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________________ म्थानाडसूत्रे निवर्तते । नो निंदति आत्मसाक्षिकं पापनिन्दा न करोति, नो गई ते-गुरुसाक्षिक स्वापराधगहीं न करोति । नो विछट्टयति-तद्ध्यवसाय न विछिनत्ति । न विशोधयति-पापप्रायश्चित्तपूर्वकमात्मनश्चारित्रस्य चातीचारमलक्षालनेनात्मशुद्धि न करोति । अकरणतया-पुतरवारणप्रतिक्षया नो-नैव अभ्युत्तिष्ठते-प्रयतते न सज्जो भवतीत्यर्थः । तथा यथाई-यथायोग्य पापानुरूपमित्यर्थः, मायश्चित्त-पापप्रणाशकं तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानमनशनादिकं निर्विकृतिकादिकं वा न प्रतिपद्यतेन स्वीकुरुते, तद्यथा-तान्येवस्थानानि दर्शयति-अकार्प वाऽहम्-' इदममुकं कार्य भूतकालेऽहं कृतवान् अतः कथमिदं निन्धम् ? अपि तु नैन नि, किमर्थमालोच यामि, एवंकरणे रवमाहात्म्यहानि र्जायते, इत्येवमभिमानान्नो आलोचयति नो '. 'पतिक्रामतीत्यादि भक्रमः । तथा करोमि वाऽहं-वर्तमानकालेऽप्याचरामीकार्य- नहीं करता है, उसका प्रतिक्रमण नहीं करताहे-मिथ्यानुप्कृतदानादिपूर्वक पाप से पीछे नहीं हटता है उसकी निन्दा नहीं करता है-आत्मसाक्षी. पूर्वक पाप की निन्दा नहीं करता है उसकी नहीं नहीं करता है-गुरु साक्षी पूर्वक अपने अपराध की नहीं नहीं करता है उसकी विकुट्टना नहीं करता है उस कार्य करने के अध्यवमाय को नहीं छोड़ता है, उसकी .विशोधना नहीं करता है-पाप के प्रायश्चित्त करण पूर्वक अपने और चारित्र में लगे गए अतीचार रूप मल की सफाई करने से आत्मशुद्धि नहीं करता है भविष्य में मैं ऐसा नहीं करूंगा इस प्रकार की अकरणप्रतिज्ञा से वह अपने आप को तैयार नहीं करता है और न वह पापानुरूप प्रायश्चित्त को पापप्रणाशक तपः मतो-अनशनादिरूप या निविकृतिकादिरूप तप को-स्वीकार करता है वे तीन स्थान इस प्रकार से हैं-" अकार्ष वाऽहम् " " करोमि चाऽहम् " "करिष्यामि वाऽहम्" નથી, તેનું પ્રતિક્રમણ કરતા નથી–મિથ્યાદુષ્કૃત દાનાદિપૂર્વક પાપમાગથી પાછો વળતો નથી, તેની નિન્દા કરતો નથી–આત્મસાક્ષી પૂર્વક પોતાના પાપની નિદા કરતો નથી, તેની ગર્લો કરતો નથી, ગુરુસાક્ષી પૂર્વક પિતાના દોષની ગહ કરતો નથી. તેની વિટ્ટના કરતો નથી એટલે કે એ કાર્ય કરવાને અધ્યવસાય છેડતો નથી, તેની વિશેધના કરતા નથી એટલે કે પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને, પોતાના ચારિત્રને લાગેલા અતિચારરૂપ મળની સફાઈ કરીને આત્મશુદ્ધિ કરતું નથી, ” ભવિષ્યમાં એવું નહિ કરૂ એવી અકરણ પ્રતિજ્ઞાથી તે પોતાની જાતને તૈયાર કરતું નથી, અને પાપને અનુરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને તે સાકાર કરતા નથી એટલે કે પાપનાશક તપકને–અનશનાધિરૂપ કે નિર્વિકૃતિકાદિરૂપ તપને રવીકાર ४२ता नथी. ते ऋण स्थान ( २ ) नीये प्राणे -" अकार्प वाऽहम्"
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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