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________________ २८२ स्थानानने ऽन्यथा प्ररूपणा यथा-चारित्रेण-चारित्रग्रहणेन किम्-को लासः, यत् चारित्री ज्ञानं दातुं न शक्नोति, ज्ञानेन निना किं भवति, लोके ज्ञान हि सर्वश्रेष्ठं वर्तते नान्यत्किमपीति 1५1 श्रुतप्रत्यनीकता यथा-श्रुतम्-आगमं प्रतीत्य मूत्रार्थ-तदुभयमेदेन त्रयः प्रत्यनीका भवन्ति । तत्र सत्रग्-आचाराङ्गादिकम् , अर्थ:-तघ्याख्यानं, तदुभयं-सूत्रार्यरूप द्वितयमपि । तेषां प्रत्यनीकता-दृपणोद्भावनं यथा"जीवा य अजीवा य, वया पमाया तहा य अपमाया। एयाणि पसिद्धाणि य, किमेत्य सुत्तत्थभणणेणं ॥१॥" इति । छाया-जीवाश्थानीवाश्च व्रतानि प्रमादास्तथा चाप्रमादाः । एतानि प्रसिद्धानि च, किमत्र सूत्रार्थभणनेन ॥१॥ इत्यादि ।६।०७५॥ इसमें प्रमाण क्या है ? अत:-यह श्रद्धेय नहीं है ऐसा कथन करना यह दर्शनविषयक अन्यथा प्ररूपणा है। न्यारित्र ग्रहण से क्या लाभ है ? क्यों कि-चारित्री ज्ञान तो दे नहीं सकता है, और ज्ञान के बिना कुछ होता नहीं है, लोक में ज्ञान सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, और कुछ सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा गया है इस प्रकार का कथन चारित्रविषयक अन्यथा प्ररूपणा रूप होती है। शुत को आश्रित करके तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, जैसे-सूत्रप्रस्थनीक अर्थप्रत्यतीक और तदुभयप्रत्यनीक, आचारा आदि सूत्ररूप आगस है इनका व्याख्यान अर्थरूप आगम हैं, मूत्र और अर्थ यह उभयरूप आगम है इनमें दूषणों का उद्भावन करना यह उनकी प्रत्यनीकता है। जैसे " जीवाय अजीवा य" इत्यादि। जीव अजीवव्रत अप्रमाद ये तो प्रसिद्ध ही हैं, फिर सूत्र, अर्थ पढने से प्रयोजन क्या है, अर्थात् कुछ भी नहीं। सू० ७५ ॥ पहले जो कल्पस्थिति कही गई है वह गर्भज मनुष्यों को ही होती શ્રદ્ધા શા માટે રાખવી જોઈએ !” આ પ્રકારનું કથન કરનારને દર્શન પ્રત્યેનીક કહે છે. “ચારિત્ર ગ્રહણ કરવામાં શું લાભ છે ? ચારિત્રશાળી જીવ જ્ઞાન તે આપી શકતો નથી, અને જ્ઞાન વિના કોઈ લાભ થતું જ નથી લેકમાં જ્ઞાન ને જ શ્રેષ્ઠ કહ્યું છે, બીજું કંઈ પણ તેનાથી ઉત્તમ નથી આ પ્રકારની વિપરીત પરૂષણ કરનારને ચારિત્ર પ્રત્યેનીક કહે છે. શ્રુતની અપેક્ષાએ પણ ત્રણ પ્રત્યनीह्या -(१) सूत्र प्रत्यनी (२) अर्थ प्रत्यनी मन (3) समय प्रत्यनी આચારાંગ આદિ સૂત્રરૂપ આગમ છે. તેનું વ્યાખ્યાન તે અથરૂ૫ આગમ છે સૂત્ર અને અર્થ એ બને ઉભયરૂપ આગમ છે તેમાં દૂષણેનું આરોપણ ४२, ४ तमना प्रत्येनी प्रत्यजीता छ भ-"जीवा य अजीवा य" त्या "20, 04, व्रत, मप्रमाह, म त onelai तत्व। छे. तो सूत्र, मथ આદિ વાંચવાની જરૂર જ શી છે?” આ પ્રમાણે કહેનારને શ્રત પ્રત્યેનીક छ. ॥ सू. ७५ ॥
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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