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सुधा टीका स्था० ३ उ०४ सू० ७:-६० पुद्गलपरिणामवशेषनिरूपणम्
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पूर्व चक्षुष्मान् प्रोक्तः, तस्य चाभिसमागम इति वस्तुपरिच्छेदो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजते-' तिविहे अभिसमागमे ' इत्यादि । त्रिविधः - त्रिप्रकारः अभिसमागमः, 'अभि' इत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपर्यासरूपतया 'सम्' इति सम्यक् न संशयतया, ' आ ' इति मर्यादया गमनं ज्ञानं ' ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः ' इति वचनात् अभिसमागमः -पदार्थ- परिच्छेदः । स त्रिविधस्तद्यथा-ऊर्ध्वम्विवक्षा से तो वे भी तीन चक्षुष्मानों में गृहीत हो जावें तो इसमें कोई विरोध नहीं है ।
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इस प्रकार से चक्षुष्मान् का कथन करके अब सूत्रकार उसके अभिसमागम का दिग्भेद को लेकर कथन करते हैं-" तिविहे अभिसमागमे -" इत्यादि । अभिसमागम का अर्थ पदार्थ का परिच्छेद होना है, अर्थात् चक्षुष्मान को जो पदार्थ का परिच्छेद होता है वह अभिस मागम है, अभिसमागम में " अभि " उपसर्ग है इसका अर्थ है विपयस (विपरीतता) से रहित होकर गम ( ज्ञान का होना वह अभिगम है साथ में " सम" और "आ" ये दो उपसर्ग और भी हैं, सो इनका अर्थ ऐसा है कि जैसा वह ज्ञान विपरीतता रहित होता है उसी प्रकार से उसे " सम " 'सम्यक् रूप भी होना चाहिये, संशयरूप नहीं । और
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' आ " यह मर्यादा अर्थ में आया है " गम " यह गत्यर्थक गम् धातु से बना है, मो "ये गत्यर्था स्तेज्ञानार्थाः " इस कथन के अनुसार जो નામાં ચક્ષુરિન્દ્રિય જન્ય ઉપયેગને અભાવ રહે છે. દ્રવ્યેન્દ્રિયની અપેક્ષાએ તેમને ત્રણ ચક્ષુવાળા કહેવામાં આવે, તે એમાં કાઈ વાધે નથી.
૮૦ મા સૂત્રના ભાવાનું નિરૂપણ——ચક્ષુમાનનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના અભિસમાગમ (વિપરીતતાથી રહિત જ્ઞાન ) નું દિલેશ્વની अपेक्षा रे - " तिविहे अभिसमागमे " त्याहि
ગમ
અભિસમાગમ એટલે કે પદાર્થોના પિચ્છેદ થવા તે અભિસમાગમમાં 'मलि' उपसर्ग छे तेना स्मर्थ ' विपर्यास ( विपरीतता ) थी रहित ' થાય છે. અને 'मेटो " ज्ञान' “ વિપર્યાંસથી રહિત એવા જ્ઞાનને 'अभिगमछे " અભિગમ પદની સાથે “ સમ " सने "सा" ५ સગે પશુ આવેલા છે તેને અથ આ પ્રમાણે છે–જેમ તે જ્ઞાન વિપરીતતાથી રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે સમ્યફ્રૂપ પણુ હાવું જેઇએ-સંશયરૂપ હોવું જોઇએ નહીં " उपसर्ग मर्यादा अर्थमा प्रयुक्त थयो छे यह गत्यर्थ! ' गम्' धातुमांथी मन्यु हे.
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ज्ञानार्थाः "
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ये गत्यर्था
गम
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