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सुधा टीका स्था०४ ४०१ सू०१८ पुरुषस्वरूपनिरूपणम्
५०५ ज्जानातीत्यर्थः, किन्तु परस्य अन्यस्याऽवद्यं वयं वा नो पश्यति, यद्वा-वज्रमितिच्छाया, तदर्थश्च वज्रवद् वज्र वा गुरुत्वाद् हिंसाऽनृतादि पापं कर्मेति भवति, तत् कश्चित्पुरुषआत्मनः-स्वसम्बन्धि कलहाऽऽदौ पश्चात्तापयुत्तत्वात् पश्यति, नो है। यहां "वज्ज" पद में प्राकृत होने के कारण "अ" का लोप हो गया है इसलिये इसकी छाया संस्कृत में "अवद्य” हो सकती है, अवधनाम पापकर्म का है । यद्वा-" वज्ज" की संस्कृतच्छाया वयं भी हो सकती है, अतः इस पक्ष में " वर्जितुं योग्यं वयं " इस निरुक्ति के अनुसार जो सर्वत्याज्य होता है वह वयं है, वज्य कर्म है । अथवा " वजं" की संस्कृतच्छाया "वज्र" भी होती है इसका अर्थ ऐसा होता है कि अमृत आदि पाप गुरु होने से वज्र जैसे होते हैं। "पश्यति" फ्रियापद है इसका भी अर्थ ऐसा हो जाता है कि-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो स्वसम्बन्धी अवद्य को पापकर्म को ही देखता है परसम्बन्धी पापकर्म को नहीं देखता है। क्यों कि-वह उसके प्रति उदासीन होता है, तथा जब " वय॑" सर्वत्याज्य कर्म इस पक्ष में अर्थ किया जाता है तब कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अपने सम्बन्धी कर्म को जानता है यहां दृश धातुका अर्थ ज्ञानार्थ परक लिया गयाहै परके वर्ण्य फर्मको છે ( જાણે છે), પરંતુ અન્યના પ્રત્યે ઉદાસીન વૃત્તિવાળો હોવાથી અન્યના पाप भनि हेमता (युत) नयी मही " वज" प्रात ५४ छ. तi 'अ' थई गयो पाथी तनी संस्कृत छाया 'अ' श? છે. આ અવદ્ય પદ પાપકર્મ માટે વપરાયું છે. અથવા “વજ્ઞ” આ પદની सकृत छाया 'वर्य' ५५ यश छ. A! स्टिस विया२ ४२वामां आवे तो “वर्जितु योग्यं वयं" मा व्युत्पत्ति अनुसार रे सत्याय हाय छ તેને વર્ય–વજર્યકર્મ કહે છે.
मथवा “ वज्ज" मा पनी संस्कृत छाय“वनं" ५४ याय छे. તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે-અમૃત આદિ પાપ ગુરુ હોવાથી વજી સમાન હોય छ. “ पश्यति" मेट मेछ. पुरुष मेवे डाय छ २ पोताना અવને-પાપકમને જ દેખે છે, પરંતુ અન્યના પાપકર્મને દેખતે નથી–અન્યના પાપકર્મ પ્રત્યે ઉદાસીન રહે છે.
यारे “वयं " मेटले सत्याrय भ', मष्टिये विया२ ४२वामा આવે છે, ત્યારે આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-“કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના સર્વત્યાજ્ય કમીને જાણે છે, પણ અન્યના સર્વત્યાજ્ય કમને ongत नथी. मी " द्दश् " धातुनो अर्थ 'लवु' दी। छे, ४२