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________________ सुधा टीका स्था० ३ उपसू०१०२ पुद्गलस्कंधनिरूपणमू कर्म च पुद्गलात्मकमिति त्रिस्थान केन पुद्गलस्कन्धानाह मूलम्-तिपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता । एवं जाव तिगुणलक्खा पोग्गला अणंता पण्णता ॥ सू० १०२ ॥ ॥ तिट्ठाणस्स चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ३-४ ॥ तिहाणं समत्त ॥३॥ छाया-त्रिपदेशिकाः स्कन्धा अनन्ताः प्रज्ञप्ताः एवं यावत् त्रिगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्राप्ताः ।। मू० १०२ ॥ ॥ तृतीयस्थानस्य चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥ ३-४ ॥ टीका-'तिपएसिया' इत्यादि सुगमम् ।। सू० १०२ ॥ इतिश्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां स्थानाङ्गसूत्रस्य सुधाख्यायां व्याख्यायां चतुरुद्देशात्मकं तृतीय स्थानं संपूर्णम् ॥ ३-४ ॥ बंध उदीरण वेद तह निज्जरो चेव" इस प्रकार से कही है इसका अर्थ ही यह पूर्वोक्तरूप से प्रकट किया है। तात्पर्य कहने का यही है किचय की तरह ही स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप से अर्जित पुगलों का अशुभ रूप से उपचय किया है, बन्ध किया है, उदीरण किया है, वेदन किया है और निर्जरा भी की है इसी तरह का कथन वर्तमान काल और भविष्यकाल सम्बन्धी उपचयादिकों के आलापकों में भी कर लेना चाहिये ।मु०१०१।। પૂર્વોક્તરૂપે ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ચયની જેમ જ સ્ત્રીવેદ, પુરુષવેદ, અને નપુંસકવેદરૂપે અર્જિત પુદ્ગલેને જીવે અશુભરૂપે ઉપચય કર્યો છે, બધ કર્યો છે, ઉદીરણ કર્યું છે અને નિર્જર પણ કરી છે. એ જ પ્રકારનું કથન વર્તમાનકાળ અને ભૂતકાળ સંબંધી ઉપચચાદિકના આલાપકામાં પણ સમજી લેવું જોઈએ છે ૧૦૧ છે
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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