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________________ सुघाटीका स्था०३ उ०३ सू०४९ वचनमनसो तन्निषेधनित्वनिरूपणम् १०३ आचार्यादेवचनं तद्वचनम् । तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनम्-अविवक्षितप्रणेत विशेषम् । नो अवचनं वचनमात्रमित्यर्थः ।१।। तिविहे अवयणे इत्यादि, त्रिविधवचन मतिषेधस्त्वचनं, तत्त्रिविधं, तथाहिनो तद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत्, नोतदन्यवचनं घटे घटवचनवत् , अवचनं वचननिवृत्तिमात्रमिति । एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि विज्ञेयम् ।२। । ___ 'तिविहे मणे' इत्यादि, त्रिविधं मनस्तथाहि-तस्य जिनदत्तादेः, तस्मिन्वा घटपटादौ मनस्तन्मनः तत्-तस्माद्-जिनदत्ताद् अन्यस्य ऋषभदत्तादेघटादन्यस्मिन् पटादौ वा मनस्तदन्यमनः अविवक्षितस्वजनविशेषं तु मनोमात्रं नो अमनइति ।३। आदि शब्द का अर्थ इस प्रकार से भी होता है (तस्य वचनम् तद्वच. नम् ) आचार्य आदि का जो वचन है वह तद्वचन है इनसे भिन्न का जो वचन है वह तदन्यवचन है और वचनमात्र का नाम नो अबचन है (तिविहे अश्यणे) इत्यादि पूर्वोक्त त्रिविधवचन का प्रतिषेधरूप अवचन होता है यह अवचन भी तीन प्रकार का कहा गया है जैसे नो तद्वचन ? यह नो तवचन घटादि की अपेक्षा पटवचन रूप होता है। अर्थात् घटवचन से पटवचन नो तद्वचन है । घट में घटवचन की तरह जो वचन है वह नो तदन्यवचन है तथा वचन की निवृत्तिमात्र अवचन है इसी तरह से यहां अन्य व्याख्या की अपेक्षा भी कथन कर लेना चाहिये। ___ “तिविहे मणे" इत्यादि जिनदत्त आदि का जो मन है वह अथवा घः पटादि में लगा हुआ जो मन है वह तन्मन है जिनदत्त के सिवाय अन्य ऋषभादि का जो सन है यह अथवा घटादि से अन्य पटादि में अथवा तद्वयन या शहाना मा प्रारना म° ५ थाय छ-" तस्य वचनम् नद्वचनम् " मायाय मानि २ क्यन ते तवयन ४ाय छे. तमनाथी ભિન્ન વ્યક્તિના વચનને તદન્યવચન કહે છે, અને વચનમાત્રનું નામ ને અવચન छ. “तिविहे अवयणे" त्याह પૂર્વોક્ત ત્રણ પ્રકારના વચનના પ્રતિધરૂપ અવચન હોય છે. આ અવચનના પણ ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) નેતદ્વચન આ નેતદ્વચન ઘટાદિની અપેક્ષાએ પટવચનરૂપ હોય છે. એટલે કે ઘટવચનની અપેક્ષાએ પટવચન નેતદ્વચન છે ઘટમાં ઘટવચનની જેમ જે વચન છે તે તદન્યવચન છે, તથા વચનમાત્રની નિવૃત્તિનું નામ અવચન છે. એ જ પ્રમાણે અહીં અન્ય વ્યાખ્યાની અપેક્ષાએ ५९ ४थन सभल नये. “तिविहे मणे" त्यादि જિનદત્ત આદિનું જે મન છે તેને, અથવા ઘટપટાદિમાં લાગેલું જે મન છે તેને તમ્મન કહે છે. જિનદત્ત સિવાયના જે બાષભાદિનું મન છે તેને
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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