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________________ ९७ सुधा का स्था० ३ ४ ३ सू० ४८ निग्रंन्धनिरूपणम् समानसामाचारीकतयाऽभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः, सहवा मनोहर्जानादिभिरिति समनोशाः-एक साम्भोगिकाः साधवस्ते विविधाः । तानेवाह-आचार्यतयेत्यादि। एषां प्रवर्तकगणावच्छेदकादयोऽन्येऽपि भेदा भवन्ति किन्त्वत्र त्रिस्थानकाधिका रात्ते न विवक्षिता इति । 'एवं उपसंपया' इत्यादि, एवम्-यथा-आचार्यत्वादिभेदत्रयभिन्ना समनुज्ञा तथा उपसंपदाऽपि वाच्या। तत्र-उपसंपत्तिरुपसम्पत-ज्ञानाद्यर्थ । भवदीयोऽह' मित्यभ्युपगमः, यथाकश्चित् स्वाचार्यादिसमनुज्ञातो मुनिः सम्यक् श्रुतग्रन्थानां जिनप्रवचनप्रभावकशास्त्राणां या सूत्रार्थयोर्ग्रहण-स्थिरीकरण-विस्मृतसन्धानार्थ, पदकी छाया "स्वमनोज्ञाः" या " समनोज्ञाः" ऐसी भी होती है, इस में जो समान समाचारीरूप से अपने को अभिरुचित हों वे स्वमनोज्ञ अथवा मनोज्ञ-ज्ञानादिकों से सहित हों वे समनोज्ञ हैं ऐसा अर्थ होता है । ऐसे समनोज्ञ एक सांभोगिक साधु होते हैं। ये सांभोगिक साधु तीन प्रकारके होते हैं-आचार्यरूप से दूसरे उपाध्यायरूपसे और तीसरे गणिरूपसे यद्यपि इनके प्रवर्तक गणावच्छेदक आदि और भी अनेक भेद होते हैं परंतु वहां पर त्रिस्थानकका अधिकार चल रहा है इसलिये इनकी विवक्षा नहीं हुई है-" एवं संपया" इत्यादि । जिस प्रकार आचार्यत्वादि के भेदसे समनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है उसी प्रकार से उपसम्पदा भी तीन प्रकारकी वही है । उपसम्पत्ति का नाम उपसंपत् है । ज्ञानादिक प्राप्ति के निमित्त " भवदीयोऽहं " मैं आपका ही हूँ ऐसा अपने को प्रकट करना या मानना इसका नाम उपसम्पदा है। जैसे " स्वभनाज्ञा " अथवा " समनोज्ञा " प थाय छे. समान सभायारी ३ પિતાને અભિરુચિત હોય તેમને સ્વમણ કહે છે અથવા જેઓ મનેz કહે છે અથવા જેઓ મનેઝ જ્ઞાનાદિથી યુક્ત હોય છે, તેઓ સમજ્ઞ ગણાય છે, આ પ્રકારને તે સંસ્કૃત છાયાનો અર્થ થાય છે. એવા સમજ્ઞ માત્ર સાંગિક સાધુ જ હોય છે. તે સાંગિક સાધુ ત્રણ પ્રકારનાં હોય છે-(૧) भायाय ३५, (२) Bाध्याय ३५ मने (3) गणि३५. न भन प्रपत्त, ગણાવચ્છેદક આદિ બીજા પણ અનેક ભેદ છે, પરંતુ અહીં ત્રણ સ્થાનકેને माधान न्यासता डावाथी तभन सेम राय नथी. “ एव. उपसंपया" त्याल. જેમ આચાર્ય આદિના ભેદથી સમનુજ્ઞા ત્રણ પ્રકારની કહી છે, એ જ પ્રમાણે ઉપસંપદા પણ ત્રણ પ્રકારની કહી છે. ઉપસંપત્તિને ઉપસંપત કહે છે. ज्ञानाहिनी प्रातिनिभित्ते “ भवदीयो ऽहं" "हुमायन छुमे. शेत પિતાને પ્રકટ કરે કે માનવું તેનું નામ ઉપસ પેદા છે. જેમકે કઈ મુનિ स १३...
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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