकायिक,
ટીકાથ–પાંચ સૂત્રે દ્વારા નારકાદિનાં શરીરનું સૂત્રકારે નિરૂપણ કર્યું છે. આ સૂત્રનો અર્થ સુગમ છે, છતાં અહીં સ ક્ષિપ્તમાં તેમને ભાવાર્થ પ્રકટ ४२वामा मान्य छ-नारीने र शरीर डाय छ-(१) वैठिय, (२) तेरस અને (૩) કામણ તેજસ અને કામણ, આ બે શરીરને સંબંધ તે પ્રત્યેક જીવને હોય છે, અસુરકુમારેમાં પણ એ જ ત્રણ શરીરને સભાવ હોય છે. એ જ પ્રમાણે નાગકુમાર આદિ ભવનપતિ દેવમાં, વ્યન્તર દેવમાં, વૈમાનિ. કેમાં કપિપપન્ન અને કપાતીમાં પણ એ જ ત્રણ શરીરને સદ્ભાવ હોય છે. પૃથ્વીકાયિક, અપૂકાયિક, તેજસકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક, આ એકેન્દ્રિય
સ્થવિર માં હારિક, તેજસ અને ફાર્માણ શરીરને સદ્દભાવ હોય છે. દ્વિન્દ્રિય, બ્રોન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય માં પણ એ જ ત્રણ શરીરને સ
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स्थानाश कुमारादि भवनपति-व्यन्तरज्योतिप्कनैमानिदेवानामपि विज्ञयानि ३। पृथिवीकायिकानामौवारिक तैजसकामणरूपाणि त्रीणि शरीराणि भवन्ति ४। एवंयथा-पृथिवीकायिकानामौदारिकादीनि शरीराणि भवन्ति तथा वायुकायिकव
र्जानां वायुकायिकान् वर्जयित्वेत्यर्थः 'जाव' इति यावत् , यावच्छब्देन'अप्काय-तेजस्काय - वनस्पतिकाय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियाणाम् ' इति ग्राह्यम् , चतुरिन्द्रियाणां चौदारिकतैजसकामगरूपाणि त्रीणि शरीराणि सन्ति । वायुका. यिकानां पञ्चन्द्रियतिरश्वां चाहारकवर्जशरीरचतुष्टयं मनुष्याणां तु शरीरपञ्चकं भवतीति त्रिस्थानकानुरोधात्तानि नात्र दर्शितानि || नु० ७४ ।।
कल्पस्थितिव्यतिक्रामकाश्च प्रत्यनीका अपि भवन्तीति प्रत्यनीक मृत्रपट्कमाहमूलम् --गुरुं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-आयरिय पडिणीए, उवज्झायपडिणीए, थेरपडिणीए १ । गई पडुच्च तओ पडिणीचा पण्णता, तं जहा इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए दुहओ लोगपडिणीए२। लसूहं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए ३ । अणुकंपं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-तवस्लिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेह पडिणीए४। भावं पडुच्च तओपडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-णाणपडिणीए, दसणपडिणीए, चरित्तपडिणीए ५। सुयं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता, सं जहा-सुत्तपडिणीए, अत्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए ६ ॥ सू० ७५॥ और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च इनको औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण ये चार शरीर तक भी हो सकते हैं, आहारक शरीर नहीं होता है तथा-मनुष्यों को तो पांच शरीर तक भी हो सकते हैं, परन्तु यहां पर त्रिस्थानक का प्रकरण होने से उन्हे यहां नहीं कहा गया है ।मु०७४॥ ભાવ હોય છે. વાયુકાયિક અને પંચેન્દ્રિય તિય ચામાં દારિક, વૈકિય, તેજસ અને કાશ્મણ એ ચાર શરીરને સદ્ભાવ હેઈ શકે છે–પણ આહારક શરીર હેતું નથી. મનુષ્યમાં તે પાંચ શરીરને સદ્દભાવ પણ હોઈ શકે છે, પરંતુ અહીં ત્રિસ્થાનકને અધિકાર ચાલતું હોવાથી તેમની પ્રરૂપણું કરવામાં भावी नशी ॥ सू. ७४ ॥
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सुंधा टीका स्था० ३ उ०४सू०७५ प्रत्यनीकस्वरूपनिरूपणम् २७७
छाया-गुरुं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः पज्ञप्ताः, तद्यथा-आचार्यप्रत्यनीका, उपाध्यायपत्यनीकः, स्थविरप्रत्यनीकः ।। गति प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीका प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-इहलोकमत्यनाक', परलोकमत्यनीकः, द्विधातोलोकप्रत्वनीकः ।२। ममदं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-कुलप्रत्पनीका, मगात्पनीका, संघमत्यनीकः ।३। अनुकम्पा प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीका प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तपस्विप्रत्यनीकः, ग्लानप्रत्यनीकः, शैक्षप्रत्यनीकः ।४। भावं प्रतीत्य त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा ज्ञानप्रत्यनीकः, दर्शनप्रत्यनीकः, चारित्रप्रत्यनीकः।। श्रुतं प्रतीत्य त्रयः प्रत्य. नीका: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूत्रप्रत्यनीका,अधमत्यनीयः, तदुभयप्रत्यनीका।म०७५।। ___टीका-'गुरुं ' इत्यादि मूत्रपटक सुगम, नवरं-'गुरु'-मिति, गृणातिअभिधत्ते तत्त्वमिति गुरुस्तं प्रतीत्य-आश्रित्य-प्रत्यनीकाः-प्रतिकलाः ते आचायोपाध्यायस्थविरभेदेन त्रयः प्रज्ञप्ताः । तत्राचार्योपाध्याय प्रत्यनीको तदवर्णवा. दिनौ । स्थविरो जात्यादिभि भवति तस्य प्रत्यनीका-प्रतिकूलः । स्थविरपत्य___कल्पस्थिति व्यतिक्रामक प्रत्यनीक (प्रतिकूल ) भी होते हैं, अतः अब सूत्रकार प्रत्यनीक प्रतिकूल रहने वालों के छह सूत्रों का कथन करते हैं-" गुरुं पडुच्च तओ पडिणीया-" इत्यादि ।
टोकार्थ-ये ६ सूत्र हैं, इनका अर्थ सुगम है फिर भी सूत्रकार ने इनमें यह प्रकट किया है-गुरू को लेकर प्रत्यनीक तीन होते हैं, जो तत्त्व का कथन करता है वह " गृणाति तत्त्वमितिगुरुः” तत्त्व समझाने वालेको गुरु कहते है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार गुरु कहा गयाहै प्रत्यनीक शब्द का अर्थ प्रतिकूल रहना है ऐसे गुरुप्रत्यनीक आचार्यप्रत्यनीक उपाध्यायप्रत्यनीक और स्थविरप्रस्थनीक के भेद से ३ तीन प्रकार के कहे गये हैं। आचार्य और उपाध्याय का जो अवर्णवाद करता है वह
ક૯પસ્થિતિ વ્યતિકામક પ્રત્યેની (પ્રતિકૂળ માણસ) પણ હોઈ શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રત્યેનીક (પ્રતિકૂળ રહેનાર) ને અનુલક્ષીને છ સૂત્રેનું ४थन ४२ छ-" गुरुं पडुच्च तओ पडिणीया" त्याह
આ સૂત્રનો અર્થ સુગમ છે, છતાં અહીં આ સૂત્રનો ભાવાર્થ પ્રકટ ४२वामां आवे छे-गुरुनी अपेक्षा प्रत्यनी साय छे " गृणाति तत्व. मिति गुरु " | युत्पत्ति अनुसार २ तत्वतुं ४थन ४२ छ तेने शुरु ४९ છે પ્રતિકૂળ રહેનારને પ્રત્યેનીક કહે છે. ગુરુ પ્રત્યેનીકના નીચે પ્રમાણે ત્રણ से ह्या है-(१) माया प्रत्यनी. (२) अध्याय प्रत्यानी मन (3) स्थविर પ્રત્યેનીક આચાર્યને અવર્ણવાદ કરનાર જીવને આચાર્ય પ્રત્યેનીક કહે છે અને ઉપાધ્યાયને અવર્ણવાદ કરનાર જીવને ઉપાધ્યાય પ્રત્યેનીક
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स्थानासूत्र नीकः-यो जात्यादिकमाश्रित्य स्थविरस्यावर्णवादं वदति छिद्रान्वेपी च भवति सः । उक्तञ्च"जच्चाईहि अवन्न, विभासइव न यावि उववाए ।
अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाई अणणुलोमो ॥ १ ॥ अहवावि वए एवं, उवएसं परस्सदेति एवं तु ।
दसविड वेयावच्च, कायन्य सयं न कुव्वंति ॥२॥ " इति । छाया-जात्यादिभिरवण विभापते नोपपातेऽपि वर्त ते ।
अहितः छिद्रप्रेक्षी प्रकटवादी अननुलोमः ॥१॥ __ अथवाऽपि ( रा प्रत्यनीकः, ) वदेदे, (एते आचार्यादयः) परस्योप
देशं ददति, एयमेव दशविध वैयावृत्त्यं कर्तव्यं परं स्वयं न कुर्वन्ति ॥२॥ इत्थमवर्णवादकरणे गुरुप्रत्यनीकता भवति ॥१॥ गतिः मानुपत्यादिका, तां प्रतीत्य प्रत्यनीका, स त्रिविधः-इहलोकपरलोकोभवलोकभेदात् । तत्र-इहलोक आचार्य प्रत्यनीक, और उपाध्यायप्रत्यनीक है, जाति आदि की अपेक्षा स्थविर होता है, ऐसे स्थविर का जो प्रत्यनीक प्रलिकल होता है वह स्थविरप्रत्यनीक है स्थविरप्रत्यनीक वह है जो जाति आदि को लेकर स्थविर का अवर्णवाद कहता है और उसके छिद्रों का अन्वेषी होता है। कहा भी है-"जच्चाईहि अवन्न-" इत्यादि, ये आचार्यादिक दश प्रकार के वैयावृत्त्य का उपदेश देते हैं, परन्तु-स्वयं आचरण नहीं करते हैं ऐसा बोलनेवाला अवर्णवादी है। इस प्रकार से अवर्णवाद करने पर गुरुप्रत्यनीकता होती है-१ मानुपत्त्वादिक जाति को आश्रित करके प्रत्यनीक तीन प्रकार का होता है, जैसे-इहलोकप्रत्यनीक परलोकप्रत्यनीक और उभयलोकप्रत्यलीक इनमें इहलोकप्रत्यनीक वह है जो मनु. ज्यत्वरूप पर्यायका प्रत्यनीक है ऐसा वह जीव कृत्रिमनपुंसक आदि की કહે છે. જાતિ આદિની અપેક્ષાએ જેઓ સ્થવિર છે, તેમના પ્રત્યેનીકને સ્થવિર પ્રત્યેનીક કહે છે. જે માણસ જાતિ અ દિની અપેક્ષાએ સ્થવિરને અવર્ણવાદ કરે છે અને તેમનાં છિદ્રો શોધ્યા કરે છે તે માણસને સ્થવિર પ્રત્યેનીક કહે છે. ह्यु छ-" जच्चाई हि अवन्न" छत्याहि
આ આચાર્ય આદિ દસ પ્રકારના વૈયાવૃત્યને ઉપદેશ આપે છે, પરંતુ પિતે તે તે પ્રમાણે આચરણ કરતા નથી, ” આ પ્રકારે બોલનાર અવર્ણવાદી ગણાય છે. આ પ્રમાણે અવર્ણવાદ કરનારમાં ગુરુ પ્રત્યનીતાને સદ્ભાવ સમજો ૧
" મનુષ્ય આદિ ગતિને આધારે ત્રણ પ્રકારના પ્રયનીક સંભવી શકે છે(१) Ugals प्रत्यनी, (२) पर प्रत्यनी मन (3) यस प्रत्यनी४. મનુષ્યત્વ રૂપ પર્યાયને જે પ્રત્યેનીક (પ્રતિકૂળ) હોય છે તેને ઈહલોક પ્રત્યેનીક કહે છે. એ તે પ્રત્યેનીક જીવ કુત્રિમનપુસક આદિની જેમ ઇન્ડિયા પ્રતિકૂળ
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सुधा टीका स्था०३ उ0 सू० ७५ प्रत्यनिकस्वरूपनिरूपणम् प्रत्यनीका-इहलोकस्य-मनुष्यत्वरूपपयार्यस्य प्रत्यनीकः इन्द्रियार्थप्रतिकूलविधा. यकत्वात् कृत्रिमनपुंसकादिवत् । परलोकप्रत्यनीका-जन्मान्तरमतिकूलइन्द्रिया. र्थतत्परखाचार्वाकवत् । द्विधातोलोकप्रत्यनीकः-उभयलोकमत्यनीकः-भोगसाधनतत्परत्वाद् द्रव्यलिङ्गिवत् । यद्वा-चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनतत्परउभयलोकपत्य. नीकः । इति गतिमत्यनीकता ॥ २ ॥ अथ समूहप्रत्यनीकमाई
समूहः-कुलगणसंघरूपः, तं प्रतीत्य प्रत्यनीकः, तत्र कुलपत्यनीका-कुलम्एकगुरुकशिष्यसमुदायरूपस् , गणः-अनेककुलानां समूहरूपः, सङ्घ:-अनेकगणानां समूहरूपः, एतेषामवर्णवादकः प्रत्यनीको भवति । इयं समूहमत्यनीकतेति ।३। तरह इन्द्रियार्थ प्रतिकूल विधायक होता है । परलोकप्रत्यनीक वह है जो इन्द्रियार्थ में तत्पर होने के कारण चार्वाक आदि की तरह जन्मान्तर का प्रतिकूल होता है,। तथा-उभयलोक प्रत्यनीक वह है जो भोग सम्बन्ध में तत्पर होने के कारण द्रव्यलिङ्गी की तरह दोनों लोक का प्रतिकूल होता है, अथवा-चौर्य आदि कुकृत्यों द्वारा जो इन्द्रियार्थ के साधन में तत्पर बना है वह-उभयलोक प्रत्यनीक है-२ यह गति की अपेक्षा प्रत्यनीकता प्रगट की है। समूह को लेकर कुल, गण, और संघ को आश्रित कर प्रत्यनीकता इस प्रकार से है-एक गुरु का जो शिष्य समुदाय होता है, वह कुल है अनेक कुलों को समुदाय गण है,
और-अनेक गणों का समुदाय ' संघ है, इनका अवर्णवाद करनेवाला समूह प्रत्यनीक कहा गया है-३ अनुकंपा प्रत्यनीक इस प्रकार से कहा વિધાયક હોય છે. જે જીવ ઈન્દ્રિયેના સુખમાં લીન થઈને-ચાર્વાકના મત પ્રમાણે ભોગવિલાસમય જીવન જીવ્યા કરે છે તેને પરલોક પ્રત્યેનીક કહે છે. કારણ કે એ જીવ પિતાના પરલેકને બગાડે છે તથા ઉભયલોક પ્રત્યેનીક એ છે કે જે ભેગ સંબધમાં પ્રવૃત્ત જ રહેવાને કારણે વ્યલિંગીની જેમ બને લેકને માટે પ્રતિકૂળ એવું આચરણ કરે છે. અથવા જે માણસ ચેરી આદિ કુકૃત્ય દ્વારા ઈન્દ્રિયાર્થના સાધનમાં તત્પર રહ્યા કરે છે, તેને ઉભયલક પ્રત્યેનીક કહે છે. આ રીતે ગતિની અપેક્ષાએ ત્રણ પ્રકારની પ્રત્યેનીકતાને પ્રકટ १२मा मावी छ । २ ।
સમૂહની અપેક્ષાએ ત્રણ પ્રકારના પ્રત્યેનીક કહૃાા છે–(૧) કુલ પ્રત્યેનીક, (२) गए प्रत्यनी भने (3) स अत्यनी.
એક ગુરુના શિષ્ય સમુદાયને કુલ કહે છે, અને કુલના સમુદાયને ગણ કહે છે અને અનેક ગણના સમુદાયને સંઘ કહે છે તેમનો અવર્ણવાદ કરનારને સમૂહ પ્રત્યેનીક કહે છે. અનુકંપા પ્રત્યેનીક પણ ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે.
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स्थानासूत्रे
अधातुकम्पामत्यनीकमाह- अनुकम्पां प्रतीत्य-आश्रित्य त्रयः प्रत्यनीका भवन्ति, तथाहि - तपस्विप्रत्यनीकः, ग्लानप्रत्यनीकः, शैक्षप्रत्यनीकः । तत्र तपस्वीद्वादशविधतपोविधायक, ग्लानः- रोगादिकारणवशादशक्त, शैक्षः- नवदीक्षितः । एतेहि अनुकम्पायोग्य भवन्तीत्येतेषामनुकम्पाया अकरणेन, अन्यद्वाराऽनुकपाया अकरणेन च प्रत्यनीकता भवति । एतेऽनुकम्पामाश्रित्य तपस्व्यादीनां प्रत्यनीका भवन्तीति |४| सम्पति भावप्रत्यनीकतामाह - भावः - जीवाजीवगतः पर्यायः, तंत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्त भावो भवति । तत्र जीवस्य प्रशरतो मात्रः क्षायिकादिः, अपशतो विवक्षामाश्रित्यदयिकः । क्षायिकादिव ज्ञानादिरूपस्तेन भाव - ज्ञानदर्शन वारित्ररूपं प्रतीत्य प्रत्येकं प्रत्यनीकाः ज्ञानदर्शनचारित्राणामन्यथा गया है जो अनुकम्पा को आश्रित करके अवर्णवाद होता है चह् सीन प्रकार का होता है एक तपस्विप्रत्यनीक, दूसरा ग्लानप्रत्यनीक, और तीसरा शैक्षप्रत्यनीक इनमें अनशनादि १२ प्रकार के तरों का जो अनुष्ठान करनेवाला होता है वह तपस्वी होता है, रोगादि कारण के वश से जो अशक्त होता है वह ग्लान है, नये दीक्षित का नाम शैक्ष है, ये सब अनुकम्पा के योग्य होते हैं, मो इनके प्रति अनुकम्पा नहीं करना अन्य द्वारा भी इनके प्रति अनुकम्पा नहीं करवाना यही उनकी और प्रत्यनीकता है, यही बात तपस्विप्रत्यनीक, ग्लानप्रत्यनीक, और शैक्षपत्नीक इन पदों द्वारा प्रकट की गई है । भाव की अपेक्षा लेकर तीन प्रत्यनीक इस प्रकार से प्रकट किये गये हैं- एक ज्ञानप्रत्यनीक, १ दर्शनप्रत्यनीक २ और तीसरा चारित्रप्रत्यनीक ३ जीव और अजीव
भी
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અનુકપા બતાવવા ચેાગ્ય છÀ! પ્રત્યે સ્વય' અનુક પા (દયા) નહી રાખનાર અને ખીજાને અનુકપા રાખવા નહીં દેનાર વ્યક્તિને અનુક ંપા પ્રત્યેનીક કહે છે. તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) તપસ્વી પ્રત્યેનીક, (૨) ગ્લાન પ્રત્યેનીક, (૩) શૈક્ષ પ્રત્યેનીક અનશનાદિ ૧૨ પ્રકરના તપનું અનુષ્ઠાન કરનારને તપસ્વી કહે છે. રાગાઢિ કારણેાને લીધે જે સાધુ અશક્ત હોય છે, તેને ગ્લાન કહે છે. નદીક્ષિત સાધુને શૈક્ષ કહે છે. તપસ્વી, ગ્લાન અને શૈક્ષ અનુ પાને પાત્ર હોય છે. તેમના પ્રત્યે અનુકપા નહીં રાખનાર અને અનુકંપા રાખનારને પણ અનુકંપા નહીં રાખવાનું કહેનારને અનુકપા પ્રત્યેનીક કહે છે આ રીતે તપસ્વી પ્રત્યે અનુકપા નહીં રાખન રને તપસ્વી પ્રત્યેનીક, ગ્લાન પ્રત્યે અનુકંપા નહીં રાખનારને ગ્લાન પ્રત્યેનીક અને નવદીક્ષિત પ્રત્યે અનુકપા નહીં રાખનારને ક્ષ પ્રત્યેનીક કહે છે ભાવની અપેક્ષાએ ત્રણ પ્રત્યેનીક કહ્યા છે-(૧) જ્ઞાન પ્રત્યેનીક, (૨) દર્શન પ્રત્યેનીક અને (૩) ચારિત્ર પ્રત્યેનીક
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सुधा टीका स्था० ३ उ ४ खू० ७५ प्रत्यनिकस्वरूपनिरूपणम् प्ररूपणतस्तपणतो वा भवन्ति, यथा
" पाययवृत्तनिबद्धं, कोवा जाणड पगीय केणेयं ?। किंवा चरोणं तु, दाणेण विणा उ कि हवद ।। १ ।। " इति । छाया-प्राकृतमुत्रनिबद्धं को वा जानाति प्रणीतं के नेदम् ।
किं वा चरणेन तु दानेन विना तु किं भवति ॥१॥ तत्र ज्ञानविषयाऽन्यथाप्ररूपणा यथा-सूत्रमिदं प्राकृतभाषानिवद्ध-न तु संस्कृतभाषानिबद्धमित्यादि । दर्शनविषयाऽन्यथाप्ररूपणा यथा-को जानातीद शास्त्र केन भगवताऽन्येन वा केनचित् प्रणीतमिति न श्रद्धेयमित्यादि । चारित्रविपयागत पर्याय का नाम भाव है जीव को प्रशस्त भाव, और अप्रशस्त भाव, दोनों प्रकार भी भाव होता है. क्षायिकादि का होना यह प्रशस्त भाव है तथा विवक्षा की अपेक्षा से औदशिक आदि भाव अप्रशस्त भाव है क्षायिकसाव सामादिरूप होता है इस कारण यहां ज्ञानदर्शन
और चारित्ररूप अप्रशस्त भाव को लेकर ये प्रत्येक के प्रत्यनीक प्रकट किये गये हैं ज्ञानदर्शन और चारित्र में अन्यथा प्ररूपणा करने से, या उनमें दूषण लगाने से ये प्रत्यनीक होते हैं। जैसे-" पोवयनुत्तनिवर्द्ध" इत्यादि, यह छूत्र प्राकृत भाषा में निबद्ध है-संस्कृत में लिबद्ध नहीं है इत्यादिरूप से गहित विचारधारा पूर्वक कहना यह ज्ञानविषयक अन्यथा प्ररूपणाहै कौन जानता है यह शाम भगवान ने उपदिष्टकिया है, या इसे अन्य दूसरे किसीने उपदिष्ट कियाहै ३ भगवानने उपदिष्ट कियाहै रचाई
જીવ અને અવગત પર્યાયનું નામ ભાવ છે જીવમાં પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત, આ બન્ને પ્રકારના ભાવ હોય છે ક્ષાયિકાદિ ભાવને પ્રશસ્ત ભાવ કહે છે અને બૌદયિક આદિ ભાવને અપ્રશસ્ત ભાવ કહે છે ક્ષાયિક ભાવ સામાદિ (જ્ઞ નાદિ) રૂપ હોય છે, તે કારણે અહીં જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર રૂપ અપ્રશસ્ત ભાવની અપેક્ષાએ તે પ્રત્યેકના પ્રત્યેનીક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર વિષયક વિપરીત પ્રરૂપણ કરવાથી અથવા તેમાં હષણનું આરોપણ કરબથી, તેઓમાં પ્રત્યુનીકતા આવી જાય છે જેમકે–
पावय सुत्तनिबद्ध " त्याह
આ સૂત્ર પ્રાકૃત ભાષામાં નિબદ્ધ છે, સંસ્કૃતમાં નિબદ્ધ નથી » ઈત્યાદિ રૂપે ગહિત વિચારધારપૂર્વક કહેવું તેને જ્ઞાનવિષયક વિપરીત પ્રરૂપણ કહેવાય છે. તથા “શી ખબર, આ શાસ્ત્ર ભગવાને રચ્યું છે કે અન્ય કેઈએ રહ્યું છે ! ભગવાને જ રચ્યું છે તેનું પ્રમાણ શું છે ? એવા કેઈ પ્રમાણને અભાવે તેમાં
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स्थानानने ऽन्यथा प्ररूपणा यथा-चारित्रेण-चारित्रग्रहणेन किम्-को लासः, यत् चारित्री ज्ञानं दातुं न शक्नोति, ज्ञानेन निना किं भवति, लोके ज्ञान हि सर्वश्रेष्ठं वर्तते नान्यत्किमपीति 1५1 श्रुतप्रत्यनीकता यथा-श्रुतम्-आगमं प्रतीत्य मूत्रार्थ-तदुभयमेदेन त्रयः प्रत्यनीका भवन्ति । तत्र सत्रग्-आचाराङ्गादिकम् , अर्थ:-तघ्याख्यानं, तदुभयं-सूत्रार्यरूप द्वितयमपि । तेषां प्रत्यनीकता-दृपणोद्भावनं यथा"जीवा य अजीवा य, वया पमाया तहा य अपमाया।
एयाणि पसिद्धाणि य, किमेत्य सुत्तत्थभणणेणं ॥१॥" इति । छाया-जीवाश्थानीवाश्च व्रतानि प्रमादास्तथा चाप्रमादाः ।
एतानि प्रसिद्धानि च, किमत्र सूत्रार्थभणनेन ॥१॥ इत्यादि ।६।०७५॥ इसमें प्रमाण क्या है ? अत:-यह श्रद्धेय नहीं है ऐसा कथन करना यह दर्शनविषयक अन्यथा प्ररूपणा है। न्यारित्र ग्रहण से क्या लाभ है ? क्यों कि-चारित्री ज्ञान तो दे नहीं सकता है, और ज्ञान के बिना कुछ होता नहीं है, लोक में ज्ञान सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, और कुछ सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा गया है इस प्रकार का कथन चारित्रविषयक अन्यथा प्ररूपणा रूप होती है। शुत को आश्रित करके तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, जैसे-सूत्रप्रस्थनीक अर्थप्रत्यतीक और तदुभयप्रत्यनीक, आचारा आदि सूत्ररूप आगस है इनका व्याख्यान अर्थरूप आगम हैं, मूत्र और अर्थ यह उभयरूप आगम है इनमें दूषणों का उद्भावन करना यह उनकी प्रत्यनीकता है। जैसे " जीवाय अजीवा य" इत्यादि। जीव अजीवव्रत अप्रमाद ये तो प्रसिद्ध ही हैं, फिर सूत्र, अर्थ पढने से प्रयोजन क्या है, अर्थात् कुछ भी नहीं। सू० ७५ ॥
पहले जो कल्पस्थिति कही गई है वह गर्भज मनुष्यों को ही होती શ્રદ્ધા શા માટે રાખવી જોઈએ !” આ પ્રકારનું કથન કરનારને દર્શન પ્રત્યેનીક કહે છે. “ચારિત્ર ગ્રહણ કરવામાં શું લાભ છે ? ચારિત્રશાળી જીવ જ્ઞાન તે આપી શકતો નથી, અને જ્ઞાન વિના કોઈ લાભ થતું જ નથી લેકમાં જ્ઞાન ને જ શ્રેષ્ઠ કહ્યું છે, બીજું કંઈ પણ તેનાથી ઉત્તમ નથી આ પ્રકારની વિપરીત પરૂષણ કરનારને ચારિત્ર પ્રત્યેનીક કહે છે. શ્રુતની અપેક્ષાએ પણ ત્રણ પ્રત્યनीह्या -(१) सूत्र प्रत्यनी (२) अर्थ प्रत्यनी मन (3) समय प्रत्यनी
આચારાંગ આદિ સૂત્રરૂપ આગમ છે. તેનું વ્યાખ્યાન તે અથરૂ૫ આગમ છે સૂત્ર અને અર્થ એ બને ઉભયરૂપ આગમ છે તેમાં દૂષણેનું આરોપણ ४२, ४ तमना प्रत्येनी प्रत्यजीता छ भ-"जीवा य अजीवा य" त्या "20, 04, व्रत, मप्रमाह, म त onelai तत्व। छे. तो सूत्र, मथ આદિ વાંચવાની જરૂર જ શી છે?” આ પ્રમાણે કહેનારને શ્રત પ્રત્યેનીક
छ. ॥ सू. ७५ ॥
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सुधा टीका स्था०३ उ० ४ ० ७६ मात्रापित्रोरनिरूपणम्
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पूर्व कल्पस्थितिरुक्ता सा च गर्भजमनुष्याणामेव भवति तेषां शरीरं च मातापितृहेतुकमिति तच्छरीरे, मातापित्रोरङ्गविभागं प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाह
मूलम्--तओ पिइयंगा पण्णत्ता, तं जहा- अट्ठी, अट्ठिसिंजा, केसमंसुरोमन हे १ । तओ माउयंगा पण्णत्ता, तं जहा-मंसे, सोणिए, मत्थुलिंगे ॥ सू० ७६ ॥
छाया - त्रीणि पित्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-अस्थि, अस्थिमञ्जा, केशश्मश्रुरोमनखम् | १ | त्रीणि मात्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मांस, शोणितं, मस्तुलिङ्गम् । २ ।। ० ७६ ॥
टीका - ' तओ पिइयंगा' इत्यादि । त्रीणि- त्रिसंख्यकानि पित्रङ्गानि - पितृसम्बन्धीनि - अङ्गानि प्रायः शुक्रपरिणतानीत्यर्थः । तद्यथा - तान्येवाह अस्थिप्रसिद्धम्, अस्थिभञ्जा- अस्थिमध्यगतो रसः, केशश्मश्रुरोमनखम्, तत्र केशाःप्रसिद्धाः, श्मश्रु - कूर्चः, दाढी इतिभाषा प्रसिद्धं रोमाणि - कक्षा दिजातानि, नखावेति समाहारे के मथुरोमनखम् एतदेकाङ्गत्वेन विवक्षितं प्रायः समानत्वाहै, तथा गर्भज मनुष्यों का शरीर मातापिताओं के संयोग से होता है अतः उनके शरीर में मातापिता के अह्न का विभाग सूत्रकार मरूपित करते हैं-" तओ पिइअगा पण्णत्ती " इत्यादि,
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टीकार्थ-पिङ्ग तीन कहे गये हैं जैसे अस्थि-अस्थिमज्जा और केश श्मश्रु रोम नख, तीन माता के अङ्ग कहे गये हैं, जैसे-मांस शोणित वस्तु लिङ्ग । गर्भजन्मवालों के शरीर में पिता सम्बन्धी जो तीन अङ्ग कहे गये हैं, वे प्रायः शुक्र के परिणाम रूप होते हैं, अस्थि हड्डी अस्थिमज्जा इम दाढी के बाल, और कक्ष आदि के बाल तथा नख यह पद एकाङ्ग रूप
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પહેલાં જે કલ્પસ્થિતિની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી, તેને સદ્ભાવ મનુચૈામાં જ હાય છે. તથા ગર્ભજ મનુષ્યના શરીરનું નિર્માણ માતાપિતાના સચેાગથી જ થાય છે તેથી તેના શરીરમાં માતાપિતાના કયા કયા ગા होय छे, ते हवे सूत्रार अरे - " तओ पिइअंगा पण्णत्ता " त्याहि.
टीडार्थ-तेना शरीरमां त्रषु पितृ अग होय छे- (1) अस्थि - अस्थिर, (२) કેશ, શ્મશ્રુ, રામ અને (૩) નખ તેના શરીરમાં માતાના નીચે પ્રમાણે ત્રણ अग होय हे (१) मांस, (२) शोषित अने ( 3 ) भग. गर्भसवाणा भनु જ્યના શરીરમા પિતાના ત્રણ અગેના જે સદ્ભાવ કહ્યો છે તે પ્રાયઃ (સામન્ય રીતે ) શુક્રના પરિણામ રૂપ હાય છે.
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અસ્થિ એટલે હાડકા અને અસ્થિમજ્જા તથા · મન્નુ ' એટલે દાઢી, મગલ આદિના વાળ, મનુષ્યના આ ત્રણ અગે ( અસ્થિ, સ્મથ્રુ અને નખ ) સામાન્ય
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स्थानागसूत्र दिति ।१।' तओ माउयंगा' इत्यादि-मात्रङ्गानि-मावसम्बन्धीनि-आर्तवमायपरिणतानीत्यर्थः, अङ्गानि तानि त्रीणि यथा-मांसं-प्रतीतं, शोणित-रक्त, मास्तुलिङ्ग-पित्रावशिष्टं सर्वमङ्गं. मेदः किप्फिसादिकम् , यद्वा-कपालमध्यवर्ति भेज्जकमिति ।२। ॥ मू०७६ ॥
पूर्व शरीरे मातापित्रोरङ्गानि प्रदर्शितानि, तदङ्गजातश्च कोऽपि पूर्वपुण्योदयेन श्रामण्यं प्राप्नोनोति तत्मतिपन्नस्य विशिष्टनिर्जरा कारणानि निरूपयन् मूत्रद्वयमाह
मूलम् -तीहि ठाणेहि समणे णिग्गथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ, तं जहा-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिजिस्सामि १, कया णं अहंएकाल्लविहारपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरिस्तामि २, कया णं अहं अपच्छिसमारणंतियसंलेहणालणाझूलिए भत्तपाणपडियाइरिखए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरिस्लामि३। एवं समणसा सवयसा सकायसा पहारेमाणे समणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ ॥१॥
तीहि ठाणेहि समणावालए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तं जहा-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइस्लामि १, कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइस्लामि २,कयाणं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणायूसणासे प्रायः समान होने के कारण विवक्षित हुवा है-१ माता के अङ्गा कौन २ से उसमें होते हैं, इस बात को सूत्रकार ने-“तओ माउअंगा-" इस स्त्र द्वारा प्रकट किया है ये अङ्ग आर्तव के परिणामरूप होते हैं, जैसे-मांस शोणित रक्त, और भस्तुलिङ्ग मस्तष्क-मगज । पित्रङ्ग विशिष्ट सर्व अङ्ग भेद फुफफुल्ल आदि, अधया-कपाल के मध्यवर्ती भेजा-मु.७६॥ રીતે પિતાના તે અગા જેવાં જ હોય છે, તેથી અહીં તે અંગોમાં પિતૃઅંગ ( पित्री) साथै समानता घट ४ी छ-" तआ माउअगा" मा सूत्र द्वारा એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે ગર્ભજ મનુષ્યમાં માંસ, રક્ત અને મસ્તુલિંગ (મગજ) માતાના તે અંગે જેવા હોય છે, તે અંગ આર્તવના પરિણામરૂપ હોય છે. તે સૂ. ૭૬ છે
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सुंघाटीकास्था०३३.४ ३.७७श्रामण्यप्रतिपन्नस्य विशिष्टनिर्जराकारणनिरूपणम् २८५ झुसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ३ । एवं समणसा सव्यसा सकायसा पागडेमाणे समणोवासए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ २॥सू०७७॥ __ छाया-त्रिभिः स्थानः श्रमणो निग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति, तद्यथा-कदा खलु अहम् अल्प वा बहुकं वा श्रुतम् अध्येष्ये १, कदा खलु अहम् एकाकिविहार प्रतिमाम् उपसंपद्य खलु विहरिष्यामि २। कदा खलु अहम् अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना जोषणा जोपितो भक्तपानमत्याख्यातः पादपोपगतः कालम् अनवकाङ्क्षन् विहरिष्यामि ३। एवं स्वमनसा स्ववचसा स्वकायेन प्रधारयत श्रमणो निग्रन्थो महानिजरो महापर्यवसानो भवति ।१॥
त्रिभिः स्थानः श्रमणोपासको महानिर्जरः महापर्यवसानो भवति, तद्यथाकदा खलु अहम् अल्प वा वहुकं वा परिग्रहं परित्यक्ष्यामि ? १, कदा खलु अहं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यामि ? २, कदा खलु अहम् अपश्चि. ममारणान्तिकसंलेखनाजोपणाजोपितो भक्तपानप्रत्याख्यातः पादपोपगतः कालम अनवकाडक्षन् विहरिष्यामि ? ३। एवं स्वमनसा स्ववचसा स्वकायेन प्रकटयन् श्रम णोपासको महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ।२।। सु० ७७॥
टीका-'तीहिं' इत्यादि । त्रिभिः स्थानः-कारण श्रमणः-तपस्वी निर्ग्रन्थ:द्रव्यभावग्रन्थिरहितो मुनिः महानिर्जरः मद्दती निर्जरा-कर्मक्षयरूपा यस्य स
इस प्रकारले शरीर में मातापिता सम्बन्धी अगोंको दिखाया उनके अङ्गों से उत्पन्न हुवा कोई भी पूर्वपुण्य के उदय से श्रामण्य को माप्त कर लेता है सो श्रामण्य पर्याय को प्राप्त हुवा वह जीव जिन जिन कारणों से विशिष्ठ निर्जरा करता है अब उन कारणों को पत्रकार दो सत्रों से प्रकट करते हैं-" तीहि ठाणेहिं समणे निग्गंथे-" इत्यादि टीकार्थ-तीन कारणोंसे अमण निर्ग्रन्थ कर्मक्षयरूप निर्जरावाला होता और तद्भव से उसी भव में मोक्षगामी होता है जो द्रव्यग्रन्थि, और
ઉપરના સૂત્રમાં ગર્ભજ મનુષ્યના શરીરમાં માતાપિતાને કયા કયા અગ હોય છે તે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું. ગર્ભજ જન્મથી ઉત્પન્ન થયેલે કઈ પણ મનુષ્ય પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી શ્રામય પર્યાયની પ્રાપ્તિ કરી શકે છે આ રીતે જેણે શ્રમણ્ય પર્યાય પ્રાપ્ત કરી છે. એ જીવ જે જે કારણોને લીધે વિશિષ્ટ નિજર કરે છે, તે તે કારણેનું હવે નિરૂપણ કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર નીચેના को सूत्रानु ४थन ४२ छ-" तीहि ठाणेहि समणे निगंथे "त्या
ટીકાર્થ-નીચેના ત્રણ કારણના અભાવમાં શ્રમણ નિગ્રંથ કર્મક્ષપણરૂપ નિરા. વાળ હોય છે, અને એ જ લવમાથી મોક્ષગામી થાય છે. તે દ્રવ્યગ્રંથિ અને
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स्थानानपत्र तथा-सर्वतः कर्मक्षयकारीत्यर्थः, अतएव-महापर्यवसानः-महत्-आत्यन्तिकं पर्यवसानम् , अन्तो भवान्तो यस्य स तथा तद्भवसिद्धिगामीत्यर्थः, भवति । तद्यथातान्येव स्थानानि यथा-' कयाणं ' अहं इत्यादि, कदा खलु अहम् इत्यादि मुगमम् । ' अपच्छिमे'-त्यादि, अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनानोपणाजोपित', तत्र-न विद्यते पश्चिमो यस्या सा अपश्चिमा-सर्वान्तिमा, यद्वा-पश्चिमैवामगलपरिहारार्थमपश्चिमा, मरण-सर्वायुष्कक्षयलक्षणं प्रतिक्षणजायमानाऽऽयीचीमरणाग्रहणात् , तदेवान्तः-मरणान्तः, तत्र भवा मारणान्तिकी, संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरकपायादि यया सा संलेखना-तपोषिशेपलक्षणा, अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना, तस्या जोपणा-सेवना अपश्चिमसारणान्तिक-संलेखना जोपणा, तया जोपितः-सेवितः स तथा-अपश्चिममारणान्तिकमलेखनाख्येन तपसा क्षीणीकृतदेहभावग्रन्थि से रहित होता है वही तपस्वी निर्ग्रन्थ होता है, ऐसा वह तपस्वी निन्ध मुनि सर्वतः कर्मक्षय करने वाला होता है इसीलिये वह आत्यन्तिकरूप से सब का अन्त करने वाला होता है अर्थात-उसी भव में मोक्षगामी होता है। ये तीन स्थान इस प्रकार से हैं-"कयाई अहं-" इत्यादि, मैं कर थोडेवो बहुत अन का अध्ययन कलंगा १ कय मैं एकाकी विहार प्रतिमा को प्राप्त कर बिहार कदंगा २ और कर मैं सर्वान्तिम मारणान्तिक सलेखना ले सेवित होता हुवा भक्तपान के प्रत्याख्यान से मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुवा पादपोपगलन संथारा को धारण करूंगा ३ इस प्रकार से अपने मन ले अपने वचन से और अपने काय से विचार करता हुवा श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरावाल होकर महापर्यवसान होता है, इन तीन स्थानों द्वारा श्रमणोपालका महानिर्जભાવગ્રથિથી રહિત હોય છે, તેને જ તપસ્વી નિર્ચ થ કહેવાય છે. એવો તે તપસ્વી નિગ્રંથ સર્વ પ્રકારે કર્મક્ષય કરનારો હોય છે, તેથી તે આત્યંતિક રૂપે ભવને ક્ષય કરનારો-એટલે કે એ જ ભાવમાંથી મોક્ષગમન કરનારે હોય છે. तय स्थान (२01) नीय प्रमाणे -" कया इं अहं. त्याह
" (१) ४यार हु था31 अथवा धारे तन अध्ययन ४२ना। मनीश ? (૨) કયારે હું એકાકી વિહાર પ્રતિમાને પ્રાપ્ત કરીને વિચરીશ ? કયારે હુ સર્વાન્તિમ મારણતિક સંલેખનાનુ સેવન કરીને, ભક્ત પાનના પ્રત્યાખ્યાનપૂર્વક મૃત્યુની આકાંક્ષા કર્યા વિના પાદપપગમન સંથારો ધારણ કરીશ ?” આ પ્રકારની મન, વચન અને કાયાથી ભાવના ભાવો શ્રમણ નિગ્રંથ મહાનિર્જરાવાળો થઈને મહાપર્યવસાનવાળે થાય છે.
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सुघाटीका स्था०३३.४सू ७७श्रामण्यप्रतिपन्नस्यविशिष्टनिर्जराकारणनिरूपणम् २८७ इत्यर्थः, तथा भक्तपानप्रत्याख्यातः-भक्तं च पानं चेति भक्तपाने, ते प्रत्याख्यायेते येन स तथा-क्तान्तस्य परनिपात. ) अनशनकारीत्यर्थः पादपोपगतः-पादपोपगमनसंरतारकं प्राप्तः कालं-मृत्युम् अनवकाङ्क्षन्-अनशनकप्टेन-मरणमनिच्छन् कदाहं विहरिष्यामीति । एवं-अनेन प्रकारेण 'समणसा' इति स्वमनसा रावाला होकर महापर्यवसानवाला होता है, । अर्थात् संसार का अंत करनेवाला होता है । वे तीन स्थान इस प्रकार से हैंकब मैं थोडे, बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा १ कप में भुण्डित होकर अगारावस्था से अनगाराऽवस्था प्राप्त करूंगा २ तथा-कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना के सेवन से लेवित हुवा भक्तपान के प्रत्याख्यान से काल-मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुवा पादपोपगमन को धारण करूंगा ३ इस प्रकार से अपने मन, अपने वचन, और अपने काय से प्रकट करता हुवा श्रमणोपासक महानिर्जरावाला होकर महापर्यवसानवाला होता है यहां जो-"अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषणाजोषितषः-" ऐसा पद कहा है, उसका तात्पर्य इस प्रकार से है -जिसका पश्चिम नहीं वह अपश्चिम है, अर्थात्-जो सर्वान्तिम है वह अपश्चिम है, क्यों कि संलेखना मरण के अन्त में ही धारण की जाती है, अथवा यह अमङ्गल परिहार के लिये की जाती है इसलिये यह पश्चिम होकर भी अपश्चिम है प्रतिक्षण जायमान अवीचि भरण के अग्रहण से यहां सरण शब्द से सर्वायुष्क क्षयरूर सरण ही गृहीत हुवा है यह मरण ही मरणान्त है इस मरणान्त में जो होती है वह
હવે શમણે પાસકની અપેક્ષાએ ત્રણ સ્થાનની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. (૧) કયારે હું ચેડા કે વધારે પરિગ્રહને ત્યાગ કરનારે બનીશ? (૨) કયારે હુ મુ ડિત થઇને ગૃહસ્થાવસથાના પરિત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા અંગીકાર કરીશ? (૩) તથા કયારે હું અપશ્ચિમ ભારણાન્તિક લેખનાની આરાધના કરવા તત્પર થઈને, આહારપાણના પ્રત્યાખ્યાનપૂર્વક, મૃત્યુની આકાંક્ષા નહીં રાખતા થકે, પાદપપગમન સંથારો ધારણ કરીશ ? ” આ પ્રકારની ભાવના પિતાના મન, વચન અને કાયાથી પ્રકટ કરતે થકે શ્રમણોપાસક મહાનિ.
पाणी थधने मह पर्यवसानवाणी थाय छे. महा २ " अपश्चिममारणान्तिक. संलेखना जोषणाजोषितः ॥ २॥ सूत्रपा४ माया छ, तनी मावा नीय પ્રમાણે છે–જેના કરતાં અન્ય કોઈ અન્તિમ હોય નહીં તેને અપશ્ચિમ કહે છે. એટલે કે સર્વાન્તિમને અપશ્ચિમ કહે છે, કારણ કે સ લેખના મરણના અંતે જ (અન્તકાળે જ) ધારણ કરવામાં આવે છે, અથવા તે અમ ગલ પરિહાર નિમિત્તે જ કરવામાં આવે છે, તેથી તે પશ્ચિમરૂપ હોવા છતાં પણ અપશ્ચિમ જ છે. પ્રતિક્ષણ ભાયમાન આવીચી મરણના અગ્રહણથી અહીં મરણ શબ્દ દ્વારા સર્જાયુષ્ક ક્ષયરૂપ મરણ જ ગૃહીત થયેલ છે, આ મરણને જ મરણાન્ત કહે છે. આ મરણોત્તમા જે આરાધિત થાય છે તેને મારણાન્તિકી કહે છે. જેના દ્વારા
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स्थानाङ्गम मारणान्तिकी है जिसके द्वारा शरीर और कषाय आदि कृश किये जाते है वह संलेखना है यह संलेखना विशिष्ट तपोरूप होती है इस संलेखना का जो प्रीति पूर्वक सेवन किया जाता है वह अपश्चिम मारणांतिक संलेखना जोषणा है, इस जोपणा से जो सेवित होता है वह "अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषणा जोपित" है अर्थात्-इस्स अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना नामके तप से जिसका देह क्षीण हो गया है ऐसा तपस्वी सुनि श्रमण निन्ध ही "अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषणा जोपित-" पदवाला होता है इसका अर्थ "अनशनकारी" ऐसा है " पादपोपगतः" का तात्पर्य पादपोपगमन संस्तारक को प्राप्त हवे सो है “ कालं अनवकाङ्क्षन् " 'मृत्यु की इच्छा किये विना' यह पद यह कहता है कि - जिमने संथारा धारण किया है वह अनशनकारी होकर अनशन के कष्ट से भरण की चाहना करे इस प्रकार से अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषणा से जुपित होने का जो वह विचार करता है मो उस विचारमें किसी अन्य की प्रेरणा नहीं होनी चाहिये, यही यात " स्वमनसा" શરીર અને કષાય આદિને કૃશ (દુર્બલ) કરવામાં આવે છે તેનું નામ સંલેખના છે. આ લેખના વિશિષ્ટ તરૂપ હોય છે. આ સંલેખનાનું જે પ્રીતિપૂર્વક સેવન કરવામાં આવે છે, તેને “અપશ્ચિમ ભારણતિક સંખના જેષણા” કહે છે. અથવા આ અપશ્ચિમ મરણાનિક સંલેખના નામના તપથી જેને દેડ ક્ષીણ થઈ ગયો છે, એ “તપસ્વી શ્રમણ નિJય જ” “અપશ્ચિમ માર થાનિક સંલેખના જેષણ જેષિત” વિશેષણવાળો હોય છે તેને “અનશનકારી” मेवा मर्थ थाय छे. “ पादपोपगतः” मा पहना मापा नाय प्रभा थे
પાદપિયગમન સંથારો જેણે ધારણ કર્યો છે એવા જીવને પાદપિપગતઃ
छ. "कालं अनवकान्" - पहने। भावार्थ नीये प्रमाणे छेસલેખન ધારણ કરેલી છે એવા અનશનકારી જીવે અનશનના કષ્ટથી મુંઝઈને મરણની ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહીં. આ પ્રકારને અપશ્ચિમ ભારતિક સંલેખના જષણાથી જુષિત થવાને જે વિચાર તેના દ્વારા કરાય છે, તે विचारमा अन्य ती प्रेरणा पाध्ये नडा, १ पातर्नु " स्वमनसा"
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सुधा का स्था०३ उ० ४ सू२ ७८ पुद्गलपरिणामविशेषनिरूपणम् २८९ स्ववचसा स्वकायेन नत्वन्यजनप्रेरणया प्रधारयन्-पर्यालोचयन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवतीति ।१॥ अथ श्रावकविपयं सूत्रमाह-' तोहि । इत्यादि, त्रिभिः स्थानः श्रमणोपासको महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति । तान्ये. वस्थानान्याह-' कयाणं' इत्यादि, कदा खलु अहम् अल्प वा वहुवा परिग्रह, परिगृह्यते-आदीयतेऽस्मादिति, परिग्रहणं वा परिग्रहः-धनधान्यद्विपद-चतुष्पदादि संग्रहः, तं परित्यक्ष्यामि-पृथकरिष्यामि ।१। अन्यत् स्थानद्वयं सुगमम् ।स०७७॥
अनन्तरं कर्मनिर्जरा प्रोक्ता, कर्माणि च पुद्गलरूपाणीति पुद्गलानां परिणामविशेषमभिधित्सुराह
मूलम्-तिविहे पोग्गलपडिघाए पण्णते, तं जहा-परमाणु पोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहन्निजा, लुक्खत्ताए वा पडि. हन्निज्जा, लोग्गले वा पडिहन्निना ॥ सू० ७८॥ आदि पदों द्वारा समर्थित की गई है इस प्रकार की विचार धारा का यह परिणाम निकलता है कि वह विचार महती निर्जरा का अधिपति यनकर तद्भव सिद्धिगामी होता है इस प्रकार का भाव प्रथमसूत्र का है। इसी तरह से जो अक्षणोपासक श्रावक होता है वह भी जब पूर्वाक्त तीन कारणों वाला होना है, अर्थात्-वह ऐला विचारता है कि मेरे जीवन में ऐसा वह समय कर आयेगा जब कि मै थोडे बहुत रूप में परिग्रह का धनधान्य द्विपदचतुष्पद आदि का परित्याग कर दूंगा, इत्यादि, इस प्रकार की विचारधारा श्रमणोपासक श्रावक महानिर्जरा का पात्र बनकर महापर्यवसानवाला होता है । मु०७७ ॥ “પિતાના મન, વચન અને કાયાથી” આ પદના પ્રાગ દ્વારા સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રકારની વિચારધારાનું એ પરિણામ આવે છે કે આ વિચાર મહતી નિર્જરાને અધિપતિ બનીને જીવને તભવ-સિદ્ધિગામી કરે છે, આ પ્રકારને ભાવ પ્રથમ સૂત્રને છે એ જ પ્રમાણે જે શ્રમણોપાસક શ્રાવક હોય છે, એવો જીવ પણ પૂર્વોક્ત ત્રણ કારણોને લીધે એ જ ભવમાંથી મોક્ષગામી થાય છે–એટલે કે તે એ વિચાર છે કરે કે મારા જીવનમાં એવો અવસર કયારે આવશે કે જ્યારે હું પણ અ૯પ કે અધિકરૂપે પરિગ્રહને ધન, ધાન્ય, દ્વિપદ, ચતુષ્પદ આદિને પરિત્યાગ કરી નાખીશ. ઈત્યાદિ પૂર્વોક્ત વિચારધારાવાળો શ્રમણોપાસક શ્રાવક મહાનિર્જરાને પાત્ર બનીને મહા ५सानपाको थाय छ । सू. ७७ ॥
स ३७
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स्थानाङ्गो तिविहे चक्रवू पण्णत्ते तं जहा--एगचक्खू विचक्ख तिचक्खू छउमत्थे णं मणुस्ले एगचक्खू , देवे विचकखू , तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पन्ननाणदंसणधरे से णं तिचक्खूत्ति वत्तवं सिया॥ सू०७९ ॥
तिविहे अभिसमागमे पणत्ते, तं जहा-उर्दू अहं तिरियं । जया णं तहारूवस्स समणस्त वा माणस्स वा आइसेले नाणदंसणे समुप्पज्जह से णं तप्पढमयाए उर्दू अभिसमेइ, तओ तिरियं, तओ पच्छा अहे अहोलोगे णं दुरभिगमे पण्णत्ते समणाउसो । सू० ८०॥
छाया-त्रिविधः पुद्गलप्रतिघातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-परमाणुपुद्गलः, परमाणु पुद्गलं प्राप्य प्रतिहन्यते रूक्षतया वा प्रतिहन्यते, लोकान्ते वा प्रतिहन्यते । ॥ सू० ७८ ॥
त्रिविधश्चक्षुः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-एकचक्षुः, द्विचक्षुः, त्रिचक्षुः । छमस्थः खलु मनुष्य एकचक्षुः, देवो विचक्षुः, तथारूपः श्रमणो वा माहनो वा उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः, स खल्ल त्रिचक्षुरिति वक्तव्यं स्यात् ।। सू० ७९ ॥
इस प्रकार से कर्मनिर्जरा होने का कथन किया ये कर्म पुट्टालरूप होते हैं इसलिये अब सूत्रकार पुगलों के परिणाम विशेष का कथन करने की इच्छा से कहते हैं-" तिविहे पोग्गलपडिघाए पण्णत्ते-" इत्यादि, पुद्गल प्रतिघात तीन प्रकार का कहा गया है, जैसे-परमाणुपुद्गल, परमाणुपुद्गल को प्राप्त करके प्रतिघातवाला होता है रुक्षता से वह प्रतिघात वाला होता है लोकान्त में वह प्रतिघात वाला होता है ।। ७८॥
આ પ્રમાણે કર્મનિર્જરાનું કથન પૂરૂ થયુ તે કર્મ પુદ્ગલરૂપ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પુલના પરિણામ વિશેષનું કથન કરવા નિમિત્તે નીચેના सूत्रनु ४थन ४रे छ-" तिविहे पोगालपडिधाए पण्णत्ते" त्याह
પુદ્ગલ પ્રતિઘાત ત્રણ પ્રકારને કહ્યો છે-(૧) પરમાણુ પુદ્ગલ, પરમાણુ પુલને પ્રાપ્ત કરીને પ્રતિઘાતવાળું થાય છે (૨) રૂક્ષતાને લીધે તે પ્રતિઘાત. पाणु थाय छे मन (3) Astawi ते प्रतिघातवाणु थाय छे. ॥ सू. ७८ ॥
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सुधा टीका स्था० ३ उं० ४ सू० ७८-८० पुद्गलपरिणामविशेषनिरूपणम् २२९
त्रिविधः अभिसमागमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ऊर्ध्वम् , अधः, तिर्यक्, यदा खलु तथारूपस्य श्रमणस्य वा माइनस्य वा अतिशेषे ज्ञानदर्शने समुत्पद्यते स खल्लु तत्प्रथमतायां ऊर्चमभिसमे ति, ततस्तिर्यक्, ततः पश्चाद् अधः अधोलोकः खलु दुरभिगमः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ? सू०८०॥ ___टीका-'तिविहे पोग्गल. ' इत्यादि । पुद्गलानाम्-अण्वादीनां प्रतिघात:गतिस्खलनं पुद्गलप्रतिघातः, स त्रिविधस्तथाहि-परमाणुश्वासौ पुद्गलश्च पर
चक्षुचाला तीन प्रकार का कहागया है, एक चक्षुवाला १ दो चक्षुओंवाला २ तीन चक्षुओंवाला ३। उनमें छद्मस्थ मनुष्य एक चक्षुवाला कहा गया है-१ देव विचक्षुवाला कहा गया है-२ तथा उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारी श्रमण, अथवा-माहन तीन चावाला कहा गया है। सु.७९॥ ___ अभिसमागम तीन प्रकार का कहा गया है, एक ऊर्चाभिसमागम १ दूसरा-अधोऽभिसमागम २ और तीसरी-तियंगभिसमागम-३ जिस समय तथारूपवाले श्रमण को, या-माहन को अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं वह तत्प्रथमता में उर्वलोक के पदार्थों का परिच्छेद करता है, उसके बाद तिर्यग्लोक के पदार्थों का परिच्छेद करता है, बाद में अधोलोक के पदार्थों का परिच्छेद करता है, हे श्रमणायुधमन् ! अधोलोक दुरभिगम कहा गया है । सू. ८० ॥
टोकार्थ-इन तीन सूत्रों का तात्पर्य ऐसा है, अणुआदिकोंकी गतिका जो स्खलन होता है वह पुङ्गलप्रतिघात है, ऐसा यह पुद्गल प्रतिघात तीन
ચક્ષુવાળાના ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) એક ચક્ષુવાળે, (૨) બે ચક્ષુવાળે અને (૩) ત્રણ ચક્ષુવાળ છવાસ્થ મનુષ્યને એક ચક્ષુવાને કર્યો છે, દેને બે ચક્ષુવાળા કહ્યા છે અને ઉત્પન્નજ્ઞાનદર્શનધારી શ્રમણ અથવા માહનને त्रय यावाणा ह्या छ. ॥ सू. ७८ ॥
मलिसभासम ३ ४ारने ४ह्यो छ-(१) लिसभाम, (२) अधी અભિસમાગમ અને (૩) તિર્યગભિસમાગમ. જ્યારે તથારૂપ (શાસ્ત્રોક્ત નિય મનું પાલન કરનારા) શ્રમણ કે માહનને અતિશય જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે પ્રથમ તે તે ઊર્વકના પદાર્થોનો પરિચ્છેદ કરે છે, ત્યારબાદ તિકના પદાર્થોનો પરિચ્છેદ કરે છે અને ત્યારબાદ અલેકના પદાર્થોને પરિચછેદ કરે છે. હે શ્રમણયુષ્યન્ ! અલેકને દુરભિગમ્ય કહ્યું છે સૂ ૮૦
ટીકાઈ–૭૮ થી ૮૦ સુધીના સૂત્રને ભાવાર્થ હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે– પરમાણુ આદિકની ગતિનું જે અલન (રુકાવટ) થાય છે, તેનું નામ પુદ્દલ પ્રતિવાત છે એવા તે મુદ્દલ પ્રતિઘાતને ત્રણ પ્રકારને કહ્યા છે–પહેલે પ્રકાર
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स्थानास्त्र माणुपुद्गल', सोऽन्यं परमाणुपुद्गलं प्राप्य प्रतिहन्यते-प्रतिस्वलति-गतेः पतिघातमापद्यत इत्यर्थः, रूक्षतया-स्नेहाभावेन तथाविधपरिणामान्तराद् गतिप्रतिघातो भवति, लोकान्ते वा गत्वा प्रतिहन्यते तत्र गतिसहायकधर्मास्तिकायस्याभावादिति ।। सू० ७८ ॥
पुद्गलप्रतिघातंच सचक्षुरेव जानातीति तदाह-तिविहे चक्लू ' इत्यादि, प्रकार का कहा गया है । प्रथम प्रकार में परमाणुरूप पुद्गल अन्यपरमाणुरूप पुद्गल को प्राप्त करके गतिक्रियाले प्रतिघातको प्राप्त करताहै, अर्थात् सकजाताहै द्वितीय प्रकारमें स्नेहके अभावसे वह तथाविध परिणामान्तर को लेकर गतिक्रिया प्रतिघातको प्राप्त करताहै, तृतीय प्रकार मे लोकान्त में जाकर वह गतिक्रिया में सहायक धर्मास्ति के अलाव से गतिक्रिया के प्रतिघात को प्राप्त करता है एक पुल परमाणु जय द्वितीय पुद्गल परमाणु के साथ टकराता है तब वह वहीं रुक जाता है आगे नहीं जाता है, गतिक्रिया में सहायक स्नेह गुण भी होता है-जब परमाणु स्नेहगुण से रहित होता है तब बह खुरदरा होने के कारण गतिक्रिया का प्रतिघातवाला हो जाता है, अर्थात् गतिक्रिया नहीं कर पाता है लोक के अन्त मे जोकर वह आगे अलोक में जो नहीं जा पाता है उसका कारण आगे गतिसहायक धर्मद्रव्य का अभाव है, ७८
पुद्गलप्रतिघात को सचक्षु ही जानता है, अतः-अब चक्षु के विषय પરમાણુ રૂપ પુકલ અન્ય પરમાણું રૂપ પુલને પ્રાપ્ત કરીને ગતિકિયાને પ્રતિઘાત પ્રાપ્ત કરે છે. બીજો પ્રકાર નેહના અભાવે કરીને (રૂક્ષતાના સદૂભાવે કરીને) તે તથાવિધ પરિણામાન્તરની અપેક્ષાએ ગતિક્રિયાનો પ્રતિઘાત પ્રાપ્ત કરે છે. ત્રીજે પ્રકાર–લેકાન્તમાં જઈને ગતિક્રિયામાં સહાયક એવા ધર્માસ્તિકાયને અભાવે તે ગતિકિયાના પ્રતિઘાતને પ્રાપ્ત કરે છે. એક પુદ્ગલ પરમાણુ જયારે બીજા પુલ પરમાણુ સાથે અથડાય છે, ત્યારે તે ત્યાં જ અટકી જાય છે–આગળ જતું નથી. નેહ ગુણ (સ્નિગ્ધતા) પણ ગતિકિયામાં સહાયક બને છે. જ્યારે પરમાણુ સ્નેહગુણથી રહિત બને છે ત્યારે તે ખરબચડું થઈ જવાને કારણે ગતિક્રિયા કરી શકતું નથી એટલે કે રૂક્ષતાને કારણે પરમાણુની ગતિ અટકી જાય છે. લેકના અન્ત ભાગ સુધી પહોંચીને તે અલકમાં ગતિ કરી શકતું નથી, કારણ કે ગતિમાં સહાયભૂત થનારા ધર્માસ્તિકાયને ત્યાં અભાવ હોય છે. આ રીતે ૭૮ માં પ્રતિઘાત સૂત્રને ભાવાર્થ સમજાવવામાં આવ્યું.
૭૯ માં સૂત્ર ભાવાર્થ-પુલ પ્રતિઘાતને સચક્ષુ જીવ જ જાણી શકે
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सुधा टीका स्था०३७०४ सू० ७८-८० पुद्गलपरिणामविशेषनिरूपणम्
२९ ३
त्रिविधः चक्षुः चक्षुरिति द्रव्यतो लोचनं, भावतो ज्ञानं तद् यस्यास्तीति तद्योगाचक्षुरिति चक्षुष्मानित्यर्थ, स च त्रिविध:-चक्षुः संख्याभेदात् । तत्रैकचक्षुःएकचक्षुष्मान् । एवं द्विचक्षुरिति द्विचक्षुष्मान्, त्रिचक्षुरिति विचक्षुष्मानिति । तत्र- छादयतीति छद्म- नानावरणादि, तत्र तिष्ठतीति छनस्थः, एतादृशो यद्यपि - अनुत्पन्नकेवलज्ञानः सर्वएवोच्यते तथापीह सातिशयश्रुतज्ञानादिवर्जितो विवक्ष्यते इत्यत एकचक्षुश्चक्षुरिन्द्रियमपेक्ष्य वोद्धव्यः । देवो द्विचक्षुः- चक्षुरिन्द्रियावधिज्ञाना
सूत्रकार कहते हैं कि - पुद्गलप्रतिघान को जाननेवाला चक्षु चक्षुवाला प्राणी - तीन प्रकार का होता है, एक एक चक्षुवाला दूसरा दो चक्षुओं वाला और तीसरा तीन चक्षुओंवाला । चक्षु द्रव्यचक्षु और भावचक्षु के भेद से दो प्रकार का कहा गया है, द्रव्यचक्षु लोचनरूप होता है, और भावचक्षु ज्ञानरूप होता है, वह चक्षु जिसको होता है वह उसके योग से चक्षु चक्षुवाला कहा गया है । जो ज्ञानादि गुणों का छादन करता है वह छद्म है इस छद्म में जो रहता है वह छद्मस्थ यद्यपि अनुत्पन्न ज्ञानवाले जितने हैं वे सब ही प्राणी हैं परन्तु ऐसा छद्मस्थ यहां विवक्षित नहीं हुवा है, यहां तो ऐसा ही छद्मस्थ विवक्षित हुवा है जो सातिशय श्रुतज्ञानादि से रहित है इसलिये जिसकी चक्षुरिन्द्रिय है वह एक चक्षुवाला है, तथा देवों के दो चक्षु होते हैं ऐसा जो कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि देवों को चक्षु इन्द्रिय होती है और अवधिज्ञान
છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ચક્ષુના વિષયનું નિરૂપણ કરે છે. પુદ્ગલ પ્રતિઘાતને જાણનારા ચક્ષુયુક્ત જીવે! ત્રણ પ્રકારના છે(૧) એક ચક્ષુવાળા, (ર) એ ચક્ષુवाजा अने (उ) भाणु यक्षुवाणा.
यक्षुना याभ तो ये अक्षर ०४ उद्या छे - (१) द्रव्ययक्षु अने (२) भावચક્ષુ દ્રવ્યચક્ષુ લાચન (નેત્ર) રૂપાય છે અને ભાવચક્ષુ જ્ઞાનરૂપ હોય છે. આ ચક્ષુ જેને હોય છે તે તેના ચેાગથી ચક્ષુવાળા કહેવાય છે. જે જ્ઞાનાદિ ગુણાનું છેદન કરનાર હોય છે તેને છદ્મ કહે છે. આ પ્રકારની છદ્મ અવસ્થાવાળા જીત્રને છદ્મસ્થ કહે છે. જો કે અનુત્પન્ન જ્ઞાનવાળા જેટલા જીવા છે તેમને છદ્મસ્થ જ કહે છે, પરન્તુ અહીં એવા છદ્મસ્થની વાત કરવામાં આવી નથી અહીં તેા એવા છદ્મસ્થની વાત કરવામાં આવી છે કે જે સાતિશય શ્રુતજ્ઞાનાદિથી રહિત છે. તેયી જેને ચક્ષુરિન્દ્રિય (આંખે ) ને સદ્ભાવ હાય છે, તેને એક ચક્ષુવાળા કહે છે. દેવાને બે ચક્ષુ હોય છે’ ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-દેવેને ચક્ષુઇન્દ્રિય પણુ હાય છે અને
C
તે
આ કથનના અવિધ
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स्थानासूत्रे
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तज्ञान अवधिज्ञान
भ्याम् | त्रिचक्षुश्च- उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः, तत्र उत्पन्नम् - आवरणक्षयोपशमेन मकटीभूतं ज्ञानं श्रुतावधिरूप दर्शनम् अवधिदर्शनरूपं धारयति बहतीति सतथा एतादृशो यः श्रमणो वा मानो वा भवति स खलु विचक्षुः चक्षुरिन्द्रिय-परमश्रुतपरमावधिमत्त्वात् इति - पूर्वोक्तप्रकारेण वक्तव्यं कथनीयं स्यात् । अयं हि हेयोपादेयानि समस्Tस्तूनि साक्षादिवावलोकयतीति विचक्षुष्मत्वमस्य विवक्षितम् । ननु केवलिनचक्षुरिन्द्रिय- केवलज्ञान - केवलदर्शन बच्चाचिक्षुष्मत्वेनापि स किं न विवक्षितः' इत्याह-चक्षुरिन्द्रियलक्षणचक्षुप उपयोगाभावेन तस्य चक्षुरिन्द्रिया वित्रक्षणात्, द्रव्येन्द्रियापेक्षया तु सोऽपि न विरुध्यत इति ॥ म्र० १९ ॥ होता है, तथा जिनको आवरण के क्षयोपशम से और अवधिदर्शन ये प्रकट हो चुके हैं ऐसा जो पण अथवा मान है वह तीन चक्षुवाला कहा गया है क्यों कि वह चक्षुरिन्द्रिय परमश्रुत और परमावधिवाला है । त्रिचक्षुवाला जीव हेय और उपादेयरूप समस्त वस्तुओं को लाक्षा हुई की तरह देखता है यदि यहां पर ऐसी आशङ्का की जावे कि यहां केवली भी विचक्षुवालों के रूप में गृहीत होना चाहिये। क्यों कि उनके पास भी चक्षुरिन्द्रिय केवलज्ञान और केवलदर्शन रहता है, अर्थात् केवली द्रव्येन्द्रियरूप चक्षु से तथा भावेन्द्रियरूप केवलज्ञान, और केवलदर्शन से सम्पन्न होते हैं तब इन्हें क्यों नहीं विचक्षुष्मान् के रूप में गृहीत किया गया है ३ तो इसका उत्तर ऐसा है कि उन्हें चक्षुरिन्द्रियवाला इसलिये नहीं कहा गया है किउनमें चक्षुरिन्द्रियजन्य उपयोग का अभाव रहता है द्रव्येन्द्रिय की
જ્ઞાન સ ́પન્ન પશુ હાય છે તથા જેમને આવરણના ક્ષયે પશમધી શ્રુતજ્ઞાન, અવિધજ્ઞાન અને અધિદન પ્રકટ થઈ ચુકયા હોય છે એવા શ્રમણુ અથવા માહનને ત્રણ ચક્ષુવાળા કહ્યો છે, કારણ કે તે ચક્ષુરિન્દ્રિય, પરમશ્રુત અને પરમાધિવાળા હોય છે ત્રિચક્ષુવાળા જીવ હૈય અને ઉપાદેયરૂપ સમસ્ત વસ્તુએને સામે જ હાય એવી રીતે (પ્રત્યક્ષની જેમ) જોઇ શકે છે
પ્રશ્ન-કેવલીના પણ ત્રણ ચક્ષુવાળામાં સમાવેશ થવા જોઇએ, કારણ કે તેમની પાસે પણ ચક્ષુરિન્દ્રિય, કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શનના સદ્ભાવ હોય છે એટલે કે કેવલી દ્રવ્યેન્દ્રિયરૂપ ચક્ષુ વડે અને ભાવેન્દ્રિયરૂપ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદળ નથી સ'પન્ન હોય છે તે પછી ત્રણ ચક્ષુવાળા જીવેામાં તેમને ક્રમ ગણાવ્યા નથી ?
ઉત્તર—કેવલીને ચક્ષુરિન્દ્રિયવાળા નહીં કહેવાનું કારણ એ છે કે તેમ
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सुधा टीका स्था० ३ उ०४ सू० ७:-६० पुद्गलपरिणामवशेषनिरूपणम्
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पूर्व चक्षुष्मान् प्रोक्तः, तस्य चाभिसमागम इति वस्तुपरिच्छेदो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजते-' तिविहे अभिसमागमे ' इत्यादि । त्रिविधः - त्रिप्रकारः अभिसमागमः, 'अभि' इत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपर्यासरूपतया 'सम्' इति सम्यक् न संशयतया, ' आ ' इति मर्यादया गमनं ज्ञानं ' ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः ' इति वचनात् अभिसमागमः -पदार्थ- परिच्छेदः । स त्रिविधस्तद्यथा-ऊर्ध्वम्विवक्षा से तो वे भी तीन चक्षुष्मानों में गृहीत हो जावें तो इसमें कोई विरोध नहीं है ।
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इस प्रकार से चक्षुष्मान् का कथन करके अब सूत्रकार उसके अभिसमागम का दिग्भेद को लेकर कथन करते हैं-" तिविहे अभिसमागमे -" इत्यादि । अभिसमागम का अर्थ पदार्थ का परिच्छेद होना है, अर्थात् चक्षुष्मान को जो पदार्थ का परिच्छेद होता है वह अभिस मागम है, अभिसमागम में " अभि " उपसर्ग है इसका अर्थ है विपयस (विपरीतता) से रहित होकर गम ( ज्ञान का होना वह अभिगम है साथ में " सम" और "आ" ये दो उपसर्ग और भी हैं, सो इनका अर्थ ऐसा है कि जैसा वह ज्ञान विपरीतता रहित होता है उसी प्रकार से उसे " सम " 'सम्यक् रूप भी होना चाहिये, संशयरूप नहीं । और
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' आ " यह मर्यादा अर्थ में आया है " गम " यह गत्यर्थक गम् धातु से बना है, मो "ये गत्यर्था स्तेज्ञानार्थाः " इस कथन के अनुसार जो નામાં ચક્ષુરિન્દ્રિય જન્ય ઉપયેગને અભાવ રહે છે. દ્રવ્યેન્દ્રિયની અપેક્ષાએ તેમને ત્રણ ચક્ષુવાળા કહેવામાં આવે, તે એમાં કાઈ વાધે નથી.
૮૦ મા સૂત્રના ભાવાનું નિરૂપણ——ચક્ષુમાનનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના અભિસમાગમ (વિપરીતતાથી રહિત જ્ઞાન ) નું દિલેશ્વની अपेक्षा रे - " तिविहे अभिसमागमे " त्याहि
ગમ
અભિસમાગમ એટલે કે પદાર્થોના પિચ્છેદ થવા તે અભિસમાગમમાં 'मलि' उपसर्ग छे तेना स्मर्थ ' विपर्यास ( विपरीतता ) थी रहित ' થાય છે. અને 'मेटो " ज्ञान' “ વિપર્યાંસથી રહિત એવા જ્ઞાનને 'अभिगमछे " અભિગમ પદની સાથે “ સમ " सने "सा" ५ સગે પશુ આવેલા છે તેને અથ આ પ્રમાણે છે–જેમ તે જ્ઞાન વિપરીતતાથી રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે સમ્યફ્રૂપ પણુ હાવું જેઇએ-સંશયરૂપ હોવું જોઇએ નહીં " उपसर्ग मर्यादा अर्थमा प्रयुक्त थयो छे यह गत्यर्थ! ' गम्' धातुमांथी मन्यु हे.
८८
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ज्ञानार्थाः "
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८८
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स्थानाङ्गसूत्रे
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ऊर्ध्वाभिगमः, अधः-अधोऽभिगमः, तिर्यक् तिर्यगभिगम । अत्रैव ज्ञानभेदं कथयति - ' जया ण ' मित्यादि, यदा खलु तथारूपस्य तथाप्रकारस्य विशिष्टपकारस्य श्रमणस्य - तपस्विनः, वा अथवा माहनस्य - हिंसादिनिवृत्तस्य अतिशेषेशेषाणि - छद्मस्थज्ञानानि तान्यतिक्रान्ते अतिशेषे तथाविधे रूपे संभाव्येते, ते समुत्पद्येते, स खलु तत्प्रथमतायां केवलस्य न क्रमेणोपयोगो येन तत्प्रथमतयेत्यायुक्त मनवस्यादिति, तस्य ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तस्याः तत्प्रथमसमये इत्यर्थः ऊर्ध्वम्-ऊर्ध्वलोकमभिसमेति तत्रत्य पदार्थ परिच्छेदं करोति, ततः- तत्पश्चात् तिर्यक् तिर्यग्लोकं, ततः पश्चाद् अधः - अध इत्यधोलोकमभिसमेति । अधोलोक: धोतु गत्यर्थक होते हैं वे ज्ञानार्थक भी होते हैं, अतः - विपर्यय और संशय दोष से रहित होकर जो ज्ञान मर्यादा के अनुसार होता है वह अभिसमागम है ऐसा इसका निष्कर्ष अर्थ है । यह अभिसमागम तीन प्रकार का कहा गया है जो इस प्रकार से है- एक ऊर्ध्वाभिसमागम, दूसरा अधोऽभिसमागम, और तीसरा तिर्यगभिसमागम, जब तथा प्रकार के विशिष्ट प्रकार के भ्रमण के, अथवा माहन के हिंसादि क्रिया से निरस्त हुवे के - अतिशेष छद्मस्थ के ज्ञानों को अतिक्रम करने वाले ऐसे ज्ञानदर्शन- संभावना से परमावधिरूप ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं तब वह उनके ज्ञानादिकों के उत्पाद के प्रथम समय में उर्ध्वलोक काउर्ध्वलोक गतपदार्थों का परिच्छेद करता है याद में निर्यग्लोकगतपदार्थो का परिच्छेद करता है बाद में अधोलोकगतपदार्थों का परिच्छेद (निर्णय) करता है है श्रमणायुष्मन् ? अधोलोक दुरभिगम कहा गया है। " ज्ञानद
કથન અનુસાર જે ધાતુ ગત્યક હાય છે, તે જ્ઞાનાક પણ હોય છે. તેથી “ વિપર્યાંય ( વિપરીતતા) અને સંશય દોષથી રહિત એવું જે જ્ઞાન મર્યાદા નુસાર થાય છે તેને અભિસમાગમ કહે છે, ’” આ પ્રકારના તેને અષ ફલિત થાય છે. આ અશિસમાગમના ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) ઊર્વાભિસમાગમ, (२) अषै। अलिसभागभ भने (3) तिर्यगलिसभागभ क्यारे तथा३य ( विशिष्ट પ્રકારના) કાઇ શ્રમણને અથવા માહનને હિંસાદિ ક્રિયાથી નિરસ્ત થયેલા શ્રમણુ કે માહનને અતિશેષ-છદ્મસ્થના જ્ઞાનેાને અતિક્રમ કરનારૂ એવું જ્ઞાનદર્શન સ'ભાવનાની અપેક્ષાએ પરમાવિધરૂપ જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે તેમના ( જ્ઞાનાદિકના ) ઉત્પાદના પ્રથમ સમયમાં ઊલાક ગત પદાર્થીને પરિચ્છેદ કરે છે, ત્યારબાદ તિય`ગ્લાક ગત પદાથૅના પરિચ્છેદ કરે છે અને ત્યારખાદ અધેાલાક ગત પાર્થોના પરિચ્છેદ કરે છે. “डे श्रमायुष्भन् !
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सुधा टीका स्था०३ उ ४ सू० ८१ समेदऋद्धिस्वरूपनिरूपणम्
खलु दुरभिगमः प्रज्ञप्तः, एवं च सामर्थ्यात्माप्तं क्रमेण पर्यन्ताभिगम्यत्वात्, हे श्रमणायुष्मन् ! शिष्यामन्त्रणमेतदिति ॥ २८० ॥
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पूर्वमभिसमागमः प्रोक्तः स च ज्ञानमेव ज्ञानं च ऋद्धिरूपमिति सभेदाम् ऋद्धिं प्ररूपयन् सप्तसूत्री माह -
मूलम् - तिविहा इड्डी पण्णत्ता, तं जहा- देवड्डी रायड्डी गणिड़ी | १ | देविड्ढो तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- विमाणिड्डी विवणिड्डी परियारणिड्डी |२| अहवा देविडी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सचित्ता अचित्ता सीसिया । ३ । राइड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा रनो अइयाणिड्डी, रन्नो निज्जाणिड्डी, रण्णो बलवाहकोसकोट्टागारिड्डी | ४ | अहवा राइ तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सचित्ता अचित्ता मीसिया |५| गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा णाणड्डी दंसणिड्डी चरित्तिड्डी | ६ | अहवा गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सचित्ता अचित्ता मीसिया ॥ ७॥ सू०८१॥
र्शन " पद से यहां केवलज्ञान केवलदर्शन इन दो का ग्रहण नहीं हुवा है, क्यों कि - " तत्प्रथमतायां " इत्यादिरूप जो कथन है उससे यही सिद्ध होता है कि केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के होने पर आत्मा में इस प्रकार से उपयोग क्रमता नहीं होती है कि पहले वह उर्ध्वलोक के पदार्थों को जाने - बाद में तिर्यग्लोक के पदार्थो को जाने और फिर बाद अधोलोक पदार्थों को जाने, कारण कि उनले युगपत् त्रिकालगत तीन लोकगत पदार्थों का बोध होता है ॥ सु ८० ॥ -
अधोबोट हुरलिगम उडेस छे, " 'ज्ञानदर्शन' च અહીં કેવળજ્ઞાન અને ठेवणहर्शन थडषु शये नथी, अरण ! "मतायां " धत्याहिરૂપ જે કથન છે તેના દ્વારા એજ સિદ્ધ થાય છે કે કેવળજ્ઞાન અને કેવળદન ઉત્પન્ન થાય ત્યારે આત્મામાં આ પ્રકારે ઉપયાગક્રમતા હૈાતી નથી. એટલે કે પહેલાં ઊલાકના પદાર્થીને જાણે, ત્યારબાદ તિયઞ્લાકના પદાનિ જાણું અને ત્યારમાદ અધેલાકના પદાર્થોને જાણે, એવું ખનતું નથી. પરન્તુ કેવળજ્ઞાન અને દેવળદર્શીન સપન્ન છત્ર તેા ત્રણે કાળગત અને ત્રણે લાકગત यहार्थेने भेङ साथै लागी राडे छे भने हेभी शडे छे. ॥ सु. ८० ॥
श ३८
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स्थानाङ्गो ___ छाया-त्रिविधा ऋद्धिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-देवद्धिः, राजर्दिः, गणिऋद्धिः । १ । देवर्द्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-विमानद्धिः, विकुर्वणद्धिः, परिचारणद्धिः । २ । अथवा देवद्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता मिथिता ।३। राजद्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-राज्ञोऽतियानदिः, राज्ञो निर्याणद्धिः, राज्ञो वलवाहनकोपकोष्ठागारद्धिः । ४ । अथवा राजद्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता-तद्यथा-सचिंत्ता अचित्ता मिश्रिता । ५ । गणिप्रद्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-ज्ञानद्धिः, दर्शनःि, चारित्रद्धिः । ६ । अथवा गणिऋद्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता मिश्रिता । ७ । सू० ८१ ॥
इस प्रकारसे अभिसमागमके सम्बन्धमें कथन किया यह अभिसमागम ज्ञानरूप ही होता है, और ज्ञान ऋद्विरूप होता है, अतः अय सूत्रकार सभेद ऋद्धि की प्ररूपणा सात सूत्रों द्वारा करते हैं “तिविहा इड्डी पण्णत्ता" इत्यादि।
सूत्रार्थ -- ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है जैसेदेवद्धि रोजद्धि और गणिऋद्धि, इनमें भी जो देवद्धि है वह भी तीन प्रकार की कही गई है, जैसे-विमानद्धि विकुर्वद्धि, और परिचारणद्धि, अथग-इस तरह से भी देवऋद्धि के तीन भेद है, सचित्त-अचित्त और मिश्रित ३ राजर्द्धि के भी तीन भेद कहे गये हैं, जैसे-राजा की अतियानद्धि राजा की निर्याणद्धि, राजा की बलवाहन कोष कोप्टागारद्धि ४ अथवा इस प्रकार से राजद्धि के तीन भेद कहे गये हैं, जैसे-सचित्त अचित्त और मिश्रित ५ गणिऋद्धि भी तीन प्रकार की कही गई है, जैसे ज्ञानद्धि दर्शनर्द्धि और चारित्रद्धि ६ अथवा इस प्रकार से भी - આ પ્રમાણે અભિસમાગમનું નિરૂપણ થયું તે અભિસમાગમ જ્ઞાન રૂપ જ હોય છે અને જ્ઞાન દ્વિરૂપ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સાત સૂત્ર દ્વારા *द्धिना हानी ५३५ -छ. “ तिविहा इड्ढी पण्णत्ता" त्याह
सूत्रार्थ-द्धि नरनी हीछे-(१) पद्धि, मन (3) गEि તેમાંની જે દેવદ્ધિ છે તેની નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પડે છે-(૧) વિમાનરૂપ *द्धि, (२) वि!ि ऋद्धि मन (3) परियार! ऋद्धि.
वर्द्धिन मा प्रमाणे त्र ५४२ ५ ५ छ-(१) सथित्त, (२) मयित्त मन (3) मिश्रित.
જદ્ધિના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ કહ્યા છે-(૧) રાજાની અતિયાનદ્ધિ, (૨) રાજાની નિર્વાણદ્ધિ, (૩) રાજાની બલવાહન કેષ્ટાગારંદ્ધિ. અથવા રાજદ્ધિના नीय प्रमाणे त्रय ४२ प ५३ -(१) सचित्त, (२) मथित्त मन (3) मिश्रित,
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धाटीका स्था० ३ उ०४ सू० ८१ समैदऋद्धिस्वरूपनिरूपणम् २९६
टीका-'तिविहा इड्डी' इत्यादि । ऋद्धिः-ऐश्वर्यम्, सा त्रिविधा तथाहिदेवस्य-इन्द्रादेः ऋद्धिः-ऐश्वर्यम् देवर्द्धिः, राज्ञः-चक्रव-दे. ऋद्धिः राजर्द्धिः, गणिनः - गणाधिपतेराचार्यस्य ऋद्धिः-गणिऋद्धिः ।। तत्र देवद्धिस्त्रिविधा, तथाहि-विमानानां विमानविषया वा ऋद्धि-समृद्धिः विमानद्धिः । सा च द्वात्रिंशल्लक्षादिसंख्यारूपा, वाहुल्य-महत्यरत्नादिरमणीयत्वरूपा वा । सौधर्मादि देवलोकेषु विमानसंख्या यथा-सौधर्मदेवलोके द्वात्रिंशल्लक्षाणि विमानानि १, ईशानेऽष्टाविंशतिलक्षाणि २, सनत्कुमारे द्वादशलक्षाणि ३, माहेन्द्रेऽष्टलक्षाणि ४, गणिऋद्धि के तीन भेद कहे गये हैं, जैसे-सचित अचित्त और मिश्रित टीकार्थ-७ इस सूत्रोंका भावार्थ इस प्रकार से है ऐश्वर्यका नाम ऋद्धि है यह जो तीन प्रकारकी कही गईहै, देवद्धि आदिके भेदसे-सो देव इन्द्र आदि की जो ऐश्वर्यरूप ऋद्धि है वह देवर्द्धि है, तथा-चक्रवर्ती आदि राजाओं की जो ऋद्धि है वह राजद्धि है, तथा गणी, गणाधिपति आचार्य की जो ऋद्धि है वह गणिऋद्धि १ इनमें जो देवद्धि है वह तीन प्रकार की जो कही गई है, उसमें जो विमानों की ऋद्धि है, अथवा विमान विषयक ऋद्धि है समृद्धि है वह विमानद्धि है यह विमानद्धि ३२ लाख की संख्यादि रूप होती है अथवा बाहुल्यरूप महत्त्वरूप या रत्नादिकों की रमणीयतारूप होती है सौधर्मादि देवलोकों में विमान संख्या इस प्रकार से प्रकट की गई है, सौधर्म देवलोक में ३२ लाख, ईशान देव
ગણિદ્ધિ પણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે-(૧) જ્ઞાનદ્ધિ, (૨) દનદ્ધિ અને (૩) ચારિત્રદ્ધિ, અથવા ગણિત્રાદ્ધિના આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પણ પડે છે– (1) सचित्त, (२) मथित्त मन (3) मिश्रित.
ટીકાઈ–હવે આ સાત સૂત્રોને ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-એશ્વર્યનું નામ અદ્ધિ છે. તેના દેવદ્ધિ આદિ ત્રણ ભેદ કહ્યા છે. ઈન્દ્ર દિન ઐશ્વર્યરૂપ જે દ્ધિ હોય છે તેને દેવદ્ધિ કહે છે. ચક્રવર્તી આદિ રાજાએ જે ઋદ્ધિ હોય છે તેને રાજદ્ધિ કહે છે, તથા ગણગણાધિપતિ-આચાર્યની જે ઋદ્ધિ હોય છે તેને ગણિઋદ્ધિ કહે છે. ' હવે દેવદ્ધિના ત્રણ પ્રકારનું વિવેચન કરવામાં આવે છે-ઈન્દ્રાદિ દેવેની વિમાનની જે ઋદ્ધિ છે, અથવા વિમાન વિષયક જે સમૃદ્ધિ છે, તેને વિમાનદ્ધિ કહે છે. તે વિમાનદ્ધિ ૩૨ લાખની સંખ્યાદિરૂપ હોય છે, અથવા બાહલ્યરૂપ, મહત્વરૂપ કે રત્નાદિકેની રમણીયતા રૂપ હોય છે. સૌધર્મ આદિ દેવલેકમાં વિમાનોની સંખ્યા આ પ્રમાણે કહી છે-સીધમ દેવલોકમાં ૩૨ લાખ, ઈશાન દેવકમાં ૨૮ લાખ, સનસ્કુમાર દેવલોકમાં ૧૨ લાખ, મહેન્દ્ર દેવલેકમાં ૮
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स्थानिाङ्गम ब्रह्मलोके च चत्वारि लक्षाणि विमानानि सन्ति ५, एवं लान्त के पश्चाशत्सहस्राणि ६, शुक्रे चत्वारिंशत्सहस्राणि, ७ सहस्रारे पट् सहस्राणि-विमानानि सन्ति ८॥ आनमाणतयोर्देवलोकयोः प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि शतानि ९-१०, आरणाच्युतयोस्त्रीणि शतानि विमानानां विद्यन्ते ११-१२। नवग्रैवेयकेवधस्तने एकादशोत्तरं शतमेकं, मध्यमे सप्तोत्तरं शतम् , उपरितने चैकं शतं विमानानामस्ति १३। पञ्च चानुत्तरविमानानि सन्ति १४ इत्येवं सर्वाणि चतुरशीविलक्षाणि सप्तनवति सहस्राणि त्रयोविंशत्यधिकसप्तशतानि च विमानानि भवन्तीति । उक्तञ्च-" बत्तीस अहवीसा, वारस अट्ट चउरो सयसहस्सा ।
आरेण वंभलोगा, विमाणसंखा भवे एसा ॥१॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा लंतसुक्क सहस्सारे । सयचउरो आणय पाणएमु तिन्नारणच्चुयए ॥२॥ एक्कारमुत्तरहेहिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए ।
सयमगं उपरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥३॥ इति । लोक में २८ लाख, सनत्कुमार देवलोक में १२ लाख, महेन्द्र देवलोक में ८ लाख, ब्रह्मलोकदेवलोक में ४ लाख, लान्तकदेवलोक में ५० हजार, शुक्रदेवलोक में ४० हजार, सहस्रार देवलोक में ६ हजार, और आनत प्राणत देवलोक में ४-४ सौ, तथा आरण और अच्युत में ३०० तीन सौ विमान हैं, नव ग्रैवेयकों में अधस्तन में १११ विमान है, मध्यम अवेयक में १०७ और उपरितन देयक में १०० विमान हैं, तथा पांच अनुत्तरों में ५ अनुत्तर विमान हैं, इस तरह विमानों की कुल संख्या ८४ लाख ९७ वे हजार ७ सौ २३ होती है। कहा भी है-"बत्तीस अट्ठः वीसा" इत्यादि, । देवद्धि पद् भवन और नगरों का उपलक्षण है, अर्थात्-इस पर से भवन एवं नगररूप ऋद्धि का भी ग्रहण हुवा है। લાખ, બ્રહાલેક દેવકમાં ૪ લાખ, લાતક દેવલોકમાં ૫૦ હજાર, શુક દેવલોકમાં ૪૦ હજાર, સહસ્ત્રાર દેવલોકમાં ૬ હજાર, આનત–પ્રાણત દેવલેકમાં ४००-४००, तथा मा२९) भने मयुतमां 300-3०० विभान छ. नव अवे. ચકેના અધસ્તરમાં ૧૧૧, મધ્યસ્તરમાં ૧૦૭ અને ઉપરિતન વેયકમાં ૧૦૦ વિમાન છે. તથા પાંચ અનુત્તરમાં પાંચ અનુત્તર વિમાને છે. આ રીતે વિમાનની કુલ સંખ્યા ૮૪૯૭૭૨૩ (ચાર્યાશી લાખ, સત્તાણુ હજાર સાતસે तेवीस) थाय छे. ४घु ५ छ -“ बत्तीस अद्रविसा" याहि पाप ભવન અને નગરેનું પણ ઉપલક્ષક છે. એટલે કે આ પદના પ્રચાગ દ્વારા ભવન અને નગરરૂપ ઋદ્ધિને પણ ગ્રહણ કરવી જોઈએ,
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सुधा टीका स्था० ३ ७0 ४ सू० ८१ समैदऋद्धिस्वरूपनिरूपणम् ३०१ छाया-द्वात्रिंशदष्टाविंशति-दशाष्ट च चत्वारि शतसहस्राणि । '
आराद् ब्रह्मलोकाद् विमानसंख्यैपा भवेत् ॥१॥ पञ्चाशचत्वारिंशत् पट् चैव सहस्त्राणि लान्तकशुक्रसहस्रारेषु । चत्वारि शतान्यानतप्राणतयो स्त्रीण्यारणाच्युतयोः ॥२॥ एकादशोत्तरमधस्तने, सप्तोत्तरं च मध्यमके ।
शतमेकमुपरितने पञ्चैवानुत्तरविमानानि ॥३॥ उपलक्षणं चैतद् भवननगराणामिति । विकुर्वणद्धिः-विकुर्वणलक्षणा ऋद्धिः । अस्या ऋद्धधाः प्रभावेण देवो वैक्रियशरीरैर्जम्बूद्वीपद्वयम् असंख्यातान् वा द्वीपसमुद्रान् पूरयति, उक्तं च व्याख्यामज्ञप्त्याम -
" चमरे गंभंते ! के महिडिए जा व केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! चमरेण जाव पशूणं केवलकप्पं जवुद्दीवं दीवं वहूहि अमुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहिय आइन्नं जाव करेत्तए, अदुत्तरं च णं गोयमा । पभू चमरे जाव तिरियमसं.
खेज्जे दीपसमुदे वहूर्हि असुरकुमारेहिं आइन्ने जाच करित्तए, एस ण गोयमा । चमरस्स देविंदस्स देवरायस्स अयमेयारूवे विसयमेत्ते वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउविस ३। एवं सक्केऽवि दो केवलकप्पे जंबुद्दीव दीवे जाव आइन्ने करेज्जा ।" इति । विकुर्वणारूप जो ऋद्धि है वह विकुर्वद्धि, इल ऋद्धि के प्रभाव से देव दो जम्बूद्वीपोंको अथा असंख्यात द्वीपसमुद्रोंको भर सकताहै, अर्थात्व्याप्त कर सकता है, व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती में ऐसा ही कहा गया है -" चरमे णं भंते ! महिडिए जाव केवइ य च णं पभू विउच्चित्तए ३ । गोयमा! चमरेणं जाव पभू णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहिथ देवोहिय आइन्नं जाव करे त्तइ अदुत्तरं च णं गोयमा! पभू चमरे जाव तिरियमसंखेज्जे दीव समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं आइन्ने जाव करित्तए एसणं गोयमा! चमरस ३ अयमेयाख्वे विलय. मेत्ते इए, नो चेवणं संपत्तीए विउविसु । एवं सक्के वि दो केवल
વિકૃણ રૂપ જે ઋદ્ધિ છે તેને વિકૃદ્ધિ કહે છે આ ઋદ્ધિના પ્રભાવથી દેવ બે જ બૂદ્વીપને અથવા અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને વ્યાપ્ત કરી શકે છે. વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિ (ભગવતી) માં આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું કહ્યું છે કે – ____ " चमरेणं भंते ! महिड्ढिए जाद केवइ यं च णं पभू विउव्वित्तए ? गोयमा! चमरे णं जाव पभू णं केवलकाप जवुदीव दीवं बहूहि असुरकुमारेहि देवेहि य देवीहिय आइन्न जाव करेत्तइ अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे जाव तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वहूहि असुरकुमारेहि आइन्ने जाव करित्तए । एसणं गोयमा !
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स्थांनाङ्गसूत्र ___ छाया-चमरः खलु भदन्त ! कियन्महर्द्धिको यावत् कियच्च खलु प्रभुः विकुर्वितुम् ? गौतम | चमरः खलु यावत् प्रभुः खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं वहुभिरसुरकुमारै दॆवैश्च देवीभिश्चाकीर्णं यावत् कर्तुम् , अथोत्तरं च खलु गौतम ! प्रभुश्चमरो यावत् तिर्यनसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् वहुभिरसुरकुमारैराकीर्णान् यावत् कर्तुम् । एप खलु गौतम ! चमरस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतद्रूपो विषयमात्र उक्तः, नो चैत्र खलु संपत्त्या व्यकापीत् , विकुर्वति, विकुर्विष्यति । एवं शक्रोऽपि द्वौ केवलकल्पो जम्बूद्वीपौ द्वीपो आकीणों यावत् कुर्यात् ॥ ___ परिचारणद्धिः, परिचारणा-कामसेवा, तद्विपया ऋद्धिः परिचारणद्धिः एतदद्धिमान् देवोऽन्यान् देवान्, अन्यसत्का देवीः, स्वकीया देवीः, अभियुज्याऽऽस्मानं च विकवित्वा परिचारयतीत्येवंरूपेति ।२। अथवा-प्रकारान्तरेण देवर्द्धिः, सचिताचित्तमिश्रितभेदात्रिविधा । तत्र सचित्ता-स्वशरीररूपा, स्वपरिवारभूतानमहिष्यादि सचेतनवस्तुरूपा संपत् , अचित्ता-वस्त्राभरणादिरूपा, मिश्रिता-चत्राकप्पे जवुद्दीवे जाव आइन्ने करेज्जा” इति, परिचारणा का अर्थ विषय सेवन है इस विषयवाली जो ऋद्धि है वह परिचारणद्धि । इस ऋद्धिवाला देव अन्यदेवों को, अन्यदेवों की देवियों को अपनी देवियों को पकड कर बलात् ग्रहण कर और स्वयं विकुर्वणा कर उनके साथ कामसेवा करता है, इस प्रकार की यह परिचारणाद्धि होती है अथवा-सचित्त अचित्त और मिश्रित के भेद से देवर्द्धि तीन प्रकार की होती है। इनमे अपने शरीररूप, तथा-स्वपरिवारभूत जो अग्रमहिषी आदि सचेतन वस्तु रूप संपत्है वह सब सम्पत्ति सचित्त देवद्धि है । वस्त्राभरणादिरूप जो चमरस्ट देविंदस्स-देवरायस अयमेयारूवे विसयमेत्तेवुइए नो चेव णं संपत्तिए विउ. व्विसु । एवं सक्के वि दो केवलकप्पे जवुद्दीवे जान आइन्ने करेज्जा" त्या
આ સૂત્રપાઠ દ્વારા અમરેન્દ્ર, શક આદિની પૂર્વ કથિત વિમુર્વણ શક્તિનું જ સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે.
પરિચાર ઋદ્ધિ-પરિચારણ એટલે વિષય સેવન. આ વિષયવાળી જે ઋદ્ધિ છે તેને પરિચારશુદ્ધિ કહે છે આ ઋદ્ધિવાળે દેવ અન્ય દેને, અન્ય દેવેની દેવીઓને, અને પિતાની દેવીઓને પકડીને, પકડીને, બળજબરીથી પકડી લાવીને અને પોતે વિવરણ કરીને તેમની સાથે વિષયસેવન કરે છે.
દેવદ્ધિના સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રિત એવા ત્રણ ભેદ પણ કહ્યા છે. હવે આ ત્રણ ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-શરીરરૂપ, સ્વપરિવારભૂત અમહિષીઓ આદિ સચેતન વસ્તુરૂપ જે સંપત્તિ છે તે સંપત્તિને સચિત્ત દેવદ્ધિ કહે છે.
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सुधा टीका स्था०३उ०४सू० ८१ समैदकद्धिस्वरूपनिरूपणम् भरणादि समलकृतदेव्यादिरूपा ॥३॥ अथ देवद्धिवर्णनानन्तरं राजर्द्धिमाह'राइड्री' इत्यादि, राजर्द्धिस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-राजः अतियानद्धिः अतियान-नगरप्रवेशः, तत्र ऋद्धिः-नगरशोभाजनकतोरणसमलंकरणजनसंमर्दादिरूपा । राज्ञो निर्याणद्धिः, निर्याण-नगरान्निर्गमनं, तत्र ऋद्धिा-हस्त्यश्वसामन्तपरिवारादिरूपा । राज्ञो वलवाहनकोशकोष्ठागारद्धिः, तत्र-वलं-चतुरङ्गसैन्यरूपं,
देवद्धि है वह अचेतन देवद्धि है, तथा-वस्त्रभरणादि से समलंकृत जो देवी आदिरूप देवद्धि है वह मिश्रित देवद्धि है ३। " राइडि" इत्यादि राजा की अतियानद्धि आदि के भेद से राजर्द्धि तीन प्रकार की जो कही गई है सो उसका अभिप्राय ऐसा है-अतियोन नाम राजा के नेगर में प्रवेश करने का है इस समय जो उसकी शोभा करने के लिये उसमें तोरण बनाये जाते हैं, छोटी तोरण ध्वजाएँ लटकाई जाती हैं, दूसरों को विविध उपकरणों से सज्जित किया जाता है, बाजार को सुशोभित हो जाता है, मनुष्यों की मेदिनी एकत्रित हो जाती है सो यह सय राजा की अतियानद्धि है। राजा का नगर से निकलना इसका नाम रोजा की निर्याणद्धि है जघ राजा नगर से बाहर निकलता है तब जो उसके साथ हस्ति-अश्व सामन्त इत्यादिकों का परिवार होता है वह सब निर्याणद्धि है। तृतीयऋद्धि जो राजा की बल वाहन आदिरूप कही
વસ્ત્ર, આભૂષણ આદિ રૂપ જે દેવઋદ્ધિ છે તેને અચેતન દેવદ્ધિ કહે છે. વસ્ત્રાભરણ આદિથી વિભૂષિત દેવી આદિ રૂપ જે દેવદ્ધિ છે, તેને મિશ્રિત पद्धि ४९ छ. " राइड्ढो" त्याह
હવે રાજાની ત્રણ પ્રકારની ઋદ્ધિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે – પહેલે પ્રકાર અતિયાનદ્ધિ છે. રાજાના નગરપ્રવેશનું નામ અતિયાન છે. તે વખતે નગરની શોભા વધારવા માટે તેમાં તેણે લટકાવવામાં આવે છે, ધજા પતાકાઓ વડે રસ્તા શણગારવામાં આવે છે, બજારને શણગારવામાં આવે છે, રાજસેવકો આદિને વિવિધ ઉપકરણથી સુસજિત કરવામાં આવે છે, મનુષ્યની ખાસ્સી ભીડ એક ચિત્ત થઈને રાજાના આગમનની પ્રતીક્ષા કરે છે. આ બધી સામગ્રીને રાજાની અતિયાન ઋદ્ધિરૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. (૨) રાજાની નિશુદ્ધિ રાજાનુ નગરમાંથી બહાર જે પ્રયાણ થાય છે તેને નિર્માણ” કહે છે રાજા જ્યારે નગરની બહાર પ્રયાણ કરે છે, ત્યારે તેની સાથે જે હાથી, ઘોડા, રથ, પાયદળ સામંતે આદિને પરિવાર હોય છે તેને જ રાજાની
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स्थानानसूत्रे
वाहनानि - वेसरादीनि खच्चर इतिभाषा प्रसिद्धानि कोशः - भाण्डागारं, कोष्ठागारं धान्यगृहम्, तद्रूपा ऋद्धिर्या सा तथा । ४ । इत्यादि, अहवा
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अथचा पुनरप्य
प्रकारान्तरेण राजर्द्धिमाह 4 न्यप्रकारेण राजर्द्धि त्रिविधा, सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, तत्र सचित्ता - हस्त्यश्वपदातिरूपा, अचित्ता प्रासादखङ्गतोमरशतदन्या दिरूपा, मिश्रिता-सालङ्काराग्रमहिप्यादिरूपा, सशस्त्र सैन्यादिरूपा वा ५। गणिऋद्धिस्त्रिविधाः, तदेवदर्शयति - ज्ञानर्द्धिःविशिष्टश्रुतरूपा, दर्शनर्द्धिः - प्रवचनविषये निश्शङ्कितादित्वरूपा, प्रवचनमभावनाप्रतिपादकशास्त्र सम्पद्रपा वा, चारित्रर्द्धि: चारित्रविषयकनिरतिचारतारूपा |६|
· ६०४
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गई है, सो चतुरङ्ग सैन्यरूप, बल, वेसरादिरूप ( खच्चर) वाहन भाण्डादिरूपकोष और धान्यागाररूप कोठागार ये सब इस ऋद्धि में गृहीत हुवे हैं । प्रकारान्तर से भी राजऋद्धि तीन प्रकार की होती है वे उसके प्रकारान्तर सचित्त, अचित्त, और मिश्रित हैं, हस्ति अव और पदाति ये सब सचित्त राजद्धि में परिणत हुवे हैं, प्रासाद खड्ग तोमर - बन्दूक आदि अस्त्र अचिन्त राजद्धि में परिणत हुवे हैं, तथा अलङ्कारों से विभूषित पट्टरानियाँ वगैरह, अथवा - सशस्त्र सैन्य वगैरह ये सब मिश्रित राजर्द्धि में परिगणित हुवे हैं । ज्ञानद्धि आदि के भेद से जो गणिऋद्धि के भेद कहे गये हैं उसका नात्पर्य ऐसा है कि विशिष्ट रूप ज्ञानद्धि है । प्रवचन के विषय में निःशङ्कित आदि रूप होना यह दर्शनद्धि है, अथवा - प्रवचन की प्रभावना प्रकट करने वाले जो शास्त्र हैं उनका संग्रह करना નિર્માણુદ્ધિ કહે છે. (૩) રાજાની ખલવાહત આદિ રૂપ ઋદ્ધિનું હવે નિરૂપણુ ४श्वामां आवे छे-यतुररंग सेना३प मस, हाथी, घोड, रथ महिय वार्डन, लांडाहि ( પાત્રાદિ ) રૂપ કોષ, ધાન્યાગાર રૂપ કાઢાર, ઇત્યાદિ વસ્તુઓને આ પ્રકારની ઋદ્ધિમાં ગણાવી શકાય છે.
હવે રાજદ્ધિના જે સચિત્ત અચિત્ત અને મિશ્રિતરૂપ અન્ય ત્રણ પ્રકારે કા छे, तेनुं निइया ४२वामां आवे छे. हाथी, घोडा, पायहज महिने राजनी सचित्त ऋद्धियां गावी राहाय छे, आसाह, तलवार, लासा, माशु भाहिने રાજાની અચિત્ત સૃદ્ધિ કહેવાય છે તથા અલંકારોથી વિભૂષિત રાણીએ, સશસ્ત્ર સૈનિકા વગેરેને રાજાની મિશ્રિત ઋદ્ધિમાં ગણાવી શકાય છે.
હવે ગશિઋદ્ધિના જ્ઞાનદ્ધિ આઢિ ભેદને સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે— વિશિષ્ટ શ્રુતરૂપ જ્ઞાનદ્ધિને કહી છે, પ્રવચનના વિષયમાં શકા આદ્ધિથી રહિત હાવું તેનું નામ દનદ્ધિ છે, અથવા પ્રવચનની પ્રભાવના પ્રટ કરનારાં જે શાસ્ત્રો છે તેમનું અધ્યયન કરવું–તે શાસ્ત્રાનુસાર પ્રવચનની પ્રભાવના કરવી,
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ सू० ८२-८४ गौरवाध्मेिदनिरूपणम् ३०५ प्रकारान्तरेण गणिऋद्धिविविधा सचित्तादिरूपा, तत्र सचित्ता - शिध्यादिरूपा, अचित्ता - वस्त्रादिरूपा, मिश्रा - वस्त्राघलङ्कृतशिष्यादिरूपेति । ७ । एताश्च विकुणादिरूपा द्धयोऽन्येपामपि भवितुमईन्ति, तथापि यद् देवादीनामेव ऋद्वित्वेन प्रोक्ताः ताः केवलं देवादीनां विशेषवत्यो भवन्तीति तेषामेवोक्ता इति । ॥ ० ८१ ॥ ऋद्धौ सत्यां गौरवं भवतीति गौरवभेदानाह -
मूलम्---तओ गारवा पण्णता, तं जहा-इड्डीगारवे, रसगारवे, सायागारवे ॥ सू० ८२ ॥ अध्ययन करना उनके अनुसार प्रवचन की प्रभावना करना, यह दर्शनद्धि है। तथा चारित्र की आराधना अतिचार रहित करना यह चारित्रद्धि है, अथवा-सचित्त अचित्त मिश्रित रूप से भी गणि ऋद्धि तीन प्रकार की जो कही गई है सो उसमें शिष्यादिरूप सचित्त गणि. ऋद्धि है। वस्त्रादिरूप धर्म के साधन भूत वस्त्रादिकों का रखना यह अचित्तगणिऋद्धि है, और वस्त्रादिकों से सहित शिष्यादिरूप मिश्रित गणिऋद्धि है यद्यपि ये विक्कुर्वणादि रूप ऋद्धियां अन्य को भी हो सकती है फिर भी यहां जो देवादिकों को ही ऋद्धिमत्व रूप से कहा गया है, सो उप्तका कारण ऐसा है कि ये देवादिकों में विशिष्टरूप से होती है ऐसी विशेषणता लिये हवे ये ऋद्धियां वहां होती है चैसी अन्यत्र नहीं होती है इसलिये ये उनकी ही कही गई हैं ॥ ०८१॥ તેનું નામ દર્શનદ્ધિ છે. નિરતિચારપૂર્વક ચારિત્રની આરાધના કરવી તેનું નામ ચારિત્રદ્ધિ છે. ગણિદ્ધિના ચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રિત, આ ત્રણ પ્રકાર પણ કહ્યા છે. શિષ્યાદિ રૂપ સચિત્ત ગણિઋદ્ધિ સમજવી, ધર્મના સાધને રૂપ વસ્ત્રાદિકને અચિત્ત ગણિઋદ્ધિ કહે છે. અને વસ્ત્રાદિ સહિત શિષ્યાદિને મિશ્રિત ગણિઋદ્ધિ રૂ૫ ગ્રહણ કરવા જોઈએ.
જો કે આ વિદુર્વણદિ રૂપ ઋદ્ધિઓને અન્ય જીવોમાં પણ સાવ હઈ શકે છે, છતાં પણ અહીં દેવાદિકને જ ઋદ્ધિસ પન્ન કહ્યા છે તેનું કારણ એ છે કે દેવાદિકેમાં તે વિશિષ્ટરૂપે હોય છે. જેવી વિશિષ્ટતાપૂર્વક આ સદ્ધિઓને દેવાદિ કેમાં સદૂભાવ હોય છે, એવી વિશિષ્ટતા પૂર્વક અન્ય જીવોમાં તેમને સદ્ભાવ હોતો નથી. તેથી અહીં દેવાદિકને જ આ ઋદ્ધિઓથી पन्न ४ छे. ॥ सू. ८१ ॥
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स्थानाङ्गसूत्रे
. तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-धम्सिए करणे, अधम्मिए करणे, धस्सियाधम्सिए करणे ॥ सू० ८३ ॥
तिविहे भगवया धम्ले पण्णत्ते, तं जहा-सुअहिज्जिए, सुज्झाइए, सुतवस्सिए । जया सुअहिज्जियं भवइ तयासुज्झाइयं भवइ, जया सुज्झाइयं भवइ तया सुतवस्सियं भवइ, सेसुअहिजिए सुज्झाइए सुतवस्सिए सुअक्खाए णं भगवया धम्मे पण्णत्ते ॥ सू० ८४ ॥ ___ छाया-त्रीणि गौरवाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - ऋद्धिगौरवं, रसगौरवं, सातगौरवम् ॥ मू० ८२ ॥
त्रिविधं करणं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-धार्मिकं करणं, अधार्मिकं करणं, धार्मिकाधार्मिकं करणम् ।। सू० ८३ ॥
त्रिविधो भगवता धर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-स्वधीतः, सुध्यातः, मुतपस्थितः । यदा (श्रुतं ) स्वधीतं भवति तदा सुध्यातं भवति, यदा सुध्यातं भवति तदा सुतपस्थितं भवति । स स्वधीतः सुध्यातः सुतपस्थितः स्वाख्यातः खल्ल भगवता धर्मः प्रज्ञप्तः ॥ सू० ८४ ॥
ऋद्धि के होने पर गौरव होता है इसलिये सूत्रकार गौरव के भेदों का कथन करते हैं-तओ गारवा पगत्ता-इत्यादि, सूत्रार्थ-गौरव तीन कहे गयेहैं, जैसे-ऋद्विगौरव, रसगौरव, और शाता गौरव, करण तीन कहे गये हैं, जैसे-धार्मिककरण, अधार्मिककरण,
और धामि काधार्मिककरण। भगवान ने धर्म तीन प्रकार का कहा है जैसे-स्वधीतधर्म, सुध्यातधर्म, और सुतपस्थितधर्म ३ जब श्रुत स्वधीत होता है तब वह सुध्यात होता है और जब वह सुध्यात होता
| ઋદ્ધિના સદુભાવમાં જ ગૌરવનો સદુભાવ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર गौरपर्नु नि३५ रे छ-" तओ गारवा पण्णत्ता" त्याह
सूत्राथ-गो२५ त्रए प्राप्तुं धुंछ-(१)द्धि गौरव, (२) २८गौ२१, मन (3) ज्ञान ગરવ. કરણ (ફિયાનુંસાધન) પણ ત્રણ કહ્યા છે—ધાર્મિક કારણ, અધામિક કરણ અને ધામિકા ધાર્મિક કારણ. ભગવાને ધર્મ ત્રણ પ્રકારનો કહ્યો છે-(૧) સ્વધીત धर्म, (२) सुध्यात मी, मन (3) सुतपस्थित धम. न्यारे श्रुत धात હેય છે, ત્યારે તે સુધ્યાત હોય છે, અને જ્યારે તે સુધ્યાત હોય છે, ત્યારે
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सुधा की स्था०३ ७०४ सू० ७०.८२-८४ गौरवादिभेदनिरूपणम् ३०७ ___टीका-'तओ गारवा' इत्यादि । त्रीणि गौरवाणि प्रज्ञतानि, गुरोभर्भावः कर्मवेति गौरवं, तद् द्रव्यभावभेदाद् द्विविधं, तत्र द्रव्यतो वज्रादेरिवं, भावत आत्मनोऽभिमानलोभादिलक्षणा शुभभाववत्र, तत्र-गौरवाणि भावगौरवाणि त्रीणि मज्ञप्तानि, तद्यथा-ऋद्धिगौरवं, ऋद्धया-नरेन्द्रादि लक्षणया आचार्यत्वादि लक्षणया वाऽभिमानादिद्वारेण गौरवम् , ऋद्धिप्राप्त्यभिमाना प्राप्ततत्मार्थनाद्वारेणाऽशुभभावो भावगौरवमित्यर्थः, रसो-रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः, तत्प्राप्त्यभिमानाप्राप्तमार्थ नादिनाऽऽत्मनोऽशुभभावः, एवं सातगौरवमिति ।। सू० ८२ ।। है तब वह सुतपस्थित होता है, वह स्वधीत सुध्यात और प्लुतपस्थित धर्म सम्यग्ज्ञान क्रियारूप होने से सत्यधमें कहा गया है, और यह धर्म भगवान महावीर ने कहा है। ___टीकार्य - गुरु का भाव, अथवा-कर्म, गौरव है ( अहंकार ) वह गौरव द्रव्य और आक्के भेदसे दो प्रकारका कहा गया है वज्रादिकों में जो गुरुता-अरिपन है वह द्रव्य गौरव है । तथा-आत्मा में अभिमानरूप, लोभादिकषायरूप, अशुभ भावोंसे युक्तताहै वह भावगीरव है । यह भोवगौरव ही ऋद्धि गौरबादिके भेदसे तीन प्रकारका कहा गया है, नरेन्द्रादिरूप अथवा आचार्यादिरूप ऋद्धि के प्राप्ति से आत्मा में जो अभिमान की मात्रा आ जाती है, और इस अभियान की मात्रा द्वारा जो अशुभ भाव होता है, वह भावगौरव है तात्पर्य यह है कि जब नरेन्द्रादिरूप, या आचार्य आदिरूप विशिष्टपद जीव को प्राप्त हो जाता है, तब उसकी प्राप्ति से उसे एक प्रकार का अहंकार आदिरूप अशुभ भाव आ जाता है उस भाव के आ जाने पर वह अप्राप्त वस्तु को चाहना आदि करने लगता है, सो यह सब इस प्रकार का भाव ही भावगौरव है । क्यों कि-आत्मा में इस प्रकार के अशुभ તે સુતપસ્થિત હોય છે. તે સ્વધીત, સુધ્યાત અને સુતસ્થિત ધર્મ સમ્યજ્ઞાન ક્રિયા રૂપે હોવાથી તેને સાચો ધર્મ કહ્યો છે, અને આ ધમ ભગવાન મહાवीरे ४ह्यो छे.
ટીકાર્ય–ગુરુને ભાવ અથવા કર્મ ગૌરવ છે. તે ગૌરવ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારનું કહ્યું છે, વજદિકમાં જે ગુરુતા છે, તે દ્રવ્ય ગૌરવ રૂપ છે, તથા આત્મામાં અભિમાનરૂપ, લેભાદિ કષાયરૂપ, અશુભ ભાવથી યુક્તતા હોવા રૂપ, જે ગૌરવ છે તેને ભાવગૌરવ કહે છે. તે ભાવ ગૌરવને જ કદ્ધિ આદિના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનું કહ્યું છે નરેન્દ્રાદિ રૂપ અથવા આચાર્યાદિ રૂપ ઋદ્ધિની પ્રામિ થવાથી આત્મામાં જે અભિમાનની માત્રા આવી જાય છે અને તે અભિમાનની માત્રા દ્વારા જે અશુભ ભાવ પેદા થાય છે તેનું નામ જ ભાવગૌરવ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે નરેદ્રાદિ રૂપ અથવા આચાર્ય
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ફૂંટે
स्थानासू
अनन्तर चारित्रविषया ऋद्धिः प्रोक्ताः, चारित्रं च करणेन भवतीति करणभेदानाह - ' तिविहे करणे ' इत्यादि ।
क्रियते चरणस्य पुष्टिरनेनेति करणम् - उत्तरगुणरूपम्, यद्वा- करणं-पिण्डविशुद्धयादि एतदपि सप्ततिसंख्यकम् । उक्तञ्च -
دو
ե
१२
" पिण्डविसोही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरोहो ।
२५
७०
पडिले गुत्तीओ अभिग्गहा चैव करणे तु ॥ १ ॥
,
छाया -- पिण्डविशुद्धिः समितिः भावना प्रतिमा च इन्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तयः अभिग्रहाश्चैव करणं तु ॥ १ ॥ इति ॥
भाव से कर्मबन्धजन्यगुरुता ही है लघुता नहीं आती है, रसनेन्द्रिय का जो विषय है वह रस है । यह रस मधुर रस आदि के भेद से ५ प्रकार का होता है इस रस की प्राप्ति से जो आत्मा में अभिमान आता है और फिर उसी प्रकार के रस को प्राप्त करने की पुन: चाहना जगती
यह चाहनारूप अशुभ भाव रसगौरव है इसी प्रकार का ज्ञातागौरव चारित्रऋद्धिकही गई है - सो चारित्र करण द्वारा होता है इसी बात को लेकर सूत्रकार ने चरण के भेदों का कथन किया है- " तिविहे करणे " इत्यादि । करण की जिस से पुष्टि की जाती है वह कारण है, यह करण उत्तरगुणरूप होना है अथवा पिण्डविशुद्धि आदि का नाम करण है, यह विशुद्धि आदिरूप करण ७० प्रकार का है । कहा भी है
રૂપ વિશિષ્ટ પદ્મની જયારે પ્રાપ્તિ થાય છે, ત્યારે તેની પ્રાપ્તિને લીધે જીવમાં અહં'કાર આદિ રૂપ અશુભ ભાવા ઉત્પન્ન થાય છે, તે ભાવ ઉત્પન્ન થવાને લીધે તે અપ્રાપ્ત વસ્તુની અભિલાષા કરવા લાગી જાય છે. તેના આ પ્રકારના ભાવને જ ભાવગૌરવ કહે છે, કારણ કે આત્મામાં આ પ્રકારના અશુભ ભાવ જાગવાથી કર્મ બન્યજન્ય ગુરુતા જ ઉત્પન્ન થાય છે-લઘુતા ઉત્પન્ન થતી નથી. રસનેન્દ્રિયને જે વિષય છે તેનું નામ રસ છે. તે રસ મધુર આદિ પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે. આ રસની પ્રાપ્તિથી આત્મામાં જે અભિમાન આવે છે, અને એ જ પ્રકારના રસ ફ્રી પ્રાપ્ત કરવાની જે તૃષ્ણા જાગે છે, તે તૃષ્ણા ( ચાહના ) રૂપ અશુભ ભાવનું નામ રસગૌરવ છે, એ જ પ્રકારનું જ્ઞાનગૌરવ પણ સમજવું જે ચારિત્રસૃદ્ધિની વાત કરી છે તેની હવે પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે–ચૉરિત્રકરણ દ્વારા સંભવે છે, તેથી સૂત્રકાર હવે કરણના ભેદનું प्रथम रे - " तिविहे करणे " इत्यादि
ચરણની જેના દ્વારા પુષ્ટિ કરાય છે તે કરણ છે. તે કરણ ઉત્તરગુણ રૂપ હાય છે. અથવા પિંડ વિશુદ્ધિ આદિનું નામ કરણ છે. તે વિશુદ્ધિ આદિ રૂપ
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मानरूपणम्
सुंधा टीका स्था०३ उ०४ सू० ८२-८४ गौरवादिमेदनिरूपणम्
करणमित्यनुष्ठान, तच्च धार्मिकादि स्वामिभेदेन त्रिविधं, तत्र धार्मिकस्यसंयतस्येदं धार्मिकं करणमनुष्ठानमिति, तद्विपरीतमधार्मिकम् असंयतसम्बन्धि करणमिति, तृतीयं धार्मिकाधामि कं-देशसंयतसम्बन्धि करणमिति ।। स . ८५ ॥ ___ अनन्तरं धार्मिककरणमुक्तं, तच्चधर्म एवेति धर्मभेदानाह-'तिविहे धम्मे' इत्यादि, धर्म:-श्रुतचारित्ररूपः, स भगवता त्रिविधः प्रज्ञप्तः, न तु मयेति श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति माहेति । तानेव दर्शयति-स्वधीतः, सुध्यातः मुतपस्थितः । त्रयाणामप्येपामुत्तरोत्तरतोऽविनाभावं दर्शयति-'जया' इत्यादि, "पिंड विसोही सेसई" इत्यादि, आहार, वस्त्र, पात्र वसति रूप पिंड विशुद्धि ४ समिति ५ भावना १२ और १२ प्रतिमा इन्द्रियनिरोधके ५ और प्रतिलेखनारूप गुप्ति ३ अभिग्रह ४ करण यह अनुष्ठानरूप होताहै यह धार्मिक आदि स्वामि भेदसे तीन प्रकारका होताहै। संयतका जो अनुष्ठान है वह धार्मिक करण है, तथा असंयत सम्बन्धी जो अनुष्ठान है वह अधार्मिक करण है तथा देशसंयत सम्बन्धी जो अनुष्ठान है वह धार्मिकाधार्मिक करण है। धार्मिक करण धर्मरूप ही होता है इस भाव को लेकर ही यहां सूत्रकार ने धर्मभेद कहा है-"तिविहे धम्मे " इत्यादि, धर्म श्रुतचारित्र रूप होता है भगवान् ने यह धर्म तीन प्रकार का कहा है, सुधर्मास्वामी ने ऐसा यह जम्बूस्वामी से कहा ही है कि, मैंने ऐसा ही कहा है कि धर्म तीन प्रकार का है, ऐसा कथन तो भगवान् ने किश है कि धर्म तीन प्रकार का होता है धर्म के वे तीन प्रकार ये हैं स्वधीत, सुध्यात, और सुतपस्थित ३ इन तीनों का सूत्रकार ४२६ ना ७० प्र४२ छे. ४ह्यु ५ छ ?- पिंडविसोही सेसई" त्याકરણ અનુષ્ઠાનરૂપ હોય છે, તે ધાર્મિક આદિ સ્વામિભેદની અપેક્ષાએ ત્રણ પ્રકારનું કહ્યું છે. સંયતનું જે અનુષ્ઠાન હોય છે તેને ધાર્મિક કણ કહે છે, અસંયતના અનુષ્ઠાનને અધામિક કરણ કહે છે, તથા દેશસંયતના અનુષ્ઠાનને ધાર્મિકાવામિક કરણ કહે છે. ધાર્મિક કરણ ધર્મરૂપ જ હોય છે, તે ભાવને मनुरक्षीन सूत्ररे मडी महर्नु थन यु-"तिविहे धम्मे" त्यादि ધર્મ શ્રત ચારિત્રરૂપ હોય છે. ભગવાને આ ધર્મ ત્રણ પ્રકારને કહ્યું છે– સુધર્મા હવામીએ જંબૂ સ્વામીને એવું કહ્યું છે કે-“ધર્મ ત્રણ પ્રકારના હોય છે એવું સ્વયં મહાવીર ભગવાને કહ્યું છે-હુ ધર્મના જે ત્રણ પ્રકાર કહું છું તે મારૂ પિતાનું કથન નથી પણ ભગવાન મહાવીરનું જ કથન છે.”
मनात २ नीचे प्रमाणे छ-(१) २१धात, (२) सुध्यात मन (3) સુતપરિયત આ ત્રણેને ઉત્તરોત્તર અવિનાભાવી એકવાર બીજાનું નહોવાપણું સંબધ
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स्थाननसूत्रे
अत्र श्रुतमितिगम्यं तेन यदा श्रुतं स्वधीतं, सु-सुष्ठु कालविनयाधाराधनगाऽधीतं गुरुसकाशात्सुत्रतः पठितं तत्तथा, तथा सुध्यावं, गु-मृदुविधिना गुरुमकाणादेव व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातम् - अनुपेक्षितम्, अनुपेक्षणाया असावे तच्चानयगमेनाध्ययनश्रवणयोः मायोऽकृतार्थत्वादिति । अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्मो विवक्षतः तथा सुतपस्थितं, सु-सुष्ठु इहलोकाद्याशंसारहितत्वेन तपरियतं - तपस्यानुष्ठानम् । अनेन च चारित्रधर्मः प्रोक्त इति । एवं यदा श्रुतं स्वधीतं भवति तदा सुध्यातं भवति, निर्दोपाध्ययनं विना श्रुतार्थामतीतेः गृध्यातस्याऽसद्भावात् यदा सभ्यात
"
उत्तरोत्तर अविनाभाव सम्बन्ध दिखाने के निमित्त-" जया" इत्यादि, सूत्र का कथन करते हैं-वहां श्रुत ऐसा पद लगा लेना चाहिये । अतः जब श्रुत कालविनय आदि की आराधना पूर्वक गुरु से सूत्र के रूप में अधीत होता है तब वह न स्वधीत कहा जाता है और जय वह गुरु से व्याख्या द्वारा सार्थक हुवा सुनकर वार २ विचारित होता है तब वह श्रुत सुध्यात होता है। क्यों कि अनुपेक्षा चार बार विचार किये बिना तव का अवगम नहीं होता है इन दो भेदों से श्रुतधर्म विवक्षित हुवा है, और सुनपस्थित पद से चारित्र धर्म कहा गया है। इस लोक आदि की आशंसा से रहित होकर जो तपस्या का अनुष्टान है वह सुतपस्थित है । इस तरह श्रुत जब स्वधीत होता है तब वह सुध्यात होता है, क्योंकि निर्दोष अध्ययन किये बिना जीव को नार्थ की प्रतीति नहीं होती है उसकी प्रतीति के अभाव में वह सुभ्यात नहीं ताववाने भाटे सूत्र "जया" त्याहि सूत्रानु धनरेछे-त्या "श्रुत" मे પદ્મ લગાવી લેવું જોઈએ. જ્યારે શ્રુત કાલવિનય આદિની આરાધનાપૂર્વક ગુરુ પાસેથી સૂત્રના રૂપમાં અધીન થાય છે, ત્યારે તે શ્રુતને સ્વધીત શ્રુત કહે છે. અને જ્યારે ગુરુની સમીપે વ્યાખ્યાન દ્વારા સાર્થક શ્રવણુ કરીને જ્યારે તેના પર વારવાર વિચાર કરવામાં આવે છે, ત્યારે તે થુન સુખ્યાત થાય છે, કારણ કે વારવાર વિચાર કર્યાં વિના તત્ત્વના અવગમ ( મેધ ) થતે નથી. આ એ ભેઢાની અપેક્ષાએ અહીં શ્રધનુ' વણુÖત કરવામાં આવ્યું છે, અને સુતપસ્થિત ’ પદથી ચારિત્ર ધર્મનું કથન કરાયું છે. આલેક આદિની આશ’સા ( કામના ) થી શિત થઇને જે તપસ્યાનુ' અનુષ્ઠાન કરવામાં આવે છે તેને સુતપસ્થિત ' કહે છે. આ રીતે શ્રુત જ્યારે સ્ત્રષીત હોય છે, ત્યારે જ સુખ્યાત હોઈ શકે છે, કારણુ કે નિર્દોષ અધ્યયન કર્યા વિના જીવને શ્રુતાની પ્રતીતિ થતી નથી, અને તેની પ્રતીતિના અભાવમાં તે સુખ્યાત થઈ શકતું
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सुधारीका स्था०३ उ०४ सू० ८२-१४ गौरवादिभेदनिरूपणम् ३११ भवति तदा सुतपस्थितं भवति, तदभावे च ज्ञानविकलतया सुतपस्यितस्याभावा दिति । ' से ' इति सः स्वधीतादित्रयरूपो धर्मः । स्वाख्यातः-मुष्ठुक्तः सम्य. रज्ञान-क्रियारूपत्वात्। ज्ञानक्रिययोश्चैकान्तिकात्यन्तिकमुखाबन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात् , प्रज्ञसः-परूपितः, केनेत्याह-भगवता श्रीमहावीरेणेति । सुगतिधारणाद्धि धर्मः, उक्तञ्च
" नाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो ।
तिण्हंपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ १ ॥" । छाया-ज्ञानं प्रकाशकं शोधकं तपः संयमश्च गुप्तिकरः।
त्रयाणामपि समायोगे मोक्षो जिनशासने भणितः ॥ १ ॥ इति । मू. ८४॥ हो सकता है, जब वह सुध्यात होता है तब वह सुतस्थित होता है, सुध्यात के अभाव में ज्ञान विकल होने के कारण उसमें सुतपस्थित का अभाव आता है। इस प्रकार स्वधीतादि त्रयरूप धर्म सम्यग्ज्ञान क्रियारूप होने से स्वाख्यात हुवा है अच्छी तरह से कथित हुवा है। अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया में ऐकान्तिक एवं आध्यात्मिक सुख का सकल उपाय होने से वह श्रुत चारित्ररूप धर्म निरुपचारित धर्मरूप से वास्तविक सच्चे धर्मरूप से कहा गया है ऐसा कथन भगवान महावीर ने किया है तात्पर्य इसका ऐसा है कि जीव को जो संसारिक दुःखों से छुडाकर सुगति में प्राप्त करा देता है वही सच्चा धर्म है, ऐसा सच्चा धर्म श्रुतचारित्र रूप ही हो सकता है अन्य नहीं। कहा भी है-"नाणं पयास यं-" इत्यादि, ज्ञान प्रकाशक होता है तप शोधक होता है और संयम નથી, જ્યારે તે સુધ્યાત થાય છે, ત્યારે જ સુતપસ્થિત પણ થઈ શકે છે. સંધ્યાતના અભાવમાં જ્ઞાનવિકલ હોવાને કારણે તેનામાં સુતપસ્થિતતાને અભાવ २ छ. 20 रनो स्वधातात्रिय ३५ (स्वधात, सुध्यात, सुतपस्थित) ધર્મ સમ્યજ્ઞાન ક્રિયા રૂપ હોવાથી તેને સાચા ધર્મ રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે. એટલે કે “જ્ઞાન અને ક્રિયામાં એકાતિક અને આધ્યાત્મિક સુખને સફલ ઉપાય હોવાથી મૃતચારિત્રરૂપ ધર્મને નિરુપચરિત ધર્મ રૂપે વારતવિક સાચા ધર્મ રૂપે પ્રતિપાદિત કરાવે છે. આ પ્રકારનું કથન મહાવીર ભગવાને જ કરેલું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જીવને જે સાંસારિક દુઃખમાંથી છોડાવીને સુગતિ પ્રાપ્ત કરાવે છે, એ જ સાચે ધર્મ છે એ સાચે ધમ કૃતચારિત્ર રૂપ જ હોઈ શકે છે-અન્ય નહીં. કહ્યું પણ છે કે
" नाणं पयासयं" इत्यादि
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स्थाना
३१२
पूर्व सुतपरियतमित्यनेन चारित्रं प्रोक्तं तच्च प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपमिति तस्या भेदानाह
मूलम् --तिविहा वावत्ती पण्णत्ता, तं जहा जाणू, अजाणू, वितिमिच्छा, एवं अज्झोववज्जणा परियावज्जणा ॥ सू०८५ ॥ तिविहे अंते पण्णत्ते, तं जहा-लोयंते, वेयंते, समयंते सू०८६ ॥
तओ जिणा पण्णत्ता, तं जहा - ओहिणाणजिणे, मणपजवणाणजिणे, केवलणाणजिणे १ । तओ केवली पण्णत्ता, तं जहा - ओहिणाणकेवली, मणपज्जवणाणकेवली, केवलणाणकेवली २ | तओ अरहा पण्णत्ता, तं जहा ओहिनाणअरहा, मणपज्जवनाण अरहा, केवलनाण अरहा ३ ।। सू० ८७ ॥
छाया-त्रिविधा व्यावृत्तिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-ज्ञायिका, आज्ञायिका, विचिकित्सा | एवम् अध्युपपादना, पर्यापादना | सू० ८५ ॥
रक्षक होता है, और जब इन तीनों का एक ही आत्मा में योग मिल जाता है तब उस आत्मा की सुक्ति हो जाती है ऐसा जिन शासन में कहो गया है || सू०८४ ॥
44 'श्रुतपस्थित " इस पद से चारित्र कथन हुवा है यह चारित्र प्राणातिपात आदि की निवृत्तिरूप होना है, अतः अब सूत्रकार उस निवृत्ति के भेदों का कथन करते हैं-"तिविहा वावत्ती पण्णत्ता" इत्यादि, व्यावृत्ति तीन प्रकारकी कही गई है जैसे-लायिका १ असायिका २
"( જ્ઞાન પ્રકાશક હાય છે, તપ શેાધક હાય છે અને સયમ રક્ષક દાય છે, અને જયારે આ ત્રણેને એક જ આત્મામાં સમન્વય (ચેગ) થઈ જાય છે, ત્યારે તે આત્માની મુક્તિ થઇ लय छे, " એવું જિનશાસનમાં કહ્યું છે. સૂ. ૮૨ થી ૮૪ ૫
८८
શ્રુતત સ્થિત ” આ પદ
દ્વારા ચારિત્રની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી. તે ચારિત્ર પ્રાણાતિપાત આદિની નિવૃત્તિ રૂપ હાય છે તેથી હવે સૂત્રકાર આ निवृत्तिना लेहोर्नु प्रथम रे छे - " तिविहा वावति पण्णचा " इत्यादि
व्यावृत्ति त्रषु प्रहारनी उही छे, नेम (१) ज्ञायिठा, (२) अज्ञायिष्ठा
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सुधा टीका स्था०३३०४ सू० ८५-८७ निवृत्तिनिरूपणम् त्रिविधः अन्तः प्रज्ञप्तः, तथथा-लोकान्तः, वेदान्तः, समयान्तः ॥सू०८६॥
त्रयो जिनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अवधिज्ञानजिनः, मनःपर्यवज्ञानजिनः, केवलज्ञानजिनः १ । त्रयः केवलिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अवधिज्ञानकेवली, मनापर्यवज्ञानके वली, केवलज्ञानकेवली २। त्रयः अर्हन्तः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अवधिज्ञानाहन मनः पर्यवज्ञानाईन् , केवलज्ञानाईन् ३ ॥ मू० ८७ ।।
टीका-'तिरिहा वायत्ती' इत्यादि ।
व्यावर्तन-व्यावृत्तिः हिंसादेः फियदवधिनिवर्तनं, सा त्रिविधा तथाहिज्ञायिका-ज्ञस्य हिंसादीनां हेतुस्वरूपफलज्ञायकस्य ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः, साऽपि
और विचिकित्सा ३ । इस प्रकार अध्युपपादना और पर्यापादना भी तीन तीन प्रकार की कही गई है। सू०८५ ॥ ___ अन्त तीन प्रकार का कहा गया है जैसे लोकान्त वेदान्त और समयान्त ॥ सू०८६ ।
जिन तीन प्रकार के कहे गये हैं, जैसे अवधिज्ञानजिन मनःपर्यवज्ञानजिन और केवलज्ञानजिन । १ केवली तीन प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-अवधिज्ञानकेवली मनः पर्यवज्ञानकेवली और केवलज्ञान केवली। २ अर्हन्त तीन प्रकार के कहे गये है, जैसे-अवधिज्ञानार्हन्त, मनः पर्यवज्ञानोहन्त और केवलज्ञानार्हन्त ३ .
भावार्थ - इन ८५ - ८६ और ८७ सूत्रों का भावार्थ इस प्रकार से है हिंसादि पापों का कितनी अवधि तक निवतन होना इसका नाम व्यावर्तन है, तात्पर्य इसका यह है कि हिंसादिक पापों से एकदेश निवर्तन होना इसका नाम देशनिवर्तन है। और અને (૩) વિચિકિત્સા. એ જ પ્રમાણે અદ્ભુપપાદન અને પર્યાપદના પણ ત્રણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે. સૂ. ૮૫ છે ___मन्त ४२il & छ-(१) all-त, वेदान्त भने (3) समयान्त. ॥ सू. ८६ ॥
or a 1२॥ ४ा छ-(१) भवधिज्ञान शिन, (२) मन:पय 4ज्ञान नि भन (3) विज्ञान लिन. । १ ।,
क्षी त्रय प्रा२ना ४ छ-(१) मधिज्ञान वक्षी, (२) मनापज्ञान पक्षी मने (3) Bणज्ञान की. । २ । ___
२॥ ४ह्या छ-(१) अवधिज्ञान-त, (२) भना५यज्ञानन्ति मन (3) वज्ञानान्त. । 3 । ॥ सू. ८७ ॥
- હવે ૮૫, ૮૬ અને ૮૭ માં સૂત્ર ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે— હિંસાદિ પાપનું અમુક મર્યાદામાં નિવર્તન થવું તેનું નામ જાવર્તન છે.
स ४०
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स्थानाङ्गसूत्रे तदभेदाद् ज्ञायिका मोच्यते । अज्ञायिका तद्विपरीता । या तु विचिकित्सातःसंशयात् निमित्तनिमित्तिनोरभेदाद् विचिकित्सेत्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेन पूर्व मन वचल काय से हिंसादिक पापों का सर्वदेश से त्याग करना उस से निवर्तन होना, इसका नाम सर्वदेश निवर्तन है। यह निवर्तनरूप व्यावृत्ति तीन प्रकार की कही गई है। उसमें प्रथम प्रकार में जो हिंसादिकों के हेतु का, उनके स्वरूप का, और उनके फल का ज्ञाता होकर उनका निवर्तन करता है सो वह निवर्तनरूप व्यावर्तन उसका ज्ञान पूर्वक होनेके कारण "ज्ञायिका व्यावृत्ति हिंसादिकर्मले निव्रतहोना इसका नाम व्यावत्ति है. वे तीन प्रकारकी हैं ऐसा कहा जाताहै " ज्ञास्य व्यावृत्तिः" "ज्ञायिका व्यावृत्तिः" इसके अनुसार ज्ञायक (ज्ञाता) की जो आवृत्ति है वह ज्ञायिका आवृत्ति है,। इस तरह से जो यहां व्यावृत्ति को ज्ञायिका कहा गया है वह अभेद सम्बन्ध से कहा गया है,। अर्थात्-ज्ञायक ने जो पापादिकों की व्यावृत्ति की है वह अपने ज्ञान से की है, अतः वह ज्ञायक के ज्ञान का कार्य है, परन्तु इस कार्य को जो "ज्ञायिका" पद से कहा गया है वह उसकी व्यावृत्ति करने वाले आस्मा में और की गई उस व्यावृत्ति में अभेद मानकर कहा गया ' આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-હિંસાદિક પાપમાંથી દેશતઃ (અંશતઃ) નિવર્તન થવું તેનું નામ દેશનિવર્તન છે, અને મન, વચન અને કાયાથી હિંસાદિક પાપને સર્વદેશથી (સંપૂર્ણતઃ) ત્યાગ કરવો તે પાપમાંથી " નિવૃત્ત થવું તેનું નામ સર્વદેશ નિવર્તન છે તે નિવર્તન રૂપ વ્યાવૃત્તિ ત્રણ
પ્રકારની કહી છે. ને હિંસાદિકેના હેતુને, તેમના સ્વરૂપને, અને તેમના ફલને જ્ઞાતા થઈને જ્યારે જીવ તેમનો ત્યાગ કરે છે, ત્યારે જીવના તે ત્યાગ '(નિવર્સ) રૂપ વ્યાવર્તન જ્ઞાનપૂર્વક થતું હોવાને કારણે તેને “જ્ઞાયિકા व्यावृत्ति" ४९ छे. “ज्ञस्य व्यावृत्तिः ज्ञायिका व्यावृत्तिः” मा ४थन मनु. सा२ जाय (ज्ञात) नी २ व्यावृत्ति छ तेनु नाम "श.यि: व्यावृत्ति" છે આ રીતે અહીં જે વ્યાવૃત્તિને જ્ઞાયિકા કહેવામાં આવેલ છે, તે અસુંદ સંબંધની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે એટલે કે જ્ઞાયકે (જ્ઞાતાએ) જે પાપાદિકની વ્યાવૃત્તિ (નિવૃત્તિ કરી છે, તે પિતાના જ્ઞાનથી જ કરી છે, તેથી તે જ્ઞાયકના જ્ઞાનના કાર્યરૂપ છે, પરંતુ તે કાર્યને જે “જ્ઞાયિકા પદથી પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તેની વ્યાવૃત્તિ કરનારા આત્મામાં અને કરવામાં આવેલી તે વ્યાવૃત્તિમાં અભેદ માનીને કહેવામાં આવ્યું છે,
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घाटीका स्था० ३४०४ ० ८५-८७ निवृत्तिनिरूपणम्
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चारित्र मोक्तं तद्विपक्षभूते चाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति तयोर्भेदानतिदेशेनाहएव ' - मित्यादि । एवं - व्यावृत्तिवत् अभ्युपपादना पर्यापादनाऽपि विज्ञेया, तत्रअभ्युपपादनम् अध्युपपादना इन्द्रियार्थेष्वासक्तिः, तत्र विषयजन्यमनर्थं जानतोऽपि तत्राभ्युपपत्तिः सा ' जाणू ' इति, ज्ञायिकाऽभ्युपपादना । या त्वजानतस्तत्राध्युपपत्तिः सा ' अजाणू ' इति यज्ञायिका । या तु संशयवतो विषयेष्वभ्युपपत्तिः सा विचिकित्साभ्युपपादना | एवं पर्यापादन पर्यापादना-पर्यापादना-पर्यापत्तिरासे है। तथा अज्ञानी आत्मा की जो इनके स्वरूप फल और हेतु को जाने विना इनसे व्यावृत्ति होती है वह अज्ञानिका व्यावृत्ति है । तथा जो हिंसादिक से व्यावृत्ति संशय से होती है वह व्यावृत्ति विचिकित्सा व्यावृत्ति है यहां निमित्त और निमित्ती में अभेद सम्बन्ध मानकर विचिकित्साको "व्यावृत्ति" कहा गया है । इन्द्रियोंके अर्थो में जो आसक्ति है वह अभ्युपपादना है यह अभ्युपपादना आसक्ति भी व्यावृत्तिकी तरह ज्ञायिका अज्ञायिका और विचिकित्सा के भेद से तीन प्रकार की है इनमें विषयजन्य अनर्थ को जानते हुवे भी जो उनमें आत्मा की आसक्ति है वह ज्ञायिका अध्युपपादना है । तथा- - जो अज्ञान से विषयादिकों में आसक्ति होती है वह अज्ञायिकी अध्युपपादना है। तथा जो संशयवाले आत्मा की विषयों में आसक्ति है, वह विचिकित्सा अध्युपपादना है,
३१५
અજ્ઞાની આત્મામાં, તેમના સ્વરૂપ (હિંસાદિકનું સ્વરૂપ), તેમનું લ અને તેમના હેતુઓને જાણ્યા વિના, તે હિંસાર્દિક પાપામાંથી જે વ્યાવૃત્તિ (નિવત'ન ) થાય છે તેને અજ્ઞાનિકા વ્યાવૃત્તિ કહે છે. તથા સશયથી આત્મા હિંસાદિકાના જે ત્યાગ કરે છે, ત્યાગરૂપ વ્યાવૃત્તિને ‘ વિચિકિત્સા વ્યાવૃત્તિ’ કહે છે. અહીં નિમિત્ત અને નિમિત્તીમાં અભેદ સંબધ માનીને વિચિકિત્સાને ‘વ્યાવૃત્તિ ’કહેવામાં આવેલ છે
6
ઇન્દ્રિયાના વિષયમાં જે આસક્તિ હાય તેને અણુપપાદના કહે છે, તે અયુપપાદનાના પશુ વ્યાવૃત્તિની જેમ જ્ઞાયિકા, અજ્ઞાયિકા અને વિચિકિત્સા રૂપ ત્રણ ભેદ કહ્યા છે. વિષયજન્ય( વિષચેાથીથનારા ) અનને જાણુવા છતાં પણ તેમાં આત્માની જે આસક્તિ હોય છે તેને “ જ્ઞાયિકા ' અધ્યુપાદના કહે છે, તથા અજ્ઞાનને કારણે વિષયાક્રિકામાં આત્માની જે આસક્તિ હાય છે તેને ‘અજ્ઞાયિકા અધ્યુપપાઇના ' કહે છે. સશયવાળા આત્માની વિષચેામાં જે આસક્તિ હોય છે. તેને વિચિકિત્સા અથ્થુપપાદના ? કહે છે.
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આસેવનાને પર્યાપાનના કહે છે. તે પર્યાપાદના પશુ નાયિકા, અજ્ઞાયિકા અને વિચિકિત્સાના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની કહી છે. વિષયજન્ય અનંને જાણુવા
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वनेत्यर्थः, साऽपि ज्ञायिकाऽज्ञायिका - विचिकित्सा भेदेन त्रिविधा पूर्ववद्
व्याख्येया || सू० ८५ ॥
4
जाणू 'तिज्ञः - विद्वान्, स च ज्ञानाद् भवतीत्युक्तं, ज्ञानं चातीन्द्रियार्थेषु प्रायः शास्त्राद् भवतीति शास्त्रभेदेन तद् भेदानाह - ' तिविहे अंते ' इत्यादि, अन्तः - निर्णयः स त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तथाहि - लोकान्तः १, वेदान्तः २, समयान्तः ३ । तत्र-लोकान्तः, अत्र लोकशन्देन लोकशास्त्रं गृह्यते, तथ - अर्थशास्त्रादि, तस्माद् अन्तः - अर्थादिरूपो निर्णय इति लोकान्तः । एवं वेदान्तः समयान्तच विज्ञेयः, आसेवना का नाम पर्यापादना है यह आसेचना भी ज्ञायिका अज्ञायिका और विचिकित्सा के भेद से तीन प्रकार की होती है इनमें जो विषयजन्य अनर्थ को जानकर भी उनका सेवन करता है वह ज्ञायिका पर्यापादना है । तथा - अज्ञान से जो उनका सेवन करता है वह अज्ञायिका पर्यापादना है, और जो संशयवालों की विषयों में सेवन रूप पर्यापादना है वह विचिकित्सा पर्यापादना है || ८५ ॥
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जाणु " सि " ज़ नाम विद्वान का है आत्मा ज़ ज्ञान से होता है। यह पहले कहा जा चुका है अतीन्द्रिय पदार्थों में ज्ञान प्रायः शास्त्र से होता है अतः - अब सूत्रकार शास्त्र भेदसे उसके भेदों का कथन करते हैं- " तिविहे अंतो " अन्त नाम निर्णय का है यह निर्णय लोकान्त वेदान्त और समयान्त के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है यहां लोकान्त शब्द से लोक शास्त्र गृहीत हुवा है यह लोकशास्त्र अर्थशा
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છતાં પણ તેનું જે સેવન કરવામાં આવતું હાય તેા એવા સેવનને જ્ઞાયિકા પર્યાપાદના ’ કહે છે, જો અજ્ઞાનથી તેનું સેવન કરાતું હાય તે તેને અજ્ઞાયિકા પર્યાપાદના કહે છે. સંશયવાળા જીવાની વિષયેના સેવન રૂપ જે પર્યાપાદના छे तेनुं नाम " विथित्सा पर्यायाहना ” छे. ॥ सू. ८५ ॥
૮૬ માં સૂત્રના ભાવાથ. जाणु त्ति " " જ્ઞ’ એટલે જાણનાર અથવા વિદ્વાન. જ્ઞાનની પ્રાપ્તિથી જ આત્મા 'ज्ञ' (विद्वान ) थाय छे, भावात પહેલાં પ્રકટ થઈ ચુકી છે. અતીન્દ્રિય પદાર્થોમાં જ્ઞાત પ્રાયઃ શાસ્ત્રો દ્વારા જ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર શાસ્ત્રના ભેદોની અપેક્ષાએ તેનું કથન કરે છે. fafa rat" Self
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'अन्त' भेटले निर्बुथ मा निशुचना शू' ले उद्या छे " सोअन्त, वेदान्त, अने सभयान्त" सर्डी " सोअन्त " यहथी बोडशास्त्र गृहीत थयेस છે. અર્થશાસ્ત્ર આદિને લેાકશાસ્ત્ર કહે છે. તે લેાકશાસ્ત્રને આધારે જે અર્થાકિ
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ ० ८५-८० निवृत्तिनिरूपणम्
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तत्र - वेदा ऋग्यजुःसामाथर्वरूपाश्चत्वारः । समयाः - जैन सिद्धान्ता आचाराङ्गादयः || सू० ८६ ॥
पूर्वं समयान्तः प्रोक्तः, समयश्च जिन केवल्य ईच्छब्दवाच्यैराप्त पुरुषैः प्ररूपितः एव सम्यग् भवतीति जिनादिशब्दवाच्यभेदान् प्ररूपयितुं सूत्रत्रयमाह - तत्र प्रथम जिनसूत्रमाह- 'तओ जिणा इत्यादि, रागद्वेष मोहान जयन्तीति जिना:- सर्वज्ञाः उक्तञ्च - " रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो हासौ ।
1
अस्त्रशस्त्राक्षमालत्वादन्नेवानुमीयते " ॥ १ ॥ इति ।
स्त्रादिरूप कहा गया है इससे जो अर्थादिरूप निर्णय होता है वह लोकान्त है इसी प्रकार से ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद ४ इस चार वेदों से जो अर्थादि निर्णय होता है वह वेदान्न है, तथा जैन सिद्धान्तरूप आचाराङ्गादिकों से जो अर्थादिरूप निर्णय होता है वह समयांत है ॥ ८६ ॥
समयान्त का जो कथन किया जाता है सो वह समय जिन केवली अर्हन्त शब्दवाच्य आप्त पुरुषों द्वारा प्रणीत होने पर ही सम्यक सत्य होता है इसलिये सूत्रकार अब जिनादि शब्दवाच्य भेदों की प्ररूपणा करने के लिये तीन सूत्र कहते हैं - " तओ जिणा " इत्यादि, जो रोग द्वेष एवं मोहरूपी शत्रुओं को जीत लेते हैं वे जिन हैं सर्वज्ञ है । कहा भी है " रागो द्वेषस्तथा मोह: " इत्यादि, इन्द्रियरूपी शस्त्रों के मोजूद होने पर भी जो अत्री विषयवासना रहित हैं वे अर्हन्त हैं । ये जिन तीन होते हैं, जैसे- अवधिजिन - अवधिज्ञान की प्रधानता वाले जिन,
રૂપ નિણુય થાય છે તેને લેાકાન્ત કહે છે. એ જ પ્રમાણે ઋગ્વેદ, સામવેદ, યજુવેદ અને અથર્વવેદને આધારે જે અદરૂપ નિણુય થાય છે તેને વેદાન્ત કહે છે. આચારાંગાદિ રૂપ જૈન સિદ્ધાન્તને આધારે જે અર્થાદિ રૂપ નિષ્ણુ ય થાય છે તેને સમયાન્ત કહે છે ! સૂ. ૮૬ !
૮૭ માં સૂત્રને ભાવા—સમયાન્તનું કથન પહેલાના સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યુ. તે સમય જિન, કેવલી, અન્ત, શબ્દવાસ્થ્ય આપ્તપુરુષ દ્વારા પ્રણીત હોવાથી સમ્યક્ સત્ય હૈાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર જિનાદિ શબ્દવાચ્ય ભેદોનુ नि३५२] १२वा निमित्ते सूत्र हे छे-" तओ जिणा " त्याहि-
જેમણે રાગ, દ્વેષ અને મેહરૂપી શત્રુઓને જીતી લીધાં છે, તેમને दिन- सर्वज्ञ हे छे. उपछे है- " रोगो द्वेषस्तथा मोहः " त्याहिઇન્દ્રિય રૂપી શસ્રો મેાજૂદ હેવા છતાં પણ જેએ વિષયવાસનાથી રહિત ડાય છે તેમને અન્ત કહે છે.
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ઉદ્ધ
स्थान
ते त्रयो यथा अवधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिज्ञानजिनः, मनः पर्यवज्ञानप्रधानो जिनो मनः पर्यवज्ञानजिनः, एतौ द्वौ निश्चयप्रत्यक्ष - ज्ञानवत् तया जिनाविवजिनौ इत्युपचारगम्यौ स्तः । तृतीयः केवलज्ञानजिनः, एप निरुपचारः सर्वज्ञत्वात्
मनः पर्यवज्ञानजिन-मनः पर्यवज्ञानप्रधानतावाले जिन, और केवलज्ञानजिन - केवलज्ञान की प्रधानतावाले जिन, इनमें अवधिज्ञानजिन और मनः पर्यवज्ञानजिन ये दो यथार्थ में केवलज्ञानजिन की तरह जिन नहीं हैं। क्यों कि इनका जो ज्ञान है वह विकल देशप्रत्यक्ष है जब किकेवलज्ञानजिन का प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष है परन्तु फिर भी केवलज्ञानजिन का प्रत्यक्ष जैसा अपने विषय में पूर्णरूप से विशद होता है उसी प्रकार से इन दोनों जिनों का ज्ञान भी अपने अपने विषय में पूर्णरूप से विशद होता है । जैसा उनका प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय होता है उसी प्रकार से ये दोनों ज्ञान भी अतिन्द्रिय होते हैं । इनके उनके प्रत्यक्ष में सङ्क लना और विकलता यह विषयोपाधिजन्य है, इसलिये निश्चय प्रत्यक्ष ज्ञानवाले होने से ये दोनों जिनके भगवान् जैसे जिन माने गये हैं, यह कथन उपचार से किया गया जानना चाहिये । वास्तव में जिन तो केवलज्ञानवाला जो होता है वही है । केवलज्ञान वालों में "जिन " ऐसा
किन भयु अारना ह्या छे - ( १ ) अवधिभित-अवधिज्ञाननी प्रधानताવાળા જિન, (૨) મન:પર્યવજ્ઞાન જિન-એટલે કે મન:પર્યંત્રજ્ઞાનની પ્રધાનતા વાળા જિન, અને (૩) કેવળજ્ઞાન જિન-એટલે કે કેવળજ્ઞાનની પ્રધાનતાવાળા જિન. આ ત્રણ પ્રકારના જે જિન કહ્યા છે તેમાંના અવધિજ્ઞાન જિન અને મન:પર્યવજ્ઞાન જિન, આ બે કેવળજ્ઞાન જિનની જેમ યથાર્થ રૂપે જિન નથી, કારણ કે તેમનુ' જે જ્ઞાન હાય છે તે વિકલ ( દેશપ્રત્યક્ષ ) હાય છે, પરન્તુ કેવળજ્ઞાન જિનનું જ્ઞાન સકળ પ્રત્યક્ષ હાય છે, છતાં પણ કેવળજ્ઞાન જિનનુ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાન જેમ પેાતાના વિષયમાં પૂર્ણરૂપે વિશદ હાય છે, એ જ પ્રમાણે અવધિજ્ઞાન જિન અને મન:પર્યવજ્ઞાન જિનાનાં જ્ઞાન પણ પાતપેાતાના વિષયમાં પૂર્ણરૂપે ત્રિશત હૈાય છે. જેવી રીતે તેમનું પ્રત્યક્ષ અતીન્દ્રિય હાય છે, એ જ પ્રમાણે તે બન્ને જ્ઞાન પણ અતીન્દ્રિય હોય છે. તેમના પ્રત્યક્ષમા સકલતા અને વિકલતા તે વિષયેાપાધિજન્ય છે, તેથી નિશ્ચય પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનવાળા હાવાથી તે બન્ને જિનને ભગવાન જેવાં જ જિન માનવામાં આવ્યા છે, આ કથનને ઔપચારિક કથન જ સમજવું જોઈએ. વાસ્તવમાં કેવળજ્ઞાની જીવને જ ખરા જિન કહી શકાય છે. કેવળજ્ઞાની થવાને “ જિત ” કહેવાનું કારણ એ
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सुधारीका स्था०३ १०४ सू० ८५-८७ निवृत्तिनिरूपणम्
१९ अथ केवलिसूत्रमाह-' तओ केवली' इत्यादि, केवलम्-एकमनन्तं पूर्ण वा शानादिकं येपामस्तीति के वलिनः, उक्तश्च
"कसिणं केवलकप्पं, लोगं जाणंति तह य पामति ।
केवलचरित्तणाणी, तम्हा ते केवली होति ॥ १॥" छाया-कृत्स्नं केवलकल्पं, लोकं जानन्ति तथा च पश्यन्ति ।
केवलचारित्रज्ञानिनः, तस्मात्ते केवलिनो भवन्ति ॥ १ ॥ ते - अवधिमनःपर्यव केवलज्ञानभेदात्रयः । तत्रावधिज्ञान केवलीमनःपर्यवज्ञान केवलीत्येतों द्वौ जिनवन्निश्चयप्रत्यक्षज्ञानवत्वादुपचारात्केवलिपदवाच्यो स्तः, तृतीयः केवलज्ञानके वली निरुपचारः सर्वभावानां साक्षाद्दर्शकत्वात् ।२। व्यवहार उन्को सर्वज्ञ होने से निरुपचरित है। केवल शब्द का अर्थ एक अनन्त, अथवा पूर्ण है जिनको ज्ञानादिक एक अथवा अनन्त, या पूर्ण होता है वह केवली है। कहा भी है-" कसिणं केवलकप्पं" इत्यादि, ये केवली भी अवधिज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के भेद से तीन प्रकार के कहे गये हैं। इनमें अवधिज्ञानी केवली, और मनः पर्यवज्ञानी केवली ये दो, जिनकी तरह निश्चय प्रत्यक्षज्ञानवाले होने के कारण उपचार से केवली कहे गये हैं। और तीसरा जो केवलज्ञानी केवली है वह निरुपचरित केवली कहा गया है ।क्यों कि वह रूपी और अरूपी समस्त भावों का साक्षात् देखने वाला होता है, तात्पर्य यह है कि-अवधिज्ञानी, और मनः पर्यवज्ञानी केवली रूपीमात्र पदार्थ को ही છે કે તેઓ સર્વજ્ઞ હોય છે. કેવળ પદનો અર્થ એક, અનન્ત અથવા પૂર્ણ થાય છે. જેમના જ્ઞાનાદિક એક અથવા અનન્ત અથવા પૂર્ણ હોય છે તેમને वही ४ छे. ४घु ५५छ है-" कसिणं केवलकप्पं" त्या:
તે કેવલીના પણ અવધિજ્ઞાની, મન:પર્યવજ્ઞાની અને કેવળજ્ઞાની, એ ત્રણ ભેદ કહ્યા છે. અવધિજ્ઞાની કેવલી અને મન:પર્યવજ્ઞાની કેવલિ, આ બનને જિનની જેમ નિશ્ચય (નિયત) પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનવાળા હોય છે, તેથી તેમને ઔપચારિક રીતે જ કેવલી કહેવામાં આવેલ છે, અને ત્રીજા જે કેવળજ્ઞાની કેવળી છે તેમને નિરુપચરિત કેવળી કહેવામાં આવ્યા છે, કારણ કે તેઓ રૂપી, અરૂપી સમસ્ત ભાવને સાક્ષાત જોઈ શકનારા હોય છે. આ કથનને -भावार्थ' मा प्रभारी छ
અવધિજ્ઞાની અને મન પર્યાવજ્ઞાની કેવળી માત્ર રૂપી પદાર્થોને જ દ્રવ્ય ક્ષેત્રાદિની મર્યાદામાં રહીને સાક્ષાત્ જાણું દેખી શકે છે તેઓ અરૂપી પદાર્થોને
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स्थानावरे अथ तृतीयमहत्मत्रमाह-' तओ अरहा' इत्यादि, अर्हन्तिदेवकृताप्टमहामा. तिहार्यरूपयतिशयमित्यर्हन्तः । ते त्रयः शेष व्याख्या जिनवद् विजेया३।०८७।। एते च सहेश्या अपि भवन्तीति चतुर्दगमूत्रौले झ्या प्रकरणमाह
मूलम्-तओ लेसाओ दुन्मिगंधाओ पण्णत्ताओ, तं जहा कण्हलेसा, गोललेसा काउलेसा । १। तओ लेसाओ सुभिगंधाओ पण्णताओ तं जहा-तेउलेसा, पम्हलेसा, मुक्कलेसा ।२। एवं दोग्गइगामिणीयो ३, सोग्गइगामिणीओट, संकिलिट्ठाओ ५, असंकिलिटाओ ६, असणुण्णाओ ७, मणुपणाओ द्रव्यक्षेत्रादि की मर्यादा लेकर साक्षात् जानते है, अल्पी पदार्थों को नहीं। परन्तु-जो केवलज्ञान से केवली होता है केवलज्ञानवाला होता है बह रूपी अरूपी समस्त पदार्थों को जानता है, परन्तु
अपने विषय को जानने में इन तीनों केलियों को ज्ञान में वैद्य का अन्तर नहीं है यही कधन निश्चय प्रत्यक्ष ज्ञानवान् निश्चय प्रत्यक्ष से कहा गया है। अर्हन्त सूत्र की प्ररूपणा करते हुवे सूत्रकार अय कहते हैं-जो देवकृत अष्ट महाप्रातिहार्यरूप अतिशयवाले होते हैं ऐसे अर्हन्त अवधिज्ञान अहन्त आदि के भेद से तीन प्रकार के जो कहे गये हैं सो इन पदों की व्याख्या जिन व्याख्या की तरह जाननी चाहिये । सू०८७ જાણી-દેખી શકતા નથી પરંતુ જે કેવળજ્ઞાનવાળા કેવળી હોય છે, તેઓ રૂપી અરૂપી સમસ્ત પદાર્થોને જાણ દેખી શકે છે, અમુક મર્યાદામાં રહેલા પદાર્થોને જ તેઓ જોઈ શકે છે, એવું નથી, પરંતુ ત્રિકાળવર્તી અને ત્રણે લોકમાં રહેલા સમસ્ત દ્રવ્યોને “ હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ” જાણી-દેખી શકે છે. પરંતુ પિતપોતાના વિષયમાં તે ત્રણે કેવલીઓના જ્ઞાનમાં પૂર્ણરૂપે વિશદતા જ હોય છે. એ જ વાત નિશ્ચય પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનવા-નિશ્ચય પ્રત્યક્ષથી પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
- હવે સૂત્રકાર અહંત સૂત્રની પ્રરૂપણ કરે છે-જેઓ દેવકૃત અષ્ટ મહાપ્રાતિહાર્યરૂપ અતિશયવાળા હોય છે, એવા અહં તેના પણ ત્રણ પ્રકાર છે– (१) अवधिज्ञान महत, (२) मन:पर्यवज्ञान मत भने ज्ञान "त. અવધિજ્ઞાન જિન આદિ પદેના જેવી જ આ પદેની વ્યાખ્યા સમજવી. સૂ. ૮૭૫
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सुधा टीका स्था० ३ उ ४ सू० ८८ लेश्यानिरूपणम् ८, अविसुद्धाओ ९, विसुद्धाओ १०, अप्पसत्थाओ ११, पसस्थाओ १२, सीयलुक्खाओ १३, णिधुण्हाओ १४ ॥ सू०८८॥ ___ छाया-तिस्रो लेश्या दुरभिगन्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोनलेश्या । १ । तिस्रोलेश्याः सुरभिगन्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या ।२। एव दुर्गतिगामिन्यः३, मुगतिगामिन्यः ४, संक्लिष्टाः ५, असंक्लिष्टाः ६, अमनोज्ञाः ७, मनोज्ञाः ८, अविशुद्धाः ९, विशुद्धाः १०, अपशस्ताः ११, प्रशस्ता. १२, शीतरूक्षाः १३, स्निग्धोष्णाः १४ ॥ स० ८८॥
ये लेश्या सहित भी होते हैं, अतः अब सूत्रकार १४ सूत्रों द्वारा लेश्या प्रकरण कहते हैं-" तओ लेस्साओ दुन्भिगंधाओ इत्यादि । सूत्रार्थ-तीन लेश्याएँ दुर्गन्धवाली कही गईहैं, जैसे कृष्णलेश्या १ नीलले. श्यो २ और कापोतलेश्या ३।१। तीन लेश्याएँ सुभिगन्धवाली कही गईहैं, जैसे-तेजालेश्या १ पद्मलेश्या २ और शुक्ललेश्या ३ । २ । इसी प्रकार से तीन लेश्याएँ जीव को दुर्गति में ले जानेवाली कही गई हैं ३ और तीन लेश्याएँ जीव को सुगति में ले जानेवाली कही गई हैं ४ इसी प्रकार से तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट (अशुभ) परिणामों का हेतु होने से संक्लिष्ट कही गई है ५ और तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट परिणामों का हेतु नहीं होने से असंक्लिष्ट कही गई है ६ इसी प्रकार से तीन लेश्याएँ अलनोज्ञ कही गई हैं ७ और तीन लेश्याऍ मनोज्ञ कही गई हैं ८ इसी प्रकार से तीन लेश्याएँ अविशुद्ध ९ और तीन लेश्याएँ विशुद्ध १० - તેઓ વેશ્યા સહિત પણ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર ૧૪ સૂત્ર દ્વારા वेश्यागार्नु ४थन ४२ २-" तओ लेस्साओ दुभिगधाओ" त्याह
(१) र श्यामाने दुमाजी ४ छ-४०५५ वेश्या, ना वेश्या અને કાપત લેશ્યા. (૨) ત્રણ વેશ્યાઓને સુરભિ ગંધવાળી કહી છે-તે લેસ્યા પદ્મ લેશ્યા અને શુકલ લેણ્યા (૩) એ જ પ્રમાણે ત્રણ વેશ્યાઓને જીવને દુર્ગતિ અપાવનારી કહી છે. (૪) એ જ પ્રમાણે ત્રણ લેક્શાઓને જીવને સુગતિમાં લઈ જનારી કહી છે (૫ એ જ પ્રમાણે ત્રણ સેશ્યાએ સંકિલષ્ટ (મલીન) પરિણામોના હેતુ (કારણ) રૂપ હોવાથી તેમને સંકલષ્ટ કહી છે, અને (૬) ત્રણ લેશ્યાઓ સંકલિષ્ટ પરિણામોના કારણરૂપ નહી હોવાથી તેમને અસંકિલષ્ટ કહી છે. (૭) એ જ પ્રમાણે ત્રણ લેસ્થાઓને અમનેજ્ઞ કહી છે, અને (૮) ત્રણ લેસ્યાઓને મનોજ્ઞ કહી છે (૯) એ જ પ્રમાણે ત્રણ લેશ્યાઓને અવિશુદ્ધ કહી
स ४१
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३२२
स्थानावे ____टीका-' तओ लेसाओ' इत्यादि । तिस पदसु त्रिसंख्यकाः लेश्याः दुरभिगन्धाः दुर्गन्धवत्यः पनप्ताः, दुरभिगन्धत्वं च तासां पुद्गलान्मकत्वात् , पुद्गलेषु च गन्धादीनामवश्यम्भावात् , उक्तञ्च
"जह गोमडस्स गंधो, मुणगमडम्स व जहा अहिमडम्स ।
एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ १॥" छाया-यथा गोमृतस्य गन्धः, शुनकमृतस्य यथाऽहिमृतस्य ।
इतोऽप्यनन्तगुणो लेश्योनामप्रशस्तानाम् ॥ १॥ ताः दर्शयति-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेल्या । वर्णश्वासां नामानुसारी विज्ञेयस्तेन कृष्णलेश्या-कृष्णवर्णा, नीललेश्या-नीलवर्णा, कापोतलेश्याकही गई हैं। इसी प्रकार से तीन लेश्याएँ प्रशस्त कही गई हैं ११ और तीन लेश्याएँ अप्रशस्त कही गई हैं-१२ । इसी प्रकार से तीन लेश्याएं शीत-रूक्ष कही गईहैं-१३ और-तीन लेश्याएँ स्निग्ध-उष्ण कही गईहैं-१४॥ ___ इन सूत्रों का तात्पर्यार्थ इस प्रकार से है-लेश्या-६ प्रकार की कही गई हैं कृष्णलेश्या-नीललेश्या-कापोतलेश्या-तेजोलेश्या-पद्मलेश्या -और-शुक्ललेश्या-६ । इन में आदि की जो ३ लेश्याएँ हैं-कृष्णलेल्या नीललेल्या, और-कापोतलेश्या-३ ये दुरभिगन्धवाली इसलिये कही गई हैं कि-ये दुरभिगन्धवाले पुद्गलों वाली होती हैं, क्यों कि-पुद्गलों में गन्धादिक गुण अवश्य होते है। कहा भी है-"जहगोमडम्स गंधो" इत्यादि-जैसीगोके मृतक शरीर की, कुत्ते के मरे शरीर की, अथवाजैसी सर्पके सरे शरीर की, दुर्गन्ध होती है इस से भी अनन्तगुणे છે, અને (૧૦) ત્રણ લેશ્યાઓને વિકૃદ્ધ કહી છે (૧૧) એ જ પ્રમાણે ત્રણ લેશ્યાઓને અપ્રશસ્ત કહી છે અને (૧૨) ત્રણ લેશ્યાઓને પ્રશસ્ત કહી છે. (१३) मे. माणे जर वेश्यागाने शीत-३क्ष ही छ, मन (1४) तर લેશ્યાઓને નિધ-ઉષ્ણ કહી છે
હવે આ ૧૪ સૂત્રનો ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-લેશ્યાના નીચે प्रमाणे १२ ४ह्या छ-(१) ४२ सेश्या, (२) नील वेश्या, (3) अपात वेश्या (४) ते वेश्या, (५) ५ वेश्या मने (6) शुस वेश्या मा ६ वेश्यामाમાંથી પહેલી ત્રણ લેશ્યાએ ને દુરભિ ગન્ધવાળી કહેવાનું કારણ એ છે કે તે ત્રણે લેશ્યાઓ દુરભિ ગંધવાળા પુવાળી હોય છે, કારણ કે પુદ્રમાં गधा गुण अवश्य डाय छे. यु पार छ है-"जह गोमडस्स गधो" त्यादि “ગાયના મૃત કલેવરની, તરાના મૃત કલેવરની અને સાપના મૃત શરીરની
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ८८ लेश्यानिरूपणम्
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कपोतवर्णा धूम्रवर्णेत्यर्थः । १ । ' तओ ' इत्यादि, तिस्रोलेश्याः सुरभिगन्धाःसुगन्धवत्यः प्रज्ञप्ताः आह चात्रार्थे---
""
"1 जह सुरभिकुसुमगंधो, गधोवासाण पिस्समाणाणं । तो व अनंतगुणो, पसत्यलेसाण तिपि ॥ १ ॥ छाया-यथा सुरभिकुसुमगन्धः, गन्धोवासानां पिष्यमाणानाम् । इतोऽप्यनन्तगुणः ( गन्धः ) प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि ॥ १ ॥ ता एवाह - तेजो - वह्निः, तद्वर्णांलेग्या तेजोलेश्या लोहितवर्णेत्यर्थः पद्मअधिकगन्ध कृष्ण - नील-एवं- कापोत इन तीन अप्रशस्त लेइयाओं की होती है [ उत्त. अ. ३४ आ. १६] । जह सुरहि कुसुमगंधो - " इत्यादि । जैसी सुगन्धित फूलों की सुगन्ध होती है, अथवा-जैसे-सुगन्ध पीसे जाते हुवे सुगन्धित द्रव्यों से आती है, इन से भी अनन्तगुण अधिक सुगन्धि पीत - पद्म एवं शुल, इन तीन प्रशस्त लेश्याओं की होती है [ उत्तर-अ ३४ मा १७ ] इन में वर्ण इन के नामानुसार होता है - इसलिये - कृष्णलेश्या कृष्णवर्ण वाली होती है, नीललेश्या नीलवर्णवाली होती है, एवम् कापोतलेश्या धूम्रवर्णवाली होती है -१ "तओ-" इत्यादि, तीन लेश्याएँ- तेज, पद्म, और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ जो- सुरभिगन्धि वाली कही गई हैं सो ये सुरभिगन्धवाले पुलोंचाली होती हैं। कहा भी है- "जह सुरभि कुसुमगंधों-" इत्यादि, वर्ण इन જેવી દુર્ગંધ હાય છે, તેના કરતાં પણ અનન્તગણી અધિક દુધ કૃષ્ણ, નીલ અને કાપાત, આ ત્રણ અપ્રશસ્ત વૈશ્યાની હોય છે. ’’ , સૂ. ના ૩૪ માં અધ્યયનની ૧૬ મી ગાથામાં આ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે. जह सुरद्दिकुसुमगन्धो " त्याहि
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,
જેવી સુગધીદાર ફૂલેાની સુગંધ હેાય છે, જેવી લસેાટેલા સુગ'ધી દ્રવ્યેની સુગધ હાય છે, તેના કરતાં પણ અનતગણી સુગન્ધ તેજોલેશ્યા, પદ્મલેશ્યા અને શુકલ લેસ્યાની હૈાય છે. ( ઉત્તર અ. ૩૪ ગાથા ૧૭)
આ છએ લેસ્યાએનાં વધુ તેમના નામાનુસાર હાય છે. જેમકે કૃષ્ણ લેફ્યા શ્યામ વર્ણવાળી, નીલલેશ્યા નીલ વર્ણવાળી, કાપેાત લેશ્યા ધૂમ્ર वावाणी होय छे, " तओ " इत्याहि
તેોલેસ્યા, પદ્મલેશ્યા અને શુકલ લેશ્યાને સુરભિ ગધવાળી કહી છે. કારણ કે તેઓ સુરભિ ગંધવાળા પુદ્ગલાવાળી હાય છે. કહ્યું પણ છે કે~~
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जह सुरभि कुसुमगंधो ” त्याहि
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स्थानागसूत्रे लेश्या-पझगर्भवर्णा कमलगर्भसदशपीतवणेत्यर्थः, शुक्लवर्णालेल्या शुक्लळेश्या । २। एवं-प्रथम-द्वितीयमूत्रवत् तिस्त्रस्तिस्रो लेश्याः अशुभशुभरूपा दुर्गतिगा. मिनी सुगतिगामिन्यादि विशेषणविशिष्टाश्चतुर्दशमूत्रै व्याख्येयाः । तत्र दुर्गतिनरकतिर्यग्ररूपां गमयन्ति प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः ३, मुगति-मनुष्यदेवगतिरूपां गमयन्ति प्राणिनमिति सुगतिगामिन्यः ४ । एवं संक्लिष्टाः संक्लेशहेतुत्वात् ५, एतद्विपरीता असंक्लिप्टाः । एवं विपर्ययः सर्वत्र विज्ञेयः, स तु में इनके नामानुसार होता है, जैसे-तेजोलेश्या लोहितवर्णवाली होती है क्यो कि-तेज नाम अग्निका है-अग्निका वर्ण लोहित होता है, अत:यह लेश्या भी उसी के वर्ण जैसी कही गई है। पद्मलेश्या-पीतवर्णवाली होती है, क्यों कि-पद्मगर्भ पीतवर्णवाला होता है। पनशब्द से यहां पद्म का गर्भ लिया गया है | शुक्लवर्णवाली शुक्ललेल्या होती है प्रथम द्वितीय सूत्र के प्रतिपादन की तरह तीन-२ लेझ्याएँ अशुभरूप और शुभरूप, दुर्गति में लेजानेवाली-और सुमति में लेजानेवाली-संक्लिष्ट हेतुवाली-और असंक्लिष्ट हेतुबाली तथा-अमनोज्ञ एवं-मनोज्ञ आदि विशेषणोंवाली होती है। ऐसा-प्रतिपादन इन दो सूत्रों से आगे के १२ सूत्रों द्वारा प्रतिपादन किया गया है-जो प्राणी को मनुष्य गतिरूप
और देवगतिरूप शुभगतिमें लेजातीहैं, वे लेश्याएँ सुतिगामिनी और-जो जीव को नरक एवं-तिर्यग्गति में लेजाती हैं वे दुर्गतिगामिनी हैं। अशुभ
- આ ત્રણ લેશ્યાઓનાં વર્ણ પણ તેમનાં નામાનુસાર જ હોય છે. જેમકે તેજ નામ અગ્નિનું છે. અગ્નિને વર્ણ લેહિત (લાલ) હોય છે, તેથી આ લેશ્યાને પણ લોહિત વર્ણવાળી કહી છે. પલેશ્યા પીળા વર્ષની હોય છે, પગમાં (કમળને ગર્ભ) પીળા વર્ણવાળો હોય છે “પદ્મ” પદથી અહીં પદ્મને ગર્ભ ગૃહીત થયે છે શુકલ લેશ્યા સફેદ (શુકલ) વર્ણવાળી હોય છે. પહેલી ત્રણ લેશ્યાઓ અશુભ રૂપ દુર્ગતિમાં લઈ જનારી છે અને છેલ્લી ત્રણ વેશ્યાઓ શુભરૂપ સુગતિમાં લઈ જનારી છે. જે વેશ્યાઓ જીવને નરક અને તિર્યંચ ગતિમાં લઈ જાય છે, તે લેશ્યાઓને દુર્ગતિ ગામિની કહે છે, અને જે લેસ્થાઓ જીવને અનુષ્યગતિ અને દેવગતિ રૂ૫ શુભગતિમાં લઈ જાય છે, તે વેશ્યાઓને સુગતિ ગામિની કહે છે. પહેલી ત્રણ અશુભ લેશ્યાઓ જીવના સંકિલષ્ટ પરિણામના હેતુભૂત થાય છે, તેથી તેમને સંકિલષ્ટ લેસ્થાઓ કહી છે અને છેલ્લી ત્રણ શુભ લેસ્થાઓ (તેજે, પદ્ધ અને શુકલ લેશ્યાઓ) જીવના સંકિલષ્ટ પરિણામના હેતુભૂત થતી નથી, તેથી તેમને અસંકિલષ્ટ લેસ્થાઓ કહે છે.
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सुषा टीका स्था० ३ 30 ४ सू० ८८ मरणनिरूपणम् सुवोध एव ६, अमनोज्ञाः-असनोज्ञरसोपेतपुद्गलमयत्वात् ७-८ । अति शुद्धा वर्णतः-९-१० । अप्रशस्ता:-अशेयस्योऽनादेया इत्यर्थः ११-१२ । तथा-शीत रूक्षाः १३, स्निग्धोणाः १४, एते द्वे अपि स्पर्शत एवेति ॥ सू० ८८ ॥
पूर्व लेश्यावर्णिताः, साम्प्रतं लेश्या विशिष्टमेव मरणं भवतीति मरणनिरूप. णाय मूत्रचतुष्टयमाह
मूलम्--तिविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा-वालसरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे १ । बालमरणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा लेश्याएँ जीवको संक्लिष्ट परिणाम का हेतुभूत होती है और-शुभलेश्याएँ असक्लिष्ट परिणाम का हेतुभूत नहीं होती है । अमनोज्ञ और मनोज्ञ इन्हें इस कारण कहा गया है-कि अमनोज्ञ रसोपेत पुद्गलमय होती है
और ये मनोज्ञ रसोपेत पुद्गलमय होती हैं । अविशुद्धता-और-विशु. द्धता, इनमें वर्ण की अपेक्षा जाननी चाहिये। अप्रशस्तता-और-प्रशस्तता-इनमें-अश्रेयसी और-श्रेयसी होने के कारण हैं। अर्थात-पूर्व की कृष्णादि ३ अनादेय-[त्याज्य ] हैं, और उत्तर की तीन तेजोलेश्या आदि आदेय उपादेय हैं । शीतरूक्षता और स्निग्धउष्णता इनमें स्पर्श की अपेक्षा से कही गई जाननी चाहिये ।। सू०८८ ।। એ જ પ્રમાણે પહેલી ત્રણ અશુભ લેસ્થાઓ અમનેશ, અવિશુદ્ધ અને અપ્ર શસ્ત હોય છે જ્યારે છેલ્લી ત્રભ લેશ્યાઓ મનેઝ, વિશુદ્ધ અને પ્રશસ્ત હોય છે. પહેલી ત્રણ અશુભ લેશ્યાઓને અમનેશ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે ત્રણે વેશ્યાઓ અમનેણ રસેપેત પુલમય હોય છે, અને છેલ્લી ત્રણ શુભ લેશ્યાઓ મનેઝ રસેપેત પુલમય હોવાને કારણે તેમને મને જ્ઞ કહી છે.
પહેલી ત્રણ અશુભ લેશ્યાઓમાં વર્ણની અપેક્ષાએ અવિશુદ્ધતા સમજવી અને છેલ્લી ત્રણ શુભ લેશ્યાઓમાં વર્ણની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધતા સમજવી. પહેલી ત્રણ લેશ્યાઓમાં અપ્રશસ્તા કહી છે અને છેલ્લી ત્રણ લેશ્યાઓમાં પ્રશસ્તતા કહી છે પહેલી ત્રણ વેશ્યાઓ એ શ્રેયસી હોવાથી એટલે કે કૃણાદિ ત્રણ વેશ્યાઓ અનાદેય (ત્યાય) હોવાથી તેમને અપ્રશસ્ત કહી છે અને તે લેશ્યા, પલેશ્યા અને શુકલ લેશ્યા આદિ લેસ્થાએ આદેય-ઉપાદેય હેવાથી તેમને પ્રશસ્ત કહેવામાં આવેલ છે.
પહેલી ત્રણ લેશ્યાઓમાં શીત રૂક્ષતા અને છેલ્લી ત્રણ લેશ્યાઓમાં સ્નિગ્ધ ઉષ્ણતા સ્પર્શની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે. | સૂ. ૮૮ છે
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स्थानान सूत्रे
ठियलेसे, संकिलिट्टलेसे पज्जवजायलेसे |२| पंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठियलेसे, असंकिलिहलेसे, पज्जवजायलेसे |३| बालपंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठियलेसे, असंकिलिइलेसे अपज्जवजायलेसे । ४ ॥ सू० ८९ ॥
छाया - त्रिविधं मरणं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-वालसरणं, पंडितमरणं, वालपण्डितमरणम् । १ । बालमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - स्थितलेश्यं संक्लिप्टलेश्य, पर्यत्रजातलेश्यम् । २ । पण्डितमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तत्रथा - स्थितलेयं, असं क्लिष्ट लेश्यम् पर्यवजातलेश्यम् । ३ । वालपण्डितमरणं त्रिविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-स्थितलेश्यं, असं क्लिष्टलेइयं, अपर्यवजातलेश्यम् ४ ॥ ० ८९ ।।
अब सूत्रकार लेश्या वर्णनके बाद मरण का निरूपण करते हैं। क्यों कि-मरण लेश्या विशिष्ट ही होता है " तिविहे मरणे पण्णत्ते " इत्यादि,
सूत्रार्थ - मरण तीन प्रकारका कहा गया है जैसे बाल मरण, पण्डित मरण, और बालपण्डित मरण, १ इनमें बालमरण भी तीन प्रकार का कहा गया है, जैसे स्थितिलेश्य, संक्लिष्टलेय, और पर्यवजातलेश्य २ पण्डितमरण भी तीन प्रकार का होता है, जैसे स्थितिलेइय, असंक्लिष्ट लेश्य, और पर्यवजातलेश्य । बालपण्डित मरण भी तीन प्रकार का कहा गया है, स्थितिले असंक्लिष्टलेश्य और अपर्यवजात लेश्य |
લેશ્યાઓનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર મરજીનુ નિરૂપણ કરે છે. મરણુ લેશ્યાવિશિષ્ટ જ હાય છે, આ સબધને અનુલક્ષીને લેશ્માનુ નિરૂપણુ કર્યાં ખાદ હવે મરણનુ નિરૂપણુ ચાર સૂત્ર દ્વારા કરવામાં આવે છે
" तिविहे मरणे पण्णत्ते " इत्यादि
सूत्रार्थ-भरणु ऋणु अारना उद्या छे - ( १ ) आस भर, (२) पंडित भर भने (3) मास पंडित भर.
मास भरना पाशुत्र अक्षर उद्या - (१) स्थिति बेश्य, (२) स. ક્લિષ્ટ લેશ્ય અને (૩) પવજાત લેશ્ય
पंडित भरगुना पशु मसष्टि बेश्य भने ( 3 ) पर्यवन्नत सेश्य,
अअर उद्या - (१) स्थिति देश्य, (२)
ખાલ પડિત મરણુના પણ ત્રનુ પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) સ્થિતિ લેક્ષ્ય, (२) मस डिष्ट देश्य भने (3) अपर्यवन्त बेश्य
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सुधा टीका स्था० ३ ४०४ ० ८९ मरणनिरूपणम्
३२७
,
टीका--' तिविद्दे मरणे' इत्यादि । मरणं, त्रिविधं तदेवाह - बालमरणं, बाल:- अज्ञस्तद्वद् यो वर्त्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स वालः असंयत इत्यर्थः, तस्य मरणं वालमरण अस्मिन् मरणे व्रतप्रत्याख्यानादिकं न भवति । पण्डितमरणं, पण्डितः - सदसद्विवेकवान् विरतिफलेन फलवद्विज्ञानवत्त्वात् ज्ञाततत्वः संयत इत्यर्थः, तस्य मरणं पण्डितमरणम् इदं व्रतमत्याख्यानादि सद्भावाच्छद्मस्थयतीनां भवति । वालपण्डितमरणं, बालः - अविरतः पण्डितः - विरतः, उभयरूप
,
"
टीकार्थ- इस मरण के प्रतिपादक ४ सूत्र हैं, बाल शब्द से यहां अज्ञानी लिया गया है इस अज्ञानी जैसा जो होता है वह सरण है । अर्थात् जीव जबतक विरति साधक विवेक से रहित बना रहता है तब तक बाल असंयत रहता है और इसीसे उसे अज्ञानी कहा गया है । इस अज्ञ अवस्था का बालदशा का जो मरण है वह बालमरण है, इस मरण में अज्ञानी जीव के व्रत प्रत्याख्यान आदि नहीं होते हैं। विरतिरूप फल से फलवाला होता है पण्डितमरण सत् असत् का विवेक जिसे होता है वह पण्डित है इसका ज्ञान पण्डित का ज्ञान विरतिरूप फल से सफल होता है, तत्वों का इसे ज्ञान हो जाता है अतः यह संयतावस्था से युक्त हो जाता है। ऐसे संगतरूप पण्डित का जो मरण है वह पण्डित मरण है । यह पण्डित मरण व्रत, प्रत्याख्यान आदि के सद्भाव से छद्मस्थ मुनियों को होता है तथा - बापण्डित मरण देशविरति श्रावक को होता है,
ટીકા –મરણનું પ્રતિપાદન કરતાં ચાર સૂત્રેા અહીં આપ્યા છે. માલ શબ્દથી અજ્ઞાની જીવ ગૃહીત થયા છે આ અજ્ઞાન અવસ્થા યુક્ત જીવના મરણને ખાલ–મરણુ કહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે—
જીવ જ્યાં સુધી વિરતિસાધક વિવેકથી રહિત જ રહે છે, ત્યાંસુધી તે ખાલ ( અસયત ) જ રહે છે, અને તે કારણે જ તેને અજ્ઞાની કહ્યા છે આ અજ્ઞ ( જ્ઞાન રહિત ) અવસ્થા રૂપ માલદેશા સપન્ન જીવનું જે મરણુ છે તેને માલમરણ કહે છે. આ મરણથી મેાતને ભેટતા એવા અજ્ઞાની છત્ર દ્વારા વ્રત, પ્રત્યાખ્યાન આદિની આરાધના થતી નથી. વિરતિ રૂપ ફલ દ્વારા મરણ થાય છે, તે મરણને પ`ડિત મરણ કહે છે. જે માણસમાં સારાં નાંના વિવેક હાય છે, તેને પતિ કહે છે. તે પંડિતનું જ્ઞાન વિરતિરૂપ ફળથી સફળ મને છે તે તત્વાનુ જ્ઞાન થઇ જાય છે, તેથી તે સયતાવસ્થાથી યુક્ત થઇ જાય છે એવા સમૃતરૂપ પતિનું જે મરણ છે તેને પતિ મરણ કહે છે, વ્રત, પ્રત્યાખ્યાન આદિના સદ્ભાવમાં છદ્મસ્થ મુનિએ આ પ્રકારનું પ’ડિત મરણુ પ્રાસ કરે છે, દેશવિરત શ્રાવકના મરણને ખાલ પડિત મરણુ કહે છે. તે દેશવિરત
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स्थानावसूत्रे
३२८
3
त्वाद् वालपण्डितः-संयतासंयतः देशविरतिश्रावक इत्यर्थः तस्य मरणं वालपण्डि तमरणम् । यद्वा-वालं सर्वविर तिपरिणामाभावात् पण्डितं स्थूलमाणातिपातादि विरमणात्, वालं च तत् पण्डितं चेति वालपण्डितं, तद् योगात् मरणं वालप ण्डितमरणम् । इदं देशविरतिमतः श्रावकस्य भवतीति |१|
,
अथ वालमरणं कथयति- 'बालमरणे इत्यादि, बालमरणं त्रिविधं तदेवाह स्थितले इयम्, स्थिता अवस्थिता अविशुध्यमाना असं क्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन तत्तथोक्तम्२ । स क्लिप्टलेइयं स क्लिष्टा - संक्लिश्यमाना संक्लेशमागच्छन्ती लेय्या यस्मिन् मरणे तत्तथोक्तम् २ | पर्यवजातलेश्य पर्ययाः परिशेष्याद्-विशुद्धिविशेषाःजाताः देशविरत श्रावक स्थावर हिंसा से अविरत होता है और बसहिंसा से विरत होता है । इसीलिये विरताविरत की अपेक्षा लेकर देशविरत श्रावक का मरण बोलपण्डित मरण कहा गया है, अथवा देशविरति आवक में सर्व विरति का अभाव रहता है, अतः इस अपेक्षा वह बाल है तथा स्थूलप्राणातिपात आदि से विरमण रहता है इसलियेवह पण्डित है बाल होकर भी इस तरह वह पण्डित है, इस बाल पण्डित के योग से मरण को भी बालपण्डित मरण कह दिया गया है १ बालमरण के प्रकारों को दिखाते हुवे सूत्रकार कहते हैं कि -स्थितिलेश्य आदि जो तीन भेद बालमरण के कहे गये हैं उनका तात्पर्य इस प्रकार से है - जिस मरण में कृष्णादिलेश्या अविशुध्यमान और असंक्लिश्यमान होती है ऐसा वह मरण स्थितलेश्य बालमरण है २ जिस मरण में लेश्यासंक्लेश भाव को प्राप्त करती रहती है ऐसा वह मरण શ્રાવક સ્થાવર હિંસાથી અવિરત હાય છે અને ત્રસહિંસાથી વિરત હાય છે, તે કારણે વિરતાવિરતની અપેક્ષાએ દેશવિરત શ્રાવકના મરણને ખાલપતિ મરણુ કહે છે. અથવા દેશવિરતિ યુક્ત શ્રાવકમાં સર્વ વિરતિના અભાવ રહે છે, તેથી આ અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે તે તે માલ જ છે. પરન્તુ સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત આદિ તે કરતા નથી, તેથી તે પડિત છે-માલ હાવા છતાં પશુ આ રીતે તે પડિત છે. આ ખાલ–પડિતના ચેાગથી તેના મરણને પશુ ખાલ પતિ મરણુ કહ્યું છે । ૧ ।
હવે ખાલ મરણના સ્થિતિ વૈશ્ય આફ્રિ ત્રણ ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-જે મરણુમાં કૃષ્ણાદિ લેસ્સા અવિશુષ્યમાન અને અસ કિલશ્યમાન होय छे, ते भरणुने “ स्थिति सेश्य मासभरयु ” ४डे छे. । २ ।
જે મરણુમાં લેશ્યા સકલેશ લાવને પ્રાપ્ત કરતી રહે છે, એવા મરણને “ સકિલષ્ટ લેશ્ય માલમરચ્છુ ” કહે છે, જે મરણુમાં પ્રતિ સમય દ્વેશ્યાની
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सुधा टीका स्था० ३ उ०४ ० ८९ मरणनिरूपणम्
प्रतिसमयमुत्पा यस्यां सा पर्यवजाता विशुद्धया वर्धमानेत्यर्थः तथाविधा लेश्या यस्मिंस्तत्तथोक्तम् ३ । अत्रायं भावः - कृष्णादिलेश्यः सन् यदा कृष्णादिवेश्येव नारकादिवत्पद्यते तदा प्रथमं स्थितवेश्याभिधं बालमरणं भवति १ । यदा नीलादिलेश्यः सन् कृष्णादिलेश्येत्पद्यते तदा द्वितीयं संविष्टश्याभिधं बालमरणं' भवति २ । यदा पुनः कृष्णलेश्यादिः सन् नीलकापोतश्येत्पचते तदा तृतीय पर्यवजातलेश्याभिधं वालमरणं भवति, उक्तं चान्त्यद्वयसं वादि भगवत्याम्, यदुतसंक्लिष्टया बालमरण है २ जिस मरण में प्रतिसमय विशुद्ध विशेष
नवे हों ऐसा वह मरण पर्यवज्ञानलेश्य बालमरण है यह पर्यव शब्द-से विशुद्धि विशेष गृहीत हुवे हैं । तात्पर्य ऐसा है कि जिस मरण में तथाविधया विशुद्धि से वर्धमान है, ऐसा वह मरण पर्यवसान बालमरण है ३ यहां भाव ऐसा है - कृष्णादि लेश्यावाला हुबा कोई जीव जब कृष्णादि लेयावाले ही नारकादिकों में उत्पन्न होता है, तब उसका यह मरण प्रथम स्थितलेश्य नामवाला बालमरण कहलाता है १- जब नीलादि लेश्या वाला हुवा कोई जीव कृष्णादिदेयाबालों में उत्पन्न होता है तब उसका वह मरण द्वितीय संक्लिष्ट लेश्य नाम का बालमरण कहलाता है २ और जब पुनः कृष्णादि लेश्यानाला छुवा नील एवम् कापोत लेश्यावालों में उत्पन्न होता है, तब उसका वह सरण तृतीय पर्यवजातलेश्य नामक बालसरण कहलोता है । भगवती में ऐसा વિશુદ્ધિ વિશેષ ઉત્પન્ન થતી રહે છે, એવા મરણને “ પવજ્ઞાન લેશ્ય માલમરણુ ” કહે છે. આ પર્યંત્ર શબ્દથી વિશુદ્ધિ વિશેષ ગૃહીત થયેલ છે આ કચનના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-જે મરણુમાં તથાવિધ લેશ્મા વિશુદ્ધિની તરફ વધમાન થતી જ રહે છે, એવા મરણુને “ પ વસાન ખાલમરશુ
" अड्डे छे. ।3।
આ વાતને સૂત્રકાર હવે દેષ્ટાન્તા દ્વારા સમજાવે છે (૧) કૃષ્ણાદિ વૈશ્યાથી યુક્ત એવા કોઇ જીત્ર જ્યારે કૃષ્ણ દિ લેશ્યાવાળા નારકાદિ કામા ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તેના તે મરણુને “ સ્થિતિ લેશ્ય ખાલમરચ્છુ " हे छे. (२) ल्यारे નીલાદિ લેસ્યાથી યુક્ત થયેલા કાઇ જીવ કૃષ્ણાદિ લેશ્યાવાળાએમાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તેના મરણને ‘ સકિલષ્ટ લેશ્ય ખાલમરણુ ’ કહે છે. (૩) જ્યારે કૃષ્ણાદિ લેશ્યાથી યુક્ત થયેલેા જીવ નીલ અને કાપાત લેશ્યાઓવાળામાં ઉત્પન્ન थाय छे, त्यारे तेना ते भरने ' पर्यवन्नत सेश्य मासभर ' 'छे.
ભગવતી સૂત્રમાં આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે. સૂત્રકાર અહીં સંવાદ રૂપે તે વાત પ્રકટ કરે છે—
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स्थानासू
" से तूणं भंते! कण्हले से नीलले से जाब सुकले से भवित्ता काउलेसेट नेरइए उचवज्जा ? हंना गोयमा । से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चs ? गोयमा ! लेसा ठाणे संफिस्समाणे वा विमुज्जमासु वा काउलेस्स परिणमइ, परिणमिवा काउलेस्से नेरह उबवज्जइ " इति ।
छाया - अथ नूनं भदन्त ! कृष्णलेश्यो नीललेश्पो यावत् शुक्ललेश्यो भूत्वा कपोतश्येषु नैरयिकेप्रत्पद्यते १ हन्त ! गौतम । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते ? गौतम ! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु वा विशुध्यमानेषु वा कापोतश्यं ( मरणं) परिणमति, परिणम्य कापोतलेश्येषु नैरयिकेप्रत्पद्यते ॥ एतदनुसारेण पण्डितमरण- वालपण्डितमरणरूप सूत्रयोरपि स्थित लेश्यादि विभागो विज्ञेय इति । तत्र पण्डितमरणे लेग्यायाः संक्लिश्यमानता नास्ति संयतत्वादेवेत्ययं बालमरणात् पण्डितमरणे विशेषः । वालपण्डितमरणे तु लेश्यायाः संक्लिश्यमानता विशुध्यमानता च नास्त्रि मिश्रत्वादेवेत्ययं मरणद्वयाद्विशेषः । किमुक्तं ही कहा है- " से पूर्ण अंते । कण्हले से नीललेसे जाव लुक्कलेसे भवित्ता काउलेले नेर उबवज्जह हंता ? गोयमा ? से केणद्वेणं भंते ? एवं बुंच्चह २ गोयमा ? लेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमा या काउलेस्सं परिमणइ परिणमिप्ता काउलेस्सेसु नेरइएमु उयधज्जइ " इति । इस कथन के अनुसार पण्डितमरण और पालमरण एवं पण्डिमरण के सूत्रों में स्थितलेल्य आदि विभाग किया गया जानना चाहिये बालमरण की अपेक्षा पण्डितमरण में लेश्या की संक्लिश्य मानता नहीं है । क्यों कि यह सरण संगत को ही होता है, अतः बालमरण से पण्डितमरण में विशेषता है । बालपण्डितमरण में तो लेयो की संक्लिश्यमानता और विशुध्यमानता नहीं है, क्यों कि वह सेणूणं भंते ! कण्हलेसे नीळलेसे जाव सुकलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइप उवन्जइ ? हंता, गोयमा ! से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा । ठाणे संकलित्समाणेसु वा विमुज्झमाणेसु वा काउलेस्सं परिणमत्र परिणमित्ता hree des ववज्जइ "" ||
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આ કથન અનુસાર પડિત મરણ અને ખાલમરણુ અને પતિમરણુ ’ (ભાલ પડિત અરજી ) ના સૂત્રામાં સ્થિતલેશ્ય આદિ પ્રકારનું કથન પણ સમજવું. માલમરણમાં લેશ્યાની સ’કિલશ્યમાનતા કહી છે, પરન્તુ પડિતમરણમાં ăસ્યાની સ કિલશ્યમાનતા નથી, કારણ કે સંયત જીવ જ પંડિત મરણ પ્રાપ્ત કરે છે, તેથી માલમરણુ કરતાં પંડિત મરણમાં આ પ્રકારની વિશિષ્ટતા કહી છે. માલપતિ મરણુમાં તે લેશ્યાની સ'કિલશ્યમાનતા અને વિશુધ્ધમાનતા 'હાતી નથી, કારણ કે તે મરણુ મિશ્રરૂપ હાય છે. ઉપર્યુક્ત એ મરણ કરતાં
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सुधा डीका स्था० ३३०४ ० ९० मरणोत्तर हिताहितस्वरूपनिरूपणम् ३३१ भवति ! बालपण्डितमरणं तु संयतासंयतस्य श्रावकस्य भवति, तेन तस्मिन् देश संयतत्वेन सः क्लिश्यमान लेश्याया अभाव:, असंयतत्वेन च विशुध्यमान लेश्याया अभावो भवति मिश्रत्वादित्ययं बालमरणात् पण्डितमरणाच्चात्र विशेष इति ४।८९।।
पूर्व मरणं प्रोक्तं, मृतस्य त्वपरजन्मनि यादृशस्य यद्वस्तुत्रिकं यस्मं निष्पद्यते तस्य तद्वस्तुत्रयं तस्मै तदर्थं सम्पद्यमानं दर्शयितुं सूत्रद्वयमाह -
मूलम् - तओ ठाणा अव्ववसियस्स अहियाए असुहाए अक्खमाए अणिस्तेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा --से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं एव्वइए णिग्गंथे पावणे किए कंखिए वितिगिच्छिए भेयलमावन्ने कलुसस - मावन्ने निरथं पावयणं णो सद्दहह णो पत्तियह णो रोपड़ तं परिस्सहा अभिर्जुजियर अभिभवंति णो से परिस्सहे अभिजुंजिय २ अभिभवइ १ । से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पaइए पंचहिं महत्वएहिं संकिए जाव कलुससमावन्ने innaur नो सees जाव णो से परिस्सहे अभिजुंजिय २
मरण मिश्ररूप होता है यही इसमें दो मरणों से विशेषता है। तात्पर्य कहने का ऐसा है कि यह वालपण्डितमरण संयतासंयत ( श्रावक) को होता है, इसलिये इस मरण में देशसंयत के होने के कारण संक्लिइयमान लेश्या का अभाव रहता है, और असंयत होने के कारण . विशुध्यमान लेश्या का अभाव रहता है अतः मिश्ररूप होने से इसमें बालमरण और पण्डितमरण से विशेषता है - ॥ ४ ॥ ०८९ ॥
આ મરણુમાં એટલી જ વિશેષતા છે. આ કથનનું તાત્પ આ પ્રમાણે છે. સયતાસયંત શ્રાવકનુ મરણું જ ખાલપતિ મરણુરૂપ હાય છે. આ મરણથી મરનાર વ્યક્તિમાં દેશસયતતા હૈાવાને લીધે સકિલસ્યમાન લેશ્યાના અભાવ રહે છે અને અસ'યતતા હવાને કારણે વિશુષ્યમાન લેશ્યાના અભાવ રહે છે. આ રીતે તે મિશ્રરૂપ હોવાર્થી તેમાં ખાલમરણ અને પતિમરણ કરતાં વિશેષતા હૈાય છે. !! સૂ. ૮૯ ૫
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स्थानास्त्रे अभिभवइ । से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए छहिं जीवनिकाएहिं जाव अभिभवइ ३॥१॥
तओ ठाणा विवसियस्स हियाए जाव आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा--से णं मुंडे अवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिरसंक्किए णिक्कंखिए जाव नो कलुससमावन्ने णिरगंथं पावयणं सद्दहइ पत्तियइ रोएइ से परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिसवइ, नो तं परिस्सहा अभिजु. जिय २ अभिभवंति १ । ले णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचहिं महत्वएहिं णिस्संकिए णिकंखिए जाव परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिभवड, नो तं परिस्सहा अभिमुंजिय २ अभिभवंति २ से णं मुंडे भक्त्तिा अगाराओ अणगारियं पहइए छहिं जीवनिकाएहिं णिस्संकिए जाव परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिसवइ, नो तं परिस्लहा अभिजुजिय २ अभिभवंति ३ ॥ सू० ९७ ॥ __छाया-त्रीणि स्थानानि अव्यवसितस्य अहिताय असुखाय अक्षमाय अनिश्रेयसाय अनानुगामिकतायै भवन्ति, तद्यथा स खल्लु मुण्डो भूत्वा अगारात् अन__इस प्रकार से मरण के सम्बन्ध में कथन किया अब सूत्रकार इस नव्वे ९० सूत्र में कथित तीन स्थान किनके लिये अहित कर आदि विशेषणोंवाले होते हैं और किनकेलिये हितकर आदि विशेषणों वाले होते हैं ऐसा कथन करते हैं “तओ ठाणा अव्यवसि यस्स अहियाए असुहाए” इत्यादि। सूत्रार्थ-तीन' स्थान अव्यवसित - उद्यमहीन जीव को अहित
મરણનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. આ નેવુંમાં સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત ત્રણ સ્થાને કોને માટે અહિતકર હોય છે અને કેને માટે હિતકર હોય છે ते ४थन 3रे छ-" तओ ठाणा अव्यवसियस अहियाए असुहाए" त्याह
સૂત્રાર્થ–નીચે જેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે એવાં ત્રણ સ્થાન (કારણે) मध्यवसित (Gधभडीन) वनु भडित ४२नारा, असुभ ४२नारा, असम
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सुधा टीका स्था० ३ ००४ सू०१० मरणोत्तरहिताहितस्वरूपनिरूपणम्
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गारितां प्रव्रजितो नैग्रन्थे मावचने शङ्कितः काङ्क्षितः विचिकित्सितः । भेदसमापन्नः कलुषसमापन्नः नैर्ग्रन्थं प्रवचनं नो श्रदधाति नो प्रत्येति नो रोचयति तं परीपहा अभियुज्य २ अभिवन्ति, ( किन्तु ) नो स परीषहान् अभियुज्य २ अभिभवति १ । स खलु मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां मत्रजितः पञ्च महाव्रतेषु शङ्कितो यावत् कलुषसमापन्नः पञ्च महाव्रतानि नो श्रद्दधाति यावत् नी स परीषदान् अभियुज्य २ अभिभवति २ । स खलु मुण्डो भूला अगारात् अनगारितां प्रत्रजितः षट्सु जीवनिकायेषु यावद् अभिभनति ३ । १ ।
के लिये, असुख के लिये, असमर्थता के लिये और - अशुभानु न्ध के लिये होते है । वे तीन स्थान इस प्रकार से हैं- जैसे कोई पुरुष मुण्डित हो कर के अगारावस्था से अनगारावस्था को धारण कर लेता है, परन्तु वह ग्रन्थ प्रवचन में शङ्कित है, काङ्क्षित है, विचिकित्सित rearya है और निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा नहीं करता है उसी प्रतीति में नहीं लाता है-अपनी रुचि का विषय उसे नहीं बनाता है, तो ऐसे अनगार को द्रव्यलिङ्गी साधु को परीषह उसे आकर के आकुल व्याकुल कर देते हैं ॥ १ ॥ यदि कोई पुरुष मुण्डित होकर अगारावस्था से अनगोरावस्था को धारण कर लेता है, परन्तु यदि वह पांच महाव्रतों में शङ्कित यावत् कलुषसमापन है और पांच महावतों को श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखता है यावत् उन्हें अपनी रुचिका विषय नहीं बनाता है, तो ऐसे उस अनगार को द्रव्यलिङ्गी साधुको परीषह आ आ करके आकुलव्याकुल कर देते हैं २ उसी प्रकार से मुण्डित अगारावस्था से अनगारावस्था में प्रवजित हुवा कोई पुरुष षड् जीव निकाय के विषय में शङ्कित यावत् - कलुष समापन्न है और उस निकाय થતા ઉત્પન્ન કરનારા અને અશુભાનુબંધ કરનારા થઇ પડે છે. તે ત્રણ સ્થાન આ પ્રમાણે છે
કોઇ પુરુષ મુક્તિ થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગ કરીને અણુગારાવસ્થા धारष्णु रे छे, परन्तु निर्थ थ अवयन अत्ये शति, अंक्षित, विभिहित्सित, लेह सभाપન્ન અને કલુષ સમાપન છે, અને નિગ્રંથ પ્રવચન પ્રત્યે શ્રદ્ધા નથી, તેને પેાતાની પ્રતીતિમાં લાવતે નથી અને તેમાં રુચિ રાખતા નથી, તે એવા અણુમાર-દ્રવ્યુલિંગી સાધુ આવી પડેલા પરીષહાથી આકુલવ્યાકુલ થઇ જાય છે
(૨) કાઇ પુરુષ સુડિત થઈનેગૃહસ્થાવસ્થાના ત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થા ધારણુ કરવા છતા પણું પાચ મહાવ્રતામાં શક્તિ, કાંક્ષિત, વિચિકિત્સિત ભેદ સમાપન્ન અને કલુષ સમાપન્ન થાય છે, તથા પાચ મહાવ્રતે પ્રત્યે શ્રદ્ધાની નજરે જોતે નથી, તેમને પેાતાની પ્રતીતિના વિષય મનાવતા નથી અને તેમાં રુચિ રાખતે નથી, તે તે અણુગાર દ્રવ્યલિંગી સાધુ તેના ઉપર આવી પડતા પરીષહેાથી આકુલવ્યાકુલ થઈ જાય છે.
એ જ પ્રકારે ગૃહસ્થાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થામાં પ્રત્રજિત થયેલ કાઇ સાધુ જ્યારે છકાયના જીવાના વિષયમાં શકિત, કાંક્ષિત આદિ
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स्थानासूत्र त्रीणि स्थानानि व्यवसितस्य हिताय यावत् आनुगामिकतायै भवन्ति, तद्यथा -स खलु मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां पत्रजितो नेग्रन्थे प्रावचने निश्शद्वितः निष्काङ्कितः यावत् नो कलुपसमापन्नः नेग्रन्थं प्रावचनं श्रदधाति प्रत्येति रोच. यति स परीपहान् अभियुज्य २ अभिभवति, (किन्तु ) नो तं परीपहा अभियुज्य २ अभिभवन्ति १ । स खलु मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः सन् पञ्चसु महानतेषु निश्शङ्कितः निष्काक्षितः यावत् परीपहान् अभियुज्य२ अभिवति, नो तं परीपहा अभियुज्य २ अभिभवन्ति२ । रा खल्ल मुण्डो भूत्वा अगारात् को यदि वह श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखता है, यावत्-उसे अपनी रुचि का विषय नहीं बनाता है, तो ऐसे उस द्रव्यलिङ्गिसाधु को परीषह आआ करके आकुल-व्याकुल कर देते हैं-३-१ । . तीन स्थान व्यवसित (उद्यमवाले) जीवको हितके लिये यावत्-अनु गामिताके लिये होते हैं, वे तीन स्थान इस प्रकारसे हैं-जैसे कोई मनुष्य मुण्डित हो करके अगारावस्था से अनगारावस्था में प्रवजित हो जाता है और-निःशङ्कित आदि विशेषणों से युक्त हुवा निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता है, उस पर प्रतीति करता है, उसे अपनी रुचि का विषय बनाता है, तो ऐसे-उस अनगार के पास परीषह आते तो हैं, और उसे आकुल व्याकुल करने की चेष्टा भी करते हैं परन्तु-वह उनसे आकुल व्याकुल नहीं होता है-१ यदि कोई पुरुप मुण्डित हो करके अगारावस्था से अनगारावस्था को धारण करलेना है और-पांच महाव्रतों में निःशङ्कित एवं निष्कांक्षित आदि विशेषणोंवाला होकर यावत् उन के विषय में वह कलुप समापन्न नहीं होता है, और उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखता है, यावत्-उन्हें वह अपनी रुचि का विषय बनाता કલુષ સમાપન્ન પર્યન્તના ભાવોથી યુક્ત થાય છે, અને તે વરૂજવનિકાયને જે તે શ્રદ્ધાની નજરે જેતે નથી, તેને પિતાની પ્રતીતિનો વિષય બનાવ નથી, તેમાં રુચિ રાખતું નથી, તે એવા દ્રવ્યલિંગી સાધુને–પરીષહ આવી આવીને આકુલ-વ્યાકુલ કરી નાખે છે.
હવે એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે કે કયા ત્રણ સ્થાન વ્યવ સિત (ઉદ્યમી) જીવને માટે હિતકારી, સુખકારી, સમર્થતા ઉત્પન્ન કરનારા અને અનુગામિતા (શુભાનુબંધ) કારી હોય છે. તે ત્રણ સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે–
(૧) કેઈ મનુષ્ય મુંડિત થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થા ધારણ કરે છે. તે નિશંકિત આદિ ભાવથી નિગ્રંથ પ્રવચન પર શ્રદ્ધા રાખે છે, તેની પ્રતીતિ કરે છે અને તેને પિતાની રુચિનો વિષય બનાવે
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ सू०९० मरणोत्तरहिताहितस्वरूपनिरूपणम्
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अनगारितां प्रव्रजितः षट्सु जीवनिकायेषु निशङ्कितो यावत् परीषदान् अभियुज्य २ अभिभवति, ( किन्तु ) नो तं परीषदा अभिभवन्ति ३ |२| ० ९० ॥
टीका---' तओ ' इत्यादि । त्रीणि स्थानानि - अनुपदं वक्ष्यमाणानि प्रवचनमहाव्रत - जीवनिकायरूपाणि अव्यवसितस्य-व्यवसितः - निश्चयवान् पराक्रमवान् वा, तनिषेधाद् अव्यवसितः - अनिश्चयवान् अपराक्रमवानित्यर्थः, तस्य अहितायअपथ्याय, असुखाय - दुःखाय, अक्षमाय- असमर्थतत्वाय, अनिःश्रेयसाय - अमोक्षाय है तो ऐसे उस अनगार को परीषद आने पर भी आकुल व्याकुल नहीं करते हैं इसी तरह मुण्डित होकर जो पुरुष अगारावस्था से अनगारावस्था को धारण करता है और-षड्जीवनिकाय के विषय में निरशङ्कित आदि विशेषणों वाला बना होकर उसपर श्रद्धा करता है और यावत् - उसे अपनी रुचि का विषय बनाता है तो ऐसे उस अनगारको परीषह बार- २ आकरके भी आकुल व्याकुल नहीं कर पाते हैं-३
इन तीन सूत्रों का भावार्थ ऐसा है व्यवसित शब्द का अर्थ निश्चयवाला था " पराक्रमवाला " ऐसा है जो ऐसा नहीं है वह मनुष्य अव्यवसित है। अर्थात् जो निश्वयवाला नहीं है, या पराक्रमवाला नहीं है उस के लिये ये प्रवचनरूप महाव्रत और जीवनिकायरूप तीन છે, તે તે અણુગારને પરીષહના સામનેા કરવા પડે છે. તે પરીષહે તેને આકુલ-વ્યાકુલ કરવાની ચેષ્ટા પણુ કરે છે, પરન્તુ તે તેમનાથી આકુલ-વ્યાકુલ યતેા નથી. (૨) કેાઈ મનુષ્ય સુડિત થઇને ગૃહસ્થાવસ્થાના ત્યાગપૂર્વક અણુ ગારાવસ્થા ધારણ કરે છે. ત્યારબાદ તે નિઃશક્તિ નિઃકાંક્ષિત આદિ ભાવાથી પાંચ મહાત્રતેામાં શ્રદ્ધા રાખે છે, તે મહાત્રતાની પ્રતીતિ કરે અને તેમાં પેાતાની રુચિ રાખે છે, તે એવે તે અણુગાર ગમે તેવા પરીષહેા આવી પડે તે પણ આકુલવ્યાકુલ થતા નથી, (૩) કૈાઇ મનુષ્ય મુ`ડિત થઇને ગૃહસ્થાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થા ધારણ કરે છે ત્યારબાદ તે નિઃશક્તિ આદિ વિશેષણાથી યુક્ત થઈને ષડ્ જીવનિકાય પ્રત્યે શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ રુખે છે, તેને પેાતાની પ્રતીતિને વિષય મનાવે છે અને તેને પેાતાની રુચિને વિષય મનાવે છે તે એવા તે અણુગાર ગમે તેવા પરીષહા આવી પડવા છતાં પણ કુલવ્યાકુલ થતા નથી
હવે આ ત્રણે સૂત્રને ભાવાથ પ્રકટ કરવામાં આવે છે— વ્યવસિત ’’ એટલે નિશ્ચયવાળે અથવા પરાક્રમવાળા. જે જીવ નિશ્ચયવાળેા હાતા નથી અથવા જે જીવમાં પરાક્રમને અભાવ હોય છે, એવા જીવને અવ્યવસિત ’ કહે છે, એવા અવ્યવસિત મનુષ્યને માટે પ્રવચન, મહાવ્રત અને જીવનિકાય
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स्थानासूत्रे
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1
अनानुगामिकतायै - अशुभानुबन्धाय भवन्ति, तद्यथा - तानि त्रीणि रथानानि यथा -' से णं ' इत्यादि यस्य त्रीणि स्थानानि अहितादित्वाय - भवन्ति सः मुण्डो भृत्वा अगारात् - गृहस्थधर्मात् अनगारियां साधुतां मत्रजितः - प्राप्तः सन् नैर्ग्रन्येनिर्ग्रन्थानामिदं नैग्रन्थ आहेत, तस्मिन् प्रावचने-म-प्रकर्षेण आ-अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयः पदार्था यस्मिन् तत् प्रावचनं जैनेन्द्रशासनमागमो वा तस्मिन् शङ्कितः - देशतः सर्वतो वा संशयवान, कांक्षितः यो देशतः सर्वतो वा मतान्तरमपि साधुत्वेन मन्यते सः, विचिकित्सितः फलं प्रति शङ्कोपेतः, अतएव भेद समापन्नः - द्वैधीभावं संप्राप्तः ' इदमेवं किन्तु नैतदेवम्' इति मतिसम्पन्नः कलुषसमापन्नः - ' एतदेवं ने' - ति प्रतिपत्तिमान् सन् ग्रन्थं मावचन न श्रधाविस्थान अहित के लिये, अपथ्य के लिये, असुख-दुःख के लिये, और अक्षम - असमर्थता के लिये, अनिःश्रेयस-अमोक्ष के लिये और अशुभानुबन्धरूप अननुगामिकता के लिये होते हैं " णिग्गंथपावणे " निर्ग्रन्थों के द्वारा जो कहा गया होता है वह नैग्रन्थ है और अच्छी तरह अभिविधिपूर्वक जीवादिक पदार्थ जिस से कहे गये हैं वह प्रवचन है, ऐसा वह प्रवचन जैनेन्द्रशासन - अथवा-आगमरूप होता है, " शंकितः " जिनेन्द्र प्रवचन में देशतः वा सर्वतः जो संशयशील होता है उसका नाम शाङ्कित है । काङ्क्षित - देशमः या सर्पतः जो सर्वज्ञ प्रणीत मतान्तरों को भी साधुप - सच्चाईरूप में मानता है वह कांक्षित है । फलके प्रति शङ्का वाला जो होता है, वह विचिकित्स है । भेदसमापन्न द्वैधीभावको जो प्राप्त होता है वह भेदसमापन है, यह ऐसा नहीं है इस
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३५ त्र स्थान अडितहारी, अपथ्यारी, असुमारी ( दु:मारी ), अक्षभ ( असमर्थता ) अरी, अनि:श्रेयस ( अभोक्ष ) अरी भने अशुलानुमन्ध ३५ અનનુગામિકતાકારી થઈ પડે છે.
" णिग्गंथपावयणे ” निर्थ थे। (तिर्थ १२) द्वारा ने अहेवामां आव्युं छे तेने નૈગ્ર કહે છે, અને સારી રીતે, અભિવિધિપૂર્વક જીવાદિક પદાથૅની જેમાં પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, તેને પ્રવચન કહે છે એવું તે પ્રવચન જૈનેન્દ્ર શાસન રૂપ અથવા આગમ રૂપ હોય છે
" शंकित " भिनेन्द्र अवयनमां ने देशतः अथवा सर्वतः संशयशीस होय छेतेने शक्ति छे " कांक्षित " ने सर्वज्ञ ( सर्वज्ञ न होय सेवी વ્યક્તિ) પ્રણીત મતાન્તરેને પણ દેશતઃ અથવા સર્વાંતઃ સાચા માને છે તેને કાંક્ષિત કહે છે. ફૂલની ખાખતમાં શંકા રાખનારને વિચિકિસિત કહે છે. " भेद समापन्न " द्विषा लावधी युक्त व्यक्तिने लेह सभापन्न आहे छे. “मा
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सुधा रोका स्था०३ उ० ४ स. ९० मरणोत्तरहिताहित स्वरूपनिरूपणम् ३३७ सामान्यतो न तत्र श्रद्धां करोति, नो प्रत्येति-न सर्वथा प्रीतिविषयी करोति, नो रोचयति-न तदाराधनेच्छाविषयी करोति, तमिति य एवम्भूतो भवति तं साध्याभासं परिपह्यन्ते निर्जरार्थमिति परीपहा:-क्षुधादयो द्वाविंशतिसंख्यकाः अभियुज्य २ सम्बन्धमुपगत्य प्रतिस्पर्ध्य अभिभवन्ति-ध्याकुलीकुर्वन्ति किन्तु स-पूर्वोक्तः साध्वाभासस्तान् परीपहान्-अभियुज्य२ नो अभिभवति न जयतीत्यर्थः, आहेत. वचने शङ्कादानां सद्भावेन श्रद्धादीनामसद्भावात्स तान जेतुं न शक्नोतीति भावः तरहकी प्रतिपत्ति (श्रद्धा) वाला जो होताहै वह कलुषसमापन्न है, " न श्र
धाति" पद से यह प्रकट किया गया है कि-वह सामान्यरूप से भी यहां श्रद्धाशील नहीं होता है "नो प्रन्येति" उसे अपनी प्रतीति में भी वह सर्वथा नहीं लेता है और-न वह उस के आराधन की इच्छा ही करता है-यह बात “नो रोचति" क्रियापद से प्रकट की गई है जो निर्जरा के लिये सहन की जाती है उस का नाम परीषह है ये परीषह क्षुधा आदि के भेद से २२-वाइस होते हैं । अर्थात्-जो साधु के लक्षण से रहित होता है और-साधु जैसा प्रतीत होता है वह द्रव्यलिङ्गीसाधु है द्रव्यलिङ्गीसाधु परीषहों द्वारा इसलिये पराजित हो जाता है कि आहेत वचन में शङ्कादिकों के सद्भाव से उस में श्रद्धादिक का अभाव रहता है अतः-वह उनपर विजय नहीं पासकता है-इसी तरह से पंच વાત આ પ્રમાણે નથી, ” આ પ્રકારની પ્રતિપત્તિવાળા જીવને કલુષ સમાપન ४१ छ. " न श्रद्दधाति ” ५४ ॥२॥ ये पात ४८ ४२१मा भावी छ है ते सामान्य ३ ५ निथ अवयन मा प्रत्ये श्रद्धा तो नथी “ नो प्रत्येति" मा ५६ २० ४२वामां माव्युंछ नि प्रयन माहिन पोतानी प्रतातिना विषय ५२ रनावत नथी "नो रोचति " मा ક્રિયાપદના પ્રયોગ દ્વારા એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે તે નિગ્રંથ પ્રવચન આદિની આરાધનાની ઈરછા પણ કરતો નથી.
નિજા નિમિત્તે જે સહન કરવામાં આવે છે, તેનું નામ પરીષહ છે સુધા આદિના ભેદથી પરીષહ ૨૨ પ્રકારના કહ્યા છે
"व्यसिंगी साधु-साधुना साथी २डित 14 छतां ५ को વેષ આદિને કારણે સાધુ જેવો લાગે છે, તેને દ્રવ્યલિ ગી સાધુ કહે છે એ દ્રવ્યલિંગી સાધુ પરીષહ દ્વારા પરાજિત થઈ જાય છે તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે-એ સ ધુ આહત પ્રવચનમાં શંકાદિકથી યુક્ત બને છે અને તે કારણે તે પ્રવચનાદિ પ્રત્યે તે સાધુ શ્રદ્ધા રાખી શકતો નથી તે કારણે તે પરીષહ પર વિજય પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી.
स ४३
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स्थानानसूत्रे
३३८
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१ । एवमेव पञ्चमहाव्रतविपथं पड्जीवनिकाय विषय चेति स्थानद्वयमपि विज्ञेयम् | ३| ' तओ ठाणा ' इत्यादि । पूर्वोक्तविपर्ययं व्यवसितमृत्रं विपर्ययेण व्याख्येयं, नवर - हितम् - अद्दोपकर मिहपरलोके च, आत्मनः परेषां च पथ्यानभोजनवत् १, सुखम्-आनन्दः धर्म तृषाकुलस्य पानकरसपानवत् २, क्षमम् - उचित तथाविधव्याधि निवारकौषधपानवत् ३, निःश्रेयसं - निश्चितं श्रेयः - प्रशस्तं भावतः पञ्चनमस्कार करणमित्र, आनुगामिकम् - अनुगमनशीलं भास्वरद्रव्यजनितच्छायेवेति । शेषं सुगमम् । व्यवसितः पुरुषः प्रव्रजितः सन् परीपहान् अभियुज्य २ arraft किन्तु परीहास्तं नाभिभवितुं शक्नुवन्तीति भावः २ ||० ९० ॥ महाव्रतरूप और- षड्जीवनिकायरूप स्थान भी उस को होते हैं ऐसा समझ लेना चाहिये। “ तओ ठाणा " इत्यादि जो व्यवसित सूत्र है, वह अव्यवसित सूत्र से विपरीत व्याख्यात हुवा है अतः - इस की व्याख्या अव्यवसित सूत्र से भिन्न ही जाननी चाहिये । तात्पर्य यह है कि- अव्यवसित की जो निर्ग्रन्थ प्रवचन से पञ्चमहाव्रतों में एवं षड् जीवनिकाय में पूर्वोक्तरूप से शङ्का - कांक्षा आदि वाली वृत्ति होती है। और इसी कारण वह श्रद्धा आदि भावना से रहित बना रहता है तब कि यह व्यवसित जीव निर्ग्रन्ध प्रवचन में षड् जीव निकाय में पूर्वोक्तरूप निश्शङ्कित आदि वृत्तिवाला बनकर श्रद्धा आदि भावना से सम्पन्न बना रहता है इसीलिये अव्यवसित को परीषद आकुल व्याकुल वनादेते हैं और व्यवसित को वे आकुल व्याकुल न बनाकर स्वयंही पराजित हो जाते हैं ।
पञ्चमहाव्रतों में एवं
અવ્યવસિતને અનુલક્ષીને નિથ પ્રવચન રૂપ પ્રથમ સ્થાનની જેવી પ્રરૂપણા કરવામાં આવી, એવી જ પ્રરૂપણા પાંચ મહાવ્રત રૂપ દ્વિતીય અને षडू व निश्रय ३५ तृतीय स्थानना विषे पशु समल सेवी "तओ ठाणा " हत्याहि વ્યવસિત સૂત્રની વ્યાખ્યા અવ્યવસિત સૂત્ર કરતાં વિપરીત સમજવી, એટલે કે....અવ્યવસિતને નિગ્રંથ પ્રવચન, પાંચ મહાવ્રતા અને ષડૂ જીવ નિકાય પ્રત્યે શકા, ક'ક્ષા આદિવાળી વૃત્તિ હાય છે અને એ જ કારણે તે આ ત્રણેમાં શ્રદ્ધા આદિ ભાવાથી રહિન જ હાય છે. પરન્તુ વ્યવસિત જીવ નિગ્રંથ પ્રવચન, પાંચ મહાવ્રત અને ષડૂજીવનિકાયમાં પૂર્વોક્ત રૂપ નિઃશકિત, નિઃકાંક્ષિત આદિ વૃત્તિવાળા હોય છે અને તે કારણે તે જીવ તેમાં શ્રદ્ધા, રુચિ આદિ ભાવેથી યુક્ત રહે છે
આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં અવ્યવસિત દ્રવ્યલિંગી સાધુને પરીષહે આકુલવ્યાકુલ કરી નાખે છે, પરન્તુ વ્યવસિત અણુભારને પરીષહે આકુલ
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सुधा टीका स्था०३०४ ० ९१ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम्
३३९
पूर्वोक्त प्रकारो मुनिरित्र पृथिव्यां विचरतीत्यनेन सम्बन्धेन पृथिवीस्वरूप निरूपयति
मूलम् — एगमेगा णं पुढवी तोहिं वलहिं सवओ समंता
इस तरह अव्यवसित सूत्र की व्याख्या से व्यवसित सूत्र की व्याख्या विपरीत है । निर्ग्रन्थ प्रवचनादि तीन स्थान व्यवसित के लिये हितकर होते हैं, अर्थात् पथ्यान्न भोजन की तरह अदोष कर होते हैं, इस लोक में और परलोक में वे उस के लिये और पर के लिये हितकर होते हैं । " सुखं " आनन्ददायक होते हैं, । जैसे- धूप में तृषार्त्तको पानकरस का (शरबत) पान आनन्ददायक होता है, । “क्षमं" उचित रूप होते हैं, जैसे - व्याधि से पीडित हुवे को औषधि का पान उचित होता है । निःश्रेयसरूप होते हैं निश्चितश्रेयस्कार - प्रशस्त होते हैं जैसे भाव पूर्वक किया गया पश्च नमस्कार श्रेयस्कारक होता है, । आनुगामिक होते हैं जैसे- भास्वर द्रव्य से जनित छाया अनुगमनशील होती है बाकी का और सब कथन सुगम है व्यवसित पुरुष प्रत्रजित होकर परीषहों को ही जीत लेता है परीषह उसे नहीं जीत पाते हैं । ऐसा भाव इस सूत्र का है ।। ।। ०९० ।।
વ્યાકુલ કરી શકતા નથી એવા સાધુ આગળ તે પરીષહેા પેતે જ પરાજિત થઈ જાય છે આ રીતે અવ્યવસિત સૂત્રની વ્યાખ્યા કરતાં વ્યવસિત સૂત્રની વ્યાખ્યા વિપરીત છે.
નિગ્રંથ પ્રવચનાદિ ત્રણ સ્થાન વ્યવસિત જીવને માટે હિતકર હાય છે, એટલે કે પથ્યાન્ન ભાજનની જેમ દેષકર હાય છે, આલાકમાં અને પરसोभां ते तेना भाटे तथा अन्यने भाटे डितपुर होय छे, “सुखं 5, સુખકર અથવા આનંદદાયક હાય છે, જેમ તટસ્થાને સરખતનું પાન આનદદાયક થઈ પડે છે, તેમ તેને તે આનંદદાયક થઇ પડે છે क्षमं " प्रेम रोगश्री थीडाता જીવને ઔષધિનુ પાન ઉચિત થઇ પડે છે, તેમ તેને ચતરૂપ થઇ પડે છે. તે તેને માટે નિ શ્રેયસરૂપ-નિશ્ચિતરૂપે શ્રેયસ્કારક નિવડે છે. જેમ ભાવપૂર્વક કરાયેલાં પાઁચ નમસ્કાર શ્રેયસ્કારક હાય છે, એમ તે જીવને માટે શ્રેયસ્કારક અને પ્રશસ્ત નિત્રડે છે જેમ ભાસ્વર ( અપારદર્શીક ) દ્રવ્યથી જનિત છાયા અનુગમનશીલ હાય છે, તેમ તે તેને માટે આનુગામિક તિવડે છે. બાકીનું સમસ્ત કથન સુગમ છે વ્યવસિત પુરુષ પ્રત્રજિત થઈને પરીષહેને જીતી લે છે-પરિષહા તેને પરાજિત કરી શકતા નથી, એવેા આ સૂત્રને ભાવ છે. સૂ
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स्थानागसूत्र संपरिक्खित्ता, तं जहा-घणोदहिवल एणं, घणवायवलएणं तणुवायवलएणं ॥ सू० ९१ ॥ ___ छाया-एकैका खलु पृथिवी त्रिभिर्वलयैः सर्वतः समन्तात् संपरिसिप्ता, तद्यथा-घनोदधिवलयेन, घनवातवलयेन, तनुवातवलयेन ।। सू० ९१ ॥
टीका-' एवमेगा' इत्यादि । एकैका-प्रत्येकं पृथिवी रत्नप्रभादिका त्रिभिः-त्रिसंख्यकैः वलयैः-वेटनः सर्वतः समन्तात्-सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः, संपरिक्षिप्ता-सम्यग् वेष्टिता प्रज्ञप्ता, तद्यथा-घनोदधिवल येन, घनः-स्स्यानो हिमशिला सदृशः, उदधिः-जलनियचः-घनोदधिः, स एव वलयमिववलयं-चेष्टनं घनोदधिवलयं, तेन १, एवं धनवातबल येन, तथाविधधनपरिणामोपेतो वातः,
पूर्वोक्त प्रकारवाला मुनि यहीं पर विचरण करता है इसी सम्बन्ध को लेकर अब सूत्रकार पृथिवी के स्वरूप का निरूपण करते हैं " एगमेगाणं पुढवी" इत्यादि
सूत्रार्थ - प्रत्येक पृथिवी तीन घलयों से चारों दिशाओं में और विदिशाओं में अच्छी तरह से वेष्टित हुई कही गई है। वे वलय इस प्रकार से हैं घनोदधिवलय १ घनवातवलय २ और तनुवातवलय ३। __टीकार्थ-इस सूत्र का विस्तृन अर्थ इस प्रकारसे है-प्रत्येक रत्नप्रभा आदि पृथिवी समस्त दिशा और विदिशाओं में अच्छी तरह से पूर्वोक्त घनोदधि आदि तीन वातवलयों से वेष्टित है जिसमें उदधि जल
પહેલાના પ્રકરણમાં જેવા અણુગારની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી, એવા અણગારે આ પૃથ્વી પર જ વિચરતા હોય છે. આ સ બ ધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર પૃથ્વીના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે –
" एगमेगाणं पुढवी" त्या:
પ્રત્યેક પૃથ્વી ત્રણ વલથી ચારે દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં સારી રિતે વેષ્ટિત થયેલી કહી છે. તે ત્રણ વલયનાં નામ આ પ્રમાણે છે-(૧) ઘનેદધિ पक्ष्य, (२) धनवात सय, मने (3) तनुपात 4aय. मा सूत्र विस्तृत અર્થ આ પ્રમાણે છે—
રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વી સમસ્ત દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં પૂર્વોક્ત ઘનોદધિ આદિ ત્રણ વાતવલથી સારી રીતે વેષ્ટિત ( વીંટળાયેલી) છે. જેમાં હિમશિલાના જે ઉદધિ (જલસમૂહ) ઘન રૂપે જમા થયેલો રહે છે, તેને ઘનધિ કહે છે. એ જ વલયના જેવું વલય વેષ્ટ + છે, તેથી તેને
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सुधा टीका स्था० ३ ०४ ० ९९ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम्
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तद्रूपेण वलयेन २, तनुत्रात वलयेन, तनुत्रातः - तथाविधतनुपरिणामो बात एव, तद्रूपेण वलयेन वेष्टिता पृथिवी प्रज्ञप्तेति प्रक्रमः । आभ्यन्तरं घनोदधिवलयं, तत्परितः घनवातवलयं, तत्परितश्च तनुवातवलयमिति भावः भवन्ति चात्र गाथा:" नवि अ फुंसंति अलोगं चउपि दिसासु सव्त्रपुढवीओ | संगहिया वलएडिं, विक्खभं तेसि वोच्छामि ॥ १ ॥ छच्चेव १ अद्धपंचम२ जोयणसद्धं च होइ रयणाए । उदही १ घण२ तणुवाया ३, जहासंखेण निद्दिा ||२|| ति भागो? गाउयं चैव २, तिभागो गाउयस्स य ३ | आधुवे पक्व, अहो अहो जाव सत्तमियं ||३|| " छाया - नापि च स्पृशन्ति अलोकं चतसृष्वपि दिक्षु सर्वाः पृथिव्याः । संगृहीता वलयैर्विष्कम्भं तेषां वक्ष्ये ॥ १ ॥ षट्चैव १ अर्धपञ्चमानि२ योजन सार्धं च घन२ तनुवाताः ३, यथासंख्येन निर्दिष्टाः ॥ २ ॥ त्रिभागः १ ( योजनस्य ) गव्यृत चैवर त्रिभागो गव्यूतस्य च ३। आदि ध्रुवे प्रक्षेपः, अधः अधः यावत् सप्तमिकाम् || ३ || इति ।
भवति रत्नायाम् । उदधि १
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असां संक्षेपार्थ:-सवः पृथिव्यः चतसृष्वपि दिक्षु अलोकं न स्पृशन्ति, सर्वा अपि वलयैः संगृहीताः - वेष्टिताः सन्ति तेषां घनोदधिधनवाततनुत्रातानां निचय - हिमशिला के जैसा घन जमा हुवा रहता है वह घनोदधि है, बही वलय के जैसा वलय वेष्टित है इसलिये इसे घनोदविलय कहा है । घनवात वलय में तथाविध घनपरिणामोपेत वात रहता है तनुवात वलय में तथाविध तनुपरिणामोपेत वात रहता है अतः - घनोदधिरूप वलय, घनवानरूप वलय से और तनुवातरूप वलय से वेष्टित प्रत्येक पृथिवी कही गई है। इनमें आभ्यन्तर घनोदधिवलय है, इसके बाद चारों और घनात वलय है इसके बाद चारों और तनुवात वलय है । कहा भी है " नवि फुसति अलोगं-" इत्यादि इन गाथाओं का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार से है - समस्त पृथिवियां चारों भी दिशाओं में अलोक
ઘનેદિધ વય કહેવામા આવેલ છે. ઘનવાતવલયમાં તાવિધ (તે પ્રકારના ) ઘન-પરિણામેાપેત વાત રહે છે. તનુવાત વલયમાં તથાવિધ તનુ-પરિણામે પેત વાત રહે છે, તેથી પ્રત્યેક પૃથ્વીને ઘનેાદધિરૂપ વલય, ઘનવાતરૂપ લય અને તનુવાતરૂપ વલયથી વૈષ્ટિત કહી છે આ ત્રણે વલયેામાં આભ્યન્તર ઘનાધિવલય છે, ત્યારબાદ ચારે તરફ ઘનવાત વલય છે અને ત્યારખાઇ ચારે તરફ तनुवात वढाय छे उपाछे-“नत्रि अफुसंति अलोगं " इत्याहि
આ ગાથાઓના સક્ષિપ્ત અર્થ આ પ્રમાણે છે-સમસ્ત પૃથ્વીએ ચારે દિશાએમાં લેકને સ્પર્શ કરતી નથી, સમસ્ત પૃથ્વીએ વલાથી
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स्थानागसूत्र विष्कम्भ-विष्कम्भपरिमाणं वक्ष्ये, इति गाथाकारः कथयति ॥१॥ यथासंख्येनेति यथाक्रम, तथाहि घनोदधिवलयस्य विष्कम्भपरिमाणं षड्योजनानि, घनवातवलयस्य साधचतुर्योजनानि, तनुवातस्य साधयोजनमेकं विष्कम्भपरिमाणम् । एतद रत्नप्रभापृथिवीमाश्रित्योक्तम्।आदिधुवे-आदिवलये घनोदधिलक्षणे योजनस्य त्रिभागः प्रक्षेपणीयः, द्वितीये वलये-धनवातरूपे गव्यूतं प्रक्षेपणीय, तृतीये वलये तनुवातलक्षणे गव्यूतस्य त्रिभागः प्रक्षेपणीयः । एवं करणेन द्वितीय-पृथिव्या वलयत्रयं संपद्यते, एवं यावत्सप्तमिका-सप्तमीतमस्तमापृथिवीपर्यन्तं प्रक्षेपणेन सर्वास पृथिवीनां घनोदधिधनवात-तनुवातरूपस्य वलयत्रिकस्य विष्कम्भपरिमाणं भवतीति गाथात्रयस्य निष्कर्षार्थः ।। सू० ९१ ॥ को स्पर्श नहीं करती है, समस्तपृथिवियां वलयसे वेष्टिता हैं । घनोदधि काविष्कम्भ परिणाम ६ योजनका है धनवातवलयकाविष्कम्भ साढे चार योजन का है तनुवात वलय का विष्कम्भ परिणाम १॥ योजन का है घनोदधिरूप प्रथम वलय में योजन के तीन भाग प्रक्षिप्त करने से, धनवातरूप द्वितीय वलय में गव्यूत प्रक्षिप्त करने से तथा-तृतीय तनुवांतवलय में गव्यूत के तीन भाग प्रक्षिप्त करने से द्वितीयपृथिवी के 'तीन वातवलयों का विष्कम्भ परिमाण निकल आता है इसी तरह से .
सप्तमी तमस्तमा पृथिवी तक प्रक्षेपण करने से बाकी समस्त पृथिवियों के घनोदधि घनवात और तनुवातरूप वलयत्रिक विष्कम्भ परिणाम निकलता है यह तीन गाथाओं का निष्कषार्थ है सू०९२।। વેષ્ટિત છે. પહેલી પૃથ્વીને વીંટળાયેલા ઘનોદધિને વિષ્ક (વિસ્તાર) ૬
જનને છે, ઘનવાત વલયને વિષ્ક ૪ (સાડા ચાર) જનને છે અને તનુવાત વલયને વિઝંભ ૧૫ (દેઢ) જનને છે
ઘનેદધિ રૂપ પ્રથમ વલયને વિષ્કભ પ્રમાણમાં જનનો ત્રીજો ભાગ ઉમેરવાથી, ઘનવાત રૂપ બીજા વલયના વિષ્ક પ્રમાણમાં ગભૂતિ ઉમેરવાથી અને તનુવાત રૂપ ત્રીજા વલયના વિષ્ક ભ પરિમાણમાં ગભૂતિને ત્રીજો ભાગ ઉમેરવાથી બીજી પૃથ્વીના ત્રણે વાતવલના વિષ્ક નું પરિમાણ આવી જાય છે એ જ પ્રમાણે સાતમી તમસ્તમાં પર્યન્તની પૃથ્વીઓમાં ઉપર્યુક્ત પ્રમાણને વધારે કરતા જવાથી બાકીની પાંચે પૃથ્વીના ઘોદધિ વલય, ઘનવાત વલય અને તનુવાત વલયને વિધ્વંભ જાણી શકાય છે, આ પ્રકારને ત્રણ ગાથાઓને ભાવાર્થ સમજ. એ સૂ ૧ છે
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू०९१ नारकोत्पत्तिनिरूपणम्
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पूर्व रत्नप्रभादि पृथिवीनां प्ररूपणा कृताः, एतासु च नारका एवोत्पद्यन्त इति तेषामुत्पत्तिविधिमभिधातुमाह
मूलम् - नेरइया णं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्रंति, एादियवजं जाव वेमाणियाणं ॥ सू० ९२ ॥
छाया- - नैरयिकाः खलु उत्कर्षेण त्रिसामयिकेन विग्रहेण उपपद्यन्ते, एकेन्द्रियवजं यावद् वैमानिकानाम् || सु० ९२ ॥
टीका- 'नेरइयाणं इत्यादि सुगम, नवरं नैरयिका - उत्कर्षेण त्रिसामयि केन त्रयाणां समयानां समाहारस्त्रिसमय तत् प्राप्तं यस्य स त्रिसामयिकस्तेन ताहशेन विग्रहेण - वक्रगमनेन उपपद्यन्ते । उत्कर्षेणेति त्रसानां हि त्रसनाडयन्तरुत्पादाद वक्रद्वयं भवति, तत्र च त्रय एव समयास्तथाहि - जीव आग्नेय दिशातो नैर्ऋतदिशमेकेन समयेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समयेन समश्रेण्याऽधो गच्छति,
-
"
इस प्रकार रत्नप्रभा आदि पृथिवियों की अब इन पृथिवियों में नारक ही उत्पन्न होते हैं इस बात को कहने के लिये उनकी उत्पत्ति विधि को सूत्रकार कहते हैं - " नेरहयाणं उक्को से ० " इत्यादि, टीका नैरयिक जीव जिसमें उत्कृष्टसे तीन समय प्राप्त हैं ऐसे विग्रह से वक्र•गमन से उत्पन्न होते हैं जिसमें एकघुमाव एकवक्रगति हों उसका काल मान दो समयका, जिसमें दोघुमाव हों उसका कालमान तीन समय का होता है और जिसमें तीन घुमाव हों उसमें कालमान चार समयका है। इस नियम के अनुसार बस जीवों का त्रस नाडी के भीतर उत्पाद होने से द्युभाव होते हैं अतः वहां तीन ही समय लगते हैं, जैसे- जीव अग्नेय दिशा से नैर्ऋत दिशा तक एक समय में जाता है फिर द्वितीय समय में
રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીઓને વીંટળાયેલા ત્રણ વાતવલયેાનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર તે નરક પૃથ્વીએમાં ઉત્પન્ન થતાં નારકોની ઉત્પત્તિવિધિનું કથન रे छे- 'नेरइयाणं उक्कोसे " इत्याहि
ટીકા –જેમાં વધારેમાં વધારે ત્રણ સમય લાગે છે એવા વિગ્રહથી-વર્કંગમનથી નારક જીવા નરકામાં ઉત્પન્ન થાય છે. જે વિગ્રહગતિમાં એક ઘુસાવ (વળાંક ) ના સદ્ભાવ હાય છે, તે વિગ્રહનું કાળમાન એ સમયનું હોય છે જેમાં એ ઘુમાવ હોય તેવુ કાલમાન ચાર સમયનું હોય છે આ નિયમ અનુસાર સ નાડીની અંદર ત્રસ જીવેાના ઉત્પાદ હેાત્રાથી તે જીવામાં એ ઘુમાવના સદ્ભાવ ડાય છે, તેથી ત્યાં ત્રણ જ સમય લાગે છે. જેમકે જીવ અગ્નિ દિશાથી નૈઋત્ય દિશા સુધી એક સમયમાં જાય છે, ત્યારખાઇ દ્વિતીય સમયમાં સમદ્રેણીથી
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स्थानाशस्त्रे
ततस्तृतीयेन समयेन वायव्यदिशि समश्रेण्यैव गच्छतीति त्रयः समया उक्ताः । एवंविध उत्कर्षेण निसानामेव त्रसोत्पत्ती भवतीत्यत एवाह' एगिंदियवज्जं ' इत्यादि, एकेन्द्रियान वर्जयित्वेत्यर्थः । एकेन्द्रियास्तु एकेन्द्रियेषु पञ्चसा मयिकेन विग्रहेणाप्युत्पद्यन्ते तेषां वहिस्तात् त्रमनाडीतो वहिरुत्पद्यमानत्वात्,
उक्तश्च
――――――
" विदिसाउ दिसं पढमे, बीए पइसरडलोयनाडीए । तर उपि धाव, चउत्थए नीड़ वाहिं तु ||१||
पंचम विदिसीए गंतुं उप्पज्जए उ एगिंदी । " इति । छाया - विदिशातो दिशं प्रथमे, द्वितीये मतिसरति लोकनायाम् । तृतीये उपरि धावति, चतुर्थ के नयति वहिस्तु ॥ १ ॥ पञ्चमके विदिशायां गत्वोत्पद्यते तु एकेन्द्रियः ॥
सम्भवोऽप्ययम् । भवति तु चतुः सामयिक एव व्याख्याप्रज्ञय तथा प्रतिपादितत्वात् उक्तश्च
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समश्रेणी से नीचे जाना है उसके बाद तृतीय समय में वायव्य दिशा समणी से जाना है इस प्रकार दो घुमावों में ये तीन समय लगते हैं ऐसा कहा गया है । ऐसा उत्कृष्ट से मोडा-विग्रह नसों का सो त्पत्ति में होना है इसीलिये यहां " एर्गिदियवज्जं " इत्यादि सूत्रकार ने कहा है । क्योंकि एकेन्द्रिय एकेन्द्रियों में पांच समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इसका उत्पाद त्रस नाडी से बाहर होता है । कहा भी है- " चिदिसाउदिसं पढसे " इत्यादि एकेन्द्रिय जीव का यह पांच समग्रवाला उत्पाद सम्भव भी होता है परन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति में चार समयवाला ही इसका उत्पाद कहा है । कहा भी है
નીચે જાય છે, ત્યારબાદ તૃતીય સમયમાં વાયવ્ય દિશામા સમશ્રેણીથી જાય છે. આ પ્રકારે બે ઘુમાવમાં ત્રણ સમય લાગે છે. એ કથન સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારના ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ ત્રસેના મેાડે-વિગ્રહ ત્રસેત્પત્તિમાં થાય છે. तेथी सहीं " एगिदियवज्जं " इत्यादि स्थन सूत्रअयु छे, अर એકેન્દ્રિયની એકેન્દ્રિયમાં પાંચ સમયવાળા વિગ્રહથી પશુ ઉત્પત્તિ થય છે, કારણુ કે તેના ઉપાદ ત્રસ નાડીની બહાર થાય છે. કહ્યુ પણ છે કે~ विदिसादिसं पढमे " इत्यादि
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એકેન્દ્રિય જીવને આ પાંચ સમયવાળેા ઉત્પાદ સભવી શકે છે ખરા, પરંતુ વ્યાખ્યા પ્રાપ્તિમાં ચાર સમયવાળા જ તેના ઉત્પાદ કહ્યો છે. કહ્યું પશુ
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सुधा टीका स्था० ३ उ० ४ सू० ९२ नारकोत्पत्तिनिरूपणम
३४५ " अपज्जत्तगबहुमपुढबीकाइएण मंते । अहोलोगखेतनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए (गच्छइ ) उडलोयखेननालीए वाहिरिले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भने । कइसमइएणं विग्गण उववज्जेज्जा ? गोयमा ! तिसमदएण वा चउसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा" इत्यादि। ___ छाया-अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिकेन ! भदन्त ! अधोलोकक्षेत्रनाडया. वाह्ये क्षेत्रे समवहतः, समवहत्य यो भविकः ( गच्छति ) ऊर्ध्वलोकक्षेत्रनाडया बाह्ये क्षेत्रे अपर्याप्तकमूक्ष्मपृथिवी कायिकतया उपपत्तुं स खलु भदन्त ! कति साम यिकेन विग्रहेण उपपद्यते ? गौतम ! त्रिसामयिकेन वा चतुः सामयिकेन वा विग्र हेण उपपद्यते, इत्यादि । अत एवोक्तम्-'एगिदियवज्जं'-इति, एकेन्द्रियान वर्जयित्वा यावद् वैमानिकानां-वैमानिकपर्यन्तानां जीवानामुत्कर्षेण त्रिसामयिको विग्रहो भवतीति भावः ॥ ० ९२ ॥
पूर्व मोहवतां त्रिस्थानकमुक्त्वा, साम्मतं क्षीणमोहस्य तदाह____ मूलम्-खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्संसा जुगवं खिजंति, तं जहा-नाणावरणिजं, दसणावरणिजं, अंतराइयं ॥१३॥
"अपज्जत्तग सुहुम पुढची काइएणं भंते ?अहोलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणिन्ता जे भविए (गच्छद) उडलोयखेत्त नालीए बाहिल्ले खेत्ते अपज्जत्तग सुहमपुढवीकाइत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ? कह समइएणं विगाहेणं उदचज्जेज्जा गोयमा ? तिसमइएण वा घउसमहएण वा विगहेणं उवरज्जेज्जा" इत्यादि इसीलिये ऐसा कहा गया है-" एगिदियबज्ज" इति नारक जीवों की तरह ही एकेन्द्रिय को छोडकर यावत्-वैमानिक तक के समस्त जीवों का उत्कृष्ट से तीन समयवाला विग्रह होता है ॥ ९२ छ -“ अपज्जत्तगसुहुमपुढवीकाइएण भने ! अहोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेते सपोहए । समोह णित्ता जे भविष ( गच्छद) उड्ढलोयखेत्तनालिए वाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तगसुहुमपुढवीकाइत्ताए उववज्जित्तए से णं भते । कइ सम इएण विगाहेणं उबवज्जेज्जा १ गोयमा । तिसमइएण वा चसमइएण वा विगाहे उववज्जेज्जा" न्यादित रणे। रात ४थन ४२वामा मान्छे . "एगिव्यिवज" त्याहि-सन्द्रिय। सिवायना वैमानि४ यय-तना समस्त ઇને નારક જીવોની જેમ ત્રણ સમયવાળ ઉત્કૃષ્ટ વિગ્રહ (વક્રગમન) હોય છે, એમ સમજવું કે સૂ ૯૨ છે था ४४
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३४६
स्थानाने अभिईणखत्ते तितारे पण्णत्ते १ । एवं सवणोर अस्सिणी ३, भरणी, मगसिरे ५, पूसे ६, जेट्ठा७ ॥सू०९४॥
धम्माओ णं अरहाओ संती अरहा तीहिं सागरोवमेहि तिचउन्भागपलिओवमऊणएहिं वीतिकंतेहिं समुप्पन्ने ॥सू०९५॥
समणस्ल णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगतकरभूमी ॥ सू० ९६ ॥
सल्ली णं अरहा तीहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए १ । एवं पासे वि २ ॥ सू० ९७ ।।
समणस्स णं भगवओ महाबोरस्स तिन्निसया चउद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिण इव अक्तिहवागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुत्विसंपया हुत्था ॥ सू० ९८॥
तओ तित्थयरो चक्कवट्टी होत्था, तं जहा-संती १ कुंथूर अरो ३ ॥ सू० ९९ ॥ __ छाया-क्षीणमोठस्य खलु अर्हतस्त्रयः कर्मा शा युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं१, दर्शनावरणीयं२, आन्तरायिकम्३ ॥ सू० १३ ॥
पहले मोहवाले जीवों के तीन स्थान कहे हैं, अव सूत्रकार क्षीण मोहवाले जीव के तीन स्थान को कहते हैं-खीणमोहस्स णं अरहओ तओ-इत्यादि
सूत्रार्थ-क्षीणमोहवाले अन्न के तीन कर्मों श युगपत् क्षीणहोते हैं, जैसे-ज्ञानावरणीय-१ दर्शनावरणीय-२और अन्तराय३-॥ ९३
પહેલા મોહવાળા જીનાં ત્રણ સ્થાનનું કથન થયું હવે સૂત્રકાર ક્ષીણ મેહવાળા જીવનાં ત્રણ સ્થાનનું કથન કરે છે –
"खीणमोहस्स ण अरहो तओ" याहि
ક્ષીણ મોહવાળા અહંતના ત્રણ કમશે એકી સાથે ક્ષીણ થાય છે. જેમકે (१) ज्ञानावराय, (२) शना१२९॥य, (3) अन्तराय. 1 63 1
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पाठीका स्था० ३ उ० ४ ० ३ ९९ नारेकोत्पत्तिनिरूपणम्
કૃષ્ણ
अभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् १, एवं श्रवणः २, अश्विनी, भरणी४, मृगशिर: ५, पुष्यम् ६, ज्येष्ठा ७ ॥ ०.९४ ॥
धर्मात् खलु अर्हत शान्तिरन् त्रिषु सागरोपमेषु, त्रिचतुर्भागपरयोपमोनेषु व्यतिक्रान्तेषु समुत्पन्नः । ०९५ ॥
श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य यावत्तृतीयं पुरुषयुगं युगान्तकर भूमिः ॥ ९६
अभिजित् नक्षत्र तीन तारों वाला कहा गया है, इसी प्रकार से श्रवणनक्षत्र, अश्विनीनक्षत्र, भरणीनक्षत्र, मृगशिरानक्षत्र, पुष्यनक्षत्र और ज्येष्ठानक्षत्र भी तीन तारों वाले कहे गये हैं ॥ ९४
धर्मनाथ अर्हन्त के बाद शान्तिनाथ अर्हन्त तीन चौथाई भाग पल्पोपम से न्यून ३ सागरोपम निकल जाने पर उत्पन्न हुवें अर्थात् पूर्ण तीन सागरोपम और पौन पल वीतने के बाद - ।। ९५
भगवान महावीर स्वामी के तीर्थ में उनसे लगाकर यावत् जम्बू स्वामी तक निर्माण की प्रवृत्ति रही- बाद में वह प्रवृत्ति विच्छेद हो गई - ॥९६
मल्लिनाथ भगवान तीन सौ प्रव्रजित हुवे हैं उसी प्रकार से प्रव्रजित हुवे हैं - ॥ ९७
पुरुष के साथ मुण्डित होकर यावत् पार्श्वनाथ भी ३०० पुरुषों के साथ
અભિજિત નક્ષત્ર ત્રણ તારાઓવાળુ કહ્યુ છે એ જ પ્રમાણે શ્રવણ નક્ષત્ર, અશ્વિની નક્ષત્ર, ભરણી નક્ષત્ર, મૃગશીષ નક્ષત્ર, પુષ્ય નક્ષત્ર અને જ્યેષ્ઠા નક્ષત્ર पशु त्रषुत्रषु ताराभोवाणां छे. १८४ ।
ધર્મનાથ અર્હષ્કૃત થયા પછી ત્રણ સાગરાપમ કરતાં ૩/૪ પક્ષ્ચાપમ
(अर्थात त्रयु સાગરાપમ અને પાણા પલ્યાપમ કાલ पछी ) પ્રમાણુ ન્યૂન કાળ વ્યતીત થયા ખાઇ શાન્તિનાથ અર્હુત ઉત્પન્ન થયા હતા. । ૯૫ ૩
ભગવાન મહાવીર સ્વામીના તીથમા તેમનાથી શરૂ કરીને જ ખૂસ્વામી પન્ત નિર્વાણની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રહી હતી ત્યાર ખાદ્ય તે પ્રવૃત્તિ વિચ્છેદ્ય (अंध) यई गई ॥etu
મલ્લીનાથભગવાન ૩૦૦ પુરુષાની સાથે મુ'ડિત થઇને ગૃહસ્થાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્ણાંક પ્રત્રજિત થયા હતા. એ જ પ્રમાણે પાર્શ્વનાથ ભગવાને પણુ 300 पुरुषोनी साथै अवल्या गीअर हुती. । ८७ ।
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ફૂટ
स्थानाकसू
मल्ली खलु अर्हन् त्रिभिः पुरुषशतैः सार्ध मुण्डो भूत्वा यावत् मत्रजितः १ | एवं पार्श्वोऽपि || सु० ९७ ॥
श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य त्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्वीणाम् अजि. तानां जनसंकाशानां सर्वाक्षरसंनिपातिनां जिन इवाऽतिथव्यामृणताम् उत्कपिंका चतुर्दशपूर्वी संपदाऽऽसीत् ।। ०९८ ।।
त्रयस्तीर्थकराश्चक्रवर्त्तिन आसन्, तथथा - शान्तिः १, कुन्थुः २, अरः॥सू०९९ टीका- ' खीणमोहस्स इत्यादि । क्षीणमोहस्य-क्षीणमोहनीय कर्मणो ऽर्हृतः-जिनस्य त्रयः-कर्माशाः - कर्मप्रकृतय युगपत् - समकं क्षीयन्ते । तद्यथाज्ञानावरणीयं १, दर्शनावरणीयम् २, आन्तरायिकम् ३|० ९३ ||
་
पूर्वमशाश्वतानां त्रिस्थानकमुक्तं साम्प्रतं शाश्वतानां तदार' अभीई ' -इत्यादि, अभिजिन्नक्षत्रं त्रिवारं - तारकत्रयमयं प्रज्ञप्तम् । शेषं स्रुगमम् ॥सृ०९४|| परम्परसूत्रे क्षीणमोहस्य त्रिस्थानमुक्तं, साम्प्रतं प्रसङ्गात्तद्विशेषाणां तीर्थकराणां तदाह - ' धम्माओ इत्यादि, धर्मात् धर्मनाथाभिधानाद् अतः - धर्मार्हतोऽनन्तरमित्यर्थः, त्रिचतुर्भागपल्योपमोनेषु - त्रिभिः - त्रिसंख्यकैः चतुर्भागैःपादैः पल्योपमसम्बन्धिभिरूनानि त्रिचतुर्भागपल्योपमोनानि तेषु तादृशेषु पल्योपमचतुर्थभागत्रयरहितेषु त्रिषु सागरोपमेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु शान्तिः शान्तिनाथोऽर्हन् समुत्पन्नः || सू० ९५ ॥
' समणस्से ' - त्यादि, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य यावत्तृतीयं पुरुषयुगम्, युगानि पञ्चवर्ष प्रमितानि कालविशेषाः, तानि च क्रमव्यवस्थितानि भवन्तीत्यतः पुरुषाः - गुरुशिष्यक्रमवन्तः पितापुत्रक्रमवन्तो वा अत्र पुरुषः गुरुशिष्य - क्रमवान्, स युगमित्र पुरुषयुग पुरुपसिंहवत्समासः, ततश्च तृतीयं पुरुषयुगं यावत्
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ३०० चतुर्दश पूर्वधारियों चौदह पूर्व धारियों की उत्कृष्ट चतुर्दश पूर्वी सम्पदाथीं ये चतुर्दश पूर्वधारी अजिन थे - असर्वज्ञ थे जिनके जैसे थे। क्यों कि ये सकलसंशय के छेदक थे सकलवाङ्मय के सकलशास्त्र के ज्ञाता थे, एवं तीर्थकर की तरह तथ्यभाषी थे । ९८
શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરની ઉત્કૃષ્ટ ચતુર્દશપૂર્વસ પત્તા ૩૦૦ ની હતી. એટલે કે તેમના શિષ્ય સમુદાયમાં ૩૦૦ અણુગા । ચૌદ પૂર્વાધારી હતા. તે ચૌઢ પૂર્વાંધારી અજિન હતા, અસજ્ઞ હતા અને જિતના સમાન હતા, કારણ કે તેએ સકલ સંશયના છેદક હતા, સકલ વાડ્મયના ( સકલ શાસ્ત્રોના ) જ્ઞાતા હતા અને તીથ કરની જેમ તથ્યભાષી હતા. । ૯૮ ।
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सुधा ठीका स्था० ३ १ ४ सू० ९३-९९ भारकोत्पत्तिनिरूपणम् ३४९ जम्बूस्वामिनं यावदित्यर्थ. युगान्तकरभूमिः, युगं-पुरुपयुगं-तदपेक्षया अन्तकराणां -भवान्तकारिणां निर्वाणगामिनामित्यर्थः भूमि:-कालः युगान्तकरभूमिरासीदिति। इदमत्र तात्पर्य म्-भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनस्तीर्थे तस्मादारभ्य तृतीय पुरुष जम्बूस्वामिनं यावनिर्वाणमभूत् , तदुत्तरकाले तद्वयवच्छेदादिति ॥ सू० ९६ ॥
'मल्ली'-त्यादि सूत्रद्वयम् , मल्ली-मल्लीनाथस्वामी खलु अर्हन् त्रिभिः पुरु षशतैः-त्रिशतसंख्यकपुरुषैः सार्ध मुण्डो भूत्वा ' यावर ' इति अगाराद् अनगारितां प्रत्रजित:-प्राप्तः । ' एवं पासेवि' इति एवं-मल्लीनाथस्वामिवत् पार्थोऽपि पार्श्वनाथस्वाम्यईन्नपि त्रिशतपुरुषैः सह प्रत्रजितोऽभूदिति भावः ॥ सू० ९७ ॥
त्रिस्थानकत्वाद् भगवतो महावीरस्य चतुर्दशपूर्विसंपत्सूत्रमाह-'समणस्स' इत्यादि, श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य चतुर्दशपूर्विणां-चतुर्दशपूर्व धराणाम् , कीदृशानाम् ? इति विशेषणकलापमाह-' अनिणाणं' इत्यादि, अजिनानाम्असर्वज्ञत्वेन, जिन सकाशानां-जिनसशानां सकलसंशयच्छेदकत्वेन, सर्वाक्षरसनिपातिना, सर्व-सकला अक्षरस निपाता:-अकारादिसंयोगा:-सर्वाक्षरस निपाताः, ते विद्यन्ते येषां ते तथोक्ताः, तेषां विदितसकलवाङ्मयानामित्यर्थः पुनश्च जिन इच अर्हद्वत् , अवितथव्यागृणताम् , अवितर्थ-यथावस्थितं व्यागृणतां - व्याकुर्वतां, तीर्थकरवत्तथ्यभाषिणामित्यर्थः, एतद्विशेषणविशिष्टानां चतुर्दशपूर्विणाम् उत्कर्षिका-उत्कृप्टा चतुर्दशपूर्विसम्पत् - एतदभिधानासम्पत् 'होत्था' इति-आसीत् ।। ९० ९८ ॥ ___ 'तो' इत्यादि, त्रयस्तीर्थकराः चक्रवर्तिन आसन , तानेवाह-शान्तिःशान्तिनाथः १, कुन्थुः--फुन्थुनाथः २, अर:-अरनाथः ३ इति ॥ सू० ९९ ।।
पूर्व तीर्थकरा वर्णिताः, ते च विसानेभ्य आगता भवन्तीति विमानवक्तव्यता सूत्रचतुष्टयेनाऽऽह
__मूलम्-तओ गेविज्जविमाणपत्थडा घण्णता,तं जंहा-हिट्रिमगेविज्जविमाणपत्थडे १, मज्झिमगविज्जविमाणपत्थडे २, उव. रिमविज्जविमाणपत्थडे ३ । १। हिटिमगेविज्जविमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते,तं जहा-हेटिमहट्ठिमगेविज्जविमाणपत्थडे १,हेटि
ये तीन तीर्थकर चक्रवर्ती हुवे हैं-शान्तिनाथ-कुन्थु-अमरनाथ ९९
આ ત્રણ તીર્થ કરોએ ચક્રવર્તી પદ ભેગવ્યું હતું-(૧) શાન્તિનાથ, (૨) उन्युनाथ मन (3) मरनाथ, । ६८ !
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३५०
थान
ममज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे २, हेडिमउवरिमगेविजविमाणपत्थडे ३२ मज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - मज्झिम हेट्टिमगविज्जविमाणपत्थडे १, मज्झिममज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे २, मज्झिमउवरिगे विज्जविमाणपत्थडे ३ | ३ | उवरिगे विज्जविमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - उवरिमहेट्टिमगेविज्जविमाणपत्थडे १, उवरिममज्झिमगेविज्जविमाणपत्थडे २, उवरिमउवरिमगेविज्ज विमाणपत्थडे ३ | ४ || सू० १०० ॥
छाया - त्रयः ग्रैवेयकविमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अधस्तनग्रैवेयकविमानप्रस्तटः १, मध्यमग्रैवेयक विमानप्रस्तटः २, उपरितन ग्रैवेयकविमानमस्तटः ३ । १ । अधस्तनग्रैवेयक विमानमस्त्रस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - अधस्तनाधस्तनग्रेवेयविमानप्रस्तटः १, अधस्तनमध्यमग्रैवेयक विमानप्रस्तटः २, अधस्तनोपरितनयैवेयकविमानप्रस्तटः ३ । २ । मध्यमग्रैवेयक विमानमस्तटस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
तीर्थकर विमानों से आकर होते हैं, अतः अब विमान संबंधी वक्तव्यता सूत्रकार चार सूत्रों से करते हैं " तओ गेविजविमाणपत्थडा पण्णसा इत्यादि,
"
टीकार्थ-तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर कहे गये हैं, जैसे- अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - १ मध्यमग्रैवेयक विमान प्रस्तर - २ उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - ३ इनमें - अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर भी तीन प्रकार के कहे गये हैं, अधस्तनाधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर-१ अधस्तनमध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तर-२ अधस्तनोपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर- ३ | मध्यम ग्रैवेयक विमानप्रस्तर भी तीन प्रकार का कहा गया તિથ"કરી વિમાનામાંથી આવીને આ મૃત્યુલોકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર નીચેના ચાર સૂત્રા દ્વારા વિમાને નું કથન કરે છે.
" तओ गेविज्जविमानपत्थडा पण्णत्ता " त्याहि
ટીકા ત્રૈવેયક વિમાનાનાં ત્રણ પ્રકાર કહ્યાં છે–(૧) અધઃસ્તન ત્રૈવેયક ત્રિમાન પ્રસ્તર, (ર) મધ્યમ શૈવેયક વિમાન પ્રસ્તર અને (૩) ઉપરિતન ત્રૈવેયક વિમાન પ્રસ્તર અધસ્તન ત્રૈવેયક વિમાન પ્રસ્તરના પણ નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર ४ह्या छे–(१) अधस्तनाधस्तन ग्रैवेया विभान प्रस्तर, (२) अधस्तन मध्यभ ત્રૈવેયક વિમાન પ્રસ્તર અને (૩) અધસ્તનાપતિનઐવેયક વિમાન સ્તર. મધ્યમ ગ્રેવેયક વિમાન પ્રસ્તરના પણ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે—
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सुधाटीका स्था०३ ३० सू० १०० विमानवर्णम्
३५१
मध्यमाधस्तनग्रैवेयकविमानप्रस्तटः १, मध्यममध्यम - ग्रैवेयकविमानप्रस्तटः २, मध्यमोपरितनग्रैवेयक विमानप्रस्तटः ३ | ३ | उपरितनग्रैवेयक विमानमस्तटस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - उपरितनाधस्तन ग्रैवेयक विमानमस्तटः १, उपरितनमध्यमग्रैवेयकविमानप्रस्तटः २, उपरितनोपरितनयैवेयक विमानप्रस्तटः ३ | ४ || सू० १०० ॥
टीका- ' तओ गेविज्ज० ' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमं, नवरम्-ले - लोकपुरुषस्य ग्रीवा स्थाने भवानि ग्रैवेयकाणि तानि च तानि विमानानीति ग्रैवेयक विमानानि, तेषां प्रस्तटाः- रचनाविशेषवन्तः समृहा इति ग्रैवेयक विमानमस्तटाःते त्रयः- त्रिसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः - अधस्तन - मध्यमो - परितन ग्रैवेयक मस्त भेदात्, तद्यथा-ताने वाह - ' हिट्ठिमगेविज्ज० ' इत्यादि । सर्व स्पष्टम् ॥ सू० १०० ॥ इदं च ग्रैवेयकादिविमानवासित्वं यद् भवति तत् कर्मणः सकाशाद् भवतीति कर्मणस्त्रिस्थानकमाह -
मूलम् — जीवा णं तिद्वाणणिव्वात्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए विणिसु वा चिंणिति वा चिणिस्संति वा तं जहा - इत्थिणिहै - मध्यमाधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - १ मध्यम मध्यम ग्रैवेयक विमानप्रस्तर - २ मध्यमोपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - ३ | उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर भी तीन प्रकार का है, उपरितनाधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - १ उपरितन मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तर-२ उपरितनो परितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर - ३ | लोक पुरुष की ग्रीवा के स्थान में होने के कारण ये ग्रैवेयक विमान कहलाते हैं, इनके रचना विशेष से युक्त जो समूह हैं वे प्रस्तर कहलाते हैं । इन के तीन प्रकार, और प्रकारों के भी प्रकार, ये सब ऊपर प्रकट कर दिये गये हैं । १००
૧ મધ્યમાધસ્તન ચૈવેયક વિમાનપ્રસ્તર, ૨ મધ્યમમધ્યમ ત્રૈવેયક–વિમાન પ્રસ્તર અને ૩ મધ્યમાપરિતન ત્રૈવેયક વિમાનપ્રસ્તર
ઉપરિતન ત્રૈવેયક વિમાન પ્રસ્તરના પણ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે—
૧ ઉપરિતનાધસ્તન ત્રૈવેયક વિમાનસ્તર, ૨ ઉપસ્તિન મધ્યમ વેયક વિમાનપ્રરતર અને ૩ ઉપતિનેપરિતન ગ્રેવેયક વિમાનપ્રસ્તર લીકપુરુષની ગ્રીવાના સ્થાનમાં હાવાને કારણે આ વિમાનાને ત્રૈવેયક વિમાના કહે છે, રચના વિશેષથી યુક્ત એવા તેમના જે સમૂહ તેમને પ્રસ્તર કહે છે. તેના મુખ્ય ત્રણ પ્રકારેતુ અને પ્રત્યેક પ્રકારના ત્રણ ત્રણ પ્રકારનું આ સૂત્રમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે ! સૂ॰ ૧૦૦ ગ્ર
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स्थानाक्षस व्यत्तिए, पुरिसणिव्वत्तिए, णपुंसगणिव्वत्तिए १। एवं " चिणउवचिण-बंध-उदी-रण-वेद तह निज्जराचेव" ॥ सू० १०१॥
छाया-जीवा खलु त्रिस्थाननिनितान पुद्गलान् पापकर्मतया अचिन्वन् वा, चिन्वन्ति वा, चेष्यन्ति वा, तद्यथा-स्त्री नितितान् , पुरुपनिर्वतितान , नपुंसक निर्वतितान् ।१। एवं चयोपचयवन्धोदीरणवेदात्तथानिजग चैत्र ।। सू० १०१ ॥ ____टीका--'जीवा' इत्यादि मृत्रपट्कम् । जीवाः खलु त्रिस्थाननिर्वतितानत्रिभिःस्थाननिर्वतिताः-उपार्जिताः त्रिस्थाननिर्वतितास्तान पुद्गलान् पापकर्मतया-अशुभकर्मत्वेन उत्तरोत्तराशुभाध्यवसायवशात् अचिन्वन-एकत्रीकृत पन्तो भूनफाले, चिन्वन्ति वर्तमानकाले, चेप्यन्ति-अनागतकाले। तान्येव त्रिस्थानानि दर्शयति-स्त्रीनिर्वतितान्-स्त्रीवेदत्वेनाऽनितान् , पुरुषनिर्वतितान-पुरुष वेदत्वे.
अवेयक आदि विमानों में जीव की निवासिता कर्मोदय से होती है-इस लिये-अब सूत्रकार कर्म के तीन स्थान प्रकट करते हैं-" जीवा णं तिट्ठाण" इत्यादि टीकार्थ-जीवोंने तीन स्थानों द्वारा उपार्जित पुद्गलों को उत्तरोत्तर अशुभ अध्यवसाय के वशमें होकर पापकर्मरूप से भूतकाल में संगृहीत किया है वर्तमान में संगृहीत करते हैं और भविष्यत् काल में संगृहीत करेंगे। वे तीन स्थान इस प्रकार से है-स्त्री वेद, पुरुप वेद, और नपुं. सकवेद इनमें रहकर जीवने जिन पुगलों को उपार्जित कर पापकर्म से पहिले एकत्रित किया है ग्तमान में एशनिक कर रहे हैं और भविज्यत् काल मे जिन्हें वे एकत्रित करेंगे वे स्त्री वेद निर्मित पुद्गल हैं। इसी प्रकार पुरुष वेद में रहकर जीव ने जिन पुद्गलों को उपार्जित कर
( શૈવેયક આદિ વિમાનમાં જીવની ઉત્પત્તિ (ઉપપત) કર્મોદયથી થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર કર્મના ત્રણ સ્થાન પ્રકટ કરે છે–
"जीवाणं तिहाण "साहि। ટીનાઈ–વે એ ત્રણ સ્થાન દ્વારા ઉપાર્જિત પુદ્ગલેને ઉત્તરોત્તર અશુભ અધ્ય. વસાયને અધીન થઈને અશુભ કર્મરૂપે ભૂતકાળમાં સંગૃહીત કર્યા છે વર્તમાનમાં સંગૃહીત કરે છે અને ભવિષ્યમાં સંગૃહીત કરશે. તે ત્રણ સ્થાન આ પ્રમાણે છે– વેદ, પુરુષવેદ અને નપુંસકવેદ, સ્ત્રીવેદમાં રહીને જીવે છે પદ્રલેને ઉપાર્જિત કરીને અશુભકર્મરૂપે પહેલાં (ભૂતકાળમાં) એકત્રિત કર્યો છે, વર્તમાનમાં એકત્રિત કરી રહ્યો છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ જેને તે એકત્રિત કરવાનું છે, તે પુલને સ્ત્રીવેદ નિવર્તિત પુદ્રો કહે છે.
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सुधा टीका स्था०३ उ०४ सू० १०१ कर्मण त्रिस्थाननिरूपणम् नार्जितान्, नपुंसकनिर्वर्त्तितान् नपुंसक वेदत्वेनाऽर्जितान् पुद्गलान् जीवाः कालयेsपि अचिन्वन्चिन्वन्ति चेष्यन्तीति प्रक्रमः । १ । एव इत्यनेनाकाङ्क्षा वाक्येन चयसंगादुपचयाद्यालापकपञ्चकमपि विज्ञेयम् । एव चयालापकवत् उपाचिन्वन्- परिपोषणत एच २, अबध्नन्- निर्मापणतः ३, उदैरयन् - अध्यवसाय विशेपापकर्मरूप से पहले एकत्रित किया है, वर्तमान में वे जिन्हें एकत्रित कर रहे हैं और भविष्यत् काल से जिन्हें वे एकत्रित करेंगे वे पुरुषवेद निवर्तित पुल हैं। इसी प्रकार से नपुंसक वेद में रहकर जीवने जिन पुरुषों को उपार्जित कर पापकर्मरूप से पहले एकत्रित किया है वर्तमान मे वे जिन्हें एकत्रित कर रहे हैं और भविष्यत् काल में वे जिन्हें एकत्रित करेंगे वे नपुंसक वेदनिवर्तित पुल हैं । अर्थात् - स्त्री वेदरूप से अर्जित पुद्गलों को पुरुष वेद रूप से अर्जित पुलों को तथा - नपुंसक वेदरूप से अर्जितपुद्गलों को जीवोंने कालत्रय में अर्जित किया है, अब भी वे करते हैं और भविष्यत् में भी वे अर्जित करेंगे " एवम् " यह आकांक्षा वाक्य है - इस आकांक्षावाक्य सेव के सम्बन्ध से उपचयवन्ध, उदीरणा आदि बीच के आलापक भी जाननी चाहिये इस तरह इस चय के आलापक की तरह जीव ने उनके परिपोषण से भूत काल में उनका उपचय किया है वर्तमान में वे
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એ જ પ્રમાણે પુરુષવેમા રહીને જીવે જે પુલેાને ઉપાર્જિત કરીને અશુભ કરૂપે પહેલાં એકત્રિત કર્યાં છે, વર્તમાનમાં તે જેમને ઉપાર્જિત કરી રહ્યો છે અને ભવિષ્યકાળમા તે જેમને એકત્રિત કરવાના છે, તે પુદ્ગલેને પુરુષવેદ નિવૃત્િત પુછ્યા કહે છે.
એ જ પ્રમાણે નપુસકવેદમાં રહીને જીવે જે પુછ્યાને ઉપાર્જિત કરીને પહેલાં અશુભ કમરૂપે એકત્રિત કર્યાં છે. વર્તમાનમાં તે જેને એકત્રિત કરી રહ્યો છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે જેમને એકત્રિત કરવાના છે, તે પુèાને નપુ'સકવેદ નિવૃતિ ત પુāા કહે છે. એટલે કે સ્ત્રીવેદરૂપે ઉપાર્જિત પુદ્ગલેને પુરુષવેદરૂપે ઉપાર્જિત પુèાને તથા નપુસકવેરૂપે ઉપાર્જિત પુàાને જીવ ત્રણે કાળમાં એકત્રિત કરે છે – ભૂતક'ળમાં પશુ ઉપાર્જિત કર્યાં છે, વમાનમાં પણ ઉપાર્જિત કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ ઉપાર્જિત કરશે.
<< एवम् " ” ઇત્યાદિ-આ આકાક્ષા વાકય છે. આ આકાંક્ષા વાકય દ્વારા ચયના સંબંધથી ઉપચય અન્ય, ઉદીરણા આદિ વચ્ચેના આલાપક પણુ સમજી લેવા જોઇએ આ રીતે આ ચયના આલાપકની જેમ જીવે પરિપાષણની
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स्थानाङ्गसूत्रे
पेणानुदीदियप्रवेशनतः, ४ अवेदयन् - अनुभवकरणतः ५, निरजरयन - आत्मप्रदेशपरिशादनतः ६ । एवं वर्त्तमाना - नागतकालयोरपि बोध्यम् । चयाद्याश्रित्य गाथाधमत्र, तथाहि - " चिण उपचिण० ' इत्यादि । अस्यार्थो व्याख्यातपूर्व एवेति ॥ सु० १०१ ॥
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उपचय करते हैं और भविष्यत् में भी वे उनका उपचय करेंगे । इसी प्रकार से अपने भावों के अनुसार उनका निर्माण करने से उनका भूतकाल में बन्ध किया है, वर्तमानकाल में वे उनका बन्ध करते हैं, आगे भी वे उनका बन्ध करेंगे । इसी तरह अध्यवसाय विशेष से अनुदीर्ण को उदय में प्रवेश कराने से जीव ने भूतकाल में उनकी उदीरणा की है वर्तमान में वे उनकी उदीरणा करते हैं और भविष्यत् में वे उनकी उदीरणा करेंगे। इसी तरह से जीव ने उनका अनुभवन करण से उनका भूतकाल में वेदन किया है वर्तमान में वे उनका वेदन करते हैं और भविष्यत् मे वे उनका वेदन करेंगे। इसी प्रकार आत्मप्रदेश से उन्हें हटाने से जीव ने भूतकाल में उनकी निर्जरा की है वर्तमान में वे उनकी निर्जरा करते हैं और भविष्यत् में वे उनकी निर्जरा करेंगे । चयादि को आश्रित करके यह आधी गाथा सूत्रकार ने " एवं चिण उवचिण અપેક્ષાએ ભૂતકાળમાં પણ તેમને ઉપચય કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેમના ઉપચય કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તેમને ઉપચય કરશે
એ જ પ્રમાણે પોતાના ભાવા અનુસાર તેમનું નિર્માણુ કરવાની અપે ક્ષાએ જીવે ભૂતકાળમાં તેમના અન્ય કર્યાં છે, વર્તમાનકાળમાં પણ તે તેમને અન્ય કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે બન્ધ કરશે એ જ પ્રમાણે અધ્યવસાય વિશેષથી અનુદીણુ ને તેમના ઉદયમાં પ્રવેશ કરાવવાની અપેક્ષાએ ભૂતકાળમાં તેમની ઉદીરણા કરી છે. વર્તમાનકાળમાં પણ જીવ તેમની ઉદીરણ્ણા કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ જીવ તેની ઉદીરણા કરશે.
એ જ પ્રમાણે જીવે તેમના અનુભવનકરણની અપેક્ષાએ ભૂતકાળમાં તેમનું વેદન કર્યું છે, તમાનકાળમાં પણ જીવ તેમનું વેદન કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેમનુ વેદન કરશે.
એ જ પ્રમાણે આત્મપ્રદેશમાંથી તેમને અલગ કરવાની અપેક્ષાએ જીવે ભૂતકાળમાં તેમની નિર્જરા કરી છે, વર્તમાનકાળમાં પણ જીવ તેમની નિજા કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ જીવ તેમની નિર્જરા કરશે.
यथाहिने आश्रित उरीने या अर्धी गाथा सूत्रारे “ एवं चिण उवचिण -यथ- उदीरण - वेद तह निज्नरा चेष " सा प्रभारही छे, तेना अर्थ
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सुधा टीका स्था० ३ उपसू०१०२ पुद्गलस्कंधनिरूपणमू कर्म च पुद्गलात्मकमिति त्रिस्थान केन पुद्गलस्कन्धानाह
मूलम्-तिपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता । एवं जाव तिगुणलक्खा पोग्गला अणंता पण्णता ॥ सू० १०२ ॥ ॥ तिट्ठाणस्स चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ३-४ ॥
तिहाणं समत्त ॥३॥ छाया-त्रिपदेशिकाः स्कन्धा अनन्ताः प्रज्ञप्ताः एवं यावत् त्रिगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्राप्ताः ।। मू० १०२ ॥
॥ तृतीयस्थानस्य चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥ ३-४ ॥ टीका-'तिपएसिया' इत्यादि सुगमम् ।। सू० १०२ ॥ इतिश्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म
दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां
स्थानाङ्गसूत्रस्य सुधाख्यायां व्याख्यायां
चतुरुद्देशात्मकं तृतीय स्थानं संपूर्णम् ॥ ३-४ ॥ बंध उदीरण वेद तह निज्जरो चेव" इस प्रकार से कही है इसका अर्थ ही यह पूर्वोक्तरूप से प्रकट किया है। तात्पर्य कहने का यही है किचय की तरह ही स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप से अर्जित पुगलों का अशुभ रूप से उपचय किया है, बन्ध किया है, उदीरण किया है, वेदन किया है और निर्जरा भी की है इसी तरह का कथन वर्तमान काल और भविष्यकाल सम्बन्धी उपचयादिकों के आलापकों में भी कर लेना चाहिये ।मु०१०१।। પૂર્વોક્તરૂપે ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે
ચયની જેમ જ સ્ત્રીવેદ, પુરુષવેદ, અને નપુંસકવેદરૂપે અર્જિત પુદ્ગલેને જીવે અશુભરૂપે ઉપચય કર્યો છે, બધ કર્યો છે, ઉદીરણ કર્યું છે અને નિર્જર પણ કરી છે. એ જ પ્રકારનું કથન વર્તમાનકાળ અને ભૂતકાળ સંબંધી ઉપચચાદિકના આલાપકામાં પણ સમજી લેવું જોઈએ છે ૧૦૧ છે
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स्थान सू
कर्म पुद्गल स्कन्धरूप होते हैं, अतः - सूत्रकार त्रिस्थान को लेकर पुद्गलस्कन्धों का कथन करते है
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तिपएसिया खंधा अणता-" इत्यादि । त्रिप्रादेशिक स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं इसी तरह से यावत् त्रिगुणरूक्ष पुद्गल भी अनन्त कहे गधे हैं ।। १०२ ।।
श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचित स्थानाकी सुधाख्य टीका के चार उद्देशक युक्त तीसरे स्थानक समाप्त ॥ ३-४ ॥
કમ પુદ્ગલ સ્કન્ધરૂપ ાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ત્રિસ્થાનકાની અપેક્ષાએ પુદ્ગલ સ્કન્ધાનું કથન કરે છે—
"तिपएसिया खधा अनंता " इत्यादि ।
ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધ અનન્ત કહ્યાં છે. એ પ્રમાણે ત્રિશુષુરૂક્ષ પર્યન્તનાં युगल पशु अनंत उद्यां ॥ १०२ ॥
શ્રી જૈનાચાર્ય-જૈનધમદિવાકર-પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલ મુનિવિરચિત સ્થાનાંગસૂત્રની સુધા નામની ટીકાના ચાર ઉદ્દેશક વાળુ' ત્રીજું સ્થાનક સમાપ્ત, ૫ ૩-૪ ૫
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श्रीवीतरागाय नमः । अथ चतुर्थ स्थान प्रारभ्यते चतुर्थस्थानस्य प्रथमोद्देशः ॥१॥ महावीरं धीरं जितमदनवीरं प्रभुवरं,
कृपापारावारं दलितभवभारं जिनवरम् ।। त्रिधा वन्दे चन्देलिमपदसरोजं सुरवरै, स्ततस्तूर्य स्थानं विवरणपथं मापय इदम् ॥१॥ चौथा स्थानक के पहेला उद्देशक प्रारंभ
मगलाचरणम्" महावीरं वीरं " इत्योदि १॥
इस श्लोक का संक्षेप में अर्थ इस प्रकार से है-जिन्के वन्दनीय पद कमलों की वन्दना देवेन्द्र करते हैं, जो कृपा के अपार पारावार है, जिन्हों ने अपना भव भार उतार दिया है, ऐसे धीर वीर प्रभुवर महावीर को कि जिन्हों ने मदन-काम जैसे श्रेष्ठ वीर के मद को चूर कर दिया है मैं मन वचन और कायरूप त्रिकरण विभागसे नमस्कार करता हूं, स्थानाङ्ग सूत्र का यह चतुर्थ स्थान अब विवरण युक्त किया जाता है -
ચોથા સ્થાનને પહેલે ઉદ્દેશક પ્રારંભ
- भगवाय२९] - " महावीर वीर" याह
આ કલેકને ભાવાર્થ સંક્ષિપ્તમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે-જેમના વદ. નીય ચરણકમલની વરણું દેવેન્દ્રો પણ કરે છે, જેમની કૃપા પારાવાર છે, જેમણે પિતાને ભવભાર ઉતારી નાખ્યા છે, જેમણે મદન (કામ) જેવા મહાવીરના મદને-અહંકારને સર્વથા શકય કરી નાખ્યો છે. એવા ધીર વીર પ્રભૂવર મહાવીરને હુ મન, વચન અને કાયથી નમન કરૂં છું.
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स्थानाशवं ___ गतं तृतीय स्थान, सम्पति क्रमप्राप्तं चतुर्थस्थान प्रारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-" तृतीयस्थाने जीवाजीवादिद्रव्यपर्यायाणां वैचित्र्यमभिहितमत्रापि तदेवाभिधीयते " इत्यमुनासम्बन्धेनाऽऽयातस्य चतुरुदेशकात्मकस्य चतुर्थस्थानस्य प्रथमोद्देशकस्याऽऽद्य सूत्रमाह
मूलम्-चत्तारि अंतकिरियाओ पण्णत्ताओ ते जहा-तत्थ खलु पढमा इमा अंतकिरिया-अप्पकम्मपच्चायाए यावि हवइ, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए संयमबहुले संवरवहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी तस्स णं णो तहप्पगारे तवे हवइ, णो तहप्पगारा वेयणा हवइ तहप्पगारे पुरिसजाए दीहेणं परियारणं सिंज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सब दुक्खाणमंतं करेइ, जहा से भरहे राया चाउरंतचकवट्टी, पढमा अंतकिरिया १, अहावरा दोच्चा अंतकिरिया महाकम्मपच्चायाए यावि भवइ, - तृतीय स्थान समाप्त हो चुका, अब क्रम प्राप्त चतुर्थ स्थान प्रारम्भ होता है इस स्थान का पूर्वस्थान के साथ ऐसा सम्बन्ध है-" तृतीय स्थान मे जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का वैचित्र्य विविध प्रकार कहा गया है, सो यहां पर भी वही कहा जावेगा' इसी सम्बन्ध से आये हुवे इस चार उद्देशात्मक चतुर्थ स्थानके प्रथम उद्देशकका यह आय सूत्र कहा जा रहा है-"चत्तारि अंत किरियाओ पण्णत्तामो-" इत्यादि
હવે સ્થાનાંગ સૂત્રના ચોથા સ્થાનનું વિવેચન કરવામાં આવે છેત્રીજા સ્થાનનું વિવરણ પૂરું થયું હવે અનુક્રમ પ્રમાણે ચોથા સ્થાનની પ્રરૂપણા શરૂ થાય છે. આ સ્થાનને પૂર્વ સ્થાન સાથે આ પ્રકારનો સંબંધ છેત્રીજા સ્થાનમાં જીવ, અછવાદિ દ્રવ્યની પર્યાનું વિચિત્ર્ય વિવિધ પ્રકારે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, અહીં પણ એ જ વિષયને અનુલક્ષીને ચાર સ્થાનની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કરવામાં આવશે. ચતુર્થ સ્થાનનું પ્રતિપાદન કરતાં ચાર ઉદ્દેશકે છે, તેમાંથી પહેલા ઉદ્દેશાનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે
" चत्तारि अंतकिरियाओ पण्णत्ताओ" त्याह
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सुघाटीका स्था० ४ उ० १ सू० १ अन्तक्रियायाः निरूपणम् ३५९ से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए संयमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणबं दुक्खक्खवे तवस्ती तस्त णं तहप्पगारे तवे भवइ, तहप्पगारा वेयणा भवइ, तहप्पगारे पुरिसजाए निरुद्धणं परियारण सिज्झइ, जाव अंतं करेइ, जहा-से गयसूमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया २, अहावरा तच्चा अंतकिरिया-महाकम्मपञ्चायाए यावि भवइ, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए जहा दोच्चा, नवरं दोहेणं परियारणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहा-से सणंकुमारे राया चाउरंतचकवट्टी, तच्चा अंतकिरिया ३, अहावरा चउत्था अंतकिरिया-अप्पकम्मपञ्चायाए यावि भवइ, से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए संयमबहुले जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवइ, णो तहप्पगारा वेयणा भवइ, तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं परियारणं सिज्झइ, जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहासा मरुदेवा भगवई, चउत्था अंतकिरिया ४ ॥ सू० १ ॥
छाया-चतस्रोऽन्तक्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र खलु प्रथमा इयम् अन्तक्रिया-अल्पकर्मपत्यायातश्चापि भवति, असौ खल मुण्डो भूत्वा अगारतोऽनगारितां प्रत्रभितः संयमबहुलः संवरवहुलः, समाधिवहुकः लक्षः (व.) तीरार्थी तीरस्थायी तीरस्थितिर्वा उपधानवान् दुःखक्षपः तपस्वी, तस्य खलु नो तथाप्रकारं तपो भवति, नो तथाप्रकारा वेदना भवति, तथाप्रकार पुरुषजातं दीर्घेण पर्यायेण सिध्यति बुध्यते मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानामन्तं करोति, यथा ऽसौ भरतो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती, प्रथमाऽन्तक्रिया १, अथापरा द्वितीया अन्तक्रिया-महाकर्ममत्यायातश्चापि भवति, असौ खलु मुण्डो भूत्वा अगारतोऽनगारितां प्रत्रजितः संयमबहुलः संवरबहुलः यावत् उपधानवान् दुःखक्षपः तपस्वी. तस्य खलु तथाप्रकारं तपो भवति, तथाप्रकारा वेदना भवति, तथाप्रकारं पुरुष
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स्थानाङ्ग
जातं निरुद्वेन पर्यायेण सिध्यति यावत् अन्तं करोति, यथा-सौ गजसुकुमारः अनगारः, द्वितीयाsन्तक्रिया २, अथापरा तृतीयाऽन्तक्रिया - महाकर्म- प्रत्यायातश्वापि भवति, असौ खलु मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रत्रजितः, यथा द्वितीया, नवरं दीर्घेण पर्यायेण सिध्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करोति, यथाऽसौ सनत्कुमारो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती, तृतीयाऽन्तक्रिया ३, अथापरा चतुर्थी अन्तक्रिया - अल्पकर्मप्रश्यायातश्चापि भवति, असौ खलु मुण्डो भूत्वा यावत् मत्रजितः संयमबहुलः याचत् तस्य खलु नो तथाप्रकार तपो भवति, नो तथाप्रकारा वेदना भवति, तथाप्रकारं पुरुषजातं निरुद्धेन पर्यायेण सिध्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करोति, यथा-सा मरुदेवी भगवती, चतुर्थी अन्तक्रिया ४ ॥ मु० १ ॥
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टीका - " चनारि " इत्यादि - एतदव्यवहितपूर्वप्रतिपादितोद्देश कस्योपान्त्य सूत्रे कर्मणचयादि प्रतिपादितम् अत्र तु कर्मणस्तत्कार्यस्य सवस्य वान्तक्रिया प्रतिपाद्यते, चतस्र = चतुः संख्यकाः, अन्तक्रिया=भवस्यान्तकरणरूपा, मज्ञप्ताः= प्रतिपादिताः, तत्र=चतुर्विधान्त क्रियासु प्रथमा इयम् = अनुपदं वक्ष्यमाणा, अन्त
टीकार्य-अन्त क्रियाएँ चार कही गई हैं, इनमें - प्रथम अन्तक्रिया पह है " अपकर्म प्रत्यायतश्चापि भवति " पूर्वकृत शुभकर्म के प्रभाव से लघुकम हुवा जो जीव देवलोक से यहां आया हुवा होता है इसके भव का अन्त होना यह प्रथम अन्तक्रिया है अन्तक्रिया वर्णन करने का भाव इस प्रकार से है कि तृतीयस्थान के उपान्त्य सूत्र में जो कर्म के तद्रूप चयादिकों का कथन किया गया है सो यहां पर कर्म की और उसके कार्यभूत भव की अन्तक्रिया कहना है, अतः - उसका यहां प्रतिपादन किया जा रहा है । यह अन्तक्रिया चार प्रकार की कही गई है उसमें
टीडार्थ-अन्तडियाथे। यार उही छे तेमां प्रथम अन्तडिया मा छे" अल्पकर्म प्रत्यायातश्चापि भवति ” पूर्वमृत शुभम्ना अलावधी सघुर्भा ( इसुम्भ ) બનેલા જે જીવ દેવલેાકમાથી અહીં આવ્યા હૈય છે, તેના ભયના અન્ત શ્રવા તે પ્રથમ અન્તક્રિયા છે.
અહીં અન્તક્રિયાનું વઘુન કરવાના હેતુ આ પ્રમાણે છે–ત્રીજા સ્થાનના ઉપાન્ડ્સ ( છેલ્લા સૂત્ર પહેલાનુ સૂત્ર) સૂત્રમાં ક્રના ચયાક્રિકાનું કથન કરવામાં આવ્યુ છે, ત્યારે અહીં કમની અને તેના કાભૂત ભત્રની અન્ત ક્રિયાનું કથન કરવાનું છે, આ સંબંધને અનુલક્ષીને અહીં અન્તક્રિયાનુ પ્રતિ પાદન કરવામાં આવે છે, તે અન્તક્રિયા ચાર પ્રકારની કહી છે. તેમાં આ
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सुधा टीका स्था० ४ उ १ सू० १ अन्तक्रियायाः निरूपणम् ३६१ किया-अल्पकर्मप्रत्यायातः अल्पकर्मा-पूर्वकृतशुभकर्मप्रभावाल्लघुरुर्मा सन् प्रत्या यानः देवलोकादितः समायातो भवति. तरय भवान्तभवन मथमाऽन्तक्रिया भवति, तमेव पुरुषं वर्णयति-' से ' इत्यादि, स-लघुकर्मा खलु मुण्ड:-द्रव्यतो लुश्चित केशो भावनो दूरीकृतकपायो भूत्वा अगारतः द्रव्यतो गृहात् , भावतोऽविवेकसदनात , अनगारिताम्-अगारं-गृहमस्यास्तीत्यगारी-गृही-असंयतः, नागारीत्यनगारी-संयतः, तस्य भावोऽनगारिता, तां साधुतां, मवजितः पाप्तः, यद्वा"अनगारियं ' इत्यत्र विभक्ति विपरिणामेनानगारितया, मनजिता दीक्षितः । पुनः कीदृशः ? संयमबहलासंयमेन-पृथिच्यादिपजीवनिकायरक्षणरूपेण सप्तदशविधेन बहुल:=मचुरः, पुनः कीदृशः ? संवरबहुल:=पवरेण-आस्रवनिरोधेन, यह प्रथम अन्तक्रिया जिस पुरुष की होती है अब उसके विषय में सूत्रकार कथन करते हैं-लघुकर्मा पुरुष द्रव्य से लुंचित केशवाला होकर और भाव से कषायों से रहित होकर अनगारावस्था से-गृहस्थावस्था से द्रव्य की अपेक्षा घर से, और भाव की अपेक्षा अविवेक रूप से निकल कर अनगारावस्था को संयतावस्था को साधुता को प्राप्त हो जाता है । अथवा-"अनगारियं " पदका ऐसा भी अर्थ हो सकता है-कि यह अनगारीरूप से दीक्षित हो जाता है। संयम बहुल:-पृथिव्यादि षड् जीवनिकाय की रक्षा करने रूप १७ प्रकार के संयम से प्रचुर हो जाता है। संवर बहुलः आस्रव निरोधरूप संवर से, यहा इद्रिय कषाय निग्रहादिरूप संवर से प्रचुर हो जाता है, अर्थात् પહેલા પ્રકારની અન્તક્રિયા કરનાર પુરુષના વિષયમાં અહીં સૂત્રકાર નીચે પ્રમાણે કથન કરે છે–લઘુકર્મા પુરુષ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લુચિન કેશવાળે થઈને અને ભાવની અપેક્ષાએ કષાયથી રહિત થઈને અગારાવસ્થાના (ગૃહસ્થાવસ્થાન) પરિત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા-સંતાવસ્થાને (સધુતાને) પ્રાપ્ત કરે છે આ પ્રમાણે અણગારાવસ્થા ધારણ કરવામાં તે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સાંસારિક ઘરમાંથી અને ભાવની અપેક્ષાએ અવિવેક રૂપ ઘરમાંથી બહાર नीजान स यतावस्यास पन्न मन छ अथवा-" अनगारिय" मा पहना विति એ અર્થ પણ થઈ શકે છે કે “ તે અણગારી રૂપે થઈ જાય छ " " सयमबहुल." ते पृथय मा पनिायनी २क्षा ४२१॥ ३५ १७ ४२ सयभथी प्रयु२ ( भूम युत ) थ य छे “संवरદુ” તે આમ્રવના નિરોધ રૂપ સવરથી અથવા ઈન્દ્રિય કષાય નિગ્રહાદિ રૂપ સંવરમાં પ્રચુર થઈ જાય છે-એટલે કે કષાય અને ઇન્દ્રિય જય રૂપ સંવૃત
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स्थानाङ्गसूत्रे यद्वेन्द्रियकपायनिग्रहादिना, बहुलः, तत्र संयमबहुलत्वविशेषणोपादानं पड़जीवनिकायविराधनाविरमणमुख्यता सूचना), यतः___ " एक्कंचिय एत्थ वयं निद्दिष्टं जिणवरेहिं सम्वेहि ।
पाणाइवायविरमणमबसेसा तस्स रक्खट्टा" ॥१॥ इति, छाया-" एकमेवात्र व्रतं निर्दिष्टं जिनवरैः सर्वैः।।
__प्राणातिपातविरमणमवशेषाणि तस्य रक्षार्थम् ।।१।।" इति,
एतत्संयमबहुलत्व - संवरबहुलत्वद्वय रागादिरहितचित्तवृत्तेः पुरुषसिहस्य जायते, अत आह-" समाधिबहुलः" इति, समाधिः-चित्तस्वास्थ्य, तेन बहुलः, समाधिः तथा रागरहितस्यैव भवतीत्याह-": रूक्ष " द्रव्यतः शरीरे तैलाभ्यङ्गवर्जितत्वेन, भावतः कामादिरहितत्वेन । कथमसौ संयमबहुलत्यादिविशिष्टो भवकषाय और इन्द्रियजयरूप संवृत जिसका प्रचुर है ऐला हो जाता है, यहां-"संयमबहुल" इस विशेषण का जो उपादान हुवा है वह षड् जीवनिकाय की घिराधना से विरमण होने की मुख्यता सूचना के लिये हुधा है। क्यों कि-" एक्कंचिघ एत्थवयं" इत्यादि ऐसा कहा है कि 'समस्त जिनवरों ने प्राणातिपात विरमणरूप एक ही व्रत कहा है बाकी के जो और और व्रत हैं वे सघ इसी की रक्षा के लिये कहे गये हैं। संयम घालता और संवर बहुलता ये दो रागादि रहित चित्तवृत्तिवाले पुरुषसिंह को होते हैं। इसीलिये " समाधियाल" ऐसा कहा है समाधिचित्तस्वास्थ्य से जो बहुल हो जाता है रूक्ष हो जाता है, द्रव्य से शरीर में तैलाभ्यङ्ग से वर्जित होने के कारण तथा भाव ले कामादि रहित જેના ઘણા છે, એ થઈ જાય છે. અહીં “સંયમ બહુલ” આ વિશેષણને જે પ્રયોગ થયે છે તે ષજીવનિકાયની વિરાધનાથી વિરમણ થવાની મુખ્યતાને ४८ ४२१: निमित्त थये। छ, २ ३ " एक्कं चिय एत्थ वयं " त्याहि.
સમસ્ત જિનવીએ પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ એક જ વ્રત કર્યું છે, બાકીનાં જે તે છે કે તે આ વતની રક્ષા નિમિત્તે જ કહ્યા છે. સંયમ બહલતા અને સંવર બહુલતા, આ બનેને સદ્દભાવ રાગાદિ રહિત ચિત્ત વૃત્તિવાળા પુરુષસિંહમાં જ હોઈ શકે છે. તેથી જ “સમાધિ બહુલ” આ વિશેષણનો પણ પ્રયોગ કરવામાં આવે છે. જેનું ચિત્ત પ્રચુર સ્વાધ્યમાં લીન થઈ જાય છે તેને સમાધિ બહુલ કહે છે. એવો જીવ રૂક્ષ થઈ જાય છે, તેલમાલિશ આદિના અભાવે તે દ્રવ્યની અપેક્ષાઓ રૂક્ષ થઈ જાય છે, અને
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सुभाटीका स्था०४ ७० १ सू० १ अन्तक्रियायाः निरूपणम् तीत्याह-" तीरट्टी" " तीरार्थी, तीरस्थायी, वीररिथतिर्वेति च्छाया। तत्र 'तीरार्थी ' तीरंपार भवसागरस्यार्थयत इत्येवंशीलः संसार समुद्रपाराभिलापी, तीरस्थायी-भवार्णवतटमधिष्ठायो, तीरस्थिति -तीरे-भवसागरतटे स्थितिरवस्थानं यस्य स संसारसिन्धुतटे स्थित इत्यर्थः, अत एव “ उपधानवान " प्रशस्तमनोवाकाययोगवान , अत एव दुःखक्षपा-दुख-दुःखजनकत्वात् कर्म, तत् क्षपयतीति दु खक्षपः, कर्मक्षपणं च तपोजन्यमित्यत आह-" तपस्वी "-ति, तप आभ्यन्तरिकं कर्मवनभस्मसात्करणहुताशायसानमनशनादिरूप द्वादशविधमस्यास्तीति तप. होने के कारण रूखा हो जाता, क्यों कि-" तोरट्ठी-" यह तीरार्थी या तीरस्थायी होता है। अथवा तीरस्थितिवाला होता है, भवसागर का पोर जाने की कामनावाला होता है, इसलिये तो तीरार्थी या भवसागर के तट पर आकर वह बिलकुल खडा हो जाता है। अतः-जब तीरस्थायी होता है, या भवसागर के तट पर इसकी स्थिति अवस्थान हो जाती है, इसीलिये यह तीरस्थितिवालो हो जाता है। इसी से यह " उपधानवान् " प्रशस्त मन बचन और कायवाला हो जाना है अत एव यह " दुःखक्षय:-" दुःख को दुःखजनक कर्म का क्षय करने लगता है क्यों कि-यह तपस्वी होता है बाह्य तप अनशनादि वाला औरआभ्यन्तर लप प्रायश्चित्त आदिवाला होता है। कारण कि-यह इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका होता है कि-बात्य और आभ्यन्तर तप ही कर्मरूपी चन को भस्मसात् करने से अग्नि का काम देते हैं। ભાવની અપેક્ષાએ કામાદિથી રહિત થવાને કારણે તે રૂક્ષ થઈ જાય છે, કારણ
"तीरटी" तीशी भA4 ता२स्थायी राय छ, मथ तीर स्थितिवाणी હોય છે, ભવસાગરને પાર કરવાની કામનાવાળો હોય છે, તેથી તેને તીરથ કહ્યો છે. અથવા ભવસાગરને કિનારે આવીને તે ઊભે જ રહી જાય છે તેથી તેને તીરસ્થાયી કહે છે જ્યારે તે ભવસાગરને કિનારે આવીને ઊભો રહી જાય છે અથવા ભવસાગરના તટપર તેની સ્થિતિ (અવસ્થાન) થઈ જાય છે ત્યારે તે તીર સ્થિતિવાળે થઈ જાય છે. તે કારણે જ તે “ઉપધાનવાન ” એટલે કે પ્રશરત મન, વચન અને કાયવાળ થઈ જાય છે. તેથી જ તે " दुखःक्षयः " मनमानमना क्षय ४२२। मां छे. ठेवी शतते કમનો ક્ષય કરે છે તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે
તે તપસ્વી હોય છે, અનાદિ બાહ્ય તપ અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ આભ્યન્તર તપ આરાધક હોય છે. તે એ વાતને સંપૂર્ણ રીતે સમજી ગયો હોય છે કે બાહ્ય અને આભ્યન્તર તપ જ કર્મરૂપી વનને ભસ્મ કરવાને અગ્નિની
છે
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३६५
स्थानाङ्गासन स्वी, यः पूर्वोक्तमकारकः, तस्य प्राक्तनविशेषणविशिष्टस्य, ' णं' वाक्यालङ्कारे, तथाप्रकारं तादृशम् , अत्यन्तघोरमिति तदर्थः, श्रीवर्द्धमानजिनस्येव, तपो= ऽनशनादिरूपं, नो-न, भवति, एवं तथाप्रकारा-अतिघोरोपसर्गादिजन्या, वेदना पीडा, नो=न, भवति, यतोऽसावल्पकर्मप्रत्यायातो भवतीति, ततश्च तथाप्रकारम्= तथा-पूर्वोक्ताः, प्रकाराः-अल्पकर्मप्रत्यायातत्वादिरूपा यस्य तादृशं कश्चित्पुरुष इत्यर्थः, दीर्पण-चिरकालिकेन, पर्यायेण-प्रवज्यारूपेण करणेन सिध्यति अणिमादियोगेन निष्ठितार्थो वा विशेषतः सिद्धिगमनाों वा जायते, सर्वकर्ममधानमोहनीयक्षयात् , बुध्यते-घातिकर्मचतुष्टयापगमेन केवली, भवति, मुच्यतेभवोपग्राहिकर्मकलापान्मुक्तो भवति, परिनिर्वाति-सर्वकर्मजन्यविकारसमुदायदयथपि-इस प्रकार के इन पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट अनगार के बाह्य और आभ्यन्तर तप, तथाप्रकार के श्री वर्द्धमान जिनेश्वर के तप की तरह अत्यन्त घोर नहीं होते है "एवं तथा प्रकारावेदना नो भवति" अति घोरोपसर्गजन्य वेदना पीडा भी उसे नहीं होती है । क्यों कियह अल्प कर्म प्रत्यायात हलुकीं होता है, अतः-ऐसा अल्प कर्म प्रत्यायातत्वादि प्रकारवाला वह पुरुष चिरकालिक प्रव्रज्यारूप करण द्वारा “सिध्यति" अणिमादियोग से निष्ठित प्रयोजनवाला हो जाता है। अथवा-सिद्धिगति में जाने का योग्य हो जाता है, क्यों कि-इसका सर्व कर्म प्रधान मोहनीय कर्म नष्ट हो जाता है "वुध्यते" चार घातिका (घातिया) कमों के अपगम से वह केवली हो जाता है "मुच्यते" भावोपनाही कर्मकलाप से चार अघातिया कर्मा से मुक्त हो जाता है।
ગરજ સારે છે. જો કે સંયમ બહુલ આદિ વિશેષણવાળા તે અણુગારના બાહ્ય અને આભ્યન્તર તપ, શ્રી વર્ધમાન જિનેશ્વરના બાહા અને આભ્યન્તર त५ समान अत्यन्त धे२ डाना नथी. “ एवं तथा प्रकारा वेदना नो भवति" તથા અતિ ઘોર ઉપસર્ગજન્ય વેદના પણ તેમને સહન કરવી પડતી નથી, કારણ કે તે અ૬૫ કર્મ પ્રત્યયાત (અપ કર્મોને કારણે) હલકમ (લઘુકર્મ) डाय छे. तेथीत सी पुरुष यिलि प्रarया ३५ ४२ द्वारा “ सिध्यति" અણિમાદિ વેગથી નિષિત પ્રજનવાળ થઈ જાય છે, અથવા સિદ્ધિગતિમાં જવાને પાત્ર થઈ જાય છે, કારણ કે સર્વે કર્મોમાં મુખ્ય એવા મોહનીય
भना तय ४श ना छे. “ बुध्यते " या२ पातिया ना क्षय शन तही 2 14 छ " मुच्यते " भवा५याही माथी-या२ मतिया
थी भुत थ य छ, “ परिनिर्वाति " सब भन्य विार सभूख ६२
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सुधा का स्था0 ४ उ० १ सू० १ अन्तक्रियाया निरूपणम् रीकरणेन शीतलीभवति, सर्वदुःखानाम् कायिकमानसानास् , अन्त=क्षय, करोति, तथाविधतपोवेदनाधमावतो दोघेणापि पर्यायेण कोऽपि सिद्धो भवति नवेति संशयं निराकर्तुमाह-" यथाऽसौ भरतो राजा" यथा-येन प्रकारेण असौ भरतः -तदाख्य ऋषभदेवज्येष्ठपुत्रो राजा, कीदृश इत्याह- चातुरन्त चक्रवर्ती 'चत्वारोऽन्ताः-पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमसागरहिमवद्रूपा यस्या. सा चतुरन्ता पृथिवी, चतुरन्ताया अयं ( स्वामी) चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती, स हि पूर्वभवे लघूकृतकर्मा सर्वार्थसिद्धविमानाच्च्युत्वा चक्रवत्तित्वेन समु. स्पद्य राज्यावस्थामेव केवलज्ञानमुपायं परिपालितपूर्वलक्षदोक्षोऽतथाविधतपोवेदन एव सिद्धि प्राप्त इति प्रथमाऽन्तक्रिया ॥ सू० १॥ "परिनिर्वाति " सर्व कर्मजन्य विकार समूह के दूर हो जाने से शीतलीभूत हो जाता है, और कायिक एवं मानसिक दुःख बिलकुल नष्ट हो जाते हैं। यदि कोई यहां पर ऐसी शङ्का करे कि-तथाविध तप, और वेदना आदि के अभाव से दीर्घपर्याय का पालन करने से भी कोई सिद्ध होता है ३ या नहीं होता है ३ तो इस संशय मूलक शङ्का को दूर करने के लिये सूत्रकार ने कहा है कि ऐसी बात नहीं है, देखो"जहा से भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी" ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र राजा भरत जो कि-पूर्व दक्षिण पश्चिम सागर और हिमवान् पर्वतरूप चार पर्यन्तवाली भूमि का स्वामी थे चक्रवर्ती थे, अर्थात्-पूर्वभवमें लघुकृत कर्मा होकर जो सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर चक्रवर्तीरूप से उत्पन्न हुवे थे। उन्हों ने राज्यावस्था में ही केवलज्ञान उत्पन्न करके एक થઈ જવાને લીધે શીતલીભૂત થઈ જાય છે, અને કાયિક અને માનસિક દાખ બિલકુલ નષ્ટ થઈ જાય છે.
શંકા––તે પ્રકારનાં તપ અને તે પ્રકારની વેદના આદિના અભાવમાં પણ દીર્ઘ પર્યાયનું (શ્રામણ્ય પર્યાયનું) પાલન કરીને કેટલાક જી સિદ્ધ થાય છે પણ ખરાં અને કેટલાક સિદ્ધ નથી પણ થતા, તેનું કારણ શું?
___ समाधान-" जहा से भरहे राया चाउरतचकावट्टी" पनवना ज्येष्ठ पुत्र , २ " यातुरन्त यवती ता" (पू', दक्षिण भने પશ્ચિમ સાગર તથા હિમાવાન પર્વત રૂપ ચાર અન્તવાળી ભૂમિના સ્વામી હતા એટલે કે પૂર્વભવમા લઘુકર્મા થઈને જેઓ સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાંથી રચવીને ચક્રવર્તી રૂપે ઉત્પન્ન થયા હતા, તેમણે રાજ્યાવસ્થામાં જ કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન કરીને એક લાખ પૂર્વ પર્યત દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું હતું અને
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स्थानाकर अथ द्वितीयाऽन्तक्रिया-२ ____ " अहावरे "-ति-अथ-तदनन्तरम् , अपरा-अन्या पूर्वापेक्षया, द्वितीयाऽन्तक्रिया-महाकर्मेत्यादि-महाकर्मभिर्महाकर्मा सन्नित्यर्थः, प्रत्यायातः देवलोकात्स. मायातो यः स तथाभूतः, तस्येति-तस्य-पूर्वोक्तस्य, महाकर्मप्रत्यायातत्वेन तत्सपणाय तथामकारं घोरं तपो भवति, एवं वेदनाऽपि देवाशुपसर्गाणां तथामकारा तथारूपा दुस्सहेत्यर्थः भवति । तथाप्रकारं तादृशं पुरुपजातं कोऽपि पुरुषः, "निरुद्ध ने "-ति-अल्पेन पर्यायेण यथाऽसौ गजसुकुमार' देवलोकच्युतो देवक्या लाख पूर्वतक दीक्षा पर्याय का पोलन, तथाविध तप और-वेदना के अभाव में ही सिद्धिको प्राप्त कियाहै। यह प्रथमान्त क्रिया है । सू०१॥
द्वितीया अन्तक्रिया-२ "अहावरे" ति द्वितीय अन्तक्रिया इस प्रकार से है-महाकर्मों से महाकर्मा कोई जीव देवलोक से यहाँ उत्पन्न हुवा अब वह जीव उन महाकर्मो का क्षपण करने के लिये तथाप्रकार के घोर तप का अनुष्ठान करता है उसमें उसे देवादिकृत उपसर्गजन्य तथारूप दुःसह वेदना भी होती है ऐसा वह पुरुष निरुद्ध अल्प पर्याय से गजसुकुमार मुनि की तरह सिद्धिगत हो जाता है यहां पर प्रथम अन्तक्रिया में कथित "असो खल मुण्डो भूत्वा-" से लेकर "दुःखक्षपः तपस्वी" ये सव विशेषण लगा लेना चाहिये, इनकी व्याख्या पूर्वोक्त जैली ही है, गजसुकुमार તે પ્રકારનાં તપ અને વેદનાને અભાવ હોવા છતા પણ સિદ્ધિ પામ્યા હતા, એટલે આ બાબતમાં જીવનું લઘુકર્માપણું અને ગુરુકર્માપણું પણ વિચારવું પડે છે. પ્રથમ અન્તક્રિયાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. તે સૂ ૧ છે
- मी मन्तठिया - ___ " अहावरे ति" भी मन्तयिानुं २५३५ मा ४२र्नुछे-भाभी કઈ જીવ દેવલોકમાંથી ચ્યવને અહીં ઉત્પન્ન થયો છે. હવે તે જીવ તે મહાકર્મોનું ક્ષપણ કરવાને માટે ઉચિત એવાં ઘોર તપનું અનુષ્ઠાન કરે છે. આ ઘેર તપની આરાધના કરતી વખતે તેને દેવાદિ કૃત ઉપસર્ગજન્ય તથારૂપ હસહ વેદના પણ સહન કરવી પડે છે. એ તે પુરુષ અલ્પકાળ પર્યન્ત શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને, ગજસુકુમાર મુનિની જેમ સિદ્ધગતિમાં પહોંચી तय छे. महा ५५ पडेली मन्तयिाम थित " असौ खलु मुण्डो भूत्वा" थी श३ री “ दुःखक्षप. तपस्वी" 20 सूत्रा3 ५-तना १ मा विशे . પણે લગાડવા જોઈએ. તેમની વ્યાખ્યા પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવી.
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सुधाटीकास्था०४' उ १८ १ अन्तक्रियायाः निरूपणम्
३६७ अङ्गजातः कृष्णलघुभ्राता, स हि भगवतः श्रीमतोऽरिष्टनेमिजिनस्य पार्श्वे दीक्षा गृहीत्वा श्मशानभुवि कृत कायोत्सर्गात्मकमहातपा मस्तकन्यस्तजाज्वल्यवानवहिजन्याति वेदनो लक्षोनकोटिभवसंचितकठोरकर्माणि विशुद्धाध्यवसायेन क्षपयित्वा ऽल्पीयसैव पर्यायेण सिद्धिं गत इति, शेषं स्पष्टम् ॥ २ ॥
इति द्वितीयाऽन्तक्रिया ॥२॥
___ अथ तृतीयाऽन्तक्रिया-३ " अहावरा " इत्यादि-तृतीया महाकर्मविषयाऽन्तक्रिया स्पष्टा । यदिऽसौ सनत्कुमार इति, चतुर्थचक्रवर्ती, स हि महातपाः सप्तशतवर्षाणि यावत् पोडशरोमुनि देवलोक से च्युत हुवे थे और देव की अक्षि से जन्मे थे, ये कृष्ण के लघुभ्राता थे। इन्हों ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास जिन दीक्षा धारण की थी श्मशानभूमि में कायोत्सर्गात्मक महातप इन्हों ने किया था इनके मस्तक ऊपर जलती हुई खैर की अंगारें रखी गई थी उससे इन्हें अतिघोर वेदना हुई थी इससे इन्हों ने एक लाख कम करोड भव के संचित कठोर कमों का विशुद्ध अध्यवसाय से क्षय कर दिया था इससे वे अल्प ही पर्याय से सिद्धिगति का स्वामी बन गये, इस प्रकार से यह द्वितीय अन्तक्रिया-२
तृतीय अन्तक्रिया-३ "अहावरा" इत्यादि पूर्वभव के महाकर्मों से महाकर्मवाला बना हवा कोई जीच देवलोक से यहां उत्पन्न हुवा अब यह झुण्डित होकर ગજસુકુમાર મુનિની કથા આ પ્રમાણે છે-દેવલોકમાંથી અવીને તેઓ દેવકીની કૂખે જન્મ્યા હતા તેઓ કૃષ્ણના નાના ભાઈ હતા. તેમણે ભગવાન અરિષ્ટ નેમિની પાસે જિન દીક્ષા અંગીકાર કરી હતી શ્મશાનભૂમિમાં તેમણે કા. સર્ગાત્મક મહાતપ કર્યું હતું તેમના સંસારી સસરા સેમીલ બ્રાહાણે તેમના મસ્તક પર સળગતા ખેરના અંગારા મૂક્યા હતા તે કારણે તેમને અતિઘેર વેદના થઈ હતી સમભાવપૂર્વક તે વેદના સહન કરીને તેમણે ૯૯ લાખ ભવના સંચિત કર્મોનો વિશુદ્ધ અધ્યવસાયથી ક્ષય કરી નાખ્યો હતે. આ રીતે અ૮૫ સમયની શામય પર્યાયનું પાલન કરીને તેઓ સિદ્ધિગતિના સ્વામી બની ગયા હતા બીજી અન્તક્રિયાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું કે ૨
-त्री मन्तध्या - " अहावरा" त्या-सपना माथी भाभो मन કઈ જીવ દેવલોકમાંથી ચવીને આ મનુષ્યલોકમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે મુંડિત
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स्थानासूत्रे
३१८
गांतङ्कवत्वेन महावेदनश्च दीर्घेण = दीर्घतरेण पर्यायेण सिद्धो जातः, तद्भवे सिद्धय भावेन तृतीय देवलोकाच्च्युत्वा महाविदेहक्षेत्रे सेत्स्यच्चादिवि || ३ || इति तृतीयान्तक्रिया ३ ।
अथ चतुर्थ्यन्तक्रिया-४
" अथापरा " इत्यादि - चतुर्थ्यन्तकियाऽल्पकर्ममत्यायातविषया, स्पष्टा, यथाऽसौ भगवती मरुदेवी प्रथमजिनमाता, सा हि स्थविरावस्थायामपि क्षीणमा
अगारावस्था से अनगारावस्था में प्रव्रजित हुवा, यहां से आगे का और सच कथन पूर्वोक्तरूप से समझ लेना चाहिये । ऐसा महाकर्मा जीव महानपों का अनुष्ठान करता है, फिर भी सनत्कुमार चतुर्थ चक्रवर्ती की तरह वह दीर्घतर पर्याय से सिद्धिगति को प्राप्त करता है, सनत्कुमार चक्रवर्ती ने ७०० सात सौ वर्षतक महातपों का पालन किया इन्हें सोलह १६ रोगातङ्क हो गये इससे इन्हें महावेदना का सामना करना पडा तद्भव में इन्हें मिद्धिगति प्राप्त नहीं हुई अब ये देवलोक से च्युत होकर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न होंगे और वहीं सिद्विगति को प्राप्त करेंगे इस प्रकार की यह तृतीय अन्तक्रिया है ॥ ३ चतुर्थ अन्तक्रिया - ४
/
66
अथापरा " इत्यादि - यह चतुर्थ अन्तक्रिया अल्प कर्म प्रत्यायात विषवाली होती है इसके विषय का और सब कथन स्पष्ट है यह
થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થા ધારણ કરે છે ત્યારપછીનું સમસ્ત કથન પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર સમજવું એવા મહાકમાં જીન્ન મહાતપે નુ અનુષ્ઠાન કરે છે, છતાં પણ ચાથા ચક્રવર્તી સનત્કુમારની જેમ અતિ દીઘ કાળ પન્ત શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને સિદ્ધિગતિ પ્રાપ્ત કરે છે સનકુમાર ચક્રવર્તીએ ૭૦૦ વર્ષ સુધી મહાતપે,નુ પાલન કર્યુ હતું. તેમને ૧૬ રાગાતકાનું વેદન કરવું પડયું હતું છતાં પણ તેમને એ જ ભવમાં સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિ થઇ નહીં, તે ત્રીજા દેવલેાકમાંથી ચ્યવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધિગતિ પ્રાપ્ત કરશે. આ પ્રકારની આ ત્રીજી અન્તક્રિયા છે । ૩ । ચેાથી અન્તક્રિયા
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66 अथापरा ” ઇત્યાદિ—આ ચેાથી અન્તક્રિયા અલ્પક પ્રત્યાયાત વિષયવાળી હાય છે. એટલે કે અલ્પ કના ભારથી અલ્પકર્મી અનેલા જીત્રની આ અન્તક્રિયા સમજવી તેના વિષેનુ ભાકીનું બધું કથન સ્પષ્ટ છે, તેથી અહીં તેનુ અધિક વિવેચન કર્યુ· નથી. આ ક્રિયા પહેલા જિનની માતા
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सुधा डीका स्था० ४ उ०१ सू० १ अन्तक्रियाया निरूपणम्
यकर्म तयाऽल्पकर्मा निस्तपोवेदना च सिद्धिं गता, तस्या गजवराऽऽरूढाया rass: समाप्तौ सिद्धत्वात् ॥ ४ ॥
३६९
,
एतेषां दृष्टान्तदन्तिकानामर्थानां सर्वथा साधर्म्य नान्वेषणीयम् दृष्टा न्तानामेकदेशवर्तित्वात् यतो मरुदेव्या' कतिपयानि ' मुंडे भविता ' इत्यादि विशेषणानि न घटते ॥ ४ ॥
इति चतुर्थ्यन्तक्रिया ॥ ४ ॥ म्रु० १ ॥
इतः पूर्वं पुरुषविशेषाणामन्तक्रिया प्रतिपादिता, सम्पति तेषामेव स्वरूपदर्शनार्थ पविशति दृष्टान्तदाष्टन्तिकमूत्राण्याह
क्रिया प्रथम जिनकी माता मरुदेवी को प्राप्त हुई है, ये स्थविराऽवस्था में भी क्षीणप्राय कर्मवाली होने के कारण अल्प कर्मवाली थी एवं - तप और वेदना से रहित थी फिर भी सिद्धिगति में गई । जब ये श्रेष्ठ हाथी पर चढी जा रही थीं तभी इनकी आयु समाप्त हो गई और ये सिद्ध हो गई- ४
इन दृष्टान्त और दान्तिकों के अर्थों का सर्वथा साधर्म्य नहीं खोजना चाहिये, क्यों कि दृष्टान्त एकदेशवर्ती होते हैं । इसीलिये मरुदेवी में 'मुंडे भवित्ता-" इत्यादि कई विशेषण घटित नहीं होते हैं इस प्रकार से यह चतुर्थ अन्तक्रिया है ॥ १ ॥
इस प्रकार से पुरुष विशेषों की अन्तक्रिया का प्रतिपादन करके अब सूत्रकार उन्हीं का स्वरूप दिखलाने के लिये २६ दृष्टान्त दृष्टन्तिक सूत्रों से कहते हैं- " चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता-" इत्यादि - २ सूत्र
મરુદેવીને પ્રાપ્ત થયેલી છે. તે સ્થવિરાવસ્થામાં પણ સામાન્યતઃ ક્ષીણું કર્યુંવાળા હોવાને લીધે અલ્પ ક્રમવાળા હતાં તપ અને વેદનાથી રહિત હૈાવા છતાં તેએ સિદ્ધગતિમાં ગયા છે. જપારે તે શ્રેષ્ઠ હાથીપર આરહણ કરી રહ્યાં હતા, ત્યારે તેમનું આયુષ્ય પૂરૂ થઈ ગયું' અને તે સિદ્ધ થઈ ગયાં. ૫૪૫
સાધસ્ય શોધવું જોઇએ તેથી મરુદેવીમાં મુરૈ
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આ દૃષ્ટાન્તા અને દાષ્ત્રન્તિકાના અર્થોમાં સર્વથા નહીં, કારણ કે દૃષ્ટાન્ત એકદેશવતીડાય છે भवित्ता " " भुडित थाने " इत्यादि यूर्वोक्त विशेषण। घटावी शातां नथी. આ પ્રકારની આ ચે થી અન્તક્રિયા છે ! સૂ. ૧ !
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આ પ્રમાણે પુરુષ વિશેષેાની અન્તક્રિયાનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે ૨૬ દેષ્ટ ન્ત-દાર્ભ્રાન્તિક સૂત્રનુ નિરૂપણ કરે છે " चारि रुक्खा पण्णत्ता " त्याहि - ( सू. २ )
स ४७
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स्थानाङ्गसूत्रे
जहा - उण्णर
मूलम् —चन्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं नामेगे उष्णए १, उष्णए नामेगे पणए २, पणए नामेगे उपपाए ३, पण नामेगे पणए ४, १ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - उष्णए नामेगे उण्णए १, तहेव जाव पणए नामेगे पणए २ । चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा- उन्णए नागे उष्णयपरिणए १, उण्णए नामेगे पणयपरिणएर, पणए नामेगे उण्णयपरिणए ३, पणए नामेगे पणयपरिणए ४, ३ । एवामेव चारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा उपणए नामेगे - उष्णए परिणए चउमंगो४, ४। चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहाउष्णए नामेगे उष्णयरूवे तहेव चउभंगो ४, ५ । एवामेव चारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा उण्णए नामेगे उण्णयरु १, उष्णयनामेगे पणयरूवे २, पणए नामेगे उष्णयस्वे ३, पण नागे पणयरूवे ४, ६ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -- उण्णए नामेगे उण्णयमणे १, उण्णए नामेगे पणयमणे २, पणए नामेगे उण्णयमणे ३, पणए नामेगे पणयमणे ४, ७ । एवं कप्पे ८, पन्ने ९, दिट्टी १०, सीलायारे ११, बवहारे १२, परकमे १३, एगे पुरिसजाए पडिवक्खो नत्थि । चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा - उज्जू नामेगे उज्जू उज्जू नामेगे बँके, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजायापण्णत्ता, तं जहा - उज्जू नागे ४, एवं जहा - उण्णयपरिणएहिं गमो जहा उज्जुवंकेहिं वि भाणियव्वो, जाव परक्कमे १२६ ॥ ॥ सू० २ ॥
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सुंघा टीका स्था०४ उ० १ सू० ३ वृक्षदृष्टान्तेम पुरुषादिनिरूपणम्
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नामैकः
छाया - चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - उन्नतो नामैक उन्नतः १, उन्नतो : प्रणतः २, प्रणतो नामैक उन्नतः ३, मणतो नामैकः प्रणतः ४, १ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रप्तानि तद्यथा - उन्नतो नामैक उन्नतः, तथैव यावत् प्रणतो नामकः प्रणतः ४, २ । चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - उन्नतो नामैक: उम्नतपरिणतः १, उन्नतो नामैकः प्रणतपरिणतः २, प्रणतो नामैक उन्नत परिणतः ३, प्रणसो नामैकः प्रणतपरिणतः ४, ३ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - उन्नतो नामैक उन्नतपरिणतः चतुर्भङ्गी ४, ४ । चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- उन्नतो नामैक उन्नतरूपः तथैव चतुर्भङ्गी ४, ५ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - उन्नतो नामकः ० ४, ६ । चत्वारि पुरुषजातानि ज्ञतानि तद्यथा-उन्नतो नामैक उन्नतमनाः १, उन्नतो नामकः प्रणतमनाः २, प्रणतो नामैक उन्नतमनाः ३, प्रणवो नामैकः प्रणतमनाः ४, ७॥ एवं संकल्पः ८, प्रज्ञा ९, दृष्टिः १०, शीलाऽऽचारः ११, व्यवहारः १२, पराक्रमः १३ । एकं पुरुषजातं प्रतिपक्षो नास्ति । चत्वारो वृक्षाः मज्ञप्ताः, तथथा - ऋजुनमक ऋजुः, ऋजुर्नामैको वक्रः चतुर्भङ्गी ४ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा ऋजुर्नामैकः ४, एवं यथा - उन्नत - परिणताभ्यां गमः, तथा ऋजु - वक्राभ्यामपि भणितव्यः यावत् पराक्रमः ॥ २६ ॥ ०२ ॥
5
"
टीका - " चत्तारि " इत्यादि - चत्वारः चतुः संख्याकाः, वृक्षा वृक्षन्ति - समाच्छादयन्ति रक्षन्ति च्छायादिना प्राणिन इति वृक्षाः, मज्ञप्ताः तद्यथा - उन्नत टीकार्थ- -चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं- एक वह जो द्रव्य से उत्पन्न होतो हुवा जात्यादि से उत्पन्न होता है - १ दूसरा वह जो द्रव्य से ही उत्पन्न होता है, परन्तु - जात्यादि से प्रणत हीन होता है - २ तीसरा वह जो प्रणत होता है, परन्तु जात्यादि से उत्पन्न होता है - ३ चौथा वह जो द्रव्य से प्रणत- हीन होता है और जात्यादि से भी प्रणत हीन होता है इसी तरह पुरुष प्रकार भी चार कहे गये हैं, इस कथन का तात्पर्य ऐसा
ટીકા –ચાર પ્રકારના વૃક્ષ કહ્યાં છે—એક પ્રકાર એવા છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ ઉન્નત હાય છે અને જાતિની અપેક્ષાએ પણ ઉન્નત હાય છે. ખીજે પ્રકાર એવા છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઉન્નત હેાય છે, પણ જાતિની અપે ક્ષાએ પ્રભુત ( હીન ) હાય છે. ત્રીજો પ્રકાર એવા છે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પ્રભુત હાય છે, પણ જાતિની અપેક્ષાએ ઉન્નત હાય છે, અને ચેાથેા પ્રકાર એવે છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પશુ પ્રભુત હાય છે અને જાતિની અપે ક્ષાએ પણ પ્રણત હાય છે. એ જ પ્રમાણે પુરુષાના પ્રકારેા પણ ચાર કહ્યા છે. આ કથનના ભાવાય નીચે પ્રમાણે છે
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स्थानाङ्गले उच्चो द्रव्यत्वेन, 'नामे' ति संभावने 'वा' वाक्यालङ्कारे, एकः कोऽपि वृक्षः, स एव पुनरुनतः तुङ्गो जात्यादितोऽशोकादिः, इति प्रथमो भङ्गः १ ।
उन्नत: उच्चो द्रव्यत एव, एकः इतरः, प्रणतःप्रकर्पण नता-जात्यादिमिहीनो निम्बादिः, इति द्वितीयो भङ्गः२॥
प्रणत भागुक्तलक्षणः, एकःकश्चिद् वृक्षो द्रव्यतो हृस्वः, स एव पुनरुन्नतो जात्यादिनाऽशोकादिः, इति वतीयो भङ्गः ।। ३ ।। ___प्रणतः द्रव्यत्वेन ह्रस्वः, स एव मणतः जात्यादिना हीनः निम्बादिः, इति चतुर्थी भगः ॥ ४ ॥ है-" वृक्षन्ति समाच्छादयन्ति रक्षन्ति छोवादिना प्राणिनः इति वृक्षाः" जो प्राणियों की छाया आदि से रक्षा करते हैं वे वृक्ष हैं ये वृक्ष पूर्वी. तरूप से चार प्रकार के कहे गये हैं। यहां "नाम" सम्भावना में
और "या" वाक्यालङ्कार में प्रयुक्त हुये हैं। प्रथम प्रकार में कोई एक ऐसा वृक्ष होता है, जो द्रव्यत्व से भी ऊंचा होता है और अपनी जाति से भी उन्नत ऊंचा होता है-१ जैसे अशोकादिवृक्ष । द्वितीय प्रकार में वह वृक्ष लिया गया है जो केवल द्रव्य से ही उन्नत ऊंचा होता? परन्तु-अपनी जाति से प्रणत-हीन होता है २ जैसे-निम्बादि वृक्ष । ततीय प्रकार में वह वृक्ष लिया गया है जो द्रव्य से हस्व होता है परन्तु-जात्यादि से उन्नत ऊंचा होता है जैसे-अशोक आदिवृक्ष ३ चतुर्थ प्रकार में वह वृक्ष लिया गया है जो द्रव्य से भी हस्व होता है और जाति से भी हीन होतो है ४ जैसे-निम्बादि वृक्ष, यहा-काल की
" वृक्षन्ति-समाच्छादयन्ति-रक्षन्ति-छायादिना प्राणिनः इति वृक्षाः "रे પ્રાણીઓનું છાયા વગેરે વડે રક્ષણ કરે છે, તેનું નામ વૃક્ષ છે. તે વૃક્ષોના पूति यार प्रहार घi छ. महा "नाम" समावना मन "पा" याલંકાર રૂપે પ્રયુક્ત થયેલ છે. (૧) પ્રથમ પ્રકારમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે કઈક વૃક્ષ એવું હોય છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ ઊંચું હોય છે અને જાતિની અપેક્ષાએ પણ ઊંચું હોય છે. જેમકે અશોકવૃક્ષ. (૨) બીજા પ્રકારમાં એવા વૃક્ષને દાખલા આપવામાં આવ્યું છે કે જે કેવળ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઊંચું હોય છે, પરંતુ જાતિની અપેક્ષાએ પ્રણત (હીન) હોય છે જેમકે લીમડે વગેરે. (૩) ત્રીજા પ્રકારમાં એવા વૃક્ષનું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યુ છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પ્રણવ ( હીન. નીચું) હોય છે પણ જાતિની અપેક્ષાએ ઉન્નત હોય છે. જેમકે અશોકાદિ વૃક્ષ, (૪) ચોથા પ્રકારમાં એવા વૃક્ષનું દષ્ટાન્ડ આપ્યું છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ હીન હોય છે અને જાતિની અપેક્ષાએ પણ હીન હોય છે જેમકે લીમડો વગેરે વૃક્ષ,
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सुधा दीका स्था० ४ १० १ सू० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ३७३ ___ यद्वा कालापेक्षया चतुर्भङ्गीमाह उन्नत उन्नतः द्विधा उन्नतः यथा अशोकत्वादिजात्या कालक्रमेण विशालकायत्वेन च १, उन्नतः प्रणतः अशोकवादिजात्या उन्नतः, इस्वकायत्वेन प्रणतः २, प्रणत उन्नता-निम्वत्वादिजात्या प्रणतः, विशाल कायस्वेन चोन्नतः३, प्रणतऽप्रणतः-द्विधा पणतः-निम्बत्वादिजात्या प्रणतः ह्रस्व कायत्वेन चेति ४ । इति दृष्टान्तसूत्रम्।।
___ अथ दाह्रन्तिक सूत्रमाह" एवामेव" इत्यादि-एवमेव अनेनैव प्रकारेण वृक्षवदेवेत्यर्थः, चत्वारि -पुरुषजातानि-पुरुषप्रकाराः साधवो गृहिणो वा, प्रज्ञप्तानि. तद्यथा-उन्नतःकुलैश्वर्यप्रभृतिभिलौकिकैर्गुणे गुंहस्थपर्याये, स एव पुनरुन्नतो लोकोत्तरैनिक्रियादिभिअपेक्षा लेकर सूत्रकार ने “द्विधा उन्नतः" इत्यादिरूप से चतुर्भङ्गी को कहा है, जैसे उन्नत उन्नत, अशोकत्व आदि जाति से उन्नत एवं कालक्रम को लेकर विशाल कायरूप से भी उन्नत-१ उन्नत प्रणत, अशो. कत्वादि जाति से उन्नत, और-हस्व कोयरूप से प्रणत-२ प्रणत उन्नत निम्बस्वादि जाति से प्रणत और विशाल कायरूप से उन्नत-३ प्रणत प्रणत निम्बस्वादि जाति से प्रणत और हुस्व कायरूप से प्रणत ४ इस प्रकार से यह दृष्टान्त सूत्र है।
दान्तिक सूत्र"एचामेव" इत्यादि वृक्ष की तरह ही पुरुष के चार प्रकार के साधु अथवा-गृहीत जन के चार प्रकार कहे गये हैं, जैसे उन्नत उन्नत जो गृहस्थ पर्याय में कुल ऐश्वर्य आदि लौकिक गुणों से उन्नत रहता हो ३
अथवा शनी अपेक्षा सूत्रा३ “ द्विधा उन्नत " ॥ समय मन કામ શરીર “બન્ને પ્રકારે ઉન્નત” ઈત્યાદિ રૂપ ચાર ભાંગ કહા છે. रेभ....(१) अन्नत-उन्नत, मशीप मा तिनी दृष्टि उन्नत भने ४. ક્રમની અપેક્ષાએ વિશાલ કાયરૂપે પણ ઉન્નત. (૧) ઉન્નત-પ્રવૃત-અશોકત્વ આદિ જાતિની અપેક્ષાએ ઉન્નત અને હકાય રૂપે પ્રણત, (૩) પ્રત–ઉન્નત. નિમ્બવ આદિ જાતિની અપેક્ષાએ પ્રણત અને વિશાળ કાયરૂપે ઉન્નત. (૪) પ્રકૃત–પ્રણત-નિખર્વ આદિ જાતિની અપેક્ષાએ પણ હીન અને લઘુકાય રૂપે પણ પ્રણત ( હીન) આ પ્રકારનું આ છાતસૂત્ર છે આ દષ્ટાન્ત જેને લાગુ ५४ छ तेतुं नाम "हाष्टान्ति:" छ
- हाटllन्त सूत्र - " एवामेत्र " त्या-भ वृक्षना या२ प्र.५९ छे, ते साधु मया ગૃહસ્થજનના પણ ચાર પ્રકાર પડે છે-(૧) “ઉન્નત-ઉન્નત” જે મનુષ્ય ગૃહસ્થ પર્યાયમાં કુળ, એિશ્વર્ય આદિ લૌકિક ગુણેથી ઉન્નત રહ્યો હોય, એજ મનુષ્ય
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स्थानामसूत्र र्गुणैरुत्तमः प्रव्रज्यापर्याये भरतचक्रिवत् , यद्वा-उन्नतः-उत्तमभवत्वेन पुनरप्युन्नतः शुभगतिप्राप्त्या, आनन्द-कामदेवादिवदित्येका-प्रथमो भङ्गः ॥ १ ॥
तथैव-वृक्षसुत्रवदिदं पुरुषजातसूत्रम् , यावत' प्रणतो नामैकः प्रणतः" इति पर्यन्तं बोध्यम् । अयं भावः-उन्नतः प्रणतः-यथा-पूर्वसुन्नत ऋद्धयादिना, पश्चात् प्रणतः-दुर्गतिगमनादिना सुश्रूमचक्रिवदिति द्वितीयो भङ्गः । २ ।
प्रणत उन्नत:-यथा-पूर्व जात्या ऋद्वयादिना वा प्रणतः हीन', पश्चाद् उन्नतः-शुभगतिगमनादिना हरिकेशि-मेतार्यवदिति तृतीयो भङ्गः ॥ ३ ॥ वही यदि प्रव्रज्या पर्याय में भरत चक्रवर्ती की तरह लोकोत्तर ज्ञान क्रिया आदि गुणों से उन्नत रहता है, तो वह उन्नत उन्नत पुरुष प्रकार है। अथवा-उत्तम भववाला होने से जो उन्नत हो वही आगे शुभगति की प्राप्ति से आनन्द कामदेव की तरह उन्नत रहता है तो ऐसा वह जीव उन्नत उन्नत प्रथम भगवाला कहा गया है १ उन्नत प्रणत, इस द्वितीय भगवाला वह पुरुष कहा गया है, जो पहिले ऋद्धि आदि से उन्नत रहा हो, पश्चात-दुर्गतिगमनादि से सुभूम चक्रवर्ती की तरह प्रणत हो गया हो-२ प्रणत उन्नत, इस तृतीय अंगवाला वह पुरुष कहा गया है, जो पूर्व में जाति से अथवा-ऋद्धि आदि से प्रणत-हीन रहा हो, पश्चात्-शुभगति में गलनादि में जो हरिकेशी मेतार्य की तरह उन्नत हो गया हो-३ प्रणत प्रणत इस चतुर्थ भाग में वह पुरुष कहा गया है જે ગ્રામ્ય પર્યાયમાં ભરત ચક્રવતિની જેમ લેકેત્તર જ્ઞાન, ક્રિયા આદિ ગુણોની અપેક્ષાએ પણ ઉન્નત રહે તે તેને “ઉન્નત–ઉન્નત” રૂપ પહેલા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે અથવા-ઉન્નત ભવવાળો હોવાથી જે ઉન્નત હાય, અને ત્યાર બાદ શુભગતિની પ્રાપ્તિથી આનંદ-કામદેવની જેમ ઉન્નત રહ્યો હોય એવા જીવને પણ “ઉન્નત-ઉન્નત” રૂપ પ્રથમ વિકલ્પમાં મૂકી શકાય છે.
| (૨) “ઉન્નત-પ્રણત” જે પુરુષ પહેલાં ઋદ્ધિ આદિની અપેક્ષાએ ઉન્નત રો હોય, પણ જે પાછળથી દુર્ગતિગમન આદિની અપેક્ષાએ પ્રણત થઈ ગયે હેય એ સુભૂમચક્રવતી જેવો જીવ આ બીજા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે.
(3) " प्रशुत-उन्नत" रे पुरुष पडता तिनी अपेक्षा था અદ્ધિ આદિની અપેક્ષાએ પ્રણત રહ્યો હોય પણ એ છળથી શુભગતિમાં ગમન થવાને કારણે જે હરિકેશી મેતાની જેમ ઉન્નત થઈ ગયો હોય. આ પ્રકારના પુરુષને આ ત્રીજા ભાંગામાં સમાવેશ થાય છે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ ० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ३७५
प्रणतः प्रणतः-यथा पूर्व प्रणतो जात्यादिना, पश्चादपि प्रणतो नरकगमनादिना कालशौकरिकरदिति चतुर्थों भङ्गः ॥ ४ ॥
इति दार्टान्तिकसूत्रम् । __एवं दृष्टान्तमूत्रं दान्तिकसूत्रं च सामान्यत उपन्यस्य तद्विशेषमूत्राणि दर्शयति-" चत्तारि रुक्खा" इत्यादि-उन्नतः-जात्यादिना स एव उन्नतपरिणतः उन्नतत्वेन-उत्तमरसत्वेन परिणतः परिणाम प्राप्त उन्नतपणित , यथाऽऽम्म्रादिकः ___“उण्णए" इति-उन्नतो जात्यादिना, एका कश्चित् स एव प्रणतपरिणत उन्नतत्वावस्थां विहाय प्रणतत्वेनाऽवनतत्वेन-प्रतिगन्धिफलादिमत्त्वेन परिणाम प्राप्तः, यथा शीताऽऽतपादि जनितरोगग्रस्ताऽऽम्रादिका इति द्वितीयो भङ्गः ॥२॥ जो पहिले जात्यादि से प्रणत-हीन हो, और पश्चात्-भी कालशौकरिक की तरह नरक गमनादि से हीन ही बना रहा हो-४ ___ इस प्रकार से दृष्टान्त सूत्र और दान्तिक सूत्र को सामान्य रूप से कह करके अब सूत्रकार इनके विशेष सूत्रों को दिखलाने के अभिप्राय से ऐसा कहते हैं-कि-" चत्तारि रुक्खा -" इ. वृक्ष चार प्रकार के कहे गये हैं, । एक प्रकार वह है-जो जाति आदि से पहले उन्नत होता है और आगे चलकर भी वही उत्तम रसरूप से परिणाम को प्राप्त होता है, जैसे-आन आदिवृक्ष “उन्नतप्रणतपरिणतः" इस प्रकार में वे वृक्ष आते हैं जो जात्यादिक ले उन्नत होने पर भी कारण वश उन्नत अवस्था का परित्याग कर देते हैं-प्रणत परिणाम हो जाते
(૪) “પ્રકૃત–પ્રણત” જે પુરુષ પહેલાં જાતિ આદિની અપેક્ષાએ પ્રભુત રહ્યો હોય, અને પછી પણ કાલશિૌકરિકની જેમ નરકગમનાદિથી હીન જ રહ્યો હોય આ પ્રકારના પુરુષને આ ચેથા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે. આ પ્રકારે દૃષ્ટાન્ત સૂત્ર અને દર્દાન્તિક સૂત્રનું સામાન્ય રૂપે કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના (તે વૃક્ષોના) વિશેષ સૂત્રને પ્રકટ કરવા નિમિત્તે આ પ્રમાણે ४ ठे-" चत्वारि रुक्खा " त्या
વૃક્ષ ચાર પ્રકારનાં કહ્યાં છે-(૧) “ઉન્નત–ઉન્નત પરિણત” એક પ્રકાર એ છે કે જે જાતિ આદિની અપેક્ષાએ પહેલાં ઉન્નત હેાય છે અને આગળ જતાં એક વૃક્ષ ઉત્તમ રસરૂપ પરિણામને પ્રાપ્ત થાય છે. જેમકે આગ્રાદિ વૃક્ષ.
(૨) “ઉન્નત-પ્રયુત પરિણત” આ પ્રકારમાં એ વૃક્ષને મૂકી શકાય છે કે જે જાતિ આદિની અપેક્ષાએ ઉન્નત હોવા છતાં પણ કારણવશ ઉન્નત અવસ્થાને પરિત્યાગ કરી દે છે અને પ્રકૃત રૂપે પરિણત થઈ જાય છે.
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स्थाना " पणए" इत्यादि-प्रणतः जात्यादिहीनः कश्चित् स एव उन्नतपरिणत:= उन्नतत्वेन परिणाम प्राप्तः, यथा-योजिताऽऽम्रशाखमधुवृक्षादिक इति तुतीयो भङ्गः ॥ ३ ॥
"पणए नामेगे" इत्यादि प्रणतः जात्यादि हीनः, प्रणतपरिणत प्रणतत्वेनैव परिणतः, यथाऽर्कादिवृक्षः, इति चतुर्थो भङ्गः १४ ।
इति दृष्टान्तसूत्रम् ।
अथ दाष्टीन्तिकसूत्रमाह - "एवामेव" इत्यादि-एवमेववृक्षवदेव, चत्वारि पुरुपनातानि वोध्यानि४,४ हैं, जैसे वही आम्रवृक्ष जब शीत आतपआदि जनित रोग से ग्रस्त हो जाता तब वह पूति (दुर्गन्धित ) गन्ध फल आदि सहित हो जाता है। तृतीय प्रकार में-प्रणत उन्नत वृक्ष आते हैं, जैसे-कोई २ वृक्ष ऐसे होते हैं जो पहले जात्यादिक से हीन होते हैं और बाद में निमित्त मिलने से वे उन्नत रूप से परिणाम को प्राप्त हो जाते हैं, जैसे-मधूक वृक्ष के साथ आम्र की शाखा योजित कर लिया जाय तो वह उन्नत परिणाम को प्राप्त कर लेता है । चतुर्थ प्रकार में प्रणत होकर जो प्रणत ही रहते हैं ऐसे वृक्ष आते हैं, जैसे-अर्कादिवृक्ष " एवामेव" इत्यादि जैसे ये चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं वैसे ही पुरुप प्रकार भी चार होते हैंपुनः दृष्टान्तજેમકે એ જ આંબો જ્યારે શીત-ગરમી આદિ જનિત રેગથી ગ્રસ્ત થાય છે ત્યારે દુન્ય સડેલાં ફળ આદિથી યુક્ત થઈ જાય છે. (૩) “પ્રત-ઉન્નત પરિવૃત” આ પ્રકારમાં એ વૃક્ષેને મૂકી શકાય છે કે જે પહેલાં જાતિ આદિની અપેક્ષાએ હીન હોય છે, પણ ત્યારબાદ ચગ્ય નિમિત્ત મળવા થી ઉનત રૂપે પરિણમે છે. જેમકે કઈ મીઠા આંબાના થડમાં ડાળી રાપવામાં આવે (આ પ્રકારની ક્રિયાને ખૂટી કરવાની ક્રિયા કહે છે, તે તે ઉન્નત પરિણામને પ્રાપ્ત કરે છે. (૪) “પ્રભુત-પ્રવૃત” જે વૃક્ષ પહેલાં પણ જાતિ આદિની અપેક્ષાએ પ્રણત હોય છે અને કાયમ પ્રયુત જ રહે છે એવા આકડા माहिन मा याथा प्रा२मा भूडी शय छ " एवामेव" त्याह
આ ચાર પ્રકારના વૃક્ષોનું જેવું કથન કર્યું છે, એવું જ કથન ચાર પ્રકારના મનુષ્યો વિષે પણ સમજવું. હજી સૂત્રકાર વિશેષ દૃષ્ટાન્ત આપે છે–
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सुधा टीका स्था० ४५०१ सू०२ वृक्षान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् अथ पुनर्दृष्टान्तसूत्रं दर्शयति
" चत्तारि स्वस्वा " इत्यादि- चत्वारो वृक्षा प्रज्ञप्ताः स्पष्टार्थी एते शब्दाः तद्यथा - उन्नतः = उन्नति प्राप्तः, उन्नतरूपः = उन्नतं रूप यस्य ग उन्नतरूपः सुन्दर संस्थानावयवः, आकारबोधक्रियापरिणामेष्वाकारमाश्रित्य रूपघटित - सूत्रमिति । तथैव=पूर्ववदेव चतुर्भङ्गी ॥ ५ ॥
" एवमेव " इत्यादि - एवमेव वृक्षवदेव, ' चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि " इमानि प्रमिव व्याख्येयानि । ६ ।
३७७
31
46 चारिरुक्खा चार वृक्ष कहे गये हैं जैसे उन्नत उन्नतरूप - १ उन्नत प्रणतरूप - २ प्रणत उन्नतरूप -३ और प्रणत प्रणतरूप-४ इनके प्रथम प्रकार में वह वृक्ष आता है जो उन्नति को प्राप्त हों और सुन्दर संस्थानवाला हो, इसी तरह से आकार बोध किया और परिणाम, इनमें - आकार को आश्रित करके रूप घटित यह सूत्र योजित कर लेना चाहिये । द्वितीय प्रकार में वह वृक्ष आता है जो उन्नति को प्राप्त हो और आकार आदि में हीन हो । तृतीय प्रकार में वह वृक्ष आता है जो आकार आदि से सुन्दर हो, पर-रूप में उन्नतिवाला हो । तथा चतुर्थ प्रकार में वह वृक्ष आता है जो उन्नति को भी प्राप्त न हो, और संस्थान में भी सुन्दर न हो इस प्रकार से यह चतुर्भङ्गी है - ५ । इसी वृक्ष गदित चतुर्भङ्गी की तरह पुरुष प्रकार भी चार कहे गये हैं-६
"
" चत्तारि रुक्सा वृक्ष या प्रकारा ४ - ( १ ) उन्नत - उन्नत३५, (२) उन्नत - प्रत३५, ( 3 ) प्रयुत- उन्नत३५ सने (४) प्रयुत- प्रभुत३५.
વૃક્ષોના પહેલા પ્રકારમા એવા વૃક્ષને ગણાવી શકાય કે જે ઉન્નતિ पाभेद होए भने सुदर संस्थान ( सारवणु) होय. या रीते आर, ખાધ, ક્રિયા અને પરિણામ, આ ચારમાંથી આકારને આધારે રૂપતિ આ સૂત્ર ચૈાજવું જોઇએ. (૨) ખીજા પ્રકારમાં એવા વૃક્ષને ગણાવી શકાય કે'જે ઉન્નત હાય પણ આકાર આદિની અપેક્ષાએ હીન હાય (૩) ત્રીજા પ્રકારમાં એ વૃક્ષને ગણાવી શકાય કે જે ઉન્નત ન ડાય પણ જેના દેખાવ સુટ્ઠર ડાય. (૪) ચેાથા પ્રકારમાં એવા વૃક્ષાને ગણાવી શકાય કે જે ઉન્નત પણ ન હૈય અને સસ્થાનમાં પણ સુર ન હાય આ પ્રકારની આ ચતુભ’ગી છે.
વૃક્ષની અપેક્ષાએ જેવા ચ ર ભાંગા ( વિકલ્પ ) પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એવાં જ ચાર ભાંગા મનુષ્યની અપેક્ષાએ પણ સમજવા
स ४८
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स्थानाकसूत्रे
अथ वोधिपरिणामापेक्षाश्वत्वारो भङ्गाः प्रोच्यन्ते
" चत्तारि " इत्यादि - चत्वारि - चतुः संख्यानि, पुरुषजातानि = पुरुषप्रकाराः, प्रज्ञप्तानि तद्यथा - उन्नतो = जात्यादि गुणैरभ्युदितः एकः, = प्रथमः, उन्नतमनाः, स्वाभाविकौदार्यप्रभृतिगुणयुक्तहृदयो भवति |१| इति प्रथमो भगः | १| अवशिष्टास्त्रयो भङ्गा यथा- उन्नतो नायैक प्रणतमनाः २, उन्नतमनाः ३, प्रणतो नामकः प्रणतमनाः ४, इति चतुर्भङ्गी । ७ ।
प्रणतो नामैक
अब सूत्रकार बोधि परिणामकी अपेक्षा लेकर चार भङ्ग कहते हैं पुरुष प्रकार चार संख्या वाले कहे गये हैं, जैसे- उन्नत उन्नत मनवाला १ उन्नत प्रणत मनवाला २ प्रणत उन्नत मनवाला ३ और प्रणत प्रणत मनवाला-४ इनमें - - प्रथम प्रकार का ऐसा तात्पर्य है, जो जाति आदि गुणों से उन्नत होता है - और स्वाभाविक औदार्यादि गुणों से भी युक्त हृदयवाला होता है -१ द्वितीय प्रकार में वह पुरुष आता है जाति आदि गुणों से तो उन्नत होता है, पर - स्वाभाविक औदार्य आदि गुणों से युक्त हृदयवाला नहीं होता है २ तृतीय प्रकार में वह पुरुष आता है, जो स्वाभाविक औदार्य आदि गुणोंसे युक्त हृदयवाला तो होता ही है पर उसका मन उन्नत होता है - ३ तथा चतुर्थ प्रकोर में वह पुरुष आता है जो नतो जाति आदि गुणों से ही उन्नत होता है और न औदार्य आदि गुणों से ही युक्त हृदयवाला होता है -४ इस प्रकार से ये चतुर्भङ्ग हैं | सू०७ ॥
હવે સૂત્રકાર આધપરિણામની અપેક્ષાએ ચાર ભાંગાનું કથન કરે છે— પુરુષાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પશુ પડે છે–(૧) ઉન્નત ઉન્નત મનવાળા, (ર) ઉન્નત પ્રભુત મનવાળા, (૩) પ્રભુત ઉન્નત મનવાળા અને (૪) પ્રદ્યુત પ્રભુત મનવાળેા
પહેલા પ્રકારમાં એ મનુષ્યને મૂકી શકાય કે જે જાતિ આદિની અપે ક્ષાએ પણ ઉન્નત હાય છે, અને સ્વાભાવિક ઔદાય આદિ ગુણેાથી પશુ સપન્ન હૃદયવાળા હોય છે. ખીજા પ્રકારમાં એ મનુષ્યને મૂકી શકાય કે જે જાતિ આદિ ગુણાની અપેક્ષાએ તેા ઉત્તમ હોય છે, પણ સ્વાભાવિક ઔદાય આદિ ગુણૈાથી યુક્ત હૃદયવાળા હાતા નથી. ત્રીજા પ્રકારમાં એવા પુરુષને મૂકી શકાય કે જે જાતિ આદિ ગુણેાથી ઉન્નત હોતા નથી પણ સ્વાભાવિક ઔદાય આદિ ગુણેાથી યુક્ત હૃદયવાળા હાય છે. ચેાથા પ્રકારમાં એ મનુષ્યને મૂકી શકાય છે કે જે જાતિ આદિ ગુણાની અપેક્ષાએ પણ ઉન્નત હાતા નથી અને ઔદાર્ય આદિ ગુણાથી યુક્ત હૃદયવાળા પણુ હાતા નથી.
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सुधा डोका स्था० ४५०१ सू० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम्
ૐ સ્
" एवं संकप्पे " इति - एवम् = पूर्ववत्, संकल्प = संकल्पघटितस्ततद्भङ्गी मनोघटितभङ्गवद् बोध्यः । तथाहि उन्नतो नामैक उन्नतसंकल्पः १, उन्नतो नामैकः प्रणतसंकल्पः २, प्रणतो नामक उन्नतसंकल्पः ३, प्रणतो नामैकः प्रणतसंकल्पः ४। तत्र संकल्पो - मानसं कर्म विचार इत्यर्थः एवं चोन्नतसंकल्पः ' इत्यस्योन्नतमानसविचार इत्यर्थः । विचारे औन्नत्यं चौदार्यादिगुणयुक्तत्वेन समीचीनार्थविष यत्वेन वा बोध्यम्, तद्वान् पुरुपोऽप्युन्नतोऽभिधीयते । ८ ।
" पन्ने " इति - मज्ञा - ज्ञानं ज्ञा, प्रकृष्टा चासौ ज्ञा-प्रज्ञा, तद्घटिता अपि भङ्गा मनोघटितभङ्गचद् बोध्या । तथाहि - उन्नतो नामैक उन्नतमज्ञः १, उन्नतो नामकः प्रणत प्रज्ञः २, प्रणतो नामैक उन्नतः प्रज्ञः ३, प्रणतो नामैकः प्रणत-मज्ञः ४,९ ॥
-
इसी प्रकार से सङ्कल्प को घटित करके भी चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये, जैसे कि उन्नत उन्नत सङ्कल्पवाला - १ उन्नत प्रणत सङ्कल्पवाला -२ प्रणत उन्नत सङ्कल्पवाला - ३ और प्रणत प्रणत सङ्कल्पवाला - ४ सङ्कल्प नाम मानसिक विचार का है, विचार में औन्नत्य औदार्य आदि गुणों से युक्त होने से अथवा समीचीन अर्थ को विषय करने से जानना चाहिये, ऐसे उन्नत मानसिक विचारों से युक्त हुवा पुरुष भी उन्नत कहलाते हैं इस चतुर्थभङ्गी का अर्थ स्पष्ट है ८
" पन्ने " प्रज्ञा नाम ज्ञान का है प्रकृष्ट ज्ञा का नाम प्रज्ञा है इसको लेकर भी चार भङ्ग इस प्रकार से बने हैं - उन्नत उन्नत प्रज्ञावाला - उन्नत प्रणत प्रज्ञावाला - प्रणत उन्नत प्रज्ञावाला - और प्रणत प्रणत प्रज्ञावाला, यह चतुर्भङ्गी भी सरलता से समझी जा सके ऐसी है
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એ જ પ્રમાણે સ’કલ્પને આધારે પણ ચાર ભાંગા અને છે-જેમકે.... (१) उन्नत उन्नत सहयवाणी, (२) उन्नत अयुत सहयवाणी (3) प्रयुत ઉન્નત સ’કલ્પવાળા અને (૪) પ્રણત પ્રભુત સ'કલ્પવાળા. સ’કલ્પ ’એટલે
CC
· માનસિક વિચાર ’”, વિચારમાં ઔદાય આદિ ગુણેાથી યુક્તતા હવાને કારણે ઉન્નતતા સ'ભવી શકે છે. અથવા સમીચીન અને વિષય કરવાની અપેક્ષાએ પશુ સ’કલ્પમાં ઉન્નતતા સમજવી જોઇએ એવા માનસિક ઉન્નત વિચારાથી ચુક્ત હેાય એવા પુરુષને પશુ ઉન્નત કહે છે. આ ચતુભ ́ગીના અ સ્પષ્ટ છે. " पन्ने " अज्ञा भेटले ज्ञान- प्रदृष्ट ज्ञानतुं नाम अज्ञा छे. ते अज्ञानी અપેક્ષાએ પણ નીચે પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે−(1) ઉન્નત ઉન્નત પ્રજ્ઞાવાળા, (२) उन्नत प्रयुत प्रज्ञावाणी (3) प्रणुत उन्नत प्रज्ञावाणी मने (४) प्रयुत પ્રભુત પ્રજ્ઞાવાળા. આ ચતુભ ́ગી પણ સરળતાથી સમજી શકાય એવી છે.
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स्थानाङ्गसूत्रे ___“दिही" इति-दृष्टि:-दर्शनं दृष्टिः-चाक्षुपज्ञानं, यहा-दृष्टि:-नयमतं, तद्धटिताश्चत्वारो भङ्गा बोध्याः । तथाहि-उन्नतो नामैक उन्नतदृष्टिः १ उन्नतो नामैकः प्रणतदृष्टिः २, पणतोनामैक उन्नतदृष्टिः ३, प्रणतोनामैकः प्रणतदृष्टिः ४।१०।
अथ क्रियाऽपेक्षाणि त्रीणि सूत्राण्याह___"सीलायारे" इति-शीलाऽऽचारशीलं-रामाधिश्चित्तस्वास्थ्यमित्यर्थः, यद्वा-सद्वृत्तं स्वभावो वा तस्याऽऽचार:=आचरणानुष्ठानमित्यर्थः, यद्वा-" शी____ "दिट्ठी" दर्शन का नाम दृष्टि है अर्थात् चक्षु की सहायता से जो ज्ञान होता है वह दृष्टि है । अथवा नयों का जो मत है वह दृष्टि है, इस दृष्टि को लेकर भी चार अङ्ग इस प्रकार से बनते हैं। उन्नत उन्नत दृष्टिवालो १ उन्नत प्रणत दृष्टिवाला-२ प्रणत उन्नत दृष्टिवाला-३ और प्रणत प्रणत दृष्टिवाला-४ इनका तात्पर्य ऐसा है कि-एक उन्नत होकर भी उन्नत दृष्टिवाला-१ एक उन्नत होकर भी प्रणत दृष्टिचाला होता है-२ एक प्रगत होकर भी उन्नत दृष्टिवाला होता है और एक प्रणत होकर भी प्रणत दृष्टिवाला ही होता हैक्रियापेक्ष तीन सूत्र इस प्रकार से है
"सीलायरे" इति-शील नाम समाधि का है समाधि चित्त स्वास्थ्यरूप होती है, अथवा-सवृत्त, या स्वभाव का नाम भी शील है इस शील का जो आचार अनुष्ठान है, वह शीलाचार है। अथवा
“ दिदी” ४शननु नाम दृष्टि छे सेट यानी सायताथी रे कान થાય છે તેનું નામ દૃષ્ટિ છે. અથવા જુદા જુદા નયને જે મત હોય છે તેને દષ્ટિ કહે છે. આ દૃષ્ટિને અનુલક્ષીને પણ નીચે પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે. (१) जन्नत Grd टिवाणी, (२) उन्नत प्रत दृष्टिवाणी, (3) प्रयत उन्नत દષ્ટિવાળે અને (૪) પ્રણત પ્રણત દષ્ટિવાળો, આ ચાર પ્રકારનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–(૧) કેઈ પુરુષ જાતિ આદિની અપેક્ષાએ પણ ઉન્નત હોય છે અને ઉન્નત દૃષ્ટિવાળો પણ હોય છે. (૨) કેઈ પુરુષ ઉન્નત હોવા છતાં પ્રભુત દૃષ્ટિવાળો હોય છે. (૩) કેઈ પુરુષ પ્રણત હોવા છતાં ઉન્નત દૃષ્ટિવાળે હોય છે. (૪) કઈ પ્રણત પણ હોય છે અને પ્રણત દષ્ટિવાળે પણ હોય છે.
કિયાની અપેક્ષાએ ત્રણ સૂત્ર આ પ્રમાણે છે– " सीलायारे" त्याहि-शीट मेटले समाधि. समाधि वित्तनी स्वस्थता રૂપ પણ હોય છે. અથવા-સદુવૃત્તિ અથવા સ્વભાવનું નામ પણ શીલ છે. તે
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सुधा टीका स्था० ४३ ३ १ सू०२ वृक्षहण्टेव पुरुषादिनिरूपणम् ३८१ लेनाऽऽचारः शीलाऽऽचारः" इति तृतीयातत्पुरुषः, तेन स्नभावेनाऽऽचार इत्यर्थः एवं च शीलाऽऽचारघटिताअपि चखारो भगा वोध्याः । तथाहि - उन्नतो नामैक उन्नतशीलाऽऽचारः १, उन्नतोनामैक' प्रणतशीलाऽऽचारः २, प्रगतो नामैक उन्नतशीलाऽऽचारः ३, प्रणतो नामैका मणतशीलाऽऽचारः ४।११। ___"ववहार" इति-व्यवहारःवर्तनमाचरणं चा, स चाने कविधः, तद्धटिता अपि चत्वारो भङ्गाः कर्तव्याः, तथाहि-उन्नतो नामक उन्नतव्यवहारः १, उन्नतो नामैकः प्रणतव्यवहारः २, प्रणतो नामैक उन्नतव्यवहारः ३, प्रगतो नामैकः प्रण-" शीलेन आचारः” शीलाचार इस तृतीयातत्पुरुष समास को लेकर ऐसा शीलाचार का अर्थ होता है, कि-स्वभाव से जो आचार है वह शीलाचार है, इस शीलाचार को लेकर भी चार भङ्ग बनते हैं-वे इस प्रकार से है-कोई उन्नत होकर भी उन्नत शीलाचारवाला होता है-१ कोई उनत होकर भी प्रणत शीलाचारवाला होता है-२ कोई प्रणत होकर भी उन्नत शीलाचोरवाला होता है-३ और कोई प्रणत होकर भी प्रणत शीलाचारवाला ही होता है-११
"ववहार" इति व्यवहार अथवो वर्तमान आचरण का नाम व्यवहार है यह व्यवहार अनेक प्रकार का होता है। इस व्यवहार को लेकर चार भङ्ग इस प्रकार से बनते है, एक कोई उन्नत होकर भी उन्नत व्यवहारवाला होता है-१ कोई उन्नत होकर भी प्रणत व्यवहारवाला होता है-२ कोई प्रणत होकर भी उन्नत व्यवहारवाला होता है-३ शासन माया२ (आनुष्ठान) छे, तेनुं नाम तयार छ अथवा “शीलेन आचारः" ॥ प्रभाये तृतीय तत्पुरुष समास मशीन शायरने । પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે–“સ્વભાવતઃ ” જે આચાર છે તેને શીલાચાર કહે છે. ” આ શીલાચારની અપેક્ષાએ પણ નીચે પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે. (૧) કેઈ પુરુષ ઉન્નત પણ હોય છે અને ઉન્નત શીલાચારવાળો પણ હોય છે (૨) કે પુરુષ ઉન્નત હોવા છતાં પણ પ્રણત શીલાચારવાળો હોય છે. (૩) કઈ પ્રણત હોવા છતાં પણ ઉન્નત પ્રણત શીલાચારવાળો હોય છે. (૪) કઈ પ્રણત પણ હોય છે અને પ્રણત શીલાચારવાળો પણ હોય છે. ૧૧
"यवहार." त्या-तमान मार्नु नाम व्यवहा२ छ त વ્યવહાર અનેક પ્રકારનો હોય છે તે વ્યવહારની અપેક્ષાએ પણ નીચે પ્રમાણે ચાર ભાગ બને છે-(૧) કેઈ જીવ ઉન્નત પણ હોય છે અને ઉન્નત વ્યવ હારવાળે પણ હોય છે (૨) કોઈ પુરુષ ઉન્નત હોવા છતાં પણ પ્રભુત વ્યવહારવાળે હોય છે. (૩) કે પ્રવૃત હોવા છતાં પણ ઉન્નત વ્યવહારવાળે
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स्थानामसूत्र तव्यवहारः ४ । तत्र व्यवहारे उन्नतत्वं प्रणतत्वं च प्रशंसनीयत्वाप्रशसनीयत्वाभ्यां बोध्यम् । १२ ।
" परकमे" पराक्रमः-उत्साहः, तद्धटिता अपि चत्वारो भगा वोध्याः। तथाहि-उन्नतो नामैक उन्नतपराक्रमः १, उन्नतो नामैकः प्रणतपराक्रमः २, प्रणतो नामैक उन्नतपराक्रमः ३, प्रणतो नामैकः प्रणतपराक्रमः ४ । तत्र पराक्रमे उन्नतत्वं चाप्रतिहतत्व-समीचीन विषयत्वाभ्यां बोध्यम् । १३ । एषु सर्वेषु भङ्गेषु प्रणतत्वमुन्नतत्वविपरीतं बोध्यम् ।
और-कोई प्रणत होकर भी प्रणत व्यवहारवाला ही होता है-४ व्यवहार में औनत्य और प्रणतता प्रशंसनीयता और अप्रशंसनीयता से आती है ऐसा जानना चाहिये-१२ ___ "परक्कमे" उत्साह का नाम पराक्रम है इस पराक्रम के जो चार भङ्ग बनते हैं-वे इस प्रकार से हैं, कोई उन्नत होकर भी उन्नत पराक्रमवाला होता-१ कोइ उन्नत होकर भी प्रणत पराकामवाला होता है-२ कोइ प्रगत होकर भी उन्नत पराक्रमवाला होता है-३ और कोई प्रणत होकर प्रणत पराक्रमवाला ही होता है ४ पराक्रम में औन्नत्य अप्रतिहतता और-समीचीनता को लेकर ही होता है ऐसा जानना चाहिये, इन समस्त भङ्गों में प्रणतता औनत्य से विपरीत होती है ऐसा समझना चाहिये।
હોય છે. (૪) કેઈ પુરુષ પ્રણત પણ હોય છે અને પ્રણત વ્યવહારવાળે પણ હોય છે વ્યવહારમાં ઉન્નતતા અને પ્રણતતા પ્રશંસનીયતાથી અને અપ્રશંસનીયતાથી આવે છે, એમ સમજવું. ૧૨
___" परक्कमे " त्याह-Gसाने ५२॥ ४७ छ. ते पराभनी अपे. ક્ષાએ નીચે પ્રમાણે ચાર ભાગ બને છે-(૧) કેઈ પુરુષ ઉનત પણ હોય છે અને ઉન્નત પરાક્રમવાળે પણ હય છે. (૨) કેઈ પુરુષ ઉન્નત હોવા છતાં પણું પ્રભુત પરાક્રમવાળે હેય છે. (૩) કે પુરુષ પ્રણત હોવા છતાં પણ ઉન્નત પરાક્રમવાળો હોય છે (૪) કે પુરુષ પ્રત પણ હોય છે અને પ્રણત પરાક્રમવાળે પણ હોય છે. પરાક્રમમાં ઉન્નતતા અપ્રતિતતતા અને સમીચીનતાની અપેક્ષાએ જ હોય છે, એમ સમજવું. આ ચારે ભાંગાઓમાં પ્રવૃતતા ઉન્નત તાથી વિપરીત હોય છે, એમ સમજવું.
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० २ वृक्षादिष्टान्तेननिरूपणम् ३८३
" एगे पुरिसजाए " इत्यादि-एषु मन आदि पराक्रमान्तघटितसप्तचतुभङ्गीसूत्रेषु मध्ये एक केवलं पुरुषजातं= पुरुषजातपदं योजयित्वा सप्त चतुभगीसूत्रपठनं कार्यम् , यतः प्रतिपक्षः द्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतं वृक्षसूत्रं नास्तीति दृष्टान्ततया वृक्षसूत्रं न पठनीयमिति, यतोऽत्र दृष्टान्तभूतक्षेषु मनःप्रभृतयो दार्टान्तिकपुरुषधर्मा न घटन्ते, तेषामसंज्ञित्वात् ।
पुनदृष्टान्तसूत्रमाह___ " चत्तारि ” इत्यादि-चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ऋजुः सरला, एका= कश्चिद् वृक्षः वृक्षे आजवं चाविपरीतस्वभावेन समुचितफलपुष्पादिनिष्पादनहेतुत्वाद् बोध्यम् , स एव पूर्वमृजुरधुनाऽपिऋजुः सरल इति प्रथमो भगः ११
" एगे पुरिसजाए" इत्यादि-मनसे लेकर पराक्रम तक की जो चतुर्भङ्गी के ये सात सूत्र हैं उनमे केवल पुरुषजात पद को योजित करके ही सप्त चतुर्भङ्गी सूत्रों को पठन करना चाहिये। क्यों कि-दृष्टान्तभूत जो वृक्ष सूत्र है वह यहां नहीं पढना चाहिये कारण इसका ऐसा है कि-दृष्टान्तभूत वृक्षों में मन आदि जो दृष्र्टान्तिक पुरुष धर्म हैं वे घटित नहीं होते हैं, क्यों कि-असंगी होते हैं
"पुनः दृष्टान्त सूत्र का कथन-" "चत्तारि" इत्यादि-चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं, ऋजु-१ सरल -२ ऋजु-३ सरल-४ इस भङ्ग में कोई ऐसा होता है, जो पहिले भी
.एगे पुरिसजाए " त्याहि-मनथी सन पराभ सुधाना यार ભાંગાવાળા સાત સૂત્રોનું પૂર્વોક્ત પ્રકારે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. તે સાતે સૂત્રોના ચાર–ચાર ભાંગાએનું કથન કરતી વખતે દરેક ભાંગામાં માત્ર પુરુષ પદને પ્રવેગ કરીને સમસ્ત કથન થવું જોઈએ. એટલે કે દૃષ્ટાન્તરૂપ વૃક્ષ પદને આ ભાંગાઓમાં પ્રગ કર જોઈએ નહીં. ત્યાં વૃક્ષપદનો પ્રયોગ શા માટે થે ન જોઈએ? તે તેને ખુલાસે આ પ્રમાણે સમજ– દૃષ્ટાન્તભૂત વૃક્ષેમાં મન આદિને સદ્ભાવ હોતો નથી. એટલે કે જે દાબ્દનિક પુરુષધર્મો છે તેમને વૃક્ષની સાથે ઘટાવી શકાતા નથી, તે કારણે આ સાત સૂત્રમાં વૃક્ષપદને પ્રયોગ અસંગત લાગે છે. તેથી દષ્ટાન્તભૂત વૃક્ષોને બદલે દાબ્દન્તિક પુરુષને જ આ ભાંગાઓમાં પ્રવેશ કરવામાં આવ્યું છે.
દષ્ટાન્ત સૂત્રનું વિશેષ કથન– । “चत्तारि" त्याहि-वृक्षाना नाये प्रभाध्ये या२ २ ५९ ॥ छ(१) **-*Y, (२) *-43, (3) १४-ॐ मने (४) १४-१.
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३८४
स्थानाश ____ ऋजुर्नामैको चक्र:=पूर्वमृजुः पश्चात् , फलपुष्पादि विषये विपरीतः । इति द्वितीयो भङ्गः ।२।
वक्रो नामैक ऋजुः-वक्रा=कुटिलः, ऋजुः सरलः । इति तृतीयो भङ्गः ।३।
वक्रो नामैको वक्रः-पूर्व वक्रः पश्चादपि चक्रः, शेपं प्राग्वत् । इति चतुर्थोंभङ्गः।४।
इति दृष्टान्तभूतवृक्षसूत्रम् ।
अथ दाष्टान्तिफपुरुषजातसूत्रोपन्यास:---- " एवामेव " इत्यादि-एवमेव=दृष्टान्तभूतक्षवदेव, चत्वारि-चतुःसंख्यानि ऋजु होता है-और बाद में भी ऋजु बना रहता है, वृक्ष में जुता अविपरीत स्वभाव को लेकर, या-समुचित फल पुष्पादि को उत्पन्न करने के कारण को लेकर जाननी चाहिये, ऐला यह ऋजु जु नाम का प्रथम भङ्ग है १ ऋछुवक, यह द्वितीय अङ्ग है-२ इसमें पहले ऋजु होकर भी कोई वृक्ष वक्र हो जाता है ऐसा कहा गया है, फल पुष्प आदि के विषय में विपरीत होना इसीका नाम यहां वक है। वन ऋजु-यह तृतीय भंग है, इसमें पहले एक कुटिल हुवा कोई वृक्ष पश्चात् ऋजु सरल हो जाता है यह बतलाया गया है । वक वक्र यह चतुर्थ भंग है, इसमें पहिले से भी कोई वृक्ष बक रहता है और बाद में भी वह वक्र ही बना रहता है इस प्रकार से ये चार भंग हैं
दाष्टान्तिक पुरुषजात " एवामेव" इत्यादि-दृष्टान्त स्वरूप वृक्ष की तरह चार संख्यायाले
હવે આ ચારે ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામા આવે છે-(૧) કોઈ વૃક્ષ એવું હોય છે કે જે પહેલાં પણ ઋજુ હોય છે અને પછી પણ હજુ જ રહે છે. વૃક્ષમાં બાજુતા (સરળતા) અવિપરીત સ્વભાવની અપેક્ષાએ અથવા સમુચિત ફલ, પુષ્પાદિને ઉત્પન્ન કરવાને કારણે સમજવી (૨) “જુ-વક કઈ વૃક્ષ પહેલા ત્રાજુ હોવા છતાં પાછળથી વક્ર થઈ જાય છે ફલ-પુષ્પાદિ આપનારૂ વૃક્ષ જ્યારે ફલ-પુષ્પાદિ આપતું બધ થઈ જાય છે ત્યારે તેમાં पता मापी गाय छे. (3) 4- 5 वृक्ष मे डाय छ । २ પહેલાં વક હોય છે પણ પાછળથી ઋજુ બની જાય છે (૪) “વક્ર–વક” કઈ વૃક્ષ પહેલાં પણ વક્ર હોય છે અને પાછળથી પણ વક્ર જ રહે છે. આ પ્રકારના ચાર ભાંગા અહીં બને છે.
દાબ્દન્તિક પુરુષ જાત– " एवामेव " त्याहि-शान्तभूत वृक्षनी म पुरुषांना पशु यार ४२
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सुधा टीका स्था० ४ ४०१ सू० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् पुरुषजातानि = पुरुषप्रकाराः, मज्ञप्तानि तद्यथा-ऋजुर्नामैक ऋजुः १ - ऋजुः = सरल: शरीर- गति-भाषित - चेष्टाप्रभृतिभिर्वदिस्तात्, अन्तरप्येवमृजु = निश्चलः सुसाधुवदिति प्रथमो भङ्गः ॥ १ ॥
ऋजुनमैको वक्रः २ - ऋजुः, एकः = कश्चित्, वक्रः = अन्तर्मायावित्वेन कुटिल : कारणवशात् सरलताधारिदुर्जनवत्, इति द्वितीयोभङ्गः १२
वक्रो नामैक ऋजुः ३ - वक्रः- कुटिल : शिक्षादिकारणवशाद्दर्शितन हिरुग्रस्त्रभावः, ऋजुः=अन्तश्चलरहितः प्रवचन- गुप्ति त्र्यादिरक्षकमुनिवत् । इति तृतीयो भङ्गः । ३ ।
antarata: ४ - वक्रः = कुटिलो वहिस्तात्कायचेष्टादिना स एव वक्रः= अभ्यन्तरेऽपि कुटिल, कपटजालयुक्तशठवदिति चतुर्थो भङ्गः ४ इति दान्तिक पुरुषजातसूत्रोपन्यासः ।
पुरुष प्रकार कहे गये हैं, इनमें कोई पुरुष सुसाधु की तरह ऐसा होता है जो शरीर गति भाषित एवं चेष्टा आदि में सरल होता है औरभीतर में भी निश्चल होता है, अर्थात् - ऐसा पुरुष बाहर में और भीतर सरलतावाला होता है, यह प्रथम भंग है - १ कोई पुरुष ऐसा होता है जो - पहले तो सरल होता है, बाद में कारण वश वह कुटिल-मायावी हो जाने से सरलताधारी दुर्जन की तरह वक्र हो जाता है यह द्वितीय भग है - कोई पुरुष ऐसा होता है जो पहले वक्र होता है शिक्षादि कारण के वश से बाहर में उग्रस्वभाव का प्रदर्शन करनेवाला होता है, बाद में वह वचन गुसित्रय आदि की रक्षा करनेवाले मुनि की तरह भीतर में छलविहीन बन जाता है यह तृतीय भंग है-३ कोई पुरुष ऐसा होता
ह्या छे-पडेलो लागो - अर्ध पुरुष सुसाधुनी प्रेम शरीर, गति, भाषा, येष्टा આદિની અપેક્ષાએ પણ સરલ હાય છે અને તેનું અંતકરણ પણુ નિશ્ચલ હાય છે. એટલે કે તે બહારથી પણ સરલ હેાય છે અને 'દરથી પણ સરલ હાય છે. અથવા પહેલાં પશુ સરળ હોય છે અને પાછળથી પણું સરલ જ રહે છે. બીજો ભાગે!–કેાઈ પુરુષ પહેલાં સરલ હાય છે, પરન્તુ પાછળથી કોઈ કારણને લીધે તે માયાવી થઈ જવાથી દુનના જેવા વક્ર ( કુટિલ ) થઈ लय हो त्रीले लांगी- पुरुष पसां व ( फुटिस ) होय छे, परन्तु શિક્ષાદિ કારણેાને લીધે પાછળથી સરલ સ્વભાવના બની જાય છે. અથવા કોઇ માણુસ ઉશ સ્વભાવ આદિનું પ્રદશન કરનારા હોવા છતાં પણ ગુણિત્રય આદિની રક્ષા કરનારા મુનિની જેમ આદરથી છલરહિત બની ગયેલા હાય છે . ચેાથેા ભાગા-કાઈ પુરુષ શારીરિક ચેષ્ટા આદિની અપેક્ષાએ બહારથી પણ કુટિલ
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' एवं जहा " इत्यादि - एवम् इत्थम् " ऋजुनमैकः ऋजुः " इत्यादिनाऽनन्तरोपदर्शितक्रमेण, यथा येन प्रकारेण परिणतरूपत्वादि नत्र विशेषण - दानेनेत्यर्थः, उन्नत - परिणताभ्यामन्योऽन्यं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः = सदृशवाक्यपद्धतिरूपः पाठो विहितः तथा तेन प्रकारेण अर्थात् परिणत - रूप- मनः- संकल्पप्रज्ञा-दृष्टि - शीलाऽऽचार - व्यवहार - पराक्रमरूपनव विशेषणयोजिताभ्याम्, ऋजु - चक्राभ्यामपि = ऋजुशब्देन चक्रशब्देन चापि भणितव्यः = गमः पठनीयः, स गमः कियान् भणितव्यः १ इत्यवर्धि प्रदर्शयितुमाह - " जाव परकमे " इति, अजुवक्रवृक्षसूत्रादारभ्य त्रयोदशं सूत्रं यावद् गमो भणितव्य इत्यर्थः । - तत्र च ऋजु २ ऋजु परिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि पट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्त पुरुषदाष्टीन्तिकरूपाणि वोध्यानि, तदतिरिक्तानि सप्त मनःप्रभृतिघटितानि दृष्टान्तरहिहै जो बाहर से शारीरिक चेष्टादि द्वारा कुटिल होता है और भीतर से भी कपट जाल युक्त शठ की तरह कुटिल होता है यह चतुर्थभंग है-४ 61 एवं जहा इत्यादि - इस सूत्र द्वारा अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जिस प्रकार उन्नत और प्रणत सम्बन्धी सूत्रों के साथ उन्नत प्रणत परिणत रूप जोडकर दृष्टान्त और दान्तिक सम्बन्धी छह ६ सूत्र बनाये हैं, तथा इनकी उन्नत प्रणत शब्दों के साथ मन सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार शब्द जोडकर ७ सूत्र वृक्ष दृष्टान्त रहित करके और बनाये गये हैं, इस प्रकार से ये तेरह सूत्र बनाये गये है । जैसे - उन्नत उन्नत - १ उन्नत प्रणत-२ प्रणत उन्नत-३ और प्रणत प्रणत ४ ये चार भंग वृक्ष सम्बन्धी हैं, यह प्रथम १ सूत्र है, और इसी सूत्र को दान्तिक में उन्नत प्रणत को योजित करके द्वितीय सूत्र पुरुष હાય છે અને અંદરથી પણ કપટ જાળયુક્ત દુનના જેવા કુટિલ જ હાય છે, અથવા તે પહેલાં પણ કુટિલ હાય છે અને પછી પણ કુટિલ જ રહે છે. एवं जहा ” ઈત્યાદિ—આ સૂત્ર દ્વારા હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે–જેમ ઉન્નત અને પ્રણત વિષયક સૂત્રેાની સાથે ઉન્નત પ્રદ્યુત પરિણત રૂપ જેડીને દૃષ્ટાન્ત કાર્યાંન્તિક સ’બધી ૢ સૂત્રેા બનાવવામાં આવ્યા છે, એ જ प्रमाणे ' उन्नत अद्युत ' शहोनी साथै भन, सहय, अज्ञा, दृष्टि, शीसाथार, વ્યવહાર અને પરાક્રમ, આ સાત પદ જેડીને વૃક્ષના દેર્ટન્ત રહિત ખીજા સાત સુત્રા પણ મનાવવામાં આવ્યાં છે. આ પ્રમાણે કુલ ૧૩ સૂત્ર બનાववासां भाव्यांछे नेमे... (१) उन्नत-उन्नत, (२) उन्नत - प्रद्युत, (3) प्रयुत ઉન્નત અને (૪) પ્રણત-પ્રણત, આ ચાર ભાંગા વૃક્ષને અનુલક્ષીને મનાવ્યા છે. આ રીતે વૃક્ષાના દૃષ્ટાન્તવાળું આ પ્રથમ સૂત્ર છે.
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सुंबा ठीका स्था० ४ उ० १ सू० २ वृक्षदष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम्
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तानि मनःप्रभृतीनां धर्माणामसंज्ञिनि वृक्षेऽसम्भवादिति संकलनया त्रयोदश सूत्राणि १३ । प्रागपि त्रयोदशेति योजयित्वा २६ पविंशतिः सूत्राणि भवन्ति । तत्र ऋजुवादिघटितत्रयोदशसूत्री यथा
अथ ऋजुत्रक्रघटितदृष्टान्त भूत वृक्षसूत्रम् - १
चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ऋजुर्नामैक ऋजुः १, ऋजुनर्मिको वक्रः २, वक्रो नामको ऋजुः ३, वक्रो नामैको वक्रः ४ | ॥१॥ इति
अथ ऋजुवघटितदान्तिक पुरुषजातसूत्रम् -२
एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा-ऋजुन कि ऋजुः १, ऋजु नको चक्रः २, को नामै ऋजुः ३, वक्रो नामैको वक्रः ४, २ घटितदान्तिक पुरुषजातसूत्रम् । २ ।
इति ऋजु
सम्बन्धी बनाया गया है। उन्नत उन्नत परिणत - १ उन्नत प्रणत परिणत २ प्रणत उन्नत परिणत - ३ और प्रणत प्रगत परिणत - ४ ये चार भंग उन्नत प्रणत के साथ परिणत को योजित कर तृतीय वृक्ष सम्बन्धी हैं। यह सूत्र है, और इसी सूत्र को दृष्टान्त में योजित करके चतुर्थ सूत्र बनाया गया है" उन्नत उन्नत १ उन्नत प्रणतरूप - २ प्रणत उन्नतरूप - ३ और-: र-प्रणत प्रणतरूप ४ ये चार भंग रूप को लेकर वृक्ष सम्बन्धी बनाये गये हैं, यह पांचवां सूत्र है, और इसी सूत्र को दाष्टन्तिक में योजित करके छट्ठां ६ सूत्र बनाया गया है इस तरह से यहां तक तो दृष्टान्त दान्तिक सम्बन्धी ६ सूत्र बनाये गये हैं । परन्तु इनके साथ उन्नत
અને એ જ પ્રમાણે દાન્તિક પુરુષની સાથે ઉન્નત–ઉન્નત, આદિ ચાર ભાંગાને ચૈાજિત કરીને પુરુષ વિષયક મીજી સૂત્ર મનાવ્યુ છે. (૧) ઉન્નત ઉન્નત પરિણત (2) ઉન્નતપ્રદ્યુતપરિણત, (3) પ્રણતઉન્નતપરિણત भने (४) आयुत પ્રભુત પરિણત, આ ચાર ભાંગા ઉન્નત-પ્રણતની સાથે પણિતને ચેાજિત કરીને વૃક્ષને અનુલક્ષીને કહ્યા છે. આ રીતે વૃક્ષ વિષયક ત્રીજી સૂત્ર અનાવ્યું છે, અને આ સૂત્રને દૃષ્ટાન્તમાં ( દાન્તિક પુરુષમાં) ચેાજિત કરીને પુરુષ વિષયક ચાક્ષુ' સૂત્ર ખનાવ્યુ છે, પાંચમું સૂત્ર આ પ્રમાણે जनाव्यु छे-(१) उन्नत उन्नत३य, (२) उन्नत अणुत३य, ( 3 ) अयुत उन्नत ३५ अने (४) अणुत प्रयुत३ मा यार लांगा संस्थान ( आर ) नी थे. ક્ષાએ વૃક્ષને અનુલક્ષીને કહ્યા છે. આ ચારે ભાંગાને કાર્ટાન્તિક પુરુષને અનુલક્ષીને ચેાજિત કરવાથી છઠ્ઠું સૂત્ર બન્યું છે,
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स्थानाने अथ ऋजुवक्रपूर्वकपरिणतघटितदृष्टान्तभूतपक्षसूत्रम्-३ चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ऋजुर्नामक ऋजुपरिणतः १, ऋजुर्नामैको चक्रपरिणतः २, वक्रो नामैक ऋजुपरिणतः ३, चक्रो नामैको वक्रपरिणतः॥ ४ ॥३॥ इति ॥
___ अथ ऋजुवक्रपूर्वकपरिणतघटितदार्टान्तिकपुरुषसूत्रम्-४ एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-ऋजुन मैक ऋजुपरिणतः १, ऋजुर्नामैको चक्रपरिणतः २, वक्रो नामैक ऋजुपरिणतः ३, वक्रो नामको चक्रप. रिणतः ४॥ इति ऋजुवक्रपूर्वकपरिणतघटितदाष्र्टान्तिकपुरुपजातसूत्रम् ।४।
___अथ ऋजुचक्रपूर्वकरूपघटितदृष्टान्तभूतक्षसूत्रम्-५
चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ऋजु मैक ऋजुरूपः १, ऋजुर्नामैको वक्र. रूपः २, वक्रो नामैक ऋजुरूपः ३, वक्रो नामैको वक्ररूपः ४. इति ५
अथ ऋजुचक्रपूर्वकरूपघटितदाान्तिकपुत्पजातमूत्रम्-६ एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-ऋजुन मैक ऋजुरूपः १, अजुर्नामैको वक्ररूपः २, वक्रो नामैक हजुरूपः ३, वक्रो नामैको वक्ररूपः ४॥ ६॥ इति त्रयोदशसूत्र्याम् सदृष्टान्तिकपमूत्री. प्रणत के साथ मन को लेकर सङ्कल्प को लेकर प्रज्ञा को लेकर दृष्टि को लेकर शीलाचार को लेकर व्यवहार को लेकर, एवं-पराक्रम को लेकर जो चतुर्भडी के सात सूत्र बनाये गये हैं, वे-विना दृष्टान्त के ही बनाये गये हैं। क्यों कि-मन आदि धर्म असंज्ञी वृक्षों में सम्भावित (सम्बद्ध) नहीं होते हैं, बिना दृष्टान्त के चतुर्भङ्गी सम्बन्धी वे सात सूत्र इस
આ રીતે પહેલેથી છ સુધીના સૂરે તે અનુક્રમે દષ્ટાંત અને દાર્જેન્તિક પુરુષની અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યા છે. પરંતુ ઉન્નત પ્રણતની સાથે (૧) भन, (२) स४६५, (3) प्रज्ञा, (४) Gट, (५) Marel२, (६) व्यवहार मन (૭) પરાક્રમ, આ સાતને ચેજિત કરીને જે ચાર ચાર ભાંગાવાળા સાત સૂત્ર બતાવવામાં આવ્યાં છે, તે વિના દષ્ટાંત જ બતાવવામાં આવ્યાં છે, કારણ કે મન આદિ ઉપર્યુક્ત સાત ધર્મોને અસંશી વૃક્ષમાં સદ્ભાવ હોઈ શકતા નથી.
આ રીતે દષ્ટાંત વિના (એટલે કે માત્ર પુરુષને અનુલક્ષીને) ચાર ચાર ભાંગાવાળા જે સાત સૂત્રે બતાવ્યાં છે, તે નીચે પ્રમાણે સમજવા એટલે કે સાતમાંથી લઈને ૧૩ માં સુધીના સૂત્રના ભાંગાનું સ્વરૂપ અહીં પ્રકટ કરવામાં આવે છે.
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सुधा टीका स्था०४३०१ २० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ३८९
अथ ऋजुचक्रपूर्वकमनोघटितचतुर्भङ्गी-७ ऋजुन मैक ऋजुमनाः १, ऋजुर्नामैको वक्रमनाः २, वक्रो नामैक ऋजुमनाः ३, वक्रो नामैको वक्रमनाः ४।७॥
अथ ऋजुवक्रपूर्वकसंकल्पघटितचतुर्भङ्गी-८ ऋजुर्नामैक ऋजु संकल्पः १, ऋजुर्नामको वक्र संकल्पः २, वक्रो नामैक जु संकल्पः ३, वक्रो नामैको वक्रसंकल्पः ४॥ ८॥
अथ ऋजुवक्रपूर्वक प्रज्ञाघटितचतुर्मङ्गी-९ ऋजु मैक ऋजुप्रज्ञः १, ऋजुर्नामैको वक्रमज्ञः २, वनो नामैक ऋजुप्रज्ञः ३, वक्रो नामैको वक्रप्रज्ञः ४॥ ९॥
अथ ऋजुचक्र पूर्वकदृष्टिघटितचतुर्भङ्गी-१० ऋजुर्नामैक ऋजुदृष्टिः १, ऋजुर्नामैको वक्रदृष्टिः २, वक्रो नामैक ऋजुरष्टिः ३ः, वक्रो नामको वक्रदृष्टिः । १०॥ प्रकार से हैं-उन्नत उन्नत मन-१ उन्नत प्रणत मन-२ प्रणत उन्नत मन ३ और प्रणत प्रणत मन-४ यह सातवां सूत्र है। ८-आठवां सूत्र इस प्रकार से हैं-उन्नत उन्नत सङ्कल्प-१ जन्नत प्रणत सङ्कल्प-२ प्रणत उन्नत सङ्कल्प-३ और-प्रणत प्रणत सङ्कल्प-४९ नवमां चतुर्भजी का सत्र इस प्रकार से हैं-उन्नत उन्नत प्रज्ञा-१ उन्नत प्रणत प्रज्ञा-२ प्रणत उन्नत प्रज्ञा ३ और प्रणत प्रणत प्रज्ञा-४ १० दशवां चतुर्भङ्गी का सूत्र इस प्रकार से है उन्नत उन्नत दृष्टि-१ उन्नत प्रणत दृष्टि-२ प्रणत उन्नत दृष्टि ३ प्रणत प्रणत दृष्टि-४ । ग्यारहवां ११ चतुभङ्गी का सूत्र इस प्रकार है-उन्नत, उन्नत शीलाचार-१ उन्नत प्रणत शीलाचार-२ प्रणत उन्नत
सातभा सूत्रना यार Hin-(१) उन्नत जन्नत भन, (२) Brid-प्रत भन, (3) प्राणुत-उन्नत भन मन (४) प्रशुत-प्रत मन.
माम सूत्रना यार मांगा-(१) Grनत-नत ६५, (२) उन्नत-प्रयत स४६५, (3) प्रयत-उन्नत स४६५ मने (४) प्रयत-प्रत '४६५
नवमा सूत्रता यार Hin-(१) Grnd-Grna प्रज्ञा, (२) Grnd-प्रात प्रज्ञा, (3) प्रयत-3rd प्रज्ञा मन (४) प्रशुत-प्रत प्रज्ञा.
सभा सूत्रना यार Hin-(१) जन्नत-Grनत टि, (२) उन्नत-प्रात Fष्ट, (3) प्रयत-उन्नत टि भने (४) प्रयत-प्रयत टि.
मनियारमा सूत्रता यार Hin-(१) Grld-Grनत शासायार, (२) उन्नत
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स्थानी अथ ऋजुवक्रपूर्वकशीलाऽऽचारघटितचतुर्भङ्गी-११ ऋजुन मैक ऋजुशीलाऽऽचारः १, ऋजुर्नामैको वक्रशीलाऽऽचारः २, वक्रो नामैक ऋजुशीलाऽऽचारः ३, वक्रो नामैको वक्रशीलाऽऽचारः ४॥ ११॥ ..
___ अथ ऋजुचक्रपूर्वकव्यवहारघटितचतुर्भङ्गी-१२ ऋजु मैक ऋजुव्यवहारः १, ऋजुर्नामैको चक्रव्यवहारः २, वक्रो नामैक ऋजुव्यवहारः ३, वक्रो नामैको वक्तव्यवहारः ४॥ १२॥
___अथ ऋजुवक्रपूर्वक पराक्रमघटितचतुर्भङ्गी-१३ प्राजु मैक ऋजुपराक्रमः १, ऋजुर्नामको चक्रपराक्रमः २, वक्रो नामक ऋजुपराक्रमः ३, वक्रो नामैको चक्रपराक्रमः ४॥ १३॥
___ इति ऋजुवक्रादिघटित्त्रयोदश सूत्री १३॥ शीलाचार-३ प्रणत प्रणत शीलाचार-४।१२ वां चतुर्भङ्गी का मूत्र इस प्रकार से है-उन्नत उन्नत व्यवहार १ उन्नत प्रणत व्यवहार-२ प्रणत उन्नत व्यवहार-३ और प्रणत प्रणत व्यवहार-४ । १३ वां चतुर्भजी का सत्र इस प्रकार से है उन्नत उन्नत पराक्रम-१ उन्नत प्रणत पराक्रम-२ प्रणत उन्नत पराक्रम-३ प्रणत प्रणत पराक्रम-४ इस प्रकार से उन्नत प्रणत शब्दों के साथ मन आदि ७ पदों को जोडकर ७ चतुझेगी के सुत्र बने हैं । अब ऋजु और वक्र पदों के साथ ऋजु वक्र परिणत और रूप पदों को योजित करके दृष्टान्त और दार्टान्तिक सम्बन्धी पहले की तरह ६ सूत्र, और चतुभङ्गीवाले ७ सूत्र विना दृष्टान्त के बनाये गये हैं, वे इस प्रकार से हैं-ऋजु ऋजु-१ ऋजु वक २ वक्र ऋजु ३ और પ્રણત શીલાચાર, (૩) પ્રણત ઉન્નત શીલાચાર અને (૪) પ્રણત પ્રણત શીલાચાર
मारमा सूत्रना या२ मां-(१) Grनत-जन्नत व्यवहार, (२) उन्नतप्रयत व्यवहार, (3) प्रयत-Grna व्यवहार, भने (४) प्रयत-प्रत व्यवहार
तरमा सूत्रता या२ मांगा-(१) उन्नत-मन्नत प्राम, (२) मन्नत-प्रायत पराभ, (3) प्रयत-Grid ५२।४भ मन (४) प्राणूत-प्रायत ५२ .
આ પ્રમાણે ઉન્નત પ્રણત શબ્દની સાથે મન આદિ ૭ પદેને જોડીને ચાર ચાર ભાંગાવાળા સાત સૂત્ર બન્યાં છે. હવે કાજુ (સરળ) અને વક, આ બે પ સાથે અજુ વકે પરિણત અને રૂપ (સંસ્થાન) પદને ચેજિત કરીને દષ્ટાન્ત અને રાષ્ટબ્લિક સંબંધી બીજાં ૬ સૂત્રે બને છે જેનું સ્વરૂપ પહેલા છ સૂત્ર જેવું સમજવુ) અને ચાર ભંગ યુક્ત ૭ સૂત્રે વિના દષ્ટા
ન્તના બનાવી શકાય છે (એટલે કે માત્ર પુરુષને જ અનુલક્ષીને બનાવી શકાય ' છે.) તે સૂત્રોના ભાંગાઓનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું બને છે –
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० २ वृक्षदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम्
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वक्र वक्र ४ | यह चतुर्भङ्गी का प्रथम सूत्र वृक्ष दृष्टान्त सम्बन्धी है १ इस चतुर्भङ्गी को जब दान्तिक के साथ योजित करते हैं, तब यह द्वितीय सूत्र बन जाता है - २ । ऋजु ऋजु परिणत १ ऋजु वक्र परिणत २ वक्र ऋजु परिणत - ३ और वक्र वक्र परिणत यह चतुर्भङ्गी का तृतीय सूत्र वृक्ष दृष्टान्त सम्बन्धी है और जब इसी चतुर्भङ्गी को दाष्टन्तिक के साथ घटित करते हैं तब यह चतुर्थ सूत्र बन जाता है । ऋजु ऋजु रूप १ ऋजु चक्ररूप २ वक्र ऋजुरूप ३ वक्र वक्ररूप ४ यह वृक्ष दृष्टान्त सम्बन्धी ५ व सूत्र है, जब इसकी योजना दाष्टन्तिक के साथ करते हैं - तब यह ६ छट्ठा सूत्र बन जाता है । विना दाष्टन्ति के जो सात सूत्र ऋजु - वक्रपद के साथ मन-सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि- शीलाचार व्यवहार और पराक्रम पदों को जोड कर चतुर्भङ्गीके बनते हैं वे इस प्रकार से हैं। ऋजुऋजुमन १, ऋजुवक्रमन २, वक्र ऋजुमन ३ वक्रचक्र मन ४ । ७ ऋजुऋजु सङ्कल्प १ ऋजुवक्र संकल्प २ वक्रऋजु सङ्कल्प ३ चक्रवक्र सङ्कल्प ५ । ८ ।
વૃક્ષ દૃષ્ટાન્ત સબંધી પહેલા સૂત્રના ચાર ભાંગા-(૧) ઋજુ-ૠજુ, (ર) ऋ - १, (3) १४ - ऋ ने (४) १-१ मा अतुल जीने न्यारे हाष्टीન્તિક પુરુષ સાથે ચેાજિત કરવામાં આવે છે ત્યારે ખીજુ સૂત્ર ખની જાય છે. વૃક્ષ દૃષ્ટાન્ત સંબંધી ત્રીજા સૂત્રના ચાર ભાંગા-(૧) ઋજુ-ઋજુ પરિણત (२) ऋभु व परित, ( 3 ) १ - ऋतु परिशुत भने ( ४ ) - परिषत. ત્રીજા સૂત્રના ચાર ભાંગાને જ્યારે દાáન્તિક પુરુષ સાથે ચેાર્જિત કરવામાં આવે છે ત્યારે ચેાથું સૂત્ર બની જાય છે.
વૃક્ષ દૃષ્ટાંત સંબંધી પાંચમાં સૂત્રના ચાર ભાંગા-(૧) ઋજુ ઋજુ રૂપ, (२) ऋ-१३५, (3) व ऋतु ३५ सने (४) १-१ ३५.
પાચમાં સૂત્રના ચાર ભાગ ને જ્યારે દાબ્તન્તિક પુરુષ સાથે ચેાજિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે છઠ્ઠું' સૂત્ર બની જાય છે.
વિના દૃષ્ટાન્તના ( એટલે કે માત્ર પુરુષને અનુલક્ષીને જ ) ઋજુ-વજ્ર पहनी साथै भन, सहय, अज्ञा, हेष्टि, शीसायार, व्यवहार मने पराभ, આ સાત પદને અનુક્રમે જોડીને ચાર ચાર ભાંગાવાળા સાત સૂત્ર નીચે પ્રમાણે અને છે—
सूत्र ७ भांना यार लांगा - (१) ऋतु ऋतु भन, (२) ऋ भन, (3) वहु-ऋतु भन, भने (४) वहु-वई भन, हवे आहेमां सूत्रना यार लांगा अस्ट ४२खामा आवे छे- (१) ऋ ऋतु समुदय, (२) ऋभु व सहय, (3) ફે ઋજુ સકલ્પ અને (૪) વકૅ વક્ર સ’૫.
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स्थानाङ्गसूत्रे
प्रतिमाप्रतिपन्न पुरुषस्य कल्पनीय भाषादिक माह - मूलम् - पडिमा पडिवन्नस्स णं अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, तं जहा - जायणी १, पुच्छणी २, अणुन्नवणी ३, पुट्टस्स वागरणी ४ । चत्तारि भासाजाया पण्णत्ता, तं जहा - सच्चमेगं भासज्जायं १, बीयं मोसं २, तइयं सच्चमोसं ३, उत्थं असच्चमो ४ ॥ सू०३ ॥
ऋजु ऋजु प्रज्ञ १, ऋजुवक्रप्रज्ञ २, वक्रऋजुप्रज्ञ ३ और १ amar प्रज्ञ । ९ । ऋजुऋजुदृष्टि १ ऋजुवक्रदृष्टि २ वक्रऋजुदृष्टि ३ और वक्रवक्रदृष्टि ५ । १० ऋजु शीलाचार - १ ऋजुवक्रशीलाचार २ वक्रऋजु शीलाचार ३ और वक्र वक्रशीलाचार ५ । ११ ऋजुऋजु व्यवहार १ ऋजुचक्र व्यवहार २ वक्रऋजु व्यवहार ३ चक्रवक्रव्यवहार ६ । १२ और ऋजुऋजु पराक्रम १ ऋजुवक्रपराक्रम २ । वक्रऋजुपराक्रम ३ वक्रचक्रपराक्रम५, १३ इस प्रकार से ये ऋवक्र पदों के साथ विना दृष्टान्त के मन आदि पदों की योजना से ७ सूत्र बने हैं ।
पूर्व के ६, और ७ दोनों मिलकर १३ सूत्र हो जाते हैं । १३ ये, और - पूर्व के उन्नत प्रणत सम्बन्धी १३, सब मिल कर २६ छब्वीस सूत्र हुवे हैं ॥ २ ॥ सूत्रं समाप्तम् ॥
નવમાં સૂત્રના ચાર ભાંગા-(૧) ઋજુ ઋજુ પ્રણ, (૨) ઋજુ વધુ પ્રશ્ન, (3) व ऋभु अज्ञ भने (४) व व प्रज्ञ.
દસમાં સૂત્રના ચાર લાંગા−(૧) ઋજુ ઋજુ દૃષ્ટિ, (૨) ઋજુ વક્ર સૃષ્ટિ, (3) व ऋतु दृष्टि भने (४) व व दृष्टि अगियारमां सूत्रता यार मांगा (१) ऋभु ऋभु शीसाथार, (२) ऋभु व शीसायार, (3) व ऋभु शीसा. ચાર અને (૪) વક્ર વજ્ર શીલાચાર. ખારમાં સૂત્રના ચાર લાંગા−(૧) ઋજુ ઋજુ व्यवहार, (२) ऋभु व व्यवहार, (3) व ऋभु व्यवहार मने (४) वडे १४ વ્યવહાર. તેરમાં સૂત્રના ચાર ભાંગા (૧) ઋજુ ઋજુ પરાક્રમ, (૨) ઋજુ વક્ર थराइभ, (3) व ऋनु राम ने (3) १४ वटु पराभ. भा रीते ऋभु વક્ર પર્દાની સાથે વિના દૃષ્ટાન્તના મન આદિ પદે ચૈાજવાથી ૭ સૂત્ર બને છે.
આ ૧૩ સૂત્રોમાં ઉન્નત-પ્રભુત સંબધી આગલા ૬૭ એટલે કે ૧૩ સૂત્રેા ઉમેરવાથી કુલ ૨૬ સૂત્ર થઈ જાય છે. ! સૂ. ૨ સમાસ ॥
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___ सुधा टीका स्था०४ ७०१ सू०३ प्रतिमापतिपन्नस्य कल्पनीय भाषादिकम् ३९३
___ छाया-प्रतिमाप्रतिपन्नस्य खलु अनागारस्य कल्पन्ते चतस्रो भाषा भाषितुम् , तद्यथा-याचनी १, प्रच्छनी २, अनुज्ञापनी ३, पृष्टस्य व्याकरणी ४॥ चत्वारि भापाजातानि, प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सत्यमेकं भापाजाताम् १, द्वितीयं मृषा २, तृतीयं सत्यमृषा ३, चतुर्थमसत्यमृपा ४। (मु० ३) ____टीका-"पडिमापडिवन्नस्स" इत्यादि-प्रतिमाः द्वादशविधा भिक्षु. प्रतिमाः, ताः प्रतिपन्नस्य प्रतिमापतिपन्नस्य, अनगारस्य चतस्रः चतुःसंख्या:, भापाः भाषितुं कल्पन्ते, तद्यथा-" याचनी"-याच्यते कल्पनीयवस्तु ययाइति याचनी १, “प्रच्छनी "-पृच्छयतेऽनयेति प्रच्छनी-मार्गादीनां प्रयोजनवशात् सूत्रार्थयोर्वा प्रश्नसाधनीभूता २, “ अनुज्ञापनी " अनुज्ञाप्यते-वोध्यतेऽन. अथ सूत्रकार प्रतिमापन्न पुरुषके कल्पनीय भाषादिकका कथन करते हैं। __“पडिमा पडियन्नस्स णं अणगारस्स" इत्यादि-३
टीकार्थ-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगारको ये चार प्रकारकी भाषाएं बोलना योग्य है, वे चार भाषाएं ये हैं याचनी १ प्रच्छनी २ अनुज्ञापनी ३ और पृष्ट व्याकरणी ४ । भापा चार प्रकार की कही गई है, एक सत्यभाषा द्वितीया सृषाभाषा २ तीसरी सत्यमृषा ३ चौथी असत्यकृषा ४ । भिक्षु प्रतिमाएं १२ कही गई है, इन प्रतिमाओं को जो प्रतिपन्न है-पालन कर रहा है-ऐसे उस अनगार को चार भाषाएं बोलना कल्पित है। कल्पनीय वस्तु जिस भाषा के सहारे मांगी जा सके वह याचनी भाषा है। जिस भाषासे मार्गादिकों का, अथवा-प्रयोजनवश सूत्र, और अर्थ का पूछना होता है वह प्रच्छनी भाषा है । जिस भाषा के द्वारा अनु
પ્રતિમા પન્ન પુરુષે (સાધુએ) કેવી ભાષા બોલવી જોઈએ તે સૂત્રકાર प्रट ४२ छ-" पडिमापडिबन्नस्त णं अणगारस्स" त्याह
પ્રતિમાપ્રતિપન્ન (પ્રતિમાઓની આરાધના કરતા) અણગારને માટે આ यार साषामा मालवा योग्य ही छ-(१) यायनी, (२) २७नी, (3) मनुજ્ઞાપની અને () પૃષ્ટ વ્યાકરણ. ભાષા ચાર પ્રકારની કહી છે–સત્ય ભાષા, (२) भूषा साषा, (3) सत्य भूषा मने (४) असत्य भृषा.
ભિક્ષુ પ્રતિમા ૧૨ કહી છે. તે પ્રતિમાઓનું પાલન કરી રહ્યો હોય એવા અણગારને આ ચાર પ્રકારની ભાષા બોલવી કપે છે–કલ્પનીય વસ્તુ જે ભાષાને સહારે માંગી શકાય છે, તે ભાષાને “યાચની ભાષા” કહે છે. જે ભાષાને સહારે માર્ગાદિ કોની પૃચ્છા કરવામાં આવે છે, અથવા પ્રજનવશ સૂત્ર અને અર્થ પૂછવામાં આવે છે, તે ભાષાને “પ્રરછની ભાષા ' કહે છે.
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स्थानास्त्रे येत्यनुज्ञापनी-चसत्यादेरवग्रहग्रहणरूपा ३, “ पृष्टस्य व्याकरणी"-पृष्टार्थीतरमतिपादनी ४ ।
" चत्वारि भापाजातानि" इति-भापाजातानि=भापाप्रकाराः, प्राप्तानि, तद्यथा-सत्यं सन्ता-मुनयः, गुणाः पदार्था बा, तेभ्यो हितं सत्यम् , एवं प्रथम भाषाजातम् , ' अस्त्यात्मे '-त्यादिवत् १, द्वितीयं-मृपा मिथ्या, 'नास्त्यात्मे' -त्यादिवत् २, तृतीयं-सत्यमृपा-सत्यमिथ्यास्त्रभावम् 'आत्माऽरत्यकर्ते'-त्यादिवत् ३, चतुर्थम्-असत्यमृपा-उभयस्तभावरहितं 'ग्राम आगत ' इत्यादिवत् ५। इति । (सू० ३) ज्ञापन किया जाता है-वसति आदि का अवग्रह ग्रहण लिया जाता है ऐसी बह आषा अनुज्ञापनी है। पूछी गई बातका उत्तर देनेरूप जो भाषा है वह पृष्टव्याकरणी है। भाषा के जो चार प्रभेद काहे गये हैं-उनका तात्पर्य ऐसा है सन्त मुनिजनों को, गुणों को अथवा-पदार्थो को हित करनेवाली जो भाषा होती है वह सत्यभाषा है। जैसे-"आत्मा है" ऐसा प्रतिपादन करनेवाली भाषा सत्य है । विद्यमान अर्थ का उत्थापन निषेध करनेवाली जो भाषा है वह मृपालापा है, जैसे " आत्मा नहीं है" ऐसा कहनेवाला वचन असत्यवचन है। जो भाषा सत्य मिथ्या स्वभाववाली होती है वह सत्य सृषा है, जैसे आत्मा है और यह अकर्ता है। यहां आत्मा है इतने अंश से लो भाषा में लत्यता है और "वह જે ભાષા દ્વારા અનુજ્ઞાપના કરવામાં આવે છે–એટલે કે ઉદ્યાન આદિના માલિ. કની અનુજ્ઞા લેવામાં આવે છે, તે ભાષાને “અનુજ્ઞાપની ભાષા' કહે છે. પૂછવામાં આવેલી વાતને જે ભાષા દ્વારા ઉત્તર દેવામાં આવે છે તે ભાષાને ‘पृष्टव्या४२९ माया' हे छे.
ભાષાના જે ચાર પ્રભેદે કહેવામાં આવ્યા છે, તેનો ભાવાર્થ હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–સંતને (મુનિજનોને), ગુણોને અને જીવોને માટે જે हितरी साषा छ, तर सत्य साष! ४ छ. रेभ "मात्मा छे, " मा પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરનારી ભાષા સત્યભાષા ગણાય છે. વિદ્યમાન અર્થનું ઉત્પાहुन ( निषेध ) ४२नारी ? भाषा छ, तर भृषा भाषा ४९ छे. रेम.... "मात्मा नथी ", | प्रा२तुं प्रतिपादन ४२नारी सापाने मृषा साषा ४३ छे.
જે ભાષા અંશતઃ સત્ય હોય અને અંશતઃ અસત્ય હોય, એવી ભાષાને સત્ય મૃષા ભાષા કહે છે. જેમકે “આત્મા છે અને તે અકર્તા છે” અહીં "मात्मा छे" मा ४थन तो सत्य । छे; पण " मत छे" मा
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दुघा टीका स्था० ४ ३०१ V० ४ पोटष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ३९५
मूलम्-चत्तारि वस्था पण्णता, तं जहा-सुद्धे णामं एगे सुद्धे १, सुद्धे मासं एगे असुद्धे२, असुद्धे णामं एगे सुद्धे३, असुद्धे णामं एगे असुद्धे ४।। ___ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तंजहा-सुद्धे णामं . एगे सुद्धे चउभंगोठा एवं परिणयरूवे, वत्था सपडिवक्खा, चत्तारि पुरिसनाथा एण्णता, तं जहा-सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे चउभंगो ४ । एवं संकप्पे जाव परक्कमे ॥ सू०४॥
छाया-चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुद्धं नामैकं शुद्धम् ?, शुद्धं नामैकमशुद्धम् २, अशुद्धं नामैकं शुद्धस् ३, अशुद्धं नामैकमशृद्धम् । एवमेव अलता है" इतने अंश में अलत्यता है, क्यों कि-वह कर्ता है । जो भाषा असत्य कृपा स्वभाववाली होती है अर्थात्-उभय स्वभाव से रहित होती है वह भाषा असत्य सृषा है, जैसे-"ग्राम आगला" गांव आ गया इत्यादि वचन ऐसा वचन न तो सत्य है और न असत्य, अर्थात् व्यवहार भाषा है ॥ ३ ॥
" चत्तारि वत्था पण्णत्ता" इत्यादि ४
सूत्रार्थ-वस्त्र चार प्रकार के गये हैं, जैसे शुद्ध शुद्ध १ शुद्ध अशुद्धर अशुद्ध शुद्ध ३ और-अशुद्ध अशुद्ध । इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष ४थन असत्य है, ४१२६ है “मात्मा ४ा छ, "वात सत्य छ. तथा આ કથન અંશતઃ સત્ય અને અંશત અસત્ય હોવાથી, આ પ્રકારની ભાષાને “સત્ય મૃષા ભાષા” કહે છે. જે ભાષા અસત્ય મૃષા સ્વભાવવાળી હોય છે, એટલે કે બન્ને સ્વભાવથી રહિત હોય છે, તે ભાષાને અસત્ય મૃષા કહે છે.
भडे " ग्राम आगतः " "गाम भावी आयु " त्याहि क्यन. मा ४२नां વચન સત્ય પણ નથી અને અસત્ય પણ નથી, કારણ કે ગામ તે જડ વસ્તુ છે–ગામ આવતું નથી પણ આપણે ગામ પાસે જઈએ છીએ છતાં આ પ્રકારને ભાષા પ્રત્યેગ થાય છે. આ અસત્ય મૃષાને વ્યવહાર ભાષા પણ કહે છે. સૂ. ૩
" चत्तारि वत्था पण्णत्ता" त्यादि
સૂત્રાર્થ–વસ્ત્ર ચાર પ્રકારનાં કહ્યાં છે-(૧) શુદ્ધ શુદ્ધ, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ, (૩). અશુદ્ધ શુદ્ધ અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ. એ જ પ્રમાણે પુરુષે પણ ચાર પ્રકા
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स्थानागस्त्र चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-शुद्धो नामैकः शुद्धः ?, चतुर्भङ्गी ४ा एवं परिणतरूपः, वस्त्राणि सप्रतिपक्षाणि । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाशुद्धो नामैकः शुद्धमनाः, चतुर्भङ्गी ४, एवं संकल्पः यावत् पराक्रमः । (मु० ४)
टीका-अथ पुरुपभेदनिरूपणाय त्रयोदशसूत्रीमाह-" चत्तारि वस्था " इत्यादि-शुद्ध-निर्मलतत्वादिरचितत्यात् स्फीतं वस्त्रं तदेव पुनरागन्तुक मलाभा. वाच्छुद्धमिति, यद्वा-पूर्व शुदमासीदधुनाऽपि शुद्धमेव, इति प्रथमो भङ्गः १। कहे गये हैं, शुद्ध शुद्ध १ शुद्ध अशुद्ध २ अशुद्ध शुद्ध ३ और अशुद्ध अशुद्ध ४ । इसी प्रका से शुद्ध अशुद्ध पदों के साथ परिणत और रूप शब्द को जोडकर बत्रों में चतुर्विधता कहनी चाहिये। इसी दृष्टान्त के अनुसार पुरुप के भी चार प्रकार होते हैं ऐसा जानना चाहिये । इसी प्रकार शुद्ध और अशुद्ध पदों के साथ मन पद् को जोडकर चार भङ्ग करना चाहिये। इसी तरह से सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार और पराक्रम इन पदों को भी जोडकर चतुर्भङ्गी बनाना चाहिये। इस सूत्र का विस्तृत अर्थ इस प्रकार से है
टीकार्थ-चत्तारि वत्था' इत्यादि यहां जो शुद्ध शुद्ध शुद्ध अशुद्धर अशुद्ध शुद्ध ३ और अशुद्ध अशुद्ध ४ ऐसे चार भङ्ग कहे गये है सो उसका अभिप्राय ऐसा है जो वस्त्र शुद्ध निर्मल तन्तु आदिकों से रचित निर्मित होने से शुद्ध होता है, और पुनः आगन्तुक मल के अभाव से मैला होने नहीं पाता है ऐसा वह वस्त्र प्रथम भङ्ग के भीतर परिगणित हुवा है । अथवा-जो वस्त्र पहले शुद्ध था, अब सी शुद्ध है ऐसा वस्त्र २ना ४i छ-(१) शुद्ध शुद्ध, (२) शुद्ध गशुद्ध (3) मशुद्ध शुद्ध भने (४) અશુદ્ધ અશુદ્ધ. એ જ પ્રમાણે શુદ્ધ-અશુદ્ધ પદની સાથે પરિણત અને રૂપ, આ બે પદોને અનુક્રમે ચેજિત કરીને વસ્ત્રોમાં ચતુર્વિધતાનું કથન થવું જોઈએ. આ દષ્ટાન્ત અનુસાર પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર પડે છે, એમ સમજવું. એ જ પ્રમાણે શુદ્ધ અને અશુદ્ધ પદની સાથે મન, સંકલ્પ, પ્રજ્ઞા, દષ્ટિ, શીલાચાર, વ્યવહાર અને પરાક્રમ, આ સાત પદોને ચેજિત કરીને ચાર ચાર ભાંગાનું કથન કરવું જોઈએ,
હવે આ સૂત્રને અર્થ વિસ્તારપૂર્વક સમજાવવામાં આવે છે–વસ્ત્રની અપેક્ષાએ જે ચાર ભાંગ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ-(૧) “શુદ્ધ શુદ્ધ' જે વસ્ત્ર નિર્મળ તત્ત્વ આદિ કે વડે નિર્મિત હોય છે, અને જેમાં મેલના આગમનને અભાવ હોય છે, એવાં વસ્ત્રને શુદ્ધ શુદ્ધ નામના પહેલા ભાગમાં
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू० ४ वस्त्रद्रष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम्
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शुद्धे " इति - शुद्धं प्राक शुद्धं, पश्चान्मलादि सम्पर्कादशुद्धं - मलिनम्, इति द्वितीयो भङ्गः । २ ॥ अशुद्धम् "
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" इति - प्राज्मलिनम् पश्चाच्छुद्धमिति तृतीयो भङ्गः ॥ ३॥ " अशुद्धे " इति - अशुद्धम् - जीर्णशटित तन्त्वादिरचितत्वात्मागशुद्धं पश्चादपि मलमलिनत्वादशुद्धम् ॥ इति चतुर्थी सङ्गः ॥ ४ ॥
अथ दाष्टन्तिकसूत्रमाह
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" एवामेव " इत्यादि - एवमेव = वस्त्रवदेव, चत्वारि पुरुषजातानि, तथाहि-शुद्धः = जात्यादिना, स एव पुनः शुद्धो-निर्मलज्ञानादिगुणतया, यद्वा-जातिकालाप्रथम भंग में लिया गया है। जो वस्त्र पहले शुद्ध था, पश्चात् वही चत्र मैल आदि के सम्पर्क से अशुद्ध मलिन हो गया हो ऐसा वह वस्त्र द्वितीय भंग में लिया गया है। अशुद्ध शुद्ध " इस तृतीय भंग में वह वस्त्र लिया गया है जो पहले मलिन हो और बाद में शुद्ध साफ हो गया हो । " अशुद्ध अशुद्ध " इस चतुर्थ भंग में वह वस्त्र गृहीत हुवा है जो जीर्ण शीर्ण तन्तु आदिकों से बनाने के कारण पहले भी अशुद्ध हो, और पीछे भी मैल आदि से मलिन हो गया हो इस प्रकारकी यह चतुर्भङ्गी वस्त्रकी शुद्धता और अशुद्धता को लेकर प्रगट की गई है ।
तो जिस प्रकार से चतुर्भङ्गी वस्त्रों में योजित की गई है, उसी प्रकार से यही चतुर्भङ्गी पुरुष के साथ भी घटित की गई है, अर्थात्મૂકી શકાય છે અથવા જે વસ્ત્ર પહેલા શુદ્ધ હતું અને હાલમાં પણ શુદ્ધ છે, એવાં વસ્ત્રને શુદ્ધ શુદ્ધ કહે છે. (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ ” જે વસ્ત્ર પહેલાં શુદ્ધ હતું, પણ પછી મેક્ષ આદિના સપથી અશુદ્ધ થયેલુ' હાય છે, એવા વસ્ત્રને આ બીજા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે. (૩) “ અશુદ્ધ શુદ્ધ ” જે વસ્ત્ર પહેલાં મલિન હાય, પણ ત્યારમાદ શુદ્ધ ( નિમળ ) થઈ ગયું હાય, એવા વસ્ત્રને
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આ ત્રીજા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે. (૪) “ અશુદ્ધ અશુદ્ધ ” જે વસ્ત્ર જીણુ શીણુ તન્તુ આદિકામાથી બનાવેલુ હાવાને કારણે પહેલા પણુ અશુદ્ધ હૈય અને ત્યારખાદ મેલ આદિના સપને લીધે અધિક અશુદ્ધ બનેલુ હાય, એવા વસ્ત્રને આ ચેાથા ભાંગાના દૃષ્ટાન્ત રૂપે ગણાવી શકાય છે. આ પ્રકારની આ ચતુર્ભુ ગી ( ચાર ભાંગા) વસ્રની શુદ્ધતા અને અશુદ્ધતાની અપેક્ષાએ પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
જે રીતે વસ્ત્રોની સાથે આ ચતુભ'ગીને ચાજિત કરવામાં આવી છે, એ જ પ્રમાણે પુરુષાની સાથે પણ આ ચતુગીને ચાજિત કરીને ચાર પ્રકારના પુરુષાનું હવે પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે
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स्थानी पेक्षया दूषणरहितः १। अवशिष्टास्त्रयो भङ्गा एवम् शुद्धो नामैकोऽशुद्धः २, अशुद्धो नामेकः शुद्धः ३, अशुद्धो नामैकोऽशुद्धः ४ । इति चतुर्भङ्गी ॥
एवम् " इत्यादि - एवम् = अनेन प्रकारेण, अर्थाद् यथा शुद्धशब्दानन्तरं शुद्धपदं पठिला चतुर्भङ्गानि दान्तिकसहितानि दष्टान्तभूतवत्राणि कृतानि तथा शुद्धपूर्वपदे परिणतपदे रुपपदे च वखाणि चतुर्भङ्गानि सप्रतिपक्षाणि = दान्तिकसहितानि कार्याणि, तथाहि -
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चारित्राणि तानि तद्यथा-शुद्धं नामैकं शुद्ध परिणतम् १, शुद्ध नामैकमशुद्धपरिणतम् २, अशुद्धं नामैकं शुद्ध परिणतम् ३, अशुद्धं नामैकमशुद्धपरिण तम् ४ ॥ इतिदृष्टान्तनुत्रचतुर्भङ्गी ॥
एवं दान्तिक पुरुष जातसूत्र चतुर्भङ्गी । तथाहि
एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि तानि तद्यथा शुद्धो नामैकः शुद्धपरिणतः पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं शुद्ध शुद्ध १ शुद्ध अशुद्ध २ अशुद्ध शुद्ध ३ अशुद्ध अशुद्ध ४ इस पुरुष की चतुङ्गी में प्रथम भगवाले वे पुरुष गृहीत हुये हैं जो पहले भी जात्यादि से शुद्ध होते हैं और निर्मल ज्ञानादि गुणवाले होते है । अथवा जाति कुल की अपेक्षा से दूषण रहित होते हैं । १ द्वितीयभंग वे पुरुष गृहीत हुवे हैं जो जात्यादिक से शुद्ध होकर बाद में किमी निमित्त से अशुद्ध खोटी आदतवाले हो जाते हैं -२ तृतीय संग में वे पुरुष लिये गये हैं, जो जाह्वादि से अशुद्ध होकर भी निमित्त मिलने पर शुद्ध ज्ञानादि से सम्पन्न हो जाते हैं, ३ | चतुर्थभंग में वे पुरुष गृहीत हुवे हैं, जो जात्यादिक से अशुद्ध होकर
पुरुषाना यार प्रार नाथे अभाये छे - (१) शुद्ध शुद्ध, (२) शुद्ध अशुद्ध, (3) अशुद्ध शुद्ध भने (४) अशुद्ध शुद्ध.
પહેલા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ—જે પુરુષા જાતિ આદિની અપેક્ષાએ પહેલાં પશુ શુદ્ધ હૈાય છે અને ત્યારબાદ નિળ જ્ઞાનાદિ ગુણા પણુ જેમણે સપન્ન કર્યાં હોય છે, તેમને “ શુદ્ધ શુદ્ધ ” રૂપ પડેલા ભાંગામાં સમાવી શકાય છે. અથવા જે પુરુષા જાતિકૂળની અપેક્ષાએ દૂષણ રર્હુિત હોય છે, તેમને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે.' (ર) ‘શુદ્ધ અશુદ્ધ' જે પુરુષા પહેલાં જાતિ આદિની અપેક્ષાએ શુદ્ધ હૈાય છે, પણ પાછળથી ખેાટી આદતા, કથા આદિને લીધે અશુદ્ધ થઈ જાય છે, તેમને ખીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૩) · અશુદ્ધ શુદ્ધ' જે પુરુષા જાતિ આદિની અપેક્ષાએ અશુદ્ધ હાવા છતાં પણ તિમિત્ત મળવાથી શુદ્ધ જ્ઞાનાદિથી સપન્ન થઈ જાય છે, તેમને આ આ ત્રીજા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. (૪) · અશુદ્ધે અશુદ્ધ' જે પુરુષા જાતિ
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ २४ घनद्रष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ३९९ १, शुद्धो नामकोऽशुद्धपरिणतः २, अशुद्धो नामैका शुद्धपरिणतः ३, अशुद्धो नामैकोऽशुद्धपरिणतः ४॥
अथ दृष्टान्तवस्त्रसूत्रम्चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुद्धं नामैकं शुद्धरूपम् १, शुद्ध नामैकमशुद्धरूपम् २, अशुद्धं नामकं शुद्धरूपम् ३, अशुद्धं नामैक्रमशुद्धरूपम् ।।
अथ दाह्रन्तिकरूपघटितपुरुपजातमूत्रम्___एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-शुद्धो नामैकः शुद्धरूपः १, शुद्धो नामैकोऽशुद्धरूपः २, अशुद्धो नामकः शुद्धरूपः ३, अशुद्धो नागैकोऽशुद्धरूप:
४ । इति चतुर्भगी। __ एषां परिणतरूपघटितदृष्टान्त-दान्तिक सत्राणां व्याख्या प्राग्वद् वोध्या॥
भी अशुद्ध ही बने रहते हैं जीवन को शुद्ध नहीं बनाते हैं ४ । शुद्ध शुद्धपरिणत आदि जो वस्त्र सम्बन्धी चतुर्भङ्गी कही गई है बेहदान्तिक पुरुप में भी इस प्रकार से घटित करनी चाहिये । जैसे-शुद्ध शुद्धपरिणत १ शुद्ध अशुद्ध परिणत २ अशुद्ध शुद्ध परिणत ३ और अशुद्ध अशुद्ध परिणत ४ । इसी प्रकार से दृष्टान्तभूत वस्त्राने शुद्धअशुद्ध पद के साथ रूप पदको योजित करके जो चतुर्भगी बनाई गई है, वह दान्तिक पुरुषमें भी इसी प्रकार से घटित करनी चाहिये, जैसे-शुद्ध शुद्धरूप १, शुद्ध अशुद्धरूप २ अशुद्ध शुद्धरूप ३ और अशुद्ध अशुद्धरूप४ परिणत और रूपघटित इन दृष्टान्त और दार्टान्तिकों की चतुर्भङ्गी की व्याख्या पहले ही समझ लेना चाहिये। આદિની અપેક્ષાએ અશુદ્ધ હોય છે, અને જીવનને શુદ્ધ બનાવવાનો પ્રયત્નશીલ થતા નથી, આ કારણે જે કાયમ અશુદ્ધ જ રહે છે, તેમને આ ચોથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે.
વસ્ત્રને અનુલક્ષીને શુદ્ધ-અશુદ્ધ, આ પદો સાથે પરિણત પદને જવાથી નીચે પ્રમાણે ચાર ભાગ બને છે–(૧) શુદ્ધ શુદ્ધ પરિણ, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ परिणत, (3) मशुद्ध शुद्ध परिणत गने (४) अशुद्ध शुद्ध परिणत.
દાબ્દન્તિક પુરુષને અનુલક્ષીને પણ ચાર ભાંગાએ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. એ જ પ્રમાણે દૃષ્ટાન્તભૂત વસ્ત્રમાં શુદ્ધ અશુદ્ધ પદની સાથે રૂપ પદને જીને જે ચાર ભાંગાનુ કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે ચાર ભાંગાનું કથન દાન્તિક પુરુષને અનુલક્ષીને પણ થવું જોઈએ. જેમકે (૧) શુદ્ધ શુદ્ધ રૂપ, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ રૂપ, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ રૂપ અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ રૂપ.
પરિણત અને રૂપઘટિત આ દષ્ટાન્ન અને દાબ્દન્તિકેની ચતુર્ભગીની વ્યાખ્યા સૂત્ર બેમાં આપ્યા અનુસાર જ સમજી લેવી.
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स्थानानसूत्रे
इत्थं भगकरणाय रीति दर्शयितुमाह - " चत्तारि" इत्यादि । शुद्ध:- वहिस्ताद् वचनादिना, शुद्धमनाः पुनरन्तः शुद्धः १ शुद्धो नामैकोऽशुमनाः २, अशुद्धो नामैः शुद्धमनाः २, अशुद्धो नामैकोऽयुद्धमनाः ४ । इति ।
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एवं " इति - अनेन प्रकारेणेत्यर्थः, अर्थाद् यथा मनोघटित चतुर्भद्रकः सूत्रमुक्त, तथा, " संकल्पः " इत्यादि - संकल्पपदादारभ्य पराक्रमपदपर्यन्तं दृष्टान्तभूतवस्त्रसूत्रं विहाय पुरुषजातसूत्राणि पडू बोध्यानि ॥ तथाहिचत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि तद्यथा शुद्धो नामकः शुद्धसंकल्पः १, शुद्ध मैhisशुद्धसंकल्पः २, अशुद्धो नासैकः शुद्धसंकल्पः, अशुद्धो नामकोशुद्धसंकल्पः ४ । इति ||
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अब भंग करनेकी रीतिको दिखाने के निमित्त सुत्रकार कहते हैं – “ चत्तारि " इत्यादि " शुद्ध शुद्धमनाः " जो व्यक्ति बाहर में वचन आदि से शुद्ध हो और अन्तरङ्ग में भी शुद्ध हो वह - " शुद्धशुद्ध मनवाला " इस प्रथम भङ्ग में परिणत किया गया है १ आगे के तीन भङ्ग - " शुद्ध अशुद्धमनाः २ अशुद्ध शुद्धमनाः ३ और अशुद्ध अशुद्धसना ४ इस प्रकार से हैं । जिस प्रकार से यह मनोघटित चतुर्भङ्गवाला सूत्र कहा गया है उसी प्रकार से - " सङ्कल्प " पद से लेकर " पराक्रम け तक के पुरुष जात सूत्र भी दृष्टान्तभूत वस्त्र सूत्रको छोडकर कह लेना चाहिये, जैसे - पुरुष जात चार कहे गये हैं । शुद्र शुद्ध सङ्कल्पचाला ? शुद्ध अशुद्ध सङ्कल्प હવે મન, આદિ પરક્રમ પર્યન્તના સાત પદને શુદ્ધ અશુદ્ધ પદે,સાથે ચેાજીત કરીને જે સાત ચતુર્ભ`ગીએ ખને છે, તેનું સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરે છે.
શુદ્ધ અશુદ્ધ પદો સાથે મનને ચેજિત કરવાથી નીચે પ્રમાણે ચાર ભાંગા भने छे - (१) ' शुद्धः शुद्ध मनाः ' ? पुरुष महारधी वयन माहिनी अपेक्षाओ શુદ્ધ હાય, અને જેનું અતઃકરણ પણ શુદ્ધ હાય તેને શુદ્ધ શુદ્ધ મનવાળા ’ કહે છે. એવા પુરુષને આ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે.
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ખીજો ભાંગા-શુદ્ધ અશુદ્ધ મનવાળા, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ મનવાળા અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ મનવાળા. જેવી રીતે શુદ્ધે અશુદ્ધ પદ્યને મન સાથે ચેાજિત કરીને ચાર ભાંગાવાળું આ સૂત્ર કહેવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે સંકલ્પથી લઈને પરાક્રમ સુધીના ઉપયુક્ત પદોને પણ શુદ્ધ અશુદ્ધ પદો સાથે ચેાજીને ચાર ચાર ભાંગાવાળા બીજા છ સૂત્રેા પણ પુરુષ જાતને અનુલક્ષીને કહેવા જોઈએ. દૃષ્ટાન્તભૂત વસ્ત્રમાં મન આદિ સાતે વસ્તુને અભાવ હાવાથી તેને અનુલક્ષીને અહીં સૂત્રેા છની શકતા નથી એમ સમજવું.
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सुघाटीका स्था० ४ उ० १ सू० ४ वस्त्रदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ४०१
एवं शुद्धो नामैकः शुद्धप्रज्ञ. १, शुद्धो नामैकोऽशुद्धमज्ञः २, अशुद्धो नामैकः शुद्धमज्ञः ३, अशुद्धो नायैकोऽशुद्धप्रज्ञः ४ इति । ____ एवं शुद्धो नामैकः शुद्धदृष्टिः१, शुद्धो नामैकोऽशुद्धदृष्टिः२, अशुद्धो नामैकः शुद्धदृष्टिः ३, अशुद्धो नामकोऽशुद्धदृष्टिः ४ । इति ॥
एवं शुद्धो नामकः शुद्धशीलाऽऽचारः १. शुद्धो नामैकोऽशुद्धशीलाऽऽचारः२, अशुद्धो नामैकः शुद्धशीलाऽऽचारः ३, अशुद्धो नामकोऽशुद्धशीलाऽऽचारः ४ इति।। ____ एवं शुद्धो नामैका शुद्धव्यवहारः१, शुद्धो नामैकोऽशुद्ध व्यवहार २, अशुद्धो नामैकः शुद्धव्यवहारः ३, अशुद्धो नागैकोऽशुद्धव्यवहारः ४ । इति । वाला २ अशुद्धशुद्ध सङ्कल्पवाला ३ और अशुद्ध अशुद्ध सङ्कल्पवाला ४ इसी प्रकार से शुद्ध शुद्ध प्रज्ञावाला १, शुद्ध अशुद्धप्रज्ञावाला २ अशुद्ध शुद्ध प्रज्ञावाला ३ और अशुद्ध शुद्ध प्रज्ञावाला ४ शुद्धशुद्ध दृष्टिवाला १ शुद्र अशुद्ध द्रष्टिवाला २ अशुद्ध अशुद्ध द्रष्टिवाला ३ और अशुद्ध अशुद्धद्रष्टिबाला ४ । शुद्ध शुद्धशीलाचारवाला १ शुद्ध अशुद्ध शीलाचारकोला २ अशुद्ध शुद्ध शीलाचारवाला ३ और अशुद्ध अशुद्ध शीलाचारवाला ३ शुद्ध शुद्ध व्यवहारवाला १ शुद्ध अशुद्ध व्यवहारवाला २ अशुद्ध शुद्ध व्यवहारवाला३ अशुद्धाशुद्ध व्यवहारवाला४ इसी प्रकार से शुद्ध शुद्ध पराक्रमबाला १ शुद्ध अशुद्ध पराक्रमवाला २ अशुद्ध शुद्ध
* સંકલ્પ સાથે યુદ્ધ અશુ & પદને જવાથી નીચે પ્રમાણે પુરુષજાત વિષયક ચાર ભાં ભાવાર્થ સૂત્ર બનશે-(૧) શુદ્ધ શુદ્ધ સંકલ્પવાળા, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ સ કલ્પવાળા. (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ સંકલ્પવાળા અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ સંક૯પવાળા પ્રજ્ઞા પદને જવાથી આ ચાર ભાંગા બને છે–'૧) શુદ્ધ શુદ્ધ પ્રજ્ઞાવાળા, (ર) શુદ્ધ અશુદ્ધ પ્રજ્ઞાવાળા, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ પ્રજ્ઞાવાળા અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ પ્રજ્ઞા વાળ દષ્ટ પદને ચોજવાથી આ ચાર ભાગા બને छे-(१) शु शुद्ध टागो, (२) शुद्ध शुद्ध टाणा, (3) अशुद्ध शुद्ध દિષ્ટિવાળે અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ દષ્ટિવાળે શીલાચાર પદ જવાથી આ ચારે ભાંગા બને છે-(૧) શુદ્ધ શુદ્ધ શીલ ચીરવાળો, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ શીલા ચારવાળે, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ શીલાસરવાળે અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ શીલાચારવાળે વ્યવહાર પર જવાથી આ પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે–૧) શુદ્ધ શુદ્ધ વ્યવહારવાળે, (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ વ્યવહારવાળે, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ વ્યવ હારવાળે અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ વ્યવહારવાળે, પરાક્રમ પદની સાથે આ
स ५१
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स्थामाजसो
____ एवं शुद्धो नामैकः शुद्धपराक्रमः १, शुद्धो नामैकोऽशुद्धपराक्रमः २, अशुद्धो नामकः शुद्ध पराक्रमः ३, अशुद्धो नामैकोऽशुद्धपराक्रमः ४ ।
एषु भङ्गेपु सनस आरभ्य पराक्रमान्तपुरुषधर्माणां वस्त्रेऽभावाद् दृष्टान्तभूत. वस्त्रमूत्रभङ्गा न घटन्ते । अत-एव-" एव" मिति प्रोक्तम् । मू० ४ ॥
पुरुपभेदाधिकार एवेदमाहमूलम्च त्तारि सुया पण्णत्ता, तं जहा-अइजाए अणु. जाए अवजाए कुलिंगाले १ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-सच्चे नामं एगे सच्चे १, सच्चे नामं एगे असच्चे चउ. भंगो ४ ॥२ ॥ एवं परिणए जाब परककमे११॥ चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा-सुई नाम एगे सुइ, सुई नाम एगे असुई चउभंगो ४॥ १२॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता-तं जहा सुई णामं एगे सुइ चउभंगो। एवं जहेव सुद्धेणं वत्थेणंभणियं तहेव सुइणावि, जाव परकमे २६ । चत्तारि कोरवा पण्णत्ता, तं जहा -अंबपलंब कोरए १, तालपलबकोरए २, वल्लिपलंबकोरए ३, मेंढविसाणकोरए ४ । २७ ॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-अंबपलंयकोरवलवाणे १, तालपलंघकोरवसमाणे २, वल्लिपलंगकोरवसमाणे ३, मेंढविसाणपलंघकोरवसमाणे ४ । २८ ॥ सू० ५॥ पराक्रमवाला ३ अशुद्ध अशुद्ध पराक्रमवाला ४ इन मनसे लेकर पराक्रम तकके पुरुष चतुझेगी में जो बस्त्र दृष्टान्त को लागू नहीं किया गया है उसका कारण ऐसा है कि-वस्त्र में इस पुरुषध का अभाव है । इसी लिये-" एवं" ऐसा कहा गया है । सू०४ ॥ પ્રમાણે ચાર ભાગ બને છે-(૧) શુભ્ર શુદ્ધ પરાક્રમવાળે (૨) શુદ્ધ અશુદ્ધ પરાક્રમવાળ, (૩) અશુદ્ધ શુદ્ધ પરાક્રમવાળો અને (૪) અશુદ્ધ અશુદ્ધ પરા ક્રમવાળો આ મનથી લઈને પરાક્રમ પર્યન્તની ચતુગી પુરુષ જાતને જ લાગુ પાડી શકાય છે, વસ્ત્રને લાગુ પડતી નથી, કારણ કે વસ્ત્રમાં આ પુરુષ धमान साव काय छे. से वात सूत्र “ एवं" त्याहि ४थन द्वारा २५८ ४१ छ. ॥ सू. ४ ॥
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१सू०५ सुतादिदृष्टान्तैन पुरुषनिरूपणम् ४०३
छाया-चत्वारः सुताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अतिजातः (अतियातः)१, अनुजातः (अनुयातः) अपजातः३, कुंलागारः ४ । १ । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सत्यो नामकः सत्यः १, सत्यो नामैकोऽसत्यः २, चतुर्भङ्गी २। एवं परिणतो यावत पराक्रमः ॥ ११ ॥ चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुचि नामैकं शुचि १, शुचि नामैकमशुचि २, चतुर्भगी ४ ॥१२॥ एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुचिर्नामैकः शुचिः चतुर्भङ्गी ४ ।१३ । एवं यथैव शुद्धेन वस्त्रेण भणितं तथैव शुचिनाऽपि यावत् पराक्रमः ॥२६॥ चत्वारः कोरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आम्रपलम्बकोरकः १, तालप्रलम्बकोरकः२, वल्लीप्रलम्बकोरकः३ मेण्ढविषाणकोरकः ४ । २७। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तयथाआम्रप्रलम्बकोरकसमानः १, तालप्रलम्बकोरकसमानः २, वल्लीप्रलम्बकोरकसमानः ३, मेण्डविपाणापलम्बकोरकसमानः । ४ ॥ २८ ॥
पुरुष भेदाधिकारमें ही सूत्रकारने यह कहा है।
"चत्तारि लुगा पण्णत्ता" इत्यादि ५ सूत्रार्थ-पुत्र चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-अभिजात १ (अतियात) अनुयात २ ( अनुयात ) अपजोत ३ और कुलागार ४ चार पुरुषजात कहे गहे गये हैं, जैसे-सत्यसत्य १ सत्य असत्य २ असत्य सत्य ३ असत्य असत्य ४ । वस्त्र चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-शुचि शुचि१ शुचि अशुचि २ अशुचि शुचि३ और अशुचि अशुचि ४। । इसी प्रकारसे पुरुष भी चार कहे गये हैं, जैसे-शुचि शुचि आदि। जैसे शुद्ध वस्त्रसे कहा गया है । उसी प्रकार से शुचि से भी कह लेना चाहिये, और पराक्रस तक कहना चाहिये ।
માત્ર પુરુષના પ્રકારો બતાવવા નિમિત્તે જ આ પાંચમું સૂત્ર કહે છે " चत्तारि सुया पण्णत्ता" त्याह
सूत्राथ-पुत्रना या२ ४.२ ४६ छ-(१) ममित अथवा मतियात (२) અનુજાત, (૩) અપજાત અને (૪) કુલાંગાર પુરુષે ચાર પ્રકારના કહ્યા છે (१) सत्य सत्य, (२) सत्य मसत्य, (3) मसत्य सत्य मन (४) मसत्य असत्य
१७ यार ४२ना ४ छ-(१) शुयि शुस्य, (२) शुथि अशुथि, (3) અશુચિ શુચિ અને (૪) અશુચિ અશુચિ એ જ પ્રમાણે પુરુષોના પણ “શુચિ શુચિ” આદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે જે રીતે શુદ્ધ વસ્ત્રનું કથન પહેલાના સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન “શુચિ-અશુચિ ની અપેક્ષાએ થવું જોઈએ. પુરુષ જાતમાં શુચિ અશુચિ સાથે મનથી લઈને પરાક્રમ પર્યન્તના સાત પદેને
જીને ચાર ભાગાવાળા સાત સૂત્રનું કથન થવું જોઈએ
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स्थानाङ्गस्त्र टीका-" चत्तारि मुया'' इत्यादि-चत्वारः चतुःस ख्यकाः, मृता-पुत्राः, मज्ञप्ताः, तघथा-अतिजा ( या )तः-अति-पितृसम्पद्रमतिप्राय जातः-संवृत्तोऽति जातः, यद्वा-पितृसम्पदमुल्लङ्घन्य यातः प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदमित्यतियातो ऽतिशयितसमृद्धिक इत्यर्थः १, ऋषभवत् १ । __ अनुजा (या)तः-अनु-पितुरनुरूपस्तुल्यो जालोऽनुमानः, यद्वा-'अनुयातः' अनुगता-पितृविभूत्याऽनुयात इति, पितृतुल्य इत्यर्थः, महायशोवन , आदित्ययशसा रवपित्रा सहशत्वान्महायशसः २ । ___ अपजातः-अप-पितृसम्पदोऽपसदो हीनो जातोऽपजातः पित्रपेक्षया किश्चिद्धीनगुण इत्यर्थः, आदित्ययशोवत् , भरतापेक्षया तस्येपद्धीनगुणत्वात् ३ ।
कुलागार:-अङ्गारपदमङ्गारसहशपरम् , तेन कुलस्य-बंशस्यागार इव कुलागारः दुराचरणेन कुलदूषकत्वात् परिपीडकत्वाहा कुलानारायमाणः, कण्डरीकवत् । ४ ।
कोरक चार कहे गये हैं, जैसे-आम्र प्रलम्ब कोरक ताल प्रलम्ब कोरक २ वल्ली प्रलम्ब कोरक३ मेण्ड विषाणप्रलम्ब कोरक समान ४
इस सूत्र का भावार्थे इस प्रकार से है-पुत्र जो चार प्रकार के कहे गये हैं उनमें प्रथम प्रकार का पुत्र वह है जो पिता की संपत्ति से भी अधिक संपत्तिवाला हो जाता है, जैसे भगवान्ऋषभदेव १ द्वितीय प्रकार का पुत्र वह है जो कि पिता का ही अनुरूप होता है अथवा पिता के जैसी विभूति सम्पत्तिवाला होता है जैले महायश ये अपने पिता आदित्ययश के समान थे २ तृतीय प्रकार का पुत्र वह है जो पिता की अपेक्षा सम्पत्ति में हीन होता है अर्थात् पिता की अपेक्षा गुणों में कुछ कम होता है जैसे-आदित्ययश ये भरत की अपेक्षा गुणों में हीन थे ३ चतुर्थ प्रकार का वह पुत्र है जो अपने दुराचारों से कुल का दूषक
१२४ या२ ४ह्यां छे-(१) मानसम्म २४, (२) ताससम्म १२४, વલ્લીપ્રલમ્બ કેરક અને મેઢ વિષાણુ પ્રલમ્બ કરક.
' હવે આ સૂત્રને ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે-(૧) અભિજાત (અથવા અતિયાત) પુત્ર તેને કહે છે કે જે પિતા કરતાં પણ વધારે સંપત્તિવાળો હોય છે જેમકે ભગવાન ઋષભદેવ (૨) અનુજાત પુત્ર તેને કહે છે કે જે પિતાના જેટલી જ વિભૂતિ (સંપત્તિ) વાળો હોય છે જેમકે મહાયશ. તે તેના પિતા આદિત્યયશના જેટલી જ વિભૂતિવાળો હતો. “ અપજાત પુત્ર” અપજાત પુત્ર તેને કહે છે કે જે પિતા કરતા ન્યૂન સંપત્તિવાળો હોય અથવા પિતા કરતાં ગુણોમાં હીન હાયજેમકે આદિત્ય યશ તે તેના પિતા ભરત કરતાં ગુણેની અપેક્ષાએ હીન હ. (૪) કુલાંગાર પુત્ર તેને કહે છે કે જે પોતાના અનાચારોથી
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सुधा टीका स्था० ४ उ0 १ सू० ५ सुतादिष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् १०५ एवं शिष्योऽपि चतुर्विधो वोध्या, सुतशब्दस्य शिष्यपरताया अपि प्रदर्शनात् । तत्रातिजातः-सिंहगिर्यपेक्षया वज्रस्वाभिवत् । अनुजात:- शय्यम्भरापेक्षया यशोभद्रवत , अपजातो-जम्बूस्वाम्यपेक्षया प्रभवस्वामिवत् , कुलागार:-कुलवालुकबद अथवोदायिनृपमारकवदिति । १। हो जातो है पर को पीडा देनेवाला होता है, जैसे-कण्डरीक। यहां अङ्गारपद् अंगार सदृश का बोधक है । जिस तरह पुत्रों में चतुर्विधता प्रगट की गई है उसी प्रकार शिष्य में भी चतुर्विधता होती है सुत शब्द शिष्य अर्थ का भी बोधक होता है । जो शिष्य अपने गुरु की अपेक्षा
अधिक प्रभावशाली हो जाता है वह अतिजात शिष्य है, जैसे सिंह. गिरी की अपेक्षा वन स्वामी । जो शिष्य अपने गुरु के जैसा ही गुणी होता है वह शिष्य अनुजात शिष्य है, जैसे शय्यंभव का यशोभद्र । जो शिष्यगुरु के गुणों से हीन गुणवाला होता है वह अपजात शिष्य है, जैसे जम्बूस्वामी की अपेक्षा प्रभवस्वामी । जो शिष्य गुरु का दूषक होता है वह कुलांगार शिष्य है, जैसे कुलवालुक अथवा उदायन राजा को मारनेवाला १
"चत्तारि पुरिसजाया "
सत्य सत्य आदि के भेद से चार पुरुषजात जो कहे गये हैं उनका કુળને કલક લગાડે છે, પરને પીડાકારી હોય છે. જેમકે કંડરીક અહીં " म॥२" ५६ " मा२ समाननु" मा५४ छ.
અહીં જે પ્રકારે પુત્રમાં ચતુર્વિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, એ જ પ્રકારે શિષ્યમાં પણ ચતુવિધતા સમજવી, કારણ કે “સુત” શબ્દ શિષ્યના અર્થનો પણ બેધક છે. (૧) જે શિષ્ય પોતાના ગુરુ કરતા પણ અધિક પ્રભાવશાળી હોય છે તેને અતિજાત શિષ્ય કહે છે. જેમકે સિંહાગિરિ કરતાં વજી. સ્વામી વધારે પ્રભાવશાળી હતા. (૨) જે શિષ્ય પિતાના ગુરુ સમાન ગુણી હોય છે તેને અનુજાત શિષ્ય કહે છે. જેમકે શય્યભવને શિષ્ય પ્રભવસ્વામી.
(૩) જે શિષ્ય ગુરુ કરતાં હીન ગુણવાળો હોય છે તેને અપજાત શિષ્ય
छ, म १४ स्वामी ४२ता प्रसस्वामी डान गुणपणा ता. (४) र શિષ્ય ગુરુનો ટૂષક હોય છે તેને કુલાંગાર શિષ્ય કહે છે. જેમકે કુલવાલુક અથવા ઉદાયન રાજાને મારનાર
" चत्तारि पुरिसजाया " त्याहिપુરુષના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે–(૧) “સત્ય સત્ય
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स्थानस्त्रि ___" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तथा सत्या यथावस्थितवस्तुपरिकथनात् प्रतिज्ञातानुसारेण कर्तृत्वाच सत्यः पुरुषः, स एव पुनः सत्यः सद्भयो हिता-संयमधारित्वेन जगन्मित्रभूत', यद्वा-पूर्व सत्य आसीत् पश्चादपि सत्य एवेति । १ । ___ "सत्यो नामैकोऽसत्यः" इति-पूर्व सत्यः पश्चात्कालक्रमेणासत्योऽयथावद्वस्तुपरिकथनात् प्रतिज्ञातमुल्लध्य प्रवर्तनाच २ । शेषौ भङ्गौ यथा - असत्यो नामैकः सत्यः ३, असत्यो नामैकोऽसत्यः ४ । इति चतुर्भङ्गी । अभिप्राय ऐसा है, जो पुरुष यथावस्थित वस्तु का कथन करनेवाला होता है एवं प्रतिज्ञात के अनुसार करनेवाला होता है, वह सत्य पुरुष कहा गया है, ऐसा वह पुरुष आगे चलकर संयम को धारण करके जगत का मित्र (भूत) बन जाता है तो वह सत्य सत्य इस प्रथम भंग में परिगणित होता है । अथवा जो पहले भी सत्य हो और बाद में भी बना रहता हो, वह सत्य सत्य है । सत्य असत्य वह है जो पहले सत्य हो
और बाद में कालक्रम से अयथा वस्तु के परिकथन से या प्रतिज्ञात अर्थ का उल्लंघन करने से असत्यरूप बना गया हो मिथ्याभाषी हो गया हो । यहां शेष दो भंग इस प्रकार से हैं-असत्य सत्य, और असत्य असत्य।
જે પુરુષ યથાવસ્થિત (જેવું હોય એવું જ ) વસ્તુનું કથન કરતા હોય છે અને પ્રતિજ્ઞા અનુસાર જ કરનાર હોય છે, એવા તે પુરુષને સત્ય પુરુષ કહ્યો છે એ તે પુરુષ આગળ જતાં સંયમ ધારણ કરીને જગતના મિત્રરૂપ બની જાય છે, એવા પુરુષને “સત્ય સત્ય” નામના પહેલા પ્રકારના પુરુષમાં ગણાવી શકાય છે. અથવા જે પહેલાં પણ સત્યના આરાધક હોય અને પાછ નથી પણ સત્યને આરાધક જ ચાલુ રહે છે, તેને “સત્ય સત્ય” રૂપ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૨) “સત્ય અસત્ય” જે પુરુષ પહેલાં સત્યને પાલક હોય, પણ પાછળથી અયથાર્થ વસ્તુના પરિ,થન દ્વારા અથવા પ્રતિજ્ઞાત અર્થનું ઉલ્લંઘન કરવાને કારણે અસત્ય રૂપ બની ગયું હોય તેને સત્ય અસત્ય પુરુષ કહે છે. બાકીના બે ભાંગા આ પ્રમાણે છે (૩) અસત્ય સત્ય અને (૪) અસત્ય અસત્ય. આ બન્નેને ભાવાર્થ ઉપરના બે ભાગાના ભાવાર્થને આધારે સમજી લે.
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सुधा टोका स्था० ४ उ० १ सू० ५ सुतादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् ४०७ ___“ एव" मित्यादि-एवम्-अनेन प्रकारेण, अर्थाद् यथा सत्यासत्य घटित चतुर्भङ्गी कृता तथा, " परिणतः" परिणतपदादारभ्य पराक्रमपदपर्यन्तं योजयित्वा तत्तच्चतुर्भगी कार्या । ११ ।
अथ दृष्टान्तभूतवस्त्रसूत्रम्___" चत्तारि वत्था " इत्यादि- चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-"शुचि
जिस प्रकार से सत्यासत्य पद घटित यह चतुर्भगी बनी है उसी प्रकार से इन पद के साथ परिणत आदि पदों को घटित करके पराक्रम पद तक ४-४ चतुर्भगी बनाना चाहिये।
चत्तारिवत्था" इत्यादि इस सूत्र द्वारा जो शुचि शुचि-शुचि अशुचि-अशुचिशुचि और अशुचि अशुचि वस्त्र के ये चार भंग कहे गये हैं, इसी प्रकार से पुरुष के भी चार प्रकार रूप भंग कहे गये हैं शुचि शुचि १ शुचि अशुचि २ अशुचि शुचि ३ और अशुचि अशुचि इसी प्रकार से इन शुचि अशुचि के साथ परिणत-रूप मन सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार और पराक्रम पदों को जोडकर ४-४ चतुर्भगी बना लेनी चाहिये । जो वस्त्र स्वभाव से पवित्र हो और आगे भी वह संस्कार से अथवा कालभेद से पवित्र बना रहा है, जैसा कि शुद्ध वस्त्र के प्रकरण में प्रगट कर दिया गया है तो ऐसा वह वस्त्र
જે પ્રકારે સત્યાસત્ય પદઘટિત આ ચતુર્ભગી કહેવામાં આવી છે, એ જ પ્રકારે આ પદેની સાથે પરિણુત આદિ પરાક્રમ પર્યન્તના પૂર્વોક્ત પદને ચેજિત કરીને ચાર ચાર ભાંગાવાળા સૂત્રનું કથન થવું જોઈએ । “चत्तारि वत्था " ध्याह
આ સત્ર દ્વારા વસ્ત્રના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે, (१) अयि शुथि, (२) शुयि मशुथि, (3) शुथि शुथि भने (४) मशुथि અશચિ. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે (१) शुथि शुथि, (२) शुथि मशुथि, (७) अशुथि शुथि माने (४) अशुथि અશચિ. એ જ પ્રમાણે શુચિ અશુચિ પદની સાથે પરિણુત, રૂપ, મન, સંકલ્પ, પ્રજ્ઞા, દૃષ્ટિ, શીલાચાર, વ્યવહાર અને પરાક્રમ આ પદોને જોડીને ચાર ચાર ભાગાવાળા સૂત્રોનું કથન થવું જોઈએ. જે વસ્ત્ર સ્વભાવથી પવિત્ર હોય અને આગળ જતાં પણ સંસ્કારની અપેક્ષાએ અથવા કાળભેદની અપેક્ષાએ પવિત્રજે રહે છે, એવા વસ્ત્રને શુચિ શુચિ પંપ પહેલા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે શુદ્ધ વસ્ત્રના પ્રકરણમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું કથન શુચિવશ્વ વિષે
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स्थानाङ्गसूत्रे नामै शुचि" १ । शुचि-स्वभावेन पवित्रं, तदेव पुनः शुचि-सस्कारेण काल भेदेन वा शुचि १, शुचि-स्वाभाविवशुद्धिमत् , पुनः कालभेदेन अशुचि-अपवित्रम् २, एवम्-अशुचि नामैकं शुचि ३, अशुचि नामैकमशुचि ४ ।
इति चतुर्भझी। __अथ दार्टान्तिकपुरुषजातसूत्रम्"एवामेवे"-त्यादि-एवमेव दृष्टान्तभूतवस्तव देवेत्यर्थः, चत्वारि पुरुष जातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुचिः स्वभावेन पवित्रः पुरुषः, स एव पुनः शुचिःसदाचारपालकतया पवित्रः १, शुचिर्नी मैकोऽशुचिः २, अशुचिर्नामकः शुचिः ३, अशुचिर्ना मैकोऽशुचिः ४ । इति चतुर्भङ्गी ।। १३ ॥ शुचि शुचि कहा गया है । स्वभावतः शुद्ध हुवा भी जो आगे चलकर अपवित्र हो गया हो वह शुचि अशुचि भगवाला वस्त्र कहा गया है इसी प्रकार जो वस्त्र अशुचि होकर शुचि चल जाता है और जो अशुचि बना हुवा अशुचि ही बना रहता है वह वन तनीय और चतुर्थ भंग वाला है। जिस प्रकार से यह शुचि अशुचि सम्बन्धी चतुर्भगी वस्त्र में योजित कर प्रगट की गई है, उसी प्रकार से यही चतुर्भ गी पुरुष में भी योजित कर लेना चाहिये, और वह इस प्रकार से है-जो मनुष्य स्वभावनः पवित्र हो और आगे भी सदाचार का पालन करने से पवित्र बना रहता है तो वह " शुचि शुचि" स प्रथम भंग का अन्नगत है-अन्तर्भूत किया गया है। प्रथमतः पवित्र बनकर भी आगे जो वह निमित्त वशात् असदाचार पालन से अपवित्र बन जाता है तो પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ જે વસ્ત્ર સ્વભાવત શુદ્ધ હોવા છતાં પાછળથી અપવિત્ર થઈ જાય છે, એવા વસ્ત્રને શુચિ અશુચિ રૂપ બીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે જે વસ્ત્ર અશુચિ ( અપવિત્ર) હોવા છતાં પાછળથી શુચિ બની જાય છે તેને અશુચિ શુચિ રૂપ ત્રીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે અને જે વસ્ત્ર અશુચિ અવસ્થામાં જ કાયમ ચાલુ રહે છે તેને અશુચિ અશુચિ રૂપ ચોથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. વસ્ત્રને અનુલક્ષીને શુચિ અશુચિની અપેક્ષાએ જે ચાર ભાંગાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવા જ ચાર ભાંગનું કથન પુરુષના વિષયમાં પણ થવું જોઈએ-મનુષ્ય વિષયક ચાર ભાંગી આ પ્રમાણે બનશે-(૧) જે મનુષ્ય સ્વભાવતઃ પવિત્ર હોય અને સદાચારનું પાલન કરવાને લીધે પવિત્ર જ રહે છે, તેને “શુચિ શુચિ ” રૂપ પહેલા ભાગમાં મૂકી શકાય છે. (૨) જે પુરુષ પહેલાં પવિત્ર હોય, પણ ભવિષ્યમાં કોઈ કારણને લીધે અસદાચારી બની જાય છે, એવા પુરુષને “શુચિ અશુવિ” રૂપે બીજા
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स्थानानसत्रे
___" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा सत्या यथावस्थितवस्तुपरिकथनात् प्रतिज्ञातानुसारेण कर्तृत्वाच सत्यः पुरुपः, स एव पुनः सत्यः सद्भयो हितः संयमधारित्वेन जगन्मित्रभूत', यद्वा-पूर्व सत्य आसीत् पश्चादपि सत्य एवेति । १। ___ "सत्यो नामैकोऽसत्यः" इति-पूर्व सत्यः पश्चात्कालक्रमेणासत्योऽयथावद्वस्तुपरिकथनात् प्रतिज्ञातमुल्लध्य प्रवर्तनाच २ । शेपो भङ्गो यथा - असत्यो नामैकः सत्यः ३, असत्यो नामैकोऽसत्यः ४ । इति चतुर्भङ्गी । अभिप्राय ऐसा है, जो पुरुष यथावस्थित वस्तु का कथन करनेवाला होता है एवं प्रतिज्ञात के अनुसार करनेवाला होता है, वह सत्य पुरुष कहा गया है, ऐसा वह पुरुष आगे चलकर संयम को धारण करके जगत का मित्र (भूत) बन जाता है तो वह सत्य सत्य इस प्रथम भंग में परिगणित होता है । अथवा जो पहले भी सत्य हो और बाद में भी बना रहता हो, वह सत्य सत्य है । सत्य असत्य वह है जो पहले सत्य हो
और बाद में कालक्रम से अयथा वस्तु के परिकथन से या प्रतिज्ञात अर्थ का उल्लंघन करने से असत्यरूप बना गया हो मिथ्याभाषी हो गया हो। यहां शेष दो भंग इस प्रकार से हैं-असत्य सत्य, और असत्य असत्य।
જે પુરુષ યથાવસ્થિત (જેવું હોય એવું જ) વસ્તુનું કથન કરનાર હોય છે અને પ્રતિજ્ઞા અનુસાર જ કરનારો હોય છે, એવા તે પુરુષને સત્ય પુરુષ કહ્યો છે એ તે પુરુષ આગળ જતાં સયમ ધારણ કરીને જગતના મિત્રરૂપ બની જાય છે, એવા પુરુષને “સત્ય સત્ય” નામના પહેલા પ્રકારના પુરુષમાં ગણાવી શકાય છે. અથવા જે પહેલાં પણ સત્યને આરાધક હોય અને પાછા નથી પણ સત્યને આરાધક જ ચાલુ રહે છે, તેને “સત્ય સત્ય” રૂપ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૨) “સત્ય અસત્ય” જે પુરુષ પહેલાં સત્યને પાલક હોય, પણ પાછળથી અયથાર્થ વસ્તુના પરિમથન દ્વારા અથવા પ્રતિજ્ઞાત અર્થનું ઉલ્લંઘન કરવાને કારણે અસત્ય રૂપ બની ગયે હોય તેને સત્ય અસત્ય પુરુષ કહે છે. બાકીના બે ભાંગા આ પ્રમાણે છે (૩) અસત્ય સત્ય અને (૪) અસત્ય અસત્ય. આ બને ભાવાર્થ ઉપરના બે ભાગાના ભાવાર્થને આધારે સમજી લે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० ५ सुतादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम ४०७ __" एव" मित्यादि-एवम्-अनेन प्रकारेण, अर्थात् यथा सत्यासत्य घटित चतुर्भङ्गी कृता तथा, " परिणतः” परिणतपदादारभ्य पराक्रमपदपर्यन्तं योजयित्वा तत्तच्चतुर्भङ्गी कार्या । ११ ।।
अथ दृष्टान्तभूतवस्त्रसूत्रम्-- " चत्तारि वत्था" इत्यादि-चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-"शुचि
जिस प्रकार से सत्यासत्य पद घटित यह चतुर्भगी बनी है उसी प्रकार से इन पद के साथ परिणत आदि पदों को घटित करके पराक्रम पद तक ४-४ चतुर्भगी बनाना चाहिये।
" चत्तारिवत्था" इत्यादि इस सूत्र द्वारा जो शुचि शुचि-शुचि अशुचि-अशुचिशुचि और अशुचि अशुचि वस्त्र के ये चार भंग कहे गये हैं, इसी प्रकार से पुरुष के भी चार प्रकार रूप भंग कहे गये हैं शुचि शुचि १ शुचि अशुचि २ अशुचि शुचि ३ और अशुचि अशुचि इसी प्रकार से इन शुचि अशुचि के साथ परिणत-रूप मन सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार और पराक्रम पदों को जोडकर ४-४ चतुर्भगी बना लेनी चाहिये । जो वस्त्र स्वभाव से पवित्र हो और आगे भी वह संस्कार से अथवा कालभेद से पवित्र बना रहा है, जैसा कि शुद्ध वस्त्र के प्रकरण में प्रगट कर दिया गया है तो ऐसा वह वस्त्र
જે પ્રકારે સત્યાસત્ય પદઘટિત આ ચતુર્ભગી કહેવામાં આવી છે, એ જ પ્રકારે આ પદોની સાથે પરિણત આદિ પરાક્રમ પર્યન્તના પૂર્વોક્ત પદોને ચેજિત કરીને ચાર ચાર ભાંગાવાળા સૂત્રોનું કથન થવું જોઈએ . “ चत्तारि वत्था " त्या:
આ સત્ર દ્વારા વિના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે. (१) शुयि शुथि, (२) शुथि मशुथि, (3) अशुथि शुथि अने (४) अशुथि અશુચિ. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (1) शुयि शुथि, (२) शुथि अशुथि, (3) अशुधि शुथि भने (४) अशुथि અશુચિ. એ જ પ્રમાણે શુચિ અશુચિ પદની સાથે પરિણત, રૂપ, મન, સંકલ્પ, પ્રજ્ઞા, દૃષ્ટિ, શીલાચાર, વ્યવહાર અને પરાક્રમ આ પદને જોડીને ચાર ચાર ભાગાવાળા સૂત્રનું કથન થવું જોઈએ. જે વ સ્વભાવથી પવિત્ર હોય અને આગળ જતાં પણ સંસ્કારની અપેક્ષાએ અથવા કાળભેદની અપેક્ષાએ પવિત્ર રહે છે, એવા વસ્ત્રને શુચિ શુચિ રૂ૫ પહેલા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. શુદ્ધ વસ્ત્રના પ્રકરણમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું કથન શુચિવસ્ત્ર વિષે
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स्थानाङ्गसूत्रे
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नामैकं शुचि " १ | शुचि = स्वभावेन पवित्रं तदेव पुनः शुचि संस्कारेण काल भेदेन वा शुचि १ शुचि = स्वाभाविक शुद्धिमत् पुनः कालभेदेन अशुचि= अपवित्रम् २, एवम् - अशुचि नामैकं शुचि ३, अशुचि नामैकमशुचि ४ ।
1
इति चतुर्भङ्गी । अथ दान्तिक पुरुषजातसूत्रम् -
" एवामेवे " - त्यादि - एवमेव दृष्टान्तभूतवखव देवेत्यर्थः, चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तथा - शुचिः = स्वभावेन पवित्रः पुरुषः, स एव पुनः शुचि:= सदाचारपालकतया पवित्रः १ शुचिर्ना मैकोऽशुचिः २, अशुचिनमैिकः शुचिः ३, अशुचिर्ना मैकोशुचिः ४ । इति चतुर्भुजी ॥ १३ ॥
शुचि शुचि कहा गया है । स्वभावतः शुद्ध हवा भी जो आगे चलकर अपवित्र हो गया हो वह शुचि अशुचि भङ्गवाला वस्त्र कहा गया है इसी प्रकार जो वत्र अशुचि होकर शुचि बन जाता है और जो अशुचि बना हुवा अशुचि ही बना रहता है वह वस्त्र तृतीय और चतुर्थ भंग वाला है । जिस प्रकार से यह शुचि अशुचि सम्बन्धी चतुर्भगी वस्त्र मैंयोजित कर प्रगट की गई है, उसी प्रकार से यही चतुर्भ गी पुरुष में भी योजित कर लेना चाहिये, और वह इस प्रकार से है- जो मनुष्य स्वभावतः पचित्र हो और आगे भी सदाचार का पालन करने से पवित्र बना रहता है तो वह " शुचि शुचि" इस प्रथम भंग का अन्नर्गत है- अन्तर्भूत किया गया है । प्रथमतः पवित्र बनकर जी आगे जो वह निमित्त वशात् असदाचार पालन से अपवित्र बन जाता है तो પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ જે વસ્ત્ર સ્વભાવત' શુદ્ધ હેાવા છતાં પાછળથી અપ વિત્ર થઈ જાય છે, એવા વસ્ત્રને શુચિ અણુશિ રૂપ ખીન્ન પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે જે વસ્ત્ર અશુચિ ( અપવિત્ર ) હાવા છતાં પાછળથી શુચિ ખની જાય છે તેને અશુચિ શુચિ રૂપ ત્રીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે અને જે વસ્ત્ર અશુચિ અવસ્થામાં જ 'કાયમ ચાલુ રહે છે તેને અશુચિ અગ્નિ રૂપ ચેાથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. વસ્ત્રને અનુલક્ષીને શુચિ અશુચિની અપેક્ષાએ
ચાર ભાંગાતુ’કથન કરવામાં આવ્યુ છે, એવા જ ચાર ભાંગાતુ થન પુરુષના વિષયમાં પણ થવુ' જોઈએ-મનુષ્ય ષિયક ચાર ભાંગા આ પ્રમાણે મનશે-(૧) જે મનુષ્ય સ્વભાવત: પવિત્ર હાય અને સદાચારનું પાલન કરવાને લીધે પવિત્ર જ રહે છે, તેને “ શુચિ શુચિ ” રૂપ પડેલા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે. (૨) જે પુરુષ પહેલાં પવિત્ર હાય, પણ ભવિષ્યમાં કાઈ કારણને લીધે અસદાચારી ખની જાય છે, એવા પુરુષને “ શુચિ અયિ ” રૂપ ખીજા
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू० ५ सुतादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् ४०९ ___एवं जहेवे"-त्यादि-एवम् अनेन प्रकारेण, अर्थाद् यथा शुच्यशुचिघटिता सदान्तिकदृष्टान्तवस्त्रचतुर्भङ्गी कृता तथा शुचिपूर्वपदकपरिणत-रूपमनः-संकल्प-प्रज्ञा-दृष्टि-शीलाऽऽचार-व्यवहार-पराक्रमघटिता तत्तच्चतुर्भङ्गी कार्या । तत्र परिणत-रूपघटिततत्तच्चतुर्भङ्गीद्वयं दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकसहित कर्तव्यम् मन-आदि पराक्रमान्तसप्तकघटितं तु दृष्टान्तवर्जितमेव चतुर्भङ्गीसप्तकं करणीयम् ऐसा वह मनुष्य द्वितीयनंग में परिगणित हुवा है इसी तरह स्वभावतः अपवित्र व्यक्ति आगे चलकर सदाचार आदि के पालन से पवित्र यन जाता है तो वह तृतीयभग में गिना गया है, और जो अशुचि का अशुचि ही बना रहता है तो वह चतुर्थभंग में परिणत हुवा है । ___ " एवं जहेब इत्यादि-जिस पद्धति से यह शुचि अशुचि सम्बन्धी दृष्टान्त दाष्ट्रीन्लिक सहित प्रगट की गई है, उसी प्रकार से शुचि अशुचि पदों के साथ परिणत, रूप, मन, सङ्कल्प आदि पूर्वोक्त पदों को जोडकर ४-४ चतुर्भगी बना लेना चाहिये। इनमें शुचि अचि पदों के साथ परिणत और रूप पद घटितकर जो चतुर्भङ्गी बनाई जावे-उसमें वस्त्र का दृष्टान्त देकर दान्तिक के साथ भी वे चतुर्भङ्गी घटित कर लेना चाहिये क्यों कि इन चतुर्भगों की दोनों में समानता मिल जाती है परन्तु-सन सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार और पराक्रम इन
પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૩) જે પુરુષ પહેલાં અસદાચારના પાલનને લીધે અપવિત્ર હોય, પણ પાછળથી સદાચાર આદિના પાલનને કારણે પવિત્ર બની ગયો હોય, તેને “અશુચિ શુચિ” રૂપ ત્રીજા પ્રકારમાં સમાવી શકાય છે. (૪) જે પુરુષ પહેલા પણ અસદાચારના પાલનને લીધે અપવિત્ર હોય અને પછી પણ એ જ અપવિત્ર રહે છે તેને “ અશુચિ અશુચિ ” રૂપ ચેથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે , “ एव जहेब" त्याह-२ पद्धतिथी ॥ शुथि अशुयि हटान्त३५ १६ અને દાબ્દન્તિક પુરુષની અપેક્ષાએ પ્રકટ કરવામાં આવી છે, એ જ પ્રમાણે શુચિ-અશુચિ પકોની સાથે પરિણત રૂપ, મન, સંકલ્પ આદિ પૂર્વોક્ત પદોને જોડીને ચાર ચાર ભાષાનું પ્રત્યેકમાં કથન થવું જોઈએ શુચિ અશુચિ પદોની સાથે પરિણત” અને “રૂપ ” પદને જવાથી દૃષ્ટાન્તભૂત વસ્ત્રની અપેક્ષાએ બે ચતુગી બનશે અને રાષ્ટતક પુરુષની અપેક્ષાએ પણ બે ચતુભગી था ५२
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स्थानाङ्गसूत्रे
४१० मनः प्रभृतीनां पुरुषधर्माणामचेतने वस्त्रेऽसम्भवादित्याशयेनाऽह-" जाव परकमे " इति, पराक्रमपदं यावदिति तदर्थः ।। २६ ।।
अथ दृष्टान्तभूतकोरकसूत्रम्" चत्तारि कोरया " इत्यादि-चत्वारः कोरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आम्रमलम्बकोरका-आनः प्रसिद्धः, तस्य प्रलम्बः-प्रलम्बते-वन्तेऽवलम्बत इति प्रलम्बः फलम् , तस्य कोरका कलिका, आम्रफलकलिकेत्यर्थः १;
तालालम्बकोरका तालफलकलिका २,
वल्लीप्रलम्बकोरकः वल्लीफलकलिका ३, पदों को शुद्धि और अशुद्धिपदों के साथ जोडकर जो चार चार भङ्ग इनके सम्बन्ध में बनाये जाते हैं, उनमें वस्त्र का दृष्टान्त नहीं लिया गया है क्यों कि मन आदि जो पुरुषणत धर्म हैं वे अचेतन वस्त्र में नहीं पाये जाते हैं इसी आशय से "जाव परक्कमे" ऐसा पद कहा है। २६
__ " दृष्टान्तभूत कोरक सूत्र-" "चत्तारि कोरया" इत्यादि-कोरक जो आम्रफलप्रलम्बकोरक आदि भेद से चार प्रकार के कहे गये हैं, उनको अभिप्राय ऐसा है आम्र के वृन्त में जो लटकता है वह आम्रप्रलम्य है इस आम्रप्रलम्ब की जो कलिका होती है वह यहां आमप्रलम्बकलिका पद से गृहीत हुई है। आम्रप्रलम्च शब्द का अर्थ है आम का फल इसी प्रकार तालप्रलम्कोरक का अर्थ है तालफलकलिका और वल्ली प्रलम्ब कोरक બનશે પણ મન, સંકલ્પ, પ્રજ્ઞા, દષ્ટિ, શીલાચાર, વ્યવહાર અને પરાક્રમ આ સાત પદેને અનુક્રમે શુચિ અશુચિ માથે જવાથી માત્ર પુરુષ સંબંધી સાત ચતુર્ભાગી બને છે–વસ્ત્ર સંબંધી સાત ચતુર્ભ ગી સભવી શકતી નથી, કારણ કે અચેતન વસ્ત્રમાં મન આદિ પુરુષ ધર્મોને સદ્ભાવ હોતો નથી. આ वात " जाव परक्कमे " ! सूत्रमा ६१२॥ सूथिन 25 छ
"शान्तभूत ॥२४ सूत्र" " चत्तारि कोरया" त्याह. “ साम्रो प्रसन्म २४' माहिना थी કરકના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે–આંબાના વૃક્ષમાં જે લટકતી વસ્તુ છે તેને આમ્રપ્રલમ્બ કહે છે આ આમ્રપ્રલમ્બની જે કલિકા હોય છે, તે અહીં “આમ્રપ્રલ... કલિકા” પદથી ગૃહીત થયેલ છે. આમ્રપ્રલ એટલે આમ્રફળ (કેરી) એ જ પ્રમાણે તાલપ્રલમ્બ કેરક એટલે “તાડફલ કલિકા” થાય છે, વલલી પ્રલમ્બ કેરક એટલે વલી ફલની કલિકા
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सुधा टीका स्था० ४ उ. १ सू० ५ सुतादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् ४११
मेण्ढविषाणप्रलम्वकोरका मेषशृङ्गतुल्यफला वनस्पतिजातिः, तस्याः प्रलम्ब कोरकः मेण्ढविषाणा फलकलिकेत्यर्थः ४ ॥ २७ ॥
अथ दाष्टान्तिकपुरुषजातसूत्रम्"एवामेवे "-त्यादि-एवमेव दृष्टान्तभूतकोरकवदेवेत्यर्थः, चवारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आम्रप्रलम्बकोरकसमानः आम्रप्रलयकोरकेण समानः =सदृशः, यथाऽऽम्रप्रलम्बकोरकः सेव्यमानः सन्तचित्तसमये समुचित स्वादुफलं ददाति तथा पुरुषोऽपि परिचर्यमाणउचितकाले समुचितमुपकारफलं जनयतीति स पुरुष आम्रप्रलम्बकोरकसमानो गीयते । १॥
तालमलम्बकोरकसमानः-यथा तालपलम्बकोरकः स्वं चिरं सेवमानस्य पुरुका अर्थ है वल्लीकलिका तथा अण्ढविषाणाप्रलम्बकोरक शब्द' का अर्थ है मेण्डविपाणाफलकलिका, । मेषशृङ्गतुल्य फलटाली वनस्पति है इसके प्रलम्ब का फल को जो शेरफ होता है वह यहां भेषवृषाण प्रलम्बकोरक से लिया गया है।
___ अब इन चार प्रकार के कोरकों का साधर्म्य दान्तिकभूत पुरुषों में घटित सूत्रकार ने इस प्रकार से कियाहै-सेवो किया गया जो पुरुष उचित समय में सचित उपकोरफल को देता है वह पुरुप आम्र फल के कोरक के समान है, जैसे - आत्र फल का कोरक सेचित रक्षित किये जाने पर उचित समय में समुचित स्वादवाले फल को देता है १ जो पुरुष चिरकाल तक सेवित होने पर भी कष्ट से पुष्कल उपकार के फल को देता है वह पुरुष तालप्रलम्ब कोरक અને મેં વિષાણ પ્રલમ્બ કેરક શબ્દનો અર્થ “મેં વિષાણ ફલ કલિકા” થાય છે. ઘેટાના શિંગડાના આકારના ફલવાળી એક વનસ્પતિ થાય છે (કદાચ ખીજડા માટે આ શબ્દ વપરાતે હોય), તેના પ્રલમ્બને (ફલને) જે શેરફ (શિંગ) હોય છે તેને અહીં મેષવૃષાણ પ્રલમ્બ કેરક પદ દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે આ ચાર પ્રકારના કેરક અને રાષ્ટ્રતિક પુરુષે વચ્ચે શી સમાનતા છે તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે–
(૧) જેમ આમ્રફલ કરકનું રક્ષણ કરવામાં આવે તે ઉચિત સમયે સમુચિત સ્વાદવાળા ફળ આપે છે, તેમ કેટલાક પુરુષો એવા હોય છે કે તેમની સેવા કરવામાં આવે તે ઉચિત સમયે સમુચિત ઉપકાર રૂપ ફલનું પ્રદાન કરે છે, એવા પુરુષને પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૨) તાડ પ્રલમ્બ કરકની દીર્ઘકાળ પર્યત રક્ષા કરવામાં આવે, તે મહામુશ્કેલીએ ફલની પ્રાપ્તિ થાય છે, એ જ પ્રમાણે કેટલાક પુરુષે દીર્ઘકાળ પર્યત સેવિત થયા
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કરે
स्थानामसूत्रे पस्य कप्टेन महत्फलं ददाति, तथा पुरुपोऽपि चिरकालसेवनात् कण्टेन पुष्कलमुपकारफलं सम्पादयतीवि स पुरुषस्तत्तुल्योऽभिधीयते ॥२॥
वल्लीमनाबकोरकसमानः - लताफलकलिकातुल्यः, यथा वल्लीप्रलम्बकोरको विनाऽपि क्लेश शी फलं प्रयच्छति, तथा यः पुरुपोऽक्लेशेन शीघ्रमुपकारफलं ददाति स तयाभूत उदीयते ।३।।
मेण्डकविषाणाप्रलम्बकोरकसमान:-मेण्डविपाणाफलकलिकासदृशः, यथा मेण्डविषाणाप्रलम्बकोरको जनेन सेव्यमानोऽपि हितकरं फलं न ददाति, अखाद्यफलदायकत्वात् , तथा यः पुरुषः परिचर्यमाणोऽपि मृदुवचनान्येव वक्ति न तु कन्चनोपकारफल करोतीति स तत्सदृश उच्यते । ४ । २८ । (सू०५) के समान है जैसे तालप्रलम्बकोरक चिरकाल तक अपनी रक्षा करने वाले को कष्ट से महाफल देता है। जो अक्लेश से बिना किसी क्लेश का ही शीघ्र उपकार के फल को देता है वह पुरुष-बल्ली प्रलम्बकोरक समान है, जैसे बल्ली प्रलम्ब कोरक विना किसीक्लेश का शीघ्र ही फल देता है। तथा जो पुरुप सेवित हवा भी अपने सेवक जन के लिये हितकर फल नहीं देता है केवल मीठी२ बातें ही बनाता है, मीठा मीठा वचन ही बोलता है उपकार का कुछ भी फल प्रदान नहीं करता है ऐसा वह पुरुष मेण्डविषाणाप्रलम्बकोरक का समान है जैसे मेण्ढवि. षोणप्रलम्बकोरक जन के द्वारा रक्षित होताहुवा भी हितकर फल नहीं देता है क्यों कि-उसका वह फल विना स्वाद का होता है।४।२८सू०५॥
બાદ મહામુશ્કેલીએ ઉપકારનું ફલ દેનારા હોય છે, તેમને બીજા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. (૩) જે પુરુષ વિના મુશ્કેલી જલદીમાં જલદી ઉપકારનો બદલે. વાળી આપે છે, તેને વલી પ્રલમ્બ કરક સમાન ગણાય છે, કારણ કે વલ્લીપ્રલમ્બ કેરક થોડા સમય સુધી સેવિત થવા છતાં પણ શીઘ્રતાથી ફલપ્રદાન કરે છે. (૪) જે પુરુષની સેવા કરવા છતાં પણ સેવા કરનાર પુરુષને કઈ લાભ થતું નથી, માત્ર મીઠાં મીઠાં વચન જ સભળાવ્યા કરે છે, એવા પુરુષને મેષ વિષાણા પ્રલમ્બ કેરક સમાન કહ્યું છે મેષવિષાણુ પ્રલમ્બ કેકની રક્ષા કરવા છતાં પણ રક્ષકને હિતકર ફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી, કારણ કે તેનાં ફળ વાદરહિત હોય છે. આ પ્રમાણે ઉપકારને બદલે ન વાળી આપનારને આ ચોથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. ! ! ! ૨૮ | સૂ ૫ છે
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सुधा टीका स्था०४३०१ सू० ६ घुणदृष्टान्तेन भिक्षुकनिरूपणम् ४१३
पुरुषाधिकार एव घुगदृष्टान्त दार्टान्तिक सूत्रमाह - __मूलम्-चत्तारि घुणा पण्णत्ता, तं जहा-तयक्खाए १, छल्लिक्खाए २, कट्ठक्खाए ३, सारक्खाए ४ । एवामेव चत्तारि भिक्खागा पपणत्ता, तं जहा तयक्खायलमाणे जाव सारक्खा. यसमाणे । तयक्खायसमाणस्त णं भिक्खागस्स सारक्खायसमाणे तवे पण्णते, छल्लिस्वायतमाणस्ल णं भिक्खागस्त कक्खायसमाणे तने पणत्ते, कटुक्खायसमाणसणं भिक्खागस्त छल्लिखायलमाणे तवे पपणत्ते ॥ सू. ६॥
छाया-चत्वारो धुणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-त्यवखादः १, छल्लीखादः २, काठखादः ३, सारखादः ४। एवमेव चत्वारो भिक्षाकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वक्खादसमानः १, यावत् सारखादसमानः ४। त्वक्वादसमानस्य खलु भिक्षाकस्य सारखादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् , सारखादसमानस्य खलु भिक्षाकस्य त्वक्खादसमानं तपः प्रज्ञतम् , छल्लीखादसमानस्य खलु भिक्षाकस्य काष्ठखादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् , काष्ठखादसमानस्य खलु भिक्षाकस्य छल्लीखादसमानं तपः प्रज्ञप्तम् (सू०६) ____ अब सूत्रकार इस पुरुषाधिकार में ही चुण दृष्टान्त दान्तिक सूत्र कहते हैं-" चत्तारि घुणा पण्णत्ता" इत्यादि ।
मूत्रार्थ-धुण चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-त्वाखाद १ छल्लीखाद २ काष्ठखाद ३ और सारखाद् ४ इसी तरह से चार भिक्षाक कहे गये हैं, जैसे त्वक्वादसमान यावत् सारखाद समान ४ त्वाखाद सनानभिक्षाक का सारखादसमोन तप कहा गया है सारखाद समान भिक्षाकका त्वकखाद समान तप कहा है छल्लीखादसमान भिक्षाक का काष्ठखाद समान तप कहा गया है और काष्टवादसमान भिक्षाक का छल्लीवाद समान तप कहा गया है
હવે સૂત્રકાર ઘુણ (કીડા) ના દાત દ્વારા ચાર પ્રકારના પુરુષનું नि३५ ४२ छ-" चत्वारि चुणा पण्णत्ता" त्या
सूत्रा-धु मेटले 831. धुशयार ४२ना उद्या छ-भ: (१) १५ माह, (२, छली माह, (3) ४ मा भने (8) सा२ मा. मेश' प्रमाणे यार ४२न मिक्षा (मि ) ४ छ-(१) (१५ मा समान, (२) मी माह समान, (3) ४ मा समान मन (४) सा२ मा समान.
વખદ સમાન ભિક્ષુકનું તપ સારબાદ સમાન કહ્યું છે. સારબાદ સમાન
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स्थानासूत्रे
टीका - " चत्तारि धुणा " इत्यादि - चत्वारः चतुः संख्याः, धुणाः काष्ठवेधकाः कीटविशेषाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - त्वक्खादः - त्वचं खादतीति त्वक्खादी बाच्छीभक्षकः १, छल्लीखाद :- छल्लों खादतीति छल्छीखादः = आभ्यन्तरच्छलीखादकः २, काष्ठखादः = मसिद्धः ३, सारखादः = काष्ठमध्यभागखादको वज्रमुखधुण इत्यर्थः । ४ ।
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अथ दान्तिक भिक्षाकसूत्रवाह
" एवामेवे " -त्यादि - एवमेव धुणवदेवेत्यर्थः चत्वारो भिक्षाका :- भिक्षणशीलाः- भिक्षुका इत्यर्थः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्वकखादसमान:- जाव' इति -
इस सूत्र का पर्यार्थ ऐसा है काष्टवेधक कीटका नाम घुण है ये घुण जो चार प्रकार के कहे गये हैं उसका अभिप्राय ऐसा है कि जो घुण बाहर की छल्ली का भक्षण करता है वह त्वक्खाद घुण है १ जो घुण भीतर की छल्ली को खाता है वह छल्लीखाद गुण है २ जो घुन केवल काष्ठ को खाता है वह काष्ठखाद घुग है ३ और जो काठ के सार भाग को खाता है वह सारखाद घुण है ४ । काष्ट का जो मध्यभाग होता है उसका नाम सार है । सारखाद का दूसरा नाम वज्रमुख घुण है अब घुण के ये चार दाष्टन्तिक भिक्षाक सूत्र के साथ घटित करने के लिये सूत्रकार " एवामेव " इत्यादि सूत्र कहते हैं - इससे वे ऐसा प्रगट करते है - कि जैसे ये घुण के प्रकार बतलाये गये हैं ऐसे ही चार प्रकार भिक्षाक ભિક્ષુકનું ત્વક્ષ્માદ સમાન તપ કહ્યું છે, છલ્લી ખાદ સમાન ભિક્ષુકનું કાષ્ઠ ખાદ સમાન તપ કર્યુ છે અને કાઇખાદ સમાન ભિક્ષુકનું છલ્લીખાદ સમાન તપ કહ્યું છે. આ સૂત્રને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—
કાઇવેધક કીડાને ઘણુ કહે છે તે લુહુના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે—(૧) જે ઘણુ વૃક્ષની છાલના મહારના ભાગનું ભક્ષણ કરે છે, તેને ત્વક્ષ્માદ ધુણ કહે છે. (૨) જે ઘુણુ છાલની અંદરના ભાગનું लक्ष ४रे छे, तेने छडसीमा घुडे छे. ( 3 ) ने धुनु ठेवण ४ ४ ભક્ષણ કરે છે, તેને કાષ્ઠખાદ ઘણુ કહે છે (૪) જે ઘણુ કાષ્ઠના સાર ભાગતુજ ભક્ષણ કરે છે તેને સારખા ઘણુ કહે છે. કાછના મધ્ય ભાગને તેને સાર ભાગ કહે છે, સારખાદનું બીજું નામ વજ્રમુખ ઘણુ છે
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હૅવે ઘણુના આ ચારે પ્રકારને દાન્તિક ભિક્ષાક સૂત્ર ( ભિક્ષુક સૂત્ર ) સાથે ’ઘટાવવા નિમિત્તે સૂત્રકાર एवामेव " त्याहि सूत्र आहे छे, मा सूत्र દ્વારા જે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે ઘુણુના જેવા ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એવા ચાર પ્રકાર શિક્ષાકના પણ પડી શકે છે. ભિક્ષુકને ભિક્ષાક પણ કહે છે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० ६ घुणदृष्टान्तेन भिक्षुकनिरूपणम् ४१५ यावच्छन्देन " छल्लीखादसमानः २, काष्ठखादसमानः ३, सारखादसमानः ४" इति, तत्र लक्खादेन धुणेन रामानः-सदृशः त्वक्वादसमानः त्वक्खादसायं च भिक्षुकेऽत्यन्तसन्तोपितयाऽऽचाम्लादितपःकरणात् ?, अन्तप्रान्तरूक्षतुच्छारसविरसाधाहारकत्वान, छल्लीखादसमान:-आभ्यन्तर वल्फभक्षकधुणसदृशः शुष्कनीरसाबलेपाऽऽहारकत्वात् २, काष्ठखादसमानः = काष्ठभक्षकतुल्यो निर्विकृतिकाऽऽहारकत्वात् ३, सारखाइसमानः काष्ठमध्यमक्षकसदृशः सर्वकामगुणाऽऽहार कत्वादिति ४॥ ___ एपां चतुर्विधभिक्षाकाणां तपोविशेषकशनसूत्रमाह-" तयक्खायसमाणस्से" त्यादि-त्वक्खादसमानस्य-त्वक्सदृशासारभोक्तुभिक्षोः, खलु सारखादसमानंके भी कहे गये हैं। जैसे-त्वाखाद समान शिक्षाक १ भिक्षुक का नाम भिक्षाक है यावत् छल्लीखादसमान भिक्षाक २ काष्ठखादसमान भिक्षाक ३ और सारखादसमान भिक्षाक ४ इनमें त्वाखाद घुण समान वह भिक्षाक है जो अत्यन्त सन्तोषी होने के कारण आचाम्ल आयंबिल (आमिल) आदि तपस्या है, अन्त प्रान्त रूक्ष तुच्छ अरस, औरविरस आहार करता है। छल्लीखाद घुण समान वह भिक्षाक है जो शुष्क नीरस आदि अलेप आहार करता है । काष्ठखाद घुण समान वह भिक्षा है जो निर्विकृतिक (विगय ) अर्थात्-दूध दही घृत तेल और मधुर रहित आहार करता है । तथा-सोरखाद घुण समान वह भिक्षाक है जो सर्वकाम गुण आहार करता है वह काष्ठके मध्य भक्षक समान भिक्षाक है।
लिना या२ २ नाय प्रमाणे छ-(१) (१५मा समान भिक्षुर, (२) છલીખાદ સમાન ભિક્ષુક, (૩) કાછખાદ સમાન ભિક્ષુક અને (૪) સારબાદ સમાન ભિક્ષુક. વખાદ્ય ઘુણ સમાન ભિક્ષુક એ છે કે જે અત્યન્ત સંતેવી હોવાને કારણે આ બિલ આદિ તપસ્યા કરે છે, અને અન્ત, પ્રાન્ત, રૂક્ષ, તુચ્છ, અરસ અને વિરસ આહાર જ લે છે. છેલ્લીખાદ ઘુણ સમાન ભિક્ષુક એ છે કે જે શુષ્ક, નીરસ આદિ અલેપ આહાર જ કરે છે. કાઇખાદ ઘુણ સમાન ભિક્ષુક એ છે કે જે નિર્વિકૃતિક (વિગય ) એટલે કે દૂધ, દહીં, ઘી, તેલ અને મધુરતા રહિત આહાર કરે છે. સારબાદ ઘુણ સમાન ભિક્ષુક એ છે કે જે સર્વકામ ગુણસંપન્ન આહાર કરે છે, તે કાષ્ઠના મધ્ય ભાગનું ભક્ષણ કરકરનાર ઘુણ સમાન ગણાય ?
હવે સૂવકાર આ ચારે પ્રકારના ભિક્ષુઓના પવિશેષનું કથન કરે છે " तयक्खाणसमाणस्स" त्याहि
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स्थानाङ्गसूत्रे
सारखादो वज्रमुखघुणस्तत्समानं तत्तुल्यं वज्रसारमतितीव्रं तपो भवतीन्याशये नोऽऽह-“ सारक्खाये "—त्यादि, वचमारतपञ्च निःसङ्गत्वेन कर्मभेदकत्वाद् वोध्यम् । अयम्भावः - यथा सारखादो धुणः कठिनं काष्ठमव्यं भिनत्ति तथा खादो भिक्षुरपि भवानुबन्धि कठिनतरमपि कर्म भिनतीति तादृशभिक्षोः सारखादसमानं तपो भवतीति प्रज्ञप्तं = कथितम् | १ |
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सारक्खायसमाणस्से "-त्यादि - सारखादसमानस्य - काष्ठमध्यमक्षकधुणसदृशस्य खलु भिक्षाकस्य त्वक्खादसमानं वाह्यवल्ककखादकघुणशदृशं तपो भवति, अयमाशय - यथा त्वक्खादो धुण काष्ठसारभेदने समर्थो न भवति
अब सूत्रकार इन चतुर्विध भिक्षु के तपोविशेष का कथन करने के निमित्त सूत्र कहते हैं- " तयकखाणसामाणस्स ' इत्यादि जो भिक्षुक जैसे सार पदार्थका भोजन करता है उसका तप वज्र मुख घुण के समान वज्र अतितीव्र होता है, वज्रसार तप निःसङ्ग होने के कारण कर्मभेदक होता है। तात्पर्य ऐसा है जैसे सारखादयुग कठिन भी काट मध्य को छिद्रित कर देता है उसे भेद देता है, उसी प्रकार स्वक्खाद भिक्षुक भी भवानुबन्धि कठिनतर भी कर्मको भेद डालना है, अतः - ऐसे भिक्षुकका तप सारखादके समान होता है ऐसा कहा गया है ?
(6 सारक्खायसमाणस्स " इत्यादि, काष्ठ मध्य भक्षक घुण की समानतावाले भिक्षु का तप "स्वकखाद समानं" राय वल्कल छोलको खानेवाले घुण के समान होता है । इसका आशय ऐसा है जैसे त्वक्खादघुण काष्ठ सार को भेदने में समर्थ नहीं होता है क्योंकि वह तो જે ભિક્ષુક ના સમાન સાર પદાથૅનુ ભાજન કરે છે, તેનુ તપ વા મુખ ઘણુના જેવુ છે. વા–અતિ તીત્ર હોય છે, વાસાર તપ નિ સંગ ડેવાને કારણે કમ ભેદક હેય છે. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—
જેમ સારમાદ ણુ ( કાષ્ઠના મધ્ય ભાગનું ભક્ષણ કરનારા કીડા) કઠણુમાં કઠણ કાષ્ઠને ભેદીને તેના મધ્ય ભાગમાં પડેાંચી જાય છે અને તે મધ્ય ભાગનું જ ભક્ષણૢ કરે છે, એ જ પ્રમાણે માદ ણુ સમાન ભિક્ષુક પણ ભવાનુખન્ધી કઠણુમાં કઠણ કર્મોને પણ ભેઢી નાખે છે, તે કારણે એવા ભિક્ષુકના તપને સારખદ ણુના તપ સાથે સરખાવ્યું છે...
...१
सारक्खायसमाणस्स કાઇના મધ્યભાગનું ભક્ષણ કરનાર ણુની સમાનતાવાળા ભિક્ષુનું તપ 6. ववादसमान " છાલના ખાહ્યભાગનું ભક્ષણ કરનાર ણુના સમાન હાય છે આ કથનના ભાવા એવા છે કે શુ (બાહ્ય ત્વચાનું ભક્ષણ કરનાર કીડા) કાષ્ઠમારને ( કાઇના મધ્ય ભાગને)
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सुधा टीका स्था०४ उ १ ६ घुणदृष्टान्तेन भिक्षुकनिरूपणम्
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वक्खादकत्वादेव हेतोः, तथा तादृशस्य भिक्षुकस्य कर्मसारभेदनेऽ समर्थमेव तपो भवति, यतः सर्वकामगुणाऽऽहारकरूपः सारखादसमानो भिक्षुको भवतीति । २। छल्लिक्खायसमाणसे " - त्यादि - छल्लीखादसमानस्य = आभ्यन्तरभागभक्षक धुणतुल्यस्य भिक्षाकस्य काष्ठखादसमानं काष्ठभक्षक घुणतुल्यं तपो भवति, अयं भावः - छल्ली खादसमानस्य साधोस्त्वक्खादघुणसमान संयतापेक्षया किञ्चिद्विशिष्टभोजित्वेन किञ्चित्ससङ्गत्वात्, सारखाद- काष्ठखाद घुणसमान संयतापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निःसङ्गत्वाच्च कर्मभेदने काष्ठखाद घुणसमानं तपो भवति, त्व (छाल) को ही खानेवाला होता है अतः ऐसा जो भिक्षुक होता है उस भिक्षुक नप भी कर्मसार भेदने में समर्थ नहीं होता है किन्तु - असमर्थ ही रहता है, क्यों कि यह भिक्षुक सारखाद समान भिक्षाक सर्वकामगुणाहारक होता है - २
"छल्लिक्खायसमाणस्स " इत्यादि जो भिक्षुक आभ्यन्तर भाग का खानेवाला घुण के समान होता है उसका तप काष्ठभक्षक घुण के तुल्य होता है, । इसका भाव ऐसा है जो भिक्षुक छल्लीखाद समान होता है, ऐसे भिक्षाक का तप त्वक्रखाद घुण समान संयत की अपेक्षा किञ्चिद्विशिष्ट भोजी होने के कारण किञ्चित् ससङ्ग होने से तथा सार खाद काष्ठखादण समान संयत की अपेक्षा असार भोजी होने के कारण निःसङ्ग होने से कर्म के भेदन में काष्ठखाद घुण समान होता है । इसका अर्थ ऐसा है - काष्टवाद चुग जैसा मध्यम का भेदन करता है ભેદવાને સમ હતેા નથી, પણ માત્ર બાહ્ય છાલને જ ખાનારા હાય છે. એ જ પ્રમાણે ખાદ મિક્ષનું તપ પણ કર્મોંસારને ભેદવાને સમર્થ બની શકતું નથી–પણ અસમર્થ જ રહે છે, કારણ કે તે સારખાદ સમાન ભિક્ષુક સકામ ગુણાહારક હૈય છે
छल्लिकखायमाणस्स - ઈત્યાદ્રિ—રે ભિક્ષુક છાલના આભ્યન્તર ભાગને ખાનારા કીડા જેવા હાય છે, તેનુ તપ કાઇભક્ષક કીડાતુલ્ય હાય છે આ ક્શનના ભાવાર્થં નીચે પ્રમાણે છે—જે ભિક્ષુ છલ્લીખાદસમાન ( આભ્યન્તર છાલ ખાનાર કીડા સમાન ) હાય છે, તે શિક્ષુ કૂખ દ ણુ સમાન સ યત કરતાં અમુક અશે વિશિષ્ટ પ્રકારના આહારનું સેવન કરનારા હાવાથી કેટલેક અશે સસ`ગ અથવા અધિક તપને કારણે અધિક કલેદન કરનારી હાવાથી તથા સારખદ શુ સમાન સયત કરતાં અસારણેાજી હાવાને કારણે નિઃસગ હાવાથી, કર્માંના ભેદનમાં કાષ્ઠખાઈ ણુ સમાન હોય છે એટલે કે કાષ્ઠ ખાદ
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स्थानाङ्गो ४१८ अयमर्थः-काष्ठखादो घुगो यथा मध्यग भेदनं करोति, नया तस्य तपो मध्यन भाति, नातितीवं सारखादखुणवत् , नातिमन्दं त्वाछवीग्वादघुणादिति ॥३॥
"कवायसभाणस्से -लादि - झाप्ठखादरामानस्यकाष्टमसकघुणसशस्य भिक्षास्य छल्लीनादसमानामान्यन्तरवलक्षघुगतुल्यं तपः प्रज्ञप्तम् , अयमर्थः-यथा छल्लीलादो घुगः काष्ठमारोदने लमयों न गति, तथा तादृशो भिक्षुरपि कर्मभेदने समयों न भाति, अयं भाषः - काठमादसमानस्य भिक्षोः सारखादघुणसमानसाध्वपेक्षयाऽसार मोगित्वेन निःमगत्यात् सक्छल्लीखादधुणसमानसावपेक्षया सारतरभोजिन्वेन रासहत्वाच्च हल्लीग्वाद घुणवत् तत्तपः' इसलिये-उसका तप मध्यन होता है, क्यों कि-सारखावण की तरह वह अतितीत्र नहीं होता है और लक छल्लीग्वाद घुण की तरह वह अतिमन्द भी नहीं होता है अतः वह मध्यम होता है
"कहखाय समागस्त-" इत्यादि जो भिश्चक काठखाद धुण के जैसा होता है उसका तप आभ्यन्तर चल्मलके भक्षक घुग तुल्य होता है इसका अर्थ ऐसा ही है जैसे छल्लीखाद बुण काष्ठसार भेदने में समय नहीं होता है। उसी प्रकार ऐसा भिक्षुक भी कर्मभेदन में समर्थ नहीं होता है इसका भाव यह है-काष्टवाद भिक्षु का तप साधारण कहा गया है, क्यों कि-सारखाद घुण समान साधु की अपेक्षा यह असारभोजी होने के कारण निःसङ्ग होता है और-खक बल्लीखादघुण समान साधु की अपेक्षा यह सोरतर भोजी होने के कारण दासंग होता है। ઘુણ મધ્યમ લોદક હોય છે, અને તે કારણે તેનું તપ પણ મધ્યમ હોય છે, કારણ કે સારબાદ ઘણની જેમ તે અતિશય તીવ્ર પળ હોતું નથી અને ત્વ ખાઇ ધુણની જેમ તે અતિશય મન્દ પણ હોતું નથી તે કારણે તેના तपने मध्यम उद्यु छ ...3
"कटुक्खायसमाणस्व" यह लिनुर ४ाह घुलना न्यो હોય છે, તેનું તપ આભ્યન્તર છાલભક્ષક ઘુગના જેવું હોય છે આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–જેમ આભ્યન્તર છાલશાન કી કાકાસારને ભેટવાને અસમર્થ જ હોય છે, એ જ પ્રમાણે એ શિક્ષક પણ કર્મનું ભેદન કરવાને સમર્થ હોતે નથી. એટલે કે કાબાદ શિશુના તપને સાધારણ કહ્યું છે, કારણ કે સારબાદ ઘુણ સમાન સાધુની અપેક્ષાએ તે અસારજી હવાને કારણે નિઃસંગ હોય છે, અને બાહ્ય છાલ (ત્વ) ને ભક્ષક ઘુણના જેવા સાધુની અપેક્ષાએ તે સારતરભેજી હોવાને કારણે સમંગ હોય છે. તે કારણે
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सुधा टीका स्था० ४ उ १ सू० ८ वनस्पतिनिरूपणम्
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कर्मभेदने सारखाद- काष्ठखादधुणवन्नातिसमर्थ, त्वक्खादधुगवन्नातिमन्दं किन्तु साधारणं प्रज्ञप्तमिति । एवञ्च प्रथमस्यातितीव्रं प्रधानतरं तपः १, द्वितीयस्याप्रधानतरम् २, तृतीयस्य प्रधानम् ३, चतुर्थस्य भिक्षुकस्याप्रधानमित्युपसहारः ४॥ ५०६ ॥
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पूर्वं वनस्पत्यवयववादका घुणा निरूपिता इति वनस्पतिमेव मरूषयन्नाह - मूलम् - चउव्विहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं जहाअग्गबीया १, मूलवीयार, पोरवीयार, खंधवीया ४ ॥ सू०७ ॥ उहि ठाणेहिं अणोचवण्णे णेरइए णेरइयलोगंसि इच्छेला मानुषं लोगं हत्रमागच्छित णो चेवणं संचाएइ हत्रमागच्छित्तए, तं जहा - अहुणोववव नेरइए निरयलोगंसि सभूयं वेषणं त्रेयमाणे इच्छेला माणूस लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेवणं. संचाइ मागच्छित्तए १, अहुणोवत्रन्त्रे रइए निरयलोगंसि णिरयपालेहि भुज्जोर, अहिडिजमाणे२ इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तत्, णो चेव णं संचाएइ हव्वमाग
इसलिये छल्लीखाद घुण के समान वह उसका तप कर्मभेदन में सारखाद काष्ठखाद घुम की तरह अति समर्थ नहीं होता है एवं स्वकखाद घुणकी तरह अतिमन्द भी नहीं होता है इसलिये इसे साधारण कहा गया है । इस तरह प्रथम का अतितीव प्रधानतर तप होता है १' द्वितीय का अधार और तृतीय का प्रधान ३ तथा चतुर्थ भिक्षुक का अप्रधान तय होता है, यही उपसंहार इस कथन का है ४ - सू० ६ ॥
છલ્લી ખાત ણુ સમાન તેવુ તે તપ કર્મનું લેઇન કરવામા કાઇખાદ ઘુણુની જેમ અતિ સમ પણ નીવડતું નથી, અને માદ ણુના જેવું અતિ મન્ત પણ હાતું નથી, તેથી તેના તપને સાધારણ કહેવામાં આવ્યુ છે. આ રીતે પહેલા પ્રકારના સાધુનું તપ અતિ તીવ્ર અથવા અતિ તીવ્ર પ્રધાનતર હોય છે, બીજા પ્રકારના સાધુનુ તપ પ્રધાનતર અથવા મધ્યમ હાય છે, ત્રીજા પ્રકારના સાધુનું તપ પ્રધાન અથવા સાધારણુ હાય છે અને ચેાથા પ્રકારના साधुनु तप प्रधान होय ॥ सू. ६ ॥
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स्थानासूत्रे
च्छित्तए २, अहुणोववन्ने णेरइए णिरयवेयणिजंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अइयंसि अणिजिन्नंसि इच्छेजा माणुसं लोगं
मागच्छत्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ३। एवं निरयाउयंस कम्मंसि अक्खिणंसि जाव णो चेव णं संचाइ हत्रमागच्छित्तए ४, इच्चे एहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरइए जाव णो चेव णं संचाएइ हव मागच्छित्तए ४ ॥ सू०७
छाया - चतुर्विधास्तृणवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अग्रवीजाः १, मूलवीजाः २, पर्ववीजा: ३, स्कन्धबीजाः ४ ( सू० ७ ) ।
चतुर्भिः स्थानैरधुनोपपनैरयिकः नैरयिकलो के इच्छेद् मानुषं लोकं हव्यमागन्तुम्, नो चैव खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम्, तद्यथा - अधुनोपपन्नो नैरयिको निरयलोके समुद्भूतां वेदनां वेदयमानः इच्छेद् मानुषं लोकं हव्यमागन्तुम् १, इस प्रकार से वनस्पति खादक घुणों का निरूपण करके अब सूत्रकार वनस्पति की प्ररूपणा करते हैं
"चविवहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता "इत्यादि ७
सूत्रार्थ -- तृण वनस्पतिकायिक चार प्रकार के कहे गये हैं, "जैसे - अपबीज १ मूलबीज २ पर्वबीज ३ स्कन्धबीज ४ । चार कारणों से अधुनोपपन्नक तत्काल उत्पन्न हुवे नैरयिक नरक से मनुष्यलोक में " आना चाहता है वे चार कारण इस प्रकार से हैं एक कारण इन्में ऐसा है कि नरक में तत्काल उत्पन्न हुवा जो नैरयिक है वह जब उस लोक में उत्पन्न वेदना को भोगता है तब वह मनुष्यलोक में आने की
આ રીતે વનસ્પતિભક્ષક કીડાનુ નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર વનસ્પતિની अरे छे – “ चउव्विहा- तृणवणरसइकाइया पण्णत्ता " हत्याहि
તૃણુ વનસ્પતિકાયિકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) અખીજ (२) भूसजी, (3) पर्वी अने (४) सुन्धणी.
અનેાપપન્નક ( તત્કાળ ઉત્પન્ન થયેલા ) નારક જીવ નીચેના ચાર કારાને લીધે નરકમાથી મનુષ્યલેાકમાં આવવા ચાહે છે-(૧) નરકમાં તત્કાળ ઉત્પન્ન થયેલે ભૈરયિક (નારક જીવ ) જ્યારે તે લેાકમાં ઉત્પન્ન થયેલી વેદનાને ભાગવે છે, ત્યારે તેને મનુષ્યલેાકમા આવવાની ઈચ્છા થાય છે. (૨) જ્યારે તે
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सुघाटीका स्था०४ उ० १ सू० ८ वनस्पतिनिरूपणम्
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अधुनोपपन्नो नैरयिको निरयलोके निरयपालैः भूयो भूयः अधिष्ठीयमानः २ इच्छेद् मानुषं लोक हव्यमागन्तुम्, नो चैव खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम् २, अधुनोपपनो नैरयिको निरयवेदनीये कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जीर्णे इच्छेत मानुषं लोकं हव्यमागन्तुम्, नो चैव खलु शक्नोति हन्यमागन्तुम् ३ एवं निरयाऽऽयुष्के कर्मणि अक्षीणे यावत् नो चैत्र खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम् ४, इत्ये तैश्चतुर्भिः स्थानैरधुनोपपन्नो नैरयिकः यावत् नो चैव खलु शक्नोति हव्यमाग न्तुम् ४ ( सू० ८ ) ।
कल्पन्ते निर्ग्रन्थीनां चतस्र सङ्घाट्यो धारयितुं वा परिधर्तुम्, तद्यथा एका द्वितविस्तारा १, त्रिहस्तविस्तारे ३, एका चतुर्हस्तविस्तारा ४ | ( सू० ९ ) । चाहना करता है । पर वहां से आ नहीं सकता है । दूरारा कारण ऐसा है कि जब वह अधुनोपपन्नक नैरथिक उस निरयलोक में परमाधार्मिक द्वारा वार २ आक्रम्यमाण हन्यमान होता है तब वह मनुष्यलोक में आने की चाहना करता है पर वहां से आ नहीं सकता है। तृतीय कारण ऐसा है कि अधुalayan नैरयिक निरय में ही वेदनीय वेदन करने योग्य जो कर्म है उसे वहां ही जब तक भोग नहीं लेगा, तब तक वह मनुष्यलोक में नहीं आ सकता है। चौथा कारण ऐसा है कि जब तक निरयायुक पूर्ण नहीं हुवा है तब तक वह मनुष्यलोक में आने क चाहना करता हुवा भी नहीं आ सकता है, इस प्रकार से ये चार कारण ऐसे हैं जो मनुष्यलोक में उस अधुनोपपन्नक नैरयिक को आने की चाहना उत्पन्न कराते हैं परन्तु फिर भी वह मनुष्यलोक में नहीं आ सकता है ८ । निर्ग्रन्थियों को चार संघाटियों (चादर) धारण करने योग्य
વૈરયિકપર' પરમાધાર્મિક નામના અસુરકુમાર દેવે વારવાર આક્રમણ કરે છે, માર મારે છે, ત્યારે પશુ તેને મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઇચ્છા થાય છે, પણ તે ત્યાંથી મનુષ્યલેાકમા આવી શકતે નથી. (૩) નરકમાં ભાગવવા ચાગ્ય કર્યાંનુ જ્યાં સુધી તે અનેપપન્નક નારક જીવ નરકમા જ રહીને પૂરેપૂરું વેદન" કરી લેતા નથી ત્યાં સુધી તે આ મનુષ્યલેાકમાં આવી શકતા નથી. (૪) જ્યાં સુધી તે નિરયાયુક નરક ગતિ સ`બધી આયુષ્ય ) પૂરેપૂરૂ લેાગવી લેતે નથી—ત્યાંની આયુસ્થિતિ પૂરી કરતા નથી-ત્યાં સુધી તે ચાહના કરવા છતાં પણ મનુષ્યલેાકમા આવી શકતા નથી આ પ્રકારના આ ચાર કારણેાને લીધે તે અધુનેાપપન્નક નારક જીવ નરકમાંથી મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઈચ્છા થવા છતાં મનુષ્યલાકમા આવી શકતા નથી.
નિગ્ર'થીઓને માટે ચાર સ`ઘાટીએ ( વસ્ત્ર વિશેષ ) ધારણ કરવા ચેાગ્ય उड्डी छे- १) मे हाथ प्रभा विस्तारवाणी मे संघाटी - यार ( २ ) यु बाथप्रभाथ
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स्थानाङ्गसूत्रे ____टीका-" चउबिहा" इत्यादि - चतुर्विधा =चतुष्मकाराः, तृणवनस्पतिकायिकाः-तृणप्रझारा वनस्पतिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिका तृणरूपा वनस्पतिकायिका वादरा इत्यर्थं प्रज्ञप्ताः तद्यथा-अप्रवीजा:-अग्रेऽग्रे वा वीज येषां ते तथाभूता ब्रीह्यादयः १, मूलबीजाः-मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजा. कमलकन्दादयः २, पर्वबीजा:-पर्वैव वीजं येषां ते तथाभूता इक्ष्वादयः ३, स्कन्धवीजाःस्कन्धः-थुडं, स एव वीजं येपां ते तथाभूताः सल्लफ्यादयः ४ (मु० ७)। ____ पूर्व वनस्पतिकायिकजीवानां चतुःस्थानकं प्रोक्तं, सम्प्रति तज्जीवत्व-मश्रकही गई है, जैसे-एक संघाटी दो हाथ विस्तारवाली१ दो संघाटी तीन हाथ विस्तारवाली ३ और चार हाथ विस्तारवाली एक ९।
स्पष्टार्थ-तृणरूप जो बादर वनस्पतिकायिक वे यहां तृणवनस्पतिकायिक शब्द से गृहीत हुवे हैं। ये तृणवनस्पतिकायिक जो चार प्रकार के कहे गये प्रगट किये हैं उनका अभिप्राय ऐसा है कि-जिनका आगे का भाग जिनके अग्रभोग में बीज होता है ऐसे व्रीहि आदिक तृण वनस्पतिकायिक अग्रवीज हैं जिनका मूल ही बीज होता है वे मूल बीज हैं। जैसे-कमलकन्द आदि पर्व ही जिनका बीज होता है-ऐसे इक्षु आदिक पर्वबीज वनस्पतिकायिक हैं। स्कन्ध थूड वट ही जिनके बीज हैं ऐसे सल्लकी आदिक स्कन्धबीज वनस्पतिकायिक हैं ७ __ इस प्रकार से वनस्पतिकायिक जीवों के ये चार स्थान कहे गये, વિસ્તારવાળી બે સંવાટી અને (૪) ચાર હાથપ્રમાણ વિસ્તારવાળી એક સંઘાટી.
આ સૂત્રનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ–તૃણ રૂપ જે બાદર વનસ્પતિકાયિક છે તે અહીં તૃણ વનસ્પતિકાયિક પદથી ગૃહીત થઈ છે તે તૃણ વનસ્પતિકાયિકના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, તેનું સ્પષ્ટીકરણ હવે કરવામાં આવે છે –
(૧) અગ્રણીજ ? જેના અગ્રભાગમાં બીજ હોય છે એવાં ડાંગર આદિ તૃણ વનસ્પતિકાયિકને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે.
(२) “ भूतमी "मना भूण भी ४३५ डाय छे सेवा भद६ આદિને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે.
(3) " भी४" रेमना भी४३५ .य छे सेवी २२डी माहित પર્વબીજ વનસ્પતિકાયિક કહે છે.
() ધબીજ” જેનું થડ જ બીજરૂપ હોય છે એવી સલકી આદિ વનસ્પતિને કન્યબીજ વનસ્પતિકાયિક કહે છે.
આ પ્રમાણે વનસ્પતિકાયિક જીવનાં ચાર સ્થાનનું નિરૂપણ કરીને હવે
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० ८ वनस्पतिनिरूपणम्
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दधानास्वद्विराधका महाssरम्ममहापरिग्रहत्वेन नरके गच्छन्तीति नारकजी वानाश्रित्य तदाह - " चउहिं " इत्यादि - चतुर्भिः = चतुः संख्यैः, स्थानैः, अधुनोपपन्नः=तत्कालोपपन्नः, नैरयिकः - अयः - शुभं सुखं, निर्गतमयो यस्मादिति निरयोनरकस्तत्र भवो नैरयिकः =नारकः, तस्यान्यत्र गमना-सामर्थ्य दर्शयितुमाहरोगम " - ति नैरयिकलो के = नारकलोके स्थितः सन् मानुषं लोकं 'हृव्यं' इति वाक्यालङ्कारे, आगन्तुम् इच्छेत् किन्तु आगन्तुम् नो चैव नैव, अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जो जीव इनमें जीव है ऐसी बात पर विश्वास नहीं करते हैं तथा इनकी विशेधना करते हैं वे जीव महारम्भ महापरिग्रहवाले होने के कारण नरक में जाते हैं। वहां जाकर वे नारक जीव इस लोक में मनुष्यलोक में किन कारणों से आने की चाहना करते हैं ३ यहां मनुष्यलोक में उनके आने की चाहना का कारण ऐसा है कि जो नया नारक जीव वहां उत्पन्न होता है वह वहां रहता हुवा जो वहां की अतिप्रबल रूप से उत्पन्न असातावेदनीयरूप वेदना को अनुभव करता है, तय-वह यहां मनुष्यलोक में आने की कामना करता है परन्तु शीत उष्ण आदि तीव्र वेदना से युक्त होने के कारण वह यहां नहीं आ सकता है ? जहां से अय-शुभ-सुख निर्गत हो गया है वह निरय नरक है इस निरय में जो उत्पन्न होता है वह नैरfयक है, यहां सूत्र में " हव्य " यह पद वाक्यालङ्कोर में प्रयुक्त हुवा સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે—કેટલાક જીવે વનસ્પતિકાયિકામાં જીવ છે, એ વાતને શ્રદ્ધાની નજરે જોતા નથી. તેએ તેમની વિરાધના કર્યાં કરે છે. એવા જીવે. મહારભ અને મહાપરિગ્રહવાળા હાવાને કારણે નરકમાં જાય છે, ત્યાં ઉત્પન્ન થયા ખાદ્ય તે નારક જીવે કયા કયા કારણેાને લીધે આ મનુષ્ય લાકમાં આવવાની ઈચ્છા કરે છે, તે વાત હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે—
પહેલુ કારણ આ પ્રમાણે છે-નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલે નવે જીવ ત્યાં ઉત્પન્ન થતાંની સાથે જ ત્યાંની અતિ પ્રખલ અસાતાવેનીય રૂપ વેદનાને અનુભવ કરે છે આ વેદના સહન નહીં થઇ શકવાને કારણે તે આ મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઈચ્છા કરે છે, પરન્તુ શીત ઉષ્ણ આદિ તીવ્ર વેદનાથી અભિભૂત હોવાને કારણે તે અહીં આવી શકતે નથી.
જ્યાંથી અય એટલે કે શુભ-સુખ નિર્માંત થઈ ગયુ ડાય છે, એવા સ્થાનનું નામ નિરય ( નરક ) છે. તે નિરયમાં ઉત્પન્ન થતા જીવને નૈયિક हे छे, सहीं सूत्रभा “ हव्य " आ यह वायास अर ३ये वथरायु छे.
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४२४ शक्नोति समर्थों भवति, तत्र हेतुमाह-" तं जहेति-तद्यथा " -अधुनोपपन्नः तत्कालोरपन्ना, नैरयिका, निरयलोके समुद्भूतां-सम्-अतिप्रवलतया, उद्भूताम्
उत्पन्ना, अनन्ताशातवेदनीयरूपां, वेदयमानः अनुभवन् मानुपं लोकम् आगन्तु. मिच्छेत् किन्तु आगन्तुं नैव शक्नोति, शीतोष्णादितीव्र वेदनाऽभिभूतत्वात् १, तथाऽधुनोपपनो नैरयिको निरयलोके निरयपालैः अम्बाम्बरीपादिभिः परमाधार्मिकैर्भूयो भूया=पुनः पुनः, अधिष्ठीयमानः आक्रम्यमाणो हन्यमान इत्यर्थः, मानुपं लोकं हव्यमागन्तुमिच्छेत् , किन्तु आगन्तुं नैव शक्नोति, निश्यपालैः पतिरुध्यमानत्वात् २,
पुनर्नरकान्मनुष्यलोके नैरयिकस्याऽऽगमनासमर्थत्वे कारणमाह-" अहुणो वबन्ने" इत्यादि-अधुनोपपन्नो नैरयिको निरयवेदनीये-वेदितुं योग्य वेदनीयं, निरये वेदनीयं निरयवेदनीय नरकानुभवनीय, तस्मिन् कर्मणि, अक्षीणे अनष्ट, है द्वितीय कारण में जो निरयपाल कहे गये हैं अम्ब अम्बरीष आदि परसाधानिक देव हैं और-ये असुरकुमार जाति के देव होते हैं । जय कोई नया नारक नरकलोक में उत्पन्न होता है तो ये उस पर आक्रमण करते रहते हैं मारते हैं आपस में एक दूसरे नारकों को कत्तों की भांति लडाते हैं, अतः-जब वह वहां की ऐसी स्थिति देखता है तो वह इस मनुष्यलोक में आने की कामना करता है परन्तु जो नहीं आ सकता है उसका यह दूसरा कारण है कि-उसे वे परमाधार्मिक निरयपाल रोक लेते हैं इसलिये उनके द्वारा प्रतिरुद्धमान होने से वह यहां मनुष्यलोक में चाहता हुवा भी नहीं आ पोला है २ । तीन कारण ऐसा है किनरक में भोगने योग्य जिस कर्म का चन्ध जीवने उस नये नारकी ने
- બીજા કારણનું નિરૂપણ–તે નરકેના અધિપતિ અમ્બ, અમ્બરીષ આદિ પરમાધાર્મિક દે હોય છે. તેઓ અસુરકુમાર જાતિના દેવ છે. જ્યારે કઈ ન નારક નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે પરમધાર્મિક દેવે તેના ઉપર આક્રમણ કરે છે–તેને મારે છે, તેઓ કૂતરાઓની જેમ નારકોને અંદરોઅંદર લડાવે છે. નરકમાં આ પ્રકારની સ્થિતિ જોઈને તે અધુને પપન્નક નારકને આ મનુષ્યલેકમાં આવવાની ઇચ્છા થાય છે, પરંતુ તે અહીં આવી શકતો નથી, તેનું કારણ એ છે કે તેને પરમધાર્મિક નિરયપાલે રોકી રાખે છે. આ રીતે તેમના દ્વારા પ્રતિરૂદ્ધમાન થવાને કારણે તે મનુષ્યલકમાં આવવાની ઈચ્છા થવા છતાં આવી શકતો નથી.
ત્રીજા કારણનું સ્પષ્ટીકરણ–નરકમાં ભેગવવા યોગ્ય જે કર્મને બંધ તે નવા નારકે કર્યો હોય છે, તેને જ્યાં સુધી તે પૂર્ણરૂપે ભોગવીને નિમ્ન કરી
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सुधा डीका स्था०४ उ० १ सू० ८ वनस्पतिनिरूपणम्
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अवेदिते=अननुभूते अत एव अनिर्जीर्णे = जीवमदेशेभ्योऽपरिशटिते ऽपृथक्भूते सति मानुषं लोकं हव्यमागन्तुमिच्छेत् परन्तु मानुषं लोकं हव्यमागन्तुं नैव शक्नोति, अवश्य वेदनीयना रक कर्म निगड निवद्धत्वात् ३ ।
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तथा एव " - मित्यादि - एवम् अनेन प्रकारेण, अधुनोपपन्नो नैरथिको निरयायुके - निरयो - नरकस्तद्भोग्यमायुः =प्राणधारणावधिकालो गर तन्निरयाssयुकं तस्मिन् निरयाssयु के कर्मणि अक्षीणेऽवेदितेऽनिर्जीर्णे च सवि निरयान्मानुषं लोकमागन्तुमिच्छति, परन्तु मानुषं लोकमागन्तुं नैव शक्नोति, स्वोपाजितकर्मणोऽक्षीणत्वाननुभूतत्वान्निर्जीर्णत्वेन बद्धकर्मणोऽवश्यभोग्यत्वादिति
परमार्थः ४ |
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इच्चे एहिं " - इत्येतैः, चतुर्भिरनन्तरोक्तः स्थानैः, अधुनोपपन्नो नैरयिको नैरयिलोके स्थितः सन् मानुषं लोकं हव्यमागन्तुमिच्छेत् परन्तु नैव हव्यमागन्तुं शक्नोति, उक्तकारणकलापात् ।
पूर्व नारकाणां स्वरूपमुक्त, ते च नारका असंयमजनकपरिग्रह -वशादुत्पद्यन्त इति द्विपक्षभूत परिग्रहविशेषं वज्जितुं साधीनां कल्पनीयवस्त्रविशेष दर्शयितुमाहकिया है जब तक उसे वह पूर्ण रूप से भोगकर निर्जीर्ण नहीं कर देता है तब तक वह नरकलोक से नहीं निकल सकता है, क्यों कि वह अवश्य वेदनीय नारक कर्मरूपी निगड वेडी से जकडा रहता है । तथा चतुर्थ कारण ऐसा है कि जो उस नये नारकी ने वहां की आयु का बन्ध किया है उसे भोगे विना वह वहां से नहीं निकल सकता है। इस तरह कद्र कर्म अवश्य भोग्य होने से वह वहीं रहता है वहां से बाहर नहीं आ सकता है । ८
जीव असयम जनक परिग्रह के वश से नारक रूप से उत्पन्न होते है इसलिये परिग्रह रहित माध्वी का कथन सुन्नकार प्रगट करते हैंकप्पंती " इत्यादि
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નાખતા નથી, ત્યાં સુધી તે નરકલેકમાંથી નીકળી શકતા નથી, કારણુ કે અવશ્ય વેદનીય નારક કરૂપ એડીથી તે જકડાયેલા રહે છે.
ચેાથા કારણનું નિરૂપણુ—તે નવા નારકે નરકાયુને જે અન્ય કર્યાં ડાય છે તેને ભેગન્યા વિના તે ત્યાંથી નીકળી શકતા નથી આ રીતે બદ્ધ ક અવશ્ય ભાગ્ય હાવાને લીધે તેને ત્યાંજ રહેવું પડે છે-ગમે તેટલી ઇચ્છા કરવા છતાં તે અહીં આવી શકતા નથી
અસયમજનક પરિગ્રહને કારણે જીવ નારક રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. હવે તેનાથી વિપરીત એવી પરિગ્રતુરહિત સાધ્વીનું સૂત્રકાર કથન કરે છે—
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स्थानाङ्गसूत्रे
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" कप्पंती " - त्यादि - " निर्ग्रन्थीनाम् " ग्रन्थो बन्धहेतुः - हिरण्यसुवर्णादिर्मिध्यात्वादिव तस्मान्निष्क्रान्ता निर्ग्रन्थयः ( शार्ङ्गवादेराकृतिगणतया छीन् ) तासां निग्रन्थीनां = साध्वीनां चतस्रः = चतुः संख्याः, संघाटयः = उत्तरीय वस्त्रविशेषाः, धारयितुं कल्पन्त इत्यन्ययक्रमः, ताचतुर्विधाः सङ्घाटीः क्रमेणोपदर्शयितुमाह" तद्यये " - त्यादि, एका = प्रथमा संघाटी, द्विहस्तविस्तारा - द्वौ हस्तौ विस्तारः आयामो दैर्ध्य यस्याः सा तथाभूता, सा कल्पते १, एवं ' दो -द्वे, तिहत्थवित्थारा - त्रिहस्तविस्तारे - त्रिहस्तप्रमाणाऽयामे संघाटयौ धारयितुं कल्पेते इत्यर्थः ३, “ एगाचउद्दत्थवित्थारा " - एका = अपरा चतुर्हस्तविस्तारा धारयितुं कल्पते, तत्र प्रथमा द्विहस्तविस्तारा संघाटी - उपाश्रये धारणीया १, द्वितीयतृतीये - त्रस्त विस्तारे द्वे कथिते, तत्रैका भिक्षाटनकाले धार्या, अपराच स्थण्डि•
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15.
हिरण्य सुवर्ण आदिरूप बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्वादिरूप अन्तरंग परिग्रह इन दोनों प्रकार के परिग्रह से साध्वीजन निष्क्रान्त रहित होते हैं अतः वे निर्ग्रन्थी कहलाती हैं। साध्वीजनों को चार उत्तरीय वस्त्रविशेष चादर कल्पनीय कहे गये हैं । दो हाथ की लम्बाई चौडाई होती है ऐसा जो उत्तरीय वस्त्र - चादर है वह प्रथम सङ्घाटी में लिया गया है। तीन हाथ की जिनकी लम्बाई चौडाई है ऐसे दो वस्त्र द्वितीय और तृतीय सङ्घाटी में लिये गये हैं। चार हाथ जिनकी लम्बाई चौडाई होती है - ऐसा एक वस्त्र चौथी सङ्घाटी में लिया गया है। ये चार चादर साध्वीजनों को धारण करने के योग्य कहे गये है, इनमें जो प्रथम प्रकार की सचाटी है वह तो उन्हें उपाश्रय में ही धारण करने योग्य कही गई है। द्वितीय और तृतीय प्रकार की जो सङ्कोटी हैं इन दोनों में एक भिक्षाटन के समय में धारण करने योग्य कही गई
" कप्पति ” इत्यादि - द्विस्य सुवाणु आदि ३५ माह्य परिस्थी मने મિમ્યાત્વ આદિ રૂપ અન્તર’ગ પરિગ્રહથી સાધ્વીએ રહિત હાય છે, તેથી તે સાધ્વીઓને નિગ્રંથીઓ કહેવામાં આવે છે. તે સાધ્વીઓને ચાર ઉત્તરીય વસ विशेष ( यार ) ये छे तेमने के यार संघाटीओ ( शाहरो ) ये छे, તેનુ` સૂત્રકાર હવે નિરૂપણ કરે છે—
(1) मे हाथनी समावाजा उत्तरीय वसने ( याहरने ) प्रथम संधाટીમાં પરિગતિ કરવામાં આવ્યું છે. (૨) ત્રણ હાથની લખાઈના એ વસ્રોને દ્વિતીય અને તૃતીય સંઘાટીમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. (૩) ચાર હાથની લખાઈવાળા એક વસ્ત્રને ચેાથી સઘાટીમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. આ ચાર પ્રકારની ચાદર સાધ્વીઓને ધારણ કરવા ચેાગ્ય કહી છે તેમાંથી જે પહેલા પ્રકારની સ'ઘાટી કહી છે, તે તે તેમને ઉપાશ્રયમાં જ ધારણુ કરવા ચૈગ્ય કહી છે. ખીજા અને ત્રીા પ્રકારની જે એ સ ઘાટીએ કહી છે તેમાંથી એક ભિક્ષા
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सुधा टीका स्था०४ उ० १ सू० ९ धनानस्वरूपनिरूपणम्
४२७ लभूमिगमनकाले ३, चतुर्थी चतुर्हस्तविस्तारा समवमरणे धारणीया, तदुक्तं च" संघाडीओ चउरो, तत्थ दुहत्था उपसमि । दुन्नि तिहत्थायामा.भिक्खट्टा एग एग उच्चारे । ओसरणे चउहत्या निसण्णपच्छायणी णेया।१।" इति, मु.८
छाया-संघाटयश्चतस्रस्तत्र द्विहस्ता उपाश्रये ! द्वे त्रिहस्ताऽऽयाने भिक्षायै एका उच्चारे चैका अवसरणे चतुर्हस्ता निषण्णमच्छादनी ज्ञेया ।१।" इति,
नारकत्वं ध्यानविशेषजनितं, तं जनयितुं च सङ्घाटयादिग्रहणमिति प्रसङ्गादयानस्वरूपमाह -
मूलम्-चत्तारि झाणा पण्णता, तं जहा-अट्टे झाणे १,रोद्दे झाणे२, धम्मे झाणे३, सुक्के झाणे, अहे झाणे चउबिहे पण्णत्ते तं जहा-अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ १, मणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ२, आयंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइ समण्णागए यावि भवइ३, परिजुसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ४ । अदृस्त णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहाकंदणया १, सोयणया२, तिप्पणया३, परिदेवणया४। सद्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-हिंसाणुबंधि १, मोसाणुबंधि २, तेणाणुबंधि३, सारक्खणाणुबंधि ४। रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-ओसण्णदोसे १, बहुदोसे २, अन्नाहै और दूसरी स्थण्डिलभूमि में गलन करने के समय में धारण करने योग्य कही गई है। और चौथी सङ्घाटी समवसरण में धारण करने योग्य कही गई है। उक्तञ्च-" संघाडीओ चउरो तत्थ" इत्यादि ॥ ८॥ ટનને સમયે ધારણ કરવા એગ્ય કહી છે અને બીજી સ્પંડિતભૂમિમાં ગમન કરતી વખતે ધારણ કરવા ગ્ય કહી છે, અને એથી સંઘાટી સમવસરણમાં धार ४२वा योग्य ही छे ४घु ५५ छ । “संघाडीओ चउरो तत्थ" त्याहि-सू. ८
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स्थानाशस्त्रे णदोसे३, आमरणंतदोसे ४ । धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा-आणाविचए १, अवायविचएर, विवागविचए३. संठाणविचए ४ । धम्मस्स णं झाणस्स पत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-आणालई १, निसग्गरुई२, सुत्तराई
ओगाढरूई ४ । धम्मस्स णं झाणस्ल चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा-वायणा १, पडिपुच्छणा २, परियणा३, अणुप्पहा४। धम्मस्ल णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा -एगाणुप्पेहा १, अणिच्चाणुप्पेहार, असरणाणुप्पेहा३, संसारागुप्पेहा ४ । सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तं जहा-पुत्तवियकसवियार १, एगत्तवियक्क अविवार २, सुहमकिरिय अणियही ३, समुच्छिन्नकिरिय अप्पडिवाई४।सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - अव्वहे १, असम्मोहे २, विवेगे ३, विउस्सग्गे ४ । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा--खंती१, मुत्तीर, अजवे३, मदवे ४ । सुक्कस्स णं झाणस चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा--अणंतवत्तियाणुप्पेहा १, विप्परिणामाणुप्पेहा २, असुभाणुप्पेहा ३, अवायाणुप्पेहा ४ ॥ सू० ९॥
नारकत्व ध्यानविशेष से जनित होता है अतः उस ध्यानविशेष को उत्पन्न करने के संघाटी आदि में ममता खूछा रखने से होता है सो इस प्रसंग को लेकर अब सूत्रकार ध्यान का स्वरूप करते हैं
નારકત્વ ધ્યાનવિશેષથી જનિત હોય છે, અને તે ધ્યાનવિશેષને ઉત્પન્ન કરનાર સંઘાટી (વસ્ત્રવિશેષ) આદિમાં મમતા-મૂચ્છ રાખવાથી તે ધ્યાનની ઉત્પતિ થાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ધ્યાનના સ્વરૂપનું नि३५५५ ४२ ई-" चत्तारि झाणा पण्णत्ता" त्यादि
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सुधा का स्था० ४ ७०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
४२९ छाया-चत्वारि ध्यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आतं ध्यानं १ रोद्रं ध्यानं २, धम्यं ध्यानं ३, शुक्लं ध्यानम् ४। आतं ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अमनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्तः, तस्य विनयोगस्मृतिसमन्वागतं चापि भवति १, मनोज्ञसंप्रयोगसम्पयुक्तः, तस्य अविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं वापि भवति २, आतसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तः, तस्य विमयोगस्मृतिसमन्वागतं चापि भवति ३, परिजुष्टकाममोगसम्प्रयोगसम्पयुक्तः, तस्य अविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं चापि भवति ।। भातस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-क्रन्दनता१, शोचनता २, तेपनता३, परिदेवनता४। रौद्रं ध्यानं चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-हिंसाऽनुवन्धि?
"चत्तारि शाणा पण्णसा" इत्यादि-१०
सूत्रार्थ-ध्यान चार कहे गये हैं, जैसे आर्तध्यान १ रौद्रध्यान २ धर्मध्यान ३ और शुक्लध्यान ४, इनमें आतध्यान चार प्रकार का कहा गया है जैसे अमनोज्ञ वस्तुओं का सम्प्रयोग सम्बन्ध होनेपर जो उसके साथ वियोग के लिये यार २ चिन्तवन होताहै वह आर्तध्यान का प्रथम मेद है १मनोज्ञ वस्तुओंकावियोग न होनेका वाररचिन्तवन करना यह आर्तध्यान का दूसरा भेद है २। आतङ्क से युक्त होने पर उससे वियोग होने का बार २ चिन्तवन करना यह तृतीय कक्षा का आतध्यान है ३ । प्राप्त हुवे कामभोग का अविनाश की तथा-नहीं प्राप्त हुवे पदार्थों की प्राप्ति के लिये पार २ चिन्तवन करना यह चतुर्थ अदवाला आर्तध्यान है ४ । आतध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे क्रन्दनता १ शोचनता २ तेपनता ३ और परिदेवनता ४ । रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे
सूत्रार्थ-ध्यान या२ २नु यु छ-(१) मात ध्यान, (२) रौद्रध्यान, (3) चमધ્યાન અને (૪) શુકલધ્યાન. તેમાંથી આર્તધ્યાનના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. (૧) અમનેણ વસ્તુઓને સંપ્રગ અથવા પ્રાપ્તિ થવાથી, તેનાથી વિગ થાય (તેનાથી છૂટી જવાય) એવું જે વાર વાર ચિન્તવન થયા કરે છે, તે પ્રકારના આર્તધ્યાનને પહેલા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે (૨) મનેઝ વસ્તુને કદી વિયોગ ન થાય એવું વારંવાર ચિન્તવન કરવું તે આર્તધ્યાનને બીજો ભેદ છે (૩) કઈ પણ પ્રકારના આતંક (રેગાદિ) થી યુક્ત થયેલ છે તેમાંથી છુટવા માટે વારંવાર જે ચિતવન કરે છે તેને આર્તધ્યાનના ત્રીજા ભેદમાં મૂકી શકાય છે. (૪) પ્રાપ્ત થયેલા કામભેગોના અવિનાશ માટે અને અપ્રાસ કામભેગોની પ્રાપ્તિ માટે વારંવાર ચિન્તવન કરવું તે આર્તધ્યાનને ચોથો ભેદ छे मात ध्यानना या२ वक्ष sai छ-(१) न्हनता, (२) शयनता, (3) तपनता मने (४) परिवहनता.
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स्थानाङ्गसूत्र मृपाऽनुवन्धि२, स्तेयानुवन्धि३, संरक्षणानुवन्धि ४ रौद्रस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञानि, तद्यथा-अवसन्नदोषः १, बहुदोपः २, अज्ञानदोषः ३, आमरणान्तदोपः ४| धम्य ध्यानं चतुर्विध चतुष्प्रत्यवतारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आशाविचयं १, अपायविचयं २, विपाकविचयं ३, संस्थानविचयम् ४॥ धर्म्यस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तयथा-आज्ञारुचिः १, निसर्गरुचिः २, सूत्ररुचिः ३, अवगाहरुचिः ४। धर्म्यस्य खलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बनानि प्रमप्तानि, तद्यथा-वाचना १, परिप्रच्छना २, परिवर्तना ३, अनुप्रेक्षा ४१ धय॑स्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकानुप्रेक्षा १, अनित्यानुपेक्षा २, अशरणानुप्रेक्षा ३, संसारानुमेक्षा ४। शुक्लं ध्यानं चतुर्विधं चतुष्पत्यवतारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पृथक्त्ववितकसविचारं १, एकत्ववितकोऽविचारं २, सूक्ष्महिंसानुबन्धी १ मृषानुबन्धी २ स्तेनानुबन्धी ३ और संरक्षणानुबन्धी ४। इम रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं, अवसन्नदाष १ बहुदोष २ अज्ञानदोष ३ और आमरणान्तदोष ४। धर्मध्यान के चार प्रकार कहे गये हैं, आज्ञाविचय १ अपायविचय २ विपाकविचय ३ और संस्थानविचय ४। इस धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे-आज्ञारुचि १ निसर्गकचि २ सूत्ररुचि ३ और-अवगाहरुचि ४ । धर्मध्यान के चार अवलम्बन कहे गये हैं, जैसे-चाचना १ परिपृच्छ ना २ परिवर्तना ३ अनुप्रेक्षा ४ । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं, जैसे-एकानुप्रेक्षा १ अनि त्यानुप्रेक्षा २ अशरणानुप्रेक्षा ३ और संसारानुप्रेक्षा ४
शेद्रध्यान पथ यार प्रा२नु उयुं छे-(१) डिसानुमाया, (२) भृषानुमधा, (3) स्नानुभधा भने (४) सक्षनुमची. मा शैद्रध्यानना २२ सक्ष नीय प्रभारी छ-(१) असतोष, (२) महोष, (3) अज्ञानहोष मन (४) (४) माभरान्तोष, मध्यानना ५१ यार ४१२ मा छ-(१) माज्ञावियय, (२) पायवियय, (3) विवियय भने (४) सयानवियय ! धर्म ધ્યાનના નીચે પ્રમાણે ચાર લક્ષણ કહ્યા છે-(૧) આજ્ઞારુચિ, (૨) નિસર્ગરુચિ (3) सूत्ररुथि माने (४) Aqढथि, मध्यानना यार अमन (मआधार)
॥ छ-(१) पायना, (२) परिछना, (3) परिवत ना मन (४) अनुप्रेक्षा. ધર્મધ્યાનની ચાર અનુપ્રેક્ષાઓ કહી છે–(૧) એકાનુપ્રેક્ષા, (૨) અનિત્યાનુપ્રેક્ષા (3) मशरणानुक्षा मन (४) संसारानुप्रेक्षा. -
शुसध्यानना ५५५ या२ प्र.२ ४ ॐ-(१) पृथ4 Qित सविया२, (२)
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सुधा डीका स्था० ४ उ०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
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क्रियाऽनिवर्ति ३, समुच्छिन्नक्रिया प्रतिपाति ४। शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ज्ञप्तानि तद्यथा - अव्ययम् १, असम्मोहं २, विवेकः ३, न्युत्सर्गः ४। शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - क्षान्तिः १, मुक्तिः २, आर्जवं ३, मार्दवम् 8| शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अनन्तवर्तिताऽनुप्रेक्षा १, विपरिणामानुप्रेक्षा २, अशुभानुप्रेक्षा ३ अपायाप्रेक्षा ४ ( . १०) ॥
" चत्तारि झाणा " इत्यादि - चत्वारि - चतुः संख्यानि, घ्यानानि ध्यायते - चिन्त्यते वस्तु यैरिति ध्यानानि = अन्तर्मुहूर्तमात्रं कालं चित्तस्थिरतारूपाणि उक्तं च - " अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाण मे गवत्थुम्मि | छउमत्थाणं, झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु |१| इति,
"
शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे- पृथक्त्ववितर्क सविचार १ एकत्ववितर्काविचार २ सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति ३ और समुच्छिनक्रियाप्रतिपत्ति ४ । इस शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे - अव्यथ १ असम्मोह २ विवेक ३ और व्युत्सर्ग ४ | शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं, जैसे- क्षान्ति १ मुक्ति २ आर्जव ३ और मार्दव ४ । शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई है, जैसे- अनन्तवर्तिताऽनुप्रेक्षा १ विपरिणामाऽनुप्रेक्षा २ अशुभऽनुप्रेक्षा ३ और अपायानुप्रेक्षा ४ ।
विशेषार्थ -- " ध्यायते वस्तु अनेनेति ध्यानं - " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा वस्तु का चिन्तन किया जाता है वह ध्यान है ध्यान एक अन्तर्मुहूर्त काल तक चित्त की स्थिरतारूप रहता है। कहा भी है अतो मुहमित्तं इत्यादि
એકત્લ વિતર્કો વિચાર, (૩) સૂક્ષ્મક્રિયા અનિતિ અને (૪) સમુચ્છિન્ન ક્રિયા અપ્રતિપાતિ શુકલધ્યાનના ચાર લક્ષણ નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે—(૧) અવ્યય, (२) अस भोड (3) विवेउ भने (४) व्युत्सर्ग,
શુકલધ્યાનના નીચે પ્રમાણે ચાર અવલખન કહ્યા છે-(૧) ક્ષાન્તિ, (૨) મુક્તિ, (૩) આર્જવ અને (૪) માઈવ શુકલધ્યાનની ચાર અનુપ્રેક્ષાઓ કહી ४- (1) अनंतवर्तिता अनुप्रेक्षा, (२) विपरियाभानुप्रेक्षा, (3) अशुलानुप्रेक्षा रमने (४) पायानुप्रेक्षा.
विशेषार्थी—“ ध्यायते वस्तु अनेन इति ध्यानम् " मी व्युत्पत्ति प्रमा જેના દ્વારા વસ્તુનું ચિન્તન કરાય છે, તેનું નામ ધ્યાન છે તે ધ્યાન એક અન્તમુહૂર્ત કાલ સુધીની ચિત્તની સ્થિરતારૂપ હાય છે.' કહ્યુ પણ છે કે— " अत्तो मुद्दत्तमित्तं " त्याहि
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स्थाना छाया-अन्तर्मुहूर्ते मात्र चित्तावस्थानमेकवस्तुनि । छद्मस्थानां ध्यानं, योगविरोधो जिनानां तु ॥१॥ प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-" अडे"-आतम्-श्रुतं-दुःखम् शरीरं मानसं च, उपचाराद्दुःखनिमित्तं वा, तत्र भवमार्तम् , ध्यानम्-ध्येयविषयेऽविच्छिन्नतैलधारावन्निरन्तरचित्तत्तिप्रवाहः १, " रोहे "-रोदयत्यपरानिति रुद्रो दुःखहेतुस्तेन कृतं तत्कर्म वा रौद्रं-हिंसाधतिक्रौर्यानुगतं ध्यानम् २, ___ध्यान जो चार प्रकार का कहा गया है उसमें सर्व प्रथम जो आतध्यानरूप पहला भेद बतलाया गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि-जो ध्यान शारीरिक या मानसिक दुःख के समय में, या शारीरिक मानसिक दुःख के निमित्त में होता है वह-आर्तध्यान है। ध्येय पदार्थ के विषय में अविच्छिन्नरूप से तैलधार की तरह जो चित्तवृत्ति का प्रवाह है, वह ध्यान है। यह ध्यान समस्त संसारी जीवों को होता है ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही है इसके बाद चित्तवृत्ति की धारा बदल जाती है। ऋत नाम दुःख का है जिस ध्यान के होने में दुःख का उद्वेग या तीव्रता निमित्त है वह आतध्यान है। रौद्र नाम क्रूर परिणामों को है जो ध्यान क्रूर परिणामों के निमित्त से होता है वह रौद्रध्यान है, यही बात "रोदयति परान् इति रुद्रः दुःखहेतुः, तेन कृतं तत्कर्म वा रौद्र" जो दूसरों को रुलाता है, वह रुद्र है दुःख का हेतु है इससे किया गया अथवा इसका जो कम है वह रौद्र है। ऐप्ता रौद्रध्यान हिंसा आदि अतिक्रूर
ધ્યાનના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેમનો આધ્યાન નમનો જે પહેલા પ્રકાર છે તેનું હવે નિરૂપણ કરવામાં આવે છે-“જે ધ્યાન શારીરિક અથવા માનસિક દુઃખને વખતે-અથવા શારીરિક કે માનસિક દુખને નિમિત્ત થાય છે. તે ધ્યાનનું નામ આર્તધ્યાન છે. દયેય પદાર્થના વિષયમાં અતૂટ તેની પારા જે જે ચિત્તવૃત્તિનો પ્રવાહ છે તેને ધ્યાન કહે છે. આ સ્થાનનો સદુભાવ સમરત સંસારી જીવમાં હોય છે. તેને કાળ અત્તમુદ્ર પર્યન્તને જ કહ્યો છે. ત્યારબાદ ચિત્તવૃત્તિની ધારા બદલાઈ જાય છે દુ:ખને “ઋત” કહે છે. જે ધ્યાન થવામાં છત (દુઃખ) ને ઉગ કે તીવ્રતા નિમિત્તરૂપ છે, તે ધ્યાનનું નામ આતધ્યાન છે કૂર પરિણામોને (મનોભાવોને) શૈદ્ર કહે છે. જે ધ્યાન કૂર પરિસ્થાને નિમિત્ત થાય છે, તે ધ્યાનને રૌદ્ર ધ્યાન કહે છે मे वात नायना सूत्रम 2 रीछ-" रोदयति परान् इति रुद्रः दु.खहेतुः, तेन तं-तत्कर्म वा रौद्र" २ अन्यने २७वे छे, 35 छे-दामना ४१२९५३५ છે તેના દ્વારા જે કરવામાં આવે છે અથવા તેનું જે કર્મ છે તે રૌદ્ર છે. એવું રૌદ્રધાન હિંસા આદિ અતિક્રૂર પરિણામોના નિમિત્તને લીધે થાય છે.
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सुघा टीका स्था० ४ उ०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
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धर्म्यम्-धर्मादनपेतं = युक्तं धर्म्य = श्रुतचरणादिधर्मोपेतमित्यर्थः, ध्यानम् शुक्लम् - शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं, शुच - शोकं वा क्लमयत्यपनयतीति निरुतया शुक्लं = मोक्षादिफलसाधकं ध्यानम् ४।
तत्राss ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अमनोज्ञसम्मंयोगसम्प्रयुक्तःअनिष्टशब्दादि सम्बन्धजनितः सम्प्रयोगः - सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुक्तः - सहितो यः पुरुषस्तस्य यत् " विष्पओगे " - त्यादि - विप्रयोगस्मृतिसमन्यागतं विप्रयोगःअनिष्टशब्दादिवियोगः, तस्य स्मृतिः - चिन्ता विप्रयोगस्मृतिः, तस्याः समन्वागतं = समन्वागमनं - संप्रापणं भवति तत् " चापि " इति वाक्यालङ्कारे एवं सर्वत्र १ परिणामों के निमित्त से होता है । इस कथन द्वारा व्यक्त की गई है। जो ध्यान शुभगग और सदाचरण का पोषक होता है वह धर्मध्यान है, अर्थात् श्रुत और चारित्र धर्म से सहित जो ध्यान है वह धर्मध्यान है मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है वह शुक्लध्यान है " शुक्लं शोधयति अष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं शोकं वा क्लमयति अपनयति शुक्लम् " जो आठ प्रकार के कर्ममल की शुद्धि कर देता है, अथवा शोक को दूर कर देता है वह शुक्ल है, ऐसा जो ध्यान है वह शुक्लध्यान है यह ध्यान मोक्ष आदि फल का साधक होता है। आर्तध्यान जो चार प्रकार का कहा गया है उसका वाच्यार्थ ऐसा है "अमनोज्ञ संप्रयोग संप्रयुक्तः" इत्यादि, अमनोज्ञ अनिष्ट जो शब्दादिकका संप्रयोग सम्बन्ध इस सम्बन्ध से सम्प्रयुक्त सहित जो पुरुष ऐसे पुरुष को दूर करने के लिये जो मन में एक प्रकार की निश्चलता का आना
જે ધ્યાન શુભરાગ અને સદાચરણનું પોષક હાય છે, તે ધ્યાનને ધમ ધ્યાન કહે છે. એટલે કે શ્રુત અને ચ ત્રિધર્માંથી યુક્ત જે ધ્યાન છે તેનું નામ ધધ્યાન છે. મનની અત્યન્ત નિર્મળતાને સદ્દભાવ હાય ત્યારે જે એકાગ્રતા थाय छे तेनुं नाम शुद्धसध्यान छे. “ शुक्ल - शोधयति - अष्टप्रकार कर्ममलं -शुचं शोकं वा क्लमयति- अपनर्यात शुक्लम् " नेना द्वारा आई अरना उभभवनी શુદ્ધિ થાય છે, અથવા જેના દ્વારા શાકને દૂર કરાય છે એવા ધ્યાનનું નામ શુકલધ્યાન છે. તે ધ્યાન મેક્ષ આદિ ફુલને પ્રાપ્ત કરાવનાર છે
હવે આ ધ્યાનના ચાર પ્રકાશનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે " अमनोज्ञसप्रयोगसप्रयुक्तः " इत्यादि -
अमनोज्ञ ( अनिष्ट-आयुगमता ) शब्दाहिना सप्रयोगथी ( समधथी ) ચુક્ત જે પુરુષ હાય, એવા પુરુષના ચિત્તમાં તે અમનેાસ વસ્તુને દૂર કરવા
स ५५
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स्थानामसूत्रे अयमर्थः-अमनोज्ञानां-शब्द-स्पर्श-रस-गन्धरूपाणामनिष्टानां सम्पयोगे-श्रोत्रत्वामना-घाण-चक्षुरिन्द्रियैः सह सम्बन्धे तविपयोगाय अनिष्टशब्दादिविषयदूरीकरणाय यः स्मृतिसमन्याहारः-स्मयत इति स्मृतिमन, तस्याः प्रणिधानरूपायाः समन्याहारः-समन्याहरणममनोज्ञशब्दादि विषयापगमोपाये मनसो निश्चलं व्यवस्थापन केनोपायेन शब्दाधनिष्टविषयेभ्यो वियोगः स्यादित्येकतानमनोनिवेशन तदातध्यानमिति प्रथमो भेदः १। ____एवं मनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्तस्य पुरुषस्य मनोज्ञशब्दादेरविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतरूपमार्तध्यानं विज्ञेयमिति द्वितीयो भेदः ।२।
" " आयंके "-त्यादि-आतङ्कसम्बयोगसम्पयुक्तः-आतङ्कयते कष्टेन जीव्यतेऽनेनेत्योतको-रोगः, तस्य सम्पयोगः नातपित्तकफजनितसम्वन्धस्तेन सम्प्रयुक्तः-सहितो यः प्राणी भवति तस्य यत् " विपयोगस्मृतिसमन्वागत"होता है (वही तद्विप्रयोगस्थतिसमन्बाहार है इसमें ऐसा ध्यान होता है) किस प्रकार से अनिष्ट शब्दादिक विषयों से मेरा सम्बन्ध छूटें इसके लिये जो मन में एक प्रकार की एकतानता एकाग्रता आती है वही इस आतध्यान का प्रथम भेद है। तात्पर्य केवल इसका ऐसा ही है कि अनिष्ट शब्दादिक का इन्द्रियादि के साथ सम्पर्क हो जाने पर उनके वियोग के लिये चिन्तासातत्य का होना यही प्रथम आर्तध्यान है मनोज्ञ शब्दादिक को वियोग हो जाने पर उनकी पासि के लिये सतत चिन्ता करते रहना यह दूसरा आतध्यान है। वात पित्त कफ जनित रोग से युक्त हुचे प्राणी का जो उस को दूर करने के लिये सतत માટે એક પ્રકારની નિશ્ચલતા આવી જાય છે (એ જ તદ્ધિ પ્રાગ સ્મૃતિ સમન્વાહાર છે, તેમાં આ પ્રકારનું ધ્યાન થાય છે ) તેના મનમાં એવો વિચાર આવ્યા કરે છે કે કેવી રીતે આ અમનેઝ શબ્દાદિ કોની સાથે મારો સંબંધ છૂટી જાય. તેને માટે મનમાં જે એક પ્રકારની એકાગ્રતા આવી જાય છે, એજ આ આર્તધ્યાનને પહેલે ભેદ છે. આ કથનને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે
. અનિષ્ટ શબ્દાદિકને ઇન્દ્રિયાદિની સાથે સંપર્ક થવાથી તેમના વિયેગને માટે તેમાંથી મુક્ત થવાને માટે ચિત્તમાં એક પ્રકારની ચિન્તવના સતત ચાલ્યા કરે છે, એ જ આર્તધ્યાનના પ્રથમ ભેદરૂપ છે.
આર્તધ્યાન બીજે ભેદ–મનેશ શબ્દાદિકને વિયોગ થવાથી તેમની પ્રાપ્તિને માટે સતત ચિન્તવન કર્યા કરવું, તે આર્તધ્યાનના બીજા ભેદરૂપ સમજવું.
આર્તધ્યાનને ત્રીજો ભેદ–વાત, પિત્ત અને કફજનિત રોગથી પીડાતે જીવ તેમાંથી મુક્ત થવા માટે જે સતત ચિત્તવન કર્યા કરે છે (મારો આ
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सं०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् विपयोगः-कासश्वासायातकस्य परिदारः, तस्मै या स्मृतिः-" ममाऽऽतङ्कस्यायं सम्प्रयोगः कथं नश्ये-" दित्यादिरूपा चिन्ता, तस्याः समन्वागत-सम्पापणं भवति, तत् तृतीयमातध्यानम् , अयमर्थः-कासश्वासायातकविषयाणां वियोजनेदरीकरणे या स्मृतिश्चिन्ता तस्याः समन्वागत-समन्याहारः केनोपायेनानिष्टका सश्वासाद्यातङ्केभ्यो वियोगः स्या'-दित्येकतानमनोनिवेशनं तत् तृतीयमातध्यानमित्यर्थः ३। ___ " परिजुसिये"-त्यादि-तथा परिजुष्टकामभोग संप्रयोगसंपयुक्त:-काम्यन्ते -प्रार्थ्यन्त इति कामाः कमनीयाः शब्दादयः परिजुष्टाः निषेविताश्च ते कामाः परिजुष्टकामास्तेषां भोगा=अनुभवस्तत्य सम्मयोगः सम्बन्धस्तेन सम्पयुक्तः सहित, ___ यद्वा-काम्ये ते इति कामौ-शव्द रपे, तौ च भुज्यन्ते-प्राणादिविषयीक्रियन्त इति भोगाः गन्ध-रस-स्पीश्वेति कामभोगाः, परिजुष्टाश्च ते कामभोचिन्ता करना कि यह रोग अब मेरा कैले नष्ट होगा यह तृतीय आर्तध्यान है तात्पर्य इसका ऐसा है-कि कास श्वास आदि आनङ्कों के आ जाने पर उनको दूर करने के लिये ऐसा विचार बार २ आता है कि यह रोग किस उपाय से शान्त होगा इस प्रकार से जो मन में एकाग्रता (एकतानता) आती है यह तृतीय आर्तध्यान है। जो पुरुषनिषेचित शब्दादिरूप कामों के अनुभव से सम्बद्ध होता है ऐसे पुरुषों की उनके अनपगम निमित्त जो पार २ विचारधारा आती है वह आतध्यान का चाथा मेद है, अथवा-काम शब्द से शब्द और रूप तथा भोग शब्द से गन्ध रस, और स्पर्श इनका ग्रहण हुधा है सो इस રોગ કેવી રીતે નષ્ટ થશે, હું કયારે આ રોગમાંથી છૂટીશ ઈત્યાદિ રૂપ તેની વિચારધારા સમજવી) તેને આ ત્રીજા ભેદમાં મૂકી શકાય છે. એટલે કે દમ, જવર આદિ રોગોથી પીડાતી વ્યક્તિના મનમાં એવા વિચારે વારંવાર આવ્યા કરે છે કે “મારે આ રેગ કયા ઉપાયથી શાન્ત થશે ”, તેને મનમાં આ પ્રકારની એકાગ્રતા આવી જાય છે. મનની આ પ્રકારની એકાગ્રતાને આર્તધ્યાનના ત્રીજા ભેદરૂપે અહી પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે.
આર્તધ્યાનને ચે ભેદ–મજ્ઞ શબ્દાદિરૂપ કામગથી યુક્ત પુરુષ, તે મને કામભેગેને કદી પણ વિયાગ ન થાય તે મરૂ કામ સાથે પિતાને સંબધ હમેશા ચાલુ જ રહે, એવું જે વારંવાર ચિન્તવન કર્યા કરે છે, તેને અહીં આર્તધ્યાનના ચેથા ભેરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. ''
અથવા–કામપદથી શબ્દ અને રૂ૫ ગૃહીત થયેલ છે અને લેગ શબ્દથી ગંધ, રસ અને સ્પર્શ ગૃહીત થયેલ છે. આ પ્રકારના કામથી યુક્ત
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'स्थानासूत्रे
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गाश्चेति परिजुष्टकामभोगास्तेषां सम्प्रयोगः परिजुष्टकामभोगसम्प्रयोगस्तेन सम्प्रयुक्तो यः स तथाभूतः पुरुषस्तस्य यत् " अविमयोगस्मृतिसमन्वागतम् " - अविप्रयोगः - कामभोगानामनपगमः संयोग इत्यर्थः, तस्मै या स्मृतिश्चिन्ता, तृस्या यत् समन्वागतं - समन्वागमनमिति चतुर्थमार्तध्यानमिति चतुर्थो भेदः ४ । अथाssध्यानस्य लक्षणान्याह - " अहस्से "त्यादि - आर्तस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञतानि, तद्यथा - क्रन्दनता - चीत्कारः हा मातः ! ह्रा तात !' इत्यादिरूपा, दीर्घशब्देन विलपनमित्यर्थः १ ।
"
शोचनता - शोचतीति शोचनस्तस्य भावः शोचनता - शोककरणम् २ | तेपऩता - अश्रु विमोचनम्, तिपेः क्षरणार्थत्वात् ३ । परिदेवनता - रोदनपूर्वक संभाषणमिति ४ ।
एतानि च लक्षणानीष्टवियोगा निष्टसंयोग रोगवेदनाजनितशोकयुक्तस्य पुरुषस्य भवन्ति, यत आह
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तस्सव कंदणसोयण- परिदेवण-ताडणाई लिंगाई । वाणिवियोगावियोग वियणानिमित्ताई । १ । " इति,
तरह परिजुष्ट काम और भोगों के सम्बन्ध से युक्त मनुष्य का उनसे संयोग निमित्त जो बार २ चिन्तवन करना है वह आर्तिध्यान का चौथा भेद है । आध्यान के ये चार लक्षण कहे गये हैं, हा मातः १ हा पितः १ इत्यादिरूप जो चीत्कार है उसका नाम क्रन्दनता है क्रन्दन में दीर्घ शब्द से विलाप होता है। शोक करना इसका नाम शोचनता है यह इसका दूसरा लक्षण है । अशुओं ( आंसुओं) का बहाना जिसमें होता है उसका नाम तेपनता है। रोते रोते संभाषण करना इसका नाम परिમનુષ્ય, તેમના સંચાગ નિમિત્ત જે વારવાર ચિન્તવન કર્યાં કરે છે, ते માત ધ્યાનના ચાથા ભેદમાં પરિગણિત થાય છે.
આધ્યાનના નીચે પ્રમાણે ચાર લક્ષણ કહ્યાં છે—(૧) ‘ કૅન્સનતા ’ " हे भा! हे पापा ! छत्यादि ३५ ने बिहार थाय छे, तेनु' नाम उन्हनता छे. મા કન્દનમાં દીર્ઘ શબ્દથી વિલાપ થતા હોય છે. (૨) ‘શાચનતા ’શેાચનતા छोटो शा४ ४२वा ते. आत ध्यानतु भी लक्षण छे. (3) ‘तेपनता ’ • તેપના ’ એટલે આંસુ સારવાની ક્રિયા. આ આંસુ સારવાની ક્રિયારૂપ તેપનતા માતુ ધ્યાનનું ત્રીજું લક્ષણ છે (૪) ‘ પિરવેદ્રનતા ' રાતાં રાતાં સંભાષણ કરવું તેનુ નામ પિરવેદના છે. આ લક્ષણેાના સદ્દભાવ ઇના વિયેાગ, અનિષ્ટને
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सुधा डीका स्था०४ ४०१ सू०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् छाया"
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तस्याऽऽक्रन्दन - शोचन - परिदेवन - ताडनानि लिङ्गानि । इष्टानिष्ट वियोगावियोग वेदनानिमित्तानि । १ ।
इति,
अथ रौद्रध्यानं विभजते - "रोदे झाणे " इत्यादि - रौद्रं ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञसम्, यथा-हिंसाऽनुवन्धि - हिंसा मनुबध्नातीत्येवंशीलं हिंसाऽनुबन्धि= प्राणिपी डास तमवृत्तिकरणजीलं प्रणिधानमित्यर्थः यद्वा - अनुबन्धनमनुबन्धः, हिंसाया अनुबन्धः=सम्बन्धः हिंसाऽनुबन्धः सोऽस्त्यस्मिन्निति हिंसाऽनुवन्धि रौद्रध्यानम्, देवनता है, ये लक्षण चिह्न इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग और रोग वेदना से जनित शोक से युक्त पुरुषको होते है । सो ही कहा गया है16 'तस्स क्कंदणसोयण " इत्यादि १
16
रौद्रध्यान के विषय में कथन रोदे झाणे " इत्यादि रौद्रध्यान जो हिंसानुबन्धी आदि के भेद से चार प्रकार का कहा गया है सो उनका अभिप्राय ऐसा है जिस प्रकार आर्तध्यान का मुख्य आधार पीडा है यह पीडा अनिष्ट वस्तु का संयोग इष्ट वस्तु का वियोग और प्रतिकूल वेदना आदि कारणों में से किसी एक के निमित्त सेवा करती है । इसलिये निमित्त से आर्तध्यान के
भेद कहे गये हैं, इसी प्रकार से रौद्रध्यान का मूल आधार क्रूरता है । जिसका चित्त क्रूर कठोर होता है वह रुद्र है, ऐसा जो ध्यान है वह रौद्रध्यान है । इस क्रूरता को आत्मा में उत्पन्न करनेवाले हिंसा चोरी और विषय संरक्षण ये चार निमित्त लिये गये हैं । इसीलिये ध्यान के चार भेद हुवे हैं, जिस ध्यान में प्राणियों को पीडा देने में સચેગ અને રાગવેદનાથી જનિત શાકયુક્ત મનુષ્યમાં હોય છે. એ જ વત ' तरस कंदण सोयण "त्यादि सूत्रपाठ द्वारा व्यस्त था छे.
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રૌદ્રધ્યાનનુ નિરૂપણુ——રૌદ્રધ્યાનના હિંસાનુખ ધી આદિ ચાર ભેદ છે. "रोदे झाणे " त्याहि-प्रेम साध्याननो मुख्य आधार पीडा हो भने ते પીડા અનિષ્ટ વસ્તુઓના સચેાગ, ઇષ્ટ વસ્તુઓના વિયેાગ, અને પ્રતિકૂળ વેદના આદિ કારણેામાંથી કેાઈ એક કારણે થયા કરે છે, અને તેથી નિમિત્તભેદની અપેક્ષાએ આતધ્યાનના ચાર પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે, એ જ પ્રમાણે રૌદ્ર ધ્યાનના મુખ્ય આધાર ક્રૂરતા છે જે ચિત્ત ક્રૂર ( કફ઼ાર ) હાય છે તે રૂદ્ર કહેવાય છે. અને તે પ્રકારના આત્માનને રૌદ્રધ્યાન કહે છે. આત્મામાં આ ક્રૂરતા ઉત્પન્ન કરનારા હિંસા, ચારી, અસત્ય અને વિષય-સરક્ષણુરૂપ ચાર નિમિત્ત ખતાવ્યાં છે. તે કારણે રૌદ્રધ્યાનના ચાર ભેદ પડે છે, જે ધ્યાનમાં જીવાને પીડા પહોચાડવાના વિચાર ( પ્રણિધાન ) નિરન્તર ચાલ્યા કરે છે.
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Earrin
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छाया
उक्तश्च- " सत्तवहवेहवंधणडणं कणमारणाइपडिहाणं । अइकोग्गहत्थे णिग्विण मण सोऽहमविवागं ॥ १ ॥ " इति, -" सत्ववधवेध - बन्धन - दहनाऽङ्कन - मारणादि प्रणिधानम् । अतिक्रोधग्रहग्रस्तं निर्घृण मनसोऽयमविपाकम् । २ । ” इति । " मृषाऽनुवन्धि "- मृषाऽनुबध्नातीत्येवंशीलं = पिशुनाऽसभ्याऽसद्भूतादिभिवचनविशेषैरसत्यानुबन्धि प्रणिधानम्, तदाह च -
"
(6 पिसुणाऽसभासम्भूयघायाश्वयणपणिहाणं ।
मायाविणोऽति संघणपरस्स मच्छन्नपावस्त | १ | इति । छाया - " पिशुनाऽसभ्याऽसद्भूतघातादि वचनप्रणिधानम् । मायाविनोऽतिसन्धानपरस्य प्रच्छन्नपापस्य । १ । " इति ।
“ स्तेयानुबन्धि ”–स्तेन'–चौरस्तस्य भावः कर्म वा स्तेयम्, तदनुवन्नातीत्येवंशीलं तथाभूतम् = तीव्रक्रोधाद्याकुलतया चौर्यानुवन्धनशील मित्यर्थः, तथा चोक्तम्
निरन्तर प्रणिधान (विचार) होता है अथवा हिंसा का अनुबन्ध सम्बन्ध जिस ध्यान में होता है, ऐसा वह ध्यान हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। तात्पर्य यह है कि हिंसा करने में आनन्द मानना यह हिसानुबन्धी आर्तध्यान है, कहा भी है- " सत्तवहवेह बंधण " इत्यादि १
पिशुन - असभ्य असद्भूत आदि वचन विशेषों द्वारा असत्यानुबन्धी जो प्रणिधान (चिन्तन) है वह मृवानुबन्धी द्वितीय आर्तव्यान है। कहा भी है- "पिसुणाऽसन्भासम्भूय" इत्यादि १
स्तेयानुबन्धी- स्तेन नाम चोर का है, इस चोर का जो भाव अथवा कर्म है वह स्तेय है इस स्तेय का अनुबन्धवाला जो प्रणिधान चिन्तन है वह स्तेयानुઅથવા જે ધ્યાનમા હિંસાના અનુખધ ( સંબંધ ) સતત ચ લુ રહે છે, ધ્યાનને હિંસાનુબંધી રોદ્રધ્યાન ' કહે છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે હિંસા કરવામાં આનંદ માનવા, તે હિંસાનુખ ધી આર્તધ્યાન છે. કહ્યુ પણ છે - " सत्तवहवेहवधण " इत्यादि....। १ ।
તે
"
પિશુન-અસભ્ય-અસત્કૃત માદિ વચનવિશેષ દ્વારા અસત્યાનુખશ્રી જે अविधान ( चिन्तन ) थाय छे, तेने भृषानुषधी रौद्रध्यान हे छे. या रौद्रध्याननो मीले लेट समन्वा, धुंछे - " पिसुणा सभासभूय " त्याहि-3 (3) स्तेयानुमधी - स्तेन भेट योर ते थारना अर्थने स्तेय मुंडे छे. मा स्तेय ( थोरी ) ना अनुमधवाणु के अशिधान ( चिन्तन ) छे, ते તૈયાનુખ શ્રી રૌદ્રધ્યાન કહે છે. આ સ્થાનને રૌદ્રધ્યાનના ત્રીજો લેત સમજવા. -“a fasrstedter ” Kulla—
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सुषा टीका स्था०४ ७०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
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" तह तिव्यकोहलोहाउलस्स भूतोवधायणमणज्जं । .
परदव्वहरणचित्तं परलोगाचायनिरवेक्ख । १ । इति, छाया-" तथा तीव्रक्रोधलोभाऽऽकुलस्य भूतो पघातनमनार्यम् ।
परद्रव्यहरणचित्तं परलोकापायनिरपेक्षम् । १ ।" इति, ३ । " सरक्षणानुवन्धि"-सरक्षण-सं-सम्यक्'- सपिायैः रक्षण-परित्राणं, तत्र विषयसाधनधनरयानुवन्धः संरक्षणानुबन्धः, सोऽरत्यस्मिन्निति संरक्षणानुवन्धि रौद्रध्यानम् , तदुक्तम्
" सदाइ विसयसाहणधणसंरक्खणपरायणमणिट्ट ।
सवाहिसंकणपरोवघायकलुसाउल चित्तं । १ ।" इति । छाया-" शब्दादिविपयसाधनधनसंरक्षणपरायणमनिष्टम् ।
सर्वाभिशङ्कनपरोपघावकलपाऽऽकुल चित्तम् । १।" इति ४ । ___ अथ रौद्रध्यानस्य लक्षणान्याह-" रुदस्स णं " इत्यादि - रौद्रस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-ओसन्नदोपः-' ओसन्नम् ' इति पचुरार्थवाचको देशीयशब्दस्तेन हिंसामृपादीनामन्यतमस्मिन् प्रवृत्तेः माचुय, तदेव बन्धी आर्तध्यानका तृतीय भेद है। कहा भी है-" तह तिव्व कोहलोहा" इत्यादि १ तात्पर्य इसका ऐसा है कि तीव्र क्रोध मान माया एवं लोभ से आकुल हुवे पुरुष का जो चोरी करने का अनुबन्धशील प्रणिधान (परिणाम ) है वह स्तेयानुबन्धी आर्तध्यान है इस आतध्यानवाला प्राणी चोरी करने में ही आनन्द मानता है। जिस ध्यान में विषय साधनभूत धन के संरक्षण करने का अनुबन्ध रहता है ऐसा वह ध्यान संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है। कहा भी है-"सदाइ विसयसाहण" इत्यादि रौद्रध्यान के लक्षण इस प्रकार से है-"ओसन्न दोषः" हिंसादिक पापों में से किसी एक में प्रवृत्ति की प्रचुरता का होना यह ओसन्न
આ સૂત્રને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–તીવ્ર, ક્રોધ, માન, માયા અને લેશથી આકુળવ્યાકુળ થયેલા પુરુષનું જે ચોરી કરવાના અનુબધશીલ પ્રણિધાન (પરિણામ) છે, તેને તેયાનુબી શૈદ્રધ્યાન કહે છે. આ રૌદ્રધ્યાનવાળો માણસ ચોરી કરવામાં જ આનંદ માને છે (૪) જે ધ્યાનમાં વિષયસાધનભૂત ધનના સંરક્ષણને અનુબંધ રહે છે, તે ધ્યાનને સંરક્ષણાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન કહે छ. ४ ५ छ -“ सद्दाइ विसयसाहण" त्यादि
शैद्रध्यानन क्ष! नाय प्रभा छ-" ओसन्नदोषः" डिसा पाचમાંથી કઈ એકમાં પ્રવૃત્તિની પ્રચુરતા છેવી, તેનું નામ “એસન્નદેષ છે.
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स्थानानसूत्रे
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दोषः = दूषणम् = हिंसाद्ये कतरस्मिन् प्रवृत्तिरूपो दोष इत्यर्थः १, बहुदोपः - हिंसामृपादिसर्वेषु दोषः - प्रवृत्तिरूपः स तथा २, अज्ञानदीप:- अज्ञानात् - कुशाखसंस्काराद हिंसामुपादिध्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्धयाऽभ्युदयाय प्रवृत्तिस्वरूपोऽज्ञानदोषः, यद्वा • हिंसादिप्रवृत्तिलक्षणमज्ञानमेव दोषोऽज्ञानदीपः ३, आमरणान्तदोषः - " मरणमेवान्तो मरणान्तः, तमभिव्याप्याऽऽमरणान्तात्मरणपर्यन्तमित्यर्थः, असमुत्पन्नपश्चात्तापस्य कालसौकरिकादेखि या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः ४ |
--
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"
अथ धध्यानस्वरूपमाह - " धम्मे झाणे " इत्यादि - धर्म्यं ध्यानं चतुविधं चतुष्प्रत्यवतार - चतुर्षु - भेदलक्षणाऽऽलम्बनाऽनुप्रेक्षारूपेषु पदार्थेषु प्रत्यव - दोष है । " ओसन्न यह प्रचुरतार्थ वाचक देशीय शब्द है, । “बहु दोषः " हिंसादिक समस्त पापों में प्रवृत्ति का होना यह चदोप है, अज्ञानदोषः "" अज्ञान से कुशास्त्र के संस्कार से अधर्मरूप तथानरकादि गतियों के कारणभूत ऐसे हिंसादिक पापों में धर्म समझ कर अपने अभ्युदय के निवृत्ति प्रवृत्ति का होना यह अज्ञान दोष है, अथवा - हिंसादिकों में जो प्रवृत्ति होती है वही अज्ञानरूप दोष है ।
""
" आमरणान्तदोषः " काल सौकरिक नामके कसाई आदि सदृश असमुत्पन्न पश्चात्तापवालों का मरण पर्यन्त हिंसादिकोंमें प्रवृत्तिका होते रहना यह आमरणान्तदोष है ।
66
धर्मध्यान का स्वरूप भेद लक्षण आलम्बन और अनुप्रेक्षा इन चार पदार्थों में विचारणीय होने से चतुष्प्रत्यवतार वाला (चार भेदरूपवाली ) कहा है। इसके ये चार भेद हैं आज्ञाविचय, ओसन्न " श्या यह अथुरताना अर्थभां गामही भाषामा वपराय छे. ' बहुदोष: ' हिंसाहि समस्त पापोभां प्रवृत्त थर्बु तेनुं नाम 'महुद्देोष' छे. 'अज्ञानदोषः ' અજ્ઞાનને કારણે કુશાસ્ત્રના સસ્કારના કારણે નરકાદિ ગતિયાના કારણરૂપ હિંસાદિક પાપેને ધમ માનીને તેનું આચરણ કરવું-એવા અધમ રૂપ કાર્યોંમાં પ્રવૃત્ત થવુ તેનું નામ અજ્ઞાનદોષ છે. અથવા હિંસાદિકામાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે તેનું नाम अज्ञानहोष छे " आमरणान्तदोष: " अवसौरि महिनी प्रेम अस મુત્પન્ન પશ્ચાત્તાપવાળાની (જેમને હિંસાદિ કરવા માટે પશ્ચાત્તાપ જ થતા નથી એવાની ) મરણ પન્ત હિંસાદિકામાં જે પ્રવૃત્તિ રહે છે તેનું નામ આમરણાન્તદોષ છે.
ધર્મ ધ્યાનનું નિરૂપણુ—ધમધ્યાનનું સ્વરૂપ ભેદ, લક્ષણ, આલમ્બન અને અનુપ્રેક્ષા, આ ચાર ખાખતેની અપેક્ષાએ વિચારણીય હાવાથી તેને ચાર ભેદવાળું પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે.
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सुधा टीका स्था० ४ २०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् तास समवतारो:विचारणीयत्वेन यस्य तत्तथोक्तं, प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आज्ञाविचयम्=आ-अभिविधिनाऽर्थी ज्ञायत्तेऽनया, साऽऽज्ञा=सर्वज्ञप्रवचनं, सा . विचीयते, यस्मिन्नित्याज्ञाविचयं धर्मध्यानम् , " आज्ञा विजयम् ", इतिच्छायापक्षे तु-- आझा विजीयते-अधिगमद्वारेण परिचीयते यस्मिन्निति तथाभूतम् १, ... अपायविचय, विपाकविचथ, और संस्थानविचय आज्ञा अपाय विपाक, और संस्थान, इनकी विचारणा के निमित्त जो मन को एकाग्र, करना होता है वह धर्मध्यान है इन निमित्तों के भेद से ये धर्मध्यान के भेद हुवे हैं। आज्ञाविचय में आ-ज्ञा-विचय ऐसे ये तीन शब्द हैं, आअभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुवा है। जिसके द्वारा अभिविधि (विधि पूर्वक') पदार्थ जाने जाते हैं वह आंज्ञो है ऐसी वह आज्ञा सर्वज्ञ प्रवचनरूप यहां गृहीत हुई है जिस ध्यान में यह सर्वज्ञ प्रवचनरूप आज्ञा विचारी जाती है ऐसा वह ध्यान आज्ञाविचय नाम का धर्मध्यान है। किसी भी पदार्थ का विचार करते समय ऐसा मनन करना कि इस विषय में जो जिनदेव की आज्ञा है, वह प्रमाण है, अथवा ऐसा पता लंगाने के लिये कि-बीतराग तथा संर्वज्ञ पुरुष की क्या आज्ञा है ३ और. कैसी होनी (भी) चाहिये इसकी परीक्षा करने के लिये जो मनोयोग. दिया जावेगा वह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। ऐसा यह अर्थ " आज्ञा
. . मयानना या२ मे नीय प्रभा,-(१) माशावियय (२) मपाय. वियय, (3) विवियय 4 (४) संस्थान वियय, माज्ञा, अपाय, વિપાક અને સંસ્થાનની વિચારણા નિમિત્તે મનને જે એકાગ્ર કરવામાં આવે છે, તે એકાગ્રતાનું નામ જ ધર્મધ્યાન છે. આ નિમિત્તોના ભેદથી તેના ચાર १४२ FAL, छ.. . .
. . . . . . ।। ... म + + वियय = माज्ञावियय. " 'मलिविधिः ममा પ્રયુક્ત થયેલ છે. “જ્ઞા” એટલે જાણવું જેના દ્વારા પદાર્થને વિધિપૂર્વક જાણી શકાય છે, તેનું નામ “આજ્ઞા” છે. એવી તે આજ્ઞાને અહીં સર્વજ્ઞપ્રવચન રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે જે ધ્યાનમાં આ સર્વજ્ઞપ્રવચન રૂપ આજ્ઞાને વિચાર કરવામાં આવે છે, એવા ધ્યાનને આજ્ઞાવિય નામનું ધર્મધ્યાન કહે છે. અથવા-કેઈ પણ પદાર્થને વિચાર કરતી વખતે એવું મનન કરવું કે આ વિષયમાં જિનદેવની જે આજ્ઞા છે, એ જ પ્રમાણભૂત છે, અથવા તે વિષે સર્વજ્ઞ પુરુષની શી આજ્ઞા છે અથવા શી આજ્ઞા હોવી જોઈએ તેની ખાતરી કરવા માટે મનમાં જે વિચારધારા (પ્રણિધાન) ચાલુ થાય છે તેને જ આજ્ઞા
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स्थानाशास्त्र - " अपायविचयम् "-अपायाः-विपदः शरीरमानसानि दुःस्वानीत्यर्थः, ते विचीयते-पालोच्यन्तेऽस्मिन्नित्यपायविचयम् = प्राणिनां रागद्वेषादिजनितहिकपारलौकिकानर्थविचाराऽऽश्रयीभूतम् २, ___विपाकविचयम्" -विशिष्टः पाको विपाकः-ज्ञानावरणीयादि कर्मणां फलं, स विचीयतेऽत्रेति तथाभूतम्-कर्मफलविवेचनाऽऽश्रयीभूतमित्यर्थः ३, विजय" इस छाया पक्ष को आश्रित करके किया गया है, शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का नाम अपाय है ये अपाय जिसमें पर्यालोचित हाते हैं ऐसा वह ध्यान अपायविचय धर्मध्यान है । अर्थात् इन शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से छुटकारा कैसे हो इस विचार में मनोयोग देना यह द्वितीय भेद धर्मध्यान का है । तात्पर्य इसका ऐसा है कि जीवों कों जो शारीरिक एवं मानसिक दुःखादि होते हैं वे केवल रागद्वेष आदि से होते हैं और ये रागद्वेष आदि सब इस जीव को इस लोक में और परलोक में अनर्थ उत्पादक होते हैं इस प्रकार का विचारवाला धर्मध्यान का द्वितीय भेद होता है । अथवा-जी सन्मार्ग पर न होकर मिथ्यामार्ग पर स्थित है उसका मिथ्यामार्ग से छुटकारा कैसे हो ? इस दिशा में सतत विचार करना यह भी उपायविचय धर्मध्यान है। विशिष्ट परिशीलन (विपाक ) का नाम विपाक है अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि वियय भध्यान ४ छ. " आज्ञा विजय " मा ४२नी भाशाविययनी સંસ્કૃત છાયાને આધારે આ અર્થ નકકી કરવામાં આવ્યું છે. - या मन मानसिमानु नाम 'पाय' छे. ते अपायनु २ ધ્યાનમાં પ્રણિધાન (ચિન્તન) કરવામાં આવે છે, તે ધ્યાનને અપાયવિચય ધર્મધ્યાન કહે છે. એટલે કે આ શારીરિક અને માનસિક દુખેમાંથી કેવી રીતે મુક્ત થઈ શકાય તેને વિચાર કરવામાં ચિત્તને એકાગ્ર કરવું તેનું નામ અપાયવિચય ધર્મધ્યાન છે. આ અપાયવિચય ધર્મધ્યાનમાં જીવને એ વિચાર થયા કરે છે કે “રાગદ્વેષ આદિને કારણે જ આ શારીરિક અને માનસિંક દુઃખે ઉત્પન્ન થાય છે. આ રાગદ્વેષ જ આલોક અને પરલોકમાં જીવનું અકલ્યાણ કરે છે. તેને કારણે જ અનેક પ્રકારના અનર્થ પેદા થાય છે.” આ પ્રકારનું જે સ્થાન છે તેને પણ અપાયવિય ધર્મધ્યાન કહે છે. અથવા-જે જીવ સન્માર્ગને બદલે મિથ્યામાગે ચડેલે હોય, એ જીવ મિથ્યા માર્ગેથી ટવાને માટે મનમાં જે સતત વિચાર કર્યા કરે છે તેને પણુ અપાયવિચયધમયાન કહે છે,
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सुपा टीका स्था०४३०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ____ "संस्थानविच यम्" इति-संस्थानानि-लोकस्य द्वीपसमुद्राणां चाऽऽकारविशेषाः, तानि विचीयन्ते-चिन्त्यन्तेऽत्रेति तथाभूतं धर्म्यध्यानम् ४। उक्तं चात्र
" आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञाविचयस्तदर्थनिर्णयम् ।
आश्रवविकथागौरव परिषहाद्यैरपायस्तु । १ । अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचयः स्यात् । , .
द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु । २।" इति । अथ धय॑ध्यानलक्षणान्याह-" धम्मस्स इत्यादि-धर्मस्य खलु ध्यानस्य कर्मों के फल को जिसमें विचार होता है ऐसा वह ध्यान विपाक विचय है तात्पर्य इसका ऐसा है कि अनुभव में आने वाले विपाकों में से कौन कौनसा विपाक किस किस कर्म का फल है, तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक संभव है इस प्रकार के विचारार्थ लगाना, अथवा-द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव इनकी अपेक्षा कर्म कैसे कैसे फलों को देते हैं इसका सतत विचार करना यह विपाकविचय है। संस्थानविचय लोक का और द्वीपसमुद्रों का जो आकार विशेष है उसका नाम संस्थान है ये संस्थान जिस ध्यान में सतत विचारे जाते हैं वह ध्यान संस्थान विचय नाम का धर्मध्यान है तात्पर्य यह है कि-लोक आदि का स्वरूप विचार करने में मनोयोग देना इसका नाम संस्थान विचय है। कहा भी है "आप्तवचनम्" इत्यादि, ओज्ञारुचि आदि जो इसके चार लक्षण
વિશિષ્ટ પરિશીલન (ફળ) નું નામ વિપાક છે. એટલે કે જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના ફળને જેમાં વિચાર થાય છે, એવા ધ્યાનને વિપાકવિચય ધર્મ ધ્યાન કહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જે જે વિપાકનો અનુભવ કરવામાં આવે છે તે વિપાકને અનુલક્ષીને એ વિચાર કરે કે કયા કર્મના ફલસ્વરૂપે હું આ વિપાક (ફલ) અનુભવી રહ્યો છું, તથા અમુક કર્મને અમુક વિપાક સંભવી શકે છે, આ પ્રકારના વિયામાં મનને એકાગ્ર કરવું તેનું નામ વિપાકવિચય ધર્મધ્યાન છે. અથવા–દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવની અપેક્ષાએ કર્મ કેવાં કેવાં ફળ આપે છે તેને સતત વિચાર કરે તેનું નામ વિપાકવિય ધમ ધ્યાન છે. સંસ્થાનવિચય” લેકને તથા દ્વિપ સમુદ્રોને જે આકારવિશેષ છે, તેનું નામ સંસ્થાન છે. જે દયાનમાં તે સંસ્થાનને સતત વિચાર કરવામાં આવે છે, તે યાનને સંસ્થાનવિચય ધર્મધ્યાન કહે છે. એટલે કે લેક આધિના સ્વરૂપને વિચાર કરવામાં મનને એકાગ્ર કરવું તેનું नाम सिस्थानवियय' छे. ४ ५ छे 3-" आप्तवचनम् ' या6ि
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.. - स्थाना चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आज्ञारुचिः-आक्षायाम्-अथ मूत्रतदुभयव्याख्यानलक्षणायां रुचिः-श्रद्धा-आज्ञारुचिः, यद्वा-आज्ञया रुचिराज्ञारुचिः १।।
"निसर्गरुचिः."-निसर्गेण-स्वभावेन रुचिनिसर्गरुचिः २, " सूत्ररुचिः "-सूत्र-सर्वज्ञप्रणीत आगमस्तत्र तस्माद्वा रुचिः सूत्ररुचिः ३,
"अवगाहरुचिः "-अवगाहनमवगा द्वादशाङ्गारगाहनं, तेन रुचिरवगाढरुचिः, यद्वा अवगाढा साधुप्रत्यासन्नस्तस्य रुचिः साधूपदेशाच्छ्रद्धा अवगाहरुचिः उक्तञ्च-" आगमउवएसेणं, निसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं। .. भावार्ण सद्दहणं, धम्मज्झाणस्स तं लिंगं । १।" इति छाया-" आगमोपदेशेन निसर्गतो यज्जिनप्रणीतानाम् ।।
' भावानां श्रद्धानं धर्म यानस्य तल्लिङ्गम् ।" इति । अथ धर्मध्यानस्याऽऽलम्बनान्याह-'धम्मरस ' इत्यादिधय॑स्य खल्लु ध्यानस्य चत्वालिम्बनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-', वाचना' वाचनं वाचना-विनीतशिष्याय कमनिर्जरणार्थ सूत्रोपदेशदानादि १,
" प्रतिमच्छना"-प्रतिपच्छनं प्रतिपच्छना=पूर्वाधीते शङ्किते सूत्रादौ तन्निवारणाय गुरु प्रति प्रच्छनम् २, कहे गये है उनका अभिप्राय ऐसा है, आज्ञा में अर्थ सूत्र और तदुभय में श्रद्धा रखना, अथवा भगवान की आज्ञा में रुचि होना यह आज्ञा. रुचि है १। स्वभावतः जो अर्थ सूत्र आदि में रुचि होती है, वह निसगेरुचि है २। सर्वज्ञ प्रणीत आगम से, या आगम में जो रुचि होती है वह सूत्र रुचि है ३। साधु के उपदेश से जो रुचि होती है वह अगाढ रुचि है ४। कहा भी है-" आगम उवएसेणं" इत्यादि १ धर्मध्यान के आलम्बन चार हैं, वाचना: १ विनीत शिष्य के लिये कर्मनिर्जराथे सूत्रोपदेश आदि देना यह वाचना है। पूर्वाधीत सूत्र में शक्ति स्थल .. ध ध्यानना माज्ञा-शयि मा २ यार सक्ष। उi छ तनु वे स्पष्टी४२५४ ४२वामा भाव छ-(१) अथ, सूत्र मने तमयमi (भन्नेमा) શ્રદ્ધા રાખવી, અથવા ભગવાનની આજ્ઞામાં રુચિ હાવી તેનું નામ આજ્ઞારુચિ છે. (૨) અર્થ, સૂત્ર આદિમાં સ્વભાવતઃ જે રુચિ હોય છે તેનું નામ નિસર્ગ રુચિ છે. (૩) સર્વજ્ઞ પ્રણીત આગમ પ્રત્યે જે રુચિ હોય છે, તેનું નામ સૂત્રसरि छ. (४) साधुन पहेश 'प्रत्ये २२थि डाय छे, तेनु नाम मारुथि छे. ४ ५ छे :-" आगमउवएसेणं"त्याह
घभयानना मालमन (साधार) यार छ-(१) " पायना" विनीत શિષ્યને કર્મનિર્જરાર્થે સૂત્રો પદેશ આદિ દેવું તેનું નામ વાચના છે. (૨) પહેલાં જેનું અધ્યયન કર્યું હોય એવા સૂત્રમાં જે જે શંકાઓ ઉદ્દભવે તે તે શેકોએ ગુરુ પાસે પ્રશ્નરૂપે પ્રકટ કરીને તેમનું નિવારણ કરવું, તેનું નામ પ્રચ્છના છે. (૩) પૂર્વાધીત સૂત્ર વિસ્મૃત થઈ જાય તે માટે ફરી ફરીને તેનું પઠન કરતા રહેવું તેનું નામ પરિવર્તન છે. (૪) સ્વાર્થ સંબંધી વિચારને અનુપ્રેક્ષા
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सुधा टीको स्था० . उ० १ १०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् , " परिवर्तना"-पूर्वाधीनमूत्रादेरविरमरणार्थमभ्यासः ३,
" अनुपेक्षा "-अनु-पश्चात् प्रेक्षणं प्रेक्षागालोचनमनुप्रेक्षा-मूत्रार्थानुस्मरणम् ४॥
अथानुमेक्षायाश्चतुरो भेदानाह-" धम्मस्स" इत्यादि-धय॑स्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्राप्ताः, तद्यथा-एकानुप्रेक्षा-अनन्तरोक्तरीत्याऽऽत्मन एकस्यएकाकिनोऽसहायस्येत्यर्थः, अनुप्रेक्षा भावना:एकानुप्रेक्षा, सा चैवम्
" एगोऽहं नत्थिमे कोई, नाहमन्नस्स कस्सवि । न तं पस्सामि जस्साहं, णामू भावोति जो मम ।१।" इति, छाया-" एकोऽहं नास्ति मे कश्चित् , नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याह, नासौ भावीति यो मम । १।" इति, १,
तथा-" अनित्यानुप्रेक्षा"-अनित्यस्य जीवितादेरनुपेक्षा भावनाऽनित्यानुप्रेक्षा, सा चैवम्
" कायः सन्निहितापायः, सम्पदः पदमापदाम् । ___समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भगुरम् ।१।" इति, २, को गुरु से पूछना और उस शङ्का को दूर करना इसका नाम प्रच्छना है २। पूर्वाधीत सूत्र विस्मृत न हो जाय इस निमित्त से पुनः पुनः उसका अभ्यास करना परिवर्तना है (३) सूत्रार्थका पुनः पुनः विचार करते रहना इसका नाम अनुप्रेक्षा ४ है।
इस अनुप्रेक्षा के चार भेद हैं, जैसे-एकानुप्रेक्षा आत्मा एक है असहाय ऐसी भावना रखना इसका नाम एकानुप्रेक्षा है वह एकानुप्रेक्षा इस प्रकारसे है-" एगोऽहं नत्यिमे कोई" इत्यादि संसार के जितने भी पदार्थ हैं वे सब पर्यायदृष्टि से अनित्य है ऐसी भावना का नाम अनित्यानुप्रेक्षा है। ___ कहा है-" कायः सन्निहिताऽपायः" इत्यादि इस संसार में मेरे કહે છે. તે અનુપ્રેક્ષાના પણ ચાર ભેદ છે-(૧) એકાનુપ્રેવા-આત્મા એક છે, અસહાય છે એવી વાવના રાખવી તેનું નામ એકાનુપ્રેક્ષા છે. તે એકાનુપ્રેક્ષા मा २नी ४ीछे-" एगोऽहं नथि मे फोई"त्यादि-(२) ससारना જેટલા પદાર્થો છે તે બધા પર્યાયરષ્ટિએ અનિત્ય છે એવી ભાવનાનું નામ मनित्यानुप्रेक्षा छे. हु ५५ छेउ-"काय. सन्निहिताऽपाय: Uया (3)
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- स्थानीसी तथा " अशरणानुप्रेक्षा" -अशरणस्यवाणरहितस्याऽऽत्मनोऽनुप्रेक्षा भावनाऽशरणानुप्रेक्षा, सा चैवम्"जन्मजरामरणभयैरभिद्रु ते व्याधिवेदनाग्रस्ते ।
जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके ।१।” इति ३, तथा " संसारानुप्रेक्षा "-संसार:-चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु जीवानां सरणं-गमनं भ्रमणं, तस्यानुप्रेक्षा भोवना संसारानुप्रेक्षा, सा चैवम्
" माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे। प्राति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतांचैव ।१। " इति ४।
अथ चतुर्विधं शुक्लध्यानमाह-" सुक्के " इत्यादि-शुक्लध्यानं चतुर्विधं चतुष्प्रत्यवतारं-चतुर्यु-भेद-लक्षणा-ऽऽलम्बना-ऽनुपेक्षारूपेषु पदार्थेषु प्रत्यवतारः समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य तत्तथोक्तम् , प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-" पृथआत्मा का कोई भी रक्षक नहीं है ऐसा विचार करना इसका नाम अशरणानुप्रेक्षा है। कहा भी है-"जन्म जरा" इत्यादि यह जीव कमवश होकर चार गतिरूप इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है ऐसा विचार करना इसका नाम संसाराऽनुप्रेक्षा है । कहा भी है-" माता भूत्वा" इत्यादि ? ४ संसाराजुप्रेक्षा में ऐसा कोई भी पर्याय नहीं यचा है कि-जहां आत्मा का जन्म मरण नहीं हुवा है ऐसा विचार प्रधान रहता है यही बात इस श्लोक में कही है। भेद लक्षण आलम्बन और अनुप्रेक्षा रूप चार पदार्थों में विचारणीयरूप होने से जिसका समवतार हुवा है ऐसा वह शुक्लध्यान भी चार प्रकार का कहा गया है। उसके આ સંસારમાં આત્માને કઈ રક્ષક નથી, એ પ્રકારની ભાવના રાખવી તેનું नाम मश२६'तुप्रेक्षा छ ४यु ५४ छ-" जन्म जरा " छत्याल (४) 24. કર્મને અધીન રહીને ચાર ગતિવાળા સંસારમાં પરિભ્રમણ કરી રહ્યો છે, એ विया२ ४२व तनु नाम समानुप्रेक्षा छ. ४यु ५५ छ -" माता भूत्वा" ઈત્યાદિ “એવી કઈ પણ પર્યાય નથી કે જ્યાં આત્માએ જન્મ-મરણ અનુભવ્યા ન હય,” આ પ્રકારની ભાવના સંસાર અનુપ્રેક્ષામાં પ્રધાન રહે छ. स. २८ पात " माता भू-वा" त्याहि i Xट ४२वामां मारी छे.
હવે શુકલધ્યાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–ભેદ, લક્ષણ, આલમ્બન અને અનુપ્રેક્ષારૂપ ચાર બાબની અપેક્ષાએ વિચારણીય હોવાથી તેના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. શુકલધ્યાનના પૃથકત્વવિતર્ક સવિચાર આદિ ચાર પ્રકારનું હવે नि३५५ ४२वामा मा.छे
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सुपा का स्था० ४४०१२०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
कृत्ववितकै सविचारम् " पृथक्-भिन्नम् , तस्य भावः पृथक्त्वम्-भेदोऽनेकत्व. मित्यर्थः, तेन सह गतो वितका पूर्वागतश्रुताऽऽलम्बनो नानानयानुसरणापो विकल्पो यत्र तत् तथा, एवं च " पृथक्त्ववितर्कम् " एकद्रव्याश्रितानागुत्पाद. व्ययत्रौव्यरूपपर्यायाणामनेकत्वेन विकल्पाश्रयीभूतं च तत् , " सविचारम्"विचरण विचारः, स चार्थव्यननयोगसंक्रान्तिरूपः, तत्रार्थः परमायादिः, व्यञ्जन-व्यञ्जयति-अर्थ प्रकटयतीति व्यञ्चनम् अर्थमकाश पदं, शब्दो वाचक इति पर्यायाः, योगाः-मनोवाकायरूपास्तेषु संक्रान्तिः-संक्रमणम् अन्यतमम्मा दन्यतमस्मिन्ने कद्रव्ये गमनं, तेन सह वर्तत इति सविचारं चेति तथोक्तम् उक्तंच" उप्पायठिभंगाइ पज्जयाणं जमेगदव्यंमि ।
नाणानयानुसरणं पुछगयमुयाणुसारेणं । १ ।। वे प्रकार ये हैं पृथक्त्व वितर्क सविचार आदि इस पृथक्त्ववितर्क सविचार में श्रुतज्ञान का आलम्बन लेकर विविध दृष्टियों से विचार किया जाता है इसलिये तो यह पृथक्त्ववितर्क हुवा है ? और इसमें अर्थ व्यञ्जन तथा संक्रमण होता रहता है इसलिये यह विचार सहित टुवा इस प्रकार इस ध्यान का पूरा नाम " पृथक्त्ववितर्कसविचार" पडा है । इसी यात को टीकाकार ने पृथक् भिन्नस् तस्य भावः पृथात्वम् , भेदोऽनेकत्वम्, वितर्कः पूर्वगत श्रुतालम्बनः नानानयाऽनुरूपः विकल्पोयत्र तत् तथा, इत्यादि पदों द्वारा प्रगट किया है। वितकं नाम न का है
और अर्थसंक्रान्ति, व्यजनसंक्रान्ति और योगसंक्रान्ति का नाम विचार है, इस प्रकार विचार और वितर्क का अर्थ समझ कर इन भेदो
આ પૃથકવિતર્ક સવિચારમાં શ્રુતજ્ઞાનને આધાર લઈને વિવિધ દૃષ્ટિ ઓથી વિચાર કરવામાં આવે છે, તેથી તેને પૃથકત્વવિત રૂપે પ્રકટ કર્યું છે. અને તેમાં અર્થ, વ્યંજન આદિની અપેક્ષાએ સકમ થતું જ રહે છે, તેથી તે “વિચારસહિત” વિશેષણ લગાડવાને પાત્ર બન્યુ છે આ રીતે આ ધ્યાનનું પૂરું નામ “પૃથકવિતર્ક સવિચાર ” પડયું છે. એ જ વાતને સવારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરી છે – ___" पृथक् -भिन्नम् तस्य भाषः परत्यम् भेदोऽने कला, पित. पूवंगत. भुताळम्यन, नानानयाऽनुरूपः-विकल्पो यत्र तत्तवा" याल. | વિતક એટલે શ્રત એટલે અર્થ સંકાતિ, વ્યસન કાન અને સોશ રકાન્તિનું નામ વિચાર છે. આ પ્રમાણે વિવાર અને વિના દ પ્રજ વવામાં આવે તે આ ભેદોનું સ્પષ્ટીકર થઈ જાય છે. કર ૫ છે –
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४४८
स्थानाशय
सवियारमत्थ वंजण जोगंतरभो तयं पढममुक।।
होइ पुहुत्तवियक, सवियारमरागभावस्स । २ । " इति, छाया-" उत्पादस्थितिभङ्गादि पर्यायाणां यदेकद्रव्ये ।
नानानयानुसरणं पूर्वगतश्रुतानुसारेण । १ । सविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् प्रथमशुक्लम् । भवति पृथक्त्ववितकं सविचार मरागभावस्य । २ ।" इति
इति शुक्लध्यानस्य प्रथमो भेदः का स्पष्टीकरण हो जाता है । उक्तश्च-" उप्पाय ठिई मंगाई" इत्यादि इस कथन का तात्पर्य यह है-कि जब उपशमश्रेणी या क्षपकरेणी पर आरोहण करनेवाला कोई एक पूर्वज्ञानधारी मनुष्य शुतज्ञान के यल से किसी भी परमाणु आदि जड या आत्मरूप चेतनद्रव्य का चिन्तन करता है और ऐसा करते हुवे वह उसको द्रव्यार्थिकदृष्टि से या पर्यायाधिक दृष्टि से चिन्तन करता है। द्रव्यास्तिकदृष्टि से चिन्तन करता हुवा वह पुदालादि विविध द्रव्यों में किस दृष्टि से साम्य है और इनके अवान्तर भेद भी किस प्रकार से हो सकते हैं इत्यादि यातों का विचार करता है। पर्यायार्थिकदृष्टि से विचार करता हुवा वह उनकी वर्तमान कालिक विविध अवस्थाओं का विचार करता है । और श्रुतज्ञान के आधार से कभी यह जीव किसी एक द्रव्यरूप अर्थ पर से दूसरे द्रव्य. रूप अर्थ पर एक द्रव्यरूप अर्थ पर से किसी एक पर्यायरूप अर्थ पर एक पर्यायरूप अर्थ पर से दूसरे पर्यायरूप अर्थ पर या एक पर्यायरूप
" उपाय ठिई भंगाइ" त्याहि
આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-ઉપશમ શ્રેણી ક્ષપક શ્રેણી પર આરોહણ કરનારે કઈ એક પૂર્વજ્ઞાનધારી મનુષ્ય શ્રુતજ્ઞાનને આધારે કઈ પણ પરમાણુ આદિ જડનું અથવા આત્મારૂપ ચેતનદ્રવ્યનું ચિન્તન કરે છે અને એવું કરતે તે મનુષ્ય તેનું દ્રવ્યાથિક દૃષ્ટિથી કે પર્યાયાર્થિક દૃષ્ટિથી ચિન્તન કરે છે. દ્રવ્યાર્થિક દૃષ્ટિએ વિચાર કરતી વખતે તે પલાદિ દ્રવ્યમાં કઈ દષ્ટિએ સારુ છે અને તેમનું--અવાક્તર પર
પ્રેએ જયારે
કરે છે ત્યારે તે તેમના વર્તમાનકાલિદ વિવિધ એવદ્યાઓના વિચાર કરે છે. અન્ન તફામધારેસેંજર્યારેક એક દ્રશ્ચર્થિકંરથી બીજી અર્થ પરોકaÉધ્યારૂ-અર્થપરથી ઈએકમર્યાયરૂપઅર્થઘર, એક ક્ષયરૂપ અપસ્થી છીછ પર્યાયરૂ અર્થ પર અથવા એક પૂર્યાયરૂપ પરથી
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सुपा का स्था० ४ उ०१ सू०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ____ " एगत्तवियक " इत्यादि-एकवयितर्कऽविवारम्-एकस्य भाव एकत्वं, तेनैकत्वेन अभेदेनोत्पादध्ययत्रीब्यादि पर्यायाणामन्यनमैकपर्यायाऽऽलम्बनतया, वितकः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनस्पो वा यस्य तदेकरवितके, तच्च तद् अविचारम्-अविद्यमानो विचार अर्थव्यञ्जनयोनानामन्यतमम्मादन्यतमस्मिन् संका. न्तिरूपो निर्वातस्थानस्थित-दीपवद् यस्मिन् तदविचारमिति तत्तथोक्तम् , उक्तं चअर्थ पर से किसी एक द्रव्यरूप अर्थ पर ज्ञानधारा को संक्रमित करके चिन्तन के लिये प्रवृत्त होता है। इसी प्रकार कभी अर्थ पर से व्यञ्जन -अर्थ प्रकाशक शब्द पर और शन्द पर से अर्थ पर या-किसी एक शब्द पर से दूसरे शब्द पर चिन्तन के लिये प्रवृत्त होता है तथा ऐसा करता हुवा यह कभी मनोयोग आदि तीनों में से किसी एक योग का आलम्यन लेताहै और-प्रि उसे छोडकर अन्ययोग काआलम्बन लेताहै तप उसको होनेवाला वह ध्यान पृथक्त्वविनीतविचार कहा जाता है। " एगत्तवियश्क" इत्यादि जिस ध्यान में पूर्वगत शुत के आधार से उत्पात आदि किसी एक पर्याय का या द्रव्य का ही चिन्तवन किया जाता है और चिन्तवन करते समय वह जिस द्रव्य या-पर्याय या शब्द, या योग का आलम्बन किये रहता है वह जिसमें नहीं बदलता है ऐसा यह ध्यान एकत्ववितर्कसविचार कहा गया है। जिस प्रकार निर्वात स्थान में रखा हुवा दीपक अविचलित शिवा होता है उसी प्रकार से એક દ્રવ્યરૂપ અર્થપર જ્ઞાનધારાને સંકમિત કરીને ચિન્તનને માટે પ્રવૃત્ત થાય છે. એ જ પ્રમાણે ક્યારેક અર્થ પરથી વ્યંજન (અર્વ પ્રકાશક શબ્દ) પર, અને શબ્દપરથી અર્થપર, અથવા કોઈ એક શબ્દ પરથી બીજા શબ્દ પર ચિન્તનને માટે પ્રવૃત્ત થાય છે. તથા એવું કરતે તે મનુષ્ય કયારેક મને યોગ આદિ ત્રણે ચોગોમાથી કઈ એક ચેગનું આલંબન (અવલંબન-આધાર) ૩ છે, વળી તેને છેડી દઈને અન્ય રોગનું આલાન લે છે, વળી તેને છોડીને બીજા કઈ યોગને આધારો છે, ત્યારે તેના દ્વારા જે સતત ચિન્તન કર. વામાં આવે છે તેને પૃથકવ વિતર્ક અવિચાર' કહે છે. __"पगत्तं वियत" याह
જે ધ્યાનમાં પૂગત તને આધારે ઉત્પન આદિ કોઈ એક પર્યાયનું અથવા દ્રવ્યનું જ ચિત્તવન કરવામાં આવે છે, અને તે ચિન્તવન કરતી વખતે તે જીવે છે ક કે પય કે શબ્દ અથવા ૨. આ લગન લીધું હોય તે જેમાં બદલતો નથી, એ ધ્યાનને “ વિ વિચાર' કહે છે. જેથી રીતે નિત ધ્યાન રાખેલા ટીપાની . અવિવાહિત રહે છે, એ જ
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४५०
स्थानागास
"जं पुण सुनिप्पकंप निवायठाणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिइ भंगाइयाणमेगंमि पज्जाए । १ । अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं विइयसुकं ।
पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवियक्कमवियारं । " इति, ___. छाया-" यत्पुनः सुनिष्प्रकम्पं निवातस्थानप्रदीप इव चित्तम् ।
उत्पादस्थितिभङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ।१। अविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तद् द्वितीयं शुक्लम् । पूर्वगतश्रुताऽऽलम्बनमेकत्ववितर्कमविचारम् ।” इति,
इति शुक्लध्यानस्य द्वितीयो भेदः । २। . तथा-" सूक्ष्मक्रियाऽनिवति"-सूक्ष्मा-कायिक्युच्छ्वासादिका क्रिया यस्मिस्तत् सूक्ष्मक्रियम्, एतद् निर्वाणगमनकाले निरुद्धमनोवाग्योगस्यार्द्धनिरुद्धकायइसमें ध्यानी का ध्यान एकसी [ समान ] बहता है । कहा है-" जं पुण सुनिप्पकंपं-" इत्यादि ?
तात्पर्य-इसका ऐसा है कि जब जीव क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त होकर श्रुतरूप वितर्क के आधार से किसी एक द्रव्य या पर्याय का चिन्तन करता है और-चिन्तवन करते समय जो अर्थ, व्यञ्जन या योग का अवलम्बन लिये था उसमें संक्रमण होना नहीं है इस ध्यान के वलसे यह जीव घातिक कर्मों की शेष (संपूर्ण) प्रकृत्तियोंका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार से यह द्वितीय शुक्लध्यान का स्वरूप है "सूक्ष्मक्रियाऽनिवति" जिस ध्यान में कायिकी क्रिया उछ्वास आदिक सूक्ष्म रहती है अर्थात् सर्वज्ञ देव योग निरोध करते પ્રમાણે આ પ્રકારના ધ્યાનીને ધ્યાનની ધારા એક સરખી વહેતી રહે છે. કહ્યું પણ છે :-" 5 पुण सुनिष्पकप" त्यानि. सायना भावार्थ नीय प्रभार छ
જ્યારે જીવ શીશમહ ગુણસ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને મૃતરૂપ વિતકને આધારે કોઈ એક દ્રવ્ય અથવા પર્યાયનું ચિન્તન કરે છે, અને ચિન્તન કરતી વખતે તેણે જે અર્થ, વ્યંજન કે રોગનું અવલમ્બન લીધું હોય તેમાંથી સંક્રમણ કરતું નથી, ત્યારે તેના તે ધ્યાનને “એકત્વ વિતક શુકલ ધ્યાન” કહે છે. આ ધ્યાનના પ્રભાવથી જીવ ઘાતકર્મોની શેવ પ્રકૃતિઓને લાય કરીને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે. આ પ્રકારના શુકલધ્યાનનું આ બીજા પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
"सूक्ष्म किया 5 निवर्ति-रे ध्यानमा २२पास मा यिनीया सूक्ष्म રહે છે-એટલે કે સર્વજ્ઞ દેવ નિધિ કરતી વખતે બીજા બધા રોગોને
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सुधा रोका स्था०४ उ० १ . ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् योगस्य केलिनो भवति, तच्च तद् "अनियति "-निवर्तत इत्येव शील निति; न निवर्ति अनिवर्ति अवर्धमानतरपरिणामादव्यावति चेति तत्तयोक्तम् , उक्तं च" निव्याणगमणकाले, केवलिगो दरनिरुद्व गोगस ।
महमकिरियाऽनियहि, तइयं तणुकायकिरियस्स ।। " इति, छाया-"निर्वाणगमनकाले, केवलिनोऽर्द्धनिरुद्वयोगस्य ।
सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति वतीयं तनु (मूक्ष्म ) कायक्रिपस्य ।१।" इति,
इति शूलध्यानस्य तृतीयो भेदः । ३। "समुच्छिन्नक्रियाऽमतिपाति "-समुच्छिन्ना-पक्षीणा क्रिया = कायादिव्यापाररूपा शैलेशीकरणे निरुद्योगत्वेन यस्मिस्तन् समुन्छिन्नक्रियं, तच्च तद् हुवे दूसरे सय योगों का अभाव कर सूक्ष्म काययोग को प्राप्त होते हैं तव सूक्ष्मक्रियाअनिवर्ति ध्यान होता है, तब कायवर्गणाओं के निमित्त आत्म प्रदेशीका अति सूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहताहै इसलिये-इसका नाम सूक्ष्मक्रियाऽनिवति ध्यान है। यह ध्यान निर्वाणगमन काल में मन वचन योग का निरोध हो जाने पर और काययोग का अर्ध निरोध होने पर केवली जीच को होता है। यह ध्यान होकर छूटता नहीं है क्यों फि-इसमें प्रवर्द्धमानतर परिणाम होने से अव्यावर्ति यह अनि. वर्तिरूप कहा गया है। उक्तं च-"निबाणगमणकाले-" इत्यादि "समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति" शैलेशीकरण में निरुद्ध योग होने के कारण जिस ध्यान में कायिक आदि व्यापाररूप क्रिया समुच्छिन्न विलकुल क्षीण हो जाती है और यह ध्यान अप्रतिपाति होता है प्रतिपतन અભાવ કરીને માત્ર સૂફમકાય એગમાં જ પ્રવૃત્ત રહે છે, ત્યારે સુક્રમક્રિયા નિવર્તિધ્યાન થાય છે. ત્યારે કાયવર્ગણાઓના નિમિત્તરૂપ આત્મપ્રદેશોને અતિ સૂકમ પરિસ્પન્દ જ બાકી રહે છે, તેથી તેનું નામ “સૂમકિયાનિવર્તિધ્યાન પડ્યું છે. નિર્વાગમન કાળે મનવચન ચોગને નિરોધ થઈ જવાથી અને કાય
અને અર્ધનિરોધ થઈ જવાથી કેલીને જીવ આ પ્રકારના ધ્યાનથી યુક્ત બને છે. આ ધ્યાનની ધારા ઘટતી નથી, કાર કે તેમાં પ્રવર્તમાનતર પરિરૂ ઇ હોવાથી તે ધ્યાન એકવાર પ્રાપ્ત થયા બાદ છુટી જતું નથી તે યાનને मनियति३५ ४ -५ ५५ छ :-"निव्वाण गमणकाले "यादि
હવે સમુનિ કિયાતિપતિ શુકલધ્યાનના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે—લેશીકરણમાં એ.ગોને નિરોધ થવાને કારણે જે ધ્યાનમાં કાવિક ખાદિ વ્યાપારરૂપ કિયા સમુહિલ (બિલકુલ લીલ) થઈ જાય છે, તે સ્થાનને
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स्थानाङ्गसुत्रे " अप्रतिपाति " - प्रतिपततीत्येवंशीलं प्रतिपाति, न प्रतिपात्यप्रतिपाति = प्रतिपतनस्वभावरहितमनु परति स्वभावमित्यर्थः चेति तथोक्तम् उक्तं च" तस्सेव सेलेसीगयस्स सेलव्यनिष्पकंपस्स । वोच्छिन्नकि रियमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं |१| " इति, छाया- " तस्यैव शैलेशीगतस्य शैलवन्निष्प्रकम्पस्य ।
व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति ध्यानं परमशुक्लम् |१| " इति, इति शुक्लध्यानस्य चतुर्थो भेदः । ४ ।
अस्मिश्चान्तिमे शुक्लध्यानभेदद्वयेऽयं क्रमः - केवली किलान्तर्मुहूर्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहि- वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्रारूयेषु चतुर्षु कर्मसु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिकेषु सत्सु योगनिरोधं करोति, तत्र च क्रमः - " पज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदव्या तव्यावारो य जम्मेत्तो । १ । तदसंखगुणविहीणे समए समय निरुममाणो सो । मणसो सव्वनिरोह कुणइ असंखेज्जसमएहिं । २ ।
स्वभाव से रहित होता है । सो ही कहा है- " तस्सेव सेलेसी गयस्स' इत्यादि इस ध्यान का उदय होते ही सातावेदनीय कर्म का आस्रव रुक जाता है । और अन्त में शेष सब कर्म क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है । इस अन्तिम शुलध्यान दय में ऐसा क्रम है केवली भगवान् अन्तर्मुहूर्त भावी परमपद के होने पर भवोपग्राहि वेदनीय आयु नाम गोत्र इन चार कर्मों के समुद्घात से, अथवा, -निसर्ग से समस्थितिक हो जाने पर योगनिरोध करते हैं । वहां का क्रम इस प्रकार से है" पज्जत्तमेत्तस निस्स-" इत्यादि
સમુચ્છિન્ન ક્રિયાતિપાતિધ્યાન કહે છે આ ધ્યાન પ્રતિપતનના સ્વભાવથી પણ રર્હુિત હાય છે, તેથી તેને અપ્રતિપ્રાતિધ્યાન કહ્યું છે. એ જ વાત સૂત્રકારે " तरसेव सेलेसीगयस्स " इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा अउट उरी छे.
"
આ ધ્યાનના ઉદય થતાની સાથે જ સાતાવેદનીય કર્મના આસવ મધ થઈ જાય છે, અને આખરે બાકીના સમસ્ત કર્મના ક્ષય થઈ જવાથી સાક્ષ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ છેલ્લા બે શુકલધ્યાનમાં એવા ક્રમ છે કે કેવલી ભગવાન અન્તર્મુહૂત ભાવી પરમપદના સદ્ભાવમાં ભવેાગ્રાહિ–વેદનીય, આયુ, નામ અને ગાત્ર આ ચાર કર્મીના સમુદ્ઘાત દ્વરા, અથવા નિસગથી (નૈસગિક રીતે) સમસ્થિતિક થઇ જાય ત્યારે યાગનિરોધ કરે છે, તે ક્રમ આ પ્રમાણે - " पज्जत्तमेत्त सन्निस " इत्याहि-शैक्ष भेटवे पर्वत, विशाजता याई
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मुंघा टीका स्था०४ उ० १ सू० ९ नानस्वरूपनिरूपणम्
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पज्जत्तमेत्तबिंदिय-जहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभतो । ३ । सन्यवइजोगरोह संखातीएहि कुणइ समएहि ।। तत्तो असुहमपणगस्त पढमसमओववन्नस्स । ४ । जो किर जहन्नजोगो तदसंखेज्जगुणहीणमेकेके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो। ५। रुंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहि । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ। ६ । हस्सक्खराई मझेण जेण कालेण पंच भन्नति । अच्छइ सेलेसिगभो तत्तियमेत्तं तओ कालं । ७ । तणुरोहारंभाओ सायइ सुहुमकिरियाणियहि सो ।
वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालंमि । ८।" इति, छाया-पर्याप्तमात्रसंज्ञिनः यावन्ति जघन्ययोगिनः।
भवन्ति मनोद्रव्याणि तद्वयापारश्च यावन्मात्रः।१। तदसंख्यगुणविहीनानि समये समये निरुन्धन् सः। मनसः सर्वनिरोधं करोत्यसंख्यातसमयैः । २।। पर्याप्तमात्र द्वीन्द्रियस्य जघन्यवाग्योगपर्यया ये तु । तदसंख्यगुणविहीनान् समये समये निरुन्धन् । ३ । सर्ववाग्योगरोधं संख्यातीतैः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्य । ४ । यः किल जघन्ययोगस्तदसंख्येय गुणहीनमेकैकस्मिन् । समये निरुन्धन् देहविभागं च मुञ्चन् । ५। रुणद्धि स काययोग संख्यातीतैश्च समयैः। ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावनामेति । ६। येन मध्येन कालेन पञ्च इस्वाक्षराणि भण्यन्ते । तावन्मानं कालं ततः शैलेशीगतस्तिष्ठाति । ७। तदनुरोधाऽऽरम्भाद् ध्यायति सूक्ष्म क्रियानिवत्ति सः । व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शैलेशीकाले । ८।" इति,
शैलाः-पर्वताः, तेपाम् ईशः स्वामी बृहत्यादिगुणवत्चात् शैलेशः-मेरुः, तस्येव यन्निष्पकम्पत्वं यत्र सा शैलेशी, तद्रूपा भावना-अवस्था शैलेशी भावना, ताम् एति-मामोतीति तदर्थः ।
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स्थानाङ्गसूत्र अथ शुक्लध्यानस्य लक्षणान्याह-" सुकस्स" इत्यादि-शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तोनि, तद्यथा-" अव्ययम् "-इति-व्यथाया अभावोऽव्य. थम्=देवादिकृतोपसर्गादि जनितभय-विचलनाभावः, इति प्रथमः १।
तथा-असम्मोहः-सम्मोहः=मूढता, न सम्मोहोऽसम्मोहः देवादि-कृतमायाजनितायाः सूक्ष्मपदार्थविषया वा मूढताया अभावः, इति द्वितीयः । २ । ___ तथा-" विवेगे" इति-विवेका हंसवत् क्षीरनीरन्यायेन स्वबुद्धया देहादात्मनः आत्मतः सर्वसंयोगानां वा विवेचनं पृथकरणमित्यर्थः । इति तृतीयः ३।
शैलनाम पर्वत का है वृहत्त्वादि गुण युक्त होने से जो पर्वतों का स्वामी हो वह शैलेश है ऐसा मेरु है, इस मेरु के समान जिस भावना में निष्प्रकम्पन हो वह शैलेशी भावना है शैलेशी अवस्था है योग से निपेवित सकल व्यापारवाला जीव ही इस शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है। शुक्लध्यान के लक्षण इस प्रकार से है-"अव्ययम्" व्यथा का अभाव हो जाना देवादिकृत जो उपसर्ग वही व्यथा है उस भय से विचलित नहीं होना शुक्लध्यान का पहला लक्षण अव्यथ है-१ " असम्मोहः” मूढता का नाम सम्मोह है इसका अभाव असम्मोह है अर्थात्-देवादिकृत मायाजनित मूढता का या सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढता का अभाव हो जाना इसका नाम असम्मोह है २ " विवेकः" जिस प्रकार हंस पानी से दूध को अलग कर लेता है उसी प्रकार बुद्धि આદિની અપેક્ષાએ જે સઘળા પર્વનો સ્વામી છે–સઘળા પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ છે, તેને શૈલેશ કહે છે. એ પર્વત મેરુ છે. જે ભાવનામાં (અવસ્થામાં) તે મેરુ સમાન નિષ્પકમ્પન હોય છે, તે ભાવનાને શૈલેશી ભાવના અથવા શૈલેશી. અવસ્થા કહે છે. મન, વચન અને કાયના સકળ વ્યાપારોને જેણે નિરોધ કર્યો હોય છે એ જીવ જ શૈલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી શકે છે.
शुदध्यानना सक्ष। २ प्रमाणे -(१) " अव्यथम " मा ध्यान વખતે ધ્યાનીની વ્યથાને અભાવ થઈ જાય છે. દેવાદિકૃત ઉપસર્ગને જ અહીં વ્યથા સમજવી જોઈએ. તે ભયથી વિચલિત ન થવું તે શુકલધ્યાનનું પહેલું समय छ, Asia aryने “ २५०यय" ५४थी ८ यु छे.
(२) “ असम्मोहः " भूतानु नाम समाह छ, भने तन मलावन અસહ કહે છે. એટલે કે દેવાદિકૃત માયાજનિત મૂઢતાનો અથવા સૂક્ષમ પદાર્થ વિષયક મૂઢતાને અભાવ થઈ જવો તેનું નામ અસંમોહક છે. ,
" विवेकः " रेभ पाथीमाथी धने २८1 1 नामे छे, मेर
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तथा = " विउसग्गे " इति - व्युत्सर्गः - वि-विशेषण सर्व विषयनिःसङ्गत्वेन उत्सर्गः = देहोषधीनां त्यागो व्युत्सर्गः । इति चतुर्थः । ४ ।
सुधा टीका स्था० ४ उ.
१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
अत्र गाथेयम् - " चालिज्जह वीभेड व धीरो न परीसहोचसग्गेर्हि । सुहमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु । १ देहवित्तं पेच्छ अप्पाणं तह य सव्त्रसंजोगे ३ | देहो हिस्सग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ । २ । " इति, छाया - " चाल्यते विभेति वा धीरो न परिषदोपसर्गेः ।
सूक्ष्मेष्वपि भावेषु न संमुह्यति न देवमायासु । १ । देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान् ३ | देहोपधियुत्सर्गे निःसङ्गः सर्वथा करोति । २ । " इति,
अथ शुक्लध्यानस्याssलम्वनान्याह - " सुकस्स " इत्यादि - शुक्लस्य खलु ध्यानत्य चत्वारि आलम्बनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - " खंती " इति - क्षान्तिः क्षमा, १, " मुक्तिः " - निलेभिता २, " आर्जव " - सरलता ३, " मार्दवं " - मृदुता ४| इति । अत्र गाथा -
द्वारा देह से आत्मा को एवं आत्मा से सर्व संयोगों को अलग कर रखना विवेक है ३ तथा "विसग्गो " व्युत्सर्गः - विशेषरूप से सर्व विषयों में निसङ्ग हो जाने के कारण देह और उपधियों का त्यागना व्युत्सर्ग है - ४ यहां ऐसी गाथाएँ हैं- “ चालिज्जइ बी भेइ बधीरो " ' इत्यादि शुक्लध्यान के आलम्बन इस प्रकार से हैं- " सुक्कस्स " इत्यादि ५२ ॥ " खंती " क्षान्तिः क्षमा १ मुक्ति निर्लोभता २ " आर्जव " सरलता ३ और " मार्दव मृदुता ४ गाथा 'अह खंति मद्दवज्जव " इत्यादि પ્રમાણે બુદ્ધિ દ્વારા દેતુથી આત્માને અલગ કરવે, અને આત્મામાંથી સ સચાને અલગ કરી નાખવા તેનુ નામ વિવેક છે.
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(४) “ विउसग्गो-व्युत्सग " - विशेष ३ये सर्व विषयाभांथी निःसंग થઈ જવાને કારણે દેહ અને ઉપધિઓને ત્યાગ કરવેા તેનુ' નામ વ્યુત્સગ છે, सर्डी या प्रारनी गाथाओ छे - " चालिज्जइ वीभेइत्र धीरो " छत्याहि.
શુકલધ્યાનના આ ચાર અવલબના કહ્યા છે सुकरल " इत्यादि.
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(१) “ खंती ” क्षान्ति (क्षमा), (२) भुक्ति - निर्दोलिता (3) मानव - सरसता उसने (४) भाईव भृहुता. सेवत नीयेनी गाथा द्वारा सूत्ररे अट उरी छे - " अहखंति - मद्दव - ज्जव " त्याहि
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स्थानाङ्गो "अह खंति-मद्दव-ज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ।
आलंघणाई जेहि उ मुक्कज्ज्ञाणं समारूहइ । १ ।" इति, छाया-अथ शान्ति-मार्दवा-ऽऽर्जव मुक्तयः जिनमतप्रधानाः ।
आलभ्यनानि यैस्तु शुक्लध्यान समारोहति । १।" इति । अथ शुक्लध्यानस्यानुप्रेक्षा आह-" सुक्कस्स" इत्यादि-शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अनन्तवर्तिताऽनुमेक्षा-अनन्तं यथा स्यात्तथा वर्तत इत्येवंशीलोऽनन्तवर्ती भवप्रवाहस्तस्य भावोऽनन्तवर्तिता, तस्यानुप्रेक्षा-भावना=अनन्तवर्तिताऽनुप्रेक्षा,
यद्वा-'अनन्तत्तिताऽनुमेक्ष'-तिच्छाया, तत्रायमर्थः-अदिद्यमानोऽन्तो यस्याः साऽनन्ता, सा वृत्तिर्यस्य भवसन्तानस्य सोऽनन्तचिस्तस्य भावोऽनन्तवृत्तितानिरवधिकवर्तनवत्त्वम् , तस्या अनुप्रेक्षाअनन्तवृत्तित्तानुऽग्नेक्षा जीवस्य भवभ्रमणानुचिन्तनमित्यर्थः, यथाशुक्लध्यान सम्बन्धी अनुप्रेक्षाएँ इस प्रकार हैं-अनन्तवर्तिता १ विपरिणामानुप्रेक्षा २ अशुभानुप्रेक्षा ३ और अपायानुप्रेक्षा ४ अनन्त होकर जो रहता है वह अनन्तवर्ती है ऐसा अनन्तवर्ती भवप्रवाह है इस भव प्रवाह का जो भाव है वह अनन्तवर्तिता है इस अनन्तवर्तिता की जो भावना है वह-अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा है। अथवा "अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा" इस छाया पक्ष में ऐसा अर्थ होता है जिसका अन्त अविद्यमान हो वह अनन्त है ऐसी अनन्तरूप वृत्ति जिस भवसन्तान परम्परा की है वह अनन्तवृत्ति है इसका जो भाव है वह अनन्तवृत्तिता है इस अनन्त
શુકલધ્યાન સંબંધી અનુપ્રેક્ષાઓ નીચે પ્રમાણે છે–(૧) અનંતવર્તિતા, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा, (३) अशुमानुप्रेक्षा मने (४) मायानुप्रेक्षा. मनत થઈને જે રહે છે તે અનંતવર્તી છે. એવો અનંતવર્તી ભવપ્રવાહ છે. તે ભવપ્રવાહને જે ભાવ છે, તે અનંતવર્તિતા છે. તે અનંતવર્તિતાની જે ભાવના છે तनाम सनतपति अनुप्रेक्षा छे भय! " अनन्त वृत्तितानुप्रेक्षा" मा પ્રકારની અનંતવર્તિતા અનુપ્રેક્ષાની સંસ્કૃત છાયાની અપેક્ષાએ તેના અને વિચાર કરવામાં આવે તે તેને આ પ્રમાણે અર્થ થશે–
જેને અંત અવિદ્યમાન હોય તેને અનંત કહે છે. એવી અનંત રૂપ જે વૃત્તિ જે ભવસન્તાન પરંપરાની છે, તેનું નામ અનંતવૃત્તિ છે. તેને જે ભાવ છે તેનું નામ અનંતવૃત્તિતા છે. તે અનંતવૃત્તિતાની જે અનુપ્રેક્ષા છે તેનું નામ ૯ અનંતવૃત્તિતા અનુપ્રેક્ષા” છે. એટલે કે જીવના ભવપ્રમાણને વારંવાર
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सुधा टीका स्था०४ उ० १ सू०९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम्
४५७ "एस अणाई जीवो संसारो सागरोव्व दुत्तारो।
नारयतिरियनरामरभवेसु परीहिंडए जीवो।१।" इति, छाया-" एप जीवोऽनादिः सागर इव संसारो दुरुत्तारः। नारक-तिर्यग-नरा-ऽमरभवेषु परिहिण्डते जीवः ।१।" इति,
इति शुक्लध्यानस्य प्रथमाऽनुपेक्षा। १ ॥ "विप्परिणामाणुप्पेहा" इति-परिणमनं -परिणामः = अवस्थाऽन्तरमाप्तिः, वि-विविधा अनेकप्रकारः परिणामो विपरिणामः, तस्यानुप्रेक्षा भावना विपरित णामानुप्रेक्षा पदार्थानां प्रतिक्षणविविधपरिणामाऽनुचिन्तनमित्यर्थः । यथा" सचट्ठाणाई असासयाई इह चेव देवलोगे य।।
सुरअसुरनराईणं रिद्धिविसेसा मुहाइ च ।१।” इति, छाया-" सर्वस्थानानि अशाश्वतानि इह चैव देवलोके च । सुरासुरनरादीनाम् ऋद्धिविशेषाः सुखानि च । १ । इति
इति द्वितीयाऽनुप्रेक्षा । २॥ त्तिता की जो अनुप्रेक्षा है वह अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा है । इसका तात्पर्य ऐसा है कि-जीव के भवभ्रमण का बार बार विचार करना यही अनन्तवृत्तिता, या-अनन्तवर्तिता अनुप्रेक्षा है । यथा-एस अणाई जीवो" इत्यादि यह जीव अनादि है और यह संसार दुस्तर सागर जैसा है यह जीव अनादिकाल से नारक तिर्यक-मनुष्य और देवगतियों में चक्कर लगाता है ऐसा विचार ही अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा है। ___ "विप्परिणामाणुप्पेहा" अवस्थान्तर प्राप्ति का नाम परिणाम है अनेक प्रकारके जो परिणामहैं वे विपरिणामहैं इन विपरिणामोंके पदार्थों की विविध अवस्थाओं का जो कि प्रतिक्षण उनमें हो रही है बार बार विचार करना यह विपरिणामाऽनुप्रेक्षा है। जैसे-"सवठाणाई" इत्यादि વિચાર કર્યા કર એ જ અનંતવૃત્તિતા અથવા અનવર્તિતા અનુપ્રેક્ષા છે.
म "एस अणाई जीवो" याहि-मा मनाहि छे, मन मा संसार દુસ્તર સાગર જેવું છે. આ જીવ અનાદિકાળથી નારક, તિયચ, મનુષ્ય અને દેવગતિમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે, આ પ્રકારના વિચારને જ અનંતવૃત્તિતા અનુ. પ્રેક્ષા કહે છે. આ પ્રમાણે અનુપ્રેક્ષાના પહેલા ભેદનું કથન કરીને હવે બીજા सेतुं नि३५ ४२पामा मात्र छ-" विपरिणामाणुप्पेहा" विपरियामानुप्रेक्षा
અવસ્થાન્તર પ્રાપ્તિનું નામ પરિણામ છે. અનેક પ્રકારનાં જે પરિણામ છે તેમનું નામ વિપરિણામ છે આ વિપરિણામોની અપેક્ષાએ પદાર્થોની વિવિધ અવસ્થાએાન-(કે જે પ્રતિક્ષણ તે પદાર્થોમાં થઈ રહી હોય છે) વિચાર કરવો तेनुं नाम “विपरियामा अनुप्रेक्षा छ, रेभ. “ सव्वदाणाइ" त्याल
स ५८
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स्थामा ____ " असुहाणुप्पेहा " इति-अशुभानुप्रेक्षा शुमा समीचीनः, न शुभोऽशुभःअशुभत्वमित्यर्थः, अशुभशब्दोऽशुभत्वपरः, तस्यानुप्रेक्षाऽशुभानुप्रेक्षा-संसारस्यासमीचीनत्वभावनेत्यर्थः, यथा
“धी संसारो जं जुयाणो परमवगचियो ।
मरिऊण जायइ किमी, तत्थेव कडेवरे नियए । १ । छाया-"धिक् संसारं यस्मिन् युवा परमरूपगर्षितः । मृत्वा जायते कृमिः, तत्रैव कलेवरे निजे । १।" इति,
इति तृतीयाऽनुपेक्षा । ३ ॥ " अवायाणुप्पेहा " इति-अपायानुप्रेक्षा-अपायः-अपगमः, स च कायवामनोयोगलक्षणाऽऽस्त्रवाणां वोध्यः, तस्यानुप्रेक्षा-आस्रवनिवारणाभावनेत्यर्थः, अपायानां प्राणातिपाताद्यास्रवजनितानर्थानामनुप्रेक्षा = अनुचिन्तनमपायानुप्रेक्षा, यथा" कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्रमाणा।
चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूलाई पुणब्भवस्स ।१।" इति, " अस्तुहाणुप्पेहा" ३-शुभ नाम प्रशस्त का है जो ऐसा नहीं है वह अशुभ है यह अशुभ शब्द अशुभता का वाचक है इसकी जो अनु. प्रेक्षा है वह अशुभानुप्रेक्षा है। यथा-"घी संसारो-" इत्यादि. "अवायाणुप्पेहा” ४-मनोयोग वचनयोग और काययोगरूप आस्रवों के अपगमन की जो भावना है वह अपायानुप्रेक्षा है । अथवा प्राणातिपात
आदि द्वारा हुवे कर्मात्रवों के अनर्थों का यार बार जो चिन्तन है वह' अपायाऽनुप्रेक्षा है। यथा-"कोहोय माणो य" इत्यादि अर्थात्-क्रोध,
___ "असुहाणुप्पेहा " " Hशुमा मनुप्रेक्षा " PL मापा २ मा પ્રશસ્તને શુભ કહે છે. જે એવું પ્રશસ્ત નથી તેને અશુભ કહે છે. તે અશુભ શબ્દ અશુભતાને વાર્થક છે. તે અશુભતાની જે અનુપ્રેક્ષા છે તેને અશુભા अनुप्रेक्षा ४ छ. म "धी संसारो" छत्याह
डवे याया प्रा२नी अनुप्रेक्षा ४८ ४२वामा मावे छ-" भवायाणुप्पेहा" - अपायानुप्रेक्षा-मनायो, पयनयो भने यो ३५ पासवाना मपमनानी (નિરોધની) જે ભાવના છે, તે ભાવનાને “અપાયા અનપેક્ષા ” કહે છે. અથવા-પ્રાણાતિપાત આદિ દ્વારા થયેલા કમાંઅના અનર્થોને વારંવાર જે वियार ४२वामi मावे छ, न अपायानुप्रेक्षा ५२ छ भ“कोहायमाणोय"
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सुघाटीका स्था०४ उ० १ सू० १० समेदादेव स्थितिनिरूपणम्
छाया
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" क्रोधश्व मानश्चानिगृहीतौ, माया च लोभथ प्रवर्द्धमानौ । चत्वार एते कृत्स्नाः कपायाः, सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥१॥ इति, इति चतुर्थ्यनुपेक्षा ॥ ४ ॥
इति ध्यानचतुष्टयस्वरूपम् ॥ (०९) ध्यानाद् देवत्वमपि स्यादतो देवस्थिति सभेदामाह - मूलम्-चडविंहा देवाणं ठिई पण्णत्ता, तं जहा- देवे णाममेगे १, देवसिणाए णाममेगेर, देवपुरोहिए णाममेगे३, देवपजलणे णाममेगे ४ । चव्विहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा - देवे णामगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेना, देवे णाममेगे छवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा॥सू०१०॥
छाया - चतुर्विधा देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा देवो नामकः १, देवस्नातको नामैः २, देवपुरोहितो नामकः ३, देवमज्वलनो नामकः ४ ! चतुमान, माया, और लोभ, ये चार कपाय पुनर्भव के मूल को सींचते हैं -४ इस प्रकार से यह ध्यान ध्यान चतुष्टय का स्वरूप है ॥ ३०९ ॥ ध्यान से देवपद की भी प्राप्ति जीव को होती है अतः - अब सूत्रकार सभेद से देवस्थिति का वर्णन करते हैं
44
हा देवाण ठिई पण्णत्ता " इत्यादि
सूत्रार्थ - देवों की स्थिति चार प्रकार की कही गई है, जैसे- देव १ देवस्नातक २ देवपुरोहित ३ और देवप्रज्वलन ४ । संवास चार प्रकार का कहा गया ઈત્યાદિ—એટલે કે ક્રાધ, માન, માયા અને લાભ, આ ચાર કષાયે પુનઃવના મૂલનું સિંચન કરે-છે, આ પ્રકારની ભાવનાનું નામ જ અપાયાનુપ્રેક્ષા છે. આ પ્રકારે સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં ચતુર્વિધ ધ્યાનનું નિરૂપણ કર્યુ* છે, ॥ સૂ. ૯૫ ધ્યાનના પ્રભાવથી જીવને દેવપદની પણ પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી હવે સૂત્ર કાર દેવસ્થિતિના ભેદોનું નિરૂપણ કરે છે——
चव्हा देवाण ठिई पूण्णत्ता " त्याहि-
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सूत्रार्थ-देवानी स्थिति और प्रारनी उडी घे - (१) हेव, (२) देवस्नात, (3) देवयुरोहित भने (४) देवप्रन्वसन,
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६०
स्थानास विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-देवो नामैको देव्या सार्द्ध संवासं गच्छेत, देवो नामैकः छव्या साई संवासं गच्छेत् , छवि मैको देव्या साई संवासं गच्छेन, छवि मैकश्छव्या साई संवासं गच्छेत् (मू० १०)। ____टीका-" चउबिहा" इत्यादि-देवानां स्थिति मर्यादा, चतुर्विधा प्रज्ञप्ता -कथिता, तद्यथा-' देवे' इत्यादि-एका कश्चित् , देवः सामान्यः सुरः, " नामे"-ति वाक्यालङ्कारे, एवमग्रेऽपि, १, एकः कश्चित् , देवस्नातकःदेवश्चासौ स्नातका प्रधानो देवस्नातकः, यद्वा-देवानां मध्ये स्नातका प्रधानो देवस्नातकः २, एका कश्चित् , देवानां पुरोहितः शान्तिप्रभृतिकर्मकारीति देव पुरोहितः ३, एका कश्चित्, देवप्रज्वलना-प्रज्वलयति-दीपयतीति प्रज्वलनः, देवानां प्रज्वलनो देव प्रज्वलना-मागधवद् देवस्तुतिपाठक: प्रज्ञप्तः ४)
देवस्थितिप्रस्तावादेवविशेषसंवासमाह - " चउबिहे" इत्यादि, देवो .. देव्या साद्ध संवासं-मैथुनाद्यर्थ सहावस्थानं गच्छेत् माप्नुयात् १, एका-कश्चित् , है, जैसे-एक देव का एक देवी के साथ संवास १ एक देव का छवि के साथ संवास २ छवि का देवी के साथ संवास-३ और छवि का छवि के साथ संवास ४।
विशेषार्थ-यहां स्थिति शब्द से आयु का ग्रहण नहीं हुवा है किन्तु-मर्यादा का ग्रहण हुवा है देवों की यह मर्यादारूप स्थिति ४ प्रकार की कही गई है जो इस प्रकार है-कोई एक देव सामान न्यसुर १ दूसरा कोई देवस्नातक प्रधानदेव २ कोई एक देवों का पुरोहित शान्ति आदि कर्मकारी देव पुरोहित ३ और कोई एक मागध की तरह देवस्तुतिपाठक देव प्रज्वलन-४। देवविशेष
સંવાસ ચાર પ્રકારને કહ્યો છે-(૧) એક દેવને એક દેવીની સાથે સંવાસ, (२) मे वन छविनी ( शरीरयुत नारीनी ) साथे सपास. (3) छविना. (वैठिय शरीरना) वानी साथे सपास मन (४) छविना (वैठिय शरीरना) . छवि साथे (वैठिय शरी२ साथे) सवास..
હવે આ સૂત્રને ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–અહીં “સ્થિતિ” પદ્ધ આયુના અર્થમાં વપરાયું નથી, પણ મર્યાદાના અર્થમાં વપરાયું છે. દેવેની આ મર્યાદા રૂપ સ્થિતિ ચાર પ્રકારની કહી છે. (૧) કઈ એક સામાન્ય દેવ. અહીં “નામ” પ વાકયાલંકાર રૂપે વપરાયું છે. એ જ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું. (૨) દેવસ્નાતક એટલે પ્રધાન (મુખ્ય) દેવ. જેમકે ઈન્દ્રાદિને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય. (૩) કેઈક દેવ દેવેને પુરેહિત પણ હોય છે. શાન્તિ આદિ કર્મકારી દેવપુરહિત હોય છે. (૪) દેવસ્તુતિ પાઠક દેવને દેવ પ્રજવલન કહે છે.
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सुधा टीका स्था०४ उ. १. १० समेदादेव स्थितिनिरूपणम्
देवः, छन्या = छविः = त्वक्, तद्योगादौदारिकशरीरं, शरीर - शरीरवतोरभेदोपचाराच्छविरपि च्छविमती नारी तिरथी वा, तया सार्द्ध=सह, संवासं गच्छेत् २, एकः = कश्विदेवः, छविः = वैक्रियशक्त्यौदारिक- शरीरवान् नरस्तिर्यग्वा भूत्वा देव्या सार्द्धं संवासं गच्छेत् ३. एकः = कश्विदेवः, छवि = वैक्रियशक्त्या औदारिकशरीरवान् संवास देव का देवी के साथ मैथुन कर्म करने के लिये जो सहावस्थान होता है उसका नाम संवास है, यह संवास चार प्रकार का कहा गया है, एक प्रकार को संवास पूर्वोक्तरूप से ही है, अर्थात्- किसी एक देव का देवी के साथ मैथुन आदि सेवन करने निमित्त जो सहावस्थान होता है वह - प्रथम प्रकार का संवास है ? द्वितीय प्रकार का संवास ऐसी है इस संवास में छवि शब्द से शरीर और - शरीरवालों में अभेद सम्बन्ध लेकर छविमती नारी या-तिरची, ली गई है, ऐसे तो छवि शब्द का अर्थ त्वचा है परन्तु-त्वचा के योग से औदारिक शरीर का ग्रहण होता है यह औदारिक शरीर नारी और तिर्यकत्रियों को होता है कोई एक देव नारी, या तिरची [ तिर्यग्जाति की स्त्री ] के साथ संवास कर सकता है २ तृतीय प्रकार के सवास में कोई एक देव वैक्रिय शक्ति द्वारा औदारिक शरीरवान् नर, या तिर्यश्च होकर देवी के साथ संवास कर सकता है - ३ तथा चतुर्थ प्रकार के संवास में एक कोई देव वैक्रिय
દરે
દેવવિશેષના સંવાસનું નિરૂપણુ—દેવતુ દેવીની સાથે મૈથુન સેવન કરવા માટે જે સહાવસ્થાન થાય છે, તેનું નામ સવાસ છે તે સવાસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કાઇ એક દેવનુ કાઈ એક દેવી સાથે મૈથુન સેત્રન કરવા માટે જે સહાવસ્થાન થાય છે તેને પ્રથમ પ્રકારના સવાસ કહે છે. હવે બીજા પ્રકારના સંવાસનું નિરૂપણુ કરવામાં આવે છે. સવાસમાં छवि પદ્મ શરીરના અ’માં વપરાયુ છે. શરીર અને શરીરવાળાની વચ્ચે અભેદ સ’બ'ધની અપેક્ષાએ ‘વિ ’ પદના અર્થ અહીં શરીરવાળી નારી અથવા તિય "ચિણી સમજવે। જોઈએ. આમ તા ‘વિ’પદના અર્થ તચા ચામડી થાય છે, પરન્તુ ત્વચાના યાગથી અહીં ઔદારિક શરીર જ ગ્રહણુ થવુ' જેઈએ. આ ઔદ્યારિક શરીરનેા સદ્ભાવ સ્રી અને તિર્યંચણીમાં જ હોય છે. એટલે બીજા પ્રકારનેા સવાસ આ પ્રકારને સમજવા—
"
: । द्वेव मनुष्य लतिनी स्त्री अथवा तिर्ययिली ( तियय लतिनी स्त्री ) સાથે સવાસ કરે છે. (૩) કોઇક દેવ પાતાથી વૈક્રિય શક્તિથી ઔદારિક શરીરધારી પુરુષ અથવા તિય થતુ રૂપ ધારણ કરીને દેવીની સાથે સવાસ કરી શકે છે. (૪) સવાસના ચેાથે! પ્રકાર-કઈ એક દૈવ વૈયિશક્તિ દ્વારા ઔડા
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કચ્
स्थानाङ्ग सूत्रे
नरस्तिर्यग्वा भूत्वा छष्या = वैक्रियशक्त्या विकुर्वितया, विर्यग्लोकगतया वा औदारिकशरीरवत्या नाय तिरश्च्या वा सार्द्धं संवासं गच्छेत् ४ ( सू० १० ) । इतोऽनन्तरं संवास उक्तः, स च वेदलक्षणमोहोदयाद्भवत्यतः प्रसङ्गान्मोहविशेषभूतकषायं सभेदं निरूपयितुमाह
मूलम् - चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा- कोहकसाए १, माणकलाए २, मायाकसाए ३, लोहकसाए ४, एवं णेरइयाणं जाव वैमाणियाणं २४, चउप्पइट्टिए कोहे पण्णत्ते, तं जहा - आयपइट्टिए, परपइट्टिएर, तदुभयपइट्टिएर, अप्पइट्टिए ४ । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं २४, एवं जाव लोहे जाव वेमाणि - याणं २४ । चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती सिया, तं जहा --खेत्तं पडुच्च, वत्थं पडुच्च, सरीरं पडुच्च, उवहिं पडुच्च । एवं रइयाणं जाव वैमाणियाणं २४, एवं जाव लोहुप्पत्ती वेमाणियाणं २४, उवि कोहे पणत्ते, तं जहा अणताणुंबंधी कोहे १, अपच्चक्खाणे कोहे २, पच्चवखाणावरणे कोहे ३, संजलणे को हे ४ । एवं रइयाणं जाव वैमाणियाणं २४, एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं २४ | चउव्विहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगणि व्वत्तिए १, अणाभोगणिव्वत्तिए २, उवसंते ३, अणुवसंते ४ । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं २४ ॥ सू० ११ ॥
शक्ति द्वारा औदारिक शरीर युक्त मनुष्य या तिर्यञ्च होकर वैक्रिय शक्ति सेविकुर्वित हुई के साथ, अथवा तिर्यग्लोक में गत औदारिक शरीरवाली नारी के साथ, या तिर्यञ्चतीके साथ संबास कर सकता है । सू १० ॥
રિક શરીરવાળા મનુષ્ય અથવા તિય ચતુ` રૂપ લઇને વૈયિશક્તિ દ્વારા વિધ્રુવિત કરેલી દેવીની સાથે, અથવા તિર્યંÀાકમાં રહેલી ઔદારિક શરીરવાળી. નારીની साथै अथवा तिर्य थिली साथै 'स'वास' मेरी 'राजे थे. ॥ सू. १० ॥
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू० ११ समेदं मोहविशेषभूत कपानिरूपणम् ४६३
छाया - चत्वारः कुषायाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा - क्रोधकपायः १, मानकपायः २, मायाकषायः ३, लोभकपायः ४। एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम् २४ | चतुष्प्रतिष्ठितः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - आत्मप्रतिष्ठितः १, परमतिष्ठितः २, तदुभयमतिष्ठितः ३, अप्रतिष्ठितः ४ | एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम् २४| एवं यावत् लोभः यात्रत् वैमानिकानाम् २४ | चतुर्भिः स्थानैः क्रोधोत्पत्तिः स्यात्, तद्यथा - क्षेत्रं प्रतीत्य, वस्तु प्रतीत्य, शरीरं प्रतीत्य, उपधिं प्रतीत्य । एवं नैरयि
संवास जो कहा गया है वह वेदरूप मोह के उदय से होता है, अतः - अब सूत्रकार इसी प्रसङ्ग से मोह के विषयभूत कषाय का भेद सहित कथन करते हैं-" चत्तारि कसया पण्णत्ता " इत्यादि
-आत्ख
सूत्रार्थ - कषाय चोर कही गई है, जैसे-क्रोध कषाय मान कषाय माया - वैमानिक कषाय और लोभ कषाय ये कषाय नारक से लेकर यावत्तक को होती हैं। क्रोध कषाय चतुष्प्रतिष्ठित कहा गया है जैसेप्रतिष्ठित क्रोध पर प्रतिष्ठित क्रोध तदुभयप्रतिष्ठित क्रोध और अमष्ठित क्रोध, इसी तरह का कथन नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में जानना चाहिये। इसी तरह से चतुष्प्रतिष्ठित यावत् लोभ कषाय तक कह लेनी चाहिये, और सब की चतुष्प्रतिष्ठित नारक से लेकर वैमानिक तक में है ऐसा जानना चाहिये, । क्रोध की उत्पत्ति चार कारणों से होती है, जैसे-क्षेत्र को लेकर, वस्तु को लेकर, शरीर को लेकर, और - उपधि को लेकर। इसी प्रकार क्रोध की उत्पत्ति के इन
ઉપરના સૂત્રમાં જે સંવાસનું' પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તે વેદરૂપ ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર મેાહના વિષય लूत उषायना लेहोनु नि३ रे छे - " चत्तारि कसाया पण्णत्ता " त्याहि उषायना यार प्रार उद्या छे - ( १ ) अधिषाय, (२) भानउषाय, ( 3 ) भाया કષાય અને (૪) લેાભકષાય આ ચારે કાયાના સદ્ભાવ નારકથી લઇને વૈમાનિક પન્તના જીવેામાં હુંય છે ક્રધકષાય ચતુષ્પતિષ્ઠિત કહ્યો છે-જેમકે (१) आत्मप्रतिष्ठित अध, (२) परप्रतिष्ठित अध, ( 3 ) तदुभय प्रतिष्ठित अध અને (૪) અપ્રતિષ્ઠિત ક્રાય, એ જ પ્રકારનું કથન નારકથી લઇને વૈમાનિકા પયન્તના જીવેામાં સમજી લેવું. એ જ પ્રમાણે માનકષાય, માયાકષાય અને લાભકષાયને ચતુપ્રતિષ્ઠિત કહ્યા છે નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના જીવેામાં આ ચારે કષાયેાની વતુપ્રતિષ્ઠિતતાના સદ્દભાવ સમજી લેવા જેઈએ
अधनी उत्पत्ति नीयेना यार भर थाय छे - (1) क्षेत्रने सधने, (२) वस्तुने सीधे, (3) शरीरने सीधे भने (४) उपधिने सीधे अपनी उत्पत्तिना
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स्थानासो काणां यावत् वैमानिकानाम् २४। एवं यावत् लोभोत्पत्तिः वैमानिकानाम् २४॥ चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनन्तानुवन्धी क्रोधः १, अपत्याख्यानाक्रोधः २, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः ३, संज्वलनः क्रोधः ४। एवं नैरयिकाणां यावत वैमानिकानाम् २४। एवं यावत् लोभः वैमानिकानाम् । चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आभोगनिर्वर्तितः १, अनाभोगनिर्वतितः २, उपशान्तः ३, अनुपशान्तः। ४। एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम् २४। एवं यावत् लोभः यावत् वैमानिकानाम् २४। (सू० १३) चार कारणों का कथन नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में कह लेना चाहिये। इसी तरह से लोभोत्पत्ति के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । यावत्-वैमानिक तक जानना चाहिये । क्रोध चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-अनन्ताऽनुबन्धी क्रोध १ अप्रत्याख्यानी क्रोध २ प्रत्याख्यानसम्बन्धी क्रोध-३ और संज्वलनसम्बन्धी क्रोध ४ । इसी तरह क्रोध की यह चतुष्प्रकारता नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक के जीवों में भी जाननी चाहिये, तथा यावत् लोभ तक की चतु. प्रकारता भी यावत् वैमानिक तक में जाननी चाहिये। क्रोध इस प्रकार से भी चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-आभोगनिवर्तित १ अनाभोग निवर्तित २ उपशान्त और अनुपशान्त ४ इसी प्रकार का कथन नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिकों तक में जानना चाहिये । इसी तरह से यावत्-लोभ के भी चार भेद हैं, और वे यावत् वैमानिक तक में हैं।२४। આ ચાર કારનું કથન નારકથી લઈને વિમાનિકે પર્વતના જીવને વિષે પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેભની ઉત્પત્તિનાં કારણે પણ સમજવા વૈમાનિક પર્યન્તના જીવને આ કથન લાગુ પાડી શકાય छ. मी शते ५ अध या२ मारने शो छ-(१) मनन्तानुमधी अध, (२) અપ્રત્યાખ્યાની કોધ, (૩) પ્રત્યાખ્યાન સંબંધી ક્રોધ અને (૪) સંજવલન સંબંધી ક્રોધ. એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેભના પણ ચાર પ્રકાર સમજવા. ક્રોધથી લઈને માન પર્વતના કષાયોની આ ચતુષ્પકારતાને નારકથી લઈને વૈમાનિકે પર્યન્તના જીવમાં સદ્દભાવ સમજો.
अपना मा शत ५ यार ४१२ ५ छ-(१) मानवतित, (२) मनानासनिवतित, (3) शान्त मन (४) अनुपान्त. २. ४२वें न નારકની લઈને વૈમાનિકે પર્યન્તના જી વિષે પણ સમજવું. એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લાભના પણ ચાર પ્રકાર સમજવા. આ ચતુષ્પકારતાને સદ્ભાવ નારકથી લઈને વૈમાનિકે પર્વતના જીવોમાં પણ સમજ.
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सुधा टीका स्था०४३० १ सू० २१ समेदं मोइविशेषभूनकपायनिरूपणम् ४६५ ' टीका-" चत्तारि" इत्यादि-चत्वारः चतुः संख्याः, ' कसाया:-कुपन्तिविलिखन्ति कर्मक्षेत्रं सुखदुःखरूपफलयोग्यं कुर्वन्ति, वा-जीवं कलुपयन्तीति निरुत्था कपायाः, उक्तं च-" सुहदुक्खव हुसस्सियं कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसायत्ति बुच्चंति ।१।"
छाया-सुखदुःखबहुसस्थित कर्मक्षेत्र कुर्वन्ति ते यस्मात् । कलुपयन्ति यच्च जीवं तेन कपाया इति उच्यन्ते ॥१॥" यद्वा-कपति-प्राणिनं हिनस्तीति कपं कर्म भवो वा, तस्याऽऽयो लाभः कपायः क्रोधादिभेदः कर्महेतुभवहेतुर्वा, कर्मभवान्यतरमाप्तिलक्षणकपायकार्य प्रति क्रोधादीनां कारणत्वेन कार्यकारणयोरभेदोपचारात् कपायपदेन क्रोधादिगृह्यते, अथवाकपः कर्म भवो वा तम् आययति प्राणिनः प्रापयन्तीति कपाया: प्राणिनां कर्मभवपापकाः, ते च क्रोवादयो वक्ष्यन्ते, उक्तं च-" कम्मं कसं भवो वा कसमा.
ओसिं जओ कसायाओ । कसमाययति वा जओ गमयंति कसं कसायत्ति ।१।" ____ जो कर्मस्पी क्षेत्र को सुखदुःखरूप फल के योग्य बनाती है वे कषाय हैं। अथवा-जो जीव को कलुषित मलिन बनाती हैं, वे कपाय हैं। उक्त भी है-"सुदुक्खबहसस्सियं" इत्यादि ? अथवा प्राणी की हत्या जो करता हैं वे कषाय हैं। अथवा-कष कर्म या भव का जिससे आय लाभ होता है वे कपाय हैं। ये कषाय क्रोध आदि भेदवाला हैं और-कर्म का, या भव का हेतु हैं। कर्म, और भव इनमें से किसी एक की प्राप्तिकारक कार्य के प्रति क्रोधादिक कारण होते हैं, इसलिये कार्य कारण में अभेदोपचार सम्बन्ध को लेकर कयाय पद से क्रोधादिक गृहीत होते हैं । अथवा-जो जीव को कष कर्म या भव की प्राप्ति करते हैं वे कषाय हैं, ये कषाय क्रोधादिकरूप हैं। कहा भी है-" कम्मं कसं भवो
વિશેષાર્થી–જે કર્મરૂપી ક્ષેત્રને સુખદુઃખ રૂ૫ ફલને યોગ્ય બનાવે છે, તે કષાય છે. અથવા જે જીવને કલુષિત (મલિન) બનાવે છે, તે કષાય છે. ४घु प छ -“ सह दुक्ख बहुसस्सिय" त्यादि । १ ।
અથવા જે પ્રાણીની હત્યા કરે છે, તે કષાય છે. અથવા “કષ” એટલે કમ અથવા ભવ અને ૪ આય” એટલે લાભ, આ રીતે કર્મ અથવા ભવને જેનાથી લાભ થાય છે તેને કષાય કહે છે તે કવયના ફોધાદિ ભેદે છે અને તે કર્મ અથવા ભવના ક રણરૂપ છે. કર્મ અને ભવ, આ બનેમાંથી કઈ પ્રાતિકારક કાર્યમાં કોધાદિક કારણભૂત બને છે, તેથી કાર્યકારણમાં અભેદ. પચાર સ બ ધને અનુલક્ષીને કષાય પરથી ફોધાદિક ગૃહીત થયેલ છે અથવા જે જીવને કષ (કર્મ અથવા ભવ) ની પ્રાપ્તિ કરાવે છે, તેનું નામ કા ય છે.
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ફેક
स्थानातसूत्रे
इति, छाया - कर्म कपः भवो वा कपः अनयोरायः यतः कपायात् । कपमाययन्ति वा तो गमयन्ति कथं कपाया इति |१| " इति, मज्ञप्ताः कथिताः, तद्यथा" कोहकसाए "- क्रोधकपायः - क्रोधनं क्रोधः, यद्वा- क्रुध्यत्यनेनेति क्रोधः - क्रोधमोहनीयोदयजनितः स्वपरसन्तापको जीवस्य परिणामविशेष, अथवा - मोहनीयकर्मैव, क्रोधवास कपायः क्रोधकपायः १,
6"
माणकसाए " - मानकषायः - मननं मानः = ' जात्यादिगुणवानह ' - मित्यादिरूपोऽहङ्कारः, स चासौ कपायो मानकपायः = मानमोहनीयो - दयजनितोऽन्यापमाननरूप आत्मपरिणामविशेषः २,
66
मायाकसाए "-मीयतेऽनयेति माया, सा चासौ कपायः = मया कषायः, माया मोहनीयोदयजनितपरवञ्चनारूप आत्मपरिणामः ३,
वा" इत्यादि कषाय के चार भेद, क्रोध १ मान २ माया ३ और लोभ ४ ये हैं । कोप करना इसका नाम क्रोध है । अथवा आत्मा जिसके द्वारा कोप करता है वह क्रोध है, ऐसा वह क्रोध क्रोध मोहनीय के उदय से जनित हुवा स्व पर सन्तापक जीव का एक परिणाम विशेषरूप होता है । अथवा - मोहनीय कर्म ही क्रोध कषायरूप है १ । मैं जोत्यादि गुण वाला हूं ऐसा जो एक प्रकार का जीव को अहङ्कार होता है वह मान है यह मानरूप कषाय मान मोहनीय कर्म के उदय से दूसरों का अपमान मूलक आत्मा का परिणाम विशेष है २ । माया कषाय यह कषाय माया मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न परवश्चनरूप (दूसरे को ठगना ) आत्मा का एक प्रकार से परिणाम विशेष होता है तद्रूप है । ३ लोभ ते उपाय कोधादि ३५ होय छेउछे - " कम्मं कस भवो वा " त्याहि उषायना नीचे प्रभाथे यार प्रहार छे - (१) डोध, (२) भान, (3) भाया અને (૪) લાભ. કૈપ કરવા તેનું નામ ક્રોધ છે. અથવા આત્મા જેના દ્વારા કાપ કરે છે તેનું નામ ક્રોધ છે. એવા તે ક્રોધ ક્રોધમેાહનીયના ઉદ્મયથી જનિત થયેલ સ્વ-પર સંતાપક ( પીડક ) જીવના એક પરિણામ વિશેષરૂપ હોય છે. અથવા મેાહનીય કર્મ જ ક્રોધકષાય રૂપ છે. । ૧ ।
"हुँ जति यहि गुलोथी संपन्न छ, " मा अारना भवने ने मईકાર થાય છે તેનું નામ માન છે. તે માનમેહનીયના ઉદ્દયથી જનિત એવું અન્યનું અપમાન કરનારૂં આત્માનું પરિણામવિશેષ છે. । ૨ ।
માયાકષાય———તે માયામાહનીય કમના ઉદયથી જનિત અન્યને ઠગવારૂપ આત્માનું એક પ્રકારનું પિરણામિવશેષ છે,
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सुधी का स्था। उ०१ सू० ११ सभेदं मोहविशेषतभूतकपानिरूपणम् ४६७ ___ " लोहकसाए "-लोभनम् अभिकाङ्क्षणं लोभः, यद्वा-लुभ्यतेऽनेनेति लोभः, स चासौ कपायो लोभकषायः लोभमोहनीयोदयजनितो जीवस्यासन्तोषात्मक परिणामविशेषः ४।
" एव"-मिति-अनेन प्रकारेण अर्थाद यथा सामान्यतश्चत्वारः कपायाः प्राप्तास्तथा, 'पोरइया' इति-नैरयिकाणां-नारकाणां यावद्वैमानिकानामिति भवनपतिमारभ्य वैमानिकपर्यन्त चतुर्विंशतिदण्डकोक्तानां विज्ञेयम् २४ । ___" चउप्पइहिए " इत्यादि-चतुष्प्रतिष्ठितः-चतुर्यु प्रतिष्ठितः-आश्रितः चतुपतिष्ठितः, क्रोधः = क्रोधरूपः प्रथमकपायः प्रज्ञसः, तद्यथा-आत्मप्रतिष्ठितःआत्मनि स्वस्मिन् स्वापराधवशेनैहिकिकपारलौकिकापायप्रदर्शनादुत्पन्नतया प्रतिष्ठितः- प्रविष्ट आत्मप्रतिष्ठितः आत्मविषय इत्यर्थः १, " परमतिष्ठितः"कषाय-यह कषाय लोभ मोहनीय कर्म के उदय से जायमान जीव का जो असन्तोषरूप परिणाम होतो है तद्रप है ४ । सामान्यरूप से ये चार कषाय जिस प्रकार प्रतिपादित हैं, इसी प्रकार से इन कषायों का सम्बन्ध नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डक में जानना चाहिये। क्रोधरूप जो प्रथम कषाय है वह चतुष्प्रतिष्ठित है उसका तात्पर्य ऐसा है कि यह क्रोधरूप कषाय आत्मप्रतिष्ठित तय होता है कि जब यह जीव अपने अपराध के वश से इहलोक सम्बन्धी अपायों और परलोक सम्बन्धी अपायों को देखता है तब इसे अपने कुत्सित कर्तव्यों के प्रति एक प्रकार की झुंझलाहट सी छूटती है, इस प्रकार से स्व की
ओर झुंझलाहट छूटने रूप जो यह क्रोध कषाय है वह आत्मप्रतिष्ठित क्रोधकषाय है । तात्पर्य इस कथन का केवल यही है कि आत्मा जय
ભકષાય–આ કષાય લેભમેહનીય કર્મના ઉદયથી જનિત જીવના અસતેષ પરિણામરૂપ હોય છે. આ ચારે પ્રકારના કષાયને સદ્ભાવ નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના ૨૪ દંડકના જીમાં હોય છે.
ક્રોધરૂપ પ્રથમ કષાય નીચેનાં ચાર સ્થાનમાં પ્રતિષ્ઠિત થયેલે છે(૧) આત્મપ્રતિષ્ઠિત-જીવ જ્યારે પિતાના અપરાધને કારણે પેદા થનારા આલેક સંબધી અપને અને પરલેક સંબધી અપાને સમજી શકે છે, ત્યારે તેને પિતાના દુકૃત્ય પ્રત્યે એક પ્રકારને અણગમો ઉત્પન્ન થાય છે, આ રીતે પિતાની જાત પ્રત્યે જ તિરસ્કાર થવા રૂપ, અથવા પિતાના આત્માને જ ઠપકે આપવા રૂપ જે ક્રોધ ઉત્પન્ન થાય છે તેને આત્મપ્રતિષ્ઠિત ફોધ કહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે
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બુદ્ધ
स्थाना
परेण= अन्येन शापादिनोत्पादिततया प्रतिष्ठितः = परमविष्टितः परविषय इत्यर्थः २, " तदुभयमतिष्ठितः " उमावयवो यस्य स उभयः समुदायः, तयोरात्मपरयोरुभयस्तदुभयस्तत्र प्रतिष्ठितस्तदुभयमतिष्ठितः आत्मपरप्रतिष्ठितः आत्मपर विषय इत्यर्थः ३,
" अमतिष्ठितः " - आक्रोशादिकारण निरपेक्षः क्रोधमोहनीयोदयमात्रजन्यश्वतुर्थः क्रोधो भवति । यद्यपि अयं क्रोधस्य चतुर्थो भेदो जीवमतिष्ठितो भवति । तथापि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तः, न तु सर्वथा अप्रतिष्ठितः, किसी अकृत्य कार्य की ओर झुकता है या कर देता है तब अपने आपके ऊपर जो एक प्रकार की ऐसी कोषभरी परिणति उत्पन्न होती है कि "मैं अब ऐसा नहीं करूंगा " यह मुझे नहीं करना था "मैंने बडा अपराध किया है" इस प्रकार से अपने ऊपर एक प्रकार की क्रोध जैसी परिणति जगती है वही क्रोधकषाय आत्मप्रतिष्ठित है ।
परतिष्ठित क्रोधकपाय वह है जो शाप आदि द्वारा पर में उत्पन्न कराई जाती है तथा जो क्रोधकपाय अपने में, और पर में, दोनों में प्रतिष्ठित होती है वह तदुभयप्रतिष्ठित क्रोध कपाघ है-३ तथा अप्रतिष्ठित क्रोध कपाय वह है जो आक्रोश आदि कारणों से निरपेक्ष बनकर केवल क्रोध मोहनीय के उदय से जन्य होती है । यद्यपि क्रोध का यह चतुर्थ नेद जीव में प्रतिष्ठित होता है तो भी आत्मादि विषय में अनुत्पन्न होने के कारण ही अप्रतिष्ठित कहा गया है सर्वथा रूप से अप्र तिष्ठित नहीं कहा गया है । यदि वह सर्वथा अप्रतिष्ठित होता तो
આત્મા જ્યારે કોઇ દુષ્કૃત્ય કરવાનું વલણુ બતાવે છે, અથવા કેાઇ દુષ્કૃત્ય કરી નાખે છે, ત્યારે જીવને પેાતાની જાત પ્રત્યે જ એવી ફોધભરી પરિણિત ઉત્પન્ન થાય છે કે “ મેં આ શું કર્યુ ? આ પ્રકારનું કૃત્ય મને શાલતું નથી. ” પેાતાના આત્મા પ્રત્યેજ આ પ્રકારની ક્રોધભરી પરિણતિ ઉત્પન્ન થવી એનું નામ જ આત્મપ્રતિષ્ઠિત ક્રોધ છે
પરપ્રતિષ્ઠિત કોધકષાયનું નિરૂપણુ-શાપ આદિ દ્વારા પરમાં જે ક્રોધકષાય ઉત્પન્ન કરાય છે, તેને પરપ્રતિષ્ઠિત ક્રોધકષાય કહે છે.
જે ક્રોધકષાય પેાતાની અંદર અને પરની અંદર, એમ સ્વ-પર અનેમાં પ્રતિષ્ઠિત હૈાય છે, તેને તદ્રુભય પ્રતિષ્ઠિત કોધકષાય કહે છે.
જે ક્રાધકષાય આકાશ આદિ કારાની અપેક્ષા રાખ્યા વતા, માત્ર ક્રોધમેહનીયના ઉદયથી જનિત હાય છે, તેને અપ્રતિતિ ક્રોધકષાય કહે છે. જો કે ક્રોધના આ ચતુર્થ ભેદ જીવમાં પ્રતિષ્ઠિત હોય છે, છતાં પણ આત્માદિ વિષયામાં અનુત્પન્ન હાવાને કારણે જ તેને અપ્રતિષ્ઠિત કહ્યો છે. સવથા રૂપે
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मुंषा का स्था० ४ उ. १सू० ११ समैद मोहविशेषभूतकषायनिरूपणम् ४६९ यदि सर्वथा अप्रतिष्ठितः स्यात्तदा " चतुष्पतिष्ठितः क्रोधः” इति प्रतिज्ञावाक्यमसङ्गतं स्यादिति । एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणां कोपस्याऽऽत्मादिप्रतिष्ठितत्वं पूर्वभवे क्रोधपरिणामपरिणतमरणेनोत्पन्नानामिति ।
‘एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ' इति । एवम् अनेन प्रकारेण क्रोधादि चत्वारः कपाया नैरयिकादारभ्य वैमानिकपर्यन्तं विज्ञेया इति ।
" एवं जाव लोहे वेमाणियाण " इति-एवम् अनेन प्रकारेण यथा क्रोधश्चतुष्पतिष्ठित उक्तस्तथा मान-माया-लोभा अपि चतुष्पतिष्ठिताः, नारकादि वैमानिकपर्यन्तचतुर्विशतिदण्डकेषु विज्ञेया । "चतुप्रतिष्ठित क्रोधः" ऐसा यह कहना असंगत हो जाता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के कोप में आत्मादि प्रतिष्ठितता उनको क्रोध परिणाम से परिणत हवे मरण से उत्पन्न होने के कारण से जाननी चाहिये। इसी प्रकार से नैरधिक से लेकर यावत् वैमानिक तक के चतुर्विशति २४ चोवीस दण्डकों में रहने वाले जीवों के क्रोध में भी चार कारण जानना चाहिये। तथा इन सब में क्रोधादि चार कषायों का सद्भाव जानना चाहिये।
जिस प्रकार से क्रोध में चार कारण कहा है, उसी प्रकार से-" एवं जाव लोहे वेमाणियाणं" मान माया और लोभ में भी चतूप्रतिष्ठितताजाननी चाहिये । और यह चतुष्प्रतिष्ठितानारकादि वैमानिक पर्यन्त चोवीस दण्डकोंमे रहनेवाले जीवों के मानादिक कषायों में है ऐसा समझना चाहिये। मप्रतिष्ठित हो नथी. नत सर्वथा मप्रतिष्ठित सतत " चतुष्पतिष्ठितः क्रोधः " मा ४थन मसात मनी and मेन्द्रिय भने विसन्द्रिय सीमा ક્રોધની આત્મપ્રતિષ્ઠિતતા આદિને સદુભાવ જોધપરિણામથી પરિણત થયેલા મરણથી ઉત્પન્ન થવાને કારણે સમજ જોઈએ. એ જ પ્રમાણે નારકથી લઈને વિમાનિક પર્યન્તના ૨૪ દંડકના જીવનમાં કોધમાં પણ ચતુપ્રતિષ્ઠિતતા સમજવી જોઈએ અને તેમાં ક્રોધાદિ ચાર કષાને સદ્દભાવ સમજો જોઈએ. ____"एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " २ रे अधमा यतु प्रतितिता प्रट કરવામાં આવી છે, એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેભમાં પણ ચતુષ્પતિષિતતા સમજવી, અને નારથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના જીવમાં માન, માયા અને ભરૂપ કષાની અપેક્ષાએ પણ તે ચતુપ્રતિષિતતાને સદ્દભાવ સમજ
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स्थाना# सूत्रे
क्रोधादयः कषाया उक्तास्तत्र क्रोधः किं किमाश्रित्योत्पद्यते ? इत्याह" चउहिं " इत्यादि - चतुर्भिः स्थानैः क्रोधोत्पत्तिः स्यात्, तद्यथा - क्षेत्रं =नारकादीनां स्थानं=प्रतीत्य = आश्रित्य क्रोधः स्यात् ?,
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वस्तु=सचेतनादि पदार्थम्, प्रतीत्य क्रोधः स्यात्, यद्वा-वास्तु = गृहभूमिं प्रतीत्य क्रोधः स्यात् २, शरीरं कार्यं दुरवस्थां प्राप्तं विरूपं वा प्रतीत्य क्रोधः स्यात् ३, उपधिम् = उपकरणं प्रतीत्य क्रोधः स्यात् ४ । एकेन्द्रियाणां जीवानां भवान्तरपेक्षया क्रोधोत्पत्तिः स्यात् ।
" एवं णेरइयाणं " इत्यादि-अनेन प्रकारेण, नैरयिकाणामित्यारभ्य बैमानिकानामिति चतुर्विंशतिदण्डक पर्यन्तं पठनीयम् ।
अब सूत्रकार यह प्रगट करते है कि क्रोध किस किस कारण को आश्रित करके उत्पन्न होता है-" चउहिं " इत्यादि, वे इस सूत्र द्वारा यह प्रगट कर रहे हैं - कि इन चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है वे चार कारण इस प्रकार से हैं- इनमे एक कारण है क्षेत्र तारकादिकरूप क्षेत्र को आश्रित करके क्रोध हो सकता है १ सचेतनादि पदार्थरूप वस्तु को लेकर क्रोध हो सकता है - २ दुरवस्था को प्राप्त हुवे शरीर को लेकर या विरूपावस्था को प्राप्त हुवे शरीर को लेकर जीव को क्रोध हो सकता है ३ या उपकरण रूप उपधि को लेकर क्रोध हो सकता है ? एकेन्द्रिय जीवों में क्रोध की उत्पत्ति भवान्तर की अपेक्षा से जाननी चाहिये । " एवं णेरइयाणं" इत्यादि, इसी प्रकार से क्रोधोत्पत्ति के कारणों का कथन नैरइक से लेकर वैमानिक तक के चतुर्विशति दण्डकस्थ जीवों में भी जानना चाहिये ।
હવે સૂત્રકાર એ વાતને પ્રકટ કરે છે કે કૈાધ કયા કયા કારણેાને લીધે उत्यन्न थाय छे – “ चउहिं " ઈત્યાદિ, નીચેના ચાર કારણેાને લીધે ક્રોષની उत्पत्ति थाय छे.
(१) क्षेत्र-नार ि३५ क्षेत्रने र ोध उत्पन्न थाय छे.
(૨) સચેતનાદિ પદારૂપ વસ્તુને કારણે પણ ક્રોધ ઉત્પન્ન થાય છે. (૩) દુરવસ્થા પામેલા શરીરને કારણે અથવા વિરૂપાવસ્થા પામેલા શરીરને કારણે પણ ક્રોધ ઉત્પન્ન થાય છે
(૪) ઉપકરણ રૂપ ઉષિને કારણે પણ ક્રોધ ઉત્પન્ન થાય છે.
એકેન્દ્રિય જીવેામાં કોધની ઉપત્તિ ભવાન્તરની અપેક્ષાએ સમજવી लेध्ये. “ एव णेरइयाणं " त्याहि-शेधात्पत्तिना भी यार अरथेोनुं अथन નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના જીવેાના વિષયમાં પણ મહેણુ થવું ોઇએ.
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सुमा का स्था० ४ १०१ सू०११ सभेदं मोहविशेषभूतकषायनिरूपणम् ४७१
. "एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " इति-अनेन प्रकारेण अर्थाद यथा क्षेत्रादिकं प्रतीत्य क्रोधोत्पत्तिः कथिता, तथा मान-माया-लोभा अपि क्षेत्रादिकमाश्रित्य समुत्पद्यन्त "इति तैरपि लोभान्तं पदं योजयित्वा वैमानिकानामित्यन्तं तत्तद्दण्डकं पठनीयमित्यर्थः २४ । ___पुनः क्रोधादि चातुर्विध्यं निरूपयति-" चउबिहे कोहे " इत्यादिचतुर्विधः क्रोध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनन्तानुवन्धी क्रोधः-अविद्यमानोऽन्तोऽवधियस्य सोऽनन्तः संसारः, तमनुवघ्नातीत्येवंशीलोऽनन्तानुवन्धी, स क्रोधोऽनन्तानुवन्धी
- " एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " जिस प्रकार क्षेत्रादि को आश्रित करके क्रोध की उत्पत्ति हो सकने का कथन किया गया है उसी प्रकार से मान माया और लोभ भी क्षेत्रादिक को आश्रित करके उत्पन्न होते है इसलिये-क्षेत्र को आश्रित करके, वस्तु को आश्रित करके, शरीर को आश्रित करके, और उपधि को आश्रित करके, ऐसे पद उनके साथ जोडकर मान से लेकर लोभ तक की उत्पत्ति हो सकने का कथन कर लेना चाहिये ऐसा यह कथन नारक से लेकर वैमानिक तक के समस्त जीवों के क्रोधादिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कर लेना चाहिये ।
अब सूत्रकार पुनः क्रोधादिकों में चतुर्विधता का कथन इस प्रकार से करते हैं-" चउविहे कोहे" अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि " अविद्यमानोऽवधिर्यस्य सोऽनन्तः"जिसकी अवधि विद्यमान नहीं है वह अनन्त है ऐसा अनन्त संसार है ऐसे संसार का सम्बन्ध करने का जिसे स्व
" एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " प्रभारी क्षेत्राहि माया सन ક્રોધની ઉત્પત્તિના ચાર કારણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેભની ઉત્પત્તિ પણ ક્ષેત્રાદિક ચાર ક રણને લીધે જ થાય છે એમ સમજવું. એટલે કે માન, માયા અને લેભની ઉત્પત્તિના પણ નીચે प्रभाएं यार ४१२0 ४ सपन-(१) ॥२ क्षेत्र३५ ४२, (२) વરૂપ કારણ, (૩) શરીરરૂપ કારણ અને (૪) ઉપધિરૂપ કારણે આ કથન નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત જીવોના ક્રોધાદિક કષાયની ઉત્પત્તિના કારણે વિષે ગ્રહણ થવું જોઈએ.
હવે સૂત્રકાર કોધાદિકમાં ચતુવિધતાનું કથન બીજી રીતે કરે છે– “घउबिहे कोहे " अपना भी शत ५ यार ४५२ ५ छ
(१) मनन्तानुभधा -" अविद्यमानोऽवधिर्यस्य सोऽनन्तः" नी અવધિ વિદ્યમાન નથી તેને અનંત કહે છે. એ અનંત સંસાર છે. એવા
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स्थामाङ्गसूत्रे
क्रोधः, यद्वा - अनन्तश्चासावनुबन्धो भवपरम्परारूपोऽनन्तानुबन्धः, सोऽस्त्यस्येत्यनन्तानुबन्धी, स क्रोधोऽनन्तानुवन्धी क्रोधः १,
" अपच्चक्खाणे कोहे " इति - अप्रत्यख्यानः क्रोधः अविद्यमानं प्रत्याख्यानम् = अणुव्रतादिरूपं यस्मिन् सोऽमत्याख्यानः = देश विरत्यावरकः, स क्रोधोऽप्रत्यख्यानः क्रोधः २ ।
66 पच्चक्खाणा वरणे कोहे " इति - प्रत्याख्यानाऽऽवरणः - प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपम्, आ-मर्यादया, वृणोति = आच्छादयतीति प्रत्याख्यानाऽऽवरणः सर्वविरविनिरोधकः क्रोधः ३.
भाव होता है वह अनन्ताऽनुबन्धी है, ऐसा अनन्ताऽनुवन्धी जो क्रोष है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है। अथवा-भवपरम्परारूप अनन्तानुबन्ध जिसके कारण से जीव को हो जाता है वह अनन्तानुबन्धी है ऐसा जो अनन्तानुबन्धी क्रोध है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है " अपच्चक्खाणे कोहे " जिसमें अणुव्रतादिरूप प्रत्याख्यान अविद्यमान होता है वह अप्रत्याख्यान है, अर्थात् जो क्रोध देशविरति का आवोरक होता है वह क्रोध अप्रत्याख्यान क्रोध है । " पञ्चक्खाणावरणे कोहे " इति सर्व विरतिरूप प्रत्याख्यान को जो आच्छादित करता है वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है । अर्थात् सर्वविरति का निरोध करनेवाला है । " संजलणे कोहे " जो क्रोध यथाख्यातचारित्र का निरोधक होता है वह संज्वलन
સૉંસારમાં ભ્રમણ કરાવવાના જેના સ્વભાવ છે તેને અનતાનુષી કહે છે. એવેા અનંતાનુખ ધી જે કોધ છે તેને અનંતાનુબંધી ક્રોધ કહે છે. અથવા ભવપરમ્પરા રૂપ અનતાનુમધ જેના કારણે જીવને થઈ જાય છે, તેને અનંતાનુખધી કહે છે તે અનતાનુબંધના કારણભૂત જે ક્રોધ છે તેને અનતાનુષધી કોષ કહે છે.
(२) अपच्चक्खाणे कोहे " अप्रत्याभ्यान अधनुं निषाणु — ने लवभां અણુવ્રતાદિ પ્રત્યાખ્યાનને સદ્ભાવ હાતા નથી, તે જીવને અપ્રત્યાખ્યાન કહે છે. એવા જીવના ક્રોધને અપ્રત્યાખ્યાન કેધ કહે છે. એટલે કે જે કાય દેશ વિરતિના આવારક ( નિરોધક ) હોય છે, તે કે ધને અપ્રત્યાખ્યાન કોષ કહે છે. (3) " पच्चक्खाणावरणे कोहे પ્રત્યાખ્યાનાવરણુ કાધ—સવિરતિ રૂપ પ્રત્યાખ્યાનને આચ્છાદિત કરે છે, તે પ્રત્યાખ્યાનાવરણ ક્રોધ છે. એટલે કે સર્વવિરતિના નિરોધ કરનારા જે કોષ છે તેને પ્રત્યાખ્યાનાવરણ ક્રોધ કહે છે.
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सुभा टीका स्था० ४ उ०१ सू०११ समेदं मोहविशेपभूतकषायनिरूपणम ४७३ . “ संजलणे कोहे " इति-सम्-ईपत् , ज्वलति-दीप्यत इति संज्वलना= अल्पतरः, क्रोधायथाख्यातचारित्राऽऽवारका कपायविशेष इत्यर्थः ४।। ___ "एवं" इति-एवम्-अनेन प्रकारेण यत् क्रोधस्यानन्तानुवन्धिप्रभृतिभेदचतुष्टयमुक्तं तत् ' नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं' इति नैरयिकादारभ्य वैमानिकपर्यन्तचतुर्विंशति दण्ड केषु विज्ञेयम् । ___ " एवं जाव लोहे वेमाणियाण " इति एवम् अनेन प्रकारेण अर्थाद् यथा क्रोधस्यानन्तानुवन्धिप्रभृति भेदचतुष्टयमुक्तं तथा मान-माया-लोभानामपि प्रत्येक मनन्तानुवन्ध्यादिभेदचतुष्टयं नैरयिकादि वैमानिकपर्यन्तं पठनीयमिति २४ ।
अनन्तानुवन्धिप्रभृतीनामियं निरुक्तिः___" अनन्तान्यनुवघ्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये । अतोऽनन्तानुवन्ध्याख्या, क्रोधाद्याऽऽद्येषु दर्शिता ( सज्ञा)।१। नाल्पमप्युत्सहे येषां प्रत्याख्यानमिहोक्रोध है, संज्वलन शब्द का अर्थ अल्पतर है यह क्रोध यथाख्यात चारित्र को नहीं होने देता है । इस प्रकार से चार भेदोंवाले अनन्तानुबन्धी क्रोध "नेरइयाणं जाव वेमाणियाण" नैरयिक से लेकर यावत्-वैमानिक तक के चतुर्विशति दण्डकों में जानना चाहिये, अर्थात्-ये अनन्तानुवन्धी आदि क्रोध के भेद चतुर्विंशति दण्डकस्थ समस्त जीवों में होते हैं । "एवं जाव लोहे वेमाणियाणं" जिस प्रकार से क्रोध के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार से मान माया और लोभ के भी चार २ भेद होते हैं, ऐसा कह लेना चाहिये और-ये प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी आदि चार चार भेद नैरयिक से लेकर वैमा. निक तक के जीवों में हैं ऐसा जानना चाहिये-२४
(४) “संजलणे कोहे " सपसन होध-२ ओष यथाभ्यात यास्त्रिना નિરાધક હોય છે તેને સંજવલન કેધ કહે છે. “સંજવલન” એટલે “અલ્પતર” આ ધ યથાખ્યાત ચારિત્રને સદૂભાવ થવા દેતું નથી. "नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं " मा २॥ मनन्तानुमची माहि यार । વાળા કેધને સદૂભાવ નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના ૨૪ દંડકના જીવમાં ५५ डाय छ, मेम. समा. " एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " म अपना અનન્તાનુબંધી આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે, તેમ માન, માયા અને લોભને પણ અનન્તાનુબંધી આદિ ચાર ચાર ભેદ સમજવા, અને તે પ્રત્યેક કષાયના આ ચારે ભેદને સદૂભાવ નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના જ દંડકના જીવમાં પણ હોય છે, એમ સમજવું જોઈએ.
स ६०
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स्थानानसूत्रे दयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो द्वितीयेषु निवेशिता । २ । सर्वसावद्यविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता । ३ । शब्दादीन विषयान् प्राप्य, संज्वलन्ति यतो मुहुः | अतः संज्वलनाद्दानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥ ४ ॥ पुनः क्रोधं विभजते- " चउव्विहे " इत्यादि - चतुर्विधः = चतुष्प्रकारः, क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आभोग निर्वर्तितः- आभोगः = अनुभवो ज्ञानमित्यर्थः तेन निर्वर्तितः: = निष्पादितः, यं क्रोधं प्राणी जानन् करोति सः १ ।
" अणाभोगणिव्यत्तिए " इति - अनाभोग निर्वर्तितः अनाभोगोऽज्ञानम् तेन निर्वर्तितः=अज्ञानेन कृतः, यं क्रोधमजानन् प्राणी करोति सः २ ।" उवसंते "
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अनन्तानुबन्धी आदिकों की निरुक्ति ऐसी है - " अनन्तोन्यनुयन्धन्ति " इत्यादि इन श्लोकों का तात्पर्य स्पष्ट है, अर्थात् - ऊपर में इनके सम्बन्ध में जैसा कहा गया है वैसा ही है जीव जिनके उदय में अपने संसारको अनन्त कर लेता है वह अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय है, तथा जिसके उदय में श्रावक का देशविरतिरूप चारित्र नहीं होता है। वह अप्रत्याख्यान क्रोधादिकषाय है सर्वविरतिरूप चारित्र को जो होने देता है वह प्रत्याख्यान क्रोधादिकषाय है और जो यथाख्यातचारित्र को होने से रोकता है वह संज्वलन क्रोधादि कषाय हैं ।
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अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि ये क्रोधादि कषाय इस प्रकार से भी चार भेदवाला है " अणाभोगणिव्वत्तिए " इति अनाभोग नाम अज्ञान का है इस अज्ञान से जो क्रोध निर्वर्तित उत्पन्न होता है वह અનન્તાનુબંધી આદિનું સ્પષ્ટીકરણ કરતી ગાથાઓ નીચે પ્રમાણે છે— अनन्तान्यनु આ ગાથાઓના ભાવાથ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે. છતાં અહીં તેમના લાવા સક્ષિસમાં આપવામાં આવે છે-જીવ જેમના ઉદયમાં પેાતાના સંસારને અનન્ત કરી નાખે છે, તે અનન્તાનુબંધી કેાધાક્રિ કષાયા જ છે. જેના ઉદયમાં શ્રાવકના દેશવિરતિ રૂપ ચારિત્રના સદ્દભાવ રહેતા નથી, તેનું નામ અપ્રત્યાખ્યાન ક્રોધાદિ કષાયા છે. જેને કારણે શ્રાવકના દેશ વિરતિરૂપ ચારિત્રને સદ્ભાવ રહેતે નથી તેનું નામ પ્રત્યાખ્યાન ક્રોધાદિ કષાયે છે. જેના કારણે યથાખ્યાત ચારિત્રના સદ્ભાવ રહેતા નથી એવાં સજવલન ક્રોધાદિ કાચા છે.
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હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે ક્રોધાદિક કષાયેટના નીચે પ્રમાણે यार प्रहार पशु पडे छे~~(१) भालेोगनिवर्तित-" अणाभोगणिव्वत्तिए " इत्यादि(૨) અનાભાગ નિતિંત ક્રોધ-અનાભાગ એટલે અજ્ઞાન. તે અજ્ઞાનને લીધે જે ક્રોધ નિવૃત્િત ( ઉત્પન્ન ) થાય છે, તે ફોધને અર્નાભાગ નિતિંત કોષ
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भुभागेका स्था० ४ उ. १० ११ समैदं मोहविशेपभूतकपायनिरूपणम् ४७५ इति-उपशान्त: अनुदयावस्थः, यश्च वहिर्न प्रकाशतेऽन्तरेव तिष्ठति सः ३ । " अणुवसंते " इति-अनुपशान्ता उपशान्तोऽनुदयावस्था, नोपशान्तोऽनुपशान्त उदयावलिका प्रविष्टः, यश्च क्रोधो वहिः प्रकाशते सः ४ । एकेन्द्रियादीनां जीवानामाभोगनिर्वतितः क्रोधः संज्ञिपूर्वभवापेक्षया बोध्या, अनाभोगनिवर्तितस्तु तद्भवापेक्षयाऽपि भवितुमर्हति ज्ञानविकलत्वात् । उपशान्तः क्रोधो नारकादीनां जीवानां विशिष्टोदयाभावात् प्रत्येतव्यः, अनुपशान्तः क्रोधो निर्विचार प्राणिवेव जायत इति पर्यवसितम् । अनोभोग निर्वतित क्रोध है इस अनाभोगनिर्वतित क्रोध को पाणी नहीं जानता हुवा करता है । तात्पर्य इसका यही है कि-अज्ञान अवस्था में जो क्रोध होता है वह अनाभोग निर्वतितक्रोध है जो क्रोध अनुदय अवस्थावाला होता है वह क्रोध उपशान्त क्रोध है ऐसा यह क्रोध बाहर में नहीं होता है, किन्तु-भीतर में बना रहता है। जो क्रोधं उद्यावलिका में प्रविष्ट होता है वह अनुपशान्त क्रोध है ऐसा क्रोध बाहर प्रगट हो जाता है। एकेन्द्रिय आदि जीवों में अनाभोगनिर्वतितक्रोध संज्ञी पूर्वभव की अपेक्षा से जानना चाहिये तथा अनाभोग निर्वर्तित क्रोध तद्भव की अपेक्षा से जानना चाहिये। क्यों कि-घे ज्ञानविकल होते हैं। उपशान्त क्रोध नारकादि जीवों में विशिष्ट उदय के अभाव से जानना चाहिये। अनुपशान्त क्रोध विचार विहीन प्राणियों में ही होता है यह क्रोध चतुष्टय नैरयिक से लेकर वैमानिक तक में होती કહે છે. જીવ અજ્ઞાતાવસ્થામાં આ પ્રકારનો કેધ કરે છે. આ રીતે અજ્ઞાતાવસ્થામાં જે કંઇ થાય છે તેને અનાગ નિવર્તિત કેધ કહે છે.
જે કોધ અનુદય અવસ્થાવાળો હોય છે, એવા કેધને ઉપશાન્ત કે કહે છે. એ ધ બહાર પ્રકટ થતું નથી પણ અંદરને અંદર જ પડ રહે છે.
જે કોધ ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થયેલું હોય છે, તે કેને અનુપશાન્ત ફેધ કહે છે, એ ક્રોધ બહાર પ્રક્ટ થઈ જાય છે.
એકેન્દ્રિયાદિક જેમાં આભેગનિવર્તિત કેધને સદ્દભાવ સંજ્ઞી પૂર્વ ભવની અપેક્ષાઓ જાણ જોઈએ. અને અનાભોગ નિવર્તિતને સદ્ભાવ તદ્દભવ (એજ ભવ) ની અપેક્ષાએ સમજવો જોઈએ, કારણ કે તેઓ જ્ઞાનરહિત હોય છે. નારકાદિ માં ઉપશાન્ત કે ધને સદુભાવ વિશિષ્ટ ઉદયના અભાવને લીધે સમજે. અનુપશાન્ત કે ધને સદ્દભાવ વિચારવિહીન પ્રાણીઓમાં જ હેય છે. આ ચારે પ્રકારના સાધને સદ્ભાવ નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્ય..
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स्थानान सूत्रे
" एवं " इति एवं क्रोधचतुष्टयं नैरविकादि वैमानिकपर्यवसितम् ।
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एवम् " इति, एवं क्रोधवत् मान-माया - लोभविषयं पदत्रयं संयोज्य नैरयिकादि वैमानिकपर्यन्त चतुर्विंशतिदण्डकेषु पठनीयम् ॥ सू०११ ॥ इदानीं कपायाणामेव कालत्रयवर्तिनः फलविशेषानाह-
मूलम् - जीवा णं चउहिं ठाणेहि अटू कम्मपगडीओ चिणि'सु, तं जहा- कोहेणं १, माणेणं २, मायाए ३, लोभेणं ४ | एवं जाव वैमाणियाणं २४, एवं चिति एए दंडओ, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेएणं अभिलावेणं तिन्नि दंडगा, एवं उवचिणिसु उवचिणंति उवचिणिस्संति, वंधिंसु ३ उदीरिंसु ३ वेसु ३ निज्जरेंसु णिज्जरेंति निज्जरिस्तंति, जाव वेमाणि - याणं, एवमेक्वेक्के पदे तिन्नि २ दंडगा भाणियव्वा, जाव निज्जरिस्तंति ॥ सू० १२ ॥
छाया--जीवाः खलु चतुर्भिः स्थाने अण्ट कर्म प्रकृतीः अचिन्वन्, तद्यथाक्रोधेन १, मानेन २, मायया, ३, लोभेन ४ । एवं यावत् त्रैमानिकानाम् २४, है । जिस प्रकार क्रोध के ये अनाभोगनिवर्तित आदि चार भेद प्रकट किये गये हैं उसी प्रकार मान माया लोभ भी चार चार प्रकार के होते हैं ऐसा जानना चाहिये, और ये अनाभोग आदि मान माया लोभ नैरयिक से लेकर वैमानिक तक समस्त जीवों में होते हैं ऐसा समझना चाहिये || सू०११ ॥
अब सूत्रकार कषायों का ही कालत्रयवर्ती जीव के फल विशेष का कथन करते है - " जीवाणं चउहिँ ठाणेहिं-" इत्यादिसूत्रार्थ-जीवों ने चार कारणों से पहले अष्ट कर्म प्रकृतियोंका उपार्जन ન્તના જીવામાં હેાય છે. જેમ કે,ધના આલાગનિતિત, અનાલેગનિવૃતિ ત આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેલના પણુ ચાર ચાર ભેદ પડે છે. તે આલેાગ, અનાભાગ આદિ માન, માયા અને લાભના પણ નારકથી લઈને વૈમાનિક પન્તના જીવેામાં સદ્ભાવ હોય છે. ા સૂ. ૧૨ ા હવે સૂત્રકાર કષાયાના કાલત્રયવર્તી ફૂલવિશેષનું નિરૂપણુ કરે છે " जीवाणं चउहिं. ठाणेहिं " त्याहि
જીવાએ ચાર કારણેાને લીધે આઠ કમ પ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કર્યુ છે.
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सुधाटीका स्था० ४ उ० १ सू० १२ कालत्रवर्ति कंपायफलनिरूपणम् १७७ एवं चिन्वन्ति एतद् दण्डकम् , एवं चेष्यन्ति एतद् दण्डकम् , एवमेतेनाभिलापेन त्रीणि दण्डकानि, एवम् उपाचिन्वन् उपचिन्वन्ति, उपचेष्यन्ति, अवघ्नन् ३ उदेरयन् ३ अवेदयन् ३ निरजरयन् ३ निर्जरयन्ति निर्जरयिष्यन्ति, यावत वैमानिकानाम् , एकमेकैकस्मिन् पदे त्रीणि त्रीणि दण्डकानि भणितव्यानि, यावत् निर्जरयिष्यन्ति ॥ सू० १३ ।।। __टीका-“जीवाणं " इत्यादि-जीवाः खलु चतुर्भिः-चतुःसंख्यैः स्थानःक्रोधादिभि चतुर्भिः अष्ट कर्मप्रकृती:-कर्मणां प्रकृतयःज्ञानावरणीयादिरूपाः, किया है वे चार कारण इस प्रकार से हैं-क्रोध १ मान २ माया ३ और लोभ ४ इसी तरह का कथन यावद्वैमानिक जीवों तक कर लेना चाहिये, इन्हीं चार कारणों को लेकर जीव वर्तमान में भी ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्म प्रक्रतियों का उपार्जन करते हैं और आगे भी करेंगे। इस तरह इन दोनों वर्तमान भविष्यत् काल सम्बन्धी दण्डकों को जानना चाहिये। इसी तरह जीव पूर्वकाल में भी इन्हीं क्रोधादि चार कारणों से ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्म प्रकृतियों का संचय कर रखा है। इसी तरह जीवों ने इन्हीं चार कारणों को लेकर पूर्व में ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म प्रकृतियों का बन्ध किया है, वर्तमान में भी करते हैं और आगे भी इन्हीं कारणों को लेकर इनका बन्ध करेंगे।
इसी तरह से जीवों ने इन्हीं चार कारणों को लेकर पूर्व में ज्ञानाधरणादिक आठ कर्मप्रकृति की उदीरणा की है वर्तमान में भी करते हैं ते या२ २ मा प्रभाव छ-(१) आध, (२) भान, (3) माया भने (४)सोम આ પ્રકારનું કથન શૈમાનિક પર્યાના ૨૪ દંડકના જી વિશે સમજવું આ ચાર કારણેને લીધે જ છ વર્તમાનમાં પણ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કમ પ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કરે છે. આ ચાર કારણેને લીધે જ જીવ ભવિષ્યમાં પણ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કરશે. આ પ્રકારના વર્તમાન અને ભવિ. ધ્યકાળ સંબંધી દંડક ઉપચયના વિષયમાં પણ સમજવા એ જ પ્રમાણે જીવે ભૂતકાળમાં પણ ફોધાદિક ચાર કારણને લીધે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કમપ્રકૃતિએને ઉપચય કરી રાખેલા જ હોય છે.
આ ચાર કારણને લીધે જ એ ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓને બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં પણ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ કરશે.
એ જ પ્રમાણે આ ચાર કારણને લીધે જીવેએ ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓની ઉદીરણા કરી છે, વર્તમાનમાં પણ કરે છે અને
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খামাগে ताः, अचिन्वन् भूतकाले उपार्जयन् , तद्यथा-तान्येव स्थानान्याह-क्रोधेन १, मानेन २, मायया ३, लोभेन ४। एवं यावद् वैमानिकानां विपये विनेयम् । एवं वर्तमाने चिन्यन्ति, भविष्यन्ति च चेष्यन्तीति ।। ___"एवं चिति" इत्यादि-एवम् अनेन प्रकारेण, अर्थाद् यथा भूतकालिक 'मचिन्वन् ' इति पदं घटयित्वा दण्डकमुक्तं तथा — चिन्नन्ति ' इति वर्तमानकालिकं पदं घटयित्वैतद्-अनन्तरोक्तं दण्डकं पठनीयम् , तथा-' चेष्यन्ति' इति आगे भी करेंगे। इसी प्रकार जीवों ने इन्हीं चार कारणों को लेकर पूर्व में ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन किया है वर्तमान में भी करते हैं और आगे भी करेंगे। इसी प्रकार जीवों ने इन चार कारणों को लेकर इन कर्मप्रकृतियों की निर्जरा की है अब भी वे करते हैं और आगे भी करेंगे, ऐसा यह कथन यावत् वैमानिक जीवों तक में जानना चाहिये इस प्रकार एक २ पद में तीन २ दण्डक यावत निर्जरा पद तक कहना चाहिये। विशेषार्थ-नारक से लेकर वैमानिक तक के जीवों ने क्रोध मौन माया और लोभ इन चार कारणों को
आश्रित करके पहले भूतकाल में उपार्जन किया है ऐसा यह भूतकालिक 'दण्डक है, क्यों कि-"अचिन्वन्" पद है इस भूतकालिक पद को घटित करके यह दण्डक बनाया गया है। इसी तरह से "चिन्वन्ति " वर्तमानकालिक पद को घटित करके, और " चेष्यन्ति" भविष्यत्कालिक ભવિષ્યમાં પણ કરશે. આ ચાર કારણને લીધે જ ભૂતકાળમાં જીએ જ્ઞાના વરણીય આદિ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓનું વેદન કર્યું છે, વર્તમાનમાં પણ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ કરશે. કોધાદિક આ ચાર કારણોને લીધે જીવેએ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓની ભૂતકાળમાં નિર્જરા કરી છે, વર્તમાનમાં પણ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ કરશે. આ પ્રકારનું કથન વૈમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત 'જીમાં પણ સમજવું જોઈએ. આ પ્રકારે પ્રત્યેક પદના ત્રણ ત્રણ દંડક નિર્જરા પર્યન્તના પૂર્વોક્ત પદ સાથે સમજવા જોઈએ.
વિશેષાર્થ–“નારકથી લઈને વૈમાનિક પતના છએ કેધ, માન, માયા અને લેભરૂપ ચાર કારણને લીધે જ્ઞાનાવરણુય આદિ આઠ કમપ્રકતિઓનું ભૂતકાળમાં ઉપાર્જન કર્યું છે,” આ ભૂતકાલિક દંડક છે. કારણ કે “ अचिन्वन " म. सूतलिजियापान प्रयोग श२ मा ४७४ मनापामा मायु छ. मे १ प्रमाणे “ चिन्वन्ति " मावतभानानि यापन प्रयास शन भानsilas 833. ४ , भने “ चेष्यन्ति " मा विध्या
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सुपारीका स्था० ४ उ०१ सू० १२ कालत्रयवति कपायफलनिरूपणम् ४७९ भविष्यत्कालिकं पदं योजयित्वैतदण्डकं पठनीयम् । " एवम् " इत्थम् , 'एतेन' -भूत-वर्तमान-भविष्यत्कालिकपदयोजनात्रयरूपेणाभिलापेन त्रीणि=त्रिसंख्यानि दण्डकानि सम्पद्यन्ते, एवं च क्रोधादि चतुष्टयेन सह भूत-वर्तमान-भविष्यत्मयो. गघटितदण्डकत्रयस्य चतुर्गुणीकरणेन द्वादश दण्डकानि भवन्ति । " एवं उव. चिर्णिम्" इत्यादि-एवं-यथा चयनसूत्रनुक्तं, तथोपचयनमूत्रमपि क्रोध-मानमाया-लोभैः सह कालत्रयविषयं दण्डकं बोध्यम् । तत्र चयनं-कपायपरिणत जीवस्य कर्मदलिकग्रहणमात्रम् । उपचयनं तु-चितस्य गृहीतकर्मदलिकस्यावापद को घटित करके वर्तमान कालिक और भविष्यत्कालिक दण्डक कह लेना चाहिये। इस प्रकार भूत वर्तमान और भविष्यत् कालिक तीन पदों की योजनावाले आलापकों से तीन दण्डक बन जाते हैं। क्रोधादि चतुष्टय के साथ इन भूत वर्तमान और भविष्यत् प्रयोग घटित करके दण्डकत्रय को चौगुन करने से १२ दण्डक हो जाते हैं। जिस प्रकार यह चयन सूत्र कहा गया है उसी प्रकार से उपचयन सूत्र भी जानना चाहिये इस उपचयन सूत्र में भी भूत वर्तमान भविष्यवत् कालिक पद योजनात्रय से तीन दण्डक होते हैं, और क्रोधादि चतुष्टय के साथ इन्हें चौगुना करने से कालत्रय विषयक १२ दण्डक होते हैं। कषाय से परिणत हवे जीव के द्वारा जो कर्मदलिकों का ग्रहण करना मात्र होता है वह-चयन है गृहीत हुवे कर्मदलिक का अबाधाकाल को छोडकर जो કાલિક ક્રિયાપદને પ્રયોગ કરીને ભવિષ્યકાલિક દંડક કહેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાલિક ક્રિયાપદને પ્રગ કરવાથી ત્રણ આલાપક રૂપ ત્રણ દંડક બની જાય છે. કોધાદિ ચતુષ્ટય (ચાર) ની સાથે ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળ વિષયક કુલ ૧૨ દંડક થાય છે, કારણ કે ત્રણે કાળની અપેક્ષાએ પ્રત્યેકના ત્રણ ત્રણ દંડક થતા હોવાથી કે ધ, માન, માયા અને લોભ આ ચારના કુલ ૩૮૪=૧૨ દંડક થાય છે.
જે રીતે આ ચયન સૂત્રનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે ઉપચયન સૂત્રનું પણ કથન થવું જોઈએ. આ ઉપચયન સૂત્રમાં પણ ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળ વિષયક ક્રિયાપદ યોજવાથી કેધ આદિ પ્રત્યેકના ત્રણ દંડક થાય છે. ક્રોધાદિ ચાર કષા વડે તેને ગુણવાથી ચારે કાના કુલ બાર દંડક થાય છે.
કષાયથી પરિણુત થયેલા જીવ દ્વારા જે કર્મદલિકોનું માત્ર પ્રહણ જ થાય છે, તેને ચયન કહે છે. ગૃહીત થયેલા કર્મલિક અબાધાકાળને છોડીને જે જ્ઞાનાવરણાદિ રૂપે પરિણત થાય છે તેને ઉપચયન કહે છે, તેનું નામ જ
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स्थानासूत्रे
धाकालमन्तरेण ज्ञानाssवरणादितया परिणमनम् । तदेव निषेक इत्युच्यते ।, आयवस्थायां जीवाः प्रचुरतरं कर्मदलिकं निपिञ्चन्ति द्वितीयावस्थायां विशेषदीनम् एवं यावदुत्कृष्टावस्थायां विशेपदीनं कर्मदलिकं निपिञ्चन्ति उक्तं च"मोत्तूण सगमवाहं पढमाइ ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जायुकोसंति सव्वेसिं । १ । ” इति, छाया - " मुक्त्वा स्वकामवाधां मथमायां स्थितौ बहुवरं द्रव्यम् । शेषायां विशेषहीनं यावदुत्कृष्टमिति सर्वांसाम् । ९ ।” इति,
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66 वधि ३ १”—' अवघ्नन् वघ्नन्ति भंत्स्यन्ति ' इत्यर्थः, जीवाः क्रोधेन कर्मप्रकृतीः अवघ्नन्, बघ्नन्ति त्स्यन्ति इति सम्बन्धः । तत्र वन्धनं चित्तस्य कर्मणो ज्ञानावरणीयादितया निपिक्तस्य सतः पुनरपि कषाय- परिणामविशेषानिकाचनम्, एवं मान-माया - लोभैरपि विज्ञेयम् । ज्ञानावरणादिरूप से परिणत होता है वह उपचयन है इसी का नाम निषेक है । जीव आद्य अवस्था में प्रचुरतर कर्मदलिक का निषेक करते हैं और द्वितीय अवस्था में विशेष होन कर्मलिक का निषेक उपचयन करते हैं। इस प्रकार वे यावत् उत्कृष्टावस्था में विशेष हीन कर्मदलिक का निषेक करते रहते है । कहा भी है-" मोत्तृण संगमवाहं " इत्यादि " बंधिसु ३" जीवों ने पूर्वकाल में कर्मप्रकृतियों का क्रोध से बन्ध किया है, अब भी वे करते हैं और आगे भी वे करेंगे। ज्ञानावरणीयादिरूप से निषिक्त हुवे कर्म का पुनः जो कषायविशेष से निकाचन होता है वह बन्ध है, जिस प्रकार यह बन्ध क्रोध से होता है उसी प्रकार मान माया और लोभ से भी होता है ऐसा जानना चाहिये । "उदीरिंसु ३" નિષેક છે. જીવે આદ્ય અવસ્થામાં પ્રચુરતર કદલિકને નિષેક કરે છે અને દ્વિતીય અવસ્થામાં વિશેષ હીન કદલિકના નિષેક ( ઉપચય ) કરે છે. આ રીતે તેઓ ( યાવત્ ) ઉત્કૃષ્ટાવસ્થામાં વિશેષ હીન કલિકના નિષેક उरतां रखे छे. ह्युं छे - " भोत्तूण संगमबाह " त्याहि
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बर्धि ३ " अधने अरो भवेोभे ज्ञानावरणीय साहिसाठ उभप्रवृति આના 'ધ કર્યાં છે, વર્તમાનમાં પણ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ કરશે. જેમ આ મધ ક્રોધથી થાય છે, એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લાભથી પુ થાય છે. તેથી ક્રોધને બદલે આ ત્રણ પટ્ટીના ક્રમશઃ પ્રયાગ કરીને ત્રણ કાળવિષયક આલાપક ખનાવી શકાય છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ રૂપે નિષિક્ત (ઉપરિયત ) થયેલાં કમનું ફ્રી જે કષાયવિશેષ વડે નિકાચન થાય છે, તેનું નામ અન્ય છે.
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सुधा का स्था० ४ उ० १ सू० १३ कालप्रयवतिकषायनिरूपणम् ४४१
तथा-" उदीरिसु"-उदैरयन् उदीरयन्ति उदीरयिष्यन्ति, तत्रोदीरणम्अनुदयावस्थस्य कर्मणः करणेनाऽऽकृष्योदयावस्थायां प्रक्षेपणम् ।
तथा-" वेएंसु" ३-अवेदयन् वेदयन्ति वेदयिष्यन्तीत्यर्थः, तत्र वेदनम्स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मणोऽनुभवनम् , यद्वा-उदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेनोदयावस्थां प्रापितस्य कर्मणोऽनुभवनम् । ___ तथा-" निज्जरेंस" इत्यादि-निरजरयन् निर्जरयन्ति निर्जरयिष्यन्ति, तत्र निर्जरा च-आत्मप्रदेशाद कर्मणः पृथग्भवनम् , इह देशनिर्जरैव ग्राह्या, न तु सर्वनिर्जरा, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदण्डकेष्वसम्भवात् । अनुदद्याऽवस्थ कर्म को करण द्वारा खींचकर उदयावस्था में प्रक्षिप्त करना इसका नाम उदीरणा है, यहां पर भी पहले जैसे ३ आलापक कालत्रय को लेकर बना देना चाहिये।" वेएं" ३-स्थिति के क्षय से उदय प्राप्त कर्म का अनुभवन करना वेदन है यहां पर भी ३ तीन आलापक कालत्रय को लेकर बना लेना चाहिये। वेदना का दूसरा अथें इस प्रकार से भी है कि-उदय प्राप्त कर्म का उदीरणा करण द्वारा उदयावस्था में प्रापित हुवे कर्म का अनुभवन करना, वेदन है। “निज्जरेस-" इत्यादि-यहां पर भी “निरजरयन् " " निर्जरयन्ति " और " निर्जरयिष्यन्ति" ऐसे तीन आलापक कालत्रय को लेकर घना लेना चाहिये। आत्मप्रदेशोंसे कर्मका एकदेशसे पृथक होना निर्जराहै, निर्जरा दो प्रकार की होतीहै देशनिर्जरा १ और सर्व निर्जरा २ यहां-देशनिर्जरा ही गृहीत
"उदीस्सुि ३" मनुस्य प्रा. मधुराने ४२० २१ या व्या . વસ્થામાં પ્રક્ષિત કરવા તેનું નામ ઉદીરણા છે. ઉદીરણાના વિષયમાં પણ ત્રણે કાળની અપેક્ષાઓ ઉપર કહ્યા મુજબના ત્રણ આલાપકનું કથન થવું જોઈએ. ___“वेएंसु ३" स्थितिना क्षयथा य ास थये। मनुं मनुमन કરવું તેનું નામ વેદન છે. વેદનને બીજો અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે ઉદયપ્રાપ્ત કર્મનું-ઉદીરણાકરણ દ્વારા ઉદયાવસ્થા જેણે પ્રાપ્ત કરી છે એવા કર્મનું અનુભવન કરવું તેનું નામ વેદન છે. વેદનના વિષયમાં પણ કાળવ્રયની અપે ક્ષાએ ઉપર કહ્યા મુજબના ત્રણ આલાપક બનાવી શકાય છે.
“निज्जरे सु" त्यादि-मही पy “निरजरयन् , निर्जरयन्ति, भने निर्जरयिष्यन्ति" मा नये नाठियापन प्रयोगथा ऋण मादाय माना. વવા જોઈએ. આત્મપ્રદેશથી કર્મનું અલગ થવું તેનું નામ નિજેરા છે. નિજર मे प्रा२नी छ-(१) शनि । मन (२) सनि०२२. महा शनि ११
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४८२ - "जाव वेमाणियाणं " इति-वैमानिकपर्यन्तं तत्तद्दण्डकं पठनीयम् ।
" एवमेक्केक्के पदे " इत्यादि-एवम्-उक्तपकारेण यथाऽचिन्वन्नादिपघटित तत्तद्दण्डकत्रयमुक्तं तथा अवध्नन्नादिपघटितमपि तत्तद्दण्डके पठनीयम् , एतदेव स्पष्टयति-" एकेके पदे " इत्यादिना, एकैकस्मिन् प्रत्येकम्, इत्यर्थः, अयं भाव:" अवनन् " इति पदे योजिते सति त्रीणि दण्डकानि, पुनः 'बध्नन्ति' इति पदे योजिते सति त्रीणि दण्डकानि । तथा ' भत्स्यन्ति ' इति पदे योजिते सति जीणि दण्डकानि, अनेन क्रमेण · उदैरयन्, उदीरयन्ति उदीरयिष्यन्ति ' इत्यादि भूतवर्तमानभविष्यत्कालिकतत्तत्मयोगयोजनयैकस्मिन्नेकस्मिन् पदे त्रीणि हुई है, सर्वनिर्जरा नहीं गृहीत हुई है। क्यों कि-चतुर्विशति दण्डकों में इस निर्जरा का असद्भाव है। " जीव वेमाणियाण " वैमानिक पर्यन्त वह दण्डक पठनीय है।" एवमेकेक्के पदे-" जैसे-"अचिन्वन्"
आदि पद्घटित दण्डकत्रय कहे गये हैं वैसे ही "अबश्नन् " आदि पद्घटित भी दण्डकत्रय कल्पना से बनाना चाहिये। इसी का स्पष्टीकरण सूत्रकार अब " एक्के क्के पदे-" इत्यादि सूत्र द्वारा करते हैं, इसमें नन्हों ने कहा है कि-" अवनन्" इस पद को घोजित करने पर मान माया और लोभ सम्बन्धी पद के आधार पर भूतकाल को लेकर ३.३ दण्डक होते हैं। जैसे-जीवों ने मान से भूतकाल में अष्ट प्रकृतियों का वध किया हैं १ माया से इनका भूतकाल में बन्ध किया है २, और लोभ से इनका बन्ध भूतकाल में किया है ३। इस प्रकार से “अबગૃહીત થઈ છે, સર્વનિર્જર ગૃહીત થઈ નથી, કારણ કે ચોવીશ દંડના જીમાં સર્વનિ જેરાને સદ્ભાવ નથી.
" जाव वेमाणियाणं " वैमानि पय-तना मसानु ४थन य स. " एवमेक्केक्के पदे " म " अचिन्वन् " माह पटित ay ६.४ ४ामा माया छे, मेi “ अबध्नन् " माह पहरित ५५ अप ऋष्य ४.४ ४६५नाथ मनापी व न . १ पात सूत्र४१२ वे " एकक्के पदे ” छत्यादि सूत्रा द्वारा स्पष्टी४२१ ४२ छ___ या सूत्रपा द्वारा सूत्रा२ सभ ४ छ । “अवघ्नन् " मा पहने ચેજિત કરીને માન, માયા અને લેભ સંબંધી પદને આધારે ભૂતકાળની અપેક્ષાએ ત્રણ ત્રણ દંડક થાય છે. જેમકે (૧) જીએ માનને કારણે ભૂતકાળમાં આઠ કર્મપ્રકૃતિએને બન્ચ કર્યો છે. (૨) એ જ પ્રમાણે માયાના કારણે પણ તેમને ભૂતકાળમાં. બન્ધ કર્યો છે, અને (૩) લોભને કારણે પણ ભૂતआमा तना मन्च : छे. या प्रमाणे “ अबन्धन् ” मा भूत ३५
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू० १३ कालत्रयवतिकषायनिरूपणम् __ त्रीणि दण्डकानि भणितव्यानि । तानि च किम्पदपर्यन्तमिति.. दर्शयति-"जाव निज्जरिस्सन्ति " इति, " निर्जरयिष्यन्ति " इतिपदपर्यन्तं त्रीणि- त्रीणि दण्डकानि प्रत्येकं पदे भणितव्यानीत्यर्थः । (.सू. १३ ॥ घ्नन् " पद के तीन दण्डक मान माया और लोभ कषाय को लेकर भूतकाल में होते हैं । उसी प्रकार से “बध्नन्ति " पद को योजित करने पर मान माया और लोभ को लेकर तीन दण्डक होते हैं । अर्थात्मान कषाय को लेकर तथा माया कषाय को लेकर एवं लोभ कषाय को लेकर जीव वर्तमान मे अष्ट कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। इस प्रकार से “बध्नन्ति" पद को योजित करने पर वर्तमानकाल सम्बन्धी ये तीन दण्डक होते हैं।
इसी तरह से " भन्स्यन्ति" भविष्यत् कालिक पद को योजित करके भी भविष्यत्काल सम्बन्धी तोन दण्डक हो जाते हैं इसी क्रम से "उदैरयन्-" भूतकालिक पद को योजित करने पर मान से भूतकाल में जीवों ने अष्टकर्मप्रकृतियों की उदीरणा की है, माया से उदीरणा की. है, और लोभ से उनकी उदीरणा की है इस प्रकार के ये तीन दण्डक भूतकाल सम्बन्धी बन जाते हैं। " उदीरयन्ति-" इस वर्तमान कालिक વાપરીને માન, માયા અને લેભ, આ ત્રણ કપાયાના ભૂતકાળ સબંધી ત્રણ ६७४ मने छ. 22 प्रमाणे " बन्नन्तिः” २ मानना यापहनु ३५ વાપરીને માન, માયા અને ભરૂપ કારણવાળાં ત્રણ દંડક આ પ્રમાણે બને છે. (૧) છ માનને કારણે અષ્ટકમ પ્રકૃતિએને બંધ કરે છે, (૨) માયાના કારણે પણ છ અકર્મપ્રકૃતિએને બંધ કરે છે. (૩) લેભને કારણે પણ છે અષ્ટકમં પ્રકૃતિએને બંધ કરે છે. એ જ પ્રમાણે ભવિષ્યકાળ સંબંધી ત્રણ દંડક આ પ્રમાણે સમજવા-(૧) માનને કારણે જીવે ભવિષ્યમાં આઠ કર્મ, પ્રકૃતિઓ બંધ કરશે, (૨) માયાને કારણે જીવે આઠ કર્મપ્રકૃતિઓને બંધ કરશે અને (૩) લેમને કારણે આઠ કર્મપ્રકૃતિઓને બંધ કરશે. ક્રોધના કારણવાળા ત્રણ દંડક તે આગળ આપવામાં આવ્યા છે. આ રીતે ચાર કષાય વિષયક ત્રણે કાળસંબંધી કુલ ૧૨ દંડક “બન્ય” પદ સાથે બને છે.
Gटी२९| विषय मासा५३-" उदैरयन् ” मा भूतासिन यापहना પ્રયોગથી આ પ્રમાણે ત્રણ આલાપક બનશે-(૧) ભૂતકાળમાં જીએ માનને કારણે આઠ કર્મપ્રકૃતિએની ઉદીરણ કરી છે, (૨) માયાથી પણ ઉદીરણ કરી છે અને (૩) લેભથી પણ ઉદીરણ કરી છે. આ રીતે ભૂતકાળ સંબંધી ત્રણ
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पूर्व निर्जरोक्ता, सा च प्रतिमाधारणाद्विशिष्टा भवस्यतः प्रतिमां मूत्रत्रयेण दर्शयितुमाह
मूलम्-चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-समाहिपडिमा १, उवहाण पडिमा २, विवेगपडिमा३, विउस्सग्गपडिमा।
चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- भदा १, सुभद्दार, महाभद्दा ३, सव्वओभद्दा ४॥ चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा--खुड्डिया मोयपडिमा १, महल्लिया मोयपडिमार, जवमज्झा ३, वइरमज्झा ४ । सू० १४ ॥ पद को योजित करने पर तीन दण्डक वर्तमानकाल सम्बन्धी बन जाते हैं, और उदीरयिष्यन्ति इस भविष्यत्कालिक पद को योजित करने पर ३ दण्डक भविष्यकाल सम्बन्धी बन जाते हैं। इस प्रकार से ये तीन दण्डक " जाव निजरिस्संति" यावत् निर्जरा करेंगे यहां तक कह लेना चाहिये। इस तरह से प्रत्येक पद में ये तीनों दण्डक भणितव्य यतलाये गये हैं ।। सू०१३ ॥
निर्जरा जो कही गई हैं वह प्रतिमा धारण करने से विशिष्ट होती हैं, अतः अब सूत्रकार प्रतिमा का कथन सूत्रत्रय से करते हैं___ " चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ" इत्यादि-१४
* मनी लय छे. “ उदीरयन्ति " " GA२६! अरे छे" मा त भानगर्नु ठिया५४ यासाथी : भान समाधी मनी से सने “उदी. रयिष्यन्ति "-" GRe!! ४२शे".
આ ભવિષ્યકાળ સંબંધી ક્રિયાપદ જવાથી ભવિષ્યકાળ સંબંધી ત્રણ દંડક भनी शे. “जाव निजरिस्संति" मा भने अनुसंशन यारे पायो समाधी ત્રિકાળ વિષયક ૧૨-૧૨ દંડક બનાવી શકાશે. નિર્જરા વિષયક છેલ્લા ચાર ६७४ मा प्रमाणे मन. ७ (१) अधन १२), (२) मानन २, (3) માયાને કારણે અને (૪) લેભને કારણે આઠ કર્મપ્રકૃતિઓની ભવિષ્યમાં પણ નિર્જરા કરશે. આ ચાર દંડક ભવિષ્યકાળની અપેક્ષાઓ કહેવામાં આવ્યા છે. સૂ. ૧૩
પહેલાં જે નિર્જરાની વાત કરવામાં આવી, તે પ્રતિમા ધારણ કરવાથી વિશિષ્ટ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રતિમાની પ્રરૂપણું કરવા નિમિત્તે ત્રણ • सूत्रानु थन ४२ छ-" चत्तारि पडिमानो पण्णत्ताओ" त्या6ि
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सुधा टीका स्था०४ उ १ १४ प्रतिमास्वरूपनिरूपणम्
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छाया - चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - समाधिपतिमा १, उपधानप्रतिमा २, विवेकप्रतिमा ३, व्युत्सर्गप्रतिमा ४ |
चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - भद्रा १, सुभद्रा २, महाभद्रा ३, सर्वतो - भद्रा ४ । चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्षुद्रिका मोकप्रतिमा १, महतिका मोतिमा २, यवमध्या ३, वज्रमध्या ४ ॥ सू. १४ ॥
टीका - " चत्तारि पडिमाओ" इत्यादि - चतस्रः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समाधिप्रतिमा - समाधिः श्रुतं चरित्रं च तद्विषया प्रतिमा = प्रतिज्ञा अभिग्रहः = समामितिमा श्रुतचारित्रविषयकप्रतिज्ञेत्यर्थः १ |
" उपप्रधानमतिमा " - उपधानं - तीव्रं तपः, तस्य प्रतिमोपधानप्रतिमा तित्रतपो विषयाभिग्रह इत्यर्थः २ |
सूत्रार्थ - प्रतिमा चार कही गई हैं, जैसे- समाधिप्रतिमा १ उपधानप्रतिमा २ विवेकप्रतिमा ३ और व्युत्सर्गप्रतिमा-४
इस प्रकार से भी चार प्रतिमाएं कही गई हैं, जैसे- भद्रा १ सुभद्रा २ महाभद्रा ३ और सर्वतोभद्रा - ४
इस प्रकार से भी प्रतिमा चार कही गई हैं जैसे - क्षुद्रिका मोक प्रतिमा १ महतिकामोकप्रतिमा २ यवसध्या ३ और वज्रमध्या-४
विशेषार्थ - श्रुत और चारित्र का नाम समाधि है इस श्रुतचारित्ररूप समाधि विषयवाली जो प्रतिमा है अभिग्रह है वह समाधि प्रतिमा है, प्रतिमा शब्द का वाच्यार्थ यहां अभिग्रह लिया गया है । इसका तात्पर्य यही है कि श्रुत चारित्र विषयक जो प्रतिमा अभिग्रह है वही समाधि प्रतिमा है १ । तीव्रतप का नाम उपधान है इस उपधान
सूत्रार्थ - प्रतिमा यार उही छे – (१) समाधि प्रतिभा, (२) उपधान प्रतिभा, (3) विवे४ प्रतिभा भने (४) व्युत्सर्ग प्रतिभा प्रतिभांना या अभयार
उद्या छे - (१) लगा, (२) सुभद्रा (3) महालद्रा भने (४) सर्वतोभद्रा. પ્રતિમાના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે (૧) ક્ષુદ્રિકાત્મકપ્રતિમા, (૨) भडतिप्रभोऽप्रतिमा, (3) यवमध्या भने (४) वनमध्या.
વિશેષા—શ્રુત અને ચારિત્રનુ નામ સમાધિ છે. આ શ્રુતચારિત્ર રૂપ સમાધિ વિષયવાળી જે પ્રતિમા ( અભિગ્રહ ) છે, તેનુ નામ સમાધિપ્રતિમા छे. अहीं " प्रतिभा " पहने। वाय्यार्थ "अलिश्रड" अडवानी छे. તેનુ' તાત્પ એ છે કે શ્રુતચારિત્ર વિષયક જે અભિગ્રહ છે, તેનુ નામ
सभाधि प्रतिभा छे। १।
તીવ્ર તપને ઉપધાન કહે છે. તે ઉપધાનની જે પ્રતિમા છે-એટલે
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" विवेकमतिमा " - विवेचनं विवेकः शुद्धाशुद्धकल्पनीयाकल्पनीयभक्तपानवस्त्रादिमध्यादशुद्धाऽकल्पनीयपरिहारपूर्वक शुद्धकल्पनीयग्रहणम्, प्रतिज्ञा = अभिग्रहः ३ |
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'व्युत्सर्गमतिमा " - व्युत्सर्गः - विशेषेण मनोवा निरोधेनानुष्ठेयविपयातिरिक्ताद्विपयात् कायस्य उत्सर्ग := विमुखीकरणम् कायोत्सर्ग इत्यर्थः तद्विपया प्रतिमेति ४।
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स्थानासू
पुनरपि प्रतिमाचतुष्टयमाह - " चत्तारि पडिमाओ " इत्यादि - चतस्रः प्रतिमाः, मज्ञप्ताः, तद्यथा - भद्रा - पूर्वादिचतुर्दिगभिमुखस्य संयतस्य पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं चतुरः महरान् यावत् कायोत्सर्गरूपा, इयं द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां सम्पूर्णा भवति १
वस्य
की जो प्रतिमा है वह उपधान प्रतिमा है। अर्थात् तीव्रतप विषयक जो अभिग्रह है वह उपधान प्रतिमा है - २ । शुद्ध अशुद्ध और अकल्पनीय का त्याग कर केवल शुद्ध कल्पनीय भक्त पान आदि को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना अभिग्रह धारण करना इसका नाम विवेक प्रतिज्ञा है ३ मनोवाक् का निरोध करते हुवे अनुष्ठेय विषय से अतिरिक्त विषय सम्पर्क से काम को विमुख करना इसका नाम कायोत्सर्ग है कायोत्सर्ग विषयक जो प्रतिज्ञा है वह कायोत्सर्ग प्रतिमा है ४
प्रकारान्तर से जो भद्रा आदि प्रतिमाएं कही गई हैं, उनका अभिप्राय ऐसा है - पूर्वादि चारों दिशाओं में संघत को प्रत्येक दिशा में चार २ प्रकार तक कायोत्सर्ग करना इसका नाम भद्राप्रतिमा है । यह दो रात में सम्पूर्ण होती है १ भद्रा प्रतिमा ही प्रवर्धमान परिणाम से તીવ્ર તપવિષયક જે અભિગ્રહ છે, તેનુ' નામ ઉપધાન પ્રતિમા છે ! ર !
શુદ્ધ-અશુદ્ધ અને અકલ્પનીયના ત્યાગ કરીને માત્ર શુદ્ધ કલ્પનીય ભક્તપાન આદિ ગ્રહણ કરવાની જે પ્રતિજ્ઞા ( અભિગ્રહ ) ધારણ કરવામાં आवे छे, तेनु' नाम विवेऽप्रतिभा छे । उ ।
ખીજી રીતે પણુ પ્રતિમાના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે~
(૧) ભદ્રા પ્રતિમા—પૂર્વાદિ ચારે દિશા દિશામાં વ્યારચાર 'મહેર યન્ત જે કાયાત્સગ
મનાવાના નિધ કરીને અનુષ્ઠાનના વિષય સિવાયના વિષયેના સપર્કથી કાયાને વિમુખ રાખવી તેનું નામ કાયાત્સગ છે, આ કાસગ વિષયક જે પ્રતિમા છે, તેને કાર્યાત્સગ પ્રતિમા કહે છે. ! ૪ !
તરફ મુખ રાખીને પ્રત્યેક
સયત દ્વારા કરવામાં આવે
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सुघाटीका स्था०४ ७० १ सू०१४ प्रतिमास्वरूपनिरूपणम् . " सुभद्रा"-प्रवर्धमानपरिणामेन जायमाना भद्रैवेति २॥
"महाभद्रा"-पूर्वादि दिक्चतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येकं दिशि महराष्टकं यावद कायोत्सर्गलक्षणा, इयं चतुर्भिरहोरात्रैः समाप्या भवति ।३। ___" सर्वतोभद्रा"-दशम् दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः, इयं च दशभिरहोरात्रः समाप्यते । ४। ' पुनः प्रतिमा विभजते-" चत्तारि पडिमाओ" इत्यादि-चतस्त्र-प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षुद्रिकामोकमतिमा १, महतिकामोकप्रतिमा २, अनयोव्याख्यानमन्यतोऽवसेयम् । यवमध्या ३, वज्रमध्या ४ चेति । अनयोाख्या द्वितीयस्थाने गतेति ॥ सू० १४ ॥ जब साधित होती है तो सुभद्राप्रतिमा कही गई है २ महाभद्रो-प्रत्येक दिशा की ओर मुंह करके प्रत्येक दिशा में आठ २ प्रहर तक कोयोत्सर्ग करना सो महाभद्राप्रतिमा है । यह चार अहोरात्र दिनरात में समाप्त होती है ३ दश दिशाओं में प्रत्येक दिशा में एक अहोरात्र तक कायोस्सर्ग करना उसका नाम सर्वतोभद्रा प्रतिमा है-४ क्षुद्रिकामोकप्रतिमा आदि के भेद से जो ४ प्रतिमाएँ प्रकारान्तर से यतलाई गई हैं सोक्षद्रिकामोक प्रतिमा १ और महतिकाप्रतिमा-२ इन दोनों का व्याख्यान अन्य स्थानों से जानना चाहिये। तथा-यवमध्या और वज्रमध्या ये जो दो प्रतिमाएँ हैं, इसकी व्याख्या द्वितीय स्थान में की जा चुकी है, सो वहां से जान लेनी चाहिये ॥ १४ ॥ છે, તેનું નામ ભદ્રા પ્રતિમા છે. (૨) પ્રવર્ધમાન પરિણામ પૂર્વક જ્યારે ભદ્રા પ્રતિમાની સાધના કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેને સુભદ્રા પ્રતિમા કહે છે.
(૩) મહાભદ્રા પ્રતિમા–પ્રત્યેક દિશા તરફ મુખ રાખીને આઠ આઠ પ્રહર પર્યન્ત જે કાત્સગ કરવામાં આવે છે તેનું નામ મહાભાદા પ્રતિમા છે.
આ પ્રતિમાની આરાધના કરવામાં ચાર દિનરાત જેટલો સમય લાગે છે.
(૪) સર્વતોભદ્રા પ્રતિમા–દસ દિશાઓમની પ્રત્યેક દિશા તરફ એક એક અહેરાત્ર (દિન-રાત) પર્યન્ત મુખ રાખીને કાર્યોત્સર્ગ કરે તેને નામ સવલતેભદ્રા પ્રતિમા છે.
બીજી રીતે પણ પ્રતિમાના શુદ્રિકામકપ્રતિમાઆદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા छ. (१) बुद्रिा मोतिभा, (२) भतिभा प्रतिभा, मा मन्ननु સ્પષ્ટીકરણ અન્ય સ્થાનમાંથી જાણી લેવું. યવમધ્યા અને “વા મધ્યા' આ બે પ્રતિમાઓનું નિરૂપણ દ્વિતીય સ્થાનમાં કરવામાં આવ્યું છે, તે ત્યાંથી તે वांय . ॥ सू. १४ ॥
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स्थानाकसूत्रे
पूर्व प्रतिमा प्रोक्ता, सा च जीवास्तिकाये एव सम्भवतीति तद्विपरीवाजीचास्तिकायं सभेदं निरूपयति
मूलम् - चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहाधम्मस्थिका १, अधम्मत्थिकाए २, आगासस्थिकाए ३, पोग्गलत्थकाए ४ |
अथिकाया अरूविकाया पण्णत्ता, तं जहाधम्मस्थिका १, अधम्मत्थिकाए २, आगासत्थिकाए ३, जीवथिकाए ४ ॥ सू० १५ ॥
छाया - चत्वारोऽस्तिकायाः अजीवकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः १, अधर्मास्तिकायः २, आकाशास्तिकायः ३, पुद्गलास्तिकायः ४ |
"
चत्वारः अस्तिकायाः अरूपिकायाः प्रज्ञप्ताः तथथा - धर्मास्तिकायः १, अधमस्तिकायः २, आकाशास्तिकायः ३, जीवास्तिकायः ४ ॥ ० १५ ॥ टीका - " चत्तारि अत्थिकाया " इत्यादि - " अस्ति " इति विभक्तिप्रतिरू पकमव्ययम्, तच्च त्रिकालवाचकम् तेन " अस्ति " इत्यस्य 'अभूवन् भवन्ति " चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता" इत्यादि १५ सूत्रार्थ-चार अस्तिकाय अजीवकाय कहे गये हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय - १ अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय ३ और पुद्गलास्तिकाय- ४
1
चार अस्तिकाय अरूपिकाय कहे गये हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय १ अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय ३ और जीवास्तिकाय ४
इसमें जो हुवे हैं होते हैं और होंगे, वे अस्ति हैं ऐसा अर्थ निकलता है। प्रदेशोंकी राशिका नाम काय है, भूतकाल में वर्तमानकाल में और भवि " चत्तारि अस्थिकाया - अजीवकाया पण्णत्ता " त्याहि---
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सूत्रार्थ-यार अस्तिठाय- अलवा उद्यां छे - ( १ ) धर्मास्तिाय, (२) अधर्मास्तिठाय, (3) माहाशास्तिआय भने (४) युद्धसास्तिठाय.
यार अस्तिमय' अइयाय उद्यां छे --म (१) धर्मास्तिभयं (2) अधर्मास्तिङाय, (3) माशास्तिमाय भने (२) Sাस्িतাय.
विशेषार्थ – “ने थयां छे, थाय छे भने थशे, तेभनुं नाभ अस्ति छे. " પ્રદેશેાની રાશિનુ નામ કાય છે. ભૂતકાળમાં જેમાં પ્રદેશેાની રાશિ થઇ છે,
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू० १५ समेदा अजीवास्तिकायनिरूपणम् १८९ भविष्यन्ति " इति विवरणम् , चीयतेऽनेति कायाः-राशयः, अस्ति च ते कायाश्च प्रदेशानां राशयश्च इति अस्तिकाया: भूतभवद्भविष्यत्मदेशराशय इत्यर्थः । कचित् अस्तिपदेन प्रदेशा उच्यन्ते, तत्पक्षे-अस्ति-प्रदेशानां काया अस्तिकाया:प्रदे. शराशय इत्यर्थः, तादृशा अजीवकाया:-जीवन्ति-प्राणान् धरन्तीति जीवाः, न जीवा अजीवास्तेषां कायाः राशयोऽजीवकायाः, चत्वारा चतुःसंख्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः १, अधर्मास्तिकायः २, आकाशास्तिकायः ३, पुद्गलास्तिकायः ४, एषां व्याख्या प्रथमस्थाने गता । मू० १५ ॥ ष्यत्काल में जिनमें प्रदेशों की राशि हुई है-होगी, वे अस्तिकाय
हैं अर्थात्-जो बहुप्रदेशी हैं वे अस्तिकाय हैं। कहीं कहीं पर "अस्ति" · पद से प्रदेश कहे गये हैं, सो उस पक्ष में प्रदेशों का जो काय है वह
अस्तिकाय है। इसको भी अर्थ प्रदेशराशि है, ऐसे अस्तिकाय चार ही अजीवकाय कहे गये हैं, अजीव होते हुवे जो बहुपदेशी हैं वे अजीवकाय हैं। यद्यपि-जीव भी अस्तिकाय हैं, परन्तु-वह अजीव नहीं हैं, इसलिये-वह भी अजीवकोय नहीं हैं इस प्रकार अजीव होकर जिनमें कायता है वे चार हैं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय
और पुद्गलास्तिकाय जो प्राणों को धारण करते हैं वे जीव हैं, जो जीव नहीं हैं वे अजीव हैं अजीवों का जो काय है राशि है वह-अजीवकाय है। धर्मास्तिकाय आदि की व्याख्या प्रथम स्थान में की गई है। ये चार વર્તમાનકાળમાં પણ જેમાં પ્રદેશની રાશિ થાય છે અને ભવિષ્યમાં પણ જેમાં પ્રદેશોની રાશિ હશે, તેમને અસ્તિકાય કહે છે એટલે કે જે બહુuદેશી છે તેમને અસ્તિકાય કહે છે કે કઈ જગ્યાએ “અસ્તિ” પદથી “ પ્રદેશ » ગૃહીત થયેલ છે આ દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે પ્રદેશને જે કાય છે તેનું નામ જ અસ્તિકાય છે તેને અર્થ પણ “પ્રદેશરાશિ” જ થાય છે. એવા અસ્તિકાય રૂ૫ ચાર અવકાયને જ કહ્યા છે. અજીવ હોવા છતાં જે બહપ્રદેશ છે, તેમને અજીવેકાય કહે છે. જે કે જીવ પણ અસ્તિકાય છે, પરંતુ તે અજીવ નથી, તેથી તેને અવકાય કહેલ નથી આ રીતે અજીવ હોવા છતાં જેમાં કાયતાનો સદુભાવ છે એવાં ચાર અવકાય નીચે પ્રમાણે છે– (१) मास्तिय, (२) अस्तिआय, (3)मातिय मन (४) पुरात. કાય. જે પ્રાણને ધારણ કરે છે તેમને જીવ કહે છે, અને જે પ્રાને ધારણ કરતા નથી તેમને અજીવ કહે છે. અછની જે રાશિ છે તેને અજીવકાય કહે છે ધમસ્તિકાય આદિની વ્યાખ્યા પ્રથમ સ્થાનમાં આપવામાં આવી છે. અરૂપી था ६२
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स्थानान अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तदिशेपभूतपुरुषान् फलदृष्टान्त पूर्वकं निरूपयति
मूलम्-चत्तारि फला पणत्ता, तं जहा-आमे णाममेगे आममहुरे १, आमे णाममेगे पक्कमहुरे २, पके णाममेगे आम. महुरे ३, पक्के णाममेगे पक महुरे ४॥ . एवामेव चत्तारि पुरिसजायापण्णत्ता, तं जहा-आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे १, आमे णामेगे पक्कमहुरफलसमाणे २, पक्के णाममेगे आममहुरफलसमाणे ३, पक्के णाममेगे पक महरफलसमाणे ४॥ १६ ॥
छाया-चत्वारि फलानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आम नाम एकम् आममधुरम् १, आमं नाम एकं पक्वमधुरम् २, पक्वं नाम एकम् आममधुरम् ३, पक्वं नाम एकं पक्षमधुरम् ।। अस्तिकाय अरूपिकाय हैं, अरूपी होकर जो काय हैं बहुप्रदेशी हैं वे अरूपिकाय हैं, यहां पुद्गलास्तिकाय को जो नहीं लिया गया हैं उनका कारण उसका रूपी होना है पुद्गलास्तिकाय अरूपी नहीं होता है। जीवास्तिकाय को जो अरूपिकाय में गृहीत कर लिया है वह मूलरूप में उसका अरूपी होना है। धर्मास्तिकाय आदि ये सब अरूपी हैं। इसलिये इन अस्तिकायों को अरूपीकाय में परिगणित किया गया है ।। मृ.१५ ॥
अब सूत्रकार उक्त जीवास्तिकाय के विशेषभूत पुरुषों का दृष्टोन्त पूर्वक निरूपण करते हैं-" चत्तारि फूला पण्णत्ता" इत्यादि १६.
सूत्रार्थ-फलचार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-एक वह फल जो अपक्व होता हुवा आमका जैसा किश्चित् मधुर होताहै १ दूसरा वह जो अपक्व होता हुवा पके फल का जैसा अत्यन्त मधुर होता है २ तीसरा वह जो पका हुवा होकर आम जैसा किञ्चित् मधुर होतो है-३ और चौथा वह फल હોવા છતાં જે બહુપ્રદેશી છે, તેમને અરૂપકાય કહે છે. એવા અરૂપીકાય ચાર
छे-(१) पारिताय, (२) अघास्तिय, (3) शास्तिय भने જીવાસ્તિકાય. અહીં પુદ્ગલાસ્તિકાયને અરૂપકાય નહીં કહેવાનું કારણ એ છે કે તે રૂપી પદાર્થ છે–અરૂપી નથી જીવાસ્તિકાયને અરૂપીકાય કહેવાનું કારણ એ છે કે મૂળરૂપે તે અરૂપી છે. ધર્માસ્તિકાય આદિ આ ચાર પદાર્થો અરૂપી જ છે. તેથી આ અતિકાને અપીકાયમાં ગણવામાં આવ્યા છે. તે સૂ. ૧૫ છે
હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત જીવાસ્તિકાયનું-વિશેષભૂત પુરુષોના દષ્ટાન્તપૂર્વક नि३५५ रे छ-" चत्तरि फला पण्णत्ता" त्याह
સૂત્રાર્થ–ફલેના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કાચું હોવા છતાં પણ કેરીના જેવું સહેજ મધુરતયુક્ત ફળ. (૨) કાચું હોવા છતાં પાકા ફળના
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू०१६ फलदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम् ४२५
एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तयथा-आमो नाम एकः आममधुरफलसमानः १, आमो नामकः पवमधुरफलसमानः २, पक्वो नामकः आममधुरफलसमानः ३, पक्वो नामैकः पक्यमधुरफलसमानः ४ । सू० १६ ॥
टीका-" चत्तारि फला" इत्यादि-चत्वारि चतुः संख्यानि, फलानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आमम्-अपक्वम् सत् आममधुरम्-आममिव किञ्चिन्मधुरम् एकं-किश्चित्फलं भवति, ' नामे' ति चतुर्वेपि भङ्गेषु वाक्यालङ्कारे १, तथाआमम् अपक्वं सत् पक्वमधुरम्=पक्वमिवात्यन्त मधुरम् , एक-कञ्चित् फलं भवति २, वथा-पक्वं-परिपाकप्राप्तं सत् आममधुरम् आममिव किञ्चिन्मधुरम् , एकं फलं भवति ३, तथा-पक्वं परिणतं सत् पक्वमधुर-पक्वमिवोत्कृष्टमधुरमेकं फलं भवति।। जो पक जाने पर पके हुवे फल का जैसा उत्कृष्ट मधुर होता है ४ इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं, एक वह जो आम मधुर फल का समान होता है १ दूसरा वह जो पक्व मधुर फल का समान होता है-२ तीसरा वह जो पक जाने पर भी अपक्व आम फल के समान होता है ३ चौथा वह जो कि- पक्व हुवे पक्व फल का जैसा ही होता है ४ यहां-आम शब्द से अपक्व फल लिया गया है और-पक्व शब्द से पका हुवा फल लिया गया है " नाम" पद सर्वत्र वाक्यालङ्कर में प्रयुक्त हुवा है। एक फल ऐसा होता है जो आम होता हुवा आम जैसा ही मधुर होता है, अर्थात्-किञ्चित् मधुर होता है-१ एक फल ऐसा होता है जो आम होता हुवा भी पके हुवे फल जैसा अत्यन्त જેવું અત્યન્ત મધુર હોય એવું ફળ (૩) પાકું હોવા છતાં કેરીના જેવું સહેજ મધુર ફળ. (૪) પાકીને ઉકૃષ્ટ રૂપે મધુર થયેલું ફળ. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–-(૧) અપકર કેરીના જેવા (૨) અપકવ હેવા છતાં '५४५ मधु२ ५५ समान, (3) ५४१ वा ७i म५४१ ५१ समान मन (४) ५४१ ४ ५४५ समान मधुर, २मा सूत्रमा “आम"-"श" मा ५४ बा२॥ ३॥' गृहीत' ये छे. ' ५४५' ५४थी पातु ३१ गडीत येस छे. હવે ફળના ચાર પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–
(૧) કે ફળ એવું હોય છે કે તે જ્યારે અપકવ (કાચું) હોય છે ત્યારે આમ (કેરી) જેવું જ મધુર હોય છે એટલે કે સહેજ મધુર હોય છે.
(૨) કઈક ફળ એવું હોય છે કે જે અપકવ છેવા છતાં પણ પકવ ફળના જેવું અત્યંત મધુર હોય છે.
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स्थानाशास्त्र र्दाष्टीन्तिकपुरुषजातमूत्रमाद" एवामेवे "-त्यादि-एवम् अनन्तरोक्तदृष्टान्तभूतफलवदेवेत्यर्थः, चत्वारि पुरुषजातानि प्राप्तानि, तद्यथा-आमा अपरिपक्वः-वयः श्रुताभ्या-मव्यक्त इत्यर्थः यश्च न वयोवृद्धो न च ज्ञानवृद्धः स पुरुषः, आममधुरफल-समानः-अपक्वफलवत्किञ्चिन्मधुरिमयुक्त फल तुल्या, अर्थाद्यथाऽऽममधुरफलं स्वल्पमाधुर्ययुक्तं भवति तथैकः कश्चित् पुरुपोऽपि स्वल्पमात्रो-पशमादि रूपमाधुर्ययुक्तो भवति किञ्चिदुपशमादिमान् कश्चित्पुरुपो भवतीति पर्यवसितोऽर्थः, " नामे"-ति सर्वत्र मधुर होता है-२ एक फल ऐसा होता है जो पक जाने पर भी पके हुवे फल जैसा किश्चित् ही मधुर होतो है-३ तथा-एक फल ऐसा होता है जो पक जाने पर ही पके हुवे फल सदृश बहुत अधिक मधुर होता है ४ इस प्रकार से फल की चतुष्प्रकारता का कथन करके अब सूत्रकार इस चतुष्प्रकारता की समता पुरुषों के साथ घटाने के लिये दान्तिक पुरुषजात सूत्र का कथन कर रहे हैं-इसमें वे यह प्रदर्शित करते हैं 'कि-दृष्टान्त स्वरूप फल सदृश ही चार पुरुषजात कहे गये हैं इनमें एक वह जो आम मधुर फल का समान होता है अर्थात्-ऐसा वह पुरुष नतो वयोवृद्ध होता है और न ज्ञानवृद्ध होता है १ कोई एक आम मधुर फल अपक्व अवस्था में भी किञ्चित् मधुरिमा युक्त (स्वल्प मधुरिमा से युक्त) होता है, उसी प्रकार कोई एक पुरुष भी स्वल्पमात्रा में उप. शमादिरूप माधुर्य से युक्त होता है-१ अर्थात्-कोई एक पुरुष ऐसा
(૩) કેઈક ફળ એવું હોય છે કે જે પકવ થયા છતાં પણ અત્યન્ત મધુર હોતું નથી પણ સહેજ મધુર હોય છે.
(૪) કેઈક ફળ એવું હોય છે કે જે પાકયું હોય ત્યારે પાકી કેરીના જેવું અત્યંત મધુર હોય છે.
આ રીતે ફળના ચાર પ્રકારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર આ ચતુપ્રકારતાની સમાનતા પુરુષની સાથે ઘટાવવા નિમિત્તે દાબ્દન્તિક પુરુષ જાત વિષયક સૂત્રનું નિરૂપણ કરે છે –
દૃષ્ટાંતરૂપ ફળ સરખા ચાર પ્રકારના પુરૂષે કહ્યું છે.
(૧) અપકવ સહેજ મધુર ફળસમાન પુરુષ–જે પુરુષ વાવૃદ્ધ પણ ન હોય અને જ્ઞાનવૃદ્ધ પણ ન હોય, તેને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. અથવા જેમ કેઈ ફળ (દા. ત. કેરી) અપકવાવસ્થામાં પણ અલ્પ પ્રમાણમાં મધુરતા યુક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે કઈ કઈ પુરુષ અલ્પ માત્રામાં ઉપશમાદિ રૂપ
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सुधा टीका स्था०४३० १ ० १६ फलदृष्टान्तेन पुरुषादिनिरूपणम्
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भङ्गेषु वाक्यालङ्कारे १| तथा - " आम " इत्यादि - एकः कश्चित् पुरुषः आमः - वयश्रुताभ्यामव्यक्तः सन्नेव पक्त्रमधुरफलसमानः - परिपक्व फलवत् प्रधानोपशमादिगुणालङ्क-तत्वादत्यन्तमधुरस्वभावः २ तथा - " पक्व " इत्यादि - एक: = कश्चित्पुरुषः, पक्वः=वयःश्रुताभ्यां परिणतः सन् आममधुर फलसमानः=स्वल्पमात्रोपशमादिगुणरूपमाधुर्य्यवान् भवति ३, तथा - " पक्वो नाम " इत्यादि-एक'= कथित्पुरुषः पक्त्रः=वयःश्रुताभ्यां परिणतः पक्त्रमधुरफलसमानः - प्रधानोपशमादि गुणविभूषितत्वादत्यन्तमधुरस्वभावो भवति । ४ । । सू० १६ ॥
होता है जो कुछ २ उपशम आदि गुणवाला होता है । एक कोई दूसरा पुरुष ऐसा होता है जो वय और श्रुत इनसे अव्यक्त वा वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध नहीं हुवा भी प्रधान उपशमादि गुणों से युक्त होने के कारण अत्यन्त मधुर स्वभाववाला होना है-ऐसा वह पुरुष आम पक्व मधुर फल के समान होता है । कोई एक तीसरे प्रकार का पुरुष ऐसा होता
कि जो वय और श्रुत से परिणत होता हुवा वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होता हुवा भी स्वल्पमात्रा में ही उपशमादि गुणरूप माधुर्यवाला होता है ऐसा वह पुरुष पक्व आम मधुर फल के समान होता है -३ और कोई एक चौथे प्रकार का पुरुष ऐसा होता है जो वयोवृद्ध और अत इनसे परिणत होने पर पक्व मधुर फल के समान प्रधान उपशमादि गुण विभूषित होने के कारण अत्यन्त मधुर स्वभाववाला होता है ४ ॥ सू. १६ ॥ માથી યુક્ત હાય છે એટલે કે કેાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે અલ્પ માત્રામાં જ ઉપશમ આદિ ગુણુાથી યુક્ત હાય છે.
(૨) અપકવ હાવા છતાં અતિ મધુર ફળ સમાન પુરુષ-કાઇ પુરુષ એવા હોય છે કે વયેવૃદ્ધ અને જ્ઞાનવૃદ્ધ નહીં હૈાવા છતાં પણ ઉપશમાદિ ગુણેથી યુક્તાવાને કારણે અત્યન્ત મધુર સ્વભાવવાળા હોય છે, એવા પુરુષને આ પ્રકા રમાં ગણાવી શકાય છે.
(૩) પકવ છતાં અલ્પ માત્રામાં માધુ યુક્ત ફળસમાન—કાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે વાવૃદ્ધ અને જ્ઞાનવૃદ્ધ હાવા છતાં પણ અલ્પ પ્રમાણમાં ઉપશમાદિ ગુણુરૂપ માવાળા હાય છે, એવા પુરુષને આ ત્રીજા પ્રકારમાં સૂકી શકાય છે.
(૪) અતિશય માય યુક્ત પકવ કુળ સમાન પુરુષ-કાઈ પુરુષ એવા હાય છે કે વાવૃદ્ધ અને જ્ઞાનવૃદ્ધે (શ્રુત આદિમાં પાર’ગત ) પણ હોય છે અને ઉપશમાદિ પ્રધાન ગુણૈાથી વિભૂષિત હાવાને કારણે અત્યન્ત મધુર સ્વભાવવાળા હોય છે. ! સ. ૧૬ ૫
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स्थानासूत्रे
पूर्वपक्वमधुरउक्तः, स च सत्य गुणयोगाज्जायत इति सत्य तद्विपरीतं च मृषा तथा सत्यासत्यनिमित्तं प्रणिधानं च निरूपयति
४९४
मूलम् - चउविहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा- कांउज्जयया १, भासुज्जुयया २, भावुज्जुयया ३, अविसंवायणाजोगे ४ । चउ विहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा काय अणुज्जुयया १, भास अणुज्जुयया २, भाव अणुज्जुयया ३, विसंवायणाजोगे ४ । चउत्रिहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा --मणपणिहाणे १, वइपणिहाणे २, कायपणिहाणे ३, उवगरणपणिहाणे ४। एवं रइयाणं पंचिदियाणं जाव वेमाणियाणं २४ । चउत्रिहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- मणसुपणिहाणे १, वइसुप्पणिहाणे २, काय सुप्पणिहाणे ३, उवगरणसुप्पणिहाणे । एवं संजयमणुस्सावि ।
चविहे दुष्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- मणदुष्पणिहाणे १, दुपणिहाणे २, कायदुपणिहाणे ३, उवगरणदुपणिहाणे | एवं रइयाणं पंचिंदियाणं जात्र वैमाणियाणं ॥सू० १८ ॥
छाया -चतुर्विधं सत्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - काय जुकता २, -भाष ऋजुता २, भाव ऋजुता ३, अविसंवादनायोगः ४ चतुर्विधं मृपा प्रज्ञप्तम्, तद्यथाकायानृजुकता १, भाषाऽनृजुकता २, भावानृजुकता ३, विसंवादनायोगः ४ | " चउचित्र हे सच्चे पण्णत्ते -" इत्यादि - १७
कायऋ
सूत्रार्थ - सत्य चार प्रकार का कहा गया है, जैसे जुकता १ भाषऋजुकता २ भावऋजुकता ३ और अविसंवादनायोग ४ । मृषावाद चार भेदवाला कहा गया है, जैसे कायानृजुकता १ भाषाऽनृजुकना २ भावाऽनृजुकता ३ और विसंवाद
" चउव्वि सचे पण्णत्ते " त्याहि
-
सूत्रार्थ-सत्यना नीचे प्रभा और अर उद्या छे - (1) अथऋजुता, (२) भाषऋनुभुता, (3) भावऋनुउता भने (४) यमविसंवाहनायोग
મૃષાવાદના ચાર પ્રકારા કહ્યા છે-(૧) કાયાનુજુકતા, (૨) ભાષા અનુ જુકતા, (૩) ભાવાનજુકતા અને વિસ'વાદનાચેગ,
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सुभा टीका स्था०४ उ०१ सू०१७ सत्यासत्यनिमित्तक प्रणिधाननिरूपणम् ४५९ चतुर्विधं प्राणिधानं प्रज्ञप्तम् , तद्यया-मनाप्रणिध नं १, वाक्मणिधानं २, कायमणिधानम् ३, उपकरणप्रणिधानम् ४। एवं नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियाणां यावद् वैमानिकानाम् २४। चतुर्विधं सुप्रणिधानं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनासुपणिधानं १, वासुप्र. णिधानं २, कायसुप्रणिधानम् ३,उपकरणसुप्रणिधानम्।। एवं संयतमनुष्याणामेव ।
चतुर्विधं दुष्प्रणिधान प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनोदुष्पणिधानं १, वाग्दुष्प्रणिधानं २, कायदुष्प्रणिधानम् ३, उपकरणदुष्पणिधानम् एवं नैरयिकाणां पञ्चन्द्रियाणां यावद् वैमानिकानाम् २४। (सू० १८)
टीका-" चउन्चिहे " इत्यादि-चतुर्विध चतुष्प्रकारं सत्यं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-कायऋजुकता-ऋजुः-सरलः स एव ऋजुकस्तस्य भावः ऋजुकता, कायस्य ऋजुकता नायोग ४ । प्रणिधान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-मनः प्रणिधान १ वाक प्रणिधान-२ काय प्रणिधान-३ और उपकरण प्रणिधान ४। इस प्रणिधान का होना नारक पञ्चेन्द्रिय से लेकर यावत् वैमानिक तक समान जानना चाहिये। सुप्रणिधान चार प्रकार का होता है जैसे-मनः सुप्रणिधान १ वाक् सुप्रणिधान २ काय सुप्रणिधान ३ और उपकरण सुप्रणिधान ४ यह सुप्रणिधान संयत मनुष्यों को ही होता है। दष्प्रणिधान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-मनोदुष्प्रणिधान १ वाग्दुप्रणिधान २ कायदुष्प्रणिधान ३ और-उपकरण दुष्प्रणिधान ४ यह दुष्प्रणिधान नैरयिक पञ्चेन्द्रियसे लेकर यावत् वैमानिक तकको होताहै।
सत्य कोयनाजुकता आदि भेद से चार प्रकार का कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है-ऋजु नाम सरलता है ऋजु ही ऋजुक है ऋजुक
प्रणिधान ५ या२ २ ४॥ छ-(१) मनाप्रधान, (२) पाप्रशिધાન, (૩) કાયપ્રણિધાન અને (૪) ઉપકરણ પ્રણિધાન. આ પ્રણિધાનને નારકથી લઈને વૈમાનિક પયતના સમસ્ત જીવોમાં સદ્દભાવ સમજ.
सुप्रणिधानना पशु नीय प्रमाणे या १२ ५3 छे-(१) भनासुप्रणिधान, (२) पा सुप्रणिधान, (३) ४य सुप्रधान मन (४) 6५४२५ सुप्रणिधान. આ સુપ્રણિધાનને સંદુભાવ સંયત મનુષ્યમાં જ હોય છે.
प्रणिधानना ५ यार २ छ-(१) मनाप्रणिधान, (२) पा . विधान, (3) यहुप्रणिधान मन (४) 6५४२६१ प्रणिधान. मा प्रशिધાનને સદભાવ નારક પચેન્દ્રિયથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના જીવમાં હોય છે.
વિશેષાર્થ–સત્યના ચાર ભેદનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– ઋજુ એટલે સરલ. નાજુને જ નાજુક કહે છે, જુકના ભાવને ત્રાજુકતા કહે છે, કાયાની સાથે જ જેને સંબંધ છે એવી ઋજુકતાનું નામ કાયઋજુકતા
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स्थानासो कायऋजुकता-कुटिलपथान् कायस्य विमुखीकरणेन यथार्थमार्गप्रवृत्तिरिति भावः १, भाष ऋजुकता-सत्यसंभाषणप्रवृत्तिः २, भाव ऋजुकता-भाव्यते-पदार्थश्चि. नत्यतेऽनेनेति भावो मनस्तस्य ऋजुकता-सरलता तथोक्ता-मनसः शुद्ध प्रवृत्तिः ३, तथा-अविसंवादनायोगः-अनाभोगादिना गवादिकमवादिकं यद्वदति सा विसंवादना, यद्वा-कस्मैचिजनाय किञ्चित्स्वीकृत्य यन्न क्रियते सा विसंवादना, न विसंवादना अविसवादना, तस्या योगः-सम्बन्धः अविसंवादना योगः ४॥ ___ " चउब्धिहे मोसे" इत्यादि-मृपा चतुर्विधं प्रज्ञप्तमित्यन्वयः, तद्यथाका भाव ऋजुकता है काय से सम्बद्ध होना कायकजुकता है कुटिल मार्ग से शरीर को विमुख करना और उसे यथार्थमार्ग में ले जाना इसका नाम-कायऋजुकता है । सत्य भाषण में प्रवृत्ति का होना यह भाषाऋजुकता है-२ पदार्थों का चिन्तन जिसके निमित्त से किया जाता है उसका नाम भाव है-मन है इसकी जो जुकता सरलता है वह भावऋजुकता है, यह-भावऋजुकता मन की शुद्ध प्रवृत्तिरूप होती है ३ तथा अनाभोग आदि कारण से जो गाय आदि को अश्चादि कह दिया जाय वह विसंवादना है । अथवा-जिस किसी जन के लिये कुछ करना स्वीकार करके भी जो नहीं किया जाता है वह विसंवादना है ऐसी विसंवादना का नहीं होना यह अविसंवादना है इस अविसंवादना का योग सम्बन्ध अविसंवादना ४ । चार प्रकार का जो कायाऽजुकता आदि भेद से वृषा कही गई है, उसका तात्पर्य ऐसा है-शरीर की जो છે “કુટિલ માર્ગથી શરીરને વિમુખ કરવું અને તેને યથાર્થ માગે લઈ જવું તેનું નામ કાજુકતા છે.” ! ૧
સત્ય ભાષામાં પ્રવૃત્ત થવું-સત્ય બોલવું તેનું નામ ભાષબાજુક્તા છે. ૨૫
પદાર્થોનું ચિન્તન જેની મદદથી કરવામાં આવે છે તેનું નામ ભાવ (મન) છે. તે ભાવ અથવા મનની જે સરલતા છે તેને ભાવઋજુતા કહે છે, તે ભાવનાજુકતા મનની શુદ્ધ પ્રવૃત્તિરૂપ હોય છે. એ ૩ !
અનાભોગ (અજ્ઞાન) આદિ કારણેને લીધે ગાય આદિને અશ્વાદિ કહી દેવામાં આવે–આ પ્રકારની વિસંવાદિતાનું નામ વિસંવાદના છે. અથવા કે.ઈ કાર્ય કરી આપવાનું સ્વીકારીને, તે કાર્ય કરી આપવું તેનું નામ વિસંવાદના છે. આ પ્રકારની વિસંવાદનાને અભાવ છે, તેનું નામ અવિસંવાદના છે. આ અવિસંવાદના એગ (સંબધિ) ને અવિસંવાદના ચોગ કહે છે. ૪
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू०१७ सत्यालस्यनिमित्तकप्रणिधाननिरूपणम् ४५७ कायानृजुकता-कायस्य-शरीरस्य अनृजुकता असरलतेति कायानृजुकता-शरीरस्यायथावस्थितप्रवृत्तिः १, भापाऽनृजुकता-वाचोऽयथार्थयोधनार्थी प्रवृत्तिः २, भावानुजुकता-मनसोऽयथार्थपदार्थचिन्तनप्रवर्तना ३, विसंवादनायोगः-प्रतिज्ञातपदार्थाऽकरणसम्बन्धः, कस्मैचित् किञ्चित्प्रतिज्ञाय 'मयेदं न प्रतिज्ञात'-- मित्याकारकविसंवादनायोगः ४। ___"चउबिहे पणिहाणे " इत्यादि-प्रणिधान-प्रणिधिः प्रयोग इत्यर्थः, तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनःप्रणिधान-मनसा-चित्तस्य प्रणिधानम् आर्त-रौद्रअनृजुकता असरता है वह कायाऽनृजुकता है इसमें शरीर की अय. थावस्थितरूप से प्रवृत्ति रहती है-१ वचन की अयथार्थ को बोधन करने में जो प्रवृत्ति होती है वह भाषाऽनुजुकता है-२'मन की प्रवृत्ति अयथार्थ पदार्थ के चिन्तन करने में जो होती हो वह भावाऽनृजुकता है-३ तथा प्रतिज्ञात अर्थ का नहीं करना यह विसंवादनायोग है "मैं तुम्हारा अमुक कार्य कर गा" ऐसी प्रतिज्ञा करके भी फिर उससे ऐसा कहना कि मैंने ऐसा करना स्वीकार नहीं किया (था) है इत्याकारक यह विसंवादनायोग होता है। ___ " चविहे पणिहाणे" इत्यादि प्रणिधान शब्द का अर्थ लगाना, उस विषय में उसे जोडना। यह प्रणिधान चार प्रकार का जो कहा गया है उसका अभिप्राय ऐसा है-आर्त, रौद्र, धम्य, और शुक्ल ये
હવે મૃષાવાદના ચાર ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે (૧) કાયાનુજુકતા–શરીરની જે અનુજુકતા (અસરલતા) હોય છે તેને કાયા
જુતા કહે છે. કુટિલ કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થવું અને શરીરથી અયથાર્થ પ્રવૃત્તિ કરવી તેનું નામ કાયાનુજકતા છે. (૨) અસત્ય વચનને ભાષા અનુજક્તા કહે છે–વચનની અયથાર્થનુ બેધન કરવાની જે પ્રવૃત્તિ થાય છે તેનું નામ ભાષા અનુજુકતા છે. (૩) અયથાર્થ પદાર્થનું ચિન્તન કરવા રૂપ મનની જે પ્રવૃત્તિ થાય છે તેને ભાવ અજુકતા કહે છે (૪) પ્રતિજ્ઞાત અર્થનું પાલન ન કરવું તેનું નામ વિસંવાદનાગ છે જેમકે “હું તમારૂ આ કાર્ય કરી દઈશ” આ પ્રકારનું વચન આપ્યા પછી તે વચનનું પાલન ન કરવું અને મેં એવી વાત કદી કરી જ નથી, ” આ પ્રમાણે કહેવું, તે વિસંવાદનાયેગ રૂપ ગણાય છે.
હવે પ્રણિધાનના ચાર પ્રકારનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે— " चउविहे पणिहाणे" त्याह-प्रणिधान मेटले साउ-परायु, मया અમુક વિષયમાં જોડવું. તે પ્રણિધાનના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે કહા –
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स्थानासूत्र धर्म्य-शुक्लरूपतया क्वचिद् व्यापृतीकरणम् १, वाक्प्रणिधानम् वाच:-वचनस्य प्रणिधानम्-आादिरूपतया संभाषणम् २, कायप्रणिधान-शरीरस्य क्वचिदार्तादिरूपतया मंलग्नीकरणम् ३, उपकरणप्रणिधानम्-उपकरणस्य सामान्यविशिष्टवस्त्रपात्रप्रभृतेः प्रणिधान-व्यापरणम् ४। __" एवं " इति-अनेन प्रकारेणेत्यर्थः, अर्थाद् यथा सामान्यतः सर्वसाधा. रणं प्रणिधान मुक्तं तथा, ' णेरइयाणं' इत्यादि-नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियाणां चतुविशतिदण्डकोक्तानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियाः सन्ति मनुष्यतिर्यञ्चस्तेषां मनआदिप्रणिधानं वोध्यम् । तत् किंपर्यन्वानामिति निर्दिशति-'जाव वेमाणियाणं ' इतियावद् वैमानिकानाम्-वैमानिकपर्यन्तानाम् , एकेन्द्रियविक्लेन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रियाणां तु न मनःप्रभृतिप्रणिधानं भवितुमर्हति, तेषां मनोवाक्कायोपकरणप्रणिधानासम्भवात् । जो चार ध्यान हैं इनमें से किसी एक ध्यान रूपमें मनको व्याप्त करना (लगाना) यह मनाप्रणिधान है आर्त आदिरूप से संभापण करना यह वाक्यप्रणिधान है शरीर को आतादिरूप से किसी काम में लगाना यह कायप्रणिधान है सामान्य या विशिष्ट वस्त्र पात्र आदि का जो व्यापारित करना लगाना है वह उपकरण प्रणिधान है, यह प्रणिधोन सामान्यरूप से समस्त जीवों में होता है। परन्तु मनः प्रणिधान आदि तीन प्रणिधान एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को नहीं होते हैं । क्यों कि-मन वचन और उपकरणों की वहां असम्भवता है नैरयिकों में पञ्चेन्द्रियों में यावत् वैमानिकों में ये सय प्रणिधान । । (१) मन:प्रणिधान-मात, शैद्र, धर्म भने शुस, माजे या२ ध्यान છે તેમાંથી કઈ પણ એક ધ્યાનમાં મનને લગાડવું (એકાગ્ર કરવું) તેનું નામ મન પ્રણિધાન છે. (૨) આર્ત આદિ રૂપે સંભાષણ કરવું તેનું નામ વાકુ પ્રણિધાન છે. (૩) શરીરને આર્તાવિ રૂપે કેઈ કાર્યમાં પ્રવૃત્ત કરવું તેનું નામ . કાયમણિધાન છે. (૪) સામાન્ય અથવા વિશિષ્ટ પાત્ર આદિ ઉપકરણના પ્રષિધાનનું નામ ઉપકરણ પ્રણિધાન છે. કાયમણિધાનને સદભાવ સામાન્ય રૂપે સમસ્ત જીવમાં હોય છે. પરંતુ મનઃપ્રણિધાન આદિ બાકીના ત્રણ પ્રણિધાનને સદ્દભાવ એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય અને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવમાં હેત નથી, કારણ કે મન, વચન અને ઉપકરની તે જીમાં સંભાવના રહેતી નથી. નારમાં, સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિમાં અને વૈમાનિકે પર્યંતના જીવમાં આ ચારે प्रणिधानाना समाप डाय छे. ''
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सुंधा टीका. स्था० ४ उ१ सू०१७ सत्यासत्यनिमित्तकपणिधाननिरूपणम् ४९९. ____ " चतुर्विधं सुपणिधान "-मित्यादि-सुप्रणिधानं शोभनपयोगः, चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनासुप्रणिधानं-मनसः सुष्ठु प्रयोगा-चित्तस्य , धर्मध्यानादिना सुचारूव्यापरणम् । एव वाकायोपकरणसुप्रणिधानानि वोध्यानि ।।
" एवं संजयमणुस्साणवि ” इति-एवम् ईदृशं सुप्रणिधानचतुष्टयम् , संयतमनुष्याणामेव-संयताश्च ते मनुष्याः संयतमनुष्यास्तेपामेव=धृतसंयममनुष्याणामेव मनःप्रभृतिसुमणिधानं भवति नान्येपामित्यर्थः, सुप्रणिधानस्य चारित्रपरिणतिस्वरूपत्वात् । ___“ चउबिहे दुप्पणिहाणे " इत्यादि-दुष्प्रणिधानम् अशोभनप्रयोगः, तच्च. होते हैं । " चतुर्विध सुप्रणिधानम्" इत्यादि शोभन प्रयोग का नाम सुप्रणिधान है यह सुप्रणिधानका मनः सुप्रणिधान आदि चार भेद कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि-चित्त को धर्मध्यान आदि द्वारा सुचारुरूप से व्यापृत करना लगाना, यह मन का सुमणिधान है इसी प्रकार वाक् सुप्रणिधान काय सुप्रणिधान और उपकरण सुप्रणिधान के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। "एवं संजयमणुस्साणवि-" यह सुप्रणिधान चतुष्टय संयतमनुष्यों को (संयतशीलको) ही होताहै, अन्य मनुष्यों को नहीं। क्योंकि-सुप्रणिधान चारित्र परिणतिरूप होता है।
"चउविहे दुप्पणिहाणे-" इत्यादि अशोभन प्रयोग का नाम दुष्प्रणिधान है यह-मनोदुष्प्रणिधान आदि भेदों से जो चार प्रकार कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि चित्त को आतं रौद्र आदिरूप से परिणत करना इसका नाम-मनोदुष्प्रणिधान है, इसी प्रकार का कथन,
" चतुर्विध सुपणिधानम् " त्या
શોભન પ્રયોગનું નામ સુપ્રણિધાન છે, તે સુપ્રણિધાનને પણ મન સુપ્ર. ણિધાન આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે–(૧) મનઃસુપ્રણિધાન-ચિત્તને ધર્મધ્યાન આદિ શુભ પ્રવૃત્તિમાં લીન કરવું તેનું નામ મનઃસુપ્રણિધાન છે. એ જ પ્રમાણે છે વાફસુપ્રણિધાન, કાયસુપ્રણિધાન અને ઉપકરણ સુપ્રણિધાનના અર્થ પણ જાતે જ સમજી શકાય એવા હેવાથી અહીં તેમનું અધિક સ્પષ્ટીકરણ કર્યું નથી, " एवं संजयमणुस्सा वि" मा यार सुप्रणिधाननी सहा सयत (सयभः । શીલ) મનુષ્યમાં જ હોય છે-અન્ય અસંયત મનુષ્યમાં તેમને સદુભાવ હોત નથી, કારણ કે સુપ્રણિધાન ચારિત્ર પરિણતિ રૂપ હોય છે.
“चउठिवहे दुप्पणिहाणे "त्यादि सामान प्रयोगनु नाम प्रणिधान छ, તેના મને દુષ્મણિધાન આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે.
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स्थानाशास्त्र तुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनोदुष्प्रणिधान=चि तस्याऽऽत्तरौद्रादिरूपतया प्रयोगः १, एवं वाकायोपकरणदुष्पणिधानान्यपि विज्ञेयानि ।।
" एव "-मिति, एवम् ईदृशं मनःपभृतिदुष्पणिधानं नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रि. याणां-संज्ञिमनुष्य तिरश्चां, यावद् वैमानिकानां वैमानिकपर्यन्तानां भवति, न त्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रियाणाम् ,तेपां मनःपभृति प्रणिधानासम्भवात्।।सू.१७॥ पुरुषाधिकारादेवान्यप्रकाराणि चतुर्दशपुरुषसूत्राण्याह--
मूलम्-चत्वारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--आवायभदए णाममेगे संवासभदए १, संवासमदए णाममेगे णो आवायभदए २, एगे आवायभदएवि संवासभदएवि ३, एगे णो आवायभदए णो वा संवासभदए ।४।१। __ चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-अप्पणो णाममेगे वजं पासइ णो परस्स १, परस्स णाममेगे बजं पासइ णो अप्पणो २, अप्पणो णासमेगे वजं पाप्तइ परस्सवि ३, अप्पणो णाममेगे वजं णो पासइ णो परस्सवि ।४॥ २॥
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-अप्पणो गाममेगे वज्ज उदीरेइ णो परस्स ४॥ ३॥ वाग्दुष्प्रणिधान-और कायदुष्पणिधान के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, ऐसा यह मनोदुष्प्रणिधान आदि नैरयिकों में पञ्चेन्द्रिय मनुध्य तिर्यञ्चों में यावत् वैमानिकों में होती है। एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों में मनोदुष्प्रणिधान वचनदुष्प्रणिधान आदि नहीं होते। क्यों कि-इनमें इनका अभाव कहा गया है ॥ सू.१७ ॥
ચિત્તને આર્ત, રૌદ્ર આદિ રૂપે પરિણત કરવું તેનું નામ મને દુપ્રણિધાન છે. એ જ પ્રકારનું કથન કાયદુપ્રણિધાન, વાદગ્ગણિધાન અને ઉપકરણ દુશ્મણિધાનના વિષયમાં પણ સમજી લેવું. આ દુષ્પણિધાનેને સદ્ભાવ નારકમાં, પંચેન્દ્રિય મનુષ્ય અને તિર્યમાં તથા વૈમાનિક પર્યાના જામાં હોય છે. પરંતુ એકેન્દ્રિય, વિલેન્દ્રિય અને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવોમાં મનદુપ્રણિધાન, વચનદુપ્રણિધાન આદિને સદ્ભાવ હેતે નથી, કારણ કે તે જીવેમાં મન, વચન અને ઉપકરણને અભાવ કહ્યો છે. આ સ. ૧૭ !
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सुधी टीका स्था०४ उ० १ सू० १८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम्
अपणो णामभेगे वज्रं उबसामेइ णो परस्स० ४ ४| चचारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -अब्भुट्ठेइ णाममेगे अट्ठाइ ४ । ५
एवं वंदइ णाममेगे णो वंदावेइ ४ ६। एवं सकारेइ ७, सम्मा ८, पूएइ ९, वाइ १०, पुच्छर १२, पडिपुच्छइ १२, वागts १३. सुन्धरे णाममेगे णो अत्थधरे १ अत्थधरे णाममेगे णो सुत्तधरे २, सुत्तधरे णाममेगे अत्थधरे वि ३, णो सुत्तधरे णामगे णो अत्थरे व ४| १४| || सू० १८॥
छाया - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - आपातभद्रको नामैकः संवासभद्रकः १, संवासभद्रको नामैको नो आपातभद्रकः २, एक आपातभद्रको-संवाभद्रोऽपि ३, एको नो आपातभद्रको नो वा संवासभद्रकः ४ १
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - आत्मनो नामैकोऽयं पश्यति नो परस्य २, परस्य नामैकोऽवद्यं पश्यति नो आत्मनः २, आत्मनो नामैकोऽवद्य पश्यति परस्यापि ३, आत्मनो नामैhisar न पश्यति नो परस्यापि ४ । २ ।
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पुरुष अधिकार को लेकर ही अब सूत्रकार अन्य प्रकार से १४ पुरुष सूत्रों का कथन करते हैं- " चतारि पुरिलजाया पण्णत्ता" इत्यादिमुत्रार्थ- पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसे आपात भद्रक संवास भद्रक १ संवासभद्रक नो आपात भद्रक २ आपात भद्रकभी संवासभद्रकभी ३ औरनो आपातभद्रक नो संवासभद्रक ४ । ( प्रथम ) १ चार पुरुषजात कहे गये हैं, जो अपना अवय-पाप देखता है, पर का नहीं - १ जो दूसरों का अवय देखता है अपना नहीं - २ जो अपना भी दूसरों का भी अवध
પુરુષ અધિકાર ચાલુ છે, તેથી સૂત્રકાર હવે પુરુષ વિષયક ૧૪ સૂત્રેાનુ' निश्णु रे छे - " चचारि पुरिसजाया पण्णत्ता ” इत्यादि
पुरुषाना यार प्रहार उद्या -- (१) भाषात बद-नो सवास लगड, (२) संवास भद्र-नो आायात लग४, (3) आायात_लगड - संपास लटू भने (४) नो आयत लगड - तो सवास लग । १ ।
નીચે પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકારના પુરુષા કહ્યા છે—(૧) પાતાના અવદ્ય ( याय) ने लेनार-मन्यना पायने नहीं लेनार, (२) अन्यतु पाय नेनार, પેાતાનુ' નહીં જોનાર; (૩) પેાતાનું પાપ પણુ જોનાર અને અન્યનું પાપ સુ
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स्थानको चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आत्मनो नामैकोऽवद्यमुदीरयति नो परस्य० ४।३।
आत्मनो नामैकोऽवद्यमुपशमयति नो परस्य ४।४।
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अभ्युत्तिष्ठते (ति) नामैको नो अभ्युत्थापति ४। ५। एवं वन्दते नामैको नो वन्दयति ४॥ ६॥ एवं सत्कारयति ४।७। सम्मानयति ४। ८। पूजयति ४॥ ९वाचयति ४। १०। पृच्छति ४॥ ११॥ परिपृच्छति ४॥ १२॥ व्याकरोति ४। १३। देखता है-३ और चौथा वह जो कि-अपना और दूसरों का अवथ नहीं देखता है-४ चार पुरुषजात कहे गये हैं, जैसे-जो अपने अवद्य का उदीरण करता है पर के अवद्य को नहीं १-२-३-४|४-एक वह पुरुष जो अपने अवद्य को उपशमित करता है पर के अवद्य को नहीं १-२ -३-४।५-चार पुरुपजात कहे गये हैं, जैसे-एक वह जो किसी कार्य उत्साह सहित होकर स्वयं प्रवृत्ति करता है दूसरे को उत्थित नहीं करता है-१-२-३-४ । ६-इसी प्रकार एक पुरुष ऐसा होता है जो दूसरों को वन्दना करता है स्वयं दूसरों से वन्दित नहीं होना चाहता है १-२-३-४।७ इसी प्रकार "सत्करोति" के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये १-२-३-४। ८ इसी तरह "संमानयति" के सम्बन्ध में भी જેનાર (૪) પિતાનું પાપ પણ નહીં જેનાર અને અન્યનું પાપ પણ નહીં જેનાર | ૨ |
નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે–(૧) પિતાના અવધનું ઉદીરણ કરનારેપણુ પરના અવધનું ઉદીરણ નહીં કરનારે. બાકીના ત્રણ ભેદે સૂત્ર બીજામાં બતાવેલા કમ પ્રમાણે સમજી લેવા. ૩ !
નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે–(૧) પિતાના અવધને ઉપશમિત કરનારે પણ પરના અવને ઉપશમિત નહીં કરનારે, ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. ૩ ૪ |
નીચે પ્રમાણે પણ ચાર પુરુષ પ્રકાર કહ્યા છે–-(૧) ઉત્સાહપૂર્વક કઈ કાર્યમાં જાતે જ પ્રવૃત્ત થનારે–પણ અન્યને તે માટે ઉત્સાહ નહીં પ્રેરનારે ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. ૫
પુરુષના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે– (૧) બીજાને વન્દન' કરનારે પણ બીજા પિતાને વન્દન કરે એવી ઈચ્છા નહીં રાખના, ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર અહીં ગ્રહીત થવા જોઈએ..! ૬ !
સરકારને અનુલક્ષીને પણ એવા જ ચાર પ્રકાર સમજવા, ૭.
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू०१८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम्
५०३
सूत्र नामैको नो अर्थधरः १, अर्थधरो नामैको नो सूत्रधरः २, सूत्रधरो नामैः अर्थधरोऽपि ३, नो सूत्रधरो नामैकः नो अर्थधरोऽपि ४ | १४ | सू० १८ || टीका - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - पुरुषजातानि= पुरुषप्रकाराः, चत्वारि प्रज्ञतानि तद्यथा - आपात भद्रकः = आपतनमापातः = आकस्मिकसङ्गमः, तत्र भद्रकः= कल्याणकरो दर्शनाssलापादिना सुखसम्पादकत्वात्, " नामे " - ति सर्वत्र वाक्यालङ्कारे, एकः - कश्चित्पुरुषो भवति, किन्तु नो संवासभद्रकः-संवासः = सहजानना चाहिये १-२-३-४ । ९ ऐसे ही “ वाचयति " के सम्बन्ध मे भी जानना चाहिये १-२-३-४ १० पृच्छति ११ परिपृच्छति - १२ व्याकरोति इनके विषय में भी इसी उपर्युक्त प्रकार से जानना चाहिये ।
चार पुरुषांत कहे गये हैं, जैसे कोई एक ऐसा होता है जो सूत्रघर होता है अर्थघर नहीं होता है -१ दूसरा कोई एक ऐसा होता है कि- अर्थधर होता है सुत्रधर नहीं - २ तीसरा वह जो सूत्रधर भी होता है और अर्थधर भी ३ चौथा वह है जो सूत्रधर भी नहीं होता है और अर्थधर भी नहीं ४ |
प्रथम सूत्र
इन सय का स्पष्टीकरण इस प्रकार है में जो पुरुषजात पुरुषप्रकार चार कहे गये हैं उनका तात्पर्य ऐसा है कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो “आपातभद्रक- " होता है "आकस्मिक सङ्गम में दर्शन आलाप आदि द्वारा सुख सम्पादक होने से
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સન્માનને અનુલક્ષીને પણુ એવાં જ ચાર પ્રકાર સમજવા, ! ૮ ! પૂજાસત્કારને અનુલક્ષીને પણ એવા જ ચાર પ્રકાર સમજવા, । ૯ । " वाचयति " ना संधर्भा अथवा વાચનાના સંબધને અનુલક્ષીને પશુ પુરુષાના એવા જ ચાર પ્રકાર સમજવા. ! ૧૦ !
| ૧૧ | પૃચ્છા અને ! ૧૨ ! પરિપૃચ્છાને અનુલક્ષીને પણ ચાર-ચાર પ્રકાર સમજવી. । ૧૩ । નિણ્યને અનુલક્ષીને પણ ચાર પ્રકારના પુરુષા સમજી લેવા. । ૧૪ । પુરુષાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે--(૧) ફાઇ પુરુષ સૂત્રધર હાય છે પણ અધર હાતા નથી, (૨) કાઈ પુરુષ અધર હાય છે, પણ સૂત્રધર હાતા નથી, (૩) કાઈ સૂત્રધર પણ હાય અને અધર પણ હાય છે. (૪) કૈાઈ સૂત્રધર પણ નથી હાતા અને અપર પશુ નથી હાતા.
વિશેષા પહેલા સૂત્રમાં પુરુષાના જે ચાર પ્રકાર ખતાવ્યા છે, તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે--(૧) “ આપાત ભદ્રક–ને સવાસ ભદ્રક ’” આકસ્મિક સંગમમાં દશન, આલાપ આદિ દ્વારા જે પુરુષ સુખદાયક અથવા કલ્યાણુકર હાય છે તેને આપા ભદ્રક પુરુષ કહે છે. કાઇક પુરુષ આ પ્રમાણે
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५०४
स्थामायने वासस्तत्र भद्रका कल्याणकारी न भवति, क्रूरत्वात् , संसारकारणनियोजकत्वाद्वा १,
" संवासभदए " इत्यादि-संवासभद्रकः-एक:-कश्चित्पुरुषो भवति संवसतामत्यन्तोपकारित्वात् , किन्तु आपातभद्रको न भवति, अनालापरूपाऽऽलापा-दिना सुखकरो न भवतीति भावः २, एवमन्यभङ्गद्वयमपि विज्ञेयम् ४॥ १॥ ___ "चत्तारि " इत्यादि-पुनश्चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक: कश्चित्पुरुषः, आत्मनः-स्वस्य स्वसम्बन्धीत्यर्थः, प्राकृतत्वाद् ‘वज्ज'-मिस्यस्य लुप्ताऽकारस्य " अवध "-मितिच्छाया भवितुमर्हति, अवयं-पापं कम पश्यति, यद्वा-वज्यं वजितुं योग्यं वय सर्वत्याज्यं कर्म पश्यतिदानसामान्यार्थत्वाकल्याण करता होता है, किन्तु-जो "संवासमक" संचालभद्रक नहीं होता है, संघोल मे सहवास में भद्रक कल्याणकारी नहीं होता है। क्यों कि ऐसा वह पुरुष (प्रायः) क्रूर होता है-और संसार कारण में नियोजक होता है-१ यहाँ सर्वत्र "नाम" वाक्यालङ्कार में है। १ "संवासभहए" इत्यादि कोई एक दूसरा पुरुष ऐसा होता है जो संवास में तो भद्रक होता है पर वह ओपातभद्रक नहीं होता है, आलाप आदि द्वारा सुख सम्पादक नहीं होने से कल्याण कर नहीं होता है-२ ऐसे ही अन्य दो भङ्गों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये ४। "चत्तारि" इत्यादि इस द्वितीय सूत्र में जो चार पुरुष प्रकार कहे गये हैं उनका तात्पर्य इस प्रकार है कोई एक पुरुष ऐसा होता हैं जो स्वसम्बन्धी पापकर्म (अघद्य ) को, अथवा-सर्वत्याज्य कर्म को, या -हिंसो अन्न आदि पापकर्म को देखना है जानता है। परन्तु-पर के प्रति उदासीन होने से उसके अवय को नहीं देखता है नहीं जानता આપાત ભદ્રક તે હોય છે પરંતુ સંવાસ ( સહવાસ) ભદ્રક હોતું નથી. એટલે કે તેને સહવાસ સુખદાયક કે કલ્યાણકારક નિવડત નથી, કારણ કે એ પુરુષ સામાન્યતઃ ક્રૂર હોય છે, અને સંસાર કારણમાં નિજક હોય છે. (૨) “સંવાસ ભદ્ર–નો આપાત ભદ્રક” કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે સંવાસ (રાહવાસ) માં તે ભદ્રક (સુખદાયક) હોય છે પણ આલાપ આદિ - દ્વારા સુખસમ્પાદક નહીં હોવાથી કલ્યાણકારક હેત નથી. બાકીના બે પુરુષનું કથન પણ આ કથનને આધારે સરળતાથી સમજી શકાય એવું છે.
બીજા સૂત્રમાં પુરુષના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– (૧) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના અવધને પાપકર્મને અથવા ત્યાજ્યકર્મને અથવા હિંસા, અસત્ય આદિ પાપકર્મોને દેખે
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सुधा टीका स्था०४ ४०१ सू०१८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम्
५०५ ज्जानातीत्यर्थः, किन्तु परस्य अन्यस्याऽवद्यं वयं वा नो पश्यति, यद्वा-वज्रमितिच्छाया, तदर्थश्च वज्रवद् वज्र वा गुरुत्वाद् हिंसाऽनृतादि पापं कर्मेति भवति, तत् कश्चित्पुरुषआत्मनः-स्वसम्बन्धि कलहाऽऽदौ पश्चात्तापयुत्तत्वात् पश्यति, नो है। यहां "वज्ज" पद में प्राकृत होने के कारण "अ" का लोप हो गया है इसलिये इसकी छाया संस्कृत में "अवद्य” हो सकती है, अवधनाम पापकर्म का है । यद्वा-" वज्ज" की संस्कृतच्छाया वयं भी हो सकती है, अतः इस पक्ष में " वर्जितुं योग्यं वयं " इस निरुक्ति के अनुसार जो सर्वत्याज्य होता है वह वयं है, वज्य कर्म है । अथवा " वजं" की संस्कृतच्छाया "वज्र" भी होती है इसका अर्थ ऐसा होता है कि अमृत आदि पाप गुरु होने से वज्र जैसे होते हैं। "पश्यति" फ्रियापद है इसका भी अर्थ ऐसा हो जाता है कि-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो स्वसम्बन्धी अवद्य को पापकर्म को ही देखता है परसम्बन्धी पापकर्म को नहीं देखता है। क्यों कि-वह उसके प्रति उदासीन होता है, तथा जब " वय॑" सर्वत्याज्य कर्म इस पक्ष में अर्थ किया जाता है तब कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने सम्बन्धी कर्म को जानता है यहां दृश धातुका अर्थ ज्ञानार्थ परक लिया गयाहै परके वर्ण्य फर्मको છે ( જાણે છે), પરંતુ અન્યના પ્રત્યે ઉદાસીન વૃત્તિવાળો હોવાથી અન્યના पाप भनि हेमता (युत) नयी मही " वज" प्रात ५४ छ. तi 'अ' थई गयो पाथी तनी संस्कृत छाया 'अ' श? છે. આ અવદ્ય પદ પાપકર્મ માટે વપરાયું છે. અથવા “વજ્ઞ” આ પદની सकृत छाया 'वर्य' ५५ यश छ. A! स्टिस विया२ ४२वामां आवे तो “वर्जितु योग्यं वयं" मा व्युत्पत्ति अनुसार रे सत्याय हाय छ તેને વર્ય–વજર્યકર્મ કહે છે.
मथवा “ वज्ज" मा पनी संस्कृत छाय“वनं" ५४ याय छे. તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે-અમૃત આદિ પાપ ગુરુ હોવાથી વજી સમાન હોય छ. “ पश्यति" मेट मेछ. पुरुष मेवे डाय छ २ पोताना અવને-પાપકમને જ દેખે છે, પરંતુ અન્યના પાપકર્મને દેખતે નથી–અન્યના પાપકર્મ પ્રત્યે ઉદાસીન રહે છે.
यारे “वयं " मेटले सत्याrय भ', मष्टिये विया२ ४२वामा આવે છે, ત્યારે આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-“કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના સર્વત્યાજ્ય કમીને જાણે છે, પણ અન્યના સર્વત્યાજ્ય કમને ongत नथी. मी " द्दश् " धातुनो अर्थ 'लवु' दी। छे, ४२
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स्थानाङ्गसूत्रे
परस्य=अन्यसम्बन्धि तन्न पश्यति परं प्रत्युदासीनत्वात् १ एकः = कञ्चित्तु परस्याच वज्यं वज्रवद् वज्रं वा कर्म पश्यति, नो आत्मनः साभिमानत्वात् इति द्वितीयो भङ्गः २ । एवं शेपभङ्गद्वयमपि विज्ञेयम् । ४ २ ।
" चत्तारि " इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि, तद्यथा - एकः कथित्पुरुषः, आत्मनः - स्वसम्वन्धि अवधं पापं कर्म, उदीरयति = अनुदीर्ण कर्म लोचतपश्चर्यादिभिरुदयावलिकायां प्रवेशयति, किन्तु परस्य = अन्य सम्वन्धि अव नो उदीरयति परं प्रत्युदासीनत्वात् ?, अन्यद् भङ्गत्रयं यथा - " परस्स णाममेगे नहीं जानता है । इसी प्रकार कोई पुरुष ऐसा होता है जो स्वसम्बन्धी वज्र ( चर्जनीय कर्म) को गुरु होनेसे हिंसादिक पापकर्मको देखता है, क्योंकि वह उसके प्रति उदासीन होता है यह ऐसा प्रथम भङ्ग हैं - १ द्वितीय भङ्ग इस प्रकार से है कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो परके अवय को, याच को, अथवा वज्र जैसा वज्र कर्म को देखता है और अपने अवध को, या वर्ज्य को, या वज्रवत् वज्र कर्म को नहीं देखता है। इसी प्रकार शेष भङ्गदय भी समझने योग्य है ४ । २ । " चन्तारि " इत्यादि रूप जो तृतीय सूत्र कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने अवद्य पापकर्म को उदीरित करता है अनुदीर्ण हुवे कर्म को लोच, तपश्चर्या आदि द्वारा उदयापलिका में प्रविष्ट करता है । किन्तु अन्य सम्बन्धी अवद्य को परके प्रति उदासीन
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"
अहीं ते ज्ञानार्थे वपरायो छे. अथवा 'वज्र' सेवामां आवे तो मा प्रभा અ થશે-કાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે પેાતાના વજ્રને (હિંસાદિક પાપ કર્માં ગુરુ હાવાથી અહીં વા રૂપે પ્રકટ કર્યાં છે) જાણે છે પણ અન્યના વજ્રને જાણતા નથી, કારણ કે અન્યના વજ્ર પ્રત્યે તે તે ઉદાસીન જ રહે છે.
હવે પુરુષને ખીજે પ્રકાર પ્રકટ કરવામાં આવે છે—કોઈ પુરુષ એવા હાય છે કે જે અન્યના અવદ્યને, અથવા વર્જ્યને અથવા વજ્ર સમાન ગુરુ કને દેખે છે, પણ પેાતાના અવઘને, અથવા વર્જ્યને અથવા વજ્ર સમાન ગુરુ કને દેખતા નથી-પેાતાના પાપકર્મોં તરફ તે તે ઉદ્યાસીન રહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના બે ભાંગાએ પુરુષ પ્રકારોનું કથન પણ સમજી લેવું
हवे सूत्रना लावार्थ अट वामां आवे छे" चत्तारि " छत्याहिપુરુષાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પશુ કહ્યા છે-(૧) કાઈ પુરુષ એવા ડાય છે કે જે પેાતાના અવદ્ય (પાપકમ) ને ઉદ્વીરિત કરે છે-એટલે કે અનુદીણુ અવસ્થાવાળા કમને લાચ, તપશ્ચર્યાં આદિ દ્વારા ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ કરાવે છે, પરન્તુ અન્યના અવઘને ઉદ્વીરિત કરતા નથી, કારણ કે અન્યના પાપકમાં
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू० १८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम् ५०७ वज्ज उदीरेइ णो अपणो २, अप्पणो णाममेगे वज्जं उदीरेइ परस्सवि ३, अप्पणो णाममेगे बज्ज णो उदीरेइ णो परस्सवि"४
एका कश्चित्पुरुषः, पररय=अन्यसम्बन्धि अवद्यम् उदीरयति उपदेशादिना, नो आत्मनः, आत्मकल्याणभावना रहितत्वात् २, एक:-कश्चित् स्व-परयोरवधम् उदीरयति, स्व-परकल्याणभावनावत्त्वात् ३, एका अपरः पुरुष आत्मपरयोरवद्यादि नो उदीरयति विमूढत्वात् ४॥ ३॥
" चत्तारि" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--एकः -कश्चित्पुरुषः, आत्मनः-स्वस्य अवयं-पापं कर्म उपशमयति-उपशान्तं करोति, होने से उदीरित नहीं करता है १ इसमें अन्य भङ्गात्रय इसी प्रकार से उद्भावित कर लेना चाहिये “परस्त णाममेगे वज उदीरेइ, णो अपणो" २ " अप्पणो णाममेगे वजं उदीरेइ परस्स वि-"३ अप्पणो णाम मेगे वजं णो उदीरेइ णो परस्त वि-४ | कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दूसरों के अवद्य को उपदेश आदि द्वारा उदीरित कर देता है पर अपने कर्म को आत्मकल्याण करने की भावना से रहित होने के कारण उदीरित नहीं करता है-२ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो स्व
और पर दोनों के अवद्य को उदीरित करता है। क्यों कि-ऐसा पुरुप स्व और-पर दोनों का कल्याण कामुक होता है ३ एक कोई पुरुष ऐसा होता है जो न अपने अवद्य को उदीरित करता है, और न परके अवद्य को उदीरित करताहै। क्योंकि-वह विमूढ (विवेक विकल) होताहै। ४३। "चत्तारि" इत्यादि इस सूत्र द्वारा जो चार प्रकार के पुरुष प्रगट किये गये हैं પ્રત્યે તે ઉદાસીનવૃત્તિ રાખતા હોય છે. એ જ પ્રમાણે વિચાર કરીને બાકીના ત્રણ પ્રકારનું પણ અહીં કથન થવું જોઈએ.
तत्र Hin (41) मा प्रभाव है-" परस्प णाममेगे वज्ज उदीरेइ, णो अप्पणो” (२) पुरुष मन्यना सवयन ५देश माह 43 सीFરિત કરે છે, પણ પિતાના અવઘને ઉરીરિત કરતો નથી. કારણ કે તેનામાં
मात्मयानी भावनाना ४ मा राय छे. " अप्पणो णाममेगे वज्ज उदीरेइ, परस्स वि" (s) योन Aqधर रित रे छ भने अन्यना અવદ્યને પણ ઉદરિત કરે છે, કારણ કે તે સ્વ અને પરનું કલ્યાણ ઈચ્છે છે. “ अप्पणो णाममेगे वजं णो उदीरेइ, णो परस्स वि" ४ पुरुष याताना અવને પણ ઉદીક્તિ કરતા નથી અને અન્યના અવને પણ ઉઠીરિત કરતે કરતું નથી, કારણ કે તે વિમૂઢ હોય છે,
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५०
स्थानगिने परस्स तद् नो उपशमयति, परं प्रत्युदासीनत्वात् १, अपरे त्रयो भङ्गा एवम्" परत्स णाममेगे वजं उवसामेइ णो अप्पणो २, अप्पणो णाममेगे वज्ज उवसामेइ परस्सवि ३, अप्पणो णाममेगे वज्ज णो उवसामेइ णो परस्सवि" | तत्र द्वितीयभङ्गस्यायमर्थ:-एक:-कश्चित्युरुपः परस्यावा उपशमयति, नो आत्मनस्तदुपशमयति, आत्महितभावनारहितत्त्वात् २। एकः पुरुषः आत्मनः परस्यापि अवद्यमुपशमयति, स्वपरहिताभिला पित्त्वात् ३। एकः पुरुप आत्मनः परस्यापि अवधं नो उपशमयति विमूढत्वात् ।४। ४। उसका तात्पर्य ऐसा है, कोई एक पुरुष ऐसा होताहै जो अपने ही अवद्य पाप को उपशान्त करता है, परके प्रति उदासीन होने से उसके अवद्य को उपशान्त नहीं करता है १ इस सम्बन्ध में-अन्य ३ भंग ऐसे हैं "परस्सणाममेगे वजं उवसामेह, णो अपणो" २ अप्पणो णाममेगे वजं उक्सामेइ परस्त वि ३ "अप्पणो णाममेगे वनं णो उवसामेइ, जो पररस वि- ४ इसका अर्थ ऐसा है दसरा भंगवाला कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो उपदेश प्रदान आदि द्वारा परके अवद्य पोपकमें को तो शान्त कर देता है, पर आत्महितभावना से रहित होने के कारण अपने अवध को उपशमित नहीं करता है-२ तृतीय भगवाला कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो स्व और परके हित का अभिलाषी होने के कारण दोनों के अवद्य पापकों को उपशान्त कर देता है-३ तथा-चौथे भंग का कोई पुरुष जो कि-विमूढ होने के कारण न अपने न परके अवद्य को उपशान्त करता है-४-४ ।
__ या सूत्री मावार्थ ५४२ ४२पामा माछ-" चत्तारि" त्याहि આ સૂત્ર દ્વારા પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહા છે–(૧) કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના જ અવધને (પાપકર્મને) ઉપશાત કરે છે, પણ અન્યના તરફ ઉદાસીન હોવાથી અન્યના અવદ્યને ઉપશાત કરતા નથી. આ સિવાયના ત્રણ ભાંગા (વિક૯પો) નીચે પ્રમાણે છે
" परस्स णाममेगे व उवस मेई, णो अपणो२, अप्पणो णाममेगे वज उवसामेइ, परस्स वि३, अप्पणो णाममेगे वज्जणो उवसामेइ, णो परस्स वि४"
બીજો ભાંગ–કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ઉપદેશ આદિ દ્વારા પરના અવદ્યને (પાપકર્મને) ઉપશાન્ત કરી નાખે છે, પણ આત્મકલયાણની ભાવનાથી રહિત હોવાને કારણે પિતાના અવદ્યને ઉપશાન્ત કરતા નથી.
ત્રીજો ભાગ કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે સ્વ અને પરના હિતની અભિલાષાવાળો હોવાથી પોતાના અને અન્યના અવદ્યને ઉપશમિત કરી નાખે છે.
ભાગ–કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાની વિમૂઢતાને
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सुंधा टीकां स्था०४ उ०१ सू० १८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम्
६०९
" चचारि " इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा" अभ्युत्तिष्ठ " - एकः कञ्चित्पुरुषः स्वयं कचित्कार्ये अभ्युत्तिष्ठते-उद्यतते सोत्साहत्वात् प्रवर्तत इत्यर्थः, किं तु परं नो उत्थापयति-न प्रवर्तयति परं प्रत्युषदासीनत्वात्, यद्वा-' अन्भुइ ' इत्यस्य ' अभ्युत्तिष्ठति ' इति च्छाया, तदर्थश्व - अभ्युत्थानं करोतीति, किन्तु परं नो उत्थापयति, एतादृशउत्कृष्टाऽऽचारपक्षपाती लघुपर्यायो वा भवति १, शेपास्त्रयो भङ्गा एवम् - " अन्भुडावेइ णाममेगे णो अन्डे २, अभुदे णाममेगे अशुद्वावेइ ३, णो अभुट्ठे णाममेगे णो अट्ठावे ४ | " इति एषां व्याख्या - एकः - कथित्पुरुषः अभ्युत्थापयति शिष्या
?
"चत्तोरि" इत्यादि इस पञ्चन सूत्र द्वारा जो चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं उस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हुवे सूत्रकार कहते हैं, कोई एक पुरुष स्वयं ही आत्महित साधक कार्य में सोत्साह होकर प्रवृत्त होता है पर प्रति उदासीनता से उत्साह के साथ प्रवृत्त नहीं होता है - १ यद्वा-" अभुडे " की छाया " अभ्युत्तिष्टति " है, इसका अर्थ अभ्युत्थान करना है ऐसा पुरुष उत्कृष्ट आचार का पक्षपाती होता है, वा लघुपर्यायवाला होता है । शेष तीन अंग ऐसे हैं - " अब्भुट्टावेद णाममेगे णो अभुट्ठेह २ अन्भु णाममेगे अमुट्ठावेद ३ णो अभुट्ठेह णाममेगे णो अन्भुट्टावेइ - ४ इसकी व्याख्या इस प्रकार से है द्वितीय भङ्गवाला कोई एक કારણે પેાતાના પાપકને પણ ઉપમિત કરતા નથી અને પરના પાપકમને પણ ઉપશાન્ત કરતા નથી.
"
હવે પાંચમાં સૂત્રને ભાવાથ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં પુરુ ષાના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનુ સ્પષ્ટીકરણુ નીચે પ્રમાણે છે—
66
"
(૧) કોઇ પુરુષ એવા હોય છે કે જે આત્મહિતસાધક કાર્યોંમાં ઉત્સાહપૂર્વક ભાગ લે છે, પરન્તુ અન્ય પ્રત્યે ઉદાસીન હાવાને કારણે અન્યને તે કાય ४२वाने उत्साहित उरतो नथी. अथवा " अब्भुट्टेइ " नी छाया अभ्युत्तिष्ठति થાય છે. આ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે તેના અર્થ “અભ્યુત્થાન કરવું ” થાય છે. એવા પુરુષ ઉત્કૃષ્ટ આચારના પક્ષપાતી હોય છે, અથવા લઘુ પર્યા યવાળા હાય છે. આ દૃષ્ટિએ વિચારતા પહેલા ભાંગે આ પ્રમાણે અને છેકોઈ પુરુષ એવા હોય છે કે જે પેાતાનું અભ્યુત્થાન કરે છે, પણ અન્યનું અભ્યુત્થાન કરતે નથી. ખાકીના ત્રણ ભાંગા નીચે પ્રમાણે અને છે~~ अट्ठावेइ णाममेगे, णो अभुट्टेइर, अव्भुद्रेइ णाममेगे अच्भुट्ठावेइ३, णो अब्भुइ णाममेगे णो अन्भुट्ठावेइ४ "
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धानोर दिकं न पुनः स्वयमभ्युत्तिष्ठति गुरुत्वातू २, एक:-कश्चित् स्वयमभ्युत्तिष्ठति परमप्यभ्युत्थापयति, उभयत्तित्वात् तीर्थङ्करगणधारादिवत् ३, एकः-कथित्पुरुपो न स्वयमभ्युत्तिष्ठवि न परमभ्युत्थापयति, तादृशो जिनकल्पिकोऽविनीतो वा पुरुषो ज्ञेयः ४॥ १। एवं वन्दनादिसूत्रेष्वपि तत्तत्पुरुषा वन्दनादिविधायक विधापका वोध्याः, इत्यत्राह-" एवं वंदइ” इत्यादि-एवम् अनन्तरोक्ताभ्युत्थानादिसूत्रवत्, " वंदइ" इत्यारभ्य ' वागरेइ' पर्यन्तान्यष्टसूत्राणि बोध्यानि । तथाहि-" वन्दते नामैकः "-एकः-कञ्चित् पुरुषो वन्दते-द्वादशावर्तादिना वन्दनं करोति, किन्तु परेण न वन्दयति ६। शेपा भङ्गाः स्वयमूह्याः । " एवम्" पुरुष ऐसा होता है जो अपने शिष्य आदि को ही उठता है स्वयं गुरु होने के कारण उठता नहीं है-२ तृतीयभङ्ग का कोई एक पुरुष तीर्थङ्कर गणधर आदि जैसे स्वयं भी उठता है और परको भी उठाता है-३ चौथे भंग का कोई एक ऐसा होता है जो न स्वयं उठता है न दूसरे को उठातो है-४ ऐसा पुरुष जिनकल्पिक वा अविनीत होता है। ५ इसी तरह का भङ्ग कथन वेदनादि सूत्रों के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये, अर्थात्-वन्दनादिक सूत्रों में भी तत्तत्पुरुष चन्दनादिविधायक और विधापक होते हैं। अत:-" वंदइ" सूत्र से लेकर " वागरेह" सूत्र तक
आठ सूत्रों को अनन्तरोक्त अभ्युत्थान आदि सूत्र समान जानना चाहिये । इस विषय में आलापक इस प्रकार से हैं,-" वंदते नामैकः " एकः कश्चित् पुरुषो वन्दते, द्वादशाऽऽवादिना वन्दनं करोति किन्तु
આ ત્રણ ભાગાઓની વ્યાખ્યા નીચે પ્રમાણે સમજવી—
બીજો ભાંગે—કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના શિષ્યાદિકેનું અયુત્થાન કરે છે, પરંતુ પિતે ગુરુ (દીર્ધક) હેવાને કારણે પિતાનું અસ્પૃસ્થાન કરતા નથી.
ત્રીજો ભાગ–કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાનું પણ ઉત્થાન કરે છે અને અન્યનું પણ ઉત્થાન કરે છે જેમકે તીર્થકર, ગણધર વગેરે.
ચે ભાગે કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાનું પણ ઉત્થાન કરતું નથી અને પરનું પણ ઉત્થાન કરતું નથી. એ પુરુષ જિનકલ્પિક અથવા અવિનીત હોય છે
डवे "वदइ" थी ने " वागरेइ" ५-तना 8 सूत्रानु २५री કરણ કરવામાં આવે છે –
छ। सूत्रनु २५०टी.४२१४-" वदते णामकः "-" एकः कश्चित् पुरुषो द्वादशाऽऽवर्तादिना वन्दन' करोति, किन्तु परेण न वन्दयति"
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सुधा टीका स्था० ४ ४०१ ९० १८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम् -अनेन प्रकारेण, " सकारेइ"-स्वयं. सत्करोति वस्त्रपात्रादिदानेन परस्य सत्कार करोति, किन्तु अन्येन स्वात्मानं नो सत्कारयति १, शेपा भङ्गा ऊहनीयाः ७। ___ "सम्माोड "-'सम्माणेइ णाममेगे जो सम्माणावेइ'-एक:-कश्चित्युरुपः परं सम्मानयति-स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, किन्तु परेण स्वात्मान नो सम्मानयति न सम्मान कारयति १, शेपा भङ्गाः स्वयमूह्याः ४॥ ८॥ __पूएइ-पूएइ णाममेगे णो पूयावेइ '-एका-कश्चित्पुरुषः स्वयमन्यं पूजयति-आदरणीयत्वेन स्वीकरोति किन्तु परेण स्वात्मानं नो पूजयति १, शेषा भङ्गाः स्वयमूहनीयाः ।४।९। परेण न बन्दयति ६ कोई एक पुरुष द्वादश आवर्त आदि शास्त्र संकेतित विधान से वन्दना करतो है, किन्तु दूसरों से अपनी चन्दना नहीं कराता है १ बाकी तीन भङ्ग अपने आप समझ लेना चाहिये ४। ऐसे ही सत्कार के सम्बन्ध में चार भङ्गों को समझ लेना चाहिये, जैसे " सकारे" कोई एक पुरुप ऐसा है जो पात्र वस्त्र आदि प्रदान पूर्वक परका सत्कार करता है किन्तु अन्य से अपना सत्कार नहीं करवाता है १ यहां बाकी के ३ भङ्गोंको बना लेना चाहिये ४-७।
८-" सम्माणेइ-सम्माणेइ णामेगे णो सम्माणावेह" कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो दूसरोंका सम्मान करता है पर-दूसरों से अपना सम्मान नहीं कराता है-१ यहाँभी अवशिष्ट तीन भङ्गोंकी कल्पना यथावत् कर लेनी चाहिये-४।
(१) पुरुष मेवा .हाय छे २ ६A (मा२) भापत माह શાસ્ત્રોક્ત વિધિપૂર્વક વંદણ કરે છે, પણ તે બીજા પાસે પિતાને વંદણું કરાવત નથી. (૨) કેઈ પુરુષ એવો હોય છે કે જે પિતે શાસ્ત્રોક્ત વિધિપૂર્વક વંદણ કરતા નથી પણ અન્યની પાસે એવી વંદણું કરાવે છે. - એ જ પ્રમાણે બાકીના બે ભાંગાઓનું કથન પણ જાતે જ સમજી લેવું हाथी दान “वागरेइ " 'निय ४२ छे' पय-तना सूत्राना या२ Histએનું કથન પૂર્વોક્ત અભ્યત્થાન સૂત્ર પ્રમાણે જ સમજી લેવું.
સાતમું સૂત્ર—સત્કારના વિષયમાં પણ એવા જ ચાર ભાગ સમજી લેવા. જેમકે કેઇ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના પ્રદાનપૂર્વક અન્યને સત્કાર કરે છે, પણ અન્યની પાસે પોતાને સત્કાર કરાવતા નથી. બાકીના ત્રણ ભાંગી જાતે જ સમજી લેવા.
मासु सूत्र-" सम्माणेइ णामेगे णो सम्माणावेइ" त्याही पुरुष એ હોય છે કે જે અન્યનું સન્માન કરે છે, પણ અન્યની મારફત પિતાનું સન્માન કરાવતું નથી. બાકીના ત્રણ ભાંગાએ પૂર્વેત ક્રમ અનુસાર સમજી લેવા.
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ares " वा णाममेगे णो वायावेद ' वाचयति नामैको न वाचयति ' - एकः - कश्चित् पुरुषः स्वयं वाचयति - पाठयति सुत्रादिकं, किन्तु परेणाऽऽत्मानं नो वाचयति न पाठयति, उपाध्यायादिः १ शेषा भङ्गाः स्वयमूहनीयाः । तत्रोदाहरणानि क्रमेण शिष्यः - १ पठितग्रन्थविशेषः - २ जिनकल्पिको - ३ बोध्याः ॥१० पुच्छइ " पुच्छर णाममेगे णो पुच्छावेइ ' इति प्रथमभङ्गस्वरूपम्, ९- " पूएइ एह णाममेगे, णो पूयावेइ " चार प्रकारके पुरुपोमें कोई पुरूष ऐसा होता है जो दूसरों की पूजा-अर्थात् आदारणीयता स्वीकार करता है परन्तु दूसरोंसे अपने आपकी पूजा नहीं कराता है - १ अवशिष्ट तीन भट्टको तर्कसे समझ लेना-४
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१०- वाएइ चार प्रकारके पुरुष हैं जिनमें एक वह है जो दूसरोंको सूत्रादि पढाता है परन्तु स्वयं दूसरोंसे नहीं पढता है -१ ऐसा वह उपाध्याय होता है । यहाँ पर भी ३ और होनेवाले भङ्गोको बना लेना चाहिये | इनमे उदाहरण क्रमशः शिष्य- पठितग्रन्थ जिन कल्पि कोंको जानना चाहिये -४
११- " पुच्छइ पुच्छह नाममेगे णो पुच्छावेद " चार प्रकारके पुरुषो में कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो स्वयंही सूत्रादिकों को पूछता है दूसरोंसे नहीं पूछवाता है -१ यह प्रथम भङ्ग है, यहां बाकीके
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सूत्र नव – " पूएइ णाममेगे, जो पूयावेइ " त्यिादि - अर्ध पुरुष सेवा હાય છે કે જે અન્યની પૂજા કરે છે-એટલે કે અન્યની અ દરણીયતાને સ્વીકાર કરે છે, પરન્તુ અન્યની પાસે પેાતાની પૂજા કરાવતા નથી-પેાતાની જાતને આદરણીય મનાવતા નથી. બાકીના ત્રણ ભગેને પૂર્વોક્ત ક્રમ અનુસાર જાતે જ સમજી લેવા,
इसभां सूत्रनो भावार्थ - " वाएइ " त्याहि-यार अझरना पुरुषी उद्या છે, તેમાંથી પહેલેા પ્રકાર આ પ્રમાણે સમજવા (૧) કાઈ પુરુષ એવા હોય છે કે જે અન્યને સૂત્રાદિ ભણાવે છે, પણ પેાતે અન્યની પાસે સૂત્રાદિનું અઘ્યયન કરતા નથી. ઉપાધ્યાયને આ પ્રકારના પુરુષમાં ગણાવી શકાય છે. ખાકીના ત્રણ ભાંગા પશુ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવા,
આ ત્રણ ભાંગાના દૃષ્ટાન્ત રૂપે ક્રમશઃ શિષ્યને પતિગ્રન્થને અને જિત કલ્પિકાને ગ્રહણ કરવા જોઇએ,
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"L पुच्छद " त्याहि-अभियारमां सूत्रनो लावार्थ –“ पुच्छर णाममेगे णो पुच्छावेइ આ ચાર પ્રકારના પુરુષામાંથી કોઇ પુરુષ એવા હાય છે કે
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सुधा का स्था० ४ उ. १२० १८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम् तद्विवरणम्-एक:-कश्चित्पुरुषः सूत्रादि पृच्छति प्रश्नपति, किन्तु परेण नो पृच्छयति-१। शेषा भङ्गाः स्वयगृहनीयाः ४। ११॥ ___“ पडिपुच्छइ" इति-' पडिपुच्छइ णाममेगे णो पडिपुच्छावेइ', इति प्रथमभङ्गस्वरूपम् , एक:-कश्चित् सूत्रार्थों प्रतिपृच्छति-पृष्टमश्नं करोति, नो परेण प्रतिपृच्छयति १, शेषा भङ्गाः स्वयमूह्याः ४॥ १२॥
" वागरेइ "'चागरेइ णाममेगे णो वागराइ ' इति प्रथमभङ्गस्वरूपम् , अस्यायमर्थः-एका कश्चित्पुरुषः सूत्रादिकं स्वयं व्याकरोति-निर्णयति, किन्तु परेण नो व्याकारयति १। शेषा भङ्गाः स्वयमूह्याः ४।१३।। __“ मुत्तधरे " इत्यादि-एकः कश्चित्पुरुषः मूत्रधरः-धरतीति धाः सूत्रस्य ३ भङ्गा अपने आप उद्भवित कर लेना चाहिये-४ । “पडिपुच्छह" पडिपुच्छइ णाममेगे, णो पडिपुच्छावेइ-पुरुष चार प्रकार के हैं जिनमें एक प्रकारका वह है जो-सूत्रार्थ को स्वयं प्रश्मित करता है पर इसरोंसे प्रशिनत नहीं करवाता है-१ यहां पर भी आगेके ३ भङ्गोको बना लेना चाहिये-४/१३ ' वागरेइ"वागरेइ णाममेगे, णो वागराइ-पुरुष चार भेदके हैं, इनमें कोई एक तो ऐसा होता है जो स्वयं निर्णय करता है परसे निर्णय नहीं कराता है-१ यह पहला भङ्ग है आगेके तीन भङ्गों अपने आप बना लेना-४
१४ सुत्तधरे-इत्यादि पुरुष चार प्रकार के कहे गये है, इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो केवल सूत्रधर होता है अर्थधर नहीं होता જે પિતે જ સૂવાદિકેને અર્થ પૂછે છે, અન્યની પાર પૂછાવતે નથી બાકીના ત્રણે ભાંગ પણ પૂર્વેત ક્રમ અનુસાર બનાવી લેવા.
स्वे मारमा सूचना मावा घट ४२वामा मावे छ-" पडिपुच्छ" त्यादि-" पडिपुच्छइ णाममेगे णो परिपुच्छावेइ " या२ ४२ पुरुषोभायी પહેવા પ્રકારનો પુરુષ એ હોય છે કે જે સૂત્રાથને પોતે જ પ્રશ્ચિત કરે છે, પણ બીજા લેકે પાસે પ્રક્ષિત કરાવતો નથી. અહીં પણ બાકીના ત્રણ , ભાંગા પૂર્વોક્ત કમાનુસાર બનાવી લેવા જોઈએ.
तरमा सूत्रनु २५टी४२-~" वागरेइ" त्या6-" वागरेइ णाममेगे णो, यागरावे" पुरुषमा यार ४८२ छ. (१) १७ पुरुष मेवा डायछे જે પિતે જ નિર્ણય કરે છે, પણ અન્યની પાસે નિર્ણય કરાવતો નથી. આ પહેલે પ્રકાર છે, બાકીના ત્રણ પ્રકાર જાતે જ સમજી લેવા.
वे १४ मा सूचना मावार्थ पट ४२वामा माछ-" मुत्तधरे" ઈત્યાદિ-પુરુષના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે-(૧) કેઈ એક પુરુષ
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स्थानास्त्रे धरः सूत्रधरो भवति, किन्तु अर्थधरो न भवति १। एकः-कश्चित् अर्थधरो भवति न तु मूत्रधरः २, सूत्रधरो नामैकोऽर्थधरोऽपि ३, एको नो सूत्रधरो नो अर्थधरः ४। तृतीय-चतुर्थभङ्गयोरुदाहरणद्वयं-मेधावि-जडरूपं भवति ४।१४।।मु० १८॥ पुरुषाधिकारादेव देवविशेष-पुरुषविशेपनिरूपकाणि लोकपालादि-सूत्राण्याह
मूलम् -चमरस्स णं असुरिंदस्त असुरकुमाररन्नो चत्तारि लोगपाला पण्णता, तं जहा-सोमे १, जमे २, वरुणे ३, वेसमणे । एवं बलिस्तवि-सोमे १, जमे २, वेसमणे ३, वरुणे ४१ धरणस्स-कालपाले १, कोलपाले २, सेलपाले ३, संखपाले ४॥ एवं भूयाणंदस्स चत्तारि-कालपाले १, कोलपाले २, संखपाले ३, सेलपाले ४। वेणुदेवस्स-चित्ते १, विचित्ते २, चित्तपक्खे ३, विचित्तपक्खे । वेणुदालिस्स-चित्ते १, विचित्ते २, विचित्तपक्खे ३, चित्तपक्खे ४। हरिकंतस्स-पमे १, सुप्पमे २, पभकते ३, सुप्पभकते ४। हरिसहस्स--पभे १, सुप्पभे २, सुप्पभकंते ३, पभकते ४ा अग्गिसिहस्स-तेऊ १, तेउसिहे २,तेउकते ३, तेउप्पभे ४ा अग्गिमाणवस्स-तेऊ १, तेउसिहे २, तेउप्पभे ३, तेउकते ४॥ पुण्णस्त-रूए १, रूयंसे २, रूयकते ३, रूयप्पभे ४॥ है-१ दूसरा कोई अर्थधर होता है सूत्रधर नहीं होता है-२ कोई एक तीसरा पुरुष ऐसा है जो सूत्रधरभी होता है और अर्थधरभी होता है-३ तथा-चतुर्थ प्रकारका कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो नतो सूत्र. धरही होता है न अर्थधरही होता है-४ यहां-तृतीय और चतुर्थ भङ्गके उदाहरण मेधावी और जड पुरुष होते हैं ॥ सू०१८ ॥ એ હોય છે કે જે માત્ર સૂત્રધર જ હોય છે, પણ અર્થધર હિત નથી. (૨) કઈ પુરુષ માત્ર અર્થધર જ હોય છે પણ સૂત્રધર, હેત નથી. (૩) કઈ પુરુષ સૂત્રધર પણ હોય છે અને અધર પણ હોય છે. જેમકે કઈ મેઘાવી પુરુષ. (૪) કેઈ પુરુષ એ હેાય છે કે જે સૂત્રધર પણ હોતા નથી અને અર્ધધર પણ હોતું નથી જેમકે જડ પુરુષ. | સૂ. ૧૮
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सुधा का स्था० ४ उ०१ सू० १९ लोकपालादिनिरूपणम् ५१५ • एवं विसिटुस्स--रूए १, रूयंसे २, रूयप्पभे ३, रूयकते ४॥ जलकंतस्सजले१,जलरूए२, जलकंते३, जलप्पमे४। जलप्पहस्सजले१, जलरूए२, जलप्पहे३, जलकंते ४। अभियगइस्स-तुरियगई १,खिप्पगई २, सीहगई ३, सीहविकमगई ४। अभियवाहणस्सतुरियगई १, खिप्पगई २, सीहविक्कमगई ३सिंहगई । वेलंबस्सकाले १, महाकाले २, अंजणे ३, रिट्रे ४ पभंजणस्स-काले १, महाकाले २, रिटे ३, अंजणे ४। घोसस्स-आवत्ते १, वियावत्ते २, नंदियावत्ते ३, महाणंदियावत्ते । महाघोसस्स-आवत्ते १, वियावत्ते २, महाणंदियावत्ते ३, मंदियावत्ते २०, ४। सकस्स-सोमे १, जमे , वरुणे ३, वेसमणे ४ाईसाणस्त-सोमे १, जमे २, वेसमणे ३, वरुणे ४॥ एवं एगंतरिया जावऽच्चुयस्त ।
चउविहा वाउकुमारा पण्णता, तं जहा-काले १, महाकाळे ६, वेलंबे ३, पभंजणे ४।
चउबिहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासी १, वाणमं. तरा ६, जोइसिया ६, विमाणवासी ५।।सू० १९॥
छाया-चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य चत्वारों लोकपाला: मज्ञप्ता, तद्यथा-सोमः १, यमः २, वरुणः ३, वैश्रवणः ४। एवं वलेरपि सोमः ____ पुरुषाधिकारको लेकर ही अब सूत्रकार. देवविशेष-पुरुषविशेष निरूपक लोकपाल आदि सूत्रोंका कथन करते हैं-" चमरस्स णं अस्तुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो" इत्यादि- .
सूत्रार्थे - असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के चार
પુરુષાધિકાર ચાલી રહ્યો છે. તેથી હવે સૂત્રકાર વિશેષ-પુરુષ વિશેષ નિરૂપક લેપાલ આદિ વિષયક સૂત્રનું કથન કરે છે–
" चमरस्म णं असुरिंदस असुरकुमाररन्नो " त्याह
સૂત્રાર્થ—અસુરેન્દ્ર, અસુરકુમારરાજ ચમરના ચાર લોકપાલ છે. તેમનાં नाम ॥ प्रमाणे छ-(१) साम, (२) यम, (३) १२५ भने (४) वैश्रवण. '
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स्थान
१, यमः २, वैश्रवणः ३, वरुणः ४ | धरणस्य - कालपाल: १, कोलपाल: २, शैलपालः ३, शङ्खपालः ४। एवं भूतानन्दस्य चत्वारः - कालपाल: १, कोलपालः २, शङ्खपाल ः ३, शैलपाल: ४। वेणुदेवस्य - चित्रः १, विचित्रः २ चित्रपक्षः ३, विचित्रपक्ष : ४ । वेणुदाले : - चित्रः १, विचित्रः २, विचित्रपक्षः ३, चित्रपक्षः । ४ हरिकान्तस्य–प्रभः १, सुप्रभः २, प्रकान्तः ३, सुप्रभकान्तः ४| हरिसहस्य - प्रभः १, सुप्रभः २, सुप्रभकान्तः ३, प्रभकान्तः ४। अग्निशिखस्य तेजाः १, तेजः शिखः २, तेजःकान्तः ३, तेजःप्रभ ४| अग्निमाणवस्य - तेजः : १, तेजः शिखः
लोकपाल होते हैं, जैसे- १ सोम, २ यम, ३ वरुण और ४ वैन - ar | इसी प्रकार बलिके भी साम-यम- वरुण और वैश्रवण ये चार लोकपाल कहे गये हैं-धरणके लोकपालोमें कालपाल १, कोलपाल २, शैलपाल ३, और शङ्खपाल ४, ये चार कहे गये हैं । इसी तरह भूतानन्दके चार लोकपाल कहे गये है, जैसे - कालपाल - १ कोलपाल - २ शैलपाल- ३ और शङ्खपाल - ४ । वेणुदेवके चित्र - १ विचित्र २ चित्रपक्ष - ३ और विचित्रपक्ष - ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । वेणुदालिके चित्र - १ विचित्र २ विचित्रपक्ष -३ और चित्रपक्ष - ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । हरिकान्तके प्रभ- १ सुप्रभ-२ प्रभकान्त-३ और सुप्रभकान्त४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । हरिसह के प्रभ- १ सुप्रभ-२ सुप्रभकान्त - ३ और प्रभकान्त ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं ।
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એ જ પ્રમાણે બલિના પણ સેમ, યમ, વરુણુ અને વૈશ્રવણ નામના ચાર લેાકપાલ કહ્યા છે. ધરણના ચાર લેાકપાલેાનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે असयास, (२) असपास, (3) शैसपास अने (४) शमयास. मे ४ प्रभा ભૂતાનન્દના પણ ચાર લેાકપાલ કહ્યા છે. તેમનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે-(१) असपास, (२) असपास, (3) शैझपास मने शास.
વેણુદેવના ચિત્ર, વિચિત્ર, ચિત્રપક્ષ અને વિચિત્રપક્ષ નામના ચાર લેકथाले। उह्या छे. वेसुद्धा सिउना (१) चित्र, (२) विचित्र, (3) विचित्रपक्ष, भने (४) ચિત્રપક્ષ, એ નામના ચાર લાકપાલા કહ્યા છે.
हरिान्तना यार सोम्यादोनां नाम मा प्रभा छे--(१) अझ, (२) सुप्रल, (૩) પ્રભકાન્ત અને (૪) સુપ્રભકાન્ત હૅરિસિંહના ચાર લેાકપાલાનાં નામ નીચે मसानु छे-(१) शुभ, (२) सुयम, (3) सुप्रलान्त, मने (४) अभान्त
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सुघाटीका स्था० ४ उ० १ सू० १२ लोकपालादिनिरूपणम्
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२, तेजःप्रभः ३, तेजःकान्तः ४ । पूर्णस्य- रूपः १, रूपांश: २, रूपकान्तः ३, रूपप्रभः । एवं विशिष्टस्य - रूपः १, रूपांशः २, रूपप्रभः ३, रूपकान्तः ४ | जलकान्तस्य - जलः १, जलरूपः २, जलकान्तः ३, जलप्रभः ४ | जलग्रमस्य - जल: १, जलरूपः २, जलमभः ३, जलकान्तः ४ | अमितगते:- त्वरितगतिः १, क्षिप्रगतिः २, सिंहगतिः ३, सिंहविक्रमगतिः ४| अमितवाहनस्य - त्वरितगतिः १, क्षिप्रगतिः २, सिंहविक्रमगतिः ३, सिंहगतिः ४। बेलम्बस्य - काल: १, महा
अग्निशिख के तेज - १ तेजशिख - २ तेजःकान्त-३ और तेजः प्रत्र-४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । अभिमाणवकके तेजा:- १ तेजः शिख-२ तेजःप्रभ - ३ और तेजःकान्त ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । पूर्ण के रूप- १ रूपांश - २ रूपकान्त - ३ एवं रूपप्रभ-४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । वशिष्ट के रूप १, रूपांश २, रूपप्रभ ३, और रूपकांत ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । जलकान्त के जल - १ जलरूप - २ जलकान्त - ३ और जलभ - ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं ।
जलप्रभके जल -१ जलरूप - २ जलप्रभ ३ और जलकान्त ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं | अमितगतिके त्वरितगति - १ क्षिप्रगति - २ सिंहविक्रमगति-३ और सिंहगति -४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं ।
अभिशिणना यार सोम्याडोनां नाम या प्रमाणु छे -- (१) ते४, (२) तेः शिम, (3) तेमन्त भने (४) तेल.
अग्निभावना यार बोम्यासानां नाम या प्रमाणे - (१) तेन, (2) तेनःशिम, (3) तेनः मने (४) ते: अन्त
पूना सोउयासानां नाम या प्रमाये - - (१) ३५, (२) ३यांश, (3) રૂપકાન્ત અને (૪) રૂપપ્રભ વશિષ્ઠના ચાર લેાકપાલાનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે (१) ३५, (२) ३पांश, ( 3 ) ३५अल अने उपान्त भणअन्तना यार बाउपायानां नाभ आ प्रभागे छे - (१) ०४५, (२) ४३५, (3) अन्त अने (४) ४सयल
-- (१) ४३, (२)
प्रमना यार सोम्यानां नाम नीचे प्रमाणे ४सय (3) ४सयल सने (४) सान्त
અમિતગતિના ચાર લેાકપાલાનાં નામ આ પ્રમાણે છે—(૧) તિગતિ, (२) क्षिप्रगति, (3) सिंहगति भने (४) सिंहविभगति अभितवानना ચાર લેાકપાલા વ્યતિગતિ, ક્ષિપ્રગતિ, સિંહવિક્રમગતિ અને સિંહગત છે,
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स्थानीक सूत्रे
काल: २, अञ्जनः ३, रिष्टः ४। प्रभञ्जनस्य - काल: १, महाकाल: २, रिष्टः ४, अञ्जनः ४ | घोपस्य- आवर्तः १, व्यावर्त्तः २, नन्दिकावर्तः ३, महानन्दिकावर्तः |४| महाघोषस्य - आवः १, व्यावर्तः २ महानन्दिकावर्तः ३, नन्दिकावर्तः २० ४। शक्रस्य-सोमः १, यमः २, वरुणः ३, वैश्रवणः ४ | ईशानस्य - सोमः १, यमः २, वैश्रवणः ३, वरुणः ४ | एवम् एकन्तरिताः यावद् अच्युतस्य ।
चतुर्विधा वायुकुमाराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - काल: १, महाकालः २, वेलम्बः ३
३ मभञ्जनः ४ |
वेल के काल - १ महाकाल - २ अञ्जन-३ रिष्ट- ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं ।
प्रभञ्जनके काल - १ महाकाल - २ रिष्ट-३ और अञ्जन-४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं। घोष के आवर्त - १ व्यावर्त - २ नन्दिकावर्त - ३ और महानन्दिकावर्त - ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं। महाघोषके आवर्त - १ व्यावर्त - २ महानन्दिकावर्त - ३ नन्दिकावर्त - ४ ये चार लोकपाल कहे गये हैं । शक्र के साम-यम- वरुण और वैश्रवण ये चार लोकपाल कहे गये हैं । ईशानके सोम, यम, वैश्रवण, वरुण लोकपाल में ये चार हैं । इसी तरहसे एकान्तरित करके यावत् अच्युततक लोकपाल कह लेना चाहिये ।
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वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं- जैसे काल - १ महाकाल - २ वेलम्ब - ३ और प्रभञ्जन-४ | देव चार प्रकारके कहे गये हैं- भवनવેલમ્બના ચાર લેાકપાલાનાં નામ मा प्रभाये छे – (१) ४ास, (२) भडाडास, (3) संभन भने (४) रिष्ट.
પ્રભજનના ચાર લાકપાલેાના નામ નીચે પ્રમાણે છે, (૧) કાલ, (૨) भड्डाडास, (3) मभन भने (४) रिष्ट
ઘાષના ચાર લેાકપાલેાનાં નામ આ પ્રમાણે છે—(૧) આવત (૨) વ્યાવત (૩) નન્તિકાવત અને (૪) મહાનન્દિકાવત. મહાધેાષના ચાર લેાકપાલેાનાં નામ या प्रभा] छे–(१) आवर्त, (२) व्यावर्त, (3) भडानन्विावर्त, (४) नन्विर्त. शहना सोभ, यम, वरुणु मने वैश्रवणु मे यार सोम्पाल छे, शा નના પણ સામ, યમ, વૈશ્રવણુ અને વરુણ આ નામના ચાર લેકપાલા છે. એ જ પ્રમાણે ક્રમશઃ એકાંતરિત કરીને અચ્યુત પર્યન્તના ઇન્દ્રોના લેાકપાલાનું કથન અહીં કરવું જોઈએ.
वायुठुभार यार अमरना उद्या छे - ( १ ) अ, (२) भडाउअस (3) वेसम्म मने (४) प्रसन्न, देव और प्रारना ह्या छे - (१) लवनवासी, (२) वान व्यन्तर, (3) ज्योतिण्ड भने (४) वैमानिक.
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सुभा टोका स्था० ४ उ०१ सू०१९ लोकपालादिनिरूपणम्
चतुर्विधा देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनः १, वानव्यन्तराः २, ज्योतिकाः ३, विमानवासिनः ४।। मू० १९ ।
टीका-" चमरस्स" इत्यादि-चमरस्य-तदाख्यस्य " खलु " इति वावथा लङ्कारे, असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य दाक्षिणात्यासुरकुमाराधिपस्य चत्वारःचतुःसंख्याः, लोकपालाः प्रज्ञप्ता, तधथा--सोमः १, यमः २, वरुणः ३, वैश्रवणेः४। ___“ एवं बलिस्सवि" इत्यादि-एवं-चमरस्ये वेत्यर्थः, बलेरपि तदाख्यस्यौदीच्यासुरकुमारराजस्यापि चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः इत्यर्थः, ते च क्रमात्- सोमः १, यमः २, वैश्रवणः ३, वरुणः ४। इति । अत्र चमरेन्द्रस्य यश्चतुर्थों लोकपाल: सोऽस्य तृतीयः, योऽस्य तृतीयः स तस्य चतुर्थ इति विशेषः । एवमग्रेऽपि सर्वत्र विज्ञेयम् । ___ "धरणस्से "-त्यादि--धरणस्य-तदाख्यस्य दाक्षिणात्यनागकुमारराजस्य वासी-१ वान व्यन्तर-२ ज्योतिष्क-३ और विमानवासी वैमानिक-४ । ___ व्याख्या-असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर दक्षिणाधका अधिपति है। इसके लोकपालोमें सोम-यम आदिक हैं जो कि-पहलेही सूत्रार्थमें प्रकटित किये गये हैं । यलि असुरेन्द्र उत्तरार्धके अधिपति हैं । इनकेभी चार लोकपाल हैं जो-मूलार्थमें लिखे जा चुके हैं। चमरेन्द्रका चौथा यहां तिसरा लोकपाल है और यहांका तीसरा वहांका चौथा लोकपाल है । इसी तरह आगेभी सर्वत्र जानना चाहिये । ___ धरण-और भूतानन्द ये दो इन्द्र नागकुमारोंमें होते हैं, धरण दक्षिणार्धका और भूतानन्द उत्तरार्धका अधिपति हैं इनके लोकपाल वर्णित हो गये हैं। चमर और पलिके लोकपाल जैसेही इनके लोक
વિશેષાર્થ—અસુરેન્દ્ર, અસુરકુમારરાજ ચમર દક્ષિણાર્ધને અધિપતિ છે. તેના લકપાલનાં નામ સેમ, યમ આદિ સૂત્રાર્થમાં લખ્યાનુસાર સમજવા. બલિ અસુરેન્દ્ર ઉત્તરાઈને અધિપતિ છે. તેના ચાર પાનાં નામ સૂત્રા. ર્થમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યાં છે. અમરેન્દ્રનો થે લેકપાલ અહીં ત્રીજે લેકપાલ છે અને બલીન્દ્રને ચે લોકપાલ ચમરેન્દ્રને ત્રીજે લોકપાલ છે એટલે કે બન્નેના ત્રીજા અને ચોથા લેકપાલનાં નામે ઊલટાસૂવટી સમજવાં. એ જ પ્રમાણે આગળનું કથન પણ સમજવું.
ધર અને ભૂતાન, આ બે નાગકુમારના ઈન્દ્ર છે. ઘરણુ દક્ષિણાઈને અને ભૂતાનન્દ ઉત્તરાર્ધને અધિપતિ છે. તેમનાં લેકપાલનાં નામ સૂત્રાર્થમાં આપી દીધાં છે. ચમર અને બલિના લેકપાલમાં જેમ ત્રીજા અને ચોથા
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स्थानासो ' चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः' इत्यनुवर्तते ते यथा-कालपाल: १, कोलपाल: ., शैलपालः ३, शङ्खपाल: ४। इति।।
" एवं भूयाणंदस्से"-त्यादि-एवम् अनन्तरोक्तधरणेन्द्रस्येव, भूतानन्दस्य -तदाख्यस्यौदीच्यनागकुमारराजस्य, चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, ते यथाकालपालः १ कोलपालः २, शङ्खपालः ३, शैलपालः ४। इति । ।
" वेणुदेवस्से "-त्यादि-वेणुदेवस्य-तनाम्नो दाक्षिणात्यसुपर्णकुमारेन्द्रस्य चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः ते यथा-चित्रः १, विचित्रः २, चित्रपक्षः ३, विचि. अपक्ष: ४। इति। ____ " वेणुदालिस्से" - त्यादि-वेणुदाले:-तदाख्यस्यौदीच्यसुवर्णकुमारेन्द्रस्य चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-चित्रः १, विचित्रः २, विचित्राक्षः ३, चित्रपक्षः ४॥ इति ।
" हरिकंतस्से "-त्यादि-हरिकान्तस्य-तदाख्यस्य दाक्षिणात्यविद्युत्कुमारे. न्द्रस्य चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-प्रभः १, सुमभः २, प्रभकान्तः३, सुमभकान्तः ४। इति । पालोमें संख्याका आगे पीछे हुवा है, धरणका तीसरा शैलपाल यहाँ चौथे स्थानपर है और यहाँके चौथे स्थानका लोकपाल वहाँ तीसरे स्थानपर आया है । वेणुदेव-और वेणुदालि ये दो इन्द्र सुपर्णकुमारोमें होते हैं, दक्षिणार्धके अधिपति वेणुदेवके लोकपालों में चित्र-विचित्र चित्रपक्ष-विचित्रपक्ष हैं। तथा वेणुदालि जोकि उन्तरार्धके अधिपति है उसके लोकपाल चित्र-विचित्र-विचित्रपक्ष चित्रपक्ष हैं यहाँभी पहेलेका चौथा दूसरेका तीसरा होगया है। ___ हरिकान्त-और हरिसह यह दो इन्द्र विद्युत्कुमारों में हैं, इनके लोकपालोंके नाम प्रभ १, सुप्रभ २, स्तुप्रभकान्त ३, और प्राकान्त है। લિકાનાં નામ ઊલટા સૂલટી કરવાનું કહ્યું છે તેમ અહીં પણ કરવું જોઈએ. એટલે કે ધરણને ત્રીજે લેકપાલ (શૈલપાલ) ભૂતાનંદને ચોથે લોકપાલ છે અને ધરણને ચેાથે લેકપાલ ભૂતાનંદને ત્રીજે લોકપાલ છે. વેણુદેવ અને વેણુદાલિ, આ બે સુપર્ણકુમારેના ઈદ્રો છે દક્ષિણના અધિપતિ વેણુદેવના લોકપાલનાં નામ ચિત્ર, વિચિત્ર, ચિત્રપક્ષ અને વિચિત્રપક્ષ છે અને ઉત્તરાધના અધિપતિ વેણુદાલિના લેકપાલનાં નામ આ પ્રમાણે છે-ચિત્ર, વિચિત્ર, વિચિત્રપક્ષ અને ચિત્રપક્ષ. અહીં પણ ત્રીજા અને ચોથા લોકપાલનાં નામ ઉપર મુજબ ઊલટા સૂલટી સમજવા. - હરિકાન્ત અને હરિસહ, આ બે ઈદ્રો વિઘુકુમારના છે. હરિકાન્ત દક્ષિણાર્ધને અધિપતિ છે અને હરિસહ ઉત્તરાર્ધન અધિપતિ છે. તેમનાં
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सुभा टीका स्थ०४ उ० १ सू० १९ लोकपालादिनिरूपणम्
५२१ " हरिस्सहस्से "-त्यादि-हरिसहस्य-तदाख्पस्य औदीच्यविद्युत्कुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारो ज्ञेयाः, ते यथा-प्रभः १, सुमभः २, सुप्रभफान्त ३, प्रमकान्तः । इति । ___ " अग्गिसिहस्से '-त्यादि-अग्निशिखस्य-तदात्यस्य दाक्षिणात्याग्निकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-तेजाः १, तेजशिशखः २, तेजा कान्तः ३, तेजःप्रमः ४। इति । ___"अग्गिमाणस्से "-त्यादि - अग्निमाणवस्य-तदाख्यस्यौदीच्याग्निकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-तेजाः १, तेज शिखः २, तेज:प्रभा ३, तेजाकान्तः ४। इति । ___ "पुण्णस्से"-स्यादि-पूर्णस्य-तदाध्याय दाक्षिणात्यद्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-रूपः १, रूपांशः२, रूपकान्तः ३, रूपप्रभः ४। इति। हरिकान्त दक्षिणार्धका अधिपति है-और हरिलह उत्तरार्धका । हरिसहके लोकपालोंके भी येही नाम है परन्तु प्रभकान्त यहाँ चौथा है और सुप्रभकान्त तीसरा है। अग्निशिख और अग्निमाणव ये दो इन्द्र अग्निकुमारोंके हैं, इनमें अग्निशिख दक्षिणाधका और अग्निमाणव उत्तराधका अधिपति होते हैं। अग्निशिखके लोकपाल तेजा:-तेजशिख तेजाकान्त-तेजःप्रभ, येही-अग्निमाणवके भी लोकपाल हैं केवल-पहेलेके चौथे यहाँका तीसरा हो जाता हैं और वहांके तीसरा यहाँका चौथा हो जाता है और-वहाँके तीसरा यहांका चौथा होजाते हैं।
पूर्ण-और वसिष्ठ ये दो इन्द्र द्वीपकुमारोंमें हैं इनमें पहला दक्षि. णार्धका, और-द्वितीय उत्तरार्धका अधिपति हैं । पूर्णके चार लोकपाल allanti नाम-(१) प्रम, (२) सुप्रन, (3) सुप्रसन्त भने (४) प्रान्त છે. બંનેનાં પાનાં નામ સરખાં છે. પણ ત્રીજા અને ચોથા કપાલનાં નામે ઉલટસુટી છે. હરિકાન્તના ત્રીજા લોકપાલનું નામ પ્રભકાન્ત છે જ્યારે હરિસહન ચેથા લોકપાલનું નામ પ્રભકાન્ત છે હરિકાન્તના ચેથા લેકપલનું નામ સુપ્રભકાન્ત છે, જ્યારે હરિસહના ત્રીજા ક્વાલનું નામ સુપ્રભકાત છે.
અગ્નિશિખ અને અગ્નિમાણુવ એ અગ્નિકુમારના ઈન્દ્રો છે. અગ્નિશિખ इक्षिणाधना अधिपति छ. तेना सोपा (१) ततः (२) :शिम, (3) તેજ કાન્ત અને (૪) તેજપ્રભ છે. અગ્નિમાણવા ઉત્તરાર્ધને અધિપતિ છે. તેના allalli नाम (१) An:, (२) तेशिम, (3) मन (४) ते न्त छ.
અહીં પણ ત્રીજા અને ચોથા લેકપાલને ક્રમાંક ફરી જાય છે. દ્વિીપકુમારના બે ઈન્દ્રોનું નામ પૂર્ણ અને વિશિષ્ટ છે. દક્ષિણાઈને અધિપતિ
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स्थानाङ्गसूत्रे
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" एवं वसिस्से " - त्यादि - एवम् = अनन्तरोक्तपूर्णस्येव, वशिष्ठस्य = तदाख्यस्य औद्वीच्यदीपकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः ते यथा - रूपः १, रूपांश: २, रूपप्रभः ३, रूपकान्तः ४ | इति ।
" जलकंतस्से " - त्यादि - जळकान्तस्य - तन्नामकस्य दाक्षिणात्योदधिकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा - जल: १, जलरूपः २, जलकान्तः ३, जलमभः ४ | इति ।
" जलप्पहस्से "त्यादि - जलप्रभस्य - तदाख्यस्यौदीच्योदधि - कुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः ते यथा - जल: १, जलरूपः २, जलप्रभः ३, जलकान्तः ४ । इति ।
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अभियगइस्से "त्यादि - अमित गते:- तदाख्यस्य दाक्षिणात्यस्य दिक्कु" मारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा - त्वरित गति : १, क्षिप्रगतिः २, सिंहगतिः ३, सिंहविक्रमगतिः ४ । इति ।
इस प्रकार से हैं-रूप १, रूपांश २, रूपकान्त ३, और रूपप्रभ ४, | येही - लोकपाल वसिष्ठके हैं, पर तीसरेमें और चौथे में हेरफेर हुवा है । पूर्णका जो चौथा लोकपाल है वह यहां तीसरा परिगणित हुवा है। और जो तीसरा लोकपाल है वह चौथा परिगणित हुवा है । जलकान्त और जलप्रभ ये दो इन्द्र उदधिकुमारों में हैं । इनमें जलकान्त दक्षिणार्धका और जलप्रभ उत्तरार्धका अधिपति हैं. जलकान्तके जल १, जलरूप २, जलकान्त ३, और जलप्रभ ये चार लोकपाल हैं, पर वहाँ जो चौथा है वही यहां तीसरा होता है और जो वहां तीसरा है वह यहां चौथा है | अमितगति और अमितवाहन ये दो इन्द्र दिककुमारों में પૂર્ણ અને ઉત્તરાના અધિપતિ વશિષ્ટ છે. પૂના ચાર લેાકપાલેા આ प्रमाणे छे- (१) ३५, (२) ३यांश, (3) ३५प्रान्त भने (४) ३पयल
વશિષ્ઠના લાકપાલાનાં નામ પણ પૂણુના લેાકપાલ જેવાં જ છે. માત્ર ત્રીજા અને ચેાથાના ક્રમ ફરી જાય છે.
ઉદધિકુમારાના એ ઇન્દ્રોના નામ જલકાન્ત અને જલપ્રભ છે. જલકાન્ત દક્ષિણાધના અધિપતિ છે અને જલપ્રભ ઉત્તરાના અધિપતિ છે
४सान्तना भार बोउपासनां नाम या अभाशे छे – (१) ४स, (२) જલરૂપ, (૩) જલકાન્ત અને (૪) જલપ્રભ, જલપ્રભના લેાકપાલેાનાં નામ પણ જલકાન્તના લેાકપાલે જેવા જ છે, પણ ત્રીજા અને ચેાથાના કમ ફ્રી જાય છે. દિકકુમારાના એ ઈન્દ્રોના નામ અમિતગતિ અને અમિતવાહન છે. अभितगतिना थार सोम्यादीनां नाम या अमा छे--(१) त्वरितगति, (२)
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सुधा टीको स्था०४ उ. १ सू. १९ लोकपालादिनिरूपणम्
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“ अमियवाहणस्से "-त्यादि - अमितवाहनस्य = तदाख्यास्यौदीच्य दिक्कुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा-- त्वरितगतिः १, क्षिप्रगतिः २, सिंहविक्रमगतिः ३, सिंहगतिः ४ | इति ।
“ बैलंबस्से "त्यादि -- वेलम्बस्य तदाख्यस्य दाक्षिणात्य वायुकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा - काल: १, महाकाल: २, अञ्जनः ३, रिष्ट. ४ । इति । " पभंजणस्से " - त्यादि - प्रभञ्जनस्य तदाख्यस्यौदीच्यवायुकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः ते यथा - काल: १, महाकाल:, रिष्ट: ३, अञ्जनः ४ इति । " घोसस्से " -- त्यादि - घोषस्य - तदाख्यस्य दाक्षिणात्य - स्तनितकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा - आपतः १, व्यावर्तः २, नन्दिका - वर्तः ३, महानन्दिकावर्तः ४ ।
हैं, अभिगतिके लोकपाल त्वरितगति- क्षिप्रगति सिंहगति और सिंहविक्रमग्रति है तथा अमितवाहनके भी येही लोकपाल हैं केवल अन्तर इतना ही है कि वहाँ जो सिंहविक्रमगति चौथा है वही यहां तीसरा लोकपाल हो जाता है और वहाँ जो तीसरा है वह यहां चौथा बन जाता है ।
वेलम्ब और प्रभञ्जन ये दो इन्द्र वायुकुमारोंमें हैं । इनमें वेलम्ब दक्षिणार्धका और प्रभञ्जन उत्तरार्धका अधिपति हैं, वेलम्बके लोकपालों में काल १, महाकाल २, अजन ३ और रिष्ट हैं । और प्रभञ्जनके भी येही लोकपाल हैं अन्तर इतनाही है कि वेलम्बका चौथा जो रिष्ट लोकपाल है वह अञ्जनका तीसरा है । घोष और महाघोष ये दो इन्द्र स्तनितकुमारों में हैं इनमें घोष दक्षिणार्धका और महाघोष उत्तरार्धका अधिपति हैं, घोषके लोकपालों में आवर्त - व्यावर्त - नन्दिकावर्त और महाક્ષિપ્રગતિ, (૩) સિંહગતિ અને (૪)સિદ્ધવિક્રમગતિ, અમિતવાહનના લેાકપાલેાનાં નામ પણ એવા જ છે પણ અહીં (૩) સિંહવિક્રમગતિ ને ત્રીજો સમજવો અને (૪) સિંહગતિ ને ચાથા સમજવા, વાયુકુમારેાના એઇન્દ્રોનાં નામ વેલમ્મુ અને પ્રશ્ન જન છે. વેલમ્મ દક્ષિણા'ના અધિપતિ છે અને પ્રપ્તજન ઉત્તરાધના અધિપતિ છે. વેલમ્મના खेोउपायानां नाम--(१) डाब, (२) भडाभास, (3) संभन भने (४) सिट छे, પ્રભજનના લેાકપાલેાનાં નામ પણ કાલ, મહાકાલ, ષ્ટિ અને અંજન છે, અહીં ત્રીજા અને ચાયા લેપાલના ક્રમ ક્રી ગયા છે.
સ્તનિતકુમારાના એ ઇન્દ્રોનાં નામ ઘાષ અને મહાધેાષ છે. ઘોષ દક્ષિ ણાના અધિપતિ છે અને મહાવેાષ ઉત્તરાના અધિપતિ છે. ઘોષના ચાર सोयाबीनां नाम मा प्रभा छे - (१) भावर्त, (२) व्यावर्त, (3) नन्द्रिावत
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"
महाघोसस्से " – त्यादि - महाघोषस्य = तदाख्यस्यौदीच्यस्तनितकुमारेन्द्रस्य लोकपालाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते यथा - आवर्तः १, व्यावर्तः २, महानन्दिका - वर्तः ३, नन्दिकावर्तः ४ | दशभवनपतीनां दक्षिणोत्तरभेदेन विंशतेरिन्द्राणामेते लोकपाला वर्णिताः | २० | इति ।
a
“ सकस्से ”—त्यादि-शक्रस्य - सौधर्मेन्द्रस्य लोकपालाचत्वारः प्रज्ञप्ताः ते यथा-सोमः १, यमः २, वरुणः ३, वैश्रवणः ४ । एत एवं लोकपालाः सनत्कुमार ब्रह्मलोक महाक्रमाणतेन्द्राणामपि बोध्याः । इति ।
१०
" ईसाणस्से " त्यादि - ईशानस्य द्वितीयदेवलोकेन्द्रस्य लोकपालाभत्वारः प्रज्ञप्ताः ते यथा-सोमः १, यमः २, वैश्रवणः ३, वरुणः ४ । इति ।
स्थाना
-
नन्दिकावर्त हैं महाघोषके भी येही लोकपाल होते है केवल अन्तर यही है कि घोष का तीसरा लोकपाल महाघोषका चौथा वन जाता है और महाघोषका चौथा लोकपाल घोषका तीसरा गिना जाता है। इस प्रकार १० - भवनपतियोंके २० चीस इन्द्रो के - लोकपाल कह दिये गये, अथ- शक्रा दिके लोकपाल कहे जाते है - यह शक्र सौधर्मका इन्द्र है इसके लोकपाल चार कहे गये हैं जैसे - सोम १, यम २, वरुण ३, और वैश्रवण ४ । येही लोकपाल तीसरे सनत्कुमारके, ५-वे ब्रह्मलोकके, ७-वे महाशुक्र के, और १० - दशवें प्राणतेन्द्र के भी लोकपाल होते हैं ऐसा जानना चाहिये । "ईसागस्स " - इत्यादि । ईशान नामका जो द्वितीय देवलेोकेन्द्र है, उसके लोकपाल चार कहे गये हैं, जैसे- सोम १, यम २, वैश्रवण ३, वरुण ४ | एवं एवंतरिया " - इत्यादि ।
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અને (૪) મહાનન્દીકાવ. મહાઘેષના લેાકપાલેાનાં નામ પણ ઘેષના લેક પાલા જેવા જ છે. પણ મહાઘાષના ત્રીજા અને ચેાથા લેાકપાલનાં નામ મહાનન્દીકાવત અને નન્તિકાવત છે. આમ ત્રીજા અને ચાથાના ક્રમ ફરી જાય છે. આ રીતે દસ ભવનપતિઓનાં ૨૦ ઇન્દ્રોના લેાકપાલેનું કથન કરીને હવે શક્રાદિના લેાકપાલેાનાં નામ પ્રકટ કરવામાં આવે છે—
શક સૌધમ કલ્પના ઈન્દ્ર છે. તેના ચાર લેાકપાલેનાં નામ આ પ્રમાણે -- (१) सोभ, (२) यम, ( 3 ) वरुणु भने (४) वैश्रवधु.
ત્રીજા સનત્કુમારના, પાંચમાં બ્રહ્મલાકના, સાતમાં મહાશુક્રના અને ૧૦ માં પ્રાણતેન્દ્રના લેાકપાલેાના નામ પણ શક્રના લેાકપાલા જેવા જ છે. ઈશાન નામના બીજા દેવલેાકના ઈશાનેન્દ્ર નામના ઈન્દ્રના ચાર લેાકપાલાનાં નામ આ अभाो छे- (१) सोम, यम, (3) वैश्रवणु भने ४ रु.
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सुंधा टीका स्था० ४ उ०१ सू०१९ लोकपालादिनिरूपण ___ "एवं एगंतरिया" इत्यादि-एकान्तरिताः-अन्तरं-व्यवधानं, तज्जातमेपा-मित्यन्तरिताः, एकेनान्तरिता एकान्तरिता एकव्यवहिता लोकपालोच. वारश्चत्वारो ' यावद् अध्युतस्य '-अच्युतपर्यन्तानां शक्रेशानातिरिक्तानां सनत्कुमारादारभ्याच्युतपर्यन्तानामष्टानामिन्द्राणां शक्रेशानयोः प्रत्येकं यथाक्रमात् सोम. यम-वरुण-वैश्रवणाः सोम-बम-वैश्रवण-वरुणा उक्तास्तया प्रत्येक योध्याः , अर्थायथा शक्रस्य तथेशानमन्तरीकृत्य सनत्कुमारस्य, यशानस्य तथा सनत्कुमारमन्तरी. कृत्य माहेन्द्रस्य, एवमेकैकमन्तरीकृत्य शक्रेशानवदच्युतपर्यन्तेन्द्राणां चखारश्चत्वारो लोकपाला वोध्याः, तथा च-शक्रयत्-सनत्कुमार ब्रह्म-महाशुक्र प्राणतेन्द्रा
शक्र-और ईशानसे अतिरिक्त सनत्कुनारसे लेकर अच्युत पर्यन्त आठ इन्द्रों के, और शक्र, एवं-ईशानके प्रत्येकका, जैसे-क्रम से सोम, यम, वरुण और वैश्रवण । लोल, यम, वैश्रवण और वरुण थे लोकपाल कहे गये है वैसे ही प्रत्येकके लोकपालों को जानना चाहिये । तात्पर्य इस कथनका ऐसा है कि-शक के जो लोकपाल कहे गये हैं वेही लोकपाल ईशानको अन्तरित करके सनत्कुमारके हैं ऐसा कहना चाहिये । तथा-जैसे लोकपाल ईशानके कहे गये हैं वैसे ही लोकपालको अन्तरित करके माहेन्द्र के हैं ऐसे कहे गये हैं । इस तरह एक एकको अन्तरित करके शक्र और ईशानके जैसे अच्युत पर्यन्न इन्द्रोंके चार-२ लोकपाल जानना चाहिये। तथाच-शक्रके सदृश सनत्कुमार, ब्रह्म, महाशुक्र, और प्राणत इन इन्द्रोंके लोकपाल हैं । और ईशान सदृश माहेन्द्र,
“एवं एगंतरिया" त्याल
શકે અને ઈશાન સિવાયના સનસ્કુમારથી લઈને અમૃત પર્યન્તના આઠ ઈન્દ્રોના લેકપાલનાં નામે અનુક્રમે શક અને ઈશાનના લેકપાલનાં નામ પ્રમાણે સમજવા એટલે કે ત્રીજાના (સનસ્કુમારના) ચાર લેકપાલનાં નામ સેમ, યમ, વરુણ અને વૈશ્રવણ છે, માહેન્દ્ર ( થા દેવકને ઈન્દ્ર) ના
કપાલ સેમ, યમ, વૈશ્રવણ અને વરુણ છે. આ રીતે એક એક દેવલોકને અન્તરિત કરીને જે લેપાલનાં નામ આપવામાં આવે, તે તે નામે સરખાં આવે છે. જેમકે શકની જેમ સનકુમાર, બ્રહ્મ, મહાશુક્ર અને પ્રાકૃત, આ ચાર દેવલોકના ઈન્દ્રોના લેક પાસેનાં નામ સમ, યમ, વરુણ અને વૈશ્રવણ છે. અને મહેન્દ્ર, લાન્તક, સહસ્ત્રાર અને અશ્રુતના ઈન્દ્રોના લેકપાલનાં નામ
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स्थानांस णाम् , ईशानवद्-माहेन्द्र - लान्तक - सहस्राराच्युतेन्द्राणां लोकपाला भवन्तीति पर्यवसितम् ।
" चउब्धिहा वाउकुमारा" इत्यादि-वायुकुमारश्वत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकाल: १, महाकाल:२, वेलम्बः ३, प्रभञ्जनः । एते पातालकलशस्वामिनः सन्तीति।
___चउबिहा देवा" इत्यादि-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तघथा-भवनवासिनः १, वानव्यन्तराः २, ज्योतिष्काः ३, विमानवासिनः ४। इति। सु० १९ ।
पूर्व देवानां संख्या प्रोक्ता, संख्येव प्रमाणमिति प्रसङ्गात् प्रमाण-स्वरूपं निरूपयितुमाह
मूलम्---चउबिहे पमाणे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यप्पमाणे १, खेतप्पमाणे २, कालप्पमाणे ३, भावप्पमाणे ४। सू. २० । लान्तक, सहस्रार और अच्युत इन इन्द्रोंके लोकपाल हैं ऐसा निष्कर्ष समझना चाहिये। ___ "चउब्धिहा बाउकुमारा" इत्यादि-चायुकुमार जो चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-काल १, महाकाल २, वेलम्ब ३ और प्रभञ्जन ४, सो ये सब वायुकुमार पातालकलशोंके स्वामी हैं। भवनवासी आदिके भेदसे जो चार भेद देवोंके कहे गये हैं, वे स्पष्ट हैं ॥ सू० १९॥
पहले जो देवोंकी संख्या कही गई है वह संख्याही प्रमाणस्वरूप होती है । अत:-इसी प्रसङ्गको लेकर सूत्रकार प्रमाणके स्वरूपका निरूपण करते है । " च उबिहे पमाणे पण्णत्ते" इत्यादि-- ઈશાનેન્દ્રના લકપાલે જેવા છે-એટલે કે સોમ, યમ, વિશ્રવણ અને વરુણ છે. આ રીતે એકાંતરે આવતા દેવલોકના ઈન્દ્રોના લેકપાલનાં નામ સરખાં જ છે.
" चउन्विहा वाउकुमारा" त्याह
वायुभाशन नीय प्रमाणे ॥२ १२ ४ा छ-(१) , (२) मा . ४८, (3) वेस अने. (४) प्रमन. मां वायुमारे। पाता . શેના સ્વામી છે.
દેના ભવનવાસી આદિ જે ચાર ભેદ કહ્યા છે તેનું કથન સ્પષ્ટ હોવાથી અહીં તેમનું વધુ વિવેચન કર્યું નથી. છે સુ. ૧૯ છે
પહેલાના સૂત્રમાં દેવેની સંખ્યા કહેવામાં આવી, તે સંખ્યા જ પ્રમાણ સ્વરૂપ હેય છે. તે સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર પ્રમાણના સ્વરૂપનું नि३५५ ४रे छ. " चउविहे पमाणे पण्णत्ते " ध्याह
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सुषा टीका स्था०४ उ०१ सू० २० प्रमाणस्वरूपनिरूपणम्
छाया-चतुविधं प्रमाणं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-द्रव्यप्रमाणं १, क्षेत्रप्रमाणं २, कालप्रमाणं ३, भावप्नमाणम् ४।। सू० २०।
टीका-" चउबिहे पमाणे " इत्यादि-प्रमाण-प्रमितिः प्रमाणम् , यद्वा. प्रमीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति प्रमाणं, तचतुर्विधं-चतुष्प्रकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथाद्रव्यप्रमाणं, क्षेत्रप्रमाणं, कालप्रमाणं, भावप्रमाणम् । तत्र द्रव्यप्रमाणम्-द्रव्यमेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम् , यद्वा-द्रव्येण दण्डादिना प्रमाणं परिच्छेद इति, यथा दण्डादिना द्रव्येण धनुरादिना वा शरीरादेः प्रमाणं क्रियते, यद्वा-द्रव्यस्य जीवादेः प्रमाणम् , यद्वा-परमाण्वादौ द्रव्ये पर्यायाणां प्रमाणम्-द्रव्यप्रमाणाम् , तत्र द्रव्य प्रमाणं द्विविध-प्रदेशनिष्पन्नं १, विभागनिष्पन्नं २ च, तत्राऽऽयं-परमाणवाद्य
सूत्रार्थ-प्रमाण चार प्रकारका कहा गयाहै, जैसे-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण ।
टीकार्थ - प्रमिति (जानना) का नाम प्रमाण है अथवाजिसके द्वारा जाना जाता है वह प्रमाण है। यह प्रमाण द्रव्य
आदिके भेदसे जो चार प्रकारका कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि द्रव्यरूप जो प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है अथवा-दण्डादि द्रव्यसे जो परिच्छेद होता है वह द्रव्यप्रमाण है जैसे दण्ड आदि द्रव्यसे, अथवा धनुष आदिसे शरीरका माप किया जाता है, अथवा-जीवादि द्रव्यका जो प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है। अथवा-परमाणु आदिमें पर्यायोंके प्रमाण है वह द्रव्यप्रमाण है। प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्नके भेदसे द्रव्यप्रमाण दो प्रकारका कहा गया है। परमाणुसे लेकर अनन्त प्रदेशवाले द्रव्य तकका जो प्रमाण है वह प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण है।
સત્રાર્થ–પ્રમાણુના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે–(૧) न्यप्रभा], (२) क्षेत्रमा, (3) सभाष्य मन (४) मामा.
ટીકાથ–પ્રમિતિને પ્રમાણ કહે છે. “પ્રમિતિ” એટલે જાણવું તે. જેના દ્વારા જાણી શકાય છે, તે પ્રમાણ છે હવે તેને ચાર ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-દ્રવ્યરૂપ જે પ્રમાણ છે તેને દ્રવ્યપ્રમાણુ કહે છે. અથવા દંડાદિ द्रव्यथा (पहा था) २ परिश्छ। (ज्ञान-Mनरी) थाय छे तेनुं नाम द्रव्य પ્રમાણ છે જેમકે-દંડ આદિ દ્રવ્યથી અથવા ધનુષ આદિથી શરીર આદિનું માપ જાણું શકાય છે, તે માપ દ્રવ્યપ્રમાશ રૂપ ગણાય છે. અથવા-જીવાદિ દ્રવ્યનું જે પ્રમાણે છે, તે દ્રવ્ય પ્રમાણે છે અથવા પરમાણુ આદિમાં પર્યાનું જે પ્રમાણ છે તે દ્રવ્યપ્રમાણ છે. પ્રદેશનિષ્પન્ન અને વિભાગ નિપજ્ઞના ભેદથી દ્રવ્યપ્રમાણ બે પ્રકારનું કહ્યું છે. પરમાણુથી લઈને અનન્ત પર્યન્તના પ્રદેશવાળા દ્રવ્યનું જે
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स्थानागर नन्तप्रदेशिकान्तं १, द्वितीयं पञ्चविधं-मानो-न्माना-ऽत्रमान गणित-गतिमानभेदात् । तत्र मान-धान्यादिमानं से टिकादिरूपम् १, उन्मानं-तुला कांदिकम् २, अबमान-हस्तवितस्त्यादिकम् ३, गणितम्-एकादिकम् ४, प्रतिमान-गुंजावल्लादिकम् ५ । इति द्रव्यममाणम् । १ ।
___ "क्षेत्रप्रमाणम् "-क्षेत्रस्य आकाशस्य प्रमाण क्षेत्रमाणम् , तच द्विविधंप्रदेशनिष्पन्नं १, विभागनिष्पन्नं २ च, तत्र प्रदेशनिष्पन्नम्-एकप्रदेशावगाढाधसंख्येयप्रदेशावगाहान्तम् १, विभागनिष्पन्नम् - अङ्गुल्यादिकम् २ । इति क्षेत्रप्रमाणम् । २। विभाग निष्पन्न द्रव्य प्रमाण पांच प्रकारका है, मान, उन्मान, अवमान, गणित और प्रतिमान “सेर "-आदि मापनरूपसे यह धान्य इतना है इस प्रकार निर्णायक प्रमाण होता है। तुला-कर्ष आदि उन्मान होता है। हस्त-वितरित आदिक अवमान होता है। एक दो आदि संख्या गणित होता है। गुंजा-(करजनी ) आदि प्रतिमान होता है, इस प्रकारसे यह द्रव्यप्रमाण है-१
आकाशका जो माप ( दूर तकका हिसाय ) है वह क्षेत्रप्रमाण है। यह क्षेत्रप्रमाणभी प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न के भेदसे दो प्रका. रका है, एक प्रदेशावगाढसे लेकर असंख्यात प्रदेशावगाढ तक जो क्षेत्र है वह प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण है । अगुली आदि जो प्रमाण है वह विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण है। પ્રમાણ છે, તેનું નામ પ્રદેશ નિષ્પન્ન દ્રવ્યપ્રમાણ છે. વિભાગ નિપન્ન દ્રવ્યપ્રમાણના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર છે-માન, ઉન્માન, અવમાન, ગણિત અને પ્રતિમાન. શેર આદિ માનરૂપ દ્રવ્યપ્રમાણ છે. તેની મદદથી “આ ધાન્ય આટલું છે, આ પ્રકારનું નિર્ણાયક પ્રમાણ નીકળે છે. તુલા-કર્ષ આદિ ઉન્માન રૂપ હોય છે હસ્ત, મુઠ્ઠી આદિ રૂપ અવમાન હોય છે. એક બે આદિ સંખ્યા ३५ शशित डाय छे. सुत (४२०४नी ) मा ३५ प्रतिमान डाय छे. આકાશનું જે માપ (દૂર સુધી હિસાબ) છે તેને ક્ષેત્રપ્રમાણુ કહે છે. તે ક્ષેત્રપ્રમાણના પણ પ્રદેશ નિષ્પન્ન અને વિભાગ નિષ્પન્ન નામના બે ભેદ પડે છે. એક પ્રદેશાવગાઢથી લઈને અસંખ્યાત પ્રદેશાવગાઢ પર્યન્તનું જે ક્ષેત્ર છે તેને પ્રદેશ નિષ્પન્ન ક્ષેત્રપ્રમાણ કહે છે. અંગુલી (આંગળી) આદિ જે પ્રમાણે, છે તેને વિભાગ નિષ્પન્ન ક્ષેત્રપ્રમાણું કહે છે.
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सुधा टीका स्था०४३०१ सू० २० प्रमाणस्वरूपनिरूपणम् __ ५२९
"कालप्रमाणम्"-कालस्य - समयस्य प्रमाण-आनं कालपमाणम् , तद्विविध-प्रदेशनिष्पन्नं १ विभागनिष्पन्नं २ च, तत्राऽऽद्यम्-एकसमयस्थित्याद्यसंख्येयसमयस्थित्यन्तम् १, द्वितीयं-समयावलिकादिकम् ।।
ननु द्रव्यप्रमाणमेवोच्यतां द्रव्यत्वेन क्षेत्र-कालयोरपि ग्रहणसम्भवेन तत्प्रमाणयोरप्यत्रैवान्तर्भावात् पृथक् तदुपन्यासो व्यर्थ इति चेदुच्यते-जीवादिद्रव्यवि. शेषकत्वेन क्षेत्र-कालयोस्तत्पर्यायत्वेन द्रव्यात् क्षेत्र-कालयोविशिष्टताऽस्तीति द्रव्यत्वेनकत्वेऽपि पर्यायत्वेन तयोर्भेदं सूचयितुं क्षेत्रकालयोः प्रमाणे पृथगुप. न्यस्ते । ३ । इति कालप्रमाणम् । ३ ।।
समयका जो प्रमाण है वह कालप्रमाण है, यह कालप्रमाणभी दो प्रकारका है। एक प्रदेशनिष्पन्न कालपमाण और दूसरा विभागनिष्पन्न कालप्रमाण है, इनमें-एक समयकी स्थितिसे लेकर जो असंख्यात समय तककी स्थिति है वह प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण है। तथा-समय आव. लिका आदिक जो प्रमाण है वह विभागनिष्पन्न कालप्रमाण है ।
शङ्का-केवल एक द्रव्यप्रमाणही कहना चाहिये-३ क्योंकि-द्रव्यत्व रूपसे क्षेत्र और काल इनकाभी ग्रहण होही जायगा तो फिर इनका प्रमाणभी यहाँ पर अन्तभूत हो जायगा । अत:-पृथकूरूपसे इनका उपन्यास व्यर्थ है-३ ___उ०-क्षेत्र और काल जीवादि द्रव्योंके विशेषक होने से उनके प्राय रूप होते हैं, अतः-द्रव्यसे क्षेत्रकालमें विशिष्टता है, इसलीये
સમયનું જે પ્રમાણ છે તેને કાળ પ્રમાણ કહે છે તે કાળપ્રમાણ પણ બે પ્રકારનું છે–(૧) પ્રદેશ નિષ્પન્ન કાળપ્રમાણુ અને (૨) વિભાગ નિષ્પન્ન કાળ પ્રમાણે, એક સમયની સ્થિતિથી લઈને જે અસંખ્યાત સમય પર્યનતની સ્થિતિ હોય છે તેને પ્રદેશ નિષ્પન્ન કાળપ્રમાણ કહે છે. તથા સમય, આવલિકા આદિ રૂપ જે કાળપ્રમાણ છે તેને વિભાગ નિષ્પન્ન કાળપ્રમાણુ કહે છે.
શંકા–પ્રમાણુના ચાર પ્રકાર કહેવાની શી જરૂર છે. માત્ર દ્રવ્યપ્રમાણ ૩પ એક જ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ, કારણ કે દ્રવ્યવરૂપે ક્ષેત્ર અને કાળ પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે, તેથી તેમનું પ્રમાણ પણ દ્રવ્ય પ્રમાણમાં જ અન્તભૂત થઈ જવું જોઈએ. છતાં અહીં અલગ અલગ પ્રકાર રૂપે તેમની પ્રરૂપણ શા માટે કરવામાં આવી છે?
ઉત્તર–ક્ષેત્ર અને કાળ જીવાદિ દ્રવ્યના વિશેષક હોવાથી તેમની પર્યાય રૂપ હોય છે. તેથી દ્રવ્ય કરતાં ક્ષેત્ર અને કાળમાં વિશિષ્ટતા છે. તે કારણે
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स्थानाङ्गो "भावप्रमाणम्"-भाव एव भावानां वा प्रमाणं भावप्रमाणम् , तच्च त्रिविधंगुण-नय-संख्याभेदात् , तत्र गुणा:-जीवस्य ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, तत्र ज्ञानप्रत्यक्षा-ऽनुमानो-पमाना-ऽऽगमरूपं प्रमाणमिति, दर्शनं-तत्वश्रद्धानम्, चारित्रंसावधविरतिरूपम् , नयाश्च-नैगमादयः, संख्या-एकद्वित्रिचतुरादिकेति भावप्रमाणम् ।४। सू० २०।
देवाधिकारादेवेदं दिक्कुमारीमहतरिका निरूपकमूत्रचतुष्टयमाह
मूलम्च त्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रूया १, रूयंसा २, सुरूवा ३, रूयावई ४॥ चत्तारि द्रव्यत्वकी अपेक्षा एक होने पर भी पर्यायकी अपेक्षा उन दोनोंमें द्रव्यमें
और पर्यायमें भेद होता है इस यातकी सूचनाके निमित्त क्षेत्र और काल ( ये दोनों) पृथक पृथक् प्रमाण कहे गये हैं।
भावरूप जो प्रमाण है वह, अथवा भावोंका जो प्रमाण है वह भाव. प्रमाण है। यह भावप्रमाण तीन प्रकारका कहा गया है । गुण-नय
और संख्या, इनमें गुणरूप भावप्रमाण जीवके ज्ञान-दर्शन और चारित्र हैं, प्रत्यक्ष अनुमान आगम और उपमान ये ज्ञानरूप भावप्रमाण हैं। तत्वोंका श्रद्धान करना यह दर्शनरूप भावप्रमाण है। सावध कार्यों से विरति होना यह चारित्ररूप भावप्रमाण है। नैगमादि जो नय हैं वे नयरूप भावप्रमाण हैं । एक-दो आदि जो संख्या है वह संख्यारूप भावप्रमाण है । इस प्रकारसे यह प्रमाणका निरूपण किया ॥ सू० २०॥ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ એક હોવા છતાં પણ પર્યાયની અપેક્ષાએ તે બનેમાં (દ્રવ્યમાં અને પર્યાયમાં) ભેદ હોય છે આ વાતને પ્રકટ કરવા નિમિત્તે ક્ષેત્ર અને કાળ (એ બને) ને પૃથકુ પૃથફ (જુદાં જુદાં) પ્રમાણ કાાં છે. ભાવરૂપ જે પ્રમાણ છે તેને અથવા ભાવેનું જે પ્રમાણ છે તેને ભાવપ્રમાણ ४९ छे. a मामा र प्रा२नु ४ह्यु छ-(१) शुष्प, (२) नय भने (3) सया. पना ज्ञान, शन सने यारित्र, यो गुथ३५ भावप्रभाष्य छे. प्रत्यक्ष અનુમાન, આગમ અને ઉપમાન તે જ્ઞાનરૂપ ભાવપ્રમાણ છે. તો પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખવી તે દર્શનરૂપ ભાવ પ્રમાણે છે, અને સાવદ્ય કાર્યોમાંથી વિરતિ થવી તેનું નામ ચારિત્રરૂપ ભાવપ્રમાણ છે. નિગમ આદિ જે નય છે, તે નયરૂપ ભાવપ્રમાણે છે. એક બે આદિ જે સંખ્યા છે તે સંખ્યારૂપ ભાવપ્રમાણ છે. આ રીતે અહીં પ્રમણનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. . ૨૦ છે
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सुंधा टीका स्था५ उ०१ सू० २१-२३ दिक्कुमारीमहत्तरिकादिनिरूपणम् ५३१ विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-चित्ता १, चित्तकणगा २, सतेरा ३, सोत्तामणी ४।। सू० २१ ॥ ___ सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिपरिसाए देवाणं चत्तारिपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारिपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥ सू० २२ ॥
चउविहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वसंसारे १, खेत्त. संसारे २, कालसंसारे ३, भावसंसारे ४ । सू० २३ । ___ छाया-चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रूपा १, रूपांशा २, मुरूपा ३, रूपावती ४ चतस्रो विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाचित्रा १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौत्रामणिः ४ । सू० २१ । ___शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य मध्यमपरिषदि देवानां चतुः-पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य मध्यमपरिपदि देवीनां चतुःपल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । सू० २२ ।
देवाधिकारको लेकर ही अव सूत्रकार दिक्कुमारि महत्तरिकाओंका निरूपण इस चार सूत्रोंसे करते हैं। ___ "चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ" इत्यादिसूत्रार्थ-दिक्कुमारि महत्तरिकाएं चार प्रकारकी कही गई हैं। जैसे-रूपा १, रूपांशा २, सुरूपा ३ और रूपावती ४ । (२१) विद्युत्कुमारी महत्तरिकाएं चार प्रकारकी कही गई हैं । जैसे-चित्रा १, चित्रकनका २ शतेरा ३, और सौत्रामणि ४, । देवेन्द्र देवराज शक्रकी मध्यम परिषदामें देवोंकी
દેવાધિકારની અપેક્ષાએ હવે સૂત્રકાર દિકકુમારી મહત્તરિકાઓનું નિરૂપણ मा यार सूत्र द्वारा ४२ छ-" चत्तारि 'दिसाकुमारी महत्तरियाओ पण्णताओ" त्याहि
સૂત્રાર્થ-દિકકુમારિ મહત્તરિકાએ ચાર પ્રકારની કહી છે-(૧) રૂપા, (૨) રૂપાંશા (૩) સુરૂપ અને (૪) રૂપાવતી વિદુકુમારી મહરિકાએ પણ નીચે પ્રમાણે या२ ४२नी ही-(१) मित्रा, (२) त्रिन, (3) शते। मन (४) સૌત્રામણિ, દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક્રની મધ્યમ પરિષદામાં દેવેની ચાર પેપમની
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स्थांनासूत्र चतुर्विधः संसारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यसंसारः १, क्षेत्रसंसारः २, कालसंसारः ३, भावंसप्तारः ४ । सू० २३ ।
टीका-" चत्तारि दिसा० " इत्यादि-चतस्त्रः, दिक्कुमारीमहत्तरिकाःदिशां कुमार्यों दिक्कुमार्यस्ताश्च ताः महत्तरिका:-प्रधानतमाः-दिक्कुमारी महत्तरिकाः, यद्वा दिक्कुमारीणों महत्तरिका दिक्कुमारीमहत्तरिकाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथारूपा १, रूपांशा २, सुरूपा ३, रूपावती ४। एताश्चतस्रो मध्यरचकवास्तव्या अहंतोजातमात्रस्य नालकतनादिकं कुर्वन्तीति ।
__ "चत्तारि विज्जु०" इत्यादि-चतस्रो विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-चित्रा १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौत्रामणिः । एताश्चतस्रो विदि. ग्रुचकनिवासिन्यो भगवतः श्रीमतोऽहतो जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति । सू० २१ । चार पल्योपमकी स्थिति कही गई हैं । देवेन्द्र देवराज ईशानकी मध्यम परिषदामें देवियोंकी चार पल्पोपमकी स्थिति कही गई है (२२) संसार चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-द्रव्यसंसार १, क्षेत्रसंसार २, कालसंसार ३ और भावसंसार ४ (२३)
टीकार्थ - दिशाओंकी जो कुमारिकाएं हैं वे दिक्कु मारिका हैं, ये प्रधानतम होनेसे महतरिका कही गई हैं। यद्वा-दिकूकुमारियोंकी जो महत्तरिकाएं वे दिक्कुमारी महत्तरिका है। इनके नाम रूपा-१, रूपांशा-२ आदि हैं। ये चारों रुचकद्वीपके मध्य में रहती हैं। जब अर्हन्त उत्पन्न होते हैं तब वे उनके नाल आदिको काटनेका काम करती हैं। चित्रा-१ चित्रकनका आदिके भेदसे जो चार विशुल्कुमारिकाएं कही गई हैं । ये मचक्रद्वीपकी विदिशाओंमें रहती हैं। સ્થિતિ કહી છે. દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનની મધ્યમ પરિષદામાં દેવીઓની ચાર પલ્યોપમની સ્થિતિ કહી છે. સૂ. ૨૧-૨૨ છે.
ससा२ ॥२ प्रा२ने यो छे--(१) द्रव्यस'सार, (२) क्षेत्र सा२ (3) सससा२ मन (४) मावस सा२ ॥ सू. २३ ॥ - સૂત્ર ૨૧ અને ૨૨ ને વિશેષાર્થ-દિશાકુમારીઓને વિકૃકુમારીઓ કહે છે. તેઓ પ્રધાનતમ હોવાથી તેમને મહત્તરિકાઓ કહી છે. અથવા દિકકુમારીઓની જે મહત્તરિકાઓ છે તેમને દિકકુમારી મહત્તરિકાઓ કહે છે. તેમનાં નામ રૂપ, રૂપાશા, સુરૂપ અને રૂપાવતી છે. તે ચારે ચકહીપની મધ્યમાં રહે છે. જ્યારે અહંન્ત ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તેમની નાલ વગેરે કાપવાનું કામ તેઓ કરે છે. ચિત્રા, ચિત્રકનકા આદિના ભેદથી જે ચાર વિઘુકુમારિ, કાઓ કહી છે, તે રુચકદ્વીપની વિદિશાઓમાં રહે છે, જ્યારે અર્થત પ્રભુને
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सुघाटीका स्था०४ उ० १ सू०२१-२३ दिक्कुमारी महतरिकादिनिरूपणम् ५३३
" सकस्से " - त्यादि - शक्रेशानयोः सूत्रद्वयं सुगमम् । सू० २२ । देवाश्च संसारिण इति संसारसुत्रमाह - " चउबिहे संसारे " इत्यादि - . संसरणं - परिभ्रमणं संसारः, स चतुर्विधः - द्रव्यसंसार : १, क्षेत्रसंसारः २, कालसंसारः ३, भावसंमार: ४ । तत्र द्रव्याणां जीवपुद्गललक्षणानां संसारः - परिभ्रमणं द्रव्यसंसारः १| क्षेत्र संसारः -- चतुर्दशरज्ज्वात्मकः, यद्वा-यत्र क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्र क्षेत्ररूपाधिकरण संसाररूपाधेययो ( क्षेत्र - संसारयो ) रभेदोपचा रात् संसारशब्देन व्यवह्रियते २ |
जब अर्हन्त प्रभुका जन्म होता है तब ये चारों दिशाओं में खडी होकर भगवान के पास हाथों में दीप लिये गीतोंको गाती हैं | सू० २१ ॥
शक और ईशान सम्बन्धी सूत्र सुगम सुबोध हैं । देव संसारी होते हैं, अतः - इसी बात को लेकर सूत्रकारने यह संसारसूत्र कहा है । परिभ्रमणका नाम संसार है । यह संसार क्रमसंसार आदिके भेदसे जो चार प्रकारका कहा गया है उसका अभिप्राय है कि जीव और पुद्गलों के पारस्परिक सम्बन्धका नाम संसार है । जीव जब पुद्गलके सम्बन्धरूप बन्धन से मुक्त हो जाता है तब वह मुक्त जीव कहा जाता है । अथवा - पुद्गलरूप कर्मके सम्बन्ध से जो जीवका चार गतियों में परिभ्रमण होता है वह संसार है । १४ राजू प्रमाण जो क्षेत्र है वह क्षेत्र संसार है, अथवा जिस क्षेत्रमें संसार परिभ्रमण व्याख्यात होता है वह क्षेत्र संसार है । यहां क्षेत्ररूप अधिकरण और संसाररूप आधेयमें अभेदोपचार से क्षेत्रको संसार शब्द से व्यवहत किया गया है । જન્મ થાય છે, ત્યારે આ ચારે વિદ્યુકુમારીએ હાથમાં દીપક લઈને ગીતા ગાતી ગાતી ભગવાનની પાસે ઊભી રહે છે. ઇ સૂ. ૨૧
શક અને ઇશાન સંબંધી સૂત્ર સુગમ હોવાથી અહીં તેને વિશેષાય આપ્યા નથી. દેવ સ’સારી હાય છે, આ સ''ધને અનુલક્ષીને સૂત્રકારે આ સસારસૂત્રનું કથન કર્યું છે. પરિભ્રમણનું નામ સંસાર છે, તેના દ્રવ્યસ સાર આદિ જે ચાર ભેદ કહ્યા છે, તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે—
જીવ અને પુદ્ગલેાના પારસ્પરિક સંબંધનું નામ સસાર છે. જીવ જયારે પુલેના સંબંધ રૂપ અન્ધનમાંથી મુક્ત થઈ જાય ત્યારે તેને મુક્ત જીવ કહેવાય છે. અથવા પુદ્ગલરૂપ કર્મના સંબધથી જીવને ચાર ગતિમાં જે ભ્રમણ કરવું પડે છે તેનુ નામ સંસાર છે. ૧૪ રાષ્ટ્રપ્રમાણુ જે ક્ષેત્ર છે તેને ક્ષેત્રસસાર કહે છે. અથવા જે ક્ષેત્રમાં સ`સાર પરિભ્રમણુ વ્યાખ્યાત થાય છે તે ક્ષેત્રનું નામ ક્ષેત્રસ સાર છે. અહીં ક્ષેત્રરૂપ અધિકરણ અને સ'સારરૂપ આપે. મમાં અભેદ્દેપચારની અપેક્ષાએ ક્ષેત્રને સસાર શબ્દથી વ્યવહુત કરવામાં આવેલ છે,
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स्थानादसूत्र 'कालसंसारः 'कालस्य-समयावलिकादिलक्षणस्य संसार:-चक्रन्यायेन परिभ्रमणं, पल्योपमादिकालविशेपविशेपितं वा यद् भ्रमणं कस्यापि जीवस्प नरकादिषु स कालसंसारः, यद्वा-यस्मिन् पौरुष्यादि के काले संसारो व्याख्यायते स कोलोऽपि संसार उच्यते, अभेदात् ३।
'भावसंसारः '-भावानामौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसार:-संसरणपरिणामो भावसंसार इति । सू० २३ ।
पूर्व द्रव्यादि संसार उक्तः, स चानेकनयैर्दृष्टिवादे विविच्यत इति दृष्टिबादं सभेदं निरूपयितुमाह - ____ मूलम्-चउबिहे दिट्रिवाए पण्णत्ते, तं जहा-परिकम्मं १, सुत्ताइं २, पुबगए ३, अणुजोगे ४।। सू० २४ । ___ छाया-चतुर्विधो दृष्टिवादः प्रज्ञप्तः तद्यथा-परिकर्म १, सूत्राणि २, पूर्व गतम् ३, अनुयोगः ४ ॥ सू० २४ ॥ समयावलिकादि रूप कालकाजो चक्र न्यायसे परिभ्रमणहै वह कालसंसार है। अथवा-नरकादिकोंमें किसी जीवका पल्योपम आदि रूपकाल विशेष से विशेषित जो परिभ्रमण है वह-संसार है। अथवा-जिस पौरुषी आदिक कालमें संसार व्यवहार होता है वह कालभीअभेद उपचारसे काल कहा गया है । औदयिक (औदायिक) आदि भावोंका अथवा वर्णादि रूप गुणोंका जो परिभ्रमणरूप परिणमन है वह भावसंसार है । सू० २३।।
कथित द्रव्यादि संसार अनेक नयोंसे दृष्टिवाद में विचलित हुवा है-अतः अब सूत्रकार भेद सहित उसी दृष्टिवादका निरूपण करते हैं. ___" चउविहे दिहिवार पण्णत्ते" इत्यादिસમય, આવલિકા આદિ રૂપ કાળનું જે ચક ન્યાયથી પરિભ્રમણ છે. તે કાળસંસાર છે, અથવા નરકાદિકમાં કઈ જીવનું પલ્યોપમ આદિ કાળવિશેષ યુક્ત જે પરિભ્રમણ છે, તેનું નામ કાળસંસાર છે અથવા જે પ્રહર આદિ કાળથી સંસાર-વ્યવહાર ચાલે છે, તે કાળને પણ અભેદેપચારથી કાળસ સાર કહ્યો છે. ઔદયિક આદિ ભાવનું અથવા વર્ણાદિ રૂપ ગુણોનું જે પરિભ્રમણરૂપ પરિણમન છે, તે ભાવસંસાર છે. જે સૂ૨૩ છે
પહેલાના સૂત્રમાં દ્રવ્યાદિ સંસારનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, તે સંસા રની અનેક નયે દ્વારા દષ્ટિવાદમાં વિચારણા થઈ છે, તેથી હવે સૂત્રકાર દષ્ટિपाउनु सजित नि३५५५ ४३ छ-" घउबिहे दिद्विवाए पण्णत्ते " त्या
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सुधा टीका स्था० उ०१ सू० २४ समेष्टिवाद निरूपणम्
५३५ टीका-" चउबिहे दिद्विवाए " इत्यादि-दृष्टिवादः-दृष्टयो दर्शनानिनेगमादयो नयाः, तानि उद्यन्ते-उच्यन्तेऽत्रेति दृष्टिवादः । यद्वा 'दृष्टिपात' इतिच्छाया, तत्पक्षे दर्शनानि पतन्ति-अवतरन्ति यत्रेति दृष्टिपातो-द्वादशमङ्गम् , स चतुविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-" परिकर्म "-सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थ कर्म परिकर्म कथ्यते, गणितादिकर्मवत् , तच सिद्धश्रेणिकादि। __"मूत्राणि "-ऋजुमूत्रमभृतीनि द्वाविंशतिः, इइ सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात्सूत्राणि कथ्यन्ते।
" पूर्वगतम् "-तत्र पूर्वाणि-सर्वश्रुतात्पूर्व क्रियमाणत्वात्पूर्वाणि, तानि चोत्पादप्रभृतीनि चतुर्दश, तत्र गत-प्रविष्टं यत् श्रुत तत् पूर्वगतम् , पूर्वगतशब्देन
सूत्रार्थ-दृष्ट्रिवाद चार प्रकारका कहा गया है । जैसे-परिकर्म १, सूत्र २, पूर्वगत ३ और अनुयोग ४। ___टीकार्थ - नैगमादिनयोंका नाम दृष्टि है, इन दृष्टियोंका जिसमें वर्णन है वह-दृष्टिवाद है । अथवा-"दिहिवाए" की संस्कृतच्छाया दृष्टिवाद है । इस पक्षमें दर्शनोंका जिसमें स्वरूप कथन हो ऐसा १२ वां सूत्र दृष्टिपात है। यह दृष्टिवाद परिकर्म आदिके भेदसे जो चार प्रकारका कहा गया है उन प्रत्येकका तात्पर्य ऐसा है-जो कर्म गणितादि कर्मकी तरह सूत्रादि ग्रहण करनेकी योग्यताका सम्पादन करने में समर्थ होता है वह परिकर्म है। यह परिकम सिद्धश्रेणिकादि रूप है । ऋजुसूत्र आदि २२-सूत्र है। ये २२ सुत्र सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय, नय, आदिरूप अर्थका सूचन करते है इसलिये सूत्र कहे गये हैं। " पूर्वगत"-सर्वश्रुतके पूर्व किये गये होनेसे उत्पात आदि १४ पूर्वोको
सूत्रार्थ-दृष्टिवाना नाय प्रभा या२ ५४.२ ४ह्या छ---(१) प२ि४म, (२) सूत्र (3) ५ गत मने. (४) अनुया .
ટીકાર્થ – નૈગમાદિ નનું નામ દષ્ટિ છે. તે દેહિઓન જેમાં १ छ त हेष्टिवाद छ मया “ दिठिवाए " ! पहनी संस्कृत છાયા “દૃષ્ટિવાદ” છે. આ દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે દર્શનના સ્વરૂ પનું જેમાં કથન થયું છે એવું બારમું અંગ દૃષ્ટિવાદ છે. તે દષ્ટિવાદને પરિક આદિના ભેદથી જે ચાર પ્રકારને કહ્યો છે, તે પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે--જે કર્મ ગણિતાદિ કર્મની જેમ સૂત્રાદિ ગ્રહણ કરવાની ચગ્યતા પ્રાપ્ત કરાવવાને સમર્થ હોય છે, તે કર્મનું નામ પરિકમે છે. તે પરિકર્મ સિદ્ધશ્રેણિકાદિ રૂપ છે અજુ સૂત્ર આદિ ૨૨ સૂત્ર છે. તે ૨૨ સૂત્ર સર્વદ્રવ્ય, સર્વપર્યાય, નયે આદિ રૂપ અર્થનું સૂચન કરે છે, તેથી તેમને સૂત્ર કહેવામાં આવેલ છે. “પૂર્વગત” સર્વશ્રત કરતાં પૂર્વે ( વહેલાં) કરાયેલ
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स्थानाजपचे पूर्वाण्येवोच्यन्ते, पूर्वप्रविष्टत्वात् , यथा हस्ताद्यङ्गमविष्टमगुल्यादिकमङ्गशब्देन व्यवहियते ३ । ___" अनुयोगः "-योजनं योगः, अनुरूपोऽनुकूलो वा सुत्रस्य स्वकीयार्थेन सह योगा सम्बन्ध इत्यनुयोगः ४। एषां चतुर्णा विस्तरतो विवरणं नन्दीसूत्रस्य मत्कृतायां ज्ञानचन्द्रिका टीकायामवलोकनीयमिति । सू० २४ ।
अनन्तर पूर्वगतमुक्तं, तत्र प्रायश्चित्तमरूपणासत्त्वात् पायश्चित्तं सूत्रद्वयेन निरूपयितुमाह
मूलम् चउबिहे पायच्छित्ते, पण्णत्ते तं जहा-णाणपायच्छित्ते १, दसण पायच्छिते २, चरित्तपायच्छिन्ते ३, वियत्ताकिच्चपायच्छित्ते।
चउबिहे पायच्छिन्ते पण्णते, तं जहा-पडिसेवणा पायच्छित्ते १, संजोयणापायच्छित्ते २, आरोवणापायच्छित्ते ३ पलिउंचणापायच्छित्ते ४ । सू० २५।। पूर्व कहा गया है। इस पूर्वमें जो श्रुत प्रविष्ट है वह शुत पूर्वश्रुत है। पूर्वगत शब्द से पूर्वही कहे जाते हैं क्योंकि-समस्त श्रुत पूर्व में प्रविष्ट है, जैसे-हस्त आदि अङ्गमें अगडुली आदि अङ्ग शब्दसे कहे जाते हैं ३।" अनुयोग" सूत्रका अपने अर्थ के साथ जो अनुरूप वा-अनुकूल सम्बन्ध है यह अनुयोग है। इन चारोंका विस्तारले वर्णन (विवरण) नन्दीसूत्रकी ज्ञानचन्द्रिका टीकामें किया है सो वहाँसे देख लेना चाहिये ॥सू.२४॥
अनन्तर उक्त पूर्वगतमें प्रायश्चित्तकी प्ररूपणाका सद्भाव होनेसे (રચિત) હેવાથી ઉત્પાદ આદિ ૧૪ પૂને પૂર્વ કહે છે. તે પૂર્વમાં જે પત પ્રવિષ્ટ છે તે શ્રતને પૂર્વશ્રુત કહે છે. “પૂર્વગત” પરથી “પૂર્વ જ ગૃહીત થાય છે, કારણ કે સમસ્ત શ્રત પૂર્વમાં પ્રવિષ્ટ છે. જેમ હસ્તાદિ અંગમાં આંગળી આદિ અંગને સમાવેશ થઈ જાય છે-“હસ્ત” શબ્દથી આંગળી આદિ અગો પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે તેમ પૂર્વગત પદથી પૂર્વ જ ગૃહીત થાય છે.
અનુગ”—સૂત્રને પિતાના અર્થની સાથે જે અનુરૂપ અથવા અનુકુળ સંબંધ છે તેનું નામ અનુગ છે. આ ચારેનું સવિસ્તર વર્ણન નન્દીસૂત્રની જ્ઞાનચન્દ્રિકા ટીકામાં કરવામાં આવ્યું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે वांया नु. ॥ सू. २४ ॥
પહેલાના સૂત્રમાં જે પૂર્વગતની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી, તે પૂર્વગતમાં
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पुषा का स्था० ४ २०१ २०२५ प्रायश्चित्तनिरूपणम् ___ छाया-चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-ज्ञानप्रायश्चित्तं १, दर्शनमाय. श्चित्तं २, चारित्रपायश्चित्तं ३, व्यक्तकृत्यमायश्चित्तम् ४ ।
चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रतिसेवना प्रायश्चित्तं १, संयोजना प्रायश्चित्तम् २, आरोपणा प्रायश्चित्तं ३, परिकुश्चना प्रायश्चित्तम् ४।। सु० २५ ॥
टीका-" चउबिहे पायश्चित्ते " इत्यादि-प्रायश्चित्तं-प्राय:-पापं, तस्य चित्त-विशोधनमिति प्रायश्चित्तम् , " मायः पापं विजानीयाचित्तं तस्य विशोध. नमि"-त्युक्तेः, यद्वा-मायो वाहुल्वेन चित्तमन्तःकरणं स्वेन रूपेण तिष्ठत्यस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तम्-अनुष्ठानविशेषः, तच्चतुर्विधं-चतुष्मकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा -ज्ञान प्रायश्चित्तं-ज्ञानविषयकातिचारसंशोधनम् , एवं दर्शन-चारित्रयोरपि विज्ञेयम्, अब सूत्रकार दो सूत्रोंसे प्रायश्चित्तका निरूपण करते हैं । ___ "चउन्विहे पायच्छित्ते पण्णत्ते" इत्यादि
सूत्रार्थ-प्रायश्चित्त चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-ज्ञान प्रायश्चित्त १, दर्शन प्रायश्चित्त २, चारित्र प्रायश्चित्त ३ और व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त ४ । इस तरहसे भी प्रायश्चित्त चार प्रकारका कहा गया है । जैसे प्रतिसेवना प्रायश्चित्त १, संयोजना प्रायश्चित्त २, आरोपण। प्रायश्चित्त ३, और प्रतिकुचना प्रायश्चित्त ४। इस सूत्रका स्पष्टार्थ इस प्रकारसे हैप्रायः नाम पापका है और पापका जो विशोधन है वह चित्त है, तथाच-पापका विशोधन जिससे होता है वह प्रायश्चित्त है । कहाभी है-"प्रायः पापं विजानीयात्-चित्तं तस्य विशोधनम्"। अथवा-प्रायः याहुल्यसे अन्तःकरण अपने स्वरूपसे जिसके होनेपर ठहरता है वह પ્રાયશ્ચિત્તની પ્રરૂપણાને સહભાવ હોવાથી હવે સરકાર બે સૂત્રે દ્વારા પ્રાયश्चित्तनु ति३५ ४२ छ-" चउबिहे पायच्छित्ते पण्णत्ते" त्या
સ્વાર્થ પ્રાયશ્ચિત્તના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) જ્ઞાન પ્રાયશ્ચિત્ત, (२) प्रशन प्रायश्चित्त, (3) यास्त्रि प्रायश्चित्त मने (४) व्यतकृत्य प्रायश्चित्त. પ્રાયશ્ચિતના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે––(૧) પ્રતિસેવના પ્રાયશ્ચિત્ત, (२) सन प्रायश्चित्त, (3) मारेप! प्रायश्चित्तमन (४) १२यता प्रायश्चित्त
व सा सूत्रन लावाय' २५४ ३२पामां आवे छे-" प्रायः " मेरो '५' भने पापन विधिनानु नाम 'यित्त' छे. पातु विशाधन (शुद्धि) रेना वास थाय छ तेनु नाम । प्रायश्चित्त छे ४j ५५ छे ४-" प्रायः पापं विजानीयात्-चित्तं तस्य विशोधनम् " अथवा "रना समापन सीधे मत ३२९५ પિતાના મૂળ સ્વરૂપમાં સામાન્યતઃ સ્થિર રહે છે તેનું નામ પ્રાયશ્ચિત્ત છે. તે
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स्थामा सूत्रे
“ वियत्तविचपायच्छित्तं" इति - व्यक्तकृत्यमायश्चित्तं व्यक्तकृत्यं - व्यक्तस्य -भावतो गीतार्थस्य कृत्यं करणीयं व्यक्तकृत्यं, तदेव प्रायश्चित्तम्, गीतार्थी हि गुरुलाघवपर्यालोचनेन यत् किञ्चनप्रायश्चित्तं ददाति तत्सर्वे पापविशोधकमेव भवतीति । ४ ।
पुनचतुर्विधं प्रायश्चित्तमाह - " चउब्विहे " इत्यादि - चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तम् - प्रतिसेवनं प्रतिसेवना - अकृत्यस्याssसेवनमित्यर्थः, तस्या प्रायश्चित्तं प्रतिसेवना प्रायश्चित्तं, तदालोचनादिकं दशविधं तथाहि
-
प्रायश्चित्त है । यह प्रायश्चित्त अनुष्ठान विशेषरूप होता है, इसे जो ज्ञानप्रायश्चित्त आदिके भेदसे चार प्रकारका कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है - ज्ञान सम्बन्धी अतिचारोंका संशोधन करना यह ज्ञान प्रायश्चित्त है | दर्शन सम्बधी अतिचारोंका संशोधन करना दर्शन प्रायश्चित्त है । तथा चरित्र सम्बधी अतिचारोंका संशोधन करना यह चारित्र प्रायश्चित्त है ।
" वियत्तकिञ्चपायच्छित्तं " इत्यादि
गीतार्थ गुरुलाघवकी पर्यालोचना कर जो कुछ प्रायश्चित्त देते हैं। वह सब पाप विशोधकही होता है । ऐसा यह प्रायश्चित्त व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त है क्योंकि- - व्यक्त नाम गीतार्थका है, इनके द्वारा जो करणीय होता है वह कृत्य है । इस व्यक्तकृत्य रूप जो प्रायश्चित्त है वह व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त है । ४ अकृत्यका सेवन करना इसका नाम प्रतिसेवना
પ્રાયશ્ચિત્ત અનુષ્ઠાન વિશેષરૂપ હાય છે. હવે તેના ચાર ભેદોનુ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–જ્ઞાન સ બધી અતિચારેનુ વિશેધન કરવું તેનું નામ જ્ઞાન પ્રાયશ્ચિત્ત છે. દશન સબધી અતિચારાનુ વિશેાધન કરવું તેનું નામ દશ`નપ્રાયશ્ચિત્ત છે ચારિત્રવિષયક અતિચારાનુ' વિશેાધન કરવું તેનુ નામ ચારિત્ર પ્રાયશ્ચિત્ત છે.
" वियत्चकिञ्चपायच्छित्तं " ઈત્યાદિ——ગીતા ગુરુલાઘવની પર્યાલાચના કરીને જે કોઇ પ્રાયશ્ચિત્ત દે છે, તે પાપવિશેાધક જ હાય છે. એવું તે પ્રાયશ્ચિત્ત વ્યક્તકૃત્ય પ્રાયશ્ચિત્ત છે, કારણ કે વ્યક્ત નામ ગીતાનું છે, તેમના દ્વારા જે કરણીય હાય છે તેનું નામ કૃત્ય છે. આ વ્યક્તકૃત્ય રૂપ જે પ્રાચ શ્ચિત્ત છે, તેને વ્યક્તકૃત્ય પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે.
અકૃત્યનું સેવન કરવું તેનું નામ પ્રતિસેવના છે. તે પ્રતિસેવનાને દૂર કરવા માટેની જે શાસ્ત્રીય પ્રતિક્રિયા છે તેનું નામ પ્રતિસેવના પ્રાયશ્ચિત્ત છે.
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सुंधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० २५ प्रायश्चित्तनिरूपणम् ५३९ ___ "आलोयण १-पडिक्कमणे २ मीस ३-विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५।
तव ६-छेप ७ मूल ८ अणवटप्पा ९, पारंचिए १० चेव ।१।" छाया-आलोचनं १ प्रतिक्रमण २ मिश्रं ३ विवेक ४ स्तथा व्युत्सर्गः ५। तप ६-छेद ७ मूला ८-ऽनवस्थाप्याति ९ पाराञ्चित्तं १० चैव ॥१॥"
। इति मतिसेवनापायश्चित्तम् ।१।। " संयोजनामायश्चित्तम् -संयोजनं संयोजना, सा चैकजातीया-तिचारमीलन, यथा-शय्यातरपिण्डो गृहीतः, सोऽपिजलार्दहस्तादिना, सोऽप्यभ्याहतः, सोऽप्याधाकर्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्रायश्चित्तम् ।२। ___ " आरोपणा प्रायश्चित्तम् "-आरोपणम्-एकापराधप्रायश्चित्तं पुनः पुनरा. सेवनेन विजातीयप्रायश्चित्तस्यारोपणमारोपगा, यथा पञ्चाहोरात्रप्रायश्चित्तं प्राप्तः है। इस प्रतिसेवनाको दूर करने के लिये शास्त्रीय प्रतिक्रियाको प्रतिसेवना प्रायश्चित्त कहा है। यह प्रायश्चित्त आलोचना आदिके भेदसे १० प्रकारका होता है। जैसे-"आलोयणपडिक्कमणे" इत्यादि। "संयोजना प्रायश्चित्त" एक जातीय अतिचारोंका मिलना इसका नाम-संयोजना है, जैसे-शय्यातरका पिण्ड लिया और बहभी जलाद हस्तादिसे दिया गया हो, अभ्याहत लिया वह भी-आधाकीमक, यहाँ जो प्रायश्चित्त है वह संयोजना प्रायश्चित्त है।
"आरोपणा प्रायश्चित्त"-एक अपराधके प्रायश्चित्त पुनः पुनः उसीके आसेवनसे विजातीय प्रायश्चित्तका अध्यारोपण करना इसका તે પ્રાયશ્ચિત્તના આચના આદિ ૧૦ પ્રકાર છે. કહ્યું પણ છે કે
"आलोयण पडिामणे" त्याcि..
સંજના પ્રાયશ્ચિત્ત એક જાતીય અતિચારને સોગ થવો તેનું નામ સંજના છે. જેમકે શય્યાતરપિંડ ગ્રહણ કરવામાં આવે તે અતિચાર 'લાગે અને એ જ શતરપિંડ ભીના હાથે અપાયે હોય છે તેથી પણ અતિચાર લાગે. અભ્યાહત પિંડ ગ્રહણ કરવામાં આવે અને તે પણ આધાકર્મ દોષયુક્ત હોય તે ત્યાં પણ એક જાતના અતિચારેનું સાજન થયું ગણાય. તેની વિશુદ્ધિ નિમિત્તે જે પ્રાયશ્ચિત કરવામાં આવે છે, તેને સજના प्रायश्चित्त ४३ छे.
. “'આપણું પ્રાયશ્ચિત્ત ? એક જ જાતના અપરાધનું વારવાર આસેવન થવાથી વિજાતીય પ્રાયશ્ચિત્તનું અધ્યારે પણ કરવું તેનું નામ આરોપણું પ્રાયશ્ચિત્ત કે છે. એટલે કે દેષ માટે પહેલાં અમુક પ્રકારનું પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે, અને ફરીથી એ જ દેષનું સેવન કરવામાં આવે તે બીજી જાતનું પ્રાયશ્ચિત્ત
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स्थाना
पुनस्तत्सेवने दशाहोरात्रान् पुनः पञ्चदशाहोरात्रानेवं पण्मासीं यावत् प्रायवित्तं दातव्य भवति, ततोऽधिकं तपोदेयं न भवति, महावीरशासने तपसः पण्मासान्तत्वादिति उक्तं च
66
पंचाय रोवण, नेयव्वा जाव हौति छम्मासा ।
66
तेण परमासियाणं छण्हुवरिं झोसणं कुज्जा | १| " इति, पञ्चादिकारोपणा ज्ञातव्या यावद् भवन्ति पण्मांसाः । ततः परं मासानां पण्णामुपरि झोपणां कुर्यात् | १ | " इति, तया प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति ॥३॥
तथा - " परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम् " परिकुञ्चनं परिकुञ्चना- माया, अपराधानां द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावसम्बन्धिनां गोपनम् - अन्यथा विद्यमानानामन्यथा कथनम्, उक्तंच
छाया
नाम आरोपणा है । जैसे कोई साधु पंच- अहोरात्र का प्रायश्चित्त लेता है अब वह पुनः वह उसी दोषका आसेवन करने लगता है, तब वह उसका दश अहोरात्र प्रायश्चित्त ले लेता है । पुनः वह पन्द्रह दिनका प्रायश्चित्त ले लेता है ऐसे वह छह मास तकका प्रायश्चित्त लेना रहता है इसके बाद उसे तप नहीं दिया जाता है। क्योंकि महावीर के शासन में तपकी अन्तिमा सीमा छह मास तकही है। कहा भी है कि - " पंचाईयारोवण" इत्यादि । इस तरह की अंरोपणासे जो प्रायश्चित्त दिया जाय वह-आरोपणा प्रायश्चिन्त है । तथा-" परिकञ्चना प्रायश्चित्त " - परिकुञ्चन नाम मायाका है । अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी अपराधों का गोपन करना, किये गये अपराधोंको अन्यरूपसे कहना इसका नाम
1
આપવામાં આવે, તે તેનુ નામ આરેપણા પ્રાયશ્ચિત્ત સમજવું. જેમકે કાઇ સાધુને અમુક દોષને માટે પાંચ દિનરાતનુ પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે. એ જ સાધુ બીજીવાર તે દોષનુ આસેવન કરે તેા તેને દસ દિનરાતનુ' પ્રાય શ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે. ત્રીજી વખત એ દોષનું આસેવન કરવા માટે ૧૫ નિરાતનું પ્રાયશ્ચિત્ત અપાય છે. આ પ્રમાણે છ માસ સુધીનુ પ્રાયશ્ચિત્ત તે લઈ શકે છે, ત્યારમાદ વધુ સમયનું પ્રાયશ્ચિત્ત ( પ્રાયશ્ચિત્ત નિમિત્તક તપ ) તેને અપાતું નથી. કારણ કે મહાવીર પ્રભુતા શાસનમાં તપની અન્તીમ સીમા छ भास सुधीनी ४ डडी छे, उछु याद छे है-" पंचाईयाविण " हत्याहि આ પ્રકારની મારાપણાથી જે પ્રાયશ્ચિત્ત દેવામાં આવે તેનુ નામ મારાપણા પ્રાયશ્ચિત્ત છે,
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सुधा टीका स्था०४०१ सू० २६ कालस्वरूपनिरूपणम्
" दब्वे खेत्ते काले भावे पलिउचणा चउवियप्पा " इति, छाया - " द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे परिकुञ्चना चतुर्विकल्पा । " इति, तथाहि - सच्चित्ते अचित्तं ९ जणवयपडिसेवियं च अद्धाणे २॥ सुभिक्खे यदुक्खे ३ हट्टेण तहा गिलाणेणं |१| " इति, छाया- -" सच्चित्तमचित्तं जनपदप्रतिसेवितं चाध्वनि । सुभिक्षे दुर्भिक्षे च हृष्टेन तथा ग्लानेन |१| " इति, सचितादि विषये मायाभिरचित्तादिरूपेण कथनम्, तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुञ्चना प्रायश्चित्तम् |8| सू० २५ !
प्रायश्चित्तं च कालापेक्षया दीयत इति कालं निरूपयितुमाहमूलम् - चउविहे काले पण्णत्ते, तं जहा पमाणकाले १, अहाउयनिवत्तिकाले २, मरणकाले ३, अद्धाकाले ४ । सू० २६ । छाया - चतुर्विधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रमाणकाल: १, यथाऽऽयुष्कनिवृत्तिकाल: २, मरणकालः ३, अद्धाकालः ४ | सू० २६ ।
५४१
माया है । कहा भी है- " दव्त्रे खेत्ते काले भावे " इत्यादि । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें जो परिकुञ्चना चार प्रकारकी कही गई है वह इस प्रकार है । " सच्चित्ते अचित्तं " इत्यादि । सचित्तादिके विषयमें मायाचारिसे अचित्तादि रूपसे कथन करना यह सब परिकुञ्चना है, इसका जो प्रायश्चित्त है वह परिकुञ्चना प्रायश्चित्त है || सू० २५ ॥ कथित प्रायश्चित्त कालकी अपेक्षासे दिया जाता है । इस विषयको लेकर अब सूत्रकार कालकी प्ररूपणा करते हैं । चवि काले 'पण्णत्ते " इत्यादि
4"
66
परियना आयश्चित्त" परियन भेटखे भाषा. એટલે કે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવસંબધી અપરાધાને છુપાવવા—જે અપરાધા કર્યાં હાય તેમને અન્ય રૂપે પ્રકટ કરવા તેનુ નામ માયા છે.
66
કહ્યુ પણ છે કે
दव्वे खेत्ते काले भावे " त्याहि-द्रव्य, क्षेत्र, आज भने भावनी अपेक्षाओ परिडुंयनाना ? यार र उद्या तेनुं स्पष्टी४२ या प्रमाणे छे- “ सच्चित्ते अवित्तं ” धत्याहि-सयित्ताहिना विषयभां भायायारीधी अयित्ताहि ३ये प्रथम કરવું તેનું નામ પરિક્ંચના છે. તેનુ' જે પ્રાયશ્ચિત્ત છે, તેને પરિક ચના પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. ! સ્ ૨૫ ગ્ર
પૂર્વોક્ત પ્રાયશ્ચિત્તકાળની અપેક્ષાએ આપવામાં આવે છે. આ સમધને अनुसक्षीने हवे सूत्रार अजनी अ३प मेरे छे - " चन्त्रिहे काले पण्णत्ते " इत्यादि.
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स्थानाङ्गसूत्रे टीका-" चउन्विहे काले ” इत्यादि-कालः-वर्तनालक्षणः स, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा--प्रमाणकालः - प्रमीयते-परिच्छिद्यतेऽनेन वर्षशतपल्योपमादिकमिति, प्रमाणं, तदेव कालः प्रमाणकालः, स च दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तीति, उक्तं च" दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होइ राई य ।
चउपोरिसिओ दिवसो, राई चउपोरिसी चेव । १।" इति, छाया-" द्विविधः प्रमाणकालो दिवसप्रमाणो भवति रात्रिश्च ।
चतुष्पौरुपिको दिवसो रात्रिश्चतुष्पौरुषी चैव । १।" ___ " यथाऽऽयुष्कनिर्वृत्तिकालः " यथा-यत्प्रकारं नारकादिभेदेनाऽऽयुष्कर्मविशेपो यथाऽऽयुः, तदेव यथाऽऽयुष्कं, तस्य रौद्रादिध्यानादिना नित्तिः-बन्धनं यथाऽऽयुष्कनित्तिः, तस्याः सकाशाद्यः कालो नारकादित्वेन जीवानां स्थितिः स
सूत्रार्थ-काल चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-प्रमाणकाल १, यथायुष्क नितिकाल २, मरणकाल ३ और अद्वाकाल ।
टीकार्थ - कालका लक्षण वर्तना कहा है, कहाभी है - " दव्वपरिवरुवो" इत्यादि । वर्तना लक्षणवाला ऐसा काल चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-प्रमाणकाल आदि। जिस कालसे वर्षशत पल्योपम आदिक जाना जाता है वह प्रमाणकाल है, यह प्रमाणकाल दिवस आदि रूप होता है और मनुष्यक्षेत्रवर्ती होता है । कहाभी है-" दुविहो पमाणकालो" इत्यादि । यथायुष्क नितिकाल नारक आदि पर्यायोंकी जीतनी आयु है वह यथायुल्क है। रौद्रध्यान आदि द्वारा इस आयुका बांधना बह-यथायुप्क निवृति है। इस यथायुष्कके अनुसार जो नारकादि रूपसे जीवोंकी स्थिति है, वह
સૂવા–કાળ ચાર પ્રકારને કહ્યો છે, તે ચાર પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે(१) प्रमा , (२) यथायुष्४ निति, (3) म२४ मन (४) माण. टी - नु सक्षय “ना" ह्यु छ. ४युं ५ छ -“दव्वपरिवहरूवो" त्यात. વર્તના લક્ષણવાળા- તે કાળના પ્રમાણુકાળ આદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે જે કાળની મદદથી વર્ષશત, પલ્યોપમ આદિ જાણી શકાય છે તે કાળનું નામ પ્રમાણુકાળ છે. તે પ્રમાણુકાળ દિવસ આદિ રૂપ હોય છે, અને મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ તેનું मस्तित्व डाय छे. छु ५५ छ -“दुविहो पमाणकालो" त्याल.
" यथायु निवृत्ति "-ना२४ मा पर्यायानु रे भायुष्य छ, તેટલા આયુષ્યનું નામ યથાયુષ્ક છે. રૌદ્રધ્યાન આદિ દ્વારા તે આયુ બાંધવું તેનું નામ યથાયુષ્ક નિવૃત્તિ છે. આ યથાયુષ્ક અનુસાર નારકાદિ રૂપે જીની
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० ९ कालस्वरूपनिरूपणम्
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यथाssयुष्कनि चिकालः, यद्वा-यथाऽऽयुषो निरृतिस्तथा यः कालो नारकादिभवेऽस्थानं स यथाऽऽयुष्कनिरृत्तिकालः, आयुष्कर्मानुभव विशिष्टः, सकलसंसारि - जीवानां वर्तनादिरूप इति उक्तं च
" आउयमेत्तविसिट्टी स एव जीवाण वत्तणादिमओ । भन्नई अहाउकालो वत्तइ जो जचिरं जेणं |१| " इति, ___"} आयुर्मात्रविशिष्टः स एव जीवानां वर्तनादिमयः ।
छाया
भण्यते यथाऽऽयुष्कालो वर्तते यो यच्चिरं येन |१| " इति, तथा - " मरणकालः " - मरणस्य - मृत्योः कालः - समयो मरणकालः, यद्वामरणविशिष्टः कालो मरणकालः । अथवा-मरणमेव कालो मरणकालः, मरणपयत्वादिति, उक्तं च
"
" कालोत्ति मयं मरणं जहेह मरणं गओत्ति कालगभ । तम्हा स कालकालो जो जस्स गओ मरणकालो |१| छाया - " काल इति मतं मरणं यथेह मरणं गत इति कालगतः । तस्मात् स कालकालो यो यस्य गतो मरणकालः | १| " इति,
यथायुक निर्वृतिकाल है । अथवा जितनी जहांकी आयुका बन्ध जिस जीवको हुवा है उसीके प्रमाणमें उन नारकादि भवोंमें जीवोंका जो वह अवस्थान है वह यथायुष्क निर्वृतिकाल है । तात्पर्य इस कथनका यह है कि जितनी जीस जीवने जिस पर्यायकी आयुका बन्ध किया है उस जीवका उतने समय तक उस पर्यायमें बने रहना यही यथायुष्क निर्वृत्तिकाल है । कहा भी है- " आउयमेत्तविसिहो' इत्यादि । 44 मरणकाल " - मृत्युका जो काल है वह मरणकाल है । अथवा मरणरूप जो काल है वह मरणकाल है । कहा भी है-" कालोत्ति सयंमरणं " જે સ્થિતિ છે, તેને યથાયુષ્ય નિવૃત્તિકાળ કર્યું છે અથવા-જે જીવે જે ગતિના જેટલા આયુના બંધ કર્યાં હાય તેટલા પ્રમાણમાં તે નારકાકિ ગતિમાં જીવનુ જે અવસ્થાન થાય છે તે અવસ્થાન કાળને (તે ભવસ બધી આયુસ્થિતિને ) યથાયુષ્ય નિવૃત્તિકાળ કહે છે. આ કથનનુ' તાત્પ નીચે પ્રમાણે છે—-- જીવે જે પાઁયના જેટલા આયુના 'ધ કર્યાં હાય, તે પર્યાયમાં એટલા સમય સુધી જીવને જે રહેવું પડે છે, તેનું નામ જ યથાયુષ્ય નિવૃત્તિકાળ છે. उद्धुं यष्णु छे -“ आउयमेत्तविसिट्ठो " त्याद्दि,
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"" મરણકાળ મૃત્યુના જે કાળ છે તેનું નામ મરણુકળ છે. અથવા મરણ-વિશિષ્ટ જે કાળ છે તે મરણુકાળ છે અથવા મરણુરૂપ જે કાળ છે તે भरगुण छे. ह्युं पशु छे -" कालो चि मयं मरण " इत्यादि.
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स्थानागर तथा-" अद्धाकाल: " अद्धा-समयावलिकादि कालविशेषः, तद्रूपःकालोऽद्धाकालः, कालो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्तते , तस्मात् सोऽद्धाशब्देन विशिष्यते । अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती दिवसादिसमयरूपो ज्ञेयः । उक्तं च" सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो ।
अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेत्तंमि समयाई । १ । समयावलियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य ।
संवच्छरजुगपलिया सागर ओसपिपरियट्टा ॥२॥" छाया-" सूर्यक्रियाविशिष्टो गोदोहादिक्रियासु निरपेक्षः ।
अद्धाकालो भण्यते समयक्षेत्रे समयादिः ।। समयावलिकामुहूताः दिवसाहोरात्र पक्षमासाश्च ।
संवत्सरयुगपल्याः सागरोत्सर्पिणीपरावर्ताः ।२।" इति, सर्वोऽपि कालोऽद्धाकालविशेषएव, किन्वत्र चतु:स्थानानुरोधात्. शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थ वा चतुर्विधः प्रोक्तः ।
इति कालनिरूपणम् । (सू० २६) इत्यादि । तथा-" अद्धाकाल " सभय आवलिका आदिरूप जो काल है वह अद्वाकाल है । कालका विशेषण जो अद्धा रखा है वह वर्ण परिणाममें आगत कालरूप वर्णकी व्यावृत्तिके लिये रक्खा गया है । यह अद्वाकाल सूर्यकी क्रियासे जाना जाता है और ढाइ द्वीपमें ही इसका सद्भाव कहा गया है, यह दिवसादिरूप होता है। कहाभी है"सुरकिरियाविसिहो" इत्यादि । जितनाभी काल है वह अद्धाकाल विशेषरूप ही है, किन्तु-यहां चतुःस्थानके अनुरोधसे वा-शिष्य धुद्धिके वैशद्यके लिये उसे चार प्रकारका कहा गया है। सू० २६ ॥
અદ્ધાકાલ–સમય, આવલિકા આદિ રૂપ જે કાળ છે તેનું નામ અદ્ધાકાળ છે અહીં કાળનું વિશેષણ અદ્ધા રાખવાનું કારણ એ છે કે વર્ણ परिणाममा २ ४४३५ (अ) व मावे छ, तनी यावृत्ति (निजा२९१) २ નિમિત્તે આ વિશેષણ કાળ સાથે જવામાં આવ્યું છે. આ અદ્ધાકાળ સૂર્યની ક્રિયાથી જાણી શકાય છે, અને અઢી દ્વીપમાં જ તેનો સદૂભાવ હોય છે. તે हिवस माहि३५ डाय छे. ४युं ५ छ - 'सूरकिरिया विसिठ्ठो” त्यादि. જેટલા કાળ છે તે અદ્ધાકાળ વિશેષરૂપ જ છે, પણ અહીં ચાર સ્થાનકેને અધિકાર ચાલતું હોવાથી અથવા શિષ્યબુદ્ધિના વૈશને માટે તેને ચાર प्रश्न! यो छ । सू. २१ ॥
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सुधा टीका स्था० ४३०१ सू०२७ पुद्गल परिणामनिरूपणम्
पूर्व द्रव्यपर्यायभूतस्य कालस्य चतुःस्थानकमुक्तम्, अधुना पर्यायाधिकारात् पुलानां पर्यायभूतस्य परिणामस्य चतुःस्थानकमाह
मूलम् - चउबिहे पोज्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा - वन्नपरिणामे १, गन्धपरिणामे २, रसपरिणामे २, फासपरिणामे ४॥ सू०२७|
छाया -- चतुर्विधः पुत्रलपरिणामः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वर्णपरिणामः २, गन्धपरिणामः २, रसपरिणामः ३. स्पर्शपरिणामः |४| | ० २७ ।
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टीका--" चउठिरहे पोगल० " इत्यादि पुलपरिणामः- पुहलानां - पूरण गलनधर्माणां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्व मावकानां परिणामः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनं पुगल परिणामः, उक्तं च-
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परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यवस्थानम् ।
न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः | १| " इति,
46 इस प्रकार से द्रव्य पर्यावरूप कालमें चतुःस्थानकना का कथन करके अब सूत्रकार पर्यायाधिकार को लेकर पुद्गलोंके पर्यायरूप परिणाम की चतुःस्थानकताका कथन करते हैं ।
Masoor पोल परिणामे पण्णत्ते " इत्यादि
सूत्रार्थ- पुद्गल परिणाम चार प्रकारका कहा गया है। जैसे - वर्ण परिणाम १ गन्ध परिणाम २, रस परिणाम ३ और स्पर्श परिणाम ४ ।
46
टीकार्थ- - पुद्गल - पूरण गलन स्वभाववाले होते हैं और रूप, रस, और गन्ध, वर्ण एव वाले होते हैं । अतः ये मूर्त कहे गये हैं । इनका एक अवस्थाले जो अवस्थान्तर में गमन होता है वही परिणाम है । कहा भी है- " परिणामो ह्यर्थान्तर गमनम् " इत्यादि । पुद्गलपरिणाम चार प्रकारका जो कहा गया है उसका अभिप्राय ऐसा है ।
આ પ્રમાણે દ્રવ્યપર્યાયરૂપ કાળમા ચતુર્વિધતાનુ’ કથન કરીને હવે સૂત્રકાર પર્યાયાધિકારના સબધને અનુલક્ષીને પુદ્ગલેાના પર્યાયરૂપ પરિણામની तुविधतानुथरे छे' चउवि पोगलपरिणामे पण्णत्ते" त्याहि
सूत्रार्थ - युगस परिशुाभ यार प्रहारनु छे (१) वायु परिणाम, (२) गन्ध परिणाम, (3) रस परिणाम भने (४) स्पर्श परिणाम.
टीअर्थ - युद्धस पूरणु भने जलन स्वभाववानां होय छे, भने ३५, रस, गन्ध, વધુ અને સ્પર્શ વાળા હોય છે, તેથી તેમને મૂત્ત કહેવામાં આવ્યાં છે. તેમનું એક અવસ્થામાંથી મીજી અવસ્થામાં જે ગમન થાય છે, તેનુ' નામ જ પરિણામ છે કહ્યું પશુ છે - " परिणामो ह्यार्थान्तरगमनम् " त्याहि. હવે પુદ્ગલ પિરણામના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેવુ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે.
स
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स्थानाङ्गसूत्रे
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स चतुर्विधः = चतुष्प्रकारः, प्रशप्तः, तद्यथा-वर्णपरिणामः - वर्णस्य कालादेः परिणाम: - अन्यथाभवनं वर्णपरिणामः १। एवं गन्धपरिणामः- गन्धस्य- परिणामःपरिवर्तनं सुरभेदुरभीभवनं, दुरः सुरभीभवनमित्यर्थः | २ | " रसपरिणामः " - रसस्य- मधुरादिरूपस्य परिणामः = कटुकादिरूपेण परिणमनं रसपरिणामः | ३ | " स्पर्शपरिणामः " - स्पर्शस्य - शीतादिरूपस्य परिणामः - उष्णादिरूपेण परिणमनं स्पर्शपरिणामः १४ | | ० २७ ॥
इति परिणाम निरूपणम् ।
पूर्वमजीवद्रव्यपरिणाम उक्तः, सम्मति तु जीव द्रव्यपरिणामान् निरूपयितुमाहमूलम् -- भरहेरवसु णं वासेसु पुरिमपच्छिमवजा मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवेंति, तं जहा - सब्बाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सवाओ मुसावायाओ वेरमणं, सघाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सवाओ बहिद्वादाणाओ वेरमणं । सर्व्वसु णं महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउनामं धम्मं पण्णवेंति, तं जहा - सवाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, जाव सवाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ॥ सू० २८ ॥
"
कालादिकृत पांच प्रकारके वर्णों का जो अन्यथा होजाना परिणाम है | वह वर्णरूप परिणाम है, गन्ध गुणमे जो परिणमन है । जैसे— सुरभि गन्धका दुरभि गन्ध रूपसे परिणमन होना, दुरभि गन्धका सुरभि गन्ध रूपसे परिणमन होना । यह सब गन्ध और गुणका परिवर्तन गन्ध परिणमन है । मधुरादि रसोंका जो परिणमन है - जैसे मधुर रसका कटुक रसमें परिवर्तन हो जाना । कटुक रसका मधुर रसमें परिणमन आदि सब रस परिणाम है। तथा शीतादि स्पर्शका जो उष्णादि रूपसे परिणमन होता है, वह स्पर्श परिणाम हैं || सू० २७ ॥ કાળા અહિં પાંચ વધુ કહ્યા છે કઈ પણ એક વણનું અન્ય વધુ રૂપે રિહ્યુમન થઇ જવુ તેનું નામ વરૂપ પરિણામ છે. ગન્ધ ગુણુના પરિણમનને ગન્ધ પરિણામ કહે છે જેમકે સુરભિગન્ધનું દુરર્મિંગન્ધ (દુર્ગંધ ) રૂપે અથવા દુરભિગન્ધનું સુરભિ ગન્ધ રૂપે પરિણમન થયું તેનું નામ ગન્ધ પરિ ામ છે. મધુરાદિ રસેનું કડવા આદિ રસ રૂપે પરિણમન થવું અથવા કહુક રસનું મધુરાદિ રસ રૂપે પરિણમન થવું તેનું નામ રસ પિરણામ છે. શીતાદિ સ્પર્શીનૢ ઉષ્ણાદિ સ્પર્શ રૂપે પરિણમન થવું તેનું નામ પશ પરિણામ છે. ાસ . રા
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सुधा टीका स्था० ४३ उ.१ सू०२८ जीवद्रव्यपरिणामनिझपणम् ५४७
'छाया-भरतैरवतयोः खलु वर्षयोः पूर्वपश्चिमवर्जा मध्यमका द्वाविंशतिरहन्तो भगवन्तश्चातुर्यामं धर्म प्रज्ञपयन्ति, तद्यथा-सर्वरमात् प्राणातिपाताद् विरमणम् , सर्वस्मात् मृपावादाद् विरमणम् , सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम् , सर्वस्माद् बहिौदानाद् विरमणम् १। सर्वेषु खलु महाविदेहेषु अर्हन्तो भगवन्तः चातुर्यामं धर्म प्रज्ञापयन्ति, तद्यथा-सर्वस्मात् माणातिपाताद् विरमणम् , यावत् सर्वस्माद् यहि दानाद् विरमणम् । सू. २८॥ ___टोका-" भरहेरवएसु" इत्यादि-भरतैरवतयोः एतदाख्ययोः 'खलु' वाक्यालङ्कारे, वर्षयोः क्षेत्रयोर्मध्ये पूर्वपश्चिमवर्जा:-पूर्वपश्चिमवर्तिनौ विहाय मध्यमका:-मध्ये भवा मध्यमारत एव मध्यमका-मध्यवर्तिनः, द्वारिंशनिद्वाविंशति संख्यकाः अर्हन्तः तीर्थङ्कराः, चातुर्याम-यमाः-सावधविरतिलक्षणाः, त एव
अजीव द्रव्यका परिणाम कहकर अब सूत्रकार जीव द्रवपके परिणामोंका कथन करते हैं-" भरहेरवएसुणं वासेतु पुरिमपच्छिमवज्जा" इत्यादि - मूत्रार्थ-भरत-ऐरचत क्षेत्रमें पूर्व-पश्चिमके तीर्थंकरों को छोडकर बीचके २२तीर्थङ्करोंने चातुर्याम धर्मकी प्रज्ञापना की है। वह चातुर्याम धर्म इस प्रकारसे है-समस्त प्राणातिपातसे विरमण-१, समस्त मृपावादसे विरमण-२, समस्त अदत्तादानसे विरमण-३, एवं धर्मोपकरणके सिवाय समस्त परिग्रहसे विरमण-४ । समस्त महाविदेहोंमें अर्हन्त-अगवन्तोंने जो चातुर्याम धर्मकी प्रज्ञापना की है वह चातुर्याम धर्म पूर्वोक्त समस्त प्राणातिपात आदिसे विरमण रूपही है।
टीकार्थ-यहां-" " पद वाक्यालङ्कारमें प्रयुक्त है । पूर्व-पश्चि- અજીવ દ્રવ્યના પરિણામનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર જીવ દ્રવ્યના परियामनु नि३५ अरे छे. "भरहेरवएसुणं वासेसु पुरिमपच्छिमवज्जा''इत्यादि
સૂત્રાર્થભરત અને એરવત ક્ષેત્રમાં પહેલા અને છેલ્લા તીર્થકર સિવાયના તીર્થકરોએ એટલે કે વચ્ચેના ૨૨ તીથ કરેાએ ચાતુર્યામ ધર્મની પ્રજ્ઞાપના
री छे. ते यातुर्याभ. धनु' ५१३५ २ २नु छ-(१) समस्त प्राति. यात विरम, (२) समस्त भृषावायी विभ, (3) समस्त महत्ताहानथी વિરમણ અને (૪) ધર્મોપકરણ સિવાયના સમસ્ત પરિગ્રહથી વિરમણ. સમસ્ત મહાવિદેહમાં અહં ત ભગવન્તએ જે ચાતુર્યામ ધર્મની પ્રજ્ઞાપના કરી છે તે ચાતુર્યામ ધર્મ પૂર્વોક્ત સમસ્ત પ્રાણાતિપાત આદિથી વિરમણ રૂપ જ છે. ટીકાથ—અહીં “” પદ વાક્યાલંકારમાં વપરાયું છે. પૂર્વ અને પશ્ચિમ’પદે દ્વારા અહીં પ્રથમ તીર્થંકર આદિનાથ અને છેલ્લા તીર્થકર મહાવીર પ્રભુ
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स्थानागसूत्रे यामाः, चत्वारो यामा यस्मिन् स चतुर्यामः स एव चातुर्यामस्तं चातुर्याम-चतुमहाव्रतरूपं, धर्म-दुर्गतिगर्तनिपतज्जन्तुजातत्राणदानक्षमलक्षणं, प्रज्ञपयन्ति-उपदिशन्ति, तद्यथा-रावस्मात् माणातिपातात् विरगणं-निवृत्तिः, सर्वस्मात् मृपावादात , विरमणम् , सर्वस्माद् अदत्तादानाद्-अदत्तग्रहणाद, विरमणम् , सर्वस्माद वहि दानाद् विश्मणम्-आदीयत इत्यादानं-परिग्राह्य वस्तु तच्च धर्मोपकरण मपि भवतीत्यत आह-' वहिद्ध '-त्यादि-बहिस्ता-धर्मापकरणादू बहिर्भूतं यद् आदानं तद् बहिर्दाऽऽदान-धर्मोंपकरणातिरिक्तवन्तुग्रहणं, तस्माद् विरमणमित्यर्थः। इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, यतोऽपरिगृहीता स्त्री न भुज्यत इति स्त्रिया अपि धर्मोपकरणातिरिक्तत्वेन प्रत्याख्येयत्वे सिद्धे तत्मत्याख्यानाय विशेषतः प्रयासाकरणास्पत्याख्येयस्य प्राणातिपातमभृतेश्चातुर्विध्यामरय चातुर्यामतेव । मसे यहां प्रथम तीर्थर आदिनाथ और अन्तिम तीर्थङ्करमहाबीर गृहीत हुवे हैं । दुर्गतिमें पतित होने से जीवोंको जा बचाता है वह-धर्म है । सावद्य कर्मो से [ कार्यों से ] विरति होना यह-यम है, ययही याम है । चार याम जिसने हो वह चातुर्याम है । चार महावत रूप यमही चातु. मि है ऐसा जो ग्रहण किया जाता है वह-आदान है । ऐसा आदान परिग्राह्य-ग्रहण करने योग्य पदार्थ है। इस तरहसे धर्माप्रकरणभी आदानमें आजाता है, अत:-आदानमें वह परिगृहीत (गुथा हुवा) न हो इसलिये " बहिई " पद दिया गया है। धर्मापकरणसे बहिर्भूत पदार्थों का जो आदान है वह बहिादान है। मैथुनको परिग्रहमें अन्तर्भूत कर लिया गया है। क्योंकि--अपरिगृहीत स्त्री भोग्य नहीं होती है इसलिये स्त्रीभी धर्मोपकरणले अतिरिक्त होनेले छोडने योग्य कही गई है अतः उसमें प्रत्याख्येषता सिद्ध होने पर उसका ગૃહીત થયા છે, જેને દુર્ગતિમ પડતાં જે બચાવે છે, તે ધર્મ છે.
सावध भाथी ( पापयुद्धत अथी ) विति य तेनु नाम 'यम' છે, તે યમનું નામ જ “યામ” છે જેમાં ચાર યામ હે ય તેને ચાતુર્યામ કહે છે. ચાર મહાવ્રત રૂપ યામ જ ચાતુર્યામ છે, એવું જે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેનું નામ આદાન છે એવું આદાન પરિગ્રાહ્ય ( ગ્રડણ કરવા ચોગ્ય) પદાર્થ છે. આ રીતે ઘર્મોપકરણ પણ આદાનમાં આવી જાય છે, તેથી આદીनमा त परिहात नही ४२वाने भाट “ बहिर्द्ध" ५६ भूवामा व्यु છે. ધર્મોપકપણ સિવાયના પાર્થોનું જે આદાન છે તેને “બહિદ્ધાદાન” બહિરદાન કહે છે તેના ગ્રહણને ચતુર્યામ ધર્મમાં નિષેધ કર્યો છે. મિથુનને પરિગ્રહમાં જ સમાવી લીધું છે, કારણ કે અપરિગ્રહીત આ ભાગ્ય હોતી નથી, તેથી સ્ત્રીને પણ ધર્મોપકરણ સિવાયની વસ્તુઓમાં સમાવેશ થાય છે, તે કારણે
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सुधा टीका स्था० ४ उ० १ सू० २८ जीवद्रव्यपरिणामनिरुपणम् ___ "सव्वेसु" इत्यादि-सर्वेषु ' खलु' वाक्याललारे, महाविदेहेषु भगवन्तोहिन्तश्चातुर्यामं धर्म प्रज्ञप्यन्ति-प्ररूपयन्ति, तद्यथा-' सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरणम्' इत्यारभ्य 'बहिर्दाऽऽदानाद्विरणम् ' इति पर्यन्तम् । ___ अत्राय विचार:-द्वाविंशतितीर्थङ्कराणां, महाविदेहकानां च चातुर्यामधर्मस्य, पूर्व-पश्चिमतीर्थङ्करयोस्तु पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा, सा च शिष्यापेक्षा भवति, वस्तुतस्तु सर्वेपामपि पश्चयामस्यैव धर्मस्य प्ररूपणा, यतः प्रथमतीर्थङ्करस्य साधव ऋजुजडाः, चरमस्य तु वक्र जडा भवन्तीति । प्रत्याख्यान करनेके लिये स्वतन्त्र प्रयास नहीं किया जाता है। क्योंकि वह प्रत्याख्येय प्राणातिपात आदिके नीतर आगत परिग्रह में अन्तभृत होजाने से प्रत्याख्येय स्वतः होजाती है। इस तरह प्राणातिपात चिरमण आदिकी चतुर्विधतासे धर्ममें गतुमिता है । ___ "सब्वेसु " इत्यादि-यहां " खलु" शब्द वाक्यालङ्कारमें प्रयुक्त है। समस्त महाविदेहों में भगवान अर्हन्तने इसी चातुर्याम धर्मकी प्ररूपणा की है। इसी बातको "सर्वस्मात्मातिपाताद विरमणम्-" से लेकर " यहि दानाद्विरमणम् " पद तक पुनः प्रकट किया है। यहां ऐसा विचार है-द्वाविंशति तीर्थङ्ककी और महावीदेहके तीर्थदूरोंको चातुर्याम धर्मकी तथा पूर्व पश्चिम तीर्थरोंकी पञ्चयाम धर्मकी प्ररूपणा है । यह ऐसी जो प्ररूपणा है वह शिव्यकी अपेक्षासे है ऐसा સ્ત્રીને પણ છોડવા ગ્ય કહી છે. આ રીતે તેમાં પ્રત્યાખ્યયતા સિદ્ધ થતી. હોવાથી તેના પ્રત્યાખ્યાન કરવાના સ્વતંત્ર પ્રયાસની આવશ્યકતા રહેતી નથી, કારણ કે પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ ચાર યામોમાં જે પરિગ્રહ વિરમણ નામનું ચોથું વ્રત છે તેમાં મૈથુન વિરમણને પણ સમાવેશ થાય છે. આ રીતે પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિની ચતુર્વિધતાને લીધે ધર્મમાં ચતુર્યામતા જ छे. “ सव्वेसु" त्याहि मी 'मयु' श६ ११४ima४१२म १५२॥2॥ छे સમસ્ત મહાવિદેહમાં અહંત ભગવોએ આ ચતુર્યામ ધર્મની જ પ્રરૂપણું ४३ छ, मे वात "सर्वस्मात्प्राणातिपाताद् विरमणम् " थी सघन " बहिर्कीदनाद्विरमण ” मी सुधीना सूत्रा8 an ३१ ५४८ ४॥ छे. પહેલા અને છેલ્લા થિક સિવાયના બાવીસ તિર્થકોએ અને મહાવિદેહના તીર્થ કરોએ ચાતુર્યામ ધર્મની પ્રરૂપણા કરી છે, પરંતુ પહેલા તીર્થકર આદિનાથ અને છેલલા તીર્થ કર મહાવીર પ્રભુએ પંચયામ ધર્મની પ્રરૂપણ કરી છે, એવી આ જે પ્રરૂપણ છે તે શિષ્યની અપેક્ષાએ સમજવી જોઈએ, વાસ્તવમાં
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स्थानास्त्र ___तथाहि-प्रथमस्य जिनस्य साधव ऋजुजडा इति प्रकृत्या ऋजवो भद्राः, बुद्धया तु जडा:-मन्दा इति तेषां धर्मस्यावबोधा दुर्लभः । चरमजिनस्य तु वक्रजहाः, प्रकृत्या वक्राः, बुद्धथा तु जडा इति तेषां धर्मस्य पालनं दुष्करम् । अजितादिद्वाविंशतिजिनानां साधव ऋजुपाज्ञाः, प्रकृत्या ऋजवः बुद्धया प्राज्ञा इति तेषां धर्मस्याववोधः पालनं च द्वयमपि सुकर भवतीति धर्मा द्विविधः प्रोक्तः। तदुक्तं च
"पुरिमा उज्जुनडा उ वक्कनडा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मे दुहा कए। १ । पुरिमाणं दुबिसोज्ज्ञो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झो सुपालओ।२।" छाया--" पूर्वा अजुजडास्तु वक्रजडाश्च पश्चिमा।
मध्यमा ऋजुप्राज्ञास्तु तेन धर्मो द्विधा कृतः ।। पूर्वेषां दुर्विंशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः ।
कल्पो मध्यमकानां तु सुविशोध्यः सुपालकः २।" इति, मु.२८॥ जानना चाहिये, वास्तवमें तो सबही तीर्थङ्करोने पञ्चयामही धर्मकी प्ररूपणाकी है । क्योंकि-प्रथम तीर्थङ्करके साधु ऋजु जड थे, इसका भाव यह है कि वे प्रकृतिसे ऋजु-भद्र थे और बुद्धिसे जड थे, मन्द थे, इसलिये उनको धर्मका अवयोध दुर्लभ था, तथा चरम जिनके साधु प्रकृतिसे वक्र थे और बुद्धिसे जड थे, अतः उन्हें धर्मका पालन दुष्कर था । २२ तीर्थङ्करोंके अजितादि भगवन्तोंके साधु ऋजु-प्राज्ञ थे, प्रकृतिसे ऋजु और बुद्धिसे प्राज्ञ निपुण थे, इसलिये उनको धर्मका ज्ञान और उसका पालन ये दोनोंभी सुकर थे। इसलिये धर्म दो प्रकार का कहा गया है। कहाभी है-" पुरिमा उज्जु जडाउ" इत्यादि । सू० २८॥ તે સઘળા તીર્થકરેએ પંચયામ ધર્મની જ પ્રરૂપણ કરી છે. કારણ કે પહેલા તીર્થકરના સાધુ કાજુ જડ હતા, એટલે કે તેઓ પ્રકૃતિની અપેક્ષાએ કાજુ (ભદ્ર-સરળ) હતા પણ બુદ્ધિની અપેક્ષાએ જડ (મંદ બુદ્ધિવાળા) હતા, તે કારણે તેમને ધર્મને અવધ થે દુર્લભ હતા અન્તિમ તીર્થ કરના સાધુઓ પ્રકૃતિની અપેક્ષાએ વક અને બુદ્ધિની અપેક્ષાએ જડ હતા, તેથી તેમને માટે પણ ધર્મ પાલન દુષ્કર હતું. પરન્તુ વચ્ચેના અજિતાદિ ૨૨ તીર્થંકર ભગવન્તના સાધુઓ જુ પ્રકૃતિવાળા અને તીવ્ર બુદ્ધિવાળા એટલે કે જુ પ્રાજ્ઞ હતા. તેથી તેમને માટે ધર્મનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવાનું કાર્ય તથા ધર્મ પાલનનું કાર્ય સુલભ હતું તેથી જ ધર્મના બે પ્રકાર પણ કહ્યા છે-(૧) ચતુર્યામ ધર્મ •म (२) ५'ययाम यम. यु ५ छ -“पुरिमा उज्जु जडाउ" त्याहि ॥ सू. २८ ॥
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सुधा डीका स्था० ४०१ सू० २९ दुर्गतिसुगत्यादिभेदनिरूपणम्
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अनन्तरोक्त प्राणातिपातादिभ्योऽनुपरतोपरतानां दुर्गतिः सुगतिश्च भवति, तद्वन्तश्च ते दुर्गताः सुगता भवन्तीति दुर्गतिसुगत्यात्मक परिणामयो दुर्गतसुगतानां च भेदान् निरूपयितुं सूत्रचतुष्टयमाह
मूलम् - चत्तारि दुग्गईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - णेरइयदुग्गई १, तिरिक्खजोणियदुग्गई २, मणुस्सदुग्गई ३, देवदुग्गई ४, १ चत्तारि सुग्गईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - सिद्धसुग्गई १, देवसुई २, मसुरई ३, सुकुलपच्चायाई ४, २ ।
चत्तारि दुग्गया पण्णत्ता, तं जहा - रइयदुग्गया १, तिरिक्खजोणिय दुग्गया २, मणुस्सदुग्गया ३, देवदुग्गया ४, ३।
चारि सुग्गया पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धसुग्गया १, जाव सुकुलपच्चायाया ४ । सू० २९ ।
छाया -- चतस्रो दुर्गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकदुर्गति: १, तिर्यग्योनिकदुर्गतिः २, मनुष्य दुर्गतिः ३ देवदुर्गतिः ४, १
अनन्तरोक्त प्राणातिपात आदिकोंसे उपरत हवे मनुष्यों की सुगति होती है और नहीं उपरत हुवे मनुष्यों की दुर्गति होती है, इस सुगतिवाले जीव सुगत और दुर्गति वाले जीव दुर्गत कहलाते हैं । इसलिये अब सूत्रकार दुर्गति और सुगति रूप परिणामोंके एवं दुर्गत और सुगतोंके भेदों का निरूपण चार सूत्रोंसे करते हैं। " चत्तारि दुग्गईओ पण्णताओ " इत्यादि ।
सूत्रार्थ - दुर्गतियाँ चार कही गई हैं, जैसे नैरयिक दुर्गति १, तिर्ययोनिक दुर्गति २, मनुष्य दुर्गति ३, और देव दुर्गति ४ ।
પ્રાણાતિપાત આદિના પરિત્યાગ કરનાર મનુષ્યા દ્રુતિમાં જાય છે, તેથી સુગતિવાળા જીવને સુગત અને દ્રુતિવાળા જીવને દુગત કહે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર દુર્ગંતિ અને સુગતિ રૂપ પરિણામેાના ભેદ્યનુ અને દ્રુત અને સુગતના ભેદોનું નિરૂપણુ ચાર સૂત્રેા દ્વારા કરે છે.
" चत्तारि दुग्गईओ पण्णत्ताओ " त्याहि
सूत्रार्थ-दुर्गंति यार उही छे – (1) नैरयिङ हुर्गति, (२) तिर्यग्योनिङ दुर्गति, (3) मनुष्य दुर्गति, मने (४) देव दुर्गति,
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स्थानात्रे
चतस्रः सुगतयः प्रज्ञप्ताः, तचथा - सिद्ध सुगतिः १, देवसुगतिः २, मनुष्यसुगतिः ३, सुकुलप्रत्यायातिः ४, २
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चत्वारो दुर्गताः प्रज्ञताः, तद्यथा - नैरयिकदुर्गताः १, तिर्यग्योनिकदुर्गताः २, मनुष्य दुर्गताः २, देवदुर्गताः ४ श
चत्वारः सुगताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सिद्धसुगताः १ यावत् सुकुल प्रत्यायाताः ४, ४ । सु० २९ ।
टीका - - " चत्तारि दुग्गगईओ " इत्यादि, सुगमं, नवरं दुष्टाः - निन्दिता गतयो दुर्गतयः, ताश्चतस्रः प्रतप्ताः, तद्यथा - नैरयिकदुर्गतिः = निरये - नरके भवा नैरयिका जीवाः तत्सम्बन्धिनी दुर्गतिः । १, “ तिर्यग्योनिकदुर्गतिः " - सुकरा दियोनिजन्मापेक्षया विज्ञेया २| " मनुष्य दुर्गतिः- कुमनुष्यापेक्षया घोध्या ३, " देवदुर्गतिः " - किल्विषिकादिदेवापेक्षया वोध्या ४, १
सुगतियाँ चार कही गई हैं, जैसे- सिद्ध सुगति ९, देव सुगति २, मनुष्य सुगति ३, और सुकुल प्रत्यायानि ४-२
चार दुर्गत कहे गये हैं, जैसे- नैरयिक दुर्गत १, तिर्यग्योनिक दुर्गत २, मनुष्य दुर्गत ३, और देव दुर्गत ४ ।
चार सुगत कहे गये हैं, जैसे- सिद्ध सुगत १, यावत् सुकुल प्रत्या
यात ४-४ ।
विशेषार्थ निन्दित जो गतियां है वे दुर्गतियां है, इनमें नैरयिक सम्बन्धिनी जो गति है यह नैरयिक दुर्गति है। सूकर आदि योनिमें जन्म धारण करनेकी अपेक्षा तिर्यग्योनिक दुर्गति है । मनुष्यकी अपे क्षासे मनुष्य दुर्गति है, तथा किल्थिषिकादि देवोंकी अपेक्षासे देव
यार सुगति उही छे – (१) सिद्ध सुगति, (२) देव सुगति, (3) मनुष्य सुगति भने (४) सुटुन प्रत्यायाति.
यार दुर्गत उद्या छे – (१) नैरथिङ दुर्गत, (२) तिर्यग्योनिङ दुर्गत, (3) मनुष्य हुर्गत अने (४) देव दुर्गत
थार सुगत उह्या छे (१) सिद्ध सुगत, (२) देव सुगत, (3) मनुष्य સુગત અને (૪) સુકુલ પ્રત્યાયાત સુગત
વિશેષા—જે ગતિયા નિશ્વિત છે, તેમને દુ॰તિ કહે છે. નૈરિયક સંખ"ધી જે ગતિ છે તેને નૈયિક દુતિ કહે છે. સૂકર ( સૂવર ) આદિ ચેનિમાં જન્મ ધારણ કરવાની અપેક્ષાએ તિય ચૈાનિને દ્રુતિરૂપ કહી છે.
અક ભૂમિ આદિમાં જન્મની અપેક્ષાએ મનુષ્યમતિને પણ દુગ'તિરૂપ કહી છે. કિવિષિકાઢિ દેવામાં જન્મની અપેક્ષાએ દેવગતિને પણુ ક્રુતિરૂપ કહી છે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सु०२९ दुर्गतिसुगत्यादिपरिणामनिरूपणम् ५५३
" चत्तारि सुग्गईओ" इत्यादि-सुष्टु-प्रशस्ता गतयः सुगतयस्ताश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सिद्धसुगतिः-सिद्धपदप्राप्तिरूपा सुगतिः १, " देवसुगतिः "= इन्द्रत्वादिप्राप्तिरूपा मुगतिः २, “ मनुष्य सुगतिः "-कर्मभूम्यायदेशभवमनुनत्वमाप्तिलक्षणा सुगतिः ३, सुकुलप्रत्यायातिः-सु-सुष्ठु-प्रशस्तं च तत् कुल च मुकुलम्-इक्ष्वाकुप्रभृतिवंशस्तत्र देवलोकादितः प्रत्यायातिः-मनुष्यरूपेण प्रत्यागमनम् , ननु मनुष्यसुगतिरेवोच्यतां तत्रैव सुकुलमत्यायातेरपि मनुष्यसुगतित्वेनान्तर्भावः स्यादेव मृकुलप्रत्यायातेः पृथगुपादानं किमर्थमिति चेदत्रोच्यते-मनुध्यसुगतिश्च कर्मभूम्यायेदेशभवमनुजत्वरूपा, सा च साधारणजीवानामपि भवति, दुर्गति है ४-१ । प्रशस्त गतियोंका नाम सुगतियां है। जैसे-सिद्ध सुगति आदि सिद्धपद प्राप्तिरूप जो गति है वह सिद्ध सुगति है। इन्द्रत्वादि पद प्राप्तिरूप जो गति है वह देव सुगति है २ । कर्मभूमिमें अवतरित होकर आर्य देशमें मनुष्यभवकी प्राप्ति होना यह मनुष्य सुगति है। इक्ष्वकु आदि वंशमें देवलोकसे अवतरित होकर जो मनुष्यरूपसे जन्म प्राप्त होता है वह-सुकुल प्रत्यायाति है।। , शङ्का--मनुष्य सुगतिमें ही सुकुल प्रत्यायातिका अन्तर्भाव होजाता है, क्योंकि-सुकुल प्रत्यायाति मनुष्य सुगति रूपही होता है, अतः इसका पृथक् कथन क्यों किया ३-९।
उ०--इस शङ्काका समाधान ऐसा है कि मनुष्य सुगति कर्मभूमिके आय देशमें मनुष्यभव ग्रहण करने रूप है, अत:-यह मनुष्य सुगति साधारण जीवोंको भी होती है। किन्तु-सुकुलप्रत्यायाति तीर्थङ्कर
પ્રશસ્ત ગતિએનું નામ સુગતિ છે, તેના ચાર પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ – સિદ્ધપદ પ્રાપ્તિરૂપ જે ગતિ છે, તેનું નામ સિદ્ધ સુગતિ છે. ઈદ્રવ પદ પ્રાણિરૂપ જે ગતિ છે તેનું નામ દેવ સુગતિ છે. કર્મભૂમિમાં અવતરિત થઈને આ દેશમાં મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ થવી તેનું નામ મનુષ્ય સુગતિ છે. દેવકમાંથી
વીને ઈક્વાકુ આદિ ઉત્તમ વંશમાં મનુષ્ય રૂપે જે જન્મ પ્રાપ્ત થાય છે તેને સુકુલ પ્રત્યાયાતિ કહે છે
શંકા–સુકુલ પ્રત્યયાતિને મનુષ્ય સુગતિમાં સમાવેશ થઈ જાય છે, કારણ કે સુકુલ પ્રત્યાયાતિ મનુષ્ય સુગતિ રૂપ જ હોય છે છતાં અહીં તેમને અલગ અલગ સુગતિરૂપ શા માટે કહેલ છે? - ઉત્તર–મનુષ્ય સુગતિ કર્મભૂમિના આર્ય દેશમાં મનુષ્યભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ હોય છે, તેથી સાધારણ છે પણ તેની પ્રાપ્તિ કરી શકે છે. પરંતુ
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दथामाङ्गसूत्रे
सुकुलपत्यायानि विशिष्टपरूपाणां तीर्थङ्करप्रभृतीनामेव भवति न साधारणानामिति मनुष्यगतितः सुकुलप्रन्यायातिर्भिन्नेति प्रत्येतव्यम् |४| २|
' चत्तारि दुग्गया " - दुर्गतिरस्त्येपामिति दुर्गताः दुर्गतिमन्त इत्यर्थः, ते चन्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - नैरयिक दुर्गताः - नैरयिकरूपेण दुर्गता नरकजीवा इत्यर्थः १, तिर्यग्योनिकदुर्गताः - मुकरादियोनिगताः २, मनुजदुर्गताः - रोगादिग्रस्तस्याद् नीच कुलोत्पन्नत्वाद्वा ३ देवदुर्गताः = किल्बिपिकादिरूपत्वात् ४ | ३ | " चत्तारि सुगया " इत्यादि - सुगवा :- सुगतिप्राप्ताः सुस्था वा, रो चलानः प्रजप्ताः तद्यथा - सिद्धमरूपेण सगताः । इत्यारभ्य
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आदि जसे विशिष्ट जीवों को ही होता है, साधारण जीवों को नहीं, इस तरह सुकुल प्रत्यायाति मनुष्य सुगनिसे भिन्न है ऐसा जानना चाहिये ४-२ ।
"बत्ती दुग्नना " इत्यादि - दुर्गति है जिन जीवों को वे दुर्गतहैं, अर्थात् दुर्गतिवाले जो जीब हैं वे दुर्गत हैं। ये दुर्गन नैरथिक दुर्गत
अधिके भेइसे जो चार प्रकार के कहे गये हैं, उनका तात्पर्य ऐसा है जो 請 रूपसे दुर्गनिवाले हैं कि दुर्गन हैं । शूकर आदि
रहें हुये
हैं। वादपे ग्रस्त होने के कारण
अथवा-नीच कुत्र में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य जीव मनुष्य दुर्गत । किल्पिक आदि पर्याय में रहे हुवे जोव देव दुर्गन हैं ।
16 'चन्तारि गया " इत्यादि - सुगति प्राप्त अथवा सुस्थ जो जीव हैं वे सुगन हैं, जैसे- सिद्ध सुगन आदि । इनमें जी सिद्धरूपसे सुगनिको प्राप्त हैं वे सिद्ध सुगत हैं, यहां यावत् पदसे देव सुगत - मनुष्य
સુકુલ-પ્રત્યાયાતિને સભાત્ર તેા તીર્થંકર આદિ વિશિષ્ટ શકે છે-સાધારણ જીવામાં સંભવી શકતા નથી અને મનુષ્ય સુગતિમાં ભિન્નતા સમજવી.
આ चत्तारि दुग्गया
દુગતિવાળા જે જીવા છે તેમને દુર્ગંત કહે છે. તેના નૈયિક હુ ત ઞાદિ જે ચાર ભેદ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-જે જીવ નૈરિયક રૂપ દુતિવાળા છે તેને નૈયિક દ્રુત કહે છે સૂવર આદિતિય ગ્યાનિક ક્રુતિવાળા જીવને તિગ્યેાનિક દ્રુત કહે છે. રાગાથિી ગ્રસ્ત થવાને કારણે અવા નીચ કુળમાં ઉત્પન્ન થવાને કારણે મનુષ્ય જીવ પણુ મનુષ્ય દુ ́ત હાઈ શકે છે. ત્રિવિર્ષિક આદિ પર્યાયમાં રહેલા દેવાને દેવ દુષ્ટત કહે છે.
.
" चत्तारि सुग्गया
" इत्यादि - सुगतिमां गयेसा लवाने सुगत हे छे. તેના સિદ્ધ સુરત આદિ ચાર પ્રકાર છે. સિદ્ધરૂપ સુગતિ જેમણે પ્રાપ્ત કરી
જીવેામાં જ સંભવી રીતે સુકુલ પ્રત્યાયાતિ " इत्यादि
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सुंधा ठीका स्था० ४ उ० भ०३० क्षयपरिणामक्रमनिरूपणम् ५५५ ___" जाव सुकुलपञ्चायाया” इति-' यावत् सुकु प्रत्यागानाः ' पन्त पठनीयम् तथा च-देवसुगताः २, मनुनसुगताः ३ सुकुजप्रत्यायानाः ४, एण व्याख्या सुबोधेति । म० ३९ ॥
अनन्तरं सिद्धमुगता उक्ताः, ते चाष्टविधकर्मक्षयाद्भवन्तीति क्षयपरिणामस्य क्रमं निरूपयितुमाह-- - मूलम्-पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति--णाणावरणिज्ज १, दसणावरणिज्जं २, मोहणिजं, ३, अंतराइयं ॥१॥
उप्पण्णणाणदंप्तणधरे णं अरहाजिणे केवली चत्तारि कम्मंसे वेदेइ, तं जहा- वेयणिज्जं १, आउयं २, णामं ३,. गोत्तं ४, २॥
पढमसमयसिद्धस्म णं चत्तारि कम्म जुग जिति तं जहा--वेयणिनं १, आउयं २, णामं ३, गात्तं ४. ३ : सू. ३
छागा--प्रथमलमयनिय खलु चत्वारः कर्मा शाः क्षीणाः भवान्त- ज्ञाना उंऽवरणीयं १, दर्शनाऽऽरमी , हीमा २, गान्तमाणिकम् ४ १। सुगत इन दोनों लुगनोंका ग्रहण हुवा है। इन दोकी ओर-सुकुल प्रत्यायात इसकी व्याख्या सुगम है ।। मु० २९ ॥
कथित सिद्ध स्तुगत अष्टविध कर्मके क्षयसेही होते हैं अत:-अय सूत्रकार क्षय परिणामका क्रम निरूपण करते हैं।
"पढमसमयमिणमा ण चतारि कम्मंसा । मदि
प्रथम समय जिनके चार कर्मा श क्षीण होते हैं, जो इस प्रकार से हैं। છે, તેમને સિદ્ધ સુગત કહે છે. અહીં “યવત્ ” પકથી દેવ સુગન અને મનુષ્ય સુગત ગ્રહણ કરવા જોઈએ આ બને પદને તથા સુકુલ પ્રત્યાય તને ભાવાર્થ સુગમ હોવાથી અહીં તેમનું વધુ વિવેચન કર્યું નથી કે સૂ ૨૯ છે
ઉપરના સૂત્રમાં સિદ્ધ અગતની વાત કરવામાં આવી છે આઠે પ્રકારના કર્મોનો ક્ષયથી જ જીવ સિદ્ધ સુગત બની શકે છે તેથી હું સૂન ૨ ક્ષય परिणामना भनु नि३५५५ ४२ छ- 'पढमसमर्याजणस ण चत्तारि कम्मसा" त्या:સૂત્રા-પ્રથમ સમય જિનને ચાર કર્માશે ક્ષીણ થાય છે. તે ચાર કર્માનાં
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स्थाना उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः खलु अर्हन जिनः केवली चतुरः कर्मा शान् वेदयति, तद्यथा-वेदनीयम् १, आयुष्कं २, नाम ३, गोत्रम् ।। २।।
प्रथमसमयसिद्धस्य खलु चत्वारः कर्मा शाः युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा-वेदनीयम् १, आयुष्कं २, नाम ३, गोत्रम् ४ । मू० ३० ॥
टीका--" पढमसमयजिणस्से ”-त्यादि-प्रथमः समयो यस्यासौ प्रथमसमयः, स चासौ जिनश्चेति प्रथमसमयजिनः-सयोगिकेवली, तस्य प्रथमसमयजिनस्य चत्वारः चतुष्प्रकारा:-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीयाऽन्तराय- . रूपाः कर्मा शाः-कर्मणः-सामान्यस्य अंशाः-भेदा इति कर्मा शाः, क्षीणा भवन्ति । ___ " उत्पन्नज्ञाने" - त्यादि- उत्पन्ने--आवरणक्षयात्प्रकटीभूते च ते ज्ञान-- दर्शने चेत्युत्पन्नज्ञानदर्शने तयोर्धरः- धारक इति तथाभूता-विशेषसामान्य वोधलक्षणज्ञानदर्शनधारकः, अर्हन , जिनः केवली चतुरः कर्मा शान् वेदयति-अनुज्ञानावरणीय १, दर्शनावरणीय २, मोहनीय ३ और अन्तरायिक ४ । उत्पन्न हवे ज्ञान और दर्शनको धारण करनेवाला अहंन्त जीन केवली चार कर्मा शोंका वेदन करता है। जैसे-वेदनीय १, आयुष्क २, नाम ३
और गोत्र ४-२। ___टीकार्थ-प्रथम समय सिद्धके चार कर्माश एक साथ क्षीण होते हैं, जसे-वेदनीय, आयुष्क, नाम और गोत्र-४ प्रथम समय है जिसका ऐसा जो जिन है वह प्रथय समय जिन है, ऐसा वह संयोगी केवली होता है । इस प्रथम समय जिनके चार प्रकारके कांश क्षीण होते हैं, जैसे-ज्ञानावरणीय १, दर्शनावरणीय २, मोहनीय ३, आन्तरायिक ४ । सामान्य कर्मके जो भेद हैं वे कर्माश हैं । आवरणके क्षयसे प्रकटीभूत जो ज्ञान और दर्शन हैं, इनका धारक अहन्त केवली जिन नाम मा प्रभारी छ-(१) ज्ञाना१२५वीय, (२) शना१२९य, (3) भाडनीय અને (૪) અત્તરાયિક. ઉત્પન્ન થયેલા જ્ઞાન અને દર્શનને ધારણ કરનાર અર્પિત निसी नीयना या२ शिनु वेहन ४२ छ-(१) वहनीय, (२) मायु, નામ અને (૪) શેત્ર પ્રથમ સમય સિદ્ધના નીચેના ચાર કર્માશે એક સાથે क्षीय थाय छ-(१) वहनीय, (२) मायु, (3) नाम भने (४) मात्र ( વિશેષાર્થ-જિનપદની પ્રાપ્તિનો પ્રથમ સમય જેને છે એવા જિનને પ્રથમ સમય જિન કહે છે સગી કેવલી એવા પ્રકારમાં ગણી શકાય છે, તે પ્રથમ સમય જિનના આ ચાર પ્રકારના કર્મા શોને ક્ષય થાય છે--(2) ज्ञाना१२६ीय, (२) इश ना१२७॥य, (3) भाडनीय अ२ (४) सान्तयि. સામાન્ય કર્મના જે ભેદ છે તેમનું નામ કમ શ છે. આવરણના ક્ષયને કારણે પ્રકટ થયેલા જ્ઞાન અને દર્શનના ધારક અહંત જિન કેવલી નીચેના ચાર
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सुंधा टीका स्था०४३० सू० ३० क्षयपरिणामक्रमनिरूपणम् भवति, तद्यथा-वेदनीयम्-वेद्यते यत्तत्तथा १, आयुष्कम् २, नाम-परं प्रति पदार्थबोधनाय संज्ञा, तच्च कार्य, तस्य कारणं कर्मेति कार्य-कारणयोरभेदोपचारानामापि कर्म ३, तथा-'गोत्रम्" इक्ष्वाकुसम्बन्ध्यादिकुलं, तच्च काय, तस्य कारणं कर्मेति कार्य-कारणयोरत्राप्यभेदोपचाराद् गोत्रं कर्म भवति ।४।२। ___" प्रथमसमयसिद्धस्ये "-त्यादि-प्रथमसमयसिद्धस्य युगपत् चत्वारि पूर्वी तानि कर्माणि क्षीयन्ते क्षयं यान्ति, यस्मिन् समये सिद्धता भवति तस्मिन्नेव समये कर्मक्षयोऽपि भवतीति सिद्धत्व-कर्मक्षययोयौंगपद्यसम्भवादिति ।३। सू०३०। चार कर्मा शोंका वेदन करता है । अनुभव करता है, जैसे-वेदनीय आदि जो वेदन किया जाता है, वह वेदनीय है । अर्थात्जिससे जीवोंको सुख-दुःखका अनुभव होता है वह कर्म वेदनीय कर्म है। जिससे भव धारण होता है वह आयुष्क है। दूसरोंको पदार्थ समझानेके लिये जो संज्ञा की जाती है वह नाम कर्म है । यहां नामको कर्म कहा है, कार्य कारणमें अभेदके उपचारसे हैं, तात्पर्य ऐसा है कि विशिष्ट गति-जाति आदिकी प्राप्ति जिससे जीवको होती है वह नामकर्म है । इक्ष्वाकु सम्बधी आदि जो कुल हैं, ये कुल जिसके कार्य हैं इसका जो कारण कर्म है वह कार्यकारणमें अभेद उपचारसे कहा है ४-२। प्रथमसमपसिद्धस्थ-इत्यादि । प्रथम समय सिद्धके (एक) साथ चार पूर्वोक्त कर्म नष्ट होते हैं, ऐसा कहने का तात्पर्य है । जिस उभाशानुं वहन अरे --(१) वहनीय, (२) मायु०४, (3) नाम भने (४) गोत्र જેનાથી જીવોને સુખદુઃખને અનુભવ થાય છે તે કર્મનું નામ વેદનીય કર્મ છે. જે કર્મને લીધે ભવધારણ કરે પડે છે તે કમને આયુષ્ક કર્મ કહે છે. અન્યને કઈ પદાર્થ સમજાવવા નિમિત્તે જે સંજ્ઞા કરાય છે તેનું નામ નામકર્મ છે. અહીં કાર્ય કારણમાં અભેદપચારની અપેક્ષાએ નામને કર્મ કહ્યું છે. એટલે કે વિશિષ્ટ ગતિ-જાતિ આદિની પ્રાપ્તિ જેના દ્વારા જીવને થાય છે, તે કર્મને નામકર્મ કહે છે ઈવાકુ આદિ કુળની પ્રાપ્તિ થવાના કારણભૂત જે કમ છે તેને ગોત્ર કર્મ કહે છે કાર્યકારણમાં અભેદેપચારની અપેક્ષાએ અહીં તેને ગોત્રકર્મ રૂપે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે.
"प्रथमसमयसिद्धस्स" त्याम
પ્રથમ સમય સિદ્ધના ઉપર્યુક્ત ચાર કર્માશે એક સાથે નષ્ટ થાય છે, એટલે કે જે સમયે સિદ્ધત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે એ જ સમયે કર્મક્ષય પણ
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स्थानाङ्गसू
'
उक्ताः सिद्धाः, तद्विपरीता असिद्धाः तेषां हास्यादयो विकारा भवन्तीति हास्यकारणानि निरूपयितुमाह
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मूलम् - चउहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती लिया, तं जहा - पासित्ता १, भासेत्ता २, सुणेत्ता ३, संभरेत्ता । । सू० ३१ ॥
छाया - चतुर्भिः स्थानैः हासोत्पत्तिः स्यात् तद्यथा दृष्ट्वा १, भाषिया २, श्रुत्वा ३, स्मृत्वा । सू० ३१ ॥
टीका - " चउहिं " इत्यादि - चतुर्भिः - चतुःसंख्यैः स्थानैः दासोत्पत्तिः स्यात्, तद्यथा-दृष्ट्वा - हास्यजनकभाण्ड विदूषकप्रभृतिचेष्टां निरीक्ष्य हास्योत्पत्तिर्भवति १। तथा-भाषित्वा -हास्यजनकं स्वपरवचनमुक्त्वा हास्योत्पत्तिः स्यात् २। तथाश्रुत्वा - परोदितं हास्यजनकं वचनं कर्णगोचरीकृत्य हास्योत्पत्तिः स्यात् ३। तथास्मृत्वा - विदूषकादिचेष्टावाक्यप्रभृति चिन्तयित्वा हास्योत्पत्तिः स्यादिति । एवं च दर्शन - भाषण - श्रवण-स्मरणानि हास्यकारणानि भवन्तीति पर्यवसितोऽर्थः ४ | सू० ३१ । समय में सिद्धता होती है उसी समय में कर्मक्षय भी होता है, इससे सिद्धत्व और कर्मक्षयमें यौगपद्य सम्भव होता हैं ॥ म्रु०३० ॥
सिद्धोंसे विपरीत असिद्ध होते हैं और इनको हास्यादि विकार होते हैं, अतः - अब सूत्रकार इन हास्यादिक विकारोंके कारणों का निरू पण करने के लिये सूत्र कहते हैं ।"चउहिँ ठाणेहिं हासुप्पत्ती" इत्यादि -
चार कारणोंसे हास्यकी उत्पत्ति होती है, जैसे- हास्यजनक भाण्ड विदूषक आदि जनोंकी चेष्टाको देखकर -१ हास्यजनक भाषाका प्रयोगकर - २ दूसरोंके द्वारा कथित हास्यजनक वचनको सुनकर -३ और विदूषक आदिकोंकी चेष्टाओंको वा उनके वाक्योंको याद कर हास्यकी
થાય છે. આ રીતે સિદ્ધત્વ અને કક્ષયમાં યુગપત્તા ( એકી ભાવ) અને એક સાથે થવાને કારણે સભવી શકે છે. ! સુ ૩૦ ॥
27
સિદ્ધ કરતાં વિપરીત હોય એવાં જીવને અસિદ્ધ કહે છે. અસિદ્ધ જીવેામાં હાસ્યાદિક વિકારાને સદ્ભાવ હોય છે તેથી હવે સૂત્રકાર તે હાસ્યાहि विप्रशनां अरथेोनु नि३पशु खा भाटे " चउहिं ठाणेहिं हात्ती ઇત્યાદિ સૂત્રનુ` કથન કરે છે—નીચેના ચાર કારણેાને લીધે હાસ્યની ઉત્પત્તિ धाय छे -- (१) विद्वप माहिनी हास्य येष्टाओ लेवाथी, (२) हास्य न ભાષાના પ્રયેાગ કરવાથી, (૩) અન્યના દ્વારા કથિત હાસ્યજનક વચનેાનું શ્રવણુ કરવાથી અને (૪) વિદૂષક આદિની ચેષ્ટાઓને કે તેમનાં વાકયાને યાદ
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सुधा टीका स्था०४ उ०१ सू०३२ सदृष्टान्तदार्शन्तिकपूर्वकमन्तरसूत्रम् दृष्टान्तदाष्टन्तिम दर्शनपूर्वकमन्तरसूत्रमाह
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मूलम् - चउठिवहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा- कांतरे १, पम्हंतरे २ लोहंतरे ३, पत्थरंतरे ४ | एवामेव पुरिसस्स वा इत्थिए वा चउव्विहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा - कट्टंतरसमाणे १, पम्हंतरसमाणे २, लोहतरमाणे ३, पत्थंतरसमाणे ४ । सू० ३२ ।
छाया - चतुर्विधमन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - काष्ठान्तरं १. पक्ष्मान्तरं २, लोहान्तरं ३, प्रस्तरान्तरम् ४। एवमेव पुरुषस्य वा स्त्रिया वा चतुर्विधमन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - काष्ठान्तरसमानः १, पक्ष्मान्तरसमानः २, लोहान्तरसमानः ३, प्रस्तरान्तरसमानः । सू० ३२ ॥
टीका - " चउबिहे अंतरे " इत्यादि - चतुर्विधमन्तरं - भेदः, मज्ञप्तम्, तद्यथाकाष्ठान्तरं -काष्ठयोरन्तरं यथा-एकं चन्दनादिरूपम् अन्यद् वर्बुरादिरूपम् १, पक्ष्मान्तरं - यथा - एकं पक्ष्म - अर्कतूलादिरूपमपरमुष्ट्राजादि पक्ष्म ( रोम ) रूपम् उत्पत्ति होती है, इस तरह दर्शन भाषण श्रवण स्मरण ये हास्य कारण होते हैं || सू० ३१ ॥
अब सूत्रकार दृष्टान्त दान्तिक प्रदर्शक अन्तर सूत्रका कथन करते हैं। चच्चिहे अंतरे पण्णत्ते " इत्यादि
अन्तर चार प्रकारका कहा गया है। जैसे-काष्ठान्तर १, पक्ष्मान्तर २, लोहान्तर ३, और प्रस्तरान्तर ४ । भेदका नाम अन्तर है । दो काष्ठोंके जो अन्तर है वह काष्ठान्तर है, जैसे-एक बबूल वगैरहका काष्ट और चन्दन आदि वृक्षका अन्तरही काष्ठान्तरसे यहां गृहित हुवा है | पक्ष्मકરવાથી આ રીતે દર્શન, ભાષણ, શ્રવણુ અને સ્મરણુરૂપ ચાર કારણેાથી હાસ્ય उत्पन्न थाय छे. ॥ सू ३१ ॥
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હવે સૂત્રકાર દૃષ્ટાન્ત અને ક્રાન્તિકના પ્રદેશ નપૂર્વક અન્તરસૂત્રનું કથન मुरे " चउव्विद्दे अंतरे पण्णत्ते " इत्यादि
अ ंतरना नीथे प्रभारी यार अअर उद्या छे -- (१) अष्ठान्तर, (२) पक्ष्मा. ન્ત, (૩) લેાડાન્તર અને (૪) પ્રસ્તરાન્તર લેવુ' નામ અતર છે. એ કાણો વચ્ચેનું જે અતર છે તેને કાષ્ઠાન્તર કહે છે જેમકે માવળ આદિ વૃક્ષના અને ચન્દ્રનાદિ વૃક્ષના એ કાછો વચ્ચેના અંતરને અહીં કાણાન્તર કહેવામાં
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स्थानाशा २, लोहान्तर यथा-एको लोहः खङ्गादिरूपोऽन्यः किट्टरूपः ३, प्रस्तरान्तरं-यथा -एकः प्रस्तरः स्पर्शमण्यादिरूपाः, अपर ऊपर प्रस्तररूपः ।४। ____अथ दृष्टान्तमूत्रप्युक्त्वा दार्टान्ति कसूत्रमाह__ " एवामेव " इत्यादि-एवमेव-अनेनैव प्रकारेण पुरुषस्य वा स्त्रिया वा चतुर्विधमन्तरं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-काष्ठान्तरसमान:-अन्यत्काष्ठं काष्ठान्तरं तेन समानस्तुल्यः काष्ठान्तरसमानाबबुरादिभिन्नचन्दनसमानः सत्पुरुषः, चन्दनादिसिन्नवधू रसमानः कापुरुषादि यथा-एकः कश्चित् पुरुष औदार्यगाम्भीर्यादिगुणसम्पन्नत्वेन चन्दनादिसमानः, अन्यः परपीडनादिदुर्गुणवत्त्वेन वर्षुरादिसदृशः १, रोमको लेकर जो अन्तर आता है वह पक्षमान्तर है, जैसे-अर्कतूल आदिके रेशोने और उष्ट्र अजा आदिके रोमोंमें जो अन्तर है वह पक्ष्मान्तर है. २ । एक लोहा खड्डादिरूप होता है, दूसरा किट्टरूप होता है ऐसा लोहेका जो परस्परमें अन्तर है वह लोहान्तर है ३। प्रस्तरान्तर-पत्थरोमें जो अन्तर है वह प्रस्तरान्तर है, जैसे-एक प्रस्तर स्पर्श मण्यादि रूप होता है और दूसरा उपर प्रस्तररूप होता है । - इस प्रकारले दृष्टान्तमूत्र कहकर अव सूत्रकार दान्तिक सूत्र कहते हैं। " एवामेव" इत्यादि-इसी प्रकारसे पुरुषका और स्त्रीका अन्तर चार प्रकारका है । जैसे-जो सत्पुरुष है वह बबूल आदिसे भिन्न चानके समान है, तथा-जो कापुरुष-कायर है वह चन्दनादिसे भिन्न આવ્યું છે. પક્ષમ (રુવાંટી) વચ્ચેના અંતરને પક્ષમાર કહે છે. જેમકે આકડા આદિના રેસા અને ઊંટ, બકરી આદિની રુંવાટી વચ્ચે જે અંતર હોય છે તેને પક્ષમાન્તર કહે છે.
લેહાન્તર” એક લેતું ખડગરૂપ હોય છે અને બીજુ લેતું કટારરૂપ હોય છે, આ પ્રકારના લેઢાનું જે પરસ્પર વચ્ચેનું જે અંતર છે તેને લેહાન્તર કહે છે.
___ " प्रस्तरान्त२" प्रस्तरे। (५४) पथ्येनु२ मत२ छ तर प्रस्तरान्तर કહે છે. જેમકે જમીનનું એક પ્રસ્તર સ્પર્શમણિ આદિરૂપ હોય છે, તે બીજું પ્રસ્તર ઊષર પ્રસ્તરરૂપ હોય છે.
આ પ્રમાણે દૃષ્ટાન્ત સૂત્રનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર રાષ્ટ્રતિક સૂત્રનું ४थन ४२ 2-" एवामेव " त्याहि--
એ જ પ્રમાણે પુરુષનું અને સ્ત્રીનું અંતર પણ ચાર પ્રકારનું હોય છે. (૧) જે પુરુષ હોય છે તે બાવળ આદિથી ભિન્ન એવાં ચંદન સમાન હોય છે અને જે કપુરુષ હોય છે (કાયર પુરુષ) હોય છે તે ચંદનાદિથી ભિન્ન
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सुधा टीका स्था०४३०१ सू०३२ सदृष्टान्तदाष्टान्तिकपूर्वकमन्तरसूत्रम् ५६१
पक्ष्मान्तरसमानः पुरुषो यथा-एकः कश्चित् परमकारुण्यादिगुणत्वेनार्कतू. लादिसदृशः, अपरः कर्कशकठोरमकृतिकत्वेनोष्टाजादिपक्षमसदृशः २, लोहा न्तरसमानः पुरुषो यथा-एकः कश्चित् पुरुषः परीपहोपसर्गादिसहिष्णुत्वेन खड्गा दिलोहसदृशः अपरोभयकातरत्वादिमत्वेन किट्टलोहसदृशः ३,
प्रस्तरान्तरसमानः पुरुषो यथा-एकः कश्चित् पुरुष आमशोषध्यादि-लब्धि मत्त्वेन स्पर्शमणिसदृशः, अपरो दैन्यदारिद्रधादिमत्त्वेनोपरप्रस्तरसदृशः ४। एवं स्त्रिया अपि स्व्यन्तरमपेक्ष्यान्तरं बोध्यम् । सू० ३२ ॥ बबूलके समान है, तथा कोई एक पुरुष जो औदार्य आदि गुणोंसे सम्पन्न होता है वह चन्दनादिके समान है, और जो पीडनादि दुर्गुणोंवाला होता है वह बबूल आदिके जैसा होता है, इसलिये इन्हें काष्ठांतर समान कहा गया है । १ यह एक पुरुषका दूसरे पुरुषसे अन्तर कहा है, इसी प्रकारसे आगेभी जानना चाहिये।
" पक्ष्मान्तर समान"-वह पुरुष कहा गया है जो परम कारुण्यादि गुणवाला होता है ऐसा वह पुरुष अर्कतूलादि सदृश है, तथा-जो कर्कश कठोर प्रकृतिवाला होता है वह-उष्ट्र अजा आदिका पक्ष्म जैसा होता है २ । लोहान्तर समान वह पुरुष है जो परीषह और उपसर्ग आदिको सहनेमें सहिष्णु होता है ऐसा वह पुरुष खगादि लोहका जैसा होता है, दूसरा भयसे कातर आदि प्रकृतिवाला होता है ऐसा वह पुरुष किट लोह सदृश होता है ३ । प्रस्तरान्तर समान वह पुरुष है,
એવાં બાવળ સમાન હોય છે તથા કે ઈ એક પુરુષ જે ઔદાર્ય આદિ ગુણોથી યુવ હોય છે, તે ચંદન સમાન હોય છે, પણ જે પરપીડનાદિ દુર્ગથી યુક્ત હોય છે તે બાવળાદિના જેવું હોય છેઆ રીતે આ બને પુરુષ વચ્ચેના અંતરને કાષ્ટાન્તર સમાન કહેવામાં આવ્યું છે. આ રીતે એક પુરુષનું બીજા પુરુષથી અંતર ( બન્ને વચ્ચે તફાવત) પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે
પક્ષમાન્તર સમાન પુરુષ” જે પુરુષ કરુણ આદિ ગુણવાળો હોય છે તે અર્થતૂલાદિ સમાન ગણાય છે–એટલે કે આકડા વગેરેના રેસા સમાન ગણાય છે, પણ જે પુરુષ કઠેર હોય છે તેને ઊંટ, બકરી આદિનાં પક્ષમ (રામरुपाटी) समान गाय छे.
લેહાન્તર સમાન પુરુષ”—જે પુરુષ પરીષહ અને ઉપસર્ગ આદિ સહન કરવામાં સહિષ્ણુ હોય છે, એવા પુરુષને ખડગાદિ લેહ સમાન કહ્યો છે. જે પુરુષ પરીષહ, ઉપસર્ગ આદિ સહન કરવાને સમર્થ હોતે નથી, એવા કાયર સ્વભાવના પુરુષને કિટ્ટ લેહ સમાન કહ્યો છે,
या ७१
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स्थानागसूत्रे अनन्तरमन्तरं निरूपितम् , अधुना पुरुपविशेषान्तरं निरूपयितुं भृतकं सभेदं निरूपयितुमाह
मूलम्-चत्तारि भयगा पण्णत्ता, तं जहा-दिवसभयए १, जत्ताभयए २, ऊच्चत्तभयए ३, कब्बालभयए । सू० ३२ ॥
चंचारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--संपागडपडिसेवी णाममेगे णो पच्छन्नपडिलेवी १, पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे णो संपागडपरिसेवी २, एगे संपागडपडिसेवीवि पच्छन्नपडिसेवीवि ३, एगे णो संपागडपडिसेवी णो पच्छन्नपडिसेवी । सू० ३३ ॥ ___ छाया-चत्वारो भृतकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसभृतकः १, यात्राभृतकः २, उच्चताभृतका ३, कब्बाडभृतकः ४। सु० ३२ । जो आमर्श औषधि आदि लब्धियोंसे युक्त होता है ऐसा वह पुरुष स्पर्शमणि जैसा होता है, तथा-जो पुरुष दैन्य दारिद्य आदिवाला होता है वह उपर प्रस्तर जैसा है ४ । इसी तरहसे एक स्त्रीका एक दूसरी स्त्रीसे भी अन्तर समझ लेना ॥ सू० २॥
अथ सूत्रकार पुरुष विशेषका अन्तर निरूपित करनेके लिये भेद सहित भृतकका निरूपण करते हैं । " चत्तारि भयगा पण्णत्ता" इत्यादि
चार भृतक कहे गये हैं, जैसे-दिवस भृतक १, यात्रा भृतक २, उच्चता भृतक ३, और कव्वाड मृतक ४ । चार प्रकारके पुरुष कहे गये हैं, जिसे-संपकट प्रतिसेवी नो प्रच्छन्न प्रतिसेवी १, प्रच्छन्न प्रतिसेवी नो
પ્રસ્તરોત્તર સમાન પુરુષ”—જે પુરુષ આમ ઔષધિ આદિ લબ્ધિએથી યુક્ત હોય છે તેને સ્પર્શમણિ પ્રસ્તર સમાન કહે છે, પશુ દીનતા, હારિદ્રય, આદિથી યુક્ત હોય એવા મનુષ્યને ઊષર પ્રસ્તર સમાન કહ્યો છે. એજ પ્રમાણે એક સ્ત્રી અને બીજી સ્ત્રી વચ્ચેનું અનર પણ સમજવું સૂ. ૨ !
હવે પુરુષ વિશેષના અન્તરનું નિરૂપણ કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર ભતકના यार हनुं नि३५५ रे छे. " चत्तारि भयगा पण्णत्ता' त्याह
मत (४२) ना यार ४२ वा छे-हवत:, (२) यात्रा मृत (૩) ઉચ્ચતા ભૂતક અને (૪) કવાડ ભૂતક. ચાર પ્રકારના પુરુષો કહ્યા છે, (१) ४८ प्रतिसेवा, ना २छन्न प्रतिसेवा, (२) प्रच्छन्न प्रतिसेवी, नाट
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सुधाटीका स्था०४ उ० १ सू० ३३ समैदं भृतकनिरूपणम् ५६६ ..चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-संपकटप्रतिसेवी नामैको नो प्रच्छअप्रतिसेवी १, प्रच्छनप्रतिसेवी नामैको नो संप्रकटमतिसेवी २, एकः संप्रकटनतिसेव्यपि प्रच्छन्नप्रतिसेव्यपि ३, एको नो संप्रकटमतिसेवी नो प्रच्छन्नप्रतिमेवी ४॥ ॥सू० ३३ ॥
टीका-" चत्तारि भयगा" इत्यादि-भ्रियन्ते-पोष्यन्त इति भृतास्त एव भृतका कर्मकरा इत्यर्थः, ते चत्वारः प्रज्ञप्ताः, ते के चत्वारः ? इति प्रदर्शयति 'तद्यथे'--त्यादिना, ते यथा--दिवसभृतक:-दिवसे--दिने दिने भृतक इति दिवसभृतका प्रतिदिनं नियतजीविकादानेन यः कर्म कर्तुं गृह्यमाणः सः १, ___यात्राभृतकः-परदेशगमनतदवधिकस्वदेशाऽऽगमनरूपयात्रायां सहायतया यो वेतनेन पोष्यमाणः सः २, उच्चताभृतका-उच्च-अपरापेक्षया श्रेष्ठस्तस्य भाव उच्चता, तया भृतकः-वेतन-समयौ नियमय निश्चितोचितावसरे कर्मणि यो नियुक्तः संप्रकटप्रतिसेवी २, संप्रकटप्रतिसेवीभी प्रच्छन्न प्रतिसेवीश्री ३, लो संप्रकट प्रतिसेवी नो प्रच्छन्न प्रतिसेवी ४ ।
"भ्रियन्ते" इति भृतकाः जो पोष्य होतेहैं, कर्मकर होते हैं वे मृतक होते हैं । ये भृतक जो चार प्रकारके कहे गये हैं, उनका तात्पर्य ऐसा है
दिवस भृतक-प्रतिदिनका पारिश्रमिक लेकर जो काम करनेके लिये रखा जाता है वह दिवस भृतक है, यह दिवस भृतक केवल दिनमें ही काम करता है । इसलिये इसे दिवस भृतक कहा गया है १ । यात्री भृतक-वह है जो परदेश जाने तक और फिर वहाले अपने देशमें लौट आने तकके लिये जो नोकर रखा जाता है वह यात्रा भृतक है २। उच्चता भृतक-वह है जो वेतन और अमुक समय तक काम करनेका प्रतिसेवी, (3) सप्रट प्रतिसेवी, छन्न प्रतिसवी (४) २ स४८ प्रतिसेवी - ને પ્રચ્છન્ન પ્રતિસવી.
ANषाय-" भियन्ते इति भृतकाः" या पाण्य डाय थे, उभ४२ હોય છે તેમને ભતક કહે છે. ભતકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે –
(૧) દિવસ ભૂતક-દરરોજનું મહેનતાણું ( જી) નક્કી કરીને કામ કરવાને માટે જે નોકર રાખવામાં આવે છે તેને દિવસ તક કહે છે, તે માત્ર દિવસે જ કામ કરે છે, તે કારણે તેને દિવસ ભૂતક કહે છે
(૨) યાત્રા ભૂતક–પરદેશની યાત્રા વખતે જે નોકરને યાત્રા સમય સુધી કરીએ રાખવામાં આવે છે તેને યાત્રાભતક કહે છે. પરદેશ જાય ત્યારથી સ્વદેશમાં પાછા ફરે ત્યાં સુધીના સમય સુધી જ આ નેકર રાખવામાં આવે છે.
(૩) ઉચ્ચતા ભૂતક–અમુક સમયને માટે જ અમુક પગાર નક્કી કરીને જે નેકર રાખવામાં આવે છે તેને ઉચતા ભૂતક કહે છે.
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स्थानाने सः ३, कव्वाडभृतक:-कब्बाडो देशीयः शब्दः स च नियतशब्दमये मूल्ये या नियमय्य परिमितभूमिखानकवाची, स चासौ भृतकः' इयती भूमिस्त्वया. इयता कालेन खनितव्या इयत् तन्मूल्यं दास्यामीति नियमेन नियोजितः कर्मकर इति पर्यवसितोऽर्थः ४। उक्तं चदिवसभयो उ घेप्पइ छिन्नेण धणेण दिवसदेवसयं ।
जत्ताउ होइ गमणं उभयं वा एत्तियधणेणं । १ । कबाड ओडमाई हत्थमियं कम्म एत्तियधणेणं ।
एच्चिरकालुच्चत्ते कायव्य-कम्म जं वेति । २।" छाया-" दिवसभृतकस्तु गृह्यते छिन्नेन धनेन दिवसदैवसिकः ।
यात्रा तु भवति गमनम् उभयं वा (गमनाऽऽगमनरूपं) इयता धनेन ।१। कबाड ओडादिः हस्तमितं कम इयता धनेन ।
इयत्कालमुच्चत्वे कर्तव्यं कर्म यद् ब्रवीति ।२।" इति, मू० ३२॥ पूर्व लौकिकपुरुषविशेषस्यान्तरं निरूपितम् , अधुना लोकोत्तरपुरुषस्यान्तरं निरूपयितुमाहनिश्चय करके रखा जाता है ३ । कव्वाड भृतक-वह है जो " तूं इतनी जमीन खोद लेगा इतने समयमें तो मैं तुझे इतना पारिश्रमिक इसका दंगा" ऐसी बोली करके कामपर नियुक्त किया जाता है ४ । । 'कहाभी है-" दिवसभयओ उधेप्पड़ " इत्यादि____ "कव्याड " यह देशीय शब्द है और यह नियत समयमें मूल्यकी इयत्ताका (मर्यादा) निर्धारण करके परिमित भूमिको खोदनेवालेका वाचक है,इस प्रकारसे लौकिक पुरुष विशेषका अन्तर निरूपण करके अषसूत्रः कार लोकोत्तर पुरुषका अन्तर निरूपित करने के लिये कहते हैं ।
"चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि
(४) ३०१ मत-" तु माटसा समयमा साक्षी भीन माटी આપીશ, તે તને આટલુ મહેનતાણું આપીશ” આ પ્રકારની શરત કરીને જેને કામે ચડાવવામાં આવે છે એવા નોકરને કવાડ ભૂતક કહે છે..
४थु ५९ छे 3-" दिवसभयओ- उ घेप्पइ" त्या
४०.' मा शण्ट गामही भाषामा १५२य . “ नियत समयमां, નિયત વેતન લઈને નિયત પ્રમાણવાળી ભૂમિને ખેદી આપનારને તે વાચક છે.” આ રીતે લૌકિક પુરુષ વિશેષના અન્તરનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર લત્તર પુરુષના અન્તરનું નિરૂપણ કરે છે–
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सुधा टीका स्था० उ०१ सू० ३३ समदं भृतक निरूपणम्
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" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - पुरुषजातानि - पुरुषप्रकाराः, चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः - कश्चित् संप्रकटपतिसेवी - साध्वादिसमक्षकल्प्यभक्तपानादिकं प्रतिसेवितुं भोक्तुं शीलमस्येति संप्रकटप्रति सेवी - दूषितभक्तपानादिप्रकटसेवी भवति, किन्तु प्रच्छन्नप्रतिसेवी न भवति, उभयलोकभयवर्जितत्वात् |१| एक:- कश्चित् मच्छन्नप्रतिसेवी भवति, किन्तु सम्प्रकटप्रतिसेवी नो भवति |२| एक:- कश्चित् संप्रकटमतिसेव्यपि प्रच्छन्नप्रतिसेव्यपि भवति |२| एकः कश्चित् नो सम्पतिसेवी, नापि च मच्छन्नप्रतिसेवी भवति, आत्मार्थित्वात् |४| एषु चतुर्थोभङ्गः शुद्धः । सू० ३३ ॥
इस सूत्र द्वारा जो पुरुष प्रकोर चार कहे गये हैं, उनका तात्पर्यं ऐसा है - संकटपतिसेवी नो प्रच्छन्नप्रतिसेवी १ वह है जो साधु आदिके समक्ष अकल्प्य भक्त पानादिक सेवन करनेका स्वभाववाला होता है, परन्तु प्रच्छन्न रूपसे उसका प्रतिसेवी नहीं होता है । क्योंकि ऐसा पुरुष उभय लोकके भयसे वर्जित होता है यह प्रथम विकल्प है । तथा - कोई एक दूसरा ऐसा होता है जो प्रच्छन्न प्रतिसेवी होता है । किन्तु प्रकट में प्रतिसेवी नहीं होता है, यह द्वितीय विकल्प है । तथा कोई एक तीसरा पुरुष ऐसा है कि प्रकटमें भी अकल्प्य भक्तपानादिकका प्रतिसेवी होता है और प्रच्छ रूपमें भी, यह तृतीय विकल्प भङ्ग है ३ कोई एक चौथा ऐसा है जो न प्रगटमें अकल्प्य भक्त पानादिकका प्रतिसेवी
" चचारि पुरिसजाया ” इत्याहि-सा सूत्र द्वारा ने यार पुरुष प्रा કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણુ આ પ્રમાણે છે—
(1 ) " संप्रकट प्रतिसेवी - नो प्रच्छन्नप्रतिसेवी " - પ્રકટ रीते - साधु આદિની સમક્ષ અકલ્પ્ય ભક્તપાનાદિકનું સેવન કરનારા ડેાય છે, પણુ પ્રચ્છન્ન (છૂપી ) રીતે તેનું પ્રતિસેવન કરનારા હાતા નથી, એવા પુરુષને આ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે, એવા પુરુષ ઉભયલેકના ભયથી વિહીન હોય છે. કોઇ પુરુષ એવા હોય છે કે જે પ્રચ્છન્નરૂપે અકલ્પ્ય આહારાદિત્તુ પ્રતિસેવન કરનારા હાય છે, પણુ પ્રકટમાં તેનું સેવન કરતે નથી, આ ખીન્ને વિકલ્પ છે.(૩) કાઇ પુરુષ એવા હોય છે જે પ્રકટ રૂપે પણુ અકલ્પ્ય આહારાદ્દિનુ સેવન કરે છે અને પ્રચ્છન્ન રૂપે પણ તેનુ પ્રતિસેવન કરે છે. આ પ્રકારના પુરુષને ત્રીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૪) કાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે પ્રકટ રૂપે પણુ અકલ્પ્ય આહારાદિનુ પ્રતિસેવન કરતા નથી અને પ્રચ્છન્ન રૂપે
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स्थानास्त्रे पूर्वोक्तचतुर्थभङ्गपालको देवत्वं प्राप्नोतीति देववक्तव्यतामाह
मूलम्-चमरस्ल णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--कणगा १, कणगलया २, चित्तगुत्ता ३, वसुंहरा । एवं जमस्त, वरु: णस्स, वेसमणस्त,
बलिस्स णं वइरोयणिदस्स वइरोयणरन्नो सोमस्त महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सित्तगा १, सुभद्दार, विज्जुत्ता३,असणी ४। एवं जमस्स, वेसमणस्स, वरुणस्स,
धरणस्त णं नागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो कालवालस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा. असोगा १, विमला २, सुप्पभा ३, सुदंसणा ४। एवं जाव संखवालस्त ।
भूयाणंदस्त णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो कालवालस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-- । सुणंदा १, सुभद्दा २, सुजाया ३, सुमणा ४। एवं जाव सेलवालस्स जहा धरणस्स । एवं सव्वेसिं दाहिणिदलोगवालाणं जाव घोसस्स, जहा भूयाणंदस्स, एवं जाव महाघोसस्स लोगवालाणं,
कालस्सणं पिसाइंदस्स पिसायरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कमला १, कमलप्पभा २, उप्पला ३, सुदंसणा । एवं महाकालस्सवि । सुरूवस्त णं भूइंदस्स भूयरन्नो होता है न प्रच्छन्नमें ही, क्योंकि-ऐसा पुरुष आत्मार्थी होता है। इन भङ्गोमें यह चौथा भङ्ग शुद्ध है। सू० ३३ ।। પણ તેનું સેવન કરતું નથી, કારણ કે એ પુરુષ આત્માર્થી હોય છે. આ सारे मामाथी योय! मग शुद्ध छे. ॥ सू. 33 ॥
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सुधा ठीका स्था०४' उ०१ सू० ३४ देवत्वनिरूपणम्
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चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रूववई १, बहुरूवा २, सुरूवा३, सुभगा एवं पडिरूवरसवि । पुण्णभद्दस्त णं जक्खिदस्त जक्खरन्नो चत्तारि अग्ग महिसीओ, पण्णत्ताओ तं जहा- पुत्ता १, बहुपुत्तिया २ उत्तमा ३, तारगा ४। एवं माणिभद्दस्सवि ।
भीमस्त रक्खादिस्त रक्खसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा पउमा १, वसुमई २, कणगा ३, रयणप्पभा ४। एवं महाभीमसवि । किंनरस्स णं किंनरिदस्स किन्नररन्नो तर अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--वडेंसा १, केउमाई २, रइसेणा ३, रइप्पभा ४। एवं किंपुरिसस्सवि । सप्पुरिसस्स पर्ण किंपुरिनंदस्स किंपुरिसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णताओ, तं जहा - रोहिणी १, णवमिया २, हिरी ३, पुप्फबई ४ एवं महापुरिसस्सवि ।
अइकायस्स णं महोरगिंदस्स महोरगरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा भुयगा १, भुयगवई २, महाकच्छा ३, फुडा ४ । एवं महाकायस्तवि
गीयर इस्स णं गंधविंदस्स गंधव्वरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा सुघोसा १, विमला २, सुस्सरा ३, सरस्सई ४ । एवं गीयजसस्सवि । चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोड़सरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - चंदप्पभा १, दोसिणाभा २, अचिमाली ३, पभंकरा ४। एवं सूरस्सवि, णवरं सूरपभा १, दोसिणाभा २, अच्चिमाली ३, पकरा ४ |
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स्थानाव
इंगालस्स णं महागहस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णताओ, तं जहा विजया १, वेजयंती २, जयंती ३, अपराजिया ४। एवं सव्वेसिं महागहाणं जाव भावके उस्ल,
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सक्करसणं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पणत्ताओ, तं जहा-रोहिणी १, मयणा २, चित्ता ३, सोमा ४। एवं जात्र वेसमणस्स,
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्त महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पणत्ताओ, तं जहा पुढवी १, राई २, रयणी ३, विज्जू ४ | एवं जाव वरुणस्स || सू० ३४ ॥
छाया -- चमस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य सोमस्य महाराजस्य चतस्रोऽग्रमविष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कनका १, कनकलता २ चित्रगुप्ता ३, वसुं न्धरा ४ | एवं यमस्य वरुणस्य, वैश्रवणस्य ॥
इस उक्त चतुर्थ भङ्गका पालक देवत्व पदको प्राप्त करता है । अतः - अब सूत्रकार इसी सम्बन्धको लेकर देव वक्तव्यता के विषयमें सूत्र कहते हैं - " चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो " इत्यादि ।
सूत्रार्थ - असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमरके जो लोकपाल सोमराज हैं उनकी चार अग्रमहिषियां कही गई हैं, जैसे- कनका १, कनकलता २, चित्रगुप्ता ३ और वसुन्धरा ४ | इस तरहका कथन चमरके लोकपाल, जो यम वैश्रवण और वरुण हैं, उनकी अग्र महिषियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज वलिके लोकपोल जो सोमराज
પૂર્વક્તિ ચાથા ભાંગાના પાલક પુરુષ દેવત્વને પ્રાપ્ત કરે છે. આ સખનને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર દેવવક્તવ્યતા વિષયક સૂત્રનું કથન કરે છે
" चमरस्स णं असुरिंदरस असुरकुमाररण्णो " इत्यादि
સૂત્રા –અસુરેન્દ્ર અસુરકુમારરાજ ચમરના સેામ નામના લાકપલને ચાર અગ્નसहिषी थे. तेमनां नाम या प्रमाणे हे (१) उनडा, (२) उनसता, (3) ચિત્રગુપ્તા અને (૪) વસુધરા, ચમરના યમ, વૈશ્રવણુ અને વરુણ નામના ખીજા ત્રણ લેાકપાલેાની અબ્રમહિષીઓના વિષયમાં પણ એવું જ કથન સમજવું.
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सुधा टीका स्था०४ उ० १ सू० ३४ देवत्वनिरूपणम्
बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य सोमस्य महाराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मित्रगा १, सुभद्रा २, विद्युत् ३, अशनी ४। एवं यमस्य, वैश्रवणस्य, वरुणस्य,
धरणस्य खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कालपालस्य महाराजस्य चतस्रोऽयमहिध्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अशोका १, विमला २, सुप्रमा ३; सुदर्शना ४। एवं यावत् शङ्खपालस्य । __भूतानन्दस्य खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कालपालस्य महाराजस्य चतोऽयमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सुनन्दा १, सुभद्रा २, सुजाता ३, मुमनाः ४१ एवं यायत् शैलपालप्य यथा धरणस्य, एवं सर्वेषां दक्षिणेन्द्रलोकपा लानां यावद् घोपस्य, यथा भूतानन्दस्य, एवं यावत् महाघोपस्य लोकपालानाम् । हैं उनकी अग्र महिषियां कही गई हैं, उनके नाम इस प्रकार से है। - मित्रगा १, सुभद्रा २, विद्युत ३ और अशनी ४ । ऐसेही इनके लोक पाल जो यम वैश्रवण और वरुण हैं, उनकी अग्र महिषियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । ___ नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज जो धारण हैं उनके लोकपाल जो कालपाल महाराज हैं। उनकी चार अग्र महिषियां कही गई है, जैसे-अशोका १, विमला २, सुप्रभा ३, और सुदर्शना ४ । इस तरह को कथन यावत् शङ्खपालकी अग्र महिषियोंके सम्बन्धोभी जानना चाहिये । नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्दके लोकपाल महाराज कालपाल हैं। उनकी अग्र महिषियांहै, सुनन्दा १, सुभद्रा २, सुजाता ३ और सुमना ४ऐसाही कथेन इनके यावत्-जो शैलपालहैं, उनके વરેચનેન્દ્ર વિરેચનરાય બલિના સોમ નામને લોકપાલને ચ ર અગ્ર મહિષીઓ छ, तमना नाम सा प्रमाणे 2-(१) भित्रा, (२) सुमद्रा, (3) विधुत् भने (૪) અશની બલિના યમ, વૈશ્રવણું અને વરુણ નામના બીજા ત્રણ લેકપાલની અમહિષીઓના વિષયમાં પણ એવું જ કથન સમજવું.'
નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાય ધરણના લોકપાલ કાલપલ મહારાજને ચારે ममडियामा छे. तभना नाम मा माग छ-(१) मIt, (२) विमला, (3) सुप्रभा भने (४) सुशाना, ५२ना २५५८ पर्यन्तना मी सो. પાલની અમમહિષીઓ વિષે પણ આ પ્રકારનું જ કથન સમજી લેવું.
નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાય ભૂતાનન્દના કાલપાલ નામના લેકપલની यार मभाषामान नाम मा प्रमाणे जे-(१) सुनन्दा, (२) सुमद्रा, (3) સુજાતા અને (૪) સુમના, ભૂતાનન્દના શિલપાલ પર્યંતના બીજા ત્રણે લેક
स ७२
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स्थानाङ्गसूत्रे कालस्य खलु पिशाचेन्द्रस्य पिशाचराजस्य चततोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कमला १, कमलप्रभा २, उत्पला ३, सुदर्शना ४। एवं महाकालस्यापि।
मुरूपस्य खलु भूतेन्द्रस्य भूतराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथारूपावती १, बहुरूपा २, सुरूपा ३, सुभगा ४॥ एवं प्रतिरूपस्यापि,
पूर्णभद्रस्य खलु यक्षेन्द्रस्य यक्षराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापुत्रा १, वहुपुत्रिका २, उत्तमा ३, तारका ४॥ एवं माणिभद्रस्यापि, अग्र महिषियोंके सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । यहाँ यावत् शब्दसे कोलपाल और शङ्खपाल इन दोनों लोकपालोंका ग्रहण हुवा है । इस तरह-समस्त दक्षिणेन्द्र के लोकपालोंकी अग्र महिषियोंके सम्बन्धमें यावत्-दक्षिणेन्द्र घोषके लोकपालोकी अग्र अहिषी तक समझ लेना चाहिये । इस तरहसे उत्तरार्धके अधिपति जो यावत् महाघोष हैं उनके लोकपालोंकी अग्रभहिषियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये। पिशाचेन्द्र पिशाचराजकालकी अग्रहिषियां ये चार हैं, कमला १, कमलप्रभा २, उत्पला ३ और सुदर्शना ४ । इसी तरहसे महाकालकी अग्रमहिषियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये। भूतेन्द्र-भूतराज सुरूपकीनी चार अग्र मरिषियां है, जैसे-रूपावती १, बहुरूपा २, स्तुरूपा ३ और सुभगा ४ । ऐसेही प्रतिरूपकी अनमहिषियोंके सम्बन्धमें जानना ।
यक्षेन्द्र-यक्षराज पूर्णभद्रकी चार अग्रमहिपियों जैसे-पुत्रा १, यापुत्रिका २, उन्तमा ३, तारका ४ ये हैं। इसी तरह से माणिभद्रकी પાલની અગ્રમહિષીઓ વિષે પણ એ જ પ્રમાણે કથન સમજવું અહીં “પયન પદથી કેલપાલ અને શંખપાલ નામના બે લોકપાલ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. :
એ જ પ્રમાણે ઘેષ પર્યાના સમસ્ત દક્ષિણેન્દ્રોના લેકપાલની અગ્ર- . મહિષીઓનું કથન અહીં કરવું જોઈએ એ જ પ્રમાણે મહાઘેષ પર્યન્તના ઉત્તરાર્ધના ઈન્દ્રોના લેકપાલની અગ્નમહિષીઓનું કથન પણ અહીં કરવું જોઈએ.
પિશાચ્ચેન્દ્ર પિશાચરાજ કાળની ચાર અબ્રમકિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે छ-(१) ४ा, (२) मसला, (3) Gual अने (४) सुश ना. मेर પ્રમાણે મહાકાળની અગમહિષીઓ વિષે પણ સમજવું. ભૂતેન્દ્ર ભૂતરાય સુરપની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે છે-(૧) રૂપાવતી, (૨) બહુરૂપ (3) सु३५. गाने (४) सुभा. प्रति३५नी ममडिपी। वि२ ५३ मे કયન સમજવું. યક્ષેન્દ્ર યક્ષરાજ પૂર્ણભદ્રની ચાર અમહિષીઓનાં નામ આ प्रभारी छे-(१) पुत्रा, (२) मत्रित, (3) उत्तमा मने (४) ता२४१ मे પ્રકારનું કથન માણિભદ્રની અમહિષીઓ વિષે પણ સમજવું.
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू०३४ देवत्वनिरूपणम्
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' भीमस्य खलु राक्षसेन्द्रस्य राक्षसराजस्य चतस्रोऽयमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापमा १, वसुमती २, कनका ३, रत्नप्रभा ४१ एवं महाभीमस्यापि, किन्नरस्य खलु किनरेन्द्रस्य किन्नरराजस्य चतस्रोऽग्रमहिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अवतंसा १, केतुमती २, रतिसेना ३, रतिपमा ४। एवं किंपुरुषस्यापि,
सत्पुरुषस्य खलु किंपुरुषेन्द्रस्य किंपुरुषराजस्य चतस्रोऽनमहिष्यः प्राप्ताः, तद्यथा-रोहिणी १, नवमिका २, हीः ३, पुष्पावती ४। एवं महापुरुषस्यापि । अतिकायस्य खलु महोरगेन्द्रस्य महोरगराजस्य चतस्रोऽयमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाभुनगा १, भुजगावती २, महाकच्छा ३, स्फुटा ४) एवं महाकायस्यापि । अग्रणहिषियोंके सम्बन्धमें जानना चाहिये । राक्षसेन्द्र - राक्षसराज भीमकी चार अग्रमहिपियां कही गई हैं, जैसे-पद्मा, बस्सुमती, कनका, रत्नप्रभा ४ । इसी तरह महाभीमकी अग्रमहिषियोंको जानना चाहिये। किन्नरेन्द्र-किन्नरराज किन्नरकी महिषियां अवतंसा १, केतुमती २, रतिसेना ३, रतिप्रभा ४ चार कही गई हैं । ऐसेही किम्पुरुषकी चार अग्रमहिषियोंको जानना चाहिये। किंपुरुषेन्द्र-किंपुरुषराज सत्पुरुषकी रोहिणी १, नवनिका २, ही ३, और पुष्पावती ४ ये चार अग्रमहिषियाँ हैं। इसी तरह महापुरुषकीभी अग्रमहिषियोंको जानना चाहिये। महोरगेन्द्र -महोरगराज अतिकायकी चार अनमहिषिर्धाह, भुजगा १, भुजगावती २, महोकच्छा ३ और स्फुटा ४ । इसी तरहसे महाकायकी अग्रमहिषियोंके सम्बन्धमें जानना चाहिये। गन्धर्वेन्द्र-गन्धर्वराज
રાક્ષસેન્દ્ર રાક્ષસરાજ ભીમની ચાર અમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે छे--(१) ५॥, (२) सुमती, (3) ४.४! अने. (४) २cial. भडालीमनी અગ્રમહિષીઓ વિષે પણ એવું જ કથન સમજવું.
કિનરેન્દ્ર કિન્નરરાય કિન્નરની ચાર અઝમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે છે (१) अवत'सा, (२) तुमती, (3) २तिसेना मन (४) २तिप्रा. मेवार હિપુરુષની ચાર અમહિષીઓનાં નામે પણ સમજવા.
કિરપુરા પેન્દ્રકિપુરુષરાય સપુરુષની ચાર અઝમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે छे-(१) डिसी, (२) नवमि, (3) डी, मने (४) पावती मायुरुषनी અમહિષીઓનાં પણ એ જ પ્રમાણે નામે સમજવા
' મહેન્દ્ર મહોરગરાય અતિકાયની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં નામ આ प्रमाणे छ-(१) मुसा , (२) सु वती, (3)मा४२७१, मने. (४) रेट से જ પ્રમાણે મહાકાયની અમહિષીઓ વિષે પણ સમજવું
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स्थानाङ्गसूत्रे
गीतरतेः खलु गन्धर्वेन्द्रस्य गन्धर्वराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथाघोपा १, विमला २, सुखरा २, सरस्वती ४। एवं गीतयशसोऽपि । चन्द्रस्य खलु ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिपुराजस्य चतस्रोऽग्रसहियः मज्ञप्ताः, तद्यथा - चन्द्रमभा १, ज्योत्स्नाभा २, अर्चिर्माली ३, प्रभङ्करा ४ | एवं सुरस्यापि नवरं सुरप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अमिली- ३, ममङ्करा ४ | अङ्गारस्य खल, महाग्रहस्य चतस्रोऽग्रमद्दिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजया, १, वैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४ | एवं सर्वेषां महाग्रहाणां यावद् भावकेतोः ।
शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - रोहिणी १, मदना २, चित्रा ३, सोमा ४ | एवं यावद् वैश्रवणस्य । गीतरतिके अग्रमहिषियोंमें सुघोषा १, विमला २, सुस्वरा ३ और सरस्वती ४ ये चार हैं । इसी प्रकार से गीतयशकी अग्रमहिषियोंके विषय में भी जानना चाहिये ।
ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्रकी चार अग्रमहिषियां चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्माली ३, प्रभङ्करा ४ हैं | अङ्गारक नामक महाग्रहकी चार अग्रमहिषियां हैं । विजया १, वैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४ | ऐसाही कथन भावकेतुके समस्त महाग्रहों की अग्र महिषियोंके सम्बन्ध में जानना चाहिये । देवेन्द्र - देवराज शकके लोकपाल सोम महाराजकी अग्रमहिषियां चार हैं, रोहिणी १, मदना २, चित्रा ३, सोमा ४ | इसी प्रकार वैश्रवण लोकपालकी अग्र महिषियोंके सम्बन्ध में जानना चाहिये । देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महा
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ગધવેન્દ્ર ગ ંધવરાય ગીતતિની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં નામ નીચે अभाऐ छे - (१) सुघोषा, (२) विभसा ( 3 ) सुस्वरा ने (४) सरस्वती. शे પ્રમાણે ગીતશયની અગ્રમહિષીએ વિષે પણ સમજવું.
ચેતિપેન્દ્ર યાતિષરાજ ચન્દ્રની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં નામ આ प्रमाणे छे-(१) यन्द्र प्रला, (२) ज्योत्स्नाला, (3) अर्थिभांडी भने (४) प्रभंश.
અંગારક (મ’ગલ) નામના મહાગ્રહની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે छे- (१) विनया, (२) वैजयन्ती, (3) जयन्ती भने (४) अपराजिता, भेवुन કથન ભાવકેતુ આદિ સમસ્ત મહાગ્રહેાની અગ્રમહિષીઓ વિષે પશુ સમજવુ. દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકના લેાકપાલ સેામ મહારાજની ચાર અગ્રમહિષીઓનાં नाभ या अभाये हे-(१) रोहिणी, (२) महना, (3) चित्रा, भने (४) सोभा. એજ પ્રમાણે વૈશ્રવણું પન્તના એલેકપાલે ની અગ્રસહિષીએ વિષે પણ સમજવું. દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનના લેાકપાલ સેામ મહારાજને ચાર
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू० ३५ विकृतिस्वरूपनिरूपणम्
ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पृथिवी १, रात्री २, रजनी २, विद्युत् ४ यावद् वरुणस्य |सू० ३४॥ ' वाक्या
टीका - " चमरस्से " - त्यादि - चमरस्य - तदाख्यस्य, 'खल लङ्कारे, असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य - तत्सम्बन्धिनः सोमस्य तदाख्यलोकपालस्य चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कनका १, कनकलता २ चित्रगुप्ता २, वसुन्धरा ४। एवं - सोमवत्, यमस्य वरुणस्य वैश्रवणस्य च प्रत्येकं चतस्रोऽग्रम - हिष्यो बोध्याः । एवं सर्वत्रेशान पर्यन्तानां सर्वेषामिन्द्राणां तत्तल्लोकपालानां प्रत्येकं तत्तन्नान्योऽग्रमहिष्यो वोध्याः । सू० ३४ |
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पूर्व देववक्तव्यता मोक्ता, देवत्वं च विकृतित्यागाद्भवतीति सूत्रत्रयेण विक्रतिस्वरूपमाद
मूत्रम् - चत्तारि गोरसविगईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - खीरं १, दहिं २, सप्पिं ३, णवणीयं ४। १ ।
चत्तारि सिणेहविगईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तेलं १, घयं २, वसा ३, णवणीयं ४ । २ ।
चत्तारि महाविगईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- महुं १, मंसं २, मज्जं ३, णवणीयं ४ | ३ | सू० ३५ ॥
राजकी चार अग्रमहिषियों पृथिवी १ रात्री २, रजनी ३, विद्युत् ४ हैं । ऐसे इनके लोकपाल वरुण तक प्रत्येककी चार चार अग्र महिषियोंको जानना चाहिये || सू० ३४ ॥
कथित देवत्व चिकृतिके त्यागसे होता है । अतः अब सूत्रकार विकृतिका स्वरूप तीन सूत्रोंसे प्रगट करते हैं ।
" चत्तारि गोरसविगईओ पण्णत्ताओ " इत्यादिमश्रमहिषीयो छे तेभना नाम या प्रमाणे छे - (१) पृथिवी, (२) रात्री, (3) રજની અને (૪) વિદ્યુત તેમના વરુણુ પર્યન્તના મીજા ત્રણ લેકપાલાની અગ્રમહિષીઓ વિષે પણ એવું જ કથન સમજવું. ॥ સૂ. ૩૪ ૫
ઉપર્યુક્ત દેવત્વની પ્રાપ્તિ વિકૃતિના ત્યાગથી થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ત્રણ સૂત્રા દ્વારા વિકૃતિનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે.
“ चत्तारि गोरसविगईओ पण्णत्ताआ" इत्याह
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स्थानास्त्रे छाया-चतस्रो गोरसविकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षीरं १, दधि २, सर्पिः ३, नवनीतम् ४॥ ११ चतस्रः स्नेहविकृतयः मज्ञप्ताः, तद्यथा-तेलं १, घृतं २, वसा ३, नवनीतम् ।४।२। चतस्रो महाविकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मधु १, मांसं २, मयं ३, नवनीतम् ४।३।। मू० ३५ ॥
टीका-" चत्तारि" इत्यादि-गोरसशब्दो रूढया गोमहिष्यादिदुग्धमभृतिरसवाचकः, गवां रस इति व्युत्पत्त्या योगार्थों नान स्वीकृतः, तद्रूपा विकृ. तयो गोरसविकृतयः ताश्चतस्तः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षीरं-दुग्धं १, दधि २, सर्पिः -घृतम् ३, नवनीतं-' मक्खन ' इति प्रसिद्धम् ।४। १ ॥
चत्तारि सिणेह" इत्यादि-चततः स्नेहविकृतयः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथातैलं १, घृतं २, वसा-' चर्वी ' इति भाषामसिद्धा ३, नवनीतम् ४।२। ___" चत्तारि महे"-त्यादि-चतस्रो महाविकृतयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-मधु १, मांसं २, मधं ३, नवनीतं चेति ४ । ३ । सू० ३५ ।
गोरस विकृतियां चार कही गई हैं, दूध-दही-घी मक्खन ४ । स्नेह विकृतियां चार हैं-तेल-घी-वसा-नवनीत ४ । चार महाविकृतियां हैं, मधु-मांस-मद्य-मक्खन ४ ।
"गवारसः "-गायका जो रस है वह गोरस है, ऐसी व्युत्पत्ति योगार्थ यहां नहीं लिया गया है । गोरस रूप जो विकृति है वह गोरस विकृति है। ये गोरस विकृतियां क्षीर-दूध आदिक रूप है । स्नेह विकृतियोंमें जो वसा विकृति आई है उसका अर्थ चर्वी है ।। सू. ३५ ॥
अव मुत्रकार कूटागारको और कूटागारशालाको दृष्टान्त रूपसे तथा पुरुष एवं स्त्रीको दाष्टान्तिक रूपसे कहने की इच्छासे चार सूत्रोंका
ગેરસ વિકૃતિ ચાર કહી છે-દૂધ, દહીં, ઘી અને માખણ.
નેહ વિકૃતિ પણ ચાર કહી છે-તેલ, ઘી, વસા (ચબી) सन नवनीत (मामा) ।
ચાર મહાવિકૃતિ કહી છે–મધ, માંસ, મદ્ય અને માખણ.
ગેરસ શબ્દ રૂઢિગત રૂપે ગાય, ભેંસ આદિના દુગ્ધાદિ રસને વાચક छ. “ गवारसः" "यन २ २स तनुं नाम ॥२" सेवी व्युत्पत्ति | પ્રાપ્ત થતું અર્થ અહીં લેવાનું નથી. ગેરસ રૂપ જે વિકૃતિ છે તેનું નામ ગોરસ વિકૃતિ છે તે ગોરસ વિકૃતિ દૂધ આદિ રૂપ છે. સ્નેહ વિકૃતિના પ્રકારમાં જ “વફા” શબ્દ પર આવ્યું છે તેને અર્થ “ચબી થાય છે. આ સૂ. ૩૫
હવે સૂત્રકાર કૂટાગારને અને કૂટાગારશાલાને દષ્ટાન્ત રૂપે અને પુરુષ તથા સ્ત્રીને દાર્જીતિક રૂપે પ્રકટ કરવાના હેતુથી ચાર સૂત્રોનું કથન કરે છે.
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सुधा टीका स्था०४ उ१३६ सदृष्टान्तदान्तिक कूटागारादिनिरूपणम् ५७५ ___ कूटागारं कूटागारशालां च दृष्टान्ततया पुस्त्रियौ च दाष्टान्तिकतया वक्तुकामः सूत्रचतुष्टयमाह
मूलम् --चत्तारि कूडागारा पण्णत्ता, तं जहा-गुत्ते णाममेगे गुत्ते १, गुत्ते णाममेगे अगुत्ते २, अगुत्ते णामलेगे गुत्ते ३, अगुत्ते णाममेगे अगुत्ते ।४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं , जहा-गुत्ते णाममेगे गुत्ते १, गुत्ते णाममेगे अगुत्ते २, अगुत्ते णाममेगे गुत्ते ३, अगुत्ते णाममेगे अगुत्ते ४।
चत्तारि कूडागारसालाओ पणत्ताओ, तं जहा-गुत्ताणाममेगा गुत्तदुवारा १, गुत्ता णासमेगा अगुत्तदुवारा २, अगुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा ३, अगुत्ता णामसेगा अगुत्तदुवारा ४। एवामेव चत्तारि इत्थीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-गुत्ता णाममेगे युतिदिया १, गुत्ता णाममेगा अत्तिदिया २, अगुत्ता णाममेगा गुत्ति दिया ३, अगुत्ता णाममेगा अगुत्तिं दिया ४ ॥ सू० ३६ ॥
छाया-चत्वारि कूटागाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गुप्तं नामकं गुप्तम् १, गुप्तं नामैकमगुप्तम् २, अगुप्तं नामैकं गुप्तम् ३, अगुप्त नामैकमगुप्तम् । एवकथन करते हैं । " चत्तारि कूडागारा पण्णत्ता" इत्यादि
सूत्रार्थ-चार कूटागार कहे गयेहैं, एक कूटागार ऐसा होताहै जो प्राकार आदिसे वेष्टित होता है और-द्वार आदि भी जिसके बन्द रहते हैं १ । एक कूटागार ऐसा होता है जो प्राकार आदिसे वेष्टित होता है, पर द्वार आदि जिसके धन्द नहीं होताहै, कोई कूटागार ऐसा होता है कि जो प्राकार आदि से वेष्टित नहीं होता है, परन्तु-द्वार आदि जिसके बन्द
" चत्तारि कूडगारा पण्णचा" त्यादिસૂત્રાર્થ–ફટાગારના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કેઈ ફૂટાગાર એવું હોય છે કે જે પ્રાકાર (કેટ) આદિથી વેણિત હોય છે અને જેના દ્વારાદિ પણ બંધ રહે છે. (૨) કઈ કૂટાગાર એવું હોય છે કે જે પ્રાકાર આદિથી વેણિત હોય છે પણ તેના દ્વારાદિ બંધ હતાં નથી. (૩) કોઈ કૂટાગાર એવું હોય છે કે જે પ્રાકાર આદિથી વેષ્ટિત હેતું નથી પણ તેનાં દ્વારાદિ બધ હોય છે. (૪) કેઈ
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स्थानाङ्गसूत्रे मेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गुप्तो नामैको गुप्तः १, गुप्तो नामैकोऽगुप्तः २, अगुप्तो नामैको गुप्तः ३, अगुप्तो नामैकोऽगुप्तः ।।
चतस्रः कूटाऽऽकारशालाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-गुप्ता नामैका गुप्तद्वारा १, गुप्ता नामैकाऽगुप्तद्वारा २, अगुप्ता नामका गुप्तद्वारा ३, अगुप्ता नामैकाऽगुप्तद्वारा ४॥
एवमेव चतस्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गुप्ता नामैका गुप्तेन्द्रिया १, गुप्ता नामैकाऽगुप्तेन्द्रिया २, अगुप्ता नामैका गुप्तेन्द्रिया ३, अगुप्ता नामैकाऽगुप्तेन्द्रिया ४ । सू० ३६ ।
टीका-" चत्तारि कूडागारा" इत्यादि-चत्वारि कटागाराणि-शिखरयुक्तगृहाणि, प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गुप्त-प्राकारप्रभृतिना वेष्टितं कोपगृहादिकं तदेव पुनर्गुप्त-पिहितद्वारतया, एकं भवति, 'नामे' ति वाक्यालङ्कारे एवमग्रेऽपि । इत्थमेवावशिष्टास्त्रयो भङ्गा विज्ञेयाः ।४ इति दृष्टान्तभूतकूटागारमूत्रम् ॥ रहते हैं ३ । तथा चौथा कूटागार ऐसा होता है कि जो न तो प्राकार
आदिसे वेष्टित होता है और न तो द्वार आदि ही उसके बन्द रहते हैं ४ । इसी तरहसे चार पुरुषजात कहे गये हैं। जैसे-गुप्त गुप्त, गुप्त अगुप्त, अगुप्त गुप्त और अगुप्त अगुप्त ४ । चार कूटागारशालाएं कही गई हैं, गुप्ता गुप्तद्वारा, गुप्ता अगुप्तद्वारा, अगुप्ता गुप्तद्वारा, अगुप्ता अगुप्तद्वारा ४ । शिखरयुक्त गृहका नाम कूटागार है । जिसका कोषगृह आदि प्राकार आदिले वेष्टित होता है । तथा स्वयंभी जो पिहित द्वारवाला होता है, ऐसा वह कूटागार गुप्त है। इसी तरह आगेभी जानना चाहिये। अवशिष्ट और तीन भङ्गभी स्वयं उत्प्रेक्षित कर लेना चाहिये। ___ येचार कूटागार जैसे कहे गये हैं-उमी प्रकारसे पुरुष जातभी चार कहे गये हैं। उनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो वस्त्रादिसे आच्छाફટાગાર એવું હોય છે કે જે પ્રાકારાદિથી વેષ્ટિત પણ હવું નથી અને તેના દ્વારાદિ પણ બંધ હતાં નથી
मे प्रमाणे या२ पुरुषतत डी. छ-(१) शुत गुप्त, (२) गुमशुत, (3) मगुप्त गुप्त मने (४) भगुप्त मत
यार टागारशालामा ४ही छे-(१) शुता शुतद्वा२।, (२) शुता मगुप्त દ્વારા, (૩) અગુપ્તા ગુપ્તદ્વારા અને (૪) અગુપ્તા અગુપ્તદ્વારા | શિખરિયુક્ત ગૃહનું નામ કૂટાગાર છે જે કૂટાગાર પ્રાકાર (કેટ) આદિથી પરિવેખિત હોય છે અને જેનાં દ્વાર પણ બંધ હોય છે એવા તે કૂટાગારને ગુપ્ત ગુપ્ત રૂપ પહેલા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગાએ પણ જાતે જ સમજી શકાય એવાં છે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ. १ सू०३६ दाष्टांन्तिकपुरुषजातसूत्रनिरूपणम् ५७७
अथ दान्तिकपुरुपजातमूत्रम्" एवामेवे"-त्यादि-एवमेव-कूटांगारवदेव, पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः कश्चित् पुरुषः, गुप्त:-वस्त्रादिनाऽऽच्छादितः स एव पुनः गुप्तः-जितेन्द्रियतया कृताऽऽत्मरक्षो भवति, यद्वा-कालापेक्षया पूर्व गुप्तो-गुप्तेन्द्रियोऽधुनाऽपि पुनर्गुप्तः १, एवमपरेऽपि भङ्गा ऊहनीयाः ।४॥ इति,
अथ दृष्टान्तभूतकूटाऽऽकारशालामूत्रम्--- " चत्तारि कूडागारे "--त्यादि-कूटस्य-शिखरस्याऽऽकार इव आकारो यासां स्ताः कूटाऽऽकाराः ताश्चताः शालाः कूटाऽऽकारशालाऽशिखराऽऽकारगृहविशेषः, ताः, चतुस्रः-चतुःसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः, अत्र दार्टान्तिकस्त्रीविवक्षया तत्साधयंप्रदर्शनाय 'कूटाऽऽकारशाले ' त्यस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः । तद्यथागुप्ता-प्राकारादिना वृता, सैव पुनर्गुप्ता-पिहितद्वारतया, एका-काचित् कूटाऽऽकारशाला भवति, एवमपरेऽपि भङ्गा विवेचनीयाः ४॥ दित होता हुवाभी जितेन्द्रिय होकर आत्मरक्षावाला होता है, अथवा जो कालकी अपेक्षा पहले गुप्त-गुप्तेन्द्रियवाला होता है और अबभी गुप्त है। यहाँ और जो तीन भङ्ग है वे स्वयं ऊहसे जानना चाहिये । ___“चत्तारि कूडागारे" त्यादि । शिखरके आकार जैसा आकार जिन शालाओंका होता है वे कूटागारशालाएं हैं, ऐसी कूटागारशालाएं शिखरोंके आकार जैसे गृहविशेष रूप होती हैं। कूटागार सदृश स्त्रियांभी चार प्रकारकी होती हैं, अर्थात्-जैसे कोई एक कूटागारशाला प्राकार आदि से वेष्टित होती है और पिहितद्वारवाली होती है, उसी प्रकारसे कोई एक स्त्रीभी ऐसी होती है जो परिवार-आदिसे
કુટાગારના જેવા ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એવાં જ ચાર પ્રકારના પુરુષે પણ હોય છે (૧) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે વસ્ત્રાદિથી આચ્છાદિત હોવા છતાં પણ જિતેન્દ્રિય લેવાથી આત્મરક્ષક હોય છે. અથવા કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે કાળની અપેક્ષાએ પહેલાં પણ ગુપ્ત (ગુપ્તેન્દ્રિયવાળા) હોય છે અને હાલમાં પણ ગુણ હોય છે બાકીના ત્રણ ભાંગાઓનું કથન પણ આ પ્રથમ ભાંગીને આધારે સમજી શકાય એવું છે.
चत्वारि कूडगारे" त्यात. शिसना रे शासन मा२ હોય છે તેને કૂટાગાર શાલાઓ કહે છે. એવી કૂટાગાર શાલાઓ શિખરના આકાર જેવા ગૃહવિશેષ રૂપ હોય છે. કૂટાગાર શાલાઓની જેમ સ્ત્રીઓ પણ ચાર પ્રકારની હોય છે. એટલે કે જેમ કેઈ એક ફૂટાગારશાલા પ્રાકાર આદિથી
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अथ दान्तिक स्त्रीसूत्रम्
"
'एवामेव चत्तारि इत्थोओ " इत्यादि - एवमेव- कूटाऽऽकारशाला वदेव, स्त्रियः चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - गुप्ता - परिवारवेष्टिता गेहमध्यगता वस्त्राऽच्छादिवाङ्गी गूढस्वभावावा, सैव पुनर्गुप्तेन्द्रिया - अनुचिताऽऽचरणान्निवर्तितेन्द्रिया, एका-काचित् स्त्री भवति, शेषभङ्गेष्वप्येवमेव यथावदर्थः स्वयमृह्यः । सू० ३६ । अनन्तरं गुप्तेन्द्रियत्वमुक्तं तत्रेन्द्रियाणि चावगाहनाऽऽश्रयाणीत्यवगाहनां निरूपयितुमाह
प्र
-pr
1
स्थान सूत्रे
मूलम् - चउविहा ओगाहणा पण्णत्ता, तं जहा दव्वोगा हणा १, खेत्तोगाहणा २, कालोगाहणा ३, भावोगाहणा पासू. ३७
छाया - चतुर्विधा अवगाहना प्रज्ञप्ता, तद्यथा - द्रव्यावगाहना १, क्षेत्रावगाः 'इना २, काळावगाहना ३, भावावगाहना ४। सू० ३७ ।
4
वेष्टित होती है, बा - घरके भीतर रहती है, या अच्छे-२ वस्त्रों से आच्छादित रहती है अथवा - गुढ स्वभाववाली होती है । ऐसी वह स्त्री गुप्ता स्त्री है और वह स्त्री अनुचित आचरणसे निवर्तितइन्द्रियवाली होती हुई गुप्तेन्द्रिया कही गई है। यह प्रथम भङ्ग है, बाकी तीन भङ्ग उद्भावित कर लेना चाहिये। जैसे- गुप्ता अगुप्तेन्द्रिया २, अगुप्ता गुप्ते. न्द्रिया ३ अगुप्ता अगुप्तेन्द्रिया ४ || सू० ३६ ॥
"
इन्द्रियां अवगाहना वाली होती हैं, अतः - अब सूत्रकार अवगाहना का निरूपण करते हैं । " चउव्विदा ओगाहणा पण्णत्ता " इत्यादि । પરિવષિત પણ હાય છે અને ખંધ દ્વારવાળી પણુ હાય છે, તેમ કાઈ ઔ शेवी होय छे। ने परिवार, स्माहिथी वेष्टित होय छे, अथवा धरनी अधर् રહે છે, અથવા સુન્નર સુંદર વોથી આચ્છાદિત રહે છે. અથવા ગૂઢ સ્વભાववाणी, होय छे, मेथी, ते खी, गुप्ता श्री उडेवाय छे, अने ते श्री अनुचित આચરણ દ્વારા નિવૃતિંત ઇન્દ્રિયાવાળી પણ બનેલી હોય તે તેને ગુપ્તેન્દ્રિયા પણ કહી શકાય છે.. આ ગુપ્તા ગુપ્તરૂપ પહેલા વિકલ્પ સમજવા, બાકીના જે ત્રણ ભાંગા છે, તેમના ભાવાર્થ પણ આ પ્રથમ ભાંગાને આધારે સમજી લેવા, બીજો ભાંગેા-ગુપ્તા અગ્રુપ્તેન્દ્રિયા, ત્રીજો ભાંગેા-અનુષા ગુપ્તેન્દ્રિયા मने, योथ्रो लांगो–अगुप्ता अगुप्तेन्द्रिया ॥ सू. उहु ॥
ઇન્દ્રિયા અવગાહનાવાળી હાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર અવગાહનાનું नि३५णु४रे छे, " चव्विा ओगाहणा पण्णत्ता " त्याहि
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सुधाटीका स्था० ४ उ० १ सू० ३७ दान्तिकस्त्रीसूत्रनिरूपणम् પહેરુ “टीका-" चउबिहा ओगाहणा" इत्यादि - अवगाहना - अवगाहन्तेआसते यत्र, अथवा-अवगाहन्ते-आश्रयन्ति जीवा यां सा अवगाहना-शरीरम् , सा अवगाहना चतुर्विधा, प्रज्ञशाः, तद्या-द्रव्यावगाहना-द्रव्यतोऽवगाहना-अनन्तद्रव्यरूपा १, क्षेत्रावगाहना-क्षेत्रतोऽवगाहनाऽसंख्येयप्रदेशावगाढा २, कालावाहना-कालतोऽवगाहनांऽसंख्येयसमयस्थितिको '३, भावावगाहना-भावतोऽ. वगाहना वर्णाद्यनन्तगुणरूपा ४ सू० ३७ ॥
सूत्रार्थ-अवगाहना चार प्रकारकी कही गईहै, जैसे-द्रव्याऽवगाहना१, क्षेत्राऽवगाहना २, कालाऽवगाहना ३, भावाऽवगाहना ४ । टीकार्थ-जीचोंका जिप्समें रहना होताहै, अथवा जीव जिसका आश्रय करते हैं, वह अवगाहनाहै । अवगाहनाका तात्पर्य शरीरा है । यह अवगाहना द्रव्यावगाहनादि भेदोंसे चार प्रकारसे विभक्त है। उसका सारांश ऐसा है कि द्रव्यको आश्रित करके जो अवगाहना है वह द्रव्यावगाहना है १ । क्षेत्रको लेकर जो अवगाहना है वह क्षेत्रावगाहना है २ । कालको आश्रित करके जो अवगाहना है वह कालावगाहना है ३ । और भावको आश्रित करके जो अवगाहना है वह आवाऽवगाहना है ४ । द्रव्याऽवगाहनाअनन्तद्रव्यरूप होतीहै, क्षेत्रावगाहना-असंख्यात प्रदेशाऽवगाढ रूप होती है। कालावगाहना-असंख्यात समयकी स्थितिरूप है, और भावावगाहना-वर्णादि अनन्त गुणरूप होती है । सू० ३७ ॥
सूत्रार्थ:-माना या२ २नी ही छे-(१) द्रव्यागाना, (२) क्षेत्रावआईना, (3) सपना भने (४) मापन * ટીકા–જેનું જેમાં રહેવાનું થાય છે અથવા જેને આશ્રય કરે છે તે અવગાહના છે. અવગાહનાને ભાવાર્થ શરીર છે. તે અવગાહનાના દવ્યાવગાહના આદ જે ચાર ભેદ કહ્યા છે તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે––દ્રવ્યને આશ્રિત કરીને જે અવગાહના થાય છે તેને દ્રવ્યાવગાહના કહે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ જે અવગાહના થાય છે તેને ક્ષેત્રાવગાહના કહે છે. કાળની અપેક્ષાએ જે અવગાહના થાય છે તેને કાલાવગાહના કહે છે. અને ભાવની અપેક્ષાએ જે અવગાહના થાય છે તેને ભાવાવગાહના કહે છે. દ્રવ્યાવગાહના અનન્ત દ્રવ્યરૂપ હોય છે, કાલાવગોહના અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિ રૂપ હોય છે. ક્ષેત્રાવગાહના અસંખ્યાત પ્રદેશાવગઢ રૂપ હોય છે, અને ભાવાવગાહનાં વર્ણાદિ અનન્ત ગુણરૂપ હોય છે. જે સૂ૩૭ છે -
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स्थानाशय पूर्वमवगाहना निरूपिता, सा च प्रज्ञप्तिषु भवतीति प्रज्ञप्तिस्थानकचतुष्टयं निरूपयितुमाह
मूलम्-चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-चंदपण्णत्ती १, सूरपण्णत्ती २, जंबुद्दीवपण्णत्ती ३, दीवसागरपण्णत्ती ४॥ सू० ३८॥
छाया-चतस्त्रः प्रज्ञप्तयोऽङ्गवाह्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा -चन्द्रप्रज्ञप्तिः १, सूर प्रज्ञप्तिः २, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः ३, द्वीपमागरप्रज्ञप्तिः ४ ॥ सू० ३८ ॥
टीका-" चत्तारि पण्णत्तिओ" इत्यादि-अङ्गवाह्याः-अङ्गानि-आचाराशादीनि, तेभ्यो वहिर्भवा वाह्या:-अङ्गवाह्याः-आचाराङ्गादि पृथग्भूताः, प्रज्ञप्तयःप्रज्ञाप्यन्ते-प्रकर्षण वोध्यन्तेऽर्था यत्रेति प्रज्ञप्तयः, यद्वा ज्ञप्ति:-अर्थानां वोधः, प्रकृष्टा ज्ञप्तिर्यत्र ताः प्रज्ञप्तयः, ताश्चतस्रा चतुःसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चन्द्रप्र. ज्ञप्तिः-कालिकश्रुतरूपा १, 'सरप्रज्ञप्तिः, तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः' इमे तृतीया
निरूपित यह अवगाहनाप्रज्ञप्तियों में होती है। इसलीये अवसूत्रकार चार प्रज्ञप्तियोंका निरूपण करते हैं । " चत्तारि पण्णत्तीओ" इत्यादि ।
सूत्रार्थ-चार प्रज्ञप्तियां अङ्गबाय कही गईहैं, जैसे-चन्द्र प्रज्ञप्ति १, सूर प्रज्ञप्ति २, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ३ और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति ४ ।। टीकार्थ-अङ्गाबाह्यका तात्पर्य है जो-आचाराङ्गादिसे बाहिरहो-वे, ये प्रज्ञप्तियां आचाराङ्गादि पृथग्भूत कही गई हैं। प्रकर्ष रूपसे अर्थ-पदार्थ जहां जाने जाते हैं, वे प्रज्ञप्तियां है । अथवा-प्रकृष्ट रूप से अर्थों का बोध जहांपरसे हो जाताहै वह प्रज्ञप्ति है, ऐसी प्रज्ञप्तियां चार जो कही गई हैं उनमें से चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक श्रुतरूप है १ तथा-सूर प्रज्ञप्ति प्रकीर्ण रूप है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
આ અવગાહનાનું પ્રજ્ઞપ્તિમાં નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી હવે सूत्रा२ या२ प्रज्ञप्तिमार्नु नि३५ ४रे छ. " चत्तारि पण्णत्तीओ" त्याह
સૂત્રાર્થ-આ ચાર પ્રજ્ઞપ્તિયોને અંગબાહ્ય કહી છે જેમકે (૧) ચન્દ્ર પ્રજ્ઞપ્તિ, (२) सू२ प्रशसि, (3) 'भूद्री५५जति मने (४) दी५सा२प्रज्ञप्ति..
ટીકા–“અંગબાહ્ય” આ પદને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–આચારાંગ આદિ અંગોમાં જેમને સમાવેશ થતો નથી એવી પ્રજ્ઞપ્તિઓને અંગબાહા પ્રજ્ઞપ્તિએ કહી છે, ચન્દ્ર પ્રજ્ઞપ્તિ આદિ ચારને આચારાંગાદિથી પૃથફભૂત કહી છે. અથવા અર્થ–પદાર્થને બોધ જ્યાંથી પ્રકર્ષ રૂપે થાય છે, તેનું નામ પ્રજ્ઞપ્તિ છે. અહીં જે ચાર પ્રજ્ઞપ્તિ કહી છે તેમાંથી ચન્દ્રપ્રજ્ઞપ્તિ કાલિકકૃત રૂપ છે, તથા
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सुधा टीका स्था० ४ उ०१ सू०३८ प्रशप्तिनिरूपणम् चतुथ्यौँ पञ्चम-पष्ठाङ्गयोरुपाङ्गभूते स्तः, अपरे द्वे तु प्रकोणरूपे ३, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः ।४। व्याख्यामज्ञप्तिः पञ्चमी विद्यते, सा चाङ्गप्रविष्टा, तेनात्र नोपात्तेति । सू० ३८॥
इति श्री विश्वविख्यात-जगल्लाभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदश भाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्ध गद्धपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुर राजप्रदत्त 'जैन शास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापु. रराजगुरु वालब्रह्मचारि-जैनाचाय--जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री .. घासीलाल व्रतिविरचितायां स्थानाङ्गमूत्रस्य सुधाख्यायां
व्याख्यायाम् चतुर्थ स्थानस्य प्रथमोद्देशः समाप्त ॥४-१॥ और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो प्रज्ञसियां पांचवें और छठे अङ्गके (अङ्ग अर्थात् ) उपाङ्ग हैं। ___ यद्यपि-व्याख्याप्रज्ञप्तिभी पांचवी है, पर वह अङ्गप्रविष्ट है, इसलिये-उसका यहां ग्रहण नहीं हवा है। प्रथम प्रज्ञप्ति-और द्वितीय प्रज्ञप्ति ये दो प्रज्ञप्तियां प्रकीर्ण हैं। और तीसरी तथा चौथी प्रज्ञप्तियां पांचवे छठे अङ्गाके उपाङ्ग रूप हैं। सू० ३८॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचित स्थानाङ्गसूत्रकी सुधानामक टीकार्थके चौथे स्थान का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ४.-१॥ સુરપ્રજ્ઞપ્તિ પ્રકીર્ણરૂપ છે જબૂદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ અને દ્વિપસાગર પ્રાપ્તિ, એ બને પ્રજ્ઞપિયે પાંચમાં અને છઠ્ઠા અંગના ઉપાંગરૂપ છે. - જે કે વ્યાખ્યામમિ પણ પાંચમી છે, પણ તે અંગપ્રવિષ્ટ છે, તેથી અહીં તેને ગ્રહણ કરવામાં આવી નથી. પ્રથમ પ્રકૃતિ અને દ્વિતીય પ્રજ્ઞપ્તિ, એ બે પ્રજ્ઞપ્તિએ પ્રકીર્ણ છે ત્રીજી અને ચેથી પ્રજ્ઞપ્તિ પાંચમા અને છઠ્ઠા અંગના ઉપાંગરૂપ છે. સૂ. ૩૮ છે શ્રી જૈનાચાર્ય–જૈન ધર્મ દિવાકર-પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલ મુનિ વિરચિત સ્થાનાંગ સૂત્રની ટીકાથના ચેથા સ્થાનકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત છે ૪–૧
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स्थानाङ्गसूत्रे
......... अथ द्वितीयोद्देशः प्रारभ्यते .. ......
पूर्व चतुःस्थानकस्य प्रथमोदेशो व्याख्यातः, साम्प्रतं द्वितीयोदेशों व्याख्यातुमारभ्यते, तत्र पूर्वोद्देशेन सहास्यायं सम्बन्धः-अनन्तरोक्तोद्देशे जीवादि द्रव्यपर्यायाणां चतुःस्थानकमभिहितमत्रापि तेपामेव तदेवाभिधीयते, तत्र पूर्वसूत्रेणास्यायं सम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे प्रज्ञप्तय उक्ताः, ताश्च प्रतिसंलीनैरेव ज्ञायन्त इति प्रतिसलीनांऽतद्विपरीताऽमतिसंलीनांथ निरूपयितुं सूत्रचतुष्टयमाह
मूलम् चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा-कोहपडिसलीणे १,माणपडिसंलीणे २,मायापडिसंलीणे ३, लोभपडिसंली।४॥१॥ .....
- चौथे स्थानकका दूसरा-उद्देशक :इस प्रकार चतुःस्थानकका प्रथम उद्देशक कहा । अब द्वितीय उद्देशक प्रारभ्भ होता है । इसका पूर्व उद्देशकके साथ ऐसा सम्बन्ध है। अनन्तर उद्देशकमें जीवादिद्रव्य और उनकी पर्यायोंका चतुःस्थानक कहो गया है सो यहां पर भी उन्हींका वही कहा जावेगा। पूर्व सूत्रके साथ यहां. ऐसा सम्बन्ध है कि-अनन्तर सूत्र में जो प्रज्ञप्तियां कही गई हैं, वे प्रतिसंलीनों द्वारा जानी जाती हैं । अतः-अव सूत्रकार प्रतिसंलीनोंका और उनसे विपरीत अप्रतिसंलीनोंका निरूपण चार सूत्रोंसे करते हैं । " चत्तारि पडिसलीणा पण्णत्ता" इत्यादि
यथा स्थानाने माने शि:- ચતુજસ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશાની પ્રરૂપણું પૂરી થઈ. હવે સૂત્રકાર બીજા ઉદેશાની પ્રરૂપણને પ્રારંભ કરે છે. પહેલાં ઉદ્દેશા સાથે આ ઉદ્દેશાને આ પ્રકારને સંબંધ છે-પહેલા ઉદ્દેશામાં જીવાદિ દ્રવ્ય અને તેમની પર્યાયોનું ચાર
સ્થાનકેની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે આ ઉદ્દેશામાં પણ તેમનું જ ચાર ચાર સ્થાનકને આધારે નિરૂપણ કરવામાં આવશે પૂર્વસૂત્ર સાથે અહીં આ પ્રકારને સંબંધ છે–પહેલા સૂત્રમાં પ્રજ્ઞપ્તિઓનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. તે પ્રજ્ઞપ્તિઓ પ્રતિસંલીને દ્વારા જાણી શકાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રતિસંલીતેનું તથા તેમનાથી વિપરીત એવાં અપ્રતિસલીનુ ચાર સૂત્રો દ્વારા નિરૂपरे छे. “'चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता" त्याहि-
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सुधा डीका स्था० ४ उ०२ सू० ३९ प्रतिसलीनाऽप्रति संलीननिरूपणम्
-५८३
चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहां को अपडिसंलीणे जाब लोभ पडिलीणे । २ ॥
चत्तारि पडिलीणा पण्णत्ता, तं जहा-मणपडि संलीणे १, वाइपडिली २, काय पडिलोणे ३, इंदियपांडसंलीणे ४३ ॥
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चत्तारि अपडिसलीणा पण्णत्ता, तं जहा-मणअपडिसलीणे
१, जाव इंदिय अपडिली || ४ || सू० ३९ ॥
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छाया - चत्वारः प्रतिसंकीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्रोधप्रतिसंलीनः १, मानप्रतिसंलीनः २, मायाप्रति संलीनः ३, लोभप्रतिसंलीनः ४ । १ ।
चत्वारोऽप्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्रोधाप्रतिसंलीनः यावत् लोभा प्रतिसंलीनः ४ । २ । ' =
चत्वारः प्रविसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - मनःमतिसंलीनः १, वाक्प्रतिसंलीनः २, कायप्रति संलीनः ३, इन्द्रियप्रति संलीनः । ४ । ३ ।
६
- माचत्वारोऽमतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मनोऽप्रतिसंलीनः यावत् इन्द्रिया प्रतिसंलीनः ४ । ४ । ०.३९.
सूत्रार्थ - चार प्रतिसंलीन कहे गये हैं, जैसे- क्रोध' प्रतिसंलीन १, मान प्रतिसंलीन २, माया प्रतिसंलीन ३, और लोभ प्रतिसंलीन ४ ।
- चार अप्रतिसंलीन कहे गये हैं, जैसे- क्रोध अप्रतिसंलीन १ यावत् लोभ अप्रति संलीन ४ । इस प्रकार से भी चार प्रतिसलीन कहे गये हैं, जैसे- मनः प्रतिसंलीन १, वचन, प्रतिसंलीन २, काय प्रतिसंलीन ३, और इन्द्रिय प्रतिसंलीन ४ । चार इस प्रकार से भी अप्रतिसंलीन कहे हैं, जैसे - मनोऽप्रतिसलीन १, यावत् इन्द्रिय अप्रतिसंलीन ४ ।
1
..
यार प्रहारना अलिस सीन उद्या छे - (१) ओधू अतिभीत, (२) भान अतिसलीन, (3), आया प्रतिस सीन मते (४) बोल प्रतिससीन, मेन प्रभा यार प्रहारना, अश्रुतिसखीना उद्या छे - (१), अधु, अप्रतिससीन, (२) भान अप्रतिसुतीन, (३) भाषा, अप्रतिसंज्ञीन भने, (४) बोल अप्रतिसलीन, आ अरे यार प्रतिससीन उद्या थे - ( १ ) भनः अतिसंसीन, (२) वाई प्रतिससीन, (3) प्राय प्रतिस सीन भने (४) धन्द्रिय अतिस सीन मे ४ प्रभा ચાર પ્રકારના અસલીન નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે-(૧) મનઃ અપ્રતિસ’લીન આિ ઇન્દ્રિય અપ્રતિસ’લીન પન્તના ચાર પ્રકારે સમજવા,
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स्थामाङ्गसूत्रे टीका-" चत्तारि पडिसंलीणा " इत्यादि-प्रतिसंलीना:-प्रति-वस्तु वस्तु प्रतिसंलीनाः आत्मसंगोपकाः प्रतिसंलीनाः, ते चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्रोधप्रतिसलीन:-क्रोधं प्रति उदयनिरोधेनोदितविफलीकरणेन च प्रतिसंलीनः क्रोधप्रतिसंलीनः उक्तं च___“ उदयस्सेव निरोहो उदयपत्ताण वाऽफली करणं ।
जं एत्थ कसायाणं कसायसंलीणया एसा । १।" छाया-" उदयस्यैव निरोधः उदयप्राप्तानां वाऽफलीकरणम् ।
यदत्र कपायाणां कषायसंलीनतैपा।१" एवं मानादिष्यपि विज्ञेयम् ।
" चत्तारिअपडिसंलीणा" इत्यादि - अप्रतिसंलीनाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्रोधाप्रतिसंलीन:-क्रोधं प्रति अप्रतिसंलीनः-सम्यनिरोधरहितः १, एवं मानादिष्वपि विज्ञेयम् । २।
टीकार्थ-हर एक वस्तु के प्रति जो आत्मसंगोपक होते हैं, वे प्रतिसंलीन हैं। ये प्रतिसंलीन जो क्रोध प्रतिसंलीन आदिके भेदसे चार कहे गये हैं उनका अभिप्राय ऐसा है-जो उदित हुवे क्रोधको विफल कर देते हैं या उसके उदयका निरोध कर देते हैं, वे क्रोध प्रतिसंलीन हैं। कहाभी है
"उदयस्सेवनिरोहो" इत्यादि।
कषायोंके उदयका निरोध करना अथवा-उदय प्राप्त कषायोंको विफल करना यह कषाय संलीनता है। इस तरहका कथन मान आदिकोमें भी समझ लेना चाहिये । चत्तारि अपडिसलीणा-इत्यादि । क्रोध अप्रतिसंलीन आदिके भेदसे जो अप्रतिसंलीन चार प्रकारके कहे गये हैं, उनका तात्पर्य ऐसा है-वे क्रोध अप्रतिसंलीन हैं, इसी तरहका कथन मान आदिकोमें भी जानना चाहिये ।
ટીકાથે–એક વસ્તુ પ્રત્યેથી આત્માને વાળી લેનારને પ્રતિસલીન કહે છે. જે માણસ ઉદિત થયેલા ક્રોધને વિફલ કરી નાખે છે અથવા તેના ઉદયને નિરોધ કરી નાંખે છે તેને કોઈ પ્રતિસલીન કહે છે કહ્યું પણ છે કે" उदयस्सेवनिरोहो" त्या-पायाना या नि५ ४२व। य પ્રાપ્ત કથાને વિફલ કરવા તેનું નામ કષાય સંલીનતા છે. આ પ્રકરનું કથન માન, માયા અને લાભ વિશે પણ સમજવું. __ " चत्तारि अपडिसंलीणा" छत्या. मप्रतिसकीनना-ध मप्रतिaala આદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. ઉદય પ્રાપ્ત ક્રોધને નિરોધ નહીં કરનારને ક્રેપ અપ્રતિસં લીન કહે છે એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ અપ્રતિસંલીનને ભાવાર્થ પણ જાતે જ સમજી લે.
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सुधा टीका स्था० ४ २०२ सू०३९ प्रतिसलीनाप्रतिसंलीननिरूपणम् . ५८५
" चत्तारि पडिसंलीणा" इत्यादि-पुनः प्रतिसंलीनाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मन प्रतिसंलीना-कुगलमनस उदीरणेन अकुशलमनसो निग्रहेण च प्रतिसंलीनं-संनिरुद्धं मन.-चित्तं यस्य स तथा । एवं वाकाययोरपि वोध्यम् । तथाइन्द्रियप्रतिसंलीनो-मनोज्ञामनोज्ञशब्दादिविषयेषु रागद्वेषनिवारकः, उक्त च
" अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कज्जमि य विही गमणं जोगे संलीणया भणिया ।१।" सद्देसु य भदयपावएसु सोयविसमुवागएम् ।
तुडेण व रुटेण व समणेण सया न होयध्वं ॥२॥" छाया-" अप्रशस्तानां निरोधो योगानामुदीरणं च कुशलानाम् ।
कार्ये च विधिना गमनं योगे सलीनता भणिता।१। शब्देषु भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु ।
तुष्टेन वा रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् । २ ।" इति, ३॥ एवं शेषेन्द्रियेष्वपि प्रतिसंलीनता वोध्या । '" चत्तारि पडिसलीणा" इत्यादि
पुनः प्रतिसंलीन जो मनः प्रतिसंलीन आदिके भेदसे चार कहे गये हैं, उनका अभिप्राय ऐसा है कि कुशल मनके उदीरणसे और अकुशल मनके निग्रहसे जिसने अपने मनको प्रतिसंलीन कर लिया (रोकदिया) है वह " प्रतिसंलीन मनाः " है । इसी तरहसे वचन और कायके सम्बन्धमें
भी जानना चाहिये । तथा इन्द्रियसलीन वह है जो मनोज्ञ और अम-नोज्ञ शब्दादि विषयोंमें राग-द्वेषका निवारक होता है। कहाभी है
"अपसत्थाण निरोहो" इत्यादि । इसी प्रकारसे शेष इन्द्रियोमें भी प्रतिसंलीनताकी व्याख्या कर लेनी चाहिये।
। चत्तारि पडिसलीणा" त्याह-प्रतिम दीनना मन: प्रतिसीन माह જે ચાર ભેદ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ-કુશલ મનના ઉદીરણથી અને અકુશલ - મનના નિગ્રહથી જેણે પિતાના મનને પ્રતિસંલીન કરી દીધું છે, તેને “પ્રતિસલીમના કહે છે. એ જ પ્રમાણે વચન અને કાયને વિષે પણ સમજવું ઈન્દ્રિય પ્રતિસંલીન એ છે કે જે મને અને અમને શબ્દાદિ વિષયમાં રાગ देपना निवा२४ सय छे. ४यु ५५ छ -." अपसत्थाणनिरोहो" त्याlt.
એ જ પ્રમાણે બાકીની ઈન્દ્રિમાં પણ પ્રતિસલીનતાની વ્યાખ્યા સમજી स ७४
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स्थानाङ्गसूत्रे "चत्तारि अपडिसलीणा" इत्यादि-अप्रति संलीनाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः तद्यथामनोऽप्रतिसंलीन:-मन सम्यनिरोधरहितः । एवं वाकायेन्द्रियेष्वपि वाच्यम् । ॥ सू० ३९॥
पूर्वमप्रतिमलीनः प्रोक्तः, सतु दीन एव भवतीति दीनं चतुर्भङ्गया निरूपयन् सप्तदशसूत्रीमाह___मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दीणं णाममेगे दीणे १, दीणे णाममेगे अदीणे २, अदीणे णाममेगे दाणे ३, अदीणे णाममेगे अदीणे ४ । १ ।
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--दीणे णाममेगे दीणपरिणते १, दीणे णाममेगे अदीणपरिणते २, अदीणे णाममेगे दोणपरिणते ३, अदीणे णाममेगे अदीणपरिणते । ४।२।
चारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-दीणे णाममेगे दीण रूवे १, ह ।४।३। एवं दीणमणे ४, ४, दीणसंकप्पे ४, ५, दीणपन्ने ४, ६, दीणदिट्टी ४,७, दीणसीलायारे ४, ८, दीणववहारे ४,९।
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दीणे णाममेगे दाण "चत्तारि अपडिसंलीणा" इत्यादि। यहां जो पुनः मनो प्रतिसंलीन आदि के भेदसे चार अप्रतिसंलीन कहे गये हैं। उनका तात्पर्य ऐसा है जो मनको सम्यक् प्रकारसे निरोध करनेसे रहित है, वह मनः अप्रतिसंलीन है इसी तरहका कथन वाक्-काय एवं इन्द्रियोंके निरोध सम्बन्धमें भी कर लेना चाहिये ॥ सू० ३९ ॥ खेवा. " चत्तारि अपडिसलीणा." त्याहि-मप्रतिसताना मनः मप्रतिसदीन આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે, તે ચાર ભેદનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે
જે મનને સમ્યક પ્રકારે નિરોધ ( નિગ્રહ) કરવાથી રહિત હોય છે, તેને મનઃ અપ્રતિસંલીન કહે છે. એ જ પ્રકારનું કથન વા, કાય અને ઇન્દ્રિચેના નિવેધ વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ. એ સૂ. ૩૯ છે
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू०४० दीनस्वरूपनिरूपणम् ...... ५८७ परकमे, दीणे णाममेगे अदीण ह्व ।४।१०, एवं सम्बोस चउभंगो भाणियवो,
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा दीणे णाममेगे दीणवित्ती ४, ११, एवं दीणजाई १२, दीणभासी १३, दीणोभासी१४,
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दोणे णाममेगे - दीणसेवी ह।४।१५, दीणे णाममेगे दीणपरियाए १६, दीणे णाममेगे दीण परियाले ह।४।१७ सम्वत्थ चउभंगो॥सू ४०॥
छाया-चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दीनो नामैको दीनः १, दीनो नामैकोऽदीनः २, अदीनो नामैको दीनः ३, अदीनो नामैकोऽदीनः ४,१॥
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दीनो नामैको दीनारिणतः १, दीनो नामैकोऽदीनपरिणतः २, अदीनो नामैको दीनपरिणतः ३, अदीनो नामैकोऽदीनपरिणतः ४।२। ___ चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दीनो नामैको दीनरूपः ह (४) ३,
जो अप्रतिसलीन कहा गया है, वह तो दीनही होता है अतः अब सूत्रकार चतुर्भट्टी द्वारा दीनका निरूपण करने निमित्त १७ सूत्रोंका कथन करते हैं। " चत्तारि पुरिसजाया पगत्ता" इत्यादिसूत्रार्थ-पुरुष चार कहे गयेहैं । दीन दीन १, दीन अदीन २, अदीन दीन३, और अदीन अदीन ४-१। पुरुषजात चार हैं। दीनदीनपरिणत १, दीन अदीनपरिणत २, अदीन दीनपरिणत ३, अदीन अदीनपरिणत ४२। पुरुषजात चार कहे गये हैं। दीन दीनरूप १, दीन अदीनरूप २, अदीन
પહેલાના સૂત્રમાં જે અપ્રતિસ લીન કહેવામા આવ્યા, તે તે દીન જ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ચતુર્ભગી દ્વારા દીનનું નિરૂપણ કરવાં માટે ૧૭ સૂત્રનું थन ४२ छे. “ चत्वारि पुरिस जाया पण्णता" त्याहि
सूत्राय-या२ प्रा२ना पुरुष या छ-(१) हीन दान; (२) हीन महीन, (3) અદીન દીન અને (૪) અદીન અદીન ૧ ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે(१) दीन दीन परिणत, (२) हीन मी 1, परिणत, (3) महीन दीन परियत भने (४) महान महान परित. । २ । ।
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स्थानाङ्गो एवं दीनमनाः ४, ४, दीनसंकल्पः ४, ५, दीनमज्ञः ४, ६, दीनदृष्टिः ४, ७, दीनशीलाऽऽचारः ४, ८, दीनव्यवहारः ४, ९, दीनरूप ३ और अदीन अदीनरूप ४ ३ । चार पुरुषजात हैं-दीन दीनमनवाला १, दीन अदीन मनवाला २, अदीन दीन मनवाला ३ और अदीन अदीन मनवोला ४-४ । पुरुषजात चार हैं। दीन दीन सङ्कल्पवाला १, दीन अदीन सङ्कल्पवाला २, अदीन दीन सङ्कल्पवाला ३ और अदीन अदीन सङ्कल्पवाला ४-५ । पुरुषजान चार हैं । दीन दीन प्रज्ञावाला १, दीन अदीन प्रज्ञावाला २, अदीन दीन प्रज्ञावाला ३ और अदीन अदीन प्रज्ञावाला ४-६ । पुरूषजात चार कहे गये हैं । दीन दीन दृष्टिवाला १, दीन अदीन दृष्टिवाला २, अदीन दीन दृष्टिवाला ३ और अदीन अदीन दृष्टिवाला ४-७। पुरुषजात चार कहे गये हैं। दीन दीन शीलाचारवाला १, दीन अदीन शीलाचारवाला २, अदीन दीन शीलाचारवाला ३,
और अदीन अदीन शीलाचारवाला ४-८ । पुरुपजात चार कहे गये हैं। दीन दीन व्यवहारवालो १, दीन अदीन व्यवहारवाला २, अदीन दीन व्यवहारवाला ३ और अदीन अदीन व्यवहारवाला ४-९। पुरुषजात चार कहे गये हैं। दीन दीन पराक्रमवाला १, दीन अदीन पराकमवाला
पुरुषतत या२ प्रारनी ही छ-(१) हीन दीन३५, (२) हीन महीन३५, (3) અદીન દીનરૂપ અને (૪) અદીન અદીનરૂપ ૩ પુરુષ જાત ચાર કહી છે-(૧) દીન દીન મનવાળ, (૨) દીન અદીન મનવાળો, (૩) અદીન દીન મનવાળો मन (४) महीन महीन भनवाणी । ४ ।
ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે–દીન દીન સંકલ્પવાળે, (૨) દીન અદીન सागो, (3) महीन टीन सपकाको मन (४) महान महान ४८५. वागा. । ५ । २ ५२ पुरुष छ-(१) दीनहीन प्रज्ञापाणी, (२) દીન અદીન પ્રજ્ઞાવાળે, :(૩) અદીન દીસ પ્રજ્ઞાવાળે અને (૪) અદીન અદીન પ્રજ્ઞાવાળે. ૬. ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે-(૧) દીન દીન દષ્ટિવાળે, (२) दीन महीन टिवाणा, (3) महीन दीन शिवाणी अने(४) महीन અદીન દષ્ટિવાળો ૭ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે-(૧) દીન દીન શીલાચારવાળે, (૨) દીને અડીને શીલાચારવાળે, (૩) અડીને દીન શીલાવારવાળા અને (૪) અદીન અદીન શીલાચરવાળે . ૮. ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે (१) बीनदान व्यवहारवाणी, (२) हीन महीन 448वाणी, (3) महीनान વ્યવહારવાળો અને (૪) અદીન અદીન વ્યવહારવાળે | ૯ | ચાર પ્રકારના
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I
सुधा टीका स्था०४ उ०२ सु० ४० दीनस्वरूपनिरूपणम्
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चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा दोनो नामैको दीनपराक्रमः, दीनो नामैकोऽदीनपराक्रमः हृ (४) १०, एवं सर्वेषां चतुर्भङ्गी भणितव्या,
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा दीनो नामैको दीनवृत्तिः ४, ११, एवं दीनजाति: १२, दीनभाषी १३, दीनावभासी (पी) १४,
(
चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - दीनो नामैको दीनसेवी ह १५, एवं दीनो नामैको दीनपर्याय: १६, दीनो नामैको दीनपरिवार ः ६ १७ सर्वत्र चतुर्भङ्गी । सु० ४० ।
( ४ )
४ )
२, अदीन दीन पराक्रमचाला ३ और अदीन अदीन पराक्रमबाला ४ १० पुरुषजात चार कहे गये हैं । दीन दीन वृत्तिवाला १, दीन अदीन वृत्ति वाला २, अदीन दीन वृत्तिवाला ३ और अदीन अदीन वृत्तिवाला ४-११ पुरुषजात चार हैं। दीन दीन जातिवाला १, दीन अदीन जातिवाला २, अदीनं दीन जोतिबाला ३ और अदीन अदीन जातिवाला १-१२ | पुरुषजात चार कहे गये हैं। दीन दीनभाषी २, दीन अदीनभाषी २, अदीन दोन भाषी ३ और अदीन अदीनभाषी ४ - १३ । पुरुषजात चार कहे गये हैं- दीन दीनाऽवभाषी १ दीन अदीनावभाषी - २ अदीन दीनाsaभाषी - ३ और अदीन अदीनाऽवभाषी - ४ -१४ पुरुषजात चार कहे गये हैं- दीन दीनसेवी -१ दीन अदीनसेची -२ अदीन दीनसेवी३ और अदीन अदीनसेची - ४, १५, पुरुष जाति चार कहे गये हैंपुरुष उद्या छे - (१) दीन हीन पराभवाणी, (२) हीन महीन पराभवाणी, (3) महीन हीन पराभवाणी, (४) मद्दीन हीन पराभवाणो भने (४) અદીન અદીન પાકમવાળેા । ૧૦ ।
यार अारना पुरुष उह्या छे - (१) हीन हीन वृत्तिवाणी, (२) हीन महीन वृत्तिवाणी (3) साहीत हीन वृत्तिवाणी, रमने (४) महीन महीन वृत्तिवाणी । ११ । यार प्रहारना पुरुष ४ह्या छे - (१) हीन हीन अतिपाणा, (२) हीन અદીન જાતિવાળા, (૩) દીન દીન જાતિવાળા અને (૪) અદ્દીન અદીન જાતિवाणो । १२ । यार अारना पुरुष ह्या छे - (१) हीन छीन लाषी, (२) हीन અદીન ભાષી, (૩) અક્રીન દીન ભાષી અને (૪) અદીન અટ્ટીન ભાષી । ૧૩ । यार अारना पुरुष उह्या छे - (१) हीन हीनावलाषी, (२) हीन महीनावलाषी, (૩) અદીન દીનાવભાષી અને (૪) અદીન મદીન વભાષી । ૧૪ ।
यार अठारना पुरुष उद्या छे - (१) हीन हीन सेवी, (२) हीन महीन सेवी, (3) महीन हीन, सेवी मने (४) महीन अहीन सेवी ॥ १५ ॥
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स्थानान सूत्रे
टीका - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि चत्वारि पुरुषजातानि - पुरुषप्रकाराः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एक - कश्चित् पुरुषो दीन - पूर्व दैन्यवान्, उपार्जितधनादेः क्षीणत्वात् पश्चादपि दीनः पुनर्धनाद्यागमाभावात् यद्वा - दीनो बहि हृच्या निस्तेजशरीरत्वात् स पुनर्दी नोऽन्तर्टच्या कलुपितचित्तवृत्तिकत्वात्, इति प्रथमो भङ्गः १ ।
3
"
दीन दीन पर्याय- १ दीन अदीन पर्याय-२ अदीन दीन पर्याय - ३ अदीन अदीन पर्याय- ४, १६ पुरुष जात चार कहे गये हैं- दीन दीन परिवार - १ दीन अदीन परिवार २ अदीन दीन परिवार - ३ औरअदीन अदीन परिवार - ४, १६ यह चालीसवां सूत्र है. इसके अन्त र्गत ये- १७ सूत्र हैं, इनके द्वारा जो सत्रह चतुर्भङ्गी प्रतिपादित की गई है. उस प्रत्येक का भाव इस प्रकारसे है
पुरुष जात का तात्पर्य पुरुष प्रकार से है, इस प्रकार में कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले के उपार्जित धन के क्षय से दीन हो जाता है और पश्चात् भी धनादि के अभाव से दीन ही बना रहता है. अथवा - निस्तेज शरीर वाला होने के कारण कोई एक पुरुष ऐसा होता है - जो बहिर्वृत्ति से भी दीन होता है और - अन्तर्वृत्ति से भी कलुषित चित्त वृत्तिवाला होने के कारण दीन बना रहता है, ऐसा यह - १ भङ्ग है । तथा कोई एक दूसरा पुरुष ऐसा भी होता है जो
ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે—(૧) દીત દીન પર્યાય, (૨) ટ્વીન અઠ્ઠીન पर्याय, (3) महीन हीन पर्याय भने (४) सहीन महीन पर्याय । १६ ।
ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે—(૧) દીન દીન પિરવાર, (૨) દીન અદીન પિરવાર, (૩) અઢીત દીન પરિવાર અને (૪) અદીન અદ્દીન પિરવાર । ૧૭ । આપ્યાં છે, તેમાં ૧૭ ચતુભ'ગી આવી છે—
આ ૪૦ માં સૂત્રમાં જે ૧૭ સૂત્રેા આપી છે તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં
પુરુષજાત એટલે પુરુષના પ્રકારો, તે પ્રકારે અહીં ૧૭ સૂત્ર અને ૧૭ ચતુભ‘ગીએ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. (1) કાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે ઉપાર્જિત ધનના ક્ષયથી દીન થઈ ગયા હૈાય છે, અને ત્યાર ખાદ પણ ધનાદિના અભાવે દીન દશામાં જ રહે છે. અથવા-નિસ્તેજ શરીર વાળા હાવાને કારણે કાઈ માણસ ખહવૃત્તિની અપેક્ષાએ પણ દીન હાય છે અને કલુષિત ચિત્તવાળા હાવાને કારણે અન્તવૃત્તિની અપેક્ષાએ પણ દીન હોય છે.
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सुधा टीका स्था० ४ २०२ १० ४० दीनस्वरूपनिरूपणम्
तथा-एक:-कश्चित् पूर्व दोनः, जन्मनो दरिद्रत्वात् पश्चाद् अदीनः, समुपा. जितसम्पत्तिकत्वात, यद्वा-दीनः, वहिया म्लानमुखयुक्तस्वात् अदीनः अन्तत्या औदार्यादिगुणवत्त्वात् , इति द्वितीयो भङ्गः।।
तथा-एकः-अपरः पुरुषः पूर्वम् अदीनः, सम्पत्त्यादिशालिवात् , पश्चाद् दीनो विनष्टसम्पत्यादित्वात् , यद्वा-दीनः, बहिर्टच्या सुन्दराऽऽकारत्वात् , दीन:, अन्तर्घच्या कलुपितचित्तत्वात् , इति तृतीयो भङ्गः । ३ । ___ तथा-एका-कश्चित् पुरुषः पूर्वम् अदीनः, धनादिसम्पन्नत्वात् , पश्चादपि अदीनः, तद्धिमत्मात्, यद्वा-अदीना, बहिर्डत्या हृष्टपुष्टशरीरत्वात् , पुनरप्यदीनः अन्तर्दृत्त्या प्रशस्तभाववत्वात् , इति चतुर्थो भङ्गाः ४।१। जन्म से दरिद्र होने के कारण पहले तो-दीन होता है पश्चात् अपने पुरुषार्थ से अर्जित सम्पत्ति वाला हो जाने से दीन नहीं रहता है, अथवा-म्लान मुख से युक्त होने के कारण कोई एक मनुष्य बहित्ति से तो दीन होताहै, और औदार्य आदि गुणोंसे युक्त होने के कारण अन्त
त्ति से अदीन होता है. ऐसा यह-द्वितीय भङ्ग है । तथा-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सम्पत्ति आदि से युक्त होने के कारण पहले अदीन होता है और-पश्चात् विनष्ट सम्पत्तिवाला हो जाने से दीन हो जाता है, अथवा-बाहर में सुन्दराकार वाला होने से कोई एक पुरुष पहले अदीन होता है और बाद में कलुषित चित्तवृत्तिवाला होने के कारण अन्तरङ्ग से दीन होता है ऐसा यह तृतीय भङ्ग है-३ । तथाकोई एक पुरुष ऐसा होता है जो-पहले भी धनादि सम्पन्न होने के - બીજો ભાગ–કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે જન્મથી દરિદ્ર હોવાને કારણે પહેલાં તે દીન હોય છે, પણ પાછળથી પુરુષાર્થ દ્વારા ધને. પાર્જન કરવાને કારણે દીન રહેતું નથી. અથવા પ્લાન મુખાકૃતિથી યુક્ત હોવાને કારણે કેઈ એક પુરુષ બાહ્યવૃત્તિથી તે દીન લાગતું હોય છે, પણ ઔદાર્ય આદિ ગુણોથી યુક્ત હોવાને લીધે અન્તવૃત્તિથી અહીન હોય છે. - ત્રીજો ભાગ–કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સંપત્તિશાળી હોવાને કારણે પહેલાં તે અધીન હોય છે, પણ પાછળથી તેની સંપત્તિને નાશ થઈ જવાથી દીન અવસ્થાવાળે થઈ ગયો હોય છે. અથવા સુદર મુખા. કૃતિ આદિને કારણે કોઈ માણસ બાહોદષ્ટિએ જોતાં તે અદીન લાગે છે, પણ કલુષિત ચિત્તવાળો હોવાને લીધે અન્તવૃત્તિથી દીન હોય છે.
ચેથે ભાંગો–કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ ધનાદિથી સંપન્ન હોવાને કારણે અધીન હોય છે અને ત્યારબાદ ધનાદિની
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स्थानाङ्गसूत्रे
" चत्तारि " इत्यादि-वत्वारि पुरुषजातानि चत्वारः पुरुपत्र हाराः, प्रज्ञ तानि तद्यथा - दीनो नामैको दीनपरिणतः, दीनो जात्यादिहीनः, दीनपरिणतः - दीनत्वेन परिणतः हिंसादिकर्मकारित्वात् इति प्रथमो भङ्गः । एवं चतुर्भही विज्ञेया|४|
,
अनया रीत्या रूप-मनः संकल्प-मज्ञा दृष्टि- शीलाऽऽचार-व्यवहार- पराक्रम-वृत्तिजाति भाष्य-भासि सेवि पर्याय परिचारेतिशब्दानां दीनशब्देन संयोजनेन प्रत्येकं चतुर्भङ्गी बोध्या । एषां व्याख्यास्यैव चतुर्थस्थानस्य प्रथमोदेशे द्वितीयमुत्रे विलोकनीया । सू० ४०
कारण अदीन होता है और-श्चात् भी धनादि की वृद्धि हो जाने के कारण अदीन बना रहता है-४ ऐसा वह चौथा भङ्ग है। यह प्रथम सूत्रगत भङ्ग चतुष्टय का भाव है-द्वितीय सूत्रगन जो भङ्ग चतुष्टय है उसका भाव इस प्रकार से है - कोई एक पुरुष ऐसा होता है जोजात्यादि से पहले से ही हीन दीन होता है और बाद में भी हिंस्र कार्यकारी हो जाने से दीनता से परिणत हो जाता है ऐसा यह प्रथम भङ्ग है- १ इसी प्रकार से इस सूत्र के अवशिष्ट तीन भङ्ग भी अपने आप समझना चाहिये - ४ । इसी रीति से रूप- मन- सङ्कल्प-प्रज्ञादृष्टि - शीलाचार-व्यवहार- पराक्रम-वृत्ति - जाति-भाषी - अवभाषीसेवी - पर्याय और परिवार इन शब्दों को दीन शब्द के साथ जोड
વૃદ્ધિ થવાને કારણે અદ્દીન જ રહે છે. અથવા સુંદર મુખાકૃતિ આદિને કારણે ખાવૃત્તિથી પણ અદીન હોય છે અને ઔદાય આદિ ગુણ્ણાથી યુક્ત હવાને કારણ અન્તવૃત્તિથી પણ અટ્ઠીન જ હાય છે. આ રીતે પડેલા સૂત્રના ચાર વિકલ્પાના ભાવાર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે.
ખીજા સૂત્રના ચાર ભાંગાના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે
(૧) “ દીન દીન પિરણત ’’ કોઈ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે તિ આદિની અપેક્ષાએ પહેલાં પણ દીન હાય છે અને ત્યારપાદ હિંગ્ન પ્રવૃત્તિમાં પડી જવાને કારણે દીનતા પરિણત થઈ ગયા હોય છે, એવા આ પહેલા ભાગે! સમજવા. એ જ પ્રમાણે આ સૂત્રના ખાકીના ત્રણ ભાંગા પશુ જાતે જ समल सेवा, सेप्रमाणे ३५, भन, सौंदय, अज्ञा, दृष्टि, शीसाथार, व्यव• हार, पराकुभ, वृत्ति, लति, भाषी, अवभाषी, सेवी, पर्याय भने परिवार આ શબ્દોને દીન શબ્દ સાથે ઉપરના ક્રમ પ્રમાણે જોડીને જે ચતુભ’‘ગીએ ખનાવવામાં આવી છે, તેમના ભાવાથ પણ પહેલા અને બીજા સૂત્રમાં કરેલા
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सुधा टोका स्था० ४ उ. २ सू०४१ पुरुषजातनिरूपणम्
पुरुषजाताधिकारादेवाष्टादशसूत्रीमाह -
५१३
मूलम् - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - अज़्ज़े
णाममेगे अज्जे ४, १,
वारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा अज्जे नाममेगे अजपरिणए ४, २ एवं अजरुवे ३, अजमणे ४, अज्जसंकप्पे ५, अज-पन्ने ६, अजदिट्ठी ७, अज्जसीलायारे ८, अजववहारे ९, अजपर
मे १०, अजवित्त ११, अजजाई १२, अजभासी १३, अजओभासी १४, अजसेवी १५, एवं अज्जपरियाए - १६, अज्जपरियाले १७ एवं सत्तर आलावगा १७ जहां दीर्णणं भणिया, तहा अजेणवि भाणियन्त्रा,
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा--अज़े णाममेगे अज्जभावे १ अ णाममेगे अणजभावे २, अणज्जे णाममेगे अज्जभावे ३, अणज्जे णाममेगे अणज्जभावे ४, १८ । सू० ४१ ।
छाया - चचारि पुरुषजातानि प्रप्तानि तद्यथा - आर्यों नामैक आर्य : ४,१, चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-आर्थी नामैक आर्यपरिणतः ४, २ कर प्रत्येक की चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये । इन पर्दों की व्याख्या इसी चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देशक में द्वितीय सूत्र में देख लेना चाहिये ॥४० पुरुषजात के अधिकार को लेकर अब सूत्रकार अष्टादश सूत्रीका कथन करते हैं-" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " - इत्यादि - ४१ સ્પષ્ટીકરણને આધારે સમજી લેવા. આ પટ્ઠાની વ્યાખ્યા ચતુર્થ સ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશાના ખીજા સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે, તે ત્યાંથી વાંચી લેવી સૂ. ૪૦ના પુરુષ જાતના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તે સંબધને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર ૧૮ સૂત્ર દ્વારા પુરુષ પ્રકારનું કથન કરે છે,
" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " त्याहि-
स ७५
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स्थानाशास्त्र एवमार्यरूपः ३, आर्यमनाः ४, आर्यसकल्प. ५, आर्यप्रज्ञः ६, आर्यदृष्टिः ७, आर्यशीलाऽऽचारः ८, आर्यव्यवहारः ९, आर्यपराक्रमः १०, आर्यवृत्तिः ११, आर्यजाति १२, आर्यभाषी १३, आर्यावभासी १४, आर्यसेवी १५, एवमार्यपर्यायः १६, आर्यपरिवारः १७, एवं सप्तदशाऽऽलापकाः १७ यथा दीनेन भणिताः, तथाऽऽर्येणापि भणितव्याः,
चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आर्यों नामैक आर्यभावः १, आर्यों , नामैकोऽनार्यभावः २, अनार्यो नामैक आर्यभावः ३, अनार्यों नामैकोऽनार्यभावः ४, १८ । सू० ४१ ।
चार प्रकार के पुरुष कहे है वे इस प्रकार से है, आर्य नाम वाला है और आर्य है ४-१
चार प्रकार के पुरुष कहे हैं-आर्य नामवाला आर्य परिणत हैं ४-२, इसी तरह से आर्य रूप, वाला ३, आर्य मनवाला ४, आर्य संकल्प बाला ५, आर्य प्रज्ञाचाला ६, आर्य दृष्टि चाला ७, आर्य शील वाला ८, आर्य व्यवहार वाला ९, आर्य पराक्रम वाला १०, आर्य वृत्ति वाला ११, आर्य जाति वाला.१२, आयें भाषा वाला १३, आर्यावभाषी १४, आर्यसेवी १५, आर्य पर्यायवाला १६, आर्य परिवार वाला १७, इस प्रकार के सत्रह आलापक होते हैं जैसे दीनके साथ के आला. पक कहे हैं वैसे ही आर्य के साथ भी कहना चाहिये. ___ पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसे-आर्य-आर्य भाववाला-१ आर्य अनार्य भाववाला-२ अनार्य आर्य भाववाला-३ और-अनार्य अनार्य
ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યું છે, જેવી રીતે કે આર્ય નામવાળા છે भने मायः छे. ४-१ , ,
ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે-આર્ય નામવાળા છે અને આર્ય પરિણત छ. ४-२ . ४ माय ३५ ॥ 3, भाय मनपा ४, माय ४६५. વાળા ૫, આર્ય પ્રજ્ઞાવાળા ૬, આર્ય દૃષ્ટિવાળા ૭, આર્ય શીલવાળા ૮, આર્ય વ્યવહારવાળા ૯, આર્ય પરાકમવાળા ૧૦, આર્ય વૃત્તિવાળા ૧૧, આર્ય જાતિવાળા ૧૨, આર્ય ભાષાવાળા ૧૩, આર્યાવભાષી ૧૪, આર્ય સેવી ૧૫, આર્ય પર્યાયવાળા ૧૬, આર્ય પરિવારવાળા ૧૭, એ રીતે સત્તર આલાપક બને છે. જેવી રીતે દીનની સાથેના આલાપકે કહ્યા છે, તેવી જ રીતે આર્યની સાથેના આલાપકે પણ કહેવા જોઈએ.
ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે—(૧) આર્ય આર્યભાવયુક્ત, (૨) આર્ય मनाय पापयुत, (3) सनार्यः माय मायुत भने (४) अनाय मनार्य
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सुधा टीका स्था० ४ 30 २ सू० ४१ पुरुषजातनिरूपणम् ५९५ टीका-" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-तत्राऽऽयों नवविधः, यदाह
" खेत्ते जाईकुलकम्मसिप्पभासाइ नाणचरणे य ।
दसण आरिय णवहा मिच्छा संगजवणखसमाई।१।" इति, छाया- क्षेत्रे जातिकुलकर्मशिल्पभाषे ज्ञानचरणे च ।
दर्शने आर्यों नवधा म्लेच्छाः शक-यवन-खसादयः ।।" तत्र क्षेत्राऽऽय:-पापकर्मरहितो विशुद्ध इत्यर्थः, तथा-आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादिगुणसम्पन्नः, अनार्यभावश्च-क्रोधादिकल्लपित इति । शेप सुगमम् । सू०४१॥ भाववाला-४ इस मूत्र में जो आर्य कहा गया है, वह नौ प्रकारका कहा गया है-खेत्ते, जाई, कुल, कम्म, इत्यादि. क्षेत्राय-१ जात्याय-२कुलाये३ कर्माय-४शिलार्य-५ भाषार्य-६ ज्ञानार्य-७ चारित्रार्य-८और-दर्शनार्य . -९|तथा, म्लेच्छ, शक, यवन, और खस आदि ये अनार्य कहे गयेहैं। जो क्षेत्र आर्य होता है. वह-पाप रहित होता है. विशुद्ध होता है, तथा-क्षायिक आदि ज्ञानादि गुगों से सम्पन्न होता है. और-अनार्य भाव जो, क्रोधादिक है उनसे भी कलुषित होता है। बाकी का सब कथन सुगम है. तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि-जो क्षायादि ज्ञानादि भावों से युक्त होता है वह-" आर्यभाव" से, और-जो क्रोध आदि से कलुषित होता है वह-" अनार्यभाव" से लिया गया है. इस तरह इन शब्दों को समझ कर ये-आय-अनार्य आदि चारों भर सुगम रीति से समझे जा सकते हैं । सू०४१ ॥ ભાવયુક્ત. આ સૂત્રમાં જે આર્ય કહેવામાં આવેલ છે તે નવ પ્રકારના સમ.
पा. -खेत्ते-जाई-कुल-कम्म" त्यादि--(१) क्षेत्राय, (२) त्याय', (3) साय, (४) ४ाय, (५) शिपाय, (६) भाषायः, (७)शाना, (८) याशिवाय मन (6) शनाय. मे शत शनशास्त्रमा माय न प्र४।२i x छ. श, ચવન અને બસ આદિને સ્વેચ્છ, અનાર્ય કહ્યા છે જે ક્ષેત્રાર્ય હોય છે તે પાપ રહિત (વિશુદ્ધ) હોય છે અને ક્ષાયિક આદિ જ્ઞાનદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે, અને કોધાદિક જે અનાર્યભાવ છે તેનાથી પણ કલુષિત હોય છે, બાકીનું કથન સુગમ છે. આ કથનનો સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-ક્ષયિક આદિ જ્ઞાનાદિ ભાવોથી યુક્ત પુરુષને આર્યભાવ યુક્ત કહ્યો છે, અને ક્રોધાદિથી કલુષિત ભાવયુક્ત પુરુષને અનાર્ય ભાવયુકત કહ્યો છે. આ રીતે આ શબ્દને સમજવાથી આર્ય-અનાર્ય આદિ ચારે ભાંગા સરળતાથી સમજી શકાય છે. જે સૂ. ૪૧ છે
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स्थाना दार्टान्तिकभूतपुरुषजातमेव वृषभदृष्टान्तेन निरूपयितुमाह
मूलम् --चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसपन्ने १, कुलसंपन्ने २, बलसंपन्ने ३, रूवसंपन्ने ४। ____एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्ने १, जाव रूवसंपन्ने ४॥ १॥
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे १, कुलसंपन्ने णाममेगे णो जाइसंपण्णे २, एगे जाइसंपपणे वि कुलसंपण्णे वि ३, एगे णो जाइसंपण्णे णो 'कुलसंपण्णे ॥
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा--जाइसंपपणे णाममेगे ४, २॥
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे णो वलसंपण्णे ४, ___एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपण्णे ४, ३॥
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे ४,
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता,तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, ४, ४॥
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा कुलसंपपणे णाममेगे णो बलसंपण्णे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-कुलसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपण्णे ४, ५.
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सुधा टीका स्था० ४ उ०२ सु० ४२ वृषभहंष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ५९७
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा - कुलसंपपणे णाममेगे णो रुवसंपणे ४, एवामेव चन्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - कुल० ४, ६,
चत्तारि उसभा पण्णत्ता, तं जहा - बलसंपणे णामसेगे णो रुवसंपण्णे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - चलसंपपणे णाम मेगे ४, ७ । सू० ४२ ।
छाया - चलार ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - जातिसम्पन्नः १, कुलसम्पन्नः २, बलसम्पन्नः २, रूपसम्पन्नः ४ |
एवमेत्र चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - जातिसम्पन्नो यावद् रूपसम्पन्नः ४, १|
चत्वार ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - जातिसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः १, कुलसम्पन्नो नामैको नो जातिसम्पन्न २, एको जातिसम्पन्नोऽपि कुलसम्पन्नोऽपि ३, एको नो जातिसम्पन्नो नो कुलसम्पन्नः ४,
अब सूत्रकार दान्तिक भूत पुरुष जात को ही वृषभ दृष्टान्त से निरूपित करते हैं - " चत्तारि उसभा पण्णत्ता " - इत्यादि ॥४२॥
सुत्रार्थ - वृषभचार प्रकार के कहे गये हैं-जाति सम्पन्न -१ कुलसम्पन्न -२ बल सम्पन्न -३ और- रूप सम्पन्न-४ इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं-जाति सम्पन्न, यावत् रूप सम्पन्न - ४, १| पुनःबैल चार प्रकार के कहे गये हैं, जाति सम्पन्न नो कुलसम्पन्न, १ कुल सम्पन्न नो जातिसम्पन्न, २ जाति सम्पन्न भी कुलसम्पन्न भी, ३ और હવે સૂત્રકાર વૃષભના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા દાન્તિક પુરુષજાતનું નિરૂપણ કરે છે. " चत्तारि उसभा पण्णत्ता " इत्यादि
सूत्रार्थ - वृषभ ( मजह ) यार अारना ह्या छे -- (१) अति संपन्न, (२) स संपन्न, (3) मस सौंपन्न, (४) ३५ संपन्न. मे ४ प्रमाणे पुरुषना पशु लति સપન્ન આદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે.
વૃષભના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) જાતિ સ`પન્ન, ना मुझे सौंपन्न, (२) मुझे सौंपन्न नो कति सपन्न, (3) अति संपन्न -डुस
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५९८
स्थानास्त्र एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैकः ४,२।
चत्वार ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो वलसम्पन्नः ४, एवं चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नः ४, ३,
चत्वार ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः, ४, ४)
चत्वार ऋषभाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-कुलसम्पन्नो नामैको नो वलसम्पन्नः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कुलसम्पन्नो नामैको नो वल. सम्पन्नः ४, ५। नो जातिसम्पन्न नो कुलसम्पन्न, ४ इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं-जाति सम्पन्न नो कुलसम्पन्न, १ यावत् नोजाति सम्पन्न नोकुल सम्पन्न, ४ । पुनश्च-बैल चार प्रकार के कहे गये हैं-जाति सम्पन्न नो बलसम्पन्न, १ बलसम्पन्न नो जातिसम्पन्न, २ जाति सम्पन्न भी बल सम्पन्न भी, ३ तथा-नो जातिसम्पन्न नो बलसम्पन्न, ४। पुन:बैल चार प्रकारके कहे गये हैं, जातिसम्पन्न नो रूपसम्पन्न, १ रूप सम्पन्न नो जातिसम्पन्न, २ जाति सम्पन्न भी रूप सम्पन्न भी, ३ नो जाति सम्पन्न नो रूप सम्पन्न, ४ इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के कहे गयेहैं, जाति सम्पन्न नो रूप सम्पन्न-१ यावत्-नो जातिसम्पन्न नो रूपसम्पन्न-४ । पुनश्व-बैल चार प्रकारके कहे गये हैं, कुलसम्पन्न नो बल सम्पन्न, १ बल सम्पन्न नो कुल सम्पन्न, ३ कुलसम्पन्न भी बलसम्पन्न भी, ३ तथा-नो कुलसम्पन्न नो बलसम्पन्न, ४ इसी સંપન્ન, (૪) ને જાતિ સંપન્ન-ને કુલ સંપન્ન. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ, (૧) જાતિ સંપન્ન ને કુલ સંપન્ન, વગેરે ચાર પ્રકાર સમજવા.
બીજી રીતે પણ વૃષભને ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) જાતિ સંપન્ન ને બલ સંપન્ન, (૨) બલ સંપન્ન ને જાતિ સંપન્ન, (૩) જાતિ સંપન્ન બલ સંપન્ન (૪) ને જાતિ સંપન્ન ને બેલ સંપન્ન. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર સમજવા વૃષભ ને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) જાતિ સંપન્ન ને રૂપ સંપન્ન, (૨) રૂપ સંપન્ન ને જાતિ સંપન્ન, (૩) જાતિ સંપન્ન અને રૂપ સંપન્ન, (૪) ને જાતિ સંપન્ન ને રૂપ સંપન્ન. પુરુષના પણ એવાજ ચાર પ્રકાર સમજવા. વૃષભના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કુલ સંપન્ન ને બલ સંપન્ન, (૨) બલ સંપન ને કુલ સંપન, (૩) કુલ સંપા અને બલ સંપન, (૪) કુલ સંપન્ન ને બલ સંપા. ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર
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सुघा टीका स्था० उ०२ सू० ४२ घृषभदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ५९९
चत्वार ऋपमाः प्राप्ताः, तद्यथा-कुलसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कुल० ४,६॥
चत्वार ऋषभाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-बलसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वलसम्पन्नो नामैका ४,७मू.४२॥ _____टीका-" चत्तारि उसभा" इत्यादि-ऋषभाः-वलीवः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नाः-जातिः-गुणवन्मातृकता, तया सम्पन्न -युक्तः १, कुलसम्पन्नः-कुलं-गुणवपितृकत्वं, तेन सम्पन्नः २, बलसम्पन्नः-बलं-मारवहनादिसामयं, तेन सम्पन्नः ३, रूपसम्पन्नः-रूपं-शरीरसौन्दर्य, तेन सम्पन्नः ४१ प्रकार से पुरुष भी चार प्रकारके कहे गयेहैं, जैसे-कुल सम्पन्न नो चल सम्पन्न, १ आदि-४। पुनश्च-बैल चार प्रकारके कहे गये हैं, चल सम्पन्न नो रूप सम्पन-१ इत्यादि-४ इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं-बल सम्पन्न नो रूपसम्पन्न-१ आदि-४, ७
टीकार्थ-वृषभसूत्र में जो चार प्रकारके बलीवर्द प्रगट किये गयेहैं उनका तात्पर्य ऐसाहै- जोति सम्पन्न आदि-मातृ पक्षकानाम जातिहै, पितृ पक्षका नाम कुल है. जिस बैल की जाति गुणयुक्त मातावालीहै, ऐसी गुणयुक्त माता की जाति से जो युक्त होता है वह-बैल जाति सम्पन्न कहा गया है, तथा-गुणवान् पिताका जिसका कुल है ऐसा वह चैल कुल सम्पन्न कहा जाता है । भारवहन शक्ति का नाम बल है. जो-बैल इस बल से सम्पन्न होता है वह बैल बल सम्पन्न कहा जाता है। शारीरिक सौन्दर्य का नाम रूप है. इस रूप से जो बैल सम्पन्न होता है वह-चैल रूप सम्पन्न कहा जाता है। इसी तरह से पुरुष भी चार प्रकार के कहे ઉપર મુજબ સમજવા. બળદના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે. (૧) બલ સંપન્ન-નો રૂપ સંપન, ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજી લેવા. પુરુષના પણ ખેલ સંપન્ન-ને રૂપ સંપન્ન આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા.
ટીકાઈ–વૃષભ સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારના બળદ કહ્યા છે તે ચાર પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ-માતૃપક્ષનું નામ જાતિ છે, પિતૃપક્ષનું નામ કુળ છે જે બળદની માતા ગુણસંપન્ન હોય છે તે બળદને અતિસંપન્ન કહે છે. જે બળદને પિતા ગુણસંપન્ન છે, તે બળદને કુલસંપન્ન કહે છે. ભારવહન કરવાની શક્તિનું નામ બળ છે જે બળદ ભારવહન કરવાની શક્તિવાળો હોય છે તેને બળસંપન્ન કહે છે. શારીરિક સૌંદર્યને રૂપ કહે છે, આ રૂપથી જે બળદયુક્ત હોય છે, તેને રૂપસંપન્ન કહે છે. એ જ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના હોય છે–વિશુદ્ધ
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स्थानास्त्रे " एवामेवे"-त्यादि-एवमेव ~ ऋपभरदेव, पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पुरुषो जातिसम्पन्न:-विशुद्धमातृवंशयुक्तो भवति, एवं कुलबलरूपेष्वपि भङ्गा वोध्याः । इदं दृष्टान्तदान्तिकरूपं सामान्यमूत्रम् १ । ___"चचारि उसमा" इत्यादि-ऋपभावत्वारः प्राप्ताः, तद्यथा-एककश्चिद् ऋपभो जातिसम्पन्नो भवति, किन्तु कुलसम्पन्नो नो भवति १, शेष भजनय सुगमम् । गये हैं-विशुद्ध मातृवंश से जो पुरुष युक्त होता है वह-पुरुष जाति सम्पन्न कहा गया है । विशुद्ध पितृवंश से जो पुरुष युक्त होता है वह-कल सम्पन्न कहा गया है। भारवहन आदि करने की शक्ति से जो युक्त होता है वह-पुरुष वल सम्पन्न कहा गया है,। तथा शारीरिक सौन्दर्य से जो युक्त होता है वह-रूप सम्पन्न कहा गया है, यह दृष्टान्त और दान्तिक रूप सूत्र सामान्य है । चार प्रकार के बैल जो" जाति संपन्न नो कुल सम्पन्न "-इत्यादि रूप से प्रकट किये गये है उनका भाव ऐसा है कि-कोई एक बैल ऐसा होता है जो गुणवती माताकी जाति में तो होता है किन्तु-कुल-गुणवान पिता के वंश का नहीं होता है. इस प्रकार का यह प्रथम भंग है-१ इसी प्रकार से शेष भः वय भी समझ लेना चाहिये। जिस प्रकार से ये थैल सम्बन्धी चार प्रकार कहे गये हैं उसी प्रकार से पुरुषों के भी चार
માતૃવશથી જે પુરુષ યુક્ત હોય છે તેને જાતિસંપન્ન કહે છે. વિશુદ્ધ પિતૃવંશથી જે પુરુષ યુક્ત હોય છે તેને કુલસંપન્ન કહે છે ભારવહન આદિ કરવાની શક્તિથી જે પુરુષયુક્ત હોય છે તેને બલ સંપન્ન કહે છે. તથા શારીરિક સૌદર્યથી જે પુરુષયુક્ત હોય છે તેને રૂપસંપન્ન કહે છે. આ દૃષ્ટાન્ત અને દાઈનિક રૂ૫ સામાન્ય સૂત્ર છે.
- બળદને “જાતિ સંપન્ન-નો કુલ સંપન્ન” ઈત્યાદિ જે ચાર પ્રકાર કહ્યા छे तेनुं स्पष्टी४२७४-
પહેલે ભાંગો-કઈ વૃષભ એ હોય છે કે જે ગુણવતી માતાની અપેક્ષાએ તે જાતિસંપન્ન હોય છે, પણ ગુણવાન પિતાના વંશમાં જન્મ નહીં થવાને કારણે કુલસંપન્ન હેતું નથી. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણે ભાંગા પણ સમજી લેવા. જેવી રીતે બળદના આ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ४२ वृषभदृष्टान्तेन पुरुषजात निरूपणम् ६०१
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" एवामेवे "त्यादि - एवमेव ऋषभदेव, पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः - कश्चित् पुरुषः, जातिसम्पन्नो भवति किन्तु कुल सम्पन्नो नो भवति, शेषं भङ्गत्रयं सुगमम् इत्थमेवाग्रिमदृष्टान्तसूत्राणि सदाष्टन्तिकानि पञ्च वोध्यानि । तत्र जातिकुलसंयुक्तमूत्रवत् जातिवल- जातिरूपसंयोगेन सूत्रद्वयम् २ | तथा-कुलबल कुलरूपसंयोगेन सूत्रद्वयम् ४। पुनश्च - चलरूपसंयोगेनैकं सूत्रमिति पञ्च ५। एवं सामान्यसूत्र - जातिकुत्रसंयुक्तसूत्र संमेलनेन सप्त सूत्राणि ७ जातानि । ० ४२ । प्रकार कहे गये है । इन में कोई एक पुरुष ऐसा होता है माता की विशुद्ध जाति वाला तो होना है पर विशुद्ध पिता के वंश वाला नहीं होता है. यह प्रथम भङ्ग है, इसी प्रकार से शेष तीन भङ्गों को भी जान लेना चाहिये. क्योंकि वे सुगम हैं । इसी प्रकार से आगे के दृष्टान्त सूत्र ५ - भी दान्तिक सूत्रों के साथ घटा लेना चाहिये । जाति- और कुल इनके संयुक्त सूत्रों की तरह जाति-बल, जाति-रूप के संयोग से भङ्गा बनाने के लिये २-दो सूत्र हैं, पुनः- कुल बल - कुलरूप इनके संयोग से २ - दो सूत्र हैं, पुनः- यल-रूप, के संयोग से एक सूत्र हैं, इस प्रकार से ये ५ सूत्र हैं । इसी तरह से सामान्य सामान्य सूत्र जाति-कुल- संयुक्त सूत्रों को सम्मिलित हो जाने से ये -७ सात सूत्र हो जाते हैं । सू४२ ।
पुरुषना यागु "लतिस पन्न-नो सस यन्न " इत्यादि यार प्रहार उद्या - (૧) કાઈ પુરુષ એવા હોય છે કે જે માતાની અપેક્ષાએ તેા વિશુદ્ધ જાતિ. વાળા ડાય છે, પણ પિતાની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધ જાતિવાળા હાતા નથી. આ પહેલે વિકલ્પ છે, બાકીના ત્રણે વિકાના ભાવા પણુ એ જ પ્રમાણે સમજી લેવા. એ જ પ્રમાણે પછીના પાંચ દૃષ્ટાન્તસૂત્રને પણ કાન્તિક પુરુષ સાથે ઘટાવી લેવા. જાતિ અને કુલના ચેાગથી ચાર ભાંગા અને છે. જાતિ અને ખળના ચેગથી ચાર ભાંળા બને છે અને જાતિ અને રૂપના ચેાગથી ચાર ભાંગા મને છે. આ રીતે જાતિ સાથે અનુક્રમે કુલ, ખળ અને રૂપના ચૈત્રવાળા ત્રણ સૂત્ર છે. એ જ પ્રમાણે કુળ અને ખળના ચેગથી તથા કુળ અને રૂપના ચેાગથી ચાર ચાર ભાંગાવાળા એ સૂત્ર ખને છે અને ખલ અને રૂપના સયેાગથી ચાર ભાંગાવાળું એક સૂત્ર ખને છે. આ રીતે ૧ સામાન્ય સૂત્ર, જાતિ સાથે કુળ, ખલ અને રૂપના ચેગવાળાં ૩ સૂત્ર, કુળ સાથે ખળ અને રૂપના ચેાગવાળાં એ સૂત્ર અને બળ સાથે રૂપના ચેગવાળુ ૧ સૂત્ર મળીને કુલ છ સૂત્ર થાય છે. આ વાત ટીકામાં આપેલ કાઠામાં સમજાવી છે—
જાતિ, કુળ, ખળ અને રૂપ આ પ્રત્યેકના એક એક ભાંગાવાળુ’ સામાન્ય सूत्र, तेना मां पडेल समन्. ॥ सु. ४२ ॥
स ७६
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૬૦૨
स्थानास
सूत्रपट्कस्थापना यथाभङ्गा सूत्रसंख्या
सामान्यंमाति-कुल
कुल-चल भाति-वल
४-१ कुल-रूप जाति-रूप ४-१ बल-रूप
४-६ जास्यादि चतुष्टययुक्तं सामान्य मूत्रम् १ संकलितमूत्राणि सप्त ७
अथ हस्तिष्टान्तेन माह -
मूलम्-चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा-भद्दे १, मंदे २, मिए ३, संकिपणे ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-भदे १, मंदे २, मिए ३, संकिपणे ४। १।
चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा-भद्दे णाममेगे भद्दमणे १, भदे णाममेगे मंदमणे २, भदे णाममेगे मियमणे ३, भद्दे णाममेगे संकिण्णमणे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-भद्दे णाममेगे भदमणे १, भदे णाममेगे मंदमणे २, भद्दे णाममेगे मियमणे ३, भदे णामसेगे संकिपणसणे ४, २॥
चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा-मंदे णाममेगे भदमणे १, मंदे णाममेगे मंदमणे २, मंदे णाममेगे मियमणे ३, मंदे णाममेगे संकिण्णमणे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-मंदे णाममेगे भद्दमणे, तं चेव । । ३.।
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सुर्धा टीका स्था०४ उ० २ २ ४३ इस्तिटान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ६०३
चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा - मिए णाममेगे भद्दमणे १, मिए णाममेगे मंदमणे २, भिए णाममेगे मियमणे २, मिए णाममेगे संकिण्णमणे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - मिए णाममेगे भद्दमणे तं चैव ।। ४ ।
चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा संकिण्णे णाममेगे भदमणे १, संकिपणे णाममेगे मंदमणे २, संकिण्णे णामसेगे मियमणे ३, संकिणे णाममेगे संकिण्णमणे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - संकिपणे णाममेगे भद्दमणे तं व जाव संकिपणे णामेगे संकिण्णमणे, ।५ ।
गाहाओ
-
मधुगुलियपिंगलक्खो, अणुपुवसुजायदीहणंगूलो | पुरओ उदग्गधीरो, सवंगसमाहिओ भद्दो । १ । चलवहलवितमत्रम्मो, थूलसिरो थूलपण पेण । थूलणहदतवालो, हरिपिंगललोयणो मंदो । २ । तणुओ तणुयग्गीवो, तणुयतओ तणुयंतणहवालो | भीरू तत्थुद्विग्गो, तासी य भवे मिए णामं । ३ । एएति हत्थीणं, थोवं थोवं तु जो हरइ हत्थी । रूवेण व सीलेण व, सो संकिष्णोत्ति णायबो । ४ । भदो मज्जइ सरए, मंदो उण मजए वसंतंमि ।
मिउ मज्जइ हेमंते, संकिण्णो सङ्घकालंभि | ५ | सू० ४३ ।
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६०४
Kalमास्त्र छाया-चत्वारो हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भद्रः१, मन्दः२, मृग ३, सङ्कीर्णः।।
एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मद्रः १, मन्दः २, मृगः ३ सङ्कीर्णः ४। (१)
चत्वारो हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भद्रो नामको भद्रमनाः १, भद्रो नामैको मन्दमनाः २, भद्रो नामैको मृगमनाः ३, भद्रो नामैकः सकीणमनाः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्रो नामैको भद्रमनाः १, भद्रो नामैको मन्दमनाः २, भद्रो नामैको मृगमनाः ३, भद्रो नामैकः सङ्कीर्णमनाः ४, (२)
चत्वारो हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मन्दो नामको भद्रमनाः १, मन्दो नामैको मन्दमनाः २, मन्दो नामैको मृगमनाः ३, मन्दो नामकः सङ्कीर्णमनाः ४, एव___ अब सूत्रकार हाथी के दृष्टान्त से पुरुषों की चतुष्प्रकारताका कथन करते हैं-" चत्तारि हत्थी पण्णत्ता" इत्यादि । ४२ ॥ '
सूत्रार्थ-हाथी चार प्रकारके कहे गयेहैं जैसे भद्र-१ मन्द-३ मृग-३और सङ्कीर्ण-४ इसी प्रकार से पुरुष प्रकार भी चार कहे गये हैं जैसे, भद्र, मन्द, मृग, सङ्गीणे-१ पुनश्च-हाथी चार प्रकारके कहे गये हैं जैसेएक भद्र भद्र भनवाला,१ भद्र मन्द मनवाला, २ भद्र मृग मन वाला, ३
और-भद्र सङ्कोण मन वाला-४ इसी तरह से चार पुरुप जात कहे गये हैं जैसे-कोई एक भद्र भद्र मनवाला पुरुष-१ भद्र मन्द मन वाला कोई दूसरा पुरुप-२ भद्र मृग मनवाला कोई एक तीसरा पुरुष-३ तथा-भद्र और सङ्कीर्ण मन वाला कोई एक चौथा पुरुष-४ ।
पुनश्च-चार प्रकार के हाथी कहे गये हैं जैसे-कोई एक मन्द-और भद्र मनवाला-१ मन्द और मन्द मनवाला-२ मन्द और मृग मनवाला ३
હવે સૂત્રકાર હાથીના દાણાન્ત દ્વારા પુરુષની ચતુર્વિધતાનું નિરૂપણ કરે છે.
" चत्तारि हत्थी पण्णत्ता" त्याहसूत्राथ-साधीन नीय प्रमाणे यार ४२ ४ह्या छ--(१) म, (२) भन्द, (3) મૃગ અને (૪) સંકીર્ણ. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે (१) मद्र, (२) भन्द, (3) भृग मन (४) सी. । १ ।
साथीनामा प्रमाणे या २ र ४ छ-(१) म समनवाणी, (२) (૨) ભદ્ર મન્દ મનવાળે, (૩) ભદ્ર મૃગ મનવાળે અને (૪) ભદ્ર સંકીર્ણ મનવાળો. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ નીચે મુજબ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-- (૧) ભદ્ર ભદ્ર મનવાળે, (૨) ભદ્ર મદ મનવાળ, (૩) ભદ્ર મૃગ મનવાળા અને (૪) ભદ્ર સંકીર્ણ મનવાળો ! ૨ __- डाथाना मा प्रभारी या२ २ ५१ ४ा छ-(१) मन्द म म मनपा (२) भन् भने भन्६ भनवाणा, (3) भन्६ भने भृग भनवागो मन (४)
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सुंधा टीका स्था०४ उ०२ ०४३ हस्तिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम्
६०१५
मेव चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मन्दो नामैको भद्रमनाः, तदेव (३) चत्वारो हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मृगो नामैको भद्रमनाः १, मृगो नामैको मन्दमनाः २, मृगो नामैको मृगमनाः ३, मृगो नामैकः सङ्कीर्णमनाः ४ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मृगो नामैको भद्रमनाः, तदेव (४)
चलारो हस्तिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सङ्कीर्णो नामैको भद्रमनाः १, सङ्कीर्णो नामैको मन्दमनाः २, सङ्कीर्णो नामैको मृगमनाः ३, सङ्कीर्णो नामैकः सङ्कीर्णमनाः ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सङ्कीर्णो नामैको भद्रमनाः, तदेव यावत् सङ्कीर्णो नामैकः सङ्कीर्णमनाः ४, (५)
,
तथा - मन्द और सङ्कीर्ण मन वाला - ४ इसी प्रकार से पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक मन्द-और भद्र मनवाला पुरुष - १ आदि आदि ३- भङ्ग जो अवशिष्ट हैं पूर्वोक्त रूप से ही हैं- ३ पुनश्च - हाथी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-मृग और भद्र मानवाला - १ मृग और मन्द मनवाला - २ मृग और मृग मनवाला - ३ तथा मृग और सङ्कीर्ण मनवाला - ४ इसी तरह से पुरुष जात भी चार कहे गये हैं, जैसेमृग और भद्र मानवाला - १ अवशिष्ट ३ भङ्ग पूर्वोक्त रूपसे ही है -४ -१४|
पुनश्च - हाथी चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-सङ्कीर्ण और भद्र मनवाला - १ सङ्कीर्ण और मन्द मनवाला - २ सङ्कीर्ण और मृगमनवाला -३ तथा सङ्कीर्ण और सङ्कीर्ण मनवाला-४ इसी तरह से पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक सङ्कीर्ण और भद्र मानवाला पुरुष - १ यावत् सङ्कीर्ण और सङ्कीर्ण मनवाला पुरुष - ४ - ५ | गाथा - " मधु
મન્દ અને સંકીણુ મનવાળા. એ.જ પ્રમાણે પુરુષના ચાર પ્રકાર પડે છે (૧) કે,ઈ પુરુષ મન્ત્ર અને ભદ્ર મનવાળા હાય છે, ઇત્યાદિ ચાર પ્રકાર ઉપર મુજબ જ મની શકે છે. । ૩ ।
એ જ પ્રમાણે હાથીના આ ચાર પ્રકાર પણુ પડે છે--(૧) મૃગ અને ભદ્ર મનવાળા, (૨) મૃગ અને મન્દ મનવાળે, (૩) મૃગ અને મૃગ મનવાળે અને (૪) મૃગ અને સંકીણુ મનવાળે. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણુ “ મૃગ અને ભદ્ર મનવાળા ” ઇત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજી લેવા. । ૪ ।
હાથીના આ પ્રમાણે ચાર. પ્રકાર પડે છે—-(૧) સકીર્ણ અને ભદ્ર મનવાળા, (૨) સ કીણુ અને મન્ત મનવાળા, (૩) સકીણુ અને મૃગ મનવાળા અને (૪) સંકીણું અને સકીણું મનવાળે. એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણુ સૂકીણુ અને ભદ્ર મનવાળા '' ઇત્યાદિ ચાર પ્રકાર પડે છે ! પ {
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स्थानास गाथा:-मधुगुटिकापिङ्गलाक्षः, आनुपूर्वसु नातदीर्घलाशूलः ।
पुरत उदयधीरः सर्वाङ्गसमाहितो भद्रः । १ । चलबहलविषमचर्मा, स्थूलशिराः स्थूलकेन पेचकेन । स्थूलनखदन्तवालो, हरिपिङ्गललोचनो मन्दः । २ । तनुकस्तनुरुग्रीव, स्तनुकत्वक तनुकदन्त नखवालः । भीरुस्तत्रोद्विग्न, स्त्रासी च भवेद् मृगो नाम । ३। एतेषां च हस्तिनां, स्तोकं स्तोकं तु यो हरति हस्ती । रूपेण वा शीलेन वा, सङ्कीर्ण इति ज्ञातव्यः । ४ । भद्रो मायति शरदि मन्दः पुनर्मागति वसन्ते ।
मृगो माधति हेमन्ते सङ्कीणः सर्वकाले । ५ । मू० ४३ । टीका-" चत्तारि हत्थी " इत्यादि-हस्तिनः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भद्रः १, मन्दः २, मृगः ३, सङ्कीर्णः ४, तत्र भद्रो हस्ती भद्र एव धैर्यशौर्यादिगुणसम्पन्न स्वात् १, मन्दो मन्द एव मन्दीभूत धैर्यशौर्यादिगुणवत्चात् २, मृगः-मृगसदृशः, तत्सादृश्यं च कृशत्वभीरुत्वादिधर्मेण ३ सङ्कीर्ण:- किञ्चिद्भदादिगुणसम्पन्नत्वाद सङ्कीर्ण एव ४ । इति दृष्टान्तहस्तिसूत्रम् । गुटिका पिङ्गलाक्ष "-इत्यादि-हस्ति सूत्र के दृष्टान्त में चार प्रकार के हाथी कहे गये हैं. उनका तात्पर्य ऐसा है-जो हाथी धैर्य-शौर्य आदि गुणों से विभूषित होता है वह भद्र हाथी कहा गया है-१ मन्दीभूतधैर्य शौर्य आदि गुणों से जो युक्त होता है वह हाथी मन्द कहा गया है-२ मृग जैसा जो हाथी कृशता एवं-भीरता आदि धर्म वाला होता है वह हाथी मृग का जैसा मृग कहा गया है-३ तथा-जो हाथी कुछ कुछ भद्रादि गुणों से सम्पन्न-युक्त होता है वह-सङ्कीर्ण कहा गया है तो जैसे ये हाथी के चार प्रकार कहे गये हैं ऐसे ही प्रकार वाले मनुष्य
14--" मधुगुटिका पिङ्गलाक्ष " त्याल,
હાથીના દૃષ્ટાન્તસૂત્રમાં ચાર પ્રકારના હાથી કહ્યા છે. તે ચારે પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–જે હાથી ધિર્ય, શૌર્ય આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે, તેને ભદ્ર હાથી કહે છે. મજીભૂત , શૌર્ય આદિથી જે યુક્ત હોય છે, તેને મન્દ હાથી કહે છે. જે હાથી મૃગના જેવી કૃશતા, ભીરુતા આદિ ધર્મોથી સ પન્ન હોય છે તે હાથીને મૃગ હાથી કહે છે. જે હાથી થોડા થોડા ભદ્રાદિ ગુણથી સંપન્ન હોય છે તેને સંકીર્ણ કહે છે. જેમ હાથીના આ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે મનુષ્યના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. (૧) કેટલાક
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ४३ हस्तिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १०७ . " एवामेवे "-त्यादि-एवमेव-हस्तित्रदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्रः १, मन्दः २, मृगः ३, सङ्कीर्णश्च ४ । एपां विवरणं हस्तिसूत्रवद् योध्यम् । १ । अग्ने वक्ष्यमाणानि चत्वारि सूत्राणि तु सदान्तिकानि भद्रादिपदचतुष्टययोजनेन " भद्रो नामैको भद्रमनाः" इत्यादि-रीत्या प्रत्येकं भङ्गचतुष्टयं कृत्वा वोध्यानि । तत्र भद्रो नाम प्रशस्तो जात्याऽऽकारेण च, अद्रमना:-प्रशस्तचित्तः, यद्वा-भद्रस्य मन इव मनो यस्य स भद्रमना:-धीर इत्यर्थः, मन्दमना:भी होते हैं, कितने मनुष्य ऐसे होते हैं जो-आपत्ति आदि के समय में भी धैर्य-शौर्य आदि गुणों से विभूषित बने रहते हैं ऐसे मनुष्य भद्र कहलाते हैं । कितनेक मनुष्य तो ऐसे होते हैं जो-आपत्ति-विपत्ति के समय में (अवसर पर ) मन्दीभूत धैर्य-शौर्य आदि गुणवाले हो जाते हैं ऐसे मनुष्य मन्द कहाते हैं । किननेक मनुष्य ऐसे होते हैं जो-शारीरिक कृशता एवं भोरुता से युक्त होते हैं, ऐसे मनुष्य मृग के जैसे मृग कहाते हैं, तथा-कुछ कुछ भद्रादि गुणों से युक्त जो मनुष्य होते हैं वे सङ्कीर्ण कहाते हैं । तथा-दान्तिक सूत्रों सहित सूत्र हैं उनका अभिप्राय ऐसा है-- भद्र भद्र मनवाला"-जाति-और आकार से जो प्रशस्त होता है वह-भद्र है । तथा-प्रशस्त जिस का चित्त होता है, अथवा-भद्र मनका जैसा जिसका मन होता है वह भद्र માણસે એવાં હોય છે કે જે આપત્તિ કાળે ઘેર્યાદિ ગુણોને ત્યાગ કરતા નથી, એવાં મનુષ્યને “ભદ્ર” કહે છે. (૨) કેટલાક માણસો એવા હોય છે કે જેઓ આપત્તિ-વિપત્તિના સમયે ઘેર્ય-શૌર્ય આદિ ગુણે બતાવી શકતા નથી. આ ગુણની અપેક્ષાએ તેઓ મ હોવાથી તેમને “મ” કહે છે. (૩) કેટલાક માણસે શારીરિક કૃશતાથી યુક્ત હોય છે અને મૃગ સમાન ડરપોક હોય છે, તેથી તેમને મૃગ સમાન કહ્યા છે. (૪) કેટલાક મનુષ્યો થોડા થોડા પ્રમાણમાં ભદ્રાદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે, તેથી તેમને સંકીર્ણ કહે છે. આ પહેલું સામાન્ય સૂત્ર છે.
બીજા સૂત્રને લાવાર્થ-આ દષ્ટાન્તસૂત્રમાં હાથીના “ભદ્ર-ભદ્ર મનવાળો” ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. જાતિ અને આકૃતિની અપેક્ષાએ પ્રશસ્ત હોય એવા હાથીને ભદ્ર કહે છે, અને જેનું ચિત્ત પ્રશસ્ત હોય અથવા मद्र (धा२) तुं भन डाय मेवा हाथीन 'मद्र सद्रमनवाणे' ४३
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स्थानासूत्रे
मन्दीभूतचित्तः, यद्वा - मन्द जनमनस्तुल्यमनाः - नात्यन्तधीरः, एवं मृगमनाः - मृगस्य मन इव मनो यस्य स मृगमनाः = मृगमन स्सदृशमनाः - भीरु, मृगस्य मनथञ्चलं भवतीति पुरुषस्यापि कस्यचिदेवं तदिति दृष्टान्तसाधर्म्यमत्र बोध्यम्,
६०
सङ्कीर्णमनाः- भद्रादि किञ्चिल्लक्षण सम्पन्नमनाः - विचित्रमना इत्यर्थः, पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्रादिलक्षणमनुसृत्य प्रशस्ता प्रशस्तरूपा वोध्याः ।
""
मनवाला धीर है । किननेक मनुष्य ऐसे होते हैं जो जाति एवं आकार से भी प्रशस्त होते हैं और मनसे प्रशस्त-धीर होते हैं ऐसा यह प्रथम भङ्ग का अर्थ है । जिसका चित्त मन्दीभूत होता है. अथवा मन्द जनके मन जैसा जिस का मन होता है वह - " मन्दमनाः " है. यह मनुष्य अत्यन्त धीर नहीं होता है । तथा मृग के मन जैसा जिसका मन होता है वह मनुष्य मृगमना " है, ऐसा मनुष्य भीरु स्वभाव का होता है, अर्थात् - मृगका मन चञ्चल होता है. इसी तरह से किसी मनुष्य का मन भी चञ्चल होता है. इस तरह से मनुष्यों में इन दृष्टान्तों की साधता घटती है | जिसका मन भद्रादि के कुछ कुछ लक्षणोंवाला होता है. अर्थात् जो विचित्र मन वाला होता है वह " सङ्कीर्णमनाः " - पुरुष है । इन भद्रादिकों के कथित लक्षण अनुसार पुरुषों में प्रशस्तता और अप्रशस्तता जाननी चाहिये । भद्रादिकों के लक्षण गाथा चतुष्टय से इस प्रकार कहे गये हैं-भद्र लक्षण, मधुगुटिका, इत्यादि. जिसके नेत्र છે. દાન્તિક સૂત્રમાં તેના આ પ્રમાણે અર્થ ઘટાવી શકાય-કેટલાક માણસે એવાં હાય છે કે જે જાતિ અને આકારની અપેક્ષાએ પણ પ્રશસ્ત હૈય છે અને ધીર મનવાળા હાય છે, એવાં મહુસેને ‘ ભદ્ર-ભદ્રમનવાળા ' કહે છે. બીજા ભાંગાના ભાવા—કેટલાક માણસે મન્દીભૂત ચિત્તવાળા ધૈય આદિ ગુણાથી રહિત ) હાય છે, તેમને મન્દ મનવાળા કહે છે, એવા મનુષ્યેા અત્યન્ત ધીર હાતા નથી. જે માણસનું મન મૃગના જેવું ભીરુ અને ચંચળ હાય છે એવા માણસને મૃગમના કહેવામાં આવે છે. એવા મનુષ્ય ડરપોક અને ચંચળ વૃત્તિવાળા હાય છે આ રીતે મનુષ્યમાં આ દૃષ્ટાન્તાની સાધસ્મૃતા ઘટાવી શકાય છે. જે માણસનું મન ભદ્રાદિક લક્ષણાથી થોડા થાડા પ્રમાણમાં યુક્ત હાય છે તે માણસને સંકીણુ મનવાળા' કડું છે. એટલે કે જે વિચિત્ર મનવાળા હાય છે તેને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. આ ભદ્રાદિકાના કથિત લક્ષણા અનુસાર પુરુષામાં પ્રશસ્તતા અને અપ્રશસ્તતા સમજવી. ભદ્રાદિકનાં લક્ષણ ચાર ગાથા દ્વારા આ પ્રમાણે કહ્યા છે—
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ४३ हस्तिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम्
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पूर्वोक्तभद्रादिलक्षणं गथाचतुष्टयेनाऽऽह तत्र भद्रलक्षणम् - " मधुगुलिय " इत्यादि-मधुगुटिका पिङ्गलाक्षः - मधुनः - गुटिका - वटिका मधुगुटिका, तद्वत् पिङ्गलेपिङ्गलवणै अक्षिणी-नेत्रे यस्य स मधुपुटिका पिङ्गलाक्षः, आनुपूर्व्यसुजातदीर्घलाड्यूल :- आनुपूर्येण-स्थूलसूक्ष्म सूक्ष्मतररूपक्रमेण सुजातं - सौन्दर्येण संस्थितं दीर्घबृहत् लाङ्गूलं - पुच्छं यस्य स तथा भूतः, पुरतः - अग्रे - अग्रभागे उदग्रः उन्नतः - अग्रदेशावच्छेदेनोन्नतः - उन्नताग्रभाग इति यावत्, धीरः - धैर्यवान् क्षोभरहितः, सर्वाङ्गसमाहितः - सर्वाणि अङ्गानि सम्- सम्यक् प्रमाणलक्षणसम्पन्नत्वेन आहितानि - व्यवस्थितानि यस्य स तथाभूतो गजः भद्रः - भद्रपदवाच्यो भवति । १ । इति, इति भद्रलक्षणम् । १ ।
1
अथ मन्दलक्षणम्
"
चलवहले ” -त्यादि - चलवद्दल विषमचर्मा-चलं वहलं विषमं चर्म यस्य स तथाभूतः - लस्थूलवालयुक्तचमैवान्, स्थूलशिराः - विशालललाटः- बृहत्कुम्भस्थल इत्यर्थः, स्थूलकेन–स्थूलेन पेचकेन - पुच्छमूलेन सहितः स्थूलनखदन्तवाल:स्थूला नखदन्तबाला यस्य स तथाभूतः, हरिपिङ्गललोचन: - हरे :- सिंहस्य पिङ्गलेश्वेतरक्तवर्णे लोचने इव लोचने यस्य स तथाभूतो गजो मन्दः - मन्दपदवाच्यो भवति २ इति मन्दलक्षणम् | २ |
"
मधु (शहद) गुटिका जैसे पीले (जाईवाले) होते हैं, स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर रूप से क्रमशः जिसकी पूंछ दीर्घ दीर्घतर तथा - सुन्दरता भरी होती है. तथा - जिसके समस्त अङ्ग अपने प्रमाण लक्षण से युक्त होते हैं ऐसा वह गज भद्र कहा गया है -१
मन्दलक्षण - " चलबहुले " - इत्यादि बहुत बडे चञ्चल मोटे बालों से जिसकी चमडी युक्त होती है. कुम्भस्थल जिसका विशाल होता है पुच्छ का मूल भाग जिसका स्थूल होता है. नख-दांत और वाल जिसके स्थूल होते हैं. और आँखे जिसकी सिंह की आंखों जैसी श्वेत- रक्तवाली होती है ऐसा वह हाथी मन्द कहा गया है - २ ।
लद्राक्ष]-" मधुगुटिका " त्याहि-नां नेत्र मधुगुटिश समान भीजा वर्णाना હાય છે, સ્કૂલ, સૂક્ષ્મ અને સૂક્ષ્મતર રૂપે જેની પૂછડી દીધ, દીવ તર તથા સુંદરતાભરી હાય છે, તથા જેનાં સમસ્ત અંગ સપ્રમાણ હોય છે એવા હાથીને ભદ્રગજ કહે છે. भन्: सक्षणु-" चलबहुले " इत्याहि-धयां ययण रमने लडा वाजथी युक्त ત્વચાવાળા, વિશાળ કુમ્ભસ્થળવાળા, જેની પૂંછડીના મૂળ ભાગ સ્થૂલ હાય
था ७७
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स्थानाङ्गो
अथ मृगलक्षणम् ३--- " तनुओ" इत्यादि-तनुकः-तनु:-कृशः स एव तनुकः, ततुकग्रीवःकृशकण्ठः, तनुकत्यक-कृशचर्मा, तनुकदन्तनखवाल:-कृशदशननखकेशः, भीरु:भयशीलः, स्वभावतः भयहेतुवशात् स्तब्धकर्ण करणादिलक्षणयुक्तो भीत एव । तत्र-कष्टविचारणादौ उद्विग्नः-उद्वेगवान् बासी-बसनस्वभावः, यो गजः स मृगःमृगपदवाच्यो भवति । ३।।
इति मृगलक्षणम् ३
अथ सङ्कीर्णलक्षणम् ४-- " एएसि” इत्यादि-यस्तु एतेषां-भद्र-मन्द-मृगरूपाणां हस्तिनां स्तोकं स्तोकं-स्वल्पं स्वल्पं भद्रत्वादिगुणं हरति-धारयति, तथा रूपेण-शरीराऽऽकृत्या
सृग लक्षण-" तनुको "-इत्यादि. जो शरीरप्से पतला होताहै, कण्ठ जिसका कृश होता है. चमडा जिसका पतलो होता है, दाँत, नख, केश भी जिसके कृश-पतले होते हैं. स्वभावतः जो भीरु-डरपोक होता है. वस्न-भय के कारणों से जो जल्दी डर जाता है, अर्थात्जिसके कान स्तब्ध स्थिर हो जाते हैं जो-अपने कानों को स्तब्ध स्थिर करने रूप लक्षणों से युक्त होता है. कष्ट विचारणा आदि में उद्वेगवाला बन जाता है तथा-त्रासी त्रसन स्वभाव वाला होता है. ऐसा वह गज मृगपद वाच्य होता है-३ । सङ्कीर्ण लक्षण " एएसि"इत्यादि. जिस हाथी में भद्र-मन्द और सुग हाथी के थोडे-२ लक्षण मिलते हैं, अर्थात्-जो भद्रादि हाथियों के भद्रत्वादि गुणों को थोडे એવા, જેનાં નખ, દાત અને વાળ સ્થૂલ હોય એ, અને સિંહના સમાન ત–રક્તવાળી આંખેવાળ જે હાથી હોય છે તેને “મન્દગજ” કહે છે.
भृग सक्ष-"तनुको"-त्याहिर शरीर पातीय छ, नाश હોય છે, જેની ત્વચા પાતળી હોય છે, જેનાં દાંત, નખ અને વાળ પાતળા (दृश) य छ, २ मा भी२ (७२।४) डाय छ, -मयने ४२ये જે જલદી ડરી જાય છે-એટલે કે ભયને કારણે જેના કાન સ્તબ્ધ (સ્થિર) થઈ જાય છે, જે પિતાના કાનેને સ્તબ્ધ સ્થિર કરવાના લક્ષણેથી યુક્ત હોય છે, જે કઈ વિચારણા આદિમાં ઉગયુક્ત થઈ જાય છે તથા જે ત્રાસી (વ્યસન ગુણથી યુક્ત) હોય છે એવા હાથીને મૃગજ (મૃગ સમાન ગજ) કહે છે.
सपी सक्ष-" एएसिं" त्यादि-२ थीमा मद्र, मन्द मने મૃગગજના ડાં થોડાં લક્ષણેને સદ્દભાવ હોય છે, એટલે કે જે ભદ્રાદિ હાથીઓના મદત્ય આદિ ગુણોને થોડા થોડા પ્રમાણમાં ધારણ કરનારે હોય
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सुधा टीका स्था०४३०२ सू०४३ हस्तिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ६११ शीलेन-वभावेन च सङ्कीर्णः-भद्र मन्दमृगस्वभावमिश्रो भवति स गजः 'सङ्कीर्णः '-सङ्कीर्णपदनाच्यो भवतीति ज्ञातव्यः-बोध्यः ४।. -
अथ भद्रादीनां मदसमयमाह___" भदो मज्जइ " इत्यादि-भद्रः-पागुक्तो गजः, शरदि-शरहतौ, माधतिमदोन्मत्तो भवति । मन्दः पुनर्वसन्ते मायति । मृगो हेमन्ते माद्यति । सङ्कीर्ण:सर्वकाले-ऋतुपट्के माद्यति । ५
तत्र भद्रादीनां प्रहरणप्रकारो यथा" दंतेहिं हणइ भद्दो, मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी ।
गत्ताधरेहि य मिभो, संकिण्णो सचओ हणइ । १।" इति, छाया-" दन्तहन्ति भद्रो, मन्दो हस्तेनाऽऽहन्ति हस्ती।
गानाधराभ्यां मृगः, सङ्कीर्ण. सहन्ति । १ । सू० ४३ । पूर्व ' सङ्कीर्णः सङ्कीर्णमनाः' इत्यत्र मनःस्वरूपमुक्तम्, अथ वाचः स्वरूपं निरूपयितुं विकथाकथां प्रक्रमते -
मूलम्-चत्तारि विकहाओ पणत्ताओ, तं जहा-इत्थिकहा १, भत्तकहा २, देखकहा ३, रायकहा ४ । १ । इस्थिकहा चउबिहा -२ रूपमें अपने में धारण करता है. तथा-रूप शरीराकृति से एवं शील स्वभाव से जो साङ्कीर्ण होता है भद्र-मन्द और मृगके स्वभाव से मिलता है ऐसा वह गज सङ्कीर्ण कहा गया है । भद्र हाथी शरद ऋतुमें मदोन्मत्त ( मदमस्त ) होता है, मन्द हाथी वसन्त में, मृग हाथी हेमन्त में, और सङ्कीर्ण हाथी छ वो ऋतुवों में मदोन्मत्त होता है ।
"दंतेहि हणइ भदो इत्यादि
भद्र हाथी दांतो से, मन्द हाथी सूढ से, मग हाथी शरीर-और अधरोष्ठ से, सङ्कीर्ण हाथी अपने समस्त अङ्गों से प्रहार करता है-॥४३॥ છે, તથા શરીરાકૃતિ અને શીવ સ્વભાવની અપેક્ષાએ સંકીર્ણ હોય છે, ભદ્ર, મન્દ અને મૃગના સ્વભાવ સાથે જેને સ્વભાવ મળતો આવે છે, એવા હાથીને ૮ સંકીeગજ ? કહે છે ભદ્ર હાથી શરદ ઋતુમાં માન્મત્ત થાય છે. મન્દ. હાથી વસન્તમાં, મૃગ હાથી હેમન્તમાં અને સંકીર્ણ હાથી છએ ઋતુમાં મદેન્મત્ત થાય છે.
" दंतेहि हणइ भदो, त्यात - ભદ્ર હાથી પિતાના દંતશૂળથી, મન્દ હાથી પિતાની સૂંઢથી, મૃગ હાથી શરીર અને અધરેથી અને સંકીર્ણ હાથી પિતાના સમસ્ત અંગોથી महा२ ४२ छे. ॥ सू. ४३ ॥
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स्थानाशस्त्र
पण्णता, तं जहा--इत्थीणं जाइकहा १, इत्थीणं कुलकहा २, इत्थीणं रूवकहा ३, इत्थीणं णेवत्थकहा ४ ॥२॥ भत्तकहा चउविहा पण्णत्ता, तं जहा--भत्तस्स आवावकहा १, भत्तस्त णिवावकहा २, भत्तस्स आरंभकहा ३, भत्तस्स णिटाणकहा ।।३। देसकहा चउबिहा पण्णत्ता, तं जहा--देसविहिकहा १, देसविकप्पकहा २, देसच्छंदकहा ३, देसणेवत्थकहा ४ ॥४॥
रायकहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा रन्नो अइयाणकहा १, रन्नो निजाणकहा २, रन्नो बलवाहणकहा ३, रन्नो कोस. कोटागारकहा ४ । ॥ ५॥
चउविहा धम्मकहा पण्णत्ता,तं जहा--अक्खेवणी १,विक्खेवणी २, संवेयणी ३, णिवेयणी ४ ।। अक्खेवणीकहा चउ. ठिवहा पण्णत्ता, तं जहा -आयार अक्खेवणी १, ववहार अक्खेवणी २, पण्णत्ति अक्खेवणी ३, दिट्रिवाय अक्खेवणी ४॥२॥ विक्खेवणी कहा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा--ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ १, परसमयं कहित्ता ससमयं ठावयित्ता भवइ २,सम्मावायं कहेइ, सम्मावायं कहिता मिच्छावायं कहेइ ३, मिच्छावायं कहित्ता सम्मावायं ठावइत्ता भवइ ४।३ । संवेयणी कहा चउठिवहा--पण्णत्ता, तं जहा--इहलोगसंवेयणी १, परलोगसंवेयणी २ आयसरीरसंवेयणी ३, परसरीरसंवेयणी ॥४॥
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सुघोटीका स्था०४ उ० २ सू० ४४ विकथास्वरूपनिरूपणम्
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निव्वेयणी कहा चउठिवहा पण्णत्ता, तं जहा- -इहलोए दुच्चिन्ना कम्मा इहलोए दुहफलविवाग संजुत्ता भवंति ९, इहलोए दुच्चिन्ना कम्मा परलोए दुहफलविवागसंजुत्ता भवति २, परलोए दुच्चिन्ना कम्मा इहलोए दुहफलविवागसंजुत्ता भवति परलोए दुचिन्ना कम्मा परलोए दुहफलविवाग संजुत्ता भवंति४।
इहलोए सुचिन्ना कम्मा इहलोए सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ९, इहलोए सुचिन्ना कम्मा परलोए सुहफलविवागसंजुत्ता भवति २, एवं चउभंगो ४ ॥ सू० ४४ ॥
छाया - चतस्रो विकथाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्रीकथा १, भक्तकथा २, देशकथा ३, राजकथा ४| |१| स्त्रीकथा चतुर्विधा प्रज्ञता, तद्यथा - स्त्रीणां जातिकथा १, स्त्रीणां कुलकथा २, स्त्रीणां रूपकथा ३, स्त्रीणां नेपथ्यकथा ४ | |२| भक्तकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - भक्तस्याऽज्वापकथा, १, भक्तस्य निर्वापकथा २, भक्तtrissरम्भकथा ३, भक्तस्य निष्ठानकथा ४ | ३ ||
देशकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - देशविधि कथा १, देशविकल्पकथा २, देशच्छन्दःकथा २, देशनेपथ्यकथा ४| |8| राजकथा चतुर्विधा मज्ञप्ता, तद्यथाराज्ञोऽतियानकथा १, राज्ञो निर्याणकथा २, राज्ञो चलवाहनकथा ३, राज्ञः कोशकोष्ठागारकथा ४। । ५ ।
चतुर्विधा धर्मकथा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - आक्षेपणी १, विक्षेपणी २, संवेदनी ३, निर्वेदी ४ | |१| आक्षेपणी कथा चतुर्विधा मज्ञप्ता, तद्यथा - आचाराऽऽक्षेपणी १ व्यवहाराऽऽक्षेपणी २ मज्ञप्त्याक्षेपणी ३ दृष्टिवादाऽऽक्षेपणी | |२| विक्षेपणी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - स्वसमयं कथयति, स्वसमयं कथयित्वा परसमयं कथयति १, परमयं कथयित्वा समयं स्थापयिता भवति २, सम्यग्वादं कथयति सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावादं कथयति ३, मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यवादं स्थापयिता भत्रति ४ | | ३ | संवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - इहलो कसंवेदनी १, परलोकसंवेदना २, आत्मशरीरसंवेदनी ३, परशरीरसंवेदनी ४|४|
निवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - इहलोके दुखीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति १, इहलोके दुीर्णानि कर्माणि मरलोके
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શ્ય
स्थानासूत्र
दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति २, परलोके दुखीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ३, परलोके दुखीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ४ ।
इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति १, इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति २, एवं चतुर्भङ्गी ४ |१| सू० । ४४ ।
टीका - " चत्तारि विकहाओ " इत्यादि - विकथा: - विरुद्वाः - संयमबाधकतया प्रतिपक्षीभूताः, कथा: - वचनपद्धतय इति विकथाः, तचितस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्री कथा - स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा स्त्रीकथा, स्त्रीकथायां विकथात्वं च संयमपरिपन्थित्वाद्बोध्यम् १श
एवं भक्तकथा - भक्तं- भोजनं तस्य कथा २, देशकथा - ३ राजकथा-४ |
सङ्कीर्ण - सङ्कीर्णमना: ". - इस पाठ में मनका स्वरूप कह दिया है. इसलिये अब सूत्रकार वचन का स्वरूप प्रकट करने के लिये विकथाका कथन करते हैं - " चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ " - इत्यादि - ४४
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टीकार्थ-चार चिकथाएं कही गई हैं, जैसे - स्त्री कथा, १ भक्त कथा, २ देश कथा, ३ और राजकथा ४, । संघम में बाधक होने के कारण जो उसका प्रतिपक्ष होती है ऐसी वचन पद्धतियां विक्रथा हैं। स्त्रियों की कथा करना या स्त्रियों में बैठ कर कथा करना ही स्त्री कथा है । स्त्री कथा को विकथा कहने का कारण यह है कि वह संयम का परिपन्थी- चिपक्ष है | भक्त नाम भोजन का है, भोजन की कथाका नाम भक्त कथा है । સ'કી...–સંકીણુંમના: ' આ સૂત્રપાઠ દ્વારા મનનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું” છે. હવે સૂત્રકાર વચનનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે વિકથા-કથાનુ સ્વરૂપ अ४८ ४रे छे. " चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ " त्याहि
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टीअर्थ - थार विस्थामा उही छे – (1) श्री था, (२) लस्तस्था, (3) देशस्था અને (૪) રાજકથા આ ચારે પ્રકારની કથાએ સયમના પાલનમાં ખાધકરૂપ હાવાને કારણે તેમને વિકથાઓ કહી છે. સ્ત્રીએ વિષે વાતે કરવી અથવા સ્ત્રીઓ વચ્ચે બેસીને વાતેા કરવી તેનું નામ સ્રીકથા છે. સ્રીકથાને વિકથા કહેવાનું કારણ એ છે કે તે સંયમની પરિપન્થી ( વિપક્ષભૂત ) છે. એટલે લેાજન–ભાજન સમધી વાતને ભક્તકથા કહે છે, દેશ વિષેની કથાને
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ભક્ત
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सुधा टीका स्था० . उ०२ सु०४४ विकथास्वरूपनिरूपणम् - " इथिकहा " चउबिहा" इत्यादि-स्त्रीकथा चतुर्विधा जात्यादिभेदेन, तत्र स्त्रीणां जातिकथा-जात्या जातेवा कथा-ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यनमायाः प्रशंसा निन्दा वा १, एवं स्त्रीणां कुलकथा-उत्कृष्टापक्रप्टकुल जातानां स्त्रीणां कस्याश्चित स्त्रियाः प्रशंसा कस्याश्चिन्निन्दा वा २, तथा स्त्रीणां रूपकथा-आन्ध्रीप्रभृतीनां मध्ये कस्याश्चिद् रूपस्य प्रशंसा निन्दा वा ३, तथा-स्त्रीणां नेपथ्यकथामहाराष्टीप्रभृतीनां स्त्रीणां कस्याश्चित् कच्छवन्धनादिवेषस्य प्रशंसा निन्दा वा ४॥
स्त्रीकथायां चैते दोषा:-" आयपरमोहुदीरणं उड्डाहो सुत्तमाइ परिहाणी। वंभवयस्स अगुत्ती पसंगदोसा य गमणादो। १।"
देश सम्बन्धी कथाका नाम- देश कथा है और राजसम्बन्धी कथा का नाम राजकथा है । " इत्थिकहा चउविहा"---इत्यादि, स्त्री कथा चार प्रकारकी हैं जैसे- स्त्रियों की जाति की कथा, १ स्त्रियों के कुल की कथा, २ स्त्रियों के रूप की कथा, ३ और स्त्रियों के नेपथ्यकी कथा, ४ । ब्राह्मणी आदि किसी एक की प्रशंसा, अथवा, निन्दा करना यह - स्त्री कथाका प्रथम भेद है, १। उत्कृष्ट-अपकृष्ट कुल में उत्पन्न हुई स्त्रियों में से किसी एक की प्रशंसा-या-निन्दा करना यह-स्त्री कथाका द्वितीय भेद है। आन्ध्री (आन्ध्र प्रदेश में जन्मी हई) स्त्रियों में से किसी एक स्त्री के रूपकी प्रशंसा- अथवा निन्दा करना यह स्त्री कथाका तीसरा भेद है.-३ तथा- महाराष्ट्रो आदिक स्त्रियों में से किसी एक स्त्रीके कच्छ बन्धनादि वेष की प्रशंसा करना अथवा किसी के वेष की निन्दा करना यह- स्त्री कथा का चतुर्थ भेद है -४ । स्त्री कथा में ये दोष है-" आय परमोहुदीरणं "-इत्यादिभने । विपनी थाने. २०४४था ४ छ. " इत्थिकहा चउबिहा" या. સ્ત્રીકથા ચાર પ્રકારની કહી છે– (૧) સ્ત્રીઓની જાતિની કથા, (૨) સ્ત્રીઓના अजनी था, (3) श्रीयाना ३५नी ४था मन (४) श्रीमान नेपथ्यनी था.
બ્રાણ આદિ એક જાતિની સ્ત્રીની પ્રશંસા અથવા નિન્દા કરવી તેનું નામ સ્ત્રીવિષયક જાતિકથા છે. ઉત્તમ અથવા નીચ કુળની વાત કરીને કઈ કુળમાં જન્મેલી સ્ત્રીની પ્રશંસા કરવી અને કઈ કુળમાં જન્મેલી સ્ત્રીની નિન્દા કરવી, તેને વિષયક કુળકથા કહે છે. સ્ત્રીના રૂપની પ્રશંસા અથવા નિન્દા કરવી તેનું નામ રૂપકથા છે. (૪) મહારાષ્ટ્રિય આદિ સ્ત્રીઓની વેષભૂષાની પ્રશંસા કરવી અને કેઈ બીજી સ્ત્રીના વેષની નિન્દા કરવી તેનું નામ ને પથ્ય કથા છે. સ્ત્રીકથામાં જે દે છે તે આ ગાળામાં પ્રકટ કર્યા છે– ___“आय परमोहुदीरणं" इत्यादि
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छाया-'" आत्मपरमोहोदीरणा उड्डाहः सूत्रादिपरिहानिः । ब्रह्मवतस्यागुतिः प्रसङ्गदोषाश्च गमनादयः |१| " इति, भकहा चउन्विा " इत्यादि - भक्तकथा चतुविधा प्रज्ञप्ता, वद्यथाभक्तस्य-आवापकथा-आवापः - शाकघृतादि, तस्य कथा - अमुकरसवत्याभियन्ति शाकघृतादीन्युपयुज्यन्त इत्येवं रूपा कथा १, भक्तस्य निर्वाषकथानिर्वाणः पक्वा पक्व आहारः, तस्य कथा - अमुकरसवत्यामेतावन्तः पक्वापक्वान्नव्यञ्जन विशेषा उपयुज्यन्त इत्येवंलक्षणा कथा २, भक्तस्य आरम नकथा - आरम्भः - अग्न्याधारम्भः तस्य कथा - एतावता वह्नितापेन संयावादिवस्तूनि ( हल्वादि प्रसिद्ध : ) प्रशस्तानि भत्त कहा चउच्चिहा " इत्यादि, भक्तक्रया चार प्रकार की कही गई है, जैसे -भक्त के आवापकी कथा, १ भक्त के निर्वापकी कथा, २ भक्त के आरम्भ की कथा, ३ और भक्त के निष्टान की कथा, ४ । शाक - घृत आदि का नाम आवाप है, भक्त सम्बन्धी शाक- वृतादि की कथा करना कि अमुक रसवन्ती में ( रसोई में ) इतने शाकन्याऐसे २ शाक घृतादि उपभोग में लाये जाते हैं, ऐसी कथा भक्त कथा का प्रथम भेद है | पक्का-पक्व आहारका नाम निर्वाण है, इस भोजन सम्बन्धी निर्वाण की कथा करना कि अमुक " रसवन्ती " में इतने पक्वान्न और इतने अपक्वान्न उपयुक्त होते हैं ऐसी कथा भोजन कथा का द्वितीय भेद हैं। भोजन के विषय में अग्नि आदिक के आरम्भ की कथा करना कि - संघाव" हलुवा " आदि वस्तुएं इतने अग्नि के भत्ता चव्विहा " त्यहि-मस्त स्थाना या यार प्रहार नीचे अभाले उह्या छे-(१) लाना भावापनी था, (२) अतना निर्वापनी प्रथा, (3) लस्तना भारभ्लनी प्रथा भने ( ४ ) लस्तना निष्ठाननी था.
"लउतना भावापनी उथा " - शाह, धी माहितुं नाम 'आवाय' छे. અમુક ભાજનમાં આટલાં શાક, આટલા શ્રુતાઢિ ઉપયેાગમાં લીધાં હતાં, આ પ્રકારની ભાજનના વિષયમાં જે વાતે કરવામાં આવે છે, તેને ભાજનના આવાપની કથા કહે છે.
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स्थानास्त्रे
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(૨) “ ભેજનના નિર્વોપની કથા ”——પકવાપક આહારને નિર્વ્યાપ કહે છે. અમુક ભાજન સમારંભમાં આટલા પકવાન્ન અને આટલાં અપકવાન્ન ઉપયાગમાં લેવાય છે અથવા લેવામાં આવ્યા હતા, આ પ્રકારની કથાને આ ખીજા સેટમાં મૂકી શકાય છે.
(૩) ભાજનના આરંભની કથા—ભાજનના વિષયમાં અગ્નિ આદિના આરભની વાત કરવી તેનું નામ આર ભની કથા છે. જેમકે શીરા આદિ
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__ सुधा टीका स्था०४३०२ २० ४४ विकथास्वरूपनिरूपणम्
६१७ संपद्यन्ते नाल्पवह्निनापेनेत्यादिरूपा ३, भक्तस्य निष्ठानकथा-निष्ठानं शतसहस्रप्रभृति द्रव्यं तस्य कथा " अमुकभोजने एतावद् द्रव्यमुपयुज्यते' इत्येवंरूपा निष्ठान कथेति ४) अत्र चैते दोषा:" आहारमंतरेणवि गेहीओ जाइए सईगाले ।
अजिइंदिय ओदरियावाओ उ अणुन्नदोसाय । १ ।" छाया--" आहारमन्तरेणापि गृद्धया जायते साङ्गारम्
अजितेन्द्रियता औदरिकवादस्तु अनुज्ञादोपाश्च ।१। इति, ४।
" देसकहा चउबिहा" इत्यादि-देशस्य मगधादेः कथा देशकथा, सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-देशविधिकया-देशे-मगधप्रभृतौ विधिः-विरचनाभोजनमणिमयभूमिकादीनां निर्माणं, तस्य कथा तथा १, ताप से अच्छी बनती हैं, और अल्प अग्नि ताप से अच्छी नहीं बनती है इत्यादि, यह भोजन कथाका तृतीय भेद है-३ । शत-सहन आदि द्रव्यका नाम निष्ठान है, इस द्रव्य की कथा करना कि अमुक भोजनमें इतना द्रव्य खर्चा जाय (खर्च किया जाय ) तभी यह ठीक-२ बनता है, यह भक्तका चौथा भेद है-४ इस भक्त कथा में इतने दोष हैं"आहारमंतरेण वि"-इत्यादि । देस कहा चरविहा-" इत्यादि-- मगध आदि देश की कथा करना, यह-देशकथा है, जो कि चार प्रकार कही गई है, जैसे-देशविकथा-१ देशविकल्प कथा-२ देशच्छन्द कथा-३ और देशनेपथ्यं कथा-४ । मगध आदि देश में भोजनमणिमय भूमि आदि का निर्माण अच्छा होता है, या-बुरा होता है વસ્તુઓ આટલી અગ્નિના તાપથી સારી બને છે-એછા તાપથી સારી બનતી નથી, આ પ્રકારની કથાને ત્રીજા ભેદમાં ગણાવી શકાય છે - ભજનના નિષ્ઠાનની કથા–શત, સહસ્ર આદિ દ્રવ્યનું નામ નિષ્ઠાન છે અમુક ભેજનમાં આટલું દ્રવ્ય ખર્ચ કરવામાં આવે, તે જ તે ભજન સારું બને છે, અથવા અમુક માણસે અમુક ભોજન સમારંભમાં આટલું દ્રવ્ય વાપર્યું, આ પ્રકારની કથાને આ ચોથા ભેદમાં મૂકી શકાય છે.
मा तथा मासा द्वष छ-" आहारमंतरेण वि" त्यालि.
" देखकहा चउन्विहा " त्या-भराध शनी ४५४२वी तुं नाम દેશથા છે. દેશથાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) દેશ વિધિ કથા, (२) देश वि८५ ४था, (3) देश छन्६ था, मन (४) देश नेपथ्य था.
(૧) મગધ આદિ દેશમાં ભેજન, મણિમય ભૂમિ આદિનું નિર્માણ સારું થાય છે કે નરસું થાય છે, એવી જે વાત કરાય છે તેને દેશ વિધિ
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स्थानासूत्रे
देशविकल्पकथा-देशे विकल्पः सस्यादिनिष्पत्तिः, वमकूपतडागभवनमभृतिनिर्माणलक्षणच देशविकल्पः, तस्य कथा २,
देशच्छन्दःकथा - देशे छन्दः - गम्यागम्य विभागः, यथा ' लाट ' देशे मातुल कन्या गय्या क्वचिन्मातुलभगिनी च तदन्यदेशेऽगम्या सेति देशच्छन्दः, तस्य कथा देशच्छन्दःकथा ३)
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देश नेपथ्यकथा-देशे नेपथ्यस्य स्त्रीपुरुषाणां स्वाभाविकस्य वेषस्य तथाऽलङ्काररचितस्य च कथा देशनेपथ्यकथा ४। इह चैते दोपाः
" रागदोपत्ती सपक्खपरपक्वओ य अहिगरणं ।
बहुगुण इमोत्ति देसो सोउं गमणं च अन्नेसिं । १ । " इति, छाथा- -" रागद्वेपोत्पत्तिः स्वपक्ष:- पपक्षाभ्यामधिकरणम् । बहुगुण एप इति देश: श्रुत्वा गमनं चान्येपाम् | १ |
"
ऐसी कथा करने का नाम - देशविकथा है - १ सगधादि देश में धान्य उत्पादन विधान की कथा, एवं - वप्र कूप तडाग भवन आदि के निर्माण की कथा करना यह देशविकथा है- २ देशच्छन्द कथा - देशादि को लेकर गम्यागम्य आदि की कथा करना, जैसेलाट देश में मामा की कन्या गम्य होती है, कहीं मामाकी बहन गन्ध सेवनीय होती है, और इनसे विभिन्न देश में अगम्या होती है - ३ देश नेपथ्य कथा - देश को लेकर स्त्री पुरुषों के स्वाभाविक वेषभूषा आदि की कथा करना, जैसे- अमुक देश में खो पुरुषो की वेषविभूषा इस प्रकार की होती है, अमुक देश में इस प्रकार की -४ इस कथा में ऐसे दोष हैं- " रागदोपत्ती " - इत्यादि । 66 रायकहा चउકથા કહે છે. (૨) મગધ આદિ દેશમા અનાજ વગેરેના ઉત્પાદનની કથા તથા डूवा, वाव, तणाव, 'सूत्रन महिना निर्माणुनी स्थाने देश वित्थ था डे छे. (૩) દેશાદિની અપેક્ષાએ ગમ્ય-અગમ્ય આદિની કથા કરવી તેનું નામ દેશ छह ४था छे. "" गंभ्य "मेंटसे सेवनीय भने 'सभ्य' भेटले असेवनीय, भेभङे “ साटाहि देशमां भाभानी हीम्री गभ्य ( सेवनीय ) होय छे, अने અન્ય દેશે।માં મામાની દીકરી અગમ્ય હોય છે, ” આ પ્રકારની કથાને દેશછન્દ કથા કહે છે, (૪) અમુક દેશમાં સ્ત્રી-પુરુષાની વેષભૂષા આ પ્રકારની હાય છે, ” આ પ્રકારની કાઇ દેશના સ્ત્રીપુરુષોના સ્વાભાવિક વેષભૂષાની કથાને દેશ નેપથ્ય કથા કહે છે. આ દેશકથાના ઢાષા આ ગાથામાં પ્રકટ કર્યો છે. रागदो सुप्पत्ती " त्याहि
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू०३३ विकथास्वरूपनिरूपणम् ६९ ___ " रायकहा चउबिहा" इत्यादि-राजमथा चतुविधा मज्ञप्ता, तद्यथा-राज्ञोऽतियानकथा-राज्ञः-अतियानं-नगरादौ प्रवेशः, तस्य कथा अतियानकथा १, तथा-राज्ञो निर्याणकथा-निर्याणं-नगराद् निःसरणं, तस्य कथा निर्याणकथा २, राज्ञो वलवाहनकथा-वलं हस्त्यादि, वाहनं-वेसरादि, तदुभयकथा बलवाहनकथा३,
राज्ञः कोशकोष्ठागारकथा-कोशः-निधिः-सुवर्णादिभाण्डागार, कोष्ठं कुम्लादि, तद्रूपमगारं धान्यागारमित्यर्थः, तदुभयकथा कोशकोष्ठागारकथा ४। इह चारकचोरादिशङ्कास्पा अनेके दोपा भवन्ति, उक्तं च"हियत्थस्स भवे चोरो, मारियस्स णु हिंसगो। '
रहस्सभेदगो वेनो, इह संका पजायए । १ ।। छाया-" हृतार्थस्य भवेच्चौरो, मारितस्य तु हिंसका।
रहस्यभेदको वाऽय-मिति शङ्का मजायते ।१।" इति । विहा"-इत्यादि-राजकथा चार प्रकार की कही गई है-जैसे-राजा की अतियान कथा-१ राजा की निर्याण कथा-२ राजा की बलवाहन कथा-३ राजा की कोठागार कोष कथा-४ इन में राजा के नगर आदि में प्रवेश करने की जो-कथा है बह-राजा की अतियान कथा है-१ राजा के नगर से बाहर निकलते समय की जो कथा है वह-राजा की निर्याण कथा है-२ राजा के वल-सैन्य-की वाहन-हस्त्यादि की, तथा-दोनों बल-वाहनों की कथा करना यह राजा की बल वाहन कथा है-३ राजा के स्तुवर्णादि भाण्डारकी एवं-धान्यागारकी कथा तथा इन दोनों की कथा करना सो यह-राजा की कोष्ठागार कथा है-४ । यहां-चारक चोर आदि शङ्का रूप अनेक दोष होते हैं। उक्तञ्च"हियत्थरस भवे चोरो"-इत्यादि । " धम्मकहा चउचिहा. " रायकहा चउव्विहा " त्याह-२४४था या२ ५३१२नी ही छ-(१) रानी मतियान 31, (२) रानी.नियार , ४थ!, (3) २inनी मसवाहन કથા, (૪) રાજાની કેષાગાર કેષ કથા. (૧) રાજાના નગર પ્રવેશ વિષયક કથાને “ રાજાની અતિયાન કથા” કહે છે. (૨) રાજા નગરની બહાર વિજયાદિ नभित्तर प्रयाण ४२ छ तनी थाने 'तनी.निया था। . छ. (3) રાજાના સૈન્ય, હાથી, ઘોડા આદિ વાહન અથવા બનેની (બલ વાહનની) કથા કરવી તેનું નામ “ભલવાહન કથા છે. (૪) રાજાના સુવર્ણાદિ કષની ધાન્ય ભંડારની કથાને “કેકાગાર કષ કથા ” કહે છે. અહીં ચારક (ચેર) माहि श३५ भने होप डाय छे. ४ह्यु ५ छ -
" हियत्थरस भवे चोरो" त्यादि
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स्थानाङ्गसूत्रे अथ धर्मकथा"चउबिहा धम्मकहा" इत्यादि-धर्मकथा - धरति-भवजलधौ निपतत् भव्यजातं धारयति प्लब इव तारयति शुभस्थान प्रापयतीति धर्मः, तस्य कथाभगवद्देशनालक्षणो वाक्यप्रवन्धो धर्मकथा । यद्वा - शुभाशुभकर्मविपाकोपदर्शनं धर्मकथा । सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आक्षेपणी-आक्षिप्यते-मोहं निराकृत्य तत्त्वं चारित्रं वा प्रति समाकृष्यते श्रोताऽनयेति आक्षेपणी । उक्त च
" स्थाप्यते सत्पथे श्रोता, यथा साऽऽक्षेपणी कथा।
यथेाकार कमला-वती धर्मे व्यतिष्ठिपत् । १ । इति, १॥ - तथा-विक्षेपणी-विक्षिप्यते-सम्यग्वादगुणोत्कर्षप्रदर्शनेन मिथ्यावादादपसायते श्रोताऽनयेति विक्षेपणी, उक्तं चइत्यादि-जो भव जलधि में डूबते हुवे प्राणियों को उससे नौका की तरह पार लगा देता है-शुभस्थान में पहुंचा देता है उसका नामधर्म है, इस धर्मकी जो-कथा है वह-धर्म कथाहै । अर्थात्-भगवान्की देशनारूप जो वाक्य प्रयन्ध है वह-धमकथा है, अथवा-शुभा ऽशुभ कर्म के विपाक फल को उपदर्शन कराने वाली जो कथा है वह-धर्म कथा है । यह धर्मकथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे-आक्षेपणी१ विक्षेपणी-२ संवेदनी-३ और निवेदनी-४। इनमें-जिस कथा से श्रोता जीव मोह से दूर करा कर तत्त्व के प्रति, अथवा-चारित्र के प्रति आकृष्ट किया जाता है वह-कथा आक्षेपणी है । कहा भी ---
" स्थाप्यते सत्पथे श्रोता"-इत्यादि । “विक्षेपणी"-सम्यग्वादगुण के उत्कर्ष के प्रदर्शन से श्रोता जिस कथा द्वारा मिथ्यावाद से
" धम्मकहा चउठिवहा" याह-४था यार प्रा२नी से छे. स4. સાગરમાં ડૂબતા જીવને જે નૌકાની જેમ પાર કરાવી દે છે-શુભ સ્થાનમાં પહોંચાડી દે છે, તેનું નામ ધર્મ છે તે ધર્મ વિષયક જે કથા છે તેને ધર્મ, કથા કહે છે. એટલે કે ભગવાનની દેશના રૂપ જે વાયપ્રસ છે, તેને ધર્મ કથા કહે છે. અથવા શુભાશુભ કર્મને વિપાક ફળનું ઉપદર્શન કરાવનારી જે કથા છે તેને ધર્મકથા કહે છે. તેના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે-(૧) આક્ષે ५०ी, (२) विक्षपणी, (3) Aail A२ (४) निवनी.
જે કથા દ્વારા શ્રોતાના આત્માને મોહથી દૂર કરીને તત્વ પ્રત્યે અથવા ચારિત્ર પ્રત્યે આકૃષ્ટ કરવામાં આવે છે તે કથાને આક્ષેપણ કથા કહે છે. ४घु ५ छ ? " स्थाप्यत्ते सत्पथे श्रोता" त्याहि
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सुधा टीका स्था० ४ उ०२ ०४४ विकथास्वरूपनिरूपणम्
" सम्यग्वादप्रकर्षेण मिथ्यावादस्य खण्डनम् ।
या विक्षेपणीस, यथा केंशी प्रदेशिनम् | २ | इति, २
50
तथा - संवेदनी - संवेद्यते- संसारासारताप्रदर्शनेन मोक्षाभिलाप उत्पाद्यतेऽनयेति संवेदनी, उक्तं च
$6
यस्याः श्रवणमात्रेण मुक्तिवान्छा प्रजायते ।
संवेदन यथा मल्ली, पड् नृपान् प्रत्यवोधयत् । ३ | " इति, ३ | तथा-निर्देदनी-निर्वेद्यते= विषयेभ्यो विरज्यते श्रोताऽनयेति निर्वेदनी, उक्तंच - " यदाकर्णनमात्रेण वैराग्यमुपजायते ।
निर्वेदी यथा शालि - भद्रो वीरेण बोधितः |४| इति,
अत्रत्य
कायां विशेष जिज्ञासुभिरवलोकनीयम् । ४ ।
दृष्टान्तचतुष्टयमस्मत्कृतायामाचाराङ्गमुत्रस्याऽऽचार चिन्तामणिटी
દૂ
crissक्षेपणी
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" अक्खेवणी कहा चउत्रिहा " इत्यादि -आक्षेपणी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - आचाराऽऽक्षेपणी- आचारः - लोचास्नानादिः, स अक्षिप्यते, - प्रकाशितः सन् स्थाप्यतेऽनयेत्याचाराऽऽक्षेपणी १ ।
दूर किया जाता है वह विक्षेपणो कथा है । कहा भी है- " सम्यग्वादप्रकर्षेण " - इत्यादि, जो कथा श्रोताको संसार की असारता दिखाती हुई मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न कराती है वह - संवेदनी है । कहा भी है - " यस्याः श्रवणमात्रेण " - इत्यादि, जो कथा श्रोता के विषयानुराग को ध्वस्त (नष्ट ) करती हुई उन उन विषयोंसे उसे विरक्त बना देती है वह कथा निर्वेदिनी है । कहा भी है- " यदा करणमात्रेण " इत्यादि । आक्खेवणी कहा चहा, इत्यादि, आक्षेपणी कथा आचाराक्षेपणी, १ व्यवहा
चार प्रकार की कही गई है, जैसे
-
‘વિક્ષેપણી ” સગૃગ્લાદ ગુણુના ઉત્કર્ષના પ્રદર્શનથી શ્રોતા જે કથા દ્વારા મિથ્યાવાદને ત્યાગ કરી નાખે છે, તે કથાને વિક્ષેપણી કથા કહે છે. " सम्यग्वादप्रकर्पेण " त्याहि
જે કથા શ્રોતાને સંસારની અસારતા ખતાવીને તેને મેાક્ષાભિલાષી બનાવે छे, ते स्थाने' स’वेद्दनी था' हे छेउ छेडे " यस्या• श्रवणमात्रेण "छत्याहि-જે કથા શ્રોતાના વિષયાનુરાગના ધ્વસ (નાશ ) કરીને, તે વિષયાથી तेने विरक्त उरी नाचे छे, मेवी स्थाने ' निवेहिनी प्रथा ' उ छेउ छे - " यदा करण मात्रेण " धत्याहि-
“ आक्खेत्रणी कहा चउव्त्रिहा ” इत्यादि आक्षेपाथी स्थाना नीचे प्रभारी
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स्थानासूत्र व्यवहाराऽऽक्षेपणी-व्यवहारः-कथञ्चिदागंत दोप दूरीकरणाय प्रायश्चित्तरूपः, स आक्षिप्यतेऽनयेति व्यवहाराऽऽक्षेपणी २।।
प्रज्ञप्त्याक्षेपणी--प्रज्ञप्ति:-संशयवतः श्रोतुः प्रियवचनैः प्रबोधनं, साऽऽक्षिप्यतेऽनयेति प्रज्ञप्त्याक्षेपणी ३।
दृष्टिवादाऽऽक्षेप गी-दृष्टिवादः-श्रोतारमुदिश्य नयाननुसृत्य सूक्ष्मजीवप्रभृतिभावप्रतिपादनम् , आक्षेपण्याचायं रस:" विज्जाचरणं च तवो, पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ।
उवइस्सइ खलु जं सो, कहाए अक्खेवणीयइरसो ।१।" छाया--" विद्याचरण च तपः पुरुषाकारश्च समितिगुप्तयः । उपदिश्यते खलु यत् स कथाया आक्षेपण्या रसः । १ । " इति ।।
__ इत्याक्षेपणी। राक्षेपणी, २ प्रज्ञप्त्याक्षेपणी, ३ और दृष्टिवादाक्षेपणी, ४ जिस कथा के द्वारा लोच आदि का करना, और स्नान आदि नहीं करना यह विषय प्रदर्शित होता हुवा स्थापित किया जाता है वह कथा 'आक्षेपणी' है, १ कथञ्चित् आगत दोष को दूर करने के लिये प्रायश्चित्त रूप जिस कथा के द्वारा प्रकाशित किया जाता है वह कथा व्यवहाराक्षेपणी है, २ संशयशाली पुरुष, संशयवान् श्रोताको प्रिय वचनो द्वारा बोध देनेवाली जिस कथा के द्वारा प्रकाशित की जाती है ऐसी वह कथा, प्रज्ञप्त्याक्षेपणी है, ३ श्रोताके अनुसार नयों को लेकर, नयों का आप्रय करके, जो सूक्ष्म जीव आदि पदार्थों के भावों का प्रतिपादन जिस कथा से किया जाता है वह कथा दृष्टिवादाक्षेपणी है, ४। आक्षेपणी कथाका यह रस है-"विज्जाचरणंच तवो'-इत्यादि । या२ ५४२.४ा छ-(१) मायाक्षेपणी, (२) ०443राक्षेपणी, (3) प्रशत्या. पणी, मन (४) टिपापी.
જે કથા દ્વારા લેચ આદિ કરવાનું અને સનાતન આદિ નહીં કરવાનું પ્રતિ પાદન કરવામાં આવે છે, તે કથાને આચારક્ષેપણ કથા કહે છે કોઈ પણ પ્રકારે થઈ ગયેલા દેષને દૂર કરવા માટેના પ્રાયશ્ચિત્ત આદિનું જે કથા દ્વારા પ્રદર્શન થાય છે તે કથાને વ્યવહારક્ષેપણ કથા કહે છે. સંશયુક્ત શ્રોતાને પ્રિયવચન દ્વારા પ્રબોધન રૂપ પ્રજ્ઞપ્તિનું જે કથા દ્વારા પ્રદર્શન થાય છે તે કથાને પ્રજ્ઞપ્તિ આક્ષેપણ કથા કહે છે અને આશ્રય લઈને સૂક્ષમ જીવાદિ પદાર્થોના ભાવનું પ્રતિપાદન જે કથા દ્વારા કરવામાં આવે છે, તે કથાને દૃષ્ટિવાદાક્ષેપણી કથા કહે છે. આક્ષેપણ કથાના લાભને આ ગાથા દ્વારા પ્રકટ ४२वामi मावस छे. “ विज्जाचरणं च तवो" त्यादि.. .
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सुधा टीका स्था० ४ उ २ सू०१४ विकथास्वरूपनिरपणम्
१२३ __ " विक्खेवणी कहा " इत्यादि-विक्षेपणी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथास्वसमयं-स्वस्य समय:-सिद्धान्तः स्वसमयः, तं स्वसमयं कथयतिवर्णयतितद्गुणान् प्रकाशयति माक, ततः स्वसमयं कथयित्वा पासमयम् अन्यसिद्धान्तं कथयति-परकीयसिद्धान्तदोषप्रदर्शनपूर्वकं प्रतिपादयतीत्यर्थः ।।
इति प्रथमा विक्षेपणी कथा १। ।
परसमयं-परकीयसिद्धान्तं कथयित्वा-तद्धोपप्रदर्शनपुरस्सरं प्रतिपाद्य स्वस मयं-स्वकीयसिद्धान्तं-तद्गुणप्रदर्शनपुरस्सरं स्थापयिता-स्वसिद्धान्तस्य स्थापना. शीलो भवति २॥ इति द्वितियाविक्षेपणी कथा।२।।
सम्यग्याद-परसिद्धान्तेष्वपि धुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्ववाद. समानतया सम्यक-समीचीनोऽविरोधितत्यानां वादः सम्यग्वादः, ते सम्यग्वाद कथयति, सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावाद-निनोक्ततत्वविरुद्वरूपं कथयति-तद्धो. पपदर्शनपूर्वकं प्रतिपादयति, इति तृतीयाविक्षेपणी कथा ३॥ ___“विश्वणी कहा च उबिहा" इत्यादि, विक्षेपणी कथा चार प्रकारकी कही गई है, जो कथा पहिले स्व समय को, अपने सिद्धान्त गुणों को दिखाते हुवे अन्य सिद्धान्त को, उसके दोषों को प्रगट करते हुवे कही जाती है वह कथा विक्षेपणी कथा है, और यह पहले प्रकार की विक्षेपणी कथा है। जो कथा पर सिद्धान्त गत दोषों को प्रगट करते हुवे अपने सिद्धान्त के गुणों को प्रकाशित करते हवे कही जाती है वह-द्वितीय प्रकार की विक्षेपणी कथा है । जो कथा पर सिद्धान्तों में भी घुणाक्षर न्याय से जितना सम्यग्वाद है जिनागमन के तात्त्विक विवेचन से मिलता हुवा कथन है, उसे प्रकट करती है, और जितना उस में मिथ्यावाद है जिनोक्ततत्व से विपरीत कथन है उसे प्रकट करती है इस ढङ्ग से जो कथा कही जाती है वह तृतीय प्रकार की
“विक्खेवणी कहा चउव्यिहा " त्या विषयी ४था या२ ४ी छજે કથામાં પહેલાં સ્વસમયના (જૈન સિદ્ધાન્તન) ગુણને પ્રકટ કરવામાં આવે છે, અને ત્યારબાદ અન્ય સિદ્ધાન્તના દે પ્રકટ કરવામાં આવે છે, તે કથાને પહેલા પ્રકારની વિક્ષેપણ કથા કહે છે
જે કથામાં પહેલાં પર સિદ્ધાન્તગત દેને પ્રકટ કરીને સ્વસિદ્ધાન્તના ગુણેને પ્રકાશિત કરવામાં આવે છે, તે કથાને બીજા પ્રકારની વિક્ષેપણ કહે છે.
જે કથા પર સિદ્ધાન્તોમાં જેટલે સમ્યવાદ છે-જિનાગમના તાવિક વિવેચન સાથે મળતું આવે એવું કથન છે-તેને પણ પ્રકટ કરે છે અને તેમાં જેટલે મિથ્યાવાદ-જિનક્તિ તત્વ કરતાં વિપરીત કથન છે, તેને પણ પ્રકાશિત કરે છે, તે કથાને ત્રીજા પ્રકારની વિક્ષેપ કથા કહે છે.
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स्थानाङ्गसूत्रे
मिथ्यावादं - परसमयेष्वेव जिनोक्ततत्त्वविरुद्धरूपं मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवति । यद्वा - नास्तिकवादिसमयं कथयिला आस्तिकत्रादिसमयं कथयतीति चतुर्थी विक्षेपणी कथा वोध्या ४ |
इति चतुर्थी विक्षेपण कथा । इति विक्षेरणी कथा | २
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अथ संवेदनी
" संवेणी कहा चउविवहा " इत्यादि - संवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - इहलोक संवेदनी - इहलोक :- मनुष्यलोकः, परन्त्वत्र लक्षणया मनुष्यजन्म गृह्यते, तस्य स्वरूपख्यापनया संवेदनी संबोधनी, यथा-' इदं मानुपत्वमसारमनित्यं मेघमण्डलसन्निभ 'मित्यादिरूपा | १ |
विक्षेपणी कथा है, पर समयों में ही जिनोक्त तत्त्व विरुद्ध रूप मिथ्यावाद कर के सम्यग्वाद की स्थापक होती है, अथवा - नास्तिकवादी के समय को कह कर के आस्तिकवादी के सिद्धान्त को स्थापित करती है वह चौथे प्रकार की विक्षेपणी कथा है ।
" संवेहणी कहा चउच्चिहा - इत्यादि, संवेदनी कथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे- इहलोक संवेदनी, १ परलोक संवेदनी, २ आत्म शरीर संवेदनी, ३ और परशरीर संवेदनी, ४ जो कथा इह लोक के लक्षण से मनुष्य जन्म के स्वरूप पर प्रकाश डालती है, जैसे- यह मनुष्य जन्म असार है, अनित्य है, मेघमण्डल के जैसा देखते देखते विलीन हो जाता है, इत्यादि,
જે કથા પર સમયેામાં ( સિદ્ધ'તેમાં ) જે મિથ્યાત્વ છે તેને પ્રકટ કરીને સમ્યગ્વાદનું પ્રતિપાદન કરે છે તેને ચેાથા પ્રકારની વિક્ષેપણી કથા કહું છે, અથવા જે કથા ન સ્તિકવાદીના સિદ્ધાન્તનુ ખ`ડન કરીને આસ્તિકવાદના સિદ્ધાન્તાનું પ્રતિપાદન કરે છે, તે કથાને ચાથા પ્રકારની વિક્ષેપણી કથા કહે છે.
" संदेहणी कहा चव्हा " इत्याहि-सवेहनी था यार अअरनी उड्डी छे. (१) घडलाउस वेहनी, (२) परसो सवेहनी, ( 3 ) आत्मशरीर सहनी અને (૪) પરશરીર સ વેદની
જે કથા આ લેાકના લક્ષણ દ્વારા મનુષ્ય જન્મના સ્વરૂપપર પ્રકાશ नाचे छे, शेवी स्थाने 'डि सहनी था' हे छे. प्रेम " मा भनुष्य જન્મ અસાર છે, અનિત્ય છે, મેઘમ‘ડળની જેમ જોતજોતામાં વિલીન થઈ જાય એવા છે, ” આ પ્રકારની કથાને ઇહલેાક સવેદની કથા કહે છે.
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न
सुषा रोका स्था०४ ७०२ सू० ४४ विकथास्वरूपनिरूपणम्
परलोकसंवेदनी-परलोकः-देवादिभवः, तस्य स्वभावस्य संवेदनी-ख्यापनी तथा, यथा- देवा अप्यम्येास्पर्धा भयवियोग क्रोधशोक मोहकाममदादिजनितदुःखाभिभूताः सन्ति किं पुनस्तियंगादयः' इत्येवंरूपा २॥ ____ आत्मशरीरसंवेदनी~आत्मन:-स्वस्थ शरीर-काय:-आत्मशरीरं तस्य अशुचिनिमित्तोत्पन्नत्य-स्रवन्मलद्वाराऽऽकुलखाशुचिद्वारनिःसृतत्वेऽपि पुरुषार्थसाधनेडतिवन्धकत्वादिस्वरूपस्य संवेदनी-ख्यापनी तथा। एवं परशरीरसंवेदनी-इयं चाऽऽत्मशरीरसंवेदनीमनुसृत्य वोध्या ।।।
इति संवेदनी। परलोक संवेदनी-परलोक से यहां देवादिकों का भव लिया गया इस परलोक के स्वभाव को ख्यापन करने वाली जो कथा है, जैसेदेव भी असूया, ईर्ष्या. स्पर्धा, भय, वियोग, क्रोध, शोक, मोह, मद,
आदि दुःखों से अभिभूत हैं, तो फिर-तियंगादि को की कथा ही क्या, ३ ऐसी कथा परलोक संवेदनी है । आत्मशरीर संवेदनी-जो आत्मस्व शरीर की अशुचिता के निमित्त को प्रकट करती हो यहते हुवे नवमल द्वारों से जो घिनाबनी हुई है वह-अशुचि द्वार से निकला है, अत:--स्वयं अपवित्र है ऐसा कथन जो करती हो, और यह पुरुषार्थ साधन में जीवको शिथिल बनाये हुवे-प्रमाद पतित हुवे हैं इत्यादि बातों को समझाती हो ऐसी वह कथा आत्मशरीर संवेदनी है । तात्पर्य यही है कि यह देह हर तरह से अपवित्र-अशुचि और
પરલોકસંવેદની–પરલેકથી અહીં દેવભવ આદિ ગૃહીત થયેલ છે. આ પરલોકના સ્વરૂપને પ્રકટ કરનારી જે કથા છે તેને “પરકસંવેદની કથા” ४. छ. म " वे प मसूया, धन्यौ, २५, मय, विया, औध, शz, મોહ, મદ આદિ દુખેથી અભિભૂત છે, તે તિર્યગાદિના દુખની તે વાત જ શી કરવી !” આ પ્રકારની કથાને પરલેક સંવેદની કથા કહે છે.
આત્મશરીર સંવેદની–જે કથા આત્મશરીરની (સ્વ શરીરની) અશુચિતાના નિમિત્તોને પ્રકટ કરતી હોય તે કથાને આત્મશરીર સંવેદની કહે છે “વહેલા નવમળ દ્વારથી જે અશુચિ વધારે ઘાડી બની છે, અશુચિ દ્વાર માંથી આ શરીર ઉત્પન્ન થયેલું છે, તેથી તે પોતે જ અપવિત્ર છે, એવું કથન જે કથામાં થાય છે તેને “આત્મશરીર સંવેદની” કથા કહે છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ દેહ દરેક રીતે અપવિત્ર-અશુચિ અને કલુષિત
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स्थानहसूत्रे अथ निवेदनी"णिव्वेयणी कहा चउनिहा" इत्यादि-निवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोके-मनुष्यभवे दुथीर्णानि-दु-दुष्टु-निन्दितानि चीर्णानि-कृतानि दुश्चीर्णानि-दुष्कृतानि स्तेयपमृतीनि पापानि, कर्माणि-क्रियाः, इहलोके-मनु. घिना बने स्वरूपयाला है, इसकी उत्पत्ति के जो कारण कलाप हैं वे स्वयं अशुचि धिनायने और अपवित्र हैं माताके अपवित्र योनि द्वारसे यह निकलता है, अतः-ऐसे अपवित्र शरीर के मोह में पडकर जो जीव पुरुषार्थ साधन से मोक्ष साधन भूत सम्यग्दर्शनादिकों के सेवन से वञ्चित बन जाते हैं उनकी यह बडी भारी भूल है, इस प्रकार आत्मा को देहका स्वरूप देखनेवाली जो कथा है वह-आत्मशरीर संवेदनी कथा है । इसी प्रकार से परशरीर परसंवेदनी कथा के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, यह कथा आत्मसंवेदनी का अनुसरण करती है, अर्थात्-जिस प्रकार से हमें प्रतिकूल व्यवहार से अशान्ति होती है उसी प्रकार से पर शरीर के साथ किये गये प्रतिकूल व्यवहार से उसे भी अशान्ति होती है, इसी बात को ख्यापन करने वाली कथा पर शरीर संवेदनी कथा है । अथवा-जिस तरह से वह आत्म कथा शरीर है, उसी प्रकार से परशरीर भी है इस बात को ख्यापन करने वाली कथा परशरीर संवेदनी कथा है-४ ।
“णिवेयणी चउबिहा"-इत्यादि । निर्वेदनी कथा चार प्रका. रकी कही गई है, जैसे-जो-स्तेय आदिक पापकर्म जीव इस मनुष्य બનેલા સ્વરૂપવાળે છે. તેની ઉત્પત્તિના જે કારણે છે તે કારણે જ અશુચિ યુક્ત અને અપવિત્ર છે માતાના અપવિત્ર નિદ્વારમાંથી તે નીકળે છે. એવા અપવિત્ર શરીરના મેહમાં પડીને જે જીવ પુરુષાર્થ સાધનો દ્વારા મેક્ષ સાધનભૂત સભ્યદેશનાદિકાના સેવનથી વંચિત જ રહે છે, તે મોટી ભૂલ કરતે હોય છે. આ પ્રકારે આત્માને દેહનું સ્વરૂપ બતાવનારી જે કથા છે તેને આત્મશરીર સંવેદની કથા કહે છે. '
मे प्रमाणे ' ५२शरीर सवनी' या विष ५ सभा यु. “म આપણું શરીર સાથે થયેલાં પ્રતિકૂળ વ્યવહારથી આપણને અશાન્તિ થાય છે, એ જ પ્રમાણે અન્યના શરીર સાથે પ્રતિકૂળ વ્યવહારથી તેને પણ અશાન્તિ થાય છે,” આ પ્રકારની વાતનું પ્રતિપાદન કરનારી કથાને પરશરીર સંવેદની ४था ४ छ “णिव्वेयणी चउव्विहा" त्याह
निहिनी ४था या२ प्रा२नी ही छे, म...यारी मारे ५. કર્મ જીવ આલેકમાં કરે છે, તેનું ફળ આ લેકમાં પણ પ્રાપ્ત કરે છે અને
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सुधा रीका स्था०४ उ०२ सू० ४४ विकथास्वरूपनिरूपणम्
___ ६२७ ध्यभवे दुःखफलविषा:संयुक्तानि-दुख-कष्ट, तदेव फलं कर्मतरुजन्यं, तस्य विपाका-विपचनं विपाकः-अनुभवो दुःखफलविपाकः, तेन संयुक्तानि-दुःखफलविपाकसंयुक्तानि-कष्टरूपफलानुभववन्ति भवन्ति, चोरादीनामिव । १॥ एवम्इहलोके दुश्वीर्णानि कर्माणि परलोके-नरकादिलोके दुखफलविपाकसयुक्तानि भवन्ति नारकादीनामिव । २ ।
तथा परलोके-देवादिभवे दुश्चीर्णानि-दुष्कृतानि भोगेयारूपाणि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति आजन्मव्याधिदारिद्रयादि पीडितमनुष्यतिरश्वामिव । ३। लोक में करता है, वह उसका फल इस भव में तो पाता ही है, क्योंकिये स्वयंही दुःखरूप विपाक फलवाले होते हैं, अतः-इन्हें जो मनुष्य सेवन करता है वह नियमसे चोर आदिकोंकी तरह नाना प्रकारके कष्टोंको तो भोगताही है तथा परभव में भी, नरकादि लोकमें भी, नारकादि जीवोंकी तरह वह इनके दुःखरूप आदि अनेक फलोंको भोगता है । तात्पर्य यही है कि-हिंसादिक अधर्म कर्म जीवको इसलोकमें भी
और परलोकमें भी दोनों लोकोंमें विविध प्रकारके कष्टादि फलोंके प्रदाता होते हैं । तथा-जिन दुश्वीर्ण दुष्कृनोंको अमूय ईष्या आदिरूप पाप कर्मो को यह जीव परलोकमें देवादिक भवोमें अर्जित करता है वे कर्म दुःख फलरूप विपाक संयुक्त इसलोकमें होते हैं। जैसे इस मनुष्यलोकमें आजन्मव्याधि दारिद्य आदिसे पीडित हवे मनुष्योंके और तिर्यञ्चोंके कर्म दुःख फलरूप विपाकसे संयुक्त देखे जाते हैं ३ । तथा પરલેકમાં પણ પ્રાપ્ત કરે છે, કારણ કે તેનું સેવન કરનાર માણસ ચેરાદિની જેમ આ ભવમાં પણ વિવિધ પ્રકારના દુઃખ સહન કરે છે અને નારકાદિ ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને તે ગતિના વિવિધ કો પણ સહન કરે છે. - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે હિંસા, ચેરી આદિ પાપકૃત્યને ફલ વિપાક જીવને આલેકમાં પણ ભગવા પડે છે અને પરલોકમાં પણ ભેગવ પડે છે. આ પાપકૃત્યના વિપાક રૂપે તેમને ઉભય લેકના કો સહન કરવા પડે છે.
તથા જે દુઢિણું દુષ્કૃત્યોનું, અસૂયા, ઈર્ષા આદિ રૂપ પાપકર્મોનું જીવ પરલોકમાં (દેવાદિક ભમાં) ઉપાર્જન કરે છે, તે કર્મોને દુખફલરૂપ વિપાક જીવને આલેકમાં ભોગવવું પડે છે. જેમકે આ મનુષ્યલોકમાં આજન્મ વ્યાધિ, દારિદ્ર આદિથી પીડાતાં મનુષ્ય અને તિય જેવા મળે છે. તેઓ પરભવકૃત પાપકર્મોને ખફલરૂપ વિપાક જ ભેગવી રહ્યા હોય છે,
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स्थानाङ्गसूत्रे परलोके-तिर्यगादिभवे दुश्वीर्णानि कर्माणि परलोके-मनुष्यादिभवं कृत्वा पुनस्तियंगादिभव एव दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, मनुष्यादिभवे तत्कर्मणामुदयावलिकायामननुपविष्टत्वात् । ४ ।
इहलोके सुचीर्णानि-मुकृतानि दानादीनि पष्ठाष्टमादीनि च कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, तीर्थकरादिमुपात्रदानेन वसुधारादिदृष्टिवत् , पष्ठाष्ठमादिभिश्च-आमशीपध्यादिलब्धिप्राप्तिश्च । २ । एवं शेपभङ्गत्रयं विवेचनीयम् परलोकमें तिर्यगादि भवमें दुश्चीर्ण कर्म तिर्यगादि भवमेंही दुःख फल विपाक संयुक्त होते हैं, मनुष्यादि भवमें नहीं । क्योंकि वे कर्म मनु. प्यादि भवमें उद्यावलिकामें अननुप्रविष्ट होते हैं ४ । तथा इस. लोकमें सुचीर्ण-अच्छी तरहसे किये गये दानादिक कर्म षष्ठ अष्टम आदि तपस्यारूप कर्म इहलोकमें सुखफल विपाक संयुक्त होते हैं। जैसे-तीर्थङ्कर आदिरूप सुपात्र दानसे वसुधारा आदिकी दृष्टि होती है। तथा-षष्ठ अष्टम आदिकों तपस्थासे आमर्श औषधि आदि लब्धिकी प्राप्ति होती है । इसी तरहसे शेष भङ्गभी विवेचित करलेना चाहिये। यहां-प्रथम भङ्ग तथा द्वितीय भङ्ग ये दो भङ्गही कहे गये हैं।
द्वितीय भङ्ग इस प्रकारसे है, इसलोकमें सुचीर्ण कर्म परलोकमें सुख फलरूप विपाकसे संयुक्त होते हैं । जैसे-साधु श्रावक आदि द्वारा वृत्त सुचीर्ण कर्म-शेष दो भङ्ग इस प्रकारसे हैं-परलोक सुचीर्ण कर्म
તથા–પરલેકમાં તિર્યગાદિ ભવમાં દુશ્મણ દુષ્કૃત્યનું દુખવિપાક રૂપ ફલ તિર્યગાદિ ભવમાં જ ભેગવવું પડે છેમનુષ્યાદિ ભવમાં ભોગવવું પડતું નથી, કારણ કે તે કર્મો મનુષ્યાદિ ભાવમાં ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થતાં નથી
તથા આલોકમાં સારી રીતે જેની આરાધના થઈ હોય એવાં દાનાદિ કર્મ અને છઠ્ઠ-અઠ્ઠમ તપસ્યારૂપ કમ આ લેકમાં જ સુખ વિપાકરૂપ ફળ આપનારા હોય છે. જેમકે તીર્થકર આહિરૂપ સુપાત્રને દાન દેવાથી વસુંધરા (ધન) ની વૃષ્ટિ થાય છે તથા છ-અટ્ટમ આદિ તપસ્યાઓથી આમ
ઔષધિ આદિ લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના વિકપનું વિવેચન પણ સમજી લેવું. અહીં પહેલે અને બીજો ભેદ જ કહેવામાં આવ્યું છે.
બીજે ભેદ આ પ્રમાણે છે–આલોકમાં સુચીણું કર્મ ( ઉપાર્જિત સત્કર્મો) પરલોકમાં પણ સુખરૂલરૂપ વિપાકવાળાં હોય છે. જેમકે સાધુ, શ્રાવક માદિ દ્વારા કૃત સુચી કર્મ,
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सुधांटीका स्था० ४ उ०२ सू० ४४ कायाविशेषनिरूपणम् ४। अत्र प्रथमभङ्गः प्रोक्तः १। द्वितीयभङ्गे साधुश्रावकादिः २। तृतीये भङ्गे तीर्थकरः ३॥ चतुर्थभङ्गे वद्वतीर्थकर नामगोत्रकर्मा देवभवस्थस्तीर्थङ्करः ४। सू० ४४॥ पूर्व कथारूपो वाग्विशेष उक्तः, साम्प्रतं पुरुषजातपधानतया कायविशेपमाह
मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-किसे णाममेगे किसे १, किसे णाममेगे दढे २, दढे णाममेगे किसे ३, दढे णाममेगे दढे ४ ॥१॥
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--किसे णाममेगे किससरीरे १, किसे णाममेगे दढसरीरे २, दढे णाममेगे किससरीरे ३, दढे णाममेगे दढसरीरे ४ । २। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-किससरीरस्त णाममेगस णाणदंसणे समुप्पजइ णो दढसरीरस्त १, दढसरीरस्स गाममेगस्त णाणदंसणे समुप्पजइ णो किससरीरस्स २, एगस्त किससरीरस्स णाणदं. सणे समुपज्जइ दढसरीरस्तवि ३, एगस्त णो किससरीरस्त णाणदंसणे समुप्पजइ णो दढसरीरस्स ४ । सू० ४५ ॥
'छाया-चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कृशो नामैकः कृशः १, कृशो नामको दृढः २, दृढो नामैकः कृशः ३, दृढो नामैको दृढः ।। १।। इहलोकमें सुख फलरूप विपाक ते संयुक्त होते हैं, जैसे तीर्थङ्कर नाम कर्म ३, तथा परलोको सुचीर्णकर्म परलोकमें सुख फलरूप विपाकसे संयुक्त होते हैं, जैसे-बद्ध तीर्थङ्ककर गोत्र कर्मवाला देव भवस्थ तीर्थङ्कर ॥सू०४४॥
" इस प्रकारसे कथारूप वार विशेष कहकर अब सूत्रकार पुरुष जातकी प्रधानतासे कायविशेषका कथन करते हैं।
ત્રીજો ભાંગે–પરલોકમાં સુચીણ કમ આલેકમાં સુખફલરૂપ વિપાકથી યુક્ત હોય છે. જેમકે તીર્થંકર નામ કમ.
ભાગ–પરલોકના સુચી કમ પરલેકમાં સુખફલરૂપ વિપાકથી યુક્ત હોય છે. જેમકે બદ્ધ તીર્થકર શેત્ર કર્મવાળે દેવ ભવસ્થ તીથ કરસૂ. ૪૪
આ રીતે કથારૂપ વાગૂવિશેષનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પુરુષજાતની પ્રધાનતાની અપેક્ષાએ કાયવિશેષનું કથન કરે છે,
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स्थानाङ्गसूत्र ____ परलोके-तिर्यगादिभवे दुश्वीर्णानि कर्माणि परलोके-मनुष्यादिभवं कृत्वा पुनस्तियंगादिभव एव दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, मनुप्यादिभवे तत्कर्मणामुदयावलिकायामननुमविष्टत्वात् । ४ ।
इहलोके सुचीर्णानि-सुकृतानि दानादीनि पष्ठाप्टमादीनि च कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, तीर्थकरादिसुपात्रदानेन वसुधारादिवृष्टिवत् , पष्ठाष्ठमादिभिश्च-आमशीपध्यादिलब्धिप्राप्तिश्च । २ । एवं शेषभङ्गत्रयं विवेचनीयम् परलोकमें तिर्यगादि भवमें दुश्चीर्ण कर्म तिर्यगादि भवमेंही दुःख फल विपाक संयुक्त होते हैं, मनुष्यादि भवमें नहीं। क्योंकि वे कर्म मनुष्यादि भवमें उदयावलिकामें अननुप्रविष्ट होते हैं ४ । तथा इस. लोकमें सुचीर्ण-अच्छी तरहसे किये गये दानादिक कर्म षष्ठ अष्टम आदि तपस्यारूप कर्म इहलोकमें सुखफल विपाक संयुक्त होते हैं । जैसे-तीर्थङ्कर आदिरूप सुपात्र दानसे वसुधारा आदिकी वृष्टि होती है। तथा-षष्ठ अष्टम आदिकों तपस्यासे आमर्श औषधि आदि लब्धिकी प्राप्ति होती है। इसी तरहसे शेष भङ्गभी विवेचित करलेना चाहिये । यहां-प्रथम भङ्ग तथा द्वितीय भङ्ग ये दो भङ्गही कहे गये हैं। ।
द्वितीय भङ्ग इस प्रकारसे है, इसलोकमें सुचीर्ण कर्म परलोकमें सुख फलरूप विपाकसे संयुक्त होते हैं । जैसे-साधु श्रावक आदि द्वारा वृत्त सुचीर्ण कर्म-शेष दो भङ्ग इस प्रकारसे हैं-परलोक सुचीर्ण कर्म
તથા–પરલેકમાં તિર્યગાદિ ભવમાં દુછીણું દુષ્કૃત્યનું દુઃખવિપાક રૂપ ફલ તિર્યગાદિ ભવમાં જ ભેગવવું પડે છેમનુષ્યાદિ ભવમાં ભોગવવું પડતું નથી, કારણ કે તે કર્મો મનુષ્યાદિ ભવમાં ઉઠયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થતાં નથી
તથા આલેકમાં સારી રીતે જેની આરાધના થઈ હોય એવાં દાનાદિ કર્મ અને છઠ્ઠ–અઠ્ઠમ તપસ્યારૂપ કર્મ આ લેકમાં જ સુખ વિપાકરૂપ ફળ આપનારા હોય છે. જેમકે તીર્થકર આદિપ સુપાત્રને દાન દેવાથી વસુધરા (ધન) ની વૃષ્ટિ થાય છે તથા છઠ્ઠ–અઠ્ઠમ આદિ તપસ્યાઓથી આમ ઔષધિ આદિ લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના વિકપનું વિવેચન પણ સમજી લેવું. અહીં પહેલે અને બીજે લે જ કહેવામાં આવ્યું છે.
બીજે ભેદ આ પ્રમાણે છે–આલેકમાં સુચીણું કર્મ (ઉપાર્જિત સત્કર્મો) પરલોકમાં પણ સુખરૂલરૂ૫ વિપાકવાળાં હોય છે. જેમકે સાધુ, શ્રાવક આદિ દ્વારા કૃત સુચીણું કર્મ,
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सुधांटीका स्था० ४ उ०२ सू० ५४ कायाविशेषनिरूपणम् ४। अत्र प्रथमभङ्गः प्रोक्तः १। द्वितीयभङ्गे साधुश्रावकादिः २। तृतीये भङ्गे तीर्थकरः ३॥ चतुर्थभङ्गे वद्वतीर्थकर नामगोत्रकर्मा देवभवस्थस्तीर्थङ्करः ४। सू० ४४॥ ___ पूर्व कथारूपो वाग्विशेष उक्तः, साम्प्रतं पुरुषजातपधानतया कायविशेपमाह
मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-किसे णाममेगे किसे १, किसे णाममेगे दढे २, दढे णाममेगे किसे ३, दढे णाममेगे दढे ४ ॥१॥
चत्तारि पुरिसजाया पपणत्ता, तं जहा--किसे णाममेगे किससरीरे १, किसे णाममेगे दढसरीरे २, दढे णाममेगे किससरीरे ३, दढे णाममेगे दढसरीरे ४ । २। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-किससरीरस्त णाममेगस्त णाणदंसणे समु. प्पज्जइ णो दढसरीरस्त १, दढसरीरस्स णाममेगस्त णाणदंसणे समुप्पजइ णो किससरीरस्ल २, एगस्त किससरीरस्स णाणदं. सणे समुप्पज्जइ दढसरीरस्तवि ३, एगस्त णो किससरीरस्त णाणदंसणे समुप्पज्जइ णो दढसरीरस्स ४ । सू० ४५ ॥
'छाया-चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कृशो नामैकः कृशः १, कृशो नामैको दृढः २, दृढो नामैकः कृशः ३, दृढो नामैको दृढः ४१ १। इहलोकमें सुख फलरूप विपाक ने संयुक्त होते हैं, जैसे तीर्थकर नाम कर्म ३, तथा परलोकमें सुचीर्ण कर्म परलोकमें सुख फलरूप विपाक से संयुक्त होते हैं, जैसे-बाद तीर्थङ्ककर गोत्र कर्मवाला देव भवस्थ तीर्थङ्कर ॥सू०४४।।
" इस प्रकारसे कथारूप वार विशेष कहकर अब सूत्रकार पुरुष जातकी प्रधानतासे कायविशेषका कथन करते हैं ।
ત્રીજો ભાગ–પરલોકમાં સુચી કમ આલેકમાં સુખફલરૂપ વિપાકથી યુક્ત હોય છે. જેમકે તીર્થકર નામ કમ.
ચેથે ભાગ–પરલેકના સુચી કમ પરલેકમાં સુખફલરૂપ વિપાકથી યુક્ત હોય છે. જેમકે બદ્ધ તીર્થકર શેત્ર કર્મવાળા દેવ ભવસ્થ તીર્થકર, સૂ.૪૪
આ રીતે કથારૂપ વાગૂવિશેષનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પુરુષજાતની પ્રધાનતાની અપેક્ષાએ કાયવિશેષનું કથન કરે છે,
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स्थानागसूत्र चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कृशो नामैकः कृशशरीरः १ कुशो नामैको दृढशरीरः २, दृढो नामैकः कृशशरीरः ३, दृढो नामैको दृढशरीरः ४.१॥ चत्वारि पुरुष नातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कृशशरीरस्य नामैकस्य ज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते नो दृढशरीरस्य १, दृढशरीरस्य नामैकस्य ज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते नो कृशशरीरस्य २, एकस्य कृशशरीरस्यापि ज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते दृढशरीरस्यापि ३, एकरय नो कृशशरीरस्य ज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते नो दृढशरीरस्य ॥ ४। सू० ॥४५॥
" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" इत्यादिसूत्रार्थ-चार पुरुषजात कहे गये हैं, जैसे-कृश कृश १, कृश दृढ २, दृढ कृश ३ और दृढ दृढ ४ । पुनश्च-चार पुरुपजात कहे गये हैं, जैसे-कृश कृश शरीरवाला १, कृश दृढ शरीरवाला २, दृढ कृश शरीरवाला ३, तथा दृढ दृढ शरीरवाला ४ । पुनश्च-चार पुरुषजात कहे गये हैं, जैसे कृश शरीरवाले किसी एक पुरुषको ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते हैं, दृढ शरीरवाले पुरुषको नहीं १ । दृढ शरीरवाले किसी एक पुरुषको ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते हैं, कृश शरीरवाले पुरुषको नहीं २ । किसी एक कृश शरीरवाले पुरुषकोभी ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते हैं तथा दृढ शरीरवाले पुरुषोकोभी ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते हैं ३ । तथा जो कृश शरीरवाला पुरुष है उसकोभी ज्ञानदर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं और जो दृढ शरीरवाला है उसकोभी ज्ञानदर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं ४।।
" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" ध्याहसूत्राथ--या२ ॥२॥ पुरुषो -(१) दृश ४१, (२) इस दृढ़, (३) १८ दृश माने (४) १८ १८. मी ते ५ यार पाना पुरुष ४ा छ(१) श श शरी२ युत, (२) दृश ४८ शश२ युत, (3) ६८ पृश शरीर યુક્ત તથા (૪) દેઢ દેઢ શરીર યુક્ત
વળી આ પ્રમાણે પણ ચાર પુરુષ પ્રકારે કહ્યા છે–(૧) કૃશ શરીર વાળા કેઈ એક પુરુષને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, જયારે દઢ શરીરવાળા કેઈ એક પુરુષને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી. (૨) દઢ શરીરવાળા કઈ એક પુરુષને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, જયારે કૃશ શરીરવાળા કેઈ એક પુરુષને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી. (૩) કેઈ એક કૃશ શરીરવાળા પુરુષને પણ જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે અને કેઈ એક દઢ શરીરવાળા પુરુષને પણ જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. (૪) કોઈ એક કુશ શરીરવાળા પુરુષને પણ જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી અને કેઈ એક દઢ શરીરવાળાને પણ જ્ઞાનદશન ઉત્પન્ન થતાં નથી.
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ४४ कायाविशेषनिरूपणम्
टीका-"चत्तारि" इत्यादि-पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्व केवलं भावमाश्रित्य चतुर्थ भङ्गोमाह-एक:-कश्चित् पुरुषः कृशः-भावतः पूर्व कृशः, तुच्छ प्रकृतित्वात् , स पश्चादपि कुशः तादशभारस्यैत्र सद्भावात् १, तया एका-कश्चिन् पूर्व कृशः पश्चाद् दृढः, संनातस्थिरपरिणामत्वात् २, एवं शेपमङ्गद्वयं बोध्यम् ।४।
अथ केवलं शरीरमाश्रिय चतुर्भङ्गीमाह-एक:-कश्चित् पुरुषः कृशो जन्मजातशरीरेग दुवैलः, स पश्चादपि कृशः रोगादिग्रस्तत्वात् १, एका-कश्चिन् पूर्व कृशः, पश्चाद् दृढः, रोगाभावेन पुष्टशरीरत्वात्, एवमत्रापि शेषभङ्गद्वयं संयोज्यप्४।१॥
इस कथनका तात्पर्य ऐसा है-यहां जो कृश कृश आदिरूपसे चतुर्भङ्गी कही गई है वह भावको आश्रित करके कही गई है। जैसे कोई पुरुष पहलेभी भावकी अपेक्षा कृश होता है, तुच्छ प्रवृत्तिवाला होता है। वह बाद में भी ऐसेही भावके सद्भाव रहने के कारण कृश तुच्छ प्रवृत्तिवाला बना रहता है १ । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहले तो कृश तुच्छ प्रवृत्तिवाला होता है और बादमें निमित्तादिके मिलनेसे उस प्रकृतिका त्याग कर देने के कारण दृढ-स्थिर परिणामरूप अतुच्छ प्रकृतिवाला होता है २, दृढ कृश ३ और दृढ दृढ ऐसे ये दो भग सहजज्ञेय (जानने योग्य ) हैं ४ । ____अब केवल शरीरको आश्रित करके सूत्रकार चतुर्भङ्गीका कथन करते हैं, जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो जन्मजात शरीरसे
विशेषायमा थनना भावार्थ नीय प्रभारी छे--मही रेश કૃશ” આદિ રૂપ ચતુર્ભગી કહી છે તે ભાવને આશ્રિત કરીને કહેવામાં આવી છે. એટલે કે કેઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે પહેલાં પણ ભાવની અપેક્ષાએ કૃશ (તુચ્છ પ્રવૃત્તિવાળી હોય છે, અને પાછળથી પણ એ જ પ્રકારના ભાવને સદભાવ રહેવાથી કૃશ (તુચ્છ પ્રવૃત્તિવાળા) જ રહે છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં તુચ્છ પ્રવૃત્તિવાળો હેય છે, પણ ત્યારબાદ કઈ પણ નિમિત્તાદિના સભાવે કરીને તે પ્રવૃત્તિને ત્યાગ કરી દેવાને કારણે દઢ-સ્થિર પરિણામ રૂપ અતુચ્છ પ્રકૃતિવ બને છે.
() -मन (४) १८-१८ मा भन्ने समान लापाथ पडसा તથા બીજા ભાંગાને આધારે સમજી શકાય એ છે કે હવે કેવળ શરીરને આધાર લઈને સૂત્રકાર ચતુર્ભગીનું કથન કરે છે–
(१) “श-दृश शरीरवा "- पुरुष सेवा हाय જન્મથી કૃશ શરીરવાળે હોય છે અને ત્યારબાદ ગાદિને કારણે કુશ શરી
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स्थानामसूत्रे ___" चत्तारि" इत्यादि-चबारि पुरुष नातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कृशो नामै कः कृश शरीरः-एक:-कश्चित् पुरुषः कृशो भावतो दुर्व:, शरीर:-शगेरतोऽपि कृशो दुर्यल: १। एकः-कश्चिद् भावतः कृशः, दृढशरीरः-शरीरतो दृढः, सबलश रीरत्वात्, एवं शेषभङ्गद्वयं वोध्यम् । ४ ।
ज्ञानदर्शनोत्पत्तिं चतुर्भङ्गयाऽऽह -- " चत्तारि पुरिसनाया” इत्यादि, स्पष्टम् । कृशशरीरस्य-कुशं-दृश्चरतपसा दुर्वलं शरीरं यस्य स कृशशरीर-स्तस्य कृश दुल रहता है और पश्चात् भी रोगाकान्त होजानेसे कृशही बना रहता है १ । तथा कोई पुरुप ऐसा होता है जो पहेले तो कृश होता है और पश्चात् रोगाभाव होजाने से पुष्ट शरीरवाला होजाता है २ । अवशिष्ट भङ्ग द्वयभी इसी रीतिसे विवेचित किये जा सकते हैं १ ।
पुनश्च-पुरुष जान जो कृश कृश शरीर आदिरूपसे चार कहे गये हैं, उनका भाव ऐसा है, कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो भावको अपेक्षा भी दुर्वल होता है और शरीरकी अपेक्षाभी दुल कमजोर होता है १ । तथा-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो भाव से तो कृश होता है, परन्तु शरीर से दृढ मजबूत होता है २ । इसी प्रकारसे अवशिष्ट भङ्गव्य भी समझ लेना चाहिये । ___ अब सूत्रकार ज्ञानदर्शनोत्पत्तिरूप चतुर्भङ्गोसे पुरुष जातके प्रकारोका कथन करते हैं, जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा होता है कि जिप्तका शरीर दुश्वर कठिन तपसे दुर्वल होता है। परन्तु उस पुरुषको शुभ રવાળે જ ચાલુ રહે છે (૨) “કૃશ–દૃઢ શરીરવાળે”_કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જન્મથી કૃશ શરીરવાળે હોય છે પણ રોગાદિના અભાવ વગેરે કારણોને લીધે પાછળથી પુષ્ટ શરીરવાળે થઈ જાય છે. બાકીના બે ભાંગાને ભાવાર્થ પણ આ બે ભાગાને આધારે સમજી લે.
વળી “કૃશ-કૃશ શરીરયુક્ત ” આદિ ચાર પ્રકારનું આ પ્રમાણે પણ સ્પષ્ટીકરણ થઈ શકે છે-(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ પણ કમજોર હોય છે અને શરીરની અપેક્ષાએ પણ કમજોર (મળ) હોય છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ કૃશ હોય છે, પણ શરીરની અપેક્ષાએ દઢ (મજબૂત) હોય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના બે વિકલ્પને ભાવાર્થ પણ જાતે જ સમજી લે. હવે સૂત્રકાર જ્ઞાન અને દર્શનની ઉત્પત્તિની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકારના પુરુષનું નિરૂપણ કરે છે–પહેલા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ-કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જેનું શરીર કઠિન તપને કારણે કૃશ (દુર્બળ) હોય છે, પણ એવા તે પુરુષમાં
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सुधा टीका स्था० ४ 30 २ सू० ४५ कायाविशेषनिरूपणम् ६३३ शुभपरिणामसम्भवेन ज्ञान दर्शनाऽऽवरणक्षयक्षयोपशमादिसत्त्वात् ज्ञानदर्शनं-ज्ञानं च दर्शनं चानयोः समाहारस्वत समुत्पद्यते-संजायते, किन्तु दृढशरीरस्य-तपो विमुखतया दृढं-सबलं शरीरं यस्य स दृढशरीरस्तस्य पुरुपस्य पुष्कलमोहतया ज्ञानदर्शनजनकशुभपरिणामाभावेन ज्ञानदर्शनाऽऽवरणक्षयक्षयोपशमादि विरहाज्ज्ञानदर्शनं नो समुत्पद्यते १। तथा-एकस्य-कस्यचिद् दृढशरीरस्य-वनपभनाराचसंहननधरस्य शिथिलमोहस्य पुरुषस्य ज्ञानदर्शनं स्वस्थशरीरत्वेन मनस्वास्थ्यसदावेन ज्ञानदर्शनजनकशुभपरिणामोदयात् तदावरणक्षयक्षयोपशमादिसत्वात् समुत्पद्यते-संजायते । २।
परिणामके होनेसे ज्ञान और दर्शनको आवरण क्षय होजाता है। क्षयोपशमादिवाला होजाता है । इस कारण उसको ज्ञान और दर्शन उत्पन्न होजाते हैं, तथा-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दृढ शरीरवाला होता है, ऐसे उस पुरुषको पुष्कल मोह होनेके कारण ज्ञानदर्शन जनक शुभ परिणामके अमावसे ज्ञानदर्शनका आवरण क्षय-क्षयोपशमादि विशिष्ट नहीं होता है । अत:-उसके विरहसे ज्ञानदर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं १ । तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दृढ शरीरवाला होता है-वज्र ऋषभनाराच संहननका धारी होता है । ऐसे उस पुरुष के मोहकी शिथिलता होनेपर स्वस्थ शरीरके सद्भावसे और मनः स्वास्थ्यके सद्भावसे ज्ञानदर्शनजनक शुभ परिणामका उदय हो जाता है, इससे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका क्षय क्षयोपशमादि होजानेसे ज्ञान और दर्शन उत्पन्न होजाते हैं २ । तथा-किसी कृश શુભ પરિણામને સદૂભાવ હોવાથી તેના જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનાવરણીય કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી તેને જ્ઞાન અને દર્શન ઉત્પન્ન થાય છે, પણ કઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે દૃઢ શરીરવાળો હોય છે, પણ પુષ્કળ મોહના સદ્દભાવને લીધે જ્ઞાનદર્શન જનક શુભ પરિણામના અભાવને કારણે તેના જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનાવરણીય કર્મોને ક્ષય કે ક્ષયોપશમ થતું નથી. તે કારણે તેને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દેઢ શરીરવાળે હેય છે, વજી ઋષભનારા સંહનને ધારણ કરનારે હોય છે, એવા તે પુરુષના મોહની શિથિલતા થઈ જવાને લીધે સ્વસ્થ શરીર અને સ્વસ્થ મનના સદુભાવને લીધે જ્ઞાનદર્શનજનક શુભ પરિણામને ઉદય થઈ જાય છે. તે કારણે જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનાવરણીય કર્મને ક્ષય ક્ષપશમ આદિ થઈ જવાને લીધે તેને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જ્યારે કે
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स्थानाङ्गसूत्रे
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तथा - एकस्य कस्यचित् कुशशरीरस्यापि दृढशरीरस्यापि पुरुषस्य ज्ञानदर्शन समुत्पद्यते, विशिष्ट संहननस्य स्वल्पगोहस्योभयथाऽपि शुभपरिणामोदयात् शरीरकायदासत्वेऽपि ज्ञानदर्शनोत्पत्तौ तदपेक्षाऽभावेन तदाचरणक्षयक्षयोपशमादिसम्भवात् तज्जायते ।३। तथा एकस्य कस्यचित् कुशशरीरस्य दृढशरीरस्येति द्वयस्यापि ज्ञानदर्शनं नोत्पद्यते, तयोर्विशिष्टसंहनाभावतया तथाविधशुभ परिणामाभावादिति चतुर्थो भङ्गः |४| सू० ४५ ॥
पूर्व ज्ञान-दर्शनयोरुत्पत्तिरुक्ता, साम्प्रतं तद्वयाघातमाह
मूळम् - चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अस्सि समयंमि अइसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामेवि न समुप्पजेज्जा, शरीरवाले पुरुषकोभी और दृढ शरीरवाले पुरुषको भी ज्ञान दर्शन उत्पन्न होजाते हैं। क्योंकि विशिष्ट संहननवाला जीव यदि स्वल्प मोहवाला होता है, तो चाहे उसमें कृशता या दृढता क्यों न हो, फिरभी शुभ परिणामके सद्भावसे उसको तदावरण कर्मके क्षय क्षयोपशमादिसे ज्ञान और दर्शन उत्पन्न होजाते हैं ३ | तथा चाहे कोई कृश शरीरवाला भी हो, या दृढ शरीरवाला भी हो । कोई- २ जीव ऐसा भी होता है कि जिसको विशिष्ट संहनन होनेके कारण तथाविध शुभ परिणामो के अभाव से ज्ञानावरणादिकका क्षय क्षयोपशमादि नहीं हो सकनेसे ज्ञान और दर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं । इस प्रकार से यह चतुर्भङ्गी है | सृ० ४५॥
એક કૃશ શરીરવાળા પુરુષને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી, તેનું કારણુ પહેલા ભાંગામાં ખતાવ્યા પ્રમાણે સમજવું (૩) કાઇ કૃશ શરીરવાળા અને દૃઢ શરીરવાળા પુરુષને પણુ જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. તેનું કારણુ નીચે પ્રમાણે
વિશિષ્ટ સહનનવાળા પુરુષ જે સ્વલ્પ માહવાળા હોય તે શુમ પરિણામના સદ્ભાવને લીધે જ્ઞાનાવરણીય અને દશનાવરણીય કમના ક્ષય અને ક્ષચેાપશમાદિથી જ્ઞાનદશન ઉત્પન્ન કરી શકે છે. તેમાં શરીરની કૃશતા કે દઢતા ખાધક નિવડતી નથી. (૪) જીવ ભલે કૃશ શરીરવાળા હાય કે દૃઢ શરીરવાળા હાય પણ કાઈ કોઈ જીવ એવા પણુ હૅય છે કે જે વિશિષ્ટ સહનનવાળા હાવાને કારણે તે પ્રકારના શુભ પરિણામેાના અભાવને લીધે જ્ઞાનાવરણાતિકના ક્ષય ાયેાપશાદિ કરી શકતા નથી, તે કારણે એવા પુરુષોને જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થતાં નથી. આ પ્રકરની આ ચતુર્ભ`ગી સમજવી । સૂ. ૪૫ ૫
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• सुषी टीका स्था०४ उ.२ सू० ४६ व्याघातस्वरूपनिरूपणम् तं जहा--अभिक्खणं अभिक्खणमित्थिकहं १ भन्तकह २ देसकहं ३ रायकहं ४ कहेत्ता भवइ १, विवेगेण विउस्लग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भाविता भवइ २, पुबरत्तावरत्तकालसमयमिणो धम्मजागरियं जागरित्ता भवइ ३, फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्ल णो सम्मं गवेसिया भवइ । इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव णो समुप्पज्जेजा।
चउहि ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अइसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा इत्थिकहं १ भत्तकह २ देसकहं ३ रायकहं ४ णो कहेता भवइ १, विवेगेण विउस्सग्गेणं सम्ममप्याणं भावेत्ता भवइ २, पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंमि धम्मजागरियं जागरिता भवइ ३, फासुयस्ल एसणिज्जस्त उंछस्स सामुदाणियस्स गवेसिया भवइ । इच्चेएहिं चउहि ठाणेहि णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा जाव समुप्पज्जेज्जा ।सू० ४६॥
छाया-चतुभिः स्थानः निग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा अस्मिन् समये अतिशेष ज्ञान-दर्शनं समुत्पत्तुकाममपि न समुत्पद्यते, तद्यथा-अभीक्ष्णमभीक्ष्णं स्त्रीकयां
इस प्रकारसे ज्ञानदर्शनकी उत्पत्तिका कथनकर अब स्तुत्रकार इनके व्याघातोंका कथन करते हैं ।"चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाणवा" इत्यादि
चार कारणोंसे निर्ग्रन्थों वा निर्ग्रन्थियोंको इस समयमें अतिशेष ज्ञान दर्शन उत्पत्ति होने के योग्य होने पर भी उत्पन्न नहीं होते हैं, वे चार कारण इस प्रकारसे हैं। ये निर्ग्रन्थ आदि बार-२ निरन्तर स्त्री कथाको-भक्त कथाको देशकथाको और राज कथाको करते
આ રીતે જ્ઞાનદર્શનની ઉત્પત્તિનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના व्याघातातुं ४थन ४२ छ. “ चउहि ठाणेहिं निग्गंथाण वा" याहि
નીચેના ચાર કારણેથી નિ છે અથવા નિગ્ર"થીઓને આ સમયમાં, ઉત્પત્તિને ગ્યા હોવા છતાં પણ અતિશેષ જ્ઞાનદર્શનની ઉત્પત્તિ થતી નથી. (१) निय' म निथीम पार पा२ सया, मत४था, ३२४था मन
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स्थानाशने १ भक्तकथां २ देशकथां ३ राजकथां ४ कथयिता भवनि १, विवेकेन व्युत्सर्गेण नो सम्यगात्मानं भावयिता भवति २, पूर्वरात्रापररात्रकालसमये नो धर्मजागरिकां जागरिता भवति ३, प्रासुकस्य एपणीयस्य उञ्छस्य सामुदानिकस्य नो सम्यग्गवेषयिता भवति । इत्येतैश्चतुर्भिः स्थानः निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यावत् नो समुत्पद्यते।
चतुर्भिः स्थानः निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा अतिशेपं ज्ञानदर्शनं समुत्पतुकामं समुत्पद्यते, तद्यथा-स्त्रीकथां १ भक्तकथां २ देशकथां ३ राजकथां ४ नो कथयिता भवति १, विवेकेन व्युत्सर्गेण सम्यगात्मानं भावयिता भवति २, पूर्वरात्रापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जागरिता भवति ३, मासुकस्य एपणीयस्य रहते हैं १ । विवेक एवं व्युत्सर्गसे ये अच्छी रीतिसे अपने आत्माका भावयिता नहीं होते हैं २ । पूर्वरात्र और अपररात्रके कालमें [समयमें] वे धर्मजागरणा नहीं करते हैं ३ । प्रासुक, एषणीय, उच्छ जोकि अनेक घरोंसे गृहीत होता है । उसका सम्यक् गवेषयिता नहीं होते हैं ४ ।
पुनश्च-इन चार कारणोंसे निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थियोंको (ही) अतिशेष ज्ञान दर्शन उत्पत्तिके योग्य होते हैं। अत:-वे उत्पन्न होते हैं, ऐसे निर्ग्रन्थ आदि ( साधु ) जन स्त्रीकथाको, भक्त कथाको, देश कथाको और राजकथाको नहीं करते हैं १ विवेक और व्युत्सर्गसे सम्यक् रूपमें अपने आत्माका भावयिता होते हैं २ पूर्वरात्र और अपर रात्रके समयमें वे धर्मजागरिकाको करते हैं ३ तथा प्रासुक, एषणीय, રાજકથા કરતા રહે છે. (૨) તેઓ પિતાના આત્માને વિવેક અને વ્યુત્સર્ગથી સારી રીતે ભાવિત કરતા નથી. (૩) પૂર્વરાત્રિ અને અપરાત્રિના સમયે તેઓ ધર્મજાગરણ કરતા નથી. (૪) પ્રાસુક-એષણીય અને ઉછ આહાર કે જે અનેક ઘરમાંથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તેના સમ્યફ ગષયિતા તેઓ હેતા નથી. • ' નીચેના ચાર કારણેથી નિથ અથવા નિર્ણથીઓ અતિશેષ જ્ઞાનદશન ઉત્પન્ન કરવાને પાત્ર બને છે અને તેથી તેઓ તેને પ્રાપ્ત કરે છે. તે ચાર કારણે આ પ્રમાણે છે–(૧) એવાં નિશે સ્મકથા, ભક્તકથા, દશકથા અને રાજકથા કરતા નથી. (૨) તેઓ વિવેક અને વ્યુત્સર્ગથી પિતાના આત્માને સારી રીતે ભાવિત કરે છે. (૩) તેઓ પૂર્વરાત્રિ અને અપિરાત્રિને સમયે ધર્મજાગરણ કરે છે. પ્રાસુક, એષણીય અને ઉંછ આહાર
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सुधा टीका स्था० ४३०२ सू० ४६ व्याघातस्वरूपनिरूपणम् उञ्छस्य सामुदानिकस्य गवेपयिता भवति ४। इत्येतैश्चतुर्भिः स्थानः निर्गन्थानां वा निग्रन्थीनां वा यावत् समुत्पद्यते । सू० ४६ ॥
टीका-" चउहिं ठाणेहि " इत्यादि-चतुर्भिः-चतुःसंख्यैः स्थान:-अनु. पदं वक्ष्यमाणैः स्यादि कथाचतुष्टयरूपकारणैः, निर्ग्रन्थानां-साधूनां वा, नि: न्थीनां वा-साध्वीनां वा, अस्मिन्-चतुर्थारकलक्षणे उपलक्षणाचतुर्थारकजन्मवतां पञ्चमारकलक्षणेऽपि च समये, अतिशेष-शेपाणि-मतिप्रभृति चक्षुर्दर्शनादीनि, उन्छ जोकि अनेक घरोंसे संगृहीत होता है उसका सम्यक् गवेषयिता होते हैं ४ । इस प्रकारके इन चार कारणोंसे निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियोंको ज्ञानदर्शन उत्पन्न होते हैं। टीकार्थ--यहां चार स्थानरूप कारण स्त्रीकथा आदि लिये गये हैं " इस समय" पदसे आरकका समय और चौथे आरकमें उत्पन्न हुवे मनुष्योंका समय पश्चम आरकका लिया गया है जो ज्ञानदर्शन सोऽवयोध आदि गुणों द्वारा मति आदि ज्ञानोंसे, तथा-चक्षु दर्शन आदि दर्शनोंसे विशिष्ट होता है। वह अतिशेषपदसे गृहीत हुवा है, ऐसा वह अतिशेष ज्ञान दर्शन और केवल दर्शनरूप होता है। "समुत्पत्तुकामम्" ऐसा जो पद यहां आया है उसका तात्पर्य उत्पन्न होनेकी इच्छायाला होता है । परन्तु ज्ञानादिकोंमें अभिलाषाका अभाव रहता है । अतःइस पद से उत्पत्तिके योग्य होते हुवे ऐसा अर्थ लिया गया है, तथाच चतुर्थ आरकके समयमें और उपलक्षणसे चतुर्थ आरकमें जन्मे हुवे કે જે અનેક ઘરમાંથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેના તેઓ સમ્યક ગષયિતા હોય છે
ટીકાઈ––નિJથાદિમાં જ્ઞાનદશન ઉત્પન્ન ન થવાના સ્ત્રીકથા આદિ કારણે બતાવ્યાં છે. આ સમય” પદ દ્વારા આરાને સમય તથા ચોથા આરામાં ઉત્પન્ન થયેલા અને પાંચમાં આરામાં પણ હૈયાતિ (અસ્તિત્વ) ધરાવતા માણસને સમય ગૃહીત થયેલ છે. જે શાનદર્શન સર્વ અવબોધ આદિ ગુણે દ્વારા મતિજ્ઞાન અદિ જ્ઞાનેથી અને ચક્ષુદર્શન આદિ દશનેથી જ પડે છે એવા જ્ઞાનને “અતિશેષ” પર દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. એવું તે અતિશેષ જ્ઞાનદર્શન કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન રૂપ હોય છે. " समुत्पत्तकामम् " सारे सूत्रा४ मी मा०ये। छे तन मथ "त्पन्न થવાની ઈચ્છાવાળે” થાય છે. પરંતુ જ્ઞાનાદિકમાં અભિલાષાને અભાવ હોય છે, તે કારણે તેને અર્થ “ઉત્પત્તિને ચેપગ્ય હોવા છતાં” લેવામાં આવેલ છે.
ચોથા આરાના સમયમાં અને ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ ચોથા આરામાં
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स्थानाङ्गसूत्रे अति-अतिक्रान्तं – सर्वावबोधप्रभृतिगुणैर्यत् तदतिशेपम्-अतिशयशालि, केवलमित्यर्थः, ज्ञानदर्शनं चेत्युभयं मगुत्पत्तुकाममपि-उत्पत्तुमिच्छदपि-ज्ञानादेरभिलापाभावादुत्पत्यहमपीत्यर्थः, न समुत्पयते-न संजायते, तानि चत्वारि स्थानान्याह'तद्यथे'-त्यादि-अभीक्ष्णमभीक्ष्णम्-पुनः पुनः, स्त्रीकथा, तथा-भक्तकथां, नथादेशकथां, तथा-राजकथां च-पूर्वव्याख्यानरूपां, यो जनः कथयिता तत्कथाकथनशीलो भवति, तस्य ज्ञानदर्शनं समुत्पत्त्यईमपि नो समुत्पयत इति पूर्वेण सम्बन्धः१॥
तथा- "विवेगेणे"-त्यादि विवेकेन--शुद्धाशुद्धमध्याद् नीर क्षीरन्यायतोऽ शुद्धाऽऽहारादिपरित्यागेन, तथा व्युत्सर्गण-कायोत्सर्गेण योजन आत्मानं सम्यक् कूर्म इवेन्द्रियाणि संयम्य भावयिता नो भवति २। मनुष्योंको भी जो पञ्चम आरकके समय में उत्पन्न होने योग्य अतिशेप केवलज्ञान एवं केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं, उसका कारण एक तो यह है कि वे निरन्तर पुन: पुन: स्त्रीकथा करने में लगे रहते हैं। भक्त कथासे लगे रहते हैं, देशकथा और राजकथाओंमें निरत रहते हैं। अत:-अतिशेष केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पादक भावके अभाव होनेके कारण उत्पन्न नहीं होने पाते १ । क्षीर नीर विवेचन न्याय जैसा शुद्धा शुद्ध आहारपानमें से अशुद्धाहार त्याग करना और कायोत्सर्गसे कूर्मकी तरह अपने इन्द्रियोंको संयमित करना क्रमशः विवेक व्युत्सर्ग है। इस विवेक और व्युत्लगसे अपने आपको बे सम्यक् रूपसे भावित (युक्त) नहीं करते हैं-२ । इस कारणसे भी वे अतिशेष ज्ञानदर्शनसे वञ्चित रहते हैं। " पुन्चरत्त" इत्यादि -रात्रिके प्रथम प्रहरको पूर्व જન્મેલા મનુબેને પણ જે પાંચમાં આરામાં ઉત્પન્ન થવા યોગ્ય છે એવું કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થતું નથી. તે ઉત્પન્ન ન થવાના કારણે નીચે પ્રમાણે છે–(૧) તેઓ નિરંતર સ્ત્રી કથામાં નિરત રહે છે, વારંવાર ભકત (ભજનની) કથામાં લીન રહે છે, દેશકથા અને રાજકથામાં પણ નિરત રહે છે. તે કારણે અતિશેષ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પાદક ભાવને તેમનામાં અભાવ રહે છે. તે કારણે તેઓ તેમને ઉત્પન્ન કરી શકતા નથી. (૨) ક્ષીર નીર ન્યાયને તેમનામાં અભાવ હોય છે-શુદ્ધાશુ દ્ધઆહારમાંથી અશુદ્ધાહારને ત્યાગ કરવા રૂપ વિવેકને તેમનામાં અભાવ હોય છે. કાસગથી કમ (કાચબા) ની જેમ પિતાની ઇન્દ્રિયને સંયમિત કરવી તેનું નામ વ્યુત્સર્ગ છે. તેઓ આ વિવેક અને વ્યુત્સર્ગથી પિતાના આત્માને સમ્યગૂ રીતે ભાવિત ( યુક્ત) કરતા નથી. તે કારણે પણ તેઓ અતિશેષ જ્ઞાનદર્શનથી વંચિત રહે છે.
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सुधा टीका स्था० ४ उ० २ सू० ४६ व्याघातस्वरूपनिरूपणम् ६३९
तथा-" पुव्वरत्ते "-त्यादि-पूर्वरात्रापररात्रकालसमये-पूर्वरात्र-रात्रेः पूर्वःप्रथमभागः पूर्वरात्रः, अपररात्र:-रात्रेः पश्चिमभाग:-चतुर्थमहरलक्षणः, तावेव कालः स एव समयः-अवसरः पूर्वरात्रापररात्रकाळसमयस्तस्मिन्-रात्रे: पश्चिमभागे इत्यर्थः, मृले रलोप आपत्वात् । धर्मजागरिकां-धर्मप्रधाना जागरिका जागतिः-निद्राक्षयेण प्रबोधो धर्मजागरिका-कुटुम्बादि चिन्तापरित्यागेन धर्मचिन्तनरूपा भावपत्युपेक्षेत्यर्थः, तां जागरिता-कर्ता न भवति । तत्र भावन त्युपेक्षा यथा
" कडं सए कि नरदेहभाया, सेसं च किं मे करणिज्जमस्थि ।
तवामि णाहं समये सुजोग्गे, बुद्धस्स भावप्पडिलेहणेयं ।१।" छाया-" कृतं मया कि नरदेहभाजा, शेपं च किं मे करणीयमस्ति । तपागि नाहं समये सुयोग्ये, बुद्धस्य भावप्रतिलेखनेयम् ।१।" इति,
अथवा"कालोऽत्थि मे कोऽस्स च किं च जोग्गं, असारभूया विसया समत्ता।
विणाससीला विरसायसाणा, मच्चू सया संनिहिओऽस्थि घोरो ।२।" छाया-" कालोऽस्ति मे कोऽस्य च किं च योग्यम् , असारभूता विषयाः समस्ताः।
विनाशशीला विरसावसाना, मृत्युः सदा संनिहितोऽस्ति घोरः।२।" इति, रात्र और चतुर्थ प्रहरको अपररान कहा है । इस पूर्वरात्र में और अपररात्र में जो धर्मप्रधान जागरिकासे कुटुम्ब आदिकी चिन्ताका परित्याग नहीं करते हैं, कुटुम्ब आदि की चिन्ताका परित्यागकर वे धर्मचिन्तारूप भाव प्रत्युप्रेक्षाका कर्ता नहीं होते हैं, इस कारण वे केवलज्ञान
और केवलदर्शनरूप अतिशेषको उत्पन्न करनेवाले शुभ भावके अभावसे उन्हें प्राप्त नहीं करपाते है । भावानुप्रेक्षाका स्वरूप इस प्रकारसे है " कडं मए कि नरदेहभाया" इत्यादि. अथवा-" कालोऽस्थि मे कोऽस्स च" इत्यादि तथा “ फासुयस्स" इत्यादि
(3) " पुव्वरत्त" प्रत्याहि विना प्रथम २२ पूर्वशति छ અને ચોથા પ્રહરને અપરાત્રિ કહે છે. તે પૂર્વરાત્રિની પછીની અપરાત્રિમાં અર્થાત રાત્રિના પાછલા ભાગમાં જેઓ ધર્મજાગરણ દ્વારા કુટુંબકિની ચિન્તાનો પરિ. ત્યાગ કરતા નથી એટલે કે કુટુંબ વિષયક ચિન્તાનો પરિત્યાગ કરીને જેઓ ધર્મ ચિન્તા રૂપ ભાવપ્રત્યુપ્રેક્ષાના કર્તા બનતા નથી, તેઓ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન રૂપ અતિ શેને ઉત્પન્ન કરનારા શુભ ભાવના અભાવને લીધે જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન કરી शता नथी. मावानुप्रेक्षानुं २१३५ मा प्रा२नु छ-" कडं भए किं नरदेहभाया" त्याहिम! " कालोऽस्थि मे कोरस च" त्याहि तथा “फासुयस्स" छत्याल.
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स्थानाङ्गव
तथा-" फासुयस्से "-त्यादि-प्रासुकस्य-अचित्तस्य, एपणीयस्य एष्यतेगवेष्यत उद्गमादिदोपवर्जितत्वेनेत्येपणीयः-कल्प्यस्तस्य, यथा-उञ्छस्य-उञ्छयते-अल्पाल्पत्वेन गृह्यत इत्युन्छः-भक्तपानादिश्चतुर्विधाऽऽहारस्तस्य, कीदृशस्ये. त्याह-" सामुदानिकस्य '-अनेकगृह गृहीतस्य सम्यक्-सविधि, गवेपयिता-अन्वेपयिता नो भवनि ४॥ ___ " इचएहि " इत्यादि-इत्येतैः-अनन्तरोक्तः, चतुर्भिः स्थानः निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा 'यावत' नो समुत्पद्यते । इतिपर्यन्तं वाच्यम ।। ___" चउहि ठाणेहिं " इत्यादि विपर्ययमूत्र स्पष्टम् । सूत्रे निग्रन्थीपदोपादानात् स्त्रीमोक्षाभावप्रतिपादकं मतं निरस्तम् । सू० ४६ ॥
प्रासुक-अचित्त उद्गमादि दोष वर्जित होने से एषणीय-कल्पनीय ऐसे अल्प अल्पमात्रामें गृहीत किये गये अनेक घरों से आनीत आहारको वेसविधि गवेषणा नहीं करते हैं । इस कारणसे भी वे अतिशेष केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करने नहीं पाते हैं ४ ।।
इस प्रकारके इन चार कारणोंको लेकर निग्रन्थ-निर्ग्रन्धियोंको उत्पत्ति योग्य भी अतिशेष केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होने नहीं पाते हैं । " चाहिं ठाणेहिं " इत्यादि-सूत्रसे यह प्रकटित किया गया है कि इन पूर्वोक्त कारणोंसे विपरीत कारणोंको लेकर निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियोंको केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न कर लेते हैं। यहां " निर्ग्रन्थी" पदके उपादानसे स्त्रीको मुक्ति नहीं माननेवालोंका मत निरस्त किया गया है। सू० ४६॥ | () પ્રાસુક, અચિત્ત, ઉદ્વમાદિ દેવથી રહિત હોવાને કારણે એષણીય (કપ્ય) એવા અલ્પ અપ માત્રામાં અનેક ઘરમાંથી ગ્રહણ કરાયેલા આહારની તેઓ વિધિસહિત ગવેષણ કરતા નથી, તે કારણે પણ તેઓ અતિશેષ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. આ પ્રકારની આ ચાર કારને લીધે નિર્ગથ અને નિર્ચથીઓ ઉત્પત્તિ ચોગ્ય એવા અતિશેષ કેવળ જ્ઞાન અને કેવળદર્શનને ઉત્પન્ન કરી શકતા નથી. ___चाहिं ठाणेहि" त्याहि-५२ २ २ ४ ४२वामा माया છે. તે કારણો કરતાં વિપરીત કારણને લીધે નિગ્રંથો અને નિર્ચથીઓ અતિશેષ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન કરી શકે છે. અહીં “નિથી” આ પદના પ્રયોગ દ્વારા “ સ્ત્રીને મુક્તિ પ્રાપ્ત થતી નથી ” આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારના મતનું ખંડન કરીને એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે સ્ત્રીને પણ મુક્તિ મળી શકે છે. સૂ. ૪૬ છે
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सुधा रीका स्था० ४३०२ सू० ४७ स्वाध्यायकर्त्तव्याकर्तव्यनिरूपणम् ६४१ निर्ग्रन्थप्रस्तावात्स्वाध्यायस्याकर्तव्यकर्तव्यविषयकं मूत्रत्रयमाह
मूलम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहिं महापडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहा-आसाढपाडिवए १, इंद. महपाडिवए २, कत्तियपाडिवए ३, सुगिम्हपाडिवए । णो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा चउहिं संझाहिं सज्झायं करित्तए, तं जहा-पढमाए १, पच्छिमाए २, मज्झण्हे ३, अड्डरत्ते ४ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चाउकालं सज्झायं करित्तए, तं जहा-पुत्वण्हे १, अवरण्हे २, पओसे ३, पच्चूसे४ासू०४७॥ ___छाया-नो कल्पते निग्रंन्यानां वा निर्ग्रन्थीनां वा चतसृषु महापतिपत्नु स्वाध्यायं कर्तुम् , तद्यथा-आपाढमतिपत् १, इन्द्रमहमतिपत् २, कार्तिकमतिपत् ३, सुग्रीष्मप्रतिपत् ४। नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा चतसृषु सन्ध्यासु स्वाध्यायं कर्तुम् , तद्यथा-प्रथमायाम् १, पश्चिमायाम् २, मध्याह्ने ३,
निर्ग्रन्थके प्रकरणसे अब सूत्रकार स्वाध्यायमें कर्तव्यता-अकर्तव्यता विषयक्त सूत्रत्रयका कथन करते हैं।
" नो कप्पह निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा" इत्यादि
सूत्रार्थ -चार महापतिपदाओंमें (एकममें ) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियोंको स्वाध्याय करना योग्य नहीं है, जैसे-आषाढकी प्रतिपदामें १, इन्द्रमहकी प्रतिपदामें२, कार्तिककी प्रतिपदामें३ और सुग्रीष्मकी प्रतिपदामें४१॥
चार सन्ध्याओंमें निर्गन्ध-निन्धियोंको स्वाध्याय करना योग्य - नहीं है । जैसे-प्रथम सन्ध्यामें १, पश्चिम सन्ध्यामें २, मध्याह्नमें ३,
और अर्धरात्रमें ।४-२ - નિર્ગ ને અધિકાર ચાલુ હોવાથી હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે નિર્ગથ-નિગ્રંથીઓએ કયારે સ્વાધ્યાય કર જોઈએ અને કયારે ન કરે न. "नो कप्पई निगाथाण वा निगंथीण वा" त्याle- ચાર મહાપ્રતિપદાઓમાં (વદ એકમે નિર્ગથ અને નિર્ચથીઓએ स्वाध्याय ४२ मे नही. (१) अषाढी ५४३, (२) मासे भासना ५वे, (3) ४४ भासना ५४३ मने सुश्रीमना-यैत्रना ५४वे.
ચાર સંધ્યાએમાં નિર્થ થ–નિર્ણથીઓએ સ્વાધ્યાય કર જોઈએ નહીં. (१) प्रथम सध्यामा, (२) छेसी सध्याभां, (3) मध्याइने मन (४) मात्र
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स्थानाशस्त्रे अर्द्धरात्रे ।। २। कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा चतुष्कालं स्वाध्यायं कर्तुम् , तद्यथा-पूर्वाह्न १, अपराह्न २, प्रदोपे ३, प्रत्यूषे ४।३। सू० ४७॥
टीका-" नो कप्पइ" इत्यादि-चतसृषु महापतिपत्नु-महोत्सवानन्तर वृत्तित्वेनोत्सवानुत्त्याऽवशिष्टपतिपद्धर्मविलक्षणतया महत्यश्च ताः मतिपदो महापतिपदस्तासु महाप्रतिपत्सु, स्वाध्यायम्-आचाराङ्गादि मूलपाठपठनरूपं, कर्तुं निग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा नो कल्पते, उत्सवानुसत्या स्वाध्यायविघ्नसंभवात् ' ताश्चतस्त्र आह-" तद्यथे'-ति-आपाढ मतिपत्-आपाढस्य पौणमास्याअनन्तरा प्रतिपत् १, इन्द्रमहमतिपत्-इन्द्रमहः-प्रश्वयुक्पौर्णमासी, तस्यानन्तरा पतिपत् इन्द्रमहप्रतिपत् २, कार्तिकप्रतिपत्-कार्तिकपर्णिमास्यनन्तरपतिपत् ३। सुग्रीष्मपतिपत्-मुग्रीष्मः-चैत्रपौर्णमासी तस्या अनन्तरा पतिपत् सुग्रीष्मप्रतिपत्४।
निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियोंको चारकालमें स्वाध्याय करना योग्य है । जैसे-पूर्वागमें १, अपराहमें २, प्रदोषमें ३ और प्रत्यूषमें ४-३ । टीकार्थ-चार प्रतिपद्-तिथिमें स्वाध्याय निषिद्ध करनेका कारण यह है कि उत्सवमें बहुधाविघ्न सम्भावना बनी रहतीहै। आचाराङ्गादिकोंका मूल पाठको स्वाध्याय शब्दसे लिया है। इन प्रतिपदाओंको " महा" शब्दसे विशेषित किया गया है। ___ आषाढी पूर्णिमाके बाद जो पडिवा तिथि आती है । यह प्रतिपदा उसी मासके कृष्णपक्षमें आती है, इसे कृष्णपक्षकी एकम तिथि कहते हैं । आश्विन मासकी पूर्णिमाके अनन्तर जो उसी मासकी कृष्णपक्षकी एकम तिथि है वह इन्द्रमहकी प्रतिपत् है । कार्तिक पूर्णिमा के बाद जो प्रतिपद तिथि आती है वह कार्तिक प्रतिपद है । और सुग्रीष्म નિર્ગથ અને નિર્ણથીઓને માટે નીચેના ચાર કાળ સ્વાધ્યાય કરવાને ચગ્ય ४ा छ–(१) पूर्वाह्न, (२) अपरा, (४) अहोष भने (४) प्रत्यूष.
ટીકાથે–ચાર પ્રતિપદા (વદ એકમ) તિથિઓમાં સ્વાધ્યાય કરવાને નિષેધ કરવાનું કારણ એ છે કે તે તિથિઓમાં સામાન્યતઃ વિનસંભાવના રહે છે. સ્વાધ્યાય” શબ્દથી આચારાંગસૂત્ર આદિનો મૂળપાઠ ગૃહીત થયો છે.' અષાડ આદિ ચાર માસની પ્રતિપદાઓને મહાપ્રતિપદાએ કહી છે. ' આષાઢી પૂર્ણિમા પછી જે તિથી આવે છે તેને, એટલે કે અષાઢ માસના કૃષ્ણપક્ષની એકમને આષાઢી પ્રતિપદા કહે છે. “ઈન્દ્ર મહકી પ્રતિપદ” આ માસની પૂર્ણિમા પછી જે એકમની તિથિ આવે છે તેને, એટલે કે આસો વદ એકમને “ઈન્દ્ર મહકી પ્રતિપદ” કહે છે. કાર્તક માસની પૂર્ણિમા પછી જે વદ એકમની તિથિ આવે છે, તેને “કાર્તિક પ્રતિપદા' કહે છે.
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ફ્રૅ
सुघाटीका स्था० ४ ० २ सू० ४७ स्वाध्यायकर्तव्याकर्तव्यनिरूपणम् " नो कप्पइ " इत्यादि, नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निग्रन्थीनां चतसृषु सन्ध्यासु स्वाध्यायं कर्तुम् । तद्यथा - प्रथमायाम् - प्रथमा - अनुदिते सूर्येऽर्धमुहूर्त्त - पूर्व या सन्ध्या भवति सा प्रथमा, तस्याम्, उदितेऽध्यर्द्धमुहूर्त पर्यन्तमिति भावः १ ।
तथा - पश्चिमायाम् - पश्चाद्भवा पश्चिमा-अस्तं गते सूर्ये या सन्ध्या भवति सा, तस्याम्, सूर्यास्तात्मागर्द्धमुहूर्तादारभ्य यावद् दिगरुणिमानं भजते तावदितिभावः २। तथा मध्याह्ने - अहोमध्यो मध्याह्नस्तस्मिन - पूर्वाह्नपराह्नयोः सन्धिभाग इत्यर्थः पूर्वास्यान्त्यार्थमुहूर्तम्, अपराह्नस्य चाऽऽयार्थमुहूर्तमिति मुहूर्तमेकं यावदिति भावः ३ । तथा-- अर्धरात्रे - रात्रेरर्द्धमर्धरात्रस्तस्मिन् अत्रापि मध्याह्नवत्
चैत्र पूर्णिमाके अनन्तर जो प्रतिपत् तिथि आती है वह सुग्रीष्म प्रतिपत् हैं । इसी प्रकार चार सन्ध्याओं में स्वाध्यायका जो निषेध किया है वह भी केवल विघ्न आनेकी सम्भावनासे है, यहां प्रथम सन्ध्यासे वह समय लिया गया है जो सूर्योदयसे पहले आधे मुहूर्त्तका रहता है । अर्थात् - सूर्योदय होजाने पर भी अर्धमुहूर्त तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिये | पश्चिमासन्ध्या वह है जो सूर्यके अस्तङ्गत होने पर होती है, सूर्य अस्त होंगे उससे पहले के अर्ध मुहूर्त से लेकर जब तक दिशाएं लाल बनी रहती है तब तकका वह समय पश्चिम सन्ध्या है तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । पूर्वाह्न - और अपराह्नका सन्धि भाग मध्याह्न है । पूर्वाह्न के अन्तका आधामुहूर्त और अपराह्न के आदि का आधा मुहूर्त इस प्रकार इस एक मुहूर्त्त तक स्वाध्याय नही करना ચૈત્રી પૂર્ણિમા પછી જે વદ એકમની તિથિ આવે છે, તેને · સુગ્રીષ્મ પ્રતિપદા કહે છે. આ ચારે પ્રતિપદાની તિથિઓમાં સ્વાધ્યાયના નિષેધ છે.
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એ જ પ્રમાણે ચાર સધ્યાએમાં સ્વાધ્યાયના જે નિષેધ કર્યો છે, તે પશુ વિઘ્ન આવવાની સભાવનાથી જ કર્યાં છે. પ્રથમ સધ્યા એટલે સૂદિય પહેલાં અર્ધો મુહૂતના અને સૂર્યાંય બાદ અર્ધો મુહ્રના સમય. પશ્ચિમ સઘ્યા એટલે સૂર્યાસ્ત પહેલાના અર્ધા મુદ્દતના સમય તથા સૂર્યાસ્ત બાદ જ્યાં સુધી દિશાએ લાલીમા યુક્ત રહે છે ત્યાં સુધીના સમય. આ બન્ને સધ્યામાં સ્વાધ્યાય કરવા જોઇએ નહીં પૂર્વા અને અપરાણુના સધિ. કાળને મધ્યાહ્ણુ કહે છે. પૂર્વાહૂશના અન્તુ અર્ધો મુહૂત સુધી અને અપરાલ્ગુની શરૂઆતના અર્ધાં મુર્હુત સુધીના કાળમાં પશુ સ્વાધ્યાય કરવા જોઈએ નહીં, રાત્રિના પણ એ જ પ્રકારના જે મધ્ય ભાગ છે, તે મધ્યરાત્રિ રૂપ કાળમાં
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स्थानासो कालपरिमाणं वोध्यम् ४। आसु सन्ध्यासु स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते । मध्याह्नार्धरात्रयोः सन्ध्यात्वं चाधत्वरूपसन्ध्यपेक्षया वोध्यम् ।२। ___ अथ स्वाध्यायकरणकालमाह-" कप्पइ ” इत्यादि-चातुष्काल:-चतुर्णाकालानां समाहारश्चतुष्कालं, तत्र भयो यः स तथा तं स्वाध्यायं कर्तुं निम्र न्यानां निर्ग्रन्थीनां वा कल्पते, तद्यथा-पूर्वाह्ने-अहः पूर्वः पूर्वाह्नः-दिनाऽऽयमहरः, तस्मिन् १, अपरानः-अहोऽपरः-अपराह्नः-दिनचरमपहरः, तस्मिन् २, प्रदोषेरात्रेः प्रथमपहरे ३, प्रत्यूषे-रात्रेश्वरमप्रहरे ४।३। मू० ४७॥ ___ पूर्व स्वाध्यायकाल उक्तः, इदानीं स्वाध्यायप्रवृत्तस्य लोकस्थितिपरिज्ञानं भवतीति वा प्रतिपादयन्नाह
मूलम्-चउबिहा लोगदिई पण्णत्ता, तं जहा-आगासपइ. ट्टिए वाए १, वायपइट्ठिए उदही २, उदहिपइट्टिया पुढवी ३, पुढविपइट्रिया तसा थावरा पाणा ।४ ॥४८॥ चाहिये । तथा रात्रिका जो अर्धभाग है उसमें भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । यहां मध्याह्नका जैसाही समयका परिमाण जानना चाहिये। इन चार सन्ध्याओंमें स्वाध्याय वजित है। मध्याह्नमें और अर्धरात्रमें सन्ध्याका व्यवहार सन्धिकी अपेक्षासे जानना चाहिये २ । सूत्रकारने स्वाध्याय करनेका जो पूर्वाह आदिकाल कहा है, उसका भाव ऐसा है-दिनका आद्य प्रहर पूर्वाह्न है, दिनका अन्तिम प्रहर अपराह्न है एवं-, रात्रिका प्रथम प्रहर प्रदोषकालहै और चरम प्रहर प्रत्यूषकाल है। सू० ४७ __ स्वाध्यायकाल कहकर अब सूत्रकार स्वाध्यायमे प्रवृत्त हुवे साधु પણ સ્વાધ્યાય કર જોઈએ નહીં. અહીં પણ મધ્યાહ્નના જેવું જ તે કાળનું પ્રમાણ સમજવું. આ રીતે આ ચાર સંસ્થાઓમાં સ્વાધ્યાયને નિષેધ ફરમાવ્યું છે. મધ્યાહ્ન અને મધ્ય રાત્રિમાં જે સધ્યાને વ્યવહાર થયું છે, તે સંધિકાળની અપેક્ષાએ થયે છે.
સૂત્રકારે સ્વાધ્યાય કરવાને ગ્ય જે પૂર્વાણ આદિ કાળ બતાવ્યા છે, તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–
દિવસના પહેલા પ્રહરને પૂર્વાશુ કહે છે દિવસના છેલલા પ્રહરને અપરહણ કહે છે. રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરને પ્રદેશકાળ કહે છે, અને રાત્રિના છેલ્લા પ્રહરને પ્રત્યુષ કહે છે. આ ચારે કાળને સ્વાધ્યાય કરવા માટેના રેગ્ય समय मा ४ा छे. ॥ सू. ४७ ॥
સ્વાધ્યાયના કાળનું નિરૂપણ કર્યું. સ્વાધ્યાયમાં પ્રવૃત્ત થતાં સાધુ આદિ
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सुधा टीका स्था० ४ उ. २ सू०४८ लोकस्थितिनिरूपणम् छाया-चतुर्विधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आकाशप्रतिष्ठितो वातः १, वातप्र. तिष्ठित उदधिः उदधिपतिष्ठिता पृथिवी पृथिवीप्रतिष्ठिता-स्त्रसाः स्थावराः माणाः ४।। सु० ४८॥
टीका-" च उबिहा लोगट्टिई " इत्यादि-लोकस्य-क्षेत्ररूपस्य स्थितिःव्यवस्था लोकस्थितिः, सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आकाशप्रतिष्ठित:-आकाशेमतिष्ठितः-व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितः, वातः-तनुवातघनवात रूपः पत्रनः ?, तथा वातपतिष्ठित:-वायुप्रतिष्ठितः, उदधिः-समुद्रः घनोदधिरूपः २, उदधिमतिष्ठिता-घनोदधिव्यवस्थिता पृथिवी-रत्नप्रभादिका, पृथिवीप्रतिष्ठिताः त्रसाः
आदिको जो लोकस्थितिका परिज्ञान होता है, इस बातको प्रकट करते हैं, अर्थात्-कालस्थितिका कथन करते हैं। ___" चउम्विहा लोगहिई पण्णत्ता" इत्यादि
सूत्रार्थ--लोकस्थिति चार प्रकारकी कहो गईहै, जैसे-आकाश प्रतिष्ठितवात १, वातप्रतिष्ठित उद्धि २, उद्धि प्रतिष्ठित पृथिवी, ३, पृथिवी प्रतिष्ठित प्रस स्थावरजीव ४। ____टीकार्थ-क्षेत्ररूप लोककी व्यवस्थाका नाम लोकस्थिति है, यह लोकस्थिति भी चार प्रकार कही गई है, उसका भाव ऐसा हैआकाशमें-तनुवात और घनवातरूप जो पवन प्रतिष्ठित है, वह आकाश प्रतिष्ठितवात है । घनोदधिरूप समुद्र जो वायुप्रतिष्ठित है, वह वात प्रतिष्ठित उदधि है, तथा-घनोदधि व्यवस्थित जो रत्नप्रभा आदिक पृथिवियां हैं वे उद्धि प्रतिष्ठित पृथिवी है । तथा पृथिवी प्रतिष्ठित जो एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रियादिक जीव हैं वे पृथिवी प्रतिष्ठित वस स्थावर કેને લેકસ્થિતિનું પરિજ્ઞાન હોય છે આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર सोस्थितिनुं ४थन ४२ छे “ चउव्विहा लोगठिई पण्ण चा" त्याह
સૂત્રાર્થ-લેકસ્થિતિ ચાર પ્રકારની કહી છે. જેમકે-(૧) આકાશ પ્રતિતિવાત, (२) पाततितिधि , (3) हघि प्रतिष्ठित पृथ्वी अने (४) पृथ्वी प्रति છિત ત્રસ સ્થાવરજીવ
ટીકાઈ-ક્ષેત્રરૂપ લેકની વ્યવસ્થાનું નામ લેકસ્થિતિ છે. તે લેકસ્થિતિ પણ ચાર પ્રકારની કહી છે, તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–
(૧) આકાશમાં તનુવાત અને ઘનવાત રૂપ જે વાયુપ્રતિષ્ઠિત છે, તેનું નામ આકાશ પ્રતિષિત વાત છે. (૨) ઘને દધિ રૂપ સમુદ્ર જે વાયુપ્રતિષ્ઠિત છે, તેનું નામ વાતપ્રતિષ્ઠિત ઉદધિ છે. (૩) ઘને દધિ વ્યવસ્થિત. જે રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીઓ છે, તેમને ઉધિ પ્રતિષિત પૃથ્વી કહે છે. (૪) પૃત્રી પ્રતિષ્ઠિત
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स्थानातसूत्रे ६४६ द्वीन्द्रियप्रभृतयः, ये पुनःन्द्रियादयो रत्नप्रभादि पृथिवीप्वप्रतिष्ठितास्तेऽपि पर्वतविमानादिरूपपृथिवीमतिष्ठितत्वात्पृथिवी गतिप्ठिता एव सन्ति । विमानपृथिवीनां चाऽऽकाशप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवं वोध्यम् । ___ यद्वा-विमानगतदेवादिनसानामिहाविवक्षेति । स्थावरा इह बादरवनस्प. त्यादयो वोध्याः, सूक्ष्माणां तु सर्वलोकप्रतिष्ठितत्वात् , माणाः-जीवाः । लोकस्थितेविशेषव्याख्याऽस्यैव तृतीयस्थाने द्वितीयोदेशे एकोनचत्वारिंशत्तममूत्रे दृष्टव्येति ।। सू० ४८। - अनन्तरं त्रसाः प्राणा उक्ताः, सम्पति बप्तप्राणविशेषस्य स्वरूपं दर्शयितुं चतुर्भङ्गीसूत्रचतुष्टयमाह
मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--तहे णाममेगे १, णो तहे णाममेगे २, सोवस्थिए णाममेगे ३, पहाणे णाममेगे ४॥१॥ जीव हैं। तथा-जो द्वीन्द्रियादिक जीव रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में अप्रतिष्ठित [जैसे ] हैं वे भी पर्वत विमान आदिरूपसे पृथिवियोंमें प्रतिष्ठित होनेके कारणसे पृथिवी प्रतिष्ठितही हैं । विमान-एवं पृथिवी आदिकोंमें आकाश प्रतिष्ठितता यथासम्भव जाननी चाहिये। विमानगत देवादिबसोंकी यहां विवक्षा नहीं हुई है, स्थावर शब्दसे यहां बादर घनस्पति आदिक समझना चाहिये, क्योंकि-जो सूक्ष्मजीव हैं वे सर्व लोकमें प्रतिष्ठित हैं । लोकस्थिति सम्बन्धिनी व्याख्या इसी सूत्रके तृतीय स्थानगत द्वितीय उद्देशे में ३९ वें सूत्र में विशेषरूपसे देख लेनी चाहिये ॥ सू० ४८॥ જે એકેન્દ્રિય, દ્વિીન્દ્રિય આદિક જીવ છે તેમનું નામ પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત સ્થાવર જીવ છે. તથા જે દ્વીન્દ્રિયાદિક છ રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીઓમાં અપ્રતિષ્ઠિત જેવાં છે, તેઓ પણ વિમાનાદિ રૂપ પૃથ્વીઓમાં પ્રતિષ્ઠિત હોવાને કારણે પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત જ છે વિમાન અને પૃથ્વી આદિકેમાં આકાશ પ્રતિષિતતા યથાસંભવ સમજવી જોઈએ. વિમાનગત દેવાદિ વસોની વાત અહીં કરી નથી. સ્થાવર પદથી અહીં બાદર વનસ્પતિકાયિક આદિ સમજવા જોઈએ, કારણ કે જે જીવે સૂક્ષમ છે, તે તે સર્વલોકમાં પ્રતિષ્ઠિત છે. લેકસ્થિતિની સવિસ્તર પ્રરૂપણ ત્રીજા સ્થાનના બીજા ઉદ્દેશાના ૩૯ માં સૂત્રમાં કરવામાં આવી છે, તો ત્યાંથી वाय. वी. ॥ सू. ४८ ॥
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सुधा टीका स्था० ४ उ०२ सू०१९ सप्राणविशेषस्वरूपनिरूपणम् __६४७
चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आयंतकरे णाममेगे णो परंतकरे १, परंतकरे णाममेगे णो आयंतकरे २, एगे आयंतकरेवि परंतकरेवि ३, एगे णो आयंतकरे णो परंतकरे ४।२।
चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा- आयंतमे णाममेगे णो परंतमे १, परंतमे ४. ३॥
चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा--आयंदमे णाममेगे णो परंदमे० ४,४। सू०.४९ ॥
छाया-~चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तथो नामैकः १, नोतथी नामैकः २, सौवस्तिको नामैकः ३, प्रधानो नामैकः ४, (१) ___ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आत्मान्तकरो नामैको नो परान्तकरः १, परान्तकरो नामैको नो आत्मान्तकरः २, एक आत्मान्तकरोऽपि परान्तकरोऽपि ३, एको नो आत्मान्तकरो नो परान्तकरः ४।२। ___चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आत्मतमो नामैको नो परतमः १, परतम० ४,३
अथ सूत्रकार त्रस प्राणविशेषका स्वरूप दिखानेके लिये चतुर्भङ्गी रूप. चार सूत्रसे कथन करते हैं।"चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता" इत्यादि
पुरुष जात चार कहे गये हैं। जैसे-कोई एक तथा १, कोई एक नो तथा २, कोई एक सौवस्तिक ३ और कोई एक प्रधान ४।।
पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे-एक आत्मान्तकर नो परान्तकर १, कोई एक परान्तकर नो आत्मान्तकर २, कोई एक आत्मान्तकरभी और परान्तकरभी ३, तथा कोई एक नो आत्मान्तकर नो परान्तकर ४ । पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक
હવે સૂત્રકાર ત્રસ પ્રાણુવિશેષના સ્વરૂપનું ચતુર્ભાગીયુક્ત ચાર સૂત્રો દ્વારા नि३५९ ४२ छ “ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याह
पुरुषना या२ ५४२ ४ा छ-(१) तथा पुरुष (माघारी), (२) नो तथा (भाज्ञा उथापना२) (3) सौवस्ति (स्तुति ४२ना२) (४) प्रधान पुरुष । १।
આ રીતે પણ ચાર પુરુષ કહ્યા છે–(૧) આત્માન્તકર ને પરાન્તરમ, (२) ५२-२ ने मामान्त४२, (३) मात्मान्त४२ भने ५२२१४२. (४) ना. આત્માન્તકર ને પરાન્તકર. ૨ |
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स्थानाङ्गो ___ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आत्मदमो नामैको नो परदमः. ४, ४) सू०४९॥
टीका-" चत्तारि पुरिसजाया” इत्यादि-पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञ तानि तद्यथा-तथा-सेवकः सन् यथैवाऽऽज्ञाप्यते तथैव यः कर्मणि भवर्तते स तथइत्युच्यते, तादृश एकः-कश्चित् पुरुषो भवति, स्वाम्याज्ञाकारक इत्यर्थः १,
एक:-अपरः पुरुषो नोतथ:-सेवकः सन् यथाऽऽदिश्यते तथा यो न प्रव. तते स पुरुषो नोतथः कथ्यते स्वाम्याज्ञावहिर्वर्तीत्यर्थः २,
एक-कश्चित्पुरुषः सौवस्तिकः-स्वस्तीति कल्याणवाचकं शब्द भणनि यद्वाआत्मतम नो परतम १, कोई एक परतम नो आत्मतम २, इत्यादि रूप,३-४ । पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक आत्मदम नो परदम १ इत्यादि । - यहां प्रथम सूत्र के प्रथम भङ्गमें " तथा " शब्द उस सेवक पुरुष का वाचक है कि जो जैसा काम करने को कहा जाता है, वैसाही काम करता है । अर्थात्-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने स्वामीकी आज्ञाका .पालक होता है १, कोई एक ऐसा होता है जो उससे जैसा काम करनेको कहा जाता है वह वैसा काम नहीं करता है, अर्थात्-अपने स्वामीकी आज्ञाका बहिर्वर्ती होता है २, तीसरा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने स्वामीकी स्तुति करता
'मा शत पय या२ पुरुष- ५४२ ४ा छ-(१) मात्मतम । ५२तम, (२) ५२तम २ मात्भतम, (3) मात्भतम भने ५२तम, (४) ।। भामतम ना ५२तम. । ।
આ રીતે પણ ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે–(૧) આત્મદમ ને પરદમ, (२) ५२४म का मामहम, (3) मामहम माने ५२६८, (४) ने महम न ५२४म. । ४ ।
વિશેષાર્થ–પહેલા સૂત્રના પહેલા ભાંગામાં “ તથા” પદ એવા સેવક પુરુષને વાચક છે કે જેને જે કામ કરવાનું કહેવામાં આવે તે કામ કરે છે. એટલે કે કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના સ્વામીની આજ્ઞાનું પાલન नारे। हाय छ. . .
। (२) "नो तथा" भीon'tion तथा' ५६ मे अट ४२ छ । કોઈ પુરુષ એવો હોય છે કે જે પોતાના સ્વામીની આજ્ઞાનું પાલક હેતે નથી તેને જેવું કામ કરવાનું કહેવામાં આવે તેવું કામ કરતું નથી.
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सुधा रोका स्था० ४ उ०२ सू० ४९ प्रसप्राणविशेषस्वरूपनिरूपणम् कल्याणं समाचरति स सौवस्तिकः, एतादृशो माङ्गलिकवक्ता मागधप्रभृतिर्भवति३,
एका-कश्चित् पुरुषः प्रधाना-मुख्यः स्वामीत्यर्थः सेवकप्रभृतिजनाऽऽरीधकत्वात् भवति ४॥ १॥
"चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-मात्मान्तकरः-अत्र 'आत्म' शब्देन आत्मकर्म गृह्य ते, आत्मनोऽन्ताभावात , तेन-आत्मन:-आत्मकर्मणोऽन्तम्-अवसानं करोतीत्येवंशील आत्मान्तकरः-स्वकीयकर्मक्षयकरो भवति किन्तु नो परान्तकर:-परकीयकर्मक्षयरो नो भवति धर्मदेशनादिरहितः प्रत्येकबुद्धप्रभृतिरिव ।। ___तथा-एकः कश्चित् पुरुषः अपरान्तकरो भवति किन्तु आत्मान्तकरो नो है, मङ्गलवाचक होता है, जैसे-मागध आदि पुरुष ३ (स्तुतिपाठक) तथा कोई एक चौथा पुरुष ऐसा होता है जो प्रधान स्वामी होता है, सेवक आदि जन जिसकी आराधना-सेवा आदि करते हैं ४ ।
पुनश्च-द्वितीय सूत्र में जो पुरुषजात चार कहे गये हैं, उसका __ अभिप्राय ऐसा है । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आत्मान्तकर होता
है, यहां आत्म शब्दसे अपना कृतकम लिया गया है। क्योंकि आत्म द्रव्यका अभाव नहीं होता है। ऐसा पुरुष वह होता है जो प्रत्येक युद्धकी तरह अपनेही कमों का नाशक-क्षयकर्ता होता है, परके कर्मों का नहीं क्योंकि वह धर्मदेशना आदिसे रहित होता है । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो परान्तकर होता है आत्मान्तकर नहीं होता है, ऐसा वह पुरुष द्रव्यलिङ्गी मुनिकी तरह अथवा-अचरम शरी.
(3) કે ઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના સ્વામીની સ્તુતિ કરનાર હોય છે, મંગલવાચક હોય છે, જેમકે માગધ આદિ પુરુષ.
(૪) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પ્રધાન સ્વામી હોય છે. એટલે કે સેવક આદિજન તેની સેવા કરતાં હોય છે.
બીજા સૂત્રને ભાવાર્થ–પહેલા ભાંગાને ભાવાર્થ કેઈ પુરુષ એ હેય છે કે જે આત્માન્તકર હોય છે અહીં “આત્મ પદથી પિતાના કૃતકમ ગૃહીત થયેલ છે, કારણ કે આત્મદ્રવ્યને અભાવ હોતો નથી. આત્માન્તકર પુરુષ તેને કહે છે કે જે પ્રત્યેકબુદ્ધની જેમ પિતાના જ કર્મોને ક્ષયકર્તા હોય છે, પરના કર્મોને ક્ષયકર્તા હોતા નથી, કારણ કે તે ધર્મદેશનાદિથી રહિત હોય છે.
બીજા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ–કેઈ પુરુષ એવો હોય છે કે જે પરાન્તકર હોય છે પણ આત્માન્તકર હેતે નથી. દ્રવ્યલિંગી મુનિ અને અચરમ શરીર
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स्थानासूत्रे
६५०
भवति, अचरमशरीर आचार्यादिरित्र |२|
तथा - एकः - कश्चित् पुरुषः आत्मान्तकरोऽपि भवति परान्तकरोऽपि भवति तीर्थकर दिवि | ३ |
तथा - एकः - कश्चित् पुरुषः आत्मान्तकरो नो भवति परान्तकरोऽपि नो भाति जिनाज्ञाविरुद्ध प्ररूपकाऽऽचार्य इव ॥४॥
रवाले आचार्यकी तरह होता है क्योंकि इसकी धर्मदेशनासे दूसरे जीव अपने कर्मों का नाशक होजाते हैं पर यह स्वयं अपने कर्मों का नाशक नहीं होते हैं २ | तथा - कोई एक पुरुष ऐसा भी होता है जो आत्मान्तकरभी और परान्तकरभी होता है ३ | ऐसा पुरुष तीर्थङ्कर जैसे होते हैं क्योंकि इनकी धर्मदेशना से अन्य श्रोता पुरुष अपने २ अर्जित कर्मीका क्षय कर देते हैं और ये स्वयं भी अपने कर्मो का क्षयकर्ता बनते हैं । तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आत्मान्तकर नहीं होता है और न परान्तकरही होता है । ऐसा पुरुष वह होता है जो जिनाज्ञा विरुद्ध प्ररूपणा करनेवाले आचार्यकी तरह अपनी इच्छानुसार प्ररूपणा करता है, पदार्थ स्वरूपका वह यथार्थ विवेचक नहीं होता है । यद्वा-आत्मान्तकर शब्द जो अपने पर्यायका विनाशक होता है ऐसे आत्मघाती पुरुषका वाचक है ।
વાળા આચાય ને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે કારણ કે તેમની દેશનાથી અન્ય જીવે પેાતાના કર્માંના ક્ષય કરે છે પણ તેએ પેાતે પેાતાનાં કર્મોના ક્ષયકર્તા થતાં નથી.
ત્રીજા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ—કાઇ પુરુષ આત્માન્તકર ( પેાતાના કર્માંના ક્ષય કરનારે ) પણુ હોય છે અને પરાન્તકર ( અન્યના કર્માંના ક્ષય કરનારા ) પણ હાય છે. જેમકે તી કરે. તેએ પેાતે પણ પાતાના કર્મના ક્ષય કરી નાખે છે અને તેમની દેશનાના પ્રભાવથી અન્ય પુરુષ પણ પેાતાના કર્માંના ક્ષય કરી નાખે છે.
ચાથા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ—કાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે આત્માન્તકર પણ હાતા નથી અને પરાન્તકર પણ હાતા નથી. જિનાજ્ઞા વિરૂદ્ધની પ્રરૂપણા કરનાર આચાય ને આ ભાંગામાં મૂકી શકાય છે, કારણ કે તે પેાતાની ઇચ્છાનુસાર પ્રરૂપણા કરતા હાવાથી પદાના સ્વરૂપનું યથા પ્રતિપાદન કરનારી હાતા નથી. તેથી તે પોતે પણ પેાતાના કર્મને! ક્ષય કરી શકતા નથી અને શ્રોતાઓના કર્મોના ક્ષય પણ કરાવી શકતા નથી.
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ४१ सप्राणविशेषस्वरूपनिरूपणम् ६५१
यद्वा-आत्मान्तर:-आत्मनः-स्वस्यान्त-मरणं करोतीत्येवंशील आत्मान्तकर:-आत्मघाती, तथा-नो परान्तकरः-नो परघातीति प्रथमः १।।
द्वितीयस्तु परवधकः, तृतीय आत्म परवधकः, चतुर्थस्तु नो आत्मवधको नो परवधक इत्यर्थों वोध्यः ४। ॥२॥
" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" इति स्पष्टम् । नवरम्-एक:-कश्चित् आत्मतमा-आत्मानं तमयति-खेदयतीत्यात्मतमः, किन्तु नो परतमा-परं शिष्यादिकं वमयतीति परतमः नो भवति १। एवं शेषभङ्गत्रयं वोध्यम् ।। ___ अतः-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आत्मघाती होता है परघाती नहीं होता है । तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आत्मघाती न होकर परघाती होता है, जैसे-शिकारी पुरुष। तथा-कोई एक तीसरा पुरुष ऐसा होता है जो अपनाभी घात करता है और परकाभी घात करता है। कोई एक चौथा पुरुष ऐसा होता है जो न अपना घात करता है और न परका घात करता है ।
" चत्तारि पुरिसजाया पगत्ता" यहाँ जो आत्मतम आदिरूपसे पुरुषजात चार प्रगट किये गये हैं, उनका तात्पर्य ऐसा कि-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने आपकोही खेदयुक्त करता है, शिष्यादिरूप परको नहीं १ । इसी प्रकारसे और तीन भङ्गोंको भी समझ लेना चाहिये । पुनश्च-जो आत्मदम आदि प्रकारसे पुरुष कहे गये हैं।
અથવા–“આત્માન્તકર ” પદ પિતાની પર્યાયના વિચ્છેદકનું–આત્મઘાતીનું વાચક છે. આ દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે પહેલા ભાંગાને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે થશે-કેઇ એક પુરુષ એ હૈય છે કે જે આત્મઘાતી હોય છે, પણ પરઘાતી હેતે નથી. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પરઘાતી હોય છે, પણ આત્મઘાતી હેતે નથી, (૩) કેઇ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાને પણ ઘાતક હોય છે અને પરને પણ ઘાતક હોય છે. () કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાને પણ ઘાતક હેતે નથી અને પરને પણ ઘાતક હોતું નથી. ૨
श्री सूत्री मावाय-" चचारि पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याहि. આત્મતમ આદિ રૂપે પુરુષનાં જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ (૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના મનને જ ખેદયુક્ત કરે છે, શિષ્યાદિ રૂપ પરને બદયુક્ત કરતું નથી, એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગાનો ભાવાર્થ પણ સમજી લેવું . ૩ . .
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स्थानामसूत्र
__ " चत्तारि " इत्यादि स्पष्टम् । नवरम्-एकः-कश्चित् पुरुषः आत्मदम:आत्मानं-स्वं दमयति-दमयन्तं करोतीत्यात्मदमो भवति, किन्तु परदमो-ऽन्यदमको न भवति ?, एवं शेषमङ्गत्रिकेऽपि विवरणमूह्यम् , अत्र परशब्देन शिष्यस्तुरगादिर्वा गृह्यते ।४।।४। सू० ४९॥ पूर्व दम उक्तः, स च गईणीयगर्दातो भवतीति गहीं निरूपयितुमाह
मूलम्-चउबिहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा -उवसंपज्जामित्तेगा गरहा १, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा २, जं किंचिमिच्छा. मित्तेगा गरहा ३, एवंवि पन्नत्तेगा गरहा ४॥ सू० ५०। ___ छाया-चतुर्विधा गर्दा प्रज्ञप्ता, तयथा-उपसंपये इत्ये का गहीं १, विचि. कित्सामि इत्येका गर्दा २, यत्किञ्चित् मिथ्या मे इत्येका गहाँ ३, एवमपि प्रज्ञप्तका गर्दा ४। मू० ४९ । ___टीका-" चउन्विहा गरहा" इत्यादि-गाँ-गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा, सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तयथा-उपसंपये-गुरुमाश्रयामि स्वदोपं निवेदयितु, गृह्णामि उनका तात्पर्य ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा है जो स्वयंको दमवाला करता है, दबाता है, वश में करता है, परशिष्य आदिको नहीं १ इसी तरहसे अवशिष्ट तीन भङ्ग और समझ लेना चाहिये। यहां परशब्दसे शिष्य अथवा तुराग-घोडा आदिका ग्रहण हुवा है ॥ मू० ४९ ॥
दमके विषय में जो कहा गया है सो वह गर्हणीयकी गहाँसे होता है । अत:-अब सूत्रकार गहाँका निरूपण करते हैं।
"चउविवहा गरहा पण्णत्ता" इत्यादि-- टीकार्थ-गहऱ्याचार प्रकारकी होती है, गुरु साक्षिक आत्मनिन्दाका नाम नहीं है । इनमें एक गीं ऐसी होती है जो अपने दोषको निवेदन करने के
ચોથા સૂત્રમાં આત્મદમ આદિ જે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ-(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાને જ દમે છે, વશમાં રાખે છે, અન્યને દમતે વશમાં રાખતા નથી. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગીને ભાવાર્થ પણ જાતે જ સમજી લેવો છે સૂ. ૪૯ છે
પહેલા સૂત્રને અને જે દમનું કથન કર્યું તે ગહણીયની ગડથી જ સંભવી શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ગર્વોનું નિરૂપણ કરે છે___ " चउन्विहा गरहा पण्णत्ता" त्यादि
ટીકા–ગર્લી ચાર પ્રકારની કહી છે. ગુરુની સમક્ષ અથવા ગુરુસાક્ષિક આત્મવિન્ડાને ગહ કહે છે. એક ગર્તા એવી હોય છે કે જે આ પ્રકારના આમ
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पाटीको स्था० उ० २ सू०५० गोस्वरूपनिरूपणम्
६५३ वा समुचितं प्रायश्चित्तम् , इत्येवं प्रकारः परिणामः, एका-प्रथमा गर्दा भवति । यद्यपि ' उपसंपद्ये' इति गर्दायाः कारणभूत आत्मनः परिणामस्तथापि कारणभूते तस्मिन्नात्मपरिणामे कार्यभूता गर्दा आरोप्यत इति कारणे कार्योपचारादुप. संपत्तिरूप आत्मपरिणामोऽपि गर्दा, गर्दासमानफलत्वाद् वा य आत्मपरिणामो गर्हेति । गाँसंपन्नस्य तथाविधात्मपरिणामसंपन्नस्य चेत्युभयोरप्याराधकत्वं समानम् । तत्र गर्दासम्पन्नस्याराधकत्वं ' गरहणयाएणं भंते' इत्यादिना उत्तराध्ययनमूत्रस्यैकोनत्रिंशद्ध्ययनोक्तवचनेनाऽनन्तघातिपर्यवक्षपकत्वात् प्रसिद्धमेव । लिये मैं गुरुके पास जाता हूं, अथवा उनसे समुचित समुचित प्रायश्चित्त लेता हूं' इस प्रकारके परिणामरूपिणी होती है। यद्यपि-" उपसंपये" इस क्रियाग्दसे वह प्रगट किया गया है कि गहाँका कारणभूत आत्माका परिणाम होता है। फिरभी यहां जो उस परिणामको गहीं कहा गया है सो उस परिणाममें कार्यभूत गहींका आरोप किया गया है। इस लिये कारणमें कार्यका उपचार (करने ) से उपसंपत्तिरूप आत्मपरि. णामभी गर्दा कह दिया गया है । अथवा-यह परिणाम गहाँका जैसा फलवाला होता है इसलियेभी उसे गर्दा कह दिया गया है, जो गाँसे संपन्न होता है। उसमें, और गर्दाका परिणामवाला होता है, उसमें आराधकता समान होती है। गर्दा संपन्नमें आरावकता " गरहणयाएणं भंते १ इत्यादि ।
जो यह सूत्ररूप वचन उत्तराध्ययन सूत्रके २९ वें अध्ययन में कहा गयाहै उससे प्रसिद्धहीहै। क्योंकि-गहीं सम्पन्न प्राणी अनन्त आत्मगुणપરિણામરૂપ હોય છે-“હું મારા ને પ્રકટ કરવા માટે ગુરુની પાસે જઉં छु मन योग्य प्रायश्चित छु'." उपसंपद्ये " मायायी એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે આત્માનું પરિણામ ગહના કારણભૂત હોય છે, છતાં અહીં તે પરિણામને જે ગહરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે તે આ પરિણામમાં કાર્યભૂત ગહના આરોપણની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે. કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને ઉપસંપત્તિ રૂ૫ આત્મપરિણામને પણ નહીં રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. અથવા તે પરિણામ ગર્લાના જેવા ફળવાળું હોય છે તેથી પશુ તેને નહીં રૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. જે ગહથી સંપન્ન હોય છે તેમાં અને જે ગહના પરિણામવાળા હોય છે તેમાં આરાધકતા સમાન डाय छे. “गरहणयाएर्ण भंते" त्याने सूत्र५४ उत्तराध्यायन सूत्रना '૨૯ માં અધ્યયનમાં આપવામાં આવ્યું છે, તેના દ્વારા ગહ સંપન્નમાં આરાથકતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે ગર્તાસંપન્ન જીવ અનન્ત
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स्थानासूत्रे तथाविधात्मपरिणामसंपन्नस्य तु आराधकत्व भगवतीमूत्रे मोक्तम्, तथाहि--- " निग्गंग य गाहोत्रइकुलं पिंडवायपडियाए पनि अन्नयरे अकिचट्टा पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ - इहेव तात्र अहं एयस्स ठाणस्स आलोएम, पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, विउट्ठामि, विसोहेमि अकरणयाए अन्भुमि, आहारिहं पायच्छितं तत्रोक्रम्म पडिवज्जामि, तभी पच्छा थेराणं अंतियं आलोएसामि जाव तत्रोकम्मं पडिवज्जिस्लामि । से य संपट्टिए असंपत्ते थेरा य पुन्नामेव अमुहा सिया, से णं भंते । किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए " १ । इत्यादि ( भगवती० श० ८ उ० ६ सू० ३)
छाया - निर्ग्रन्येन च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया मविष्ठेन अन्यतरत् अकृत्पस्थानं प्रतिसेवितं, तस्य खल्वेवं भवति - इहैव तावदहमेवस्य स्थानस्य घातिक कर्मा शोंका नाश करनेवाला होता है । तथा-गर्दा परिणाम से संपन्नप्राणीमें आराधकता भगवती सूत्र में कही गई है वहांका वह पाठ इस प्रकार से है । "निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडतायपडियाए पविडेणं अन्नगरे अकिच्चड्डाणे पडिसेविए तस्त्रणं एवं भवइ । इहेव ताव अहं एक्स्स ठाणस्स आलोएमि-पडिकम्मामि निंदामि गरिहामि - विउट्ठामि विसोहेमि अकरणयाए अन्भुडेमि आहारिह, पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि । सेप संपट्ठिए असंपत्ते राय पुत्रचामेत्र अमुहा सिया सेणं भंते १, कि ओराहए विराहए ३, गोयमा १, आराहए नो विराहए १ इत्यादि ( भगवती श. ८ उ. ६ सू०३)
इस भगवती के पाठ से वह प्रतिपादित किया गया है कि किसी गृहस्थके यहां आहार ग्रहण करनेके लिये प्रविष्ट हुवे साधु द्वारा यदि આત્મગુણુઘાતિક કર્માંશના નાશ કરનારા હાય છે. તથા ગાઁ પરિણામથી સંપન્ન જીવમાં આરાધકતાનુ' પ્રતિપાદન ભગવતી સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યુ છે, त्यां मा अारना सूत्रपाठ आयो छे -- " निग्गंथेण य गाहावइकुले पिंडवाय• पडिया पविद्वेणं अन्नयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ - इहेत्र ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि, विउट्ठामि, विस्रोद्देमि अकरणयाए अन्भुट्ठेमि, आहारिहं पायच्छित्त तवोकम्मं पडिवज्जिरसामि । सेय संपट्ठिए असंपत्ते थेराय पुजांमेय अमुहा' सिया । सेणं भंते! कि आराहए विराहए ?गोयमा ! आराइए नो विराहए " ईत्यादि (लगेवती सू. श. ८ ७. हसू.3) ભગવતી સૂત્રના આ સૂત્રપાઠના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-“ હું ભગવન્ ! કોઈ એક ગૃહસ્થને ત્યાં આહાર ગ્રહણ કરવા નિમિત્તે ગયેલા સાધુ વડે કાઇ
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सुधा टीका स्था० ४. २०२० ५० गर्हस्वरूपनिरूपणम्
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आलोचयामि, प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्छे, वित्रोदधामि विशोधयामि, अकरणतयाऽम्युत्तिष्ठे, यथाई प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपचे, ततः पश्चात् स्थविराणामन्तिके आलोचयिष्यामि यावत् तप कर्म प्रतिपत्स्ये । स च संप्रस्थितः असंप्राप्तः स्थविराश्च पूर्वमेव अमुखाः स्युः, स खलु भदन्त ! किमाराधको विराधकः ?, गौतम ! आराधको नो विराधकः | १|
स्थविरा:- अमुखाः- निर्वाचः -यातादिव्याधिना मूकत्वं प्राप्ता इत्यर्थः । एवं स्थविरामुखवत् स्वामुख-स्वमरण - स्थविरमरण - स्वस्थविरो मयमरण - रूपाऽडला पक किस अकृत्य स्थानका सेवन होजाता है तो वह ऐसा शोचता है कि मैं इस अकृत्य स्थानकी आलोचना करता हूं, निन्दा करता हूँ | इसके इस प्रकारको बाद " मैं स्थविरोंके पास आलोचना आदि कर लूगा विचारकर वह वहांसे चल देता है। उसके आने से पहलेही वे स्थविर ( जिनके पास आरहा है ) वातादि व्याधिके कारण यदि मूक होजावें तो ऐसी स्थिति में वह आराधक है ३ या विराधक है ३ । उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम १ वह आराधक है विराधक नहीं है इत्यादि ।
ܙܕ
स्थविरामुख स्थविर अमुख हो जावे अर्थात् वातादि व्याधिसे मूक हा जावे, इसी प्रकार यदि स्थविर के पास जानेवाला मुनि स्वयं अमुख हो जावे १, मर जावे २, अथवा स्थविरका मृत्यु हो जावे ३, अथवा अपने અકૃત્ય સ્થાનનું ( અતિચારનું) સેવન થઈ જાય છે. તે સાધુ એવા વિચાર કરે છે કે “ હું આ અકૃત્ય સ્થાનની આલેાચના કરૂં છું, નિંદા, ગાઁ આદિ કરૂં છું', ત્યારબાદ હુ વિરા પાસે આલેાચના આદિ કરી લઇશ. ” આ પ્રકારના વિચાર કરીને તે ત્યાંથી નીકળી પડે છે, પણ તે સ્થવિરની પાસે પહોંચે તે પહેલાં તે તે સ્થવિર વાતાદિને કારણ નિબેંક ( મૂક ) થઈ જાય છે. તે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તે સાધુને આરાધક ગણવા કે વિરાધક ?
આરાધક જ
ગણાય,
મહાવીર પ્રભુના ઉત્તર— હૈ ગૌતમ ! તે विराध नहीं" इत्यादि.
સ્થવિર સુખ, સ્થવિર અમુખ થઈ જાય અર્થાત્ વાતાદિ વ્યાધિથી મૂંગા થઈ જાય, તેવી જ રીતે સ્થવિરની ૫ સે આવનાર મુનિ તે જ અમુખ ( भूंगा ) यह लय १, भरी लय २, मगर स्थविरनुं भरयु या लय 3, અથવા પેાતાનું અને સ્થવિરતુ એમ બન્નેનું મરણ થઇ જાય, એ ચાર આલાપકા પણ અહીં સમજી લેવા જોઇએ. આ પૂર્વોક્ત પાંચ આલાપકામાં તથા
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स्थानास्त्रे चतुष्टयं विजेयम् । एतेषु पञ्चस्वप्यालापकेषु तथाविधात्मपरिणामसंपन्नस्याऽऽराधकसमेव भगवता भगवतीमुत्रेऽष्टमशन के पष्ठो द्देशे प्रतिपादितमिति ।
तथा-विचिकित्सामि-वि-विशेषेण विविधप्रकारैर्वा चिकित्सामि प्रतिकरोमि-दूरीकरोमि गर्हणीयान् दोपानित्येवं विचाररूपा एका-अपरा द्वितीया गर्दा भवति ।
तथा-यत्किञ्चित्-अनुचितं-संयमविरुद्धमतिचारादिरूपं तत् मिथ्या निष्फलं भवतु मे मम, इत्येवं विचारलक्षणा एका-अन्या तृतीया गर्दा भवति ।
तथा-एवमपि-एवंजातीयेन अन्येनापि सेवितदोपपश्चात्तापकरणरूप-गर्हणहे. तुभूतात्मपरिणामप्रकारेण एका-अन्या चतुर्थी गर्दा प्रज्ञप्ता-कथिता जिनः । अयमपि प्रकारो गहाँहेतुत्वाद् गहेति । मू० ५० ।
और स्थविर दोनोंको मृत्यु हो जावे ४ । ये चार आलापक भी यहां जान लेना चाहिये। इन पूर्वोक्त पांचों आलापकों में तथाविध-शुद्ध आत्मपरिणति संपन्न मुनिको भगवानने भगवती सूत्रके आठवें शतक के छठे उद्देशे में आराधक ही कहा है, विराधक नहीं। ___तथा-" विचिकित्सामि" में विशेष रूपसे, अथवा-विविध प्रकारोसे गहणीय दोषों को दूर करता हूं ऐसा विचार स्वरूप द्वितीय गहीं होती है २ । तथा-जो मैंने संयम विरुद्ध अतिचार आदि किये हैं वे सबके सब मिथ्या निष्फल हो जाय' ऐसी विचारधारावाली तीसरी गर्दा है ३ । तथा-सेवित दोषों के प्रति प्रश्चात्ताप करना ऐसा आत्म. परिणामही चतुर्थी गहीं है । सू० ५० ॥ વિધ શુદ્ધ આત્મપરિણતિ સંપન મુનિને ભગવાને ભગવતી સૂત્રના આઠમા શતકના છઠ્ઠા ઉદ્દેશામાં આરાધક જ કહ્યા છે, વિરાધક નહીં.
(२) तथा “विचिकित्सामि" विशेष ३२ अथवा विविध प्रारे ગોંeણીય દેને દૂર કરૂં છું, આ પ્રકારના વિચારસ્વરૂપ દ્વિતીય ગહેં હેય છે
(૩) “મેં સંયમ વિરૂદ્ધના અતિચારોનું સેવન કર્યું છે, તે બધાં મિથ્યા નિષ્ફળ બની જાઓ,” આ પ્રકારની વિચારધારાવાળી ત્રીજી ગહ છે.
(૪) સેવિત દેને માટે પશ્ચાત્તાપ કરે, આ પ્રકારનું જે આત્મપરિણામ છે તેને ગહને જે પ્રકાર કહે છે. એ સૂ. ૫૦ |
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ५१ दोषत्यागीजीवस्वरूपनिरूपणम् ६५७
पूर्व गर्दा प्रोक्ता, सा च दोपत्यागिन एवं सम्यग् भवति नान्यस्येति दोष. त्यागि जीवस्वरूपं निरूपयितुं सप्तदश चतुर्भङ्गीमूत्राण्याह. मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--अप्पणो णाममेगे अलमंथू भवइ णो परस्स १, परस्स णाममेगे अलमंथू भवइ णो अप्पणो २, एगे अप्पणोवि अलमंथू भवइ परस्सवि ३, एगे णो अप्पणो अलमंथू भवइ णो परस्स ४॥ १॥
चत्तारि मग्गा पण्णत्ता, तं जहा-उज्जूणाममेगे उज्जू १, उज्जू णाममेगे के २, वंके णाममेगे उज्जू ३, वंके णाममेगे वंक ४॥२॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पणेत्ता, तं जहा--उज्जू णाममेगे उज्जू० ४।३। ___ चत्तारि मग्गा पण्णात्ता, तं जहा-खेमे णाममेगे खेमे १, खेमे णाममेगे अखेमे०।४।।४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-खेमे णाममेगे०।४।।५। . चत्तारि मग्गा पण्णता, तं जहा-खेमे णाममेगे खेमरूवे. ४, ६॥ ऐवामेव चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा-खेमे णाममेगे खेमरूवे० ४ ॥७॥ - चत्तारि संबुक्का पण्णत्ता, तं जहा--वामे णाममेगे वामावत्ते १, वामे णाममेगे दाहिणावृत्ते २, दाहिणे णाममेगे वामावत्ते ३, दाहिणे णाममेगे दाहिणावत्ते ४, । ८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-वामे णाममेगे वामावत्ते०।४।।९।
चत्तारि धूमसिहाओ पण्णत्ताओ, तं जहावामा णाम
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स्थानाङ्गसूत्रे
मेगा वामवत्ता ४, |१०| एवमेव चत्तारित्थओ पण्णत्ताओ, तं जहा -वामा णाममेगा वामावत्ता० | ११ |
चत्तारि अग्गिसिहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा -वामा णाममेगा वामावता ४, | १४ | एवामेव चत्तारित्थीओ पण्णत्ताओ, तं जहा वामा णाममेगा वामावत्ता० ४ ॥ १३॥
चत्तारि वायमंडलिया पण्णत्ताओ, तं जहा -वामा णाममेगा वामावत्ता० ४ १४ एवामेव चत्तारित्थीओ पण्णत्ताओ, तं जहा -वामा णाममेगा वामावत्ता० ४, ११५ ।
चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा -वामे णाममेगे वामावत्ते० ४, १६ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -- वामे णाममेगे वामावत्ते० ४ १७ ॥ सु० ५१ ॥
"
छाया - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - आत्मनो नामैकोऽलमस्तु भवति नो परस्य १, परस्य नामैकोऽलमस्तु भवति नो आत्मनः २, एक आत्मनोsपि अलमस्तु भवति परस्यापि ३, एको नो आत्मनोऽलमस्तु भवति नो परस्य । । १ ।
चत्वारो मार्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ऋजुन मैक ऋजुः १, ऋजुर्नामैको वक्रः २, वक्रो नामैक ऋजुः ३, वक्रो नामैको वक्रः ४ |२| एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - ऋजुर्नामैक ऋजुः ४ | ३ |
,
चत्वारो मार्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्षेमो नामैकः क्षेमः १, क्षेमो नामैकोऽक्षेमः ४, १४१, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तथा क्षेमो नामैकः क्षेमः४, १५
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चत्वारो मार्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - क्षेमो नामैकः क्षेमरूपः, क्षेमो नामैकोऽक्षेमरूपः ४, ।६ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - क्षेमो नामेकः क्षेमरूपः ४, ७ ॥
चत्वारः शम्बूकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - वामो नामैको वामाssaः १, वामो नामैको दक्षिणाऽऽवर्तः २, दक्षिणो नामैको वामाssवतः ३, दक्षिणो नामैको दक्षिणावर्तः ४, । ८ । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - वामो नामैको वामाऽऽवर्तः ० ४, ।९।
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सुंघा टीका स्था० ४ उ०२ सू०५१ दोषत्यागीजीवस्वरूपनिरूपणम्
चतस्रो धृमशिखाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वामा नामैका वामाऽऽवर्ता० ४, ।१०। एवमेव चतस्त्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वामा नामैका वामाऽऽवर्ता०४, ॥११॥
चतस्रोऽग्निशिखाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वामा नामका वामाऽऽवर्ता० ४, ।१२ । एवमेव चतस्रः स्त्रियः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वामा नामैका वामाऽऽवर्ता० ४, १३ ।
चतस्रो वातमऽलिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वामा नामका वामाऽऽवर्ता०, ४, १४। एवमेव चतस्रः स्त्रिय प्रज्ञप्ताः, तयथा-वामा नामैका वामाऽऽवर्ती० ४।१५। __चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ता तद्यथा-वामो नामैको वामाऽऽवर्त० ४, (१६ ) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वामो नामैको वामाऽऽवत:०४ (१७) सू०५१ ____टीका-"चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि स्पष्टम्-नवरम् एका-कश्चित् पुरुषः
आत्मनः-स्वस्य दुनयेषु प्रवर्तमानस्य अलमस्तु-निषेधको, भवति । यद्वा-समयपरिभाषया- अलमत्थु ' इति शब्दः समर्थार्थकः, ततश्चायमर्थः-एक:-कश्चित् पुरुपः आत्मनः-स्वस्य निग्रहे समर्थः-कुशलो भवति, किन्तु परस्य अत्यस्य अल. __ यह गहरे दोषत्यागी को ही समीचीन होती है अन्यको नहीं, इसके लिये अब सूत्रकार दोषत्यागी जीव स्वरूपका निरूपण चतुर्भङ्गीवाले १७ सूत्रोंको कहते हैं । " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " इत्यादि--- टीकार्थ-पुरुष जात चार कहे गयेहैं जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा होताहै जो दुर्नयमें प्रवृत्त अपने आपका “ अलमस्तु" निषेधक होता है, अथवा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने आपका निग्रह करने में कुशल समर्थ होता है । यहां-"अलमस्तु" शब्दका अर्थ समय भाषाके अनु. सार समर्थ होता है, कुशल होता है, किन्तु-" णो परस्स" परका निषेधक वा उसका निग्रह करनेमें समर्थ नहीं होता है १, ऐसा पुरुष
આ ગહ દષત્યાગીને જ સમીચન થાય છે અન્યને નહીં તે કારણે હવે સૂત્રકાર ચતુ ગીવાળા ૧૭ સૂત્ર દ્વારા દુષત્યાગી જીવનું સ્વરૂપ પ્રકટ रे छ. " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता!' त्याहि- .
ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે २ दुनया प्रवृत्त याताना त “ अलमस्तु” २५वाने समय डाय छ, અથવા કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના આત્માને અથવા धन्द्रियान निघड ४२वाने. समर्थ य छ, ५ " णो परस्से ". ५२२ (नધક હેતે નથી, અથવા પર નિગ્રહ કરવાને સમર્થ હેતે નથી ( અહીં : अलम् ' ५६ मय समय परिवार मंनुसार : समय-श' याय छ) એ પુરુષ મૌનવ્રતી સાધુરૂપ હોય છે.
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स्थानाशास्त्र मस्तु-निषेधका समर्थो वा न भवति । एतज्जातीयः पुरुषो मौनत्रतिसाधुप्रभृतिः। एवं शेषभङ्गत्रिकं विवरणीयम् ४ । १ । मौनव्रती साधुरूप होता है । " परस्स णाम मेगे अलमंथू भवइ, णो अप्पो २" तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो परका दुर्नयमें प्रवर्तमान दूसरे पुरुषका निषेधक होता है, अथवा-उसके निग्रह करने में समर्थ, वा कुशल होता है, अपने आपका निग्रह करने में समर्थ वा कुशल नहीं होता है।
" एगे अप्पणो वि अलमंथू भवइ परस्तवि ३" कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दुर्नयादिमें प्रवर्तमान अपने आपकाभी निषेधक होता है। या अपने आपका भी निग्रह करनेमें समर्थ-कुशल होता है और दूसरेकाभी निषेधक होता है, या उसके निग्रह करने में भी कुशल होता है ३।" एगे णो अपणो अलमंथ भवद णो परस्स ४" तथा-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दुर्नयमें प्रवर्तमान अपने आपकाली निषे धक नहीं होता है, या निग्रह करने में समर्थ नहीं होता है और दूसरेकाभी निषेधक नहीं होता है, या निग्रह करनेमें समर्थ नहीं होता है। इस प्रकारसे ये पुरुषजात चार होते हैं।
(२) " परस्स णाममेगे अलमंथू भवइ, णो अपणो" मे पुरुष એ હોય છે કે જે દુર્નયામાં પ્રવૃત્તમાન એવા અન્ય પુરુષને નિવેધક હોય છે. અથવા અન્યને નિગ્રહ કરાવવામાં કુશળ અથવા સમર્થ હોય છે, પણ પિતાનો નિગ્રહ કરવાને સમર્થ અથવા કુશળ હેતે નથી.
(3) “एगे अपणो वि अलमंथू भवइ परस्स वि " मे पुरुष सेवा હોય છે કે જે દુર્નયાદિમાં પ્રવૃત્તિમાન પિતાના આત્માને પણ નિષેધક હોય છે, અને પર નિષેધક હોય છે. અથવા પોતાના આત્માનો નિગ્રહ કરવામાં પણ સમર્થ અથવા કુશળ હોય છે અને પરને નિગ્રહ કરવામાં પણ સમર્થ અથવા કુશળ હોય છે.
(४) " एगे णो अपणो अलमंथू भवइ, णो परस्स" से पुरुष એ હોય છે કે જે દુયમાં વર્તમાન એવા પિતાના આત્માને નિષેધક હિતે નથી અથવા નિગ્રહ કરવાને સમર્થ હોતે નથી, અને પરને નિષેધક પણ હેતે નથી, અથવા નિમહ કરાવવાને સમર્થ હોતે નથી. આ પ્રમાણે ચાર પુરુષ પ્રકાર કહ્યા છે. ૧
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सुर्धा डीका स्था०४ ९०२ सू०११ दोषत्यागीजीवस्वरूपनिरूपणम्
હૈદર
" चत्तारि मग्गा " इत्यादि - मार्गाश्चित्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एका - कश्चिन्मार्गः ऋजु :- आदितोऽनन्तश्चापि ऋजुः - सरल:, यद्वा दृष्टौ ऋजुः प्रतिमाति यथार्थरूपपरिचयेनापि ऋजुरेव = सरल एव भवति । शेषं भङ्गत्रय सुवोधम् । २
-
" एवामेवे " - त्यादि - एवमेव मार्गत्रदेव, पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि, तद्यथा - एकः - कश्चित् पुरुषः पूर्वमृजुः पश्चादपि ऋजुरिति काळमपेक्ष्य व्याख्येयम् । यद्वा-एकः पुरुषः आन्तरतोऽपि ऋजुः वाह्यतोऽपि च ऋजुर्भवतीति व्याख्येयम् । शेषभङ्गत्रिकं सुगमम् । ३
जैसे - ऋजु
" चत्तारि मग्गा पण्यन्ता चार मार्ग कहे गये हैं, ऋजु १, ऋजु वक्र २, वक्र ऋजु ३ और वक्र वक्र ४ । इसमें जो मार्ग आदिसे अन्त तक सरल होता है, अथवा जो देखने में सरल लगता यथार्थ रूप से परिचय में भी सरलही होता है, वह ऋजु ऋजु मार्ग है । जो मार्ग ऋजु दिखने पर भी या सरल होने पर भी बाद में वक्र टेढामेढा हो जाता है वह ऋजु वक्र मार्ग है २ । जो मार्ग पहले वक्र हो बादमें ऋजु हो तो ऐसा वह मार्ग वक्र ऋजु कहा जाता है, तथा पहलेही से जो मार्ग वक्र हो और बाद में भी वह वक्र वक्र मार्ग कहा जाना है २ ।
ܕܪ
" एवामेव " इत्यादि. इसी तरहसे इस मार्ग की तरहसे ही पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक पुरुष पहले ऋजु प्रकृति से सरल होता है और बाद में भी वह सरलका सरलही बना रहता है, यह कालकी
" चत्तारि मग्गा पण्णत्ता " ईत्यादि यार प्रहारना भार्ग ह्या छे (१) ऋतु ऋतु, (२) ऋभु वर्ड, (3) व ऋभु ने (४) व बहु ने भार्ग આદિથી અંત સુધી સરળ હેાય છે, અથવા જે દેખાવમાં પણુ સરળ લાગે છે અને યથા રૂપ પરિચયમાં પરૢ સરલ જ જણુાય છે, તેને ‘ ઋજુ ઋજુ માગ કહે છે. (ર) જે માગશરૂઆતમાં સરલ દેખાતા' હાવા છતાં પણ પાછળથી વક્ર (વાંકેા ચૂકા-ખાડા ટેકરાવાળા ) લાગે છે, તે માને ઋજુ કે માર્ગ કહે છે. (૩) જે માગ પહેલાં વજ્ર લાગતા હોય પણુ પછી સરલ બની જાય છે, તે માને વક્ર ઋજુ માત્ર કહે છે. (૪) જે માર્ગ પહેલાં પણ વક્ર હાય અને પછી પશુ વક જ હાય, તે માને લક વર્ક માર્ગ કહે છે. ૨૫
" एवामेव " त्याहि मे ४ प्रमाणे पुरुषो यार अझरना उद्या छे.
(૧) કાઇ એક પુરુષ પહેલાં ઋજુ પ્રકૃતિને લીધે સરલ હાય છે અને પછી પશુ તે સરલ જ રહે છે. કાળની અપેક્ષાએ આ પહેલા ભાંગેા બને છે. અથવા કેઈ એક પુરુષ આન્તરિક રીતે પશુ સરલ હોય છે અને મહારથી
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ફર્મ
स्थानासूत्रे
" चत्तारि मग्गा " इत्यादि - मार्गाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एकः - कश्चि. न्मार्गः आदौ निरुपद्रवतया क्षेमः - कल्याणकरो भवति पुनरन्ते च क्षेमो भवति, यद्वा-लोकप्रख्यातौ क्षेमः पुनस्तच्वतोऽपि क्षेमो भवतीति व्याख्येयम् । एवं शेष - भङ्गत्रिकं बोध्यम् । ४ ।
" एवामेवे " त्यादि - एवमेव मार्गत्रदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - एकः कश्चित्पुरुषः क्रोधाद्युपद्रवरहितत्वेन क्षेमः स एव पुनः पश्चादपि क्षेमः शेषं भङ्गत्रयं सुगमम् । ५ ।
अपेक्षा करके प्रथम भङ्ग है । यद्रा - कोई एक पुरुष अन्तरङ्गकी अपेक्षा भी इसी तरह से व्याख्यात कर लेना चाहिये । ३ ॥
"
" चत्तारि मग्गा पुनश्च - मार्ग चार कहे गये हैं, जैसे-क्षेम क्षेम १, क्षेम अक्षेम २, अक्षेम क्षेम ३ और अक्षेम अक्षेम ४ । जो मार्ग पहले भी निरुपद्रव होने से कल्याणकर होता है । पुनः - अन्त में भी वह निरुपद्रव होने से कल्याणकर होता है, ऐसा मार्ग क्षेम क्षेम इस प्रथम भंग में परिगणित हुवा है । यद्वा-जैसा वह परलोक में प्रख्यात होता है वैसा ही वह वास्तव में भी होता है, इस तरह से भी वह क्षेत्र क्षेम रूप होता है । अवशिष्ट तीन भंग भी इसी प्रकार से समझ लेना चाहिये ।
इसी प्रकार से पुरुष जात भी चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो क्रोधादिरूप उपद्रवसे रहित होनेके कारण क्षेमरूप પણ્ સરલ જ હાય છે. એ જ પ્રમાણે માકીના ત્રણ ભાંગા પશુ જાતે જ સમજી शाय सेवा छे । उ ।
2
" चत्तारि मग्गा " त्याहि भागना या प्रमाणे पशु यार प्रहार ह्या छे- (१) क्षेत्र क्षेत्र, (२) क्षेभ अक्षेम, (3) अक्षेम क्षेत्र, (४) अक्षेभ अक्षेम, જે માર્ગ શરૂઆતમાં પશુ ઉપદ્રવ રહિત હાવાને લીધે કલ્યાણકારક હોય છે અને આગળ જતાં પશુ ઉપદ્રવ રહિત જ હાય છે એવા માગને ક્ષેમ ક્ષેમ મા કહે છે. અથવા તે માની ઉપદ્રવ રહિત માર્ગ તરીકેની જેવી ખ્યાતિ હાય છે, એવા જ ઉપદ્રવ રહિત તે વાસ્તવમાં પશુ હોય છે. તે કારણે પશુ તેને ક્ષેમ ક્ષેમરૂપ મા કહે છે. એ જ પ્રમાણે માકીના ત્રણ ભાંગાના भावार्थ पशु समन्न्व। । ४ ।
એ જ પ્રમાણે પુરુષાના પશુ ‘ક્ષેમ ક્ષેમ' આદિ ચ૨ પ્રકાર પડે છે. જેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે—(૧) કાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે ક્રોધાદિ રૂપ ઉપદ્રવથી રહિત હાવાથી ક્ષેમરૂપ હાય છે, અને આગળ જતાં
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सुंधा टीका स्था०४ उ२२५१ दोषत्यागीजीवस्वरूपनिरूपणम्
"चत्तारि मग्गा" इत्यादि-स्पष्टम् । एको मा भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमः स एव द्रव्यत आकृत्या क्षेमरूप:-सुन्दरो भवति । शेषं भगत्रिकं सुवोधम् ।६। ___ " एवामेवे " त्यादि-एवमेव-मार्गव देव पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषः प्रथमं क्रोधाद्युपद्रवरहिततया क्षेमः स एव पश्चादपि आकारे णापि क्षेमरूपः-सुन्दरः, भावद्रव्यलिङ्गयुक्तः साधुः । इति प्रथमो भङ्गः १। ___एकः पुरुषो भावतः क्षेमः, द्रव्यतस्तु अक्षेमः राजादिकारणवशाद् द्रव्यलिङ्ग रहितः साधुरिति द्वितीयः २ । एकः-कश्चित्पुरुषो भावतोऽक्षेमः, द्रव्यतः क्षेमः होता है, वही पुनः आगे चलकरभी क्षेमरूपही बना रहता है । इसी प्रकारसे शेष तीन भङ्गभी समझ लेना चाहिये ५। ____पुनश्च-" चत्तारि मग्गा" इत्यादि मार्ग चार रूप कहे गये हैं, जैसे-क्षेम क्षेमरूप १, क्षेम अक्षेमरूप २, अक्षम क्षेमरूप ३ और अक्षेम अक्षेमरूप ४ । कोई मार्ग ऐसा होता है जो भावतः अनुपद्रव रूपसे क्षेमरूप होता है और वही द्रव्यसे आकृतिसेभी क्षेमरूप सुन्दर होता है १ बाकीके तीन भङ्ग सुबोध हैं। ___ " एवामेव" इत्यादि-इसी प्रकारसे पुरुपजात-पुरुष प्रकारभी चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक पुरुष पहले से भी क्रोधादिरूप उपद्रवसे रहित होनेसे भावद्रव्य लिङ्गसे युक्त साधुकी तरह क्षेमरूप होता है
ओर पश्चात्भी आकारसे क्षेमरूप सुन्दर होता है, यह प्रथम भङ्ग है। कोई एक पुरुष भावकी अपेक्षा क्षेमरूप होता है पर द्रव्यकी अपेक्षा પણ ક્ષેમરૂપ જ ચાલુ રહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગ પણ જાતે જ सभ७ . । ५।
વળી માર્ગના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે–(૧) ક્ષેમ ક્ષેમરૂપ, (२) म सक्षम३५, (3) मम भ३५, (४) मोम सभ३५.
આ સૂત્ર ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–(૧) કઈ માર્ગ ભાવની અપે ક્ષાએ ઉપદ્રવ રહિત હોવાથી ક્ષેમરૂપ હોય છે અને એ જ માર્ગ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આકૃતિ (સ્વરૂ૫) ની અપેક્ષાએ પણ ક્ષેમરૂપ જ હોય છે. બાકીના ત્રણ ભાંગાને અર્થે પણ પહેલા ભાંગાને આધારે સમજી લેવું. ૬
" एवामेव " त्यादि. मे प्रभारी पुरुष ५४.२ ५५ या२ ४ा है(૧) કેઈ એક પુરુષ પહેલાં પણ ક્રોધાદિ રૂપ ઉપદ્રવથી રહિત હોવાને કારણે ભાવ દ્રવ્યલિગથી યુક્ત સાધુની જેમ ક્ષેમરૂપ હોય છે અને પાછળથી પણ આકારની અપેક્ષાએ લેમરૂપ જ સુંદર હોય છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ ભાવની અપેક્ષાએ ક્ષેમરૂપ હોય છે પણ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે રાજદિક કારણોને લીધે અર્થાત
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स्थानागसूत्रे साधुवेपधारी निवः । इति तृतीयः ३ । तथा-एकः पुरुषो भावतोऽप्यक्षेमोद्रव्य. तोऽप्यक्षेमः, अन्यतीथिको गृहस्थोवेति चतुर्थः । ४।
“चत्तारि संयुक्का." इत्यादि शम्बूकाः-शङ्काः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएक:-कश्चित् शम्बूकः (शङ्कः) वामः-बामपार्श्वव्यवस्थितत्वात् प्रतिकूलगुणत्वाद्वा, स एव पुनर्वामाऽऽवतॊभवति १, एकः शङ्खो वामः सन् दक्षिणाऽऽवतों भवतिर, एकः शङ्खो दक्षिणः दक्षिणपाश्चनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वासन वामाऽऽव भवति ३। तथा - एकः शङ्खो दक्षिणो दक्षिणाऽऽवतॊ भवति ४ । वह राजादि कारणवशसे अर्थात् मिथ्यात्वी राजा के कारण द्रव्यलिङ्ग रहित साधु की तरह अक्षेमरूप हो जाता है २, कोई पुरुष ऐसा होता है जो भावकी अपेक्षा अक्षेमरूप होता है और द्रव्य की अपेक्षा क्षेमरूप होता है । जैसे-साधु वेषधारी निहव ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो भावसेभी अक्षेमरूप होता है
और द्रव्यले भी अक्षेमरूप होता है जैसे अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थजन ४ ____" चत्तारि शंयुका" शङ्ख चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-कोई एक शङ्ख वाम पार्श्वमें व्यवस्थित होनेसे अथवा प्रतिकूल गुणवाला होनेसे वाम होता है वही पुन:-वाम आवर्तवाला होता है, यह " वामवामावर्त " ऐसा पहला भङ्ग है। कोई एक शङ्ख ऐसा होता है जो वाम होता हुवा दक्षिणावर्तवाला होता है २, कोई एक शङ्ख ऐसा होता है जो दक्षिण पार्श्वमें नियुक्त होनेसे अधवा-अनुकूल गुणवाला મિથ્યાત્વી રાજાને કારણે દ્રવ્યલિંગ રહિત સાધુની જેમ અક્ષેમરૂપ થઈ જાય છે (૩) કઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ અક્ષેમરૂપ હોય છે, પણ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ક્ષેમરૂપ હોય છે. જેમકે સાધુ વેષધારી નિહ્નવ, (૪) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ પણ અક્ષેમરૂપ હોય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ અક્ષેમરૂપ જ હોય છે. જેમકે અન્ય તીથિંક અથવા ગૃહસ્થજન. છા ___"चत्तारि शंबुझा" त्यादि शम यार ५४२ना ४ा छ-(१) " पास વામા ? કે એક શંખ વામપાર્શ્વમાં વ્યવસ્થિત હોવાથી અથવા પ્રતિક ગણવાળો હોવાથી “વમ” હોય છે. એ જ શંખ વળી વામ આવર્તવાળ डापाथी 'वाम पामावत' ३५ पडे। प्रा२न डाय छे. (२) "पाम દક્ષિણાવર્ત ”—કેઈ એક શંખ એ હોય છે કે જે વામ લેવા છતાં પણ दक्षिणापत वाण हाय छे. (३) 'क्षिपामावत' : २५ मेवा હોય છે કે જે દક્ષિણ પાર્થમાં નિયુક્ત હોવાથી અનુકૂળ ગુણવાળો હોય છે, પણ વામ આવર્તવાળા હોવાથી તેને “દક્ષિણ વામાવર્ત ” રૂપ ત્રીજા પ્રકારમાં
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सुधा रीका स्था०४ उ० २ ० ५१ दोपत्यागिजीवस्वरूपनिरूपणम् ६६५ ___"एवामेवे "-त्यादि-एवमेव-शम्बूकवदेव, पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः कश्चित्पुरुषो नाम्ना वामः स एव प्रतिकूलस्वभावत्वाद् वामाऽऽवतः.. विपरीतप्रवृत्तिकारको भवति । तथा एकः कश्चित्पुरुषो नाम्ना वामः स एवानु. कूलस्वभावत्वाद् दक्षिणाऽऽवर्त :-अनुकूलप्रवृत्तिकारको भवति २। एकः-अन्यः पुरुषो नाम्ना दक्षिणः, स एव प्रतिकूलस्वभावत्वाद वामाऽऽवत:-विपरीतमत्तिकारको भवति ३ । एकः कश्चित्पुरुषो नाम्ना दक्षिणः स एवानुकूलस्वभावत्वाद् दक्षिणाऽऽवर्त :-अनुकूलप्रवृत्तिकारको भवति ४ ९ । होनेसे वाम आवर्तवाला होता है ३ तथा-कोई एक शङ्ख ऐसा होता है जो दक्षिण होता हुवा दक्षिण आवर्तवाला होता है ४ ।
" एवामेव " इत्यादि-इसी तरहसे पुरुषजान चार कहे गये हैं, कोई एक पुरुष नामसे वाम होना है। वही प्रतिकूल स्वभाववाला होनेसे वामावर्त विपरीत प्रवृत्तिकारक होता है १, तया-कोई एक पुरुष नामसे वाम होता है वही अनुकूल स्वभाववाला होनेसे दक्षिणावर्त अनुकूल प्रवृत्तिकारक होता है २, कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो नामसे दक्षिण होता है वही प्रतिकूल स्वभाववाला होने से वामावर्त विपरीत प्रवृत्तिकारक होता है ३, तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो नामसे दक्षिण होता है वही अनुकूल स्वभाववाला होनेसे दक्षिणावर्त अनुकूल प्रवृत्तिकारक होता है ४-९ ગણું છે. (૪) દક્ષિણ દક્ષિણાવર્ત-કઈ એક શંખ દક્ષિણાર્ધમાં (જમણ બાજુ) નિયુક્ત હોય છે અને દક્ષિણાવર્તવાળો હોય છે. ૮ !
" एवामेव" त्याहि. ४ प्रभारी पुरुष ५१२ ५४ या२ ४ा छ(૧) કોઈ એક પુરુષ નામની અપેક્ષાએ વામ હોય છે. અને પ્રતિકૂળ સ્વભા વિવાળે પણ હેવાથી વામાવર્ત—વિપરીત પ્રવૃત્તિકારક પણ હોય છે.
(૨) કેઈ એક પુરુષ નામેની અપેક્ષાએ વામ હોય છે, પણ અનુકૂળ સ્વભાવવાળે હેવાને કારણે દક્ષિણાવર્ત—અનુકૂળ પ્રવૃત્તિકારક હોય છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ નામની અપેક્ષાએ દક્ષિણ હોય છે પણ પ્રતિકૂળ સ્વભાવવાળો હેવાથી વામાવર્ત–વિપરીત પ્રકૃતિવાળે હોય છે. (૪) ઈ પુરુષ નામની અપેક્ષાએ દક્ષિણ હોય છે અને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિવાળો હેવાને કારણે દક્ષિણ વર્ત—અનુકૂળ પ્રવૃત્તિવાળા હોય છે. (અહીં “વામ” અશુભ નામ સૂચક भने 'क्षिणं' शुम नाम सूर्य छे.)
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स्थानासूत्रे ६६६
" चत्तारि धूमसिहाओ " इत्यादि-धूमशिखाः - धूमश्रेणयः, ताश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एका-काचिद् धूमशिखा वामा-वामभागस्था सती पुनः वामाऽऽवर्ता वामपाववर्तित्वेन प्रतिकूलत्वेन वा वामतो वलनाद् वामत एवावर्तत इति वामाऽऽवर्ता, तादृशी भवति, एवमेव शेपं भङ्गत्रयं शङ्ख्यद् व्याख्येयम् ४, १०
" एवामेवे " त्यादि एवमेव-धूमशिखावदेव स्त्रियश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः तद्यथाएका काचित् स्त्री नाम्ना वामा सा एव प्रतिकूलस्वभावतया वामाऽऽवर्ता-विपरीताऽऽचरणशीला भवति, एवं शेपं भङ्गत्रयं पुरुषवद् व्याख्येयम् । ४ । शम्बूकदृष्टान्ते सत्यपि धूमशिखादृष्टान्तस्य पृथगुपादानं दार्टान्तिकभूतायाः स्त्रियो लिङ्गसाधर्म्यप्रदर्शनार्थमिति ॥ ११ ॥
" चत्तारि धृमसिहाओ”—इत्यादि, धूमशिखाएं धूमश्रेणियां चार प्रकारकी कही गई हैं, जैसे कोई एक धूमशिखा ऐसी होती है जो वामभागस्थ होती हुई पुनः-वामाऽऽवर्ता, वामपार्श्ववर्तिनी होने से, अथवा प्रतिकूल होनेसे वामावर्त्त, बांई ओर ही मुडनेवाली होती है, १ इसी प्रकारसे शेष तीन भङ्ग भी शङ्ख के जैसे जान लेना चाहिये ४।१० - " एवामेव” इत्यादि, धूमशिखा की तरह ही चार स्त्रियां कही गई हैं जैसे कोई एक स्त्री ऐसी होती है जो नामसे वामा होती है वही प्रतिकूल स्वभाववाली होने से वामावर्ती-विपरीताचरणा होती है, १ इसी तरहसे शेष तीन भङ्ग भी पुरुष की तरह जान लेना चाहिये। शम्बूक-शङ्ख दृष्टान्त के होने पर भी जो धूमशिखा दृष्टान्त का पृथक् उपादान किया गया है वह दार्टान्तिक रूपमें स्त्रियों के लक्षण
" चत्तारि धूमसिहाओ" त्याहि-धूमशिमामा-धूम्र श्रेणियो यार પ્રકારની કહી છે. “વામ વામાવર્તા ” ઈત્યાદિ ચાર ભાંગા શંખ પ્રમાણે જ સમજવા. (૧) કે એક ધૂમશિખા એવી હોય છે કે જે–વામપાર્થવતિની હોવાથી અથવા પ્રતિકૂળ હેવાથી વામ ભાગ હોય છે અને વામાવર્ત પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ સમજી લેવા. ૧૦ ,
" एवामेव" त्याल. धूमशिमानी रेभ. सीमा ५५ यार प्रनी ही छ-(१) 'पामा वामावता' ७ मे स्त्री नामना, अपेक्षा ५४ વામાં હોય છે અને પ્રતિકૂળ સ્વભાવવાળી હોવાથી વામાવર્તા-વિપરીત આચરણવાળી પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાગ પણ શંખ દાઈ ત્તિક પુરુષ પ્રમાણે સમજી લેવા. શંખનું દૃષ્ટાન્ત આપ્યા પછી ધૂમશિખાનું અલગ દષ્ટાન્ત આપવાનું કારણ એ છે કે અહીં દાર્જીનિક રૂપે સ્ત્રીઓના લક્ષણની
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सुधा टीका स्था० ४ उ०२ सू०५१ दोषत्यागिजीवस्वरूपनिरूपणम् ६६७
"चत्तारि अग्गिसिहाओ" इत्यादि । एतत्सूत्रं धूमशिखासूत्रबद् व्याख्येयम् । एवं दाष्टान्तिकस्त्रीमूत्रमपि । (१२, १३)
"चतारि वायमंडलिया” इत्यादि । वातमण्डलिका:-मण्डल्या-समूहाः, ता एव मण्डलिकाः, वातानां-वायूनां मण्डलिका वातमण्डलिकाः-मण्डलेनोर्ध्वप्रवृत्ता वायवः, ताश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एका-काचिद् वातमण्डलिका वामा-बामाऽऽवर्ता च भवति, शेपं च धूमशिखावत् । एवं दाष्टान्तिकस्त्रीसूत्रमपि । इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण स्त्रीपु धूमशिखावातमण्डलिकति स्त्रीलिङ्गदृष्टान्त त्रयमुपन्यस्तम् । की समानता को दिखाने के लिये किया गया है। " चत्तारि अग्गिसिहाओ" इत्यादि अग्निशिखा चार कहीहैं धूमशिखा सूत्रकी तरह व्याख्यात कर लेना चाहिये। तथा इसी तरहसे दाष्टींन्तिक सूत्र भी व्याख्यात कर लेना चाहिये । " चत्तारि वाय मंडलिया"-इत्यादि वायु मण्डलिका चार प्रकारकी कही गई हैं, मण्डलाकाररूपमें-गोलरूपमें जो वायु ऊपर की ओर जाती है ऐसी वह वायुमण्डलिका कोई एक ऐसी होती है जो वामा-और वामावर्ता होती है । यहां अवशिष्ट तीन भङ्ग धूमशिखा जैसा जान लेना चाहिये । तथा-दार्टान्तिक सूत्र भी इसी तरह जान लेना चाहिये, स्त्रियां मलिन स्वभाववाली-उपताप स्वभाववाली और चपल स्वभाववाली होती हैं। इसी अभिप्राय से यहां स्त्रियोंके विषयमें धूमशिखा-अग्निशिखा और बातमण्डलिका ये तीन स्त्रीलक्षणवाले दृष्टान्त दिये गयेहैं। कहा भीहै. 'जहा धूमसिहा गेहं-" इत्यादि । जैसे धूमસમાનતા પ્રકટ કરવા માટે નારી જાતિના દુષ્ટાન્તનો ઉપયોગ થવો જોઈએ. ૧૧
" चत्तारि अगिसिहाओ" याति-धूमरिमाना in मशिशिमाना પણ ચાર ભાંગા સમજવા. ! ૧૨ !
એ જ પ્રમાણે દાર્શનિક સ્ત્રી સૂત્રના ભાંગાઓ અને તેમને ભાવાર્થ सभ सव. । १३ ।
"चत्तारि वायमंडलिया " त्यालि. पायम सिं या२ प्रा२नी ही छे ચક્કર ચક્કર ફરતો જે વંટેળિયે ચડે છે તેને વાયુમંડલિકા કહે છે. કેઈ એક વાયુમંડલિકા વામાં અને વામાવર્તી હોય છે. બાકીના ત્રણ (ભંગ) ધૂમશિખા २ सभरवा । १४ ।
દાઈબ્લિક સૂત્રમાં પણ આ પ્રકારના જ ચાર ભાંગ સમજવા. : ૧૫
સ્ત્રીઓ મલિન સ્વભાવવાળી, ઉપલાપ (ઉત્પાત ) સ્વભાવવાળી અને અને ચંચળ વૃત્તિવાળી હોય છે, તેથી જ અહીં ધૂમશિખા, અગ્નિશિખા અને વાયુમંડલિકા, આ ત્રણ સ્ત્રી લક્ષણવાળાં હણાતે આપવામાં આવ્યાં છે,
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ચંદન
उक्तं च
66
जहा धूमसिहा गेहूं, मलिणी कुञ्च सया । वणिया वितहा लोए, नराणं, निम्मलं मणं ॥ १ ॥ पसंततरयं संतं, संतावेइ च देहिणं । लोsसिहव्वित्थी, दढधम्म रुईणवि ॥२॥ जहा रुक्खाण साहग्गं, चाओली अहिकंपइ । तव ज्ञाणमेरुं थी, अह्निकंपेइ सव्वा ॥ ३ ॥ "
छाया - यथा धूम शिखा गेहं मलिनी कुरुते सदा ।
स्थानाङ्गसूत्रे
afgsfप तथा लोके, नराणां निर्मलं मनः ॥ १ ॥ प्रशान्ततरकं स्वान्तं, सन्तापयति च देहिनाम् । लोकेऽनल शिखेव स्त्री, दृढधर्म रुचीनामपि ॥ २ ॥ यथा वृक्षाणां शाखाग्रं, वाताली अधिकम्पयति ।
तथैव ध्यानमेरुं स्त्री, अधिकम्पयति सर्वथा | ३ || इति । १४-१५ ।
" चत्तारि वणसंडा " इत्यादि - शिखामुत्रवदिदं सूत्रं व्याख्येयम्, अत्र केवलं वामाऽऽवर्तः - वामवलनेन जातत्वाद् वायुना वामतः प्रकम्पयमानत्वाद्वा anissa भवति । इति, (१६) पुरुषस्तु माग्वत् (१७) | ०५१ ॥
S
इतः पूर्वं पुरुषोऽनुकूलस्वभावोऽनुकूलप्रवृत्तिश्च निरूपितः तादृशथ निर्ग्रन्यः कारणे सति निर्ग्रन्थ्या सह संलपन्नपि जिनाज्ञां नातिक्रामतीति दर्शयन्नाह -
मूलम् - चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथिं आलवमाणे वा संलवमाणे वाणाइक्कम, तं जहा पंथं पुच्छमाणे वा १, पंथ देसमाणे
शिखाका घर "चत्तारि वणसंडा " इत्यादि चार वनपंड हैं शिखासूत्र जैसे इस सूत्र का व्याख्यान करना चाहिये, जैसा कि कोई एक वनषण्ड ऐसा होता है जो- - वाम टेढा मेढा होता है और वायुद्वारा बांई ओर कपाया गया - हिलाया गया होने से वामावर्त्तवाला होता है ।४। १६ इसी प्रकार से पुरुषजात भी चार होते हैं ॥ ५१ ॥
+
“ चत्तारि वणसंडा ” छत्याहि-शिक्षासूत्रता नेवु ४ આ સૂત્રનું પર્ણ વિવેચન થવું જોઇએ. જેમકે કોઈ એક વનષંડ ( વતખંડ) એવા હોય છે કે જે વામ ( વાંકેચૂકે ) હોય છે, અને પવન દ્વારા ડાબી તરફ ઝુકેલા હાવાથી વામ આવત્તવાળા પણ હોય છે. માકીના ત્રણ ભાંગા જાતે સમજી લેવા. । ૧૬। એજ પ્રમાણે કાર્ટાન્તિક પુરુષના પણું ચાર પ્રકાર સમજવા. ! ૧૭ । સુ. ૫૧ ॥
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सुघाटीका स्था.४उ.२लू ५२ कारणे निर्ग्रन्थया सह आलापादौसा घोराराधकत्वम् ६३९, वा २, असणं वा पाणं खाइमं वा साइमं वा दलेमाणे वा ३, दलावमाणे वा ४ || सू० ५२ ॥
छाया - चतुर्भिःस्थानैः निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थीमालपन् वा संलपन वा नातिकामति, तद्यथा - पन्थानं पृच्छन् वा १, पन्थानं देशयन् वा २, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा ददद् वा ३, दापयद् वा ४ ॥ सु० ५२ ॥
टीका - " चउहि ठाणेहिं ' इत्यादि
चतुर्भिः - चतुःसंख्यैः अनुपदं वक्ष्यमाणैः स्थानैः निर्ग्रन्थः साधुः, निर्मन्थींसाध्वीम्, आलपन् -निर्ग्रन्ध्या सकवारं वार्तालापं कुर्वन् संलपन - अनेकवारं वार्तालापं कुर्वन् वा नातिक्रामति - नोलडपति जिनाऽऽज्ञाम् । तद्यथा- पन्थानंमार्ग पृच्छन् निर्ग्रन्थो जिनाज्ञां नातिक्रामतीत्यन्वयः तत्र प्रष्टव्यसाधर्मिक गृहस्थ पुरुषादीनामभावे आर्थिकासत्त्वे तां प्रति - ' हे आर्ये । मया मुकवामे केन मार्गेग
पुरुष - अनुकूल स्वभाववाले और अनुकूल प्रवृतिवाले होते हैं । ऐसा कहा गया है, सो अब सूत्रकार यह प्रगट करते हैं कि जो ऐसा निर्ग्रन्थ कारणवश निर्ग्रन्थी के साथ वातचीत करता है तो वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है - " चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंधि-" इत्यादि-५२
टीकार्थ-चार कारणों को लेकर यदि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी साध्वी के साथ एक बार बातचीत करता है तो वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । वे चार कारण ये हैं, यदि प्रष्टव्य साधर्मिक गृहस्थ पुरुष आदिक न हों और आर्यिका ही हों तो वह (पथिक) उस आर्थिका से ऐसा पूछ सकता है, हे आर्ये१ मुझे अमुक ग्राम जाना है किस रास्ते
અનુકૂળ સ્વભાવ અને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિવાળા પુરુષા પણુ હાય છે. એવા અનુકૂળ સ્વભાવ અને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિવાળા કોઈ નિગ્રંથ જો કોઈ નિગ્રંથી સાથે કાઇ ઉચિત કારણે વાતચીત કરે તે તે જિનાજ્ઞાનું અતિક્રમણ કરતા નથી હવે સૂત્રકાર એવા ચાર કારણેાનું નિરૂપણ કરે છે.
"fe foie fortieft" Sculla—
टीअर्थ - नीचे इशविद्यां यर अराने सीधे ले निर्भय (साधु) निर्यथा ( साध्वी ) साथै मे वार अथवा वारंवार वातशीत अरे छे, तो ते बिना જ્ઞાનું ઉલ્લંધન કરતા નથી. (૧) કાઈ માગે વિહાર કરતી વખતે કોઈ સાધમિક ગૃહસ્થ આદિ પુરુષ રસ્તાપર ન મળે અને તે કારણે જવાના રસ્તા જાણવાની જરૂર પડે, તેા કાઈ નથીને પૂછવામાં આવે કે હું આર્ય! મારે અમુક ગામ જવું છે,
કાઈ ગામ તરફ આ પ્રમાણે પ્રશ્ન તે કયા રસ્તેથી
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६७०
स्थानाशास्त्र गन्तव्यम् ' इति मार्गप्रश्ने निधो जिनाज्ञां नोल्लङ्घयतीति पर्यवसितोऽर्थः ॥१॥ इति प्रथम स्थानम् । १। तथा-पन्थानं दर्शयन्-आयर्या मार्ग निर्दिशन् , इति द्वितीयं स्थानम् २ । तथा-अशनं-पानं-खाद्यं स्वाद्यं वा ददत् , इति तृतीय स्थानम् ३ । तथा-दापयन्-अमुकस्माद् गृहादेश्चतुर्विधाऽऽहारं दापयन् निम्रन्थो जिनाशां नाऽतिक्रामतीत्यर्थः ४ । इति चतुर्थ स्थानम् ४ ॥ मू० ५२ ॥ तथा-निर्ग्रन्थः 'तमस्कायं तम' इति वदन् भापासमिति नातिक्रामतीत्याह
मूलम्-तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामधेज्जापण्णत्ता, तं जहा -तमिइ वा तमुक्काएइ वा अंधकारेइ वा महंधकारेइ वा।
तमुकायस्त णं चत्तारि णामधेज्जा पण्णत्ता तं जहालोगंधगारेइ वा लोगतमसेइवा देवंधगारेइ वा देवतमसेइ वा।
तमुक्कायस्त णं च तारि नामधेज्जा, तं जहा--बायफलिहे इवा वायफलिहखोमेइ वा देवरन्नेइ वा देववूढेइ वा।
तमुक्काए णं चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठइ, तं जहा-- सोहम्मीसाणं सणंकुमारमादिं ॥ सू० ५३ ॥ होकर जाऊ ३ इस प्रकारसे पूछने पर वह जिनाज्ञा का उल्लंघन करनेवाला नहीं होता है । इस तरह वह सोधु यदि आर्या को मार्ग बता देता है (तो भी) जिनाज्ञा का उल्लंघनकर्ना नहीं होता है । तथा वह आर्यिका के लिये अशन पान-खाद्य स्वाद्यरूप आहार दे देता है, तथा अमुक गृहस्थसे दिला देता है, तो भी वह जिनाज्ञा का उल्लंघनकर्ता नहीं होताहै ॥१०५२॥ જઉં ” આ પ્રકારના પ્રશ્ન સાઠવીને પૂછનાર સાધુ જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરતો નથી. (૨) એ જ પ્રકારની પરિસ્થિતિ સાધીને માટે ઊભી થઈ હોય ત્યારે સાવીને માર્ગ બતાવવા માટે વાતચીત કરવામાં પણ જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન यतुं नथी. (3) ते सावी ते ४.२९५ य त सशन, पान, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ આહાર આપી દેવામાં, અને (૪) કેઈ ગૃહસ્થ પાસે અપાવી દેવામાં પણ તે જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંધનકર્તા થતો નથી. જે સૂ. પર છે
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सुधा का स्था० ४ ० २ सू० ५३ नमस्कायनामनिरूपणम ६७१
छाया-तमस्कायस्य खलु चत्वारि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तम इति षा तमस्काय इति वा अन्धकार इति वा महान्धकार इति वा।
समस्कायस्य खल चत्वारि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-लोकान्धकार इति या लोकतम इति वा देवान्धकार इति वा देवतम इति वा।।
तमस्कायस्य खलु चत्वारि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा वातपरिघ इति वा ___ वातपरिघ क्षोम इति वा देवारण्यम् इति वा देवव्यूह इति वा । ।
तमस्कायः चतुरः कल्पान् आत्य तिष्ठति, तद्यथा-सौधर्मेशानं सनत्कुमारमाहेन्द्रम् ॥ सू० ५३ । ।
टीका-" तमुक्कायस्स" इत्यादि
तमा-अकायपरिणामलक्षणोऽन्धकारः, तस्य कायः-समूहः, तमस्कायः। सोऽस्माद् मध्यजम्बूद्वीपाद वहिस्तिर्यग् असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान व्यतिव्रज्य ____ अब सूत्रकार यह प्राट करते हैं कि -निग्रन्थ साधु तमस्काय को "तम" ऐसा यदि कह देता है तो वह भाषासमिति का उल्लंघन नहीं करता है । " तमुक्कायस्सणं चत्तारि नामधेजा" इत्यादि ५३
सूत्रार्थ-"तमस्कायके चार नाम कहे गयेहैं, जैसे-तम १ तमस्काय २ अन्धकार ३ और महान्धकार ४ । पुनश्च तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं, लोकान्धकार १ लोकतम २ देवान्धकार ३ और देवतम । पुनश्च तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं, वातपरिघ १ वातपरिघक्षोम २ देवारण्य ३ और देवव्यूह ४ । तमस्काय चार कल्पों को आवृत कर के ठहरता है, जैसे -सौधर्म १ ईशान २ सनत्कुमार ३ माहेन्द्र ४ भावार्थ-इस सबका खुलासाअर्थ इस प्रकारसे है। अप्कायका परिणामरूप - હવે સૂત્રકાર-એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કોઈ નિર્ગથ સાધુ જે તમને સકાયને “તમ” કહે છે, તે તેના દ્વારા ભાષા સમિતિનું ઉલ્લંઘન થયું गया नथी. “ तमुकायस्स णं चत्तारि नामधेज्जा" त्याहि
तभायना मा प्रमाणे या२ नाम छ-(१) तम, (२) तभ२४ाय, (3) અંધકાર અને (૪) મહાન્ધકાર. તમસ્કાયના આ પ્રમાણે ચાર નામ પણ કહ્યાં छ-(१) all-41२, (२) सतम, (3) हवा-४।२ मन (४) देवतम. तभायना मा प्रमाणे या२ नाम ५५Y Hai छ--(१), पातपरिघ, (२) पात પરિઘ ક્ષોભ, (૩) દેવારણ્ય અને (૪) દેવભૂંડ. તમસ્કાય ચાર કલાને આવૃત
शन (धेरीन) २४ो छ-(१) सौधमान, (२) शानने, (3) सनाभारने मन (४) भान्द्रने. - આ સૂત્રને ભાવાર્થ હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–અપકાયના પરિણામ રૂપ જે અધિકાર છે તેનું નામ “તમ” છે, તે તમને સમૂહને તમસ્કાય
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६७२
स्थानासूत्रे
अगर ' द्वीपोऽस्ति । तस्य बाह्यवेदिकायाः पर्यन्तभागाद् द्विचत्वारिंशद् योजनसहस्राण्यरुणवर समुद्रमवगाह्य जलोपरितनतला दूर्ध्व मेकविंशत्यधिकानि सप्तदशयोजनशतानि यावत्सममिच्याकारतया गत्वा वलयाकार स्तिर्यक् प्रसरन् सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्रान् चतुरोऽपि कल्पानानृत्य ऊर्ध्वमपि च याद् ब्रह्मलोके कल्पे तृतीयमरिष्ट विमानमस्तटं संप्राप्तः । तस्य चत्वारि नामधेयानि नामानि मज्ञप्तानि तद्यथा - तम इवि - ' तम ' इत्याकारकं प्रथमं नाम तमोरूपत्वात्, अत्र ' इति ' शब्द: शब्दस्वरूप निर्देशनार्थः, ' वा' शब्दो विकल्पार्थः एवमग्रेऽपि |१|
"
"
जो अन्धकार है उसका नाम तमहै, इस तम का समूह तमस्काय है । यह तमस्काप इस मध्य जम्बूदीप से चाहिर तिर्यग् असंख्यात द्वीपसमुद्रोंको पार करके वर्तमान अरुणचरद्वीपकी बाह्यवेदिका के पर्यन्त भागसे ४२ हजार योजन तक अरुणरसमुद्रको अवगाह कर जलके उपरितन तलसे ऊँचे १७२१ सतरहसौ इक्कीस योजन तक समभित्ति के आकार में जाकर वलयाकार तिर्यक फैला हुवा है । तथा सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, और माहेन्द्र इन चारों भी कल्पों को आवृत करके ब्रह्मलोक कल्प में तृतीय अरिष्ट विमान प्रस्तर तक फैला हुवा है। इस अन्धकार रूप तमस्काय के जो चार नाम कहे गये हैं उनका तात्पर्य ऐसा है । तम ऐसा नाम तमरूप होने से है ।
इसी प्रकार से आगे भी जानना चाहिये १ इस प्रकार से तम तमस्काय अन्धकार और महान्धकार ये चार नाम तमस्कायकी तमो मात्ररूपता के
કહે છે. આ તમસ્કાય આ મધ્ય જ બુદ્વીપની બહારના તિયગૂ ( તિÀાકી ) અસખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરવાથી જે અરુણુવર દ્વીપ આવે છે તેની બાહ્ય વેદિકા સુધીના ભાગથી ૪૨ હજાર ચેાજન પન્ત અરુણુવર સમુદ્રને અવગાહિત કરીને જળની ઉપરીતન સપાટીથી ૧૭૨૧ સત્તરસે એકવીસ ચેાજન સુધી સમ દિવાલના આકારના વ્યાસ થઈને વલયાકારે ફ્િ ફેલાયેલે છે. તથા સોધમ, ઈશાન, સનત્કુમાર અને માહેન્દ્ર આ ચારે કલ્પાને આવૃત્ત ( આચ્છાદિત ) કરીને પ્રાયેક કલ્પના ત્રીૠ અરિષ્ટ વિમાન પ્રસ્તર સુધી ફેલાયેલાં છે. -
આ અન્ધકાર રૂપ તમના જે ચાર પ્રકાર બતાવવામાં આવ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે—“ તમ ” આ નામ તમારૂપ હોવાને કારણે પડયું છે. એ જ પ્રમાણે આગળ પણ સમજવું
LP
આ પ્રકારે તમ, તમકાય, અન્ધકાર અને મહાન્ધકાર આ ચાર નામ તમસ્કાયની તમે માત્ર રૂપતાના જ પ્રતિપાદક છે. તથા લેાકાન્ધકાર આદિ જે
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सुधा टीका स्था० ४ उ.२ सू०५३ तमस्कायनामनिरूपणम्
६७३ तमस्काय इति वा २, अन्धकार इति वा ३, महान्धकार इति वा ४ । एवं च तमः, तमस्कायः, अन्धकारः, महान्धकारः ' इति चत्वारि नामानि तमस्का. यस्य तमोमात्ररूपता प्रतिपादकानि । तथाऽपराणि चत्वारि नामानि लोकान्धकार लोकतमो-देवान्धकार देवतमोरूपाणि तु तमस्कायस्य प्रगाढतमोरूपता प्रतिपादकानि । तत्र लोकान्धकारः-लोके लोकान्धकार एवास्ति नापरस्तादश इति लोकान्धकारः, लोकतम इति - लोके तमः - लोकतमः देवान्धकार इति, देवानामन्धकारो देवान्धकारः, तथाविधेऽन्धकारे देवानामपि शरीरमभायाः प्रसतुमसमर्थत्वादेवान्धकार इत्युच्यते, अत एव देवा बलवतो देवस्य भयेन तत्र तमस्काये तिरो. हिता भवन्तीति वृद्धा इति । एवं देवानां नमो देवतम इति चतुर्थं नाम ४ । __तथा-तमस्कायस्येतराणि चत्वारि नामानि कार्याश्रयाणि, यथा-वातपरिघ १ वातपरिपक्षोम २ देवारण्यम् ३, देवव्यूह इति, तत्र वातपरिधः-वातस्य-पवनस्य प्रतिपादक हैं । तथा अन्य जो लोकान्धकार आदि चार नामहैं वे तमस्काय की प्रगाढ तमोरूपता के प्रतिपादक हैं। लोक में जो अन्धकार है वह लोकान्धकार है वैसा दूसरा कोई नहीं है। लोक में जो तम है वह लोकतम है, देवों का जो अन्धकार है वह देवान्धकार है । ऐसे अन्धकारों में देवों की भी शरीरप्रभा फैलने में असमर्थ रहती है। इसी कारण ऐसे तमस्काय को देवोन्धकोर कहा गया है । वृद्ध जन ऐसा कहते हैं कि इस देवान्धकार में बलवान् देवके भयसे अन्य देव तिरोहित (छुप) जाते हैं। इस प्रकार से देवतम है। तमस्काय के ये चातपरिघ आदि चार नाम कार्याश्रय से हैं। इन से तमस्काय का जो वातपरिघ नाम हुआ है उसका कारण ऐसा है कि यह तमस्काय वातको-पवन को ચાર નામ કહ્યાં છે, તે તમસ્કાયની પ્રગાઢ તમરૂપતાના પ્રતિપાદક છે. લેકમાં જે અન્ધકાર છે તેને કાપકાર કહે છે, એ બીજે કઈ અંધકાર નથી. લેકમાં જે તમ છે તેનું નામ લેકતમ છે. દેવલોકમાં જે અન્ધકાર છે તેનું નામ દેવાન્તકાર છે. એવા અન્ધકારમાં દેવાની શરીર પ્રભા પણ ફેલાઈ શકતી નથી, તે કારણે એવા તમસ્કાયને દેવાન્ધકાર કહ્યો છે.
વૃદ્ધો એવું કહે છે કે આ દેવાન્યકાર વ્યાપે ત્યારે બળવાન દેના ભયથી અન્ય દેવો છુપાઈ જાય છે, એ જ પ્રકારને દેવતમ પણ હોય છે.
તમસ્કાયના વાતપરિઘ આદિ જે ચાર નામ કહ્યું છે તે કાર્યને આધારે કાં છે. તમસ્કાયનું જે વાતપરિઘ નામ કહ્યું છે તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે.
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स्थानाङ्गो परिहननात् परिघ:-अगला स्वरूपः, अथवा-परिधः-लोहपिण्डः, ' एरण' इति भाषापसिद्धः, स एव परिघः, वातस्य परिघो वातपरिघः-पवनप्रतिरोधक इत्यर्थः इति प्रथमः १ । तथा यातपरिघक्षोभः-वातं वायु परिघवत् क्षोभयति-मार्गपरिस्खलितं करोतीति वातपरिपक्षोभः। इति द्वितीयः २ ॥ ___तथा-देवरन्ने 'ति-देवानामरण्यमिव बलवद्भयेन तिरोधानस्थानत्वाद् यः स देवारण्यं तमस्काय इति वतीयः ३ । तथा-' देवव्यूह ' इति देवानां व्यूहःचक्रशकटादि साङ्ग्रामिक व्यूह इव यो दुरधिगमत्वात् स देवव्यूहतमस्कायः, इति चतुर्थः । ४।
तमस्कायो यावत्क्षेत्रमाणोति तदाह-" तमुक्काएणं" इत्यादि तमस्कायः खलु चतुरः कल्पान्-वक्ष्यमाणान् आरत्य-व्याप्य तिष्ठति-वर्तते, तद्यथाअर्गला स्वरूप है, अथवा लोहपिण्ड-एरण स्वरूप है इस तरह से यह पवनका प्रतिरोधक है । अतः इसका नाम वातपरिघ है। परिघ शब्दका अर्थ यहाँ अर्गला या लोहपिण्डरूप एरण ऐसा है । तथा " वातपरिघ क्षोभ" ऐसाजो इसका नामहै वह यह वायुको परिघकी तरह अपने मार्गसे स्खलित कर देता है इस कारण है । "देवारण्य " जो ऐसा इसका नाम है उसका कारण ऐसा है कि बलवान् देवों से डरे हुवे देवों का यह अरण्य की तरह तिरोधान (छिपनेका ) का स्थान है । तथा "देवव्यूह" ऐसा जो यह चौथा नाम है उसका कारण ऐसा है कि देवोंको रथचक्र शकट आदि साझामिक व्यूह की तरह यह दुरधिगम्य होता है । यह तमस्काय जितने क्षेत्र को आवरण करता है अब उस बातको सूत्रकार તે તમસ્કાય વાતને માટે અર્ગલા (આગળિયા) સમાન છે. અથવા લેહપિંડ એરણ સમાન છે. આ પ્રકારે તે પવનને પ્રતિરોધક હોવાથી તેનું નામ વાતપરિઘ પણ પડયું છે. પરિઘ શબ્દનો અર્થ અહીં અર્ગલા સમજ. તથા તેનું “વાતપરિઘભ” નામ આ કારણે પડયું છે કે તે વાયુને પરિઘરૂપ પિતાના માર્ગથી સ્મલિત કરી દે છે. તેનું દેવા. રણ્ય નામ પડવાનું કારણ આ પ્રમાણે છે –બળવાન દેથી ભયભીત થયેલા દેવોને માટે તે અરણ્યની જેમ છુપાઈ જવાના સ્થાનની ગરજ સારે છે, તેથી તેને દેવઅરણ્ય પણ કહે છે. તેનું ચોથું નામ દેવબૃહ પડવાનું કારણ–રથ,ચક, શકટ, આદિ સંગ્રામની વ્યુહ રચનાને ભેદીને આગળ વધવાનું કાર્ય જેવું મુશ્કેલ છે, એવું જ આ અન્ધકારને ભેદવાનું પણ મુશ્કેલ છે. આ રીતે દેને માટે દુરધિગમ્ય હોવાથી તેને દેવબૃહ કહ્યો છે.
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सुंधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ५४ सैनादृष्टान्तेन पुरुषप्रकारपक्षपणम् ६७५ सौधर्मेशानं २ सनत्कुमारमाहेन्द्र ४ । सौधर्मे-शान सनत्कुमार माहेन्द्रेति चतुरः कल्पानावृत्य तमस्कायस्तिष्ठतीति पर्यवसितोऽर्थः । स तमस्कायः अधोभागे मल्लकमूलसंस्थानसंस्थितः ऊध्र्वभागे च कुक्कुटपारसंस्थानसंस्थितः प्रतिपादितः,
उक्तश्च-" तमुक्काएणं भंते ! कि संठिए पण्णत्ते ?, गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पि कुक्कुडपंजरसंठिए पणत्ते 'त्ति ।
छाया-तमस्कायो भदन्त ! कि संस्थितः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! अधो मल्लकमूलसंस्थितः उपरि कुक्कुटपञ्जरसंस्थितः । इति, मल्लकं मृत्तिकापात्रं तस्य मूलं बुध्नः ग्रीवा तद्वत् संस्थितिर्यस्य सः, तत्संस्थानसंस्थित इत्यर्थः ॥ ० ५३ ॥ अनन्तरं वचनपर्यायैस्तमस्कायः प्रोक्तः, सम्पत्यर्थपर्या यैः पुरुपं निरूपयितुमाह ।
मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा- संपागडपडिसेवी णाममेगे १, पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे २, पडुपन्ननंदी णाममेगे ३, निस्सरणणंदी णाममेगे ४, ॥ १॥
चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-जइता णासमेगा णो पराजिणिता १, पराजिणिता णाममेगा णो जइता २, एगा बताते हुवे कहते हैं " तमुक्काएणं" इत्यादि यह तमस्काय सौधर्म इशान सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार कल्पों को व्याप्त करके ठहरा हुवा है । यह तमस्काय अधोभागमें मल्लकके मूलका आकार जैसा है और ऊर्ध्वभागमें कुक्कुट के पजर का आकार जैसा है। उक्तञ्च"तमुक्काएणं भंते १, किं संठिए पण्णत्ते३ गोयमा १ अहे मल्लगमूलसंठाण संठिए उपि कुक्कुडपंजरसंठिए"त्ति । मल्लक यह मिट्टीका पात्र होता है इसका मूल वुध्न ग्रीवा का जैसा आकार होता है वैसा ही आकार इसका है ॥ ५३ ।।
હવે સૂત્રકાર એ વાતને પ્રકટ કરે છે કે આ તમસ્કાય કેટલા ક્ષેત્રને भाकृत ४२ छ 'तुमुक्काए गं" त्याहि-मा तम२४य सौधम, शान, सनछुमार અને મહેન્દ્ર, આ ચાર કલાને આવૃત (દેવકીકરીને રહે છે. તે તમસ્કાય અધેભાગમાં મલકના મૂળના જેવા આકારને છે અને ઊભાગમાં કૂકડાના पिन 24 मारना 2. ४धु प छ -तमुक्काए णं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते ?" मोयमा! अहे मल्लग-मूलसंठाण संठिए, उदिप कुक्कुडपंजरसंठिए त्ति" મલ્લક એક માટીનું પાત્ર વિશેષ છે. તેના મૂળને (તળિયાને) જેવો આકાર હોય છે, એ જ તમસ્કાયને આકાર કહ્યો છે. જે સૂ. ૫૩ છે
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संधानाच जइतावि पराजिणितावि ३, एगा णो जइता णो पराजिणिता ४, ॥२॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पपणत्ता, तं जहा--जइता जासमेगे णो पराजिणिता॥ ४ ॥३॥ ___ चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा--जइता णाममेगा जयइ० १, जइता णाममेगा पराजिणइ२, पराजिणिता णाममेगा जयइ ३, पराजिणिता णाममेगा पराजिणइ० ४, ॥४॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--जइता णाममेणे जयइ ॥५४॥
छाया-चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-संप्रकटप्रतिसेवी नामकः १, प्रच्छन्नमतिसेवी नामकः२, प्रत्युत्पन्ननन्दी नामकः३, निःसरणनन्दी नामकः४।११
चतस्रः सेनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा जेत्री नामका नो पराजेत्री १, पराजेत्री नामका नो जेत्री २, एका जेव्यपि पराजेयपि ३, एका नो जेत्री नो पराजेत्री४,१२। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा जेता नामैको नो पराजेता०४, २१
तमस्कोय का यह कथनरूप पर्यायसे किया गया है अब सूत्रकारअर्थपर्यायोंसे पुरुषकानिरूपण करते हैं-"चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" इत्यादि।
पुरुषजात चार कहे गये हैं। जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सप्रकट प्रतिसेवी होता है १ कोई और इनमें ऐसा होता है जो प्रच्छन्न प्रतिलेवी होना है२ तथा कोई एक ऐसा होता है जो प्रत्युत्पन्ननंदी होता है ३ एवं कोई एक ऐसा होता है जो निःसरणनन्दी होता है ४ । सेना-चार कही गईहै जैसे एकजेत्री नो पराजेत्री १ दूसरी पराजेत्री नोजेत्री तीसरी जेत्री भी और पराजेत्री भी ३ चौथी नोजेत्रीनो परा
તમસ્કાયનું ઉપર્યુક્ત કથન વચનરૂપ પર્યાયની મદદથી કરવામાં આવ્યું છે. આ સંબધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર અર્થપર્યાયે દ્વારા પુરુનું નિરૂપણ ४२di नीयन। सूत्रानुं ४थन ४२ छ. " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" प्रत्या6ि--
- પુરુષના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કાા છે–(૧) કેઈક પુરુષ સંપ્રકટ પ્રતિસેવી હોય છે (૨) કેઈક પુરુષ પ્રચ્છન્ન પ્રતિસેવી હોય છે. (૩) કેાઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પ્રત્યુત્પન્ન નંદી હોય છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે નિસરણનંદી હોય છે. ! ૧
ચાર પ્રકારની સેના કહી છે–(૧) જેત્રી–ને પરાજેત્રી, (૨) પરાત્રી नरेत्री, (३) २त्री भने ५२२त्री, (४) नत्री - ५२२त्री । २ ।
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ५४ सेनादृष्टान्तेन पुरुषप्रकारप्ररूपणम् ६७४
चतस्रः सेनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा जेत्री नामैका जयति १, जेत्री नामैका पराजयतिर, पराजेनी नामैका जयति३, पराजेत्री नामैका पराजयति४, १४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा जेता नामैको जयति०,४ ।। सू० ५४॥ ____टीका-" चत्तारि" इत्यादि । सुगमम् , नवरम् एकः कश्चित् पुरुषः साधुः संभकटप्रतिसेवी गुर्वादिसमक्षमकल्प्यभक्तपानादि संप्रकट सेवनशीलो भवति १, एक:-कश्चिद्गच्छवासी साधुः प्रच्छन्नप्रतिसेवी प्रच्छन्नं गुप्तं यथा स्यात्तथा अकल्प्यभक्तपानादि प्रतिसेवत इत्येवंशीलः २, एकः अपरः पुरुपस्तु प्रत्युत्पन्ननन्दी प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्रपात्रशिष्यादिना नन्दति हृष्यतीत्येवंशीला वस्त्रादि लाभे आनन्दितो भवतीत्यर्थः । ३ । ___ तथा एकः कश्चित् पुरुपः निःसरणनन्दी-निःसरणं प्राघुगशिष्यादीनां स्वस्य वा गच्छादितो निर्गमनं, तेन नन्दति-हृष्यतीत्येवंशीलस्तथाभूतो भवति ।। १।। जेत्री ४। इसी तरह चार पुरुष जात कहे गये हैं। जैसे जेता नो पराजेता १ इत्यादि ४ (३ पुनश्च-"सेना चार कही गई है, जैसे इनमें एक जेत्री जयति.१ जेत्री पराजयति २ पराजेत्री जयति ३ पराजेत्री पराजयति ४ इस तरह से चार पुरुषजात होते हैं, जैसे एक जेताजयति० ४ ।
इस सूत्रका भावार्थ ऐसाहै कोई एक साधु पुरुष ऐसा होताहै जो प्रतिसेवी गुरु आदिके समक्ष अकल्प्य भक्तपानादिक का सेवनशील होता है ? कोई एक साधुपुरुष ऐसा होता है जो गच्छमें रह कर प्रच्छन्न प्रति सेवी होता है-गुप्त रूपसे अकल्प्य भक्तपानादिकका सेवन करता है २ कोई एक साधुपुरुष ऐसा होता है जो लब्ध वस्त्र पात्र शिष्य आदिसे हर्षशील होता है, अर्थात्-वस्त्रादि लाभमें आनन्दित होती है ३ । ચાર પ્રકારના પુરુષે કહા છે-(૧) જેતાને પરાજેતા, ઈત્યાદિ ચાર પ્રમાણે या२ १२ सम४११. । ।
__मा प्रभारी ५१ या२ ५४२नी सेना ही छ-(१) जेत्री जयति, (२) जेत्री पराजयति, (3) परात्री जयति, (४) परात्री पराजयति । ४ । १ प्रमाणे “जेता जयति" वगैरे या२ प्र२॥ पुरुषोय छे । ५ ।
ભાવાર્થ–પહેલા સૂત્રના ચાર ભાગાને ભાવાર્થ-(૧) કેઈ એક સાધુ એ હેય છે કે જે ગુરુની સમક્ષ મુકત આહારદિનું સેવન કરનાર હોય છે. (૨) કોઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે ગ૭માં રહેવા છતાં પ્રચ્છન્ન પ્રતિસેવી હોય છે. ગુપ્ત રીતે અકસ્થ આહારાદિનું સેવન કરનારો હોય છે. (૩) કેઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે વસ્ત્ર, પાત્ર, શિષ્યાદિની પ્રાપ્તિ
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स्थानानसूत्र ___" चत्तारि सेणाओ" इत्यादि-सेनाश्चतस्त्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एका-काचित सेना जेत्री-जयतीत्येवंशीला जेत्री शत्रुवलपराभवशीला भवति, किन्तु नो पराजेत्री शत्रुबलान्नो पराजयं प्राप्नोति-नो भग्ना भवतीत्यर्थः, अत्र पराजीयत इत्येवंशीला पराजेत्रीति कर्मणि शीलार्थे तृन् बाहुलकाद् बोध्यः १॥ ____एका-अपरा सेना पराजेत्री-परेभ्यः पराजयप्राप्तिशीला भवति, किन्तु नो जेत्री-नो जयशीला भवति । २ । एका-अन्या तु जेव्यपि पराजेयपीत्युभय. स्वभावा भवति ३। एका-अपरा काचित् नो जेत्री नो पराजेत्री-जय-पराजय. भाववजितेत्यर्थः ४॥२॥ तथा-कोईसाधुपुरुष ऐसा होताहै जो गच्छ आदिसे शिष्यादिकों के या अपनेनिर्गमन से हर्षित होता है ४ "चत्तारि सेणाओ" इत्यादि सूत्र द्वारा सेनाएँ चोर हैं, उनका अभिप्राय ऐसा है-जो सेना शत्रुके बलको पराभव करती है वह जेत्री है, और शत्रुवलसे पराजित नहीं होती है। वह पराजेत्री है तथा च कोई एक सेना ऐसी होती है जो शत्रुनल को पराजित करने का स्वभाववाली होती है किन्तु शत्रुरल से अपना पराभव करनेवाली नहीं होती है ऐसी सेना प्रथम भङ्ग में परिगणित है १ तात्पर्य यही है कि शत्रुबलको जीत लेती है किन्तु-शत्रुको पीठ नहीं दिखाती है। दूसरी सेना ऐसी है जो पराजेत्रो-शत्रसे पराजय प्राप्त करनेवाली होती है जयशील नहीं होती है-२ तीसरी सेना ऐसी होती है जो-उभय स्वभाववाली होती है। कभी जीतनी-तो कभी हारती है-३ चौथी सेना ऐसी होती है जो नतो शत्रुको जीतती है न उससे हारतीहै-४ થવાથી આનંદિત થાય છે. (૪) કેઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે ગચ્છ આદિમાંથી શિષ્યાદિકનું અથવા પિતાનું નિગમન થવાથી હર્ષિત થનારે હોય છે.
" चत्तारि सेणाओ" त्याहि
આ સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારની સેના કહી છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ-જેત્રી એટલે વિજય પ્રાપ્ત કરનારી પરાજેત્રી એટલે પરાજિત થનારી. (૧) જે સેના
સન્યને પરાજિત કરે છે પણ શત્રુસૈન્ય દ્વારા પરાજિત થતી નથી એવી સેનાને “જેત્રીને પરાજેત્રી ” કહે છે. (૨) કેઈસેના એવી હોય છે કે જે શત્રુઓ સામે પરાજય પ્રાપ્ત કરનારી હોય છે, વિજય પ્રાપ્ત કરનારી હતી નથી. (૩) ત્રીજી સેના એવી હોય છે કે જે ઉમેય સ્વભાવવાળી હોય છે. એટલે કોઈવાર વિજય પણ પ્રાપ્ત કરે છે અને કઈવાર પરાજય પણ પામે છે. (૪) ચોથા પ્રકારની સેના એવી હોય છે કે જે શત્રુન્યને પરાજિત પણ કરતી નથી અને શત્રુ સેના દ્વારા પરાજય પણ પ્રાપ્ત કરતી નથી.
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सुपाटीका स्था० ४ उ०२ सू० ५४ सेनादृशान्तेन पुरुषप्रकारमरूपणम् ६७९
एवमेव-सेनावदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुषः जेता-परीपहाणामिन्द्रियनोइन्द्रियाणां वा जयशीलो भवति, किन्तु नो पराजेता--परीपहादिना नो पराजितो भवति, श्री महावीरमभुवत् १, एकः-- अपरः पुरुषः पराजेता -परीपहादिना पराजितो भवति, किन्तु नो जेता नो परीपहादिजयशीलो भवति कण्डरीकवत् २।
तृतीयः पुरुषः कदाचिज्जेता--परीपहादिजयनशीला कदाचित स्वकर्मवशात् पराजेता--परीपहादिना पराजितो भवति, शैलकराजर्षिवत् । ३ ।
चतुर्थः पुरुपस्तु-नो जेता नो पराजेता नो परीपहादीनां जेता भवति, नापि च परीपहादिना पराजितो भवति -अनुत्पन्नपरीपहादिरित्यर्थः ४, ३।
इसी तरह पुरुषजात चार कहे गये हैं उसका स्पष्टीकरण यों हैंजैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो परीषहों को अथवा - इन्द्रियों को जीतता है लेकिन उससे स्वयं नहीं जीता जाता है उदाहरण प्रभु महावीरस्वामी १ कोई एक ऐसा होता है जो परीषह आदिसे स्वयं पराजित हो जाता है लेकिन उनको नहीं जीत पाता है २ उदाहरण में कण्डरीक जिनका वर्णन ज्ञातासूत्र में हैं। कोई ऐसा होता है जो कदा. चित् परीषह आदिकों को जीत लेता है । कदाचित्-परीषह आदि द्वारा स्वयं जीत लिया जाताहै ३। उदाहरण शैलकराजर्षि जिनका वर्णन ज्ञातासूत्र में हैं । चौथा कोई एक ऐसा होता है जो-परीषह आदिको न जीतता है न उनके द्वारा जीता जाता है ४ । " चत्तारि सेणाओ"
એ જ પ્રમાણે જે ચાર પુરુષ પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે પરીષહેને તથા ઇન્દ્રિયોને જીતનાર હોય છે, પણ પિતે તેમના દ્વારા પરાજિત થતું નથી. જેમકે મહાવીર પ્રભુ.
(૨) કેઈ પુરુષ એ હેય છે કે જે પરીષહ આદિ દ્વારા પરાજિત થાય છે, પણ પિતે તેમનાપર વિજ્ય પ્રાપ્ત કરતો નથી. દાખલા તરીકે કંડરીકા કે જેમનું વર્ણન જ્ઞાતા સૂત્ર.
(૩) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે કેઈ કેઈવાર પરીષહાદિકેને જીતી લે છે અને કઈ કઈવાર પરીષહાદિ કે દ્વારા પિતે જ પરાજિત પણ થત હોય છે જેમકે શેલક રાજર્ષિ.
() કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પરિષહાદિ કેને જીતને પણ નથી અને પરીષહાદિકે દ્વારા છતા પણ નથી.
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६८०
स्थानासस
तथा--" चत्तारि सेणाभो " इत्यादि सुगमम् , एका सेना एकदा शत्रुवलं जिला पुनरपि जयति । इति प्रथमो भङ्गः १। एका-अपरा तु परवलं जित्या पराजीयते परवलेन पराजिता भवति । इति द्वितीयः २॥ एका-अन्या पराजित्य शनिबलेन पराजयं पाप्यापि पुनः शत्रुजयति । इति तृतीयः । चतुर्थी तु परा. जित्य-एकदा पराजयं प्राप्य पुनः पराजीयते-पराजिता भवति । इति चतुर्थी भङ्गः ४। इति सेनासूत्रम् । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि वोध्यानि । तत्र-एक पुरुषः परीपहादीन एकवार जित्वा पुनरपि जयति । इति प्रथमो भङ्गः १। एकः पुरुषः परीपहादीजित्वा पराजीयते परिपहादिभिः पराजितो भवति इति द्वितीयः २ एकः इत्यादि सूत्रद्वारा पुनः सेना चार कही गई है, जैसे-एक सेना ऐसी होती है जो शत्रुवलको जीत कर पुनः उसे जीत लेती है १, दूसरी सेना ऐसी होती है जो परके बलको जीत कर दूसरे किसी बलसे जीत ली जाती है २ । तीसरी ऐसी होती है कि जो शत्रुवल से पराजित हो कर भी पुनः शत्रुओं को जीतती है ३ । चौथी सेना ऐसी होती है जो एक बार हार कर भी पुनः हार जाती है ४ । इस सूत्रके जैसे ही पुरुष जात चार कहे गये हैं, इनमें कोई ऐक पुरुष ऐसा होता है जो परीषह आदिकों को एक बार जीत कर पुनः उन्हें जीतता रहता हैं १, कोई पुरुष ऐसा होता है जो परीपंह आदिकों को जीत कर पुनः उनसे जीत
" चत्तारि सेणाओ" त्य
આ સૂત્ર દ્વારા બીજી રીતે પણ સેના ચાર પ્રકારની કહી છે. તે ચારે પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે –
(१) जेत्री जयति" मे सेना मेवी य छ २ मे शत्रु સૈન્યને પરાભવ કરીને ફરીથી પણ શત્રુન્યને પરાજિત કરનારી હોય છે. (ર) કેઈ એક સેના એવી હોય છે કે જે કઈ એક શત્રુસૈન્યને પરાજિત કરનારી હોય છે પણ અન્ય શત્રુસૈન્ય દ્વારા પરાજિત પણ થનારી હોય છે (૩) કઈ એક સેના એવી હોય છે કે જે કોઈ શત્રુસન્યથી પરાજિત થઈને અન્ય શસિન્યને પરાજિત કરનારી હોય છે. (૪) કેઈ એક સિન્ય એવું હોય છે કે જે એક શત્રુસૈન્ય સામે પણ પરાભવ પામે છે અને બીજા શત્રુસૈન્ય સામે પણ પરાભવ પામે છે.
એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કોઈ એક પરુષ એ હેય છે કે જે પરીષહ આદિ પર એકવાર વિજય પ્રાપ્ત કરે છે છે અને ફરીથી પણ તેના પર વિજય પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ
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माडीका स्था०४३०२ सू०५५ पर्वत राज्यादिदृष्टान्तेन पायस्वरूपं तजयश्च ६८१
पुरुषः पराजित्य = परीपहादिभिः पराजयं प्राप्यापि पुनः परीपहादीयति । इति तृतीयः ३ तथा - एकः पुरुषः पराजित्य - एकदा पराजयं प्राप्य पुनः पराजीयते = पराजितो भवति । इति चतुर्थो भङ्गः ४ । सु० ५४ ।
पूर्वं जय उक्तः, स च तत्त्वतः कषायाणामेत्र कर्तव्य इति तत्खरूपं निरूपयति
मूलम् - चत्तारि राईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पव्वयराई १, पुढवीराई २, वालुयराई ३, उदगराई ४ । एवामेव चउविहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा - पव्वयराइसमाणे १, पुढविरा इसमाणे वालुयराइसमाणे ३, उदगराइसमाणे ४ ।
पव्वयराइसमाणं कोहं अणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ णेरइएस उपवज्जइ १ पुढवीराइसमाणं कोहं अणुष्पविट्टे जीवे कालं करेइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ २, वालुयरा इसमाणं कोहमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ मणुस्सेसु उववज्जइ ३, उद्गराइ समाणं कोहमणुप्पविद्वे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ ४--१ |
चारि थंभा पण्णत्ता, तं जहा - सेलथंभे १, अट्टिथंभे २, दारुथंभेर, तिणिसलयाथंभे । एवामेव चउव्विहे माणे पण्णत्ते,
लिया जाता है २ । तृतीय एक ऐसा होता है जो परीषहादिकों से पराजित हो जाने पर भी पुनः उन्हें पराजित कर देता है ३ चौथा एक साधुपुरुष ऐसा होता है जो परिषहादिकों के एक बार पराजित होकर बारबार पराजय पाता रहता है ४ ॥ ५४ ॥
એવા હાય છે કે જે પરીષહાર્દિકા પર એકવાર વિજય પ્રાપ્ત કરીને તેમના દ્વારા પુનઃ પરાજિત થનારા હોય છે (૩) કૈાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે એક વાર તેા પરીષાદ્ધિ દ્વારા પરાજિત થાય છે પશુ પુનઃ તેમને પરાજિત કરી નાખે છે. (૩) કેઇ એક સાધુ એવા હાય છે કે જે પરીષહાદિકા દ્વારા એક વાર પણ પરાજિત થાય છે અને વારવાર પણ પરાજિત થતા રહે છે. સૂ. ૫૪
स ८६
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स्थानास ६८२ तं जहा सेलथंभसमाणे जाव तिणिसलयार्थभसमाणे ४॥
सेलथंभसमाणं माणं अणुप्पविट्रे जीवे कालं करेइ गैरइएसु उववज्जइ १, एवं जाव तिणिसलयाथंभप्तमाणं माणं अणुप्पविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ ४।२।।
चत्तारि केयणा पण्णत्ता, तं जहा-वंसीमूलकेयणे १, मेंढविसाणकेयणे२, गोमुत्तियाकेयणे ३, अवलेहणियाकेयणे ४ । एवामेव - चतुठिवहा माया पण्णत्ता, तं जहा-वंसीमूलकेयणसमाणा जाव अवलेहणियाकेयणसमाणा ॥४॥ ___ वसीमूलकेयणसमाणं मायं अणुप्पविद्वे जीवे कालं करेइ गैरइएसु उववज्जइ१, मेंढविसाणकेयणसमाणं मायमणुप्पविटे जीवे कालं करेइ तिरिक्खजोणिएसु उबवज्जइ२, गोमुत्तियाकेययणसमाणं मायं अणुप्पविटे जीवे कालं करेइ मणुस्सेसु उववज्जइ३, अवलेहणियाकेयणसमाणं मायमणुप्पविठे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ । ४-३ ।
चत्तारि वत्था पण्णत्ता, 'तं जहा-किमिरागरत्ते १, कदमः रागरत्ते २, खंजणरागरत्ते३, हलिहरागरत्ते । एवामेव चउविहे लोहे पण्णत्ते, तं जहा--किमिरागरत्तवत्थसमाणे१, कदमरागरत्तवस्थसमाणे२,खंजणरागरत्तवत्थसमाणे३, हलिदागरत्तवत्थसमाण।
किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ णेरइएसु उववज्जइ १, तहेव जाव हलिइरागरत्तवत्थसमाणलोभमणुप्पविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उववज्जइ ४, ४॥ सू०५५
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सुभा ठीक स्था०४४०२०५५ पर्वतराज्यादिदृष्टान्तेनकषायस्वरूपं, तजयश्चं ६८३
छाया - चतस्रो राजयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पर्वतराजि: १, पृथिवीराजि: २, वालुकाराजिः ३, उदकराजिः ४ । एवमेव चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - पर्वतराजिमानः १, पृथिवी राजिसमानः २, वालुकारा जिसमानः ३, उदकराजिसमानः ४ |
पर्वतराजसमानं क्रोधमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेषूपपद्यते १, पृथिवीराजिसमानं क्रोधमनुप्रविष्टो जीव कालं करोति तिर्यग्योनि के पूपपद्यते २, वाल्लुकाराजिसमानं क्रोधमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति मनुष्येषूपपद्यते ३, उदकराजिसमानं क्रोधमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेषूपपद्यते ४ |१|
चत्वारः स्तम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - शैलस्तम्भः १, अस्थिस्तम्भः २, दारुस्तम्भः ३, विनिशलतास्तम्भः ४ । एवमेव चतुर्विधो मानः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-शैलस्तम्भसमानः यावत् विनिशलतास्तम्भसमानः |४|
शैलस्तम्भसमानं मानमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेपूपपद्यते ( १ ) एवं यावत् तिनिशलतास्तम्भसमानं मानमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेषूपपद्यते । ४ । ॥ २ ॥ ॥
चत्वारि केतनानि प्रज्ञतानि तद्यथा-वंशी मूलकेतनं १, मेदूविषाणकेतनं २, गोमूत्रिकाकेतनम् ३, अवलेखनिकाकेतनम् ४। एवमेव चतुर्विधा माया प्रज्ञता, तद्यथा-वंशी मूलकेतनसमाना यावत् अवलेखनिका के तनसमाना 1४1,
मूलकेत समानां मायामनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेषूपपद्यते १, मेद्रविपाणकेतनसमानां मायामनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति तिर्यग्योनिकेषपपद्यते २ गोमूत्रिकाकेतन समानां मायामनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति मनुष्येषूपपद्यते ३, अवलेखनिका केतनसमानां मायामनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेषूपपद्यते ४, |३||
चत्वारि वस्त्राणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कृमिरागरक्तं १, कर्दमरागरक्तं २, खञ्जनरागरक्तं ३, हरिद्वारागरक्तम् ४। एवमेव चतुर्विधो लोभः प्रज्ञप्तः, तद्यथाकृमिरागरक्तवस्त्रसमानः १, कर्दम राग रक्तवस्त्रसमानः २, खञ्जनरागरक्तवस्त्रसमानः हरिद्रारा रक्तवस्त्रसमानः ४
कृमिरागरक्तवस्त्रसमानं लोममनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेषूपपते तथैव यावत् हरिद्राराग रक्तवस्त्रसमान लोभमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेषूपपद्यते ४, 1४1० ५५ ॥
१,
इस प्रकार से जय के संबंध में कह कर अब सूत्रकार यह कहते हैं कि- जीवको जय वास्तव में कषायों का ही करना चाहिये अतः
આ પ્રકારે જયનું પ્રતિપાદન કરીને સૂત્રકાર હવે એ વાતનું નિરૂપણુ કરે છે કે જીવાએ ખરી રીતે તે કાચા પર વિજય મેળવવા જોઇએ.
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स्थानानसी टीका-" चत्तारि राईओ" इत्यादि-राजयः-रेखाः, ताश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्वताराजि:-पर्वते राजि:-पर्वतोल्लिखिता रेखेत्यर्थः १, पृथिवीराजिःपृथिव्यामुल्लिखिता रेखा २, वालुकाराजिः-वालुकायां विलिखिता रेखा ३, उदकराजिः-उदके-जले कृता रेखा ४। इत्थं दृष्टान्तमुक्त्वा दार्टान्तिकमाह" एवामेव " इत्यादि-एवमेव-पर्वतादिराजिवदेव, कोधः - कपायविशेषः, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-पर्वतराजिसमानः-पर्वतोल्लिखितरेखा तुल्यः क्रोधो भवति, यथा पर्वतोल्लिखिता रेखा दृढत्वादनपायिनी भवति, तथा तत्सदृशः क्रोधोऽपि दृढानुवन्धत्वादनपायो भवति । अयं चानन्तानुवन्धिस्वरूपो भवतीति १॥ तथा-पृथिवीराजिसमानः क्रोधः, यथा-पृथिव्यामुल्लिखिता रेखा हीनत्वादल्पाकषाय का स्वरूप कहा जाता है-" चत्तारि राईओ पणत्ताओ तं जहा" इत्यादि । ५५ टीकार्थ-राजियां (तड) चार कही गईहैं। जैसे पर्वतराजि१, पृथिवीराजि२, घालुकाराजि ३, उदकराजि ४ । इसी प्रकार से अनन्तानुबन्धी १, अप्र. त्याख्यान २, प्रत्याख्यान ३, और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध भी चार प्रकार का कहा गया है, जैसे अनन्ताऽनुवन्धी क्रोध १, पर्वतराजी के समान होता है, अप्रत्याख्यानी क्रोध २, पृथिवीराजीके समान होता है, प्रत्याख्यानी क्रोध ३, वालुकारेखा के समान होता है, संज्वलन अनन्तानुबन्धी क्रोध ४। जलरेखा समान होता है।
__ "पवई राइसमाणं कोहं अणु०" इत्यादि । । पर्वतरोजी के समान अनन्तानुबन्धी क्रोध में प्रविष्ट हुवा जीव यदि मरता है तो वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, द्वीतीय पृथिवीराजी के समान अप्रत्याख्यान 'क्रोधमें प्रविष्ट हुवा जीव यदि मरता है तो તેથી હવે સૂત્રકાર કષાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે.
चत्तारि राईओ पण्णत्ताओ-तंजहा " त्याह
ટીકાર્થ–ચાર પ્રકારની રાજિઓ કહી છે. તે ચાર પ્રકારે આ પ્રમાણે છે- (१) पर्वतशि, (२) पृथ्वील, (3) वाशिम (४) ६४२.
એ જ પ્રમાણે ક્રોધના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) અનતાનુબંધી, (२) अप्रत्याभ्यान, (३) प्रत्याध्यान भने (४) सदान.
અનન્તાનુબધી ક્રોધ પર્વતરાજિ સમાન છે, અપ્રત્યાખ્યાની કોઈ પૃથ્વીરાજિ સમાન છે, પ્રત્યાખ્યાની ક્રોધ વાયુકારેખા સમાન છે, અને સંજવલન 'સંબંધી કોઇ જલરેખા સમાન છે.
"पव्वई राइ समाणं कोहं अणु० " त्याह-पतनि समान अनhતાનુબન્ધી ક્રોધમાં પ્રવિણ થયેલે જીવ જે સરકી (મરી) જાય છે, તે નરક
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सुधा टीका स्था०४३०२१०२५ पर्वतराज्यादिदृष्टान्तेन कपायस्वरूप,तज्जयश्च ६८५ ऽऽयासेनैवापनीयते, तथैव यः क्रोधो हीनानुवन्धत्वादपनीयते स पृथिवीराजिस. मानः क्रोधः, अयं चाऽऽप्रत्याख्यानरूपो भवतीति । तथा वालुकारानिसमानः वह तिर्यश्वगतिमें उत्पन्न होता है, तीसरा वालुझाराजी के समान प्रत्याख्यान क्रोधमें प्रविष्ट हुवा जीव यदि मरता हैं वह मनुष्यगतिमें उत्पन्न होता है, और चौथा उदकराजी के समान संज्वलन क्रोध में प्रविष्ट हुवा जीव यदि मरजाता है तो वह देवगति में उत्पन्न होता है, यहां राजी रेखाका वाचक शब्द है, जिस प्रकार पर्वत के ऊपर उत्कीर्ण ( उकेरी गई ) रेखा दृढ होकर मिटती नहीं है, चिरकाल तक स्थायी रहती है वैसे ही जो क्रोध दृढानुबन्धवाला होता है वह जल्दी शान्त नहीं होता है, किन्तु चिरकाल तक स्थायी रहता है दीर्घ संसार का कारण होता है । इसलिये ऐसे क्रोधको पर्वतरेखाके समान प्रगट किया गया है, द्वितीय क्रोध को पृथिवीरेखाके समान कहा गया है उसका कारण ऐसा है कि प्रथिवी पर की गई रेखा पर्वत पर की गई रेखा हीन होनी है वह दीर्घकाल तक स्थायी नहीं रह सकती है धीरे २ अल्प प्रयास से मिटाई जा सकती है। इसी प्रकार द्वितीय क्रोध भी हीना. नुबन्ध होने से दूर किया जा सकता है २, तृतीय प्रकार का क्रोध ગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે અપત્યાખ્યાની ફોધમાં પ્રવિષ્ટ થયેલે જીવ જે મરી જાય તે તિર્યગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. પ્રત્યાખ્યાની કોધમાં પ્રવિષ્ટ થયેલે જીવ જે મૃત્યુ પામે તે મનુષ્યાદિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સંજવલન કેલમાં પ્રવિષ્ટ થયેલો જીવ જે મૃત્યુ પામે તે દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અહીં
રાજિ” પદ રેખાનું વાચક છે. જેમ પર્વત પર ઉત્કીર્ણ થયેલી રેખા લાંબા સમય સુધી નષ્ટ થતી નથી, એ જ પ્રમાણે જે કોઈ દહાનુભાવાળા હોય છે, તે જલદી શાન્ત થતું નથી, પણ દીર્ઘકાળ પર્યત સ્થાયી રહે છે, દીર્ઘ સંસારનું કારણ બને છે, તે કારણે એવા કોઈને શિલરેખા સમાન કહ્યો છે. બીજા ક્રોધને (અપ્રત્યાખ્યાની ક્રોધને ) પૃથ્વી પર કરેલી રેખા સમાન કહ્યો છે, કારણ કે પૃથ્વી પર કરવામાં આવેલી રેખા શૈલરેખા જેટલા દીર્ઘકાળ પયત ટકી શકતી નથી તેને ધીરે ધીરે અલ્પ પ્રયાસથી પણ નષ્ટ કરી શકાય છે. એ જ પ્રમાણે અપ્રત્યાખ્યાની કોઈ પણ હીનાનુબન્ધવાળો હેવાને કારણે દૂર કરી શકાય એવો હોય છે. ત્રીજા પ્રકારને ક્રોધ રેતી પર કરેલી રેખા
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स्थानागसूत्रे क्रोधः, यथा-वालुकायां कृता रेखा हीनतरत्वादकस्मादुत्थितः पवनादिमिरपनीयते, तथैव यः क्रोधो हीनतरानुवन्धत्वादपनीतो भाति, स क्रोधो वालुकाराजिसमानः । अयं क्रोधः प्रत्याख्यानाऽऽवरणरूपोभाति ३॥ तथा-उदकराजिस. मानः क्रोधः । यथा-उद के कृता रेखा हीनतमत्वात् स्वयमेवापनीता भवति, तथैव यः क्रोधो होनतमानुवन्धत्वात् स्वयमेवापयाति स क्रोध उदकराजिसमानो भवति अयं च संज्वलनरूपो भवतीति ।
इत्थं क्रोधस्य चतुरो भेदानुपदर्य सम्प्रति तत्र प्रविष्टा जोवाः कां गति लभन्त इत्याह-" पुढविराइसमाणं कोई " इत्यादि । तत्र प्रथमे भेदेऽनुपविष्टो जीवः कालं करोति स नैरयिकेपूत्पद्यते १, द्वितीये तिर्यग्योनिकेषु २, तृतीये मनुष्येषु ३, चतुर्थे तु देवेषु ४ ॥
इति क्रोधचतुष्टयानुप्रविष्टजीवस्य गतिचतुष्टयनिरूपणम् । १ । वालुकाके ऊपर की गई रेखा समान होता है, जैसे-वालका में की गई रेखा पृथिवी के ऊपर की गई रेखा के समान अपेक्षाकृत हीनतर हल्की होती है, अधिक समय तक स्थायी नहीं रहती है अकस्मात-उत्थित वायु आदि कारणों से वह दूर की जाती है, उसी प्रकार तृतीय क्रोध भी हीनतरानुबन्ध होने से शीघ्र दूर किया जा सकता है, इसी कारण इसे वालुकाराजि ( रेखा-लकीर ) कहा गया है, तथा चौथा क्रोध जो कि जलरेखा समान कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि वह अपने आप मिट जाता है इसे हटाने में प्रयास नहीं करना पडता है, जल रेखा धूली में की गई रेखासे हीनतम-हल्की होती है, अतः वह हीनतम अनुबन्धवाली होती है इसी कारण शैलगत रेखा जैसे क्रोध को अनन्तानुबन्धी स्वरूप, और पृथिवीगत रेखा जैसे क्रोधको अप्रत्याख्यान સમાન હોય છે. જેમ રેતીપર કરેલી રેખા પૃથ્વી પર કરેલી રેખા કરતા હીનતર હોય છે. અધિક સમય સુધી સ્થાયી રહે એવી હતી નથી, અકસ્માત કઈ વાયુ આદિને ઝપાટે આવે છે પણ તે નષ્ટ થઈ જાય એવી હોય છે, એ જ પ્રમાણે પ્રત્યાખ્યાની કોઈ પણ હીનતરાનુબન્ધવાળા હોવાથી શીધ્ર દુર કરી શકાય એવે છે, તેથી તેને વાયુકારાજિ સમાન કહ્યો છે. સંજવલન કોઇને જલરેખા સમાન કહેવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે
આ ક્રોધ પિતાની જાતે જ શાત થઈ જાય છે–તેને દૂર કરવાનો પ્રયાસ કર પડતો નથી જયરેખા વાલુકારેખ કરતાં પણ હીનતમ-હલકી હોય છે. તે કારણે તે હીનતમ અનુબવાળી હોય છે. આ કારણે શિલગત રેખા જેવા ક્રોધને અનન્તાનુબન્ધી સ્વરૂપ, પૃથ્વીગત રેખા સમાન ક્રોધને અપ્રત્યાખ્યાત રૂપ,
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सपा का स्था०४३०२सू०५५ पर्वतराज्यादिदृष्टान्तेन कपायस्वरूपंतज्जयश्च ६८७
अथ मानप्ररूपणा" चत्तारि थंभा” इत्यादि-स्तम्भा:-प्रसिद्धाः, ते चत्वारः प्राप्ताः, शैलस्तम्भः-शैलः-शिलाया विकारः शैल:-पापाणमया, स चासौ स्तम्भन शैलस्तम्भः १, अस्थिस्तम्भः-अस्थि-प्रसिद्धं, तद्रूपस्तम्भः २, दारुस्तम्भः-दारुकाष्ठं, तपस्तम्भ ३, तिनिशलतास्तम्भा-तिनिशः-तदाख्यवृक्षविशेषः 'वजुल' इति तत्पर्यायः, तस्य लता तिनिशलता, सा चात्यन्तमृद्वी भवति, तद्रूपस्तम्भः ४॥ ____" एवामेवे "-त्यादि-एवमेव-स्तम्भवदेव मानश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा'शैलस्तम्भसमान' -इत्यारभ्य ' यावत् तिनिशलतास्तम्भसमान इतिपर्यन्तो मानो वोध्यः, एवं च-शैलस्तम्भसमानः १, अस्थिस्तम्भसमानः २, दारुस्तम्भरूप, धूलिगत रेखा जैसे क्रोध को प्रत्याख्यातरूप, एवं जलगत रेखा जैसे क्रोध को संज्वलनरूप कहा गया है। ____"चत्तारिथंभा पण्णत्ता" इत्यादि । मानकषाय की प्ररूपणा करने के लिये चार स्तम्भो की प्ररूपणा सूत्रकार करते हैं-स्तम्भ चार कहे गये हैं, जैसे-शैलस्तम्भ १, अस्थिस्तम्भ २, दारुस्तम्भ ३ और तिनिशलता (तण) स्तम्भ ४ । इसी प्रकार से चार प्रकारका मान कहा गयाहै, जैसे-शैलस्तम्भ समान मान १, यावत्-तिनिशलतास्तम्भ समान मान ४ तात्पर्य इस कथन का ऐसा है-पत्थर से बनाया गया जो स्तम्भ होता है वह शैलस्तम्भ है, यह शैलस्तम्भ चाहे भले टूट जाय लेकिन मुकता नहीं, इसी प्रकार जोजीव शैलस्तम्भ समान मानकषायवाला होता વાલુકા રેખા સમાન ફોધને પ્રત્યાખ્યાત રૂપ અને જલરેખા સમાન કોઇને સંજવલન રૂપ કહ્યો છે
" चत्वारि थंभा पण्णत्ता" त्याह
માનકષાયની પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર ચાર પ્રકારના સ્તંભોની પ્રરૂપણ કરે છે. સ્તંભના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) શૈલસ્તંભ (२) मस्थिरतमा, (3) ४३स्तान भने. (४) तिनsaal स्तन से પ્રમાણે માનના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) શૈલસ્તંભ સમાન માન ઈત્યાદિ “તિનિશિલતા સ્તંભ સમાન માન” પર્યાના ચાર પ્રકાર સમજવા.
આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–પથરમાંથી બનાવેલા સ્તંભને શૈલસ્તંભ કહે છે. આ સેલસ્તંભ ભલે તૂટી જાય પણ મૂકતા નથી. એ જ પ્રમાણે જે મનુષ્ય શૈલસ્તંભ સમાન માન કષાયવાળો હોય છે, તે કઈ પણ
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स्थानाइयो समानः ३, तिनिशलतास्तम्भसमानश्च ४ मानो भवति । क्रोधवन्मानोऽप्यनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यानपत्याख्यानाऽऽवरणसंज्वलनरूपः क्रमेण ज्ञेयः । तत्र शैलादिस्तहै वह कभी भी किसी भी हालत में झुकतो. नहीं है उसका सर्वनाश ही क्यों न हो जाय । अस्थिस्तम्भ समान जो मान होता है वह-शैलनिर्मित स्तम्भ की अपेक्षा कम कडा होता है अधिकतम आयास से कदाचित् झुकाया भी जा सकता है, इसी प्रकार जो मान अस्थिनिर्मित स्तम्भ जैसा होता है वह अधिकाधिक आयास से विनम्र किया भी जा सकता है २। दारु-लकडी का जो स्तम्भ होता है वह अस्थिनिर्मित स्तम्भ की अपेक्षा कडाई में अधिक हीन होता है यह अल्प प्रयास से विनम्र कर दिया जाता है। इसी प्रकार जो मान काष्ठनिमित औलका जैसा होता है वह भी अल्प प्रयाससे ही विनम्र हो जाता है। और जो तिनिशवृक्ष की लतासे निर्मित स्तम्भ होता है वह काष्ठ निर्मित स्तम्भ की अपेक्षा कडाई में बिलकुल ही हीन होता है अतः इसे झुकाने में नगण्य जैसा प्रयास करना पडता है यह बहुत जल्दी झुक जाता है। इसी प्रकार जो मान तिनिशवृक्षलता निर्मित स्तम्भ जैसा होता है वह बहुत ही शीघ्र प्रयाससे झुका दिया जाताहै। शैलપરિસ્થિતિમાં મૂકતા નથી, તેને સર્વનાશ થઈ જાય તે પણ તે માનકષયને ત્યાગ કરતા નથી. અસ્થિસ્થંભ સમાન જે માન હોય છે, તે શૈલ નિર્મિત સ્તભ કરતાં ન્યૂનતર ચીકાશવાળું હોય છે. અસ્થિ થંભને અધિકતમ પ્રયને વડે કયારેક ઝુકાવી પણ શકાય છે, એ જ પ્રમાણે જે માન અસ્થિ સ્ત ભ સમાન હોય છે, તેને અધિક અધિક પ્રયાસ દ્વારા વિનમ્ર પણ કરી શકાય છે કાઇ નિર્મિત સ્તંભને દારૂસ્તંભ કહે છે. તે સ્તંભ અસ્થિનિર્મિત સ્તંભ કરતાં પણ કઠિનતાની અપેક્ષાએ અધિક હીન હોય છે. જેમ કાછનિર્મિત સ્તંભને અલ્પ પ્રયાસથી પણ મૂકાવી શકાય છે. એ જ પ્રમાણે કાર્ષનિર્મિત સ્તભ જેવા માનને પણ અ૫ પ્રયાસથી વિનમ્ર કરી શકાય છે. તિનિશ વિશ્વની લતામાંથી બનાવેલા સ્તંભને તિનિશિલતા સ્ત ભ કહે છે. તે ક ૪ નિમિત સ્તંભ કરતાં પણ ન્યૂનતમ કઠિનતાવાળા હોય છે. જેમ તેને ઝુકાવવા માટે નહીં જેવા પ્રયાસની જ જરૂર પડે છે, તેમ તિનિશિલતા સમાન માનને પણ બહુ જ ન્યૂન પ્રયાસથી પણ ઝુકાવી શકાય છે.
અનન્તાનુ બધી માનને સૈલ ત ભ સમાન, અપ્રત્યાખ્યાની માનને અસ્થિ નિતિ સ્તંભ સમાન, પ્રત્યાખ્યાની માનને કાષ્ઠ નિર્મિત સ્તંભ સમાન અને સંજવલન માનને તિનિસ વૃક્ષલતા નિર્મિત સ્તંભ સમાન કહ્યું છે.
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सुधा टोका स्था०४:०२सू०४९ पर्वतराज्यादिदृष्टान्तेनकायस्वरूपं तज्जयश्च ६८९ म्भसमानमानोदयवर्तिजीवस्य फलानि दर्शयति-" सेलथंभसमाण माणं " इत्या. दिना । एतद्विवरण क्रोधोदयवर्तिजीवफलसूत्रवद् बोध्यम् । ।२। ____" चत्तारि केयणा " इत्यादि-केतनानि-सामान्येन वक्राणि वस्तूनि, यद्वा-पुष्प करण्डस्य वंशादिदलकनिर्मितमुष्टिग्रहणस्थानानि, तानि च वक्राणि भवन्ति, परन्स्वत्र केतनपदेन सामान्येन वक्राणि वस्तूनि गृह्यन्ते, तानि चत्वारि मज्ञप्तानि तद्यथा-वंशीमूलकेतन-वंशी-शः तस्या मूलं वंशीमूलं, तच तत्केनिर्मित स्तम्म जैसा अनन्तानुवन्धीमान अस्थिनिर्मित स्तम्भ जैसा अप्रत्याख्यानीमान काष्ठनिर्मित शैल जैसा प्रत्याख्यानीमान, और तिनि. शवृक्षलता जैसा संज्वलनमान होता है। तिनिशवृक्षका पर्याय 'वज्जुल' ऐसा भी है इसकी लता मृद्री-अति कोमल होती है-जल्दी झुक जाती है। शैलनिर्मित स्तम्भ जैसा मानवाला जीव मर कर नरकगति में, अस्थिनिर्मित स्तम्भ जैसा मानयुक्त जीच मरकर तिर्यञ्चगति में, काष्ठनिर्मित स्तम्भ जैसा मानशाली जीव मरकर मनुष्यगतिमें, और तिनिश वृक्षलता निर्मित स्तम्भ जैसा मानसंयुक्त जीव मरकर देवगतिमें जाता है।और अवशिष्ट कथन क्रोधोदयवर्तीजीच फलसूत्र जैसा जानना चाहिये। ___“चत्तारि केयणाणि" इत्यादि । चार चक्र-टेढी वस्तुयें कही गई है, यहां-"केतन" शब्द सामान्य रूपसे वक्रता का वाचक है। इससे जो चक्र वस्तुयें हैं वे गृहीत की गई हैं। अथवा-पुष्पकरण्डक (साजी ) को उठाने में जो चांश की डण्टी लगी है वही चक्रताकेतन
તિનિશ વૃક્ષને વજુલ પણ કહે છે. તેની લતા મૃદ્ધી અતિ કેમળ હોય છે, તેથી તે જલદી નમી જાય એવી હોય છે. શેલનિમિત સ્તંભ સમાન માનવાળે જીવ મરીને નરકગતિમાં, અસ્થિનિર્મિત સ્તંભ સમાન માનવાળે મનુષ્ય મરીને તિય ગતિમાં, કાષ્ઠ નિમિંત સ્તંભ સમાન માનવાળે પુરુષ મરીને મનુષ્ય ગતિમાં અને તિનિશ વૃક્ષલતા નિર્મિત સ્તંભ સમાન માનવાળે પુરુષ મરીને દેવગતિમાં જાય છે બાકીનું સમસ્ત કથન કોદયવતી જીવલ सूत्र अनुसार समन्यु " चत्तारि केयणाणि" त्याह
या२ २नी 43 तुम ही छे. मी " केतन" ५४ सामान्य ३३ વક્રતાનું વાચક છે. તેના દ્વારા અહીં વકે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરવામાં આવી છે, અથવા કરંડકને-ટેપલીને બનાવવામાં જે વાંસની ચીપે વપરાય છે તેમને અહીં “વતાકેતન” પદ દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે ચાર પ્રકારની
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स्थानानने तनं च वंशीमूलकेतनं-वंशीमूलरूपवक्रमित्यर्थः १, तथा-मेदविपाणकेतनं-मेढ:मेपः, तस्य विषाणं-शङ्ग मेढू विषाणं, तच्च तत्केतनं च तथा २, गोमूत्रिकाकेतनं गोमूत्रिका-प्रसिद्धा, तद्रूपं केतनम् ३, अवलेवनिकाकेतनम्-अवलेखनिकापाटयमानवंशशलाकामभृतेः सूक्ष्मतरा ( प्रतन्धी ) त्वक्, तदूपं केतनम् ४।
__" एवामेवे"-त्यादि-एवमेव-केतनवदेव, माया-कपायविशेषः, चतुर्विधा 'प्रज्ञप्ता, तद्यथा-वंशीमूलकेतनसमाना-वंशीमूलकेतनसदृशी माया भवति, तत्र तत्सादृश्यं च मायायां तद्वतामनाजवभेदात् । तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुप्तवत्रं भवति, तथा मायाविनां मायाऽपि वक्रवक्रा भवति १, ' यावत् ' वंशीमूलकेतन'समानेत्यारभ्य ' अवलेखनिकाकेतनसमानेतिपर्यन्ता माया वोध्या, एवं च-मेढू
शब्द से यहां गृहीत है । बक्र चार कहे गये हैं, जैसे-वंशीमूलकेतन( वांसकी जडरूप वक्रता ) १ मेषविषाणकेतन (मेषसींगरूप चक्रता)२ गोमूत्रिका केतन (गोमूत्रकी रेखारूप वक्रता) ३ और अवलेखनिका केतन (वांसकी शलाका) पेंचको छोलते समय जो उसका ऊपरनीचेका छोलन निकलता है वह निकलते ही चक्र होता है ऐसा जो केतन है वह अवलेखनिका केतन है ४ । जैसे ये केतन चार कहे गये हैं, इसी प्रकार मायारूपकषाय विशेष भी चार कहा गया है। इनमें : एक माया ऐसी होती है जो वंशीमूल केतन जैली होती है । वांसका
मूल भाग बहुत अधिक अनार्जवतावाला (वन) होताहै । अतः-अतिगुप्त वक्रतावाला होने से उसकी वक्रता कटती नहीं है, उसी प्रकार मायाचियों की भी जिस माया कटती नहीं है ऐसी वह वक्र वक्रमाया वंशीमूलकेतन जैसी कही गई है। मेदविषाण केनन के सવક વસ્તુઓ કહી છે-જેમકે (૧) વંશમૂલકેતન (વાંસની જડરૂપ વકતા) (२) भेद विषाणु तन (घटाना सी समान १४) (3) गाभूत्रिी तन (ગમનની રેખા રૂપ વકતા) (૪) અવલેખનિકા કેતન (વાંસની સળીઓને છેલતી વખતે તેને જે છેલ પડે છે તે વક જ હોય છે. એવી તે વકતાને અવલેખનિકાકેતન કહે છે. આ કેતનના જેવા ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એવા જ ચાર પ્રકાર માયારૂપ કષાય વિશેષના પણ કહ્યા છે.
(१) “ qांस तन समान भायो"-qiसन भूn an भूम २४ અનાર્જવતાવાળે હોય છે. તે કારણે તે અતિગુપ્ત વકતાવાળે હેય છે, તેથી તેની વકતાની ખબર પણ પડતી નથી. એ જ પ્રમાણે માયાવી પુરુષની માયાને જાણી શકાતી નથી એવી તે વક્ર-વફ માયાને વાંસમૂલ કેતન જેવી
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सुधा टोका स्था० ४उ २सू०५५ पर्वतराज्यादिदृष्टान्तेन कषायस्वरूपंतज्जयश्च ६९१ विषाणकेतनसमाना २, गोमूनिकाकेतनसमाना ३, अवलेखनिकाकेतनसमाना च मायो भवतीति पर्यवसितम् । तत्र मेढ़ विपाण केतनसमाना मायिनां माया वक्रा, भवति २, गोमूत्रिकाकेतनसमाना मायाऽल्पवक्रा भवति ३, अवलेखनिकाकेतनसमाना माया तु अल्पतरवक्रा भवति । इयं च क्रमेणानन्तानुवन्ध्य १ प्रत्याख्यान २ प्रत्याख्यानाऽऽवरण ३ संज्वलन ४ रूपा बोध्या अपरे तु प्रत्येक माया: ऽनन्तानुवन्ध्यादिरूपाऽस्तीत्याहुः, अत एवानन्तानुवन्धिन्या मायाया उदयेऽपि देवत्वादिप्राप्तिन विरुध्यते । तत्र क्रमेण वशीमूलकेतनसमानादि-मायाचतुष्टयानुप्रविष्टजीवस्य गति दर्शयति-" वंशीमूलकेतनसमाणं मायं" इत्यादिना, तत्रा. ऽऽद्यां मायामनुप्रविष्टो मायोदयवर्ती जीवः कालं करोति चेद् नैरयिकेषु-नारकेमान वह माया है जो केवल वक्र होती है। तथा गोमूत्रिकाकेतन समान वह माया है, एवं अचलेखनिका केतन समान वह माया है जो अल्पतर वक्रतावाली होती है। वंशीमूल केतन जैसी जो माया होती है वह अनन्तानुबन्ध सम्बन्धी होती है। मेदविषाण केतन जैसी माया अप्रत्याख्यान कषाय सम्बन्धिनी होती हैं । गोभूत्रिका केतन जसी माया प्रत्याख्यान कषाय सम्बन्धिनी होती है और अबलेखनिका केतन जैसी माया संज्वलन कषाय सम्बन्धिनी होती है। कोई एक ऐसा कहते हैं कि-प्रत्येक माया अनन्तानुबन्धी आदिरूप है। इसीलिये अनन्तानुपन्धिनी माया के उदय में देवत्वादि पद प्राप्ति विरुद्ध नहीं होती है। " वंशीमूलकेतनलमाणं सायं" इत्यादि । जो जीव वंशीमूलकेतन समान मायामें प्रविष्ट होता है मायोदयवाला होता है ऐसा वह जीव यदि कालवश हो जाता है तो वह नरकों में उत्पन्न होता है १ द्वितीय કહી છે. (૨) “ મેવ વિષાણ કેતન સમાન માયા–જે માયા કેવળ વક્ર જ હોય છે તેને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૩) “ મૂત્રિકા કેતન સમાન માયા” જે માયા અલ્પ વકતાવાળી હોય છે તેને મૂત્રિકા કેતન સમાન માયા કહે છે. (૪) “ અલેખનિકા કેતન સમાન માયા”—આ માયા અલ્પતર વકતાવાળી હોય છે અનન્તાનુબંધી માયાને વાંસમૂલ કેતન સમાન, અપ્રત્યાખ્યાન સંબંધી માયાને મેવ વિષાણ કેતન સમાન, પ્રાયાખ્યાત કષાય સંબંધી માયાને ગમૂત્રિકા કેતન સમાન અને સંજવલન કષાય સંબંધી માયાને અવલેખનિકા કેતન સમાન કહી છે. કોઈ કોઈ સિદ્ધાંતકાર એવું કહે છે કે પ્રત્યેક માયા અનન્ત નુ મી આદિ રૂપ છે. તેથી અનન્તાનુબન્ધિની માયાના Gध्यम ५ १५ महिना सहसा - सी श ,छ. " वंशीमूलकेतन समाण मायं " पसिनाभूत तन समान भायास प्रविष्ट थ्ये ७ (मायाना ઉદયવાળે જીવ) જે મૃત્યુ પામે છે, તે નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. બીજા
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स्थाना
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धूत्पद्यते १, द्वितीयमायानुप्रविष्टोजीवस्तिर्यक्षु २, तृतीयमायाऽनुपविष्टो मनुष्येषु ३, चतुर्थमायानुप्रविष्टो देवेपत्पद्यते ४ इति मायाचतुष्टयानुप्रविष्टजीवस्य गतिचतुष्टयनिरूपणम् ।
“ चत्तारि वत्था " इत्यादि - वस्त्राणि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कृमिरागरक्तं - कृमिरागसूत्रविषये इत्थं जनश्रुतिः काचिदेशे मनुष्यादिशोणितं गृहीत्वा केनापि योगेन योजयित्वा भाजने स्थाप्यते । तस्मिन् मचुराः कृमयः समुत्पद्यन्ते । तेन पवनाभिलाषिणो भाजनच्छिद्रेभ्यो निर्गत्य तदासन्नं पर्यटन्तो लालाजाल
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माया में अनुप्रविष्ट हुवा जीव यदि कालवश होता है तो वह तिर्यञ्च गतिमें उत्पन्न होता है २ तृतीय मायामें प्रविष्ट हुवा जीव यदि कालवश हो जाता है तो वह मनुष्यगति में उत्पन्न हो जाता है, और चौथी माया अनुप्रविष्ट जीव यदि कालवश होता है तो वह देवोंमें उत्पन्न होता है? | चत्तारि वत्था " इत्यादि । वस्त्र चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कोई एक वस्त्र ऐसा होता है जो कृमिराग से रंगा हुबा होता है, इस कृमिराग सूत्रके विषय में ऐसी जनश्रुति सुनने में आती है किकिसी देश में मनुष्य आदिके शोणितको लेकर उसमें किसी (एक पदार्थ ) को योगकर किसी पात्रमें उसे रखा जाता है, उसमें धीरे धीरे कृमियां (कीडे) उत्पन्न हो जाते हैं वे जब पवनाऽभिलाषी होकर छिद्रों द्वारा उसमें से बाहर निकल आते हैं तब वे उसके आसपास में घूमने फिरने પ્રકારની માયાવાળા જીવ જે મૃત્યુ પામે છે તેા તિયગૂગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્રીજા પ્રકારની માયામાં પ્રવિષ્ટ થયેલા જીવ ો મરણ પામે છે તે મનુષ્યગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને ચાથા પ્રકારની માયામાં પ્રવિષ્ટ થયેલે જીવ જે મરણ પામે છે, તે દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે.
" चत्तारि वत्था " इत्यादि
વજ્રના ચાર પ્રકાર કહ્યાં છે તે ચ૨ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે—(૧) કૃમિ राजथी ( रंगथी ) २गेनुं वस्त्र, (२) उभ रामयी रंगेनुं वस्त्र, (3) अनन રાગથી રંગેલું વસ્ત્ર અને (૪) હલ્દી-હળદર રગથી રંગેલુ વસ્ત્ર,
કૃમિરાગ સૂત્રના વિષયમાં એવી જનશ્રુતિ (દંતકથા) પ્રચલિત છે કે કોઈ એક દેશમાં મનુષ્ય આદિનું લેહી લઇને તેમાં કોઈ એક પદા નું મિશ્રણ કરીને તેને કોઈ પાત્રમાં રાખી મૂકવામાં આવે છે. તેની અંદર ધીમે ધીમે કૃમીએ ઉત્પન્ન થવા માંડે છે. તેઓ જ્યારે પવનાભિલાષી થઈને છિદ્રો દ્વારા મહાર નીકળી આવે છે ત્યારે તેની આસપાસ જ ભસ્યા કરે છે અને પેાતાની
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सुघाटीका स्था०४३०२ सू०५५ पर्वतराज्यादि दृष्टान्तेन कषायस्वरूपतज्जयश्च ६९३ प्रमुञ्चन्ति । ताश्च कीलकेषु लग्नाः परिगृह्यन्ते । तत् कृमिरागं पट्टसूत्रमुच्यते । तच्च रक्तवर्णकृमिसमुत्पन्नत्वात् स्वभावत एव रक्तं भवतीति कुमिरागरक्तम् १, तया - कर्द्दमरागरक्तं - कर्दमः - गोमार्गादिपङ्कः, तस्य रागः -रञ्जकरसः कर्दमरागः, तेन रक्तम् २, तथा - खञ्जनरागरक्तं ' खअनमि ' -ति देशीयः शब्दः कज्जलवाचकः, तस्य रागः खञ्जनरागस्तेन रक्तम् ३, तथा-हरिद्रा प्रसिद्धा, तस्था रागो हरिद्रारागस्तेन रक्तं हरिद्रारागरक्तम् ४,
लगते हैं और अपनी लार छोडने लगते हैं । इस तरह वह लाला -लार कीलों में लग जाती है जो कि बाद में उठा ली जाती है । ऐसा कृमिरागवाला पट्टसूत्र कहा जाता है यह पट्टसूत्र रक्तवर्णवाले कृमियों से समुत्पन्न होनेके कारण स्वभावतः ही लाल होता है ।
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तथा - कोई एक वस्त्र ऐसा होता है जो कर्दमरागसे रक्त होता | गाय आदि जीव जिस रास्ते से निकलते हैं उस मार्गका जो पङ्क है वह यहां कर्दम शब्दसे गृहीत हुवा है । इस कमका जो रञ्जकरस है वह कमराग है, इससे रंगा हुवा जो वस्त्र है वह - कर्दमरागरक्त aat | तथा कोई एक वस्त्र ऐसा होता है जो खञ्जनराग से रक्त होता है। यहां " खञ्जन 'शब्द देशीय है, इसका अर्थ कज्जलके रागसे रंगा हुवा जो वस्त्र है वह खजनरागरक्त वस्त्र है । तथा कोई एक ऐसा वस्त्र होता है जो हल्दी के रगसे रंगा हुवा होता है । तो इसी तरह लोभ લાળ તેના પર છેડવા માટે છે આ લાળ તે છિદ્રો પર જામી જાય છે. તેને ત્યારબાદ એકઠી કરી લેવામાં આવે છે. એવા કૃમી ર'ગથી રંગેલા વસ્ત્રને કૃમિ રાગવાળું વસ્ત્ર કહે છે. આ વસ્ત્ર લાલ રગવાળા કુમીઓના લાળરસ વડે રંગેલું હાવાથી સ્વાભાવિક રીતે જ લાલ હોય છે. (૨) કેઇ એક વસ્ત્ર એવું હાય છે કે જે કંમ રાગથી રક્ત ધૂળથી ખરડાયેલુ. હાય છે. ગાય આદિ પ્રાણીઓ જે માર્ગેથી પસાર થતાં હોય છે તે માગના જે પક એટલે કે કાદવ છે તેને અહીં ક`મ પદ દ્વારા ગ્રતુણુ કરવામાં આવેલ છે. રજક રસ છે તેનું નામ કમ રાગ છે, તેનાથી રંગાયેલા રક્ત વસ્ર કહે છે. (૩) કોઈ એક વસ્ત્ર એન્ડ્રુ હાય છે કે જે ખંજન રાગથી રક્ત હાય છે. ખંજન એટલે કાજળ. તે કાજળના રગથી રંગેલા વસ્ત્રને ખંજન રાગ રક્ત વચ્ચે કહે છે. (૪) કોઈ એક વસ્ર એવું હોય છે કે જે હેળદરના રંગથી રંગેલુ હાય છે.
આ કમના જે વજ્રને કČમ રાગ
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स्थानाङ्गो ___ " एवामेवे "-त्यादि-एवमेव कृमिरागादिरक्तवस्त्रमदेव, लोभश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-कृमिरागरक्तवस्त्रसमान इत्यादि । तत्र कृमिरागरक्तवस्त्रसमानो लोभो दृढानुवन्धत्वादनन्तानुवन्धी भवति । कर्दमरागरक्तवस्त्रगमानो लोभो दीनानुवन्धत्वाद् अपत्याख्यानो भवति । खञ्जनरागरक्तवस्त्रसमानो लोभो हीनतरानुवन्धत्वात् प्रत्याख्यानाऽऽवरणो भवति । हरिद्रारागरक्तवस्त्रसमानश्च लोभो हीनतमा. नुवन्धत्वात संज्वलनो भवति । तथाहि-यथा-कृमिरागरक्तं वस्त्रं दग्धमपि रागानुवन्धं न त्यजति, तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वात् प्रवाल भस्मवत् , तथा यो जोबो मृतो. ऽपि लोभानुवन्धं न त्यजति तस्य लोभः कृषिरागरक्तवद् दृढोऽनन्तानुबन्धी च भी चार प्रकारका होता है इनमें-जो लोभ कृमिरागरक्त वस्त्र के समान होती है वह-दृढानुबन्धवाला होने से अनन्तानुबन्ध कषाय सम्बन्धी होता है । कर्दमरागरक्त वस्त्रके समान जो लोभ-है वह हीनानुबन्धवाला होनेसे अप्रत्याख्यान कपाय सम्बन्धी होता है । खञ्जन रागरक्त वस्त्रके समान जो लोभ होता है वह हीनतर अनुबन्धवाला होने से प्रत्याख्यान कषाय सम्बन्धी होता है। तथा-हरिद्रारागसे रक्त वस्त्र जैसा जो लोभ होता है वह संज्वलनकषाय सम्बन्धी होता है । तात्पर्य ऐसा है-कि कृमिरागवस्त्र चाहे जल भी जाय तो भी अपने एगानुबन्धको जैसे नहीं छोडता है । क्यों कि-उसकी मन भी प्रवाल सी लाल ही लाल रहती है। उसी तरह जो जीव मर जाने पर भी लोभानुबन्ध को नहीं छोडतो है उसका वह कृमिरागरक्त की तरह दृढ होने से अनन्तानुबन्ध संबंधी होताहै। इसी तरहसे तीनों लोभके विषय में भी समझ लेना चाहिये इसके
એ જ પ્રમાણે લેભ પણ ચાર પ્રકારને કહ્યો છે– (૧) કૃમિરાગ રક્ત વસ્ત્ર સમાન લોભ-અનન્તાનુબન્ધિ કષાય સંબધી જે લોભ છે તેને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે (૨) કર્દમરાગ રક્ત વસ્ત્ર સમાન લેભ-અપ્રત્યાખ્યાન કષાય સંબંધી જે લેભ છે તેને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે(૩) ખંજન રાગ રક્ત વસ્ત્ર સમાન લેભ-પ્રત્યાખ્યાન કષાય સંબંધી લેભને આ પ્રકારને લોભ કહે છે. (૪) હળદર રાગરક્ત વસ્ત્ર સમાન લેભ-સંજવલન કષાય સંબંધી લેભને આ પ્રકારને લેભ કહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે
જેમ કૃમિરાગરક્ત વસ્ત્ર બળી જાય તો પણ પિતાને રંગ છોડતું નથી તેની રાખ પણ લાલ રંગની જ હોય છે, એ જ પ્રમાણે જે જીવ પિતાનું મૃત્યુ થઈ જાય તે પણ લેભાનુબને છેડતું નથી, તેને તે લેભ કૃમિરાગ રક્ત વસ્ત્રની જેમ દઢ હવાથી અનન્તાનુમન્તી જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે
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'सुधा टीका स्था०४७०२०५५ पवतराज्यादि दृष्टान्तेनकषायस्वरूपंत ज्जयश्व ६९५ भवतीति । एवं लोभ विशेषत्रज्येपि विभावनीयम् । एतत्फलनिरूपकसूत्र क्रोध फलमूत्रवद् बोध्यम् । इह कपायप्ररूपणागाथा:
:- " पत्रओ पुढवी रेणू, दगं चैव चउत्थयं । एसि राइनिभो कोहो, बुत्तोऽस्सि जिणसासणे | १ | सेलो अट्ठी य कटुं च, तिणिसस्स लया तहा | एसि भसमाणो हि माणो बुत्तो जिणागमे । २। वसीमूलं मिसिंग, गोमुत्ती अवलेहिया । एसि केयणतुल्लं तु, मायमाहु जिणिस्सरा । ३ । किमी पंकजणं चावि, हालिदा रागदव्वया । एएहि रंजियपटी-तुल्लो लोहो विआहिओ । ४ । जावज्जीवं वरिसं, चाउम्मासं च पक्खयं । कमा जीवाणुगामीमें, नारगत्तादि साहगा । ५ । -" पर्वतः पृथिवी रेणु-रुद्रकं चैव चतुर्थकम् ।
""
छाया
एप राजिनिभः कोध, उक्तोऽस्मिञ्जिनशासने । १ शैलः अस्थि च काष्ठं च, विनिशस्य लता तथा । एषां स्तम्भसमानो हि, मान उक्तो जिनागमे । २ । वंशीमूलं मेढशृङ्ग, गोमूत्री अवलेखिका । एप के तनतुल्यांतु, मायामाहुर्जिनेश्वराः । ३ । कृमिः पङ्कोऽञ्जनं चापि, हरिद्रा रागद्रव्यकाणि । एतै रञ्जितपटी - तुल्यो लोभो व्याख्यातः । ४ । यावज्जीवं च वर्षे, चतुमासं च पक्षकम् । क्रमाज्जीवनुगामिन इमे, नारकत्वादि साधकाः | ५|" इति । ०५५ || फलका निरूपक सूत्र क्रोधफल निरूपक सूत्रकी तरहसे जानना चाहिये । कषायप्ररूपणा गाथाएं - " पञ्चओ पुढवी रेणू" इत्यादि ।
इस जिनशासनने अनन्तानुबंधी क्रोधको पर्वतकी राजी दार-तड के समान कहा है, इस प्रकार अप्रत्याख्यानी क्रोधको पृथिवी अर्थात् तलाव की पृथिवी की दरार-तडके समान प्रत्याख्यानी क्रोधके रेणु લેાભના ખાકીના ત્રણ પ્રકાર વિષે પણ સમજી લેવું. તેના ફળનું નિરૂપણુ કરનારૂ' 'સૂત્ર પણ ક્રોધઙલ તિરૂપક સૂત્ર સમાન જ સમજવું કષાયની પ્રરૂપણા उश्ती गाथाओ—“ पञ्चओ पुढवी रेणू " त्यिाहि.
આ જૈન શાસનમાં 'અનન્તાનુષંધી ક્રોધને પવતની રાજી-તડની માફક કહી છે, એજ રીતે અપ્રત્યાખ્યાન ક્રોધને પૃથ્વિી અર્થાત્ તળાવની પૃથ્વિની
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स्थानाङ्गसूत्रे
अर्थात् वालुकाकी लकीर के समान और संज्वलन क्रोधको उदक पानी की लकीरके समान कहा है ॥ १ ॥
इसी प्रकार प्रथम भेवाले मानकी पत्थर के स्तम्भ के समान दूसरे को हड्डीके स्तम्भ समान, तीसरे को काष्टके स्तम्भके समान और चौथे को तिनिश (त) के स्तम्भ समान कहा है ॥ २ ॥
इसी प्रकार प्रथम भेदवाली मायाको वांसकी जडके समान देदी कही है, दूसरे भेदवाली मायाको मिंढाके सींग के समान, तीसरे भेदवाली मायाके गोमूत्रका - चलते हुवे बैलके मूत्र की लकीरके समान, और चौथे भेवाली माया अवलेखिका अर्थात् वांस के छिलके समान टेढी कही है ।
इसी प्रकार प्रथम भेदवाले लोभको कृमि - किरमिचरंग के समान रंगवाला कहा है एवं दूसरे भेवाले लोभको कर्दम कीचडके समान रंगवाला, तीसरे भेदवाले लोभको अजन ( कज्जल ) के रंगके समान रंगवाला, और चौथे भेदवाले लोभको हरिद्रा के रंगके समान रंगवाला कहा है ।
ये सब चारों कषाय क्रमपूर्वक एकसे दूसरे उत्तरोत्तर मंद मंदतर मंदतम मंदातिमन्द कहे है ।
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તડની માફક, પ્રત્યાખ્યાની ક્રોધને રેણુ અર્થાત્ રેતીની લીટીની સરખી અને સજવલન ક્રોધને ઉદ્યક—પ ણીની લીટી ખરાખર કહી છે !! ૧ ૫
એ જ રીતે પહેલા ભેદવાળા માનને પત્થરતા સ્તમ્ભ સરખા, ખીજાને હાડકાના સ્તમ્ભ સરખા, ત્રીજાને લાકડાના સ્તમ્ભ સરખા અને ચેાથાને તિનિશ (નેતર ) નાસ્તમ્ભ સરખા કહ્યો છે !! ૨ ૫
એ જ રીતે પહેલા ભેદવાળી માયાને વાંસના મૂળ સરખી વાંકી કહી છે, ખીજા ભેદવાળી માયાને ઘેટાના સીંગડા જેવી કહી છે. ત્રીજા ભેદવાળી માયાને ગામૂત્રિકા-ચાલતા બળદના સૂત્રની લીટી સરખી, અને ચેથા ભેટવાળી માયાને અવલેખિકા અર્થાત્ વાંસના છેડાની માફ્ક વાંકી કહી છે.
એ જ રીતે પહેલા લેઢવાળા લાલને કૃમિ–કિરમચી રંગના જેવા કહ્યો છે. અને ખીજા ભેદવાળા લેાભને કમ-કાઢવના રંગ સરખા, ત્રીજા ભેદવાળા લેાભને અજન ( કાજળ) ના રંગ જેવા રંગવાળા, અને ચાથા ભેદવાળા લાભને હલદરના રંગ જેવા રંગવાળા કહ્યો છે.
• આ તમામ ચારે કષાય કેમપૂર્વક એક એકથી બીજા ઉત્તરાન્તર મદ,
મંદતર, મંદતમ અને મ’ક્રાતિમ'દ કહેલ છે.
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सुषा टीका स्था० उ०२सू० ५६ संसारस्वरूपनिरूपणम्
अनन्तरं कपाया' प्ररूपिताः तैरेव जीवानां संसारो भवतीति संसारस्वरूप निरूपयितुमाह
मूलम्-चउबिहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइयसंसारे जाव देव संसारो ४ । चउबिहे आउए पण्णत्ते तं जहागैरइयआउए जाव देवाउए । चउबिहे भवे पण्णत्ते, तं जहा. गेरइयभवे जाव देवभवे४ ॥५६॥ छाया-चतुर्विधः संसारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नैरयिक संसारः यावत् देवसंसारः ४॥
. क्रोधादिमें प्रथमभेद यावज्जीव तक साथ रहनेवाला दूसरा भेद एक वर्षतक, तीसग भेद चार महीने तक, चौथा भेद एक पक्ष तक जीवके साथ रहनेवाला कहा है। ___यहाँ जो ये पांचवीं गाथा है उससे मूत्रकारने इन क्रोधादिकों का वासनाकाल प्रकट किया है जीवन पर्यन्त तक अनन्तानुवन्धी क्रोध का, अनन्तानुवन्धी मानका, अनन्तानुबन्धी माया का, और अनन्तानुबन्धी लोभका वासनाकाल कहा गया है, इसी तरहसे अप्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोधादिकोंका एक वर्षका, प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोधादिकों का चार मासका और संज्वलन सम्बन्धी क्रोधादिकों का एक पक्षका वासनाकाल कहा गया है। सू० ५५ ॥
इन प्ररूपित कषायों से ही जीवों का संसार प्राप्त होता है, अत:अब सूत्रकार संसारस्वरूप की निरूपणा करनेके निमित्त कहते हैं
ફોધાદિમાં પહેલે ભેદ યવિજજીવ પર્યન્ત સાથે રહેવાવાળ, બીજા ને એક વર્ષ સુધી, ત્રીજા ભેદને ચાર મહીના સુધી, ચોથા ભેદને એક પખવા ડીયા સુધી જીવની સાથે રહેવાવાળે કહ્યો છે.
અહીં જે પાંચમી ગાથા છે તેના દ્વારા સૂત્રકારે આ ક્રોધાદિકને વાસનાકાળ (સ્થાયી રહેવાને કાળ) પ્રકટ કર્યો છે. અનન્તાનુબન્ધી કોધને, અનન્તાનુબન્ધી માન, અનન્તાનુબંધી માયાને અને અનન્તાનુબધી લેભને વાસનાકાળ જીવન પયન્તને કહ્યું છે અપ્રત્યાખ્યાન સંબધી ક્રોધાદિકને એક વર્ષને વાસનાકાળ કહ્યો છે. પ્રત્યાખ્યાન સંબધી ક્રોધાદિકને ચાર માસને અને સંજવલન સંબંધી કોધાદિકનો એક પક્ષને (પખવાડિયાને) વાસનાbण ४ह्यो छे. ॥ सू. ५५ ॥
પહેલાના સૂત્રમાં કષાની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી તે કષાયને કારણે જ જીને સંસારમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સુકાર
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स्थानासूत्रे
५६ ।
"
चतुर्विधमायु. प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - नैरयिकायुः यावत् देवाः ४ | चतुर्विधो भवः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - नैरयिक भवः यावद् देवभवः ४ । टीका - " चउबिहे संसारे " इत्यादि-संमारः - संसरणं संसारः - मनुष्या. दिपर्यायाचारका दिपर्यायगमनं स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - नैरयिकसंसारो यावद् देवसंसारः - यावत्पदेन तिर्यक्ससारो मनुष्यसंसारथ ग्राह्यः । तत्र नैरयिकसंसारोनैरयिकाassयुर्नामगोत्र प्रभृतिकर्मोदये सति जीवो नैरयिको व्यवहियते, उक्तं च - " णेरइए णं भंते ! णेरइएस उववज्जर, अणेरइए णेरइएस उबवज्जइ ?, गोमा ! dese desee उववज्जइ णो अणेरइए णेरइएस उववज्जइ । छायाचविहे संसारे पण्णत्ते " इत्यादि ५५
:
(6
सूत्रार्थ-संसार चार प्रकारका कहा गया है, नैरयिक संसार १, यावत्देवसंसार ४ । चार प्रकारका आयु कर्म कहा गया है, नैरयिक आयु'यावत् - देवायु ४ भव चार कहा गया है, नैरयिकभव १ यावत् - देवभव४ टीकार्थ - परिभ्रमण करने का नाम संसार है मनुष्यादि पर्याय से नारकादि पर्यायोंमें जाना रूप जो संसार है वह नैरयिक संसार आदि भेदोंसे चार प्रकारका कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है नैरयिक योग्य आयु-नाम- गोत्र आदि कर्मों के उदय होने से यह जीव नैरधिक है ऐसा जो व्यवहार होता है वह नैरfयक है ।
•
उक्तश्च- -" णेरइएणं भंते १ णेरइएसु उववज्जइ, अणेरइए णेरइएस उव वज्जइ गोयमा १ रइए णेरइएस उबवज्जइ णो अणेरइए णेरइएस उववસૉંસારના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે “ हे संसारे पण्णत्ते "इत्यादिसूत्रार्थ-स'सारना नीचे प्रमाणे यार अक्षर उह्या छे - ( १ ) नैरयिङ संसार ( २ ) तिर्यग्योनिङ संसार, (3) मनुष्य संसार भने (४) देव सौंसार. यार प्रीરના આયુકમ કહ્યાં છે—(૧) નૈયિક આયુથી લઈને દેવાયુ પર્યંન્તના ચાર પ્રકાર અહીં સમજવા. ભવ ચાર કહ્યા છે— નૈરિયક ભવથી લઇને દેવભવ પન્તના ચાર ભવ અહીં ગ્રહણ કરવા.
વિશેષા——જુદી જુદી ગતિમાં ભ્રમણ કરવું તેનું નામ સ’સાર છે. મનુજ્યાદ્રિ પર્યાયમાંથી નારકાદ્રિ પર્યાયમાં જવા રૂપ સસારના નૈયિક સૌંસાર આદિ જે ચાર ભેદ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-નૈરયિકને ચેાગ્ય આયુ, નામ, ગેત્ર આદિ કર્મના ઉદય થવાથી એવા જે વ્યવહાર થાય છે, તેનું. નામ નૈરયિક છે કહ્યું પણુ છે કે-
આ જીવ નૈયિક છે ”
“ णेरइएणं भते ! णे रइएसु स्ववज्जइ, अणेरइए णेरइपसु
रइए ग्इएस उववज्जइ णो अणेरइए णेरइएसु उववज्जइ
"
उत्रवज्जइ गोयमा !
આ નૈયિકના જે
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मुंघा टीका स्था० ४ उ २ सू०५६ संसारस्वरूपनिरूपणम् . ___१९६ नैरयिकः खलु भदन्त । नैरयिकेपु उपपद्यते अनैरयिको नैरयिकेषु उपपद्यते ?, गौतम-! नैरयिको नैरयिकेपपद्यते नो अनैरयिको नैरयिकेपूपपद्यते " इति, तस्य संसार -उत्पत्तिदेशगमनम् , यद्वाऽवस्थान्तरगमनं नैरयिकसंसारः, एवं तिर्यग्मनुष्यदेवसंसारा अपि वोध्याः इति संसारचतुष्टयम् ॥
उक्तरूपश्च संसार आयुपि सत्येव भवतीत्यायुर्निरूपयति-'चउविहे आउए" इत्यादिना, तत्राऽऽयु:-एति-गच्छति प्रतिक्षणमित्यायुः कर्मविशेपः, तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-" नैरयिकायुः' इत्यारभ्य ' यावत् ' देवाऽऽयुः पर्यन्तं बोध्यम् ज्जइ" इस नैरइकका जो संसार है-उत्पत्तिस्थान पर गमन है वहनैरयिक संसार है, अथवा-अवस्थान्तर प्राप्तिरूप नैरयिक संसार है। तात्पर्य ऐसा है कि नरयिक में उत्पन्न होने योग्य आयुकर्मका बन्ध जिस जीवको हो गया है वह जीव नैरयिक- कहनेयोग्य हो जाता है, अतः ऐसा ही जीव जब अवस्थान्तररूप नैरयिक पर्याय से युक्त हो जाता है तब वह नैरयिक पर्याय की प्राप्तिकारक नैरयिक संसार है। इसी प्रकारका कथन तिर्यङ् मनुष्य और देव इन संसारों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। ऐसा यह संसार आयुकर्म का उदय होने पर ही होता है अतः इसी सम्बन्ध को लेकर सूत्रकार अब आयुका निरूपण करनेके लिये " चउब्धिहे आउर " ऐसा सूत्र कह रहे हैं-जो प्रतिक्षण व्यतीत होती रहती है वह-आयु है, यह-आयु कर्म विशेष है नैरयिक आयु तियेंञ्चायु-मनुष्यायु-देवायु इस प्रकार से इसके भेद चार कहे સંસાર છે–ઉત્પત્તિ સ્થાન પર ગમન છે, તે નૈરયિક સંસાર છે. અથવા અવસ્થાન્તર પ્રાપ્તિરૂપ નૈવિક સંસાર છે. એટલે કે નૈરયિકમાં ઉત્પન્ન થવાને ચોગ્ય આયુકર્મને જે અન્ય જે જીવે કરી દીધું હોય તે જીવ નૈરયિક કહેવા ચોગ્ય બની જાય છે. તેથી એવો જ જીવ જ્યારે અવસ્થાન્તર રૂપ નૈરયિક પર્યાયથી યુક્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તે નરયિક પર્યાયની પ્રાપ્તિકારક નરયિક સંસારને જીવ કહેવાય છે આ પ્રકારનું કથન તિર્ય, મનુષ્ય અને દેવ, આ ત્રણે સંસારો વિષે પણ સમજવું એવા તે સંસારનો સદુભાવ આયુકર્મના ઉદયથી જ સંભવી શકે છે, આ સંબધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર આયુનું नि३५ ४२ छ. " चउबिहे आउए" त्यादि--
જે પ્રતિક્ષણ વ્યતીત થતું રહે છે તે આયુ છે. તે આયુ કર્મ વિશેષ છે. નરયિક આયુ, તિર્ય ચાયુ, મનુષ્પાયુ અને દેવાયુ, આ પ્રકારે તેના ચાર ભેટ
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स्थानाङ्गसूत्रे ७०० एवं च-नैरयिकाऽऽयुः १, तिर्यगायुः , मनुष्याऽऽयुः३, देवाऽऽयुट, रितितच्चतुर्विधम् , तत्र येन निरयभवे प्राणी निधीयते तद् नैरयिकाऽऽयुः । एवं शेपत्रयमपि बोध्यम् । ____ उक्तरूपमायुनर्जीवान् भवे स्थापयति, ततो भवं निरूपयति-" चउब्धिहे भवे" इत्यादिना, तत्र भवः-भवनं भवः-उत्पत्तिः, स चतुर्विधः प्रतप्तः, तद्यथा-नैरयिकभव इत्यारभ्य ' यावत्-देवभवपर्यन्तो भवो वोध्यः, तत्र नैरयिकमवःनिरये-नरके भवो नैरयिकस्तत्र मवः । एवं शेपत्रयमपि बोध्यम् ।। म्० ५६ ॥
पूर्व भव उक्तः, तेषु सर्वेष्वाहारवन्तो जीवा भवन्तीत्याहारं निरूपयितुमाह
मूलम् चउविहे आहारे पण्णते, तं जहा-असणे१, पाणे २, खाइमे३, साइमे ४। चउबिहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-उवक्खरसंपन्ने १, उवक्खडसंपन्ने२, सभावसंपन्ने३, परिजुसियसंपन्ने ४ ॥ सू० ५७ ॥ ___ छाया-चतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अशनं १, पानं २, खादिमं ३, स्वादिमम् ४ाचतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपस्करसंपन्नः १, उपस्कृतसंपन्नः २, गये हैं । जो जीवको निरयभवमें रखता है वह निरयायु कर्म है. इसी प्रकारसे अन्य तीन आयुयों के सम्बन्धमें भी कथन जानना चाहिये। उक्त आयु जीवों को विवक्षित भवमें स्थापित करता है, इसले सूत्रकारने " चउविहे भवे" ऐसा सूत्र कहा है, भव नाम उत्पत्ति का है नैरयिक रूपसे जो जीवका भव है वह नेरयिक भव है। इसी प्रकार से शेष भवत्रय भी समझना चाहिये। सू० ५६ ॥
इन समस्त भवोमें आहारवाले जीव होते हैं, अतः अब सूत्रकार आहार की प्ररूपणा करते हैं-" चउविहे आहारे पण्णत्ते' इत्यादि છે. જે જીવને નિરભવમાં રાખે છે તે કર્મને નિરયાયુ કર્મ કહે છે. એ જ પ્રમાણે આયુના બાકીના ત્રણ ભેદનું પણ કથન સમજી લેવું. ઉક્ત આયુ अपने ममु समा स्थापित ४२ छ, तथा वे सूत्र.२ " चउबिहे भवे" ઈત્યાદિ સૂત્ર દ્વારા ભાવનું નિરૂપણ કરે છે. ભાવ એટલે ઉત્પત્તિ નરયિક રૂપ જીવને જે ભવ છે તેને નરયિક ભવ કહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભવ વિષેનું કથન પણ જાતે જ સમજી લેવું. એ સૂ. ૫૬ છે
આ સમસ્ત જેમાં આહારવાળા જ હોય છે. આ સબંધને લઈને वे सूत्रा२ मा२नी प्र३५४॥ ४२ छे. "चउविहे आहारे पण्णत्ते 'त्याह
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सुधा टीका स्था०४ उ० सू० ५० आहारस्वरूपनिरूपणम्
'स्वभाव संपन्नः ३, पर्युपित संपन्नः ४ ॥ सू० ५७ ॥
टीका - " चउव्विहे आहारे " इत्यादि - आहारः- आहियत इत्याहारः, स चतुर्विधः प्रज्ञप्त, तद्यथा - अशनम् - अश्यते - भुज्यत इत्यशनं - भक्तप्रभृति १, पानपीयत इति पानं-तन्दुलादि धावन जलम् २, खादिमं खादनं खादस्तेन निरृत्तं खादिमं - द्राक्षादिकम् ३, स्वादिमं - स्वादेन निर्वृतं स्वादिमं - लवङ्गचूर्णादिकं मुखवासरूपम् ४ |
" चव्वि आहारे " पुनराहारश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - उपस्कर संपन्नःउपस्क्रियते - सुवास्यतेऽनेनेत्युपस्करो - हिंग्वादिः, तेन संपन्नः- युक्त उपस्करसंपन्नः = मुद्रभ्रूषादि:, इति प्रथमः १ । तथा उपस्कृतः - पाकस्तेन संपन्नः उपस्कृतसंपन्न:ओदन - कृशरा - करपट्टिकाप्रभृतिः, इति द्वितीयः २ । तथा-स्वभावसम्पन्नः
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सूत्रार्थ - आहार चार प्रकारका कहा गया है, जैसे- अशन १, पान २, खादिम ३ और स्वादिम ४ । पुनश्च - आहार चार प्रकारका कहा गया है, जैसे- उपस्कार सम्पन्न १ उपस्कृत सम्पन्न २, स्वभाव सम्पन्न ३ और पर्युशित सम्पन्न ४ ।
टीकार्थ - जीवद्वारा जो आहृत होता है वह - आहार है, यह आहार अशन आदिके भेद से जो चार प्रकारका कहा गया है उसका भाव ऐसा है - जो खाया जाता है वह भक्त वगैरह अशन है । जो पीया जाता है ऐसा तण्डुलादि धावन जलपान है, द्राक्षादिक खादिम है, और मुखवास लवङ्गादि चूर्ण स्वादिम है । पुनश्च - उपस्कर संपन्न आहार का तात्पर्य ऐसा है - आहार जिस विशिष्ट द्रव्यसे सुवासित किया जाय वह - हिड्नु ( हींग) आदि उपस्कर है, इस उपस्कर से जो युक्त होता सूत्रार्थ - भाडारना नीचे प्रमाणे यार प्रहार उद्या हे - ( १ ) अशन, (२) पान, (૩) ખાદિમ અને (૪) સ્વાદિ બીજી રીતે પણુ આહારના ચાર પ્રકાર કહ્યા छे - ( १ ) उपस्५२ संपन्न, (२) उपस्कृत संपन्न, ( 3 ) स्वआप संपन्न भने (४) पर्युषित संपन्न.
વિશેષા—જીવ દ્વારા જે આહત થાય છે, તે આહાર છે તેના અશન આદિ જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે—જે ખાવામાં આવે છે તે ભાજનને અશન કહે છે જે પીવામાં આવે છે તે ભાત આક્રિના ધાવણુ જળ વગેરેને પાન કહે છે. દ્રાક્ષ ક્રિકને ખાદિમ કહે છે, એલાઇચી, सवींग, सोयारी, धायाहाण, यू वगेरेने स्वाहिस हे छे
આહારના ઉપસ્કર સપન્ન આદિ ચાર પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે—આહારને જે વિશિષ્ટ દ્રવ્યેથી સુવાસિત કરવામાં આવે છે, એવા હિંગાદિ દ્રવ્યને ઉપસ્કર કહે છે, તે ઉપસ્કરથી યુક્ત મગની દાલ વગેરે આહા
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খালাই स्वभावेन-प्रकृत्या पाकमन्तरा सम्पन्नः- सिद्धः पक्व इत्यर्थः, आम्रखर्जू रादिः । इति तृतीयः ३ । पर्युपितसम्पन्न:-पर्युपितं-रात्रिपरिवसनं, तेन सम्पन्नः-पर्युपित सम्पन्नः ' जलेबी' इति भापा प्रसिद्धः कुण्डलाकारमधुरादिः । यद्वा-पर्युपित सम्पन्न:-कालिकस्थाऽऽम्रफलादिरिति ४ ॥ मू० ५७ ।।
पूर्व संसारभवाऽऽहारा उक्ताः, ते च बद्धकर्मणां जीवानां भवन्तीति कर्मवन्धादि निरूपयितुमाह___ मूलम्-चउबिहे बंधे पण्णत्ते,तं जहा-पगइबंधे?, ठिइवंधे२, अणुभाववंधे ३, पएसवंधे ४ । ___ चउबिहे उवक्कमे पण्णत्ते, तं जहा-पंधणोवक्कमे १, उदीरणोवक्कमे २, उवसमणोवक्कमे३, विप्परिणामोवक्कमे ४ ।
बंधगोवक्कमे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-पंगइबंधणोवक्रमे १, ठिइबंधणोवक्कमे अणुभावबंधणोवक्कमे३, पएसबंधणोक्कमे४। है ऐसा मुद्गकी दाल आदि उपस्कार आदि उपस्कार आहार है । पाकसे संपन्न जो आहार होता है ऐसा ओदन, कृशरा-खिचडी, करपट्टिका. रोटी आदि उपस्कृत संपन्न आहार है । जो स्वभावसे विना पाकसे संपन्न होता है ऐसा पक्व-आम-खजूर आदि स्वभाव सम्पन्न आहार है ३ रातमें वसाने से जो आहार निष्पन्न होता है। वह पर्युपित सम्पन्न ( वासी) आहार है, जैसे-जलेबी आदि । यदा-काजिक आदिमें रखे हुवे आमफल आदि पर्युपितसम्पन्न आहार है ॥ सू० ५७ ॥ રને ઉપકર સંપન્ન આહાર કહે છે. પકવીને (રાંધીને) તૈયાર કરેલા ભાત, ખીચડી, રોટલી આદિ આહારને ઉપસ્કૃત સંપન્ન આહાર કહે છે. જે આહા. રને પકવ્યા વિના જ લેવામાં આવે છે જે આહાર કુદરતી રીતે જ પકવ હોય છે તેને સ્વભાવસંપન્ન આહાર કહે છે જેમકે પાકી કેરી, ખજુર, કેળાં વગેરે. (૪) રાત્રિ પર્યન્ત આથો આવવા દઈને જે આહાર તૈયાર થાય છે તેને પવિત સંપન્ન કહે છે. જેમકે જલેબી અથવા ચાસણ આદિમાં રાખેલી કેરીને, ડબ્બામાં પિક કરેલી અનનાસ વગેરેની ચીને પણ પોષિત સંપન્ન આહાર કહે છે. સૂ. ૫૭ છે
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सुधाटीका स्था० ४ उ०२ सू० ५८ कर्मयन्धस्वरूपनिरूपणम्
उदीरणोवकमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा पगइउदीरणोवक्कमे? ठिइउदीरणोवकमे२, अणुभावउदीरणोवकमे३, पएसउदीरणोवक्कमे । ४।
उवसमणोवक्कमे चउठिवहे पण्णत्ते, तं जहा--पगइउवसमणोवक्कमे १, ठिइउवसमणोवक्कमे २, अणुभावुवसमणोवक्कमे ३, परसुवसमणोवक्कमे ४ । ।
विप्परिणामणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पगइविप्परिणामणोविक्कमे १, ठिइविप्परिणामणोवक्कमे२, अणुभावविप्परिणामणोवक्कमे ३, पएसविप्परिणामणोरक्कमे ४ ।
चउठिवहे अप्पाबहुए पण्णत्ते, तं जहा-पगइअप्पाबहुए१, ठिइअप्पाबहुए२, अणुभावअप्पाबहुए ३, पएसअप्पाबहुए४ ।
चउठिवहे संकमे पण्णत्ते, तंजिहा-पगइसंकमे१, ठिइसंकमे २, अणुभावसंकमे ३, पएससंकमे ४ ।
चउठिवहे णिवत्ते पण्णत्ते, तं जहा-पगइणिधत्ते १, ठिइणिधत्ते २, अणुभावणिधत्ते ३, पएसणिधत्ते ४ ।
चउब्धिहे णिकायिए पण्णत्ते, तं जहा-पगइणिकायिए १, ठिइणिकाथिए ३, अणुभावणिकायिए३, पएसणिकायिए४।५८। __ छाया-चतुर्विधो बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिवन्धः १, स्थितिबन्धः २, अनुभाववन्धः ३, प्रदेशवन्धः ४ ।
उक्त संसार भव आहार आदि यद्धका जीवोंको होताहै, अतः सूत्रकार कर्मबन्ध आदिका निरूपण करते हैं-"चरविहे बंधे पण्णत्ते"इत्यादि।
સંસાર, ભવ અને આહાર આદિને સદ્દભાવ બદ્ધકર્મા જીવોમાં હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર કર્મબન્ધ આદિનું નિરૂપણ કરે છે.
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स्थानासस
चतुर्विध उपक्रमः प्रज्ञातः, तद्यथा-वन्धनोपक्रमः १, उदीरणोपक्रमः २, उपशमनोपक्रमः ३, विपरिणामोपक्रमः ४ ।
बन्धनोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिवन्धनोपक्रमः १, स्थितिवन्धनोपक्रमः २, अनुभाववन्धनोपक्रमः ३, प्रदेशवन्धनोपक्रमः ४ ।
उदीरणोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृत्युदीरणोपक्रमः १, स्थित्युदीरणोपक्रमः २, अनुभावोदीरणोपक्रमः ३, प्रदेशोदीरणोपक्रमः ४ ।
उपशमनोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृत्युपशमनोपक्रमः १, स्थित्युपशमनोपक्रमः २, अनुभावोपशमनोपक्रमः ३, प्रदेशोपशमनोपक्रमः ४।
सूत्रार्थ-धन्ध चार प्रकारका कहा गयाहै. जैसे-प्रकृतिवन्ध १, स्थितिबन्ध २ अनुभावबन्ध ३ और प्रदेशबन्ध ४ । उपक्रम चार कहा गया है, जैसे बन्धोपक्रम १, उदीरणोपक्रम २, उपशमनोपक्रम ३, और परिणामोपक्रम ४ । बन्धनोपक्रम चार प्रकारका कहा गया है, प्रकृतिवन्धनोपक्रम १, स्थितिवन्धनोपक्रम २, अनुभावबन्धनोपक्रम ३ और-प्रदेशवन्धनोपक्रम ४ । उदीरणोपक्रम चार प्रकारका है, प्रकृत्युदीरणोपक्रम १, स्थित्युदीर्णोपक्रम २ अनुभावोदीरणोपक्रम ३ और प्रदेशोदीरणोरक्रम ४ । उपशमनोपक्रम चार प्रकारका कहा गया है। प्रकृत्युपशमनोपक्रम १, स्थित्युपशमनोपक्रम २ अनुभावोपशमनोपक्रम ३ और-प्रदेशोपशमनोपक्रम ४ । विपरिणामोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है।
" चउबिहे बंधे पण्णत्ते" त्यासूत्राय:--धना नीचे प्रमाणे यार २ ४ा छ-(१) प्रति मन्ध, (२) (२) स्थिति मन्ध, (3) मनुमा मन्ध मन (४) प्रदेश मन्ध
643मना पy या२ ४२ ४ह्या छ-(१) मन्धा५म, (२) टी२.५उभ, (3) पशमना५४ भने (४) परिणाम।५.
भन्न ५४ या२ ॥२॥ ४ह्यो छ-(१) प्रकृतिमन्यन५४भ, (२) स्थिति मन्ना५४म, (3) मनुमा मन्ना५४ मन (४) प्रदेश मन्यन५म.
GA५४ ५ या२ रन छ-(१) प्रकृत्युही।५म, (२) સ્થિત્યુદીર્ણોપકમ, (૩) અનુભાવકીરણપક્રમ અને (૪) પ્રદેશદીરપક્રમ.
पशमना५५ ५५ यार ।२। उह्यो छ-(१) प्रत्युपशमना५म,(२) स्थित्युपशमना५४८, (3) अनुभावापशमनाभ मन (४) प्रश५शमनापाम.
વિપરિણામપક્રમ પણ ચાર પ્રકારને કહ્યો છે–(૧) પ્રકૃતિવિપરિણા
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सुधा का स्था० ४ ० २ सू० ५८ कर्मवन्धस्वरूपनिरूपणम् ७०५
विपरिणामनोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमः १, स्थितिविपरिणामनोपक्रमः२, अनुभावविपरिणामनोपनमः ३, प्रदेशविपरिणामनोपक्रमः ४।
चतुर्विधमल्पबहुत्वं पज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रकृत्यल्पवहुत्वं १, स्थित्यल्पबहुत्वम् २, अनुभावाल्पवहुत्वं ३, प्रदेशाल्पबहुत्वम् ४ ।
चतुर्विधः संक्रमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिसंक्रमः १, स्थितिसंक्रमः २, अनुभावसंक्रमः ३, प्रदेशसंक्रमः ४ ।
चतुर्विध निधत्तं प्रज्ञप्तस् , तद्यथा-कृतिनिधत्तं १, स्थितिनिधत्तम् २, अनु. भावनिधत्त ३, प्रदेशनिधत्तम् ४ ।।
चतुर्विधं निकाचितं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रकृतिनिकाचितं १, स्थिति निकाचितम् २, अनुभावनिकाचितं ३, प्रदेशनिकाचितम् ४ ।। सू० ५८॥ प्रकृति विपरिणामोपक्रनस्थितिविपरिणामोपक्रम२ अनुभावविपरिणामो पक्रम ३ और प्रदेशविपरिणामोपक्रम ४ । अल्पबहुत्व चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-प्रकृत्यल्पबहुत्व १, स्थित्यल्पयत्व २, अनुभावाल्पवहुत्व ३, और प्रदेशाल्पबहुत्व ४ । संक्रम चार कहा गया है, प्रकृति संक्रम १, स्थितिसंक्रम २, अनुभावसंक्रम३, और प्रदेशसंक्रम ४ । निधत्त चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-प्रकृतिनिधत्त १, स्थिति निधत्त २, अनुभावनिधत्त ३, और प्रदेशनिधत्त ४ । निकाचित चार प्रकारका कहा गया है, प्रकृति निकाचित १, स्थिति निकाचित २, अनुभाव निकाचित ३, और प्रदेश निकाचित ४ । મોપકમ, (૨) સ્થિતિ વિપરિણામેપક્રમ, (૩) અનુભવ વિપરિણામપક્રમ અને (४) प्रदेश विपरिमा५४म.
અલ્પબહુ ચાર પ્રકારનું કહ્યું છે--(૧) પ્રકૃત્ય૫ બહુત્વ, (૨) સ્થિત્યલ્પ १, (3) अनुभावा८५ प मन (४) प्रश६५ हुत्व
सम२ ४ छ-(१) प्रकृति सभा, (२) स्थिति सभ, (3) भानुभाव सभ मन (४) प्रदेश सभ..
निधत्तना या२ ४.२ ४ा छ--(१) प्रतिनिधत्त, (२) स्थिति नियत्त, (3) मनुभाव निधत्त भने (४) प्रदेश निधत्त.
नायितना या२ १२ ४ा छ-(१) प्रकृति नियित, (२) स्थिति नियत, (3) मनु निथित मन (४) प्रदेश निायित.
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स्थानास
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टीका-" चउविहे वंधे " इत्यादि
वन्धः-आस्रवनिमित्ते गृहीतानां कर्मपायोग्यपुद्गलानामात्मना सह प्रकृत्यादिविशेपितः सम्वन्धः, स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिवन्धः-प्रकृतयः-ज्ञानाऽऽवरणीयप्रभृतयोऽष्टौ कर्मभेदाः, तासां वन्धः, यद्वा-प्रकृतिः-प्रकरणं प्रकृतिःअविशेषितं कर्म, तस्या वन्धः प्रकृतिबन्धः १, तथा-स्थितिज्ञानोऽऽवरणीयादि. कर्म भेदाष्टकस्य जघन्यादि भेदरूपेणावस्थानं, तस्या बन्धः-स्थितिःवन्धः २, तथा अनुभाववन्धः-अनुभावः-अनुभवनमनुभावः-शुभाशुभकर्मप्रकृतीनां प्रयोगकर्मों पात्तानां प्रकृतिस्थितिप्रदेशलक्षणानां तीनमन्दादिरूपेणाऽऽस्वादन, तस्य बन्धोऽनुभावयन्धः २, तथा-मदेशवन्धः-प्रदेशा:-जीवप्रदेशाः, तेष्वनन्तानन्तकर्म प्रदेशानामेकैकप्रकृतौ प्रतिनियवपरिमाणानां बन्धः-प्रदेशवन्धः । अल्पपरिमाणगुडादि
इस सूत्रका सार इस प्रकार है-आस्रवके निमित्तसे गृहीत कर्मों के प्रायोग्य पुद्गलों का आत्मा के साथ प्रकृत्ति स्थिति आदि रूपसे जो सम्बन्ध है वह बन्ध है, यह बन्ध प्रकृतिबन्ध आदि भेदसे चार प्रकारका कहा गया है । ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मभेदों का जो बन्ध है वह प्रकृतिवन्ध है, अथवा ज्ञानाऽऽवरणादि रूपसे अविशेषित सामान्य कर्मका जो बन्ध है, वह प्रक्रतिबन्ध है। ज्ञानावरणीय आदि भेदसे आठ प्रकार के कमी का जघन्य आदि भेदसे जो रहने की मर्यादाका बन्ध है वह स्थितियन्ध है। प्रकृति-स्थिति और प्रदेशरूप शुभाशुभ कर्म प्रकृतियों का जो तीव्र मंद आदि रूपसे आस्वादन भोगने का जो बन्ध होता है वह अनुभाववन्ध है। जीवके प्रत्येक प्रदेश पर जो अनन्तानन्त कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध
વિશેષાર્થ-આસવના નિમિત્તથી ગૃહીત કર્મોના પ્રાગ્ય પુદ્ગલેને આત્માની સાથે પ્રકૃતિ, સ્થિતિ આદિ રૂપે જે સંબંધ છે તેને બન્ધ કહે છે. તે બઘના પ્રકૃતિબંધ આદિ ચાર પ્રકાર છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મ -ભેદોને જે બધે છે તેને પ્રકૃતિબન્ધ કહે છે. અથવા–જ્ઞાનાવરણાદિ રૂપે અવિશેષિત સામાન્ય કર્મને જે બન્યું છે તેને પ્રકૃતિબન્ધ કહે છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોની જઘન્ય ભેદથી જે રહેવાની મર્યાદાને બન્યું છે તેને સ્થિતિબન્ધ કહે છે. પ્રકૃતિ, સ્થિતિ અને પ્રદેશરૂ૫ શુભાશુભ પ્રકૃતિનું જે મન્દ, તીવ્ર આદિ રૂપે આસ્વાદન (અનુભવન) કરવા રૂપ જે બન્યું છે તેને અનુભાવ બન્ધ કહે છે. જીવન પ્રત્યેક પ્રદેશ પર જે અનન્તાનન્ત કર્મ પુદ્ગલેને સંબંધ છે તેનું નામ પ્રદેશલબ્ધ છે એટલે કે ગ્રહણ કરાયા
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कर्मबन्धस्वरूपनिरूपणम्
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है वह प्रदेशबन्ध है, अर्थात् ग्रहण किये जाने पर भिन्न २ स्वभावमें परिणत होनेवाली कर्मपुद्गलराशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिणामों में जो बट जाती है ऐसा यह परिणाम विभाग ही प्रदेशबन्ध है । इस कथनका सारांश ऐसा है कि - कर्मपुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर कर्मरूप परिणाम को प्राप्त होते हैं । अर्थात् — उनमें उसी समय चार अशोका निर्माण होता है ये अंश ही बन्ध के प्रकार हैं प्रकृतिबन्धस्थितिबन्ध अनुभावबन्ध और प्रदेशबन्ध रूप हैं । कर्मपुद्गलों में ज्ञानको रोकने का दर्शनको रोकनेका सुखदुःख आदिका जो स्वभाव बनता है वही प्रकृतिबन्ध है | स्वभावनिर्माण के साथ ही उस स्वभाव से अमुक समय तक अलग न होनेकी मर्यादा भी पुद्गलों में निर्मित होती है कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है | स्वभावनिर्माण के साथ ही उसमें तीव्रता - मन्दता आदि रूपमें फलानुभव करानेवाली विशेषताएँ बंधती हैं । ऐसी विशेपता ही अनुभावबन्ध है । ग्रहण किये जाने पर भिन्न भिन्न स्वभावमें परिणत होनेवाली कर्मपुद्गलराशिका अमुक अमुक विभागमें वट जाना प्रदेशबन्ध है, यही बात टीकाकारने वृद्धोक्त मोदक के दृष्टान्त से स्पष्ट
सुधा टीका स्था. ४ उ. २
सू. ५८
ખાદ્ય ભિન્ન ભિન્ન સ્ત્રભાવે પરિણત થનારી કમપુદ્ગલ રાશિ સ્વભાવાનુસાર અમુક અમુક પરિણામામાં જે વહે'ચાઈ જાય છે, તે પરિણામ વિભાગને જ પ્રદેશખન્ય કહે છે. આ કથનને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે~~~
કપુદ્ગલ જ્યારે જીત્ર દ્વારા ગ્રહણ કરાય છે ત્યારે કમરૂપ પિરણામને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલે કે તેમાં એ જ સમયે ચાર અશાનું નિર્માણ થાય છે. તે અશા જ ખન્યના પ્રકાર રૂપ-પ્રકૃતિષન્ધ, સ્થિતિખન્ય આદિ રૂપ છે, ક પુદ્ગલામાં જ્ઞાનને રોકવાના, દર્શનને રોકવાના, સુખદુઃખાદિને અનુભવ કરાવવાના આદિ જે સ્વભાવ બને છે, એ જ પ્રકૃતિખન્ય રૂપ છે. સ્વભાવનું નિર્માણુ થવાની સાથે જ તે સ્વભાવમાં જ અમુક કાળની મર્યાદા સુધી રહેવાનું પણ તે કર્મ પુદ્ગલેાને માટે નિર્મિત થાય છે. આ કાળમર્યાદાનું નિર્માણુ જ સ્થિતિન્ય છે. સ્વભાવ નિર્માણની સાથે સાથે જ તેમાં તીવ્રના, મન્દતા, આદિ રૂપે ફૂલાનુભવન કરાવનારી વિશેષતાએનું પણ નિર્માણ થાય છે, એવી વિશેષતા જ અનુભાવમન્ય રૂપ છે. ગ્રણ થયા ખાઇ જુદા જુદા સ્વભાવમાં પરિજીત થનારી કર્મ પુદ્ગલ રાશિનું અમુક અમુક વિભાગમાં વિભક્ત થઈ જવું, તેનું નામ પ્રદેશખન્ય છે
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स्थानासूत्र मोदकवदिति । अत्रैवं वृद्धोक्तो मोदकदृष्टान्तोऽस्ति-यथा-मोदको कणिका गुडघृतकटु भाण्डादिद्रव्यवद्धःसन् कोऽपि पित्तहरः, कोऽपि ककहरः, कोऽपि प्राणहरः कोऽपि बुद्धिकरः, कोऽपि व्यामोहकरः, तथा-कर्म प्रकृतिः काचिन्जानमावृणोति, काचिदर्शनं, काचित् सुखदुःखादि वेदनामुत्पादयति । तथा तस्यैव मोदकस्य यथा अविनाशभावेन कालनियमरूपा स्थितिर्भवति, तथा कर्मणोऽपि अविनाशभावेन नियतकालावस्थान स्थितिबन्धो भवति, तथा-तस्यैव मोदकस्य यथास्निग्धमधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भवति, तथा कर्मणोऽपि देशघातिकी है, जैसे-आटा-गुड-घृत और कटु आदि द्रव्यको मिलाकर बांधा गया कोई एक मोदक वातहर होता है, कोई एक पित्तहर होता है, कोई एक कंफहर होताहै,कोई एक प्रोणहर होताहै,कोई एक बुद्धिहर होताहै,और कोईएक व्यामोहकर (मूछ करनेवाला) होताहै उसी प्रकारसे जीवद्वारा गृहीत कर्मपुद्गल कर्म मावसे परिणमित होकर कोईएक कर्मप्रकृति ज्ञान को आवृत करती है, कोई एक दर्शनको आवृत करती है, कोई एक प्रकृत्ति स्लुखदुःख आदिक वेदनको उत्पन्न करती है, कर्मों का जो स्वभावहै वही प्रकृतिबन्ध है । तथा उस मोदककी जिस प्रकार से अविनाश भावको लेकर अमुक काल तक रहने की मर्यादा होती है वैसे ही कों की भी नियत काल तक जो रहनेकी मर्यादा है वही स्थितियन्य है । तथा जिस प्रकारसे मोदक लड्डू में एकगुणा-दोगुना आदि रूपसे रस होता है उसी प्रकारसे कर्म में भी जो देशघाती-सर्वघाती रूपसे रस होता है तथा
એ જ વાતનું ટીકાકારે વૃદ્ધોક્ત મોદક (લાડુ) ના દકાન્તથી પ્રતિપાદન કર્યું છે. જેમકે લોટ, ઘી, ગોળ અને કડવા મેથી આદિ દ્રવ્યના મિશ્રણથી બનાવેલ કેઈ એક લાડુ વાતહર હોય છે, કેઈ એક લાડુ પિત્તહર હેય છે, કેઈ એક લાડુ કફનું શમન કરનારો હોય છે, કઈ એક પ્રાણહર હોય છે, કઈ એક બુદ્ધિહર હોય છે, અને કેઈ એક વ્યામોહકર હોય છે, એજ પ્રમાણે જીવ દ્વારા ગ્રહીત કમપુલ કમરૂપે પરિમિત થાય છે. ત્યારબાર કઈ એક કર્મપ્રકૃતિ જ્ઞાનને આવૃત કરે છે, કોઈ એક કર્મપ્રકૃતિ દર્શનને આવૃત કરે છે અને કઈ એક પ્રકૃતિ સુખદુઃખાદિ રૂપ વેદનને ઉત્પન્ન કરે છે. આ પ્રકારને કર્મને જે સ્વભાવ છે એ જ પ્રકૃતિ બન્યું છે. જેમ તે લાડુની અવિનાશભાવની અપેક્ષાએ અમુક કાળ સુધી રહેવાની મર્યાદા હોય છે, તેમ કર્મોની પણ નિયત કાળ સુધી રહેવાની જે મર્યાદા હોય છે તેને સ્થિતિમાં કહે છે. જેમ લાડુમાં એક ગણે, બે ગણે આદિ રૂપ રસ હોય છે, તેમ
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सुधी डीका स्था०४ उ० २ ० ५८ कर्मबन्धस्वरूपनिरूपणम् शुभाशुभतीव्रमन्दादिरनुभावबन्धः । तथा तस्यैव मोदकस्य यथा- कणिक्कादि द्रव्याणां परिमाणवत्वं तथा कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध इति ४
' चउन्विहे उबक्कमे " इत्यादि - उपक्रमः - उपक्रम्यते - क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः - जीवशक्तिविशेषः, स च कर्मणो बन्धनोदीरणोपशमन विपरिणामनारूपेण परिणमने हेतुभूतः स एव जीवशक्तिविशेपोऽन्यत्र करणशब्देन रूढः । यद्वा-उप क्रमः - उपक्रमणमुपक्रमः - वन्धनप्रभृतीनां चतुर्णामारम्भः इत्यर्थः, उक्तं च, स्यादारम्भ उपक्रमः इति ।
66
तीव्र रूपले मन्दरूपसे जो उसका फल प्रात होता है वह - अनुभावबन्ध | तथा जिस प्रकार से उस मोदक में आटा आदि द्रव्यों का प्रमाण होता है उसी प्रकार से कर्मों में जो पुलों का प्रतिनियत प्रमाण होता है वह प्रदेशबन्ध है ।
" चउवि उवक्कसे " जीवका जो शक्ति विशेष है वह उपक्रम है, यह शक्ति विशेषरूप उपक्रम कर्मों के बन्धमें उदीरण में उपशमन में और विपरिणाम रूप से परिणमन में हेतुभूत होता है । यही जीव का शक्ति विशेषरूप उपक्रम अन्यत्र करण शब्द से रूढ हुवा है । अथवाकर्मों में प्रकृतिबन्ध आदि चार रूपसे जो परिणमन होने का प्रारम्भ होता है वह उपक्रम है ।
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उक्तश्च स्यादारम्भ उपक्रमः आरम्भका नाम उपक्रम
કર્મોંમાં પણ દેશઘાતી, સઘાતી રૂપ રસ હાય છે, તથા તીવ્ર, મન્દ આદિ રૂપ તેનું જે ફલ પ્રાપ્ત થાય છે, તેનું નામ અનુભાવમન્ય છે. તથા જેમ તે લાડુમાં લેાટ, થી આદિનું અમુક નિયત પ્રમાણુ હાય છે, એ જ પ્રમાણે કમેમાં પુદ્ગલેાનું જ પ્રતિનિયત પ્રમાણુ ડાય છે, તેનું નામ જ પ્રદેશખન્ય છે. " चव्वि उवक्कमे " इत्यादि
જીવની જે શક્તિવિશેષ હાય છે, તેનું નામ ઉપક્રમ છે. તે વિશેષ રૂપ ઉપક્રમ કર્મોના અન્ધમાં, ઉદીરણુમાં, ઉપશમનમાં અને વિપરિણામ રૂપે પરિણમનમાં કારણભૂત હાય છે. જીવના શક્તિવિશેષ રૂપ ઉપક્રમને અન્યત્ર કારણ રૂપે પણ એળખેદ છે. અથવા કર્માંમાં પ્રકૃતિબન્ધ આદિ ચાર રૂપે જે પરિણમન થવાને પ્રારભ થાય છે, તેનું નામ જ ઉપક્રમ છે. કહ્યું પણ છે કે 66 स्यादारम्भ उपक्रमः " આરમ્ભ કરે તેનું નામ ઉપક્રમ છે. અથવા ઉપક્રમ વસ્તુપરિક વસ્તુના સર ) હાય છે. જે કે
રૂપ
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स्थानाङ्गसूत्र अथवा-उपक्रमः-वस्तुपरिकर्मरूपः, यद्यप्यन्यत्र उपक्रमशब्देन वस्तुपरिकर्म वस्तुविनाशौ प्रोक्तौ, तथाप्यत्र वस्तुपरिकर्मरूप एवार्थों गृह्यते । स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वन्धनोपक्रमः, उपक्रमस्य जीवशक्तिविशेषरूपार्थपक्षे बन्धनोपक्रमस्यायमर्थः-तथाहि-वन्धनं-कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनम् , एतद्वन्धनं च सूत्रबद्धलोहशलाकासम्बन्धवद् वोध्यम् , तस्य उपक्रम परिणामनहेतुभूतो जीवशक्तिविशेषो बन्धनोपक्रमः । उपक्रमस्य आरम्भार्थपक्षेतु-पूर्वोक्तार्थकस्य बन्धनस्य उपक्रमः आरम्भः । वस्तुपरिकर्मेति तृतीयार्थपक्षेतु-गृहीतकर्मवर्गणाया बद्धावस्थीकरण बन्धनम् , तदूप उपक्रमः वस्तुपरिकर्मरूप इति ।१। अथवा - उपक्रम वस्तु परिकम वस्तु का संस्कार करने रूप होता है। यद्यपि-अन्यत्र उपक्रम शन्दसे वस्तु परिकम और वस्तु विनाश ये दो कहे गये हैं तो भी यहां पर उपक्रम शब्दका वस्तु परिकर्म रूप ही अर्थगृहीत हुवा है। यह उपक्रम चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-बन्धनोपक्रम आदि । जब उपक्रम शब्द का अर्थ जीव का शक्तिविशेष परक है-उस पक्षमें बन्धनोपक्रम का ऐसा अर्थ होता हैजीवप्रदेशों का और कर्मपुद्गलों का परस्पर में सम्बन्ध होता है इसका नाम बन्धन है। जैसे - सूत्रबद्ध लोहशालाकाओं का परस्परमें सम्बन्ध (सम्बद्ध) होता है, अतः-यह बन्धन सूत्रबद्ध लोहशालाओंके सम्बन्धकी नाई होता है. ऐसा जानना चाहिये। इस बन्धन का जो उपक्रम है, अर्थात् इस बन्धनके परिणमनका हेतुभूत जो जीवका शक्तिविशेषहै वह पन्धनोपक्रम है। तथा-जय उपक्रम शब्द आरम्भार्थ परक लिया जाता है, तब इसका अर्थ ऐसा होता है कि जीवप्रदेशों का और कर्मपुद्गलोंका અન્યત્ર ઉપકમ શબ્દ દ્વારા વસ્તુપરિકર્મ અને વસ્તુ વિનાશ, આ બે અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે, છતાં અહીં તે વસ્તુપરિકર્મ રૂપ અથે જ ગુડીત થયે છે તે ઉપકમના બનોપકમ આદિ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. જે ઉપક્રમને શક્તિવિશેષ રૂ૫ અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવે-શક્તિવિશેષ રૂપે ઉપકમને ગ્રહણ કરવામાં આવે, તે બન્ધનેપકમને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે
જીવપ્રદેશોનું અને પુનું પરસ્પરની સાથે જે સંબંધન (સજન) થાય છે, તેનું નામ બન્યા છે. દેરી વડે બદ્ધ એવી લેઢાની સળીઓને પરસ્પરમાં જે સંબંધ હોય છે એ જ આ સંબંધ હોય છે, એમ સમજવું. આ બન્ધનને જે ઉપક્રમ છે, એટલે કે આ બન્ધનના પરિણમનના કારણરૂપ જીવની શક્તિવિશેષ રૂપ જે ઉપક્રમ છે તેને બન્ધનોપકમ કહે છે.
જે ઉપક્રમ શબ્દને આરંભ અર્થ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવે, તે બનેપકમને આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે જીવપ્રદેશનું અને કર્મ પુલનું
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू०५८ कर्मबन्धस्वरूपनिरूपणम्
७११ तथा-उदीरणोपक्रमः-उदीरणा-अप्राप्तकालफलानां कर्मणामुदयावलिकायां प्रवेशनम् , उक्तं च"जं करणेणोकड़िय, उदए दिज्जइ उदीरणा एसा ।
पगइठिई अणुभावप्पएसमूलुत्तरविभागा॥ १॥" छाया-यत् करणेनावकष्योदये दीयत उदीरणैषा ।
प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशमूलोत्तरविभागाः ॥ १ ॥ इति । तस्या उपक्रमः तद्रूपो वा उपक्रम इति । २।। - तथा-उपशमनोपक्रमः-उपशमना - उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरणायोग्यतया कर्मणोऽवस्थापना, तस्या उपक्रमः उपशमनोपक्रमः उपशमनायां त्रीणि करणानि भवन्ति, उक्तञ्चजो यरस्पर में सम्बन्धनरूप बन्धन है उसका उपक्रम होता है। अर्थात् आरम्भ होता है। तथा वस्तुपरिकम रूप तृतीयार्थ पक्षमें उपक्रम का ऐसा अर्थ होता है, कि-गृहीत कर्मवर्गणाओं का बद्धावस्थारूपमें करना सो-बन्धनोपक्रम है। उदीरणोपक्रम-जिन कों का फल देनेका जो समय नहीं है उनको उस कालमें फल देनेयोग्य बनाना इसका नाम उदीरणा है, उदीरणाले को को हठात् उद्यावलिकामें खींचा जाता है । ____उक्तञ्च-" जं करणेणोकड्रिय " इत्यादि कर्म को खींच कर उदयावलिका में लाना । इस उदीरणा का जो उपक्रम है, या-उदीरणारूप जो उपक्रम है वह उदीरणोपक्रम है २ उदय होनेमें कोको अयोग्य करना, उदीरणाको अयोग्य करना निधत्त को अयोग्य करना निकाचना को अयोग्य करना इसका नाम उपशमना જે પરસ્પરના સંબંધન (સજન) રૂપ બન્યો છે, તેને ઉપક્રમ (આર ) થાય છે. જે ઉપક્રમને વસ્તુપરિકમ રૂ૫ અર્થ લેવામાં આવે, તે બન્ધને પકમને આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-ગૃહીત કવણાઓને બદ્ધાવસ્થા રૂપ કરવી તેનું નામ બન્યપક્રમ છે.
ઉદીરણોપકર્મને ભાવાર્થ –જે કર્મોને ફલ દેવાને જે સમય ન હોય, તે સમયે તેને ફલ દેવા ગ્ય બનાવવું તેનું નામ ઉદીરણ છે. ઉદીરણા દ્વારા કમેને બળજબરીથી ઉદયાવલિકામાં ખેંચી લેવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે કે"जंकरणेणो काय" त्या-तीयाना २ ५४म छ मय हीरણારૂપ જે ઉપક્રમ છે તેનું નામ ઉદીરણપક્રમ છે.
ઉપશમનેપક્રમને ભાવાર્થ –કને ઉદયાવલિકામાં ન આવે એવા કરવા, ઉદીરણાને માટે અગ્ય કરવા, નિધત્તને માટે અગ્ય કરવા અને નિકાચનને માટે પણ અગ્ય કરવા તેનું નામ ઉપશમના છે. તે ઉપશમનાને જે ઉપક્રમ
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स्थानात्रे
" ओवट्टण - उच्चरण - संक्रमणा च तिन्नि करणाई " छाया - अपवर्तनोद्वर्तन संक्रमणानि च त्रीणि करणानि " इति । एतानि त्रीणि करणानि देशोपशमनायां भवन्ति, न तु सर्वोपशमनायां, सर्वोपशमनाया मोहनीय एव सद्भावात् । शेषाणां सप्तानां कर्मणां सर्वोपशमना न भवति, देशोपशमना तु सर्वेषां कर्मणां भवतीति पर्यवसितोऽर्थः ३ तथा विपरिणामनोपक्रमः - वीतिविविधैः प्रकारैः - कर्मणां मत्तोदयक्षयोपशमापवर्तनोद्वर्तनादिभिः एतद् रूपतयेत्यर्थः, परिणामना - अवस्थान्तरमापणा विपरिणामता, यहा - विविधैः प्रकारैः गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिः कर्मणां परिणामना - अवस्थान्तरमापणा । अथवाहै इस उपशमना का जो उपक्रम है वह उपशमनोपक्रम है । उपशमना में तीन करण होते हैं । उक्त भी है - " ओट्टण-उच्चट्टण-संकमणाई 'च तिन्नि करणाइ " अपवर्तन - उद्वर्तन और संक्रमण ये तीन करण देशोपशमना में होते हैं - सर्वोपशमनामें नहीं । मोहनीय में ही सर्वोप: शमनाका सद्भाव होता है। बाकी के जो सात कर्म हैं - उनमें सर्वोपशमना नहीं होती है | देशोपशमना ही होती है । तथा-मोहनीय में दोनों प्रकारकी उपशमना होती है - देशोपशमना भी होती है और सर्वोपशमना भी होती है । विपरिणामनोपक्रम - कर्मों की वि-विविध प्रकारों से सत्ता, उदय, क्षयोपशम, अपवर्तन, उद्वर्तन आदि रूपसे जो परिणामना - अवस्थान्तर प्रापणा है, वह अथवा विविध प्रकार से जो - गिरि सरिदुषघोलन न्याय से द्रव्य क्षेत्रादिके अनुसार कर्मे की परिणामना - अवस्थान्तर प्रापणा होती है वह अथवा - कारणविशेषको लेकर जो છે તેનું નામ ઉપશમનેાપક્રમ છે. ઉપશમનામાં ત્રણ કરણ હોય છે. કહ્યું પણ छे - " ओवट्टण - उट्टण - संक्रमणाई च तिन्नि करणाई " अपवर्तन, उद्वर्तन અને સંક્રમણુ આ ત્રણ કરણેને સદ્ભાવ દેશેાપશમનામાં હોય છે. સર્વોપશમનામાં હાતા નથી મેહનીયમાં જ સર્વોપશમનાના સદ્દભાવ હોય છે, બાકીના સાત કર્મોમાં સર્વોપશમનાના સદ્દભાવ હતેા નથી પણ દેશેાપશમનાના જ સદ્ભાવ હાય છે તથા મેહનીયમાં અન્ને પ્રકારની ઉપશમનાના સદ્ભાવ છે. એટલે કે સર્વોપશમનાને પણ સદ્ભાવ હેય છે અને દેશેાપશમનાને પણ સદ્દભાવ હાય છે.
વિપરિણામેપક્રમના ભાવા-કર્મીની જે વિવિધ પ્રકારે સત્તા, ઉય, યેાપશમ, અપવન, ઉતન આદિ રૂપે જે પરિણામના ( અવસ્થાન્તર પ્રાપ્તિ) થાય છે, તેને અથવા વિવિધ પ્રકારે જે−ગિરિ સરિ દ્રુપઘાલન ન્યાયે
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सुधा टीका रथा० ४ उ०२ सू०५८ कर्मवन्धस्वरूपनिरूपणम्
७१३ विविधैः प्रकारैः कर्मणां करणविशेषेण परिणामनाऽवस्थान्तरप्रापणा सा, तस्या उपक्रमो विपरिणामनोपक्रमः, यद्यपि विपरिणामना बन्धनोदीरणोपशमनामु तथातदन्याषूदयोदीरणानिधत्तनिकाचनास्वपि वर्तते तथापीह सामान्य रूपत्वात् पृथगुक्ता।४। ____ " बंधणोवक्कमे चउबिहे " इत्यादि-वन्धनोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाप्रकृतिवन्धनोपक्रमः १, स्थितिवन्धनोपक्रमः २, अनुभागवन्धनोपक्रमः ३, प्रदेश. वन्धनोपक्रमश्वेति ४, तत्र प्रतिवन्धनं-ज्ञानावरणीयादिकर्मभेदाष्टकनिवर्तनं, तस्य उपक्रम -योगलक्षणो जीवपरिणामः, तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वात् १ । तथास्थितिवन्धनोपक्रमः-स्थितिवन्धनम् अत्रैव मुत्रे प्रागुक्तं, तस्योपक्रमः स्थितिवकों की विविध प्रकारसे परिणामना-अवस्थान्तर प्रापणा होती है वह विपरिणामना है. इस विपरिणामनाका जो उपक्रम हैवह विपरिणाम नोपक्रम है। यद्यपि - विपरिणामना बन्धनउदीरणा, उपशमनो. इनमें, तथा-इनसे अन्य उदय, उदीरणा निधत्त, और निकाचना हनमें भी रहती है तो भी यहां सामान्य रूप होने से वह पृथक कही गई है। ४ ।
" बंधणोवक्कमे चउविहे " इत्यादि । बन्धनोपक्रम चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-प्रकृति बन्धनोपक्रम इत्यादि-ज्ञानावरणीय आदि भेदों से करें की आठ प्रकृतियां है, इन आठ प्रकृतिरूप कर्मका बन्धन होना यह प्रकृतिवन्धन है । इस प्रकृतिवन्धनाका जो उपक्रम वह-प्रकृति बन्धनोपक्रम है, यह-प्रकृतिबन्धनोपक्रम जीवका परिणाम विशेष योगरूप है, क्योंकि-योग ही प्रकृतिबन्धका हेतु होता है। स्थिति ક્ષેત્રાદિ અનુસાર જે પરિણામના ( અન્ય અવસ્થાની પ્રાપ્તિ) થાય છે તેને અથવા કારણ વિશેષની અપેક્ષાએ કર્મોનું વિવિધ પ્રકારે જે પરિણમન ( અવ સ્થાન્તર પ્રાપણ) થાય છે, તેને વિપરિણામના કહે છે. તે વિપરિણામનાને જે ઉપકેમ છે તેને વિપરિણામનેપકમ કહે છે. જો કે વિપરિણામનાને બન્ધન, ઉદીરણા અને ઉપશમનામાં સદભાવ હોય છે, તથા તે સિવાયના ઉદય, નિધત્ત અને નિકાચનામાં પણ વિપરિણામના રહેલી હોય છે, છતાં પણ સામાન્ય રૂપ હોવાથી અહીં તેને અલગ રીતે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે
" बंधणोवक्कमे चउठिवहे" त्याह
બન્ધને પકમના પ્રકૃતિ બન્ધનેપકમ આદિ ચાર પ્રકાર છે જ્ઞાનાવરણીય આદિ ભેદથી કર્મની આઠ પ્રકૃતિઓ કહી છે તે આઠ પ્રકૃતિએ રૂપ કર્મનું બધન થનું તેનું નામ પ્રકૃતિ બન્યું છે તે પ્રકૃતિ અને જે ઉપક્રમ છે તેને પ્રકૃતિબન્ધનોપકમ કહે છે. તે પ્રકૃતિબન્ધને પક્રમ જીવના પરિણામ વિશેષ ગરૂપ છે, કારણ કે ગ જ પ્રકૃતિબન્ધમાં હેતભૂત (કારણરૂપ) હોય છે.
स०-९०
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७१५
स्थानासूत्रे धनोपक्रमः, स च कपायरूपो जीवपरिणामः, स्थिते कपायहेतुकत्वात २। तथाअनुभावबन्धनोपक्रमः-अनुभाववन्धनस्य-प्रागुक्तत्य उपक्रमः, अयमपि कपायरूपः ३। तथा प्रदेशबन्धनोपक्रमः-प्रागुक्तस्य प्रदेशबन्धनस्योपक्रमः-योगरूपोजीवपरिणामः, यत उक्तम्
" जोगा पयडिपएसं ठिइ अणुभावं कसायी कुगइ"
छाया-योगात् प्रकृति-प्रदेशौ स्थित्यनुभावो कपायतः करोति" इति, यद्वा-प्रकृतिप्रभृति बन्धनानामुपक्रमा:-आरम्भाः प्रकृभ्यादिवन्धनोपक्रमा वोध्याः। एवमन्यत्रापि । ४ । बन्धनोपक्रम" इसी सूत्र में पहले स्थितिबन्ध कहा जा चुका है सो इसका जो उपक्रम है वहाँ-स्थितिबन्धनोपक्रम है । यह जीव का परिणाम विशेष जो कपोय है तद्रूप है । क्यों कि-स्थितिबन्धका कारणकषाय है प्रोमुक्त लक्षणवाला अनुभावबन्धन का जो उपक्रम है वहअनुभाव बन्धनोपक्रम है, यह-अनुभाव बन्धनोपक्रम भी कषायरूप ही है । तथा-पहले कथित प्रदेशबन्धनका जो उपक्रम है वह-प्रदेशबन्धनोपक्रम है, यह--प्रदेशबन्धनोपक्रम भी योगरूप जीव परिणाम विशेष रूप होता है। ____ उक्त भी है-" जोगा पपडिपएसं ठिइ अणुभावं कसाथओ कुणइ." जीव योगसे प्रकृति और प्रदेशयन्ध इन दोनों बन्धोंको करता है, अर्थात-प्रकृतिवन्ध और प्रदेश क्रोधयोगसे होते हैं, और स्थितिबन्ध और अनुभावयन्ध कषाय से होते हैं । अथवा-प्रकृति आदि बन्धनोंका
સ્થિતિ બન્ધનોપક્રમ–આ સૂત્રમાં જ સ્થિતિબંધનો ભાવાર્થ પહેલા બતાવવામાં આવ્યું છે તે સિથતિબંધનનો જે ઉપક્રમ છે તેને સ્થિતિ બનેપક્રમ કહે છે. તે જીવના કષાય સ્વરૂપ પરિણામ વિશેષરૂપ છે, કારણ કે સ્થિતિબન્ધનું કારણ કષાય છે
પહેલા અનુભાવબન્ધને ભાવાર્થ બતાવ્યા છે. તે અનુભાવ બન્ધનને જે ઉપક્રમ છે તેને “અનુભાવ બધપક્રમ” કહે છે તે અનુભવબનેપકેમ પશુ કષાય રૂપ જ છે પૂર્વોક્ત લક્ષણવાળા પ્રદેશબધનને જે ઉપક્રમ છે તેનું નામ “પ્રદેશબઘનેપકમ” છે. તે પ્રદેશબન્ડનેપક્રમ પણ યોગરૂપ 9 परिणाम विशेष३५ हाय छे ४ह्यु ५ छ -"जोगापयडिएसठिइ अणुभावं कसायओ कुणइ " 1 21 43 प्रतिमा भने प्रदेश५-५ अरे છે. એટલે કે પ્રકૃતિબન્ધ અને પ્રદેશબ, એ બને બા ધરોગથી થાય છે, અને સ્થિતિબંધ અને અનુભાવબંધ કષાયને કારણે થાય છે. અથવા પ્રકૃતિ આદિ બધાને જે ઉપકમ-પ્રારંભ છે, તેને પ્રકૃતિ આદિ બધપકમ કહે છે. એ જ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ સમજવું
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सुधा रीका स्था०४ उ०२ सू०५८ कर्मवन्धस्वरूपनिरूपणम्
" उदीरणोवक्कमे चउब्धिहे ' इत्यादि - उदीरणोपक्रमश्चतुर्विधः प्रज्ञतः, तद्यथा-प्रकृत्युद्दीरणोपक्रमः- यद्वा मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिझ सामर्थ्यविशेषेणाऽऽकृष्योदयावलिकायां प्रवेश्यते सा प्रकृत्युदीरणा, तम्या उपक्रमः । तथा-स्थित्युदीरणोपक्रमः-आत्मवीर्यादेवोदिनया स्थित्या सार्द्धममाप्तोदयस्थितेरनुभवनं स्थित्युदीरणा, तस्या उपक्रमस्तथाभूतः २। तथा-अनुभावोदीरणोपक्रपःवीयविशेषादेवोदितेनानुभावेन सहानुदितो योऽनुभावो वेद्यते साऽनुभावोदीरणा, तस्या उपक्रमः ३। तथा-प्रदेशोदीरणोपक्रमः-प्रदेशोदीरणाप्राप्तोदयनियतपरिमाणकर्मप्रदेशैः सहाऽप्राप्तोदयानां नियतपरिमाणानां कर्मप्रदेशानां वेदनम् , तस्या उपक्रमः । इहाऽपि उपक्रम:-कपाययोगरूपो जीवपरिणाम आरम्मो वा ग्राह्यः।४। जो उपक्रम-प्रारम्भ है वह प्रकृति आदि धन्धनोपक्रम है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये ४ । " उदीरणोवक्कमे चविहे " उदी. रणोपक्रम चार प्रकारका है, जैसे-प्रकृत्युदीरणोपक्रम इत्यादि । तपोविशेष आदिसे खींच कर उदयावलिका में मूल प्रकृति का अथवा उत्तर प्रकृतिका दलिकामें प्रवेश कराना प्रकृत्युदीरणा है, इस प्रकृत्युदीरणा का जो उपक्रम वह प्रकृत्युदीरणोपक्रम है । आत्मवीर्य से ही उदितस्थितिके साथ अप्रासादयवालो स्थितिका अनुभवन करना यह-स्थित्युदीरणा है. इस स्थित्युदीरणा का जो उपक्रम वह-स्थित्युदीरणोपक्रम है। दीय.. विशेष से हो उदित अनुभावके साथ अनुदित अनुभावका जो वेदनहै वह-अनुभावोदीरणा है, इस अनुभावोदीरणाको जो उपक्रम है वह अनुभावोदीरणोपक्रम है। तथा-प्रदेशोदीरणा से प्राप्त है उदयजिनका ऐसे नियत परिणामवाले कर्मप्रदेशोंके साथ अप्राप्त उदयवाले नियत परि
" उदीरणोवकमे चउबिहे " हीर५मना प्रकृत्युटी२५3 माहि ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. તાપવિશેષ દ્વારા ખેંચીને મૂલપ્રકૃતિ અથવા ઉત્તરપ્રકૃતિના દલિકને ઉદ્યાવલિકામાં પ્રવેશ કરાવી તેનું નામ પ્રકૃત્યુદીરણા છે. તે પ્રકૃત્યુ દીરણાને જે ઉપક્રમ છે તેને પ્રકૃત્યુદીરપકમ કહે છે. આત્મવીર્યથી જ ઉદિત સ્થિતિની સાથે અપ્રામોદયવાળી સ્થિતિનું અનુભવન કરવું તેનું નામ સ્થિત્યુ દીરણા છે તે સ્થિત્યુદીરાને જે ઉપક્રમ છે તેને સ્થિત્યુદીરણોપકમ કહે છે. વીર્યવિશેષથી જ ઉદિન અનુભાવની સાથે અનુદિત અનુબાવન જે વેદના થાય છે, તેને અનુભાદરણ કહે છે. આ અનુભાદરણને જે ઉપકમ છે તેને નિયત પરિણામવાળા કર્મ પ્રદેશની સાથે અપાત ઉદયવાળા નિયત પરિણામવાળા કર્મ પ્રદેશનું જે વેદન છે તેનું નામ પ્રદેશદીરણા છે. તે પ્રદેશદીરણાને જે
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स्थानाङ्गसूत्रे
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' उवसमणोकमे ' इत्यादि -उपशमनोपक्रमचतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाप्रकृत्युपशमनोपक्रमः १, स्थित्युपशमनोपक्रमः २, अनुभावोपशमनोपक्रमः ३, प्रदेशोपशमनोपक्रमः ४, इति । उपक्रमस्त्विह पुद्गलानां प्रकृतिस्थित्यनुभावम देशरूपेण परिणमनसमर्थमात्मवीर्यमिति । " विष्परिणामणोवकमे " इत्यादिविपरिणामनोपक्रमचतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रकृतिविपरिणामनोपक्रम इत्यादि । उपक्रम शब्दस्यार्थोऽनन्तरसूत्रोक्तवद् बोध्यः इति ।
णाम विशिष्ट कर्मप्रदेशका जो वेदन है, वह प्रदेशादीरणा है इस प्रवेशोदीरणा का जो उपक्रम है, वह प्रदेशोदीरणोपक्रम है। यहां पर भी उपक्रमको जीवका परिणामविशेष जो कषाय और योग है तद्रूप लेना चाहिये, या आरम्भाऽर्थवाला लेना चाहिये ।" उवसमोवक्कमे " इत्यादि
उपशमनोपक्रम चार प्रकारका कहा गया है, जैसे प्रकृत्योपशमनोपक्रम इत्यादि पुलोंको प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश इन चार रूपसे परिणमन कराने में समर्थ जो आत्माका वीर्य है यह उपक्रम शब्द से यहां लिया गया है, आरम्भ अर्थवाला उपक्रम नहीं लिया गया है ।
" विष्परिणामणोवक्कमे " इत्यादि-विपरिणामनोपक्रम चार प्रकारका कहा गया है, जैसे- प्रकृति विपरिणामनोपक्रम इत्यादि. यहां परभी उपक्रम शब्दका अर्थ पूर्व सूत्र जैसाही जानना चाहिये + अन्य अर्थ. नहीं । " चउच्वि अप्पाचहुए " इत्यादि. अल्प और बहुका जो भाव
ઉપક્રમ છે, તેને પ્રદેશેાદીરાપક્રમ કહે છે. અહીં પણ ઉપક્રમને કષાય અને ચેાગરૂપ જીવતા પરિણામ વિશેષરૂપ સમજવે જોઇએ, અથવા આરભ અથ વાળા સમજવા જોઇએ.
" उवसमोवकमे " त्याहि- उपशमनाय यार अमरनो ऽह्यो छे. જેમકે પ્રકૃત્યે પશમનેાપક્રમ આદિ ચાર પ્રકાર અહીં સમજવા. પુદ્ગલેનુ' પ્રકૃતિ સ્થિતિ, અનુભાવ અને પ્રદેશ, આ ચાર રૂપે પરિણમન કરાવવાને સમ એવું જે આત્મવીય છે, તે અહીં ઉપક્રમ શબ્દથી ગૃહીન થયું છે. આરભ અવાળા ઉપક્રમ અહીં ગ્રહણ થયેલ નથી
“विष्परिणामणोवक्कमे” इत्यादि - विपरिणामनयभना नीचे प्रभाशे यार પ્રકાર કહ્યા છે—પ્રકૃતિ વિપશુિામનેાપકમ આદિ ચાર પૂર્વોક્ત પ્રકારો અહીં ગ્રહણ કરવા. અહીં પશુ ઉપક્રમ શબ્દના અર્થ પૂસૂત્રમાં કહ્યાનુસાર સમજવા. અન્ય અથ અહીં ગ્રહણ કરવે જોઇએ નહીં.
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सुधा टीका स्था०४ उ २२५८ कर्मवन्धस्वरूपनिरूपणम्
७१७ __" चउबिहे अप्पावहुए " इत्यादि-अल्प च बहुचानयोः समाहारोऽल्पबहु, तस्य भावोऽल्पवहुत्वम् , तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रकृत्यल्पबहुत्वं १, स्थित्यल्पबहुत्वम् २, अनुभावाल्पबहुत्वं ३, प्रदेशाल्पयत्वं ४ चेति तत्र प्रकृत्यल्पवहुलं-प्रकृतीनां - प्रागुक्तानामल्पवं च, तचाल्यवहु-वं बन्धस्थित्यनुभावमदेशापेक्षया बोध्यम् तत्र बन्धापेक्षया यथा-उपशान्तमोहादिः सर्वेस्तोकप्रकृतिवन्धको भवति, तस्य शातावेदनीयरूपैकविधवन्धकत्वात् । तस्माद उपशमका दिसूक्ष्मसम्परायो बहुतरवन्धको भवति,तस्य वेदनीयायुवर्जशेष पविधवन्धकत्वात्, तस्माद् बहुतरवन्धकः सप्तविधवन्धकस्तस्माच बहुतरवन्धकोऽष्टविधवन्धक इति ।१। है वह अल्पबहुत्व है, यह अल्पवहुत्व चार प्रकारका कहा गया है । उसका भाव ऐसा है-पूर्वोक्त प्रकृतियोंमें बंधकी, स्थितिकी, अनुभावकी
और प्रदेशकी अपेक्षा जो अल्पयत्व है वही अल्पबहुत्व रूपसे यहां कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये । जैसे-उपशान्त मोह आदिवाला जीव सबसे कम प्रकृतियोंका बन्धक होता है, क्योंकि वह एकविध यन्धक होता है । अर्थात्-एक प्रकारसेही कमेका सातावेदनीयका बंध करनेवाला होता है । इससे नीचेका जो उपशमकादि सूक्ष्म सम्परायवाला जीव होता है वह बहुतर वन्धक होता है, क्योंकि वह छह प्रका. रसे कर्मका बन्ध करनेवाला होता है, अर्थात वेदनीय और आयुकर्मको छोडकर शेष छह कर्मो का बन्धक होता है । इससे बहुतर बंधक वह है जो सात प्रकारसे कर्मों का बन्धक होता है।
इससे भी बहुतर बन्धक वह है जो आठ प्रकारसे कर्मो का बन्धन करनेवाला होता है १ । स्थितिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकारसे है,
"चउबिहे अप्पाबहुए " त्याह-६५ मत हुन २ मा छ તેનું નામ અલપખહત્વ છે, તે અલ્પબહત્વ ચાર પ્રકારનું કહ્યું છે. આ ચાર પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–પૂર્વોક્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિઓમાં બન્ય, સ્થિતિ, અનુભાવ અને પ્રદેશની અપેક્ષાએ જે અલ્પમહત્વ છે, તેને જ અહીં અપમહત્વ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, એમ સમજવું. જેમકે ઉપશાત મોહ દિવાળે જીવ એાછામાં ઓછી કર્મ પ્રકૃતિઓને બંધક હોય છે, કારણ કે તે એકવિધ બન્ધક જ હોય છે એટલે કે તે એક પ્રકારે જ કમને-સાતાદનીયને બધેક જ હોય છે. તેના કરતાં નીચા ગુણ સ્થાનવાળે, ઉપશમકાદિ સૂમ સંપરાયવાળે જે જીવ હોય છે તે અધિક કમ પ્રકૃતિએને બન્યક હોય છે, કારણ કે તે છ પ્રકારના કર્મને બન્ધ કરતે હોય છે અર્થાત વેદનીય અને આયુકર્મને છોડીને બાકીના છ કર્મોને, બન્ધકથાય છે. તેના કરતાં પણ બહુત કમ અન્ધક એ છે કે જે સાત પ્રકારના કર્મોને બન્યક હોય છે. અને તેના કરતાં પણ બહુતર કમબન્ધક જીવ એ
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स्थानांकसने ७१८ सूत्रे 'अप्पा' इत्यत्राकारः, 'बहुए' इत्यत्रासंयुक्तत्वं च प्राकृतत्वात् । तथा-स्थित्यल्पवहुत्व-स्थितेरल्पत्वं बहुत्वं च, तघयो-"सव्वत्थोपो संजयस्स जघन्नओ ठिइबंधो।
एगिदियवायरपज्जत्तगस्स जघन्नओ ठिहवंधो असंखेज्जगुणो।" छाया-" सर्वेस्तोकः संयतस्य जघन्यतः स्थितिवन्धः ।
एकेन्द्रियबादरपर्याप्तकस्य जघन्यतः स्थितिवन्धोऽसंख्येय गुणः।" इति तथा-अनुभावाल्पवहुत्वम्-अनुभावस्याल्पत्वं बहुत्वं च, तद्यथा
" सव्वत्थोवाई अणंतगुणवुडिहाणाणि, असंखेज्जगुणवुझिहाणाणि असंखे. ज्जगुणाणि, संखिज्जगुणवुट्टिटाणाणि असंखिज्जगुणाणि जाव अणंतभागवुट्टिद्वा. णागि असंखेज्जगुणाणि"। __छाया-' सर्वस्तोकानि अनन्तगुणद्धिस्थानानि, असंख्येयगुणद्धिस्था. जैसे-" सम्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ ठिड्वंयो, एगिदिय यायर पज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइबंधो असंखेज्जगुणो"
संयत जीवको सर्वस्तोक जघन्य स्थितिबंध होता है और एकेन्द्रिय यादर पर्याप्तक जीवका जघन्य स्थितिबंध असंख्यातगुणित होता है। तथा अनुभावकी अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार है।
जैसे-" सव्वत्थोवाई अणंतगुणवुडिहाणाणि, असंखेज्जगुणवुडि. डाणाणि असंखेज्जगुणाणि, संखिज्जगुगवुद्धिवाणाणि असंखिज्जगुणाणि जाव अणंतभागवुडिाणाणि असंखेज्जगुणाणि" __इस कथनानुसार अनंत गुणवृद्धि का स्थान सर्वस्तोक है । असंख्यात गुणवृद्धिको स्थान इससे अनंत संख्यातगुणित होता है। संख्यात गुगછે કે જે આઠ પ્રકારના કર્મોને બન્ધ કરતો હોય છે. સ્થિતિની અપેક્ષાએ भ६५मय नीय प्रमाणे समा. “ सव्वत्थोवो संजयस्व जहन्नओ ठिइबंधो एगिदिय बायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइवधो असंखेज्जगुणो" सयत छन। જઘન્ય સ્થિતિ સર્વસ્તક (સૌથી અલ્પકાળની મર્યાદાવાળી હોય છે, અને એકેન્દ્રિય બાદર પર્યાપ્તક જીવને જઘન્ય સ્થિતિ બન્યું તેના કરતાં અસં. ખ્યાતગણે (અસંખ્યાતગણ કાળની મર્યાદાવાળ) હોય છે અનુભાવની અપેક્ષાએ અલ્પબહુત્વ આ પ્રમાણે સમજવું.
___“ सव्वत्थोवाई अणतगुणवुद्विाणाणि, असखेज्जगुणवुड्डिठ्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि संखिज्जगुणवुद्विाणाणि असंखिज्जगुणाणि जाव अणंत भागवुढिवाणाणि असंखेज्जगुणाणि "
આ કથન અનુસાર અનંતગણુ વૃદ્ધિનું સ્થાન સર્વસ્તક (સૌથી અલ૫) છે, અસંખ્યાતગણી વૃદ્ધિનું સ્થાન તેના કરતાં અનંત સંખ્યાતપણું છે. સંખ્યાતગણું
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सू० ५८ कर्मबन्धस्वरूपनिरूपणम् ७१९ नानि, असंख्येयगुणानि, संख्येयगुणद्धिस्थानानि, असख्येयगुणानि, यावद् अनन्तभागवृद्धिस्थानान्यमंख्ये यगुगानि, इति ।।
तथा प्रदेशाल्पबहुत्वं-प्रदेशानामरूपत्वं बहुत्वं च, तद्यथा-" अट्टविहवंध गस्स य आउयभागो थोयो नामगोयाणं तुल्लो विसेमाहिओ नागदंसणावरणंतरा याणं तुल्लो विसेसाहिभो, मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणीयस्स विसेसाहिओ" छाया-अष्टविधवन्धकस्याऽऽयुर्भागः स्तोको नाम - गोत्रयोस्तुल्यो विशेषाधिको ज्ञानदर्शनाऽऽवरणान्तरायाणां तुल्यो विशेषाधिको मोहस्य विशेषाधिको वेदनीयस्य विशेषाधिकः " इति ।४।
" चउबिहे संकमे" इत्यादि-संक्रमः-जीवो यां प्रकृति वध्नाति तदनुभावेन तदाकारेण प्रकृत्यन्तरस्थदलिकस्य वीर्यविशेषेण परिणमनम् , उक्तं चवृद्धिका स्थान इससे असंख्यातगुणित है, यावत् अनंत भागवृद्धिका स्थान असंख्यातगुणित है। प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पवहुत्व इस प्रकार है जैसे-अठ्ठविधबंधगस्सथ आउयभागो थोवो, नामगोयाण तुल्लो, विसेसाहिओ, नागदसणावाणंतरायाणंतुल्लो विसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणीयस्स विसेसाहिओ" इस कथनानुसार आठ प्रकारसे बन्धक जीवका आयुका भागस्तोक होता है। नाम-गोत्रका भागतुल्य होता है, परन्तु विशेषाधिक होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका भागतुल्य होताहै पर वह विशेषाधिक होताहै मोहनीय कर्म विशेषाधिक होता है और वेदनीय कर्मका भाग विशेषाधिक होता है । " चबिहे संकमे " इत्यादि. जीव जीस प्रकृतिका बन्ध વૃદ્ધિનું સ્થાન તેના કરતાં અસંખ્યાતગુણિત છે, (યાવ૮) અનંત ભાગ વૃદ્ધિનું સ્થાન અસંખ્યાતગુણિત છે. ___ प्रशानी अपेक्षा ममत्व मा प्रभावी सभा-" अविधबंधगस्स य आउयभागो थोत्रो, नामगोयाण तुल्लो, विसेसाहिओ, नाणदेखणावरणं तणायाणं तल्लो विसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणीयस्स विसेसाहिभो" આ કથનાનુસાર આઠ પ્રકારના કર્મને બધેક જીવને આયુને ભાગ ઑક (અ૫) હોય છે, નામ-શેત્રને ભાગ તુલ્ય હોય છે, પણ્ આયુના ભાગ કરતાં વિશેષાધિક હોય છે. જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ અને અન્તરાયને ભાગ તુલ્ય હોય છે, પરન્તુ નામ-ગોત્રના ભાગ કરતાં વિશેષાધિક હોય છે. મોહ. નીયાને તેના કરતાં પણ વિશેષાધિક હોય છે અને વેદનયને મોહનીય કરતાં पर विशेषाधिडाय छ " चउबिहे संकमे " त्याह
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स्थानासो ७२० ___“सो संकमोत्ति भन्नइ, जं बंधणपरिणओ पओगेणं ।।
पययंतरत्थदलियं परिणामइ नदणुभावे ज ॥ १॥" छाया-" स संक्रम इति भण्यते यद् बन्धनपरिणतः प्रयोगेण ।
प्रकृत्यन्तरस्थदलिकं परिणमयति तदनुभावे (तदाकारे) यत् ।।" इति स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रकृतिसंक्रमः-संक्रमस्य सामान्यलक्षणमनुसृत्य बोध्यः १, स्थितिसंक्रमः-मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेरुत्कर्षण मपकर्पणं वा, यद्वा-मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा प्रकृत्यन्तरस्थितौ प्रापणम् , उक्तं च____ " ठिइ संकमोत्ति वुच्चइ, मूलुत्तरपगईण उ जा हि ठिई।
उव्यहिया व ओवटिया व पगइंणियावऽन्नं ।१। छाया-स्थितिसंक्रम इत्युच्यते मूलोत्तरप्रकृतीनां तु या हि स्थितिः ।
उद्धर्तिता वा अपवर्तिता वा प्रकृति नीता वाऽन्याम् ।१। इति करता है उस प्रकृतिके आकार में प्रकृत्यन्तरके दलिकको परिणमा देना यह संक्रम है कहा भी है "सो संकमोत्ति भणिजो" इत्यादि यह संक्रम चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-प्रकृति संक्रम आदि. प्रकृति संक्रमका स्वरूप-" सो संकभोत्ति” इत्यादि-इत्यादि गाथा द्वारा जैसा कहा गया है वैताही है । मूल प्रकृतियों की या उत्तर प्रकृ. तियोंकी स्थितिको उत्कण रूपमें करना या अपकण रूपमें करना, अथवा मूलप्रकृतियोंको या उत्तर प्रकृतियों को प्रकृत्यन्तर की स्थिति में लाकर प्राप्त करा देना यह स्थिति संक्रमहै । कहाभी है-"ठिइ संक्रमोत्ति बुच्चा" इत्यादि. इसी प्रकारका कथन अनुभाव संक्रमके सम्बन्धमें
જીવ જે કર્મ પ્રકૃતિને અન્ય કરે છે, તે કર્મપ્રકૃતિના આકારમાં પ્રકત્યન્તર (અન્ય પ્રકૃતિના) દલિકાને પરિમિત કરી નાખવા તેનું નામ સંકમ छ. इधु ५५ छे -" सो संकमोत्ति भणिओ" त्याहि___मा सभ. या२ ५४२ने। छ-(१) प्रकृति सभ, (२) स्थिति संभ, (3) अनुमान सभ. मन (४) प्रदेश सभ. प्रति समर्नु २१३५ " स्रो संकमोत्ति" त्यादि आयामi प्रमाणे सभा भू प्रकृतिमानी અથવા ઉત્તર પ્રકૃતિઓની સ્થિતિનું ઉત્કર્ષણ અપકર્ષણ કરવું અથવા મૂળ પ્રકૃતિઓને અથવા ઉત્તર પ્રવૃતિઓને પ્રત્યુત્તરની (અન્ય કઈ પ્રકૃતિની) સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરાવી દેવી તેનું નામ સ્થિતિસક્રમ છે કહ્યું પણ છે કે– "ठिइ संकमो त्ति वुच्चद" त्याहि. मे २j ४थन अनुमा सम
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सुषा टीका ५ उ.२ सू० ५. कर्मवन्धस्यापनिरूपणम्
एवमतुमा संक्रमोऽपि ज्ञेयः, यदाह"जम्मि सकमणे उव्वट्टियभोवटिया व अणुभागा।
अनुभावसंकमो सो अन्नं पगच णीया वि ।१।" छाया~यस्मिन् संक्रमणे उद्वतिता अपवर्तिता वा अनुभागाः।
अनुभावसंक्रम एपोऽन्यां प्रकृति नीता अपि ॥१॥" इति । प्रदेशसंक्रमः-अन्य प्रकृतिस्वभावेन परिणम्यमान कर्मद्रव्यम् , उक्तं च
"जं ढलियमन्नपगई णिज्जइ सो संकमो पएसस्स" छाया- यदलिकमन्यप्रकृति नीयते स सक्रम प्रदेशस्य " इति ४। __" चउबिहे णित्ते " इत्यादि-निधत्त-निधान निहितं वा, भावे कर्मणि वा क्तमत्यये निपातनादयं शब्दः, तत्-उद्वर्तनाऽपवर्तनारहितानां शेपकरणानाम नहत्वेन कर्मणोऽवस्थापनम् । तच्चतुर्विधं प्राप्तम् , तद्यथा-प्रकृतिनिधत्तं १, स्थितिनिधत्तम् २, अनुभावनिधत्तं ३, प्रदेशनिधत्तम् ४, इति । एतानि सामान्यलक्षणानुसारेण योध्यानि । ४ ।। भी करना चाहिये । जैसाकि कहा गया है-" जस्ति संकमणे उव्वहिय" अन्य प्रकृतिके स्वभावले परिणता हुवा जो कर्मद्रव्य है वह प्रदेश संक्रम है। कहाभी है-"जं दलियमनपगई" इत्यादि ।
"चउविहे णिधत्ते" इत्यादि-निधत-निधान अथवा निहित ये एकार्थक शब्द हैं । निधत्त-शब्दभावमें अथवा कर्ममें " क्त" प्रत्यय करने पर निपातसे बना है । निधत्त बन्ध वह है जो कर्मउद्बन्धना
और अपवर्तनासे रहित शेष करणोंका अयोग्य होता है । यह प्रकृति निधत्त आदिके भेदले चार प्रकारका कहा गया है सो इन्हें सामान्य लक्षणके अनुसारही जानना चाहिये। वि पशु समन'. मनुभाव समनु स्१३५ " जस्सि संकमणे उवद्विय " ઈત્યાદિ ગાથા દ્વારા પ્રકટ કર્યું છે. અન્ય પ્રકૃતિના સ્વભાવે પરિણમન પામતું જે કદ્રવ્ય છે, તેનું નામ પ્રદેશ સંક્રમ છે કહ્યું પણ છે કે
"जं दलियमन्न साई" त्याह
"घउबिहे णिधत्ते " त्यादि. निधत्त, निधान मा निहित, से ત્રણે એકાર્થ શબ્દ છે. નિધત્ત-શબ્દ ભાવમાં અથવા કર્મમાં “ક્ત" પ્રત્યય લગાડવાથી નિધાતાથી બને છે નિધત્તબન્ધ એ છે કે જે કર્મઉંબાના અને અપવના સિવાયના કારણોને માટે અયોગ્ય હોય છે તેના પ્રકૃતિ નિધત્ત આદિચાર પ્રકાર કહ્યા છે. તે પ્રકારોને સામાન્ય લક્ષણ અનુસારજ સમજવા જોઈએ
स०-११
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૭રર
स्थानागसूत्रे " चउबिहे णिकाइए " इत्यादि
निकाचित-नितरां वन्धनं सर्वकरणानामनहत्वेन कर्मणोऽवस्थापनम् । तच्चतुविधं प्रज्ञप्तम् , तथथा-प्रकृतिनिकाचितं १, स्थितिनिझाचितम् २, अनुभावनिकाचितं ३, प्रदेशनिकाचितं ४। च एतान्यपि सामान्यलक्षणमनुसृत्य ग्राह्याणि ।
उक्तं चोभयविषये" उन्वट्टण ओवट्टण, करण गं केवलं निहत्तम्मि । ___ अन्नकरणाणऽभावो निजाइए सबकरणाणं ॥१॥ छाया-उद्वर्तनापवर्त्तनकरणद्विकं केवलं निधत्ते ।
अन्यकरणानामभावो निकाचिते सर्वकरणानाम् (अभावः) ॥१॥ यद्वा-पूर्ववद्धानां कर्मणां तप्तसंमीलितम्चीकलापसमानं निधत्तम् , अत्रकमणां न्यूनाधिककरणसामय विद्यते । तप्तसंमीलितसंकुट्टितसूचीकलापसमानं निका
“चउबिहे णिकाइए " निकाचित बन्ध चार प्रकारका कहा गया है । जो बन्ध सर्व करगोंका अयोग्य होता है वह निकाचित बन्ध है। यह प्रति निकाचित, स्थिति निकाचित, अनुभाव निकाचित और प्रदेश निकाचितके भेदसे चार प्रकारका कहा गया है। इन्हें भी सामान्य लक्षणके अनुसार समझना चाहिये, दोनों के विषयमें निधत्त निकाचके विषयमें ऐसा कहा गया है " उबद्दण ओवण " इत्यादि
निधत्तमें उद्धर्तना और अपवर्तना ये दो करण होते हैं, बाकीके अन्य करण नहीं होते हैं, परन्तु निकाचितमें तो कोई नो करण नहीं होता है, समस्त करणांका अभाव रहता है। यद्वा-पूर्वपदकर्मों को तपाकर मिलाये गये सूचिकलापके समान निधत्त होता है। निधत्तमें कर्मों को न्यूनाधिक करनेकी शक्ति है । तथा तपाकर मिलाकर कूटे गये
" चविहे णिकाइए " नियतम-५ यार ४२३हो छ. २ मध સર્વકરણની અપેક્ષાએ અગ્ય હોય છે, જે બન્યમાં એક પણ કરણને સદ્ભાવ હોતો નથી, તે બન્ધને નિકાચિત બન્ધ કહે છે તેના ચાર ભેદ નીચે પ્રમાણે છે–પ્રકૃતિ નિકાચિત, સ્થિતિ નિકાચિત, અનુભાવ નિકાચિત અને પ્રદેશ નિકાચિત. તેમને પણ સામાન્ય લક્ષણાનુસાર સમજવા જોઈએ. નિધન मन नियतन तत मा प्रमाणे -" उबट्टण ओवट्टण" त्याल. નિધન બન્યમાં ઉદ્વર્તન અને અપવર્તના, આ બે કરણને સદ્રભાવ હોય છે, બાકીના કેઈ કરણને સદ્ભાવ હોતો નથી, પરંતુ નિકાચિતબન્ધમાં કઈ પણ કરણને સદ્ભાવ હોતો નથી, તેમાં સમસ્ત કરણને અભાવ જ રહે છે અથવા તપાવીને એકત્ર કરેલા સૂચકલાપના (સેઈના ભારાજે નિધત્ત હોય છે. નિધત્તમાં
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की दीका स्था० ४ उ०२ सू० ५९ एक-कति-सर्वशब्दानां प्ररूपणम् ७२३ चितम् , अत्र कर्मणां पिण्डीभूतत्वेन न्यूनाधिककरणासम्भवः । विशेषतो बन्धप्रभृतिस्वरूपं जिज्ञासुना कर्मप्रकृतिसंग्रहणिरवलोकनीयेति ४॥ ५८
पूर्वमल्पबहुत्वमभिहितं, तत्रात्यन्तमल्पमेकसंख्यं तदतिरिक्तं त्वपेक्षया बहु त्ववाचकान् एक-कति-सर्वशब्दान् द्रव्यादिभिः सह चतुभिः स्थानकैराह
मूलम्च त्तारि एक्कगा पण्णत्ता, तं जहा-दविय एक्कए १, माउय एक्कए २, पज्जय एक्कए ३, संगह एक्कए४ ॥१॥ __चत्तारि कई पण्णता, तं जहा--दवियकई १, माउयकई २, पज्जवकई ३, संगहकई ४ । २ ।
चत्तारि सव्वा पण्णत्ता, तं जहा-नामसम्बए१,ठवणसव्वए २, आदेसप्तवए३, निरवसेससम्बए ४ ॥३॥सू० ५९॥
छाया-वत्वारि एककानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्रव्यैककं १, मातृकै ककं २, पर्यायककः ३, सङ्ग्रहैककः ४ ॥१॥ सूचीकलापके समान निकाचित होता है। यहां कर्मों को पिण्डीभूत हो जानेसे उनमें न्यूनाऽधिकता करना असम्भवहै। विशेष रूपले बन्ध आदिके स्वरूपको जाननेवालेकेलिये कर्मप्रकृति स ग्रहणी देखना चाहिये।सू०५८!!
कहे गये अल्प-बहुत्वमें जो अत्यन्त अल्प है वह एक संख्यावाला होता है, और इससे जो अधिक होता है वह अपेक्षाले बहु होता है। अव सूत्रकार अल्प और बहुत्व एक-कति और सर्व शब्दोंको द्रव्यादिकोंके साथ लेकर चार स्थानका कथन करते हैं। - " चत्तारि एक्कगो पण्णत्ता" इत्यादिભારા) કમેને ન્યૂનાધિક કરવાની શક્તિ હોય છે તથા તપાવીને એકત્ર કર્યા બાદ ટીપવામાં આવેલા સૂચકલાપ સમાન નિકાચિત હોય છે. અહી કમેં પિડીભૂત થઈ જવાને કારણે તેમાં ન્યૂનાધિતા કરવાનું અસ ભવિત બને છે. અન્ય આદિના સ્વરૂપનું વિસ્તારપૂર્વકનું કથન કર્મપ્રકૃતિ સ હણીમાંથી વાંચી લેવું. સૂ. ૫૮ છે
આગલા સૂત્રમાં જે અ૫બહત્વનું નિરૂપણ કર્યું, તેમાં જે અત્યંત અલ્પ છે તે એક સંખ્યાવાળું હોય છે, અને તેના કરતાં જે અધિક હોય છે, તે તેની અપેક્ષાએ બહુ હોય છેહવે સૂત્રકાર અલપ-બહત્વ દર્શક એક કતિ (કેટલાક) અને સર્વ શબ્દોને દ્રવ્યાદિકની સાથે લઈને ચાર સ્થાનકનું ४यन रे छ. " चत्तारि एक्कगा पण्णत्ता " त्याह
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स्थानाङ्गो चत्वारि कति प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्रव्यकति १, मातृकाकति २, पर्यायकति २, सङ्ग्रहकति ४।२। ___ चत्वारि सर्वाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-नामसर्वकं १, स्थापनासर्वकम् २, आदेशसर्वकं ३, निरवशेषसर्वकम् ४ ॥३॥ ५९॥ _____टीका-" चतारि एकगा" इत्यादि-एककानि-एकान्येवैककानि, स्वार्थे कन्प्रत्ययोऽत्र वोध्यः, चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्रव्यैक द्रव्यमेवैकर्क द्रव्यैक-सचित्ताचित्तमिश्ररूपम् । तत्र-सचित्तमेकं पुरुपद्रव्यम्, अचित्तमेकं स्वर्णपिण्डादिद्रव्यं, मिश्रं-कटककुण्डलादिभूपितमेकं पुरुपद्रव्यम् ।१।। ___तथा-मातृकैफकं-मातृकाशब्दोऽत्र मातृकापदपरः, तेन मातृकापदमेवैककं, मातृकैककम्-एकं मातृकापदमित्यर्थः, यद्वा-मध्यमपदलोपिसमासः शाकपार्थिवा
चार प्रकारके एकक कहे गये हैं, जैसे-द्रव्य एकक१, मातृका एकक२, पर्याय एकक ३, और संग्रह एकक ४ । कई-बलु चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-द्रव्य कई १, मातृका कई २, पर्याय कई ३, और संग्रह कई ४। चार प्रकारके सर्व कहे गये हैं, जैसे-नाम सर्वक १, स्थापना सर्वक २, आदेश सर्वक ३ और निरवशेष सर्वक ४।
इस सूत्रका स्पष्टीकरण इस प्रकारसे है-यह द्रव्य एकक आदिके भेदसे चार प्रकारका कहा गया है उसका भाव ऐसा है-द्रव्यरूप जो एकक है वह द्रव्य एकक है, यह सचित्त अचित्त और मिश्ररूप होता है। द्रव्यरूप पुरुष सचित्त एक कहै १, स्वर्ण पिण्डादिरूप अचित्त एककहै २ और कटककुण्डल आदिसे विभूषित द्रव्यरूप पुरुष मिश्रा एककहै ३
" मातृकैककम् "-यहां मातृका शब्द मातृका पद परक है । अतः
सूत्राथ-या२ १२ना ४४ ह्या छ-(१) द्र०५ ४४, (२) मातृ ४४, (3) पर्याय ४४ मन (४) संड मे४४. या२ २ ति ( कई ) ह्या छ-(१) २०५४ति, (२) भातुति , (3) पर्याय तिमन (४) सड प्रति. था२ ४२ना सव' हा छ-(१) नाम , (२) स्थापना सबंध, (3) આદેશ સર્વક અને (૪) નિરવશેષ સર્વક
આ સૂત્રનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે–તેના દ્રવ્ય એકક આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે. દ્રવ્યરૂપ જે એકક છે તેને દ્રશ્ય એકક કહે છે. તે સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રરૂપ હોય છે. દ્રવ્યરૂપ પુરુષ સચિત્ત એકક છે. સુવર્ણપિંડાદિ રૂપ અચિત્ત એકક છે. અને કુંડળ આદિથી વિભૂષિત દ્રવ્યરૂપ પુરુષ મિશ્ર એક છે.
" मातृकैककम् " मी मातृ ५४ भातृ ५६५२४ छ तथा भातृ ५४
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क-कति सर्वशब्दानां प्ररूपणम्
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दित्यात्, तद्यथा-" उपन्ने वे "त्यादि, इह मवचने दृष्टिवादे सकलनयवादमूलभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, यथा-" उप्पन्ने वा विगमे वा धुवेइवेति, अमूनि च मातृकापदानीव ' अ आ ' इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थ व्यापार व्यापकत्वान्मातृका पदानी " - ति |२|
तथा - पर्यायैककः- पर्यायो धर्मः स एवैकका पर्यायैककः एकः पर्यायः, स चाऽऽदिष्टाना दिष्टभेदेन द्विविधः, तत्राऽऽदिष्टः कृष्णादिः, अनादिष्टो वर्णादिः । ' पर्यायो विशेषो धर्मः ' इत्येते समानार्थाः | ३ |
सुधा टोका स्था० ४ ०२०५९ एक
मातृका पद रूप जो एकक है वह मातृका एकक है । अथवा - " एक मातृकापदं " इति मातृककम् - यहां शाकपार्थिवादि जैसा मध्यमपद लोपी समास है । जैसे- शाकप्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः में मध्यम पद प्रियका लोप करके शाकपार्थिवः बनता है, उसी प्रकार से यहां भी मध्यम पद " पद " का लोप करके " मातृकैककम् " बना है। प्रवचन में द्रष्टि - वाद में जैसे-" उपपन्नेइवा, विगमेइया, धुवेइवा, ये मातृकापद है, उसी प्रकार अ आ आदि वर्ण ' मातृकापद' है । क्योंकि ये मातृकापदों की तरह सकल शास्त्रों के अर्थका व्यापार में व्यापक हैं २ |
46
पर्यायैकक " - पर्याय नाम धर्मका है । पर्यायरूप जो एकक है; वह पर्यायैक है, यह पर्यायैकक एक पर्यायरूप है । आदिष्ट अनादिष्ट के भेद से यह दो प्रकारका है। कृष्णादिपर्याय आदिष्ट, और वर्णादि पर्याय अनादिष्ट है । पर्याय विशेष और धर्म ये समानार्थक हैं ३ |
રૂપ જે એકક છે, તે માતૃકા એકક છે
"
વર્ણાક્ષર રૂપ એકકને માતૃકા એકક કહે છે. અથવા 66 एक मातृका पर्द इति मातृकैककम् ” भेवे। पशु भातृ ४४ शष्टता त्रियड थाय छे, भड शापार्थिवादी वा मध्यभयह सोची समास छे. मडे " शाकप्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः " શાકપાર્થિવમાં પ્રિય પુત્રના લેપ કરીને આ સમાસ આપ્યા છે. શાક જેને પ્રિય છે એવેના પાર્થિવ, તે શાકપાર્થિવ. એ જ अमाहो अडीं यागु मध्यम यह " यह " नोसोय उरीने " मातृकैककम् ” श मन्यो छे प्रवयनमा दृष्टिवादमां नेवी रीते " उपपन्नेइ वा विगमेइ वा, धुवेइवा " मे भातृा यह ३५ छे, थेप्रमाये 'अ', આ ’ આદિ વણુ માતૃકા પદ્મ ' છે કારણ કે તેઓ માતૃકાપદોની જેમ સકલ શાઓના અર્થના વ્યાપારમાં
“
"
વ્યાપક છે
“ पर्यायैककः " पर्याय भेटले धर्म पर्याय ४४ तेने पर्याચૈકક કહે છે તે પર્યાયકક એક પર્યાયરૂપ છે. આદિષ્ટ અને અનાદિષ્ટના ભેઢથી તે એ પ્રકારનું છે કૃષ્ણાદ્રિ પર્યાય આદિષ્ટ છે અને વઢિ પર્યાય અનાષ્ટિ છે, પર્યાય, વિશેષ અને ધર્મ એ સમાનાર્થક છે.
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स्थानाङ्गसूत्रे
तथा - सङ्ग्रहैककः- सङ्ग्रहणं सङ्ग्रहः समुदायः स एवैककः सङ्ग्रहैककःएकःसङ्ग्रह इत्यर्थः, यथा एकः शालिरिति, शालिसमुदायाश्रयणेनैकवचनान्तशालिशब्दोऽत्र प्रवर्तते, तथा नैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते, बहवोऽपि शालयः शालिरित्युच्यते, लोके तथाव्यवहारदर्शनात्, लोके सम्पन्नः शालिरिति कथनेन शालयः सम्पन्ना इत्यर्थः स्फुटति |8|
" संग्रहैकक " - - संग्रह नाम समुदायका है, संग्रहरूप जो एकक है वह संग्रहैकक है, जैसे " एकाशाली : " कहने से शालि समुदाय के आश्रय से एक वचनान्त शालि शब्दका प्रयोग होता है । तथाच - एकभी शालि शालि कहलाता है और अनेक भी, क्योंकि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है। ऐसा भी अर्थ स्फुट होता है ४ ।
तात्पर्य यह है कि- द्रव्य, अ-आ आदि अक्षर, मनुष्य आदि पर्याय और समुदाय ये सब अनेक हैं । जीव अजीव आदि द्रव्य हैं, अ-आ आदि वर्णमाला के अक्षर हैं १. मनुष्य आदि पर्याय हैं २, और अनाज आदि अनेक वस्तु हैं ३ । परन्तु जीव अजीव आदि एक द्रव्य हैं। इस लिये एक एकद्रव्यकी अपेक्षासे होता है, अतः वह द्रव्यैकक है । दूसरा एक मातृका पदकी अपेक्षासे होता है । क्योंकि जितने भी वर्ण हैं, मातृकापद के अन्तर्गत हैं, अतः वह मातृकापदरूप एकक है । तीसरा एक,
66
સ ગ્રહૈકક ’~~~સ ગ્રહ એટલે સમુદાય. તે સગ્રડરૂપ જે એક છે તેને अथ डे छे. मडे " एकः शालि " मा प्रमाणे उडेवाथी शादि (शोभनी એક જાત ) સમુદાયને આધારે એકવચનાન્ત શાલિ શબ્દને પ્રયાગ થાય છે. અથવા એક શાલીને પણ શાલિ કહે છે અને અને શાલિને-શાલિના જથ્થાને પણ શાલિ જ કહે છે, કારણ કે લેાકેામાં આ પ્રકારના થવ ુાર જોવામાં भावे छे ते अभां " सम्पन्नः शालि. " मा प्रभावाथी " सम्पन्नाः शालयः " આ પ્રકારના અર્થ પશુ સ્ફુટ ( પ્રકટ ) થાય છે આ સમસ્ત કથનનું તાત્પર્યં એ છે કે દ્રવ્ય, અ-આ આદિ અક્ષર, મનુષ્ય આદિ પર્યાય અને સમુદાય એ બધાં અનેક છે. જીવ-અજીવ આદિ દ્રશ્ય છે, અ-મ આદિ વ માળાના
અક્ષર છે, મનુષ્ય સ્માદિ પર્યાય છે અને અનાજ આદિ અનેક વસ્તુ છે, છે, પરન્તુ જીવ–અજીવ આદિ એક દ્રવ્ય છે. તેથી જે એકક થાય છે તે એક કૂષ્પની અપેક્ષાએ થાય છે, તે કારણે તેને દ્રયૈકક કહે છે, બીજુ એકક भातृडायहनी अपेक्षा मे थाय छे, अरण है अ-आदि भेट व छे, તેમના માતૃકાદમાં સમાવેશ થઇ જાય છે, તેથી તેને માતૃકાપક રૂપ એકક
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सुघाटीका स्था० ४ उ०२ सू० ५९ एक-कति सर्वशब्दानां प्ररूपणम्
" चत्तारि कइ " इत्यादि - कतिशब्दः संख्यापरिमाण विशेषविषयप्रश्नविषपदार्थवाचको बहुवचनान्तः, स च सामान्यतया नपुंसके प्रयुक्त, तानि कति चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - द्रव्यकति- द्रव्याण्येव द्रव्यकति-कति द्रव्याणीत्यर्थः, यद्वा-द्रव्यविषयः कतिशब्दो द्रव्यकतिः, एवं मातृकादिष्वपि वोध्यम् । नवरंसग्रहाः- शालियवगोधूमाः, त एव कति सङ्ग्रहकति | ४ |
,
पर्यायी अपेक्षा से होता है, क्योंकि पर्याय सामान्य की अपेक्षा समस्त पर्याय एक है, अतः वह पर्यायैरुक है । तथा चतुर्थ एक संग्रहकी अपे. क्षासे होता है अतः वह संग्रहैकक है, यद्यपि सत् की अपेक्षा 'सदैक इस रूपसे एकही एक हो सकता है परन्तु यहां चतुःस्थान के अनुरोध से इसका ग्रहण नहीं हुवा है ।
" चत्तारि कह " इत्यादि -- कति शब्द सदा बहुवचनान्त है और यह संख्या एवं परिमाणविशेष विषयक प्रश्न सम्बन्धी पदार्थका वाचक होता है, यहां यह सामान्यरूप होनेसे नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त हुवा है । वैसे तो कति शब्द व्याकरणमें पुंलिङ्गमें निर्दिष्ट हुवा है, ये कति चार कहे गये हैं । जैसे- द्रव्य कति आदि, द्रव्यरूप जो कनि शब्द है वह द्रव्यकति है । जैसे-कति द्रव्याणि, यहां द्रव्योंकोही कतिरूप मान लिया गया है, अथवा द्रव्यको विषय करनेवाला जो कति शब्द है वह द्रव्यकति है । इसी तरह से मातृका आदि पदोमें समझ लेना चाहिये,
1
કહે છે. ત્રીજુ એકક પર્યાયની અપેક્ષાએ થાય છે, કારણ કે પર્યાય સામાન્યની અપેક્ષાએ સમસ્ત પર્યાય એક છે, તેથી તે એકકને પપૈકક કહે છે. તથા थोथु थोउड संग्रह ( सभूड ) नी अपेक्षाओ थाय छे, तेथी तेने स है !! કહે છે જો કે સત્ની અપેક્ષાએ ‘· સૌક' આ રૂપે એક જ હાઇ શકે છે, પરન્તુ અહીં ચાર સ્થાનનું પ્રકરણ ચાલતુ હાવાથી તેને ગ્રહણ કરેલ નથી " चचारि कइ " त्याहि--' उति' शब्द डुभेशा मडुवयनमां वपराय છે. તે સખ્યા અને પરિણામ વિષયક પ્રશ્ન સબંધી પદાર્થને વાચક હોય છે. અહીં સામાન્ય રૂપે તેના પ્રયોગ થયેલા હાવાથી તેને નપુસકલિંગ ( નાન્યતર જાતિ ) માં વાપરવામાં આવેલ છે—આમ તે કતિ પદ વ્યાકરણમાં પુલૈિંગ (नर जति) नुं अधु छे ते उति ( हु ) २ अारना ह्या छे - (१) द्रव्य श्रुति, (२) भातृ श्रुति, (3) पर्याय उति, (४) संग्रह उति द्रव्य३५ ने अति छेतेने द्रव्यति से छे. नेम" कति द्रव्याणि " महीं द्रव्याने કતિરૂપ માની લેવામાં આવેલ છે અથવા દ્રબ્યાનું પ્રતિપાદન કરનારા જે કતિ શબ્દ છે તેનું નામ દ્રવ્યકતિ છે એ જ પ્રમાણે માતૃકા આદિ પદોમાં પશુ સમજી લેવું.
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स्थानासूत्र " चत्तारि सव्या" इत्यादि-सर्वाणि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-नामसचकं-नाम च तत् सर्वं च नाम सर्वकं-सर्व नामेत्यर्थः, यद्वा-सचेतनादेर्यस्य वस्तुनः सर्वमिति नाम तत् नामसर्वकमिति, यद्वा-नाम्ना सर्वकं नामसर्वकम् । १ । विशेष--शालि, यव, गोधूम-गेहूं आदि यहां संग्रह शब्दसे लिये गये हैं, इन संग्रहरूप जो कति है वह संग्रहकति है । तात्पर्य ऐसा है कि कति शन्द बहुवचनान्त होने से बहुत्वार्थका वाचक होता है । अतः द्रव्योंको अनेक होनेसे इनकीही बहुताका साधर्म्य वाचक कति शब्द कह दिया गया है। इसी तरह मातृका पदो में भी अनेकता बहुत्व होनेसे उन्हें कति मान लिया गया है । पर्यायों को भी इसी हेतुसे कतिरूप मान लिया गया है । तथा-संग्रह समुदायभी भिन्न-२ होते हैं, अत:-अने कतोके साधयंसे संग्रहरूप समुदायकोभी कतिरूप मान लिया गया है। ___" चत्तारि सव्वा "--सर्व भी चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-नाम सर्व आदि. इनमें नाम रूप जो सर्व है वह नाम सर्वक है, अर्थात् सर्व ऐसा जो नाम है वह नामसर्वक है । भाव यह है कि सचेतन आदि वस्तुका "सर्वम् " ऐसा लोकव्यवहार चलाने के लिये नाम रख लिया जाता है वह नाममर्वक है । यही भाव-यदा नाम्ना सर्वकम् इस कथ( વિશેષ–શાલિ, જવ, ઘઉ આદિ અહીં સંગ્રહ શબ્દથી ગૃહીત થયેલ છે. એ સગ્રહરૂપ જે કતિ છે તેને “સંગ્રડ કતિ” કહે છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કતિ શબ્દ બહુવચનનું પદ હેવાથી બહત્વદર્શક હોય છે દ્રમાં અનેકતા હોવાથી તેમની જ બહુતાને સાધમ્ય વાચક કતિ શબ્દને કહેવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે માતૃકાપદે માં (વર્ણાક્ષરોમાં) પણ અનેકતાને સદ્ભાવ હોવાથી તેમને પણ કતિ (બહુ) માની લેવામાં આવેલ છે. પર્યાયને પણ એ જ કારણે કતિરૂપ માનવામાં આવેલ છે. તથા સંગ્રહ સમુદાય પણ ભિન્ન ભિન્ન હોય છે, તેથી અનેકતાના સાધમૅથી સંગ્રહ રૂપ સમુદાયને પણ કતિ રૂપ માની લેવામાં આવ્યો છે.
"चत्तारि सव्वा', सपए यार ४१२ Bा छ-(१) नाम सर, (२) स्थापना Aq४, (3) माहेश सब मन (४) नि२१शेष स. नाम३५ જે સર્વ છે તેને નામસર્વક કહે છે. એટલે કે “ સવ” એવું જે નામ છે, તે નામસર્વક છે. આ કથનને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે—લોકવ્યવહાર ચલાવવા भाट सयतनाहि वस्तुनु “ सर्वम् ” मेj नाम २१मा आवे छे तने नाम स: ४ड छे. " यद्वा नाम्नां सर्वकम् ” ४थना ५६ मे २१ मा छे.
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ ० ५९ एक-कति सर्वशब्दानां प्ररूपणम्
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स्थापनार्थकं स्थापनया - सर्वमेतदिति कल्पनया सर्व स्थापना सर्वकम् - अक्षादि सर्वे द्रव्यम् । २ ।
आदेश सर्वकम् - आदेशनमा देश :- व्यवहारः, तस्मात् सर्वं तदेव, व्यवहार सर्वमित्यर्थः, आदेशसर्वता च बहुतरे पधाने वा भवति, दृश्यते च लोके यथापरिगृहीतभक्तमध्याद् बहुतरे भुक्तेऽल्पे चावशिष्टे सर्वभक्तं भुक्तमिति, ग्रामप्रधानेषु पुरुषेषु गतेषु अप्रधानेषु चावस्थितेषु 'सर्वो ग्रामो गत' इति च व्यवहारः | ३ | नाभी है । स्थापना सर्वकम् " जिस किसी पदार्थमें “ सर्व " ऐसी जो स्थापना आरोप कर ली जाती है वह स्थापना सर्वक है, जैसे- अक्षा दिको में " सर्व " ऐसी स्थापना करली जाती है।
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आदेश सर्वक " -- आदेश नाम व्यवहारका है, इस व्यवहार से जो सर्व मान लिया जाता है वह आदेश सर्वक है । यह आदेश सर्वता बहुतर में, या प्रधान में होती है । जैसे- लोकनें जब कि भोज्यपङ्क्तिमें अधिक आदमी जीप जाते हैं और थोडेसे बचे रहते हैं, तब लोग कह दिया करते हैं कि सब जीम गये। अथवा -- जितना भोजन तैयार किया गया है उसमें से जब अधिकतर भोजन खरच लिया जाता है और थोडा बाकी बचा रहता है । तो ऐसा व्यवहार देखा जाता है कि सब भोजन खा लिया गया है यह आदेशकी अपेक्षा सर्वता है ।
ऐसे ही जब ग्राम प्रधान पुरुष चले जाते हैं और अप्रधान पुरुष रहभी जाते हैं, तो भी सब ग्रांम चला गया ऐसा व्यवहार होता है, यह प्रधानकी अपेक्षा सर्वना है ३ ।
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” જે કે ઈ પદાર્થ માં “ સવ” એવી જે સ્થાપના આરેપણા ४२वामां आवे छे, तेने ' स्थापना सर्व'' छे मरे अक्षाहि मां 'सर्व' એવી સ્થાપના કરવામાં આવે છે. “ आदेश सर्वक " महेश मेटसे व्यवहार તે વ્યવહારની અપેક્ષાએ જેને સ*' માની લેવામાં આવે છે તેને ‘ આદેશ સવ કહે છે આ આદેશસતા બહુતરમાં અથવા પ્રધાન ( મુખ્ય ) માં હાય છે. જેમકે કોઇ ભાજન સમારમમાં અધિક માણસાએ જમી લીધું હાય અને થેડાને જ જમવાનું ખકી હાય ત્યારે એવું કહેવામા આવે છે કે સવ લેાકેા જમી ગયા છે અથવા જેટલુ ભાજન તૈયાર કરાવ્યું હાય તેના અધિ કતર ભાગ વપરાઈ ગયા હોય અને ઘણા થાડા ભાગ વધ્યું. હૈય, ત્યારે એમ કહેવામાં આવે છે કે સઘળી રસાઈ ખવાઈ ગઈ છે આ પ્રકારની સતાને આદેશની અપેક્ષ એ સતા કહે છે એ જ પ્રમાણે કાઇ સભામાંથી મુખ્ય મુખ્ય માણસા ચાલ્યા જાય અને સામાન્ય માણુસેા જ બાકી રહેત્યારે પણ એવું કહેવામાં આવે છે કે सौ यादया गया " मा प्रधाननी अपेक्षाओ ( सर्वत) छे.
स- ९२
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स्थानात सूत्रे
निरवशेष सर्वकम् - अवशेषः - शेषः, तरमान्निर्गतं निरवशेपं, तच्च सर्वं च निरवशेषसर्व तदेव निरवशेषसर्वकम् - अवशिष्टव्यक्तिमनाश्रित्य सर्वम् यथा - ' सर्वे देवा अनिमिषा: ' अत्र निमेषराहित्यं सर्वेषु देवेषु न तु कामपि देवव्यक्तिं विहाय ततिष्ठतीति । सर्वेषु भङ्गेषु स्वार्थिकः ककारो बोध्यः | ४ | ० ५९ ॥
पूर्वं सर्व निरूपितं, तत्प्रस्तावात्साम्प्रतं सर्वमनुष्य क्षेत्र पर्यन्तगते पर्वते पूर्वादिषु दिक्षु कूटानि निरूपयितुमाह
मूलम् — माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउद्दिसिं चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा- रयणे१, रयणुच्चएर, सव्वरयणे३, रयणसंचये । ॥ सू० ६० ॥
" निरवशेष सर्वकम् " जो किसी भी एक व्यक्तिमें रहने से बाकी न बचे, अर्थात् समस्त व्यक्तियोंमें रहे वह निरवशेष सर्व है । जैसे " सर्वे देवा: - अनिमिषाः " समस्त देव निमेष रहित हैं, यहां निमेषराहित्य किसी भी देव व्यक्तिको छोड़कर नहीं रहता है । अथवा- समस्त पदार्थ सत् स्वरूप हैं, यहां सत्रूपता किसी भी पदार्थको छोड़कर नहीं रहती है, इस प्रकार से यह निरवशेषसर्वक है । यहां सर्वत्र भङ्गों में स्वार्थिक ककार हुवा है | सू० ५९ ॥
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सर्वका निरूपण करके अब सूत्रकार सर्वके प्रस्तावको लेकर सर्व मनुष्य क्षेत्र पर्यन्तगत पर्वत के पूर्वादि दिशाओंमें कूटोंकी निरूपणा करते हैं । माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउद्दिसिं चत्तारि " इत्यादि. આદેશ સતાનુ દેષ્ટાન્ત છે निरवशेष सर्वकम् " ? सघणी व्यक्तियोने લાગુ પડી શકે-એક પણ વ્યક્તિના અપવાદ ન રહે એવા સર્વાંને નિરવશેષ सर्व' हे छे. प्रेम " सर्वे देवाः अनिमिषाः " सर्वे (मधा) हेवे। अनिभिष (મટકુ) હોય છે. અહીં નિમેષ રહિતતાના ગુણુ દરેક દેવને લાગૂ પડે છે-એક પણ ધ્રુવ તેમાં અપવાદરૂપ નથી. અથવા સમરત પદા ३५ छे. सत् " અહીં સરૂપતાના એક પણ પટ્ટામાં અભાવ નથી, એમ સમજી શકાય છે. નિરવશેષ સકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. અહીં ભાંગાઓમાં સર્વત્ર સ્વાકિ " क 'साग्यो छे ॥ सू. ७ ॥
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સર્વનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર સર્વ મનુષ્ય ક્ષેત્રગત પર્વતાના પૂર્વાદ દિશાઓના ફ્રૂટનું નિરૂપણ કરે છે—
माणुसुत्तरस्स णं पव्यरस चउद्दिसिं चत्तारि " इत्यादि --
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सुधा टीका स्था० ४ उ.२ सू०६० मानुषोत्तरपर्वतस्य कूटनिरूपणम् ७३१
छाया-मानुषोत्तरस्य खलु पर्वतस्य चतुर्दिशि चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-रत्नं १, रत्नोच्चयं २, सर्वरत्नं ३, रत्नसंचयम् ४ । सू० ६० ॥
टीका-" माणुसुत्तरस्से " त्यादि
मानुपोत्तरस्य खलु पर्वतस्य चतुर्दिशि चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिश्चतुर्दिशि, सूत्रे प्राकृतत्वादनुस्वारः चतसृषु दक्षिणपूर्वादिषु दिक्षु चत्वारि कूटानिशिखराणि प्रज्ञप्तानि, इह दिग्ग्रहणे विदिशां ग्रहणं, चतुषु कोणेष्वित्यर्थः । तानि कूटानि दक्षिणपूर्वादिदिक्रमेण निरूपयन्नाह-तद्यथेति, रत्नं तदाख्यं कूटं रत्नकूटमित्यर्थः, तच दक्षिणपूर्वस्यां दिशि-अग्निकोणे दक्षिणदिग्वति सुपर्णकुमारेन्द्रस्य वेणुदेवस्य निवासस्थानम् १, ___ तथा दक्षिणपश्चिमदिगन्तराले-नैतकोणे रत्नोचयं-तदाख्यं कूटं रत्नोच्चयकूटमित्यर्थः, तच्च वेलम्ब सुखदमिति नामान्तरमपि मजते, तस्कूटं वेलम्बस्य दक्षिणदिग्वति वायुकुमारेन्द्रस्य वर्तते २, ___ तथा-पूर्वोत्तरस्यां दिशि-ईशानकोणे-सर्वरत्नं-सवरत्नकूट, तच्च उत्तरदिग्यत्तिनो वेणुदालिनामकसुपर्णकुमारेन्द्रस्य बोध्यम् ३, टीकार्थ-पुष्कराईक्षेत्रमें मानुषोत्तर पर्वतके चारों दिशाओंमें चार कूटहैं, यहाँ दिशापदसे पूर्वादि चार दिशाएं भी ली गई हैं। इसी तरहसे चारों दिशाओं और विदिशाओंमें ये चार कूट फैले हुवे हैं । रत्नकूट दक्षिण पूर्वदिशामें अग्निकोणमें है । यह दक्षिण दिग्वर्ती सुपर्णकुमारेन्द्र वेणु. देवका निवासस्थान है १, तथा दक्षिण-पश्चिममें नैनकोणमें रत्नोच्चय कूट है। इसका-" वेलम्चसुखद " भी नाम है, यह छूट दक्षिण दिग्वर्ती वायुकुमारेन्द्र वेलम्बको है २, तथा-पूर्वोत्तरमें-ईशानकोणमें सर्वरत्न कूट है, यह उत्तरदिग्वर्ती वेणुदालिक सुपर्णकुमारेन्द्रका है ३, पश्चिमो. 1 ટકાથ–પુષ્પરાધ ક્ષેત્રમાં માનુષેત્તર પર્વતની ચારે દિશાઓમાં ચાર ફૂટ છે. અહીં દિશાદ દ્વારા પૂર્વાદિ ચાર દિશાઓ અને વિદિશાઓ પણ ગૃહીત થઈ છે. આ રીતે ચાર દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં તે ચાર ફૂટ ફેલાયેલા છે દક્ષિણ-પૂર્વ દિશામાં (અગ્નિકેણમાં) રત્નકૂટ આવેલું છે. તે દક્ષિણ દિશાવર્તી સુપર્ણકુમારે વેણુદેવનું નિવાસસ્થાન છે. દક્ષિણ-પશ્ચિમમાં (નૈઋત્યકેણમાં) ર ચય કૂટ આવેલું છે. તેનું બીજું નામ “વેલમ્મસુખદ” છે આ ફૂટ દક્ષિણ દિશાવતી વાયુકુમારેન્દ્ર વેલમ્બનું નિવાસસ્થાન છે પૂર્વોત્તરમાં (ઇશાન કેણમાં) સર્વરનકૂટ આવેલું છે. તે ઉત્તરદિગ્વતી વેણુદાલિક નામના સુપર્ણ કુમારેન્દ્રનું નિવાસસ્થાન છે. પશ્ચિમોત્તરે (વાયવ્યકોણમાં) રત્નસંચય ફૂટ
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स्थानागने ___ तथा-पश्चिमोत्तरस्यां दिशि-वायुकोणे रत्नसंचयं-रत्नसंचयकूट, तच्च 'प्रभञ्जन' नाम्नाऽपि प्रसिद्ध, तत्कूटयुत्तरदियतिनः प्रभञ्जननामकवायुकुमारेन्द्रस्य वोध्यम् । उक्तञ्च" दक्षिणपुत्वेण रयण,-कूडं गरुडस्स वेणुदेवस्त ।
दक्षिणपच्छिम स्यणु,-चयं च वेलंवदेवस्स ॥१॥ पुव्युत्तरेण सच,-रयणं देवस्स वेणुदालिस्स।
पच्छिम उत्तर रयण,-संचय कूडं पभंजस्स ।। २ ॥ छाया-दक्षिणपूर्व रत्नकूटं गरुडस्य वेणुदेवस्य ।
दक्षिण पश्चिमे रत्नोचयं च वेलम्बदेवस्य ॥१॥ पूर्वोत्तरे सर्वरत्नं देवस्य वेणुदाले ।
पश्चिमोत्तरे रत्नसंचयकूटं प्रमतस्य (प्रभञ्जनस्य ) ॥ २॥ इह चतुःस्थानकानुरोवेन कूटचतुष्टयमेवोक्तम् , तदतिरिक्तान्यपि द्वादश कूटानि सन्ति, तत्र त्रीणि त्रीणि पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरासु द्वादशाप्यकैकदेवाधिष्ठितानि सन्ति, ।
उक्तं च" पुग्वेण तिनि कूडा दाहिणओ तिणि तिण्णि अवरेणं ।
उत्तरओ तिन्नि भवे चउदिसि माणुसनगरस ॥ १॥" छाया-पूर्वस्यां (दिशि) त्रीणि कूटानि दक्षिणतः त्रीणि त्रीण्यपरेण।
उत्तरतस्त्रीणि भवेयुश्चतुर्दिशि मानुपनगस्य ॥ १ ॥ इति, एवं दिग्विदिगाश्रयेण तु सर्वाणि पोडश कूटानि भवन्तीति ।। मू० ६० ॥ सर वायुकोणमें रत्तसंचयक्रूट है । यह प्रभञ्जनभी कहा जाता है, यह उत्तरदिग्वर्ती प्रभञ्जन वायुकुमारेन्द्रका निवासस्थान है ४ । कहाभी है"दक्किणपुव्वेण रयणकूड" इत्यादि. यहां चतुःस्थानके अनुरोधसे चार कहे गये हैं, इनसे अतिरिक्त औरभी बारह कूट हैं। ये कूट पूर्व दक्षिण पश्चिम-उत्तर में तीन तीन हैं और प्रत्येक एक एक देवाधिष्ठित हैं। कहाभी है-पूव्वेण तिन्नि कूडा" इत्यादि । यो दिशा विदिशाके आश्रयसे सब कूट सोलह होते हैं ।। ६० ।। આવેલું છે, તેને પ્રમજન પણ કહે છે. તે ઉત્તરદિશ્વર્તી પ્રભંજન નામના वायुमारेन्द्रनु निवासस्थान छ. ४यु ५५ छे -" दक्खिगपुव्वेण रयणकूड" ઈત્યાદિ. અહીં ચાર સ્થાનને અધિકાર ચાલતો હોવાથી ચાર ફૂટની જ વાત કરી છે, પણ એ સિવાય બીજાં બાર ફૂટ પણ છે. તે કૂટ પૂર્વ-દક્ષિણ-પશ્ચિમ અને ઉત્તરમાં ત્રણ ત્રણ છે અને પ્રત્યેક ફૂટપર એક એક દેવ વસે છે. કાં पछे है-" पूव्वेण तिन्नि कूडा" त्यादि भारी हिशा! भने विहि. 'शासभा पुस १६ फूट छे. ॥ सू. ६० ॥
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सुधा रोका स्था०४३०२सू०६१ जम्बूद्वीपगतभरतैरवतयोः कालनिरूपणम् ७३३
पूर्व मानुपोत्तरे पर्वते कूटानि निरूपितानि, सम्प्रति तेनाऽऽकृतक्षेत्राणि निरूपयितुमाह - ___मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे अरहेरवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था, जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था जंबुद्दोवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो भविस्सइ ॥ सू० ६१ ॥
छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोवर्षयोरतीतायामुत्सपिण्यां सुसमसुषमायां समायां चतस्रः सागरोपमकोटाकोटयः कालोऽभूत्, जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोवर्षयोरस्यामवसर्पिण्यां सुपमसुषमायां समायां चतस्रः सागरोपमकोटाकोटयः
अब सूत्रकार इन कूटोंसे आवृत्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा सूत्र कहते हैं " जंबुद्दीवे दीवे भरहेरचएलु" इत्यादिसूत्रार्थ-जम्बूद्वीपमें भरत और ऐरवत क्षेत्रों में अतीत उत्सर्पिणी में सुषम सुषमाकालमें चार सागरोपम कोडाकोडीका काल था। जम्बूद्वीपमें भरत और ऐरक्तक्षेत्र में इस वर्तमान अवसर्पिणीमें सुषम सुषमाकालमें आरकमें चार कोटाकोटि सागरोपम काल हुवा था। इस जम्बूद्वीप
હવે સૂવકાર એ કૂટવડે આવૃત ક્ષેત્રની પ્રરૂપણ કરે છે. " जबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु" त्या
સૂત્રાર્થ–બૂદ્વીપના ભરત અને રવત ક્ષેત્રમાં અતીત ઉત્સર્પિણીમાં સુષમ સુષમાકાળમાં ચાર સાગરેપમ કેડાડીને કાળ હતો
જબૂદ્વીપના ભારત અને અરવત ક્ષેત્રમાં વર્તમાન અવસર્પિણીમાં પણ સુષમ સુષમા આરો ચાર કટાકટી સાગરોપમ પ્રમાણુકાળને હતે. આ જબૂદ્વીપ નામના દ્વિપના ભરત અને અરવત ક્ષેત્રમાં ભવિષ્યની ઉત્સર્પિણીમાં
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فوق
थानाशास्त्र कालोऽभूत् जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतरवतयो वर्पयोरागमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां सुपमसुषमायां समायां चतस्रः सागरोपमकोटाकोटयः कालो भविष्यति । मु० ६१ ।
टीका-" जंबुद्दीवे " इत्यादि-व्याख्या स्पप्टा । मू० ६१ ॥ क्षेत्रनिरूपणमसङ्गात् क्षेत्रविशेषनिरूपणामाह
मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे देवकुरु उत्तरकुरु वज्जाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हेमवए१, एरन्नवए २, हरिवासे ३, रम्मगवासे ४,
चत्तारि वट्टवेयड्डपव्वआ पण्णता, तं जहा-सहावाई १, वियडावाई२, गन्धावाई३, मालवंतपरियाए४।१ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसंति, तं जहासाई १, पभासे २, अरुणे३, पउमे ४ ।
जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहवासे चउविहे पण्णत्ते, तं जहापुव्वविदहे१, अवरविदेहेर, देवकुरा३, उत्तरकुरा ।
सव्वेऽवि णं णिसढणीलवंतवासहरपव्वया चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उज्वेहेणं पण्णत्ता।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त पुरथिमेणं सोयाए महानईए उत्तरकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चित्तकूडे १, पम्हकूडे २, णलिणकूडे ३, एगसेले ४ ।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त पुरथिमेणं सीयाए महानईए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्यया पण्णत्ता, तं जहातिकूडे १, वेसमणकूडे २, अंजणे३, मायंजणे४ । नामके द्वीपमें स्थित भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पि णीमें सुषम सुषमा चार कोटाकोटि सागरोपमका काल होगा, सूत्रकी व्याख्या स्पष्ट है ॥ सू० ६१ ॥ પણ સુષમ સુષમા આરાને કાળ ચાર કેટકેટી સાગરોપમને હશે. સૂ. ૫૫
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सुधाटीका स्था०४३०२ सू० ६१ जम्बूद्वीपगतभरतैरवतयो' कालनिरूपणम् ७३५
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महानईए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपब्वया पण्णत्ता,तं जहाअंकावई१, पम्हावई२, आसिविसे३, सुहावहे४ ।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए उत्तरकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णता, तं जहाचंदपव्वए?, सूरपव्वए२, देवपवए३, णागपव्वए ४।।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त चउसु विदिसासु चत्तारि वक्खारपव्वया पपणत्ता, तं जहा-सोमणले १, विज्जुप्पमे२, गन्धमायणे ३, मालवंते ४।
जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे जहन्नपए चत्तारि अरहंता पत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पन्जिसु वा उप्पज्जति वा, उप्पज्जिस्तंति वा ।
जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वए चत्तारि वणा पण्णता, तं जहाभदसालवणे१, नंदणवणे२, सोमणसवणे३, पंडगवणे४ ।
जंबुद्दीवे दीवेमंदरे पवए पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पंडुकंबलसिला१, अइपंडुकंबलसिला २, रत्तकंवलसिला३, अइरत्तकंबलसिला ४ । ____ मंदरचूलिया णं उवरिं चत्वारि जोयणाइं विक्खंभेणं पण्णत्ता । एवं धायइसंडदीवपुरथिमोवि कालं आदि करता जाव मंदरचूलियत्ति । एवं जाव पुक्खरवरदीवपच्चस्थिमद्धे जाव मंदरचूलियत्ति-जंबुद्दीवगआवस्सगं तु कालाओ चूलिया जाव। धायइसंडे पुक्खरवरे य पुवावरे पासे ।१॥सू० ६२॥
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स्थानास्त्रे छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे देवकुरूत्तरकुरुवाश्चतस्त्रः अकर्मभूमयः प्राप्ता, तद्यथाहैमवतम् १, ऐरण्यवतं २, हरिवर्षे ३, रम्यकर्पम् ।।
चत्वारो वृत्तवैनाढयपर्वताः प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-शब्दापाती १, विकटापाती २, गन्धापाती ३, माल्यात्पर्यायः ४) तत्र खलु चत्वारो देवा महद्धिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-स्वातिः १, प्रभासः २, अरुणः ३, पद्मः ४।
जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहवपं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पूर्वविदेह. १ अपर विदेहः २, देवकुरवः ३, उत्तरकुरवः ४,
सर्वेऽपि खलु निपधनीलबद्वर्पधरपर्वताश्चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशानि उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः,
क्षेत्र निरूपणके प्रप्तद्ग से सूत्रकार अव क्षेत्र विशेषकी निरूपणा करते हैं । " जंबुद्दीवे दीवे देवकुरु उत्तरकुरु वजाओ" इत्यादि
सूत्रार्थ-जम्बूद्वीप नामके इस द्वीपमें देवकुरु और उत्तरकुरुको छोडकर चार अकर्म भूमियां कही गई हैं, जैसे-हेमवत १, ऐरण्यवत २, हरिवर्ष ३, और रम्पकवर्ष ४ । चार वृत्तवैताढय पर्वत कहे गये हैं, जैसेशब्दापाती १, विकटापाती २, गन्धापाती ३, माल्यवत्पर्याय ४ । वहां चार महर्दिक देव यावत् पल्योपमको स्थितिवाले खाती १, प्रभास २, अरुण ३ और पद्म ४ रहते हैं । जम्बूद्वीपमें महाविदेह क्षेत्र चार प्रकारका कहा गया है, पूर्वविदेह १, अपरविदेह २, देवकुरु ३, उत्तरअरु ४ । समस्त निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत चारसो योजन ऊंचे हैं और उद्वेधसे भूमिमें चारसौ गव्यूतिप्रमाग हैं । जम्बूद्वीपमें जो मन्दर
ક્ષેત્રનિરૂપણના સંબંધની અપેક્ષાએ હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રવિશેષની પ્રરૂપણા ४२ छ. “ जंबुद्दीवे दीये देवकुरुउत्तरकुरुवज्जाओ" त्य:* સૂત્રાર્થ–બૂદ્વીપ નામના આ દ્વીપમાં દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુ સિવાયના આ ” ચાર ક્ષેત્રે ને અકર્મભૂમિએ કડી છે, તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે–(૧) હૈમવત, (२) मध्यवत, (3) विवर्ष अने (४) २भ्यq.
___ या वृत्तवैतादय पति ४i छ, तमना नाम मा प्रभारी छ-(१ शहापाती, (२) विपाती (3) न्यायाती मने (४) मायवत्पर्याय, त्यो પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા ચાર મહદ્ધિક આદિ વિશેષણવાળા દે રહે છે. તે हेवानां नाम मा प्रमाणे छ–(१) स्वाती, (२) प्रभास, (3) मरु मन (૪) પ. જંબુદ્વીપમાં મહાવિદેહ ક્ષેત્ર ચાર પ્રકારના કહ્યાં છે – (૧) પૂર્વ विर, (२) अ५२ विड, (3) देवरु मने (४) उत्त२२. समस्त निषध અને નીલવન્ત વર્ષધર પર્વત ચારસો જન ઊંચા છે, અને તેમને ઉકેલ
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सुधा टोका स्था०४५०२सू०६१ जम्बूद्वीपगतभरतैरवतयो कालनिरूपणम् १३७
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्येन शीताया महानद्या उत्तरे कूले चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - चित्रकूट: १, पक्ष्मकूटः २, नलिनकूटः ३, एकशैलः ४ ॥
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीवाया महानद्या दक्षिणकूले चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - त्रिकूटः १, वैश्रवणकूटः २, अञ्जनः ३, मातञ्जनः ४ |
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदाया महानद्या दक्षिणकूले चारो वक्षस्कार पर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अङ्कावती १, पक्ष्मावती २, आशीविष: ३, सुखावहः ४ |
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्ये शीतोदाया महानद्या उत्तरकूठे चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञताः, तद्यथा चन्द्रपर्वतः १ सूर्यपर्वतः २ देवपर्वतः ३, नागपर्वतः ४ |
पर्वत है, उसकी पूर्व दिशा में स्थित सीमा महा नदी के उत्तरक्लपर चार वक्षस्कार पर्वत हैं जैसे - चित्रकूट १, पक्ष्मकूट २, नलिनकूट ३ एकरौल ४
जम्बूद्वीपमें मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशामें शीता महा नदीके दक्षिण तटपर चार वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, त्रिकूट १, वैश्रवणकूट २, अंजन ३, मातञ्जन ४ । जम्बूद्रीपके मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशामें शीतोदा महानदी के तटपर चार वक्षस्कार पर्वन हैं, अङ्कायती, पक्ष्मावती, आशीविष और सुखावह४ | इसी शीतोदा महानदी के उत्तर तटपर चार वक्षस्कार पर्वत हैं उनके नम-चन्द्र पर्वत १, सूर्य पर्वन २, देव पर्वत ३, नाग पर्वत ४ है । जम्बुद्वीप के मन्दर पर्वतकी चारों विदिशामें चार
(ભૂમિગત વિસ્તાર)ચારસે ગગૃતિ (કાસ) પ્રમાણુ છે જ બુદ્વીપમાં જે મન્દર પત છેતેની પૂર્વ દિશામાં આવેલી શીતા નદીને ઉત્તર કિનારે ચાર વક્ષસ્કાર પવ તા छे, तेमनां नाम या प्रमाणे छे – (1) चित्रट, (२) पक्ष्मट, (3) नसिनइट અને (૪) એક શૈલી જ બૂઢીપમાં મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં શીતા મહાનદીના દક્ષિણુ કિનારા પર આ यार वक्षस्र पर्वती छे – (१) त्रिकूट, (२) वैश्रवाथ 22, (3) अन भने (४) भातंभन मूद्वीपमा भन्दर पर्वतनी પશ્ચિમ દિશામાં જે શીતેાના નામની મહાનદી છે તેના દક્ષિણ તટપર ચાર वृक्षस्४२ पर्वत मावेना छे - (१) सावती, (२) पक्षभावती, ( 3 ) माशीविष અને (૪) સુખાવહુ, એ જ શીનાદા નદીના ઉત્તર તટપર નીચે પ્રમાણે ચાર वक्षस्४२ पर्वते। छे ते ॥ नाभी - (1) अन्द्र पर्वत, (२) सूर्य पर्वत, (3) हेव पर्वत स- १३
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स्थानानसत्रे ७३८
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य चतसपु विदिक्षु चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सौमनसः १ विद्युत्पभः २, गन्धमादनः ३, माल्यवान् ४।
जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे जघन्यपदे चत्वारोऽहंन्तः, चत्वारश्चक्रवर्तिनः, चत्वारो वलदेवाः, चत्वारो वासुदेवाः उदपद्यन्त वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते वा ।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वते चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्रशालवनं १, नन्दनयनं २, सौमनसवनं ३, पण्ठकवनम् ।।
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरे पर्वते पण्डकवने चतस्रोऽभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापाण्डुकम्बलशिला १, अतिपाण्डुकम्बलशिला २, रक्तकम्बलशिला, ३, अतिरक्त कम्वलशिला ४।
मन्दरचूलिका खलु उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ता, एवं धातकीखण्ऽद्वीपपौरस्त्याऽपि कालमादि कृत्वा यावत् मन्दरचूलिकेति । एवं यावत् वक्षस्कार पर्वत सौमनस १, विद्युत्प्रभ २, गन्धमादन ३, नाल्यवान हैं । जम्बूद्वीपमें महाविदेह क्षेत्रमें जघन्य पदमें चार अर्हन्त, चार चक्रवर्ती, चार-बलदेव, चार वासुदेव उत्पन्न होते हैं और आगेभी उत्पन्न होंगे। जम्बूदीपके मन्दर पर्वतपर चार वन हैं, भद्रशालवन १, नन्दनवन २, सौमनसवन ३, पण्ड कवन ४ । जम्बूदीपमें अन्दर पर्वतपर स्थित पण्डकवन में चार अभिषेक शिलाएं हैं । पाण्ड कम्बलशिला १, अति पाण्डुकम्बलशिला २, रक्त कम्पलशिला ३, अतिरक्तकम्बलशिला ४ । मन्दरकी चूलिका विष्कम्भले ऊपरमें चार योजनकी कही गई है। इसी तरहसे धातकी खण्ड छीपके पौरस्त्यार्ध में भी कालसे लेकर यावत् मन्दरचूलिका तकका लय पाठ कहना चाहिये, इसी तरह यावत् पुष्करघर द्वीपके पाश्चात्याधम भी जम्बूद्वीपकावश्यक कालसे लेकर चूलिका तक અને (૪) નાગ પર્વત. જમ્બુદ્વીપના મન્દર પર્વતની ચાર વિદિશાઓમાં સૌમનસ, વિદ્યુ...ભ, ગન્ધમાદન અને માલ્યવાન નામના ચાર વક્ષસ્કાર પર્વતે છે.
જબૂદ્વીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જઘન્યની અપેક્ષાએ ચ ર અહંત, ચાર ચક્રવતી, ચાર બળદેવ અને ચાર વાસુદેવ ઉત્પન્ન થાય છે અને ભવિષ્યમાં પણ ઉત્પન્ન થશે જ ખૂદ્વીપમાં મન્દર પર્વત પર ચાર વન છે– ૧) ભદ્રશાલवन, (२) नन्दनवन, (3) सीमानसपन मन (४) ५४वन दीपमा भन्द२ ५. પર આવેલા પંડક વનમાં ચાર અભિષેક શિલાઓ છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે. (१) ५iveleel, (२) मतिपinaशिक्षा, (3) २४ शिक्षा અને (૪) અતિરક્તકમ્બલશિલા. એ જ પ્રમાણે પુષ્કરવરદ્વીપના અપરાધ પર્યન્તના વિષયમાં પણુ જ બૂઢીપના જેવું જ કાળથી લઈને ચૂલિકા પર્યન્તનું
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सुंधा का स्था०४३०२ सू०६१ जम्बूद्धोपगतभरतैरवतयोः कालनिरूपणम् ७९ पुष्करवरद्वीपपाश्चात्याद्धे यावत् मन्दरचूलिकेति
जम्बूद्वीपकावश्यकं तु कालात् चूलिकों यावत् । धातकीखण्डे पुष्करवरे च पूर्वांपरे पार्थे । १ । सू० ६२ ।
टीका- जंबुद्दीवे दीवे " इत्यादि-जम्बूद्वीपनामके द्वीपे देवचरुत्तरकुरुवर्जाः देवकुरुत्तरकृरून वर्जयित्वा चतस्त्रः अकर्मभूमयः-कर्माणि-कृपिवाणिज्यादीनि तानि न सन्ति यासु तथाभूता भूमयः, प्रज्ञप्ता: कथिताः, तयथाहैमवतमित्यादि। . का कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि धातकीखण्डमें पुष्करपरार्धमें और इनके पूर्व अपर पाश्वमें भी पूर्वोक्त सब कथन कह लेना चाहिये। टीकार्य-कृषि-वाणिज्य आदि कर्म जिन भूमियों में हो, वे कर्ममियां हैं और इनसे भिन्न भूमि अकर्मभूमि है । भरत-हैमवत-हरिवर्ष-विदेह, रम्यक-ऐरण्यवत-ऐरवत इन सात क्षेत्रोमेंसे हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक ये तीन अकर्मभूमि क्षेत्र है। इन सात क्षेत्रोमें भरतक्षेत्र दक्षिणकी ओर अवस्थितहै। भरतसे उत्तर में हैमवत, इसके उत्तर में हरिव, इससे उत्तरमें विदेह, इसके उत्तरमें रम्घक, इसके उन्तर में ऐरण्यवत, इसके उत्तरमें ऐरक्त क्षेत्र है। व्यवहार सिद्धि दिशाके नियमानुसार मेरु पर्वत सातों क्षेत्रोंके उत्तर भागमें अवस्थित है।
देवकुरु और उत्तरकुरुको छोडकर जो अकर्मभूमिके क्षेत्र चार कहे गये हैं उसका कारण यह है कि ये दो क्षेत्र महाविदेहके ही કથન સમજવું એટલે કે ધાતકીખંડમાં, પુષ્કરવામાં અને તેના પૂર્વ અને પશ્ચિમ વિભાગોમાં પણ ઉપર મુજબનું સમસ્ત કથન થવું જોઈએ.
ટીકાઈ–કૃષિ, વાણિજ્ય આદિ કર્મનો જે ભૂમિઓમાં સક્ષા હોય છે, તે ભૂમિએને કર્મભૂમિઓ કહે છે, પણ જ્યાં તેમનો અભાવ છે એવી ભૂમિઓને मम भूमिका ४९ छे मरत, भक्त, स्विषः, विटेड, २-५४, औ२४यवत, અને અરવત, આ સાત ક્ષેત્રમાંથી હૈમવત, હરિવર્ષ અને રમ્યા, આ ત્રણ અકર્મભૂમિક્ષેત્રે છે. આ સાત ક્ષેત્રોમાંનું ભરતક્ષેત્ર દક્ષિણમાં અવસ્થિત છે. ભરતની ઉત્તરે હૈમવત, હેમવતની ઉત્તરે હરિવર્ષ, હરિવર્ષની ઉત્તરે વિદેહ, વિદેહની ઉત્તરે રમ્યક, રસ્યકની ઉત્તરે અરણ્યવત અને અિરણ્યવતની ઉત્તરે અરવત ક્ષેત્ર છે, વ્યવહાર સિદ્ધ દિશાના નિયમાનુસાર મેરુ પર્વત સાતે ક્ષેત્રોના ઉત્તર ભાગમાં આવેલું છે. અકર્મભૂમિના ચાર ક્ષેત્ર કહ્યાં છે. તેમાં કેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુને સમાવેશ નહીં કરવાનું કારણ એ છે કે તે બંને મહાવિદ્ય
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४०
स्थानातसू
तथा - वृत्तचैवाढ पर्वताः- वर्तुलाकारवैतादथनामका गिरयः शब्दापातिविकटापाति - गन्धापाति- माल्यवत्पर्यायाभिधेयाथवारः सन्ति । तत्रैकैकस्मिन् पर्वते क्रमेण स्वाति - प्रभासा - ऽरुण - पद्म नामकाञ्चत्वारो देवाः सन्ति । ते च महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिका बोध्या ।
1
तथा - जम्बूद्वीपान्तर्गतं यन्महाविदेहक्षेत्रं तत्र पूर्वविदेहापर विदेश - देवकुरूतरकुरुनामकानि चत्वारि वर्षाणि क्षेत्राणि विज्ञेयानि । तथा-निपधनामका नीलवन्नामकाथ ये वर्षधरपर्वताः सन्ति ते सर्वेऽपि ऊर्ध्वं मुच्चत्वेन चतुर्यो जनशतप्रमाणा, उद्वेधेन भूमौ च चतुर्गव्यूतशत प्रमाणा विज्ञेयाः । अत्र गन्यूतशब्दः क्रोशवाचकः । भाग हैं, परन्तु इनमें भी युगलिकों की वस्ती है, इसलिये - सात क्षेत्रो में इसकी स्वतन्त्र रूपसे गणना नहीं की गई है । अथवा चतुःस्थानके अनुरोधसे यहां इन्हें नहीं लिया गया है।
वर्तुल आकारवाले होनेसे विकटापाति- गन्यापाति आदि पर्वतोंको वृत्तवैताढ्य पर्वत कहा गया है । इन चार वृत्तवैताद्वय पर्वतोमें क्रमशः एक - २ वृत्तवैताढ्य पर्वत पर एक २ महर्द्धिक स्वाती, प्रभास आदि नामवाले देव रहते हैं, इन प्रत्येककी एक पल्योपम स्थिति है । जम्बूद्वीप के अन्तर्गत जो महाविदेह क्षेत्र है, उसमें पूर्वविदेह, अपरविदेह, देवकुरु, और उत्तरकुरु ये चार क्षेत्र हैं । विदेहक्षेत्र में निषध, नील ये दो पर्वत हैं । इनसे ही उत्तरकुरु और देवकुरुकी सीमा निश्चित होती है। इन दोनों पर्वनोंकी उंचाइ चारसो योजनकी है, तथा उद्वेध भूमिके अन्दर चार सौ कोस तक है। यहां गव्यूति शब्दसे १ कोस लिया गया है ।
હના જ ભાગે છે, પરન્તુ તે ભાગમાં પણ યુગલિકાની વસ્તી છે, તેથી સાત ક્ષેત્રામાં પણ તેમની સ્વતંત્ર રૂપે ગણના કરી નથી અથવા ચાર સ્થાનના અધિકાર ચાલતા હૈાવાથી તેમને અહીં ગણાવવામાં આવેલ નથી
વિકટાપાતી, ગન્ધાપાતી આદિ પવતા વર્તુલાકારવાળા હોવાથી તેમને વૃત્તવૈતાઢય પતા કહ્યા છે. તે પ્રત્યેક વૃત્તવૈતાઢય પર્યંત પએિક એક મહર્ષિક આદિ વિશેષશેવાળા અને એક એક પલ્યાપમની સ્થિતિવાળા દેવ વસે છે તેમનાં નામ સ્વાતિ, પ્રભાસ, અરુણુ અને પદ્મ છે જ નૂદ્વીપમાં જે મહાવિદેહ ક્ષેત્ર છે, તેમાં પૂવિદેહ, અપર વિદેહ, દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુ આ ચ ર ક્ષેત્ર છે. વિદેહ ક્ષેત્રમાં નિષધ અને નીલ નામના બે પર્વત છે. તે પતાની મદદથી જ ઉત્તર કુરુ અને દેવકુરુની સીમા નિશ્ચિત થાય છે આ મને પ°તાની ઊંચાઈ ચારસા ચૈાજનની છે તથા ઉદ્વેષ-ભૂમિની અંદરના તેમના વિસ્તાર ૪૦૦ ગગૃતિપ્રમાણુ હ્યો છે. અહીં ગળ્યુતિ પદના અર્થ એકકેસ (ગા) થાય છે.
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सुधा रोका स्था० ४७.२सू०६१ जम्बूद्वीपगतभरतैरवतयो कालनिरूपण ७४१ सम्प्रति जम्बूद्वीपस्थ मन्दरपर्वतस्य पूर्व पश्चिमदिशोविदिक्षु च यावन्तो यनाम काच वक्षस्कारपर्वताः सन्ति तानाह-"जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स' इत्यादिना । अस्य सन्दर्भस्यायमभिप्रायः-जम्बूद्वीपस्थ मन्दरपर्वतस्य पूर्व स्यां दिशि शीताया महानद्या उत्तरे तटे चित्रकूट-पक्ष्मकूट-नलिनकूटे-फशैलनाम काश्चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः सन्ति । तथा-मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि शीतोदा महानद्या दक्षिणे तटे चित्रकूट-वैश्रवणकूटा ऽञ्जन मातञ्जननामकाश्चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः सन्ति । तथा-सन्दरपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि शीतोदामहानद्या दक्षिणे तटे-अङ्कावती-पक्ष्मावत्याशीविष - सुखावहनामकाश्चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः सन्ति । तथा-मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायां दिशि शीतोदा महानद्या उत्तरे तटेचन्द्रपर्वत-सूर्यपर्वत-देवपर्वत - नागपर्वत नामकाश्चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः सन्ति । तथा-मन्दरपर्वतस्य ऐशान्यादिषु चतसृषु विदिक्षु-कोणेषु-क्रमेण सौम. नस-विद्युत्प्रभ-गन्धमादन - माल्यवदभिधेयाश्चत्वारो वक्षस्कारपर्वताः सन्ति ।
जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशामें शीता महानदी के उत्तर तटपर चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वत चार हैं । दक्षिण तटपर चित्रकूट वैश्रवण, अञ्जन, मातञ्जन ये चार वक्षस्कार पर्वत हैं । तथा-मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशामें शीतोदा महानदीके दक्षिण तटपर अङ्कावती, पक्ष्मावती, आशीविष और सुग्वावह नामके चार वक्षस्कार पर्वत हैं ।
तथा-उत्तर तटपर चन्द्र पर्वत, सूर्य पर्वत देव पर्वत, नाग पर्वत ये चार वक्षस्कार पर्वत हैं। तथा-मन्दर पर्वतको ईशान आदि चारों दिशाओमें क्रमश:-सौमन, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन, माल्यवान् ये चार वक्षस्कार पर्वत हैं। तात्पर्य ऐसा है-मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशामें शीता नदीके उत्तर तटपर चार,दक्षिण तटपर भी चार, मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशामें शीतोदा
જંબુદ્વીપના મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં શીતા નામની મહાનદીના ઉત્તર તટપર ચિત્રકૂટ આદિ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે, અને દક્ષિણ તટપર ચિત્રકૂટ, વૈશ્રવણકૂટ, અંજન અને માતંજન, એ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વત છે. મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં શીદા મહાનદીને દક્ષિણ તટપર અંકાવતી, પદ્માવતી, આશીવિષ અને સુખાવહ નામના ચાર વક્ષસ્કાર પર્વતે छ, तथा उत्तर तट५२ (१) य यत, (२) सूर्य ५१त, (3) हे पक्त અને (૪) નાગ પર્વત, એ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વતે છે. મન્દર પર્વતની ઈશા નાદિ ચાર વિદિશાઓમાં અનુક્રમે સૌમન, વિદ્યુ...ભ, ગધમાદન અને માલ્યવાનું, એ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વતે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મન્દર
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स्थानामसू
હર
अयं भावः
मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि शीतामहानद्या उत्तरतटे चत्वारः ४ एवं दक्षिणतटेsपि चत्वारः । मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि गीतोदा महानद्या दक्षिणतटे चत्वारः ४ । एवमुत्तरतटेऽपि चत्वारः । मन्दरपर्वतस्य ऐशान्यादिषु चतुर्षु कोणेषु प्रत्येकमेकैकत्वेन चत्वारः ४ |
'
तथा - जम्बूद्वीपस्य महाविदेहवर्षे जघन्यपदे-पद्यते गम्यते इति पदं = संख्यास्थानं, जघन्यं = सर्वहीनं च यत् पदं तत् जघन्यपदं तस्मिन् नातिन्यूनसंख्यायां चत्वारोऽर्हन्तः चत्वारथक्रवर्तिनः, चत्वारो वलदेवा, चत्वारो वासुदेवाच उत्पन्नाः, उत्पद्यन्ते, उत्पस्यन्ते वेति ।
तथा - जम्बुद्वीपस्थ मन्दरपर्वते भद्रशालवन - नन्दनवन - सौमनसवन -पण्डकवनाभिधेयानि चत्वारि वनानि सन्ति । तत्र भद्रशालवनं भूमौ नन्दनवन - सौमनसवने मेखला युगले, पण्डकवनं च शिखरे । उक्ताचाच गाथाः
महा नदीके उत्तर तटपर ४, दक्षिण तटपर भी ४, मन्दर पर्वत की पश्चिम दिशामें शीतोदा महानदी के दक्षिण तटपुर ४, उत्तर तटपर भी चार, और मन्दर पर्वतकी ईशान आदि चार कोणोंपर प्रत्येक कोणमें एक-२ इस प्रकार से ४ वक्षस्कार हैं ।
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जम्बूद्वीप के महाविदेह वर्ष में जघन्यपद में न्यूनाऽतिन्यून संख्या में कमसे कम चार अर्हन्त, चार चक्रवर्ती, चार वामुदेव हुये हैं, और होंगे । तथा - जम्बूद्वीपमें मन्दर पर्वत पर भद्रशालवन, नन्दनवन, सौम नसवन, और पण्डकवन ये चार वन हैं । इनमें भद्रशालवन जमीनपर नन्दनवन और सौमनसवन मेखला युगलवर एवं पण्डकवन शिखरपर हैं । यहां इस प्रकार से गाथाएं कही गई हैं ।
પર્વતની પૂર્વ દિશામાં વહેતી શીતા નદીના ઉત્તર તટપર ૪, દક્ષિણ તટપર પશુ ૪, મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં શીતેહા નામની મહાનદીના ઉત્તર તટપર ચાર અને દક્ષિણ તટપર પણ ૪ વક્ષસ્કાર પર્વત છે મન્દર પર્યંતની ઇશાન, અગ્નિ, નૈૠત્ય અને વાયવ્યમાં એક એક એટલે કે ચારે ખૂણાએમાં કુલ ૪ વક્ષસ્કાર પવ તા છે.
જખૂદ્રીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જઘન્યની અપેક્ષાએ-ન્યૂનાતિન્યૂન સખ્યામાં ઓછામાં ઓછા ચાર અર્હત, ચાર ચક્રવર્તી અને ચાર વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયા છે અને ઉત્પન્ન થશે પણ ખરાં, તથા જમૂદ્રીપમાં મન્દર પત પર ભદ્રશાલવન, નન્દનવન, સૌમનસવન અને પડકવન, એ ચાર વન છે. તેમાંનું ભદ્રશાલવન ભૂતલ પાસે, નન્દનવન અને સૌમનસવન મેખલા યુગલ પુર અને પડકવન શિખરપુર છે. અહી આ પ્રમાણે ગાયાએ કહી છે—
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सुषा टोका स्था७४उ०२२०६२ जम्बूद्वीपगतमरतैरवतयोः कार्लानरूपणम् ७४३ " बावीस सहस्साइ, पुवावरमेरुमसालवणं ।
अड्राइज्जसया उण, दाहिणपासे य उत्तरओ ॥ १॥ पंचेव जोयणसए, उडूं गंतूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरु, परिक्खिवित्ता ठियं रम्मं । २ ॥ वासटि सहस्साई पंचेव सयाई नंदणवणाओ । उड़ गंतूण वणं, सोमणस नंदणवणसरिच्छं ॥ ३ ॥ सोमणसाओ तीसं, छच्च सहस्से विलग्गिऊण गिरि । विमलजलकुंडगहणं, हवइ वणं पंडयं सिहरे ॥ ४ ॥ चत्तारि जोयणसया चउणउया चक्कवाली रुंदं ।
इगतीस जोयणसया वासट्ठी परिरओ तस्स ॥५॥" छाया-द्वाविंशतिसहस्राणि पूर्वापरमेरौ भद्रशालवनम् ।
अर्द्धवतीयशतानि पुनः दक्षिणपार्श्वे च उत्तरतः ॥१॥ पञ्चैव योजनशतानि ऊषं गत्वा पञ्चशपृथुलम्त । नन्दनवनं सुमेरुं परिक्षिप्य स्थितं रम्यम् ॥ २॥ द्वापष्टिसहस्राणि पश्चैव शतानि नन्दनवनात् । ऊर्च गत्वा वनं सौमनसं नन्दनवनसदृशम् ॥ ३ ॥ सौमनसात् विंशत् पट् च सहस्राणि विलग्यगिरिम् । विमलजलकुण्डगहनं भवति वन पण्डकं शिखरे ॥४॥ चत्वारि योजनशतानि चतुर्नवतिं चक्रवालतो विस्तारः।
एकत्रिंशद्योजनशतानि द्विपष्टिं परिरयस्तस्य ॥ ५॥ इति तथा-जम्बूद्वीपगतमन्दरपर्वतस्य पण्डकवने अभिषेकशिलाः-तीर्थङ्कराणामभिषेकार्थाः शिला अभिषेकशिलाः, यत्र तीर्थङ्कराणामभिषेको भवति, ताश्चतस्रःपाण्डुकम्बलादयः शिला मन्दरचूलिकायाः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरासु दिक्षु क्रमेण __ " यावीससहस्साई" इत्यादि । तथा-जम्बूद्वीपगत मन्दर पर्वत पर जो पण्डकवन है उसमें जिनपर तिर्थङ्करोंका शुभाभिषेक होता है ऐसी चार शिलाएं हैं। इनके नाम-पाण्डुकम्बल आदिहैं। ये शिलाएं मन्दर चूलिकाकी पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें क्रमशः हैं। मन्दर
"वावीससहरसाइं" याह.
જબુદ્વીપના મન્દર પર્વત પર જે પંડકવન છે તેમાં ચાર અભિષેક શિલાઓ છે, જે શિલાઓ પર તિર્થ કરેને શુભાભિષેક થાય છે. તે અભિષેક શિલાઓનાં નામ આ પ્રમાણે છે–પાંડુકમ્બલ શિલા આદિ ચાર નામ સૂત્રા
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स्थानाङ्गसूत्रे
७४४
बोध्याः । मन्दरचूलिका - मन्दरगिरिशिखरं खलु उपरि अग्रे विष्कम्भेण विस्तारेण चत्वारि योजनानि चतुर्योजनविस्तीर्णोपरितन मागाः प्रज्ञप्ताः ।
इत्थं जम्बूद्वीपस्य वस्तुजातमभिवाय सम्प्रति धातकीखण्डद्वीप - पुष्करवरद्वीपयोः प्रत्येकं पौरस्त्यार्द्धपावाच्यार्द्धयो वस्तुजातमभिधातुमाह-' एवं धायसंदीपुर स्थिमद्धे वि' इत्यादि ।
,
एवम् अनेन प्रकारेण - जम्बूदीपालापकप्रकारेण धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याऽपि कालम् = तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमनुसमाए समाएं' इति पूर्वोक्तं कालम् आदि कुत्वा =नारभ्य यावत् मन्दरचूलिकेति = ' मंदरचूलियाणं उचरिं चत्तारि जोयणाई विकखंभेणं पण्णत्ता " इत्यन्ताः सर्वे आलापका बोध्याः । अयं मात्रः - ' धायइमंडदीपुरस्थिमद्वे भरहेरवास तीयाए उस्सप्पिणीए सुसम सुसमाए समाए ' इत्यारभ्य ' मंदरचूलियागं उवरिं चत्तारि जोयगाइ विक्खंगिरिसे शिखरका नाम मन्दरचूलिका है । इसके आगे भागका विस्तार चार योजना है, अर्थात् इसका जो उपरितन भाग है वह चार योजन विस्तृत है। इस प्रकार से जम्बूद्वीपमें वस्तु जातका कथन करके अय सूत्रकार घातकीखण्ड, एवं पुष्करवर द्वीपके पौरस्त्यार्ध और पाश्चात्यार्थ में वस्तुजातका कथन करनेके लिये " एवं धायइडदीवपुरस्थि मद्धे वि" इत्यादि रूपसे कथन करते हैं, वे कहते हैं कि जैसा यह आलाप प्रकार जम्बूद्वीपके सम्बन्धर्मे कहा गया है, वैसाही आलाप प्रकार धातकीखण्ड द्वीपके पौरस्त्याईमें भी कालसे लगाकर मन्दर चूलिका तकका कह लेना चाहिये । अर्थात् -" धावइडदीवपुर स्थिमद्धे भरहे रवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसम सुसमाए समाए " થમાં આપ્યા અનુસાર સમજવા તે શિલાએ અનુક્રમે મન્દર પર્વતની પૂર્વી, દક્ષિણ, પશ્ચિમ અને ઉત્તર દિશામાં છે. મન્દર પર્વતના શિખરનુ નામ મંદર ચૂલિકા છે તેના સૌથી ઉપરના ભાગના વિસ્તાર ચાર યેાજતના છે પ્રમાણે જ બુદ્વીપના પદાર્થાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ધાતકીખડ દ્વીપ અને પુષ્કરવર દ્વીપના પૂર્વાધ અને પશ્ચિમાના પદાર્થાંનું ચાર સ્થાનને અનુલક્ષીને अथन रे छे " एवं धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे वि" इत्यादि
આ
આ સૂત્રપઠ દ્વારા સૂત્રકાર એવું સૂચન કરે છે કે કાળથી લઈને મન્દર ચૂલિકા પન્તનું જેવું કથન જ ખૂદ્બીપના વિષયમાં કરવામાં આવ્યું છે, એવુ' જ થન ધાતકીખ'ડ દ્વીપના પૂર્વી વિષે પણ સમજી લેવું. એટલે કે" घायइसंडदीत्रपुरत्थिमद्धे भरदेखपसु वासेसु तीयाए उत्सपिणीए सुसम - सुपमा समाए " अडींथी श३ उरीने "मंदरचूलियाणं उवरि चतारि जोय
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सुपा टीका स्था०४ ३०२सू०६२ जम्बूद्वीपातभरतरवतयो कालनिरूपणम् ७४५ भेणं पण्णत्ता' इत्यन्ता आलापकाः अत्र योध्या इति । एवम् अनेन प्रकारेणैव 'जाव'-यावत्पदेन-धातकीखण्डद्वीपपाचात्याई - पुष्करवरद्वीपपौरस्त्याईयोग्रहणम् । ततश्च-धातकीखण्डद्वीपपाश्चात्त्याः -पुष्करवरद्वीपपौरस्त्याढे पुष्फरवरद्वीपपाश्चात्याद्धं च उत्त वा तदनन्तर प्रत्येकत्र ' भरहेरवएस् वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए ' इत्ये प्रकारेण यावत् मन्दरचूलिकेति= 'मंदरचूलियाणं उपरिचत्तारि जोयणाड विखंभेणं पण्णता' इत्यन्ता आलापका वक्तव्या इति। ____ अमुमेवार्थ द्रढयितुं संग्रहगाथामुपन्यस्यति-" जंबुद्दीवग' इत्यादि जम्बूद्वीपावश्यक-जम्बूद्वीपस्येदं जम्बूद्वीपकं तच्च तदावश्यकम् अवश्यंभावित्वाद्वाऽवश्यवायहांसे लगाकर "मंदरचूलियाणं उवरि चत्तारि जोषणाइ विखंभेणं पण्णत्ता" यहां तकका कथन यहां कहा गया है. इसी प्रकार यावतग्राह्य धातकीखण्ड दीप पाश्चात्यद्ध-एवं पुष्करवर द्वीप पौरस्त्याई, और पुष्करवर द्वीप पाश्चात्याई में भी कथन करना चाहिये। और इसके बाद वहांके भरतक्षेत्र, एवं ऐरवत क्षेत्र में अतीत उत्सर्पिणीके सुषम सुषमा आरामें ४ कोटाकोटि सागरोपमका काल था । इत्यादि पूर्वोक्त सब पाठ-मंदरचूलियाणं उवरि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता) इस पाठान्त तक कथन यहां भी कहा गया है। ऐसा समज लेना चाहिए तात्पर्य केवल यही है कि जम्बुद्वीपके भरत और ऐरवत क्षेत्रकी जैसी व्यवस्था सिद्धान्त शास्त्र में प्रगटकी गईहै वैसी ही व्यवस्था धातकीखण्ड और पुष्कराध द्वीप में भी है।
इसी अर्थको दृढ करनेके लिये इम" जंबुद्दीवग" गाथाका उल्लेख किया गया है, इस गाथामें यह पुष्ट किया गया है कि-जम्बूद्वीपाऽवश्यक णाई विक्खंभेण पण्णत्ता " सूत्रपाठ ५-तनुं न पाती' दीपना પૂર્વાર્ધ વિષે પણ સમજવું, એવું જ કથન ઘાતકીખડ દ્વીપના પશ્ચિમાઈ, પુષ્કરદ્વીપના પૂર્વાધ અને પુષ્કરવાર દ્વીપના અપરાધ વિશે પણ સમજી લેવું એટલે કે ત્યાંના ભરતક્ષેત્ર, અને અિરવતક્ષેત્રમાં અતીત (ભૂતકાળની ) ઉત્સપિણીને સુષમસુષમા આ ૪ કે ટાર્કટિ સાગરોપમકાળને હેતે, ઈત્યાદિ સંપૂર્ણ સૂત્રપાઠ અહીં પણ ગ્રહણ થવો જોઈએ “મંદર ચૂલિકાને સૌથી ઉપરનો ભાગ ચાર યોજના વિસ્તારને છે ” આ સૂત્રપાઠ પર્વતનું કથન અહીં પણ સમજી લેવું આ કથનનું તાત્પર્ય એટલું જ છે કે જંબુદ્વીપના ભરત અને અરવતના જેવી જ વ્યવસ્થા ધાતકીખંડ અને પુષ્કરાઈ દ્વીપમાં પણ हाय छे. मे पातुं समय ४२। भाट “जबुद्वोत्रग" छत्यालाया આપવામાં આવેલ છે તે ગાથામાં એ વાતને પ્રતિપાદન કરવામાં આવી છે કે જંબુદ્વીપાવશ્યક (જબૂદ્વીપમાં જેનું કથન કરાયું છે તે) સમસ્ત વસ્તુ
स०-१४
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स्थानाशस्त्रे च्यत्वात् , इति जम्बूद्वीपावश्यकम् , यद्वा-'जंवूद्दीवगावस्सगं' इत्यस्य 'जम्बूद्वीपगावश्यकमि '-तिच्छाया, तत्पक्षे-जम्बूद्वीपं गच्छतीति जम्बूद्वी पग-जम्बूद्वीपगतं, तच्चतदावश्यक वस्तुजातं जम्बूद्वीपगातश्यकमित्यर्थः, इह तु शब्दः पादपूरणार्थः, कुत आरश्य कियत्पर्यन्त जम्बूद्वीपका (गा) वश्यकं भणनीयमित्यपेक्षायामाह-" कालाओ चूलिया जावे "-ति-कालादारभ्य चूलिका यातत्-सुपमसुपमा रूपकालालापकादारभ्य चूलिका'-मन्दरचूलिकालापकपर्यन्तं यद्वस्तुजातमुक्तं तत् धातकीखण्डे पुष्करवरे च द्वीपे " पुच्चावरे " पूर्वापरे-पूर्वचापरचेत्यनयोः समाहारः पूर्वापरं तस्मिन् पूर्वापरे पूर्व पश्चिमे च 'पासे ' पार्श्व-भागे, यद्वाधातकीखण्ड-पुष्करवरद्वीपयोः प्रत्येकं पूर्वांपरेषु पौररत्यपाश्चात्येषु वर्षेषु वा क्षेत्रेषु समसंख्यकं बोध्यं न तु न्यूनाधिकमिति भावः ॥ सू० ६२ ॥
पूर्व जम्बूद्वीपे कूटाऽऽतक्षेत्राणि निरूपितानि, सम्प्रति जम्बूद्वीपस्य द्वाराणि निरूपयितुमाह
मूलम् ----जंबुद्दीवस्त णं दीवस्स चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजये १, वेजयंते २, जयंते ३, अपराजिए ४। ते णं दारा चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं पण्णत्ता। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवसाटिइआ परिवसंति-विजए १, वेजयंते २, जयंते ३, अपराजिए ४ ॥सू०६३॥ -
छाया-जम्बूद्वीपस्य खल द्वीपस्य चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाविजयं १, वैजयन्तं २, जयन्तम् ३, अपराजितम् ४। तानि खलु द्वाराणि चत्वारि जम्बूद्वीपमें कथित समस्त वस्तुजात जो कि यहां सुषम सुषमा कालसे लेकर मन्दरचुलिका तक प्रगट किया गया है, धातकीखण्डके पूर्वाध
और पश्चिमाधमें, और पुष्कराधके पूर्वाध एवं-पश्चिमार्धमें यथावत् कहना चाहिये ॥ सू० ६० ॥
"जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चत्तारि दारा पण्णत्ता " इत्यादि
जम्बूद्वीपके चार द्वार कहे गये हैं। विजय १, वैजयन्त २, જાતને એટલે કે સુષમ સુષમાકાળથી લઈને મન્દર ચૂલિકા પર્યન્તના ઉપર્યુક્ત કથનમાં જેને જેને નિર્દેશ થયેલ છે તે વસ્તુઓને ધાતકીબંડના પૂર્વાર્ધમાં અને પશ્ચિમાર્ધમા, તથા પુષ્કરવર દ્વીપાઉંના પૂર્વાર્ધ અને પશ્ચિનામાં પણ सहला थे, म सभा ॥ सू. १० ॥
જંબુદ્વીપમાં ફૂટયુક્ત ક્ષેત્રેનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂવકાર બૂઢીપના
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सुंधा टीका स्था० ४ उ०२ सू०६३ जम्बूद्वीपद्वारनिरूपणम्
७४७ योजनानि विष्कम्भेण तावन्त्येव प्रवेशेन प्रज्ञप्तानि । तत्र खलु चत्वारो देवा महदिकाः यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति-विजयः १, वैजयन्तः २, जयन्तः ३, अपराजितः ४ ॥ सू० ६३ ॥
टीका-'जंबुद्दीवस्स णं' इत्यादि-जम्बूद्वीपस्य विजय-वैजयन्त-जयतापराजितनामकानि चत्वारि द्वाराणि सन्ति । तानि च द्वाराणि विष्कम्भेणद्वारोभयभागस्थितकुडयान्तरालभागविस्तारेण चत्वारि योजनानि तथा-प्रवेशेन= प्रवेशस्थानप्रमाणेन-कुडयस्थौल्येन तावत्येव-चत्वारि योजनान्येव प्रज्ञप्तानि । उच्चत्वं चाष्ट योजनानीति, उक्तञ्च-" चउजोयणवित्थिन्ना, अद्वेव य जोयणाणि उबिद्धा "-छाया-चतुर्योजनविस्तीर्णानि अप्टैव च योजनानि उद्विद्धानिउच्चानि ॥ इति । तथा-तत्र-तेषु विजयादिषु द्वारेषु चत्वारो देवाः महर्दिकाः= विशालऋद्धिशालिनः ' ' जाव' यावत्-अत्र यावच्छन्देन-महाद्युतिकाः, महावलाः, महायशसः, महासौख्याः, इति ग्राह्यम् अर्थः स्पष्ट एव । पल्योपमजयन्त ३, अपराजित ४। ये द्वार विष्कम्भकी अपेक्षा चार योजन .प्रमाण और प्रवेशकी अपेक्षा भी इतनेही कहे गये हैं। इनमें चार महद्धिक देव यावत् एक पल्योपम स्थितिवाले रहते हैं।
द्वारकी दोनों ओरकी दोनों दीवालों के अन्तरालों का विष्कम्भ [ विस्तार ] चार योजनका है, तथा-भीतोकी स्थूलतारूप जो प्रवेश है वह भी चार योजनप्रमाण है। कहाभी है-" चउजोयणवित्थिन्ना" चार योजनके विस्तार इत्यादि. ____तथा-आठ योजन तक ये ऊंचे हैं । " महद्धिका यावत् पल्पोपम स्थितिकाः " में जो यावत् पद आया है उससे यहां " महाद्युतिकाः, दानी ५३५! ४२ छ-" जवुद्दीवत्स णं दीवस्स चत्तारि दारा पण्णत्ता" त्याहि
જ બૂ નામના દ્વીપને ચાર દ્વાર કહ્યાં છે, તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે. (१) विन्य, (२) वैयन्त, (3) यन्त मने. (४) ५ilord. वाशना વિષ્ક (પહેળાઈ) ચાર એજનપ્રમાણે છે અને પ્રવેશની અપેક્ષાએ પણ તેમને ચાર જનપ્રમાણુ જ કહ્યાં છે તેમાં હદ્ધિક આદિ વિશેષણવાળા ચાર દેવ રહે છે, તેમની એક પોપમની સ્થિતિ કહી છે. દ્વારની બને તરફની દીવાલેના અત્તરાલનો નિષ્ઠભ (વિસ્તાર) ચાર એજનને છે. તથા દીવાલની स्थूलता ३५२ प्रवेश छे ते ५ यार यानिप्रभा छे ५४ छे 3-" चउ जोय. णवित्थिन्ना" त्याहि यार योजना विस्तारवाद्वारे मा योन ५' या छ. “ महद्धिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः " मा सूत्रपामा “ यावत्" ५६ छ, તેના દ્વાર મહાવૃતિ સંપન્ન, મહાબલ સંપન્ન, મહાયશ સંપન્ન અને મહાસુખ
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स्थानागसूत्रे स्थितिकाः पल्योपमकालपर्यन्तस्थायिनो द्वारनामसदृशनामकाः परिवसन्ति, तेच विजयः १, वैजयन्तः २, जयन्तः ३, अपराजितः ४, इति, उक्तं च-" पलिभोवमहिइया, सुरगणपरिवारिया सदेवीया।
एएसु दारनामा, वसंति देवा महिडीया ॥१॥" छाया-" पल्योपमस्थितिकाः सुरगणपरिताः सदेवीकाः ।
एतेषु द्वारनामानो वसन्ति देवा महर्द्धिकाः ॥१॥” इति । सू० ६३ अनन्तरं जम्बूद्वीपस्य द्वाराणि निरूपितानि, सम्पति जम्बूद्वीपस्थान अन्तर दीपान् निरूपयितुमाह___ मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्ल दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स बासहरपवयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुई तिन्नि तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगूरुयदीवे१, आभासियदीवेर,वेसाणियदीवे ३, णंगोलियदीवे४ । तेसुणं दीनेसु चउबिहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-एगूरुआ१, आभासिआर, वेसाणिया३, गंगोलिया। तेसिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं चत्तारि २, जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं महाबलाः, महायशलाः, महासौख्याः" इसपाठका संग्रह हुवाहै । इन चार द्वारोंपर जो चार देव रहते हैं उनके नाम द्वारके नामानुसार हैं। इस तरह उन देवोंके नाम क्रमशः विजय-वैजयन्त-जयन्त और अप. राजित हैं। कहाभी है-" पलिओवमहिया" इत्यादि, वे देव पल्यो पमकी स्थिति वाले हैं द्वारमें रहने वाला प्रत्येक देव प्रगणोंसे सदा परिवृत रहता है और अपनी-२ देवियोंसे युक्त बना रहताहै ।मु०६३॥ સંપન્ન આ ચાર વિશેષણે ગ્રહણ કરવા જોઈએ. તે ચાર દ્વાર પર જે ચાર દે રહે છે તેમનાં નામ પણ તારોનાં નામાનુસાર છે. એટલે કે વિજય, वैश्य-1, स्यन्त भने २०५२ छे. ४यु ५ छे , “ पलिओवमद्विइया" ઇત્યાદિ એક પલ્યોપમની સ્થિતિ છે. તે દેવે સદા સુરગણે અને દેવીઓના परिवारथी परिवृत्त २ छ. ॥ सू. १३ ॥
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૭Éર્
सुर्धा डीका स्था०४ ४०२ सू०६४ जम्बूद्वीपस्थ - अन्तरद्वीपनिरूपणम् जहा - हयकन्नदोवे९, गयकन्नदीवे२, गोकन्नदीवे३, संकुलिकन्नदीवे ४ | तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा कन्ना १, गयकन्ना २, गोकन्ना ३, संकुलिकन्ना ४ । तेसिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं पंच २, जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहाआर्यसमुहदीवे १, मेंढमुहृदीवेर, अओमुहदीवे ३, गोमुहदीवे? | तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मनुस्सा भाणियव्वा । तेसिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं छछजोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चसारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा - आसमुहदीवे ९, हत्थिमुहदी २, सीहमुहदीवेर, वग्धमुहदीवे ४ । तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा । तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा - आसकन्नदीवे १, हस्थिकन्नदीचे २, अकन्नदीचे ३, कन्नपाउरणदीवे ४ | तेसु णं दीवेसु मया भाणियव्वा । तेसिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवण समुद्रं अट्टटु जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा - उक्कामुहदीवे?, मेहमुहदीवे२, विज्जुमुहदीवे३, विज्जुदंतदीवे४ | तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा । तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द ण णव जोयणस्याई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा - घणदंत दीवे१, लंद्वदं तदीवेर, गूढदंतदीवे३,
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स्थानां सूत्रे
सुद्धतदीवे४ | तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा - घणदंता ९, लट्ठदंतार, गूढता, सुद्धता ४,
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरणं सिहरिस्त वासहरपवयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि तिनि जोयणसयाई ओगाहेता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगुरुपदीवे, सेसं तहेव निरवसेसं भाणियवं जाव सुद्धता ॥ सू०६४ छाया - जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन क्षुद्र हिमवतो वर्ष धरपर्वतस्य चतसृषु विदिक्षु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारो अन्तरद्वीपा : प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एकोरुकद्वीपः १, आभाषिकद्वीपः २, वैपाणिकद्वीपः ३, लाङ्गूलिकद्वीपः ४ । तेषु खलु द्वीपेषु चतुर्विधा मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथाएकोरुकाः १, आभापिकाः २, वैपाणिका ३, लाङ्गलिकाः ४ । तेषां खलु
इस तरह जम्बूद्वीपके द्वारोंका निरूपण करके अब सूत्रकार जम्बूद्वीपस्थ अन्तरद्वीपोंका निरूपण करते हैं ।
" जम्बुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स " इत्यादि
जम्बूद्वीप नामके द्वीप में सुमेरु पर्वतकी दक्षिण दिशामें क्षुद्रहिमवान् नामका वर्षधर पर्व है । उसकी चारों विदिशाओ में लवण समुद्रको तीन तीन सौ योजन तक अवगाहित करके चार अन्तरद्वीप कहे गये हैं । उनके नाम इस प्रकारसे हैं । एकोरुक द्वीप, आभाषिक द्वीप, वैषाणिक द्वीप और लाङ्गूलिक द्वीप, इन द्वीपोंमें चार प्रकारके मनुष्य रहते हैं। जैसे—एक उरूवाले एकोरूक १, आभाषिक २, वैषाणिक ३ और આ રીતે જમૂદ્રીપના દ્વારાનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર જમૂદ્રીપસ્થ અન્તરદ્વીપાનું નિરૂપણ કરે છે.
LL
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयम्स " त्याहि-
જંબુદ્રીપ નામના દ્વીપમાં સુમેરુ ( મન્દર ) પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ક્ષુદ્રહિમવાન્ નામના વધર પર્વત છે. તેની ચારે દિશાએમાં લવણુ સમુદ્રને ૩૦૦-૩૦૦ ચેાજન પાર કરવાથી ચાર અન્તરદ્વીપ આવે છે. તેમનાં નામ या प्रमाणे छे—(१) मेोरुड द्वीप, (२) मालाषिङ द्वीप, (3) वैषाणि द्वीप અને (૪) લાંગૂલિક દ્વીપ. તે દ્રીપામાં ચાર પ્રકારના મનુષ્યા રહે છે. જેમ
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सुधा टीका स्था०४ उ२२ ६४ जम्बूद्वीपस्थ-अन्तरद्वीपनिरूपणम् द्वीपानां चतसृषु विदिक्षु लनणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्तरद्वीपा: मज्ञप्ताः, तद्यथा-हयकर्णद्वीपः १, गजकर्णद्वीपः २, गोकर्णद्वीपः ३, शकुलिकणेद्वीपः ४। तेघु द्वीपेषु चतुविधा मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथाइयकर्णाः १, गजकर्णाः २, गोकर्णाः ३. शकुलिकर्णाः ४) तेपां खलु द्वीपानां चतसृषु विदिक्षु लवणसमुद्रं पञ्च २ योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्त. रद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आदर्शमुखद्वीपः १, मेढ़मुखद्वीपः २, अयोमुखद्वीपः ३, गोमुखद्वीपः ४। तेषु खलु द्वीपेषु चतुर्विधा मनुष्या भणितव्याः। तेपांखलु द्वीपानां लाङ्गलिक ४, इन द्वीपोंकी चारों विदिशाओंमें लवण समुद्रको चार-२ सौ योजन तक अवगाहित करके दूसरे और चार अन्तरदीप कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-हयकर्ण द्वीप, गजकर्ण दीप, गोकर्णद्वीप
और शष्कुलिकर्ण डीप ४ । इन द्वीपोंमें चार प्रकारके मनुष्य रहते हैं, हयकर्ण १ गजकर्ण २ गोकर्ण ३ शकुलिकण ४ । इन द्वीपोंकी चारों विदिशाओंमें लवणसमुद्रको पांच पाँचसौ योजन तक अवगाहित करके और चार द्वीप हैं। , आदर्श मुखद्वीप १, मेट्रे मुखद्वीप २, आयोमुख द्वीप ३, और गोमुख द्वीप, इनमें चार प्रकारके मनुष्य रहते हैं जैसे-आदर्शमुख १, मेढ़मुख २, अधोमुख ३ गोमुख ४ | उन द्वीपोंकी चारों विदिशाओंमें भी लवण समुद्रको अवगाहन करके छहसौ छहसौ - योजन तक और चार अन्तरद्वीप हैं। उनके नाम इस प्रकार के है-अश्वमुख १, हस्लिमुख २, सिंहमुख ३, व्याघ्रमुख द्वीप ४। इनमें इन કે...એક ઉરુવાળા એકેક, આભાષિક, વૈવાણિક અને લાંગલિક તે દ્વીપની ચારે વિદિશાઓમાં લવણ સમુદ્રને ચારસો – ચાર એજન અવગાહિત (પાર) કરવાથી બીજા ચાર અન્તરી આવે છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે – (१) य दी५, (२) laxy दीप, (3) मे दी५ मन (४) शल ४ द्वीप. ते द्वापामा या२ २।। मनुष्य। २७ छ-(१) 43, (२) ગજકર્ણ, (૩) ગોકર્ણ અને (૪) શકુલકર્ણ તે દ્વીપોની ચારે વિદિશાઓમાં, લવણ સમુદ્રને ૫૦૦-૫૦૦ એજન અવગાહિત કરવાથી બીજા ચાર દ્વિીપ આવે છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે–(૧) આદર્શમુખ दीप, (२) भेदभुमदी५, (3) मयोभुम दी५ अने. (४) भुभ दी५. तमा या२ १२ना मनुष्य। २ छ-(१) माहाभुम, (२) मेढ़मुभ, (3) અયસમુખ અને (૪) ગોમુખ.
તે દ્વીપની ચારે વિદિશાઓમાં લવણ સમુદ્રને ૬૦૦-૬૦૦ જન અવગાહિત કરવાથી બીજા ચાર અન્તરી આવે છે, તેમનાં નામ આ मा प्रभारी छ-(१) अश्वभुम, (२) रतभुम, (3) सिंभु मन (४)
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स्थानाङ्गसूत्रे चतसृषु विदिक्षु लणसमुद्रं पटपडू योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्तरद्वीपाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अश्वमुग्वद्वीपः १, हस्तिमुखद्वीपः २, सिंहमुखद्वीपः ३, व्याघ्रमुविद्वीपः ४। तेषु खलु द्वीपेषु मनुष्या भणितव्याः । तेपां खलु द्वीपानां चतसृषु विदिक्षु लवणममुद्रं सप्त सप्त योजनशतानि अवगाय अत्र खलु चत्वारोऽ. न्तरद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अश्वकर्णद्वीपः १, हस्तिकर्णद्वीपः २, अणद्वीपः ३, कर्णमावरणद्वीपः ४. तेघु खलु द्वीपेषु मनुष्या भणितव्याः। तेषां खलु द्वीपानां चतमृषु विदिक्षु लवणसमुद्रमष्टाष्टयोजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्तरद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उरकामुखद्वीपः १, मेघमुखद्वीपः २, विद्युन्मुखद्वीपः ३, प्रत्येक द्वीप के नामानुगुणवाले मनुष्य रहा करते हैं। उन दीपोंकी भी चारों विदिशाओंमें सात-सातसौ योजन तक लवण समुद्रको अवगाहन करके और चार अन्तरद्वीप हैं। अश्वरूण १, हस्तिकर्ण २, अकर्ण ३, कर्णपावरण द्वीप ४ हैं। यहां भी द्वीपके नाम जैसे गुणवाले मनुष्य बसते हैं। इन द्वीपोंकी चार विदिशाओं में लवण समुद्रको आठसौ आठसौ योजन तक अवगाहन करके चार अन्तरद्वीप और कहे गये है-ये चारके नाम इस प्रकार है उल्कामुख द्वीप, मेवमुख द्वीप, विद्युन्मुख द्वीप, विद्युदन्त द्वीर ४ इनमें मनुष्य कह लेना चाहिये । इन द्वीपोंकी चारोंही विदिशाओंमें लवणममुद्रको नौसौ नौसौ योजन तक अवगाहन करके चार अन्तरद्वीप और हैं । जैसेघनदन्त द्वीप १, लष्टदन्त द्वीप २, गूढदन्त दीप ३ और चौथा शुद्वदन्त ४ । इन द्वीपों में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं । घनदन्त १, लटदन्त२, गूलવ્યાધ્રમુખ દ્વીપ તે પ્રત્યેક દ્વિીપમાં તેમનાં નામ પ્રમાણે ગુણવાળા મનુ રહે છે તે ચારે દ્વિીપની વિદિશાઓમાં, લવણ સમુદ્રને ૭૦૦-૭૦૦ એજન અવા ગાહિત કરવાથી બીજા ચાર અન્તરદ્વીપ આવે છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે छ-(१) १४९, (२) स्ति४), (3) २५४ भने (४) ४ प्रवर दी५. તે ચારે દ્વીપમાં પણ તે દ્વીપને નામ પ્રમાણે ગુણવાળા મનુષ્ય રહે છે. તે ચારે દ્વિપની વિદિશાઓમાં, લવણ સમુદ્રને ૮૦૦-૮૦૦ એજન અવગાહિત કરવાથી બીજા ચાર અન્તરદ્વીપ આવે છે–(૧) ઉલ્કામુખ દ્વીપ, (૨) મેઘમુખ દ્વીપ, (૩) વિદ્યુમ્મુખ દ્વીપ અને (૪) વિદ્યુદન્ત દ્વીપ તેમાં પણ મનુષ્યનું ઉપર મુજબજ કથન સમજવું. તે ચારે અન્તરદ્વીપની ચાર વિદિશાઓમાં, લવણું સમુદ્રને ૯૦૦-૯૦૦ યોજન અવગાહિત કરવાથી બીજા ચાર અન્તરદ્વીપ साव छ तमन नाम मा प्रमाणे छ-(१) धनहन्त दीप, (२) सष्टत द्वीप,.
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सुधा टीका स्था०४ उ०२ सु० ६४ जम्बूद्वीपस्थ अन्तरद्दीपनिरूपणम्
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विद्युतद्वीप) ४, तेषु खलु द्वीपेनु मनुष्या भवितव्याः । तेषां खलु द्वीपानां चतघु विदितं नव योजनशतानि जवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्तरदीपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - घनदन्तद्वीपः १, लघुदन्दद्वीपः २, गूढदन्तद्वीपः २, शुद्धाद्वीपः । तेषु खलु द्वीपेषु चतुर्विधा मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथा - घनदन्ताः १, लष्टदन्ताः २, गूढदन्ताः ३, शुद्धदन्ताः ४ |
जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण शिखरिणो वर्षधरपर्वतस्य चतसृषु विदिक्षु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु चत्वारोऽन्तरद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एकोरुकद्वीपः शेषं तथैव निरवशेषं भणितव्यं यावत् शुद्धदन्ता' | सु० ६३ । टीका- " जंबूदीवे २" इत्यादि - स्पष्टम्, नवरं - चुल्लहिमवंतस्य वासद रपन्चयस्से-" ति क्षुद्रमिवतो- महाहिमवदपेक्षया लघुद्दिमवतो वर्षघरपर्वतस्य, तस्य हि पूर्वभाग-पत्रिमभानयोः प्रत्येकं शाखाद्वयं विद्यत इति वृद्धाः ।
दन्त३, शुद्धदन्त ४ । जम्बुद्दीपनासके द्वीपमें मन्दर पर्वतकी उत्तर दिशा में वर्तमान शिखरी वर्षघर पर्वतकी चार विदिशाओं लवणसमुद्रको अवगाहन करके तीन सौ तीन सौ योजन तक चार अन्तरद्वीप कहे गये हैं जैसे-एकोरुक द्वीपर आदि वाकीका और सब कथन शुद्धदन्त तक ऊपर का जैसा जानना चाहिये ।
टीकार्थ -- हिमवानमें महाहिमवानकी अपेक्षाले 'क्षुद्र' विशेषण हैं । यह क्षुद्रहिमवान् पर्यंत भरत क्षेत्रकी सीमापर है, इसके दोनों छोर पूर्व-पश्चिम लवण समुद्र में फैले हैं। ऐसे ही ऐरवत क्षेत्रकी लीमापर स्थित शिखरी पर्वत दोनों छोर भी लवण समुद्र में फैले हुवे है ।
•
(૪) ગૂઢદન્ત દ્વીપ અને (૪) શુદ્ઘન્ત દ્વીપતે દ્વીપામાં ક્રમશઃ ચાર પ્રકારના मनुष्यो वसे (१) घनहन्त, (२) सप्टहन्त, ( 3 ) गूढढन्त भने (४) शुद्धहन्त. જબૂદ્રીપ નામના દ્વીપના મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં જે શિખરિ લધર પર્વત આવેલા છે, તેની ચારે વિદિશાઓમા લવણુ સમુદ્રને ૩૦૦૩૦૦ ચાજન પાર કરવાથી ચાર અન્તરદ્વીપેા આવે છે. તેમનાં નામ આ प्रभावे हे – (१) मेडेोरु द्वीप, आदि माडीनुं समस्त उथन मेटले शुद्धદન્ત પન્તનુ કથન કૈપર મુજબ જ સમજવુ
વિશેષા—મહાહિમવાન કરતાં નાને! હાવાને કારણે ક્ષુદ્રહિમવાનને ક્ષુદ્ર વિશેષણ લગાડયુ છે તે ક્ષુદ્રહિમવાન પર્યંત ભરતક્ષેત્રની સીમાપર છે, તેના બન્ને છેડા પૂર્વ-પશ્ચિમ લવણું સમુદ્ર સુધી વિસ્તરેલા છે. એ જ પ્રમાણે અરવત ક્ષેત્ર સીમાપર આવેલા શિખરી પતના બન્ને છેડા પણુ લઘુ સમુદ્ર
स०-१५
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स्थानास्त्रे ..." चउसु विदिसासु" इत्यादि-चतमृघु विदिक्षु पूर्वोतरादिपु लवणसमुद्र श्रीणि त्रीणि योजनशतानि अममाा-अतिक्रम्य ये शाखाविभागाः सन्ति, 'एत्थ' इति-भत्र-शाखाविभागेषु खलु चत्वारः अन्तरद्वीपा:-अन्तरे-मन्ये द्वीपा अन्तर. द्वीपा:-समुद्रमध्यवर्तिद्वीपाः, प्रज्ञाता:-कथिताः, यहा ' अन्तरछीपाः' इत्यस्यायमर्थः-अन्तरं-परस्परविभागः, तत्प्रधाना द्वीपा अन्तरद्वीपाः, मध्यमपदलोपिसमासोऽयोध्यः । तत्र पूर्वोत्तरदिशि ईशानकोणे एकोरुकनामा योजनशतत्रयाऽऽयाविष्कम्भोऽन्तरद्वीपोऽस्ति । अनेन प्रकारेण आग्नेयी - नीती-वायव्यासु विदिक्षु क्रमेणाऽऽभापिकवैषाणिक-लालिकाख्यास्त्रयोऽन्तरद्वीपा अपि वोव्याः। प्रत्येक छोर दो दो भागोमें विभक्त हैं, ये दोनोंके आठों भाग लवण समुद्र में फैले हैं। यही बात यहां-" पूर्वभाग-पश्चिम नागयोः प्रत्येक शाखाद्वयं विद्यते " इतिहा:-पूर्वभाग और पश्चिम भाग में प्रत्येक में दो दो शाखा है इस बातसे प्रदर्शित की गई है।
" चउत्तु विदिसासु" इत्यादि
तीनसौ तीनसौ योजनप्रमाण लवण समुद्र का उल्लंघन करके पूर्वोत्तर विदिशाओंकी ओर जो शाखाविभाग-छोर-है, उन शाखाविभागोंपर चार अन्तरद्वीप हैं, समुद्र के मध्य में जो द्वीप हैं वे अन्तरदीप हैं, अथवा परस्पर में विभागप्रधानहीप अन्तरदीप हैं। ईशान कोणमें तीनसौ योजन प्रमाण आयाम विष्कम्भवाला एकोरुक है नामको अन्तरदीप हैं, इसी प्रकारसे आनेयी-ऋती और वायवी विदिशाओंमें क्रमसे आभाषिक, वैषाणिक, लाशूलिक नामके तीन अन्तरद्वीप औरभी हैं। ऐसे સુધી વિસ્તરેલા છે. પ્રત્યેક છેડે બે ભાગમાં વિભકત થયેલ હોવાથી બંને પર્વતેને મળીને કુલ આઠ ભાગો (છેડાએ) લવણ સમુદ્ર સુધી વ્યાપેલા છે. से वात गडी सूत्र५४ ॥२॥ ०५४त थ छ. " पूर्वभाग-पश्चिम भागयोः प्र येक शाखाद्वय विद्यते इतिवृद्धाः" पूर्व ला अने पश्चिम लामा ४२४भा બબે શાખાઓ છે ___ चरस विविधासु"न्याहि-समय समुद्रमा 300-3०० यान प्रभाष्य અંતર એળગવાથી, ઈશાન આદિ ચારે વિદિશાઓમાં જે શાખાવિભાગ રૂપ છેડા છે, તે શાખાવિભાગ રૂ૫ છેડા પર ચાર અંતરદ્વીપ છે. (સમુદ્રની મયમાં હોય એવા દ્વીપને અંતરદ્વીપ કહે છે, અથવા પરસ્પરમાં વિભાગ પ્રધાન દ્વીપને અંતરદ્વીપ કહે છે ) ઈશાન કેણમાં ૩૦૦ જન પ્રમાણ લંબાઈ પહાળ ઈવાળે એકેરુંક નામનો અંતરદ્વીપ છે. એ જ પ્રમાણે અગ્નિ,
ત્ય અને વાયવ્યકેjમાં અનુક્રમે આભાષિક, વૈષાણિક અને લાંગલિક
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सुंधा टीको स्था०४ उ०२ सू० ६८ जम्दीपस्थ अन्तरदीपनिरूपणY ७५५ इत्यं क्षुद्रहिमवतश्चतसृषु विदिक्षु एकोरुकादयश्चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति, इति । तेषु चतुर्विधा मनुष्या वमन्ति, सूत्रे' चतुर्विधा' इति बहुवचनेन निर्देशस्तु द्वीपसमुदायगतबहुलापेक्षया न तु प्रतिद्वीपमपेक्ष्येति, अतः क्रमेण तेऽन्तरद्वीपेषु योजनीयाः, तत्रस्था मनुप्या एकोरुकादिद्वीपसमानामान एव भवन्ति । ते च पुरुषा दर्शने स्वरूपतो मनोहाः सुन्दाङ्गोपाङ्गा भवन्ति ।१।
इति प्रथमद्वीपनिरूपणा १॥
अथ द्वितीयद्वीपनिरूपणा २" तेसि णं दीवाणं " इत्यादि-तेपाम्-एकोलकादीनां द्वीपानां चतसृषु विदिक्षु-ऐशान्याग्नेयीनैत्रतीयायव्यासु प्रतिविदिक लक्षणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्नुल्लङ्घन्य चतुर्योजनशताऽऽयामविस्तारा हयकर्णादयश्चत्वारोऽन्तरद्वीपास्तन्नामान एव तत्र मनुष्या अपि परिचसन्ति, इति बोध्यम् । एवं येषां द्वीपानां यावये चार अन्तरदीप हिमवान् पर्वतकी चार विदिशाओंमें हैं। इन अन्तरदीपोंमें चार प्रकारके मनुष्य रहते हैं। __ यहां जिन जिन नामों के अन्तरद्वीप कहे गये हैं। वहां उन्हीं नामोंसे प्रसिद्ध मनुष्य रहते हैं, ये देखने में मनोहर होते हैं और रूपसेभी मनोहर होते हैं । इनके अङ्गा-उपाङ्ग सुन्दर होते हैं १ इन एकोरुक आदि दीपोंकी चारों विदिशाओमें ईशान, अग्नि, नैतो, वायव्या कोन इनमें से प्रत्येक विदिशामें लवण समुद्रको चारसौ योजन उल्लंघन करके चारसौ योजन के आयाम विस्तारवाले हयकर्ण आदिक चार अन्तरद्वीप हैं, इनमें-इन्हींके जैसे नामचाले मनुष्य रहते हैं। इस प्रकारसे द्वितीय નામના બીજા ત્રણ અંતરદ્વીપ છે. એવાં તે ચાર અંતરીપ હિમવાનું પર્વ તની ચાર વિદિશાઓમાં (ઈશાનાદિ ખૂણાઓમાં) છે. તે અંતરદ્વીપમાં ચાર प्रा२ना मनुष्य से छ. “ चतुर्विधा." मी महुवयनतुं ५४ प्रत्येदीत મનુષ્યની અપેક્ષાએ વપરાયું નથી, પણ ચારે દ્વીપના સમુદાયના મનુષ્યો માટે વપરાયુ છે. ત્યાં જે નામના પ્રીપે કહ્યા છે, એ જ નામથી ઓળખાતા મનુષ્ય રહે છે તેમને દેખાવ મનહર હોય છે, તેઓ મનહર રૂપ સંપન્ન અને અંગોપાંગની સુંદરતાવાળા હોય છે.
એકેક આદિ ચાર આંતરદ્વીપની વિદિશાઓમાં ઈશાન, અગ્નિ, નૈઋત્ય અને વાયવ્યમાં, લવણું સમુદ્રને ૪૦૦-૪૦૦ એજન પાર કરીને આગળ જવાથી ૪૦૦-૪૦૦ જનની લંબાઈ પહેળાઈવાળા હયકર્ણ આદિ ચાર અંતરદ્વીપ આવે છે. તે અંતરદ્વીપમાં તેમના જેવા જ નામવાળા મનુ રહે છે
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स्थानातू ७५६ दन्तरं तेषां तावदेवाऽऽयामविस्तारममाणं यावत्सप्तमानां नवशतान्यन्तरं तावदेव च तत्प्रमाणमिति, रते संकलिताः सर्वेऽन्यष्टाविंशतिढीपा भवन्ति । या मनुप्यास्तु युग्मजाताः पल्योपमासंख्येयभागाऽऽयुपोऽष्टयनःशवोनताः । तथा-ऐरा. वतक्षेत्रविभाजकस्य शिखरिपर्वतस्याप्येनगेत्र पूर्वोत्तरादिविदिक्ष क्रमेणेतनामका एवान्तरद्वीपा अष्टाविंशतियोध्याः, प्रकारके चार अन्तरद्वीपोंका यह वर्णन है । तात्पर्य ऐसा है कि पहले जो हिमवान और शिखरी पर्वतले आठों छोर लवण समुद्र में फैले हुवे कहे गये हैं, उनमें एक एक छोर पर ७-७ अन्तरद्वीप है, इस प्रकार कुल अन्तरद्वीप ५६ हैं। इनमें प्रथम और द्वितीय नम्बरके अन्तरद्वीपोंका यह वर्णन पूर्वोक्त प्रकारसे ऐसा किया गयाहै, इससे हम जानते हैं कि जिन द्वीपोंका जितना अन्तर है उतनाही उनका आयाम (लम्बाई) और विस्तार है। ऐसे सातवें नम्बरके जो चार अन्तरद्वीप है, उनका अन्तर नौसौ योजनका है, और उतनाही उनका आधान और विस्तार है, इस तरह ये अन्तरदीप २८ हैं। यहां मनुष्य युग्मजात हैं, इनकी आयु पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है तथा-८०० धनुप प्रमाण शारीरिक ऊँचाई इनकी होती है तथा ऐरवत क्षेत्रका विभाग करनेवाला शिखरी पर्वतकी विदिशाओंमें भी इसी नामके अन्तरद्वीप ' રીતે બીજા નંબરના ચાર અંતરદ્વીપનું આ વર્ણન થયુ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય
આ પ્રમાણે છે–પહેલાં એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે હિમવાનું અને શિખરી પર્વતના આઠે છેડા લવણ સમુદ્રમાં વિસ્તરેલા છે. તે પ્રત્યેક છેડા પર સાત સાત અંતરદ્વીપ છે. આ રીતે કુલ પ૬ અંતદ્વીપ છે. તેમાંથી પહેલા અને બીજી નંબરના ચાર ચાર અંતરદ્વીપનું વર્ણન તે ઉપર મુજબ સમજવું જોઈએ. જે દ્વીપનું જેટલું અંતર છે, એટલે જ તેમને આયામ અને વિષ્કમ છે, આ વાત આગળ પણ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. આ રીતે સાતમાં નંબરના જે ચાર અંતરહી છે, તેમનું છઠ્ઠા નંબરના દ્વિીપથી ૯૦૦-૯૦૦ એજનનું અંતર છે અને તેમની લંબાઈ પટેળાઈ પણ ૯૦૦-૯૦૦ જનપ્રમાણ જ છે. ક્ષહિમવાનની વિદિશાઓમાં કુલ ૨૮ અંતરદ્વીપ છે, ત્યાં યુગલિકે વસે છે. તેમના શરીરની ઊંચાઈ ૮૦૦ જનપ્રમાણ હોય છે, અને તેમનું આયુષ્ય પલ્યોપમના અસંખ્યાતમાં ભાગમાણ છે. તથા અરવતક્ષેત્રના વિભાગો કરનારા શિખર પર્વતની વિદિશાઓમાં પણ એ જ ક્રમે અને એ જ નામવાળા
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सपाटीका स्था० उ०२ सं० १४ नम्बूद्रोपल्ध अन्तरधीपनिरूपणम् ७५७
___अन्तरद्वीपरफुटीकरणाथ सङ्ग्रहगाथा:" चुल्लहिमवंतपुव्यावरण विदिसामु सागरं तिसए । गणंतरदीवा, तिनि सए होति वित्थिना । १ । अउणावत्र नवसए, किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । एगूरुग आभासिय,-वेसाणी चेव नंगली । २। एएसि दीवाणं, परओ चत्तारि जोयणसयाई । ओगाहूणं लवणं, सपडिदि िचउसयपमाणा । ३ । चत्तारंतरद्दीवा, हयगयगोनसंकुलीकणा। एवं पंचसयाई, छसत्तअव नव चेव । ४ ।
ओगाहिऊण लवणं, विक्खभोगाहसरिसया भणिया । चउरोचउरो दीवा, इमेहि णामेहि पोयया । ५ । जायंसगमेंढमुहा, अओसुहा मोमुहा य चउरेते ।
अस्समुहा इस्थिगुहा, सीमुहा चेव वग्धमुहा। ६। . तओ अ अस्सकना, हथिकना अ कनपाउरणा । उक्कामुहमेमुहा, विज्जुहा विज्जुदंता य । ७ । घगदंतलहदंता, निगूढता य सुद्धदता य ।। वासहरे सिहरिमिनि, एवंचेच अदुवीसावि । ८ । अंतरदीवेसु नरा, धणुसय अठुसिया मुइया । पालिंति मिहुणधम्मं, पल्लस्म असंखभागाऊ।९। चउसहि पिद्विकरंडयाणि मणुयाणऽवद्याालया।
अउणासीइं तु दिणा, चउस्थभत्तेण आहारो । १।" इति, छाया-"क्षुल्लहिमवत्पूर्वापरयोर्विदिक्षु सागरं त्रिशतीम् ।
गत्वाऽन्तरद्वीपासीणि शतानि भवन्ति विस्तीर्णा । १ । एकोनपञ्चाशनवशतं किञ्चिदूनं परिधिस्तेपाभिमानि नामानि । • एकोक आभाविको विपाणी चैत्र लागूली । २। एतेषां द्वीपानां परतश्चत्वारि योजनशतानि ।
अवगाह्य लवणं स प्रतिदिन चतु:शतममाणाः । ३। है और वे मी २८ हैं । अन्तरद्वीपोंको स्पष्ट करनेके लिये ये संग्रह गाथाएं हैं। " चुल्लहिलवंत" इत्यादि १० ॥ ० ६४ ॥ ૨૮ અંતરદ્વીપ આવેલા છે. અંતરદ્વીપની સ્પષ્ટતા કરનારી સંગ્રહગાથા આ प्रभारी छ-" चुलहिमवंत " त्या ॥ सू. १४ ॥
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E
. : . . थानाएंगे ७५
चत्वारोऽन्तरद्वीपा हयगजगोकर्णशष्कुलीकर्णाः । एवं पञ्चशतानि पट्सप्ताट नव चैत्र । ४ । अवगाह-लवणं विष्कम्भावगाहसहशा भणिताः । चत्वारश्चत्वारो द्वीपा एमिनीमभिज्ञातव्या । ५। आदर्शकोदमुखा अयोमुखा गोमुखाश्च चत्वार एते । अश्वमुखा हस्तिमुखाः सिंहमुखाश्चैव व्याघ्रमुखाः। ६ । ततश्चाश्व कणों हस्तिककर्णाश्च कर्णप्रावरणाः । उल्कामुखमेघमुखा विद्युन्मुखा विद्युदन्ताश्च । ७ । घनदन्त-लष्टदन्ता निगूढदन्ताश्च शुद्धदन्ताश्च ।। वर्षधरे शिखरिण्यपि एवमेव अष्टाविंशतिरपि । ८। अन्तरद्वीपेषु नरा धनुःशनाटकोच्छिताः सदा मुदिताः । पालयन्ति मिथुनधमै पल्यस्य असंख्येयभागायुपः। ९ । चतुपष्टिपृष्टकरण्डकानि मनुष्याणामपत्यपालनता ।
एकोनाशीति तु दिनानि चतुर्थभक्तेन आहारः ।१०।" इति सूत्र ६४॥ अनन्तरसूत्रे जम्बूद्वीपमन्दरदक्षिणादि दिगाश्रयणेन लवणसमुदावगाहनया. ऽन्तरद्वीपा उक्ताः, सम्प्रति जम्बूद्वीपस्य बाह्यवेदिकामाश्रित्य लवणसमुद्रावगाहनया महापातालादींस्तत्स्थान देवांश्च तथा लवणस्य प्रस्तुतत्वात्तत्मभासिनश्चन्द्रांस्ततापिनः सूर्याश्च, तस्य लवणसगुद्रस्य द्वाराणि द्वारस्थान् देवांथ प्ररूपयितुमाह
मूलम्-जंबूद्दीवस्स गं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयताओ चउदिलि लवणसमुदं पंचाणउइं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं महहमहालया महालिंजरसंठाणसंठिया चत्तारि महापायाला, पण्णत्ता, तं जहा-वलयामुह १, केउए २, जूवए ३,
इस प्रकार अन्तरद्वीपोंका और अन्तरदीपस्थ मनुष्योंका वर्णन करके अब सूत्रकार जम्बूद्वीपकी बाह्यवेदिकाको लेकर लवण समुद्रको कहां तक उल्लंघन करके पातालकलश कहा है, इस बातका तथा पातालकलशस्थदेवोंका और लवर्णसमुद्रको प्रभासित करने वाले चन्द्रोंको
આ પ્રમાણે અંતરડ્રીપોનું અને અંતરદ્વીપસ્થ મનુષ્યનું કથન પૂરું થયું. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જંબુદ્વીપની બાહ્યવેદિકાથી શરૂ કરીને લવણ સમુદ્રને કયાં સુધી એળગવાથી પાતાળકળશ આવે છે તથા પાતાળ કળસ્થ દેવનું, લવણુ સમુદ્રને પ્રભાસિત કરનારા ચન્દ્રોનું, અને તેમાં તપતા
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धाडीका स्था० ४ ७०२ सू० ६५ लवण समुद्रावगाहनादिनिरुण्णमे
ईसरे४ । एत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डियाजाव पहिओवमहिझ्या परिवति, तं जहा - कालेर, महाकालेर, बेलंवेर, पभंजगे४ ।
७५९
जंबूद्दीवरस णं दीवस बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ चउ हिसिं लवणसमुद्दे वायालीसं २, जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ णं चहं वेलंधरनागराईणं चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता से, जहा - गोधूमे, उदयभासे २, संखे, दगलोमेश तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जाव पलिओवमट्टिया परिवसंति, तं जहा---- गोधूमे, सिएर, संखे ३, मणोसिलए ४ ।
जंबूदीवस णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ चउसु विदिसासु लवणसमूहं वायालीसं २ जोयणसहस्साई ओगाहेता अत्थणं चउन्हं अणुवेलंधरणागराईणं चत्तारि आवासपवया पण्णत्ता, तं जहा - कक्कोडए१, विज्जुप्पभेर, केलासे ३, अरुणप ४। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाब पलिओनमट्टिया परिवसंति, तं जहा कक्कोडए १, कदमए २, केलासे ३, अरुणप्पभेा लवणे णं समद्दे चारि चंदा पभासिसु वा पभाति वा पा सिरसति वा । चसारि सूरिया सर्विसु वा तवंति वा तविहतंति वा चत्तारिकसियाओ जाव चत्तारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि अंगारा जाव चचारि भावकेऊ ।
लवणस्स णं समुद्दस्त चत्तारि द्वारा पण्णत्ता, तं जहाविजए, वे जयंते २ जयंते ३, अपराजिए ४ । तेणं द्वारा वारि जोयणाई विक्खंभेणं तावइया चेव पवेसेणं पणता ।
ין
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स्थानातसूत्रे
७६०
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तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जान पलिओषमट्टिइया परिखसंति - विजए १, वैजयंते २ जयंते ३, अपराजिए ४ ॥ सू०६५ ॥ छाया - जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्ताचतुर्दिश समुद्रं पञ्च नवति २ योजन सहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु महातिमहान्तो महालिञ्जर संस्थानसंस्थित्वा महापातालाः प्रराप्ताः तद्यथा - वडवामुखः १, केतुकः २, यूप्रकः ३, ईश्वरः ४ | अत्र खलु चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः 'परिवसन्ति, तद्यथा - काल: १, महाकाल: २, वेलम्बः ३, प्रभञ्जनः ४,
जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्ताच्चतुर्दिशि लवणसमुद्रं द्विचत्वारिशद्योजन सहस्राणि अवगाह्य अन खलु चतुर्णा वेलन्धरनागराजानां चत्वार आवासपर्वताः प्रज्ञताः, तद्यथा - गोस्तूपः १, उदकमासः २, शङ्खः ३, दकसीमा ४ । तत्र खलु चत्वारो देश महर्दिका यावत् परयोपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा - गोस्तूपः १, शिवका २, शङ्खः ३, मनःशिकः ४,
- जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य वायाद् वैदिकान्ताचतसृषु विदिष्ट लवणसमुद्रं द्विचत्वारिंशद् २ योजन सहस्राणि अवगाहा अत्र खलु चतुर्णामनु वेलन्धरनागराजानां चत्वार आवासपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - १, विद्युत्मयः २, कैलासः ३, अरुगप्रभः ४। तत्र खलु चत्वारो देवा महर्दिकाः यावत् परयोपस्थितिकाः परिचसन्ति, तद्यथा - कर्कोटका १, कर्दमकः २, कैलासः ३, अरुप्रभः ।
लवणे खलु समुद्रे चत्वारचन्द्राः प्रामासन्त वा प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते वा । चत्वारः सूयो अनपन् वा तपन्ति वा तप्यन्ति वा । चतस्रः कृत्तिकाः यावत् चतस्रो भरण्यः, चचारोऽग्नयः यावत् चचारो यमाः, चत्वारोऽङ्गाराः यावत् चत्वारो भावकेतवः ।
-
लवणस्य खलु समुद्रस्य चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञानि तद्यथा - विजयं १, वैजयन्तं २, जयन्तम् ३, अपराजितम् ४, तानि खलु द्वाराणि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण तावन्त्येव प्रवेशेन प्रज्ञप्तानि । तत्र खलु चत्वारो देवा महर्द्धिकाः यावत् पल्योपस्थितिकाः परिवतन्ति - विजयः १, वैजयन्तः २, जयन्तः ३, अपराजितः ४ ॥ ० ६५ ॥
तापित करनेवाले सूर्य का लवण समुद्र के द्वारोंका और द्वारस्यदेवोंका प्ररूपण करते हैं । " जंबुद्दीवरस णं दीवत्स वाहिरिल्लाओ " इत्यादि
1
સૂર્યનુ, લવણુ સમુદ્રના દ્વારાનુ અને દ્વારસ્થ દેવાનું પશુ હવે સૂત્રકાર निप रे - " जंबुद्दीवरस णं दीवस्य बाहिरिल्लाओ " त्याहि
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सुधा ढोका स्था० ६ ३० २ ० ६५ लवणसमुद्रावगाहनानिरूपण ७३१ टीका--' जंबूदीवरस णं " इत्यादि - स्पष्टम्,
" एत्य णं " इति अत्र-मध्यमेषु दशसु योजनसहस्त्रेषु चत्वारः- चतुसंख्यकाः महातिमहान्तः- महाविद्यालाः महाऽविनर संस्थानसंस्थिताः - महाश्रामौ अलिञ्जरोजलवटो महाऽलिस = बृहज्जलदटः, तस्य संस्थानेन - आकारेण संस्थिताः महाऽलिञ्जर संस्थानसंस्थिताः महाजलकुम्माऽऽकाराः महापाताळा: - पावाल दगाधत्वात् पातालव्यवस्थितत्वाद्वा पातालाः, महान्तथ ते पातालाश्चेति तथा, पाताल - कलशाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - वडवामुखः १, केतुकः २, युषकः ३, ईश्वरः ४, येति । एते क्रमेण पूर्वादिदिक्चतुष्टये वोध्याः । मुखे मूले चैते दशयोजनसहस्त्राणि विस्तीर्णाः, मध्ये च लक्षयोजनपरिमाणाः, एषामुपरितनभागे केवलं जलं, मध्यभागे पचनजलोभयम्, मृले वायुरेव, एतेषु वायुकुमाराः कालमभृतयो देवा निवसन्ति, अत्र गाथा: --
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पणन सहरसाई, ओगाहित्ताण चउद्दिर्सि लवणं । चउरोऽलिंजर संठाणसंठिया होति पायाला । १।
टीकार्य - जम्बूद्वीप नाम के द्वीप की बाह्य वेदिकान्त से चारों दिशाओं में लषण समुद्रको ९५ - ९५ हजार योजन प्रमाण लांघकर आगत स्थानपर अधिकाधिक चार पातालकलश हैं, ये पातालकलश एक पहुविस्तृत घडेके जैसे आकार वाले हैं । इनके मात्र इस प्रकार हैं- वडवामुख १, केतुक २, यूपक ३ और ईश्वर ४ | ये चार पातालकला क्रमशः पूर्वादि वार दिशाओं में हैं । इनका मुख और सूल भागका विस्तार दस हजार योजनका है, मध्य भागका विस्तार एक लाख योजनका है । इनके ऊपर के भाग में केवल जल है, मध्य भाग में पवन और जल ये दोनों हैं । मूल भागमें केवल वही है। इनमें काल प्रभृति वायुकुमारदेव रहते हैं । उक्त भी है- " वणनउछ सहस्रसाई " इत्यादि. જમૂદ્રીપ નામના દ્વીપની ખાહ્યવેદિકાના અન્ય ભાગથી ચારે દિશાએામાં લવણુ સમ્રુદ્રને ૯૫-૯૫ હજાર ચેાજનપ્રમાણ ઉલ્લ’ઘિત (પાર) કરવાથી જે સ્થાન આવે છે, તે સ્થાનપર ચાર ખૂબ જ વિશાળ પાતળકળશ છે. તેમના આકાર વિસ્તૃત घडाना आहार थे। तेमनां नाम या प्रमाणे छे - ( १ ) वडवामुख, (२) हेतुङ, (3) यूथ मजे ( ४ ) ईश्वर. ते सार उपश अनुटुभे यूर्वाहि यार દિશાઓમાં છે. તેમના મુખ અને મૂળભાગના વિસ્તાર દશ હજાર ચાજનના છે, અને મધ્યભાગના વિસ્તાર એક લાખ ચાજનનેા છે. તેમના મૂળભાગમાં मात्र वायु छे. तेमां डाटाप्रभृति વાયુકુમાર દેવેન્દ્રના નિવાસ છે, ह्युं पयुधे " पणनउडु सहस्साई " हत्यादि
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वलयामुह केऊए, ज्यग वह इसरे य बोद्धव्वे । सव्ववइरामया कुडा एर्ति दससइया । २ । जोयेासहस्सदसगं, मूले उरिं च होति विस्भिा । मज्ज्ञेय सहस्री, तत्त्रियमेत्तं च ओगाढा । ३। पलिओ महिईया, एएसि अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले, वेलं पजणे चैव । ४ । अन्नविय पायाला, खुड्डालिंजरसंठिया लवणे | अनुसया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्वेवि । ५ ।
स्थानातसूने
सवस्थिन्ना, मूलवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं, दस बोयणिया य शिं कुड्डा | ६ | पायालाण विभागा, सव्वाणवि तिभि तिन्नि बोद्धना । मागे वाऊ, मन्दो वाऊ य उदयं च । ७ । उवरिं उदगं भणियं, पढमगवीएम वाउ संखुभिभो । वाये उदंग तेण य, परिवाइ जलनिही खुहिओ | ८ | परिसंठियंगि पद, पुणरवि उदयं तमेव संठाणं । • वच्चे३ तेण उदद्दी, परिहायह णुकमेणेवं । ९ । " इति, छाया--" पञ्चनवतिं सहस्राणि अवगाह्य चतुर्दिशि लवणम् ।
चत्वारोऽलिज र संस्थान संस्थिताः भवन्ति पातालाः । १ । वडवामुखः केतुः यूपकस्तथा ईश्वरच बोद्धव्यः । सर्वे वज्रमयाः खन्तु कुंडयानि एतेषां दशशतानि । २ । योजन सहसदशकं मुळे उपरि च भवन्ति विस्तीर्णाः । मध्ये च शतसहस्रं तावन्मात्रे चावगाडाः | ३ | पल्योपमस्थितिका एतेषामविपतिपुरा इमे । कालय महाकालो वेलम्वः प्रभञ्जनचैत्र । ४ । अन्येऽपि च पातालाः क्षुद्रालिञ्जरकसंस्थिता लवणे । अष्टशतानि चतुरशीतिः सप्त सहस्राणि च सर्वेऽपि । ५ । योजनशत विस्तीर्णा मूलोपरि दश शतानि मध्ये | अवगाढा र दश योजनानि चैषां कुड्यानि । ६ । पातालानां विभागाः सर्वेषामपि त्रयस्त्रयो बौध्याः । अस्तभागे वायुः मध्ये वायुच उदकं च । ७ । उपरि उदकं भणितं प्रथमक- द्वितीययोः वायुः संक्षुभितः । यमति उदकं तेन व परिवर्धते जलनिधिः क्षुधः । ८ ।
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बुधो टीका स्था४ उ०२ सू२ ६५ लपणसमुद्रावगाहनादिनिरूपणम् ७६३
परिसंस्थिते पवने पुनरपि उदकं तदेव संस्थानम् ।।
व्रजति तेन उदधिः परिहीयतेऽनुक्रमेणैवः । ९।" इति, आसां गाथानामयमर्थः
लवणसमुद्रं चतुर्दिशि पञ्चनवतिसहस्राणि पश्चनवतिसहस्राणि योजनानि अवगाह्य मध्ये अलिअरसंस्थानसस्थिताश्चत्वारः पाताला पातालकलशा भवन्ति । १ । एतेषां पातालकलशानां नामानि-वडवामुखाकेतुक यूपक ईश्वरश्चेति बोध्यानि। एते च क्रमेण पूर्वादिदिक्चतुष्टये भवन्ति । एते सर्वेऽपि वज्रमया वोध्याः । एतेषां कुडयानि=भित्तयश्च दशशतयोजनप्रमाणानि भवन्ति ॥ २ ॥ एते पावालकलशा मूलमागे उपरिभागे च दशसहस्त्रयोजनानि विस्तीर्णा भवन्ति, मध्यभागे तु शतसहस्रयोजनानि-लक्षयोजनानि विस्तीर्णा भनन्ति । तथा चैते लक्षयोजनानि अवगाढाः लक्षयोजनावगाढाः समवलादधोभागे भवन्ति ।३। एतेषां वडवामुखादीनाम अधिपतिमुराः पल्योपमस्थितिका भवन्ति । ते चेगे वोध्याः, तथाहि-कालो १ महाकालो २ वेलम्बः ३ प्रभचनः ४, इति ॥ ४॥ पूर्वोक्ताः पातालकलशा इस गाथाओंका अर्थ इस प्रकार है-चारों दिशाओंकी ओर लवण समुद्र में ९५-९५ हजार योजन आगे जाकर बीचमें घटके जैसे आकारवाले चार पातालकलश हैं। इनके नाम-वलयमुख, केतुक, यूपक, ईश्वर हैं, ये क्रमशः पूर्वादि चार दिशाओं में हैं। ये सब बज्रमय हैं, इनकी दिवाले एक हजार योजनप्रमाण हैं। ये पालालकलश लूल भागमें और ऊपरके भागमें दश दश हजार योजन विस्तृत हैं। मध्यभागमें इनका विस्तार एक २ लाख योजनकाहै, और अवगाहना भी एक लाख २ योजन है। इन कलशों के अधिपति देव १-१ पल्पोपा की स्थितिवाले होते हैं। इन देवोंके नान-काल,महाकाल, वेलम्प, और प्रभञ्जमहैं, ये पूर्वोक्त
આ ગાથાઓનો અર્થ આ પ્રમાણે છે–જબૂદ્વીપના બાહ્ય વેદિકાન્તથી ચારે દિશા તરફ લવ સમુદ્રમાં ૫-લ્પ હજાર જનનું અંતર કાપવાથી લવળ સમુદ્રની વચ્ચે ઘડાના જેવા આકારના ચાર પાતાળકળશ આવે છે. तमना नाम-पसयभुम, तु, यू५४ मन वर छे. तो मश: पूर्व, દક્ષિણ, પશ્ચિમ અને ઉત્તરમાં છે તેઓ વનિર્મિત છે. તેમની દિવાલ એક હજાર જનપ્રમાણ ઊંચી છે. તે પાતાળકળશના મૂળભાગ (તળિયું) અને મુખભાગને વિસ્તાર ૧૦-૧૦ હજાર એજનને છે અને મધ્યભાગને વિરતાર એક લાખ એજનને છે, અને અવગાહના પણ એક એક લાખ એજનની છે તે કળશેના અધિપતિ દેવનાં નામ કાળ, મહાકાળ, વેલમ્બ અને પ્રભંજન, છે. તેમની સ્થિતિ એક પોપમની છે. આ પાતાળ કળશે ખૂબ જ વિરતાર
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महालिञ्जरसंस्थानसंस्थिताः । ततोऽन्येऽपि क्षुद्रालिजरसंस्थानसंस्थिताः पातालफलशा लवणसमुद्रे वोध्याः । एते स तु राप्तसहस्राणि अष्टशतानि चतुरशीतित्र संख्यया बोध्याः ॥ ५ ॥ मूलमागे उपरिभागे चते शतगोजनानि विस्तीर्णाः, मध्ये च दशशतयोजनानि विस्तीर्णाः, अवगाढाश्चैते सहस्त्रयोगनानि । दशयोजनप्रमाणानि त्वेषां कुडयानि विज्ञेयानि ॥६॥ सर्वशी पातालानां त्रयनयोविभागा वोद्धव्याः । तत्राधस्तने भागे वायुस्तिष्ठति, मध्ये वायुरुदकं च तिष्ठति । ॥७॥ उपरिभागे पुनरुदकं तिष्ठति । तत्र प्रथम-द्वितीयभापायो संदभितो वायुरुदकं वमति । तेनोदकतमनेन च क्षुब्धो जलनिधिः परिवर्धते वृद्धि याति ॥८॥ ततः पवने परिसंस्थिते-क्षोभावस्था परित्यज्य पूर्वस्थिति गते सति उदकमपि पुनः तदेव संस्थानं-स्त्रपूर्वस्थिति ब्रजति गच्छति । तेन हेतुना उदधिः एवम् अनुक्रमेण परिहीयते हानि गच्छतीति ॥९॥
पातालकलश विशाल आकार वाले हैं। यहां इनके अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे कलशके जैले आकारवाले पातालकता है। ये सब ७ हजार ८ सौ चौरासीहैं । मूल भागमें और ऊपरके भागमें सौ योजन विस्तारवाले ये हैं । मध्य में एक हजार योजन विस्तार वाले हैं।
- इनकी अवगाहना एक हजार योजनकी है, तथा दश योजन प्रमा णकी दीवाले हैं । समस्त पातालोंके तीन तीन विभाग हैं। नीचेके भागमें वायु रहता है, मध्यभागमें वायु और उदक दोनों रहते हैं,
और ऊपरके भागमें उदकरहता है । प्रथम वितीय भाग में संक्षुभित वायु उदकको उछालता है, इस उदकके उछलने से क्षुब्ध जलधि वृद्धिको प्राप्त होता है, तथा जब वायु अपनां शुध अवस्थाका परित्यागकर पूर्व
વાળા છે. ત્યાં આ ચાર મહાકળશે ઉપરાંત બીજા પણ ૭૮૦૦ નાના મોટા પાતાળકળશે છે. તેમના મૂળ ભાગ અને મુખભાગને વિસ્તાર ૧૦૦૦ ોજનને છે. તેમની અવગાહના પણ ૧૦૦૦ જનની છે, અને તેમની દીવાલ ૧૦ એજન પ્રમાણ ઊંચી છે. બધાં પાતાળકળશેના ત્રણ-ત્રણ વિભાગ પડે’ છે. નીચેના ભાગમાં વાયુ રહે છે, વચ્ચેના ભાગમાં વાયુ અને પાણું રહે છે.. નીચેના અને મધ્યના ભાગમાં રહેલ ક્ષુબ્ધ વાયુ પાણીને ઉછાળે છે, આ રીતે . પાણી ઉછળવાથી ક્ષુબ્ધ થયેલા સાગરના પાણીની વૃદ્ધિ થાય છે, અને જ્યારે વાયુ સુધ્ધાવસ્થાને પરિત્યાગ કરીને પિતાની પૂર્વ સ્થિતિમાં આવી જાય છે,
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सुधा टीका स्था० ४ उ० सू० ६५ लवणसमुद्रावादनादिनिरूपण
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च
“ एत्थ णं चउन्हं वेलंधरनागराई " इत्यादि - अत्र खलु चतुर्णां वेलन्धरनागराजानां - वेलां - लवणसमुद्रशिखामन्तः प्रविशन्तीं वहिच निःसरन्तीमशिखां । धारयन्तीति वेलन्धराः ' संज्ञालादयं साधुः, ते च ते नागराजाथ वेलन्धरनागराजा = वेलन्धरनागकुमारा इत्यर्थः तेषाम् आवासपर्वताः- निवासस्थानरूपाः पर्वताः चत्वारः प्रज्ञताः, ते यथा - गोस्तूपः १, उदकभासः २, शङ्खः ३, उदकसीमा ४, एते क्रमेण पूर्वादिदिवचतुये वोध्याः । तत्र क्रमेण गोस्तूप- शिवकशत्र-मन शिलक नामानो महर्द्धिकाल्योपस्थिविकाशत्वारो देवा वसन्तीति । स्थिति में आजाता है तब जल भी अपनी पूर्वस्थितिमें आजाता है, इस कारण उद्धिमें ज्वार-भाटा शान्त होजाता है ॥ ११९ ॥
" एत्थणं चहं" इत्यादि
ear समुद्रकी शिखा को भीतर वाहिर निकलती हुई अग्रशि खाको जो धारण करते हैं वे बेलन्धर हैं । यहाँ इस व्युत्पत्ति के अनुसार " वेलान्धर " ऐसा पद होना चाहिये था पर ऐसा न होकर जो वेलम्बर ऐसा प्रयोग हुवा है उसका कारण इसका शव्दहोना है । ये वेलन्धर नागराज हैं । ऐसे इन चेलन्धर नागकुमारीके आवास पर्वत निवास स्थानरूप पर्वत चार कहे गये हैं, जैसे- गोस्तूप १, उदकभास २, शङ्ख ३- और उदकसीमा ४ पे चारों आवास पर्वत क्रमशः पूर्वादि चार दिशा में हैं. इन आवास पर्वतोंपर क्रमश:-गोस्तृप, शिवक, शङ्ख और मनःशि-' लक, इन नामोंके चार महद्धिक यावत् पल्योपम स्थितिवाले देव रहते ત્યારે પાણી પણ પાતાની પૂસ્થિતિમા આવી જાય છે તે કારણે સમુદ્રમાં आवेसी भरती शभी लय छे. ॥ सू. १ थी ५.
" एत्यगं चउन्हें " त्याहि
લવણ સમુદ્રની `દર અને ૫હાર નીકળતી એવી વેલાને ( અગશિખાને ) ધારણ કરે છે, તેમને વેલન્કર કહે છે. આ વ્યુત્પત્તિ અનુસાર
यह जन लेहो, या मेवुन थतां ? 'वेसन्धर' यह . બન્યુ છે, તેનું કારણ એ છે કે તેમનું નામ જ વેલúર છે.
તે વેલન્ધર નાગરાજ છે. એવાં તે વેલન્ધર નાગકુમારાના નિવાસસ્થાન રૂપ આવાસ પતે ચાર કહ્યા છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે—(૧) ગેસ્તૂપ, (२) उम्लास, (3) शय भने (४) सीमा, ते यारे आवास पर्वता અનુક્રમે પૂર્વાદિ દિશામાં છે તે આવાસના પર અનુક્રમે ગેસ્તૂપ, શિવક, શંખ અને મનઃશિલક નામના ચાર મહર્ષિક આદિ વિશેષણાવાળા અને એક પલ્યાયમની સ્થિતિવાળા એ રહે છે.
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જે
"वेसान्वर
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स्थानांतर ___"जबूदीवस्त णं" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-विदिक्षु-ऐशान्यादिकोणेषु अनुवेलन्धरनागराजानां-वेलन्धराणां पश्चात्स्थायिनोऽनुनायकत्वेन ये सन्ति तेऽनुवेलन्धराः, ते च ते नागराजाच, तथाभूतानाम् , वेलन्धरवक्तव्यतागाधा:" दसजोयणसहस्सा, लघणसिहा चकवालओ रुंदा । सोलसराहस्सउच्चा, सहस्समेगं तु ओगाढा । १। देमणमद्धजोयण, लवणसिहोवरि दंग तु कालदुगे। अइरेगं अइरेगं, परिवइ हायए वापि । २ । अभितरियं वेलं, धरेवि लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीससहस्सा, दुसत्तरि सहरस वाहिरियं । ३ " सद्धिं नागसहस्सा, धरिति अग्गोदगं समुदस्स।
वेलंधरआवासा, लवणे य चउदिसिं चउरो । ४ । हैं । " जंबुद्दीवस्स णं" इत्यादि. स्पष्ट है, अर्थात् जम्बूद्धोपकी वायवेदि काके अन्तसे चारों विदिशाओं में ४२-४२ हजार योजन लवणसमुद्रको उलंधन करके आगत स्थानपर चार अनुवेलन्धर नागराजोंके कर्कोटकर' विधुत्मभ २, कैलास ३ और अरुणप्रभ ४ नामके चार आवास पर्वत हैं। इनमें चार महद्धिकदेव यावत् २ पल्योपमकी स्थितिवाले रहतेहैं। उनके नाम इस प्रकारसे हैं-कर्कोटक १ कर्दमक २, कैलास ३, और अरुणप्रभ ४-ये अनुवेलन्धर नागराज वेलन्धरनागराजों के पीछे रहते हैं इसलिये अनुनायकके रूप में होनेके कारण अनुवेलन्धर कहे गये हैं। वेलन्धर वक्तव्यता गाथाएं यों हैं__"दस जोयणसहस्सा" आदि. इन गाथाओंका अर्थ-लवणसमुद्रका अग्रभाग मण्डलाकारसे दस हजार योजनका विस्तारवाला है, १६ हजार
“जबुद्दीवस्त णं " त्यानि-मुद्वीपनी मावेजाना सन्तमाया यारे વિદિશાઓમાં ૪૨-૪૨ હજાર યોજન પ્રમાણુ અંતર લલણ સમુદ્રમાં ઉલંઘ વાથી જે થાન આવે છે ત્યાં ચાર અનુલબ્ધર નાગરાજના (૧) કર્કોટક, (૨) विधुत्प्रस, (3) सास माने (४) अरुप नामना या२ पास यता छ. તેમાં એક પાપમની સ્થિતિવાળા અને મહદ્ધિક આદિ કર્કોટક, કમક, કૈલાસ અને અરુણપ્રભ નામના ચાર દેવ નિવાસ કરે છે. અનુનાયક હોવાને કારણે જ અનુલધર નાગરાજે વેલબ્ધર નાગરાજેની પાછળ રહે છે. -
सन्ध प्रतिपाइन ४२ती गाया प्रभार छ-" दस जोयण सहस्सा" त्याहि. तेमनी मथ' मा प्रमाणे छे- समुद्रनी Mun
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सुधा टीका स्था. ४ ७.२ सू. ६५ लवणसमुद्रावगाहनादिनिरूपणम्
पुव्वाइअणुकमसो, गोथुमद्गभारासंखदगसीमा । गोथुम - सिए - संखे मणोसिले नागरायाणो । ५ । छाया - " दशयोजनसहस्राणि लवणशिखा चक्रवालतो विस्तीर्णा । पोडशसहस्रोचा सहस्रमेकं त्ववगाढाः । १ । देशोनमर्द्धयोजन लवणशिखोपरि दकं तु कालद्विके । अतिरेकमतिरेकं परिवर्धते दीयते वाऽपि । २ । आभ्यन्तरकी वेलां धारयन्ति लवणोदधेः नागानाम् । द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वासप्ततिसहस्राणि वाद्याम् । ३ । पष्टिर्नागसहस्राणि धारयन्त्यग्रोदकं समुद्रस्य । वेलन्धराssवासा लवणे च चतुर्दिशि चत्वारः ॥ ४ । पूर्वाद्यनुक्रमशः गोस्तूप- दकभास - शङ्ख- दकसीमाः ।
गोस्तूपः शिवकः शङ्खो मनःशिलो नागराजाः । ५ । " इति,
अयमर्थः- लवणशिखा- लवणसमुद्रस्य अग्रभागः चक्रवालतो मण्डलाकारेण दशसहस्रयोजनानि विस्तीर्णा, पोडशसहस्रयोजनोचा, समभूमिभागापेक्षया, एकसहस्रयोजन प्रमाणाऽवगाढा च वोध्या । १ । लवणशिखाया उपरि कालद्विके= दिवसे रात्रौ च देशोनायो जनप्रमाणं दकं - जलम् अतिरेकम् अतिरेकम् = अधिकमधिकं परिवर्धते हीयतेऽपिवा । २ | नागकुमाराणां द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि लवणोदधेः आभ्यन्तरिकीम्=अन्तर्विशन्ती वेलां धारयन्ति तथा तेषां नागकुमा राणां द्विसप्तति सहस्राणि वाद्यां वहिर्गच्छन्तीं वेलां धारयन्ति । ३ । पष्टिसहस्रसंख्यका नागकुमाराः समुद्रस्य - लवणसमुद्रस्य अग्रोदकं = शिखाग्रं धारयन्ति । रात्र योजन ऊंचा है तथा समतल से एक हजार योजन अवगाहनबाला है। जलशिखाके ऊपर दिन रात कुछ कम अर्धयोजन प्रमाणसे जल बढता घटता रहता है । लवणोदविकी आभ्यन्तर बेलाको ४२ हजार नागकुमार और बाघ वेलाको ७२ हजार नागकुमार धारण करते हैं, एवं ६० हजार नागकुमार लवणसमुद्र शिखाके अग्रभागको धारण करते हैं । उस लवण
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મડલાકારે દસ હજાર યોજનની છે, ૧૬ હજાર ચેાજન ઊંચી છે, તથા સમતલથી હજાર ચૈાજનની અવગાહનાવાળી છે જલશિખા પર ( સપાટી પર ) દિવસે અને રાત્રે અવૈજન કરતાં કંઈક ન્યૂન પ્રમાણમાં પાણીની સપાટીમાં વૃદ્ધિ અને હાનિ થતી રહે છે.
લવણુ સમુદ્રની આભ્યન્તર વેલાને ( પાણીની વૃદ્ધિને ૪૨ હાર નાગકુમાર અને ખાદ્યવેલાને છર હાર નાગકુમારા ધારણ કરે છે, અને ૬૦ હજાર નાગકુમાર લવણુસમુદ્ર શિખાના ( વેલાને ) અગ્રભાગને ધારણ કરે
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- स्थानाशा लवणसमुद्रे चतुर्दिशि रत्वारो लन्धराऽऽशासाः सन्ति । ४ । ते हि पूर्वाधतुक्रमशः पूर्वादिदिगनुक्रमेण गोस्तूप-दसमास - - कसीमनामानो योध्याः । तेषुक्रमेण गोस्तूप शिवम शङ्ख-मनाशिलनानालयका वलन्धराजा वतन्तीति॥५॥ ___"जंबुद्दीवस्त पं" इत्लादिष्टम् । चारं विदिक्षु ऐशान्यादिकोणेषु अनुलन्धरनागराजानां वेलन्धराणा पश्चात्स्थायिनोऽनुनायकत्वेन ये सन्ति तेऽनुवेलन्धराः, ते च ते नागराजाश्च तेपो तथाभूतानामिति ॥
अनुदेलन्धरनागराजयक्तव्यतागाथास्तु--- " अगुवेलंधरवासा, लवणे विदिसामु संठिया चउरो । कल्लोडे विज्जुप्पभे, केलासेऽरुणप्पो चेव । १ । ककोड़ य कदमए, केलासेऽरुणप्पभे य रायाणो । वायालीससहरसे, गहुँ उदहिमि सव्वे वि । २ । चत्तारि जोयणसए, तीसे कोसे च उन्मया भूपि । -
सत्तरसनोयगसए, इगवीसे ऊसिया सन्ने । ३।" छाया-" अनुवेलन्धरवासा लगयो विदिक्षु संस्थिताबलारः ।
कर्कोटो विद्युत्प्रमः कैलासोऽरुणामवैव । १ । कर्कोटकः कईमका कैलासोऽस्य श्च राजानः। . द्विचत्वारिंशत् सहखाणि गत्वा उधौ सर्वेऽपि । २। चत्वारि योजनशतानि त्रिंशतं क्रोशांश्च उद्गताभूमिम् ।
सप्तदश योजनशतानि एकविंशतिमुच्छ्रिताः सर्वे ।३।" इति अयमर्थः-लवणसमुद्रे विदिक्षु-ऐशान्यादिपु क्रमेण संस्थिताः ककॉटकसमुद्र में चारों दिशाओमें पूर्दादि क्रमसे चार वेलन्धरावास गोस्तुप १, दरभास २, शङ्क ३, दकसीम ४ हैं, जिनमें-गोस्तूप, शिव, शल मनःशिल चार लामके वेलन्धरराज रहते हैं-५ । __ अनुखेलन्धर नागराज वक्तव्यता विषयिणी गाथाएं-"अणुवेल. धरवासा" इत्यादि. इन गाथाओंके अर्थ-लवण समुद्र में ईशान છે આ લવણ સમુદ્રની ચારે દિશાઓમાં પૂર્વાદિ કમથી ચાર લખ્યરાવાસ मावेसा छ तेमना नाम प्रभारी छ-(१) स्तू५, (२) मास, (3) શંખ અને (૪) દકસીમ. તેમાં અનુક્રમે શેતૂપ, શિવક, શીખ અને મન શિલ નામના લબ્ધરાજ નિવાસ કરે છે. અનુલબ્ધર નાગરાજની વક્તવ્યતાનું नि३५९ ४२ती गाथामे:-" अणुवेलंधरवासा" त्यादि-२॥ मायामाना ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે –
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सुधा टीका स्था०४४०२ सू०१५ लवणसमुद्रावगाहनादिनिरूपणम्
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विद्युत्प्रभ - कैलासाऽरुणमभनामानचत्वारोऽनुवेलन्धरावासाः सन्ति |१| तेषु क्रमेण कर्कोटक - कर्दमक- कैलासारुणम मनामानञ्चत्वारो नागराजा निवसन्ति । एते सर्वेऽप्यावासा उपसमुद्रे द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि योजनानि गत्वा सन्ति |२| तत्र चैते चत्वारि योजनशतानि त्रिंशतं क्रोशांथाभिव्याप्य भूमिम् उद्गताः = भूमौ व्यवस्थिताः । तथा ते सर्वे एकविंशत्यधिकशतयोजनानि उच्छ्रिता उच्च वोध्या: । ३ । इति ।
“ लवणे समुद्दे णं " इत्यदि - लवणे समुद्रे चत्वारचन्द्राः प्राभासन्त वा प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते । तथा - लवणसमुद्रे चत्वारः सूर्या अतपन् वा तपन्ति वा तपस्यन्ति वा चन्द्राणां शीतलकिरणत्वेन सौम्यदीतिकत्वाद् वस्तुप्रभासनं प्रोक्तं सूर्याणां तु प्रचण्ड किरणत्वान्न सौम्यदीष्टिकत्वमिति तेपां न तदुक्तम्,
चन्द्राणां चतुदेव तत्परियारस्यापि नक्षत्रादेवतुष्टमेवेत्याह- चचारि कत्ति - याओ " इत्यादि - चतस्रः कृत्तिकाः अत्र चतुष्टुं च नक्षत्रापेक्षया नतु तारकापेआदिविदिशाओं में क्रम से कर्कोटक, विद्युत्प्रभ, कैलास, अरुणप्रभये अनुवेलन्धर आवास हैं, इनमें कर्कोटक २, कर्दम २, कैलास ३, अरुणप्रभ ४ नामा चार नागराज रहते हैं । ये आवास पर्वत लवण समुद्र में ४२ हजार योजन जा करके हैं । ये ४०० योजन और ३० कोशनक भूमिको घेर कर स्थित हैं । १७२१ योजन ऊंचे हैं । लवण समुद्र में चार चन्द्रमा है, वेलवण समुद्र में प्रकाशित हुये हैं होते है और होंगें ।
तथा - चार सूर्य वहां तपें है अब भी तपते हैं और आगे आगे तपेगे । चन्द्र शीतल, और सूर्यगखर किरणेवाले होते हैं । इसलिये यहां वे चन्द्र वस्तुका प्रकाशन करते हैं, ऐसा कहा है तथा सूर्य प्रचण्ड किरणके कारण तपते हैं ऐसा कहा गया है । चन्द्र चतुष्टय के परिवार नक्षत्रादि भी यहां चार रूप में हैं, इसी पातको सूत्रकारने " चत्तारि कत्तियाओ "
લવણુ સમુદ્રમાં ઈશાન આદિ વિશિામા અનુક્રમે કકેૉંટક, વિદ્યુત્પલ, કૈલાસ અને અરુણુપ્રભ નામના નાગરાજ રહે છે. તે આવાસ પતા લવણુ સમુદ્રમાં ૪૨ હજાર યોજન દૂર જવાથી આવે છે. તેઓ ૪૦૦ યોજન અને ૩૦ કાસ જેટલી ભૂમિને ઘેરીને ઊમા છે. તેમની ઊંચાઇ ૧૭૨૧ ચેાજન છે. લવણુસમુદ્રમાં ચાર ચન્દ્રમા છે તેએ ભૂતકાળમાં તેને પ્રકાશ દેતા હતા, વર્તમાનમાં પણ દે છે અને ભવિષ્યમાં પણ દેશે. ત્યાં ચાર સૂર્ય તપતાં હતાં, તપે છે અને તપશે ચન્દ્ર શીતલ કિરણાવાળા અને સૂર્ય ઉષ્ણુ કરશેા વાળા હાય છે. તેથી અહીં એવું કહ્યું છે કે ચન્દ્રો પ્રકાશ આપે છે અને સૂર્યો પ્રચંડ કિરાને કારણે તાપ આપે છે. ચાર ચન્દ્રના પરિવાર રૂપ નક્ષત્રાદિ
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ए७०
स्थानामसूत्रे क्षयेति, एवं रोहिण्यादि भरण्यन्तानामपि नक्षत्रापेक्षयैव चतुष्वं विज्ञेयम् , 'यावत्' -पदेन रोहिण्यादि भरण्यन्तानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि ग्राह्याणि ।
" चत्तारि अग्गी" इत्यादि-कृत्तिकादि भरण्यन्तानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां देवताः क्रमेण अग्निमारभ्य यमपर्यन्ताअष्टाविंशतिसंख्यका बोध्याः । तासु प्रत्येक देवता चतुःस्थानकानुरोधेन चतुर्विधा योध्या।
सम्प्रति लवणसमुद्राकाशस्थितानां ग्रहाणां मध्ये एकैकस्या-चतुष्टमुपदर्शयितुमाह-" चत्तारि अंगारा" इत्यादि । तत्र अङ्गारः प्रथमो ग्रहः, भावकेतुस्तु अष्टाशीतितमः । नक्षत्र देवताग्रहाणां नामानि द्वितीयस्थानकस्य चतुस्त्रिंशत्तमे सूत्रेऽवलोकनीयानि । इत्यादि सूत्र द्वारा प्रगट किया है-यहां चार २ कृत्तिकाएं हैं, यहां जो चतुष्टयता है वह नक्षत्रोंकी अपेक्षासे है, नारकों की अपेक्षासे नहीं। इसी तरह-रोहिणीसे भरणीतकमें नक्षत्रों की अपेक्षासेही चारचार जानना चाहिये।
यहां यावत् पदसे रोहिणीले लेकर भरणी तकके २८ नक्षत्र ग्रहण कहे गये हैं। " चत्तारि अग्मी" इत्यादि
कृत्तिकासे लेकर भरणी तकके जो २८ नक्षत्र हैं, उनके देवता क्रमशः अग्निसे लेकर यम तक २८ हैं। इनमें प्रत्येक देवता चतुःस्थानकके अनुरोधसे चार प्रकार के हैं ऐसा समझना चाहिये।
अब सूत्रकार लवण समुद्र के अवकाशमें स्थित ग्रहों के मध्यने एक एक ग्रहमें चारचार प्रकार दिखाने के लिये "चत्तारि अंगारा" इत्यादि सूत्र कहते हैं। इनमें अङ्गार प्रथम ग्रहहैं और भावकेतु ८८ वा ग्रहहै । नक्षत्र, देवता, 'पाप त्यां यार या२ ३५ छ । पात सूत्रसरे " चत्तारि कत्तियाओ" - ઈત્યાદિ સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ કરી છે. ત્યાં જે ચતુષ્ટયતા છે તે નક્ષત્રની અપેક્ષાએ છે, નારકેની અપેસાબ નથી. જેમકે ત્યાં ચાર કૃતિકાએ છે, એ જ પ્રમાણે હિણીથી લઈને ભરણી પર્યતન નક્ષત્રમાં પણ ચતુષ્ટયતા સમજવી. અહીં યાવત્ (પર્યત) પદથી રોહિણીથી લઈને ભરણી સુધીના ૨૮ નક્ષત્રો ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે.
चत्तारि अग्गी" त्याह-कृत्तिथी २३ ॐशन सी सुधीन२८ નક્ષત્ર છે, અનુક્રમે અગ્નિથી લઈને યમ પર્યન્તના તેમના ૨૮ દેવતાઓ છે. તેમના પ્રત્યેકને દેવતા ચતુઃસ્થાનકના અનુરોધથી ચાર પ્રકાર છે, એમ સમજવું. હવે સૂત્રકાર લવણ સમુદ્રના અવકાશમાં જે જે ગ્રહો રહેલા છે, તે प्रत्ये ग्रहमा यतुष्टयतातुं प्रतिपाहन ४२ निमित्त "चत्तारि अगारा" ઇત્યાદિ સૂત્ર કહે છે–અંગારક (મંગળ) પહેલે ગ્રહ છે, અને ભાવકેતુ ૮૮
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सुधा टीका स्था०४७०२ सु०६६ धातकीखण्डद्वीपस्य घलेयप्रमाणादिनिरूपणम् ७७१ लाणसणं समुहस्स " इत्यादि - लवणस्य समुद्रस्य चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तानि यथा - विजयादीनि ४, इत्यादि सर्व जम्बूद्वीपद्वारादिवदवसेयमिति । सु० ६५ ।।
द्वीपप्रकरणाद् धातकीखण्डद्वीपस्य वलयप्रमाणादि निरूपयितुमाह
मूलम् -- धायइसंडे दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते जंबुद्दीवस्स पणं दीवस्स वाहिरिया चत्तारि भरहाई, चत्तारि एरवयाई, एवं जहा --सदुद्देशए तहेव निरवसेसं भाणियां जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मंदरचूलियाओ | सू०६६॥
छाया - धातकीखण्डो द्वीपश्चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः, जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य वहिः चत्वारि मरतानि चत्वारि ऐरवतानि, एवं यथा शब्दोद्देशके तथैव निरवशेषं भणितव्यं यावत् चत्वारो मन्दराः, चतस्रो मन्दरचूलिकाः | सू० ६६ ॥ टीका- ""
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" धायइड इत्यादि - चक्रवाल विष्कम्भेण - चक्रवालः = मण्डलंग्रह इनके नाम द्वितीय स्थानकके३४ वे सूत्र में कहे गये हैं, अतः वहांसे देख लेना चाहिये | " लवणस्स णं समुदस्स " इत्यादि. लवण समुद्रके द्वार चार कहे गये हैं जैसे- विजय २, वैजयन्त २, जयन्त ३ और अपरजित ४ । द्वार सम्बन्धी और सब कथन जम्बूद्वीप द्वारोंकी तरह जानना । सु. ६५ द्वीपप्रकरणको लेकर अब सूत्रकार धातकीखण्ड द्वीपके वलय प्रमाण आदि वक्तव्यताका निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं । धावडे दीवे चत्तारि " इत्यादि
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धातकीखण्ड द्वीप चक्रवाल विष्कम्भकी अपेक्षा चार लाख योजમા ગ્રહ છે. નક્ષત્ર, દેવતા અને ગ્રહેાનાં નામ દ્વિતીય સ્થાનકના ૩૪ માં સૂત્રમાં આપ્યાં છે, તે ત્યાંથી વાંચી લેવા.
लवणस्स णं समुदस्स " त्याहि
सवायु समुद्रना यार द्वार छे - (१) विजय, (२) चैन्नयन्त, (3) भयन्त અને (૪) અપરાજિત. દ્વાર વિષેનું બાકીનું સમસ્ત કથન જ બુદ્વીપના દ્વારાના કથન અનુસાર સમજવું ! સુ. ૬૫ ॥
દ્વીપ પ્રકરણના સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ધાતકીખંડ દ્વીપના वलयप्रमाणु भाहिनुं नि३ रे " धायइसंडे दीवे चचारि " त्याहि
66
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स्थानाङ्गसूत्रे वलय इत्यर्थः, तस्य विष्कम्भः-विस्तारश्चक्रवालविष्कम्भस्तेन चत्वारि योजनश. तसहस्राणि-चतुर्लक्षयोजनपरिमितो धातकीखण्डनामा द्वीपः प्रज्ञप्तः।
" जंबुद्दीवस्स णं” इत्यादि-जम्बुद्वीपस्य खलु द्वीपस्य बहिः-बहिःप्रदेशे स्थितयोः - धातकीखण्ड-पुष्कराद्धयोपयोश्चत्वारि भरतानि ऐश्चतानि च सन्तीति बोध्यम् । “ एनं जहे "-त्यादि-एवम्-अनेन प्रकारेण, यथा यया रीत्या, शब्दोदेशके-शब्दोपलक्षिता मरतैरवतादिशब्दोपलशितः उदेशकः शब्दोद्देशकः द्वितीयस्थानकस्य तृतीयोद्देशकः, तत्र भरतैरवतादि-मन्दरचूलिकान्तानां द्विस्थानकत्वेन वर्णनं कृतं, तथैव-भरवादिमन्दरचूलिकान्तं नित्यशेपं-सर्व चतु:स्थानकत्वेन भणितव्यम् । तत् कियदवधि वक्तव्यमित्याह भूत्रकार:-" जाव चत्तारि मंदरा" इत्यादि-" चत्वारो मन्दराश्चतस्रो मन्दरचूलिका " इतिपर्य: न्तमित्यर्थः । सु० ६६। नका विस्तारवाला कहा गया है । यह जम्बूहीप बाहर प्रदेश में स्थित है, अर्थात्-सबसे प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है, इसको चारों ओर लवण समुद्र वेष्टित कर रक्खा है । जम्बूद्वीपसे दुगुना विस्तार तयण समुद्रका
और लवणसमुद्रसे दुगुना धातकीखण्ड छीप है, इसके चारों ओर समुद्र है। इसके बाद पुष्करबादीप है। जम्बूद्वीपमें एक भरतक्षेत्र, एक ऐरवत क्षेत्र आदि क्षेत्र हैं। धातकीखण्डमें दो-भरत दो ऐरक्त आदि क्षेत्र हैं, इसी प्रकार पुष्करार्धमें दो भरत आदि क्षेत्र हैं। इस तरह जैसा कथन भरत, ऐरवत आदिका वितीय स्थान के तृतीय उद्देशे में मन्दरपूलिका तक है, वैसाही चतुःस्थान रूपले यहां कहना
ધાતકીખંડ દ્વિીપને ચકવાલ વિષંભ (પરિ–પરિપિત) ચાર લાખ જનને કહ્યો છે તે જંબૂદ્વીપથી બહારના પ્રદેશમાં આવેલું છે. એટલે કે સૌથી પહેલે જંબુદ્વીપ છે. તેની ચારે તરફ વીંટળાઈને રહેલે લવણ સમૃદ્ધ છે. જમ્બુદ્વીપ કરતાં લવણું સમુદ્રને વિસ્તાર બમણો છે, અને લવણસમુદ્ર કરતાં ધાતકીખંડદ્વીપને વિસ્તાર બમણે છે. તેની ચારે બાજુ પણ સમુદ્ર આવે છે ત્યારબાદ પુષ્કરદ્વીપ આવે છે. જંબૂદ્વીપમાં ભરત, અરવત આદિ ક્ષેત્ર એક એક છે, પણ ધાતકી ખંડમાં ભરત, અરવત આદિ ક્ષેત્રે બખે છે. એ જ પ્રમાણે પુષ્કરાર્ધમાં પણ ભારત આદિ ક્ષેત્રે રાખે છે. બીજા સ્થાનકના ત્રીજા ઉદેશામાં ભરત, અરવત આદિ ક્ષેત્રનું મન્દર ચૂલિકા પર્યન્તનું જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન ચતુરથાન રૂપે અહીં પણ થવું
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सुधा टीका स्था० ४ २०२ ९० ६७ नन्दीश्वरहीपवर्णनम्
पूर्व मनुष्यक्षेत्रयस्तूनां चतुःस्थानकात्ममुक्तं, साम्प्रतं क्षेत्रसाधम्यानन्दीश्वरद्वीपवस्तूनि चतुःस्थानकत्वेन निरूपयितुमाह
॥ अथ नन्दीश्वरद्वीपविचारः॥ मूलम्--गंदीसरवरस्ल एवं दीवस्त चकबालबिक्खंभल बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं च सारि अंजणगपचया पण्णत्ता, तं जहापुरस्थिसिल्ले अंजणगएचए, दाहिणिले अंजणगपचए, पच्छिमिल्ले अंगणगपाए उत्तरिल्ले अंजणगपवए ४॥ ते गं अंजणगपव्वया चउरासाइ चउरासोइ जोयणसहस्साई उडू उच्चत्तगं, एगं एगं जोयणसहस्सं उव्वहेणं, मूल दस दस जोयणसहस्लाई विखंभेणं । तयणंतरं च णं मायाए २ परिहाएमाणा ३ उपरिगं एगं जोयणलहस्सं विक्खंभेणं । मूले इकतीसं २ जोयणप्तहस्ताइ छच्च तेचीले छच्च तेवीले जोयणसए परिक्खेवेणं उपरि तिनि २ जोयणसहस्लाई एगं च छाब एग व छाव, जोयणसयं परिक्खेवेण । मूले वित्थिण्णा भज्ञ सखित्ता, उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वंजणमया अच्छा साहा सहा घट्ठा महा नीरया निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सम्म रीझ्या सउज्जोया पासाईया दरिलणीया अभिरूवा पडिरूवा । तेसि णं अंजणगप्पवयाणं उरि बहुलमरमणिज्जभूमिमागा पण्णत्ता । तेति णं बहुसमरमणिज्जा सुमिमागाणं बहुमज्जदेसभागे चत्तारि सिद्धाययणा पण्णता, ते पं सिद्धाययणा एगं चाहिये । यही बात-" जाव चसारि मंदा" इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा व्यक्त है । इसका टीकार्थ स्पष्ट है । स्पृ०६६ ॥ नये. थेपात "जाव वतार मदरा त्याहि सूत्रपा दास व्याया છે. આ સૂત્ર સુગમ હોવાથી વિવાર્થ આપે નથી. સૂ ૬૬ છે
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स्थानाशस्त्र जोयणसयं आयामेणं पण्णता, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, बोवत्तरि जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं । तेसिं सिद्धाययणाणं चउदिप्तिं चत्तारि दारा पपणन्ता, तं जहा--देवदारे १, असुरदारे २,
णागदारे ३, सुवष्णदारे ४, तेसु णं दारेसु चउठिबहा देवा परि___ वसति, तं जहा--देवा १ असुरा २ नागा ३ सुवण्णा । तेप्ति णं
दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पणत्ता । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता । तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामया अक्खाडगा पण्णत्ता । तेसिणं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारिमणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । ताप्ति णं मणिपेढियाणं उरि चत्तारि सीहासणा पणत्ता। तेसि णं सीहासणाणं उवरि चत्तारि विजयदूसगा पण्णत्ता । तेसिणं विजयदूसगाणं बहुमज्झदेसमागे चत्तारि वइरामया अंकुसा पण्णत्ता । तेसुणं वइरामएसु अंकुसेसु चत्तारि कुंभिका मुत्तादामा पण्णत्ताओ । तेणं कुंभिका जुत्तादामा पत्तेयं २ अन्नेहिं तदद्ध उच्चत्तपमाणमित्तेहिं चउहिं अद्धकुंभिकेहि मुत्ता. दामेहि सवओ समंता संपरिक्खित्ता। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, तासि णं मणिपोढियाणं उरि चत्वारि २ चेझ्यथूभा पण्णत्ता। तेसि णं चेइयथूभाण पत्तेयं २ चउदिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढिआणं उवरि चत्तारि जिणपडिमाओ सब यणामईओ संपलियंकणिसन्नाओ थूभाभिमुहाओ चिटुंति तं जहा-रिसभा १, वद्धमाणा २, चंदाणणा ३, वारिसेणा ४,
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सुधा टोका स्था० ४ उ. २ सू ६७ नन्दीश्वर द्वीपवर्णनम् तेसि णं चेइयथूक्माणं पुरओ चत्तारि मणिपेढिआओपष्णताओ। तासि णं मणिपढिआणं उवरिं चत्तारि वेश्यरुकवा पपणतातेसि णं चेझ्यरुक्खाण पुरओ चत्तारि मणिपेढिआओ पण्णताओ। तासि पं मणिपढियाणं उवरिं चत्तारि महिंदज्झया पण्णत्ता । तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरओ चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ। तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तयं २ चउहिसिं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा--पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमणं उत्तरेणं-- " पुवेणं असोगवणं दाहिणओ होइ सत्तवण्णवणं ।
अवरेणं चंपगवणं चूयवणं उत्तरे पासे । १॥६७॥ छाया-नन्दीश्वरवरस्य खलु द्वीपस्य चक्रवालविष्कम्भस्य बहुमध्यदेशभागे चतुर्दिशि चत्वारोऽञ्जनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पौरस्त्यः अञ्जनकर्वतः दाक्षिणात्यः अञ्जनकपचतः२, पाश्चात्य अञ्जनकपर्वतः ३, औतराहः अञ्जनकपर्वतः ४। ते खल अञ्जनकप. बताः चतुरशीति चतुरशीति योजनसहस्राणि अर्ध्वमुच्चत्वेन, एकमेकं योजनसहसमुद्वेधेन, मूले दश दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण । तदनन्तर च खलु मात्रया २ परिहीयमाणा २ उपरि एकमेकं योजनसहस्रं विष्कम्भेग मूले एकत्रिंशदेकत्रिंशद् योजनसहस्राणि पट्च त्रयोविंशति पयनयोविंशति योजनशतानि परिक्षेपेण, उपरि त्रीणि २ योजनसहस्राणि एकच पट्पष्टिम् एकच पट्पष्टिम् योजनशतानि परिक्षेपेण । मूले विस्तीर्णा मध्ये सक्षिप्ताः, उपरि तनुकाः गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सञ्जिनमयाः अच्छाः लक्ष्णाः श्लक्ष्णा: घृष्टाः मृष्टाः नीरजसः निप्पङ्काः निष्क्रटच्छायाः सप्रभाः समरीचिकाः सोयोताः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपाः । तेषां खलु अञ्जनकपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीयभूमिभागाः मज्ञप्ताः, तेषां खलु बहुसमरमणीयभूमिभागानां बहुमव्यदेशभागे चत्वारि सिद्धायवनानि प्रज्ञप्तानि, तानि खल सिद्धायतनानि एकं योजनशतम् आयामेन प्रज्ञप्तानि,
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स्थानानयत्र पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भेण, द्वासति योजनानि अगुवत्वेन, तेषां सिद्धायतनानां चतुर्दिशि चत्वारि द्वाराणि मज्ञप्तानि, तद्यथा-देवद्वारम् १, असुरद्वारं २ नागद्वारं ३, सुवर्णद्वार ४। तेषु खलु द्वारेषु चतुरिंधा देवाः परिवसन्ति, तद्यथा-देनाः २, असुराः २, नामाः ३, मुश्णी: ४। तेषां खलु द्वाराणां पुरतः चन्वोरो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ताः । तेषां खलु मुखमण्डपानां पुरतः चत्वारः प्रेक्षागृ. हमण्डपाः प्रज्ञप्ताः । तेषां खलु प्रेक्षागृहमण्डपानां वहुमध्यदेखभागे चत्वारो वजमया अक्षवाटकाः प्रज्ञप्ताः । तेषां खलु बन्नमयानामक्षवाटकानां बहुमध्यदेसभागे चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः। तासां खलु मणिपीठिकानामुपरि चत्वारि सिंहासनानि प्रज्ञप्तानि । तेषां खलु सिंहासनानामुपरि चत्वारि विजययाणि मज्ञप्तानि । तेषां खलु विजयदुव्यकाणां बहुमध्यदेशभागे चत्वारो बज्जमया अङ्घशाः प्रज्ञप्ताः । तेषां खलु वनमयेषु अकृशेषु चत्वारि कुम्भिकानि मुक्ता दामानि मज्ञप्लानि, तानि खलु कुम्भिकानि मुक्तादामानि प्रत्येकं प्रत्येकमन्यैस्तद. द्वोचत्वप्रमाण मात्रैवतुभिरर्द्धकुनि मर्मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तानि । तेषां खलु भेक्षाग्रहमण्डपानां पुरतश्चनस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः। तेयां खलु मणिपी. ठिकानामुपरि चन्वारश्चत्वारश्चैत्यस्तूपाः अज्ञप्ताः । तेषां खलु चैत्यस्तूपानां प्रत्येक २ चतुर्दिशि चतस्रो मणिपिठिनाः प्रज्ञप्ताः। तासां खलु मणिपीठिकानामुपरि चतस्रो जिनप्रतिमाः सर्वरत्नमय्यः संपल्यङ्कनिषण्णा: स्तूपाभिमुख्यस्तिष्ठन्ति, तद्यथा ऋषमा १, वर्द्धमाना २ चन्द्रानना ३, वारिसेना ४, तेयां खलु चैत्यस्तुपानां पुरतश्चतस्रो मणिपाठिकाः प्रज्ञप्ताः। तासां खलु मणिपीठिकानामुपरि चत्वारश्चैत्यक्षाः प्रज्ञताः । तेषां खलु चैत्याक्षाणां पुस्तश्चतस्रो मणिपीठिकाः प्रजाः । तासां खलु मणिपीठिकानामुपरि चत्वारो महेन्द्रध्वनाः प्रज्ञताः । तेषां खलु महेन्द्र बजानां पुरतश्चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः । तासां खलु पुष्करिणीनां प्रत्येकं चतुर्दिशि चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पौरस्त्ये १, दाक्षिणात्ये २, पाश्चात्ये ३, उत्तरे" पूर्वण-अशोकवन, दक्षिणतो-भवति सप्तपर्णवनम् ।
अपरेण चम्पकवनं, चूतवनमुत्तरे पार्श्वे ॥ १ ॥ इति ॥ सू० ६७ ॥ इस प्रकार मनुष्य क्षेत्रगत वस्तुआन चतुःस्थामकता फहकर अष सूत्रकार क्षेत्र साधम्य को लेकर आठवें नन्दीश्वर धीपके वस्तुओंकी
આ રીતે મનુષ્ય ક્ષેત્રગત વસ્તુઓમાં ચતુઃસ્થાનકતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રસાધમ્યની અપેક્ષાએ આફમાં નંદીશ્વર દ્વીપની વસ્તુઓનું ચતઃ
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सुधा टीका स्था० ४३०२ सू० ६७ नन्दीश्वरद्वीपवर्णनम्
- ७७७ टीका-"दीसरतरस्स णं" इन्पादि
द्वोपमद्राणां क्रमस्त्येवमुक्तः, तथाहि" जैबुद्दीवे लवणो, धायइ कालोययुक्खरे वरुणे ।
खीर-चय-खोअ-नंदी-अरुणवरे कुंडले कथगे ॥१॥ इति । छाया-जम्बूद्वीपो लवणो धातकी कालोदः पुष्करः वरुणः ।
क्षीर-घृत-शोद-नन्दी-अरुणवरः कुण्डलो रुचकः ।।१।।” इति, चतुःस्थानकातामा निरूपण करते हैं।
"मंदीसरवररक्षण दीदस्त चक्कवालविक्वंमस्त" इत्यादि
चकवाल विष्कम्भवाले नन्दीश्वर दीपके बीच चार दिशाओं में धार अजनगिरि पर्वत हैं, जैसे-पौरस्त्य अचनक पर्वत १, दाक्षिणात्य अञ्जनक पर्वत २, पाश्चात्य अजनक पर्चेत ३, और औदीच्य अननक पर्वत ४ । ये चारों ८४-८४ हजार ऊंचाईवाले हैं। उनका उद्वेध एक हजार योजन है, मृलमें इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है, तथा मात्रा बाबाले घटते-२ ऊपर में इनका विष्काम एक हजार चोजनका है।
द्वीप महांका क्रम--" जंबुद्धीवे लवणे" इत्यादि । लब दोप समुद्रोंके मध्य में पहला जम्बूद्वीप है, यह लबग समुद्र से वेष्टित है ? इसके बाद घातकी वण्ड दीप जो कि चारों ओर कालोदसमुद्रसे घिरा है २ । इसके बाद-चरबीप, पुष्कर बमुद्रले विग है ३ । इसके बाद સ્થાનકતાની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કરે છે–
'दीवानरस्त णं दीयन्स चालविक्वंमम्स" रियादि
ચકવાલ વિર્કવાળા નંદીશ્વર કપમાં ચાર દિશામાં ચાર અંજનગિરિ આવેલા છે. તેમનાં નામ. આ પ્રમાણે છે–પૂર્વને અંજનક પર્વત, દક્ષિાને અંજનક પર્વ, પશ્ચિમને અંજનક પર્વત અને ઉત્તરને અંજનક પર્વત. તે પ્રત્યેકની ઊંચાઈ ૮૪-૮૦ હજાર જનની છે અને તેમને ઉત (ઉંડી એક હાર ચિજનને છેમૂળ બારામાં તેમને વિસ્તાર દસ હજાર એજનને છે, અને જે કુરે જઈએ તેમ તે વિક્ત,૨ ઘટત ઘટતે એક હજાર એજન 44.
अनुनाने! " ट्टी लब"त्यादि-मयां-बी५ अनुदान વ જંપ છાલા છે. તે લવરમુદથી વીંટળાયે છે. ૧. ત્યાર
2. अयी ये! छे. त्यारा युधी५ छ, बनी है. ! 3त्या पक्षीय सने व
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स्थानाङ्गयो ____ अत्र नन्दीश्वरी मध्यजम्बूद्वीपापेक्षयाऽष्टमत्वेन पठितः, सोऽयं नन्दीश्वरो द्वीपोऽन्यद्वीपापेक्षया मधुररमणीयत्वेन, उत्सवादिकारणवशादेवानां संमीलनसद्भावेन च वरः श्रेष्ठः । तस्यैवंविधस्य चक्रवालविष्कम्भस्य-चतुरशीति लक्षाधिकनिषष्टयधिकशतकोटि ( १६३८४२०००० ) योजनप्रमाणवलयविस्ता. रस्य, उक्तञ्च तत्प्रमाणम् - वरुणदीप, और वरुण समुद्र ४ । इत्यादि रूपले द्वीप और बीपोंको घेरे हुवे समुद्र हैं। अन्तमें-स्वयम्भूरमण द्वीप और स्वयम्भूरमण समुद्र है । यहाँ ग्यारह द्वीपोंके नाम प्रकट किये गये हैं। पुष्करदीपके बाद क्षीरदीप-क्षीरसमुद्र ५, घृतछीप-वृत्तसमुद्र ६, क्षोदवीप-इक्षु समुद्र ७, नन्दीश्वर बीप-नन्दीश्वर समुद्र ८, अरुणवर बीप-अमणवर समुद्र ९, कुण्डल द्वीप-कुण्डल समुद्र १० और रुचक द्वीप-रुचक समुद्र ११
इस तरहसे द्वीप और समुद्र हैं। सूत्रकारने जो यहां लवण समुद्र और कालोद समुद्र इन दोही समुद्रोंका नाम इस गाथामें प्रकट किया है। उसका कारण ढाई द्वीपमें ये दोही समुद्र हैं, यह समझाने के लिये किया है। यहाँ नन्दीश्वर होप मध्य जम्बूद्वीपकी अपेक्षा आठवां है, इसके साथ जो 'वर' विशेषण दिया गया है, उसका कारण ऐसा है कि यह दीप अन्य बीपोंकी अपेक्षा प्रचुर रूपमें रमणीय है, तथा तीर्थ. करों के जन्म उत्सवादि कारणोंसे यहाँ देवोंका संमिलन होता रहता है। इसका चक्रवाल विस्तार १६३८४००००० एक अरव तिरसठ करोड चौरासी लाख योजनकाहै । कहाभी है " तेसडकोडिसयं" इत्यादिસમુદ્ર છે. ૪. ત્યારબાદ ક્ષીર દ્વીપ અને ક્ષીર સમુદ્ર છે. . ૫. ત્યારબાદ ઘતી અને ઘતસમુદ્ર ૬ સેદ દ્વીપ અને ઈશ્ન સમુદ્ર૭. નહીશ્વર દ્વીપ અને નંદીશ્વર સમુદ્ર ૮ ! અરુણુવર દ્વીપ અને અરુણુવર સસુકા લા કુંડલ દ્વીપ અને કુંડલ સમુદ્ર ૧૦ સુચક દ્વીપ અને રુચક સમુદ્ર છે ૧૧ ઈત્યાદિ રૂપે દ્વીપ અને દ્વિીપને વીંટળાયેલા સમુદ્ર છે, છેવટે સ્વયંભૂરમણ દ્વીપ અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર છે.
સૂત્રકારે અહીં ગાથામાં લવણ સમુદ્ર અને કાલેદ સમુદ્ર આ બે સમુદ્રોનાં નામ જ પ્રકટ ર્યા છે તેનું કારણ એ છે કે અઢી દ્વીપમાં એ બે જ સમદ્ર છે. મધ્ય જંબુદ્વીપથી નન્દીશ્વર દ્વીપ આઠમે દ્વીપ છે. તેને જે “વર" વિશેષ લગાડયું છે તેનું કારણ એ છે કે અન્ય દ્વીપો કરતાં આ દ્વીપ ઘાજ રમણીય છે, ઉત્સવાદિ કારણેને લીધે ત્યાં દેવેનું આગમન થતું રહે છે. તેને या वि (परिक) १९७८४००००० (मे २१४, तेस: ४२।७ भने ८४ ५) यानी छ. उद्यं ५ छे , " तेसढे कोडिसयं "त्यादि.
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सुषी टीका स्था० ४ उ० २ सू० ६७ नन्दीश्वरद्वीपवर्णनयं - "तेसह कोडिसयं, चउरासीइंच सयसहस्साई।
नंदीतरवरदीवे, विक्खंभो चकवालेणं ॥१॥" इति । छाया-निपष्टिं कोटिशतं चतुरशीति च शतसहस्राणि ।
नन्दीश्वरवरद्वीपे विष्क-मश्चक्रबालेन ॥ १॥ एवंविधप्रमाणस्य तस्य बहुमध्यदेशमागे चतुर्दिशि-चतसृषु दिक्षु. पौरस्त्य-दाक्षिणात्य-पाचात्या-त्तराह भेदेन चत्वारोऽञ्जनकपर्वता:- अञ्जनकनामानः कृष्णवर्णाः पर्वताः प्रज्ञताः । तेषु अञ्जनकपर्वतेषु प्रत्येकं पर्यत उच्चत्वेन चतुरशीति सहस्रयोजनप्रमाणः, उद्ववेन-भूल्यन्तः स्थितभागत्वेनैकसहस्रयोजनप्रमाणः, मूलप्रदेशविष्कम्भेण च दशसहस्त्रयोजनप्रमाणः । तदनन्तरं च खलु मात्रया मात्रया परिहीयमाणेषु एतेपु पर्वतेघु प्रत्येक पर्नेत उपरितनभागे विष्कम्भेण एकमहस्रयोजनप्रमाणः । तया-मूलपदेशे परिक्षेषण-परिधिना त्रयोविंशत्यधिकपट्शताविककत्रिंशद् ( ३१६२३) योजनसहन्यप्रमाणः । उपरिप्रदेशे पुनरयं परिधिना पट्पष्टयधिकैकराताधिकत्रिसहस्र ( ३१६६) योजनप्रमाणः । तथा
इस नन्दीश्वर द्वीपके बहु मध्यभागमें एक एक अञ्जनक पर्वत हैं। इस तरहसे थे चार अचनक पर्वन हैं, अञ्जनका काला वर्ण होनेसे अजनक पर्वतमें प्रत्येक अञ्जनक पर्वत ८४-८१ हजार योजन ऊंचा है। भूमिके भीतर इनका प्रत्येक मूल भाग एक एक हजार योजनहै तथा इन सबके प्रत्येक मूल भागका विष्कम्भ १० हजार योजनका है, सो यह सब विषय ऊपरमें प्रकट कर दिया है । प्रत्येक पर्वत उपरितन भागमें मात्राले घटता हुवा एक हजार योजनका विष्कम्भवाला हो गया है, मृल प्रदेश में प्रत्येक पर्वत परिधिका विस्तार ३१६२३ योजनका है। तथा ऊपरी भागमें प्रत्येककी परिधि ३१६६ योजनप्रमाणहै, इस तरह ये
તે નન્દીશ્વર દ્વીપના બરાબર મધ્ય ભાગમાં, ચારે દિશાઓમાં એક એક અંજનક પર્વત છે તે ચારે અંજનક પર્વતે આંજણ (અંજન) ન જેવાં કાળા વર્ણના હોવાથી તેમને અંજનક પર્વતે કહે છે. તે પ્રત્યેક અંજનક પર્વતની ૮૪ હજાર એજનની ઊંચાઈ છે. તે પ્રત્યેકને ઉધ (જમીનની અંદર વિસ્તાર) એક હજાર એજનને છે અને મૂળ ભાગનો વિસ્તાર દસ હજાર એજનન અને ટેચને વિસ્તાર એક હજાર એજનનો છે તે પ્રત્યેક અંજનક પર્વતના મૂળ ભાગને પરિધ ૩૧૬૨૩ એજન પ્રમાણ અને ઉપરના ભાગને પરિધ ૩૧૬૬ જન પ્રમાણ કહ્યો છે. આ રીતે આ
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स्थानाङ्ग सूत्रे
चैते पर्वता मूले विस्तीणी = विस्तारवन्तः मध्ये संक्षिप्ताः उपरिभागे च तनुका:= प्रतलाः अत एव गोपुच्छ संस्थानसंस्थिताः यथा गोपुच्छो मूले स्थूलः, अन्तेच तनुस्तथा तेऽप्यञ्जनकपर्वता मूले स्थूलाः शिखरे ततुका इति गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः = गोपुच्छाssकारवदवस्थिताः, सर्वाञ्जनमयाः अञ्जनं कृष्णरत्नविशेषः तदेव तन्मयाः अञ्जन्मयाः, सर्वएवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाचनमयाः सर्वाञ्जनमया:= परमकृष्णवर्णा इति भावः, उक्तं च
" भिगंगरुल कज्जल अंजणधाउसरिसा विशयति ।
"3
गगणलमलिता अंजणगा पव्वया रम्मा ॥ १ ॥ छाया -- भृङ्गाङ्गरुचिरकज्जलाखनधातु सदृशा विराजन्ते । गगनतलमनु लिखन्तोऽञ्जनकाः पर्वता रम्याः | १|| " इति, कृष्णवर्णत्वेन भृङ्गाङ्गसदृशा रुचिरकज्जलसदृशा अञ्जनधातुसदृशाश्चैते रमणीयाः अञ्जनकपर्वता उच्चत्वेनाकाशं स्पृशन्तो विराजन्ते । इति भावः । १ । पुनस्ते कीदृशा इत्याह- अच्छा: ' - स्वच्छाः' आकाशस्फटिकवत् तथा लक्ष्णा:= श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिर्मिताः श्लक्ष्णमुत्र निर्मितवस्त्रवत् तथा श्लक्ष्णाः पर्वत मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर में तनुक (पतले ) हैं । अत एव गोपुच्छाकार जैसे प्रतीत होते हैं । जैसे कि गोपुच्छ मूलमें मोटी, अन्त में पतली, मध्य में समवर्तुल संक्षिप्त हुवा करती हैं वैसा इन्हें जानना, इसीसे इनको लक्ष्पकर गोपुच्छाकारवद्वाऽवस्थिता गोपुच्छाकारसंस्थानवाला ऐसा कहा है ये सब पर्वत सर्वभाव कृष्णरस्त विशेषसा अञ्जनमय है । कहानी है । 66 भिगंगरुल कज्जल इत्यादि । कृष्णता से भृङ्गाङ्ग ( भ्रमर के अंग ) सदृश, रुचिर कज्जल सदृश, अञ्जनपुञ्ज धातु सदृश है, फिरभी रमणीय हैं। ये ऊचाईसे गगनचुम्बी, अच्छाः आकाशस्फटिक हैं, इलक्षणा:- चुटीत हुवे वस्त्र
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"
"
પતા મૂળ ભાગમાં વિસ્તીર્ણ, મધ્ય ભાગે સક્ષિપ્ત અને ટોચ પાસે તનુક ( अति सक्षिप्त ) छे, ते उरले तेथेोनेो भार गायना पूछडा वा सा છે. જેમ ગાયનું પૂંછડું મૂળ લાગમાં જાડું, છેડે પાતળુ` અને મધ્યમાં સમ વર્તુળ સક્ષિપ્ત હાય છે, એવા જ આ પર્વતના આકાર સમજવેા.
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शो ४ वात सूत्रडारे " गोपुच्छाऽऽकारबद्धाऽवस्थिताः " मा सूत्रपाठ द्वारा अउट, ठुरी छे. आयारे पर्वता कृष्णरत्न (असार छे) विशेष समान गन्नमय छे. उधुं - पशु छे – “ भिंगंगरुइलकज्जल धत्याहि ते पर्वताना वर्ष लांग -- समान ('लभरायानां सो समान ) रुयिर, ४ समान, गने अन પુજ ધાતુ સમાન શ્યામ હાવા છતાં પણુ તે રમણીય લાગે છે. તેઓ श्रीं यार्धनी अपेक्षा मे गगनचुम्मी लागे थे, “अच्छा: " साओश समान स्व२छ :
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सपा का स्था० १ १०२ ९० ६७ नन्दीश्वरद्वीपवर्णनम् धुण्टितपटवत् चिक्षणाः, तथा-पृष्टाः धृष्टा इव धृष्टाः खरतर-शाणया धृष्टशिलावत् , तया-मृष्टाः-कृतसम्माजना इब कोमलशाणया परिशोधितशिलावत् , यद्वा-मृष्टाः प्रमानिकया शोधिता इव कचवरादि रहिताः, अत एच-नीरजस:धूलिरहिताः-निर्मला इत्यर्थः, कठिनमलागादात् धौतवस्त्रकद्वा, तथा निष्पका:पकरहिताः आई मलाभावात् यद्वा-कलकरहिता', तथा-निष्कङ्कटच्छाया:-कङ्कटं -कवचम्-आवरणमुपचारात तरमाथिकान्ता निष्कडाटा निरावरणा सा छायाशोभा येषां ते तथा, निष्कलङ्क शोमा इत्यर्थः, तथा-समभा-देवानन्दजनकप्रभावसम्पन्नाः, यद्वा-स्वप्रभाः स्वतःप्रभासनशीला न परतः, तथा-समरीचिका:किरणयुक्ताः, अतएव-सोयोता:-परसाशकाः, प्रासादीया: दर्शकानां चित्त पसादजनकत्वात्प्रमोदजनकाः, अभिलमा=मनोज्ञाऽऽकृनिकाः मनिरूपाः अपूर्वचजैसा पाली सदार चमकीले हैं, एवं-खरतरशाणसे घृष्ट शिला जैसा है, मृष्टाः कोमलशाणसे परिशोधित, संमार्जित शिला जैसा हैं, अथवा प्रमानिकासे शोधित जगहसा कूडाकरकट से रहितहैं, एवं-नीरजसः' धूली रहीत निर्मल हैं, कठोर मलबाला बनसा स्वच्छ हैं । एवं-आद्रमलके अभावसे पङ्करहित हैं। यद्वा कलङ्करहित हैं, "निष्करच्छाया" आवरण रहित शोभावाले हैं । " सामा" देवोंके आनन्दजनक प्रभा संपन्न हैं, अथवा स्वतः प्रकाशनशील हैं, परतः प्रभासमान नहीं हैं। " समरीचिकाः" किरणयुक्त हैं, अतएव "सोधोता" परप्रकाशक हैं, "प्रासादीयाः" दर्शकजनोंके चित्तमें प्रसाद-प्रमोदोत्पादक है, "अभिरूपाः" मनोज आकृतिबाले हैं, “प्रतिरूपाः " अपूर्व चमत्कारी एवं स्वाभाविक रमणीय अद्वितीय रुपयाले हैं । " तेसिणं " इत्यादि। " इलक्ष्णाः " धुटित र सभा। ५.लीसा२ अरे Andi छ, ४i g AI ( सराय) 43 सेसी । समान छ, “ मृष्टाः " म साथी પરિધિત (સંમાજિત) શિલાસમાન છે. અથવા સાવરણ વડે વાળીઝૂડીને सा३ ४२सी ४२ नि छ, “ नीरजसः " धूथी २हित छ, १२ મળ રહિત વસ્ત્ર સમાન સ્વચ્છ છે, અને આ મળને અભાવ હોવાથી કાદવ २डित छे-मय ४४ रात छ, “निकटच्छायाः " मावराण २डित शामा छ, “ सप्रभाः" देवान मान४४४ प्रमास पन छे. मया तशा वाशित छ, ५२प्राशित नथी. " समरीचिका." तमा हिराथी युत थे. " सोध्द्योता?" मन त ४२ अन्यने प्रोशित ४२ना। छ, “प्रासादीयाः" शनाय छ, शनी शित्तमा प्रभान छ, “ अभिरुवा " भनाज्ञ माइति. ॥ छ, “ प्रतिरुवाः " मयू यारी मन स्थाxि २मणीय-मनुपम
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स्थानासूत्रे
मत्कारकमाकृतिकरमणीयत्वेनाद्वितीयरूपाश्च । ' तेसि णं' इत्यादि - तेषां खलु अञ्जनकपर्वतानाम् उपरि = ऊर्ध्वे बहुरमणीय भूमिभागाः वद्दवः = प्रभूताः अतिशयिताः समाः = निम्नोन्नतत्वरहितत्वेन तुल्याः रमणीयाः सुन्दराथ भूमिभागा प्रज्ञप्ताः तेषां खलु बहुसमरमणीय भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे चत्वारि सिद्धायतनानि सिद्धानां देवविशेषाणामायतनानि - स्थानानि, उक्तं च मे -
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' सिद्धो व्यासादिके देवयोनौ निष्पन्न - मुक्तयोः । नित्ये प्रसिद्धे " इति, यद्वा सिद्धानि - नित्यानि शाश्वतानिच तान्यायतनानि - स्थानानि च तथा, अत्र प्रागुक्तं प्रमाणम् । तानि खलु सिद्धायतनानि एकयोजनशतमायामेन महतानि, विष्कम्भेण= विस्तारेण तु पञ्चाशतं योजनानि ५०, ऊर्ध्वमुच्चत्वेन तु द्वासप्तर्ति ७
इन अञ्जनक पर्वतोंके ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहे गये हैं । बहुसमरमणीय- इसलिये कहे गये हैं कि ये अतिशयित हैं, तथा निम्नता, एवं उच्चता से रहित होनेसे तुल्य हैं और सुन्दर होने से रमणीय हैं । इन बहुसमरमणीय भूमिभागों के बहु मध्यदेशमें चार सिद्धायतन कहे गये हैं । देवविशेषोंके स्थान कहे गये हैं, हेमकोश में " सिद्धशब्द " देव विशेषवाचक कहा गया है, जैसे- " सिद्धो व्यासा दिके देवयोनौ निष्पन्न मुक्तयोः । नित्ये प्रसिद्धे० इत्यादि
अथवा - " सिद्धानि नित्यानि च शाश्वतानि, तान्यायतनानि ” इस विग्रहके अनुसार नित्य आयतनही सिद्धायतन कहे गये हैं । ये सिद्धायतन आयामकी अपेक्षा एक सौ योजन लम्बे हैं, और विष्कम्भ की अपेक्षा ५० योजन चौडे हैं । ७२ योजन ऊंचे हैं । इन सिद्धायतनों के चारों दिशाओं में चार चार द्वार हैं, इनके नाम-१ देवद्वार १, असुर
३५स ंपन्न छे, “ तेसिणं " मा विशेषशेोवाणा तेन पर्वत उपर महुસમરમણીય ભૂમિભાગેા આવેલા છે. તે ભાગા ખાડા ટેકરાથી રહિત અને અતિશય સંકર હાવાથી તેમને બહુસમરમણીય "" उद्या छे. ते રમણીયભૂમિભાગેાના મધ્ય ભાગમાં ચાર સિદ્ધાયતન (દેવ વિશેષાનાં સ્થાન) બહુ સમआवेसां छे. डेभाशमां "सिद्ध " शहने देवविशेषने। वाय उद्यो छे. भेम..." सिद्धो व्यासादिके देव - योनौ निष्पन्नमुक्तयोः । नित्ये प्रसिद्धे० - 24291 -" fazifa facufà a-gaifa, azargazifa" 241 laus 245સાર તે નિત્ય-આાયતનને જ સિદ્ધાયતન કહેવામાં આવેળ છે. તે સિદ્ધાયતનની લંબાઈ ૧૦૦ ચેાજનની, પહેાળાઇ ૫૦ ચેાજનની અને ઊંચાઈ ૭૨ ચેાજનની કહી છે. તે સિદ્ધાયતનેાની ચારે દિશાએામાં ચાર ચાર દ્વાર છે. તે
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सुधा टीका स्था० ४ उ०२ सू२ ६७ नन्दीश्वरद्वीपवर्णनम् । योजनानि । तेषां सिद्धायतनानां चतुर्दिशि-पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु चत्वारि द्वाराणि, तद्यथा-देवद्वारं १, असुरद्वारं २, नागद्वार ३, सुपर्णद्वारं च, एतानि सार्थकनामानि । तेषु खलु द्वारेषु चतुर्विधा:-चतुष्पकाराः देवाः परिचसन्ति, तद्यथा-क्रमेण देवाः १, असुराः २, नागाः ३, सुपर्णाश्च ४ । तेपां खलु द्वाराणां पुरतः अग्रे चत्वारो मुखमण्डपाः मुखे-अग्रिमद्वारे मण्डपाः तेषां । तेषां खलु मण्डपानां पुरतः अग्ने चत्वारः प्रेक्षागृहमण्डपाः--प्रेक्षायै-प्रेक्षणाय-दर्शनाय गृहमण्डपाः गृहाण्येव मण्डपास्तथा प्रज्ञप्ताः, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां बहुमध्यदेशभागे चत्वारो वज्रमया अक्षवाटका अखाढा' इति भाषा प्रसिद्धाः सन्ति । तेषां खलु बहुमध्यदेशभागे चतस्रो मणिपीठिकाः मणिवेदिकाः सन्ति । तासा खल्लु मगिपीठिकानामुपरि चत्वारि सिंहासनानि । तेषां खलु सिंहासनानामुपरि चत्वारि विजयष्यागि-वितानरूपाणि वस्त्राणि तेपां खलु बहुमध्यभागे चत्वारो वज्रमया अङ्कुशाः, अवलम्बनार्थ कीलकानि । तेषु खलु चत्वारि कुम्भिकमुक्तादामानि, कुम्भिकानि मुक्तापरिमाणविशेपाः तत्परिमिता मुक्ताः-मौक्तिकानि द्वार २, नागद्वार ३, सुपर्णद्वार ४ ये सार्थक हैं । इन द्वारोंके प्रथम द्वारमें देव, द्वितीयमें असुर, तृतीयमें नाग, चतुर्थमें सुपर्ण ये चार प्रकारके देव रहते हैं । इन द्वारोंके सामने-आगे चार मुखमण्डप हैं, इन मण्डपोफे आगे चार प्रेक्षागृह मण्डप हैं । इनमें बैठकर देव यहांकी वस्तुओंको देखते हैं । इन प्रेक्षागृहों के बहु मध्यदेश भागमें चार मणिपीठिकाएं हैं, उनके ऊपर चार सिंहाप्सन हैं, उनके ऊपर चार विजयदृष्य हैं-वितान रूप वस्त्र हैं। उनके बहुमध्यदेश चार अंकुश लटकानेके लिये बज्रमय कीलिकाएं हैं, उनमें चार कुम्भिक मुक्ताओंकी मालाएं लटकती हैं, कुन्निक मुक्ताओंका एक प्रकार परिमाण विशेष होता है, इस परिमाण द्वाशना नाम मा प्रभाहो छ-(१) देवदार, (२) असुरक्षा२, (3) ना२ અને સુપર્ણદ્વાર. આ ચારે નામો સાર્થક છે પ્રથમ દ્વારમાં દે, બીજામાં અસુરે, ત્રીજામાં નાગકુમાર અને ચેથામાં સુપર્ણકુમારો રહે છે તે દ્વારોની સામે આગળના ભાગમાં ચાર મુખમંડપ છે, તે મંડપની આગળ ચાર પ્રેક્ષાગૃહ મંડપ છે. તેમાં બેસીને દેવે ત્યાંની વસ્તુઓને નિહાળે છે. તે પ્રેક્ષા
હેના બહુમધ્યપ્રદેશ ભાગમાં ચાર મણિપીઠિકાઓ છે, તેમના ઉપર ચાર સિંહાસન છે, તેમના ઉપર ચાર વિજયગ્ય ( આચ્છાદિત વસ્ત્ર) છે. તેમના બહુ મધ્ય ભાગમાં ચાર અંકુશ લટકાવવાને માટે વજીમય ખીલીઓ છે. તમાં ભિક તીઓની ચાર માળાઓ લટકે છે, કુંભિક મોતીઓને એક
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स्थानाङ्गसूत्रे
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तासां दामानि - बाल्यानि - अवलम्बितानि सन्तीति भावः तानि खलु कुम्भिकमुक्तादामानि प्रत्येकं प्रत्येभ्यैस्तदर्द्धाच्चत्वप्रमाणप्रमितैश्चतुर्भिरकुम्भिकैमुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु परिक्षिप्तानि वेष्टितानि सन्ति । तेषां खलु प्रेक्षागृह मण्डपानां पुरतः चवस्त्रो मणिपीठिका: मणिनयवेदिकाः विद्यन्ते तासां मणिपीठिकानामुपरि चत्वारथत्वारः चैत्यत्तूपाः- प्रतीताः मज्ञाः तेषां खलु चैत्यस्तूपानां प्रत्येकं २ चतुर्दिशि चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः । तासां खलु मणिपीठिकानामुपरि चतस्रो जिनप्रतियाः - जिना:- जित्वरा - विजय शीला देवाः, उक्तञ्च -
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" जिनो जित्वरे त्रिषु इति मेदिनी कोषः तेपां प्रतिमाः, ताः कीदृश्यः १ इत्यादि.. सर्व रत्नमय्यः, तथा संपल्यङ्कनिषण्णाः = पद्मासनोपविष्टाः, तथा स्तूपामिमुख्यः = चैत्यस्तूप दिक्कतमुखाः तिष्ठन्ति - सन्ति । तासां प्रतिमानां विशेषवाली जो मुक्ताएं होती है - वे कुम्भिक मुक्काएं हैं। ये प्रत्येक कुम्भिक मुक्तादास चारों दिशाओंमें अन्य और चार - २ अर्द्ध-कुम्भिक मुक्तादानोंसे अच्छी तरह परिवेष्टित हैं । उनका प्रेक्षागृह north आगे चार मणिमय वैदिकाएं हैं । उनके ऊपर चार चार चैत्यस्तूप हैं, armers areकी चारों दिशाओं में चार चार मणिपीठिकाएं, और उनके ऊपर चार जिन प्रतिमाएं विजयशील देवोंकी प्रतिमाएं हैं। यहाँ जिन शदसे " जिनो जिवरे विषु " मेदिनीकोष के अनुसार विजयशील देव गृहीत हुवे हैं, जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाएं नहीं । ये जिन प्रतिमाएं सर्व प्रकार से रत्नमय है तथा पद्मासन से उपविष्ट है। तथा इनके सुख चैत्यस्तूपकी और हैं। इन प्रतिमाओंके ऋषभ १, वर्धमान
પ્રકાર પરિણામ વિશેષરૂપાય છે. તે પિરામ વિશેષવાળી જે મુક્તાઓ હાય છે તેમને કુશિક મુક્તા કહે છે. તે પ્રત્યેક કુભિક મુક્તાદામ ચારે દિશાઓમાં બીજા ચાર ચાર કુંભિક મુક્તાનામેાથી સુર રીતે પરિવષ્ઠિત છે. તે પ્રેક્ષાગૃહ મંડપેાની આગળ ચર મણિમય વેદિકાઓ છે. તેમના ઉપર ચાર ચાર ચૈત્યસ્તૂપ છે, તે પ્રત્યેક ચૈત્યસ્તૂપની ચારે દિશામાં ચાર ચાર મિશ પીઠિકાએ છે, તે મØિપીકાએ ઉપર ચાર જિનપ્રતિમાએ ( વિજયશીલ देवानी प्रतिभाओ। ) छे. गड्डी 'जिन " यह द्वारा " जिनो जित्वरे त्रिषु મેઢિનીકેષ અનુસાર વિજયશીલ દેવ ગૃહીત થયેલ છે-જિનેન્દ્ર દેવ ગૃહીત થયા નથી એટલે કે વિજયશીલ દેવાની તે પ્રતિમાઓ છે. તે જિનપ્રતિમાએ સ'પૂર્ણતઃ રત્નમય છે, પદ્માસન યુક્ત છે અને તેમનાં મુખ ચૈત્યસ્તૂપ તરફ્
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पुषा टीको स्था० उ २ सू० ६७ नन्दीश्वरद्वीपवर्णनम्
७८५ नामान्याइ 'तंजहा' इत्यादि, तद्यथाः ऋपमा १, वर्धमाना २, चन्द्रानना, ३, वारिषेणाश्चेति । तेषां खलु चैत्यस्तूपानां पुरतः चतसो मणिपीठिकाः । तासां खलु चैत्यक्षाणां पुरतःचतम्रो मणिपीठिकाः, तासामुपरि चत्वारो महेन्द्रध्वजाः सन्ति । तेषां पुरतः चतस्रो नन्दा:-नन्दानाम्न्यः पुष्करिण्यः सादिका जलाशयविशेषाः सन्ति । तासां खलु पुष्करिणीनां प्रत्येकम्-एकैकस्याः पुष्करिण्याः चतुर्दिशि चत्वारो वनखण्डा विद्यन्ते, तद्यथा-पौरस्त्ये १, दाक्षिणात्ये २, पाश्चात्ये ३, उत्तरे ४ । तत्र-पूर्वस्यां दिशि अशोकवनं, दक्षिणस्यां दिशि सप्तपर्णवनं-सप्त पानि-येशां ते सप्तपर्णा:-क्षविशेपा स्तेपांवनम् , पश्चिमदिशिचम्पावनं-चम्पापुष्पवृक्षवनम् उत्तरे पार्थे चतवनम्-आम्रपणम् अस्ति ।१। इति गाथार्थः ।।सू० ६७॥
अथाजनपर्वतानां वक्तव्यतामाह
मूलम्-तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अंजणगपवए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणंदुत्तरा १ गंदा २, आणंदा ३, गंदिवद्धणा ४ ताओ गंदाओ पुक्खरिणीओ एगं जोयणसयसहस्सं आयामेणं, पन्नासं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं दस जोयणसयाई उबेहेणं तासि णं पुक्ख२, चन्द्रानन ३, वारिपेण ४ नाम हैं, इन चैत्यस्तूपों के आगे चार मणिपीठिकाएं हैं । इन मणिपीठिकाओके ऊपर चार चैत्यवृक्ष हैं, इनके आगे चार मणिपोठिकाएं हैं, इनके ऊपर चार महेन्द्रध्वज हैं । उनके आगे चार नन्दा नामकी पुष्करिणियां वावडियां हैं, इन पुष्करिणियों में से प्रत्येक पुष्करिणीकी चारों दिशाओं में चार वनखण्ड हैं, पूर्व दिशामें अशोकवन १, दक्षिण में सप्तपर्ण वन २, सप्तपर्ण वृक्ष सात पत्तोंवाला होता है। पश्चिम चम्पकवन ३, उत्तरमें आप्रवन हैं ४ ॥ ० ६७ ॥ छे. ते प्रतिमामान नाम (१) यस, (२) मान, (3) यन्द्रानन मन (૪) વારિણ છે તે ચૈત્યરતૃપ પાસે ચાર મણિપીઠીકાઓ છે અને તે મણિપીઠિકાઓ ઉપર ચાર ચૈત્યવૃક્ષ છે તેમની આગળ ચાર મણિપીઠિકાઓ છે, તેમની ઉપર ચાર મહેન્દ્રવજ છે. તેમની આગળ ચાર નન્દા નામની પુષ્કરણીઓ (વાવ) છે. તે પ્રત્યેક પુષ્કરણની ચારે દિશામાં ચાર વનખંડ છે. પૂર્વ દિશામાં અશેકવન, દક્ષિણમાં સપ્તપર્ણવન, (સતપણે વૃક્ષને સાત પાન ७।५ ), पश्चिममा ५४वन भर उत्तरमा मापन छ. ॥ सू. १७ ॥
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स्थामा सूत्रे
रिणीणं पत्तेयेर चउद्दिसिं चत्तारि तिसोदाणपण्डरूवगा पन्नन्ता । तेसि णं तिसोवाणपडिरूनगाणं पुरओ चचारि तोरणा पण्णत्ता, तं जहा - पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं । तासि णं पुक्खरिणीणं परोयं २ चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडा पण्णसा, तं जहा - पुरओ, दाहिणेणं, पच्चत्थिसेणं, उत्तरेणं,
गाहा - " पुत्रेण असेोगवणं दाहिणओ होइ सत्तवण्णवणं । अवरेण चंपगवणं चूरावणं उत्तरे पासे ॥
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तासि णं पुक्खरिणी णं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि दहिमुहगपद्यया पण्णत्ता । ते णं दहिमुहगपवया चउसट्ठि जोयणसहस्साई उड्डुं उच्चचेणं, एवं जोयणसहस्सं उबेहेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया, दसजोयणसहस्साइं विवखंभेणं, एकतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सव्वरयणामया अच्छा जान पडिरुवा । तेति णं दहिभुहपव्वया उवरिं बहुसमरमणिजा भूमिभागा पण्णत्ता, सेसे जहेव अंजणगपव्वयाणं तहेव निरवसेस भाणियव्वं । जाव चूयवणं उत्तरे पासे " || सू० ६८ ॥
छाया-तत्र खलु यः स पौरस्त्योऽञ्जनकपर्वतः तस्य खलु चतुर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - नन्दोत्तरा १, नन्दा २ आनन्दा ३, नन्दिवर्धना ४ । ता नन्दाः पुष्करिण्य एकं योजनशतसहस्रमायामेन पश्चाशतं योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, दश योजनशतानि उद्वेधेन । तासां खलु पुष्करिणीनां प्रत्येकं २ चतुदिशि चत्वारः त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि मज्ञप्तानि । तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतचत्वारि तोरणानि, प्रज्ञप्तानि तद्यथा- पौरस्त्ये दाक्षिणत्थे पाश्चात्ये उत्तरे। तासां खल पुष्करिणीनां प्रत्येकं२ चतुर्दिशि चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञसाः, तद्यथा- पुरतः दक्षिणतः
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सुंधा टीका स्था० . उ. सू०६८ अञ्जनकपर्वतवर्णनम् पाश्चात्ये उत्तरे । गाथा-पूर्वेण अशोकवनं दक्षिणतो भवति सप्तपर्णवनम् । अपरस्मिन् चम्पकवनं चूतवनमुत्तरे पार्थे । तासां खल पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे चत्वारो दधिमुखपर्वताः प्रज्ञताः । ते खलु दधिमुखपर्वताः चतुःपष्टिं योजनसहस्राण्यूर्वमुच्चत्वेन, एकं योजनसहस्र द्वेधेन, सर्वत्र समाः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थिताः, दश योजनसहस्त्राणि विष्कम्भेण, एकत्रिंशतं योजनसहस्राणि पट त्रयोविंशति योजनशतानि परिक्षेपेण, सर्वरत्नमयाः अच्छा यावत् प्रतिख्याः । तेषां खलु दधिमुखपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः, शेपं यथैव अञ्जनकपर्वतानां तथैव निरवशेष भणितव्यं, यावत् " चूतवनमुत्तरे पार्थे ।
टीका-" तत्थ णं" इत्यादि-तत्र-नन्दीश्वरस्य बहुमध्यदेशभागे यः स पौरस्त्यः पूर्वदिग्भवोऽञ्जनकपर्वतोऽस्ति तस्य पर्वतस्य खलु चतुर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दोत्तरा १, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्धना ४ । वा अनन्तरोक्ताः नन्दाः-सामान्येन नन्दापदव्यपदेश्याश्चतस्त्रः पुष्करिण्यः आयामेन देर्येण एकं योजनशतसहस्रम् एकलक्षयोजनानि विष्कम्भेण-विरतारेणतु पञ्चाशतं योजनसहस्राणि, उद्वेधेन-गाम्भीर्येण दश योजनशतानि सन्ति । तासां खलु पुष्करिणीनां प्रत्येकम्-एकैकस्याः पुष्करिण्याश्चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-त्रयाणां एकस्यां दिशि द्वारसंभवास्त्रिदिगभिमुखानां निसंख्यकानां सोपानानाम्-अवतरणाऽऽरोहणमार्गाणां समाहारः त्रिसोपानं-सोपानपवित्रयं तद्वहुत्वे त्रिसोपानानि-प्रत्येकं दिशि तिस्त्रः २ सोपानपदयः सन्तीति चतुर्दिशि द्वादश
अञ्जन पर्वतोंकी वक्तव्यताटीकार्थ-"तत्थ ज जे से पुरथिमिल्ले" इन अञ्जन पर्वतोंमें जो अञ्जन पर्यंत पूर्व दिशामें है, उसके चारों दिशाओमें नन्दा पुष्करिणियां हैं। नन्दोत्तरा १, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्धना ४, थे आयानकी अपेक्षा एक लाख योजन लम्बी हैं और विष्कम्भ-चौडाई पचास हजार योजन हैं, गहराई एक हजार योजनकी है। प्रत्येक पुष्करिणियोंके चारों दिशाओमें
मन पर्नु qg-- " तत्थणं जे से पुरथिमिल्ले " त्याहि_ટીકાથ-આ ચાર અંજની પર્વતેમને જે પૂર્વ દિશામાં આવેલ અંજની પર્વત છે તેનું વિશેષ વર્ણન–તેની ચારે દિશાઓમાં (૧) નત્તરા, (૨) નન્દા, (3) मानन्द! अरे (४) नन्दिनी नामनी या२ नन्ह! पुष्परिणाम। छे. તેમની લંબાઈ એક લાખ એજન, પહોળાઈ એક પચાસ હજાર જન અને ઊંડાઈ એક હજાર જન કહી છે. પ્રત્યેક પુષ્કરિણુની ચારે દિશાઓમાં ત્રણ
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. . स्थानाशसूत्र सोपानपतयः एकस्याः पुष्करिण्याः, चणस्मृणांतु अष्टचत्वारिंशत् । मतिरूपाण्येव प्रतिरूपकाणि-अपूर्वचमत्कारकशिल्पकलाऽऽकलितत्वेनाद्वितीयरूपाणि च तानि त्रिसोपानानि चेति विग्रहे विशेषणसमासः, तत्र प्रतिरूपकशब्दस्य प्राकृतत्वात्परप्रयोगः। एकैम्स्यां पुष्करिण्यां विदिगभिमुखानि सुन्दरसोपानपङ्कित्रयाणि चत्वारि २ सन्तीति निर्गलितोऽर्थः, तेषां खल त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतश्वत्वारस्तोरणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा पौरस्त्येन १, दक्षिणेन २, पाश्चात्येन ३, उत्तरेण ४॥ तासां खलु पुष्करिणीनां प्रत्येकम्-एकैकस्याश्चतुर्दिशि चत्वारो वाखण्डाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पुरतः १, दक्षिणतः २, पाश्चात्येन ३, उत्तरेण ४ च । तत्र पूर्वण-अशोकवनं दक्षिणेन-सप्तपर्णवनम् , पश्चिगेन-चम्पकवनम् , उत्तरेण-आम्रवणम् , एत. देवाऽऽह-" पुन्वेण असोगवणं जाब चूयवणं उत्तरे पासे " इति । तासां खलु पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे चत्वारो दधिप्लुखपर्वताः-दधीच शुक्लवर्ण मुखं शिखरं येषां ते दधिमुखाः रजतमयत्वेन दधिसदृशशिखराः ते च ते पर्वताच तथा, उक्तंच-- तीन तीन, सोपानपंक्तियां हैं, इन अडतालीस ४८ सोपानोंसे यहां देवगण आते जाते हैं, इन्हें जो प्रतिरूपक विशेपण दिया है-उसका तात्पर्य है कि चमत्कारी शिल्पकलासे युक्त है, इसलिये अद्वितीय हैं। इन त्रिसोपानप्रतिरूपकोंके आगे चार तोरण पूर्यादि दिशामें हैं। और प्रत्येक दिशामें चारोंके एक एक वनखण्ड हैं, अशोकवन १, सप्तपर्ण २ चम्पक३,आम्रवण४, यही बात पुव्वेपा अलोगवणं-इत्यादि गाथासे प्रकट हैं। , इन पुष्करिणियोंके बहुमध्यदेश भागमें चार दधिमुख पर्वत है. इनके शिखर दधिजैसे शुक्ल हैं-अतः ये दधिमुख हैं, रत्नमय हैं। कहा भी है-" संखदगविमल-निस्मल इत्यादि ये दधिमुख शंख ત્રણ સોપાન પંક્તિઓ છે. આ સંપાનની મદદથી દેવગણે ત્યાં અવર જવર કરે છે. તે સોપાનેને “પ્રતિરૂપક વિશેષણ જવાનું કારણ એ છે કે તેઓ ચમત્કારી શિલ્પકલાથી યુક્ત હોવાને લીધે અદ્વિતીય છે. આ ત્રણ સોપાન પ્રતિરૂપકોની સામે પૂર્વાદિ દિશામાં ચાર તેરણ છે અને પ્રત્યેકની ચારે દિશામાં એક એક વનખંડ છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે–(૧) અશોકવન (२) सापन, (3) ५४न मन (४) मापन. मे ४ वात " पुत्वेण असोगवां" त्याहि ॥ २॥ ५४८ ४२वामा भावी थे.
તે પુષ્કરિણીઓના બહુ મધ્યદેશ ભાગમાં ચાર દધિમુખ પર્વત છે. તેમનાં શિખરે દહીં સમાન વેત છે, તેથી તેમને દધિમુખ કહ્યાં છે તેઓ રત્નમય છે. કહ્યું
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सुधा-टोको स्था० ४ उ०२ सु०६८ अअनंकपर्यंतवर्णनम्
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संखद्गविमल निम्मल दहिघणगोखीरहार संकासा ।
गगणतलमणुलिहंता सोहंते दहिसुहा रम्मा । १ ।” छाया--" शङ्कदकविनिर्मलदधिधनगोक्षीर ( मुक्ता ) दारसङ्काशाः । गगनतलमनु लिखन्तः शोभन्ते दधिमुखा रम्याः | १ | " इति, - मज्ञाः, ते खलु दधिमुखकपर्वताथतुः पष्टि योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एकं योजनसहस्रम् - उद्वेघेन=गाम्भीर्येण सर्वत्र समाः - समाना, पल्यङ्कसंस्थानसंस्थिताः - पल्यङ्काः प्रसिद्धाः तेषां संस्थानेनाऽऽकारेण संस्थिताः=अवस्थिताः, विष्कम्भेग - विस्तारेण दश योजनसहस्राणि, परिक्षेपेण-परिधिना त्रयोविंशत्यविकपटू शताधिकैकत्रिंशत्सहस्रयोजनानि, सर्वत्नमया अच्छा: ' यावत्' इति पदेन लक्ष्णाः लक्ष्णाः घृष्टाः सृष्टाः नीरजसः निष्पट्ङ्काः निम्फङ्कटच्छायाः समभाः समरीचिकाः सोद्योताः प्रासादीयाः दर्शनीया अभिरूपाः " एते ग्राह्याः, एपां व्याख्याऽस्मिन्नेव सूत्रे गता । तेषां खलु दविमुखकपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीयाः भूमिभागाः प्रज्ञमाः, शेषं यथैवाञ्जनकपर्वतानां सिद्धायवनेभ्य आरभ्योत्तरे पार्श्वे आम्रवणपर्यन्तं वस्तुजातमुक्तं तथैव निरवशेषं - सर्व दधिमुखकपर्वतेष्वपि भणितव्यम् || सू० ६८ ॥
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और पानी के जैसा उज्ज्वल हैं ये पर्यंत योजन ऊंचे, एक हजार योजन उद्वेध - गहरे आकार से पल्यङ्क जैसे, १० हजार योजन विष्कम्भ चौडे एक समान हैं, इनकी परिधि ३१६२३ योजन है । ये पर्वत समरत रूपसे रत्नमव हैं, अच्छ [ स्वच्छ ] हैं, यावत्-लक्ष्ण हैं, घृष्ट, गृष्ट, नीरज, निष्पङ, निष्कङ्कटच्छा सम समरीचिकसोद्योत, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । इन पदोंकी व्याख्या ६५ वे सूत्र में की गई है । दधिमुख पर्वतके ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, अवशिष्ट कथन अञ्जन पर्वतोंके सिद्धायतनोंसे आम्रवन तक के वर्णन जैसा है ॥
६८ ॥
छे है-" संखद्गविमल निम्मल " इत्याहि शभ नेपाली नेवा निर्भस ते ધિમુખ પતાની ઊંચાઇ ૬૦ હજાર ચેાજનની, ઉદ્વેષ ( ઊંડાઇ ) એક હુન્નર ચેાજનની, ૧૦ હજાર ચેાજના વિકલ, એક સરખી પહેળાઈ અને પલ્પકના જેવા આકાર છે તેમની પિરિધ ૩૧૬૨૩ ચેાજનની છે. તે પવતા સમસ્ત રૂપે रत्नभय छे, अग्छ, श्रवाक्ष्णु, धृष्ट, सृष्ट, नीर, निष्यांड, निष्णुउरछाय, सप्रभ, समरीथिङ, सोहयोत, आसाहीय, दर्शनीय, अलिय भने अतिश्य छे. या પદોના અર્થ ૯૫ માં સૂત્રમાં આપ્યું છે. દધિમુખ પર્વતાપર ખડુંસમ રમણીય
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स्थामांगसूत्र मूलम्-तत्थ णं जे से पच्चथिमिल्ले अंजणगपठ्वए तस्स णं चउदिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णताओ, तं जहा-पंदिसेणा१, अमोहा२, गोथूभा३, सुदंसणा४। सेसं तं घेव तहेब दहिमुहमपव्वया तहेब सिद्धाययणाजाव वणसंडा।सू०६९॥ ___ छाया-तत्र खलु यः स पाश्चात्योऽञ्जनकपर्वतः तस्य खलु चर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्य. प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दिषेणा १, अमोघा २, गोस्तूपा ३, सुदर्शना ४ । शेषं तदेव, तथैव दधिमुखकपर्वतास्तथैव सिद्धायतनानि यावद् बनखण्डाः ॥ , टीका-" तत्थ णं " इत्यादि-तत्र-नन्दीश्वरस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे खलु यः स पाश्चात्योऽञ्जनकपर्वतः, तस्य-पर्वतस्य खलु चतुर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञताः, तद्यथा-नन्दिपेणा १, अमोघा २, गोस्तूपा ३, सुदर्शना ४ ४ चेति, शेषं तदेव-पूर्ववदेव विज्ञेयम् । एवं दधिमुखपर्वतवर्णनं सिद्धायतनवर्णनं च वनखण्डवर्णनपर्यन्तं बोध्यम् ॥ मू० ६९ ॥ ___ तत्थ णं जे से पच्चस्थिमिल्ले अंजणपव्वए-इत्यादि.
टीकार्थ-नन्दीश्वर द्वीपके बहुमध्यदेशभागमें पश्चिम दिशाकी और जो अञ्जन पर्वत है, उसकी चारों दिशाओंमें ननिषेणा १, अमोघा २, गोस्तूपा ३ और सुदर्शना ४ । ये चार नन्दा पुष्करिणी ( बावडियां) हैं। " सेसं तंचेव" इत्यादि. याकीका और सब कथन दधिमुख पर्वतके वनखण्ड पर्यन्त जैसा सिद्वायतनसे लेकर वनखण्ड तक कर सेना चाहिये ॥ १० ६९॥ __तत्थ पंजे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्वए-इत्यादि । ભાગ છે. બાકીનું કથન અંજની પર્વતના સિદ્ધાયતથી લઈને આમ્રવન પર્યન્તના કથન પ્રમાણે સમજવું. છે સૂ. ૬૮ છે
Pt-" तत्थणं जे से पञ्चस्थिमिल्ले अंजणपव्यए " इत्याहि
નીશ્વર દ્વીપના બહમધ્યદેશ ભાગમાં પશ્ચિમ દિશા તરફ જે અંજન પર્વત છે તેની ચારે દિશાઓમાં ન
%િણા, અમોઘા, ગેસૂપા અને સુદર્શના नामनी या२ नन्हा पुरिएम (पाप) छे. " सेस त चेव" माहीतुं समस्त કથન ઉપર મુજબ સમજવું એટલે કે દધિમુખ પર્વનું સ્થાન અને સિદ્વાયતનથી લઈને આમ્રવન પર્યન્તનું સમસ્ત કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ.સુ.દલ્યા
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मुघाटोका स्था०४ 30 २ सू० ७० अञ्जनकपर्वतवर्णनम् __७९१
मूलम्-तस्थ णं जे से उत्तरिले अंजगणपव्वए तस्स गं घउदिसि चत्तारि गंदाओ पुक्लरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहाविजया १, वेजयंती २, जयंती ३, अपराजिया ४। ताओ णं पुक्खरिणीओ एग जोयणसयसहस्संतं चेव पमाणं तहेव दहिमुहगपज्वया तहेब सिद्धाययणा जाब वणसंडा ॥सू० ७० ॥ ___ छाया-तत्र खलु यः स औत्तराहोऽञ्जनकपर्वतः तस्य खलु चतुर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजया १, वैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४, ताः खलु पुष्करिण्यः एक योजनशतसहस्रं तदेव प्रमाण तथैव दधिमुखपर्वताः तथैव सिद्धायतनानि यावद् बनखण्डाः । ___टीका-" तत्य णं जे से " इत्यादि-तत्र-नन्दीश्वरद्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे खलु यः औत्तराहोऽञ्जनकपर्यतः, तस्य-पर्वतस्य खलु चतुर्दिशि चतस्रो नन्दाः पुष्करिण्यः प्रज्ञताः, तद्यथा-विजया १, वैनयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४ चेलि । ता:-विजयादयः खलु पुष्करिण्यः एक योजनशतसन्तमायामेनेत्यादि तदेव-पूर्वोक्तनेत्र प्रमाणम्-आयाम विष्कम्भोद्वेधमयाणमिति, तथैव-पूर्वोक्तपकारेणैव दधिमुखकपर्वताः, तथैव 'सिद्धायतनानि' इत्यारभ्य वनखण्डपर्यन्त वस्तुजात भणनीयम् ॥ सू० ७०॥ टीकार्थ-नन्दीश्वर दीपके वह मध्यदेश भागमें जो उत्तरको ओर अञ्जनक पर्वत है, उसकी चारों दिशाओं विजया-वैजयन्ती-जयन्ती-अपराजिता ये चार पुष्करिणी-वावडियां एक लाख योजन आयामवाली हैं, इत्यादि पूर्वोक्त आयान-विष्कम्भ और उद्वेधका जैसा दधिमुख पर्वत है, सिद्धायतन है आदि आदि वर्णन वनखण्ड तकका यहाँ कर लेना। ॥ मू० ७०॥
" तत्य णं जे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्यए " त्याहટીકાથ–નન્દીશ્વર દ્વીપના બહુમધ્યદેશ ભાગની ઉત્તરે જે અંજની પર્વત છે તેની ચારે દિશાઓમાં વિજયા, વૈજયન્તી, જયન્તી અને અપરાજિતા નામની ચાર પુષ્કરિણીઓ (વાવડીઓ) છે તેમનો આયામ (લંબાઈ) એક લાખ એજનનો છે, ઈત્યાદિ પૂર્વોક્ત કથન, દધિમુખ પર્વતનું કથન અને સિદ્ધાયતોથી લઈને વનખંડ પર્યન્તનું કથન અહીં પણ પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર સમજી લેવું,
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स्थानातपत्रे
मूलम् - मंदीसरवरस्त णं दोवस्त्र चक्रवालविवखभस बहुमज्झदेस भागे चउसु विदिसासु चत्तारि रइकरगपव्वया पण्णत्ता, तं जहा - उत्तरपुरथिमिले रइकरगपव्वर, दाहिणपुर स्थिमिले रइकरगपव्त्रए, दाहिणपच्चत्थिमिले रइकरगपव्वए, उत्तरपच्चथिमिले रहकरगपव्व । ते णं रइकरगपव्वया दस जोयणसवाई उड्डू उच्चणं, दस गाउयसधाई उठवेहेणं, सवत्थ समा झल्लरिसंठाणसंठिया, दसजोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, एक्कणीसं जोयणसहस्लाई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सव्वरयणामया, अच्छा जाव पडिरुवा । तत्थ णं जे से उत्तरपुरस्थि - मिले रइकरगपव्वए, तस्स णं चउद्दिसिं ईसाणस्स देविंदस्त देवरन्नो चउण्हमगमहिसीणं जंबुद्दीनप्पमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-दुसरा १, गंदा २, उत्तरकुरा २, देवकुरा ४, कण्हाए १, कण्हराईए २, रामाए ३, रामरक्खिया ४| तत्थ जे से दाहिणपुरस्थिमिले रइकरगपव्वए, तरसणं चउद्दिलि सकस देविंदस्य देवरन्नो चउहभग्गमहिसण जंबूदीप्यमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - समणा १, सोमणला २ अच्चिमाली ३, मणोरमा ४, पउमाए १, सिवाए २, सईए ३, अंजूए ४ । तत्थ णं जे से दाहिणपच्चत्थिमिले रइकरगपव्वर, तत्थ णं चउद्दिलि सक्कस्त देविंदर देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसणं जंबुदोवप्पमाणमेत्ताओ तार राहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा भूया १, भूयवडेंसा
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सुधा टीका स्था० उ०२ २०७१ रतिकर पर्वतवर्णनम्
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२ गोमा ३, सुदंसणा ४, अमलाए १, अच्छराए २, नवभियाए ३, रोहिणी ४ तत्थ णं जे से उत्तरपच्चत्थिमिले रइकरTore तत्थ णं चउद्दिसिं ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउ 'हम महिसणं जंबुद्दीचमाणमित्राओं चचारि रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयणा १, रयणुच्चयार, सव्वरयणा ३, रयणसंचया ४, वसूए १, वसुगुत्ताए २, वसुमित्ताए ३ वसुन्धराए ४ ॥ ॥ सू० ७१ ॥
छापा - नन्दीश्वरवरस्य खलु द्वीपस्य चक्रवालविष्कम्भस्य बहुमध्यदेशभागे चतसृषु विदित्वारो रतिकरकपर्वतः ग्रहप्ताः, तद्यथा - उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपतः १, दक्षिणपौरस्त्यो रतिकरकपर्वतः २, दक्षिणपाश्चात्यो रतिकरकपर्वतः ३, उत्तरपाचात्यो रविकरकतः ४ । ते खलु रतिकरपर्वता दश योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्यत्वेन दश गव्यूतशठानि उद्वेधेन सर्वत्र समः झल्लरी संस्थानसंस्थितः दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, एकत्रिंशतं योजनसहस्राणि पट् च त्रयोविंशानि योजनशतानि परिक्षेपेण, सर्वरत्नमयाः अच्छाः यावत् प्रतिरूपाः ।
तत्र खन्दु यः स उत्तरपौरस्त्येा रतिकरकपर्वतः, तस्य खख चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणाभग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - नन्दोत्तरा १, नन्दा २ उत्तरकुरवः २, देवकुरवः ४ | कृष्णायाः १, कृष्णराज्याः २, रामायाः ३, रामरक्षितायाः ४ ।
तत्र खलु यः स दक्षिणपौरस्त्यो रतिकरकपर्वतः, तस्य खलु चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिपीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञताः तद्यथा - समनाः १, सौमनसा २, अर्चिमालिनी ३, मनोरमा ४, पद्माया १, शिवायाः २, सत्याः ३, अञ्जनाः ४ ।
तत्र खलु यः स उत्तरपाश्चात्यो रतिकरकपर्वतः तत्र खलु चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्र महिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाण मात्राश्चतस्रो राजधान्यः मज्ञाः तद्यथा-भूता १, भूतावतंसा २, गोस्तूपा ३, सुदर्शना ४, अमलायाः १, अप्सरसः २, नवत्रिकायाः ३, रोहिण्याः ४ ।
,
तत्र खलु यः स उत्तरपाश्चात्यो रतिकरकपर्वतः तत्र खलु चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपमाणमात्राश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ताः तथथा - रत्ना १, रत्नोच्चया २, सर्वरत्ना ३, रत्नसंचया ४, वस्त्राः १, वसुगुप्तायाः २, वसुमित्रायाः ३, वसुन्धरायाः ४ ॥ ०७१ ॥
स- १००
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শ্বালা · टीका-" गंदीसरवरस्स णं" इत्यादि-नन्दीश्वरवरस्य स्खलु द्वीपस्य चक्रवालविष्कम्भस्य-वलयविस्तारस्य बहुमध्यदेशभागे यतस्पु विदिक्षु-पूर्वोनराद्यासु चत्वारो रतिकरकपरताः-रतिः-रमणं क्रियतेऽत्रेति रतिकराः क्रीडास्थानानि, त एव रतिकरकाः, ते च ते पर्वताच रतिकरकपर्वता. प्रज्ञप्ताः तद्यथा-उत्तरपौरस्त्यः ईशानकोणस्थः रतिकारकपर्वताः १, दक्षिणपौरस्त्यः अग्निकोणस्थो रतिकरकपर्वतः २, दक्षिणपाश्चात्यः-नैत्यकोणस्थो रतिकरकपर्वत: ३, उत्तरपाश्चात्या-वायुकोणस्थो रविकरलपर्वतः४।
ते खलु रतिकरकपर्वता:-दश योजनशतानि अर्ध्वमुच्चत्वेन, उद्वेधेन, गाम्भी. येण तु दश गव्यूतशतानि सहस्रकोशपरिगिता इत्यर्थः । सर्वत्र-सर्वपदेशेषु समाः समानाः झल्लरी संस्थानमंस्थिता:-मल्लरी-पलयाकारो वाचविशेषः, तस्याः संस्थानमाकारो झल्लरी संस्थानं, तेन संस्थितास्तथान्ता वलयाऽऽकारस्थिताः सन्ति तथा-विष्यभेण-दश योजनम्हस्राणि, परिक्षेपेण-परिरिना तु त्रयोविंशत्यधिक पड् योजन शताधिकानि एकत्रिशतं योजनसहरसाणि ३१६२३ सन्ति, तथा सर्व____ "गंदीसरवरल पं दीवस्त चक्कवालविक्खभस्स" इत्यादि । टीकार्थ-चक्रवाल विज्ञाभवाले, अर्थात् बलयकामा विस्तारवाहे नन्दीश्वर द्वीपके बहुमध्यदेश भागने चारों दिशाओमें चार रतिकर पर्वत कहे गये हैं। ये रतिकर पर्वत देवोंका क्रीडास्थान है, ईशान आग्नेय, नेत, वायव्य कोगों में एक एक रतिकर पर्वत हैं। ये एक हजार योजन ऊचे, उद्वेधसे एक हजार योजन गहरे, सबके सब समान हैं। झल्लरीका जैसा इनका भी आकार है, वलयाकार चाय विशेषका नाम झल्ली है। . तधा-इनके विष्कम्म १० हजार योजनका है, परिधि-३१६२३ योजन है । ये सब अच्छ स्वच्छ आकाश और स्फटिक नणि जैसा
“ गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चकवालविखंभस्स" त्याह
ટીકાઈ–ચકવાલ વિષ્કવાળા વલયાકારના નન્દીશ્વર દ્વીપના બહમદેશ ભાગમાં ચાર રતિકર પર્વતે કહ્યા છે, તે પર્વતે દેવોના કીડાસ્થાન છે. ઈશાન, અગ્નિ, નૈવાય અને વાયવ્ય કેણુમાં એક એક રતિકર પર્વત છે, તે પર્વતે એક હજાર જન ઊચા છે, તેમને ઉપ પણ એક હજાર યોજના છે. તેઓ ઝાલરના જેવા આકારનાં છે, ઝાલર એક વ ઘવિશેષ છે તેમને વિષ્ક ૧૦ હજાર એજનને અને પરિધિ ૩૧૬૨૩ જનની છે. તેઓ સ્વચ્છ આકાશ અને રફટિકમણિ સમાન નિર્મળ છે, તેઓ શ્લફણ, ઘ,
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सुधा टीका स्था०४३०२ सू०७१ रतिकरपर्वतवर्णन
९५ रत्नमयाः अच्छाः ' यावत् ' पदेन लक्षणाः लक्षणाः धृष्टाः पृष्टाः निरजस: निष्पङ्काः निष्कङ्कटच्छायाः सपभाः समरीचिकाः सोद्योताः मासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः ग्राह्याः, तथा-प्रतिरूपाश्च ।।
तत्र-रतिकरकपर्वतचतुष्टयमध्ये खलु यः सः-प्रस्तुतः उत्तरपौरस्त्यः ईशान. कोणस्थो रतिकरपर्वतोऽस्ति, तस्य पर्वतस्य खलु चतुर्दिशि ईशाजस्य-ईशाननामकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसणाम्-अग्रे वक्ष्यमाणानां कृष्णादीनामग्रामहिपीणों जम्बूद्वीपप्रमाणा:-जम्बूद्वीप एवं प्रमाणं यासां तास्तथाभूताः-जम्बुद्वीपप्रमिता चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दोत्तरा १, नन्दा २, उत्तरकुरवः ३, देवकुरवः ४, इमाः क्रमेण कृष्णायाः १, छप्णराव्याः २, रामायाः ३, रामरक्षिताया ४ श्च वोध्याः । ___ तत्र-रतिकरपर्वतचतुष्टयमध्ये खलु यः स दक्षिणपौरस्त्य अग्निकोणगतो रतिकरपर्वतोस्ति, तस्य पर्यनस्य खलु चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतमृणाम् अत्रे वक्ष्माणानाम् पद्मादीनाम् अग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रो निर्मल हैं, यावत-लक्ष्ण, पृष्ट, स्कृष्ट, नीरजस्क, निक, निष्कटच्छायावाले हैं, प्रभासहित हैं, मरीचि-किरणसहित हैं, उद्योत सहित है, प्रासादीय हैं, दर्शनीय है, और अभिरूप हैं, ये सब विशेषण यहां यावत् पदसे गृहील हुवे हैं तथा ये सब पर्वत्र प्रतिरूप हैं।
इनमें जो रतिकर पर्वत उत्तर पौरस्त्य ईशान कोण में है, उसकी चारों दिशाओं में देवेन्द्र देवराज ईशानके चार कृष्णादिक अग्रमहर्षि योंको चार राजधानियां जम्बूदीपके बराबर हैं, इन राजधानियोंके नाम नन्दोत्तरा १, नन्दा २, उत्तरकुरु ३, देवकुरू ४ । चार अग्रनहिषियां कृष्णा १, कृष्णरात्री २, रामा ३, रामरक्षिता ४ नामवाली हैं। तथा जो रतिकर पर्वत अग्निकोणमें है, उसकी चारों दिशाओमें देवेन्द्र देवराज शक्रकी चार पद्मादिक अग्रहिषियोंकी जम्बूद्वीप प्रमाणा चार મૃણ ઈત્યાદિ પ્રતિરૂપ પર્યન્તનાં વિશેષણેથી યુક્ત છે. ૬૫ માં સૂત્રોમાં તે વિશેષણે અર્થસહિત આપવામાં આવ્યાં છે.
ઈશાન કેણમાં જે રતિકર પર્વત આવેલો છે તેની ચારે દિશાઓમાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનની કૃષ્ણાદિક ચાર અમહિષીઓની ચાર રાજધાની આવેલી છે, તેઓ જબૂદ્વીપની બરાબર છે તે રાજધાનીઓનાં નામ આ પ્રમાણે છે--નન્દત્તા, નન્દા, ઉત્તરકુરુ અને દેવકુ ચાર અમહિષીઓનાં નામ આ પ્રમાણે છે–પૃષ્ણ, કૃષ્ણરાત્રિ, રામ અને રામરક્ષિતા. અગ્નિમાં જે રતિકર પર્વત છે, તેની ચારે દિશાઓમાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની પન્ના,
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খোলা राजधान्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा श्रवणा १, सौमनसार, अर्चिालिनी ३, मनोरमा ४, चेति, इमाः क्रमेण पद्मायाः १, शिवायाः २, सत्याः ३, अङ्ग्वा ४ श्व वोध्या: - तत्र-रतिकरकपर्वतचतुष्टयमध्ये खलु यः स दक्षिणपाश्चात्यो नैऋत्यकोणगतो रतिकरकपर्वतोऽस्ति, तस्य खलु पर्वतस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणाम्-अग्रे वक्ष्यमाणानाममलादीनामग्रमहिपीणां जम्बूद्वीपप्रमाणमिताः जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भूता १, भूतावतंसा २,' गोस्तूपा ३, सुदर्शना ४ चेति, इमाः क्रमेण अमलायाः १, अप्सरसा-अप्सरोनामिकायाः, नवमिकायाः ३, रोहिण्याश्च ४ बोध्याः।
तत्र-रतिकरपर्वतचतुष्टयमध्ये खलु यः स उत्तरपाश्चात्यो-घायुकोणस्थितो रतिकरकपर्वतोऽस्ति, तस्य पर्वतस्य खलु चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणान्-अग्रे वक्ष्यमाणानां वसूप्रभृतीनामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणमिताश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ता : तद्यथा रत्ना १, रत्नोच्चया २, सनरत्ना ३, रत्नसंचया ४ ४ चेति, इमाः क्रमेण वस्वाः १. वसुगुप्तायाः २, वमुमित्रायाः ३, वसुन्धराया ४ चेति ॥ सू०७१ ॥ राजधानियां श्रमणा १, सौमनसा २, अधिर्मालिनी ३, मनोरमा ४ कही गई हैं। चार अग्रमाहिपियां पद्या १ शिवा २ सती ३ अन्जू ४ है।
इन चार रतिकर पर्वतों के बीचों नर्मन कोणका जा रतिकर पर्वत है उसकी चारों दिशाओ देवेन्द्र देवराज शझकी अभला ?, अप्सरा २, अप्सरोनालिका ३, नवमिका ४ नाप्नवाली जो अग्रम हिविधा है उन चारोंकी जम्बूद्वीप प्रमाणा भूता १, भूतावतंसा २, गोस्तृपा ३, सुदशंनो ४ ये चार राजधानी हैं। .
. वायुकोणमें जो रतिकर पर्वत है, उसकी चारों दिशाओ देवेन्द्र देवराज ईशानकी वसु १, वसुगुप्ता २, वस्तुनित्रा ३, वसुन्धरा ४ इन चार अग्रमहिषियोंकी चार रत्ना १, रत्नाचया २, सवरत्मा ३, रत्नसंचया ४ नामकी राजधानी जम्बूद्वीप जैसी चिरतत हैं । खू०७१ ॥ શિવા, સતી અને અંજૂ નામની અમહિષીઓની ચાર રાજધાનીઓ આવેલી છે તે રાજધાનીઓ જ ભૂલીપ પ્રમાણે છે અને તેમનાં નામ શ્રમણું, સૌમનસા, અમિલિની અને મનેરમાં છે. નિત્ય કોણમાં જે રતિકાર પર્વત છે, તેની ચારે દિશાઓમાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની અમલા, અપ્સરા, અનામિકા નામની અગમહિષીઓની ચાર રાજધાનીઓ આવેલી છે તે રાજધાનીઓ જબૂદ્વીપ જેટલાં જ પ્રમાણવાળી છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે–ભૂતા, ભૂતાવહંસા, ગોસ્તૃપા અને સુદર્શન છે. વાયવ્ય કેણમાં જે રતિકર પર્વત છે, તેની ચારે દિશાઓમાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનની વસુ, વસુગુપ્તા, વસુમિત્રા અને વસંધરા નામની ચાર અઠ્ઠમહિષીઓની ચાર રાજધાનીઓ આવેલી છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે–રત્ના, રાચ્ચયા, સર્વરત્ના અને રત્નસંચયા. તે રાજધાનીઓ પણ જંબુદ્વીપ જેટલા જ વિસ્તારવાળી છે. સૂ. ૭૧ છે
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पाटीमा स्था०४ उ०२ सू० ७२ सत्यस्वरूपनिझपणम् ...._ ७२७ एतच पूर्वोक्तं सर्व सत्यं जिनोत्तत्वादिति सत्यं निरूपयितुमाह
मूळम्-चउठिवहे सच्चे पपणत्ते, तं जहा-णामसच्चे १, ठवणसच्चे २, दवसच्चे ३, भावसच्चे ४ । सू० ७२ ॥
छाया-चतुर्विधं सत्यं प्रज्ञाप्तम् , तद्यथा-नामसत्यं १, स्थापनासत्यं २, द्रव्यसत्यं ३, भावसत्यम् ४।। सू० ७२ ।।
टीका-" चउबिहे " इत्यादि-व्याख्या सुगमा । नवर-नाम-स्थापनाद्रव्यभावानां स्वरूपमस्मत्कृतायापनुयोगद्वारस्यानुयोगचन्द्रिकाटीकायां जिज्ञासुभिरवलोकनीयम् । ९० ७२ ।।
पूर्व सत्य निरूपितं, तच चारित्रविशेषरूपमिति चारित्रविशेषान् द्वितीयाद्दे. शसमाप्तिपर्यन्तं निरूपयितुमाह___मूलम्-आजीवियाणं चउबिहे तवे पणत्ते, तं जहा-उग्गतवे १, घोरतवे २, रसणिज्जूहणया ३, जिभिदियपडिसलीणया ४ । सू० ७३ ॥
यह सब कथन जिनोक्त होनेसे सत्य है, अतः अब सूत्रकार सत्य निरूपण करते हैं। " चउठिरहे सच्चे पण्णन्ते " इत्यादि
टीकार्थ-सत्य चार प्रकार का कहा गयाहै, नाम सत्य १, स्थापना सत्य, २, द्रव्य सत्य ३, भाव सत्य ४ । इसको व्याख्या सुगम है । इन सत्य स्वरूपोंका जिज्ञासु, अनुयोग द्वारकी अनुयोग चन्द्रिकाटीकाको देखें स०७२
निरूपित यह सत्य चारिज विशेषरूप होता है। इसलिये अय सूत्रकार द्वितीय उद्देशेकी समासितक चरित्र विशेषणोंका कथन करते हैं। ___ "आजीवियाणं चविषहे तवे पण्णत्ते" इत्यादि
આ સમસ્ત કથન જિનક્તિ હેવાથી સત્ય છે આ સંબંધને અનુલક્ષીને वे सूत्रा२ सत्यतुं नि३५ ४रे छ-" चउब्धिहे सच्चे पण्णत्ते" त्याह
टी-सत्य यार पार्नु छे--(१) नाम सत्य, (२) स्थापना सत्य, (3) द्रव्य सत्य, मन (४) मा सत्य. पानी याच्या सुगम छे, छतi તેનું સ્વરૂપ સમજવા માટે અનુગદ્વારની અનુગચન્દ્રિકા ટીકા વાંચી લેવી. | સૂ. ૭૨ છે
સત્ય ચારિત્ર વિશેષરૂપ હોય છે તેથી હવે સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશકની સમાપ્તિ થાય ત્યાં સુધીનાં સૂત્રમાં ચારિત્ર વિશેનું નિરૂપણ કરે છે– __ " आजीवियाणं चउभिहे तवे पण्णत्ते" त्याह
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१७९८ . ...... ; ..........
स्यामाने छाया-आजीविकानां चतुर्विधं तपः प्रज्ञप्तम्', तद्यथा-उग्रतपः १ घोरतपः २, रसनियूं हणता ३, जि न्द्रियपतिसंलीनता ४ ॥ सु० ७३ ॥
टीका-" आजीवियाणं " इत्यादि - आजीविकानां-गोशालकशिष्याणां तपः-तपस्या चतुर्विध-चतुष्प्रकारं प्रज्ञप्तम् , तबधा-उग्रतपः-उपमुत्कृष्टं च तत् तपः-अष्टमादि चेत्युग्रतपः १, घोरतपः-घोरम्-आत्मनिरपेक्षं च यत्तत् तपो घोरतपः, यच्च प्राणं पातयामि कार्य साधयामीति' निश्चितबुद्धया विधीयते तत्तथा २, रसनियू हणता-रसानां-घृतप्रभृतीनां नि!हणता-परिवर्जन तथा ३, जिदेन्द्रियातिसंलीनता-जिकैवेन्द्रियं जिलेन्द्रियं तत्र प्रतिसंलीनता-गुप्तता, तथाभूताजितरसनेन्द्रियतेत्यर्थः, मनोज्ञामनोज्ञाऽऽहारेषु रागद्वेपपरित्याग इति भावः ।। आईतानां तु द्वादश विधं तपो भवतीति ॥ मू० ७३ ॥
सुनार्थ-आजीविकोंके यहाँ चार प्रकारका तप कहा गया है, उग्रतप १, घोर तप २, रसनिषू हणता ३ और जिवेन्द्रिय प्रतिसंलीनता ४ । टीकाथ-गोशालकले जो शिष्यहैं, वे यहाँ आजीविक शन्दसे गृहीत हुवे हैं। उनके यहां उग्रतप आदि भेदसे तपस्या चार प्रकारकी है, उसका अभिप्राय है कि-अष्टम आदि उत्कृष्ट तप हैं। जिसमें आत्मा अपेक्षित नहीं है, वह घोर तप है, इस तपस्या " काय साध्यामि शरीरं वा पातयालि" शरीर जाने पर भी कार्य को सिद्ध करूंगा ऐसा दृढ सङ्कल्प होनेसे घोरता है । जिस तपमें घृतादिरस परिवर्जित है वह " रतनि' हणता" है, जिसमें रसनेन्द्रिय जीता जाय वह " रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता" तप है । इसमें तपस्वी मनोज्ञ अमनोज्ञ विषयक राग
સ્વાર્થ-આજીવિકેના ચાર પ્રકારનાં તપઅહીં પ્રકટ કરવામાં આવે છે...(૧) म त५, (२) ३.२ त५, (3) २सनियता भने (४) निवेन्द्रिय प्रति. संदीनता. -
ટીકાઈ-ગોશાલકના અનુયાયીઓને આજીવિકે કહે છે. તેઓ ઉગ્રતાપ આદિ ચાર પ્રકારની તપસ્યાઓમાં માને છે. તે પ્રત્યેકનું સ્વરૂપ હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–અમ આદિ તપસ્યાને અગ્રતપ અથવા ઉત્કૃષ્ટ તપ કહે છે જેમાં આત્મા (જીવ)ની અપેક્ષા રાખ્યા વિના શરીર જાય તેં ભલે જાય પણ કાર્ય સિદ્ધ કરીશ આ પ્રકારના ઘોર સંક૯પ હોય છે, તે તપને ઘેરતપ કહે છે જે તપમાં ઘી આદિ રસને પરિત્યાગ કરવામાં આવે છે, તે તપને રસનિયંહતા કહે છે. જે તપમાં રસનેન્દ્રિય (વાદ) પર કાબૂ રાખવામાં આવે છે, તે તપને રસનેન્દ્રિય પ્રતિસંલીનતા તપ” કહે છે. તેમાં તપસ્વી મને અને અમને
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७२९
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सुधा टीका स्था०४ ७०२ सू०७४ संयमस्वरूपनिरूपणम् संयम निरूपयति-- .,
मूलम्-चउचिहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-मणसंजमे १, वइसंजमे २, कायसंजमे ३, उवगरणसंजमे ४ ॥ सू०७४ ॥
छाया-चतुर्विधः संयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मनासंयमः १, वाक्संयमः २, कायसंयमः ३, उपकरणसंयमः ४|
टीका--" चउबिहे" इत्यादि-संयमः-संयमन संयमः-सापद्यव्यापारविरतिस्वरूपः, स चतुविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मनःसंयमः-मनतः संयम:-अशुभभावेन्यो निवर्तनं शुमध्यानादौ प्रयतनं वा, वाक्संयम:-चाचः संयम:-सावधव्यापारेभ्यो निवर्तनम् , २, कायसंयम:-कायस्य संयम:-भतिचारादिरूपसावधव्यापारेभ्यो निवर्तनम् ३, उपकरणसंयमः-बहुमूल्यवसादि परिहारः४। ०७४। द्वेपका त्याग कर देता है । आजीविकोंके यहां ही चार तप माने गये हैं । जब कि जैन सिद्धान्त १२ तप प्रतिपादिल है ।। सू० ७३ ॥
" चउबिहे संजमे पप्पात्ते" इत्यादिसूत्रार्थ-संयम चार प्रकार के हैं, मनासंधान १, पावसंघम२, कायसंयन३ और उपकरण संयम ४ । ____टीकार्थ-सावध व्यापार में विरतिही संघहा है । तात्पर्य है कि अशुभ भावोंकी चिन्तासे मनको हटाना और धर्मध्यान आदिमें उसे लगाना मनःसंयम है १, सावध व्यापारसे मनको-हटाना और शुभ व्यागारमें प्रवृत्त करना वाकमयम है २, अतिचार आदि सापद्य व्यापारसे शरीरको हटाना और निरतिचार व्यापार हरमें उसे मवृत्त करना कायसंयम है ३, वह मूल्य वस्त्रादिक धारण का परित्याग करना उपकरण संयम है। सू० ७४ ।। નેશ વિષયક રાગદ્વેષને ત્યાગ કરી નાખે છે. આજીવિકે આ ચાર તપને જ માને છે, પરંતુ જૈન સિદ્ધાન્તમાં તે ૧૨ તપ કહ્યાં છે. તે સૂ. ૭૩ !
"चउविहे संजमे पण्णत्ते" त्याहसूत्राथ-सयभाना सा२ ५२ छ-(१) मनासय, (२) वाइसयम, (3) आय સંયમ અને (૪) ઉપકરશુ સંયમ
ટીકાથે-સાવધ વ્યાપાર (પ્રવૃત્તિ) થી વિરતિનું નામ જ સંયમ છે. અશુભ ભાવોના ચિન્તનથી મનને દૂર રાખવું અને ધર્મધ્યાન આદિમાં તેને લીન કરવું તેનું નામ મનઃસંયમ છે સાવદ્ય વ્યાપારમાંથી વચનને દૂર રાખીને શુભ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત કરવા તેનું નામ વાકુસંયમ છે. અતિચાર અ દિ સાવદ્ય વ્યાપારથી શરીરને દૂર રાખવું અને નિરતિચાર વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત કરવું તેનું નામ કાયસંયમ છે. બહુમૂલ્ય વસ્ત્રાદિકને ધારણ કરવાને પરિત્યાગ કરે तनाम ५६२६१ सयभ. छ. सू. ७४ ॥
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स्थानानसूत्रे
του
पूर्व संयम उक्तः, स च त्यागाद्भवतीति त्यागं निरूपयति-मूलम् - चउठिवहे चिचाए पण्णत्ते, तं जहा-मणचियाए २, appear २, काचियाए ३, उवगरणचियाए ४ । सू० ७५ ॥
छाया --- चतुर्विधस्त्यागः मन्त्रप्वः, तद्यथा--मनस्त्यागः १, वाक्त्यागः २, फायत्यागः ३, उपकरणत्यागः ४ | || सू० ७५ ।।
टीका--" चउबिहे " इत्यादि - त्यागः - सांभगिकानां वस्त्रपात्रादिमदानं, स चतुर्निधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - मनस्त्याग:- मनसा प्रदानम् १, एवं वाक्त्यागः २, कात्याः ३, उपकरणत्यागश्चापि बोध्यः ४। सू० ७५ ।।
पूर्व त्याग उक्तः, स चाकिञ्चनस्य सम्यतीत्यकिञ्चनतां निरूपयति-मूलम् - चउठिवहा अकिंचणया पण्णत्ता, तं जहा मणअकिंवा १, वइअकिंचनया २, कायअकिंचणया ३, उबगरणअकिंचनचा || || सू० ७६ ॥
छाया - चतुर्विधा अकिञ्चनता प्रज्ञप्ता, तद्यथा-मनोऽकिञ्चनता १, वागकिश्वनता २, कायाकिञ्चनता ३ उपकरणाकिञ्चनता ४ | | ०७६ ॥ त्याग निरूपण -
" चविहे चियाए पण्णत्ते "
सूत्रार्थ त्याग चार प्रकारका होता है, मनस्त्यानर, वाळूत्याग२, कायसूत्रार्थ
- त्याग ३, उपकरण त्याग ४ ।
टीकार्थ- साम्भोगिक साधुओंको वस्त्रादि देना त्याग है | त्याग शब्द से यहां दान का ग्रहण हुवा है २ साम्योगिक साधुजनोंको वस्त्र आदि मनसे देना मनस्त्याग है १, इसी प्रकार वाकूत्याग आदिके विषय में समझना ॥ ७५ ॥
64
त्याग अकिञ्चन का सम्यक होना है, अतः अकिञ्चनताका
त्यागनिउपाय-" चउविहे चियाए पण्णत्ते " त्याहि-
सूत्रार्थ - त्यांगना यार प्रहार -- (१) मनस्त्याग, (२) वयन्त्याग, (3) કાયત્યાગ અને ૪ ઉપકરણ ત્યાગ,
ટીકા-- સામ્ભાગિક સાધુઓને વસ્ત્રાદિક દેવા તેનું નામ ત્યાગ છે. ત્યાગ શબ્દથી અહી દાનનું ગ્રહણ થયું છે. સાંભેાર્મિક સાધુઓને મનથી વસ્ત્રાદિક અર્પણુ કરવા તેનું નામ મનસ્ત્યાગ છે. એ જ પ્રમાણે વાકૃત્યાગ सहि विषेप समन्वु लेहो ॥ सू. जय ॥
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________________ 801 सुधा टीका स्था० 4 उ०२सू० 76 अकिञ्चनतानिरूपणम् टीका--" चउबिहे " त्यादि-अकिञ्चनता-अविद्यमानं किञ्चन=किमपि धर्मोपकरणातिरिक्तं वस्तुजातं यस्य सोऽकिञ्चन निष्परिग्रहः, तस्य भावोऽकिचनता, सा चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-मनोऽकिञ्चनता-मनसा अकिञ्चनता-निष्प रिग्रहता तथा, एवं वागकिञ्चनतादिषु वोध्यम् / सू० 76 / इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक - श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य--जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री -- घासीलालव्रतिविरचितायां स्थानाङ्गसूत्रस्य सुधाख्यायां ___ व्याख्यायाम् चतुर्थ स्थानस्य द्वितीयोद्देशः समाप्तः॥४-२॥ निरूपण करते हैं-" चउचिहा अकिंचणया पण्णत्ता इत्यादि मूत्रार्थ-अकिश्चिनताके चार भेद हैं। मनोऽकिञ्चनता-वागकिश्चनता-कायाऽकिञ्चनता 3, उपकरणाऽकिञ्चनता 4 / टीकार्थ-धर्मोपकरणसे अतिरिक्त और वस्तु जिनकेपास नही है वे अकिञ्चन हैं, निष्परिग्रह हैं, अकिञ्चनपनाही अकिञ्चनता है। मनले जो अकिञ्चनना है वह मनोऽकिश्वनना है, इसी प्रकार वचनादिकों की अकिञ्चनता जानना चाहिये ॥सू० 76 / / श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत स्थानाङ्गसूत्र "की सुधा टीका का चौथा स्थानका दूसरा उद्देशक समाप्त // " चउठिवहा अकिंचणया पण्णत्ता" त्याह-- सूत्रार्थ-मयिनताना 2 5412 छे-(१) भानः मयिनता, (2) 411यिन (3) यायिनता भने (4) ७५:२८यिनता. ટીકાથ–ધપકરણ સિવાયની બીજી કોઈ પણ વસ્તુઓ જેમની પાસે નથી તેઓ અકિંચન છે-નિષ્પરિગ્રહી છે. અકિંચનપણને જ અકિંચનતા કહે છે મનની અપેક્ષાએ જ અકિંચનના છે તેને મન અકિંચનતા કહે છે. એ જ પ્રમાણે વાગાદિની અકિંચનતા વિષે પણ સમજવું. છે સૂ. 76 શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત " स्थानांगसूत्र " नी सुघाटीन याथा સ્થાનને બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત