Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003469/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि आचारांग सूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचना-टिप्पण-पशिष्ट युक्त) E HV Personaliti se only www.jatneindrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रीसुव्रतमुनि 'सत्यार्थी शास्त्री एम. ए. (हिन्दी-संस्कृत) __परमपूज्य, विद्वद्वरेण्य, तत्त्ववेत्ता, प्रबुद्ध मनीषी, आगमबोधनिधि, श्रमणश्रेष्ठ, स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' जी प्राचीन विद्या के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र प्रवक्ता थे। आपके मार्गदर्शन एवं प्रधान सम्पादकत्व में जैन आगम प्रकाशन का जो महान् श्रुत-यज्ञ प्रारम्भ हुआ, उसमें प्रकाशित श्री आचारांग, उत्तराध्ययन, व्याख्याप्रज्ञप्ति और उपासकदशांग आदि सुत्र गुरुकृपा से देखने को मिले / नागों की सामयिक भाषा-शैली, और तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण अतीव श्रमसाध्य है। शोधपूर्ण प्रस्तावना, अनिवार्य पादटिप्पण एवं परिशिष्टों से आगमों की उपयोगिता सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सुगम हो गई है तथा आधुनिक शोध-विधा के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सभी सूत्रों की सुन्दर शुद्ध छपाई, उत्तम कागज और कवरिंग बहुत ही आकर्षक है / अतीव अल्प समय में विशालकाय 30 आगमों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण अवदान है / इसका श्रेय श्रुत-यज्ञ के प्रणेता आगममर्मज्ञ, पूज्यप्रवर युवाचार्य श्री जी म. को है तथापि इस महनीय श्रुत-यज्ञ में जिन पूज्य गुरुजनों, साध्वीवृन्द एवं सद्गृहस्थों ने सहयोग दिया है वे सभी अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आगम प्रकाशन समिति विशेष साधुवाद की पात्र है। Education International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रन्यमाला: ग्रन्थांक-.--१ [परम श्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] पंचम गणधर भगवत् सुधर्मस्वामि-प्रणीत : प्रथम अङ्ग आचारांगसूत्र [प्रथम श्रुतस्कन्ध [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट युक्त] प्रेरणा [7 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज श्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक-विवेचक / श्रीचन्द सुराणा 'सरस' मुख्य सम्पादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्यमाला : प्रन्याडू 1 B निर्देशन ___ साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' 0 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल D सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्र मुनि 'दिनकर' द्वितीय संस्करण 0 प्रकाशनतिथि वीर निर्वाण सं० 2516 वि. सं. 2046 ई. सन् 1989 / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति बृज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ मुद्रक चारण मुद्रणालय माकड़वाली रोड अजमेर (मविवाधिक) मुक्यो / Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhar Sudharma Swami Compiled First Anga ACARANGA SUTRA [Part 1] (Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.] Proximity (Late) Up-pravariaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Editor & Annotator Shrichandra Surana Saras' Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 1 O Direction Sadhwi Shri Umravkunwar Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Upachrya Sri Devendramuni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla U Promotor Muni Sri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar 0 Second Edition Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2516 Vikram Samvat 2046; July, 1989 O Pablishers Sri Agam Prakashan Samiti, Brij-Madhukar Smriti-Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 Printer Charan Mudranalaya Makaswali Road Ajmer Priekrz w *1.44 aug] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनवाणी के परम उपासक, बहुभाषाविज्ञ वयःस्थविर, पर्यायस्थविर, श्रुतस्थविर श्री वर्धमान जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमणसंघ के द्वितीय प्राचार्य परम आदरणीय श्रद्धास्पद राष्ट्रसंत आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज को सादर-सविनय-सभक्ति। मधुकर मुनि (प्रथम संस्करण से) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय भगवान श्रीमहावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर साहित्य-प्रकाशन की एक नयी उत्साहपूर्ण लहर उठी थी / उस समय जैनधर्म, जैनदर्शन और भगवान् महावीर के लोकोत्तर जीवन एवं उनकी कल्याणकारिणी शिक्षाओं से सम्बन्धित विपुल साहित्य का सृजन हुा / मुनि श्रीहजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर की ओर से भी 'तीर्थकर महावीर' नामक ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया। इसी प्रसंग पर विद्वद्रत्न श्रद्धेय मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' के मन में एक उदात्त भावना जागृत हुई कि भगवान महावीर से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन हो रहा है, यह तो ठीक है, किन्तु उनकी मूल एवं पवित्र वाणी जिन प्राममों में सुरक्षित है, उन आगमों को सर्वसाधारण को क्यों न सुलभ कराया जाय, जो सम्पूर्ण बत्तीसी के रूप में आज कहीं उपलब्ध नहीं है / भगवान् महावीर की असली महिमा तो उस परम पावन, सुधामयी वाणी में ही निहीत है। मुनिश्री की यह भावना वैसे तो चिरसंचित थी, परन्तु उस वातावरण ने उसे अधिक प्रबल बना दिया। मुनिश्री ने कुछ वरिष्ठ प्रागमप्रेमी श्रावकों तथा विद्वानों के समक्ष अपनी भावना प्रस्तुत की। धीरे-धीरे मागम बत्तीसी के सम्पादन-प्रकाशन की चर्चा बल पकड़ती गई। भला कौन ऐसा विवेकशील व्यक्ति होगा, जो इस पवित्र तम कार्य की सराहना और अनुमोदना न करता? श्रमण भगवान महावीर के साथ आज हमारा जो सम्पर्क है वह उनकी जगत-पावन वाणी के ही माध्यम से है। महावीर की देशना के सम्बन्ध में कहा गया है'सव्वजगजीवरक्षणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं / ' अर्थात जगत के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के लिए ही भगवान की धर्मदेशना प्रस्फुटित हुई थी। अतएव भगवत्वाणी का प्रचार और प्रसार करना प्राणीमात्र की रक्षा एवं दया का ही कार्य है। इससे अधिक श्रेष्ठ विश्वकल्याण का अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता। इस प्रकार आगम प्रकाशन के विचार को सभी प्रोर से पर्याप्त समर्थन मिला / तब मुनिश्री के वि० सं० 2035 के ब्यावर चातुर्मास में समाज के अग्रगण्य श्रावकों की एक बैठक प्रायोजित की गई और प्रकाशन की रूपरेखा पर विचार किया गया। सुदीर्घ चिन्तन-मनन के पश्चात वैशाख शुक्ला 10 को, जो भगवान महावीर के केवलज्ञान-कल्याणक का शूभ दिन था, पागम बत्तीसी के प्रकाशन की घोषणा कर दी गई और शीघ्र ही कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। हमें प्रसन्नता है कि श्रद्धेय मुनिश्री की भावना और आगम प्रकाशन समिति के निश्चयानुसार हमारे मुख्य सहयोगी श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने प्रबन्ध सम्पादन का दायित्व स्वीकार किया और प्राचारांग के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। साथ ही अन्य विद्वानों ने भी विभिन्न प्रागमों के सम्पादन का दायित्व स्वीकार किया और कार्य चाल हो गया। तब तक प्रसिद्ध विद्वान एवं प्रागमों के गंभीर अध्येता पंडित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल भी बम्बई से ब्यावर पा गये और उनका मार्गदर्शन एवं सहयोग भी हमें प्राप्त हो गया। आपके बहमूल्य सहयोग से हमारा कार्य अति सुगम हो गया और भार हल्का हो गया। हमें अत्यधिक प्रसन्नता और सात्त्विक गौरव का अनुभव हो रहा है कि एक ही वर्ष के अल्प समय में हम अपनी इस ऐतिहासिक अष्टवर्षीय योजना को मूर्त रूप देने में सफल हो सके। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ सज्जनों का सुझाव था कि सर्वप्रथम दशवकालिक, नन्दीसूत्र आदि का प्रकाशन किया जाय किन्तु श्रद्धेय मुनिश्री मधुकरजी महाराज का विचार प्रथम अंगाच रांग से ही प्रारम्भ करने का था / क्योंकि प्राचारांग समस्त अंगों का सार है। ___ इस सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में प्राचारांग आदि क्रम से ही भागमों को प्रकाशित करने का विचार किया गया था, किन्तु अनुभव से इसमें एक बड़ी अड़चन जान पड़ी। वह यह कि भगवती जैसे विशाल आगमों के सम्पादन-प्रकाशन में बहुत समय लगेगा और तब तक अन्य आगमों के प्रकाशन को रोक रखने से सब आगमों के प्रकाशन में अत्यधिक समय लग जाएगा / हम चाहते हैं कि यथासंभव शीघ्र यह शुभ कार्य समाप्त हो जाय तो अच्छा / अतः यही निर्णय रहा है कि आचारांग के पश्चात् जो-जो आगम तैयार होते जायें उन्हें ही प्रकाशित कर दिया जाय / नवम्बर 1979 में महामन्दिर (जोधपुर) में आगम समिति का तथा विद्वानों का सम्मिलित अधिवेशन हुआ था। उसमें सभी सदस्यों ने यह भावना व्यक्त की कि श्रद्धेय मुनि श्री मधुकरजी महाराज के युवाचार्यपदचादर प्रदान समारोह के शुभ अवसर पर प्राचारांगसूत्र का विमोचन भी हो सके तो अधिक उत्तम हो। यद्यपि समय कम था और प्राचारांगसूत्र का सम्पादन भी अन्य प्रागमों की अपेक्षा कठिन और जटिल था, फिर भी समिति के सदस्यों की भावना का आदर कर श्रीचन्दजी सुराणा ने कठिन परिश्रम करके प्राचारांग के प्रथम श्रतस्कंध का कार्य समय पर पूर्ण कर दिया। सर्वप्रथम हम श्रमणसंध के युवाचार्य, सर्वतोभद्र, श्री मधुकर मुनिजी महाराज के प्रति अतीव प्राभारी हैं, जिनकी शासनप्रभावना की उत्कट भावना, भागमों के प्रति उद्दाम भक्ति, धर्मज्ञान के प्रचार-प्रसार के प्रति तीव्र उत्कंठा और साहित्य के प्रति अप्रतिम अनुराग की बदौलत हमें भी वीतरागवाणी की किचित सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। दुःख का विषय है कि आज हमारे मध्य युवाचार्यश्रीजी विद्यमान नहीं हैं तथापि उनका शुभ आशीर्वाद हमें प्राप्त है, जिसकी बदौलत उनके द्वारा रोपा हुआ यह ग्रन्थमाला-कल्पवृक्ष निरन्तर फल-फूल रहा है और साधारणसभा (जनरल कमेटी) के निश्चयानुसार श्री प्राचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध का जो प्रथम ग्रन्थांक के रूप में मुद्रित हुआ था, द्वितीय संस्करण प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है / उपासकदशांगसूत्र भी दूसरी बार मुद्रित हो गया है। इन दोनों प्रागमों का सुप्रसिद्ध प्रागमवेत्ता श्री उमेशमुनिजी म. ने कृपा कर अवलोकन किया है और यथोचित संशोधन-सुझाव देकर हमें उपकृत किया है। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष सायरमल चोरडिया महामन्त्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर या अमरचन्द मोदी मन्त्री अमरचन्द मोदी [8] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख [ प्रथम संस्करण से ] जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। सर्वज्ञ अर्थात प्रात्मद्रष्टा / सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं। जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं। परमहितकर नि:श्रेयस का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्वज्ञान, प्रात्मज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध-'श्रामम' शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित 'अागम' का रूप देते हैं।' आज जिसे हम 'मागम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में 'गणिपिटक' कहलाते थे'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब प्रागमों को स्मृति के प्राधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था। भगवान महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'आगम' स्मृति-परम्परा पर ही चले आये थे / स्मृति-दुर्बलता, गुरु-परम्परा का विच्छेद तथा अन्य अनेक कारणों से धीरे-धीरे पागमज्ञान भी लुप्त होता गया। महासरोवर का जल सूखप्ता-सूखता गोष्पद मात्र ही रह गया। तब देवद्धिगणी क्षमा श्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम-ज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र-उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ करके पाने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया। यह जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अदभुत उपक्रम था। प्रागमों का यह प्रथम सम्पादन वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ़ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से प्रागम-ज्ञान की शुद्धधारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा, धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ़ अर्थ हिन्न-विच्छिन्न होते चले गए / जो प्रागम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे। अन्य भी अनेक कारणों से प्रागम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध पौर यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल 1. 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा निउगं / ' - [1] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद पुन: उसमें भी व्यवधान पा गए। साम्प्रदायिक द्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों का प्रज्ञानआगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़े विघ्न बन गए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब भागम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई। प्रागमों की प्राचीन टीकाएँ, चूणि व नियुक्ति जब प्रकाशित हुई तथा उनके आधार पर प्रागमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हुआ तो प्रागम-ज्ञान का पठन-पाठन स्वभावतः बढ़ा, सैकड़ों जिज्ञासुमों में प्रागम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान् भी प्रागमों का अनुशीलन करने लगे। प्रागमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है। फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान मुनियों का नाम-ग्रहण अवश्य ही करूंगा। पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज स्थानकवासी परम्परा के वे महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबली मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जन-जन को सुलभ बना दिया। पूरी बत्तीसी का सम्पादन-प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी-तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामीजी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प-मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमल जी महाराज के तत्त्वावधान में प्राममों का अध्ययन कर रहा था तब प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ मागम उपलब्ध थे। उन्हीं के प्राधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे। उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रमसाध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूल पाठ में व उसकी वृत्ति में कहींकहीं अन्तर भी है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमल जी महाराज स्वयं जनसूत्रों के प्रकांड पण्डित थे। उनकी मेधा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणाप्रधान थी। मागम साहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि आगमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो तो बहुत लोगों का भला होगा / कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा। __ इसी बीच प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, जैनधर्मदिवाकर प्राचार्य श्री प्रात्माराम जी महाराज, पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज आदि विद्वान् मुनियों ने प्रागमों की सुन्दर व्याख्याएं व टीकाएँ लिखकर अथवा अपने तत्वावधान में लिखवाकर इस कमी को पूरा किया है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है और अच्छे स्तर से उनका प्रागम-कार्य चल रहा है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' आगमों की न्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान् श्रमण स्व० मुनि श्रीपुण्यविजय जी ने आगम-सम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तम कोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के / मुनि जम्बूविजय जी के तत्वावधान में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है। उक्त सभी कार्यों पर विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज कहीं तो पागमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं आगमों की विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं। एक, पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / मध्यम मार्ग का अनुसरण कर पागमवाणी का भावोद्घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जो सुबोध भी हो, सरल भी हो, संक्षिप्त हो, पर सारपूर्ण व सुगम हो / गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 4-5 वर्ष पूर्व इस विषय [10] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चिन्तन प्रारम्भ किया था। सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात गतवर्ष' दृढ़ निर्णय करके प्रागम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथों में प्रागम ग्रन्थ, क्रमशः पहुंच रहे हैं। इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है। आगम-सम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव की पुण्य स्मृति में प्रायोजित किया गया है। आज उनका पुण्य स्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरु-भ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज की प्रेरणाएं, उनकी आगम-भक्ति पागम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान मेरा सम्बल बना है। अतः मैं उन दोनों स्वर्गीय प्रात्माओं की पुण्य स्मृति में विभोर हूँ। ___ शासनसेवी स्वामीजी श्री वृजलालजी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्द्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार व महेन्द्र मुनि का साहचर्य बल, सेवा-सहयोग तथा महासती श्री कानकुंवरजी, महासती श्री झणकारकुंवरजी, परम विदुषी साध्वी श्री उमराव कुंवरजी 'अर्चना' की विनम्र प्रेरणाएँ मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाए रखने में सहायक रही हैं। मुझे दृढ़ विश्वास है कि प्रागम-वाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयत्नसाध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों; व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचने में गतिशील बना रहेगा। इसी आशा के साथ.... -मुनि मिश्रीलाल 'मधुकर' 1. वि० सं० 2036 वैशाख शुक्ला 10 महावीर-कैवल्यदिवस / Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय [प्रथम संस्करण से] 'प्राचारांग' सूत्र का अध्ययन, अनुशीलन व अनुचिन्तन–मेरा प्रिय विषय रहा है। इसके अर्थगम्भीर सूक्तों पर जब-जब भी चिन्तन करता हूँ तो विचार-चेतना में नयी स्फुरणा होती है, आध्यात्मिक प्रकाश की एक नयी किरण चमकती-सी लगती है। श्रद्धेय श्री मधुकर मुनि जी ने आगम-सम्पादन का दायित्व जब विभिन्न विद्वानों को सौंपना चाहा तो सहज रूप में ही मुझे आचारांग का सम्पादन-विवेचन कार्य मिला। इस गुरु-गम्भीर दायित्व को स्वीकारने में जहाँ मुझे कुछ संकोच था, वहाँ आचारांग के साथ अनुबंधित होने के कारण प्रसन्नता भी हुयी। और मैंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति का नियोजन इस पुण्य कार्य में करने का संकल्प स्वीकार कर लिया। आचारांग सूत्र का महत्त्व, विषय-वस्तु तथा रचयिता आदि के सम्बन्ध में श्रद्धेय श्री देवेन्द्र मुनिजी ने प्रस्तावना में विशद प्रकाश डाला है। अतः पुनरुक्ति से बचने के लिए पाठकों को उसी पर मनन करने का अनुरोध करता हूँ। यहाँ मैं आचारांग के विषय में अपना अनुभव तथा प्रस्तुत सम्पादन के सम्बन्ध में ही कुछ लिखना चाहता हूँ। दर्शन, अध्यात्म व आचार की त्रिपुटी : आचारांग जिनवाणी के जिज्ञासुनों में प्राचारांग सूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। यह गणिपिटक का सबसे पहला अंग प्रागम है। चाहे रचना की दृष्टि से हो, या स्थापना की दृष्टि से, पर यह निर्विवाद है कि उपलब्ध प्रागमों में प्राचारांग सूत्र रचना-शैली, भाषा-शैली तथा विषय वस्तु की दृष्टि से अद्भुत व विलक्षण है / प्राचार की दृष्टि से तो उसका महत्त्व है ही किन्तु दर्शन की दृष्टि से भी वह. गम्भीर है। प्रागमों के विद्वान् सूत्रकृतांग को दर्शन-प्रधान व आचारांग को आचार-प्रधान बताते हैं, किन्तु मेरा अनुशीलन कहता है-पाचारांग भी गूढ़ दर्शन व अध्यात्म प्रधान आगम है / सुत्रकृत की दार्शनिकता तर्क-प्रधान है, बौद्धिक है, जबकि प्राचारांग की दार्शनिकता अध्यात्म-प्रधान है। यह दार्शनिकता औपनिषदिक शैली में गुम्फित है। अतः इसका सम्बन्ध प्रज्ञा की अपेक्षा श्रद्धा से अधिक है। आचारांग का पहला सूत्र दर्शनशास्त्र का मूल बीज है-आत्म-जिज्ञासा और इसके प्रथम श्रुतस्कंध का अंतिम सूत्र है भगवान महावीर का आत्म-शुद्धि मूलक पवित्र चरित्र' और उसका प्रादर्श / प्रात्म-दृष्टि, अहिंसा. समता, वैराग्य, अप्रमाद, निस्पृहता, निःसंगता, सहिष्णुता-प्राचारांग के प्रत्येक अध्ययन में इनका स्वर मुखरित है / समता, निःसंगता के स्वर तो बार-बार ध्वनित होते से लगते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध (आचारचूला) भी श्रमण के प्राचार का प्रतिपादक मात्र नहीं है, किन्तु उसका भी मख्य स्वर समत्व, मचलत्व, ध्यान-सिद्धि व मानसिक पवित्रता से प्रोत-प्रोत है। इस प्रकार प्राचारांग का 1. के अहं आसी के वा इओ चुते पेच्चा भविस्सामि-सूत्र 1 2. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता सूत्र 323 [12] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण प्रान्तर-प्रनुशीलन करने के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि दर्शन, अध्यात्म व प्राचार-धर्म की त्रिपुटी है-प्राचारांग सूत्र / ___मधुर व गेय पद-योजना प्राचारांग (प्रथम)माज गद्य-बहुल माना जाता है, पद्य भाग इसमें बहुत अल्प है / डा. शुकिंग के मतानुसार प्राचारांग भी पहले पद्य-बहुल रहा होगा, किन्तु अब अनेक पद्यांश खण्ड रूप में ही मिलते हैं / दशवकालिक नियुक्ति के अनुसार प्राचारांग गद्यशैली का नहीं, किन्तु चौर्णशैली का आगम है। चौर्ण शैली का मतलब है--जो अर्थबहुल, महार्थ, हेतु-निपात उपसर्ग से गम्भीर, बहुपाद, विरामरहित प्रादि लक्षणों से युक्त हो।' बहुपाद का अर्थ है जिसमें बहुत से 'पद' (पद्य) हो। समवायांग तथा नन्दी सूत्र में भी प्राचारांग के संखेज्जा सिलोगा का उल्लेख है। प्राचारांग के सैकड़ों पद, जो भले ही पूर्ण श्लोक न हों, किन्तु उनके उच्चारण में एकलय-बद्धता सी लगती है, छन्द का सा उच्चारण ध्वनित होता है, जो वेद व उपनिषद के सूक्तों की तरह गेयता युक्त है / उदाहरण स्वरूप कुछ सूत्रों का उच्चारण करके पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं / ____ इस प्रकार की उद्भुत छन्द-लय-बद्धता जो मन्त्रोच्चारण-सी प्रतीत होती है, सूत्रोच्चारण में विशेष प्रानन्द की सृष्टि करती है / भाषाशैली को विलक्षणता विषय-वस्तु तथा रचनाशैली की तरह आचारांगसूत्र (प्रथम) के भाषाप्रयोग भी बड़े लाक्षणिक और अद्भुत हैं / जैसे-आमगंधं-(सदोष व अशुद्ध वस्तु) अहोविहार--(संयम) ध्र ववर्ण-(मोक्षस्थान) विस्रोतसिका---(संशयशीलता) बसुमान चारित्र-निधि सम्पन्न) महासड्ढी-(महान् अभिलाषी) आचारांम के समान लाक्षणिक शब्द-प्रयोग अन्य भागमों में कम मिलते हैं। छोटे-छोटे सुगठित सूक्त उच्चारण में सहज व मधुर हैं। इस प्रकार अनेक दृष्टियों से प्राचारांग सूत्र (प्रथम) अन्य भागमों से विशिष्ट तथा विलक्षण हैं इस कारण इसके सम्पादन-विवेचन में भी अत्यधिक जागरूकता, सहायक सामग्री का पुनः पुनः अनुशीलन तथा शब्दों का उपयुक्त अर्थ बोध देने में विभिन्न ग्रन्थों का अवलोकन करना पड़ा है। 1. देखें दशवै० नियुक्ति 170 तथा 174 / 2. समवाय 89 / नन्दी सूत्र 80 / अदिस्समाणे कय-विक्कएस 88 3. अातंकदंसी अहियं ति णच्चा-सूत्र सव्यामगंधं परिणाय णिरामगंधे परिध्वए 88 प्रारम्भसत्ता पकरेंति संग संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं खणं जाणाहि पंडिते प्रारम्भ दुक्खमिणं ति णच्चा भूतेहिं जाण पडिलेह सातं मायी पमायी पुणरेति गम्भं सव्वेसिं जीवितं पियं 78 अप्पमत्तो परिवए णत्थि कालस्स णागमो कम्ममूलं च जं छणं प्रासं च छदं च विर्गिच धीरे अप्पाणं विप्पसादए 125 sm [13] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सम्पादन-विवेचन ___ आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का वर्तमान रूप परिपूर्ण है या खण्डित है-इस विषय में भी मतभेद है / डा० जैकोबी आदि अनुसंधाताओं का मत है कि प्राचारांग सूत्र का वर्तमान रूप अपरिपूर्ण है, खण्डित है / इसके वाक्य परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं। क्रियापद आदि भी अपूर्ण हैं। इसलिए इसका अर्थबोध व व्याख्या अन्य प्रागमों से कठिन व दुरूह है। प्राचीन साहित्य में प्रागमव्याख्या की दो पद्धतियां वर्णित हैं---- 1. छिन्न-छेद-नयिक 2. अच्छिन्न-छेद-नयिक जो वाक्य, पद या श्लोक (गाथाएं) अपने आप में परिपूर्ण होते हैं, पूर्वापर अर्थ को योजना करने की जरूरत नहीं रहती, उनकी व्याख्या प्रथम पद्धति से की जाती है। जैसे दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि। दूसरी पद्धति के अनुसार वाक्य, या पद, गाथाओं को पूर्व या अग्रिम विषय संगति, सम्बन्ध, सन्दर्भ पादि का विचार करके उसकी व्याख्या की जाती है। आचारांग सूत्र की व्याख्या में द्वितीय पद्धति (अच्छिन्न-छेद-नयिक) का उपयोग किया जाता है। तभी इसमें एकरूपता, परिपूर्णता तथा प्रविसंवादिता का दर्शन हो सकता है। वर्तमान में उपलब्ध प्राचारांग (प्रथम श्रुतस्कंध) की सभी व्याख्याएं-नियुक्ति, चूर्णि, टीका, दीपिका व अवचूरि तथा हिन्दी विवेचन द्वितीय पद्धति का अनुसरण करती हैं। वर्तमान में प्राचारांग सूत्र पर जो व्याख्याएं उपलब्ध हैं, उनमें कुछ प्रमुख ये हैंनियुक्ति (प्राचार्य भद्रबाहु : समय-वि० 5-6 वीं शती) चूणि (जिनदासगणी महत्तर : समय-६-७ वीं शती) टीका (प्राचार्य शीलांक : समय-८ वीं शती) इस पर दो दीपिकाएं, अवचूरि व बालावबोध भी लिखा गया है, लेकिन हमने उसका उपयोग नहीं किया है। प्रमुख हिन्दी व्याख्याएं प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज / मूनि श्री सोभाग्यमलजी महाराज / मुनि श्री नथमलजी महाराज / यह तो स्पष्ट ही है कि प्राचारांग के गूढार्थ तथा महार्थ पदों का भाव समझने के लिए नियुक्ति आदि व्याख्याग्रन्थों का अनुशीलन अत्यन्त आवश्यक है। नियुक्तिकार ने जहां प्राचारांग के गढ़ार्थों का नयी-शैली से उद्घाटन किया है, जहाँ चूर्णिकार ने एक शब्द-शास्त्री की तरह उनके विभिन्न प्रयों की ओर संकेत किया है / टीका में नियुक्ति एवं चूर्णिगत अर्थों को ध्यान में रखकर एक-एक शब्द के विभिन्न सम्भावित अर्थों पर सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। प्राचारांग के अनेक पद एवं शब्द ऐसे हैं जो थोड़े से अन्तर से, व्याकरण, सन्धि व लेखन के अल्पतम परिवर्तन से भिन्न अर्थ के द्योतक बन जाते हैं। जैसे समत्तदंसी-इसे अगर सम्मत्तदंसी मान लिया जाय तो इस शब्द के तीन भिन्न अर्थ हो जाते हैंसमत्तदंसी-समत्वदर्शी (समताशील) समत्तदंसी--समस्तदर्शी (केवलज्ञानी) सम्मत्तदंसी-सम्यक्त्वदर्शी (सम्यग्दृष्टि) प्रसंगानुसार तीनों ही अर्थ अलग-अलग ढंग से सार्थकता सिद्ध करते हैं। [ 14 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार एक पद है तम्हाऽतिविज्जो' यहाँ अतिविज्ज---मान लेने पर अर्थ होता है-अतिविद्य (विशिष्ट विद्वान्) यदि तिविज्ज पद मान लिया जाय तो अर्थ होगा-त्रिविद्य (तीन विद्याओं का ज्ञाता)। 'विटुभये पद के दो पाठान्तर चूणि में मिलते हैं-विट्ठपहे, दिद्ववहे,-तीनों के ही भिन्न-भिन्न अर्थ हो जाते हैं। चूणि में इस प्रकार के अनेक पाठान्तर हैं जो आगम की प्राचीन अर्थपरम्परा का बोध कराते हैं / विद्वान् वृत्तिकार प्राचार्य ने इन भिन्न-भिन्न अर्थों पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है, जो शब्दशास्त्रीय ज्ञान का रोचक रूप उपस्थित करता है। प्रस्तुत विवेचन में हमने शब्द के विभिन्न अर्थों पर दृष्टि-क्षेप करते हुए प्रसंग के साथ जिस अर्थ को संगति बैठती है, उस पर अपना विनम्र मत भी प्रस्तुत किया है। हिन्दी व्याख्याएँ प्रायः टोका का अनुसरण करती हैं। उनमें नियुक्ति व चूणि के विविध अर्थों पर विचार कम ही किया गया है। मुनि श्री नथमलजी ने लीक से हटकर कुछ नया चिन्तन अवश्य दिया है, जो प्रशंसनीय है। फिर भी आचारांग के अर्थ-बोध में स्वतन्त्र चिन्तन व व्यापक अध्ययन-अनुशीलन की स्पष्ट अपेक्षा व अवकाश है। हमारे सामने आचारांग पर किए गए अनुशीलन की बहत-सी सामग्री विद्यमान है। अब तक प्राप्त सभी सामग्री का सूक्ष्म अवलोकन कर प्राचीन प्राचार्यों के चिन्तन का सार तथा वर्तमान सन्दर्भ में उसकी उपयोगिता पर हमने विचार किया है। मूलपाठ इस सम्पादन का मूलपाठ हमने मुनिश्री जम्बूविजयजी सम्पादित प्रति से लिया है। प्राचारांग सूत्र के अब तक प्रकाशित समस्त संस्करणों में मूलपाठ की दृष्टि से यह संस्करण सर्वाधिक शुद्ध व प्रामाणिक प्रतीत होता है / यद्यपि इसमें भी कुछ स्थानों पर संशोधन की आवश्यकता अनुभव की गयी है। पदच्छेद की दृष्टि से इसे पूर्ण आधुनिक सम्पादन नहीं कहा जा सकता / अर्थ-बोध को सुगम करने की दृष्टि से हमने कहीं-कहीं पर पदच्छेद (नया पेरा) तथा श्रुति-परिवतन किया है, जैसे अधियास, अहियास आदि / कहीं-कहीं पर पाठान्तर में अंकित पाठ अधिक संगत लगता है, अतः हमने पाठान्तर को मूल स्थान पर व मूल पाठ को पाठान्तर में रखने का स्व-विवेक से निर्णय लिया है / फिर भी हमारा मान्य पाठ यही रहा है / चूणि के पाठभेद व अर्थभेद भी इसी प्रति के आधार पर लिए गए है। विवेचन-सहायक-ग्रन्थ प्राय: प्रागम-पाठों का शब्दश: अनुवाद करने पर भी उनका अर्थबोध हो जाता है, किन्तु प्राचारांग (प्रथमश्रुतस्कंध) के विषय में ऐसा नहीं है / इसके वाक्य, पद प्रादि शाब्दिक रचना की दृष्टि से अपूर्ण से प्रतीत होते हैं, अतः प्रत्येक पद का पूर्व तथा अग्रिम पद के साथ अर्थ-सम्बन्ध जोड़कर ही उसका अर्थ व विवेचन पूर्ण किया जा सकता है / इस कारण मूल का अनुवाद करते समय कोष्ठकों [ ] में सम्बन्ध जोड़ने वाला अर्थ देते हुए उसका अनुवाद करना पड़ा है, तभी वह योग्य अर्थ का बोधक बन सका है। अनुवाद व विवेचन करते समय हमने नियुक्ति चूणि एवं टीका-तीनों के परिशीलन के साथ भाव स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है / प्रयत्न यही रहा है कि अर्थ अधिक से अधिक मूलग्राही, सरल और युक्तिसंगत हो। 1 सूत्र 112 / 2 सूत्र 116 / 3 महावीर विद्यालय, बम्बई संस्करण [15] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक शब्दों के मूढ़ अर्थ उद्घाटन करने के लिए चूणि-टीका-दोनों के सन्दर्भ देखते हुए शब्दकोश तथा अन्य भागमों के सन्दर्भ भी दृष्टिगत रखे गए हैं / कहीं-कहीं चूर्णि व टीका के प्रयों में भिन्नता भी है, वहाँ विषय की संगति का ध्यान रखकर उसका अर्थ दिया गया है। फिर भी प्रायः सभी मतान्तरों का प्रामाणिकता के साथ उल्लेख अवश्य किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनेक कठिन पारिभाषिक शब्दों के अर्थ करने में निशीथसूत्र व चूणि-भाष्य तथा बहत्कल्पभाष्य प्रादि का भी प्राधार लिया गया है। हमारा प्रयत्न यही रहा है कि प्रत्येक पाठ का अर्थबोध-अपने परम्परागत भावों का उद्घाटन करता हुआ अन्य अर्थों पर चिन्तन करने की प्रेरणा भी जागृत करता जाए। कभी-कभी शब्द प्रसंगानुसार अपना अर्थ बदलते रहते हैं। जैसे-स्पर्श,' गुण एवं प्रायतन' आदि / आगमों में प्रसंगानुसार इसके विभिन्न अर्थ होते हैं / , उनका दिग्दर्शन कराकर मूल भावों का उद्घाटन कराने वाला अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। पाठान्तर व टिप्पण----चूणि में पाठान्तरों की प्राचीन परम्परा दृष्टिगत होती है। जो पाठान्तर नया अर्थ उद्घाटित करते हैं या अर्थ की प्राचीन परम्परा का बोध कराते हैं, ऐसे पाठान्तरों को टिप्पण में उल्लिखित किया गया है / चूमि में विशेष शब्दों के अर्थ भी दिए गए हैं, जो इतिहास व संस्कृति की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं / उन चूर्णिगत अर्थों का मूलपाठ के साथ टिप्पण में विवरण दिया गया है। अब तक के प्राय: सभी संस्करणों में टिप्पण आदि प्राकृत-संस्कृत में ही दिए जाने की परिपाटी देखने में प्राती है। इससे हिन्दी भाषी पाठक उन टिप्पणों के प्राशय समझने से वंचित ही रह जाता है। हमारा दष्टिकोण आगमज्ञान व उसकी प्राचीन अर्थ-परम्परा से जन साधारण को परिचित कराने का रहा है, अतः प्रायः सभी टिप्पणों के साथ उनका हिन्दी-अनुवाद भी देने का प्रयत्न किया है। यह कार्य काफी श्रमसाध्य रहा, पर पाठकों को अधिक लाभ मिले इसलिए आवश्यक व उपयोगी श्रम भी किया है। इसमें चार परिशिष्ट भी दिए गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में 'जाव' शब्द से सूचित मूल सन्दर्भ वाले सूत्र तथा ग्राह्य सूत्रों की सूची, द्वितीय में विशिष्ट शब्द-सूची तथा तृतीय परिशिष्ट में गाथानों को अकारादि सूची भी दी गयी है। चौथे परिशिष्ट में मुख्य रूप में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्यों की संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक सूची दी गयी है। युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज का मार्गदर्शन, प्रागम अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ तथा विद्वद्वरेण्य श्रीयुत शोभाचन्दजी भारिल्ल की युक्ति पुरस्सर परिष्कारक दृष्टि आदि इस सम्पादन, विवेचन को सुन्दर, सुबोध तथा प्रामाणिक बनाने में उपयोगी रहे हैं / अतः उन सब का तथा प्राचीन मनीषी प्राचार्यो, सहयोगी ग्रन्थकारों, सम्पादकों आदि के प्रति पूर्ण विनम्रता के साथ कृतज्ञभाव व्यक्त करता हूँ। इस महत्त्वपूर्ण कार्य को सुन्दर रूप में शीघ्र सम्पन्न करने में मुनि श्री नेमिचन्दी म० का मार्गदर्शन तथा स्नेहपूर्ण सहयोग सदा स्मरणीय रहेगा। यद्यपि यह गुरुतर कार्य सुदीर्घ चिन्तन अध्ययन, तथा समय सापेक्ष है, फिर भी अहर्निश के सतत प्रयल व युवाचार्य श्री की उत्साहवर्धक प्रेरणाओं से मात्र चार मास में ही इसे सम्पन्न कर पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया है। विश्वास है, अब तक के सभी संस्करणों से कुछ भिन्न, कुछ नवीन और काफी सरल व विशेष अर्थबोध प्रगट करने वाला सिद्ध होगा। सुझ पाठक इसे सुरुचिपूर्वक पढ़ेंगे-इसी प्राशा के साथ / __ -श्रीचन्द सुराना 'सरस' 1. देखे पृष्ठ / 2. पृष्ठ 25 / 3. पृष्ठ 57 / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम संस्करण के प्रकाशन में विशिष्ट अर्थ सहयोगी श्रीमान् सायरमलजी व श्रीमान् जेठमलजी चोरड़िया [संक्षिप्त परिचय] एक उक्ति प्रसिद्ध है— "ज्ञानस्य फलं विरतिः"-ज्ञान का सुफल है---वैराग्य / वैसे ही एक सूक्ति है-"वित्तस्य फलं वितरणं"--धन का सुफल है-दान! पात्र में, योग्य कार्य में अर्थ व्यय करना, धन का सदुपयोग है। नोखा (चांदावतों का) का चोरडिया परिवार इस सूक्ति का आदर्श उदाहरण है। मद्रास एवं बेंगलूर आदि क्षेत्रों में बसा, यह मरुधरा का दानवीर परिवार आज समाज-सेवा, शिक्षा, चिकित्सा, साहित्यप्रसार, राष्ट्रीय सेवा प्रादि विभिन्न कार्यों में मुक्त मन से और मुक्त हाथ से उपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करके यशोभागी बन रहा है। नागौर जिला तथा मेड़ता तहसील के अन्तर्गत चांदावतों का नोखा एक छोटा किन्तु-सुरम्य ग्राम है। इस ग्राम में चोरड़िया, बोथरा व ललवाणी परिवार रहते हैं / प्रायः सभी परिवार व्यापार-कुशल हैं, सम्पन्न हैं। चोरडिया परिवार के घर इस' ग्राम में अधिक हैं। चोरडिया परिवार के पूर्वजों में श्री उदयचन्दजी पूर्व-पुरुष हुए। उनके तीन पुत्र हुए-श्री हरकचन्दजी, श्री राजमलजी व श्री चान्दमलजी / श्री हरकचन्दजी के एक पुत्र थे श्री गणेशमलजी। श्री राजमलजी के छः पुत्र हुए-श्री गुमानमलजी, श्री मांगीलालजी, श्री दीपचन्दजी, श्री चंपालालजी, श्री चन्दनमलजी, श्री फूलचन्दजी। श्रीमान् राजमलजी अब संसार में नहीं रहे / उनका पुत्र-परिवार धर्मनिष्ठ है, सम्पन्न है। श्री राजमलजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री गुमानमलजी मद्रास जैन-समाज के एक श्रावकरत्न हैं / त्यागवृत्ति, सेवा-भावना, उदारता, सार्मि-वत्सलता ग्रादि गुणों से आपका जीवन चमक रहा है। श्री गणेशमलजी जब छोटे थे, तभी उनके पिता श्री हरकचन्दजी का देहान्त हो गया। माता श्री रूपी बाई ने ही गणेशमलजी का पालन-पोषण व शिक्षण प्रादि कराकर उन्हें योग्य बनाया। श्री रूपी बाई बड़ी हिम्मत वाली बहादुर महिला थीं, विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने धर्म-ध्यान, तपस्या आदि के साथ पुत्र-पौत्रों का पालन व सुसंस्कार प्रदान करने में बड़ी निपुणता दिखायो। श्री गणेशमलजी राजमलजी का पिता के तुल्य ही प्रादर व सम्मान करते तथा उनकी प्राज्ञानों का पालन करते थे। श्री गणेशमलजी की पत्नी का नाम सुन्दर बाई था। सुन्दर बाई बहुत सरल व भद्र स्वभाव की धर्मशीला श्राविक थीं। अभी-अभी आपका स्वर्गवास हो गया। श्री गणेशमलजी के दस पुत्र एवं पुत्री हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं--श्री जोगीलालजी, श्री पारसमलजी, श्री अमरचन्दजी, श्री मदनलालजी, श्री सायरमलजी, श्री पुखराजजी, श्री जेठमलजी, [ 17 ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सम्पतराजजी, श्री मंगलचंदजी व श्री भूरमलजी / पुत्री का नाम लाड़कंवर बाई है। श्री गणेशमलजी ने अपने सभी पुत्रों को काम पर लगाया / वे साठ वर्ष की अवस्था में दिवंगत हो गए। सभी भाइयों का व्यवसाय अलग अलग है। सभी हिलमिलकर रहते हैं / सभी सम्पन्न धर्मनिष्ठ हैं। तीसरे भाई श्री अमरचन्दजी का देहान्त हो गया है। श्री सायरमलजी पांचवें नम्बर के भाई हैं और श्री जेठमलजी सातवें नम्बर के। यद्यपि श्री सायरमलजी पांचवें नम्बर के भाई हैं, फिर भी उनसे बड़े व छोटे सभी भाई उनको पिता के सदृश सम्मान देते हैं और वे स्वयं भी सभी भाइयों के साथ अत्यन्त वत्सलता व स्नेहपूर्ण व्यवहार रखते हैं। श्री सायरमलजी व श्री जेठमलजी में परस्पर बहुत अधिक प्रेम है। जो सायरमलजी हैं, वही जेठमलजी और जो जेठमलजी हैं, वही सायरमलजी। दोनों की जोड़ी बड़ी अनूठी। श्री जेठमलजी श्री सायरमलजी के बहुत बड़े सहयोगी व प्राज्ञाकारी भाई हैं / दोनों भाई धार्मिक व सामाजिक कामों में सदा सतत अभिरुचि रखने वाले हैं। समाज-सेवा, धार्मिक-उत्सव, दान आदि कार्यों में दोनों भाई सदा अग्रसर रहते हैं। आपने अपने पूज्य पिताजी की स्मृति में मेड़ता रोड में एक देशी औषधालय बनाया है जिसमें प्रतिमास सैकड़ों रोगी उपचार का लाभ प्राप्त करते हैं / नोखा में आपका एक कृषि फार्म भी है। आपके हृदय में जीव-दया के प्रति बहुत गहरी लगन है / यही कारण है कि आपने अपने कृषि फार्म के बाहर पशुओं के पानी पीने की व्यवस्था सदा के लिए बना रखी है। वि० सं० 2030 में उपप्रवर्तक पूज्य स्वामीजी श्री व्रजलालजी म. सा०, पं० र० श्री मधुकर मुनिजी म. सा. व मुनि श्री विनयकुमारजी (भीम) का वर्षावास नोखा में हुआ था। वर्षावास की स्मृति में श्री वर्धमान जन सेवा समिति का गठन किया गया। यह संस्था परमार्थ का काम कर रही है। आप इस संस्था के स्तम्भ सदस्य हैं और समय-समय पर अर्थ आदि का सहयोग देकर उक्त संस्था को सुदृढ़ बनाते रहते हैं। ___श्री सायरमलजी व श्री जेठमलजी व्यवसाय की दृष्टि से पृथक-पृथक क्षेत्रों में रहते हैं। फिर भी प्राप दोनों पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि में एक हैं / श्री सायरमलजी का व्यवसाय-क्षेत्र मद्रास है / प्रापकी कपड़े की दुकान है, फर्म का नाम हैचौरड़िया फैन्सी स्टोर। श्री जेठमलजी का व्यवसाय-क्षेत्र है-बैंगलोर / 'महावीर ड्रग हाउस' के नाम से अापकी एक अंग्रेजी दवाइयों की बहुत बड़ी दुकान है। दक्षिण भारत में अंग्रेजी दवाइयों के वितरण में इस दुकान का सबसे पहला नम्बर है। श्रीमान जेठमलजी बेंगलौर में रहते हैं। बेंगलौर में श्री जेठमलजी की बड़ी अच्छी प्रतिष्ठा है। पाप औषधि व्यावसायिक एसोसियेशन के जनरल सेक्रेट्री हैं / अखिल भारत औषधि व्यवसाय एसोसिएशन के प्राप सहमंत्री भी हैं / बंगलौर श्री संघ के ट्रस्टी हैं / बेंगलोर युवक जैन परिषद के अध्यक्ष हैं / बंगलौर सिटी स्थानक के उपाध्यक्ष हैं। श्री जेठमलजी के तीन पुत्र हैं और एक पुत्री / पुत्रों के नाम-श्री महावीरचन्द, श्री प्रेमचन्द, श्री अशोक कुमार / पुत्री का नाम है--स्नेहलता। सभी पुत्र ग्रेजुएट हैं--सुयोग्य हैं। श्री जेठमलजी के कार्यभार को सम्भालने वाले हैं। श्री राजमलजी का समस्त परिवार व श्री गणेशमलजी का समस्त परिवार प्राचार्य श्री जयमल जी महाराज की सम्प्रदाय का अनुयायी है और स्वर्गीय पूज्य गुरुदेवजी श्री हजारीमलजी म. सा. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान में विराजित उपप्रवर्तक पूज्य स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा०, युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. आदि पूज्य मुनिराजों का पूर्ण भक्त है। पूज्य गुरुदेव से सम्बन्धित ऐसा कोई प्रायोजन नहीं, जिसमें इन परिवारों के सदस्य उपस्थित न रहते हों। श्री सायरमलजी व श्री जेठमलजी तो सभी आयोजनों में सदा अग्रसर रहते हैं / दोनों भ्राताओं के हृदय में परम श्रद्धेय श्रमणसूर्य श्री मरुधरकेसरीजी म. के प्रति पूर्ण प्रास्था है। आगम-योजना के प्रारम्भ में ही आपने बड़े उत्साह के साथ एक सूत्र का सम्पूर्ण प्रकाशन-व्यय देने का वचन दिया था। तदनुसार आपके पूज्य पिताजी श्री गणेशमलजी व माताजी श्री सुन्दर बाई की पुण्य स्मृति में यह आगम प्रकाशित हो रहा है। भविष्य में भी पागमों के प्रकाशन तथा अन्य साहित्यिक कार्यो में आपका सहयोग इसी प्रकार मिलता रहेगा--इसी प्राशा के साथ / -मंत्री Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [प्रथम संस्करण से] आगम का महत्व जैन पागम साहित्य का प्राचीन भारतीय साहित्य में अपना एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है / वह स्थूल अक्षर-देह से ही विशाल व व्यापक नहीं है अपितु ज्ञान और विज्ञान का, न्याय और नीति का, आचार और विचार का, धर्म और दर्शन का, अध्यात्म और अनुभव का अनुपम एवं अक्षय कोष है। यदि हम भारतीय-चिन्तन में से कुछ क्षणों के लिए जैन भागम-साहित्य को पृथक् करने की कल्पना करें तो भारतीय-साहित्य की जो आध्यात्मिक गरिमा तथा दिव्य और भव्य ज्ञान की चमक-दमक है, वह ए प्रकार से धुंधली प्रतीत होगी और ऐसा परिज्ञात होगा कि हम बहुत बड़ी निधि से वंचित हो गये। वैदिक परम्परा में जो स्थान बेदों का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, पारसी धर्म में जो स्थान 'अवेस्ता' का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैन परम्परा में पागम साहित्य का है / वेद अनेक ऋषियों के विमल विचारों का संकलन है, वे उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं किन्तु जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक क्रमशः भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी और विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आगम की परिभाषा आगम शब्द की प्राचार्यों ने विभिन्न परिभाषाएँ की हैं। प्राचार्य मलय गिरि का अभिमत है कि जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो' वह पागम है। अन्य प्राचार्य का अभिमत हैजिससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो बह पागम है / भगवती अनुयोगद्वार और स्थानांग' में आगम शब्द शास्त्र के अर्थ में व्यवहत हआ है। प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनूमान, उपमान और पागम ये चार भेद हैं। पागम के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये हैं। उसमें 'महाभारत', 'रामायण' प्रभति ग्रन्थों को लौकिक प्रागम में गिना है और प्राचारांग, सूत्रकृतांग प्रभृति प्रागमों को लोकोत्तर पागम कहा गया है। जैन दृष्टि से जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है, वे जिन तीर्थंकर और सर्वज्ञ हैं, उनका तत्त्वचिन्तन, उपदेश और उनकी विमल-बाणी पागम है। उसमें वक्ता के साक्षात् दर्शन और वीतरागता के कारण दोष की किंचित् मात्र भी संभावना नहीं रहती और न पूर्वापर विरोध वा युक्तिबाध ही होता है। प्राचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है-"तप, नियम, ज्ञानरूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी 1. (क) आवश्यक सूत्र मलयगिरि वृत्ति / (ख)-नदी सूत्र वृत्ति / 2. आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्ध्यन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः-रत्नाकरावतारिका वृत्ति / 3. भगवती सूत्र 5 / 3 / 192 // 4. अनुयोगद्वार सूत्र 5. स्थानाङ्ग सूत्र 338-228 6. (क) अनुयोग द्वार सूत्र-४२, (ख)–नन्दीसूत्र सूत्र-४०-४१, (ग)-वृहत्कल्प भाष्य गाथा-८८ [21] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली भगवान् भव्य-प्रात्मानों के विबोध के लिये ज्ञान-कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट में उन सभो कुसुमों को झेलकर प्रवचन-माला गूंथते हैं।' तीर्थंकर भगवान केवल अर्थ रूप ही उपदेश देते हैं और गणधर उसे सूत्रबद्ध अथवा ग्रन्थबद्ध करते हैं। 2 अर्थात्मक ग्रन्थ के प्रणेता तीर्थंकर हैं। प्राचार्य देववाचक ने इसीलिये प्रागमों को तीर्थंकर-प्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है उसका मूल कारण गणधरकृत होने से नहीं, किन्तु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है / गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं किन्तु अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते है। प्राचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीर्थकर के सन्मूख यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्व क्या है ? उत्तर में तीर्थकर "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा ध्रुवेइ वा" इस त्रिपदी का प्रवचन करते हैं / त्रिपदी के प्राधार पर जिस आगम साहित्य का निर्माण होता है, वह पागम साहित्य अंगप्रविष्ट के रूप में विश्रुत होता है घोर अवशेष जितनी भी रचनाएँ हैं, वे सभी अंगबाह्य हैं।' द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसीलिये वह गणधरकृत भी है / यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएँ अंग नहीं होती, त्रिपदी के अभाव में मुक्त व्याकरण से जो रचनाएँ की जाती हैं भले ही उन रचनाओं के निर्माता गणधर हों अथवा स्थविर हों वे अंगबाह्य ही कहलायेंगी। स्थविर के चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी ये दो भेद किये हैं, वे सूत्र और अर्थ की दृष्टि से अंग साहित्य के पूर्ण ज्ञाता होते हैं / वे जो कुछ भी रचना करते हैं या कहते हैं उसमें किञ्चित् मात्र भी विरोध नहीं होता। प्राचार्य संघदासगणी का अभिमत है कि जो बात तीर्थंकर कह सकते हैं उसको श्रुतकेवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्षरूप से जानते हैं, तो श्रुतकेवली श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं / उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं कि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं / अंगप्रविष्टः अंगबाह्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि अंगप्रविष्ट श्रुत वह है जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में बनाया हुआ हो, गणधरों के द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर तीर्थंकर के द्वारा समाधान किया हुआ हो और अंगबाह्य-श्रुत वह है जो स्थविरकृत हो और गणधरों के जिज्ञासा प्रस्तुत किये बिना ही तीर्थकर के द्वारा प्रतिपादित हो। समवायांग और अनुयोगद्वार में केवल द्वादशांगी का निरूपण हुआ है, पर देववाचक ने नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद किये हैं। साथ ही अंगबाह्य के प्रावश्यक और प्रावश्यक-व्यतिरिक्त, 1. आवश्यक नियुक्ति गाथा 58, 90 / 2. (क)-अावश्यक नियुक्ति गाथा-१९२। (ख) धवला भाग-१-पृष्ठ 64 से 72 / 3. नन्दी सूत्र-४० 4. (क)-विशेषावश्यक भाष्य गा० 558 (ख) वृहत्कल्पभाष्य--१४४ (ग) तत्त्वार्थभाष्य 1-20 / (घ)-सर्वार्थसिद्धि-१-२० / 5. पावश्यक मलयगिरि वत्ति पत्र 48 / 6. बृहत्कल्पभाष्य गाथा 963 से 966 / 7. बहत्कल्पभाष्य गाथा 132 / 8. गणहर-थेरकयं वा आएसा मुक्क-घागरणामो वा। घव-चलविवेसमो वा अंगाणं गेसू नाणतं / / -विशेषावश्यक भाष्य गाथा 552 / [22] For Private Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक और उत्कालिक इन पागम साहित्य को शाखा व प्रशाखाओं का भी शन्दचित्र प्रस्तुत किया हैं।' उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में अंग-उपांग-मूल और छेद के रूप में प्रागमों का विभाग किया गया है। विशेष जिज्ञासुत्रों को मेरे द्वारा लिखित 'जैन आगम साहित्यः मनन और मीमांसा' ग्रन्थ अवलोकनार्थ नम्र सूचना है। ___ चाहे श्वेताम्बर परम्परा हो और चाहे दिगम्बर परम्परा हो, अंगप्रविष्ट अागम साहित्य में द्वादशांगी का निरूपण किया है / उनके नाम इस प्रकार हैं१. प्राचारांग 7. उपासकदशा 2. सूत्रकृतांग 8. अन्तकृद्दशा 3. स्थानांग 9. अनुत्तरोपपातिकदशा 4. समवायांम 10. प्रश्नव्याकरण 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति 11. विपाक 6. ज्ञाता धर्मकथा 12. दृष्टिवाद दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से अंगसाहित्य विच्छिन्न हो चुका है, केवल दृष्टिवाद का कुछ अंम अवशेष है जो षट्खण्डागम के रूप में आज भी विद्यमान है। पर श्वेताम्बर दृष्टि से पूर्व साहित्य विच्छिन्न हो गया है, जो दृष्टिवाद का एक विभाग था। पूर्व साहित्य में से नियूंढ पागम प्राज भी विद्यमान हैं / जैसे प्राचारचूला२, दशवकालिक 3, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन प्रादि / दशवकालिक के निर्यहक प्राचार्य शय्यम्भव है और शेष आगमों के निर्वहक भद्रबाहु स्वामी हैं जो श्रुतकेवली के रूप में विश्रुत हैं। प्रागम विच्छिन्न होने का मूल कारण भगवान् महावीर के पश्चात् होने वाले दुष्काल आदि रहे हैं, क्योंकि उस समय पागम लेखन की परम्परा नहीं थी। आगम लेखन को दोषरूप माना जाता था। वर्तमान में जो आगम पुस्तक रूप में उपलब्ध हो रहे हैं, उसका सम्पूर्ण श्रेय देवद्धिगणी क्षमाश्रमण को है, जिनका समय वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी है। आचारांग का महत्त्व __अंग साहित्य में आचारांग का सर्वप्रथम स्थान है। क्योंकि संघ-व्यवस्था में सर्वप्रथम प्राचार की व्यवस्था प्रावश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। श्रमण-जीवन की साधना का जो मार्मिक विवेचन प्राचारांग में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। प्राचारांग नियुक्ति में प्राचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट कहा है-मुक्ति का अव्याबाध सुख सम्प्राप्त करने का मूल प्राचार है। अंगों का सारतत्त्व प्राचार में रहा हुआ है। मोक्ष का साक्षात् कारण होने से प्राचार सम्पूर्ण प्रवचन की प्राधारशिला है। एक जिज्ञासा प्रस्तुत की गई, अंग सूत्रों का सार प्राचार है तो प्राचार का सार क्या है ? प्राचार्य ने समाधान की भाषा में कहा---प्राचार का सार अनुयोगार्थ है, अनुयोग का सार प्ररूपणा है। प्ररूपणा का 1. नन्दीसूत्र सूत्र-९ से 119 / 2. प्राचारांग वृत्ति-२९० / 3. दशवकालिक नियुक्ति गाथा 16 से 18 / 4. (क) निशीथभाष्य-६५०० (ख) पंचकल्पचूर्णी पत्र-१ / 5. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति गाथा- 1 पत्र-१ / 6. पंचकल्पभाष्य गाथा-११ / 7. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति गाथा-१ पत्र-१ / 8. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 69 / [23] For Private & Pelsondl Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार सम्यक् चारित्र और सम्यक् चारित्र का सार निर्वाण है; निर्वाण का सार अव्याबाध सुख है / ' इस प्रकार प्राचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्य द्वार है। उससे प्रात्मा पर लगा हुआ अनन्त काल का कर्म-मल छंट जाता है। तीर्थंकर प्रभ तीर्थ-प्रवर्तन के प्रारम्भ में प्राचारांग के अर्थ का प्ररूपण करते हैं और गणधर उसी क्रम से सूत्र की संरचना करते हैं। अतः अतीत काल में प्रस्तुत प्रागम का अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था। आचारांग का अध्ययन किये बिना सूत्रकृतांग प्रभति पागम साहित्य का अध्ययन नहीं किया जा सकता था। जिनदास महत्तर ने लिखा है--पाचारांग का अध्ययन करने के बाद ही धर्मकथानुयोग; मणितानुयोग, और दव्यानुयोग पढ़ना चाहिए। यदि कोई साधक आचारांग को बिना पढ़े अन्य भागमसाहित्य का अध्ययन करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। व्यवहारभाष्य में वर्णन है कि प्राचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित घमण को उपस्थापना की जाती थी और उसके अध्ययन से ही श्रमण भिक्षा लाने के लिए योग्य बनता था। प्राचारांग का अध्ययन किये बिना कोई भी श्रमण प्राचार्य जैसे गौरव-गरिमायुक्त पद को प्राप्त नहीं कर सकता था। गणि बनने के लिए प्राचारधर होना आवश्यक है, प्राचारांग को जैन दर्शन का वेद माना है। भद्रबाह आदि ने आचारांग के महत्त्व के सम्बन्ध में जो अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं वे प्राचारांग की गौरव-गरिमा का दिग्दर्शन हैं। आचारांग को प्राथमिकता प्राचीन प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट है कि द्वादशांगी में प्राचारांग प्रथम है, पर वह रचना की दृष्टि से प्रथम है या स्थापना की दृष्टि से ? इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। नन्दी चूर्णी में प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर ने सूचित किया है कि जब तीर्थंकर भगवान् तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उस समय वे पूर्वगत सूत्र का अर्थ सर्वप्रथम करते है / एतदर्थ ही वह पूर्व कहलाता है। किन्तु जब सूत्र की रचना करते हैं तो 'प्राचारांग-सूत्रकृतांग' आदि प्रागमों की रचना करते हैं और उसी तरह वे स्थापना भी करते हैं। अत: अर्थ की दृष्टि की पूर्व सर्वप्रथम हैं, किन्तु सूत्र-रचना और स्थापना की दृष्टि से प्राचारांग सर्वप्रथम है। इसका समर्थन प्राचार्य हरिभद्र तथा आचार्य अभयदेव ने भी किया है / / _आचारांग पूर्णी में लिखा है कि जितने भी तीर्थकर होते हैं वे प्राचारांग का अर्थ सर्वप्रथम कहते 1. अंगाणं किं सारो ? पायारो तस्स हवइ कि सारो? अणुप्रोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो॥ -सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निब्वाणं / निवाणस्स उ सारों अव्वाबाहं जिणाविति // --आचारांग नियुक्ति-मा० 16 / 17 2. निशीथ चूर्णी भाग 4 पृष्ठ 252 / 3. निशीथ चूर्णी भाग 4 पृष्ठ 252 / 4. निशीथ 16-1 5. व्यवहार भाष्य 3 / 174-175 / 6. पायारम्मि अहोए जं नामओ होइ समणधम्मो उ / तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढम गणिट्ठाणं / / -~~प्राचारांग नियुक्ति माथा० 10 7. आचारांग नियुक्ति गाथा० 8 8. (क)-नन्दी सूत्र वृत्ति पृष्ठ 88 (ख)-नन्दी सूत्र चूर्णी पृष्ठ 75 9. समवायांग वृत्ति पृष्ठ 130-131 [24] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं और उसके बाद ग्यारह अंगों का अर्थ कहते हैं। और उसी क्रम से गणधर भी सूत्र की रचना कहते हैं।" आचार्य शीलाङ्क का भी यही अभिमत है कि तीर्थकर प्राचारांग के अर्थ का प्ररूपण ही सर्वप्रथम करते हैं। और गणधर भी उसी क्रम से स्थापना करते हैं। समवायांगवृत्ति में प्राचार्य अभयदेव ने यह भी लिखा है कि प्राचारांग-सूत्र स्थापना की दृष्टि से प्रथम है किन्तु रचना की दृष्टि से वह बारहवां हैं। पूर्व साहित्य से अंग निर्यढ़ हैं इस दृष्टि से प्राचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम माना है पर रचनाक्रम की दृष्टि से नहीं। प्राचार्य हेमचन्द्र और गुणचन्द्र ने, जिन्होंने भगवान महावीर के जीवन की पवित्र गाथाएँ अंकित की हैं, उन्होंने लिखा है कि भगवान महावीर ने गौतम प्रभूति गणघरों को सर्वप्रथम त्रिपदी का ज्ञान प्रदान किया। और उन्होंने त्रिपदी से प्रथम चौदह पूर्वो की रचना को और उस के बाद द्वादशांगी की रचना की। यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि अंगों से पहले पूर्वो की रचना हुयी तो द्वादशांगी की रचना में प्राचारांग का प्रथम स्थान किस प्रकार है ? समाधान है; पूर्वो की रचना प्रथम होने पर भी आचारांग का द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान मानने पर बाधा नहीं पाती है। कारण कि बारहवां अंग दृष्टिवाद है / दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग, चूलिका ये पाँच विभाग हैं। उसमें से एक विभाग पूर्व है। सर्वप्रथम गणधरों ने पूर्वो की रचना की, पर बारहवें अंग दुष्टिवाद का बहुत बड़े हिस्से का ग्रन्थन तो प्राचारांग प्रादि के क्रम से बारहवें स्थाग पर ही हुआ है। ऐसा कहीं पर भी उल्लेख नहीं है कि दृष्टिवाद का ग्रथन सर्वप्रथम किया हो, इसलिये नियुक्तिकार का यह कथन कि प्राचारांग रचना व स्थापना की दृष्टि से प्रथम है, युक्तियुक्त प्रतीत होता है। आचारांग की महत्ता का प्रतिपादन करते हए चणिकार और वत्तिकार ने लिखा है कि प्रतीत काल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सभी ने सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश दिया, वर्तमान में जो तीर्थंकर महाविदेह क्षेत्र में विराजित हैं वे भी सर्वप्रथम प्राचारांग का ही उपदेश देते हैं और भविष्यकाल में जितने भी तीर्थकर होंगे वे भी सर्वप्रथम आवारांग का ही उपदेश देंगे। आचारांग को सर्वप्रथम स्थान देने का कारण यह है कि संघ-व्यवस्था की दृष्टि से प्राचार-संहिता की सर्वप्रथम प्रावश्यकता होती है। जब तक आचार-संहिता की स्पष्ट रूपरेखा न हो वहाँ तक सम्यक प्रकार से प्राचार का पालन नहीं किया जा सकता। अतः किसी का भी प्राचारांग की प्राथमिकता के सम्बन्ध में विरोध नहीं है। यहाँ तक कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं ने अंग साहित्य में आचारांग को सर्वप्रथम स्थान दिया है। प्राचारांग में विचारों के ऐसे मोती पिरोये गये हैं जो प्रबुद्ध पाठकों के दिल लुभाते हैं, मन को मोहते हैं। यही कारण है कि संक्षिप्त शैली में लिखित सूत्रों का अर्थ रूपी शरीर 1. सव्वे तित्थगरा वि आयारस्स प्रत्थं पढम प्राइक्खन्ति, ततो सेसगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं ताएच्चेब परिवाडीए गणहरा दि सुतं गंथंति / इयाणि पढममंगति किं निमित्तं पायारो पढमं ठवियो। --प्राचारांग चूर्णी 2. आचारांग वृत्ति, पृष्ठ 6 / 3. समवायांग वृत्ति, पृष्ठ 101 / 4. त्रिषष्ठि० 1015165 5. महावीरचरियं 8 / 257 श्री गुणचन्द्राचार्य / 6. अभिधान चिन्तामणि 160 / 7. प्राचारांग चूर्णी, पृष्ठ 3 8. प्राचारांग शीलांक वृत्ति, पृष्ठ 6 / [ 25 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट् है, जब हम आचारांग के व्याख्या-साहित्य को पढते हैं तो स्पष्ट परिज्ञात होता है कि सूत्रीय शन्दबिन्दु में अर्थ-सिन्धु समाया हुआ है / एक-एक सूत्र पर, और एक-एक शब्द पर विस्तार से ऊहापोह किया गया है / इतना चिन्तन किया गया है, कि ज्ञान की निर्मल गंगा बहती हुई प्रतीत होती है। श्रमणाचार का सूक्ष्म विवेचन और इतना स्पष्ट चित्र प्रन्यत्र दुर्लभ है / कवि ने कहा है “यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्" प्राध्यात्मिक साधना के सम्बन्ध में जो यहाँ है वह अन्यत्र भी है, और जो यहां नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है। आचारांग में बाह्य और आभ्यन्तर इन दोनों प्रकार के प्राचार का गहराई से विश्लेषण किया गया है। प्राचारांग का विषय पूर्व पंक्तियों में यह बताया है कि प्राचारांग का मुख्य प्रतिपाद्य विषय “प्राचार" है। समवायांग' और नन्दीसूत्र में प्राचारांग में आये हुए विषय का संक्षेप में निरूपण इस प्रकार है आचार-गोचर, विनय, वैनयिक, (विनय का फल) उत्थितासन,णिषण्णासन और शयितासन, गमन, चंक्रमण, प्रशन प्रादि की मात्रा, स्वाध्याय प्रभृति में योग नियुञ्जन, भाषा समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्तपान, उद्गम-उत्थान, एषणा प्रभृति को शुद्धि, शुद्धाशुद्ध के ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान अादि / आचारांग-नियुक्ति में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों का सार संक्षेप में इस प्रकार है। (1) जीव-संयम, जीवों के अस्तित्व का प्रतिपादन और उसकी हिंसा का परित्याग / (2) किन कार्यों के करने से जीव कर्मों से प्राबद्ध होता है और किस प्रकार की साधना करने से जीब कर्मों से मुक्त होता है / (3) श्रमण को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग समुपस्थित होने पर सदा समभाव में रहकर उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए। (4) दूसरे साधकों के पास अणिमा, गणिमा, लघिमा आदि लब्धियों के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को निहार कर साधक सम्यक्त्व से विचलित न हो। (5) इस विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे निस्सार हैं, केवल सम्यक्त्व रत्न ही सार रूप है। उसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करें। (6) सद्गुणों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रमणों को किसी भी पदार्थ में प्रासक्त बन कर नहीं रहना चाहिये। (7) संयम-साधना करते समय यदि मोह-जन्य उपसर्ग उपस्थित हों तो उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिये / पर साधना से विचलित नहीं होना चाहिये। (8) सम्पूर्ण गुणों से युक्त अन्तक्रिया की सम्यक् प्रकार से प्राराधना करनी चाहिये / (9) जो उत्कृष्ट-संयम-साधना, तपःपाराधना भगवान् महावीर ने की, उसका प्रतिपादन किया गया है। प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं / चार चूल किानों से युक्त द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सौलह अध्ययन हैं, इस तरह कुल पच्चीस अध्ययन हैं / आचारांग नियुक्ति में जो अध्ययनों का क्रम निर्दिष्ट 1. समवायांग प्रकीर्णक, समवाय सूत्र 89 / 2. नन्दीसूत्र सूत्र 80 / 3. आचारांग नियुक्ति गाथा 33, 34 / [26] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह समवायांग के अध्ययन-क्रम से पृथक्ता लिये हुए हैं / तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनों का क्रम इस प्रकार हैआचारांग नियुक्ति समवायांग' 1. सत्थपरिणा 1. सत्थपरिणा 2. लोगविजय 2. लोकविजय 3. सीमोसणिज्ज 3. सीयोसणिज्ज 4. सम्मत्त 4. सम्मत्त 5. लोगसार 5. पावंती 6. धुत 6. धुत 7. महापरिण्णा 7. विमोहायण 8. विमोक्ख 8. उवहाणसुय 9. उवहाणसुय 9. महापरिणा प्राचार्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण में समवायांग के क्रम का ही अनुसरण किया है। पांचवें अध्ययन के दो नाम प्राप्त होते हैं लोकसार और पार्वती / प्राचारांग-वृत्ति से यह परिज्ञात होता है कि उन्हें ये दोनों नाम मान्य थे। प्राचारांग नियुक्ति में महापरिक्षा अध्ययन को सातवां अध्ययन माना है / और चूर्णिकार तथा वृत्तिकार इन दोनों ने भी प्राचारांग नियुक्ति के मत को मान्य किया है। परन्तु स्थानांग समवायांग और प्रशमरतिप्रकरण' में महापरिज्ञा अध्ययन को सातवाँ न मानकर नवम अध्ययन माना है। अावश्यकनियुक्ति तथा प्रभावकचरित प्रादि ग्रन्थों के आधार से यह स्पष्ट है कि वजस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से ही प्राकाशगामिनीविद्या प्राप्त की थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि वजस्वामी के समय तक महापरिज्ञा अध्ययन विद्यमान था। किन्तु प्राचारांग वत्तिकार के समय महापरिज्ञा अध्ययन नहीं था। विज्ञों का अभिमत है कि चाणकार के समय महापरिज्ञा अध्ययन अवश्य रहा होगा पर उसके पठन-पाठन का क्रम बन्द कर दिया गया होगा। प्राचारांग निर्यक्ति में प्राठवें अध्ययन का नाम "विमोक्खो" है तो समायाँग में उसका नाम "विमोहायतन" है। प्राचारांग में चार स्थलों पर "विमोहायतन" शब्द व्यवहृत हुआ है। जिससे प्रस्तुत अध्ययन का नाम "विमोहायतन' रखा है या विमोक्ष की चर्चा होने से विमोक्ष कहा गया हो। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूलायें हैं उनमें प्रथम और द्वितीय चूला में सात-सात अध्ययन हैं, तृतीय और चतुर्थ चला में एक-एक अध्ययन हैं। चणिकार की दृष्टि से रुवसत्तिक्कय यह द्वितीय चूला का चतुर्थ अध्ययन है; और सद्दसत्तिक्कय यह पांचवां अध्ययन है। आचारांग सूत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में और प्राचारांग की शीलांकवत्ति में तथा प्रशमरति ग्रन्थ में सद्दसत्तिक्कय के पश्चात् रुवसत्तिक्कय / इस प्रकार का क्रम सम्प्राप्त होता है। 1. आचारांग नियुक्ति-गाथा-३१, 32 पृष्ठ 9 2. समवायांग सूत्र प्रकीर्णक, समवाय सूत्र--८९ 3. प्राचारांग वत्ति पृष्ठ 196 / 4. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 31-30 पृष्ठ 9 / 5. प्राचारांग चूर्णी। 6. स्थानांग सूत्र 9 / 7. समवायांग सूत्र 89 / 8. प्रशमरति प्रकरण 114-117 / [27] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार, धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ति तत्त्वार्थराजतिक आदि दिगम्बर परम्परा के मननीय ग्रन्थों में प्राचारांग का जो परिचय प्रदान किया गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग में मन, वचन, काया, भिक्षा, ईर्या, उत्सर्ग, शयनासन और विनय इन आठ प्रकार की शुद्धियों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पूर्ण रूप से यह वर्णन प्राप्त होता है। श्राचारांग का पदप्रमाण प्राचारांगनियुक्ति' हारिभद्रीया नन्दीवृत्ति नन्दीसूत्रचूणि और आचार्य अभयदेव को समवायांगवृत्ति में प्राचारांग सूत्र का परिमाण 18 हजार पद निर्दिष्ट है। पर, प्रश्न यह है कि पद क्या है ? जिनभद्रगणो क्षमाश्रमण ने पद के स्वरूप पर चिन्तन करते हए लिखा है कि पद अर्थ का वाचक और द्योतक है / बैठना, बोलना, अश्व वृक्ष आदि पद वाचक कहलाते हैं। प्र, परि, च, वा आदि अव्यय पदों को द्योतक कहा जाता है / पद के नामिक, नेपातिक, औपसगिक, आख्यातिक और मिश्र प्रादि प्रकार हैं / अनुयोगद्वार वृत्ति' दशवकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णी दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति आचारांग शीलांक वृत्ति में उदाहरण सहित पद का स्वरूप प्रतिपादित किया है। प्राचार्य देवेन्द्रसूरि ने० पद की व्याख्या करते हुए लिखा है-'अर्थसमाप्ति का नाम पद है / ' पर प्राचारांग आदि में अठारह हजार पद बताये गए हैं / किन्तु पद के परिमाण के सम्बन्ध में परम्परा का अभाव होने से पद का सही स्वरूप जानना कठिन है। प्राचीन टीकाकारों ने भी स्पष्ट रूप से कोई समाधान नहीं किया है। जयधवला में प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद, ये तीन प्रकार बताये हैं। पाठ अक्षरों वाला प्रमाण पद है। चार प्रमाण पदों का एक श्लोक या गाथा होती है। जितने अक्षरों से अर्थ का बोध हो वह अर्थपद है / 16348307888 अक्षरों वाला मध्यम पद कहलाता है / जयधवला का अनुसरण ही घवला, मोम्मटसार, अंगपण्णत्ती में हुआ है / प्रस्तुत दृष्टि से प्राचारांग के अठारह हजार पदों के अक्षरों की संख्या की परिगणना 294 269 541 198 4000 होती है / और अठारह हजार पदों के श्लोकों की संख्या 919 592 2311 87000 बताई गई है। यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पद-परिमाण प्रतिपादित किया गया है उस में कालक्रम की दृष्टि से बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है। वर्तमान में जो प्राचारांग उपलब्ध है उसमें कितनी ही प्रतियों में दो हजार छ: सौ चमालीस श्लोक प्राप्त होते हैं तो कितनी ही प्रतियों में दो हजार चार सौ चौपन, तो कितनी प्रतियों में दो हजार पांच सौ चौपन भी मिलते हैं / यदि हम तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के उजाले की भाँति यह ज्ञात हुये बिना नहीं रहेगा कि जैन आगम-साहित्य के साथ ही यह बात नहीं हुयी है किन्तु बौद्ध त्रिपिटिक-मझिम निकाय, दीघनिकाय, संयुक्त निकाय में जो सूत्र संख्या बताई गई है वह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। वही बात वैदिक-परम्परा मान्य ब्राह्मण, पारण्यक, उपनिषद् और पुराण-साहित्य के 1. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 11 / 2. हारिभद्रीया नन्दीवृत्ति पृष्ठ 76 / 3. नन्दीसूत्र चूर्णी पृष्ठ 32 / 4. समवायांग वृत्ति पृष्ठ 108 / 5. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 1003, पृष्ठ 48.67 / अनूयोगद्वार वत्ति पृष्ठ 243-244 / दशकालिक अगस्त्यसिंह ची, पृष्ठ 9 / 8. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति 111 9. आचारांग शीलांकवृत्ति 11 10. कर्मग्रन्थ-प्रथम कर्मग्रन्थ गाथा 7 / 1281 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध में भी कही जा सकती है ! मैं चाहूँगा कि आगम के मूर्धन्य मनीषी गण इस सम्बन्ध में प्रमाण पुरस्सर तर्कयुक्त समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करें। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि समवायांग और नन्दी सत्र में प्राचारांग की जो अठारह हजार पद-संख्या बताई है वह केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध के नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों की है, यह बात प्राचार्य भद्रबाहु और अभयदेवसरि ने पूर्ण रूप से स्पष्ट की है। यह हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि महापरिज्ञा अध्ययन चाणकार के पश्चात विच्छिन्न हो गया है। यह सत्य है कि प्राचार्य शीलांक के पहले उसका विच्छेद हा है। ऐसी अनथति है कि महापरिज्ञा प्रध्ययन में ऐसे अनेक चामत्कारिक मन्त्र आदि विद्य थीं जिसके कारण गम्भीर पात्र के प्रभाव में उसका पठन-पाठन बन्द कर दिया गया। पर, श्रति के पीछे ऐतिहासिक प्रबल-प्रमाण का प्रभाव है। नियुक्तिकार का ऐसा अभिमत है कि प्राच चला के सातों अध्ययन महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से निर्यढ किये गये हैं। इससे यह स्पष्ट है कि महापरिज्ञा में जिन विषयों पर चिन्तन किया गया उन्हीं विषयों पर साप्तों अध्ययनों में चिन्तन-नियूंढ किया गया हो / मनीषियों का ऐसा भी मानना है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सातों अध्ययन पठन-पाठन में व्यवहृत होने लगे तब महापरिज्ञा अध्ययन का पठन-पाठन बन्द हो गया होगा अथवा उसके अध्ययन की प्रावश्यकता ही अनुभव नहीं की जाने लगी होगी। जिससे वह विच्छन्न हुआ / आचारांग के नाम प्राचारांग नियुक्ति में आचारांग के दस पर्यायवाची नाम प्राप्त होते हैं...-- 1. आयार-यह आचरणीय का प्रतिपादन करने वाला है, एतदर्थ प्राचार है। 2. आचाल-यह निविड बंध को आचालित (चलित) करता है, अतः प्राचाल है। 3. आगाल-चेतना को सम धरातल में अवस्थित करता है, अत प्रागाल है। 4. आगर---यह आत्मिक-शुद्धि के रत्नों को पैदा करने वाला है, अतः आगर है / 5. आसास-यह संत्रस्त चेतना को प्राश्वासन प्रदान करने में सक्षम है, अत: आश्वास है / 6. आयरिस-इसमें इतिकर्तव्यता का स्वरूप देख सकते हैं, अतः यह प्रादर्श है। 7. अङ्ग-यह अन्तस्तल में अहिंसा आदि जो भाव रहे हुए हैं, उनको व्यक्त करता है, अत: अंग है। 8. आइण्ण - प्रस्तुत प्रागम में प्राचीर्ण धर्म का निरूपण किया गया है, अत: यह प्राचीर्ण है। 9. आजाइ-इससे ज्ञान प्रादि प्राचारों की प्रसूति होती है, अतः प्राजाति है। 10. आमोक्ख-बन्धन-मुक्ति का यह साधन है, अतः प्रामोक्ष है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने लिखा है कि शिष्यों के अतुग्रहार्थ श्रमणाचार के गुरुतम रहस्यों को स्पष्ट करने के लिये प्राचारांग की चूलाओं का प्राचार में से नि!हण किया गया है। किस-किस अध्ययन को कहाँ-कहां से नियूंढ किया गया है उसका उल्लेख आचारांग चूर्णी में भी पोर आचारांग वृत्ति में भी प्राप्त होता है / वह तालिका इस प्रकार है-- 1. प्राचारांग नियुक्ति गाथा-२९० 2. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 7 / 3. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 7 से 10 तक 4. आचारांग चूर्णी सूत्र 87, 88, 89, 240, 162, 196, 102 5. प्राचारांग वृत्ति पृष्ठ 319 से 320 तक / [291 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि' हण-स्थल आचारांग अध्ययन उद्देशक नियूढ अध्ययन आचार चूला अध्ययन 1, 2, 5, 6,7 1,2,5,6,7 Sx प्रत्याख्यान पूर्व के तृतीय वस्तु का प्राचार नामक बीसवाँ प्राभूत / प्राचार-प्रकल्प (निशीथ) प्राचारांग नियुक्ति में केवल निर्युहण स्थल के अध्ययन और उद्देशकों का संकेत किया है। कहींकहीं पर चूर्णीकार' और वृत्तिकार' ने नि!हण सूत्रों का भी संकेत किया है / नियुक्ति, चणि और वृत्ति में जिन निर्देशों का सूचन किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि प्राचारचूला पाचारांग से उद्धृत नहीं है अपितु प्राचारांग के अति संक्षिप्त पाठ का विस्तार पूर्वक वर्णन है। प्रस्तुत तथ्य की पुष्टि प्राचार से भी होती है। आचाराग्र में जो अग्र शब्द आया है वह वहाँ पर उपकाराम के अर्थ में है। प्राचारांग चूर्णी में उपकाराग्र का अर्थ पूर्वोक्त का विस्तार और अनुक्त का प्रतिपादन करने वाला होता है। प्राचारान में प्राचारांग के जिस अर्थ का प्रतिपादन है, उस अर्थ का उसमें विस्तार तो है ही, साथ ही उसमें अप्रतिपादित अर्थ का भी प्रतिपादन किया गया है। इसीलिए उसको प्रचार में प्रथम स्थान दिया गया है। आचारांग के रचयिता आचारांग के प्रथम वाक्य से ही यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर महावीर थे और सूत्र के रचयिता पंचम गणधर सुधर्मा / यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भगवान् अर्थ रूप में जब देशना प्रदान करते हैं तो प्रत्येक गणधर अपनी भाषा में सूत्रों का निर्माण करते हैं। भगवान् महावीर के ग्यारह मणधर थे और नौ गण थे / ग्यारह गणधरों में पाठवें और नौवें तथा दशवें और ग्यारहवें गणधरों की वाचनायें सम्मिलित थी. जिस के कारण नौ गण कहलाये। भगवान महावीर के समय इन्द्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर शेष गणधरों का निर्वाण हो चुका था। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। जिसके कारण वर्तमान में जो अंगसाहित्य उपलब्ध है वह सुधर्मा स्वामी की देन है / प्राचारांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं / प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम प्राचार या ब्रह्मचर्य तथा नव ब्रह्मचर्य ये नाम उपलब्ध होते हैं / ब्रह्मचर्य नाम तो है हो ! किन्तु नौ अध्ययन होने से नव ब्रह्मचर्य के नाम से भो वह प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रसिद्ध है / विज्ञों की यह स्पष्ट मान्यता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध सुधर्मा स्वामी द्वारा . रचित ही है किन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचयिता के सम्बन्ध में उनका कहना है कि वह स्थविरकृत है। 1. जैन अागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृष्ठ 52 टिप्पण 1 2. जैन पागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृष्ठ 52 टिप्पण 2 3. आचारांग नियुक्ति गाथा 286 4. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 287 [30] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर का अर्थ चूर्णिकार ने गणधर किया है और प्राचार्य शीलांक ने चतुर्दशपूर्वविद् किया है ! किन्तु स्थविर का नाम उल्लिखित नहीं है / यह माना जाता है प्रथम श्रुतस्कन्ध के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए भद्रबाहु स्वामी ने प्राचारांग का अर्थ प्राचाराग्र में प्रविभक्त किया। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि पांचों चूलाओं के निर्माता एक ही व्यक्ति हैं या अलग-अलग व्यक्ति हैं ? क्योंकि प्राचारांग निर्यक्ति में स्थविर शब्द का प्रयोग बहुवचन में हम है जिससे यह ज्ञात होता है कि उसके रचयिता अनेक व्यक्ति होने चाहिये / समाधान है कि 'स्थविर' शब्द का बहुवचन में जो प्रयोग हुमा है वह सम्मान का प्रतीक है। पांचों की चलाओं के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। आचारांग चणि में वर्णन है कि स्थ लिभद्र की बहन साध्वी यक्षा महाविदेह-क्षेत्र में भगवान सीमंधर स्वामी के दर्शनार्थ गयी थीं। लौटते समय भगवान ने उसे भावना और विमुक्ति ये दो अध्ययन दिये। आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में यक्षा साध्वी के प्रसंग का चित्रण करते हुए लिखा है कि भगवान् सीमंधर ने भावना और विमुक्ति, रतिवाक्या (रतिकल्प) और विविक्तचर्या के चार अध्ययन प्रदान किये / संघ ने दो अध्ययन प्राचारांग की तीसरी और चौथी चूलिका के रूप में और अन्तिम दो अध्ययन दशवकालिक चूलिका के रूप में स्थापित किये / आवश्यक चूणि में दो अध्ययनों का वर्णन है---तो परिशिष्टपर्व में चार अध्ययनों का उल्लेख है। आचार्य हेमचन्द्र ने दो अध्ययनों का समर्थन किस आधार से किया है ? प्राचारांग-नियुक्ति और दशवकालिक-नियुक्ति में प्रस्तुत घटना का कोई संकेत नहीं है। फिर वह आवश्यक चूणि में किस प्रकार आ गयी यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है। कितने ही निष्ठावान् विज्ञों का अभिमत है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचयिता गणधर सुधर्मा ही हैं क्योंकि समवायांग और नन्दी में प्राचारांग का परिचय है / उससे यह स्पष्ट है कि वह परिशिष्ट के रूप में बाद में जोड़ा हुअा नहीं है। नियुक्तिकार ने जो प्राचारांग का पद-परिमाण बताया है वह केवल प्रथम श्रतस्कन्ध का है। पाँच चूलाओं सहित प्राचारांग को पद संख्या बहुत अधिक है। नियुक्तिकार के प्रस्तुत कथन का समर्थन नन्दी चूणि और समवायांग वृत्ति में किया गया है / पर एक ज्वलन्त प्रश्न यह है कि प्राचारांग के समान अन्य प्राममों में भी दो श्रुतस्कन्ध हैं पर उन आगमों में प्रथम श्रुतस्कन्ध की और द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पद-संख्या कहीं पर भी अलग-अलग नहीं बतायी है / केवल प्राचाराग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का पदपरिमाण किस आधार से दिया है ? इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार व चूणिकार तथा वृत्तिकार मौन हैं। धवला और अंगपछणत्ति जो दिगम्बर परम्परा के माननीय-ग्रन्थ है, इनमें आचारांग की पद-संख्या भी श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह अठारह हजार बतायी है। उन्होंने जिन विषयों का निरूपण किया है वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रतिपादित विषयों के साथ पूर्ण रूप से मिलते है। समवायांग और नन्दी में, दृष्टिवाद में चौदह पूर्वो में चार पूर्वो के अतिरिक्त किसी भी अंग की चलिकाएँ नहीं बतायी हैं। जबकि प्रत्येक अग के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक, पद और अक्षरों तक की संख्या का निरूपण है। वहाँ पर चार पूर्वो की चूलिकायें बतायीं हैं किन्तु प्राचारांग की चूलिकाओं का निर्देश नहीं है / इससे यह स्पष्ट होता है कि चार पूर्वो के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रागम की चूलिकायें नहीं थी। 1. प्राचारांग चूणि, पृष्ठ 326 / 2. प्राचारांग वृत्ति, पत्र 290 / 3. आचारांग नियुक्ति, गाथा 287 / 4. प्राचारांग चूणि, पृष्ठ 188 / 5. परिशिष्ट पर्व-९।९७-१०० पृष्ठ-९० / [31] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग और प्राचार प्रकल्प ये दोनों एक नहीं है। क्योंकि प्राचारांग कहीं से भी नियंढ नहीं किया गया है, जबकि प्राचार-प्रकल्प प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु प्राचार-नामक बीसवें प्राभृत से उद्धृत है। यह बात नियुक्ति, चूणि और वृत्ति में स्पष्ट रूप से आयी है और यह बहुत ही स्पष्ट है कि साध्वाचार के लिए महान उपयोगी होने से चूला न होने पर भी चूला के रूप में उसे स्थान दिया गया है / समवायांग-सूत्र में "प्रायारस्स भगवो सचूलियागस्स" यह पाठ प्राता है / संभव है पाठ में चूलिका शब्द का प्रयोग होने के कारण सन्देह-प्रद स्थिति उत्पन्न हुई हो। जिससे पद संख्या और चूलिका के सम्बन्ध में प्राचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के रूप में प्राचारांग से भिन्न प्राचारांग की चूलिकायें प्राचारान और प्राचारांग का परिशिष्ट मानने की नियुक्तिकार आदि को कल्पना करनी पड़ी हो। यह स्पष्ट है कि प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा से द्वितीय श्रतस्कन्ध की भाषा बिलकुल पृथक् है, जिसके कारण चिन्तकों में यह धारणा बनी हुई है कि दोनों के रचयिता पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। पर पागम के प्रति जो अत्यन्त निष्ठावान है, उनका अभिमत है कि दोनों श्रतस्कन्धों के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं / प्रथम श्रुतस्कन्ध में तात्विक-विवेचन की प्रधानता होने से सूत्र-शैली में उसकी रचना की गयी है। जिसके कारण उसके भाव-भाषा और शैली में क्लिष्टता पायी है और द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में साधना रहस्य को व्याख्यात्मक दष्टि से समझाया गया है, इसलिए उसकी शैली बहत ही सगम और सरल रखी गयी है। आधुनिक युग में कितने ही लेखक जब दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करते हैं उस समय उनकी भाषा का स्तर अलग होता है और जब वे बाल-साहित्य का लेखन करते हैं, उस समय उनकी भाषा पृथक् होती है। उसमें वह लालित्य नहीं होता और न वह गम्भीरता ही होती है। यही बात प्रथम और द्वितीय श्रतस्कन्ध की भाषा के सम्बन्ध में समझना चाहिए। सभी मुर्धन्य मनीषियों ने इस सत्य को एक स्वर से स्वीकारा है कि प्राचारांग सर्वाधिक प्राचीन पागम है। उसमें जो प्राचार का विश्लेषण हुआ है वह अत्यधिक मौलिक है। रचना शैली आचारांग सूत्र में गद्य और पद्य दोनों ही शैली का सम्मिश्रण है / गद्य का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है / दशवकालिक चूणि में' आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को गध के विभाग में रखा है। उसकी शैली चोर्ण पद मानी है। प्राचार्य हरिभद्र ने भी यही मत व्यक्त किया है। प्राचार्य भद्रबाहु ने चौर्ण पद की व्याख्या करते हुए लिखा है "जो अर्थबहुल, महार्थ हेतु-निपात और उपसर्ग से गम्भीर बहुपाद अव्यवच्छिन्न गम और नय से विशुद्ध होता है वह चौर्णपद है।"3 प्रस्तुत परिभाषा में बहुपाद शब्द पाया है जिसका अर्थ है पाद का प्रभाव ! जिसमें केवल गद्य ही होता है / पर चौर्ण वह है जिसमें गद्य के साथ बहुपाद (चरण) भी होते हैं। प्राचारांग सूत्र में गद्य के साथ पद्य भी है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में पाठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक और नवम अध्ययन पद्य रूप में है। शेष छः अध्ययनों में पन्द्रह पद्य तो स्पष्ट रूप से प्राप्त होते हैं। टीकाकार ने जहाँ-जहाँ पर पद्य है, उसका सूचन किया है / केवल 78 और 79 उन दो श्लोकों का उल्लेख टीका में नहीं है / तथापि मुनि श्री जम्बूविजयजी ने उसे पद्य रूप में दिये हैं। 99 सूत्र पद्यात्मक है ऐसा सूचन अनेक स्थलों पर हुआ है। तथापि उसमें छन्द की दृष्टि से कुछ न्यूनता है। प्राचारांग में ऐसे अनेक स्थल पद्य रूप में प्रतीत होते हैं पर वे गद्य-रूप में ही प्राचारांग में व्यवहृत हैं। मनीषियों का मत है कि मूल में वे पद्य होंगे किन्तु आज बे पद्य रूप में व्यवहृत नहीं हैं / कितने ही वाक्यों को हम गद्य रूप में भी पढ़कर 1. दशवकालिक चूणि पृ० 78 / 2. दशवकालिक वृत्ति पृ० 88 / 3. दशवकालिक नियुक्ति गाथा, 174 / [32] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द ले सकते हैं और पद्य-रूप में भी। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अधिकांश भाग गद्य-रूप में है। पन्द्रहवें अध्ययन में अठारह पद्य प्राप्त होते हैं और सोलहवाँ अध्ययन पद्य-रूप में है। वर्तमान में प्राचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में 146 पद्य उपलब्ध हैं। समवायांग और नन्दीसूत्र में जो पाचारांग का परिचय उपलब्ध है उसमें संख्येय वेष्टक और संख्येय श्लोक बताये हैं। ___डाक्टर शुनिंग ने प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पद्यों की तुलना बौद्धत्रिपिटक-सुत्तनिपात के साथ की है। प्राचारांग के पद्य विविध छन्दों में उपलब्ध होते हैं। उसमें आर्या, जगती, त्रिष्टुभ, वैतालिय, अनुष्टुप श्लोक आदि विविध छन्द हैं / प्राचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम दो चूलिकाएं पूर्ण गद्य में हैं, तृतीय चूलिका में भगवान महावीर के दान-प्रसंग में छः आर्याओं का प्रयोग हुआ है, दीक्षा, शिविका में आसीन होकर प्रस्थान करने का वर्णन ग्यारह आर्याओं में हैं और जिस समय दीक्षा ग्रहण करते हैं उस समय जन-मानस का चित्रण भी दो प्रार्यात्रों में किया गया है। महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन अनुष्टुप छन्दों में किया गया है। चतुर्थ चूलिका में जो पद्य हैं वे उपजाति प्रतीत होते हैं / सुत्तनिपात के प्रामगन्ध सुत्त में इस तरह के छन्द के प्रयोग दृग्गोचर होते हैं। आचारांग की भाषा __ सामान्य रूप से जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है, यद्यपि जैन-परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के प्रकाश की भांति स्पष्ट परिज्ञात होगा कि जैन-परम्परा ने भाषा पर इतना बल नहीं दिया है, उसका यह स्पष्ट मन्तव्य है कि मात्र भाषा ज्ञान से न तो मानव की चित्त-शुद्धि हो सकती है और न प्रात्म-विकास ही हो सकता है। चित्त-विशुद्धि का मूलकारण सदविचार है। भाषा विचारों का वाहन है, इसलिए जैन मनीषिगण संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य प्रान्तीय भाषाओं को अपनाते रहे हैं और उनमें विपुल-साहित्य का भी सृजन करते रहे हैं। यही कारण है आचारांगसूत्र की भाषा-शैली में भी परिवर्तन हुआ है / प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा बहुत ही गठी हुई सूत्रात्मक है तो द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा कुछ शिथिल और व्यास-प्रधान है। यह स्पष्ट है कि भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होता आया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रागमों की भाषा को आर्ष-प्राकृत कहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वैदिक परम्परा में ऋषियों के शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया किन्तु अर्थ की सुरक्षा पर उतना बल नहीं दिया गया है। जिसके फलस्वरूप वेदों के शब्द प्रायः सुरक्षित हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से विज्ञों में पर्याप्त मत-भेद है, वैदिक विज्ञों ने आज दिन तक शब्दों की सुरक्षा के लिए बहुत ही प्रयास किया है पर प्रर्थ की दृष्टि से कोई विशेष प्रयास नहीं हुआ। पर जैन-परम्परा ने शब्द की अपेक्षा अर्थ पर विशेष बल दिया है। इस कारण पाठभेद तो मिलते हैं, किन्तु अर्थभेद नहीं मिलता। प्राचारांगसूत्र में भी पाठ-भेद की एक लम्बी परम्परा है। विभिन्न प्रतियों में एक ही पाठ के विविध रूप मिलते हैं। विशेष जिज्ञासु शोधकर्ताओं को भूनि जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचारांगसूत्र के अवलोकन की मैं प्रेरणा करता है। प्रस्तुत सम्पादन में भी महत्त्वपूर्ण पाठान्तर और उनकी भिन्न अर्थवत्ता का सूचन कर नई दृष्टि दी है। विस्तार भय से उनकी चर्चा मैं यहां नहीं कर रहा हूँ, पाठक स्वयं इसे पढ़कर लाभ उठायें। हाँ एक बात और है कि वेद के शब्दों में मन्त्रों का प्रारोपण किया गया, जिससे वेद के मन्त्र सुरक्षित रह गये। पर जैनागमों में मन्त्र-शक्ति का प्रारोपण न होने से अर्थ सुरक्षित रहा है, पर शब्द नहीं।। जैन प्रागमों की भाषा में परिवर्तन का एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि जैन पागम प्रारम्भ में लिखे नहीं गये थे। सुदीर्घकाल तक कण्ठस्थ करने की परम्परा रही / समय-समय पर द्वादश वर्षों के दुष्कालों ने प्रागम के बहुत अध्याय विस्मृत करा दिये / उनकी संयोजना के लिए अनेक वाचनाएं हुई। वीर निर्वाण सं.९८० में वल्लभीपूर नगर में देवाद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में प्रागमों को लिपिबद्ध किया गया। उसके पश्चात् प्रागमों का निश्चित-रूप स्थिर हो गया। [33] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक विषय आचारांगसूत्र में जैनदर्शन के मूलभूत तत्त्व गभित हैं, आचारांग के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है / उस युग के अन्य दार्शनिकों के विचार से श्रमण भगवान महावीर की विचारधारा प्रत्यधिक भिन्न थी। पाली-पिटकों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय अन्य अनेक श्रमण परम्पराएँ भी थीं। उन श्रमणों की विचारधारा क्रियावादी, प्रक्रियावादी के रूप में चल रही थीं। जो कर्म और उसके फल को मानते थे वे क्रियावादी थे, जो उसे नहीं मानते थे वे प्रक्रियावादी थे। भगवान महावीर और तथागत बुद्ध ये दोनों ही क्रियावादी थे। पर इन दोनों के क्रियावाद में अन्तर था। तथागत बुद्ध ने क्रियावाद को स्वीकार करते हए भी शाश्वत आत्मवाद को स्वीकार नहीं किया। जबकि भगवान महावीर ने आत्मवाद की मूल भित्ति पर ही क्रियावाद का भव्य-भवन खड़ा किया है। जो प्रात्मवादी है वह लोकवादी है और जो लोकवादी है वह कर्मवादी है, जो कर्मवादी है वह क्रियावादी है।' इस प्रकार भगवान महावीर का क्रियावाद तथागत बुद्ध से पृथक है। कर्मवाद को प्रधानता देने के कारण ईश्वर, ब्रह्म आदि से संसार की उत्पत्ति नहीं मानी गई। सृष्टि अनादि है, अतएव उसका कोई कर्ता नहीं है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा-जब तक कर्म है, प्रारम्भ-समारम्भ है, हिसा है, तब तक संसार में परिभ्रमण है, कष्ट है। जब प्रात्मा कर्म-समारम्भ का पूर्ण रूप से परित्याग करता है, तब उसके संसार-परिभ्रमण परम्परा रुक जाती है / श्रमण वही है जिसने कर्म-समारम्भ का परित्याग किया है।' कर्म-समारम्भ का निषेध करने का मूल कारण यह है-इस विराट-विश्व में जितने भी जीव हैं उन्हें सुख-प्रिय है, कोई भी जीव दुःखों की इच्छा नहीं करता। जीवों को जो दुःख का निमित्त बनता है वही कर्म है, हिंसा है / यह जानना आवश्यक है कि जीव कौन है और कहाँ पर है ? आचारांग में जीव-विद्या को लेकर गहराई से चिन्तन हुआ है, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रसकाय और वायुकाय इन जीवों का परिचय कराया गया है", यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि अन्य आगम साहित्य में वायु को पाँच स्थावरों के साथ गिना है, पर यहाँ पर त्रसकाय के पश्चात; यह किस अपेक्षा से अतिक्रम हया है यह चिन्तनीय है। और यह स्पष्ट किया है कि इन जीवनिकायों की हिंसा मानव अपने स्वार्थ के लिए करता है, पर उसे यह ज्ञात नहीं कि हिंसा से कितने कर्मों का बन्धन होता है / इसलिए सभी तीर्थंकरों ने एक ही उपदेश दिया कि तुम किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। हिंसा से सभी प्राणियों को अपार कष्ट होता है, इसलिए हिंसा कर्मबन्ध का एक कारण है। मौलिक रूप में सभी प्रात्माएँ समान स्वभाव वाली हैं, किन्तु कर्म-उपाधि के कारण उनके दो रूप हो जाते हैं-एक संसारी प्रात्मा और दूसरी मुक्त प्रात्मा / आत्मा तभी मुक्त बनती है जब वह कर्म से रहित बनती है। इसलिए कर्मविघात के मूल साधन ही प्राचारांग में प्राप्त होते हैं / आत्मा को विज्ञाता भी बताया है। आत्मा ज्ञानमय है। इस प्रकार की मान्यताएँ हमें उपनिषदों में भी प्राप्त होती हैं। भगवान महावीर ने लोक को ऊर्ध्व, मध्य और अधः इन तीन विभागों में विभक्त किया है। my 1. प्राचारांग सूत्र 13 प्राचारांग 109 प्राचारांग 6,13 प्राचारांग 80 5. प्राचारांग 48, 46,9,1,13,13 6. प्राचारांगसूत्र 126 प्राचारांगसूत्र-१६५ 8. प्राचारांगसूत्र-९३ [34] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधोलोक में दुःख की प्रधानता है, मध्यलोक में सुख और दुःख इनकी मध्यम स्थिति है, न सुख को उत्कृष्टता है और न दुःख की। ऊर्वलोक में सुख प्रधान रूप से रहा हुआ है। लोकातीत स्थान सिद्धिस्थान और मुक्तस्थान कहलाता है। उर्बलोक में देवलोक है, मध्यलोक में मानव प्रधान है और अधोलोक में नरक है। मध्यलोक एक ऐसा स्थान है जहाँ से जीव ऊपर और नीचे दोनों स्थानों पर जा सकता है। नारकीय जीव देव नहीं बन सकता और देव नारकीय नहीं बन सकता, पर मानवलोक का जीव नरक में भी जा सकता है, देव भी बन सकता है। उत्कृष्ट पाप के फल को भोगने का स्थान नरक है और पुण्य के फल को भोगने का स्थान स्वर्ग है। अच्छे कृत्य करने वाला स्वर्ग में पैदा होता है और बुरे कृत्य करने वाला नरक में / यदि मनुष्य बनकर वह साधना करता है तो मुक्त बन जाता है। वह संसारचक्र को समाप्त कर देता है। लोक और अलोक का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। प्राचारांग के अनुसार अहिंसक जीवन का अर्थ है-संयमी-जीवन ! भगवान महावीर और बुद्ध दोनों ने सदाचार पर बल दिया है, यहां जातिवाद को बिलकुल महत्त्व नहीं दिया गया है। आचारांग में साधना-पक्ष तथागत बुद्ध साधना के उषा-काल में उग्रतम साधना करते रहे पर उन्हें उससे प्रानन्द की उपलब्धि नहीं हुई। जिसके कारण उन्होंने उग्र-साधना का परित्याग कर ध्यान का पालम्बन लिया। उनका यह अभिमत बन गया कि उग्र साधना ध्यान-साधना में बाधक है। पर प्रभु महावीर की साधना का जो शब्दचित्र प्राचारांग में प्राप्त है वह बहुत ही कठोर था / प्रभु महावीर चार-चार माह तक एक ही स्थान पर अवस्थित होकर साधना करते थे। उन्होंने छ: माह तक भी अन्न और जल ग्रहण नहीं किया तथापि उनकी वह उग्र-साधना ध्यान में बाधक नहीं अपितु साधक थी। प्रभु महावीर निरन्तर ध्यानसाधना में लगे रहते थे। उन्होंने अपने श्रमण-संघ को जो आचार-संहिता बनाई वह भी अत्यन्त उग्र साधना युक्त थी। श्रमण के प्रशन, वशन, पात्र, निवास स्थान के सम्बन्ध में यह नियम बनाया कि श्रमण के निमित्त यदि कोई वस्तु बनाई गई हो या पुरातन-पदार्थ में नवीन-संस्कार किया गया हो तो वह भी भिक्षु के लिये अग्राह्य है / वह उद्दिष्ट-त्यागी है / यदि उसे अनुद्दिष्ट मिल जाए तो और उसके लिये उपयोगी हो तो वह उसे ग्रहण कर सकता है। जैन श्रमण अन्य बौद्ध और वैदिक परम्परा के भिक्षुओं की तरह किसी के घर पर भोजन का निमन्त्रण भी ग्रहण नहीं करता था। बौद्ध-साहित्य में बौद्ध-श्रमणों के लिये स्थान-स्थान पर प्रावास हेतु विहारों के निर्माण का वर्णन है और वैदिक परम्परा के तापसों के लिये पाश्रमों की व्यवस्था बताई गई है किन्तु जैन-श्रमणों के लिये किसी भी प्रकार में निवास स्थान का निर्माण करना निषिद्ध माना गया था। यदि निर्माण भी उसके निमित्त किया गया हो तो उसमें श्रमण अवस्थित नहीं हो सकता था। बौद्ध भिक्षत्रों के लिये वस्त्र-ग्रहण करना अनिवार्य था / श्रमणों के निमित्त क्रय करके जो गृहस्थ वस्त्र देता था उसे तथागत-बुद्ध सहर्ष स्वीकार करते थे। बुद्ध ने श्रमणों के निमित्त से दिये गये वस्त्रों को ग्रहण करना उचित माना था। पर जैन श्रमणों के लिये वस्त्र-ग्रहण करना उत्सर्ग मार्ग नहीं था और उसके निमित्त निमित-क्रीत वस्त्र को वह ग्रहण भी नहीं कर सकता था और न वह बहुमूल्य, उत्कृष्ट वस्त्रों को ग्रहण करता था। उसके पास वस्त्र होने पर ग्रीष्म ऋतु आदि में वस्त्र-धारण करना आवश्यक न होता तो वह उसे धारण नहीं करता और आवश्यक होने पर लज्जा-निवारणार्थ अनासक्त-भाव से वस्त्र का उपयोग करता था। श्रमण भिक्षा से अपना जीवनयापन करता था। भोजन के निमित्त होने वाली सभी प्रकार की हिंसा से वह मुक्त था। भगवान महावीर के युग में स्थल जीवों की हिंसा से जन-मानस परिचित था। पर त्यागी और संन्यासी कहलाने वाले व्यक्तियों को भी सूक्ष्म-हिंसा का परिज्ञान नहीं था। वे नित्य नयी मिट्री खोदकर लाते और प्राश्रम का लेपन करते थे / अनेकों बार स्नान करने में धर्म का अनुभव करते। . 1. प्राचारांगसूत्र 120 / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथागत बुद्ध भी पानी में जीव नहीं मानते थे। वैदिक परम्परा में "चउसठ्ठीए मट्टियाहि स पहाति" वह चौसठ बार मिट्टी का स्नान करता है। पंचाग्नि तप तापने में साधना की उत्कृष्टता मानी जाती, विविध प्रकार से वायुकाय के जीवों की विराधना की जाती और कन्द-मूल-फल-फूल के प्राहार को निर्दोष आहार माना जाता / वैदिक-परम्परा के ऋषिगण गह का परित्याग कर पत्नी के साथ जंगल में रहते थे। वे गह-त्याग तो करते थे पर पत्नी-त्याग नहीं। __ भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि श्रमण को स्त्री-संग का पूर्ण त्याग करना चाहिये। क्योंकि स्त्री-संग से नाना प्रकार के प्रपंच करने पड़ते हैं। जिसमें केवल बन्धन ही बन्धन है / अतः सन्तों को ग्रहत्याग ही नहीं सर्व-परित्यागी होना चाहिये / अहिंसा महावत के पूर्ण रूप से पालन करने से अन्य सभी महावतों का पालन सहज संभव था। श्रमण किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करे और न दूसरों को करने के लिए प्रेरित करे और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन ही करे----मन, वचन और काया से। अहिंसा महावत की सुरक्षा के लिये रात्रि-भोजन का त्याग अनिवार्य है। श्रमण को भिक्षा में जो भी वस्तु उपलब्ध होती है वह उसे समभावपूर्वक ग्रहण करता था। परीषहों को ग्रहण करते समय उसके मन में किंचिन्मात्र भी असमाधि नहीं होती थी। उसके मन में आनन्द की मियाँ तरंगित होती रहती थीं। शारीरिक कष्ट का असर मन पर नहीं होता। क्योंकि ध्यानाग्नि से वह कषायों को जला देता था। भगवान महावीर का मुख्य लक्ष्य शरीर-शुद्धि नहीं प्रात्म-शुद्धि है। जिसके जीवन में अहिंसा की निर्मल धारा प्रवाहित हो रही है उसे ही आर्य कहा गया है और जिसके जीवन में हिंसा की प्रधानता है वह अनार्य है। प्राचारांगसूत्र में ऐसे अनेक शब्द व्यवहृत हुए हैं जिनमें विराट् चिन्तन छिपा हुआ है। प्राचारांग के व्याख्याकारों ने उन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। प्राचारांग में पवित्र प्रात्मार्थी श्रमणों के लिए "वसु" शब्द का प्रयोग मिलता है / "बसु" शब्द का प्रयोग वेद और उपनिषदों में पवित्र आत्मा का ही प्रतीक है, उसे हँस भी कहा है / "वसु" शब्द का वही अर्थ पारसी धर्म के मुख्य ग्रन्थ "अवेस्ता" में भी है। कहीं कहीं पर "वसु" शब्द का प्रयोग "देव" और धन के अर्थ में आया है। प्राचारांग में आमगंध शब्द का प्रयोग हुआ है / वह अपवित्र पदार्थ के अर्थ में है। वही अर्थ बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। बुद्ध ने कहा-प्राणघात, वध, छेद, चोरी, प्रसत्य, वंचना, लूट, व्यभिचार प्रादि जितनी भी अनाचार भूलक प्रवृत्ति हैं वे सभी प्रामगंध हैं। इस प्रकार अनेक शब्द भाषा-प्रयोग की दृष्टि से व्यापकता लिए हुए हैं। तुलनात्मक अध्ययन आचारांगसूत्र में जो सत्य तथ्य प्रतिपादित हुए हैं। उनकी प्रतिध्वनि वैदिक और बौद्ध वाङमय में निहारी जा सकती है। सत्य अनन्त है, उस अनन्त सत्य की अभिव्यक्ति कभी-कभी सहज रूप से एक सदृश होती है / यह कहना तो अत्यन्त कठिन है कि किस ने किस से कितना ग्रहण किया ? पर एक-दूसरे के चिन्तन पर एक-दूसरे के चिन्तन का प्रभाव पड़ना सहज है। वह सत्य की सहज अभिव्यक्ति है। यदि धार्मिक-साहित्य का गहराई से तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो सहज ही ज्ञान होगा कि किन्हीं भावों में एकरूपता है तो कहीं परिभाषा में एकरूपता है। कहीं पर युक्तियों की समानता है तो कहीं पर रूपक और कथानक एक सदृश पाये हैं। यहां हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही चिन्तन कर रहे हैं जिससे यह सहज परिज्ञात हो सके कि भारतीय परम्पराओं में कितना सामंजस्य रहा है। . 1. न हि महाराज उदकं जीवति, नथि उदके जीवो वा सत्ता वा / ' -मिलिन्द पण्हो, पृ० 253 से 255 [36] For Private & Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग में प्रात्मा के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए कहा गया है -सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी प्रात्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है। इसी की प्रतिध्वनि सुबालोपनिषद्' और भगवद्गीता में प्राप्त होती है। प्राचारांग में प्रात्मा के ही सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस का आदि और अन्त नहीं है उस का मध्य कैसे हो सकता है। गौडपादकारिका में भी यही बात अन्य शब्दों में दुहराई गई है। प्राचारांग में जन्म-मरणातीत, नित्य, मुक्त प्रात्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते हैं-समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्म-मल रहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता है। मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त-गोल है / वह न त्रिकोण है, न चौरस, न मण्डलाकार / वह न कृष्ण है, न नील, न पीला, न लाल और न शुक्ल ही। वह न सुगन्धि वाला है और न दुर्गन्धि वाला है। वह न तिक्त है, न कडुआ न कषैला न खट्टा है, न मधुर है / वह न कर्कश है, न कठोर है, न भारी है, न हल्का है, वह न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है। वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न आसक्त / वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है / वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है। उसके लिये कोई उपमा नहीं है। वह प्ररूपी सत्ता है। वह अपद है / वचन अगोचर के लिए कोई पद-वाचक शब्द नहीं। वह शब्द रूप नहीं; रूप मय नहीं है, गन्ध रूप नहीं है, रस रूप नहीं है, स्पर्श रूप नहीं है, वह ऐसा कुछ भी नहीं। ऐसा मैं कहता हूँ।' यही बात केनोपनिषद्" कठोपनिषद्, बृहदारण्यक माण्डुक्योपनिषद् 10 तैत्तिरीयोपनिषद् मौर ब्रह्मविद्योपनिषद्।२ में भी प्रतिध्वनित हुई है। प्राचारांग में 3 ज्ञानियों के शरीर का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ज्ञानियों के बाहु कृश होते हैं, उन का मांस और रक्त शुष्क हो जाता है / यही बात अन्य शब्दों में नारदपरिव्राजकोपनिषद एवं संन्यासोपनिषद् 15 में भी कही गई है। 1 स न छिज्जइन भिज्जइ न डज्झइन हम्मद, कं च णं सव्वलोए / -~~-आचारांग 1 / 3 / 3 / 2 न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते / न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनो ऽयमात्मा // -सुबालोपनिषद् 9 खण्ड ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद् पृष्ठ 210 3 अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च / नित्यः सर्वगतः स्थाणुस्चलोऽयं सनातनः / / -भगवद्गीता प्र. 2, श्लोक-२३ 4 अाचारांगसूत्र 1 / 4 / 4 / 5 पादावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽवि तत्तथा / -गौडपादकारिका, प्रकरण 2 श्लोक--६ 6 आचारांगसूत्र-१ / 5 / 6 / 7 केनोपनिषद् खण्ड-१, श्लोक--३ 8 कठोपनिषद् अ० 1 श्लोक 15 9 बृहदारण्यक, ब्राह्मण 8 श्लोक-८ 10 माण्डुक्योपनिषद्, श्लोक -7 11 तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली 2 अनुवाद-४ 12 ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लोक 81-91 13 प्रागयपन्नाणाणं किसा बाहा भवति पयणए मंस-सोणिए / -आचारांग 1 / 6 / 3 / 14 नारदपरिव्राजकोपनिषद्-७ उपदेश / 15 संन्यासोपनिषद् 1 अध्याय / / [37] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चात्य विद्वान् शुब्रिग ने अपने सम्पादित प्राचारांग में प्राचारांग के वाक्यों की तुलना धम्मपद और सुत्तनिपात से की है। मुनि सन्तबालजी ने आचारांग की तुलना श्रीमद्गीता के साथ की है। विशेष जिज्ञासुओं को वे अन्य देखने चाहिये / हमने यहाँ पर केवल संकेत मात्र किया है / व्याख्या साहित्य प्राचारांग के गम्भीर रहस्य को स्पष्ट करने के लिए समय-समय पर व्याख्या साहित्य का निर्माण हुपा है / उस प्रागमिक व्याख्या साहित्य को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं। (1) नियुक्तियां (2) भाष्य (3) चूणियां (4) संस्कृत टीकाएँ (5) लोकभाषा में लिखित व्याख्या साहित्य नियुक्ति जैन आगम साहित्य पर प्राकृत भाषा में जो पद्य-बद्ध टीकाएँ लिखी गई, वे नियुक्तियों के नाम से प्रसिद्ध हैं / नियुक्तियों में प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है-नियुक्ति की व्याख्या-शैली निक्षेप-पद्धतिमय है। निक्षेप-पद्धति में किसी एक पद के संभावित अनेक अर्थ कहने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है। यह शैली न्यायशास्त्र में प्रशस्त मानी जाती है। भद्रबाहु ने नियुक्तियों का निर्माण किया। नियुक्तियां सूत्र और अर्थ का निश्चित अर्थ बताने वाली व्याख्या है / निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करने वाली युक्ति नियुक्ति है। ___ जर्मन विद्वान् शारपेन्टियर ने नियुक्ति को परिभाषा करते हुए लिखा है कि नियुक्तियां अपने प्रधान भाग के केवल इंडेक्स का काम करती हैं। वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। डाक्टर घाटके ने नियुक्तियों को तीन भागों में विभक्त किया है (1) मूल नियुक्तियां; जिसमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण न हुआ हो, जैसे प्राचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ / (2) जिनमें मूल भाष्यों का संमिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं, जैसे दशवकालिक और आवश्यक सूत्र प्रादि की नियुक्तियाँ / (3) वे नियुक्तियाँ, जिन्हें प्राजकल भाष्य या बृहद्भाष्य कहते हैं। जिनमें मूल और भाष्य में इतना संमिश्रण हो गया है कि उन दोनों को पृथक-पृथक् नहीं कर सकते, जैसे निशीथ प्रादि की नियुक्तियां / यह वर्गीकरण वर्तमान में जो नियुक्ति साहित्य उपलब्ध है, उसके आधार से किया गया है। जैसे वैदिक-परम्परा में महर्षि व्यास ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या रूप निघण्टु भाष्य रूप में निरुक्त लिखा वैसे, ही जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए प्राचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियां लिखीं / आगम प्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने नियुक्तियाँ लिखीं। उसके पश्चात् गोविन्द-वाचक जैसे प्राचार्यों ने नियुक्तियाँ लिखीं। उन सभी नियुक्ति गाथानों का संग्रह कर तथा अपनी ओर से कुछ नवीन गाथा बनाकर द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों को व्यवस्थित रूप दिया ! यह सत्य है कि नियुक्तियों की परम्परा आगम-काल में भी थी। 'संखेज्जानो निज्जुत्तीनो' यह पाठ उपलब्ध होता है / उन्हीं मूल नियुक्तियों को प्राधार बनाकर द्वितीय भद्रबाहु ने उसे अन्तिम रूप दिया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समय दश प्रागमों पर नियुक्तियां प्राप्त होती हैं। वे इस प्रकार हैं..१-यावश्यक 6- दशाश्रुतस्कन्ध २–दशवकालिक ७-बृहत्कल्प 3- उत्तराध्ययन ८-व्यवहार ४.-पाचारांग ९-सूर्यप्रज्ञप्ति ५--सूत्रकृतांग १०-ऋषिभाषित आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर नियुक्ति प्राप्त होती है / मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट दिल्ली द्वारा मुद्रित "प्राचारांगसूत्रं सूत्रंकृतांगसूत्र च" की प्रस्तावना में मुनि श्री जम्बूविजय जी ने प्राचारांग की नियुक्ति का गाथा-परिमाण 367 बताया है और महावीर विद्यालय द्वारा मुद्रित "पायारंगसुत्तं' की प्रस्तावना में उन्होंने यह स्पष्ट किया है / प्राचारांगसूत्र की चतुर्थ चूला तक प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित 356 गाथायें हैं / मुनि श्री जम्बूविजयजी का यह अभिमत है कि नियुक्ति की 346 गाथाएँ और महापरिज्ञा अध्ययन की 7 माथाएँ–इस प्रकार 353 गाथाएं हैं। (पृष्ठ 359) तीन गाथाएँ मुद्रित होने में छूट गई हैं। किन्तु ऋषभदेव जी केशरीमलजी रतलाम की ओर से प्रकाशित प्रावृत्ति में 356 गाथाएँ हैं। पर, हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में महापरिज्ञा अध्ययन को नियुक्ति की गाथा 18 हैं / इस प्रकार 367 गाथाएं मिलती हैं / 'जैन साहित्य का बृहद इतिहास' भाग तीन, पृष्ठ 110 पर 357 गाथाओं का उल्लेख है। नियुक्ति की प्राचीनतम प्रति का आधार ही विशेष विश्वनीय है। प्राचारांग-नियुक्ति, उत्तराध्ययन-नियुक्ति के पश्चात् और सूत्रकृतांग-नियुक्ति के पूर्व रची हुई है। सर्वप्रथम सिद्धों को नमस्कार कर आचार, अंग, श्रुत, स्कन्ध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र-परिज्ञा, संज्ञा और दिशा पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। चरण के छह निक्षेप हैं, दिशा के सात निक्षेप हैं और शेष चार-चार निक्षेप हैं / प्राचार के पर्यायवाची एकार्थक शब्दों का उल्लेख करते हुए प्राचारांग के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। प्राचारांग के नौ ही अध्ययनों का संक्षेप में सार प्रस्तुत किया है। शस्त्र और परिज्ञा इन शब्दों पर नाम, स्थापना आदि निक्षेपों से चिन्तन किया है। द्वितीय श्रतस्कन्ध में भी अन शब्द पर निक्षेप दष्टि से विचार करते हुए उसके पाठ प्रकार बताये हैं। १-द्रव्याग्र २-अवगाहनान ३–आदेशाग्न ४–कालान ५--क्रमाग्न ६-गणनाय ७-संचयाग्र८-भावान / भावान के तीन भेद हैं-१-प्रधानाय , 2 प्रभूतान, 3 उपकाराग्र / यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है / चूलिकाओं के अध्ययन की भी निक्षेप की दृष्टि से व्याख्या की है। चणि नियुक्ति के पश्चात् "हिमवन्त थेरावली' के अनुसार प्राचार्य गन्धहस्ती द्वारा विरचित प्राचारांग-सूत्र के विवरण की सूचना है। प्राचार्य गन्धहस्ती का समय सम्राट विक्रम के 200 वर्ष के पश्चात का है / प्राचार्य शीलांक ने भी प्रस्तुत विवरण का सूचन करते हुए कहा है कि 'वह अत्यन्त क्लिष्ट होने के कारण मैं बहुत ही सरल और सुगम वृत्ति लिख रहा हूँ।' पर आज वह विवरण उपलब्ध नहीं है, अतः उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। प्राचारांगसूत्र पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया है / उसकी पांचवी चूला निशीथ है / उस पर भाष्य मिलता है / नियुक्ति पद्यात्मक है, किन्तु चूणि गद्यात्मक है / चूणि की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है / आचारांगचूणि में उन्हीं विषयों का विस्तार किया गया है, जिन विषयों पर प्राचारांगनियुक्ति में चिन्तन किया गया है / अनुयोग, अंग, प्राचार, ब्रह्म, वर्ण, प्राचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, [39] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्, सम्यक्त्व, योनि, कर्म, पृथ्वी, अप्-तेज-काय, लोकविजय, परिताप, विहार, रति-अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिस्मरण, एषणा, देशना, बन्ध, मोक्ष, परीषह, तत्त्वार्थ-श्रद्धा, जीव-रक्षा, अचेलकत्व, मरण-संलेखना, समनोजत्व, तीन याम, तीन वस्त्र, भगवान महावीर की दीक्षा, देवदूष्य आदि प्रमुख विषयों पर व्याख्या की गई है / चूर्णिकार ने भी नियुक्तिकार की तरह निक्षेप दृष्टि का उल्लेख करके शब्दों के अर्थ की उद्भावना की है। चूणिकार के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। यों प्रस्तुत चणि के रचयिता जिनदास गणी माने जाते हैं। कुछ ऐतिहासिक विज्ञों का मत है कि आचारांगण के रचयिता गोपालिक महत्तर के शिष्य होने चाहिये; यह तथ्य अभी अन्वेषणीय है।' आगमप्रभावक मुनि पुण्यविजय जी का मन्तव्य है कि चणि साहित्य में नागार्जुनीय वाचना के उल्लेख अनेक बार आये हैं / प्राचारांग चूणि में भी पन्द्रह बार उल्लेख हुआ है / चूणि में अत्यन्त ऐतिहासिक सामग्री का संकलन है / सूत्र (200) की चूणि में लोक-स्वरूप के सम्बन्ध में शून्यवादी बौद्धदर्शन के जानेमाने नागार्जुन के मत का भी निर्देश है / बौद्ध-सम्मत क्षणभंगुरता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है / सांख्य-दर्शन के सम्बन्ध में भी उल्लेख है / प्राचीन-युग में जैन परम्परा में यापनीय संघ था, उस यापनीय संघ के कुछ विचार श्वेताम्बर परम्परा से मिलते थे। प्राचारांग-चूणि में यापनीय संघ के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है / इस प्रकार प्राचारांग-चूणि का व्याख्या-साहित्य में अपना विशेष महत्त्व है। टीका चूणि के पश्चात् प्राचारांगसूत्र के व्याख्या-साहित्य में टीका साहित्य का स्थान है। चूणिसाहित्य में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ था और गौण रूप में संस्कृत भाषा का / पर टीकात्रों में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है, उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के आलोक में ऐसे अनेक नये तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें पढ़कर पाठक अानन्द-विभोर हो जाता है / ऐतिहासिक दृष्टि से जिस समय टीकाएँ निर्माण की गई उस समय अन्य मतावलम्बी जैनाचार्यों को शास्त्रार्थ के लिये चनौतियां देते थे। जैनाचार्यों ने अकाट्य तर्कों से उनके मत का निरसन करने का प्रयत्न किया / आचारांग पर प्रथम संस्कृत टीकाकार प्राचार्य शीलांक हैं / उनका अपर नाम शीलाचार्य और तत्त्वादित्य भी मिलता है / उन्होंने प्रभावक-चरित के अनुसार नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं। पर इस समय प्राचारांग और सूत्रकृतांग इन दो आगमों पर ही उनकी टीकाएँ उपलब्ध हैं। शीलांक का समय विक्रम की नौवीं दशमीं शताब्दी है / आचारांग की टीका मूल और नियुक्ति पर अवलम्बित है। प्रत्येक विषय पर विस्तार से विवेचन किया है। पर शैली और भाषा सुबोध है, पूर्व के व्याख्या-साहित्य से यह अधिक विस्तृत है / वर्तमान में प्राचारांग को समझने के लिये यह टीका अत्यन्त उपयोगी है। इस वृत्ति के श्लोकों का परिमाण 12000 है / प्रस्तुत वृत्ति में नागार्जुन-वाचना का दस स्थानों पर उल्लेख हुआ है। यह सत्य है कि वृत्तिकार के सामने चूणि विद्यमान थी / इसलिये उन्होंने अपनी वृत्ति में उल्लेख किया है। प्राचार्य शीलांक के पश्चात् जिन प्राचार्यों ने प्राचारांग पर टीकाएँ लिखी हैं, उन सब का मुख्य आधार प्राचार्य शीलांक की वृत्ति रही है / अंचलगच्छ के मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणक्यशेखर द्वारा रचित एक दीपिका प्राप्त होती है। जिनसमुद्रसूरि के शिष्यरल जिनहस की दीपिका भी मिलती है / हर्ष कल्लोल के शिष्य लक्ष्मी कल्लोल की अवचूरि और पावचन्द्रसूरि का बालावबोध उपलब्ध होता है / विस्तार भय से हम उनका यहाँ परिचय नहीं दे रहे हैं। 1. देखें; उत्तराध्ययनचूणि पृष्ठ-२८३ / 2. जैन प्रागमधर और प्राकृतवाङमय / -मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ [40] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा के विद्वान् प्राचार्य घासीलाल जी म. द्वारा पागमों पर रचित संस्कृत टीकाएँ भी अपने ढंग की हैं। टीका-साहित्य के पश्चात् अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में प्राचाराङ्ग का अनुवाद साहित्य भी प्रकाशित हुआ / डाक्टर हर्मन जेकोबी ने प्राचाराङ्ग का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उस पर महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखी। मुनिश्री सन्तबालजी ने प्राचाराङ्गसूत्र का भावानुवाद प्रकाशित करवाया। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) से मूलपाठ के साथ गुजराती अनुवाद निकला है / इसके पूर्व रवजीभाई देवराज के और गोपालदास जीवाभाई पटेल के गुजराती में सुन्दर अनुवाद प्रकाशित हुए थे। हिन्दी में प्राचार्य अमोलकऋषि जी म. ने और पण्डितरत्न सौभाग्यमल जी म० ने, प्राचार्य सम्राट आत्माराम जी म० ने प्राचाराङ्ग पर हिन्दी में विवेचन लिखा, हिन्दी-विवेचन हृदयग्राही है / प्रबुद्ध पाठकों के लिए वह विवेचन उपयोगी है / हीराकुमारी जैन ने आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का बंगला में अनुवाद प्रकाशित करवाया तथा तेरापंथी समुदाय के पण्डित मुनि श्री नथमल जी ने मूल और अर्थ के साथ ही विशेष स्थलों पर टिप्पण लिखे हैं / इस प्रकार आधुनिक युग में अनुवाद के साथ आचाराङ्ग के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। मूलपाठ के रूप में भी कुछ ग्रन्थ आये हैं। उनमें प्रागमप्रभावक मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित मूलपाठ संशोधन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थानकवासी समाज एक महान क्रान्तिकारी समाज है। समय-समय पर उसने जो क्रान्तिकारी चिन्तन पूर्वक कदम उठाये हैं उससे विज्ञगण मुग्ध होते रहे हैं। प्राचार्य अमोलकऋषिजी म०, पूज्य घासीलालजी म०, धर्मोपदेष्टा फूलचन्दजी म० के द्वारा आगम बत्तीसी का प्रकाशन हुआ है / उन प्रकाशनों में कहीं पर बहुत ही संक्षेप शैली अपनाई गई और कहीं पर अतिविस्तार हो गया। जिसके फलस्वरूप पागमों के आधुनिक संस्करण की माँग निरन्तर बनी रही। स्थानकवासी जैन कान्स ने भी अनेक बार योजनाएँ बनाई, पर वे योजनाएँ मूर्त रूप न ले सकी। सन् 1952 में स्थानकवासी समाज का एक संगठन बना और उसका नाम 'वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' रखा गया, श्रमण-संघ के प्रत्येक सम्मेलन में पागम प्रकाशन के सम्बन्ध में प्रस्ताव-पारित होते रहे पर वे प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो सके। परम पालाद का विषय है कि मेरे श्रद्धेय सद्गुरुवर्य अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म० के स्नेही साथी व सहपाठी श्री मधुकर मुनि जी म० ने प्रागम प्रकाशन की योजना को मूर्त रूप देने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने कार्य में प्रगति लाने के लिए सम्पादक मण्डल का संयोजन किया। एक वर्ष तक पागम प्रकाशन व सम्यादन के सम्बन्ध में चिन्तन चलता रहा। इस बीच प्राचार्य प्रवर अानन्दऋषि जी म. ने प्रापश्री को यूवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया / आपके प्रधान सम्पादकत्व में प्राचारांगसूत्र का प्रकाशन हो रहा है। प्रस्तुत आगम का मूल पाठ प्राचीन प्रतियों के आधार से शुद्धतम रूप में देने का प्रयास किया गया है। मूलपाठ के साथ ही हिन्दी में भावानुवाद भी दिया गया है और गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में विवेचन भी लिखा गया है / इस तरह प्रस्तुत प्रागम के अनुवाद व विवेचन की भाषा सरल, सरस और सुबोध है, शैली चित्ताकर्षक है / विवेचन में अनेक कठिन पारिभाषिक शब्दों का गहन अर्थ उद्घाटित किया गया है। प्रस्तुत प्रागम का सम्पादन सम्पादन-कला-मर्मज्ञ श्रीचन्द जी सुराना ने किया है। सुराना जी विलक्षण-प्रतिभा के धनी हैं / अाज तक उन्होंने पाँच दर्जन से भी अधिक पुस्तकों और ग्रन्थों का सम्पादन किया है / उनकी सम्पादन-कला अद्भुत और अनूठी है / युवाचार्यश्री के दिशा [ 41] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्देशन में इसका सम्पादन किया है। मुझे पाणा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत आगमरत्न सर्वत्र समादृत होगा / क्योंकि इसकी सम्पादन शैली अाधुनिकतम है व गम्भीर अन्वेषण-चिन्तन के साथ सुबोधता लिए हुए है। इस सम्पादन में अनेक परिशिष्ट भी हैं। विशिष्ट शब्दसूची भी दी गई है जिससे प्रत्येक पाठक के लिए प्रस्तुत सस्करण अधिक उपयोगी बन गया है। 'जाव' शब्द के प्रयोग व परम्परा पर सम्पादक ने संक्षिप्त में अच्छा प्रकाश डाला है। इसी तरह अन्य प्रागमों का प्रकाशन भी द्रुतगति से हो रहा है। मैं बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था और उन सभी प्रश्नों पर चिन्तन भी करना चाहता था जो अभी तक अनछुए रहे / पर निरन्तर विहारयात्रा होने से समयाभाव व ग्रन्थाभाव के कारण लिख नहीं सका, पर जो कुछ भी लिख गया हूँ वह प्रबुद्ध पाठकों को आचारांग के महत्त्व को समझने में उपयोगी होगी ऐसी आशा करता हूँ। -देवेन्द्रमुनि शास्त्री दि. 18-2-80 फाल्गुन शुक्ला; 2036 जैन स्थानक, बोरीबली, बम्बई 42] Personal Use Only For Private Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका आचाराङ्गसूत्र [प्रथम श्रुतस्कन्ध : अध्ययन 1 से 6] शस्त्रपरिज्ञा : प्रथम अध्ययन (7 उद्देशक) पृष्ठ 3 से 37 सूत्रांक पृष्ठ प्रथम उद्देशक अस्तित्त्व-बोध 3-6 4-9 प्रास्रव-संवर-बोध 6-8 द्वितीय उद्देशक 10-14 पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का निषेध 8-11 पृथ्वीकायिक जीवों का वेदना-बोध 11-13 तृतीय उद्देशक 19-21 अनगार लक्षण 14-15 22-31 अप्कायिक जीवों का जीवत्व 15-19 चतुर्थ उद्देशक अग्निकाय की सजीवता 19-21 33-39 अग्निकायिक जीव-हिंसा-निषेध 21-23 पंचम उद्देशक 40-41 अनगार का लक्षण 24-25 42-44 वनस्पतिकाय हिंसा-वर्जन 25-26 45-48 मनुष्य शरीर एवं वनस्पति शरीर की समानता 26-28 षष्ठ उद्देशक संसार-स्वरूप 28-30 त्रसकाय-हिंसा-निषेध 30-31 52-55 सकाय-हिसा के विविध हेतु सप्तम उद्देशक आत्म-तुला-विवेक 33-34 वायुकायिक जीव-हिंसा-वर्णन 34-36 विरति-बोध लोकविजय : द्वितीय अध्ययन (6 उद्देशक) पृष्ठ 40 से 82 प्रथम उद्देशक संसार का मूल : आसक्ति 40-41 अशरणता-परिबोध 41-43 49 WG rr Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक 65-65 प्रमाद-परिवर्जन पृष्ठ 43.44 44-45 द्वितीय प्रदेश प्रात्महित की साधना 45-46 46-47 47-49 49-50 50-52 52-55 55-56 56-57 57-58 58 प्ररति एवं लोभ का त्याग 71 लोभ पर प्रलोभ से विजय 72-74 अर्थलोभी की बत्ति तृतीय उद्देशक गोत्रवाद निरसन 76-78 प्रमाद एवं परिग्रहजन्य दोष 79-80 परिग्रह से दुःखवृद्धि चतुर्थ उद्देशक 81-82 काम-भोगजन्य पौड़ा 83-84 प्रासक्ति ही शल्य है 85 विषय महामोह भिक्षाचरी में समभाव पंचम उद्देशक 87-88 शुद्ध आहार की एषणा वस्त्र-पात्र-माहार-संयम 90-91 काम-भोग-विरति 92-93 देह की असारता का बोध 94 सदोष-चिकित्सा-निषेध षष्ठ उद्देशक 95-97 सर्व अवत-विरति 98-99 अरति-रति-विवेक 100-101 बंध-मोक्ष परिज्ञान 102-105 उपदेश-कौशल शीतोष्णीय : तृतीय अध्ययन (4 उद्देशक) पृष्ठ 85 से 118 प्रथम उद्देशक सुप्त-जाग्रत 107 अरति रति-त्याग 108-109 अप्रमत्तता 110-111 लोकसंज्ञा का त्याग द्वितीय उद्देशक 112-117 बंध-मोक्ष-परिज्ञान असंयत की व्याकुल चित्तवृत्ति 119-121 संयम में समुत्थान तृतीय उद्देशक 122-124 समता-दर्शन 59-62 62-64 65-67 67-70 70-71 71-74 74-76 76-78 78-82 85-86 87-89 89-92 92-94 94-101 101-102 102-105 105-110 [44 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांक पृष्ठ 110-112 112-118 121-124 124-132 132-137 137-142 145-147 148-149 149-152 125-126 मित्र-अमित्र-विवेक 127 सत्य में समुत्थान चतुर्थ उद्देशक 128-131 कषाय-विजय सम्यक्त्व : चतुर्थ अध्ययन (4 उद्देशक) पृष्ठ 121 से 142 प्रथम उद्देशक 132-136 सम्यगवाद : अहिंसा के सन्दर्भ में द्वितीय उद्देशक 137-139 सम्यग्ज्ञान : प्रास्त्रव-परिस्रव चर्चा तृतीय उद्देशक 140-172 सम्यक तप : दुःख एवं कर्मक्षय विधि चतुर्थ उद्देशक सम्यक्चारित्र : साधना के सन्दर्भ में लोकसार : पंचम अध्ययन (6 उद्देशक) पृष्ठ 145 से 189 प्रथम उद्देशक 147-148 काम : कारण और निवारण 149 संसार-स्वरूप-परिज्ञान 150-151 प्रारम्भ-कषाय-पद द्वितीय उद्देशक 152-153 अप्रमाद का पथ 154-156 परिग्रहत्याग की प्रेरणा तृतीय उद्देशक मुनि-धर्म की प्रेरणा तीन प्रकार के साधक 159-160 अन्तरलोक का युद्ध सम्यक्त्व-मुनित्व की एकता चतुर्थ उद्देशक 162 चर्याविवेक 163 कर्म का बंध और मुक्ति 164-165 ब्रह्मचर्य-विवेक पंचम उद्देशक प्राचार्य महिमा 167-168 सत्य में दृढ़ श्रद्धा सम्यक्-असम्यक् विवेक 170 अहिंसा की व्यापक दृष्टि आत्मा ही विज्ञाता षष्ठ उद्देशक 172-173 प्राज्ञा-निर्देश 152-156 156-159 161-163 163-165 166-171 171-172 172-175 176-177 177-179 179-181 181-182 182-183 183-186 [45 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 186-187 187 सूत्रांक 174-175 पासक्तित्याग के उपाय 176 मुक्तात्म-स्वरूप धूत : षष्ठ अध्ययन (5 उद्देशक) पृष्ठ 192 से 236 प्रथम उद्देशक 177 सम्यग्ज्ञान का आख्यान 178 मोहाच्छन जीव की करुणदशा 179-180 प्रात्म-कृत दुःख 181-182 धूतवाद का व्याख्यान द्वितीय उद्देशक 183 सर्वसंग-परित्यागी धूत का स्वरूप 184-185 विषय-विरतिरूप उत्तरवाद 186 एकचर्या निरूपण तृतीय उद्देशक 187-188 उपकरण-लाघव 189 असंदीनद्वीप तुल्य धर्म 192-193 193-195 195-198 199-203 203-206 206-211 211-213 213-219 219-221 चतर्थ उद्देशक 221-227 227-230 230-236 240-243 243-245 245-247 247-249 190-191 गौरवत्यागी 192-195 बाल का निकृष्टाचरण पंचम उद्देशक 196-198 तितिक्षु धूत का धर्म-कथन महापरिज्ञा : सप्तम अध्ययन (विच्छिन्न) पृष्ठ 237 से 238 विमोक्ष : अष्टम : अध्ययन (8 उद्देशक) पृष्ठ 239 से 302 प्रथम उद्देशक असमनोज्ञ-विवेक 200 असमनोज्ञ प्राचार-विचार-विमोक्ष 201-202 मतिमान माहन प्रवेदित-धर्म दण्डसमारम्भ-विमोक्ष द्वितीय उद्देशक 204-206 अकल्पनीय-विमोक्ष 207-208 समनोज्ञ-असमनोज्ञ आहार-दान विधि-निषेध तृतीय उद्देशक 209 गहवास-विमोक्ष 210 अकारण-ग्राहार-विमोक्ष 211-212 अग्निसेवन-विमोक्ष चतुर्थ उद्देशक 213-214 उपधि-विमोक्ष 215 शरीर-विमोक्ष बैहानसादि-मरण पंचम उद्देशक 216-217 द्विवस्त्रधारी श्रमण का समाचार 250-254 255 255-257 257-259 260-261 261-264 265-267 267-268 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 268-269 269-273 219 222 273-274 274-276 276-277 277-282 282-284 284-286 286-289 228 289-290 291-296 296-298 298-302 सूत्रांक 218 ग्लान अवस्था में आहार-विमोक्ष वैयावृत्य प्रकल्प षष्ठ उद्देशक 220-221 एक वस्त्रधारी श्रमण का प्राचार पर-सहाय-विमोक्ष : एकत्व अनुप्रेक्षा के रूप में 223 स्वाद-परित्याग प्रकल्प 224 संलेखना एवं इंगितमरण सप्तम उद्देशक 225-226 अचेलकल्प 227 अभिग्रह एवं वैयावृत्यप्रकल्प संलेखना-पादोपगम अनशन __अष्टम उद्देशक 229 प्रानुपूर्वी अनशन 230-239 भक्तप्रत्याख्यान अनशन तथा संलेखनाविधि 240-246 इंगितमरण रूप विमोक्ष 247-253 प्रायोपगमन अनपान रूप विमोक्ष उपधान श्रुत : नवम अध्ययन (4 उद्देशक) पृष्ठ 305 से 342 प्रथम उद्देशक 254-257 भगवान् महावीर की विहार चर्या 258-264 ध्यान-साधना 265-276 अहिंसा-विवेकयुक्त चर्या द्वितीय उद्देशक 277-280 शय्या-ग्रासनचर्या 281-282 निद्रात्यागचर्या 283-284 विविध उपसर्ग 285-288 स्थान-परीवह 289-292 शीत-परीषह तृतीय उद्देशक लाढदेश में उत्तम तितिक्षा साधना क (भगवान महावीर का उग्रतपश्चरण) 307-309 अचिकित्सा-प्रपरिकर्म 310-319 तप एवं आहार चर्या 320-323 ध्यान-साधना परिशिष्ट : पृष्ठ 339 से 376 'जाव' शब्द संकेतित सूत्र सूचना विशिष्ट शब्द सूची गाथानों की अनुक्रमणिका विवेचन में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थसूचि 305-308 308-312 312-319 319-320 320-321 321 322 323-326 326-331 331-332 332-335 335-338 341 343 371 373 [47 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-भय-सिरिसुहम्मसामिविरइयं पढमं अंग आयारंगसुत्तं पढमो सुयक्खंधो पंचमगणधर-भगवत्-सुधर्मास्वामि-प्रणीत-प्रथम अंग आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्ग सूत्र शस्त्रपरिज्ञा–प्रथम अध्ययन प्राथमिक V आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का नाम 'शस्त्रपरिज्ञा' है / V. शस्त्र का अर्थ है-हिंसा के उपकरण या साधन / जो जिसके लिए विनाशक या मारक होता है, वह उसके लिए शस्त्र है।' चाक, तलवार आदि हिंसा के बाह्य साधन, द्रव्य शस्त्र हैं। राग-द्वेषयुक्त कलुषित परिणाम भाव-शस्त्र हैं। V परिज्ञा का अर्थ है ज्ञान अथवा चेतना / इस शब्द से दो अर्थ ध्वनित होते हैं 'ज्ञ-परिज्ञा' द्वारा वस्तुतत्त्व का यथार्थ परिज्ञान तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा' द्वारा हिंसादि के हेतुों का त्याग / Je शस्त्र-परिज्ञा का सरल अर्थ है हिंसा के स्वरूप और साधनों का ज्ञान प्राप्त करके उनका त्याग करना। Ve हिंसा की निवृत्ति अहिंसा है। अहिंसा का मुख्य आधार है----प्रात्मा / आत्मा का ज्ञान होने पर ही अहिंसा में आस्था दृढ़ होती है, तथा अहिंसा का सम्यक् परिपालन किया जा सकता है। प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में सर्वप्रथम 'आत्म-संज्ञा' आत्मबोध की चर्चा करते हुए बताया है कि कुछ मनुष्यों को प्रात्म-बोध स्वयं हो जाता है, कुछ को उपदेश-श्रवण व शास्त्र अध्ययन आदि से होता है। आत्म-बोध होने पर आत्मा के अस्तित्व में विश्वास होता है, तब वह प्रात्मवादी बनता है। आत्मवादी ही अहिंसा का सम्यक् परिपालन कर सकता है। इस प्रकार आत्म-अस्तित्व की चर्चा के बाद हिंसा-अहिंसा की चर्चा की गई है। हिंसा के हेतु-निमित्त कारणों की चर्चा, षट्काय के जीवों का स्वरूप, उनकी सचेतनता की सिद्धि, हिंसा से होने वाला आत्म-परिताप, कर्मबन्ध, तथा उससे विरत होने का उपदेश-प्रादि विषयों का सजीव शब्दचित्र प्रथम अध्ययन के सात उद्देशकों एवं बासठ सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है / 1. जं जस्स विणासकारणं तं तस्स सत्थं भग्णति---नि० 0 उ० 1 अभिधानराजेन्द्र भाग 7 पृष्ठ 331 2. आचारांग नियुक्ति गाथा 25 / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सत्थपरिण्णा' पढमं अज्झयणं पढमो उद्देसओ शस्त्रपरिज्ञा; प्रथम अध्ययन प्रथम : उद्देशक अस्तित्व बोध 1 : सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायंइहमेगेसि जो सण्णा भवति / तं जहापुरथिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगतो अहमंसि, पच्चत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उत्तरातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उड्ढातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, अहेदिसातो वा आगतो अहमंसि, अन्नतरोतो दिसातो वा अणुदिसातो वा आगतो अहमंसि / एवमेगेसि णो णातं भवति-अस्थि मे आया उववाइए, गस्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि / 1 : आयुष्मन ! मैंने सुना है। उन भगवान् (महावीर स्वामी) ने यह कहा है ---यहाँ संसार में कुछ प्राणियों को यह संज्ञा (ज्ञान) नहीं होती। जैसे-- “मैं पूर्व दिशा से आया हूँ अथवा दक्षिण दिशा से आया हूँ अथवा पश्चिम दिशा से आया हूँ अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ अथवा ऊर्ध्व दिशा से पाया हूँ अथवा अधोदिशा से आया है। अथवा किसी अन्य दिशा से या अनुदिशा (विदिशा) से आया हूँ। इसी प्रकार कुछ प्राणियों को यह ज्ञान नहीं होता कि मेरी मात्मा श्रीपपातिक-जन्म धारण करने वाली है अथवा नहीं ? मैं पूर्व जन्म में कौन था ? मैं यहां से च्युत होकर आयुष्य पूर्ण करके अगले जन्म में क्या होऊँगा?" विवेचन-चरिण एवं शीलांकवृत्ति में आउस के दो पाठान्तर भी मिलते हैं--आवसंतेणं सथा आमुसंतेणं / क्रमशः उनका भाव है-'भगवान् के निकट में रहते हुए तथा उनके चरणों Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध का स्पर्श करते हुए' मैंने यह सुना है। इससे यह सूचित होता है कि सुधमास्वामी ने यह वाणी भगवान् महावीर से साक्षात् उनके बहुत निकट रहकर सुनी है। संज्ञा का अर्थ है, चेतना / इसके दो प्रकार हैं, ज्ञान-चेतना और अनुभव-चेतना / अनुभव-चेतना (संवेदन) प्रत्येक प्राणी में रहती है / ज्ञान-चेतना-विशेष-बोध, किसी में कम विकसित होती है, किसी में अधिक / अनुभव-चेतना (संज्ञा) के सोलह एवं ज्ञान-चेतना के पाँच भेद हैं।' चेतन का वर्तमान अस्तित्व तो सभी स्वीकार करते हैं, किन्तु अतीत (पूर्व-जन्म) और भविष्य (पुनर्जन्म) के अस्तित्व में सब विश्वास नहीं करते। जो चेतन की त्रैकालिक सत्ता में विश्वास रखते हैं वे प्रात्मवादी होते हैं / यद्यपि बहुत से प्रात्मवादियों में भी अपने पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, कि 'मैं यहाँ संसार में किस दिशा या अनुदिशा से आया हूँ। मैं पूर्वजन्म में कौन था ?' उन्हें भविष्य का यह ज्ञान भी नहीं होता कि 'यहाँ से आयुष्य पूर्ण कर मैं कहाँ जाऊंगा! क्या होऊंगा?' पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी ज्ञान-चेतना की चर्चा इस सूत्र में की गई है / नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु ने 'दिशा शब्द का विस्तार से विवेचन करते हुए बताया है- 'जिधर सूर्य उदय होता है उसे पूर्वदिशा कहते हैं। पूर्व आदि चार दिशाएँ, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य एवं वायव्यकोण: ये चार अन दिशाएँ, तथा इनके अन्तराल में पाठ विदिशाएँ, ऊर्व तथा अधोदिशा--इस प्रकार 18 द्रव्य दिशाएँ हैं। मनष्य, तिर्यंच, स्थावरकाय और वनस्पति की 4-4 दिशायें तथा देव एवं नारक इस प्रकार 18 भावदिशाएँ होती हैं। मनुष्य को चार दिशाएँ सम्मूच्छिम, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज / तिर्यंच की चार दिशाएँ-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / स्थावरकाय की चार दिशाएँ-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय / वनस्पति की चार दिशाएँ अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज और पर्वबीज / 2. से ज्जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए परवागरणेणं अण्णसि वा अंतिए सोच्चा, तं जहा-पुरस्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि एवं दविखणाओ वा पच्चस्थिमाओ वा उत्तराओ वा उड्ढाओ वा अहाओ वा अन्नतरोओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगतो अहमंसि / एवमेसि जंणातं भवति-अस्थि मे आया उववाइए जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अगुसंचरति, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सो हं। 3. से आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी। 1. अनुभव संज्ञा-पाहार, भय, मैथुन, परिग्रह, सुख, दुःख, मोह, "विचिकित्सा, "क्रोध, १°मान, ११माया, १२लोभ, १३शोक, 1 "लोक, १५धर्म एवं १५ोघसंज्ञा / —प्राचा० शीलांकवृत्ति पत्रांक 11 ज्ञान संज्ञा-मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यव एवं 'केवलज्ञान-संज्ञा ।-नियूक्ति 38 2. नियुक्ति गाथा 47 से 54 तक। 3. 'सह सम्मुतियाए' सह सम्मइयाए' सहसम्मइए'–पाठान्तर है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 2-3 .. 2. कोई प्राणी अपनी स्वमति–पूर्वजन्म की स्मृति होने पर स्व-बुद्धि से, अथवा तीर्थंकर आदि प्रत्यक्षज्ञानियों के वचन से, अथवा अन्य विशिष्ट श्र तज्ञानी के निकट में उपदेश सुनकर यह जान लेता है, कि मैं पूर्वदिशा से आया हूँ, या दक्षिणदिशा, पश्चिमदिशा, उत्तरदिशा, ऊर्ध्वदिशा या अधोदिशा अथवा अन्य किसी दिशा या विदिशा से पाया हूँ।' कुछ प्राणियों को यह भी ज्ञात होता है-मेरी आत्मा भवान्तर में अनुसंचरण करने वाली है, जो इन दिशाओं, अनुदिशाओं में कर्मानुसार परिभ्रमण करती है / जो इन सब दिशाओं और विदिशाओं में गमनागमन करती है, वही मैं (आत्मा ) हूँ। ___ 3. (जो उस गमनागमन करने वालो परिणामी नित्य आत्मा को जान लेता है) वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है / विवेचन-उक्त दो सूत्रों में चर्मचक्षु से परोक्ष प्रात्मतत्त्व को जानने के तीन साधन बताये हैं 1. पूर्वजन्म की स्मृतिरूप जाति-स्मरणज्ञान तथा अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान होने पर, स्व-मति से, 2. तीर्थकर, केवली आदि का प्रवचन सुनकर, 3. तीर्थंकरों के प्रवचनानुसार उपदेश करने वाले विशिष्ट ज्ञानी के निकट में उपदेश प्रादि सुनकर / ' उक्त कारणों में से किसी से भी पूर्व-जन्म का बोध हो सकता है। जिस कारण उसका ज्ञान निश्वयात्मक हो जाता है कि इन पूर्व आदि दिशाओं में जो गमनागमन करती है, वह आत्मा 'मैं' ही हूँ। प्रथम सूत्र में “के अहं आसी ?" मैं कौन था—यह पद अात्मसम्बन्धी जिज्ञासा की जागृति का सूचक है। और द्वितीय सूत्र में 'सो हं' "वह मैं हूँ". यह पद उस जिज्ञासा का समाधान है-प्रात्मवादी आस्था की स्थिति है। परिणामी एवं शाश्वत प्रात्मा में विश्वास होने पर ही मनुष्य प्रात्मवादी होता है। आत्मा को मानने वाला लोक-(संसार) स्थिति को भी स्वीकार करता है, क्योंकि प्रात्मा का भवान्तर-संचरण लोक में ही होता है / लोक में आत्मा का परिभ्रमण कर्म के कारण होता है, 1. प्राचा० शीलांकवृत्ति पत्रांक 18 __ कुछ विद्वानों ने प्रागमगत 'सोह' पद की तुलना में उपनिषदों में स्थान-स्थान पर आये 'सोऽहं' शब्द को उद्धृत किया है / हमारे विचार में इन दोनों में शाब्दिक समानता होते हुए भी भाव की दृष्टि से कोई समानता नहीं है / आगमगत 'सो हं' शब्द में भवान्तर में अनुसंचरण करने वाली प्रात्मा की प्रतीति करायी गई है, जबकि उपनिषद्गत 'सोऽहं' शब्द में प्रात्मा की परमात्मा के साथ सम-अनुभूति दर्शायी गई है। जैसे--- सोहमस्मि, स एवाहमस्मि'-छा० उ० 4 / 11 / 1 / प्रादि / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचाररांग सूत्र-प्रथम उद्देशक इसलिए लोक को मानने वाला कर्म को भी मानेगा तथा कर्मबन्ध का कारण है-किया. अर्थात् शुभाशुभ योगों की प्रवृत्ति / इस प्रकार आत्मा का सम्यक् परिज्ञान हो जाने पर लोक का, कर्म का, किया का परिज्ञान भी हो जाता है। अतः वह प्रात्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी भी है। आगे के सूत्रों में हिंसा-अहिंसा का विवेचन किया जायेगा / अहिंसा का आधार अात्मा है। आत्म-बोध होने पर ही अहिंसा व संयम को साधना हो सकती है। अतः अहिंसा की पृष्ठभूमि के रूप में यहाँ आत्मा का वर्णन किया गया है। आत्रव-संवर-बोध 4. अकरिस्सं च है, काराविस्संच है, करओ यावि समणणे भविस्सामि / 5. एयाति सव्वाति लोगंसि कामसमारंभा परिजाणियदा भनेति / . 4. (वह आत्मवादी मनुष्य यह जानता/मानता है कि)___ मैंने क्रिया की थी। मैं क्रिया करवाता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूंगा। 5. लोक-संसार में ये सव क्रियाएँ कर्म-समारंभ-(हिसा की हेतुभूत) हैं, अतः ये सब जानने तथा त्यागने योग्य हैं / विवेचन–चतुर्थ सूत्र में क्रिया के भेद-प्रभेद का दिग्दर्शन कराया गया है। क्रिया कर्मबन्ध का कारण है, कर्म से आत्मा संसार में परिभ्रमरण करता है। अत: संसारभ्रमरण से मुक्ति पाने के लिए क्रिया का स्वरूप जानना और उसका त्याग करना नितांत अावश्यक है। मैंने क्रिया की थी, इस पद में अतीतकाल के नौ भेदों का संकलन किया है—जैसे, क्रिया की थी, करवाई थी, करते हुए का अनुमोदन किया था, मन से, वचन से, कर्म से। इसी प्रकार वर्तमानपद 'करवाता हूँ' में भी करता हूँ, करवाता हूँ, करते हुए का अनुमोदन करता हूँ, तथा भविष्यपद क्रिया करूगा, करवाऊँगा, करते हुए का अनुमोदन करूंगा, मन से, वचन से, कर्म से, ये नव-नव भंग बनाये जा सकते हैं। इस प्रकार तीन काल के, क्रिया के 27 विकल्प हो जाते हैं। ये 27 विकल्प ही कर्म-समारंभ/हिंसा के निमित्त हैं, इन्हें मम्यक प्रकार से जान लेने पर क्रिया का स्वरूप जान लिया जाता है।' क्रिया का स्वरूप जान लेने पर ही उसका त्याग किया जा सकता है। क्रिया संसार का कारण है, और प्रक्रिया मोक्ष का / अकिरिया सिद्धी-पागम-वचन का भाव यही है कि क्रिया/पाश्रव का निरोध होने पर ही मोक्ष होता है। 1. प्राचारांग शीलांक टीका पत्रांक 21 2. भगवती सूत्र 2 / 5 सूत्र 111 (अंगसुत्तारिण) / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 4-7 6. अपरिण्णायकम्मे खल अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणसंचरति, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति। 7. तस्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता। इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए' दुक्खपडिघातहेतु। 6. यह पुरुष, जो अपरिज्ञातकर्मा है (क्रिया के स्वरूप से अनभिज्ञ है, इसलिए उसका अत्यागी है) वह इन दिशाओं व अनुदिशाओं में अनुसंचरण/परिभ्रमण करता है। अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं/अनुदिशाओं में जाता है। अनेक प्रकार की जीव-योनियों को प्राप्त होता है। वहां विविध प्रकार के स्पर्शो (सुख-दुख के ग्राघातो) का अनुभव करता है। 7. इस सम्बन्ध में ( कर्म-बन्धन के कारणों के विषय में ) भगवान् ने परिज्ञा. विवेक का उपदेश किया है। (अनेक मनुष्य इन पाठ हेतुओं से कर्मसमारंभ-हिंसा करते हैं)-- 1. अपने इस जीवन के लिए, 2. प्रशंसा व यश के लिए, 1. चूगि में-भोयणाए-पाठान्तर भी है, जिसका भाव है, जन्म-मरण सम्बन्धी भोजन के लिए। 2. आगमों में 'स्पर्श' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। साधारणतः त्वचा-इन्द्रियग्नाह सुख-दुःखात्मक संवेदन/अनुभूति को स्पर्श कहा गया है, किन्तु प्रसंगानुसार इससे भिन्न-भिन्न भावों की सूचना भी दी गई है। जैसे—सूत्रकृतांग (1 / 3 / 1 / 17) में एते भो कसिमा फासा–से स्पर्श का अर्थ परीषह किया है / प्राचारांग में अनेक अर्थो में इसका प्रयोग हुअा है। जैसे-इन्द्रिय-सुख (सूत्र 164) गाढ प्रहार प्रादि से उत्पन्न पीड़ा (सूत्र 179 / गाथा 15) उपताप व दुख विशेष (सूत्र 206) अन्य सूत्रों में भी 'स्पर्श' शब्द प्रसंगानुसार नया अर्थ व्यक्त करता रहा है / जैसे--- परस्पर का संघट्टन (छूना) बृहत्कल्प 13 सम्पर्क सम्बन्ध, सूत्रकृत् 111 स्पर्शना--प्राराधना बहत्कल्प 112 स्पर्शन-अनुपालन करना ---भगवती 157 गीता (2 / 14, 5/21) में इन्द्रिय-सुख के अर्थ में स्पर्श शब्द का अनेक वार प्रयोग हया है। बौद्ध ग्रन्थों में इन्द्रिय-सम्पर्क के अर्थ में 'फस्स' शब्द व्यवहत हुआ है। (मज्झिमनिकाय सम्मादिट्टि सुन 3. परिज्ञा के दो प्रकार हैं—(१) ज्ञ-परिज्ञा-वस्तु का बोध करना / सावध प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है यह जानना तथा (2) प्रत्याख्यान-परिज्ञा-बंधहेतु सावद्ययोगों का त्याग करना / —"तत्र ज्ञपरिज्ञया, सायद्यव्यापारेरण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा प्रवेदिता प्रत्याख्यानपरिजया च सापचय रंगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरुपा चेति / " -आचाशीलांक टीका पत्रांक 23 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र—प्रथम श्र तस्कन्ध 3. सम्मान की प्राप्ति के लिए, 4. पूजा आदि पाने के लिए, 5. जन्म-सन्तान आदि के जन्म पर, अथवा स्वयं के जन्म निमित्त से, 6. मरण-मृत्यु सम्बन्धी कारणों व प्रसंगों पर, 7. मुक्ति की प्रेरणा या लालसा से, (अथवा जन्म-मररण से मुक्ति पाने की इच्छा से) 8. दु:ख के प्रतीकार हेतु-रोग, आतंक, उपद्रव प्रादि मिटाने के लिए। 8. एयाति सव्वायंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवति / 9. जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णया भांति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। ॥पढमो उद्देसओ समत्तो॥ 8. लोक में (उक्त हेतुओं से होने वाले) ये सब कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं। 9. लोक में ये जो कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है (और त्याग देता है) वही परिज्ञातकर्मा' मुनि होता है / / —ऐसा मैं कहता हूँ। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त // बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक पृथ्वीकायिक जीवों की हिमा का निषेध 10. अट्ट लोए परिजुण्णे दुस्संबोधे अविजाणए। अस्सिं लोए पटवाहिए तत्थ तस्थ पुढो पास आतुरा परिताति / 10. जो मनुष्य आर्त, (विषय-वासना-कषाय-आदि से पीड़ित) है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण/हीन रहता है। ऐसे व्यक्ति को समझाना कठिन होता है, क्योंकि वह अज्ञानी जो है। अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीड़ा का अनुभव करता है। काम, भोग व सुख के लिए अातुर लालायित बने प्रारणी स्थान-स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप (कष्ट) देते रहते है। यह तू देख ! समझ! 1. परिज्ञातानि, जपरिज्ञया स्वरुपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिजया च परिहतानि कर्मारिण येन स परिज्ञातकर्मा / -स्थानांगवत्ति 3 / 3 (अभि. रा. भाग 5 पृ० 622) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 8-14 11. संति पाणा पुढो सिआ / 11. पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में पाश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येकशरीरी होते हैं। 12. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवत्यहि सत्थेहि पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 12. तू देख! प्रात्म-साधक, लज्जमान है.---(हिंसा से स्वयं का संकोच करता हुअा अर्थात् हिंसा करने में लज्जा का अनुभव करता हुअा संयममय जीवन जीता है।) __ कुछ साधु वेषधारी 'हम गृहत्यागी हैं' ऐसा कथन करते हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीसम्बन्धी हिंसा-क्रिया में लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों को भी हिंसा करते हैं। 13. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता / इमस्स चेव जीवियस्स परिचंदण-माणणपूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघातहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा पुढविसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणति / तं से अहिआए, तं से अबोहीए। 13. इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है। कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा-सम्मान और पूजा के लिए, जन्म मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। उसकी अबोधि अर्थात् ज्ञानबोधि, दर्शन-बोधि, और चारित्र-बोधि की अनुपलब्धि के लिए कारणभूत होती है। 14. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा इहमेगेसि णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। 1. जो वस्तु, जिस जीवकाय के लिए मारक होती है, वह उसके लिए शस्त्र है। नियुक्तिकार ने (गाथा 95-96) में पृथ्वीकाय के शस्त्र इस प्रकार गिनाये हैं ---- 1. कुदाली आदि भूमि खोदने के उपकरण 2. हल आदि भूमि विदारण के उपकरण 3. मृगशग 4. काठ-लकड़ी तृण आदि 5. अग्निकाय 6. उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र); स्वकाय शस्त्र; जैसे-काली मिट्टी का शस्त्र पीली मिट्टी, आदि 8. परकाय अस्त्र; जैसे-जल आदि, 9. तदुभय शस्त्र; जैसे--मिट्टी मिला जल; 10. भावशस्त्र---असंयम / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध इच्चत्थं गढिए लोए, जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि पुढविकम्भसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 14. वह साधक (संयमी) हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुना, आदानीय---संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों को भगवान के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि यह जीव-हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।' (फिर भी) जो मनुष्य सुख प्रादि के लिए जीवहिंसा में ग्रासक्त होता है, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी-सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जोवों की हिंसा करता हैं / और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, अपितु अन्य नानाप्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है। विवेचन-चरिण में 'आदानीय' का अर्थ संयम तथा 'विनय' किया है। इस सूत्र में आये 'ग्रन्थ' आदि शब्द एक विशेष पारम्परिक अर्थ रखते हैं / साधारणत: 'ग्रन्थ' शब्द पुस्तक विशेष का सूचक है / शब्दकोष में ग्रन्थ का अर्थ 'गांठ' (ग्रन्थि) भी किया गया है जो शरीरविज्ञान एवं मनोविज्ञान में अधिक प्रयुक्त होता है। जैनसूत्रों में आया हुआ 'ग्रन्थ' शब्द इनसे भिन्न अर्थ का द्योतक है। ___ आगमों के व्याख्याकार आचार्य मलयगिरि के अनुसार—"जिसके द्वारा, जिससे तथा जिसमें बँधा जाता है वह ग्रन्थ है।" उत्तराध्ययन, आचारांग, स्थानांग, विशेषावश्यक भाष्य आदि में कपाय को ग्रन्थ या ग्रन्थि कहा है / आत्मा को बाँधने वाले कषाय या कर्म को भी ग्रन्थ कहा गया है / ग्रन्थ के दो भेद हैं----द्रव्य ग्रन्थ और भाव ग्रन्थ / द्रव्य ग्रन्थ दश प्रकार का परिग्रह है(१) क्षेत्र, (2) वास्तु, (3) धन, (4) धान्य, (5) संचय,--तृण काष्ठादि, (6) मित्र-ज्ञातिसंयोग, (7) यान-वाहन, (8) शयनासन, (9) दासी-दास और (10) कुप्य / भावग्रन्थ के 14 भेद हैं-(१) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ, (5) प्रेम, (6) द्वेष, (7) मिथ्यात्व, (8) वेद, (9) अरति, (10) रति, (11) हास्य, (12) शोक, (13) भय और (14) जुगुप्सा / प्रस्तुत सूत्र में हिंसा को ग्रन्थ या ग्रन्थि कहा है, इस सन्दर्भ में प्रागम-गत उक्त सभी अर्थ या भाव इस शब्द में ध्वनित होते हैं / ये सभी भाव हिंसा के मूल कारण ही नहीं, बल्कि स्वयं भी हिसा है / अतः 'ग्रन्थ' शब्द में ये सब भाव निहित समझने चाहिए। ___ 'मोह' शब्द राग या विकारी प्रेम के अर्थ में प्रसिद्ध है। जैन आगमों में 'मोह' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुअा है / राग और द्वेष-दोनों ही मोह हैं / सदसद् विवेक का नाश', 1. गथिज्जइ तेग तो तम्मि व तो तं मयं गंधी--विशेषा० 1383 (अभि. गजेन्द्र 31739) 2. अभि. राजेन्द्र भाग 31793 में उदधृत 3. वृहत्कल्प उद्देशक 1 गा 10-14 4. सूत्रकृतांग श्र० 1 अ. 4 उ. 2 गा० 225. स्थानांग 3 / 4 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 15 11 हेय-उपादेय बुद्धि का अभाव', अज्ञान, विपरीतबुद्धि, मूढ़ता, चित्त की व्याकुलता, मिथ्यात्व तथा कषायविषय आदि की अभिलाषा, यह सब मोह है। ये सब 'मोह' शब्द के विभिन्न अर्थ हैं / सत्य तत्व को अयथार्थ रूप में समझना दर्शनमोह, तथा विषयों को संगति (आसक्ति) चरित्रमोह है। धवला (81283 / 9) के अनुसार भाव ग्रन्थ के 14 भेद मोह में हो सम्मिलित हैं। उक्त सभी प्रकार के भाव, हिंसा के प्रबल कारग हैं, अतः स्वयं हिसा भी है / _ 'मार' शब्द मृत्यु के अर्थ में ही प्रायः प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध ग्रन्थों में मृत्यु; काम का प्रतीक तथा क्लेश के अर्थ में 'मार शब्द का प्रयोग हुना है। ___ 'नरक' शब्द पापकमियों के यातनास्थान के अर्थ में ही आगमों में प्रयुक्त हना है / सुत्रकृतांगटोका में 'नरक' शब्द का अनेक प्रकार से विवेचन किया गया है। अशुभ रूप-रसगन्ध-शब्द-स्पर्श को भी नोकर्म द्रव्यनरक माना गया है / नरक प्रायोग्य कर्मों के उदय (अपेक्षा से कर्मोपार्जन की क्रिया) को भावनरक' बताया है। हिंसा को इसी दष्टि से नरक कहा गया हैं कि नरक के योग्य कर्मोपार्जन का वह सबमे प्रबल कारण है, इतना प्रबल, कि वह स्वयं नरक ही है / हिंसक की मनोदना भी नरक के समान क्रूर व अशुभतर होती है / 10 . पृथ्वोकायिक जीवों का वेदना-बोध १५-से बेमिअप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पादमब्मे, अप्पेगे पादमच्छ, अखेगे गुप्फमदभे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणमब्भे, अप्पेये जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरमभे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्मे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्भे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेगे उदरभरभे, अप्पो उदरमच्छे, अप्पेगे परमले, अप्पे पासमच्छे, अप्पेगे पिहिमभे, अप्पेगे पिदुमच्छे अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छ, अप्पेगे हिययमबभे, अप्पेगे हिय मच्छे, अप्येगे थणमब्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंवमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे बाहुमन्भे, अप्पेगे बाहमच्छे, अप्पेगे हत्थबभे, अप्पेगे हत्थच्छे, अप्पेगे अंगुलिमन्भे अप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पेगे जहमन्भे अप्पेगे णहमच्छ, अप्पेगे गीवमन्भे, अप्पेगे गीवमच्छे, अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुयमच्छे, अप्पेगे होटुमब्भे, अप्पेगे होटुमच्छे, अप्पेगे दंतमम्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिब्भभन्भे, अपेगे जिब्भमच्छे, 1. उत्तराध्ययन 3 // 2. वही। 3. विशेषावश्क (अभि. रा. मोह' शब्द) 4. ज्ञाता 18 5. सूत्रकृतांग 1, अ. 4 उ. 1 गा. 31 6. प्राचा० शी टीका 7. प्रवचनसार 85 8. प्रागम और त्रिपि० 667 1. (अ) पापकमिणां यातनास्थानेषु --सूत्र० वृति 21 (ख) राजवार्तिक 2050 / 2-3 10. सूत्रकृतांग, 11531 नरकषिभक्ति अध्ययन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांण सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अप्पेगे तालुभमन्भे, अस्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमब्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पगे गंडमम्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अज्छिमब्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमन्भे, अप्पेगे भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्भे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सोसमन्भे, अप्पेगे सीसमच्छे / अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। 15. मैं कहता हूँ (जैसे कोई किसी जन्मान्ध व्यक्ति को (मूसल-भाला आदि से) भेदे चोट करे या तलवार आदि से छेदन करे, उसे जैसी पीड़ा की अनुभूति होती है, वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।) जैसे कोई किसी के पैर में, टखने पर, घुटने, उरु, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व-पसली पर, पोठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधे, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, (गर्दन) ठुड्डी, होठ, दाँत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, अाँख, भौंह, ललाट, और शिर का (शस्त्र से) भेदन छेदन करे,(तब उसे जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।) जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर, मूच्छित करदे, या प्राण-वियोजन ही करदे, उसे जैसी कष्टानुभूति होती है, वैसी ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझना चाहिए। विवेचन-~पिछले सूत्रों में पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है। पृथ्वीकायिक जीवों में चेतना अव्यक्त होती है। उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ भी स्पष्ट दीखती नहीं, अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि पृथ्वीकायिक जीव न चलता है, न बोलता है, न देखता है, न सुनता है, फिर कैसे माना जाय कि वह जीव है ? उसे भेदन-छेदन करने से कष्ट का अनुभव होता है ? इस शंका के समाधान हेतु सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त देकर पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना का बोध तथा अनुभूति कराने का प्रयत्न किया है / प्रथम दृष्टान्त में बताया है-कोई मनुष्य जन्म से अंधा, बधिर, मुक या पंगु है / कोई पुरुष उसका छेदन-भेदन करे तो वह उस पीड़ा को न तो वाणी से व्यक्त कर सकता है, न त्रस्त होकर चल सकता है, न अन्य चेष्टा से पीड़ा को प्रकट कर सकता है। तो क्या यह मान लिया जाय कि वह जीव नहीं है, या उसे भेदन-छेदन करने से पीड़ा नहीं होती है ? जैसे वह जन्मान्ध व्यक्ति वाणी, चक्षु, गति आदि के अभाव में भी पीड़ा का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव इन्द्रिय-विकल अवस्था में पीड़ा की अनुभूति करते हैं। 1. यहाँ 'अन्ध' शब्द का अर्थ जन्म से इन्द्रिय-विकल-बहरा, मूगा, पंगु तथा अवयवहीन समझना चाहिए। -आवा० शीलांटीका 351 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 16-18 13 दूसरे दृष्टान्त में किसी स्वस्थ मनुष्य की उपमा से बताया है, जैसे उसके पैर, आदि बत्तीस अवयवों का एक साथ छेदन-भेदन करते हैं, उस समय वह मनुष्य न भली प्रकार देख सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है, न चल सकता है, किन्तु इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि उसमें चेतना नहीं है या उसे कष्ट नहीं हो रहा है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव में व्यक्त चेतना का अभाव होने पर भी उसमें प्राणों का स्पन्दन है, अनुभवचेतना विद्यमान है, अतः उसे भी कष्टानुभूति होती है। तीसरे दृष्टान्त में मूच्छित मनुष्य के साथ तुलना करते हुए बताया है कि जैसे मूच्छित मनुष्य की चेतना बाहर में लुप्त होती है, किन्तु उसकी अन्तरंग चेतना-अनुभूति लुप्त नहीं होती, उसी प्रकार स्त्यानगृद्धिनिद्रा के सतत उदय से पृथ्वीकायिक जीवों की चेतना मूच्छित व अव्यक्त रहती है / पर वे अान्तर चेतना से शून्य नहीं होते। उक्त तीनों उदाहरण पृथ्वीकायिक जीवों की सचेतनता तथा मनुष्य शरीर के समान पीड़ा की अनुभूति स्पष्ट करते हैं / भगवती सूत्र (श० 19 उ० 35) में बताया है. जैसे कोई तरुण और बलिष्ठ पुरुष किसी जरा-जीर्ण पुरुष के सिर पर दोनों हाथों से प्रहार करके उसे आहत करता है, तब वह जैसी अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त होने पर होता है। 16. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिग्णाता भवंति / एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति / 17. तं परिणाय मेहावी व सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहि पुढविसस्थं समारंभावेज्जा, वऽणे-पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। 18. जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भगति से हु मुणो परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। बिइओ उसओ समत्तो॥ 16. जो यहाँ (लोक में) पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का सभारंभ-प्रयोग करता है, वह वास्तव में इन प्रारंभों (हिंसा सम्बन्धी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों व जीवों की वेदना) से अनजान है। जो पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ/प्रयोग नहीं करता, वह वास्तव में इन प्रारंभों/हिंसा-सम्बन्धी प्रवृत्तियों का ज्ञाता है, (वही इनसे मुक्त होता है) 17. यह (पृथ्वीकायिक जोवों की अव्यक्त बेदना) जानकर बुद्धिमान मनष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे / जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारंभ को जान लिया अर्थात् हिमा के कटु परिणाम को जान लिया वही परिज्ञातकर्मा (हिमा का त्यागी) मुनि होता है। ----ऐसा मैं कहता हूँ। // द्वितीय उद्देशक समाप्त / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचहरांग सूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्या तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक अनगार-लक्षण 19. से बेमि-से जहा वि अणगारे उज्जुकडे णियागपडिवणे' अमायं कुब्बमाणे वियाहिते। 19. मैं कहता हूँ—जिस आचरण से अनगार होता है / जो, ऋजुकृत्-सरल आचरण वाला हो, नियाग-प्रतिपन्न-मोक्ष मार्ग के प्रति एकनिष्ठ होकर चलना हो, नमायकपट रहित हो, विवेचन----प्रस्तुत सूत्र में 'अनगार' के लक्षण बताये हैं / अपने पाप को 'अनगार कहने मात्र से कोई अनगार नहीं हो जाता। जिसमें निम्न तीन लक्षण पाये जाते हों, वही वास्तविक अनगार होता है। (1) ऋजु अर्थात् सरल हो, जिसका मन एवं वाणी कपट रहित हो. तथा जिसकी कथनी-करनी में एकरूपता हो वह ऋजुकृत् है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है सोही उज्जुभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ–३।१२ ___-ऋजु आत्मा की शुद्धि होती है। शुद्ध हृदय में धर्म ठहरता है। इसलिए ऋजुता धर्म का-साधुता का मुख्य आधार है। ऋजु अात्मा मोक्ष के प्रति सहज भाव से समर्पित होता है, इसलिए अनगार का दूसरा लक्षण है--(२) नियाग-प्रतिपन्न / उसकी साधना का लक्ष्य भौतिक ऐश्वर्य या यशः प्राप्ति आदि न होकर आत्मा को कर्ममल से मुक्त करना होता है / (3) अमाय-माया का अर्थ संगोपन या छुपाना है, साधना-पथ पर बढ़ने वाला अपनी सम्पूर्ण शक्ति को उसी में लगा देता है / स्व-पर कल्याण के कार्य में वह कभी अपनी शक्ति को छुपाना नहीं, शक्ति भर जुटा रहता है। वह माया रहित होता है / नियाग-प्रतिपन्नता में ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार की शुद्धि, ऋजुकृत् में वीर्याचार की तथा अमाय में तपाचार की सम्पूर्ण शुद्धि परिलक्षित होती है / साधना एवं माध्य की शुद्धि का निर्देश इस सूत्र में है। 20. जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहिता विसोत्तियं / ' (20) जिस श्रद्धा (निष्ठा/वैराग्य भावना) के साथ संयम-पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे / बिस्त्रोतसिका-अर्थात् लक्ष्य के प्रति शंका व चित्त की चंचलता के प्रवाह में न बहे, शका का त्याग कर दे। 1. चूणिमें-'निकायपडिवण्णे' पाठ है / 2. (क) चुणिमें 'तण्णो हुसि पिसोत्तिय' पाठ है / 3. (ख) विजहिता पुब्यसंजोग ; विजहिता विमोत्तियं ---ऐसा पाठान्तर भी है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 19.22 21. पणया वीरा महावोहि / (21) वीर पुरुप महापथ के प्रति प्रगत- अर्थात् समर्पित होते हैं / क्वेिचन--महापथ का अभिप्राय है, अहिंसा व संयम का प्रशस्त पथ / अहिंसा व संयम की साधना में देश, काल सम्प्रदाय व जाति को कोई सोमा या बंधन नहीं है। वह सर्वदा, सर्वत्र सब के लिए एक समान है। संयम व शान्ति के पाराधक सभी जन इसी पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह कभी संकीर्ण नहीं होता, अतः यह महापथ है। अनगार इसके प्रति सम्पूर्ण भाव से समर्पित होते हैं / अपकायिक जीवों का जीवत्व 22. लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं / से बेमि-गेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अन्भाइक्खति, से अत्ताणं अन्भाइक्खति, जे अत्ताणं अन्भाइक्खति से लोभ अब्भाइक्खति। 22. मुनि (अतिशय ज्ञानी पुरुषों) को प्राज्ञा---वाणी से लोक को-अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बनादे अर्थात् उन्हें किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न न करे, संयत रहे / ___ मैं कहता हूँ- मुनि स्वयं, लोक-अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप (निषेध) न करे / न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता है। जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। विवेचन---यहाँ प्रसंग के अनुसार 'लोक' का अर्थ अपकाय किया गया है / पूर्व सूत्रों में पृथ्वीकाय का वर्णन किया जा चुका है, अब अप्काय का वर्णन किया जा रहा है / टीकाकार ने 'अकुतोभय' के अर्थ किये हैं-(१) जिससे किसी जीव को भय न हो, वह संयम / तथा (2) जो कहीं से भी भय न चाहता हो-वह 'अप्कायिक जीव / ' यहाँ प्रथम संयम अर्थ प्रधानतया वांछित है।' सामान्यतः अपने अस्तित्व को कोई भी अस्वीकार नहीं करता, पर शास्त्रकार का कपन है, कि जो व्यक्ति अपकायिक जीवों की सत्ता को नकारता है, वह वास्तव में स्वयं की सत्ता को नकारता है। अर्थात् जिस प्रकार स्व का अस्तित्व स्वीकार्य है, अनुभवगम्य है, उसी प्रकार अन्य जीवों का अस्तित्व भी स्वीकारना चाहिए / यही 'आयतुले पयासु' आत्मतुला' का सिद्धान्त है। ___मूल में 'अभ्याख्यान' शब्द पाया है, जो कई विशेष अर्थ रखता है। किसी के अस्तित्व को नकारना, सत्य को और असत्य को असत्य सत्य, जीव को अजीव, अजीव को जीव ख्यापित करना अभ्याख्यान-विपरीत कथन है / अर्थात् 'जीव को अजीव' बताना उस पर 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक-४०११ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध असत्य अभियोग लगाने के समान है / आगमों में अभ्याख्यान शब्द निम्न कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है दोषाविष्करण-~-दोष प्रकट करना--(भगवती 5 / 6) / असद् दोष का प्रारोपण करना-(प्रज्ञापना २२॥प्रश्न०२) / दूसरों के समक्ष निंदा करना-(प्रश्न० 2) / असत्य अभियोग लगाना---(आचा० 113) / 23. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति / 24. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवितस्स परिदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव उदयसत्थं समारंभति, अहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति / तं से अहिताए, तं से अबोधीए / 25. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेसि णातं भवति-एस खल गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेण उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति / ' 26. से बेमि–संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा। इहं च खलु भो अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया। सत्थं चेत्थ अणुवोयि पास / पुढो सत्थं पवेदितं / अदुवा अदिण्णादाणं / 23. तू देख ! सच्चे साधक हिंसा (अपकाय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको 'अनगार' घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) द्वारा जल सम्बन्धी प्रारंभ-समारंभ करते हुए मल-काय के जीवों को हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। 24. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। -अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए, दुःखों का प्रतीकार करने के लिए (इन कारणों से) कोई स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, दूसरों से भी अपकाय की हिंसा करवाता है और अपकाय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है / यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा प्रबोधि का कारण बनती है / / 1. सूत्र 25 के बाद कुछ प्रतियों में 'अप्पेगे अंधमन्भे' पृथ्वीकाय का सूत्र 15 पूर्ण रुप से उद्धृत मिलता है / यह सूत्र अग्निकाय, वनस्पतिकाय, अस काय एवं वायुकाय के प्रकरण में भी मिलता है। हमारी आदर्श प्रति में यह पाठ नहीं है। -सम्पादक 2. वृत्ति में 'पुढोऽपासं पवेदितं'-पाठान्तर है, जिसका आशय है शस्त्र-परिणामित उदक ग्रहण करना आपाश--प्रबन्धन (अनुमत) है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र : 23-26 25. वह साधक यह समझते हुए संयम-साधन में तत्पर हो जाता है। भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे—यह अपकायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है। फिर भी मनुष्य इस में (जीवन, प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) ग्रासक्त होता है / जो कि वह तरह-तरह के शस्त्रों से उदक-काय की हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर अपकायिक जीवों की हिंसा करता है / वह केवल अप्कायिक जीवों की ही नहीं, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक प्रकार के (त्रस एवं स्थावर) जीवों की भी हिंसा करता है। मैं कहता हूँजल के आश्रित अनेक प्रकार के जीव रहते हैं। हे मनुष्य ! इस अनगार-धर्म में, अर्थात् अर्हत्दर्शन में जल को 'जीव' (सचेतन) कहा है। जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख ! भगवान् ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताये हैं जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान---चोरी भी है / विवेचन अपकाय को सजीव--सचेतन मानना जैन दर्शन की मौलिक मान्यता है। भगवान् महावीर कालीन अन्य दार्शनिक जल को सजीव नहीं मानते थे, किन्तु उसमें आश्रित अन्य जीवों की सत्ता स्वीकार करते थे। तैत्तिरीय पारण्यक में 'वर्षा' को जल का गर्भ माना है, और जल को 'प्रजनन शक्ति' के रूप में स्वीकार किया है। 'प्रजनन-क्षमता' सचेतन में ही होती है, अतः सचेतन होने की धारणा का प्रभाव वैदिक चिंतन पर पड़ा है, ऐसा माना जा मकता है। किन्तु मूलतः अनगारदर्शन को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक जल को सचेतन नहीं मानते थे / इसलिए यहाँ दोनों तथ्य स्पष्ट किये गये हैं-(१) जल सचेतन है / (2) जल के आश्रित अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जीव रहते हैं। अनगारदर्शन में जल के तीन प्रकार बताये हैं—(१) सचित्त-जीव-सहित / (2) अचित्त-निर्जीव / (3) मिश्र-सजीव-निर्जीव मिश्रित जल / सजीव जल, की शस्त्र-प्रयोग से हिंसा होती है / जलकाय के सात शस्त्र इस प्रकार बताये हैं... उत्सेचन कुएँ से जल निकालना, गालन-जल छानना, धोवन-जल से उपकरण बर्तन आदि धोना, स्वकायशस्त्र—एक स्थान का जल दूसरे स्थान के जल का शस्त्र है, 1. देखिए--श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० 346, डा० जे० आर० जोशी (पूना) का लेख। 2. नियुक्ति गाथा 113-114 / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध परकाय शस्त्र-मिट्टी, तेल, क्षार, शर्करा, अग्नि आदि, तदुभय शस्त्र-जल से भीगी मिट्टी आदि, भाव शस्त्र-असंयम। जलकाय के जीवों की हिंसा को 'अदत्तादान' कहने के पीछे एक विशेष कारण है। तत्कालीन परिबाजक आदि कुछ संन्यासी जल को संजीव तो नहीं मानते थे, पर अदत्त जल का प्रयोग नहीं करते थे। जलाशय आदि के स्वामी की अनुमति लेकर जल का उपयोग करने में वे दोष नहीं मानते थे। उनकी इस धारणा को मूलतः भ्रान्त बताते हुए यहाँ कहा गया है जलाशय का स्वामी क्या जलकाय के जीवों का स्वामी हो सकता है ? क्या जल के जीवों ने अपने प्राण-हरण करने या प्राण किसी को सौंपने का अधिकार उसे दिया है ? नहीं ! अत: जल के जीवों का प्राण-हरण करना हिंसा तो है ही, साथ में उनके प्राणों की चोरी भी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी भी जीव की हिंसा, हिंसा के साथ-साथ अदत्तादान भी है। अहिंसा के सम्बन्ध में यह बहुत ही सूक्ष्म व तर्कपूर्ण गम्भीर चिन्तन है। 27. कप्पडणे, कप्पड़ णे पातु, अदुवा विभूसाए / पुढो सत्थेहि विउ ति / 28. एत्थ वि तेसि णो णिकरणाए। 29. एस्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति / एस्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति / 30. तं परिणाय मेहावी गेष सयं उदयसत्थं समारभेज्जा, णेवणेहि उदयसत्थं . समारभावेज्जा, उदयसत्थं समारभंते वि अण्णे ण समणुजाणेज्जा / / 31. जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मेत्ति बेमि / ॥तइओ उद्देस समत्तो॥ 27. 'हमें कल्पता है। अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं।' (यह श्राजीवकों एवं शैवों का कथन है)। _ 'हम पीने तथा नहाने (विभूषा) के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं / ' (यह बौद्ध श्रमणों का मत है) इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नानाप्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। 28. अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय की हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते / अर्थात् उनका हिंसा न करने का संकल्प परिपूर्ण नहीं हो सकता। 29. जो यहाँ, शस्त्र-प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन प्रारंभों (जीवों की वेदना व हिंसा के कुपरिणाम) से अनभिज्ञ है। अर्थात् हिंसा करने वाला कितने ही शास्त्रों का प्रमाण दे, वास्तव में वह अज्ञानी ही है। 1 प्राचा० शीला टीका पत्रांक 42 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 27.32 जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र-प्रयोग नहीं करता, वह प्रारंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा-दोष से मुक्त होता है। अर्थात् वह ज्ञ-परिज्ञा से हिंसा को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे त्याग देता है / 30. बुद्धिमान् मनुष्य यह (उक्त कथन) जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, और उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। 31. जिसको जल-सम्बन्धी समारंभ का ज्ञान होता है, वही परिज्ञातकर्मा (मुनि) होता है। —ऐसा मैं कहता हूँ। " तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक अग्निकाय की सजीवता 32. से बेमि-णेव सयं लोग अन्भाइक्खेज्जा, णेब अत्ताणं अन्भाइक्खेज्जा / जे लोग अम्भाइक्खति से अत्ताणं भन्भाइयखति / जे अत्ताणं अम्भाइक्खति से लोग अब्भाइक्खति / जे दीहलोगसत्थस्स खयण्णे से असत्थस्स खयण्णे / जे भसत्थस्स खेयण्णे से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे। 32. मैं कहता हूँ . वह (जिज्ञासु साधक) कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अर्थात् उसकी सजीवता का अपलाप (निषेध) न करें। न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे। क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता हैं। जो दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दोघलोकशस्त्र का स्वरूप भी जानता है। विवेचन-यहाँ प्रसंगानुसार 'लोक' शब्द अग्निकाय का बोधक है / तत्कालीन धर्मपरम्परागों में जल को, तथा अग्नि को देवता मानकर पूजा तो जाता था, किन्तु उनकी हिंसा के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं किया गया था। जल से शुद्धि और पंचाग्नि तप आदि से सिद्धि मानकर इनका खुल्लमखुल्ला प्रयोग/उपयोग किया जाता था। भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से इन दोनों को सजीव मानकर उनकी हिंसा का निषेध किया है / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र -प्रथम श्रुतस्कन्ध टोकाकार आचार्य शीलांक ने कहा है --अग्नि की सजीवता तो स्वयं ही सिद्ध है। उसमें प्रकाश व उष्णता का गुण है, जो सचेतन में होते हैं। तथा अग्नि वायु के बिना जीवित नहीं रह सकती।' स्नेह, काष्ठ आदि का आहार लेकर बढ़ती है, आहार के अभाव में घटती हैयह सब उसकी सजीवता के स्पष्ट लक्षण हैं / किसी सचेतन की सचेतनता अस्वीकार करना अर्थात् उसे अजीव मानना अभ्याख्यान दोष है, अर्थात् उसकी सत्ता पर झूठा दोषारोपण करना है तथा दूसरे की सत्ता का अस्वीकार अपनी आत्मा का ही अस्वीकार है। दीर्घलोकशस्त्र' शब्द द्वारा अग्निकाय का कथन करना विशेष उद्देश्यपूर्ण है। दीर्घलोक का अर्थ है-वनस्पति / पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में चार की अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है, जबकि वनस्पति की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से भी अधिक है / वनस्पति का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है। इसलिए वनस्पति को अागमों में 'दीर्घलोक' कहा है / अनि उसका शस्त्र है। दीर्घलोकशस्त्र--इसका एक अर्थ यह भी है कि अग्नि सबसे तीष्ण और प्रचंड शस्त्र है। उत्तराध्ययन में कहा है नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोई न दोवए-३५।१२ -अग्नि के समान अन्य कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है / बड़े-बड़े विशाल बीहड़ वनों को वह कुछ क्षरणों में ही भस्मसात् कर देती है। अग्नि वडवानल के रूप में समुद्र में भी छिपी रहती है। ___ 'खेयण्णे' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं-- 'क्षेत्रज्ञ'-निपुण / अथवा क्षेत्र-शरीर किंवा आत्मा, उसके स्वरूप को जानने वाला-क्षेत्रज्ञ / खेदज्ञ--जीव मात्र के दुःख को जानने वाला / कहीं-कहीं क्षेत्रज्ञ का; गीतार्थ ग्राचार व प्रायश्चित्त विधि का ज्ञाता अर्थ भी किया है। भगवान् महावीर का खेयन्नए' विशेषण बताकर इसका अर्थ लोकालोक स्वरूप के ज्ञाता व प्रत्येक प्रारमा के खेद/सुख-दुःख तथा उसके मूल कारणों के ज्ञाता, ऐसा अर्थ भी किया गया है। गीता में शरीर को क्षेत्र व आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा है। बौद्ध ग्रन्थों में क्षेत्रज्ञ का अर्थ 'कुशल' किया है। 1. न विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलति-भगवती श० १६।उ० 11 सूत्र (अंगसुत्ताणि) 2. प्रज्ञापना, अवगाहना पद। 3. अोधनियुक्ति (अभि० राजेन्द्र 'खेयन्ने' शब्द)। 4. धर्म संग्रह अधिकार (अभि. " ) / 5. खेयन्नए से कुसले महेसी-सूत्रकृतांग 116 6. गीता 13 / 12 / 7. अंगुत्तरनिकाय, नवक निपात, चतुर्थ भाग पृ० 57 / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 33-34 ..' अशस्त्र-शब्द 'संयम' के अर्थ में प्रयुक्त है। असंयम को भाव-शस्त्र बताया है, अतः उसका विरोधी संयम-प्र-शस्त्र अर्थात् जीव मात्र का रक्षक/बन्धु/मित्र है। प्रकारान्तर से इस कथन का भाव है-जो हिसा को जानता है, वही अहिंसा को जानता है, जो अहिंसा को जानता है वही हिंसा को भी जानता है। अग्निकायिक-जीव-हिंसा-निषेध 33. वीरेहि एवं भभिभूय दि8 संजतेहि सया जतेहि सदा अप्पमहि / जे पमत्ते गुणट्टिते से हु दंडे पवुच्चति / तं परिणाय मेहावी इवाणों णो जमहं पुवमकासी पमादेणं / 33. वीरों (आत्मज्ञानियों) ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर नष्ट कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है / वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। जो प्रमत्त है, गुणों (अग्नि के रॉधना-पकाना आदि गुणों) का अर्थी है, वह दण्ड/हिंसक कहलाता है। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे)---अब मैं वह (हिंसा) नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। विवेचन---इस सूत्र में वीर अादि विशेषण सम्पूर्ण प्रात्म-ज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करने की प्रक्रिया के सूचक है। वीर-पराक्रमी–साधना में आने वाले समस्त विघ्नों पर विजय पाना / संयम-इन्द्रिय और मन को विवेक द्वारा. निगृहीत करना। यम-क्रोध आदि कषायों की विजय करना। अप्रमत्तता-स्व-रूप की स्मृति रखना। सदा जागरूक और विषयोन्मुखी प्रवृत्तियों से विमुख रहना। इस प्रक्रिया द्वारा (आत्म-दर्शन) केवलज्ञान प्राप्त होता है। उन केवली भगवान ने जीव हिंसा के स्वरूप को देखकर अ-शस्त्र--संयम का उपदेश किया है। ___मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये पाँच प्रमाद हैं। मनुष्य जब इनमें आसक्त होता है तभी वह अग्नि के गुणों उपयोगों--राधना, पकाना, प्रकाश, ताप आदि को वांछा करता है / और तब वह स्वयं जीवों का दण्ड (हिंसक) बन जाता है। हिंसा के स्वरूप का ज्ञान होने पर बुद्धिमान मनुष्य उसको त्यागने का संकल्प करता है / मन में दृढ़ निश्चय कर अहिंसा की साधना पर बढ़ता है और पूर्व-कृत हिंसा प्रादि के लिए पश्चात्ताप करता है-यह सूत्र के अन्तिम पद में बताया है / 34. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्यं समारंभमाणे अण्णे वगरूवे पाणे विहिसति / 1 भावे य असंजमो सत्थ----नियुक्ति गाथा 96 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 35. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदग-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव अगणिसत्थं समारभति, अण्णेहि वा अगणिसत्थं समारभावेति, अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणु जाणति / . तं से अहिताए, तं से अबोधोए / 36. से तंसंबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए / सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खल निरए / इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे कणेगरूवे पाणे विहिंसति / 37. से बेमि–संति पाणा पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता कमिस्सिता गोमयणिस्सिता कयवरणिस्सिता। . संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति य / अगणि च खलु पुछा एगे संघातमावज्जति / जे तत्थ संघातमावज्जति ते तत्थ परियावज्जति / जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उहायति / 34. तू देख ! संयमी पुरुष जीव-हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो हम 'अनगार-गृहत्यागी साधु हैं'--यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों/उपकरणों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं। अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। ___ 35. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक-ज्ञान का निरूपण किया है। कुछ मनुष्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं / दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं। अग्निकाय का समारंभ करने वालों (दूसरों) का अनुमोदन करते हैं। ..यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है / यह उनकी प्रबोधि के लिए होती है। 36. वह (साधक) उसे (हिंसा के परिणाम को) भली भांति समझे और संयम-साधना में तत्पर हो जाये / तीर्थकर आदि प्रत्यक्ष ज्ञानी अथवा श्रुत-ज्ञानी मुनियों के निकट से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि यह जीव-हिसा--प्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 35-39 मानि का मन का फिर भी मनुष्य जीवन, मान, वंदना प्रादि हेतुओं में प्रासक्त हुए विविध प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय का समारंभ करते हैं। और अग्निकाय का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणों/जीवों की भी हिंसा करते हैं / 37. मैं कहता हूँ--- - बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पत्र, काप्ठ, गोबर और कूड़ा-कचरा आदि के आश्रित रहते हैं। कुछ सँपातिम/उड़ने वाले प्राणी होते हैं (कीट, पतंगे, पक्षी आदि) जो उड़तेउड़ते नीचे गिर जाते हैं। ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात (शरीर के संकोच) को प्राप्त होते हैं। शरीर का संघात होने पर अग्नि की ऊष्मा से मूच्छित हो जाते हैं / मूच्छित हो जाने के बाद मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं। विवेचन–सूत्र 34-35 का अर्थ पिछले 23-24 सूत्र की तरह सुबोध ही है / अग्निकाय के शस्त्रों का उल्लेख नियुक्ति में इस प्रकार है-- 1. मिट्टी या धूलि (इससे वायु निरोधक वस्तु केबल आदि भी समझना चाहिए), 2. जल, 3. आई वनस्पति, 4. म प्राणी, 5. स्वकाय शस्त्र--एक शस्त्र है, 6. परकाय शस्त्र--जल आदि, 7. तदुभय मिश्रित-जैसे तुष-मिश्रित अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है, 8. भावशस्त्र---असंयम / 38. एत्थ सत्थं समारभमाणस्य इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भनति / एल्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भनति। 39. 'जस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाता भगति से हु मुणो परिणायकम्मे त्ति बेमि। ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ 38. जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र प्रयोग करता है, वह इन प्रारंभ समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दु:खद परिणामों से छूट नहीं सकता है। ___ जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह प्रारंभ का ज्ञाता अर्थात् हिमा से मुक्त हो जाता है। 39. जिसने यह अग्नि-कर्म-समारंभ भली भांति समझ लिया है, वही मुनि है. वही परिज्ञात-कर्मा (कर्म का ज्ञाता और त्यागी) है।। -- ऐसा मैं कहता हूँ। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त // सूत्र 38 के बाद कुछ प्रतियों में यह पाठ मिलता है। "त परिणाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारभेज्जा, णेवऽपणे हिं अगणि सस्थं समारभावेज्जा, अगणि सत्थं समारभंते वि अण्णे ण समजा. गेज्जा / " यह पाठ चूर्णिकार तथा टीकाकार ने मूलरूप में स्वीकृत किया है, ऐसा लगता है, किन्तु कुछ प्रतियों में नहीं है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पञ्चमो उद्देसओ पंचम उद्देशक अजगार का लक्षण . 4.. तं जो करिस्सामि समुट्ठाए मत्ता मतिमं अभयं विदित्ता तं जे णो करए एसोवरते, एस्थोवरए, एस अणगारे त्ति पवुच्चति / 40. (अहिंसा में आस्था रखने वाला यह संकल्प करे)--मैं संयम अंगीकार करके वह हिंसा नहीं करूंगा / बुद्धिमान् संयम में स्थिर होकर मनन करे और 'प्रत्येक जीव अभय चाहता है' यह जानकर (हिंसा न करे) जो हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत-शासन में जो व्रती है, वहीं अनगार कहलाता है। विवेचन--इस सूत्र में अहिंसा को जोवन में साकार करने के दो साधन बताये हैं। जैसे मनन; -बुद्धिमान् पुरुष जीवों के स्वरूप आदि के विषय में गम्भीरतापूर्वक चिन्तनमनन करे / अभय जाने-फिर यह जाने कि जैसे मुझे 'अभय प्रिय है, मैं कहीं से भी भय नहीं चाहता, वैसे ही कोई भी जीव भय नहीं चाहता। सबको अभय प्रिय है। इस बात पर मनन करने से प्रत्येक जीव के साथ आत्म-एकत्व की अनुभूति होती है। इससे अहिंसा को ग्रास्था सुदृढ़ एवं सुस्थिर हो जाती है / टीकाकार ने 'अभय' का अर्थ संयम भी किया है। तदनुसार 'अभयं विदित्ता' का अर्थ है--संयम को जान कर / ' 41. जे गुणे से आवट्ट, जे आवटे से गुणे / उड्ढे अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रुवाई पासति, सुणमाणे सद्दाई सुणेति / उड्ढं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे स्वेसु मुच्छति, सद्देसु यावि / एस लोगे वियाहिते। एत्थ अगुत्ते अणाणाए पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे पमत्ते गारमावसे / 41. जो गुण (शब्दादि विषय) हैं, वह आवर्त संसार है। जो प्रावर्त है वह गुण हैं। __ ऊँचे, नीचे, तिरछे, सामने देखनेवाला रूपों को देखता है। सुनने वाला शब्दों को सुनता है। ऊँचे, नीचे, तिरछे, सामने विद्यमान वस्तुओं में प्रासक्ति करने वाला, रूपों में मूच्छित होता है, शब्दों में मूच्छित होता है। यह (आसक्ति) ही संसार कहा जाता है / जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। इन्द्रिय एवं मन से असंयत है, वह आज्ञा-धर्म-शासन के बाहर है। / अविद्यमानं भयमस्मिन् सत्त्वानामित्यभयः-संयमः / -प्राचा० टीका पत्रांक 561 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययम : पंचम उपदेशक : सूत्र 40-42 जो बार-बार विषयों का प्रास्वाद करता है, उनका भोग-उपभोग करता है, .. वह वक्रसमाचार ---अर्थात् असंयममय जोवन वाला है। वह प्रमन है। तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। विवेचन-'गुण' शब्द के अनेक अर्थ हैं / प्रागमों के व्याख्याकार प्राचार्यों ने निक्षेप पद्धति द्वारा गुण को पन्द्रह प्रकार से विभिन्न व्याख्याएँ की हैं। प्रस्तुत में गुण का अर्थ है-- पांच इन्द्रियों के ग्राह्य विषय / ये क्रमशः यों हैं ----शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श / ये ऊँचीनीची आदि सभी दिशाओं में मिलते हैं / इन्द्रियों के द्वारा प्रात्मा इनको ग्रहण करता है, सुनता है, देखता है, सूघता है, चखता है और स्पर्श करता है / ग्रहण करना इन्द्रिय का गुण है, गृहीत विषयों के प्रति मूर्छा करना मन या चेतना का कार्य है / जब मन विषयों के प्रति प्रासक्त होता है तब विषय मन के लिए बन्धन या आवर्त बन जाता है / पावर्त का शब्दार्थ है-समुद्रादि का वह जल, जो वेग के साथ चक्राकार घूमता रहता है / भेवर चाल घूम चक्कर / भाय रूप में विषय व संमार अथवा शब्दा शास्त्रकार ने बताया है, रूप एवं शब्द आदि का देखना-सुनना स्वयं में कोई दोष नहीं है, किन्तु उनमें आसक्ति (राग या द्वेष) होने से आत्मा उनमें मूच्छित हो जाता है, फंस जाता है। यह आसक्ति ही संसार है / अनासक्त आत्मा संसार में स्थित रहता हुमा भी संसारमुक्त कहलाता है। दीक्षित होकर भी जो मुनि विषयासक्त बन जाता है, वह बार-बार विषयों का सेवन करता है। उसका यह आचरण वक्र-समाचार है, कपटाचरण है, क्योंकि ऊपर से वह त्यागी दीखता है, मुनिवेष धारण किये हुए है, किन्तु वास्तव में वह प्रमादी है, गृहवामी है और जिन भगवान् की आज्ञा से बाहर है। प्रस्तुत उद्देशक में वनस्पतिकाय की हिंसा का निषेध किया गया है, यहाँ पर शब्दादि विषयों का वर्णन सहमा अप्रासंगिक-सा लग सकता है / अतः टीकाकार ने इसकी संगति वैठाते हुए कहा है. शब्दादि विषयों की उत्पत्ति का मुख्य साधन वनस्पति ही है। वनस्पति से ही वीणा आदि वाद्य, विभिन्न रंग, रूप, पुष्पादि के गंध, फल आदि के रस व रुई आदि के स्पर्श की निष्पत्ति होती है / अतः वनस्पति के वर्णन से पूर्व उसके उत्पाद वनस्पति से निष्पन्न वस्तुओं में अनासक्त रहने का उपदेश करके प्रकारान्तर से उसकी हिंसा न करने का ही उपदेश किया है / हिंसा का मूल हेतु भी आसक्ति ही है / अगर पासक्ति न रहे तो विभिन्न दिशा प्रों क्षेत्रों में स्थित ये शब्दादि गुण प्रान्मा के लिए कुछ भी अहित नहीं करते / / बनस्पतिकाय-हिंसा-वर्जन 42. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि 1. अभिधानगजेन्द्र भाग 3, 'मुण' शब्द / 2. प्राचा० गीला टीका पत्रांक 56 3. प्राचा. टीका पत्रांक 57 / 1 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सत्यहि बस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगहवे पाणे विहिसति। 43. तस्य खलु भगवता परिण्णा पवेविता-इमस्स चेव जीवियस्स परिगंदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा वणस्सतिसत्यं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समगुजाणति / त से अहियाए, तं से अबोहीए। 44. से तं संबुज्ममाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवति–एस गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विस्वस्वेहि सत्थेहि वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अणे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 42. तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं / 'हम गृह त्यागी हैं,' यह कहते हुए भी कुछ लोग नानाप्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं। वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। 43. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है-इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, वह (तथाकथित साधु) स्वयं वस्पतिकायिक जीवों की हिमा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है।। यह (हिंसा-करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अबोधि के लिए होता है। 44. यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। भगवान् से या त्यागी अनगारों के समीप सुनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है-- 'यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।' फिर भी मनुष्य इसमें प्रासक्त हया, नानाप्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और बनस्पतिकाय का समारंभ करता हुअा अन्य अनेक प्रकार, के जीवों को भी हिंसा करता है। मनुष्य शरीर एवं वनस्पति शरीर की समानता 45. से बेमि–इमं पि जातिधम्मयं, एयं पिनातिधम्मय; इमं पि व ड्ढिधम्मयं, एयं पि वुढिधम्मयं; इमं पि चित्तमंतयं, एवं पि चित्तमंतयं; इमं पि छिण्णं मिलाति एवं पि छिण्णं मिलाति; इमं पि आहारगं, एयं पि आहारगं; Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सम्पयन : पंचम उद्देशक : सूत्र 43-45 27 इमं पि अणितियं,' एवं पि अणितियं; 2 इमं पि असासयं, एवं पि असासयं; इमं पि चयोवचइयं, एवं पि चयोवचइयं; इमं पि विप्परिणामघम्यं, एयं पि विष्परिणामधम्मयं / 45. मैं कहता हूँयह मनुष्य भी जन्म लेता है, यह वनस्पति भी जन्म लेती है। यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य भी चेतना युक्त है, यह वनस्पति भी चेतना युक्त है। यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान हो जाता है, होती है। यह मनुष्य भी पाहार करता है / यह वनस्पति भी पाहार करती है। यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति का शरीर भी अनित्य है। यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, . यह वनस्पति शरीर भी प्रशाश्वत है। यह मनुष्य शरीर भी पाहार से उपचित होता है, पाहार के अभाव में अपचित/क्षीण दुर्बल होता है, यह वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है। यह मनुष्य शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। विवेचन-भारत के प्रायः सभी दार्शनिकों ने वनस्पति को सचेतन माना है। किन्तु वनस्पति में ज्ञान-चेतना अल्प होने के कारण उसके सम्बन्ध में दार्शनिकों ने कोई विशेष. चिन्तन-मनन नहीं किया / जैनदर्शन में वनस्पति के सम्बन्ध में बहुत ही सूक्ष्म व व्यापक चिन्तन किया गया है। मानव-शरीर के साथ जो इसको तुलना की गई है, वह आज के वैज्ञानिकों के लिए भी आश्चर्यजनक व उपयोगी तथ्य है। जब सर जगदीशचन्द्र बोस ने वनस्पति में मानव के समान ही चेतना की वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा सिद्धि कर बताई थी, तब से जैनदर्शन का वनस्पति-सिद्धान्त एक वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। वनस्पति विज्ञान (Botany) अाज जीव-विज्ञान का प्रमुख अंग बन गया है / सभी जीवों को जीवन-निर्वाह करने, वृद्धि करने, जीवित रहने और प्रजनन (संतानोत्पत्ति) के लिए भोजन किंवा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह ऊर्जा सूर्य से फोटोन (Photon) तरंगों के रूप में पृथ्वी पर पाती है। इसे ग्रहण करने को क्षमता सिर्फ पेड़-पौधों में ही है। पृथ्वी के सभी प्राणी पौधों से ही ऊर्जा (जीवनो शक्ति) प्राप्त करते हैं / अतः पेड़-पौधों (वनस्पति) का मानव जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। वैज्ञानिक व चिकित्सा-वैज्ञानिक मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों का, रोगों का, तथा आनुवंशिक गुणों का अध्ययन करने के लिए आज 'वनस्पति' (पेड़-पौधों) का, अध्ययन करते हैं। अतः वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में प्रागमसम्मत सनस्पतिकायिक जीवों की मानव शरीर के साथ तुलना बहुत अधिक महत्व रखती है। 1, 2 पाठान्तर 'प्रणिच्चयं'। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग मूत्र प्रथम श्रुतस्कन्छ 46. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भवति / एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। 47. तं परिणाय मेहावी णेव सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेज्जा, गेवणेहि वणस्सतिसत्थं समारंभावेज्जा, वऽण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। 48. जस्सेते वसतिसस्थसमारंभा परिरणाया भवंति से हु मुणो परिणायकम्मे त्ति बेमि। / पंचमो उद्देसओ समत्तो।। 46. जो वनस्पतिकायिक जीवों पर यास्त्र का समारंभ करता है, वह उन प्रारंभों/प्रारंभजन्य कटुफलों से अनजान रहता है / (जानता हुअा भी अनजान है।) जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उसके लिए प्रारंभ परिज्ञात है। 47. यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे / 48. जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारंभ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा-त्यागी) मुनि है। पंचम उद्देशक समाप्त / / छठ्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक संसार-स्वरूप 49. से बेमि-संतिमे तसा पाणा, तं जहा--अंडया पोतया जराउया रसया संसेयया' सम्मच्छिमा उब्भिया उववातिया / एस संसारे त्ति पवुच्चति / मंदस्स अवियाणओ। . णिज्झाइत्ता पडिले हित्ता पत्त यं परिणिव्वाणं। सम्बेसि पागाणं सम्वेसि भूताणं सम्देसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अस्सातं अपरिणिव्याणं महन्भयं दुक्खं ति बेमि। .. तसंति फाणा पविसो दिसासु य / तत्य तत्थ पुढो पास आतुरा परितार्वति / संति पाणा पुढो सिया। 49. मैं कहता हूँ ये सब स प्राणो हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, सस्वेदज, सम्मूच्छिम, उदभिज्ज और प्रौपपातिक। यह ( स जीवों का समन्वित क्षेत्र) संसार कहा जाता है। मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है। 1 पाठान्तर-संसेइमा / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 प्रथम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 46-49 मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ. प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण (शान्ति और सुख) चाहता है / सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता (वेदना) और अपरिनिर्वाण (अशान्ति) ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं। मैं ऐसा कहता हूँ। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब अोर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं। तू देख, विषय-मुखाभिलाषी अातुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते हैं। उसकायिक प्राणी पृथक-पृथक् शरीरों में पाश्रित रहते हैं। विवेचन इस सूत्र में त्रसकायिक जीवों के विषय में कथन है / आगमों में संसारी जीवों के दो भेद बताये गये हैं स्थावर और त्रस / जो दुख से अपनी रक्षा और सुख का आस्वाद करने के लिए हलन-चलन करने की क्षमता रखता हो, वह 'स' जीव है / इसके विपरीत स्थिर रहने वाला 'स्थावर' / द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी 'त्रम' होते हैं। एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय वाले स्थावर / उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से त्रस जीवों के पाठ भेद किये गये हैं--- 1. अंडज–अंडों से उत्पन्न होने वाले-मयूर, कबूतर, हंस आदि / 2. पोतज–पोत अर्थात् चर्ममय थैली / पोत से उत्पन्न होने वाले पोतज-जैसे हाथी, बल्गुली आदि। 3. जरायुज-जरायु का अर्थ है गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली, जो जन्म के समय शिशु को प्रावृत किये रहती है / इसे 'जेर' भी कहते हैं। जरायु के साथ उत्पन्न होने वाले हैं जैसे-- गाय, भैस आदि। 4. सज-छाछ, दही आदि रस विकृत होने पर इनमें जो कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं वे 'ग्सज' कहे जाते हैं। 5. संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होने वाले / जैसे-जू, लीख आदि / 6. सम्भूच्छिम-- बाहरी वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले, जैसे-मक्खी, मच्छर, चींटी, भ्रमर आदि / 7. उद्भिज्ज-भूमि को फोड़कर निकलने वाले, जैसे-टीड़, पतंगे आदि / 8. औपपातिक-- 'उपपात' का शाब्दिक अर्थ है सहसा घटने वाली घटना। आगम की दृष्टि से देवता शय्या में, नारक कुम्भी में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक कहलाते हैं। ___ इन आठ प्रकार के जीवों में प्रथम तीन 'गर्भज' चौथे से सातवें भेद तक 'सम्मूर्छिम' और देव नार: औपपातिक हैं। ये 'सम्मूछेनज, गर्भज, उपपातज--- इन तीन भेदों में समाहित हो जाते हैं / तन्वार्थ सूत्र (2/32) में ये तीन भेद ही गिनाये हैं। इन जीवों को संस र कहने का अभिप्राय यह है कि-यह अष्टविध योनि-संग्रह ही जोवों के जन्म-मरण नथा गमनागमन का केन्द्र है। अतः इसे ही संसार समझना चाहिए। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारां। सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध (1) मंदता, विवेक बुद्धि की अल्पता, तथा (2) अज्ञान / संसार में परिभ्रण अर्थात् जन्म-मरण के ये दो मुख्य कारण हैं / विवेक दृष्टि एवं ज्ञान जाग्रत होने पर मनुष्य संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। परिनिर्वाण' शब्द वैसे मोक्ष का वाचक है। 'निर्वाण' का शब्दार्थ है बुझ जाना 1 जसे तेल के क्षय होने से दीपक बुझ जाता है, वैसे राग-द्वेष के क्षय होने से संसार (जन्म-मरण) समाप्त हो जाता है और मात्मा सब दुःखों से मुक्त होकर अनन्त सुखमय-स्वरूप प्राप्त कर लेता है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में परिनिर्वाण' का यह ब्यापक अर्थ ग्रहण नहीं कर परिनिर्वाण' से सर्वविध सुख, अभय, दुःख और पीड़ा का अभाव आदि अर्थ ग्रहण किया गया है।' और बताया गया है कि प्रत्येक जीव सुख, शान्ति और अभय का आकांक्षी है / अशान्ति, भय, वेदना उनको महान भय व दुःखदायी होता है। अतः उनकी हिंसा न करे। प्राण, भूत, जीव, सन्वये चारों शब्द-सामान्यतः जीव के ही वाचक हैं। शब्दनय (समभिरूढ नय) की अपेक्षा से इनके अलग-अलग अर्थ भी किये गये हैं। जैसे भगवती सूत्र (2/1) में बताया है दश प्रकार के प्राण युक्त होने से--प्राण है। तीनों काल में रहने के कारण --भूत है।। आयुष्य कर्म के कारण जीता है-अतः जीव है / विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी प्रात्म-द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः सत्त्व है। टीकाकार प्राचार्य शीलांक ने निम्न अर्थ भी किया है प्राणा: द्वित्रिचतुःप्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवा: पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वा उदीरिताः / प्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव / भूत-वनति कायिक जीव / जीव पांच इन्द्रियवाले जीव,-तिर्यच, मनुष्य, देव, नारक / सत्व -पृथ्वी, अप. अग्नि और वायु काय के जीव। अस काय हिंसा मिषेध 50. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं दिरूबरू वेहि सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहि सति / / 50. तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा ग्लानि संकोच का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो 'हम गृहत्यागी हैं' यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं / उसकाय की हिना करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं / 1. प्राचा• शीला टीका पत्रांक 64, 2. वहीं, पत्रांक 64 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 प्रथम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 50-52 51. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदन-मागमपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव तसकायसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा तसकायसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समाजामति / तं से अहिताए, तं से अबोषीए / 51. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा विवेक का निरूपण किया है। कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है / यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है / अबोधि के लिए होती है। प्रमकाय-हिंसा के विविध हेत 52. से तं संबुज्ममाणे आयाणीयं समुठ्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं गातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि तसकायकम्मसमारंभेणं तसकायसत्यं समारंभमाणे अग्ण अगगरूवे पाणे विहिंसति / से बेमि अप्पेगे अच्चाए वर्षेति. अप्पेगे अजिणाए वधेति, अप्पेगे मंसाए वर्षेति; अप्पेगे सोणिताए वति, अप्पेगे हिययाए वर्षेति एवं पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए वंताए दाढाए नहाए हारुगोए अदिए अट्टिमिजाए अट्टाए अणट्टाए। अप्पेगे हिसिसु मे त्ति वा, अप्पेगे हिसंति वा, अप्पेगे हिसिस्संति वा णे वर्षेति / 52. वह संयमी, उस हिंसा को हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक्प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे! भगवान् से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य बह जान लेते हैं कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मृत्यु है, यह मोह है, यह नरक है / फिर भी मनुष्य इस हिंसा में आसक्त होता है। वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है। प्रसकाय का समारंभ करता हुया अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ/हिंसा करता है। मैं कहता हूँ---- कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के शृगार) के लिए जीव हिंसा करते हैं / कुछ मनुष्य चर्म के लिए, मांस, रक्त, हृदय (कलेजा) पित्त, चर्बी, पंख, पूछ, केश, सींग, विषाण (सुअर का दांत,) दांत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि (हड्डी) और Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्म अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते है। कुछ किसी प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन/व्यर्थ ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) हिंसा की, इस कारण (प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की) हिमा करता है, इस कारण (प्रतीकार की भावना से) हिंसा करते हैं। . कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि को हिंसा करेगा) इस कारण (भावी आतंक भय की संभावना से) हिंसा करते हैं / 53. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाया भवंति / एल्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति / 53. जो सकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन प्रारंभ (प्रारंभ जन्नत कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है। जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित मुक्त रहता है। . .. 54. तं परिण्णाय मेधावी व सयं तसकायसत्थं समारभेज्जा, वडग्णेहि तसकायसत्थं समारभावेज्जा, वऽण्णे तसकायसत्थं समारभंते समणुजाणेज्जा। 54. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे,. दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे / 55. जस्सेते तसकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणातकम्मे त्ति बेमि / / छट्ठो उद्देसओ समतो।। 55. जिसने त्रसकाय-सम्बन्धी समारंभों (हिंसा के हेतुनों उपकरणों/कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा-त्यागी) मुनि होता है। ॥छठा उद्देशक समाप्त // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उददेशक : सूत्र 56 सत्तमो उददेसओ सप्तम उद्देशक आत्म-तुला-विवेक 56. पनू एजस्स दुगुछणाए। आतंकदंसी अहियं ति गच्चा / जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति, जे बहिया जाणति से अज्मत्थं जाणति / एवं तुलमण्यसि / इह संतिगता दविया णावखंति जीविडं।' 56. साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है। अतः वायुकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ होता है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य (संसार) को भी जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। __इस तुला (स्व-पर की तुलना) का अन्वेषण कर, चिन्तन कर ! इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त--- (कषाय जिनके उपशान्त हो गये हैं) और दयाहृदय वाले (द्रविक) मुनि हैं, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों की हिंसा-निषेध का वर्णन है। एज का अर्थ है वायु, पवन / वायुकायिक जीवों की हिंसा निवृत्ति के लिए 'दुगुञ्छा'- जुगुप्सा शब्द एक नया प्रयोग है / प्रागमों में प्रायः दुगुञ्छा' शब्द गर्दा, ग्लानि, लोक-निंदा, प्रवचन-हीलना एवं साध्वाचार की निंदा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु यहाँ पर यह 'निवृत्ति' अर्थ का बोध कराता है। इस सूत्र में हिंसा-निवृत्ति के तीन विशेष हेतु/पालम्बन बताये हैं / 1 आतंक-दर्शन-हिसा से होने वाले कष्ट/भय उपद्रव एवं पारलौकिक दुःख आदि को अागमवाणी तथा प्रात्म-अनुभव से देखना। 2. अहित-चिंतन--हिंसा से आत्मा का अहित होता है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि की उपलब्धि दुर्लभ होती है, आदि को जानना समझना। 3. आत्म-तुलना अपनी सुख-दुःख की वृत्तियों के साथ अन्य जीवों की तुलना करना। जैसे मुझे सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है / यह ग्रात्म-तुलना या प्रात्मौपम्य की भावना है। अहिंसा का पालन भी अंधान करण वृत्ति से अथवा मात्र पारम्परिक नहीं होना चाहिए. किन्तु ज्ञान और करुणापूर्वक होना चाहिए। जीव मात्र को अपनी आत्मा के समान समझना, प्रत्येक जीव के कष्ट को स्वयं का कष्ट समझना तथा उनकी हिंसा करने से सिर्फ उन्हें ही नहीं, स्वयं को भी कष्ट/भय तथा उपद्रव होगा, ज्ञान-दर्शन-चारित्र को हानि होगी और 1 प्राचाग (मुनि जम्बूविजय जी) टिपगी पृ. 14 चूणी पीयितु', बीजिऊं... इति पाठान्तगै / "तानियटनाहि गानं बाहिरं बावि पोमानं ण खनि वीयितु / " Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 आचारसंग सूत्र-प्रथम श्र तस्कम्ध अकल्याण होगा, इस प्रकार का आत्म-चिन्तन और प्रात्म-मंथनकरके अहिंसा की भावना को संस्कारबद्ध बनाना--यह उक्त पालम्बनों का फलितार्थ है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है - इस पद का कई दृष्टियों से चिन्तन किया जा सकता है। 1. अध्यात्म का अर्थ है--चेतन/प्रात्म-स्वरूप / चेतन के स्वरूप का बोध हो जाने पर इसके प्रतिपक्ष 'जड' का स्वरूप-बोध स्वयं ही हो जाता है। अतः एक पक्ष को सम्यक प्रकार में जानने वाला उसके प्रतिपक्ष को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है। धर्म को जानने वाला अधर्म को, पुण्य को जानने वाला पाप को, प्रकाश को जानने वाला अंधकार को जान लेता है। 2. अध्यात्म का एक अर्थ है--प्रान्तरिक जगत् अथवा जीव को मूल वृत्ति-सुख की इच्छा, जीने की भावना / शान्ति की कामना / जो अपनी इन वृत्तियों को पहचान लेता है वह बाह्य--अर्थात् अन्य जीवों की इन वृत्तियों को भी जान लेता है। अर्थात् स्वयं के समान, ही अन्य जीव सुखप्रिय एवं शान्ति के इच्छुक हैं, यह जान लेना वास्तविक अध्यात्म है / इसी से आत्म-तुला को धारणा संपुष्ट होती है। __शांति-गत-का अर्थ है--जिसके कषाय विषय/तृष्णा आदि शान्त हो गये हैं, जिसकी ग्रात्मा परम प्रसन्नता का अनुभव करती है। द्रविक-'द्रव' का अर्थ है-घुलनशील या तरल पदार्थ / किन्तु अध्यात्मशास्त्र में 'द्रव का अर्थ है, हृदय की तरलता, सरलता, दयालुता और संयम / इसी दष्टि से टीकाकार ने 'विक' का अर्थ किया है-करुणाशील संयमी पुरुष / पराये दुःख से द्रवीभूत होना सज्जनों का लक्षण है / अथवा कर्म की कठिनता को द्रवित-पिघालने वाला 'द्रविक' है।" जीविउं-कुछ प्रतियों में 'वीजिउ' पाठ भी है। वायुकाय की हिंसा का वर्णन होने से यहां पर उसकी भी संगति बैठती है कि वे संयमी वीजन (हवा लेना) की आकांक्षा नहीं करते। चणिकार ने भी कहा है- मुनि तालपत्र आदि बाह्य पुद्गलों से वीजन लेना नहीं चाहते हैं, माथ ही चूणि में 'जीवितु' पाठान्तर भी दिया है। वायुकायिक-जीव-हिंसा-वर्जन 57. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मों' त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसमारंभेगं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 58. तत्थ खलु भगवता परिणा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव वाउहत्थं समारभति, अनुहि वा वाउसत्थं समारभावेति, अण्णे वा वाउसत्थं समारभंते समाजाणति / तं से अहियाए, तं से अबोधीए। 1. श्राचा गानाकठीका पत्र 7011 . देखें, एट 36 पर टिप्पण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 57-61 59. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोगे, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसारंभेणं वाउसत्थं समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसति। 60. से बेमि–संति संपाइमा पाणा आहच्च संपतंति य / फरिसं च खल पुट्टा एगे संघायमावज्जति / जे तत्थ संघायमा जति ते तत्थ परिवाविज्जति / जे तत्य परियाविज्जति ते तत्थ उद्दायंति।। एत्य सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिगणाता भवंति / एत्थ सत्यं असमारभमाणस्य इच्चेते आरंभा परिणता भवंति / 61. तं परिणाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा, णेवण्णेहि वाउसत्य समारभावेज्जा, णेवऽणे वाउसत्थ समारभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते बाउसत्थसमारंभा परिष्णाया भवंति से हु मुणी परिप्णायकम्मे त्ति बेमि / 57. तु देख ! प्रत्येक संयमी पुरुष हिंसा में लज्जा ग्लानि का अनुभव करता है। उन्हें भी देख, जो 'हम गहत्यागी है यह कहते हा विविध प्रकार के शस्त्रों साधनों से वायुकाय का समारंभ करते हैं। वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की हिसा करते हैं। 58. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा विवेक का निरूपण किया है। कोई मनुप्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोक्ष के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से वायुकाय का समारंभ करवाता है तथा समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है। ___ वह हिसा, उसके हित के लिए होती है। वह हिमा, उसकी अयोधि के लिए होती है। 59. वह अहिंसा-साधक, हिंसा को भली प्रकार से समझता हुया संयम में सुस्थिर हो जाता है। भगवान् के या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर उन्हें यह ज्ञात होता है कि यह हिसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त हुना, विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय को हिमा करता है। वायु काय की हिंसा करता हुया अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिमा करता है। 60. मैं कहता हूँ-... संपातिम-- उड़ने वाले प्राणी होते हैं, वे वायु मे प्रताड़ित हो तर नीचे गिर जाते हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वे प्राणी वायु का स्पर्श ग्राघात होने से सिकुड़ जाते हैं। जब वे वायु-स्पर्श से संघातित होते/सिकुड़ जाते हैं, तब वे मूच्छित हो जाते हैं। जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं। जो यहाँ वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह इन प्रारंभों से वास्तव में अनजान है। जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता, वास्तव में उसने प्रारंभ को जान लिया है। 61. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारंभ न करे / दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए। वायुकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि दरिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) है / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में वायुकाय की हिंसा का निषेध है। वायु को सचेतन मानना और उसकी हिंसा से बचना--यह भी निर्ग्रन्थ दर्शन की मौलिक विशेषता है। ___ सामान्य क्रम में पृथ्वी, अप्, तेजस् वायु, वनस्पति, त्रस यों आना चाहिए था, किन्तु यहाँ पर क्रम तोड़कर वायुकाय को वर्णन के सबसे अन्त में लिया है। टीकाकार ने इस शंका का समाधान करते हुए कहा है-षट्काय में वायुकाय का शरीर चर्म-चक्षुषों से दीखता नहीं है, जबकि अन्य पांचों का शरीर चक्षुगोचर है। इस कारण वायुकाय का विषय--अन्य पाँचों की अपेक्षा दुर्बोध है / अतः यहाँ पर पहले उन पाँचों का वर्णन करके अन्त में वायुकाय का वर्णन किया गया है। विरति-बोध 62. एत्थं पि जाण उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति आरंभमाणा विणयं वयंति छंदोवणीया अज्झोववण्णा आरंभसत्ता पकरेंति संगं / से वसुमं सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं णो अपणोस / तं परिणाय मेहावी व सयं छज्जीवणिकायसत्थं समारंभेज्जा, गेवण्णेहि छज्जीवाणिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारंभंते समगुजाणेज्जा। जस्सेते छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुमी परिणायकम्भे त्ति बेमि। // सत्थपरिण्णा समत्तो।। 1 आचा० शीला० टोका पत्रांक 68 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययम : सप्तम उदेशक : सूत्र : 62 62. तुम यहाँ जानो ! जो प्राचार (अहिंसा/आत्म-स्वभाव) में रमण नहीं करते, वे कमों से ग्रासक्ति की भावना से बँधे हुए हैं। वे प्रारंभ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं अथवा दूसरों को विनय-संयम का उपदेश करते हैं। वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं। के (स्वच्छन्दचारी) आरंभ में आसक्त रहते हुए, पुनः-पुन कर्म का संगबन्धन करते हैं। वह वसुमान् (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूप धन से संयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तःकरण से पाप-कर्म को अकरणीयन करने योग्य जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण---मन से चिन्तन भी न करे। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट्-जीवनिकाय का समारंभ न करे / दूसरों से उसका समारंभ न करवाए। उसका समारंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे। जिसने-षट्-जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभांति समझ लिया, त्याग दिया है, वही परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है / ऐसा मैं कहता हूँ। // सप्तम उद्देशक समाप्त // // शस्त्रपरिज्ञा प्रथम अध्ययन समाप्त। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकविजय-द्वितीय अध्ययन प्राथमिक इस अध्ययन का प्रसिद्ध नाम-लोग-विजय है। कुछ विद्वानों का मत है कि इसका प्राचीन नाम 'लोक-विचय' होना चाहिए। प्राकृत 'भाषा में 'च' के स्थान पर 'ज' हो जाता है। किन्तु टीकाकार ने 'विजय' को 'विचय न मानकर 'विजय' संज्ञा ही दी है। a विचय-धर्मध्यान का एक भेद व प्रकार है। इसका अर्थ है--चिन्तन, अन्वेषण, तथा पर्यालोचन / * विजय-का अर्थ है पराक्रम, पुरुषार्थ तथा प्रात्म-नियन्त्रण / * प्रस्तुत अध्ययन की सामग्री को देखते हुए 'विचय' नाम भी उपयुक्त लगता है। क्योंकि इसमें लोक-संसार का स्वरूप, शरीर का भंगुर धर्म, ज्ञातिजनों की प्रशरणता, विषयोंपदार्थों की अनित्यता आदि का विचार करते हुए साधक को आसक्ति का बन्धन तोड़ने की हृदयस्पर्शी प्रेरणा दी गई है। प्राज्ञा-विचय, अपाय-विचय प्रादि धर्मध्यान के भेदों में भी इसी प्रकार के चिन्तन की मुख्यता रहती है। अतः 'विचय' नाम की सार्थ कता सिद्ध होती है। * साथ ही संयम में पुरुषार्थ, अप्रमाद तथा साधना में आगे बढ़न को प्रेरणा, कषायं आदि अन्तरंग शत्रुओं को 'विजय' करने का उद्घोष भी इस अध्ययन में पद-पद पर मुखरित है। te. 'विचय'-ध्यान व निर्वेद का प्रतीक है। * 'विजय'-पराक्रम और पुरुषार्थ का बोधक है। * प्रस्तुत अध्ययन में दोनों ही विषय समाविष्ट हैं। फिर भी हमने परम्परागत व टीका कार द्वारा स्वीकृत 'विजय' नाम ही स्वीकार किया है।' नियुक्ति (गाथा 175) में लोक का आठ प्रकार से निक्षेप करके बताया है कि लोक नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, पर्याय-यों पाठ प्रकार का है। 3. प्रस्तुत में ‘भाव लोक' से सम्बन्ध है / इसलिए कहा है भावे कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएणं / -175 1. पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ 596 डा बी० भट्ट का लेख 2. प्राचा० टीका पत्रांक 75 'दि लोगविजय निक्षेप एण्ड लोकविचय' Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्राथमिक भाव लोक का अर्थ है- क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों का समूह / यहाँ उस भाव लोक की विजय का अधिकार है। क्योंकि कषाय-लोक पर विजय प्राप्त करने वाला माधक काम-निवृत्त हो जाता है / और कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं / -177 काम-- निवृत्त साधक, संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है 3 प्रथम उद्देशक में भाव लोक (संसार) का मूल-शब्दादि विषय तथा स्वजन आदि का स्नेह बताकर उनके प्रति अनासक्त होने का उपदेश है / पश्चात् द्वितीय उद्देशक में संयम में परति का त्याग, तृतीय में गोत्र आदि मदों का परिहार, चतुर्थ में परिग्रहमूढ की दशा, भोग रोगोत्पत्तिका मूल, पाशा-तृष्णा का परित्याग, भोग-विरति एवं पंचम उद्देशक में लोक निश्रा में विहार करते हुए संयम में उद्यमशीलता एवं छठे उद्देशक में ममत्व का परिहार प्रादि विविध विषयों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।' 3 इस अध्ययन में छह उद्देशक हैं। सूत्र संख्या 63 से प्रारम्भ होकर 105 पर समाप्त होती है। 1. प्राचाशंग गीलांक टीका, पत्रांक 74-75 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'लोगविजयो' बीअं अज्झयणं पढमो उद्देसओ लोकविजय ; द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक संसार का मूल : आसक्ति 63. जे गुणे से मूलढाणे जे मूलट्ठाणे से गुणे। .. इति से गुणही महता परितावेणं बसे पमत्ते। तं जहा-माता मे, पिता मे, भाया मे, भगिणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संथुता मे, 'विवित्तोवगरण परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे। इच्चत्थं गढिए लोए बसे पमत्ते / अहो य राओ य परितपमाणे कालाकालसमुठ्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसक्कारे विणिविचित्ते एस्थ सत्थे पुणो पुणो। 63. जो गुण (इन्द्रिय विषय) है, वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान है। जो मूल स्थान है, वह गुण है। _ इस प्रकार (ग्रागे कथ्यमान) विषयार्थी पुरुष, महान् परिताप से प्रमत्त होकर, जीवन बिताता है। वह इस प्रकार मानता है-.."मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र-वधु है, मेरा मखास्वजन-सम्बन्धी-सहवासी है, मेरे विविध प्रचुर उपकरगा (अश्व, रथ, आसन आदि) परिवर्तन (देने-लेने की सामग्री) भोजन तथा वस्त्र हैं / इस प्रकार... मेरे पन (ममत्व) में ग्रामक्त हृया पुरुषप्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह प्रमत्त तथा प्रासक्त पुरुप रात-दिन परितप्त चिन्ता एवं तृणा से ग्राकुल रहता है। काल या अकाल में (ममय-बेममय हर समय) प्रयत्नशील रहता है। वह संयोग का अर्थी होकर, अर्थ का लोभी बनकर लट-पाट करने वाला (चोर या डाक) बन जाता है। सहसाकारी- दुःसाहसी और बिना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है। विविध प्रकार की प्राशायों में उसका चित्त फंसा रहता है। वह बार-बार अस्त्रप्रयोग करता है / संहारक/ग्राकामक बन जाता है। 1. चूर्णि में विचित्तं' पाठ है, जिसका अर्थ किया है- 'प्रभूत, अणेगप्रकारं विचित्र च' टीकाकार ने "विवित्तं' पाट मानकर अर्थ किया है—विवियतं शोभन प्रकुर वा। - टीका पत्रांक 1.1.1 . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 63-64 . विवेचन--सूत्र 41 में 'गुरग' को 'आवर्त' बताया है / यहाँ उसी संदर्भ में गुण को 'मुल स्थान' कहा है। पांच इन्द्रियों के विषय 'गुण' हैं / ' इष्ट विषय के प्रति राग और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष की भावना जाग्रत होती है। राग-द्वेष की जागति से कषाय की वृद्धि होती है / और बढ़े हुए कषाय ही जन्म-मरण के मूल को सींचते हैं / जैसा कहा है-- चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचति मूलाई पुणभवस्स* -ये चारों कषाय पुनर्भव-जन्म-मरण की जड़ को सींचते हैं। टीकाकार ने 'मूल' शब्द से कई अभिप्राय स्पष्ट किये हैं—मूल-चार गतिरूप संसार / पाठ प्रकार के कर्म तथा मोहनीय कर्म / इन सबका सार यही है कि शब्द आदि विषयों में प्रासक्त होना ही संसार को वृद्धि का कर्म-बन्धन का कारण है / विषयासक्त पुरुष की मनोवृत्ति ममत्व-प्रधान रहती है। उसो का यहाँ निदर्शन कराया गया है / वह माता-पिता आदि सभी सम्बन्धियों व अपनी सम्पत्ति के साथ ममत्व का दृढ़ बंधन बांध लेता है / ममत्व से प्रमाद बढ़ता है। ममत्व और प्रमाद--ये दो भूत उसके सिर पर सवार हो जाते हैं, तब वह अपनी उद्दाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए रात-दिन प्रयत्न करता है, हर प्रकार के अनुचित उपाय अपनाता है, जोड़-तोड़ करता है / चोर, हत्यारा और दुस्साहसी बन जाता है। उसकी वृति संरक्षक नहीं, आक्रामक बन जाती है। यह सब अनियंत्रित गुणाथिता--विषयेच्छा का दुष्परिणाम है / अशरणता-परिबोध 64. अप्पं च खलु आउं इहमेगेहि माणवाणं / तं जहा-सोतपण्णाहिं परिहायमाहिं चक्खुपण्णाणेहि परिहायमाहि घाणपण्णाणेहि परिहायमाणेहि रसपण्णाणेहि परिहायमाहि फासपण्णाणेहि परिहायमाहिं। अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए तओ से एगया मूढभावं जणयंति / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुब्धि परिवदंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवदेज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा / से ण हासाए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए / 64. इस संसार में कुछ-एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है। जैसे-श्रोत्रप्रज्ञान के परिहीन (सर्वथा दुर्बल) हो जाने पर, इसी प्रकार चक्षु-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, घ्राण-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, रस-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, स्पर्शप्रज्ञान के परिहीन होने पर (वह अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है)। 1. प्राचा० शी टीका पत्रांक 89 2. दशवकालिक 8 / 40 3. प्राचा. जी. टीका पत्रांक 90 / 1 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध वय-अवस्था यौवन को तेजी से जाते हुए देखकर वह चिंताग्रस्त हो जाता-- है और फिर वह एकदा (बुढ़ापा आने पर) मूढभाव को प्राप्त हो जाता है। वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन (पत्नी-पुत्र आदि) कभी उसका तिरस्कार करने लगते है, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है। वह वृद्ध जराजीर्ण पुरुष, न हंसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति-सेवन के और न शृगार/सज्जा के योग्य रहता है। विवेचन-इस सूत्र में मनुष्यशरीर की क्षणभंगुरता तथा अशरणता का रोमांचक दिग्दर्शन है। सोतपण्णाण का अर्थ है- सुनकर ज्ञान करने वालो इन्द्रिय अथवा श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होने वाला ज्ञान, इसी प्रकार चक्षुप्रज्ञान आदि का अर्थ है-देखकर, सूधकर, चखकर, छूकर ज्ञान करने वाली इन्द्रियाँ या इन इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान / आगमों के अनुसार मनुष्य का अल्पतम आयु एक क्षुल्लक भव (अन्तर्मुहूर्त मात्र) तथा उत्कृष्ट तीन पल्योपम प्रमाण होता है। इसमें संयम-साधना का समय अन्तमुहूर्त से लेकर देशोनकोटिपूर्व तक का हो सकता है। साधना की दृष्टि से समय बहुत अल्प-कम ही रहता है / अतः यहाँ आयुष्य को अल्प बताया है / सामान्य रूप में मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है। वह दश दशाओं में विभक्त है- बाला, क्रीडा, मंदा, बला, प्रज्ञा, हायनी, प्रपंचा, प्रचारा, मुम्मुखी और शायनी / साधारण दशा में चालीस वर्ष (चौथी दशा) तक मनुष्य-शरीर की प्राभा, कान्ति, बल आदि पूर्ण विकसित एवं सक्षम रहते हैं। उसके बाद क्रमशः क्षीण होने लगते हैं / जब इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने लगती है, तो मन में सहज ही चिता, भय और शोक बढ़ने लगता है / इन्द्रिय-बल की हानि से वह शारीरिक दृष्टि से अक्षम होने लगता है, उसका मनोबल भी कमजोर पड़ने लगता है। इसी के साथ बुढ़ापे में इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है। इन्द्रिय-शक्ति की हानि तथा विषयासक्ति की वृद्धि के कारण उसमें एक विचित्र प्रकार की मूढता-व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है। ऐसा मनुष्य परिवार के लिए समस्या बन जाता है। परस्पर में कलह व तिरस्कार की भावना बढ़ती है / वे पारिवारिक स्वजन चाहे कितने ही योग्य व स्नेह करने वाले हों, तब भी उस वृद्ध मनुष्य को, जरा, व्याधि और मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता। यही जीवन की अशरणता है, जिस पर मनुष्य को सतत चिन्तन/मनन करते रहना है तथा ऐसी दशा में जो शरणदाता बन सके उस धर्म तथा संयम की शरण लेना चाहिए। 1. आचा० टीका पत्रांक 92 2. स्थानांग सूत्र १०।सूत्र 772 (मुनि श्री कन्हैयालालजी सपादित) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 64-66 'प्राण' का अर्थ रक्षा करने वाला है, तथा 'शरण' का अर्थ प्राश्रयदाता है / 'रक्षा' रोग आदि से प्रतोकात्मक है,-'शरण' आश्रय एवं संपोषण का सूचक है / आगामों में ताणं-सरणं' शब्द प्रायः साथ-साथ ही आते हैं। प्रमाद-परिवर्जन 65. इच्चेवं समुठ्ठिते अहोविहाराए। अंतरं च खलु इमं संपेहाए धोरे मुहत्तमवि णो पमादए / वओ अच्चेति जोवणं च / ' 65. इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना (ग्रहोविहार) के लिए प्रस्तुत (उद्यत) हो जाये। इस जीवन को एक अंतर - स्वर्णिम अवसर समझकर धोर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे- एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे। अवस्थाएँ (बाल्यकाल आदि) बीत रही हैं। यौवन चला जा रहा है। विवेचन-इस सूत्र में 'संयम' के अर्थ में 'अहोविहार' शब्द का प्रयोग हुआ है। मनुष्य सामान्यतः विषय एवं परिग्रह के प्रति अनुराग रखता है। वह सोचता है कि इसके बिना जीवन-यात्रा चल नहीं सकती 1 जब संयमी, अपरिग्रही अनगार का जीवन उसके सामने आता है, तब उसको इस धारणा पर चोट पड़ती है। वह आश्चर्यपूर्वक देखता है कि यह विषयों का त्याग कर अपरिग्रही बनकर भी शान्तिपूर्वक जीवन यापन करता है / सामान्य मनुष्य की दृष्टि में संयम-आश्चर्यपूर्ण जीवनयात्रा होने से इसे 'अहोविहार' कहा है / 66. जीवित इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपित्ता उद्दवेत्ता उत्तासयिता, अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुटिव पोसें ति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसेज्जा / णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा,तुमं पि तेसिं गालं ताणाए वा सरणाए वा / 66. जो इस जीवन (विषय, कषाय आदि) के प्रति प्रमत्त है/ग्रासक्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव (जीव-वध) और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। (जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह) 'अकृत काम मैं करूँगा' इस प्रकार मनोरथ करता रहता है / जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी (शैशव एवं रुग्ण व्यवस्था में) उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह-सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं / तुम भी उनको त्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो। 1. 'च' ग्रहणा जहा जोवणं तहा बालातिवया वि'--चूणि / 'च' शब्द से यौवन के समान बालवय का : अर्थ ग्रहण करना चाहिए। 2. प्राचा० टीका पत्रांक 97 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 67. उवादीतसेसेण वा संणिहिसि पिणचयो कज्जति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति / / जेहि वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियमा पुब्धि परिहरंति, सो वा ते णियए पच्छा परिहरेज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा। 67. (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अजित-संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है / उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग/भोजन के लिए उपयोग में लेता है। (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग को पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन-स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आदि के कारण घृणा करके) पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन-स्नेहियों को छोड़ देता है। हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं, और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। आत्म-हित की साधना 68. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं / अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए खणं जाणाहि पंडिते! जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा जाव णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा जाव घाणपण्णाणा अपरिहीणा जाव जोहपण्णाणा अपरिहीणा जाव फासपण्णाणा अपरिहोणा, इच्चेतेहि विरूवरूवेहि पण्णाणेहिं अपरिहीहि आयझें सम्म समणुवासेन्जासि त्ति बेमि / ॥पढमो उद्देसओ सम्मत्तो। 68. प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख-अपना-अपना है, यह जानकर (आत्मद्रष्टा बने। ___ जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पंडित ! क्षण (समय) को अवसर को जान / जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र-प्रज्ञान, घ्राण-प्रज्ञान, रसना-प्रज्ञान, और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण है, तब तक-इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्म-हित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने / विवेचन--सूत्रगत--आयटुं--शब्द, आत्मार्थ-यात्म-हित के अर्थ में भी है और चूर्णि तथा टीका में 'पायतळं' पाठ भी दिया हैं / प्रायतार्थ अर्थात् ऐसा स्वरूप जिसका कहीं कोई अन्त या विनाश नहीं है-वह मोक्ष है। 1. 'उवातीतसेसं तेण' 'उवातीशेसेण'-ये पाठान्तर भी है। 3. आचा. शीलांक टीका पत्र 1.. 2. सन्निधि-दूध-दही आदि पदार्थ / सन्लिचय-चीनी वृत प्रादि-आयारो पृष्ठ 75 / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 67-70 45 जब तक शरीर स्वस्थ एवं इन्द्रिय-बल परिपूर्ण है, तब तक साधक आत्मार्थ अथवा मोक्षार्थ का सम्यक् अनुशीलन करता रहे। 'क्षण' शब्द सामान्यतः सबसे अल्प, लोचन-निमेषमात्र काल के अर्थ में आता है। किन्तु अध्यात्मशास्त्र में 'क्षण' जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। प्राचारांग के अतिरिक्त सूत्रकृतांग आदि में भी 'क्षण' का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है / जैसे-- इनमेव खणं वियाणिया-सूत्रकृत् 112 / 3 / 19 इसी क्षण को (सबसे महत्पूर्ण) समझो। टीकाकार ने 'क्षण' को अनेक दृष्टियों से व्याख्या की है / जैसे कालरूप क्षण-समय / भावरूप क्षण-अवसर / अन्य नय से भी क्षण के चार अर्थ किये हैं, जैसे-(१) द्रव्य क्षणमनुष्य जन्म / (2) क्षेत्र क्षण-आर्य क्षेत्र / (3) काल क्षण---धर्माचरण का समय / (4) भाव क्षण-उपशम, क्षयोपशम ग्रादि उत्तम भावों की प्राप्ति / इस उत्तम अवसर का लाभ उठाने के लिए साधक को तत्पर रहना चाहिए।' // प्रथम उद्देशक समाप्त / बीओ उद्देसमो द्वितीय उद्देशक अरति एवं लोभ का त्याग 69. अरति आउट्ट से मेधावी खणंसि मुक्के / ' 70. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियटेंति मंदा मोहेण पाउडा। 'अपरिग्गहा भविस्सामो' समुट्ठाए लद्धे कामे अभिगाहति / अणाणाए मुणिको पडिलेहेंति / एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा णो हवाए णो पाराए। 69. जो अति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान् है / वह बुद्धिमान् विषयतृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है। 70. अनाज्ञा में--(वीतराग विहित-विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई-कोई संयम-जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। वे मंद बुद्धि--अज्ञानी मोह से प्रावृत रहते हैं। __कुछ व्यक्ति- 'हम अपरिग्रही होंगे-ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम-सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित होता है, तो उसमें फँस जाते हैं। वे मुनि वीतराग-प्राज्ञा से बाहर (विषयों की ओर) देखने/ ताकने लगते हैं। 1. प्राचा० शीलांक टीका पत्रांक 9941.. 2. 'मुत्ते'--पाठान्तर है / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध इस प्रकार वे मोह में बार-बार निमग्न होते जाते हैं। इस दशा में वे न तो इस तीर (गृहवास) पर पा सकते हैं और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं। विवेचन--संयम मार्ग में गतिशील साधक का चित्त जब तक स्थिर रहता है, तब तक उसमें आनन्द की अनुभूति होती है। संयम में स्व-रूप में रमण करना, आनन्द अनुभव करना रति है। इसके विपरीत चित्त को व्याकुलता, उद्वेगपूर्ण स्थिति-'अरति' है / परति से मुक्त होने वाला क्षणभर में-अर्थात् बहुत ही शीघ्र विषय/तृष्ण्णा /कामनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। . सूत्र 70 में अरति-प्राप्त व्याकुलचित्त साधक की दयनीय मनोदशा का चित्रण है। उसके मन में संयम-निष्ठा न होने से जब कभी विषय-सेवन का प्रसंग मिलता है तो वह अपने को रोक नहीं सकता, उनका लुक-छिपकर सेवन कर लेता है / विषय-सेवन के बाद वह बारबार उसी ओर देखने लगता है। उसके अन्तरमन में एक प्रकार की वितृष्णा/प्यास जग जाती है। वह बार-बार विषयों का सेवन करने लगता है, और उसको वितृष्णा बढ़ती हो जाती है / वह लज्जा, परवशता, आदि कारणों से मुनिवेश छोड़ता भी नहीं और विषयासक्ति के वश हुआ विषयों की खोज या आसेवन भी करता है। कायरता व आसक्ति के दलदल में फंसा ऐसा पुरुष (मुनि) वेष में गृहस्थ नहीं होता, और आचरण में मुनि नहीं होता'-वह न इस तीर (गृहस्थ) पर आता है, और न उस पार (मुनिपद) पर पहुँच सकता है / वह दलदल में फंसे प्यासे हाथी की तरह या त्रिशंकु की भाँति बीच में लटकता हुआ अपना जीवन बर्वाद कर देता है / इस प्रसंग में ज्ञातासूत्रगत पुण्डरीक-कंडरीक का प्रसिद्ध उदाहरण दर्शनीय एवं मननीय है। लोम पर अलोभ से विजय - 71. विमुक्का हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुछमाणे लढे कामे णाभिगाहति / विणा वि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति / पडिलेहाए णावकंखति, एस अणगारे त्ति पवृच्चति / 71. जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं। प्रलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ-विजय ही पार पहुँचने का मार्ग है।) जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण स मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है / 1. उभयभ्रष्टो न गृहस्थो नापि प्रजितः / -आचा• टीका पत्रांक 103 2. "कोयि पुण विणा वि लोभेण निक्खमइ जहा भरहो राया" चूणि "विणा वि सोहं इत्यादि" शीलांक . टीका पत्र 103 3. ज्ञातासूत्र 19 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 71-73 ___ जो प्रतिलेखना कर, विषय-कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी (विषयों की) आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। विवेचन-जैसे आहार-परित्याग ज्वर की औषधि है, वैसे ही लोभ--परित्याग(संतोष) तृष्णा की औषधि है / पहले पद में कहा है जो विषयों के दलदल से मुक्त हो गया है वह पारगामी है / चूणिकार ने यहाँ प्रश्न उठाया है ते पुण कह पारगामिणो-वे पार कैसे पहुँचते है ? भण्णति-लोभ अलोभेण दुगु छमाणा-लोभ को अलोभ से जोतता हुआ पार पहुँचता है / "विणा वि लोभं' के स्थान पर शीलांक टीका में विणइत्त, लोभ पाठ भी है / चर्णिकार ने विणा वि लोभ पाठ दिया है / दोनों पाठों से यह भाव ध्वनित होता है कि जो लोभ-सहित, दीक्षा लेते हैं वे भी आगे चलकर लोभ का त्यागकर कर्मावरण से मुक्त हो जाते हैं। और जो भरत चक्रवर्ती की तरह लोभ-रहित स्थिति में दीक्षा लेते हैं वे भी कर्म-रहित होकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्म का क्षय कर ज्ञाता-द्रष्टा बन जाते हैं। प्रतिलेखना का अर्थ है—सम्यक् प्रकार से देखना / साधक जब अपने प्रात्म-हित का विचार करता है, तब विषयों के कटु-परिणाम उसके सामने आ जाते हैं। तब वह उनसे विरक्त हो जाता है / यह चिन्तन मननपूर्वक जगा वैराग्य स्थायी होता है / सूत्र 70 में बताये गये कुछ साधकों की भांति वह पुनः विषयों की ओर नहीं लौटता / वास्तव में उसे ही 'अनगार' कहा जाता है / अर्थ-लोभी को वृत्ति 72. 'अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुठ्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलु पे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एस्थ सत्थे पुणो पुणो।। 73. से आतबले, से णातबले, मित्तबले, से पेच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिथिबले, से किवणवले, से समणबले, इच्चेतेहि विरूवरूवेहि कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए भया कज्जति, पावमोक्खो त्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए / 72. (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात-दिन परितप्त रहता है। काल या अकाल में (धन आदि के लिए) सतत प्रयत्न करता रहता है। विषयों को प्राप्त करने का इच्छुक होकर वह धन का लोभी बनता है / चोर व लुटेरा बन जाता है / उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है। और वह पुनः-पुनः शस्त्र-प्रयोग (हिंसा व संहार) करता रहता है। 73. वह प्रात्म-बल (शरीर-बल,) ज्ञाति-बल, मित्र-बल, प्रेत्य-बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल का संग्रह करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों (उपक्रमों) द्वारा दण्ड का प्रयोग करता है। कोई व्यक्ति किसी कामना से (अथवा किसी अपेक्षा से) एवं कोई भय के 1. इससे पूर्व 'इच्चत्थं मढिए लोए वसति पमत्ते' इतना अधिक पाठ चूणि में है। -प्राचा० (मुनि जम्बूधिजयजी) पृष्ठ 20 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कारण हिंसा आदि करता है। कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से (यज्ञ-बलि आदि द्वारा) हिंसा करता है / कोई किसी आशा-अप्राप्त को प्राप्त करने की लालसा से हिंसा-प्रयोग करता है। विवेचन-सूत्र 72, 73 में हिंसा करने वाले मनुष्य को अन्तरंग वृत्तियों व विविध प्रयोजनों का सूक्ष्म विश्लेषण है / अर्थ-लोलुप मनुष्य, रात दिन भीतर-ही-भीतर उत्तप्त रहता है, तृष्णा का दावानल उसे सदा संतप्त एवं प्रज्वलित रखता है। वह अर्थलोभी होकर आलुम्पक-चोर, हत्यारा तथा सहसाकारी--दुस्साहसी/विना विचारे कार्य करने वाला अकस्मात् आक्रमण करने वाला-डाकू आदि बन जाता है। मनुष्य का चोर/डाकू हत्यारा बनने का मूल कारण -तृष्णा की अधिकता ही है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात वार-बार दुहराई गई है-- अतुठ्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययइ अदत्तं / --32129 सूत्र 73 में हिंसा के अन्य प्रयोजनों की चर्चा है / चूर्णिकार ने विस्तार के साथ बताया है-कि वह निम्न प्रकार के बल (शक्ति) प्राप्त करने के लिए विविध हिंसाएँ करता है / जैसे 1. सरीर-बल-शरीर की शक्ति बढ़ाने के लिए-मद्य-माँस आदि का सेवनकरता है। 2. ज्ञाति-बल-स्वयं अजेय होने के लिए स्वजन सम्बन्धियों को शक्तिमान् बनाता है / स्वजन-वर्ग की शक्ति को भी अपनी शक्ति मानता है।' 3. मित्र-बल-धन-प्राप्ति तथा प्रतिष्ठा-सम्मान आदि मानसिक-तुष्टि के लिए मित्रशक्ति को बढ़ाता है। 4. प्रेत्य-बल, 5. देव-बल-परलोक में सुख पाने के लिए, तथा देवता आदि को प्रसन्न कर उनकी शक्ति पाने के लिए यज्ञ, पशु-बलि, पिंडदान आदि करता है। 6. राज-बल-राजा का सम्मान एवं सहारा पाने के लिए, कूटनीति की चालें चलता है, शत्रु आदि को परास्त करने में सहायक बनता है। 7. चोर-बल-धनप्राप्ति तथा आतंक जमाने के लिए चोर आदि के साथ गठबंधन करता है। 8. अतिथि-बल, 9. कृपण-बल, 10. श्रमण-बल-अतिथि-- मेहमान, भिक्षुक आदि, कृपण - (अनाथ, अपंग, याचक) और श्रमण-आजीवक, शाक्य तथा निर्ग्रन्थ-इनको यश, कीति और धर्म-पुण्य की प्राप्ति के लिए दान देता है। 'सपेहाए'–के स्थान पर तीन प्रयोग मिलते है , सयं पेहाए-स्वयं विचार करके, 1. आचारांग चूणि इसी मूत्र पर 2. प्राचा० शीलांक टीका पत्रांक 104 3. प्राचारांग चूणि "संप्रेक्षया पर्शलोत्रनया एवं संप्रेक्ष्य वा।" Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 74-75 संपेहाए-विविध प्रकार से चिन्तन करके, सपेहाए-किसी विचार के कारण/विचारपूर्वक / तीनों का अभिप्राय एक ही है / 'दंडसमादाण' का अर्थ है हिंसा में प्रवृत्त होना। 74. तं परिणाय मेहावी व सयं एतेहिं कज्जेहि दंडं समारंभेज्जा, णेव अण्णं एतेहिं कम्जेहि दंडं समारंभावेज्जा, गेवण्णे एतेहि कज्जेहि वंडं समारंभंते समणुजाणेज्जा। एस मग्गे आरिएहि पवेदिते जहेत्थ कुसले गोलिपेज्जासि ति बेमि / // बिइओ उद्देसओ सम्मत्तो। 74. यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे। यह मार्ग (लोक-विजय का/संसार से पार पहुँचने का) आर्य पुरुषों नेतीर्थंकरों ने बताया है / कुशल पुरुष इन विषयों में लिप्त न हों। --ऐसा मैं कहता हूँ। . // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उदेशक गोत्रवार-निरसन 75. से असई उच्चागोए, असई णीयागोए।' णो होणे, णो अतिरित्ते / णो पीहए। इति संखाए के गोतावादी? के माणावादी ? कंसि वा एगे गिज्ने ? तन्हा पंढिते गो हरिसे, जो कुज्झे। 75. यह पुरुष (आत्मा) अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है / इसलिए यहाँ न तो कोई हीन/नीच है और न कोई अतिरिक्त विशेष/उच्च है / यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे। यह (उक्त तथ्य को) जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानवादी होगा? और कौन किस एक गोत्र स्थान में आसक्त होगा? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुखी न हो। विवेचन-इस सूत्र में आत्मा की विविध योनियों में भ्रमणशीलता का सूचन करते हुए उस योनि/जाति व गोत्र आदि के प्रति अहंकार व हीनता के भावों से स्वयं को प्रस्त न करने की सूचना दी है। अनादिकाल से जो आत्मा कर्म के अनुसार भव-भ्रमण करती है, उसके लिए विश्व में कहीं ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ उसने अनेक बार जन्म धारण न किया हो / जैसे कहा है१. नागार्जुनीय वाचना का पाठ इस प्रकार है-'एगमेगे खलु नौवे अतीतद्धाए असई उच्चागोए असई गीयागोए करगट्टयाए णो होणे णो अतिरित्ते।' चणि एवं दीका में भी यह पाठ उद्धृत है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध न सा जाईन सा जोणी मतं ठाणं न त कुलं / जत्य न जाओ मओ वावि एस जीवो अणतसो॥ ऐसी कोई जाति, योनि, स्थान और कुल नहीं है, जहाँ पर यह जीव अनन्त बार जन्म. मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो / भगवती सूत्र में कहा है-नस्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्य गं अयं जीवे न जाए वा न भए वाविप इस विराट् विश्व में परमाणु जितना भो ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ यह जीव न जन्मा हो, न मरा हो।' जब ऐसी स्थिति है, तो फिर किस स्थान का वह अहंकार करे / किस स्थान के लिए दीनता अनुभव करे ! क्योंकि वह स्वयं उन स्थानों पर अनेक बार जा चुका है। इस विचार से मन में समभाव की जागति करे / मन को न तो अहंकार से दृप्त होने दे, न दीनता का शिकार होने दे ! बल्कि गोत्रवाद को, ऊँच-नीच की धारणा को मन से निकालकर प्रात्मवाद में रमण करे। __ यहाँ उच्चगोत्र-नीचगोत्र शब्द बह चचित शब्द है। कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से 'गोत्र' शब्द का अर्थ है "जिस कर्म के उदय से शरीरधारी आत्मा को जिन शब्दों के द्वारा पहचाना जाता है, वह 'गोत्र' है।" उच्च शब्द के द्वारा पहचानना उच्च गोत्र है, नीच शब्द के द्वारा पहचाना जाना नीच गोत्र है। इस विषय पर जैन ग्रन्थों में अत्यधिक विस्तार से चर्चा की गई है। उसका सार यह है कि जिस कुल की वाणो, विचार, संस्कार और व्यवहार प्रशस्त हो, वह उच्च गोत्र है और इसके विपरीत नीच गोत्र / गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है। कर्मसिद्धान्त के अनुसार देव गति में उच्चगोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीचगोत्र का उदय, किन्तु देवयोनि में भी किल्बिषिक देव उच्च देवों की दृष्टि में नीच व अस्पृश्यवत् होते हैं / इसके विपरीत अनेक पशु, जैसे-गाय, घोड़ा, हाथी, तथा कई नस्ल के कुने बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं / वे अस्पृश्य नहीं माने जाते / उच्चगोत्र में नीच जाति हो सकती है तो नीचगोत्र में उच्च जाति क्यों नहीं हो सकती ? अतः गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्शकर चुका है; कर रहा है तब फिर कौन ऊँचा है ? कौन नीचा? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है, और अहंकार-'मद' है / 'मद' नीचगोत्र बन्धन का मुख्य कारण है ? अतः इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, समत्वशील है वही पंडित है। प्रमाद एवं परिग्रह-जन्य दोष 76. भूतेहि जाण पडिलेह सातं / समिते एयाणुपस्सी / तं जहा--- अंधत्तं बहिरतं मूकत्तं काणत्तं कुटत्तं खुज्जतं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं / सह पमादेणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति / 1. भगवती सूत्र श० 12 उ०७ 2. प्रज्ञापना सूत्र पद 23 की मलयगिरि वृत्ति Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 75.76 77. से अबुज्झमाणे हतोवहते जाती-मरणं अणुपरियट्टमाणे / जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं / आरत्तं विरत्तं मणिकुडलं सह हिरण्णण इत्थियाओ परिगिज्य तत्थेव रत्ता। . ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति / संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेति। .. 78. इणमेव णावखंति जे जणा धुवचारिणो। जाती-मरणं परिण्णाय चरे संकमणे दढे // 1 // णस्थि कालस्स णागमो। सम्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा / सव्वेसि जीवितं पियं। 76. प्रत्येक जीव को सुख प्रिय है, यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर। जो समित ( सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न ) है वह इस (जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक) को देखता है / जैसे अन्धापन, बहरापन, गूगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन बौनापन कालापन, चितकबरापन (कुष्ट आदि चर्मरोग) आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (कर्म) के कारण ही नानाप्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के प्राघातों-दुःखों/बेदनाओं का अनुभव करता है / 77. वह प्रमादी पुरुष कर्म-सिद्धान्त को नहीं समझता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत-पुन:पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है। जो मनुष्य, क्षेत्र-खुली भूमि तथा-वास्तु-भवन-मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है। वे रंग-विरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्यस्वर्ण, और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं। परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम-इन्द्रिय-निग्रह (शान्ति) होता है और न नियम होता है। __ वह अज्ञानी, ऐश्वर्यपूर्ण सम्पन्न जीवन जीने की कामना करता रहता है। . बार-बार सुख प्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है। किन्तु सुखों की अ-प्राप्ति व कामना की व्यथा से पीड़ित हुअा वह मूढ़ विपर्यास--(सुख के बदले दुःख) को ही प्राप्त होता है। जो पुरुष ध्र वचारी-अर्थात् शाश्वत सुख-केन्द्र मोक्ष की ओर गतिशील होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते। वे जन्म-मरण के. चक्र को जानकर दृढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। सब प्राणियों को प्रायुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते हैं / दुःख से घबराते हैं। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है, जीवन प्रिय है / वे जीवित रहना चाहते हैं। सब को जीवन प्रिय है। विवेचन—सूत्र 76 में समत्व-दर्शन की प्रेरणा देते हुए बताया है कि संसार में जितने भी दुःख हैं, वे सब स्वयं के प्रमाद के कारण ही होते हैं। प्रमादी-विषय आदि में आसक्त होकर परिग्रह का संग्रह करता है, उनमें ममत्व बन्धन जोड़ता है। उनमें रक्त अर्थात् अत्यन्त गृद्ध हो जाता है। ऐसा व्यक्ति प्रथम तो तप, (अनशनादि) दम (इन्द्रिय-निग्रह, प्रशम भाव) नियम (अहिंसादि व्रत) आदि का प्राचरण नहीं कर सकता, अगर लोक-प्रदर्शन के लिए करता भी है तो वह सिर्फ ऊपरी है, उसके तप-दम नियम निष्फल-फल रहित होते हैं।' सूत्र 78 में ध्र व शब्द-मोक्ष का वाचक है। आगमों में मोक्ष के लिए 'ध्र व स्थान' का प्रयोग कई जगह हा है। जैसे अस्थि एगं धुवं ठाणं-(उत्त० 23 गा०८१) ध्र व शब्द, मोक्ष के कारणभूत ज्ञानादि का भी बोधक है। कहीं-कहीं 'धुतचारी' पाठान्तर भी मिलता है। 'धुत' का अर्थ भी चारित्र व निर्मल अात्मा है। ___ 'चरे सकमणे' के स्थान पर शोलांकटीका में 'घरेऽसंकमणे' पाठ भी है / 'संकमणे' का अर्थसंक्रमण-मोक्षपथ का सेतु-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप किया है। उस सेतु पर चलने का आदेश है / 'चरेऽसंकमणे' में शंका रहित होकर परीषहों को जीतता हुअा गतिमान् रहने का भाव है। "पिआउया' के स्थान पर चूणि में पियायगा व टीका में "पियायया' पाठान्तर भी है। जिनका अर्थ है प्रिय आयत:-आत्मा, अर्थात् जिन्हें अपनी आत्मा प्रिय है, वे जगत् के सभी प्राणी। यहाँ प्रश्न उठ सकता है प्रस्तुत परिग्रह के प्रसंग में 'सब को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है' यह कहने का क्या प्रयोजन है ? यह तो अहिंसा का प्रतिपादन है। चिन्तन करने पर इसका समाधान यों प्रतीत होता है। 'परिग्रह का अर्थी स्वयं के सुख के लिए दूसरों के सुख-दुःख की परवाह नहीं करता, वह शोषक तथा उत्पीड़क भी बन जाता है / इसलिए परिग्रह के साथ हिंसा का अनुबंध है। यहाँ पर सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी यह बोध होना आवश्यक है कि जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। दूसरों के सुख को लूटकर स्वयं का सुख न चाहे, परिग्रह न करे इसी भावना को यहाँ उक्त पद स्पष्ट करते हैं। परिग्रह से दुःखवृद्धि 79. तं परिगिज्य दुपयं चउप्पयं अभिजुजियाणं संसिंचियाणं तिविधेण जा वि से तत्थ मता भवति अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिते चिट्ठति भोयणाए। 1. प्राचारांग ठीका पत्र-१०९ 2. वही टीका पत्र 110 3. वही पत्र 110 4. पियो अप्पा जेसि से पियायगा-चणि (प्राचा० जम्बू० टिप्पण पृष्ठ 22) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र : 79 ततो से एगदा विप्परिसिठं संभूतं महोवकरणं भवति / तं पि से एगदा दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा सेअवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्मति / इति से परस्सऽटाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विष्परियासमुवेति / मुणिणा हु एतं पवेदितं। अणोहंतरा एते, णो य ओहं तरित्तए। अतीरंगमा एते, णो य तीरं गमित्तए / अपारंगमा एते, णो य पारं गमित्तए। आयाणिज्जं च आदाय तम्मि ठाणे ण चिट्ठति / वितहं पप्प खेत्तण्णे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठति // 2 // 79. वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद ( मनुष्य-कर्मचारी) और चतुष्पद (पशु आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनका कार्य में नियुक्त करता है। फिर धन का संग्रह-संचय करता है / अपने, दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अथवा अपनी पूजित पूजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि-तीनों के सहयोग से) उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धनसंग्रह हो जाता है। __ वह उस अर्थ में गद्ध-पासक्त हो जाता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है / पश्चात् वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपूल अर्थ-सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है / एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दायाद-बेटे-पोते हिस्सा बंटा लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं। या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती हैं / या कभी गृह-दाह के साथ जलकर समाप्त हो जाती है / इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त हो वह सुख की खोज करता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है / इस प्रकार वह मूढ विपर्यास को प्राप्त होता है। भगवान् ने यह बताया है- (जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ होता है। मूढ मनुष्य सुख की खोज में बार-बार दुःख प्राप्त करता है) ये मूढ मनुष्य अनोघंतर हैं, अर्थात् संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते / (वे प्रव्रज्या लेने में असमर्थ रहते हैं) वे अतीरंगम हैं, तीर-किनारे तक पहुंचने में (मोह कर्म का क्षय करने में) समर्थ नहीं होते। वे अपारंगम हैं, पार-(संसार के उस पार-निर्वाण तक) पहुँचने में समर्थ नहीं होते। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध वह (मूढ) आदानीय-सत्यमार्ग (संयम-पथ) को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता / अपनी मूढता के कारण वह असन्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। .. विवेचन--इस सूत्र में परिग्रह-मूढ़ मनुष्य की दशा का चित्रण है। वह सुख की इच्छा से धन का संग्रह करता है किन्तु धन से कभी सुख नहीं मिलता / अन्त में उसके हाथ दुःख, शोक, चिन्ता और क्लेश ही लगता है। परिग्रहमूढ अनोपंतर है--संसार त्याग कर दीक्षा नहीं ले सकता / अगर परिग्रहासक्ति कुछ छूटने पर दीक्षा ले भी ले तो जब तक उस बंधन से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, और न संसार का पार--निर्वाण प्राप्त कर सकता है। चूर्णिकार ने 'आदानीय' का अर्थ-पंचविहो आयारो-पांच प्रकार का प्राचार अर्थ किया है कि वह परिग्रही मनुष्य उस आचार में स्थित नहीं हो सकता।' चूर्णिकार ने इस गाथा (2) को एक अन्य प्रकार से भी उद्धृत किया है, उससे एक अन्य अर्थ ध्वनित होता है, अतः यहां वह गाथा भी उपयोगी होगी आदाणियस्स आणाए तम्मि ठाणे ण चितुइ। वितह पप्पऽखेत्तणे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ // -आदानीय अर्थात् ग्रहण करने योग्य संयम मार्ग में जो प्रवृत्त है, वह उस स्थान(मूल ठाणे-संसार) में नहीं ठहरता / जो अखेत्तग्णे-(प्रक्षेत्रज्ञ) अज्ञानी है, मूढ है, वह असत्य. मार्ग का अवलम्बन कर उस स्थान (संसार) में ठहरता है / / 80. उद्देसो पासगस्स पत्थि। बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियदृति त्ति बेमि। // तइओ उद्देसओ समतो॥ 80. जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम-सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी होकर दुःखों के प्रावर्त में-चक्र में बार-बार भटकता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-यहाँ पश्यक-शब्द द्रष्टा या विवेकी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / टीकाकार ने वैकल्पिक अर्थ यों किया है--जो पश्यक स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक रखता है, उसे अन्य के 1. प्राचा० (जम्बूविजय जी) टिप्पण पृष्ठ 23 2. अखेतण्णो अपंडितो से तेहि चेत्र संसारहाणे चिट्ठति-णि (वहीं पृष्ठ 23) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 80.82 उपदेश की आवश्यकता नहीं है। अथवा पश्यक--सर्वज्ञ हैं, उन्हें किसी भी उद्देस-नारक प्रादि तथा उच्च-नीच गोत्र आदि के व्यपदेश-संज्ञा की अपेक्षा नहीं रहती।। जिहे-के भी दो अर्थ है-(१) स्नेही अथवा रागी,, (2) णिद्ध (निहत) कषाय, कर्म परीषह आदि से बंधा या त्रस्त हुआ अज्ञानी जीव / ' // तृतीय उद्देशा समाप्त / / चउत्यो उद्देसओ बर्थ उद्देशक काम-भोग-जन्य पीड़ा 81. ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुष्पज्जति / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णे एगया णियगा पुब्धि पस्वियंति, सो वा ते णियए पच्छा परिवएज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरगाए वा, तुम पि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा / 82. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं / भोगामेव अणुसोयंति, इहमेगेसि माणवाणं तिविहेण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पर वा बहुया वा / से तत्थ गढिते बिट्ठति भोयणाए / ततो से एगया विपरिसिठं संभूतं महोवकरणं भवति तं पि से एगया दायादा विभयंति अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलु पंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से उज्मति / इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति। 81. तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में (भोग-काल में) अनेक प्रकार के रोग-उत्पात (पीड़ाएँ) उत्पन्न हो जाते हैं। __ वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकंदा (रोगग्रस्त होने पर) उसका तिरस्कार व निदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं है। तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है / 82. दुःख और सुख–प्रत्येक प्रात्मा का अपना-अपना है, यह जानकर (इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे)। 2. अदत्ताहारो-पाठान्तर हैं। / 1. प्राचा० टीका पत्रांक 113/1 3. कराणि कम्माणि-पाठान्तर है / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कुछ मनुष्य, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, वे बार-बार भोग के विषय में ही (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह) सोचते रहते हैं / यहाँ पर कुछ मनुष्यों को (जो विषयों की चिंता करते हैं) (तीन प्रकार से)अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ-मात्रा (धनसंपदा) हो जाती है / वह फिर उस अर्थ-नात्रा में आसक्त होता है / भोग के लिए उसकी रक्षा करता है / भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है। फिर जोवन में कभी ऐसा समय प्राता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते हैं, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं, वह अन्य प्रकार (दुर्व्यसन आदि या आतंक-प्रयोग) से नष्ट-विनष्ट हो जाती है। गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है / अज्ञानी मनुष्य इस प्रकार दूसरों के लिए अनेक क्रूर कर्म करता हुआ (दुःख के हेतु का निर्माण करता है) फिर दुःखोदय होने पर वह मूढ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है / आसक्ति ही शल्य है 83. आसं च छंदं च विगिच धीरे / तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट / जेण सिया तेण णो सिया / इणमेव णायबुझंति जे जणा मोहपाउडा / 84. थोभि लोए पध्वहिते / ते भो ! वदंति एयाई आयतणाई। से दुक्खाए मोहाए माराए णरगाए नरगतिरिक्खाए / सततं मूढे धम्मं णाभिजाणति / 83. हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता (स्वेच्छाचारिता)-मनमानी करने का त्याग करदे 1 उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है / जिस भोग-सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है / (भोग के बाद दुःख है)। जो मनुष्य मोह की सघनता से आवृत हैं, ढंके हैं, वे इस तथ्य को (उक्त प्राशय को-कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षणभंगुर है, तथा वे ही शल्य-कांटा रूप है) नहीं जानते / 84. यह संसार स्त्रियों के द्वारा पराजित है (अथवा प्रव्यथित-पीड़ित है) हे पुरुष ! वे (स्त्रियों से पराजित जन) कहते हैं-ये स्त्रियाँ पायतन हैं (भोग की सामग्री हैं)। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितोय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 83.85 (किंतु उनका) यह कथन/धारणा, दुःख के लिए एवं मोह, मृत्यु, नरक तथा नरकतिर्यंच गति के लिए होता है। सतत मूढ रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता। विवेचन-उक्त दोनों सूत्रों में क्रमश: मनुष्य की भोगेच्छा एवं कामेच्छा के कटुपरिणाम का दिग्दर्शन है। भोगेच्छा को ही अन्तर हृदय में सदा खटकने वाला काँटा बताया गया है और उस काँटे को उत्पन्न करने वाला प्रात्मा स्वयं ही है। वही उसे निकालने वाला भी है। किन्तु मोह से प्रावृतबुद्धि मनुष्य इस सत्य-तथ्य को पहचान नहीं पाता, इसीलिए वह संसार में दुःख पाता है। सूत्र 84 में मनुष्य की कामेच्छा का दुर्बलतम पक्ष उघाड़कर बता दिया है कि यह समूचा संसार काम से पीड़ित है, पराजित है / स्त्री काम का रूप है। इसलिए कामी पुरुष स्त्रियों से पराजित होते हैं और वे स्त्रियों को भोग-सामग्री मानने की निकृष्ट-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। 'आयतन' शब्द यहाँ पर भोग-सामग्री के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मूल प्रागमों तथा टीका ग्रन्थों में 'पायतन' शब्द प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'आयतन—गुणों का आश्रय / ' भवन, गृह, स्थान, आश्रय / देव, यक्ष आदि का स्थान, देव-कुल / ज्ञान-दर्शन-चारित्रधारी साधु, धार्मिक व ज्ञानी जनों के मिलने का स्थान / उपभोगास्पद वस्तु / नरक-तिर्यंच-गति-से तात्पर्य है, नरक से निकलकर फिर तिर्यंच गति में जाना। स्त्री को आयतन-भोग-सामग्री मानकर, उसके भोग में लिप्त हो जाना--प्रात्मा के लिए कितना घातक/अहितकर है, इसे जताने के लिए ही ये सब विशेषण हैं--यह दुःख का कारण है, मोह, मृत्यु, नरक व नरक-तिर्यंच गति में भव-भ्रमण का का कारण है / विषय : महामोह 85. उदाहु वीरे-अप्पमादो महामोहे, अलं कुसलस्स पमादेणं, संतिमरणं सपेहाए, भेउरधम्म सपेहाए / णालं पास / अलं ते एतेहि / एतं पास मुणि! महाभयं / णातिवातेज्ज कंचणं। 1. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार; सूत्र 23 / 2. अभिधान राजेन्द्र भाग 2 पृ० 327 / 3. (क) प्रश्न प्राश्रव द्वार। (ख) दशाश्रुतस्कंध 1 / 10 / 4. प्रवचनसारोद्धारद्वार 148 माथा 949 / --आयतनं धार्मिकजनमोलनस्थानम् / 5. प्रोपनियुक्ति गाथा 782 / 6. प्रस्तुत सूत्र / 7. नरगाए --रकाय नरकगमनार्थ, पुनरपि नरगतिरिक्खा-ततोपि नरकादुद्धृत्य तिरश्च प्रभवति / ---याचा० शी टीका पत्रांक 115 / 8. अल तवेरहि-पाठान्तर है / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध 85. भगवान् महावीर ने कहा है-महामोह ( विषय/स्त्रियों ) में अप्रमत्त रहे / अर्थात् विषयों के प्रति अनासक्त रहे / बुद्धिमान् पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए / शान्ति' (मोक्ष) और मरण (संसार) को देखने समझने वाला (प्रमाद न करे) यह शरीर भंगुरधर्मा-नाशवान है, यह देखने वाला (प्रमाद न करे) / / ये भोग (तेरी अतृप्ति की प्यास बुझाने में) समर्थ नहीं है / यह देख / तुझे इन भोगों से क्या प्रयोजन है ? हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान् भयरूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर / मिक्षाचरी में समभाव 86. एस वीरे पसंसिते जे ण णिविज्जति आदाणाए। ण मे देति ण कुप्पेज्जा, थोवं लधुण खिसए। पडिसेहितो परिणमेज्जा। एतं मोणं समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो। 86. वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता अर्थात् जो संयम में सतत लीन रहता है / ___ 'यह मुझे भिक्षा नहीं देता' ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए। थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करना चाहिए / गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर-निषेध करने पर शान्त भाव से वापस लौट जाये / __ मुनि इस मौन (मुनिधर्म) का भलीभाँति पालन करे / विवेचन-यहाँ भोग-निवृत्ति के प्रसंग में भिक्षा-विधि का वर्णन आया है / टीकाकार प्राचार्य की दृष्टि में इसकी संगति इस प्रकार है-जुनि संसार त्याग कर भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करता है। उसकी भिक्षा त्याग का साधन है, किन्तु यदि वही भिक्षा, आसक्ति, उद्वेग तथा क्रोध आदि अावेशों के साथ ग्रहण की जाये तो, भोग बन जातो है / श्रमण की भिक्षावृत्ति 'भोग न बने इसलिए यहाँ भिक्षाचर्या में मन को शांत, प्रसन्न और संतुलित रखने का उपदेश किया गया है। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. 'संतिमरण' का एक अर्थ यह भी है कि शान्ति-पूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ नाशवान शरीर का विचार करे। 2. कामदशावस्थात्मक महद् भयं-टीका पत्रांक-११६॥ 1 / 3. यहाँ पठान्तर है-'पडिलाभिते परिणमे'-चूणि / पडिलाभिग्रो परिणमेज्जा-शीलांक टीका। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 87.88 पञ्चमो उद्देसओ पंचम उद्देशक __शुद्ध आहार की एषणा 87. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जति / तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूताणं सुण्हाणं गातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाए पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए संणिहिसंणिचयो कज्जति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। 88. समुठ्ठिते अणगारे आरिए' आरियपणे आरियदंसी अयं संधी ति अदक्खु / से जाइए, णाइआवए, न समणुजाणए / सव्वामगंध परिणाय णिरामगंधे परिवए। अदिस्समाणे कय-विक्कएसु / से ण किणे, ण किणावए, किणंतं ण समणुजाणए। से भिक्खू कालण्णे बालण्णे मातण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयण्णे समयण्णे भावणे परिग्गहं अममायमाणे कालेणुछाई अपडिण्णे / दुहतो छित्ता णियाइ। 87. असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए (अपने एवं दूसरों के लिए) कर्म समारंभ (पचन-पाचन आदि क्रियाएँ) करते हैं। जैसे अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने- मेहमान आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए। इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि (दूध-दही आदि पदार्थों का संग्रह) और सन्निचय (चीनी-धृत आदि पदार्थों का संग्रह) करते रहते हैं। 88. संयम-साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है / वह 'यह शिक्षा का समय-संधि (अवसर) है' यह देखकर (भिक्षा के लिए जाये) वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे / वह (अनगार) सब प्रकार के प्रामगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार) का परिवर्जन करता हया निर्दोष भोजन के लिए परिव्रजन-भिक्षाचरी करे। वह वस्तू के क्रय-विक्रय में संलग्न न हो / न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। वह (उक्त प्राचार का पालन करने वाला) भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं 1. चणि में इसके स्थान पर 'आयरिए, आयरियपणे, आयरियदिछी'-पाठ भी है / जिसका प्राशय है प्राचारवान्, प्राचा:प्रज्ञ तथा प्राचार्य की दृष्टि के अनुसार व्यवहार करने वाला। . . . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्ध रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। वह राग और द्वेष-दोनों का छेदन कर नियम तथा अनाक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है / विवेचन-चतुर्थ उद्देशक में भोग-निवत्ति का उपदेश दिया गया / भोगनिवत्त गहत्यागी पूर्ण अहिंसाचारी श्रमण के समक्ष जब शरीर-निर्वाह के लिए भोजन का प्रश्न उपस्थित होता है, तो वह क्या करे ? शरीर-धारण किये रखने हेतु आहार कहाँ से, किस विधि से प्राप्त करे ? ताकि उसकी ज्ञान-दर्शन-चारित्र-यात्रा सुखपूर्वक गतिमान रहे / इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत उद्देशक में दिया गया है। सूत्र 87-88 में बताया है कि गृहस्थ स्वयं के तथा अपने सम्बन्धियों के लिए अनेक प्रकार का भोजन तैयार करते हैं / गृहत्यागी श्रमण उनके लिए बने हुए भोजन में से निर्दोष भोजन यथासमय यथाविधि प्राप्त कर लेवे। वह भोजन की संधि-समय को देखे / गृहस्थ के घर पर जिस समय भिक्षा प्राप्त हो सकती हो, उस अवसर को जाने / चणिकार ने सधि के दो अर्थ किये हैं-(१) संधि-भिक्षाकाल अथवा (2) ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप भाव संधि' (सु-अवसर) इसको जाने। भिक्षाकाल का ज्ञान रखना अनगार के लिए बहुत आवश्यक है। भगवान् महावीर के समय में भिक्षा का काल दिन का तृतीय पहर माना जाता था जब कि उसके उत्तरवर्ती काल में क्रमशः द्वितीय पहर भिक्षाकाल मान लिया गया। इसके अतिरिक्त जिस देश-काल में भिक्षा का जो उपयुक्त समय हो, वही भिक्षाकाल माना जाता है। पिंडैषणा अध्ययन, दशवकालिक (5) तथा पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों में भिक्षाचरी का काल, विधि, दोष आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्रमण के लिए यहाँ तीन विशेषण दिये गये हैं- (1) आर्य, (2) आर्यप्रज्ञ, और (3) आर्यदर्शी। ये तीनों विशेषण बहुत सार्थक है। आर्य का अर्थ है-श्रेष्ठ प्राचरण वाला' अथवा गुणी / प्राचार्य शीलांक के अनुसार जिसका अन्त:करण निर्मल हो वह प्रार्य है। जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त हो, वह आर्यप्रज्ञ है। जिसकी दृष्टि गुणों में सदा रमण करे वह अथवा न्याय मार्ग का द्रष्टा पार्यदर्शी है / सम्वामगंध-शब्द में ग्रामगंध शब्द अशुद्ध, अग्रहणीय पाहार का वाचक है। सामान्यतः 'आम' का अर्थ 'अपक्व' है / वैद्यक ग्रन्थों में अपक्व-कच्चा फल, अन्न आदि को आम शब्द से व्याख्यात किया है। पालिग्रन्थों में 'पाप' के अर्थ में 'आम' शब्द का प्रयोग हुप्रा है। जैन 1. संधि, जं भणितं भिक्खाकालो, "अहवा नाण-दसण-चरित्ताइ भाव संधी / ताई लभित्ता-- -प्राचारांग चणि 2. उत्तराध्ययन सूत्र-'तइयाए भिक्खायरियं--२६।१२ 3. नालन्दा विशाल शब्दसागर 'आर्य' शब्द / 4. गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः-सर्वार्थ० 3.6 (जन लक्षणावली, भाग 1, पृ. 211) 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 118 / 6. देखें - पाचारांग; प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी कृत इसी सूत्र की टीका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्तीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्रक सूत्रों व टीकाओं में 'आम' व 'ग्रामपंध' शब्द प्राधाकादि दोष से दुषित, अशुद्ध तथा भिक्षु के लिए अकल्पनीय आहार के अर्थ में अनेक स्थानों पर अपया है / / कालज्ञ आदि शब्दों का विशेष प्राशय इस प्रकार है कालण्मे---कालज्ञ-भिक्षा के उपयुक्त समय को जाननेवाला अथवा काल-प्रत्येक पावश्यक क्रिया का उपयुक्त समय, उसे जानने वाला समय पर अपना कर्तव्य पूरा करने वाला कालज्ञ' होता है। बलण्णे-बलज्ञ-अपनी शक्ति एवं सामथ्र्य को पहचाननेवाला तथा शक्ति का, तप, सेवा प्रादि में योग्य उपयोग करने वाला। मातणे--मात्रज्ञ--भोजन प्रादि उपयोम में लेने वाली प्रत्येक वस्तु का परिमाणमात्रा जानने वाला। खेयपणे-खेदज्ञ-दूसरों के दुःख एवं पीड़ा प्रादि को समझनेवाला तथा क्षेत्रज्ञअर्थात् जिस समय व जिस स्थान पर भिक्षा के लिए जाना हो, उसका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला। खणयण्णे-क्षण-क्षण को, अर्थात समम को पहचानने वाला / काल और क्षण में अन्तर यह है कि-काल, एक दीर्घ अवधि के समय को कहा गया है। जैसे दिन-रात, पक्ष आदि / क्षण-छोटी अवधि का समय / वर्तमान समय क्षण कहलाता है। विणयण्णे--विनयज्ञ---ज्ञान-दर्शन-चारित्र को विनय कहा गया है। इन तीनों के सम्यक स्वरूप को जानने वाला। अथवा विनय-बड़ों एवं छोटों के साथ किया जाने वाला व्यवहार / व्यवहार के औचित्य का जिसे ज्ञान हो, जो लोक-व्यवहार का ज्ञाता हो। विनय का अर्थ प्राचार भी है। अत: विनयज्ञ का अर्थ प्राचार का ज्ञाता भी है। समयण्णे-समयज्ञ / यहाँ 'समय' का अर्थ सिद्धान्त है। स्व-पर सिद्धान्तों का सम्यक् ज्ञाता समयज्ञ कहलाता है। भावण्णे--भावज्ञ व्यक्ति के भावों-चित्त के अव्यक्त प्राशय को, उसके हाव-भावचेष्टा एवं विचारों से ध्वनित होते गुप्त भावों को समझने में कुशल व्यक्ति भावज्ञ कहलाता है। परिग्गहं अममायमाणे-पद में 'परिग्रह' का अर्थ शरीर तथा उपकरण किया गया है।' साधु परिग्रहत्यागी होता है। शरीर एवं उपकरणों पर मूर्छा-ममता नहीं रखता। अतः यहाँ शरीर ार उपकरण को 'परिग्रह कहने का आशय-संयमोपयोगी बाह्य साधनों से ही है। 1. अभिधान राजेन्द्र भाग 2, 'प्राम' शब्द पृष्ठ 315 / 2. खित्तणो भिक्खायरियाकुसलो-प्राचा० चूर्णि। 3. प्राचा. टीका पत्रांक 12011 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 120 1 / 7. प्राचा, शीला० टीका पत्रांक 12012 उत्तरा० 11 की टीका। प्राचा० शीला दीका पत्रांक 120 / / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 माचाररांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध उन बाह्य साधनों का ग्रहण सिर्फ संयमनिर्वाह की दृष्टि से होना चाहिए, उनके प्रति ममत्व' भाव न रखे / इसीलिए यहाँ 'अममत्व" की विशेष सूचना है। शरीर और संयम के उपकरण भी ममत्व होने पर परिग्रह हो जाते हैं / / कालेणुहाई-कालानुष्ठायी-से तात्पर्य है, समय पर उचित उद्यम एवं पुरुषार्थ करने वाला / योग्य समय पर योग्य कार्य करना यह भाव कालानुष्ठायी से ध्वनित होता है। अपडिण्णे-अप्रतिज्ञ--किसी प्रकार का भौतिक संकल्प (निदान) न करने वाला।' प्रतिज्ञा का एक अर्थ 'अभिग्रह' भी है। सूत्रों में विविध प्रकार के अभिग्रहों का वर्णन आता है। और तपस्वी साधु ऐसे अभिग्रह करते भी हैं। किन्तु उन अभिग्रहों के मूल में मात्र आत्मनिग्रह एवं कर्मक्षय को भावना रहती है, जबकि यहाँ राग-द्वेष मूलक किसी भौतिक संकल्पप्रतिज्ञा के विषय में कहा गया है, जिसे 'निदान' भी कहते हैं। अप्रतिज्ञ शब्द से एक तात्पर्य यह भी स्पष्ट होता है कि श्रमण किसी विषय में प्रतिज्ञाबद्ध-एकान्त अाग्रही न हो / विधि-निषेध का विचार/चित्तन भी अनेकान्तदृष्टि से करना चाहिए / जैसा कि कहा गया है म य किचि भणुण्णायं पडिसिद्ध वा वि जिणवरिदेहि / मोत ण मेहुणभावं, न तं विणा राग-दोसेहिं / ' ....... --जिनेश्वरदेव ने एकान्त रूप से न तो किसी कर्तव्य-(प्राचार) का विधान किया है, और न निषेध / सिर्फ मैथुनभाव (अब्राह्मचर्य, स्त्री-संग) का ही एकान्त निषेध है, क्योंकि उसमें राग के बिना प्रवृत्ति हो हो नहीं सकतो अत: उसके अतिरिक्त सभी प्राचारों का विधि-निषेध-उत्सर्ग-अपवाद सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए / अप्रतिज्ञ शब्द में यह भाव भी छिपा हुअा है-यह टीकाकार का मन्तव्य है। परन्तु प्रत्याख्यान में अनेकान्त मानना उचित नहीं है / विवशता या दुर्बलतावश होनेवाले प्रत्येक अपवाद-सेवन को अनेकान्त मानना भूल है। व्रतों में स्वीकृत अनेकान्त व्रतों के स्वरूप को विकृत कर देता है। प्रस्तुत प्रसंग में 'अपडिन्ने' शब्द का उपयुक्त अर्थ प्रसंगोचित भी नहीं है। क्योंकि परिग्रह के ममकार और काल की प्रतिबद्धता के परिहार का प्रसंग है। अतः किसी भी बाह्याभ्यन्तर परिग्रह और अकाल से संबन्धित प्रतिज्ञा पकड़ न करने वाला' करना ही संगत है। वस्त्र-पात्र-आहार समय 89. वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुछणं उग्गहं च कडासणं एतेसु चेव जाणेज्जा / लद्ध आहारे अणगारो मातं जाणेज्जा। से जहेयं भगवता पवेदितं / लाभो त्ति ण मज्जेज्जा, अलाभो ति ण सोएज्जा, बहु पि लधुण णिहे / परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केउजा / अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा। 1. आचा० टीका पत्रांक 120 2 2. औपपातिक सूत्र, श्रमण अधिकार / 3. (क) अभि० राजेन्द्र भाग 1. 'अपडिण्ण' शब्द / (ख) प्राचा० टीका पत्रांक 120 / 2 / 4. अण्णतरेण पासएण परिहरिज्जा--- चूमि में इस प्रकार का पाठ है।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 द्विसीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 89 एस मग्गे आरिएहि पवेदिते, जहेत्थ कुसले णोलिपिज्जासि ति बेमि / 89. वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन, (पांव पोंछने का वस्त्र), अवग्रह-स्थान और कटासन-चटाई आदि (जो गृहस्थ के लिए निर्मित हों) उनकी याचना करे। आहार प्राप्त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए। इच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका भद-अहंकार नहीं करे। यदि प्राप्त न हों तो शोक (चिता) न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं, उस प्रकार न देखे--अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे। यह (अनासक्ति का मार्ग प्रार्य-तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–साधु, जीवन यापन करता हुआ ममत्व से किस प्रकार दूर रहे, इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह सूत्र प्रस्तुत करता है। वस्त्र, पात्र, भोजन आदि जीवनोपयोगी उपकरणों के बिना जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता / साधु को इन वस्तुओं की गहस्थ से याचना करनी पड़ती है। किन्तु वह इन वस्तुओं को 'प्राप्य' नहीं समझता / जैसे समुद्र पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है, किन्तु समुद्रयात्री नौका को साध्य व लक्ष्य नहीं मानता, न उसमें आसक्त होता है, किन्तु उसे साधन मात्र मानता है और उस पर पहुँचकर नौका को छोड़ देता है / साधक धर्मोपकरण को इसी दृष्टि से ग्रहण करे और मात्रा अर्थात् मर्यादा एवं प्रमाण का ज्ञान रखता हुआ उनका उपयोग करे। उग्गहणं (अवग्रहण) शब्द के दो अर्थ हैं-(१) स्थान अथवा (2) प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना / आज्ञा के अर्थ में पांच अवग्रह- देवेन्द्र अवग्रह, राज अवग्रह, गहपति भवग्रह, शम्यातर अवग्रह और सार्मिक अवग्रह, प्रसिद्ध है।' _ 'मातं जाणेज्जा' मात्रा को जानना-यह एक खास सूचना है / माषा-अर्थात् भोजन का परिमाण जाने / सामान्यतः भोजन की मात्रा खुराक का कोई निर्शचत माप नहीं हो सकता, क्योंकि इसका सम्बन्ध भूख से है / सब की भूख या खुराक समान नहीं होती, इसलिए भोजन की मात्रा भी समान नहीं है। फिर भी सर्व सामान्य अनुपात-दृष्टि से भोजन की मात्रा साधु के लिए बत्तीस कवल (कौर) और साध्वी के लिए भठाईस कवलप्रमाण बताई गई है।' उससे कुछ कम ही खाना चाहिए। मात्र-शब्द को आहार के अतिरिक्त, वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों के साथ भी जोड़ना चाहिए , अर्थात् प्रत्येक ग्राह्य वस्तु की आवश्यकता को समझे, व जितना पावश्यक हो उतना ही ग्रहण करे। 1. भगवती 1632 तथा प्राचारांग सूत्र 635 / 2. भगवती 7.1 तथा प्रोपपातिक सूत्र; तप अधिकार / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारलंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध साधु को भिक्षाचरी करते समय तीन मानसिक दोषों की संभावना होती है भभिमान-पाहारादि उचित मात्रा में मिलने फर अपने प्रभाव, लन्धि आदि का गर्व करना / परिग्रह-आहारादि की विपुल मात्रा में उपलब्धि होती देखकर-उनके संग्रह की भावना जगना / शोक-इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर अपने भाग्य को, या जन-समूह को, कोसना, उन पर रोष तथा आक्रोश करना एवं मन में दुखी होना। प्रस्तुत सूत्र में लाभो ति ण मज्जेज्जा-अादि पद द्वारा इन तीनों दोषों से बचने का निर्देश दिया गया है। 'परिग्गहाऔं अण्पाणं अवसक्केज्जा' -परिग्रह से स्वयं को दूर हटाए - इस वाक्य का अर्थ भावना से है / अनगार को जो निर्दोष वस्तु प्राप्त होती है, उसको भी वह अपनी न समझे, उसके प्रति अपनापन न लाये, बल्कि यह माने कि "यह वस्तु मुझे प्राप्त हुई है, वह प्राचार्य की है, अर्थात् संघ की है, या प्राचार्य के आदेश से मैं इसका स्वयं के लिए उपयोग कर सकूँगा।" इस चिन्तन से, वस्तु के प्रति ममत्व का विसर्जन एवं सामूहि लता को भावना (ट्रस्टीशिप की मनोवृत्ति) का विकास होता है और साधक स्वयं को परिग्रह से दूर रख लेता है। _ 'अन्यथादृष्टि'- 'अण्णहा ण पासए'--का स्पष्टीकरण करते हुए चूर्णिकार ने उक्त तथ्य स्पष्ट किया है- मम एतं आयरियसंतगं'~यह प्राप्त वस्तु मेरी नहीं, प्राचार्य की निश्राय की है। अन्यथादृष्टिका दूसरा अर्थ यह भी है कि जैसे सामान्य गृहस्थ (अज्ञानी मनुष्य) वस्तु का उपयोग करता है, वैसे नहीं करे / ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही वस्तु का उपयोग करते है, किन्तु उनका उद्देश्य, भावना तथा विधि में बहुत बड़ा अन्तर होता है ज्ञानी पुरुष-प्रारम-विकास एवं संयम-यात्रा के लिए, अनासक्त भावना के साथ यतना एवं विधिपूर्वक उपयोग करता है / भज्ञानी मनुष्य-पौद्गलिक सुख के लिए, आसक्तिपूर्वक असंयम तथा प्रविधि से वस्तु का उपयोग करता है। अज्ञानी के विपरीत ज्ञानी का चिन्तन व आचरण 'अन्यथादृष्टि' है। 'परिहार' के पीछे भी दो दृष्टियाँ चूर्णिकार ने स्पष्ट की हैं धारणा-परिहार-बुद्धि से वस्तु का त्याग (ममत्व-विसर्जन) तथा उपभोग-परिहार शरीर से वस्तु के उपयोग का त्याग (वस्तु-संयम)।' इस आर्य मार्ग पर चलने वाला कुशल पुरुष परिग्रह में लिप्त नहीं होता। वास्तव में यही जल के बीच कमल की भाँति निलेप जीवन बिनाने की जीवन-कला है / 1. परिहारो दुविहो-धारणापरिहारो व उवभोगपरिहारी य-प्राचा० चूणि ( मुनि जम्बू० टिप्पण पृ० 26 ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 90.91 काम-भोग-विरति 90. कामा दुरतिक्कमा / जीवियं दुष्पडिबूहगं / कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयति जरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति / 91. आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभाग' जाणति, उड्ढं भागं जाणति तिरियं भाग जाणति, गढिए अणुपरियट्टमाणे / संधि विदित्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे पसंसिते जे बद्धे पडिमोयए। 90. ये काम (इच्छा-वासना) दुर्लध्य है। जीवन (आयुष्य जितना है, उसे) बढ़ाया नहीं जा सकता, (तथा आयुष्य की टूटी डोर को पुनः साँधा नहीं जा सकता)। ___ यह पुरुष काम-भोग की कामना रखता है (किन्तु वह परितृप्त नहीं हो सकती, इसलिए) वह शोक करता है (काम की अप्राप्ति, तथा वियोग होने पर खिन्न होता है) फिर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप (पश्चात्ताप) से दुःखी होता रहता है / 91. वह आयतचक्षु - दीर्घदर्शी (या सर्वांग चिंतन करने वाला साधक) लोकदर्शी होता है / वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है। (काम-भोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में (अथवा काम-भोग के पीछे) अनुपरिवर्तन-पुनः पुनः चक्कर काटता रहता है / (दीर्घदर्शी यह भी जानता है।) यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)। वह वीर प्रशंसा के योग्य है (अथवा वीर प्रभु ने उसकी प्रशंसा की है) जो (काम-भोग में) बद्ध को मुक्त करता है। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों में काम-भोग की कटुता का दर्शन तथा उससे चित्त को मुक्त करने के उपाय बताये गये हैं। टीकाकार प्राचार्य शीलांक ने काम के दो भेद बताये हैं - (1) इच्छाकाम और (2) मदनकाम 2 अाशा, तृष्णा, रतिरूप इच्छाएँ इच्छाकाम हैं। यह मोहनीय कर्म के हास्य, रति अादि कारणों से उत्पन्न होती है / वासना या विकाररूप कामेच्छा–मदनकाम है। यह मोहनीय कर्म के भेद-वेदत्रय के उदय से प्रकट होता है। 1. पाठान्तर है -- 'अहे भाग, अधे भावं / ' 2. प्राचा० टीका पत्र 123 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जब तक मनुष्य इस 'काम' के दुष्परिणाम को नहीं जान लेता, उससे विरक्ति होना कठिन है। प्रस्तुत दो सूत्रों में काम-विरक्ति के पांच पालम्बन बताये हैं, जिनमें से दो का वर्णन सूत्र 90 में है / जैसे . काम-विरक्ति का प्रथम पालम्बन बताया है-(१) जीवन की क्षणभंगुरता। आयुष्य प्रतिक्षण घटता जा रहा है, और इसको स्थिर रखना या बढ़ा लेना-किसी के वश का नहीं है। द्वितीय पालम्बन है-(२) कामी को होने वाले मानसिक परिताप, पीड़ा, शोक आदि को समझना। साधक को 'आयतचक्खू' कहकर उसकी दीर्घदृष्टि तथा सर्वांग-चिन्तनशीलताअनेकान्तदृष्टि होने की सूचना की है। अनेकान्तदृष्टि से वह विविध पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचारणा करने में सक्षम होता है। टीका के अनुसार 'इहलोक-परलोक के अपाय को देखने की क्षमता रखने वाला--आयतचक्षु है।'' ___काम-वासना से चित्त को मुक्त करने के तीन पालम्बन -- अाधार सूत्र 91 में इस प्रकार बताये गये हैं। 3. (1) लोक-दर्शन, 4. (2) अनुपरिवर्तन का बोध, 5. (3) संधि-दर्शन / क्रमशः इनका विवेचन इस प्रकार है 3. (1) लोक-दर्शन--- लोक को देखना / इस पर तीन दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। (क) लोक का अधोभाग विषय-कषाय से प्रासक्त होकर शोक-पीड़ा आदि से दुखी होता है। यहाँ अधोभाग का अर्थ अधोभागवर्ती नैरयिक समझना चाहिए। लोक का ऊर्श्वभाग (देव) तथा मध्यभाग (मनुष्य एवं तिर्यंच) भी विषय-कषाय में आसक्त होकर शोक व पीड़ा से दुखी हैं। (ख) दीर्घदर्शी साधक ~ इस विषय पर भी चिन्तन करें-- अमुक भाव व वृत्तियाँ अधोगति की हेतु हैं, अमुक ऊर्ध्वगति की तथा अमुक तिर्यग् (मध्य-मनुष्य-तर्यंच) गति की (ग) लोक का अर्थ है-भोग्य वस्तु या विषय / शरीर भी भोग्य वस्तु या भोगायतन है। शरीर के तीन भाग कल्पित कर उन पर चिन्तन करना लोकदर्शन है / जैसे 1 अधोभाग–नाभि से नीचे का भाग, 2 ऊर्ध्वभाग-नाभि से ऊपर का भाग, ३तियंग भाग-ताभि-स्थान इन तीनों भागों पर चिन्तन करे ! यह अशुचि-भावना का एक सुन्दर माध्यम भी है / इससे शरीर को भंगुरता, असारता आदि की भावना दृढ़ हो जाती है। शरीर के प्रति ममत्वरहितता आती है। 1. प्राचा. टीका 103 2. प्राचारांग टीका पत्रांक-१०४ 3. देखें स्थांनांग सूत्र०, स्थान 4. उद्देशक 4 सूत्र 373 (चार गति के विभिन्न कारण) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 92 तीनों लोकों पर विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन करना ध्यान की एक विलक्षण पद्धति रही है। इसी सूत्र में बताया गया-भगवान् महावीर अपने साधना काल में ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में तथा तिर्यगलोक में (वहाँ स्थित तत्त्वों पर) ध्यान केन्द्रित करके समाधि भाव में लीन हो जाते थे / ' 'लोक-भावना' में भी तीनों लोकों के स्वरूप का चिन्तन तथा वहां स्थित पदार्थों पर ध्यान केन्द्रित कर एकाग्र होने की साधना की जाती है / 4. (2) अनुपरिवर्तन का बोध---काम-भोग के प्रासेवन से काम वासना कभी भी शांत व तृप्न नहीं हो सकती, बल्कि अग्नि में घी डालने की भांति विषयाग्नि अधिक प्रज्वलित होती है। कामी बार-बार काम (विषय) के पीछे दौड़ता है, और अन्त में हाथ लगती है अशांति ! अतृप्ति !! इस अनुपरिवर्तन का बोध, साधक को जब होता है तो वह काम के पीछे दौड़ना छोड़कर काम को अकाम (वैराग्य) से शांत करने में प्रयत्नशील हो जाता है। 5. (3) संधि-दर्शन-टीकाकार ने संधि का अर्थ-'अवसर' किया है। यह मनुष्य-जन्म ज्ञानादि की प्राप्ति का, प्रात्म-विकास करने का, तथा अनन्त आत्म-वैभव प्राप्त करने का स्वणिम अवसर है। यह सुवर्ण-संधि है, इसे जानकर वह काम-विस्क्त होता है और 'कामविजय' की ओर बढ़ता है। 'संधि-दर्शन' का एक अर्थ यह भी किया गया है-शरीर की संधियों (जोड़ों) का स्वरूप-दर्शन कर शरीर के प्रति राग-रहित होना। शरीर को मात्र अस्थि-कंकाल (हड्डियों का ढाँचा मात्र) समझना उसके प्रति आसक्ति को कम करता है। शरीर में एक सौ अस्सी संधियाँ मानी गई हैं। इनमें चौदह महासंधियाँ हैं उन पर विचार करना भी संधि-दर्शन है। ___ इस प्रकार काम-विरक्ति के पालम्बनभूत उक्त पांच विषयों का वर्णन दोनों सूत्रों में हुआ है। 'बद्ध पडिमोयए' से तात्पर्य है, जो साधक स्वयं काम-वासना से मुक्त है, वह दूदरां को (बद्धों) को मुक्त कर सकता है / देह की असारता का बोध 92. जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अंतो। अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि पासति पुढो वि सवंताई। पंडिते पडिलेहाए। से मतिमं परिण्णाय मा य हु लालं पच्चासी। मा तेसु तिरिच्छमपाणमावातए / __92 (यह देह ) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है। 1. अध्ययन 9 / सूत्रांक 320 गा० १०७-उड्ढे अधेप शिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे।" 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 124 3. देखें-पायारो-पृष्ठ 114 / / 4. (क) पुढो वोसक्ताई---चूणि में पाठान्तर है। (ख) पृथगपि प्रत्येकमपि, अपि शब्दात् कुष्ठाद्यवस्थायां योगपद्यनापि जवन्ति-टीका पत्र 125 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र --प्रथम श्रुतस्कन्ध - इस शरीर के भीतर-भीतर अशुद्धि भरी हुई है, साधक इसे देखें। देह से झरते हए अनेक अशुचि-स्त्रोतों को भी देखें। इस प्रकार पंडित शरीर की अशुचिता (तथा काम-विपाक) को भली-भाँति देखें / वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्याग कर लार को न चाटे-वमन किये हुए भोगों का पुनः सेवन न करे / अपने को तिर्यकमार्ग में(काम-भोग के बीच में अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से विपरीत मार्ग में) न फँसाए। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में 'अशुचि भावना' का वर्णन है / शरीर की अशुचिता को बताते हुए कहा है-यह जैसा भीतर में (मल-मूत्र-रुधिर मांस-अस्थि-मज्जा-शुक्र आदि से भरा है) वैसा ही बाहर भी है / जैसा अशुचि से भरा मिट्टी का घड़ा, भीतर से अपवित्र रहता है, उसे बाहर से धोने पर भी वह शुद्ध नहीं होता इसी प्रकार भीतर से अपवित्र शरीर स्नान आदि करने पर भी बाहर में अपवित्र ही रहता है। मिट्टी के अशुचि भरे घड़े से जैसे उसके छिद्रों में से प्रतिक्षण अशुचि झरती रहती है, उसी प्रकार शरीर से भी रोम-कूपों तथा अन्य छिद्रों (देहान्तर) द्वारा प्रतिक्षण अशुचि बाहर झर रही है-इस पर चिन्तन कर शरीर की सुन्दरता के प्रति राग तथा मोह को दूर करे। यह अशुभ निमित्त (पालम्बन) से शुभ की ओर गतिशील होने की प्रक्रिया है। शरीर की अशुचिता एवं प्रसारता का चिन्तन करने से स्वभावत: उसके प्रति प्रासक्ति तथा ममत्व कम हो जाता है। 'जहा अंती तहा बाहि' का एक अर्थ इस प्रकार भी हो सकाता है--साधक जिस प्रकार अन्तस् की शुद्धि (आत्म-शुद्धि) रखता है, उसी प्रकार बाहर की शुद्धि (व्यवहार-शुद्धि) भी रखता है। ____ जैसे बाहर की शुद्धि (व्यवहार की शुद्धि) रखता है, वैसे अन्तस् की शुद्धि भी रखता है। साधना में एकांगी नहीं, किन्तु सर्वांगीण शुद्धि वाहर-भीतर की एकरूपता होना अनिवार्य है। लाल पच्चासी द्वारा यह उद्बोधन किया गया है कि हे मतिमान् ! तुम जिन कामभोगों का त्याग कर चुके हो, उनके प्रति पुन: देखो भी मत / त्यक्त को पुनः इच्छा करनावान्त को, थूके हुए, वमन किये हुए को चाटना है।' मा तेसु तिरिच्छं--शब्द से तिर्यक मार्ग का सूचन है / ज्ञान-दर्शन-चारित्र का मार्ग सरल व सीधा मार्ग है, इसके विपरीत मिथ्यात्व-कषाय आदि का मार्ग तिरछा--तिर्यक् व टेढ़ा मार्ग है। तुम ज्ञानादि के प्रतिकूल संसार मार्ग में न जानो–यही भाव यहाँ पर समझना चाहिए / 1. उत्तराध्ययन-२२।४३ 2. आचा० टीका पात्रांक 125 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : पचम उद्देशक : सूत्र 1. 93. कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमायो, कडेग मूढे, पुणो तं करेति लोमं,' वेरं वड्ढेति अप्पणो। जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिबूहणताए। अमरायह महासड्ढी / अट्टमेतं तु पेहाए / अपरिग्णाए कंदति / 93. (काम-भाग में आसक्त) यह पुरुष सोचता है---मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूगा (इस प्रकार की प्राकलता के कारण वह दसरों को ठगता है, माया. कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँस कर मूढ बन जाता है। वह मूढभाव से ग्रस्त फिर लोभ करता है (काम-भोग प्राप्त करने को लल. चाता है) और (माया एवं लोभयुक्त माचरण के द्वारा) प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है। ___ जो मैं यह कहता हूँ (कि वह कामी पुरुष माया तथा लोभ का आचरण कर अपना वैर बढ़ाता है) वह इस शरीर को पुष्ट बनाने के लिए ही ऐसा करता है। वह काम-भोग में महान श्रद्धा (प्रासक्ति) रखता हा अपने को अमर की भाँति समझता है / तू देख, वह आर्त-पीड़ित तथा दुःखी है। परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है (रोता है)। विवेचन-इस सूत्र में अशान्ति और दुःख के मूलकारणों पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य----'यह किया, अब यह करना है, इस प्रकार के संकल्प जाल का शिकार होकर मूढ हो जाता है / वह वास्तविक जीवन से दूर भागकर स्वप्निल सृष्टि में खो जाता है। जीवन में सपने देखने लगता है. इस मन:स्थिति को 'कासकासे' शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है। ऐसा स्वप्नदर्शी मनुष्य-काम और भूख की वृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए अनेक हथकंडे करता है, बैर बढ़ाता है / वह जीवन में इतना आसक्त हो जाता है कि दूसरों को मरते हुए देखकर भी स्वयं को अमर की तरह मानने लगता है। आचार्य शीलांक ने उदाहरण देते हुए इसकी व्याख्या की है / "अर्थ-लोभी व्यक्ति सोने के समय में सो नहीं पाता, स्नान के समय में स्नान नहीं कर पाता, विचारा भोजन के समय भोजन भी नहीं कर पाता।"२ रात-दिन उसके सिर पर धन का भूत चढा रहता है। इस स्थिति में वह अपने आपको भूल-सा जाता है। यहाँ तक कि 'मृत्यु' जैसी अवश्यंभावी स्थिति को भी विस्मृत-सा कर देता है। एक बार राजगृह में धन नाम का सार्थवाह आया / वह दिन-रात धनोपार्जन में ही लीन रहता। उसकी विशाल समृद्धि की चर्चा सुनकर मगधसेना नामको गणिका उसके आवास पर 1. चूणि में पाठ है-"पुणो तं करेति लोग' नरगादिभवलोग करति णिवत्तेति' वह अपने कृत__ कर्मों से पुनः नरक आदि भाव लोक में गमन करता है। 2. सोउं सोवणकाले मज्जणकाले यमज्जिाउं लोलो।। जेमेउं च वरामो जेमणकाले न चाएइ। -आचा. टीका पत्रांक 125 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कग्ध गई। सार्थवाह अपने आय-व्यय का हिसाब जोड़ने और स्वर्णमुद्राएँ गिनने में इतना दत्तचित्त था कि, उसने द्वार पर खड़ी सुन्दरी गणिका की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। ... मगधसेना का अहंकार तिलमिला उठा / दाँत पीसती हुई उदास मुख लिए वह सम्राट जरासंध के दरबार में गई / जरासंध ने पूछा-सुन्दरी ! तुम उदास क्यों हो ? किसने तुम्हारा अपमान किया ? मगधसेना ने व्यंग्यपूर्वक कहा-उस अमर ने ! . कौन अमर ? -जरासंध ने विस्मयपूर्वक पूछा। धन सार्थवाह ! वह धन को चिन्ता में, स्वर्ण-मुद्राओं की गणना में इतना बेभान है कि उसे मेरे पहुँचने का भी भान नहीं हुआ / जब वह मुझे भी नहीं देख पाता तो वह अपनी मृत्यु को कैसे देखेगा ? वह स्वयं को अमर जैसा समझता है।' अर्थ-लोलुप व्यक्ति की इसी मानसिक दुर्बलता को उद्घाटित करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-वह भोग एवं अर्थ में अत्यन्त आसक्त पुरुष स्वयं को अमर की भांति मानने लगता है और इस घोर अासक्ति का परिणाम प्राता है--प्रार्तता-पीड़ा, अशान्ति और क्रन्दन / पहले भोगप्राप्ति की आकांक्षा में क्रन्दन करता है, रोता है, फिर भोग छूटने के शोक---(वियोग चिन्ता) में क्रन्दन करता है। इस प्रकार भोगासक्ति का अन्तिम परिणाम क्रन्दन-रोना ही है। बहमायो शब्द के द्वारा-क्रोध, मान, माया और लोभ चारों कषायों का बोध अभिप्रेत है। क्योंकि अव्यवस्थित चित्तवाला पुरुष कभी माया, कभी क्रोध, कभी अहंकार और कभी लोभ करता है। वह विक्षिप्त-पागल की तरह आचरण करने लगता है। सदोष-चिकित्सा-निषेध 94. से तं जाणह जमहं बेमि / तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छत्ता भेत्ता लपित्ता विलुपिता उद्दवइत्ता 'अकडं करिस्सामि' त्ति मण्णमाणे, जस्स वि य णं करेइ / अलं बालस्स संगेणं, जे वा से कारेति वाले। ण एवं अणगारस्स जामति ति बेमि / // पंचमो उद्देसओ समतो। 54. तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा-पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा (काम-चिकित्सा) में प्रवृत्त होते हैं। वह (काम-चिकित्सा के लिए) अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण-वध करता है। 'जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूगा,' यह मानता हुग्रा (वह जीव-वध करता है)। वह जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव-वध में सहभागी होता है)। (इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से 1. प्राचा० टीका पत्रांक 126 / 1 2. प्राचा. टीका पत्रांक 125 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 94-96 ___ क्या लाभ है ! जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह भी बाल-अज्ञानी है। अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता 1-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में हिंसा-जन्य चिकित्सा का निषेध है। पिछले सूत्रों में काम (विषयों) का वर्णन आने से यहाँ यह भी संभव है कि काम-चिकित्सा को लक्ष्य कर ऐसा कथन किया है। काम-वासना की तृप्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार की औषधियों का (वाजीकरणउपवृहण आदि के लिए) सेवन करता है, मरफिया आदि के इन्जेक्शन लेता है, शरीर के अवयव जीर्ण व क्षीणसत्व होने पर अन्य पशुओं के अंग-उपांग-अवयव लगाकर काम-सेवन की शक्ति को बढ़ाना चाहता है। उनके निमित्त वैद्य-चिकित्सक अनेक प्रकार की जीवहिंसा करते हैं। चिकित्सक और चिकित्सा कराने वाला दोनों ही इस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहाँ पर साधक के लिए इस प्रकार की चिकित्सा का सर्वथा निषेध किया गया है। इस सूत्र के सम्बन्ध में दूसरा दृष्टिकोण व्याधि-चिकित्सा (रोग-उपचार) का भी है। श्रमण की दो भूमिकाएँ हैं-(१) जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। जिनकल्पी श्रमण संघ से अलग स्वतन्त्र, एकाकी रहकर साधना करते थे। वे अपने शरीर का प्रतिकर्म अर्थात सार-संभाल, चिकित्सा आदि भी नहीं करते-कराते। (2) स्थविरकल्पी श्रमण संघीय जीवन जीते हैं। संयम-यात्रा का समाधिपूर्वक निर्वाह करने के लिए शरीर को भोजन. निर्दोष औषधि आदि से साधना के योग्य रखते हैं। किन्तु स्थविरकल्पी श्रमण भी शरीर के मोह में पड़कर व्याधि आदि के निवारण के लिए सदोष-चिकित्सा का, जिसमें जीव-हिसा होती हो, प्रयोग न करे / यहाँ पर इसी प्रकार की सदोष-चिकित्सा का स्पष्ट निषेध किया गया है। // पंचम उद्देशक समाप्त // छ8ो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक सर्व अवत-विरति 95. से तं संबुज्नमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्म णेव कुज्जा ण कारवे / 96. सिया तत्थ एकयरं विप्परामुसत्ति छसु अण्णयरम्मि कप्पत्ति / सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विष्परियासमुवेति / सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वति जसिमे पाणा पव्वहिता। 95. वह (साधक) उस (पूर्वोक्त विषय) को सम्यकप्रकार से जानकर संयम साधना में समुद्यत हो जाता है। इसलिए वह स्वयं पाप कर्म न करें, दूसरों से न करवाएँ (अनुमोदन भी न करें)। 96. कदाचित् (वह प्रमाद या अज्ञानवश) किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो बह छहों जीव-कायों में से (किसी का भी या सभी का) समारंभ कर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य सकता है / वह सुख का अभिलाषी, बार-बार सुख की इच्छा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, (व्यथित होकर) मूढ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह (मूढ) अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी अत्यन्त दुःख भोगते हैं। विवेचन--पूर्व उद्देशकों में, परिग्रह तथा काम की आसक्ति से ग्रस्त मनुष्य की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ उसी संदर्भ में कहा है-आसक्ति से होने वाले दुःखों को समझकर साधक किसी भी प्रकार का पाप कार्य न करे। पाप कर्म न करने के संदर्भ में टीकाकार ने प्रसिद्ध अठारह पापों का नाम-निर्देश किया है, तथा बताया है, ये तो मुख्य नाम हैं, वैसे मन के जितने पापपूर्ण संकल्प होते हैं, उतने ही पाप हो सकते हैं। उनकी गणना भी संभव नहीं है। साधक मन को पवित्र करले तो पाप स्वयं नष्ट हो जायें / अतः वह किसी भी प्रकार का पाप न करें, न करवाएँ, अनुमोदन न करने का भाव भी इसी में अन्तनिहित है। सूत्र 96 में एक गूढ़ प्राध्यात्मिक पहेली को स्पष्ट किया है। संभव है; कदाचित् कोई साधक प्रमत्त हो जाय', और किसी एक जीव-निकाय की हिंसा करे, अथवा जो असंयत हैंअन्य श्रमण या परिव्राजक हैं, वे किसी एक जीवकाय की हिंसा करें तो क्या वे अन्य जीव-कायों की हिंसा से बच सकेंगे? इसका समाधान दिया गया है-'छसु अन्गयरम्मि कप्पति' एक जीवकाय की हिंसा करने वाला छहों काय को हिंसा कर सकता है। भगवान महावीर के समय में अनेक परिव्राजक यह कहते थे कि-'हम केवल पीने के लिए पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते।' गैरिक व शाक्य आदि श्रमण भी यह कहते थे कि-'हम केवल भोजन के निमित्त जीवहिंसा करते हैं, अन्य कार्य के लिए नहीं। सम्भव है ऐसा कहने वालों को सामने रखकर पागम में यह स्पष्ट किया गया है कि-- जब साधक के चित्त में किसी एक जीवकाय की हिंसा का संकल्प हो गया तो वह अन्य जीवकाय की हिंसा भी कर सकता है, और करेगा ! क्योंकि जब अखण्ड अहिंसा की चित्त धारा खण्डित हो चुकी है, अहिंसा की पवित्र चित्तवृत्ति मलिन हो गई है, तो फिर यह कैसे हो सकता है कि एक जीवकायको हिसा करे और अन्य के प्रति मेत्री या करुणा भाव दिखाए ? दूसरा कारण यह भी है कि -- ___ यदि कोई जलकाय की हिंसा करता है, तो जल में वनस्पति का नियमतः सद्भाव है, जलकाय की हिंसा करने वाला वनस्पतिकाय की हिंसा भी करता ही है। जल के हलन-चलनप्रकम्पन से वायुकाय की भी हिंसा होती है, जल और वायुकाय के समारंभ से वहाँ रही हुई अग्नि भी प्रज्ज्वलित हो सकती है तथा जल के आश्रित अनेक प्रकार के सूक्ष्म त्रस जीव भी 1. "सिया कयाइ से इति असजतस्स नि सो पत्तसंजतस्स वा---प्राचा० चूणि (जम्बू० पृ० 28) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 97 73 रहते हैं / जल में मिट्टी (पृथ्वी) का भी अंश रहता है अतः एक जलकाय की हिंसा से छहों काय की हिंसा होती है। ___ 'छसु' शब्द से पांच महाव्रत व छठा रात्रि-भोजन-विरमणव्रत भी सूचित होता है। जब एक अहिंसा व्रत खण्डित हो गया तो सत्य भी खण्डित हो गया, क्योंकि साधक ने हिंसात्याग की प्रतिज्ञा की थी। प्रतिज्ञा-भंग असत्य का सेवन है। जिन प्राणियों की हिंसा की जाती है उनके प्राणों का हरण करना चोरी है। हिंसा से कर्म-परिग्रह भी बढ़ता है तथा हिंसा के साथ सुखाभिलाष-काम-भावना उत्पन्न हो सकती है / इस प्रकार टूटी हुई माला के मनकों की तरह एक व्रत टूटने पर सभी छहों व्रत टूट जाते हैं-भग्न हो जाते हैं। __ एक पाप के सेवन से सभी पाप आ जाते हैं-'छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति' के अनुसार एक छिद्र होते ही अनेक अवगुण आ जायेंगे, अतः यहाँ प्रस्तुत सूत्र में अहिंसा व्रत की सम्पूर्ण अखण्ड-निरतिचार साधना का निर्देश किया गया है। पुढो वयं--के दो अर्थ हैं- (1) विविध व्रत, और (2) विविध गति-योनिरूप संसार / यहाँ दोनों ही अर्थों की संगति बैठती है। एक व्रत का भंग करने वाला पृथक्व्रतों को अर्थात् अन्य सभी व्रतों को भंग कर डालता है, तथा वह अपने अति प्रमाद के ही कारण पृथक्-पृथक गतियों में, अर्थात् अपार संसार में परिभ्रमण करता है।' 97. पडिलेहाए जो णिकरणाए / एस परिण्णा पवुच्चति कम्मोवसंती। जे ममाइयमति जहाति से जहाति ममाइतं / से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स णस्थि ममाइतं / तं परिण्णाय मेहावी विदित्ता लोगं, वंता लोगसणं, से मतिमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि। 97. यह जानकर (परिग्रह के कारण प्राणी संसार में दुखी होता है ) उसका (परिग्रह का) संकल्प त्याग देवे। यही परिज्ञा/विवेक कहा जाता है। इसी से (परिग्रहत्याग से) कर्मों की शान्ति-क्षय होता है / जो ममत्व-बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व (परिग्रह) का त्याग करता है। वही दृष्ट-पथ | (मोक्ष-मार्ग को देखने वाला) मुनि है, जिसने ममत्व का त्याग कर दिया है। यह (उक्त दृष्टि बिन्दु को) जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने / लोक१. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 127-128 / 2. (क) वयं-शब्द को व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-"वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः यस्मिन् स वयः संसारः / " -प्राचा० शीला. टीका पत्रांक 128 (ख) ऐतरेय ब्राह्मण में भी 'वयः' शब्द गति अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। -ऐत. अ० 12 ख 80 3. दिट्ठभए -पाठान्तर है / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 आगारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे / वास्तव में उसे ही मतिमान (बुद्धिमान्) ज्ञानी पुरुष कहा गया है-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में ममत्वबुद्धि का त्याग तथा लोक-संज्ञा से मुक्त होने का निर्देश किया है / ममत्व-बुद्धि-मूर्छा एवं प्रासक्ति, बन्धन का मुख्य कारण है। पदार्थ के सम्बन्ध मात्र से न तो चित्त कलुषित होता हैं, और न कर्म बन्धन होता है। पदार्थ के साथसाथ जब ममत्वबुद्धि जुड़ जाती है तभी वह पदार्थ परिग्रह कोटि में आता है और तभी उससे कर्मबंध होता है। इसलिए सूत्र में स्पष्ट कहा है-जो ममत्वबुद्धि का त्याग कर देता हैं, वह सम्पूर्ण ममत्व अर्थात् परिग्रह का त्याग कर देता है। और वही परिग्रह-त्यागी पुरुष वास्तव में सत्य पथ का द्रष्टा है, पथ का द्रष्टा-सिर्फ पथ को जानने वाला नहीं, किन्तु उस पथ पर चलने वाला होता है—यह तथ्य यहाँ संकेतित है। लोक को जानने का प्राशय है -संसार में परिग्रह तथा हिंसा के कारण ही समस्त दुःख व पीड़ाएँ होती हैं तथा संसार परिभ्रमण बढ़ता है, यह जाने / लोगसम्णं--लोक-संज्ञा के तीन अर्थ ग्रहण किये गये हैं, (1) आहार, भय आदि दस प्रकार की लोक संज्ञा / (2) यश:कामना, अहंकार, प्रदर्शन की भावना, मोह, विषयाभिलाषा, विचार-मूढता, गतानुगतिक वृत्ति, आदि / (3) मनगढन्त लौकिक रोतियाँ-जैसे श्वान यक्ष रूप है, विप्र देवरूप है, अपुत्र की गति नहीं होती आदि / इन तीनों प्रकार को संज्ञाओं/वृत्तियों का त्याग करने का उद्देश्य यहाँ अपेक्षित है। 'लोक संज्ञाष्टक' में इस विषय पर विस्तृत विवेवन करते हुए प्राचार्यों ने बताया है लोकसजोज्झितः साधुः परब्रह्म समाधिमान् / सुखमास्ते गतद्रोह-ममता-यत्सरज्वरः // 8 // - शुद्ध प्रात्म-स्वरूप में रमणरूप समाधि में स्थित, द्रोह, ममता (द्वेष एवं राग) मात्सर्य रूप ज्वर से रहित, लोक संज्ञा से मुक्त साधु संसार में सुखपूर्वक रहता है। अरति-रति-विवेक 98. गारति सहतो वीरे, वीरे णो सहती रति / ५जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे ण रज्जति // 3 // 1. (क) दस संज्ञाएँ इस प्रकार है-(१) आहार संज्ञा, (2) भयसंज्ञा (3) मथुन संज्ञा (4) परिग्रह संज्ञा (5) क्रोध संज्ञा (6) मान संज्ञा (7) मापा सज्ञा (8) लोभ संज्ञा (9) प्रोष संज्ञा (10) लोक संज्ञा। --प्रज्ञापना सूत्र, पद 10 (ख) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 129 2. देखें अभि. राजेन्द्र, भाग 6, पृ० 741 3. अभि० राजेन्द्र भाग 6, पृ० 741 'लोग सपणा' शब्द / 4. सहते, सहति-पाठान्तर है। 5. चूणि में पाठान्तर-जम्हा अविमणो वीरो तम्हादेव विरज्जते-अर्थात् वीर जिससे अविमनस्क होता है, उसके प्रति राग नहीं करता। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 98-99 99. सहे फासे अधियासमाणे णिविद दि इह जीवियस्स / मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं / पंतं लहं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो।' एस ओघंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / 98. वीर साधक अरति (संयम के प्रति अरुचि) को सहन नहीं करता, और रति (विषयों की अभिचि) को भी सहन नहीं करता / इसलिए वह वीर इन दोनों में ही अविमनस्क-स्थिर-शान्तमना रह कर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। 99. मुनि (रति-अरति उत्पन्न करने वाले मधुर एवं कटु) शब्द (रूप, रस गन्ध,) और स्पर्श को सहन करता है / इस असंयम जीवन में होने वाले आमोद आदि से विरत होता है। मुनि मौन (संयम अथवा ज्ञान) को ग्रहण करके कर्म-शरीर को धुन डालता है, (प्रात्मा से दूर कर देता है) ___ वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे-सूखे (नीरस आहार) का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं। वह (समदर्शी) मुनि, जन्म-मरणरूप संसार प्रवाह को तैर चुका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-उक्त दो सूत्रों में साधक को समत्वदर्शी शांत और मध्यस्थ बनने का प्रतिपादन किया गया है। रति और अरति--यह मनुष्य के अन्तःकरण में छुपी हुई दुर्बलता है। राग-द्वेष-वृत्ति के गाढ या सूक्ष्म जमे हुए संस्कार ही मनुष्य को मोहक विषयों के प्रति आकृष्ट करते हैं, तथा प्रतिकूल विषयों का सम्पर्क होने पर चंचल बना देते हैं। ___ यहाँ अरति-का अर्थ है संयम-साधना में, तपस्या, सेवा, स्वाध्याय, आदि के प्रति उत्पन्न होने वाली अरुचि एवं अनिच्छा / इसप्रकार की अरुचि संयम-साधना के लिए घातक होती है। रति-का अर्थ है--शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि मोहक विषयों से जनित चित्त की प्रसन्नता/रुचि या आकर्षण / __ उक्त दोनों ही वृत्तियों से-अरति और रति से, संयम-साधना खंडित और भ्रष्ट हो सकती है अतः वीर, पराक्रमी, इन्द्रिय-विजेता साधक अपना ही अनिष्ट करने वाली ऐसी वृत्तियों 1. सम्मत्तसिणो - पाठान्तर भी है। 2. उत्तरा० अ० 5 की टीका / देखें अभि० राजेन्द्र भाग 6 पृ० 467 / यहीं पर आगमों के प्रसंगानुसारी रति शब्द के अनेक अर्थ दिये हैं, जैसे -- मैथुन (उत्त० 14) स्त्री-सुख (उत्त० 16) मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति से उत्पन्न प्रसन्नता (दर्शन० 1 तत्त्व) क्रीड़ा (दशव० 1) मोहनीय कर्मोदय जनित मानन्द रूप मनोधिकार (धर्म०२ अधि) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध को सहन कैसे करेगा? यह तो उसके गुप्त शत्रु हैं, अत: वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह न तो भोग-रति को सहन करेगा और न संयम-अरति को। इसलिए वह इन दोनों वृत्तियों में ही अविमनस्क अर्थात् शांत एवं मध्यस्थ रहकर उनसे विरक्त रहता है। सूत्र 99. में पाँच इन्द्रियविषयों में प्रथम व अन्तिम विषय का उल्लेख करके मध्य के तीन विषय उसी में अन्तनिहित कर दिये हैं। इन्हें क्रमशः यों समझना चाहिए-शब्द, रूप, रस गंध और स्पर्श / ये कभी मधुर-मोहक रूप में मन को ललचाते है तो कभी कटु अप्रिप रूप में आकर चित्त को उद्वेलित भी कर देते हैं / साधक इनके प्रिय-अप्रिय, अनुकुल-प्रतिकूल-दोनों प्रकार के स्पर्शों के प्रति समभाव रखता है। ये विषय ही तो असंयमी जीवन में प्रमाद के कारण होते हैं, अतः इनसे निविग्न-उदासीन रहने का यहाँ स्पष्ट संकेत किया है। मोणं—मौन के दो अर्थ किये जाते हैं, मौन-मुनिका भाव--संयम, अथवा मुनि-जीवन का मूल आधार ज्ञान / ' धुणे कम्मसरीरगं से तात्पर्य है, इस प्रौदारिक शरीर को धुनने से, क्षीण करने से तब तक कोई लाभ नहीं, जब तक राग द्वष जनित कर्म (कार्मण) शरीर को क्षोण नहीं किया जाये / साधना का लक्ष्य कर्म-शरीर (आठ प्रकार के कर्म) को क्षीण करना ही है। यह प्रौदारिक शरीर तो साधना का साधन मात्र है। हाँ, संयम के साधनभूत शरीर के नाम पर वह इसके प्रति ममत्व भी न लाये, सरस-मधुर अाहार से इसकी वृद्धि भी न करें, इस बात का स्पष्ट निर्देश करते हुए कहा है-तं लुहं सेवंति-वह साधक शरीर से धर्मसाधना करने के लिए रुखा-सूखा, निर्दोष विधि से यथाप्राप्त भोजन का सेवन करे। टीका आदि में समत्तदसिणो के स्थान पर सम्मत्तदसिणो पाठ उपलब्ध है। टीकाकार शीलांकाचार्य ने इसका पहला अर्थ 'समत्वदर्शी तथा वैकल्पिक दूसरा अर्थ -सम्यक्त्वदर्शी किया है। यहाँ नीरस भोजन के प्रति 'समभाव' का प्रसंग होने से समत्वदर्शी अर्थ अधिक संगत लगता है। वैसे 'सम्यक्त्वदर्शी' में भी सभी भाव समाहित हो जाते हैं। वह सम्यक्त्वदर्शी वास्तव में संसार-समुद्र को तैर चुका है / क्योंकि सम्यक्त्व की उपलब्धि संसारप्रवाह को तैरने की निश्चित साक्षी है / बंध-मोक्ष-परिज्ञान 100. दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाति वत्तए। 101. एस वीरे पसंसिए अच्चेति लोगसंजोगं / एस णाए पवुच्चति / जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इति कम्म परिण्णाय सव्वसो। 1. अभि० राजेन्द्र, भाग 6, पृ० 449 पर इसी सन्दर्भ में मोण का अर्थ वचन-संयम भी किया है 'वाचः संयमने / ' तथा सर्वज्ञोक्तप्रवचनरूप ज्ञान (प्राचा० 5 / 2) सम्यक्चारित्र (उत्त० 15) समस्त सावद्य योगों का त्याग (आचा० 5 / 3) मौनव्रत (स्थाना० 5 / 1) आदि अनेक अर्थ किये हैं / 2. प्राचारांग टीका पत्रांक 130 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 99-100 जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, 'जे अणण्णारामे से अणण्णदंसो / 100. जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन (ज्ञानादि रत्नत्रय) से रहित-दुर्वसु है। वह धर्म का कथन-निरूपण करने में ग्लानि (लज्जा या भय) का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की दृष्टि से तुच्छ-हीन जो है। वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक-संयोग (धन, परिवार आदि जंजाल) से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है / यही न्याय्य (तीर्थंकरों का) मार्ग कहा जाता है। यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख (या दुःख के कारण) बताये हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा--विवेक (दुःख से मुक्त होने का मार्ग) बताते हैं। इस प्रकार कर्मो (कर्म तथा कर्म के कारण) को जानकर सर्व प्रकार से (निवत्ति करे। जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (प्रात्मा) में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। विवेचन-उक्त दो सूत्रों में बंध एवं मोक्ष का परिज्ञान दिया गया है। सूत्र 100 में बताया है, जो साधक वीतराग को आज्ञा की आराधना नहीं करता, अर्थात् आज्ञानुसार सम्यग् आचरण नहीं करता वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धन से दरिद्र हो जाता है। जिन शासन में वीतराग की आज्ञा की आराधना ही संयम को आराधना मानी गई है / आणाए मामगं धम्मआदि वचनों में आज्ञा और धर्म का सह-अस्तित्व बताया गया है, जहाँ आज्ञा है, वहीं धर्म है, जहाँ धर्म है वहाँ आज्ञा है। आज्ञा-विपरीत आचरण का अर्थ है-संयम-विरुद्ध आचरण / संयम से हीन साधक धर्म की प्ररूपणा करने में, ग्लानि-अर्थात् लज्जा का अनुभव करने लगता है। क्योंकि अब वह स्वयं धर्म का पालन नहीं करता, तो उसका उपदेश करने का साहस कैसे करेगा? उसमें आत्मविश्वास की कमी हो जायेगी, तथा हीनता की भावना से स्वयं ही अाक्रांत हो जायेगा / अगर दुस्साहस करके धर्म की बातें करेगा तब भी उसकी वाणी में लज्जा, भय और असत्य की गंध छिपी रहेगी। अगले सूत्र में प्राज्ञा की आराधना करने वाले मुनि के विषय में बताया है वही सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है, जो वीतराग की प्राज्ञा का आराधक है। वह वास्तव में वीर (निर्भय) होता है, धर्म का उपदेश करने में कभी हिचकिचाता नहीं / उसकी वाणी में भी सत्य का प्रभाव व अोज गूजता है। लोगसंजोगं का तात्पर्य है-वह वीर साधक धर्माचरण करता हुआ संसार के संयोगों-वंधनों से मुक्त हो जाता है / संयोग दो प्रकार के हैं-(१) बाह्य संयोग-धन, भवन, पुत्र, परिवार आदि / 1 'अणण्णरामे' पाठान्तर है। 2. चूणि में पाठान्तर--से णियमा अणण्णदिट्ठी।" Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्धा (2) प्राभ्यन्तर संयोग-राग-द्वेष, कषाय, आठ प्रकार के कर्म आदि। आज्ञा का प्राराधका संयमी उक्त दोनों प्रकार के संयोगों से मुक्त होता है। एस णाए. शब्द से दो अभिप्राय हैं--यह न्याय मार्ग (सन्मार्ग) हैं, तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मान है / सूत्रकृत् में भी नेआउ सुअक्खाय एवं "सिद्धिपह मयाउयं धुकं"* पद द्वारा सम्यग झाम-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का तथा मोक्ष स्थान का सूचन किया गया है। __ एष नायक:-यह-प्राज्ञा में चलने वाला मुनि मोक्ष मार्म की अंर ले जाने वाला मायके नेता है / यह दूसरा अर्थ है। में दुक्खं पर्वेदितं-पद में दुःख शब्द से दुःख के हेतुओं का भी ग्रहण किया गया है / दुःख का हेतु राग-द्वेष है अथवा राग-द्वेषात्मक वृत्ति से प्राकृष्ट-बद्ध कर्म हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार जन्म और मरण दुःख है और जन्म मरण का मूल है---कर्म / अतः कम ही वास्तव में दुःख है / कुशल पुरुष उस दुःख की परिझा- अर्थात् दुःख से मुक्त होने का विवेक ज्ञान बताते हैं। इंह कम्म परिनाय सदसो-इस पद का एक अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है. 'साधक कर्म को, अर्थात दुख के समस्त कारणों को सम्यक्तया जानकर फिर उसका सर्व प्रकार से उपदेश करे। अणण्णदंसी अणण्णारामै- ये दोनों शब्द आध्यामिक रहस्य के सूचक प्रतीत होते हैं। अध्यात्म की भाषा में चेतन को 'स्व' तथा जड़ को 'पर'-अन्य कहा गया है। परिग्रह, कषाय, विषय आदि सभी 'अन्य' है। 'अन्य' से अन्य अनन्य है, अर्थात् चेतन का स्वरूप, आत्मस्वभाव, यह अनन्य है। जो इस अनन्य को देखता है, वह इस अनन्य में, प्रात्मा में रमण करता है। जो प्रात्म-रमण करता है, वह आत्मा को देखता है / आत्म-रमण एवं आत्मदर्शन का यह क्रम है कि जो पहले आत्म-दर्शन करता है, वह आत्म-रमण करता है। जो प्रारम-रमण करता है, वह फिर अत्यन्त निकटता से, अति-सूक्ष्मता व तन्मयता से साँग आत्म-दर्शन कर लेता है। रत्नत्रय की भाषा-शैली में इस प्रकार भी कहा जा सकता है, 'प्रात्मा को जानना---- देखना सम्यग ज्ञान और सम्यग दर्शन और आत्मा में रमण करना सम्यक चारित्र है। उपदेश-कौशल 102. जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कस्थति / महा तुच्छरस कत्थति सहा पुण्णस्स कत्थति / अवि य हणे अणातियमाणे / एत्यं पि जाण मेयं ति मस्थि / केऽयं पुरिसे कं च गए। 1. श्रु० 1 * 6 गा० 11 / 3. श्रु० 1 0 2 0 1 गा० 21 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रक 13 / 4. कम्मच जाई मरणस्स मुलं, दूवखं च जाई मरणं वयन्ति--२ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक :: सूत्र 102-104 103. एस कोरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं विसासु, से सब्बलो सवपरिण्णाचारीण लिपति छणपदेण वीरे। 104. से मेधावी जे अपुग्धातणस्स* खेत्तपणे जे य बंधपमोक्खमण्णसी। कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के / से जंच आरंभे, जं च णारभे, अणारद्धं च आरभे / छणं छप परिण्याय लोयसण्यं च सव्वसो। 102. (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान (सम्पन्न) व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न-दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है और जैसे तुच्छे को धर्मोपदेश करता है, बसे ही पुण्यवान को भी धर्मोपदेश करता है / कभी (धर्मोपदेश-काल में किसी व्यक्ति या सिद्धान्त का) अनादर होने पर वहे (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है / अतः यहाँ यह भी जाने (उपदेश को उपयुक्त विधि जाने बिना) धर्म कथर करना श्रेय नहीं है / पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए कि यह पुरुष (श्रोता) कौन है ? किस देवता को (किस सिद्धान्त को) मानता है ? 103. वह वरेर प्रशंसा के योग्य है, जो (समीचीन धर्म कथन करके) बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह (कुशल साधक) ऊँची दिशा, नोचो दिशा और तिरछी दिशाओं में, सबै प्रकार से समग्र परिज्ञाविवेकज्ञान के साथ चलता है। वह हिंसा स्थान से लिप्त नहीं होता। 104. वह मेधावी है, जो अनुदात-अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता है, तथा जो कर्मों के बंधन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है। कुशल पुरुष न बंधे हुए हैं और न मुक्त हैं। उन कुशल साधकों ने जिसकी आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर, श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। हिंसा और हिंसा के कारणों को जानकर उनका त्याग करदे / लोक-संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। विवेचन--प्रस्तुत सूत्रों में धर्म-कथन करने की कुशलता का वर्णन है / तत्त्वज्ञ उपदेशक 1. (क) 'अणुग्घायणस्स खेषण्णे' 'अणुग्घातण खेतण्णे'-पाठान्तर है। (ख) टीकाकार ने 'अण' का अर्थ कर्म तथा 'उद्घातन' का 'क्षय करना' अर्थ करके 'अणीद्धातन सेवज्ञ' का कर्म क्षय करने के मार्ग या रहस्य का बाता' अयं किया है। --टीका पत्र 133 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्म के तन्व को निर्भय होकर समभाव पूर्वक उपदेश करता है। सामने उपस्थित श्रोता समुह (परिषद) में चाहे कोई पुण्यवान-धन अादि से सम्पन्न है, चाहे कोई गरीब, सामान्य स्थिति का व्यक्ति है / साधक धर्म का मर्म समझाने में उनमें कोई भेदभाव नहीं करता / वह निर्भय, निस्पृह और यथार्थवादी होकर दोनों को समानरूप से धर्म का उपदेश देता है। पुण्णस्स-शब्द का 'पूर्णस्य' अर्थ भी किया जाता है। पूर्ण की व्याख्या टीका में इस प्रकार की है ज्ञानेश्वयं-धनोपेतो जात्यन्वयबलान्वितः / तेजस्वी मतिवान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् // जो ज्ञान, प्रभुता, धन, जाति और बल से सम्पन्न हो, तेजस्वी हो, बुद्धिमान् हो, प्रख्यात हो, उसे 'पूर्ण' कहा गया है / इसके विपरीत तुच्छ समझना चाहिए। सूत्र के प्रथम चरण में वक्ता की निस्पृहता तथा समभावना का निदर्शन है, किन्तु उत्तर चरण में बौद्धिक कुशलता की अपेक्षा बताई गई है। वक्ता समयज्ञ और श्रोता के मानस को समझने वाला होना चाहिए। उसे श्रोता की योग्यता, उसकी विचारधारा, उसका सिद्धान्त तथा समय को उपयुक्तता को समझना बहुत आवश्यक है। वह द्रव्य से—समय को पहचाने, क्षेत्र से- इस नगर में किस धर्म सम्प्रदाय का प्रभाव है, यह जाने / काल से परिस्थिति को परखे, तथा भाव से--श्रोता के विचारों व मान्यताओं का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करे / इस प्रकार का कुशल पर्यवेक्षण किये विना हो अगर वक्ता धर्म-कथन करने लगता है तो कभी संभव है, अपने संप्रदाय या मान्यताओं का अपमान समझकर श्रोता उलटा बक्ता को ही मारने-पीटने लगे। और इस प्रकार धर्म-वृद्धि के स्थान पर क्लेश-वृद्धि का प्रसंग प्रा जाये / शास्त्रकार ने इसीलिए कहा है कि इस प्रकार उपदेश-कुशलता प्राप्त किये बिना उपदेश न देना ही श्रेय है। अविधि या अकुशलता से कोई भी कार्य करना उचित नहीं, उससे तो न करना अच्छा है। टीकाकार ने चार प्रकार की कथाओं का निर्देश करके बताया है कि बहुश्र त वक्ताआक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी-चारों प्रकार की कथा कर सकता है। अल्पश्रत (अल्पवानी) वक्ता सिर्फ संवेदनी (मोक्ष की अभिलाषा जागत करने वाली) तथा निर्वेदनी (वैराग्य प्रधान) कथा ही करें। वह आक्षेपणी (स्व-सिद्धान्त का मण्डन करने वाली) तथा विक्षेपणी (पर-सिद्धान्त का निराकरण-निरसन करने वाली) कथा न करें। अल्पश्रत के लिए प्रारंभ को दो कथाएँ श्रेयस्कर नहीं है। सूत्र 104 में कुशल धर्म कथक को विशेष निर्देश दिये गये हैं। वह अपनी कुशल धर्मकथा के द्वारा विषय-पासक्ति में बद्ध अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध देकर मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर देता है। वास्तव में बंधन से मुक्त होना तो आत्मा के अपने ही पुरुषार्थ से संभव है। किन्तु धर्म-कथक उसमें प्रेरक बनता है, इसलिए उसे एक नय से बन्ध-मोचक कहा जाता है। 1. बंधप्पभोक्खो तुज्झ अज्झत्थमेव -आचासंग-सूत्र 155 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 105 अणुग्धातणस्स खेतण्णे-इस पद के दो अर्थ हो सकते हैं / टीकाकार ने-'कर्म प्रकृति के मूल एवं उत्तर भेदों को जानकर उन्हें क्षीण करने का उपाय जानने वाला यह अर्थ किया है।' उद्घात-घात ये हिंसा के पर्यायवाची नाम है / अतः 'अन+उद्+घात' अनुद्घात का अर्थ अहिंसा व संयम भी होता है / साधक अहिंसा व संयम के रहस्यों को सम्यक् प्रकार से जानता है, अतः वह भी अनुद्घात का खेदज्ञ कहलाता है। बंधप्पमोक्खमण्णेसी-इस पद का पिछले पद से सम्बन्ध करते हुए कहा गया हैजो कर्मों का समग्र स्वरूप या अहिंसा का समग्र रहस्य जानता है, वह बंधन से मुक्त होने के उपायों अन्वेषण आचरण भी करता है। इस प्रकार ये दोनों पद ज्ञान-क्रिया की समन्विति के सूचक हैं। ___कुसले पुण जो बद्ध-यह वाक्य भी रहस्यात्मक है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-कर्म का ज्ञान व मुक्ति की खोज-ये दोनों आचरण छद्मस्थ साधक के हैं। जो केवली हो चुके हैं, वे तो चार घातिकर्मों का क्षय कर चुके हैं, उनके लिए यह पद है। वे कुशल (केवली) चार कर्मों का क्षय कर चुके हैं अतः वे न तो सर्वथा बद्ध कहे जा सकते हैं और न सर्वथा मुक्त, क्योंकि उनके चार भवोपनाही कर्म शेष है। _ 'कुशल' शब्द आगमों में अनेक स्थानों पर अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कहीं तत्वज्ञ को कुशल कहा है, कहीं आश्रवादि के हेय-उपादेय स्वरूप के जानकार को। सूत्रकृतांग वृत्ति के अनुसार 'कुश' अर्थात् आठ प्रकार के कर्म, कर्म का छेदन करने वाले 'कुशल' कहलाते हैं।' यहाँ पर 'कुशल' शब्द तीर्थकर भगवान् महावीर का विशेषण है। वैसे, ज्ञानी, धर्म-कथा करने में दक्ष, इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, विभिन्न सिद्धान्तों का पारगामी, परीषह-जयी, तथा देश-काल का ज्ञाता मुनि कुशल कहा जाता है / प्रस्तुत सूत्र में 'कुशल' शब्द 'केवली' के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। छणं-छणं-यह शब्द दो बार पाने का प्रयोजन यह है कि हिंसा को, तथा हिंसा के कारणों को, तथा लोक-संज्ञा को समान रूप से जानकर उसका त्याग करे। 105. उद्देसो पासगस्स पत्थि / बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणपरियट्टति त्ति बेमि। ॥छट्ठो उद्देसओ समत्तो। 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 133 2. आयुष्य, वेदनीय, नाम, गोत्र-ये चार भवोपनाही कर्म हैं। 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 133 4. प्राचा० 1 / 2 / 2 5. भगवती श० 2 / उ०५ 6. सूत्रकृत श६ 7. आचाटीका पत्रांक 13411 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 105. द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वाले के लिए) कोई उद्देश-(विधि-निषेध रूप विधान/निदेश) (अथवा उपदेश) नहीं है। बाल--(अज्ञानी) / बार-बार विषयों में स्नेह (प्रासक्ति) करता है। कामइच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (उनका सेवन करता है) इसलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। वह शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है / -ऐसा मैं कहता हूँ। ॥षष्ठ उद्देशक समाप्त // // लोगविजय द्वितीय अध्ययन समाप्त / / 1. विषयों की तीव्र प्रासक्ति के कारण मानसिक उद्वेग, चिंता, व्याकुलता रहती है तथा विषयों के अत्यधिक सेवन से शारीरिक दुख-रोग, पीड़ा आदि उत्पन्न होते हैं / 2. चूणि में पाठ इस प्रकार है-दुक्खी दुक्खावट्टमेए अणुपरियट्टति दुक्खाणं प्रावटो दुक्खावटो-चूणि (मुनि जम्बूविजयजी, टिप्पण पृ० 30) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय--तृतीय अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र के तृतीय अध्ययन का नाम 'शीतोष्णीय' है। se शीतोष्णीय का अर्थ है-शीत (अनुकूल) और उष्ण (प्रतिकूल) परिषह आदि को समभावपूर्वक सहन करने से सम्बन्धित / श्रमणचर्या में बताये गये बाईस परिषहों में दो परिषह 'शीत-परिषह' हैं, जैसे 'स्त्रीपरिषह, सत्कार-परिषह / अन्य बीस 'उष्ण-परिषह' माने गये हैं।' शीत से यहाँ 'भावशीत' अर्थ ग्रहण किया गया है, जो कि जीव का परिणाम-चिन्तन विशेष है। यहाँ चार प्रकार के भावशीत बताये गये हैं--(१) मन्दपरिणामात्मक परिषह, (2) प्रमाद (कार्य-शैथिल्य या शीतल-विहारता) का उपशम, (3) विरति (प्राणातिपात आदि से निवृत्ति, सत्रह प्रकार का संयम) और (4) सुख (सातावेदनीय कर्मोदयजनित)। REउष्ण से भी यहाँ 'भाव-उष्ण' का ग्रहण किया गया है, वह भी जीव का परिणाम/चिन्तन विशेष है / नियुक्तिकार ने भाव-उष्ण 8 प्रकार के बताये हैं--(१) तीव्र-दुःसह परिणामात्मक प्रतिकूल परिषह, (2) तपस्या में उद्यम, (3) क्रोधादि कषाय, (4) शोक, (5) प्राधि (मानसिक व्यथा), (6) वेद (स्त्री-पुरुष-नपुंसक रूप),(७)अरति (मोहोदय वश चित्त का विक्षेप) और (8) असातावेदनीय कर्मोदयजनित)। * शीतोष्णीय अध्ययन का सार है-मुमुक्षु साधक को भावशीत और भाव-उष्ण, दोनों को ही समभावपूर्वक सहन करना चाहिए, सुख में प्रसन्न और दुःख में खिन्न नहीं होना चाहिए अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में समभाव रखना चाहिए। . इन्हीं भाव-शीत और भाव-उष्ण के परिप्रेक्ष्य में इस अध्ययन के उद्देशकों में वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है / 1. प्राचा०नि० गाथा 201 / 2. 'सीय परोपहपमायुवसम विरई सुहं तु चउण्हं / ' 3. 'परीसहतवुज्जय कसाय सोगाहिवेयारइ-दुक्खं / ' -प्रा० नियु० मा० 202 -प्रा० नियु० गा० 202 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध [ प्रथम उद्देशक में धर्मदृष्टि से जागत और सूप्त की चर्चा की है। विशेषतः अप्रमाद और प्रमाद का, अनासक्ति और आसक्ति का विवेक बतलाया गया है / Ne द्वितीय उद्देशक में सुख-दु:ख के कारणों का तत्त्वबोध निरूपित किया है। - तृतीय उद्देशक में साधक का कर्तव्यबोध निर्दिष्ट है। * चौथे उद्देशक में कषायादि से विरति का उपदेश है। के इस प्रकार चारों उद्देशकों में आत्मा के परिणामों में होने वाली भाव-शीतलता और भाव-उष्णता को लेकर विविध विषयों की चर्चा की गई है।' - निष्कर्ष यह है कि तृतीय अध्ययन के चार उद्देश कों एवं छब्बीस सूत्रों में सहिष्णुता और अप्रमत्तता का स्वर गूज रहा है। * सूत्र संख्या 106 से प्रारंभ होकर सूत्र 131 पर तृतीय अध्ययन समाप्त होता है / 1. आचा० नियुक्ति गाथा 198, 199 / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सीओसणिज्ज' तइअं अज्झयणं पढमो उद्देसओ शीतोष्णीय; तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक सुप्त-जाग्रत 106. सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति / लोगंसि जाण अहियाय दुक्खं / / समयं लोगस्स जाणित्ता एत्य सत्थोवरते। 106. अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं। इस बात को जानलो कि लोक में अज्ञान (दुःख) अहित के लिए होता है / लोक ( षड् जीव-निकायरूप संसार ) में इस प्राचार ( समत्वभाव ) को जानकर (संयमी पुरुष) (संयम में बाधक-हिंसा, अज्ञानादि) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। विवेचन-यहाँ 'मुनि' शब्द सम्यग्ज्ञानी, सम्यग्दष्टि एवं मोक्ष-मार्ग-साधक के अर्थ में प्रयुक्त है। जिन्होंने मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग रूप भाव-निद्रा का त्याग कर दिया है, जो सम्यकबोध प्राप्त हैं और मोक्ष-मार्ग से स्खलित नहीं होते, वे मुनि हैं। इसके विपरीत जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि से ग्रस्त हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, वे 'अमुनि'अज्ञानी हैं। यहाँ भाव-निद्रा की प्रधानता से अज्ञानी को सुप्त और ज्ञानी को जागृत कहा गया है। सुप्त दो प्रकार के हैं-द्रव्यसुप्त और भावसुप्त / निद्रा-प्रमादवान् द्रव्यसुप्त है। जो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि रूप महानिद्रा से व्यामोहित हैं, वे भावसुप्त हैं / अर्थात् जो आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से बिलकुल शून्य, मिथ्यादृष्टि, असंयमी और अज्ञानी हैं, वे जागते हुए भी भाव से-पान्तरिक दृष्टि से सुप्त हैं / जो कुछ सुप्त हैं, कुछ जागृत हैं, संयम के मध्यबिन्दु में हैं, वे देशविरत श्रावक सुप्त-जागृत हैं और जो पूर्ण रूप से जागृत हैं उत्कृष्ट संयमी और ज्ञानी हैं, वे जागत हैं। वृत्तिकार ने मुनि का निर्वचन इस प्रकार किया है जो जगत् की त्रैकालिक अवस्था पर मनन करता है या उन्हें जानता है, वह मुनि है।' जो जगत की त्रैकालिक गति 1. 'मन्यते मनुते या जगतः त्रिकालावस्था मुनिः।' -प्राचा० शीला टीका पत्रांक 137 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध विधियों को जानता है, वही लोकाचार या जगत के भोगाभिलाषी स्वभाव को अथवा 'विश्व की समस्त प्रात्मा एक समान हैं' - इस समत्त्व-सूत्र को जानकर, हिंसा, मिथ्यात्व अज्ञानादि शस्त्रों से दूर रहता है। यहाँ 'सुप्त' शब्द भावसुप्त अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भावसुप्त वह होता है, जो मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, प्रमाद अादि के कारण हिंसादि में सदा प्रवृत्त रहता है।। जो दीर्घ संयम के अाधारभूत शरीर को टिकाने के लिए प्राचार्य-गुरु आदि की आज्ञा से द्रव्य से सोते; निद्राधीन होते हुए भी आत्म-स्वरूप में जागृत रहते हैं, वे धर्म की दृष्टि से जागृत हैं। अथवा भाव से जागृत साधक, निद्रा-प्रमादवश सुषुप्त होते हुए भी भावसुप्त नहीं कहलाता / यहाँ भावसुप्त एवं भावजागृत-दोनों अवस्थाएँ धर्म की अपेक्षा से कही गयी हैं।' अज्ञान दुःख का कारण है, इसलिए यहाँ 'अज्ञान' के स्थान पर 'दुःख' शब्द का प्रयोग किया गया है। चर्णिकार ने दुःख का अर्थ 'कर्म' किया है। उन्होंने बताया है कि कर्म दुःख का कारण है। अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म ग्रादि से सम्बन्धित भी है, इसलिए प्रसंगवश दुःख का अर्थ यहाँ अज्ञान भी किया जा सकता है / 'समय' शब्द यहाँ प्रसंगवश दो अर्थों को अभिव्यक्त करता है-अाधार और समता / लोक-प्रचलित आचार या रीति-रिवाज साधक को जानना आवश्यक है। संसार के प्राण भोगाभिलाषी होने के कारण प्राणि-विघातक एवं कषायहेनुक लोकाचार के कारण अनेक कर्मों का संचय करके नरकादि यातना-स्थानों में उत्पन्न होते हैं। कदाचित् कर्मफल भोगने के बाद वे धर्मप्राप्ति के कारण मनुष्य-जन्म, प्रार्य-क्षेत्र आदि में पैदा होते हैं, लेकिन फिर महामोह, अज्ञानादि अन्धकार के वश प्रशुभकर्म का उपार्जन करके अधोगतियों में जाते हैं। संसार के जन्म-मरण के चक्र से नहीं निकल पाते। यह है-लोकाचार। इस लोकाचार (समय) को जानकर हिंसा से उपरत होना चाहिए / इसी प्रकार लोक (ससस्त जीव सम्ह) में शत्रु-मित्रादि के प्रति अथवा समस्त प्रात्मानों के प्रति समता (समभाव-आत्मौपम्य दृष्टि) जान कर हिंसा आदि शस्त्रों से विरत होना चाहिए। 1. भगवती सूत्र में जयंती श्राविका और भगवान् महावीर का सुप्त और जागृत के विषय में एक संवाद आता है / जयन्ती श्राविका प्रभु से पूछती है--"भंते ! सुप्त अच्छे या जागृत ?" भगवान् ने धर्मदृष्टि से अनेकान्तगली में उत्तर दिया-"जो धनिष्ठ हैं, उनका जागृत रहना श्रेयस्कर है और जो अमिष्ठ हैं, पापी है, उनका सुप्त (सोये) रहना अच्छा / " यहाँ सुप्त और जागृत द्रव्यदृष्टि से नहीं / -शतक 120 उ०२ 2. देखिये 'समय' शब्द के विभिन्न अर्थ अमरकोष में "समया शपथाचारकाल-सिद्धान्त-सविदः" समय के अर्थ हैं-शपथ, प्राचार, काल, सिद्धान्त और संविद् (प्रतिज्ञा या शर्त) / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 107 87 अरति-रति-त्याग 107. जस्सिमे सदा य रूवा य गधा य रसा य फासा य अभिसमण्णागता भवंति' से आत जाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं पण्णाणेहि परिजाणति लोगं, मुणी ति वच्चे धम्मविदु त्ति अंज आवट्टसोए संगमभिजाणति / सीतोसिणच्चागी से णिग्गंथे अरति रतिसहे फारुसियं णो वेदेति, जागर-वेरोवरते वोरे ! एवं दुक्खा पमोक्खसि / 107. जिस पुरुष ने शब्द , रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक्प्रकार से परिज्ञात कर लिया है, (जो उनमें राग-द्वेष न करता हो), वह प्रात्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् (आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता), धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष अपनी प्रज्ञा (विवेक) से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है। वह धर्मवेत्ता और ऋजु (सरल) होता है। (बह आत्मवान् मुनि) संग (आसक्ति) को पावर्त-स्रोत (जन्म-मरणादि चक्र के स्रोत-उद्गम) के रूप में बहुत निकट से जान लेता है। __ वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है (उन्हें त्यागने में पीड़ा अनुभव नहीं करता) तथा स्पर्शजन्य सुख-दुःख का वेदन (प्रासक्तिपूर्वक अनुभव) नहीं करता। जागृत (सावधान) और वैर से उपरत वीर ! तु इस प्रकार (ज्ञान, अनासक्ति, सहिष्णुता, जागरूकता और समता-प्रयोग द्वारा) दुःखों-दु:खों के कारण कर्मों से मुक्ति पा जाएगा। विवेचन-इस सूत्र में पंचेन्द्रिय-विषयों के यथावस्थित स्वरूप के ज्ञाता तथा उनके त्यागी को ही मुनि, निर्ग्रन्थ एवं वीर बताया गया है / अभिसमन्वागत का अर्थ है-जो विषयों के इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप कोस्वरूप को, उनके उपभोग के दुष्परिणामों को प्रागे-पीछे से, निकट और दूर से ज्ञ-परिज्ञा से भलीभाँति जानता है तथा प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उनका त्याग करता है। आत्मवान् का अर्थ है-ज्ञानादिमान् अथवा शब्दादि विषयों का परित्याग करके प्रात्मा की रक्षा करने वाला। ज्ञानदान का अर्थ है जो जीवादि पदार्थों का यथावस्थित ज्ञान कर लेता है। वेदवान् का अर्थ है-जीवादि का स्वरूप जिनसे जाना जा सके, उन वेदों-आचारांग प्रादि प्रागमों का ज्ञाता। 1. यहाँ पाठान्तर में 'आयवी', 'नाणवी', 'वेयवो', 'धम्मवी', 'बंभवी', मिलता है जिसका अर्थ होता है —वह आत्मविद्, ज्ञानविद, प्राचारादिक आगमों का वेत्ता (वेदवित्), धर्म पित् और ब्रह्म (18 प्रकार के ब्रह्मचर्य) का वेत्ता होता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्मवान् वह है--जो श्रुत-चारित्ररूप धर्म का अथवा साधना की दृष्टि से आत्मा के स्वभाव (धर्म) का ज्ञाता) है।' ब्राह्मवान् का अर्थ है---जो अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य से सम्पन्न है।' इस सूत्र का प्राशय यह है कि जो पुरुष शब्दादि विषयों को भलीभाँति जान लेता है, उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह प्रात्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित् एवं ब्रह्मवित् होता है। वस्तुत: शब्दादि विषयों की आसक्ति, आत्मा की अनुपलब्धि अर्थात् प्रात्म-स्वरूप के बोध के अभाव में होती है। जो इन पर आसक्ति नहीं रखता, वही प्रात्मा की भलीभाँति उपलब्धि कर लेता है / जो आत्मा को उपलब्ध कर लेता है, उसे ज्ञान-पागम, धर्म और ब्रह्म (आत्मा) का ज्ञान हो जाता है। 'जो प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है', इस वाक्य का तात्पर्य है, जो साधक मति-श्रुतज्ञानजनित सद्-असद् विवेकशालिनी बुद्धि से प्राणिलोक या प्राणियों के प्राधारभूत लोक (क्षेत्र) को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह मुनि कहलाता है / वृत्तिकार ने मुनि का निर्वचन इस प्रकार किया है-'जो जगत् की त्रिकालावस्था-गतिविधि का मनन करता है, जानता है, वह मुनि है' / 'ज्ञानी' के अर्थ में यहाँ 'मुनि' शब्द का प्रयोग हुआ है। ऋजु का अर्थ है-जो पदार्थों का यथार्थस्वरूप जानने के कारण सरलात्मा है, समस्त उपाधियों से या कपट से रहित होने से सरल गति-सरल मति है। आवर्त स्रोत का प्राशय है--जो भाव-यावरी का स्रोत-उद्गम है। जन्म-जरा-मृत्युरोग शोकादि दुःखरूप संसार को यहां भाव-आवर्त (भंवरजाल) कहा गया है। इसका उद्गम स्थल है-विषयासक्ति / 1. 'धर्मवित्' का व्युत्पत्त्यर्थ देखिये--'धर्म चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूप वा वेत्तीति धर्मवित्' "जो धर्म को-चेतन-अचेतन द्रव्य के स्वभाव को या श्रत-चारित्ररूप धर्म को जानता है, वह धर्मवित् है / ' -प्राचा० टीका० पत्रांक 139 2. (क) समवायांग 18 / (ख) दिवा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई। ___ ओरालिया उ वि तहा तं बंभं अट्ठदसमेयं // अर्थात् -देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काया से सेवन न करना, दूसरों से न कराना तथा करते हुए को भला न जानना, इस प्रकार नौ भेद हो जाते हैं / औदारिक अर्थात् मनुष्य, तियंञ्च सम्बन्धी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। कुल मिलाकर अठारह भेद हो जाते हैं। 3. देखे टिप्पण पृ० 85 –(प्रवचनसारोद्धार, द्वार 168 गाथा 1061) 4. रागद्वषयशाविद्ध, मिथ्यावर्शनदुस्तरम् / / जन्मावत जगत् क्षिप्त, प्रमावाद् साम्यते भृशम् / / अर्थात्-राग-द्वेष की प्रचण्ड तरंगों से घिरा हुना, मिथ्यादर्शन के कारण दुस्तर यह जगत् जन्ममरणादि रूप पावर्त-भंवरजाल में पड़ा है / प्रमाद उसे अत्यन्त परिभ्रमण कराता है। --आचाटीका पत्रांक 140 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 108-109 'संग'-विषयों के प्रति राग-द्वेष रूप सम्बन्ध, लगाव या प्रासक्ति / शीतोष्ण-त्यागी का मतलब है--जो साधक शीत-परिषह और उष्ण-परिषह अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परिषह को सहन करता हुआ उनमें निहित वैषयिक सुख और पीड़ाजनक दुःख की भावना का त्याग कर देता है / अर्थात् सुख-दुःख की अनुभूति से चंचल नहीं होता है। 'अरति-रतिसहे' का तात्पर्य है-जो संयम और तप में होनेवाली अप्रीति और अरुचि को समभावपूर्वक सहता है-उन पर विजय प्राप्त करता है, वह बाह्य एवं प्राभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित निर्ग्रन्थ साधक है। 'फारतिय जो वेदेति' का भाव है, वह निर्ग्रन्थ साधक परिषहों और उपसर्गों को सहने में जो कठोरता-कर्कशता या पीड़ा उत्पन्न होती है, वह उस पीड़ा को पीड़ा रूप में वेदनअनुभव नहीं करता, क्योंकि वह मानता है कि मैं तो कर्मक्षय करने के लिए उद्यत हूँ। मेरे कर्मक्षय करने में ये परिषह, उपसर्गादि सहायक हैं। वास्तव में अहिंसादि धर्म का प्राचरण करते समय कई कष्ट पाते है, लेकिन अज्ञानीजन कष्ट का वेदन (Feeling) करता है, जबकि ज्ञानीजन कष्ट को तटस्थ भाव से जानता है परन्तु उसका वेदन नहीं करता। ____ 'जागर' और 'रोपरत' ये दोनों 'वीर' के विशेषण हैं। जो साधक जागत और वैर से उपरत है, वही वीर है- कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। वीर शब्द से उसे सम्बोधित किया गया है / 'जागर' शब्द का प्राशय है-असंयमरूप भावनिद्रा का त्याग करके जागने वाला। अप्रमत्तता 108. जरा-मच्चुवसोवणीते गरे सततं मूढे धम्म णाभिजाणति / पासिय 'आतुरे पाणे अप्पमत्तो परिव्यए। मंता एवं मतिमं पास, आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा, मायी पमायो पुणरेति गम्भं / उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंज माराभिसंकी मरणा पमुच्चति / 109. अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयण्णे / जे पज्जवजातसत्थस्स खेतणे से असत्थस्स खेतण्णे / जे असत्थस्स खेतण्णे से पज्जवजातसत्थस्स खेतण्णे / 108. बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य (शरीरादि के मोह से) सतत मूढ़ बना रहता है / वह धर्म को नहीं जान पाता / (सुप्त) मनुष्यों को शारीरिक-मानसिक दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त (जागृत) होकर विचरण करे / हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (भावसुप्त आतुरों-दुखियों) को देख / 1. पाठान्तर है-आतुरिए पाले, आतुरपाणे / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध यह दुःख आरम्भज-प्राणि-हिंसाजनित है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से प्रात्महित में प्रवृत्त रह)। माया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य (अथवा मायी प्रमादवश) बार-बार जन्म लेता है गर्भ में आता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है-राग-द्वेष नहीं करता है, वह ऋजु (आर्जव-धर्मशील संयमी) होता है, वह मार (मृत्यु या काम) के प्रति सदा आशंकित (सतर्क) रहता है और मृत्यु (मृत्यु के भय) से मुक्त हो जाता है। 109. जो काम-भोगों के प्रति अप्रमत्त है, पाप कर्मों से उपरत-मन-वचनकाया से विरत है, वह पुरुष वीर और आत्मगुप्त (आत्मा को सुरक्षित रखने वाला) होता है और जो (अपने आप में सुरक्षित होता है) वह खेदज्ञ (इन काम-भोगों से प्राणियों को तथा स्वयं को होने वाले खेद का ज्ञाता) होता है, अथवा वह क्षेत्रज्ञ (अन्तरात्मा को जानने वाला) होता है। जो (शब्दादि विषयों की) विभिन्न पर्यायसमूह के निमित्त से होने वाले शस्त्र (असंयम, आसक्ति रूप) के खेद (अन्तस्-हार्द) को जानता है, वह अशस्त्र (संयम-अनासक्ति रूप) के खेद (अन्तस्) को जानता है, वह (विषयों के विभिन्न) पर्यायों से होने वाले शस्त्र (असंयम) के खेद (अन्तस्) को जानता है / विवेचन - इन सूत्रों में साधक को वृद्धत्व, मृत्यु अादि विभिन्न दुःखों से प्रातुर प्राणी की दशा एवं उसके कारणों और परिणामों पर गम्भीरता से विचार करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही यह भी बताया है कि शब्द-रूपादि कामों के प्रति अनासक्त रहने वाला सरलात्मा मुनि मृत्यु के भय से विमुक्त हो जाता है। यहाँ वृत्तिकार ने एक शंका उठाई है-देवता 'निर्जर' और 'अमर' कहलाते हैं, वे तो मोहमूढ़ नहीं होते होंगे और धर्म को भलीभाँति जान लेते होंगे? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि "देवता निर्जर कहलाते हैं, पर उनमें भी जरा का सद्भाव है, क्योंकि च्यवनकाल से पूर्व उनके भी लेश्या, बल, सुख, प्रभुत्व, वर्ण आदि क्षीण होने लगते हैं। यह एक तरह से जरावस्था ही है। और मृत्यु तो देवों की भी होती है, गोक, भय आदि दुःख भी उनके पीछे लगे हैं / इसलिए देव भी मोह-मूढ़ बन रहते हैं।'' प्राशय यह है कि जहाँ शब्द. 1. जैसा कि भगवतीसूत्र में प्रश्नोत्तर है- "देवाणं भंते ! सम्बे समवण्णा ? नो इणढे समठे। से केणठेण भंते ! एवं युच्चइ ? गोयमा ! देवा दुविहा-पुत्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य / तत्य णं जे ते पुन्वोदण्णगा ते णं अविसुद्धवष्णयरा, जे ण पच्छोववण्णगा ते ण विसुद्धयण्णयरा / प्रश्न--भंते ! सभी देव समान वर्ण वाले होते हैं ? उत्तर-यह कथन सम्भव नहीं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 108-109 रूपादि काम-भागों के प्रति राग-द्वेषात्मक वृत्ति है, वहाँ प्रमाद, मोह, माया, मृत्यु-भय आदि अवश्यम्भावी हैं। 'आउरपाणे का तात्पर्य है-शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के अथाह सागर में डूबे हुए, पातुर-किंकर्तव्यविमूढ़ बने हुए प्राणिगण / 'माई' शब्द चार कषायों में से मध्यम कषाय का वाचक है। इसलिए उपलक्षण से आदि और अन्त के क्रोध, मान और लोभ कषाय का भी इससे ग्रहण हो जाता है। इस दृष्टि से वृत्तिकार मायी का अर्थ कषायवान् करते हैं। 'प्रमादी' का अर्थ मद आदि पाँचों या आठों प्रमादों से युक्त समझना चाहिए। 'उवेहमाणो', 'अंजू' और 'माराभिसको' ये तीन विशेषण अप्रमत्त एवं जागृत साधक के हैं। ऋजु सरलात्मा होता है, वही संयम को कष्टकारक न समझकर प्रारमविकास के लिए आवश्यक समझता है और वही मृत्यु के प्रति सावधान भी रहता है कि अचानक मृत्यु पाकर मुझे भयभीत न कर दे। 'मरणा पमुच्चति' का अर्थ है-मरण के भय से या दुःख से वह अप्रमत्त साधक मुक्त हो जाता है, क्योंकि प्रात्मा के अमरत्व में उसकी दृढ़ प्रास्था होती है। 'अप्रमत्त' शब्द यहाँ भीतर में जागृत (चैतन्य की सतत स्मृति रखने वाला) और बाहर में (विषय-कषाय आदि आत्म-बाह्य पदार्थों के विषय में) सुप्त अर्थ में प्रयुक्त है। सूत्र 109 में शब्द-रूप आदि काम-भोगों से सावधान एवं जागृत रहने वाले तथा हिंसा आदि विभिन्न पाप कर्मों से विरत रहने वाले साधक को वीर, आत्मगुप्त और खेदज्ञ बताकर उसे शब्दादि कामों की विभिन्न पर्यों से होने वाले शस्त्र (असंयम) और उससे विपरीत प्रशस्त्र (संयम) का खेदज्ञ बताया गया है। ___ 'खेयपणे'—इसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं-खेदज्ञ और क्षेत्रज्ञ। यहाँ 'खेयण्णे' का 'क्षेत्रज रूप अधिक संगत प्रतीत होता है और क्षेत्र का अर्थ आत्मा या आकाश की अपेक्षा अन्तस् (हार्द) अर्थ प्रसंगानुसारी मालम होता है। शस्त्र और प्रशस्त्र से यहाँ असंयम और संयम अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि असंयम-विभिन्न विषय-भोगों में होने वाली प्रासक्ति शस्त्र है और संयम पापरहित अनुष्ठान होने से प्रशस्त्र है / निष्कर्ष यह है कि शस्त्र घातक होता है, अशस्त्र अघातक / जो प्रश्न-भते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? उत्तर-गौतम ! देव दो प्रकार के हैं—पूर्वोपपन्नक और पश्चाद्-उपन्नक। इनमें जो पूर्वोपपन्नक होते हैं, वे क्रमशः उत्तरोत्तर अविशुद्धतर वर्ण के होते हैं और जो पश्चाद्-उपपन्नक होते हैं, वे उत्तरोत्तर क्रमशः विशुद्धतर वर्ग के होते हैं। इसी प्रकार लेश्या आदि के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। च्यवनकाल में सभी के निम्नलिखित बातें होती हैं-"माला का मुरझाना, कल्पवृक्ष का कम्पन, श्री और ह्री का नाश, वस्त्रों के उपराग का ह्रास, दैन्य, तन्द्रा, कामराग, अंगभंग, दृष्टिभ्रान्ति, कम्पन और अरति / इसलिए देवों में भी जरा और मृत्यु का अस्तित्व है। -आचा० वृत्ति पत्रांक 140 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों के सभी पर्यायों (प्रकारों या विकल्पों) को, उनके संयोग-वियोग को शस्त्रभूत-असंयम को जानता है, वह संयम को अविघातक एवं स्वपरोपकारी होने से अशस्त्रभूत समझता है। शस्त्र और प्रशस्त्र दोनों को भलीभांति जानकर प्रशस्त्र को प्राप्त करता है, शस्त्र का त्याग करता है। लोक-संज्ञा का त्याग 110. अकम्मस्स ववहारो ण विज्जति / कम्मुणा' उवाधि जायति / 111. कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च जं छणं,' पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहि अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिण्णाय मेधावी विदित्ता लोग वंता लोगसण्णं से मतिमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि / // प्रथम उद्देशक समाप्त / / 110. कर्मों से मुक्त (अकर्म-शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता / कर्म से उपाधि होती है। 111. कर्म का भलीभांति पर्यालोचन करके (उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे)। कर्म का मूल (मिथ्यात्व आदि और) जो क्षण-हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे)। इन सबका (पूर्वोक्त कर्म और उनसे सम्बन्धित कारण और निवारण का) सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष) अन्तों से अदृश्य (दूर) होकर रहे। 1. 'उहि', 'कम्मुणा उयधि', इस प्रकार के पाठान्तर भी मिलते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- "कम्मुणा उबधि, उवधी तिविहो- आतोवही, कम्मोवही, सरीरोवही तत्थ अप्पा दुप्पउत्तो आतोवही, ततो कम्मोवही भवति, ततो सरीरोवही भवति, सरीरोवहीओ य वयहरिजति, तंजहा""नेरइओ एवमादि।" कर्म से उपधि होती है। उपधि तीन प्रकार की है पात्मोपधि, कर्मोपधि और शरीरोपधि / जब प्रात्मा विषय-कषायादि में दुष्प्रयुक्त होता है, तब प्रात्मोपधि--- आत्मा परिग्रह रूप होता है। तब कर्मोपधि का संचय होता है और कर्म से शरीरोपधि होती है / शरीरोपधि को लेकर नै रयिक, मनुष्य आदि व्यवहार (संज्ञा) होता है। 2. 'कम्ममाहूय जं छणं' इस प्रकार का पाठान्तर मिलता है / उसका भावार्थ यह है कि जिस क्षण अज्ञान, प्रमाद आदि के कारण कर्मबन्धन की हेतु रूप कोई प्रवृत्ति हो जाय तो सावधान साधक तत्क्षण उसके मूल कारण की खोज करके उससे निवृत्त हो जाए। 3. 'पडिलेहिय सव्वं समायाय' इसके स्थान पर चूणि में 'पडिलेहेहि य सवं समायाए' पाठ मिलता है / इसका अर्थ है-भली-भाँति निरीक्षण-परीक्षण करके पूर्वोक्त कर्म और उसके सब उपादान रूप तत्त्वों का निवारण करे। 4. किसी-किसी प्रति में 'मतिम' (मइम) के स्थान पर 'मेधावी' शब्द मिलता है, उसका प्रसंगवश अर्थ किया गया है-मेधावी-मर्यादावस्थित होकर साधक संथम पालन में पराक्रम करे / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 110-111 मेघावी साधक उसे (राग-द्वषादि को) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े)। वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ़ या विषय-कषाय से ग्रस्त) लोक को जानकर लोक-संज्ञा (विषयैषणा, वित्तौषणा, लोकषणा आदि) का त्याग करके (संयमानुष्ठान में) पराक्रम करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इन दोनों सूत्रों में कर्म और उसके संयोग से होने वाली प्रात्मा की हानि, कर्म के उपादान (राग-द्वष), बन्ध के मूल कारण आदि को भलीभाँति जानकर उसका त्याग करने का निर्देश किया है / अन्त में कर्मों के बीज-राग और द्वष रूप दो अन्तों का परित्याग करके (विषय-कषायरूप लोक) को जानकर लोक-संज्ञा को छोड़कर संयम में उद्यम करने की प्रेरणा दी है। जो सर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है, उसके लिए नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, बाल, वृद्ध, युवक, पर्याप्तक, अपर्याप्तक प्रादि व्यवहार-व्यपदेश (संज्ञाएं) नहीं होता / ___ जो कर्ममुक्त है, उसके लिए ही कर्म को लेकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि की या एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की, मन्दबुद्धि, तीक्ष्णबुद्धि, चक्षुदर्शनी आदि, सुखी-दुःखी, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, स्त्री-पुरुष, कषायी, अल्पायु-दीर्घायु, सुभग-दुर्भग, उच्चगोत्री-नीचगोत्री, कृपण-दानी, सशक्त-अशक्त आदि उपाधि-व्यवहार या विशेषण होता है। इन सब विभाजनों (विभेदों और व्यवहारों का हेतु कर्म है,) इसलिए कर्म ही उपाधि का कारण है / __ 'कम्मं च पडिलेहाए' का तात्पर्य है कर्म का स्वरूप, कर्मों की मूल प्रकृति, उत्तरप्रकृतियों, कर्मबन्ध के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश रूप बन्ध के प्रकार, कर्मों का उदय, उदीरणा, सत्ता प्रादि तथा कर्मों के क्षय एवं प्रास्रव-संवर के स्वरूप का भलीभाँति चिन्तन-निरीक्षण करके कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। _ 'कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय' का अर्थ है- कर्मबन्ध के मूल कारण पाँच हैं(१) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग / इन कर्मों के मूल का विचार करे / 'क्षण' का अर्थ क्षणन-हिंसन है, अर्थात् प्राणियों को पीड़ाकारक जो प्रवृत्ति है, उसका भी निरीक्षण करे एवं परित्याग करे / इसका एक सरल अर्थ यह भी होता है-कर्म का मूल हिंसा है अथवा हिंसा का मूल कर्म है / दो अन्त अर्थात् किनारे हैं-राग और द्वेष / / ____ 'अदिस्समाणे' का शब्दशः अर्थ होता है-अदृश्यमान। इससे सम्बन्धित वाक्य का तात्पर्य है-राग और द्वेष से जीव दृश्यमान होता है, शीघ्र पहिचान लिया जाता है, परन्तु वीतराग राग और द्वष इन दोनों से दृश्यमान नहीं होता / अथवा यहाँ साधक को यह चेतावनी दी गयी है कि वह राग और द्वष—इन दोनों अन्तों का स्पर्श करके रागी और 'द्वषी संज्ञा से (अदिश्यमान) व्यपदिष्ट न हो। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध :. 'लोक-संज्ञा' का भावार्थ यों है-प्राणिलोक की आहारादि चार संज्ञाएँ अथवा दस संज्ञाएँ / वैदिक धर्मग्रन्थों में वित्तषणा, कामैषणा (पुत्रषणा) और लोकैषणा रूप जो तीन एषणाएँ बताई हैं, वे भी लोकसंज्ञा हैं / लोकसंज्ञा का संक्षिप्त अर्थ 'विषयासक्ति' भी हो सकता है। ... 'लोक' से यहाँ तात्पर्य-रागादि मोहित लोक या विषय-कषायलोक से है। 'परक्कमेज्जासि' से संयम, तप, त्याग, धर्माचरण आदि में पुरुषार्थ करने का निर्देश है। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक बंध-मोक्ष-परिज्ञान 112. जाति च बुढि च इहज्ज पास, भूतेहि जाण पडिलेह सातं / तम्हाऽतिविज्ज परमं ति णच्चा सम्मत्तदंसी ण करेति पावं // 4 // 113. उम्मुच पासं इह मच्चिएहि, आरंभजीवी उभयाणपस्सी। कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरति गम्भं // 5 // 114. अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मणति / अलं बालस्स संगणं, वेरं वड्ढेति अप्पणो // 6 // 115. तम्हाऽतिविज्जं परमं ति गच्चा, आयंकदंसी ण करेति पावं / अग्गं च मूलं च विगिच धोरे, पलिछिदियाण णिक्कम्मदंसी // 7 // 116. एस मरणा पमुच्चति, से हु दिट्ठभये मुणी। लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिते सहिते सदा जते कालकंखी परिव्वए। बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। 117. सच्चमि धिति कुव्वह / एत्थोवरए मेहावी सवं पावं कम्मं झोसेति / 1. 'अतिविज्ज' के स्थान पर चूमि में “तिविज्जो' पाठ है जिसका अर्थ है-तीन विद्याओं का ज्ञाता। 2. आरंभजीवी उमयाणुपस्सो' पाठ के स्थान पर 'आरम्भजीवी तु भयाणुपस्सी' पाठ चूणि में मिलता है, जिसका अर्थ है-जो व्यक्ति महारम्भी-महापरिग्रही है-वह अपने समक्ष वध, बन्ध, निरोध, मृत्यु प्रादि का भय देखता है। 3. भदन्त नागार्जुनीय वाचनानुसार यहाँ पाठ है-'मूलं च आगं च वियेत्त वीर, कम्मासवा वेति विमोक्खणं च / अविरता अस्सवे जीवा, विरता णिज्जरेंति।' अर्थात्-“हे वीर ! मूल और अग्र का विवेक * कर, कमों के आश्रव (प्रास्रव) और कर्मो से घिमोक्षण (मुक्ति) का भी विवेक कर / अविरत जीव प्रास्त्रवों में रत रहते हैं, 'विरत कर्मों की निर्जरा करते हैं।" 4, 'विटुमये के स्थान पर 'दिट्ठवहे' और 'दिठ्ठपहे' पाठान्तर मिलते हैं। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्द शक : सूत्र 112-117 112. हे आर्य! तू इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख / तू प्राणियों (भूतग्राम) को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर / इससे त्रैविद्य (तीन विद्याओं का ज्ञाता) या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर ( समत्वदर्शी हो जाता है ) / समत्वदर्शी पाप (हिंसा आदि का प्राचरण) नहीं करता। 113. इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश (रागादि बन्धन) है, उसे तोड़ डाल; क्योंकि ऐसे लोग (काम-भोगों की लालसा से, उनकी प्राप्ति के लिए) हिंसादि पापरूप प्रारंभ करके जीते हैं और प्रारंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक (उभय) में शारीरिक, मानसिक काम-भोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा प्रारंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन (अनुभव) करते रहते हैं। ऐसे काम-भोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (ग्रासक्ति रूप कर्मों की जड़ें) बार-बार सींची जाने से वे पुनः-पुनः जन्म धारण करते हैं / 114. वह (काम-भोगासक्त मनुष्य) हास्य-विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल-अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है। 115. इसलिए अति विद्वान (उत्तम ज्ञानी) परम-मोक्ष पद को जान कर (हिंसा आदि में नरक आदि का अातंक-दुःख देखता है) जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप (हिंसा आदि पाप कर्म का आचरण) नहीं करता। हे धीर ! तू (इस अातंक-दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (साधक) (तप और संयम द्वारा रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी (कर्मरहित सर्वदर्शी) हो जाता है। 116. वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है / वह (निष्कर्मदर्शी) मुनि भय को देख चुका है (अथवा उसने मोक्ष पथ को देख लिया है)। वह (आत्मदर्शी मुनि) लोक ( प्राणि-जगत ) में परम (मोक्ष या उसके कारण रूप संयम) को देखता है। वह विविक्त--(राग-द्वेष रहित शुद्ध) जीवन जीता है। वह उपशान्त, (पांच समितियों से) समित (सम्यक् प्रवृत्त) (ज्ञान आदि से) सहित (समन्वित) होता / (अतएव) सदा संयत (अप्रमत्त-यतनाशोल) होकर, (पण्डित-) मरण की आकांक्षा करता हुआ (जीवन के अन्तिम क्षण तक) परिव्रजन-विचरण करता है। (इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध किया है। 117. (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर। इस (सत्य) में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण (क्षय) कर डालता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेचन-इन सब सूत्रों में बन्ध और मोक्ष तथा उनके कारणों से सम्बन्धित परम बोध दिया गया है। ११२वें सूत्र में जन्म और वृद्धि को देखने की प्रेरणा दी गयी है, उसका तात्पर्य यह है कि जिनवाणी के आधार पर वह अपने पूर्वजन्मों के विषय में चिन्तन करे कि मैं एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में तथा नारक, तिर्यंच, देव आदि योनियों में अनेक बार जन्म लेकर फिर यहाँ मनुष्य-लोक में आया हूँ। उन जन्मों में मैंने कितने-कितने दुःख सहे होंगे ? साथ ही वह यह भी जाने कि मैं कितनी निर्जरा और प्रचुर पुण्यसंचय के फलस्वरूप एकेन्द्रिय से विकास करते-करते इस मनुष्य-योनि में आया हूँ, कितनी पुण्यवृद्धि की होगी, तब मनुष्य-लोक में भी आर्य क्षेत्र, उतम कुल, पंचेन्द्रिय पूर्णता, उत्तम संयोग, दीर्घ-आयुष्य, श्रेष्ठ संयमी जीवन आदि पाकर इतनी उन्नति कर सका हूँ। इस सूत्र का दूसरा प्राशय यह भी है कि संसार में जीवों के जन्म और उसके साथ लगे हए अनेक दुःखों को तथा बालक, कुमार, युवक और वृद्ध रूप जो वृद्धि विकास हुना है, उस बीच आने वाले शारीरिक तथा मानसिक दुःखों/संघर्षों को देख / अपने अतीत के अनेक जन्मों की तथा विकास की श्रृंखला को देखना ही चिन्तन की गहराई में उतर कर जन्म और वृद्धि को देखना है / अतीत के अनेक जन्मों का, उनके कारणों और तज्जनित दुःखों एवं विकास-क्रम का चिन्तन करते-करते उन पर ध्यान केन्द्रित करने से संमूढता दूर हो जाती है और अपने पूर्वजन्मों का स्मरण (जाति-स्मरण) हो जाता है।' जब व्यक्ति अपने इस जीवन के 50-60 वर्षों के घटनाचक्रों को स्मृति पथ पर ले आता है, तब यदि प्रयत्न करे और बुद्धि संमोहित न हो तो पूर्वजन्मों की स्मृतियां भी उभर सकती हैं / पूर्वजन्म की स्मृति क्यों नहीं होती? इसके विषय में कहा गया है जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो / तेण दुक्खेण संमूढो, न सरइ जाइमप्पणो // जैसे मृगापुत्र को संयमी श्रमण को अनिमिष दृष्टि से देखते हुए, शुद्ध अध्यवसाय के कारण मोह दूर होते ही जाति-स्मरण ज्ञान हुआ और वह अपने पूर्वजन्म को देखने लगा / फलतः विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त होकर उसने अपने माता-पिता से प्रव्रज्या के लिए अनुमति मांगी। साथ ही वह अपने पिछले जन्मों में उपभुक्त विषयभोगों के कटु एवं दुःखद परिणाम, शरीर और भोगों की अनित्यता, अशुचिता (गंदगी), मनुष्य जन्म की असारता, व्याधिग्रस्तता, जरा-मरण-ग्रस्तता आदि का वर्णन करने लगा था। उसने अपने माता-पिता से कहा था माणुसते असारम्मि वाही-रोगाण आलए / जरामरमघत्थंमि खणं पि न रमामऽहं // 15 // जम्म दुक्ख जरा दुक्खं रोगाणि मरणाणि य / अहो दक्खो हसंसारो, जत्य कीसति जतवो ॥१६॥--उत्तरा० अ० 19 इससे स्पष्ट है कि अपने पिछले जन्मों और विकास-यात्रा का अनुस्मरण करने से साधक को जन्मजरा आदि के साथ लगे हुए अनेक दुःखों, उनके कारणों और उपादानों का ज्ञान हो सकता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 112-117 जन्म और मृत्यु के समय जीव को जो दुःख होता है, उस दुःख से संमूढ़ बना हुआ व्यक्ति अपने पूर्व जन्म का स्मरण नहीं कर पाता। 'भूतेहि जाण पडिलेह सायं' का तात्पर्य यह है कि संसार के समस्त भूतों (प्राणियों) को जो कि 14 भेदों में विभक्त हैं, उन्हें जाने ; उन भूतों (प्राणियों) के साथ अपने सुख की तुलना और पर्यालोचन करे कि जैसे मुझे सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है; वैसे ही संसार के सभी प्राणियों को है / ऐसा समझ कर तू किसी का अप्रिय मत कर, दुःख न पहुँचा। ऐसा करने से त जन्म-मरणादि का दःख नहीं पाएगा। _ 'तम्हाऽतिविज परमं ति णच्चा'----इस सूत्र के अन्तर्गत कई पाठान्तर हैं / बहुत सी प्रतियों में 'तिविज्जो' पाठ मिलता है, वह यहाँ संगत भी लगता है, क्योंकि इससे पूर्व शास्त्रकार तीन बातों का सूक्ष्म एवं तात्त्विक दृष्टि से जानने-देखने का निर्देश कर चुके हैं / वे तीन बातें ये हैं-(१) पूर्वजन्म-श्रृखला और विकास की स्मृति, (2) प्राणिजगत् को भलीभाँति जानना और (3) अपने सुख-दुःख के साथ उनके सुख-दुःख की तुलना करके पर्यालोचन करना। इन्हीं तीनों बातों का ज्ञान प्राप्त करना त्रिविद्या है। त्रिविद्या जिसे उपलब्ध हो गयी है, वह विद्य कहलाता है। बौद्धदर्शन में भी त्रिविद्या का निरूपण इस प्रकार है--(१) पूर्वजन्मों को जानने का ज्ञान, (2) मृत्यु तथा जन्म को (इनके दुःखों को) जानने का ज्ञान, (3) चित्तमलों के क्षय का ज्ञान / इन तीन विद्याओं को प्राप्त कर लेने वाले को वहाँ 'तिविज्ज' (विद्य) कहा है।' दूसरा पाठान्तर है—'अतिविज्जे- इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है जिसकी विद्या जन्म, वृद्धि, सुख-दुःख के दर्शन से अतीव तत्त्व विश्लेषण करने वाली है, वह अतिविद्य अर्थात् उत्तम ज्ञानो है। इन दोनों संदर्भो में वाक्य का अर्थ होता है इसलिए वह वैविद्य या प्रतिविद्य (प्रति विद्वान्) परम को जानकर....."यहाँ अतिविद्य या त्रिविद्य परम का विशेषण है, इसलिए अर्थ होता है-अतीव तन्व ज्ञान से युक्त या तीन विद्याओं से सम्बन्धित परम को जानकर। 'परम' के अनेक अर्थ हो सकते हैं-निर्वाण, मोक्ष, सत्य (परमार्थ) / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र भी परम के साधन होने से परम माने गये हैं। 'समत्तवंसी' जो समत्वदर्शी है, वह पाप नहीं करता, इसका तात्पर्य यह है कि पाप और विषमता के मूल कारण राग और द्वेष हैं / जो अपने भावों को राग-द्वष से कलुषितमिश्रित नहीं करता और न किसी प्राणी को राग-द्वेषयुक्त दृष्टि से देखता है, वह समत्वदर्शी 1. विद्य का उल्लेख जैसे बौद्ध साहित्य में मिलता है, वैसे वैदिक साहित्य में भी मिलता है। देखियेभगवद्गीता अ० 1 में 20 वा श्लोक ___"विद्या मां सोमपाः पूतपापा, गॉरिष्ट्वा स्वर्गति प्रार्ययन्ते / " पहां विद्या का अर्थ वैसा ही कुछ होना चाहिए जैसा कि जैनशास्त्र में पूर्वजन्म-दर्शन, विकास-दर्शन थिा प्राणिसमत्व-दर्शन, प्रात्मौपम्य-सुख-दुःख-दर्शन है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध होता है / वह पाप कर्म के मूल कारण-राग-द्वेष को अन्तःकरण में आने नहीं देता, तब उससे पाप कर्म होगा ही कैसे ? __ 'सम्मतदंसी' का एक रूप 'सम्यक्त्वदर्शी' भी होता है। सम्यक्त्वदर्शी पापाचरण नहीं करता, इसका रहस्य यही है कि पाप कर्म की उत्पत्ति, उसके कटु परिणाम और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का सम्यग् ज्ञान जिसे हो जाता है, वह सत्यदृष्टा असम्यक् (पाप का) आचरण कर ही कैसे सकता है ? 113 वें सूत्र में पाप कर्मों का संचय करने वाले की वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणति (फल) का दिग्दर्शन कराया गया है। 'पाश' का अर्थ बंधन है। उसके दो प्रकार हैं-द्रव्यबन्धन और भावबन्धन / यहाँ मुख्य भावबन्धन है। भाव बन्धन राग, मोह, स्नेह, आसक्ति, ममत्व आदि हैं / ये ही साधक को जन्म-मरण के जाल में फंसाने वाले पाश हैं। 'आरंमजीवी उभयाणुपस्सी' पद में प्रारम्भ से महारम्भ और उसका कारण महापरिग्रह दोनों का ग्रहण हो जाता है। मनुष्यों-मयों के साथ पाश-बंधन को तोड़ने का कारण यहाँ प्रारंभजीवी आदि पदों से बताया गया है। जो प्रारंभजीवी होता है, वह उभयलोक (इहलोकपरलोक) को या उभय (शरीर और मन दोनों) को ही देख पाता है, उससे ऊपर उठकर नहीं देखता / अथवा 'उ' को पृथक् मानने से 'भयाणपस्सी' पाठ भी होता है, जिसका अर्थ होता हैमहारम्भ-महापरिग्रह के कारण वह पुनः-पुन: नरकादि के या इस लोक के भयों का दर्शन (अनुभव) किया करता है। __ चार पुरुषार्थों में कामरूप पुरुषार्थ जन साध्य होता है, तब उसका साधन बनता हैअर्थ / इसलिए काम-भोगों की आसक्ति मनुष्य को विविध उपभोग्य धनादि अर्थों-पदार्थों के संग्रह के लिए प्रेरित करती है / वह प्रासक्ति-महारंभ-महापरिग्रह का मूल प्रेरक तन्व है। _ 'सपिच्चमाणा पुणरेंति गम्भ' में बताया है-हिंसा, झूठ, चोरी, काम-वासना, परिग्रह आदि पाप या कर्म की जड़ें हैं। उन्हें जो पापी लगातार सींचते रहते हैं, वे बार-बार विविध गतियों और योनियों में जन्म लेते रहते हैं। 114 वें सूत्र में प्राणियों के वध आदि के निमित्त विनोद और उससे होने वाली वैर-वृद्धि का संकेत किया गया है। कई महारंभी-महापरिग्रही मनुष्य दूसरों को मारकर, सताकर, जलाशय में डुबाकर, कोड़ों आदि से पीटकर या सिंह आदि हिंस्र पशुओं के समक्ष मनुष्य को मरवाने के लिए छोड़कर अथवा यज्ञादि में निर्दोष पशु-पक्षियों की बलि देकर या उनका शिकार करके अथवा उनकी हत्या करके कर मनोरंजन करते हैं। इसी प्रकार कई लोग झूठ बोलकर, चोरी करके 1. आवश्यक नियुक्ति (गा० 1046) में सम्यक्त्व को समत्व का पर्यायवाची बताया है "समया संमत-पसत्य-संति-सिव-हिय-सहं अणिदं च / अदुगुछि अमगरहिअं अणवज्जमिमेऽवि एगट्ठा / " Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 112-117 या स्त्रियों के साथ व्यभिचार करके या दूसरे का धन, मकान आदि हड़प करके या अपने कब्जे में करके हास-विनोद या प्रमोद की अनुभूति करते हैं। ये सभी दूसरे प्राणियों के साथ अपना वर (शत्रुभाव) बढ़ाते रहते हैं।' 'अल बालस्स संगेणं' के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं-एक अर्थ जो वृत्तिकार ने किया है, वह इस प्रकार है-"ऐसे मूढ़ अज्ञ पुरुष का हास्यादि, प्राणातिपातादि तथा विषय-कषायादिरूप संग न करे, इनका संसर्ग करने से वैर की वद्धि होती है। दूसरा अर्थ यह भी होता है कि ऐसे विवेकमूढ़ अज्ञ (बाल) का संग (संसर्ग) मत करो; क्योंकि इससे साधक की बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी, मन की वृत्तियाँ चंचल होंगी। वह भी उनकी तरह विनोदवश हिंसादि पाप करने को देखादेखी प्रेरित हो सकता है / आतंकदर्शी पाप नहीं करता; इसका रहस्य है—'कर्म या हिंसा के कारण दुःख होता है - जो यह जान लेता है, वह आतंकदर्शी है, वह स्वयं पापानुबन्धी कर्म नहीं करता, न दूसरों से कराता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है। 'अग्गं च मूलं च विगिच धीरे'--इस पद में आये --'अग्न' और 'मूल' शब्द के यहाँ कई अर्थ होते हैं-वेदनोयादि चार अघातिकर्म अग्र हैं, मोहनीय आदि चार घातिकर्म मूल हैं। मोहनीय सब कर्मों का मूल है, शेष सात कर्म अग्र हैं। मिथ्यात्व मूल है, शेष अवत-प्रमाद आदि अग्र हैं। धीर साधक को कर्मों के, विशेषतः पापकर्मों के अग्र (परिणाम या पागे के शाखाप्रशाखा रूप विस्तार) और मूल (मुख्य कारण या जड़) दोनों पर विवेक-बुद्धि से निष्पक्ष होकर चिन्तन करना चाहिए। किसी भी दुष्कर्मजनित संकटापन्न समस्या के केवल अग्र (परिणाम) पर विचार करने से वह सुलझती नहीं, उसके मूल पर ध्यान देना चाहिए। कर्मजनित दुःखों का मूल (बीज) मोहनीय है, शेष सब उसके पत्र-पुष्प हैं। इस सूत्र का एक और अर्थ भी वृत्तिकार ने किया है-दुःख और सुख के कारणों पर, 1. हंसी-मजाक से भी कई बार तीव वैर बंध जाता है। वृत्तिकार ने समरादित्य कथा के द्वारा संकेत किया है कि गुणसेन ने अग्निशर्मा की अनेक तरह से हसी उड़ाई, इस पर दोनों का वैर बंध गया, जो नौ जन्मों तक लगातार चला। -प्राचा० टीका पत्रांक 145 2. 'अलं बालस्स संगण' इस सत्र का एक अर्थ यह भी सम्भव है-बाल-अज्ञानी जन का संग-सम्पर्क मत करो: क्योंकि अज्ञानी विषयासक्त मनुष्य का संसर्ग करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. जीवन में अनेक दोषों और दुर्गुणों तथा उनके कुसंस्कारों के प्रविष्ट होने की आशंका रहती है। अपरिपक्व साधक को अज्ञानीजन के सम्पर्क से ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। उत्तराध्ययन (3215) में स्पष्ट कहा है-- न वा लमज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा / एक्को वि पावाई विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। "यदि निपुण ज्ञानी, गुणाधिक या सम-गुणी का सहाय प्राप्त न हो तो अनासक्त भावपूर्वक अकेला ही विचरण करे, किन्तु अज्ञानी का संग न करे।" Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेक बुद्धि से सुशोभित धीर यों विचार करे- इनका मूल है असंयम या कर्म और अग्र है-संयम-तप, या मोक्ष / ' __ 'पलिछिबियाणं णिवकम्मदंसी' का भावार्थ बहुत गहन है। तप और संयम के द्वारा रागद्वेषादि बन्धनों को या उनके कार्यरूप कर्मों को सर्वथा छिन्न करके आत्मा निष्कर्मदर्शी हो जाता है / निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ हो सकते हैं-(१) कर्म रहित शुद्ध प्रात्मदर्शी,(२) राग-द्वेष के सर्वथा छिन्न होने से सर्वदर्शी, (3) वैभाविक क्रियाओं (कर्मों-व्यापारों) के सर्वथा न होने से प्रक्रियादर्शी और (4) जहाँ कर्मों का सर्वथा अभाव है, ऐसे मोक्ष का द्रष्टा / ' ११६वें सूत्र में मृत्यु से मुक्त प्रात्मा की विशेषताओं और उसको चर्या के उद्देश्य का दिग्दर्शन कराया गया है। दिट्ठभए या दिठ्ठपहे'-दोनों ही पाठ मिलते हैं। "विट्ठभए' पाठ अधिक संगत लगता है. क्योंकि प्रस्तत सत्र में भय की चर्चा करते हुए कहा है..."मनि इस जन्म-मरणादि रूप संसार का अवलोकन गहराई से करता है तो वह संसार में होने वाले जन्म-मरण, जरा-रोग प्रादि समस्त भयों का दर्शन-मानसिक निरीक्षण कर लेता है। फलतः वह संसार के चक्र में नहीं फँसता, उनसे बचने का प्रयत्न करता है / " आगे के 'लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी' आदि विशेषण उसी संदर्भ में अंकित किये गये हैं। 'दिठ्ठपहे' पाठ अंगीकृत करने पर अर्थ होता है-जिसने मोक्ष का पथ देख लिया है, अथवा जो इस पथ का अनुभवी है। सूत्र 112 से 117 तक शास्त्रकार का एक ही स्वर गूज रहा है-ज्ञाता-द्रष्टा बनो / ज्ञाता-द्रष्टा का अर्थ है-अपने मन की गहराइयों में उतर कर प्रत्येक वस्तु या विचार को जानो-देखो, चिन्तन करो, परन्तु उसके साथ राग और द्वेष को या इनके किसी परिवार को मत मिलाओ, तटस्थ होकर वस्तुस्वरूप का विचार करो, इसी का नाम ज्ञाता-द्रष्टा बनना है। इन सूत्रों में चार प्रकार के द्रष्टा (दर्शी) बनने का उल्लेख है-(१) समत्वदर्शी या सम्यक्त्वदर्शी, (2) प्रात्मदर्शी, (3) निष्कर्मदर्शी और (4) परमदर्शी। इसी प्रकार दृष्टभय/दृष्टपथ, अग्र और मल का विवेक कर जन्म, वद्धि, प्राणियों के साथ सूख-दुःख में ममत्व तथा प्रात्मैकत्व के प्रतिपक्षण आदि में भी द्रष्टा-ज्ञाता बनने का संकेत है। ___'कालकंखी'-साधक को मृत्यु की प्राकांक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संलेखना के पाँच अतिचारों में से एक है---'मरणासंसप्पओगे'-मृत्यु की आशंसा-आकांक्षा न करना। फिर यहाँ उसे काल-कांक्षी बताने के पीछे क्या रहस्य है ? वृत्तिकार इस प्रश्न का समाधान यों करते हैंकाल का अर्थ है--मृत्युकाल, उसका आकांक्षी, अर्थात्-मुनि मृत्युकाल आने पर 'पंडितमरण' को आकांक्षा (मनोरथ) करने वाला होकर परिव्रजन (विचरण) करे। 'पंडितमरण' जीवन की सार्थकता है / पंडितमरण को इच्छा करना मृत्यु को जोतने को कामना है। 1. प्राचा० टीका पत्रांक 145 / 2. प्राचाटीका पत्रांक 145 / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 118 _ अतीत की बातों को प्रात्म-शूद्धि या दोष-परिमार्जन की दृष्टि से याद करना साधक के लिए आवश्यक है / इसलिए यहाँ शास्त्रकार ने साधक को स्मरण दिलाया है-'बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं'- इस आदेश सूत्र के परिप्रेक्ष्य में साधक पाप कर्म की विभिन्न प्रकृतियों, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, उन पापकर्मों से मिलने वाला फल-बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, निर्जरा और कर्मक्षय आदि पर गहराई से चिन्तन करे / ' 117 वें सूत्र में साधक को सत्य में स्थिर रहने का अप्रतिम महत्त्व समझाया है। वृत्तिकार ने विभिन्न दृष्टियों से सत्य के अनेक अर्थ किये हैं(१) प्राणियों के लिए जो हित है, वह सत्य है--वह है संयम / (2) जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट आगम भी सत्य है, क्योंकि वह यथार्थ वस्तु-स्वरूप को प्रकाशित करता है। (3) वीतराग द्वारा प्ररूपित विभिन्न प्रवचन रूप आदेश भी सत्य हैं / असंयत की व्याकुल चित्तवृत्ति 118. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहइ पूरइत्तए / से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरिवायाए जणवयपरिग्गहाए। 118. वह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला है। वह चलनी को (जल से) भरना चाहता है। वह (तृष्णा की पूर्ति के हेतु व्याकुल मनुष्य) दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए, दूसरों के परिग्रह के लिए तथा जनपद के वध के लिए, जनपद के परिताप के लिए और जनपद के परिग्रह के लिए (प्रवृत्ति करता है ) / विवेचन-इस सूत्र में विषयासक्त असंयमी पुरुष की अनेकचित्तता-व्याकुलता तथा विवेक-हीनता एवं उसके कारण होने वाले अनर्थों का दिग्दर्शन है / वृत्तिकार ने संसार-सुखाभिलाषी पुरुष को अनेकचित्त बताया है, क्योंकि वह लोभ से प्रेरित होकर कृषि, व्यापार, कारखाने आदि अनेक धंधे छेड़ता है, उसका चित्त रात-दिन उन्हीं अनेक धंधों की उधेड़बुन में लगा रहता है। 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 147 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 147 / 3. चूणि के अनुसार 'जणवयपरितावाए' पाठ भी है, उसका अर्थ चूर्णिकार ने किया है-'पररठ्ठमद्दणे' वा रायाणो जणवयं परितावयंति' पर राष्ट्र का मर्दन करने के लिए राजा लोग जनपद या जानपदों को संतप्त करते हैं। वृत्तिकार ने 'जनपदानां परिवादाय' अर्थ किया है, अर्थात् जनपदनिवासी लोगों के परिवाद (बदनाम करने) के लिए यह चुगलखोर है, जासूस है, चोर है, लुटेरा है, इस प्रकार मर्मोद्घाटन के लिए प्रवृत्त होते हैं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अनेकचित्त पुरुष अतिलोभी बनकर कितनी बड़ी असम्भव इच्छा करता है, इसके लिए शास्त्रकार चलनी का दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि वह चलनी को जल से भरना चाहता है, अर्थात् चलनी रूप महातृष्णा को धनरूपी जल से भरना चाहता है / वह अपने तृष्णा के खप्पर को भरने हेतु दूसरे प्राणियों का वध करता है, दूसरों को शारीरिक, मानसिक संताप देता है, द्विपद (दास-दासी, नौकर-चाकर आदि), चतुष्पद (चौपाये जानवरों) का संग्रह करता है, इतना ही नहीं, वह अपार लोभ से उन्मत्त होकर सारे जनपद या नागरिकों का संहार करने पर उतारू हो जाता है, उन्हें नाना प्रकार से यातनाएँ देने को उद्यत हो जाता है, अनेक जनपदों को जीतकर अपने अधिकार में कर लेता है / यह है-तृष्णाकुल मनुष्य की अनेक चित्तता किंवा व्याकुलता का नमूना। संयम में समुत्थान 119. आसे वित्ता एयम8 इच्चेवेगे समुट्टिता।। तम्हा तं बिइयं नासेवते णिस्सारं पासिय णाणी / उववायं चयणं गच्चा अणण्णं चर माहणे। से ण छणे, न छणावए, छणंतं णाणुजाणति / २णिविद दि अरते पयासु अणोमदंसी जिसणे पावेहि कम्महि / 120. कोधादिमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं / तम्हा हि वीरे विरते बधातो, छिदिज्ज सोतं लभूयगामी // 8 // 126. गंथं परिणाय इहऽज्ज' वीरे, सोयं परिण्णाय चरेज्ज दंते। उम्मुग्ग" लधु इह माणवेहि, णो पाणिणं पाणे समारभेज्जासि // 9 // त्ति बेमि। ॥बीओ उद्देसओ सम्मत्तो।। 1. 'बिइयं नो सेवते', 'बीयं नो सेवे', 'वितियं नासेवए'-ये पाठान्तर मिलते हैं। चूर्णिकार इस वाक्य का अर्थ करते हैं-"द्वितीयं मृषावादमयमं वा नासेवते"-दूसरे मृषावाद का या असंयम (पाप) का सेवन नहीं करता। 2. णिग्विज्ज' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ है-विरक्त होकर / 3. 'पावेसु कम्मेसु' पाठ चूणि में है, जिसका अर्थ है-'पावं कोहादिकसाया तेसु'–पाप हैं क्रोधादि कषाय, उनमें / 4. चणि में इसके स्थान पर छिदिज्ज सोतं गहु भूतगाम' पाठ मिलता है। उत्तरार्ध का अर्थ यों है ईर्यासमिति प्रादि से युक्त साधक 14 प्रकार के भूतग्राम (प्राणि-समूह) का छेदन न करे। 5. 'इहज' के स्थान पर 'इह वज्ज' एवं 'इहेज्ज' पाठ भी मिलते हैं / 'इह अज्ज' का अर्थ चणि कार ने किया है- "इह पक्यणे, अजेव मा चिरा"- इस प्रवचन में आज हो-बिलकुल विलम्ब किये बिना प्रवृत्त हो जाओ। 6. 'सोगं', 'सोतं' पाठान्तर भी हैं, 'सोगं' का अर्थ शोक है। 7. 'उम्मुग्ग' के स्थान पर 'उम्मग्ग' भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है-उन्मज्जन / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 119-121 119. इस प्रकार कई व्यक्ति इस अर्थ-(वध, परिताप, परिग्रह आदि असंयम) का आसेवन–पाचरण करके (अन्त में) संयम-साधना में संलग्न हो जाते हैं। इसलिए वे (काम-भोगों को, हिंसा आदि प्रास्रवों को छोड़कर) फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते। हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर)। (केवल मनुष्यों के ही जन्म-मरण नहीं), देवों के भी उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) निश्चित हैं, यह जानकर (विषय-सुखों में आसक्त मत हो) / हे माहन ! (अहिंसक) तू अनन्य (संयम या रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग) का आचरण कर / वह (अनन्यसेवी मुनि) प्राणियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे / तू (कामभोग-जनित) आमोद-प्रमोद से विरक्ति कर (विरक्त हो) / प्रजाओं (स्त्रियों) में अरक्त (आसक्ति रहित) रह। अनवमदर्शी (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षदर्शी साधक) पापकर्मों से विषण्ण---उदासीन रहता है। 120. वीर पुरुष कषाय के आदि अंग-क्रोध (अनन्तानुबन्धी प्रादि चारों प्रकार के क्रोध) और मान को मारे (नष्ट करे), लोभ को महान नरक के रूप में देखे / लोभ साक्षात् नरक है), इसलिए लघुभूत (मोक्षगमन का इच्छुक अथवा अपरिग्रहवृत्ति अपना कर) बनने का अभिलाषी, वीर (जीव) हिंसा से विरत होकर स्रोतों (विषय-वासनाओं) को छिन्न-भिन्न कर डाले। 121. हे वीर इस लोक में ग्रन्थ (परिग्रह) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे, इसी प्रकार (संसार के) स्रोत-विषयों को भी जानकर दान्त (इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला) बनकर संयम में विचरण कर। यह जानकर कि यहीं (मनुष्य-जन्म में) मनुष्यों द्वारा ही उन्मज्जन (संसारसिन्धु से तरना) या कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ-संहार न करे / —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-११९वें सूत्र में विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम-साधना में जुटे हुए साधक को विषय-भोगों की असारता एवं जीवन की अनित्यता का सन्देश देकर हिंसा, काम-भोगजनित अानन्द, अब्रह्मचर्य आदि पापों से विरत रहने की प्रेरणा दी गयी है। यह निश्चित है कि जो मनुष्य विषय-भोगों में प्रबल आसक्ति रखेगा, वह उनकी प्राप्ति के लिए हिंसा, क्रूर मनोविनोद, असत्य, व्यभिचार, क्रोधादि कषाय, परिग्रह आदि विविध पापकर्मों में प्रवृत्त होगा / अतः विषय-भोगों से विरक्त संयमीजन के लिए इन सब पापकर्मों से दूर रहने तथा विषय-भोगों की निस्सारता एवं जीवन की क्षणभंगुरता की प्रेरणा देनी भनिवार्य है। साथ ही यह भी बताना आवश्यक है कि कर्मों से मुक्त होने या संसार-सागर से पार Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध होने का पुरुषार्थ तथा उसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य लोक में मनुष्य के द्वारा ही सम्भव है, अन्य लोकों में या अन्य जीवों द्वारा नहीं। विषय-भोग इसलिए निस्सार हैं कि उनके प्राप्त होने पर तृप्ति कदापि नहीं होती। इसीलिए भरत चक्रवर्ती आदि विषय-भोगों को निस्सार समझकर संयमानुष्ठान के लिए उद्यत हो गये थे, फिर वे पुनः उनमें लिपटे नहीं। 'उववाय' और 'चयणं'---इन दोनों पदों को अंकित करने का प्राशय यह है कि मनुष्यों का जन्म और मरण तो सर्वविदित है ही, देवों के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति है कि उनका विषयसुखों से भरा जीवन अमर है, वे जन्मते-मरते नहीं, अतः इसे बताने के लिए उपपात और च्यवन-इन दो पदों द्वारा देवों के भी जन्म-मरण का संकेत किया है। इतना ही नहीं. विषयभोगों की निःसारता और जीवन की अनित्यता इन दो बातों द्वारा संसार की एवं संसार के सभी स्थानों की अनित्यता, क्षणिकता एवं विनश्वरता यहाँ ध्वनित कर दी है / 2 'मछले, न छणावाए' इन पदों में 'छण' शब्द का रूपान्तर 'क्षण होता है / क्षणु हिंसायाम्' हिसार्थक 'क्षणु' धातु से 'क्षण' शब्द बना है। अतः इन दोनों पदों का अर्थ होता है, स्वयं हिंसा न करे और न हो दूसरों के द्वारा हिंसा कराए / उपलक्षण से हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी न करे / 'अणण्ण' शब्द का तात्पर्य है- अनन्य-मोक्षमार्ग। क्योंकि मोक्षमार्ग से अन्य-असंयम है और जो अन्यरूप-असंयम रूप नहीं है, वह ज्ञानादि रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अनन्य है। 'अनन्य' शब्द मोक्ष, संयम और आत्मा को एकता का भी बोधक है। ये प्रात्मा से अन्य नहीं है, आत्मपरिणति रूप ही है अर्थात् मोक्ष एवं संयम आत्मा में ही स्थित हैं / अतः वह आत्मा से अभिन्न 'अनन्य' है। . 'अणोमदंसी' शब्द का तात्पर्य है-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी। अवम का अर्थ है-होन। हीन है-मिथ्यात्व-अविरति आदि / अवमरूप मिथ्यात्वादि से विपरीत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि अनवम उच्च-महान हैं / साधक को सदा उच्चद्रष्टा होना चाहिए। अनवम-उदात्त का द्रष्टा-अनवमदर्शी यानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी होता है। लोभ को नरक इसलिए कहा गया है कि लोभ के कारण हिंसादि अनेक पाप होते हैं, जिनसे प्राणी सीधा नरक में जाता है / गीता में भी कहा है-- त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः / कामः क्रोधस्तथा लोभः तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् // ... ये तीन पात्मनाशक और नरक के द्वार हैं--काम, क्रोध और लोभ / इसलिए मनुष्य इन तीनों का परित्याग करे / 1. देखें पृष्ठ 90 पर देवों के जरा सम्बन्धी टिप्पण / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 148 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 148 / / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 148 / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 122-123 105 'लहुभूयगामी' के दो रूप होते हैं-(१) लघुभूतगामी और (2) लघुभूतकामी / लघुभूतजो कर्मभार से सर्वथा रहित है-मोक्ष या संयम को प्राप्त करने के लिए जो गतिशील है, वह लघुभूतगामी है और जो लघुभूत (अपरिग्रही या निष्पाप होकर बिलकुल हलका) बनने की कामना (मनोरथ) करता है, वह लघुभूतकामी है।' ज्ञातासूत्र में लघुभूत तुम्बी का उदाहरण देकर बताया है कि जैसे-सर्वथा लेपरहित होने पर तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है, वैसे ही लघुभूत आत्मा संसार से ऊपर मोक्ष में पहुँच जाता है / // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक समता-दर्शन 122. संधि लोगस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास / तम्हा ण हंता ण विघातए। जमिणं अण्णमण्णवितिगिछाए पडिलेहाए ण करेति पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया?। 123. समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसादए / अणण्णपरमं पाणी णो पमादे कयाइ वि। आयगुत्ते सदा वोरे जायामायाए जावए // 10 // विराग स्वेहिं गच्छेज्जा महता खुड्डएहि वा। आगति गति परिण्णाय दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणेहि से ण छिज्जति, ण भिज्जति, ण डज्मति, ण हम्मति कंचणं सव्वलोए / 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 148 2. अध्ययन 6 3. 'मुणी कारणं' इस प्रकार के पदच्छेद किये हुए पाठ के स्थान पर 'मुणिकारणं' ऐसा एकपदीय पाठ चूर्णिकार को अभीष्ट है / इसकी व्याख्या यों की गई है वहाँ-तत्य मुणिस्स कारण, अद्दोहणातीति मुणिकारणाणि ? ताणि तत्य ण संति, "ण तत्थ मुणि कारणं सिया"तत्थ वि ताव मुणि कारणं ण अत्ति ।--क्या वहाँ (द्रोह या पाप) नहीं, हुआ, उसमें मुनि का कारण है ? द्रोह न हुए, इसीलिए वहाँ वे मुनि के कारण नहीं हुए हैं / शायद उसमें मुनि कारण नहीं है। वहाँ भी मुनि कारण नहीं है। 4. नागार्जुनीय वाचना में यहाँ अधिक पाठ इस प्रकार है "विसयम्मि पंचगम्मी वि, दुविहम्मि तियं तियं / भावओ सुठु जाणित्ता, से न लिप्पइ दोसु वि॥' ----शब्दादि पांच विषयों के दो प्रकार हैं---इष्ट, अनिष्ट / उनके भी तीन-तीन भेद हैं-हीन, मध्यम और उत्कृष्ट / इन्हें भावतः / परमार्थतः भली-भांति जानकर वह (मुनि) पाप कर्म से लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह उनमें राग और द्वेष नहीं करता। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 124. अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे किमस्स तीतं कि वाऽऽगमिस्सं / भासंति एगे इह माणया तु जमस्स तीतं तं आगमिस्सं // 11 // णातीतमण य आगमिस्सं अट्ठ णियच्छति तथागता उ / विधतकप्पे एताणुपस्सी णिज्झोसइत्ता। का अरती के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे। सम्वं हासं परिच्चज्ज अल्लीणगुत्तो परिव्वए। 122. साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि–वेला समझ कर (प्राणि-लोक को दुःख न पहुँचाए) अथवा प्रमाद करना उचित नहीं है / अपनी आत्मा के समान बाह्य-जगत (दूसरी आत्माओं) को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने (उपस्थिति में) लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उस (पाप कर्म न करने) का कारण मुनि होना है ? (नहीं) 123- इस स्थिति में (मुनि) समता की दृष्टि से पर्यालोचन (विचार) करके आत्मा को प्रसाद-उल्लास युक्त रखे / ज्ञानी मुनि अनन्य परम- (सर्वोच्च परम सत्य, संयम) के प्रति कदापि प्रमाद (उपेक्षा) न करे। वह साधक सदा आत्मगुप्त (इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाला) और बीर (पराक्रमी) रहे, वह अपनी संयम-यात्रा का निर्वाह परिमित-(मात्रा के अनुसार) आहार से करे। वह साधक छोटे या बड़े रूपों-(दृश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे। 1. यहाँ चूर्णिकार का अभिमल पाठ यों है किह से अतीतं, किह आगमिस्सं ? जह से अतीतं, तह आगमिस्सं / इन पंक्तियों का अर्थ प्रायः एक-सा है। 2. इसके बदले चूणि में पाठ है—'एस्थ पि अगरहे चरे' / इसका अर्थ इस प्रकार किया है-'रागवोसेहि अगरहो, तन्निमित्तं जह ण परहिज्जति ण रज्जति दुस्सिति वा' -~-ग्रहण- (कर्मबन्धन) होता है राम और द्वेष से / राग-द्वेष को ग्रहण न करने पर अ-ग्रह हो जाएगा / अर्थात् मुनि विषयादि के निमित्त राग-द्वेष का ग्रहण नहीं करता--न राग से रक्त होता है, न द्वेष से द्विष्ट / 3. 'अल्लीणगुत्तो' के स्थान पर 'आलोणगुत्ते' पाठ भी क्वचिद मिलता है। चूर्णिकार ने 'अल्लीणगुत्तो' का अर्थ इस प्रकार किया है-धम्म आयरियं वा अल्लोणो तिविहाए गुत्तीए गुत्तो-धर्म में तथा प्राचार्य में इन्द्रियादि को समेट कर लीन है और तीन गुप्तियों से गुप्त है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 124 107 समस्त प्राणियों (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवों) की गति और आगति को भली-भांति जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वष) से दूर रहता है, वह समस्त लोक में किसी से (कहीं भी) छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता। 124. कुछ (मूढमति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल (अतीत) का स्मरण नहीं करते। वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि इसका प्रतीत क्या था, भविष्य क्या होगा? कछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो (जैसा) इसका प्रतीत था. वही (वैसा ही) इसका भविष्य होगा। किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) (राग-द्वेष के अभाव के कारण) न अतीत के (विषय-भोगादि रूप) अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के (दिव्यांगना-संगादि वैषयिक सुख) अर्थ का चिन्तन करते हैं। (जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत-कम्पित कर दिया है, ऐसे) विधूत के समान कल्प-आचार वाला महर्षि इन्हीं (तथागतों) के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है। उस (धूत-कल्प) योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या प्रानन्द है ? वह इस विषय में (अरति और आनन्द के विषय में) बिलकूल ग्रहण रहित (अग्रहकिसी प्रकार की पकड़ से दूर) होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि (प्रमादों) का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को तीन गुप्तियों से गुप्त (नियंत्रित) करते हुए विचरण करे / विवेचन-सूत्र 122 से 124 तक सब में प्रात्मा के विकास, प्रात्म-समता, आत्म-शुद्धि, आत्म-प्रसन्नता, आत्म-जागृति, आत्म-रक्षा, पराक्रम, विषयों से विरक्ति, राग-द्वेष से दूर रहकर प्रात्म-रक्षण, प्रात्मा का अतीत और भविष्य, कर्म से मुक्ति, आत्मा की मित्रता, आत्मनिग्रह प्रादि आध्यात्मिक आरोहण का स्वर गूज रहा है। __ संधि लोगस्स जाणित्ता-यह सूत्र बहुत ही गहन और अर्थ गम्भीर है / वृत्तिकार ने संधि के संदर्भ में इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की है (1) उदोर्ण दर्शन मोहनीय के क्षय तथा शेष के उपशान्त होने से प्राप्त सम्यक्त्व भावसन्धि / (2) विशिष्ट क्षायोपशमिक भाव प्राप्त होने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति रूप भाव-सन्धि / (3) चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक् चारित्र रूप भाव-सन्धि / (4) सन्धि का अर्थ—सन्धान, मिलन या जुड़ना है / कर्मोदयवश ज्ञान-दर्शन-चारित्र के टूटते हुए अध्यवसाय का पुनः जुड़ना या मिलना भाव-सन्धि है / (5) धर्मानुष्ठान का अवसर भी सन्धि कहलाता है। आध्यात्मिक (क्षायोपशमिकादि भाव) सन्धि को जानकर प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 मायासंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध है, आध्यात्मिक लोक के तीन स्तम्भों-ज्ञान-दर्शन-चारित्र का टूटने से सतत रक्षण करना चाहिए / जैसे कारागार में बन्द कैदी के लिए दीवार में हुए छेद या बेड़ी को टूटी हुई जानकर प्रमाद करना अच्छा नहीं होता, वैसे ही आध्यात्मिक लोक में मुमुक्षु के लिए भी इस जीवन को, मोह-कारागार की दीवार का या बन्धन का छिद्र जानकर क्षणभर भी पुत्र, स्त्री या संसार सुख के व्यामोह रूप प्रमाद में फंसे रहना श्रेयस्कर नहीं होता।' 'आयओ बहिया पास' का तात्पर्य है-तू अध्यात्मलोक को अपनी आत्मा तक ही सीमित मत समझ / अपनी आत्मा का ही सुख-दुःख मत देख / अपनी आत्मा से बाहर लोक में व्याप्त समस्त आत्माओं को देख / वे भी तेरे समान हैं, उन्हें भी सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। इस प्रकार प्रात्म-समता को दृष्टि प्राप्त कर / / इसी बोधवाक्य की फलश्रुति अगले वाक्य-'तम्हा ण हंता ण विघातए' में दे दी है कि आत्मौपम्यभाव से सभी के दुःख-सुख को अपने समान जानकर किसी जीव का न तो स्वयं घात करे, न दूसरों से कराए। अध्यात्मज्ञानी मुनि पाप कर्म का त्याग केवल काया से या वचन से ही नहीं करता, मन से भी करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने त्याग के प्रति सतत वफादार रहता है / जो व्यक्ति किसी दूसरे के लिहाज, दबाव या भय से अथवा उनके देखने के कारण पापकर्म नहीं करता, किन्तु परोक्ष में छिपकर करता है, वह अपने त्याग के प्रति वफादार कहाँ रहा ? यही शंका इस सूत्र (जमिण अण्णमणं "सिया?) में उठायी गई है। इसमें से ध्वनि यही निकलती है कि जो व्यक्ति व्यवहार-बुद्धि से प्रेरित होकर दूसरों के भय, दबाव या देखते हुए पापकर्म नहीं करता, यह उसका सच्चा त्याग नहीं, क्योंकि उसके अन्तःकरण में पापकर्म-त्याग की प्रेरणा जगी नहीं है / इसलिए वह निश्चयदृष्टि से मुनि नहीं है, मात्र व्यवहारदृष्टि से वह मुनि कहलाता है। उसके पापकर्म-त्याग में उसका मुनित्व कारण नहीं है। इसी सूत्र के सन्दर्भ में अगले सूत्र में समता के माध्यम से आत्म-प्रसन्नता की प्रेरणा दी गई है-इसका तात्पर्य यह है कि साधक मन-वचन-काया की समता-एकरूपता को देखे / दूसरों के देखते हुए पापकर्म न करने की तरह परोक्ष में भी न करना, समता है। इस प्रकार की समता से प्रेरित होकर जो साधक समय—(आत्मा या सिद्धान्त) के प्रति वफादार रहते हुए लज्जा, भय आदि से भी पापकर्म नहीं करता, तप-त्याग एवं संयम का परिपालन करता है, उसमें उसका मुनित्व कारण हो जाता है / 'समय' के यहां तीन अर्थ फलित होते हैं / समता, आत्मा और सिद्धान्त / इन तीनों के परिप्रेक्ष्य में-- इन तीनों को केन्द्र में रखकर-साधक को पापकर्म-त्याग की प्रेरणा यहाँ दी गई है। इसी से प्रात्मा प्रसन्न हो सकती है अर्थात् आत्मिक प्रसन्नता-उल्लास का अनुभव हो सकता है / जिसके लिए यहाँ कहा गया है—'अप्पाणं विप्पसादए।' 2. प्राचा० टीका पत्र 150 1 प्राचा० टीका पत्र 149 3. प्राचा० टीका पत्र 150 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 124 109 'आगति गति परिणाय' का तात्पर्य यह है कि चार गतियां हैं, उनमें से किस गति का जीव कौन-कौन सी गति में आ सकता है और किस गति से कहाँ-कहाँ जा सकता है ? इसका ऊहापोह करना चाहिए। जैसे तिर्यंच और मनुष्य की गति और गति (गमन) चारों गतियों में हो सकती है, किन्तु देव और नारक को प्रागति-गति तिर्यंच और मनुष्य इन दो ही गतियों से हो सकती है। किन्तु मनुष्य इन चारों गतियों में गमना गमन की प्रक्रिया को तोड़कर पंचम गति-मोक्षगति में भी जा सकता है; जहाँ से लौटकर वह अन्य किसी गति में नहीं जाता। उसका मूल कारण दो अन्तों-राग-द्वष का लोप, नाश करना है। फिर उस विशुद्ध मुक्त प्रात्मा का लोक में कहीं भी छेदन-भेदनादि नहीं होता। १२४वें सूत्र की व्याख्या वृत्तिकार ने दार्शनिक, भौतिक और आध्यात्मिक साधना, इन तीनों दृष्टियों से की है। कुछ दार्शनिकों का मत है--भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करना चाहिए। वे भविष्य और अतीत में कार्य-कारण भाव नहीं मानते। कुछ दार्शनिकों का मन्तव्य है-जैसा जिस जीव का अतीत था, वैसा ही उसका भविष्य होगा। इनमें चिन्ता करने की क्या जरूरत है ? तथागत (सर्वज्ञ) अतीत और भविष्य की चिन्ता नहीं करते, वे केवल वर्तमान को ही देखते हैं। मोह और अज्ञान से प्रावृत बुद्धि वाले कुछ लोग कहते हैं कि यदि जीब के नरक आदि जन्मों में प्राप्त या उस जन्म में बालक, कुमार आदि वय में प्राप्त दुःखादि का विचार-स्मरण करें या भविष्य में इस सुखाभिलाषी जीव को क्या-क्या दुःख पाएँगे? इसका स्मरण-चिन्तन करेंगे तब तो वर्तमान में सांसारिक सुखों का उपभोग ही नहीं कर पाएँगे / जैसा कि वे कहते हैं केण ममेत्युप्पत्ती कहं इओ तह पुणो वि गंतव्वं / जो एत्तियं वि चितइ इत्यं सो को न निविण्णो / भूतकाल के किस कर्म के कारण मेरी यहाँ उत्पत्ति हुई ? यहाँ से मरकर मैं कहाँ जाऊँगा? जो इतना भी इस विषय में चिन्तन कर लेता है, वह संसार से उदासीन हो जाएगा, संसार के सुखों में उसे अरुचि हो जाएगी। ___ कई मिथ्याज्ञानी कहते हैं - "अतीत और अनागत के विषय में क्या विचार करना है ? इस प्राणी का जैसा भी अतोत-स्त्री, पुरुष, नपुंसक, सुभग-दुर्भग, सुखी-दुःखो, कुत्ता, विल्ली, गाय, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि रूप रहा है, वही इस जन्म में प्राप्त और अनुभूत हुआ है और इस जन्म (वर्तमान) में जो रूप (इनमें से) प्राप्त हुआ है, वही रूप आगामी जन्म (भविष्य) में प्राप्त होगा, इसमें पूछना ही क्या है ? साधना करने को भी क्या जरूरत है ?" __ आध्यात्मिक दृष्टि वाले साधक पूर्व अनुभूत विषय-सुखोपभोग आदि का स्मरण नहीं करते और न भविष्य के लिए विषय-सुख प्राप्ति का निदान (कामना मूलक संकल्प) करते हैं, क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं। 1. प्राचा० टीका पत्र 150 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतत्कन्ध तात्पर्य यह है-राग-द्वेष रहित होने से ज्ञानी जन न तो अतीत कालीन विषय-सुखों के उपभोगादि का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य में विषय-सुखादि की प्राप्ति का चिन्तन करते हैं। मोहोदयग्रस्त व्यक्ति ही अतीत और अनागत के विषय-सुखों का चिन्तन-स्मरण करते हैं।' विधूतकप्पे एताणुपस्सी' का अर्थ है--जिन्होंने अष्टविध कर्मों को नष्ट (विधुत) कर दिया है, वे 'विधत' कहलाते हैं। जिस साधक ने ऐसे विधूतों का कल्प–प्राचार ग्रहण किया है, वह इन वीतराग सर्वज्ञों का अनुदर्शी होता है। उसकी दृष्टि भी इन्ही के अनुरूप होती है / अरति, इष्ट वस्तु के प्राप्त न होने या वियोग होने से होती है और रति (आनन्द) इष्टप्राप्ति होने से / परन्तु जिस साधक का चित्त धर्म व शुक्लध्यान में रत है, जिसे प्रात्म-ध्यान में ही प्रात्मरति-आत्म-संतुष्टि या प्रात्मानन्द की प्राप्ति हो चुकी है, उसे इस बाह्य परति या रति (ग्रानन्द) से क्या मतलब है ? इसलिए साधक को प्रेरणा दी गयी है—'एत्थंपि अग्गहे घरे' अर्थात आध्यात्मिक जीवन में भी अरति-रति (शोक या हर्ष) के मूल राग-द्वेष का ग्रहण न करता हुआ विचरण करे / मित्र-अमित्र-विवेक 125. पुरिसा! तुममेव तुम मित्त, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? जं जाणेज्जा उच्चालयितं तं जाणेज्जा दूरालयितं, जं जाणेज्जा दूरालइतं तं जाणेज्जा उच्चालइतं। 126. पुरिसा! अताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि / 125. हे पुरुष (प्रात्मन्) ! तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहर, अपने से भिन्न मित्र क्यों हूँढ़ रहा है ? __जिसे तुम (अध्यात्म की) उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर (स्थान) अत्यन्त दूर (सर्व आसक्तियों से दूर या मोक्षमार्ग में) समझो, जिसे अत्यन्त दूर (मोक्ष मार्ग में स्थित) समझते हो, उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। 126. हे पुरुष ! अपना (आत्मा का) ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से (कर्म से) मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। सत्य में समुत्थान 127. पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि / सच्चस्स आणाए से उवट्ठिएउमेधावी मारं तरति। सहिते धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति / दुहतो जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेति / 2. प्राचा• टीका पत्र 152 / 1. प्राचा० टीका पत्र 151 / 3. 'उबट्ठिए से मेहावी'-यह पाठान्तर भी है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 तृतीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 125-127 सहिते दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो संज्ञाए। पासिमं दविए लोगालोगपवंचातो मुच्चति त्ति बेमि / ॥तइओ उद्देसओ समत्तो॥ 127. हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की प्राज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (मृत्युं, संसार) को तर जाता है। सत्य या ज्ञानादि से युक्त (सहित) साधक धर्म को ग्रहण करके श्रेय (प्रात्महित) का सम्यक् प्रकार से अवलोकन–साक्षात्कार कर लेता है। राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए (हिंसादि पापों में ) प्रवृत्त होता है / कुछ साधक भी इन (वन्दनादि) के लिए प्रमाद करते हैं। ज्ञानादि से युक्त साधक (उपसर्ग-व्याधि आदि से जनित) दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता। प्रात्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक (द्वन्द्वों) के समस्त प्रपंचों (विकल्पों) से मुक्त हो जाता है। विवेचन-इस सूत्र में परम सत्य को ग्रहण करने और तदनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है। साथ ही सत्ययुक्त साधक की उपलब्धियों एवं असत्ययुक्त मनुष्यों की अनुपलब्धियों की भी संक्षिप्त झांकी दिखाई है / 'सच्चमेव समभिजाणाहि' में वत्तिकार सत्य के तीन अर्थ करते हैं-(१) प्राणिमात्र के लिए हितकर-संयम, (2) गुरु-साक्षी से गृहीत पवित्र संकल्प (शपथ), (3) सिद्धान्त या सिद्धान्तप्रतिपादक आगम।' साधक किसी भी मूल्य पर सत्य को न छोड़े, सत्य की ही आसेवना, प्रतिज्ञापूर्वक प्राचरण करे, सभी प्रवृत्तियों में सत्य को ही आगे रखकर चले / सत्य-स्वीकृत संकल्प एवं सिद्धान्त का पालन करे, यह इस वाक्य का आशय है / 'हलो' (दुहतः) के चार अर्थ वृत्तिकार ने किये है(१) राग और द्वष दो प्रकार से, (2) स्व और पर के निमित्त से, (3) इहलोक और परलोक के लिए, (4) दोनों से (राग और द्वेष से) जो हत है, वह दुर्हत है।' 'जीवियस्स परिवंवण-माणण-पूयणाए'- इस वाक्य का अर्थ भी गहन है। मनुष्य अपने वन्दन, सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा के लिए बहुत उखाड़-पछाड़ करता है, अपनी प्रसिद्धि के लिए बहुत ही प्रारम्भ-समारम्भ, आडम्बर और प्रदर्शन करता है, सत्ताधीश बनकर प्रशंसा, 1. प्राचा० टीका पत्र 153 / 2. प्राचा. टीका पत्र 153 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुसस्कन्ध पूजा-प्रतिष्ठा पाने के हेतु अनेक प्रकार की छल-फरेब एवं तिकड़मबाजी करता है। ऐसे कार्यों के लिए हिंसा, झूठ, माया, छल-कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करने में कई लोग सिद्धहस्त होते हैं। अपने तुच्छ, क्षणिक जीवन में राग-द्वेष-वश पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए बड़े-बड़े नामी साधक भी अपने त्याग, वैराग्य एवं संयम की बलि दे देते हैं; इसके लिए हिंसा, असत्य, बेईमानी, माया आदि करने में कोई दोष ही नहीं मानते / जिन्हें तिकड़मबाजी करनी आती नहीं. वे मन ही मन राग और द्वष की, मोह और घणा-ईर्ष्या आदि की लहरों पर खेलते रहते हैं, कर कुछ नहीं सकते, पर कर्मबन्धन प्रचुर मात्रा में कर लेते है। दोनों ही प्रकार के व्यक्ति पूजा-सम्मान के अर्थी हैं और प्रमादग्रस्त हैं / ' ___ 'मंशाए' का अर्थ है-मनुष्य दुःख और संकट के समय हतप्रभ हो जाता है, उसकी बुद्धि कुण्ठित होकर किंकर्त्तव्यमूढ़ हो जाती है, वह अपने साधना-पथ या सत्य को छोड़ बैठता है / झंझा का संस्कृत रूप बनता है ध्यन्धता (धी+अन्धता) बुद्धि की अन्धता / साधक के लिए यह बहुत बड़ा दोष है / झंझा दो प्रकार की होती है-राग-झंझा और द्वेष-झंझा / इष्टवस्तु की प्राप्ति होने पर राग-झंझा होती है, जबकि अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर द्वेष-झंझा होती है। दोनों ही अवस्थाओं में सूझ-बूझ मारी जाती है। लोकालोक प्रपंच का तात्पर्य है-चौदह राजू परिमित लोक में जो नारक, तिर्यच आदि एवं पर्याप्तक-अपर्याप्तक आदि सैकड़ों आलोकों-अवलोकनों के विकल्प (प्रपंच) हैं, वही हैलोकालोक प्रपंच // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक कषाय विजय 128. से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च / एतं पासगस्त दंसणं उबरतसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडभि / / 129. जे एगं जाणति से सव्वं जाति, जे सव्वं जाणति से एगं जाणति / सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्सस्स णस्थि भयं / जे एगणामे से बहुणामे जे बहुगामे से एगं णामे।..... 1. प्राचा० टीका पत्र 153 2. प्राचा० टीका पत्र 154 3. प्राचारांग टीका पत्र 154 4. * यहाँ पाठान्तर भी है-जे एगणामे से बहुणामे, जे बहुणामे से एगणामे-इसका भाव है--जो एक स्वभाव वाला है, (उपशान्त है) वह अनेक स्वभाव वाला (अन्य गुण युक्त भी) है / जो अनेक स्वभाव वाला है वह एक स्वभाव वाला भी है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 128-131 113 113 दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोग, जति वीरा महाजाणं / परेण परं जंति, णावखंति जीवितं / एग बिगिचमाणे पुढो विगिचइ, पुढो विगिचमाणे एगं विगिचइ। . सड्ढी आणाए मेधावी / लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं / अस्थि सत्थं परेण परं, पत्थि असत्थं परेण परं / 130. जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जईसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गभवंसी, जे गन्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियदंसी जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।। से मेहावी अभिणिवटेज्जा कोधं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च जम्मं च मारंच जरगं च तिरियं च दक्खं च / एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स---आयाणं निसिद्धा सगडभि / 131. किमस्थि उवधी पासगस्स, ण विज्जति ? णत्थि त्ति बेमि / // चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ 128. वह (सत्यार्थी साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का (शीघ्र ही) वमन (त्याग) कर देता है। यह दर्शन (उपदेश) हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी (तीर्थकर) का है। जो कर्मों के प्रादान (कषायों, प्रास्रबों) का निरोध करता है, वही स्व-कृत (कर्मों) का भेत्ता (नाश करने वाला) है। 129. जो एक को जानता है, वह सब को जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है / प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक--(प्राणि-समूह) के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) . . वीर साधक लोक के (संसार के) संयोग (ममत्व-सम्बन्ध) का परित्याग कर महायान (मोक्षपथ) को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर (असंयमी) जीवन की आकांक्षा नहीं रहती। एक (अनन्तानुबंधी कषाय) को (जीतकर) पृथक करने वाला, अन्य (कर्मो) को भी (जीतकर) पृथक् कर देता है, अन्य को (जीतकर) पृथक् करने वाला, एक को .. भी पृथक् कर देता है। (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। साधक अाज्ञा से (जिनवाणी के अनुसार) लोक (षट्जीवनिकायरूप या Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कषायरूप लोक) को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय (पूर्ण-अभय) हो जाता है। शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु प्रशस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर नहीं होता। 130. जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है; (अत:) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को वापस लौटा दे (दूर भगा दे) / यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा-असंयम से उपरत एवं निराकरण द्रष्टा (पश्यक) का दर्शन (आगमोक्त उपदेश) है। जो पुरुष कर्म के आदान–कारण को रोकता है, वही स्व-कृत (कर्म) का भेदन कर पाता है। 131. क्या सर्व-द्रष्टा की कोई उपधि होती है, या नहीं होती ? नहीं होती। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--सूत्र 128 से 131 तक में कषायों के परित्याग पर विशेष बल दिया गया है / साथ ही कषायों का परित्याग कौन करता है, उनके परित्याग से क्या उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, कषागों के परित्यागी की पहिचान क्या है ? इन सब बातों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। __ 128 वें सूत्र में क्रोधादि चारों कषायों के वमन का निर्देश इसलिए किया गया है कि साधु-जीवन में कम से कम अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग तो अवश्य होना चाहिए, परन्तु यदि चारित्र-मोहनीय कर्म के उदयवश साधु-जीवन में भी अपकार करने वाले के प्रति तीव्र क्रोध आ जाय, जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, तप, लाभ एवं ऐश्वर्य आदि का मद उत्पन्न हो जाये, अथवा पर-वंचना या प्रच्छन्नता, गुप्तता आदि के रूप में माया का सेवन हो जाये, अथवा अधिक पदार्थों के संग्रह का लोभ जाग Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 125-131 115 उठे तो तुरन्त ही संभल कर उसका त्याग कर देना चाहिए, उसे शीघ्र ही मन से खदेड़ देना चाहिए, अन्यथा वह अड्डा जमा कर बैठ जाएगा, इसलिए यहाँ शास्त्रकार ने 'वंता' शब्द का प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने कहा है-क्रोध, मान, माया और लोभ को वमन करने से ही पारमार्थिक (वास्तविक) श्रमण भाव होता है, अन्यथा नहीं। इस (कषाय-परित्याग) को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का दर्शन इसलिए बताया गया है कि कषाय का सर्वथा परित्याग किये बिना निरावरण एवं सकल पदार्थग्राही केवल (परम) ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति नहीं होती और न ही कषाय-त्याग के बिना सिद्धि-सुख प्राप्त हो सकता है।' 'आयाणं सगडम्मि'-यह वाक्य इसी उद्देश्क में दो बार पाया है, परन्तु पहली बार दिए गये वाक्य में आयागं के बाद निसिखा' शब्द नहीं है, जबकि दूसरी बार प्रयुक्त इसी वाक्य में 'निसिद्धा' शब्द प्रयुक्त है। इसका रहस्य विचारणीय है। लगता है-लिपिकारों की भूल से 'निसिद्धा' शब्द छूट गया है। 'आदान' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है---'पात्म-प्रदेशों के साथ पाठ प्रकार के कर्म जिन कारणों से प्रादान-ग्रहण किये जाते हैं, चिपकाये जाते हैं, वे हिंसादि पांच आस्रव, अठारह पापस्थान या उनके निमित्त रूप कषाय-आदान हैं। इन कषायरूप पादानों का जो प्रवेश रोक देता है, वही साधक अनेक जन्मों में उपाजित स्वकृत कर्मों का भेदन करने वाला होता है / प्रात्म-जागृति या प्रात्मस्मृति के अभाव में ही कषाय को उत्पत्ति होती है / इसलिए यह भी एक प्रकार से प्रमाद है और जो प्रमादग्रस्त है, उसे कषाय या तज्जनित कर्मों के कारण सब ओर से भय है। प्रमत्त व्यक्ति द्रव्यत:-सभी आत्म-प्रदेशों से कर्म संचय करता है, क्षेत्रतः-छह दिशाओं में व्यवस्थित, कालत:-प्रतिक्षण, भावत:-हिंसादि तथा कषायों से कर्म संग्रह करता है। इसलिए प्रमत्त को इस लोक में भी भय है, परलोक में भी / जो आत्महित में जागृत है, उसे न तो संसार का भय रहता है, न ही कर्मों का / 'एग जाणइ०' इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि जो विशिष्ट ज्ञानी एक परमाण प्रादि द्रव्य तथा उसके किसी एक भूत-भविष्यत् पर्याय अथवा स्व या पर पर्याय को पूर्ण रूप से जानता है, वह समस्त द्रव्यों एवं पर-पर्यायों को जान लेता है; क्योंकि समस्त वस्तूमों के ज्ञान के बिना अतीत-अनागत पर्यायों सहित एक द्रव्य का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो संसार की सभी वस्तुओं को जानता है, वह किसी एक वस्तु को भी उसके अतीत-अनागत पर्यायों सहित जानता है / एक द्रव्य का सिद्धान्त दृष्टि से वास्तविक लक्षण इस प्रकार बताया गया है 1. प्राचा. टीका पत्र 154 3. आचा० टीका पत्र 155 5. प्राचा. टीका पत्र 155 2. प्राचा० टीका पत्र 155 4. प्राचा० टीका पत्र 155 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 आचारांग सुत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध एगववियस्स जे अत्थपज्जवा वंजणपज्जवा वावि / तीयाऽणागयभूया तावइयं तं हवइ बध्यं // 'एक द्रव्य के जितने अर्थपर्यव और व्यंजनपर्यव अतीत, अनागत और वर्तमान में होते हैं, उतने सब मिलाकर एक द्रव्य होता है।' प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टि से अनादि, अनन्त और अनन्त धर्मात्मक है / उसके भूतकालीन पर्याय अनन्त हैं, भविष्यत्कालीन पयि भी अनन्त होंगे और अनन्त धर्मात्मक होने से वर्तमान पर्याय भी अनन्त हैं। ___ ये सब उस वस्तु के स्व-पर्याय हैं / इनके अतिरिक्त उस वस्तु के सिवाय जगत् में जितनी दूसरी वस्तुएँ हैं उनमें से प्रत्येक के पूर्वोक्त रीति से जो अनन्त-अनन्त पर्याय हैं, वे सब उस वस्तु के पर-पर्याय हैं। ये पर-पर्याय भी स्व-पर्यायों के ज्ञान में सहायक होने से उस वस्तु--सम्बन्धी हैं / जैसे स्व-पर्याय वस्तु के साथ अस्तित्व सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार पर-पर्याय भी नास्तित्व सम्बन्ध से उस वस्तु के साथ जुड़े हैं। ___ इस प्रकार वस्तु के अनन्त भूतकालीन, अनन्त भविष्यत्कालीन, अनन्त वर्तमानकालीन स्व-पर्यायों को और अनन्तानन्त पर-पर्यायों को जान लेने पर ही उस एक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है / इसके लिए अनन्तज्ञान की आवश्यकता है / अनन्तज्ञान होने पर ही एक वस्तु पूर्णरूप से जानी जाती है और जिसमें अनन्तज्ञान होगा, वह संसार की सर्व वस्तुओं को जानेगा। __ इस अपेक्षा से यहां कहा गया है कि जो एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है, वह सभी वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है और जो सर्व वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है, वही एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है / यही तथ्य इस श्लोक में प्रकट किया गया है एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा / ___ सर्वे भावाः सर्वभा येन दृष्टा, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः // _ 'जे एगं नामे'—इस सूत्र का आशय भी बहुत गम्भीर है--(१) जो विशुद्ध अध्यवसाय से एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को नमा देता है-क्षय कर देता है, वह बहुत से अनन्तानुबन्धी मान आदि को नमा-खपा देता है, अथवा अपने ही अन्तर्गत अप्रत्याख्यानी आदि कषाय-प्रकारों को नमा-खपा देता है। (2) जो एक मोहनीय कर्म को नमा देता है-क्षय कर देता है, वह शेष कर्म प्रकृतियों को भी नमा-खपा देता है। इसी प्रकार जो बहुत से कम स्थिति वाले कर्मों को नमा-खपा देता है, वह उतने समय में एक अनन्तानुबन्धी कषाय को नमाता-खपाता है, अथवा एक मात्र मोहनीय कर्म को (उतने समय में) नमाता-खपाता है, क्योंकि मोहनीय कर्म को उत्कृष्ट स्थिति 70 कोटा-कोटी सागरोपमकाल की है, जबकि शेष कर्मों की 20 या 30 कोटा-कोटी सागरोपम से अधिक स्थिति नहीं है। 1. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 155 / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 128-131 117 'यहाँ 'नाम' शब्द 'क्षपक'(क्षय करने वाला)या 'उपशामक' अर्थ में ग्रहण करना अभीष्ट है। उपशमश्रेणी की दृष्टि से भी इसी तरह एकनाम, बहुनाम की चतुर्भगी समझ लेनी चाहिए।'. कषाय-त्याग की उपलब्धियाँ बताते हुए, 'जति वीरा महाजाणं परेण परं अंति' इत्यादि वाक्य कहे गये हैं / कर्म-विदारण में समर्थ, सहिष्णु या कषाय-विजयी साधक बीर कहलाते हैं। वृत्तिकार ने 'महायान' शब्द के दो अर्थ किये हैं (1) महान् यान (जहाज) महायान है, वह रत्नत्रयरूप धर्म है, जो मोक्ष तक साधक को पहुँचा देता है / / (2) जिसमें सम्यग्दर्शनादि त्रय रूप महान् यान हैं, उस मोक्ष को महायान कहते हैं / _ 'महायान' का एक अर्थ-विशाल पथ अथवा 'राजमार्ग' भी हो सकता है / संयम का पथ-राजमार्ग है, जिस पर सभी कोई निर्भय होकर चल सकते हैं। 'परेण परं जंति' का शब्दशः अर्थ तो किया जा चुका है / परन्तु इसका तात्पर्य है आध्यान त्मिक दृष्टि से (कषाय-क्षय करके) आगे से आगे बढ़ना। वृत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण यों किया है-सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने से नरक-तिर्यंचगतियों में भ्रमण रुक जाता है, साधक सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र का यथाशक्ति पालन करके आयुष्य क्षय होने पर सौधर्मादि देवलोकों में जाता है, पूण्य शेष होने से वहाँ से मनुष्यलोक में कर्मभूमि, आर्यक्षेत्र, सुकुलजन्म, मनुष्यगति तथा संयम आदि पाकर विशिष्टतर अनुत्तर देवलोक तक पहुँच जाता है। फिर वहाँ से च्यवकर मनुष्य जन्म तथा उक्त उत्तम संयोग प्राप्त कर उत्कृष्ट संयम पालन करके समस्त कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार पर अर्थात् संयमादि के पालन से पर-अर्थात् स्वर्ग-परम्परा से अपवर्ग (मोक्ष) भी प्राप्त कर लेता है। अथवा परसम्यग्दृष्टि गुणस्थान (4) से उत्तरोत्तर आगे बढ़ते-बढ़ते साधक अयोगिकेवली गुणस्थान (14) तक पहुँच जाता है। अथवा पर-अनन्तानुबन्धी के क्षय से पर-दर्शनमोह-चारित्रमोह का क्षय अथवा भवोपग्राही-घाती कर्मों का क्षय कर लेता है। उत्तरोत्तर तेजोलेश्या प्राप्त कर लेता है, यह भी 'परेण परं अंति' का अर्थ है। 'णावकखंति जीवितं' के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं (1) दीर्घजीविता नहीं चाहते, कर्मक्षय के लिए उद्यत क्षपक साधक इस बात की परवाह (चिन्ता) नहीं करते कि जीवन कितना बीता है, कितना शेष रहा है / (2) वे असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते / / 'एग विगिचमाणे- इस सूत्र का प्राशय यह है कि क्षपकश्रेणी पर आरूढ उत्कृष्ट साधक एक अनन्तानुबन्धीकषाय का क्षय करता हुआ, पृथक्-अन्य दर्शनावरण आदि का भी क्षय कर लेता है / आयुष्यकर्म बंध भी गया हो तो भी दर्शनसप्तक का क्षय कर लेता है। 2. 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 156 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 156 / 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 157 / ग्राचा० शीला टीका पत्रांक 156 / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 156 / 4. साल Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पृथक्-अन्य का क्षय करता हुआ एक अनन्तानुबन्धी नामक कषाय का भी क्षय कर देता है। 'विगिच' शब्द का अर्थ 'क्षय करना' ही ग्रहण किया गया है।' 'अस्थि सत्यं परेण परं'- इस सूत्र की शब्दावली के पीछे रहस्य यह है कि जनसाधारण को शस्त्र से भय लगता है, साधक को भो, फिर वह अकुतोभय कैसे हो सकता है ? इसी का समाधान इस सूत्र द्वारा किया गया है कि द्रव्यशस्त्र उत्तरोत्तर तीखा होता है, जैसे एक तलवार है, उससे भी तेज दूसरा शस्त्र हो सकता है। जैसे शस्त्रों में उत्तरोत्तर तीक्ष्णता मिलती है, वैसी तीक्ष्णता अशस्त्र में नहीं होती। अशस्त्र हैं--संयम, मैत्री, क्षमा, कषाय-क्षय, अप्रमाद आदि। इनमें एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं होती। इसी प्रकार भावशस्त्र हैं-दोष, घृणा, क्रोधादि कषाय, ये सभी उत्तरोत्तर तीव्र-मन्द होते हैं। जैसे राम को श्याम पर मंद क्रोध हुमा, हरि पर वह तीव्र हुमा और रोशन पर वह और भी तीव्रतर हो गया, किन्तु 'कमल' पर उसका क्रोध तीव्रतम हो गया। इस प्रकार संज्वलन, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और अनन्तानुबन्धी क्रोध की तरह मान, माया, लोभ तथा द्वष आदि में उत्तरोत्तर तीव्रता होती है। किन्तु अशस्त्र में समता होती है। समभाव एकरूप होता है, वह एक के प्रति मंद और दूसरे के प्रति तीव्र नहीं हो सकता / 'जे कोहवंसी' इत्यादि कम-निरूपण का आशय भी क्रोधादि का स्वरूप जानकर उनका परित्याग करने वाले साधक की पहिचान बताना है / क्रोधदर्शी आदि में जो 'दर्शी' शब्द जोड़ा गया है, उसका तात्पर्य है-क्रोधादि के स्वरूप तथा परिणाम आदि को जो पहले ज्ञपरिज्ञा से जानता है, देख लेता है, फिर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका परित्याग करता है, क्योंकि ज्ञान सदैव अनर्थ का परित्याग करता है। . 'ज्ञानस्य फलं विरति'-ज्ञान का फल पापों का परित्याग करना है, यह उक्ति प्रसिद्ध है / इसी लम्बे क्रम को बताने के बाद शास्त्रकार स्वयं निरूपण करते हैं _ 'से मेहावी अभिणिवट्टज्या कोधं च......' क्रोधादि के स्वरूप को जान लेने के बाद साधक क्रोधादि से तुरन्त हट जाये, निवृत्त हो जाए। 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 157 / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 157 / 3. प्राचा. शीला ठीको पत्रांक 158 / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-चतुर्थ अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र के चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। J सम्यक्त्व वह अध्ययन है-जिसमें प्राध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित सत्यों सचाइयों-सम्यक् वस्तुतत्वों का निरूपण हो। यथार्थ वस्तुस्वरूप का नाम सम्यक्त्व है / ' - 'सम्यक्त्व' शब्द से भाव सम्यक् का ग्रहण करना यहाँ अभीष्ट है, द्रव्य सम्यक् का नहीं। % भाव सम्यक् चार प्रकार के हैं, जो मोक्ष के अंग हैं-(१) सम्यग्दर्शन, (2) सम्यग्ज्ञान, (3) सम्यक्चारित्र और (4) सम्यक्तप / इन चारों भाव-सम्यक-तत्त्वार्थों का प्रति पादन करना ही सम्यक्त्व अध्ययन का उद्देश्य है। . द्रव्य सम्यक् सात प्रकार से होता है-(१) मनोऽनुकूल बनाने से, (2) द्रव्य को सुसंस्कृत करने से, (3) कुछ द्रव्यों को संयुक्त करने (मिलाने) से, (4) लाभदायक द्रव्य प्रयुक्त (प्रयोग) करने से, (5) खाया हुआ द्रव्य प्रकृति के लिए उपयुक्त होने से, (6) कुछ खराब द्रव्यों को निकाल (परित्यक्त कर) देने से शेष द्रव्य और (7) किसी द्रव्य में से सड़ा हुआ भाग काट (छिन्न कर) देने से बचा हुआ द्रव्य / * इसी प्रकार भाव सम्यक् भी सात प्रकार से होता है। भाव सम्यक् भी कृत, सुसंस्कृत, संयुक्त, प्रयुक्त, उपयुक्त, परित्यक्त और छिन्नरूप से सात प्रकार से होता है। इसका परिचय यथास्थान दिया जायेगा। Se सम्यक्त्व अध्ययन के चार उद्देशक हैं। इसी भावसम्यक्त्व के परिप्रेक्ष्य में चारों उद्देशकों में वस्तुतत्व का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। प्रथम उद्देशक में यथार्थ वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन होने से सम्यग्वाद की चर्चा है। 1. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 159 / (ख) 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' –तत्वार्थ 12 / (ग) उत्तराध्ययनसूत्र अ० 28, गा० 1, 2, 3 / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 159 / 3. प्राचा• नियुक्ति गा० 218 / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध se. द्वितीय उद्देशक में विभिन्न धर्म-प्रवादियों (प्रवक्तायों) के प्रवादों में युक्त अयुक्त की विचारणा होने से धर्म-परीक्षा का निरूपण है / . तृतीय उद्देशक में निर्दोष-निरवद्य तप का वर्णन होने से उसका नाम सम्यक् तप है। Ne चतुर्थ उद्देशक में सम्यक् चारित्र से सम्बन्धित निरूपण है। इस प्रकार चार उद्देशकों में क्रमश: सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक तप और सम्यक चारित्र, इन चारों भाव सम्यकों का भलीभांति विश्लेषण है।' st नियुक्तिकार ने भाव सम्यक के तीन ही प्रकार बताये हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र / इनमें दर्शन और चारित्र के क्रमशः तीन-तीन भेद हैं-(१) औपशमिक, (2) क्षायोपशमिक और (3) क्षायिक / सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं-(१) क्षायोपशमिक ज्ञान और (2) क्षायिक ज्ञान / ' re. प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन के चार उद्देशक सूत्र 132 से प्रारम्भ होकर सूत्र 146 पर ... समाप्त होते हैं। 1. आचा० नियुक्ति गा० 215, 216 / 2. (क) प्राचा० नियुक्ति गा० 119, तत्त्वार्थ सूत्र 2 / 3 / (ख) अांचा० शीला दीका पत्रांक 159 / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सम्मतं' चउत्थं अज्झयणं पढमो उद्देसओ सम्यक्त्वः चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक सम्यगवाव : अहिंसा के संदर्भ में 132. से बेमि-जे य अतीता जे य पडुप्पण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता ते सब्बे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परुति --सव्वे पाणा सवे भूता सम्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतवा, ण अज्जावेतव्वा, ण परिघेत्तवा, ण परितावेयव्या, ण उद्दवेयव्वा / ___ एस धम्मे सुर्धे णितिए सासए समेच्च लोयं खेतणेहि पवेदिते / तं जहा—उदिएसु वा अणुट्ठिएसु वा, उपढिएसु वा, अणुवट्ठिएसुवा, उवरतदंडेसु वा अणुवरतदंडेसु वा सोवधिएसु वा अणुवहिएसु वा, संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा / 133. तच्चं चेतं तहा चेतं अस्सिं चेतं पवच्चति / तं आइत्त ण णिहे, ण णिक्खिवे, जाणित्त धम्म जहा तहा। दिलैहि णिवेयं गच्छेज्जा। जो लोगस्सेसणं चरे। जस्स णस्थि इमाणाती अण्णा तस्स कतो सिया। दिठं सुतं मयं विग्णायं जमेयं परिक हिज्जति / समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाति पकप्ती। अहो य रातो य जतमाणे धीरे सया आगतपण्णाणे, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि त्ति बेमि। // पढमो उद्देसओ समत्तो।। 1. 'खेतणेहि' के स्थान पर 'खेअण्णेहि,' 'खेदोहि' आदि शब्द हैं, अर्थ पूर्ववत् है। चणिकार ने 'खित्तष्णो' (क्षेत्रज्ञ) शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया है-'खित्त आगासं, खित्त जाणतीति खित्तष्णो, तं तु आहारभूतं दर-काल-भावाण अमुत्त च पवुच्चति / मुत्तामुत्ताणि खित' च जाणतो पाएण दरवादीणि जाणइ / जो वा संसारियाणि दुक्खाणि जाणति सो खित्तपणो पंडितो वा।" -~-क्षेत्र अर्थात् आकाश, क्षेत्र को जो जानता है, वह क्षेत्रज्ञ है / आकाश या क्षेत्र द्रव्य-काल-भावों का आधारभूत अं / मूर्त-अमूर्त और क्षेत्र को जो जानता है, वह प्राय: द्रव्यादि को जानता है। अथवा जो सांसारिक दुःखों को जानता है, वह भी क्षेत्रज्ञ या पण्डित कहलाता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कग्य 132, मैं कहता हूँ जो अर्हन्त भगवान् अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसा आख्यान (कथन) करते हैं, ऐसा (परिष में) भाषण करते हैं, (शिष्यों का संशय निवारण करने हेतु- ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, (तात्विक दृष्टि से-) ऐसा प्ररूपण करते हैं-समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का (डंडा आदि से) हनन नहीं करना चाहिए, बला. उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्राणों का विनाश करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है / खेदज्ञ अर्हन्तों ने (जीव-) लोक को सम्यक प्रकार से जानकर इसका प्रतिपादन किया है। . (अर्हन्तों ने इस धर्म का उन सबके लिए प्रतिपादन किया है), जैसे कि जो धर्माचरण के लिए उठे हैं, अथवा अभी नहीं उठे हैं। जो धर्मश्रवण के लिए उपस्थित हुए हैं, या नहीं हुए हैं, जो (जीवों को मानसिक, वाचिक और कायिक) दण्ड देने से उपरत हैं, अथवा अनुपरत हैं; जो (परिग्रहरूप) उपधि से युक्त हैं, अथवा उपधि से रहित हैं; जो संयोगों (ममत्व सम्बन्धों) में रत हैं, अथवा संयोगों में रत नहीं हैं। 133. वह (अर्हत्प्ररूपित अहिंसा धर्म) तत्त्व-सत्य है, तथ्य है (तथारूप ही है) / यह इस (अर्हत्प्रवचन) में सम्यक् प्रकार से प्रतिपादित है। साधक उस (ग्रह। भाषित-धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे (आवेश में आकर) फेंके या छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (आजीवन उसका प्राचरण करे)। (इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय-विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे / वह लोकैषणा में न भटके / जिस मुमुक्षु में यह (लोकेषणा) बुद्धि (ज्ञाति = संज्ञा) नहीं है, उससे अन्य (सावद्यारम्भ-हिंसा) प्रत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक बुद्धि कसे होगी ? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत (सुना हुग्रा), मत (माना हुग्रा) और विशेष रूप से ज्ञात (अनुभूत) है। हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे-पचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं। (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सनत प्रज्ञावान, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं. (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (अहिंसादि रूप धर्म में) पराक्रम कर। - ऐसा मैं कहता हूँ। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रयम उद्देशक : सूत्र 132-133 123 विवेचन-इन दो सूत्रों में अहिंसा के तत्त्व का सम्यक् निरूपण, अहिंसा की त्रैकालिक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं इसकी सत्य-तथ्यता का प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिसा के आचरण के लिए पराक्रम करना चाहिए ? यह भी बता दिया गया है / यही अहिंसा धर्म के सम्बन्ध में सम्यग्वाद का प्ररूपण है। ___ 'से बेमि' इन पदों द्वारा गणधर, तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा ज्ञात, अतीत-अनागतवर्तमान तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, अनुभूत, केवलज्ञान द्वारा दृष्ट अहिंसा धर्म की सार्वभौमिकता की घोषणा करते हैं।' आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है / दूसरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उसका उत्तर देना पाख्यान-कथन है, देव-मनुष्यादि की परिषद् में बोलना-- भाषण कहलाता है, शिष्यों की शंका का समाधान करने के लिए कहना 'प्रज्ञापन' है, तात्त्विक दृष्टि से किसी तत्त्व या पदार्थ का निरूपण करना 'प्ररूपण' है। प्राण, भूत, जीव और सत्व वैसे तो एकार्थक माने गए हैं, जैसे कि आचार्य जिनदास कहते हैं ... एगटिठता वा एते'; किन्तु इन शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किये गये हैं। हतध्वा' से लेकर 'उद्देवेयवा' तक हिंसा के ही विविध प्रकार बताये गये हैं। इनका अर्थ पृथक्-पृथक् इस प्रकार है 'हंतवा' -- डंडा चाबुक आदि से मारना-पीटना / 'अज्जावेतत्वा'- बलात् काम लेना, जबरन अादेश का पालन कराना, शासित करना / 'परिघेत्तत्वा'- बंधक या गुलाम बनाकर अपने कब्जे में रखना। दास-दासी ग्रादि रूप में रखना। 'परितावेयवा'५ --परिताप देना, सताना, हैरान करना, व्यथित करना। उद्देवेयव्या--प्राणों से रहित करना, मार डालना / 1. अतीत के तीर्थकर अनन्त हैं, क्योंकि काल अनादि होता है। भविष्य के भी अनन्त हैं. क्योंकि अागामी काल भी अनन्त है, वर्तमान में कम से कम (जघन्य) 20 तीर्थकर हैं जो पांच महाविदेहों में से प्रत्येक में चार-चार के हिसाब से हैं। अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) 170 तीर्थंकर हो सकते हैं। महाविदेह क्षेत्र 5 हैं, उनमें प्रत्येक में 32-32 तीर्थकर होते हैं, अतः 32 x 5 = 160 तीर्थकर हुए / 5 भरत क्षेत्रों में पांच और 5 ऐरावत क्षेत्रों में पांच---यों कुल मिलाकर एक साथ 170 तीर्थकर हो सकते हैं। कुछ प्राचार्यों का कहना है कि मेरु पर्वत से पूर्व और अपर महाविदेह में एक-एक तीर्थकर होते है, यों 5 महाविदेहों में 10 तीर्थंकर विद्यमान होते हैं / जैसा कि एक आचार्य ने कहा है सत्तरसयमुक्कोसं, इअरे दस समयखेतजिणमाणं / चोत्तीस पढमदीवे अणतरऽद्ध य ते दुगुणा / / -आचा० वृत्ति पत्र 162 2. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 162 / ३.देखिए प्रथम अध्ययन सूत्रांक 49 का विवेचन / 4. प्राचा० नियुक्ति गा० 225, 226 तथा प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 162 / 5. परितापना के विविध प्रकारों के चिन्तन के लिए ऐपिथिक (इरियावहिया) सूत्र में पठित 'अमिहया' से लेकर 'जीवियाओ ववरोविया' तक का पाठ देखें। -श्रमणसूत्र (उपा० अमरमुनि) पृ० 54 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य ___ यह अहिंसा धर्म किंचित् हिंसादि से मिश्रित या पापानुबन्धयुक्त नहीं है, इसे द्योतित करने हेतु 'शुद्ध' विशेषण का प्रयोग किया गया है। यह त्रैकालिक और सार्वदेशिक, सदा सर्वत्र विद्यमान होने से इसे 'नित्य' कहा है, क्योंकि पंचमहाविदेह में तो यह सदा रहता है। शाश्वत इसलिए कहा है कि यह शाश्वत-सिद्धगति का कारण है / ' भ० महावीर ने प्रत्येक प्रात्मा में ज्ञानादि अनन्त क्षमताओं का निरूपण करके सबको स्वतन्त्र रूप से सत्य की खोज करने की प्रेरणा दी–अप्पणा सच्चमेसेज्जा'-यह कहकर / यही कारण है कि उन्होंने किसी पर अहिंसा धर्म के विचार थोपे नहीं, यह नहीं कहा कि "मैं कहता हूँ, इसलिए स्वीकार कर लो।" बल्कि भूत, भविष्य, वर्तमान के सभी तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसलिए यह अहिंसाधर्म सार्वभौमिक है, सर्वजन- ग्राह्य है, व्यवहार्य है, सर्वज्ञों ने केवलज्ञान के प्रकाश में इसे देखा है, अनुभव किया है, लघुकर्मी भव्य जीवों ने इसे सुना है, अभीष्ट माना है। जीवन में आचरित है, इसके शुभ-परिणाम भी जाने-देखे गए हैं, इस प्रकार अहिंसा धर्म की महत्ता एवं उपयोगिता बताने के लिए ही 'उठ्ठिएसु' से लेकर इस उद्देशक के अन्तिम वाक्य तक के सूत्रों द्वारा उल्लेख किया गया है। ताकि साधक की दृष्टि, मति, गति, निष्ठा और श्रद्धा अहिंसाधर्म में स्थिर हो जाए। "विट्ठहि णिन्वेयं गच्छेज्जा' का आशय यह है कि इष्ट या अनिष्ट रूप जो कि दृष्ट हैंशब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हैं, उनमें निर्वेद-वैराग्य धारण करे / इष्ट के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष/घणा न करे। 'लोषणा' से तात्पर्य है-सामान्यतया इष्ट विषयों के संयोग और अनिष्ट के वियोग की लालसा। यह प्रवृत्ति प्रायः सभी प्राणियों में रहती है, इसलिए साधक के लिए इस लोकैषणा का अनुसरण करने का निषेध किया गया है। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक सम्यगज्ञान : आस्रव-परिस्रव चर्चा 134. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा / जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा / 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / 3. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 162 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / 4. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 125 एते य पए सबुज्झमाणे लोगं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेदितं / आघाति गाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं / अद्रा वि संता अदुवा पमत्ता। अहासच्चमिणं ति बेमि। णाऽणागमो मच्चमस्स अस्थि / इच्छापणीता वंकाणिकेया कालग्गहीता णिचये णिविट्ठा पुढो पुढो जाइं पकप्पंति / 135. इहमेगेसि तत्थ तत्थ संथवो भवति / अहोववातिए फासे पडिसंवेदयंति / चिट्ट करेहि कम्मेहि चिट्ट परिविचिट्ठति / अचिट्ट करेहि कम्मेहि णो चिट्ट परिविचिठ्ठति / एगे वदंति अदुवा विणाणी, गाणी वदंति अदुवा वि एगे। 136. आवंतो केआवंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति "से दिठं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-सम्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूता सव्वे सत्ता, हंतब्वा, अज्जावेतवा, परिघेत्तवा, परितावेतवा, उहवेतव्वा / एत्थ वि जाणह णत्थेत्थ दोसो।" अणारियवयणमेयं / / 137. तत्थ जे ते आरिया ते एवं वयासी-"से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च मे, दुम्मयं च भे, दुब्दिण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुष्पडिले हितं च भे, जं णं तुम्मे एवं आचक्खह, एवं भासह, एवं पण्णवेह, एवं परूवेह-सव्वे पाणा सम्वे भूता सम्वे जीवा सन्वे सत्ता हंतवा, अज्जावेतवा, परिघेत्तवा, परितावेयव्वा, उद्दवेतन्वा / एत्थ वि जाणह जत्थेत्थ दोसो।" अणारियवयणमेयं / 1. 'एते य पए संबुज्झमाणे....' पाठ में किसी-किसी प्रति में 'य' नहीं है। चूणि में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की गयी है-"एते य पवे संबुज्म, च सद्दा अण्णे य जीव-अजीव-बंध-संवर-मोक्खा। संमं संगतं वा पसत्यं वा बुज्झमाणे"-'च' शब्द से अन्य (तत्त्व) जीव, अजीव, बन्ध, संवर और मोक्ष पदों का ग्रहण कर लेना चाहिए / 'संबुज्नमाणे' का अर्थ है--सम्यक्, संगत या प्रशस्तरूप से समझने वाला"..." 2. भदंत नागार्जुन नाचना में इस प्रकार का पाठ उपलब्ध है-"आघाति धम्म खलु जे जीवाणं, संसार पडिवण्णाणं मशुस्सभवत्थागं आरंभविणयोण दुक्खुब्बेअसुहेसगाणं, धम्मसवणगवेसगाण (निक्खित्त. सतपाण) सुस्ससमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं / " इसका भावार्थ इस प्रकार है- ज्ञानी पुरुष उन जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, जो संसार (चतुर्गति रूप) में स्थित हैं, मनुष्यभव में स्थित हैं, प्रारम्भ से विशेष प्रकार से हटे हुए हैं, दुःख से उद्विग्न होकर सुख की तलाश करते हैं, धर्म-श्रवण की तलाश में रहते हैं, शस्त्र-त्यामी हैं, धर्म सुनने को इच्छुक हैं, प्रति-प्रा करने के अभिलाषी हैं, जिन्हें विशिष्ट अनुभव युक्त ज्ञान प्राप्त है / 3. 'पुढो पुढो जाई पकप्पेति' के स्थान पर 'एत्य मोहे पुणो पुणो' पाठ मिलता है। इसका अर्थ है-इस विषय में पुनः पुनः मोह-मूद बनते हैं। 4. यहाँ पाठ में क्रम भंग हुम्रा लगता है / 'सव्वे पाणा, सम्वे भूता, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता'---यही क्रम ठीक लगता है। 5. 'आरिमा' के स्थान पर 'आयरिया पाठ भी है, उसका अर्थ है-प्राचार्य / . 'णस्थेत्य' के स्थान पर कई प्रतियों में 'नवित्थ' शब्द मिलता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 138. वयं पुण एवमाचिक्खामो,' एवं भासामो, एवं पण्णवेमो, एवं परूवेमो—'सत्वे पाणा सन्वे भूता सब्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हतन्वा, ण अज्जावेतवा, ण परिघेत्तव्या, परियावेयव्वा, ण उहवेतव्वा / एत्थ वि जाणह पत्थेत्थ दोसो।' आरियवयणमेयं / 139. पुवं णिकाय समयं पत्तय पुच्छिस्सामो-3 हैं भो पावादुया ! कि भे सायं दुक्खं उता असायं ? समिता पडिवण्णे या वि एवं बूया-सव्वेसिं पाणाणं सर्वसि भूताणं सवेसि जीवाणं सर्वेसि सत्ताणं असायं अपरिणिवाणं महब्भयं दुक्खं तित्ति बेमि / // बोओ उद्देसओ सम्मत्तो। 134. जो आस्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव-कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, (इसीप्रकार) जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हो जाते हैं, जो अनास्रब. व्रत विशेष हैं. वे भी (प्रशभ अध्यवसाय वाले के लिए) अपरिसव-कर्म के कारण है जाते हैं, (इसीप्रकार) जो अपरिस्रव-पाप के कारण हैं, वे भी (कदाचि') अनास्रव (कर्मबंध के कारण) नहीं होते हैं। इन पदों (भंगों-विकल्पों) को सम्यक् प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक (जीव समूह) को प्राज्ञा (पागमवाणी) के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आस्रबों का सेवन न करे। ज्ञानी पुरुष, इस विषय में, संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए उत्सुक एवं विज्ञान-प्राप्त (हित की प्राप्ति और अहित से नित्ति के निश्चय पर पहुँचे हुए) मनुष्यों को उपदेश करते हैं / जो आर्त अथवा प्रमत्त (विषयासक्त) होते हैं, वे भी (कर्मों का क्षयोपशम होने पर अथवा शुभ अवसर मिलने पर) धर्म का आचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य-सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ। जीवों को मृत्यु के मुख में (कभी) जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग (विषय-सुखों की) इच्छा द्वारा प्रेरित और वक्रता (कुटिलता) के घर बने रहते हैं। वे मृत्यु की पकड़ में आ जाने पर भी (अथवा धर्माचरण का काल/अवसर हाथ में आ जाने पर भी भविष्य में करने की बात सोचकर) कर्म-संचय करने या धन-संग्रह में रचे-पचे रहते हैं। ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं। 135. इस लोक में कुछ लोगों को उन-उन (विभिन्न मतवादों) का सम्पर्क होता है, (वे उन मतान्तरों को असत्य धारणाओं से बंधक र कर्मास्रव करते हैं और 1 'माचिक्खामो' के स्थान पर कहीं-कहीं 'मातिक्खामो' पाठ मिलता है। कई प्रतियों में 'पत्त यं गत्तय'--यों दो बार यह शब्द अंकित है। 3. 'ह भी पाबादुया !' के स्थान पर किसी प्रति में है भो पावादिया तथा हं भो समणा माहणा कि पाठ है। 4. 'सायं दुक्खं उताहु असाय' के स्थान पर 'सातं दुबखं उदाहु अस्सात'-सा पाठ चूणि में मिलता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 127 तब वे आयुष्य पूर्ण कर) लोक में होने वाले (विभिन्न) दुःखों का संवेदन--भोग करते हैं। __जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ़ अध्यवसायवश क र कर्मों में प्रवृत्त होता है, वह (उन ऋर कर्मों के फलस्वरूप) अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में पैदा होता है। जो गाढ़ अध्यवसाय वाला न होकर, क्रू र कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, वह प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता। ___ यह बात चौदह पूर्वो के धारक श्रुतकेवली प्रादि कहते हैं या केवलज्ञानी भी कहते हैं / जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतकेवली भी कहते हैं। 136, इस मत-मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद (विवाद) का प्रतिपादन करते हैं। जैसे कि कुछ मतवादी कहते हैं-"हमने यह देख लिया है, सुन लिया है, मनन कर लिया है, और विशेष रूप से जान भी लिया है, (इतना ही नहीं), ऊँची, नीची और तिरछी सभी दिशाओं में सब तरह से भली-भाँति इसका निरीक्षण भी कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत और सभी सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुँचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है. उन्हें प्राणहीन बनाया जा सकता है / इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि (इस प्रकार से) हिमा में कोई दोष नहीं है।" यह अनार्य (पाप-परायण) लोगों का कथन है।। 137. इस जगा में जो भी प्रार्य—पाप कर्मों से दूर रहने वाले हैं, उन्होंने ऐसा कहा है- "प्रो हिंसावादियो! आपने दोषपूर्ण देखा है, दोषयुक्त सुना है, दोषयुक्त मनन किया है, पापने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण (मत-प्रस्थापन) करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीब और सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है. उन्हें बलात पकड़ कर दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है; इस विषय में यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं।" यह सरासर अनार्य-वचन है। 138. हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते हैं, ऐसा ही प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा ही प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, उन्हें पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, न ही परिताप देना चाहिए और न उन्हें डराना-धमकाना, प्राणरहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोष रहित हैं। यह (अहिंसा का प्रतिपादन) आर्यवचन है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 139. पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो-जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगे-'हे दार्शनिको ! प्रखरवादियों ! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष-विरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किए जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, "जैसे प्रापको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्तिजनक है और महा भयंकर है।" --- ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- इस उद्देशक में प्रास्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए तथा प्रास्रब में पड़े हए लोग कैसे परिस्रव (निर्जरा-धर्म) में प्रवत्ति हो जाते हैं तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर आने पर भी लोग कैसे प्रास्रव में ही फंसे रहते हैं ? आस्रवमग्न जनों को नरकादि में विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है तथा क्रूर अध्यवसाय से ही प्रगाढ़ वेदना होती है, अन्यथा नहीं, इनके लिए विवेक सूत्र प्रस्तुत किये गये हैं। अन्त में हिंसावादियों के मिथ्यावाद-प्ररूपणा का सम्यग्वाद के मण्डन द्वारा निराकरण किया गया है। इस प्रकार अर्हद्दर्शन की सम्यक्ता का स्थापन किया है।' आस्रव का सामान्य अर्थ है-'कायवाड मनः कर्म योगः, स आस्रवः” काया, वचन और मन की शुभाशुभ क्रिया-प्रवृत्ति योग कहलाती है, वही प्रास्रव है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदि में प्रकत्ति अशुभ कायास्रव है और इनसे विपरीत शुभ आशय से की जाने वाली प्रवृत्ति शुभकायास्रव है। कठोर शब्द, गाली, चुगली निन्दा आदि के रूप में पर-बाधक वचनों की प्रवृत्ति वाचिक अशुभ प्रास्रव है, इनसे विपरीत प्रवृत्ति वाचिक शुभात्रव है / / मिथ्याश्र ति, घातचिन्तन, अहितचिन्तन, ईर्ष्या, मात्सर्य, षड्यन्त्र आदि रूप में मन की प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और इनसे विपरीत मानस शुभास्रव है / (1) हिंसा, (2) असत्य, (3) चोरी, (4) मैथुन और (5) परिग्रह-ये पाँच प्रास्रवद्वार माने जाते हैं। प्रास्रव के भेद कुछ प्राचार्यों ने मुख्यतया पाँच माने हैं--(१) मिश्यात्व, (2) अविरति, (3) अमाद, (4) कषाय और (5) योग ! कुछ प्राचार्यों ने (1) इन्द्रिय, (2) कषाय, (3) अव्रत, (4) क्रिया और (5) योग-ये पाँच मुख्य भेद मानकर उत्तर भेद 42 माने हैं-५ इन्द्रिय, 4 कषाय, 5 अवत, 25 क्रिया और 3 योग / किन्तु इन सबका फलितार्थ एक 1 आचा० शीला टीका पत्रांक 164 / 2 तत्वार्थमूत्र अ० 6, सू० 1, 2 / 3 तत्त्वार्थ-राजपातिक अ० 7.14 / 39 / 25 / 4 (क) प्राध्याकरण, प्रयम खण्ड प्रानपद्वार, (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक 164 / 5 (क) समयसार मूल 164, (ख) गोम्मटसार कर्म काण्ड मू० 86, (ग) बृ० द्रव्यसंग्रह मू० 30 / 6 (क) तत्त्वार्थसार 417, (ख) वितत्त्वगाथा / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 129 - प्रास्रव का सर्व सामान्य लक्षण है-आठ प्रकार के शुभाशुभ कर्म जिन मिथ्यात्वादि स्रोतों से आते हैं-प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं, उन स्रोतों को प्रास्रव कहते हैं।' ___ आस्रव और बन्ध के कारणों में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु प्रक्रिया में थोड़ा-सा अन्तर है। कर्मस्कन्धों का प्रागमन आस्रव कहलाता है और कर्मस्कन्धों के आगमन के बाद उन कर्म-स्कन्धों का जीव-(प्रात्म-) प्रदेशों में स्थित हो जाना बन्ध है। प्रास्रव और बन्ध में यही अन्तर है। इस दृष्टि से प्रास्रब को बन्ध का कारण कहा जा सकता है। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में प्रास्त्रवों को कर्मबन्ध के स्थान-कारण बताया गया है / परिस्रव जिन अनुष्ठान विशेषों से कर्म चारों ओर से गल या बह जाता है, उसे परिस्रव कहते हैं / नव तत्त्व की शैली में इसे 'निर्जरा' कह सकते हैं, क्योंकि निर्जरा का यही लक्षण है। इसीलिए यहाँ परिस्रव को 'निर्जरा स्थान, बताया गया है / प्रास्रवों से निवृत्त होने का उपाय 'मूलाचार' में यों बताया गया है-'मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों से जो कर्म पाते हैं वे सम्यग्दर्शन, विरति, क्षमादिभाव और योगनिरोध से नहीं आने पाते, रुक जाते हैं। समयसार में निश्चय दृष्टि से प्रास्रव-निरोध का उपाय बताते हुए कहा है / 5 -- "ज्ञानी विचारता है कि मैं एक हूँ, निश्चयतः सबसे पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण हूँ। इस प्रकार अपने प्रात्मभाव (स्वभाव) में स्थित उसी चैतन्य अनुभव में एकाग्रचित्त-तल्लीन हया मैं इस सब क्रोधादि पासवों का क्षय कर देता हूँ। ये पानव जीव के साथ निबद्ध हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं, इनका फल दुःख ही है, यह जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्त होता है। जैसे-जैसे जीव पानवों से निवृत्त होता जाता है, वैसे-वैसे बह विज्ञानधन स्वभाव होता है, यानी यात्मा ज्ञान में स्थिर होता जाता है / " इसी दृष्टि का संक्षेप कथन यहाँ पर हुया है कि जो प्रास्रव के–कर्मबन्धन के स्थान हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष के लिए परिस्रव-कर्म निर्जरा के स्थान–(कारण) हो जाते हैं। इसका प्राशय यह है कि विषय-सुखमग्न मनुष्यों के लिए जो स्त्री, वस्त्र, अलंकार, शैया आदि वैषयिक सूख के कारणभूत पदार्थ कर्मबन्ध के हेतु होने से प्रान्त्रव हैं, वे ही पदार्थ विषय-सूखों से पराड.मुख साधकों के लिए ग्राध्यात्मिक चिन्तन का प्राधार बन कर परिस्रव-कर्मनिर्जरा के हेतु हैं -- स्थान हैं और अर्हदेव, निर्ग्रन्थ मुनि, चारित्र, तपश्चरण, दशविध धर्म या दशविध समाचारी का पालन अादि जो कर्म-निर्जरा के स्थान हैं. वे ही असम्बुद्ध - अज्ञानी व्यक्तियों के लिए कर्मोदयत्रश, अहंकार आदि अशुभ अध्यवसाय के कारण, ऋद्धि-रस-साता के गर्ववश या अाशातना के कारण ग्रास्रव रूप-कर्मबन्ध स्थान हो जाते हैं। इसी बात को अनेकान्तली से शास्त्रकार बताते हैं जो व्रतविशेषरूप अनास्रव हैं, अशुभ परिणामों के कारण वे अमम्बुद्ध -- अन्नानी व्यक्ति के लिए अपरिस्रव-आस्रवरूप हो 1 आचा. शीला टीका पत्रांक 168 / 2 द्रव्यसंग्रह टीका 33124 / 3 पाना. जीला० टीका पत्रांक 164 / 4 मुत्राचार गा० 241 / 5 ममयसार गा० 76, 74 / 6 आचा० शीला० टीका पत्रांक 164 / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांम सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जाते है, कर्मबन्ध के हेतु बन जाते हैं. उनकी दृष्टि और कर्मों की विषमता के कारण। इसी प्रकार जो अपरिस्रव हैं--प्रास्रवरूप-कर्मबन्ध के कारणरूप-किंवा कर्म से प्रस्त वेश्या, हत्यारे, पापी या नारकीय जीव आदि हैं, वे ही सम्बुद्ध-ज्ञानवान् के लिए अनास्वरूप हो जाते हैं, यानी वे उसके लिए प्रास्रवरूप न बनकर कर्मनिर्जरा के कारण बन जाते हैं / इसीलिए कहा है यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः / तावन्तस्तद्विपर्यासात् निर्वाणसुखहेतवः / / -जिस प्रकार के और जितने संसार-परिभ्रमण के हेतु हैं, उसी प्रकार के और उतने ही निर्वाण-सुख के हेतु हैं। वास्तव में इस सूत्र के आधार पर आस्रव, परिस्रव, अनास्रव और अपरिस्रव को लेकर चतुर्भगी होती है, वह क्रमश: इस प्रकार हैं---- (1) जो आस्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं / (2) जो आस्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं। (3) जो अनास्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं। (4) जो अनास्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं। प्रस्तुत सूत्र में पहले और चौथे भंग का निर्देश है। दूसरा भंग शून्य है / अर्थात् प्रास्रव हो और निर्जरा न हो—ऐसा कभी नहीं होता। तृतीय भंग शैलेशी अवस्था-प्राप्त (निष्प्रकम्पअयोगी) मुनि की अपेक्षा से है, उनको आस्रव नहीं होता; केवल परिस्रव (संचित कर्मों का क्षय) होता है। चतुर्थ भंग मुक्त आत्माओं की अपेक्षा से प्रतिपादित है / उनके प्रास्रव और परिस्रव दोनों ही नहीं होते। वे कर्म के बन्ध्र और कर्मक्षय दोनों से प्रतीत होते हैं। इस सूत्र का निष्कर्ष यह है कि किसी भी वस्तु, घटना, प्रथसि, क्रिया, भावधारा या व्यक्ति के सम्बन्ध में एकांगी दृष्टि से सही निर्णय नहीं दिया जा सकता / एक ही क्रिया को करने वाले दो व्यक्तियों के परिणामों को धारा अलग-अलग होने से एक उससे कर्म-बन्धन कर लेगा, दूसरा उसी क्रिया से कर्म-निर्जरा (क्षय) कर लेगा / प्राचार्य अमितगति ने योगसार (6 / 18) में कहा है अज्ञानी बध्यते यत्र, सेव्यमानेऽक्षगोचरे / ततंव मुच्यते ज्ञानी पश्यतामाश्चर्य मीदृशम् // इन्द्रिय-विषय का सेवन करने पर अज्ञानी जहाँ कर्मबन्धन कर लेता है, ज्ञानी उसी विषय के सेवन करने पर कर्मबन्धन से मुक्त होता है-निर्जरा कर लेता है / इस आश्चर्य को देखिए। 'अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता'-इस सूत्र का प्राशय बहुत गहन है / कई लोग अशुभ आस्रव-पापकर्म में पड़े हुए या विषय-सुखों में लिप्त प्रमत्त लोगों को देखकर यह कह देते है कि "ये क्या धर्माचरण करेंगे, ये क्या पाप कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत होंगे?" 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 165 / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-121 131 शास्त्रकार कहते हैं कि अगर अनेकान्तवादात्मक सापेक्ष दृष्टिकोणमुलक उन आस्रव-परिस्रव के विकल्पों को वे हृदयंगम कर लें तो इस विज्ञान को प्राप्त हों, किसी निमित्त से अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र आदि की तरह आत --राग-द्वेषोदयवश पीड़ित भी हो जाएँ अथवा शालिभद्र, स्थूलिभद्र आदि की तरह विषय-सुखों में प्रमत्त व मग्न भी हों तो भी तथाविध कर्म का क्षयोपशम होने पर धर्म-बोध प्राप्त होते ही जाग्रत होकर कर्मबन्धन के स्थान में धर्म मार्ग अपनाकर कर्म निर्जरा करने लगते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं, यह बात पूर्ण सत्य है, इसलिए आगे कहा गया है.-'अहासच्चमिण ति बेमि' / इस सिद्धान्त ने प्रत्येक प्रात्मा में विकास और कल्याण की असीम-अनन्त सम्भावनाओं का उद्घाटन कर दिया है तथा किसी पापात्मा को देखकर उसके प्रति तुच्छ धारणा न बनाने का भी संकेत दिया है। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ यों किया है-"पा और प्रमत्त मनुष्य धर्म को स्वीकार नहीं करते / / " हमारे विचार में यह अर्थ-संगत नहीं है, क्योंकि सामान्यतः पार्न प्राणी दुःख से मुक्ति पाने के लिए धर्म की शरण ही ग्रहण करता है / फिर यहाँ 'आस्रव-परिस्रव' का अनैकान्तिक दृष्टि-प्रसंग चल रहा है, जब पासव, परिस्रव बन सकता हैं, तो आत और प्रमत्त मनुष्य धर्म को स्वीकार कर शांत और अप्रमत्त क्यों नहीं बन सकता ? उसमें विकास व सुधार की सम्भावना स्वीकार करना ही उक्त वचन का उद्देश्य है-ऐसा हमारा विनम्र अभिमत है। 'एगे वदंति अदुवा वि णाणो'--यह सूत्र परीक्षात्मक है / इसके द्वारा प्रास्रवों से बचने की पूर्वोक्त प्रेरणा की कसौटी की गयी है कि प्रास्रवों के त्याग की बात अन्य दार्शनिक लोग कहते-मानते हैं या ज्ञानी ही कहते-मानते हैं ? इसके उत्तर में आगे के सूत्रों में कुछ विरोधी विचारधारा के दार्शनिकों की मान्यता प्रस्तुत करके उनकी मान्यता क्यों अयथार्थ है ? इसका कारण बताते हुए स्वकीय मत का स्थापन किया गया है। साथ ही हिंसा-त्याग क्यों आवश्यक है ? इसके लिए एक अकाट्य, अनुभवगम्य तर्क प्रस्तुत करके वदतो ब्याघातन्यायेन उन्हीं के उत्तर से उनको निरुत्तर कर दिया गया है / निष्कर्ष यह है कि यहाँ से प्रागे के सभी सूत्र 'अहिंसा धर्म के आचरण के लिए हिंसात्याग की आवश्यकता' के सिद्धान्त की परीक्षा को लेकर प्रस्तुत किये गये हैं। एक दृष्टि से देखा जाय तो हिसारूप प्रास्रव के त्याग की आवश्यकता का सिद्धान्त स्थापित करकेस्थालीपुलाकन्याय से शेष सभी प्रासवों (असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह अादि) के त्याग की आवश्यकता ध्वनित कर दी गयी है। 'नत्थेत्थ दोसो०'- इस सूत्र के द्वारा सांख्य, मीमांसक, चार्वाक, वैशेषिक, वौद्ध आदि अन्य मतवादियों के हिंसा सम्बन्धी मन्तव्य में भिन्नवाक्यता, सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा का अस्वीकार, प्रात्मा के अस्तित्व का निषेध आदि दुषण ध्वनित किए गए हैं। हिंसा में कोई 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 166 / 1. योगसार 6 / 18 / 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 168 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 आवारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध दोष नहीं है-- इसे अनार्यवचन कहकर शास्त्रकार ने युक्ति से उनकी अनार्यवचनता सिद्ध की है। जैसे रोहगुप्त मन्त्री ने राजसभा में विभिन्न तीथि कों की धर्मपरीक्षा हेतु उन्हीं की उक्ति से उनको दूषित सिद्ध किया था और 'सकुण्डलं वा वयण न पति'- इस गाथा की पादपूर्ति क्षुल्लक मुनि द्वारा करवा कर अई धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की थी, वैसे ही धर्म-परीक्षा के लिए करना चाहिए / नियुक्ति में इसका विस्तृत वर्णन है / ' // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक सम्यक तप : दुःख एवं कर्मक्षय-विधि 140. उबेहेणं बहिया य लोकं / से सवलोकसि जे केइ विण्ण / अणुवियि पास णिखित्तदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयंति / णरा मुतच्चा धम्मविदु त्ति अंजू आरंभजं दुक्खमिणं ति बच्चा। एवमाहु सम्मत्तदंसिणो। ते सव्वे पावादिया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इति कम्मं परिणाय सव्वसो। 141. इह आणाकंखी पंडिते अणिहे एगमप्पाणं सपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं / जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति एवं अत्तसमाहिते अणिहे / 142. विगिच कोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं सपेहाए। दुक्खं च जाण अदुवाऽऽगमेस्सं / पुढो फासाइं च फासे / लोयं च पास विष्फंदमाणं / जे णिव्वुडा पार्वेहि कम्मेहि अणिदाणा ते वियाहिता / तम्हाऽतिविज्जो णो पडिसंजलेज्जासि ति बेमि। ॥तइओ उद्देसओ समत्तो // 140. इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख (बाह्य) जो (दार्शनिक) लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में जो कोई विद्वान् है, उनमें अग्रणी विज्ञ (विद्वान्) है। तू अनुचिन्तन करके देख-जिन्होंने (प्राणि१. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 228, 229, 230, 231, (ख) उत्तरा० अ० 25642-43 वृत्ति (ग) आचा० शीला० पत्रांक 169-170 / 2. 'अणुवियि', 'अगुवाई', 'अणुवितिय', 'अणुचितिय', 'अणुविय' ग्रादि पाठान्तर मिलते हैं / 3. 'सरीर' के स्थान पर सरीरगं' शब्द मिलता है। 4. 'पमथति' का अर्थ चणि में है --- "भिसं मंथेति"- (अत्यन्त मथन करती है-जला देती है)। 5. चूणि में 'विष्कंदमाण' के स्थान पर 'विफुडमाण' शब्द है / 6. 'तम्हाऽतिविज्जो' के स्थान पर .म्हा तिविज्जा' पाठ भी मिलता है। चूणि में पठित 'तम्हा ति विज्ज' पाठ अधिक युक्तिसंगत लगता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 चतुर्थ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 140-142 विघातकारी) दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान् होते हैं / ) जो . सत्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक विशेषज्ञ होते है, वे ही कर्म (पलित) का क्षय करते हैं / ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते हैं, अतएव वे सरल (ऋजु--कुटिलता रहित) होते हैं, (साथ ही वे) शरीर के प्रति अनासक्त या कषायरूपी अर्चा को विनष्ट किये हुए (मृतार्च) होते हैं, अथवा शरीर के प्रति भी अनासक्त होते हैं। ___ इस दुःख को प्रारम्भ (हिंसा) से उत्पन्न हुया जानकर (समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिए )-ऐसा समत्वदशियों ( सम्यक्त्वदर्शियों या समस्तदर्शियोंसर्वज्ञों ने कहा है। वे सब प्रावादिक (यथार्थ प्रवक्ता सर्वज्ञ) होते हैं, वे दुःख (दुःख के कारण कर्मो) को जानने में कुशल होते हैं। इसलिए वे कर्मों को सब प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं। 141. यहाँ (अर्हत्प्रवचन में) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित (शरीर एवं कर्मादि के प्रति) अनासक्त (स्नेहरहित) होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर (कर्मशरीर) को प्रकम्पित कर डाले / (तपश्चरण द्वारा) अपने कषाय-प्रात्मा (शरीर) को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्माकर्म शरीर को (तप, ध्यान रूपी अग्नि से) शीघ्र जला डालता है / 142. यह मनुष्य-जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा (गहराई से निरीक्षण) करता इमा साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे। (क्रोधादि से) वर्तमान में अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों को जाने / क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न नरकादि स्थानों में विभिन्न दुःखों (दुःख-स्पशों) का अनुभव करता है / प्राणिलोक को (दुःख प्रतीकार के लिए) इधर-उधर भाग-दौड़ करते (विस्पन्दित होते) देख ! जो पुरुष (हिंसा, विषय-कषायादि जनित) पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे अनिदान (बन्ध के मूल कारणों से मुक्त) कहे गये हैं। इसलिए हे अतिविद्वान् ! (त्रिविद्य साधक : ) तू (विषय-कषाय की अग्नि से) प्रज्वलित मत हो। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस उद्देशक में दुःखों और उनके कारणभूत कर्मों को जानने तथा उनका त्याग करने के लिए बाह्य ग्राभ्यन्तर सम्यक् तप का निर्देश किया गया है। आगे के सूत्रों में सम्यक् तप की विधि बताई है। शरीर या कर्मशरीर--कषायात्मा को प्रकम्पित, कृश या जीर्ण करने का निर्देश सम्यक् तप का ही विधान है। 'उवेहेणं-इस पद में जो अहिंसादि धर्म से विमुख हैं, उनकी उपेक्षा करने का तात्पर्य है - उनके विधि-विधानों को, उनकी रीति-नीति को मत मान, उनके सम्पर्क में मत प्रा, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध उनको प्रतिष्ठा मत दे, उनके धर्मविरुद्ध उपदेश को यथार्थ मत मान, उनके आडम्बरों और लच्छेदार भाषणों से प्रभावित मत हो, उनके कथन को अनार्यवचन समझ / ' से सम्वलोकसि जे केइ विष्णू-यहाँ सर्वलोक से तात्पर्य समस्त दार्शनिक जगत् से है। जो व्यक्ति धर्म-विरुद्ध हिंसादि की प्ररूपणा करते हैं, उनके विचारों से जो भ्रान्त नहीं होता, वह अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से चिन्तन-मनन करता है, हेय-उपादेय का विवेक करता है, सारे संसार के प्राणियों के दुःख का आत्मौपम्यदृष्टि से विचार करता है, उसे समस्त दार्शनिक जगत् में श्रेष्ठ विद्वान कहा गया है / ___मन, वचन और काया से प्राणियों का विधात करने वाली प्रवृत्ति को 'दण्ड' कहा है। यहाँ दण्ड हिंसा का पर्यायवाची है / हिंसायुक्त प्रवृत्ति भाव-दण्ड है / 3 'मुतच्चा' शब्द का संस्कृत रूप होता है--मृतार्चाः। 'अर्चा' शब्द यहाँ दो अर्थों में प्रयुक्त है--शरीर और क्रोध (तेज)। इसलिए 'मृतार्चा' का अर्थ हुआ (1) जिसकी देह अर्चा/साजसज्जा, संस्कार-शुश्र षा के प्रति मृतवत् है-जो शरीर के प्रति अत्यन्त उदासीन या अनासक्त है। (2) क्रोध तेज से युक्त होता है, इसलिए क्रोध को अर्चा अग्नि कहा गया है। उपलक्षण से समस्त कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिए / अतः जिसकी कषायरूप अर्चा मृत--विनष्ट हो गई है, वह भी 'मृतार्च' कहलाता है। ___'सम्मत्तदसिणो'-इस शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनते हैं-'समत्वदशितः' 'सम्यक्त्वदशिनः, और 'समस्तदशिनः / ये तीनों ही अर्थ घटित होते हैं / सर्वज्ञ अर्हदेव की प्राणिमात्र पर समत्वदृष्टि होती ही है, वे प्राणिमात्र को प्रात्मवत् जानते-देखते है, इसलिए 'समत्वदर्शी' होते हैं / इसी प्रकार वे प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, विचारधारा, घटना आदि के तह में पहुँचकर उसकी सचाई (सम्यक्ता) को यथावस्थित रूप से जानते-देखते हैं, इसलिए वे 'सम्यक्त्वदर्शी' हैं और 'समस्तदर्शी' (सर्वज्ञ-सर्वदर्शी) भी हैं। ___ 'इति कम्मं परिणाय सध्वसो'- का तात्पर्य है, कर्मों से सर्वथा मुक्त एवं सर्वज्ञ होने के कारण वे कर्म-विदारण करने में कुशल वीतराग तीर्थकर कर्मों का ज्ञान करा कर, उन्हें सर्वथा छोड़ने का उपदेश देते हैं। आशय यह है कि वे कर्ममुक्ति में कुशल पुरुष कर्म का लक्षण, उसका उपादान कारण, कर्म की मूल-उत्तर प्रकृतियाँ, विभिन्न कमों के बन्ध के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के रूप में बन्ध के प्रकार, कर्मों, के उदयस्थान, विभिन्न कर्मों की उदीरणा, सत्ता और स्थिति, कर्मवन्ध के तोड़ने-कर्ममुक्त होने के उपाय आदि सभी प्रकार से कर्म का परिज्ञान करते हैं और कर्म से मुक्त होने को प्रेरणा करते हैं 6 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 2. प्राचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 3. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 4. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 5. प्राचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 6. आचा. शीला. टीका पत्रांक 172 / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 140-141 'आणाकखी पंडिते अणिहे'- यहाँ वृत्तिकार ने 'आणाकखी' का अर्थ किया है-'आज्ञाकांक्षी'सर्वज्ञ के उपदेश के अनुसार अनुष्ठान करने वाला।' किन्तु आज्ञा की आकांक्षा नहीं होती, उसका तो पालन या अनुसरण होता है, जैसा कि स्वयं टीकाकार ने भी प्राशय प्रकट किया है। हमारी दृष्टि से यहाँ 'अणाकखा' शब्द होना अधिक संगत है, जिसका अर्थ होगा-'अनाकांक्षी'निस्पृह, किसी से कुछ भी अपेक्षा या आकांक्षा न रखने वाला / ऐसा व्यक्ति ही शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव (परिवार आदि) एवं निर्जीव धन, वस्त्र, आभूषण, मकान आदि के प्रति अस्निह-स्नेहरहित-निर्मोही या राग रहित हो सकेगा। अत: 'अनाकांक्षी' पद स्वीकार कर लेने पर 'अस्निह' या 'अनोह' पद के साथ संगति बैठ सकती है। ___ आगमकार की भावना के अनुसार उस व्यक्ति को पण्डित कहा जा सकता है, जो शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान में निपुण हो। 'एगमप्पाणं सपेहाए'- इस वाक्य की चूर्णिकार ने एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्व-अनुप्रक्षापरक व्याख्याएँ की हैं / एकाकी आत्मा की संप्रक्षा (अनुप्रेक्षा) इस प्रकार करनी चाहिए एक: प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् / जायते म्रियते चेक एको याति भवान्तरम् // 1 // सदेकोऽहं, न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् / न तं पश्यामि यस्याऽहं, नासौ भावीति यो मम // 2 // संसार एवाऽयमनर्थसारः, कः कस्य, कोत्र स्वजनः परो वा / सर्वे भ्रमन्ति स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा, न भवन्ति भूयः // 3 // विचिन्त्यमेतद् भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् / स्वकर्मभिधान्तिरियं ममंव, अहं पुरस्तावहमेव पश्चात् // 4 // ----आत्मा अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मान्तर में जाता है। --मैं सदैव अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं ऐसा नहीं देखता कि जिसका मैं अपने आपको बता सक, न ही उसे भी देखता हूँ, जो मेरा हो सके / 2 / --इस संसार में अनर्थ की ही प्रधानता है। यहाँ कौन किसका है ? कौन स्वजन या पर-जन है ? ये सभी स्वजन और पर-जन तो संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए किसी समय (जन्म में) स्वजन और फिर पर-जन हो जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब न कोई स्वजन रहता है, न कोई पर-जन / 3 / --आप यह चिन्तन कीजिए कि मैं अकेला हूँ। पहले भी मेरा कोई न था और पीछे भी मेरा कोई नहीं है / अपने कर्मों (मोहनीयादि) के कारण मुझे दूसरों को अपना मानने की भ्रान्ति हो रही है। वास्तव में पहले भी मैं अकेला था, अब भी अकेला हूँ और पीछे भी मैं अकेला ही रहूँगा।४।२ 1 आचा. शीला. टीका पत्रांक 173 / 3. प्राचारांग वृत्ति एवं नियुक्ति पत्रांक 173 / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 आचारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध सामायिक पाठ' और आवश्यक सूत्र' आदि में इस सम्बन्ध में काफी प्रकाश डाला गया है। 'कसेहि अप्पाणं' -वाक्य में 'आत्मा' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है- 'परव्यतिरिक्त आत्माशरीर'-दूसरों से अतिरिक्त अपना शरीर / यहाँ ध्यान, तपस्या एवं धर्माचरण के समय उपस्थित हुए उपसर्गों, कष्टों और परिषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए कर्मशरीर को कृश, जीर्ण एवं दग्ध करने हेतु जीर्ण काष्ठ और अग्नि की उपमा दी है। किन्तु साथ ही उसके लिए साधक से दो प्रकार की योग्यता की अपेक्षा भी की गयी है-(१) आत्मसमाधि एवं (2) अस्निहता-अनासक्ति की। इसलिए इस प्रकरण में 'आत्मा' से अर्थ है-कषायात्मारूप कर्मशरीर से। इसी सूत्र के 'धुणे सरीरं' वाक्य से इसी अर्थ का समर्थन मिलता है। अतः कर्मशरीर को कृश, प्रकम्पित एवं जीर्ण करना यहाँ विवक्षित प्रतीत होता है। इस स्थूल शरीर की कृशता यहाँ गौण है / तपस्या के साथ-साथ आत्मसमाधि और अनासक्ति रखते हुए यदि यह (शरीर) भी कृश हो जाय तो कोई बात नहीं। इसके लिए निशीथभाष्य की यह गाथा देखनो चाहिए ___"इंदियाणि कसाए में गारवे य किसे कुरु / णो वयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं / "-3758 -एक साधु ने लम्बे उपवास करके शरीर को कृश कर डाला / परन्तु उसका अहंकार, क्रोध आदि कृश नहीं हुआ था। वह जगह-जगह अपने तप का प्रदर्शन और बखान किया करता था / एक अनुभवी मुनि ने उसकी यह प्रवृत्ति देखकर कहा-हे साधु ! तुम इन्द्रियों, विषयों, कषायों और गौरव-अहंकार को कृश करो! इस शरीर को कृश कर डाला तो क्या हुअा ? कृश शरीर के कारण तुम प्रशंसा के योग्य नहीं हो। _ विगिच कोहं अविकपमाले'- इसका तात्पर्य यह है कि क्रोध आने पर मनुष्य का हृदय, मस्तिष्क व शरीर कम्पायमान हो जाता है, इसलिए अन्तर में क्रुद्ध-कम्पायमान व्यक्ति क्रोध 1. आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में भी इसी एकत्वभाव की सम्युष्टि की है--- एक: सदा शाश्वतिको ममाऽत्मा, विनिर्मल: साधिगम-स्वभावः / बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्पता: कर्मभवाः स्वकीयाः // 26 // -ज्ञान स्वभाव वाला शुद्ध और शाश्वत अकेला आत्मा ही मेरा है, दूसरे समस्त पदार्थ प्रात्मबाह्य है, वे शाश्वत नहीं हैं। वे सब कर्मोदय से प्राप्त होने से अपने कहे जाते हैं, वस्तुत: वे अपने नहीं हैं, बाह्यभाव हैं। 2. आवश्यक सूत्र में संस्तार-पौरुषी में एकत्वभावना-मूलक ये गाथाएँ पढ़ी जाती हैं एगोडा नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्म कस्सह / एवं अदीणमणसो अप्पाणमांसासइ // 11 // एगो मे सासओ अप्पा, नाणदसणस जओ। सेसा मे बाहिरा भावा सवे संजोगलक्खणा // 12 // 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 173 / 4. आचा युकिा शा० 234 / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 142 137 को नहीं छोड़ सकता / वह तो एकदम कम्पायमान हुए बिना ही दूर किया जा सकता है। इससे पूर्व सूत्र में 'अस्निह' पद से रागनिवृत्ति का विधान किया था, अब यहाँ क्रोध-त्याग का निर्देश करके द्वषनिवृत्ति का विधान किया गया है। 'दुक्खं च जाणविष्फंदमाण'-इन वाक्यों में क्रोध से होने वाले वर्तमान और भविष्य के दुःखों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़ने की प्रेरणा दी गयी है। क्रोध से भविष्य में विभिन्न नरकभूमियों में होने वाले तथा सर्पादि योनियों में होने वाले दुःखों का दिग्दर्शन भी कराया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि क्रोधादि के परिणामस्वरूप केवल अपनी आत्मा ही दु:खों का अनुभव नहीं करती, अपितु सारा संसार क्रोधादिवश शारीरिक-मानसिक दुःखों से आक्रान्त होकर उनके निवारण के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है, इसे तू विवेक-चक्षुओं से देख ! विष्फवमाण' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-"अस्वतन्त्र रूप से इधर-उधर दुःखप्रतीकार के लिए दौड़ते हुए।"२ 'जे णिवुडा पावेहि कम्मेहि अणिदाणा'—यह लक्षण उपशान्तकषाय साधक का है / 'निव्वुडा' का अर्थ है-तीर्थंकरों के उपदेश से जिनका अन्तःकरण वासित है, विषय-कषाय की अग्नि के उपशम से जो निवृत्त हैं-शान्त हैं, शीतीभूत हैं। पापकर्मों से अनिदान का अर्थ है-पाप कर्मबन्ध के निदान-(मूल कारण रागद्वेष) से रहित / 3 // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक सम्यक्चारित्र : साधना के संदर्भ में 143. आवोलए पवीलए णिप्पीलए जहित्ता पुश्वसंजोगं हिच्चा उवसमं / तम्हा अविमणे वोरे सारए समिए सहिते सदा जते / दुरणुचरो' मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 173 / आचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 5. चूणि में इसके स्थान पर 'इहेच्चा उसम' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ वहां किया गया है.---''इहेति इह प्रवचने, एउचा आगतु इस प्रवचन (वीतराग दर्शन) में (उपशम) प्राप्त करने के लिए। 5. दुरणुचरो ......' आदि वाक्य का अर्थ चूणि में इस प्रकार है.---'केण दुरणुचरो ? जे ण अणिय गामी / " अर्थात् (मह) मार्ग किसके लिए दुरनुचर है ? जो अनिवृत्तगामी (मोक्षगामी = मोक्षपथगामी) नहीं हैं / "वीरा तव-णियम-संजमेसु ण विसीतंति अणियट्टकामी।"-अर्थात् अनिवृत्त (मोक्ष) कामी पीर तप, नियम और संयम से कभी घबराते नहीं। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विगिच मंस-सोणितं। एस पुरिसे दविए वीरे आयाणिज्जे विवाहिते जे धुणाति समुस्सयं वसित्ता संभचेरंसि / 144. णेत्तेहि पलिछिण्णेहि आयाणसोतगढिते बाले अस्वोच्छिण्णबंधणे अणभिक्कंत संजोए। उतमंसि अविजाणओ आणाए लंभो पत्थि सि बेमि / 145. जस्स पत्थि पुरे पच्छा मजो तस्स कुओ सिया ? / से हु पन्नाणमंते बुद्ध आरंभोवरए / सम्ममेतं ति पासहा। जेण बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं / पलिछिदिय बाहिरगं च सोतं णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहि / कम्मुणा सफलं वटुंततो णिज्जाति वेदवी। 146. जे खलु भो वोरा समिता सहिता सदा जता संथडदंसिणो आतोवरता अहा तहा लोग उयेहमाणा पाईगं पडोणं दाहिणं उदीणं इति सच्चंसि परिविचिठिसु / साहिस्सामो णाणं बोराण समिताणं सहिताणं सदा जताणं संथउदंसोणं आतोवरताणं अहा तहा लोगमुवे हमाणाणं। किमस्थि उवाही पासगस्स, ण विज्जति ? गयि त्ति बेमि / ॥चउत्थो उद्देसओ समतो॥ 143. मुनि पूर्व-संयोग (गृहस्थपक्षीय पूर्व-संयोग या अनादिकालीन असंयम के साथ रहे हुए पूर्व सम्बन्ध) का त्यागकर उपशम (कषायों और इन्द्रिय-विषयों का उपशमन) करके (शरीर-कर्मशरीर का) पापीडन करे, फिर प्रपीडन करे और तब निष्पीडन करे। (लप तथा संयम में पीडा होती है) इसलिए मुनि सदा अविमना (–विषयों के प्रति रति, भय, शोक से मुक्त), प्रसन्नमना, स्वारत (-तप-संयमादि में रत), 1. इसके स्थान पर 'आताणिज्जे,' 'आयाणिए,' 'आवाणिओ', आताणिओ'--ये पद कहीं-कहीं मिलते हैं। . 2. 'णेत हि पलिछिणेहि...' का अर्थ चणि में यों किया गया है.--"णयंतीति ताणि चक्खुमादीणि / " जेसि संजतत्त' बव्वणेताणि छिण्णाति आसी, जं भणितं जिताणि, त एव केयि परीसहोदया भावणेसोहि छिन्णेहि, कि ? ससोतेहि मुच्छिता जाव अज्झोक्वग्णा / " नेव-चक्षु आदि हैं। जिस संयमी के द्रव्यनेत्र नष्ट हो गए फिर भी इन्द्रियां जीत लीं, वे ही साधक परिषह के उदय होने पर भाव नेत्रों के सोत (राग-द्वेष रहितता) नष्ट होने पर आसक्त ---विषय-मूच्छित हो जाते हैं। 3. इसके स्थान पर 'तमस्त अवियाणतो...' पाठ है। चूर्णि में अर्थ किया गया है-' ....."एवं तस्स अवियाणतो तत्थ अवाया भवति......' अर्थात् मोहान्धकार के कारण आत्महित न जानने के कारण अनेक अपाय (आपत्तियां) उपस्थित होते हैं। 4. चूणि में पाठ यों है-'एतं च सम्मं पासहा' / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 चतुर्थ अध्ययन : चतुर्थ उदेशक : सूत्र 143-146 (पंच समितियों से-) समित, (ज्ञानादि से-) सहित, (कर्मविदारण में-) वीर होकर (इन्द्रिय और मन का) संयमन करे / अप्रमत्त होकर जीवन-पर्यन्त संयम-साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी (मोक्षार्थी) मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर (चलने में अति कठिन) होता है। (संयम और मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले शरीर का) मांस और रक्त (विकट तपश्चरण द्वारा) कम कर / ___ यह (उक्त विकट तपस्वी) पुरुष संयमी, रागद्वष का विजेता होने से पराकमी और दूसरों के लिए अनुकरणीय आदर्श तथा मुक्तिगमन के योग्य (द्रव्यभूत) होता है / वह ब्रह्मचर्य में (स्थित) रहकर शरीर या कर्मशरीर को (तपश्चरण प्रादि) से) धुन डालता है। 144. नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियन्त्रण-संयम का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः (मोहादि उदयवश) कर्म के स्रोत-इन्द्रियविषयादि (आदान स्रोतों) में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म-जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, (शरीर तथा परिवार आदि के-) संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह-अन्धकार में निमग्न वह बालअज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को (या विषयासक्ति के दोषों को) नहीं जान पाता / ऐसे साधक को (तीर्थंकरों को) आज्ञा (उपदेश) का लाभ नहीं प्राप्त होता। ऐसा मैं कहता हूँ। 145. जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का--) पूर्व-संस्कार नहीं है. और पश्चात् (भविष्य) का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा? (जिसकी भोगाकांक्षाएँ शान्त हो गई है) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। (भोगाकांक्षा से निवृत्ति होने पर ही सावद्य प्रारम्भ--हिंसादि से निवृत्ति होती है) यह सम्यक् (सत्य) है, ऐसा तुम देखो----सोचो / (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर परिताप और दारुण दुःख पाता है। (अतः) पापकों के बाह्य (-परिग्रह आदि) एवं अन्तरंग (-राग, द्वेष, मोह आदि) स्रोतों को बन्द करके इस संसार में मरणधर्मा प्राणियों के बीच तुम निष्कर्मदर्शी (कर्ममुक्त-अमृतदर्शी) बन जायो। कर्म अपना फल अवश्य देते हैं, यह देखकर ज्ञानी पुरुष उनसे (कर्मों के बन्ध, संचय या प्रास्रव से) अवश्य ही निवृत्त हो जाता है। 146. हे पार्यो ! जो साधक वीर हैं, पांच समितियों से समित-सम्पन्न हैं, ज्ञानादि से सहित हैं, सदा संयत हैं, सतत शुभाशुभदर्शी (प्रतिपल जागरूक) हैं, (पाप Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 आचारांग सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध कर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर--सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चुके हैं, उन वीर समित, सहित, सदा यतनाशील, शुभाशुभदर्शी, स्वयं उपरत, लोक के यथार्थ द्रष्टा, ज्ञानियों के सम्यग् ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे। (ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि (कर्मजनित नर-नारक आदि विशेषण) होती है या नहीं होती? नहीं होती। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस उद्देशक में सम्यक्चारित्र की साधना के सन्दर्भ में प्रात्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बद्ध बाह्य पदार्थों के संयोगों, मोहबन्धनों, आसक्तियों, रागद्वेषों एवं उनसे होने वाले कर्मबन्धों का त्याग करने की प्रेरणा दी गयी है / 'आवोलए पवीलए णिप्पीलए'—ये तीन शब्द मुनि-जीवन की साधना के क्रम को सूचित करते हैं / आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन, ये क्रमशः मुनि-जीवन की साधना की तीन भूमिकाएँ हैं। ___ मुनि-जीवन की प्राथमिक तैयारी के लिए दो बातें अनिवार्य हैं, जो इस सूत्र में सूचित की गई हैं . 'जहित्ता पुटवसांजोग, हिच्चा उवसम'--(१) मुनि-जीवन को अंगीकार करने से पूर्व के धनधान्य, जमीन-जायदाद, कुटुम्ब-परिवार आदि के साथ बंये हुए ममत्व-सम्बन्धों-संयोगों का त्याग एवं (2) इन्द्रिय और मन (विकारों) की उपशान्ति / . प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद मुनि साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है—प्रथम भूमिका दीक्षित होने से लेकर शास्त्राध्ययन काल तक की है / उसमें वह संयमरक्षा एवं शास्त्राध्ययन के हेतु आवश्यक तप (आयंबिल-उपवास यादि) करता है / यह 'पापीडन' है। उसके पश्चात् दूसरी भूमिका अाती है-शिष्यों या लघु मुनियों के अध्यापन एवं धर्म प्रचार-प्रसार की। इस दौरान वह संयम की उत्कृष्ट साधना और दीर्घ तप करता है / यह 'प्रपीडन' है। इसके बाद तीसरी भूमिका आती है शरीरत्याग की / जब मुनि प्रात्म-कल्याण के साथ--कल्याण की साधना काफी कर चुकता है और शरीर भी जीर्ण-शीर्ण एवं वृद्ध हो जाता है, तब वह समाधिमरण की तैयारी में संलग्न हो जाता है। उस समय दीर्घकालीन (मासिक-पाक्षिक आदि) बाह्य और पाभ्यन्तर तप, कायोत्सर्ग, उत्कृष्ट त्याग आदि की साधना करता है / यह निष्पीडन' है। साधना की इन तीनों भूमिकामों में बाह्य-ग्राभ्यन्तर तप एवं शरीर तथा आत्मा का भेद-विज्ञान करके तदनुरूप स्थूल शरीर के अापीडन, प्रपीडन और निष्पीडन की प्रेरणा दी गयी है।' 1. पायारो (मुनि नथमलजी) पृ. 171 / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 143-146 141 - यह तपश्चरण कर्मक्षय के लिए होता है, इसलिए कर्म था कार्मणशरीर का पीडन भी यहाँ अभीष्ट है। वृत्तिकार ने गुणस्थान से भी इन तीनों भूमिकाओं का सम्बन्ध बताया है / अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में कर्मों का आपीडन हो, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिबादर गुणस्थानों में प्रपीडन हो / तथा सूक्ष्म-सम्पराय-गुणस्थान में निष्पीडन हो / अथवा उपशमश्रेणी में प्रापीडन, क्षपकश्रेणी में प्रपीडन एवं शैलेशी अवस्था में निष्पीडन हो।' * विगिच मंस-सोणितं-कहकर ब्रह्मचर्य साधक को मांस-शोणित घटाने का निर्देश दिया गया है। क्योंकि मांस-शोणित की वृद्धि से काम-वासना प्रबल होती है, उससे ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्न आने की सम्भावना बढ़ जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसी आशय को स्पष्टता के साथ कहा गया है 'जहा दवग्गि परिधणे वर्ण, समारओ नोक्सम उवेइ / एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई 1-32111 -जैसे प्रबल पवन के साथ प्रचुर इन्धन वाले वन में लगा दावानल शांत नहीं होता, इसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि (वासना) शांत नहीं होती। ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है / प्रकाम (रसयुक्त यथेच्छ भोजन) से मांस-शोणित बढ़ता है। शरीर में जब मांस और रक्त का उपचय नहीं होगा तो इसके बिना क्रमशः मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य का भी उपचय नहीं होगा। इस अवस्था में सहज ही प्रापीडन आदि की साधना हो जाती है। वसित्ता बभचेरसि'--ब्रह्मचर्य में निवास करने का तात्पर्य भी गहन है। ब्रह्मचर्य के चार अर्थ फलित होते हैं--(१) ब्रह्म (आत्मा या परमात्मा) में विचरण करना, (2) मैथुनविरति या सर्वेन्द्रिय-संयम और (3) गुरुकुलवास तथा (4) सदाचार / / यहाँ ब्रह्मचर्य के ये सभी अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु दो अर्थ अधिक संगत प्रतीत होते हैं-(१) सदाचार तथा (2) गुरुकुलवास / 'वसिता' शब्द 'गुरुकुल निवास' अर्थ को सूचित करता है। किन्तु यहाँ सम्यक-चारित्र का प्रसंग है। ब्रह्मचर्य चारित्र का एक मुख्य अंग है / इस दृष्टि से 'ब्रह्मचर्य' में रहकर अर्थ भी घटित हो सकता है / 2 'आयाणसोतगढिते'-इसका शब्दशः अर्थ होता है-'आदान के स्रोतों में गृद्ध' / 'पादान' का अर्थ कर्म है, जो कि संसार का बीजभूत होता है। उसके स्रोत (पाने के द्वार)-इन्द्रियविषय, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन आदान-स्रोतों में रात-दिन रचे-पचे रहने वाले अज्ञानी का अन्तःकरण राग, द्वेष और महामोहरूप अन्धकार से प्रावृत्त रहता है, उसे अर्हद्देव के प्रवचनों का लाभ नहीं मिल पाता, न उसे धर्मश्रवण में रुचि जागती है, न उसे 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 175 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 175 / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कोई अच्छा कार्य या धर्माचरण करने की सूझती है / ' इसीलिए कहा है-'आनाए लमो गत्यि'प्राज्ञा का लाभ नहीं मिलता। __ आज्ञा के यहाँ दो अर्थ सूचित किये गये हैं-श्रुतज्ञान और तीर्थकर-वचन या उपदेश / भान या उपदेश का सार प्रास्रवों से विरति और संयम या आचार में प्रवृत्ति है। उसी से कर्मनिर्जरा या कर्ममुक्ति हो सकती है। प्राज्ञा का अर्थ वृत्तिकार ने बोधि या सम्यक्त्व भी किया है। 'वस्त त्यि पुरे पच्छा ...'.---इस पंक्ति में एक खास विषय का संकेत है। 'गस्थि' शब्द इसमें त्रैकालिक विषय से सम्बद्ध अव्यय है। इस वाक्य का एक अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है-जिसकी भोगेच्छा के पूर्व संस्कार नष्ट हो चुके हैं, तब भला बीच में, वर्तमान काल में वह भोगेच्छा कहाँ से आ टपकेगी? 'भूलं नास्ति कुतः शाखा'–भोगेच्छा का मूल ही नहीं है, तब वह फलेगी कैसी? साधना के द्वारा भोगेच्छा की प्रात्यन्तिक एवं त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है, तब न अतीत का संस्कार रहता है, न भविष्य की वाच्छा/कल्पना, ऐसी स्थिति में तो उसका चिन्तन भी कैसे हो सकता है ? 3 इसका एक अन्य भावार्थ यह भी है-"जिसे पूर्वकाल में बोधि-लाभ नहीं हुआ, उसे भावी जन्म में कैसे होगा ? और अतीत एवं भविष्य में बोधि-लाभ का अभाव हो, वहाँ मध्य (बीच) के जन्म में बोधि-लाभ कैसे हो सकेगा ? "णिवकम्मदंसी' का तात्पर्य निष्कर्म को देखने वाला है। निष्कर्म के पाँच अर्थ इसी सूत्र में यत्र-तत्र मिलते हैं-(१) मोक्ष, (2) संवर, (3) कर्मरहित शुद्ध प्रात्मा, (4) अमृत और (5) शाश्वत / मोक्ष, अमृत और शाश्वत-ये तीनों प्रायः समानार्थक हैं। कर्मरहित आत्मा स्वयं अमृत रूप बन जाती है और संवर मोक्षप्राप्ति का एक अनन्य साधन है। जिसकी समस्त इन्द्रियों का प्रवाह विषयों या सांसारिक पदार्थों की ओर से हट कर मोक्ष या अमृत की ओर उन्मुख हो जाता है, वही निष्कर्मदर्शी होता है।। 'साहिस्सामो गाण....'- इन पदों का अर्थ भी समझ लेना आवश्यक है। वृत्तिकार तो इन शब्दों का इतना अर्थ करके छोड़ देते हैं--- "सत्यवतां यज्ज्ञान-योऽभिप्रायस्तवहं कथयिष्यामि / ' त्रिकालवर्ती सत्यशियों का जो ज्ञान/अभिप्राय है, उसे मैं कहंगा। परन्तु 'साधिध्यामः' का एक विशिष्ट अर्थ यह भी हो सकता है उस ज्ञान को साधना करूगा, अपने जीवन में रमाऊँगा, उतारूंगा, उसे कार्यान्वित करूंगा। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / // सम्यक्त्व: चतुर्थ अध्ययन समाप्त // 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 176 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 175 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 177 / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसार-पञ्चम अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र का पंचम अध्ययन है-'लोकसार' / * 'लोक' शब्द विभिन्न दृष्टियों से अनेक अर्थों का द्योतक है / जैसे-नामलोक ~~ 'लोक इस संज्ञा वाली कोई भी सजीव या निर्जीव वस्तु / स्यापनालोक-चतुर्दशरज परिमित लोक की स्थापना (नक्शे में खींचा हुआ लोक का चित्र)। द्रव्यलोक-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप षड्विध / भावलोक-प्रौदयिकादि षड्भावात्मक या सर्वद्रव्य–पर्यायात्मक लोक या क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय-लोक / गृहस्थ लोक प्रादि भी 'लोक' शब्द से व्यवहृत होते हैं। * यहाँ 'लोक' शब्द मुख्यतः प्राणि-लोक (संसार) के अर्थ में प्रयुक्त है।' र 'सार' शब्द के भी विभिन्न दृष्टियों से अनेक अर्थ होते हैं—निष्कर्ष, निचोड़, तत्व, सर्वस्त्र, ठोस, प्रकर्ष, सार्थक, सारभूत आदि / J सांसारिक भोग-परायण भौतिक लोगों की दृष्टि में धन, काम-भोग, भोग-साधन, शरीर, जीवन, भौतिक उपलब्धियाँ प्रादि सारभूत मानी जाती हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में ये सब पदार्थ सारहीन हैं, क्षणिक हैं, नाशवान् हैं, आत्मा को पराधीन बनाने वाले हैं, और अन्ततः दुःखदायी हैं / इसलिए इनमें कोई सार नहीं है। VE अध्यात्म की दृष्टि में मोक्ष (परम पद), परमात्मपद, आत्मा (शुद्ध निर्मल ज्ञानादि स्वरूप), मोक्ष प्राप्ति के साधन-धर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, (अहिंसादि), तप, संयम, समत्व आदि सारभूत हैं। S. नियुक्तिकार ने लोक के सार के सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर समाधान किया है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण-मोक्ष है। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 178 / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 178 / 3. लोगस्ससारं धम्मो, मंपि य नाणसारियं शिति / नाणसंजमसारं, संजमसारंच निख्वाण // 244 / -आचा० नियुक्ति प्राचा• ठीका में उद्धृत Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध * लोकसार अध्ययन का अर्थ हुआ-समस्त जीव लोक के सारभूत मोक्षादि के सम्बन्ध में चिन्तन और कथन / / * लोकसार अध्ययन का उद्देश्य है--साधक लोक के सारभूत परमपद (परमात्मा, प्रात्मा और मोक्ष) के सम्बन्ध में प्रेरणा प्राप्त करे और मोक्ष से विपरीत प्रास्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, असंयम, अज्ञान और मिथ्यादर्शन आदि का स्वरूप तथा इनके परिणामों को भलीभाँति जानकर इनका त्याग करे / - इस अध्ययन का वैकल्पिक नाम 'वंती' भी प्रसिद्ध है। इसका कारण यह है कि इस अध्ययन के उद्देशक 1, 2, 3 का प्रारम्भ 'आवती' पद से ही हुआ है, अत: प्रथम पद के कारण इसका नाम 'पावंती' भी प्रसिद्ध हो गया है। Vs लोकसार अध्ययन के 6 उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में भावलोक के सारभूत तत्त्व को केन्द्र में रखकर कथन किया गया है। 1. प्रथम उद्देशक में मोक्ष के विपरीत पुरुषार्थ, काम और उसके मूल कारणों (अज्ञान, मोह, राग-द्वेष, प्रासक्ति, माया आदि) तथा उनके निवारणोपाय के सम्बन्ध में निरूपण है / . दूसरे उद्देशक में अप्रमाद और परिग्रह-त्याग की प्रेरणा है। Ne, तीसरे उद्देशक में मुनिधर्म के सन्दर्भ में अपरिग्रह और काम-विरक्ति का संदेश है। th चौथे उद्देशक में अपरिपक्व साधु की एकचर्या से होने वाली हानियों का, एवं अन्य चर्यानों में कर्मबन्ध और उसका विवेक तथा ब्रह्मचर्य आदि का प्रतिपादन है।। V. पांचवे उद्देशक में प्राचार्य महिमा, सत्यश्रद्धा, सम्यक्-असम्यक्-विवेक, अहिंसा और प्रात्मा के स्वरूप का वर्णन है। HA छठे उद्देशक में मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि के परित्याग का तथा प्राज्ञा निर्देश एवं परमात्मा के स्वरूप का निरूपण है। te. यह अध्ययन सूत्र संख्वा 147 से प्रारम्भ होकर सूत्र 176 पर समाप्त होता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'लोगसारो' अथवा 'आवंती' पञ्चमं अज्झयणं पढमो उद्देसओ . .. लोकसार (आवंसी) : पंचम अध्ययन : प्रपम उदेशक काम : कारण और निवारण 147. आवंती' केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए वा एतेसुधेव विप्परामुसंति। गुरू से कामा / ततो से मारस्स अंतो / जतो से मारस्स अंतो ततो से दूरे। . . 147. इस लोक (जीव-लोक) में जितने भी (जो भी) कोई मनुष्य सप्रयोजन (किसी कारण से) या निष्प्रयोजन (बिना कारण) जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों (षड्जीवनिकायों) में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। उनके लिए शब्दादि काम (विपुल विषयेच्छा) का त्याग करना बहुत कठिन होता है। इसलिए (षड्जीवनिकाय-वध तथा विशाल काम-भोगेच्छात्रों के कारण वह) मृत्यु की पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है। विवेचन-इस उद्देशक में पंचेन्द्रिय विषयक काम-भोगों और उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले हिंसादि पाप-कर्मों की, तथा ऐसे मूढ़ अज्ञानी के जीवन की भी निःसारता बताकर अज्ञान एवं मोह से होने वाले पापकर्मों से दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। विषय-कषायों से प्रेरित होकर एकाकी विचरण करने वाले साधक की अज्ञानदशा का भी विशद निरूपण किया गया है। _ 'विप्परामुसंति' क्रियापद है, यह प्रस्तुत सूत्र-पाठ में दो बार प्रयुक्त हुना है। 'वि+ परामृश' दोनों से 'विपरामृशंति' क्रियापद बना है / पहली बार इसका अर्थ किया गया है-जो विविध प्रकार से विषयाभिलाषा या कषायोत्त जना के वश (षड्जीवनिकायों को) परामृशउपताप करते हैं, डंडे या चाबुक या अन्य प्रकार से मारपीट आदि करके जीवघात करते हैं। दूसरी बार जहाँ यह क्रियापद पाया है, वहाँ प्रसंगवश अर्थ किया गया है-उन एकेन्द्रियादि प्राणियों का अनेक प्रकार से विधात करने वाले, उन्हें पीडा देकर पुनः उन्हीं 1. चूणि में भदन्त नागार्जुनीय पाठ इस प्रकार है-''जावंति केयि लोए छक्कायं समारंभति" शीलांक टीकानुसार नागार्जुनीय पाठ इस प्रकार है-जान्ति केइ लोए छक्यायवहं समारंभांति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य षड् जीवनिकायों में अनेक बार उत्पन्न होते हैं। अथवा षड़जीवनिकाय को दी गयी पीड़ा से उपार्जित कर्मों को, उन्हीं कायों (योनियों) में उत्पन्न होकर उन-उन प्रकारों से उदय में आने पर भोगते हैं-अनुभव करते हैं / __ 'अट्ठाए अणटवाए' - 'अर्थ' का भाव यहाँ पर प्रयोजन या कारण है / हिंसा (जीवविघात) के तीन प्रयोजन होते हैं—काम, अर्थ और धर्म / विषय-भोगों के साधनों को प्राप्त करने के लिए जहाँ दूसरों का वध या उत्पीड़न किया जाता है, वहां कामार्थक हिंसा है, जहाँ व्यापार-धन्धे, कल-कारखाने या कृषि आदि के लिए हिंसा की जाती है, वहाँ वह अर्थार्थक है और जहाँ दूसरे धर्म-सम्प्रदाय वालों को मारा-पीटा या सताया जाता है, उन पर अन्यायअत्याचार किया जाता है या धर्म के नाम से या धर्म निमित्त पशुबलि आदि दी जाती है, वहाँ धर्मार्थक हिंसा है। ये तीनों प्रकार की हिंसाएँ अर्थवान् और शेष हिंसा अनर्थक कहलाती हैं, जैसे-मनोरंजन, शरीरबल-वृद्धि प्रादि करने हेतु निर्दोष प्राणियों का शिकार किया जाता है, मनुष्यों को भूखे शेर के आगे छोड़ा जाता है, मुर्गे, सांड़, भैसे आदि परस्पर लड़ाए जाते हैं। ये सब हिंसाएँ निरर्थक हैं ! चूर्णिकार ने कहा है- 'आत-पर उभयहेतु अहा, सेस अणद्वाए'-अपने, दूसरे के या दोनों के प्रयोजन सिद्ध करने हेतु की जाने वाली हिंसा-प्रवृत्ति अर्थवान् और निष्प्रयोजन की जाने वाली निरर्थक या अनर्थक कहलाती है।' 'गुरू से कामा' का रहस्य यह है कि अज्ञानी की कामेच्छाएँ इतनी दुस्त्याज्य होती हैं कि उन्हें अतिक्रमण करना सहज नहीं होता, अल्पसत्व व्यक्ति तो काम की पहली ही मार में फिसल जाता है, काम की विशाल सेना से मुकाबला करना उसके वश की बात नहीं। इसलिए अज्ञजन के लिए कामों को 'गुरु' कहा गया है / 'जतो से मारस्स अंतो' इस पंक्ति का भावार्थ यह भी है कि सुखार्थी जन काम-भोगों का परित्याग नहीं कर सकता, अत: काम-भोगों के परित्याग के विना वह मृत्यु की पकड़ के भीतर होता है और चूकि मृत्यु की पकड़ के अन्दर होने से वह जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से घिरा रहता है, अतः वह सुख से सैकड़ों कोस दूर हो जाता है। 148. व से अंतो व से दुरे / से पासति फुसितमिव कुसग्गे पषुण्ण णिवतितं वातेरितं / एवं बालस्स जीवितं मंदस्य अविजाणतो। कुराणि कम्माणि बाले पकुम्बमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति, मोहेण गम्भं मरणाइ एति / एत्य मोहे पुणो पुणो। 148. वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा (पकड़) में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है। 1. आचा० शीला• टीका पत्रांक 179, प्राचा० नियुक्ति / 2. ग्राचा० शीला०टीका पत्रांक 180 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 180 / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 148 वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारम्बार दूसरे जलकण पड़ने से) अस्थिर और वायु के झोंके से प्रेरित (प्रकम्पित) होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता-देखता है। बाल (अज्ञानी), मन्द (मन्द बुद्धि) का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (मोहवश) (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता। (इसी प्रज्ञान के कारण) वह बाल-अज्ञानी (कामना के वश हुप्रा) हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ (दुःख को उत्पन्न करता है।) तथा उसी दुःख से मूढ़ उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा (सुख के स्थान पर दुःख) को प्राप्त होता है / उस मोह (मिथ्यात्व-कषाय-विषय-कामना) से (उद्भ्रान्त होकर कर्मबन्धन करता है, जिसके फलस्वरूप) बार-बार गर्भ में प्राता है, जन्म-मरणादि पाता है। . इस (जन्म-मरण की परम्परा) में (मिथ्यात्वादि के कारण) उसे बारम्बार मोह (व्याकुलता) उत्पन्न होता है / विवेचन--'लेव से अंतो सेव से दूरे'–पद में कामनात्यागी के लिए कहा गया है-'वह मोक्ष से तो दूर नहीं है और मृत्यु की सीमा के अन्दर नहीं है अर्थात् वह जीवन्मुक्त स्थिति इस पद का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। एक नय के अनुसार वह कामनात्यागी सम्यक दृष्टि पुरुष ग्रन्थि-भेद हो जाने के कारण अब कर्मों की सुदीर्घ सीमा में भी नहीं रहा और देशोनकोटा-कोटी कर्मस्थिति रहने के कारण कर्मों से दूर भी नहीं रहा। दूसरे नय के अनुसार यह पद केवलज्ञानी के लिए है। चार घाति-कर्मों का क्षय हो जाने से न तो वह संसार के भीतर है और भवोपग्राही चार अघातिकर्मों के शेष रहने के कारण न वह संसार से दूर है / तीसरे नय के अनुसार इसका अर्थ है-जो साधक श्रमणवेश लेकर विषय-सामग्री को छोड़ देता है, किन्तु अन्त:करण से कामना का त्याग नहीं कर पाता, वह अन्तरंग रूप में साधना के निकट सीमा में नहीं है, और बाह्य रूप में साधना से दूर भी नहीं है, क्योंकि साधक के वेश में जो है। इस सूत्र में अज्ञानी की मोह-मूढ़ता का चित्रण करते हुए उसके तीन विशेषण दिये हैं (1) बाल, (2) मन्द और (3) अविजान / बालक (शिशु) में यथार्थ ज्ञान नहीं होता, उसी तरह वह भी अस्थिर व क्षण-भगुर जीवन को अजर-अमर मानता है, यह उसकी ज्ञानशून्यता ही उसका बचपन (बालत्व) है। सदसद्विवेक बुद्धि का अभाव होने से वह 'मन्द' है। तथा परम अर्थ-मोक्ष का ज्ञान नहीं होने से वह 'अविजान' है। इसी अज्ञानदशा के कारण वह सुख के लिए क्रूर कर्म करता है, बदले में दुःख पाता है, बार-बार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता रहता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध संसारस्वरूप-परिज्ञान 149. संसयं परिजाणतो संसारे परिणाते भवति, संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिग्णाते भवति / जे' छेये से सागारियं ग सेवे / कट्ट एवं अविजाणतो बितिया मंदस्स बालिया। लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणयाए ति बेमि / पासह एगे रूवेसु गिद्ध परिणिज्जमाणे / एत्थ कासे पुणो पुणो। 149. जिसे संशय (मोक्ष और संसार के विषय में संदेह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जान पाता। जो कुशल (मोह के परिणाम या संसार के कारण को जानने में निपुण) है, वह मैथुन सेवन नहीं करता। जो ऐसा (गुप्तरूप से मैथुन का सेवन) करके (गुरु प्रादि के पूछने पर) उसे छिपाता है-अनजान बनता है, यह उस मूर्ख (काममूढ़) की दूसरी मूर्खता (अज्ञानता) है / उपलब्ध काम-भोगों का (उनके उपभोग के कटु-परिणामों का) पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी काम-भोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन (सेवन न करने) की आज्ञा-उपदेश दे, ऐसा मैं कहता हूँ। हे साधको ! विविध काम-भोगों (इन्द्रिय-विषयों) में गद्ध-आसक्त जीवों को देखो, जो नरक-तिर्यच आदि यातना-स्थानों में पच रहे हैं--उन्हीं विषयों से खिचे जा रहे हैं। (वे इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत प्राणी) इस संसार-प्रवाह में (कर्मों के फलस्वरूप) उन्हीं स्थानों का बारम्बार स्पर्श करते हैं, (उन्हीं स्थानों में पुनः-पुन: जन्मतेमरते हैं)। 1. (क) 'जे छेये से सागारियं...' के बदले ‘से सागारिय ग सेवए' पाठ है। अर्थ होता है-'वह (साधक) अब्रह्मचर्य (मैथुन)-सेवन न करे।' (ख) नागार्जुनीय पाठान्तर इस प्रकार है-जे खलु विसए सेवति, सेवित्ता नालोएति, परेण वा पुट्ठो णिण्हवति, अहया तं परं सएण वा दोसेण पाविठ्ठसरएण वा (दोसेण) उलिपिज्जा।"---- "जो विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना नहीं करता, दूसरे द्वारा पूछे जाने पर छिपाता है, अथवा उस दूसरे व्यक्ति को अपने दोष से या इससे भी बढ़कर पापिष्ठ दोष से लिप्त करता है।" 2. 'अविजाणतो' के बदले चूणि में 'अवयाणतो' पाठ है। 'अव परिवर्जने अवयाणति जं भणितं व्हवति'; 'अव' परिवर्जन अर्थ में है, अर्थात् मैं नहीं जानता, इस प्रकार पूछने पर इन्कार कर देता है. या पूछने पर अवज्ञा कर देता है। वृत्तिकार ने अर्थ किया है- अकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा। उस अकार्य का अपलाप (गोपन) करता हुमाया न बताता हुआ"। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उदेशक : सूत्र 142-150 141 विवेचन-इस सूत्र में संशय को परिज्ञान का कारण बताया है। इसका प्राशय यह है कि संशय यहाँ शंका के अर्थ में है। जब तक किसी पदार्थ के विषय में संशय-जिज्ञासा नहीं होती, तब तक उसके सम्बन्ध में ज्ञान के नये-नये उन्मेष खुलते नहीं है / जिज्ञासा-मूलक संशय मनुष्य के ज्ञान की अभिवृद्धि करने में बहुत बड़ा कारण है। भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गणधर गौतम स्वामी मन में जिज्ञासा-मूलक संशय उठते ही भगवान् के पास समाधान के लिए सविनय उपस्थित होते हैं। भगवती सूत्र में ऐसे जिज्ञासा मूलक छत्तीस हजार संशयों का समाधान अंकित है / इतनी बड़ी ज्ञानराशि संशयों के निमित्त से प्राप्त हो सकी। न संशयमनारुह्या नरो महानि पश्यति'--'संशय का आश्रय लिए बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन नहीं कर पाता'यह नीति सूत्र जिज्ञासा-प्रधान संशय का समर्थन करता है। पश्चिमी दर्शनकार दर्शन का प्रारम्भ भी आश्चर्य के प्रति जिज्ञासा से मानते हैं। संसार जन्म-मरण के चक्र का नाम है, वह सुखकर है या दुःखकर ? ऐसी संशयात्मक जिज्ञासा पैदा होगी तभी ज्ञपरिज्ञा से संसार की असारता का यथार्थ परिज्ञान (दर्शन) होगा, तभी प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उससे निवृत्ति होगी। जिसे संसार के प्रति संशयात्मक जिज्ञासा न होगी, उसे संसार की असारता का ज्ञान नहीं होगा, फलतः संसार से उसकी निवृत्ति नहीं होगी।' वितिया मंदस बालया' - इस पद में बताया है कि साधक की पहली मूढ़ता यह है कि उसने गुप्तरूप से मैथुन-सेवन किया, उस पर दूसरी मूढ़ता यह है कि वह उसे छिपाता है, गुरु प्रादि द्वारा पूछने पर बताता नहीं है। इस सम्बन्ध में नागार्जुनीय वाचना में अधिक स्पष्ट पाठ है-"जे खलु विसए सेवई, सेवित्ता वा गालोएई, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएग वा दोसेन पाविठ्ठयरेण बोसेग उव-लिपिज्जति ।"-अर्थात् जो साधक विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना गुरु आदि के समक्ष नहीं करता, दूसरे (ज्येष्ठ साधु) के पूछने पर छिता है, अथवा उस दूसरे को अपने उस दोष में या पापिष्ठकर दोष में लपेटता है," यह दोहरा दोष-सेवन है--एक अब्रह्मचर्य का, दूसरा असत्य का। इस सूत्र का संकेत है कि प्रमाद या अज्ञानवश भूल हो जाने पर उसे सरलतापूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा करने से दोष की शुद्धि हो जाती है। यदि दोष को छिपाने का प्रयत्न किया जाता है तो वह दोष पर दोषदोहरा पाप करता है / आरम-कवाय-पद 150. आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी एतेसु चेव आरंभजीवी / एत्थ विबाले परिपच्चमाणे रमति पावेहि कम्मेहि असरणं सरणं ति मण्णमाणे / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 181 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 182 में उद्धृत / 3. इसके बदले चूमि में 'पतिप्पमाणे' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ होता है-(विषय-पिपासा से) संतप्त =छटपटाता हुआ। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध - 151. इहमेगेसि एगचरिया भवति / से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए' बहुलोमे बहुरते. महगडे बहसढे बहसंकप्पे मासषसक्की पलिओछपणे उठितवावं पक्षमागे, 'मा मे केइ अदक्खु' मण्माण-पमावदोसेणं / सततं मूढे षम्म गाभिजाणति / अट्टा पया मागव' ! कम्मकोविया, मेमणबरता अविन्जाए पलिमोक्खमाहु, आवटें अणुपरियति त्ति बेमि / पढमो उद्देसओ समतो॥ 150. इस लोक में जितने भी मनुष्य प्रारम्भ जीवी (हिंसादि पापकर्म करके जीते) हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों-काम की कामनाओं के कारण आरम्भजीवी हैं / अज्ञानी साधक इस संयमी (साधु) जीवन में भी विषय-पिपासा से छटपटाता हुआ (कामाग्नि प्रदीप्त होने के कारण) अशरण (सावद्य प्रवृत्ति) को ही शरण मानकर पापकर्मों में रमण करता है। 151. इस संसार के कुछ साधक (विषय-कषाय के कारण) अकेले विचरण करते हैं। यदि वह साधक अत्यन्त क्रोधी है, अतीव अभिमानी है, अत्यन्त मायी (कपटी) है, अति लोभी है, भोगों में प्रत्यासक्त है, नट की तरह बहुरूपिया है, अनेक प्रकार की शठता-प्रवंचना करता है, अनेक प्रकार के संकल्प करता है, हिंसादि आस्रवों में आसक्त रहता है, कर्मरूपी पलीते से लिपटा हुआ (कर्मों में लिप्त) है, 'मैं भी साघु हूँ, धर्माचरण के लिए उद्यत हुअा हूँ, इस प्रकार से उत्थितवाद बोलता (डींगें 1. 'बहुमाए' के बदले चूर्णि में पाठ है--'बहुमायो', अर्थ किया गया है- कल्कतपसा च बहुमायो मिथ्या या दम्भपूर्ण तपस्या के कारण अत्यन्त कपटी, दम्भी या ढोंगी। 2. 'बहुरते' का अर्थ चणि में किया गया है 'बहुरतो उचिणाति कम्मरयं'--बहुत से पाप कर्म रूप रज का संचय करता है।" शीलांकाचार्य ने अर्थ किया है-बहुरजाः बहुपापो, बहुषु वाऽऽरम्भादिषु रतो बहरतः / प्रति-बहत पाप करने वाला, जो बहत-से प्रारम्भादि पापों में रत रहता है, वह बहुरत है। 3. 'मासवसक्को' का अर्थ चूणि में यों है—आसवेसु विसु (स) तो आसव (स) की / पासव पान करके अधिकतर सोया रहता है, या आश्रवों में आसक्त रहता है। 'अहवा आसवे अणसंचरसि'--या आस्रवों में ही विचरण करता है। 'पलिओछष्णे' में 'पलिअ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-"प्रलीयते भव येन यच्च भूत्वा प्रलोयते, प्रलीयमुच्यते कर्म भृशं लीनं यदात्मनि'--जिससे जीव संसार में विशेष लीन होता हैं; जो उत्पन्न होकर लीन हो जाता है, उसे प्रलीय कहते हैं, वह है कर्म, जो आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। 5. 'मणुयवच्चा माणवा तेसि आमंत्रणं' --जो मनुज (मनुष्य) के अपत्य हैं, वे मानव हैं, यहाँ नानव शब्द का सम्बोधन में बहुवचन का रूप है / / 6. चूणि में 'कम्मअकोविता पाठ है, अर्थ है--कहं कम्म बज्झति मुच्चति वा कर्म कोषिद (कर्म-पंडित उसे कहते हैं, जो यह भलीभांति जानता है कि कर्म कैसे बंधते हैं, कैसे छूटते हैं ?' Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उदेसक : सूत्र 150-151 हाँकता) है, 'मुझे कोई देख न ले' इस आशंका से छिप-छिपकर अनाचार-कुकृत्व करता है, (तो समझ लो) वह यह सब अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बना हुया (करता है), वह मोहमूढ़ धर्म को नहीं जानता (धर्म-अधर्म का विवेक नहीं कर पाता)। हे मानव ! जो लोग प्रजा (विषय-कषायों) से प्रार्त-पीड़ित हैं, कर्मबन्धन करने में ही चतुर हैं, जो पाश्रवों (हिंसादि) से विरत नहीं हैं, जो अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे (जन्म-मरणादि रूप) संसार के भंवर-जाल में बराबर चक्कर काटते रहते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–सूत्र 151 में एकाकी विचरण करने वाले अज्ञानी साधक के विषय में कहा है। 'एगचरिया'-साधक के लिए एकचर्या दो प्रकार की है-प्रशस्त और अप्रशस्त / इम दोनों प्रकार की एकचर्या के भी दो भेद हैं-द्रव्य-एकचर्या और भाव-एकचर्या / द्रव्यत: प्रशस्त एकचर्या तब होती है, जब प्रतिमाधारी, जिनकल्पी या संघादि के किसी महत्त्वपूर्ण कार्य या साधना के लिए एकाकी विचरण स्वीकार किया जाए। वह द्रव्यतः प्रशस्त एकचर्या होती है। जिस एकचर्या के पीछे विषय-लोलुपता हो, अतिस्वार्थ हो, दूसरों से पूजा-प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने का लोभ हो, कषायों की उत्तेजना हो, दूसरों की सेवा न करनी पड़े, दूसरों को अपने किसी दोष या अनाचार का पता न लग जाए-इन कारणों से एकाकी विचरण स्वीकार करना अप्रशस्त-एकचर्या है। यहाँ पर अप्रशस्त एकचर्या के दोषों का विशद उद्घाटन हुआ है। भाव से एकचर्या तभी हो सकती है, जब राग-द्वष न रहे। यह अप्रशस्त नहीं होती। अतः भाव से, प्रशस्त एकचर्या ही होती है और यह तीर्थंकरों आदि को होती है। प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य से अप्रशस्त एकचर्या करने वाले की गलत रीति-नीति का निरूपण किया है / प्रशस्त एकचर्या अपनाने वाले में ऐसे दोष-दुगुणों का न होना अत्यन्त आवश्यक है।' अप्रशस्त एकचर्या अपनाने वाला साधक अज्ञान और प्रमाद से ग्रस्त रहता है / अज्ञान दर्शनमोहनीय का और प्रमाद चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का सूचक है।' ___ 'उत्थितवाद' पद के द्वारा एकचर्या करने वालों की उन मिथ्या उक्तियों का निरसन किया है जो यदा-कदा वे करते हैं जैसे--''मैं इसलिए एकाकी विहार करता हूँ कि अन्य साधु शिथिलाचारी हैं, मैं उन पाचारी हूँ, मैं उनके साथ कैसे रह सकता हूँ ? आदि' / सूत्रकार का कथन है कि इस प्रकार को प्रात्म-प्रशंसा सिर्फ उसका वागजाल है। इस 'उत्थितवाद' को--स्वयं को संयम में उत्थित बताने की मायापूर्ण उक्ति मात्र समझना चाहिए / ___ मोक्ष के दो साधन सूत्रकृतांग सूत्र में बताये गये हैं 3-विद्या (ज्ञान) और चारित्र / 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 182 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 182 / 3. आहंसु विज्जा चरण पमोक्खो-सूत्रकृतांग श्रु० 1, अ० 12 गा० 11 / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अविद्या मोक्ष का कारण नहीं है / चूर्णिकार 'मविनाए' के स्थान पर 'विजाए' पाठ मानकर इसका अर्थ करते हैं-जैसे मंत्रों से विष का नाश हो जाता है (उतर जाता है), वैसे ही विद्या (देवी के मंत्र) से या (कोरे ज्ञान से) कोई-कोई परिमोक्ष (सर्वथा मुक्ति) चाहते हैं, जैसे सांख्य / विद्या-तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष होता है, यह सांख्यों का मत है / जैसा कि सांख्य कहते हैं--- पंचविशतितस्वनो यत्रकुत्राश्रमे रतः। अटी मुंडी शिखी वाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः / / -25 तत्त्वों का जानकार किसी भी आश्रम में रत हो, अवश्य मुक्त हो जाता है, चाहे वह जटाधारी हो, मुण्डित हो या शिखाधारी हो। मोक्ष से विपरीत संसार है / अविद्या संसार का कारण है / अतः नो दार्शनिक अविद्या को विद्या मानकर मोक्ष का कारण बताते हैं, वे संसार के भंवरजाल में बार-बार पर्यटन करते रहते हैं, उनके संसार का अन्त नहीं पाता। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अप्रमाद का पथ 152. आवंती केआवंती लोगंसि अणारंभजीवी, एतेसु' चेव अणारंभजीवी। एत्योवरते तं झोसमाणे अयं संधी ति अदक्खु, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति अन्नेसी। एस मग्गे आरिएहि पवेदिते / उठिते जो पमादए जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं पुढो छंदा' इह माणवा / पुढो दुक्खं पवेदितं / से अविहिंसमाणे अणवयमाणे पुट्ठो फासे विपणोल्लए। एस समियापरियाए विवाहिते। 1. 'एतेसु चेव अणारंजीवी' के बदले चूणि में पाठ है-'एतेसु चेव छक्काएसु'–इन्हीं षड़ जीव निकायों में...."। शीलांकाचार्य अर्थ करते हैं-'तेष्वेव गृहिषु' अर्थात् --उन्हीं गृहस्थों में / ' 2. 'अन्नेसी' के बदले 'मण्णेसी' 'मन्नेसी' पाठ है, जिसका अर्थ है- मानते हैं / 3. 'पुढो छंदा इह माणवा' के बदले 'पुढो छंदाणं माणवाण' पाठ है- अलग-अलग स्वच्छन्द मानवों 4. 'से अविहिंसमाणे...' इत्यादि पाठ का अर्थ चूणि में मिलता है- "अणारंभजीविणा तयो अधिट्ट्यप्वो, जत्थ उवदेसो पुढो (पुट्ठो) फासे / अहवा जति तं घिरतं परीसहा फुसिज्जा तत्थ सुतं-पुट्ठो फासे विपणोल्लए / पुट्ठो पत्तो।" इसका अर्थ है-अनारम्भजीवी को तपश्चर्या का अनुष्ठान करना चाहिए / जिस साधक के हृदय में भगवदुपदेश स्पर्श कर गया है यह परीषहों का स्पर्श होने पर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 152-153 153 153. जे असत्ता पाहि कम्मेहि उदाहु ते आतंका' फुसंति / इति उदाहु धीरे / ते कासे पुट्ठोऽधियासते। से पुग्वं पेतं पच्छा पेतं मेउरषम्म विद्धसणषम्मं अघुवं अणितियं असासतं बयोवचइयं विप्परिणामषम्म / पासह एवं रूवसंधि / समुपेहमाणस्स एगायतणरतस्स इह विप्पमुक्कस्स पत्थि मग्गे विरयस्स सि बेमि / 152. इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी (अहिंसा के पूर्ण आराधक) हैं, वे (इन सावद्य-पारम्भ-प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीवी (विषयों से निलिप्त-अप्रमत्त रहते हए जीते) हैं। ___ इस सावद्य-प्रारम्भ से उपरत अथवा पाहत्शासन में स्थित अप्रमत्त मुनि 'यह सन्धि (उत्तम अवसर या कर्मविवर-आस्रव) हैं--ऐसा देखकर उसे (कर्मविवरप्रास्त्रव को) क्षीण करता हुआ (क्षण भर भी प्रमाद न करे)। __ 'इस औदारिक शरीर (विग्रह) का यह वर्तमान क्षण है', इस प्रकार जो क्षणान्वेषी (एक-एक क्षण का अन्वेषण करता है एवं प्रत्येक क्षण का महत्त्व समझता है) है; (वह सदा अप्रमत्त रहता है)। यह (अप्रमाद का) मार्ग प्रार्यों (तीर्थंकरों) ने बताया है। (साधक मोक्ष की साधना के लिए) उत्थित होकर प्रमाद न करे / प्रत्येक का दुःख और सुख (अपना-अपना स्वतन्त्र होता है) (अर्थात् दु:खसुख के अंतरंग कारण कर्म सबके अपने-अपने होते हैं) यह जानकर प्रमाद न करे / इस जगत में मनुष्य पृथक्-पृथक् विभिन्न अध्यवसाय (अभिप्राय या संकल्प) वाले होते हैं, (इसलिए) उनका दुःख (या दुःख का अन्तरंग कारण कर्म) भी (नाना प्रकार का) पृथक्-पृथक होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। विविध प्रकार से समभाव से सहन करे। यदि उस विरत साधु को परीषहों का स्पर्श हो तो यह सूत्र वहाँ उपयुक्त है-पुढो फासे विप्प० / 5. 'अनवयमाणे' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-'अबदमाणे मुसाबाई' जो मृषावाद (झूठ) नहीं बोलता। 6. 'समियापरियाए वियाहिते' के बदले चूणि में 'समिताए परियाए वियाहिते' पाठ स्वीकार करके अर्थ किया गया है-'समगमणं समिया परिगमणं परियाए, विषिह आहिते वियाहिते-सम-मन है समिता, परिगमन है-पर्याय, विविध प्रकार से आहित व्याहित होता है। 1. 'आतका' के बदले चूणि में 'रोगातका' पाठ है / अर्थ होता है-रोगरूप उपद्रव / 2. इसके स्थान पर 'वीरो' या 'धीरों' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ चूणि में किया गया है-"वी (धी) रो तित्थगरी अण्णतरो वा आयरियविसेसो।"-'वी (धी) र का अर्थ है-तीर्थकर या कोई आचार्य विशेष / 3. इसकी चणि में व्याख्या की गई है---"इट्ठाहारतो चिज्जति, तदभावा अवचिज्जति, प्रतो चयोबचइयं,” अर्थात्-अभीष्ट आहार से च्य होता है, उसके प्रभाव में अपचय होता है, इसलिए कहा--'चयोवघाइयं / ' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वह (अनारम्भजीवी) साधक किसी भी जीव हिंसा न करता हुआ, वस्तु के स्वरूप को अन्यथा न कहे (मृषावाद न बोले) / (यदि) परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श हो तो उनसे होने वाले दुःखस्पर्शों को विविध उपायों (संसार की असारता की भावना आदि) से प्रेरित होकर समभावपूर्वक सहन करे / ऐसा (अहिंसक और सहिष्णु) साधक शमिता या समता का पारगामी, ( उत्तम चारित्र-सम्पन्न ) कहलाता है। 153. जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं हैं, कदाचित् उन्हें अातंक (शीघ्रघाती व्याधि, मरणान्तक पीड़ा आदि) स्पर्श करें-पीड़ित करें, ऐसे प्रसंग पर धोर (वीर) तीर्थकर महावीर ने कहा कि 'उन दुःखस्पर्शों को (समभावपूर्वक) सहन करें।' ___ यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे (एक न एक दिन) अवश्य छूट जाएगा। इस रूप-सन्धि--देह के स्वरूप को देखो, छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना, का स्वभाव है। यह अध्रव है, अनित्य है, प्रशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय (बढ़-घट) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है। जो (अनित्यता प्रादि स्वभाव से युक्त इस शरीर के स्वरूप को और इस शरीर को मोक्ष-लाभ के अवसर सन्धि के रूप में देखता है), आत्म-रमण रूप एक प्रायतन में लीन है, (शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों को-) मोह ममता से मुक्त है; उस हिंसादि से विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-- इस उद्देशक के पूर्वाद्ध में अप्रमाद क्यों, क्या और कैसे ? इस पर कुछ सूत्रों में सून्दर प्रकाश डाला गया है। इसके उत्तरार्द्ध में प्रमाद के एक अन्यतम कारण परिग्रहवृत्ति के त्याग पर प्रेरणादायक सूत्र अंकित है / अप्रमाद के पथ पर चलने के लिए एक सजग प्रहरी को भाँति सचेष्ट और सतर्क रहना पड़ता है। खासतौर से उसे शरीर पर-स्थूल शरीर पर ही नहीं, सूक्ष्म कार्मण शरीर पर—विशेष देखभाल रखनो पड़ती है। इसकी हर गतिविधि की बारीकी से जांच-परख कर प्रागे बढ़ना होता है। अगर अष्टविध' प्रमाद में से कोई भी प्रमाद जरा भी भीतर में घुस आया तो वह आत्मा को गति-प्रगति को रोक देगा, इसलिए प्रमाद के मो) (संधि) पर बराबर निगरानी रखनी चाहिए / जैसे-जैसे साधक अप्रमत्त होकर स्थूल शरीर की क्रियाओं और उनसे मन पर होने वाले प्रभावों को देखने का अभ्यास करता जाता है, वैसे-वैसे कार्मण शरीर की गतिविधि को देखने की शक्ति भी आती जाती है। शरीर के सूक्ष्म दर्शन का इस तरह दृढ़ अभ्यास होने पर अप्रमाद की गति बढ़ती है और शरीर से प्रवाहित होने वाली 1. प्रमाद के पाँच, छह तथा पाठ भेद हैं। (क) 1 मद्य, 2 विषय, 3 कषाय, 4 निद्रा, 5 विकथा। (उत्त० नि० 180) (ख) 1 मद्य, 2 निद्रा, 3 विषय, 4 कषाय, 5 छ त, 6 प्रतिलेखन (स्था० 6). 1) 1 अज्ञान, 2 संशय, 3 मिथ्याज्ञान, 4 राग, 5 द्वेष, 6 स्मृतिभ्रश, 7 धर्म में अनादर, 8 योग-दुष्प्रणिधान (प्रव० द्वार २०७)-देखें, अभि० राजे० भाग 5, पृ० 480 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 152-153 155 चैतन्य-धारा की उपलब्धि होने लगती है। इसीलिए यहाँ कहा गया है— "एस मग्गे आरिएहि पवेदिते।" आरम्भ और अनारम्भ : साधु-जीवन में-साधु गृहस्थाश्रम के बाह्य प्रारम्भों से बिलकुल दूर रहता है, परन्तु साधना-जीवन में उसको दैनिकचर्या के दौरान कई प्रारम्भ प्रमादवश हो जाते हैं / उसी प्रमाद को यहाँ प्रारम्भ कहा गया है "आदाणे निक्लेवे भासुस्सग्गे अ गण-गमणाई / सम्वो पमत्तजोगो समणस्सऽकि होइ आरंभो // ' -अपने धर्मोपकरणों या संयम-सहायक साधनों को उठाने-रखने, बोलने, बैठने, गमन करने, भिक्षादि द्वारा अाहार का ग्रहण एवं सेवन करने एवं मल-मूत्रादि का उत्सर्ग करने आदि में श्रमण का भी मन-वचन-काया से समस्त प्रमत्त योग प्रारम्भ है / ' प्राशय यह है कि गृहस्थ जहाँ सावध कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, वहाँ साधु निरवद्य कार्यों में ही प्रवृत्त होते हैं / प्रारम्भजीवी गृहस्थ का भिक्षा, स्थान आदि के रूप में सहयोग प्राप्त करके भी, उनके बीच रहकर भी वे प्रारम्भ में लिप्त-आसक्त नहीं होते / इसलिए वे प्रारम्भजीवी में भी अनारम्भजीवी रहते हैं। संसार में रहते हुए भी वे जल-कमलवत् निर्लेप रहते हैं। शरीर-साधनार्थ भी वे निरवद्य विधि से जीते हैं / यही-अनारम्भजीवी साधक का लक्षण है। 'अयं खखेत्ति अन्न सो'-इस पद का अर्थ है कि शरीर के वर्तमान क्षण पर चिन्तन करेशरीर के भीतर प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहे हैं, रोग-पीड़ा आदि नये-नये रूप में उभर रहे हैं, उनको देखे, एक क्षण का गम्भीर अन्वेषण भी शरीर की नश्वरता को स्पष्ट कर देता है। अतः गम्भीरतापूर्वक शरीर के वर्तमान क्षण का अन्वेषण करे / पंचमहाव्रती साधु को गृहीत प्रतिज्ञा के निर्वाह के समय कई प्रकार के परीषह (कष्ट), उपसर्ग, दुःख, अातंक आदि या जाते हैं, उस समय उसे क्या करना चाहिए? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं-'ते फासे पटठोऽधियासते से पव्वं पेतं पच्छा पेतं' इसका प्राशय यह है कि उस समय साधक उन द:खस्पों को अनाकल और धैर्यवान होकर सहन करे। संसार की असारता की भावना, दुःख सहने से कर्म-निर्जरा की साधना आदि का विचार करके उन दुःखों का वेदन न करे, मन में दुःखों के समय समभाव रखे। शरीर को अनित्य, अशाश्वत, क्षणभंगुर और नाशवान तथा परिवर्तनशील मानकर इससे आसक्ति हटाए, देहाध्यास न करे। साथ ही यह भी विचार करे कि मैंने पूर्व में जो असातावेदनीय कर्म बांधे हैं, उनके विपाक (फल) स्वरूप जो दुःख पाएँगे, वे, मुझे ही सहने पड़ेंगे, मेरे स्थान पर कोई अन्य सहन करने नहीं आएगा और किए हुए कर्मों के फल भोगे बिना छुटकारा कदापि नहीं हो सकता। अत: जैसे पहले भी मैंने असातावेदनीय कर्म-विपाक-जनित दुःख सहे थे, वैसे बाद में भी मुझे ये दुःख सहने पड़ेंगे। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिस पर असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप दुःख, रोग आदि प्रातक न आये हों, यहाँ तक कि वीतराग तीर्थकर जैसे महापुरुषों 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 185 में / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 186 / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध के भी पूर्वकृत असातावेदनीय कर्मवश दुःख, अातंक आदि पा जाते हैं। उन्हें भी कर्मफल अवश्य भोगने पड़ते हैं / अतः मुझे भी इनके आने पर घबराना नहीं चाहिए, समभावपूर्वक इन्हें सहते हुए कर्मफल भोगने चाहिए।' 'मवि मग्गे विरवस्त'-हिंसादि पाश्रवद्वारों से निवृत्त मुनि के लिए कोई मार्ग नहीं है, इस कथन के पीछे तीन अर्थ फलित होते हैं (1) इस जन्म में विविध परमार्थ भावनाओं के अनुप्रेक्षण के कारण शरीरादि की आसक्ति से मुक्त साधक के लिए नरक-तिर्यचादिगमन (गति) का मार्ग नहीं है - बन्द हो जाता है। (2) उसी जन्म में समस्त कर्मक्षय हो जाने के कारण उसके लिए चतुर्गतिरूप कोई मार्ग नहीं है। (3) जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु, चार दुःख के मुख्य मार्ग हैं। विरत और विप्रमुक्त के लिए ये मार्ग बन्द हो जाते हैं।' यहाँ पर छद्मस्थ श्रमण के लिए प्रथम और तृतीय अर्थ घटित होता है। समस्त कर्मक्षय करने वाले केवली के लिए द्वितीय अर्थ समझना चाहिए। इस प्रकार अप्रमत्त साधक संसार-भ्रमण से मुक्त हो जाता है / परिग्रह त्याग की प्रेरणा 154. आवंती केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं या बहुं वा अणु वा थलं वा चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती। एतदेवेगेसि महाभयं भवति / लोगवित्तं च णं उवेहाए। एते संगे अविजाणतो। (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 186 / (ख) कर्मफल स्वेच्छा से भोगने और अनिच्छा से भोगने में बहुत अन्तर पड़ जाता है / एक प्राचार्य ने कहा है स्वकृतपरिणः नां दुर्नयानां विपाकः, पुनरपि सहनीयोऽत्र ते निगुणस्य / स्वयमनुभवताऽसौ दुःखमोक्षाय सधो, भवशतातिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते / / -खेद रहित होकर स्वकृत-कर्मों के बन्ध का विपाक अभी नहीं सहन करोगे तो फिर (कभी न कभी) सहन करना (भोगना) ही पड़ेगा। यदि वह कर्मफल स्वयं स्वेच्छा से भोग लोगे तो शीघ्र दुःख से छुटकारा हो जायगा। यदि अनिच्छा से भोगोगे तो वह सौ भषों (जन्मों) में गमन का कारण हो जाएगा। आचा० शीला टीका पत्रांक 187 / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 154-156 157 155. से सुपडिबुद्ध सूवणोय' ति णच्चा पुरिसा! परमचक्खू ! विपरिक्कम / एतेसुदेव बंभचेरं ति बेमि / से सुतं च मे अज्मस्थं च मे बंधपमोक्खो तुज्मज्मत्येव / 156. एस्थ विरते अणगारे बोहरायं तितिक्खते। पमतबहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए। एवं मोणं सम्म अणुवासेज्जासि त्ति बेमि / ॥बोओ उद्देसओ समसो॥ 154. इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रहवान् हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म . या स्थूल, सचित्त (सजीव) या अचित्त (निर्जीव) वस्तु का परिग्रहण (ममतापूर्वक ग्रहण या संग्रह) करते हैं। वे इन (वस्तुओं) में (मूर्छा-ममता रखने के कारण) ही परिग्रहवान् हैं / यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधको ! असंयमी–परिग्रही लोगों के वित्त--धन या वृत्त (संज्ञाओं) को देखो। (इन्हें भी महान भय रूप समझो) / जो (परिग्रहजनित) अासक्तियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है / (जो अल्प, बहुत द्रव्यादि तथा शरीरादिरूप परिग्रह से रहित होता है उसे परिग्रहजनित महाभय नहीं होता। 155. (परिग्रह महाभय का हेतु है-) यह (वीतराग सर्वज्ञों द्वारा) सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध (ज्ञात) है और सुकथित है, यह जानकर, हे परमचक्षुष्मान् (एक मात्र मोक्षदृष्टिमान्) पुरुष ! तू (परिग्रह आदि से मुक्त होने के लिए) पुरुषार्थ (पराक्रम) कर। (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही (परमार्थतः) ब्रह्मचर्य होता है / ऐसा मैं कहता हूँ। ___ मैंने सुना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत (सिसर) हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित हैं। 156. इस परिग्रह से विरत अनगार (अपरिग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न होने वाले क्षुधा-पिपासा आदि) परीषहों को दीर्घ रात्रि--मृत्युपर्यन्त-जीवन भर सहन करे। 1. 'सूवणीयं ति णच्छा' के बदले चूणि में पाठ है-—'सुत अणुवियिति गच्चा'। अर्थ किया गया है "सुतेण अणुषिचितित्ता गणधरेहिं णच्चा'-अर्थात्-सूत्र से तदनुरूप चिन्तन करके गणधरों द्वारा प्रस्तुत है, इसे जान कर / 2. 'ममत्थं' के बदले चूणि में पाठ है—'अन्मस्पत।' अर्थ किया है-"ऊहितं गुपितं चितितं ति एकट्ठा / ' 'अध्यात्मितं' का अर्थ होता है-हिनं, गुणित या चिन्तित / यानी (मन में) ऊहापोह कर लिया है, चिन्तन कर लिया है, या गुणन कर लिया है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 आचाररांग नत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जो प्रमत्त (विषयादि प्रमादों से युक्त) है, उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर समझ, (देख) / अतएक अप्रमत्त होकर परिव्रजन-विचरण कर।। (और) इस (परिग्रहविरतिरूप) मुनिधर्म का सम्यक परिपालन कर। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- 'एतेसु चेव परिम्गहातो'-इस वाक्य का आशय बहुत गहन है। वृत्तिकार ने इसका रहस्य खोलते हुए कहा है-परिग्रह (चाहे थोड़ा सा भी हो, सूक्ष्म हो) सचित्त (शिष्यशिष्या, भक्त, भक्ता का) हो या अचित्त (शास्त्र, पुस्तक, वस्त्र, पात्र, क्षेत्र, प्रसिद्धि प्रादि का) हो, अल्प मूल्यवान् हो या बहुमूल्य, थोड़े से वजन का हो या वजनदार, यदि साधक की मूर्छा, ममता या प्रासक्ति इनमें से किसी भी पदार्थ पर थोड़ी या अधिक है तो महाव्रतधारी होते हुए भी उसकी गणना परिग्रहवान् गृहस्थों में होगी। इसका दूसरा प्राशय यह भी है-इन्हीं षड्जीवनिकायरूप सचित्त जीवों के प्रति या विषयभूत अल्पादि द्रव्यों के प्रति मूर्छा–ममता करने वाले साधक परिग्रहवान् हो जाते हैं / इस प्रकार अविरत होकर भी स्वयं विरतिवादी होने की डींग हांकने वाला साधक अल्पपरिग्रह से भी परिग्रहवान् हो जाता है / प्राहार-शरीरादि के प्रति जरा-सी मूर्छा-ममता भी साधक को परिग्रही बना सकती है, अत: उसे सावधान (अप्रमत्त) रहना चाहिए।' __'एतदेवेगेसि महन्मयं भवति'- इस वाक्य में 'एगेसि' से तात्पर्य उन कतिपय साधकों से है, जो अपरिग्रहवत धारण कर लेने के बावजूद भी अपने उपकरणों या शिष्यों आदि पर मूर्छाममता रखते हैं। जैसे गृहस्थ के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही पदार्थों (सजीव-निर्जीव) के प्रति ममता-मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी सुरक्षा का भय बना रहता है। इसीलिए परिग्रह को महाभय रूप कहा है। अगर इस कथन का साक्षात् अनुभव करना हो तो महापरिग्रही लोगों के वृत्त (चरित्र) या वित्त (स्थिति) को देखो कि उन्हें अनिश जान को कितना खतरा रहता है। 'मोगवित्त'-का एक अर्थ--लोकवृना-लोगों का व्यावहारिक कष्टमय जीवन है। तथा दूसरा अर्थ-लोकसंज्ञा से है / आहार, भय, मैथुन और परिग्रहरूप लोक-संज्ञा को भय रूप जानकर उसको उपेक्षा कर दे। 'एतेषु चेव भचेर' का आशय यह है कि प्राचीन काल में स्त्री को भी परिग्रह माना जाता था। यही कारण है कि भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की थी। ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह व्रत के अन्दर गतार्थ कर लिया गया था। ब्रह्मचर्य-भंग भी मोहवश होता है, मोह आभ्यन्तर परिग्रह में है। इसलिए ब्रह्मचर्यभंग को अपरिग्रह व्रत-भंग का कारण समझा जाता है / इस दृष्टि से कहा गया है कि परिग्रह से विरत व्यक्तियों में ही वास्तव में ब्रह्मचर्य का अस्तित्व है। जिसकी शरीर और वस्तुओं के प्रति मूर्छा-ममता होगी, न वह इन्द्रिय-संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन कर सकेगा, न वह अन्य 1. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 187 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 188 / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 117 अहिंसादि व्रतों का आचरणरूप ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, और न ही गुरुकुलवास रूप ब्रह्मचर्य में रह पाएगा, और न वह प्रात्मा-परमात्मा (ब्रह्म) में विचरण कर पाएगा / इसीलिए कहा गया कि परिग्रह से विरत मनुष्यों में ही सच्चे अर्थ में ब्रह्मचर्य रह सकेगा। 'परमवस्तू-परमचक्षु के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं-(१) जिसके पास परम-ज्ञानरूपी-चक्षु (नेत्र) हैं वह परमचक्षु है, अथवा (2) परम-मोक्ष पर ही एकमात्र जिसके चक्षु (दृष्टि) केन्द्रित है, वह भी गरमचक्षु है / // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक मुनि-धर्म को प्रेरणा' 157. आवंती केआवंती लोगंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावतो / सोच्चा' वई मेधावी पंडियाणं निसामिया / समियाए धम्मे आरिएहि पवेदिते। जहेत्थ मए संधी सोसिते एवमण्णत्व संधी दुझोसए भवति / तम्हा बेमि पो णिहेज्ज' वीरियं / / 157. इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मू -ममता न रखने तथा उनका संग्रह न करने के कारण) ही अपरिग्रही हैं। मेधावी साधक (तीर्थकरों की आगमरूप) वाणी सुनकर तथा (गणधर एवं आचार्य आदि) पण्डितों के वचन पर चिन्तन-मनन करके (अपरिग्रही) बने / पार्यो (तीर्थंकरों) ने 'समता में धर्म कहा है।' (भगवान् महावीर ने कहा--) जैसे मैंने ज्ञान-दर्शन-चारित्र--- इन तीनों की सन्धि रूप (समन्वित--) साधना की है, वैसी साधना अन्यत्र (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रहित या स्वार्थी मार्ग में) दुःसाध्य-दुराराध्य है। इसलिए मैं कहता हूँ-(-तुम मोक्षमार्ग की इस समन्वित साधना में पराक्रम करो), अपनी शक्ति को छिपात्रो मत / 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 188 / 2. आचा. शीला. टीका पत्रांक 188 / 3. 'सोच्चा वई मेहा (धा) वी' इस पंक्ति का चूर्णिकार अर्थ करते हैं- “सोच्चा-मुणित्ता, यि-वयणं, मेहावी सिस्सामंतणं ।'अहवा सोच्चा मेहाविवयणं ति तित्थगरवयणं, संपडितेहि भण्णमाणं गणहरादीहि णिसामिया / अर्थात्-वचन सुनकर हे मेधावी ! ."अथवा मेधाविवचन = तीर्थकरवचन सुनकर गणधरादि द्वारा हृदयंगम किये गए उन वचनों को, प्राचार्यों (पण्डितों) द्वारा उन वचनों को। 4. 'आरिएहि' के बदले किसी प्रति में 'आयरिएहि' पाठ मिलता है, उसका अर्थ है-आचार्यों द्वारा। 5. 'यो णिहेज्ज' के बदले कहीं 'गो निष्हवेज्ज', या 'णो णिहेग्मा' पाठ है। अर्थ समान है। चूर्णिकार कहते हैं-'णिहण ति का गूहणं ति वा छायण ति वा एगट्ठा' --निवन (छुपाना), गूहन और छादन ये तीनों एकार्थक हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेचन--इस उद्देशक में मुनिधर्म के विविध अंगोपांगों की चर्चा की गई है। जैसेरत्नत्रय की समन्वित साधना की, उस साधना में रत साधकों की उत्थित-पतित मनोदशा की, भाव युद्ध की, विषय-कषायासक्ति की, लोक-सम्प्रेक्षा की रीति की, कर्मस्वातंत्र्य की, प्रशंसाविरक्ति की, सम्यक्त्व और मुनित्व के अन्योन्याश्रय की, इस साधना के अयोग्य एवं योग्य साधक की और योग्य साधक के अाहारादि की भलीभाँति चर्चा-विचारणा प्रस्तुत की गई है। 'समियाए धम्मे मारिएहि पविते'- इस पद के विभिन्न नयों के अनुसार वृत्तिकार ने चार अर्थ प्रस्तुत किये हैं (1) आर्यों-तीर्थंकरों ने समता में धर्म बताया है।' (2) देशार्य भाषार्य, चारित्रार्य आदि पार्यों में समता से--समभावपूर्वक-निष्पक्षपातभाव से भगवान् ने धर्म का कथन किया है, जैसे कि इसी शास्त्र में कहा गया है-'जहा पुग्णस्स कत्थई, तहा तुच्छस्स कत्थई' (जैसे पुण्यवान् को यह उपदेश दिया जाता है, वैसे तुच्छ निर्धन, पुण्यहीन को भी)। (3) समस्त हेय बातों से दूर-आर्यों ने शमिता (कषायादि की उपशांति) में प्रकर्ष रूप से या धर्म कहा है। (4) तीर्थंकरों ने उन्हीं को धर्म-प्रवचन कहा है, जिनकी इन्द्रियाँ और मन उपशान्त थे। इन चारों में से प्रसिद्ध अर्थ पहला है, किन्तु दूसरा अर्थ अधिक संगत लगता है, क्योंकि अपरिग्रह की बात कहते-कहते, एकदम 'समता' के विषय में कहना अप्रासंगिक-सा लगता है और इसी वाक्य के बाद भगवान् ने ज्ञानादित्रय की समन्वित साधना के संदर्भ में कहा है। इसलिए यहाँ यह अर्थ अधिक जंचता हैं कि 'तीर्थंकरों' ने समभावपूर्वक--निष्पक्षपातपूर्वक धर्म का उपदेश दिया है।' ___'जहेत्थ मए संधी झोसिते......'-- इस पक्ति के भी वृत्तिकार ने दो अर्थ प्रस्तुत किये हैं (1) जैसे मैंने मोक्ष के सम्बन्ध में ज्ञानादित्रय की समन्वित (सन्धि) साधना की है। (2) जैसे मैंने (मुमुक्षु बनकर) स्वयं ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्ष की प्राप्ति के लिए अष्टविध कर्म-सन्तति (सन्धि) का (दीर्घ तपस्या करके) क्षय किया है। .. इन दोनों में से प्रथम अर्थ अधिक संगत लगता है। उस युग में कुछ दार्शनिक सिर्फ ज्ञान से ही मोक्ष मानते थे, कुछ कर्म (क्रिया) से ही मुक्ति बतलाते थे और कुछ भक्तिवादी सिर्फ भक्ति से ही मोक्ष (परमात्मा) प्राप्ति मानते थे। किन्तु तीर्थंकर महावीर ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इसी के अन्तर्गत तप) इन तीनों की सन्धि (समन्विति-मेल) को मोक्षमार्ग बताया था, क्योंकि भगवान् ने स्वयं इन 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 189 / .. 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 189 / 3. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 189 / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 158 तीनों की समन्विति को लेकर मोक्ष की साधना-सेवना की थी और अत्यन्त विकट-उत्कट कर्मों को काटने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र (समभाव रूप) के साथ दीर्घ तपस्या की थी। इसलिए ज्ञानादि तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है यह प्रतिपादन उन्होंने स्वयं अनुभव के बाद किया था। इससे दूसरे अर्थ की भी संगति बिठाई जा सकती है कि भगवान महावीर ने अपने पूर्वकृत-कर्मों की सन्तति (परम्परा) का क्षय स्वयं दीर्घतपस्याएँ करके तथा परीषहादि को समभावपूर्वक सहन करके किया है। यही (ज्ञानादित्रयपूर्वक तप का) उपदेश उन्होंने अपने शिष्यों को देते हुए कहा है-'तम्हा बेमि जो णिहेज्ज वीरियं'-- मैंने ज्ञानादि त्रय की सन्धि के साथ तपश्चर्या द्वारा कर्म-संतति का क्षय करने का स्वयं अनुभव किया है, इसलिए कहता हूँ"ज्ञानादि अय एवं तपश्चरण आदि की साधना करने की अपनी शक्ति को जरा भी मत छिपायो, जितना भी सम्भव हो सके अपनी समस्त शक्ति को ज्ञानादि की साधना के साथ-साथ तपश्चर्या में भोंक दो।" तीन प्रकार के साधक 158. जे पुस्वट्ठाई णो पच्छाणिवाती। जे पुवठ्ठाई पच्छाणिवाती / जे णो पुस्वट्ठाई णो पच्छाणिवाती / से वि तारिसए सिया जे परिण्णाय लोगमणेसिति / एवं णिदाय मुणिणा पवेदितं-इह आणखी पंडिते अणिहे पुवावररायं जयमाणे सया सोलं सपेहाए सुणिया भवे अकामे असंझे / 158. (इस मुनिधर्म में प्रवजित होने वाले मोक्ष-मार्ग-साधक तीन प्रकार के होते हैं)-(१) एक वह होता है-जो पहले साधना के लिए उठता (उद्यत) है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है, कभी गिरता नहीं। (2) दूसरा वह है-जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। (3) तीसरा वह होता है--जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है। जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और त्याग कर पुन: (पचन-पाचनादि सावध कार्य के लिए) उसी का आश्रय लेता या ढूढ़ता है, वह भी वैसा ही (गृहस्थतुल्य) हो जाता है। इस (उत्थान-पतन के कारण) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनीन्द्र 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 189 / 2. इसके बदले चणि में इस प्रकार पाठ है-से वि तारिसए चेव' जे परिपणात लोगमन्णेसति अकार लोबा जे अपरिण्णाय लोगं छज्जीवकायलोग अणुएमति- अण्णेसति / पहिज्जइ य–लोगमणुस्सिते, परिणात पच्चक्खाय''पुणरवि तदत्था लोग अस्सिता।" अकार का लोप होने से लोक (षड्जीवनिकाय लोक) का स्वरूप न जानकर पुन: उसी का अन्वेषण करता है। अथवा यह पाठ है.--'लोगमणस्सिते', जिसका अर्थ होता है-षड़जीवनिकायरूप लोक को ज्ञपरिज्ञा रो जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से लोकप्रवाद छोड़ कर पुनः उसके लिए लोक के आश्रित होना / .. " 3. 'सपेहाए' के बदले 'संपेहाए' पाठ है। सपेहाए का अर्थ चर्णिकार कहते हैं 'सम्म पेक्ख' सदा शील का सम्यक् प्रेक्षण करके / ' Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध (तीर्थंकर) ने कहा-मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अत: स्नेह-प्रासक्ति से दूर रहे / रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय और ध्यान में) यत्नवान् रहे अथवा संयम में प्रयत्नशील रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण-अनुशीलन करे (लोक में सारभूत तत्व-परमतत्त्व को) सुनकर काम और लोभेच्छा / माया (झझा) से मुक्त हो जाए। विवेचन-मुनिधर्म की स्थापना करते समय साधकों के जीवन में कई आरोह-अवरोह (चढ़ाव-उतार) पाते हैं, उसी के तीन विकल्प प्रस्तुत सूत्र पंक्ति में प्रस्तुत किये हैं / वृत्तिकार ने सिंहवृत्ति और शृगालवृत्ति की उपमा देकर समझाया है। इसके दो भंग (विकल्प) होते हैं-- (1) कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता (प्रवजित होता) है, और उसी वृत्ति पर अन्त तक टिका रहता है, वह 'पूर्वोत्थायी पश्चात् अनिपाती' है। (2) कोई सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है, किन्तु बाद में शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। यह 'पूर्वोत्थायी पश्वान्निपाती' नामक द्वितीय भंग है। पहले भंग के निदर्शन के रूप में गणधरों तथा धन्ना एवं शालिभद्र आदि मुनियों को लिया जा सकता है, जिन्होंने अन्त तक अपना जीवन तप, संयम में उत्थित के रूप में बिताया। दूसरे भंग के निदर्शन के रूप में नन्दिषण, कुण्डरीक आदि साधकों को प्रस्तुत कर सकते हैं, जो पहले तो बहुत ही उत्साह, तीव्र वैराग्य के साथ प्रव्रज्या के लिए उत्थित हुए, लेकिन बाद में मोहकर्म के उदय से संयमी जीवन में शिथिल और पतित हो गये थे। इसके दो भंग और होते हैं (3) जो पूर्व में उत्थित न हो, बाद में श्रद्धा से भी गिर जाय / इस भंग के निदर्शन के रूप में किसी श्रमणोपासक गृहस्थ को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म के लिए तो तैयार नहीं हुआ, इतना ही नहीं, जीवन के विकट संकटापन्न क्षणों में सम्यग्दर्शन से भी गिर गया। (4) चौथा भंग है-जो न तो पूर्व उत्थित होता हैं, और न ही पश्चात्निपाती। इसके निदर्शन के रूप में बालतापसों को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए तैयार न हुए और जब उठे ही नहीं तो गिरने का सवाल ही कहाँ रहा / ' मुनि-धर्म के साधकों की उत्थित-पतित मनोदशा को जानकर भगवान् ने मुनि-धर्म में स्थिरता के लिए पाठ मूलमन्त्र बताए, जिनका इस सूत्र में उल्लेख है (1) साधक आज्ञाकांक्षी (प्राज्ञारुचि) हो, प्राज्ञा के दो अर्थ होते हैं-तीर्थकरों का उपदेश और तीर्थकर प्रतिपादित आगम / (2) पण्डित हो—सद्-असद् विवेकी हो। अथवा 'स पण्डितो यः करणैरखण्डितः / इस श्लोकार्ध के अनुसार इन्द्रियों एवं मन से पराजित न हो, अथवा 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डित बुधाः' गीता की इस उक्ति के अनुसार जो ज्ञानरूपी अग्नि से अपने कर्मो को जला डालता हो, उसे ही तत्त्वज्ञों ने पण्डित कहा है / (3) अस्निह हो-स्निग्धता = प्रासक्ति से रहित हो / (4) पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में यत्नवान रहना / रात्रि के प्रथम याम को पूर्वरात्र और 1. आचा० शीला दीका पत्रांक 1901 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 159-160 163 रात्रि के पिछले याम को अपररात्र कहते हैं / इन दोनों यामों में स्वाध्याय, ध्यान, ज्ञान-चर्चा या यात्मचिन्तन करते हुए अप्रमत्त रहना यतना है।' (5) शोल सम्प्रेक्षा-(१) महाव्रतों की साधना, (२)तीन (मन-वचन-काया की) गुप्तियाँ (सुरक्षा-स्थिरता), (3) पञ्चेन्द्रिय दम (संयम) और (4) कोधादि चार कषायों का निग्रह-ये चार प्रकार के शील हैं, चिन्तन की गहराइयों में उतर कर अपने में इनका सतत निरीक्षण करना शील-सम्प्रेक्षा है। (6) लोक में सारभूत परमतत्त्व (ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्ष) का श्रवण करना / (7) काम-रहित (इच्छाकाम और मदनकाम से रहित अकाम होना)। (8) झंझा (माया या लोभेच्छा) से रहित होना / इन अष्टविध उपायों का सहारा लेकर मुनि अपने मार्ग में सतत आगे बढ़ता रहे / अन्तर लोक का युद्ध 159. इमे ण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झतो? जुद्धारिहं खलु दुल्लभं / जहेत्थ कुसलेहि परिष्णाविवेगे भासिते / चुते हु बाले गम्भातिसु रज्जति / अस्सि चेतं पति रूवंसि वा छणंसि वा। से हु एगे संविद्धपहे। मुणो अण्णहा लोगमुवेहमाणे / 160. इति कम परिणाय सध्वसो से ण हिसति, संजमति, जो पगभति, .. उवेहमाणे पत्तेयं सातं, वण्णादेसी णारभे कंचणं सवलोए . एगप्पमुहे विदिसप्पतिष्णे णिविष्णचारी अरते पयासु / से वसुमं सव्वसमण्णागतपणाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं तं णो अपणेसी। 159. इसी (कर्म-शरीर) के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा? (अन्तर-भाव) युद्ध के योग (साधन) अवश्य ही दुर्लभ हैं / __ जैसे कि तीर्थंकरों (मार्ग-दर्शन-कुशल) ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं। 1. दशवकालिक सूत्र में कहा है-- 'से पुज्वरत्तावररत्तकाले संपिक्खए अप्पगमप्पए / (चूलिका) 2611 -साधक पूर्वरात्रि एवं अपररात्रि में ध्यानस्थ होकर प्रात्मा से आत्मा का सम्यक निरीक्षण करे। 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 190 / 3. 'जुद्धारिहं' के बदले कहीं 'जुद्धारियं च दुल्लह पाठ है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है-युद्ध दो प्रकार के होते हैं-अनार्ययुद्ध और प्रार्ययुद्ध / तत्रानार्यसंग्रामयुद्ध', परीषहादि रिपुयुद्ध त्वार्य, तद्दुर्लभमेव तेन युद्धयस्व ।-अनार्ययुद्ध है शस्त्रास्त्रों से संग्राम करना, और परिषहादि शत्रों के साथ युद्ध करना आर्ययुद्ध है, वह दुर्लभ ही है / अतः परिषहादि के साथ प्रार्ययुद्ध करो। 4. 'संविद्धपहे' के बदले 'संविद्ध भये' पाठान्तर है। जिसका अर्थ है-जिसने भय को देख लिया है। 5. 'लोगमुवेहमाणे' के बदले चूणि में 'लोग उविक्खमाणे' पाठ है; जिसका अर्थ होता है-लोक की उपेक्षा या उत्प्रेक्षा (निरीक्षण) करता हुआ। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध * (मोक्ष-साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि (दुःख-चक्र) में फँस जाता है। इस आर्हत् शासन में यह कहा जाता है-रूप (तथा रसादि) में एवं हिंसा (उपलक्षण से असत्यादि) में (आसक्त होने वाला उत्थित होकर भी पुनः पतित हो जाता है)। केवल वही एक मुनि मोक्षपथ पर अभ्यस्त (प्रारूढ़) रहता है, जो (विषयकषायादि के वशीभूत एवं हिंसादि में प्रवृत्त) लोक का अन्यथा (भिन्नदृष्टि से) उत्प्रेक्षण (गहराई से अनुप्रेक्षण) करता रहा है अथवा जो (कषाय-विषयादि) लोक की उपेक्षा करता रहता है। 160. इस प्रकार कर्म (और उसके कारण) को सम्यक् प्रकार जानकर वह (साधक) सब प्रकार से (किसी जीव की) हिंसा नहीं करता, (शुद्ध) संयम का आचरण करता है, (असंयम-कर्मों या अकार्य में प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता। __ प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना (प्रिय) होता है, यह देखता हुमा (वह किसी की हिंसा न करे)। __ मुनि समस्त लोक (सभी क्षेत्रों) में कुछ भी (शुभ या अशुभ) प्रारम्भ (हिंसा) तथा प्रशंसा का अभिलाषी होकर न करे / मुनि अपने एकमात्र लक्ष्य-मोक्ष की ओर मुख करके (चले); वह (मोक्षमार्ग से) विपरीत दिशाओं को तेजी से पार कर जाए, (शरीरादि पदार्थों के प्रति) विरक्त ... (ममत्व-रहित) होकर चले, स्त्रियों के प्रति अरत (अनासक्त) रहे / संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप (सम्पूर्णसत्य-प्रज्ञात्मक) अन्तःकरण से पापकर्म प्रकरणीय है, अत: साधक उनका अन्वेषण न करे / विवेचन–'इमेण चेव जुमाहि"जुद्धारिई खलु दुल्लभं'- साधना के पूर्वोक्त पाठ मूलमंत्रों को सुनकर कुछ शिष्यों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की--'भंते ! भेद-विज्ञान की भावना के साथ हम रत्नत्रय की साधना में पराक्रम करते रहते हैं, अपनी शक्ति जरा भी नहीं छिपाते, आपके उपदेशानुसार हम साधना में जुट गये लेकिन अभी तक हमारे समस्त कर्ममलों का क्षय नहीं हो सका, अत: समस्त कर्ममलों से रहित होने का असाधारण उपाय बताइए।' इस पर भगवान् ने उनसे पूछा- 'क्या तुम और अधिक पराक्रम कर सकोगे ?' वे बोले-'अधिक तो क्या बताएँ, लौकिक भाषा में सिंह के साथ भी हम युद्ध कर सकते हैं, शत्रुओं के साथ जूझना और पछाड़ना तो हमारे बाँए हाथ का खेल है।' इस पर भगवान् ने कहा- 'वत्स! यहाँ इस प्रकार का बाह्य युद्ध नहीं करना है, यहाँ तो आन्तरिक युद्ध करना है / यहाँ तो स्थूल शरीर और कर्मों के साथ लड़ना है। यह औदारिक शरीर, जो इन्द्रियों और मन के शस्त्र लिए हुए है, विषय-सुपिपासु है और स्वेच्छाचारो बनकर तुम्हें नचा रहा है, इसके साथ युद्ध करो और उस कर्मशरीर के साथ लड़ो, जो वृत्तियों. के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है, काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर आदि सब कर्मशत्रु की सेना है, इसलिए तुम्हें कर्मशरीर और स्थल-शरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मों Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 161 को क्षीण कर देना है। किन्तु 'इस भाव युद्ध' के योग्य सामग्री का प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है।' यह कहकर उन्होंने इस अान्तरिक युद्ध के योग्य सामग्री की प्रेरणा दी जो यहाँ 'जहेत्य कुसलेहि ..' से लेकर णो अण्णेसी' तक अंकित है। . / आन्तरिक युद्ध के लिए दो शस्त्र बताये हैं--परिज्ञा और विवेक / परिज्ञा से वस्तुं का सर्वतोमुखी ज्ञान करना है और विवेक से उसके पृथक्करण की दृढ़ भावना करनी है। विवेक कई प्रकार का होता है-धन, धान्य, परिवार, शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि से पृथक्त्व/भिन्नता का चिन्तन करना, परिग्रह-विवेक आदि है / कर्म से प्रात्मा के पृथक्त्व की दृढ़ भावना करना कर्म-विवेक है और ममत्व प्रादि विभावों से प्रात्मा को पृथक् समझना-भाव-विवेक है।' 'स्वंसि वा छणसि वा' --यहाँ रूप शब्द समस्त इन्द्रिय-विषयों का तथा शरीर का, एवं 'क्षण' शब्द हिंसा के अतिरिक्त असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सूचक है, क्योंकि यहाँ दोनों शब्दों के आगे 'वा' शब्द आये हैं। 2 / 'वण्णादेसो-वर्ण के प्रासंगिक दो अर्थ होते हैं-यश और रूप / वृत्तिकार ने दोनों अर्थ किए हैं / रूप के सन्दर्भ में प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ यों होता है-मुनि सौन्दर्य बढ़ाने का इच्छुक होकर कोई भी (लेप, औषधि-प्रयोग आदि) प्रवृत्ति न करे, अथवा मुनि रूप (चक्षुरिन्द्रिय विषय) का इच्छुक होकर (तदनुकूल) कोई भी प्रवृत्ति न करे / _ 'वसुम'-वसुमान् धनवान् को कहते हैं, मुनि के पास संयम ही धन है, इसलिए 'संयम का धनी' अर्थ यहाँ अभीष्ट है।४ . सम्यक्त्व-मुनिस्व की एकता 161. जं सम्म ति पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा। ण इमं सक्कं सिढिलेहि अहिज्जमाणेहि गुणासाहि वंकसमायारेहि पमत्तेहि गारमावसंतेहिं। मुणी मोणं समादाय धुणे सरीरगं / पंतं लहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो। एस ओहंतरे मुणी तिणे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / // तइओ उद्देसओ समत्तो।। 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / 2. आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / 3. आचा. शोला. टीका पत्रांक 192 / 4. आचा. शीला. टीका पत्रांक 193 / 5. 'अहिज्जमाणेहि' का एक विशेष अर्थ चूर्णिकार ने किया है--- 'अहवा अद्द अभिये, परीसहेहि अभिभूयमाणेण"।' अर्थात् - अद्द धातु अभिभव अर्थ में है। इसलिए यहाँ अर्थ होता है--परीषहों द्वारा पराजित हो जाने वाला। 6. 'गुणासाहि' के बदले 'गुणासाले हिं' पाठान्तर है / चूणि में इसका अर्थ यों किया गया है-'गुणसातेणं ति गुणे सावयति, गुणा वा सासा जं भणितं सुहा। गुण = पंचेन्द्रिय-विषय में जो सुख मानता है, अथवा विषय ही जिसके लिए साता (सुख) रूप हैं। 7. 'सरीरग' के बदले 'कम्मसरीरग' पाठ कई प्रतियों में है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 161. (तुम) जिस सम्यक् (वस्तु के सम्यक्त्व-सत्यत्व) को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो / (सम्यक्त्व या सम्यक्त्वादित्रय) का सम्यकप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल (संयम और तप में दृढ़ता से रहित) हैं, आसक्तिमूलक स्नेह से प्रार्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, वक्राचारी (कुटिल) हैं, प्रमादी (विषय-कषायादि प्रमाद से युक्त) हैं, जो गृहवासी (गृहस्थभाव अपनाए हुए) हैं। ___मुनि मुनित्व (समस्त सावध प्रवृत्ति का त्याग) ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को प्रकम्पित करे-कृश कर डाले / समत्वदर्शी वीर (मुनि) प्रान्त (बासी या वचा-बुचा थोड़ा-सा) और रूखा (नीरस, विकृति-रहित) पाहादि का सेवन करते हैं / इस जन्म-मृत्यु के प्रवाह (अोघ) को तरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-'ज सम्म ति पासहा त मोणं ति पासहा'.---यहाँ 'सम्यक्' और 'मौन' दो शब्द विचारणीय हैं / सम्यक् शब्द से यहाँ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीनों समन्वित रूप से ग्रहण किए गए हैं तथा मौन का अर्थ है---मुनित्व - मुनिपन / बास्तव में जहाँ सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय होंगे, वहाँ मुनित्त्र का होना अवश्यम्भावी है और जहाँ मुनित्व होगा, वहाँ रत्नत्रय का होना अनिवार्य है।' 'सम्म' का अर्थ साम्य भी हो सकता है / साम्य और मौन (मुनित्व) का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध भी उपयुक्त है। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में समत्व-प्रधान मुनिधर्म की सुन्दर प्रेरणा दी गई है। // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ ' चतुर्थ उद्देशक चर्या-विवेक 162. गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्तं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो। वयसा वि एगे बुइता कुप्पंति माणवा / उण्णतमाणे य णरे महता मोहेण मुज्झति / 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 193 / (ख) 'मौन' शब्द के लिए अध्ययन 2 सूत्र 99 का विवेचन देखें / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 162 संबाहा बहवे भुज्जो 2 दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। एतं ते मा होउ। एयं कुसलस्स देसणं / तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए' तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे, जयं विहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाई पलिवाहिरे पासिय पाणे गच्छेज्जा / से अभिक्कममाणे पडिक्कमाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे। 162. जो भिक्षु ( अभी तक) अव्यक्त-अपरिपक्व-अवस्था में है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात (अनेक उपद्रवों से युक्त अत: अवांछनीय गमन) और दुष्पराक्रम (दुःसाहस से युक्त पराक्रम) है। कई मानव (अपरिपक्व साधक) (थोड़े-से प्रतिकूल) वचन सुनकर भी कुपित हो जाते हैं। स्वयं को उन्नत (उत्कृष्ट-उच्च) मानने वाला अभिमानी मनुष्य (अपरिपक्व साधक) (जरा-से सम्मान और अपमान में) प्रबल मोह से (अज्ञानोदय से) मूढ़ (मतिभ्रान्त-विवेकविकल) हो जाता है। उस (अपरिपक्व मन:स्थिति वाले साधक) को एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्ग जनित एवं रोग-आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएँ-पीड़ाएँ बार-बार पाती हैं, तब उस अज्ञानी--अतत्त्वदर्शी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है, वे उसके लिए दुर्लध्य होती हैं। (ऐसी अव्यक्त अपरिपक्व अवस्था में मैं अकेला विचरण करू), ऐसा विचार तुम्हारे मन में भी न हो। ___यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है। (अव्यक्त साधक द्वारा एकाकी विचरण में ये दोष उन्होंने केवलज्ञान के प्रकाश में देखे हैं)। अतः परिपक्व साधक उस (वीतराग महावीर के दर्शन में संघ के प्राचार्यगुरु या संयम) में ही एकमात्र दृष्टि रखे, उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायासक्ति से मुक्ति में मुक्ति माने, उसी को आगे (दृष्टिपथ में) रखकर विचरण करे, उसी का संज्ञान-स्मृति सतत सब कार्यों में रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। 1. इसके बदले 'तम्मोत्तीए' पाठान्तर है, जिसका अर्थ शीलांकवृत्ति में है-'तेनोक्ता मुक्तिः तन्मुक्ति स्तया'-उसके (तीर्थकरादि) के द्वारा उक्त (कथित) मुक्ति को तन्मुक्ति कहते हैं, उससे / 2. 'पलिवाहरे' में 'पलि' का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया हैं-'चित्तणिधायी पलि' जो चित्त में रखी जाती है, वह पलि है। 'पलिवाहरे' प्रतीप प्राहरे, जन्तु दृष्ट्वा चरणं संकोचए 'देसी भासाए'- पलिव देशी भाषा में व्यवहृत होता है। दोनों शब्दों का अर्थ हुना-प्रतिकूल (दिशा में) खींच ले यानी जन्तु को देखकर पैर सिकोड़ ले / परन्तु शीलांकाचार्य इसका अन्य अर्थ करते हैं--परि समन्ताद् मुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाऽवस्थानात् कार्यमृते सदा बाह्यः स्यात् / कार्य के सिवाय गुरु के अवग्रह (क्षेत्र) से आगेपीछे चारों ओर स्थिति से बाहर रहने वाला। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध मुनि (प्रत्येक चर्या में) यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र कर, मार्ग का सतत अवलोकन करते हुए (दृष्टि टिका कर) चले / जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन . करे। वह भिक्षु (किसी कार्यवश कहीं) जाता हुअा, (कहीं से) वापस लौटता हुमा, (हाथ, पैर आदि) अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता (पसारता हुआ) समस्त अशुभप्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक् प्रकार से (हाथ-पैर आदि अवयवों तथा उनके रखने के स्थानों को) परिमार्जन (रजोहरणादि से) करता हुआ समस्त क्रियाएँ करे। - विवेचन-इस सूत्र में अव्यक्त साधु के लिए एकाकी विचरण का निषेध किया गया है। वृत्तिकार ने अव्यक्त का लक्षण देकर उसकी चतुर्भगी (चार विकल्प) बताई है / अव्यक्त साधु के दो प्रकार हैं-(१) श्रुत (ज्ञान) से अव्यक्त और (2) वय (अवस्था) से अव्यक्त / जिस साधु ने 'प्राचार प्रकल्प' का (अर्थ सहित) अध्ययन नहीं किया है, वह गच्छ में रहा हया श्रुत से अव्यक्त है और गच्छ से निर्गत की दृष्टि से अव्यक्त वह है, जिसने नौवें पूर्व की तृतीय प्राचारवस्तु तक का अध्ययन न किया हो। वय से गच्छगत अव्यक्त वह है, जो सोलह वर्ष की उम्र से नीचे का हो, परन्तु गच्छनिर्गत अव्यक्त वह कहलाता है, जो 30 वर्ष की उम्र से नीचे का हो। ... चतुर्भगी इस प्रकार है-(१) कुछ साधक श्रुत और वय दोनों से अव्यक्त होते हैं, उनकी एकचर्या संयम और आत्मा की विघातक होती है। (2) कुछ साधक श्रुत से अव्यक्त, किन्तु वय से व्यक्त होते हैं, अगीतार्थ होने से उनकी एकचर्या में भी दोनों खतरे हैं। (3) कुछ साधक श्रुत से व्यक्त किन्तु वय से अव्यक्त होते हैं, वे बालक होने के कारण सबसे पराभूत हो सकते हैं। (4) कुछ साधक श्रुत और वय दोनों से व्यक्त होते हैं / वे भी प्रयोजनवश या प्रतिमा स्वीकार करके एकाकी विहार या अभ्युद्यत विहार अंगीकार कर सकते हैं, किन्तु कारण विशेष के अभाव में उनके लिए भी एकचर्या की अनुमति नहीं है / प्रयोजन के अभाव में व्यक्त के एकाकी विचरण में कई दोषों की सम्भावनाएँ हैं। अकस्मात् अतिसार या वातादि क्षोभ से कोई ब्याधि हो जाय तो संयम और प्रात्मा की विराधना होने की सम्भावना है, प्रवचन हीलना (संघ की बदनामी) भी हो सकती है। वय व श्रुत से अव्यक्त साधक के एकाकी विचरण में दोष ये हैं--किसी गांव में किसी व्यक्ति ने जरा-सा भी उसे छेड़ दिया या अपशब्द कह दिया तो उसके भी गाली-गलौज या मारामारी करने को उद्यत हो जाने की सम्भावना है। गांव में कुलटा स्त्रियों के फंस जाने Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 162 161 का खतरा है, कुत्तों आदि का भी उपसर्ग सम्भव है / धर्म-विद्वषियों द्वारा उसे बहकाकर धर्मभ्रष्ट किये जाने की भी सम्भावना रहती है।' इसी सूत्र में आगे बताया गया है कि अव्यक्त साधु एकाकी विचरण क्यों करता है ? इससे क्या हानियाँ हैं ? किसी अव्यक्त साधु के द्वारा संयम में स्खलना (प्रमाद) हो जाने पर गुरु प्रादि उसे उपालम्भ देते हैं- कठोर वचन कहते हैं, तब वह क्रोध से भड़क उठता है, प्रतिवाद करता है-- "इतने साधुनों के बीच में मुझे क्यों तिरस्कृत किया गया? क्या मैं अकेला ही ऐसा हूँ ? दूसरे साधु भी तो ऐसा प्रमाद करते हैं ? मुझ पर ही क्यों बरस रहे हैं ? आपके गच्छ (संघ) में रहना ही बेकार है / " यों क्रोधान्धकार से दृष्टि आच्छन्न होने पर महामोहोदयवश वह अव्यक्त, अपुष्टधर्मा, अपरिपक्व साधु गच्छ से निकलकर उसी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जैसे समुद्र से निकलकर मछली विनष्ट हो जाती है। अथवा क्रिया या प्रवचनपटुता, व्यावहारिक कुशलता आदि के मद में छके हुए अभिमानी अव्यक्त साधु की गच्छ में कोई जरा-सी प्रशंसा करता है तो वह फूल उठता है और कोई जरा-सा कुछ कठोर शब्द कह देता है, या प्रशंसा नहीं करता या दूसरों की प्रशंसा या प्रसिद्धि होते देखता है तो भड़क कर गच्छ (संघ) से निकल कर अकेला घूमता रहता है। अपने अभिमानी स्वभाव के कारण वह अव्यक्त साधु जगह-जगह झगड़ता फिरता है, मन में संक्लेश पाता है, प्रसिद्धि के लिए मारामारा फिरता है, अज्ञजनों से प्रशंसा पाकर, उनके चक्कर में आकर अपना शुद्ध प्राचार-विचारविहार छोड़ बैठता है। निष्कर्ष यह है कि गुरु आदि का नियन्त्रण न रहने के कारण अव्यक्त साधु का एकाकी विचरण बहुत ही हानिजनक है।' गुरु के सान्निध्य में गच्छ में रहने से गुरु के नियन्त्रण में अव्यक्त साधु को क्रोध के अवसर पर बोध मिलता है "आक ष्टेन मतिमता तत्वान्वेिषले मतिः कार्या / यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन !"1 // "अपकारिणि कोपश्चेत् कोपे कोपः कथं न ते ? धर्मार्थकाममोक्षाणां, प्रसह्य परिपन्पिनि' // 2 // ---बुद्धिमान साधु को क्रोध आने पर वास्तविकता के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए कि यदि (दूसरों की कही हुई बात) सच्ची है तो मुझे कोध क्यों करना चाहिए, यदि झूठी है तो क्रोध करने से क्या लाभ ? 11 / यदि अपकारी के प्रति क्रोध करना ही है तो अपने वास्तविक अपकारी क्रोध के प्रति ही क्रोध क्यों नहीं करते, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थों में जबर्दस्त बाधक--शत्रु बना हुआ है ? // 2 // 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 194 / (ख) "अक्कोस-हरण-मारण धम्मभंसाण बालसुलभाणं / लाभ मण्णइ धोरो जहत्तरष्ण अमावमि // " 2. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 194-195 / (ख) साहम्मिएहि सम्मुज्जएहि एगागिओम जो विहरे / आयंकपउरयाए छक्कायवहमि आवउड // 1 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध * अव्यक्त साधु अनुभव में और आचार के अभ्यास में कच्चा होने से अप्रिय घटनाक्रम के समय ज्ञाता द्रष्टा नहीं रह सकता।' उन विघ्न-बाधाओं से वह उच्छखल और स्वच्छन्द (एकाकी) साधु सफतापूर्वक निपट नहीं सकता। क्योंकि बाधाओं, उपसों को सहन करने की क्षमता और कला--विनय तथा विवेक से पाती है। बाधाओं को सहन करने से क्या लाभ है ? उस पर विचार करने के लिए गम्भीर विचार व ज्ञान की अपेक्षा रहती है / अव्यक्त साधु में यह सब नहीं होता। स्थानांग सूत्र (81594) में बताया है--एकाकी विचरने वाला साधु निम्न आठ गुणों से युक्त होना चाहिए--- (1) दृढ श्रद्धावान्, (2) सत्पुरुषार्थी, (3) मेधावी, (4) बहुश्रुत, (5) शक्तिमान्, (6) अल्प उपधि वाला, (7) धृतिमान् तथा (8) वीर्य-सम्पन्न / ... अव्यक्त साधु में ये गुण नहीं होते अतः उसका एकाकीविहार नितांत अहितकर बताया है। सहिष्टीठए तम्मुत्तीए'-~ये विशेषण साधक की ईर्या-समिति के भी द्योतक हैं / चलते समय चलने में ही दृष्टि रखे, पथ पर नजर टिकाये, गति में ही बुद्धि को नियोजित करके चले / यहाँ पर ईर्यासमिति का प्रसंग भी है / चूर्णिकार ने इसे प्राचार्य (गुरु) आदि तथा ईर्या दोनों से सम्बन्ध माना है जबकि टीकाकार ने इन विशेषणों को प्राचार्य के साथ जोड़ा है। इन विशेषणों से प्राचार्य की प्राराधना-उपासना के पाँच प्रकार सूचित होते हैं-- ... (1) 'हिट्ठीए'--प्राचार्य ने जो दृष्टि, विचार दिया है, शिष्य अपना आग्रह त्यागकर गुरु-प्रदत्त दृष्टि से ही चिन्तन करे।। एगागिअस्स बोसा, इत्यो साणे तहेव पउिभीए / भिक्खविसोहि महत्वय तम्हा सविइज्जए गमगं // 2 // 1. परिणाम का चिन्तन करने की क्षमता न होने से वह अद्रष्टा माना गया है। 2. जह सायरंमि मीणा संखोहं साअरस्स असहसा। णिति तओ सुहकामी जिग्गममिता विणसति // 1 // एवं गच्छसमुद्दे सारणकोई हि चोहा संता। निति तो सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति / 2 / गच्छमि केई पुरिसा सउणी जह पंचरंतरणिरुद्धा। सारण-वारण-बोइस * पासत्यगया परिहरंति // 3 // जहा विया पोयमपक्खजायं सवासया पविउमणं मणाम / समचाइया तरणमपत्तजाय, लंकादि अव्वत्तगर्म हरेज्जा // 4 // - प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 194 -~-जैसे समुद्र की तरंगों के प्रहार से क्षुब्ध होकर मछली प्रादि सुख की लालसा से बाहर निकलकर दुखी होती है / इसी प्रकार गुरुजनों की सारणा-वारणादि से क्षुब्ध होकर जो श्रमण बाहर चले जाते हैं, वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं-१-२ / -जैसे शुक-मैना आदि पक्षी पिंजरे में बँधे रहकर सुरक्षित रहते हैं। वैसे ही श्रमण गच्छ में पार्श्वस्थ आदि के प्रहारों से सुरक्षित रहते हैं-३ / -~-जैसे नवजात पक्ष-रहित पक्षी आदि को ढंक प्रादि पक्षियों से भय रहता है, वैसे ही भव्यक्त-अगीतार्थ को अभ्यतीथिकों का भय बना रहता है / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 163 171 (2) 'तम्मुत्तीए'---गुरु की आज्ञा में ही तन्मय हो जाय। (3) 'तप्पुरवकारे'--गुरु के आदेश को सदा अपने सामने-आगे रखे या शिरोधार्य करे। (4) 'तस्सणे'-गुरु द्वारा उपदिष्ट विचारों की स्मृति में एकरस हो जाय / (5) 'सम्गिवेसगे--गुरु के चिन्तन में ही स्वयं को निविष्ट कर दे, दत्तचित्त हो जाय / 'से अभिक्कममाणे'-पादि पदों का अर्थ वृत्तिकार ने संघाश्रित साधु के विशेषण मान कर किया है। जबकि किसी-किसी विवेचक ने इन पदों को 'पागे' का द्वितीयान्त बहुवचनान्त विशेषण मानकर अर्थ किया है। दोनों ही अर्थ हो सकते हैं / कर्म का बं और मुक्ति 163. एगया गुणसमितस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेदणवेज्जावडिय / जं आउट्टिकयं कम्मतं परिणाय विवेगमेति / एवं से अप्पमादेण विवेगं किट्टति बेक्वी। 163. किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित (गुणयुक्त) अप्रमादी (सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर कुछ (सम्पातिम मादि) प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, (अथवा विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त-षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनि के कायस्पर्श से न चाहते हुए भी कोई प्राणी परितप्त हो जाए या मर जाए) तो उसके इस जन्म में वेदन करने (भोगने) योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है। (किन्तु उस षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के द्वारा) आकुट्टि से (प्रागमोक्त विधिरहित-अविधिपूर्वक-) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर (–परिज्ञात कर) दस प्रकार के प्रायश्चित्त में से किसी प्रायश्चित्त से करें। इस प्रकार उसका (प्रमादवश किए हुए साम्परायिक कर्मबन्ध का) विलय (क्षय) अप्रमाद (से यथोचित्त प्रायश्चित्त से) होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में ईर्यासमितिपूर्वक गमन करने वाले साधक के निमित्त से होने वाले अाकस्मिक जीव-वध के विषय में चिन्तन किया गया है / 1. प्राचा. शोला.. टीका पत्रांक 196 / 2. वेज्जावडियं' के बदले चूणि में 'वेयावडिय' पाठ मानकर अर्थ किया गया है--"तवो वा छेदो वा करेति बेयावडियं, कम्म खवणीयं विदारणीयं वावडियं ।"---अर्थात्-तप, छेद या बयावृत्त्य (सेवा) (जिसके वेदन-भोगने के लिए) करता है, वह वैयावृत्त्यिक है, जो कम-विदारणीय क्षय करने योग्य है, वह भी वेदापतित हैं। 3. 'आउटिकतं परिणाविधेगमेति' यह पाठान्तर चूणि में है / अर्थ होता है जो आकुट्टिकृत है, उसे परिज्ञात करके विवेक नामक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध एक समान प्राणिवध होने पर भी कर्मबन्ध एक-सा नहीं होता, वह होता है-~-कषायों की तीव्रता-मन्दता या परिणामों की धारा के अनुरूप / कायस्पर्श से किसी प्राणी का वध या उसे परिताप हो जाने पर प्रस्तुत सूत्र द्वारा वृत्तिकार ने उस हिंसा के पांच परिणाम सूचित किये हैं-- (1) शैलेशी (निष्कम्प अयोगी) अवस्था-प्राप्त मुनि के द्वारा प्राणी का प्राण-वियोग होने पर भी बन्ध के उपादान कारण-योग-का अभाव होने से कर्मबन्ध नहीं होता। (2) उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली (वीतराग) के स्थिति-निमित्तक कषाय न होने से सिर्फ दो समय की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है। (3) अप्रमत्त (छमस्थ छठे से दशवें गुणस्थानवर्ती) साधु के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पाठ मुहूर्त की स्थितिवाला कर्मबन्ध होता है / (4) विधिपूर्व प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त साधु (षष्ठगुणस्थानवर्ती) से यदि अनाकुट्टिवश (अकामत:) किसी प्राणी का वध हो जाता है तो उसके जघन्यतः अन्तमुहूत और उत्कृष्टतः 8 वर्ष की स्थिति का कर्मबन्ध होता है, जिसे वह उसी भव (जीवन) में वेदन करके क्षीण कर देता है। (5) आगमोक्त कारण के बिना पाकुट्टिवश यदि किसी प्राणी की हिंसा हो जाती है, तो उससे जनित कर्मबन्ध को वह सम्यक प्रकार से परिज्ञात करके प्रायश्चित्त' द्वारा ही समाप्त कर सकता है / ब्रह्मचर्य-विवेक 164. से पभूतदंसी पभूतपरिणाणे उवसंते समिए सहिते सदा जते द? विप्पडिवेदेति अप्पाणं-किमेस जणो करिस्सति ? एस से परमारामो जाओ लोगंसि इत्थीओ। मुणिणा हु एतं पवेदितं। उम्बाधिज्जमाणे गामधम्मेहि अवि णिब्बलासए, अवि ओमोदरियं कुज्जा, अवि उड्ढं ठाणं ठाएज्जा, अवि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अवि आहारं वोच्छिदेज्जा, अवि चए इत्थीसु मणं। पुष्वं दंडा पच्छा फासा, पुटवं फासा पच्छा दंडा / इच्चेते कलहासंगकरा भवंति / पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्ज अणासेवणाए ति बेमि / 1. आगमों में दस प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं--(१) आलोचनाह, (2) प्रतिक्रमणाह, (3) तदु भयाह, (4) विवेकाहं, (5) ब्युत्सहिं, (6) तपार्ह, (7) छेदाह, (8) मूलाई, (9) अनवस्थाध्याह और (10) पाराञ्चिकाई / स्था० 411 / 263 तथा दशवै० 11 हारिभद्रीय टीका 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 197 / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 164-165 173 165. से णो काहिए, जो पासगिए, गो संपसारए, णो मामए, णो कतकिरिए, वइगुत्ते अज्मप्पसंवुडे परिवज्जए सवा पावं। एतं मोणं' समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / // चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ 164. वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति (सम्यक्प्रवृत्ति) से युक्त, (ज्ञानादि-) सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (ब्रह्मचर्य से. विचलित करने-उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन (परिप्रेक्षण) करता है 'यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा?' अर्थात् मुझे क्या सुख प्रदान कर सकेगा ? (तनिक भी नहीं) (वह स्त्री-स्वभाव का चिन्तन करे कि जितनी भी लोक में स्त्रियाँ हैं, वे मोहरूप हैं, भाव बन्धन रूप हैं), वह स्त्रियाँ परम आराम (चित्त को मोहित करने वाली). हैं / (किन्तु मैं तो सहज अात्मिक-सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ___ ग्रामधर्म---(इन्द्रिय-विषयवासना) से उत्पीडित मुनि के लिए मुनीन्द्र तीर्थंकर महावोर ने यह उपदेश दिया है कि--- वह निर्बल (निःसार) आहार करे, ऊनोदरिका (अल्पाहार) भी करे-कम खाए, ऊर्ध्व स्थान (टांगों को ऊँचा और सिर को नीचा, अथवा सीधा खड़ा) होकर कायोत्सर्ग करे-(शीतकाल या उष्णकाल में खड़े होकर आतापना ले), ग्रामानुग्राम विहार भी करे, पाहार का परित्याग (अनशन) करे, स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करे / / (स्त्री-संग में रत अतत्त्वदर्शियों को कहीं-कहीं) पहले (अर्थोपार्जनादिजनित ऐहिक) दण्ड मिलता है और पीछे (विषयनिमित्तक कर्मफल जन्य दुःखों का) स्पर्श होता है, अथवा कहीं-कहीं पहले (स्त्री-सुख) स्पर्श मिलता है, बाद में उसका दण्ड (मार-पीट, सजा, जेल अथवा नरक प्रादि) मिलता है / इसलिए ये काम-भोग कलह (कषाय) और आसक्ति (द्वेष और राग) पैदा करने वाले होते हैं। स्त्री-संग से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को पागम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझ कर प्रात्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे। अर्थात स्त्री का सेवन न करने का सुदृढ संकल्प करे। ऐसा मैं कहता हूँ। 1. 'एतं मोणे' पाठ का अर्थ चूणि में किया गया है- एतं मोनं-मुणिभावो मोणं, सम्म नाम ण प्रासंस प्पयोगादीहि उवहत अग्णिसिज्जासि / अहवा तित्थगरादोहि वसिम अणुवसिज्जासि / ----मुनिभाव या मुनित्व का नाम मौन हैं / जीवन-मरणादि की आकांक्षा रहित होना ही सम्यक् है। सम्यक् रूप से अन्वेषण करो अथवा तीर्थकरादि द्वारा जिसे बसाया गया था, उस (मुनित्व) को जीवन में बसायोउतारो। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कर 165. ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए) कामकथा कामोत्तेजक कथा न करे, वासनापर्ण दृष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को न देखे. परस्पर कामक भावोंसंकेतों का प्रसारण न करे. उन पर ममत्वन करे. शरीर की साज-सज्जा से दर (अथवा उनकी वैयाबत्य न करे). वचनगप्ति का पालक वाणी से कामक प्रालाप न करे-वाणी का संयम रखे, मन को भी कामवासना की ओर जाते हए नियंत्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे।। . इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक प्रकार से बसा ले जीवन में उतार ले। विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्नरूप स्त्री-संग का वर्जन तथा विषयों की उग्रता कम करने के लिए तप आदि का निर्देश है। 'स्त्री' एक हौवा है उनके लिए, जिनका मन स्वयं के काबू में नहीं है, जो दान्त, शान्त, एवं तत्वदर्शी नहीं हैं, उन्हीं को स्त्रीजन से भय हो सकता है, अतः साधक पहले यही चिन्तन करे-यह स्त्री-जन मेरा-मेरी ब्रह्मचर्यसाधना का क्या बिगाड़ सकती हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं। एस से परमारामों--पद में 'एस' शब्द से 'स्त्री-जन का ग्रहण न करके 'संयम' ही उसके लिए परम पाराम (सुखरूप) है'---यह अर्थ ग्रहण करना अधिक संगत लगता है। यह निष्कर्ष इसी में से फलित होता है कि मैं तो संयम से सहज प्रात्मसुख में हूँ, यह स्त्री-जन मुझे क्या सुख देगा? यह विषय-सुखों में डुबाकर मुझे असंयमजन्य दुःख-परम्परा में ही डालेगा।' कुन्दकुन्दाचार्य की यह उक्ति ठीक इसी बात पर घटित होती है-- ___ "तिमिरहरा जा विट्ठी, जणस्स दीवेग गस्थि कादम्यं / तप सोक्खं सयमावा विसया कि सत्य कुवंति // "2 --जिसकी दृष्टि ही अन्धकार का हरण करने वाली है, उसे दीपक से कोई काम नहीं होता / आत्मा स्वयं सुखरूप है, फिर उसके लिए विषय किस काम के ? "णिम्बलासए' के दो अर्थ फलित होते हैं--(१) निर्बल-निःसार अन्त-प्रान्तादि पाहार करने वाला और (2) शरीर से निर्बल (कमजोर-कृश) होकर अाहार करे दोनों अर्थों में कार्य-कारण भाव है। पुष्टि कर शक्ति-युक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली बनता है। सशक्त शरीर में कामोद्रक की सम्भावना रहती है। शक्तिहीन भोजन करने से शरीरबल घट जाता है, कामोद्रेक की सम्भावना भी कम हो जाती है और शक्तिहीन शरीर होता हैशक्तिहीन-नि:सार, अल्प एवं तुच्छ भोजन करने से / वास्तव में दोनों उपायों का उद्देश्य कामवासना को शान्त करना है। 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 198 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 198 / 2. प्रवचनसार गाथा 67 / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 164-165 175 'उड्ई ठाणं ठाएज्जा-ऊर्ध्वस्थान मुख्यतया सर्वांगासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। भगवतीसूत्र में इस मुद्रा को 'उड़ जाणू अहो सिरे' के रूप में बताया है। हठयोग प्रदीपिका में भी 'अधःशिराश्योर्चपाव:' का प्रयोग बताया है। इस आसन से कामकेन्द्र शान्त होते हैं, जिससे कामवासना भी शान्त हो जाती है / 'उड्ढं जाण अहो सिरे' का अर्थ उत्कुटिकासन है और 'प्रधःशिराश्चोर्ध्वपाद:' का अर्थ शीर्षासन / जो मनीषी 'उड्ढं....' का अर्थ शीर्षासन लेते हैं, वह आगम-सम्मत नहीं है / अंगशास्त्रों में शीर्षासन का कहीं भी उल्लेख नहीं है। साधक के सुखशील होने पर भी कामवासना उभरती है, इसीलिए कहा गया है'आयावयाहि वय सोगमल्ल' आतापना लो, सुकुमारता को छोड़ो। ग्रामानुग्राम विहार करने से श्रम या सहिष्णुता का अभ्यास होता है, सुखशीलता दूर होती है, विशेषतः एक स्थान पर रहने से होने वाले सम्पर्कजनित मोह-बन्धन से भी छुटकारा हो जाता है / . 'चए इत्यो मण'--स्त्रियों में प्रवृत्त मन का परित्याग करने का प्राशय मन को कहीं और जगह बाँधकर फेंकना नहीं है, अपितु मन को स्त्री के प्रति काम-संकल्प करने से रोकना है, हटाना है; क्योंकि काम-वासना का मूल मन में उत्पन्न संकल्प ही है। इसीसिए साधक कहता है "काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे। . संकल्पं न करिष्यामि, सतो. मे न भविष्यसि // " - 'काम ! मैं तुम्हारे मूल को जानता हूँ कि तू संकल्प से पैदा होता है। मैं संकल्प ही नहीं करूंगा, तब तू मेरे मन में पैदा नहीं हो सकेगा। निष्कर्ष यह है कि सत्र 164 में काम-निवारण के मख्य उपाय बताये गये हैं जो उत्तरोत्तर प्रभावशाली हैं यथा (1) नीरस भोजन करना- विगय-त्याग, (2) कम खानाऊनोदरिका, (3) कायोत्सर्ग-विविध प्रासन करना, (4) ग्रामानग्राम विहार---एक स्थान पर अधिक न रहना, (5) आहार-त्याग:-दीर्घकालीन तपस्या करना तथा (6) स्त्री-संग के प्रति मन को सर्वथा विमुख रखना / इन उपायों में से जिस साधक के लिए जो उपाय अनुकूल और लाभदायी हो, उसी का उसे सबसे अधिक अभ्यास करना चाहिए | जिस-जिस उपाय से विषयेच्छा निवृत्त हो, वह-वह उपाय करना चाहिए। वृत्तिकार ने तो हठयोग जैसा प्रयोग भी बता दिया है-"पर्यन्ते" अपि पातं विवभ्यान अप्युबन्धन कुर्यात्, न च स्त्रीषु मनः कुर्यात् / " सभी उपायों के अन्त में आजीवन सर्वथा आहार-त्याग करे, ऊपर से पात (गिर जाय), उदबन्धन करे, फांसी लगा ले किन्तु स्त्री के साथ अनाचार सेवन की बात भी मन में न लाए / चतुर्ष उद्देशक समाप्त 1. आचा० शीला टोका पत्रांक 198 / 3. अध्याय 1 श्लोक 81 5. प्राचा. शोलाटीका पत्रांक 198 / 2. शतक 1 उद्देशक 9 4. दशवं० 215 6. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 198 / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्काय पंचमो उद्देसओ पंचम उद्देशक आचार्य-महिमा 166. से बेमि, सं जहा---अवि हरवे परिपुण्णे चिठ्ठति समंसि भोमे उवसंतरए सारक्खमाणे / से चिट्ठति सोतमज्झए / से पास सव्वतो गुत्ते / पास लोए महेसिणो जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरता / सम्ममेतं ति पासहा / कालस्स कंखाए परिव्ययंति त्ति बेमि / 166. मैं कहता हूँ-जैसे एक जलाशय (ह्रद) जो (कमल या जल से) परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त (कीचड़ से रहित) है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्रोत के मध्य में स्थित है। (ऐसा ही आचार्य होता है)। इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः (मन, वचन और काया से) गुप्त (इन्द्रिय-संयम से युक्त) महषियों को तू देख, जो उत्कष्ट ज्ञानवान् (आगमज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध हैं और प्रारम्भ से विरत हैं / यह (मेरा कथन) सम्यक् है, इसे तुम अपनी तटस्थ बुद्धि से देखो। . वे काल प्राप्त होने की कांक्षा समाधि-मरण की अभिलाषा से (जीवन के अन्तिम क्षण तक मोक्षमार्ग में) परिव्रजन (उद्यम) करते हैं / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में ह्रद (जलाशय) के रूपक द्वारा प्राचार्य की महिमा बताई गई है 'भवि हरदे...' पाठ में 'अवि' शब्द ह्रद के अन्य विकल्पों का सूचक है। इसलिए वृत्तिकार ने चार प्रकार के ह्रद बताकर विषय का विशद विवेचन किया है (1) एक ह्रद ऐसा है, जिसमें से पानी-जल प्रवाह निकलता है और मिलता भी है, सीता और सीतोदा नामक नदियों के प्रवाह में स्थित ह्रद समान / (2) दूसरा ह्रद ऐसा है, जिसमें से जल-स्रोत निकलता है किन्तु मिलता नहीं, हिमवान पर्वत पर स्थित पद्महदवत् / (3) तीसरा ह्रद ऐसा है, जिसमें से जल-स्रोत निकलता नहीं, मिलता है, लवणोदधि के समान / (4) चौथा ह्रद ऐसा है, जिसमें से न जल-स्रोत निकलता है और न मिलता है, मनुष्यलोक से बाहर के समुद्रों की तरह / श्रुत (शास्त्रज्ञान) और धर्माचरण की दृष्टि से प्रथम भंग में स्थविरकल्पी प्राचार्य आते हैं, जिनमें दान और आदान (ग्रहण) दोनों हैं, वे शास्त्रज्ञान एवं प्राचार का उपदेश देते भी हैं तथा स्वयं भी ग्रहण एवं आचरण करते हैं / दूसरे भंग में तीर्थंकर पाते हैं, जो शास्त्रज्ञान एवं उपदेश देते तो हैं, किंतु लेने की आवश्यकता उन्हें नहीं रहती। तृतीय भंग में 'अहालं दिक' Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 167-168 177 विशिष्ट साधना करने वाला साधु आता है, जो देता नहीं, शास्त्रीय ज्ञान आदि लेता है। चतुर्थ भंग में प्रत्येकबुद्ध पाते हैं, जो ज्ञान न देते हैं, न लेते हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम भंग वाले ह्रद के रूपक द्वारा प्राचार्य की महिमा का वर्णन किया है। प्राचार्य प्राचार्योचित 36 गुणों, पाँच प्राचारों, अष्ट सम्पदाओं एवं निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं / वे संसक्तादि-दोष रहित सुखविहार योग्य (सम) क्षेत्र में रहते हैं, अथवा ज्ञानादि रत्नत्रय रूप समता की भावभूमि में रहते हैं / उनके कषाय उपशान्त हो चुके हैं या मोहकर्मरज उपशान्त हो गया है, षड्जीवनिकाय के या संघ के संरक्षक हैं, अथवा दूसरों को सदुपदेश देकर नरकादि दुर्गतियों से बचाते हैं, श्रुतज्ञान रूप स्रोत के मध्य में रहते हैं, शास्त्रज्ञान देते हैं, स्वयं लेते भी हैं। महेसिणो के संस्कृत में 'महर्षि' तथा 'महषी' दो रूप होते हैं। 'महैषी' का अर्थ हैमहान्---मोक्ष की इच्छा करने वाला। पणाणमंता पबुद्धा-'प्रज्ञावान् और प्रबुद्ध' चूर्णिकार प्रज्ञावान् का अर्थ चौदह पूर्वधारी और प्रबुद्ध का अर्थ मनःपर्यवज्ञानी करते हैं / वर्तमान में प्राप्त शास्त्रज्ञान में पारंगत विद्वान् को भी प्रबुद्ध कहते हैं। 'सम्ममेत ति पासहा का प्रयोग चिन्तन की स्वतन्त्रता का सूचक है / शास्त्रकार कहते हैं--मेरे कहने से तू मत मान, अपनी मध्यस्थ व कुशाग्र बुद्धि से स्वतन्त्र, निष्पाक्ष चिन्तन द्वारा इसे देख। सत्य में हर भद्धा 167. वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि / सिता वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अणुगच्छति / अणुगच्छमाणेहि अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविज्जे? 168. तमेव सच्चं गीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं / 167. विचिकित्सा-प्राप्त (शंकाशील) आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध/गृहस्थ) प्राचार्य का अनुगमन करते हैं, (उनके कथन को समझ लेते हैं) कुछ असित (अप्रतिबद्ध अनगार) भी विचिकित्सादि रहित होकर (प्राचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हा (आचार्य का) अनुगमन न करने वाला (तत्त्व नहीं समझने वाला) कैसे उदासीन (संयम के प्रति खेदखिन्न) नहीं होगा? 1. (क) आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / (ख) आचार, श्रुत, शरीर, बचन, वाचना, मति, प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा, ये आचार्य की आठ गणि-सम्पदाएँ हैं। -आयारदसा 4 पृ० 21 2. देखें; दशवै० 3.1 को अग० चूणि पृ० 59 तथा जिन० चू० पृ० 111, हारि० टीका 116 / –महान्तं एषितु शीलं येषां ते महेसिणो-- 3. चूणि में पाठान्तर--'सिया वि अणुगच्छंति, असिता वि अणुगच्छति एगवा' / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 168. वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है। विवेचन-जिस तत्त्व का अर्थ सरल होता है, वह सुखाधिगम कहलाता है। जिसका अर्थ दुर्बोध होता है, वह दुरधिगम तथा जो नहीं जाना जा सकता, वह अनधिगम तत्त्व होता है / साधारणतः दुरधिगम अर्थ के प्रति विचिकित्सा या शंका का भाव उत्पन्न होता है। यहाँ बताया है कि विचिकित्सा से जिसका चित्त डावाँडोल या कलुषित रहता है, वह प्राचार्यादि द्वारा समझाए जाने पर भी सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रादि के विषय में समाधान नहीं पाता।' विचिकित्सा ----ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों विषयों में हो सकती है / जैसे--"पागमोक्त ज्ञान सच्चा है या झूठा? इस ज्ञान को लेकर कहीं मैं धोखा तो नहीं खा जाऊँगा? मैं भव्य हूँ या नहीं ? ये जो नौ तत्त्व या षट् द्रव्य बताए हैं, क्या ये सत्य हैं ? अर्हन्त और सिद्ध कोई होते हैं या यों ही हमें डराने के लिए इनकी कल्पना की गई है ? इतने कठोर तप, संयम और महाब्रतरूप चारित्र का कुछ सुफल मिलेगा या यों ही ब्यर्थ का कष्ट सहना है ?" ये और इस प्रकार की शंकाएँ साधक के चित्त को अस्थिर, भ्रान्त, अस्वस्थ और असमाधियुक्त बना देती हैं / मोहनीय कर्म के उदय से ऐसी विचिकित्सा होती है / इसी को लेकर गीता में कहा है'संशयात्मा विनश्यति / विचिकित्सा से मन में खिन्नता पैदा होती है कि मैंने इतना जप, तप, संवर किया, संयम पाला, धर्माचरण किया, महावतों का पालन किया, फिर भी मुझे अभी तक केवलज्ञान क्यों नहीं हुआ ? मेरो छ हमस्थ अवस्था नष्ट क्यों नहीं हुई ? इस प्रकार की विचिकित्सा नहीं करनी चाहिए। इस खिन्नता को मिटाकर मन:समाधि प्राप्त करने का आलम्बन सूत्र है-'तमेव सच्च०' आदि / 'समाधि'—समाधि का अर्थ है—मन का समाधान / विषय की व्यापक दृष्टि से इसके चार अर्थ होते हैं (1) मन का समाधान / (2) शंका का निराकरण / (3) चित्त की एकाग्रता और (4) ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप सम्यग्भाव / यह भाव-समाधि कही जाती है। कृतिकार के अनुसार यहाँ समाधि का अर्थ है-ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त चित्त की स्वस्थता / विभिन्न सूत्रों के अनुसार समाधि के निम्न अर्थ भी मान्य हैं। (1) सम्यग् मोक्ष-मार्ग में स्थित होना। (2) राग-द्वेष-परित्याग रूप धर्मध्यान / (3) अच्छा स्वास्थ्य / 6 (4) चित की प्रसन्नता, स्वस्थता / (5) नीरोगता / 8 (6) योग / ' 1. याचा० शीला० टीका पत्रांक 201 / 2. उत्तराध्ययन सूत्र (2 / 40-33) में इस मनःस्थिति को प्रज्ञा-परीषह तथा अज्ञान-परीपह बताया है / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 201 / सम० 20 / 5. सूत्रकृत् 112 / 2 / 6. आव० मल०२। 7. सम० 32 / व्यव० उ०१ 9. उत्तरा० 2 / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 169 179 (7) सम्यगदर्शन, मोक्ष आदि विधि / ' (8) चित्त की एकाग्रता / (9) प्रशस्त भावना / दशवकालिक में चार प्रकार की समाधि का विस्तृत वर्णन है / 'तमेव सच्च'...इस पंक्ति का प्राशय यह है कि साधक को कदाचित् स्व-पर-समय के ज्ञाता प्राचार्य के अभाव में. सूक्ष्म, व्यवहित (काल से दूर), दूरवर्ती (क्षेत्र से दूर) पदार्थों के विषय में दृष्टान्त, हेतु आदि के न होने से सम्यग्ज्ञान न हो पाए तो भी शंका--विचिकित्सादि छोड़ कर अनन्य श्रद्धापूर्वक यही सोचना चाहिए कि वही एकमात्र सत्य है, निःशंक है, जो राग-द्वेष विजेता तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है। कदाचित् कोई शंका उत्पन्न हो जाए, या पदार्थ को सम्यक् प्रकार से नहीं जाना जा सके तो यह भी सोचना चाहिए बीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न अवते क्वचित् / यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् / / मिथ्या भाषण के मुख्य दो कारण हैं----(१) कषाय और (2) अज्ञान / इन दोनों कारणों से रहित बीतराग और सर्वज्ञ कदापि मिथ्या नहीं बोलते / इसलिए उनके वचन तथ्य, सत्य हैं, यथार्थवस्तुस्वरूप के दर्शक हैं। भगवती सूत्र में कांक्षामोहनीय कर्म-निवारण के सन्दर्भ में इसी वाक्य को आधार (आलम्बन) मानकर मन में धारण करने से जिनाज्ञा का पाराधक माना गया है। सम्यक-असम्यक-विवेक 169. सढिस्स णं समणुण्णस्स संपन्वयमाणस्स समियं ति मण्णमाणस्स एगदा समिया होति 1, समियं ति मण्णमाणस्स एगदा असमिया होति 2, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया समिया होति 3, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया असमिया होति 4, समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होति उहाए 5, असमियं ति मण्णमाणस्स समिया वा 1. सूत्रकृत 1 / 13 / / 2. द्वात्रि० द्वा० 11 / 3. स्थानांग 2 / 3 (उक्त सभी स्थल देखें अभि० राजेन्द्र भाग 7 पृ. 419-20) 4. अध्ययन 9 में विनयसमा, तपःसमाधि, आचारसमाधि का सुन्दर वर्णन है / 5. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 201 / (ख) अस्थि णं भते ! समणा वि निग्गंधा कखामोहणिज्ज कम्मं वेति ? हंता अत्यि। कहन समणा वि णिगंधा कखामोहणिज्ज कम्मं वेनेति ? गोपमा ! तेसु तेसु नाणंतरेसु चरितंतरेसु० संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना, भेयसमावना कलुससमायन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणा वि निग्गया कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति / तत्थालंबण! तमेव सच्चं जीसंक जंजिरोहि पवे इयं / / से रण-णं मते ! एवं मणं धारेमाले आणाए आराहए भवति ? ---- एवं मणं धारेमाले आणाए आराहए भवति / " -शतक 1, उ० 3, सूत्र 170 6. 'बया एवं उवह समियाए' यह पाठान्तर चूणि में है। कहता है-इस प्रकार से सम्यक् रूप से पर्या लोचन कर। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध असमिया वा असमिया होति उवेहाए 6 / उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया --उबेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ' संधी झोसितो भवति / से उद्वितस्स ठितस्स गति समणुपासह / एस्थ वि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेज्जा'। 169. श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा (प्राचार्याज्ञा या जिनोपदेश के अनुसार, ज्ञान) शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (1) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक् (मानता) रहता है / (2) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय (ज्ञय की गहनता को न समझ पाने के कारण मति-भ्रमवश) उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है। (3) कोई मुनि (प्रवज्याकाल में) असम्यक् (मिथ्यात्वांश के उदयवश) मानता है किन्तु एक दिन (शंका का समाधान हो जाने से उसका व्यवहार) सम्यक् हो जाता है। (4) कोई साधक (प्रव्रज्या के समय प्रागमोक्त ज्ञान न मिलने से) उसे असम्यक् मानता है. और बाद में भी (कुतर्क-बुद्धि के कारण) असम्यक मानता रहता है। (5) (वास्तव में) जो साधक (निष्पक्षबुद्धि या निर्दोषहृदय से किसी वस्तु को सम्यक् मान रहा है, वह (वस्तु प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में) सम्यक् हो या असम्यक्; उसकी सम्यक् उत्प्रेक्षा (सम्यक् पर्यालोचन-छानबीन या शुद्ध अध्यवसाय) के कारण (उसके लिए) वह सम्यक् ही होती है। (6) (इसके विपरीत) जो साधक किसी वस्तु को असम्यक् मान रहा है, वह (प्रत्यक्षज्ञानियों को दृष्टि में) सम्यक् हो या असम्यक् ; उसके लिए असम्यक् उत्प्रेक्षा (अशुद्ध अध्यवसाय) के कारण वह असम्यक् ही होती है। (इस प्रकार) उत्प्रेक्षा (शुद्ध अध्यवसाय पूर्वक पर्यालोचन) करने वाला उत्प्रेक्षा नहीं करने वाले (मध्यस्थभाव से चिन्तन नहीं करने वाले) से कहता है-सम्यक् भाव समभाव-माध्यस्थ्यभाव से उत्प्रेक्षा (पर्यालोचना) करो। इस (पूर्वोक्त) प्रकार से व्यवहार में होने वाली सम्यक्--असम्यक् की गुत्थी (संधि) सुलझाई जा सकती है। (अथवा इस पद्धति से (मिथ्यात्वादि के कारण होने वाली) कर्मसन्ततिरूप सन्धि तोड़ी जा सकती है / ) तुम (संयम में सम्यक् प्रकार से) उत्थित (जागृत-पुरुषार्थवान्) और स्थित (संयम में शिथिल) की गति देखो। तुम बाल भाव (अज्ञान-दशा) में भी अपने पापको प्रदर्शित मत करो। 1. यहाँ तत्व-तत्थ दो बार हैं। चूणिकार व्याख्या करते हैं-"तत्थ-तत्थ नाणंतरे, दसणचरित्तंतरे लिंगतरे वा संधाणं संधी ।----इस प्रकार वहाँ वहाँ ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर और वेशान्तर में होने वाली समस्या (संधि) सुलझाई जा सकती है। 2. 'णो दरिसिज्जा' पाठान्तर चूरिण में है, जिसका अर्थ होता है-'मत दिखाओ' / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 170 विवेचन—सब श्रमण-अात्मसाधक प्रत्यक्षज्ञानी नहीं होते और न ही सबका ज्ञान, तर्कशक्ति, बुद्धि, चिन्तनशक्ति, स्फुरणाशक्ति, स्मरणशक्ति, निर्णयशक्ति, निरीक्षण-परीक्षण शक्ति एक-जैसी होती है, साथ ही परिणामों-अध्यवसायों की धारा भी सबकी समान नहीं होती, न सदा-सर्वदा शुभ या अशुभ ही होती है। अतीन्द्रिय (अनधिगम्य) पदार्थों के विषय में तो वह 'तमेव सध्वं' का पालम्बन लेकर सम्यक (सत्य) का ग्रहण और निश्चय कर सकता है, किन्तु जो पदार्थ इन्द्रियप्रत्यक्ष हैं, या जो व्यवहार-प्रत्यक्ष हैं, उनके विषय में सम्यकअसम्यक् का निर्णय कैसे किया जाय? इसके सम्बन्ध में सूत्र 169 में पहले तो साधक के दीक्षा-काल और पश्चात्काल को लेकर सम्यक-असम्यक की विवेचना की है, फिर उसका निर्णय दिया है। जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ एवं निष्पक्ष है, जिसका हृदय शुद्ध व सत्यग्नाही है, वह व्यबहारनय से किसी भी वस्तु, व्यक्ति या व्यवहार के विषय को सम्यक् मान लेता है तो वह सम्यक् ही है और असम्यक् मान लेता है तो असम्यक् ही है, फिर चाहे प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में वास्तव में वह सम्यक् हो या असम्यक् / / यहाँ 'उबहाए' शब्द का संस्कृत रूप होता है-उत्प्रेक्षया / उसका अर्थ शुद्ध अध्यवसाय या मध्यस्थष्टि, निष्पक्ष सत्यग्राही बुद्धि, शुद्ध सरल हृदय से पर्यालोचन करना है।' गति के 'दशा' या 'स्वर्ग-मोक्षादिगति' अर्थ के सिवाय वृत्तिकार ने और भी अर्थ सूचित किये हैं-ज्ञान-दर्शन की स्थिरता, सकल-लोकश्लाघ्यता. पदवी, श्रुतज्ञानाधारता, चारित्र में निष्कम्पता।' अहिंसा की व्यापक दृष्टि 170. तुमं सि णाम तं चेव जंहंतव्वं ति मणसि, तमं सि णाम तं चेव जं अज्जावेतवं ति मण्णसि, तुमंसि णाम तं चेव जं परितावेतव्वं ति मण्यसि, तुम सि णाम तं चेव ज परिघेतव्वं ति मण्णसि, एवं तं चेव जं उद्दवेतन्वं ति मणसि / अंजू चेयं पडिबुद्धजीवी / तम्हा ग हता, ण वि धातए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जे हंतव्वं णाभिपत्थए। 170. तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है। तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 202 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 203 / 3. 'तं चेय' के बदले सच्चेष पाठ है। 4. 'जहंतवं णाभिपत्थए' की व्याख्या चूणि में यों है—'जमिति जम्हा कारणा, हंतव्वं मारेयन्वमिति, ण पडिसेहे, अभिमुहं पत्थए।"-जिस कारण से उसे मारना है, उसकी ओर (तदभिमुख) इच्छा भी न करो। 'न' प्रतिषेध अर्थ में है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। ज्ञानी पुरुष ऋजु (सरलात्मा) होता है, वह (परमार्थतः हन्तव्य और हन्ता की एकता का) प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है। इस (आत्मैक्य के प्रतिबोध) के कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है। (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है।) ___ कृत-कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी ' का हनन करने की इच्छा मत करो। विवेचन--'तुम सि गाम तं चेव' इत्यादि सूत्र में भगवान् महावीर ने आत्मौपम्यवाद (आयतुले पयासु) का निरूपण करके सर्व प्रकार की हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया है। दो भिन्न प्रात्माओं के सुख या दुःख की अनुभूति (संवेदन) की समता सिद्ध करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है। इसका तात्पर्य है.--'दूसरे के द्वारा किसी भी रूप में तरी हिंसा की जाने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही अनुभूति उस प्राणी को होगी, जिसकी तू किसी भी रूप में हिंसा करना चाहता है। इसका एक भाव यह भी है कि तू किसी अन्य की हिंसा करना चाहता है, पर वास्तव में यह उसकी (अन्य की) हिंसा नहीं, किन्तु तेरी शुभवत्तियों की हिंसा है, अत: तेरी यह हिंसा-वृत्ति एक प्रकार से आत्म-हिंसा (स्व-हिंसा) ही है। 'अंजू' का अर्थ ऋजु-सरल, संयम में तत्पर, प्रबुद्ध साधु होता है। यहाँ पर यह प्राशय प्रतीत होता है--ऋजु और प्रतिबुद्धजीवी बनकर ज्ञानी पुरुष हिंसा से वचे, किसी भय, प्रलोभन या छल-बल से नहीं / 'अणुसंवेयणमप्पाणेणं'-में अनुसंवेदन का अर्थ यह भी हो सकता है कि तुमने दूसरे जीव को जिस रूप में वेदना दी है, तुम्हारी आत्मा को भी उसी रूप में वेदना की अनुभूति होगी; वेदना भोगनी होगी। आत्मा हो विज्ञाता 171. जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता। जेण विजाणति से आता / तं पडुच्च पडिसंखाए / एस आतावादी समियाए परियाए वियाहिते त्ति बेमि। // पंचमो उद्देसओ समत्तो॥ 171. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है; क्योंकि (मति आदि) ज्ञानों से प्रात्मा (स्व-पर को) जानता है, इसलिए वह आत्मा है। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 204 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 204 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 204 / 4. 'एस आतावादी' के बदले चूमि में 'एस आतावाते' पाठ है / अर्थ किया है-अप्पणो वातो आता वातो। -यह आत्मवाद है, अर्थात् आत्मा का (अपना) वाद - प्रात्मवाद होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 172 183 उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से प्रात्मा को (विभिन्न नामों से) प्रतीति--पहचान होती है / यह आत्मवादी सम्यक्ता (सत्यता या शमिता) का पारगामी (या सम्यक् भाव से दीक्षा पर्यायवाला) कहा गया है। विवेचन-'जे आता से विष्णाता०' तथा 'जेण विजाणाति से आता' इन दो पंक्तियों द्वारा शास्त्रकार ने प्रात्मा का लक्षण द्रव्य और गुण दोनों अपेक्षाओं से बता दिया है। चेतन ज्ञाता द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है / यहाँ ज्ञान (चेतन्य) से आत्मा (चैतन) की अभिन्नता तथा ज्ञान प्रात्मा का गुण है, इसलिए आत्मा से ज्ञान की भिन्नता दोनों बता दी हैं / द्रव्य और गुण न सर्वथा भिन्न होते हैं, न सर्वथा अभिन्न। इस दृष्टि से अात्मा (द्रव्य) और ज्ञान (गुण) दोनों न सर्वथा अभिन्न हैं, न भिन्न / गुण द्रव्य में ही रहता है और द्रव्य का ही अंश है, इस कारण दोनों अभिन्न भी हैं और आधार एवं प्राधेय की दृष्टि से दोनों भिन्न भी हैं। दोनों की अभिन्नता और भिन्नता का सूचन भगवती सूत्र' में मिलता है "जोवे मं भंते ! जो जीवे जीवे ?" "गोयमा, जोवे ताव नियमा जोवे, जीवे वि नियमा जीवे। --भंते ! जीव चैतन्य जीव है ?" "गौतम ! जीव नियमतः चैतन्य है, चैतन्य भी नियमतः जीव है।" निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी (ज्ञाता) और ज्ञान दोनों प्रात्मा हैं / ज्ञान ज्ञानी का प्रकाश है। इसी प्रकार ज्ञान की क्रिया (उपयोग) घट-पट आदि विभिन्न पदार्थों को जानने में होती है / अतः ज्ञान से या ज्ञान की क्रिया से ज्ञेय या ज्ञानी आत्मा को जान लिया जाता है। सार यह है कि जो ज्ञाता है, वह तू (आत्मा) ही है, जो तू है, वही ज्ञाता है। तेरा ज्ञान तुझ से भिन्न नहीं है। // पंचम उद्देशक समाप्त // आज्ञा-निर्देश छट्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक 172. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे णिरुवट्ठाणा / एतं ते मा होतु। एतं कुसलस्स दसणं / तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे अभिभूय अदक्ख / 1. शतक 6 / उद्देशक 10 सूत्र 174 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 205 / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अणभिभूते पभूणिरालंबणताए, जै" मह अबहिमणे / पवावेण पवायं जागेज्जा तहसम्मइयाए' परवागरणेणं अण्णेसि वा सोच्चा। 173. णिसं णातिवत्त ज्ज मेहावी सुपडिलेहिय सम्वओ सम्बताए सम्ममेव समभिजाणिया। हं आरामं परिण्णाय अल्लीणगुत्तो परिस्वए। निठ्ठियही वीरे आगमेणं सदा परक्कमेज्जासि त्ति बेमि / 172. कुछ साधक अनाज्ञा (तीर्थकर की अनाज्ञा) में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक अाज्ञा में अनुद्यमी होते हैं / ___ यह (अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम) तुम्हारे जीवन में न हो। यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग-दर्शन-कुशल तीर्थकर का दर्शन (अभिमत) है। साधक उसी (तीर्थकर महावीर के दर्शन) में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी (तीकर्थर के दर्शनानुसार) मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, (अथवा उसी में मुक्त मन से लीन हो जाए), सब कार्यों में उसे आगे करके प्रवृत्त हो, उसी के संज्ञानस्मरण में संलग्न रहे, उसी में चित्त को स्थिर कर दे, उसी का अनुसरण करे / जिसने परीषह-उपसर्गों-बाधाओं तथा घातिकर्मों को पराजित कर दिया है, उसी ने तन्व (सत्य) का साक्षात्कार किया है। जो (परीषहोपसर्गों या विघ्न-बाधाओं से) अभिभूत नहीं होता, वह निरालम्बनता (निराश्रयता-स्वावलम्बन) पाने में समर्थ होता है। जो महान् (मोक्षलक्षी लघुकर्मा) होता है (अन्य लोगों की भौतिक अथवा यौगिक विभूतियों व उपलब्धियों को देखकर) उसका मन (संयम से) बाहर नहीं होता। प्रवाद (सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन) से प्रवाद (विभिन्न दार्शनिकों या तीथिकों के वाद) को जानना (परीक्षण करना) चाहिए। (अथवा) पूर्वजन्म की स्मृति से (या सहसा उत्पन्न मति-प्रतिभादि ज्ञान से), तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर (या व्याख्या सुनकर), या किसी अतिशय ज्ञानी या निर्मल श्रुत ज्ञानी प्राचार्यादि से सुन कर (प्रवाद के यथार्थ तन्व को जाना जा सकता है)। 173. मेधावी निर्देश (तीर्थकरादि के आदेश-उपदेश) का अतिक्रमण न करे / 1. 'जे महं अबहिमणे' का चूणि में अर्थ यों है-जे इति णिह से, ‘अहमेव सो जो अबहिमणो'- अर्थात् 'जे' निर्देश अर्थ में हैं / 'जो अबहिर्मना है, वह मैं हूँ।' वह मेरा ही अंगभूत है। 2. 'सहसम्मुइयाए' 'सह समुतियाए' ये दोनों पाठान्तर मिलते हैं। परन्तु 'सहसम्मइयाए' पाठ समुचित लगता है। 3. 'सुपडिलेहिय' का अर्थ चूर्णि में किया गया है—'सयं भगवता सुष्ठु पडिलेहितं विण्णातं तमेव सिद्धतं भागवतं / ' -स्वयं भगवान् ने सभ्यक प्रकार से विशेष रूप से (अपने केवलज्ञान के प्रकाश में) जाना है, वही भागवत सिद्धान्त है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 172-173 185 वह सब प्रकार से (हेय-ज्ञय-उपादेयरूप में तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप में) भली-भांति विचार करके सम्पूर्ण रूप से (सामान्य-विशेषात्मक रूप से सर्व प्रकार) (पूर्वोक्त जाति-स्मरण आदि तीन प्रकार से) साम्य (सम्यक्त्व-यथार्थता) को जाने / इस सत्य (साम्य) के परिशीलन में आत्म-रमण (आत्म-सुख) की परिज्ञा करके आत्मलीन (मन-वचन-काया की गुप्तियों से गुप्त) होकर विचरण करे। मोक्षार्थी अथवा संयम-साधना द्वारा निष्ठितार्थ (कृतार्थ) वीर मुनि आगम-निर्दिष्ट अर्थ या आदेश-निर्देश के अनुसार सदा पराक्रम करे / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस उद्देशक में तीर्थंकरों की आज्ञा-अनाज्ञा के अनुसार चलने वाले साधकों का वर्णन किया गया है / तत्पश्चात् आसक्ति-त्याग से सम्बन्धित निर्देश किया गया है और अन्त में परमात्मा के स्वरूप की झांकी दी गयी है, जो कि लोक में सारभूत पदार्थ है। _ 'सोवटठाणा णिस्वट्ठाणा'-ये दोनों पद आगम के पारिभाषिक शब्द हैं। वृत्तिकार इनका स्पष्टीकरण करते हैं कि दो प्रकार के बाधक होते हैं (1) अनाज्ञा में सोपस्थान और (2) आज्ञा में निरुपस्थान / 'उपस्थान' शब्द यहाँ उद्यत रहने या उद्यम पुरुषार्थ करने के अर्थ में है। अनाज्ञा का अर्थ तीर्थंकरादि के उपदेश से विरुद्ध, अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पित मार्ग का अनुसरण करना या कल्पित अनाचार का सेवन करना है। ऐसी अनाज्ञा में उद्यमी वे होते हैं, जो इन्द्रियों के वशवर्ती (दास) होते हैं, अपने ज्ञान, तप, संयम, शरीर-सौन्दर्य, वाक्पटुता आदि के अभिमान से ग्रस्त होते हैं, सद्-असद् विवेक से रहित और हम भी प्रव्रज्या ग्रहण किये हुए साधक हैं', इस प्रकार के गर्व से युक्त होते हैं। वे धर्माचरण की तरह प्रतीत होने वाले अपने मन-माने सावध आचरण में उद्यम करते रहते हैं और आज्ञा में अनुद्यमी वे होते हैं, जो आज्ञा का प्रयोजन, महत्व और उसके लाभ समझते हैं, कुमार्ग से उनका अन्तःकरण वासित नहीं है, किन्तु पालस्य, दीर्घसूत्रता, प्रमाद, गफलत, संशय, भ्रान्ति, व्याधि, जड़ता (बुद्धिमन्दता), प्रात्मशक्ति के प्रति अविश्वास आदि के कारण तीर्थकरों द्वारा निर्दिष्ट धर्माचरण के प्रति उद्यमवान् नहीं होते हैं। यहाँ दोनों ही प्रकार के साधकों को ठीक नहीं बताया है। कुमार्गाचरण और सन्मार्ग का अनाचरण दोनों ही त्याज्य हैं। तीर्थंकर का दर्शन है-अनाज्ञा में निरुद्यम और प्राज्ञा में उद्यम करना।' तहिटठीए' आदि पदों का अर्थ वृत्तिकार ने तीर्थंकर-परक और प्राचार्य-परक दोनों ही प्रकार से किया है। दोनों ही अर्थ संगत हैं क्योंकि दोनों के उपदेश में भेद नहीं होता। इससे पूर्व की पंक्ति है—'एतं कुसलस्स दसणं / ' 'अभिभूय और अभिभूते'-मूल में ये दो शब्द ही मिलते हैं, किससे और कैसे ? यह वहाँ नहीं बताया गया है, किन्तु पंक्ति के अन्त में 'पभूणिरालंबणताए' पद दिये हैं, इनसे ध्वनित होता है कि निरालम्बी (स्वावलम्बी) बनने में जो बाधक तत्त्व हैं, उन्हें अभिभूत कर देने पर 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 205 ! 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 206 / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्छ ही साधक अनभिभूत होता है, वही निरवलम्बी (स्वाश्रयी) बनने में समर्थ होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में निरालम्बी की विशेषता बताते हुए कहा गया है "निरालम्बी के योग (मनवचन-काया के व्यापार) अात्मस्थित हो जाते हैं / वह स्वयं के लाभ में सन्तुष्ट रहता है, पर के द्वारा हुए लाभ में रुचि नहीं रखता, न दूसरे से होने वाले लाभ के लिए ताकता है, न दूसरे से अपेक्षा या स्पृहा रखता है, न दूसरे से होने वाले लाभ की प्राकांक्षा करता है। इस प्रकार पर से होने वाले लाभ के प्रति अरुचि, अप्रतीक्षा, अनपेक्षा, अस्पृहा या अनाकांक्षा रखने मे वह साधक द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त करके विचरण करता है।' - वत्तिकार के अनुसार 'अभिभूय' का आशय है-'परीषह, उपसर्ग या घातिकर्मचतुष्टय को पराजित करके।' वस्तुतः साधना के बाधक तत्वों में परीषह, उपसर्ग (कष्ट) आदि भी हैं, घातिकर्म भी हैं,२ भौतिक सिद्धियाँ, यौगिक उपलब्धियाँ या लब्धियाँ भी बाधक हैं, उनका सहारा लेना आत्मा को पंगु और परावलम्बी बनाना है। इसी प्रकार दूसरे लोगों से अधिक सहायता की अपेक्षा रखना भी पर-मुखापेक्षिता है, इन्द्रिय-विषयों, मन के विकारों आदि का सहारा लेना भी उनके वशवर्ती होना है, इससे भी आत्मा पराश्रित और निर्बल होता है / निरवलम्बी अपनी ही उपलब्धियों में सन्तुष्ट रहता है। वह दूसरों पर या दूसरों से मिली हुई सहायता, प्रशंसा या प्रतिष्ठा पर निर्भर नहीं रहता। साधक को प्रात्म-निर्भर (स्व-अवलम्बी) बनना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रत्येक साधक को धर्म और दर्शन के क्षेत्र में स्वतन्त्र चिन्तन का अवकाश दिया। उन्होंने दूसरे प्रवादों की परीक्षा करने की छूट दी। कहा-'मुनि अपने प्रवाद (दर्शन या वाद) को जानकर फिर दूसरे प्रवादों को जाने-परखे। परीक्षा के समय पूर्ण मध्यस्थता-निष्पक्षता एवं समत्वभावना रहनी चाहिए। स्व-पर-वाद का निष्पक्षता के साथ परीक्षण करने पर वीतराग के दर्शन की महत्ता स्वतः सिद्ध हो जाएगी। आसक्ति-त्याग के उपाय 174. उड्ढं सोता अहे सोता तिरियं सोता वियाहिता / एते सोया वियक्खाता जेहि संग ति पासहा // 12 // "आवट्टमेयं तु पेहाए एत्थ बिरमेज्ज बेदवी / 1. 'निरालंबणस्त य आयपट्ठिया जोगा भवन्ति / सएणं लाभेण संतुस्सइ, परलाम मो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ / परलाभ आणासाययाले, मतस्केमारणे, अपोहेमाले, अपत्थेमाले, अणमिलसमाणे, दुच्चं सुहसेज्ज उपसंपज्जिताणं विहरइ। --उत्तराध्यय नसूत्र 2934 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 206 / 3. (आयारो) पृष्ठ 223 / 4. आवट्टमेयं तु पेहाए' के बदले चूणि में 'अट्टमेयं तुबेहाए' पाठ मिलता है। अर्थ किया गया है-'राग दोसषसट्ट कम्मबंधगं उवेहेत्ता' - रागद्वेष के वश पीड़ित होने से हुए कर्मबन्ध का विचार करके-1 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 174-175 187 . 175. विणएत्त सोतं निक्खम्म एस महं अकम्मा जाणति, पासति, पडिलेहाए गावकंखति। 174. ऊपर (प्रासक्ति के) स्रोत हैं, नीचे स्रोत है, मध्य में स्रोत (विषयासक्ति के स्थान हैं, जो अपनी कर्म-परिणतियों द्वारा जनित) हैं। ये स्रोत कर्मों के प्रास्रवद्वार कहे गये हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो। (राग-द्वेष-कषाय-विषयावर्तरूप) भावावर्त का निरीक्षण करके प्रागमविद् (ज्ञानी) पुरुष उससे विरत हो जाए। 175. विषयासक्तियों के या आस्रवों के स्रोत को हटा कर निष्क्रमण (मोक्षमार्ग में परिव्रजन) करने वाला यह महान साधक अकर्म (घातिकमों से रहित या ध्यानस्थ) होकर लोक को प्रत्यक्ष जानता, देखता है। (इस सत्य का) अन्तनिरीक्षण करने वाला साधक इस लोक में (अपने दिव्य ज्ञान से) संसार-भ्रमण और उसके कारण की परिज्ञा करके उन (विषय-सुखों) की प्राकांक्षा नहीं करता। विवेचन -'उड़त सोता.'-- इत्यादि सूत्र में जो तीनों दिशाओं या लोकों में स्रोत बताए हैं, वे क्या हैं ? वृत्तिकार ने इस पर प्रकाश डाला है-"स्रोत हैं—कर्मों के प्रागमन (पासव) के द्वार; जो तीनों दिशाओं या लोकों में हैं / ऊर्ध्वस्रोत हैं---वैमानिक देवांगनारों या देवलोक के विषय-सुखों की प्रासक्ति / इसी प्रकार अधोदिशा में हैं--भवनपति देवों के विषय-सुखों में आसक्ति, तिर्यकलोक में व्यन्तर देव, मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी विषय-सुखासक्ति। इन स्रोतों से साधक को सदा सावधान रहना चाहिए।" एक दृष्टि से इन स्रोतों को ही आसक्ति (संग) समझना चाहिए / मन की गहराई में उतरकर इन्हें देखते रहना चाहिए / इन स्रोतों को बन्द कर देने पर ही कर्मबन्धन बन्द होगा। कर्मबन्धन सर्वथा कट जाने पर ही अकर्मस्थिति आती है, जिसे शास्त्रकार ने कहा--"अकम्मा जाणति, पासति / " मुक्तात्म-स्वरूप 176. इह आगति गति परिणाय अच्चेति जातिमरणस्स बडुमगं वक्खातरते। सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ ण' विज्जति, 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 207 / 2. 'वडुमग्ग' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-बामग्गो पंयो बदुमग्गं ति पंथानम् / वटुमार्ग का अर्थ है वटमार्ग-रास्ता। 3. इसका अर्थ चूणिकार ने किया है-वक्खायरतो सुते अत्थे ' -सूत्र और अर्थ की पाख्या (जो की गई. है) में रत है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 आचासंग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध मती तत्थ ण माहिया / ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेत्तण्णे। से ण दोहे, ण हस्से, ण बट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, न किण्हे, ण णोले, ण लोहिते, ण हालिद्दे, ण सुश्किले, ण सुभिगंधे, ण दुन्भिगंधे, ण तित्त, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध, ण लुक्खे, ण काऊ' ण रहे, ण संगे, ण इत्थी', ण पुरिसे, ण अण्णहा / परिगणे, सण्णे। उवमा ण विज्जति / अरूवी सत्ता। अपदस्स पदं स्थि। से ण सद्दे, ण रूवे, ण रसे, ण फासे, इच्चेतावंति ति बेमि / // लोगसारो पंचमं अज्झयणं समत्तो।। 176. इस प्रकार वह जीवों की गति-प्रागति (संसार भ्रमण) के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यात-रत (मोक्ष-मार्ग में स्थित) मुनि जन्म-मरण के वृत्त (चक्राकार) मार्ग को पार कर जाता है (अतिक्रमण कर देता है)। (उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं-(परमात्मा का स्वरूप शब्दों के द्वारा कहा नहीं जा सकता), वहाँ कोई तर्क नहीं है (तर्क द्वारा गम्य नहीं है)। वहाँ मति (मनन रूप) भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है)। वहाँ (मोक्ष में) वह समस्त कर्ममल से रहित प्रोजरूप (ज्योतिस्वरूप) शरीर रूप प्रतिष्ठान--प्राधार से रहित (अशरीरी) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) ही है। वह (परमात्मा या शुद्ध प्रात्मा) न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है। वह न कृष्ण (काला) है, न नीला है, न लाल.है, न पीला है और न शुक्ल (श्वेत) है। न वह सुगन्ध----(युक्त) है और न दुर्गन्ध-(युक्त) है। वह न तिक्त (तीखा) है, न कड़वा है, न कसैला है, न खट्टा है 1. 'काऊ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-'काउग्गहणेणं लेस्साओ गहिताओ—'काऊ' शब्द से यहाँ लेश्या ____ का ग्रहण किया गया है / 2. यहाँ चूणि में पाठान्तर है—ण इस्थिवेदगो, ण णपु सगवेदगो ग अण्णहत्ति / अर्थात्-वह (परमात्मा) न स्त्रीवेदी है, न न सकवेदी है और न ही अन्य है (यानी पुरुषवेदी हैं)। 3. इच्चेतावति की चूर्णिसम्मन्न व्याख्या इस प्रकार है- "इति परिसमत्तीए, एतावंति त्ति तस्स परियाता, एतावति य परियायविसेसा इति / " इति समाप्ति अर्थ में है। इतने ही उसके पर्याय विशेष हैं। उपनिषद् में भी 'नेति नेति' कह कर परमात्मा की परिभाषा के विषय में मौन अंगीकार कर लिया है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 176 189 और न मोठा (मधुर) है, वह न कर्कश है, न मृदु (कोमल) है, न गुरु (भारी) है, न लघु (हलका) है, न ठण्डा है, न गर्म है, न चिकना है, और न रूखा है। वह (मुक्तात्मा) कायवान नहीं है। वह जन्मधर्मा नहीं (अजन्मा) है, वह संगरहित--- (असंग-निर्लेप) है, वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नसक है। वह (मुक्तात्मा) परिज्ञ है, संज्ञ (सामान्य रूप से सभी पदार्थ सम्यक् जानता) है। वह सर्वतः चैतन्यमय-ज्ञानधन है। (उसका बोध कराने के लिए) कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी (अमूर्त) सत्ता है। वह पदातीत (अपद) है, उसका बोध कराने के लिए कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। बस, इतना ही है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-परमात्मा (मुक्तात्मा) का स्वरूप सूत्र 176 में विशदरूप से बताया गया हैं, परन्तु वहाँ उसे जगत में पुनः लौट आने वाला या संसार की रचना करने वाला (जगत्कर्ता) नहीं बताया गया है। परमात्मा जब समस्त कर्मों से रहित हो जाता है, तो संसार में लौटकर पुनः कर्मबन्धन में पड़ने के लिए क्यों आएगा? योगदर्शन में मुक्त-आत्मा (ईश्वर) का स्वरूप इस प्रकार बताया है क्लेश-कर्म-विपाकाशपरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।" -क्लेश, कर्म, विपाक और प्राशयों (वासनाओं) से अछूता जो विशिष्ट पुरुष-- (आत्मा) है, वही ईश्वर है / ___ इसीलिए यहाँ कहा-'अध्चेति जातिमरणस्स बट्टमग्ग'-वह जन्म-मरण के वृत्तमार्ग (चक्राकार) मार्ग का अतिक्रमण कर देता है। // छठा उद्देशक समाप्त // // लोकसार पंचम अध्ययन समाप्त // 1. आचा० शोला० टोका पत्रांक 208 / 2. योगदर्शन 1124 // विशेष--वैदिक ग्रन्थों में इसी से मिलता-जुलता ब्रह्म या परमात्मा का स्वरूप मिलता है, देखिए "अशम्बमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् / अनाघनन्ते महतः परं ध्रवं. निचाग्य तन्मृत्युमुखतु प्रमुच्यते // ' -फेठोपनिषद् 113 / 15 'यत्तवदृश्यमब्राह्ममवर्णमचमुधोत्रं तदपाणिपादम् / / नित्यं वि सर्वगतं सुसूक्ष्म तदव्ययं यदभूत योनि नश्यन्ति धीराः / -मुण्डकोपनिषद् 6 / 116 'यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह। . आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्, न बिभेति कदाचन / " . तैत्तिरीय उपनिषद् 2 / 4 / 1 ते होवा घेतदवेतवक्षरं गार्गि ! ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थलमनवहस्वमदोघमिलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाप्वनाकाशमसंगमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनेऽतेजस्कमप्राणाऽमुखममात्रमनन्तरमबाह्य न तदश्नाति किचन, न तदश्नाति कश्चन / -बृहदारण्यक 31818 / 4 / 5 / 14 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धूत' छठा अध्ययन प्राथमिक * प्राचारांग सूत्र के इस छठे अध्ययन का नाम है- 'धूत' / * 'धूत' शब्द यहाँ विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है प्रकाम्पत व शुद्ध / * वस्त्रादि पर से धूल आदि झाड़कर उसे निर्मल कर देना द्रव्यधूत कहलाता है। भावधूत . वह है, जिससे अष्टविध कर्मों का धूनन (कम्पन, त्याग) होता है।' . अतः त्याग या संयम अर्थ में यहाँ भावधूत शब्द प्रयुक्त है। * वैसे धूत शब्द का प्रयोग विभिन्न शास्त्रों में यत्र-तत्र विभिन्न अर्थों में हुआ है। * धूत नामक अध्ययन का अर्थ हुग्रा-जिसमें विभिन्न पहलुओं से स्वजन, संग, उपकरण आदि विभिन्न पदार्थों के त्याग (धूनन) का प्रतिपादन किया गया है, वह अध्ययन / * धूत अध्ययन का उद्देश्य है-साधक संसारवृक्ष के बीजरूप कर्मों (कर्मबन्धों) के विभिन्न कारणों को जानकर उनका परित्याग करे और कर्मों से सर्वथा मुक्त (अव धूत) बने। * सरल भाषा में 'धूत का अर्थ है-कर्मरज से रहित निर्मल पात्मा अथवा संसार-वासना का त्यागी-अनगार / 1. 'रख्यधुतं वत्यादि, भावधुयं कम्ममढविहं ।'-प्राचा० नियुक्ति गा० 250 / 2. 'धूयतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तद धूतम् संयमानुष्ठाने।' ~~-सूत्रकृत् 1 1 0 2 अ०२ (क) 'संयमे, मोक्ष'--सूत्रकृत् 1 श्रु० 7 अ० (ख) अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग 4 पृ० 2758 में अपनीत, कम्पित, स्फोटित और क्षिप्त अर्थ में 'धूत' शब्द के प्रयोग बताये हैं / (ग) दशवकालिक सूत्र 3 / 13 में 'धुयमोह'-धुतमोह शब्द का प्रयोग हुआ है / चणिकार अगस्त्यसिंह ने इसका 'विकीर्ण-मोह तथा जिनदासमणी ने 'जितमोह' अर्य किया है। -दसवेप्रालियं पृष्ठ 95 4. 'घृतं संगानां त्यजनम्, तत्प्रतिपादकमध्ययनं धूतम् ।'-स्था० वृत्ति० स्थान 9 5. आचारांग नियुक्ति मा० 251 / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : प्राथमिक * धूत अध्ययन के पांच उद्देशक हैं / प्रत्येक उद्देशक में भावधूत के विभिन्न पहलुमों को लेकर सूत्रों का चयन-संकलन किया गया है। V स्वजन-परित्यागरूप प्रथम उद्देशक में धूत का निरूपण है। द्वितीय उद्देशक में संग-परित्यागरूप धूत का वर्णन है। तीसरे उद्देशक में उपकरण, शरीर एवं परति के धूनन (त्याग) का प्रतिपादन है। न चौथे उद्देशक में अहंता (त्रिविध गोरव) त्याग, एवं संयम में पराक्रम-धूत का वर्णन हैम. पांचवे उद्देशक में तितिक्षा, धर्माख्यान एवं कषाय-परित्यागरूप धूत का सांगोपांग उपदेश है।' * इस अध्ययन की सूत्र संख्या 177 से प्रारम्भ होकर सूत्र 198 पर समाप्त है। . 1. प्राचारांगनियुक्ति मा० 249-250, प्राचा० शीला, टीका पृ 21 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धुयं छठ्ठमझयणं पढमो उद्देसओ धूत : छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक सम्यग्ज्ञान का आख्यान. 177. ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाई' से गरे, जस्स इमाओ जातीओ सव्यतो सुपडिलेहिताओ भवंति आधाति से णाणमणेलिसं / किट्टति तेसि समुठ्ठिताणं निविखत्तदंडाणं पष्णाणमंताणं इह मुत्तिमम्गं / 177. इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता (अवबुद्ध) वह (अतीन्द्रिय ज्ञानी या श्र तकेवली) पुरुष (ज्ञान का धार्मिक ज्ञान का) पाख्यान करता है। जिसे ये जीव-जातियाँ (समग्र संसार) सब प्रकार से भली-भांति ज्ञात होती हैं, वहीं विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है / वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति-मार्ग का निरूपण (यथार्थ आख्यान) करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने दण्डरूप हिंसा का त्याग कर स्वयं को संयमित किया है, जो समाहित (एकाग्रचित्त या तप-संयम में उद्यत) है तथा सम्यग् ज्ञानवान् हैं। विवेचन–प्रथम उद्देशक में धूतवाद की परिभाषा समझाने से पूर्व सम्यग्ज्ञान एवं मोह से आवृत जीवों की विविध दुःखों और रोगों से आक्रान्त दशा का सजीव वर्णन प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् स्वयंस्फूर्त तत्वज्ञान के सन्दर्भ में स्वजन-परित्याग रूप धूत का दिग्दर्शन कराया गया है। ..."आधाई से गरे' इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने जैनधर्म के एक महान् सिद्धान्त की ओर संकेत किया है कि जब भी धर्म का, ज्ञान का, या मोक्ष-मार्ग विषयक तत्त्वज्ञान का प्ररूपण किया जाता है, वह ज्ञानी पुरुष के द्वारा ही किया जाता है, वह अपौरुषेय नहीं होता, न ही बौद्धों की तरह दोवार आदि से धर्मदेशना प्रकट होती है, और न वैशेषिकों की तरह उलकभाव से पदार्थों का आविर्भाव होता है। चार घातिकर्मों के क्षय हो जाने पर केवलज्ञान से सम्पन्न होकर मनुष्य-देह से युक्त (भवोपनाही कर्मों के रहते मनुष्यभाव में स्थित) तथा स्वयं कृतार्थ होने पर भी प्राणियों के हित के लिए धर्मसभा/समवसरण में वह नरपुङ्गव धर्म ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं / अतीन्द्रिय ज्ञानी या श्र तकेवली भी धर्म या असाधारण ज्ञान का व्याख्यान कर सकते हैं, जिनके विशिष्ट ज्ञान के प्रकाश में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की प्राणिजातियां सूक्ष्म 1. पाठान्तर है-- अग्धादि, अक्खादि, अग्धाति, अग्धाइ / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 षष्ट अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 17778 बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि रूपों में सभी प्रकार के संशय-विपर्यय-अनध्यवसायादि दोषों से रहित होकर स्पष्ट रूप से जानी-समझी होती हैं।' आधाति से णाणममेलिसं-वह(पूर्वोक्त विशिष्ट ज्ञानी पुरुष)मनीश-अनुपम या विशिष्ट ज्ञान का कथन करते हैं / वृत्तिकार के अनुसार वह अनन्य-सदृश ज्ञान आत्मा का ही ज्ञान होता है, जिसके प्रकाश में (श्रोता को) जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों का सम्यक् बोध हो जाता है। अनुपम ज्ञान का आख्यान किन-किन को?—इस सन्दर्भ में ज्ञान-श्रवण के पिपासु श्रोता की योग्यता के लिए चार गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है-वह (1) समुत्थित, (2) निक्षिप्तदण्ड-हिंसापरित्यागी, (3) इन्द्रिय और मन की समाधि से सम्पन्न और (4) प्रज्ञावान हो / समुठियाण-धर्माचरण के लिए जो सम्यक् प्रकार से उद्यत हो वह समुत्थित कहलाता है। यहाँ वृत्तिकार ने उत्थित के दो प्रकार बताये हैं-द्रव्य से और भाव से / द्रव्यतः शरीर से उत्थित (धर्म-श्रवण के लिए श्रोता का शरीर से भी जागृत होना आवश्यक है), भावतः ज्ञानादि से उत्थित / भाव से उत्थित व्यक्तियों को ही ज्ञानी धर्म या ज्ञान का उपदेश करते हैं / देवता और तियंचों, जो उत्थित होना चाहते हैं, उन्हें तथा कुतूहल आदि से भी जो सुनते हैं, उन्हें भी धर्मोपदेश के द्वारा वे ज्ञान देते हैं / / किन्तु आगे चलकर वृत्तिकार निक्षिप्तदण्ड आदि सभी गुणों को भाव-समुत्थित का विशेषण बताते हैं, जबकि उत्थित का ऊपर बताया गया स्तर तो प्राथमिक श्रेणी का है, इसलिए प्रतीत होता है कि भाव-समुत्थित आत्मा, सच्चे माने में आगे के तीन विशेषणों से युक्त हो, यह विवक्षित है और वह व्यक्ति साधु-कोटि का ही हो सकता है / मोहाच्छन्न जीठ की करुण-दशा 178. एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति / पासह एगेऽवसीयमाणे अणत्तपण्णे / से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणिविचित्ते पच्छण्णपलासे, उम्मुग्गं से जो लभति / भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति / एवं पेगे अणेगरूवेहि कुलेहिं जाता रूहि सत्ता कलुणं थणंति, णिदाणतो ते ण लभंति मोक्खं / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 211 / 2. आचा• शीला टीका पत्रांक 211 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक, 211 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 211 / 5. 'एगेऽवसीयमाले' के बदले पाठान्तर है---'एगे विसीदमाणे' चूर्णिकार अर्थ करते हैं-विविहं सीयंति.. ते विसीयंति-विविध प्रकार से दुःखी होते हैं। 6. 'उम्मुग्ग' के बदले उम्मग्गं पाठ भी है। 7. 'अरणेगगोतेसु कुलेसु' पाठान्तर है। एगे ण सब्वे, अणेगगोतेसु मरुगादिसु 4 प्रहवा उच्चणीएसु--यह अर्थ चूर्णिकार ने किया है। अर्थात्-सभी नहीं, कुछेक, मरुक प्रादि भनेक गोषों में, कुलों में... अथवा उच्चनीच कुलों में-उत्पन्न / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध 178. कुछ (विरले लघुकर्मा) महान् वीर पुरुष इस प्रकार के ज्ञान के प्राख्यान (उपदेश) को सुनकर (संयम में) पराक्रम भी करते हैं। (किन्तु) उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए (संयम में) विषाद पाते हैं, (उनकी करुणदशा को इस प्रकार समझो) / / ___ मैं कहता हूँ-जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त (एक) महाह्रद (–सरोवर) में लगाना है। वद्रसरोवर वाल और कमल के पत्तों से ढका इना है। वह कछा उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है / जैसे वृक्ष (विविध शीत-ताप-तूफान तथा प्रहारों को सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट, यातना, दुःख आदि बार-बार पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते)। इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक (दरिद्र, सम्पन्न, मध्यवित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं, (धर्माचरण के योग्य भी होते है), किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों से, उपद्रवों से और भयं: कर रोगों से आक्रान्त होने पर.) करुण विलाप करते हैं, लेकिन इस पर भी वे दुःखों के प्रावास-रूप गृहवास को नहीं छोड़ते) / ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। विवेचनात्मज्ञान से शून्य पूर्वग्रह तथ पूर्वाध्यास से ग्रस्त व्यक्तियों की करुणदशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने दो रूपक प्रस्तुत किये हैं--- (1) शवाल-एक बड़ा विशाल सरोवर था / वह सधन शैवाल और कमल-पत्रों (जलवनस्पतियों) से आच्छादित रहता था / उस में अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जलचर जीव निवास करते थे। एक दिन संयोगवश उस सघन शैवाल में एक छोटा-सा छिद्र हो गया। एक कछुपा अपने पारिवारिक जनों से बिछुड़ा भटकता हुआ उसी छिद्र (विवर) के पास आ पहुंचा / उसने छिद्र से बाहर गर्दन निकाली, अाकाश की ओर देखा तो चकित रह गया। नील गगन में नक्षत्र और ताराओं को चमकते देखकर वह एक विचित्र प्रानन्द में मग्न हो उठा / उसने गोचा- "ऐसा अनुपम दृश्य तो मैं अपने पारिवारिक जनों को भी दिखाऊँ।" वह उन्हें बुलाने के लिए चल पड़ा। गहरे जल में पहुँचकर.उसने परिवारीजनों को उस अनुपम दृश्य की बात सुनाई तो पहले तो किसी मे विश्वास नहीं किया, फिर उसके आग्रहवश सब उस विवर को खोजते हुए चल पड़े। किन्तु इतने विशाल सरोवर में उस लघु छिद्र का कोई पता नहीं चला, वह विवर उसे पुनः प्राप्त नहीं हुआ। रूपक का भाव इस प्रकार है--संसार एक महाहद है। प्राणी एक कछया है। कर्मरूप अज्ञान-शैवाल से यह आवृत्त है / किसी शुभ संयोगवश सम्यक्त्व रूपी छिद्र (विवर) प्राप्त हो गया / संयम-साधना के आकाश में चमकते शान्ति प्रादि नक्षत्रों को देखकर उसे प्रानन्द हुआ / पर परिवार के मोहवश वह उन्हें भी यह बताने के लिए वापस घर जाता है, गृहवासी बनता Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 178-179 है, बस, वहाँ आसक्त होकर भटक जाता है / हाथ से निकला यह अवसर (विधर) पुनः प्राप्त नहीं होता और मनुष्य खेदखिन्न हो जाता है। संयम आकाश के दर्शन पुनः दुर्लभ हो जाते हैं। (2) वृक्ष-सर्दी, गर्मी, अांधी, वर्षा आदि प्राकृतिक आपत्तियों तथा फल-फूल तोड़ने के इच्छुक लोगों द्वारा पीड़ा, यातना, प्रहार आदि कष्टों को सहते हुए वृक्ष जैसे अपने स्थान पर स्थित रहता है, वह उस स्थान को छोड़ नहीं पाता, वैसे ही गृहवास में स्थित मनुष्य अनेक प्रकार के दुःखों, पीड़ाओं, 16 महारोगों से आक्रान्त होने पर भी वे मोहमूढ़ बने हुए दुःखालय रूप गृहवास का त्याग नहीं कर पाते। प्रथम उदाहरण एक बार सत्य का दर्शन कर पुन: मोहमूढ़ अवसर-भ्रष्ट प्रात्मा का है, जो पूर्वाध्यास या पूर्व-संस्कारों के कारण संयम-पथ का दर्शन करके भी पुनः उससे विचलित हो जाती है। दूसरा उदाहरण अब तक सत्य-दर्शन से दूर अज्ञानग्रस्त, गहवास में प्रासक्त प्रात्मा का है। दोनों ही प्रकार के मोहमूढ़ पुरुष केवलीप्ररूपित धर्म का, आत्म-कल्याण का अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं और वे संसार के दुःखों से त्रस्त होते हैं। जैसे वृक्ष दु:ख पाकर भी अपना स्थान नहीं छोड़ पाता, वैसे ही पूर्व-संस्कार, पूर्वग्रहमिथ्या-दृष्टि, कुल का अभिमान, साम्प्रदायिक अभिनिवेश आदि की पकड़ के कारण वह संसार में अनेक प्रकार के कष्ट पाकर भो उसे छोड़ नहीं सकता। आत्म-कृत दुःख 179. अह पास तेहि कुलेहि आयत्ताए जाया गंडी अदुवा कोढी रायंसी अवमारियं / काणियं झिमियं चेव कुणितं खुज्जितं सहा // 13 // उरि च पास मूइंच सूणियं च गिलासिणि / वेवई पीढसपि च सिलिवयं मधुमेहणि // 14 // 1. इसके बदले चूणि में पाठ है—'तेहि तेहिं कुलेहिं जाता'-उन-उन कुलों में पैदा हुए। 2. इसके बदले 'सिमियं' पाठ है / चूणि में अर्थ किया है—सिमिता अलसयवाही--सिमिता = पालस्य वाही व्याधि / 3. 'सूणियं' के बदले किसी-किसी प्रति में सूणीयं, पाठ मिलता है / चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-- 'मूणीया सूणसरीरा'-शरीर का शून्य हो जाता, शून्य रोग है। 4. गिलासिणि का अर्थ वृत्तिकार 'भस्मकन्याधि' करते हैं। 5. सिलिवयं के वदले चूणि में 'सिलवती' पाठ है / अर्थ किया गया है---'सिलवती पादा सिलीभवंति' श्लीपद-हाथीपगा रोग में पैर सूज कर हाथी की तरह हो जाते हैं / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 आचारांग सूत्र---प्रथम भृतस्कन्ध सोलस एते रोगा अक्खाया अणुपुष्यसो / अह णं फुसंति आतंका फासा य असमंजसा // 15 // 180. मरणं' तेसि सपेहाए उववायं चयणं च गच्चा परिपागं च सपेहाए तं सुणेह जहा तहा। संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिता / तामेव सई असई अतियच्च उच्चावचे फासे पडिसंवेदेति / बुद्ध हि एवं पवेदितं। संति पाणा वासगा रसगा उदए उदयचरा आगासगामिणो। पाणा पाणे किलेसंति / पास लोए महब्भयं / बहुदुक्खा हु जंतवो। सत्ता कामेहि माणवा / अबलेण वहं गच्छति सरीरेण पभंगुरेण / अट्टे से बहुदुक्खे इति बाले पकुवति / एते रोगे बहू गच्चा आतुरा परितावए / णालं पास / अलं तवेतेहिं / एतं पास मुणी ! महब्भयं / णातिवादेज्ज कंचणं / 179. अच्छा तू देख वे (मोह-मूढ़ मनुष्य) उन (विविध) कुलों में आत्मत्व (अपने-अपने कृत कर्मों के फलों को भोगने) के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं—(१) गण्डमाला, (2) कोढ़, (3) राजयक्ष्मा (तपेदिक), (4) अपस्मार (मृगी या मूर्छा), (5) काणत्व (कानापन), (6) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (7) कुणित्व (टूटापन, एक हाथ या पैर छोटा और एक बड़ा), (8) कुबड़ापन, (9) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (10) मूकरोग (गूगापन), (11) शोथरोग-सूजन, 1. इसके अतिरिक्त चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं-(१) 'फासा....."असमंतिया' (2) फासा..." असममिता, (3) फासा य असमंजसा / क्रमशः अर्थ किये हैं--(१) असमतिया =नाम अप्पत्तव्या, (2) असमिता=असमिता णाम विसमा तिब्वमंदमज्झा, (3) अहवा फासा य असमजसा उल्लत्यपल्लत्था।" अर्थात् असमंत्रिता-अप्राप्तपूर्वस्पर्श, जो स्पर्श अप्रत्याशित रूप में प्राप्त हए हों, अपूर्व हों। असमिता का अर्थ है -विषम-तीव्र-मन्द-मध्यम स्पर्श अथवा जो स्पर्श उलट-पलट हों उन्हें प्रसमंजस स्पर्श कहते हैं। 2. इसके बदले चूणि में पाठ है-'मरणं (च) तस्थ सपेहाए।' अर्थ किया गया हैं-मरण तत्व समि न च सहा जम्मणं च-साथ ही उनमें मरण की भी सम्यक समीक्षा करके, च शब्द से 'जन्म' का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। 3. इसके बदले चूणि में 'तम पविट्ठा' पाठ है। जिसका अर्थ किया गया है-अन्धकार में प्रविष्ट / 4. इसके बदले किसी-किसी प्रति में 'तामेव सय असई अतिगच्च०" सयं का अर्थ स्वयं है, बाकी के अर्थ समान हैं। 5. चूणि में पाठान्तर मिलता है—'उच्चावते फासे....."पडिवेदेति' / अर्थ वही है / 6. 'पकुम्वति के बदले पगम्भति' पाठ चूणि में है / अर्थ होता है--प्रगल्भ (धृष्टता) करता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 179-180 197 (12) भस्मकरोग, (13) कम्पनवात, (14) पीठसी-पंगुता, (15) श्लीपदरोग (हाथीपगा) और 16 मधुमेह; ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं। इसके अनन्तर (शूल आदि मरणान्तक) आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित (दुःखों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं / 180. उन (रोगों-अातंकों और अनिष्ट दुःखों से पीड़ित) मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) को जानकर तथा कर्मों के विपाक (फल) का भली-भाँति विचार करके उसके यथातथ्य (यथार्थस्वरूप) को सुनो। (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गये हैं, जो अन्धे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसी (नाना दुःखपूर्ण अवस्था) को एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द (ऊँचे-नीचे) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करते हैं। बुद्धों (तीर्थंकरों) ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। (और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं, जैसे-वर्षज (वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढ़क आदि) अथवा वासक (भाषालब्धि-सम्पन्न द्वीन्द्रियादि प्राणी), रसज (रस में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जन्तु), अथवा रसग (रसज्ञ संज्ञी जीव), उदक रूप-एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, माकाशगामी-नभचर पक्षी आदि। वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं (प्रहार से लेकर प्राणहरण तक करते हैं)। (अतः) तू देख, लोक में महान् भय (दुःखों का महाभय) है। संसार में (कर्मों के कारण) जीव बहुत ही दुःखी हैं। (बहुत-से) मनुष्य कामभोगों में प्रासक्त हैं। (जिजीविषा में प्रासक्त मानव) इस निर्बल (निःसार और स्वतः नष्ट होने वाले) शरीर को सुख देने के लिए अन्य प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं (अथवा कर्मोदयवश अनेक बार बध-विनाश को प्राप्त होते हैं)। वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञानी (वेदना के उपशमन के लिए) प्राणियों को कष्ट देता है (अथवा प्राणियों को क्लेश पहुँचाता हुआ वह धृष्ट (बेदर्द) हो जाता है)। इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर (उन रोगों की वेदना से) आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को) परिताप देते हैं। तू (विशुद्ध विवेकदृष्टि से) देख। ये (प्राणिघातक-चिकित्साविधियाँ कर्मोंदयजनित रोगों का शमन करने में पर्याप्त) समर्थ नहीं हैं। (अत: जीवों को परिताप देने वाली) इन (पापकर्मजनक चिकित्साविधियों) से तुमको दूर रहना चाहिए / मुनिवर ! तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भयरूप है। (इसलिए चिकित्सा के निमित्त भी) किसी प्राणी का अतिपात/वध मत कर / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य विवेचन-पिछले सूत्रों में बताया है-पासक्ति में फंसा हुआ मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर पाता तथा वह मोह एवं वासना में गृद्ध होकर कर्मों का संचय करता रहता है। आगमों में बताये गये कर्म के मुख्यत: तीन प्रकार किये जा सकते हैं। (1) क्रियमाण (वर्तमान में किया जा रहा कर्म), (2) संचित (जो कर्म-संचय कर लिया गया है, पर अभी उदय में नहीं आया-बह बद्ध), (3) प्रारब्ध (उदय में आने वाला कर्म या भावी)। .. क्रियमाण---वर्तमान में जो कर्म किया जाता है, वहीं संचित होता है तथा भविष्य में प्रारब्ध रूप में उदय में आता है। कृत-कर्म जब अशुभ रूप में उदय प्राता है तब प्राणी उनके विपाक से अत्यन्त दुःखो, पीड़ित व त्रस्त हो उठता है। प्रस्तुत सूत्र में यही बात बताई है कि ये अपने कृत-कर्म (आयत्ताए . अपने ही किये कर्म) इस प्रकार विबिध रोगातकों के रूप में उदय प्राते हैं। तब अनेक रोगों से पीड़ित मानव उनके उपचार के लिए अनेक प्राणियों का वध करता-कराता है। उनके रक्त, मांस, कलेजे, हड्डी आदि का अपनी शारीरिक-चिकित्सा के लिए वह उपयोग करता है, परन्तु प्राय: देखा जाता है कि उन प्राणियों की हिंसा करके चिकित्सा कराने पर भी रोग नहीं जाता, क्योंकि रोग का मूल कारण विविध कर्म है, उनका क्षय या निर्जरा हुए बिना रोग मिटेगा कहाँ से ? परन्तु मोहावृत अज्ञानी इस बात को नहीं समझता / वह प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर और भी भयंकर कर्मबन्ध कर लेता है। इसीलिए मुनि को इस प्रकार की हिंसामूलक चिकित्सा के लिए सूत्र 180 में निषेध किया गया है।' फासा य असमंजसा-जिन्हें धूतवाद का तत्त्वज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त नहीं होता, वे अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पूर्वोक्त 16 तथा अन्य अनेक रोगों में से किसी भी रोग के शिकार होते हैं, साथ ही असमंजस स्पर्शों का भी उन्हें अनुभव होता है। यहाँ चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं--(१) फासा य असमजसा, (2) फासा य असमतिया, (3) फासा य असमिता / इन तीनों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। असमंजस का अर्थ है-उलट-पलट हो, जिनका परस्पर कोई मेल न बैठता हो, ऐसे दुःखस्पर्श / असमंतिया का अर्थ है-असमंजितस्पर्श यानी जो स्पर्श पहले कभी प्राप्त न हए हों, ऐसे अप्रत्याशित प्राप्त स्पर्श और असमित स्पर्श का अर्थ है-विषम स्पर्श ; तीव्र, मन्द या मध्यम दुःखस्पर्श / आकस्मिक रूप से होने वाले दुःखों का स्पर्श ही अज्ञ-मानव को अधिक पीड़ा देता है। संति पाणा अंधा-अंधे दो प्रकार से होते हैं-द्रव्यान्ध और भावान्ध / द्रव्यान्ध द्रव्य नेत्रों से हीन होता है और भावान्ध सद्-असद-विवेकरूप भाव चक्षु से रहित होता है। इसी प्रकार अन्धकार भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यान्धकार --जैसे नरक आदि स्थानों में घोर अंधेरा रहता है और भावान्धकार-कर्मविपाकजन्य मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि के रूप में रहता है / यहाँ पर भावान्ध प्राणो विवक्षित है, जो सम्यग्ज्ञान रूप नेत्र से हीन है तथा मिथ्यात्व रूप अन्धकार में ही भटकता है। .... 1. आचा० शीला० टोका पत्रांक 212 / 2. आचा शीला टीका पत्रांक 212 / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उ शक : सूत्र 181-12 घूतवाद का व्याख्यान 181. आयाण भो! सुस्सूस भो! घतवादी पवेदयिस्सामि / इह खलु अत्तत्ताए। तेहि तेहि कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता अभिजाता अभिणि बट्टा अभिसंबुड्ढा' अभिसंबुद्धा अभिणिवखंता अणुपुध्वेण महामुणी। 182. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा मा णे चयाहि इति ते वदंति / छंदोवणीता अझोववण्णा अक्कंदकारी जणगा रुदंति / अतारिसे मुणी ओहं तरए जणगा जेण विष्पजढा / सरणं तत्थ जो समेति / किह गाम से तत्थ रमति / एतं गाणं सया समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / / ॥पढमो उद्देसओ सम्मत्तो॥ ... 181. हे मुने ! समझो, सुनने की इच्छा (रुचि) करो, मैं (अब) धूतवाद का निरूपण करूगा / (तुम) इस संसार में आत्मत्व (स्वकृत-कर्म के उदय) से प्रेरित होकर उन-उन कुलों में शुक्र-शोणित के अभिषेक-अभिसिंचन से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद (मांस) और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग-स्नायु, नस, रोम आदि के क्रम से अभिनिष्पन्न (विकसित) हुए, फिर प्रसव होकर (जन्म लेकर) संवद्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध (सम्बोधि को प्राप्त) हुए, फिर धर्म-श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया (प्रबजित हुए) इस प्रकार क्रमशः महामुनि बनते हैं। 182. (गृहबास से पराङ मुख एवं सम्बुद्ध होकर) मोक्षमार्ग--संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के माता-पिता आदि करुण-विलाप करते हुए यों कहते हैं-'तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व-स्नेह विश्वास) है। इस प्रकार आक्रन्द करते (चिल्लाते) हुए वे रुदन करते हैं।' (वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं-) 'जिसने माता-पिता को छोड़ दिया 1. 'धूतवाद' के बदले चूणि में पाठ मिलता है धुयं वायं पवेदइस्मामि धुर्म भणितं धुयस्स वादो / धुजति जेण कम्म तवसा / —जिस तपस्या से कर्मों को धुनन-कम्पित किया जाता है, वह है-धूत / धूत का वाद दर्शन = धूतवाद है। नागार्जुनीय पाठान्तर यह है-धुतोवायं पर्ववइस्सामि-जेण"कम्मं धुणति तं उवायं ।'–जिससे कर्म धुने जाएँ-क्षय किये जाएँ, उसे धत कहते हैं, उसके उपाय को धतोपाय कहते हैं। ख्यिा चणिकार के शब्दों में देखिये-अत्तभावो अत्तता, ताए .. .."तेस तेत्ति उत्तम-ग्रहममज्झिमेस'-प्रात्मभाव-आत्मता है, उसके द्वारा....."उन-उन उत्तम-अधम-मध्यम कूलों में........" 3. 'अभिसंवडता' के बदले चणि में 'अभिबदा' पाठ है। 4. 'चयाहि' के बदले 'जहाहि' क्रियापद मिलता है / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.0 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध है, ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता है। ___ वह मुनि (पारिवारिक जनों का विलाप–रुदन सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता, (वह उनकी बात स्वीकार नहीं करता)। वह तन्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस (गृहवास) में रमण कर सकता है ? . ___मुनि इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सदा (अपनी आत्मा में) अच्छी तरह बसा ले (स्थापित कर ले। —ऐसा मैं कहता हूँ। * विवेचन--धूतवाद के श्रवण और पर्यालोचन के लिए प्रेरणा-धूतवाद क्यों मानना और सुनना चाहिए? इसकी भूमिका इन सूत्रों में शास्त्रकार ने बाँधी है। वास्तव में सांसारिक जीवों को नाना दुःख, कष्ट और रोग आते हैं, वह उनका प्रतीकार दूसरों को पीड़ा देकर करता है, किन्तु जब तक उनके मूल का छेदन नहीं करता, तब तक ये दु:ख, रोग और कष्ट नहीं मिटते / मूल हैं-कर्म / कर्मों का उच्छेद ही धूत है / कर्मों के उच्छेद का सर्वोत्तम उपाय है---शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों पर से प्रासक्ति, मोह आदि का त्याग करना। त्याग और तप के बिना कर्म निर्मूल नहीं हो पाते / इसके लिए सर्वप्रथम गृहासक्ति और स्वजनासक्ति का त्याग करना अनिवार्य है और वह स्व-चितन से ही उद्भूत होगी / तभी वह कर्मों का धूनन (क्षय) करके इन (पूर्वोक्त) दुःखों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने बारम्बार साधक को स्वयं देखने एवं सोचने-विचारने की प्रेरणा दी है-वह स्वयं विचार कर मन को आसक्ति के बंधन से मुक्त करे / अह पास तेहि कुलेहि आयसाए जाया....." मरण ते सि सपेहाए, उबवायं चवणं च गच्चा, परिपागं च सपेहाए....... तं सुलेह जहा तहा....." पास लोए महन्मयं....... एए रोगा बहू णच्चा ...." एयं पास मुणी! महलमयं........ मायाग भो सुस्सूस ! ......" ये सभी सूत्र स्व-चिंतन को प्रेरित करते हैं। संक्षेप में यही धूतवाद की भूमिका है। जिसके प्रतिपक्षी अधतवाद को और तदनुसार चलने के दुष्परिणामों को जान-समझकर तथा भलीभाँति देख-सुनकर साधक उससे निवृत्त हो जाए। अधूतवाद के जाल से मुक्त होने के लिए अनगार मुनि बनकर धूतवाद के अनुसार मोहमुक्त संयमी जीवन यापन करना अनिवार्य है।' धूतबाद या धृतोपाय ----वृसिकार ने आठ प्रकार के कर्मों को धुनने-झाड़ने को धूत कहा 2. प्राचा शीला० टीका पत्रांक 212-213 / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 101-182 ܕܘܐ है, अथवा ज्ञाति (परिजनों) के परित्याग को भी धूत बताया है / चूणि के अनुसार धूत उसे कहते हैं, जिसने कर्मों को तपस्या से प्रकम्पित/नष्ट कर दिया / धूत का वाद-सिद्धान्त या दर्शन धूतवाद कहलाता है।' नागार्जुनीय सम्मत पाठ है-'धूतोवायं पवेएंति' अर्थात्-धूतोपाय का प्रतिपादन करते हैं / धूतोपाय का मतलब है-अष्टविध कर्मों को धूनने-क्षय करने का उपाय / ' धूत इतने का दुर्गम एवं दुष्कर क्रम-शास्त्रकार ने 'इहं खलु अत्तताए...' 'अणुपुब्वेण महामुणी' तक की पंक्ति में धूत (कर्मक्षय कर्ता) बनने का क्रम इस प्रकार बताया है- इसके 6 सोपान हैं--(१) अभिसम्भूत, (2) अभिसंजात, (3) अभिनिर्वृत्त, (4) अभिसंवृद्ध, (5) अभिसम्बुद्ध और (6) अभिनिष्क्रान्त / इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है अभिसम्भूत-सर्वप्रथम अपने किये हुए कर्मों के परिणाम (फल) भोगने के लिए स्वकर्मानुसार उस-उस मानव कुल में सात दिन तक कलल (पिता के शुक्र और माता के.रज) के अभिषेक के रूप में बने रहना; इसे अभिसम्भूत कहते हैं। अभिसंजात--फिर 7 दिन तक अर्बुद के रूप में बनना, तब अर्बुद से पेशी बनना और पेशी से घन तक बनना अभिसंजात कहलाता है। अभिनिवत-उसके पश्चात् क्रमशः अंग, प्रत्यंग, स्नायु, सिरा, रोम आदि का निष्पन्न होना अभिनिवृत्त कहलाता है / अमिसंबद्ध-इसके पश्चात् माता-पिता के गर्भ से उसका प्रसव (जन्म) होने से लेकर समझदार होने तक संवर्धन होना अभिसंवृद्ध कहलाता है / अभिसम्बुद्ध--- इसके अनन्तर धर्मश्रवण करने योग्य अवस्था पाकर पूर्व पुण्य के फलस्वरूप धर्मकथा सुनकर पुण्य-पापादि नौ तत्त्वों को भली-भाँति जानना, गुरु आदि के निमित्त से सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके, संसार के स्वरूप का बोध प्राप्त करना अभिसम्बुद्ध बनना कहलाता है। अभिनिष्क्रान्त - इसके पश्चात विरक्त होकर घर-परिवार, भूमि-सम्पत्ति आदि सबका परित्याग करके मुनिधर्म पालन के लिए अभिनिष्कमण (दीक्षा-ग्रहण) करना अभिनिष्क्रान्त कहलाता है / इतना ही नहीं, दीक्षा लेने के बाद गुरु के सान्निध्य में शास्त्रों का गहन अध्ययन, रत्नत्रय की साधना आदि के द्वारा चारित्र के परिणामों में वृद्धि करना और क्रमशः गीतार्थ, 1. आचा० शीला टीका पत्र 216, 'धूतमष्टप्रकारकर्मधूननं, ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादी धूतवादः / ' चणि में--'धुजत्ति जेण कम्मं तवसा तं धूयं भणितं, धुयस्स वादो।' 2. अष्टप्रकारकर्म-'धूननोपायं वा प्रवेदयन्ति तीर्थकरादयः।' प्राचा० शीला० टीका 216 / 3. सप्ताह कललं विद्यात् ततः सप्ताहमवुदम् / अबुंदाजायते पेशी, पेशोतोऽपि धनं भवेत् / / -(उद्धृत) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 216 / Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग. सूत्रप्रथम भुसस्कम स्थविर, क्षपक, परिहार-विशुद्धि आदि उत्तम अवस्थानों को प्राप्त करना भी अभिनिष्क्रान्त कोटि में आता है। कितना दुर्लभ, दुर्गम और दुष्कर कम है मुनिधर्म में प्रद्रजित, होने तक का / यही धूत बनने योग्य अवस्था है।' अभिसम्भूत से अभिनिष्क्रान्त तक की धूत ,बनने की प्रक्रिया को देखते हुए एक तथ्य यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वजन्म के संस्कार, इस जन्म में माता-पिता आदि के रक्त-सम्बन्धः जनित संस्कार तथा सामाजिक वातावरण से प्राप्त संस्कार धूत बनने के लिए आवश्यक व उपयोगी होते हैं। धूतवादी महामुनि की अग्नि-परीक्षा-धूत बनने के दुष्कर क्रम को बताकर उस धूतवादी महामुनि की आन्तरिक अनासक्ति की परीक्षा कब होती है ? यह बताते हुए कहा है कि 'स्वजन-परित्यागरूप धूत की प्रक्रिया के बाद उसके मोहाविष्ट स्वजनों की ओर से करुणाजनक विलाप आदि द्वारा पुनः गहवास में खींचने के लिए किस-किस प्रकार के उपाय अजमाये जाते हैं ? इसे शास्त्रकार स्पष्ट रूप में सू० 182 में चित्रित करते हैं / साथ ही वे स्वजनपरित्यागरूप धूत में दृढ बने रहने के लिए धूतवादी महामुनि को प्रेरित करते हैं-'सरणं तत्प नो समेति, किह णाम से सत्य रमति,?'. वृत्तिकार इसका भावार्थ लिखते हैं जिस (महामुनि) ने संसार-स्वभाव को भलीभांति जान लिया है, वह उस अवसर पर अनुरक्त बन्धु-बान्धवों को शरण-ग्रहण स्वीकार नहीं करता / जिसने मोह-कपाट तोड़ दिए हैं, भला वह समस्त बुराइयों और दुःखों के स्थान एवं मोक्ष द्वार में अवरोधक गृहवास में कैसे प्रासक्ति कर सकता है ? 2 _ 'अतारिसे मुणी ओहं तरए...' शास्त्रकार स्वजन-परित्याग रूप धूतवाद में अविचल रहने वाले महामुनि का परीक्षाफल घोषित करते हुए कहते हैं-वह अनन्यसदृश-(अद्वितीय) मुनि संसार-सागर से उत्तीर्ण हो जाता है। यहाँ 'अतारिसे' शब्द के दो अर्थ चूणिकार ने किए हैं-(१) जो इस धर्म-संकट को पार कर जाता है, वह संसार-सागर को फोर कर जाता है; (3) उस मुनि के जैसा कोई नहीं हैं, जो संसार के प्रवाह को पार कर जाता है। .........समणुवासेज्जासि'-वृत्तिकार और चूणिकार दोनों इस पंक्ति की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हैं। वृत्तिकार के अनुसार अर्थ है-इस (पूर्वोक्त धूतवाद के) ज्ञान को सदा आत्मा में सम्यक् प्रकार से अनुवासित--स्थापित कर ले-जमा ले / चूर्णिकार के अनुसार 1. (क) आचा० शीला टीका पत्र 2.17 / . 2. प्राचा० शीला० टोका पत्र.२१७ / 3. (क) संसारसागरं तारी मुगी भवति / अयमा अतारिसो-ण सारिसो मुणो गस्थि जेण" . -आचारांग चूणि पृष्ठ 60 सूत्र 182 (ख) न ताहशो मुनिर्भवति, न चौघ-संसार तर रति / -प्राचा० शीला टीका पत्र, 217 . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46ठ अध्ययन द्वितीय उदेशक सूत्र 183 .203 प्राचार्य श्री अर्थ यों है--इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सम्यक् प्रकार से अनुकूल रूप में प्राचार्य श्री के सान्निध्य में रहकर अपने भीतर में बसा लें, उतार ले।' // प्रथम उद्देशक समाप्त // . बीमओ उद्देसओ .: द्वितीय उद्देशक सर्वसंग परित्यागी व्रत का स्वरूप : ... ..... ... ... ... 183. आतुरं लोगमायाए चइता पुच्छसंजोग हेच्चा उपसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुबसु वा जाणित धम्म अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला वत्यं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं बिउसिम अणुपुध्वेण अषियासेमाणा परीसहे दुरेहियासए। .:. कामे ममायमाणस्स इवाणि,वा. महत वा अपरिमाणाए मेवे। .. - एवं' से अंतराइएहिं कामेहि आकेलिएहि, भवितिणणा' चेते / 183. (काम-राग आदि से) आतुर लोक (--माता-पिता आदि सम्बन्धित समस्त प्राणिजगत्) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, 1. वृत्तिकार-‘एतत्' (पूर्वोक्तं) 'ज्ञान' सदा आत्मनि सम्यगनुवासयेः व्यवस्थापयेः / ' -~-प्राचा० शीला टीका पत्रांक 217 : शिकार---'एत गाणं सम्म अणुकुल आयरिय समीवे अणुवसाहि-अणुवसिज्जासि / वही, सू० 182 2. पाठान्तर चूणि में इस प्रकार है---'जाहिता पुढवमायतणं' अर्थ है-पूर्व प्रायतन को छोड़कर। . 3. इसका अर्थ चूणिकार के शब्दों में—'इह एच्छा हिंञ्चा' आदि अक्बरलोवा हिच्चा, इहेति अस्मि - प्रवचने। 'हिच्चा' की इस प्रकार स्थिति थी-इह+ एच्चा = हिच्चा। आदि के इकार का लोप हो - गया / अर्थ-इस प्रवचन-संघ में (उपशम को) प्राप्त करके / 4. चूणि में पाठान्तर के साथ अर्थ यों दिया गया है—'तमच्चाई""अच्चाई णाम अच्चाएमाणों, जंभणित __ असत्तमंता'-अत्यागी कहते हैं- त्याज्य (पापादि व असंयम) को न त्यागने वाले, अथवा जो कहीं -- है, उतना पालन करने में प्रशक्त।। , 5. विसेज्जा, विओसेज्जा, वियोसेज्जा' प्रादि पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है। चूर्णि में अर्थ दिया '. है--विउसज्ज-विविहं उसज्जा-विविध :उत्सर्ग / ........ . . / 6. एवं से अंतराइएहि' में ‘एवं' शब्द अवधारण अर्थ में है। अवधारण से ही काम-भोग अन्तराययुक्त .. होते हैं। 7. 'आकेवलिदहि' का चूणि में अर्थ है--"केवलं संपुण्णं, पण केवलिया.असंपुण्णा / ' केवल यानी सम्पूर्ण - अकेवल यानी असम्पूर्ण / ' 8. 'अवितिण्णा' का स्पष्टीकरण चूणि में यों किया गया है-"विविहं तिण्णा वितिण्णा, " वितिण्या' विणा वेरग्गेणं ण एते, कोति तिण्णपुचो तरति वा तरिस्सइ वा ? जहा- अलं ममतेहि।"---जो विविध प्रकार से तीर्ण नहीं हैं, पार नहीं पाए जाते, वे अवितीर्ण हैं। वैराग्य के विना ये (पार)..होते नहीं। अतः कौन ऐसा है, जो काम-सागर को पार कर चुका है ? पार कर रहा है या पार करेगा? कोई नहीं। इसलिए कहा-ममता मत करो। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ब्रह्मचर्यः (चारित्र या गुरुकुल) में वास करके वसु (संयमी साधु) अथवा अनबसु (सराग साधु या श्रावक) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील (मलिन चारित्र वाले) व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर पाने वाले दुःसह परिषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं)। विविध काम-भोगों को अपनाकर (उन पर) गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्या-परित्याग के बाद ही) अन्तर्मुहूर्त में या अपरिमित (किसी भी) समय में शरीर छूट सकता है-(प्रात्मा और शरीर का भेद न चाहते हुए भी हो सकता है)। ___इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्वों (विरोधों) या अपूर्णतामों से युक्त काम-भोगों से अतृप्त ही रहते हैं (अथवा उनका पार नहीं पा सकते, बीच में ही समाप्त हो जाते हैं। विवेचन-इस उद्देशक में मुख्यतया प्रात्मा से बाह्य (पर) भावों के संग के त्याग रूप * धूत का सभी पहलुओं से प्रतिपादन किया गया है। 'आतुरं लोगमायाए'---इस पंक्ति में लोक और आतुर शब्द विचारणीय हैं / लोक शब्द के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं माता-पिता, स्त्री-पुरुष प्रादि पूर्व-संयोगी स्वजन लोक और प्राणिलोक / इसी प्रकार आतुर शब्द के भी दो अर्थ यहाँ अंकित हैं-स्वजनलोक उस मुनि के वियोग के कारण या उसके बिना व्यवसाय आदि कार्य ठप्प हो जाने से स्नेह-राग से आतुरं होता है और प्राणिलोक इच्छाकाम और मदनकाम से अातुर होता है / / 'इत्ता पुष्वसंजोग'-किसी सजीव व निर्जीव वस्तु के साथ संयोग होने से धीरे-धीरे आसक्ति, स्नेह-राग, काम-राग या ममत्वभाव बढ़ता जाता है, इसलिए प्रव्रज्या-ग्रहण से पूर्व जिन-जिन के साथ ममत्वयुक्त संयोगसम्बन्ध था, उसे छोड़कर ही सच्चे अर्थ में अनगार बन सकता है / इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र (11) में कहा गया है 'संजोगा विष्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो' (संयोग से विशेष प्रकार से मुक्त अनगार और गृहत्यागी भिक्षु के ") / चूणि में इसके स्थान पर 'जहिता पुय्यमायतणं' पूर्व आयतन को छोड़कर, ऐसा पाठ है। आयतन का अर्थ शब्दकोष के अनुसार यहाँ 'कर्मबन्ध का कारण' या 'माश्रय' ये दो ही उचित प्रतीत होते हैं / 'वसित्ता संभचेरंसि' यहाँ प्रसंगवश ब्रह्मचर्य का अर्थ गुरुकुलवास या चारित्र ही उपयुक्त लगता है। गुरुकुल (गुरु के सान्निध्य) में निवास करके या चारित्र में रमण करके, ये दोनों अर्थ फलित होते हैं / 1. (क) प्राचा० शीला० टोका पत्रांक 217 / (ख) आचारांग चूणि प्राचा० मूल पृष्ठ 61 / 3. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217. 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 217 / (ख) 'पाइयसद्दमहण्णवो' पृष्ठ 114 / (ख) पायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 235 / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 183 205 'वसु वा अणुवसु वा'- ये दोनों पारिभाषिक शब्द दो कोटि के साधकों के लिए प्रयुक्त हुए हैं / वृत्तिकार ने वसु और अनुवसु के दो-दो अर्थ किए। वैसे, वसु द्रव्य (धन) को कहते हैं / यहाँ साधक का धन है—वीतरागत्व, क्योंकि उसमें कषाय, राग-द्वेष मोहादि की. कालिमा बिलकुल नहीं रहती.। यहाँ वसु का अर्थ वीतराग (द्रव्यभूत) और अनुवसु का अर्थ है सराग / वह वसु (वीतराग) के अनुरूप दिखता है, उसका अनुसरण करता है, किन्तु सराग होता है, इसलिए संयमी साधु अर्थ फलित होता है अथवा वसु का अर्थ महाव्रती साधु और अनुवसु का अर्थ-अणुव्रती श्रावक-ऐसा भी हो सकता है। ___ 'अहेगे तमचा कुसोला'- शास्त्रकार ने उन साधकों के प्रति खेद व्यक्त किया है, जो सभी पदार्थों का संयोग छोड़कर, उपशम प्राप्त करके, गुरुकुलवास करके अथवा प्रात्मा में विचरण करके धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी मोहोदयवश धर्म-पालन में अशक्त बन जाते हैं / धर्म-पालन में अशक्त होने के कारण ही वे कुशील (कुचारित्री) होते हैं। चूर्णिकार ने भी 'अच्चाई' शब्द मानकर उसका अर्थ 'प्रशक्तिमान' किया है। यद्यपि 'अच्चाई' का संस्कृत रूपान्तर 'अत्यागी' होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने बाहर से पदार्थों को छोड़ दिया, कषायों का उपशम भी किया, ब्रह्मचर्य भी पालन किया, शास्त्र पढ़कर धर्मज्ञाता भी बन गया, परन्तु अन्दर से यह सब नहीं हुआ। अन्तर् में पदार्थों को पाने की ललक है, निमित्त मिलते ही कषाय भड़क उठते हैं, ब्रह्मचर्य भी केवल शारीरिक है या गुरुकुलवास भी औपचारिक है, धर्म के अन्तरंग को स्पर्श नहीं किया, इसलिए बाहर से धूतवादी एवं त्यागी प्रतीत होने पर भी अन्तर् से अधूतवादी एवं अत्यागी ‘अचाई' है / / दशवैकालिकसूत्र में निर्दिष्ट अत्यागी और त्यागी का लक्षण इसो कथन का समर्थन करता है-'जो साधक वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियां, शय्या, ग्रासन आदि का उपभोग अपने अधीन न होने से नहीं कर पाता, (मन में उन पदार्थों को पाने की लालसा बनी हुई है) तो वह त्यागी नहीं कहलाता। इसके विपरीत जो साधक कमनीय-प्रिय भोग्य पदार्थ स्वाधीन एवं उपलब्ध होने या हो सकने पर भी उनकी ओर पीठ कर देता है , ( मन में उन वस्तुओं की कामना नहीं करता), उन भोगों का हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है।' निष्कर्ष यह है कि बाह्यरूप से धूतवाद को अपनाकर भी संग-परित्याग रूप धूत को नहीं अपनाया, इसलिए वह संग-प्रत्यागी ही बना रहा / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217 / 2. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217, (ख) प्राचारांग चूणि-प्राचा० मूल पृ० 61 / 3. देखें, दशवकालिकसूत्र अ० 2, गा० 2-3-- वत्थगन्धमलकार, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुजति न से चाइत्ति बुच्चइ // 2 // जे य कंते पिए मोए, लढे वि पिट्ठीकुम्वइ / साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति बुच्चइ // 3... Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाराग ...प्रथम स्कन्धभूत :: .. मत्यागी बनने के कारण और परिणाम--सूत्र 183 के उत्तरार्ध में उस साधक के सच्चे अर्थ में त्यागी और धूतवादी न बनने के कारणों का संपरिणाम उल्लेख किया गया है 'वयं परिग्गहं अवितिष्णा घे ते' वृत्तिकार इसका प्राशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-करोड़ों भवों में दुष्प्राप्य मनुष्य जन्म को पाकर, पूर्व में उपलब्ध, संसार सागर को पार करने में समर्थ बोधि-नौका को अपनाकर, मोक्ष-तरु के बीज रूप सर्वविरति-चारित्र को अंगीकार करके, काम की दुनिवारता, मन की चंचलता, इन्द्रिय-विषयों की लोलुपता और अनेक जन्मों के कुसंस्कारवश वे परिणाम और कार्याकार्य का विचार न करके, अदूरदर्शिता पूर्वक महादुःख रूप सागर को अपनाकर एवं वंशपरम्परागत साध्वाचार से पतित होकर कई व्यक्ति मुनि-धर्म (धूतबाद) को छोड़ बैठते हैं। उनमें से कई तो वस्त्र, पात्र प्रादि धर्मोपकरणों को निरपेक्ष होकर छोड़ देते हैं और देशविरति अंगीकार कर लेते हैं, कुछ केवल सम्यक्त्व' का पालम्बन लेते हैं, कई इससे भी भ्रष्ट हो जाते हैं।' मुनि-धर्म को छोड़कर ऐसे अत्यागी बनने के तीन मुख्य कारण यहाँ शास्त्रकार ने बताये हैं--- (1) असहिष्णुता-धीरे-धोरे क्रमशः दुःसह परीषहों को सहन न करना / . .. (2) काम-आसक्ति-विविध काम-भोगों का उत्कट लालसावश स्वीकार / (3) अतृप्ति—अनेक विघ्नों, विरोधों (द्वन्द्वों) एवं अपूर्णताओं से भरे कामों से अतृप्ति / इसके साथ ही इनका परिणाम भी यहाँ बता दिया गया है कि वह दीक्षात्यागी दुर्गति को न्यौता दे देता है, प्रवज्या त्याग के बाद तत्काल, मुहूर्तभर में या लम्बी अवधि में भी शरीर छूट सकता है और भावों में अतृप्ति बनी रहती है। . निष्कर्ष यह है कि भोग्ध पदार्थों और भोगों के संग का परित्याग न कर सकना हो सर्वविरतिचारित्र से भ्रष्ट होने का मुख्य कारण है / / विषय-विरतिरूप उत्तरवार ... .. 184. अहेगे धम्ममावाय आवाणप्पमिति सुप्पणिहिए चरे' अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गेहि परिण्णाय / एस पणते महामुणी अतियच्च सवओ संगं ‘ण महं अस्थि' ति, इति एगो अहमंसि, 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 218 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 218 / 3. 'चर' क्रिया, यहाँ उपदेश अर्थ में है, 'चर इति उवदेसो', धम्म चर 'धर्म का प्राचरण कर'-चूणि / 4. 'अप्पलीयमाणे' का अर्थ चूणि में इस प्रकार है-- 'अप परिवर्जने लीणो विसंय-कसायादि'-विषय कषायादि से दूर रहते हुए। 5. 'सम्वं गंथं परिष्णाय' का चूणि में अर्थ-'सव्वं निरवसेस गथो गेही' समस्त ममत्व की गांठ-गद्धि को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग कर....। 6. किसी प्रति में ‘एगो महमति' पाठ है, अर्थ है "तुम एक और महान हो / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 184-185 2397 जयमाणे, एत्य विरते अपगारे सव्वतो मुडे रोयंते जे अचेले परिसिते संचिक्सति ओमोयरियाए / से अकुट्ट व हते व लूसिते वा पलियं पगंथं अदुवा पगंथं अतहेहि सद्दफासेहिं ति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिभ्यए जे य हिरी जे य अहिरोमणा / '. 185. चेच्चा सम्वं विसोत्तियं फासे फासे समितदंसणे। .. .. : एते भो णगिणा वुत्ता में लोगसि अणागमणधम्मिणो / ..... . . आणाए मामगं धम्मं / एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिते। . ___एत्योवरते तं शोसमाणे आयाणिज्जं परिणाय परियारण विगिचति / . 1.84.. यहाँ. कई लोग (श्रत-चारित्ररूप) धर्म (मुनि-धर्म) को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं।' ... बह (माता-पिता आदि लोक में या काम-भोगों में) अलिप्त/अनासक्त और (तप, संयम आदि में सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) 1 ___ . समग्र प्रासक्ति. (गद्धि) को (ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत-समर्पित महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धनने में प्रवृत्त होता है / ... ..... . ...... - .... (फिर वह महामुनि) सर्वथा संग (आसक्ति) का (त्याग) करके (यह भावना करे कि) 'मेरा कोई नहीं है, इसलिए 'मैं अकेला हूँ।' बह इस (तीर्थंकर के संघ) में स्थित, (साक्द्य प्रवृत्तियों से) विरत तथा (दविध समाचारी में) यतनाशील.अनगार सब प्रकार से मुण्डित होकर (संयम पालनार्थ) पैदल विहार करता है, जो अल्पवस्त्र या निर्वस्त्र (जिनकल्पी) है, वह अनियत१. इसके बदले चूर्णि में सचिक्खमाणे ओमोदरियाए' पाठ मानकर अर्थ किया गया है-“सम्मं चिट्ठ माणे संचिक्खमाणे"--अवमौदर्य (तप) को सम्यक् चेष्टा (प्रयत्न) करता हुप्रा / अथवा उसमें सम्यक .' रूप से स्थिर होकर 2. इसके बदले पाठान्तर है-'अदुवा पकत्थं, अदुवा पकल्प, अदुवा पग, पलियं पगथे / - अर्थ क्रमशः यों है-"पलियं णाम कम्म""अदुवेति अहवा अन्नेहि चेव जगार-सगारेहिं भिसं कथेमाणो पगंथमाणो।" —पलित का अर्थ कर्म है, (यहाँ उस साधक के पूर्व जीवन के करतब, धंधे या किसी दुष्कृत्य के अर्थ में कर्म शब्द है) अथवा दूसरों द्वारा 'तू ऐसा है, तू वैसा है,' इत्यादि रूप से बहुत भद्दी गालियों या अपशब्दों द्वारा निन्दित किया जाता हुमा..."। अथवा प्रकल्प - प्राचार-आचरण पर छींटाकशी करते हुए"...."अथवा पूर्वकृत दुष्कर्म को बढ़ा-चढ़ा कर नुक्ताचीनी करते हुए..." , 3. इसके बदले 'अहिरीमाणा' पाठ है, अर्थ होता है-- लज्जित न करने वाले / कहीं-कहीं 'हारीणा अहारीणा' पाठ भी मिलता है। अर्थ होता है---हारी= मन हरण करने वाले, प्रहारी= मन हरण न करने वाले। 4. इसके बदले चूर्णि में समोसमाणे' पाठ मानकर अर्थ किया गया है-तं जहोदिजें झोसेमाणे-उसे उद्देश्य या निर्दिष्ट के अनुसार सेवन-पालन करते हुए Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध * वासी रहता है या अन्त-प्रान्तभोजी होता है, वह भी ऊनोदरी तप का सम्यक् प्रकार से अनुशीलन करता है। - (कदाचित्) कोई विरोधी मनुष्य उसे (रोषवश) गाली देता है, (डंडे आदि से) मारता-पीटता है, उसके केश उखाड़ता या खींचता है (अथवा अंग-भंग करता है), पहले किये हए किसी घणित दुष्कर्म की याद दिलाकर कोई बक-झक करता है (या घृणित व असभ्य शब्द-प्रयोग करके उसकी निन्दा करता है), कोई व्यक्ति तथ्यहीन (मिथ्यारोपांत्मक) शब्दों द्वारा (सम्बोधित करता है), हाथ-पैर आदि काटने का झूठा दोषारोपण करता है। ऐसी स्थिति में मुनि सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करे। उन एकजातीय (अनुकूल) और भिन्नजातीय (प्रतिकूल) परीषहों को उत्पन्न हुआ जानकर समभाव से सहन करता हुआ संयम में विचरण करे। (साथ ही वह मुनि) लज्जाकारी (याचना, अचेल आदि) और अलज्जाकारी (शीत, उष्ण आदि) (दोनों प्रकार के परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता हुअा विचरण करे)। 185. सम्यग्दर्शन-सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएं छोड़कर दुःख-स्पर्शी को समभाव से सहे। हे मानवो! धर्मक्षेत्र में उन्हें ही नग्न (भावनग्न, निम्रन्थ या निष्किचन) कहा गया है, जो (परीषह-सहिष्णु) मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुन: गृहवास में नहीं पाते। आज्ञा में मेरा (तीर्थंकर का) धर्म है, यह उत्तर (उत्कृष्ट) वाद/सिद्धान्त इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है। विषय से उपरत साधक ही इस उत्तरवाद का आसेवन (आचरण) करता है। वह कर्मों का परिज्ञान (विवेक) करके पर्याय (मुनि-जीवन संयमीजीवन) से उसका क्षय करता है। विवेचन-धूतवादी महामुनि-जो महामुनि विशुद्ध परिणामों से श्रुत-चारित्ररूप मुनिधर्म अंगीकार करके उसके आचरण में प्राजीवन उद्यत रहते हैं, उनके लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं- (1) धर्मोपकरणों का यत्नापूर्वक निर्ममत्वभाव से उपयोग करने वाला। . (2) परीषह-सहिष्णुता का अभ्यासी। .. (3) समस्त प्रमादों का यत्नापूर्वक त्यागी। (4) काम-भोगों में या स्वजन-लोक में लिप्त अनासक्त / / ' (5) तप, संयम तथा धर्माचरण में दृढ़ / (6) समस्त गद्धि-भोगाकांक्षा का परित्यागी। (7) संयम या धूतवाद के प्रति प्रणत/समर्पित / . .. ..(8) एकत्वभाव के द्वारा कामासक्ति या संग का सर्वथा त्यागी / (9) द्रव्य एवं भाव से सर्वप्रकार से मुण्डित / .. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 184-185 201 (10) संयमपालन के लिए अचेलक (जिनकल्पी) या अल्पचेलक (स्थविरकल्पी) साधना को स्वीकारने वाला। (11) अनियत-अप्रतिबद्धविहारी। (12) अन्त-प्रान्तभोजी, अवमौदर्य तपः सम्पन्न / (13) अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का सम्यक् प्रकार से सहन करने वाला / ' अप्पलीयमारणे—इसका अर्थ चर्णिकार ने यों किया है-'जो विषय-कषायादि से दूर रहता है।' लीन का अर्थ है-मग्न या तन्मय, इसलिए अलीन का अर्थ होगा अमग्न या प्रतन्मय / वृत्तिकार ने अप्रलीयमान का अर्थ किया है--'काम-भोगों में या माता-पिता आदि स्वजन-लोक में अनासक्त / 2 ___'सम्बं गेहि परिणाय'-इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-'समस्त गद्धि-भोगाकांक्षा को दुःखरूप (ज्ञपरिज्ञा से) जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका परित्याग करे। चूर्णिकार 'गिद्धि' के स्थान पर 'गन्य' शब्द मानकर इसी प्रकार अर्थ करते हैं / _ 'अतियच्च सम्बो संग-यह वाक्य सर्वसंग-परित्यागरूप धूत का प्राण है। संग का अर्थ है--प्रासक्ति या ममत्वयुक्त सम्बन्ध / - इसका सर्वथा अतिक्रमण करने का मतलब है इससे सर्वथा ऊपर उठना / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव किसी भी प्रकार का प्रतिबन्धात्मक सम्बन्ध संग को उत्तेजित कर सकता है। इसलिए सजीव (माता-पिता, स्त्री-पुत्र प्रादि पूर्व सम्बन्धियों) और निर्जीव (सांसारिक भोगों आदि) पदार्थों के प्रति मासक्ति का सर्वथा था त्याग करना धूतवादी महामुनि के लिए अनिवार्य है। किस भावना का पालम्बन लेकर संग-परित्याग किया जाय?. इसके लिए शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-'ण महं अरिप' मेरा कोई नहीं है, मैं (प्रात्मा) अकेला हूँ, इस प्रकार से एकत्वभावना का अनुप्रेक्षण करे। अावश्यकसूत्र में संस्तार पौरुषी के सन्दर्भ में मुनि के लिए प्रसन्नचित्त और दैन्यरहित मन से इस प्रकार की एकत्वभावना का अनुचिन्तन करना आवश्यक बताया गया है 'एगो मे सासओ अप्पा, नानसणसंजुभो / सेसा मे बाहिरा भावा, सम्बे संजोगलक्खागा / " -सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और उपलक्षण से सम्यक्-चारित्र से युक्त एकमात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है। प्रात्मा के सिवाय अन्य सब पदार्थ बाह्य हैं, वे संयोगमात्र से मिले हैं। 'सम्बतो मुडे-केवल सिर मुडा लेने से ही कोई मुण्डित या श्रमण नहीं कहला सकता, मनोजनित कषायों और इन्द्रियों को भी मूडना (वश में करना) अावश्यक है। इसीलिए यहाँ 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 219 / 2. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 219 / (ख) प्राचारांग चूणि प्राचा० मूलपाठ पृ० 61 टिप्पण / (मुनि जम्बूविजयजी) 3. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 219 / (ख) प्राचारांम चूणि प्राचा० मूलपाठ पृष्ठ 61 टिप्पण 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 219 / 5. तुलना करें-नियमसार 102 / मातुर प्र० 26 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 'सर्वतः मुण्ड' होना बताया है। स्थानांगसूत्र में क्रोधादि चार कषायों, पांच इन्द्रियों एवं सिर से मुण्डित होने (विकारों को दूर करने वाले को सर्वथा मुण्ड कहा गया है।' ___ वध, आक्रोश आदि परीषहों के समय धृतवादी मुनि का चिन्तन- वृत्तिकार ने स्थानांगसूत्र का उद्धरण देकर पांच प्रकार से चिन्तन करके परीषह सहन करने की प्रेरणा दी है--- (1) यह पुरुष किसी यक्ष (भूत-प्रेत) आदि से ग्रस्त है / (2) यह व्यक्ति पागल है। (3) इसका चित्त दर्य से युक्त है। (4) मेरे ही किसी जन्म में किये हुए कर्म उदय में आए हैं, तभी तो यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, बांधता है, हैरान करता है, पीटता है, संताप देता है। (5) ये कष्ट समभाव से सहन किये जाने पर एकान्ततः कर्मों की निर्जरा (क्षय) होगी। तितिक्खमाले परिवए जेय हिरी जे य अहिरीमणा' - इस पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट है। परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करता हुया मुनि संयम में विचरण करे / इससे पूर्व परीषह के दो प्रकार बताए गए हैं - अनुकूल और प्रतिकूल / जिनके लिए "एगतरे-अच्णतरे' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। इस पंक्ति में भी पुनः परीषह के दो प्रकार प्रस्तुत किए गए हैं"हिरो' और 'अहिरीमणा'। 'ही' का अर्थ लज्जा है। जिन परीषहों से लज्जा का अनुभव हो, जैसे याचना, अचेल आदि वे 'होजनक' परीषह कहलाते हैं तथा शीत, उष्ण आदि जो परीषह अलज्जाकारी हैं, उन्हें 'अहोमना' परीषह कहते हैं। वसिकार ने 'हारीणा', 'अहारीणा' इन दो पाठान्तरों को मानकर इनके अर्थ क्रमशः यों किये हैं . सत्कार, पुरस्कार प्रादि जो परीषह साधु के 'हारी' यानी मन को आह्लादित करने वाले हैं, वे 'हारी' परीषह तथा जो परीषह प्रतिकूल होने के कारण मन के लिए अनाकर्षकअनिष्टकर हैं, वे 'अहारी' परीषह कहलाते है / धूतवादी मुनि को इन चारों प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहना चाहिए। _ 'चेच्चा सम्वं विसोसियं'-समस्त विस्रोतसिका का त्याग करके। 'विसोतिया' शब्द प्रतिकूलगति, विमार्गगमन, मन का विमार्ग में गमन, अपध्यान, दुष्टचिन्तन और शंका-- इन अर्थों में व्यवहृत होता है। यहाँ विसोत्तिय' शब्द के प्रसंगवश शंका, दुष्टचिन्तन, अपध्यान या मन का बिमार्गगमन-ये अर्थ हो सकते हैं। अर्थात् परीषह या उपसर्ग के आ 1. स्थानांगसूत्र स्था० 5 उ० 3 सू० 443 / 2. पंचहिं गणेहि छउमस्थे उप्पन्न परिसहोवसग्गे सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ तंजहा(१) जक्खाइट्टे अयं पुरिसे, (2) दत्तचित्त अयं पुरिसे, (3) उम्मायपत्त अयं पुरिसे, (4, मम च गं पुष्वम्भव वेअणोआणि कम्माणि उदिनाणि भवंति, जन्न एस पुरिसे आउसह बंधइ, तिप्पह, पितृह, परितावेइ, (5) मम चणं सम्मं सहमाणस जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणिज्जरा हवई। -----स्था० स्थान 5 उ० 1 सू० 73 3. प्राचाशीला टीका पत्रांक 219 / 4. पाइअसहमण्णवो' पृष्ठ 707 / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 186 211 पड़ने पर मन में जो प्रात-रौद्र-ध्यान आ जाते हैं, या विरोधी के प्रति दुश्चिन्तन होने लगता है, अथवा मन चंचल और क्षुब्ध होकर असंयम में भागने लगता है, अथवा मन में कुशंका पैदा हो जाती है कि ये जो परीषह और उपसर्ग के कष्ट मैं सह रहा हूँ, इसका शुभ फल मिलेगा या नहीं ?" इत्यादि समस्त विस्रोतसिकाओं को धूतवादी सम्यग्दर्शी मुनि त्याग दे।' 'अणागमणम्मिणो-जो साधक पंचमहाव्रत और सर्वविरति चारित्र (संयम) की प्रतिज्ञा का भार जीवन के अन्त तक वहन करते हैं, परीषहों और उपसर्गों के समय हार खाकर पुनः गृहस्थलोक या स्वजनलोक-(गृह-संसार) की ओर नहीं लौटते; न ही किसी प्रकार की कामासक्ति को लेकर लौटना चाहते हैं, वे-- 'अनागमनधर्मो' कहलाते हैं। यहाँ शास्त्रकार उनके लिए कहते हैं- “एए भो पगिणावुत्ता, जे लोग सि अणागमनम्मिणो।' अर्थात् इन्हीं परीषहसहिष्णु निष्किचन निर्ग्रन्थों को 'भावनग्न' कहा गया है, जो लोक में अनागमनधर्मी हैं। आणाए मामगं धम्म' का प्रचलित अर्थ है-'मेरा धर्म मेरी प्राज्ञा में है। परन्तु 'पाजा' शब्द को यहाँ तृतीयान्त मानकर वृत्तिकार इस वाक्य के दो अर्थ करते हैं (1) जिससे सर्वतोमुखी ज्ञापन किया जाये-बताया जाये, उसे प्राज्ञा कहते हैं, आज्ञा से (शास्त्रानुसार या शास्त्रोक्त प्रादेशानुसार) मेरे धर्म का सम्यक् अनुपालन करे / अथवा . (2) धर्माचरणनिष्ठ साधक कहता है-'एकमात्र धर्म ही मेरा है, अन्य सब पराया है, इसलिए मैं आज्ञा से-तीर्थंकरोपदेश से उसका सम्यक् पालन करूंगा। . 'एस उत्तरवावे...' का तात्पर्य है--समस्त परीषहों और उपसगों के प्राने पर समभाव से सहना, मुनिधर्म से विचलित होकर पुनः स्वजनों के प्रति प्रासक्तिवश गहवास में न लौटनी, काम-भोगों में जरा भी आसक्त न होना, तप, संयम और तितिक्षा में दृढ़ रहना; यह उत्तरवाद है / यही मानवों के लिए उत्कृष्ट-धूतवाद कहा है / इसमें लीन होकर इस वाद का यथानिर्दिष्ट सेवन–पालन करता हुअा अादानीय-अष्ट-विधकर्म को, मूल उत्तर प्रकृतियों आदि सहित सांगोपांग जानकर मुनि-पर्याय (श्रमण-धर्म) में स्थिर होकर उस कर्म-समुदाय को प्रात्मा से पृथक् करे-उसका क्षय करे / यह शास्त्रकार का आशय है। _एकपर्या-निरूपण 186. इह एगेसि एमचरिया होति / तस्थितराइतरेहि कुलेहि सुद्ध सणाए सम्वेसणाए से मेधावो परिवए सुग्भि अदुवा दुभि / अदुवा तत्थ मेरवा पाणा पाणे किलेसंति / ते फासे पुट्ठो धोरो अषियासेज्जासि त्ति बेमि / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 220 / 5. 'तत्थ इयरासरेहि' पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है---"इतराइतरं-इतरेतरं कमो गहितो ण उड्डड्डयाहि"-अन्यान्य या भिन्न-भिन्न कुलों से..."यहाँ इतरेतर शब्द से भिन्न-भिन्न कर्म या क्रम का ग्रहण किया गया है / यहाँ कर्म का अर्थ व्यवसाय या धंधा है। विभिन्न धंधों वाले परिवारों से"""अथवा भिक्षाटन के समय क्रमशः भिन्न-भिन्न कूलों से....."बिना क्रम के अंट-संट नहीं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 माचारोग सूत्र-प्रथम तस्कर 186. इस (निर्ग्रन्थ संघ) में कुछ लघुकर्मी साधुनों द्वारा एकाकी चर्या (एकल-विहार-प्रतिमा की साधना) स्वीकृत की जाती है। उस (एकाकी-विहार-प्रतिमा) में वह एकल-विहारी साधु विभिन्न कुलों से शुद्धएषणा और सर्वेषणा (आहारादि की निर्दोष भिक्षा) से संयम का पालन करता है। वह मेधावी (ग्राम आदि में) परिव्रजन (विचरण) करे।। सुगन्ध से युक्त या दुर्गन्ध से युक्त (जैसा भी आहार मिले, उसे समभाव से ग्रहण या सेवन करे) अथवा एकाकी विहार साधना से भयंकर शब्दों को सुनकर या भयंकर रूपों को देखकर भयभीत न हो। हिंस्र प्राणी तुम्हारे प्राणों को क्लेश (कष्ट) पहुँचाएँ; (उससे विचलित न हो)। उन स्पर्शों (परीषहजनित-दुःखों) का स्पर्श होने पर धीर मुनि उन्हें 'सहन करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–पूर्व सूत्रों में धूतवाद का सम्यक् निरूपण कर उसे 'उत्तरवाद'--श्रेष्ठ आदर्श सिद्धान्त के रूप में प्रस्थापित किया है / धूतवादी का जीवन कठोर साधना का मूर्तिमंत रूप है, अनासक्ति की चरम परिणति है / यह प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। 'सुद्ध समाए सन्देसगाए'-ये दो शब्द धूतवादी मुनि के आहार-सम्बन्धी सभी एषणामों से सम्बन्धित हैं / एषणा शब्द यहाँ तष्णा, इच्छा, प्राप्ति या लाभ अर्थ में नहीं है, अपितु साधु को एक समिति (सम्यक्प्रवृत्ति) है, जिसके माध्यम से वह निर्दोष भिक्षा ग्रहण करता है। अतः 'एक्मा' शब्द यहाँ निर्दोष आहारादि (भिक्षा) की खोज करना, निर्दोष भिक्षा या उसका ग्रहण करना, निर्दोष भिक्षा का अन्वेषण-गवेषण करना, इन अर्थों में प्रयुक्त है / एषणा के मुख्यतः तीन प्रकार हैं:-(१) गवेषणैषणा, (2) ग्रहणषणा, (3) ग्रासैषणा या परिभोगैषणा / गवेषणषणा के 32 दोष हैं–१६ उद्गम के हैं, 16 उत्पादना के हैं। ग्रहणेषणा के 10 दोष हैं और ग्रासैषणा के 5 दोष हैं। इन 47 दोषों से बचकर आहार, धर्मोपकरण, शय्या आदि वस्तुओं का अन्वेषण, ग्रहण और उपभोग (सेवन) करना शुद्ध एषणा कहलाती है। आहारादि के अन्वेषण से लेकर सेवन करने तक मुनि की समस्त एषणाएँ शुद्ध होनी चाहिए, यही इस पंक्ति का आशय है।' 1. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 220, (ख) उत्तरा० अ० 24 गा० 11-12, (ग) पिण्डनियुक्ति गा० 92-93, गा० 408 पिण्डनियुक्ति में औद्द शिक' आदि 16 उद्गम-गवेषणा के दोषों का तथा 16 उत्पादना-गवेषणा के दोषों (धाइ-दुई-निमित्त प्रादि) का वर्णन है। शंकित आदि 10 ग्रहणषणा (एषणा) के दोष हैं तथा संयोजना अप्रमाण अादि 5 दोष ग्रासषणा के हैं। कुल मिलाकर एषणा के ये 47 दोष हैं। उदगम दोषों का वर्णन स्थानांग (9162) उत्पादना दोषों का निशीथ (12) दशवकालिक (5) तथा संयोजना दोषों का वर्णन भगवती (71) आदि स्थानों पर भी मिलता है। विस्तार के लिए देखें इसी सूत्र में पिडषणा अध्ययन सूत्र 324 का विवेचन / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 187 213 एकचर्या और भयंकर परीषह-उपसर्ग-धूतवादी मुनि कर्मों को शीघ्र क्षय करने हेतु एकल विहार प्रतिमा अंगीकार करता है / यह साधना सामान्य मुनियों की साधना से कुछ विशिष्टतरा होती है। एकचर्या की साधना में मुनि की सभी एषणाएं शुद्ध हों, इसके अतिरिक्त मनोज्ञअमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के प्राप्त होने पर राग और द्वेष न करे। एकाकी साधु को रात्रि में जन-शून्य स्थान या श्मशान आदि में कदाचित् भूत-प्रेतों, राक्षसों के भयंकर रूप दिखाई दें या शब्द सुनाई दें या कोई हिंस्र या भयंकर प्राणी प्राणों को क्लेश पहुँचाएँ, उस समय मुनि को उन कष्टों का स्पर्श होने पर तनिक भी क्षुब्ध न होकर धैर्य से समभावपूर्वक सहना चाहिए; तभी उसके पूर्व संचित कर्मों का धूनन-क्षय हो सकेगा।' // बिइओ उद्देसओ समत्तो / तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक उपकरण-लाधव 187. एतं खु मुणी आवाणं सदा सुअक्खातषम्मे विधतकप्पे णिज्झोसइत्ता / / जे अचेले परिसिते तस्स णं भिक्खुस्स गो एवं भवति–परिजुणे मे बत्थे, वत्यं जाइ. स्सामि, सुत्त जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संघिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोकसिस्सामि , परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि / 1. आचा• शोला टीका पत्रांक 220 / 2. चूणिमान्य पाठान्तर इस प्रकार हैं--'एस मुणी आदाणं' अर्थ-एस त्ति जं भणितं 'ते फा० पुट्ठो अहियासए' एस तव तित्थगराओ आणा ।"एसा ते जा भाणिता वक्खमाणा य, मुणी भगवं सिस्सामंतणं वा, प्राणप्पत इति प्राणा, जं भणितं उक्देसो।"---यहा 'एस' से तात्पर्य हैं-जो (अभी-अभी) कहा गया था, कि उन स्पर्शों के प्रा पड़ने पर मुनि समभाव से सहन करे या मागे कहा जाएगा, यह तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की प्राज्ञा है-प्राज्ञापन है-उपदेश है। मुणी शब्द मुनि के लिए सम्बोधन का प्रयोग है कि 'हे मुनि भगवान् !' अथवा शिष्य के लिए सम्बोधन हैं-“हे मुने !" 'आताणं आयाणं नाणातियं' (अथवा) प्रादान का अर्थ है-(तीर्थंकरों की ओर से) ज्ञानादिरूप प्रादानविशेष सर्वतोमुखी दान है। 3. चूर्णिकार ने "वियतकम्पो निजमोसतित्ता' पाठ मानकर अर्थ किया है ---"णियतं णिच्छितं वा झोसइत्ता, महवा जूसी प्रीतिसेवणयो णियत णिच्छित वा झोसतिता, जं भणितं णिसेवतिता फास इत्ता पालयित्ता।"-नियत या निश्चित रूप से मुनि पादान को (उपकरणादि को) कम करके पादान = कर्म को सूखा दे--- हटा दे। अयवा जुष धातु प्रीति और सेवन के अर्थ में भी है। नियत किये हुए या निश्चित किये हुए संकल्प या जो कहा है- उस वचन का मुनि सेवन-पालन या स्पर्श करे। चणि में 'प्रवकरिसणं वोक्कसणं, पियंसणं पियसिसामि उवरि पाउरणं'। इस प्रकार प्रर्थ किया गया है। अपकर्षण (कम करने) को व्युत्कर्षण कहते हैं / ऊपर ओढ़ने के वस्त्र को पहनूगा / इससे मालम होता है-चूर्णि में 'बोक्कसिस्सामि णियंसिस्सामि पाउणिस्सामि' पाठ अधिक है। . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 आधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीतफासा फुसंति उफासा फसंति. वंस-मसगफासा फसंति, एगतरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अषियासेति अचेले लाघवं. आगमाणे। तवे से अभिसमण्णागए भवति / जहेतं भगवता पवेदितं। तमेव अभिसमेचा सम्वतो. सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। एवं तेसि महावोराणं चिरराइं पुवाई वासाइं रीयमाणाणं दवियाणं पास अधियासियं / 188, आगतपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति पयणुए य मससोगिए। विस्सेणि कटु परिणाय एस तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / 187. सतत सु-आख्यात (सम्यक् प्रकार से कथित) धर्म वाला विधूतकल्पी (प्राचार का सम्यक् पालन करने वाला) बह मुनि अादान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, इस भिक्षु को ऐसी चिन्ता (विकल्प) उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूंगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे (डोरे) की याचना करूंगा, फिर सूई की याचना करूंगा, फिर उस वस्त्र को साँधूगा, उसे सीऊंगा, छाटा है, इसलिए दूसरा टुकड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊँगा; बड़ा है, इसलिए फाड़कर छोटा बनाऊँगा, फिर उसे पहनूंगा और शरीर को ढकगा। __ अथवा अचेलत्व-साधना में पराक्रम करते हुए निर्वस्त्र मुनि को बार-बार तिनकों (घास के तृणों) का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तथा डांस और मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। 1. चूणि में इसके बदले पाठ है-'सावियं आगमेमाले' इसका अर्थ नागार्जुनसम्मत अधिक पाठ मानकर किया गया है-''एवं खुल से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खयकरणं करेइ,"-इस प्रकार वह मुनि ___ उपकरण लाविक (उपकरण-अवमौदर्य) कर्मक्षयकारक तप करता है। 2. चूणि में नागार्जुन सम्मत अधिक पाठ दिया गया हैं---'सव्वं सब्वं व (सम्वत्येव ?) सम्वकालं पि . सव्वेहि .'---सबको सर्वथा सर्वकाल में, सर्वात्मना "जानकर / 3. 'समरामेव समभिजाणित्ता' पाठ मानकर चूणि में अर्थ किया है—पसस्थो भावो सम्मत्त सम्म अभि जाणित्ता--समभिजाणित्ता, महवा समभावो सम्मत्तमिति / “सम्मत्त समभिजाणमागे 'पाराधनो भवति', इति वक्कसेसं ।'--'सम्मत्त' प्रशस्तभाव का नाम है। प्रशस्तभावपूर्वक सम्यक् प्रकार से जान अथवा सम्मत्त का अर्थ समभाव है। 'समभाव को सम्यक् जानता हुआ', आराधक होता है (वाक्यशेष)। 4. 'विरराय' पाठान्तर मानकर चणि ने अर्थ किया है-'चिरराइं मणितं जावज्जीवाए। 5. चूणि में इसका अर्थ इस प्रकार है--आगतं उबलर मिस गाणं पणा"एवं तेसि महावीरागं भागतपजाणाणं जिन्हें अत्यन्त ज्ञान (प्रज्ञान) मागत-उपलब्ध हो गया है, उन अागतप्रज्ञान महावीरों की"। 6. 'परिणाय' का भावार्थ चूर्णि में इस प्रकार है-'एमाए गातु बितियाए पञ्चवखाएसा एक (ज्ञ) परिज्ञा से जानकर, दूसरी (प्रत्याख्यानपरिज्ञा) से प्रत्याख्यानत्याग करके Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 187-188 215 अचेलक मुनि उनमें से एक या दूसरे, नाना प्रकार के स्पर्शों (परोषहों) को (समभाव से) सहन करे / अपने आपको लाघवयुक्त (द्रव्य और भाव से हलका) जानता हुआ वह अचेलक एवं तितिक्षु भिक्षु) तप (उपकरण-ऊनोदरी एवं कायक्लेश तप) से सम्पन्न होता है। भगवान ने जिस रूप में अचेलत्व का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में जान-समझकर, सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व/सत्व जाने अथवा समत्व का सेवन करे। जीवन के पूर्व भाग में प्रजित होकर चिरकाल तक (जीवनपर्यन्त) संयम में विचरण करने वाले, चारित्र-सम्पन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान् वीर साधुओं ने जो (परीषहादि) सहन किये हैं; उसे तू देख / 188. प्रज्ञावान् मुनियों की भुजाएँ कृश (दुर्बल) होती हैं, (तपस्या से तथा परीषह सहन से) उनके शरीर में रक्त-मांस बहुत कम हो जाते हैं / __ संसार-वृद्धि की राग-द्वेष-कषायरूप श्रेणी-संतति को (समत्व की) प्रज्ञा से जानकर (क्षमा, सहिष्णुता आदि से) छिन्न-भिन्न करके वह मुनि (संसार-समुद्र से) तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-पिछले उद्देशक में कर्म-धनन के संदर्भ में स्नेह-त्याग तथा सहिष्णुता का निर्देश किया गया था, सहिष्णुता की साधना के लिए ज्ञानपूर्वक देह-दमन, इन्द्रिय-निग्रह पावश्यक है। वस्त्र आदि उपकरणों की अल्पता भी अनिवार्य है। इसलिए तप, संयम, परीषह सहन आदि से उसे शरीर और कषाय को कृश करके लाघव-अल्पीकरण का अभ्यास करना चाहिए / धूतवाद के संदर्भ में देह-धूनन करने का उत्तम मार्ग इस उद्देशक में बताया गया है। एवं खु मुणी आदांणं' ---यह वाक्य बहुत ही गम्भीर है / इसमें से अनेक अर्थ फलित होते हैं / वृत्तिकार ने 'आदान' शब्द के दो अर्थ सूचित किये हैं-जो आदान-ग्रहण किया जाए, उसे आदान कहते हैं, कम / अढवा जिसके द्वारार्म का ग्रहण (प्रादान) किया जाए, वह कर्मों का उपदान प्रादान है। वह आदान है, धर्मोपकरण के अतिरिक्त आगे की पंक्तियों में कहे जाने वाले वस्त्रादि / इस (पूर्वोक्त) कर्म को मुनि क्षय करके अथवा (आगे कहे जाने वाले धर्पोपरण से अतिरिक्त वस्त्रादि का मुनि परित्याग करे।' ___ चूर्णिकार के मतानुसार यहाँ 'एस मुणी आवाणं....' पाठ है / 'मुणी' शब्द को उन्होंने सम्बोधन का रूप माना है / 'एस' शब्द के उन्होंने दो अर्थ फलित किये हैं-(१) यह जो अभीअभी कहा गया था---परीषहादि-जनित नाना दुःखों का स्पर्श होने पर उन्हें समभाव से सहन करे / (2) जो आगे कहा जायगा, हे मुनि ! तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की आज्ञा-प्राज्ञापन या उपदेश है। 1. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 180 / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध आदान शब्द का एक अर्थ ज्ञानादि भी है, जो तीर्थंकरों की ओर से विशेष रूप से सर्वतोमुखी दान है। तात्पर्य यह है कि पादान का अर्थ, आज्ञा, उपदेश या सर्वतोमुखी ज्ञानादि का दान करने पर सारे वाक्य अर्थ होगा-हे मुने ! विधुत के प्राचार में तथा सू-प्राख्यात धर्म में सदा तीर्थंकरों की यह (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) आज्ञा, उपदेश या दान है, जिसे तुम्हें भलिभाँति पालन-सेवन करना चाहिए। प्रादान का अर्थ कर्म या वस्त्रादि उपकरण करने पर अर्थ होगा ---स्वाख्यात धर्मा और विधूतकल्प मुनि इस (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) कर्म या कर्मों के उपादन रूप वस्त्रादि का सदा क्षय या परित्याग करे / / . णिन्जोसइत्ता के भी विभिन्न अर्थ फलित होते हैं / नियत या निश्चित (कर्म या पूर्वोक्त स्वजन, उपकरण आदि का) त्याग करके / जुष धातु प्रीति पूर्वक सेवन अर्थ में प्रयुक्त होता है, वहाँ णिज्झोसइत्ता का अर्थ होगा--जो कुछ पहले (परिषहादि सहन, स्वजनत्याग आदि के सम्बन्ध में) कहा गया है, उस नियत या निश्चित उपदेश या वचन का मुनि सेवन-पालन या स्पर्शन करे। - 'अचेले परिपुसिते ...'-इस पंक्ति में 'अचेले' शब्द का अर्थ विचारणीय है / अचेन के दो अर्थ मुख्यतया होते हैं--प्रवस्त्र और अल्पवस्त्र / नत्र समास दोनों प्रकार का होतानिषेधार्थक और अल्पार्थक / निषेधार्थक अचेल शब्द जंगल में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि का विशेषण है और अल्पार्थक अचेल शब्द स्थविरकल्पी मुनि के लिए 'प्रयुक्त होता है, जो संघ में रहकर साधना करते हैं। दोनों प्रकार के मुनियों को साधक ‘अवस्था में कुछ धर्मोपकरण रखने पड़ते हैं / यह बात दूसरी है कि उपकरणों की संख्या में अन्तर होता है / जंगलों में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनियों के लिए शास्त्र में मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण ही विहित हैं। इन इन उपकरणों में भी कमी की जा सकती है / अल्पतम उपककणों से काम चलाना कर्म-निर्जराजनक अवमोदर्य (ऊनोदरी) तप है / किन्तु दोनों कोटि के मुनियों को वस्त्रादि उपकरण रखते हुए भी उनके सम्बन में विशेष चिन्ता, आसक्ति या उनके वियोग में प्रार्तध्यान या उद्विग्नता नहीं होनी चाहिए। कदाचित् वस्त्र फट जाए या समय पर शुद्ध-ऐषणिक वस्त्र न मिले, तो भी उसके लिए विशेष चिन्ता या पार्तध्यान-रौद्रध्यान नहीं होना चाहिए / अगर प्रातरौद्रध्यान होगा या चिन्ता होगी तो उसकी विधूत-साधना खण्डित हो जामेगी / कर्मधूत की साधना तभी होगी, जब एक ओर स्वेच्छा से ब अत्यन्त अल्प वस्त्रादि उपकरण रखने का सकल्प करेगा, दूसरी ओर से अल्प वस्त्रादि होते हुए भी आने वाले परीषहों (रति-अरति, शीत, तृष्ण स्पर्श, दंशमशक आदि) 1. आचारांग चूणि आचा० मूल पाठ टिप्पण पृ० 63 / 2. आचारांग चूणि आचा० मूल पाठ यिप्पण पृ० 63 / 3. जैसे अज्ञ का अर्थ अल्पज्ञ होता है न कि ज्ञान-शून्य, वैसे ही यहाँ 'अचेल' का अर्थ अल्पचेल (अल्प वस्त्र वाला) भी होता है। प्राचा० शीला टीका पत्रांक 221 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 221 / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 187-188 को समभावपूर्वक सहेगा, मन में किसी प्रकार की उद्विग्नता, क्षोभ, चंचलता या अपध्यान नहीं आने देगा / अचेल मुनि को किस-किस प्रकार की चिन्ता, उद्विग्नता या अपध्यानमग्नता नहीं होनी चाहिए? इस सम्बन्ध में विविध विकल्प परिजष्णे मे वस्थे' से लेकर 'दंस मसगफासा फुसंति' तक की पंक्तियों में प्रस्तुत किये हैं / 'परिसिते' शब्द से दोनों कोटि के मुनियों का हर हालत में सदैव संयम में रहना सूचित किया गया है। यही इस सूत्र का आशय है।' लाप आगममणो'-मुनि परिषहों और उपसर्गों को सम्यक प्रकार से अविचल होकर क्यों सहन करे? इससे उसे क्या लाभ है ? इसी शंका के समाधान के रूप में शास्त्रकार उपयुक्त पंक्ति प्रस्तुत करते हैं ? लाघव का अर्थ यहाँ लघुता या हीनता नहीं है, अपितु लघु (भार में हलका) का भाव 'लाघव' यहाँ विवक्षित है / वह दो प्रकार से होता है-द्रव्य से और भाव से / द्रव्य के उपकरण-लाघव और भाव से कर्मलाघव / इन दोनों प्रकार से लाघव समझ कर मुनि परिषहों तथा उपसर्गों को सहन करे। इस सम्बन्ध में नागार्जुन-सम्मत जो पाठ है, उसके अनुसार अर्थ होता है-'इस प्रकार उपकरण-लाघव से कर्मक्षयजनक तप हो जाता है।' साथ ही परिषह-सहन के समय तृणादि-स्पर्श या शीत-उष्ण, दंश-मशक प्रादि स्पर्शों को सहने से कायक्लेश रूप तप होता है। 2 तमेव "समभिजाणिया-यह पंक्ति लाघवधूत का हृदय है। जिस प्रकार से भगवान महावीर ने पूर्व में जो कुछ प्रादेश-उपदेश (उपकरण-लाधव, आहार-लाघव आदि के सम्बन्ध में) दिया है, उसे उसी प्रकार से सम्यक् रूप में जानकर-कैसे जानकर ? सर्वतः सर्वात्मनावत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण किया है--सर्वतः यानी द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से / द्रव्यतः-- पाहार, उपकरण आदि के विषय में, क्षेत्रतः--ग्राम, नगर आदि में, कालत:-दिन, रात, दुभिक्ष आदि समय में सर्वात्मना, भावतः-मन में कृत्रिमता, कपट, वंचकता आदि छोड़कर। . * सम्मत–सम्यक्त्व के अर्थ हैं-प्रशस्त, शोभन, एक या संगत तत्त्व / इस प्रकार के सम्यक्त्व को सम्यक् प्रकार से, निकट से जाने। अथवा समत्त का समत्वं रूप हो तो, तब वावयार्थ होगा इस प्रकार के समत्व-समभाव को सर्वतः सर्वात्मना प्रशस्त भावपूर्वक जानता हप्राया जानकर (पाराधक होता है)। आचारांगचूर्णि में ये दोनों अर्थ किये गये हैं। तात्पर्य यह है कि उपकरण-लाघव आदि में भी समभाव रहे, दूसरे साधकों के पास अपने से न्यूनाधिक उपकरणादि देखकर उनके प्रति घृणा, द्वेष, तेजोद्वेष, प्रतिस्पर्धा, रागभाव, अवज्ञा ग्रादि मन में न आवे, यही समत्व को सम्यक् जानना है / इसी शास्त्र में बताया गया है जो साधक 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 221 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / 2. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / (ख) आचारांगचुणि में नागार्जुन-सम्मत पाठ और व्याख्या। 4. प्राचारांगवृत्ति में सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द विषयक श्लोक "प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः संगत एव च। इत्यतरूपसष्टस्तु भावः सम्यक्त्वमुच्यते // " 5. देखिये, प्राचारांग मूलपाठ के पादटिप्पण में पृ० 64 / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तीन वस्त्र-युक्त, दो वस्त्र-युक्त, एक वस्त्र-युक्त या वस्त्ररहित रहता है, वह परस्पर एक दूसरे की अवज्ञा, निन्दा, घृणा न करे, क्योंकि ये सभी जिनाज्ञा में हैं।' वस्त्रादि के सम्बन्ध में समान आचार नहीं होता, उसका कारण साधकों का अपना-अपना संहनन, धुति, सहनशक्ति आदि हैं, इसलिए साधक अपने से विभिन्न प्राचार वाले साधु को देखकर उसकी अवज्ञा न करे, न ही अपने को हीन माने / सभी साधक यथाविधि कर्मक्षय करने के लिए संयम में उद्यत हैं, ये सभी जिनाज्ञा में हैं, इस प्रकार जानना ही सम्यक् अभिज्ञात करना है। अथवा उक्त वाक्य का यह अर्थ भी सम्भव है-उसी लाघव को सर्वत: (द्रव्यादि से) सर्वात्मना (नामादि निक्षेपों से) निकट से प्राप्त (माचरित) करके सम्यक्त्व को ही सम्यक प्रकार से जान ले-अर्थात् तीर्थंकरों एवं गणधरों के द्वारा प्रदत्त उपदेश से उसका सम्यक आचरण करे। ‘एवं तेसि...."अधियासियं'---इस पंक्ति के पीछे प्राशय यह है कि यह लाघव या परीषहसहन आदि धतवाद का उपदेश अव्यवहार्य या अशक्य अनुष्ठान नहीं है। यह बात साधकों के दिल में जमाने के लिए इस पंक्ति में बताया गया है कि इस प्रकार अचेलत्वपूर्वक लाघव से रहकर विविध परीषह जिन्होंने कई पूर्व (वर्षों) तक (अपनी दीक्षा से लेकर जीवन पर्यन्त) सहे हैं तथा संयंम में बढ़ रहे हैं, उन महान् वीर मुनिवरों (भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक के मुक्तिगमन योग्य मुनिवरों) को देख / ' 'किसा माहा भवंति'-इस वाक्य के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं.---(१) तपस्या तथा परीषह-सहन से उन प्रज्ञा-प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) मुनियों को बाहें कृश- दुर्बल हो जाती हैं, (2) उनकी बाधाएँ-पीड़ाएँ कृश-कम हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि कर्म-क्षय के लिए उद्यत प्रज्ञाबान मुनि के लिए तप या परीषह-सहन केवल शरीर को ही पीड़ा दे सकते हैं, उनके मन को वे पीड़ा नहीं दे सकते। बिस्सेणि कटु' का तात्पर्य वृत्तिकार ने यह बताया है कि संसार-श्रेणी-संसार में अवतरित करने वाली राग-द्वष-कषाय संतति (शृखला) है, उसे क्षमा आदि से विश्रेणित करके-तोड़कर / 'परिण्णाय' का अर्थ है ---समत्व भावना से जान कर / जैसे भगवान् महावीर के धर्म जोऽवि दुबत्थतिवत्थी एमेण अचेलगो व संघरह / गहु ते होलति पर, सम्वेऽपि य ते जिणाणाए // 1 // जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइआदि कारणं पप्प। णऽव मनाइ, ण यहीण अप्पाण मन्नई तेहिं // 2 // सम्वेऽवि जिणाणाए नहाविहि कम्म-खम-अहाए / विहरति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं // 3 // -पाचा ०शीला० टीका पत्रांक 222 / 2. माचा पीला टीका पत्रांक 222 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / 4, प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 223 / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देश्क : सूत्र 189 219 शासन में कोई जिनकल्पी (अवस्त्र) होता है, कोई एक वस्त्रधारी, कोई द्विवस्त्रधारी और कोई त्रिवस्त्रधारी, कोई स्थविरकल्पी मासिक उपवास (मासक्षपण) करता है, कोई अर्द्धमासिक तप; इस प्रकार न्यूनाधिक तपश्चर्याशील और कोई प्रतिदिन भोजी भी होते हैं / वे सब तीर्थकर के वचनानुसार संयम पालन करते हैं इनकी परस्पर निन्दा या अवज्ञा न करना ही समत्व भावना है, जो ऐसा करता है वही समत्वदर्शी है।' अांदीन-द्वीप तुल्य धर्म 189. विरयं भिक्वं रीयंतं धिररातोसियं अरती तस्थ कि विधारए ? संघमाणे समुद्विते। जहा से बीवे असंवीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए / ते अणवखमाणा' अणतिवातेमाणा वहता मेधाविणो पंडिता। एवं तेसि भगवतो अणुट्ठाणे जहा से दियापोते / एवं ते सिस्सा दिया य रातो य अणुपुषेण वायित त्ति बेमि। ॥तइओ उद्दे सो समतो॥ 189. चिरकाल से मुनिधर्म में प्रवजित (स्थित), विरत और (उत्तरोत्तर) संयम में गतिशील भिक्षु को क्या अरति (संयम में उद्विग्नता) धर दबा सकती है ? (प्रतिक्षण प्रात्मा के साथ धर्म का) संधान करने वाले तथा (धर्माचरण में) सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती)। जैसे असंदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप (जलपोत-यात्रियों के लिए) आश्वासन-स्थान होता है, वैसे ही प्रार्य (तीर्थकर) द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार-- समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता है। __ मुनि (भोगों की) आकांक्षा तथा (प्राणियों का) प्राण-वियोग न करने के कारण लोकप्रिय (धार्मिक जगत् में आदरणीय), मेधावी और पण्डित (पापों से दूर . रहने वाले) कहे जाते हैं। जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का (पंख पाने तक उनके माता-पिता द्वारा) पालन किया जाता है, उसी प्रकार (भगवान् महावीर के) धर्म में जो अभी तक अनुत्थित हैं (जिनको बुद्धि अभी तक धर्म में संस्कारबद्ध नहीं हुई है), उन शिष्यों का 1. माचा शीला टीका पत्रांक 223 // 2. 'ते अणवसमाणा' के बदले 'ते अवयमाणा' पाठ मानकर चूणि में अर्थ किया गया है-'अवदमाणा मुसवातं' =मृषावाद न बोलते हुए। 3. इसके बदले चूर्णि में अर्थ सहित पाठ है-चत्तोवगरणसरीरा दियत्ता, अहवा साहुवम्गस्स सन्निवग्गस्स वा चियता जं भणितं सम्मता ।दियत्ता का अर्थ है--जिन्होंने उपकरण और शरीर (ममत्व) का त्याग कर दिया है। प्रथवा दयिता पाठ मानकर अर्थसाधुवर्ग के या संज्ञी जीवों के या श्रावक वर्ग के प्रिय होते हैं, जो कुछ कहते हैं, उसमें वे (साधु, श्रावक) सम्मत हो जाते हैं। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 माचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध वे-(महाभाग प्राचार्य) क्रमश: वाचना आदि के द्वारा दिन-रात पालन-संवर्द्धन करते हैं / ऐसा-मैं कहता हूँ। विवेचन-दीर्घ काल तक परीषह एवं संकट रहने के कारण कभी-कभी ज्ञानी और वैरागी श्रमण का चित्त भी चंचल हो सकता है, उसे संयम में अरति हो सकती है। इसकी सम्भावना तथा उसका निराकरण-बोध प्रस्तुत सूत्र में है। अरती तस्य कि विधारए ? - इस वाक्य के वृत्तिकार ने दो फलितार्थ दिए हैं- (1) जो साधक विषयों को त्याग कर मोक्ष के लिए चिरकाल से चल रहा है, बहुत वर्षों से संयमपालन कर रहा है, क्या उसे भी अरति स्खलित कर सकती है ? हाँ, अवश्य कर सकती है। क्योंकि इन्द्रियां दुर्बल होने पर भी दुर्दमनीय होती हैं, मोह की शक्ति अचिन्त्य है, कर्म-परिणति क्या-क्या नहीं कर देती ? सभ्यरज्ञान में स्थित पुरुष को भी सघन, चीकने, भारी एवं वज्रसारमय कर्म अवश्य ही पथ या उत्पथ पर ले जाते हैं। अतः ऐसे भुलावे में न रहे कि 'मैं वर्षों से संयम-पालन कर रहा हूँ, चिरदीक्षित हूँ, अरति (संयम में उद्विग्नता) मेरा क्या करेगी ? क्या बिगाड़ देगी?, इस पद का दूसरा अर्थ है, (2) वाह ! क्या ऐसे पुराने मंजे हुए परिपक्व साधक को भी अरति धर दबाएगी? नहीं धर दबा सकती।' प्रथम अर्थ अरति के प्रति सावधान रहने की सूचना देता है, जबकि दूसरा अर्थ अरति की तुच्छता बताता है / 'बीवे असांदीने'- वृत्तिकार 'दीव' शब्द के 'द्वीप' और 'बीप' दोनों रूप मानकर व्याख्या करते हैं। द्वीप नदी-समुद्र प्रादि के यात्रियों को आश्रय देता है और दीप अन्धकाराच्छन्न पथ के ऊबड़-खाबड़ स्थानों से बचने तथा दिशा बताने के लिए प्रकाश देता है / दोनों ही दोदो प्रकार के होते हैं--(१) संदीन और (2) असंदीन / 'सांदीन द्वीप' वह है-जो कभी पानी में डूबा रहता है, कभी नहीं और 'संदीन दीप' वह है जिसका प्रकाश बुझ जाता है / 'असंदीन द्वीप' वह है, जो कभी पानी में नहीं बता, इसी प्रकार 'असदीन टीप' वह है जो कभी बुझता नहीं, जैसे सूर्य, चन्द्र आदि का प्रकाश / अध्यात्म क्षेत्र में सम्यक्त्वरूप भाव द्वीप या ज्ञानरूप दीप भी धर्म रूपी जहाज में बैठकर संसार-समुद्र पार करने वाले मोक्षयात्रियों को आश्वासनदायक एवं प्रकाशदायक होता है।-प्रतिपाती सम्यक्त्व संदीन भावद्वीप है, जैसे औपशमिक और क्षायोपशामिक सम्यक्त्व और अप्रतिपाती (क्षायिक) सम्यक्त्व असंदीन भाव-द्वीप है। इसी तरह संदीन भाव दीप श्रुत ज्ञान है और असंदोन भाव-दीप केवलज्ञान या आत्म-ज्ञान है। आर्योपदिष्ट धर्म के क्षेत्र में असंदीन भावद्वीप क्षायिक सम्यक्त्व है और असंदीन भावदीप प्रात्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। अथवा विशिष्ट साधूपरक व्याख्या करने पर--भावद्वीप या भावदीप विशिष्ट असंदीन साधु होता है, जो संसार-समुद्र में डूबते हए यात्रियों या धर्म-जिज्ञासूत्रों को चारों ओर कर्मानव रूपी जल से सुरक्षित धर्मद्वीप की शरण में लाता है / अथवा सम्यग्ज्ञान से उत्थित परीषहोपसर्गों से अक्षोभ्य साधु असंदीन दीप है, जो मोक्षयात्रियों को शास्त्रज्ञान का प्रकाश देता रहता है। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थे उद्देशक : सूत्र 190-191 अथवा धर्माचरण के लिए सम्यक उद्यत साधु अरति से बाधित नहीं होता, इस सन्दर्भ में उस धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर यह पंक्ति दी गयी कि असंदीन द्वीप की तरह वह प्रार्य-प्रदेशित धर्म भी अवेक प्राणियों के लिए सदैव शरणदायक एवं आश्वासच हेतु होने से असंदीन है। आर्य-प्रदेशित (तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट) धर्म कष, ताप, छेद के द्वारा सोने की तरह परीक्षित है, या कुतर्कों द्वारा अकाट्य एवं प्रक्षोभ्य है, इसलिए यह धर्म असंदीव है।' 'जहा से दियापोते'- यहाँ पक्षी के बच्चे से नवदीक्षित साधू को भागवत-धर्म में दीक्षित-प्रशिक्षित करने के व्यवहार की तुलना की गई है। जैसे मादा पक्षी अपने बच्चे को अण्डे में स्थित होने से लेकर पंख आकर स्वतंत्र रूप से उड़ने योग्य नहीं होता, तब तक उसे पालती-पोसती है, इसी प्रकार महाभाम आचार्य भी नवदीक्षित साधु को दीक्षा देने से लेकर समाचारी का शिक्षण-प्रशिक्षण तथा शास्त्र अध्यापन आदि व्यवहारों में क्रमशः गीतार्थ (परिपक्व) होने तक उसका पालन-पोषण-संवर्द्धन करते हैं / इस प्रकार भगवान् के धर्म में अनुस्थित शिष्यों का संसार-समूद्र पार करने में समर्थ बना देना परमोपकारक प्राचार्य अपना कर्तव्य समझते हैं।' // तृतीय उद्देशक समाप्त / / चउत्थो उद्देसओ चतुर्य उध्देशक गौरवस्यागी 190. एवं ते सिस्ता दिया य रातो य अणुपुट्वेण वायिता तेहिं महावीरेहि पण्णाणमंतेहिं तेसंतिए पण्णाणमुवलम्भ हेच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति / सित्ता बंभचेरंसि आणं तं जो ति मण्णमाणा आघायं तु सोच्चा गिसम्म समणुण्णा जीविस्सामो' एगे णिक्खम्म, ते असंभवंता विडज्ममाणा कामेसु गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाघातमझोसयंता सस्थारमेव फरसं वदंति / 191. सोलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा / असीला अणुवयमाणस्स घितिया मंदस्स बालया। णियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइवखंति, णाणभट्ठा सणलसिणो। णममाणा वेगे जीवितं बिप्परिणामेंति / पुष्टा वेगे णियति जीवितस्सेव कारणा। णिक्वंतं पि तेसि दुण्णिक्खतं भवति / बालवयणिज्जा हु ते जरा पुणों पुणो जाति 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / 2. प्राचा० शीला टीको पत्रांक 224 / 3. 'अक्खातं सोचा णिसम्मा य' यह पाठान्तर स्वीकार करके चूर्णिकार ने अर्थ दिया है-"अक्खाता गणधरेहि' थेरेहि वा, तेसिं सोच्चा णिसम्मा य / ' गणधरों या स्थविरों के द्वारा कहे हुए प्रवचनों को सुनकर और विचार करके। 4. 'पुणो पुणो गर्भ पगप्पेति' पाठ इसके बदले चर्णिकार ने माना है। अर्थ होता है-पुनः पुनः माता के गर्भ में आता है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 आचारांग सूत्र---प्रथम भुतस्कन्ध पकति / अधे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसीति विउक्कसे / उदासीणे फरसं वदति, पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं / तं मेधावी जाणेज्जा धम्मं / 120. इस प्रकार वे शिष्य दिन और रात में (स्वाध्याय-काल में) उन महावीर और प्रज्ञानवान (गुरुओं) द्वारा (पक्षियों के बच्चों के प्रशिक्षण-संवर्द्धन क्रम की तरह) क्रमशः प्रशिक्षित/संवद्धित किये जाते हैं। उन (प्राचार्यादि) से विशुद्ध ज्ञान पार (बहुश्र त बनने पर) उपशमभाव को छोडकर (ज्ञान प्राप्ति से गवित होकर) कुछ शिष्य कठोरता अपनाते हैं / अर्थात्-- गुरुजनों का अनादर करने लगते हैं। वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी उस (प्राचार्यादि की) आज्ञा को 'यह (तीर्थकर की आज्ञा) नहीं है', ऐसा मानते हुए (गुरुजनों के वचनों की अवहेलना कर देते हैं)। कुछ व्यक्ति (प्राचार्यादि द्वारा) कथित (पाशातना आदि के दुष्परिणामों) को सुन-समझकर 'हम (प्राचार्यादि से) सम्मत या उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे' इस प्रकार के संकल्प से प्रवजित होकर वे (मोहोदयवश) अपने संकल्प के प्रति सस्थिर नहीं जनते। वे विविध प्रकार (ईर्ष्यादि) से जलते रहते हैं, काम-भोगों में गद्ध या (ऋद्धि, म और सुख की संवृद्धि में) रचे-पचे रहकर (तीर्थंकरों द्वारा) प्ररूपित समाधि सिम को नहीं अपनाते, शास्ता (प्राचार्यादि) को भी वे कठोर वचन कह देते हैं। 191. शीलवान, उपशान्त एवं प्रज्ञापूर्वक संयम-पालन में पराक्रम करने वाले मुनियों को वे अशीलवान् कहकर बदनाम करते हैं। यह उन मन्दबुद्धि लोगों की दूसरी मूढ़ता (अज्ञानता) है। कुछ संयम से निवृत्त हुए (या वेश परित्याग कर देने वाले) लोग (प्राचारसम्पन्न मनियों के) आचार-विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो सम्यग्दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चारित्र-भ्रष्ट हो जाते है, तथा दूसरों को भी शंकाग्रस्त करके सन्मार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं)। कई साधक (प्राचार्यादि के प्रति या तीर्थकरोक्त श्रुतज्ञान के प्रति) नत(समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं। कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट (आक्रान्त) होने पर केवल (सुखपूर्वक) जीवन 1. 'पगथे' पद की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की 1- "अदुवत्ति अहवा कत्थ श्लाघायां, कत्थणं ति वडढणं ति वा मद्दणं ति वा एगट्ठा, ण पडिसेधणे, पगंथ अभणंतो चेव मुहमक्कडियाहि वा "तं होति ।"--अथवा कत्थ धातु श्लाघा (मात्मप्रशंसा) अर्थ में है, अतः कत्थन = वद्धन-चढ़ा-चढ़ा कर कहना, अथवा मर्दन करना-बात को बार-बार पिष्टपेषण करना। कत्थणं, बढणं, महणं, ये एकार्थक हैं / 'न' निषेध अर्थ में हैं / प्रकत्थन न करके कई लोग मुह मचकोड़ना आदि मुख चेष्टाएँ करते हए उसकी होलना (निन्दा) करते हैं। इससे प्रतीत होता हैं--चूर्णिकार ने 'पगंथे' के बदले 'अपगंथे शब्द स्वीकार किया है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्ष उद्देशक : सूत्र 190-191 223 जीने के निमित्त से (संयम और संयमोवेश से) तिवृत्त हो जाते हैं-संयम छोड़ बैठते हैं। उन (संयम को छोड़ देने वालों) का गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता है, क्योंकि साधारण (अज्ञ) जनों द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (ऋद्धि, रस और विषय-सुखों में आसक्त होने से) वे पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं। ___ ज्ञान-दर्शन-चारित्र में वे नीचे स्तर के होते हुए भी अपने आपको ही विद्वान् मानकर 'मैं ही सर्वाधिक विद्वान् हैं', इस प्रकार से डींग मारते हैं / जो उनसे उदासीन (मध्यस्थ) रहते हैं, उन्हें वे कठोर वचन बोलते हैं। वे (उन मध्यस्थ मुनियों के पूर्व-पाचरित-गृहवास के समय किए हुए) कर्म को लेकर बकवास (निन्द्य वचन) करते हैं, अथवा असत्य आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करते हैं, (अथवा उनकी अंगविकलता या मुखचेष्टा आदि को लेरर उन्हें अपशब्द कहते हैं)। बुद्धिमान् मुनि (इन सबको अज्ञ एवं धर्म-शून्य जन की चेष्टा समझकर) अपने धर्म (श्रुतचारित्र रूप मुनि धर्म) को भलीभांति जाने-पहचाने / विवेचन- इस उद्देशक में ऋद्धिगर्व, रसगर्व और साता (सुख) गर्व को लेकर साधकजीवन के उतार-चढ़ावों का विभिन्न पहलुनों से विश्लेषण करके इन तीन गौं (गौरवों) का परित्याग कर विशुद्ध संयम में पराक्रम करने की प्रेरणा दी गयी है। 'पण्णाणमुवलम्म......—इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने गर्व होने का रहस्य खोल दिया है। मुनिधर्म जैसी पवित्र उच्च संयम-साधना में प्रवजित होकर तथा वर्षों तक पराक्रमी ज्ञानी गुरुजनों द्वारा अहर्निश वात्सल्यपूर्वक क्रमश: प्रशिक्षित-संवद्धित किये जाने पर भी कुछ शिष्यों को ज्ञान का गर्व हो जाता है। बहुश्रुत हो जाने के मद में उन्मत्त होकर वे गुरुजनों द्वारा किए गए समस्त उपकारों को भूल जाते हैं, उनके प्रति विनय, नम्रता, प्रादरसत्कार, बहुमान, भक्तिभाव प्रादि को ताक में रख देते हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र से उनके अज्ञान मिथ्यात्व एवं क्रोधादि का उपशम होने के बदले प्रबल मोहोदयवश वह उपशमभाव को सर्वथा छोड़कर उपकारी गुरुजनों के प्रति कठोरता धारण कर लेते हैं। उन्हें अज्ञानी, कुदृष्टिसम्पन्न, एवं चारित्रभ्रष्ट बताने लगते हैं। प्रस्तुत सूत्र में ऋद्धिगौरव के अन्तर्गन ज्ञान-ऋद्धि का गर्व कितना भयंकर होता है, यह बताया गया है। ज्ञान-गर्वस्फीत साधक गुरुजनों के साथ वितण्डावाद में उतर जाता है। जैसे-किसी प्राचार्य ने अपने शिष्य को किन्हीं शब्दों का रहस्य बताया, इस शिष्य ने प्रतिवाद किया-आप नहीं जानते। इन शब्दों का यह अर्थ नहीं होता, जो आपने बताया है। अथवा उसके सहपाठी किसी साधक के द्वारा यह कहने पर कि 'हमारे प्राचार्य ऐसा बताते हैं, वह (अविनीत एवं गर्वस्फीत) तपाक से उत्तर देता है"अरे ! वह बुद्धि-विकल है, उसकी वाणी भी कुण्ठित है, वह क्या जानता है ? तू भी उसके द्वारा तोते की तरह पढ़ाया हुआ है, तेरे पास न कोई तर्क-वितर्क है, न युक्ति है।' इस प्रकार Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 आचागि सूत्रः- प्रथम श्रुतस्कन्ध कुछ अक्षरों को दुराग्रहपूर्वक पकड़कर वह ज्ञानलव-दुविग्ध व्यक्ति महान् उपशम के कारणभत ज्ञान को भी विपरीत रूप देकर अपनी उद्धतता प्रकट करता हुआ कठोर वचन बोलता है।' . "आणं तं णोति मगामाणा'-- कुछ साधक ज्ञान-समृद्धि के गर्व के अतिरिक्त साता (सुख) के काल्पनिक गौरव की तरंगों में बहकर गुरुजनों के सान्निध्य में वर्षों रहकर भी उनके द्वारा अनुशासित किए जाने पर तपाक से उनकी आज्ञा को ठुकरा देते हैं और कह बैठते हैं- 'शायद यह तीर्थकर की आज्ञा नहीं है। 'गो' शब्द यहाँ प्रांशिक निषेध के अर्थ में प्रयुक्त है। इसलिए 'शायद' शब्द वाक्य के आदि में लगाया गया है। अथवा साता-गौरव की कल्पना में बहकर . साधक अपवाद सूत्रों का आश्रय लेकर चल पड़ता है, जब प्राचार्य उन्हें उत्सगं सूत्रानुसार चलने के लिए प्रेरित करते हैं तो वे कह देते हैं-'यह तीर्थंकर की प्राज्ञा नहीं है।' वस्तुतः ऐसे साधक शारीरिक सुख की तलाश में अपवाद मार्ग का प्राश्रय लेते हैं / 'समणुष्णा जीविसामो' - गुरुजनों द्वारा अविनय-पाशातना और चारित्रभ्रष्टता के दुष्परिणाम बसाये जाने पर वे चुपचाप सुन-समझ लेते हैं, लेकिन उस पर प्राचरण करने की अपेक्षा वे गुरुजनों के समक्ष केवल संकल्प भर कर लेते हैं कि 'हम उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएँगे।' प्राशय यह है कि वे आश्वासन देते हैं कि 'हम आपके मनोज्ञ-मनोऽनुकल होकर जीएँगे।' यह एक अर्थ है। दूसरा वैकल्पिक अर्थ यह भी है--'हम समनोज्ञ-लोकसम्मत होकर जीएंगे।' जनता में प्रतिष्ठा पाना और अपना प्रभाव लोगों पर डालना यह यहाँ 'लोकसम्मत' . होने का अर्थ है। इसके लिए मंत्र, यंत्र, तंत्र, ज्योतिष, व्याकरण, अंगस्फुरण आदि शास्त्रों का अध्ययन करके लोक-प्रतिष्ठित होकर जीना ही वे अपने साधु-जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं। गुरुजनों द्वारा कही बातों को कानों से सुनकर, जरा-सा सोचकर रह जाते हैं। गौरव-गोषों से ग्रस्त साधक - जो साधक ऋद्धि-गौरव, रस-(पंचेन्द्रिय-विषय-रस) गौरव और साता-गौरव, इन तीनों गौरव दोषों के शिकार बन जाते हैं, वे निम्नोक्त दुर्गुणों से घिर जाते हैं (1) रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग पर चलने के संकल्प के प्रति वे सच्चे नहीं रहते। (2) शब्दादि काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हो जाते हैं। (3) तोनों गौरवों को पाने के लिए अहर्निश लालायित रहते हैं। 1. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 226 के अनुसार / (ख) "अन्यः स्वेच्छारचिताम् अर्थ-विशेषान् अमेण विज्ञाय / . कृत्स्नं वाइ. मयमित इति खावत्यंगानि दणा " ... (उद्धृत)~आचा० शीला• टीका पत्रांक 226 / 2. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 226 / / 3. प्राचा० शीला. टीका पत्रांक 227 के आधार पर / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 227 // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 190-191 225 ... (4) तीर्थंकरों द्वारा कथित समाधि (इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण)का सेवन-आचरण नहीं करते। (5) ईर्ष्या, द्वेष, कषाय आदि से जलते रहते हैं / __ (6) शास्ता (प्राचार्यादि) द्वारा शास्त्रवचन प्रस्तुत करके अनुशासित किये जाने पर कठोर वचन बोलते हैं। चूर्णिकार 'कामेहि गिला अज्मोक्यणा' का अर्थ करते हैं- शब्दादि कामों में गृद्ध-प्रासक्त एवं अधिकाधिक प्रस्त। 'सरथारमेव परसं वति'-इस पंक्ति के दो अर्थ वृत्तिकार ने सूचित किये हैं / (1) प्राचार्यादि द्वारा शास्त्राभिप्रायपूर्वक प्रेरित किए जाने पर भी उस शास्ता को ही कठोर बोलने लगते हैं-'पाप इस विषय में कुछ नहीं जानते / मैं जितना सूत्रों का अर्थ, शब्द-शास्त्र, गणित या निमित्त (ज्योतिष) जानता हूँ, उस प्रकार से उतना दूसरा कोन चानता है ?' इस प्रकार प्राचार्यादि शास्ता की अवज्ञा करता हुआ वह तीखे शब्द कह डालता है। (2) अथवा शास्ता का अर्थ शासनाधीश तीर्थकर प्रादि भी होता है / अत: यह अर्थ भी सम्भव है कि शास्ता अर्थात् तीर्थकर आदि के लिए भी कठोर शब्द कह देते हैं। शास्त्र के अर्थ करने में या आचरण में कहीं भूल हो जाने पर प्राचार्यादि द्वारा प्रेरित किये जाने पर वे कह देते हैं-तीर्थकर इससे अधिक क्या कहेंगे? वे हमारा गला काटने से बढ़कर क्या कहेंगे? इस प्रकार शास्त्रकारों के सम्बन्ध में भी बे मिथ्या बकवास कर देते हैं। - दोहरी मूर्खता--तीन प्रकार के गौरव के चक्कर में पड़े हुए ऐसे साधक पहली मुर्खता तो यह करते हैं कि भगवद्-उपदिष्ट विनय आदि या अमा, मार्दव आदि मुनिधर्म के उन्नत पथ को छोड़कर सुविधावादी बन जाते हैं, अपनी सुख-सुविधा, मिथ्या प्रतिष्ठा एवं अल्पज्ञता के आधार पर आसान रास्ते पर चलने लगते हैं, जब कोई गुरुजन रोक-ठोक करते हैं, तो कटोर शब्दों में उनका प्रतिवाद करते हैं / फिर दूसरी मूर्खता यह करते हैं कि जो शीलवान उपशान्त और सम्यक् प्रज्ञापूर्वक संयम में पराक्रम कर रहे हैं, उन पर कुशीलवान होने का दोषारोपण करते हैं / अथवा उनके पीछे लोगों के समक्ष 'कुशील' कह कर उनकी निन्दा करते हैं। इस पद का अन्य नय से यह अर्थ भी होता है-स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हो गया, यह एक मूर्खता है, दूसरी मूर्खता है-उत्कृष्ट संयमपालकों की निन्दा या बदनामी करना। . तीसरे नय से यह अर्थ भी हो सकता है-किसी ने ऐसे साधकों के समक्ष कहा कि 'ये बड़े शीलवान हैं, उपशान्त हैं, तब उसकी बात का खण्डन करते हुए कहना कि इतने सारे उपकरण रखने वाले इन लोगों में कहाँ शीलवत्ता है या उपशान्तता है ? यह उस निन्दक एवं हीनाचारी की दूसरी मूर्खता है / "णियट्टमाणा०'-कुछ साधक सातागौरव-वंश सुख-सुविधावादी बन कर मुनिधर्म के 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 227 / 2. आचा० शीला० टीका, पत्रांक 227 / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम धुतस्कन्ध मौलिक संयम-पथ से या संयमी वेष से भी निवस हो जाते हैं, फिर भी वे विनय को नहीं छोड़ते, न ही किसी साधु पर दोषारोपण करते हैं, न कठोर बोलते हैं, अर्थात् वे गर्वस्फीत होकर दोहरी मूर्खता नहीं करते। वे अपने प्राचार में दम्भ, दिखावा नहीं करते, न ही झूठा बहाना बनाकर अपवाद का सेवन करते हैं, किन्तु सरल एवं स्पष्ट हृदय से कहते हैं—'मुनि धर्म का मौलिक आचार तो ऐसा है, किन्तु हम उतना पालन करने में असमर्थ हैं। वे यों नहीं कहते कि 'हम जैसा पालन करते हैं, वैसा ही साध्वाचार है। इस समय दुःषम-काल के प्रभाव से बल, वीर्य प्रादि के ह्रास के कारण मध्यम मार्ग (मध्यम पाचरण) ही श्रेयस्कर है, उत्कृष्ट आचरण का अवसर नहीं है। जैसे सारथी धोड़ों की लगाम न तो अधिक खींचता है और न ही ढीली छोड़ता है, ऐसा करने से घोड़े ठीक चलते हैं, इसी प्रकार का (मुनियों का प्राचार रूप) योग सर्वत्र प्रशस्त होता है।" ... 'णाणवमहा सणसूसिणो'---ज्ञानभ्रष्ट और सम्यग्दर्शन के विध्वंसक इन दोनों प्रकार के लक्षणों से युक्त साधक बहुत खतरनाक होते हैं। वे स्वयं तो चारित्र से भ्रष्ट होते ही हैं, अन्य साधकों को भी अपने दूषण का चेप लगाते हैं, उन्हें भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं। उनसे सावधान रहने की सूचना यहाँ दी गयो है / .. 'गममाणा'-कुछ साधक ऐसे होते हैं, जो गुरुजनों, तीर्थकरों तथा उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान दर्शन, चारित्र आदि के प्रति विनीत होते हैं, हर समय वे दबकर, झुककर, नमकर चलते हैं, कई बार वे अपने दोषों को छिपाने या अपराधों के प्रगट हो जाने पर प्रायश्चित्त या दण्ड अधिक न दे दें, इस अभिप्राय से गुरुजनों तथा अन्य साधुओं की प्रशंसा, चापलसी एवं बन्दना करते रहते हैं। पर यह सब होता है--गौरव त्रिपुटी के चक्कर में पड़कर कर्मोदयवश संयमी जीवन को बिगाड़ लेने के कारण / इसलिए उनको नमन आदि क्रियाएँ केवल द्रव्य से होती हैं, भाव से नहीं। ... . "पुछा वेगेणियट्टति-कुछ साधक इन्हीं तीन गौरवों में प्रतिबद्ध होते हैं, असंयमी जीवन-सुख-सुविधापूर्ण जिन्दगी के कारण से। किन्तु ज्यों ही परीषहों का आगमन होता है; त्यों ही वे कायर बनकर संयम से भाग खड़े होते हैं, संयमी वेश भी छोड़ बैठते हैं / ___'अधे संभवता विद्दायमाणा' --कुछ साधक संयम के स्थानों से नीचे गिर जाते हैं, अथवा अविद्या के कारण अधःपतन के पथ पर विद्यमान होते हैं; स्वयं अल्पज्ञानयुक्त होते हुए भी 'हम विद्वान् हैं, इस प्रकार से अपनी मिथ्या श्लाघा (प्रशंसा) करते रहते हैं.। तात्पर्य यह है कि थोड़ा-बहुत जानता हुआ भी ऐसा साधक गर्वोन्नत होकर अपनी डींग हांकता रहता हैं कि 'मैं बहुश्रुत हूं, प्राचार्य को जितना शास्त्रज्ञान है, उतना तो मैंने अल्प समय में ही पढ़ लिया 1.. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 227 / 2. (क) प्राचा० शोला० टीका पत्रांक 228 / जत्थ होइ भग्गो, ओवा सो पर अविवंतो। गतु तत्यचयंतो इमं पहाणं घोसेति // " Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 192-194 227 था। इतना ही नहीं, वह जो साधक उसकी अभिमान भरी बात सुनकर मध्यस्थ या मौन बने रहते हैं, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाते, अथवा बहुश्र त होने के कारण जो राग-द्वेष और अशान्ति से दूर रहते हैं, उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते हैं। उनमें से किसी के द्वारा किसी गलती के विषय में जरा-सा इशारा करने पर वह भड़क उठता है-पहले अपने कृत्य-अकृत्य को जान लो, तब दूसरों को उपदेश देना।' ___पलियं पगये अदुवा पगये अतहेहि'--गर्वस्फीत साधक उद्धत होकर कठोर शब्द ही नहीं बोलता, वह अन्य दो उपाय भी उन सुविहित मध्यस्थ साधकों को दबाने या लोगों की दृष्टि में गिराने के लिए अपनाता है-(१) उस साधु के पूर्वाश्रम के किसी कर्म.(धंधे या दुश्चरण) को लेकर कहना-तू तो वही लड़कहारा है न ? अथवा तू वही चोर है न ? (२)-अथवा उसकी किसी अंग-विकलता को लेकर मुंह मचकोड़ना आदि व्यर्थ चेष्टाएँ करते हुए अवज्ञा करना। चर्णिकार ने इनके अतिरिक्त एक और अर्थ की कल्पना की है-कत्थन, वर्द्धन और मर्दन-ये तीनों एकार्थक हैं / अतथ्य- (मिथ्या) शब्दों से प्रात्मश्लाघा करना या छोटी सी बात को बढ़ाकर कहना या बार-बार एक ही बात को कहते रहना। बाल का निकृष्टाचरण 192. अधम्मट्ठी तुमं सि णाम बाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे, हणमाणे, घातमाणे, हणतो यावि समणुजाणमाणे / घोरे धम्मे उदोरिते। उवेहति णं अणाणाए। एस विसणे वित वियाहिते त्ति बेमि / 193. किमणेण भो जणेण करिस्सामि त्ति मण्णमाणा एवं पेगे वदित्ता मातरं पितरं हेच्चा णातओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुठाए अविहिंसा सुव्यता बंता' / पस्त दोणे उप्पाए पटिवतमाणे / वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति। 194. अहमेगेसि सिलोए पाबए भवति-से समणविम्भंते / समणविम्भते। पासहेगे समण्णागतेहि असमण्णागए णममाणेहिं अणममाणे विरतेहि अविरते दवितेहि अवविते। 1. आचा. शीला० टीका पत्रांक 228 / / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 228 / 3. आचारांग चूणि मूल पाठ सूत्र 191 का टिप्पण। 4. 'विलद्दे' के बदले पाठान्तर मिलते हैं-'वितड्डे, वितंडे' निरर्थक विवाद वितंडा कहलाता है। वितंडा करने वाले को वितंड कहते हैं। वितड्ड शब्द का अर्थ चूणिकार ने किया है--विवि तहडो .."वितड्डो।"-विविध प्रकार के तर्द (हिंसा के प्रकार) वितड्ड हैं। 5. इसके बदले नागार्जुनसम्मत पाठान्तर इस प्रकार है-'समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपत्ता अपसू अविहिंसगा सुब्बता दंता परदत्तभोइणो पावं कम्म णो करिस्सामो समुठ्ठाए।" हम मुनिधर्म के लिए समुस्थित होकर अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अप्रसू, (मातृविहीन) अविहिंसक, सुव्रत, दान्त, परदत्त-भोजी श्रमण बनेंगे, पापकर्म नहीं करेंगे।" 6. चणि में इसके बदले 'समवितते समणवितंते' पाठ स्वीकार करके अर्थ किया हैं---'विविहं तंतो वितंतो, समणत्तणेण विविहं तंतो जं भणितं उपप्पवतति' अर्थात् --विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) वितंत है / जिसके श्रमणत्व में विविध तंत्र (प्रपंच) हैं, वह श्रमणवितंत या श्रमण-वितंत्र है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 माचाराम सूत्र-प्रथम प्रतस्कन्ध 195, अभिसमेच्चा पंडिते मेहावी णिदिव्यठे वीरे आगमेणं सदा परिक्कमेज्जासि त्ति बेमि। // चउत्यो उद्देसओ समत्तो // 192. (धर्म से पतित होने वाले अहंकारी साधक को प्राचार्यादि इस प्रकार अनुशासित करते हैं-)तू अधर्मार्थी है, बाल-(अज्ञ) है, आरम्भार्थी है, (प्रारम्भकर्तामों का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है--) प्राणियों का हनन करो-- (अथवा तू स्वयं प्राणिघात करता है); दूसरों से प्राणिवध कराता है और प्राणियों का वध करने वाले का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान् ने) घोर (संवर-निर्जरारूप दुष्कर-) धर्म का प्रतिपादन किया है, तू अाज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है / . वह (अधर्मार्थी तथा धर्म की उपेक्षा करने वाला) विषण्ण (काम-भोगों की कीचड़ में लिप्त) और वितर्द (हिंसक) कहा गया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। 193. प्रो (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का (या मनोज्ञ भोजनादि का) मैं क्या करूमा? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित/प्रवजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। . (हे शिष्य ! पराक्रम की दृष्टि से) दीन और (पहले सिंह की भाँति प्रवजित होकर अब) पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक हो जाते हैं। 194. उनमें से कुछ साधकों की श्लाघारूप कीर्ति पाप रूप हो जाती है; (बदनामी का रूप धारण कर लेती है)-"यह श्रमण विभ्रान्त (श्रमण धर्म से भटक गया) है, यह श्रमण विभ्रान्त है।" / (यह भी) देख ! संयम से भ्रष्ट होने वाले कई मुनि उत्कृष्ट प्राचार वालों के बीच शिथिलाचारी, (संयम के प्रति) नत/समर्पित मुनियों के बीच (संयम के प्रति) असमर्पित (सावद्य प्रवृत्ति-परायण), विरत मुनियों के बीच अविरत तथा (चारित्रसम्पन्न) साधुओं के बीच (चारित्रहीन) होते हैं। 195. (इस प्रकार संयम-भ्रष्ट साधकों तथा संयम-भ्रष्टता के परिणामों को) निकट से भली-भाँति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ (कृतार्थ) वीर मुनि सदा मागम (–में विहित साधनापथ) के अनुसार (संयम में) पराक्रम करे / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-पिछले सूत्रों में श्रुत आदि के मद से उन्मत्त श्रमण की मानसिक एवं वाचिक हीन वृत्तियों का निदर्शन कराया गया है। सूत्रकार ने बड़ी मनोवैज्ञानिक पकड़ से उसके Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्ठ अध्ययन : चतुर्ष उद्देशक : सूत्र 192-115 229 चिन्तन और कथन की अपवृत्तियों का स्पष्टीकरण किया है। अब इन अगले चार सूत्रों में उसकी अनियन्त्रित कायिक चेष्टाओं का वर्णन कर गौरव-त्याय की म्याख्या है। अषयमावे-यह उस अविनीत, गर्वस्फोत और गौरवश्य से ग्रस्त उच्छृखल साधक का विशेषण है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है-(गुरु आदि उसे शिक्षा देते हैं-) तू गौरवत्रय से अनुबद्ध होकर पचन-पाचनादि क्रियाओं में प्रवृत्त है और उनमें जो गृहस्थ प्रवृत्त हैं, उनके समक्ष दू कहता है-'इसमें स्या दोष है ? शरीर रहित होकर कोई भी धर्म नहीं पाल सकता। इसलिए धर्म के आधारभूत शरीर को प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए।' ऐसा अधर्मयुक्त कथन करने वाला प्राचारहीन साधक है।' तिहे. 'नितई' शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं ...(2) विविध प्रकार से हिंसक, (2) संयम-पातक शत्रु या संयम के प्रतिकूल / चूर्णिकार ने इसके दो रूप प्रस्तुत किए हैंवितड्ड और वितंड / जो विविध प्रकार से हिंसक हो वह वितड्ड और जो वितंडाबादी हो वह वितंड। 'उपइए पडिवतमाणे'- इस पद में उन साधकों की दशा का चित्रण है, जो पहले तो. चीर वृत्ति से स्वजन, ज्ञातिजन, परिग्रह आदि को छोड़ कर विरक्त भाव दिखाते हुए प्रजित होते हैं, एक बार तो वे अहिंसक, दान्त और सुबती बन कर लोगों को अत्यन्त प्रभावित कर देते हैं, परन्तु बाद में जब उनकी प्रसिद्धि और प्रशंसा अधिक होने लगती है, पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, उन्हें सुख-सुविधाएँ भी अधिक मिलने लगती हैं, खान-पान भी स्वादिष्ट, गरिष्ठ मिलता है, चारों ओर मानव-मेदिनी का जमघट और ठाट-बाट लगा रहता है, तब वे इन्द्रियसुखों की ओर झुक जाते हैं, उनका शरीर भी सुकुमार बन जाता है, तब वे संयम में पराक्रम को अपेक्षा से दीन-हीन और तीनों गौरवों के दास बन जाते हैं। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं--'उठकर पुनः गिरते हुए साधकों को तू देख / ' ___ 'समणविन्मते'- यह उस साधक के लिए कहा गया है, जो श्रमण होकर प्रारंभार्थी, इन्द्रिय-विषय-कषायों से पीड़ित, कायर एवं व्रत-विध्वंसक हो गए हैं। यह श्रमण होकर विविध प्रकार से भ्रान्त हो गया -भटक गया है श्रमणधर्म से। चणिकार मे पाठ स्वीकार किया है—'समवितते / उसका अर्थ फलित होता है-जिसके श्रमणत्व में विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) हैं, उसे श्रमण- वितन्त या श्रमण-वितंत्र कहते हैं। 'बवितेहि'-द्रव्यिक वह है, जिसके पास द्रव्य हो / द्रब्य का अर्थ धन होता है, साधु के 1. आचा. शीला टीका पत्रोंक 228 / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 228 / (ख) पाचारांग चूर्णि-आचा० मूल पाठ सूत्र 192 की टिप्पणी। 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 229 के प्राधार पर। 4. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 230 / (ख) प्राचारांग चूणि भाचा० मूल पाठ टिप्पणी 194 / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. आधारांग सूत्र--प्रथम श्रुतकन्य पास ज्ञानादि रत्नत्रय रूप धन होता है, अथवा द्रव्य का अर्थ भव्य है-मुक्तिगमन योग्य है।' 'द्रविक' का अर्थ दयालु भी होता है। . "गिदिव्यद्रे-का अर्थ निष्ठितार्थ-कृतार्थ होता है / जो प्रात्मतृप्त हो, वही कृतार्थ हो सकता है। प्रात्मतृप्त वही हो सकता है, जिसको विषय-सुखों की पिपासा सर्वथा बुझ गयी हो। इसीलिए वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है-'विषयसुख-निपिपासः निष्ठितार्यः / " ", : इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में गौरव-त्याग की इन विविध प्रेरणामों पर साधक को दत्तचित्त होकर भौतिक पिपासायों से मुक्त होने की शिक्षा दी गयी है। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / पञ्चम उदेसओ पंचम उद्देशक तितिक्ष-धूत का धर्म कथन 196. से गिहेसु गिहतरेसु वा गामैसु वा गामंतरैसु वा नगरेसु वा णगरंतरेसु वा जज़वएसु वा जणवयंतरेसु वा संतेगतिया जणा लसगा भवंति अदुवा कामा फुसंति / ते फासे पुट्ठो छोरो अधियासए ओए समितदसणे। .. व्यं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं दाहि उदीणं आइक्खे विमए कि वेदखी। ...से उठिएसु वा अगुठ्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संति विरति उवसमं जिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लापवियं अतिवत्तियं सवेसि पाणाणं सव्वेसि भूताणं सम्वेसि मोवाणं सबेसि सत्ताण, अणुवीइ भिक्ख धम्ममाइक्खेज्जा। 197. अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसादेज्जा णो परं आसादेज्जा गो अण्णाइं पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा। 1. आचासंग चूणि प्राचा० मूल पाठ टिप्पणी सुत्र 194 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 230 / 3. इसके बदले चूणिसम्मत पाठान्तर और उसका अर्थ देखिए --"गामंतरं तु गामतो गामाणं वा अंतरं गामंतरं पंथो उपहो वा। एवं नगरेसुगा नगरंतरेसु वा नाव रायहाणीसु वा रामहाणिमंतरेसु वा / एत्थ सण्णिगासो कायको अत्यतो, तं जहा-गामस्स य नगरस्स य अंतये, एवं गामस्स खेडस्स य अंतरे, जाव गामस्स रायहाणीए य, एवं एक्क्क छ। तेणं जावं अपच्छिमे रायहागीए य / एवं एक्केक्कं तेसु जहुद्दि→सु ठाणेसु नणवयंतरेसु वो" इस विवेचन के अनुसार चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'गामंतरेसु वा खेडेसु वा खेडतरेसु वा कबडेसु वा कम्बडतरेसु वा मडबेसु वा मध्यंतरेसु वा दोणमुहेसु वा दोणमुहंसरेसु वा पट्टणेसु वा पट्टणंतरेसु वा आपरेस वा आगरंतरेसु वा आसमेसु वा आसमंतरेसु वा संवाहेसु वा संवाहंतरेसु वा यहाणीसु वा रायहाणिअंतरेसु वा (जणवएसु वा) जणवयंतरेस वा' अर्यात्-ग्राम और नगर के बीच में ग्राम और खेड़ के बीच में यावत् ग्राम और राजधानी तक / इसी प्रकार उन यथोद्दिष्ट स्थानों में से एक-एक बीच में डालना चाहिए-जणवयंतरेसु वा तक। तब पाठ इस प्रकार होगा जो कि ऊपर बताया गया है। चूणिसम्मत पाठ यही प्रतीत होता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 196-198 231 से अणासादए अणासादमाणे वन्ममाणाणे पाणाणे भूताणे जीवाणं सत्तापं जहा से दोवे असंवीणे एवं से भवति सरणं महामुणी। एवं से उदिछते ठितप्पा अणिहे अचले चले अबहिलस्से परिम्वए। संसाय पेसलं धम्मं दिमिं परिणिन्वुडे / 198. तम्हा संगं ति पासहा / गंथेहि गढिता जरा विसण्णा कामक्र्कता। तम्हा लूहातो गो परिवित्तसेज्जा। जस्सिमे आरंभा सब्वतो सम्वत्ताए सुपरिष्णाता भवति जस्सिमे लसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोषं च मापं च मायं च लोभं च / एस. तिट्टे वियाहिते ति नेमि / कायस्स वियावाए एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणो। मवि हम्ममाणे फलगावतद्वी कालोवणोते कंखेज्ज कालं जाव सरीरभेदो त्ति बेमि / पंचम उद्देशक समाप्त // 196. वह (धुत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में (घरों के आस-पास), ग्रामों में, ग्रामान्तरों (ग्रामों के बीच) में नगरों में, नगरान्तरों (नगरों के अन्तराल) में, जनपदों में या जनपदान्तरों (जनपदों के बीच) में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए अथवा कायोत्सर्ग में स्थित मुनि को देखकर) कुछ विद्वेषी जन हिंसक-(उपद्रवी) हो जाते हैं, (वे अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं)। अथवा (सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि परिषहों के) स्पर्श (कष्ट) प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको (समभाव से) सहन करे। राग और द्वेष से रहित (निष्पक्ष) सम्यग्दर्शी (या समितदी) एवं आगमज्ञ मुनि लोक (= प्राणिजगत्) पर दया/अनुकम्पा भावपूर्वक पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सभी दिशाओं और विदिशाओं में (स्थित) जीवलोक को धर्म का प्राख्यान (उपदेश) करे / उसका विभेद करके, धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे। . वह मुनि सज्ञान सुनने के इच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे (धर्माचरण के लिए) उत्थित (उद्यत) हों या अनुस्थित (अनुद्यत), शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता), मार्दव (कोमलता), लाघव (अपरिग्रह) एवं अहिंसा का प्रतिपादन करे। वह भिक्षु समस्त प्राणियों, सभी भूतों सभी जीवों और समस्त सत्त्वों का हित. 1. 'वज्झमाणाण' के बदले चणि में खुज्झमाणाण पाणाण पाठ स्वीकृत हैं, जिसका अर्थ है जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व बोध पाए हुए हैं। अथवा बहिज्जमाणाणं वा संसारसमुद्दतेण' अर्थात् संसार समुद्र का अन्त (पार) करके बाहर होने वाले। 2. इसके बदले 'काम-अक्कंता' 'कामधिपिता' पाठ भी मिलते हैं। अर्थ क्रमश: यों हैं-काम से आक्रान्त __ या कामग्रस्त या कामगृहीत / 3. "वियावाए' के बदले पाठान्तर हैं-विवाघाए विवाधामो विप्रो गाए वियोवाते विउवाते आदि हैं। क्रमशः मर्थ यों है--विशेष रूप से व्याघात, न्याघात, (विनाश), न्यापात (विशेष रूप से पात)। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 नाबागि सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्स चिन्तन करके (या उनर्की वृत्ति-प्रवृत्ति के अनुरूप विचार करके) धर्म का व्याख्यान करे। 197. भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपकों बाधा (पाशातना) न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्व का वध हो, (ऐसा धर्म-व्याख्यान न देने वाला) तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेशन करने वाला) वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्कों के लिए प्रसंदीन द्वीप की तरह शरण होता है। इस प्रकार वह (संयम में) उत्थित, स्थितात्मा (प्रात्मभाव में स्थित), अस्नेह, अनासक्त, अविचल (परिषहों और उपसों आदि से अप्रकम्पित), चल (विहारचर्या करने वाला), अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से बाहर न ले जाने वाला मुनि (अप्रतिबद्ध) होकर परिव्रजन (विहार) करे। वह सम्यग्दृष्टिमान् मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यकप में जानकर (कषायों और विषयों) को सर्वथा उपशान्त करे। 198. इसके (विषय-कषायों को शान्त करने के लिए तुम प्रासक्ति (प्रासक्ति के विपाक) को देखो। अन्थों (परिग्रह) में गृद्ध और उनमें निमम्न बने हुए मनुष्य कामों से प्राक्रान्त होते हैं। - इसलिए मुनि नि:संग रूप संयम (संयम के कष्टों) से उद्विग्न-खेदखिन्न न हो। जिन संगरूप प्रारम्भों से (विषय-निमग्न) हिंसक वृत्ति वाले मनुष्य उद्विग्न महीं होते, ज्ञानी मुनि उन सब प्रारम्भों को सब प्रकार से, सर्वात्मना त्याम देते हैं। वे ही मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का मन करने वाले होते हैं। ऐसा मुनि त्रोटक (संसार-शृखला को तोड़ने वाला) कहलाता है। -~-ऐसा मैं कहता हूँ। शरीर के व्यापात को (मृत्यु के समय की पीड़ा को) ही संग्रामशीर्ष (युद्ध का अग्रिम मोर्चा) कहा गया है। (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का) पारगामी होता है। (परिषहों और उपसर्गों से अथवा किसी के द्वारा घातक प्रहार से) आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये-फलक की भांति (स्थिर या कृश) रहता है। मृत्युकाल निकट पाने पर (विधिवत् संलेखना से शरीर और कषाय को कृश बनाकर समाधिमरण स्वीकार करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए) जब तक शरीर का (प्रारमा से) भेद (वियोग) न हो, तब तक वह मरणकाल (आयुष्य क्षय) की प्रतीक्षा करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : पंचम उरक : सूत्र 196-198 233 विवेचन-इस उद्देशक में परिषहों और उपसर्गों को समभाव से सहने और विवेक तथा समभाव पूर्वक सबको उनको भूमिका के अनुरूप धर्मोपदेश देने की प्रेरणा दी गयी है। ___ 'लुसगा भवंति'—'लूषक' शब्द हिंसक, उत्पीड़क, विनाशक, क्रूर हत्यारा, हैरान करने वाला, दूषित करने वाला,' प्राज्ञा न मानने वाला, विराधक आदि अर्थों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग में यत्र-तत्र प्रयुक्त हुआ है। यहाँ प्रसंगवश लूषक के क्रूर, निर्दय, उत्पीड़क, हिंसक या हैरान करने वाला-ये अर्थ हो सकते हैं। पादविहारी साधुओं को भी ऐसे लषक जंगलों, छोटे से गांवों, जनशून्य स्थानों या कभी-कभी घरों में भी मिल जाते हैं। शास्त्रकार ने स्वयं ऐसे कई स्थानों का नाम निर्देश किया है। निष्कर्ष यह है कि किसी भी स्थान में साधु को ऐसे उपद्रवी तत्व मिल सकते हैं और वे साधु को तरह-तरह से हैरान-परेशान कर सकते हैं। वे उपद्रवी या हिंसक तत्त्व मनुष्य ही हों, ऐसी बात नहीं है, देवता भी हो सकते हैं, तिथंच भी हो सकते हैं। साधु प्रायः विचरणशील होता है, वह अकारण एक जगह स्थिर होकर नहीं रहता। इस दृष्टि से वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि साधु उच्च-नीच-मध्यम कुलों (गृहों) में भिक्षा आदि के लिए जा रहा हो, या विभिन्न ग्रामों आदि में हो, या बीच में मार्ग में विहार कर रहा हो, अथवा कहीं गुफा या जनशून्य स्थान में कायोत्सर्ग या अन्य किसी स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि साधना में संलग्न हो, उस समय संयोगवश कोई मनुष्य, तिर्यच या देव द्वेष-वर-वश या कुतू. हल, परीक्षा, भय, स्वरक्षण प्रादि की दृष्टि से उपद्रवी हो जाता है / निर्मल, सरल, निष्कलंक, निर्दोष मुनि पर अकारण ही कोई उपसर्ग करने लगता है या फिर अनुकल या प्रतिकल परीषहों का स्पर्श हो जाता है। उस समय धूतवादी (कर्मक्षयार्थी) मुनि को शान्ति, समाधि और संयमनिष्ठा भंग न करते हुए समभावपूर्वक उन्हें सहना चाहिए, क्योंकि शान्ति प्रादि दशविध मुनिधर्म में सुस्थिर रहने वाला मुनि ही दूसरों को धर्मोपदेश द्वारा सन्मार्ग बता सकता है। 'ओए समितबसणे-ये दोनों विशेषण मुनि के हैं / इनका अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है-मोज का मर्थ है-एकल; राग-द्वेष रहित होने से अकेला / समित-दर्शन पद के तीन अर्ष किए गये हैं-(१) जिसका दर्शन समित–सम्यक् हो गया हो, वह सम्यग्दृष्टि, (2) जिसका दर्शन (दृष्टि, ज्ञान या अध्यवसाय) शमित-उपशान्त हो गया हो, वह शमितदर्शन और (3) जिसकी दृष्टि समता को प्राप्त कर चुकी है, वह समित-दर्शन-समदृष्टि / इन दोनों विशेषणों से युक्त मुनि ही उपसर्ग/परीषह को समभावपूर्वक सह सकता है। 'ओए' का संस्कृत रूपान्तर 'प्रोतः' करने पर ऐसा अर्थ भी सम्भव है—अपने आत्मा में मोत-प्रोत, जिसे शरीर आदि पर-भाव से कोई वास्ता न हो। ऐसा साधक ही उपसर्गों और परीषहों को सह सकता है। 1. पाइमसहमहण्णवो पृ० 728 / 2. आचा• शीला• टीका पत्रांक 231 के आधार पर / 3. भाचा. शीला टीका पत्रांक 232 / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्मव्याख्यान क्यों, किसको और कैसे ? -सूत्र 196 के उत्तरार्ध में तीनों शंकाओं का समाधान किया गया है। वृत्तिकार ने उसे स्पष्ट करते हुए कहा है--प्रख्यतः-प्राणिलोक पर दया व अनुकम्पा बद्धिपूर्वक. क्षेत्रतः-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर-इन चार दिशाओं और विदिशाओं के विभाग का भलीभाँति निरीक्षण करके धर्मोपदेश दे, कालतः-यावज्जीवन और भावतः-समभावी निष्पक्ष-राग-द्वेष रहित होकर / चूकि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है, सुख प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं- इस बात को आत्मौपम्य दृष्टि से सदा तौलकर जो स्वयं के लिए प्रतिकूल है, उसे दूसरों के लिए न करे, इस प्रात्मधर्म को समझकर कहे। किन्तु विभाग करके कहे। यानी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से भेद करके आक्षेपणी आदि कथाविशेषों से या प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथन, परिग्रह, रात्रिभोजन-विरति आदि के रूप में धर्म का-पृथककरण करे तथा यह भी भलीभाँति देखे कि यह पुरुष कौन है ? किस देवता विशेष को नमस्कार करता है ? अर्थात् किस धर्म का अनुयायी है, अाग्रही है या अनाग्रही है ? इस प्रकार का विचार करे / तदनन्तर वह आगमवेत्ता साधक व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, धर्माचरण आदि का फल बताए-धर्मोपदेश करे। .. धर्म-श्रोता कैसा हो? इस सम्बन्ध में शास्त्र के पाठानुसार वृत्तिकार स्पष्टीकरण करते हैं वह आगमवेत्ता स्व-पर-सिद्धान्त का ज्ञाता मुनि यह देखे कि जो भाव से उत्थित पूर्ण संयम पालन के लिए उद्यत हैं, उन्हें अथवा सदैव उत्थित स्वशिष्यों को समझाने के तिए अथवा अनुत्थित-श्रावकों आदि को, धर्म-श्रवण के जिज्ञासुनों को अथवा गुरु आदि की पर्युपासना करने वाले उपासकों को संसार-सागर पार करने के लिए धर्म का व्याख्यान करे। धर्म के किस-किस रूप का व्याख्यान करे ? इसके लिए शास्त्रकार ने बताया है'संति अतिवत्तिय 'अणतिवत्तिय' शब्द के चर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं—(९) जिस धर्मकथा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का प्रतिव्रजन-अतिक्रमण न हो, वैसी अनतिवाजिक धर्मकथा कहे, अथवा जिस कथा से प्रतिपात (हिंसा) न हो, वैसी अनतिपातिक धर्मकथा कहे / वृत्तिकार ने इसका दूसरा ही अर्थ किया है-'पागमों में जो वस्तु जिस रूप में कही है, उस 'यथार्थ वस्तुस्वरूप का अतिक्रमण/प्रतिपात न करके धर्मकथा कहे / ' धर्मकथा किसके लिए न करे ?-शास्त्रकार ने धर्माख्यान के साथ पाँच निषेष भी बताए हैं--(१) अपने आपको बाधा पहुँचती हो तो, (2) दूसरे को बाधा पहुँचती हो तो, (3) प्राण, भूत, जीव, सत्व को बाधा पहुँचती हो तो, (4) किसी जीव की हिंसा होती हो तो, (5) आहारादि की प्राप्ति के लिए। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 232 2. "अणतिवत्तियं नाणादीणि जहा अतिवति तहा कहेति / अहवा अतिपतणं अपिपातो "ण अतिवातेति प्रणतिवातियं / " . . ~ पाचारांग चूणि पृष्ठ 67 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : पंचम उददेशक : सूत्र 196-195 235 आत्माशातना-पराशातना-प्रात्मा की आशातना का वृत्तिकार ने अर्थ किया है-अपने सम्यग्दर्शन आदि के आचरण में बाधा पहुँचाना प्रामाशातना है। श्रोता की प्राशातनाअवज्ञा या बदनामी करना पराशातना है / ' धर्म व्याख्यानकर्ता की योग्यताएं-शास्त्रकार ने धर्माख्यानकर्ता की सात योग्यताएँ बतायी हैं--(१).निष्पक्षता, (2) सम्यग्दर्शन, (3) सर्वभूतदया, (4) पृथक्-पृथक् विश्लेषण करने की क्षमता, (5) आगमों का ज्ञान, (6) चितन करने की क्षमता और (7) आशातना-परित्याग / . . नागार्जुनीय वाचना में जो पाठ अधिक है:-जिसके अनुसार निम्नोक्त गुणों से युक्त मुनि धर्माख्यान करने में समर्थ होता है-(१) जो बहुश्रु त हो, (2) आगम-ज्ञान में प्रबुद्ध हो, (3) उदाहरण एवं हेतु-अनुमान में कुशल हो, (4) धर्मकथा की लब्धि से सम्पन्न हो, (5) क्षेत्र, काल और पुरुष के परिचय में प्राने पर यह-पुरुष कौन है ? किस दर्शन (मत) को मानता है, इस प्रकार की परीक्षा करने में कुशल हो। इन गुणों से सुसम्पन्न साधक ही धर्माख्यान कर सकता है। सूत्रकृतांगसूत्र में धर्माख्यानकर्ता की आध्यात्मिक क्षमताओं का प्रतिपादन किया गयां है, यथा-(१) मन, वचन, काया से जिसका प्रात्मा गुप्त हो, (2) सदा दान्त हो, (3) संसारस्रोत जिसने तोड़ दिए हों, (4) जो आस्रव-रहित हो, वहीं शुद्ध, परिपूर्ण और अद्वितीय धर्म का व्याख्यान करता है। ___'लूहातो' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है—संग या आसक्ति रहित-लूखा-रूक्ष अर्थात्-संयम / 'संगामतीसे शरीर का विनाश-काल (मरण)-वस्तुतः साधक के लिए संग्राम का अग्रिम मोर्चा है। मृत्यु का भय संसार में सबसे बड़ा भय है। इस भय पर विजय पाने वाला, सब प्रकार के भयों को जीत लेता है। इसलिए मृत्यु निकट आने पर या मारणान्तिक वेदना होने पर शांत, अविचल रहना--मृत्यु के मोर्चे को जीतना है। इस मोर्चे पर जो हार खा जाता है, वह प्रायः सारे संयमी जीवन की उपलब्धियों को खो देता है। उस समय शरीर के. प्रति सर्वथा निरपेक्ष और निर्भय होना जरूरी है, अन्यथा की-कराई सारी साधना चौपट हो जाती है। शरीर के प्रति मोह-ममत्व या आसक्ति से बचने के लिए पहले से ही कषाय और शरीर की संलेखना (कृशीकरण) करनी होती है। इसके लिए दोनों तरफ से छोले हुए फलक की उपमा देकर बताया है जैसे काष्ठ को दोनों ओर से छीलकर उसका पाटिया-फलक बनाया जाता है, वैसे ही साधक शरीर और कषाय से कृश-दुबला हो जाता है। ऐसे साधक को 'फलगावती ' दी उपमा दी गयी है / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 232 / 2. "जे खलु भिक्टू बहुस्सुतो बभागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहियलद्धिसंपले खित कालं पुरितं समासज्ज के अयं पुरिसं कं वा बरिसणं अभिसंपण्णे एवं गुणजाईए पभू धम्मस्स भाषवित्तए।" . —ाचारांग चूणि पृ० 67 3. सूत्रकृतांग श्रु० 10 11 गाथा 24 / 4. प्राचा• शीला० टीका पत्रांक 233 / Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारोग सूत्र-प्रथम भूतका .'कालोबजीते' शब्द से शास्त्रकार ने यह व्यक्त किया है कि काल (आयुष्य-क्षय की प्रतीक्षा की जानी चाहिए)। __ चूर्णिकार ने 'कालोवगीते' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है - कालोपनीत शब्द से यह ध्वनित होता है कि काल (मृत्यु) प्राप्त न हो तो मरण का उद्यस नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में प्राचार्य नागार्जुन का अभिमत साक्षी है-(साधक विचार करता है -) “यदि मैं आषुष्य क्षय न होने की स्थिति में मृत्पु प्राप्त कर जाऊँगा तो सुपरिणाम का लोप, प्रकीति और दुर्गतिगमन हो जाएगा।" इसलिए शास्त्रकार कहते हैं- खेज्य कालं आव सरीरभेवो' –जब तक शरीर छुटे नही तब तक काल (मृत्यु) की प्रतीक्षा करे।' ...... 'कालोपगीते' का प्राशय वृत्तिकार प्रगट- करते हैं - मृत्युकाल ने परवश कर दिया, इसलिये१२ वर्ष तक संलेखना द्वारा अपने आपको कृश करके पर्वत की गुफा प्रादि स्थण्डिल भूमि में पादपोपगमन, इंगित-मरण या भक्तपरिज्ञा, इनमें से किसी एक द्वारा अनशन-स्थित होकर मरण (आयुष्य क्षय) तक यानी प्रास्मा से शरीर पृथक् होने तक, प्राकांक्षा-प्रतीक्षा करे। 'अवि हम्ममाणे -- यह समाधि-मरण के साधक का विशेषण है। इसके द्वारा सूचित किया गया है कि साधक को अन्तिम समय में परीषहों और उपसों से घबराना नहीं चाहिए, पराजित न होना चाहिए। बल्कि इनसे आहत होने पर फलकवत् सुस्थिर रहना चाहिए। अन्यथा समाधि-मरण का अवसर खोकर वह बालमरण को प्राप्त हो जाएगा। 3 . से हु पारंगमे मुणी' - जो मुनि मृत्यु के समय मोहमूढ़ नहीं होता, परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहता है, वह अवश्य ही पारगामी, संसार या कर्म का अंत पाने वाला हो जाता है / अथवा जो संयम भार उठाया था, उसे पार पहुंचाने वाला होता है।' // पंचम उद्देशक समाप्त // ॥'धूत' षष्ठ अध्ययन समाप्त / / 1. "कालाहमा 'कालोवगीतो' ब्रहणाद्वाण अपत्ते काले मरणास्त उज्जमियर / एष भागमा ... सविखनो-'जति खलु अहं अपुग्ने आउत्ते उकालं करिस्सामि तो-परिग्णालोवे अकित्ती दुग्गति गमषं च भविस्सरं / ' सो एवं कालोबणीतो।" --आचारांग जूणि पृ० 68 2. प्राचा. शीला टीका पत्र 234 / 3. प्राचा० शीला• टीका पत्र 234 / 4. भाचा.शीला. टीका पत्र 234 / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'महापरिज्ञा' सप्तम अध्ययन प्राथमिक * प्राचारांग सूत्र के सातवें अध्ययन का नाम 'महापरिज्ञा' है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध (विच्छिन्न) है। * 'महापरिज्ञा' का अर्थ है महान्-विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोह जनित दोषों को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करना। 1 तात्पर्य यह है कि साधक मोह उत्पन्न होने के कारणों एवं आकांक्षाओं, कामनामों, विषय-भोगों की लालसाओं आदि से बँधने वाले मोहकर्म के दुष्परिणामों को जानकर उनका क्षय करने के लिए महाव्रत, समिति, गुप्ति, परीषह-उपसर्ग सहनरूप तितिक्षा, विषय-कषाय-विजय, बाह्य-प्राभ्यन्तर तप, संयम, स्वाध्याय एवं प्रात्मालोचन मादि को स्वीकार करे, यही महापरिज्ञा है / इस पर लिखी हुई प्राधारांगनियुक्ति छिन्न-भिन्न रूप में आज उपलब्ध है। उसके अनुशीलन से पता चलता है कि नियुक्तिकार के समय में यह अध्ययन उपलब्ध रहा होगा / नियुक्तिकार ने 'महापरिना' शब्द के 'महा' और 'परिमा' इन दो पदों का निरूपण करने के साथ-साथ 'परिणा' के प्रकारों का भी वर्णन किया है एवं अन्तिम गाथा में बताया है कि साधक को देवांगना, नरांगना आदि के मोहनित परीषहों तथा उपसर्गों को सहन करके मन, वचन, काया से उनका स्याग करना चाहिए। इस परित्याग का नाम महापरिज्ञा है। * सात उद्देशकों से युक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु के अनुसार मोह जन्य परीषहों या उपसगों का वर्णन था। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है-'संयमादि गुणों से युक्त साधक की साधना में कदाचित् मोहजन्य परीषह या उपसर्ग विघ्नरूप में प्रा पड़ें तो उन्हें समभावपूर्वक (सम्यग्ज्ञानपूर्वक) सहना चाहिए।' 1. यह मत प्राचारोगनियुक्ति, चूणि एवं वृत्ति के अनुसार है। स्थानांग तथा समवायांग सूत्र के अनुसार ____ 'महापरिणा' नवम अध्ययन है। नंदिसूत्र की हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार यह अष्टम अध्ययन था। देखें प्राचारांग मुनि जम्बूविजय जी की प्रस्तावना, पृष्ठ 28 / . 2. 'मोहसमुरथा परीसहुबसग्गा--प्राचा० नियुक्ति गा० 34 3. सप्तमेवयम् संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिन्मोहसमुत्थाः परीषहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते सम्बर सोढव्याः।-आचा. शीला टीका पत्रांक 259 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतकाध सभी साधकों की दृढता, धुति, मति, विरक्ति, कष्ट-सहनक्षमता, संहनन, प्रज्ञा, एक सरीखी नहीं होती, इसलिए निर्बल मन आदि से युक्त साधक संयम से सर्वथा भ्रष्ट न हो जाए, क्योंकि संयम में स्थिर रहेगा तो आत्म-शुद्धि करके दृढ हो जाएगा, इस दृष्टि से संभव है, इस अध्ययन में कुछ मंत्र, तंत्र, यंत्र विद्या प्रादि के प्रयोगी साधक को संयम में स्थिर रखने के लिए दिए गए हों, परन्तु प्रागे चलकर इनका दुरुपयोग होता देखकर इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो और सम्भव है एक दिन इस अध्ययन को आचारांग से सर्दथा पृथक कर दिया गया हो। वृत्तिकार इस अध्ययन को विच्छिन्न बताते हैं / 3. जो भी हो, यह अध्ययन. आज : हमारे समक्ष अनुपलब्ध है। . . 1, जेशयरिया विज्जा आगाससमा महापरिन्नाऔं / मंदानि भग्नावइरं अपच्छिमो जो सुयधराणं / .769 // आवश्यक नियुक्ति इस गाथा से प्रतीत होता है, आर्यवज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से कई विद्याएँ उद्घ त की थीं। प्रभावकचरित वजप्रबन्ध (148) में भी कहा है-वनस्वामी ने आचारांग के महापरिज्ञाध्ययन से 'आकाशगामिनी' विद्या उद्धृत की। 2. संपत्त महापरिणा ण पढिजई असमणुण्णाया-प्राचा. चणि। 3. सप्तम महापरिजाध्ययनं, तन्च सम्प्रति व्यवच्छिन्नम् -पाचा शीला० टीका पत्रांक 259 / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विमोक्ष' अष्टम अध्ययन प्राथमिक पर प्राचारांग सूत्र के अष्टम अध्ययन का नाम 'विमोक्ष' है। He. अध्ययन के मध्य और अन्त में 'विमोह' शब्द का उल्लेख मिलता है, इसलिए इस अध्ययन के 'विमोक्ष' और 'विमोह ये दो नाम प्रतीत होते हैं। यह भी सम्भव है कि 'विमोह' का ही विमोक्ष' यह संस्कृत स्वरूप स्वीकार कर लिया गया हो।'... * विमोक्ष' का अर्थ परित्याग करना-अलग हो जाना है और विमोह का अर्थ मोह रहित हो जाना / तान्विक दृष्टि से अर्थ में विशेष अन्तर नहीं है / बेड़ी ग्रादि किसी बन्धन रूप द्रव्य से छूट जाना---'द्रव्य-विमोक्ष' है और आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषायों अथवा आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन रूप संयोग से मुक्त हो जाना 'भाव-विमोक्ष' है / / S यहाँ भाव-विमोक्ष का प्रतिपादन है। वह मुख्यतया दो प्रकार का है-देश-विमोक्ष और सर्व-विमोक्ष / अविरतसम्यग्दृष्टि का अनन्तानुबन्धी (चार) कषायों के क्षयोपशम से, देशविरतों का अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानी (पाठ) कषायों के क्षयोपशम से, सर्वविरत साधुओं का अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी (इन 12) कषायों के क्षयोपशम से तथा क्षपकश्रेणी में जिसका कषाय क्षीण हुआ है, उनका उतना 'देश-विमोक्ष'-कहलाता है। सर्वथा विमुक्त सिद्धों का 'सर्वविमोक्ष' होता है।' _ 'भाव-विमोक्ष' का एक अन्य नय से यह भी अर्थ होता है कि पूर्वबद्ध या अनादिबन्धन बद्ध जीव का कर्म से सर्वथा अभाव रूप विवेक (पृथक्करण) भावविमोक्ष है / ऐसा भावविमोक्ष जिसका होता है, उसे भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण और पादपोपगमन, इन तीन समाधिमरणों में से किसी एक मरण को अवश्य स्वीकार करना होता है। ये मरण 1. (क) अध्ययन के मध्य में, 'इच्चेयं विमोहाययणं' तथा 'अणुपुटवेण विमोहाइ' एवं अध्ययन के अन्त में "विमोहन्नयर हियं' इन वाक्यों में स्पष्ट रूप से 'विमोह' का उल्लेख है। नियुक्ति एवं वृत्ति में 'विमोक्ष' नाम स्वीकृत है / चूमि में अध्ययन की समाप्ति पर "विमोक्षायतन' नाम अंकित है। (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक 259, 279, 215 / 2. आचारांग नियुक्ति गा० 259, 260 / प्राचा० शीला टोका पत्रांक 260 / ' 3. आचा० नियुक्ति गा० 260, आचा• शीला० टीका पत्रांक 260 / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. माचारांग सूत्र-प्रथम मुतत्कन्छ भी भाव-विमोक्ष के कारण होने से भावविमोक्ष हैं / ' उनके अभ्यास के लिए साधक के द्वारा विविध बाह्याभ्यन्तर तपों द्वारा शरीर और कषाय की संलेखना करना, उन्हें कृश करना भी भाव-विमोक्ष है। विमोक्ष अध्ययन के 8 उद्देशक हैं। जिनमें पूर्वोक्त भाव-विमोक्ष के परिप्रेक्ष्य में विविध पहलुओं से विमोक्ष का निरूपण है। प्रथम उद्देशक में असमनोज्ञ-विमोक्ष का, द्वितीय उद्देशक में अकल्पनीय विमोक्ष का तथा तृतीय उद्देशक में इन्द्रिय-विषयों से विमोक्ष का वर्णन है। चतुर्थ उद्देशक से अष्टस उद्देशक तक एक या दूसरे प्रकार से उपकरण और शरीर के परित्यागरूप विमोक्ष का. प्रतिपादन है। जैसे कि चतुर्थ में वैहानस और गद्धपृष्ठ नामक मरण का, पंचम में ग्लानता एवं भक्तपरिज्ञा का, छठे में एकत्वभावना और इंगितमरण का, सप्तम में भिक्षु प्रतिमाओं तथा पादपोपगमन का एवं अष्टम उद्देशक में द्वादश वर्षीय संलेखनाक्रम एवं भक्त-परिज्ञा, इंगितमरण एवं पादपोपगमन के स्वरूप का प्रतिपादन है। यह अध्ययन सूत्र 199 से प्रारम्भ होकर सूत्र 253 पर समाप्त होता है। 1. प्राचा० नियुक्ति गा० 261, 262, प्राचा० शीला टोका पत्रांक 261 / 2. आचा० नियुक्ति गा० 253, 254, 255, 256, 257 / प्राचा. शीला दीको पत्रोंक 259 / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विमोक्खो' अट्ठमं अज्झयणं पाठमो उद्देसओ विमोक्ष : अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक असममोश-विमोक्ष 199. से बेमि--समणण्णस्स वा असमणुण्णस्स या असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पादपुछणं वा णो पाएज्जा, गो णिमंतेज्जा, गो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे ति बेमि / धु चेतं जाणेज्जा असणं वा जाव पादपुछणं वा, लभिय जो लभिय, भुजिय गो भुजिय, पं वियत्ता विओकम्म, विभत्तं धम्म झोसेमाणे समेमाणे वलेमाणे पाएज्ज था, णिमंतेज्ज बा कुज्जा वेयावडियं / परं अणाढायमाणे ति बेमि / 199. मैं कहता हूँ--समनोज्ञ (दर्शन और वेष से सम, किन्तु आचार से अस. मान) या असमनोज्ञ (दर्शन, वेष और प्राचार-तीनों से असमान ) साधक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पादपोंछन मादरपूर्वक न दे, न देने के लिए * निमंत्रित करे और न उनका वैयावृत्य (सेवा)करे। (असमनोज्ञ भिक्षु कदाचित मुनि से कहे - (मुनिवर !) तुम इस बात को 1. से बेमि, समणुण्यस्स० पाठ (सू० 199) में णो पाएज्जा णिमंतेज्जा, जो कुज्जा वेयावडियं, परं आढापमाणे तिबेमि' के बदले चूणि में पाएज्जा' वा णिमन्तेज्ज वा कुज्जा वा वेयावडियं परं माढायमाणा' पाठ मिलता है। इसका अर्थ इस प्रकार है : "अत्यधिक आदरपूर्वक दे, देने के लिए निम त्रित करे या उनका वैयावृत्य (सेवा) करे।" 2. पथं वियत्ता वि ओकम्म, आदि पाठ के बल्ले चूणि के पाठ में मिलता है-"वत्त पंथ (?) विमत्त धम्म सोसेमाणा समेमाणा प (4) लेमाणा इति पादिज्ज वा णिमंतेन्ज वा कुज्जा व्यावडियं वा आढावमाण / परं अणाढायमाणे / अर्थात्-तुम्हारा मार्ग सीधा है, हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए भी (तुमको यहाँ अवश्य आना है). "यह (बात) वह उपाश्रय में आकर कहता हो, या रास्ते में चलते कहता हो, अथवा उपाश्रय में प्राकर या मार्ग में चलते हुए वह परम आदर देता हुआ प्रशनादि देता हो, उनके लिए निमन्त्रित करता हो या वैयावृत्य करता हो तो मुनि उसकी बात का बिलकुल यादर न देता हुआ चुप रहे / इसका विशेष अर्थ चूणि में इस प्रकार है - "वत्त वियत्त अणुपंथे सो अम्ह विहारावसहो वा। थोवं उम्वतियव्यं कतिविपदाणि / अथवा वत्तो पहो गिराबातो ण तिणादिणा छण्णो।" अर्थात् - मार्ग थोडा-सा मुड़कर है / मार्ग पर ही हमारा विहार या आवसथ है। थोड़ा-सा कुछ कदम मुड़ना पड़ता है / अथवा रास्ता आवृत्त है निवृत्त नहीं है, घास आदि से प्राग्छादित है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 आधारसंग -प्रथम श्रुतः इन्ध निश्चित समझ लो-(हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन (मिलता है)। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन (आचरण) करते हुए भी तुम्हें ( यहाँ अवश्य पाना है)। (यह बात) वह (उपाश्रय में - धर्म-स्थान में) आकर कहता हो या (रास्ते में) चलते हुए कहता हो, अथवा उपाश्रय में पाकर या मार्ग में चलते हुए वह अशन-पान आदि देता हो, उनके लिये निमंत्रित (मनुहार) करता हो, या (किसी प्रकार का )वैयावृत्य करता हो, तो / मुनि उसकी बात का बिल्कुल अनादर (उपेक्षा)करता हुमा(चुप रहे)। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन ---- समनोज-असमनोज- ये दोनों शब्द श्रमण भगवान महावीर के धर्मशासन के साधु-साध्वियों के लिए साधनाकाल में दूसरे के साथ सम्बन्ध रखने व न रखने में विधि-निषेध के लिये प्रयुक्त हैं / समनोज्ञ उसे कहते हैं- जिसका अनुमोदन दर्शन से, वेष से और समाचारी से किया जा सके और असमनोज्ञ उसे कहते हैं -- जिसका अनुमोदन दृष्टि से, वेष से और समाचारी से न किया जा सके / एक जैनश्रमण के लिए दूसरा जैनश्रमण समनोज्ञ होता है, जबकि अन्य धर्म-सम्प्रदायानुयायी साधु असमनोज्ञ / समनोज्ञ के भी मुख्यतया चार विकल्प होते हैं। (1) जिनके दर्शन (श्रद्ध-प्ररूपणा) में थोड़ा-सा अन्तर हो, वेष में जरा-सा अन्तर हो, समाचारी में भी कई बातों में अन्तर हो।। (2) जिनके दर्शन और वेश में अन्तर न हो, परन्तु समाचारी में अन्तर हो / ... (3) जिनके दर्शन, वेष और समाचारी, तीनों में कोई अन्तर न हो किन्तु आहारादि सांभोगिक व्यवहार न हो, और (४)जिनके दर्शन, वेष और समाचारी तीनों में कोई अन्तर न हो तथा जिनके साथ आहारादि सांभोगिक व्यवहार भी हो। इन चारों विकल्पों में पूर्ण समनोज्ञ तो चौथे विकल्प वाला होता है / प्रायः समाचार वाले के साथ सांभोगिक व्यवहार सम्बन्ध रखा जाता है, जिसका आचार सम न हो, उसके साथ नहीं। वृत्तिकार में 'समगुन्ज' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'समनोज' करके उसका अर्थ किया है--जो दर्शन से और वेष से सम हो, किन्तु भोजनादि व्यवहार से नहीं / साधर्मिक (समान धर्मा) तो मुनि भी हो सकते हैं, गृहस्थ भी / यहाँ-मुनि सार्मिक ही विवक्षित है / मुनि अपने 1. समनोज्ञ या समनुज्ञ के निम्मोक्त अर्थ शास्त्रों में किए गये हैं-(१) एक समाचारो-प्रतिबद्ध (प्रोप पातिक, आचारांग, व्यवहार) (2) सांभोगिक (निशीथ चू० 5 उ० 0313), (3) चारित्रवति संविग्ने (प्राचा० 1, 8 / 2 उ०), (4) अनुमोदनकर्ता (आचा० 161 / 1 / 5), (5) अनुमोदित (प्राचा. वृ. पाइप्रसद्द०) 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 264 / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 200 243 सार्मिक समनोज्ञ को ही पाहारादि ले-दे सकता है, किन्तु एक प्राचार होने पर भी जो शिथिल प्राचार वाले पार्श्वस्थ, कूशील, अपच्छंद, अपसन्न प्रादि हों, उन्हें मूनि आदरपूर्वक पाहारादि नहीं ले-दे सकता। निशीथसूत्र में इसका स्पष्ट वर्णन मिलता है।' असमनोज्ञ के लिए शास्त्रों में 'अन्यतीथिक' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। 'भो पाएज्जा' आदि तीन निषेधात्मक वाक्यों में प्रयुक्त 'गो' शब्द सर्वधा निषेध अर्थ में है। कदाचित् ऐसा समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधु अत्यन्त रुग्ण, असहाय, अशक्त, ग्लान या संकटग्रस्त या एकाकी आदि हो तो आपवादिक रूप से ऐसे साधु को भी आहारादि दिया-लिया जा सकता है, उसे निमन्त्रित भी किया जा सकता है और उसकी सेवा भी की जा सकती है। बास्तर में तो संसर्ग-जनित भी दोष से बचने के लिए ही ऐसा निषेध किया गया है। मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावना को हृदय से निकाल देने के लिए नहीं। वस्तुतः यह निषेध भिन्न समनोज या मसमनोज्ञ के साथ राग, द्वेष. ईर्ष्या, घृणा, विरोध, वैर, भेदभाव आदि बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है, यह तो सिर्फ अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निष्ठा में शैथिल्य पाने से बचाने के उद्देश्य से है। आगे चलकर तो समाधिमरण की साधना में अपने समनोज्ञ सामिक मुनि से भी सेवा लेने का निषेध किया गया है, वह भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र में दृढ़ता के लिए है। इसी सूत्र 199 की पंक्ति में परं आढायमाणे' पद दिया गया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अत्यन्त प्रादर के साथ नहीं, किन्तु कम आदर के साथ अर्थात् प्रापवादिक स्थिति में समनोज्ञ साधु को आहारादि दिया जा सकता है। इसमें संसर्ग या सम्पर्क बढ़ाने को दृष्टि का निषेध होते हुए, वात्सल्य एवं सेवा-भावना का अवकाश सूचित होता है। शास्त्र में विपरीत (मिथ्या) दृष्टि के साथ संस्तव, प्रतिपरिचय, प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा-प्रदान को रत्नत्रय साधना दूषित करने का कारण बताया गया है। अतः परं पादर' शब्द सम्पर्क-निषेध का वाचक समझना चाहिए। ___ 'धुवं चेतं जाणेज्जा' आदि पाठ सूत्र का उत्तरार्ध है। पूर्वार्ध में आहारादि देने का निषेध करके इस में असमनोज साधुओं से आहारादि लेने का निषेध किया है, यह सर्वथा निषेध है। तथाकथित असमनोज्ञ-अन्यतीर्थिक भिक्षुत्रों की ओर से किस-किस प्रकार से साधु को प्रलोभन, आदरभाव, विश्वास आदि से बहकाया, फुसलाया और फंसाया जाता है, यह इस सूत्रपाठ में बताया गया है। अपरिपक्व साधक बहक जाता है, फिसल जाता है। इसलिए शास्त्रकार ने पहले ही मोर्चे पर उनकी बात का आदर न करने, उपेक्षा-सेवन करने का निर्देश किया है। असमनोज आचार-विचार-विमोक्ष 200 इहमेगेसि आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति / ते इह आरंभट्ठी अगुवयमाणा१. निशीय अध्ययन 2144, तथा निशीथ अध्ययन 1576-77 / 2. प्राचारांग पूज्य आचार्य श्री प्रात्माराम जी म. कृत टीका प्र० 8, उ. 1 के विवेचन पर से पृष्ठ 541 / 3. (क) तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी कृत विवेचन प्र० 7, सू० 18 पृ. 184 / (ख) आवश्यकसूत्र का सम्यक्त्व सूत्र / (ग) प्राचा० शीला टीका पत्रक 265 / 4. प्राचा• शीला० टीका पत्रांक 265 / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्वन्ध हणी पाणे घातमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा, अदुवा अदिनमाइयंति, अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अस्थि लोए, णस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, सादिए लोए, अणादिए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साधु ति वा असाधु ति वा सिद्धी ति वा असिद्धी ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा / जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा / एत्थ वि जाणह अकस्मात् / 200, इस मनुष्य लोक में कई साधकों को आचार-गोचर (शास्त्र-विहित आचरण) सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु-जीवन में (पचन-पाचन आदि सावध क्रियाओं द्वारा प्रारम्भ के अर्थी हो जाते हैं, प्रारम्भ करने वाले (अन्यमतीय भिक्षुओं) के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणिवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त (बिना दिए हुए पर-द्रव्य) का ग्रहण करते हैं / अथवा वे विविध प्रकार के (एकान्त व निरपेक्ष) वचनों का प्रयोग (या परस्पर विसंगत अथवा विरुद्ध एकान्तवादों का प्ररूपण) करते हैं / जैसे कि-- (कई कहते हैं-) लोक है, (दूसरे कहते हैं-) लोक नहीं है / (एक कहते हैं-) लोक ध्र व है, (दूसरे कहते हैं -) लोक अध्र व है / (कुछ लोग कहते हैं-) लोक सादि है, (कुछ मतवादी कहते हैं-) लोक अनादि है। (कई कहते हैं-) लोक सान्त है, (दूसरे कहते हैं-) लोक अनन्त है। (कुछ दार्शनिक कहते हैं-) सुकृत है, (कुछ कहते हैं-) दुष्कृत है। (कुछ विचारक कहते हैं-) कल्याण है, (कुछ कहते हैं-) पाप है / (कुछ कहते हैं। साधु (अच्छा) है, (कुछ कहते हैं-) असाधु (बुरा) है / (कई वादी कहते हैं-) सिद्धि (मुक्ति) है, (कई कहते हैं--) सिद्धि (मुक्ति) नहीं है / (कई दार्शनिक कहते हैं-) नरक है, (कई कहते हैं-)नरक नहीं है। ___ इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए (नाना प्रकार के प्राग्रहों को स्वीकार किए हुए जो ये मतवादी) अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनके (पूर्वोक्त प्ररूपण) में कोई भी हेतु नहीं है, (ये समस्त वाद ऐकान्तिक एवं हेतु शून्य हैं), ऐसा जानो। विवेचन-असमनोज्ञ की पहिचान-- असमनोज्ञ साधुओं की पहिचान के भिन्न वेष के अलावा दो और आधार इस सूत्र में बताए हैं--- (1) मोक्षार्थ अहिंसादि के प्राचार में विषमता एवं शिथिलता (2) एकत्न्तवाद के सन्दर्भ में एकान्त एवं विरुद्ध दृष्टि-परक श्रद्धा-प्ररूपणा / 1. 'हण पाणे घातमाणा' के बदले चूणि में पाठान्तर है-'हणपाणघातमाणा। अर्थ किया है--'सयं हणंति एगिदियाती, घातमाणा रंधावेमाणा-अर्थात्-स्वयं एकेन्द्रियादि प्राणियों का हनन करते हैं तथा प्राणियों का मांस पकवाते हैं, इस प्रकार प्राणिघात करवाते हैं। 2. लोक कूटस्थ नित्य है (शाश्वतवाद)। 3. लोक क्षण-क्षण परिवर्तनशील है (परिवर्तनवाद)। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 201-202 241 - प्रस्तुत सूत्र के पूर्वार्ध में तथाकथित साधुओं के अहिंसा, सत्य एवं अचौर्य आदि प्राचार में विषमता और शिथिलता बताई है, जबकि उत्तरार्ध में असमनोज्ञ साधुओं की एकान्त एवं विरुद्ध श्रद्धा-प्ररूपणा की झांकी दी गयी है।' __एकान्त एवं विरुद्ध श्रद्धा-प्रल्पणा के विषय-असमनोज्ञ साधुओं को एकान्त श्रद्धा-प्ररूपण (वाद) के 5 विषय यहाँ बताए गए हैं--(१) लोक-परलोक, (2) सुकृत-दुष्कृत, (3) पुष्प-पाप, (4) साधु-असाधु और (5) सिद्धि-प्रसिद्धि (मोक्ष और बंध)। इन सब विषयों में असमनोज्ञों द्वारा एकान्तवाद का आश्रय लेने से बह यथार्थ और सुविहित साधु के लिए उपादेय नहीं होता / वृत्तिकार ने विभिन्न वादियों द्वारा प्ररूपित एकान्तवाद पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।' मतिमान माहन प्रवेदित धर्म 201. एवं तेसि णो सुअक्खाते णो सुपण्णत्त धम्मे भवति / से जहेतं भगवया पवेवितं आसुपण्णण जाणया पासया / अदुवा गुत्ती वइगोयरस्स त्ति बेमि / 202. सव्वत्थ संमतं पावं / तमेव उवातिकम्म एस महं विवेगे वियाहिते। गामे अदुवा रण्णे? व गामे व रणे, धम्ममायाणह पवेदितं माहणेण मतिमया / जामा तिणि उदाहिआ जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुद्विता, जे णिन्ता पावेहि कम्मेहि मणिदाणा ते वियाहिता। 201. इस प्रकार उन (हेतु-रहित एकान्तवादियों) का धर्म न सु-आख्यात (युक्ति-संगत) होता है और न ही सुप्ररूपित / जिस प्रकार से प्राशुप्रज्ञ (सर्वज्ञ-सर्वदशी) भगवान् महावीर ने इस (अनेकान्त रूप सम्यकवाद) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन साध कर) रहे / ऐसा मैं कहता हूँ। 202. (वह मुनि उन मतवादियों से कहे-) (आप सबके दर्शनों में प्रारम्भ) पाप (कृत-कारित-अनुमोदित रूप से) सर्वत्र सम्मत (निषिद्ध नहीं) है, (किन्तु मेरे दर्शन में यह सम्मत नहीं है)। मैं उसी (पाप/पापाचरण) का निकट से अतिक्रमण करके (स्थित हूँ) यह मेरा विचेक (असमनुज्ञवाद-विमोक्ष) कहा गया है। धर्म ग्राम में होता है, अथवा अरण्य में ? वह न तो गाँव में होता है, न अरण्य में; उसी (जीवादितत्त्व-परिज्ञान एवं सम्यग आचरण) को धर्म जानो, जो मतिमान् (सर्वपदार्थ परिज्ञानमान्) महामाहन भगवान् ने प्रवेदित किया (बतलाया) है। 1. आचा० शीला० टीका पत्र 265 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्र 265 // .. 3. आचा० शीला० टीका पत्र 265, 266, 267 / 4. मारिया के बदले चूणि में पाठान्तर है-'आयरिया', अर्थ होता है- आचार्य / 5. 'णिवुता' के बदले 'चूणि में पाठ है--णिन्चुग, जिसका अर्थ होता है—निवृत-शान्त / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... नाचान सूत्र-प्रथम अतस्कन्द (उस धर्म के) तीन याम 1. प्राणातिपात-विरमण 2. मृषावाद-विरमण, 3. अदत्तादान विरमण रूप तीन महाव्रत या तीन क्योविशेष (अथवा सम्यकदर्शनादि तीन रत्न) कहे गए हैं, उन (तीनों यामों) में ये पावं सम्बोधि पाकर उस त्रियाम रूप धर्म का आचरण करने के लिए सम्यक् प्रकार से (मुनि दीक्षा हेतु) उत्थित होते हैं; जो (क्रोधादि को दूर करके) शान्त हो गए हैं। वे (पापकर्मों के) निदान (मूल कारण भूत राग-द्वेष के बन्धन) से विमुक्त कहे गए हैं। विवेचन असमनोज्ञ साधुओं के एकान्तवाद के चक्कर में अनेकान्तवादी एवं शास्त्रज्ञ सविहित साधु इसलिए न फंसे कि उनका धर्म (दर्शन) न तो सम्यकरूप से युक्ति, हेतु, तर्क प्रादि द्वारा कथित ही है और न ही सम्यक् प्रकार से प्ररूपित है।" . भगवान महावीर ने अनेकान्तरूप सम्यगवाद का प्रतिपादन किया है। जो अन्यदर्शनी एकान्तवादी साधक सरल हो, जिज्ञासु हो, तत्व समझना चाहता हो, उसे शान्ति, धैर्य और यक्ति से समझाए, जिससे असत्य एवं मिथ्यात्व से विमोक्ष हो। यदि असमनोज्ञ साधु जिज्ञासु व सरल न हो, वक्र हो, वितण्डावादी हो,' वचन-युद्ध करने पर उतारू हो अथवा द्वेष और ईष्यांवश लोगों में जैन साधुओं को वदनाम करता हो, वाद-विवाद और झगड़ा करने के लिए उद्यत हो तो शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-'अदुवा गुली वयोगोयरस्स' अर्थात्--ऐसी स्थिति में मुनि वाणी-विषयक मुषित रखे। इस वाक्य के दो अर्थ फलित होते हैं (1) वह मुनि अपनी (सत्यमयी) वाणी की सुरक्षा करे यानी भाषासमितिपूर्वक वस्तु का यथारूप कहे, (2) वाग्गुप्ति करे-बिलकुल मौन रखे।४ सूत्र 202 के उत्तरार्ध में धर्म के विषय में विवाद और मूढ़ता से विमुक्ति की चर्चा की गयी है। उस युग में कुछ लोग एकान्ततः ऐसा मानते और कहते थे--गांव, नगर आदि जनसमह मैं रहकर ही साधु-धर्म की साधना हो सकती है / अरण्य में एकान्त में रहकर साधु को परीषह सहने का अवसर ही कम पाएगा, आएगा तो वह विचलित हो जाएगा। एकान्त में ही तो पाप पनपता है / इसके विपरीत कुछ साधक यह कहते थे कि अरण्यवास में ही साधुधर्म की सम्यक् साधना की जा सकती है, अरण्य में वनवासी बनकर कंद-मूल-फलादि खाकर ही सपस्या की जा सकती है, बस्ती में रहने से मोह पैदा होता है, इन दोनों एकान्तवादों का प्रतिबाद करते हुए शास्त्रकार कहते हैं। 'लेव गामे, व रम्'---धर्म न तो ग्राम में रहने से होता है, न अरण्य में आरण्यक बन कर रहने से / धर्म का आधार ग्राम-अरण्यादि नहीं हैं, उसका अाधार आत्मा है, आत्मा के 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 268 / 2. कहा भी है-'राग-दोसकरो वादो। 2. प्राचारांग; प्राचार्य प्रारमारामजी म. पृ. 551 / / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 268 / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टम अध्ययम : प्रथम उदेशक : सूत्र 203 - गुण-सम्यग्दर्शन-दर्शन-चारिष में धर्म है, जिसने जीव, अजीव प्रादि का परिज्ञान हो, लत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा हो और यथोक्त मोक्षमार्च का आचरण हो / / __ वास्तव में मात्मा का स्वभाव ही धर्म है। 'पूज्यपाद देवनन्दी ने इस बात का समर्थन किया है ग्रामोऽरव्यमति द्वेश निकसोऽतात्मशिनाम / दृष्टांत्मना निवासस्तु, विवितात्वंव निश्चलः . -अनात्मदर्शी साधक गाँव या अरण्य में रहता है, किन्तु प्रात्मदर्शी साधक का वास्तविक निवास निश्चल विशुद्ध आत्मा में रहता है। 'समा तिणि उबाहिमा'-यह पद महत्त्वपूर्ण है / वृत्तिकार ने याम के तीन प्रर्थ किए हैं(१) तीन पाम-महाव्रत विशेष, (2) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वे तीन याम / 13) मुनि धर्म-योग्य तीन अवस्थाएँ--पहली पाठ वर्ष से तीस वर्षे तक, दूसरी 31 से 60 तक और तीसरी---उससे ग्रागे को। ये तीन अवस्थाएँ 'त्रियाम' हैं।' स्थानांग सूत्र में इन्हें प्रथम, मध्यम और अन्तिम नाम से कहा गया है / / अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह ये तीन महावत तीन याम हैं, इन्हें पातंजल योगदर्शन में 'यम' कहा है / भगवान् पाश्र्वनाथ के शासन में चार महाव्रतों को 'चातुर्याम' कहा जाता था। यहाँ अचौर्य महावत को सत्य में तथा ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत में समाविष्ट कर लिया है।' . मनुस्मृति और महाभारत मादि ग्रन्थों में एक प्रहर को याम कहते हैं, जो दिन का और रात्रि का चतुर्थ भाग होता है / दिन और रात्रि के कुल पाठ याम होते हैं। संसार-भ्रमणादि का जिनसे उपरम होता है, उन ज्ञानादि रत्नत्रय को भी त्रिवाम कहा गया है / 'अणियाणा' शब्द का यहाँ अर्थ है-निदान-रहित / कर्मबन्ध का निदान-प्रादि कारण राग-द्वष हैं। उनसे वे (उपशान्त मुनि) मुक्त हो जाते हैं। दण्डसमारंभ-विमोक्ष 203, उड्ढे अतिरियं दिसासु सव्वतो सन्चायति च णं पाडियवक जीधेहि कम्मसमारंभे णं / 1. (क) साचा० शीला० टीका पत्रांक 268 / (ख) 'ण मुणो रणवासण-उत्तरा० 25531 / 2. समाधि शतक 73 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 2683 4 . स्थानांग स्था० 3 / 5. प्राचार्य समन्तभद्र ने अल्पकालिक व्रत को नियम और पाजीवन पालने योग्य प्रहिंसादि को यम कहा है-निमयः परिमितकालो यावज्जीव यमो प्रियते / 6. आघा० शीला टीका पत्रांक 268 / 7. प्राचा० श्रीला. टीका पत्रांक 258 / 8. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 268 / (ख) 'निदानस्वादि कारणात्---अमरकोष / 9. 'पाडिएक्क' के बदले पाठ मिलते हैं-पडिएक्क, पाडेवक, परिक्कं / चूर्णिकार ने पाडियमक' पाठ मानकर उसकी व्याख्या यों की है- 'पत्ता पत्त यं समत्त कायेसु दंड प्रारभते इति Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 माचारोंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तं परिणाय मेहावी वा सय एतेहि काएहि दंडं समारंमज्जा, वह एतेहि काएहि दंडं समारभावेज्जा, वण्णे एतेहि काहि दंडं समारभते वि समणुजाणेजा। ... जे चणे एतेहिं काएहि दह समारभंति तेसि पि वयं लज्जामो। तं परिण्णाय मेहावी तंवा दंडं अण्णं वा दंणं णो दंडभी दंड समारभेज्जासि ति बेमि / // पडमो उद्देसओ समतों // 203. ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं (और विदिशाओं) में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर (उपमनरूप) कर्म-समारम्भ किया जाता है। मेधावी साधक उस (कर्मसमारम्भ) का परिज्ञान (विवेक) करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे। जो अन्य दूसरे (भिक्षु) इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके (उस जघन्य) कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। दण्ड महान् अनर्थकारक है)-इसे दण्डभीह मेधावी मुनि परिज्ञात करके उस (पूर्वोक्त जीव-हिंसा रूप) दण्ड का अथवा मृषावाद प्रादि किसी अन्य दण्द का दण्ड-समारम्भ न कले। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--शब्द-कोष के अनुसार 'दण्ड' शब्द निम्नोक्त अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) लकड़ी आदि का डंडा (2) निग्रह या सजा करना, (3) अपराधी को अपराध के अनुसार शारीरिक या प्रार्थिक दण्ड देना, (4) दमन करना, (5) मन-वचन-काया का अशुभ व्यापार, (6) जीवहिंसा तथा प्राणियों का उपमर्दन आदि / यहाँ 'दण्ड' शब्द प्राणियों को पीड़ा देने, उपमर्दन करने तथा मन, वचन और काया का दुष्प्रयोग करने के अर्थ में प्रयुक्त है। - दण्ड के प्रकार-प्रस्तुत प्रसंग में दण्ड तीन प्रकार के बताए हैं-(१) मनोदण्ड, (2) पाडियक्कं डंडं प्रारभति / जतोऽय मुवदेसो "तं परिणाय मेहावी / ' अर्थात् षट्कायों में प्रत्येक-~ प्रत्येक काय के प्रति दण्ड प्रारम्भ-समारम्भ करता है, उसे ही शास्त्र में कहा है-पाडियवक आरभंति / क्योंकि यह उपदेशात्मक सूत्र पंक्तियाँ है, इसीलिए आगे कहा है-तं परिणाय / 1. इसके बदले चूणि में पाठान्तर है-लेव सयं छज्जीवकायेसु समारंभेज्जा, मो वि अण्णे एतेसु कायेसु डंडं समारमाविज्जा, भाव समणुजाणिज्जा / अर्थात् --स्वयं षड्जीवनिकायों के प्रति दण्डसमामा करे, न ही दूसरों से इन्हीं जीवकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करावे, और न ही दण्ड समारम्भ करने वाले का अनुमोदन करें। . २..(क) पाइप्रसद्दमहण्णवो पृ० 451, (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक 269 / (ग) अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 4 पृ. 2420 पर देखें--- दण्यते व्यापाराते प्राणिनो मेम स दण्ड:--प्राचा० 1 श्रू० 2 0 / ..... दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षगैहिंसामानने, भूतोपमर्दै-धर्मसार / दण्डयति पीडामुत्पावयतीति दण्डः दुःखविशेषे--सूत्र कु. 1 श्रु. 5.0 1 उ० / Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 203 वचनदण्ड, (3) कायदण्ड / मनोदण्ड के तीन विकल्प हैं-(१) रागात्मक मन, (2) द्वेषात्मक मन और (3) मोहयुक्त मन / (1) झूठ बोलना, (2) वचन से कह कर किसी के ज्ञान का घात करना, (3) चुगली करना, (4) कठोर वचन कहना, (5) स्व-प्रशंसा और पर-निन्दा करना, (6) संताप पैदा करने वाला वचन कहना तथा (7) हिंसाकारी वाणी का प्रयोग करना-ये वचनदण्ड के सात प्रकार हैं। (1) प्राणिवध करना, (2) चोरी करना, (3) मैथुन सेवन करना, (4) परिग्रह रखना, (5) प्रारम्भ करना, (6) ताड़न करना, (7) उग्र आवेशपूर्वक डराना-धमकाना; कायदण्ड के ये सात प्रकार हैं। दण्ड-समारम्भ का अर्थ यहाँ दण्ड-प्रयोग है। चूकि मुनि के लिए तीन करण (१.कृत, 2. कोरित और 3. अनुमोदन) तथा तीन योग (1. मन, 2. वचन और 3. काय के व्यापार से हिंसादि दण्ड का त्याग करना अनिवार्य है / इसलिए यहाँ कहा गया है - मुनि पहले सभी दिशा-विदिशामों में सर्वत्र, सब प्रकार से, षट्कायिक जीवों में से प्रत्येक के प्रति होने वाले दण्ड-प्रयोग को, विविध हेतुओं से तथा विविध शस्त्रों से उनकी हिंसा की जाती है, इसे भलीभौति जान ले, तत्पश्चात् तीन करण, तीन योग से उन सभी दण्ड-प्रयोगों का परित्याग कर दे। निम्रन्थ श्रमण दण्डसमारम्भ से स्वयं डरे व लज्जित हो, दण्ड-समारम्भकर्ता साधुओं पर साधु होने के नाते लज्जित होना चाहिए; जीवहिंसा तथा इसी प्रकार अन्य असत्य, चोरी आदि समस्त दण्ड-समारम्भों को महान अनर्थकर जानकर साधु स्वयं दण्डभीरु-अर्थात् हिंसा से भय खाने वाला होता है, अतः उसको उन दण्डों से मुक्त होना चाहिए।' प्रस्तुत सूत्र में दण्ड-समारम्भक अन्य भिक्षुओं से लज्जित होने की बात कहकर बौद्ध, वैदिक आदि साधुओं की परम्परा की अोर अंगुलि-निर्देश किया गया है। वैदिक ऋषियों में पचन-पाचनादि के द्वारा दण्ड-समारम्भ होता था। बौद्ध-परम्परा में भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाते थे, दूसरों से पकवाते थे, या जो भिक्षु-संघ को भोजन के लिए आमंत्रित करता था, उसके यहाँ से अपने लिए बना भोजन ले लेते थे, विहार आदि बनवाते थे। वे संघ के निमित्त होने वाली हिंसा में दोष नहीं मानते थे। . प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. (ब) चारित्रसार 19 / 5 / / (ख) “पडिकमामि तीहि वहि-मकरंडेग, क्यदंडेणं, कायदंडेणं--प्रविश्यक सूत्र / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 269 / 3. पायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 312 / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्दम्य बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अकल्पनीय विमोक्ष 204. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा चिठ्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयट्टज्ज वा सुसाणंसि' वा सुग्णागारंसि वा रुक्खमूलसि वा गिरिगुहंसि वा कुभ, रायतणंसि वा हुरत्था वा, कहिचि बिहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त गाहावती बूया-आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणं वा पाणाइ भूताई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कोयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसळें अभिहडं आहट्ट चेतेमि आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुजह वसह आउसंतो समणा!। तंभिक्स गाहावति समणसं सववस पडियाइक्खे-आउसंतो गाहावती ! णो खलु ते क्यणं आढामि, णो खल ते वयणं परिजाणामि, जो तुम मम अट्ठाए असणं या 4 वत्थं वा 4 पाणाई 4 समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेसि आवसहं वा समुस्सिणांसि / से विरतो आउसो गाहावती! एतस्स अकरणयाए / 205. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा जाव' हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्ख उव. सकेमिस्तु गाहावती आतगताए पेहाए असणं वा 4 बस्थं वा 4 पाणाई 4 समारम्भ जाव' आहट्ट चेतेति आवसहं वा समुस्सिणाति तं भिक्खु परिघासेतु। तं च भिक्खू जाणेज्जा सह 1. चूणि में 'सुसाणंसि' का अर्थ इस प्रकार किया है-"सुसाणस्म पासेठ्ठाति' अब्भासे वा सुण्णघरे या ठितओ होज्ज, रुक्समूले वा, जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणित्तो, गिरिगुहाए वा'-इसका अर्थ विवेषन में दिया है। 2. 'चैतेमि' पद के बदले कहीं 'करेमि' पद मिलता है, उसके सम्बन्ध में चूणिकार का मत-केयि भणति करेमि' तं तु ण युज्जति, जेण तं आहियमेव, आहियस्स करण न विरजति', अर्थात् - कई 'करेमि' पाठ - कहते हैं, वह उचित नहीं लगता, क्योंकि दाता ने जब सामने लाकर पदार्थ रख दिया, तब उस माहित - (सामने रखे हुए) का करना' संगत नहीं होता। 3. इसकी व्याख्या चूर्णिकार करते हैं-एवं णिमंतितो सो साहू तो वि पडिसेहयवं, कहं ? बुच्चइ 'त भिक्न गाहावति समाणं सक्यस पडियाइक्लेज्जा / ' तमिति तं दातारं / ' अर्थात् - इस प्रकार निमंत्रित किये जाने पर उस साधु को (उक्त दाता को) निषेध कर देना चाहिए, कैसे ? कहते हैं-उस दाता गृहस्थ को वह भिक्षु सम्मानपूर्वक, सुवचनपूर्वक मना कर देना चाहिए। 4. चणि में पाठान्तर है---'जो खलु भे एवं बयणं पडिसुमि, कतरं ? जं मम मलसि—पाउसंतो समणा ! अहं खलु तुभं अट्ठाते असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, जाव प्रावसहं समुस्सिमामि / " अर्थात तुम्हारी यह बात मैं स्वीकार नहीं करता, कोन सी ? जो तुमने मुझे कहा था--"आयुष्मन् श्रमण ! मैं तुम्हारे लिए अशनादि यावत् पावसथ (उपाश्रय) निर्माण करूंगा।" 5. यहाँ 'जाव' शब्द से पूरा पाठ 204 सूत्र के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। 6. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें। 7. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें / 8. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 204-206 251 सम्मुतियाए परवागरणेणं अण्णेसि वा सोच्चा--अयं खल गाहावती मम अट्ठाए असणं वा 4 वत्थं वा 4 पाणाई.४ 'समारम्भ चेतेति आवसहं वा समुस्सिणाति / तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए ति बेमि / 206. भिक्खुच खलु पुछा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति, से हता हणह खणह छिवह बहह पचह आलु पह विलु पह सहसक्कारेह विप्परामुसह / ते फासे पुट्ठो धोरो अहियासए / अदुवा आयारगोयरमाइक्खे तक्कियाणमणेलिसं। अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुम्वेण सम्म पडिलेहाए' आयगुत्ते / बुद्धेहि एवं पवेदितं / 204. (सावद्य कार्यों से निवृत्त) वह भिक्षु (भिक्षादि किसी कार्य के लिए) कहीं जा रहा हो, श्मशान में, सूने मकान में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के नीचे, कुम्भारशाला में या गांव के बाहर कहीं खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुआ हो अथवा कहीं भी विहार कर रहा हो, उप समय कोई गहपति उस भिक्षु के पास आकर कहे--"आयुप्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोछन ; प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके आपके. उद्देश्य से बना रहा हूँ या (आपके लिए) खरीद कर, उधार लेकर, किसी से छीनकर, दूसरे की वस्तु को उसको बिना अनुमति के लाकर, या घर से लाकर आपको देता हूँ अथवा आपके लिए उपाश्रय (ग्रावसथ) बनवा देता हूँ। हे आयुष्मन् श्रमण ! आप उस (प्रशन प्रादि) का उपभोग करें और (उस उपाश्रय में) रहें।' __ भिक्षु उस सुमनस् (भद्रहृदय) एवं सुवयस (भद्र वचन वाले) गृहपति को निषेध के स्वर से कहे-आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे इस वचन को प्रादर नहीं देता, न ही तुम्हारे वचन को स्वीकार करता हूँ; जो तुम प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों का समारम्भ करके मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल 1. यहाँ तीनों जगह का पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहग करें। 2. 'आहाच गंथा कुसंति' की चूर्णिकार द्वारा कृत व्याख्या-"प्राहच्च णाम कताइ....."गंथा यदुक्तं भवति बंधा, फुसंति जे भणितं पावेंति / " अर्थात् प्राहच्च यानी कदाचित् ग्रन्थ अर्थात् बंध, स्पर्श करते हैं प्राप्त करते है। 3. चूणि में 'सहसक्कारेह' का अर्थ किया गया है-- 'सीस से छिदह' इसका सिर काट डालो, जब कि शीलांकवृत्ति में अर्थ किया गया है- 'शीघ्र मौत के घाट उतार दो। 4. चूणि में इसके बदले 'विप्परामम्रह' पद मानकर अर्थ किया है-'विवहं परामसह, यदुक्त भवति 'मुसह'- अर्थात् विविध प्रकार से इसे सलामो या लूट लो। 5. इसकी व्याख्या चूर्णिकार ने यों की है-पडिलेहा पेक्खित्ता, आयगुते तिहिं गुत्तीहिं / अध उत्तरे विदिज्जमाणे कृप्पति ण वा स तं उत्तरसमत्थो भवति, ताहे अद्गुत्तीए, गोवणं गृत्ती, क्योगोयरस्स'.-- अर्थात-प्रतिलेखन करके देखकर, आत्मगुप्त-तीनों गप्तियों से गृप्त / उत्तर दिये जाने पर यदि वह कुपित होता है, अथवा वह (मुनि) उत्तर देने में समर्थ नहीं है, तब कहा----अगुत्तीए। अथवा वचन विषयक गोपन करे---मौन रहे। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 आचारांग-प्रथम श्रुतस्कन्ध या पादपोंछन बना रहे हो, या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना लाकर अथवा अपने घर से यहाँ लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय बनवाना चाहते हो। हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं (इस प्रकार के सावध कार्य से सर्वथा) विरत हो चुका हूँ। यह (तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत बात मेरे लिए) अकरणीय होने से, (मैं स्वीकार नहीं कर सकता)। 205. वह भिक्षु (कहीं किसी कार्यवश) जा रहा है, श्मशान, शून्यगृह, गुफा या वृक्ष के नीचे या कुम्भार की शाला में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने प्रात्मगत भावों को प्रकट किये बिना (मैं साधु को अवश्य ही दान दूंगा, इस अभिप्राय को मन में संजोए हुए) प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक प्रशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लाकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे के अधिकार की वस्तु उनकी बिना अनुमति के लाकर, अथवा घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण या जीर्णोद्वार कराता है, वह (यह सब) उस भिक्षु के उपभोग के या निवास के लिए (करता है)। (साधु के लिए किए गए) उस (प्रारम्भ) को वह भिक्षु अपनी सद्बुद्धि से, दूसरों (अतिशयज्ञानियों) के उपदेश से या तीर्थकरों की वाणी से अथवा अन्य किसी उसके परिजनादि से सुनकर यह जान जाए कि यह गृहपति मेरे लिए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों के समारम्भ से अशनादि या वस्त्रादि बनवाकर या मेरे निमित्त मोल लेकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसके स्वामी से अनुमति प्राप्त किए बिना लाकर अथवा अपने धन से उपाश्रय बनवा रहा है, भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना (छान-बीन) करके, पागम में कथित आदेश से या पूरी तरह से जानकर उस गृहस्थ को साफ-साफ बता दे कि ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं हैं; (इसलिए मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता) / इस प्रकार मैं कहता हूँ। 206. भिक्षु से पूछकर (सम्मति लेकर) या बिना पूछे ही (मैं अवश्य दे दूंगा, इस अभिप्राय से) किसी गृहस्थ द्वारा (अन्धभक्तिवश) बहुत धन खर्च करके बनाये हुए ये (आहारादि पदार्थ) भिक्षु के समक्ष भेंट के रूप में लाकर रख देने पर (जब मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; वह सम्पन्न गृहस्थ क्रोधादेश में आकर स्वयं उस भिक्षु को मारता है, अथवा अपने नौकरों को प्रादेश देता है कि इस (–व्यर्थ ही मेरा धन व्यय कराने वाले साधु) को डंडे आदि से पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर प्रादि अंग काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकायो, इसके वस्त्रादि छीन लो या इसे नखों से नोंच डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबर्दस्ती करो अथवा जल्दी ही इसे मार डालो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 2.4.206 करो।" उन सब दुःखरूप स्पर्शो (कष्टों) के प्रा पड़ने पर धीर (अक्षुब्ध) रहकर मुनि उन्हें (समभाव से) सहन करे। अथवा वह प्रास्मगुप्त (आत्मरक्षक) मुनि अपने प्राचार-गोचर (पिण्ड-विशुद्धि आदि प्राचार) को क्रमशः सम्यक् प्रेक्षा करके (पहले अशनादि बनाने वाले पुरुष के सम्बन्ध में भलीभाँति ऊहापोह करके (यदि वह मध्यस्थ या प्रकृत्तिभद्र लगे सो) उसके समक्ष प्रपना अनुपम आचार-गोचर (साध्वाचार) कहे-बताए। अगर वह व्यक्ति दुराग्रहीं और प्रतिकूल हो, या स्वयं में उसे समझाने की शक्ति न हो तो बचन का. संगोपन (मौन) करके रहे / बुद्धों तीर्षकरों ने इसका प्रतिपादन किया। . .... . . . विवेचन-इस उद्देशक में साधु के लिए अनाचरणीय या अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार कुछ अकरणीय बातों से विमुक्त होने का विभिन्न पहलुओं से निर्देश किया है। से भिक्यू परक्कमेज्ज वा–यहाँ वृत्तिकार ने विमोक्ष के योग्य भिक्षु की विशेषताएँ बताई हैं-जिसने यावज्जीवन सामायिक की प्रतिज्ञा ली है, पंचमहाव्रतों का भार ग्रहण किया है, समस्त सावध कार्यों का त्याग किया है, और जो भिक्षाजीबी है, वह भिक्षा के लिए या अन्य किसी आवश्यक कार्य से परिक्रमण---विचरण कर रहा है। यहाँ परिक्रमण का सामान्यतया अर्थ गमनागमन करना होता है।' __ सुसाण सि-प्रस्तुत सूत्र-पंक्ति में श्मशान में लेटना, करवट बदलना या शयन करना प्रतिमाधारक या जिनकल्पी मुनि के लिए ही कल्पनीय है; स्थविरकल्पी के लिए तो श्मशान में ठहरना, सोना आदि कल्पनीय नहीं है, क्योंकि वहाँ किसी प्रकार के प्रमाद या स्खलन से व्यन्तर आदि देवों के उपद्रव की सम्भावना बनी रहती है तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रात्मभावना होने पर भी जिनकल्पी के लिए सामान्य स्थिति में श्मशान में निवास करने की प्रज्ञा नहीं है। प्रतिमाधारी मुनि के लिए यह नियम है कि जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं उसे ठहर जाना चाहिए। अत: जिनकल्पी प्रंतिकाधारक की अपेक्षा से ही श्मशान-निवास का उल्लेख प्रतीत होता है। इसीलिए चणि में व्याख्या की गई है---श्मशान के पास खड़ा होता है, शून्यगृह के निकट या वृक्ष के नीचे अथवा पर्वतीय गुफा में ठहरता है।' वर्तमान में सामान्यतया स्थविरकल्पी गच्छवासी साधु बस्ती में किसी न किसी उपाश्रय या मकान में ठहरता है। हाँ, विहार कर रहा हो, उस समय कई बार उसे स्थान न मिलने या सूर्यास्त हो जाने के कारण शून्यगह में, वृक्ष के नीचे या जंगल में किसी स्थान में ठहरना होता है। प्राचीनकाल में तो गांव के बाहर किसी बगीचे ग्रादि में ठहरने का प्राम रिवाज था। साधु कहीं भी ठहरा हो, वह भिक्षा के लिए स्वयं गृहस्थों के घरों में जाता है और 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 270 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 270 / 3. चूमि में व्याख्या मिलती है --'सुसाणस्स पासे वाति अभासे वा सुष्णघरे वा ठितो होग्न, पलमूले वा, जारिसो रक्खमूलो णिसोहे भणितो, गिरि गुहाए वा।' माचा० चूणि, प्राचा० मूलपाठ पृ. 72 / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पाहारादि आवश्यक पदार्थ अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार प्राप्त होने पर ही लेता है। कोई गृहस्थ भक्तिवश या किसी लौकिक स्वार्थवश उसके लिए बनवाकर, खरीदकर, किसी से छीनकर, चुराकर या अपने घर से सामने लाकर दे तो उस वस्तु का ग्रहण करना उसकी प्राचार-मर्यादा के विपरीत है / वह ऐसी वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता, जिसमें उसके निमित्त हिसादि प्रारम्भ हुआ हो। अगर ऐसी विवशता की परिस्थिति प्रा जाए और कोई भावुक गृहस्थ उपयुक्त प्रकार से उसे अाहारादि लाकर देने का अति प्राग्रह करने लगे तो उसे उस भावकहृदय हितैषी भक्त को धर्म मे, प्रेम से, शान्ति से वसा पाहारादि न देने के लिए समझा देना चाहिए, साथ ही अपनी कल्पमर्यादाएँ भी उसे समझाना चाहिए / यह अकल्पनीय विमोक्ष की विधि है।' अकल्पनीय स्थितियां और विमोक्ष के उपाय--सूत्र 204 से लेकर 206 तक में शास्त्रकार ने भिक्षु के समक्ष आने वाली तीन अकल्पनीय परिस्थितियाँ और साथ ही उनसे मुक्त होने या उन परिस्थितियों में प्रकरणीय-अनाचरणीय कार्यों से अलग रहने या छुटकारा पाने के उपाय भी बताए हैं (1) भिक्ष को किसी प्रकार के संकट में पड़ा या कठोर कष्ट पाता देखकर किसी भावक भक्त द्वारा उसके समक्ष पाहारादि बनवा देने, मोल लाने, छीनकर तथा अन्य किसी भी प्रकार से सम्मुख लाकर देने तथा उपाश्रय बनवा देने का प्रस्ताव / (2) भिक्षु को कहे-सुने बिना अपने मन से ही भक्तिवश पाहारादि बनवाकर या उपयुक्त प्रकारों में से किसी भी प्रकार से लाकर देने लगना तथा उपाश्रय बनवाने लगना और (3) उन आहारादि तथा उपाश्रय को प्रारम्भ-समारम्भ जनित एवं अकल्पनीय जानकर भिक्षु जब उन्हें किसी स्थिति में अपनाने से साफ इन्कार कर देता है तो उस दाता की ओर से क्रुद्ध होकर उस भिक्षु को तरह-तरह से यातनाएँ दिया जाना। . प्रथम अकल्पनीय ग्रहण की स्थिति से विमुक्त होने के उपाय--प्रेम से अस्वीकार करे और 'कल्पमर्यादा' समझाए / दूसरी स्थिति से विमुक्त होने का उपाय-किसी तरह से जानसुनकर उस पाहारादि को ग्रहण एवं सेवन करना अस्वीकार करे और तीसरी स्थिति आ पड़ने पर साधु धैर्य और शान्ति से समभावपूर्वक उस परीषह या उपसर्ग को सहन करे। इस प्रकार उस गृहस्थ को अनुकूल देखे तो साधु के अनुपम आचार के विषय में बताये, प्रतिकूल हो तो मौन रहे / इस प्रकार अकल्पनीय-विमोक्ष की सुन्दर झांकी शास्त्रकार ने प्रस्तुत की है। एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि साधु के द्वारा उक्त अकल्पनीय पदार्थों को अस्वीकार करने या उस भावुकहृदय गृहस्थ को समझाने का तरीका भी शान्ति, धैर्य एवं प्रेमपूर्ण होना चाहिए / वह दाता गृहस्थ को द्वेषी, वैरी या विद्रोही न समझे, किन्तु भद्रमनस्क और 1. आचारांग आचार्य श्री प्रात्माराम जी म० कृत टीका के आधार पर पृ० 559 / 2. आचासंग टीका पत्रांक 270-271-272 के आधार पर / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 207-201 255 सवचस्क या सवयस्क (मित्र) समझ कर कहे। इसका एक अर्थ यह भी है कि भिक्षु उस गृहस्थ को सम्मान सहित, सुवचनपूर्वक निषेध करे।' समनोश-समनोज्ञ आहार बान विधि-निषेध 207. से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा 4 वत्थं वा 4 णो पाएज्जा जो णिमंतेज्जा णो कुज्जा वेयावड़ियं परं आढायमाणे ति बेमि / / 208. धम्ममायाणह पवेदितं माहगंण मतिमत्ता- समणुप्णे समणुष्णरस असणं' या 4 वत्थं वा 4 पाएज्जा णिमंतेजा कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे ति बेमि / ॥बोओ उद्देसओ सम्मत्तो।। 207. वह समनोज्ञ मुनि असमनोज्ञ साधु को प्रशन-पान आदि तथा वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ अत्यन्त प्रादरपूर्वक न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे और न ही उनका वैयावृत्य करे / —ऐसा मैं कहता हूँ। 208. मतिमान् (केवलज्ञानी) महामाहन श्री वर्द्धमान स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म (प्राचारधर्म) को भली-भांति समझ लो---कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन प्रादि दे, उन्हें देने के लिए मनुहार करे, उनका वैयावृत्य करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--कहाँ निषेध, कहाँ विधान ? ---सूत्र 206 तक अकल्पनीय आहारादि लेने का निषेध किया गया है / 207 सूत्र में असमनोज्ञ को समनोज्ञ साधु द्वारा आहारादि देने, उनके लिए निमन्त्रित करने और उनकी सेवा करने का निषेध किया है, जबकि 208 में समनोज्ञ साधुओं को समनोज्ञ साधु द्वारा उपयुक्त वस्तुएँ देने का विधान है।" // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तईओ उद्देसओ - तृतीय उद्देशक गृहवास-विमोक्ष 209. मजिामेणं वयसा वि एगे संबुज्यमाणा समुट्ठित्ता सोच्चा वयं मेधावी पडियाण णिसामिया / समियाए धम्मे आरिएहि पवेदिते। 1. आचा० टीका पत्रांक 271, (ख) प्राचा० चूणि, मूल पाठ के टिप्पण / 2.-3. यहाँ दोनों जगह शेष पाठ 199 सूत्रानुसार पढ़ें। 4.-5. यहाँ दोनों जगह शेष पाठ 199 सूत्रानुसार पढें। 6. आचा: शीला टोका० पत्रोंक 273 / 7. 'मेरा धावति मेहावी, मेहावीणं वयणं महाविश्यमं, वा मेहादी सोच्चा तित्थगरवयणं ...... पंडिएहिं गणहरेहिं ता सुत्तीकयं सोचा 'णिसम्म हियए करित्ता'-णिकारकृत इस व्याख्या का अर्थ है जो मर्यादा में चलता है वह मेधावी है, मेधावियों के वचन मेधाविवचन अथवा मेधावी तीर्थ र वचन . सुनकर तथा पण्डितों-गणधरों द्वारा सूत्ररूप में निबद्ध वचन सुनकर तथा हृदयंगम करके / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 नाचारांग सूत्र-प्रपम श्रुतस्कन्ध ते अणवखमाणा, अणतिवातमाणा, अपरिग्गहमाणा, जो परिग्गहावंति सम्वावंति च गं लोगंसि, णिहाय दंड पाणेहिं पावं कम्मं अकुब्वमाणे एस महं मगंथे वियाहिते। भोए जुइमस्स खेतण्णे उववायं चयणं च पच्चा। 209. कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं। . तीर्थकर तथा श्रुतज्ञानी अादि पण्डितों के (हिताहित-विवेक-प्रेरित) वचन सुनकर, (हृदय में धारण करके) मेधावी (मर्यादा में स्थित) साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) पार्यों (तीर्थकरों) ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से (माध्यस्थ्य भाव से श्रुत चारित्र रूप) धर्म कहा है। .. वे काम भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों के प्राणों का प्रतिपात और परिग्रह न रखते हुए. (निर्ग्रन्थ मुनि) समग्र लोक में अपरिग्रहवान् होते हैं / __ जो प्राणियों के लिए (परितापकर) दण्ड का त्याग करके (हिंसादि) पाप कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ (ग्रन्यविमुक्त निर्ग्रन्थ) कहा गया है। प्रोज (अद्वितीय) अर्थात राग-द्वष रहित द्य तिमान् (संयम या मोक्ष) का क्षेत्रज्ञ (ज्ञाता), उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) को जानकर (शरीर की क्षण-भंगुरता का चिन्तन करे। विवेचन-मुनि-दीक्षा ग्रहण की उत्तम अवस्था मनुष्य की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं:-बाल्य, युवा और वृद्धत्व / यों तो प्रथम और अन्तिम अवस्था में भी दीक्षा ली जा सकती है, परन्तु मध्यम अवस्था मुनि-दीक्षा के लिए सर्वसामान्य मानी जाती है, क्योंकि इस वय में बुद्धि परिपक्व हो जाती है, भुक्तभोगी मनुष्य का भोग सम्बन्धी प्राकर्षण कम हो जाता है, अतः उसका वैराग्य-रंग पक्का हो जाता है। साथ ही वह स्वस्थ एवं सशक्त होने के कारण परीषहों और उपसर्गों का सहन, संयम के कष्ट, तपस्या की कठोरता प्रादि धर्मों का पालन भी सुखपूर्वक कर सकता है / उसका शास्त्रीय ज्ञान भी अनुभव से समृद्ध हो जाता है / इसलिए मुनि-धर्म के आचरण के लिए मध्यम अवस्था प्रायः प्रमुख मानी जाने से प्रस्तुत सूत्र में उसका उल्लेख किया गया है। गणधर भी प्रायः मध्यमवय में दीक्षित होते थे। भगवान महावीर भी प्रथमवय को पार करके दीक्षित हुए थे। बाल्यावस्था एवं वृद्धावस्था मुनिधर्म के निर्विघ्न आचरण के लिए इतनी उपयुक्त नहीं होती।' - संबुन्नमाणा---सम्बोधि प्राप्त करना मुनि-दीक्षा के पूर्व अनिवार्य है। सम्बोधि पाए बिना मुनिधर्म में दीक्षित होना खतरे से खाली नहीं है। साधक को तीन प्रकार से सम्बोधि प्राप्त होती है-स्वयंसम्बुद्ध हो, प्रत्येक बुद्ध हो अथवा बुद्ध-बोधित हो / प्रस्तुत सूत्र में बुद्ध-बुद्धबोधित (किसी प्रबुद्ध से बोध पाये हुए) साधक की अपेक्षा से कथन है / सोचावयं मेधावी पंडियाण निसामिया-इस पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने कुछ भिन्न किया 1., प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 274 / . 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 274 / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 209-210 257 है-पंडितों-गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में निबद्ध मेधावियों तीर्थंकरों के; वचन सुनकर तथा हृदयं में धारण करके / मध्यमवय में प्रव्रजजित होते हैं।' .. ते अणवकखमाणा' का तात्पर्य है -- "वे जो गृहवास से मुनिधर्म में दीक्षित हुए हैं और मोक्ष की ओर जिन्होंने प्रस्थान किया है, काम भोगों की आकांक्षा नहीं रखते।" ___ अणतिवातेमाणा अपरिहमाणा- ये दो शब्द प्राणातिपात-विरमण तथा परिग्रह-विरमण महावत के द्योतक हैं / आदि और अन्त के महाव्रत का ग्रहण करने से मध्य के मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण और मैथुन-विरमण महाव्रतों का ग्रहण हो जाता है। ऐसे महाव्रती अपने शरीर के प्रति भो ममत्वरहित होते हैं। इन्हें ही तीर्थकर गणधर आदि द्वारा महानिर्ग्रन्थ कहा गया है। अगंथे- जो बाह्य और प्राभ्यन्तर ग्रन्थों से विमुक्त हो गया है, वह अग्रन्थ है / अग्रन्थ या निर्ग्रन्थ का एक ही प्राशय है। उपवायं-चयन- उपपात (जन्म) और च्यवन(मरण) ये दोनों शब्द सामान्यतः देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते हैं / इससे यह तात्पर्य हो सकता है कि दिव्य शरीरधारी देवताओं का शरीर भी जन्म-मरण के कारण नाशमान है, तो फिर मनुष्यों के रक्त, मांस, मज्जा अादि अशुचि पदथों से बने शरीर की क्या विसात है ? इसी दृष्टि से चिन्तन करने पर इन पदों से शरीर की क्षण-भंगुरता का निदर्शन भी किया गया है कि 'शरीर' जन्म और मृत्यु के चक्र के बीच चल रहा है, यह क्षणभंगुर है, यह चिन्तन कर पाहार आदि के प्रति अनासक्ति रखे / ' अकारण-आहार-विमोक 210 आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा। पासहेगे सम्विविएहि परिगिलायमाहि / ओए क्यं दयति जे संणिधाणसत्थस्स खेत्तण्णे, से भिक्खू कालण्णे बालपणे मातण्णे खणvणे विणयपणे समयण्णे परिग्गह अममायमाणे कावेणट्ठाले अपडिण्णे दुहतो छत्ता णियाति / 210. शरीर पाहार से उपचित (संपुष्ट) होते हैं, परोषहों के आघात से भग्न हो जाते हैंकिन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कई एक साधक क्षधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों (की शक्ति) से ग्लान (क्षीण) हो जाते हैं / राग-द्वेष से रहित भिक्षु (क्षुधा-पिपासा प्रादि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी) दया का पालन करता है। जो भिक्षु सन्निधान--(आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है; ( वह हिंसादि दोषयुक्त आहार का ग्रहण नहीं करता ) / वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ (अवसरज्ञाता), विनयज्ञ (भिक्षाचरी) के प्राचार का 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 274 / 2. आचारांग चूणि-मूलपाठ टिप्पण पृ. 47 / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध मर्मज्ञ), समयज्ञ (सिद्धान्त का ज्ञाता) होता है। वह परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान (कार्य) करने वाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रह-युक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वष के बन्धनों को दोनों ओर से छेदन करके निश्चिन्त होकर नियमित रूप से संयमी जीवन यापन करता है। .. विवेचन--सविविएहि परिगिलायमाहि-इस सूत्र में प्राहार करने का कारण स्पष्ट कर दिया गया है कि आहार करने से शरीर पुष्ट होता है, किन्तु शरीर को पुष्ट और सशक्त रखने के उद्देश्य हैं-संयमपालन करना और परीषहादि सहन करना / किन्तु जो कायर, क्लीब और भोगाकांक्षी होते हैं, शरीर से सम्पुष्ट और सशक्त होते हुए भी जो मन के दुर्बल होते हैं, उनके शरीर परीषहों के आ पड़ते ही वृक्ष की डाली की तरह कट कर टूट पड़ते हैं। सारा देह टूट जाता है, परीषहों के थपेड़ों से इतना ही नहीं, उनकी सभी इन्द्रियाँ मुआ जाती हैं / जैसे क्षुधा से पीड़ित होने पर आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है, कानों से सुनना और नाक से सूंघना भी कम हो जाता है। तात्पर्य यह है कि पाहार केवल शरीर को पुष्ट करने के लिए ही नहीं, अपितु कर्ममुक्ति के लिए है, अतएव शास्त्रोक्त 6 कारण से इसे आहार देना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में एक निष्कर्ष स्पष्टत: प्रतिफलित होता है कि साधक को कारणवश पाहार ग्रहण करना चाहिए और अकारण आहार से विमुक्त भी हो जाना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में साधु को 6 कारणों से आहार करने का विधान है छगई. अन्नयराए कारणम्मि समुट्ठिए / यण-वेयावच्चे इरियवाए. संजमाए। तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिन्ताए / -~-~-साधु को इन छ: कारणों में से किसी कारण के समुपस्थित होने पर आहार करना चाहिए (1) क्षुधावेदनीय को शान्त करने के लिए / (2) साधुओं की सेवा करने के लिए। (3) ईर्यासमिति-पालन के लिए। (4) संयम-पालन के लिए। ."- (5) प्राणों की रक्षा के लिए। और (6) स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि करने के लिए।' / इन कारणों के सिवाय केवल बल-वीर्यादि बढ़ाने के लिए आहार करना अकारण-दोष है / उत्तराध्ययन सूत्र में 6 कारणों में से किसी एक के समुपस्थित होने पर आहार-त्याग का भी विधान है 1. आचा० शीला० पत्रांक 274 / 2. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अ० 26 गा० 34-33 (ख) धर्मसंग्रह अधि० 3 श्लो०-३ टीका (ग) पिण्डनियुक्ति प्रासषणाधिकार मा० 635 / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आटम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 210 आयके उवसम्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु / पाणिवया तवहे सरीरंवोच्छेयणट्ठाए / - (1) रोगादि आतंक होने पर, (2) उपसर्ग आने पर, परीषहादि की तितिक्षा के लिए, (3) ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, (4) प्राणिदया के लिए, (5) तप के लिए तथा (6) शरीर-त्याग के लिए प्राहार-त्याग करना चाहिए।' इसीलिए 'ओए बयं स्यति' इस वाक्य द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है कि क्षुधा-पिपासादि परीषहों से प्रताड़ित होने पर भी राग-द्वेष रहित साधु प्राणिदया का पालन करता है, वह दोषयुक्त या प्रकारण आहार ग्रहण नहीं करता। _ 'संणिधाणसस्पस्स खेतन्गे'--इस सूत्र पंक्ति में 'सन्निधानशस्त्र' शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं (1) जो नारकादि गतियों को अच्छी तरह धारण करा देता है, वह सन्निधान-कर्म है / उसके स्वरूप का निरूपक शास्त्र सन्निधानशास्त्र है, अथवा / (2) सन्निधान यानी कर्म, उसका शस्त्र (विघातक) है--संयम, अर्थात् सन्निधान-शस्त्र का मतलब हुआ कर्म का विघातक संयमरूपी शस्त्र / उस सन्निधानशास्त्र या सन्निधानशस्त्र का खेदज्ञ अर्थात् उसमें निपुण; यही अर्थ चूर्णिकार ने भी किया है। परन्तु सन्निधान का अर्थ यहाँ "आहार योग्य पदार्थों की सन्निधि यानी संचय या संग्रह' अधिक उपयुक्त लगता है। लोकविजय के पांचवें उद्देशक में इसके सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। उसके सन्दर्भ में सन्निधान का यही अर्थ संगत लगता है। अकारण-पाहार-विमोक्ष के प्रकरण में आहार योग्य पदार्थों का संग्रह करने के सम्बन्ध में कहना प्रासंगिक भी है। अतः इसका स्पष्ट अर्थ हुमा-भिक्षु आहारादि के संग्रहरूपशस्त्र (अनिष्टकारक बल) का क्षेत्रज्ञअन्तरंग मर्म का ज्ञाता होता है। भिक्षु भिक्षाजीवी होता है। आहारादि का संग्रह करना उसकी भिक्षाजीविता पर कलंक है। कालज्ञ आदि सभी विशेषण भिक्षाजीवी तथा अकारण आहार-विमोक्ष के साधक की योग्यता प्रदर्शित करने के लिए हैं। लोकविजय अध्ययन के पंचम उद्देशक (सूत्र 88) में भी इसी प्रकार का सूत्र है, और वहाँ कालज्ञ आदि शब्दों की व्याख्या भी की है। यह सूत्र भिक्षाजीवी साधु की विशेषताओं का निरूपण करता है। ___णियाति'--का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है- 'जो संयमानुष्ठान में निश्चय से प्रयाण करता है / इसका तात्पर्य है-संयम में निश्चिन्त होकर जीवन-यापन करता है। 1. उत्तराध्ययन अ०.२६ गा० 35 / 2. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 275 / 3. (क) प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 275 / (ख) मायारो (मुनि नथमल जी) के आधार पर पृ० 93, 313 / / (ग) दशवकालिक सूत्र में प्र० 3 में 'सग्निहीं' नामक अनाचीर्ण बताया गया है तथा 'सन्निहि चम कुग्वेज्जा, अण मायं पि संजए'-(०८, गा० 28) में सन्निधि-संग्रह का निषेध किया है। 4. देखें सूत्र 88 का विवेचन पृष्ठ 61 / 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 275 / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. भावारांग सूत्र-प्रथम श्रुतकन्ध अग्नि-सेवन-विमोक्ष 211. तं भिक्खु सीतफासपरिवेवमाणगातं उबसंकमित्तु गाहावती या—आउसंतो समणा! णो खलु ते गामधम्मा उब्बाहंति ? आउसंतो' गाहावती ! णो खलु मम गामधम्मा उब्बाहंति / सीतफासं णो खलु अहं संचाएमि अहियासेत्तए / णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए वा कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अणेसि वा वयणाओ। 212. सिया एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्जा धा पयावेज्जा वा / तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए ति बेमि। - // तइओ उद्देसओ समत्तो॥ 211. शीत-स्पर्श से कांपते हुए शरीरवाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे-आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय-विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्पित हो रहा है)। .. ('तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते ?' इस प्रकार गृहपति के द्वारा कहे जाने . पर मुनि कहता है.--) अग्निकाय को उज्ज्वलित करना, . प्रज्वलित करना, उससे शरीर .. को थोड़ा-सा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित करवाना अकल्प-.. नीय है। 212. (कदाचित् वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को उज्ज्वलित-. प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या विशेष रूप से तपाए। 1. चूणि में इस प्रकार का पाठान्तर हैवेति--'हे आउस अप्पं खलु मम गामधम्मा उम्बाहंति"--- इसका अर्थ किया गया है- "अप्पंति प्रभावे भवति थोवे य. एत्य प्रभावे ।'-अर्थात् मुनि कहता हैहे ग्रायुष्मन् ! निश्चय ही मुझे ग्रामधर्म बाधित नहीं करता।' 'अप्प' शब्द अभाव अर्थ में और थोड अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है। 2. यहाँ भी चूणि में पाठान्तर है-“सोयफातं च हं जो सहामि अहियासित्तए-अर्थात्- मैं शीतस्पर्श को सहन नहीं कर सकता। 3. "सिया एवं' का अर्थ चुणिकार ने किया हैं--सिया-- कयायि, एवमवधारणे' सिया का अर्थ कदाचित् ___ तथा एवं यहाँ अवधारण--निश्चय अर्थ में है। 4. चूणि के अनुसार यहाँ पाठान्तर इस प्रकार है-"से एवं वयंतस्स परो पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कोतं पामिच्च अच्छिज्ज अणिसट्ठ अगणिकायं उज्जालित्ता पज्जालित्ता वा तस्स आतावेति वा पतावेति वा / तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आगवेज्जा अगासेवणाए ति बेमि / ' कदाचित् इस प्रकार कहते हुए (सुनकर) कोई पर (गृहस्थ) प्राण, भूत जीप और सत्त्वों का उपमर्दन रूप प्रारम्भ करके उस भिक्षु के उद्देश्य से खरीदी हुई, उधार ली हुई, छीनी हुई, दूसरे की चीज को उसकी अनुमति के बिना ली हुई वस्तु को अग्निकाय जलाकर, विशेष प्रज्वलित करके, उस भिक्षु के शरीर को थोड़ा या अधिक तपाए, तब वह भिक्षु उसे देखकर, आयम से उसके दोष जानकर उक्त गृहस्थ को बतादे कि मेरे लिए इसे सेवन करना उचित नहीं है / ऐसा मैं कहता हूं। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : चतुर्थ उद्देसक : सूत्र 211-214 ... उस अवसर पर अग्निकाय के प्रारम्भ को भिक्ष अपनी बुद्धि से विचारकर / आगम के द्वारा भलीभाँति जानकर उस गृहस्थ से कहे कि अग्नि का सेवन मेंरे लिए असेवनीय है, (अतः मैं इसका सेवन नहीं कर सकता)।--ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-ग्रामधर्म का आशंका और समाधान-सूत्र 211 में किसी भावुक गृहस्थ की आशंका और समाधान का प्रतिपादन है / कोई भिक्षाजोवी युवक साधु भिक्षाटन कर रहा है, उस समय शरीर पर पूरे वस्त्र न होने के कारण शोत से थर-थर कांपते देख, उसके निकट आकर ऐश्वर्य को गर्मों से युक्त, तरुण नारियों से परिवृत, शीत-स्पर्श का अनुभवी, सुगन्धित पदार्थों से शरीर को सुगन्धित बनाए हुए कोई भावुक गृहस्थ पूछने लगे कि 'आप कांपते क्यों हैं ? क्या आपको ग्राम-धर्म उत्पीड़ित कर रहा है ?' इस प्रकार की शंका प्रस्तुत किए जाने पर साधु उसका अभिप्राय जान लेता है कि इस गृहपति को अपनो गलत समझ के कारण-कामिनियों के अवलोकन की मिथ्या शंका पैदा हो गयी है। अत: मुझे इस शंका का निवारण करना चाहिए / इस अभिप्राय से साधु उसका समाधान करता है-- सीतफास गो खलु "अहिवासेत्तएँ" मैं सर्दी नहीं सहन कर पा रहा हूँ। अपनी कल्पमर्यादा का ज्ञाता साधु अग्निकाय-सेवन को अनाचरणीय बताता है। इस पर कोई भावुक भक्त अग्नि जलाकर साधु के शरीर को उससे तपाने लगे तो साधु उससे साभाषपूर्वक स्पष्टतया अग्नि के सेवन का निषेध कर दे। // तृतीय उद्देशक समाप्त / / चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक उपधि-विमोक्ष 23. जे भिक्खू तिहि वत्थेहि परिसिते पायचउत्थेहि तस्स ण णो एवं भवति–चउत्थं वत्थं जाइस्सामि / 214. से अहेसणिज्जाई वस्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, हो रएज्जा, णो धोतरसाइं वत्थाई पारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु, ओमवेलिए। एतं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं / अह पुष एवं जाज्जा 'उवात्तिक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवणे', महापरिजुण्णाई 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 275-273 / 2. 'वत्थं धारिस्सामि' पाठान्तर चूणि में है। अर्थ है-~-वस्त्र धारण करूंगा। 3. इसके बदले अहापगहिमाई पाठ है, अर्थ है-यथाप्रगृहीत---जैसा गृहस्थ से लिया है। 4. इसका अर्थ चूणि हे इस प्रकार है- "यो धोएज्ज रएज्ज ति वसाय धातुकद्दमादीहि, धोतरत्तं णाम जं धोवितु पुणोरयति / " ----प्रासुक जल से भी न धोए, न काषायिक धात, कर्दम आदि के रंग के रंगे, न ही धोए हुए वस्त्र को पुनः रंगे।" Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्छ वस्थाई परिट्ठवैज्जा, अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिवेत्ता अदुआ संतरसरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले। लापवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भगति / जहेतं भगमता फोदितं तमेन अभिसमेच्या सग्यतो सत्ताए सम्माभैग' समभिजाणिया / ' 213. जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा (एक) पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसके मन मैं ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि "मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा।" 214. वह यथा-एषीय (अपनी समाचारी मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय) वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत (जैसे भी वस्त्र मिले हैं या लिए हैं, उन) वस्त्रों को धारण करे। वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे / दूसरे ग्रामों में जाते समय वह उन वस्त्रों को बिना छिपाए हुए चले। वह (अभिग्रहधारी) मुनि (परिणाम और मूल्य की दृष्टि से) स्वल्प और अतिसाधारण वस्त्र रखे / वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री (धर्मोपकरणसमूह) है। जब भिक्ष यह जान ले कि 'हेमन्त ऋतु' बीत गयी है, 'ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जिन-जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजी वस्त्रों का परित्याग करके या तो (उस क्षेत्र में शीत अधिक पड़ता हो तो) एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक (एक हो चादर-पछेड़ी वस्त्र) वाला होकर रहे / अथवा वह (रजोहरण और मुखवस्त्रिका के सिवाय सब वस्त्रों को छोड़कर) अचेलक निर्वस्त्र) हो जाएँ। (इस प्रकार) लाघवता (अल्प उपधि) को लाता या उसका चिन्तन करता हुअा वह (मुनि वस्त्र-परित्याग करे) उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में हो) तप (उपकरण-ऊनोदरी और कायक्लेश) सध जाता है। भगवान ने जिस प्रकार से इस (उपधि-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई-पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) उसमें निहित) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे। विवेचन--विमोक्ष (मुक्ति) की साधना में लीन श्रमण को संयम-रक्षा के लिए वस्त्रपात्र आदि उपधि भी रखनी पड़ती है। शास्त्र में उसकी अनुमति है। किन्तु अनुमति के साथ यह भी विवेक-निर्देश किया है कि वह अपनी आवश्यकता को कम करता जाय और उपधिसंयम बढ़ाता रहे, उपधि की अल्पता 'लाधव-धर्म' की साधना है। इस दिशा में भिक्षु स्वतः ही विविध प्रकार के संकल्प व प्रतिज्ञा लेकर उपधि आदि की कमी करता रहता है। प्रस्तुत 1. किसी प्रति में 'समत्त' शब्द है। उसका अर्थ होता है-समत्व / 2. किसी प्रति में 'समभिजागिया' के बदले 'समभिजाणिज्जा' शब्द मिलता है, उसका अर्थ है-सम्यक * रूप से जाने और आचरण करें। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खष्टम अध्ययन : चतुर्थे उद्देशक : सूत्र 213-124 सूत्र में इसी विषय पर प्रकाश डाला है। वृत्ति-संयम के साथ पदार्थ-त्याग का भी निर्देश किया है। प्रस्तुत दोनों सूत्र वस्त्र-पात्रदि रूप बाह्य उपधि और राग, द्वेष, मोह एवं प्रासक्ति आदि ग्राभ्यन्तर उपधि से विमोक्ष की साधना की दृष्टि से प्रतिमधारी या (जिनकल्पिक) श्रमण के विषय में प्रतिपादित हैं ; जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र (पात्रनियर्वेगयुक्त), इतनी उपधि रखने की अर्थात इस उपधि के सिवाय अन्य उपधि न रखने की प्रतिज्ञा लेता है, वह 'कल्पत्रय प्रतिमा-प्रतिपन्न' कहलाता है। उसका कल्पत्रय प्रौष-औपधिक होता है, प्रोपग्राहिक नहीं / शिशिर आदि शीत ऋतु में दो सूती (क्षौमिक) वस्त्र तथा तीसरा ऊन का वस्त्रयों कल्पत्रय स्वीकार करता है। जिस मुनि ने ऐसी कल्पत्रय की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि शीतादि का परीषह उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करे। यदि उसके पास अपनी ग्रहण की हुयी प्रतिज्ञा (कल्प) से कम वस्त्र हैं, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है। पात्र-निर्योग-टीकाकार ने पात्र के सन्दर्भ में सात प्रकार के पात्र-निर्योग का उल्लेख किया है और पात्र ग्रहण करने के साथ-साथ पात्र से सम्बन्धित सामान भी उसी के अन्तर्गत माना गया है / जैसे 1, पात्र 2. पात्रबन्धन, 3. पात्र-स्थापन, 4. पात्र-केसरी (प्रमार्जनिक) 5. पटल, 6. रजस्त्राण अौर 7. पात्र साफ करने का वस्त्र-गोच्छक, ये सातों मिलकर पात्रनिर्योग कहलाते हैं। ये सात उपकरण तथा तीन पात्र तथा रजोहरण और मखवस्त्रिका, यों 12 उपकरण जिनकल्प की भूमिका पर स्थित एवं प्रतिमाधारक मुनि के होते हैं। यह उपधिविमोक्ष की एक साधना है।' उपधि-विमोक्ष का उद्देश्य-इसका उद्देश्य यह है कि साधु आवश्यक उपधि से अतिरिक्त उपधि का संग्रह करेगा तो उसके मन में ममत्वभाव जगेगा, उसका अधिकांश समय उसे संभालने, धोने, सीने प्रादि में ही लग जाएगा, स्वाध्याय, ध्यान ग्रादि के लिए नहीं बचेगा।' पथाप्राप्त वस्त्रधारग-इस प्रकार के उपधि-विमोक्ष की प्रतिज्ञा के साथ शास्त्रकार एक अनाग्रहवृत्ति का भी सूचन करते हैं। वह है जैसे भी जिस रूप में एषणीय-कल्पनीय वस्त्र मिलें, उसे वह उसी रूप में धारण करे, वस्त्र के प्रति किसी विशेष प्रकार का आग्रह संकल्पविकल्प पूर्ण बुद्धि न रखे। वह उन्हें न तो फाड़कर छोटा करे, न उनमें टुकड़ा जोड़कर बड़ा करे, न उसे धोए और न रंगे। यह विधान भी जिनकल्पी विशिष्ट प्रतिमासम्पन्न मुनि के लिए है। वह भी इसलिए कि वह साधु वस्त्रों को संस्कारित एवं बढिया करने में लग जाएमा तो उसमें मोह जागत होगा, और विमोक्ष साधना में मोह से उसे सर्वथा मुक्त होना है। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए कुछ कारणों से वस्त्र धोने का विधान है, किन्तु वह भी विभूषा एवं 1. प्राचा० शीलाटीका पत्रोक 277 / पत्त पत्ता पायठवणं च पायकेसरिआ। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छो पायणिज्जोगो / / 2. पाचारांग (मा० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका) पृ० 578 / Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्छ सौन्दर्य की दृष्टि से नहीं। शृगार और साज-सज्जा की भावना से वस्त्र ग्रहण करने, पहनने धोने आदि की प्राज्ञा किसी भी प्रकार के साधक को नहीं है; और रंगने का तो सर्वथा निषेध है ही। .... ओमचेले-'अवम' का अर्थ अल्प या साधारण होता है। 'अवम' शब्द यहाँ संख्या, परिमाण (नाप) और मूल्य-तीनों दृष्टियों से प्रत्यता या साधारणता का द्योतक है / संख्या में अल्पता का तो मूलपाठ में उल्लेख है ही, नाप और मूल्य में भी अल्पता या न्यूनता का ध्यान रखना आवश्यक हैं। कम से कम मूल्य के, साधारण से और थोड़े से वस्त्र से निर्वाह करने वाला भिक्षु 'अवमलक' कहलाता है। 'महापरिनुष्णाई वत्थाई परिट्ठज्जा यह सूत्र प्रतिमाधारी उपधि-विमोक्ष साधक की उपधि विमोक्ष की साधना का अभ्यास करने की दृष्टि से इंगित है। वह अपने शरीर को जितना कस सके कसे, जितना कम से कम वस्त्र से रह सकता है, रहने का अभ्यास करे / इसीलिए कहा गया है कि ज्यों ही ग्रीष्म ऋतु या जाए, साधक तीन वस्त्रों में से एक वस्त्र, जो अत्यन्त जीर्ण हो, उसका विसर्जन कर दे। रहे दो वस्त्र, उनमें से भी कर सकता हो तो एक वस्त्र कम कर दे, सिर्फ एक वस्त्र में रहे, और यदि इससे भो आगे हिम्मत कर सके तो बिलकुल वस्त्ररहित हो जाए। इसके साधक को तपस्या का लाभ तो है ही, वस्त्र सम्बन्धी चिन्तामों से मुक्त होने, लघुभूत (हलके-फुलके) होने का महालाभ भी मिलेगा। शास्त्र में बताया गया है कि पांच कारणों से अचेलक प्रशस्त होता है। जैसे कि(१) उसकी प्रतिलेखना अल्प होती है। (2) उसका लाधव प्रशस्त होता है।। . (3) उसका रूप (देश) विश्वास योग्य होता है। (4) उसका तप जिनेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होता है। (5) उसे विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है / सम्मसमेव समभिजागिया-वृत्तिकार ने 'सम्मत्त" शब्द के दो अर्थ किये हैं-(१) सम्यक्त्व और समत्व / जहाँ 'सम्यक्त्व' अर्थ होगा, वहाँ इस वाक्य का अर्थ होगा-भगवत्कथित इस उपधि-विमोक्ष के सम्यक्त्व (सत्यता या सचाई) को भली-भाँति जानकर आचरण में लाए। जहाँ 'समत्व' अर्थ मानने पर इस वाक्य का अर्थ होगा-भगवदुक्त उपधि-विमोक्ष को सब प्रकार से सर्वात्मना जानकर सचेलक-अचेलक दोनों अवस्थाओं में समभाव का आचरण करे / 1. (क) प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 277, ... (ख) पाचारांग (आत्मारामजी महाराज कृत टीका पृ० 578 पर से। बा. शीला दीका पत्रांक 277 // प्राचा० शीला टीका पत्रांक 277-278 / (ख) स्थानांग, स्था० 5, उ० 3 सू० 201 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 278 / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : उद्देशक : सूत्र 213-214 265 रीर-विमोक्ष : बहानसादिमरण 215. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'पुट्टो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सीतफासं अहियासेत्तए', से वसुमं सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अफरणयायाए आउट्टे / तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए / तत्थावि तस्स कालपरियाए। से वि तत्थ बियंतिकारए। इच्चेतं विमोहायतणं हियं सुहं खनं णिस्सेसं आणुगामियं वि बेमि / ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ . 215. जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं (शीतादि परीषहों या स्त्री आदि के उपसगों से) प्राक्रान्त हो गया है. और मैं इस अनकल (शीत) परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई-कोई संयम का धनी (वसुमान्) भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण (स्व-विवेक) से उस स्त्री आदि उपसर्ग के वश न होकर उसका सेवन न करने के लिए हट (-दूर हो) जाता है। उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, (जो एक ब्रह्मचर्यनिष्ठ संयमी भिक्षु को स्त्री आदि का उपसर्ग उपस्थित होने पर करना चाहिए) ऐसी स्थिति में उसे वैहानस (गले में फांसी लगाने की क्रिया, विषभक्षण, झपापात आदि से) मरण स्वीकार करना-श्रेयस्कर है / ऐसा करने में भी उसका वह (--मरण) काल-पर्याय-मरण (काल-मृत्यु) है। वह भिक्षु भी उस मृत्यु से अन्तक्रियाकर्ता (सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर्ता भी हो सकता है। इस प्रकार यह मरण प्राण-मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन (पाश्रय), हितकर, सुखकर, कालोपयुक्त या कर्मक्षय-समर्थ, निःश्रेयस्कर, परकोक में साथ चलने वाला होता है / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-आपवादिक-मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष-वैसे तो शरीर धर्म-पालन में अक्षम, असमर्थ एवं जीर्ण-शीर्ण, अशक्त हो जाए तो उस भिक्षु के द्वारा संल्लेखना द्वारा-समाधिमरण (भक्तपरिता, इंगितम रग एवं पादपोपगमन) स्वीकार करके शरीर-विमोक्ष करने का प्रोत्सगिक विधान है, किन्तु इसकी प्रक्रिया तो काफी लम्बी अवधि की है / कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए और उसके लिए तात्कालिक शरीर-विमोक्ष का निर्णय लेना हो तो वह क्या करे ? इस प्रापवादिक स्थिति के लिए शास्त्रकारों ने वैहानस जैसे मरण की सम्मति दी है, और उसे भगवद् प्राज्ञानुमत एवं कल्याणकर माना है। धर्म-संकटापन्न आपवादिक स्थिति-शास्त्रकार तो सिर्फ सूत्र रूप में उसका संकेत भर 1. 'खम' के बदले 'खेम' शब्द किसी प्रति में मिलता है / क्षेम का अर्थ कुशल रूप है / 2. 'निस्से के बदले निस्से सिम' पाठान्तर है-'निःश्रेयसकर्ता।' Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 आवारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कन्छ करते हैं, वृत्तिकार ने उस स्थिति का स्पष्टीकरण किया है-कोई भिक्षु गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए गया / वहाँ कोई काम-पीड़िता, पुत्राकांक्षिणो, पूर्वाश्रम (गृहस्थ-जीवन) की पत्नी या कोई व्यक्ति उसे एक कमरे में उक्त स्त्री के साथ बन्द कर दे या उसे वह स्त्री रतिदान के लिए बहुत अनुनय विनय करे वह स्त्री या उसके पारिवारिकजन उसे भावभक्ति से, प्रलोभन से, कामसुख के लिए विचलित करना चाहें, यहाँ तक कि उसे इसके लिए विवश कर दे; अथवा वह स्वयं ही वातादि जनित काम-पीड़ा या स्त्री आदि के उपसर्ग को सहन करने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में उस साधु के लिए झटपट निर्णय करना होता है, जरा-सा भी विलम्ब उसके लिए अहितकर या अनुचित हो सकता है। उस धर्मसंकटापन्न स्थिति में साधु उस स्त्री के समक्ष श्वास बन्द कर मृतकवत् हो जाए, अवसर पाकर गले से झूठ-मूठ फांसी लगाने का प्रयत्न करे, यदि इस पर उसका छुटकारा हो जाए तो ठीक, अन्यथा फिर वह गले में फांसी लगाकर, जीभ खींचकर मकान से कूदकर, झपापात करके या विष-भक्षण आदि करके किसी भी प्रकार से शरीर-त्याग कर दे, किन्तु स्त्री-सहवास आदि उपसर्ग या स्त्री-परिषह के वश न हो, किसी भी मूल्य पर मैथुन-सेवन प्रादि स्वीकार न करे / 22 परोषहों में स्त्री और सत्कार, ये दो शीत-परीषह हैं, शेष बीस परीषह उष्ण हैं।' —प्रस्तुत सूत्र में शीतस्पर्श, स्त्री-परीषह या काम-भोग अर्थ में ही अधिक संगत प्रतीत होता है / अतः यहाँ बताया गया है कि दीर्घकाल तक शीतस्पर्शादि सहन न कर सकने वाला भिक्षु सुदर्शन सेठ की तरह अपने प्राणों का परित्याग-कर दे। शास्त्रकार यही बात कहते हैं-'तवस्मिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए'-अर्थात् उस तपस्वी के लिए बहुत समय तक अनेक प्रकार के अन्यान्य उपाय अजमाए जाने पर भी उस स्त्री आदि के चंगुल से छूटना दुष्कर मालूम हो, तो उस तपस्वी के लिए यही एकमात्र श्रेयरकर है कि वह वैहानस आदि उपायों में से किसी एक को अपना कर प्राणत्याग कर दे। ___ तत्थावि तस्स कालपरियांए यहाँ शंका हो सकती है कि वैहानस आदि मरण तो बालमरण कहा गया हैं, वर्तमान युग की भाषा में इसे आत्म-हत्या कहा जाता है, वह तो साधक के लिए वहान् अहितकारी है, क्योंकि उससे तो अनन्तकाल तक नरक आदि गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है।" इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'तत्याधि ' ऐसे अवसर पर इस प्रकार वहानस या गद्धपृष्ठ आदि मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष करने पर भी वह काल-मृत्यु होती है। जैसे काल-पर्यायमरण गुणकारी होता है, वैसे ही ऐसे अवसर पर वैहानसादि मरण भी गुणकारी होता है। जैनधर्म अनेकान्तबादी है / यह सापेक्ष दृष्टि से किसी भी बात के गुणावगुण पर विचार करता है / बह्मचर्य साधना (मैथुन-त्याग) के सिवाय एकान्तरूप से किसी भी बात का विधि या निषेध नहीं है; अपितु जिस बात का निषेध किया जाता है, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से उसका रवीकार भी किया जा सकता है। कालज्ञ साधु के लिए उत्सर्ग भी कभी दोषकारक 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 279 / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 216-217 267 और अपवाद भी गुणकारक हो जाता है। इसलिए कहा--'से वि तत्थ वियंतिकारए-तात्पर्य यह है कि क्रमशः भक्त परिज्ञा अनशन आदि करने वाला ही नही, वैहानसादि मरण को अपनाने वाले भिक्षु के लिए वहानसादि मरण भी औत्सर्गिक बन जाता है / क्योंकि इस मरण के द्वारा भी भिक्षु पाराधक होकर सिद्ध-मुक्त हुए हैं, होंगे। यही कारण है कि शास्त्रकार इस प्रापवादिक मरण को भी प्रशंसनीय बताते हुए कहते हैं---'इच्चेतं विमोहायतणं"।" यह उसके विमोह (वैराग्य का) केन्द्र, आश्रय है। // तइओ उद्देसओ समत्तो॥ पंचमो उदेसओ पंचम उद्देशक द्विवस्त्रधारी श्रमण का समाचार 216. जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायततिहिं तस्स गं णो एवं भवति-ततियं वत्थं जाइस्सामि। 217. से अहेसणिज्आई वत्थाई जाएज्जा जाव' एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गिय / अह पुण एवं जाणेज्जा 'उवातिक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवणे', अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुष्णाई वत्थाई परिवेत्ता अदुवा एगसाडे, अदुआ अचेले लावियं आगममाणे / तवे से अभिसमण्णाणते भवति / जहेयं भगवता पवेदितं / तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्बयाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। 216. जो भिक्षु जो वस्त्र और तीसरे (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूं। 217. (अगर दो वस्त्रों से कम हो तो) वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों को याचना करे। इससे आगे वस्त्र-विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्व उद्देशक में"उस वस्त्रधारी भिक्षु की यही सामग्री है; तक वणित पाठ के अनुसार पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जैसे-जैसे वस्त्र जीर्ण हो गए हों, उनका परित्याग कर दे। (इस प्रकार) यथा परिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो वह एक शाटक (आच्छादन पटचादर) में रहे, या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। (इस प्रकार) वह लाघवता का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (क्रमशः वस्त्र-विमोक्ष प्राप्त करे)। (इस प्रकार वस्त्र-विमोक्ष या अल्पवस्त्र से) मुनि को (उपकरण-अवमौदर्य एवं कायक्लेश) तप सहज ही प्राप्त हो जाता है / 1. नियुक्ति गाथा गा. 242 2. यहाँ 'जाव' शब्द के अन्तर्गत समग्र पाठ 214 सूत्रानुसार समझे। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 आसारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध भगवान् ने इस (वस्त्रविमोक्ष के तत्व) को जिस रूप में प्रतिपादित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) समत्व को सम्यक प्रकार से जाने व क्रियान्वित करे। विवेचन-उपधि-विमोक्ष का द्वितीय कल्प-प्रस्तुत सूत्रों में उपधि-विमोक्ष के द्वितीय कल्प का विधान है। प्रथम कल्प का अधिकारी जिनकल्पिक के अतिरिक्त स्थविरकल्पी भिक्षु भी हो सकता था, किंतु इस द्वितीय कल्प का अधिकारी नियमत: जिनकल्पिक, परिहार विशुद्धिक, यथालन्दिक एवं प्रतिमा-प्रतिपन्न भिक्षुओं में से कोई एक हो सकता है।' यह भी उपधि-विमोक्ष की द्विकल्प साधना है। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भिक्षु के लिए यह भी उचित है कि वह अन्त तक अपनी कृत प्रतिज्ञा पर दृढ रहे, उससे विचलित न हो / द्विवस्त्र-कल्प में स्थित भिक्षु के लिए बताया गया है कि वह दो वस्त्रों में से एक वस्त्र सूती रखे, दूसरा ऊनी रखे / ऊनी वस्त्र का उपयोग अत्यन्त शीत ऋतु में ही करे / ग्लान-अवस्था में आहार-विमोक्ष 218. जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो अबलो अहमंसि, णालमहमंसि मिहंतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए 3 से सेवं वदंतस्स परो अभिहडं असणं वा 4 आहट्ट दलएज्जा, से पुत्वामेव आलोएज्जा--आउसंतो गाहावती ! णो खलु मे कप्पति अभिहडं असणं वा 4 भोत्तए वा पातए वा अण्णे वा एतप्पगारे। 218. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैं (वातादि रोगों से) ग्रस्त 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 280 / 2. चणि में पाठान्तर है-'पुछो मंसि अबलो अहमसि गिहतर भिक्खायरिआए गमणा' अर्थात् (एफ तो) मैं वातादि रोगों से आक्रान्त हूँ, (फिर) शरीर से इतना दुर्बल----अशक्त हूं कि भिक्षाचर्या के लिए घर-घर जा नहीं सकता। 3. किसी प्रति में ऐसा याठान्तर मिलता है—'तं भिख केइ गाहावती उसंकमित्त बया-आउसंतो समणा ! अहं णं तव अट्ठाय असणं वा 4 अभिहडं दलामि। से पुवामेव जामेजा आउसंतो गाहाधई ! जण तम मम अटठाए असण वा 4 अभिह चेतेसि, जो य खल मे मप्पड एयप्पगारं अरण वा 4 भोत्तए वा पायए वा, अन्ने वा तहप्पगारे' अर्थात्-कोई गृहरति उन भिक्षु के पास पाकर कहे--प्रायुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशनादि आहार सामने लाक देता। वह पहले ही जान ले, (और कहे--) श्रायुध्मान् गृहपति ! जो तुम मेरे लिए आहार प्रादि अाकर देना चाहते हो, ऐसे या अन्य दोष से युक्त अशनादि माहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / 4. चणि में इसके बदले पाठान्तर हैं---सिया से य वदंतस्स वि परो असणं वा 4 आहटु दलइज्जा इस प्रकार है---परो जे भणितं तं दुक्खं अकहेंतस्स परो...."अशुकम्पापरिणतोपाटु आगित्ता दलएज्जा-दद्यात् / अर्थात् ---कदाचित् ऐसा कहने पर दूसरा कोई (जो कहा हा, दुःख दूसरे को न कहने वाला अनुकम्मायुक्त गृहस्थ) अशनादि लाकर दे। 5. अभिहडं के अभिहृते या अभ्याहृतं दोनों रूप ससानार्थक हैं। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 218-219 होने से दुर्बल हो गया है। अत: मैं भिक्षाटन के लिए एक घर से दूसरे घर जाने में समर्थ नहीं हूँ। उसे इस प्रकार कहले हुए (सुनकर) कोई गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर देने लगे। (ऐसी स्थिति में) वह भिक्षु पहले ही गहराई से विचारे और कहे)-'आयुष्मान् गृहपति ! यह अभ्याहत-(घर से सामने लाया हुआ) अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य मेरे लिए सेवनीय नहीं है, इसो प्रकार दूसरे (दोषों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए ग्रहणीय नहीं है)। विवेचन-लान द्वारा अभिहत आहार-निषेध--सू० 218 में ग्लान भिक्षु को भिक्षाटन करने की असमर्थता की स्थिति में कोई भावक भक्त उपाश्रय में या रास्ते में लाकर आहारादि देने लगे, उस समय भिक्ष द्वारा किए जाने वाले निषेध का वर्णन है। पुठो अबलो अहमपि - का तात्पर्य है----वात, पित्त, कफ आदि रोगों से प्राक्रान्त हो जाने के कारण शरीर से मैं दुर्बल हो गया है। शरीर की दुर्वलता का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसलिए ऐसा असक्त भिक्षु सोचने लगता है—-मैं अब भिक्षा के लिए घर-घर घूमने में असमर्थ हो गया हूँ।' दुर्बल होने पर भी अनितदोष युक्त आहार-पानी न ले----इसी सूत्र के उत्तरार्ध का तात्पर्य यह है कि ऐसे भिक्ष को दूर्बल जान कर या सुनकर कोई भावुक हृदय गृहस्थादि अनुकम्पा और भक्ति से प्रेरित हाकर उसके लिए भोजन बनाकर उपाश्रयादि में लाकर देने लगे तो वह पहले सोच ले कि ऐसा सदोष प्रारम्भजनित आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। तत्पश्चात् वह उस भावुक गृहस्थ को अपने प्राचार-विचार समझाकर उस दोष से या अन्य किसी भी दोष से युक्त आहार को लेने या खाने-पीने से इन्कार कर दे / शंका समाधान--जो भिक्षु स्वयं भिक्षा के लिए जा नहीं सकता, गृहस्थादि द्वारा लाया हुआ ले नहीं सकता, ऐसी स्थिति में वह शरीर को आहार-पानी कैसे पहुँचाएगा? इस शंका का समाधान अगले सूत्र में किया गया है / मालूम होता है-ऐसा साधु प्रायः एकलविहारी होता है। यावृत्य-प्रकल्प 219. जस्स ण भिक्खुस्स अयं पगये. (1) अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिष्णतेहिं गिलाणो अगिलाणेहि अभिकंख साधम्मिएहि कौरमाण वेयावडियं सातिजिरसामि, (2) अहं चावि खलु अपडिष्णत्तो५ पडिष्णत्तरस अगिलाणो गिलाणरस अभिकख साधम्मियरस उजा वेयावडियं करणाए। 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 280 / 2. आचा. शीला टीका पत्रांक 20 / 3. 'कम्पे' पाठान्तर है, अर्थ चूर्णि में यों है-कप्पो समाचारीमज्जाता (समाचारी-मर्यादा का नाम 4. इसके बदने चूणि में पाटान्तर है---'साहम्मियवेशावडियं कोरमाणं सातिजित्सामि' अर्थात् -सार्मिक (साध) द्वारा की जाती हई सेवा का महग करूगा। 5. 'अपडिण्णत्तं शब्द का अर्थ चूणि में यों हैं--प्रपडिपणत्तो णाम णाहं साहमियवेयावच्चे केण यि अभ स्थेय वो इति अपरिणत्तो / अर्थत--प्रतिज्ञात उसे कहते हैं, जो किसी भी साधर्मिक से वैयावृत्त्य की अपेक्षा-अभ्यर्थना नहीं करता। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करला (3) आहटु परिणं आणखरसामि आहेडं च सातिजिरसामि (4) भाटु परिष्ण आणखेस्सामि आहडं च नो सातिज्जिस्सामि (5) भाट्ट परि नो आमबखेरसामि माहई व सातिजिस्सामि (6) माहटु परिष्णं गो मागवलेस्सामि आहडं ब गो सानिनिस्सामि / लापवियं' आगममाणे त से अभिसमण्यामते भवति / जहेतं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सम्वतो सम्वलाए सम्मतमेव समभिजामिया) एक से अहाकिट्टितमेव धम्मं समभिनागमागे संते विरते सुसमाहिती / बस्भावि सस कालपरियाए / से तत्थ वियंतिकारए। इच्छेतं विमोहायतमं हितं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं ति बैंमि / // पंचमो उसओ समतो। 219. जिस भिक्षु का यह प्रकल्प (आचार-मर्यादा) होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे सामिक साधु अम्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा (उद्देश्य) से सार्मिकों द्वारा की जानी वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूंगा / (1) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु म्लान है, मैं अम्लान हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है। अतः निर्जरा के उद्देश्य से तथा पर पर उपकार करने की दृष्टि से उस साधर्मी की मैं सेवा करूगा / जिस भिक्षु का ऐसा प्रकल्प हो, वह उसका पालन करता हुआ भले ही प्राण त्याग कर दे, (किन्तु प्रतिज्ञा भंग न करे)। (2) ___ कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान सामिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँमा / (3) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने म्लान सार्मिक भिक्षु के लिए माहारादि लाऊँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए अाहारादि का सेवन नहीं करूंगा। (4) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं सार्मिकों के लिए आहारादि महीं लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूंगा (5) (अथवा) कोई भिक्षु प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं सार्मिकों के लिए पाहारादि लाऊँगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूगा / (6) (यों उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञानों में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने के 6. इसका अर्थ चणि में यह है-पडिण्यत्तस्स अह तव इच्छाकारेण वेयावडियं करेमिजाव लायसि / ' अर्थात् --- मैं प्रतिज्ञा लिये हुए तुम्हारी सेवा तुम्हारी इच्छा होगी, तो करू गा, ग्लान मत हो। 7. 'अभिकख का अर्थ चूणि में इस प्रकार है-वेयायचगुणे अभिकखित्ता बेयावडियं करिस्सामि' __यावृत्य का गुण प्राप्त करने की इच्छा से वैयावृत्य करूंगा। 1. (क) 'लावियं आगममाणे' का अर्थ धूणि में यों है-"लापतित- लधुता / लापवितं दव्वे भावे य / तं . भागममाणे-इश्छमाणे"।' (ख) कोष्ठकान्तर्गत पाठ चणि व वृत्ति में हैं। अन्य प्रतियों में नहीं मिलता। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 अष्टम अध्ययन : चम उद्देशक : सूत्र 211 'बाद प्रत्यन्त ग्लान होने पर या संकट आने पर) भी प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्य कर दे। लाधव का सब तरह से चिन्तन करता हुआ (पाहारादि क्रमशः विमोक्ष करे। प्राहार-विमोक्ष साधक को अनायास ही तप का लाभ प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस रूप में इस अपहार-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (इसमें निहित) समत्व या सम्यक्त्व का सेवन करे। इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थंकरों द्वारा जिस रूप में धर्म प्ररूपित हुआ है, उसी रूप में सम्यकप से जानता और प्राचरण करता हुना, शान्त विरत और अपने अन्तःकरण की प्रशस्त कात्तियों (लेश्याओं) में अपनी प्रात्मा को सुसमाहित करने वाला होता है / (ग्लान भिक्षु भी ली हुई प्रतिज्ञा का भंग न करते हुए यदि भक्त-प्रत्याख्यान आदि के द्वारा शरीर-परित्याग करता है तो उसकी वह मृत्यु काल-मृत्यु है। समाधिमरण होने पर भिक्षु अन्तक्रिया (सम्पूर्ण कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (सब प्रकार का विमोक्ष) शरीरादि मोह से विमुक्त भिक्षुओं का आयतन-आश्रयरुप है, हितकर हैं, सुखकर हैं, सक्षम (क्षमारूप या कालोचित) है, निःश्रेयस्कर है, और परलोक में भी साथ चलने वाला हैं / - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-भिक्षु को ग्लानता के कारण और कर्तव्य-लान होने का अर्थ है-शरीर को अशक्त, दुर्बल, रोगाक्रान्त एवं जीर्ण-शीर्ण हो जाना / ग्लान होने के मुख्य कारण चूणिकार ने इस प्रकार बताए हैं (1) अपर्याप्त या अपोषक भोजन / (2) अपर्याप्त वस्त्र। (3) निर्वस्त्रता / (4) कई पहरों तक उकड़ आसन से बैठना / (5) उग्र एवं दीर्घ तपस्या / ' शरीर जब रुग्ण या अस्वस्थ (ग्लान हो जाए, हड्डियों को ढोचा मात्र रह जाएं, उठतेबैठते समय पीड़ा हो शरीर में रक्त और मांस अत्यन्त कम हो जाए, स्वयं कार्य करने की, धर्मक्रिया करने की शक्ति भी क्षीण हो जाए, तब उस भिक्ष को समाधिमरण की; संल्लेखनी की तैयारी प्रारम्भ कर देनी चाहिए / छह प्रकार की प्रतिज्ञाएं -इस सूत्र में परिहारविशुद्धिक यो यथालन्दिकभिक्षु द्वारा ग्रहण की जाने वाली छह प्रतिज्ञापों का निरूपण है। इन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रकल्प (पगप्पे) 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 281, (ख)पाचारांग चूर्णि। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्छ कहा है। प्रकल्प का अर्थ है-विशिष्ट आचार-मय दिानों का संकल्प या प्रतिज्ञा / यहाँ 6 प्रकल्पों का वर्णन है-- (1) मैं ग्लान हूँ, सार्मिक भिक्षु अग्लान हैं, स्वेच्छा से उन्होंने मुझे सेवा का बच र दिया है, अतः वे सेवा करेंगे तो मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा। (2) मेरा सार्मिक भिक्षु ग्लान है, मैं अग्लान हूँ, उसके द्वारा न कहने पर भी मैंने उसे सेवा का वचन दिया है, अत: निर्जरादि की दृष्टि से मैं उसकी सेवा करूंगा। (3) सार्मिकों के लिए पाहारादि लाऊँगा, और उनके द्वारा लाए हुए पाहारादि का सेवन भी करूंगा। (4) साधर्मिकों के लिए अाहारादि लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूंगा। (5) सार्मिकों के लिए प्राहा। दि नहीं लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाये हुए पाहारादि का सेवन करूगा / ' (6) मैं न तो सार्मिकों के लिए ग्राहारादि लाऊँगा और न उनके द्वारा लाये हुए पाहारादि का सेवन करूंगा। सहयोग भी अदोनभाव से-ऐसा रढ़प्रतिज्ञ साधक अपनी प्रतिज्ञानुसार यदि अपने साधमिक भिक्षुत्रों का सहयोग लेता भी है तो प्रदीनभाव से, उनकी स्वेच्छा से ही। न तो वह किसी पर दबाव डालता है, न दीनस्वर से गिड़गिड़ाता है। वह अस्वस्थ दशा में भी अपने साधर्मिकों को सेवा के लिए नहीं कहता। वह कर्मनिर्जरा समझ कर करने पर ही उसकी सेवा को स्वीकार करता है। स्वयं भी सेवा करता है, बशर्ते कि वैसी प्रतिज्ञा लो हो / ' प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे---इन छह प्रकार की प्रतिज्ञाओं में से परिहारविशुद्धिक या यथालन्दिक भिक्षु अपनी शक्ति, रुचि और योग्यता देखकर चाहे जिस प्रतिज्ञा को अंगीकार करे, चाहे वह उत्तरोत्तर क्रमशः सभी प्रतिज्ञाओं को स्वीकार करे, लेकिन वह जिस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करे, जीवन के अन्त तक उस पर दृढ़ रहे। चाहे उसका जंघाबल क्षीण हो जाए, वह स्वयं अशक्त, जीर्ण, रुग्ण या अत्यन्त ग्लान हो जाये, लेकिन स्वीकृत प्रतिज्ञा भंग न करे, उस पर अटल रहे। अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए मृत्यु भी निकट दिखाई देते लगे या मारणान्तिक उपसर्ग या कष्ट आये तो वह भिक्षु भत्त.-प्रत्याख्यान (या भक्तपरिज्ञा) नामक अनशन (सल्लेखनापूर्वक) करके समाधिमरण का सहर्ष प्रालिंगन करे किन्तु किसी भी दशा में प्रतिज्ञा न तोड़े 13 इन प्रकल्पों के स्वीकार करने से लाभ-साधक के जीवन में इन प्रकल्पों से प्रात्मबल 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 281 / (क) प्राचा० शीला० टीको पत्रांक 282 / (ख) प्राचारांग (प्रा० श्री आत्मारामजी महाराज कृत टीका) पृष्ठ 591 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 282 / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 220-221 273 बढ़ता है। स्वावलम्बन का अभ्यास बढ़ता है, आत्मविश्वास की मात्रा में वृद्धि होती है, बड़े से बड़े परीषह, उपसर्ग, संकट एवं कष्ट से हंसते-हंसते खेलने का आनन्द आता है। ये प्रतिज्ञाएँ भक्तपरिज्ञा अनशन की तैयारी के लिए बहुत ही उपयोगी और सहायक हैं। ऐसा साधक आगे चलकर मृत्यु का भी सहर्ष वरण कर लेता है। उसकी वह मृत्यु भी कायर की मृत्यु नहीं प्रतिज्ञा-वीर की सी मृत्यु होती है। वह भी धर्म-पालन के लिए होती है। इसीलिए शास्त्रकार इस मृत्यु को संलेखनाकर्ता के काल-पर्याय के समान मानते हैं। इतना ही नहीं, इस मृत्यु को वे कर्म या संसार का सर्वथा अन्त करने वाली, मुक्ति-प्राप्ति में साधक मानते हैं।' भक्त-परिमा-अनशन-भक्त-परिज्ञा-अनशन का दूसरा नाम 'भक्तप्रत्याख्यान' भी है। इसके द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने वाले भिक्षु के लिए शास्त्रों में विधि इस प्रकार बताई है कि वह जघन्य (कम से कम) 6 मास, मध्यम 4 वर्ष, उत्कृष्ट 12 वर्ष तक कषाय और शरीर की संलेखना एवं तप करे। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के आचरण से कर्म-निर्जरा करे और प्रात्म-विकास के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करे। // पंचम उद्देशक समाप्त // छट्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक एकवस्त्रधारी श्रमण का समाचार 220. जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवसिते पायबितिएण तस्स णो एवं भवति-बितिय बत्थं जाइस्सामि। 221. से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहितं वत्थं धारेज्जा जाव' गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुष्णं वत्थं परिवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिवेत्ता अदुवा एगसाडे अदवा अचेले लावियं५ आगममाणे जाव' सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 220. जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 282 / 2. (क) आचारांग (आ० श्री प्रात्मारामजी म. कृत टीका) पृष्ठ 592 / (ख) संलेखना के विषय में विस्तारपूर्वक जानने के इच्छुक देखें-'संलेखना : एक श्रष्ठ मृत्युकला' (लेखक : मालवकेशरी श्री सौभाग्यमल जी म०) प्रवर्तक पूज्य अम्बालालजी म. अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० 404 / 3. जाच शब्द के अन्तर्गत यहाँ 214 सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए। 4. किसी-किसी प्रति में इसके बदले पाठान्तर है-'अहापरिजुगणं वत्थं परिठ्ठवेत्ता अचेले' अर्थात यथा परिजीर्ण वस्त्र का परित्याग करके अचेल हो जाए। 5. 'लावियं' के बदले किसी-किसी प्रति में 'लाघव' शब्द मिलता है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द के अन्तर्गत 177 सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 . माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कर चुका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। 221. (यदि उसका वस्त्र अत्यन्त फट गया हो तो) वह यथा-एषणीय (अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय) वस्त्र को याचना करे। यहाँ से लेकर आगे 'ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तक का वर्णन [चतुर्थ उद्देशक के सूत्र 214 की तरह] समझ लेना चाहिए। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे। यथापरिजोर्ण वस्त्रों का परित्याग करके वह (या तो) एक शाटक (आच्छादन पट) में ही रहे. (अथवा) वह अचेल (वस्त्ररहित) हो जाए। वह लाघवता का सब तरह से विचार करता हुआ (वस्त्र का परित्याग करे)। वस्त्र-विमोक्ष करने वाले मुनि को सहज ही तप (उपकरण-अवमौदर्य एवं कायक्लेश) प्राप्त हो जाता है। __भगवान् ने जिस प्रकार से उस (वस्त्र-विमोक्ष) का निरूपण किया है, उसे उसो रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए। विवेचन--सूत्र 220 एव 221 में उपधि-विमोक्ष के तृतीयकल्प का निरूपण किया गया है। पिछले द्वितीय कल्प में दो वस्त्रों को रखने का विधान था, इसमें भिक्ष एक वस्त्र रखने की प्रतिज्ञा करता है। ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला मुनि सिर्फ एक वस्त्र में रहता है। शेष वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। उपधि-विमोक्ष के सन्दर्भ में वस्त्र-विमोक्ष का उत्तरोत्तर दृढ़तर अभ्यास करना ही इस प्रतिज्ञा का उद्देश्य है। प्रात्मा के पूर्ण विकास के लिए ऐसी प्रतिज्ञा सोपान रूप है। वस्त्रपात्रादि उपधि की आवश्यकता शीत आदि से शरीर की सुरक्षा के लिए है, अगर साधक शीतादि परीषहों को सहने में सक्षम हो जाता है तो उसे वस्त्रादि रखने की आवश्यकता नहीं रहती। उपधि जितनी कम होगी, उतना ही आत्मचिंतन बढ़ेगा, जीवन में लाघव भाव का अनुभव करेगा, तप की भी सहज ही उपलब्धि होगी। पर-सहाय-विमोन : एकत्व अनुप्रेक्षा के रूप में 222. जस्स गं भिवखुस्स एवं भवति–एगो अहमंसि, ण मे अस्थि कोइ, ण वाहमति कस्सइ / एवं से एगागिणमेव अप्पाणां समभिजाणेज्जा लाघवयं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेणं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सवतो सवताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 1. प्राचारांग (ग्रा० श्री अात्माराम जी म० कृत टीका) पृ० 594 / 2. इसके बदले ‘एगाजियमेव अप्पाणं' पाठ भी है। चूणिकार ने इसका अर्थ किया है- 'एमाणियं __ अब्बितियं एगमेव अपाण'- अद्वितीय अकेले ही आत्मा को ..." / Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 222 222. जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि 'मैं अकेला हूँ, मेरा * कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ', वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे। (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय-विमोक्ष करे) ऐसा करने से) उसे (एकत्व-अनप्रेक्षा का) तप सहज में प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने इसका (सहाय-विमोक्ष के सन्दर्भ में एकत्वानुप्रेक्षा के तत्त्व का) जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (इसमें निहित ) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को सम्यक् प्रकार से जानकर क्रियान्वित करे। विवेचन - पर सहाय विमोक्ष भी प्रात्मा के पूर्ण विकास एवं पूर्ण स्वातंत्र्य के लिए आवश्यक है। प्रात्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता भी तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह उपकरण, आहार, शरीर, संघ तथा सहायक आदि से भी निरपेक्ष होकर एकमात्र प्रात्मावलम्बी बनकर जीवन-यापन करे / समाधि-मरण की तैयारी के लिए सहायक-विमोक्ष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० 29) में इससे सम्बन्धित वणित अप्रतिबद्धता, संभोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान एवं सहाय-प्रत्याख्यान मादि आवश्यक विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मननीय हैं।' सहाय-विमोम से आध्यात्मिक लाम-उत्तराध्ययन सूत्र में सहाय-प्रत्याख्यान से लाभ बताते हुए कहा है-"सहाय-प्रत्याख्यान से जीवात्मा एकीभाव को प्राप्त करता है, एकीभाव से प्रोत-प्रोत साधक एकत्व भावना करता हुआ बहुत कम बोलता है, उसके झंझट बहत कम हो जाते हैं, कलह भी अल्प हो जाते हैं, कषाय भी कम हो जाते हैं, तू-तू, मैं-मैं भी समाप्तप्राय हो जाती है, उसके जीवन में संयम और संवर प्रचुर मात्रा में आ जाते हैं, वह आत्मसमाहित हो जाता है।" सहाय-विमोक्ष साधक की भी यही स्थिति होती है, जिसका शास्त्रकार ने निरूपण किया है--"एगे अहमंसि......"एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा।" इसका तात्पर्य यह है कि उस सहाय-विमोक्षक भिक्षु को यह अनुभव हो जाता है कि मैं अकेला हूँ, संसार-परिभ्रमण करते हुए मेरा पारमार्थिक उपकारकर्ता आत्मा के सिवाय कोई दूसरा नहीं हैं और न ही मैं किसी दूसरे का दुःख-निवारण करने में (निश्चयदृष्टि से) समर्थ हूँ, इसलिए मैं किसी अन्य का नहीं हैं। सभी प्राणी स्वकृत-कर्मों का फल भोगते हैं। इस प्रकार वह भिक्ष अन्तरात्मा को सम्यक प्रकार से एकाकी समझे / नरकादि दुःखों से रक्षा करने वाला शरणभूत आत्मा के 1. उत्तराध्ययन सूत्र अ० 29, बोल 30, 34, 35, 38, 39, 40 देखिये। 2. 'सहायपच्चखाणं जीवे एगीमाव जगयइ। एगीभावभूए य ग जोवे अप्पसद्दे, अप्पसंझे, अप्पकलहे, __ अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजमबहुले, संवरबहुले समाहिए यावि भवइ / ' --उत्तरा० अ० 29, बोल 39 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 . माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध सिवाय और कोई नहीं है / ऐसा समझकर रोगादि परीषहों के समय दूसरे की शरण से निरपेक्ष रहकर समभाव से सहन करे / ' स्वाद-परित्याग-प्रकल्प 223. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा 42 आहारेमाणे णो वामातो हणुयातो वाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणातो वा हणुयातो कामं हणुयं णो संचारेज्जा आसामाणे / से अणासादमाणे लावियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेयं भगवता पवेदि तमेव अभिसमेन्वा सम्बतो सम्बयाए सम्मतमेव सम भजाणिया। 223. वह भिक्ष या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करते समय (ग्रास का) आस्वाद लेते हुए बाए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए; (इसी प्रकार) आस्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। .. वह अनास्वाद वृत्ति से (पदार्थों का स्वाद न लेते हुए) (इस स्वाद-विमोक्ष में) लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (पाहार करे)। (स्वाद-विमोक्ष से) वह (अवमौदर्य, वृत्तिसंक्षेप एवं कायक्लेश) तप का सहज लाभ प्राप्त कर लेता है। भगवान् ने जिस रूप में स्वाद-विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को जाने और सम्यक् रूप से परिपालन करे / ... विवेचन आहार में अस्वादवृत्ति-भिक्षु शरीर से धर्माचरण एवं तप-संयम की आराधना के लिए आहार करता है, शरीर को पुष्ट करने, उसे सुकुमार, विलासी एवं स्वादलोलुप बनाने की उसकी दृष्टि नहीं होती। क्योंकि उसे तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों पर से आसक्ति या मोह का सर्वथा परित्याग करना है। यदि वह शरीर निर्वाह के लिए यथोचित आहार में स्वाद लेने लगेगा तो मोह पुन: उसे अपनी ओर खींच लेगा। इसी स्वाद-विमोक्ष का तत्व शास्त्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया गया है कि जिह्वा को वश में करने वाला अनासक्त 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 283 / / 2. यहाँ 'वा 4' के अन्.गंत 199 सूत्रानुसार समग्र पाठ समझ लें। 3 चूणि में संचारेज्जा' के बदले 'साहरेज्जा' पाठ है / तात्पयं वही है। 4. यहाँ 'आसाएमाणे' के बदले 'आठायमाणे' और आगे 'अणाढायमाणे' पाठ चूगि कार ने माना है, अर्थ . किया है-पाढा णाम श्रायरो "अमणुगणे वा अणाढायमाणे""तं दुग्गंधं वा णो वामातो दाहिणं हणुयं साहरेज्जा अणाढायमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ को वाम हणुयं साहरेज्जा।"--भावार्थ यह है कि वह "मनोज्ञ वस्तु हो तो आदर-रुचिपूर्वक और अमनोज्ञ दुर्गन्धयुक्त वस्तु हो तो अनादर-- अरुचिपूर्वक बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में या दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। 5. प्राचारांग (पू० प्रा० आत्माराम जी म. कृत टीका) पृ० 597 / Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 223-224 20 मुनि सरस आहार में या स्वाद में लोलुप और गृद्ध न हो। महामुनि स्वाद के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन-यापन करने के लिए भोजन करे।' ... गच्छाचारपइन्नर' में भी बताया है कि जैसे पहिये को बराबर गति में रखने के लिए तेल दिया जाता है, उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा के योग्य रखने के लिए. आहार करना चाहिए, किन्तु स्वाद के लिए, रूप के लिए, वर्ष (यश) के लिए या बल (दर्प) के लिए नहीं। . इसी अध्ययन में पहले के सूत्रों में प्राहार से सम्बद्ध गवेषणैषणा के 32 और ग्रहणेषणा के 10 यो 42 दोषों से रहित निर्दोष आहार लेने का निर्देश किया गया था। अब इस सूत्र में शास्त्रकार ने 'परि मरेगषणा' के पाँच दोषों-अंगार, धूम आदि) से बचकर आहार करने का संकेत किया है / अंगार आदि 5 दोषों के कारण तो राग-द्वेष-मोह आदि ही हैं। इन्हें मिटाए बिना स्वाद-विमोक्ष सिद्ध नहीं हो सकता / ' __इसीलिए चूणि मान्य पाठान्तर में स्पष्ट कर दिया गया है कि मनोज्ञ ग्रास को प्रादररुचिपूर्वक और अमनोन अरुचिकर को अनादर-अरुचिपूर्वक मुह में इधर-उधर न चलाए / इस प्रकार निगल जाए कि उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुंह के जिस भाग में कौर रखा है, उसी भाग को हो, दूसरे को नहीं। मूल में तो आहार के साथ राग-द्वेष, मोहादि का परित्याग करना ही अभीष्ट है। संलेखना एवं इंगितमरण 224. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति ‘से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरोरगं अणपुग्वेण परिवहित्तए' से आमुपुन्वेण आहारं संवट्टेज्जा, आपुष्वेण आहारं संक्ट्रेता कसाए पतणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिन्वुडच्चे अणुएनिसित्ता गामं वा णगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा संणिवेसं वा गिगमं वा रायहाणि वा तमाई जाएज्जा, तणाई जाएता से समायाए एगंतमवक्कमिजा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिा . 1. अलोलो न से गिद्धो, जिम्भादतो अमुच्छिओ। न रसाए भुजिज्जा, जवणठाए महामुणी // - उत्तरा. अ. 31 गा.१७॥ 2. तंपिहबरसत्यं न य वणत्यं न चेव वप्पत्थ। जमभरवहणत्पं अस्खोवगं व वहणस्थं // -गच्छाचारपइन्ना गा० 56 / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 283 / . 4. प्राचारांग चूणि, प्राचा० मूल पाठ टिप्पण सूत्र 223 / 5. इसके बदले चूर्णिकार ने 'से अणुपुवोए आहारं सांवटित्ता...' पाठातर मानकर अर्ष किया है-- ___ गिलाणो प्रणुपुबीए..."माहारं सम्म संबट्टेइ, यदुक्तं भवति संखिवति, अपुदीते संबंहिता"" . अर्थात् —वह ग्लान भिक्षु क्रमशः प्राहार को सम्यक रूप से कम करता जाता है, क्रमश: पाहार को कम करके 6. इसके बदले चूरिण में 'अभिणिबुडप्पा' पाठ है, अर्थ होता है-शान्तात्मा / Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 भावारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्तन्य पग-दगमट्टिय-मक्कडासंताणए पडिलैहिय पडिलैहिय पमज्जिय पत्रिय समाई संपरेज्जा, सणाई संथरेता एत्थ वि समए इत्तिरियं कुज्जा। तं सच्चं सच्चवादी ओए खिणे छिण्णकहकहैं आतीतढे अगातीते विध्याग भेदुरं कायं संविधुणिय विरुवरुवे परीसहोवमम्मे अस्मि विस्संभगमाए भेरवमविणे। तस्यादि तमा कालपरियार / से कि तस्य वियंतिकारए / / इच्छेतं विमोहायतणं हितं सुहं खमं निस्सैस आगामियं नि बेमि / // छठ्ठो उद्देसको समतो / / 224. जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच में इस समय (साधुजीवन की आवश्यक क्रियाएँ करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को वहन करने में त्रमश: ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूँ, (ऐसी स्थिति में) वह भिक्ष क्रमश: (तप के द्वारा) आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे और ऋमशः आहार का संक्षेप करके वह कषायों को कृश (स्वल्य) करे। कषायों को स्वल्प करके समाधि युक्त लेश्या (अन्तःकरण की वृत्ति) वाला तथा फना की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृष बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उस्थित होकर शरीर. के सन्ताप को शान्त कर ले / वह संलेखना करने वाला भिक्षु शरीर में चलने की शक्ति हो, तभी) क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, प्राश्रम में, सन्निवेश में, निगम में, या राजधानी में (किसी भी वस्ती में) प्रवेश करके घास (सूखा तृण-पलाल) की याचना करे / घास को याचना करके / प्राप्त होने पर उसे लेकर (ग्राम आदि के बाहर) एकान्त में चला जाए / वहाँ एकान्त स्थान में जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव-जन्तु, बीज, हरियाली (हरीघास), ओस, उदक, चींटियों के बिल ( कोड़ीनगरा), फफूदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान का बार-बार प्रतिलेखन ( निरीक्षण) करके, उसका बार-बार प्रमार्जन (सफाई) करके, घास का संथारा (संस्तारक-बिछौना) करे। घास का बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हो, उस समय इत्वरिक अनशन ग्रहण कर ले। वह (इत्वरिक-इंगित-मरणार्थ ग्रहण किया जाने वाला अनशन ) सत्य है / बह सत्यवादी (प्रतिज्ञा में पूर्णतः स्थित रहने वाला), राग-द्वेष रहित, संसार-सागर को पार करने वाला, 'इंगितमरण की प्रतिज्ञा निभेगी या नहीं ?' इस प्रकार के लोगों के कहकहे ( शंकाकुल-कथन) से मुक्त या किसी भी रागात्मक कथा-कथन से दूर जीकादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता अथवा सब बातों (प्रयोजनों) से अतीत, संसार 1. 'इसिरिय' का अर्थ चणि में किया गया है - 'इत्तिरियं नाम अप्पकालिय' इत्वरिक अर्थात् अल्प कालिका Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्टम अध्ययन ; षष्ठ उद्देशक : सूत्र 24 पारगामी अथवा परिस्थितियों से मप्रभावित, [अनशन स्थित मुनि इंगितमरण की साधना को अंगीकार करता है। __वह भिक्षु प्रतिक्षण बिनाशशील शरीर को छोड़कर नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके शरीर और आत्मा पृथक-पृथक हैं।) इस (सर्वज्ञ अरूपित भेदविज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर (भैरव) अनशन कर (शास्त्रविधि के अनुसार) अनुपालन करे। तब ऐसा (रोबादि आतंक के कारण इंगितमरण स्वीकार करने पर भी . उसको वह काल-मृत्यु (सहज मरण) होती है। उस मृत्यु से वह अन्तकिया (पूर्षतः कर्म-:, :: क्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (इंगितमरण के रूप में शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षुओं को आयतन (प्राश्रय) हितकर, सुखकर, शमारूप या कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर पौर भवान्तर में साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--शरीर-विमोक्ष के हेतु इंगतमरण साधना--इस अध्ययन के चौथे उद्देशक में विहायोमरण पांचवें में भक्तप्रत्याख्यान और छठे में इंगितमरण का विधान शरीर-विमोक्ष के सन्दर्भ में किया गया है। इसकी पूर्व तैयारी के रूप में शास्त्रकार ने उपधि-विमोक्ष, वस्त्र विमोक्ष, पाहार-विमोक्ष, स्वाद-विमोक्ष, सहाय-विमोक्ष प्रादि विविध पहलुओं से शरीरविमोक्ष का अभ्यास करने का निर्देश किया है। इस सूत्र (224) के पूर्वार्ध में संलेखना का विधिविधान बताया है। संलेखना कब और कैसे ?--संलेखना का अवसर कब पाता है ? इस सम्बन्ध में बृत्तिकार सूत्रपाठानुसार स्पष्टीकरण करते हैं (1) रूखा-सूखा नीरस आहार लेने से, या तपस्या में शरीर अत्यन्त ग्लान हो गया हो। (2) रोग से पीड़ित हो गया हो। (3) आवश्यक क्रिया करने में अत्यन्त अक्षम हो गया हो। (4) उठने-बैठने, करवट बदलने मादि नित्यकियाएँ करने में भी अशक्त हो गया हो। इस प्रकार शरीर अत्यन्त ग्लान हो जाए तभी भिक्षु को त्रिविध समाधिमरण में से अपनी योग्यता, क्षमता और शक्ति के अनुसार किसी एक का चयन करके उसकी तैयारी के लिए सर्वप्रथम संलेखना करनी चाहिए। संलेखना के मुख्य अंग- इसके तीन अंग बताए हैं(१) आहार का क्रमश: संक्षेप / (2) कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन और (3) शरीर को समाधिस्थ, शान्त एवं स्थिर रखने का अभ्यास / साधक इसी क्रम का अनुसरण करता है।" 1. आचा० शीला. पत्रांक 284 // 2. प्राचा. शीलाहीका पत्रांक 284 / Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 आचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्या ... सलेखना विधि-यद्यपि. सलेखना की उत्कृष्ट अवधि 12 वर्ष की होती है। परन्तु यहाँ वह विवक्षित नहीं है। क्योंकि ग्लान की शारीरिक स्थिति उतने समय तक टिके रहने की नहीं होती। इसलिए संलेखना-साधक को अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए तदनुरूप योग्यतानुसार समय निर्धारित करके क्रमश: बेला, तेला, चौला, पंचौला, उपवास, पायंबिल आदि क्रम से द्रव्य-संलेखना हेतु आहार में क्रमशः कमी (संक्षेप) करते जाना चाहिए। साथ ही भावसंलेखना के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों को अत्यन्त शांत एवं अल्प करना चाहिए। इसके साथ ही शरीर, मन, वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर एवं आत्मा में एकाग्र करना माहिए। इसमें साधक को काष्ठफलक की तरह शरीर और कषाय- दोनों ओर से कृश बन जाना चाहिए। 'उहाय भिक्खू...'.--इसका तात्पर्य यह है-समाधिमरण के लिए उत्थित होकर। शास्त्रीय भाषा में उत्थान तीन प्रकार का प्रतीत होता है--- (1) मुनि दीक्षा के लिए उद्यत होनासंयम में उत्थान, (2) ग्रामानुग्राम उग्र व अप्रतिबद्ध विहार करना-अभ्युद्यतविहार का उत्थान तथा (3) ग्लान होने पर संलेखना करके समाधिमरण के लिए उद्यत होना-समाधिमरण का उत्थान / यहाँ तृतीय उत्थान विवक्षित है। इंगितमरण का स्वरूप और अधिकारी-पादपोपगमन की अपेक्षा से इंगितमरण में संचार (चलन) की छूट है। इसे 'इंगितमरण' इसलिए कहा जाता है कि इसमें संचार का क्षेत्र (प्रदेश) इंगित-नियत कर लिया जाता है, इस मरण का आराधक उतने ही प्रदेश में संचरण कर सकता है। इसे इत्वारिक अनशम भी कहते हैं। यहाँ 'इत्वर' शब्द थोड़े काल के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है और न ही इत्वर 'सागार-प्रत्याख्यान'२ के अर्थ में यहाँ अभीष्ट है, अपितु थोड़े-से निश्चित प्रवेश में यावज्जीवन संचरण करने के अर्थ में है। जिनकल्पिक आदि के लिए जब अन्य काल में भी सागार-प्रत्याख्यान करना असम्भव है; तब फिर यावत्कथिक भक्त-प्रत्याख्यान का अवसर को हो सकता है ? रोगातुर श्रावक इत्वर-अनशन करता है, वह इस प्रकार से कि 'अगर में इस रोग से पांच-छह दिनों में मुक्त हो जाऊँ तो आहार कर लूगा, अन्यथा नहीं। चूर्णिकार ने परिक' का अर्थ अल्पकालिक किया है, वह विचारणीय है। 1. प्रायारो (मुनि नथमलजी कृत विवेचन) पृ० 315 / 2. 'सागार-प्रत्याख्यान'-पागार या विशेष काल तक के लिए त्याग तो श्रावक करता है। सामान्य साधु भी कर सकता है, पर जिनकल्पी श्रमण सांगारप्रत्याख्यान नहीं करता। 3. (क) प्राचा• शीला टीका पत्रांक 285-206 / (ख) देखिए इंगितमरणा का स्वरूप दो गाथाओं में-- पञ्चक्खाइ माहारं चउवि णियमओ गुरुसमीवे / इंगियदेसम्मि तहा चिट्ठपि हु पियमओ कुणइ // 1.. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 224 281 - इंगित-मरणग्रहण की विधि-सले वना से ग्राहार और कषाय को कृश करता हुआ साधक शरीर में जब थोड़ी-सो शक्ति रहे तभी निकटवर्ती ग्राम आदि से सूखा घास लेकर ग्राम प्रादि से बाहर किमी एकान्त निरवद्य, जीव-जन्तु रहिन शुद्ध स्थान में पहुँचे / स्थान को पहले भलीभाँति देखे, उसका भलीभांति प्रमार्जन करे, फिर वहाँ उस घास को बिछा ले लघुनीति-बड़ीनीति के लिए स्थंडिलभूमि की भी देखभाल कर ले / फिर उस घास के संस्तारक (बिछौने) पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे, दोनों करतलों से ललाट को स्पर्श करके वह सिद्धों को नमस्कार करे, फिर पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके 'नमोत्थण' का पाठ दो बार पढ़े और तभी इत्त्वरिक-इंगितमरण रूप अनशन का संकल्प करे। अर्था------धृति--सहनन आदि बलों से युक्त तथा करवट बदलना आदि क्रियाएं स्वयं करने में समर्थ साधक जीवनपर्यन्त. के लिए नियमतः चतुर्विध प्राहार का प्रत्याख्यान (त्याग) गुरु या दीक्षाज्येष्ठ साधु के सान्निध्य में करे, साथ ही 'इंगित'-मन में निर्धारित क्षेत्र में संचरण करने का नियम भी कर ले। तत्पश्चात् शांति, समता और समाधिपूर्वक इसकी आराधना में तल्लीन रहे / ' __इंगित-मरण का माहात्म्य-शास्त्रकार ने इसे सत्य कहा है तथा इसे स्वीकार करने वाला. सत्यवादी (अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अन्त तक सच्चा व वफादार), राग-द्वेषरहित; दृढ़ निश्चयी, सांसारिक प्रपंचों से रहिन, परीषह-उपमर्गों से अनाकुल, इस अनशन पर दृढ विश्वास होने से भयंकर उपसर्गों के प्रा पड़ने पर भी अनुद्विग्न. कृतकृत्य एवं संसारसागर से पारगामी होता है और एक दिन इस समाधिमरण के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करके चरमलक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सचमुच समभाव और धैर्यपूर्वक इंगितम ण की साधना से अपना शरीर तो विमोक्ष होता ही है, साथ ही अनेक मुमुक्षुओं एवं विमोक्ष-साधकों के लिए वह प्रेरणादायक बन जाता है। ___ 'अणातीते' के अर्थ में टीकाकार व चर्णिकार के अर्थ कुछ भिन्न हैं / चूणि में दो अर्थ इस प्रकार किये हैं (1) जो जीवादि पदाथों, ज्ञानादि पंच प्राचारों का ग्रहण कर लिया है, वह उनसे प्रतीत नहीं है, तथा (2) जिसने महाव्रत भारवहन का प्रतीत-अतिक्रमण नहीं किया है, वह अनातीत है अर्थात् महावत का भार जैसा लिया था, वैसा ही निभाने वाला है। समाधिमरण का साधक ऐसा ही होता है। '. उवासह परिमसइकाइगमाईऽवि अप्पणा कुणाइ / सम्वमिह अप्परिचरण अनजोगेण घितिलिओ॥२॥ —ाचा० शीला० टीका पक 286 अर्थ-नियमपूर्वक गुरु के समीप चारों आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में नियमित चेष्टा करता है / करबट बदलना, उठना या कादिक गमन (लघुनीति-बड़ीीति) आदि भी स्वधं करता है / धैर्य, बल युक्त मुनि सब कार्य अपने आप करे, दूसरों की सहायता न लेवे। . 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 285-286 / 2. प्राचा० शीला 'टीका पत्रांक 286 / / 3. 'अणातीते' का अर्थ चर्णिकार ने किया है- 'आतीतं णाम गहित, अस्था जीवादि नाणादी वा पंच, म अतीतो जहारोवियभारवाही' 1--प्राचा रंग चूणि मूल पाठ टिप्पणी पृष्ठ 81 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कम्य 'छिन्तकहकहे'-इस शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं (1) किसी भी प्रकार से होने वाली राग-द्वेषात्मक कथाएँ (बातें) जिसने सर्वथा बन्द कर दी हैं, अथवा (2) 'मैं कैसे इस इंगितमरण की प्रतिज्ञा को निभा पाऊँगा।' इस प्रकार की शंकाग्रस्त कथा ही जिसने समाप्त कर दी है। एक अर्थ यह भी सम्भव है-इंगितमरण साधक को देखकर लोगों की ओर से तरहतरह की शंकाएँ उठायी जाएँ, ताने कसे जाएँ या कहकहे गूजें, उपहास किया जाय, तो भी वह विचलित या व्याकुल नहीं होता। ऐसा साधक छिन्नकथकथ' होता है।' 'आतोस' इस शब्द के विभिन्न नयों से वृत्तिकार ने चार अर्थ बताए हैं-- (1) जिसने जीवादि पदार्थ सब प्रकार से ज्ञात कर लिए हैं, वह आतीतार्थ / (2) जिसने पदार्थों को आदत्त-गृहीत कर लिया है, वह प्रादत्तार्थ / (3) जो अनादि-अनन्त संसार में गमन से प्रतीत हो चुका है। (4) संसार को जिसने प्रादत्त-ग्रहण नहीं किया- अर्थात् जो अब निश्चय ही संसारसागर का पारगामी हो चुका है। चूर्णिकार ने प्रथम अर्थ को स्वीकार किया है। मेरवमचिणे या भेरवमविणे-दोनों ही पाठ मिलते हैं। 'मेरवमचिगे' पाठ मानने पर भैरव शब्द इंगितमरण का विशेषण बन जाता है, अर्थ हो जाता है---जो घोर अनुष्ठान है, कायरों द्वारा जिसका अध्यवसाय भी दुष्कर है, ऐसे भैरव इंगितमरण को अनुचीर्ण-पाचरित कर दिखाने वाला। चर्णिकार ने दूसरा पाठ मानकर अर्थ किया है--जो भयोत्पादक परीषहों और उपसर्गों से तथा डांस, मच्छर, सिंह, व्याघ्र आदि से एवं राक्षस, पिशाच आदि से उद्विग्न नहीं होता, वह भैरवों से अनुद्विग्न है / // षष्ठ उद्देशक समाप्त // सत्तमो उद्देसओ सप्तम उद्देशक अचेल-कल्प 225- जे भिक्खू अचेले परिसिते तस्स णं एवं भवति--चाएमि अहं तम-फासं अहिया 1. आचा० शीला. टोका पत्रांक 286 / 2. पाचा० शीला टीका पत्रांक 286 / 3. 'भेरवमणुचिमणे' के स्थान पर चूणि में 'भैरवमणुविष्णे' पाठ मिलता है जिसका अर्थ इस प्रकार किया गया है-भय करोतीति भेरवं भेरवेहि परीसहोवसग्गेहि अविज्जमाणो अणुविष्णो, इसमसग-सोह-वग्यातिएहि य रक्स-पिसायादिहि य / -प्राचारोग चूगि मूलपाठ टिपण पृष्ठ 81 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 225-226 283 सेत्तए, सीतफासं अहियासेत्तए, तेउफासं अहियासेत्तए,' दंस-मसगफासं अहियासेत्तए, एगतरे अण्णसरे विरूवल्वे फासे अहियासेत्तए, हिरिपडिच्छादणं च हं णो संचाएमि अहियासेत्तए / एवं से कम्पति कडिबंधणं धारित्तए। 226. अबुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोतफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दस-मसगफासा फुसंति, एगतरे अण्णतरे विरूवलवे फासे अहियासेति अचेले लापवियं आगममाणे / तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेतं भगवया पवेवितं तमेव अभिसमेच्च सव्वतो सध्ययाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 225. जो (अभिग्रहधारी) भिक्ष अचेल-कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के तीखे स्पर्श को सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सह सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता है, डांस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न-भिन्न जाति के, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ (गुप्तांगों के-) प्रतिच्छादन-वस्त्र को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन (कमर पर बांधने का वस्त्र धारण कर सकता है। 226. अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार-बार घास का तीखा स्पर्श चुभता है, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल (अवस्था में रहकर) उन एकजातीय या भिन्न-भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। लाधव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुअा (वह अचेल रहे)। अचेल मुनि को (उपकरण-अवमौदर्य एवं काय-क्लेश) तप का सहज लाभ मिल जाता है / अतः जैसे भगवान ने अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए / विवेचन-उपधि-विमोक्ष का चतुर्पकल्प-इन दो सूत्रों में (225-226) में प्रतिपादित है। इसका नाम अचेलकल्प है। इस कल्प में साधक वस्त्र का सर्वथा त्याग कर देता है। इस कल्प को स्वीकार करने वाले साधक का अन्तःकरण धृति, संहनन, मनोबल, वैराग्य भावना आदि के रंग में इतना रंगा होता है और प्रागमों में वर्णित नारकों एवं तिर्यञ्चों को प्राप्त होने वाली असह्य वेदना की ज्ञानबल से अनुभूति हो जाने से घास, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि तीव्र स्पर्शों या अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को सहने में जरा-सा भी कष्ट नहीं वेदता / किन्तु कदाचित् ऐसे उच्च साधक में एक विकल्प हो सकता है, जिसकी अोर शास्त्रकार ने इंगित 1. 'अहियासेत्तए' के बदले चूणि में पाठ है--'ण सो अहं अवाउदो' अर्थात् ~~मैं अपावृत (नंगा) होने में समर्थ नहीं है। मैं लज्जित हो जाता हूँ। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 आचारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कन्ध किया है। वह है---लज्जा जीतने की असमर्थता। इसलिए शास्त्रकार ने उसके लिए कटिबन्धन (चोलपट) धारण करने की छूट दी है। किन्तु साथ ही ऐसी कठोर शर्त भी रखी है कि अचेल अवस्था में रहते हुए-शीतादि को या अनुकूल किसी भी स्पर्श से होने वाली पीड़ा को उसे समभावपूर्वक सहन करना है। उपधि-विमोक्ष का यह सबसे बड़ा कल्प है। शरीर के प्रति आसक्ति को दूर करने में यह बहुत ही सहायक है / ' अभिग्रह एवं वैयावृत्य-प्रकल्प 227. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अणेसि भिक्खूणं असणं वा 4 आहट्ट दलयिस्सामि आहडं च सातिज्जिस्सामि [1], जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु दलयिस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [2] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु मसणं वा 4 आहटु णो दलयिस्सामि आहडं च सातिज्जिस्सामि [3], जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च अण्णेसि खलु भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु णो दलयिस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [4], [जस्स" णं भिक्खुस्स एवं भवति- अहं च खलु तेण अहातिरित्तण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएण अस१.(क) आचा० शीला 0 टीका पत्र 287 / (ख) भगवद्गीता में भी बताया है 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' --शीतोष्ण आदि संस्पर्श से होने वाले भोग दुःख की उत्पत्ति के कारण ही हैं। . 2. . इसके बदले चूर्णिमान्य पाठ और उसका अर्थ इस प्रकार है --- "आहटटु परिण्णं दाहामि (ण) पुण गिलायमाणो विसरि (स) कप्पियस्सावि गिहिस्सामो(मि) असणादि बितियो ।.....अर्थात्- प्रतिज्ञानुसार आहार लाकर दूंगा, किन्तु ग्लान होने पर भी असमानकल्प वाले मुनि के द्वारा लाया हुआ अशनादि पाहार ग्रहण नहीं करूंगा 'यह द्वितीय कल्प है। 3. 'वा'शब्द से यहाँ का सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए। 4. 'वलयिस्समि' के बदले किसी-किसी प्रति में 'दासामि' पाठ है, अर्थ एक-सा है। 5. यहाँ भी 'वा' शब्द से सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए / 6. यहाँ चूर्णि में इतना पाठ अधिक है-'चउत्थे उभयपडिसेहो' चौथे संकल्प में दूसरे भिक्षुओं से अश नादि देने-लेने दोनों का प्रतिषेध है। 7. (क) कोष्टकान्तर्गत पाठ शीलांक वृत्ति में नहीं हैं। (ख) चूणि के अनुसार यहाँ अधिक पाठ मालूम होता है -"वत्तारि पडिमा अनिमाविसेसा वुत्ता, इदाणि पंचमो, सो पुण तेसिं चेव तिण्हं आदिल्लाणं पडिमाविसेसाणं विसेमो।"-चार प्रतिमाएँ अभिग्रहविशेष कहे गए हैं, अब पांचवां अभिग्रह (बता -हे हैं) वह भी उन्हीं प्रारम्भ को तीन प्रतिमाविशेषों से विशिष्ट है। 8. यहाँ चूणि में पाठान्तर इस प्रकार है-अहं च खलु अन्नेति साहम्मियाण अहेसणिज्जेण अहापरिग्ग हितेण अहातिरित्तण असणेण वा 4 अगिलाए अभिकख वेयावडियं करिस्सामि, अहं वा वि खल तेक अहातिरित्तण अभिकख साहम्मिएण अगिलायंतरण वेयावडियं कोरमाणं सातिग्जिस्सामि ।"-मैं भी अग्लान हूँ अतः अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय, जैसा भी गृहस्थ के यहाँ से लाया गया है तथा पावश्यकता से अधिक प्रशनादि पाहार से जिरा के उद्देश्य से अन्य सामिकों की सेवा करूंगा, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक :सूत्र 227 282 ण वा 4 अभिकख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाय अहं वा वि तेण अहातिरित्तण . अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएण असणेण वा 4 अभिकख साहम्मिएहि कीरमाणं वेयावडियं सासिज्जिस्सामि [5] लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया। . 227. जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा (संकल्प) होती है कि मैं दूसरे भिक्षों को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य साकर दूंगा और उनके द्वारा लाये हुए (आहार) का सेवन करूंगा। (1) / ___ अथवा जिस भिक्ष को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए (पाहारादि) का सेवन नहीं करूंगा / (2) __अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को प्रशन, पान, खाद्य या स्वाश लाकर नहीं दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूंगा। (3) __अथवा जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर नहीं दूंगा और न ही उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूगा / (4) (अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि) मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणोय एवं ग्रहणीय तथा अपने लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य में से निर्जरा के उद्देश्य से, परस्पर उपकार करने को दष्टि से सामिक मुनियों की सेवा करूंगा, (अथवा) मैं भी उन सार्धामक मुनियों द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय-ग्रहणीय तथा स्वयं के लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाध में से निर्जरा के उद्देश्य से उनके द्वारा की जाने वाली सेवा को रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा / (5) वह लाघव का सर्वांगीण विचार करता हुआ (सेवा का संकल्प करे)। (इस प्रकार सेवा का संकल्प करने वाले) उस भिक्षु को (वैयावृत्य और कायक्लेश) तप का लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस प्रकार से इस (सेवा के कल्प) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान-समझ कर सब प्रकार से सर्वात्मना ( उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभांति जान कर माचरण में लाए। तथा मैं सो अन्तान उधों द्वारा प्रावस्यकता से अधिक लाए पाहार से निर्जरा के उद्देश्य से की . जाने वाली सेवा ग्रहण करूंगा। , .. .. .. 1. यहाँ 'वा' शब्द से सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए। 2. 'करणाय' के बदले 'करणाएं तथा किरणायते' पाठ मिलता है। अर्थ होता है--उपकार करने के लिए। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से समग्र पाठ 187 सूत्र नूसार समझना चाहिए। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य विवेचन परस्पर वयावृत्य कर्म-विमोक्ष में सहायक-प्रस्तुत सूत्र में आहार के परस्पर लेन-देन के सम्बन्ध में जो चार भंगों का उल्लेख है, वह पंचम उद्देशक में भी है। अन्तर इतना ही है कि वहाँ अग्लान साधु ग्लान की सेवा करने का और ग्लान साधु अग्लान साधुओं से सेवा सेने का संकल्प करता है, उसी संदर्भ में आहार के लेन-देन की चतुभंगी बताई गई है। परन्तु यहाँ निर्जरा के उद्देश्य से तथा परस्पर उपकार की दृष्टि से पाहारादि सेवा के प्रादानप्रदान का विशेष उल्लेख पांचवें भंग में किया। वैयावृत्य करना, कराना और वैयावृत्य करने वाले साधु की प्रशंसा करना, ये तीनों संकल्प कर्म-निर्जरा, इच्छा-निरोध एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस तरह मन, वचन, काया से सेवा करने, कराने एवं अनुमोदन करने वाले साधक के मन में अपूर्व प्रानन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति होती है तथा उत्साह की लहर दौड़ जाती है / उससे कर्मों की निर्जरा होती है, केवल शारीरिक सेवा ही नहीं, समाधिमरण या संलेखना की साधना के समय स्वाध्याय, जप, वैचारिक पाथेय, उत्साह-संवर्द्धन आदि के द्वारा परस्पर सहयोग एवं उपकार की भावना भी कर्म-विमोक्ष में बहुत सहायक है / सेवा भावना से साधक की साधना तेजस्वी और अन्तर्मुखो बनती है।' परस्पर वैपादृत्य के सह प्रकल्प -- इस (227) सूत्र में साधक के द्वारा अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार की जाने वाली 6 प्रतिज्ञाओं का उल्लेख है (1) स्वयं दूसरे साधुओं को आहार लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूंगा। (2) दूसरों को लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ नहीं लूंगा। (3) स्वयं दूसरों को लाकर न दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूगा / (4) न स्वयं दूसरों को लाकर दूंगा, न ही उनके द्वारा लाया हुआ लूगा / (5) आवश्यकता से अधिक कल्पानुसार यथाप्राप्त आहार में से निरा एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से सार्मिकों की सेवा करूंगा। (6) उन सामिकों से भी इसी दृष्टि से सेवा लगा। इन्हें चूर्णिकार ने प्रतिमा तथा अभिग्रह विशेष बताया है। सलेखना-पादपोपगमन अनशन 228. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरोरगं अणपुटवेणं परिवहितए से अणुपुष्वेणं माहारं संवटेज्जा, अणपुग्वेणं आहार संवटेता कसाए पतगुए किरुचा समाहिमच्चे फलगावयट्ठी न्हाय भिक्खू अभिगिराध्चे 1. प्राचारांग (पू० प्रा० श्री आरमाराम जी म० कृत टीका) पृ०६१०॥ 2. प्रामा० शीला टीका पीक 288 / 3. इसके बदले किसी प्रति में 'समाहरन्चे' पाठ मिलता है। अर्थ होता है-जिसमे अर्चा-संताप को समेट किया है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 228 287 अणपविसित्ता गाम वा जाव' रायहामि वा तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता से तमायाए एगतमवक्कमेज्जा एगंतमवक्कमेत्ता अप्पडे जाच तगाइं संथरेज्जा, [तणाई संथरेत्ता] एस्थ वि समए कायं च जोगं च इरियं च पच्चवखाएज्जा। तं सच्चं सच्चवादी ओए तिष्णे छिष्णकहकहे आतीत?' अणातीते चेच्चाण भेउरं कायं संविहुणिय विरुवरूने परोसहुवसग्गे अस्सि विसंभणताए भेरवमणुचिण्णे / तत्थावि तस्स कालपरियाए / से तत्थ वियंतिकारए। इन्चेतं विमोहायतपं हितं सुहं खमं हिस्सेसं आणुगामियं ति बेमि / ॥सत्तमो उद्देसओ समतो॥ 228. (शरीर विमोक्ष : संलेखना सहित प्रायोपगमन अनशन के रूप में)-जिस भिक्ष के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय (ग्रावश्यक क्रिया करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूँ। वह भिक्षु क्रमशः पाहार का संक्षेप करे / आहार को क्रमशः घटाता हुमा कषायों को भी कृश करे। यों करता हया समाधिपूर्ण लेश्या--(अन्तःकरण की वृत्ति) वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुया वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उस्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले। ___ इस प्रकार संलेखना करने वाला वह भिक्षु (शरीर में थोड़ी-सी शक्ति रहते ही) ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, प्राकर (खान), आश्रम, सन्निवेश (मुहल्ला या एक जाति के लोगों को बस्ती), निगम या राजधानी में प्रवेश करके (सर्वप्रथम) घास की याचना करे / जो घास प्राप्त हुआ हो, उसे लेकर ग्राम आदि के बाहर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़ों के अंडे, जीव-जन्तु, बोज, हरित, प्रोस, काई, उदक, चींटियों के बिल, फफुदी, गीली मिट्टी या दल-दल या मकड़ी के जाले न हों, ऐसे स्थान को बार-बार प्रतिलेखन (निरीक्षण) कर फिर उसका कई बार प्रमार्जन (सफाई) करके घास का विछौना करे। घास का बिछौना बिछाकर इसी समय शरीर, शरीर की प्रवृत्ति और गमनागमन आदि ईर्या का प्रत्याख्यान (त्याग) करे ( इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन करके शरीर विमोक्ष करे)। यह (प्रायोपगमन अनशन) सत्य है। इसे सत्यवादी (प्रतिज्ञा पर अन्त तक . 1-2. 'जाव' शब्द के अन्तर्गत 224 सूत्रानुसार यथायोग्य पाठ सरम लेना चाहिए / 3. इसके बदले चणि में पाठान्तर है-'धारगं संपरेड संशरणं संपरेत्ता ..' अर्थात् संस्तारक (बिछौना) बिछा लेता है, संस्तारक बिछा कर...। 4. 'पश्चखाएज्जा' के बदले 'पच्चदखाएज्ज' शब्द मानकर चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या की है___"पाओवगमणं भणितं समे विसमे वा पातको विव मह पटिओ। गागज्जुणा तु कमिव अवेढे।" 5. 'आतीत?' के बदले आइयडे, अतीठे पाठ मिलते हैं, अर्थ प्राय: समान हैं। . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 आगरगि सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध दृढ़ रहने वाला) वीतराग. संसार-पारगार्मी, अनशन को अन्त तक निभायेगा या नहीं? इस प्रकार को शका से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, जीवादि पदार्थों का सांगोपांगा माता, अथवा समस्त प्रयोजनों (बातों) से अतीत (परे), परिस्थितियों से अप्रभावित (अनशन-स्थित मुनि प्रायोपगमन- अनशन को स्वीकार करता है)। वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़ कर, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों पर विजय प्राप्त करके शरीर और प्रात्मा पृथक-पृथक हैं'। इस (सर्वज्ञप्ररूपित भेद-विज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन का शास्त्रीय विधि के अनुसार) अनुपालना करे। ऐसा (रोगादि अातंक के कारण प्रायोपगमन स्वीकार) करने पर भी उसको यह काल मृत्यु (स्वाभाविक मृत्यु) होती है। उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया (समस्त कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (प्रायोपगमन के रूप में किया गया शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षों का आयतन (आश्रय) हितकर, सुखकर, क्षमारूप तथा समयोचित, निःश्रेयस्कर और जन्मान्तर मैं भी साथ चलने वाला है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रायोषगमन अनशन : स्वरूप, विधि और माहात्म्य प्रस्तुत सूत्र में समाधिमरण के तीसरे अनशन का वर्णन है / इसके दो नाम मिलते हैं--प्रायोपगमन और पादपोपगमन / प्रायोपगमन का लक्षण है-जहाँ और जिस रूप में इसके साधक ने अपना अंग रख दिया है, वहाँ और उसी रूप में वह आयु की समाप्ति तक निश्चल पड़ा रहता है,' अंग को बिलकुल हिलाता-डुलाता नहीं। 'स्व' और 'पर' दोनों के प्रतीकार से-सेवा-शुश्रूषा से रहित मरण का नाम ही प्रायोपगमन-मरण है। - पादपोपगमम मरण का लक्षण है-जिस प्रकार पादप-वृक्ष सम या विषम अवस्था में निश्चेष्ट पड़ा रहता है, उसी प्रकार सम या विषम, जिस स्थिति में स्थित हो पड़ जाता है। अपना अंग रखता है, उसी स्थिति में आजीवन निश्चल-निश्चेष्ट पड़ा रहता है / पादपोपगमन अनशन का साधक दूसरे से सेवा नहीं लेता और न ही दूसरों की सेवा करता है। दोनों का लक्षण मिलता-जुलता है। इसकी और सब विधि तो इंगित-मरण की तरह है, लेकिन इंगित-मरण में पूर्व नियत क्षेत्र में हाथ-पैर आदि अवयवों का संचालन किया जाता है, जबकि पादपोपगमन में एक ही नियत स्थान पर भिक्षु निश्चेष्ट पड़ा रहता है / .. 1.. भगाती आराधना मू० 2063 से 2071 / 2. प्रायोपगननमरण की विशेष व्याख्या के लिए देखिए---जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भाग 4, पृष्ठ 390-391 / 3. भावती सूत्र श० 25, उ. 7 की टीका / 4. पादसोमन को विशेष व्याख्या के लिए देखिये-निधान राजेन्द्र कोष भा० 5, पृष्ठ 819 / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक :वत्र 229 पादपोपगमन में विशेषतया तीन बातों का प्रत्याख्यान (त्याग) अनिवार्य होता है(१) शरीर, (2) शरीरगत योग- पाकुञ्चन , प्रसारण, उन्मेष आदि काय न्यापार और (3) ईर्या-वाणीगत सूक्ष्म तथा अप्रशस्त हलन चलन / ' इसका माहात्म्य भी इंगितमरण की तरह बताया गया है। शरीर-विमोक्ष में प्रायोपगमन प्रबल सहायक है। . // सातवां उद्देशक समाप्त / / अट्ठमो उद्देसओ अष्टम उद्देशक मानुपूर्वो-अनशन 229. अणुपुट्वेण विमोहाइं जाई धीरा समासज्ज / वसुमंतो मतिमंतो सध्वं णच्या अणेलिसं // 16 // 229. जो (भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण एवं प्रायोपगमन, ये तीन) विमोह या विमोक्ष क्रमशः (समाधिमरण के रूप में बताए गए) हैं, धर्यवान्. संयम का धनी (वसुमान् ) एवं हेयोपादेय-परिज्ञाता (मतिमाम् ) भिक्षु उनको प्राप्त करके (उनके सम्बन्ध में). सब कुछ जानकर (उनमें से) एक अद्वितीय (समाधिमरण को अपनाए)। विवेचन-अमरान का आन्तरिक विधि-विधान : पूर्व उद्देशकों में जिन तीन समाधिमरण रूप अनशनों का निरूपण किया गया है, उन्हीं के विशेष प्रान्तरिक विधि-विधानों के सम्बन्ध में आठवें उद्देशक में क्रमश: वर्णन किया है।' ____ 'अणुपुवेरण विमोहाई'-इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने दो प्रकार के अनशनों की ओर इंगित कर दिया है, वे हैं-(१) सविचार और (2) मविचार। इन्हें ही दूसरे शब्दों में 1. भाचा. शीला टीका पत्रोक 289 / 2. इसके बदले पाठान्तर है----जाणि बीरा समासज-जिन्हें वीर प्राप्त करके........ 3. 'वसुमंतो के पहले चूर्णिकार ने 'बुसीमंतो' पाठ मानकर अर्थ किया है-- संजमो वुसी, सौ जत्थ अत्वि, जत्थ वा विज्जति सो दुसिमा,....बुसिमं च सिमंतो / ....अर्थात्-चुसी(वृषि) संयम को कहते हैं, जहाँ वषि है या जिसमें वृषि संयम है, वह वृषिमान कहलाता है, उसके बहुवचन का रूप है-- वुसीमंतो। 4. आचा० शीला टीका पत्रोक 289 / / 5. विचरणं नानागमनं विचार: विचारेण सह वर्तते इति सविचार-विचरण - नाना प्रकार के संचरण ___ से युक्त जो अनशन किया जाता है, वह सविचार अनशन होता है, यह अनागाढ़, सहसा अनुपस्थित और चिरकालभावी मरण भी कहलाता है। इसके विपरीत अनशन (समाधिभरण) अविचार कहलाता -भगवती पाराधना वि० 64/192/6 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य क्रमप्राप्त और माकस्मिक अथवा सपरिक्रम-(सपराक्रम) और अपरिक्रम (अपराक्रम) अथवा' अव्याघात और सव्याघात कहा गया है। सविचार अनशन-तब किया जाता है, जब तक जंघाबल क्षीण न हो (अर्थात्-शरीर समर्थ हो) जब काल-परिपाक से प्रायु क्रमशः क्षीण होती जा रही हो, जिसमें विधिवत् क्रमशः द्वादश वर्षीय संलेखना की जाती हो। इसका क्रम इस प्रकार है- प्रव्रज्याग्रहण, गुरु के समीप रहकर सूत्रार्थ-ग्रहण शिक्षा, उसके साथ ही प्रासेवना-शिक्षा द्वारा सक्रिय अनुभव, दूसरों को सूत्रार्थ का अध्यापन, फिर गुरु से अनुज्ञा प्राप्त करके तीन अनशनों में से किसी एक का चुनाव और (1) आहार, (2) उपधि, (3) शरीर-इन तीनों से विमुक्त होने का प्रतिदिन अभ्यास करना, अन्त में सबसे क्षमा-याचना, पालोचना-प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धीकरण करके समाधिपूर्वक शरीर-विसर्जन करना / इसी को आनुपूर्वी अनशन (अर्थात्-अनशन की अनुक्रमिक साधना) भी कहते हैं। इसमें दुभिक्ष, बुढ़ापा, दुःसाध्य मृत्युदायक रोग और शरीरबल की क्रमशः क्षीणता आदि कारण भी होते हैं।" आकस्मिक अनशन-सहसा उपसर्ग उपस्थित होने पर या अकस्मात् जंघाबल आदि क्षीण हो जाने पर, शरीर शून्य या बेहोश हो जाने पर, हठात् बीमारी का प्राणान्तक आक्रमण हो जाने पर तथा स्वयं में उठने-बैठने प्रादि की विलकुल शक्ति न होने पर किया जाता है। पूर्व उद्देशकों में आकस्मिक अनशनों का वर्णन था, इस उद्देशक में क्रमप्राप्त अनशन का वर्णन है / इसे प्रानुपूर्वी अनशन, अव्याघात, सपराक्रम और सविचार अनशन भी कहा जाता है। समाधिमरण के लिए चार बातें आवश्यक - (1) संयम, (2) ज्ञान, (3) धैर्य और (4) निर्मोहभाव; इन चारों का संकेत इस गाथा में दिया गया है / "विमोहाई "समासज्ज सत्यं गच्चा अरोलिस'---इस गाथा में वैहानसमरण सहित चार मरणों को विमोह कहा गया है / क्योंकि इन सब में शरीरादि के प्रति मोह सर्वथा छोड़ना होता है। इन्हीं को 'विमोक्ष' कहा गया है। इस गाथा का तात्पर्य यह है कि इन सब विमोहों को, बाह्य-प्राभ्यन्तर, क्रमप्राप्त-आकस्मिक, सविचार-अविचार आदि को सभी प्रकार से भलीभाँति जानकर, इनके विधि-विधानों, कृत्यों-अकृत्यों को समझकर अपनी धृति, संहनन, बलाबल आदि का नाप-तौल करके संयम के धनी, धीर और हेयोपादेय विवेक-बुद्धि से अोत. 1. जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा विाहिया। सवियारमवीयारा, कायचेट्ठ पई भवे // 12 / अहवा सपडिकम्मा अपरिक्कम्मा य आहिया / नोहा मनोहारी आहारच्छेओ दोसु वि 13 // - अभिधान रा० कोष भा० १पृ० 303-304 2. सागारधर्मामृत 8/9-10 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 289 / 4. उपसर्गे, दुभिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे // धमाय तनुविमोचनमा संलेखनामार्याः // रत्नकरण्डक श्रावकाचार 122 / 5. अभिधान राजेन्द्र कोप भा 110303 / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 289 / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गष्टम अध्ययन : अटम उद्देशक : सूत्र 230-239 प्रोत भिक्षु को अपने लिए इन में से यथायोग्य एक ही समाधिमरण का चुनाव करके समाधिपूर्वक उसका अनुपालन करना चाहिए।' भक्तप्रेत्याख्यान अनशन तथा संलेखना विधि 230. दुविहर पिविदित्ता णं बुद्धा धम्मस्स पारगा। __अणुपुथ्वोए संखाए आरंभाए तिउट्टति // 17 // 231. कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाएज्जा आहारस्सेव' अंतिये // 18 // 232, जीवियं णाभिकखेज्जा मरणं णो विपत्थए / दुहतो वि प सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा // 19 // 233. मज्मथो णिज्जरापेही समाहिमणुपालए। अंतों बहि थियोसज्ज अज्झत्थं सुद्धमेस ए // 20 // 234. जं किंचुवक्कम जाणे आउखेमस्स अप्पणो / तस्लेव अंतरद्धाए खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिते // 21 // 235. गामे अदुवा रणे थंडिलं पडिलेहिया। अप्पपाणं तु विण्णाय तणाई संथरे मुणी // 22 // 236. अणाहारो तुवट्टज्जा पुट्ठो तत्थ हियासए। जातिवेलं उवचेरे माणस्सेहि वि पुट्ठवं / / 23 / / 237. संसप्पगा य जे पाणा जे ये उमदेवरा। भुजते मंससोणियं ण छणे म पमज्जए // 24 // 238. पाणा देहं विहिसंति ठाणातो ण वि उम्भमे। आसवेहिं विवित्त हि तिप्पमाणोऽषियासए // 25 // 239. गंथेहि विवितहि आयुकालस्स पारए / पग्महीसप्तरगं चेतं दवियस्स वियाणसो // 26 // 230. ये धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों प्रकार से (शरीर उपकरण आदि बाह्म पदार्थों तथा रागादि अान्तरिक विकारों की) हेयता का अनुभव करके 1. आधाशीला टीका पत्रोक 28 / 2. इसके बदले चूणि में पाठान्तर मिलता है - दुविहं पि विगिचित्ता बुद्धा'-प्रबुद्ध साधक दोनों प्रकार से विशिष्ट रूप से विश्लेषण करके...। 3. इसके बदले चूर्णिकार मान्य पाठान्तर है- 'कम्मुणा य तिउति' अन्य भी पाठान्तर है-कम्मुणामी तिउट्टति, अर्थात् - कर्म से अलग हो जाता है-सम्बन्ध टूट जाता है। 4. तितिखए' के बदले पूणि में 'तिउति' पाठ है। अर्थ होता है-कर्मों को तोड़ता है। 5. इसके बदले चूणि में पाठअन्तर है --'आहारस्से व कारणा' / अर्थ होता है—ाहार के कारण ही भिक्षु ग्लान हो जाए तो......... - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 माचारोग-प्रथम भूतस्कन्ध (प्रवज्या आदि के) क्रम से (चल रहे संयमी शरीर को) विमोक्ष का अवसर जानकर प्रारंभ (बाह्य प्रवृत्ति) से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं / / 17 // 231. वह कषायों को कृश (मल्प) करके, अल्पाहारी बन कर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है, यदि भिक्षु ग्लानि को प्राप्त होता है, तो वह माहार के पास ही न जाये (पाहार-सेवन न करे) // 18 // 232. (संलेखना एवं अनशन-साधना में स्थित श्रमण) न तो जीने की आकांक्षा करे, न मरने की अभिलाषा करे। जीवन और मरण दोनों में भी प्रासक्त न हो // 19 // 233. वह मध्यस्थ (सुख-दुःख में सम) और निर्जरा की भावना वाला भिक्षु समाधि का अनुपालन करे। वह (राग, द्वेष, कषाय आदि) आन्तरिक तथा (शरीर, उपकरण आदि) बाह्य पदार्थों का व्युत्सर्ग-त्याग करके शुद्ध अध्यात्म की एषणा (अन्वेषणा) करे // 20 // 234. (संलेखना-काल में भिक्षु को) यदि अपनी प्रायु के क्षेम (जीवन-यापन) में जरा-सा भी (किसी आतंक आदि का) उपक्रम (प्रारम्भ) जान पड़े तो उस संलेखना काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र (भक्त-प्रत्याख्यान आदि से) पण्डितमरण को अपना ले // 21 // 235. (संलेखन-साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन (अवलोकन) करे, उसे जीव-जन्तु रहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले // 22 // 236. बह वहीं (उस घास के बिछौने पर) निराहार हो (त्रिविध या चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान) कर (शान्तभाव से) लेट जाये। उस समय परीषहों और उपसर्गों से प्राकान्त होने पर (समभावपूर्वक) सहन करे / मनुष्यकृत (अनुकूल प्रति - कूल) उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे / / 23 / / 237. जो रेंगने वाले (चींटी आदि) प्राणी हैं, या जो(गिद्ध आदि) ऊपर आकाश में उड़ने वाले हैं, या (सर्प आदि) जो नीचे बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोचें और रक्त पीएं तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन (निवारण) करे // 24 // . .. 238. (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विधात (नाश) कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्म-गुणों का नहीं, ऐसा विचार कर उन्हें न हटाए) और न ही उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाए। प्रास्रवों (हिंसादि) से पृथक् हो जाने के कारण (अमृत से सिंचित की तरह) तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे // 25 // 239. उस संलेखना-साधक की (शरीर उपकरणादि बाह्य और रागादि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 230-239 अन्तरंग) गांठे (ग्रन्थियाँ) खुल जाती हैं, (तब मात्र प्रात्मचिन्तन में संलग्न वह मुनि). प्रायुष्य (समाधिमरण) के काल का पारगामी हो जाता है / / 26 / / . विवेचन-भक्तात्यातयान अनशन को पूर्व तयारी-इन गाथानों में इसका विशद वर्णन किया गया है। समाधिमरण के लिए पूर्वोक्त तीन अनशनों में से भक्तप्रत्याख्यानरूप एक अनशन का चुनाव करने के बाद उसकी क्रमश: पूर्व तैयारी की जाती है, जिसकी झांकी सू० 230 से 234 तक में दी गई है। सूत्र 230 से भक्तप्रत्याख्यानरूप अनशन का निरूपण है / यहाँ सविचार भक्तप्रत्याख्यान का प्रसंग है। इसलिए इसमें सभी कार्यक्रम क्रमशः सम्पन्न किये जाते हैं। भक्तप्रत्याख्यान अनसन को पूर्णत: सफल बनाने के लिए अनशन का पूर्ण संकल्प लेने से पूर्व मुख्यतया निम्नोक्त ऋम अपनाना आवश्यक है जिसका निर्देश उक्त गाथाओं में है / वह क्रम इस प्रकार है (1) संलेखना के बाह्य और प्राभ्यन्तर दोनों रूपों को जाने और हेय का त्याग करे / (2) प्रवज्याग्रहण, सूत्रार्थग्रहण-शिक्षा, प्रासेवना-शिक्षा आदि क्रम से चल रहे संयमपालन में शरीर के असमर्थ हो जाने पर शरीर-विमोक्ष का अवसर जाने। (3) समाधिमरण के लिए उद्यत भिक्ष क्रमशः कषाय एवं आहार की संलेखना करे। (4) संलेखना काल में उपस्थित रोग, अातंक, उपद्रव एवं दुर्वचन आदि परीषहों को समभाव से सहन करे। (5) द्वादशवर्षीय संलेखना काल में प्राहार कम करने से समाधि भंग होती हो तो संलेखना क्रम छोड़कर आहार कर ले, यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग करके अनशन स्वीकार कर ले / (6) जीवन और मरण में समभाव रखे। (7) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यस्थ और निर्जरादर्शी रहे। (8) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, समाधि के इन पांच अंगों का अनुसेवन करे / (9) भीतर की रागद्वेषादि ग्रन्थियों और बाहर की शरीरादि से सम्बद्ध प्रवृत्तियों तथा ममता का व्युत्सर्ग करके शुद्ध अध्यात्म की झांकी देखे। (10) निराबाध संलेखना में आकस्मिक विघ्न-बाधा उपस्थित हो तो संलेखना के क्रम को बीच में ही छोड़कर भक्तप्रत्याख्यान अनशन का संकल्प कर ले। (11) विघ्न-बाधा न हो तो संलेखनाकाल पूर्ण होने पर ही भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करे। संलेखना : स्वरूप, प्रकार और विधि-सम्यक् रूप से काय और कषाय का बाह्य और प्राभ्यन्तर का सम्यक लेखन-(कृश) करना सलेखना है। इस दृष्टि से संलेखना दो प्रकार की है-बाह्य और आभ्यन्तर / बाह्य संलेखना शरीर में और पाभ्यन्तर कषायों में होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से भाव संलेखना वह है, जिसमें प्रात्म-संस्कार के अनन्तर उसके 1. प्राचा० शीला० टीकर पत्रांक 289, 290 / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांप सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध लिए ही क्रोधादि कषाय रहित अनन्तज्ञानादि गुणों से सम्पन्न परमात्म-पद में स्थित होकर रागादि बिकलों को कृश किया जाय और उस भाव-संलेखना की सहायता के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान भोजनादि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्यलेखना है।' काल की अपेक्षा से संलेखना तीन प्रकार की होती है-जधन्या, मध्यमा और उत्कृष्टा। जधन्या सलेखना 12 पक्ष की, मध्यमा 12 मास की और उत्कृष्टा 12 वर्ष की होती है। द्वादशवर्षीय लेखना की विधि इस प्रकार है-प्रथम चार वर्ष तक कभी उपवास, कभी बैला, कभी तेला, चोला या पंचोला, इस प्रकार विचित्र तप करता है, पारणे के दिन उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध पाहार करता है। तत्पश्चात् फिर चार वर्ष तक उसी तरह विचित्र तप करता है, पारणा के दिन विगय रहित (रस रहित) आहार लेता है। उसके बाद दो वर्ष तक एकान्तर तप करता है, पारणा के दिन प्रायम्बिल तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम 6 मास तक उपवास या बेला तप करता है, द्वितीय 6 मास में विकृष्ट तप-तेला-चोला अादि करता है। पारणे में कुछ ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल करता है। उसके पश्चात 123 वर्ष में कोटी-सहित लगातार प्रायम्बिल करता है, पारणा के दिन आयंबिल किया जाना है। बारहवें वर्ष में साधक भोजन में प्रतिदिन एक-एक ग्रास को कम करते-करते एक सिक्थ भोजन पर आ जाता है / बारहवें वर्ष के अस में वह अर्धमासिक या मासिक अनशन या भक्तप्रत्याख्यान आदि कर लेता है। दिगम्बर. परम्परा में भी पाहार को क्रमशः कम करने के लिए उपवास, प्राचाम्ल, वृत्ति-क्षेप, फिर रसजित आदि विविध तप करके शरीर सलेखना करने का विधान है। यदि प्रायू और शरीर-शक्ति पर्याप्त हो तो साधक बारह भिक्ष प्रतिमाएं स्वीकार करके शरीर को कृश करता है। शरीर-लिखना के साथ राग-द्वेष-कषायादि रूप परिणामों की विशुद्धि अनिवार्य है, अन्यथा केवल शरीर को कृश करने से संलेखना का उद्देश्य पूर्ण महीं होता। संलेखना के पांच अतिवारों से सावधान--संलेखना क्रम में जीवन और मरण की आकांक्षा तो बिलकुल हो छोड़ देनी चाहिए, यानी 'मैं अधिक जीऊँ या शीघ्र ही मेरी मृत्यु हो जाय तो इस रोगादि से पिंड छूटे', ऐसा विकल्प मन में नहीं उठना चाहिए। काम-भोगों को तथा इहलोक-परलोक सम्बन्धो कोई भी आकांक्षा या निदान नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सलेखना के 5 अतिचारों से सावधान रहना चाहिए। 1. (क) सर्वार्थसिद्धि 22 / 363 / (ख) भगवी आराधना मूल 2061423 (ग) पंचास्तिकाय ता० ब० 173 / 253.17 // 2. अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 7 पृ० 218, नि०, 60 व०, प्रा० 0 / 3. भगवती आराधना मू० 246 से 241, 257 से 259, सारधर्मामृत मा२३॥ 4. सू. 232 में इसका उल्लेख है, प्राचा० शीला टीका पत्रांक 289 / 5. संदेखना के 5 प्रतिचार ---इह मोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रोग और कामभोगाशमाप्रवन / - प्रावश्यक अ. 5 हारि० वृत्ति पृ. 838 / Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्दश्क : सूत्र 230-231 ___'भारम्भाओ तिउट्टा'-इस वाक्य में प्रारम्भ शब्द हिसा अर्थ में नहीं है, किन्तु शरीर धारण करने के लिए आहार-पानी के अन्वेषण आदि की जो प्रवृत्तियां हैं, उन्हें भी प्रारम्भ शब्द से सूचित किया है / साधक उनसे सम्बन्ध तोड़ देता है, यानी अलग रहता है / हिंसात्मक प्रारम्भ का त्याग तो मुनि पहले से ही कर चुका होता है, इस समय तो वह संलेखना-- संथारा की साधना में संलग्न है, इसलिए पाहारादि की प्रवृत्तियों से विमुक्त होना प्रारम्भ से मुक्ति है। यदि वह आहारादि को खटपट में पड़ेगा तो वह अधिकाधिक प्रात्मचिन्तन नहीं कर सकेगा।'-- यहाँ चूर्णिकार कम्मुणाओ तिउट्टई' ऐसा पाठान्तर मानकर अथ करते हैं, अष्ट विध कर्मों को तोड़ता है-तोड़ना प्रारम्भ कर देता है। 'अह मिक्यु गिलाएज्जा...'-त्तिकार ने इस सूत्रपंक्ति के दो फलितार्थ प्रस्तुत किए हैं--- (1) संलेखना-साधना में स्थित भिक्ष को आहार में कमी कर देने से कदाचित् पाहार के बिना मूर्छा-चक्कर आदि ग्लानि होने लगे तो संलेखना-क्रम को छोड़कर विकृष्ट तप न करके आहार सेवन करना चाहिए / (2) अथवा साहार करने से अगर ग्लानि---अरुचि होती हो तो भिक्षु को आहार के समीप ही नहीं जाना चाहिए / अर्थात् यह नहीं सोचना चाहिए कि 'कुछ दिन संलेखना क्रम तोड़कर आहार कर लू; फिर शेष संलेखना क्रम पूर्ण कर लूगा', अपितु आहार करने के विचार को ही पास में नहीं फटकने देना चाहिए। ___ कि चुवक्कम जापे '-यह गाथा भी संलेखना काल में सावधानी के लिए है / इसका तात्पर्य यह है कि संलेखना काल के बीच में ही यदि आयुष्य के पुदगल सहसा क्षीण होते मालूम दें तो विचक्षण साधक को उसी समय बोच में ही संलेखना क्रम छोड़ कर भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार कर लेना चाहिए / भक्तप्रत्याख्यान की विधि पहले बताई जा चुको है। इसका नाम भक्तपरिज्ञा भी है।' लेखना काल पूर्ण होने के बाद-सूत्र 235 से भक्तप्रत्याख्यान आदि में से किसी एक अनशन को ग्रहण करने का विधान प्रारम्भ हो जाता है। संलेखनाकाल पूर्ण हो जाने के बाद साधक को गाँव में या गाँव से बाहर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके जीवजन्तुरहित निरवद्य स्थान में घास का संथारा-बिछौना बिछाकर पूर्वोत्त विधि से अनशन का संकल्प कर लेना चाहिए। भक्त प्रत्यास्यान को स्वीकार कर लेने के बाद जो भी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग या परीषह प्रायें उन्हें समभावपूर्वक सहना चाहिए। गृहस्थाश्रमपक्षीय या साधुसंघीय पारिवारिक जनों के प्रति मोहवश प्रार्तध्यान न करना चाहिए, न ही किसी पीड़ा देने वाले मनुष्य या जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भजपरिसर्प आदि प्राणी से घबरा कर रौद्रध्यान करना चाहिए। डांस, मच्छर ग्रादि या सांप, बिच्छू आदि कोई प्राणी शरीर पर आक्रमण कर रहा हो, उस समय भी विचलित न होना चाहिए, न स्थान बदलना चाहिए। 1. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 289 / 2. आचा० शीला टोका पत्रांक 61. / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 290 / Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध अनशन साधक स्वयं को पासवों से शरीरादि तथा राग-द्वेष-कषायादि से बिलकुल मुक्त समझे। जीवन के अन्त तक शुभ अध्यवसायों में लीन रहे / ' इंगितमरणरूप विमोक्ष और यह इंगितमरण पूर्वगृहीत (भक्तप्रत्याख्यान) से विशिष्टतर है। इसे विशिष्ट ज्ञानी (कम से कम नौ पूर्व का ज्ञाता गीतार्थ) संयमी मुनि ही प्राप्त कर सकता है। गितमरणरूप विमोक्ष 240. अयं से अवरे धम्मै गायपुत्तेण साहिते / आयवम् परियारं विनहेज्ना तिघा सिधा // 27 // 241. हरिएसुण णिवज्जेज्जा थंडिलं मुणिमा सए। विउसिज्ज अगाहारो पुट्ठो तस्थऽषियासए // 28 // 242. इंविएहि गिलायंतो समियं साहरे मुगी / तहावि से अगरहे अचले जे समाहिए // 29 // 243. अभिक्कमे पडिक्कमे संकुचए पसारए / कायसाहारणट्टाए एत्थं वा वि अचेतणं // 30 // 244. परिक्कमे परिकिलते अदुवा चिट्टे अहायते / ठाणेग परिकिलते णिसीएम य अंतसो।। 31 / / 245. आसीणेऽणेलिसं' मरणं इंदियाणि समीरते। कोलावासं समासन्ज वितहं पादुरेसए // 32 // 246. जतो बजज समुपज्जे ण तत्थ अवलंबए / ततो उक्कसे अप्पाणं सब्वे फासेऽधियासए / / 33 / / 240. ज्ञात-पुत्र भगवान महावीर ने भक्त प्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण 1. प्राचा• शीला० टीका पर्वाक 391 के आधार पर / 2. 'मुणिआसए' के बदले चूणि में 'मुगो आसए' पाठ है, अर्थ किया गया है. मुणी पुश्वभणितो, मासीत आसए / अर्थात्-पूर्वोक्त मुनि (स्थण्डिलभूमि पर) बैठे। 3. "विरसिज्म' के बदले वियोसज्ज, वियोसेज्न, विउसेज, विउसन, विमोसिन आदि पाठान्तर मिलते है, अर्थ प्रायः एक-समान है। 4. इसके बदले चूणिकर ने 'समितं साहरे मुणी' पाठ मानकर अर्थ किया है-"संकुडितो परिकिलंतो वा ताहे सम्म पसारे, पंसारिय विलंतो वा पमज्जित्ता साहरइ / " इन्द्रियों (हाथ पैर आदि) को सिकोड़ने में ग्लानि-बेचैनी हो तो उन्हें सम्यकप (ठीक तरह) से पसार ले। पसारने पर भी पीड़ा होती हो तो उनका प्रमार्जन करके समेट ले / 5. चर्णिकार ने इसके बदले 'आसीनेमणेलिसं पाठ मान्य करके अर्थ किया है-"प्रासीण इति उदासीणों अहवा धम्म अस्सितो।"--- अर्थात् मासीन यानी उदासीन अथवा धर्म के आश्रित / 6. 'पादुज्जोहते' पाठान्तर मान्य करके चूणिकार ने अर्थ किया है-- "पादु पकास अवट्ठिल, सं ... एमति -अर्थात्-प्रादुः का अर्थ है प्रक्ट (प्रकाश) में अवस्थित, उसकी एषणा करे। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम देशक: सूत्र 231-246 अनशन का यह प्राचार-धर्म बताया है। इस अनशन में भिक्षु (मर्यादित भूमि के : बाहर) किसी भी अंगोपांग के व्यापार (संचार) का, अथवा उठने-बैठने प्रादि की क्रिया ..में अपने सिवाय किसी दूसरे के सहारे (परिया) का (तीन करण, तीन योग से) मन, वचन और काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करे // 27 // ..... - 241. वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल (हरित एवं जीव-जन्तुरहित स्पल) को देखकर वहाँ सोए। वह निराहार भिक्षु बाह्य एवं आभ्यन्तर उपधि का. - व्युत्सर्ग करके भूख-प्यास प्रादि परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे // 28 // 242. पाहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान (क्षीण) होने पर.. समित (यतनासहित, परिमित मात्रायुक्त) होकर हाथ-पैर आदि सिकोड़े (पसारे); अथवा शमिता-शान्ति या समता धारण करे। जो अचल (अपनी प्रतिज्ञा पर अटल) : है तथा समाहित (धर्म-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान में मन को लगाये हुए) है, वह परिमित भूमि में शरीर-चेष्टा करता हुमा भी निन्दा का पात्र नहीं होता / / 29 // .... 243. (इस अनशन में स्थित मुनि बैठे-बैठे या लेटे-लेटे थक जाये तो) वह शरीर-संधारणार्थ गमन और पागमन करे, (हाथ-पैर आदि को) सिकोड़े और पसारे / . (यदि शरीर में शक्ति हो तो) इस (इंगितमरण अनशन) में भी अचेतन की तरह (निश्चेष्ट होकर) रहे // 30 // 244. (इस अनशन में स्थित मुनि) बैठा-बैठा थक जाये तो नियत प्रदेश में चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाये, या सीधा लेट जाये। यदि खड़े होने में कष्ट होता हो तो अन्त में बैठ जाए // 31 // ... .. 245. इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यकप से संचालित करे। (यदि उसे ग्लानावस्था में सहारे के लिए किसी काष्ठस्तम्भ या पट्ट की आवश्यकता हो तो) घुन-दीमकवाले काष्ठ स्तम्भ या पट्ट का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ-स्तम्भ या पट्ट का अन्वेषण करे // 32 // 246. जिससे वज्रवत् कर्म या वयं-पाप उत्पन्न हों, ऐसी घुण, दीमक, आदि से युक्त वस्तु का सहारा न ले। उससे या दुर्ध्यान एवं दुष्ट योगों से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे // 33 // . विवेचन-निमान : स्वरूप, सावधानी और आन्तरिक विधि-सूत्र 239 से 246 तक की गाथामों में इंगितमरण का निरूपण किया गया है, जो समाधिमरण रूप अनशन का द्वितीय प्रकार है / भक्तप्रत्याख्यान से यह विशिष्टतर है। इसकी भी पूर्वतैयारी तथा संकल्प करने तक की क्रमशः सब विधि भक्तप्रत्याख्यान की तरह ही समझ लेनी चाहिए। इतना ही नहीं. भक्तप्रत्याख्यान में जिन सावधानियों का निर्देश किया है, उनसे इस अनशन में भी सावधान रहना आवश्यक है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 आचारांम सूत्र-प्रथम श्रतस्कन्ध इंगितमरण में कुछ विशिष्ट बातों का निर्देश शास्त्रकार ने किया है, जैसे कि इंगितमरण साधक अपना अंगसंचार, उठना, बैठना, करवट बदलना, शौच, लघशंका आदि समस्त शारीरिक कार्य स्वयं करता है। इतना ही नहीं, दूसरों के द्वारा करने, कराने, दूसरे के द्वारा किसी साधक के निमित्त किये जाते हुए अनुमोदन करने का भी वह मन, वचन, काया से त्याग करता है / वह संकल्प के समय निर्धारित भूमि में ही गमनागमन ग्रादि करता है, उससे बाहर नहीं / वह स्थण्डिलभूमि भी जीव-जन्तु, हरियाली प्रादि से रहित हो, जहाँ वह इच्छानुसार बैठे, लेटे या सो सके / जहाँ तक हो सके, वह अंगचेष्टा कम से कम करे / हो सके तो वह पादपोषगमन की तरह अचेतवत् सर्वथा निश्चेष्ट-निस्पन्द होकर रहे। यदि बैठा-बैठा या लेटालेटा थक जाये तो जीव-जन्तुरहित काष्ठ की पट्टी आदि किसी वस्तु का सहारा ले सकता है। किन्तु किसी भी स्थिति में प्रार्तध्यान या राग-द्वेषादि का विकल्प जरा मन में न आने दे / ' .: दिगम्बर परम्परा में यह 'इंगितमरण' के नाम से प्रसिद्ध है। भक्तपरिजा में जो प्रयोगविधि कही गयी है, वही यथासम्भव इस मरण में भी समझनी चाहिए। इसमें मुनिवर शौच आदि शारीरिक तथा प्रतिलेखन ग्रादि धार्मिक क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं। जगत् के सम्पूर्ण पूद गल दुःखरूप या सुखरूप परिणमित होकर उन्हें सुखी या दुखी करने को उग्रत हों, तो भी उनका मन (शुक्ल) ध्यान से च्युत नहीं होता। वे वाचना, पृच्छनाः धर्मोपदेश, इन सबका त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं / मौनपूर्वक रहते हैं। तप के प्रभाव से प्राप्त लब्धियों का उपयोग तथा रोगादि का प्रतीकार नहीं करते / पैर में काँटा या नेत्र में रजकण पड़ जाने पर भी वे स्वयं नहीं निकालते / / प्रायोपगमन अनशन-रूप विमोक्ष 247. अयं चाततरे सिया जे एवं अगुपालए 1 सव्वगायणिरोधे विठाणातो ण वि उन्भमे / / 34 / / ... 248. अयं से उत्तमे धम्मे पुग्वट्ठाणस्स पग्महे / - अचिरं पडिलेहित्ता विहरे चिट्ठ माहणे / / 35 / / 1. प्राचा...शील टीका पत्रांक 291-292 } .... 2. जो मतपदिण्णाए उवक्कमो वणिदो सवित्थारो। सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इणिोए.दि // 2030 // . ठिच्चा निसिदित्ता वा तुवट्टिदूण व सकायपडिचरणं। सयमेव निरुवसग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयव // 2041 // सयमेव अपणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। ': उच्चारादीणि तधा सयमेव विकिंचदे विधिणा // 2042 // --भगती पाराधना 3. 'अयं चाततरे सिया' का अर्थ चूणिकार ने किया है- “अत (अन्त) तरो, आतरो वा पाततसे। ' आयतरे-दढमाहतरे धम्मे-मरणधम्मे, इंगिणिमरणातो आयतरे उत्तमतरे / " अर्थात् -अंततर या अन्ततर ही प्राततर है। तात्पर्य यह है-पायतर यानी ग्रहण करने में दृढतर, धर्म-- मरणधर्म है यह। इंमिनिमरण में यह धर्म (पादपोपगमन)प्रायतर या उत्तमतर है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 247-253 299 249. अचित्त' तु समासज्ज ठावए तत्थ अप्पगं। योसिरे सव्वसो कायं ण मे देहे परीसहा // 36 // 250. जावज्जीवं परोसहा उत्सग्गा (य)इति संखाय / . संवुडे देहभेदाए इति पणेऽधियासए // 37 // 251. भिदुरेसु ण रज्जेज्जा कामेसु बहुतरेसु वि। इच्छालोभं ण सेवेज्जा धुववण्णं सपेहिया // 38 // 252. सासएहि णिमंतेज्जा दिग्वमायण सद्दहे। तं पडिबुज्झ माहणे सव्वं नम विधणिता / / 39 / / 253. सव्वट्ठहि अमुच्छिए आयुकालस्स पारए। तितिक्खं परमं गच्चा विमोहण्णतर हितं / / 40 // त्ति बेमि। / अष्टम विमोक्षाध्ययन समाप्तम् / / 1. इसके बदले चूर्णिकार ने पाठान्तर माना है--अचित्त तु समासज्ज तथावि किर कीरति / 2. इसका अर्थ चर्णिकार ने किया है—'परीसहा—दिगिछादि, उवभग्गा य अपलोमा पडिलोमा या इति संखाय-एवं संखाता तेण भवति, यदुक्तं तेन भवति नाता, अणहियासते पुण सुद्धते पड़च्च ण संखाता भवति / अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उवसग्गा वि प मे मनस्स भविस्संतीति एवं संखाए अहियासए / अहवा परीसहा एव उवसग्गा, तप्युरिसो समासो। अहवा (परीसहा) उवसग्गा य जाबदेहभाविणो, ततो वच्चति-जावज्जीवं परीसहा, एवं संखाय, संवडे देहभेदाय"इति पणे अहियासए।" अर्थात्-परीषह = जुगुप्सा आदि तथा अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग हैं, यह जानकर तात्पर्य यह है कि इस प्रकार उसके द्वारा ये ज्ञात हो जाते हैं / जो परीषह और उपसर्गों को सहन नहीं कर पाते। इस शुद्धता की अपेक्षा से संख्यात-संज्ञात नहीं होते। अथवा जीवनपर्य-त ये परीषह और उपसर्ग भी मेरे मानने के अनुसार नहीं होंगे, यों समझकर इन्हें सहन करे। अथवा तत्पुरुष समास मानने पर-परीषह ही उपसर्ग हैं, ऐसा अर्थ होता है। अथवा परीषह और उपसर्ग भी जब तक शरीर है, तभी तक है। इसीलिए कहते हैं जिदगी रहने तक ही तो परीषह हैं, ऐसा जानकर शरीरभेद के लिए समद्यत संवत प्राज्ञ भिक्षु इसे समभाव से सहन करे। 3. इसके बदले 'मेउरेसु' पाठान्तर है / अर्थ समान है। 4. 'धुबवणं सपेहिया' पाठ के अतिरिक्त चूर्णिकार ने 'धुवमन्नं समेहिता,' 'धुवमन्नं सपेहिया' तथा 'सुहम वणं समेहिता' ये पाठान्तर भी माने है। अर्थ क्रमशः. यों किया है - 'धुवो अवभिचारी वणो संजमो,"--ध्रुव यानी अव्यभिचारी-निर्दोष संयम (वर्ण) को देखकर / 'धुवो-मोक्खो सोय अण्णो संसाशमोतं सदोहिता--अर्थात्-ध्र व मोक्ष, वह संसार से अन्य-भिन्न है, उसका सदा ऊहापोह करके / ध्रुवमन्नं थिरसंजम समेहिता-समपेहिज्ज,ध्रव - स्थिर, वर्ण = संयम का अवलोकन करके अथवा सुहमरूबे उवसग्गे सूयणीया सुहमा, वण्णो नाम संजमो, सोप सुहमो थोवेणवि विराहिज्जति बाल-पद्मवत् / " उपसर्ग सूक्ष्मरूप होने से सूत्रनीति से वे सूक्ष्म कहलाते हैं। वर्ण कहते हैं---संयम को, वह भी सूक्ष्म है, थोड़े-से दोष से बाल कमल को तरह विराधित-खण्डित हो जाता है। 5. चूणि में इसके बदले पाठान्तर है-'दिवं आयं ण सद्दहे' अर्थात् दिव्य लाभ पर विश्वास न करे। चणिकार ने इसका अर्थ किया है----अहवा नुमति दव्वमुच्चति, विविहं धमिता विधमिता विमोक्खिया। अर्थात्-नम द्रव्य को भी कहते हैं / उस द्रव्य को विविध प्रकार से धुमित--विमोक्षित--पृथक करके माहन (साधु) भलीभांति समझ ले। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 247. यह प्रायोपगमन अनशन भक्तप्रत्याख्यान से और इंगितमरण से भी विशिष्टतर है और विशिष्ट यतना से पार करने योग्य है। जो साधु इस विधि से (इसका) अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता // 34 // 248. यह (प्रायोपगमन अनशन) उत्तम धर्म है। यह पूर्व स्थानद्वय-भक्तप्रत्याख्यान और इंगितमरण से प्रकृष्टतर ग्रह (नियन्त्रण) वाला है। प्रायोपगमन अनशन साधक (माहन-भिक्षु) जीव-जन्तुरहित स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अचेतनवत् स्थिर होकर रहे // 35 // . . 249. अचित्त (फलक, स्तम्भ आदि) को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे। शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे। परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे- "यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब परीषह (-जनित दुःख मुझे कैसे होंगे) ? // 36 // 250. ज़ब तक जीवन (प्राणधारण) है, तब तक हो ये परीषह और उपसर्ग (सहने) हैं, यह जानकर संवत (शरीर को निश्चेष्ट बनाकर रखने वाला) शरीरभेद के लिए (ही समुद्यत) प्राज्ञ (उचित-विधिवेत्ता) भिक्षु उन्हें (समभाव से) सहन करे // 37 // . 251. शब्द प्रादि सभी काम विनाशशील हैं, वे प्रचुरतर मात्रा में हों तो भी भिक्षु उनमें रक्त न हो। ध्र व वर्ण (शाश्वत मोक्ष या निश्चल संयम के स्वरूप) का सम्यक् विचार करके भिक्षु इच्छा-लोलुपता का भी सेवन न करे / / 3 / / . 252. शासकों द्वारा अथवा प्रायुपर्यन्त शाश्वत रहने वाले वैभवों या कामभोगों के लिए कोई भिक्ष को निमन्त्रित करे तो वह उसे (मायाजाल) समझे। (इसी प्रकार) दैवी माया पर भी श्रद्धा न करे। वह माहन-साधु उस समस्त माया को भलीभाँति जानकर उसका परित्याग करे // 39 // 253. दैवी और मानुषी-सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्यु . * काल का पारगामी वह मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष (भक्त• प्रत्याख्यान, इंगितमरण, प्रायोपगमन रूप त्रिविध विमोक्ष में से) किसी एक विमोक्ष - का आश्रय ले / / 40 / / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–प्रायोपगमन रूप : स्वरूप, विधि, सावधानी और उपलब्धि-सू० 247 से 253 तक प्रायोपगमन अनशन का निरूपण किया गया है। प्रायोपगमन या पादपोपगमन अनशन का लक्षण सातवें उद्देशक के विवेचन में बता चुके हैं।' भावतीसूत्र में पादपोपगमन के स्वरूप के सम्बन्ध में जब पूछा गया तो उसके उत्तर 1. (क) देखिए अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 5 पृ०८१९-८२० ! / (ख) देखे, सूत्र 228 का विवेचन पृ० 288 पर Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उदेशक : सूत्र 247-253 में भगवान महावीर ने बताया कि पादपोपगमन दो प्रकार का है--निर्झरिम और अनिर्झरिमां यह अनशन यदि ग्राम आदि (बस्ती) के अन्दर किया जाता है तो निहारिम होता है। अर्थात् प्राणत्याग के पश्चात् शरीर का दाहसंस्कार किया जाता है और बस्ती से बाहर जंगल में किया जाता है तो अनिर्झरिम होता है दाहसंस्कार नहीं किया जाता। नियमतः यह अनशन अप्रतिकर्म है / इसका तात्पर्य यह है कि पादपोपगमन अनशन में साधक पादप-क्ष की तरह निश्चल-नि:स्पन्द रहता है / वृत्तिकार ने बताया है-पादपोपगमन अनशन का साधक ऊर्वस्थान से बैठता है; पार्श्व से नहीं, अन्य स्थान से भी नहीं / वह जिस स्थान से बैठता या लेटता है, उसी स्थान में वह जीवन-पर्यन्त स्थिर रहता है, स्वतः वह अन्य स्थान में नहीं जाता। इसीलिए कहा गया है—'सम्वगायनिरोहेवि ठाणातो न वि उम्भमे / प्रायोपगमन में 7 बातें विशेष रूप से आचरणीय होती हैं-(१) निर्धारित स्थान से स्वयं चलित न होना, (2) शरीर का सर्वथा व्युत्सर्ग, (3) परीषहों और उपसर्गों से जरा भी विचलित न होना, अनुकल-प्रतिकूल को समभाव से सहना, (4) इहलोक-परलोक सम्बन्धी काम-भोगों में जरा-सी भी प्रासक्ति न रखना, (5) सांसारिक वासनाओं और लोलुपतामों को न अपनाना, (6) शासकों या दिव्य भोगों के स्वामियों द्वारा भोगों के लिए मामन्त्रित किए जाने पर भी ललचाना नहीं, (7) सब पदार्थों से अनासक्त होकर रहना / ' दिगम्बर परम्परा में प्रायोपगमन के बदले प्रायोग्यगमन एवं पादपोपगमन के स्थान पर पादोपगमन शब्द मिलते हैं / भव का अन्त करने के योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं। प्रायोग्य की प्राप्ति होना---प्रायोग्यगमन है। पैरों से चलकर योग्य स्थान में जाकर जो मरण स्वीकारा जाता है, उसे पादोपगमन कहते हैं / यह अनशन प्रात्म-परोपकार निरपेक्ष होता है / इसमें स्व-पर-दोनों के प्रयोग (सेवा-शुश्रुषा) का निषेध है। इस अनशन मेंसाधक मल-मूत्र का भी निराकरण न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है। कोई उस पर सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि फेंके या कडाकर्कट फेके, अथवा गंध पुष्पादि से पूजा करे या अभिषेक करे तो न वह रोष करता है, न प्रसन्न होता है, न ही उनका निराकरण करता है; क्योंकि वह इस अनशन में स्व-पर प्रतीकार से रहित होता / 1. भगवती सूरर शतक 25 उ० 7 का मूल एवं टीका देखिए 'से कि तं पाओवगमणे ?' 'पाओवगमणे दुविहे पणते, तंजहा---गोहारिमे या अणीहारिमे य गियमा अपडिएकमे / से तं पाओवगमगे।' 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 294, 295 / 3. (क) भगवती पाराधना वि. 29 / 11316 / (ख) धवला 1 / 1 / 23 / 4 / (ग) सो सल्लेहियदेहो जम्हा पाओवगमगमुवजादि उन्चारावि वि किवणमवि गरिव पवोगदो तम्हा // 2065 / / Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध " 'अयं चाततरे' का अर्थ चणिकार ने किया है-यह प्रायतर है-यानी ग्रहण करने में दृढ़तर है। इसीलिए कहा है 'अयं से उत्तमे धम्म / ' अर्थात्-यह सर्वप्रधान मरण विशेष है।' न में देहे परोसहा-इस पंक्ति से प्रात्मा और शरीर की भिन्नता का बोध सूचित किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि परीषह और उपसर्ग तभी तक हैं, जब तक जीवन है / अनशन साधक जब स्वयं ही शरीर-भेद के लिए उद्यत है तब वह इन परीषहउपसर्गों से क्यों घबराएगा? वह तो इन्हें शरीर-भेद में सहायक या मित्र मानेगा। 'घुववग्णं सपेहिया'-शास्त्रकार ने इस पंक्ति से यह ध्वनित कर दिया है कि प्रायोपगमन अनशन साधक की दृष्टि जब एकमात्र ध्र ववर्ण-मोक्ष या शुद्ध संयम की ओर रहेगी तो वह मोक्ष में विघ्नकारक या संयम को अशुद्ध-दोषयुक्त बनाने वाले विनश्वर काम-भोगों में, चक्रवर्तीइन्द्र आदि पदों या दिव्य सुखों के निदानों में क्यों लुब्ध होगा? वह इन समस्त सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अनासक्त एवं सर्वथा मोहमुक्त रहेगा। इसी में उसके प्रायोपगमन अनशन की विशेषता है / इसीलिए कहा है--- . दिव्वमायं सद्दहे'-दिव्य माया पर विश्वास न करे, सिर्फ मोक्ष में उसका विश्वास होना चाहिए। जब उसकी दृष्टि एकमात्र मोक्ष की ओर है तो उसे मोक्ष के विरोधी संसार की ओर से अपनी दृष्टि सर्वथा हटा लेनी चाहिए।' // अष्टम उद्देशक समाप्त // . // अष्टम विमोक्ष अध्ययन सम्पूर्ण // .. पुढवी आऊ तेक वणफदित तेसु जद्वि वि साहरिदो। बोसठ्ठचत्तदेहो अधायुगं पालए तस्थ // 2066 // मज्जणयगंध पुष्फोवयार पडिचारणे किरंत। बोसट्ठ पत्तदेही अधायुगं पालए तधवि // 2067 // वोसदृचत्तवेहो दुणिक्खिवेज्जो जहि जधा अंग / जावज्जीवं तु सयं तहि, तमगं ण चालेन्जः॥२०६८॥ .. .. . . - भगवती आमच 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 295 / ': 2. आचामीलार टीका पत्रांक 2:5 / 3. आना० शीला टीका पत्रांक 215 // Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उपधान-श्रत' नवम अध्ययन . .. प्राथमिक प्राचारांग सूत्र के नवम अध्यन का नाम 'उपधान श्रत' है / " - उपधान का सामान्य अर्थ होता है--शय्या आदि पर सुख से सोने के लिए सिर के नीचे (पास में) सहारे के लिए रखा जाने वाला साधन-तकिया / परन्तु यह द्रव्य-उपधा है। ae भाव: उपधान ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है, जिनसे चारित्र् परिणत भाव को सुर क्षित रखने के लिए सहारा मिलता है / इनसे साधक को अनन्त सुख-शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति होती है, / इसलिए ये ही साधक के शाश्वत सुखदायक उपधान हैं।' उपधान का अर्थ उपधनन भी किया जा सकता है। जैसे मलिन वस्त्र जल आदि द्रव्यों से धोकर शुद्ध किया जाता है, वहाँ जल प्रादि द्रव्य द्रव्य-उपधान होते हैं, वैसे हो आत्मा पर लगे हुए कर्म मैल बाह्य-ग्राभ्यन्तर तप से धुल जाते-नष्ट हो जाते हैं। प्रात्मा शुद्ध हो जाती है। अतः कर्म-मलिनता को दूर करने के लिए यहाँ भाव-उपधान का अर्थ 'तप' है। ge उपधान के साथ श्रुत शब्द जुड़ा हुआ है, जिसका अर्थ होता है-सुना हुया ।इसलिए "उपधान-श्रुत' अध्ययन का विशेष अर्थ हा—जिसमें दीर्घतपस्वी भगवान महावीर के तपोनिष्ठ ज्ञान-दर्शन-चारित्र-पाधनारूप उपधानमय जोवन का उनके श्रीमुख से सुना हुअा वर्णन हो। . इसमें भगवान महावीर की दीक्षा से लेकर निर्वाण तक की मुख्य जीवन-घटनाग्नों का उल्लेख है। भगवान ने यों साधना की, वीतराग हुए. धर्मोपदेश (देशना) दिया और अन्त में 'अभिणिबुडे' अर्थात् निर्वाण प्राप्त किया। इन्हें पढ़ते समय ऐसा लगता है कि आर्य सुधर्मा ने भगवान महावीर के साधना-काल की प्रत्यक्ष-दृष्ट विवरणी (रिपोर्ट या डायरी) प्रस्तुत की है। 1. (क) आचासंग नियुक्ति गा० 282, (ख) प्राचा. शीला टीका पत्रांक 297 2. (क) जह खलु मइल वत्थं सुज्झइ उदगाइएहि दन्वेहि / एवं भावुवहारलेण सुज्झए कम्मट्ठविह -प्राचा० नियुक्ति गा० 283 (ख) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 297 / 3. आचारांग नियुक्ति गा० 276, (ख) आचा० शीला• टीका पत्रांक 216 4. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा० 1, पृ. 108 / Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतकग्ध * इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं, चारों में भगवान के तपोनिष्ठ जीवन की झलक है। * प्रथम उद्देशक में भगवान की चर्या का, द्वितीय उद्देशक में उनकी शय्या (प्रासेवितस्थान और प्रासन) का, तृतीय उद्देशक में भगवान द्वारा-सहे गये परीषह-उपसगों का और चतुर्थ उद्देशक में क्षुधा आदि से आतंकित होने पर उनको चिकित्सा का वर्णन है।' * अध्ययन का उदेश्य-पूर्वोक्त आठ अध्ययनों में प्रतिपादित साध्वाचार विषयक साधना कोरी कल्पना ही नहीं है, इसके प्रत्येक अंग को भगवान ने अपने जीवन में प्राचरित किया था, ऐसा दृढ़ विश्वास प्रत्येक साधक के हृदय में जाग्रत हो और वह अपनी साधना निःशंक व निश्चलभाव के साथ संपन्न कर सके, यह प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य है। * इस अध्ययन में सूत्र संख्या 254 से प्रारम्भ होकर 323 पर समाप्त होती है। इसी के साथ प्रथम श्रुतस्कंध भी पूर्ण हो जाता है। . MARon: 1. (क) प्राचारोग नियुक्ति गाँ० 379, 2. (क) प्राचारांम नियुक्ति ग० 279, (ख) पांचां शीला० टीका पत्रांक 296 / (ख) आचा० शीला० टीका पत्रांक 296 / Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उवहाणसुयं' नवमं अज्झयणं पढमो उदेसओ उपधान-चत : नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक भगवान महावीर की विहारचर्या 254. अहासुतं वरिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय / संखाए तसि हेमंते अहुणा पब्वइए रोइत्था / / 4 / / 255. णो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते / से पारए आवकहाए एतं खु अणुम्मियं तस्स / / 42 / / 256. चत्तारि साहिए मासे बहवे पाणजाइया' आगम्म / अभिरुज्य कायं विहरिंसु आरुसियाणं तस्य हिसिसु / / 43 / / 257. संवच्छरं साहियं मासं जंण रिक्कासि वस्थगं भगवं। अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे / / 44 / / 254. (प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-जम्बू ! ) श्रमण भगवान ने दीक्षा लेकर जैसे विहारचर्या की, उस विषय में जैसा मैंने सुना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊँगा / भगवान ने दीक्षा का अवसर जानकर (घर से अभिनिष्क्रमण किया)। वे उस हेमन्त ऋतु में (मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को) प्रवजित हुए और तत्काल (क्षत्रियकुण्ड से ) विहार कर गए // 41 // 255. (दीक्षा के समय कंधे पर डाले हुए देवदूष्य वस्त्र को वे निलिप्त भाव से रखे हए थे, उसी को लेकर संकल्प किया--) "मैं हेमन्त ऋतु में इस वस्त्र से शरीर को नहीं ढगा।" वे इस प्रतिज्ञा का जीवनपर्यन्त पालन करने वाले और (अत:) संसार या परीषहों के पारगामी बन गए थे / यह उनकी अनुमिता ही थी। 256. (अभिनिष्क्रमण के समय भगवान के शरीर और वस्त्र पर लिप्त दिव्य सुगन्धितद्रव्य से आकर्षित होकर ) भौरे प्रादि बहुत-से प्राणिगण पाकर उनके शरीर पर चढ़ जाते अोर (रसपान के लिए) मँडराते रहते / (रस प्राप्त न होने पर) 1. 'पाणजाइया आगम्म' के बदले 'पाणजातीया आगम्म' एवं 'पागजाति आगम्म' पाठ मिलता है / चूर्णिकार ने इसका अर्थ यों किमा है-'भमरा मधुकराय पाणजातीया बहवो आगमिति....... पाणजातीधी प्रारुज्झ कार्य विहति / " अर्थात्-भौंरे या मधुमक्खियां आदि बहुत-से प्राणिसमूह आते थे, वे प्राणिसमूह उनके शरीर पर चढ़कर स्वच्छन्द विचरण करते थे। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वे रुष्ट होकर (रक्त-मांस के लिए उनका शरीर) नोंचने लगते / यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा // 43 // 257. भगवान ने तेरह महीनों तक (दीक्षा के समय कंधे पर रखे) वस्त्र का त्याग नहीं किया / फिर अनगार और त्यागी भगवान महावीर उस वस्त्र का परित्याग करके अचेलक हो गए / / 44 / / .. . . ... विवेचन-दीक्षा से लेकर वस्त्र-परित्याग तक की चर्या—पिछले चार सूत्रों में भगवान महावीर की दीक्षा, कब, कैसे हुई ? वस्त्र के सम्बन्ध में क्या प्रतिज्ञा ली ? क्यों और कब तक उसे धारण करते रहे, कब छोड़ा ? उनके सुगन्धित तन पर सुगन्ध-लोलुप प्राणी कैसे उन्हें सताते थे ? आदि चर्या का वर्णन है। 'उहाए' का तात्पर्य पूर्वोक्त तीन प्रकार के उत्थानों में से मुनि-दीक्षा के लिए उद्यत होना है / वृत्तिकार इसकी व्याख्या करते हैं:--समस्त प्राभूषणों को छोड़कर, पंचमुष्टि लोच करके, इन्द्र द्वारा कन्धे पर डाले हुए एक देवदूष्य वस्त्र से युक्त, सामायिक की प्रतिज्ञा लिए हुए मनःपर्यायज्ञान को प्राप्त भगवान अष्टकर्मों का क्षय करने हेतु तीर्थ-प्रवर्तनार्थ दीक्षा के लिए उद्यत होकर...... / ' तत्काल विहार क्यों ?--भगवान दीक्षा लेते ही कुण्डग्राम (दीक्षास्थल) से दिन का एक मुहूर्त शेष था, तभी विहार करके कर्मारग्राम पहुँचे। इस तत्काल विहार के पीछे रहस्य यह था कि अपने पूर्व परिचित सगे-सम्बन्धियों के साथ साधक के अधिक रहने से अनुराग एव मोह जागत होने की अधिक सम्भावना है। मोह साधक को पतन की ओर ले जाता है / अतः भगवान ने भविष्य में आने वाले साधकों के अनुसरणार्थ स्वयं आचरण करके बता दिया। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है - 'अहुणा पम्वइए रोइत्या' / / भगवान का अनुधामिक आचरण---सामायिक की प्रतिज्ञा लेते ही इन्द्र ने उनके कन्ये पर देवदूष्य वस्त्र डाल दिया। भगवान ने भी नि:सांगता की दृष्टि से तथा दूसरे मुमुक्षु धर्मोपकरण के बिना संयमपालन नहीं कर सकेंगे, इस भावी अपेक्षा से मध्यस्थ ऋत्ति से उस वस्त्र को धारण कर लिया, उनके मन में उसके उपभोग की कोई इच्छा नहीं थी / इसीलिए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "मैं लज्जानिवारणार्थ या सर्दी से रक्षा के लिए वस्त्र से अपने शरीर को पाच्छादित नहीं करूंगा।" प्रश्न होता है कि जब वस्त्र का उन्हें कोई उपयोग ही नहीं करना था, तब उसे धारण ही क्यों किया ? इसके समाधान में कहा गया है-- एतं खु अणुधम्मियं तस्म', उनका यह आचरण अनुधार्मिक था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ यों किया है कि यह वस्त्र-वारण पूर्व तीर्थंकरों द्वारा प्राचरित धर्म का अनुसरण मात्र था / अथवा अपने पीछे पाने वाले साधु-साध्वियों के लिए अपने आचरण के अनुरूप मार्ग को स्पष्ट करने हेतु एक वस्त्र धारण किया / ' . 1. आचा० शीला दीका पत्रांक 3.1 / 2, अावश्यकचणि पूर्व भाग पृ. 268 / 3. प्राचारांग टीका (पू. आ. श्री आत्माराम जी महाराज कृत) पृ. 643 / 4. प्राचा० शीला० टोका पत्रांक 264 / / Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 254-257 इस स्पष्टीकरण को आगम का पाठ भी पुष्ट करता है, जैसे—मैं कहता है, जो अरि. हन्त भगवन्त अतीत में हो चुके हैं, वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन्हें सोपधिक (धर्मोपकरणयुक्त) धर्म को बताना होता है, इस दृष्टि से तीर्थधर्म के लिए यह अनुमिता है। इसीलिए तीर्थकर एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रवजित हुए हैं, प्रश्नजित होते हैं एवं प्रबजित होंगे।" एक प्राचार्य ने कहा भी है--- गरीयस्त्वात् सचेलस्य धर्मस्यान्यस्तथागतः / शिष्यस्य प्रत्ययाचंच वस्त्र वन न लज्जया।। -सचेलक धर्म की महत्ता होने से तथा शिष्यों को प्रतीति कराने हेतु ही अन्य तीर्थंकरों ने वस्त्र धारण किया था, लज्जादि निवारण हेतु नहीं / चूणिकार अनुमिता शब्द के दो अर्थ करते हैं--(१) गतानुगतिकता और (2) अनुकालधर्म। पहला अर्थ तो स्पष्ट है। दूसरे का अभिप्राय है-शिष्यों की रुचि, शक्ति, सहिष्णुता, देश, काल, पात्रता प्रादि देखकर तीर्थंकरों को भविष्य में वस्त्र-पात्रादि उपकरण सहित धर्माचरण का उपदेश देना होता है / इसी को अनुमिता कहते हैं / पाली शब्द कोष में 'अनु धम्मता' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ होता है-धर्मसम्मतता, धर्म के अनुरूप / इस दृष्टि से भी 'पूर्व तीर्थंकर पारित धर्म के अनुरूप' अर्थ संगत होता है / भगवान महावीर के द्वारा वस्त्र-त्याग-मूल पाठ में तो यहाँ इतनी-सी संक्षिप्त झांकी दी है कि 13 महीने तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा, बाद में उस वस्त्र को छोड़कर वे अचेलक हो गये / टीकाकार भी इससे अधिक कुछ नहीं कहते किन्तु पश्चाद्वर्ती महावोर-चरित्र के लेखक ने वस्त्र के सम्बन्ध में एक कथा कही है-ज्ञातखण्डवन से ज्यों ही महावीर आगे बढ़े कि दरिद्रता से पीड़ित सोम नाम का ब्राह्मण कातर स्वर में चरणों से लिपट कर याचना करने लगा। परम कारुणिक उदारचेता प्रभु ने उस देवदूष्य का एक पट उस ब्राह्मण के हाथ में थमा दिया। किन्तु रफूगर ने जब उसका आधा पट और ले आने पर पूर्ण शाल तैयार कर देने को कहा तो ब्राह्मण लालसावश पुनः भगवान महावीर के पीछे दौड़ा, लगातार 13 मास तक वह उनके पीछे-पीछे घूमता रहा / एक दिन वह वस्त्र किसी झाड़ी के काँटों में उलझकर स्वत: गिर पड़ा। महावीर आगे बढ़ गये, उन्होंने पीछे मुड़कर भी न देखा / वे वस्त्र का विसर्जन कर चुके थे। कहते हैं ब्राह्मण उसी वस्त्र को झाड़ी से निकाल कर ले आया और रफू करा कर महाराज नन्दिवद्धन को उसने लाख दीनार में बेच दिया / 5 1. "से बेमि जे य अईया, जे य पटुप्पाना, जे य आगमेस्सा भरहंता भगवतो जे य पध्वयंति जे अ पन्ध इस्संति सम्वे ते सोवहिधम्मो देसियो त्ति कटटु तित्वधम्मयाए एसा अणुधम्मिमत्ति एग देवदूसमायाए पध्वइंसु वा पब्वयंति वा पव्वइस्संति व ति।" -प्राचारांग टीका पत्रांक 301 // 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 301 / 3. आचारांग चूर्णि / 4. पाली शब्दकोष / 5. इस घटना का वर्णन देखिये- (अ) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित 10/3 (ब) महाबीरचरियं (गुणचन्द्र) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 माचारोग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करच . . चूर्णिकार भी इसी बात का समर्थन करते हैं--भगवान ने उस वस्त्र को एक वर्ष तक यथारूप धारण करके रखा, निकाला नहीं। अर्थात् तेरहवें महीने तक उनका कन्धा उस बस्त्र से रिक्त नहीं हुआ। अथवा उन्हें उस वस्त्र को शरीर से अलग नहीं करना था। क्योंकि सभी तीर्थंकर उस या अन्य वस्त्र सहित दीक्षा लेते हैं। भगवान ने तो उस वस्त्र का भाव से पंरित्याग कर दिया था, किन्तु स्थितिकल्प के कारण वह कन्धे पर पड़ा रहा। स्वर्णबालुका नदी के प्रवाह में बह कर आये हुए काँटों में उलझा हुआ देख पुनः उन्होंने कहा-मैं वस्त्र का व्युत्सर्जन करता हूँ।' इस पाठ से ब्राह्मण को वस्त्रदान का संकेत नहीं मिलता है / निष्कर्ष यह है कि भगवान पहले एक वस्त्रसहित दीक्षित हुए, फिर निर्वस्त्र हो गये, यह परम्परा के अनुसार किया गया था। पाणनाइया-का अर्थ वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों 'भ्रमर आदि करते हैं। " मासिया-का अर्थ चूर्णिकार करते हैं- 'अत्यन्त रुष्ट होकर'3 जबकि वृत्तिकार अर्थ करते हैं-मांस व रक्त के लिए शरीर पर चढ़कर.. ध्यान-साधना 258. अदु पोरिसिं तिरियभित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो झाति / अह चक्खभीतसहिया ते हंता हंता बहवे कंदिस॥ 45 // 259. सयहि वितिमिस्से हि इत्थीओ तस्थ से परिणाय / ___सागारियं न से सेवे इति से सयं पवेसिया माति / / 46 // ..२६०.जे केयिमे अगारस्था मोसोभावं पहाय से साति / . पुट्ठो' वि . णाभिभासिसु गच्छति गाइवत्तती अंजू / / 47 // 1. इसी सन्दर्भ में 'जण रिकासि' का अर्थ चूमि में इस प्रकार है--"सो हि भगवंसं वत्थ संबच्छरमेग : अहाभावेण धरितवा, ग तु निक्कासते, सहिय मासेण साहिय मासं, त तस्स खंध तेण पत्येगण रिक्क - भासि / अहवा गणिक्कासितवं तं वत्थं सरीराओ। सतित्थगराण का तेण अन्नेण वा साहिज्जइ, भगवता तुतं पव्वइयमित्तग भावतो मिसळं तहा वि सुवप्नयालुमनीपूरअवहिसे कंठए सग्गं बटुं पुणो वि वुच्चइ बोसिरामि।"-आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 89 (मुनि जम्बूविजयजी) 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 301 / 3. आहसियागं का अर्थ चूर्णिकार ने किया है --अच्चत्वं रुस्सित्तागं आरुस्सित्तागं / 4. 'सागारियं ग से सेवे' का अर्थ चूर्णि में इस प्रकार है-'सागारियं णाम मेहुणं तं ण सेवति / " अर्थात् -सागारिक यानी मथुन का सेवन नहीं करते थे। 8. इसके बदले चूणि में पाठान्तर है -~~ "पुढे व से अपुढे वा गच्छति णातिवत्तए अंजू।" अर्थ इस प्रकार है--किसी के द्वारा पूछने या न पूछने पर भगवान बोलते नहीं थे, वे अपने कार्य में ही प्रवृत्त रहते / उनके द्वारा (भला-बुरा) कहे जाने पर भी वे सरलात्मा मोक्षपथ या ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे। नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर यों है---"पुछो / सो अपुट्ठो का जो अणुजाणाति पावग भगव'--- अर्थात् --पूछने पर या न पूछने पर भगवान किसी पाप कर्म की अनुज्ञा अथवा अनुमोदना नहीं करते थे। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 258-264 261. णो सुकरमेतमेगेसि गाभिभासे अभिवादमाणे / हयपुवो तस्थ डेहि लूसियपुवो अप्पपुहि // 48 // 262. फरिसाई दुतितिक्खाई अतिअच्च मुणी परक्कमाणे / __आपात-गट्ट-गीताई दंडजुद्धाइं मुठ्ठिजुद्धाइं // 49 // 263. गहिए मिहोकहासु समयम्मि णातसुते विसोगे अदक्ख / एताई से उरालाइं गच्छति णायपुत्ते असरणाए // 50 // 264. अविर साधिए दुवे बासे सीतोवं अभोच्चा णिषखंते। ___ एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णायदसणे संते // 51 // - 258. भगवान एक-एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आँखें गड़ा कर अन्तरात्मा में ध्यान करते थे। (लम्बे समय तक अपलक रखने से पुतलियाँ ऊपर को उठ जाती) अतः उनकी आँखें देखकर भयभीत बनी बच्चों की मण्डली 'मारो-मारो' कहकर चिल्लाती, बहुत से अन्य बच्चों को बुला लेती // 45 // 259. (किसी कारणवश) गृहस्थ और अन्यतीथिक साधु से संकुल स्थान में ठहरे हुए भगवान को देखकर, कामाकुल स्त्रियाँ वहाँ अाकर प्रार्थना करतीं, किन्तु वे भोग को कर्मबन्ध का कारण जानकर सागारिक (मैथुन) सेवन नहीं करते थे / वे अपनी अन्तरात्मा में गहरे प्रवेश कर ध्यान में लीन रहते / / 46 / / 260. यदि कभी गृहस्थों से युक्त स्थान प्राप्त हो जाता तो भी वे उनमें घुलते-मिलते नहीं थे। वे उनके संसर्ग (मिश्रीभाव) का त्याग करके धर्मध्यान में मग्न रहते। वे किसी के पूछने (या न पूछने पर भी नहीं बोलते थे। (कोई बाध्य करता तो) वे अन्यत्र चले जाते, किन्तु अपने ध्यान या मोक्षपथ का अतिक्रमण नहीं करते थे / / 47 / / 261. वे अभिवादन करने वालों को आशीर्वचन नहीं कहते थे, और उन 1 "गडिए मिहोकहा समयम्मि गच्छति गातिवत्तए अदालु" प्रादि-पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने इस प्रकार अर्थ किया है- गद्विते विधूतसमयं ति गढितं, यदुक्तं भवति बद्ध" "मिहो कहा समयो' एवमादी यो गच्छति गातिवत्तए' = गत हरिसे-प्ररत्त अदुठे अलोमपडिलोमेसु विसोगे विगतहरिसे अदक्षु ति दळू।" अर्थात् परस्पर कामकथा प्रादि बातों में व्यर्थ समय को खोते देख कर अथवा उन बातों में परस्पर उलझे देखकर भगवान चल पड़ते, न तो वे हर्षित होते, न अनुरक्त और न ही द्वेष करते / अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ देखकर वे हर्ष-शोक से रहित रहते थे। 2. 'अवि साधिए दुवे वासे' का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है- "अह तसिं तं अबत्थं गच्चा साधिते दुहे (वे) वासे"- (माता-पिता के स्वर्गवास के अनन्तर) उन (पारिवारिक जनों) का मन अस्वस्थ जान कर दो वर्ष से अधिक समय गृहवास में बिताया। 3. एगत्तिगते का अर्थ चूणिकार ने यों किया है-“एमत्त एगत्ती, एगत्तिगतो णाम, ‘ण मे कोति, गाहम वि कस्सति"--एकत्व को प्राप्त का नाम एकत्वोगत है, मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का " इस प्रकार की भावना का नाम एकस्वगत होता है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अनार्य देश आदि में डंडों से पीटने, फिर उनके बाल खींचने या अंग-भंग करने वाले प्रभागे अनार्य लोगों को वे शाप नहीं देते थे। भगवान की यह साधना अन्य साधकों के लिए सुगम नहीं थी।॥४८।। 262. (अनार्य पुरुषों द्वारा कहे हुए) अत्यन्त दुःसह्य, तीखे वचनों की परवाह न करते हुए मुनीन्द्र भगवान उन्हें सहन करने का पराक्रम करते थे। वे आख्यायिका, नृत्य, गीत, दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध आदि (कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों) में रस नहीं लेते थे // 49 // . 263, किसी समय परस्पर कामोत्तेजक बातों या व्यर्थ की गप्पों में प्रासक्त लोगों को ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हर्ष-शोक से रहित होकर (मध्यस्थभाव से) देखते थे / वे इन दुर्दमनीय (अनुकूल-प्रतिकूल परीषहोपसर्गो) को स्मरण न करते हुए विचरण करते थे।॥५०॥ 264. (माता-पिता के स्वर्गवास के बाद) भगवान ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गहवास में रहते हुए भी सचित्त (भोजन) जल का उपभोग नहीं किया। परिवार के साथ रहते हुए भी वे एकत्वभावना से ओत-प्रोत रहते थे, उन्होंने क्रोध-ज्वाला को शान्त कर लिया था, वे सम्यग्ज्ञान-दर्शन को हस्तगत कर च के थे और शान्तचित्त हो गये थे। (यों गृहवास में साधना करके) उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया / / 51 // विवेचन-ध्यान साधना और उसमें आने वाले विध्नों का परिहार-सूत्र 258 से 264 तक भगवान महावीर की ध्यानसाधना का मुख्यरूप से वर्णन है / धर्म तथा शुक्ल ध्यान की साधना के समय तत्सम्बन्धित विघ्न-बाधाएँ भी कम नहीं थीं, उनका परिहार उन्होंने किस प्रकार किया और अपने ध्यान में मग्न रहे ? इसका निरूपण भी इन गाथानों में है। 'तिरिभित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो माति' इस पंक्ति में "तिर्यमिति' का अर्थ विचारणीय है। भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि तिमित्ति' का अर्थ करते हैं-प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति अथवा पर्वतखण्ड / ' बौद्ध साधकों में भी भित्ति पर दृष्टि टिका कर ध्यान करने की पद्धति रही है। इसलिए तिर्यकभित्ति का अर्थ 'तिरछी भीत' ध्यान की परम्परा के उपयक्त लगता है, किन्तु वृत्तिकार प्राचार्य शीलांक ने इस सूत्र को ध्यानपरक न मान कर गमनपरक माना है। 'शाति' शब्द का अर्थ उन्होंने ईर्यासमितिपूर्वक गमन करना बताया है मथा पौरुषी बीथी' संस्कृत रूपान्तर मानकर अर्थ किया है---पीछे से पुरुष प्रमाण (प्रादमकद) लम्बी बीथी (गली) और आगे से बैलगाड़ी के धूसर की तरह फैली हुयी (विस्तीण) जगह पर नेत्र जमा कर यानी दत्तावधान हो कर चलते थे। ऐसा अर्थ करने में वृत्तिकार को बहन खींचातानी करनी पड़ी है / इसलिए ध्यानपरक अर्थ ही अधिक सीधा और संगत प्रतीत होता है। जो ऊपर किया गया है। 1. भगवती सूत्र वृत्ति पत्र 643-644 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 302 / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सत्र 258-264 ध्यान-साधना में विघ्न-पहला विघ्न- भगवान महावीर जब पहर-पहर तक तिर्यकभित्ति पर दृष्टि जमाकर ध्यान करते थे, तब उनकी आँखों की पुतलियाँ ऊपर उठ जातीं, जिन्हें देख कर बालकों की मण्डली डर जाती और बहुत-से बच्चे मिलकर उन्हें 'मारो-मारो' कह कर चिल्लाते। वृत्तिकार ने सा हंता बहवे दिसु' का अर्थ किया है.--"बहुत-से बच्चे मिलकर भगवान को धूल से भरी मुट्ठियों से मार-मार कर चिल्लाते, दूसरे बच्चे हल्ला मचाते कि देखो, देखो इस नंगे मुण्डित को, यह कौन है ? कहाँ से आया है ? किसका सम्बन्धी है ? आशय यह है कि बच्चों की टोली मिलकर इस प्रकार चिल्ला कर उनके ध्यान में विघ्न करती। पर महावीर अपने ध्यान में मग्न रहते थे। यह पहला विघ्नं था।' . दूसरा विघ्न-भगवान एकान्त स्थान न मिलने पर जब गृहस्थों और अन्यतीथिकों से संकुल स्थान में ठहरते तो उनके अद्भुत रूप-यौवन से आकृष्ट होकर कुछ कामातुर स्त्रियाँ आकर उनसे प्रार्थना करतीं, वे उनके ध्यान में अनेक प्रकार से विघ्न डालतीं, मगर महावीर अब्रह्मचर्य-सेवन नहीं करते थे, वे अपनी अन्तरात्मा में प्रविष्ट होकर ध्यानलीन रहते थे। तीसरा विघ्न-भगवान को ध्यान के लिए एकान्त शान्त स्थान नहीं मिलता, तो वे गहस्थ-संकुल स्थान में ठहरते, पर वहाँ उनसे कई लोग तरह-तरह की बातें पूछकर या न पूछकर भी हल्ला-गुल्ला मचाकर ध्यान में विघ्न डालते, मगर भगवान किसी से कुछ भी नहीं कहते / एकान्त क्षेत्र की सुविधा होतो तो वे वहाँ से अन्यत्र चले जाते, अन्यथा मन को उन सब परिस्थितियों से हटाकर एकान्त बना लेते थे, किन्तु ध्यान का वे हगिज अतिक्रमण नहीं करते थे। चौथा विघ्न-भगवान अभिवादन करने वालों को भी प्राशीर्वचन नहीं कहते थे और पहले (चोरपल्ली आदि में) जब उन्हें कुछ अभागों ने डंडों से पीटा और उनके अंग-भंग कर दिए या काट खाया, तब भी उन्होंने शाप नहीं दिया था। स-मौन अपने ध्यान में मग्न रहे। यह स्थिति अन्य सब साधकों के लिए बड़ी कठिन थो। पाँचवां विघ्न-उनमें से कोई कठोर दुःसह्य वचनों से क्षुब्ध करने का प्रयत्न करता, तो कोई उन्हें आख्यायिका, नत्य, संगीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि कार्यक्रमों में भाग लेने को कहता, जैसे कि एक वीणावादक ने भगवान को जाते हुए रोक कर कहा था- "देवार्य ! ठहरी;" मेरा वीणावादन सुन जानो।"५ भगवान् प्रतिकूल-अनुकूल दोनों प्रकार की परिस्थिति को . ध्यान में विघ्न समझकर उनसे विरत रहते थे। वे मौन रह कर अपने ध्यान में ही पराक्रम करते रहते। छठा विघ्न---कहीं परस्पर कामकथा या गप्पं हाँकने में ग्रासक्त लोगों को भगवान हर्षशोक से मुक्त (तटस्थ) होकर देखते थे। उन अनुकल-प्रतिकल उपसर्ग रूप विघ्नों को वे स्मृतिपट पर नहीं लाते थे, केवल आत्मध्यान में तल्लीन रहते थे। 2. प्राचा० शीला० टीका पत्र 3.2 / / 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 302 / 3. आचा० शीला टीका पत्र 302 / / 4. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्र 302 / 5. आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० 343 / (ख) प्राचारांग चूणि, पृ. 303 // 6. पावा० शीला० टीका पत्र 303 / Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करवा सातवां विघ्न-यह भी एक ध्यानविन था बड़े भाई नंदीवर्द्धन के प्राग्रह से दो वर्ष तक गृहवास में रहने का / माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् 28 वर्षीय भगवान ने प्रव्रज्या लेने की इच्छा प्रगट की, इस पर नंदीवद्धन आदि ने कहा--"कुमार ! ऐसी बात कहकर हमारे घाव पर नमक मत छिड़को। माता-पिता के वियोग का दुःख ताजा है, उस पर तुम्हारे श्रमण बन जाने से हमें कितना दुःख होगा!" . .. __ भगवान ने अवधिज्ञान में देखकर सोचा-"इस समय मेरे प्रवृजित हो जाने से बहुत-से लोक शोक-संतप्त होकर विक्षिप्त हो जाएँगे, कुछ लोग प्राण त्याग देंगे।" अतः भगवान ने पुछा-- "आप ही बतलाएँ, मुझे यहाँ कितने समय तक रहना होगा ?" उन्होंने कहा- “मातापिता की मृत्यु का शोक दो वर्ष में दूर होगा। अतः दो वर्ष तक तुम्हारा घर में रहना आवश्यक है।" ___ भगवान ने उन्हें इस शर्त के साथ स्वीकृति दे दी कि, "मैं भोजन आदि के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रहँगा।" नन्दीवर्द्धन आदि ने इसे स्वीकार किया।' और सचमुच ध्यान-विघ्नकारक गहवास में भी निलिप्त रहकर साधु-जीवन की साधना की। एगत्तिगते-एकत्वभावना से भगवान का अन्तःकरण भावित हो गया था। तात्पर्य यह है कि "मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ।" इस प्रकार की एकत्वभावना से वे प्रोत-प्रोत हो गए थे। वृत्तिकार और चूर्णिकार को यही व्याख्या अभीष्ट है / ' पिहितञ्चे-शब्द के चर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं-अर्चा का अर्थ प्रास्रव करके इसका एक अर्थ किया है जिसके प्रास्रव-द्वार बन्द हो गए हैं। (2) अथवा जिसकी अप्रशस्तभाव रूप अचियाँ अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रग्नि की ज्वालाएँ शान्त हो गयी हैं, वह भी पिहिताज़े है। वत्तिकार ने इससे भिन्न दो अर्थ किए है-(१) जिसने अर्चा-क्रोध-ज्वाला स्थगित कर दी है, वह पिहिताज़ है, अथवा (2) अर्चा यानी तन (शरीर) को जिसने पिहितसंगोपित कर लिया है, वह भी पिहितार्च है।' हिसा-विवेकयुक्त चर्या 265. पुढवि च आउकायं च तेउकायं च वायुकायं च / पणगाईबीयहरियाई तसकायं च सध्वसो बच्चा // 52 // 266. एताई संति पडिलेहे चित्तमंताई से अभिष्णाय / परिवज्जियाण विहरित्था इति संखाए से महावीरे // 53 // 1. प्राचा० शीला० टीका पत्र 303 / 2. (क) प्राचा. 'शीला० टीका पत्र 303 / (ख) आचारांग चूणि----प्राचा० मूलपाठ टिप्पण 10 91 / 3. (क) पिहितचा के अर्थ चूर्णिकार ने यों किए है-पिहिताओ अच्चाओ जस्स भवति पिहितासयो. अच्चा पुवणिता "भावाचातो वि अप्पसत्थाओ पिहिताओ रागदोसाणिलजाला पिहिता। ..... प्राचारांग गि-आचा० मूलपाट टिप्पण पृ० 11 / (ख) आचा• शीला० टीका पत्र 303 // Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 265-276 313 267. अदु थावरा तसत्ताए तसजीवा य थावरत्ताए। अदुवा' सध्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला // 54 // 268. भगवं च एवमण्णेसि सोवधिए हुलुपती बाले / कम्मं च सव्वसो णच्चा तं पडियाइखे पावगं भगवं // 55 // 269. दुविहं समेच्च मेहावी किरियमक्खायमणेलिसि णाणी। आयाणसोतमतिवातसोतं जोगं च सव्यसो गच्चा // 56 // 270. अतिवत्तियं अणाउटिंट सयमण्णेसि अकरणयाए / जस्सित्थोओ परिण्णाता सम्वकम्मावहाओ सेऽदक्खू // 57 // 271. अहाकडं ण से सेवे सव्वसो कम्मुणा य अदक्ख / जं किंचि पावगं भगवं तं अकुव्वं वियर्ड भुजित्था // 58 // 272. णासेवइय परवत्थं परपाए वि से ण भुजित्था / परिवज्जियाण ओमाणं गच्छति संखडिं असरणाए // 59 // 273. मातण्णे असणपाणस्स गाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे / अच्छि पिणो पमज्जिया णो वि य कंडयए मुणी गातं // 60 // - 274. अयं तिरियं फेहाए अप्पं पिटुओ उपेहाए / अप्पं बुइए पडिभाणी पंथपेही चरे जतमाणे // 61 // 1. 'अदु (वा) सस्वजोणिया सत्ता' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-'अदुति अधसद्दा अबभंसो सुहदुह उच्चारणत्ता।' -- 'अदु' शब्द 'अधस द्दा' या 'अदुहा' का अपभ्रंश है, इसका अर्थ होता है-जो अपने सुख-दुःख का उच्चारण कर (कह) नहीं सकते, ऐसे सर्वयौनिक प्राणी। भगवं च एव मण्णेसि का अर्थ चणिकार ने इस प्रकार किया है-च पूरणे, एवमवधारणे, एवं अन्त्रिसित्ता ज भणितं भवति अणचितेत्ता।'--इस प्रकार भगवान को प्रनिश्रित-अज्ञानी जो कुछ वचन बोलते थे, उस पर वे अनुचिन्तन करते / यानी सिद्धान्तानुसार चिन्तन करते थे। 3. इसका अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है--"इव्हि कोरतीति कम्म... सतित्थग रक्खाय अन्ने लिसं-असरिसं. किरियं च / " दो प्रकार के कर्म... जो कि समस्त तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित थे (उन्हें जानकर) असरश-अनुपम त्रिया वा प्रतिपादन किया। 4. अतिवत्तिय के बदले किसी-किमी प्रति में "अतिवाइम अतिवातिय" पाठ मिलते हैं, इन दोनों का अर्थ है-पातक (पाप) से अतिक्रान्त-निर्दोष (निष्पाप)। अतिवत्तियं का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है-अतिवत्तिय अणाटिट अतिवादिजाति जेण सो अतिवादो हिंसादि, आउंटणं करणं तं अतिवातं णाउट्टति-जिससे प्रतिपाद किया जाता है, वह अतिपाद-हिमादि है / प्राकुट्टण करना अतिपात है__ हिसा है इसलिए अनाकृट्टि अहिंगा-अनतिपात का नाम है। 5. 'सव्वसो कम्मुणा य अभया' से लेकर 'ज किं चि पावगं तक पंक्ति में पाठान्तर चूणिसम्मत यों है ' कम्मुणा य अवक्खु जं किंचि अपावर्ग' अर्थात् —जो कुछ पाप हित है, उसे कर्म से देख लिया था। 6. 'अप्प' प्रादि पंक्ति का अर्थ चर्णिकार ने यों किया है-"अप्पमिति अभावे' ण गच्छतो तिरियं पेहितवां, ण वा पिट्ठतो पच्चष नोगितवा ।'----अप्प यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है / अर्यान्-- भगवान चलते समय न तिरछा (दाएँ-बाएँ) देखते थे और न पीछे देखते थे। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्तन्य 275. सिसिरंलि अद्धपडिवण्णे तं वोसज्ज वत्थमणगारे। : पसारेत्तु 'बाहुं परक्कमे णो अवलंबियाण कंधसि // 62 // 276. एस विधी अणुक्कतो. माहणेण मतीमता। . बहुसो३ अपडिण्णेण भगबया एवं : रीयंति // 63 // ति बेमि / // पढमो उद्देसओ सम्मत्तो।। 265. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद-शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं प्रसकाय - इन्हें--सबै प्रकार से जानकर / / 2 / / 266. 'ये अस्तित्ववान् हैं', यह देखकर 'ये चेतनावान् है' यह जानकर, उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे भगवान महावीर उनके प्रारम्भ का परित्याग करके विहार करते थे / / 53 // 267. स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीब स (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं अथवा ससारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक् 7. 'अप्पं वुतिए पडिभाणी' इस प्रकार का पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है - 'पुच्छिते अप्पं पडिभणति, अभावे दम्वो अप्पसद्दो, मोणेण अच्छति'-पूछने पर अल्प-नहीं बोलते थे, यहाँ भी ... अप्पशब्द अभाव अर्थ में समझना चाहिए / यानी भगवान मौन हो जाते थे। . 1. इसके बदले 'पसारेतु बाहुं पक्कम्म' पाठान्तर मानकर चर्णिकार ने अर्थ किया है--'बाहं (ह) पसा रिय कमति, णो अवलंबित्ताण कंठंसि, बाहूहि कंठोवलंबितेहिं हिययस्स उन्भा भवनि, तेण सभिज्जइ .. सरीरं, स तु भगवं सतुसारेवि सीते. जहापणिहिते बाहूहि परिकमितवा, ण को अवलंबितवां / अर्थात्-- . भगवान बाहें (नीचे) पसार कर चलते थे, कंठ में लटका कर नहीं, भुजाओं को कंठ में लटकाने से छाती का उभार हो जाता है. जिससे शरीर एकदम सट जाता है, किन्तु भगवान शीतऋतु में हिमपात ...... होने पर भी स्वाभाविक रूप से बाँहों को नीचे फैलाए हुए चलते थे, कंठ का सहारा लेकर नहीं। 2. इसके बदले पाठान्तर हैं-'अणोकतो', 'अण्णोक्कतो', 'यऽणोकतो' / चूणिकार ने अण्णोणोक्कतो और अणुक्कतो' ये दो पाठ मानकर अर्थ क्रमश: यों किया है-'रियाहिगारपडिसमाजस्थि (स्थं) इमं भषणति-एस. विही अण्णो (गो) क्कतो "अणु , पच्छाभावे, जहा अपहि तित्थगरेहि कतो, तहा तेणावि, अतो अणुक्कतो।' यह विधि अन्याऽनक्रान्त है-यानी दूसरे तीर्थरों के मार्ग का अतिक्रमण नहीं किया। चरिताधिकार प्रति सम्मानार्थ यह कहा गया है-एम विधी / -ह विधि अनुक्रान्त है / अनु पश्चाद्भाव अर्थ में है। जैसे अन्य तीर्थंकरों ने किया, वैसे ही उन्होंने भी किया, इसलिए कहा- अणुक्कतो। 3. चूणि में पाठान्तर है- अपडिण्ण वीरेण कासवेण महेरिणा। अर्थात् -- अज्ञ काश्य पगोत्रीय महर्षि महावीर ने बहुसो अपडियण रीय (ब) ति' को अर्थ चूणिकार में इस प्रकार किया है-'बहुसो इति अगसो पडिण्णो भणितो, भगवता रीयमाणेण रीयता एवं बेमि जहा मया मुतं / '-- बहुसो का अर्थ है--अनेक + बार, अपडिण्णो का अर्थ कहा जा चुका है। भगवान ने (इस चर्या के अनुमार) चलकर। चूणियार को रीयंति के बदले ‘रीयता' पाठ सम्मत मालूम होता है। / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नधर्म अध्ययन : प्रेपम उद्देशक : सूत्र 265-276 .315 पृथक रूप से संसार में स्थित है या अज्ञानी जीव अपने कर्मों के कारण पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं / / 14 / / 268. भगवान ने यह भलीभाँति जान-मान लिया था कि द्रव्य-भाव-उपधि (परिग्रह) से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही (कर्म से) क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन को सर्वांग रूप से जानकर भगवान ने कर्म के उपादान रूप पाप का प्रत्याख्यान (परित्याग) कर दिया था / / 5 / / - 269. ज्ञानी और मेधावी भगवान ने दो प्रकार के कर्मों (ईनित्यय और साम्परायिक कर्म) को भलीभांति जानकर तथा प्रादान (दुष्प्रयुक्त इन्द्रियों के) स्रोत, अतिपात (हिंसा, मृषावाद आदि के) स्रोत और योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) को: सब प्रकार से समझकर दूसरों से विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है // 56 // 270 भगवान ने स्वयं पाप-दोष से रहित-निर्दोष अनाकुट्टि (अहिंसा) का आश्रय लेकर दूसरों को भी हिंसा न करने की (प्रेरणा दी) / जिन्हें स्त्रियाँ (स्त्री:: / सम्बन्धी काम-भोग के कटु परिणाम) परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि 'ये काम-भोग समस्त पाप-कमों के उपादान कारण हैं', (ऐसा जानकर भगवान . ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया) / / 57 // . . . . . . . . . . 271 भगवान ने देखा कि प्राधाकर्म आदि दोषयुक्त पाहार ग्रहण सब . तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने प्राधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया। भगवान उस पाहार से सम्बन्धित कोई भी पाप नहीं करते थे। वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे / / 58 / / ... . . . . . . . . 272 (भगवान स्वयं वस्त्र वा पात्र नहीं रखते थे इसलिए) दूसरे (गहस्थ या' साधू) के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे। वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना (अदीनमनस्क होकर) : पाकशाला (भोजनगृहों) में भिक्षा के लिए जाते थे / / 59 / / . 273 भगवान अशन-पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में प्रासक्त नहीं थे, वे (भोजन-सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनोन्द्र महावीर आँख में रजकण . आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे // 60 // 274. भगवान चलते हुए न तिरछे (दाएँ-बाएँ) देखते थे, और न पीछे-पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे / वे यतनापूर्वक मार्ग'को देखते हुए चलते थे / / 61 / / / 275. भगवान उस (एक) वस्त्र का भी- (मन से) व्युत्सर्ग कर चुके थे / . अत: शिशिर ऋतु में वे दोनों बाँहें फैलाकर चलते थे, उन्हें कन्धों पर रखकर खड़े. नहीं होते थे / / 62 // Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 276. ज्ञानवान् महामाहन भगवान महावीर ने इस (पूर्वोक्त क्रिया) विधि के अनुरूप प्राचरण किया / अनेक प्रकार से (स्वयं आचरित क्रियाविधि) का उपदेश दिया / अतः मुमुक्षुजन कर्मक्षयार्थ इसका अनुगमन करते हैं // 63 // --ऐसा मैं कहता हूँ। * विवेचन अहिंसा का विवेक-सूत्र 265 से 276 तक भगवान की अहिंसायुक्त विवेकचर्या का वर्णन है। पुनर्जन्म और सभी योनियों में जन्म का सिद्धान्त-पाश्चात्य एवं विदेशी धर्म पुनर्जन्म को मानने से इन्कार करते हैं, चार्वाक आदि मास्तिक तो कतई नहीं मानते, न वे शरीर में आत्मा नाम का कोई तत्त्व मानते हैं, न ही जीव का अस्तित्व वर्तमान जन्म के बाद मानते हैं / परन्तु पूर्वजन्म की घटनाओं को प्रगट कर देने वाले कई व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिलने और उनका अध्ययन करने से परामनोवैज्ञानिक भी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पुनर्जन्म है, पूर्वजन्म है, चैतन्य इसी जन्म के साथ समाप्त नहीं होता। भगवान महावीर के समय में यह लोक-मान्यता प्रचलित थी कि स्त्री मरकर स्त्री योनि में ही जन्म लेती है, पुरुष मरकर पुरुष ही होता है तथा जो जिस योनि में वर्तमान में है, वह अगले जन्म में उसी योनि में उत्पन्न होगा / पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव ही बनेंगे, त्रसकायिक किसी अन्य योनि में उत्पन्न नहीं होंगे, सयोनि में ही उत्पन्न होंगे। भगवान ने इस धारणा का खण्डन किया और युक्ति, सूक्ति एवं अनुभूति से यह निश्चित रूप से जानकर प्रतिपादन किया कि अपने-अपने कर्मोदय क्श जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है, त्रस, स्थावर रूप में जन्म ले सकता है और स्थावर, त्रस रूप भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'भगवन् ! यह जीव पृथ्वीकाय के रूप से लेकर त्रसकाय के रूप तक में पहले भी उत्पन्न हुआ है ?' उत्तर में कहा है- "अवश्य, बार-बार ही नहीं, अनन्त बार सभी योनियों में जन्म ले चुका है। '2 इसीलिए कहा गया-"अदु थावरा . " अदुवा सदबाजोगिया सत्ता।" कर्मबन्धन के स्रोतों की खोज और मुक्ति की साधना—यह निश्चित है कि भगवान महावीर ने सर्वथा परम्परा की लीक पर न चलकर अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा और अनुभूति से सत्य को खोज करके प्रात्मा को बांधने वाले कर्मों से सर्वथा मुक्त होने की साधना की / उनकी इस साधना का लेखा-जोखा बहुत संक्षेप में यहाँ अंकित है। उन्होंने कर्मों के तीन स्रोतों को सर्वथा जान लिया था (१)आदानस्रोत-कर्मों का आगमन दो प्रकार की प्रियाओं से होता है--साम्परायिक 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 304 / 2. "अयं णं भंते ! जीवे पुडविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववरणपुरवे ?' हता गोयमा ! असई अदुवा अणतनुत्तो जाव उववण्णपुटवे "-भगवतीसूत्र 1217 सूत्र 140 (अंग सु०) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देश्क : सूत्र 265-276 317 क्रिया से और ईप्रित्यायिक क्रिया से / अयतनापूर्वक कषाययुक्त प्रमत्तयोग से की जाने वाली साम्परायिक क्रिया से कर्मबन्ध तीव्र होता है, संसारपरिभ्रमण बढ़ता है, जबकि यतनापूर्वक कषाय रहित होकर अप्रमत्तभाव से की जाने वाली ईर्याप्रत्ययक्रिया से कर्मों का बन्धन बहुत हो हल्का होता है, संसारपरिभ्रमण भी घटता है / परन्तु हैं दोनों ही पादानस्रोत / (2) अतिपातम्रोत-अतिपात शब्द में केवल हिंसा ही नहीं, परिग्रह, मैथुन, चोरी, असत्य आदि का भी ग्रहण होता है। ये प्रास्रव भी कर्मों के स्रोत हैं, जिनसे प्रतिपातक (पाप) होता है, वे सब (हिंसा आदि) अतिपात हैं / यही अर्थ चूर्णिकारसम्मत है। (3) त्रियोगरूप स्रोत - मन-वचन-काया इन तीनों का जब तक व्यापार (प्रवृत्ति) चलता रहेगा, तब तक शुभ या अशुभ कर्मों का स्रोत जारी रहेगा। यही कारण है कि भगवान ने अशुभ योग से सर्वथा निवृत्त होकर सहज वृत्त्या शुभयोग में प्रवृत्ति की। इस प्रकार कर्मों के स्रोतों को बन्द करने के साथ-साथ उन्होंने कर्ममुक्ति की विशेषत: पापकर्मो से सर्वथा मुक्त होने की साधना का।' भगवान महावीर को दृष्टि में निम्नोक्त कर्मस्रोत तत्काल बन्द करने योग्य प्रतीत हुए, जिनको उन्होंने बन्द किया (1) प्राणियों का प्रारम्भ / (2) उपधि-बाह्य-ग्राभ्यन्तर परिग्रह / (3) हिंसा की प्रवृत्ति / (4) स्त्री-प्रसंग रूप अब्रह्मचर्य / (5) प्राधाकर्म आदि दोषयुक्त अाहार / (6) पर-वस्त्र और पर-पात्र का सेवन / (7) आहार के लिए सम्मान और पराश्रय की प्रतीक्षा / (8) अतिमात्रा में प्राहार / (9) रस-लोलुपता। (10) मनोज्ञ एवं सरस आहार लेना। (11) देहाध्यास-आँखों में पड़ा रजकण निकालना, शरीर खुजलाना प्रादि / (12) अयतनाव चंचलता से गमन / (13) शीतकाल में शोत निवारण का प्रयत्न / ' कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला-का तात्पर्य है-राग-द्वप से प्रेरित होकर किये हए अपनेअपने कर्मों के कारण अज्ञ जीव पृथक्-पृथक् वार-बार सभी योनियों में अपना स्थान बना लेते हैं / 1. आचा० शीला• टीका पत्रांक 304 / 2. आचासंग मूल पाठ एवं वृत्ति-पत्र 304-305 के आधार पर / 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 304 / Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रृंतस्कन्ध . सोवधिए हु लुप्पती'- इस पंक्ति में 'उपधि' शब्द विशेष अर्थ को सूचित करता है / उपधि तीन प्रकार की बतायी गयी है-(१)शरीर,(२)कर्म और(३)उपकरण आदि परिग्रह / वैसे बाह्य-प्राभ्यन्तर परिग्रह को भी उपधि कहते हैं / भगवान मानते थे कि इन सबं उपधियों से मनुष्य का संयमी जीवन दब जाता है / ये उपधियाँ लुम्पक-लुटेरी हैं। 'जस्सित्थीओ परिष्णाता-स्त्रियों से यहाँ अब्रह्म-कामवासनाओं से तात्पर्य है / 'स्त्री' शब्द को अब्रह्मचर्य का प्रतीक माना है जो इन्हें भली-भांति समझकर त्याग देता है, वह कर्मों के प्रवाह को रोक देता है / यह वाक्य उपदेशात्मक है, ऐसा चूर्णिकार मानते हैं / परवस्त्र, परपात्र के सेवन का त्याग-णि के अनुसार भगवान ने दीक्षा के समय जो देवदृष्य वस्त्र धारण किया था, उसे 13. महीने तक सिर्फ कंधे पर टिका रहने दिया, शीतादि निवारणार्थ उसका उपयोग बिलकुल नहीं किया। वही वस्त्र उनके लिए स्ववस्त्र था, जिसका उन्होंने 13 महीने बाद व्युत्सर्ग कर दिया था, फिर उन्होंने पाडिहारिक रूप में भी कोई वस्त्र धारण नहीं किया। जैसे कि कई संन्यासी गृहस्थों से थोड़े समय तक उपयोग के लिए वस्त्र ले लेते हैं, फिर वापस उन्हें सौंप देते हैं। भगवान महावीर ने अपने श्रमण संघ में गृहस्थों के वस्त्र-पात्र का उपयोग करने की परिपाटी को सचित्त पानी प्रादि से सफाई करने के कारण पश्चात्कर्म आदि दोषों का जनक माना है। भगवान ने विजित होने के वाद प्रभम पारणे में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था, तत्पश्चात वे कर-पात्र हो गए थे। फिर उन्होंने किसी के पात्र में पाहार नहीं किया / बल्कि नालन्दा की तन्तुवायशाला में जब भगवान विराजमान थे, तब गोशालक ने उनके लिए आहार ला देने की अनुमति माँगी, तो 'गृहस्थ के पात्र में आहार लाएगा' इस सम्भावना के कारण उन्होंने गोशालक को मना कर दिया। केबलज्ञानी तीर्थकर होने पर उनके लिए-लोहार्य मुनि गृहस्थों के यहां से ग्राहार लाता था, जिसे वे पात्र में लेकर नहीं, हाथ में लेकर करते थे। आहार-सम्बन्धी दोषों का परित्याग-ग्राहार ग्रहण करने के समय भी जैसे दोषों से साव१. प्राचा * शीला * टीका पत्रांक 304 / 2. (क) आचा. शीला टीका पत्रांक 305 / (ख) इसके बदले चूणि कार 'तस्सित्थीओ परिष्णाता' पाठ मानते हैं, उसका अर्थ भगवान महावीर परक करके फिर कहते हैं- 'अहवा उवदेसिगमेव... जस्सिस्थीओ परिष्णाता / ' अर्थात् अथवा . यह उपदेशपरक वाक्य ही है जिसको स्त्रियाँ (स्त्रियों की प्रकृति) परिज्ञात हो जाती है।' --आचा० चूणि मू. पा० टिप्पण पृ० 52 3. चर्णिकार ने मासेवई य परवत्थं' मानकर अर्थ किया है -- "जं तं दिम्ब देवदूस पम्वयं तेग गहि त साहियं वरिस खंधेण चेव धरित ग वि पाउयं तं मुइत्ता सेस परवत्थ पाडिहारितर्माद ण धरितवांके वि इच्छति सवत्थं तस्स तत्, सेसं परवत्यं जंगादि तं णासेवितवां।" -प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 92 / 4. अावश्यक चूणि पूर्व भाग पृ० 271 / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 277 धान रहना पड़ता है, वैसे ही पाहार का सेवन करते समय भी। भगवान ने आहार सम्बन्धी निम्नोक्त दोषों को कर्मबन्धजनक मानकर उनका परित्याग कर दिया था (1) प्राधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार / (2) सचित्त अाहार / (3) पर-पात्र में आहा र-सेवन / (4) गृहस्थ आदि से आहार मँगा कर लेना, या पाहार के लिए जाने में निमंत्रण, मनुहार या सम्मान की अपेक्षा रखना।' --TF (5) मात्रा से अधिक आहार करना / (6) स्वादलोलुपता। (7) मनोज्ञ भोजन का संकल्प / / .: : 'अप तिरिय...'आदि गाथा में 'अप्प' शब्द अल्पार्थक न होकर निषेधार्थक है। चलते समय भगवान का ध्यान अपने सामने पड़ने वाले पथ पर रहता था, इसलिए न तो वे पीछे देखते थे, न दाएं-बाएँ, और न ही रास्ते चलते बोलते थे / / अणुक्कतो-का अर्थ वृत्तिकार करते हैं अनुचोर्ण-पाचरित / किन्तु चूर्णिकार इसके दो अर्थ फलित करते हैं- :.. ... (1) अन्य तीर्थंकरों के द्वारा प्राचरित के अनुसार आचरण किया / (2) दूसरे तीर्थंकरों के मार्ग का अतिक्रमण न किया / अतः यह अन्यानतिक्रान्त विधि है। 3 : . 'अपडिणेण भगवया' भगवान किसी विधि-विधान में पूर्वाग्रह से, निदान से या हठाग्रहपूर्वक बंध कर नहीं चलते थे। वे सापेक्ष-अनेकान्तवादी थे। यह उनके जीवन में हम देख सकते ॥प्रथम उद्देशक समाप्त / / / बिइओ उददेसओ. . द्वितीय उद्देशक शय्या-आसन चर्या / / 277. चरियासणाई' सेज्जाओ एगतियाओ जाओ बुइताओ। आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेवित्थ से महाबीरे // 64 / / 1. आचासंग मूल तथा बृत्ति पत्र,३०५ के आधार पर। .. प्राचा० शीला० टीका पत्र 305 / 3. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 305 / (ख) चूणि मूल पाठ सू० 276 का टिप्पण देखें / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्र 306 के आधार पर / 5. चूणिकार ने दूसरे उद्देशक की प्रथम गाथा के साथ संगति बिठाते हुए कहा--चरियाणतरं सेज्जा, तद्वि भागो अवदिस्सति--च तासणाई सिजाओ एगतियागो जाओ वुतिताओ। आइक्ख ताति सयणासणाई जाई सेवित्य से महावीरे। एसा पुच्छा / चर्या के अनन्तर शय्या (वासस्थान) है, उसके विभाग का Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 278. आवेसण-सभा-पवासु' पणियसालासु एगदा वासो। अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपुजेसु एगदा वासो // 65 // 279. आगंतारे२ आरामागारे नगरे वि एगदा वासो। सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले वि एगदा बासो // 66 // 280. एतेहिं मुणी सयहिं समणे आसि पतेरस वासे / राइंदिवं पि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिते झाती // 67 / / 277. (जम्बूस्वामी ने प्रार्य सुधर्मास्वामी से पूछा)--'भंते ! चर्या के साथसाथ एक बार आपने कुछ प्रासन और वासस्थान बताये थे, अत: मुझे आप उन वासस्थानों और आसनों को बताएँ, जिनका सेवन भगवान महावीर ने किया था / / 64 // 278. भगवान कभी सूने खण्डहरों में, कभी सभाओं (धर्मशालाओं) में, कभी प्याउनों में और कभी पण्यशालाओं (दुकानों) में निवास करते थे। अथवा कभी लुहार, सुथार, सुनार आदि के कर्मस्थानों (कारखानों) में और जिस पर पलालपुज रखा गया हो, उस मंच के नीचे उनका निवास होता था / / 65! / 279. भगवान कभी यात्रीगृह में, कभी पारामगृह में, अथवा गाँव या नगर में निवास करते थे। अथवा कभी श्मशान में, कभी शून्यगृह में तो कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते थे / / 66 / / 280. त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन (पूर्वोक्त) वासस्थानों में साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और समत्वयुक्त मन से रहे। वे रातदिन (मन-वचन-काया की) प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा प्रमत्त और समाहित (मानसिक स्थिरता की) अवस्था में ध्यान करते थे // 67 / / निद्रात्याग-चर्या 281. णिई पि णो पगामाए सेवइया भगवं उठाए / जग्गावती य' अप्पाणं ईसि साई य अपडिण्णे / / 68 / / व्यपदेश करते हैं-"आपने एक दिन भगवान की चर्या प्रासन और शय्या के विषय में वहा था. : उन शयनों (वासस्थानों) और ग्रासनों के विषय में बताइए, जिनका भगवान महावीर ने सेवन किया था।" यह सुधर्मास्वामी से जम्बूस्वामी का प्रश्न है। 1. 'पणियसालासु' के बदले 'पणियगिहेसु' पाठ है / अर्थ समान है। 2. इसके बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है--""आरामागारे गामे रणे वि एकता बासो। अर्थात् आराम गृह में, गाँव में या वन में भी कभी-कभी निवास करते थे। 3. 'पतरसवासे' के बदले पाठान्तर 'पतेलसवासे' भी है। चूणिकार ने किया है --- 'पगतं पत्थिय वा तेरसमं वरिस, जेसि वरिमाणं ताणिमाणि-पतेरसवरियाणि ।"---तेरहवां वर्ष प्रगत-चल रहा था, प्रस्थित था--प्रस्थान कर चुका था। प्रत्रयोदश वर्ष से सम्बन्धित नो 'प्रत्रयोदशथपं.' कहते हैं / ' चणिकार ने स्वसम्मत तथा नागार्जुनीयसम्मत दोनों पाठ दिये हैं-णि 6 णो पगामादे सेव इया भगवं, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 281-284 321 282. संबुज्नमाणे पुनरवि आसिसु भगवं उट्ठाए / गिसम्म एगया राओ बहिं चंकमिया' मुहुत्तागं // 69 // 2810 भगवान निद्रा भी बहुत नह लेते थे, / (निद्रा आने लगती तो) वे खड़े होकर अपने पापको जगा लेते थे। (चिरजागरण के बाद शरीर धारणार्थ कमी जरा-सी नींद ले ले थे / किन्तु सोने के अभिप्राय से नहीं सोते थे। / / 6 / / ) 282. भगवान क्षण भर की निद्रा के बाद फिर जागृत होकर (संयमोत्थान से उठकर) ध्यान में बैठ जा थे। कमो-कमो (शोतकाल की) रात में (निद्रा प्रमाद मिटाने के लिए) मुहूर्त भर बाहर घूमकर (पुनः अपने स्थान पर पाकर ध्यान-लीन हो जाते थे) / / 69 / / विविध उपसर्ग 283. सयणेहि तस्सुवसम्गा' भीमा आसी अणेगरूवा य / संसप्पगा य जे पाणा अदुवा पक्खिणो उवचरंति // 7 // 284. अदु कुचरा उवधरंति गामरक्खा य सत्तिहत्था य / अदु गामिया उत्सग्गा इत्थी एगतिया पुरिसा य / / 71 // 283. उन ग्रावास-स्थानों में भगवान को अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग पाते थे। (वे ध्यान में रहते, तब) कभी सांप और नेवला आदि प्राणी काट खाते, कभी गिद्ध आदि पक्षी पाकर मांस नोचते / / 7 / / 284. अथवा कभी (शून्य गह में ठहरते तो उन्हें चोर या पारदारिक (बभिचारी पुरुष) आकर तंग करते, अथवा कभी हाथ में शस्त्र लिए हुए ग्रामरक्षक (पहरे दार) या कोतवाल उन्हें कष्ट देते, कभी कामासक्त स्त्रियाँ और कभी पुरुष उपसर्ग देते थे !!71. तथा बिदा विण पगामा आसो तहेव उठाए'--अर्थ-भगवान ने (खड़े होकर) माढ रूप से निद्रा का सेवन नहीं किया। भगवान की निद्रा अत्यन्त नहीं थी, तथैव वे खड़े हो जाते थे। 5. इस पंक्ति का अर्थ चूणिकार ने किया है-'जम्माइतमा अप्पागं माग' भगवान ने अपनी आत्मा को धान से. जागृत कर लिया था। चणिकार ने इसके बदले 'ईसि सतितास' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-इत्तरकालं णिमेस उम्मेसमेत व (प) लमित्तं वा ईसि सइतवा पासी अपडिण्णो।' -अर्थात् ईषत् का अर्थ है -थोड़े काल तक, निमेष-उन्मेषमात्र या पलमात्र काल / भगवान सोये थे। वे निद्रा की प्रतिज्ञा से रहित थे। 1. इसके बदले 'संबुज्ममाणे पुणरावि'... पाठान्तर मानकर चूणिकार ने तात्पर्य बताया है.-'....ण परि. सेहाते, पसायति, णि दापमाद दिरं करोति' निद्रा आने लगती तो वे उसका निषेध नहीं करते थे, न अत्यन्त ध्यान करते थे और न ही चिरकाल तक निद्रा-प्रमाद करते थे। 2. इसके बदले 'परकमिया कमिया, कमित, चक्कमित्त आदि पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है। 3. 'तस्स' का तात्पर्य चूगिकार ने लिखा है--'तस्स छउमस्थकाले अरुहतो ....' छद्मस्थ अवस्था में आरूढ उन भगवान के.... / Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम् स्थान-परीवह 285. इहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरूबाई। अवि सुभिदुम्मिगंधाइं सद्दाई अणेगरूवाई // 72 // 286. अहियासए सया समिते फासाई - विरूवरूबाई। अरति रति अभिभूय रोयति माहणे अबहुवावी / / 7 / / 287. स जोह तत्य पुच्छिसु एगचरा वि एगदा रातो। / अवाहिते' कसाइत्था पेहमाणे समाहि अपडिण्णे3 1174 / / : . - 288. अयमंतरसि को एस्थ अहमंसि त्ति भिक्ख आहट्ट : अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए सकसाइए झाति 75 / / : 285. भगवान ने इहलौकिक (मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी) और. पारलौकिक (देव सम्बन्धी) नाना प्रकार के भयंकर उपसर्ग सहन किये। वे अनेक प्रकार के सुगन्ध . और दुर्गन्ध में तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में हर्ष-शोक रहित मध्यस्थ रहे 172 / / 286. उन्होंने सदा समिति-(सम्यक् प्रवृत्ति) युक्त होकर अनेक प्रकार के स्पर्शों को सहन किया 1 वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को (ध्यान द्वारा) शांत कर देते थे। वे महामाहन महावीर बहुत ही कम बोलते थे। वे अपने संयमानुष्ठान में प्रवृत्त रहते थे।७३।। 287. (जब भगवान जन-शून्य स्थानों में एकाकी होते तब) कुछ लोग आकर पूछते-"तुम कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो ?" कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते-'इस सूने घर में तुम क्या कर रहे हो ?'तब भगवान कुछ नहीं बोलते, 1. इस पंक्ति का तात्पर्य चूणिकार ने लिखा है.--- ‘एवं गुत्तागुत्ते सु 'संयहि तत्थ पुच्छिम् एगचार * वि एगदा राओ, एगा चरंति एगचरा, उन्भामियामो उब्भामगं पुच्छति अहवा दोवि जणाई आगम्म पुच्छंति ....मोणेणअच्छति ।'—इस प्रकार वासस्थानों (शयनस्थान) से गुप्त या अगुप्त होने पर भी रात को वहाँ कभी अकेले घूमने वाले या अवारागर्द या अवारागर्द से पूछते, या दोनों व्यक्ति भगवान के पास आकर पूछते थे....भगवान मौन रहते।। 2. 'अवाहित कसाइत्थ', का भावार्थ चूर्णिकार यों करते हैं- "पुच्छिज्जंतों विवायं ण देइ त्ति काऊणं रुस्संति पिट्टति" - अर्थात्-पूछे जाने पर भी जब कोई उत्तर वे नहीं देते, इस कारण वे रोष में आ जाते थे और पीटते थे। 3. 'समाहि अपडिण्णे' का तात्पर्य चर्णिकार के शब्दों में - "विसबसमास निरंही गंदा सुहसमाहिं च पेहमाणो विसयसंगदोसे य पेहमाणो इह परस्थ य अपडिण्णो'' -अर्थात्-रिषर सुखों की आशा के निरोधक भगवान मोक्षसुख समाधि की प्रेक्षा करते हुए विषयासक्ति के दोषों को देखकर इहलोक परलोक के विषय में अप्रतिज्ञ थे। 4. 'ए कसाइए', 'ए स कसातिते', 'ए सक्कसाइए' ये तीन पाठा-तर हैं। चूर्णिकार ने अर्थ किया है-- "गि हत्थे समत्त कसाइते संकसाइते, ते संकसाइते णातु झातिमेव / " गहस्थ का पूरी तरह से क्रोधादि कषायाविष्ट हो जाना संकयायित कहलाता है / भगवान गृहस्थ (पूछने वाले) को संकपायित जानकर ध्यानमग्न हो जाते थे। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 285-292 323 इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान समाधि में लीन रहते, परन्तु उनसे प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता // 74 // . ...... 288. उपवन के अन्तर-आवास में स्थित भगवान से पूछा-'यहाँ अन्दर कौन है ?' भगवान ने कहा-'मैं भिक्षु हूँ।' यह सुनकर यदि वे कोधान्ध होकर कहते --'शीघ्र ही यहाँ से चले जानो।' तब भगवान वहाँ से चले जाते / यह (सहिष्णता) उनका उत्तम धर्म है / यदि भगवान पर क्रोध करते तो वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे / / 75 // शीत-परीषह .. . . 289. जंसिप्पेगे' पवेति सिसिरे मारुए पवायंते। . . . तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाते णिवायमेसंति / / 76 / / 290. संघाडीओ पविसिस्सामोरे एघा य समादहमाणा। पिहिता वा सक्खामो 'अतिदुक्खं हिमगसंफासा' // 77 // 291. संसि भगवं अपडिण्णे अहे विगडे अहियासए दविए। णिक्खम्म एगदा रातो चाएति भगवं समियाए // 7 // 292. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता। बहुसो अपडिण्णणं भगवया एवं रोयंति // 79 // त्ति बेमि / // बीओ उद्देसओ समत्तो। 289. शिशिर ऋतु में ठण्डी हवा चलने पर कई (अल्पवस्त्रवाले) लोग कांपने लगते, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी निर्वातस्थान ढूँढ़ते थे।७६।। 290. हिमजन्य शीत-स्पर्श अत्यन्त दुःखदायी है, यह सोचकर कई साधु संकल्प करते थे कि चादरों में घुस जाएंगे या काष्ठ जलाकर किवाड़ों को बन्द करके इस ठंड को सह सकेंगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे / / 77 / / . 291. किन्तु उस शिशिर ऋतु में भो भगवान (निर्वात स्थान की खोज या 1. चर्णिकार ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है-“जति वि जम्हिकाले एते अन्नतिथिया गिहत्था वा णिवेदंति सिसिर, सिसिरे वा मारुतो पवायति भिसं वायति तसिप्पेगे अगतित्थिया"-जिस काल को ये अन्यतीर्थिक या गृहस्थ शिशिर कहते हैं, शिशि.र में ठंडी हवाएँ बहुत चलती हैं / उस काल में भी अन्यतीर्थिक लोग"..."। 2. इस पंक्ति के शब्दों का अर्थ चणिकार के शब्दों में-- "पविसिस्सामो = पाउणिस्सामो समिहातो कट्ठाई समाडहमाणा" अर्थात्-प्रविष्ट हो जायेंगे, आच्छादित कर (ढक) लेंगे / समिधा यानी लकड़ियों के ढेर से लकड़ियां निकालकर जलाते हैं। 3. चाएति का अर्थ चणिकार ने किया है.---'सहति' भावार्थ-~~-भगवं समियाए सम्भ, ण गारवभयट्ठाए वा सहति / अर्थात्-भगवान समताभाव से सम्यक सहन करते थे, गौरव या भय से नहीं / Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 भातासंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वस्त्र पहनने-मोढ़ने अथवा आग जलाने आदि का) संकल्प नहीं करते। कभी-कभी रात्रि में (सर्दी प्रगाढ़ हो जाती तब) भगवान उस मंडप से बाहर चले जाते, वहाँ मुहूर्तभर ठहर फिर मंडप में आ जाते / इस प्रकार भगवान शीतादि परीषह समभाव से या सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ थे।७७।। 292. मतिमान् महामाहन महावीर ने इस विधि का प्राचरण किया। जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म-विकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-भगवान द्वारा सेवित बासस्थान-सूत्र 278 और 279 में उन स्थानों के नाम. बताए हैं जहाँ ठहरकर भगवान ने उत्कृष्ट ध्यान-साधना की थी। वे स्थान इस प्रकार हैं (1) आवेशन (खण्डहर)। (2) सभा / (3) प्याऊ / (4) दूकान / (5) कारखाने / (6) मंच / (7) यात्रीगृह / (8) पारामगृह / (9) गांव या नगर (10) श्मशान / (11) शून्य गृह / (12) वृक्ष के नीचे। भगवान की संयम-साधना के अंग-मुख्यतया 8 रहे है (1) शरीर-संयम / (2) अनुकूल-प्रतिकूल परीषह-उपसर्ग के समय मन-संयम / (3) आहार-संयम / (4) वासस्थान-संयम / (5) इन्द्रिय-संयम / (6) निद्रा-संयम / (7) त्रियासंयम / (8) उपकरण-संयम / भगवान की संयम-साधना का रथ इन्हीं 8 चक्रों द्वारा अन्त तक गतिमान रहा। वे इनमें से किसी भी अंग से सम्बन्धित आग्रह से चिपक कर नहीं चलते थे। शरीर और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए (आहार, निद्रा, स्थान, आसन आदि के रूप में) वे अपने मन में अनाग्रही थे। 'अपडिणे' शब्द का पुनः पुनः प्रयोग यह ध्वनित करता है कि सहजभाव से साधना के अनुकूल जैसा भी आचरण शक्य होता वे उसे स्वीकार लेते थे। अमुक आसनों तथा त्राटक आदि सहजयोग की क्रियाओं से शरीर को स्थिर, संतुलित और मोह-ममता रहित स्फूर्तिमान रखने का वे प्रयत्न करते थे। वे सभी प्रकार के संयम, आन्तरिक प्रानन्द, प्रात्मदर्शन, विश्वात्मचिन्तन आदि के माध्यम से करते थे। भगवान की निद्रा-संयम की विधि भी बहुत ही अद्भुत थी। वे ध्यान के द्वारा निद्रासंयम करते थे। निद्रा पर विजय पाने के लिए वे कभी खड़े हो जाते, कभी स्थान से बाहर जाकर टहलने लग / इस प्रकार हर सम्भव उपाय से निद्रा पर विजय पाते थे। __ वासस्थानों-शयनों में विभिन्न उपसर्ग--भगवान को वासस्थानों में मुख्य रूप से निम्नोक्त उपसर्ग सहने पड़ते थे--- 1. आचा० शीला टोका पाक 307 / 2. आचा० शीला०टीका पत्रांक 307-308 के आधार पर। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगम मध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 282-212 325 (1) सांप और नेवलों आदि द्वारा काटा जाना / (2) गिद्ध प्रादि पक्षियों द्वारा मांस नोचना / (3) चींटी, डाँस, मच्छर, मक्खी आदि का उपद्रव / (4) शुन्य मह में चोर या लंपट परुषों द्वारा सताया जाना / (5) सशस्त्र ग्रामरक्षकों द्वारा सताया जाना। (6) कामासक्त स्त्री-पुरुषों का उपसर्ग। (7) कभी मनुष्य-तिर्यञ्चों और कभी देवों द्वारा उपसर्ग / (8) जनशून्य स्थानों में अकेले या आवारागर्द लोगों द्वारा ऊटपटांग प्रश्न पूछ कर तंग करना। (9) उपवन के अन्दर की कोठरी आदि में घुसकर ध्यानावस्था में सताना आदि / ' वासस्थानों में परीक्षह-(१) दुर्गन्धित स्थान, (2) ऊबड़-खाबड़ विषम या भयंकर स्थान, (3) सर्दी का प्रकोप, (4) चारों ओर से बंद स्थान का प्रभाव प्रादि / परन्तु इन वासस्थानों में साधनाकाल में भगवान साढ़े बारह वर्ष तक अहर्निश यतनाशील, अप्रमत्त और समाहित होकर ध्यानमग्न रहते थे। यही बात शास्त्रकार कहते हैं- 'एतेहि मुगी सयहि "समाहिते मातो।' 'संसप्पगा य जे पाणा ....... --वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या की है--'भुजा से चलने वाले शून्य-गृह आदि में विशेष रूप में पाए जाने वाले सांप, नेवला आदि प्राणी।' 'पक्खिणो उवचरंति'–श्मशान आदि में गीध प्रादि पक्षी पाकर उपसर्ग करते थे। 'कुचरा उबचरंति...'–कुचर का अर्थ वृत्तिकार ने किया है- चोर, परस्त्रीलंपट आदि लोग कहीं-कहीं सूने मकान आदि में आकर उपसर्ग करते थे। तथा जब भगवान तिराहों या चौराहों पर ध्यानस्थ खड़े होते तो ग्रामरक्षक शस्त्रों से लैस होकर उनके पास आकर तंग किया करते / 'अदु गामिया....."इत्थी एगतिया पुरिसाय'-इस पंक्ति का तात्पर्य वत्तिकार ने बताया है-कभी भगवान अकेले एकान्त स्थान में होते तो ग्रामिक-इन्द्रियविषय-सम्बन्धी उपसर्ग होते थे, कोई कामासक्त स्त्री या कोई कामूक पुरुष पाकर उपसर्ग करता था। भगवान के रूप पर मुग्ध होकर स्त्रियां उनसे काम-याचना करतीं, जब भगवान उनसे विचलित नहीं होते तो वे क्षुब्ध और उत्तेजित रमणियां अपने पतियों को भगवान के विरुद्ध भड़कार्ती और वे (उनके पति आदि स्वजन) आकर भगवान को कोसते, उत्पीड़ित करते / ____ 'अयमसमे से धम्मे तुसिजीए-भगवान के न बोलने पर या पूछने पर जवाब न देने पर तुच्छ प्रकृति के लोग रुष्ट हो जाते, मारते-पीटते, सताते या वहाँ से निकल जाने को कहते / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 307 / 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 307 // 5. प्राचा• शोला टीका पत्रांक 307 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 307 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 307 / Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्तन्ध इन सब परीषहों-उपसर्गों के समय भगवान मौन को सर्वोत्तम धर्म मानकर अपने ध्यान में मग्न हो जाते थे। वे अशिष्ट व्यवहार करने वाले के प्रति बदला लेने का जरा भी विचार मन में नहीं लाते थे / वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों इसी प्राशय की व्याख्या करते हैं / ' / / द्वितीय उद्देशक समाप्त // तईओ उद्देसओ .. . (लाढ देश में) उत्तम तितिक्षा-साधना . * 293. तणफासे सीतफासे य तेउफासे य दंसमसगे य / अहियासते सया समिते फासाई विरूवरूवाई / / 8 / / 294. अह दुच्चरलाढमचारी वज्जमूर्मि च सुम्भ भूमि च / ... : पंत सेज्ज सेविसु आसणगाई चेव पंताई / / 8 / / 295. लाहिर तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लसिसु / अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिसिसु णितिसु / / 82 / / 296. अप्पे जणे णिवारेति लसणए" सणए डसमाणे / ... छुच्छुकारेंति आहेतु समणं कुक्कुरा दसंतु ति / / 83 / / 297. एलिक्खए जणे भुज्जो बहवे बज्जभूमि फरूसासी। लट्ठि गहाय णालीयं समणा तस्थ एव विहरिसु // 84 // 298. एवं पि तत्थ विहरंता पुठ्ठपुवा अहेसि सुणएहि / संलुचमाणा सुणएहि दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं // 85 // 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्र 308 / (ख) प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण सूत्र 288 / 2. इसका पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है—एरिसेसु सयण-आसरलेसु वसमाणस्म :: 'लासु ते. उत्सग्गा बहवे जाणवता आगम्म लूसिसु'--'लूस हिंसायाम्' कट्ठम टिठप्पहारादिएहि 3. उमम्मेहि य लूसें ति / एगे आहु-दंतेहि खायते ति।" अर्थात् ---ऐसे शयनासनों में निवास करते .....हए भगवान को लाढदेश के गांवों में बहुत-से उपसर्ग हुए। बहुत-से उस देश के लोग ऊजड़ मार्गों में . आकर भगवान को लकड़ी, मुक्के आदि के प्रहारों से सताते थे। लूस धातु हिंसार्थक है, इसलिए ऐसा अर्थ होता है। कई कहत है-भगवान को वे दांतों से काट खाते थे। अर्थ है। 3. 'लसणगा' जं भणितं होति त (भ) क्खणगा, भसंतीति भसमारणा, जे वि णाम ण खायंति ते वि उनकारति आसु / आइंसुत्ति आहणेत्ता केति चोर चारियं तिच मण्णमाणा केइ पदोसेण" कत जो लषणक होते हैं वे काट खाते हैं, जो भौंकते हैं, वे काट नहीं खाते। कई लोग कुत्तों को छुछकार कर पीछे लगा देते थे। कई लोग रात्रि काल में भगवान को चोर या गुप्तचर समझ कर पीटते थे। यह अर्थ चूर्णिकार ने किया है। ... 5. चणिकार ने इसका अर्थ किया है-दुक्खं चरिज्जति दुच्चरगाणि गामादीणि........ -जहां दःख से - विवरण हो सके, उन्हें दुश्च रक ग्राम आदि कहते हैं। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 293-306 327 .... 299. णिहाय डंडं पाणेहि तं वोसज्ज कायमणगारे / अह मामकंटए भगवं. ते अहियासए अभिसमेच्चा // 86 // ... 300. गाओ. संगामसीसे वा. पारए तत्थ , से महवीरे / ... एवं पि तत्थ लाहिं' अलद्धपुवो वि एगदा गामो।।८७॥ 301. उवसंकमंतमपडिण्णं गामंतिय पि अंपत्त / " पडिणिक्खमित्त लसिसु एतातो परें पले है तिरि 302. हतपुखो तत्थ डंडेणं अदुवा मुट्ठिणा अh प.लेणं / अदु लेलुणा कवालेणं हता हंता बहवे दिसु // 89 // 303. मंसाणि 'छिण्णपुवाई उट्ठभियाएं एगदा कायं / / परिस्सहाई लुचिसु अदुवा पंसुणा 'अवकरिसु 90 // 304. उच्चालइय' णिहणिसु अदुवा आसणाओ खलइंसु। .. वोसठ्ठकाए पणतासी दुक्खसहे भगवं अपडिणे // 91 // 305. सूरो संगामसीसे वा संवुड़े तस्थ से महावीरे। पडिसेवमाणो फरसाई अचले भगवं रोयिस्था // 12 // 306. एस विही अणुक्कतो .. माहणेण मतीमता। ., बहुसो अपडिण्णेणं भगधया एवं ...रोति ।।९३।।त्ति बेमि / ..... // तइओ उद्दसओ समत्तो॥ ..., 293. (लाढ देश में विहार करते समय) भगवान घास-कंटकादि का कठोर 1. यहाँ चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-'तत्थ विहरतो ण लद्धपुव्यो'--'अर्थात् -- वहाँ (लाढ़ देश में) विहार करते हुए भगवान को पहले-पहल कभी-कभी ग्राम नहीं मिलता था (निवास के लिए ग्राम में स्थान नहीं मिलता था)। 2. यहाँ चूणिकार ने पाठान्तर माना है-गामणियति अपत्तं / " अर्थ यों किया है-गामणियंतियं गाम भास, ते लाढा पडिनिक्खमेतु लुसेति / " ग्राम के अन्तिक यानी निकट के लाहनिवासी अनार्यजन ग्राम से बाहर निकलते हुए भगवान पर प्रहार कर देते थे। 3. अदुवा मुठिणा.... आदि पदों का अर्थ चूणिकार ने यों किया है--दंडो, मुट्ठी कंठ, फलं चवेडा / अर्थात् - दण्ड और मुष्टि का अर्थ तो प्रसिद्ध है / फल से~-यानो चपेटा–थप्पड़ से। 4. इसके बदले पाठान्तर है - मंसूणि पुवछिण्णाई / चणि कार ने इसका अर्थ.. किया है--अन्नेहि पुण मसूणि छिन्नवाणि, केयि पूमा तेणं उठुमति धिक्कारेति य / ' दूसरे लोगों ने पहले भगवान के शरीर का मांस (या उन की मूछे) काट लिया था। कई प्रशंसक उन दुष्टों को इसके लिए रोवते थे, धिक्कारले थे। 5. 'उच्चालइय' के बदले चूणि कार ने 'उच्चाल इता' पाठ माना है---उसका अर्थ होता है-ऊपर उछाल _कर.......... 6. चूर्णिकार ने इसके बदले पतिसेवमाणो रीयन्त पाठान्तर मानकर अर्थ किया है.-'सहमाणे ..... रोयन्त'- अर्थात् सहन करते हुए भगवान विचरण करते थे। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 भाचारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कम्य स्पर्श, शीत स्पर्श, भयंकर गर्मी का स्पर्श, डांस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्टी (परीषहों) को सदा सम्यक् प्रकार से सहन करते थे / / 8 / / 294. दुर्गम लाढ़ देश के वज्र (वीर) भूमि और सुम्ह (शुभ्र या सिंह) भूमि नामक प्रदेश में भगवान ने विचरण किया था। वहां उन्होंने बहुत ही तुच्छ (ऊबड़खाबड़) बासस्थानों ओर कठिन प्रासनों का सेवन किया था / / 81 // 295. लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान ने अनेक उपसर्ग सहे / वहां के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे; (उस देश के लोग ही रूखे थे, अतः) भोजन भी प्राय: रूखा-रूखा ही मिलता था / वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे / / 2 / / __ 296. कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत थोड़े-से लोग उन काटते हुए कुत्तों को रोकते, (अधिकांश लोग तो) इस श्रमण को कुने काटें, इस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे / / 3 / / 297. वहाँ ऐसे स्वभाव वाले बहुत से लोग थे, उस जनपद में भगवान् ने (छ: मास तक) पुनः पुन: विचरण किया / उस वज्र (वीर) भूमि के बहुत-से लोग रूक्षभोजी होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में दूसरे श्रमण अपने (शरीर प्रमाण) लाठी और (शरीर से चार अंगुल लम्बी) नालिका लेकर विहार करते थे / / 84 // 298. इस प्रकार से वहां विजरण करने वाले श्रमणों को भी पहले कुत्त * (टांग आदि से) पकड़ लेते, और इधर-उधर काट खाते या नोंच डालते / सचमुच उस लाढ़ देश में विचरण करना बहुत ही दुष्कर था // 5 // 299. अनगार भगवान महावीर प्राणियों के प्रति मन-वचन-काया से होने वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके (विचरण करते थे) अतः भगवान उन ग्राम्यजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को (निर्जरा का हेतु समझकर सहन) करते थे // 6 // 300. हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (शस्त्र से विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता, वैरी को जीतकर--) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर उम लाढ़ देश में परीषह-सेना को जीतकर पारगामी हुए। कभी-कभी लाढ़ देश में उन्हें (गाँव में स्थान नहीं मिलने पर) अरण्य में रहना पड़ा / / 7 / / 301. भगवान नियत वासस्थान या प्राहार की प्रतिज्ञा नहीं करते थे। किन्तु आवश्यकतावश निबास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से निकलकर भगवान को रोक लेते. उन पर प्रहार करते और कहते-"यहाँ से आगे कहीं दूर चले जायो" // 8 // 302. उस लाढ़ देश में (गाँव से बाहर ठहरे हुए भगवान को) बहुत से लोग Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 293-306 329 डण्डे से या मुक्के से अथवा भाले आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर (ठोकरे) से मारते, फिर 'मारो-मारो' कहकर होहल्ला मचाते / / 89 / / / / 303. उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़कर मांस काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल) परीषहों से पीड़ित करते थे, कभीकभी उन पर धूल फेंकते थे !(90 // 304. कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान को ऊँचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से (धक्का मारकर) दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान शरीर का व्युत्सर्ग किए हुए परीषह सहन के लिए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु दुःखप्रतीकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे / अतएव वे इन परीषहों-उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे // 91 // __305. जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान महावीर लाढादि देश में परीषह-सेना से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए- मेरुपर्वत की तरह ध्यान में निश्चल रहकर मोक्षपथ में पराक्रम करते थे / / 92 // 306. (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) किसी प्रकार की प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान महावीर ने इस (पूर्वोक्त) विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा प्राचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार पाचरण करते हैं / / 93 / / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-लाढदेश में बिहार क्यों ?--भगवान ने दीक्षा लेते ही अपने शरीर का व्यूत्सर्ग कर दिया था। इसलिए वे व्युत्सर्जन की कसौटी पर अपने शरीर को कसने के लिए लाढ़ देश जैसे दुर्गम और दुश्चर क्षेत्र में गए। आवश्यकणि में बताया गया है कि भगवान यह चिन्तन करते हैं कि 'अभी मुझे बहुत से कर्मों की निर्जरा करनी है, इसलिए लाढ़ देश में जाऊँ। वहाँ अनार्य लोग है, वहाँ कर्मनिर्जरा के निमित्त अधिक उपलब्ध होंगे।' मन में इस प्रकार का विचार करके भगवान लाढ़ देश के लिए चल पड़े और एक दिन लाढ़ देश में प्रविष्ट हो गए / इसीलिए यहाँ कहा गया-'अह दुच्चरलाढमचारी ..2 लाढ देश कहाँ और दुर्गम-दुश्चर क्यों ? -- ऐतिहासिक खोजों के आधार पर पता चला है कि वर्तमान में वीरभूम, सिंहभूम एवं मानभूम (धनबाद आदि) जिले तथा पश्चिम बंगाल के तमलक, मिदनापुर, हुगली तथा बर्दवान जिले का हिस्सा लाढ़ देश माना जाता था। ___लाढ़ देश पर्वतों, झाड़ियों और घने जंगलों के कारण बहुत दुर्गम था, उस प्रदेश में घास बहुत होती थी। चारों ओर पर्वतों से घिरा होने के कारण वहाँ सर्दी और गर्मी दोनों 1. "तओ ण समले भगवं महावीरे "एतारूवं अभिग्गा अभिगिण्हति बारसवासाई वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा समुप्पजति, तंजहा" अहियासइस्सामि / " - प्राचा० सूत्र 769 3. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 310 / (ख) प्रावश्यक चूणि पूर्व भाग पृ० 290 / Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 आचारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध ही अधिक पड़ती थी। इसके अतिरिक्त वर्षा ऋतु में पानी अधिक होने से वहाँ दल-दल हो जाती जिससे डाँस, मच्छर, जलौका आदि अनेक जीव-जन्तु पैदा हो जाते थे। इनका बहुत ही उपद्रव होता था। लाढ़ देश के ववभूमि और सुम्हभूमि नामक जनपदों में नगर बहुत कम थे। गाँव में बस्ती भी बहुत कम होती थी। वहाँ लोग अनार्य (क्रूर) और असभ्य होते थे। साधुओं-जिसमें भी नग्न साधुनों से परिचित न होने कारण वे साधु को देखते ही उस पर टूट पड़ते थे। कई कुतूहलवश और कुछ जज्ञासावश एक साथ कई प्रश्न करते थे, परन्तु भगवान की अोर से कोई उत्तर नहीं मिलता, तो वे उत्तजित होकर या शंकाशील होकर उन्हें पीटने लगते। भगवान को नग्न देखकर कई बार तो वे गाँव में प्रवेश नहीं करने देते थे। अधिकतर सूने घरों, खण्डहरों, खुले छप्परों या पेड़, वन अथवा श्मशान में ही भगवान को निवास मिलता था, जगह भी ऊबड़खाबड, खड्डों और धूल से भरी हुई मिलती, कहीं काष्ठासन, फलक और पट्ट मिलते, पर वे भी धूल, मिट्टी एवं गोबर से सने हुए होते। लाढ़ देश में तिल नहीं होते थे, गाएँ भी बहुत कम थी, इसलिए वहां धी-तेल सुलभ नहीं था, वहाँ के लोग रूखा-सूखा खाते थे, इसलिए वे स्वभाव से भी रूखे थे, बात-बात में उत्तेजित होना, गाली देना या झगड़ा करना, उनका स्वभाव था। भगवान को भी प्रायः उनसे रूखा-सूखा माहार मिलता था।' वहाँ सिंह आदि बन्य हिंस्र पशुओं या सर्पादि विषैले जन्तुओं का उपद्रव था या नहीं, इसका कोई उल्लेख शास्त्र में नहीं मिलता, लेकिन वहाँ कुत्तों का बहुत अधिक उपद्रव था। वहाँ के कुत्ते बड़े खू ख्वार थे। वहाँ के निवासी या उस प्रदेश में विचरण करने वाले अन्य तीथिक भिक्षु कुत्तों से बचाव के लिए लाठी और डण्डा रखते थे, लेकिन भगवान तो परम अहिंसक थे, उनके पास न लाठी थी, न डण्डा / इसलिए कुत्ते निःशंक होकर उन पर हमला कर देते थे। कई अनार्य लोग छू-छू करके कुत्तों को बुलाते और भगवान को काटने के लिए उकसाते थे। निष्कर्ष यह है कि कठोर क्षेत्र, कठोर जनसमूह, कठोर और रूखा खान-पान, कठोर और रूक्ष व्यवहार एवं कठोर एवं ऊबड़-खाबड़ स्थान आदि के कारण लाढ देश साधुओं के विचरण के लिए दुष्कर और दुर्गम था। परन्तु परीषहों और उपसर्गों से लोहा लेने वाले महायोद्धा भगवान महावीर ने तो उसी देश में अपनी साधना की अलख जगाई; इन सब दुष्परिस्थितियों में भी वे समता की अग्नि-परीक्षा में उसीर्ण हुए। वास्तव में, कर्मक्षय के जिस उद्देश्य से भगवान उस देश में गए थे, उसमें उन्हें पूरी सफलता मिली। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं---"नागो गामसीसे वा पारए तत्य से महावीरे।" जैसे संग्राम के मोर्चे पर खड़ा हाथी भालों आदि से बींधे जाने पर भी पीछे नहीं हटता, वह 1. आवश्यक चूणि पृ० 318 / 2. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 310-311 / (ख) मायारो (मुनि नथमलजी) पृ० 347 के प्राधार पर / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 नवम मध्ययन ! चतुर्ष उद्देशक : सूत्र 307-3.. युद्ध में विजयी बनकर पार पा लेता है, वैसे ही भगवान महावीर परीषह-उपसर्गों की सेना का सामना करने में अड़े रहे और पार पाकर ही पारगामी हुए।' मंसाणि छिन्गपुवाई ......'-इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-एक बार पहले भगवान के शरीर को पकड़कर उनका मांस काट लिया था / परन्तु-चूर्णिकार इसकी व्याख्या यों करते हैं-'दूसरे लोगों ने पहले भगवान के शरीर का मांस (या उनकी मूछ) काट लिया, किन्तु कई सज्जन (भगवान के प्रशंसक) इसके लिए उन दुष्टों को रोकते-धिक्कारते थे।' // तृतीय उद्देशक समाप्त / / ... चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक [भगवान महावीर का उग्र तपश्चरण] अचिकिस्सा-अपरिकर्म 307. ओमोदरियं चाएति अपुढे वि भगवं रोगेहिं / पुढेंब से अपुढे वा णो से सातिज्जती तेइच्छं॥९४॥ 308. संसोहणं च वमणं च गायभंगणं सिणाणं च। संबाहणं न से कप्पे दंतपक्खालणं परिष्णाए // 15 // 309. विरते य गामघम्मेहि रीयति माहणे अबहुवादी। सिसिरमि एगवा भगवं छायाए' माति आसी य / / 96 // 307 भगवान रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य (अल्पहार) तप करते थे। वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे / / 14 / / 308 वे शरीर को प्रात्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन (पगचपी) आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे / / 9 / / 1. प्राचा. शीलाटीका पत्रांक 311 / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 311, (ख) आचारांग पूणि-मूलपाठ टिप्पण सू० 303 का देखें। 3. चूणिकार ने 'ओमोयरिय चाएति' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-"चाएति--- अहियासेति / ".... अवमौदर्य को सहते थे या अवमोदर्य का अभ्यास था। 4. इस पंक्ति का अर्थ चर्णिकार ने किया है-"वातातिएहि शेगेहि अपुठो वि ओमोदरिम कृतवां।" अर्थात् -वातादिजन्य रोगों से अस्पृष्ट होते हुए भी भगवान ऊनोदरी तप करते थे। 5. 'परिणाए' का अर्थ चूणिकार के शब्दों में-'परिणाते-~-जाणित्त ण करेति / " / 6. चूर्णिकार ने इसके बदले 'चावीए प्राति आसोता,' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-छायाए ण मातवं गच्छति तत्थेव झाति यासित्ति अतिक्कंतकाले ।"-भगवान छाया से धूप में नहीं जाते थे, वहीं ध्यान करते थे, काल व्यतीत हो जाने पर फिर वे जाते थे। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 आचारांग सूत्र---प्रथम श्रुतस्कन्ध 309 महामाहन भगवान शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों से विरत होकर विचरण करते थे / वे बहुत नहीं बोलते थे। कभी-कभी भगवान शिशिर ऋतु में छाया में स्थित होकर ध्यान करते थे // 16 // विवेचन-ऊनोदरी तप का सहज अभ्यास-भोजन सामने आने पर मन को रोकना वहत कठिन कार्य है / साधारणतया मनुष्य तभी अल्पाहार करता है, जब वह रोग से घिर जाता है. अन्यथा स्वादिष्ट मनोज्ञ भोजन स्वाद वश वह अधिक ही खाता है। परन्तु भगवान को वातादिजनित कोई रोग नहीं था. उनका स्वास्थ्य हर दृष्टि से उत्तम व नीरोग था। स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें प्राप्त हो सकता था, किन्तु साधना की दृष्ट से किसी प्रकार का स्वाद लिए बिना वे अल्पाहार करते थे।' चिकित्सा में अगचि-रोग दो प्रकार के होते हैं—वातादि के क्षुब्ध होने से उत्पन्न तथा अागन्तुक / साधारण मनुष्यों की तरह भगवान के शरीर में वातादि से उत्पन्न खांसी, दमा, पेट-दर्द आदि कोई देहज रोग नहीं होते, शस्त्रप्रहारादि से जनित आगन्तुक रोग हो सकते हैं, परन्तु वे दोनों ही प्रकार के रोगों की चिकित्सा के प्रति उदासीन थे / अनार्य देश में कुत्तों के काटने, मनुष्यों के द्वारा पीटने ग्रादि से प्रागन्तुक रोगों के शमन के लिए भी वे द्रव्यौषधि का उपयोग नहीं करना चाहते थे। हाँ, असातावेदनीय आदि कर्मों के उदय से निष्पन्न भाव-रोगों की चिकित्सा में उनका दृढ विश्वास था। शरीर-परिकर्म से विरत-दीक्षा लेते ही भगवान ने शरीर के व्युत्सर्ग का संकल्प कर लिया था, तदनुसार वे शरीर की सेवा-शुश्रूषा, मंडन, विभूषा, साज-सज्जा, सार-संभाल आदि से मुक्त रहते थे, वे ग्रात्मा के लिए समर्पित हो गए थे, इसलिए शरीर को एक तरह से विस्मृत करके साधना में लीन रहते थे। यही कारण है कि वमन, विरेचन, मर्दन आदि से वे बिलकुल उदासीन थे, शब्दादि विषयों से भी वे विरक्त रहते थे, मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां भी वे अति अल्प करते थे। तप एवं आहारचर्या 310. आयावइ य गिम्हाणं अच्छति उक्कुडए अभितावे / अदु जावइत्थ लहेणं ओयण-मथु-कुम्मासेणं / / 97 / 311. एताणि तिण्णि पडिसेवे अट्ठ मासे अ जाबए भगवं / / अपिइत्थ एगदा भगवं अद्धमा अदुवा मासं पि / / 981 1. आचा० शीला० टीका पत्र 312 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्र 312 / 3. आचा० शीला० टोका पत्रांक 312-313 / 4. चूर्णिकार ने इसके बदले---"आयावयति गिम्हासु उक्कुडयासरोण अभिमुहवाते ---उण्हे स्वखे य वायते / '' अर्थात् == ग्रीष्म ऋतु में उकडू अासन से बैठकर भगवान गर्म लू या रूखी जैसी भी हवा होती, उसके अभिमुख होकर प्रातापना लेते थे / Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : 310-319 333 312. अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्था / राओबरात अपडिणे अण्णागिलायमेगता भुजे / / 99 / / 313. छ?ण एगया भुजे, अदुवा अट्ठमण दसमेण / ' दुवालसमेण एगदा भुजे पेहमाणे समाहि अपडिण्णे ||10011 314. णच्चाण से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी। अण्णेहि वि ण कारित्था कीरत पि जाणुजाणिस्था / / 101 / / 315. गामं पविस्स णगर वा घासमेसे' कडं पराए। सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगताए सेवित्था // 10 // * 313. अदु वायसा दिगिछत्ता जे अण्णे रसेसिणो सत्ता / घासेसणाए चिठ्ठते स्ययं णिवतिते य पेहाए / / 103 / / 317. अदु माहणं व समण वा गापिंडोलगं च अतिहि वा / सोवाग मूसियारि वा कुक्कुर वा वि विठित पुरतो // 104 / / 1. इसके बदले 'अपिवित्थ', 'पिदत्य', 'अप्प विहरित्या', अपवित्ता', 'अपि विहरित्था, प्रादि पाठान्तर मिलते हैं / इनका इथ क्रमश यों है नहीं पिया, पिया, अल्प दिहार किया, अल्पाहारी रहे बिना पिये विहार पिया। 2. इसके बदले 'अण्ण (गण) गिलागमे, 'अण्ण गिलाणमे' 'अन्नइलायमे' 'अग्न इलात' 'एगता भुजे', 'अन्नगिलाय', आदि पाठान्तर मिलते हैं / चूणिकार ने "अन्न इलात एगता भुजे" पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-'अन्नमेव गिलाण अन्न गिलाण दोसीणं'- अर्थात्-जो अन्न ही ग्लान-सत्वहीन, बासी और नीरस हो गया है, उस कई रात्रियों के अन्न को 'अन्नग्लान' यहते हैं। उसी का कभीकभी भगवान सेवन करते थे। वृत्तिकार ने "अन्नगिलाय' पाठ मानकर अर्थ किया है—पर्युषितम् ---- वासी अन्न। 3. 'पेहमाणे समाहि' का अर्थ चणिकार करते हैं-समाधिमिति तवसमाधी, णेवाणसमाधी, त पेहमाणे / ' समाधि का अर्थ है-तपः समाधि या निर्वाणसमाधि, उसका पर्यालोचन करते हुए। 4 इसके बदले---चूणि में पाठान्तर है-'अएणेहि ण कारित्या, की माण पि नाणुमोतित्था', अर्थात्---- दूसरों से पाप नहीं कराते थे, पाप करते हुए या करने वाले का अनुमोदन नहीं करते थे। 5. इसके बदले पाठान्तर है- 'घासमेसे कर पराए', 'घासमात कडं परट्ठाए' (चूणि) चूणिकार सम्मत पाठान्तर का अर्थ -- 'घासमाहारं अद भक्खण-अर्थात् - भगवान दूसरों (गृहस्थों) के लिए बनाए हए आहार का सेवन करते थे। 6. चूणि में पाठान्तर है-~-'सुविसुद्ध एसिया भगवं आयतजोगता गवेसिस्था'-भगवान आहार की सुविशुद्ध एषणा क ते थे, तथा आयतयोगता की अन्वेषणा करते थे। . 7. 'विगिछत्ता' का अर्थ चणिकार के शब्दों में --- दिनिछा हा ताए अत्तानिया वा।' अर्थात दिन्छा क्षधा का नाम है, उससे बात --पीड़ित, अथवा तृषित -प्यासे / 8. 'समयं णिवतिते के बदले पाठान्तर है 'संथरे (ड) गिवतिते' प्रथं चूणिकार ने किया है-संथडा. सततं संणिवतिया---निरन्तर बैठे देखकर। 2. इनके बदले 'वा विठित' पाठान्तर स्वीकार करके चणि कार ने अर्थ किया है-विहितं उपविष्ट मित्यर्थः / अर्थात् = बैठे हुए। 69 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 मावारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कम्घ 318. वित्तिच्छेदं वज्जेतो तेसऽपत्तियं परिहरंतो। ____मंदं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो धासमेसिस्था / / 105 / / 319. अवि सूइयं व सुक्कं वा सोयपिडं पुराणकुम्मा। अदु बक्क पुलागं वा लद्धपिडे अलद्धए दविए // 106 / / 310. भगवान ग्रीष्म ऋतु में प्रातापना लेते थे। उकडू पासन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे। और वे प्रायः रूसे आहार को दो-कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर-निर्वाह करते थे / / 97 / / / 311. भगवान ने इन तीनों का सेवन करके पाठ मास तक जीवन यापन किया। कभी-कभी भगवान ने अर्ध मास (पक्ष) या मास भर तक पानी नहीं पिया / / 98 // 312. उन्होंने कभी-कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रात भर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी-कभी वे वासी (रस-अविकृत) भोजन भी करते थे / / 99 // 313. वे कभी बेले (दो दिन के उपवास) के अनन्तर, कभी तेले (अट्ठम), कभी चोले (दशम) और कभी पंचोले (द्वादश) के अनन्तर भोजन (पारणा) करते थे / भोजन के प्रति प्रतिज्ञा रहित (प्राग्रह-मुक्त) होकर वे (तप) समाधि का प्रेक्षण (पर्यालोचन) करते थे / / 10 // 314. बे भगवान महावीर (पाहार के दोषों को जानकर स्वयं पाप (ग्रारम्भसमारंभ) नहीं करते थे, दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे और न पाप करने का अनुमोदन करते थे / / 101 // 315. भगवान ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे (गृहस्थों) के लिए बने हए भोजन की एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण करके भगवान आयतयोग (संयत-विधि) से उसका सेवन करते थे / / 10 / / 316-317-318 भिक्षाटन के समय, रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौनों तथा पानी पीने के लिए प्रातुर अन्य प्राणियों को लगातार बैठे हुए देखकर अथवा ब्राह्मण, श्रमण, गाँव के भिखारी या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठा देखकर उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, तथा उनके मन में अप्रीति (द्वष) या अप्रतीति (भय) उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान धीरे-धीरे चलते थे किसी 1 इसके बदले 'तेस्सऽपत्तियं' 'तेसि अपसियं' पाठान्तर मिलते हैं। चूणि कार इसके बदले 'अवि सूचितं वा सुक्क वा....पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं- "सूचितं णाम कुसणितं'.---अर्थात्-सूचितं का अर्थ है-दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ / यत्तिकार शीलांकाचार्य 'सूइयं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं-सूइयं ति दध्यादिना भक्तमाद्रीकृतमपि / " अर्थात दही आदि से भात को गीला करके भी ... / Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : चतुर्ग उदेशक : सूत्र 320.323 को जरा-सा भी त्रास न हो, इसलिए हिंसा न करते हुए आहार को गवेषणा करते थे / / 103-104-105 / / 319. भोजन व्यंजनसहित हो या व्यंजन रहित सूखा हो, अथवा ठंडा-वासी हो, या पुराना (कई दिनों का पकाया हुआ) उड़द हो, पुराने धान का प्रोदन हो या पुराना सत्त हो, या जौ से बना हया ग्राहार हो, पर्याप्त एवं अच्छे आहार के मिलने या न मिलने पर इन सब स्थितियों में सयमनिष्ठ भगवान राग-द्वेष नहीं करते थे / / 106 // ध्यान-साधना 320. अवि झाति से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं / उड्ढे अहे य तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे / / 107 // 321. अकसायी विगतगेही य सह-रूवेसुऽमुच्छितेसाती। छउमत्थे विप्परक्कममाणे न पमा सई पि कुम्वित्था / / 108 // 322. सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए / अभिणिवुड अमाइल्ले आवकहं भगवं समितासी / / 109 / / 323. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता / / बहुसो अपडिण्णेणं भगवया एवं रोयंति ॥११०॥त्ति बेमि / चिउत्थो उद्देसओ समत्तो।। 327. भगवान महावीर उकड प्रादि यथोचित प्रासनों में स्थित और स्थिरचित्त होकर ध्यान करते थे। ऊँचे, नीचे और तिरछे लोक में स्थित जीवादि पदार्थों के द्रव्य-पर्याय-नित्यानित्यत्व को ध्यान का विषय बनाते थे / वे असम्बद्ध बातों के संकल्प से दूर रहकर आत्म-समाधि में हो केन्द्रित रहते थे / / 107 / / / 321. भगवान क्रोधादि कषायों को शान्त करके, प्रासक्ति को त्याग कर, शब्द और रूप के प्रति अमूच्छित रहकर ध्यान करते थे। छद्मस्थ (ज्ञानावरणीयादि घातिकर्म चतुष्टययुक्त) अवस्था में सदमुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया / / 10 / / 1. उडळ अहे य तिरियं च' के प्रागे चर्णिकार ने 'लोए शायती (पेहमाणे) पाठान्तर माना है। अर्थ होता है -- ऊर्बलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक का (प्रेक्षण करते हुए) ध्यान करते थे। 2. इसका अर्थ चूर्णिकार यों करते हैं—“सद्दादिरहि य अमुच्छितो भाती झायति--अर्थात् -- शब्दादि विषयों में अमूच्छित अनासक्त होकर भगवान ध्यान करते थे। 3. चूणिकार ने इसके बदले 'छउमत्थे विप्परकम्मा ण पमायं....' पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है "छउमत्थकाले विहरतेण भगवता जयंतेण घटतेण परक्कतेण ण कयाइ पमातो कयतो / अविसद्दा गरि एक्कमि एक्कं अंतोमुहुत्त अट्ठियगामे / " छद्मस्थकाल में यतनापूर्वक विहार करते हुए या अन्य संयम सम्बन्धी क्रियानों में कभी प्रमाद नहीं किया था। अपि शब्द से एक दिन एक अन्तमुहूर्त तक अस्थिकग्राम में (निद्रा) प्रमाद किया था। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रपम भुतस्कन्ध 322. प्रात्म-शुद्धि के द्वारा भगवान ने स्वयमेव आयतयोग (मन-वचनकाया की संयत प्रवृत्ति) को प्राप्त कर लिया तथा उनके कषाय उपशान्त हो गये। उन्होंने जीवन पर्यन्त माया से रहित तथा समिति-गुप्ति से युक्त होकर साधना की // 109 / 323. किसी प्रतिज्ञा (याग्रहबुद्धि या संकल्प) से रहित ज्ञानी महामाहन भगवान ने अनेक वार इस (पूर्वोक्त) विधि का प्राचरण किया है, उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी अपने प्रात्म-विकास के लिए इसी प्रकार आचरण करते हैं / 110 / / —ऐसा मैं कहता हूँ। . विवेचन - भगवान की तपःसाधना-भगवान की तपःसाधना पाहार-पानी पर स्वैच्छिक नियन्त्रण को लेकर बताई गयी है। इस प्रकार की. बाह्य तप:साधना के वर्णन को देखकर कुछ लोग कह बैठते हैं कि भगवान ने शरीर को जान-बूझ कर कष्ट देने के लिए यह सब किया था, परन्तु इस चर्या के साथ-साथ उसकी सतत जागत, यतना और ध्यान-निमग्नता का वर्णन पढ़ने से यह भ्रम दूर हो जाता है। / भगवान का शरीर धर्मयात्रा में बाधक नहीं था. फिर वे उसे कष्ट देते ही क्यों ? भगवान आत्मा में इतने तल्लीन हो गये थे कि शरीर की बाह्य अपेक्षानों की पूर्ति का प्रश्न गौण हो गया था / शारीरिक कष्टों की अनुभूति उसे अधिक होती है, जिसकी चेतना का स्तर निम्न हो; भगवान की चेतना का स्तर उच्च था। भगवान की तपःसाधना के साथ जागति के दो पंख लगे हुए थे-(१) समाधि-प्रेना और (2) अप्रतिज्ञा / अर्थात् वे चाहे जितना कठोर तप करते, लेकिन साथ में अपनी समाधि का सतत प्रेक्षण करते रहते और वह किसी प्रकार के पूर्वाग्रह या हठाग्रह से प्रेरित संकल्प से युक्त नहीं था।' __ आयतयोग-का अर्थ वृत्तिकार ने मन-वचन-काया का संयत योग (प्रवृत्ति) किया है। परन्तु आयतयोग को तन्मयतायोग कहना अधिक उपयुक्त होगा / भगवान जिस किसी भी या को करते, उस में तन्मय हो जाते थे। यह योग अतीत की स्मति और भविष्य की कल्पना से बचकर केवल वर्तमान में रहने की क्रिया में पूर्णतया तन्मय होने की प्रक्रिया है। वे चलने, खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने-जागने के समय सदैव सतत इस आयतयोग का ग्राश्रय लेते थे। वे चलते समय केवल चलते थे / वे चलते समय न तो इधर-उधर झांकते, न बातें या स्वाध्याय करते, ग्र , और न ही चिन्तन करते। यही बात खाते समय थी, वे केवल खाते थे, न तो स्वाद की ओर ध्यान देते, न चिन्तन, न बात-चीत / वर्तमान क्रिया के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित थे। इसीलिए वे आत्म-विभोर हो जाते थे, जिसमें उन्हें भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की कोई अनुभूति भी नहीं होती थी। उन्होंने चेतना की समग्र धारा प्रात्मा की ओर प्रवाहित कर दी थी। उनका मन, बुद्धि, इन्द्रिय-विषय, अध्यवसाय और भावना; ये सब एक ही दिशा में गतिमान हो गए थे / अपने शरीर-निर्वाह की न तो वे चिन्ता करते थे, न ही वे आहार-प्राप्ति के विषय में 1. प्रावासा वृत्ति मूलपाठ, पत्र 312 के आधार पर / . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 320-323 किसी प्रकार का ऐसा संकल्प ही करते थे कि “ऐसा सरस स्वादिष्ट आहार मिलेगा, तभी लूगा, अन्यथा नहीं।" आहार-पानी प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप-दोष होने देना, उन्हें जरा भी अभीष्ट नहीं था। अपने लिए ग्राहार की गवेषणा में जाते समय रास्ते में किमी भी प्राणी के आहार में अन्तराय न लगे, किसी का भी वृत्तिच्छेद न हो, किसी को भी अप्रतीति (भय) या अप्रीति (द्वष) उत्पन्न न हो, इस बात की वे पूरी सावधानी रखते थे / ' . 'अग्णगिलायं'--शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने पर्युषित-वासी भोजन किया है। भगवत सूत्र की टीका में 'अन्नग्लायक' शब्द की व्याख्या की गई है जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता है, वह अन्नग्लायक कहलाता है। क्षुधातुर होने के कारण वह प्रात: होते ही जैसा भी, जो कुछ बासी, ठंडा भोजन मिलता है, उसे खा लेता है। यद्यपि भगवान क्षुधातुर स्थिति में नहीं होते थे, किन्तु ध्यान आदि में विघ्न न आये तथा समभाव साधना की दृष्टि से समय पर जैसा भी बासी-ठण्डा भोजन मिल जाता, बिना स्वाद लिए उसका सेवन कर लेते थे। 'स इयं'-आदि शम्बों का अर्थ-'सूइयं' के दो अर्थ हैं—दही यादि से गीले किए हुए भात अथवा दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ / सुक्कं = सूखा, सीयं पिडं ठण्डा भोजन, पुराण कुम्मास = बहुत दिनों से सिजोया हुआ उड़द, बुक्कसं -- पुराने धान का चावल, पुराना सत्त पिण्ड, अथवा बहुत दिनों का पड़ा हुआ गोरस, या गेहूँ का मांडा, पुलागं = जौ का दलिया / __ ऐसा रूखा-सूखा जैसा भी भोजन प्राप्त होता, वह पर्याप्त और अच्छा न मिलता तो भी भगवान राग-द्वेष रहित होकर उसका सेवन करते थे, यदि वह निर्दोष होता। भगवान की ध्यान-परायणता-भगवान शरीर की आवश्यकताएँ होती तो उन्हें सहजभाव से पूर्ण कर लेते और शीघ्र ही ध्यान-साधना में संलग्न हो जाते। वे गोदुह, वीरासन, उत्कट ग्रादि प्रासनों में स्थित होकर मख को टेढा या भींचकर विकृत किए बिना ध्यान करते थे। उनके ध्यान के आलम्बन मुख्यतया ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में स्थित जीव-अजीव आदि पदार्थ होते थे। इस पंक्ति की मुख्यतया पाँच व्याख्याएँ फलित होती हैं ऊर्ध्वलोक = आकाशदर्शन, अधोलोक = भूगर्भदर्शन और मध्यलोक = तिर्यग्भित्तिदर्शन / इन तीनों लोकों में विद्यमान तत्त्वों का भगवान ध्यान करते थे। लोकचिन्तन क्रमश: चिन्तन-उत्साह, चिन्तन-पराक्रम और चिन्तन-चेष्टा का पालम्बन होता है / 1. आचारांग वृत्ति मूलपाठ पत्रांक 313. के आधार पर। .... 2. (क) भगवती सूत्र वृत्ति पत्र 705 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 312 / 3. (क)प्राचा० शीला 0 टोका पत्रांक 313 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 319 / 4. (क) आचा० शोला० टीका पत्रांक 315 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 320 / देखिए आवश्यक' चूणि पृ० 324 में त्रिलोकध्यान का स्वरूप - 'उड्ढे अहेयं तिरियं च, सम्वलोए मायति समितं / उड्ढलोए जे महे वि तिरिए वि, जेहि वा कम्मादारणेहिं उड्ढं गमति, एवं अहे तिरियं च / अहे संसार संसारहेउंच कम्मविवागं च ज्ञाति, तं मोक्षं मोक्खहेडं मोक्खसुहं च ज्झायति, देच्छमाणो आयसाहिं परसममाहिं च अहवा नाणादिसमाहिं / ' Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 भावारांम सूम-प्रथम श्रुतत्कन्ध (2) दीर्घदर्शी साधक ऊर्ध्वगति, अधोगति और तिर्यम् (मध्य) गति के हेतु बनने काले भावों को तीनों लोकों के दर्शन से जान लेता है। (3) आँखों को अनिमेष विस्फारित करके ऊवं, अधो और मध्य लोक के बिन्दु पर स्थिर (नाटक) करने से तीनों लोकों को. जाना जा सकता है। (4) लोक का ऊर्ध्व, अधो और मध्यभाग विषय-वासना में आसक्त होकर सोक से पीड़ित है, इस प्रकार दीर्घदर्शी त्रिलोक-दर्शन करता है। (5) लोक का एक अर्थ है-भोग्य वस्तु या विषय / शरीर भोग्यवस्तु है, उसके तीन भाग करके त्रिलोक-दर्शन करने से चित्त कामवासना से मुक्त होता है / नाभि से नीचे अधोभाग, नाभि से ऊपर ऊर्ध्वभाग और नाभिस्थान तिर्यग्भाग / ' भगवान अकषायीं, अनासक्त, शब्द और रूप आदि में अमूच्छित एवं मात्मसमाधि (तपःसमाधि या निर्वाणसमाधि) में स्थित होकर ध्यान करते थे। वे ध्यान के लिए समय, स्थान या वातावरण का आग्रह नहीं रखते थे। जपमा सई विकुवित्वा-छद्मस्थ अवस्था तब तक कहलाती है, जब तक ज्ञानावरणीय प्रादि चार घातिकर्म सर्वथा क्षीण न हों। प्रमाद के पाँच भेद. मुख्य हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विक्रया / इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं--भगवान ने करायादि प्रमादों का सेवन नहीं किया / चूर्णिकार ने अर्थ किया है -भगवान ने छद्मस्थ दशा में अस्थिक ग्राम में एक बार अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया। इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि भगवान अपनी साधना में सर्वत्र प्रतिपल अप्रमत्त रहते थे। / / चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / / ओहाणसुयं समत्तं / नवममध्ययनं समाप्तम् / / // आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त // 1. प्रायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 113 के प्राधार पर / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 315 / (ख) प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण सू० 321 / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट / 'जाव' शब्द संकेतित सूत्र सूचना 0 विशिष्ट शब्दसूची 0 गाथाओं की अनुक्रमणिका 0 विवेचन में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 'जाव' शब्द संकेतिक सूत्रसूचना 1 प्राचीनकाल में प्रागम तथा श्रुत ज्ञान प्रायः कण्ठस्थ रखा जाता था। स्मृति-दोबल्य के कारण प्रागम ज्ञान लुप्त होता देखकर वीरनिर्वाण संवत् 900 के लगभग प्रागम लिखने की परिपाटी प्रारम्भ हुई। लिपि-सुगमता की दृष्टि से सूत्रों में पाये बहुत-से समान पद जो बार-बार आते थे, उन्हें संकेत द्वारा संक्षिप्त कर दिया गया था। इससे पाठ लिखने में बहुत-सी पुनरावृत्तियों से बचा जाता था। इस प्रकार के संक्षिप्त संकेत भागमों में प्रायः तीन प्रकार के मिलते हैं 1. वष्णो वर्षक; (अमुक के अनुसार इसका वर्णन समझे) भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा प्रादि अंग व उपांग प्रादि आगमों में इस संकेत का काफी प्रयोग हुआ है। उववाई सूत्र में बहुत-से वर्णनक हैं, जिनका संकेत अन्य सूत्रों में मिलता है / 2. जाव-(यावत्) एक पद से दूसरे पद के बीच के दो, तीन, चार प्रादि अनेक पद बार-बार न दुहराकर 'जाद' शब्द द्वारा सूचित करने की परिपाटी प्राचारांग आदि सूत्रों में मिलती है / जैसे---सूत्र 224 में पूर्ण पाठ है'अप्पंडे अप्पापणे, अप्पबीए, अप्पहरिए, अप्पोसे, अप्पोदए, अप्पुत्तिग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए' आगे जहां इसी भाव को स्पष्ट करना है वहाँ सूत्र 228 तथा 412, 455, 570 आदि में 'अप्पंडे जाव' के द्वारा संक्षिप्त कर संकेत मात्र कर दिया गया है। इसी प्रकार 'जाव' पद से अन्यत्र भी समझना चाहिए। हमने प्राय: टिप्पणी में 'जाव' पद से अभीष्ट सूत्र की संख्या सूचित करने का ध्यान रखा है। कहीं विस्तृत पाठ का बोध भी 'जाव' से किया गया है। जैसे सूत्र 217 में 'अहेस णिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव' यहाँ पर सूत्र 214 के 'अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिगहियाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, गो रएज्जा, णो धोत-रत्ताई वत्याई धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेस, प्रोमचेलिए।' इस समग्र पाठ का 'जाव' पद द्वारा बोध कराया है। इस प्रकार अनेक स्थानों पर स्वयं समझ लेना चाहिए। जाव-कहीं पर भिन्न पदों का व कहीं विभिन्न क्रियाओं का सूचक है, जैसे सूत्र 205 में 'परक्कमेज्ज जाव' सूत्र 204 के अनुसार 'परक्कमेज्ज वा, चिट्ठज्जा वा, णिसीएम्न वा, तयटेज वा' चार क्रियाओं का बोधक है। 3. अंक-संकेत-संक्षिप्तीकरण की यह भी एक शैली है। जहाँ दो, तीन, चार या अधिक समान पदों का बोध कराना हो, वहाँ अंक 2, 3, 4, 6 प्रादि अंकों द्वारा संकेत किया गया है। जैसे(क) सूत्र 324 में से भिक्खू वा भिक्खुणी वा Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध (ख) सूत्र १९९-असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा आदि / 'से भिक्खू वा 2' संक्षिप्त कर दिया गया है। इसी प्रकार 'असणं वा 4, जाव' या 'असणेण वा 4' संक्षिप्त करके प्रागे के सूत्रों में संकेत मात्र किये गये हैं। (ख) पुनरावृत्ति-कहीं-कहीं '2' का चिह्न द्विरुक्ति का सूचक भी हुआ है-जैसे सूत्र 360 में पगिज्झिय 2 'उद्दिसिय 2 / इसका संकेत है-पगिझिय पगिजिमय, उद्दिसिय उद्दिसिय / अन्यत्र भी यथोचित समझे। क्रिया पद से आगे '2' का चिह्न कहीं क्रिया काल के परिवर्तन का भी सूचन करता है, जैसे सूत्र 357 में-- 'एगंतमवक्कमेज्जा 2' यहाँ 'एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता' पूर्व क्रिया का सूचक है। इसी प्रकार अन्यत्र भी। क्रिया पद के आगे '3' का चिह्न तीनों काल के क्रियापद के पाठ का सूचन करता है, जैसे सूत्र 362 में 'हचिसु वा' 3 यह संकेत-'हचिसु वा रुचंति वा रुचिस्तंति वा' इस-कालिक क्रियापद का सूचक है, ऐसा अन्यत्र भी है / मूल पाठ में ध्यान पूर्वक ये संकेत रखे गए हैं, फिर भी विज्ञ पाठक स्व-विवेकबुद्धि से तथा योग्य शुद्ध अन्वेषण करके पढ़ेंगे-विनम्र निवेदन है। --सम्पादक संक्षिप्त संकेतित सूत्र 228 समग्र पाठ युक्त मूल सूत्र-संख्या 224 227 187 224 207, 208, 218, 223, 227 221, 227 228 221 205 205 जाव-पद माह्य पाठ अपंडे जाव असणेण वा 4 असणं वा 4 प्रागममाणे जाव गाम वा जाव धारेज्जा जाव परक्कमेज्ज वा जाव पाणाई 4 वत्थाई जाएज्जा जाव वत्थं वा 4 समारंभ जाव 214 204 204 217 214 205, 207, 208 205 204 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 अंधत्त विशिष्ट शब्द-सूची परिशिष्ट : 2 यहाँ विशिष्ट थब्द-सूची में प्रायः वे संज्ञाएँ तथा विशेष शब्द लिए गए हैं जिनके आधार पर पाठक सरलतापूर्वक मूल विषय की आधारभूत अन्वेषणा कर सकें। इस सूची में क्रिया-पदों को प्राय: छोड़ दिया गया है। ----सम्पादक] शब्द सूत्र शब्द अंगुलि अगुत्त 41 अंजु 107, 108, 140, 170,260 अग्ग अंडय अग्गह 124 अंत 111, 123 अचल 197, 242, 305 अंतर 65, 288 अचाइ अंतरद्धाए अचारी अंतराइय अचिट्ठ 135 अंतिय 2, 190, 231 अचित्त 249 अंतो 92, 147, 148, 233 / / अचित्तमंत अंध 15, 180 . अचिर 248 अचेतण 243 अकम्म 71, 110 अचेत 184, 187, 214, 217, अकम्मा 175 221, 225, 226 अकरणिज्ज 62, 160 अचेलए 257 अकसायी 321 अच्चा 52, 140, 224, 228, 264 प्रकाम 158 अच्चेति 65, 101, 176 अकाल अच्छति 310 अकुक्कुए अच्छायण अकुतोभय 22, 129 अच्छि 15, अक्कंदकारी अच्छे अगंथ 209 अजाणतो 162 अगणि अजिण 52 अगणिकम्म 112, 121 अगणिकाय 211, 212 अज्जविय अगणिसत्थ 34, 35 अज्जावेतव्व 132, 136, 137, 138, 170 अगरह 242 अज्झत्थ 57,155, 233 अगार (गार) 41, 79, 82, 161 अज्झप्पसंखुडे अगारस्थ अझोववण्ण 62, 182, 190 अगिलाण अझंझ 158 37 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठ(अर्थ) 313 104 आचारांगसूत्र---प्रथम श्रुतस्कंध शब्द अझोसयंत 190 अणिदाण 142, 202 अट्ट 10, 93, 134, 151, 180, 193 अणियट्टगामि 143 52,68, 79,82, 119 अणिसट्ठ 204 124, 147, 204, 205, अणिहि 141, 158, 197 253 अणु 154 अट्ठ (अष्ट) 311 अणुक्कत 276, 292, 306, 323 अटठम अणुगिद्ध 273 अट्ठालोभी 63, 72 अणुग्घातण अछि 52 अणुचिण्ण 163, 224, 228 अछिमिजा अणुदिसा 1, 2, 6 अणगार 12, 14, 19, 23, 25, 26 अणुपरियट्ट- 77, 80,91,105,151 34, 36, 40, 42, 44, 50, अणुपस्सी 76, 113, 124 52, 57, 59, 71, 88, 89, अणुपुब्व 181, 183, 189, 190, 94, 156, 184, 257, 206, 224, 228, 229 अणुपुव्वसो 179 275, 299 अणट्ठ अणुवट्ठिय 52, 147 132 अणण्ण अणुवयमाण 191, 192, 200 अणण्णदंसी अणुवरत 132, 141 अणण्णपरम अणुवसु 183 123 अणण्णाराम अणुवहिन अणत्तपण्ण अणुवियि 178 140 अणधियासेमाण 183 अणुवीय अणभिक्कत अणुवीइ 196, 197 अणममाण अणुवेहमाण 169 अणाउट्टि 270 अणुसंचरति 2,6 अणागमणधम्मि 185 अणुसंवेयण अणाणा 41,70, 100, 172, 191 अणुसोयति अणातियमाण 102 अणेगा प्रणादिए 200 अणेगचित्त अणारंभजीवी 152 अणेगरूव 6, 12, 14, 23, 25, 34, अणारद्ध 104 36, 42, 44, 50, 52, 57, प्रणारियवयण 136, 137 59, 76, 178, 283, 285 प्रणासव अणेलिस 177, 206, 229, 245, 269 प्रणासादए 197 अणोमदंसी अणासादमाण 197, 223 अणोवहिन 132 प्रणासेवणाए 164, 205, 212 अगोहंतर 79 अणाहार 236, 241 अण्ण (अन्य) 2, 13 इत्यादि अणितिय 45, 153 अण्णगिलाय (अन्नग्लान) 312 101 132 101 our or ur Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शमसूची] 345 70 157 134 शब्द शब्द अण्णत (य) र 96, 184, 187, 225, अपडिण्ण 88, 210, 273, 276, 281 226, 253 287, 291, 292, 301, 304, अण्णत्थ 306, 312, 313, 320, 323 अण्णमण्णवितिगिछा 122 अपत्त 301 अण्णहा 89, 159, 176 अपरिग्गहा अण्णाण 151 अपरिग्गहमाण अण्णेसि 268 अपरिग्गहावंती अण्णेसि 56, 62 अपरिजाणतो 149 अण्णेसिति 158 अपरिणिव्वाण 49, 139 अण्ण (न्ने) सी 104, 152, 160 अपरिण्णाए 184, 191 अतह अपरिण्णात (य) 182 अतारिस 16, 29, 38,46, 53 60,149 अतिप्रच्च 262 अपरिण्णायकम्मे अतिदुक्ख 290 अपरिमाणाए 183 अतिवातसोत अपरिस्सवा अतिविज्ज 112, 115, 142 अपरिहीण 38 अतिवेलं अपलिउंचमाण 214 अतिहि (थि) 73, 317 अपारंगम अतीरंगम अपासतो 162 अत्तत्ताए (आत्मता) 181 अपिइत्थ 311 अत्तसमाहित 141 अपिवित्था 312 अत्ताणं (आत्मानम्) 22, 32, 126, 197 अपुट्ठ (अस्पृष्ट) 206, 307 अदक्खू (क्खु) 174, 263, 270, 271 अप्प (अल्प) 64,79, 82, 154, 224, प्रदत्तहार 79, 82 228,235, 274, 296 अदविते 194 अप्पगं 249 अदिण्णादाण अप्पणो (प्रात्मनः) 87, 93, 114, 234 अदिन 200 अप्पतिट्ठाण 176 अद्धपडिवण्ण 275 अप्पत्तिय अद्धमास 311 अप्पपुण्ण अधम्मट्ठी 192 अप्पमत्त 33, 108, 109, 129, 133, अधि (हि) याम-~-९९, 153, 186, 187, 156,280 196, 206, 211, 215, 225, अप्पमाद अप्पलीयमाण 226, 236, 230, 241, 246, 184 अप्पाण 62, 89, 92, 123, 141 250, 286, 291, 293, 299 अधुव 153, 200 160, 164, 167, 169, 170 अधे (अधः) 191, 291, 320 215, 222, 246, 281 अप्पाहार 231 200 अन्नतरी अप्पियबधा Jain Eअपज्जवसित For PROG Personaअप्पा www.anelibrary.org 318 अनिरए 78 15.52 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र अब्भे 89 40 शब्द अप्पोस 224 अमुच्छिए (ते) 253, 321 प्रबल 180, 218 अमुणी अबहिमण 172 अयं 240, 247, 248, 288 अबहिलेस्स अरति 69, 98, 107, 124, 189, 286 अबहुवादी 286, 309 परत 119, 160 अबुज्झमाण 77 अरहंत 132 अबोधी (ही) ए 13, 24, 35, 43, 51, 58 अरूवी अभाइक्खति 22, 32 अलं 64, 66,67, 81,85, 94 अब्भाइक्खेज्जा 22, 32 114, 180215, 218 अलद्धए •अलाभ अब्भंगण 308 अभय अलोभ अभिकंख 219, 227 अलोग 127 अभिणिक्खंत 181 अल्लीणगुत्त 124, 173 अभिणिगिझ 126 अक्कंखति (खंति) 56, 71, 78, 129, 175 अभिणिव्वट्ट 181 अवक्कमेज्जा (मत्ता) 224, 228 अवर अभिणिबुड 124, 158, 240 322 अविजा(या)णो 49, 144, 148, 149 154 अभिणिवूडच्चे 224, 228 अभिण्णाय अविज्जा 151 184. 264, 266 अभिताव अवितिण्ण 183 अविमण अभिपत्थए 98, 143 अवियत अभिरुज्झ 162 256 अविरत अभिसंजात 194 181 अभिसंबुद्ध अविहिंस 181 अभिसंभूत अविहिंसमाण 152 अभिसंवुड अवाहित 287 अभिसमण्णागत 107, 187,214,217, अव्वोच्छिण्णबंधणे 219, 222, 223, 226 असई 75, 180 अभिसमागम्म 322 असंजोगरएसु अभिसमेच्चा 22, 129, 134, 187 असंदीण 189, 197 195, 214, 217, 219 असंभवंत 190 222, 223, 226, 299 असण 199, 204, 205, 207, 208, अभिसेय 181 218. 223 227, 273 अभिड 204, 218 असत्त असत्थ 32, 109, 129 अभोच्चा 264 अममायमाण 88, 210 असमंजस . अमरायइ असमणण्ण 199, 207 अमाइल्ल 322 असमण्णागए अमायं असमारंभमाण 16, 21, 38, 46, 53, 60 310 170 193 181 144 194 11 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 विशिष्ट शम्बसूची] 163 204 शब्द असमितदुक्खे 80, 105 आउकाय 265 असमियं (या) पाउखेम 234 असरण प्राउट्टे (मावर्तेत) प्रसरणाए 263, 272 प्राउट्ट (प्रावृत्तः) 215 असाय आउट्टिकय प्रसासत 45, 153 प्राउसो प्रसाधु 200 असिद्धि पाउसं असित पाउसंत 204, 211, 218 आकेवलिय असील 183 प्रागंतार 279 अस्सातं 49 प्रागति अहं (अध:) 41, 103, 136, 137, 203 123, 175 आगम 173, 195 अहं (अहम्) 1, 2, 4, 94, 194, आगममाण 180, 214, 217, 219, 204, 211, 222, 224, 221, 223, 226, 227 225, 227, 228, 288 प्रागमेत्ता अहारो 149, 164, 205, 212 प्रागम्म अहातिरित्त 227 सागर 224 अहाकड 271 मागासगामि 180 अहाकिद्वित 219 आधाति 134, 177 अहा तहा 146, 183 आघाय (त) 199, 262 अहापरिग्गहित 214, 221, 227 अाढायमाण 199, 207, 208 अहापरिजुष्ण 214, 217, 221 प्राणंद 124 ग्रहायत 244 प्राणक्खेस्सामि 219 प्रहासच्च 134 प्राणवेज्जा 254 149, 164, 205. 212 अहासुत प्राणा अहिंसमाण 318 22, 127, 129, 134, 145, 172, 185, 190 अहित (य) 13, 24. 35, 43, 51, 56, प्राणाकंखी 141, 158 58, 106 अहिरीमणा 184 प्राणुगामिय 215.219, 224, 228 अहुणा 254 प्राणपूव्व 224 अहे (अध:) प्राततर 247 अहेचर 237 आतवं (प्रात्मवान्) 107 अहेभाग आतीत? 224 अहेसणिज्ज 214, 217, 221, 227 अातुर 10,49, 108,180, 183 अहो य रापो (रातो) य 63, 72, 133 प्रातोवरत 146 आदाण 86, 184,187 अहोववातिए प्रादाय 79. 127, 184 अहोविहार श्रादेसाए आदि (ति) 120, 148, 159, 200 प्रामगंध 88 आउ (आयु:) 64 प्रायट्ठ 174 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासंगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र 41 143 294 220 शब्द अायतचक्खु प्रावक 322 आयतजोग 322 आवकहाए प्रायतजोगताए आवज्जति प्रायतण 84 प्रावट्ट 41,80, 105, 151, 174 प्रायत्ताए 179 पावट्टसोए पायाए 107 130,224, 228 आयाण 128, 130 आवडिय 161 आयाव (आजानोहि) पावसे पायाणसोत पावसह 144, 269 204, 205 प्रायाणह आवातए 202, 208 पायाणिज्ज 79, 143, 185 आवीलए आयाणीय 14, 25, 36,44, 52, 59, 95 आवेसण 278 आयार आसंसाए प्रायारगोयर 191, 200, 206 आसज्ज 114, 258 प्रासण पायावइय 277, 304 प्रासणगाई आयावेज्जा 212 आया (ता) वादो पासणत्थ प्रासम आयुकाल 239, 253 224, 228 पासव 134, 238 प्रारम्भ 16,29,38,46,47,53, 60 पासवसक्की. 151 62, 145, 166, 198, 230 प्रासं आरम्भज 108, 140 प्रासीण 245 प्रारम्भजीवी 113, 150 आसुपण्ण 201 प्रारम्भट्ठी 192, 200 आसेवित्ता प्रारम्भमाण आहच्च 60, 87, 206 प्रारम्भसत्त 62 आहटटु 83, 204, 205, 218, 219 77 227, 288 प्रारभे 104, 160 पाहड 219, 227 आराम 164, 173 आहार 89, 164, 210, 224, 228, 231 पारामागार 279 पाहारग पारिय 14. 88,89, 137, 138 आहारेमाण 223 152.157, 189, 202, 209 इयो पारियदंसी इंदिय 242,245 पारियपण्ण 88 इच्चत्थं 14, 25, 36, 44, 52, 59,63 आरुसियाणं 256 इच्छापणीत 134 आलु पह इच्छालोभ 251 आलुपे इणं 78, 83, 93, 134 पालोएज्जा 218 इत्तिरिय 224 आवंती 136, 147, 150, 152, 154, 157 इत्थियारो 62 88 77 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शम्बसूची] 187 शब्द शब्द इत्थी 164, 176, 259, 270,284 उरि 179 उदासीण इतराइतरेहि 186 उदाहड 202 इरित 148 उदाहु (= उदाह) 85, 153 इरिया 228 उदाहु( = कदाचित्) 152 इहं 1,14, 26, 44, 52, 64, 67, उद्दवए 135, 151 ऊदवेत(य)व्व 132, 136, 137, 138, 170 इहलोइय 285 उद्देस 80, 105 इहलोगवेदणवेज्जावडिय उप्पेहाए 274 ईसि 281 उब्बाहिज्जमाण उक्कसिस्सामि उब्भमे 287 उक्कसे 246 उब्भिय 49 उक्ककुडुए 310 उम्मुच उम्गह 89 उम्मुग 121, 578 उच्चागोए उर उच्चालइय 304 उराल 263 उच्चालयितं 125 उवकरण उच्चावच 180 उवधी 131, 146 उज्जालित्तए 211 उवमा 176 उज्जालेत्ता 212 उवरत 40, 106, 107, 109, 117, उज्जुकड 128, 130, 132, 145, उट्टाए 281, 282 146, 152,166, 185 उद्याय 224, 228, 254 उवलब्भ उट्ठिएसु उववाइन 1, 2, 49 उद्वित 152, 169, 197 उववाय 119, 180, 209 उट्टितवाद 151 उवसंकमत उदभियाए उवसंत 116, 164, 191 1,2,41,91,103, 136, उवसंतरए 137, 164, 174, 203, 320 उयसंती उड्ड(चर) 237 उवसम्ग 224, 228,250,283.284, 295 उण्णतमाण 162 उवसम 143, 183, 190, 196 उत्तम 248, 288 उवहत उत्तर 1,2 उवातिकम्म 202 उत्तरवाद 185 उवादोतसेस 67 उत्तासयित्ता उवादीयमाण 62 उत्तिंग 224 उवाधि उदय 23, 24, 25,30,31, 180, 224 उवेति 77,79, 82, 96, 148 उदयचर 180 उवेह 140 उदर 15 उवेहमाण 108.146, 149, 160, 169 उड्ड EFEREFERREE 77 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 184 224 शब्द शब्द उहाए 123, 154, 169 एया(ता)णुपस्सी 76, 124 उसिण 107 एया(ता)वंति 5, 8, 176 उसिय 189 एलिक्खए 297 उरु 15 एलिस 177, 206. 229, 245, 269 एकयर एवं 227, 228, 247, 267, 276, एग 1, 2, 12, 14, 25, 34, 292, 298, 300, 306, 323 36, 37, 42, 44, 50, 52, एस 276, 292, 306, 323 57, 59, 60, 64, 67, 70, एसणा 133, 186, 316 75, 77, 82, 87, 124, अोघं (हं) तर ओबुज्झमाण 177 127, 129, 135, 141, 149, 151, 154, .159, अोमचेल (लिए) 214 प्रोमदंभी 162, 167, 172, 178, मोमाण 183, 184, 186, 190, 272 प्रोमोदरिय 191, 194, 200, 209, 164, 307 214, 215, 222, 261 प्रोमोयरिया एगचर 287 प्रोयण 310 एगचरिया 151, 186 प्रोस एगणामे 129 प्रोह 71,182 कखा एगतर 184, 187, 225, 226 166 एगता 312 85. 123, 160, 180 एगतिय 163, 196, 277, 284 कंडुयए 273 एगत्तिगत 264 कबल 89,183, 199, 204 एगप्पमुह कक्खड 160 कज्ज एयसाड 217, 221 73, 74 37, 141 एगाणिय 222 कड 93, 315 एगायतण 153 कडासण एज कडि एणं 140 कडिबंधण 16, 26, 28, 29, 38, 40, 41, 46, 53, 60, 63, 70, कडुय कण्ण 72, 74, 77, 89, 106, 117, 136, 137, 148, कतकिरिय 165 149, 150, 152, 156, कतो 169, 174, 184, 185, कप्प 200, 224. 228, 288, कब्बड 224 एत्थं...: 62, 102, 124, 243 कम्म 62, 79, 82, 95, 101, 109, 290 111, 116, 117, 119, 122, -- 108, 133, 187 इत्यादि। 135, 140, 142, 148, 150 कंचणं कटू एत्थ एधा एय Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट सम्बसूची] 351 शब्द 87 87 111 97 37 किचि 88 196 सूत्र 153, 160, 163, 202, 209, काय 163, 198, 203,211, 212, 224, 268 228, 243, 249, 256, 299, 303 कम्मकर कायर 193 कम्बकरी कायसंफास कम्मकोविय 151 कारण 122, 191 कम्ममूल काल 78,88, 166, 210 कम्मसमारंभ 5, 8, 9, 12, 14, 18, 23, कालकंखी 25, 34, 36, 39, 42, 44, कालग्गहीत 134 52, 57, 59, 203 कालण्ण 88, 210 कम्मसरीर कालपरियाय 215, 219, 224, 228 कम्मसरीरग कालाकालसमुट्ठायी 63, 72 कम्मावह 270 कालेणुट्ठाई 88,210 कम्मावादी कालोवणीत 198 कम्मुणा 110, 145, 267,271 कासंकस कम्मोवसंती काहिए कयबर 234, 271 कयविनकय किच्चा 224, 228, 231 कयाइ 123 किट्टे कलह किड्डा कलूण 178 किणंत कल्लाण 200 किणावए कवाल 302 किणे कसाइत्था 287 किण्ह कसाय (रस) 176 किरिया कसाय (क्रोधादि) 224, 228, 231 किरियावादी कसेहि 141 किलेसंति 180,186 कहा 263 किवणबल कहं किस कहकहे 224, 228 किह कहिंचि 204, 205 कीय काऊ 176 कीरंत 314 काणत्त कीरमाण 219, 227 काणियं 179 काम 70,71, 90, 109, 113, 147, कूडल 77 180, 183, 190, 251 295,296, 317 कामकामी कुचर 284 कामक्कत 198 कुज्झे कामसमणुण्ण 80,105 कतो For Private & Personal se Only mi ل 167 ر ة oror orm कुटत्त 76 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सत्र खेत्त 77 खेयण्ण 234 कुल गंड 321 गंध कूरकम्म 176 15 कुणित 169 कुम्म 178 88, 109 कुम्मास 310,319 खेम 178, 179, 181, 186 कुम्वह 117 गंडी 179 कुब्वित्था गंथ 14, 25, 36, 44, 52, 59. कुसग्ग 148 121, 198, 206, 239 कुसल 74, 85, 89, 101, 104 107, 176, 285 140, 159, 162, 172 गढिय 14, 25, 36, 44, 52, 59, कुसील 183 63, 79, 82, 91, 144, 79, 82, 135, 148 198, 263 केावंती 136, 147, 150, 152, गति 123, 169, 175 गब्भ 108, 113, 130, 148, 159 केयण 118 गब्भदंसी केयि गमण 218 कोइ 222 गरुप कोढी 179 गल कोधादिमाण 120 गहाय 297 कोलावास 245 गात (य) 211, 247, 273, 308 कोविय गाम 151 196, 202, 224, 228, 235, कोह (ध) 128, 142, 151, 198 279, 300, 315 कोहदंसी गामंतर 130 196, 214 खंध गामंतिय खण गामधम्म 68, 69, 152 164, 211, 309 गापिंडोलग खणयण्ण 88, 210 317 खणह गामरक्ख 284 215, 219, 224, 228 गामाणुगाम खम 162, 164 खलइंसु गामिय 284 खाइम 191, 204, 205, 207, 208, गायब्भंगण 308 218, 223, 227 गार (गृह) गाहावति 204, 205, 211, 218 खिप्प 234 गाहिय 176 खज्जत्त गिद्ध 113, 149, 190 खज्जित 214, 217, 221,310 खुड्डय 123 गिरिगुहंसि 204, 205 गिलाएज्जा खेतण्ण (खेत्तण्ण) 32, 69, 104, 132, गिलाण 219 176, 209, 210 गिलाति For Private &Personal use only 15 खिसए Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट सम्बसूची] 179 162 154, 266 गिलासिणी गिह गिहतर गीत गीवा 196, 218 262 ...... 45 187 15 189 गुण 33, 41, 63, 163 गुणट्ठी गुणासात (य) 41, 161 185 224, 228 204 गुत्त 201, 206 गुप्फ गुरु चित्तणिवाती चित्तमंत चित्तमंतय चिरराइ चिररातोसिय चुत चेच्चा चे (चि) च्चाण चेतेसि चोरबल छउमत्थ छंद छंदोवणीत (य) छज्जीवणिकाय छण , छप्पि छाया छिण्णकहंकह छिण्णपुव्व छुच्छुकारेंति छेय जंघा 147 184, 321 321 83, 152 62, 182 37 103, 104,111, 159 312 192, 200 315, 318 309 224, 303 296 145, 192 213 79 15 176 164 जतु 180 गोतावादी गोमय घाण घातमाण धास घासेसणाए घोर चउत्थ चउप्पय चउरस चए चक्कमिया चक्खु चक्खुभीतसहिया चक्खुपण्णाण चत्तारि चयण चयोवचइय चर चरिया चाई चाएति चागी चिट्ट चित्त 258 الله Browror الله 282 जग्गावतीय 281 जण 71,78, 83, 164, 193, 196, 287 296,297 64 जणग 182 256 जणवय 118, 196 119, 180, 209 जणवयंतर 45, 153 जमेयं 78, 119 जम्म 277 जम्मदंसी. जम्हा 257 जराउय 49 291,307 जरामच्च 107 जरेहि 141 135 जस्स 227, 228, 270 63, 72, 178 जहा 141, 254 0 0 الله م 108 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 .: . आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध झाती शम्द जहातहा 133, 180 जोणि 267 जहा वि 19, 178 जोणीयो 6,76 जहेत्थ 74, 89, 157, 159 जोव्वण जाई 229 झंझा 127 जायो 277 झाण 320 जागरवेरोवरत 107 280, 321 जाणया (जानता) 201 झिमिय 179 ठाण जाणवय 295 79, 164, 238, 244, 247, जाणु 248 ठावए 249 45, 112,133, 134, 177 ठित 33, 169 191, 256 ठियप्प 197 जाती-मरण 77, 78, 176 डंड 299, 30 जातीइमरणमोयणाए 7, 13, 24, 35, 43 डसंतु 51, 58 डसमाण जात 178, 179 जातामाताए 123 णदि 99, 114, 119 जाम 202 ण(नगर 196, 224, 279, जाव 69, 198, 199, 205 णगरंतर 217, 221 णगिण 185 जावइत्थ जावज्जीव 262 जिण 168 151 णममाण जिब्भा 15 191, 194 जीव 26, 49, 62, 132, 136, 139, 196 108, 140, 162, 177, 191, 198 197, 203, 204, 205 ण रग 84, 130 जीवणिकाय 62 ण (न) ह (नख) 15, 52 जीविउं 56 णाओ(नागः) जीविउ (तु) काम 77 78 जाण 146, 177, 182, 191 जीवित (य) 7, 13, 24, 35, 43, 51 णाणभट्ट 191 58, 66, 77, 78, 90, 99 णाणवं 107 127, 129, 147, 191, 232 णाणी 119, 123, 134, 135, 269 जीहपण्णाणा णातं 1,2, 14, 25, 36, 44, 52, 59 जुइमस्स 209 णातबल जुद्धारिहं 159 णातसुत जुन्नाई णाति 87,133, 193 णाभि 260 णाम 170, 182,192 जोग 228, 269 गाय (न्याय) 101 Xxur 00 णट्ट ड णर 263 जूरति Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट सम्बसूत्रो] 355 119 215, 219, 224, 228 80, 89, 105, 133 75 176 168 27,52,136, 182 णील 144 65 52 176 254, 255, 289, 291 289 तच्चं शब्द शब्द णायपुत्त 240, 263 णिब्वेय णालीयं 297 णिस्सार णास (नासा) णिस्सेस णितिए 132 णिहे णिकरणाए 28, 97 णीयागोय णिकाय णिक्कम्मदंसी 115, 145 णीसंक णि (नि) क्खित्तदंड 140, 177 णिक्खिवे णेत्त णिगम 224 णेत्तपण्णाण णिगंथ 107 ण्हारुणी णिचय 113, 134 तंस . णिज्जरापेही 233 तसि णिट्ठियट्ठ 195 तंसिप्पेगे णिट्ठियट्ठी 173 तक्क णिडाल तक्किय णिदाणतो 178 णिदाय 158 तण णिहेस तणफास णिहं 281 तपिणवेसणे णिद्ध 176 ततियं णिधाय 299 णिप्पीलाए तत्थ तत्थ पिब्बलासए 164 तथागत णियग (य) तद्दिट्ठीए 64, 66, 67, 81 णियम 77 तप्पुरक्कारे तम णियाग तम्मुत्तीए णि (नि) रय 14, 25, 36, 44, 52, 59 तरए 120, 130,200 णिरामगंध णिरालंबणताए णिरुवढाणा 172 तबस्सी णिरोध 247 तस णिवाय तसकाय णिब्वाण 196 तसजीव णिव्विद 99, 109 तसत्त णिविण्णचारी तस्स णिब्वुड तस्सण्णी 133 37, 224, 228, 235 187, 225, 226, 293 162, 172 مع 163 49, 135 123 162, 172 162, 172 144, 180 162, 172 182 81, 180, 204 77, 187, 214, 217, 219, 222, 223, 226 215 तव 172 49 289 50, 51, 52, 54, 55, 265 267 267 228, 234, 255, 283, 395 162, 172 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारोगसूत्र-प्रथम श्रुतस्करम 308 तालु 79, 82 102 313 तुब्भे शब्द सूत्र शब्द सूत्र ताणाए 64, 66, 67, 81 दंत (दन्त) 15, 52 तारिसय 158 दंतपक्खालण दंत (दान्त) 120, 193 तितिक्वं दसण 128, 130, 162, 172, 264 तित्त 176 दसणलसिणो तिधा 240 दंसमसग 293 तिरिक्ख 84 दंसमसगफास 187, 225, 226 तिरिच्छ दक्खिण तिरिय 41, 91, 103, 130, 136, 137 दग 224, 228 174, 203, 258, 274, 320 दढ 78, 184 तिरियदंसी दम 77 तिविध दया 196, 210 तीत 123 दविय 56, 127, 143, 187, 194, तीर 239, 291, 319 तुच्छ दसम तुच्छय 100 दहह 206 तुज्झ दाढा 155 52 दायाद 79, 82 137 दारुण 145 तुमं सि 170 87 तुयट्टज्ज 204, 205 दासी 87 तुला 148 79, 52 तुसिणीए 288 दाहिण तेइच्छ 1, 146, 196, 223 94, 307 तेउकाय दिट्ठ 33, 133, 136 265 तेउफास दिट्ठपह 187, 225, 226, 293 थंडिल दिटुभय 116 235, 241 थण दिद्विमं 197 थावर 267 दिया 189, 190 थावरत्त 267 दियापोत 189 दिव्वमाया 252 154 दिसा 1, 2, 6, 49, 103, 136, 137, थोव 203 दइत 189 दीण 193 दंड 33, 73, 74, 132, 140, 164, दीव 189, 197 203, 209, 261 दीह 176 दंडजुद्ध 262 156 दंडभी 203 दीहलोगसत्थ 32 दंडसमादाण 73 दुकड दाह थी थल दोदराय 200 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शमसूची] देहतर देहभेद 250 111, 123, 216 224, 228 130, 136, 137, 138, 151 दोणमुह दोस दोसदंसी 130 दुक्ख 49,68, 79, 80, 82,84, 96, 101, 105, 107, 126, 129, 130, 139, 140 142, 148, 152, 180 दुक्खपडिकूल दुक्खदंसी दुक्खपडिघातहेतु (ड) 7, 13, 24, 35, 43,51,58 दुक्खमत्ताए दुक्खसह दुक्खी 80,105 दुगुछणा दुगु छमाण दुच्चर दुच्चरग 298 दुज्जात दुज्झोसय दुणिक्खंत दुत्तितिक्ख 262 127 304 धम्मवं धम्मविदू धम्मि धाती धिति 35,85, 153, 230 240, 248, 288 107 107, 140 185 56 71 294 धीर 117. 65, 83, 115, 133, 186, 196, 206, 229 99,141, 161 199, 200 धुवचारिणो दुट्टिा 79 धुववण्ण धूतवाद धूता धोतरत्त निरुद्धाउय निसिद्धा 90 186,285 176 137 251 181 63, 87 214 142 130 252 68, 75, 92, 94, 141, 157 158, 189, 195, 209, 234 99, 141, 294 199 274 नम दुपयं दुप्पडिबूहग दुप्परक्कंत दुभि दुन्भिगंध दुम्मय दुरणुचर दुरतिक्कम दुरहियासए दुल्लभ दुव्वसु दुव्विण्णाय दुस्संबोध दुस्सुय दूइज्जमाण पंडित (य) पंत पंसु 90, 162 183 पंथ पंथपेही 100 137 पक्खालण पक्खिणो 137 पगंथं 162 पगंथे 147, 148 पगड 73 पगप्प पगब्भति mr m 0 0 15000 orur देवबल 219 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 . आचारांगसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध शब्द पगामाए पग्गीहततरग पग्गहे. पचह पच्चस्थिम पच्चासी पच्छण्ण पच्छा पण्णाण सूत्र शब्द 281 पणत (य) 239 पणतासी 248 पणियसाला 206 पणीत पणुन्न 92 पण्ण 178 64,66,67, 81 141, 153, 164 158 पण्णाणमंत 109 पत(य)णुए 211 पतेलस 224 पत्त (पत्र) 79 पत्त (प्राप्त) 89, 183, 199, 204 पत्तेय पत्थए 7, 13, 24,35,43,51,58 पद (य) पदिसो 219 पदेसिए पबुद्ध पभिति सूत्र 21, 184 304 278 134 148 250 62, 64, 68, 101, 160, 190, 215 145, 166, 177, 190 188, 224, 228, 231 280 37 134 9,68, 82,139, 152, 160 232 पच्छाणिवाती पज्जवजात पज्जालित्तए पट्टण पडिकूल . पडिग्गह पडिधात पडिच्छादण पडिण्णत्त पडिपुण्ण पडिबुज्झ पडिबुद्धजीवी पडिबूहणता पडिभाणी पडियार पडिलेह पडिलेहाए 225 Wii 149 189 166 184 पभु 240 164 210 180 33, 41, 63,66, 129, 133, 134, पडिवण्ण 93 पधूतपरिणाण 274 पभंगुणो पभंगुर 76, 112, 266 पमत्त 71, 92, 97, 111, 122, 149, 164, 175, 205, 206,212 पमाद 19, 134, 139, पमादए 214, 221, 275 पसादे पमाय 171 . पमायी 142 पमोक्ख 86 पया 146, 196 पर 33, 76, 85, 151 65, 152 123 321 पडिवतमाण पडिसंखाए पडिसंजलेज्जासि पडिसेहितो पडीण पडुच्च पड़प्पण्ण पणग 108 104, 155 119, 151, 160 2, 79,82, 129, 197, 199, 207, 208, 212, 218,272 182, 187, 226 132 परक्कमंत 224, 228, 265 परट्ठ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शमसूची] 359 सूत्र 64 211 210 210 शब्द सूत्र शब्द परम 112, 115, 253 परिव्वए 88, 108, 116,124,156, परमचक्खू 155 173, 184, 176, 197 परमदंसी 116 परिस्सवा 134 परमदाम 164 परिम्सह 303 परलोइय 285 परिहायमाण परवागरण 2, 172, 205 परीवेवमाण परिकिलंत परीसह 183, 249, 250 परिगिलायमाण परीसहपभंगुणो परिगह 88 परीसहो (हु) वसग्ग 224, 228 परिग्गहावंती 154, 157 परेण परं 120 परिजुण्ण 10, 187, 217, 221 परिणिज्जमाण 149 पलालपुज 278 परिणिव्वाण 49 पलास 178 परिण्ण 176 पलिउच्छण्ण 151 परिण्णा 7, 13, 24, 35, 43, 51, 58 पलिछिण्ण 144 97, 101, 103, 140, 158, 219 पलिबाहिर 162 परिणाए 308 पलिमोक्ख 151 परिण्णाचारी 103 पलिय 140, 184, 191 परिणाण - 164 पलियंतकर 128, 130 परिण्णात (य) (परिज्ञात) 9, 16, 18, 29, 30 पलियट्ठाण 278 38, 39,46, 48 पवंच 127 53, 55, 60,61, पवा 278 62, 93, 149, 270 पवाद (य) 172 परिण्णाय (त) कम्मे 9, 18, 31, 39, पवीलए 143 48, 55, 61, 62 पवेसिया परिण्णाविवेग 259 पाईण 41, 146, 196 परिदेवमाण 182 पाउड 70, 83 परिनिन्वुड 197 पाडियक्क 203 परिपच्चमाण 150 पाण 199, 204, 205, 207, परिपाग - 180 208,218, 223, 221, परिमंडल 237, 238, 283, 299 176 पाणजाती परियट्टण 256 परियाय 152, 171. 185, 215, 219, 224 पाणि पातए परिवाय 218 पातरासाए 87 परिसित 184,187,213, 216, 220, 225 पातु 27 परिवंदण-माणण-पूयणाए 7,13, 24, 35 पाद 43, 51, 58, 127 पादपुछण 89, 183, 199, 204 118 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 पुण्ण आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध शब्द सूत्र शब्द पादुरेसए 245 196, 206, 215, 218, पामिच्च 204 236, 241, 260, 307 पाय (पात्र) 213, 216, 220, 272 पुटु (पृष्ट) 260 पार 70, 79 पुटुपुव्वा 298 पारए 239, 253, 255, 300 236 पारगम पुट्ठा 191, 206 पारग पुढवि 12, 13, 14, 17, 18, 37 पारगामी पुढवी पाव 112, 115, 165, 202 पुढो 10, 11, 12, 23, 26, 27, 34, 42, पावकम्म 62, 95, 109, 116, 117, 49, 50, 57, 77, 87, 92, 96, 119, 122, 142, 150 129, 134, 136, 142, 152, 267 153, 160, 202, 209 पुढो पुढो पावग 271, 314 पुणो पुणो उणा पुणा पावमोक्ख 41, 63, 70, 72, 133, 134, 148, 149, 191 पावय 194, 200 पावादिय 140 पावादुय 63, 78 पास (पार्श्व) 15 पुरतो 317 पास (पाश) पुरस्थिम पासग 80, 105, 128, 130, 131, 146 पुराण पासणिए 165 6,90,93, 102 149, 153, 178, 194, 210 118, 125, 126, 127, पासहा 145, 161, 166, 174, 198 143, 155, 176, 284 पासे 145 पूलाग पिंड 319 33, 124, 139, 146, पिन्छ 52 153, 158, 164,183, पिट्टो 274 187, 218, 248 पिट्टि पुव्ववास 187 पिता 63, 193 पुव्वसंजोग 143, 183 पित्त 52 पुवावरराय पिय 77, 78 पुन्वट्ठाई 158 पियजीवी 78 पुब्धि 64, 66, 67, 81 पियाउय 78 पिहितच्चा पूयण 7,13, 24,35,43, 51,58, 127 पीढसप्पि 178, 193 पुच्छ पेच्चबल पुट्ठ (स्पृष्ट) 37, 60, 70, 127, पेच्चा 152, 153, 186, 191, पेज्ज 130 पुरिस पासह 92 264 179 पेगे 52 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शमसूची] सूत्र 169 88, 210 पेसल शब्द बालभाव बालण्ण बालया बाहा बाहि बाहिरग 188 92 बाहु बिइय बीय बुइन 145 15, 275 119, 149, 191, 220 224-228, 265 162, 274 145, 180, 206 बुद्ध भंजग भगिणी भगवं शब्द सूत्र पेज्जदंसी 130 पेतं 197 पेहाए (प्रेक्षते) 274 येहाए (प्रेक्ष्य) 93,174, 205,316 पोतया पोरिसि 258 फरिस 60, 262 फरुस 190, 191, 305 फरुसासी 297 302 फलगाव (य) तट्ठी 198, 224, 228 फारुसिय 170, 190 फास 6,64,68,76,91,107, 135, 142, 149, 152, 153, 164, 176, 179,180, 184-187, 196, 206,211, 225, 226 246, 286, 293 फासे 142 बंध 145 बंधण बंधपमोक्ख 104, 155 बंभचेर 143, 155, 183, 190 बंभवं 107 बक्कस बज्झतो 159 91, 103, 104, 230 बल बहिं 233,282 बहिरत्त बहिया 56, 121, 125, 133, 140, 156 बहुणामे 129 बहुतर 259 बहुमायी बहुसो 276, 292, 306, 323 77, 79, 80, 82,94, 105 114, 144-148, 150, 159 180, 191, 192, 267, 268 भगवंत भगवता 178 254, 257, 268,271, 281, 282, 291, 292, 299,304307, 309, 310, 311,315, 318, 322 132 1, 7, 13, 24, 35, 43, 51, 58,89, 187-189, 201, 214-217, 219, 221-223, 226-227 14, 25, 36, 44, 52, 59 144 भगवतो भज्जा भट्ट भत्त 191 बद्ध भमूह 73, 129 भय भाग भाया भावण्ण भिक्खायरिया भिक्खु 88,210 218 88, 162, 187-189, 196 197, 204-206, 210213, 205-209, 220225, 227, 228 223 UP www.jainabray.org बाल . भिक्खुणी भित्ति .. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 आचारांगसूत्र-प्रपम श्रुतस्कन्ध सूत्र भीत मत भुज्जो भुज्जो भुज्जो भूत 179 97 मए शब्द शब्द सूत्र भिदुर 251 मणिति 114 258 भीम 258,283, 285 मतिम 187, 226, 297 मतिमंत 229 मती 176 49,76, 112, 132, 136 मतीमता 276, 292, 306, 323 139, 196, 197, 204, 205 मत्ता (मत्वा) 137, 139 मता (मात्रा) 82, 127 भेउर मद्दविय भेउरधम्म 85, 153 मधुमेहणि भेद 183, 198 मम 204,205, 211 भेदुर 224, 228 ममाइत 97 भेरव 186, 224, 228 ममाइयमति भोगामेव ममायमाण 77, 88, 183 भोम मरण 7, 13, 24, 35,43,51, 58 भोयण 63, 67, 79, 82, 87 77, 78, 85, 108, 116, मउए 157 148, 176, 180,232, 245 मसग मंता 108 187, 225, 226 मंथु 172, 175, 202, 209 महं (महान) महं (मम) 184 महंत 120 मंस महता 63, 123, 162 मंससोणित 143, 188, 237 महब्भय 49,85, 189, 154, 180 मंसू 303 महाजाण 129 मक्कड 224 महामुणी 181, 184, 197 मम्ग 74, 89, 143, 152,153, 177 मच्चिय 91, 113, 145 महामोह मच्च 108 महावीर 178, 187,190, 266, 277, 300, 305, 314,320 मच्चुमुह महावीहिं मज्जेज्जा 89 महासड्डी मज्झ (मध्य) 145 महुर 176 मज्झए महेसिणो मज्झत्थ 233 महोवकरण 79, 82 मज्झिम 209 मा 92,151,162,172,182 मट्टिय 224 माण 120, 128, 130, 198 मडंब माणदंसी 130 मण 98, 143, 164, 172 माणण 713 मणिकुडल माणव 64, 67, 77, 82, 87, 101, 120 310 मंद 52 85 134 93 224 77 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शन्दसूची] मूकत्तं मूल 289 शब्द . 123, 134, 151, 152, 162, 177 180, 185 माणावादी माणुस्स 236 मातण्ण 88, 273 माता माता (मात्रा) 89, 123 मामए 165 मामगं 185, 200 मायदंसी माया 128, 130, 151, 198 मायी 93, 108 मार 14, 25,36,44,52,59,84, 127, 130, 147 मारदंसी मराभिसंकी . 108 मारुए मास 256, 257, 311, 312 माहण 119, 136, 202, 208, 248, 276, 286,292, 306, 309 मित्त 125 मित्तबल मिहुकहासु मीसीभाव 260 179 मुंड 184 69, 104 मुट्ठि 302 262 मणि 2.31.39, 48, 55,61,62, 70, 79, 85, 97, 99, 100, 106, 107, 116, 122, 158, 159, 161, 164, 180, 181, 182, 187, 198, 235, 242, 262, 273,280 मुणिमा 241 मुतच्चा 140 मुत्त 99, 161, 188 शब्द मुत्तिमग्ग 177 134 मुहुत्त 65, 183 मुहुत्ताग 282 76 मूढ 77, 79, 82, 84, 93, 96, 108, 148,151 मूढभाव 111, 115 मूलट्ठाण मूसियारि 1,2, 52, 63, 86, 255, 187, 211, 218, 222, 249 मेहा (घा) वो 17, 29, 33, 47, 54, 61, 62, 69 74, 97, 104,111,117,127, 129, 130, 157, 173, 186, 189, 191, 195, 203, 209,269 मोक्ख 73, 104,155, 178 मोण मोयण 7,13, 24, 35, 43, 51, 58 ,25,36,44,52,59,70, 83, 84, 130, 148,162 मोहदंसी रणे 202.235 रत 132, 151, 152, 176 64, 98, 107, 286 रत्त (-आसक्त) 77 रत्त (= रंजित) 214 64, 107,176, 273 रसगा रसया रसेसिणो राईणं 87 राइंदिवं 280 63, 72,133, 189 190, 282, 287, 291 73 263 मोह मुक्क रति मुट्ठिजुद्ध 49 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र सूत्र रायं 73 257 144 297 201 वई शब्द शब्द राग्रोवरातं 312 121, 123, 129, 132, 134, 158 136, 140, 146, 152, 154, रायसी 158, 159, 164, 183, 185, रायबल 196, 209 रायहाणी 224, 228 लोगवित्त 154 रायाणी 79, 82 लोगविपस्सी रिक्कासि लोगसंजोग रुक्खमूल 204, 205, 219 लोगसण्णा 97, 104 111 रुह (रूक्ष) लोगस्सेसणं 130 रूव 41, 107, 108, 123, 149, 159, लोगालोग 127 176, 178 लोगावादी रूवसंधि लोभ 71, 93, 120, 128, 130, 151, रोग 67,81,179, 180, 307, 198,251 लंभ लोभदंसी लट्टि लोहित लहुए वइगुत्तीए 206 लहुभूयगामी 120 वइगुत्ते 165 लाघव 187 वइगोयर लाधविय 196, 214, 217, 219, 221, 157 222, 223,226, 227 वंकसमायार लाढ 294, 295, 298, 300 वंकाणिकेया लाभ वंता लाल 92 97, 111, 128, 129, 198 लालप्पमाण वक्खातरत 77,96 वच्च लुक्ख वज्ज 246 लसग 193, 196 वज्जभूमि 294, 297 लसणय वज्जेंत 318 लसिणो 191, 198 वज्भमाण 197 लूसित 184 वट्ट 176 लूसियपुव्व वडभत्त लह 99, 161, 198, 295, 319 वडुमंग 171 लूहदेसिए 295 वणस्सति 42-44, 47, 48 लेलु 302 वष्ण 251 वण्णादेसी लोए 10, 14, 25, 36, 44, 52, 63, 84, वत्तए 142, 147, 150, 166, 180, 200 वत्थ 89, 183, 187, 199, 204, 205, लोग (क) 5, 8, 9, 22, 32, 41, 51, 91, 207, 208, 213, 214, 217, 97, 101, 106, 107, 111, 210, 221,255, 257, 272, 275 134 लेस्सा Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शब्दसूची] 152 112, 115 88,210 वितह शब्द शब्द वत्थग 257 विग्गह वत्थधारि 214 विज्ज (विद्वान्) वत्थु 77 विणयं वध 78, 118,120, 145, 180 विणयण्णे विणा वमण 308 वय (वयस्) 64, 65, 68, 69, 209 विणियट्टमाण विणिविटिचित्त वयं (व्रतं) विण्णाता वयं (वयम्) 138, 203 वितद्दे वयण 136, 138, 204, 211 वयणिज्ज वितिमिस्स वयसा (वचसा) वित्त बलेमाण वितिगिच्छा ववहार वित्तिच्छेद वसट्ट विदिसप्पतिण्ण वसह 204 विद्धंसणधम्म वसा विधारए वसु 183 विधूणिया वसुमं 62, 160, 215 विधूतकप्प वसुमंत 229 विण्णाय (विज्ञात) विण्णाय (विज्ञाय) वसोवणीय 108 विण्ण 78, 118, 120, 145, 180 विप्पजढ वाउ 51, 58, 59, 61 विप्पडिवण्ण वाउकाय 265 विप्पणोल्लए वागरण 2, 172, 205 विप्पमाय वातेरित 148 विप्परिणामधम्म वाम 223 विपरियास वायस 316 विपरिसिद्ध वाया 200 विष्फंदमाण वाल 52 विभए वावि 227, 243 विभत्त वास 264, 278, 279, 280 विभूसा वासग 180 विमुक्क विक्कय विमोह विगड 291 विमोहण्णतर विगतगेही 321 विमोहायतण विगिंच 82, 115, 142, 143 वियक्खात 162 63, 72, 178 171 192 79, 245 259 154 122, 167 318 160 153 189 252 124, 187 133, 136 52 वसे 235 वह 182 200 152 6.40 4 45, 153 77, 79,82,96, 148 79, 82 142 27, 64 229, 253 253 215, 219, 224, 228 174 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वियड वेर सए विवित्त शब्द शब्द सूत्र 271 वेदवी 145, 163, 174, 196 वियत्ता वेदेति 107 वियावाय 198 बेयण 163 वियंतिकारए 215, 216, 224, 228 वेयवं 107 विरत 99, 120, 153, 156, 161, 184, वेयावडिय 199, 207, 208, 219, 227 188, 189, 194, 204, 219, 309 93, 107, 114 विरति वेवइ 179 विराग 123 वोसट्ठकाय 304 विरूवरूव 6, 12, 14, 23, 25, 34, सई 321 36, 42, 44, 50, 52, 57, सई असई 180 59, 68, 73,76, 87, 241 187, 224, 225, 226, संकप्प 151 228, 286, 293 विवाद संकमण 78, 218 243 संकुचए 63, 238, 239 विवित्तजीवि संखडी 272 विवेग संखा 230 159, 163, 202 विसंभणता संखाए 224, 228 75, 184, 191, 254, 266 विष्ण संखाय . 192, 198 197,250 विसाण संग 62, 94,107, 114, 154, विसोग 174, 176, 184, 198 संगंथ विसोत्तिय 20, 185 संगकर 164 विस्सेणि 188 संगामसीस 198, 300, 305 विह 215 संघाडी 290 विहरत 298 संघात 37, 60 विहरमाण 204, 205 संजत 33 विहरे संजमति 160 विहारि संजोग 101,129, 132, 143, बिही 292, 306, 323 144,183 वीर 21,33, 85, 86,91,98,99, संजोगट्टी 101, 103, 107, 109, 120, संणिहिसंणिचय 67, 87 123, 129, 143, 146, 153, संत 134, 219, 264 161,173, 195 संतरुत्तर वीरायमाण 224 193 संताणय 224 वोरिय संति 11, 26, 37, 49, 56, 60 बुड्डि 45, 112 85, 180, 196, 266 185 संतिमरण 85 वेज्जावडिय संतेगतिया 196 263 63 248 वृत्त Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 [विशिष्ट शबसूची] शब्द सूत्र x mm 77 252 20 210 शब्द. संथडदंसी सत्ता(सक्ताः ) 62, 178, 180 संथव सत्ता संथुत सत्थसमारंभ 31, 48, 55, 61, 62 संधि 88, 91, 121, 152, 152, 157, सत्थार सदा 33, 106, 116 संनि (णि)वेस 178, 224 सद्द 41, 99, 107, 108, 176, 184 संपमारए 285 सपातिम 37, 60 सद्दफास 99, 107, 176, 184 संपुण्ण सद्दरूव 41, 107, 108, 176 संफास 163, 290 सद्दहे संबाहण सद्धा संबाहा सद्धि 64, 66, 67, 81 संबुज्झमाण 14, 24, 36, 44, 52, 59 सन्निहाणसत्थ 95,134, 202, 209,282 सपज्जवसिए 200 संभवंत संभूत 79, 181 स(सं)पेहाए 64, 65, 73, 85, 141, 142 संमत 202 158, 180 सफल संविद्धपह 159 145 संविधु (हु)णिय सबलत्त 76 224, 228 संवुढ . 165, 250, 305 सभा 278 संसप्पग 237, 283 सम 166 संसय समण 73, 194, 204, 211, 254, 280, संसार 49, 134, 296, 297,317 संसिचियाणं समणमाहण 136, 317 संसेयय समणस 204 संसोहण समणुण्ण 4, 80, 105, 169, 190, 199 सकसाइए 207, 208 सक्क समण्णागत 194 सक्खामो समण्णागतपण्णाण 62, 160, 215 सगडब्भि 128, 130 समभिजाणाहि सच्च 117, 127, 146, 168, 224, 228 सच्चवादी समय 106, 123, 139, 224, 228,263 224, 228 समयण्ण 88, 210 सज्जेज्जा 232 समया 123, 139 93, 129, 169 ससादहमाण 290 151 सण्णा 1,70,97, 104, 176 समादाण 73 सततं 84, 108, 151 67,190,233, 287, 313 सत्त (सत्व) 49, 132, 136, 140 320 196, 197, 204, 204 समायार 41, 161 الله Saro m م مه له 127 सडढी सद Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध शब्द सूत्र समारम्भ 5, 8, 9, 12, 14, 31, 34, सदण 64, 66, 67, 81, 150, 182 36, 42, 44, 48, 50, 52, 197 55, 57, 59, 61, 62, सरीर 141, 180, 198 204, 205 सरीरग 99, 161, 224, 228 समावण्ण सरीरभेद 198 समाहितलेस्स 219 सल्ल समाहियच्चे 224, 228 सवंत समित 76, 80, 105, 116, 143, 146, सवयस 204 163, 164, 169, 286, 293 सव्व 2, 6, 49, 62, 78, 103, 111 समितदसण 184, 196 117, 124, 129, 132, 136 समितासी 322 140, 160, 176, 184,185, समियं 169, 242 196, 229, 246, 247, 252, समिया 152, 157, 169, 171, 209 267, 270 291 सव्वट्ठ 253 समियापरियाए 152 सव्वना (त्ता-या) ए 173, 187, 198 समीरते 245 214, 217, 219, समुट्ठायी 63, 72 222, 223, 226, समुठ्ठाए 14, 25, 36, 40, 44, 52 227 59, 70, 95, 193 सव्वपरिण्णाचारी समुट्ठित 65, 88, 119, 177, 189 सव्वलोए 123, 160 202, 209 सव्वलोकसि 140 समुद्दिस्स 204 सव्वसमण्णागतपण्णाण 62, 160, 215 समुस्सय सव्वसो 101, 104, 140, 160, 249, समेच्च 132, 269 268, 269, 271 सम्मत्त 187, 214, 217, 219, 221 सब्वामगन्ध 88 223, 226, 227 सव्वावंति 5,8, 203, 209 सम्मत्तदंसी 99, 112, 140, 161, सन्विदिय 210 सम्म 68,145,156, 161,166, सम्वेसणा 186 173, 206 सहसक्कार 63, 72 सम्मुच्छिम सहसम्मुइ (ति) याए 2, 172, 205 सय 227, 314 सहि सयं 13, 17, 22, 24, 30, 32, 35 सहित (य) 116, 127, 143, 146, 164 38, 43, 47, 51, 54, 58, 61, 258 62, 74, 259, 322 साइम 199, 204,205, 207, 208,218. सयण (शयन) 259, 277, 280, 283 223, 227 सयण (स्वजन) साईय 281 सययं सागारिय 149, 259 सर (स्वर) साड 214217 103 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 164 साधु सुद्ध mur 294 परिशिष्ट : 2 [विशिष्टि शग्यसूची] 369 शब्द सात 68, 76, 78, 82, 112, 139, सुक्किल 176 152, 160 सुणाय सादिए 296, 298 200 साधिए सुण्हा 63, 87 सुत्त (सूत्र) 200 187 सामग्गिय 214, 217, 221 सुत्त (सुप्त) 106 सामत 132, 186, 233 सामासाय 87 सुण्णगार 279 सारय सुण्णागार 204, 205 सासय 132, 252, सुद्धसणा साहम्मिय 219, 227 सुपडिबद्ध साहारण? 155 243 सुपण्णत्त 201 सिंग सुपरिण्णात सिक्खेज्ज सुप्पणिहिए सिढिल सुब्भभूमि सिणाण 308 सुभि 186,285 सिद्धि 200 सुब्भिगंध 176 सित 11, 49 सुय (त) 1, 133, 136, 155 सित (बद्ध) सुविसुद्ध सिया (स्यात्) 83, 96, 122, 123, 145 सुव्वत 158, 212, 247 सुसमाहितलेस्स सिलिवय 219 179 सुसाण 204, 205, 279 सिलोय सुस्सूस सिसिर 275, 287, 309 78, 215, 219, 224, 228 सिस्स 187, 190 सुहट्ठी 96 सीत 176 सुहसाय 78 सीतफास 187, 211,215, 225 . 187 226, 293 सूइय सीतोद सूणिय सीमोसिण सूर सीयपिंड सील सेज्ज 158 सीलमंत सेत्तं 25, 228 सीस 15, 198 102, 127, 215 सुप्रक्खातधम्म सेस सुकड सोणित 52, 143, 108 261 सोत (श्रोत्र) 64,68, 269 सुक्क सोत (य) (स्रोतस्) 107, 120, 144, 145, 181 सुह 179 सूवणीय 191 सेय 10 सुकर Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 370 सत्र हरिय सूत्र 166, 174, 175 120 196 179 172 132, 269 317 सोय (शोक) सोयविय सोलस सोवट्ठाण सोवधिम सोवाग सोहं सोहि हं भो हंता हंता हंता हंता 139 66, 94, 121, 170, शब्द 224, 228, 241, 265 हरिसे 75 हव्व हव्ववाह 141 हस्स (ह्रस्व) 176 हालिद्द 176 हास 64, 114, 124 हित (य) 215, 219, 224, 228, 253 हिमगसंफास 290 हिमवास 281 हियय 15, 52 हिरण्ण 77 हिरिपडिच्छादण्ड 225 हिरी 184 हीण हुरत्था 149, 204, 205 हेउ (तु) 7, 13, 24, 35, 43,51,58 हेमत 124, 217, 221, 254 255 होउ (तु) 162, 172 होट्ठ हणुय हत हत्थ हत (य) पुद हतोवहत हरदे (ए) 258, 302 15 223 184 75 261, 302 77 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ꮘ Ꮘ . परिशिष्ट : 3 प्राचाराङ गसूत्रान्तर्गत गाथाम्रो की अकारादि सूची गाथा गाथा अकसायी विगतगेही य 321 पायावइ य गिम्हाणं अचित्तं तु समासज्ज 249 आवेसण-सभा-पचासु 278 अणण्णपरमं पाणी 123 ग्रासीणेऽणेलिसं मरणं 245 अणाहारो तुवट्टेज्जा 237 . इंदिएहिं गिलायंतो 248 अणुपुब्वेण विमोहाई 229 इणमेव णावखति 72 अतिवत्तियं प्रणाउट्टि इहलोइयाई परलोइयाई 285 अदु कुचरा उवचरति 284 उच्चालइय णिहणिंसु 304 अदु थावरा य तसत्ताए उड्ढं सोता अहे सोता 174 अदु पोरिसि तिरियभित्ति 258 उरि च पास मुइंच 179 अदु माहणं व समणं वा 317 उम्मुच पासं इह मच्चिएहिं 113 अदु वायसा दिगिछत्ता उवसंकमंतमपडिण्णं अधियासए सया समिते 286 एताइ संति पडिलेहे अप्पे जण णिवारेति एताणि तिण्णि पडिसेवे 311 अप्प तिरियं पेहाए एतेहि मुणी सयहि अभिक्कमे पडिक्कमे 243 एलिक्खए जण भुज्जो 297 अयं चाततरे सिया 247 एवं पि तत्थ विहरता 298 अयं से अवरे धम्मे 240 एस विधी(ही)अणुक्कतो 276,292,306,321 अयं से उत्तमे धम्मे प्रोमोदरियं चाएति 307 अयमंतरंसि को एत्थ कसाए पयुणुए किच्चा 231 अवरेण पुत्र ण सरति एगे 124 कोधादिमाणं हणिया य वीरे 120 अवि झाति से महावीरे 320 गंडी अदुवा कोढी 179 अवि साधिए दुवे वाले गंथेहिं विवित्तेहिं 239 अवि साहिए दुव मासे 312 गथं परिण्णाय इहज्ज्ज वीरे 121 अवि सूइयं व सुक्कं वा 319 गढिए मिहुकहासु 263 अवि से हासमासज्ज 114 गामे अदुवा रण्णे 235 अह दुच्चरलाढमचारी 294 गामं पविस्स गरं वा 315 अहाकडं ण से सेवे 271 चत्तारि साहिए मासे 256 अहासुत्तं वदिस्सामि 254 चरियासणाई सेज्जाओ 277 आगतारे पारामागारे 279 छद्रेण एगया भुजे प्रायाणिज्ज च पादाय 79 जतो वज्जं समुप्पज्जे 246 274 280 248 288 264 313 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध गाथा 112 250 सूत्र 251 303 232 Nex. mp. 309 190 98 282 257 237 281 जाति च बुद्धिं च इहऽज्ज पास जावज्जीवं परीसहा जीवियं णाभिकखेज्जा जे केयिमे अगारस्था जं किचवक्कम जाणे जंसिप्पेगे पवेदेति णच्चाण से महावीरे णाम्रो संगामसीसे वा णारति सहती वीरे णासेवइय परवत्थं णि पिणो पगामाए णिधाय डंडं पाणेहि णो चेविमेण वत्थेण णो सुकरमेतमेगेसि तंसि भगवं अपडिण्णे तणफास-सीतफासे तम्हाऽतिविज्ज परमं ति णच्चा दुविहं पि विदित्ता णं दुविहं समेच्च मेहावी परिक्कमे परिकिलंते पाणा देहं विहिंसंति पुढवि च पाउकायं च फरिसाइं दुत्तितिक्खाई भगवं च एवमण्णेसि 299 गाथा भिदुरेसु ण रज्जेज्जा मंसूणि छिण्णपुवाई मज्झत्थो णिज्जरापेही मातण्णे असणपाणस्स लाहिं तस्सुवसग्गा वित्तिच्छेदं वज्जतो विरते य गामधम्मेहि संघाडीग्रो पविसिस्सामो संबुज्झमाणे पुणरवि संवच्छरं साहियं मासं संसप्पगा य जे पाणा संसोहणं च वमणं च स जहि तत्थ पुच्छिसु सयणेहि तस्सुवसग्गा सयहि वितिमिस्सेहि सयमेव अभिसमागम्म सव्वठेहिं अमुच्छिए सासएहिं णिमंतेज्जा सिसिरंसि अद्धपडिवण्णे सूरो संगामसीसे वा सोलस एते रोगा हरिएसु ण णिवज्जेज्जा तपुवो तत्थ डंडेण 283 م له به 115 230 269 244 238 265 262 268 275 305 241 302 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 4 सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थसूची आगम ग्रन्थ आयारंग सुत्त (प्रकाशन वर्ष ई. 1977) सम्पादक : मुनि श्री जम्बूविजयजी प्रकाशक : महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रान्ति मार्ग , बम्बई 400036 आचारांग सूत्र टीकाकार : श्री शीलांकाचार्य प्रकाशक : प्रागमोदय समिति आयारो सम्पादक : मुनिश्री नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) (प्रकाशन वर्ष वि. 2031) आयारो तह आयारचूला सम्पादक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता आचारांग सूत्रं सूत्रकृतांग सूत्रं च' (नियुक्ति टीका सहित) (श्री भद्रबाहु स्वामिविरचित नियुक्ति --श्री शीलांकाचार्यविरचित टीका) सम्पादक-संशोधक : मुनि जम्बूविजय जी प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलोजिक ट्रस्ट, बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ आचारांग सूत्र सम्पादक : प्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज प्रकाशक : आचार्य श्री आत्मारामजी जैन प्रकाशक समिति, लुधियाना (पंजाब) आचारांग सूत्र अनुवादक : मुनि श्री सौभाग्यमल जी महाराज सम्पादक : पं. श्री वसन्तीलाल नलवाया प्रकाशक : जैन साहित्य समिति, नयापुरा उज्जैन (म. प्र.) आचारांग: एक अनुशीलन : लेखक : मुनि समदर्शी प्रकाशक : प्राचार्य श्री प्रात्माराम जैन प्रकाशक समिति, जैनस्थानक लुधियाना (पंजाब) अंगसुत्ताणि (भाग 1, 2, 3) सम्पादक : आचार्य श्री तुलसी / प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अर्थागम (हिन्दी अनुवाद) सम्पादक : जैन धर्मोपदेष्टा पं. श्री फूलचन्द जी महाराज 'पुप्फभिक्ख' प्रकाशक : श्री सूत्रागम प्रकाशक समिति, 'अनेकान्त विहार' सूत्रागम स्ट्रीट, एस. एस. जैन बाजार, गुड़गाव केंट (हरियाणा) आयारदसा सम्पादक : पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन; सांडेराव (राजस्थान) उत्तराध्ययन सूत्र सम्पादक : दर्शनाचार्य साध्वी श्री चन्दना जी प्रकाशक : वीरायतन प्रकाशन, आगरा कल्पसूत्र (व्याख्या सहित) सम्पादक : श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक : आगम शोध संस्थान, गढ़सिवाना (राजस्थान) कप्पसुत्तं सम्पादक : पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : पागम अनुयोग प्रकाशन सांडेराव (राजस्थान) ज्ञातासूत्र सम्पादक : पं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल प्रकाशक : स्थानक. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (अहमदनगर) ठाणं (विवेचन युक्त) सम्पादक-विवेचक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) दसवेआलियं (विवेचन युक्त) सम्पादक-विवेचक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) मूल सुत्ताणि सम्पादक : पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : शान्तिलाल बी. शेठ, गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर (राजस्थान) सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्याकार : पं. मुनि श्री हेमचन्द्र जी महाराज सम्पादक : अमर मुनि, नेमिचन्द्र जी प्रकाशक : आत्मज्ञानपीठ, मानसामण्डी (पंजाब) समवायांग सूत्र सम्पादक : पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : प्रागम अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (राजस्थान) स्थानांग सूत्र सम्पादक : पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, सांडराव (राजस्थान) Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375 परिशिष्ट : 4 सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त प्रन्थसूची आचारांग चूणि (प्राचारांग सूत्र में टिप्पण में उद्धृत) कर्ता : श्री जिनदासगणी महत्तर सम्पादक : मुनि श्री जम्बूविजय जी पिण्डनियुक्ति (श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी विरचित) अनुवादक : पू. गणिवर्य श्री हंससागर जी महाराज प्रकाशक : शासन कण्टकोद्धारक ज्ञान-मन्दिर मु. ठलीया (जि. भावनगर) (सौराष्ट्र) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि (प्रा. पूज्यवाद-व्याख्याकार) हिन्दी अनुवादक : पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड मार्ग वाराणसी तत्त्वार्थसूत्र (प्राचार्य श्री उमास्वाति विरचित) विवेचक : पं. सुखलाल जी प्रकाशक : भारत जैन महामंडल, बम्बई बृहत्कल्प सूत्र एवं बृहत्कल्पभाष्यम् प्रकाशक : जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर निशीथ चूणि (सभाष्य) सम्पादक : उपाध्याय श्री अमर मुनि प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा शब्दकोष व अन्य ग्रन्थ अभिधान राजेन्द्र कोश (भाग 1 से 7 तक) सम्पादक : आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि प्रकाशक : समस्त जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, श्री अभिधान राजेन्द्र कार्यालय रतलाम (म. प्र.) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग 1 से 4 तक) सम्पादक : क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, बी. 45/47 कनॉटप्लेस नयी दिल्ली-१ नालन्दा विशाल शब्द सागर सम्पादक : श्री नवल जी प्रकाशक : आदीश बुक डिपो, 38, यू. ए. जवाहर नगर बैंगलो रोड दिल्ली-७ पाइअ-सह-महण्णवो (द्वि. सं.) ___ सम्पादक : पं हरगोविंददास टी. शेठ, डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, और पं. दलसुखभाई मालवणिया प्रकाशक : प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५ ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर लेखक : आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज प्रकाशक : जैन इतिहास समिति, आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार लालभवन चौड़ा रास्ता, जयपुर-३ (राजस्थान) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध श्रमण महावोर / लेखक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती लाडनू (राजस्थान) महावीर की साधना का रहस्य लेखक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : आदर्श साहित्य संघ, चुरु (राजस्थान) तीर्थकर महावीर . लेखकगण : श्री मधुकर मुनि, श्री रतन मुनि, श्रीचन्द सुराना 'सरस' ...प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, आदि जैन साहित्य का बृहद इतिहास (भाग 1) लेखक : पं. बेचरदास दोशी, न्यायतीर्थ प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम . हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ चार तीर्थकर लेखक : पं. सुखलालजी प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ भगवद्गीता प्रकाशक : गीता प्रेस, गोरखपुर (उ. प्र.) ईशावाष्योपनिषद् कौशीतको उपनिषद् छान्दोग्य उपनिषद् प्रकाशक : गीता प्रेस, गोरखपुर (उ. प्र.) विसुद्धिमग्गो प्रकाशक : भारतीय विद्याभवन, मुबई समयसार नियमसार प्रवचनसार लेखक : आचार्य श्री कुन्दकुन्द Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत डॉ. भागचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट. आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित अठारह भाग प्राप्त हुए / धन्यवाद / इन ग्रन्थों का विहंगावलोकन करने पर यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि संपादकों एवं विवेचक विद्वानों ने नियुक्ति, चूणि एवं टीका का आधार लेकर आगमों की सयुक्तिक व्याख्या की है। व्याख्या का कलेवर भी ठीक है। अध्येता की दृष्टि से ये ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी हैं। इस सुन्दर उपक्रम के लिए एतदर्थ हमारी बधाइयाँ स्वीकारें। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य 35) 25) .120 50) 30) 45) 25) 25) 28) आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम अन्यांक नाम पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 640 पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 824 पं० हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10 सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 11. विपाकसूत्र 208 अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकूवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. औपपातिकसूत्र 242 डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण रतनमुनि 16 प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 जैनभूषण ज्ञानमुनि 17 प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा.पं. शोभाजन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि भाग] 266 अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जैनभूषण ज्ञानमुनि 21 निरयावलिकासूत्र 176 देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृ. भाग] अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 478 डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] 368 जैनभूषण ज्ञानमुनि 28. अनुयोगद्वारसूत्र 502 उपा. श्री केवलमुनि 29. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति 296 मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' 30. जीवाजीवाभिगमसूत्र 450 श्री राजेन्द्रमुनि [प्र. खण्ड] 25) 50) 30) 45) 35) 45) 65) .45) -20) 25) 65) 45) 50) 35) Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STARA स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि आचारांग सूर. (मूल-अनुवा-विवेचन-टिप्पण-परिटीजट युक्त) Education n ational For Private & Personal use only www.jalnelibrary.org Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ॐॐअर्ह जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक-२ [परम श्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित स्थविर (गणधर) प्रथितः प्रथम अंग आचारांग सूत्र (द्वितीय श्रु तस्कंध : आचार चूला) [मूल पाठ, हिन्दी अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट युक्त सन्निधि। उप-प्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री बृजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचका श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला: ग्रन्थांक 2 1 सम्पादक मण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्री रतन मुनि पंडित श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल / प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' 1 संप्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्र मुनि 'दिनकर' अर्थसौजन्य श्रीमान सायरमलजी चौरडिया एवं जेठमलजी चौरडिया प्रकाशन तिथि वीर निर्वाण संवत 2507, वि० सं० 2037 भाद्रपद ई० सन् 1980 सितम्बर / प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति जैन स्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन 305601 मद्रक श्रीचन्द सुराना के निदेशन में स्वस्तिक आर्ट प्रिन्टर्स, सेठगली, आगरा-३ (7 मूल्य GAME लागत से अल्पमूल्य] Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj STHAVIRA (GANADHARA) COMPILED : FIRST ANGA ACARANGA SUTRA I PART II : ACARACULA] Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Translator & Annotator Srichand Surana "Saras Publishers Sri Agama Prakashan Samiti Beawar (Raj:) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Jinagam Granthmala : Publication No. 2 Board of Editors Anuyoga Pravartaka Munisri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandraji Bharilla Managing Editor . Srichand Surana "Saras' O Promoter Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendra Muni Dinakar' O Financial Assistance Sri Sayarmalji Chauradiya & Sri Jethamalji Chauradiya O Publication Date Vir Nirvana Samvat 2507, Vikram Samvat 2037 September, 1980 D Publishers Sri Agama Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin. 305901 O Printers Swastik Art Printers, Seth Gali, Agra-3 under the supervision of Srichand Surana 'Saras' Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनवाणी के परम उपासक, बहुभाषाविज्ञ वयःस्थविर, पर्यायस्थविर, श्रुतस्थविर श्री वर्धमान जैनश्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमणसंघ द्वितीय आचार्यवर्य परम आदरणीय श्रद्धास्पद राष्ट्रसंत आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज को सादर-सभक्ति-सविनय -मधुकर मुनि Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के आचार्य राष्ट्रसंत महान् मनीषि आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का अभिमत आगम आत्मविद्या के अक्षयकोष हैं। भगवान महावीर की वाणी के प्रतिनिधिरूप में वे हमे आज भी आत्मविद्या, तत्वज्ञान, जीव-विज्ञान आदि ज्ञान-विज्ञान के विविध पहलुओं का सम्यक् बोध कराने में सक्षम हैं। आगमों की भाषा अर्धमागधी है, उसका अध्ययन-अनुशीलन करने के लिये अर्धमागधी-प्राकृत का ज्ञान भी आवश्यक है। प्राकृतभाषा से अनभिज्ञ जन सहज-सुबोध ढंग से आगम का हार्द समझ सके, इस दृष्टिकोण से जैन मनीषियों ने समय-समय पर लोकभाषा में आगमों का अनुवाद-विवेचन करने का महनीय प्रयत्न किया है / आगम महोदधि के गहन अभ्यासी स्व. पूज्यपाद श्री अमोलकऋषिजी म. सा. ने बत्तीस आगमों का हिन्दी में सुबोध अनुवाद करके एक ऐतिहासिक कार्य किया था, आज वह आगमसाहित्य भी दुर्लभ हो गया है। श्रमणसंघ के युवाचार्य आगम-रहस्यवेत्ता श्री मधुकर मुनि जी म. सा० ने आगमों का हिन्दी अनुवाद, विवेचन कर जनसामान्य को सुलभ करने का एक प्रसंशनीय संकल्प किया है। जो श्रमण-संघ के लिए तो गौरव का विषय है ही, भारतीय-विद्यारसिक समस्त जनों के लिए प्रमोद का कारण है। आगमग्रन्थमाला का प्रथम मणि आचारांग-सूत्र (प्रथम श्रतस्कंध) प्रकाशित हो चुका है। इसका मार्गदर्शन व प्रधान नियोजकत्व यूवाचार्य श्री जी का ही है। अनुवाद-विवेचन श्री श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने किया है। आचारांग का अवलोकन करने पर लगा, अब-तक के प्रकाशित आचारांग के संस्करणों में यह संस्करण अपना अलग ही महत्व रखता है। भावानुलक्षी अनुवाद, संक्षिप्त विवेचन, तथ्ययुक्त पाद टिप्पण, प्राचीनतम नियुक्ति व चूणि आदि के साक्ष्यनुसार विशेषार्थ, परिशिष्ट में शब्दसूची; "जाव" शब्द के पूरक पाठ सूत्रों की संसूचना, सब मिलाकर सर्वसाधारण से लेकर विद्वानों तक के लिये यह संग्रहणीय, पठनीय संस्करण है। मैं हृदय से कामना करता हूँ कि आगमों के आगामी संस्करण इससे भी बढ़कर महत्वपूर्ण व उपयोगी होंगे। —आचार्य आनन्दऋषि Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USIীয় भगवान श्रीमहावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर साहित्य प्रकाशन की एक नयी उत्साहपूर्ण लहर उठी थी। उस समय जैनधर्म, जैनदर्शन और भगवान महावीर के लोकोत्तर जीवन एवं उनकी कल्याणकारिणी शिक्षाओं से सम्बन्धित विपूल साहित्य का सजन हुआ / मुनि श्रीहजारीमल स्मृति प्रकाशन, व्यावर की ओर से भी 'तीर्थंकर महावीर' नामक ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया। इसी प्रसंग पर विद्वद्रत्न श्रद्धय मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' के मन में एक उदात्त भावना जागत हुई कि भगवान महावीर से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन हो रहा है, यह तो ठीक है, किन्तु जो उनकी मूल पवित्र वाणी जिन आगमों में सुरक्षित है, उन आगमों को सर्व साधारण के लिये क्यों न सुलभ कराया जाय ? जो सम्पूर्ण बत्तीसी के रूप में आज सहज उपलब्ध नहीं है / भगवान महावीर की असली महिमा तो उस परम पावन, मुधामयी वाणी में ही निहित है। मुनीश्री की यह भावना वैसे तो चिरसंचित थी, परन्तु उस वातावरण ने उसे अधिक प्रबल बना दिया। मुनिश्री ने कुछ वरिष्ठ आगमप्रेमी श्रावकों तथा विद्वानों के समक्ष अपनी भावना प्रस्तुत की / धीरे-धीरे आगम बत्तीसी के सम्पादन-प्रकाशन की चर्चा बल पकड़ती गई / भला कौन ऐसा विवेकशील व्यक्ति होगा, जो इस पवित्रतम कार्य की सराहना और अनुमोदना न करता ? श्रमण भगवान महावीर के साथ आज हमारा जो सम्पर्क है, वह उनकी जगत्-पावन वाणी के ही माध्यम से है। भगवान की देशना के सम्बन्ध में कहा गया है--'सव्वजगजीवरक्खणदयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं / ' अर्थात् जगत् के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के निमित्त ही भगवान की धर्मदेशना प्रस्फुटित हुई थी / अतएव भगवत्वाणी का प्रचार और प्रसार करना प्राणीमात्र की रक्षा एवं दया का ही कार्य है। इससे अधिक श्रेष्ठ विश्वकल्याण का अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता। इस प्रकार आगम प्रकाशन के विचार को सभी ओर से पर्याप्त समर्थन मिला / तब मुनिश्री के वि० सं० 2035 के व्यावर चातुर्मास में समाज के अग्रगण्य श्रावकों की एक बैठक आयोजित की गई और प्रकाशन की रूप-रेखा पर विचार किया गया / सुदीर्घचिन्तन-मनन के पश्चात् वैशाख शुक्ला 10 को, जो भगवान महावीर के केवल ज्ञान-कल्याणक का शुभ दिन था, आगम बत्तीसी के प्रकाशन की घोषणा करदी गई और शीघ्र ही कार्य आरम्भ कर दिया गया। हमें प्रसन्नता है कि श्रद्धय मुनिश्री की भावना और आगम प्रकाशन समिति के निश्चयानुसार हमारे मुख्य सहयोगी श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने प्रबन्ध सम्पादक का दायित्व स्वीकार किया और आचारांग के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। साथ ही अन्य विद्वानों ने भी विभिन्न आगमों के सम्पादन का दायित्व स्वीकार किया है। दो तीन आगम तैयार भी हो चुके हैं और कार्य चालू है। अब तक प्रसिद्ध विद्वान एवं आगमों के गंभीर अध्येता पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल भी बम्बई से व्यावर आ गये और उनका मार्गदर्श एवं सहयोग भी हमें प्राप्त हो गया / आपके बहुमूल्य सहयोग से हमारा कार्य अति सुगम हो गया, काम में तेजी आई और भार भी हल्का हो गया। हमें अत्यधिक प्रसन्नता और सात्त्विक गौरव का अनुभव हो रहा है कि एक ही वर्ष के अल्प समय में हम अपनी इस ऐतिहासिक अष्टवर्षीय योजना को मूर्त रूप देने में सफल हो सके। आचारांग एवं उपासक Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशा मुद्रित हो चुके है, तथा स्थानांग, ज्ञाताधर्मकथा आदि अनेक आगमों का संपादन कार्य भी संपूर्ण हो गया; वे प्रेस में मुद्रणाधीन हैं। कुछ सज्जनों का सुझाव था कि सर्वप्रथम दशवकालिक, नन्दीसूत्र आदि का प्रकाशन किया जाय किन्तु श्रद्धेय मुनि श्री मधुकरजी महाराज का विचार प्रथम अंग आचारांग से ही प्रारम्भ करने का था। क्योंकि आचारांग समस्त अंगों का सार है। इस सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में आचारांग आदि क्रम से ही आगमों को प्रकाशित करने का विचार किया गया था, किन्तु अनुभव से इसमें एक बड़ी अड़चन जान पड़ी। वह यह कि भगवती जैसे विशाल आगमों के सम्पादन-प्रकाशन में बहुत समय लगेगा और तब तक अन्य आगमों के प्रकाशन को रोक रखने से सब आगमों के प्रकाशन में अत्यधिक विलम्ब हो जाएगा। हम चाहते हैं कि यथासंभव शीघ्र यह शुभ कार्य सम्पन्न हो जाए तो अच्छा / अत: अब यह निर्णय रहा है कि आचारांग के पश्चात् जो-जो आगम तैयार होते जाएँ उन्हें ही प्रकाशित कर दिया जाए / अब शीन ही जिज्ञासु पाठकों की सेवा में अन्य आगम भी पहुँचने की आशा है। सर्वप्रमथ हम श्रमणसंघ के युवाचार्य, सर्वतोभद्र, श्री मधुकर मुनिजी महाराज के प्रति अतीव आभारी हैं, जिनकी शासन-प्रभावना की उत्कट भावना, आगमों के प्रति उद्दाम भक्ति, धर्मज्ञान के प्रचारप्रसार के प्रति तीव्र उत्कंठा और साहित्य के प्रति अप्रतिम अनुराग की बदौलत हमें भी वीतरागवाणी की किंचित् सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। सेवा के इस सात्त्विक अनुष्ठान में अपने सहयोगियों के भी हम कृतज्ञ हैं / सागरबर-गंभीर श्रावक वर्य पद्मश्री सेठ मोहनमलजी सा. चोरडिया ने समिति की अध्यक्षता स्वीकार कर और एक बड़ी धनराशि प्रदान कर हमें उत्साहित किया / अर्थ-संग्रह में हमारे साथ श्री कंवरलालजी बेताला, श्री मूलचन्दजी सुराणा ने परिभ्रमण किया। जोधपुर श्रीसंघ ने अर्थसंग्रह में पूरा योगदान दिया। इन सब उत्साही सहयोगियों के प्रति हम हादिक आभार प्रकट करते हैं। श्रीरतनचन्दजी मोदी, कोषाध्यक्ष समिति तथा स्थानीय मन्त्री श्री चांदमलजी विनायकिया से समिति के कार्यों में सदा सहयोग प्राप्त होता रहता है। इस आगम का सम्पूर्ण प्रकाशन व्यय श्रीमान सायरमल जी चोरडिया एवं श्रीमान जेठमल जी चोरडिया ने उदारता पूर्वक प्रदान किया है, जो उनकी जिनवाणी एवं श्रद्धय युवाचार्य श्री के प्रति प्रगाढश्रद्धा का परिचायक है। समिति उनके सहयोग की सदा कृतज्ञ रहेगी। आप जैसे उदार सद्गृहस्थों के सहयोग से ही हम लागत से भी कम मूल्य पर आगम ग्रन्थों को प्रसारित करने का साहस कर पा रहे हैं।' आचारांग सूत्र के दोनों खण्ड लागत से भी कम कीमत पर प्रस्तुत किये गये हैं। समिति कार्यालय की व्यवस्था श्री सुजानमल जी सेठिया आत्मीयता की भावना से कर रहे हैं। इन तथा अन्य सहयोगियों का भी हार्दिक आभार मानना हमारा कर्तव्य है / पुखराज शीशोदिया (कार्यवाहक अध्यक्ष) जतनराज मेहता (महामंत्री) आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख जैन धर्म, दर्शन, व संस्कृति का मूल आधार वीतराम सर्वज्ञ की वाणी है / सर्वज्ञ अर्थात् आत्मद्रष्टा / सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं / जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं / परमहितकर निःश्रेयस का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्वज्ञान, आत्मज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध-'आगम' शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीर्थकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान प्रज्ञावान गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित 'आगम' का रूप देते हैं।' आज जिसे हम 'आगम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में वे 'गणिपिटक' कहलाते थे-- टक में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। पश्चाद्वतो काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब आगमों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था। भगवान महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'आगम' स्मृति-परम्परा पर ही चले आये थे। स्मृति-दुर्बलता, गुरु-परम्परा का विच्छेद तथा अन्य अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान भी लुप्त होता गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्रा ही रह गया / तब देवदिगणी क्षमाधमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, स्मति-दोष से लुप्त होते आगमज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ करके आने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया, यह जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अद्भुत उपक्रम था। आगमों का यह प्रथम सम्पादन बीर-निर्वाण के 680 या 663 वर्ष पश्चात सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ़ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से आगम-ज्ञान की शुद्धधारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा, धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। आगमों के अनेक महत्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गढ़ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गए। जो आगम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे। अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयो / विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चाल हमा। किन्तु कुछ काल 1. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा / Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद पुनः उसमें भी व्यवधान आ गए / साम्प्रदायिक द्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों की भाषाविषयक अल्पज्ञता आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक अर्थबोध में बहत बड़ा विध्न बन गए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई / आगमों की प्राचीन टीकाएँ, चूणि व नियुक्ति जब प्रकाशित हुई तथा उनके आधार पर आगमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हुआ तो आगम ज्ञान का पठन-पाठन स्वभावतः बढा, सैकड़ों जिज्ञासुओं में आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान भी आगमों का अनुशीलन करने लगे। आगमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा मनोपी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है / फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान मुनियों का नाम-ग्रहण अवश्य ही करूगा / / पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज स्थानकवासी परम्परा के वे महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबली मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जन-जन को सुलभ बना दिया / पूरी बत्तीसी का सम्पादन-प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी-तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामीजी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प-मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्वावधान में आगमों का अध्ययन कर रहा था तव आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे / उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रमसाध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूल पाठ में व उसकी वृत्ति में कहींकहीं अन्तर भी है कहीं वृत्ति बहुत संक्षिप्त है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैनसूत्रों के प्रकांड पण्डित थे। उनकी मेधा बड़ी न्युत्पन्न व तर्कणाप्रधान थी। आगमसाहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि आगमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो तो बहत लोगों का कल्याण होगा / कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा / इसी बीच आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, पूज्य श्री घासीलालजी महाराज आदि विद्वान् मुनियों ने आगमों को सुन्दर व्याख्याएँ व टीकाएँ लिखकर अपने तत्वावधान में लिखवाकर इस कमी को पूरा किया है। बर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है और अच्छे स्तर से उनका आगम-कार्य चल रहा है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान श्रमण स्व० मुनि श्रीपुण्यविजय जी ने आगम-सम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तमकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के पश्चात मुनि श्रीजम्बूविजय जी के तत्वावधन में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है / उक्त सभी कार्यों पर विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा / आज कहीं तो आगमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं आगमों की विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं / एक, पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / मध्यम मार्ग का अनुसरण कर आगम वाणी का भावोद् घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जो सुबोध भी हो, सरल भी हो, संक्षिप्त हो, पर सारपूर्ण व सुगम हो। गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 4-5 वर्ष पूर्व इस विषय Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चिन्तन प्रारम्भ किया। सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात वि० स० 2036 वंशाख शुक्ला 10 महावीर कैवल्य दिवस को दृढ़ निर्णय करके आगम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथों में आगम ग्रन्थ, क्रमशः पहुँच रहे हैं, इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है। आगमसम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव की पुण्यस्मृति में आयोजित किया गया है / आज उनका पुण्य स्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरु-भ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमल जी महाराज की प्रेरणाएँ- उनकी आगम-भक्ति तथा आगमसम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान, प्राचीन धारणाएँ मेरा सम्बल बनी है / अतः मैं उन दोनों स्वर्गीय आत्माओं की पुण्य स्मति में विभोर हूँ। शासनसेवी स्वामी जी श्री वृजलाल जी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्द्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार व महेन्द्र मुनि का साहचर्य-बल; सेवा-सहयोग तथा महासती श्री कानवर जी, महा सती श्री झणवारकवर जी, परम विदुषी साध्वी श्री उमराव कवर जी 'अर्चना की विनम्र प्रेरणाएँ मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाए रखने में सहायक रही है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि आगम-वाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयत्नसाध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहँचने में गतिशील बना रहेगा ! इसी आशा के साथ --मुनि मिश्रीमल ‘मधुकर' Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आचारांग का महत्त्व : आचारांग सूत्र-जैन धर्म, दर्शन, तत्त्वज्ञान और आचार का सारभूत एवं मूल आधार माना गया है / आचार्य श्री भद्रबाहु ने आचारांग को जैनधर्म का 'वेद' बताते हुए कहा है-'आचारांग में मोक्ष के उपाय (चरण-करण या आचार) का प्रतिपादन किया गया है / यही(मोक्षोपाय आचार) जिनप्रवचन का सार है, अतः द्वादशांगी में इसका प्रथम स्थान है / तथा आचारांग का अध्ययन कर लेने पर श्रमण-धर्म का सम्यक् स्वरूप समझा जा सकता है / इसलिए गणी (आचार्य) होने वाले को सर्वप्रथम आचारधर होना अनिवार्य है।'' विभाग : आचारांग के दो विभाग-श्रु तस्कंध है। प्रथम श्रु तस्कंध को 'नव ब्रह्मचर्याध्ययन' कहा जाता है। जबकि द्वितीय श्रु तस्कंध को आचाराम या आचारचूला। प्रथमश्रु तस्कंध में सूत्र रूप में श्रमणआचार (अहिंसा-संयम-समभाव कषाय-विजय, अनासक्ति, विमोक्ष आदि) का वर्णन है। यहां ब्रह्मचर्य का अर्थ-श्रमणधर्म से है, श्रमणधर्म का प्रतिपादन करने वाले नौ अध्ययन (वर्तमान में आठ) प्रथम श्रु तस्कंध में हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध/आचारचूला में श्रमणचर्या से सम्बन्धित -(भिक्षाचरी, गति, स्थानवस्त्र-पात्र आदि एषणा, भाषाविवेक, शब्दादि-विषय-विरति; महाब्रत आदि) वर्णन है / आचारान कर---अर्थ है-जैसे वृक्ष के मूल का विस्तार (अन) उसकी शाखा-प्रशाखाएं हैं, वैसे ही प्रथम श्रुतस्कंध-गत आचार-धर्म का विस्तार आचारांन—(उक्त का विस्तार व अनुक्त का प्रतिपादन करने वाला) है। आचार चूला का तात्पर्य है--पर्वत या प्रासाद पर जैसे शिखर अथवा चोटी होती है उसी प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध की यह चूलारूप चोटी है / रचयिता : प्र० श्र० के प्रणेता पंचम गणधर भगवान सुधर्मा स्वामी है, यह सर्वमान्य तथ्य है, जबकि आचारचूला' को स्थविर-अथित माना गया है। 1. आचाराग नियुक्ति–एत्थ य मोक्खोवाओ एत्य य सारो परयणस्स! -गाथा; 6 तथा 10 2. समवायांग प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८६-दो सुयक्खंधा / 3. (क) वही, समवाय 6, सूत्र 3 / (ख) नियुक्ति गाथा 51. 4. आचा० नि० 286, तथा चूणि एवं वृत्ति—पृ० 318-316. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर कौन ? इस प्रश्न के उत्तर में दो मत हैं-आचारांगचूणि एवं निशीथचूर्णिकार का मत है-थेरा गणधरा / स्थविर का अर्थ है गणधर ! निशोथर्णिकार ने निशीथ सूत्र, जो कि आचारचूला का ही एक अंश है, उमे गणधरों का 'आत्मागम' माना है, जिससे स्पष्ट है कि वह 'गणधर कृत' मानने के ही पक्षधर है।' वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने---स्थविर की परिभाषा-चतुर्दशपूर्वधर की है।' आवश्यक चूर्णिकार तथा आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार आचारांग की तृतीय व चतुर्थ चूलिका यक्षा साध्वी महाविदेह क्षेत्र से लेकर आई। प्राचीन तथ्यों के अनुशीलन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आचारचूला प्रथम श्रतस्कंध का परिशिष्ट रूप विस्तार है / भले ही वह गणधरकृत हो, या स्थविरकृत, किंतु उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है ! प्रथम श्रुतस्कंध के समान हो इसकी प्रामाणिकता सर्वत्र स्वीकार की गई है। विषय वस्तु : जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, आचारांग का संपूर्ण विषय आचारधर्म से सम्बन्धित है। आचार में भी सिर्फ श्रमणाचार। प्रथम श्रुतस्कंध सूत्ररूप है, उसकी शैली अध्यात्मपरक है अतः मूलरूप में उसमें अहिंसा, समता, अनासक्ति, कषाय-विजय, धुत श्रमण-आचार आदि विषयों का छोटे छोटे वचन सूत्रों में सुन्दर व सारपूर्ण प्रवचन हुआ है। द्वितीय श्रुतस्कंध विवेचन विस्तार शैली में है। इसमें श्रमण की आहार-शुद्धि, स्थानगति-भाषा आदि के विवेक व आचारविधि की परिशुद्धि का विस्तार के साथ वर्णन है। आचार्यों का मत है कि प्रथम श्र तस्कंध में सत्ररूप निर्दिष्ट विषयों का विस्तार ही आचारचूला में हुआ है / आचार्यशीलांक आदि ने विस्तारपूर्वक सूत्रों का निर्देश भी किया है। 1. आचा• चूणि तथा निशोथचूणि भाग 1. पृ० 4 2. वृत्ति पत्रांक ३१६,--स्थविरैः श्र तवृद्ध श्चतुर्दशपूर्वविद्भिः नि' ढानि / 3. विस्तार के लिए देखिए प्रथम श्रतस्कंध की प्रस्तावना :---देवेन्द्र मुनि / 4. (क) नियुक्तिकार भद्र बाह ने मंक्षेप में नियहण स्थल के अध्ययन व उद्देशक का संकेत किया है। नियुक्ति गाथा 288 से 261 / किन्तु चूर्णिकार व वृत्तिकार ने. (वृत्तिपत्रांक 316-20) सूत्रों का भी निर्देश किया है। जैसे : (ख) सव्वामगंधपरिन्नाय... अदिस्समाणो कयविक्कएहि--- (अ० 2 उ० 5 सूत्र 88) भिक्खू परक्कमेज्ज वा चिट्ठज्ज वा... (अ० 8 उ० 2 सूत्र 204) आदि सूत्रों के विस्ताररूप में पिण्डैषणा के 11 उद्देशक तथा 2, 5, 6, 7 वां अध्ययन नियूढ़ हुआ है। (ग) से कत्थं पडिग्गह, कंबलं पायपुछणं... (अ० 2 उ० 5 सूत्र 86) इस आधार पर वस्त्रं षणा, पाषणा, अवग्रहप्रतिमा, शय्या अध्ययन आदि का विस्तार Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग का यह द्वितीय श्रुतस्कंध पांच चूलिकाओं में विभक्त माना गया है। इनमें से चार चूला आचारांग में है, किंतु पांचवी चूला आचारांग से पृथक कर दी गई है और वह 'निशीथसूत्र' के नाम से स्वतंत्र आगम मान लिया गया है। यद्यपि निशीथसूत्र में आचारांग वर्णित आचार में दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान ही है, जो कि मूलत: उसी का अंग है, किंतु किन्ही कारणों से वह आज स्वतंत्र आगम है। अब आचार चूला में सिर्फ श्रमणाचार का विधि-निषेध पक्ष ही प्रतिपादित है, उसकी विशुद्धिरूप प्रायश्चित्त की चर्चा वहाँ नहीं है / इससे एक बात यह ध्वनित होती है कि आचारचूला व निशीथ मूलतः एकही कशल मस्तिष्क की संयोजना है। स्थानांग, समवायांग में इसे आचारकल्प या 'आचार प्रकल्प' कहा है, जो आचारांग का सम्बन्ध सूचक है। आचारांग की चार चूलाओं में प्रथम चूला सबसे विस्तृत है। इसमें सात अध्ययन है--- م له له له لب नाम उद्देशक विषय 1. पिण्डषणा —आहार शुद्धि का प्रतिपादन / 2. शय्यषणा संयम-साधना के अनुकूल स्थानशुद्धि 3. इय षणा गमनागमन का विवेक 4. भाषाजातैषणा भाषा-शुद्धि का विवेक 5. वस्त्रंषणा वस्त्रग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएं। 6. पात्रं षणा पात्र-ग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएँ 7. अवग्रहैषणा स्थान आदि की अनुमति लेने की विधि / इस प्रकार प्रथम चूला के 7 अध्ययन व 25 उद्देशक हैं / द्वितीय चूला के सात अध्ययन है, ये उद्देशक रहित हैं। 8- स्थान सप्तिका-- आवास योग्य स्थान का विवेक। 6. निषीधिका सप्तिका- स्वाध्याय एवं ध्यान योग्य स्थान-गवेषणा। 10. उच्चार-प्रस्रवण सप्तिका- शरीर की दीर्घ शंका एवं लघशंका निवारण का विवेक / بر لب (घ) गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स' दुज्जायं दुप्परिक्कतं..." (अ०५. उ० 4. सूत्र 162) इस आधार पर इर्याध्ययन का विस्तार किया गया है। (च) आइक्खइ विहेयइ किट्टेइ धम्मकामी... (अ० 6. उ० 5 सू० 166) इस सूत्र के आधार पर भाषाध्ययन नियूढ हुआ है। (छ) महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशक से सप्तसप्तिका नियंद है। (अ० 8 से 14) (ज) षष्ठ धृताध्ययन के 2, व 4 उद्देशक से विमुक्ति (16 वाँ) अध्ययन निर्यढ़ है। (झ) प्रथम शस्त्रपरिज्ञाध्ययन से भावना अध्ययन नियूंढ़ है। 1. हवइ य सपंचचूलो बहु-बहुतरओ पयम्गेणं--नियुक्ति 11 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. शब्द सप्तिका-- शब्दादिविषयों में राग-द्वेष रहित रहने का उपदेश / 10. रूप सप्तिका-- रूपादि विषय में राग-द्वेष रहित रहने का उपदेश / 13. परक्रिया सप्तिका- दूसरों द्वारा की जाने वाली सेवा आदि क्रियाओं का निषेध। 14. अन्योन्यक्रिया सप्तिका-- परस्पर की जानेवाली क्रियाओं में विवेक / तृतीय चूला का एक अध्ययन--भावना है। 15. भावना-इसमें भगवान महावीर के उदात्त चरित्र का संक्षेप में वर्णन है। आचार्यों के अनसार प्रथम श्र तस्कंध में वर्णित आचार का पालन किसने किया-इसो प्रश्न का उत्तररूप भगवदचरित्र है। इसी अध्ययन में पांच महाब्रतों की 25 भावना का वर्णन भी है। 16. विमुक्ति-चतुर्थ चूलिका में सिर्फ ग्यारह गाथाओं का एक अध्ययन है / इसमें विमुक्त वीतराग आत्मा का वर्णन है। आन्तरिक परिचय : आचार चला में वर्णित मुख्य विषयों की सूची यहाँ दी गई है। विस्तार से अध्ययन करने पर यह सिर्फ श्रमणाचार का एक आगम ही नहीं, किंतु तत्कालीन जन जीवन की रीतिरिवाज, मर्यादाएं, स्थितियाँ, कला, राजनीति आदि की विरल झांकी भी इससे मिलती हैं। बौद्धग्रन्थ 'विनयपिटक' तथा वैदिकधर्मग्रन्थ-'याज्ञवल्क्यस्मृति' आदि में भी इसी प्रकार के आचार विधान हैं, जो तत्कालीन गृहत्यागी-श्रमण-भिक्षु वर्ग के आचारपक्ष को स्पष्ट करते हैं। भिक्षु के वस्त्र-पात्र की मर्यादाएं बौद्ध, वैदिक मर्यादाओं के साथ कितनी मिलती-जुलती हैं यह तीनों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है, हमने यथास्थान प्रकरणों में तुलनात्मक टिप्पण देकर इसे स्पष्ट करने का प्रयल किया है / ‘इन्दमह'--'भूतमह'--'यक्षमह' आदि लौकिक महोत्सवों का वर्णन, तत्कालीन जनता के धार्मिक व सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की अच्छी झलक देते हैं / इसीप्रकार वस्त्रों के वर्णन में तत्कालीन वस्त्र-निर्माण कला का बहुत ही आश्चर्यकारी कलात्मक रूप सामने आता है। संखडि, नौकारोहण, मार्ग में चोर-लुटेरों आदि के उपद्रव; वैराज्य-प्रकरण आदि के वर्णन से भी तत्कालीन श्रमण-जीवन की अनेक कठिन समस्याओं व राजनीतिक घटनाचक्रों का चित्र सामने आ जाता है। प्रस्तुत वर्णन के साथ-साथ हमने निशीथचूणि-भाष्य एवं वृहत्कल्पभाष्यके वर्णन का सहारा लेकर विस्तार पूर्वक उन स्थितियों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, पाठक उन्हें यथास्थान देखें। प्रस्तुत संपादन : आचारांग सूत्र के प्रथम श्रु तस्कंध पर अब तक अनेक विद्वानों ने व्याख्याएँ लिखी हैं। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने भी प्राय: प्रत्येक पद की विस्तृत व्याख्या की है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार प्रायः समान मिलती-जुलती व्याख्या करते हैं, किन्तु आचारांग द्वितीय में यह स्थिति बदल गई है / चूर्णि भी संक्षिप्त है, वृत्ति भी संक्षिप्त है तथा उत्तरवर्ती अन्य विद्वानों ने भी इस पर बहुत ही कम श्रम किया है। चूणि के अनुशीलन से पता चलता है-चूर्णिकार के समय में कोई प्राचीन पाठ-परम्परा उपलब्ध रही है, उसी के आधार पर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं, किन्तु कालान्तर में वह पाठ-परम्परा लुप्त होती गई। वृत्तिकार के समक्ष कुछ भिन्न व कुछ अपूर्ण-से पाठ आते हैं। इसप्रकार कहीं कहीं तो दोनों के विवेचन में बहुत अन्तर लक्षित होता है। जैसे चूर्णिकार के अनुसार द्वितीयचला का चतुर्थ अध्ययन 'स्वसत्तक्किय' है, पांचौं अध्ययन सदृसत्तक्किय / जबकि वर्तमान में उपलब्ध वृत्ति के अनुसार पहले 'सहसत्तक्किय' है फिर 'रूवसत्तक्किय' / भावना अध्ययन में भी पाठ परम्परा में काफी भिन्नता है / चूर्णिकार के पाठ विस्तृत है / हमारे समक्ष आधारभूत पाठ-परम्परा के लिए मुनिश्री जम्बूविजय जी द्वारा संशोधितसंपादित 'आयारंग सुत्त रहा है / यद्यपि इसमें भी कुछ स्थानों पर मुद्रण-दोष रहा है, तथा कहीं कहीं पाठ छूट गया लगता है, जिसका उल्लेख शुद्धिपत्र में भी नहीं है। फिर भी अब तक प्रकाशित सभी संस्करणों में यह अधिक उपादेय व प्रामाणिक प्रतीत होता है। मुनिश्री नथमल जी संपादित 'आयारो तह आयार चूला' तथा 'अंगसुत्ताणि' भी हमारे समक्ष रहा है, किन्तु उसमें अतिप्रवृत्ति हुई है, 'जाव' शब्द के समग्न पाठ मूल में जोड़ देने से न केवल पाठ वृद्धि हुई है, किन्तु अनेक संदेहास्पद बातें भी खड़ी हो गई हैं / फिर आगम पाठ में अनुस्वार या मात्रा वृद्धि को भी दोष मानने की परम्परा जो चली आ रही है, तब इतने पाठ जोड़देना कैसे संगत होगा? अतः हमने उस पाठ को अधिक उपादेय नहीं माना / मुनिश्री जम्बूविजयजी ने टिप्पणों में पाठान्तर चूणि आदि विविध ग्रन्थों के संदर्भ देकर प्राचीन पाठ परम्परा का जो अविकल; उपयोगी व ज्ञानवर्धक रूप प्रस्तुत किया है वह उनकी विद्वत्ता में चारचांद लगाता है, अनुसंधाताओं के लिए अत्यधिक उपयोगी है। उनके श्रम का उपयोग हमने किया है—तदर्थ हम उनके बहुत आभारी हैं। संपादन की मौलिकताएं : आचारांग द्वितीय के अब तक प्रकाशित अनुवाद-विवेचन में प्रस्तुत संस्करण अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ रखता है जिनका सहजभाव से सूचन करना आवश्यक समझता हूं। 1. पाठ-शुद्धि का विशेष लक्ष्य। 2. ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख, जिनका भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्व है तथा कुछ भिन्न, नवीन व प्राचीन अर्थ का उद्घाटन भी होता है। 1. देखें सूत्र 734-- "दाहिणकुडपुर संणिवेसंसि / ' होना चाहिए— 'दाहिण माहणकुडपुर संणिवेसंसि / " सूत्र 735 में यह पाठ पूर्ण है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. चूर्णिगत प्राचीन पाठों का मूल रूप में उल्लेख तथा सर्वसाधारण पाठक उसका अर्थ समझ सके, तदर्थ प्रथम बार हिंदी भावार्थ के साथ टिप्पण में अंकित किया है। 4. पारिभाषिक तथा सांस्कृतिक शब्दों का-शब्दकोष की दृष्टि से अर्थ, तथा अन्य आगमों के संदर्भो के साथ उनके अर्थ की संगति, विषय का विशदीकरण, एवं चूर्णि-भाष्य आदि के आलोक में उनकी प्रासंगिक विवेचना। 5. बौद्ध एवं वैदिक परम्परा के ग्रन्थों के साथ अनेक समान आचारादि विषयों की तुलना। 6. इन सबके साथ ही भावानुसारी अनुवाद, सारग्राही विवेचन, विषय-विशदीकरण, शंका-समाधान आदि / 7. कठिन व दुर्बोध शब्दों का विशेष भावलक्ष्यी अर्थ / -~-यथासंभव, यथाशक्य प्रयत्न रहा है कि पाठ व अनुवाद में अशुद्धि, अर्थ-विपर्यय न रहे, फिर भी प्रमादवश होना संभव है, अतः सम्पूर्ण शुद्धता व समग्रता का दावा करना तो उचित नहीं लगता, पर विज्ञ पाठकों से नम्र निवेदन अवश्य करूंगा कि वे मित्र-बुद्धि से भूलों का संशोधन करें व मुझे भी सूचित करके अनुग्रहीत करें। आगमों का अनुवाद-संपादन प्रारम्भ करते समय मेरे मन में कुछ भिन्न कल्पना थी, किन्तु कार्य प्रारम्भ करने के बाद कुछ भिन्न ही अनुभव हुए। ऐसा लगता है कि आगमसिर्फ धर्म व आचार ग्रन्थ ही नहीं है, किन्तु नीति, व्यवहार, संस्कृति, इतिहास और लोक-कला के अमूल्य रहस्य भी इनमें छुपे हैं, जिनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सर्वांगीण अध्ययन अनुशीलन करने के लिए बहुत समय, विशाल अध्ययन और विस्तृत साधनों की अपेक्षा है / पूज्यपाद श्रुत-विशारद युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज की बलवती प्रेरणा, वात्सल्य भरा उत्साहवर्धन, मार्गदर्शन तथा पंडितवर्य श्रीयुत शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का निर्देशन, पिता तुल्य स्नेह संशोधन-परिवर्धन की दृष्टि से बहुमूल्य परामर्श-इस संपादन के हर पृष्ठ पर अंकित हैं—इस अनुग्रह के प्रति आभार व्यक्त करना तो बहुत साधारण बात होगी। मैं हृदय से चाहता हूं कि यह सौभाग्य भविष्य में भी इसी प्रकार प्राप्त होता रहे / मुझे विश्वास है कि सुज्ञ पाठक मेरे इस प्रथम प्रयास का जिज्ञासुबुद्धि से मूल्यांकन करेंगे व आगम स्वाध्याय-अनुशीलन की परम्परा को पुनर्जीवित करने में अग्रणी बनेंगे। भाद्रपद पर्युषण प्रथम दिन -विनीत श्रीचन्द सुराना 'सरस' Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग-द्वितीय श्रुतस्कंध [आचार चूला] अध्ययन 10 से 25 विषय-सूची पृष्ठ oo. 335 प्रथम चूला : सात अध्ययन : प्रथम पिंडैषणा अध्ययन : (11 उद्देशक) पृष्ठ 1 से 113 सूत्रांक प्रथम उद्देशक सचित्त-संसक्त आहारषणा 325-26 सबीज अन्न-ग्रहण की एषणा 327-30 अन्यतीथिक गृहस्थ-सहगमन निषेध 331-32 ओद्देशिकादि दोष-रहित आहार को एषणा नित्याग्रपिंडादि ग्रहण-निषेध द्वितीय उद्देशक अष्टमी पर्वादि में आहार-ग्रहण-विधि-निषेध भिक्षा योग्य कुल 337 इन्द्रमह आदि उत्सव में अशनादि एषणा 338-336 संखडि-गमन-निषेध तृतीय उद्देशक 340-42 संखडि-गमन में विविध दोष 343 शंकाग्रस्त आहार-निषेध 344-45 भंडोपकरण-सहित गमनागमन 346-47 निषिद्ध मह-पद चतुर्थ उद्देशक 348 संखडिगमन-निषेध गोदोहन वेला में भिक्षार्थ-प्रवेश-निषेध 350-51 अतिथि श्रमण आने पर भिक्षाविधि पंचम उद्देशक 352 अग्रपिंड ग्रहण-निषेध 353-55 विषममार्गादि से भिक्षाचर्यार्थ गमन-निषेध बंद द्वार वाले गह में प्रवेश निषेध 357-58 पूर्व प्रविष्ट श्रमण-माहनादि की उपस्थिति में भिक्षाविधि mmmmm - 446 40. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) c8 rror षष्ट उद्देशक 356 कुक्कुटादि प्राणी होने पर अन्य मार्ग गवेषणा भिक्षार्थ प्रविष्ट का स्थान व अंगोपांग संचालन-विवेक –सचित्त संसृष्ट-असंसृष्ट आहार एषणा सचित्त-मिश्रित आहार-ग्रहण निषेध __ सप्तम उद्देशक मालाहृत दोषयुक्त आहार-ग्रहण निषेध उद्भिन्न दोषयुक्त आहार-निषेध 368 षटकाय जीव-प्रतिष्ठित आहार ग्रहण-निषेध 366-372 पानक-एषणा अष्टम उद्देशक 373 अग्राह्य पानक निषेध 374 आहार-गंध में अनासक्ति 375-388 अपक्क-पास्त्र-अपरिणत वनस्पति आहार-ग्रहण-निषेध 386 वनस्पतिकायिक आहार-गवेषणा भिक्ष भिक्षणी को ज्ञान-दर्शन चारित्र से सम्बन्धित समग्रता नवम उद्देशक 290-362 आधार्मिक आदि ग्रहण का निषेध ग्रासैषणा दोष-परिहार 367-368 ग्रासषणा-विवेक दसम उद्देशक 369-401 आहार-वितरण विवेक 402-404 बहु-उज्झित-धर्मी-आहार-ग्रहण-निषेध 405 अग्राह्य लवण-परिभोग-परिष्ठापन विधि 406 एषणा-विवेक से भिक्ष-भिक्षणी की सर्वांगीण समग्रता एकादश उद्देशक 407-808 मायायुक्त परिभोगषणा विचार 406 सप्तपिषणा-पानैषणा 410 भिक्ष के लिए सात पिंडपणा और पानेषणाओं के जानने की प्रेरणा पिडैषणा और पानषणा के विधिवत पालन से ज्ञानादि आचार की समग्रता शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन (3 उद्देशक) पृष्ठ 114 से 168 प्रथम उद्देशक उपाश्रय-एषणा (प्रथम विवेक) 413-414 उपाश्रय-एषणा (द्वितीय विवेक) 415-818 उपाथय-एषणा (तृतीय विवेक) 68 100 104 105 106 108 X9 113 116 115 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) 123 125 131 135 443 146 150 . 152 455 . उपाश्रय-एषणा (चतुर्थ विवेक) 420--425 उपाश्रय एषणा (पंचम विवेक) 426 शय्यषणा-विवेक से भिक्षु-भिक्षुणी की ज्ञानादि आचार की समग्रता द्वितीय उद्देशक 427-430 गृहस्थ-संसक्त उपाश्रय-निबंध उपाश्रय-एषणाः विधि-निषेध 432-441 नवविध शय्या-विवेक 442 शय्या-विवेक से भिक्षु-भिक्षुणी के ज्ञानादि आचार की समग्रता तृतीय उद्देशक उपाश्रय-छलना-विवेक 444 उपाश्रय में यतना के लिए प्रेरणा 445-446 उपाश्रय-याचना विधि 447-454 निषिद्ध उपाश्रय संस्तारक ग्रहणाग्रहण-विवेक 456-457 संस्तारक एषणा की चार प्रतिमाएँ 458 संस्तारक प्रत्यर्पण-विवेक 454 उच्चार-प्रस्रवण-भूमि-प्रतिलेखना 460-461 शय्या-शयनादि विवेक 462 शय्या-समभाव 463 शय्यषणा विवेक-भिक्षु-भिक्षुणी का सम्पूर्ण भिक्षुभाव ईर्या : तृतीय अध्ययन (3 उद्देशक) पृष्ठ 166 से 208 प्रथम उद्देशक 464-468 वर्षावास-विहार चर्या विहारचर्या में दस्यु-अटवी आदि के उपद्रव 474-482 नौकारोहणविधि 483 ईर्या विषयक विशुद्धि-भिक्षु-भिक्षुणी की समग्रता द्वितीय उद्देशक 484-461 नौकारोहण में उपसर्ग आने पर : जल-तरण 462 ईर्यासमिति विवेक 463-467 जंघाप्रमाण जल-संतरण-विधि 498-502 विषम-मार्गादि से गमन-निषेध संयमपूर्वक विहारचर्या साधुता की समग्रता तृतीय उद्देशक 504-505 मार्ग में वन आदि अवलोकन-निषेध 506-506 आचार्यादि के साथ विहार में विनय-विधि 510-514 हिंसाजनक प्रश्नों में मौन एवं भाषा-विवेक 515-516 विहारचर्या में साधु को निर्भयता और अनासक्ति की प्रेरणा 163 164 165 167 168 187 160 161 167 167 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 212 220 221 222 230 232 232 235 237 ( 21 ) भाषाजात : चतुर्थ अध्ययन (2 उद्देशक) पृष्ठ 206 से 232 प्रथम उद्देशक 520 भाषागत आचार-अनाचार-विवेक 521 षोडश वचन एवं संयत भाषा-प्रयोग 522-526 चार प्रकार की भाषा : विहित-अविहित 530-531 प्राकृतिक दृश्यों में कथन-अकथन 532 भाषा-विवेक से साधुता की समग्रता द्वितीय उद्देशक 533-548 साबद्य-निरवद्य भाषा-विवेक 546-550 शब्दादि-विषयक भापा-विवेक भाषा-विवेक 552 भाषण-विवेक से साधुता की समग्रता वस्त्रषणा : पंचम अध्ययन (2 उद्देशक) पृष्ठ 233 से 261 प्रथम उद्देशक ग्राह्य वस्त्रों का प्रकार और परिमाण वस्त्र-ग्रहण की क्षेत्र-सीमा 555-556 औदेशिक आदि दोषयुक्त वस्त्रषणा का निषेध 557-558 बहुमूल्य-बहुआरंभ-निष्पन्न बस्त्र-निषेध 556-560 वस्त्रषणा की चार प्रतिमाएँ 561-567 अनैषणीय वस्त्र-ग्रहण-निषेध वस्त्र-ग्रहण से पूर्व प्रतिलेखना-विधान 566-571 ग्राह्य-अग्राह्य वस्त्र-विवेक 572-574 वस्त्र-प्रक्षालन-निषेध 575-576 वस्त्र-सुखाने का विधि व निषेध वस्त्रषणा-विवेक से साधुता की समग्रता द्वितीय उद्देशक वस्त्र-धारण की सहज विधि समस्त वस्त्रों सहित विहारादि विधि-निषेध प्रातिहारिक वस्त्र-ग्रहण प्रत्यर्पण-विधि 584-586 वस्त्र के लोभ तथा अपहरण-भय से मुक्ति 587 वस्त्र-परिभोगषणा विवेक से साधुता की समग्रता पात्रषणा : षष्ठ अध्ययन (2 उद्देशक) पृष्ठ 262 से 276 प्रथम उद्देशक 588-586 पात्र के प्रकार एवं मर्यादा 560-561 एषणा-दोषयुक्त पात्र-ग्रहण निषेध 562-56.3 बहुमूल्य पात्र-ग्रहण निषेध 564-565 पात्रषणा की चार प्रतिमाएँ 240 245 24% 246 251 252 254 255 256 264 265 266 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 271 273 273 274 276 276 281 285 620 288 265 268 566-560 अनेषणीय पात्र-ग्रहण निषेध 566-600 पात्र-प्रतिलेखन विधान पात्रषणा-विवेक से साधता की समग्रता द्वितीय उद्देशक पात्र बीजादि युक्त होने पर ग्रहण-विधि 603-604 सचित्त संसृष्ट पात्र को सुखाने की विधि विहार-समय पात्र विषयक विधि-निषेध पात्रषणा-विवेक से साधुता की समग्रता अवग्रह प्रतिमा : सप्तम अध्ययन (2 उद्देशक) पृष्ठ 277 से 296 प्रथम उद्देशक 607 अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता 608-611 अवग्रह-याचना : विविध रूप 612-616 अवग्रह-वजित स्थान अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहण-विवेक साधुता की समग्रता द्वितीय उद्देशक 621-632 आम्रवन आदि में अवग्रह विधि-निषेध अवग्रह-ग्रहण में सात प्रतिमा 635 पंचविध अवग्रह ज्ञानादि आचारों और समितियों सहित साधु सदा प्रयत्नशील रहे द्वितीय चूला : सप्त सप्तिका (7 अध्ययन) स्थान-सप्तिका: अष्टम अध्ययन अण्डादि युक्त स्थान ग्रहण-निषेध चार स्थान प्रतिमा 640 स्थानेषणा : साधुता का आचार-सर्वस्व निषोधिका-सप्तिका : नवम अध्ययन 641-64 निषौधिका-विवेक 643 निषोधिका में अकरणीय कार्य निषीधिका का उपयोग-विवेक साधुता का आचार सर्वस्व उच्चार-प्रस्रवण सप्तिका : दशम अध्ययन 645 उच्चार-प्रस्रवण विवेक मल-मूत्र-विसर्जन कैसे स्थण्डिल पर करे, कैसे पर नहीं करे 668 उच्चार-प्रस्रवण व्युत्सर्गार्थ स्थण्डिल-विवेक साध्वाचार का सर्वस्व शब्द-सप्तिका : एकादश अध्ययन 666-672 वाद्यादि शब्द-श्रवण-उत्कंठा-निषेध 673-676 विविध स्थानों में शब्देन्द्रिय संयम 680-686 मनोरंजन स्थलों में शब्दश्रवणोत्सुकता-निषेध 387-678 शब्द-श्रवण में आसक्ति आदि का निषेध 305 0 yar 0 306 328 333 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 344 347 348 350 351 353 355 AAL Euu रूप-सप्तिका : द्वादश अध्ययन 686 रूप-दर्शन-उत्सुकता निषेध पर-क्रिया सप्तिका : त्रयोदश अध्ययन पर-क्रिया स्वरूप 661-700 पाद-परिकर्मरूप पर क्रियानिषेध 701-707 काय-परिकर्म-परक्रिया-निषेध ॐ०८-७१४ अण-परिकर्म रूप परक्रिया-निषेध 715-720 ग्रन्थी-अर्श-भगन्दर आदि पर परक्रिया निषेध 721-223 अंगपरिकर्म रूप परक्रिया-निषेध 725-728 परिचर्यारूप पक्रिया-निषेध परक्रिया से विरति साध्वाचार का सर्वस्व अन्योन्यक्रिया सप्तिका : चतुर्दश अध्ययन 730-732 अन्योन्यक्रिया-निषेध तृतीय चूला : (1 अध्ययन) भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन भगवान महावीर के पंच कल्याणक नक्षत्र भगवान का गर्भावतरण देवानन्दा का मर्भ-साहरण 736-736 भगवान महावीर का जन्म भगवान का नामकरण 741 भगवान का संबर्द्धन 782 यौवन एवं पाणिग्रहण 743 भगवान के प्रचलित तीन नाम भगवान के परिवारजनों के नाम भगवान के माता-पिता की धम-साधना 746 दीक्षाग्रहण का संकल्प 47-746 सांवत्सरिक दान 750-752 लोकांतिक देवों द्वारा उद्बोध अभिनिष्क्रमण महोत्सव के लिए देवों का आगमन शिविका निर्माण 755-756 शिविकारोहण 760-765 प्रव्रज्यार्थ प्रस्थान 766-768 सामायिक चारित्र ग्रहण मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रह-ग्रहण 770-71 भगवान का विहार एवं उपसर्ग 772-774 भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति 775 भगवान की धर्म-देशना Www . 372 373 788 374 376 377 378 376 380 382 386 386 388 363 368 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 366 400 404 408 412 415 421 776 पंच महावत एवं षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा 777 प्रथम महाव्रत ওওওও प्रथम महाव्रत और उसकी पांच भावनाएँ 780-782 द्वितीय महाव्रत और उसकी पाँच भावनाएँ 783-784 तृतीय महाव्रत और उसकी पाँच भावनाएँ 786-787 चतुर्थ महाव्रत और उसकी पांच भावनाएँ 757-761 पंचम महावत और उसकी पांच भावनाएं 762 उपसंहार चतुर्थ चूला : (1 अध्ययन) विमुक्ति : सोलहवां अध्ययन 763 अनित्य-भावना बोध 764-765 पर्वत की उपमा तथा परीषहोपसर्ग-सहन प्रेरणा 766-800 रजत शुद्धि का दृष्टान्त और कर्ममल शुद्धि की प्रेरणा 801 भ जंग दृष्टांत द्वारा बंधन-मुक्ति की प्रेरणा 802-804 महासमुद्र का दृष्टांत : कर्म अन्त करने की प्रेरणा ।आचार चला समाप्त / परिशिष्ट 431 से 480 / 1 विशिष्ट शब्द सूची 2 गाथाओं की अनुक्रमणिका 3 'जाव' शब्द पूरक सूत्र-निर्देश 4 संपादन विवेचन में प्रयुक्त संदर्भ ग्रन्थों की सूची // आचारांग सूत्र संपूर्ण // 423 424 425 428 428 470 477 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गणहर (थेर) निबद्ध] आयारंगसुत्त बोओ सुयक्खंधो [आयार चूला गणधर (स्थविर) निबद्ध आचरांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध [आचार चूला Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र [आचार चूला] (प्रथम चूला) पिडेषणा-प्रथम अध्ययन प्राथमिक र आचारांग सूत्र का यह द्वितीय श्रु तस्कन्ध है / इसका अपर नाम 'आचाराम' या आचार चूला भी है। - प्रथम श्रु तस्कन्ध में जो ब्रह्मचर्याध्ययन प्रतिपादित हैं, उनमें आचार सम्बन्धी समग्र बातें नहीं बताई गई हैं, जो कुछ बताई गई हैं, वे बहुत ही संक्षेप में। अतः नहीं कही हई बातों का कथन और संक्षेप में कही हुई बातों का विस्तारपूर्वक कथन करने के लिए उसकी अग्रभूत चार चूलाएं उक्त और अनुक्त अर्थ की संग्राहिका बताई गई हैं।' * आचारान में 'अग्र' शब्द के अनेक भेद-प्रभेद करके बताया है कि यहाँ 'अग्र' शब्द 'उप काराग्र' के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् प्रथम श्रुतस्कन्ध के नव अध्ययनों में जो विषय संक्षिप्त में कहे हैं, यहाँ उनका अर्थ विस्तार से किया गया है, तथा जो विषय अनुक्त नहीं कहे गए हैं, उनका यहाँ निरूपण भी है। 5 प्रथम चला में पिंडषणा से अवग्रहप्रतिमा तक के सात अध्ययन हैं। इसी प्रकार स्थान सप्तिका आदि (8 से 14) सात अध्ययन की द्वितीय चूला है। तृतीय चूला में भावना अध्ययन (15 वाँ) एवं चतुर्थ चूला में विमुक्ति अध्ययन (16 वौ) परिगणित है।' चूला, चूडा या चोटी शीर्ष स्थान को कहते हैं / आचार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण विषयों का निर्देश होने से इसे 'चूला' संज्ञा दी गयी है। * आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन का नाम 'पिण्डषणा' है। + पिण्ड का अर्थ है-अनेक पदार्थों का संघात करना, एकत्रित करना। संयम आदि भावपिण्ड है तथा उसके उपकारक आहार आदि द्रव्यपिण्ड। . 1. नियुक्ति तथा चूर्णि के अनुसार आचारांग के साथ पांच चूलाएं संयुक्त थीं। प्रथम चार चूलाओं की स्थापना के रूप में द्वितीय श्रुतस्कन्ध है, तथा पाँचवी चूला 'निशीथ-अध्ययन' के रूप में स्थापित की गई है। जैसेहवइ य स पंच चूलो-(नियुक्ति गाथा 11) तस्स पंच चूलाओ,"एकारस पिउषणाओ जावोगह पडिमा पढ़मा चूला "णिसीह पंचमा चूला-चूणि 2. (क) नियुक्ति गा० 4 / (ख) आचा० टीका पत्रांक 318, 3. (क) नियुक्ति गा० 11 से 16 / (ख) आचा० टीका पत्रांक 320 / .. .: 4. अभि० राजेन्द्र भाग 5 पृ० 616 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्क्रन्ध र द्रव्यपिण्ड भी आहार (4 प्रकार का) शय्या और उपधि के भेद से तीन प्रकार का है, . लेकिन यहाँ केवल आहारपिण्ड ही विवक्षित है / ' पिण्ड का अर्थ भोजन भी है।' * आहार रूप द्रव्य पिण्ड के सम्बन्ध में विविध एषणाओं की अपेक्षा से विचार करना 'पिण्डषणा' अध्ययन का विषय है। * आहार-शुद्धि के लिए की जाने वाली गवैषणषणा (शुद्धाशुद्धि-विवेक), ग्रहणैषणा (ग्रहण विधि का विवेक) और ग्रासैषणा (परिभोगेषणा--भोजनविधि का विवेक) पिण्डषणा कहलाती है। * इसमें आहारशुद्धि (पिण्ड) से सम्बन्धित उद्गम, उत्पादना, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण; यो आठ प्रकार की पिण्डविशद्धि (एषणा) का वर्णन है। * पिण्डैषणा अध्ययन के 11 उद्देशक हैं जिनमें विभिन्न पहलुओं से विभिन्न प्रकार के आहारों (पिण्ड) की शुद्धि के लिए एषणा के विभिन्न अपेक्षाओं से बताये गए नियमों का वर्णन है। ये सभी नियम साधु के लिए बताई हुयी एषणा समिति के अन्तर्गत हैं / * दशवकालिक सूत्र (5) तथा पिण्डनियुक्ति आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का वर्णन है। 1. पिण्डनियुक्ति गा०६, अनुवाद पृ० 2 / 2. (क) पिण्डं समयभाषया भक्तं-स्थान० स्था० 7 (अभि० रा० 5 पृ० 630) (ख) नालन्दा विशाल शब्द सागर; पृष्ठ 838 / 3. (क) पिण्डनियुक्ति अनुवाद पृष्ठ 2, 3 / (ब) आचा० टीका पत्रांक 320 / Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमा चूला 'पिंडेषणा' पढमं अज्झयणं पढमो उद्देसओ प्रथम चूलाः पिडषणा–प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक सचित्त-संसक्त आहारषणा 324. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहि वा पणएहि वा बीएहि वा हरिएहि वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएण वा ओसित रयसा वा परिघासिय, तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परहत्यसि वा परपासि वा अफासुयं अणेसणिज्ज ति मण्णमाणे लाभे वि संते णो पडिगाहेज्जा। से य आहश्च पडिगाहिए सिया, से तमादाय एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अह आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिते अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिग-पणग-वगमट्टिय-मक्कडासंताणए विगिचय विगिचय उम्मिस्सं विसोहिय विसोहिय ततो संजयामेव मुंजेज वा पिएज्ज वा। नं च णो संचाएज्जा भोत्तए वा पातए वा से समादाय एगंतमवक्कमेजा, 2 [ता] अहे झामथंडिल्लसि या अहिरासिसि वा किट्टरासिसि वा तुसरासिसि वा गोमयरासिसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय ततो संजयामेव परिठ्ठवेज्जा। 324. कोई भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा में आहार-प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर (आहार योग्य पदार्थों का अवलोकन करते हुए) यह जाने कि यह अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य (आहार) रसज आदि प्राणियों (कृमियों) से, काई-फफुदी से, गेहूँ आदि के बीजों से, हरे अंकुर आदि से संसक्त है, मिश्रित है, सचित्त जल से गीला है तथा सचित्त मिट्टी से सना हुआ है। यदि इस प्रकार का (अशुद्ध) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य पर-(दाता) के हाथ 1. चूर्णिकार ने 'आहञ्च' और 'सिया' इन दो पदों को लेकर चतुभंगी सूचित की है- “आधच्च= सहसा, सिता कदाति, अणाभोगदिन्नं, अणाभोगपडिच्छियं।"-भावार्थ यह है-(१) सहसा ग्रहण कर लेने पर; (2) कदाचित् ग्रहण करले तो, (3) बिना उपयोग के दिया गया हो, (4) बिना उपयोग के ग्रहण कर लिया हो।" 2. 'अपआदि शब्दों का अर्थ चणिकार ने किया है..."अंडगा पाणा जत्थ पत्थि, हरिता दगं उस्सा वा जहिं पत्थि / " अर्थात्-जहाँ अंडे, प्राणी नहीं हों, जहाँ हरियाली, सचित्त पानी या ओस नहीं हो। 3. यहाँ 2' के अंक के बदले में क्त्वा-प्रत्ययान्त 'अवक्कमित्ता' पद समझना चाहिए। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध में हो, पर-(दाता) के पात्र में हो तो उसे अप्रासुक (सचित्त) और अनेषणीय (दोषयुक्त) मानकर, प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। कदाचित् (दाता या गृहीता की भूल से) वैसा (संसक्त या मिश्रित) आहार ग्रहण कर लिया हो तो वह (भिक्षु या भिक्षुणी) उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए या उद्यान या उपाश्रय में ही (-एकान्त हो तो) जहां प्राणियों के अंडे न हों, जीव जन्तु न हों, बीज न हों, हरियाली न हो, ओस के कण न हों, सचित जल न हो तथा चींटिया, लीलन-फूलन (फफूदी), गीली मिट्टी या दलदल, काई या मकड़ी के जाले एवं दीमकों के घर आदि न हों, वहाँ उस संसक्त आहार से उन आगन्तुक जीवों को पृथक् करके उस मिश्रित आहार को शोधशोधकर फिर यतनापूर्वक खा ले या पी ले। यदि वह (किसी कारणवश) उस आहार को खाने-पीने में असमर्थ हो तो उसे लेकर एकान्त स्थान में चला जाए। वहाँ जाकर दग्ध (जली हुयी) स्थंडिलभूमि पर, हड्डियों के ढेर पर, लोह के कूड़े के ढेर पर, तुष (भूसे) के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य निर्दोष एवं प्रासुक (जीव-रहित) स्थण्डिल (स्थान) का भलीभाँति निरीक्षण करके, उसका रजोहरण से अच्छी तरह प्रमार्जन करके, तब यतनापूर्वक उस आहार को वहाँ परिष्ठापित कर दे (डाल दे। . विवेचन-भिक्षाजीवो साधु और भिक्षा-जैन श्रमण-श्रमणियां हिंसा आदि आरंभ के त्यागी तथा अनगार होने के कारण 'भिक्षाचरी' के द्वारा उदर-निर्वाह करते है। इसीलिए उनकी भिक्षा 'सर्वसम्पत्करी भिक्षा मानी गयी है। परन्तु उनकी भिक्षा सर्वसम्पत्करी तभी हो सकती है, जबकि वह एषणीय, कल्पनीय, प्रासुक और निर्दोष हो, साथ ही आहार ग्रहण करने के 6 कारणों से सम्मत हो। ___ अपने लिए योग्य आहारादि लेने के सिवाय यों ही गृहस्थों के घरों में निष्प्रयोजन जाना श्रमण की साधुता या भिक्षाजीविता के लिए दोष का कारण है / इसीलिए यहाँ कहा गया हैपिडवाय पडियाए।' वृत्तिकार ने 'पिण्डपात-प्रत्ययार्थ' का भावार्थ दिया है-पिण्डपात--भिक्षा लाभ, उसकी प्रतिज्ञा (उद्देश्य) से कि "मैं यहाँ भिक्षा प्राप्त करूंगा।" गृहस्थ के घर में प्रवेश करे।' 1. भिक्षा तीन प्रकार की बताई मयी है-. . : (1) अनाथ, अपंग व्यक्ति अपनी असमर्थता के कारण मांग कर खाता है-वह दोनत्ति भिक्षा है। (2) श्रम करने में समर्थ व्यक्ति आलस्य व अकर्मण्यता के कारण मांग कर खाता है, वह पौरुषघ्नीभिक्षा है / (3) त्यागी व आत्मध्यानी व्यक्ति अहिंसा व संयम की दृष्टि से सहज प्राप्त भिक्षा लेता है वह 'सर्वसम्पत्करी भिक्षा' है। . -हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण 511 2. आहार करने के 6 कारण निम्न हैं वेयण वेयावच्चे इरियठाए य संजमठाए। तह पाणवत्तियाए छठं पुण धम्मचिताए। --उत्तरा० २६॥३३-स्थानांग 6 (1) क्षुधा-वेदना की शांति के लिए (2) सेवा-यावृत्य करने के लिए, (3) ईर्यासमिति का पालन सम्यक प्रकार से हो, इसलिए, (4) संयम-पालन के लिए (5) प्राण-धारण किए रखने के लिए तथा (6) धर्म-चिन्तना के लिए: .... . ...3. आचा० टीका पत्रांक 321 के आधार पर। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 324 अग्राह्य और असेग्य आहार-सामान्यतया उत्सर्गमार्ग में साधुगण के लिए भिक्षा में प्राप्त होने वाला आहार (दो कारणों से) अग्राह्य और असेव्य हो जाता है-(१) वह आहार अप्रासुक और (2) अनेषणीय हो / अप्रासुक का अर्थ है-सचित्त—जीव सहित और अनेषणीय का अर्थ है-त्रिविध एषणा (गवेषणा, ग्रह्णषणा. ग्रासषणा) के दोषों से युक्त / वह आहार भी सचित्तवत् माना जाता 2 भिक्षाचरी के प्रकरण में प्रायः 'अफासूयं' 'अणेसणिज्ज' इन दो शब्दों का साथ-साथ व्यवहार हुआ है। अप्रासुक का अर्थ है-सचिस्त या सचित्त-मिश्रित आहार / अप्रासुक की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-'न प्रगता असवोऽसुमन्तो यस्मात् तदप्रासुकम्--जो जीव रहित न हुआ हो, वह अप्रासुक है। -(अभि० राजेन्द्र भाग 1, पृष्ठ 675) अनेषणीय आहार वह है जो उद्गम आदि दोषों से युक्त हो। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हैएष्पते गवेष्यते उद्गमावि दोषविकलतया साधुभियं तदेवणीयं, कल्प्य, तनिषेधादनेषणीयं -(अभि० रा. भाग 1, पृ० 443) -उद्गमादि दोषों से रहित जिस आहार की साधु द्वारा गवेषणा की जाती है, वह एषणीय है, कल्पनीय है। इससे विपरीत अकल्पनीय आहार अनेषणीय है। M भिक्षाचरी के उद्गम आदि बयालीस दोष सूत्रों में बताये गये हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं। गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष उद्गम के दोष कहलाते हैं। वे सोलह हैं जो इस प्रकार हैं(१) आहाकम्म (आधाकर्म) सामान्य रूप से साधु के उद्देश्य से तैयार किया हआ आहार लेना। (2) उद्देसिय (औद्द शिक)--किसी विशेष साधु के निमित्त बनाया हुआ आहार लेना। (3) पूइकम्मे (पूतिकर्म) - विशुद्ध आहार में आधाकी आहार का थोड़ा-सा भाग मिला हुआ हो तो पूतिकर्म दोष है। (4) मोसमाए (मिश्रजात)-गृहस्थ के लिए और साधु के लिए सम्मिलित बनाया हुमा आहार लेना। (5) ठवणे (स्थापना)-साधु के निमित्त रखा हुआ आहार लेना। (6) पाहटियाए (प्रातिका)-साधु को आहार देने के लिए मेहमानों की जीमनवार को आगे-पीछे किए जाने पर आहार लेना। (7) पामोअर (प्रादुष्करण)-अंधेरे में प्रकाश करके दिया जाने वाला आहार लेना। (8) कोए (क्रीत)- साधु के लिए खरीदा हुआ आहार लेना। (8) पामिच्चे (प्रामित्य)-साधु के निमित्त किसी से उधार लिया हुआ आहार लेना। (10) परियटए (परिवर्त)-साधु के लिए सरस-नीरस वस्तु की अदला-बदली करके दिया जाने वाला आहार लेना। (11) अभिहरे (अभिहत)—सामने लाया हुआ आहार लेना। (12) उम्भिन्ने (उभिन्न)-भूगृह में रक्खे हुए, मिट्टी, चपड़ी आदि से छाये हुए पदार्थ को उघाड़ कर दिया जाने वाला आहार लेना। (13) मालाहर्ड (मालाहृत)-जहाँ पर चढ़ने में कठिनाई हो वहाँ से उतार कर दिया जाने वाला आहार लेना या इसी प्रकार की नीची जगह से उठाकर दिया जाने वाला आहार लेना। (14) अच्छिज्जे (आच्छेद्य)-निर्बल पुरुष से छीना हुआ-अन्याय पूर्वक लिया हुआ आहार लेना। (15) अणिसिट्टे (अनिसृष्ट)-साझे की वस्तु सामझेदार की सम्मति के बिना दिये जाने पर लेना। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (16) अज्झोयरए (अध्यवपूरक)--गृहस्थ के लिए राँधते समय साधु के लिए अधिक रांधा हुआ आहार लेना। - साधु के द्वारा लगने वाले आहार सम्बन्धी दोष उत्पादन दोष कहलाते हैं। वे भी सोलह हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं। (1) धाई (धात्री)-गृहस्थ के बाल-बच्चों को धाय (आया) की तरह खेलाकर आहार लेना। (2) दूई (दूती)-गृहस्थ का गुप्त या प्रकट सन्देश उसके स्वजन से कहकर दूत कर्म करके आहार लेना। (3) निमित्त (निमित्त)--निमित्त (ज्योतिष आदि) द्वारा गृहस्थ को लाभ-हानि बताकर आहार लेना। (4) आजीवे (आजीव)--गृहस्थ को अपना कुल अथवा जाति बताकर आहार लेना। (5) वणीमगे (बनीपक)-भिखारी की तरह दीनता पूर्ण वचन कहकर आहार लेना। (6) तिगिच्छे (चिकित्सा)-चिकित्सा बताकर आहार लेना। (7) कोहे (क्रोध)--गृहस्थ को डरा-धमका कर या शाप का भय दिखाकर आहार लेना। (6) माणे (माम)-'मैं लब्धि वाला हूँ तुम्हें सरस आहार लाकर दूंगा' इस प्रकार साधुओं से अभिमान जताकर आहार लाना। (8) माया (माया)-छल-कपट करके आहार लेना। (10) लोहे (लोम)-लोभ से अधिक आहार लेना। (11) पूठिवं-पच्छा-संथव (पूर्व-पश्चात-संस्तव)-आहार लेने से पूर्व या पश्चात् दाता की प्रशंसा करना। (12) विज्जा (विद्या)-विद्या बताकर आहार लेना। (13) मंते (मन्त्र)- मोहन मन्त्र आदि मन्त्र सिखाकर आहार लेना। (14) चुन (चूर्ण)-अदृश्य हो जाने का या मोहित करने का अन्जन बताकर आहार लेना। (15) जोगे (योग)-राज वशीकरण या जल-थल में समा जाने की सिद्धि बताकर आहार लेना। (16) मूलकम्मे (मूलकम)-गर्भपात आदि औषध बताकर या पुत्रादि जन्म के दूषण निवारण करने के लिए मघा, ज्येष्ठा आदि दुष्ट नक्षत्रों की शान्ति के लिए मूल स्नान बताकर आहार लेना। M एषणा दोष श्रावक और साधु दोनों के निमित्त से लगते हैं / उनके दस भेद इस प्रकार हैं(१) संकिय (शङ्कित)-गृहस्थ को और साधु को आहार देते-लेते समय आहार की शुद्धि में शंका होने पर भी आहार देना लेना। (2) मक्खिय (म्रक्षित)-हथेली की रेखा और बाल सचित्त जल से गीले होने पर भी आहार देना लेना / (3) निक्खिस (निक्षिप्त)-सचित्त बस्तु पर रखा हुआ आहार देना-लेना। (4) पिहिय (पिहित)-सचित्त वस्तु से ढंके हुए आहार को देना-लेना। (5) साहरिय (सहृत)-सचित्त में से अचित्त निकालकर आहार लेना-देना। (6) दायग (दायक)-अंधे, लूले, लँगड़े के हाथ से आहार का देना-लेना / (7) उम्मीसे (उन्मिथ)-सचित्त और अचित्त का मिश्रण कर (अथवा मिश्रित) आहार का देना लेना। (8) अपरिणय (अपरिणत)-~-जिस पदार्थ में शस्त्र-परिणत न हुआ हो, जो अचित्त न हुआ हो ऐसा पदार्थ देना-लेना। (6) लित्त (लिप्त)-तुरन्त लिपी हुयी भूमि का अतिक्रमण करके आहार देना-लेना। (10) छडिड्य (छदित)-भूमि पर छोटे डालते हुए देना-लेना। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 324 है जो सचित्त वस्तु से सटा हुआ हो, मिला हुआ हो, सचित्त वस्तु के नीचे या ऊपर रखा हुआ हो, सचित्त वस्तु से ढंका हुआ हो, जिसका वर्ण गन्ध-रस-स्पर्श न बदला हो / प्रस्तुत में गृहस्थके हाथ में या उसके पात्र में रखे हुए सचित्त वनस्पति, जल और पृथ्वी से संसक्त या मिश्रित आहार को अप्रासुक और अनेषणीय बताकर, मिलने पर भी लेने का निषेध किया है। किन्तु द्रव्य--(दुर्लभ द्रव्य), क्षेत्र (साधारण द्रव्य लाभ रहित क्षेत्र) काल (दुर्भिक्ष आदि काल) तथा भाव (रुग्णता, अशक्ति आदि) आदि आपवादिक कारण उपस्थित होने पर लाभालाभ की न्यूनाधिकता का सम्यक् विचार करके गीतार्थ भिक्षु संसक्त आहार को अलग करके तथा आगन्तुक प्राणियों को दूर करके वह आहार राग-द्वेष रहित होकर यतनापूर्वक ग्रहण कर भी सकता है।' सदोषगृहीत आहार कैसे सेव्य, कैसे परिष्ठाप्य ?- कदाचित् असावधानी से सचित्त संसक्त या मिश्रित आहार ले लिया हो तो क्या किया जाये ? इसकी निर्दोषविधि के रूप में मुख्यतया यहाँ दो विकल्प प्रस्तुत किये गये हैं—(१) एकान्त निर्दोष, जीवजन्तु रहित स्थान देखकर सचित्त भाग यदि अलग किया जा सकता हो तो उसे ढूंढकर अलग निकाल ले और अचित्त भाग का सेवन कर ले, (2) यदि वैसा शक्य न हो तो एकान्त निर्दोष, निरवद्य जीवजन्तु रहित परिष्ठापन योग्य स्थान देखभाल एवं प्रमार्जित करके यतनापूर्वक उसे परिष्ठापन कर दे। ... 22 मण्डल दोष आहार करते समय सिर्फ साधु के द्वारा लगते हैं / वे पांच हैं जो इस प्रकार हैं (1) संजोयणा (संयोजना)-जिह्वा की लोलुपता के वशीभूत होकर आहार सरस बनाने के लिए पदार्थों को मिला-मिलाकर खाना, जैसे दूध के साथ शक्कर मिलाना आदि। (2) अप्पमाणे (प्रमाणातिक्रांत)-प्रमाण से अधिक भोजन करना / (3) इंगाले (अङ्गार)-सरस आहार करते समय वस्तु की या दाता की प्रशंसा करते हुए खाना। (4) धूमे (घुम)-नीरस नि:स्वाद आहार करते समय वस्तु या दाता की निन्दा करते हुए नाक, भी सिकोड़ते हुए अरुचिपूर्वक खाना।। (5) अकारण (कारणातिक्रांत)-क्षधावेदनीय आदि पूर्वोक्त छह कारणों में से किसी भी कारण के बिना ही आहार करना। ये सैतालीस दोष आगाम साहित्य में एक स्थान पर कहीं भी वर्णित नहीं हैं किन्तु प्रकीर्ण रूप में कई जगह मिलते हैं। आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवपूर, पूति-कर्म, क्रीत-कृत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्या हत ये 10 स्थानाङ्ग (3 / 62) में तथा आचारांग सूत्र 331 में बतलाए गये हैं / धात्री-पिण्ड, दूती-पिण्ड, निमित्त-पिण्ड, आजीव-पिण्ड, बनीपक-पिण्ड, चिकित्सा-पिण्ड, कोप-पिण्ड, मान-पिण्ड, माया-पिण्ड, लोभ-पिण्ड-विद्या-पिण्ड, मन्त्र-पिण्ड, चूर्ण-पिण्ड, योग-पिण्ड और पूर्व पश्चात-सस्तवपिण्ड इनका निशीथ-अध्ययन (उद्दे०१२) में उल्लेख है। धूम, संयोजना, प्राभतिका, प्रमाणातिक्रान्त; भगवती (7.1) में हैं। मूलकर्म का उल्लेख प्रश्नव्याकरण (संवर० 1215) में है। उ भिन्न, मालाहृत, अध्यवपूर, शङ्कित, प्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मित्र अपरिणत, लिप्त और छदित-ये दशवकालिक के पिण्डषणा अध्ययन में मिलते हैं। कारणातिक्रांत का उल्लेख उत्तराध्ययन (26332) में है। इस प्रकार विभिन्न सूत्रों में इन दोषों का वर्णन बिखरा हुआ मिलता है। 1 आचा० टीका० पत्रांक 321 के आधार पर। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध परिष्ठापन करने योग्य स्थण्डिलभूमि के कुछ संकेत शास्त्रकार ने दिए हैं, शेष बातें साधक के विवेक पर छोड़ दी है। ‘अप्पंडे' आदि में 'अप्प' शब्द अभाव का वाचक है। परिष्ठापन योग्य स्थान की भली-भांति देखभाल और रजोहरण से यतनापूर्वक सफाई के लिए यहां प्रतिलेखन और प्रमार्जन इन दो शब्दों का दो-दो बार प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ने इन दोनों पदों के सात भंग बताए हैं (1) प्रतिलेखन किया हो, प्रमार्जन नहीं / (2) प्रमार्जन किया हो, प्रतिलेखन नहीं। (3) प्रतिलेखन, प्रमार्जन दोनों न किये हों / (4) दुष्प्रतिलेखित और दुष्प्रमार्जित हो / (5) दुष्प्रतिलेखित और सुप्रमार्जित हो। (6) सुप्रतिलेखित और दुष्प्रमाजित हो। (7) सुप्रतिलेखित और सुप्रमार्जित हो। इनमें से सातवा भंग ग्राह्य है।' सवीज अन्न-प्रहण की एषणा 325. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावती जाव' पविढे समाणे से ज्जाओ पुण ओसहीओ' जाणेज्जा कसिणाओ सासियाओ अविरलकडाओ अतिरिच्छच्छिण्णाओ अव्वोच्छिप्रणाओ तरुणियं वा छिवाडि अभिक्कताज्जित पेहाए अफासुर्य अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते गो पडिगाहज्जा। से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्जाओ पुण ओसहीओ जाणेज्जा अकसिमाओ असासियाओ विश्लकडाओ निरिच्छच्छिण्णाओ वोच्छिण्णामो तरुणियं वा छिवाडि अभिक्कंतभज्जियं पेड़ाए फासु एसणिज्जं ति मण्णमाणे लामे संते पडिगाहेज्जा / 326. से भिक्खू वा 2 जा समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा पिहयं वा बहुरजं वा 1. आचा० टीका पत्रांक 321-322 के आधार पर / 2. यहाँ जाव शब्द के अन्तर्गत सू० 324 के अनुसार शेष पाठ 'गाहावइ कुलं पिस्वाप पडियाए अणु। तक समझना चाहिए। 3. चूर्णिकार ने 'ओसहीयो' की व्याख्या की है-'ओसहीओ सचित्ताओ पडिपुन्नाओ अखंडिताओ सस्सि याओ परोहणसमत्थाओ"-अर्थात् औषधियाँ (बीज वाले अनाज) जे हों। शस्य हों यानी-प्ररोहण में-उगने में समर्थ हों। 4. अभिक्कता मंग्जिता--- इन दो पदों का अर्थ च्णिकार ने किया है-अभिकता जीवेहि =जीवों से च्युत न हों, अमज्जिता मीसजीवा चेव-भुजी हुयी न हों अथवा अल्प भुजी हुयी हों, वे मिश्रजीवी होती हैं। एतो विवरीता कप्पणिज्जा भन्दादेणं-इससे विपरीत अपवाद रूप से कल्पनीय है। 5. यहाँ भी जाव शब्द के अन्तर्गत शेष सारा पाठ सू० 324 के अनुसार समझ लें। 6. यहाँ जाव शम्द के अन्तर्गत सूत्र 324 के अनुसार शेष सारा पाठ समझें। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 325-326 मुज्जियं वा मंयु वा चाउलं पा चाउलपलबं वा सई भज्जिय' अफासुयं जाव' णो पडिगाहेजा। से मिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई मज्जियं दुक्षुत्तो वा भज्जियं तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिज्जं लामे संते जाव' पडिगाहेज्जा। 325. गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्त होने की आशा से प्रविष्ट हुआ भिक्षु या भिक्षणी यदि इन औषधियों (बीज वाले अनाजों) को जाने कि वे अखण्डित (पूर्ण) हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक टुकड़े नहीं हुए हैं, जिनका तिरछा छेदन नहीं हुआ है, जीव रहित (प्रासुक) नहीं हैं, अभी अधपकी फली हैं, जो अभी सचित्त व अभग्न हैं या अग्नि में भुंजी हुई नहीं हैं, तो उन्हें देखकर उनको अप्रासुक एवं अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में भिक्षा लेने के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसी औषधियों को जाने कि वे अखण्डित नहीं हैं, विनष्टयोनि हैं, उनके दो या दो से अधिक टुकड़े हुए हैं, उनका तिरछा छेदन हुआ है, वे जीव रहित (प्रासुक) हैं, कच्ची फली अचित्त हो गयी हैं, भग्न हैं या अग्नि में भुंजी हुयी हैं, तो उन्हें देखकर उन्हें प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होती हो तो ग्रहण कर ले। 326. गृहस्थ के घर भिक्षा के निमित्त गया हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जान ले कि शाली, धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्त रज (तुष आदि) बहुत हैं, गेहूँ आदि अग्नि में भूजे हुए-अर्धपक्व हैं (आग में पूरे पके नहीं हैं)। गेहूँ आदि के आटे में तथा धान-कूटे चूर्ण में भी अखण्ड दाने हैं, कणसहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भूने हुए हैं या कूटे हुए हैं, तो उन्हें अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ अगर "वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि शाली, धान, जौ, गेहूं आदि बहुत रज (तुषादि) वाले हैं, आग में मुंजे हुए गेहूं आदि तथा गेहूँ आदि का आटा, कुटा हुआ धान 7. पिहुयं आदि शब्दों का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है—"पिहुगा सालिबीहीणं, बहुरया जवाणं भवति, मुज्जिग गोधूमाणा बुच्चंति"--पृथुक (अग्नि में भूजकर जो मूड़ी बनायी जाती है, वह) शालि श्रीहि धान्य की होती है, जो के बहुत रज (तुषादि) होती है, गेहूँ की धानी भूजी जाती है, वह अग्नि में अधपकी रह जाती है। 1. सई भज्जियं का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है-'एक्कासि दुम्भज्जित–अर्थात् एक बार अच्छी तरह अग्नि आदि में सेका (भजा) न हो। 2. यहाँ जाव शब्द से शेष पाठ सूत्र 325 के अनुसार समझें / 3. यहाँ जाव शब्द सूत्र 324 के अनुसार समग्र पाठ का द्योतक है। 4. असई मज्जियं की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं--बार-बार दो या तीन बार भूजने पर (ये सब) कल्पनीय हैं। किसी-किसी प्रति में भज्जियं के स्थान पर मज्जियं शब्द हैं, उसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है-मदितम्'-कुटा-पीसा हुआ या मसला हुआ। 5. यहाँ जाव शब्द सूत्र 325 के अनुसार शेष समग्र पाठ का सूचक है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि अखण्ड दानों से रहित है, कण सहित चावल के लम्बे दाने, ये सब एक बार, दो या तीन बार आग में भुने हैं या कुटे हुए है तो उन्हें प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। विवेचन-औषधियां क्या और उनका ग्रहण कब और कैसे ?--'औषधि' शब्द बीज वाली वनस्पति, खास तौर से गेहूँ, जौ, चावल, बाजरा, मक्का आदि अन्न के अर्थ में यहाँ प्रयुक्त हुआ है। पक जाने पर भी गेहूं आदि अनाज का अखण्ड दाना सचित्त माना जाता है। क्योंकि उसमें पुनः उगने की शक्ति विद्यमान है। इसमें से फलित हुआ कि निम्न ग्यारह परिस्थितियों में वह अन्न अप्रासुक और अनेषणीय होने से साधु के लिए ग्राह्य नहीं होता (1) अनाज का दाना अखण्डित हो। (2) उगने की शक्ति नष्ट न हुयी हो। (3) दाल आदि की तरह द्विदल न किया हुआ हो। (4) तिरछा छेदन न हुआ हो। (5) अग्नि आदि शस्त्र से परिणत होकर जीवरहित न हुआ हो / (6) मूंग आदि की तरह कच्ची फली हो। (7) पूरी तरह कूटा, भूजा, या पीसा न गया हो। (8) गेहूँ, बाजरी, मक्की आदि के कच्चे दाने को आग में एक बार थोड़े से सेंके हो। (6) वह अन्न यदि अचित्त होने पर भी उसमें घुण, ईली आदि जीव पड़े हों। (10) उस पके हुए आहार में रसज जीव जन्तु पड़ गए हों, या मक्खी आदि उड़ने वाला कोई जीव पड़ गया हो या चीटियां पड़ गयी हों। (11) जो अन्न अपक्व हो या दुष्पक्व हो। इसके विपरीतस्थिति में गेहूं आदि अन्न या अन्न से निष्पन्न वस्तु प्रासुक, अचित्त, कल्पनीय और एषणीय हो तो वह प्रासुक एषणीय अन्नादि (औषधि) साधु वर्ग के लिए ग्राह्य है। कसिणाओ-कृत्स्न का अर्थ है-सम्पूर्ण (अखण्डित) तथा अनुपहत / सासियाओ-शब्द का 'स्वाश्रया' रूपान्तर करके वृत्तिकार ने व्याख्या की है-जीव की स्व-अपनी उत्पत्ति के प्रति जिनमें आश्रय है. वे स्वाश्रय हैं, अर्थात् जिनकी योनि नष्ट न हुई हो। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है, जो प्ररोहण में उगने में समर्थ हों, वे स्वाश्रिता हैं। आगम में कई औषधियों (बीज रूप अन्न) के अविनष्ट योनिकाल की चर्चा मिलती है। जैसे कि कहा है-'एतेसि गं भंते ! सालीणं केवइअं कालं जोगी संचिट्ठइ ?' अर्थात् भंते ! इन शाली आदि धान्यों की योनि कितने काल तक रहती है ?* कई अनाजों की ऊगने की शक्ति 3 वर्ष बाद कइयों की पांच और सात वर्ष बाद समाप्त हो जाती है। 1. 'ओसहीओ सचिताओ पडिपुन्नाओ अखंडिताओ' -आचारांग चूणि मू० पा. टि० पृ० 105 2. आचा. टीका पत्रांक 322 पर से। 3. आचा० टीका पत्रांक 322 पर से / 4. आचा० टीका पत्रांक 322 पर से। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 327 13 ___ अतिरिच्छठिन्माओ---केला आदि कई फलों की तरह कई बीज वाली लम्बी फलियाँ तिरछी कटी हुई न हों तो साधु साध्वी नहीं ले सकते। ये द्रव्य मे पूर्ण होते हैं, भाव से पूर्ण होते हैं, नहीं भी। तरुणियं वा छिवाडि--वृत्तिकार व्याख्या करते हैं-तरुणी यानी अपरिपक्व कच्ची छिवाडी-मंग आदि की फली। अभज्जियं के तीन अर्थ फलित होते हैं- (1) अभग्न-बिना कूटा हुआ, (2) बिना पीसा हुआ अथवा बिना दला हुआ, (3) अग्नि में पूंजा हुआ या सेंका हुआ न हो। पिहुयं नये-नये ताजे गेहूँ, मक्का, धान आदि को अग्ति में सेंक कर पोख, होले आदि बनाते हैं, उसे 'पृथुक' कहते हैं। भज्जियं का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-अग्नि में आधी पकी हुयी गेहूँ आदि की बालियाँ। 'मथु' का अर्थ वृत्तिकार ने गेहूं आदि का चूर्ण किया है / दशवकालिक (5268) में भी 'मंयु' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ अगस्त्यसिंहस्थविरकृत चूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के अनुसार 'बेर' का चूर्ण तथा जिनदासचूणि के अनुसार बेर, जौ आदि का चूर्ण अर्थ किया गया है। सुश्रुत आदि वैद्यक ग्रन्थों में भी 'मंथु' 'मंथ' शब्द का व्यवहार हुआ है। अन्यतीथिक-गृहस्थ-सहगमन-निषेध ___ 327. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं जाव पविसित कामे णो अग्णउत्थिएण वा गार 1 1. आचा० टीका पत्रांक 322 पर से / (क) आचा० टीका पत्रांक 322 / (ख) दशवकालिक अ० 5 उ० 2 मा०-२० / 3. 'भज्जिता मीस जीवा'---आचा० चूणि मू० पा० टिप्पणी पृ० 105 / आचा० टीका पत्रांक 323 / 5. आचा० टीका पत्रांक 324 / 6. आचा० टीका पत्रांक 324 / 7. दसवेआलियं पृ० 250 / 8. सुश्रुत अ० 46/426 / 6. निशीथ सूत्र के द्वितीय उद्देशक (पृ. 118) के निम्नोक्त पाठों की तुलना सू० 327, 328, 326 के साथ कीजिए--"जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण सद्धि गाहावतिकुलं पिडवातपडियाए णिक्खमति वा पविसति वा...""जे भिक्खू अण्ण उस्थिएणवा मारथिएण वा सपरिहारिओ अपरिहारिएण सद्धि बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा णिक्खमति वा पविसति वा...."जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएहि सद्धि गामाणुगाम दूतिज्जति / " चणिकार के शब्दों में इसकी व्याख्या इसप्रकार है-"अन्यतीथिका-श्चरक-परिव्राजक शाक्या-ऽऽजीवक-वृद्धभावकप्रभृतयः, गृहस्था मरुमादि-भिक्खायरा / परिहारिओ मूलूत्तरदोसे परिहरति / अहवा मूलूत्तरगुणे घरेति आचरतीत्यर्थः / तत्प्रतिपक्षभूतो अपरिहारी, ते य अण्ण तित्थियगिहत्या। णो कप्पति भिक्खस्स गिहिणा अहवा वि अण्णतित्थीणं / परिहारियस्स अपरिहारिएण सिद्धि पविसिउं जे॥" –अर्थात्-अन्यतीथिकों से यहाँ आशय है-चरक, परिव्राजक, शाक्य (बौद्ध) आजीवक (गोशा Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध थिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण सद्धि गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। 328. से भिक्खू वा 2 बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा गिवखममाणे वा पविसमाणे वा णो अण्णउथिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण वा सखि बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा। __326. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो अण्णउस्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण वा सद्धि गामाणुगामं दूइज्जेजा। 230. से भिक्खू वा 2 जाव पविढे समाणे णो अपणउत्थियस्स वा गारथियस वा परिहारिओ अपरिहारियस्स वा असणं वा 4' देज्जा वा अणुपदेज्जा वा। 327. गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने का इच्छुक भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या (भिक्षापिण्डोपजीवी) गृहस्थ के साथ, तथा पिण्डदोषों का परिहार करने वाला (पारिहारिक-उत्तम) साधु (पार्श्वस्थ आदि—) अपारिहारिक साधु के साथ भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे, और न वहां से निकले। ___ 328. वह भिक्षु या भिक्षुणी बाहर विचारभूमि (शौचादि हेतु स्थंडिलभूमि) या विहार (-स्वाध्याय) भूमि से लौटते या वहाँ प्रवेश करते हुए अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृहस्थ (याचक) के साथ तथा पारिहारिक अपारिहारिक (आचरण शिथिल) साधु के साथ न तो विचार-भूमि या विहार-भूमि से लौटे, न प्रवेश करे। 326. एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीथिक या गृहस्थ के साथ तथा उत्तम साधु पार्श्वस्थ आदि साधु के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे। 330. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी याचक को तथैव उत्तम साधु पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी साधु को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य न तो स्वयं दे और न किसी से दिलाए। विवेचन-अन्यतीथिक, गृहस्थ एवं अपारिहारिक के साथ सहगमन-निषेध-सू० 327 से सू० 330 तक में अन्यतीर्थिक आदि के साथ भिक्षा, स्थंडिलभूमि, विहार-भूमि, स्वाध्यायभूमि, विहार में सहगमन का तथा आहार के देने-दिलाने का निषेध किया गया है / अन्यतीर्थिक का अर्थ है-अन्य धर्म-सम्प्रदाय या मत के साधु / परपिण्डोपजीवी गृहस्थ से आशय है-जो परपिण्ड पर जीता हो, ये घर-घर से आटा मांगकर जीवन निर्वाह करने वाले गृहीवेषी लक मतानुयायी), वृद्ध श्रावक आदि / गृहस्थों से तात्पर्य है—मरुक् आदि भिक्षाचर। पारिहारिक वह है-जो मूल-उत्तर दोषों का परिहार करता है; अथवा जो मूलगुण-उत्तर गुणों को धारण करता है, आचरण करता है। उससे प्रतिपक्षी है-अपारिहारिक; वे भी अन्यतीथिक-गृहस्थ (परपिण्डोपजीवी) हैं; निष्कर्ष है-भिक्ष को गृहस्थ या अन्यतीथिकों के साथ, पारिहारिक का अपरिहारिक के साथ प्रवेश करना कल्पनीय नहीं है। 1. यहाँ '4' का चिन्ह 'पाणं वा खाइम वा साइमं वा'-इन शेष तीनों आहारों का सचक है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 327-330 साधु या भिखारी या याचक होते हैं। और अपारिहारिक से मतलब है जो शिथिलाचारी हैं, साध्वाचार में लगे दोषों की विशुद्धि न करने वाले पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद आदि साधु हैं। पारिहारिक का अर्थ है---आहार के दोषों का परिहार करने वाला शुद्ध आचार वाला साधु / ' भिक्षु और पारिहारिक साधु का सम्पर्क अन्यतीर्थिक, परपिण्डोपजीवी गृहस्थ एवं अपारिहारिक के साथ पांच माध्यमों से होता है (1) भिक्षा के लिए साथ-साथ प्रवेश-निर्गमन से। (2) स्थण्डिल-भूमि में साथ-साथ प्रवेश-निष्क्रमण से। (3) स्वाध्याय-भूमि में साथ-साथ प्रवेश-निर्गमन से। (4) ग्रामानुग्राम साथ-साथ विचरण करने से (5) आहार के देने-दिलाने से। अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृहस्थ के यहाँ प्रवेश-निर्गमन में दोष यह है कि वे आगे-पीछे चलेंगे, तो ईशोधन नहीं करेंगे, उसका दोष, तथा प्रवचन लघता या उनके द्वारा जाति आदि का अभिमान-प्रदर्शन / ये पीछे-पीछे पहुंचेंगे तो अभद्रवृत्ति के दाता को प्रद्वेष जागेगा, दाता आहार का विभाग करके देगा। उससे ऊनोदरी तप या दुर्भिक्ष आदि में थोड़ेसे प्राप्त आहार में प्राण-धारण करना दुलंभ होगा। __ अपारिहारिक के साथ भिक्षा के लिए प्रवेश करने से अनेषणीय भिक्षा ग्रहण करनी होगी या उसका अनुमोदन हो जाएगा। वैसी भिक्षा ग्रहण न करने पर अन्यत्र आहार की दुर्लभता आदि परिस्थित आ सकती है। ___ शौचनिवृत्ति के लिए स्थण्डिलभूमि में साथ-साथ जाने पर प्रासुक जल आदि से गुह्य भाग स्वच्छ करने-न-करने आदि का विवाद खड़ा होगा। स्वाध्याय-भूमि में साथ-साथ जाने पर सैद्धान्तिक विवाद, निरर्थक स्व-प्रशंसा, असहिष्णुता के कारण कलह आदि दोषों की सम्भावना है। ग्रामानुग्राम सहगमन में भी लघुशंका-बड़ीशंका से निवृत्त होने में संकोच होगा। हाजत रोकने से आत्म-विराधना रोगादि की सम्भावना है / यदि मल-मूत्र का उत्सर्ग करना है तो प्रासुक-अप्रासुक जल ग्रहण करने से संयम-विराधना की सम्भावना रहती है। इसी प्रकार अन्यतीथिक आदि को अपने आहार में से देने से दाता को अप्रतीति होगी कि ये तो आहार को ले जाकर बांटते हैं। उनको दिलाने से गृहस्थ के मन में अश्रद्धा पैदा होगी, उन अन्यतीर्थिक आदि की असंयमप्रवृत्ति आदि दोषों का सहभागी भी हो सकता है। ये सब सम्पर्कजनित दोष हैं, जो आगे चलकर सुविहित साधु के सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र की नींव हिला सकते हैं। 1. आचा० टीका पत्रांक 323-324 के आधार पर / 2. भाचा. टीका पत्रांक 323, 324, 325 के आधार पर। 3. आचा. टीका पत्रांक 223-325 / Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्छ औद्देशिकावि दोष-रहित आहार की एषणा __331. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 अस्संपडियाए' एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्त कोतं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेति, तं तहप्पगारं असणं वा 4 पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा बहिया णीहार्ड वा अणीहडं वा अत्तद्वियं वा अणतट्ठियं वा परिभुत वा अपरिभुत्तंमा आसेवितं वा अणासेवितं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणितव्वा / __ 332. [1]. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 44 बहवे समणमाहण-अतिहि किवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाई जाय समारम्भ आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा। [2]. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा-असणं वा 4 बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स पाणाई 4 जाव आह१ चेतेति, तं तहप्पगारं असणं या 4 अपुरिसंतरकडं अबहिया जोहडं अणत्तट्टियं अपरिभुत अणासेवितं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं बहिया णीहडं अत्तट्टियं परिभुत्त आसेवितं फासुयं एसणिज्ज जाव पडिगाहेज्जा। 331. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया हुआ है तथा सामने (साधु के स्थान पर) लाया हुआ आहार दे रहा है, तो उस प्रकार का (कई दोषों युक्त) अशन, पान, खाद्य, और स्वाध रूप आहार दाता से भिन्न पुरुष ने बनाया हो, अथवा दाता (--अपुरुषान्तर) ने बनवाया हो, घर से बाहर निकाला गया हो, या न निकाला गया हो, उस दाता ने स्वीकार किया हो या न किया हो, उसी दाता ने उस आहार में से बहुत-सा खाया हो या न खाया हो; अथवा थोड़ा-सा सेवन किया हो, या न किया हो; इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणिक समझकर प्राप्त होने पर भी वह ग्रहण न करे। 1. अस्संपडियाए के स्थान पर चूणि में अस्सिपडियाए पाठान्तर है / 2. यहाँ जाव शब्द के अन्तर्गत शेष समग्र पाठ सूत्र 331 के अनुसार समझें / Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 331-332 इसी प्रकार बहुत-से सार्मिक साधुओं के उद्देश्य से, एक सार्मिणी साध्वी के उद्देश्य से, तथा बहुत सी सार्मिणी साध्वियों के उद्देश्य से बनाये हुए आहार को ग्रहण न करे; यों क्रमश: चार आलापक इसी भांति कहने चाहिए। 332. (1) वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह अशनादि आहार बहुत से श्रमणों, माहनों (ब्राह्मणों), अतिथियों, कृपणों (दरिद्रों), याचकों(भिखारियों) को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी आदि जीवों का समारम्भ करके बनाया हुआ है / वह आमेवन किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण न करे। (2) वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमणों, माहनों (ब्राह्मण), अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि जीवों का समारम्भ करके श्रमणादि के निमित्त से बनाया गया है, खरीदा गया है, उधार लिया गया हैं, बलात् छीना गया है, दूसरे के स्वामित्व का आहार उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ है, घर से साधु के स्थान पर (सामने) लाकर दे रहा है, उस प्रकार के (दोषयुक्त) आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत (अपुरिषांतरकृत) हो, बाहर निकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता द्वारा उपभुक्त न हो, अनासेवित हो, उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। यदि वह इस प्रकार जाने कि वह आहार दूसरे पुरुष द्वारा कृत (पुरिषान्तरकृत) है, घर से बाहर निकाला गया है, अपने द्वारा अधिकृत है, दाता द्वारा उपभुक्त तथा आसवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर मिलने पर वह ग्रहण कर ले। विवेचन-ओद्देशिक आदि दोषों से युक्त भाहार की गवेषणा–साधु अहिंसा महावत की तीन करण और तीन योग से प्रतिज्ञा लिए हुए हैं, इसलिए कोई उसके निमित्त से आहार बनाए या उसके तथा अन्य विभिन्न कोटि के भिक्षुओं या याचकों आदि के लिए बनाए या अन्य किसी प्रकार से उसको देने के लिए लाए तो वह आहार एकेन्द्रियादि प्राणियों के आरम्भसमारम्भजनित हिंसा से निष्पन्न होने के कारण ग्राह्य नहीं हो सकता / अतः इस विषय में साधु को अपनी गवेषणात्मक दृष्टि से पहले ही छानबीन करनी चाहिए। इसी बात का प्रतिपादन सूत्र 331 में और सूत्र 332 में किया गया है। सूत्र 332 के अन्त में बताया गया है कि वही आहार प्रासुक और एषणीय होने के कारण साधु के लिए ग्राह्य है जो साधु द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से जांच-पड़ताल करने पर सिद्ध हो जाए कि वह दूसरों के लिए बना हुआ है, घर से बाहर निकाला गया है, दाता द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त है तथा आसे वित है।' अस्सं पडियाए-का संस्कृत रूपान्तर 'अस्व-प्रतिज्ञया' मानकर उसका अर्थ वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं-'न विद्यते स्वं द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो निम्रन्थ: तत्प्रतिज्ञया'---अर्थात्-जिसके पास स्व-धन या कोई भी द्रव्य नहीं है, वह अकिंचन, या स्व--स्वामित्व रहित अपरिग्रही-निर्ग्रन्थ 1. आचा० टीका पत्रांक 325 के आधार पर। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 आधारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 'अ-स्व' है, उसकी प्रतिज्ञा से-यानी उसको लक्ष्य में रखकर या उनको मैं आहार दूंगा, इस प्रकार के अभिप्राय से...। चूर्णिकार ‘अस्सिपडियाए' पाठान्तर मानकर इसका संस्कृत रूपान्तर 'अस्मिन् प्रतिज्ञाय' स्वीकार करके अर्थ करते हैं-'अस्मिन् साधु एग प्रतिज्ञाय प्रतीत्य वा'—किसी एक साधु के विषय में प्रतिज्ञा करके कि मैं इसी साधु को दूंगा, अथवा किसी एक साधु की अपेक्षा से / हमें पहला अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है।' ___ तीन प्रकार का उद्देश्य -इन दोनों सूत्रों में तीन प्रकार के उद्देश्य से निष्पन्न आहार का प्रतिपादन है (1) किसी एक या अनेक सार्मिक साधु या साध्वी के उद्देश्य से बनाया हुआ तथा क्रीत आदि तथाप्रकार का आहार / (2) अनेक श्रमणादि को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ। (3) अनेक श्रमणादि के उद्देश्य से बनाया हुआ। ये तीनों प्रकार के आहार औद्देशिक होने से दोषयुक्त हैं, इसलिए अग्राह्य हैं। 'साहम्मिय'..' का अर्थ है सार्मिक / अर्थात् जो आचार, विचार और वेष से समान हो।' 'समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए'-का अर्थ है-श्रमण, माहन, अतिथि, दरिद्र और याचक / श्रमण पाँच प्रकार के होते हैं--(१) निर्ग्रन्थ--(जैन), (2) शाक्य (बौद्ध), (3) तापस, (4) गैरिक और (5) आजीवक (गोशालकमतीय)। वृत्तिकार ने माहन का अर्थ 'ब्राह्मण' किया है, जो भोजन के समय उपस्थित हो जाता है, अतिथि--अभ्यागत या मेहमान / कृपण का अर्थ किया है--दरिद्र, दीन-हीन / वनीमक या बनीपक का अर्थ किया है-बन्दीजन-भाट, चारण आदि; परन्तु दशवकालिकसूत्र की वृत्ति में वनीपक का अर्थ कृपण किया है, जबकि स्थानांग में इसका अर्थ याचक-भिखारी किया है, जो अपनी दीनता बताकर या दाता की प्रशंसा करके आहारादि प्राप्त करता है। कृपण 1. (क) आचा० टीका पत्रांक 325 / (ख) चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 107 // 2. आचा० टीका पत्रांक 325 के आधार पर। 3. आचा० टीका पत्रांक 325 / 4. स्थानांग वृत्ति के अनुसार वनीपक की व्याख्या इस प्रकार है-दूसरों के समक्ष अपनी दरिद्रता दिखाने से, या उनकी प्रशंसा करने से जो द्रव्य मिलता है, वह 'वनी' है और जो उस 'वनी' को पिये, ग्रहण करे, वह 'वनीपक' है। बनीपक के पांच भेद हैं(१) अतिथि-वनीपक, (2) कृपण-वनीपक, (3) ब्राह्मण-वनीपक, (4) श्व-वनीपक, (5) श्रमणवनीपक। अतिथि-भक्त के समक्षदान की प्रशंसा करके दान लेने वाला 'अपिति-बनीपक' है। वैसे ही कृपणभक्त के समक्ष कृपण-दान की, ब्राह्मण, श्वान, श्रमण आदि के भक्त के समक्ष उनके दान की प्रशंसा करके दान चाहने वाला / एवान-प्रशंसा का एक उदाहरण टीकाकार ने उधत किया है। 'श्ववनीपक' श्वान-भक्त के समक्ष कहता है Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 334 (किविण) का अर्थ उत्तराध्ययन सूत्र में पिन्डोलक किया है, जो परदत्तोपजीवि पर-दत्त आहार से जीवन-निर्वाह करने वाला हो।' 'समाररूम' का अर्थ है-समारम्भ करके / मध्य के ग्रहण से आदि और अन्त का ग्रहण हो जाता है, वृत्तिकार ने इस न्याय से आदि और अन्त के पद-संरम्भ और आरम्भ का भी ग्रहण करना सूचित किया है। ये तीनों ही हिंसा के क्रम हैं—संरम्भ में संकल्प होता है, समारम्भ में सामग्री एकत्र की जाती है, जीवों को परिताप दिया जाता है और आरम्भ में जीव का वध आदि किया जाता है। ___ 'समुद्दिस्स' कीयं आदि पदों के अर्थ-किसी एक या अनेक सार्मिक साधु या साध्वी को उद्देश्य करके बनाया गया आहार समुद्दिष्ट है, कोय=खरीदा हुआ, पामिच्च =उधार लिया हुआ, अच्छिज्ज =बलात् छीना हुआ, अणिसळे=उसके स्वामी की अनुमति लिए बिना, अमिहडं घर से साधु-स्थान पर लाया हुआ, अत्तट्टियं= अपने द्वारा अधिकृत ! नित्यानपिण्डादि ग्रहण-निषेध ___333. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तु कामे से ज्जाई पुण कुलाइं जाणेज्जा-इमेसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिज्जति, णितिए अग्गपिंडे दिज्जति,णितिए भाए' दिज्जति, णितिए अवड्ढभाए दिज्जति, तहप्पगाराइं कुलाई णितियाई णितिउमाणाई णो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज का णिक्खमेज्ज वा। 333. गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के इच्छुक साधु या साध्वी ऐसे कुलों (घरों) को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड (आहार) दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भात (आधा भाग) दिया जाता है, प्रतिदिन उपार्द्ध भाग (चौथा हिस्सा) दिया जाता है। इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन केलासमवणा ए ए गुज्झगा आगया महि / चरति जक्खरूवेण पूयापूया हिताहिता // -ये कैलाश पर्वत पर रहने वाले यक्ष हैं। भूमि पर यक्ष के रूप में विचरण करते हैं / -स्थानांग ५/सू० 200 वृत्ति / 1. (क) आचा० टीका पत्र 325 / (ख) दशव० हारि० वृत्ति अ० 5 / 1151, 5 / 2 / 10 / (म) स्थानांग स्था० 5 पत्र 200 (घ) पिंडोलए व दुस्सीले-उत्त० 5 / 22 2. आचा० टीका पत्र 325 / 3. आचा० टीका पत्र 325 / 4. 'अग्गपिण्डे' के स्थान पर 'अग्गपिण्डो' शब्द मानकर चर्णिकार अर्थ करते हैं-'अम्गपिण्डो अग्गभिक्खा' अर्थात् अग्रपिण्ड हैं-सर्वप्रथम अलग निकाल कर भिक्षाचरों के लिए रखी हुई भिक्षा / 5. 'भाए दिज्जति, णितिए अबढमाए दिज्जति शब्दों की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की हैं "भाओभत्तट्ठो, अबढभातो अद्धभत्तट्टो, तस्सद्धं उवद्धभातो।" भात शब्द का अर्थ है-भक्तार्थ यानी भोजन योग्य पदार्थ अपाधंभात का अर्थ है-अर्द्धभक्तार्थ यानी उसका आधा भाग उपाद्ध भात (भक्त) होता हैं। 6. णितिउमाणाई के स्थान पर कहीं नियोमाणाई एवं कहीं निइउमाणाई पाठ मिलता है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में आहार-पानी के लिए साधु-साध्वी प्रवेश एवं निर्गमन न करें। विवेचन-नित्यपिण्ड प्रदाता कुलों में प्रवेश-निषेध–इस सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए उन पुण्याभिलाषी दानशील भद्र लोगों के यहां जाने-आने का निषेध किया है, जिन कुलों में पुण्य-लाभ समझ कर श्रमण, ब्राह्मण, याचक आदि हर प्रकार के भिक्षाचर के लिए प्रतिदिन पूरा (उसकी आवश्यकता की दृष्टि से) आधा या चौथाई भाग आहार दिया जाता है; जहाँ हर तरह के भिक्षाचर आहार लेने आते-जाते रहते हैं। ऐसे नित्यपिण्ड प्रदायी कुलों में जब निर्ग्रन्थ भिक्षु-भिक्षुणी जाने और आहार लेने लगेंगे तो वह गृहस्थ उनके निमित्त अधिक भोजन बनवाएगा अथवा जैन भिक्षु वर्ग को देने के बाद थोड़ा-सा बचेगा, उन लोगों को नहीं मिल सकेगा, जो प्रतिदिन वहाँ से भोजन ले जाते हैं, अतः उन्हें अन्तराय लगेगा और आहार लाभ से वंचित भिक्षाचरों के मन में जैन साधु-साध्वियों के प्रति द्वेष जगेगा। कुल का अर्थ यहाँ विशिष्ट गृह समझना चाहिए / ऐसे कुलों से आहार ग्रहण का निषेध करने की अपेक्षा उनमें प्रवेश-निर्गमन का निषेध इसलिए किया गया है कि उन घरों में साधु प्रवेश करेगा, या उन घरों के पास से होकर निकलेगा तो गृहपति उस साधु को भिक्षा-ग्रहण करने की प्रार्थना करेगा, उसकी प्रार्थना को साधु ठुकरा देगा या उसके द्वारा बनाए हुए आहार की निन्दा करेगा तो उस भद्र भावुक गृहस्थ के मन में दुःख या क्षोभ उत्पन्न हो सकता है। उसकी दान देने की भावना को ठेस पहुँच सकती है। नित्य अग्रपिण्ड का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-'भात, दाल आदि जो भी आहार बना है, उसमें से पहले पहल भिक्षार्थ देने के लिए जो आहार निकाल कर रख लिया जाता है।' चूर्णिकार इसे 'अनभिक्षा कहते हैं। 'भाए' का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-'अर्ध पोष' यानी प्रत्येक व्यक्ति के पोषण के लिए पर्याप्त आहार का आधा हिस्सा, चूर्णिकार इसका अर्थ 'भात' करते हैं, भत्तठ भोजन के पदार्थ यानी पूरा भोजन। अबढमाए का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-उपार्द्ध भाग यानी पोष-(पोषण-पर्याप्त आहार) का चौथा भाग / चूर्णिकार अर्थ करते हैं-'अद्ध भत्तट्ठ' अर्थात् आधा भात; भोजन का आधा भाग। निइउमाणाई की व्याख्या वृत्तिकार यों करते हैं-जिन कुलों में नित्य 'उमाणं' यानि स्व-पर-पक्षीय भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, वे कुल / तात्पर्य यह है कि उन घरों से प्रतिदिन आहार मिलने के कारण उनमें स्वपक्ष-अपना मनोनीत साधु वर्ग तथा परपक्ष-अन्य भिक्षा१. टीका पत्रांक 326 / 2. (क) टीका पत्र 326 / (ख) चूणि मूल पाठ टि० पृ० 108 : (ग) दशवकालिक 32 में नियाग' शब्द भी नित्य अग्रपिण्ड का सूचक है। 3. (क) टीका पत्र 326, (ख) चूणि मू० पा० टि० पृ० 108 / 4. (क) टीका पत्र 326, (ख) चूणि मू० पा० टि० पृ० 108 / Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 334 21 चर वर्ग, सभी भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं / ऐसी स्थिति में उन गाहपतियों को बहुत-से भिक्षाचरों को आहार देना पड़ेगा / अतः उन्हें आहार भी प्रचुर मात्रा में बनवाना पड़ेगा। ऐसा करने में षट्कायिक जीवों को विराधना सम्भव है। यदि वे अल्प मात्रा में भोजन बनवाते हैं तो जैन साधुओं को देने के बाद थोड़ा सा बचेगा, इससे दूसरे भिक्षाचर आहार-लाभ से वंचित हो जाएंगे, उनके अन्तराय लगेगा। __ चूर्णिकार इस पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि-नित्य दूसरे भिक्षुओं को देने पर पकाया हुआ आहार अवमान कम हो जाएगा, यदि वह स्व पर-दोनों प्रकार के भिक्षाचरों को आहार देता है तो अपने भिक्षुओं को देने में आहार कम पड़ जाएगा। इस कारण बाद में उसे अधिक आहार पकाना पड़ेगा। अधिक पकाने में षट्-कायिक जीवों का वध होगा। इसलिए जिन कुलों में नित्य स्व-पर पक्षीय भिक्षाचरों को आहार देने में कम पड़ जाता है, वे नित्यावमानक कुल हैं।' 334. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवठेहि समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि। // पढमो उद्देसओ समत्तो // 334. यह (पूर्व सूत्रोक्त पिण्डैषणा विवेक) उस (सुविहित) भिक्षु या भिक्षुणी के लिए (ज्ञानादि आचार की) समग्रता है, कि वह समस्त पदार्थों में संयत या पंचसमितियों से युक्त, ज्ञानादि-सहित अथवा स्वहित परायण होकर सदा प्रयत्नशील रहे / —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में पिछले सूत्रों में विधि-निषेध द्वारा जो पिण्डैषणा-विवेक बताया है, उसके निष्कर्ष और उद्देश्य तथा अन्त में निर्देश का संकेत है। ___ सामग्गिय की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है--'भिक्षु द्वारा यह उद्गम-उत्पादनग्रहणषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम आदि कारणों (दोषों) से सुपरिशुद्ध पिण्ड का ग्रहण ज्ञानाचार सामर्थ्य है, दर्शन-चारित्र-तपोवीर्याचार संपन्नता है / चूर्णिकार के शब्दों में इस प्रकार आहारगत दोषों का परिहार करने से पिण्डैषणा गुणों से उत्तर गुण में समग्रता होती है। विगुवाहारी मिक्ष का सामर्थ्य बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'सम्वहिं समिए सहिए।' अर्थात् वह भिक्षु सरस-नीरस आहारगत पदार्थों में या रूप-रस-गन्ध स्पर्शयुक्त पदार्थों में संयत अथवा पाँचसमितियों से युक्त अर्थात् शुभाशुभ में राग-द्वेष से रहित तथा स्व-पर-हित से युक्त (सहित) अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सहित होता है। निर्देश--इस प्रकार के सामर्थ्य से युक्त भिक्षु या भिक्षुणी इस निर्दोष भिक्षावृत्ति का परिपालन करने में सदा प्रयत्नशील रहे।" // प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) टीका पत्र 526 / (ख) चूणि मू० पा० टि० पृ० 106 / / 2. इसके स्थान पर "एतं खलु....."सामग्गिय" पाठ मानकर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं-"एतं खलु एवं परिहरता पिडेसणागुणेहि उत्तरगुणसमग्गता भवति ।"-यह इस प्रकार आहारगत दोषों का त्याग करने से पिण्डषणा के गुणों से उत्तरगुण समग्रता भिक्षु या भिक्षुणी को प्राप्त होती है। 3. (क) टीका पत्र 327 / (ख) चू० मू० पा० टि० पृ० 108 / 4. टीका पत्र 327 / Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सुत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अष्टमी पर्वादि में आहार ग्रहण-विधि निषेध 335. से भिक्खू वा गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए अणुपविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, असणं वा 4 अमिपोसहिएसु वा अद्धमासिएसु वा मासिएसु वा दोमासिएस् वा तेमासिएसु वा चाउमासिएसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा उऊसु' वा उदुसंधीसु वा उदुपरियट्टेसु वा बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगे एगातो उवखातोपरिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहि उवखाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, तिहि उक्खाहि परिएसिज्जमाणे पेहाए, कभीमहातो वा कलोवातितो वा संणिहिणियातो वा परिएसिज्जमाणे पेहाए, तहप्पगारं असणं वा 4 अपुरिसंतरकडं जाव अणासेवितं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव आसेवितं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। 335. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप आहार के विषय में यह जाने कि यह आहार अष्टमी, पौषधव्रत के उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा अर्द्ध मासिक (पाक्षिक), मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक और पाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा ऋतुओं, ऋतुसन्धियों एवं ऋतु-परिवर्तनों के उत्सवों के उपलक्ष्य में (बना है, उसे) बहुत-से श्रमण, माहन (ब्राह्मण), अतिथि, दरिद्र एवं भिखारियों को एक बर्तन से (लेकर) --परोसते हुए देखकर, दो बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर, या तीन बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर एवं चार बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर तथा संकड़े मुह वाली कुम्भी और बांस की टोकरी में से (लेकर) एवं संचित किए हुए गोरस (दूध, दही, घी आदि) आदि पदार्थों को परोसते हुए देखकर, जो कि पुरुषान्तरकृत नहीं है, घर से बाहर निकाला हुआ नहीं है, दाता द्वारा अधिकृत नहीं है, न परिभुक्त और आसे वित है, तो ऐसे चारों प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / और यदि ऐसा जाने कि यह आहार पुरुषान्तरकृत (अन्यार्थ कृत, दूसरे के हस्तक किया 1. 'उऊसु' के कहीं-कहीं पाठन्तर 'उदुएसु' 'उतूएसु' या 'उदुसु' मिलते हैं / 'उऊस का अर्थ 'ऋतुओं में होता है, जबकि चूर्णिकार ने 'उदुसु' पाठ मानकर अर्थ किया है-'सरितादिसु' नदी आदि में। 2. चर्णिकार ने इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है-कुभी कुंभप्रमाणा, कलसी गिहिकुंभेहि भरिज्जति, कलवादी पच्छी पिडगमादी; अर्थात-कभी घड़े जितनी बड़ी होती है। कलसी जिसे गृह के घड़ों से भरा जाता है। कलवादी-टोकरी, पिटारी आदि / 3. सन्निधी का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में-समिधी-गोत्सो संविणमो घत गुलमादि / अर्थात्-सनिधि का अर्थ है गोरस और सचिणओ का अर्थ है-घत गुड़ आदि / Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 335-336 जा चुका हो) है, घर से बाहर निकाला हुआ है, दाता द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त है और आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण कर ले। विवचन-पर्व विशेष में निष्पन्न आहार कब अग्राह्य, कल ग्राह्य ?--इस सूत्र में अष्टमी आदि पर्व विशेष के उत्सव में श्रमणादि को खास तौर से दिए जाने वाले एसे आहार का निषेध किया है, जो श्रमणादि के सिवाय किन्हीं दूसरों (गृहस्थों) के लिए नहीं बना है, न उसे बाहर निकाला है, न दाता ने उसका उपयोग व सेवन किया है, न दाता का स्वामित्व है। क्योंकि ऐसा आहार सिर्फ श्रमणादि के निमित्त से ही बनाया गया माना जाता है, अगर उसे जैन-श्रमण लेता है तो वह आरम्भ-दोषों का भागी बनेगा। किन्तु यदि ऐसा आहार पुरुषान्तरकृत आदि है तो उसे लेने में कोई दोष नहीं है। साथ ही इस बात के निर्णय के लिए उपाय भी बताया है। ____ उक्खा, कुंभीमुहा, कलोवाती आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं-उक्खा पिट्ठर, बड़ी बटलोई जैसा बर्तन, कुम्भी--संकड़े मुँह वाले बर्तन / कलोवाती-पिटारी या बांस की टोकरी। संनिधि हैं-गोरस आदि। मिक्षा योग्य कुल 336. से भिक्खू वा 2 जाव अणुपविढे समाणे से ज्जाइं पुण कुलाई जाणेज्जा, तंजहा-उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि का राइष्णकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खकुलणि वा बोक्कसालियकुलाणि वा अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु अदुगुछिएसु अगरहितेसु असणं वा 4 फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। 336. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर (आहार ग्रहण योग्य) जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं-उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, बढ़ई-कुल, ग्रामरक्षक कुल या तन्तुवाय-कुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अहित हों, उन कुलों (घरों) से प्रासुक और एषणीय अशनादि चतुविध आहार मिलने पर ग्रहण करे / विवेचन-मिक्षाग्रहण के लिए कुलों का विचार-यद्यपि जैन-श्रमण समतायोगी होता है, जाँति-पाति के भेदभाव, छुआ-छूत, रंग-भेद, सम्प्रदाय-प्रान्तादि भेद में उसका कतई विश्वास नहीं होता, न वह इन भेदों को लेकर राग-द्वेष, मोह-घृणा या उच्च-नीच आदि व्यवहार करता है बल्कि शास्त्रों में जहां साधु के भिक्षाटन का वर्णन आता है, वहां स्पष्ट उल्लेख है-"उच्चनीयमजिसमकुलेसु अडमाणे" (-उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाटन करता हुआ)। यहाँ उच्च,नीच, मध्यम का जाति-वंश परक या रंग-प्रान्त-राष्ट्रादिपरक अर्थ न करके जैनाचार्यों ने 1. टीका पत्र 327 / 2. अन्तकृद्दशा वर्ग 2 तथा अन्य आगम / Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सम्पन्नता-असम्पन्नता परक अर्थ ही किया है। अगर उच्च-नीच या किसी प्रकार का भेदभाव आहार ग्रहण करने के विषय में करना होता तो शास्त्रकार मूलपाठ में नापित, बढ़ई, तन्तुवाय (जुलाहे) आदि के घरों से आहार लेने का विधान न करते, तथा उग्न आदि जिन कुलों का उल्लेख किया है, उनमें से बहुत-से वशे तो आज लुप्त हो चुके हैं, क्षत्रियों में भी हूण, शक, यवन आदि वंश के लोग मिल चुके हैं / इसीलिए शास्त्रकार ने अन्त में यह कह दिया कि इस प्रकार के किसी भी लौकिक जाति या वंश के घर हों, उनसे साधु भिक्षा ग्रहण कर सकता है, बशर्ते कि वह घर निन्दित और घृणित न हो। जुगुप्सित और गहित घर-जुगुप्सा या धृणा उन घरों में होती है, जहाँ खुले आम मांसमछली आदि पकाये जाते हों, मांस के टुकड़े, हड्डियाँ, चमड़ा आदि पड़ा हो, पशुओं या मछलियों आदि का वध किया जाता हो, जिनके यहां बर्तनों में मांस पकता हो, अथवा जिनके बर्तन, घर, आंगन, कपड़े, शरीर आदि अस्वच्छ हो, स्वच्छता के कोई संस्कार जिन घरों में न हों, ऐमे घर, चाहे वे क्षत्रियों या मूलपाठ में बताए गए किसी जाति, वंश के ही क्यों न हों, वे जुगुप्सित और घृणित होने के कारण त्याज्य समझने चाहिए। और गहित-निन्द्य घर वे हैंजहाँ सरे आम व्यभिचार होता हो, वैश्यालय हो, मदिरालय हो, कसाईखाना हो, जिनके आचरण गंदे हों, जो हिंसादि पापकर्म में ही रत हो, ऐसे घर भी शास्त्र में परिगणित जातियों के ही क्यों न हों, भिक्षा के लिए त्याज्य हैं / जुगुप्सित और निन्दित लोगों के घरों में भिक्षा के लिए जाने से भिक्षु को स्वयं घृणा पैदा होगी, संसर्ग से बुद्धि मलिन होगी, आचार-विचार पर भी प्रभाव पड़ना सम्भव है, लोक-निन्दा भी होगी, आहार की शुद्धि भी न रहेगी और धर्मसंघ की बदनामी भी होगी। वृत्तिकार ने अपने युग की छाया में 'अदुगुछिएसु अगर हिएसु' इन दो पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-जुगुप्सित यानी चर्मकार आदि के कुल तथा गहित यानी दास्य आदि के कुल / परन्तु शास्त्रकार की ये दोनों शर्ते शास्त्र में परिगणित प्रत्येक ज्ञाति-वंश के घर के साथ हैं।' उग्गकुलाणि आदि पदों के अर्थ-वृत्तिकार के अनुसार-कुल शब्द का अर्थ यहाँ घर समझना चाहिए, वंश या जाति नहीं। क्योंकि आहार घरों में मिलता है, जाति या वंश में 1. (क) प्रासाद हवेली आदि उच्चभवन द्रव्य से उच्च कुल है, जाति, विद्या, आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन भारतः उच्चकुल है। तृण, कुटी झोंपड़ी आदि द्रव्यतः नीच कुल है, जाति, धन, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भावतः नीच कूल है -दशकालिक सूत्र 5/14 पर हारिभद्रीय टीका 50 166 / (ख) नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में भिक्षा करने वाला भिक्षु जातिवाद को बढ़ावा देता है जातिवाओ य उवहिओ भवति / -~~दशवकालिक सू० अ० 5 उ०२ गा० 25 तथा उस पर जिनदासणि एवं हारिभद्रीय दीका पु० 168-166 / 2. आचासंग मूलपाठ के आधार पर पु० 106 / 3. टीका पत्र 327 के आधार पर / 4. दशवकालिक चूणि में भी यही अर्थ मिलता है 'कुलं सबंधि-समवातो, तवालयो वा सम्बन्धियों का समवाय या घर----कुल कहा जाता है.--अगस्यसिंह पूणि पु० 503 (दश० 5/14) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 337 नहीं। इस दृष्टि से यहाँ जितने भी नाम गिनाए हैं, वे वंशवाचक या ज्ञातिवाचक (प्रायः अपने पेशे से सम्बन्धित जाति संज्ञक) हैं। इस दृष्टि से उन का आरक्षिकवंश, भोग का राजा के पूज्य-पुरोहित, भोक्ता आदि वंश राजन्य का राजा के मित्र स्थानीय वंश, क्षत्रिय का राठौड़ आदि वंश, इक्ष्वाकु का ऋषभदेव स्वामी के वंशज, हरिवंश का हरि-(श्रीकृष्ण, अरिष्टनेमि आदि के) वंशज, एसिय का गोपाल ज्ञाति, वेसिय का वैश्यज्ञातीय वणिक, गण्डक का नापितज्ञातीय, कोट्ठाग का सुथार या बढ़ईजातीय, धोषकसालिय का तन्तुवाय (बुनकर) ज्ञातीय, गामरक्ख का ग्रामरक्षक ज्ञातीय अर्थ वृत्तिकार ने किया है। चूर्णिकार ने कुछ पदों के अर्थ इस प्रकार दिए हैं-एसिय= वणिक, वेसिय= रंगरेज (रंगोपजीवी), गंडाक= ग्राम का आदेशवाहक, कोट्टाग-रथकार / ' प्रासुक और एषणीय का विचार तो सभी घरों में आहार लेते समय करना ही चाहिए। इन्द्रमह आदि उत्सव में अशनादि एषणा ___ 337. से भिक्खू वा 2 जाव अणुपविट्ट समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं पा 4 समवाएसु घा पिंडणियरेस वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रद्दमहेस वा मुगुदमहेसु वा भूतमहेसु वा जखमहेस वा नागमहसु वा थूभम हेसु वा चेतियमहेसु वा स्वरमहस् वा गिरिमहेस वा वरिमहेसु वा अगउमहेस वा तलागमहेस वा दहमहेसु का दिमहेस वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरू वेस महामहंस बट्टमाणेसु बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए एगातो उक्खातो परिएसिज्जमाणे दोहिं जाव संणिहिसंणिचयातो वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा 4 अपरिसंतरगयं जाव णो पडिगाहेज्जा। __ अह पुण एवं जाणेज्जा- दिण्णं जं तेसि दायब्वं, अह तत्थ भजमाणे पेहाए गाहातिभारियं वा गाहानतिििण वा गाहातिपुत्त वा गाहावतिधूयं वा सुण्हं वा धाति वा दासं वा दासि वा कम्मकरं वा कम्मकरि वा से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो त्ति वा भगिणि ति वा दाहिसि मे एत्तो अग्णयरं मोयणजायं ? से सेवं वातस्स 1 असण वा 4 आहट दलएज्जा, तहप्पगारं असणं वा 4 सयं वाणं जाएज्जा, परो वा से देज्जा, फासुयं नाव पडिगाहेज्जा / 1. (क) टीका पत्र 327 / (ख) आचा० चूणि मूलपाठ टि० पृ० 106 / 2. 'वणीमए' के बदले 'वणीमएस' पाठ प्रायः प्रतियों में मिलता है, परन्तु पूर्वापर अनुसन्धान करने पर 'वणीमए' पाठ ही युक्तिसगत प्रतीत होता है। 3. आलोएज्जा का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-आलोएज्जा- आल विज्जा, अर्थात-बोले / वृत्तिकार इसके दो अर्थ करते है-आलोकयेत् पश्येत्, प्रभु प्रभुसन्दिष्ट या ब्रूयात् / मालोकयेत् = देखे, तथा गृहस्वामी को, या गृहपति के सेवक से कहे। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___337. वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज, तथा इन्द्र-महोत्सव, स्कन्ध-महोत्सव, रुद्र महोत्सव, मुकुन्द-महोत्सव, भूत-महोत्सव, यक्ष-महोत्सव, नाग-महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, ह्रद (झील), नदी, सरोवर, सागर या आकर (खान) सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न प्रकार के महोत्सव हो रहे हैं, (उनके उपलक्ष्य में निष्पन्न) अशनादि चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचकों को एक बर्तन में से, दो बर्तनों, तोन बर्तनों या चार बर्तनों में से निकाल कर) परोसा (भोजन कराया) जा रहा है तथा घी, दूध, दही, तैल, गुड़ आदि का संचय भी संकड़े मुंह वाली कुप्पी में से, तथा बांस की टोकरी या पिटारी से परोसा जा रहा है, यह देखकर तथा इस प्रकार का आहार पुरुषान्तरकृत, घर से बाहर निकाला हुआ, दाता द्वारा अधिकृत, परिभुक्त या आसेवित नहीं है तो ऐसे चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ यदि वह यह जाने कि जिनको (जो आहार) देना था, दिया जा चुका है, अब वहाँ गृहस्थ भोजन कर रहे हैं, ऐसा देखकर (आहार के लिए वहां जाए), उस गृहपति की पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्रो या पुत्रवधू, धायमाता, दास या दासी अथवा नौकर या नौकरानी को पहले से ही (भोजन करती हुई) देखे, (तब अवसर देखकर) पूछे-"आयुष्मती भगिनी ! क्या मुझे इस भोजन में से कुछ दोगी? ऐसा कहने पर वह स्वयं अशनादि आहार लाकर साधु को दे अथवा अशनादि चतुर्विध आहार को स्वयं याचना करे या वह गृहस्थ स्वयं दे तो उस आहार को प्रासुक एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे। विवेचन--महोत्सवों में निष्पन्न आहार कब ग्राहा, कच अग्राह्य ?–इस सूत्र में सूत्र 335 की तरह की चर्चा की गई है / अन्तर इतना-सा है कि वहाँ तिथि, पर्व-विशेष में निष्पन्न आहार का निरूपण है, जबकि यहाँ विविध महोत्सवों में निष्पन्न आहार का। यहाँ महोत्सवों में निष्पन्न आहार जिनको देना था, दे चुकने के बाद जब गृहस्थ भोजन कर रहे हों, तब आहार को दाता दे तो ग्राह्य बताया है।' 'समवाएसु' आदि शब्दों के अर्थ-वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं-समवाय का अर्थ मेला है, जनसमूह का एकत्रित मिलन जहाँ हो। पिण्डनिकर का अर्थ है-पितृपिण्ड=मृतकभोज / स्कन्ध कार्तिकेय, रुद्र प्रसिद्ध हैं, मुकुन्द बलदेव, इन सबकी लोक में महिमा-पूजा विशिष्ट समय पर की जाती है। संखडि-गमन निषेध 338. से भिक्खू वा 2 परं अद्ध जोयणमेराए संल्ड संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 1. टीका पत्र 328 के आधार पर। 2. टीका पत्र 328 के आधार पर। 3. किसी-किसी प्रति में 'संडिजच्चा' तथा 'संखड संखडिपडियाए' पाठ है, हमारी आदर्श प्रति में 'णच्चा' पद नहीं है / अर्थात् सखडि को जान कर संखडी की अपेक्षा से जाने की इच्छा न करे। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 338 27 से भिक्खू वा 2 पाईणं संल्ड णच्चा पडोणं गच्छे अणादायमाणे, पडीणं संडि गच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संडि गच्चा उदीणं गच्छे अणादायमाणे, उदीणं संडि पच्चा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे / जत्थेव सा संखडी सिया, तंजहा-गामंसि वाणगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टसि वा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा आसमंसि वा संणिवेसंसि वा जाव रायहाणिसि वा संांड संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। केवली बूया-आयाणमेतं' / सखांड संखडिपडियाए अभिसंधारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीसज्जायं वा कीयगडं वा पामिच्चं वा अच्छेज्जं वा अणिसट्ठ वा अभिहडं वा आहट्ट दिज्जमाणं भुंजेज्जा, अस्संजते भिवखुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ' महल्लियाओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियाओ कुज्जा, समाओ सेज्जाओ विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सेज्जाओ समाओ कुज्जा; पवाताओ सेज्जाओ णिवायाओ कुज्जा, णिवायाओ सेज्जाओ पवाताओ कुज्जा, अंतो वा बहि वा कुज्जा उवरसयस्स हरियाणि छिदिय 2 दालियों संथारगं संथारेज्जा, एस खलु भगवया मीसज्जाए अक्खाए। तम्हा से संजते णियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंर्खाड वा संांड संखोडपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 338. संखडि (बृहद् भोज) में आहारार्थ जाने का निषेध-वह भिक्षु या भिक्षुणी अर्ध योजन 1. इसके बदले किसी-किसी प्रति में 'आययणमेय' पाठ है। अर्थात् यह दोषों का आयतन-स्थान है। 2. यहाँ 'अस्संजए' के बदले 'अस्संजए स भिवखु' पाठन्तर भी है / अर्थ होता है-वह भिक्षु असंयमी है / 3. "खुड्डियाओ दुवारियाओ"..."आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है-"खुड्डियाओ दुवारियातो मह०" प्रकाश-प्रवात-अवकाशार्थं बहुयाण, 'महल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डियाओ' सुसंगुप्तणिवातार्थ थोवाण""। अंतो वा बाहि वा हरिया छिदिय छिदिया दालिय त्ति कुसा खरा पित्ता संथरंति / " अर्थात्-छोटे दरवाजे बड़े करवाएगा-अधिक प्रकाश, हवा, और अधिक लोगों के समावेश के लिए। अथवा बड़े दरवाजे छोटे करवाएमा / मकान को अच्छी तरह सुरक्षित एव निर्वात (बंद) बनाने तथा सीमित लोगों के निवास के लिए (उपाश्रय) (साधु के लिए बनाए गए वासस्थान) के अन्दर या बाहर उगी हई हरियाली को काट-काटकर तथा कूशों को उखाडकर, खरदरी जमीन कूट-पीटकर सम बनाएगा उस पर साधु का आसन (तस्त, पाट या अन्य आसन) लगाएगा। 4. यहाँ 2' का अंक पुनरुक्ति का सूचक है। 5. इसके बदले 1. "एस विलुगयायो सिज्जाए (सज्जाए)२. एस बिलुगगयामो मीसज्जाए-३. एस खलु भगवया मो मीसज्जाए; 4. एस खलू भगवया सेज्जाए अक्खाए" आदि पाठान्तर है। अर्थ इस प्रकार हैं (1) यह साधु अकिंचन होने के कारण वासस्थान का संस्कार कर न सकेगा, अतः मुझे ही कराना होगा। (2) तिग्रन्थ अकिंचन है, इस कारण वह गृहस्थ या कारणवश वह साधु स्वयं संस्कार कराएगा। (3) भगवान् ने इसे मिश्रजात दोष कहा है। (4) यह सब भगवान् ने शय्यैषणा नामक अध्ययन में कहा है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध की सीमा से पर (आगे-दूर) संखडि (बड़ा जीमनवार-बृहत्भोज) हो रही है, यह जानकर संखडि में निष्पन्न आहार लेने के निमित्त से जाने का विचार न करे। यदि भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि पूर्व दिशा में संखडि हो रही है, तो वह उसके प्रति अनादर (उपेक्षा) भाव रखते हुए पश्चिम दिशा को चला जाए। यदि पश्चिम दिशा में संखडि जाने तो उसके प्रति अनादर भाव से पूर्व दिशा में चला जाए। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में संखडि जाने तो उसके प्रति अनादरभाव रखकर उत्तर दिशा में चला जाए और उत्तर दिशा में संखडि होती जाने तो उसके प्रति अनादर बताता हुआ दक्षिण दिशा में चला जाए। संखडि (बृहत् भोज) जहाँ भी हो, जैसे कि गांव में हो, नगर में हो, खेड़े में हो, कुनगर में हो, मडंब में हो, पट्टन में हो, द्रोणमुख (बन्दरगाह) में हो, आकर-(खान) में हो, आश्रम में हो, सन्निवेश (मौहल्ले) में हो, यावत् (यहाँ तक कि) राजधानी में हो, इनमें से कहीं भी संखडि जाने तो संखडि (से स्वादिष्ट आहार लाने) के निमित्त से मन में संकल्प (प्रतिज्ञा) लेकर न जाए। केवल ज्ञानी भगवान् कहते हैं-यह कर्मबन्धन का स्थान-कारण है / / संखडि में संखडि (-में निष्पन्न बढ़िया भोजन लाने) के संकल्प से जाने वाले भिक्षु को आधार्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रोतकृत, प्रामित्य, बलात् छीना हुआ, दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ या सम्मुख लाकर दिया हुआ आहार सेवन करना होगा। क्योंकि कोई भावुक गृहस्थ (असंयत) भिक्षु के संखडी में पधारने की सम्भावना से छोटे द्वार को बड़ा बनाएगा, बड़े द्वार को छोटा बनाएगा, विषम वासस्थान को सम बनाएगा तथा सम वासस्थान को विषम बनाएगा। इसी प्रकार अधिक वातयुक्त वास स्थान को निर्वात बनाएगा या निर्वात वास-स्थान को अधिक वातयुक्त (हवादार) बनाएगा। वह भिक्षु के निवास के लिए उपाश्रय के अन्दर और बाहर (उगी हई) हरियाली को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़ कर वहाँ संस्तारक (आसन) बिछाएगा। इस प्रकार (वास स्थान के आरम्भयक्त संस्कार की सम्भावना के कारण) संखडि में जाने को भगवान् ने मिश्रजात दोष बताया है। इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार नामकरण, विवाह आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्व मंखडि (प्रीतिभोज) अथवा मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात्-संखडि (मृतक-भोज) को (अनेक दोषयुक्त) संखडि जान कर संखडि (–में निष्पन्न आहार-लाभ) की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे। विवेचन--संखडि को परिभाषा-'संखडि' एक पारिभाषिक शब्द है / "संझण्ड्यन्तेविराज्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडिः," जिसमें आरम्भ-समारम्भ के कारण प्राणियों की विराधना होती है, उसे संखडि कहते हैं, यह उसकी व्युत्पत्ति है।' भोज आदि में अन्न का विविध रीतियों 1. (क) आवा० टीका पत्र 328 / (ख) इसी प्रकार का अर्थ दशवै० 7 // 36 को जिनदासचूणि पृ० 257 तथा हारिभद्रीय टीका पृ० 219 पर किया गया है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 335 26 से संस्कार किया जाता है, इसलिए भी इसे 'संस्कृति' (संखडि) कहा जाता होगा / वर्तमानयुगभाषा में इसे 'बृहभोज' (जिसमें प्रीतिभोज आदि भी समाविष्ट हैं) कहते हैं। राजस्थान में इसे 'जीमनवार' कहते हैं / इसे दावत या गोठ भी कहते हैं / संखडि में जाने का निषेध और उपेक्षा भाव क्यों ?--संखडि में जाने से निम्नोक्त दोष लगने की सम्भावना है (1) जिह्वालोलुपता। (2) स्वादलोलुपतावश अत्यधिक आहार लाने का लोभ / (3) अति मात्रा में स्वादिष्ट भोजन करने से स्वास्थ्य हानि, प्रमाद-वृद्धि, स्वाध्याय का क्रमभंग / (4) जनता की भीड़ में धक्का मुक्की, स्त्री संघट्टा (स्पर्श) एवं मुनि वेश की अवहेलना। (5) जनता में साधु के प्रति अश्रद्धा भाव बढ़ने की सम्भावना आदि / श्रद्धालु गृहस्थ को पता लग जाने पर कि अमुक साधु यहाँ प्रीतिभोज के अवसर पर पधार रहे हैं, मुझे उन्हें किसी भी मूल्य पर आहार देना है, यह सोचकर वह उनके उद्देश्य से खाद्य-सामग्री तैयार कराएगा, खरीद कर लाएगा, उधार लाएगा, किसी से जबरन छीनकर लाएगा, दूसरे की चीज को अपने कब्जे में करके देगा, घर से सामान तैयार करा कर साधु के वास स्थान पर लाकर देगा; इत्यादि अनेक दोषों की पूरी सम्भावना रहती है। इसके सिवाय कई बृहत् भोज पूरे दिन रात या दो तीन दिन तक चलते हैं, इसलिए गृहस्थ अपने पूज्य साधु को उसमें पधारने के लिए आग्रह करता है, अथवा गृहस्थ को पता लग जाता है कि पूज्य साधु पधारने वाले हैं तो वह उनके ठहरने के लिए अलग से प्रबन्ध करेगा, ताकि वह स्थान गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क से रहित, विविक्त एवं साधु के निवास योग्य बन जाए। इसके लिए वह गृहस्थ उस मकान को विविध प्रकार से तुड़ा-फुड़ा कर मरम्मत कराएगा, रंग-रोगन करवाएगा, वहाँ फर्श पर उगी हुयी हरी घास आदि को उखड़वाकर उसको संस्कारित कराएगा, सजाएगा, इन दोषों का उल्लेख मूलपाठ में किया गया है। जिस संखडि में जाने के पीछे इतने दोषों की सम्भावना हो, उस संखडि में सुविहित साधु कैसे जा सकता है ? इसीलिए कहा गया है-'केवलोवूया-आयाणमेयं' केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं-यह (-संखडि में गमन) आदान--कर्मबन्ध का कारण (आस्रव) है, अथवा दोषों का मायतन-स्थान है। यही कारण है कि साधु के लिए ऐसे बृहद्भोजों को टालने और उसके प्रति उपेक्षा बताकर उस स्थान से विपरीत दिशा में विहार कर देने तथा आधे योजन दो कोस तक में भी कहीं ऐसे विशेष भोज का नाम सुनते ही साधु उधर जाने का विचार बदल देने का विधान है। कारण यह है कि अगर वह उधर जाएगा या संखडिस्थल के पास से होकर निकलेगा तो बहुत सम्भव है, भावुक गृहस्थ उस साधु को अत्याग्रह करके संखडि में ले जाएगा, और तब वे ही पूर्वोक्त दोष लगने की संभावना होगी इसलिए दूर से ऐसे बृहत् भोजों से बचने का निर्देश किया गया है।' 1. टीका पत्र 328-326 के आधार पर / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 336. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं जं सवठेहि समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि। // बीओ उद्देसओ समत्तो / 336. निष्कर्ष और निर्देश-यह (संखडिविवर्जन रूप पिण्डषणा विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी (के भिक्षु भाव) की समग्रता-सम्पूर्णता है कि वह समस्त पदार्थों में संयत या समित व ज्ञानादि सहित होकर सदा प्रयत्नशील रहे।' -~- ऐसा मैं कहता.हूँ। // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक संखडि-गमन में विविध दोष 340. से एगतिओ अण्णतरं संखोंड असित्ता पिबित्ता छड्डेज्ज' वा, 6 मेज्ज का, भुत्ते वा से णो सम्म परिणमेज्जा, अण्णतरे वा से दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा / केवली बूया-आयाणमेतं। इह खलु भिक्खू गाहावतीहिं वा गाहावतीणोहिं वा परिवायएहि वा परिवाइयाहि वा एगझं सद्धि सोंड पाउं भो वतिमिस्सं हुरत्था वा उत्स्सयं पडिलेहमाणे णो लभेज्जा तमेव उस्सयं सम्मिस्सीभावमावज्जेज्जा, अण्णमणे वा से मत विपरियासियभूते' इथिविग्ग हे या किलीबे वा, तं भिक्षु उवसंकमित्त, बूया-आउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे 1. इसका विवेचन प्रथम उद्देशकवत् समझ लेना चाहिए। 2. 'छडडेज्ज वा बमेज्ज बा' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-छड्डी वोसिरावणिता, वमणं वमणमेव / 3. इसकी व्याख्या चूर्णिकार के शब्दों में--परिवाया कावालियमादी, परिवातियाओ तेसिं चेव भोतियो वासु गिम्हगमादीसु संखडीसु पिबंति, अगारीओ वि माहिस्सरमालवग-उज्जेणीसु एमज्झं एगवत्ता एग. चित्ता वा सद्ध मिलित्ता वा सोंड विगडं चेव पिबंति, पादुः प्रकाशने प्रकाशं पिबति / अर्थात्-परिव्राजक कापालिक आदि और परिब्राजिकाएँ उन्हीं की होती हैं। वे सब वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओं में होने वाले संखडियों में मद्य पीती हैं / पादुः प्रकाशन अर्थ में है। यानि प्रगट में पीते हैं। गृहस्थ पलियाँ भी माहेश्वर, मालवा उज्जयिनी आदि में एकचित्त, एक वाक्य होकर साथ में मिलकर मदिरा (विकट) पीती हैं। 4. अण्णमणे की व्याख्या चूर्णिकार करते हैं-अण्णमणो णाम ण संजसमणो अन्यमना का अर्थ है, जो संयतमना न हो। 5. 'विपरियासियभूते' के बदले चूर्णिकार 'विप्परियासभूतो' पाठ मानकर व्याख्या करते हैं-'विप्परिया सभूतो णाम अचेतो'-विपरियासभूतो का मतलब है-- अचेत-मूछित, बेभान Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 336-340 उवस्सयंसि वा रातो वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं' कटु रहस्सियं मेहुणधम्मपवियारणाए' आउट्टामो / तं चेगइओ सातिज्जेज्जा। ___ अकरणिज्जं चेतं संखाए, एते आयाणा संति संचिज्जमाणा पच्चवाया भवंति / तम्हा से संजए णियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंडि वा संर्खाड संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। __ 340. कदाचित् भिक्ष अथवा अकेला साधु किसी संखडि (बृहत् भोज) में पहुंचेगा तो वहाँ अधिक सरस आहार एवं पेय खाने-पीने से उसे दस्त लग सकता है, या वमन (कै) हो सकता है अथवा वह आहार भलीभांति पचेगा नहीं (हजम न होगा); फलतः (विशूचिका, ज्वर या शूलादि) कोई भयंकर दुःख या रोगातंक पैदा हो सकता है। इसीलिए केवली भगवान् ने कहा--'यह (संखडि में गमन) कर्मों का उपादान कारण है। इसमें (संखडि स्थान में या इसी जन्म में) (ये भयस्थल हैं)–यहां भिक्षु गृहस्थों के गृहस्थपत्नियों अथव परिव्राजक-परिवाजिकाओं के साथ एकचित्त व एकत्रित होकर नशीला पेय पीकर (नशे में भान भूलकर) बाहर निकल कर उपाश्रय (वास-स्थान) ढूंढ़ने लगेगा, जब' वह नहीं मिलेगा, तब उसी (पान-स्थल) को उपाश्रय समझकर गृहस्थ स्त्री-पुरुषों व परिव्राजक परिव्राजिकाओं के साथ ही ठहर जाएगा। उनके साथ घुलमिल जाएगा ! वे गृहस्थ-गृहस्थपत्नियां आदि (नशे में) मत्त एवं अन्यमनस्क होकर अपने आपको भूल जाएंगे, साधु अपने को भूल जाएगा। अपने को भूलकर वह स्त्री शरीर पर या नपुंसक पर आसक्त हो जाएगा। अथवा स्त्रियाँ या नपुंसक उस भिक्षु के पास आकर कहेंगे-आयुष्मन् श्रमण ! किसी बगीचे या उपाश्रय में रात को या विकाल में एकान्त में मिलें / फिर कहेंगे-ग्राम के निकट किसी गुप्त, प्रच्छन्न, एकान्तस्थान में हम मैथुन-सेवन किया करेंगे। उस प्रार्थना को कोई एकाकी अनभिज्ञ साधु स्वीकार भी कर सकता है। 1. गामधम्मणियंतियं के बदले चूर्णिकार 'गामणियंतियं कण्हुई रहस्सितं' पाठ मानकर व्याख्या करते हैं गाणियंतियं गाममन्भासं कण्हुइ रहस्सित कम्हिति रहस्से उच्छुअक्खा वा अन्नतरे वा पच्छण्णे, मिहु रहस्से सहयोगे च, पतियरण पवियारणा (पवियारणाए) आउट्टामो-कुर्वीमो।"--गामणियतिय-यानी ग्राम के निकट किसी एकान्त स्थान में, इक्षु के खेत में या किसी प्रच्छन्न स्थान में / मिह का अर्थ है- रहस्य या सहयोग, प्रविचारणा-मैथुन सेवन, आउट्टामो; करेंगे। 2. चर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-'पतियरण पवियारणा अर्थात-प्रतिचरण=(मैथुन सेवन) प्रविचारणा 3. चेगइओ के बदले किसी-किसी प्रति में चेगाणिओ, एगतीयो पाठान्तर है। अर्थ समान है। 4. 'आयाणा' के बदले पाठान्तर मिलता--आयाणाणि आयतणाणि आदि / अथ में अन्तर है, प्रथम का ___ अर्थ है कर्मों का आदान (ग्रहण) तथा द्वितीय का अर्थ है-दोषों का आयतन स्थान है। संचिजमाणा के बदले किसी-किसी प्रति में संविज्जमाणा तथा संधिज्जमाण है, अर्थ क्रमश: हैसंवेदन (अनुभव) किये जाने वाले, कर्म पुद्गलों को अधिकाधिक धारण करने वाले / Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध यह (साधु के लिए सर्वथा) अकरणीय है यह जानकर (संखडि में न जाए) / संखडि में जाना कर्मों के आस्रव का कारण है, अथवा दोषों का आयतन (स्थान) है। इसमें जाने से कर्मों का संचय बढ़ता जाता है। पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ पूर्व-संखडि या पश्चात्-संखडि को संयम खण्डित करने वाली जानकर संखडि की अपेक्षा से उसमें जाने का विचार भी न करे। ___ 341. से भिवखू वा 2 अण्णतरं संखडि सोच्चा णिसम्म संपहावति' उस्सुयभूतेणं अप्पाणेणं, धुवा संखडी / णो संचाएति तस्थ इतराइतरेहि कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवातं पडिगाहेत्ता आहारं आहारत्तए / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तस्थितराइतरेहिं कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवातं पडिगाहेत्ता आहारं आहारज्जा। 341. वह भिक्षु या भिक्षुणी पूर्व-संखडि या पश्चात्-संखडि में से किसी एक के विषय में सुनकर मन में विचार करके स्वयं बहुत उत्सुक मन से (संखडिवाले गांव की ओर) जल्दीजल्दी जाता है / क्योंकि वहाँ निश्चित्त ही संखडि है। [मुझे गांव में भिक्षार्थ भ्रमण करते देख 'संखडि वाला अवश्य ही आहार के लिए प्रार्थना करेगा, इस आशय से] वह भिक्षु उस संखडि वाले ग्राम में संखडि से रहित दूसरे-दूसरे घरों से एषणीय तथा रजोहरणादि वेश से लब्ध उत्पादनादि दोषरहित भिक्षा से प्राप्त आहार को ग्रहण करके वहीं उसका उपभोग नहीं कर सकेगा। क्योंकि वह संखडि के भोजन-पानी के लिए लालायित है / (ऐसी स्थिति में) वह भिक्ष मातृस्थान (कपट) का स्पर्श करता है / अतः साधु ऐसा कार्य न करे। वह भिक्षु उस संखडि वाले ग्राम में अक्सर देखकर प्रवेश करे, संखडि वाले घर के सिवाय दूसरे-दूसरे घरों से सामुदायिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय तथा केवल वेष से प्राप्तधात्रीपिण्नादि दोषरहित पिण्डपात (आहार) को ग्रहण करके उसका सेवन कर ले। 342. से भिक्खु वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा गाम वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखडी सिया, तं पियाई गामं वा जाव रायहाणि वा संखडि संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। / केवलो बूया-आयाणमेतं / 1. किसी किसी प्रति में इसके बदले 'परिहावइ' पाठ है। अर्थ समान है / चूर्णिकार ने अर्थ किया है 'समन्ततो धावति, चारों ओर दौड़ता है। 2. इसका अर्थ चूर्णिकार करते हैं-~-इतराइतराई- उच्चणीयाणि अर्थात दूसरे उच्चनीच कूल / 3. इसका अर्थ चूर्णि में किया गया है-- समुदाणजातं सामुदाणियं / समुदान-भिक्षा से निष्पन्न सामु दायिक है। 4-5 यहाँ जाब शब्द सूत्र 328 में अंकित समग्र पाठ का सूचक है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 342 33 आइण्णोमाणं' संडि अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्कंतपुड्वे भवति, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुटवे भवति, पाएण वा पाए आवडियपुटवे भवति, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुटवे भवति, काएण वा काए संखोभितपुव्वे भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहतपुव्वे भवति, सीतोदएण वा ओसित्तपुध्वे भवति, रयसा वा परिघासितपुत्वे भवति, अणेसणिज्जे वा परिभुत्तपुत्वे भवति, अण्णेसि वा दिज्जमाणे पडिगाहितपुटवे भवलि, तम्हा से संजते णियंठे तहप्पगारं आइण्णोमाणं संडि संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 342. वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि अमुक गाँव, नगर यावत् राजधानी में संखडि हैं / जिस गाँव यावत् राजधानी में संखडि अवश्य होने वाली है तो संखडि को (संयम को खण्डित करने वाली जानकर) उस गाँव यावत् राजधानी में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार भी न करे। केवली भगवान् कहते हैं-यह अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण है। चरकादि भिक्षाचरों की भीड़ से भरी-आकीर्ण-और हीन-अवमा(थोड़े-से लोगों के लिए जिसमें भोजन बनाया गया हो और बहुत लोग इकट्ठे हो जाएं ऐसी) संखडि में प्रविष्ट होने से (निम्नोक्त दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है-) सर्वप्रथम पैर से पैर-टकराएंगे; या हाथ से हाथ संचालित होंगे (धकियाये जायेंगे); पात्र से पात्र रगड़ खाएगा सिर से सिर का स्पर्श होकर टकराएगा अथवा शरीर से शरीर का संघर्षण होगा, (ऐसा होने पर) डण्डे, हड्डी, मुट्ठी, ढेला-पत्थर या खप्पर से एक दूसरे पर प्रहार होना भी सम्भव है / (इसके अतिरिक्त) के परस्पर सचित्त, ठण्डा पानी भी छींट सकते हैं, सचित्त मिट्टी भी फेंक सकते हैं। वहाँ (याचकों की संख्या अत्यधिक होने के कारण) अनैषणीय आहार का भी उपभोग करना पड़ सकता है, तथा दूसरों को दिए जाने वाले आहार को बीच में से (झपटकर) लेना भी पड़ सकता है। इसलिए वह संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार की जनाकीर्ण एवं हीन संखडि में संखडि के संकल्प से जाने का बिलकुल विचार न करे। विवेचन-संखडि में जाना : दोषों का घर--सूत्र 340 से सूत्र 342 तक में संखडि (बृहत्भोज), फिर वह चाहे विवाहादि के उपलक्ष्य में पूर्व संखडि हो, मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात् संखडि हो, वह कितनी हानिकारक है, दोषवर्द्धक है, यह स्पष्ट बता दिया गया है। इन्हें देखते हुए शास्त्रकार का स्वर प्रत्येक सूत्र में मुखरित हुआ है कि संखडि में निष्पन्न सरस 1. 'आइण्णोमाणं' के बदले 'आइण्णोऽयमाणं', 'आइग्णावमाण', 'आइन्नामाणं ये पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है / चूर्णिकार ने इन दोनों पदों की व्याख्या की है-आइण्णा चरमादीहि ओमाणंसतस्स भत्ते कते सहस्सं आगतं णाऊण माणं ओमाणं अर्थात-चरक आदि भिक्षाचरों से आकीर्ण का नाम आकीर्णा हैं तथा सौ के लिए भोजन बनाया गया था, किन्तु भोजनार्थी एक हजार आ गए, जानकर जिसमें भोजन कम पड़ गया, उसे 'अवमाना' संखडि कहते हैं। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्वादिष्ट भोजन-पानी की आशा म वहाँ जाने का साधु-साध्वी कतई विचार न करे / बारबार पुनरावृत्ति करके भी शास्त्रकार ने इस बात को जोर देकर कहा है-केवली भगवान् ने कहा है-“यह दोषों का आयतन है या कर्मों के बन्ध के कारण है।" ऐसे बहत्भोज में जाने से साधु की साधना की प्रतिष्ठा गिर जाती है, इसका स्पष्ट चित्र शास्त्रकार ने खोलकर रख दिया है।' छड्डे वा वमेज्म वा–ये दोनों क्रिया पद एकार्थक लगते हैं / किन्तु चूर्णिकार ने इन दोनों पदों का अन्तर बताया है कि कुजल क्रिया द्वारा या रेचन क्रिया द्वारा उमे निकालेगा या वमन करेगा / बृहत् भोज में भक्तों की अधिक मनुहार और अपनी स्वाद-लोलुपता के कारण अति मात्रा में किये जाने वाले स्वादिष्ट भोजन के ये परिणाम हैं। __ आयानं या आययणं ? केवली भगवान् कहते हैं-यह 'आदान' है, पाठान्तर 'आयय' होने से 'आयतन' है—ऐसा अर्थ भी निकलता है / वृत्तिकार ने दोनों ही पदों की व्याख्या यों की है -कर्मों का आदान (उपादान कारण ) है, अथवा दोषों का आयतन (स्थान) है।' संचिज्जमागा पन्चवाया-वृत्तिकार ने इस वाक्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है(१) रस-लोलुपतावश वमन, विरेचन, अपाचन, भयंकर रोग आदि की सम्भावना, (2) संखडि में मद्यपान से मत्त साधु द्वारा अब्रह्मचर्य सेवन जैसे कुकृत्य की पराकाष्ठा तक पहुँचने की सम्भावना। इन दोनों भयंकर दोषों के अतिरिक्त अन्य अनेक कर्मसंचयजनक (प्रत्यपाय) दोष या संयम में विघ्न उत्पन्न हो सकते हैं / 'संविजमाण' पाठान्तर होने से इसका अर्थ हो जाता है--'अनुभव किये जाने वाले दोष या विघ्न होते हैं।' 'गामघम्म नियंतियं कट्ट.......'- इस पंक्ति का भावार्थ यह है कि "पहले मैथुन सेवन का वादा (निमन्त्रण) किसी उपाश्रय या बगीचे में करके फिर रात्रि समय में या विकाल-वेला में किसी एकान्त स्थान में गुप्त रूप से मैथुन सेवन करने में प्रवृत्त होंगे।" तात्पर्य यह है कि संखडि में गृहस्थ स्त्रियों या परिवाजिकाओं का खुला सम्पर्क उस दिन के लिए ही नहीं, सदा के लिए अनिष्ट एवं पतन का मार्ग खोल देता है। चूर्णिकार ‘गामनियंतियं पाठ मानकर अर्थ करते हैं-ग्राम के निकट किसी एकान्त स्थान में। संखडिस्थल में विभिन्न लोगों का जमघट इस शास्त्रीय वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ ऐसे बृहत् भोज होते थे, वहाँ उस गृहस्थ के रिश्तेदार स्त्री-पुरुषों के अतिरिक्त परिव्राजकपरिव्राजिकाओं को भी ठहराया जाता था, अपने पूज्य साधुओं को भी वहां ठहराने का खास प्रबन्ध किया जाता था। चूर्णिकार का मत है कि परिव्राजक-कापालिक आदि तथा कापालिकों 1. आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ पत्र 330 के आधार पर / 2. आचारांग चूर्णि, आचा० मू० पा० टि• पृ० 112 / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 331-332 / 4. टीका पत्र 330 / 5. (क) टीका पत्र 330 / (ख) आचा० 0 मू० पाटि पृष्ठ 112 / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 343 की परिवाजिकाएं वर्षा और ग्रीष्म ऋतु आदि में होने वाले बृहत्भोजों में सम्मिलित होकर मद्य पीते थे; माहेश्वर, मालव और उज्जयिनी आदि प्रदेशों में गृहस्थपत्नियां भी एकचित्त और एकवाक्य होकर सब मिलकर एक साथ मद्य पीती थीं और प्रकट में पीती थीं। इससे स्पष्ट है कि वहाँ मद्य का दौर चलता था, उसमें साधु भी लपेट में आ जाय तो क्या आश्चर्य ! फिर जो अनर्थ होता है, उसे कहने की आवश्यकता नहीं / यही कहा गया है / "एगझं सदि सो पाउं........" एकध्य का अर्थ है-एकचित्त सोंड का अर्थ है-मद्य -- विकट / पाउं का अर्थ है-पीने के लिए 'वतिमिस्स' का अर्थ है-परस्पर मिल जाएंगे।' ___'उवस्सय' शब्द यहां साधुओं के ठहरने के नियत मकान के अर्थ में नहीं है, किन्तु उस सामान्य स्थान को भी उपाश्रय कह दिया जाता था, जहाँ साधु ठहर जाता था।' 'सासिज्जेज्जा' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने किया है--स्वीकार कर ले। 'संपहावइ' का अर्थ वैसे तो 'दौड़ना' है किन्तु वृत्तिकार प्रसंगवश इस वाक्य की व्याख्या करते हैं—“किसी कारणवश साधु संखडि का नाम सुनते ही स्थल के अभिमुख इतने अत्यन्त उत्सुक मन से शीघ्र-शीघ्र चलता है कि मेरे लिए वहाँ अद्भुत खाद्य पदार्थ होंगे, क्योंकि वहाँ निश्चय ही संखडि है। 'माइट्ठाणं संफासे' का अर्थ 'मातृस्थान का स्पर्श करना है' / मातृ स्थान का अर्थ है-- कपट या कपटयुक्त वचन। इससे सम्बन्धित तथा माया का कारण बताने वाले मूलपाठ का आशय यह है कि वह साधु संखडि वाले ग्राम में आया तो है--संखडि-निष्पन्न आहार लेने, किन्तु सीधा संखडिस्थल पर न जाकर उस गाँव में अन्यान्य घरों से थोड़ी-सी भिक्षा ग्रहण करके पात्र खाली करने के लिए उसी गाँव में कहीं बैठकर वह आहार कर लेता है, ताकि खाली पात्र देखकर संखडि वाला गृहपति भी आहार के लिए विनती करेगा तो इन पात्रों में भर लंगा।" इसी भावना को लक्ष्य में रखकर यहां कहा गया है कि ऐसा साधु माया का सेवन करता है। अतः संखडिवाले ग्राम में अन्यान्य घरों से प्राप्त आहार को वहीं करना उचित नहीं है। इहलोकिक-पारलौकिक हानियों के खतरों के कारण साध संखडि वाले ग्राम में न जाए, यही उचित है। ___ 'सामुदाणियं एसियं वेसियं पिउवात....' इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि कदाचित् विहार करते हुए संखडि वाला ग्राम बीच में पड़ता हो और वहाँ ठहरे बिना कोई चारा न हो तो संखडि वाले घर को छोड़कर अन्य घरों से सामुदानिक भिक्षा से आहार ग्रहण करके सेवन करे / सामुदानिक आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है-सामुदाणियं-भक्ष्य, एसियं =आधा 1. आचारांग चूणि, आचा० मू० पा० टि० पृ० 112 / 2. टीका पत्र 330 // 3. टोका पत्र 630 / 4. मातिटठाणं विवज्ज जा---मायाप्रधानंवचोविवर्जयेत्---सूत्रकृत् 1/4/25 शीलांकवृत्ति Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध कर्मादि-दोषरहित एषणीय, वेसियं केवल रजोहरणादि वेष के कारण प्राप्त, उत्पादनादि दोषरहित पिंडवातं=आहार / ' ____ संखडि में जाने से गौरव-हानि-संखडि में जाने से साधु की कितनी गौरवहानि होती है ? इसका निरूपण सूत्र 342 में स्पष्टतया किया गया है / ऐसी संखडि के दो विशेषण प्रस्तुत किए गए है- "आकीर्णा और अवमा।" अकीर्णा वह संखडि होती है, जिसमें भिखारियों की अत्यधिक भीड़ हो, और 'अवमा' वह संखडि होती है, जिसमें आहार थोड़ा बनाया गया है, किन्तु याचक अधिक आ गए हों। इन दोनों प्रकार की संखडियों के कारण संखडि से आहार लेने में बाह्य और आन्तरिक-दोनों प्रकार का संघर्ष होता है / बाह्य संघर्ष तो अंगों की परस्पर टक्कर के कारण होता है, परस्पर जमकर मुठभेड़ होती है, एक दूसरे पर प्रहार आदि भी हो सकते हैं। और आन्तरिक संघर्ष होता है-परस्पर विद्वेष, घृणा, अश्रद्धा एवं सम्मानहानि। इससे साधुत्व की गौरवहानि के अतिरिक्त लोकश्रद्धा भी समाप्त हो जाती है / आहार ग्रहण के समय तू-तू-मैं-मैं होती है। हर एक भिक्षाचर एक दूसरे के बीच में ही झपटकर पहले स्वयं आहार ले लेना चाहता है। संखडि वाला गृहपति देखता है कि मेरे इस प्रसंग को लेकर ही इतने सारे लोग आ गए हैं तो इन सबको मुझे जैसे-तैसे आहार देना ही पड़ेगा। अतः वह उन सबको देने के लिए पुन: आहार बनवाता है, इस प्रकार से निष्पन्न आहार आधाकर्मादि दोष से दूषित होता है, वह अनैषणीय आहार उक्त निर्ग्रन्थ भिक्षु को भी लेना पड़ता है। खाना भी पड़ता है। अक्कन्तपुब्वे आदि शब्दों की व्याख्या दृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है-अक्कन्तपुव्वे -~-परस्पर आक्रान्त होना-पैर से पैर टकराना, दब जाना या ठोकर लगना, संचालियपुग्वेएक दूसरे पर हाथ चलाना, धक्का देना, आवडियपुग्वे पात्र से पात्र टकराना, रगड़ खाना, संघट्टियपुवे-सिर से सिर का स्पर्श होकर टकराना, संखोमितपुब्वे-शरीर से शरीर का संघर्षण होना, अभिहतपुष्वे-परस्पर प्रहार करना, परिघासितपुम्वे-परस्पर धूल उछालना, ओसिसपुग्वे-परस्पर सचित्त पानी छोंटना / परिमृत्तपुग्वे-पहले स्वयं आहार का उपभोग कर लेना, पडिगाहितपुश्वे-पहले स्वयं आहार ग्रहण कर लेना। अट्ठीण--हड्डियों का, मुट्ठीण मुक्कों का, लेलुणा-ढेले से या पत्थर से, कवालेण-खप्पर से, ठीकरे से (विग्रह करना)।' शंका-प्रस्त-आहार-निषेध 343. से भिक्खू वा 2 जाव पविढे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 'एसणिज्जे सिया, अणेसणिज्जे सिया' / वितिगिछसमावण्णेण अप्पाणेण असमाहडाए लेस्साए तहप्पगारं असणं वा 4 लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 2. टीका पत्र 331 / 1. पत्र 331 के आधार पर। 3. टीका पत्र 331 / . Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 343-345 343. गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि यह आहार एषणीय है या अनैषणीय ? यदि उसका चित्त (इस प्रकार की) विचिकित्सा (आशंका) से युक्त हो, उसकी लेश्या (चित्तवृत्ति) अशुद्ध आहार की हो रही हो, तो वैसे (शंकास्पद) आहार के मिलने पर भी ग्रहण न करे। विवेचन शंकास्पद आहार लेने का निषेध-इस सूत्र में यह बताया गया है-साधु के मन में ऐसी शंका पैदा हो जाए कि पता नहीं यह आहार एषणीय है या अनेषणीय ? तथा उसके अन्तःकरण की वृत्ति (लेश्या) से भी यही आवाज उठती हो कि यह आहार अशुद्ध है, ऐसी शंकाकुलस्थिति में 'जं संके तं समावज्जे' इस न्याय से उस आहार को न लेना ही उचित है।' _ वितिगिछ समावन्नेण' आदि पदों के अर्थ वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है--विचिकित्सा का अर्थ है-जुगुप्सा या अनैषणीय की आशंका, उससे ग्रस्त आत्मा से / असमाहडाए लेसाए का अर्थ है--अशुद्ध लेश्या से यानी यह आहार उद्गमादि दोष से दूषित है, इस प्रकार को चित्तविलुप्ति से अशुद्ध अन्तःकरण रूप लेश्या उत्पन्न होती है। भंडोपकरण सहित-गमनागमन 344. [1] से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं पविसित्त कामे सव्वं भंडगमायाए गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए पविसेज्ज का णिक्खमेज्ज वा। [2]. से भिक्खू वा 2 बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा णिक्खममाणे वा पविस्स माणे वा सव्वं भंडगमायाए बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा गिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज [3] से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइज्जेजा। 345. से भिक्खू वा 2 अह पुण एवं जाणेज्जा, तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए, तिव्वदेसियं वा महियं संणिवदमाणि पेहाए, महावारण वा रयं समुद्धतं पेहाए, तिरिच्छं संपातिमा वा तसा पाणा संथडा संणिवतमाणा पेहाए, से एवं गच्चा जो सव्वं भंडगमायाए गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा, बहिया विहारभूमि वा विधारभूमि वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 1. टोका पत्र 332 के आधार पर। 2. टीका पत्र 332 के आधार पर / 3. यह 344 सूत्र जिनकल्पादि गच्छ-निर्गतसाधु के लिए विवक्षित है। फिर वा 2' यह पाठ यहाँ क्यों? ऐसी आशंका हो सकती है, तथापि आगे के दोनों सूत्रों में तथा इस ग्रन्थ में सर्वत्र से भिक्खू वा 2' ऐसा पाठ सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, प्रायः सभी प्रतियों में। अत: ऐसा ही सूत्र पाठ सीधा है, ऐसा सोचकर (टिप्पणकार मे) मल में रखा है। वृत्तिकार ने भी 'सभिक्ष:' इस प्रकार निरूपण किया है। अतः 'वा 2' पाठ होते हुए भी यहाँ 'स भिक्ष :' इस प्रकार का वृत्तिकार का कथन युक्ति संगत लगता है। 4. तलना के लिए देखिए.-दसवेआलियं अ० उ०१ गा०८ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 344. [1] जो भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होना चाहता है, वह अपने सब धर्मोपकरण (साथ में) लेकर आहार प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रवेश करे या निकले। [2] साधु या साध्वी बाहर मलोत्सर्गभूमि या स्वाध्यायभूमि में निकलते या प्रवेश करते समय अपने सभी धर्मोपकरण लेकर वहां से निकले या प्रवेश करे। [3] एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते समय साधु या साध्वी अपने सब धर्मोपकरण साथ में लेकर ग्रामानुग्राम विहार करे। 345. यदि वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि बहुत बड़े क्षेत्र में वर्षा वरसती दिखायी देती है, विशाल प्रदेश में अन्धकार रूप धुंध (ओस या कोहरा) पड़ती दिखायी दे रही है, अथवा महावायु (आंधी या अंधड़) से धूल उड़ती दिखायी देती है, तिरछे उड़ने वाले या अस प्राणी एक साथ बहुत-से मिलकर गिरते दिखाई दे रहे हैं। तो वह ऐसा जानकर सब धर्मोपकरण साथ में लेकर आहार के निमित्त गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे और न वहाँ से निकले / इसी प्रकार (ऐसी स्थिति में) बाहर विहार (मलोत्सर्ग-) भूमि या विचार (स्वाध्याय.) भूमि में भी निष्क्रमण या प्रवेश न करे; न ही एक ग्राम से दूसरे ग्राम को विहार करे / विवेचन-जिनकल्पी आदि मिनु का आधार-ये दोनों सूत्र गच्छ-निर्गत विशिष्ट साधना करने वाले जिनकल्पिक आदि भिक्षुओं के कल्प (आचार) की दृष्टि से हैं, ऐसा वृत्तिकार का कथन है। जिनकल्पिक दो प्रकार के है-छिद्रपाणि और अच्छिद्रपाणि / अच्छिद्रपाणि जिनकल्पी यथाशक्ति अनेक प्रकार के अभिग्रह विशेष के कारण दो प्रकार के उपकरण रखते हैं (1) रजोहरण और (2) मुखवस्त्रिका / कोई-कोई तीसरा प्रच्छादन पट भी ग्रहण करते हैं, इस कारण तीन, कई ओस की बूंदों व परिताप से रक्षार्थ ऊनी कपड़ा भी रखते हैं, इस कारण चार, कोई असहिष्णु भिक्षु दूसरा सूती वस्त्र भी लेते हैं, इस कारण उनके पांच धर्मोपकरण होते हैं। ___छिद्रपाणि जिनकल्पी के पात्रनिर्योग सहित सात प्रकार के, रजोहरण मुखवस्त्रिकादि ग्रहण के क्रम से नौ, दस, ग्यारह या बारह प्रकार के उपकरण होते हैं / दोनों प्रकार के जिनकल्पिक के लिए शास्त्रीय विधान है कि वह आहार, विहार, निहार और विचार (स्वाध्याय) के लिए जाते समय अपने सभी धर्मोपकरणों को साथ लेकर जाए, क्योंकि वह प्रायः एकाकी होता है, दूसरे साधु से भी प्रायः सेवा नहीं लेता, स्वाश्रयी होता है। इसलिए अपने सीमित उपकरणों को पीछे किसके भरोसे छोड़ जाए ?' किन्तु मूसलधार वर्षा दूर-दूर तक बरस रही हो, धुंध पड़ रही हो, आंधी चल रही 1. टीका पत्र 332 / Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 346 हो, बहुत-मे उड़ने वाले त्रस प्राणी गिर रहे हों तो वह आहार, विहार, एवं विचार के लिए भंडोपकरण साथ ले लेकर गमनागमन की प्रवृत्ति बन्द रखे / ' ___ वृत्तिकार ने स्थविरकल्पिक साधु वर्ग के लिए भी विवेक बताया है--यह समाचारी ही है कि विहार करने वाला साधु गच्छ के अन्तर्गत हो या गच्छनिर्गत हो, उसे ध्यान रखना चाहिए कि यदि वर्षा या धुन्ध पड़ रही हो तो जिनकल्पी बाहर नहीं जाएगा, क्योंकि उसमें छह मास तक मल-मूत्र को रोकने की शक्ति होती है। अन्य साधु कारण विशेष मे (मलव्युत्सर्गार्थ) जाए तो सभी उपकरण लेकर न जाए, यह तात्पर्यार्थ है।* निविद्य-गह-पद 346. से भिक्खू वा 2 से ज्जाई पुणो कुलाई जाणेज्जा, तंजहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसढ़ियाणं वा अंतो वा बाहि वा गच्छंताण वा संणिविट्ठाण वा णिमंतेमाणाण वा अणिमंतेमाणाण वा असणं वा 4 लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 346. भिक्षु एवं भिक्षुणी इन कुलों (घरों) को जाने, जैसे कि चक्रवर्ती आदि क्षत्रियों के कुल, उनसे भिन्न अन्य राजाओं के कुल, कुराजाओं (छोटे राजाओं) के कुल, राज भृत्य 1. टीका पत्र 333 के आधार पर / 2. टीका पत्र 333 के आधार पर / 3. चर्णिकार 'राईण वा' आदि शब्दों की व्याख्या इस प्रकार करते हैं - खतिया-चक्कवट्टी-बलदेव वासुदेव-मंडलियरायाणो, कुरायी-पच्चंतियरायाणो, रायबंसिता--रायवंसप्पभूया ण रायाणो। रायपेसिया=अन्नतरभोइता। अर्थात् - क्षत्रिय चक्रवर्ती, बलदेव. वासुदेव व मांडलिक राजा कराजा=किसी प्रदेश का राजा, ठाकुर आदि। राजवंशिक राजवंश में पैदा हए, राजा के मामा भानजा आदि किंतु राजा नहीं। राजप्रेस्य राजा के भृत्य / 'अंतो वा बाहि वा गच्छंताण वा'--.इत्यादि पाठ के बदले पाठान्तर मिलते हैं--(१) वा संणिविद्वाण वा णिमंतेमाणाण वा (2) वा गच्छंताण वा संणिविद्राण वा णिमंतेमाणाण वा' तथा (3) वा गच्छंताण वा संणिविटाणवा असंणिविद्राण वा णिमंतेमाणाण वा। अर्थ क्रमशः इस प्रकार है(१) घर के अन्दर बैठे हों या बाहर या निमंत्रित किये जाते हों। (2) अन्दर या बाहर जा-आ रहे हों, बैठे हों या निमंत्रित किये जाते हैं, (3) अन्दर या बाहर जा-आ रहे हों, ठहरे हों या न ठहरे हों, या निमंत्रित किये जाते हों। चूर्णिकार ने इस पंक्ति की व्याख्यायों की है- अंतो=अंतो नगरादीणं बहि-णिग्गमणिग्गंताणं, संणिविट्ठाणं-ठियाणं, इतरेसिं गच्छंताणं, मंगलत्थं पासंडाणं साहणं वा दिज्जा, णिमंतेति सयमेव, अणिमं० दुक्कस्स देज्जा, देताणं सयमेव, अदेताणं अण्णो दिज्जा असणं वा 4 चाभे संते णो पडिग्गाहिज्जा / अर्थात्-अंतो-नगरादि के भीतर, बाहि =निगम से निर्गत, संणिविट्ठाणं = स्थित, दूसरे जाते हुओं को, मंगलार्थ-पाषण्डों या साधुओं को देता हो, स्वयमेव निमंत्रण दे, अथवा अनिमंत्रितों को मुश्किल से देता हो, जिनको दिया जाना हो, उन्हें स्वयं देता हो, जिनको न देना हो उन्हें दूसरा देता हो, ऐसे घर में अशनादि आहार मिलने पर भी ग्रहण न करे / मालूम होता है, चूर्णि के अनुसार--अंतो वा बाहिं वा संणिविठ्ठाणं वा असंणिविहाणं वा शिमतेमाचागं वा मणिमंतेमाणाणं वा वेता वा अदेताणं वा असणं वा-यह पाठ है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध दण्डपाशिक आदि के कुल, राजा के मामा, भानजा आदि सम्बन्धियों के कुल,, इन कुलों के घर से, बाहर या भीतर जाते हुए, खड़े हुए या बैठे हुए, निमन्त्रण किये जाने या न किए जाने पर, वहाँ से प्राप्त होने वाले अशनादि आहार को ग्रहण न करे। विवेचन-किन कुलों से आहारग्रहण निषिद्ध-पहले उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय आदि कुलों से प्रासुक एवं एषणीय आहार लेने का विधान किया गया था, अब इस सूत्र में क्षत्रिय आदि कुछ कुलों से आहार लेने का सर्वथा निषेध किया गया है, इसका क्या कारण है ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं--- 'एतेषां कुलेषु संपातभयान्न प्रवेष्टव्यम्-इन घरों में संपात भीड में गिर जाने या निरर्थक असत्यभाषण के भय के कारण प्रवेश नहीं करना चाहिए। वस्तुतः प्राचीन काल में राजाओं के अन्तःपुर में तथा रजवाड़ों में राजकीय उथल-पुथल बहुत होती थी। कई गुप्तचर भिक्षु के वेष में राज दरबार में, अन्तःपुर तक में घुस जाते थे। अतः साधुओं को गुप्तचर समझकर उन्हें आहार के साथ विष दे दिया जाता होगा; इसलिए यह प्रतिबन्ध लगाया गया होगा। बहुत सम्भव है कुछ राजा और राजवंश के लोग भिक्षुओं के साथ असद् व्यवहार करते होंगे / अथवा उनके यहां का आहार संयम की साधना में विघ्नकर होता होगा। 'खत्तियाण' आदि पदों का अर्थ-खत्तियाण-क्षत्रियों का चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि, राईण= राजन्यों का जो क्षत्रियों से भिन्न होते हैं। कुराईणया-कुराजाओं का सरहद के छोटे राजओं का। राजवंसट्ठियाणवा-राजवंश में स्थित राजा के मामा, भानजा आदि रिश्तेदारों के कुलों से। [347. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / ] 347. [यह (आहार-गवेषणा) उस सुविहित भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता-भिक्षुभाव की सम्पूर्णता है। ] // तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. टीका पत्र 333 / 2. टीका पत्र 333 / 3. इसका विवेचन प्रथम उद्देशक में किया जा चुका है यहाँ यह पाठ सिर्फ चूर्णि में उद्धृत है, मूल पाठ में नहीं मिलता है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 348 चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक संखडि-गमन-निवेध 348. से भिक्खू वा 2 जाव पविट्ठ समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, मंसादियं वा मच्छादियं वा मंसखलं या मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा हीरमाणं पेहाए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउसिंग-पणग-दगमट्टिय 1. निशीथ सूत्र (उद्दे-११) में इससे मिलता-जुलता पाठ और साथ में चूर्णिकारकृत उसकी व्याख्या भी देखिये-- जे भिक्खू मंसादियं वा मच्छादियं वा मंसखलं वा मच्छखलं बा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा सम्मेलं वा अनयरं वा तहप्पयारं विस्वरूवं हीरमाणं पेहाए / अत्र चूर्णि:--जे भिक्खू मसादियं वा इत्यादि / जम्मि पगरण मंसं आदीए दिज्जति पच्छा ओदणादि तं मंसादी भन्नति, मंसाण वा गच्छंता आदावेव पगरणं करेंति तं वा मंसादी, आणिएसु मंसेसु आदादेव जणवयस्स मंसपगरणं करेंति पच्छा सयं परिभजति तं वा मंसादी भन्नति / एवं मच्छादियं पि वत्तव्वं / मंसखलं जत्थ मंसाणि सोसिज्जति / एवं मच्छखलं पिजमन्नगिहातो आणिज्जतितं आहेणं / जमन्नगिह निज्जतितं पहेण / अधवा जं वधुधरातो वरघरं निज्जति तं आहेणं,जं वरघरातो वधुघर निज्जति तं पहेगणगं / अधवा वरवधूण जं आभब्वं परोप्पर निजति तं सब्बं आहेणग, जमन्नतो निज्जति तं पहेणगं ! सव्वाणमादियाण जं हिज्जई निज्जई त्ति तं हिंगोलं, अधवा जं मयभत्तं करदुगादियं तं हिंगोलं / विवाहभत्तं सम्मेलं, अधवा सम्मेलो गोट्ठी, तीए भत्तं सम्मेलं भण्णति / अहवा कम्मारंभेसु ल्हासिंगा जे ते सम्मेला, तेसि जं भत्तं तं सम्मेलं / गिहातो उज्जाणादिसु हीरतं नीयमानमित्यर्थः / पेहा प्रेक्ष्य'; इति / अर्थात-"जे भिक्खू मंसादियं वा इत्यादि।" जिस प्रकरण (संखड़ी-भोज) में प्रारम्भ में मांस दिया/ परोसा जाता है, बाद में चावल आदि उसे मांसादिक (भोज) कहते हैं। मांसाशियों के चले जाने की सम्भावना देखकर पहले ही मांस का भोजन बनाता हैं, उसे भी मंसादि भोज कहते हैं, अथवा मांस के लाये जाने पर प्रारम्भ में ही जनपद को मांस भोजन कराता है, फिर स्वयं उपभोग करता है, उसे भी मंसादी कहते हैं। इसी प्रकार मत्स्यादि का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। मंसखलं-का अर्थ हैं जहाँ मांस सुखाया जाता है। इसी प्रकार मत्स्यखल भी समझ लेना चाहिए। जिसे अन्य घर से लाया जाता है तब किये जाने वाले भोज को 'आहेणं' कहते हैं। अथवा जब वधू को अपने पितृगह से वरगृह में लाई जाती है उसे आहेणं और जब वरगृह से वधू अपने पितृगृह में लायी जाती हैं तब उसे कहते है 'पहेणं / अथवा जब अन्यत्र ले जाया जाता है, तब भी पहेणं कहते हैं। अथवा वर-वधू को आजन्म परस्पर (सम्बन्ध जोड़ने के लिए) ले जाया जाता है, वहाँ गोष्ठ की जाती है, उसे कहते हैं आहेणं / जब अन्य उन्हें कोई ले जाता है, तब उस भोज को 'पहेणग' कहते हैं। सब भोजों के आदि में जो ले जाया जाता है उसे हिंगोल अथवा जो मृतक भोज करंद्विकादिक होता है, उसे भो हिंगोल कहते हैं। विवाह के निमित्त जो भोज होता हैं वह सम्मेल होता है / अथवा सम्मेल कहते हैं गोष्ठी-मिलन को, उसके निमित्त जो भोजन होता है उसे भी सम्मेल कहते हैं। अथवा किसी व्यवसाय या कार्य के प्रारम्भ में जो नर्तक एकत्रित होकर गाते बजाते हैं, उसे भी सम्मेल कहते हैं। उसके साथ जो भोजन होता है उसे भी सम्मेल कहते हैं। घर में उद्यान आदि में ले जाते हुए देखा हैं उसे भी 'सम्मेल' कहा जाता है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध मक्कडासंतागगा, बहवे तत्थ 'समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा उवागता उबागमिस्संति, अच्चाइण्णा वित्ती, गो पण्णस्स मिक्खमण-पवेसाए गो पण्णस्त वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽगुप्पेह-धम्माणुयोगचिताए / से एवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंखोंड वा पच्छासंडि वा संखडि संखडिपडियाए गो अभिसंधारेज्ज गमणाए / से भिक्खू वा 2 जाब पबिटु समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा मसादियं वा जाव' संमेलं वा होरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा अपपामा जाव संताणगा, णो जत्य बहवे समण-माहण जाव उवागमिस्संति, अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स णिक्खमण-पवेसाए, पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणा-Sणुप्पेह-धम्माणुयोगचिताए / सेवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंखड वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडियाए अभिसंधारेज्ज गमणाए / 348. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते समय भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि इस संखडि के प्रारम्भ में मांस पकाया जा रहा है या मत्स्य पकाया जा रहा है, अथवा संखडि के निमित्त मांस छीलकर सुखाया जा रहा है या मत्स्य छोलकर सुखाया जा रहा है ; विवाहोत्तर काल में नव-वधू के प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या पितगृह में वधू के पुनः प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या मतकसम्बन्धी भोज हो रहा है, अथवा परिजनों के सम्मानार्थ भोज (गोठ) हो रहा है। ऐसी संखडियों (भोजों) मे भिक्षाचरों को भोजन लाते हुए देखकर संयमशील भिक्षु को वहाँ भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ जाने में अनेक दोषों की सम्भावना है, जैसे किमार्ग में बहुत-से प्राणी, बहुत-सी रियाली, बहुत-से ओसकण, बहुत पानी, बहुत-से कोड़ीनगर, पाँच वर्ण की-नीलण-फूलण (फूही) हैं, काई आदि निगोद के जीव हैं, सचित्तपानी से भीगी हुई मिट्टी है, मकड़ी के जाले हैं; उन सबकी विराधना होगी; (इसके अतिरिक्त) वहाँ बहुत-से शाक्यादि-श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक (भिखारी) आदि आए हुए है, आ रहे हैं तथा आएंगे; संखडिस्थल चरक आदि जनता की भीड़ मे अत्यन्त घिरा हुआ है। इसलिए वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन-प्रवेश का व्यवहार उचित नहीं है। क्योंकि वहाँ (नृत्य, गीत एवं वाद्य 1. चूणिकार ने इसके स्थान पर इस प्रकार का पाठान्तर माना है—'बहवे समग-माहणा उबागता उवागमिस्संति'-वहाँ बहत से श्रमण-ब्राह्मण आ गए हैं, पाएंगे। 2. इसके बदले 'तत्थाइण्णा' पाठ मिलता है। अर्थ है--वहाँ संखडि की जगह जनाकीर्ण हो गयी है। चर्णिकार 'अच्चाइण्णा' पाठ मान कर अर्थ करते हैं---'अत्यथं आइण्णा अन्चाइणा' सखडि की भूमि अत्यन्त (खचाखच) भर गई है। 3. यहाँ 'जाच' शब्द से सु० 348 के पूर्वाधं में पठित समग्र पाठ समझ लेना चाहिए / 4. यहाँ 'जाव' शब्द से सू० 348 के पूवार्ध में पठित सम्पूर्ण पाठ समझ लें। 5. चूर्णि में पाठान्तर है--से एवं स्वा' / अर्थ समान है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 348 होने से) प्राज्ञ भिक्षु की वाचना, पृच्छना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथारूप स्वाध्याय प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अतः इस प्रकार जानकर वह भिक्षु पूर्वोक्त प्रकार की मांस प्रधानादि संयम-खण्डितकरी पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प न करे। वह भिक्षु या भिक्षुणी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहां प्रवेश करते समय यह जाने कि नववधू के प्रवेश आदि के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, उन भोजों से भिक्षाचर भोजन लाते दिखायी दे रहे हैं, मार्ग में बहुत-से प्राणी यावत् मकड़ी का जाला भी नहीं है / तथा वहाँ बहुतसे भिक्षु-ब्राह्मणादि भी नहीं आए हैं, न आएंगे और न आ रहे हैं, लोगों की भीड़ भी बहुत कम है। वहां (मांसादि दोष-परिहार-समर्थ) प्राज्ञ (-अपवाद मार्ग में) निर्गमन-प्रवेश कर सकता है, तथा वहाँ प्राज्ञ साधु के वाचना-पृच्छना आदि धर्मानुयोग चिन्तन में कोई बाधा उपस्थित नहीं होगी, एसा जान लेने पर उस प्रकार की पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार कर सकता है। विवेचन-मांसादि-प्रधान संखडि में जाने का निषेध और विधान-जो भिक्षु तीन करण तीन योग मे हिंसा का त्यागी है, जो एकेन्द्रिय जीवों की भी रक्षा के लिए प्रयलशील है, उसके लिए मांसादि-प्रधान संखडि में तो क्या, किसी भी संखडि में चलकर जाना सर्वथा निषिद्ध बताया गया है। यही कारण है कि प्रस्तुत सूत्र के पूर्वार्द्ध में मार्ग में स्थितएकेन्द्रियादि जीवों की विराधना के कारण, भिक्षाचरों की अत्यन्त भीड़ के कारण तथा सारे रास्ते में लोगों के जमघट होने से तथा नृत्य-गीत-वाद्य आदि के कोलाहल के कारण स्वाध्याय-प्रवृत्ति में बाधा की सम्भावना से उस संखडि में जाने का निषेध किया गया है। किन्तु सूत्र के उत्तराद्धं में पूर्वोक्त बाधक कारण न हों तो शास्त्रकार ने उस संखडि में जाने का विधान भी किया है / कहाँ तो संखडि में जाने पर कठोर प्रतिबन्ध और कहां मांसादिप्रधान संखडि में जाने का विधान ? इस विकट प्रश्न पर चिन्तन करके वृत्तिकार इसका रहस्य खोलते हुए कहते हैं...अब अपवाद-(सूत्र) कहते हैं-कोई भिक्षु मार्ग में चलने से अत्यन्त थक गया हो, अशक्त हो गया हो, आगे चलने की शक्ति न रह गयी हो, लम्बी बीमारी से अभी उठा ही हो, अथवा दीर्घ तप के कारण कृश हो गया हो, अथवा कई दिनों से ऊनोदरी चल रही हो, या भोज्य पदार्थ आगे मिलना दुर्लभ हो, संखडिवाले ग्राम में ठहरने के सिवाय कोई चारा न हो, गाँव में और किसी घर में उस दिन भोजन न बना हो, ऐसी विकट परिस्थिति में पूर्वोक्त बाधक कारण न हों तो उस संखडि को अल्पदोषयुक्त मानकर वहाँ जाए, बशर्ते कि उस संखडि में मांस वगैरह पहले ही पका या बना लिया या दे दिया गया हो, उस समय निरामिष भोजन ही वहाँ प्रस्तुत हो। इस प्रकार पूर्वोक्त कारणों में से कोई गाढ़ कारण 1. टीका पत्र 334 / Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध उपस्थित होने पर मांसादि दोषों के परिहार में समर्थ प्राज्ञ गीतार्थ साधु के लिए उस संखडि में जाने का (अपवाद रूप में) विधान है। आचार्य शीलांक के इस समाधान से ऐसा प्रतीत होता है कि यह उत्तरार्ध का विधान किसी कठिन परिस्थिति में फंसे हुए श्रमण की तात्कालिक समस्या के समाधान स्वरूप है। वास्तव में इस प्रकार के भोज (संखडि) में जाना श्रमण का विधि-मार्ग नहीं है, किन्तु अपवादमार्ग के रूप में ही यह कथन है। इसका आसेवन श्रमण के स्व-विवेक पर निर्भर है / इस बात की पुष्टि निशीथ सूत्र की चूणि भी करती है।' 'मंसादिय' आदि शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैमंसावियं-जिस संखडि में मांस ही आदि में (प्रधानतया) हो, मच्छावियं जिस संखडि में मत्स्य ही आदि (प्रारम्भ) में (प्रधानतया) हो / 'मसखलं वा मच्छखलं वा–संखडि के निमित्त मांस या मत्स्य काट-काटकर सुखाया जाता हो, उसका ढेर मांसखल तथा मत्स्यखल कहलाता है / आहेणं-विवाह के बाद नववधूप्रवेश के उपलक्ष्य में दिया जाने वाला भोज, पहेणं-पितृगृह में वधू के प्रवेश पर दिया जाने वाला भोज, हिंगोलं-मृतक भोज, संमेलं परिजनों के सम्मान में दिया जाने वाला प्रीतिभोज (दावत) या गोठ। गो-दोहन वेला में भिक्षार्य प्रवेश निषेध ___346. से भिक्खू वा 2 गाहावति जाव पविसित्त कामे से ज्जं पुण जाणेज्जा, खोरिणीओ गावोओ खीरिज्जमाणीओ पेहाए असणं वा 4 उवखडिज्जमाणं पेहाए, पुरा अप्पतहिते। सेवं गच्चा जो गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज्ज वा पक्सिज्ज वा। से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्टज्जा / अह पुण एवं जाणेज्जा, खोरिणोओ गावीओ खीरियाओ पेहाए, असणं वा 4 उवक्खडितं पेहाए, पुरा पहिते। सेवं णच्चा ततो संजयामेव गाहायतिकुलं पिंडवातपडियाए णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा। ___346. गोदोहन-वेला में आहारार्थ गृह प्रवेश निषिद्ध या विहित ? भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करना चाहते हों; (यदि उस समय) यह जान जाएं कि अभी दुधारू गायों को दुहा जा रहा है तथा अशनादि आहार अभी तैयार किया जा रहा है, या हो 1. देखिए इसी सूत्र के मूल पाठ टिप्पण 1, पृ० 41 पर / 2. टीका पत्र 334 / 3. चूर्णिकार ने इसका भावार्थ इस प्रकार दिया है-'उवक्खारिज्जमाणे संजतट ठाए–अर्थात् संयमी साधु के लिये तैयार किये जाते हुए... Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 346-350 45 रहा है, अभी तक उसमें से किसी दूसरे को दिया नहीं गया है। ऐसा जानकर आहार प्राप्ति की दृष्टि से न तो उपाश्रय से निकले और न ही उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। किन्तु (गृहस्थ के यहाँ प्रविष्ट होने पर गोदोहनादि को जान जाए तो) वह भिक्षु उसे जानकर एकान्त में चला जाए और जहाँ कोई आता-जाता न हो, और न देखता हो, वहाँ ठहर जाए / जब वह यह जान ले कि दुधारू गायें दुही जा चुकी हैं और अशनादि चतुर्विध आहार भी अब तैयार हो गया है, तथा उसमें से दूसरों को दे दिया गया है, तब वह संयमी साधु--आहार प्राप्ति की दृष्टि से वहां से निकले या उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। विवेचन आहार के लिए प्रवेश निषिद्ध कब कब विहित ?–इस सूत्र में गृहस्थ के घर में तीन कारण विद्यमान हों तो आहारार्थ प्रवेश के लिए निषेध किया गया है--- (1) गृहस्थ के यहां गायें दुही जा रही हों, (2) आहार तैयार न हुआ हो, (3) किसी दूसरे को उसमें से दिया न गया हो। अगर ये तीनों बाधक कारण न हो तो साधु आहार के लिए उस घर में प्रवेश कर सकता है, वहाँ से निकल भी सकता है। गृह प्रवेश में निषेध के जो तीन कारण बताए हैं, उनका रहस्य वृत्तिकार बताते हैंगायें दुहते समय यदि साधु गृहस्थ के यहां जाएगा तो उसे देखकर गायें भड़क सकती हैं, कोइ भद्र श्रद्धालु गृहस्थ साधु को देखकर बछड़े को स्तन-पान करता छुड़ाकर साधु को शीघ्र दूध देने की दृष्टि से जल्दी-जल्दी गायों को दुहने लगेगा, गायों को भी प्रास देगा, बछड़ों के भी दूध पीने में अन्तराय लगेगा। अधपके भात को अधिक ईधन झौंक कर जल्दी पकाने का प्रयत्न करेगा, भोजन तैयार न देखकर साधु के वापस लौट जाने से गृहस्थ के मन में संक्लेश होगा, वह साधु के लिए अलग से जल्दी-जल्दी भोजन तैयार कराएगा, तथा दूसरों को न देकर अधिकांश भोजन साध को दे देगा तो दूसरे याचकों या परिवार के अन्य सदस्यों को अन्तराय होगा।' अगर कोइ साधु अनजाने में सहसा गृहस्थ के यहां पहुंचा और उसे उक्त बाधक कारणों का पता लगे, तो इसके लिए विधि बताई गई है कि वह साधु एकान्त में, जन-शून्य व आवागमन रहित स्थान में जाकर ठहर जाए; जब गायें दुही जा चुके, भोजन तैयार हो जाए, तभी उस घर में प्रवेश करे। अतिथि-श्रमण आने पर भिक्षा विधि 350. भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणा' वा वसमाणा वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे 1. टीका पत्र 335 / 2. टीका पत्र 335 / 3. चणि में इसके स्थान पर पाठान्तर है-'सामाणा वा यसमाणा वा गामाणुगामं बुइज्जमाणे / अर्थ एक-सा है। चूणिकार ने इस सूत्र-पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार की है--"भिक्खणसोला भिक्खागा Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-वितीय श्रु तस्कन्ध खुड्डाए खलु अयं गामे, संणिरुद्धाए, जो महालए, से हंता भयंतारो बाहिरगाणि गामाणि भिक्खायरियाए क्यह / संति तत्थेगतियस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा---गाहावती वा गाहावतिणीओ वा गाहावतियुत्ता वा गाहावतिधूताओ वा गाहावतिसुहाओ वा धातीओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा। तहप्पगाराई कुलाई पुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथुयाणि वा पुत्वामेव भिवखारियाए अणुपविसिस्सामि, अवियाइत्थ' लभिस्सामि पिडं वा लोयं वा खोरं वा दहि वा गवणीतं का धयं वा गुलं वा तेल्लं वा मह वा मज्ज वा मंसं वा संकुलि' फाणितं वा पूर्व वा सिहरिणि वा, तं पुवामेव नामग्रहणा दयभिक्खाग।। एगे, सम्वे / एवमवधारणे / आहंसु बुवाँ / सामाणा वुड्दवासी, वसमाणा णवकप्पविहारी, दूतिज्जमाणा मासकरपं चउमासकप्पं वा का संकममाणा, कहिचि गाभे ठिता उडुबद्ध अथवा हिंडमाणा / माइट ठाणण मा अम्हं खेत्तसारो भवतु त्ति पाहणाए आगते 2 भणनि-खुड्डाए खलु अयं मामे ....... / ' -अर्थात-जो भिक्षणशील हों, वे भिक्षाक कहलाते हैं। यहाँ नामग्रहण किया है, इसलिए - द्रव्य भिक्षाक समझना चाहिए / 'एगे' का अर्थ है-कुछ भिक्षु, सभी नहीं। 'एवं' निश्चय अर्थ में है। 'आहंसु'=कहते हैं / समाणा-वृद्धवासी (स्थिरवासी), वसमाणा-नवकल्प कल्पविहारी / दूतिज्जमाणा = मासकल्प (आठ) एवं चातुर्मासकल्प (एक) करके विचरण करने वाले, किसी ग्राम में ठहरे-ऋतुबद्ध अथवा विचरण करते हुए। 'माइट ठाणेण' (माया का स्थान यह है कि हमारा क्षेत्र श्रेष्ठ न हो जाय, अन्यथा, ये यहाँ जम जाएंगे इस दृष्टि से) अतिथि (समागत) साधुओं के आने पर वे कहते हैं--- "यह गाँव बहुत छोटा है, कहीं अन्यत्र भिक्षा के लिए जाएं, गाँव बहुत बड़ा नहीं है / ...... / " निशोथ सूत्र द्वितीय उद्देशक में इसी से मिलता-जुलता पाठ और चुणिकार कृत व्याख्या देखिये-'ज भिक्खू सामाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा तिजमाणे पुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथुयाणि वा कुलाई पुवामेव भिक्खायरियाए अणुपविसति।" इसकी चूणि--'ज भिक्खू सामाणे' इत्यादि / भिक्खू पूर्ववत् / सामाणो नाम समधीनः अप्रवासितः को सो ? बुड्ढो वासः / 'वसमाणों' उदुबद्धिते अदमासे वासावासं च नवमं / एवं नवविहं विहारं विहरतो वसमाणो भण्णति / अनुपच्छाभावे, गामातो अन्नो गामो अणुग्गामो, दोसु वासेसु सिसिर-गिम्हेसु वा रीइज्जति स्ति दूइज्जति / " अर्थात-"भिक्ख' का अर्थ पूर्ववत् है। 'सामाणों' का अर्थ है-समधीन यानी जो प्रवास (विहार) न करता हो, वह कौन ? वृद्धवास / 'यसमाणों' का तात्पर्य है-ऋतुबद्ध-आठ मास में आठ विहार एवं वर्षावास का नौवा विहार, यों जो नौ विहार (काल्प) से विचरण करता हो, वह वसमान कहलाए है। 'अन' पश्चात अर्थ में है। ग्राम से अन्य ग्राम को अनुग्राम कहते हैं। दो बासो में शिशिर और ग्रीष्म ऋतुओं में जो विचरण करता है। 1. इसके स्थान पर किसी-किसी प्रति में अवियाई इत्थ, अवि या इत्थ, अविअ इत्थ-ये पाठान्तर मिलते हैं, अर्थ समान है। 2. 'लोयं' का अर्थ चूणिकार ने किया है-'लुत्तरस लोयगं, वण्णादि-अपेतं, असोभणमित्यर्थः / अर्थात्-जिसमें से रस लुप्त हो गया हो, उसे लोयग कहते हैं, जो वर्णादि से रहित, अशोभन (खराब) हो। देखिये-दशवकालिक (5311102) में इससे मिलता जुलता पाठ। वहाँ 'संकुलि' (सक्कुलि) का अर्थ तिलसांकली या खजली किया है।। 4. 'पूप' या 'पूर्व' पाठ भी सम्यक् प्रतीत होता है / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 350 भोच्चा पिच्चा पडिग्गहं च संलिहिय संमज्जिय ततो पच्छा भिक्खूहि सद्धि गाहावतिकुलं पिंडवात-पडियाए पविसिस्सामि वा णिक्खमिस्सामि वा / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तत्थ भिक्खूहि सद्धि कालेण अणुपविसित्ता तस्थितरातियहि कुलेहि सामुदाणियं एसितं वेसितं पिंडवातं पडिगाहेता आहारं आहारज्जा। 350. जंघादि बल क्षीण होने से एक ही क्षेत्र में स्थिरवास करने वाले अथवा मासकल्प विहार करने वाले कोई भिक्षु, अतिथि रूप से अपने पास आए हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं से कहते हैं पूज्यवरों ! यह गांव बहुत छोटा है, बहुत बड़ा नहीं है, उसमें भी कुछ घर सूतक आदि के कारण रुके हुए हैं। इसलिए आप भिक्षाचरी के लिए बाहर (दूसरे) गांवों में पधारें। मान लो, इस गांव में स्थिरवासी मुनियों में से किसी मुनि के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि कुटुम्बीजन) अथवा पश्चात्परिचित (श्वसुर-कुल के लोग) रहते हैं, जैसे कि-गृहपति, गृहपत्नियां, गृहपति के पुत्र एवं पुत्रियाँ, पुत्रवधुएं, धायमाताएं, दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ वह साधु यह सोचे कि जो मेरे पूर्व-परिचित और पश्चात्-परिचित घर हैं, वैसे घरों में अतिथि साधुओं द्वारा भिक्षाचरी करने से पहले ही में भिक्षार्थ प्रवेश करूंगा और इन कुलों से अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लूँगा जैसे कि--"शोली के ओदन आदि, स्वादिष्ट आहार. दूध, दही, नवनीत, घृत, गुड़, तेल, मधु, मछ' या मांस अथवा जलेबी, गुड़राब, मालपुए, शिखरिणी नामक मिठाई, आदि / उस आहार को मैं पहले ही खा-पीकर पात्रों को धो-पोंछकर साफ कर लूंगा। इसके पश्चात् आगन्तुक भिक्षुओं के साथ आहार-प्राप्ति के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करूंगा और वहाँ से निकलूंगा।" इस प्रकार का व्यवहार करने वाला साधु माया-कपट का स्पर्श (सेवन) करता है / साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। उस (स्थिरवासी) साधु को भिक्षा के समय उन भिक्षुओं के साथ ही उसी गाँव में विभिन्न उच्च-नीच और मध्यम कुलों से सामुदानिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय, वेष से उपलब्ध (घात्री आदि दोष से रहित) निर्दोष आहार को लेकर उन अतिथि साधुओं के साथ ही आहार करना चाहिए। 1. चूर्णि में इसकी व्याख्या यों की गयी है-'तं भोच्चा पच्छा साहुणो हिंडावेति' जो आहार मिला उसका उपभोग करके फिर आगुन्तक साधुओं को भिक्षा के लिए धुमाता हैं। 2. इसके स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं--'तस्थितरातिरेहि तस्मितरेतरहिं अर्थ समान है। 3. यहाँ 'मद्य' शब्द कई प्रकार के स्वादिष्ट पेय तथा 'मांस' शब्द बहुत मदे वाली अनेक वनस्पतियों का सामूहिक वाचक हो सकता है, जो कि गृहस्थ के भोज्य-पदार्थों में सामान्यतया सम्मिलित रहती है। टीकाकार ने 'मद्य' और 'मांस' शब्दों की व्याख्या छेदशास्त्रानुसार करने की सूचना की है। साथ ही कहा है-अथवा कोई अतिशय प्रमादी साधु अतिलोलुपता के कारण मास मद्य भी स्वीकार कर ले। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन-रस लोलुपता और माया- इस सूत्र का आशय स्पष्ट है। प्राघूर्णक (पाहुने) साधुओं के साथ जो साधु स्वाद-लोलुपतावश माया करता है, वह साधु स्व-पर-वंचना तो करता ही है, आत्म-विराधना और भगवदाज्ञा का उल्लंघन भी करता है। शास्त्रकार की ऐसे मायिक साधु के लिए गम्भीर चेतावनी है ! आचारांग चूणि और निशीथ चूणि में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है।' 351. एयं खलु तस्स भिवस्खुस्स वा भिवखुणोए वा सामग्गियं / 351. यही संयमी साधु-साध्वी के ज्ञानादि आचार की समग्रता है।' // चतुर्थ उद्देशक समाप्त // पंचमो उद्देसओ पंचम उद्देशक अपिण्ड-ग्रहण-निषेध 352. से भिषखू वा 2 जाव पविट्ठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, अग्गपिडं उविखप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंड णिविखण्यमाणं पेहाए, अगपिडं हीरमाणं हाए, अपिंडं परिभाइज्ज. माणं पेहाए, अग्गपिडं परिभुज्जमाण पेहाए, अग्गपिडं परिविज्जमाणं पेहाए, पुरा असिणादि वा अवहारादि वा, पुरा जत्थऽण्णे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणोमगा खद्ध खद्ध उक्संकमंति, से हंता अहमवि खद्ध खद्ध उवसंकमामि / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / 352 : वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने पर यह जाने कि अग्रपिण्ड निकाला जाता हुआ दिखायी दे रहा है, अग्रपिण्ड रखा जाता दिखायी दे 1. देखिए आचारांग मूल पाठ टिप्पण पृ० 118 / 2. इसका विवेचन सूत्र 334 के अनुसार समझ लेना चाहिए। 3. किसी-किसी प्रति में 'अग्गपिंड और किसी प्रति में 'अग्गपिंड परिभाइज्जमाणं येहाए' पाठ नही है। 4. 'परि जमाणं' पाठान्तर कहीं-कहीं मिलता है / 5. 'असिणादि वा अवहारादिवा' के स्थान पर किन्हीं प्रतियों में 'असणादि वा अवहाराति वा' पाठ है / चणिकार इस पंक्ति का अर्थ यों करते हैं-'पुरा असणादी वा तत्थव भुजति, जहा बोडियसक्खा, अवहरति णाम उक्कढति' अर्थात् पहले जैसे अन्य बोटिकसदृश भिक्षु अग्रपिण्ड का उपभोग कर गये थे, वैसे ही निर्गन्थ खाता है / अवहरित का अर्थ है-निकालता है। चर्णिकार के शब्दों में व्याख्या--खख खरणाम बहवे अवसंकमंति तुरियं च, तत्य भिक्खू वि तहेव / अर्थात्---खद्ध खद्ध का अर्थ है--- बहुत से भिक्षुक जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, वहाँ भिक्ष भी इसी प्रकार का विचार करता है-तो। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 351-352 रहा है, (कहीं) अग्रपिण्ड ले जाया जाता दिख रहा है, कहीं बह बांटा जाता दिख रहा है, (कहीं) अग्रपिण्ड का सेवन किया जाता दिख रहा है, कहीं वह फेंका या डाला जाता दृष्टिगोचर हो रहा है, तथा पहले, अन्य श्रमण-ब्राह्मणादि (इस अनपिण्ड का) भोजन कर गए हैं एवं कुछ भिक्षाचर पहले इसे लेकर चले गए हैं, अथवा पहले (हम लेंगे, इस अभिप्राय से) यहाँ दूसरे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक आदि (अग्रपिण्ड लेने) जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, (यह देखकर) कोई साधु यह विचार करे कि मैं भी (इन्हीं की तरह) जल्दी-जल्दी (अनपिण्ड लेने) पहुचूं, तो (ऐसा करने वाला साधु) माया-स्थान का सेवन करता है। वह ऐसा न करे। विवेचन--माया का सेवन-इस सूत्र में साधु को माया-सेवन से दूर रहने का निर्देश किया गया हैं / यह भी बताया गया है कि माया-सेवन का सूत्रपात कैसे और कब सम्भव है ? जब साधु यह देखता है कि गृहस्थ के यहां से अग्रपिण्ड निकाला जा रहा है, ले जाया जा रहा है, रखा जा रहा है, बांटा जा रहा है और इधर-उधर फेंका जा रहा है, कुछ भिक्षाचर पहले ले गए हैं और दूसरे दबादब लेने आ रहे हैं, इसलिए मैं भी जल्दी-जल्दी वहाँ पहुँचूं, अन्यथा मैं पीछे रह जाऊँगा, दूसरे भिक्षुक सब आहार ले जाएंगे। यह उसके माया-सेवन का कारण बनता है / उतावली और हड़बड़ी में जब वह चलेगा तो जीवों की विराधना भी सम्भव है, और स्वादलोलुपता की वृद्धि भी। दशवैकालिक सूत्र में चलने की विधि बताते हुए कहा है कि "भिक्ष दवादब न चले, बहुत शान्ति से, अनुद्विग्न, असंप्रान्त, अमूच्छित (अनासक्त), अव्यग्रचित्त से यतनापूर्वक धीरे-धीरे भिक्षा के लिए चले।' 'अग्गपिंड---अग्रपिण्ड वह है, जो भोजन तैयार होने के बाद दूसरे किसी को न देकर, या न खाने देकर उसमें से थोड़ा-थोड़ा अंश देवता आदि के लिए निकाला जाता है। उसी अग्रपिण्ड की यहाँ देवादि के निमित्त से होने वाली 6 प्रक्रियाएं बताई गयी हैं--- (1) देवता के लिए अग्रपिण्ड का निकालना / (2) अन्यत्र खाना। (3) देवालय आदि में ले जाना / (4) उसमें से प्रसाद बांटना। (5) उस प्रसाद को खाना। (6) देवालय ने चारों दिशाओं में फैकना / इन प्रक्रियाओं के बाद वह अग्रपिण्ड विविध भिक्षाचरों को दिया जाता है, उनमें से कुछ लोग वहीं खा लेते हैं, कुछ लोग जैसे-तैसे---झपट कर ले लेते हैं और चले जाते हैं, कुछ लोग अग्रपिण्ड लेने के लिए उतावले कदमों से आते हैं। 1. (क) टीका पत्र 336 के आधार पर / (ख) संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, मत्तपाणं गवेसए // 1 // से गामे वा नगरे वा, गोयरगगओ मुणी। चरे मंदमणुब्बिग्गो, अग्विक्खित्तेण चेयसा // 2 // पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महि चरे। वज्जतो बीयहरियाई, पाणे य दगमटि टयं // 3 // 2. टीका पत्र 336 / -दशवै० अ० ५/उ० 1 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 'पुरा असिणादि वा' इत्यादि पदों के अर्थ-असिणादि=पहले दूसरे श्रमणादि उस अग्रपिण्ड का सेवन कर चुके हैं, अवहारादि-कुछ पहले व्यवस्था या अव्यवस्थापूर्वक जैसे-तैसे उसे ले चुके / खदं खददं =जल्दी-जल्दी।' विषम मागादि से भिक्षाचर्यार्थ गमन-निषेध 353. से भिक्खू वा 2' जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा। केवली वूया-आयाणमेयं / से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पबडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा तत्थ से काए उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेग वा सिंघाणएण वा वतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया। तहप्पगारं कार्य णो अणंतरहियाए पुढवोए, णो ससणिद्धाए पुढवीए, णो ससरक्खाए पुढवीए, णो चित्तमंताए सिलाए, जो चित्तमंताए लेलए, कोलावासंसि वा दारुए जीवपतिट्टिते सअंडे सपाणे जाव 1. टीका पत्र 336 / 2. जहाँ-जहाँ 2 का चिन्ह है वहां 'भिक्खूणो वा' पाठ समझना / 3. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 328 के अनुसार समग्र पाठ का सूचक है। 4. तुलना करिए- दशवकालिक (51227 एवं 6 गाथा) 5. 'अणंतरहियाए' आदि पदों की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है--"अणंतरहिता नाम, तिरो अंतर्धाने, न अंतहिता, सचेतणा इत्यर्थः, सचेतणा अहवा अणतेहि रहिता इत्यर्थः / ससणिदा घडओ |त्थ पाणियभरितो पल्हत्थतो, वासं वा पडियमेत्तयं / ससरक्खा सचिता मटिट्ता तहि पति या सगडमादिणा णिज्जमाणी कुभकारादिणा लवणं वा / चित्तमंता सिला सिला एव सचिता / लेलू मट्टिताउंडओ सचित्तो चेव। कोलो नाम धुणो तस्स आवासं कठ्ठ, अन्ने वा दारुए जीवपतिते हरितादीणं उरि उद्देहिमणे वा सचित्ते वा सअंडे सपाण पव्वणिता। आमज्जति एक्कासि / पम्मज्जति पुणो पुणो।" 'अणंतरहियाए' आदि पदों की चर्णिकार-कृत व्याख्या का अर्थ इस प्रकार हैं-अर्थात् अणंतरहिता (अनन्तहिता) का अर्थ होता हैं जिसकी चेतना अन्तहित न हो -तिरोहित न हो, अर्थात् जो सचेतन हो अथवा अनन्तों (अनन्त निगोद भाव) मे रहित हो, वह अनन्त-रहित है। ससणिशा स्निग्ध पृथ्वी, जैसे पानी का घड़ा पलट जाने से (मिट्टी पर) वह स्निग्ध हो जाती है, या मिट्टी पर पानी का वर्तन सिर्फ पड़ा हो वह भी स्निग्ध पृथ्वी है। ससरक्खा सचित्त मिट्टी, जहाँ गिरती है. जिसे कुम्भकार आदि गाड़ी आदि से ढोकर ले जाते हैं, अथवा सचित्त नमक / चित्तमंता सिला-जो जिला ही सचित्त हो, लेलू-मिट्टी का ढेला. जो सचित्त होता है। कोल-कहते हैं घुन को, उसका आवास काष्ठ होता है। अन्य जो लकड़ी, जीवप्रतिष्ठित हो, हरित पर या लकड़ी पर दीमक लग जाने से या सचित्त हो, 'सअंडे सपाणे का अर्थ पहले कहा जा चुका है। आमज्जति -एक बार, पमज्जति बार-बार प्रमार्जन करना है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 324 में पठित 'सपाणे' से 'संताणए' तक के पाठ का सूचक है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 353-356 संताणए णो' (?) आमज्जेज्ज वा, णो (?) पमज्जेज्ज वा, संलिहेज्ज वा णिल्लिहेज्ज वा उन्वलेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा आतावेज्ज वा पयावेज्ज वा।। से पुवामेब अप्पससरक्खं तणं वा पत्तं वा कट्टवा सक्करं वा जाएज्जा, जाइत्ता से तमायाए एगतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता] अहे झामथंडिल्लसि वा जाव अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा। 354. से भिक्खूबा 2 जाव पविट्ठ समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा गोणं वियालं पडिपहे पेहाए, महिसं वियाल पडिपहे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं त्थि सोहं वग्धं विगं दोवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं विराल सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचेल्लडयं वियालं पडिपहे सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जयं गच्छेज्जा। 355. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे अंतरा से ओवाए' वा खाणु वा कंटए वा घसी वा भिलुगा वा विसमे वा विज्जले वा परियावज्जेज्जा / सति परक्कमे संजयामेव [परक्कमेन्जा णो उज्ज यं गच्छेज्जा। बन्द द्वारवाले गृह में प्रवेश निषेध 356. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलस्स दुवारबाहं कंटगबोंदियाए पडिपिहितं पेहाए 1. संताणाए के बाद 'आमज्जेज्ज वा' और 'पमज्जेज्ज वा' के पूर्व 'णो' शब्द लिपिकार की असावधानी से अंकित हुआ लगता है, वहाँ यह निरर्थक है। इसलिए (?) संकेत है। 2. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 344 में पठित 'झामडिल्लंसिया' से लेकर 'अण्णतरंसि तक के पूर्ण पाठ का सूचक है। 3. यहाँ भिक्खू वा के बाद '2' का चिन्ह, भिक्खूणी वा पाठ का सूचक है। 4. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 324 में पठित 'गाहावइकुलं' से लेकर पविठ्ठे तक के पाठ का सूचक हैं। 5. तुलना करिए-दशवकालिक श१०१२ साणं सुइयं गावं दित्त गोणं हयं गयं----दूरओ परिवज्जिय.. 6. चूणि में, सर्वप्रथम 'मणुस्सं वियालं' पद है। उसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है--"मणुस्सं विआलो णाम गहिल्लमत्तओ, गहिल्लओ, रणपिसाइयागहितो वा सेसा गोणादि मारगा अलक्कइता वा।" मनुष्यव्याल का अर्थ है --पागल या उन्मत्त, अथवा विक्षिप्त युद्धोन्मादग्रस्त या पिशाचादिग्रस्त / शेष गोण (सांड आदि के आगे व्याल विशेषण का अर्थ है-मारक (मरकना)--- चित्ताचेल्लडयं का अर्थ है-- आरण्यक जीवविशेष / सूत्र 515 में भी प्रयुक्त है। 8. 'ओवाए' के स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं -'उवाए' उवाओ उववाओ आदि / चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं--- खुड्डजाइ उवायांति अस्मिन्निति उवात' अर्थात-जिसमें क्षुद्रजातीय प्राणी गिर जाते हैं, उसे "उवात' कहते हैं। दशवकालिक (अ० 2114 गा०) में इससे मिलती-जुलती गाथा है, वहाँ 'ओवाय' (अवपात) का अर्थ हरिभद्रसूरि और जिनदासगणि ने खड्डा या गड्डा किया है। अगस्त्यसिंह ने (चूणि में) अर्थ किया है-अहोपतणमोवातो खड्डाकूब झिरिडाति / अर्थात् अधःपातन को अवपात कहते हैं, खड्डा कुआ और जीर्णकूप भी अवपात है। —जि० चू० पृ० 166 6. 'दुवारवाहं' का अर्थ चूर्णिकार ने अम्गदार (अग्रद्वार) किया है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तेसि पुवामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय णो अवंगुणेज्ज वा पविसेज्ज वा णिक्यमेज्ज वा / तेसि पुवामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय ततो संजयामेव अवं. गुणेज्ज वा पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। 353. वह भिक्ष या भिक्षणी गृहस्थ के यहाँ आहारार्थ जाते समय रास्ते के बीच में ऊँचे भूभाग या खेत की क्यारियां हों या खाइयां हों, अथवा बांस की टाटी हो, या कोट हो, बाहर के द्वार (बंद) हों, आगल हों, अर्गला-पाशक हों तो उन्हें जानकर दुसरा मार्ग हो तो संयमी साधु उसी मार्ग से ज़ाए, उस सीधे मार्ग से न जाए; क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं यह कर्मबन्ध का मार्ग है। उस विषम-मार्ग से जाते हुए भिक्षु (का पैर फिसल जाएगा या (शरीर) डिग जाएगा, अथवा गिर जएगा। फिसलने, डिगने या गिरने पर उस भिक्षु का शरीर मल, मूत्र, कफ, लीट, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र (वीर्य) और रक्त से लिपट सकता है / अगर कभी ऐसा हो जाए तो वह भिक्ष मल-मूत्रादि से उपलिप्त शरीर को सचित्त पृथ्वी- स्निग्ध पृथ्वी से, सचित्त चिकनी मिट्टी मे, सचित्त शिलाओं से, सचित्त पत्थर या ढेले से, या घुन लगे हुए काठ से, जीवयुक्त काष्ठ से, एवं अण्डे या प्राणी या जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को न एक बार साफ करे और न अनेक बार घिस कर साफ करे / न एक बार रगड़े या घिसे और न बार-बार घिसे, उबटन आदि की तरह मले नहीं, न ही उबटन की भांति लगाए। एक बार या अनेक बार धूप में सुखाए नहीं। __वह भिक्षु पहले सचित्त-रज आदि से रहित तृण, पत्ता, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे। याचना से प्राप्त करके एकान्त स्थान में जाए। वहाँ अग्नि आदि के संयोग से जलकर जो भूमि अचित्त हो गयी है, उस भूमि की या अन्यत्र उसी प्रकार की भूमि का प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके यलाचारपूर्वक संयमी साधु स्वयमेव अपने-(मल-मूत्रादिलिप्त) शरीर को पोंछे, मले, घिसे यावत् धूप में एक बार व बार-बार सुखाए और शुद्ध करे। 354. वह साधु या साध्वी जिस मार्ग से भिक्षा के लिए जा रहे हों, यदि वे यह जाने कि मार्ग में सामने मदोन्मत्त सांड है, या मतवाला भंसा खड़ा है, इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य, घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िया, चीता, रीछ, व्याघ्र विशेष-(तरच्छ), अष्टापद, सियार बिल्ला (वनबिलाव), कुत्ता, महाशूकर--(जंगली सूअर), लोमड़ा, चित्ता, चिल्लडक नामक एक जंगली जीव विशेष और साँप आदि मार्ग में खड़े या बैठे हैं, ऐसी स्थिति में दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग से जाए, किन्तु उस सीधे (जीव-जन्तुओं वाले) मार्ग से न जाए / 355. साधु-साध्वी भिक्षा के लिए जा रहे हों, मार्ग में बीच में यदि गड्ढा हो, खूटा हो या ढूंठ पड़ा हो, कांटे हों, उतराई की भूमि हो, फटी हुयी काली जमीन हो, ऊँची-नीची भूमि हो, या कीचड़ अथवा दलदल पड़ता हो, (ऐसी स्थिति में) दूसरा मार्ग हो तो संयमी Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 353-356 साधु स्वयं उसी मार्ग से जाए, किन्तु जो (गड्ढे आदि वाला विषम, किन्तु) सीधा मार्ग है, उससे न जाए। 356. साधु या साध्वी गृहस्थ के घर का द्वार भाग कांटों की शाखा से ढका हुआ देखकर जिनका वह घर, उनसे पहले अवग्रह (अनुमति) मांगे बिना, उसे अपनी आखों से देखे बिना और रजोहरणादि से प्रमार्जित किए बिना न खोले, न प्रवेश करे और न उसमें से (होकर) निकले; किन्तु जिनका धर है, उनसे पहले अवग्रह (अनुमति) मांग कर अपनी आंखों मे देखकर और रजोहरणादि से प्रमार्जित करके उसे खोले, उसमें प्रवेश करे और उसमें से निकले। विवेचन---खतरे वाले मार्गों से आहारार्थ-गमन न करे-सूत्र 353 से सूत्र 356 तक शास्त्रकार ने उन मार्गों का उल्लेख किया है, जो संयम, आत्मा और शरीर को हानि पहुंचा सकते हैं। ऐसे चार प्रकार के मार्गों का नाम-निर्देश इस प्रकार किया है-(१) ऊंचा भू-भाग, खाई, कोट, बाहर के द्वार, आगल, अर्गलापाशक आदि रास्ते में पड़ते हों, (2) मतवाला सांड, भैंसा, दुष्ट मनुष्य, घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, भेडिया, चीता रोंछ, श्वापद (हिंसक पशु)अष्टापद, गीदड़, वनबिलाव, कुत्ता, जंगली सूअर, लोमड़ा, सांप आदि खतरनाक प्राणो मार्ग में बैठे या खड़े हों (3) मार्ग के बीच में गड्ढा, दूंठ, कांटे, उतार वाली भूमि, फटी हुई जमीन, ऊबड़-खाबड़ जमीन, कीचड़ या दलदल पड़ता हो, तथा (4) गृहस्थ के घर का द्वार कांटों की बाड़ आदि से अवरुद्ध हो तो उस मार्ग या उस घर को छोड़ दे, दूसरा मार्ग साफ और ऐसे खतरों से रहित हो तो उस मार्ग से जाए; दूसरा घर, जो खुला हो, उसमें प्रवेश करे / दशवैकालिक सूत्र में भी इसी प्रकार का वर्णन किया गया है।' खतरों वाले मार्ग से जाने से क्या-क्या हानियां हैं, उनका स्पष्ट उल्लेख शास्त्रकार ने स्वयं किया है। जिस घर का द्वार कांटों से अवरुद्ध कर रखा हो, उसमें बिना अनुमति के, 1. (क) ओवायं विसमं खाणु, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण न गच्छेज्जा, विजमाणे परक्कमे // 4 // पवडते व से तत्थ, पक्खलते व संजए। हिंसेज्ज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे // 5 // तम्हा तेण न गच्छेज्जा, संजए सुसमाहिए / सइ अन्नण मग्गेण, जयमेव परक्कमे // 6 // साणं सूइयं गावि, दित्तं गोणं हयं मयं / संडिम्भ कलहं जुख, दूरओ परिवज्जए // 12 // ----दशव० अ० 5/01 (ख) यहाँ एक अपवाद भी बताया है-सइ अन्नण मग्गेण, जयमेव परक्कमे यदि अन्य मार्ग न हो तो इन विषम मार्गों से सावधानी व यतनापूर्वक जा सकता है जिससे आत्म-विराधना और संयमविराधना न हो। 'जति अण्णो मग्गो नत्थि ता तेण वि य पहेण गच्छेजा जहा आयसंजम विराहणा ण भवइ / ----जिनदास चणि पृ० 166 / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ऊपर से दीवार लांघ कर या कांटे हटाकर प्रवेश करने से चोरी समझी जाती है। गृहपति को उस साधु के प्रति घृणा या द्वेष हो सकता है, वह साधु पर चोरी का आरोप लगा सकता है, अथवा द्वार खुला रह जान स कोई वस्तु नष्ट हो जाने से या किसी चीज की हानि हो जाने से साधु के प्रति शंका हो सकती है। अगर उस घर में जाना अनिवार्य हो तो उस घर के सदस्य की अनुमति लेकर, प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक प्रवेश-निर्गमन करना चाहिए / वृत्तिकार ने गाढ़ कारणों से प्रवेश करने की विधि बताई है-वैसे तो (उत्सर्ग मार्ग में) साधु को स्वतः बंद द्वार को खोलकर प्रवेश नहीं करना चाहिए; किन्तु यदि उस घर से ही रोगी, ग्लान एवं आचार्य आदि के योग्य पथ्य मिलना सम्भव हो, वैद्य भी वहाँ हो; दुर्लभ द्रव्य भी वहां से उपलभ्य हों, ऊनोदरी तप हो; इन और ऐसे कारणों के उपस्थित होने पर अवरुद्ध द्वार पर खड़े रहकर आवाज देनी चाहिए, तब भी कोई न आए तो स्वयं यथाविधि द्वार खोलकर प्रवेश करना चाहिए और भीतर जाकर घर वालों को सूचित कर देना चाहिए।' 'बप्पाणि' आदि शब्दों के अर्थ-वप्पाणिवप्र-ऊँचा भूभाग; ऐसा रास्ता जिसमें चढ़ाव ही चढ़ाव हैं / अथवा ग्राम के निकटवर्ती खेतों की क्यारी भी वप्र कहलाती है / फलिहाणि = परिखा-खाईयां, प्राकार / तोरणानिनगर का बहिद्वार--(फाटक) या घर के बाहर का द्वार, परक्कमे-जिस पर चला जाए; (पैर से कदम रखा जाए) उसे प्रक्रम-मार्ग कहते हैं। अणंतरहियाए जिसमें चेतना अन्तर्निहित हो-लुप्त न हो--अर्थात् जो सचेतन हो वह पृथ्वी, ससणिवाए-सस्निग्ध पृथ्वी, ससरक्खाए-सचित्त मिट्टी, कोलावासंसि वा दारुए-कोल-घुण; जिसमें कोल का आवास हो, ऐसी लकड़ी, जीवपतिढ़िते जीवों से अधिष्ठित-जीवयुक्त, आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा-एक बार साफ करे, बार-बार साफ करे, संलिहेज्ज वा णिल्लिहेज्ज वा= अच्छी तरह एक बार घिसे, बार-बार घिसे, उव्वलेज्ज वा उव्वटेज्ज वाउबटन आदि की भांति एक बार मले, बार-बार मले, आतावेज्ज वा पयावेज वा एक बार धूप में सुखाए, बार-बार धूप में सुखाए / गोणं वियालं = दुष्ट-मतवाला सांड, पडिपहे - ठीक सामने मार्ग पर स्थित, विगं- वृक-भेड़िया, दीवियं = चीता, अज्छ रीछ भालू, तरच्छं -- व्याघ्र विशेष, परिसरं = अष्टापद, कोलसुणयं--- महाशूकर, कोकंतियं =लोमड़ा, चित्ताचेल्लायं =एक जंगली जानवर, वियालं --सर्प, ओवाए - गड्ढा, खाणु =ढूंठ या खूटा, घसी=उतराई की भूमि, भिलुगा= फटी हुयी काली जमीन, विसमे-ऊबड़ खाबड़ जमीन, विज्जले-कीचड़, दलदल, दुवारबाहं - द्वार भाग, कंटग-बोंदियाए-कांटे की झाड़ी से, पडिपिहितं =अवरुद्ध या ढका हुआ या स्थगित, उग्गहं-- अवग्रह अनुमति = आज्ञा, अवंगुणेज्ज खोले, उद्घाटन करे, अणुण्णविय =अनुमति लेकर / 1. टीका पत्र 337-338 / 2. (क) टीका पत्र 337-638 / (ख) आचारांग चुणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 120 / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक: सूत्र 357 55 पूर्व-प्रविष्ट श्रमण-माहनादि की उपस्थिति में भिक्षा विधि 357. से भिक्खू वा 2 जाव' समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा, समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं बा अतिहि वा पुव्वपविट्ठ पेहाए णो तेसि संलोए सपडिदुवारे चिट्ठज्जा। ___केवली' बूया -आयाणमेय। पुरा पेहा एतस्सट्टाए परो असणं वा 4 आहट्ट दलएज्जा / अह भिक्खूणं पुन्वोवदिट्ठा एस पतिण्णा, एस हेतु, एस उवएसे-जं णो तेसि संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिज्जा। से त्तमादाए एगंतमवक्कमज्जा, 2 [त्ता। अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा / से से परो अणावातमसंलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा 4 आहटु दलएज्जा, से सेवं वदेज्जा-आउसंतो समणा! इमे भे असणे वा 4 सब्जजणाए णिस?, तं भुजह व णं परिभाएह व णं / तं चेगतिओ पडिगाहेत्ता तुसिणीओ उवेहेज्जा-अवियाई एयं ममामेव सिया। माइद्वाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, 2 [त्ता] से पुवामेव आलोएज्जा आउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा 4 सव्वजणाए णिस?। तं भुंजह व णं परियाभाएह व णं / से णमेवं वदंतं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! तुमं चेव णं परिभाएहि। से तत्थ परिभाएमाणे णो अप्पणो खद्ध 22 डायं 2 ऊसढं 2 रसियं 2 मणुण्णं 2 णिद्ध२ लुक्खं 2 / से तत्थ अमुच्छिए अगिद्ध अगढिए अणझोषवण्णे बहुसममेव परिभाएज्जा। से णं परिभाएमाणं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! मा णं तुमं परिभाएहि, सव्वे वेगतिया भोक्खामो वा पाहामो वा। से तत्थ भुंजमाणे णो अपणो खद्ध खद्ध जाव लुक्खं / से तस्थ अमुच्छिए 4 बहुसममेव भुंजेज्ज वा पाएज्ज वा। 1. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 324 के अन्तर्गत समग्र पाठ का सूचक हैं। 2. यह पाठ वृत्ति आदि कई प्रतियों में नहीं हैं। 3. जहाँ '4' का चिन्ह हो वहाँ वह शेष तीनों आहारों का सूचक है। 4. इसके स्थान पर पाठान्तर है-परियाभाएध, परि ड) यामाएह आदि , अर्थ समान है। 5. गच्छेज्जा के बाद '2' का चिन्ह मच्छ धातु की पूर्वकालिका क्रिया-पद 'गच्छित्ता' का बोधक है। हाँ से लुक्खं तक जो 2' का चिन्ह है, वह प्रत्येक शब्द से संयुक्त है, वह हरेक शब्द की पुनरावृत्ति का सूचक है। 7. इसके स्थान पर पाठान्तर है-'सम एव परियाभाएज्जा' से गं परियाभाएज्जा परिभाएज्जा से गं' अर्थात् बह उन्हें सम विभाग करे / 8. इसके स्थान पर पाठान्तर मिलता है.--'वेमओ ठिया भोक्खामो-एक जगह बैठ कर भोजन करें। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र- द्वितीय श्रु तस्कन्ध से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, समणं वा माहणं वा गापिंडोलगं वा अतिहि वा पुख्यपविट्ठ पेहाए णो ते उवातिक्कम्म पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा / से त्तमायाए एगतमवक्कमेज्जा, 22 [ता] अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा। ___ अह पुणेवं जाणेज्जा पडिसेहिए व दिण्णे वा, तओ तम्मि णिवट्टिते संजयामेव पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा। 357. वह भिक्षु या-भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय यदि यह जाने कि बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, (ग्राम-पिण्डोलक), दरिद्र, अतिथि और याचक आदि उस गृहस्थ के यहां पहले से ही प्रवेश किए हुए हैं, तो उन्हें देखकर उनके (दृष्टि पथ में आए, इस तरह से) सामने या जिस द्वार से वे निकलते हैं, उस द्वार पर खड़ा न हो। केवली भगवान् कहते हैं-यह कर्मों का उपादान-कारण हैं। पहली ही दृष्टि में गृहस्थ उस मुनि को वहाँ (द्वार पर) खड़ा देखकर उसके लिए आरम्भ-समारम्भ करके अशनादि चतुर्विध आहार बनाकर, उसे लाकर देगा। अतः भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह उपदेश है कि वह भिक्षु उस गृहस्थ और शाक्यादि भिक्षाचरों की दृष्टि में आए, इस तरह सामने और उनके निर्गमन द्वार पर खड़ा न हो। वह (उन श्रमणादि को भिक्षार्थ उपस्थित) जान कर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार से खड़ा रहे। उस भिक्षु को उस अनापात और असंलोक स्थान में खड़ा देखकर वह गृहस्थ अशनादि आहार-लाकर दे, साथ ही वह यों कहे--"आयुष्मान् श्रमण ! यह अशनादि चतुर्विध आहार मैं आप सब (निर्ग्रन्थ-शाक्यादि श्रमण आदि उपस्थित) जनों के लिए दे रहा हूँ। आप अपनी रुचि के अनुसार इस आहार का उपभोग करें और परस्पर बांट लें।" ___ इस पर यदि वह साधु उस आहार को चुपचाप लेकर यह विचार करता है कि, “यह आहार (गृहस्थ ने) मुझे दिया है, इसलिए मेरे ही लिए है"; तो वह माया-स्थान का सेवन करता है / अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। वह साधु उस आहार को लेकर वहाँ (उन शाक्यादि श्रमण आदि के पास) जाए, और वहाँ जाकर सर्वप्रथम उन्हें वह आहार दिखाए; और यह कहे-'हे आयुष्मान् श्रमणादि ! 1. "भिक्खु वा' के बाद '2' का अंक 'भिक्खुणी वा' का सूचक है / 2. 'अवक्कमेज्जा ' के बाद '2' का अंक 'अवक्कमित्ता' पद का सूचक है। 3. तुलना करिए पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए / उवसंकमेज्ज भत्तट्ठा, पाणछाए व संजए॥ - दशवं. 5/2/13 4. किसी-किसी प्रति में पाठान्तर है-'नियत्तिए तओ संजया, अर्थ एक समान है। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 357 यह अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ (दाता) ने हम सबके लिए---(अविभक्त हो) दिया है। अतः आप सब इसका उपभोग करें और परस्पर विभाजन कर लें।" ऐसा कहने पर यदि कोई शाक्यादि भिक्षु उस साधु से कहे कि --"आयुष्मन् श्रमण ! आप ही इसे हम सबको बांट दें। (पहले तो वह साधु इसे टालने का प्रयत्न करे)। (विशेष कारणवश ऐसा करना पड़े तो, सब लोगों में) उस आहार का विभाजन करता हुआ वह साधु अपने लिए जल्दी-जल्दी अच्छा-अच्छा प्रचुर मात्रा में वर्णादिगुणों से युक्त सरस साग, स्वादिष्ट-स्वादिष्ट, मनोज्ञ-मनोज्ञ, स्निग्ध-स्निग्ध आहार और उनके लिए रूखा-सूखा आहार न रखे, अपितु उस आहार में अमूच्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए एकदम समान विभाग करे। ___ यदि सम-विभाग करते हुए उस साधु को कोई शाक्यादि भिक्षु यों कहै कि-"आयुष्मन् श्रमण ! आप विभाग मत करें। हम सब एकत्रित-(सम्मिलित) होकर यह आहार खा-पी लेंगे।" (ऐसी विशेष परिस्थिति में) वह उन-पार्श्वस्थादि स्वतीथिकों) के साथ आहार करता हआ अपने लिए प्रचुर मात्रा में सुन्दर, सरस आदि आहार और दूसरों के लिए रूखा-सूखा, (ऐसी स्वार्थी नीति न रखे); अपितु उस आहार में वह अमूच्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष और अनासक्त होकर बिलकुल सम मात्रा में ही खाए-पिए। वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहां प्रवेश करने से पूर्व यदि यह जाने कि वहाँ शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि आदि पहले से प्रविष्ट हैं, तो यह देख वह उन्हें लांघ कर उस गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे और न ही दाता से आहारादि की याचना करे / परन्तु उन्हें देखकर वह एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई न आए-जाए, तथा न देखे, इस प्रकार से खड़ा रहे। जब वह यह जान ले कि गृहस्थ ने श्रमणादि को आहार देने से इन्कार कर दिया है, अथवा उन्हें दे दिया है और वे उस घर से निपटा दिये गये हैं। तब संयमी साधु स्वयं उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे, अथवा आहारादि की याचना करे / विवेचन-दूसरे भिक्षाजीवियों के प्रति निन्य भिक्षु की समभावो नीति :-प्रस्तुत सूत्र में निर्ग्रन्थ भिक्षु की दूसरे भिक्षाचरों के साथ 5 परिस्थितियों में व्यवहार की समभावी नीतियों का निर्देश किया गया है (1) श्रमणादि पहले से गृहस्थ के यहाँ जमा हों तो वह उसके यहां प्रवेश न करे, बल्कि एकान्त स्थान में जाकर खड़ा हो जाए। (2) यदि गृहस्थ वहाँ आकर सबके लिए इकट्ठी आहार-सामग्री देकर परस्पर बांट कर खाने का अनुरोध करे तो उसका हकदार स्वयं को ही न मान ले, अपितु निश्छल भाव से उन श्रमणादि को वह आहार सौपकर उन्हें बाँट देने का अनुरोध करे / Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (3) यदि वे वह कार्य निर्गन्य भिक्षु को ही सौंपें तो वह समभावपूर्वक वितरण करे। (4) यदि वे श्रमणादि उस आहार-सामग्री का सम्मिलित उपयोग करने का अनुरोध करें तो स्वयं ही सरस, स्वादिष्ट आहार पर हाथ साफ न करे, सबके लिए रखे। (5) बह श्रमणादि भिक्षाचरों को गृहस्थ के यहां पूर्व-प्रविष्ट देखकर उन्हें लांघकर न प्रवेश करे और न आहार-याचना करे, अपितु उनके यहां से निवृत होने के बाद ही वह प्रवेश करे व आहार-याचना करे।' इन पांचों परिस्थितियों में शास्त्रकार ने निग्रन्थ साधु को समभाव की नीति, संयम-रक्षा साधुता, निश्छलता के अनुकूल अपने आप को ढाल लेने का निर्देश किया है। इन पांचों परिस्थितियों में साधु के लिए विधि-निषेध के निर्देर्शों को देखते हुए स्पष्ट ध्वनित होता है कि जैन-साधु नियमों की जड़ता में अपने आपको नहीं जकड़ता, वह देश, काल, परिस्थिति, पात्रता और क्षमता के अनुरूप अपने आप को ढाल सकता है। इससे यह भी स्पष्ट ध्वनित हो जाता है कि दूसरे भिक्षाचरों को देखकर वह उनकी सुख-सुविधाओं एवं अपेक्षाओं का भी ध्यान रखे, सामूहिक आहार-सामग्री मिलने पर वह उनसे घृणा-विद्वेषपूर्वक नाक-भों सिकोड़ कर चुपचाप अपने आप को अकेला ही उस सामग्री का हकदार न माने बल्कि उन भिक्षाचरों के पास जाकर सारी परिस्थिति निश्छल भाव मे स्पष्ट करे, विभाजन का अस्वीकार और उसमें पक्षपात न करे, न ही सहभोजन के प्रस्ताव पर उनसे विमुख हो / वृत्तिकार निर्ग्रन्थ साधु के इस व्यवहार का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं- “इस प्रकार का-(सब का साझा) आहार उत्सर्गरूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए; दुर्भिक्ष, मार्ग चलने की थकान, रुग्णता आदि के कारण अपवाद रूप में वह आहार ग्रहण करे।" "....किन्तु हम सब एकत्र स्थिर होकर खाएंगे-पीएंगे, (शाक्यादि-भिक्षुओं के इस प्रस्ताव पर) “पर-तीथिकों के साथ नहीं खाना-पीना चाहिए, स्व-यूथ्यों, पार्श्वस्थ आदि, और साम्भोगिक साधुओं के साथ उन्हें आलोचना देकर आहार पानी सम्मिलित करना चाहिए।' 1 तुलना करिये...समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं / उपसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणछाए व संजए // 10 // तं अइक्कमित्तुन पविसे, न चिटठे चक्स-गोगरे / एगतमवक्कमित्ता, तत्थ चिटज्ज संजए // 11 // वणीमगस्स या तस्स, दायगस्सुमयस्स था। अपत्तियं सिया होज्जा, लहुत्तं पधयणस्स वा // 12 // पडिसेहिए व दिन वा, तओ तम्मि नियत्तिए / उवसंकमेज्ज भत्तठा, पाणठाए व संजए // 13 // -दशव० अ० ५/उ०२। 2. आचारांग मूल पाठ तथा टीका पत्र 336 के आधार पर / 3. (क) टीका पत्र 336 / (ख) टीकाकार ने इस विधि को साधु का सामान्य आचार नहीं माना है, विशेष परिस्थितियों में बाध्य होकर ऐसा करना पड़े, तो वहाँ अत्यन्त सरलतापूर्ण भद्र व्यवहार करने की सूचना है। --सम्पादक Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 358-356 _ 'गापिंडोलग' आदि पदों के अर्थ ?.---ग्रामपिण्डोलक= जो ग्राम के पिण्ड पर निर्वाह करता है।' संसोए:-सामने दिखायी दे, इस तरह से, सपडिदुवार=निकलने-प्रवेश करने के द्वार पर। अणावायमसलोए-जहाँ कोई आता-जाता न हो, जहाँ कोई देख न रहा हो। सव्वजणाए णिसट्ट = सब जनों के लिए (साझा-भोजन) दिया है। परिभाएह =विभाजन-करो। उवेहेज्जा कल्पना करे, सोचे। अवियाई = (गृहस्थ ने) अर्पित किया है। खद्ध ख जल्दी-जल्दी या प्रचुर मात्रा में / डाय-शाक, व्यञ्जन / ऊसढं =उच्छित-वर्णादिगुणों से युक्त सुन्दर। रसिय सरस, अमुच्छिए आदि चार पद एकार्थक हैं; किन्तु क्रमशः यों हैं अमूच्छित, अगृध्द, निरपेक्ष और अनासक्त / बहुसममेव=प्रायः सममात्रा में, वेरातिया एकत्र व्यवस्थित होकर, ओभासेज्जदाता से याचना करे, णिवट्टिते निपटा देने पर-निवृत्त होने पर।' 358. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / सू० 358. यही उस भिक्ष अथवा भिक्षणी के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप आदि के आचार की समग्रता - सम्पूर्णता है।' // पंचम उद्देशक समाप्त / छट्ठो उद्देसओ ___छठा उद्देशक कुक्कुटादि प्राणी होने पर अन्य मार्ग-गवेषणा 356. से भिक्खू वा 2 जाव' समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा, रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संणिवतिए पेहाए, तंजहाकुक्कुड जातियं वा सूयरजातियं वा, अग्गपिंडसि वा वायसा संथडा संणिवतिया पेहाए, सति परक्कमे संजया णो उज्जयं गच्छेज्जा। 356. वह भिक्षु या भिक्षुणी आहार के निमित्त जा रहे हों, उस समय मार्ग में यह जाने कि रसान्वेषी बहुत-से प्राणी आहार के लिए झुण्ड के झुण्ड एकत्रित होकर (किसी पदार्थ 1. (क) पिण्डोलग-पर-दत्त आहार से जीवन-निर्वाह करने वाला भिखारी (-उत्त० बृहृवृत्ति पत्र 250) (ख) कृपणं वा पिण्डोलक—दशव हारि० टीका पृ० 184 / 2. टीका पत्र 336-340 / 3. इसका विवेचन प्रथम उद्देशक के सू० 334 को समान समझना चाहिए / 4. यहाँ जाव' शब्द सु. 324 में पठित समग्र पाठ का सूचक है / 5. संजया के स्थान पर पूर्वापरस्त्रों में संजयामेव' शब्द मिलता है, तथापि संयत का सम्बोधन या संयत-सम्यगुपयुक्त शब्द का वाचक है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पर) टूट पड़े हैं, जैसे कि कुक्कुट जाति के जीव, शूकर जाति के जीव, अथवा अग्रपिण्ड पर कोए झुण्ड के झुण्ड टूट पड़े हैं; इन जीवों को मार्ग में आगे देखकर संयत साधु या साध्वी अन्य मार्ग के रहते, सीधे उनके सम्मुख होकर न जाएँ। विवेचन दूसरे प्राणियों के आहार में विघ्न न डालें--इस सूत्र में षट्काय-प्रतिपालक साधु-साध्वियों के लिए भिक्षार्थ जाते समय मार्ग में अपना आहार करने में जुटे हुए पशु-पक्षियों को देखकर उस मार्ग से न जाकर अन्य मार्ग से जाने का निर्देश किया गया है। इसका कारण यह है, वे बेचारे प्राणी भय के मारे अपना आहार छोड़कर उड़ जायेंगे या इधर-उधर भागने लगेंगे, इससे (1) एक तो उन प्राणियों के आहार में अन्तराय पड़ेगा, (2) दूसरे वे साधु-साध्वी के निमित्त से भयभीत होंगें (3) तीसरे वे हड़बड़ाकर उड़ेंगे या भागेंगे इसमें वायुकायिक आदि अन्य जीवों की विराधना सम्भव है और (4) चोथे, उनके अन्यत्र उड़ने या भागने पर कोई ऋ र व्यक्ति उन्हें पकड़कर बन्द भी कर सकता है, मार भी सकता है। पक्षीजाति और पशुजाति के प्रतीक----प्रस्तुत सूत्र में कुक्कुट जातीय द्विपद और शूकर जातीय चतुष्पद प्राणी के ग्रहण से समस्त पक्षीजातीय द्विपद और पशुजातीय चतुष्पद प्राणियों का ग्रहण कर लेना चाहिए / जैसे कुक्कुट पक्षी की तरह चिड़िया, कबूतर, तीतर, वटेर आदि अन्य पक्षीगण तथा सूअर की तरह कुत्ता, बिल्ली, गाय, भैंस, गधा, घोड़ा आदि पशुगण / अग्रपिण्ड भक्षण के निमित्त जुटे हुए कौओं के दल को अन्तराय डालने का निषेध तो अलग से किया है। 'रसेसिणो' आदि पदों के अर्थ-रसेसिणो रस -स्वाद का अन्वेषण करने वाले. घासेसजाए--अपने ग्रास (दाना-चुगा या आहार) की तलाश में संणिवतिए-सन्निपतित-उड़ कर आये हुए, या अच्छी तरह जुटे हुए, संलग्न / ' भिक्षार्थ प्रविष्ट का स्थान व अंगोपांग संचालन-विवेक 360. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे णो गाहावतिकुलस्स दुवारसाहं अवलंबिय 2 1. आचारांगवत्ति पत्रांक 140 2. वही पत्रांक 340 3. 'दुवारसाहं' के स्थान पर चूर्णिकार आदि ने 'दुवारबाहं' पाठ ठीक माना है सूत्र 356 में भी यही पाठ है। 4. 'अवलंबण' आदि शब्दों की व्याख्या चणिकार ने इस प्रकार की है-अवलंबण-अवत्थंभण काएण वा हस्येण वा दुरवलकुट्टि उद्देहि पक्ख हिते। फलहितं = फलिहो चेव, दारं = उत्तरंतरो, कवाडं =तोरणेसु एते चैव दोसा। दगछड्डणगं =जत्थ पाणियं छडिज्जति / चंदणिउदगं = जहि उच्चिट्ठभायणादी धुव्वंति / अर्थात् अवलम्बन कहते हैं-अवस्तम्भन सहारा लेना, शरीर से या हाथ से दुर्बल और लड़खड़ाती देह के लिए। फलिह-बाँस आदि की टाटी। दारद्वार, कवाडं-(कपाट) तोरणसु =तोरणों में ये दोष हैं। दमछड्डणगं-जहाँ पानी फेंका जाता है। चंदणिउदगं=जहाँ झूठे बर्तन आदि धोये जाते हैं। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 360 चिट्ठज्जा, णो गाहावतिकुलस्स दगछड्डणमेत्तए चिट्ठज्जा, णो गाहावतिकुलस्स चंदणिउपए चिट्ठज्जा, णो गाहावतिकुलस्स असिणाणस्स' वा वच्चस्स वा संलोए सपडि दुवारे चिट्ठज्जा, णो गाहावतिकुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाओ पगिज्झिय 2 अंगुलियाए वा उद्दिसिय 2 ओणमिय 2 उपणमिय 2 णिज्झाएज्जा / णो गाहावति अंगुलियाए उद्दिसिय 2 जाएज्जा, णो गाहावति अंगुलियाए चालिय 2 जाएज्जा, गो गाहावति अंगुलियाए तज्जिय 2 जाएज्जा, गो गाहावति अंगुलियाए उक्खुलंपिय 2 जाएज्जा, णो गाहाति बंदिय 2 जाएज्जा, णो व णं फरसं वदेज्जा। सचित्त संसृष्ट-असंसृष्ट आहार-एषणा ___ अह तत्थ कंचि भुंजमाणं पेहाए तंजहा गाहाति वा जाव कम्मकरि वा से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भइणी ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं भोयणजातं ? | से सेवं वदंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दटिव वा भायणं वा सोतोदगवियडेण वा उसिगोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा। से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भगिणी ति वा मा एतं तुम हत्थं वा मत्तं वा दवि वा भायणं वा सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पधोवाहि वा, अभिकखसि मे दातुं एमेव दलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो हत्थं वा 4 सोतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता पधोइत्ता आहट्ट दलएज्जा / तहप्पगारेणं पुरोकम्मकतेणं हत्थेण वा 41 असणं वा 46 अफासुयं अणेसणिज्ज जाव णो पडिगाहेज्जा। अह पुणेव जाणेज्जा णो पुरेकम्मकतेणं, उदउल्लेणं / तहप्पगारेणं उदउल्लेण हत्थेण वा 4 असणं वा 4 अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। अह पुणेवं जाणेज्जाणो उदउल्लेण, ससणिद्धण / सेसं तं चेव / 1. सिणाणस्स बच्चस्स आदि शब्दों का अर्थ यों है—सिणाणं हि व्हायंति यानी जहाँ स्नान करते हैं-स्नान-घर / इसी प्रकार 'वच्च' शब्द भी शौचालय को सूचित करता है। 2. अवलंबिय उहिसिय आदि पदों के आगे '2' का अंक सर्वत्र उसी पद की पुनरावृत्ति का सूचक है। 3. पाठान्तर है---'पहोएहि', अर्थ समान है। 4. 'हत्वं दा' में 4 का अंक 'अमत्तं वा दधि वा भायणं वा' इन पदों का सूचक है। 5. हत्थेण वा के आगे 4 का अंक 'अमत्रोण वा, दविएण वा भायणेण वा इन तीन पदों का सूचक 6. 'असणं वा' के आगे '4' का अंक शेष तीनों आहारों का सूचक है। . 7. 'अफासुयं के आगे 'जाव' शब्द 'असणिज्ज लाभे संते' इन पदों का सूचक है। 7. इसके स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं 'पुण एव, पुण एवं / ' अर्थ समान है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध एवं ससरक्खे मट्टिया उसे हरियाले हिंगुलुए मणोसिला अंजणे लोणे गेरुय वणिय सेडिय सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुस उक्कुट्ट असंसट्ठण।' ___ अह पुणेवं जाणेज्जा-णो असंस?, संस? / तहप्पगारेण संस?ण हत्येण वा 4 असणं वा 4 फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा-असंसट्ठ, संस? / तपहप्पगारेण संस?ण हत्येण वा 4 असणं वा 4 फासुयं जाव' पडिगाहेज्जा। ___360. आहारादि के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी उसके घर के दरवाजे की चौखट (शाखा) पकड़कर खड़े न हों, न उस गृहस्थ के गंदा पानी फेंकने के स्थान पर खड़े हों, न उनके हाथ-मुंह धोने या पीने के पानी बहाये जाने की जगह खड़े हों, और न ही स्नानगृह, पेशाबघर या शौचालय के सामने (जहाँ व्यक्ति बैठा दिखता हो, वहाँ) अथवा निर्गमन-प्रवेश द्वार पर खड़े हों। उस घर के झरोखे आदि को, मरम्मत की हुई दीवार आदि को, दीवारों की सन्धि को, तथा पानी रखने के स्थान को, वार-वार बाहें उठाकर या फैलाकर अंगुलियों से वार-वार उनकी ओर संकेत करके, शरीर को ऊँचा उठाकर या नीचे झुकाकर, न तो स्वयं देखे, और न दूसरे को दिखाए / तथा गृहस्थ (दाता) को अंगुलि से बार-बार निर्देश करके (वस्तु की) याचना न करे, और न ही अंगुलियाँ बार-बार चलाकर या अंगुलियों से भय दिखाकर गृहपति से याचना करे। इसी प्रकार अंगुलियों से शरीर को बार-बार खुजलाकर या गृहस्थ की प्रशंसा या स्तुति करके आहारादि की याचना न करे। (न देने पर) गृहस्थ को कठोर वचन न कहे। गृहस्थ के यहां आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी किसी व्यक्ति को भोजन करते हुए देखे, जैसे कि : गृहस्वामी, उसकी पत्नी, उसकी पुत्री या पुत्र, उसकी पुत्रवधू या गृहपति के दास-दासी या नौकर-नौकरानियों में से किसी को, पहले अपने मन में विचार करके कहेआयुष्मान गृहस्थ (भाई) ! या हे बहन ! इसमें में कुछ भोजन मुझे दोगे ? उस भिक्षु के ऐसा कहने पर यदि वह गृहस्थ अपने हाथ को, मिट्टी के बर्तन को, दर्वी (कुड़छी) को या कांसे आदि के वर्तन को ठंडे (सचित्त) जल से, या ठंडे हुए उष्णजल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भिक्ष पहले उसे भली-भांति देखकर और विचार कर कहे...'आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम इस प्रकार हाथ, पात्र, कुड़छी या बर्तन को ठंडे सचित्त पानी से या कम गर्म किए हुए (सचित्त) पानी से एक बार या बार-बार मत धोओ। यदि मुझे भोजन देना चाहती हो तो ऐसे-(हाथ आदि धोए बिना) ही दे दो।' 1. इसके विशेप स्पष्टीकरण एवं तुलना के लिए दशवकालिक सूत्र अ० 5 उ० 1 गा० 32 से 51 तक मूल एवं टिप्पणी सहित देखिये। 2. 'फासुमं के आगे 'जाव' शब्द 'एसणिज्जं लामे संसे' इन पदों का सूचक है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 360 साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह (गृहस्थ भाई या बहन) शोतल या अल्प उष्णजल से हाथ आदि को एक बार या बार-बार धोकर उन्हीं में अशनादि आहार लाकर देने लगे तो उस प्रकार के पुरःकर्म-रत (देने से पहले हाथ आदि धोने के दोष से युक्त) हाथ आदि से लाए गए अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। यदि साधु यह जाने कि दाता के हाथ, पात्र आदि भिक्षा देने के लिए (पुरःकर्मकृत) नहीं धोए हैं, किन्तु पहले से ही गीले हैं ; (ऐसी स्थिति में भी) उस प्रकार के सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, कुड़छी आदि से लाकर दिया गया आहार भी अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / / यदि यह जाने कि हाथ आदि पहले से गीले तो नहीं हैं, किन्तु सस्निग्ध (जमे हुए थोड़े जल मे युक्त) हैं, तो उस प्रकार के मस्निग्ध हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार........भी ग्रहण न करे। यदि यह जाने कि हाथ आदि जल से आर्द्र या सस्निग्ध तो नहीं है, किन्तु क्रमश: सचित्त मिट्टी, क्षार (नौनी) मिट्टी, हड़ताल, हिंगलू (सिंगरफ), मेनसिल, अंजन, लवण, गेरू, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, सौराष्ट्रिका (गोपीचंदन), बिना छना (चावल आदि का) आटा, आटे का चोकर, पीलुपणिका के गीले पत्तों का चूर्ण आदि में से किसी से भी हाथ आदि संसृष्ट (लिप्त) हैं तो उस प्रकार के हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार.......भी ग्रहण न करे। यदि वह यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल में आई, सस्निग्ध या सचित्त मिट्टी आदि से असंसृष्ट (अलिप्त) तो नहीं है, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से (किसी दूसरे के) हाथ आदि संसृष्ट (सने) हैं तो ऐसे (उसके) हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर सकता है। (अथवा) यदि वह भिक्षु यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल, मिट्टी आदि मे संसृष्ट (लिप्त) तो नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से उसके हाथ आदि संसृष्ट हैं तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे। विवेचन--- अंगोपांग-संयम और आहारग्रहण-इस सूत्र में आहार ग्रहण के पूर्व मन, वचन काया और इन्द्रियों की चपलता, असंयम और लोलुपता से बचने का विधान किया गया है। इसमें हाथ, पैर, भुजा, शरीर के अंगोपांग, नेत्र और अंगुलि और वाणी के संयम का ही नहीं, अपितु जिह्वा, श्रोत्र, स्पर्शन्द्रिय आदि पर भी संयम रखने की, साथ ही इन सबके असंयम अनियन्त्रण से हानि की बात भी ध्वनित कर दी है। दरवाजे की चौखट ,जीर्ण-शीर्ण या अस्थिर हो तो उसे पकड़कर खड़े होने से अकस्मात् वह गिर सकती है, स्वयं गिर सकता है, स्वयं के चोट लग सकती है / बर्तन आदि धोने या हाथ मुंह धोने के स्थान पर खड़े रहने से साधु के Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ex आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रति घणा, प्रवचन के प्रति हीलना हो सकती है, तथा स्नान, शौच आदि करने के स्थान के सामने या द्वार पर खड़े होने से साधु के देखते शौचादि क्रिया निःशंक होकर गृहस्थ न कर सकेगा, विरोध और विद्वेष तथा अपमान का भाव भी साधु के प्रति जग सकता है। गवाक्ष, दीवार की सन्धि आदि स्थानों की ओर अंगुलि आदि से संकेत करके देखने-दिखाने में किसी वस्तु के चुराये या नष्ट हो जाने पर साधु के प्रति शंका हो सकती है। उसके चरित्र पर भी संदेह उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार अंगुलि से इशारा करके, धमकी दिखाकर या खुजलाकर अथवा प्रशंसा करके आहार लेना भो भय, दैन्य और लोलुपता आदि का द्योतक है। इन सब एषणा-दोषों से बचना चाहिए। 'दगच्छड्डणमत्तए' आदि पदों का अर्थ-दगछडणमत्तए = झूठे बर्तन आदि धोया हुआ पानी डालने के स्थान में, चंदणिउयए हाथ-मुह धोने या पीने का पानी बहाने के स्थान में, बच्चस्स मूत्रालय या शौचालय के, आलोयं=आलोक-प्रकाश-स्थान-बारी, झरोखा या रोशनदान आदि को थिग्गलं =मरम्मत की हुई दीवार आदि को. संधि-दीवार को सन्धि को, उण्णमिय=ऊंचा करके. ओणमय =नीचे झुकाकर, णिज्माएज्जा=देखे-दिखाये, उक्खुलंपिय= खुजलाकर, वंचिय=स्तुति या प्रशंसा करके, सज्जिय-धमकी या डर दिखाकर / संसृष्ट-असंसृष्ट आहार-ग्रहण का निषेध-विधान सूत्र 360 के उत्तरार्ध में हाथ, मिट्टी का बर्तन, कुड़छी तथा कांसे आदि का बर्तन, सचित्त जल आदि से संसृष्ट हो तो आहार ग्रहण करने का निषेध और इनसे असंसृष्ट हाथ आदि से ग्रहण करने का विधान किया गया है। संक्षेप में सचित्त वस्तु से संसृष्ट आहार लेने का निषेध तथा उससे असंसृष्ट वस्तु लेने का विधान है। निशीथ भाष्य की चूर्णि में संसृष्ट के 18 प्रकार बतलाए गए हैं(१) पूर्वकर्म (साधु के आहार लेने से पूर्व हाथ आदि धोकर देना)। (2) पश्चात्कर्म (साधु के आहार लेने के पश्चात् हाथ आदि धोना)। (3) उदका (बूंदें टपक रही हों, इस प्रकार से गीले हाथ आदि)। (4) सस्निग्ध* (केवल गीले-से हाथ किन्तु बूंदें न टपकती हों आदि)। (5) सचित्त मिट्टी (मिट्टी का ढेला या कीचड़)। 1 (क) टीका पत्र 340 / (ख) तुलना कीजिए-आलोयं थिग्गलं दारं संधि-वगभवणाणि य / चरंतो न विणिज्झाए. संकद्राणं विवज्जए। --दशव 4115 टीका पत्र 341 से। 3 पुरेकम्मं नाम जं साधूण दळूण हत्थं भायण धोवइ..."। —दशव० जिनदास चूणि पृ० 178 4 उदकाोनाम गलदुदबिन्दुयुक्तः - दशवै० हारिभद्रीय टीका पृ० 170 5 जंउदगेण किंचि णि ण प्रण गलति तं संसिणि। -~-अगस्त्य चूणि पृ० 108 6 मट्टियाकडउमट्टिया चिक्खलो -जि० चू० पृ० 179 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 356 (6) सचित्त क्षार (खारी या नौनी मिट्टी) / (7) हड़ताल। (8) हींगलू। (6) मेनसिल। (10) अंजन / (11) नमक। (12) गेरू (लाल मिट्टी। (13) पीली मिट्टी। (14) खड़िया मिट्टी। (15) सौराष्ट्रिका' (सौराष्ट्र में पायी जाने वाली एक प्रकार की मिट्टी, जिसे 'गोपी चंदन' भी कहते है। (16) तत्काल पीसा हुआ बिना छना आटा।१० (17) चावलों के छिलके / 11 (18) गीली वनस्पति का चूर्ण या फलों के बारीक टुकड़े। इनमें पुरःकर्म, पश्चात्कम, उदका और सस्निग्ध ये चार अप्काय से सम्बन्धित हैं। पिष्ट, कुक्कुस और उक्कुट्ठ-ये तीन वनस्पतिकाय से सम्बन्धित हैं और शेष ग्यारह पृथ्वीकाय से सम्बन्धित हैं। " दशवकालिक सूत्र में ‘एवं' और 'बोधव्य' ? ये दो पद संग्रहगाथाओं के सूचक हैं / चूर्णिकार ने चूर्णि में इसके पूर्वोक्त 'उदउल्लं' (उदका) से लेकर 'उक्कुटठं' तक संसृष्ट योग्य सत्तरह सचित्त पदार्थों को लेकर सत्तरह गाथाएं दी हैं / 6 (क) उसो नाम पंसुखारो -जिन० चू० पृ० 176 (ख) उसो लवणपंसू -अगस्त्य० चू० पृ० 106 7 वण्णिया पोयमट्टिया, वणिका पीली मिट्टी -जिन चू० पृ० 176 8 सेडिया-सेटिका-खटिका खड़िया मिट्टी -टीका पत्र 341 से है सोरठिया= सौराष्ट्रयाढको तुवरी पपर्टो कालिका सती। सुजाता देशभाषायां गोपीचन्दनमूच्यते // - शालिग्राम निघन्टु 1064 10 आमपिटठं आमलोट्टो सो अस्पिधणो पोरिसिमित्तण परिणमइ बहइंधणो आरतो परिणमइ / --जि० चू० पृ० 176 11 कुक्कुसा= चाउलत्तया (चावलों के छिलके) -जिनदास चूणि पृ० 176 12. उक्कुट्ठो णाम सचिस्त वणस्सति पत्र कुरफलाणि वा उदूखले छुम्भति, तेहि हत्थो लिसा...। -निशीथ. मा० मा. 148 चू० / 13. निशीथ भाष्य चणि गा० / 14. (क) एवं उदओल्ले ससिमि, ससरक्खे मट्टिया ऊसे। हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे // 33 // Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध दो तरह से आहार लिया जा सकता है (1) जो देने को उद्यत है, उसके हाथ आदि सचित्त पानी आदि से सने हैं, परन्तु देय वस्तु सचित्त से लिप्त नहीं है, ऐसी स्थिति में सचित्त से सने हुए हाथ आदि जिसके न हों, वह अन्य व्यक्ति देना चाहे तो साधु उस आहार को ले सकता है। (2) दाता के हाथ आदि सचित्त जल आदि से संसृष्ट नहीं हैं, किन्तु देय वस्तु से संसृष्ट हैं तो ले-ले।' सचिन-मिश्रित आहार-ग्रहण निवेध 361. से भिक्खू वा 2 [जाव समाणे] से ज्ज पुण जाणेज्जा-पिहयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंब वा अस्संजए भिक्षुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव मक्कडासंताणाए कोट्टिसु वा कोट्टेति वा कोट्टिस्संति वा उप्फणिसु वा 3 / तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाउलपलं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 362. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं अस्संजए भिक्षुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए भिदिसु वा भिदंत वा भिदिस्संति वा चिसु वा 3, बिलं वा लोणं उम्भियं वा लोणं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 363. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-असणं वा 4 अगणिणिक्खितं, तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। गेल्य वणिय सेडिय, सोरठिय पिट्ठ कुक्कुसकए य / उक्कट्ठमसंसठे, संसटठे चेव बोधब्वे // 34 // असंसद्रुण हत्थेण, वन्वीए भायणेण वा। दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे // 35 // -~दशव० 5/1 (ख) दशवै० चूणि पृ० 178 में देखिए 17 गाथाएं / , 1. टीका पत्र 341 से। 2. अन्य प्रतियों में, वृत्ति में भी 'जाव समाणे' पद है, ऐसा प्रतीत होता है। 3. बहरयं वा' के बाद पठित 'जाव' शब्द 'भज्जियं वा मंचं या चाउल वा' सूत्र 326 के पाठ का सूचक है। 4. 'उफणिसु वा के बाद '3' का अंक "उफणंति वा उफणिस्तंति वा' का सूचक है। 5. यहाँ 'अफासुयं' के बाद 'जाव' शन्द अणेसणिज्ज मण्णमाणे लाभे संते' इतने पाठ का सूचक है। 6. 'रुचिसु वा 3' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है--रुचिसु वा रुचंति वा, रुचिरसंति वा इत्यों शयः। पीसा था, पीसती है, या पीसेगी--यह अर्थ समझना चाहिए / Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 361-364 केवली बूया-आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए उस्सिचमाणे वा निस्सिचमाणे' वा आमज्जमाणे वा पमज्जमाणे वा उतारेमाणे वा उयत्तमाणे अगणिजीवे हिंसेज्जा / अह भिक्खुणं पुन्वोवविट्ठा एस पतिण्णा, एस हेतू, एस कारणं, एसुववेसे-जं तहप्पगारं असणं वा 4 अगणिणिक्खितं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 361. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि शालि-धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्तरज (तुष सहित) बहुत है, गेहूं आदि अग्नि में भूजे हुए है, किन्तु वे अर्धपक्व है, गेहूं आदि के आटे में तथा कुटे हुए धान में भी अखण्ड दाने है, कणसहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भुने हुए या कुटे हुए हैं, अतः असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, धुन लगे हुए लक्कड़ पर, या दीमक लगे हुए जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे सहित, प्राण-सहित या मकड़ी आदि के जालों सहित शिला पर उन्हें कूट चुका है. कूट रहा है या कूटेगा; उसके पश्चात् वह उन--(मिश्रजीवयुक्त) अनाज के दानों को लेकर उपन चुका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस प्रकार के (भूसी से पृथक् किए जाते हुए) चावल आदि अन्नों को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे। 362. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि वह जाने कि असंयमी गृहस्थ किसी विशिष्ट खान में उत्पन्न सचित्त नमक या समुद्र के किनारे खार और पानी के संयोग में उत्पन्न उद्भिज्ज लवण के सचित्त शिला, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे लक्कड़ पर याजीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे, प्राण, हरियाली, बीज या मकड़ी के जाले सहित शिला पर टुकड़े कर चुका है, कर रहा है या करेगा, या पीस चुका है, पीस रहा है या पीमेगा तो साधु ऐसे सचित्त या सामुद्रिक लवण को अप्रासुक-अनेषणीय समझ कर ग्रहण न करे / 363. गृहस्थ के घर आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जान जाए कि अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है, तो उस आहार को अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। केवली भगवान् कहते है-यह कर्मों के आने का मार्ग है। क्योंकि असंयमी गृहस्थ साधु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे हुए बर्तन में से आहार को निकालता हुआ, उफनते हुए दूध आदि को जल आदि के छींटे देकर शान्त करता हुआ, अथवा उसे हाथ आदि से .एक बार या बारबार हिलाता हुआ, आग पर से उतारता हुआ या बर्तन को टेढ़ा करता हुआ वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित किया है कि उसकी यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदेश है कि वह (साध 1. निस्सिचमाणे' का अर्थ चूणिकार ने किया है--णिसिंचति तहि अण्णं छुमति' अर्थात् बर्तन में अन्न ऊरते (आंधण डालते) समय अन्न को मसलती है। 2. उतारेमाणे का अवशय चूर्णि में दिया है-'उतारेमाणे वा अगणिवि राहणा' उतारते हुए अग्नि की विराधना होती है। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध या साध्वी) अग्नि (आंच) पर रखे हुए आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। विवेचन--सचित्त से संपृष्ट आहार-ग्रहण का निषेध--प्रस्तुत तीनों सूत्र (361, 362, 363) में क्रमश: वनस्पतिकायिक, पृथ्वीकायिक एवं अग्निकायिक जीवों से संस्पृष्ट आहार के ग्रहण करने का निषेध किया गया है। चावल, गेहूँ, बाजरी, जो मक्का आदि को गृहस्थ भजते हैं, सेंकते हैं, मूड़ी, धानी या फूलो आदि बनाते हैं, अथवा उसके कच्चे सिट्टों को आग में सेंकते हैं, अथवा उन्हें गर्म पानी में उबालते हैं या उन्हें कटते-पीसते हैं। इन सब प्रक्रियाओं में बहुत से अखण्ड दाने रह जाते हैं, पूरी तरह से अग्नि में न पकने के कारण या शस्त्र-परिणत ठीक स न होने के कारण वनस्पति और पृथ्वी (विविध प्रकार की मिट्टी) भी कच्ची या अर्धपक्व सचित्त रह जाती है / इसलिए सचित्त से संस्पृष्ट वनस्पतिकायिक अनाज या फल आदि, पृथ्वीकायिक नमक आदि को गृहस्थ साधु के लिए और अधिक कूट-पीस कर या शस्त्र-परिणत करके रखता है, रख रहा है या रखेगा, ऐसा मालूम होने पर साधु को उस आहार को ग्रहण नहीं करना चाहिए।' 'उणिसु' आदि शब्दों के अर्थ-उणिसु =चावलों आदि का भूसा अलग करने के लिए सूप में भर कर हवा में ऊपर से गिराने को उपनना कहते हैं. यहाँ उनकी-भुतकालिक क्रिया है। भिदिसु =भेदन कर चुका, टुकड़े कर लिए / चिसुपीस लिया। बिलं वा लोणं-किसी विशिष्ट खान में उत्पन्न हुआ लवण, उपलक्षण से सैन्धव, सैचल आदि नमक का भी ग्रहण कर लेना चाहिए 'उभियं वा लोणं उद्भिज्ज लवण =समुद्र के तट पर क्षार और जल के सम्पर्क से जो तैयार होता है, वह उद्भिज्ज लवण है / ' उस्सिवमाणे-आंच पर रखे बर्तन में से आहार को बाहर निकालता हुआ, निस्सिचमाणे = उफनते हुए दूध आदि को पानी के छींटे देकर शान्त करता हुआ, आमज्जमाणे-पमज्जमाणेहाथ से एक बार हिलाता हुआ, बार-बार हिलाता हुआ, उतारेमाण =आंच पर से नीचे उतारता हुआ उयत्तमाणे-बर्तन को टेढा करता हुआ। 364. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं / / ___ 364. यह (सचित्त-ससृष्ट आहार-ग्रहण-विवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि आचार---) समग्रता है।' छठा उद्देशक समाप्त 1. टीका पत्र 343 के आधार पर। 2. तुलना कीजिये बिडमुन्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पियं च फाणियं.......। 3. इसका विवेचन प्रथम उद्देशक के 334 वें सूत्र की तरह समझें / --दशवै० अ० 6 गा० 17 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 365-66 सत्तमो उदेसओ सप्तम उद्देशक मालाहुत दोष-युक्त आहार ग्रहण निषेध 365. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-असणं वा 4' खंधसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासादसि वा हम्मियतलंसि वा अग्गयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उवणिक्खित्ते सिया। तहप्पगारं मालोहडं असणं वा 4 अफासुयं णो पडिगा केवलो बूया--आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलग वा णिस्सेणि वा उदूहलं वा अवहट्ट उस्सविय दुरु हेज्जा / से तत्थ दुरुहमाणे पालेग्ज वा पवडेज्ज वा। से तत्थ पयलमाणे मा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा बाहु वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं वा अण्णतरं वा कायंसि इंदियजायं लूसेज्ज वा, पाणाणि वा 45 अभिहणेज्ज वा, वत्तेज वा, लेसेज्ज वा, संघसेज्ज वा, संघटेज्ज वा, परियावेज्ज वा, किलामेज्ज वा, |उद्दवेज्ज वा ?,] ठाणाओ ठाणं संकामेज्ज वा, [जोवियाओ ववरोवेज्ज वा ?] / तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा 4 लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 366. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा --असणं वा 4 1. यहां 'असणं वा' के बाद 4' का अंक शेष तीनों आहारों का सूचक है। 2. खंध सि वा' की व्याख्या चणि में इस प्रकार की गयी है—खंधो पागारओ, अथवा खंधो, सो तज्जातो अतज्जातो वा, अतज्जातो अउवीए गोउलादिसु उवनिक्खित्तं होज्ज, अतज्जातो धरे चेक, पाहाणखंधोवा, तज्जातो गिरिणगरे, अतज्जातोऽन्यत्र / अर्थात् स्कन्ध प्राकारक का नाम है। अथवा स्कन्ध दो प्रकार का होता है-- तज्जात और अतज्जात / अतज्जात वह है, जो जंगल में, गोकुल आदि में डाला जाता है / अतज्जात स्कन्ध्र घर में ही पापाण का बना हुआ स्कन्ध होता है, तज्जात होता है गिरिनगर में—उमी पत्थर से जो बनता है। 3. 'अवहटु' का अर्थ चूणिकार करते हैं—'अवहट्ट-अण्णतो गिहित्ता अण्णहि ठवेति / ' अवहट्ट का अर्थ हैं...-अन्य स्थान से लेकर अन्य स्थान में रख देता है। 4. 'दुरुहंज्जा' के स्थान पर 'दुरुहेज्ज' तथा 'दुहेज्जा' पाठान्तर मिलते हैं / अर्थ समान है। 'पाणाणि वा' के आगे '4' का चिन्ह भयाणि वा, जीवाणिवा, सत्ताणि वा' का सूचक है। 6. इसके स्थान पर 'वित्तासिज्ज', 'वित्तसेज्ज' आदि पाठान्तर मिलते हैं अर्थ होता है -विशेष रूप से त्रास देगा। यहाँ भी आवश्यकोक्त ऐर्यापथिकी सूत्र के इस पाठ के अनुसार क्रम माना है---'अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठागायोडागं, संकामिया, जीवियाओ ववरोविया।' Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 'कोद्विगातो वा कोलेज्जातो वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अवउज्जिय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा / तहप्पगारं असणं वा 4 मालोहडं ति गच्चा लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 365. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ के यहाँ भीत पर, स्तम्भ पर, मंच पर, घर के अन्य ऊपरी भाग (आले) पर, महल पर, प्रासाद आदि की छत पर या अन्य उस प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के ऊँचे स्थान में उतार कर दिया जाता अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक. एवं अनेषणीय जान कर साधु ग्रहण न करे। केवली भगवान् कहते है-यह कर्मबन्ध का उपादान-कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ भिक्षु को आहार देने के उद्देश्य से (ऊंचे स्थान पर रखे हुए आहार को उतारने हेतु) चौकी, पट्टा, सीढ़ी (निःश्रेणी) या ऊखल आदि को लाकर ऊँचा करके उस पर चढ़ेगा। ऊपर चढ़ता हुआ वह गृहस्थ फिसल सकता है या गिर सकता है। वहाँ से फिसलते या गिरते हुए उसका हाथ, पैर, भजा, छाती, पेट, सिर या शरीर का कोई भी अंग (इन्द्रिय समूह) टूट जाएगा, अथवा उसके गिरने से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीचे (धूल में) दब जाएँगे, परस्पर चिपक कर कुचल जाएंगे, परस्पर टकरा जाएंगे, उन्हें पीड़ाजनक स्पर्श होगा, उन्हें संताप होगा, वे हैरान हो जाएंगे, वे त्रस्त हो जाएंगे, या एक (अपने ) स्थान 1. निशीथ चणि (उ०१७) में इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है--'पुरिसपमाणा होणाहिया वा वि चिक्खलमयो कोट्ठिया भवति / कोलेज्जो नाम धंसमओ कडबल्लो सट्टई वि भण्णति, अन्न भणंति उट्टिया / उवरिहुत्तकरणं उक्किज्जित, उद्धाए तिरियहुत्तकरणं अवकुज्जिया वा, ओहरिय त्ति घेढियमादिसु आरुभि ओतारेति / अहवा उच्चं कुज्जा उक्कज्जिया दंडायतं तद्वदगह णाति, कायं कन्ज कृत्वा गृह गाति, ओणमिय इत्यर्थः / ' अर्थात पुरुषप्रमाण अथवा न्यूनाधिक ऊँची चिकनी कोष्टिका होती है। कोलेज्ज-कहते हैं धस जाने वाली चटाई का बाड़ जिसे सट्टा (टाटी) भी कहते हैं / अन्य आचार्य इसे उष्ट्रिका कहते हैं। ऊपर गर्दन करना उक्कज्जित है, ऊँचा होकर तिरछी गर्दन करना अबकुज्जिया है, ओहरिय कहते हैं—जहाँ ऊँची चौकी आदि पर चढ़ कर उतारा जाता है। अथवा उक्फज्जिया का अर्थ है-चा उठकर दंडायमान होकर आहार ग्रहण करता (पकड़ना) है। शरीर को कुबड़ा करके -. अर्थात् नीचे झुककर / 2. इसके स्थान पर 'कुट्ठिगाओ', 'कोठितासो', 'कोठ्ठियाओ', 'कोहिगाओ' आदि पाठान्तर मिलते हैं। चूणिकार ने 'कोहिगा' पाठ ही माना है, जिसका अर्थ होता है--अन्न-संग्रह रखने की कोठी / 3. 'कोलेज्जातो' के स्थान पर चर्णिकार 'कालेज्जाओ' पाठ मान कर व्याख्या करते हैं-'कालेज्जाओ वसमओ उरि संकुओ मूडिंगहो-भूमीए वा खणित भूमीघरगं उरि संकडं हेट्ठा विच्छिण्णं अग्गिणा बहित्ता कति, ताहि सुचिरं पि गोहमादी धणं अच्छति' अर्थात्-कालिज्ज का अर्थ है--बांस का बनाया हुआ भूमिगह, जो ऊपर से संकड़ा और नीचे से चौड़ा हो, अग्नि से जब उस भूमि को जला देते हैं, तब उसमें चिरकाल तक गेहूँ आदि अन्न अधिक होते हैं। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 366 71 से दूसरे स्थान पर उनका संक्रमण हो जाएगा, अथवा वे जीवन में भी रहित हो जाएँगे / अत: इस प्रकार के मालाहृत (ऊंचे स्थान से उतार कर लाये गए) अशनादि चतुर्विध आहार के प्राप्त होने पर भी साधु उसे ग्रहण न करे। 366. आहार के लिए, गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि असंयत गृहस्थ- साधु के लिए अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी आदि की बड़ी कोठी में से या ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े भूमिगृह में स नीचा होकर, कुबड़ा होकर या टेढा होकर निकाल कर देना चाहता है, तो ऐमें अशनादि चतुर्विध आहार को मालाहृत (दोष से युक्त) जान कर प्राप्त होने पर भी वह साधु या साध्वी ग्रहण न करे। विवेचन मालाहृत दोषयुक्त आहार ग्रहण न करे. - इन दोनों सूत्रों में मालाहृत दोष से युक्त आहार ग्रहण करने का निषेध है, साथ ही इस निषेध का कारण भी बताया है। मालाहृत गवेषणा (उद्गम) का १३वा दोष है। ऊपर. नीचे या तिरछी दिशा में जहां हाथ आसानी मे न पहुंच सके, वहाँ पंजों पर खड़े होकर या सीढी, तिपाई, चौकी आदि लगाकर साधु को आहार देना -मालाहत' दोष है / इसके मुख्यतया तीन प्रकार है-(१) ऊर्ध्व-मालाहृत (ऊपर से उतारा हुआ), (2) अधोमालाहृत (भूमिगृह, तलघर या तहखाने से निकाल कर लाया हुआ), (3) तिर्यग-मालाहृत-ऊंडे बर्तन या कोठे आदि में में झुक कर निकाला हआ। इनमें से भी हर एक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन भेद हैं। एड़ियाँ उठा कर हाथ फैलाते हुए छत में टंगे छींके आदि से कुछ निकाल कर लाना जघन्य-ऊर्ध्वमालाहृत है. सीढ़ी आदि लगाकर ऊपर की मंजिल से उतार कर लाई गई वस्तु उत्कृष्ट-ऊध्र्वमालाहृत है, सोढ़ी लगाकर मंच, खंभे या दीवार पर रखी हुई वस्तु उतार कर लाना मध्यम-मालाहृत है।' मालाहृत दोषयुक्त आहार लेने से क्या-क्या हानियां हैं ? इसे मूल पाठ में बता दिया है। अहिंसा महाव्रती साधु अपने निमित्त से दूसरे प्राणी की जरा-सी भी हानि, क्षति या हिंसा सहन नहीं कर सकता, इसी कारण इस प्रकार का आहार लेने का निषेध किया है। 'बंधंसि' आदि पदों के अर्थ-खंधसि-दीवार या भित्ति पर। स्कन्ध का अर्थ चूर्णिकार प्राकारक (छोटा प्राकार) करते हैं, अथवा दो प्रकार का स्कन्ध होता है --तज्जात, अतज्जात। तज्जात स्कन्ध पहाड़ की गुफा में पत्थर का स्वतः बना हुआ आला या लटान होती है और अतज्जात कृत्रिम होती है, घरों में पत्थर का या ईंटों का आला या लटान बनाई जाती है, चीजें रखने के लिए। यंभंसि-शिला या लकड़ी के बने हुए स्तम्भ पर. मंचं चार लट्ठों को 1. (क) पिण्डनियुक्ति मा० 357, (ख) दशवकालिक 5 // 1 // 67, 68, 69, (ग) दशवै० चूणि (अग०) पृ० 117 / 2, आचारांग वृत्ति पत्रांक 343-344 / 3. वही, पत्रांक 343-344 / Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध बांध कर बनाया हुआ ऊँचा स्थान मंच या मचान कहलाता है, उस पर, मालंसि= छत पर या ऊपर की मंजिल पर / पासादसि-महल पर, हम्मियतलंसि . प्रासाद की छत पर / पयलेज्ज - फिसल जाएगा, पवडेज्ज = गिर पड़ेगा / लूसेज्ज-चोट लगेगी या टूट जाएगा। कोट्ठिग्मातो--- कोष्ठिका अन्न संग्रह रखने की मिट्टी-तृण-गोवर आदि की कोठी से, कोलेज्जातो- ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े से भूमिघर से। उक्कज्जिय -शरीर ऊंचा करके झुक कर तथा कुबड़े होकर, अवउज्जिय = नीचे झुक कर, आहारिय-तिरछा-टेढ़ा होकर। उभिन्न-दोष युक्त आहार-निषेध 367. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 मट्टिओलितं / तहप्पगारं असणं वा 4 जाव' लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए मट्टिओलित्तं असणं वा उम्भिदमाणे पुढवीकार्य समारंभेज्जा, तह तेउ-वाउ-वणस्तति-तसकायं समारंभेज्जा, पुणरवि ओलिपमाणे पच्छाकम्मं करेज्जा / अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा 4 जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा 4 अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 367. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि वहाँ अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / केवली भगवान् कहते हैं---यह कर्म आने का कारण है। क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के बर्तन का मुह उद्भेदन करता (खोलता) हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करेगा, तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और प्रसकाय तक का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पश्चात्कर्म करेगा। इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित कर दिया है कि साधु-साध्वी की यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोल कर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन-उभिन्न दोष युक्त आहार ग्रहण न करें इस सूत्र में उद्गम के 12 वें उद्भिन्न नामक दोष से युक्त आहार के ग्रहण करने का निषेध किया गया है। यहां तो सिर्फ 1. यहाँ 'जाव' शब्द सू०:२४ में पठित 'अफासुयं अणेसणिज्जं मण्णमाणे' तक के पाठ का सूचक 2. यहाँ 'पुव्योवदिट्ठा' से आगे '4' का अंक 'जं तहप्पगार' तक समग्र पाठ का सूचक है, सूत्र 367 के अनुसार। 3. टीका पत्र 344 के आधार पर। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 368 मिट्टी के लेप से लिप्त बर्तन के मुख को खोलकर दिया गया आहार लेने में उद्भिन्नदोष बताया है, किन्तु दशवकालिकसूत्र में बताया गया है कि जल-कुम्भ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढ़ा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढके, लिपे और मूंदे हुए) बर्तन का श्रमण के लिए मुंह खोलकर आहार देती हुयी महिला को मुनि निषेध करे कि 'मैं इस प्रकार का आहार नहीं ले सकता।' उद्भिन्न से यहां मिट्टी का लेप ही नही, लाख, चपड़ा, कपड़ा, लोह, लकड़ी आदि द्रव्यों से बंद बर्तन का मुंह खोलने का भी निरूपण अभीष्ट है, अन्यथा सिर्फ मिट्टी के लेप से बन्द बर्तन के मुंह को खोलने में ही षट्काय के जीवों की विराधना कैसे संभव है ? पिण्डनियुक्ति गाथा 348 में उद्भिन्न दो प्रकार का बताया गया है-(१) पिहितउद्भिन्न और (2) कपाट-उद्भिन्न। चपड़ी, मिट्टी, लाख आदि से बन्द बर्तन का मुंह खोलना पिहित उद्भिन्न है, और बंद किवाड़ का खोलना कपाटोद्भिन्न है। पिधान (ढक्कन-लेप) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है, उसे साधु के लिए खोला जाए और बन्द किया जाए तो वहाँ पश्चात्कर्म एवं आरम्भजन्य हिंसा की सम्भावना है। इसीलिए यहाँ पिहित-उद्भिन्न आहार-ग्रहण का निषेध किया है। लोहा-चपड़ी आदि से बंद वर्तन को खोलने में अग्निकाय का समारम्भ स्पष्ट है, अग्नि प्रज्वलित करने के लिए हवा करनी पड़ती है, इसलिए वायुकायिक हिंसा भी सम्भव है, घी आदि का ढक्कन खोलते समय नीचे गिर जाता है तो पृथ्वीकाय,-वनस्पतिकाय और छोटे-छोटे त्रसजीवों की विराधना भी सम्भव है / बर्तनों के कई छांनण (बंद) मुंह खोलते समय और बाद में भी पानी से भी गृहस्थ धोते हैं, इसलिए अप्काय की भी विराधना होती है। लकड़ी का डाट बनाकर लगाने से वनस्पतिकायिक जीवों की भी विराधना सम्भव है।' षटकाय जीव-प्रतिष्ठित आहार-ग्रहण निषेध 368. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 पुढविक्कायपतिद्वितं / तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। अप्काय-अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार-ग्रहण निषेध से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 आउकायपतिष्ठितं तह चेव / एवं अगणिकायपतिद्वितं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 1. दगावारएण पिहियं, नौसाए पीढ़एण वा। लोदेण वावि लेवेण, सिलेसेण व केणइ // 4 // तंच उम्मिविया उज्ज, समणटठाए व बावए। बेतियं पडिआइक्खन मे कम्पइ तारिसं // 46 // 2. (क) आचा० टीका पत्र 344 से आधार पर। 3. आचा. टीका पत्र 344 के आधार पर / -दसवै० अ० 5 उ०१ (ख) पिण्डनियुक्ति गाथा 348 / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध केवली बूया--आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए अणि उस्सिक्किय' णिस्सिक्किय ओहरिय आहट्ट वलएज्जा। अह भिक्खूणं पुन्वोवदिट्ठा 4 जाव णो पडिगाहेज्जा। वायुकाय-हिंसाजनित निषेध से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा--असणं वा 4 अच्चुसिणं अस्संजए भिक्ख पडियाए सूवेण वा विहुवणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा लेण बा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमेज्ज वा वीएज्जा वा / से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो त्ति वा भगिणि त्ति वा मा एतं तुमं असणं वा 4 अच्चुसिणं सूवेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा, अभिकखसि मे दाउं एमेव दलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो सूवेण वा जाव बोइत्ता आहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुयं जाणो पडिगाहेज्जा। वनस्पति-प्रतिष्ठित आहार ग्रहण-निषेध से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 वणस्सतिकायपतिद्वितं / तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वणस्सतिकायपतिद्वितं अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / एवं तसकाए वि। 368. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने की यह अशनादि चतुर्विध आहार-पृथ्वीकाय (सचित्त मिट्टी आदि) पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर साधु-साध्वी ग्रहण न करे। वह भिक्षु या भिक्षुणी आदि....यह जाने कि-अशनादि आहार अप्काय (सचित्त जल आदि) पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे। 1. इन दोनों पदों के स्थान पर 'उसिसकिया णिस्सिक्किया'.---'उस्सिकिय णिस्सिकिय, 'उस्सिकिय पिस्सिकिय और---'उस्संकिय णिस्सिक्किय पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ प्रायः समान है। उस्सिकिय का अर्थ चोण में इस प्रकार है-उस्सिकिय-यानी बुझा कर / अन्य टीका में 'ओस (उस्स) क्किय पाठ मान कर अर्थ किया है--प्रज्वाल्य =जलाकर / 2. ओहरिय का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-.-'उत्तारेत'=उतारकर / 3. यहाँ 'पुग्योवदिहा' के आगे '4' का चिन्ह सूत्र 367 के अनुसार-णो पडिगाहेज्जा' तक समग्र पाठ समझें / 4. विडवणेण' के स्थान पर 'विधुवणेण' पाठान्तर मानकर चूणिकार ने अर्थ किया है-विधुवणं -- वीयणओ-व्यंजनक= पंखा / 5. सूत्रेण का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है--सूर्व-सुप्पं -सूप (छाज)। अफासुयं के आगे जाव शब्द पडिग्गाहेज्जा तक सूत्र 324 के अनुसार समग्र पाठ समझें। 'जाव' के अन्तर्गत सूत्र 324 से अनुसार 'समाणे' तक का समग्र पाठ समझें। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 368 ___ वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि...यह जाने कि अशनादि आहार अग्निकाय (आग या आँच) पर रखा हुआ है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे / केवली भगवान् कहते हैं-यह कर्मों के उपादान का कारण है क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु के उद्देश्य से--अग्नि जलाकर, हवा देकर, विशेष प्रज्वलित करके या प्रज्वलित आग में से ईन्धन निकाल कर, आग पर रखे हुए वर्तन को उतार कर, आहार लाकर दे देगा, इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने साधु-साध्वी के लिए पहले से बताया है, यही उनकी प्रतिज्ञा है, यही हेतु है, यही कारण है और यही उपदेश है कि वे सचित्त-पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पर प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करें। गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि साधु को देने के लिए यह अत्यन्त उष्ण आहार असंयत गृहस्थ सूप-(छाजने) से, पंखे से ताड़ पत्र, खजूर आदि के पत्ते, शाखा, शाखा खण्ड से, मोर के पंख से अथवा उससे बने हुए पंख से, वस्त्र से वस्त्र के पल्ले से, हाथ से या मुंह से, फूक मार कर पंखे आदि से हवा करके ठंडा करके देनेवाला है। वह पहले (देखते ही) विचार करे और उक्त गृहस्थ से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती भगिनी ! तुम इस अत्यन्त गर्म आहार को सूप, पंखे....हाथ-मुह आदि से फूक मत मारो और न ही हवा करके ठंडा करो। अगर तुम्हारी इच्छा इस आहार को देने की हो तो, ऐसे ही दे दो। इस पर भी वह गृहस्थ न माने और उस अत्युष्ण आहार को सूप पंखे आदि से हवा देकर ठण्डा करके देने लगे तो उस आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार वनस्पतिकाय (हरी सब्जी, पत्ते आदि) पर रखा हुआ है तो उस प्रकार के वनस्पतिकाय प्रतिष्ठित आहार (चतुर्विध) को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर न ले। इसी प्रकार सकाय स प्रतिष्ठित आहार हो तो....उसे भी अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर ग्रहण न करे। विवेचन–पटकायिक जीव-प्रतिष्ठित आहार ग्रहण न करे-इस सूत्र में.पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय; यों पाँच एकेन्द्रिय जीवों और त्रसकाय (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के) जीवों के ऊपर रखा हुआ या उनसे संसृष्ट आहार हो तो उसे ग्रहण करने का निषेध किया गया है। कई बार ऐसा होता है कि आहार अचित्त और प्रासुक होता है, किन्तु उस आहार पर या आहार के वर्तन के नीचे या आहार के अन्दर कच्चा पानी, सचित्त नमक आदि, हरी वनस्पति या बीज आदि स्थित हो, अग्नि का स्पर्श हो (आग से बार-बार बर्तन को उतारा रखा जा रहा हो) या फूंक मारकर अथवा पंखे आदि से हवा की जा रही हो अथवा उस Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय भू तस्कन्ध आहार में पानी में धनेरिया, चींटी, लट, मक्खी, फुआरे आदि जीव पड़े हों या सांप, बिच्छू आदि आहार के बर्तन के नीचे या ऊपर बैठे हों अथवा उस आहार पर चींटियां लगी हुई हों, मक्खियां बैठी भिनभिना रही हों, या अन्य कोई उड़ने वाला प्राणी उस आहार पर बैठा हो या मंडरा रहा हो तो ऐसी स्थिति में उस आहार को सचित्त प्रतिष्ठित माना जाता है, साधु के लिए वह ग्राह्य नहीं होता।' क्योंकि-अहिंसा महाव्रती साधु अपने आहार के लिए किसी भी जीव को जरा-सा भी कष्ट नहीं दे सकता / यही कारण है कि वह इतना सावधानीपूर्वक चलता है। इस सूत्र में शंकित, मक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छर्दित, इन दस एषणा-दोषों का समावेश हो जाता है।' पानक एषण ___ 366. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पाणगजायं जाणेज्जा, तंजहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं पाणगजातं अधुणाधोतं अणंबिलं अव्वोक्कत अपरिणतं अविद्धत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा / अह पुणवं जाणेज्जा चिरा धोतं अंबिलं वक्तं परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। 1. तुलना करें :--- असणं पाणगंवा वि, खाइमं साइमं तहा। पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा // 57 // तं भवे भत्तपाणं तु. संजयाण अकप्पियं / बेतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पई तारिसं // 58 // असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। उदगम्मि होज्ज निक्खित्त, उत्तिगंपणगेसु वा // 56 // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / देतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पई तारिसं // 60 / / असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि होज्ज निक्खित तं च संघट्टिया दए। 61 // तं भवे भत्तपाणं तु; संजयाण अकप्पियं / दें तयं पडिआइक्खे, न मे कम्पई तारिसं // 2 // एवं उस्सक्किया ओसक्किया, उज्जालिया पज्जालिया निश्वाविया। उस्सिचिया निस्सिचिया, ओवत्तिया ओयरिया दए // 63 // तं भवे भत्तपाणं तु. संजयाण अकप्पियं / दंतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 64 // होज्ज कहें सिलं वा वि, इट्ठालं वा वि एगया। ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज्ज चलाचलं // 65 // --दसर्व० ५/उ० 1 2. आचारांग टीका पत्र 345 के आधार पर। 3. तुलना कीजिए-दशवकालिक अ०५, उ०१, गा० 106 / 4. 'अबोक्कंतं' के स्थान पर अम्बरकत पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है--सबेयणं-सचेतन / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 366-71 370. से भिक्खू वा 2 जाव' समाणे से ज्जं पुण पाणगजातं जाणेज्जा तंजहा-तिलोदर्ग' वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वा सुद्धवियर्ड वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं पाणगजातं पुवामेव आलोएज्जा आउसो त्ति वा भगिणि त्ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं पाणगजातं ? से सेवं वदंतं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा! चेवेदं पाणगजातं पडिग्गहेण वा उस्सिचियाणं ओयत्तियाणं गिण्हाहि / तहप्पगारं पाणगजातं सयं वा गेण्हेज्जा, परो वा से वेज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहेज्जा। __371. से भिक्खू वा जाव समाणे से ज्जं पुण पाणगं जाणेज्जा-अणंतरहिताए पुढवीए जाव संताणए उद्धटु उद्घ8 णिक्खित्ते सिया। अस्संजते भिक्खुपडियाए उदउल्लेण वा ससणिदेण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सोतोदएण वा संभोएत्ता आहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं पाणगजायं अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। ___366. गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि पानी के इन प्रकारों को जाने, जैसे कि-आटे का हाथ लगा हुआ पानी, तिल धोया हुआ पानी, चावल धोया हुआ पानी, अथवा अन्य किसी वस्तु का इसी प्रकार का तत्काल धोया हुआ पानी हो, जिसका स्वाद चलित-(परिवर्तित) न हुआ हो, जिसका रस अतिक्रान्त न हुआ (बदला न) हो, जिसके वर्ण आदि का परिणमन न हुआ हो, जो शस्त्र-परिणत न हुआ हो, ऐसे पानी को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी साधु-साध्वी ग्रहण न करे। इसके विपरीत यदि वह यह जाने कि यह बहुत देर का चावल आदि का धोया हुआ धोवन है, इसका स्वाद बदल गया है, रस का भी अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि भी परिणत हो गए हैं और शस्त्र-परिणत भी है तो उस पानक (जल) को प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर साधु-साध्वी ग्रहण करे / 370. गृहस्थ के यहां पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी अगर इस प्रकार का पानी जाने, जैसे कि तिलों का (धोया हुआ) उदक; तुषोदक, यवोदक, उबले हुए चावलों का ओसामण (मांड), कांजी का बर्तन धोया हुआ जल, प्रासुक उष्ण जल अथवा इसी प्रकार का अन्य-द्राक्ष को धोया हुआ पानी (धोवन) इत्यादि जल-प्रकार पहले देखकर ही साधु गृहस्थ से कहे"आयुष्मान् गृहस्थ (भाई) या आयुष्मती बहन ! क्या मुझे इन जलों (धोवन पानी) में से किसी जल (पानक) को दोगे?" साधु के इस प्रकार कहने पर वह गृहस्थ यदि कहे कि "आयुष्मन 1. 'जाव' के आगे का 'समाणे' तक का पाठ सू० 324 के अनुसार समझें / 2. तुलना कीजिए-दशवकालिक अ०५, उ०१, गा० 88, 12 / 3. इसके स्थान पर पाठान्तर इस प्रकार है-'उसिंचियाणं अवत्तियाणं' / अर्थ समान है। 4. इसके स्थान पर 'ओहद्द निक्खित्ते', 'उहट्ट 2 निक्खिसे पाठान्तर है। अर्थ समान है। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध श्रमण ! जल पात्र में रखे हुए पानी को अपने पात्र से आप स्वयं उलीच कर या जल के बर्तन को उलटकर ले लीजिए।" गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु उस पानी को स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ स्वयं देता हो तो उसे प्रासुक और एषणीय जान कर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। 371. गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि इस प्रकार का पानी जाने कि गृहस्थ ने प्रासुक जल को व्यवधान रहित (सीधा) सचित्त पृथ्वी पर, सस्निग्ध पृथ्वी पर, सचित्त पृथ्वी पर, सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले या पाषाण पर, घुन लगे हुए लक्कड़ पर, दीमक लगे जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे, प्राणी, बीज, हरी वनस्पति, ओस, सचित्त जल, चींटी आदि के बिल, पाँच वर्ण की काई, कीचड़ से सनी मिट्टी, मकड़ी के जालों से युक्त पदार्थ पर रखा है, अथवा सचित्त पदार्थ से युक्त बर्तन से निकालकर रखा है। असंयत गृहस्थ भिक्षु को देने के उद्देश्य से सचित्त जल टपकते हुए अथवा जरा-से गीले हाथों से, सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन से, या प्रासुक जल के साथ सचित्त (शीतल) उदक मिलाकर लाकर दे तो उस प्रकार के पानक (जल) को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर साधु उसे मिलने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन–अग्राह्य और ग्राह्य जल-साधु के लिए भोजन की तरह पानी भी अचित्त ही ग्राह्य है, सचित्त नहीं। गर्म पानी (तीन उबाल आने पर) अचित्त हो जाता है, परन्तु ठण्डा पानी भी चावल, तिल, तुष, जौ, द्राक्ष आदि धोने, काँजी, आटे, छाछ आदि के बर्तन धोने से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श बदल जाने पर अचित्त और प्रासुक हो जाता है / वह पानी, जिसे शास्त्रीय भाषा में 'पानक' कहा गया है, भिक्षाविधि के अनुसार साधु ग्रहण कर सकता है, बशर्ते कि वह पानी ताजा धोया हुआ न हो, उसका स्वाद बदल गया हो, गन्ध भी बदल गया हो, रंग भी परिवर्तित हो गया हो, और विरोधी शस्त्र द्वारा निर्जीव हो गया हो, इसी प्रकार उस प्रासुक जल का बर्तन किसी सचित्त जल, पृथ्वी, वनस्पति, अग्नि आदि के या त्रसकाय के नीचे, ऊपर या स्पर्श करता हुआ न हो, पंखे, हाथ आदि से हवा करके न दिया जाता हो, उसमें पृथ्वी कायादि या द्वीन्द्रियादि सजीव न पड़े हों, उसमें सचित्त पानी मिलाकर न दिया जाता हो। निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त प्रकार का प्रासुक अचित्त जल सचित्त वस्तु से बिल्कुल अलग रखा हो तो साधु के लिए ग्राह्य है, अन्यथा नहीं।' 1. (क) टीका पत्र 346 के आधार पर। (ख) दसवै० जिनदास चूर्णि पृ० 185 / तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोयणं / संसेइमं चाउलोदगं, अहणाधोयं विवज्जए // 75 // जं जाणेज्ज चिराधोयं, मइए सणेण वा। पडिपूच्छिऊण सोच्चा वा, जंच निस्संकियं भवे // 76 // -दसवै० 5/1 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 372-73 दशवकालिक आदि आगमों में इसका विस्तृत निरूपण है।। 'पाणगजायं' आदि पदों के अर्थ- पाणगजायं-पानक (पेयजल) के प्रकार, उस्सेइमं = आटा ओसनते समय जिस पानी में हाथ धोए जाते हैं, डुबोये जाते हैं, वह पानी उत्स्वेदिम कहलाता हैं। संसेइम- तिल धोया हुआ पानी अथवा अरणि या लकड़ी बुझाया हुआ पानी संस्वेदिम होता हैं।' अहुणाधोयं =ताजा धोया हुआ (धोवन) पानी; अबिलं जो अपने स्वाद से चलित न हुआ हो, अबुक्कतं रसादि से अतिक्रान्त न हुआ हो. अपरिणयं-वर्णादि परिणत (परिवर्तन) न हुआ हो, अविद्धत्यं = विरोधी शस्त्र द्वारा जिसके जीव विध्वस्त न हुए हों, अफासुयं =सचित्त, आयामंचावलों का ओसामण मांड, सोवीर-कांजी या कांजी का पानी, सुद्धवियर्ड -- शुद्ध उष्ण प्रासुक जल, पडिग्गहेण = पात्र से. उििचयाणं = उलीच कर, ओत्तियाणं = उलट या उडेलकर, अणंतरहियाए पुढबीए-बीच में व्यवधान से रहित पृथ्वी पर, उद्घ१ =निकालकर, सकसारण मत्तेण:- सचित्त पृथ्वी आदि के अवयव से संलिष्ट पात्र (वर्तन) से, 'सोतोदएण सभोएत्ता'=शीतल (सचित्त) उदक के साथ मिलाकर / ' 372. एतं खलु तस्स भिक्ख स्स वा 2 सामग्गियं / यह (आहार-पानी की गवेषणा का विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनचारित्रादि आचार सम्बन्धी) समग्रता है। // सप्तम उद्देशक समाप्त / अट्ठमो उद्देसओ अष्टम उद्देशक अग्राह्य-पानक निषेध 373. से भिक्ख वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पाणगजातं जाणेज्जा, तंजहा—अंबपाणगं वा अंबाडगपाणगं वा कविट्ठपाणगं वा मातुलुंगपाणगं वा मुद्दियापाणगं वा दालिमपाणगं वा खज्जूरपाणगं वा णालिएरपाणगं वा करीरपाणगं वा कोलपाणगं वा आमलगपाणगं वा चिचापाणगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं पाणगजातं सअट्टियं सकणुयं सबीयगं अस्संजए 1. आटे का धोवन भी 'संसेइमं कहलाता है। -दसवै० पृ० 5 उ. 1 2. टीका पत्र 346 / इसका विवेचन प्रथम उद्देशक के सूत्र 334 के अनुसार समझ लेना चाहिए। 4. तुलना कीजिए-दशवकालिक अ०५, उ०२, गा० 23 / 5. इसके स्थान पर 'मातुलंग'-'मालिंग' पाठान्तर मिलता है। 6. सबीयगं के स्थान पर साणुबीयक पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है.---'अनु =स्तोके, छो (यो) वेण बीतेण सहसाणुबीयकं ।'-अणु का अर्थ हैं थोड़ा। थोड़े-से बीजों के सहित 'साणुबीजक' कहलाता है। 3. रयत Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कम्ध भिक्खुपडियाए छट्वेण वा दूसेण वा वालगेण वा अवोलियाण परिपोलियाण परिस्साइयाण' आहट्ट क्लएज्जा। तहप्पगारं पाणगजायं अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 373. गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि इस प्रकार का पानक जाने, जैसे कि आम्रफल का पानी, अंबाडक (आम्रातक), फल का पानी, कपित्थ (कैथ) फल का पानी, बिजौरे का पानी, द्राक्षा का पानी, दाड़िम (अनार) का पानी, खजूर का पानी, नारियल (डाभ) का पानी, करीर (करील) का पानी, बेर का पानी, आँवले के फल का पानी, इमली का पानी, इसी प्रकार का अन्य पानी पानक) है, जो कि गुठली सहित है, छाल आदि के सहित है, या बीज सहित है, और कोई असंयत गृहस्थ साधु के निमित्त बाँस की छलनी से, वस्त्र से, गाय आदि के पूँछ के बालों से बनी छलनी से एक बार या बार-बार मसल कर, छानता है और (उसमें रहे हुए छाल, बीज, गुठली आदि को अलग करके) लाकर देने लगता है, तो साधु-साध्वी इस प्रकार के पानक (जल) को अप्रासुक और अनेषणीय मान कर मिलने पर भी न ले। विवेचन-आम्र आदि का पानक ग्राह्य या अग्राह्य ? आम आदि के फलों को धो कर, या उनका रस निकालते समय बार-बार हाथ लगाने से जो धोवन पानी तैयार होता है, उस पानी के रंग, स्वाद, गंध और स्पर्श में तो परिवर्तन हो जाता है, इसलिए वह प्रासुक होने के कारण ग्राह्य हो जाता है, किन्तु उस पानी में यदि इन फलों की गुठली, छिलके, पत्ते, बीज आदि पड़े हों, अथवा कोई भावुक गृहस्थ उस पानी में पड़े हुए गुठली आदि सचित्त पदार्थों को साधु के समक्ष या उसके निमित्त मसलकर तथा छलनी कपड़े आदि से छानकर सामने लाकर देने लगे तो वह प्रासुक पानक भी सचित्त संस्कृष्ट या आरम्भ-जनित होने से अप्रासुक एवं अग्राह्य हो जाता है। द्राक्षा, ऑवला, इमली एवं बेर आदि का कई पदार्थों को तो तत्काल निचोड़ कर पानक बनाया जाता है। वृत्तिकार कहते हैं कि ऐसा पानक (पानी) उद्गम (16 उद्गम) दोषों से दूषित होने के कारण अनेषणीय है / आधाकर्म आदि 16 उद्गम दोष दाता के द्वारा लगाए जाते हैं। इनको यथायोग्य समझ लेना चाहिए।' चाणकार ने इन तीनों क्रियाओं का अर्थ इस प्रकार किया है--- आवोलेती एक्कंसि, परिपोलेति बहसो, परिसएति गालेति / अर्थात एक बार मर्दन करने को 'आपील' बार-बार मदन करने को 'परिपील' और छानने को 'परिसए' कहते हैं। 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 346 के आधार पर। (ख) एषणा दोषों का वर्णन सूत्र, 324 पृष्ठ 8 पर देखें। (ग) तुलना कीजिए--"कविठू माउलिंग च, मूलगं मूलगत्तियं / आमं असत्थपरिणयं, मणसा वि न पत्थए // " -दसवै० // 223 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 374 81 ___ 'अंबाडग' आदि पदों के अर्थ--'अंबाडग' का अर्थ आम्रातक (आँवला) किया है,' किन्तु आगे 'आमलग' शब्द आता है, इसलिए अम्बाडं कोई अन्य फल विशेष होना चाहिए। मातुलुग-बिजौरे का फल, मुद्दिय --द्राक्षा, कोल=बेर, आमलग-:आँवला, चिंचा-इमली / अट्ठियं-गुठली सहित, सकणुअं=छाल आदि सहित, छन्वेग-बाँस की छलनी से, वालगेण = बालों से बनी छलनी से, आवीलियाण परिपोलियाण =एक बार मसल या निचोड़ कर, बार-बार मसल या निचोड़ कर, परिस्साइयाण=छान कर। आहार-गन्ध में अनासक्ति 374. से भिक्खू वा 2 जाव पविट्ठ समाणे से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरभिगंधाणि वा आघाय 2 से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे 'अहो गंधो, अहो गंधो' णो गंधमाधाएज्जा। 374. वह भिक्षु या भिक्षुणी आहार प्राप्ति के लिए जाते समय पथिक-गृहों (धर्मशालाओं) में, उद्यानगृहों में, गृहस्थों के घरों में या परिव्राजकों के मठों में अन्न की सुगन्ध, पेय पदार्थ की सुगन्ध तथा कस्तूरी इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की सौरभ को सूंघ-सूंघ कर उस सुगन्ध के आस्वादन की कामना से उसमें मूच्छित, गृद्ध, ग्रस्त एवं आसक्त होकर—'वाह ! क्या ही अच्छी सुगन्धि है !' कहता हुआ (मन में सोचता हुआ) उस गन्ध की सुवास न ले। विवेचन-आहारार्थ जाते समय सावधान रहे-शास्त्र में अंगार, धूम आदि 5 दोष बताए हैं, जिन्हें साधु आहार का उपभोग करते समय राग द्वेष-ग्रस्त होकर लगा लेता है। प्रस्तुत सूत्र में आहार-पानी का सीधा उपभोग न होकर उनके सुगन्ध की सराहना करके परोक्ष उपभोग का प्रसंग है, जिसे शास्त्रकार ने परिभोगैषणा दोष के अन्तर्गत माना है। इस प्रकार खाद्य-पेय वस्तुओं की महक में आसक्त होने से वस्तु तो पल्ले नहीं पड़ती, सिर्फ राग (आसक्ति) के कारण कर्मबन्ध होता है / इसलिए इस सूत्र में गन्ध में होने वाली आसक्ति से बचने का निर्देश किया गया है। इस सूत्र से ध्वनित होता है कि भिक्षा के लिए जाते समय मार्ग में पड़ने वाली धर्मशालाओं, उद्यानगृहों, गृहस्थगृहों में या मठों में कहीं प्रीतिभोज के लिए तैयार किये जा रहे सरस-सुगन्धित स्वादिष्ट पदार्थों की महक पा कर साधु का मन विचलित हो जाता है, 1. (क) पाइअ सद्द महण्णवो, पृ० 11 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 346 / 2. महाराष्ट्र में 'अम्बाडी' नामक पत्तेदार सब्जी होती है जिसका स्वाद खट्टा व कषैला होता है / 3. मराठी में चिच इमली के अर्थ में आज भी प्रयुक्त होता है। 4. देखें सूत्र 324 का टिप्पण पृष्ठ 8 / Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध संखडि में जाना वर्जित होने के कारण वह वहां जा नहीं पाता, केवल उन पदार्थों की सुगन्ध से ललचा कर तथा उनकी सुगन्धि की प्रशंसा करके रह जाता है। ऐसा करने से साधु की स्वाद-लोलुपता और आसक्ति बढ़ जाती है, जो घोर कर्मबन्ध की कारण है।' 'आगंतारेसु' आदि पदों का अर्थ-आगंतारेसु= नगर के बाहर के घर, जिनमें आ-आ कर पथिक ठहरते हैं, उनमें, चूणि के अनुसार अर्थ है---आगंतारमार्ग, मार्ग में आगारगृह है- आगन्तागार; अथवा जहाँ आ-आ कर आगार (गृहस्थ) ठहरते हैं, उन आगन्तागारों में। परियावसहेसु भिक्ष आदि के मठों में, चूर्णिकार के अनुसार परिव्राजकादि के आवासों में / आसायपडियाए-आस्वादन की अपेक्षा से, या घ्राणसुख-राग-वश मुछिए गिद्ध गदिए अमोववन्ने-चारों एकार्थक-पे, किन्तु थोड़ा-थोड़ा अन्तर / अर्थ इस प्रकार हैं---मूच्छित, गृख, ग्रस्त और आसक्त / अपक्क-शस्त्र-अपरिणत वनस्पति आहार ग्रहण-निवेध 375. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा सालुयं वा विरालियं वा सासवणालियं वा', अण्णतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणतं अफासुर्य लाभे संते गो पडिगाहेज्जा। 376. से भिक्खू वा 2 जाय समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा पिप्पाल वा पिप्पलिचुग्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरक्षुण्णं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमचं असत्थपरिणयं अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 377. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पलंबजातं जाणेज्जा, तंजहा अंबपलंबं वा अंबाडगपलंबं वा तालपलंबं वा शिज्झिरिपलंबं वा सुरभिपलंबं वा सल्लइपलं 1. आचारांग वृत्ति, मूल पाठ आदि के आधार से पत्रांक 387-38 / 2. आगंतारो मग्गो, मग्गे गिहं, अहवा यत्र आगत्य आगत्यागारास्तिष्ठन्ति तं आगंतारागारं / आचारांग चूर्णि 3. परिवायगादीणं आवासो परियावसधो।' -आचारांग चूणि 4. आसायपडिता घाणसुहरागो। ---आचारांग चूर्णि 5. (क) आचारांग चूणि / (ख) आचारांग वृत्ति, पत्रांक 348 / 6. सालुयं के स्थान पर 'सालगं' मान कर चूर्णिकार अय करते हैं सालगं उप्पलकरगो, सालगं = उत्पलकन्द। 7. तुलना कीजिए सालुयं वा विरालियं, कुमुदुप्पलनालियं / मुणालियं सासवनालियं उच्छखंड अनिम्नु / –दश० 5/2/18 8. मराठी में आज भी 'मोरे' काली मिर्च के अर्थ में प्रयुक्त होता है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 375-84 वा, अण्णतरं वा सहप्पगारं पलंबजातं आमगं असत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव लाभे संते गो पडिगाहेज्जा / 378. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पवालजातं जाणेज्जा, तंजहा-आसोत्थपवालं' वा गग्गोहपवालं वा पिलखुपवालं वा णिपूरपवालं वा सल्लइपवालं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं पवालजातं आमगं अमत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव जो पडिगाहेज्जा। __376. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण सरड्यजायं जाणेज्जा, तंजहासरड्यं वा कविद्वसरडुयं वा दालिमसरडुयं वा बिल्लसरऽयं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं सरड्यजातं आमं असत्थपरिणतं अफासुर्य जाव णो पङिगाहेज्जा। ___ 380. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण मंथुजातं जाणेज्जा, तंजहा-उंबरमंथु वा जग्गोहमंथु वा पिलक्खुमंथु वा आसोमंथं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं मधुंजातं आमयं दुरुक्कं साणुबोयं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। ___ 381. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा आमडाग वा पूतिपिण्णार्ग वा मथु वा मज्ज वा सप्पि वा खोलं वा पुराणगं, एत्थ पाणा अणुप्पसूता, एत्थ पाणा जाता, 1. देखिए आचा० चूणि में आसोत्थ....आदि पदों का अर्थ-"आसोढपलासं वा, आसोढ़ दो (ठो) पिप्पलो तेसि पल्लवा खज्जंति / नग्गोहो नाम वडो, पिलक्खू पिप्परी, णिपूरसल्लइए वि / अर्थात् आसोल पिप्पल को कहते हैं, उसके पत्ते खाये जाते हैं। त्यग्रोध बड़ का नाम है, पिलक्खू-पिप्परी, णिपूर=सल्लकी को भी कहते हैं। 2. 'सरड्यं' के स्थान पर सरदयं पाठान्तर है। तथा तंजहा के बाद पठित 'सरडुयं वा' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में कविठ्ठसरड्यं वा अथवा अंग्रसरडुयं वा पाठान्तर है / चूर्णिकृत अर्थ 'अंबसरडुगं तरुणगं डोहियं वा, एवं अंबाडग-किवट्ठदाडिम-बिल्लाण वि। आम्र का सरडय तरुणक फल विशेष है। इसी प्रकार अंबाडक, कपित्थ, अन्तर और बेलफलों के भी सरड्य को समझें। 3. मंथुनाम फलचूणों, एवं णग्गोह-पिलक्खू-असोट्ठाणं अर्थात् मथुफल चूर्ण अर्थ में है। इसी प्रकार न्यग्रोध, प्लक्ष एवं अश्वत्थ फलों के चूर्ण अर्थ में समझ लेना चाहिए। चुणि में आमडागं के स्थान पर अमडडागं पाठ मानकर अर्थ किया गया है-अमउडाग पत्र, न मृतं अमृतं सजीवमित्यर्थः / अर्थात् अमड= नहीं मरा हुआ सजीव डाग-यानी पत्र अमडडाग है। पूतिपिण्णाग का अर्थ चर्णिकार ने किया है 'प्रतीपिण्णाओ सरिसवखलो, अहवा सव्यो चेव खलो कुधितो पूतिपिण्णाओ अर्थात् पूतिपिण्णाओ-सरसों के खल का नाम है अथवा सभी प्रकार के कुथित =सड़े हुए खल को पूतिपिण्याक कहते हैं। 6. मधु आदि के विकृत हो जाने का समर्थन चर्णिकार ने किया है--'मपि संसजति तवणेहि / एवणवमीय-सप्पी वि।' मधु (शहद) भी विकृत हो जाने पर उस रंग के जीवों से संसक्त हो जाता है, इसी प्रकार मक्खन और घी अपने वर्ण के जीवों से संसक्त हो जाते हैं। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध एत्थ पाणा संवुड्ढा, एत्थ पाणा अवक्ता, एस्थ पाणा अपरिणता, एत्थ पाणा अविद्वत्था', णो पडिगाहेज्जा। 382. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा उच्छुमेरगं वा अंककरेलुयं' वा णिक्खारगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूतिआलुगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 383. से भिक्खू वा 2 [जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा उप्पलं वा उप्पलणालं वा भिसं वा भिसमुणाल वा पोक्खल वा पोक्खलथिभगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं जाव णो पडिगाहेज्जा। 384. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा अग्गबीयाणि वा मूलबीयाणि वा खंधबीयाणि वा पोरबीयाणि वा अग्गजायाणि वा मूलजायाणि वा खंधजायाणि वा पोरजायाणि वा गणत्थ तपकलिमत्थएण वा तक्कलिसोसेण वा पालिएरिमत्थएण वा खज्जूरिमत्थएण वा तालमत्थएण वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव' णो पडिगाहज्जा / 1. चूर्णिकार के मतानुसार 'एत्य पाणा अणुप्पसूता से"एत्थ पाणा अविडत्या' तक के पाठ में केवल प्रारम्भ में 'एत्य पाणा' है, बाद में जाता संखुड्ढा आदि पाठों के साथ 'एत्य पाणा' पाठ नहीं है। चर्णिमान्य व्याख्या इस प्रकार है--एत्थ पाणा अणसुता / जाता। संवता। वक्ता जीवा, एत्थ तिस णस्थि। परिणया।-विवस्था / एत्य संजमविराहणा वलीकवागलेमादि दोसा। - इनमें प्राणी उत्पन्न होते हैं, जन्म लेते हैं, वृद्धि पाते हैं, जीव व्युत्क्रान्त होते हैं, परिणत और विध्वस्त होते हैं। प्रारम्भ के सिवाय बाद में क्रमशः तीनों के साथ 'एत्य' नहीं है / 2. अंककरेलुयं---आदि बनस्पति के अस्तित्व की साक्षी चूर्णिकार इस प्रकार देते हैं--'अंककरेलुगं वा लिखरग वा एते गोल्लविसए / कसेहग-सिंघाडग कोंकणेस / अर्थात अंककरेलुक और लिखरग गोल्लदेश में होते हैं और कसेरुक तथा सिंघाडग होते हैं कोंकण देश में / 3. (क) चूणिकार ने इसके स्थान पर 'पृक्तुलस्थिभगं' पाठ मान कर व्याख्या की है.-पुक्खलस्थिभग पुक्खरच्चिगा कच्छमओ / अर्थात-पुष्करास्तिभग पृष्कर (कमल) की जड़ में होता है. नदी या सरोवर के कच्छ (लट) के पास उत्पन्न होता है। (ख) तुलना कीजिएसे कितं जलरहा ?...."पोक्खले पोक्खलत्यिभए / ' -पण्णवणा पृ. 21 पं०१० 'पुक्खलत्ताए पुक्खलस्थिभगत्ताए। --सूय० 2/3/54 4. जाव के बाद समाणे तक का समग्र पाठ सू० 324 के अनुसार समझें / 5. तहप्पगारं के बाद नाव शब्द सू० 324 के अनुसार अफासुयं से लेकर णो परिगाहेज्जा तक के पाठ का सूचक है। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 385-88 __ 385. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा उच्छु वा काणं अंगारिगं समटू वइमितं वेत्तग्गगं वा कदलिऊसुगं' वा अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव जो परिगाहेज्जा। 386. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा लसुणं वा लसुणपत्तं वा लसुणणालं वा लसुणकंदं वा लसुणचोयगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणतं जाव' णो पडिगाहेज्जा। 387. से भिक्ख वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा अच्छियं वा कुंभिपक्कं तेंदुर्ग वा वेलुगं वा कासवणालियं वा, अण्णतरं वा आमं असत्थपरिणतं जाव णो पडिगाहेज्जा / __388. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा कणं वा कणकुंडगं वा कणपूलि वा चाउलं वा चाउलपिट्ठ वा तिलं वा तिलपिटु वा तिलपप्पडग' वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणतं जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 1. कदलिऊसुग के स्थान पर चूर्णिकार ने कंदलीउस्सुगं पाठ पाना है, जिसकी व्याख्या इस प्रकार है-कंबलीउस्सुगं मनं कतलीए हत्यिवंतसंठितं / कंदलोउस्सुग-कंदली के बीच में हाथी-दांत के आकार का होता है। 2. अग्णतरं या तहप्पगारं की व्याख्या चूर्णिकार करते हैं-'कलातो सिंबा, कलो चणगो, उसि सेंगा तस्स चेव, एवं मुग्गमासाण दि, आमत्ता ण कप्पंति / ' कला कहते हैं चने को। उसि का अर्थ है--- उसी की सींग यानी फली। इसी प्रकार मुंग, मोठ और उड़द की भी फली। सेंगा=फली (मराठी भाषा में आज भी प्रयुक्त) होती है, कच्ची होने से साधु को लेना कल्पनीय नहीं है। 3. माव से पाहावइकुलं से लेकर समाणे तक का समग्र पाठ सू० 324 के अनुसार है। 4. यहाँ जाव शब्द से अफासुयं से लेकर णो पडिगाहेज्जा तक का समग्र पाठ सूत्र 324 के अनुसार समझे। 5. अन्छियं के स्थान पर कहीं-कहीं अच्छिकं, कहीं अस्थियं पाठान्तर मिलता है। अर्थ दोनों का समान है। चूर्णिकार 'अत्थिगं' पाठ मानकर कहते हैं-- अत्यिगं कुम्भोए पच्चति-अस्थिक कुंभी में पकाया जाता है। 6. तुलना कीजिए ........ अत्थियं तिदुयं बिल्ल उच्छखड व सिलि .......!' -दशव०५/१/७४ 7. कणपूलि की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में-'कणा तंदुलिकणियाओ, कुडओ कुक्कुसा, तेहिं चैव पूलिता आमिता।' अर्थात् कण-चावल के दाने, कूड-कहते हैं उनके चोकर (छाणस) को, चोकर में चावल के भूसे सहित दाने होते हैं, जो सचित्त होने से उसकी पोली (रोटी) बनाते समय साथ में रह जाते हैं, इसलिए ग्राह्य नहीं हैं। 8. चूणिकार मान्य पाठान्तर इस प्रकार है-तिलपप्पडं आमग असत्थपरिणयं लाभे संते नो पडिग्गा हेज्जा / तिलपपड़ी, कच्ची (अपक्व) और अशस्त्र-परिणत होने से मिलने पर भी ग्रहण न करे। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारांग सूत्र-द्वितीय भूप्तस्कन्ध 375. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जानें कि वहाँ कमलकन्द, पलाशकन्द, सरसों की बाल तथा अन्य इसीप्रकार का कच्चा कन्द है, जो शस्त्र परिणत नहीं हुआ है, ऐसे कन्द आदि को अप्रासुक जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / 376. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ पिप्पली, पिप्पली का चूर्ण, मिचं या मिर्च का चूर्ण, अदरक या अदरक का चूर्ण तथा इसी प्रकार का अन्य कोई पदार्थ या चूर्ण, जो कच्चा (हरा) और अशस्त्र-परिणत है, उसे अप्रासुक जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 377. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि वहाँ प्रलम्ब-फल के ये प्रकार जाने-जैसे कि-आम्र-प्रलम्ब-फल, अम्बाडगफल, ताल-प्रलम्ब-फल, वल्लीप्रलम्ब-फल, सरभि-प्रलम्ब-फल, शल्यकी का प्रलम्ब-फल, तथा इसी प्रकार का अन्य प्रलम्ब फल का प्रकार, जो कच्चा और अशस्त्र-परिणत है, उसे अप्रासक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे।। 378. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी अगर वहाँ प्रवाल के ये प्रकार जाने-जैसे कि-पीपल का प्रवाल, बड़ का प्रवाल, पाकड़ वृक्ष का प्रवाल, नन्दी वृक्ष का प्रवाल, शल्यकी (सल्लकी) वृक्ष का प्रवाल, या अन्य उस प्रकार का कोई प्रवाल है, जो कच्चा और अशस्त्र-परिणत है, तो ऐसे प्रवाल को अप्रासक और अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 376. गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि कोमल फल के ये प्रकार जाने-जैसे कि शलाद फल, कपित्थ (कैथ) का कोमल फल, अनार का कोमल फल, बेल (बिल्व) का कोमल फल अथवा अन्य इसी प्रकार का कोमल (शलादु) फल. जो कि कच्चा और अशस्त्र परिणत है, तो उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर प्राप्त होने पर भी न ले। 380. गहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साध या साध्वी यदि (हरी वनस्पति के) मन्थु चूर्ण के ये प्रकार जाने, जैसे कि -उदुम्बर (गुल्लर) का मंथु (चूर्ण), बड़ का चूर्ण, पाकड़ का चूर्ण, पीपल का चूर्ण अथवा अन्य इसी प्रकार का चूर्ण है, जो कि अभी कच्चा व थोड़ा पीसा हुआ है, और जिसका योनि-बीज विध्वस्त नहीं हुआ है, तो उसे अप्रासुक और अनेषणीय जान कर प्राप्त होने पर भी न ले। 381. गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जान जाए कि वहाँ कच्ची (अधपकी) भाजी है, सड़ी हुई खली है. मधु, मद्य, घृत और मद्य के नीचे का कीट (कीचड़) बहुत पुराना है तो उन्हें ग्रहण न करे, क्योंकि उनमें प्राणी पुनः उत्पन्न हो जाते हैं, उनमें प्राणी जन्मते हैं, संवर्धित होते हैं, इनमें प्राणियों का ब्युत्क्रमण नहीं होता, ये प्राणी शस्त्र-परिणत नहीं होते, न ये प्राणी विध्वस्त होते हैं। 382. गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 375.88 इक्षुखण्ड --गंडेरी है, अंककरेलु, निक्खारक, कसेरू, सिंघाड़ा एवं पुतिआलुक नामक वनस्पति है, अथवा अन्य इसीप्रकार की वनस्पति विशेष है, जो अपक्व (कच्ची) तथा अशस्त्र-परिणत है, तो उसे अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 383. गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ नीलकमल आदि या कमल की नाल है, पदम कन्दमुल है, या पदमकन्द के ऊपर की लता है, पद्मकेसर है, या पद्मकन्द है, तथा इसीप्रकार का अन्य कन्द है, जो कच्चा (अपक्व) है, शस्त्र-परिणत नहीं है तो उसे अप्रासुक व अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 384. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साध या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ अग्रवीज वाली, मूल बीज वाली; स्कन्धबीज वाली तथा पर्वबीज वाली वनस्पति है, एवं अग्रजात मूलजात, स्कन्धजात तथा पर्वजात वनस्पति है, (इनकी यह विशेषता है कि ये अग्रमूल आदि पूर्वोक्त भागों के सिवाय अन्य भाग में उत्पन्न नहीं होती) तथा कन्दली का गूदा (गर्भ), कन्दली का स्तबक, नारियल का गूदा खजूर का गूदा, ताड़ का गूदा तथा अन्य इसी प्रकार की कच्ची और अशस्त्र-परिणत वनस्पति है, उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / 385. गृहस्थ के यहाँ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईख है, छेद वाला काना ईख है, तथा जिसका रंग बदल गया है, जिसकी छाल फट गई है, सियारों ने थोड़ा-सा खा भी लिया है, ऐसा फल है, तथा बेत का अग्रभाग है, कदली का मध्य भाग है एवं इसी प्रकार की अन्य कोई वनस्पति है, जो कच्ची और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे साधु अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी न ले। 386. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि जाने कि वहाँ लहसुन है, लहसुन का पत्ता, उसकी नाल (डंडी), लहसुन का कंद या लहसुन की बाहर की (गीली) छाल, या अन्य उस प्रकार की वनस्पति है, जो कि कच्ची (अपक्व) और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर ग्रहण न करे। 387. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ आस्थिक वृक्ष के फल, टैम्बरु के फल, टिम्ब (बेल) का फल, काश्यपालिका (श्रीपर्णी) का फल, अथवा अन्य इसीप्रकार के फल. जो कि गड्ढे में दबा कर धुंए आदि से पकाये गए हों, कच्चे (बिना पके) हैं तथा शस्त्र-परिणत नहीं हैं ऐसे फल को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी नहीं लेना चाहिए। __ 388. गृहस्थ के घर में आहार के निमित्त प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ शाली धान आदि अन्न के कण है, कणों से मिश्रित छाणक (चोकर) है, कणों से मिश्रित कच्ची रोटी चावल, चावलों का आटा, तिल, तिलकूट, तिलपपड़ी (तिलपट्टी) है, अथवा Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ད आचारांग सूत्र----द्वितीय तस्कन्ध अन्य उसी प्रकार का पदार्थ है जो कि कच्चा और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे, अप्रासुक और अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। विवेचन--अपक्व और अशस्त्र-परिणत आहार क्यों अग्रास--सू० 375 से 388 तक में मुख्य रूप से विविध प्रकार की वनस्पति से जनित आहार को अपक्व, अर्धपक्व, अशस्त्रपरिणत, या अधिकोज्झितधर्मीय-अधिक भाग फेंकने योग्य, पुराने बासी सड़े हुए जीवोत्पत्ति युक्त आदि लेने का निषेध किया है, क्योंकि वह अप्रासुक और अनेषणीय होता है / यों तो अधिकांश आहार वनस्पतिजन्य ही होता है, फिर भी कुछ आहार गोरस (दूध, दही, मक्खन, घी आदि) जनित और कुछ प्राणियों द्वारा संगृहीत (मधु आदि) आहार होता है। शास्त्र में वनस्पति के दस प्रकार बताए हैं१. मूल, 2. कन्द, 3. स्कन्ध, 4. त्वचा, 5. शाखा, 6. प्रवाल, 7. पत्र, 8. पुष्प, 6. फल और 10. बीज। इनमें से त्वचा (छाल) शाखा, पुष्प आदि कुछ चीजें तो सीधी आहार में काम नहीं आतीं, वे औषधि के रूप में काम आती हैं। यहां इन दसों में आहारोपयोगी कुछ वनस्पतियों के प्रकार बता कर उन्हीं के समान अन्य वनस्पतियों को कच्ची, अपक्व, अर्धपक्व, या अशस्त्रपरिणत के रूप में लेना निषिद्ध बताया है। इन सूत्रों में क्रमशः इन वनस्पतियों का उल्लेख किया है (1) कमल आदि का कन्द, (2) पिप्पल, मिर्च, अदरक आदि का चूर्ण, (3) आम्र आदि 1. 'अपक्व'-शास्त्रों म 'आम' शब्द अपक्व के अर्थ में तथा 'अभिन्न' शब्द 'शस्त्र-अपरिणत' 'असत्व परिणते-के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'जो फल पक कर वृक्ष से स्वयं नीचे गिर जाता है या पकने पर तोड़ लिया जाता है, उसे पक्व कहते हैं / पक्व फल भी सचित्त-बीज, गुठली आदि से संयक्त होता है। जब उसे शस्त्र से विदारित कर, बीज आदि को दूर कर या अग्नि आदि से संस्कारित कर दिया जाता है, तब वह 'मिस' अथवा शस्त्र-परिणत कहलाता है। अपनव--अर्धपक्व या अर्धसंस्कारित फल भी सचित्त एवं शस्त्रअपरिणत (अग्राह्य) कोटि में गिना गया है। -देखें बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक 1 सूत्र 1-2 की व्याख्या (कप्पसुत्त १/१-२.मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल') 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 347-348 / 3. दशव• जिनदास चूणि पृ. 138 मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य / पत्ते पुष्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा // Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 प्रथम अध्यपन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 375-88 के प्रलम्ब फल (4) विविध वृक्षों के प्रवाल, (5) कपित्थ आदि के कोमल फल, (6) गुल्लर, बड़, पीपल आदि का मंयु (चूर्ण), (7) जलज वनस्पतियां, (8) पद्म आदि कन्द के मूल आदि () अग्र-मूल-स्कन्ध-पर्व-बीजोत्पन्न वनस्पतियां, (10) ईख, बेंत आदि की विकृति (11) लहसुन और उसके सभी अवयव, (12) आस्थिक आदि वृक्षों के फल, (13) बीज रूप वनस्पति और तन्निमित आहार, (14) अधपको पत्तों की भाजी, सड़ी खली, तथा विकृत गोरस जनित आहार / ' उत्तराध्ययन सूत्र (अ-३६) में वनस्पतिकाय के मुख्यतया दो भेद बताए हैं(१) साधारण और (2) प्रत्येक / साधारण वनस्पति में शरीर एक होता है, तथा प्राण-आत्माएं अनेक होती हैं, जैसे कन्द, मूल, आलू, अदरक, लहसुन, हलदी आदि। प्रत्येक शरीरवाली वनस्पति (जिसके एक शरीर में आत्मा भी एक ही होती है) वृक्ष, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्ली, तृण, वलय पर्व, कुहुण, जलरूह, औषधि (गेहूं आदि अन्न), तने, हरित (हरियाली दूब आदि) अनेक प्रकार की होती है। यहां जितनी भी वनस्पतियों का निर्देश किया है, वे जब तक हरी, या कच्ची होती हैं, किसी स्व-काय, पर-काय या उभय-काय शस्त्र से परिणत नहीं होती, या फल के रूप में परिपक्व नहीं होती, तब तक अप्रासुक (सचित्त) और अनेषणीय मानी जाती हैं; वे साधु के लिए ग्राह्य नहीं होती। सालुमं आदि पदों के अर्थ-शालूक आदि अपक्वरूप में खाए जाते हैं, इसलिए इनके ग्रहण का निषेध किया गया है। सासुयं-उत्पल-कमल का कन्द (जड़)। यह जलज कन्द होता है / विरालियं --पलाशकन्द, विदारिका का कन्द। यह कन्द स्थलज और पत्ते से उत्पन्न होता है। सासवनालियं-सर्षप (सरसों) की नाल / पिप्पलिन्:कच्ची हरी पीपर। पिप्पल चुण्णं --हरी पीपर को पीस कर उसकी चटनी बनाई जाती है, या उसे कूट कर चूर-चूर किया जाता है, उसे पीपर का चूर्ण कहते हैं। मिरियं-काली या हरी कच्ची मिर्च / सिगबेरं-कच्चा अदरक / सिंगबेरचण्णं कच्चे अदरक को कूट पीस कर चटनी बनाई जाती है। पलंबलम्बा लटकनेवाला फल। पवाल-नवांकुर या किसलय नया कोमल पत्ता। सरडय = 1. आचारांग वृत्ति के आधार पर पत्रांक 347-348 / 2. उत्तराध्ययन सूत्र अ० 36 गा० 64 से 100 तक / 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 347, (ख) दशव० 5/2/18 हारि० टीका 50 185 / 4. दशव० 5/2/18 जिन० चूणि पृ० 197 / 5. आचारांग वृत्ति पत्रांक 347 / 6. पाइअ सद्द महण्णवो पृ० 566 / 7. पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 575 / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध जिसमें गुठली न बंधी हो, ऐसा कोमल (कच्चा) फल।' मंथु = फल का कूटा हुआ चूर्ण, चूरा, बकनी / आमयंकच्चा। दुरुषक-थोड़ा पीसा हुआ। सागुरीयं-जिसका योनि बीज विध्वस्त न हुआ हो / उसछुमेरक-ईख का छिलका उतार कर छोटे-छोटे टुकड़े किये हुए हों, वह गंडेरी / अंककरेलुअं आदि सिंघाड़े की तरह जल में पैदा होने वाली वनस्पतियां हैं। अग्गबीयाणि = उत्पादक भाग को बीज कहते हैं जिसके अग्र भाग बीज होते हैं, जैसेकोरंटक, जपापुष्प आदि वे अग्रबीज कहलाते हैं। भूलनीयाणि =-जिन (उत्पलकंद आदि) के मुल ही बीज है। खंधबोयाणि-जिन (अश्वत्थ, थूहर, कैथ आदि) के स्कन्ध ही बीज हैं, वे। पोरबीयाणिम्-जिन (ईख आदि) के पर्व-पोर ही बीज हैं, वे। काणग =छिद्र हो जाने से काना फल, या ईख / अंगारिय-रंग बदला हुआ, या मुझाया हुआ फल / संमिस्स-जिसका छिलका फटा हआहो। विगमिय=सियारों द्वारा थोडा खाया हआ। वेत्तम्गगं-बेंत का अग्र भाग। लसुणचोयग-लहसुन के ऊपर का कड़ा छिलका। अत्थियं आदि प्रत्येक कुम्भीपक्व से सम्बन्धित हैं। आमडागं कच्चा हरा पत्ता, जो अपक्व या अर्धपक्व हो, पूतिपिण्णागं का अर्थ-सड़ा हुआ खल होता है, दशवकालिक जिनदास चूर्णि के अनुसार पूति का अर्थ सरसों की पिट्ठी का पिण्ड है। पिण्याक का अर्थ है---खल 6 पुराने मधु-मद्य-धूतादि अग्राह्य—मधु, मद्य, घृत आदि कुछ पुराने हो जाने पर इनमें उनके ही जैसे रंग के जीव पैदा हो जाते हैं, जो वहीं बार-बार जन्म लेते, बढ़ते हैं, जो वहीं बने रहते हैं। इसीलिए कहा है-एस्थ पाणाअणुप्पसूता ...."अविवत्था / " 'तबकलोमत्थएण' का तात्पर्य-कन्दली के मस्तक, (मध्यवर्ती गर्भ), कंदली के सिर, नारियल के मस्तक और खजूर के मस्तक के सिवाय अन्यत्र जीव नहीं होता / इनके मस्तक स्थान छिन्न होते ही जीव समाप्त हो जाता है। 386. एयं खलु तस्स भिक्खस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं / 386. यह (वानस्पतिकायिक आहार-गवेषणा) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनचारित्रादि से सम्बन्धित) समग्रता है। // अट्ठम उद्देसओ समत्तो॥ 1. (क) पाइअसह• पृ० 878 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 647 / 2. (क) पाइअसद्द० पृ० 664 / (ख) दशव• जिन० चूणि पृ० 160 / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / 4. (क) दशवै० हारि० टीका प० 166 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / 5. आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 / 6. (क) आचारांग वृत्ति पत्र 348 / (ख) दशवै० जिन० चूणि पृ० 168 / 7. आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / / 8. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / (ख) आचा० चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 133 6. इसका विवेचन ३३४वें सूत्र के अनुसार समझें / Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन: नवम उद्देशक : सूत्र 360-62 णवमो उद्देसओ नवम उद्देशक आधार्मिक आदि ग्रहण-निषेध 390. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदोणं वा संगतिया सड्ढा भवंति गाहावती वा जाव' कम्मकरी वा / तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति-जे इमे भवंति समणा भगवंतो सोलमंता वयमंता गुणमंता संजता संवुडा बंभचारी उवरया मेहणातो धम्मातो जो खलु एतेंसि कप्पति आधाकम्मिए असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइने वा भोत्तए वा पातए वा / से ज्जं पुण इमं अम्हं अप्पणो अटाए णिद्वितं, तंजहा-असणं वा 4, सव्वमेयं समणाणं णिसिरामो, अधियाई क्यं पच्छा वि अप्पणो सयट्ठाए असणं वा 4 चेतिस्सामो / एयप्पगारं णिग्धोसं सोच्चा णिसम्म तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुयं अणेसणिज्ज जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 361. से भिक्खू वा 2 जाव' समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे, से ज्जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा संगतियस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा—गाहावतो वा जाप कम्मकरो वा / तहप्पगाराइं कुलाई को पुव्यामेव भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा। केवली बूया-आयाणमेयं / पुरा पेहा एतस्स परो अट्ठाए असणं वा 4 उवकरेज्ज वा उपक्खडेज्ज वा। अह भिक्खूणं पुव्वोवविट्ठा 4 जं जो तहप्पगाराई कुलाई पुष्यामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा, से तत्थ 1. यहां जाव शब्द से गाहावती से लेकर कम्मकरी तक का समग्र पाठ सु० 347 के अनुसार समझें।। जाव शब्द से यहाँ गाहावइकुल से लेकर समाणे तक का पाठ सू० 324 के अनुसार समझें / 3. 'समाणे बसमाणे' के सम्बन्ध में णिकार कहते हैं-समाणावी-पुथ्वमणिता-'समान' आदि के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है देखें सूत्र 350 पृष्ठ 45 का टिप्पण 3 / / 4. यहाँ जाव शब्द से गामंसि वा से लेकर रायहाणिसि तक का सारा पाठ सू०३३८ के अनुसार समझें / उपकरेज्ज वा उवक्खडेज्ज वा के स्थान पर उक्करेज्ज वा उवक्खडेज्ज वा पाठ मानकर चर्णिकार इन दोनों क्रियाओं का अर्थ इस प्रकार करते हैं-उपकरेति परिवच्छेति, उवक्खडेति रंधेति / अर्थात् उक्करेति-सब ओर से सामग्री एकत्रित करता है, उवक्खडेति-पकाता है। 6. पुवोवविठ्ठा के बाद '4' का चिन्ह सू० 357 के अनुसार एस पतिण्णा आदि चार बातों का सूचक Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध कालेणं अणुपविसेज्जा',२ [त्ता तस्थितरातिरेहि कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिउवायं एसित्ता आहारं आहारज्जा। 392. अह सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आधाकम्मियं असणं वा 4 उपकरेज्ज वा उवक्खडेज्ज वा / तं गतिओ तुसिणीओ उवेहेज्जा, आहरमेयं पच्चाइविखस्सामि / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / से पुष्यामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भणी ति वा णो खलु मे कप्पति आहाफम्मियं असणं वा 4 भोत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडेहि। से सेवं वदंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा 4 उवक्खडेता आहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 360. यहाँ (जगत में) पूर्व में, पश्चिम में, दक्षिण में या उत्तर दिशा में कई सद्गृहस्थ, उनको गृहपलियां, उनके पुत्र-पुत्री, उनकी पुत्रवधू, उनकी दास-दासी, नौकर-नौकरानियां होते हैं, वे बहुत श्रद्धावान् होते हैं और परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं-"ये पूज्य श्रमण भगवान् शीलवान् ब्रतनिष्ठ, गुणवान्, संयमी. आस्रवों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुनकर्म से निवृत होते हैं / आधार्मिक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, खाना-पीना इन्हें कल्पनीय नहीं है / अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, वह सब हम इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए बाद में अशनादि चतुर्विध आहार बना लेंगे।" उनके इस प्रकार के वार्तालाप को सुनकर तथा (दूसरों से) जानकर, साधु या साध्वी इस प्रकार के (आधार्मिक आदि दोषयुक्त) अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर ग्रहण न करे। 361. शारीरिक अस्वस्थता तथा वृद्धावस्था के कारण एक ही स्थान पर स्थिरवास करने वाले या ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधु या साध्वी, किसी ग्राम में यावत् राजधानी में भिक्षाचर्या के लिए जब गृहस्यों के यहां जाने लगे, तब यदि वे यह जान जाएं कि इस गांव में यावत् राजधानी में किसी (अमुक) भिक्षु के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि सम्बन्धीजन) या पश्चात्-परिचित सास-ससुर आदि--गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, उसके पुत्र-पुत्री, पुत्रवधू, दास-दासी, नौकर-नौकरानियां आदि श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रकार के घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार पानी के लिए जाए-आए नहीं। 1. यहाँ 2' का चिन्ह 'अणुपविसिसा' का सूचक है। 2. इस वाक्य का चूर्णिमान्य पाठान्तर इस प्रकार है-अह से काले पविठ्ठस्स वि उवक्खसिज्जा / अर्थात्--यदि भिक्षाकाल में प्रविष्ट होने पर भी वह भोजन तैयार करे। 3. आहडमेयं पच्चाइक्खिस्सामि के स्थान पर पाठान्तर मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं- आहूतं पडिया इक्खिस्स- अर्थात् गृहस्थ को पास में बुला कर मना कर दूंगा। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र 360-62 13 केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मों के आने का कारण है, क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में साधु या साध्वी को आए देखकर वह उसके लिए आहार बनाने के सभी साधन जुटाएगा, अथवा आहार तैयार करेगा / अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह प्रतिज्ञा हैं, यह हेतु, कारण या उपदेश है कि वह इस प्रकार के परिचित कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार पानी के लिए जाए-आए नहीं। बल्कि स्वजनादि या श्रद्धालु परिचित धरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर जहाँ कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त में खड़ा हो जाए। ऐसे स्वजनादि सम्बद्ध ग्राम आदि में भिक्षा के समय प्रवेश करे और स्वजनादि से भिन्न अन्यान्य घरों से सामुदानिक रूप से एषणीय तथा वेषमात्र में प्राप्त (उत्पादनादि दोष-रहित) निर्दोष आहार प्राप्त करके उसका उपभोग करे। 392. यदि कदाचित् भिक्षा के समय प्रविष्ट साधु को देख वह (श्रद्धालु–परिचित) गृहस्थ उसके लिए आधार्मिक आहार बनाने के साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे, उसे देखकर भी वह साधु इस अभिप्राय से चुपचाप देखता रहे कि "जब यह आहार लेकर आएगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर दूंगा" यह माया का स्पर्श करना है। साधु ऐसा न करे / वह पहले से ही इस पर ध्यान दे और (आहार तैयार करते देख) कहे-'आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बहन ! इस प्रकार का आधार्मिक आहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय (आचरणीय) नहीं है / अतः मेरे लिए न तो इसके साधन एकत्रित करो, और न इसे बनाओ।" उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आधार्मिक-आहार बनाकर लाए और साधु को देने लगे तो वह साधु उस आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर मिलने पर भी न ले। विवेचन-आधाकर्मादि दोष क्या, उसका त्याग क्यों ? कैसे जाना जाए ? सूत्र 360-361 और 362 इन तीन सूत्रों में आधाकर्म-दोषयुक्त आहार से बचने का विधान हैं / आधाकर्मदोष का लक्षण यह है-किसी खास साधु को मन में रखकर उसके निमित्त से आहार बनाना, सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना। यह दोष 4 प्रकार से साधु को लगता है-(१) प्रतिसेवन-~-बारबार आधाकर्मी आहार का सेवन करना, (2) प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिए निमंत्रण स्वीकार करना, (3) संवसन---आधाकर्मी आहार का सेवन करने वाले साधुओं के साथ रहना, और (4) अनुमोदन-आधाकर्मी आहार का उपभोग करने वालों की प्रशंसा एवं अनुमोदना करना। प्रस्तुत तीन सूत्रों में आधाकर्म दोष लगने के पांच कारणों से सावधान कर दिया है-- (1) साधुओं के प्रति अत्यन्त श्रद्धान्वित एवं प्रभावित होने से अपने लिए बनाया हुआ आहार साधुओं को देकर अपने लिए बाद में तैयार करने का विचार करते सुनकर सावधान हो जाए 1. पिण्डनियुक्ति गाथा 63, 65 टीका / Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय तस्कन्ध (2) पूर्व-पश्चात्-परिचित गृहस्थों के यहां भिक्षाकाल से पूर्व न जाए, (3) कदाचित अनजाने में चला भी जाए, तो उन घरों से बचकर अन्य घरों में भिक्षा करे / (4) भिक्षाकाल में भिक्षाटन करते देख परिचित गृहस्थ को आधार्मिक दोषयुक्त आहार बनाते जान कर उसे वैसा करने से इन्कार कर दे, (5) फिर भी बनाकर देने लगे तो उस आहार को न ले। ___ आधाकर्म के साथ-साथ उद्गम के अन्य दोष भी अपने खास परिचित धरों से लेने में लगने की सम्भावना हो।' ग्रासषणा दोष-परिहार 363. से भिक्खू वा 2 जाव- समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा, मंसं वा मच्छं वा भज्जिज्जमाणं पेहाए तेल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए णो खद्ध खद्ध उपसंकमित्त ओभासेज्जा नष्णस्थ गिलाणाए। 364. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे अण्णतरं भोयणजातं पडिगाहेत्ता सुभि सुम्भि भोच्चा दुभि दुभि परिदृवेति / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। सुम्भि वा दुग्भि वा सव्वं भुजे ण छड्डए / 365. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे अण्णतरं वा पाणगजायं पडिगाहेत्ता पुष्पं पुष्पं आविइत्ता कसायं कसायं परिवेति / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / पुष्पं पुप्फे ति वा कसायं कसाए ति वा सव्यमेणं भुजेज्जा, ण किंचि वि परिवेज्जा / 366. से भिक्खू वा 2 बहुपरियाषणं भोयणजायं पबिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसि अणालोइया अणामंतिया परिदृवेति / मातिढाणं संफासे / गो एवं करेज्जा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 651 के आधार पर। 2. यहाँ जाव शब्द से गाहावइकुलं से लेकर समाणे तक का पाठ सूत्र 324 के अनुसार समाने / 3. 'मंसं वा...... तेल्लपूयं वा' तक चर्णिकार मान्य पाठान्तर इस प्रकार है-मंसं वा मन्छ वा भन्जि ज्जमाणं पेहाए सक्कुलिं वा पूर्व वा तेल्लापूतं वा / अर्थात मांस और मत्स्य को भूजे जाते हुए देखकर, पूड़ी-पूआ या तेल का पूआ कड़ाही में बनाते देखकर......" 4. णणत्य गिलाणाए के स्थान पर णणस्थ गिसाणिए,......"गिलाणीए, णण्णत्थ गिलाणो आदि पाठा न्तर मिलते हैं। चर्णिकार ने तीसरा पाठान्तर माना है जिसका अर्थ है—ग्लान (रोगी) के सिवाय / 5. 'सुम्मि...' से लेकर छड्डए' तक का पाठान्तर इस प्रकार है-'सुभि ति वा दुमि ति वा सव्वमेयं भुजिज्जा, नो किंचि वि परिविज्जा' सुगन्धित हो या दुर्गन्धित, उस सब आहार का उपभोग कर ले, किंचित भी न परठे-न डाले। 6. अणामंतिया के स्थान पर अणासंसिया पाठ किसी-किसी प्रति में मिलता है। उसका अर्थ है-दूसरों की अपेक्षा किये बिना। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र 363-66 से तमादाए तत्थ गच्छेज्जा 2 [त्ता' से पुवामेव आलोएज्जा आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा 4 बहुपरियावण्णे, तं भुंजह व णं परिभाएह व णं / से सेवं वदंतं परो वरेज्ना--आउसंतो समणा! आहारमेतं असणं वा 4 जावतियं 2' सरति तावतियं 2 भोक्खामो वा पाहामो वा / सव्वमेयं परिसडति सन्वमेयं भोक्खामो वा पाहामो वा। 363. गृहस्थ के घर में साधु या साध्वी के प्रवेश करने पर उसे यह ज्ञात हो जाए कि वहां अपने किसी अतिथि के लिए मांस या मत्स्य भुना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाए जा रहे हैं, इसे देखकर वह अतिशीघ्रता से पास में जाकर याचना न करे। रुग्ण साधु के लिए अत्यावश्यक हो तो किसी पथ्यानुकूल सात्विक आहार की याचना कर सकता है। ___ 364. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुगन्धित (अच्छा-अच्छा) आहार स्वयं खा लेता है और दुर्गन्धित (खराब-खराब) बाहर फेंक देता है, वह माया-स्थान का स्पर्श करता है / उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। अच्छा या खराब, जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपभोग करे, उसमें से किचित् भी फेंके नहीं। 365. गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट जो साधु-साध्वी वहां से यथाप्राप्त जल लेकर वर्ण-गन्ध-युक्त (मधुर) पानी को पी जाते हैं, और कसैला-कसैला पानी फेंक देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। वर्ण-गन्धयुक्त अच्छा या कसैला जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो, उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर नहीं डालना चाहिए। 396. भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी उसके यहां से बहुत-सा (आवश्यकता से अधिक) नाना प्रकार का भोजन ले आएं (और उतना खाया न जाए तो) वहाँ जो सार्मिक, सांभोगिक समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु-साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे (दिखाए) बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु-साध्वी उस आहार को परठ (डाल) देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ___ वह साधु उस आहार को लेकर उन सार्मिक, समनोज्ञ साधुओं के पास जाए। वहां जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और इस प्रकार कहे-आयुष्मान् श्रमणो ! यह चतुर्विध आहार हमारी आवश्यकता से वहुत अधिक है, अतः आप इसका उपभोग करें, और अन्यान्य भिक्षुओं को वितरित कर दें। इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु यों कहे कि --'आयुष्मान् श्रमण! 1. यहाँ 2' का चिन्ह गम धातु की पूर्वकालिक क्रिया के रूप गच्छित्ता का सूचक है। 2. तं भुजह व णं आदि पाठ को व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है ---भे असणपाणखाइमसाइमे भुजह वा गं परिभाएह वा णं-भुजंध सतमेव परिभाएध अण्णमण्णेसि देह / अर्थात-इस अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वयं उपभोग करो और अन्यान्य साधुओं को दो। 3. यहाँ '2' का चिन्ह पुनरावृत्तिका सूचक है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इस आहार में से जितना हम खा-पी सकेंगे, खा-पी लेंगे, अगर हम यह सारा का सारा उपभोग कर सके तो सारा खा-पी लेंगे। विवेचन-स्वादलोलुपता और माया–प्रस्तुत चार सूत्रों में संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण, इन पांच ग्रामषणा या परिभोगैषणा के दोषों को, साधुजीवन में प्रविष्ट होने वाली स्वादलोलुपता और उसके साथ संलग्न होने वाली मायावृत्ति के माध्यम से ध्वनित कर दिया है / वास्तव में, जब साधुता के साथ स्वादुता का गठजोड़ हो जाता है, तब मांसाहारी, निर्मांसाहारी, घृणित-अघृणित, निन्द्य-अनिन्द्य कैसा ही घर हो, जरा-सा विशेष भाबुक देखा कि ऐसा साधु समय-कु-समय कारण-अकारण, मर्यादा-अमर्यादा का विचार किये बिना ही ऐसे गृहस्थ के यहां जा पहुंचता है / इससे अपने संयम की हानि तो होती ही है, धर्मसंघ की बदनामी बहुत अधिक होती है। भले ही वह साधु आमिषाहारी के यहाँ से निरामिष भोजन ही लेता हो, परन्तु स्थूलदृष्टि जनता की आँखों में तो वह वर्तमान अन्य भिक्षुओं की तरह सामिषभोजी ही प्रतीत होगा। यही कारण है कि शास्त्रकार ने गण्यत्य गिलागाए कहकर स्पष्टतया सावधान कर दिया है कि रोगी के कार्य के सिवाय ऐसे आमिषभोजी घर में न तो प्रवेश करे, न उससे सात्त्विक भोजन की भी याचना करे? मनोज्ञ आहार-पानी का उपभोग और अमनोज्ञ का परित्याग : चिन्तनीय-स्वादलोलुपता, धर्मसंघ एवं तथाकथित साधुओं के प्रति अश्रद्धा और मायावृद्धि का कारण है। यदि किसी कारण वश अधिक आहार आ गया हो, या गृहस्थ ने भावुकतावश पात्र में अधिक भोजन उंडेल दिया हो तो ऐसे आहार को खाने के बाद, शेष बचे हुए आहार का परिष्ठापन करने से पहले ढाई कोस के अन्दर निम्नोक्त प्रकार के साध-साध्वियों की खोज करके, वे हों तो उन्हें मनुहार करके दे देने का शास्त्रकार ने विधान किया है--' (1) सार्मिक, (2) सांभोगिक, (3) समनोज्ञ और (4) अपारिहारिक। इन चारों का एक दूसरे से उत्तरोत्तर सूक्ष्म सम्बन्ध है।' पिण्डनियुक्ति में नाम आदि 12 प्रकार के साधर्मियों का उल्लेख है। वह इस प्रकार है-(१) नाम सार्मिक (2) स्थापना सार्मिक, (3) द्रव्य सार्मिक, (4) क्षेत्रसार्मिक, (5) काल सार्मिक, (6) प्रवचन सार्मिक (7) लिंग (वेष) सार्मिक, (8) ज्ञान सार्मिक, (6) दर्शन सार्मिक, (10) चारित्र-साधर्मिक, (11) अभिग्रह सार्मिक और (12) भावना सार्मिक / इनमें से नामादि से लेकर काल-सार्मिक तक को छोड़कर शेष 7 प्रकार के सार्मिकों के साथ यथायोग्य व्यवहार का विवेक करना चाहिए / 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 352 के आधार से (ख) आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण पृ० 136 2. सार्धामक आदि चारों पदों का अर्थ पहले किया जा चुका है देखें सूत्र 327 एवं 331 का विवेचन / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 352 4. पिण्डनियुक्ति गा० 138 से 141 तक Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र 367-68 ग्रासवणा-विवेक 367. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा असणं व 4 परं समुहिस्स बहिया गोहडं तं परेहि असमणुण्णातं अणिसिट्ठ' अफासुयं जाव' णो पडिगाहेज्जा / तं परेहि समणुण्णातं समणुस? फासुयं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा। 367. गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि दूसरे (गुप्तचर, भाट आदि) के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए निकाला गया है, परन्तु अभी तक उस घरवालों ने उस आहार को ले जाने की अनुमति नहीं दी है और न ही उन्होंने उस आहार को ले जाने या देने के लिए उन्हें सोंपा है, (ऐसी स्थिति में) यदि कोई उस आहार को लेने की साधु को विनति करे तो उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर स्वीकार न करे। यदि गृहस्वामी आदि ने गुप्तचर भाट आदि को उक्त आहार ले जाने की भलीभांति अनुमति दे दी है तथा उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सोंप दिया है और कह दिया है-तुम जिसे चाहो दे सकते हो, (ऐसी स्थिति में) साधु को कोई विनति करे तो उस आहार को प्रासुक और एषणीय समझकर ग्रहण कर लेवें।। विवेचन---आहार-ग्रहण में विवेक-इस सत्र में एक के स्वामित्व का आहार दूसरा कोई देने लगे तो साधु को कब लेना है, कब नहीं ? इस सम्बन्ध में स्पष्ट विवेक बताया है। जिसका उस आहार पर स्वामित्व है, उस घरवाले यदि दूसरे व्यक्ति को उस आहार को सौंप दे और यथेच्छ दान की अनुमति दे दें तो वह आहार साधु के लिए ग्राह्य है अन्यया नहीं। नोहडं आदि पदों के अर्थ-नोहडं =निकाला गया है, असमणुष्णातं = किसको देना है, इसकी सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा (अनुमति) नहीं दी गई है, ‘अणिसिट्ठ' = सोंपा नहीं गया है। 398. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 368. यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनादि की) समग्रता है / / ॥णवमो उद्देसओ समत्तो॥ 1. इसके स्थान पर असमणिठं पाठान्तर है। अर्थ होता है- सम्यक प्रकार से नहीं दिया गया है। 2. अफासुयं के बाद जाव शब्द अणेसणिज्ज मण्णमाणे लाभे संते'-इतने पाठ का सूचक है। 3. समणुसळं के स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं / समणिसठ्ठ, समणिहें णिसळं तथा णिसिट आदि / अर्थ क्रमश: यों है-सम्यक रूप से सौंप दिया, अच्छी तरह से दिया है, दे दिया है, सौप दिया है। 4. यहाँ फासुयं के बाद जाव शब्द एसणिज्ज मण्णमाणे-इतने पाठ का सूचक है। 5. आचारांग वृत्ति पत्रांक 352 6. इसका विवेचन सत्र 334 के अनसार समझें। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध दसमो उद्देसओ वसम उद्देशक आहार-वितरण विवेक 366. से एगतिओ साहारणं वा पिंडवातं पडिगाहेत्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्ध खद्ध दलाति / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छित्ता पुन्वामेव एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छासंधुया वा, तंजहा---आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा गणावच्छेइए वा, अवियाई एतेति खदखद्ध वाहामि ?' से वं ववंतं परो वदेजा-काम खलु आउसो ! अहापज्जत्तं निसिराहि / ' जावइयं 2 परो वदति तावइयं 2 णिसिरेज्जा / सव्वमेतं परो ववति सन्वमेयं णिसिरेज्जा। 400. से एगइओ मणुण्णं भोयणजातं पडिगाहेत्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएति 'मामेतं दाइयं संतं दवणं सयमादिए तं जहा-] आयरिए वा जाव गणावच्छेइए वा / णो खलु में कस्सइ किंचि वि दातवं सिया / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तमायाए तस्थ गच्छेज्जा, 2 [त्ता) पुवामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्टुइमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा / णो किंचि वि विणिगृहज्जा। 401. से एगतिओ अण्णतरं भोयणजातं पडिगाहेत्ता भयं भद्दयं भोच्चा विवणं विरसमाहरति / मातिढाणं संफासे / णो एवं करेजा। 366. कोई भिक्षु बहुत-से साधुओं के लिए गृहस्थ के यहाँ से साधारण अर्थात् सम्मिलित आहार लेकर आता है और उन साधार्मिक साधुओं से बिना पूछे ही (अपनी इच्छा से) जिसे-जिसे चाहता है, उसे-उसे बहुत-बहुत दे देता है; तो ऐसा करके वह माया-स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए; वहाँ जाते ही सर्वप्रथम इस प्रकार कहे-"आयुष्मन् श्रमणो ! यहाँ मेरे पूर्व-परिचित (जिनसे दीक्षा अंगीकार की है) तथा पश्चात्-परिचित (जिनसे श्रुताभ्यास किया है), जैसे कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर (गच्छ प्रमुख) या गणावच्छेदक आदि; अगर + इस चिन्ह का पाठ कुछ प्रतियों में नहीं है। 1. कामं खलु आउसो..... आदि पाठ की व्याख्या चर्णिकार ने इस प्रकार की है-कामं गाम इच्छातः आहापज्जतं जहापज्जतं, जावइयं वा वरेज्जा / काम का अर्थ है-स्वेच्छा से, जिसके लिए जितना पर्याप्त हो, अथवा जितना आचार्यादि कहें.....। 2. जावइयं और तावइयं के पश्चात् 2' का चिन्ह उसी की पुनरावृत्ति का सूचक है / 3. इसके स्थान पर सहभादिए, सतमातिए पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ समान है। 4. इसके स्थान पर पाठान्तर है-विणिग्गज्जा , निग्नहेज्जा, गिगज्जा , अर्थ क्रमश: यों है---अदला बदली (हेरा-फेरी) करे, अपने कब्जे में करे, छिपाए----माया करे। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : दसम उद्देशक : सूत्र 366-401 आपकी अनुमति हो तो मैं इन्हें पर्याप्त आहार दूं।” उसके इस प्रकार कहने पर यदि गुरुजनादि कहें.---'आयुष्मन् श्रमण ! तुम अपनी इच्छानुसार उन्हें यथापर्याप्त आहार दे दो।' ऐसी स्थिति में वह साधु जितना-जितना वे कहें, उतना-उतना आहार उन्हें दे दें। यदि वे कहें कि 'सारा आहार दे दो', तो सारा का सारा दे दें। 400. यदि कोई भिक्षु भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तुच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ इस आहार को देखकर स्वयं न ले लें / मुझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है। ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य आदि के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोल कर पात्र को हाथ में ऊपर उठा कर 'इस पात्र में यह है, इसमें यह है', इस प्रकार एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे। कोई भी पदार्थ जरा-सा भी न छिपाए। 401. यदि कोई भिक्षु गृहस्थ के घर से प्राप्त भोजन को लेकर मार्ग में ही कहीं, सरस-सरस आहार को स्वयं खाकर शेष बचे तुच्छ एवं नीरस आहार को उपाश्रय में आचार्यादि के पास लाता है, तो ऐसा करने वाला साध मायास्थान का सेवन करता है। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। विवेचन-स्वाद-लोलुपता और प्रच्छन्नता-साधु-जीवन में जरा-सी भी माया अनेक दोषों, यहां तक कि सत्य, अहिंसा और अस्तेय, इन तीन महाव्रतों का ध्वंस कर देती है; क्योंकि ऐसा साधक मायावश वास्तविकता को छिपाता है, इससे सत्य महावत को आंच आती है, तथा मायावश महान् रत्नाधिकों को न बताकर छिप-छिप कर सरस आहार स्वयं खा जाता है, इससे अचौर्य महाव्रत भंग होता है, तथा मायावश प्रासुक, एषणीय एवं कल्पनीय का विचार न करके जैसा-तैसा दोषयुक्त आहार ले आता है तो अहिंसा-महाव्रत भी खण्डित हो जाता है / आहार-वितरण में पक्षपात करता है तो समता का भी नाश हो जाता है। साथ ही स्वाद-लोलुपता भी बढ़ती जाती है।' इन तीनों सूत्रों में स्वादलोलुपता और माया से बचने का स्पष्ट निर्देश किया गया है / इन तीन सूत्रों में माया-दोष के तीन कारणों की सम्भावना का चित्रण प्रस्तुत किया गया है(१) आहार-वितरण के समय पक्षपात करने से, (2) सरस आहार को नीरस आहार से दबा कर रखने से, (3) भिक्षा प्राप्त सरस आहार को उपाश्रय में लाए बिना बीच में ही कहीं खा लेने से। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 353 के आधार पर, 2. तुलना कीजिए-सिया एगइओलद विविहं पाणभोयणं / / भद्दगं भग भोच्चा विवणं विरसमाहरे॥ . . -दशव० 5/2/33 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध पुरेसंधुया, पच्छासंधुया आदि शब्दों के अर्थ-यहाँ प्रसंगवश पुरेसंधुया का अर्थ होता हैपूर्व-परिचित--जिन श्रमण महापूज्य से मैंने दीक्षा ग्रहण की है, वे तथा उनसे सम्बन्धित, तथा पच्छासथुआ का अर्थ होता है--जिन महाभाग से मैंने शास्त्रों का अध्ययन-श्रवण किया है, वे तथा उनसे सम्बन्धित पश्चात्-परिचित। पवत्ती=साधुओं को वैयावृत्य आदि में यथायोग्य प्रवृत्त करने वाला प्रवर्तक / येरे स्थविर साधु जो संयम आदि में विषाद पाने वाले साधुओं को स्थिर करता है। गणी = गच्छ का अधिपति / गणधरे-गुरु के आदेश से साधुगण को लेकर पृथक् विचरण करने वाला आचार्यकल्प मुनि। गणावच्छइए --गणावच्छेदक-गच्छ के कार्यों हितों का चिन्तक / अवियाई- इत्यादि, खरषद =अधिक-अधिक / जिसिरेज्जा दे। पलिच्छाएति=आच्छादित कर (ढक) देता है। सममाए स्वयं खाऊंगा। 'दाइए' दिया गया है। उत्ताणए हत्थे-सीधी हथेली में / विणिगूहेज्जा छिपाए।' बहु-उस्मितधर्मी-आहार-ग्रहण निषेध 402. से भिक्ख वा 2' से ज्ज पुण जाणेज्जा अंतरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा संबलि वा संबलिथालिग वा, अस्सि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे भोयणजाते बहुउज्झियधम्मिए, तहप्पगारं अंतरुच्छुयं वा जाव संबलिथालिगं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 403. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा बहुअट्ठियं वा मंसं मच्छं वा बहुफंटगं, अस्सि खलु पडिग्गाहितसि अप्पे भोयणजाते बहुउज्झियधम्मिए, तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा मंसं मच्छं वा बहुकंटगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 404. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे सिया गं परो बहुअढिएण मंसेण उवणिमंतेज्माआउसंतो समणा ! अभिकखसि बहुअट्टियं मंसं पडिगाहेत्तए ? एतप्पगारं णिग्धोसं सोच्चा जिसम्म से पुकामेव आलोएज्जा--आउसो ति वा भइणी ति वा णो खलु मे कप्पति बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहेत्तए / अभिकखसि मे दाउं, जावतिसं तावतितं पोग्गलं वलयाहि, मा अट्ठियाई / से सेवं वदंतस्स परो अभिहट्ट अंतोपडिग्गहगंसि बहुअट्ठियं मंसं परियाभाएत्ता णिहट्ट 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 353 2. यहाँ '2' का चिन्ह गमधातु की पूर्वकालिक क्रिया 'गच्छित्ता का सूचक है। 3. संबलियालिग के स्थान पर पाठान्तर है, सिबलिथालिगं, सिलिथालियं, संगलियालगं, सिबलि थालं / अर्थ एक-सा है। 4. यहाँ जाव शब्द अफासूयं से लेकर गो पहिगाहेमा तक के पाठ का सुत्र 324 के अनुसार सूचक 5. यहां जाव शब्द सु. 324 के अनुसार गाहावाकुलं से समाणे तक के पाठ का सूचक है। 6. इसके स्थान पर जापतितं (तावश्य) गाहावति तं पोग्गलं...."पाठान्तर है / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : बसम उद्देशक : सूत्र 402-404 उलएज्जा / तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते भाव णो पडिगाहेज्जा। से य आहच्च पडिगाहिते सिया, तं जो हि ति वएज्जा, गो धि त्ति वएज्जा, गो अणह ति वएज्जा / से तमाशय एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता] अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा भप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छग भोच्चा अट्ठियाई कंटए गहाए से त्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता अहे झामथंडिल्लसि वा जात्र पमज्जिय पज्जिय परिवेज्जा। 402. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईख के पर्व का मध्य भाग है, पर्व-सहित इक्षुखण्ड (गंडेरी) है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएं है, छोटी डालियां हैं, मूंग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियां पकी हुई हैं, (किसी निमित्त से अचित्त हैं), परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक है, (ऐसी स्थिति में) इस प्रकार के अधिक फेंकने योग्य आहार को अकल्पनीय और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी न ले। 403. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि इस गूदेदार पके फल (मांस) में बहुत गुठलियाँ (अस्थि) हैं, या इस अनन्नास (मच्छ) में बहुत कांटे हैं, इसे ग्रहण करने पर इस आहार में खाने योग्य भाग अल्प है, फेंकने योग्य भाग अधिक है, तो इस प्रकार के बहुत गुठलियों तथा बहुत कांटों वाले गूदेदार फल के प्राप्त होने पर उसे अकल्पनीय समझ कर न ले। 404. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रवेश करे, तब यदि वह बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आमंत्रण करे---"आयुष्मन् श्रमण ! क्या आप बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फल लेना चाहते हैं ?" इस प्रकार का वचन सुनकर और उस पर विचार करके पहले ही साधु उससे कहे.-आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बह्न ! बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / यदि तुम मुझे देना चाहते/चाहती 1. तं णो हि त्ति वएज्जा, णो धि त्ति वएउजा, जो अणह त्ति वएज्जा के स्थान पर पाठान्तर है णो हि ति बएम्जा, जो वित्ति वएज्जा, गो हंबह ति वएज्जा,....."णो अमह त्ति वएज्जा। इन सबका भावार्थ चूर्णिकार ने यों दिया है.--'बहूट्टिते दिग्णे हि ति हिति हस्सि विति य गंवा फरसं ण मज्जा '-~गृहस्थ द्वारा बहुत गुठलियों वाला आहार देने पर हिहि करके उसकी हंसी न उदाए, और न ही कठोर वचन बोले। 2. यहाँ जाव शब्द से अप्परे से लेकर संताणए तक का पाठ सू० 324 के अनुसार समझें। 3. यही सामपंडिल्लंसि वा के बाद जाव शब्द सू० 324 के अनुसार पमज्जिय तक के पाठ का सूचक Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कम्स हो तो इस फल का जितना गूदा (गिर= सार भाग) है, उतना मुझे दे दो, बीजगुठलियाँ नही। .. भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ अपने बर्तन में से उपयुक्त फल लाकर देने लगे तो जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में वह हो तभी उस प्रकार के फल को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर लेने से मना कर दे--प्राप्त होने पर भी न ले। इतने पर भी वह गृहस्थ हठात्-बलात् साधु के पात्र में डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा (भला-बुरा) कहे, किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए / वहाँ जाकर जीव-जन्तु, काई, लीलण फूलण, गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि से रहित किसी निरवद्य उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सार भाग का उपभोग करे और फेंकने योग्य बीज, गुठलियों एवं कांटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए, वहाँ दग्ध भूमि पर, या अस्थि राशि पर अथवा लोहादि के कूड़े पर, भूमे के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर या ऐसी ही किसी प्रासुक भूमि पर प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन्हें परठ (डाल) दे। विवेचन-अग्राह्य आहार : खाने योग्य कम, फैकने योग्य अधिक---सू० 402 से 404 में ऐसे आहार का उल्लेख किया गया है, जिसमें स्वयं पक जाने पर भी या अग्नि से शस्त्रपरिणत हो जाने पर भी खाने योग्य भाग अल्प रहता है और फैकने योग्य भाग बहुत अधिक रहता है। इसलिए ऐसा आहार प्रासुक होने पर भी अनेषणीय और अग्राह्य है। कदाचित् गृहस्थ ऐसा बहु-उज्झितधर्मी आहार देने लगे तो साधु को उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि रोसा आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / कदाचित् भावुकतावश हठात् कोई गृहस्थ साधु के पात्र में वैसा आहार डाल दे तो उसे उक्त गृहस्थ को कुछ भी उपालम्भ या दोष दिये बिना चुपचाप एकान्त में जाकर उसमें से सार भाग का उपभोग करके फैंकने योग्य भाग को अलग निकाल कर एकान्त निरवद्य जीव जन्तु-रहित स्थान देखभाल एवं साफ करके वहाँ डाल देना चाहिए। ऐसे बहु-उज्झितधर्मी आहार में यहाँ चार प्रकर के पदार्थ बताए हैं--(१) ईख के टुकड़े और उसके विविध अवयव, (2) मूंग, मोठ चौले आदि की हरी फलियाँ, (3) ऐसे फल जिनमें बीज और गुठलियां बहुत हों-जैसे तरबूज, ककड़ी, सीताफल, पपीता, नीबू, बेल, अनार, आदि, (4) ऐसे फल जिसमें कांटे अधिक हों, जैसे अनन्नास आदि / ' 1. मूल सूत्र में 'बह अदिव्यं मंसं मच्छं वा बहकंटगं' इन पदों को देख कर सहसा यह भ्रम हो जाता है कि क्या जैन साधु, जो षटकाय के रक्षक हैं, पंचेन्द्रिय-वध से निष्पन्न तथा नरक-गमन के कारण मांस और मत्स्य का ग्रहण और सेवन कर सकते हैं? भले ही वह अग्नि में पका हुआ हो, संस्कारित हो? आचारांग चूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों इस सूत्र की व्याख्या साधारणतः मांस-मत्स्यपरक करते है। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : बसम उद्देशक : सूत्र 402-4 चर्णिकार ने भी इस विषय में कोई समाधान नहीं दिया, अगर प्राचीनपरम्परा के अनुसार कुछ समाधान दिया भी हो तो आज वह उपलब्ध नहीं है, लेकिन वृत्तिकार इसे आपबादिक सूत्र मानकर कहते हैं'इस प्रकार मांस सूत्र भी समझ लेना चाहिए। मांस का ग्रहण कभी सद्वंद्य की प्रेरणा से, मकड़ी भादि के काटने हर उस असह्य पीड़ा के उपशमनार्थ बाह्य परिभोग में, पसीना आदि होने से, ज्ञानादि में उपकारक होने से उपयोगी देखा गया है। भुज् धातु यहाँ जूते के उपयोग की तरह बाह्य परिभोग के अर्थ में है, खाने के अर्थ में नहीं।' निष्कर्ष यह है कि ये दोनों ही आचार्य मुनि के लिए इसे अभक्ष्य मानते हैं। दशवैकालिक सूत्र (अ० 5) में भी इसी से-~~-मिलती-जुलती दो गाथाएं हैं बहु अट्ठियं पुग्गलं अगिमिसं वा बहुकंटय / अस्थियं तिदुयं बिल्लं उच्छवंडं व सिबलि // 73 // अप्पेसिया भोयणजाए, बहु-उज्सियधम्मिए। देतियं पडिआइरखे न मे कप्पड़ तारिसं // 74 // दोनों का अर्थ स्पष्ट है। दशवकालिक सूत्र के कुछ व्याख्याकारों ने मांस-मत्स्य-शब्दों का लोक-प्रसिद्ध मांस-मस्त्यपरक और कइयों ने वनस्पतिपरक अर्थ किया है। इस सूत्र के चूणिकार इस गाथा का अर्थ मांस (पुद्गल) मस्त्य (अनिमिष) परक करते हैं, वे कहते हैं-साधु को मांस खाना नहीं कल्पता, फिर भी किसी देश, काल और परिस्थिति की अपेक्षा से इस आपवादिक सूत्र की रचना हुयी है। इस सूत्र के टीकाकार हरिभद्रसूरि मांस-परक अर्थ के सिवाय वनस्पतिपरक अर्थ मतान्तर द्वारा स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध टब्बाकार पार्शचन्द्र सूरि ने मूलतः ही वनस्पतिपरक अर्थ किया है / इसलिए पुद्गल या मांस का अर्थ-प्राणिविकार, कलेवर, फल या उसका गूदा, इनमें से कोई हो सकता है / अनिमिष और मत्स्य भी मत्स्य तथा वनस्पति ..दोनों का वाचक हो सकता है। इस प्रकरण का समग्र अनुशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि 'मंस-मच्छ' शब्द द्वयर्थक-दो अर्थवाले हैं। द्वयर्थक शब्द का आशय समझने के लिए वक्ता का (1) सिद्धान्त (2) व्यवहार और उसकी (3) अथ-परम्परा पर विचार करना चाहिए। अगर मात्र शब्द को पकड़कर उसका लोक-प्रचलित अर्थ कर दिया जाय तो वक्ता के मूल सिद्धान्त के साथ अन्याय होगा। आगम के वक्ता (अर्थोपदेष्टा) सर्वज्ञ प्रभु महावीर परम अहिंसावादी व परम कारुणिक थे। उन्होंने मद्य, मत्स्य, मांस जैसे जुगुप्सनीय पदार्थों के सेवन का स्थान-स्थान पर निषेध किया है, न केवल निषेध; बल्कि इनका सेवन-नरक आदि घोर दुर्गति का कारण बताया है, भगवान महावीर ने अपने जीवन-व्यवहार में, या किसी भी गणधर आदि ने कभी इस प्रकार 1. 'एवं मांस सूत्रमपि नेयम् / अस्य चोपावानं क्वचिल्लताम_पशमनार्व--सब्वैद्योपवेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेवादिना ज्ञाना पकारकत्वात्-फलवद् दृष्टम् / मुजिश्चात्र बहिपरिभोगार्थो. नाम्यवहारावों पातिभोगवविति। -आचा. वृत्ति पत्रांक 354 / 2. (क) मंसंबणेष कप्पति साहणं, कंधि देसं कालं पहुच इमं सुत्तमागतं / -दसवै• जिनदास चूणि पृ० 184 (ख) मंसातीण अग्गहरी सति, देसकालगिलागावेक्यमियममवात सुस्त।। -दसर्व० अगस्त्य सिंह चूणि पृ. 118 3. 'महस्मि' 'पुवगतं'-मासम्, 'अनिमिवं' मत्स्य वा 'बहुकण्टकम्', अयं किल कालापेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारातया विधफलामिधाने एते। हारि० टीका पत्र 176 / Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांण सूत्र-द्वितीय श्र सस्कन्छ अग्राह्य लवण-परिभोग-परिष्ठापन विधि 405. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहए बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं परियाभाएत्ता णोहट्ट दलएज्जा / तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पङिगाहेज्जा। से य आहच्च पडिग्गाहिते सिया, तं च णातिदूरगते जाणेज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, 2 [ता पुव्यामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भइणी ति वा इमं किं ते जाणता दिण्णं उदाहु अजाणता ? से य भणेज्जा-णो खलु मे जाणता दिण्णं, अजाणता; काम खलु आउसो ! इवाणि णिसिरामि, तं भुंजह व गं परियाभाएह व णं / तं परेहि समणुण्णायं समणुसट्ठ ततो संजतामेव भुंजेज्ज वा पिएज्ज वा। ____जं च णो संचाएति भोत्तए वा पायए वा, साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया तेसि अणुप्पदातव्वं सिया / णो जत्थ साहम्मिया सिया जहेव बहुपरियावणे कीरति तहेव कायव्वं सिया। 405. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश निकाल कर, बाहर लाकर देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उस अप्रासुक अनेषणीय समझ कर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस अचित्त नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ (दाता) यदि निकटवर्ती हो तो, लवणादि को लेकर वापिस उसके पास जाए / वहाँ जाकर पहले उसे वह नमक दिखलाए, कहे--आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या आयुष्मती बहन ! तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दिया है, या अनजाने में ? के पदार्थों को ग्रहण नहीं किया। बल्कि आधाकर्म दोष की तरह मांसादि भोजन को मूलतः अशुद्ध मानकर उसका परिहार किया है। उक्त शब्दों का अर्थ स्पष्टतः ज्यों का त्यों---आज तक किसी भी आचार्य व विद्वान आगमज्ञ ने मान्य नहीं किया। या तो इसे अपवाद सूत्र माना है या इन शब्दों का अर्थ अनेक प्राचीन आयुर्वेदिक आदि ग्रन्थों के आधार पर--वनस्पतिपरक स्वीकार किया है। हमारे विचार में अपवाद सूत्र मानने का भी कोई विशेष महत्त्व नहीं, क्योंकि श्रमण ऐसी पंचेन्द्रिय-हिसाजन्य वस्तु को शरीर के बाह्य उपभोग में भी नहीं लेता। अतः उनका वनस्पतिअर्थ ही अधिक संगत लगता है। इसी सूत्र में--(अध्ययन 1 सूत्र 45) पंचेन्द्रिय शरीर तथा वनस्पति शरीर की समानधर्मिता स्पष्टत: बतायी है, अतः वनस्पति विशेष में गदे, बीज, गुठली, कांटे आदि के कारण उनकी भी पंचेन्द्रिय शरीर के विकार (मांस-हड्डी) आदि के साथ-तुलना की जा सकती है। भारत के अनेक प्रान्तों (बंगाल-बिहार-पंजाब) में आज भी 'मच्छ 'कुकडी' आदि शब्द वनस्पति विशेष के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं / सम्पादक Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : दशम उद्देशक : सूत्र 406 105 यदि वह कहे—मैंने जानबूझ कर नहीं दिया है, अनजाने में ही दिया है, किन्तु आयुष्मन् ! अब यदि आपके काम आने योग्य है तो मैं आपको स्वेच्छा से जानबूझ कर दे रहा/रही हूँ। आप अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करें या परस्पर बांट लें।" घरवालों के द्वारा इस प्रकार की अनुज्ञा मिलने तथा वह वस्तु समर्पित की जाने पर साधु अपने स्थान पर आकर (अचित्त हो तो) उसे यतनापूर्वक खाए तथा पीए।। यदि (उतनी मात्रा में) स्वयं उसे खाने या पीने में असमर्थ हो तो वहां आस-पास जो सार्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ एवं अपारिहारिक साधु रहते हों, उन्हें (वहाँ जाकर) दे देना चाहिए। यदि वहाँ आस-पास कोई सार्मिक आदि साधु न हों तो उस पर्याप्त से अधिक आहार को जो परिष्ठापनविधि बताई है, तदनुसार एकान्त निरवद्य स्थान में जाकर उसे परठ (डाल) दे। विवेचन-एक के बदले दूसरी वस्तु मिलने पर-इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार कहते हैं -भिक्षु अपने रुग्ण साधु के लिए गृहस्थ के यहाँ जाकर खांड या बूरे की याचना करता है, परन्तु वह गृहस्थ सफेद रंग देखकर खांड या बूरे के बदले नमक एक बर्तन में से अपने हाथ में या किसी पात्र में लेकर साधु को देने लगता है, उस समय अगर साधु को यह मालूम हो जाए कि यह नमक है तो न ले, कदाचित् भूल से वह नमक ले लिया गया है, और बाद में पता लगता है कि यह तो बूरा या खांड नहीं, नमक है, तो बह पुन: दाता के पास जाकर पूछे कि आपने यह वस्तु जानकर दी है या अनजाने ? दाता कहे कि दी तो अनजाने मगर अब जानकर देता हूं। आप इसका परिभोग करें अथवा बँटवारा कर लें। इस प्रकार कहकर और दाता खुशी से अनुज्ञा दे दे, उसे समर्पित कर दे तो स्वयं उसका यथायोग्य उपभोग करे, आवश्यकता से अधिक हो तो निकटवर्ती सार्मिकों को ढूंढ़ कर उन्हें दे दे, यदि वे भी न मिले तो फिर परिष्ठापनविधि के अनुसार उसे परठ दे। तात्पर्य यह है कि एक वस्तु की याचना करने पर गृहस्थ यदि भूल से दूसरी बस्तु दे दे और साधु उसे लेकर चला जाय, तो भी जब साधु को वास्तविकता का पता लगे तो उसकी प्रामाणिकता इसी में है कि वह उस वस्तु को लेकर वापिस दाता के पास जाए और स्थिति को स्पष्ट कर दे। ऐसा न करने पर गृहस्थ को उसकी प्रामाणिकता में अविश्वास हो सकता है। 406. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 406. यही (एषणाविधि का विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की सर्वांगीणसमग्रता है। ॥दसमो उद्देसओ समत्तो। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 354 के आधार पर। 2. इसका विवेचन 334 के अनुसार समझें। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इक्कारसमो उद्देसओ एकादश उद्देशक माया-परिभोगवणा-विचार 407. भिक्खागा गामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे मणुण्णं भोयणजातं लभित्ता-से य भिक्खु गिलाइ, से हंवह गं तस्साहरह, से य भिक्खू गो मुंजेज्जा तुमं चेव णं भुजेज्जासि / से 'एगतितो भोक्खामि' ति कटु पलिउंचिय 2 आलोएज्जा, तंजहा-इमे पिडे, इमे लोए, इमे तित्तए, इमे कडुयए, इमे कसाए, इमे अंपिले, इमे महुरे, णो खलु एत्तो किंचि गिलाणस्स सदति ति। माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेजा। तहाठितं' आलोएज्जा जहाठितं गिलाणस्स सदति ति, तं [जहा]-तितयं तित्तए ति बा, कड्यं 2, कसायं 2, अंबिलं 2, महर२। 408. भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे [था) मणुण्णं भोयणजातं लभित्ता--से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू गो भुंजेज्जा आहरेज्जासि गं। णो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि / इच्चेयाई आयतणाई उवातिकम्म 407. एक क्षेत्र में (वृद्धावस्था, रुग्णता आदि कारणवश पहले से) स्थिरवासी समसमाचारी वाले साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले (आगन्तुक) साधु भिक्षा में मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर कहते हैं--जो भिक्षु ग्लान (रुग्ण) है, उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो और उसे ले जाकर दे दो। अगर वह रोगी भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना। उस भिक्षु ने उनसे (रोगी के लिए) वह आहार लेकर सोचा--'यह मनोज्ञ आहार में अकेला ही खाऊंगा।' यों विचार कर उस मनोज्ञ आहार को अच्छी तरह छिपा कर रोगी भिक्षु को दूसरा आहार दिखलाते हुए कहता है.--भिक्षुओं ने आपके लिए यह आहार दिया है / किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, यह रुक्ष है, यह तीखा है, यह कड़वा है, यह कसेला है, यह खट्टा है, यह अधिक मीठा है, अतः रोग बढ़ानेवाला है। इससे आप (ग्लान) को कुछ भी लाभ नहीं होगा।' इस प्रकार कपटाचरण करने वाला भिक्षु मातृस्थान का स्पर्श करता है। भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो, उसे वैसा ही दिखलाए–अर्थात् तिक्त को 1. तहाठितं...."सदति का पाठान्तर है-तहेव तं आलोएज्जा जहेव तं गिलाणस्स सदति इसका भावार्थ चूणिकार ने इस प्रकार दिया है-जहत्वियं आलोएइ जहा गिलाणस्स सदति / अर्थात यथार्थ रूप में ग्लान के समक्ष प्रगट करे, जिससे ग्लान का उपकार हो। 2. यहाँ '2' का अंक 'तित्तयं' की भांति सर्वत्र पुनरावृत्ति का सूचक है। + यह पाठ मुनि जम्बूविजय जी की प्रति में नहीं है, किन्तु चूणि एवं टीका के अनुसार होना चाहिए / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : एकादश उद्देशक : सूत्र 407-8 107 तिक्त यावत् मीठे को मीठा बताए / रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करे। ___.8. यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले (दूसरे स्थान से आए) साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहें कि 'जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ (पथ्य) आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भिक्षु इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है / इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊंगा।' ( यों वचन-बद्ध साधु वह आहार रुग्ण साधु को न देकर स्वयं खा जाता है, तो वह मायास्थान का स्पर्श करता है।) उसे उन पूर्वोक्त कर्मों के आयतनों (कारणों) का सम्यक् परित्याग करके (सत्यतापूर्वक यथातथ्य व्यवहार करना चाहिए / ) विवेचन----मापारहित आहार-परिभोग का निर्देश-सू० 407 और 408 में शास्त्रकार ने आहार के उपभोग के साथ कपटाचार से सावधान रहने का निर्देश दिया है। निर्दोष भिक्षा के साथ जहाँ स्वाद-लोलुपता जुड़ जाती है, वहां मायाचार, दम्भ और दिखावा आदि बुराइयां साधु जीवन में घुस जाती हैं / रुग्ण साधु के लिए लाया हुआ पथ्य आहार उसे न देकर वाक्छल से उसे उलटा-सीधा समझा कर स्वयं खाजाता है, वह साधु मायाचार करता है / वृत्तिकार उक्त मायाचारी साधु के मायाचार को दो भागो में विभक्त करते हैं-(१) पहले वह मन में ही कपट करने का घाट घड़ लेता है, (2) तदनन्तर ग्लान भिक्षु को वह आहार अपथ्य बताकर स्वयं खा लेता है। सूत्र 408. में भी वह रुग्ण भिक्षु के साथ कपट करने के लिए उन्हीं पूर्वोक्त बातों को दोहराया है / इसमें थोड़ा-सा अन्तर यह है कि आहार लाने वाला साधु उन आहारदाता साधुओं के साथ वचनबद्ध हो जाता है, कि अगर वह रुग्ण साधु इस आहार का उपभोग नही करेगा तो कोई अन्तराय न होने पर मैं इस आहार को वापस आपके पास ले आऊंगा।" किंतु रुग्ण साधु के पास जाकर उसे पुराने आहार की अपथ्यता के दोषों को बताकर रुग्ण को वह आहार न देकर स्वाद-लोलुपतावश स्वयं उस आहार को खा जाता है और उन साधुओं को बता देता है कि रुग्ण-सेवा-काल में ही मेरे पेट में पीड़ा उत्पन्न हो गई, इस अन्तरायवश मैं उस ग्लानार्थ दिये गए आहार को लेकर न आ सका, इस प्रकार दोहरी माया का सेवन करता ___ 'इच्छयाइ आयतणाई'-चूर्णिकार के शब्दों में व्याख्या--कदाचित् रुकावट होने के कारण वह ग्लानसाधु के लिए उस आहार पानी को न भी ले जा सके। जैसे कि सूर्य अस्त होने आया हो, रास्ते में सांड या भंसा मारने को उद्यत हो, मतवाला हाथी हो, कोई पीड़ा हो गई हो, 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 355 के आधार से Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय शु तस्कन्ध किन्तु यह सब यथातथ्य न बतलाकर बनावटी बातें बनाता है तो ये सब संसार-परिवृद्धिकारक दोषों के आयतन (स्थान) हैं।' सप्त पिवणा-पानंषणा 406. अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ। [1] तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा-असंसट्ठे हत्थे असंसठे मत्ते। तहप्पगारेण असंसद्रुण हत्येण वा मत्तएण वा असणं वा 4 सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं पडिगाहेज्जा-पढमा पिंडेसणा। [2] अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संस? हत्थे संस? मत्ते, तहेव दोच्चा पिंडेसणा। [3] अहावरा तच्चा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा 4 संतेतिया सड्ढा भवंति गाहावती वा जाव कम्मकरी वा / तेसिं च णं अण्णतरेसु विरूवरूवेसु भायणजातेसु उणिक्खित्तपुन्वे सिया, तं जहा थालंसि वा पिढरगंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा / अह पुणेवं जाणेज्जा असंस? हत्थे संस? मत्ते, संस? वा हत्थे असंस? मत्ते / से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहए वा, से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भगिणो ति वा एतेण तुमं असंसट्टण हत्येण संसट्ठण मत्तेण संसट्टेण वा हत्थेण असंसद्रुण मत्तेण अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिसि वा णिहट्ट ओवित्त दलयाहि / तहप्पगारं भोयणजातं सयं वा जाएज्जा परो वा से देज्जा / फासुयं एसणिज्जं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा / तच्चा पिंडेसणा। [4] अहावरा चउत्था पिडेसणा-से भिक्खू वा 2 से जं पुण" जाणेज्जा पिहयं का जाव चाउलपलंबं वा, अस्सि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाते। 1. आचारांग चूणि--"कादाइ वाघातेण ण णेज्जा वितं भत्तपाणं गिलाण, अत्यंतो सूरो, मोणा अस्सा वा मारणमा, खंधावारी हत्थी मत्तो, सूल वा होज्जा / इच्चयाइ आयतणाई-आयतणा दोषाइ अप्प सत्थाई मंसारस्स...।" आचा० मूलपाठ टिप्पण पृष्ठ 142 2. 'पाईगं 'वा' के बाद 4 का अंक सूत्र 380 के अनुसार शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 3. पिढरगंसि के स्थान पर पाठान्तर है--पिढरंसि ।-चूर्णिकार ने इन पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-पिहडए वा अन्नमि छडं / सरगं समयं पच्छिगादिपिडिया छब्वगपलगं वा। वरगंसि वा, छ (व ?) रा भूमी, जहा वरं हंतोति वराहं उत्किरतीत्यर्थः, तं अलिदिगा वा फुडगं वा। परम्भ मणिमयमदि / ' अर्थात्-पिठर (तपेली) पर जो कि अन्न में रखी हुयी है, सरक-बाँस की पिटारी, छबड़ी या टोकरी, वरगंसिवरा-भूमि, जो भूमि को उखाड़ता है, वह है वराह / वराह (सूअर) के लिए धान्य रखने का पात्र विशेष या फंडा / परम्भ-मणिमय बहुमूल्य पात्र, भाजर / 4. यहाँ जाव शब्द से सू. 326 के अनुसार पिहयं से लेकर पाउलपलं तक का पाठ समझें। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : एकादश उद्देशक : सूत्र 406 106 तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा सयं वा णं जाएज्जा जाव पडिगाहेज्जा। चउत्था पिडेसणा। [5] अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा 2 जाव समाणे उबहितमेव' भोयणजातं जाणेज्जा, तंजहा- सरावंसि वा डिडिमंसि वा कोसगंसि वा / अह पुणेवं जाणेज्जा बहुपरियावण्णे पाणीसु दगलेवे / तहप्पगारं असणं वा 4 सयं वा णं जाएज्जा' जाव पडिगाहेज्जा पंचमा पिसणा। [6] अहावरा छट्ठा पिंडेसणा-से भिक्खू वा 2 उग्गहियमेव भोयणजायं जाणेज्जा जं च सयट्ठाए उग्गहितं जं च परट्ठाए उग्गहितं तं पादपरियावण्णं तं पाणिपरियावण्णं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा / छट्ठा पिडेसणा। [7] अहावरा सत्तमा पिडेसणा-से भिक्खू वा 2 जाव समाणे बहुउज्झितधम्मियं भोयणजायं जाणेज्जा जं चण्णे बहवे दुपय-चउप्पय-समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा गावकखंति तहप्पगारं उज्झितधम्मियं भोयणजायं सयं व णं जाएज्जा परो वा से देजा जाव पडिगाहेज्जा / सत्तमा पिंडेसणा / इच्चेयाओ सत्त पिडेसणाओ। 8] अहावराओ सत्त पाणेसणाओ / तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा-असंसठे हत्थे असंसठे मत्ते / तं चेव भाणियव्वं, णवरं चउत्थाए णाणतं, से भिक्खू वा 2 जाय समाणे से ज्जं पुण पाणगजातं जाणेज्जा, तंजहा तिलोदगं वा तुसोवगं वा जवोदगं या आयाम वा सोवीरं वा सुवियहं वा, अस्सि खलु पडिग्गाहितंसि अप्पे पच्छाकम्मे, तहेव जाव पडिगाहेज्जा। 1. उवहितमेव के स्थान पर चूणिकार ने उवहितं पाठान्तर मानकर व्याख्या की है-उबगहियं भुंज माणस्स सअट्ठाए उवणीतं / अर्थात् उपगहिता नामक पिण्डैषणा में उपग्रहीत का अर्थ है---भोजन करने वाला अपने लिए थाली आदि में भोजन परोसकर लाया है। 2. इसके स्थान पर पाठान्तर है.-जातेज्जा, जाणेज्जा, अर्थ है, याचना करे, जाने / 3. यहाँ जाव शब्द से सू० 324 के अनुसार फासुयं से लेकर 'पडिगाहेज्जा' तक का पाठ समझें / 4. छठी पिण्डषणा का भावार्थ चूणिकार के शब्दों में--छट्ठा उगहिता फग्गहिता, उग्गहितं दध्वं हस्थ गतं, पग्गहितं दाहिण-हत्वगतं दिज्जमाणं एलुगविखंभमेत्तं, अस्स वि अट्ठाए उग्गहियं पग्गहियं सो नेछति पादपरियावन्तं कसभाय (जो गस्थि दगलेवो पाणीस नस्थि दगलेयो तस्स नियत्तो भावो छट्ठी' अर्थात्--छठी पिण्डषणा उद्गृहीता प्रगृहीता है। उद्गृहीत-द्रव्य हस्तगत किया है। प्रगृहीत. दाहिने हाथ में लिया हुआ द्रव्य, दाता और आदाता के बीच में देहली के द्वार तक का अन्तर है। जिसके लिए बह भोज्यद्रव्य हस्तगत किया और दाएं हाथ में लिया गया है, वह भी उसे नहीं चाहता, कांसी का बर्तन कच्चे पानी से लिप्त नहीं है, और न हाथ कच्चे पानी से लिप्त है, जिनको देना था. दिया जा चुका है। यह है-छठी पिण्डषणा। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 आधारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्द 410. इच्वेतासि सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पासणाणं अण्णसरं पडिम,पडिवज्जमाणे णो एवं ववेज्जा-मिच्छा पडिवण्णा खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्मा' पडिवणे / ___ जे एते भयंतारो एताओ पडिमाओ पडिवज्जिताणं विहरंति जो य अहमंसि एवं पडिम पडिवज्जित्ताणं विहरामि सम्वे पेते उ जिणाणाए उठ्ठिता अण्णोष्णसमाहीए एवं च गं विहरंति। 406. अब (विगत वर्णन के बाद) संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए। (1) उन सातों में से पहली पिण्डषणा है-असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र / (दाता का) हाथ और बर्तन उसी प्रकार की (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट (अलिप्त) हों तो उनसे अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करले / यह पहली पिण्डैषणा है / (2) इसके पश्चात् दूसरी पिण्डषणा है---संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र / यदि दाता का हाथ और बर्तन (अचित्त वस्तु में) लिप्त है तो उनसे वह अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयं याचना करे या वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करले। यह दूसरी पिण्डषणा है / (3) इसके अनन्तर तीसरी पिण्डषणा इस प्रकार है-इस क्षेत्र में पूर्व आदि चारों दिशाओं में कई श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं, जैसे कि वे गृहपति, गृहपत्नी, पुत्र, पुत्रियां, पुत्रवधुएं, धायमाताएं दास, दासियां, अथवा नौकर, नौकरानियां है। उनके यहां अनेकविध बर्तनों में पहले से भोजन रखा हुआ होता है, जैसे कि थाल में, तपेली या बटलोई (पिठर) में, सरक (सरकण्डों से बने सूप आदि) में परक (बांस से बनी छबड़ी या टोकरी) में, वरक (मणि आदि से जटित बहुमूल्य पात्र में फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो (देय वस्तु रो) लिप्त नहीं है, बर्तन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, बर्तन अलिप्त है, तब वह पात्रधारी (स्थविरकल्पी) या पाणिपात्र (जिनकल्पी) साधु पहले ही उसे देखकर कहे -- आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! तुम मुझे असंसृष्ट हाथ से संसृष्ट बर्तन से अथवा संसृष्ट हाथ से असंसृष्ट बर्तन से, हमारे पात्र में या हाथ पर वस्तु लाकर दो। उस प्रकार के भोजन को या तो वह साधु स्वयं मांग ले, या फिर बिना मांगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय समझ कर मिलने पर ले ले। यह तीसरी पिण्डैषणा है। (4) इसके पश्चात् चौथी पिण्डैषणा इस प्रकार है-भिक्षु यह जाने कि गृहस्थ के यहाँ कटकर तुष अलग किए हुए चावल आदि अन्न है, यावत्, भुग्न शालि आदि चावल हैं, जिनके ग्रहण करने पर पश्चात्-कर्म की सम्भावना नहीं है, और न ही तुष आदि गिराने पड़ते हैं, इस 1. सम्मा के स्थान पर सम्म पाठान्तर है, अर्थ समान है। 2. इसके स्थान पर सव्वे एते, सब्वे वि ते पाठान्तर हैं। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : एकावश उद्देशक : सूत्र 406-410 111 प्रकार के धान्य यावत् भुग्न शालि आदि चावल या तो साधु स्वयं मांग ले; या फिर गृहस्थ बिना मांगे ही उसे दे तो प्रासुक एवं एषणीय समझ कर प्राप्त होने पर ले ले / यह चौथी पिण्डेषणा है। (5) इसके बाद पांचवी पिण्डैषणा इस प्रकार है-..."साधु यह जाने कि गृहस्थ के यहां अपने खाने के लिए किसी वर्तन में या भोजन (पिरोस) कर रखा हुआ है, जैसे कि सकोरे में, कांसे के वर्तन में, या मिट्टी के किसो बर्तन में / फिर यह भी जान जाए कि उसके हाथ और पात्र जो सचित्त जल से धोए थे, अब कच्चे पानी में लिप्त नहीं हैं। उस प्रकार के आहार को प्रासुक जानकर या तो साधु स्वयं मांग ले या गृहस्थ स्वयं देने लगे तो वह ग्रहण करले / यह पांचवी पिण्डषणा है। (6) इसके अनन्तर छठी पिण्डेषणा यों हैं-'.."भिक्षु यह जाने कि गृहस्थ ने अपने लिए या दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन निकाला है, परन्तु दूसरे ने अभी तक उस आहार को ग्रहण नहीं किया है, तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो, उसे प्रासुक और एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे / यह छठी पिण्डैषणा है। (7) इसके पश्चात् सातवीं पिण्डषणा यों है-गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी वहाँ बहु-उज्झितर्मिक (जिसका अधिकांश फेंकने योग्य हो, इस प्रकार का) भोजन जाने, जिसे अन्य बहुत-से द्विपद-चतुष्पद (पशु-पक्षी एवं मानव) श्रमण (बौद्ध आदि भिक्षु), ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग नहीं चाहते, उस प्रकार के उज्झितधर्म वाले भोजन की स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर मिलने पर ले ले। यह सातवीं पिण्डैषणा है / इस प्रकार ये सात पिण्डेषणाएं हैं। (8) इसके पश्चात् सात पानेषणाए है ! इन सात पानेषणाओं में से प्रथम पानेषणा इस प्रकार है-असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र / इसी प्रकार (पिण्डैषणाओं की तरह) शेष सब पानेषणाओं का वर्णन समझ लेना चाहिए। इतना विशेष है कि चौथी पानैषणा में नानात्व का निरूपण है---वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करने पर जिन पान के प्रकारों के सम्बन्ध में जाने, वे इस प्रकार हैतिल का धोवन, तुष का धोवन, जौ का धोवन (पानी), चावल आदि का पानी (ओसामण), कांजी का पानी, या शुद्ध उष्णजल / इनमें से किसी भी प्रकार के पानी के ग्रहण करने पर निश्चय ही पश्चात्कर्म नहीं लगता हो तो उस प्रकार के पानी को प्रासुक और एषणीय मानकर ग्रहण करले। 410. इन सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानेषणाओं में से किसी एक प्रतिमा (प्रतिज्ञा या अभिग्रह) को स्वीकार करने वाला साधु (या साध्वी) इस प्रकार न कहे कि इन सब साधुभदन्तों ने मिथ्यारूप से प्रतिमाएं स्वीकार की है, एकमात्र मैंने ही प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया है।" (अपितु वह इस प्रकार कहे----) जो ये साधु-भगवन्त इन Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रतिमाओं का स्वीकार करके विचरण करते हैं, जो मैं भी इस प्रतिमा का स्वीकार करके विचरण करता हूँ, ये सभी जिनाज्ञा में उद्यत है और इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे की समाधिपूर्वक विचरण करते हैं। विवेचन-सात पिण्डषणाएँ और सात पानंषणाए : विहंगावलोकन सूत्र 406 और 410 में इस अध्ययन में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक विविध पहलुओं से पिण्डषणा और पानेषणा के सम्बन्ध में यत्र तत्र उल्लेख किया गया है, उसके सारांश रूप में फलश्रुति सहित विहंगावलोकन प्रस्तुत किया गया है। संक्षेप में सात पिण्डैषणाओं का नाम इस प्रकार है-(१) असंसृष्टा. (2) संसृष्टा, (3) उद्धृता, (4) अल्पलेपा, (5) उपस्थिता या उद्गृहीता, (6) प्रगृहीता, और (7) उज्झितर्मिका। इसी प्रकार संक्षेप में सात पानेषणाए हैं-(१) असंसृष्टा, (2) संसृष्टा (3) उद्धता, (4) अल्पलेपा या नानात्वसंज्ञा (5) उद्गृहीता, (6) प्रगृहीता और (7) उज्झित धर्मिका / इन सबमें प्रतिपादित विषय की झांकी बताने के लिए शास्त्रकार ने एक-एक सूत्र का संक्षिप्त निरूपण कर दिया है। इसी प्रकार पानेषणा के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर संक्षेप में सुन्दर निष्कर्ष दे दिया गया है, ताकि मन्दबुद्धि एवं विस्मरणशील साधु-साध्वी भी पुनः-पुन: अपने गुरुजनादि से न पूछकर सूत्ररूप में इन एषणाओं को हृदयंगम करलें। इन दोनों प्रकार की एषणाओं में गवेषणषणा, ग्रहणेषणा और परिभोगैषणा या ग्रासैषणा का समावेश हो जाता है।' ___ अधिकारी-वृत्तिकार के अनुसार इन पिण्डैषणा-पानैषणाओं के अधिकारी दोनों प्रकार के साधु हैं—गच्छान्तर्गत (स्थविरकल्पी) और गच्छविनिर्गत (जिनकल्पी)। गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधु-साध्वियों के लिए सातों ही पिण्डेषणाओं और पानेषणाओं का पालन करने की भगवदाज्ञा है, किन्तु गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) साधुओं के लिए प्रारम्भ की दो पिण्डेषणाओंपानैषणाओं का ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है, शेष पांचों पिण्ड-पानषणाओं का अभिग्रहपूर्वक ग्रहण करने की अनुज्ञा है / दृष्टिकोण--अध्ययन की परिसमाप्ति पर शास्त्रकार ने इन पिण्ड-पानैषणाओं के पालन कर्ता को अपना दृष्टिकोण तथा व्यवहार उदार एवं नम्र रखने के लिए दो बातों की ओर ध्यान खींचा है--(१) अहंकारवश दूसरों को हीन मत मानो, न उन्हें हेयदृष्टि से देखो, (2) स्वयं को भी हीन मत मानो, न हीनता की वृत्ति को मन में स्थान दो। वृत्तिकार इसका तात्पर्य बताते हुए कहते हैं-इन सात पिण्ड-पानंषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 357 के आधार पर (ख) आचारांग चूर्णि-मूलपाठ टिप्पण पृ० 142 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 357 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : एकावश उद्देशक : सूत्र 411 करनेवाला साधु ऐसा न कहे कि मैंने ही पिण्डैषणादि का शुद्ध अभिग्रह धारण किया है, अन्य प्रतिमाओं को ग्रहण करनेवाले इन दूसरे साधुओं ने नहीं।" बल्कि चाहे वह गच्छनिर्गत (जिन कल्पी) हो या गच्छान्तर्गत (स्थविरकल्पो), उसे सभी प्रकार की साधना में उद्यत साधुओं को समदृष्टि से देखना चाहिए, किन्तु उत्तरोत्तर (एकेक अंग की) पिण्डैषणा का अभिग्रह धारण करनेवाले साधु को पूर्व-पूर्वतर पिण्डषणा के अभिग्रह धारक साधु की निन्दा नहीं करनी चाहिए। यही मानना चाहिए कि मैं और ये दूसरे सब साधु भगवन्त यथाशक्ति पिण्डैषणादि के अभिग्रह विशेष को धारण करके यथायोग विचरण करते हैं। सब जिनाज्ञा में हैं या जिनाज्ञानुसार संयम-पालन करने हेतु उद्यत (दीक्षित) हुए हैं। जिसके लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप जो भी समाधि विहित है उस समाधि के साथ संयम-पालन के लिए प्रयत्नशील वे सभी साधु जिनाज्ञा में हैं, वे जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करते / कहा भी है ___ "जो साधु एक या दो वस्त्र रखता है, तीन वस्त्र रखता है, या बहुत वस्त्र रखता है, या अचेलक रह सकता है, ये विविध साधनाओं के धनी साधक एक दूसरे की निन्दा नहीं करते, क्योंकि ये सभी साधु जिनाज्ञा में हैं।' 411. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं / 411. इस प्रकार जो साधु-साध्वी (गौरव लाघवग्रन्थि से दूर रहकर निरहंकारता एवं आत्मसमाधि के साथ आत्मा के प्रति समर्पित होकर) पिण्डषणा-पानैषणा का विधिवत् पालन करते हैं, उन्हीं में भिक्षुभाव की या ज्ञानादि आचार की समग्रता है। // एकादश उद्देशक समाप्त // // द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम पिंडवणा अध्ययन सम्पूर्ण // 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 358 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्यषणा : द्वितीय अध्ययन प्राथमिक - आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन का नाम 'शय्येवणा' है। 2 शय्या का अर्थ यहां लोक-प्रसिद्ध बिछौना, गद्दा या 'सेज' ही नहीं है, अपितु सोने-बैठने, भोजनादि क्रिया करने तथा आवश्यक, स्वाध्याय, जप, तप आदि धार्मिक क्रिया करने के लिए आवास स्थान, आसन, संस्तारक, सोने-बैठने के लिए पट्टा, चौकी आदि सभी पदार्थों का समावेश 'शय्या' में हो जाता है। संक्षेप में वसति-स्थान या आवास स्थान (उपाश्रयादि) तथा तदन्तर्गत शयनीय उपकरणों को 'शय्या' कहा जा सकता है।' * प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रशय्या, कालशय्या तथा द्विविध भावशय्या को छोड़कर केवल उस द्रव्यशय्या का विवेचन ही विवक्षित है, जो संयमी साधुओं के योग्य हो / ' - द्रव्यशय्या तीन प्रकार की होती है-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रा / * एषणा का अर्थ है-अन्वेषण, ग्रहण और परिभोग के विषय में संयम-नियम के अनुकूल चिन्तन-विवेक करना। - संयमी साधु के लिए योग्य द्रव्य शय्या के अन्वेषण, ग्रहण और परिभोग के सम्बन्ध में कल्प्य-अकल्प्य का चिन्तन/विवेक करना शय्यैषणा है, जिसमें शय्या-सम्बन्धी एषणा का निरूपण हो, उस अध्ययन का नाम शय्यषणा-अध्ययन है। - धर्म के लिए आधारभूत शरीर के परिपालनार्थ एवं निर्वहन के लिए जैसे पिण्ड (आहार-पानी) की आवश्यकता होती है, वैसे ही शरीर को विश्राम देने, उसकी-- सर्दी-गर्मी रोगादि मे सुरक्षा करके धर्मक्रिया के योग्य रखने हेतु शय्या की आवश्यकता होती है। इसलिए 'पिण्डषणा' में 'पिण्ड-विशुद्धि' की तरह-'शय्येषणा' 1. (क) टीका पत्र 358 के आधार पर। (ख) दशवै० जिन० चूणि पृ. 276 / 2. आचारांग नियुक्ति मा० 298, 301 3. आचारांग नियुक्ति मा० 266 / 4. 'पाइअ सहमहण्णवो' पृ० 164 / 5. टीका पत्र 358 के आधार पर Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्राथमिक 115 __ में 'शय्या-विशुद्धि' की तथा पिण्ड ग्रहण के समय गुण-दोष-विवेक की तरह शय्याग्रहण के समय भी शय्या के गुण-दोष-विवेक का प्रतिपादन किया गया है।' 5 शय्यैषणा अध्ययन के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में वसति के उद्गमादि दोषों तथा गृहस्थादि संसक्त वसति से होने वाली हानियों का चिन्तन है। 4 द्वितीय उद्देशक में वसति सम्बन्धी विभिन्न दोषों की सम्भावना एवं उससे सम्बन्धित विवेक एवं त्याग का प्रतिपादन है। 4 तृतीय उद्देशक में संयमी साधु के साथ वसति में होने वाली छलनाओं से सावधान रहने तथा सम-विषम बसति में समभाव रखने का विधान है। 4. प्रस्तुत अध्ययन सूत्र संख्या 412 से प्रारम्भ होकर 463 पर समाप्त होता है। 1. (क) आचारांम नियुक्ति गा. 302 / (ख) टीका पत्र 356 के आधार पर। 2. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 303; 304 / (ख) टीका पत्र 356 के आधार पर। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झयणं 'सेज्जा' पढमो उद्देसओ शवणा : द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक उपाश्रय-एषणा [प्रथम विवेक] __412. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपविसित्ता गाम वा णगरं वा जाव' रायहाणि वा से ज्ज पुण उवस्मयं जाणेज्जा सअंडं सपाणं जाव' संताणयं, तहप्पगारे उवस्सए को ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा। से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं, तहप्पगारे उवस्सए पिडलेहित्ता पमज्जित्ता ततो संजयामेव ठाणं वा 3 चेतेज्जा / 412. साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा करना चाहे तो ग्राम या नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके साधु के योग्य उपाश्रय का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि वह उपाश्रय अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो वैसे उपाश्रय में वह साधु या साध्वी स्थान (कायोत्सर्ग), शय्या (संस्तारक) और निषोधिका (स्वाध्याय) न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अंडों यावत् मकड़ी के जाले आदि से रहित जाने; वैसे उपाश्रय का यतनापूर्वक प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उसमें कायोत्सर्ग, संस्तारक एवं स्वाध्याय करे। विवेचन--उपाश्रय-निर्वाचन में प्रथम विवेक-प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय की एषणा विधि बतलाई गई है / 'उपाश्रय' शब्द यहाँ साधु के निमित्त सुरक्षित रखे हुए स्थान का नाम नहीं है, अपितु गृहस्थ द्वारा अपने उपयोग के लिए बनाये हुए स्थान विशेष का नाम है / प्राचीन काल में साधु जिस स्थान को भलीभांति देखभाल कर तथा निर्दोष और जीव-जन्तु-रहित स्थान जानकर चुन लेता था, गृहस्थ द्वारा उसमें ठहरने की अनुमति दे देने पर ठहर जाता था, तब वह अपने समझने या लोगों को समझाने भर के लिए उसे 'उपाश्रय संज्ञा दे देता था, किन्तु जब साधु वहां से अन्यत्र विहार कर जाता था, उसका उपाश्रय नाम मिट जाता था। 1. यहाँ जाव शब्द से 'गरं वा' से लेकर रायहाणि तक समग्र पाठ सू० 338 के अनुसार समझें। 2. यहाँ जाब शब्द से सपाणं से लेकर संतापयं तक समग्र पाठ सू० 324 के अनुसार समझें। 3. यहां ठाणं वा के बाद '3' का चिन्ह सेज्ज वा मिसीहियं वा पाठ का सूचक है। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 413 117 इस प्रकार उपाश्रय कोई नियत आवास स्थान नहीं होता था। परन्तु वर्तमान में 'उपाश्रय शब्द साधु-साध्वियों के ठहरने के नियत स्थान में रूढ़ हो गया है / ' __स्थान का निर्वाचन करते समय साधु को सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि उसमें अंडे, जीव जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, कच्चा पानी, काई, लीलन-फूलन, गीली मिट्टी या कीचड़, मकड़ी के जाले आदि तो नहीं हैं ? क्योंकि साधु अगर अंडे या जीव जन्तुओं आदि से युक्त स्थान में ठहरेगा तो अनेक जीवों की विराधना उसके निमित्त से होगी, अतः अहिंसा का पूर्ण उपासक मुनि ऐसे हिंसा की सम्भावनावाले स्थान का निर्वाचन कैसे कर सकता है ? हाँ, ये सब जीव जन्तु आदि जहां न हों, ऐसे निरवद्य स्थान को चुनकर उसमें वह ठहरे।। उपाश्रय का निर्वाचन-चयन साधु मुख्यतया तीन कार्यों के लिए करता था(१) कायोत्सर्ग के लिए, (2) सोने-बैठने आदि के लिए। (3) स्वाध्याय के लिए। इसके लिए यहाँ तीन विशिष्ट शब्द प्रयुक्त किए गए है-ठाणं, सेज्ज, निसीहिय-इन तीनों का अर्थ है--ठाणे---स्थान- कायोत्सर्ग / सेज्ज = शय्या-संस्तारक अथवा उपाश्रय बसति / निसीहियं = स्वाध्याय-भूमि / प्राचीन काल में स्वाध्याय-भूमि आवास स्थान से अलग एकान्त-स्थान में होती थी, जहां लोगों के आवागमन का निषेध होता था, इसीलिए स्वाध्याय-भूमि को निषेधिकी--(दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित 'नसिया') कहा जाता था। उपाश्रय-एषणा [द्वितीय विवेक 413. से जजं पुण उवस्सयं जाणेज्जा-अस्सिपडियाए एगें साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई' 1. दसर्वकालिक अगस्त्य * चूणि पृ० 116, सेज्जा उवस्सओ। 2. टीका पत्र 360 के आधार पर / 3. (क) टीका पत्र 360 के आधार पर / - (ख) दशव० 5/2/ अगस्त्य० चूणि पृ० १२६----'णिसीहिया समायठागं, जम्मि वा सक्खमूलादौ सैव निसीहिया।' चूणिकार के अनुसार यहाँ 6 आलाप 'एग साहम्मियं' को लेकर होते हैं—'एगं साहम्मियं समुहिस्स छ आलावा तहेव जहा पिंडेसणाए, णबरं बहिया गीहडं छ, णीसगडं वा छ, इतगं णीणिज्जति।' यहां एक सार्धामक को लेकर 6 आलाप उसी तरह होते हैं, जिस तरह पिण्डषणा अध्ययन में बताए गए थे। विशेष यह है कि बहिया मीह के 6 तथा णीसगढ़ के 6 आलाप यहाँ से अन्यत्र लागू होते हैं। तात्पर्य यह है कि बहिया नीहडं बा, अगोहडं वा, अत्तट्टियं बा, अमत्तट्टियं वा, परिभुत्तं बा, अपरिभुतं वा ये 6 पद शय्याऽध्ययन में उपयोगी नहीं है, चणिकार का यह आशय प्रतीत होता 5. पाणाई के बाद '4' के अंक से पागाइ, भूताई', जीवाइ सत्ताइ ऐसा पाठ सर्वत्र समझें / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध 4 समारंभ समुद्दिस्स कोयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेति / तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वा जाव' आसेविते वा 2 णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ। 414. [1] से भिक्खू बा 2 से ज्जं पुण उवरसयं जाणेज्जा बहवे समण-माहण-अतिहिकिवण-वणीमए पगणिय 2 समुहिस्स तं चेव भाणियव्यं / [2] से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण उपस्सयं जाणेज्जा-बहवे समण-माहण-अतिहि किवणवणीमए समुद्दिस्स पाणाई 4 जाब घेतेति / तहपगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविते णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। अह पुणेवं जाणज्जा-पुरिसंतरकडे जाव आसेविते / पडिलेहित्ता पमज्मित्ता ततो संजयामेव ठाणं वा 36 चेतेजा। __413. यदि साधु ऐसा उपाश्रय जाने, जो कि (भावुक गृहस्थ द्वारा) इसी प्रतिज्ञा से अर्थात किसी एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का समारम्भ (उपमर्दन) करके बनाया गया है, उसी के उद्देश्य से खरीदा गया है, उधार लिया गया है, निर्बल से छीना गया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया गया है, या साधु के समक्ष बनाया गया है, तो ऐसा उपाश्रय; चाहे वह पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, उसके मालिक द्वारा अधिकृत हो या अनधिकृत, उसके स्वामी द्वारा परिभुक्त हो या अपरिभुक्त, अथवा उसके स्वामी द्वारा आसेवित हो या अनासेवित, उसमें कायोत्सर्ग, शय्या-संस्तारक या स्वाध्याय न करे। __ जैसे एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से बनाए गए विशेषणों से युक्त उपाश्रय में कायोत्सर्गादि का निषेध किया गया है, वैसे ही बहुत-से सार्मिक साधुओं, एक साधर्मिणी साध्वी, बहुत-सी साधर्मिणी साध्वियों के उद्देश्य से बनाए हुए आदि विशेषणों से युक्त उपाश्रय में कायोत्सर्गादि का निषेध समझना चाहिए। 414. [1] वह साधु या साध्वी यदि ऐसा उपाश्रय जाने, जो (आवास स्थान) बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों एवं भिखारियों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से प्राणी 1. यहाँ जाव शब्द से अपरिसंतरकडे से आसेविते तक का पाठ सू० ३२१के अनसार समझें। 2. आसेविते वा के बाद '2' का चिन्ह अणासेविते वा पाठ का सूचक है सूत्र 331 के अनुसार। 3. पाणाई के आगे '8' का अंक 'पाणा भूयाई जोवाइ सत्ताई' इन चारों पदों का सूचक है। 4. 'जाव' शब्द से 'समारंभ से लेकर चेतेति तक का सारा पाठ सू० 331 के अनुसार समझें। 5. यहाँ जाव शब्द से अपुरिसंतरकडे से लेकर 'अणासेविते तक पाठ सू० 331 के अनुसार समझें। 6. 'ठाणेवा' के आगे तीन का अंक 'सेज्ज वा निसीहियं वा' का सूचक है। 7. यहाँ जाव शब्द से पुरिसंतरकडे से आसेविते तक का समग्र पाठ सू० 332 के अनसार समझें। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 415 116 आदि का समारम्भ करके बनाया गया है, खरीदा आदि गया हैं, वह अपुरुषान्तरकृत आदि हो, तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक एवं स्वाध्याय न करे / _ [2] वह साधु या साध्वी यदि ऐसा उपाश्रय जाने; जो कि बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों एवं भिखमंगों के खास उद्देश्य से बनाया तथा खरीदा आदि गया है, ऐसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हो. अनायेवित हो तो, ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक या स्वाध्याय न करे। _ इसके विपरीत यदि सा उपाश्रय जाने, जो श्रमणादि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से बनाया आदि गया हो. किन्तु वह पुरुषान्तरकृत है, उसके मालिक द्वारा अधिकृत है, परिभक्त तथा आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके उसमें यतनापूर्वक कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करे। विवेचन-उपाश्रय-निर्वाचन का द्वितीय विवेक प्रस्तुत दो सूत्रों में उपाश्रय-निर्वाचन का द्वितीय विवेक बताया है। इनमें मुख्यतया चार बातों की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा गया (1) जो उपाश्रय एक या अनेक निर्ग्रन्थ सार्मिक साधु-साध्वियों के लिए बनाया, खरीदा आदि गया हो। (2) जो उपाधय सर्वसाधारण भिक्षाचरों (जिनमें निर्ग्रन्थ श्रमण भी आ जाते हैं) की गिनती करके या उनके निमित्त बनाया, खरीदा आदि गया हो। (3) किन्तु इन दोनों प्रकार के उपाश्रयों में से प्रथम प्रकार के उपाश्रय के सम्बन्ध में पुरुषान्तर-अपुरुषान्तरकृत, अधिकृत-अनधिकृत, स्थापित-अस्थापित, परिभुक्त-अपरिभुक्त या मासे वित-अनासेवित का कोई पता न हो तथा दूसरे प्रकार के उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हों तो ये उपाश्रयों में कायोत्सर्गादि क्रिया न करे। (4) यदि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के उपाश्रयों के सम्बन्ध में पक्का पता लग जाए कि वे पुरुषान्तरकृत हैं, अलग से स्थापित नहीं हैं, दाता द्वारा अधिकृत, परिमुक्त या आसेवित हैं, तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रिया करे।' औद्देशिक उद्गमादि दोषों से बचने के लिए ही शास्त्रकार ने ऐसा विधान किया है। उपाधय-एषणा [तृतीय विवेक] 415. से भिक्खू बा 2 से ज्जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए कडिए' 1. टीका पत्र 360 के आधार पर। 2. 'कडिए' इत्यादि पाठ की व्याख्या देखिए---वृहत्कल्प भाष्य गा० 583, ओर निशीथ भाष्य 2047 में --करितो पासेहि, ओकविसो उरि उल्लवितो, छत्तो उवरि चेव, लेत्तो कुड्डाए, ते उत्तरगुणा मूलगुणे उपहणंति / घट्ठा-विसमा समीकता, मट्ठा-माइंता, समट्ठा-पमज्जिता, संपथूविता-दुग्गंधा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 आचारांग सूत्र---द्वितीय व तस्कन्ध वा उक्कंबिए वा छत्ते वा लेते वा घट्टे वा मठे वा संमछे वा संपधूविए वा / ' तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा / अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव आसेविते, पडिलेहित्ता पमज्जिता ततो संजयामेव जाव चेतेज्जा। 416. से भिक्खू बा 2 से ज्ज पुण उबस्सयं जाणेज्जा-अस्संजते भिक्खुपडियाए खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा जहा पिडेसणाए जाव संथारगं संथारेज्जा बहिया वा णिण्णक्खु / तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा 3 चेतेन्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव आसेविते, पडिलेहित्ता पमज्जित्ता ततो संजयामेव जाव चेतेज्जा। 417. से भिक्खू बा 2 से ज्ज पुण उवरसयं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए उदकपसूताणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि का पुष्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि सुगंधीकता ।"वसग कडणोक्कवण छावण लेवण दुवारभूमी य। सप्परिकम्मा सेज्जा (वसही) एसा मूलोत्तरगुणसु॥' अर्थात्-कडितो-चटाइयों आदि के द्वारा चारों ओर से आच्छादित या सुसंस्कृत करना, ओकम्बितो-खंभों पर बांसों को तिरछे रखना, छत्तो-घास दर्भ आदि से ऊपर का भाग आच्छादित कर देना, लेत्तो—दीवार आदि पर गोबर आदि से लीपना. ये उत्तरगुण (उत्तर परिकर्म) हैं, जो मूलगुणों (मूल परिकर्म) को नष्ट कर देते हैं / घट्ठा-चूने, पत्थर आदि खुरदरे पदार्थ से घिस कर विषम स्थान को सम बनाना, मट्ठा-कोमल बनाना, समट्ठा-साफ कर देना, संक्धूविता धूप आदि सुगन्ध द्रव्यों से दुर्गन्ध को सुगन्धित करना। 1. निशीथ चूणि उ. 5 में, मलयगिरिसूरिविरचित वृहत्कल्पवृत्ति (पृ० 166) में तथा कल्पसूत्र किरणावली व्याख्या (पृ०१३५) में भी इन शब्दों की व्याख्या क्रमशः इसी प्रकार मिलती है।-म० 2. यहाँ जाव शब्द से पुरिसंतरकडे से लेकर आसेविते तक का समग्र पाठ सूत्र 332 के अनुसार समझें / 3. यहाँ जाव शब्द पिवणाध्ययन में पठित महाल्लियाओ कुज्जा से लेकर संघारगं तक के पाठ का सूचक है, सूत्र 338 के अनुसार / 4. "णिणाखु के स्थान पर 'णिण्णक्ख पाठ मानकर चर्णि में व्याख्या की गयी है--णिणखणीणतातं (णीणवाति) अंतो वा बाहिं वा' अर्थात्----अन्दर ले जाता है या बाहर निकालता है। 5. यहाँ जाव शब्द से 'अपरिसंतरकडे' से लेकर अनासेविए तक का समग्र पाठ सू० 331 के अनुसार समझें। यहाँ ठाणं वा के बाद '3' का चिन्ह सेज वा णिसीहियं वा पाठ का सूचक है। 7. यहां जाव शब्द से संजयामेव से लेकर चेतेम्जा तक का पाठ सूत्र 412 के अनुसार समझें। 2. इस पंक्ति की व्याख्या चर्णिकार के शब्दों में-उदए पसूपाणि-कंवाणिवा......", एवं मूल-गीत आणि उदगप्पसूयाणि वा इतराणि वा संजयट्ठाए गोमेज्जा' अर्थात् पानी में पैदा हुए कंद "एवं मूल, बीज, हरियाली, जल में पैदा हए अन्य पदार्थों को साधु के निमित्त से बाहर निकाले। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 415-18 121 वा ठाणाओ ठाणं साहरति बहिया वा णिज्णक्ख / तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णो' ठाणं वा 3 चेतेज्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव' चेतेज्जा। 418. से भिक्खू वा 2 से ज्ज.पुण उवस्सयं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए पोढं वा फलगं वा णिस्सेणि वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरति बहिया वा णिण्णक्ख / तहप्पगारे उपस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव चेतेज्जा। 415. वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसा उपाश्रय जाने जो कि असंयत गृहस्थ ने साधुओं के निमित्त बनाया है, काष्ठादि लगाकर संस्कृत किया है, बाँस आदि से बांधा है, घास आदि से आच्छादित किया है, गोबर आदि से लीपा है, संवारा है, घिसा है, चिकना (सुकोमल) किया है, या ऊबड़खाबड़ स्थान को समतल बनाया है, दुर्गन्ध आदि को मिटाने के लिए धूप आदि सुगन्धित द्रव्यों मे सुवासित किया है, ऐसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसमें कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक और स्वाध्याय न करे। यदि वह यह जान जाए कि ऐसा (पूर्वोक्त प्रकार का) उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उसमें स्थान आदि क्रिया करे / 416. वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने, कि असंयत गृहस्थ ने साधुओं के लिए जिसके छोटे द्वार को बड़ा बनाया है, जैसे पिण्डषणा अध्ययन में बताया गया है, यहाँ तक कि उपाश्रय के अन्दर और बाहर की हरियाली उखाड़-उखाड़ कर, काट-काट कर वहाँ संस्तारक (बिछौना) बिछाया गया है, अथवा कोई पदार्थ उसमें से बाहर निकाले गये हैं, वैसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो वहाँ कायोत्सर्गादि क्रियाएं न करे। यदि वह यह जाने कि ऐसा (पूर्वोक्त प्रकार का) उपाश्रय पुरुषान्तरकृत है, यावत् आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक किया जा सकता है। 417. वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने, कि असंयत गृहस्थ, साधुओं के निमित्त से पानी से उत्पन्न हुए कंद, मूल, पत्तों, फलों या फलों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा रहा है, भीतर से कंद आदि पदार्थों को बाहर निकाला गया है, ऐसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसमें साधु कायोत्सर्गादि क्रियाएं न करे। यदि वह यह जाने कि ऐसा (पूर्वोक्त प्रकार का) उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित 1. यहाँ आप शब्द से 'अपुरिसंसरकडे' से लेकर 'गो ठाणं वा' तक का समग्र सूत्र 331 के अनुसार समझें। 2. यहाँ जाव शब्द से पुरिसंतरकडे से लेकर चेतेज्जा तक का समग्र पाठ सुत्र 332 के अनुसार समझें। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध है तो उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक स्थानादि कार्य के लिए वह उपयोग कर सकता है। 418. वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि असंयत-गृहस्थ साधुओं को उसमें ठहराने की दृष्टि से (उसमें रखे हुए) चौकी, पट्टे, निसनी या ऊखल आदि सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहा है, अथवा कई पदार्थ बाहर निकाल रहा है, यदि वैसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो साधु उसमें कायात्सर्गादि कार्य न करे। ___ यदि फिर वह जान जाए कि वह उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है, तो उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उसमें स्थानादि कार्य करे / विवेचन--कैसे उपाश्रय का निषेध, विधान ? तृतीय विवेक-सूत्र 415 से सूत्र 418 तक में उपाश्रय-निर्वाचन का तृतीय विवेक बताया गया है। इन सूत्रों में साधुओं के निमित्त, तथा अपुरुषान्तरकृत आदि चार प्रकार के उपाश्रयों के उपयोग का निषेध है.--- (1) वह संस्कारित-सुसज्जित किया गया हो। (2) उसकी तोड़-फोड़ तया मरम्मत की जा रही हो। (3) उसमें से कन्द-मूल आदि स्थानान्तर किये या निकाले जा रहे हो। (4) चौकी, पट्टे आदि सामग्री वहाँ से अन्यत्र ले जायी जा रही हो, उसमें से भारीभरकम सामान बाहर निकाला जा रहा हो।' ___ इस प्रकार मकान को परिकर्मित-संस्कारित करने तथा उसकी मरम्मत कराने, उसमें पड़े हुए सचित्त-अचित्त सामान को स्थानान्तर करने, निकालने आदिमें मूलगुण-उत्तरगुण-विराकी सम्भावना बृहत्कल्पभाष्य और निशीथभाष्य में व्यक्त की गई है। यही कारण है कि आचारांग में इन्ही चार प्रकार के उपाश्रयों के उपयोग का विधान है, बशर्ते कि वे पुरुषान्तरकृत हों, साधु के लिए ही स्थापित न किए गए हों, दाता द्वारा अधिकृत परिभुक्त और आसेवित हों। णिग्णक्खू का अर्थ है-निकालता है। पुरुपान्तरकृत आदि देने पर-वे उपाश्रय साधु के लिए औद्देशिक, क्रीत, उधार लिए हुए या आरम्भकृत आदि दोषों से युक्त नहीं रहते। इन्हीं लक्षणों से पहचाने जा सकते हैं कि ये उपाश्रय निर्दोष/निरवद्य हैं। इसी कारण शास्त्रकार ने ऐसे उपाश्रयों के निर्वाचन का विवेक बताया है। चूंकि गृहस्थ जब किसी मकान को अपने लिए बनाता है, या अपने किसी कार्य के लिए उस पर अपना अधिकार रखता है, अपने या समूह के प्रयोजन के लिए स्थापित करता है, 1. (क) टीका पत्र 361 के आधार पर / 2. वृहत्कल्प भाष्य 583-584 / देखिए वे पंक्तियां आचा० मूलपाठ टिप्पणी सूत्र 415 / 3. निशीथ भाष्य 2047-48 4. टीका पत्र 361 के आधार पर। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्यपन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 416 123 स्वयं उसका उपयोग करता है, दूसरे लोगों को उपयोग करने के लिए देता है, तब वह मकान साधु के उद्देश्य से निर्मित-संस्कारित नहीं रहता, वह अन्यार्यकृत हो जाता है / साधु के लिए दशवकालिक सूत्र में पर-कृत मकान में रहने का विधान है।' मूलगुण-दोष' से दूषित मकान तो पुरुषान्तरकृत होने पर भी कल्पनीय नहीं, इसलिए अन्य विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं- "नीहडे अत्तट्ठिए परिमृत आसेविते।" उपाधय-एवणा [चतुर्य विवेक] 416. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, तंजहा-खंधसि बा मंचंसि वा मालसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि णण्णस्य आगाढागाउँहि कारणेहि ठाणं वा 3 चेतेज्जा। से य आहच्च चेतिते सिया, गो तत्थ सोतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्याणि वा पादाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा णो तत्व ऊसट्ठ पफरेज्जा, तंजहा-उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूर्ति वा सोणियं वा अण्णतरं वा सरीरावयवं / केवली बूया-आयाणमेतं / से तत्थ असह्र पकरेमाणे पयलेज्ज वा पक्डेज वा, से तत्थ 1. (क) आचारांग मूल, वृत्ति पत्र 361 / (ख) अन्नदह्र पगडं लयणं, मएज्ज सयणासणं / उच्चारममिसंपन्न इत्पी-पस-विवज्निया -दशव० अ०८ गा० 51 2. आचासंग वृत्ति पत्रांक 361 में मूलगुण-दोष ये बताए गए हैं-- 'पट्ठी वंसो को धारणा उ चत्तारि मूलवेलोमो। देखे सूत्र 443 का विवेचन खंधसि आदि पदों का अर्थ निशीथ चूणि उ०४ में इस प्रकार है-'खंधो पागारो, पेटं वा, फलिहो अग्गला, अफूड्डो मंचो, सो य मंडखो। गिहोरि मालो भमिगादि / विज्ञहगवाखोषसोभिगो पासा दो। सम्बो परिडायालं हम्मतलं ।'–स्कन्ध-प्राकार या एक खम्भे पर टिकाया हुआ उपाश्रय, फलिहो=अर्गला, मंचो-बिना दीवार का स्थान, वही मंडप होता है। मालो-घर के ऊपर जो दूसरी आदि मंजिल हो, पासादो-अनेक कमरों से सुशोभित महल / हम्मतनं सबसे ऊपर की अटारी। 4. 'ठाणं या' के बाद '3' का अंक 'सेज्ज वा निसीहिवं वा' पाठ का सूचक है। 5. 'सीतोवधियण' आदि पदों का अर्थ देखिये निशीथ चणि उ०४ में-'सीतोदगं अतावितं वियर्ड ति व्यपगतजीवं / उसिणंति तावियं तं चेव बवगयजीवं / एक्कंसि उच्छोलणं, पुणो पुणो धोवणं पधोवणं / ' सीतोदगं गर्म नहीं किया हआ, वियर्ड-जीवरहित-प्रासुक जल / उसिणं गर्भ किया हआ, वह भी जीव रहित जल होता है। उच्छोल-एक बार धोना, पयोषबार-बार धोना / ऊसट्टे का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में 'उच्छिते उस्सट्र उच्चारादि / ' ऊपर से उच्चारादि का उत्सजन-त्याग करना उत्सष्ट है। इसके अनेक पाठान्तर हैं...बोसइडं, सड़ा, ऊसदं आदि। 6. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 आचासंग सत्र-द्वितीय तस्कन्ध पयलमाणे पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सोसं वा अण्णतरं वा कार्यसि इंदियजातं लसेज्जा, पाणाणि वा अभिहणज्ज' वा जाव ववरोवेज्ज वा।। __अह भिक्खूणं पुष्वोदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए अंतलिाखजाते गोठाणं वा 3 तेजा। 416. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय (मकान) को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल (भूमितल में या छत पर) बना हुआ है, अथवा इसी प्रकार के किसी ऊंचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अन्यन्त गाढ़ (असाधारण) कारण के बिना उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थान-स्वाध्याय आदि कार्य न करे। __ कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में ठहरना पड़े, तो वहाँ प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुह एक बार या बार-बार न धोए, वहाँ से मल-मूत्रादि का उत्सर्ग न करे, जैसे कि उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), मुख का मल (कफ), नाक का मैल, वमन, पित्त, मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मल का त्याग वहाँ न करे, क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है। वह (साधु) वहाँ से मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या गिर पडे / ऊपर से फिसलने या गिरने पर उसके हाथ, पैर, मस्तक या शरीर के किसी भी भाग में, या इन्द्रिय पर चोट लग सकती है, ऊपर से गिरने से स्थावर एवं अस प्राणी भी घायल हो सकते हैं, यावत् प्राणरहित हो सकते हैं। __ अत: भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि द्वारा पहले से ही बताई हुई यह प्रतिज्ञा है, हेतु है, कारण है और उपदेश है कि इस प्रकार के उच्च स्थान में स्थित उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करें। विवेचन-- उच्चस्थ उपाश्रय निषेध : चतुर्थ विवेक—इस एक ही सूत्र में एक ही खंभे, मंच आदि या अटारी के रूप में महल पर या छत पर बने हुए मकान में ठहरने का साधु के लिए निषेध किया गया है, ठहरने से होने वाली कायिक-अंगोपांगीय हानि तथा प्राणि-विराधना का भी उल्लेख किया गया है। प्राचीनकाल में साधु प्रायः ऐसे ही मकान में ठहरते थे, जो कच्चा छोटा-सा और जीर्णशीणं होता था, जिसमें किसी गृहस्थ परिवार का निवास नहीं होता था। कच्चे और छोटे मकान का प्रतिलेखन-प्रमार्जन भी ठीक तरह से हो जाता था, और मलमूत्रादि विसर्जन भी पंचम समिति के अनुकूल हो जाता था / ऊपर की मंजिल में, या बहुत ऊँचे मकान से मल१. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अमिहम्म वा' से लेकर ववरोदे वा' तक का सारा पाठ सूत्र 365 के ___अनुसार है। . 2. 'पुग्योवविवा' के बाद '4' का अंक सूत्र 357 के अनुसार 'उवएसे' तक के पाठ का सूचक है / Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 420-21 125 मूत्रादि परिष्ठापन की बहुत ही दिक्कत होती थी, रात के अंधेरे में नीचे उतरते समय पर फिसल जाने, सिर या अन्य अंगों के चोट लग जाने का खतरा तो निश्चित था। [आजकल की तरह गृहस्थ के कई मंजिले मकान में शौचादि परठने की व्यवस्था को उस युग का साधुवर्ग स्वीकार नही करता था। अतः यह निषेध उस युग के मकानों और कठोर संयमी साधुओं को लक्ष्य में रखकर किया गया है / अत्यन्त गाढ़ागाढ़ कारणवश यतनापूर्वक ऐसे मकान में ठहरने का विधान भी शास्त्रकार ने 'णण्णत्व आगाढागाडेहि कारणेह' पदों द्वारा किया है।" 'हम्मियतलंसि आदि पदों के अर्थ-वृत्तिकार 'हम्मियतलंसि' का अर्थ हयंतल --भूमिगृह करते हैं, किन्तु निशीथ चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं- 'सब्वोपरि डायालं हम्मतलं'–सबसे ऊपर की अट्टालिका हर्म्यतल हैं। उच्छोलेज पधोएज्न-एक बार धोना उच्छोलण है, बारबार धोना पधोवण / ऊसट्टे-मलमूत्रादि का त्याग। उपाश्रय-एषणा [पंचम विवेक]] 420. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा सहत्यियं सखुड्ड सपसुभत्तपाणं / तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेजा। 421. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतिकुलेग साँख संवसमाणस्स / अलसगे वा विसूइया चा छड्डी वा णं उम्माहेज्जा, अण्णतरे वा से दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा / अस्संजते कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेल्लेण वा घएण बा णवणोएण वा वसाए वा अन्भंगेज्ज वा मक्खे 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 361 के माधार से 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 इस पाठ के बदले प्राचीन प्रतियों में यह पाठ अधिक प्रचलित देखा गया-से मिक्लू या 2 से ज्जं पुण उबस्सयं जाणेज्जा-ससागारियं सागणियं सउदयं सहत्थियं सखड्डपसुभत्तपाणं...।' चणि में इसी पाठ के अनुसार व्याख्या मिलती है-सागारिया=पासडस्थगित्यपुरिसेहिं, सागणियाए =अगणिसंघट्टो, सउदयाए =उदगवहो सेहगिलाणादिदोसा, सह इस्थिताहि सइत्थिया-आतपरसमुत्था, सखुडति -खुड्डाणि चेडरूवाणि सण्णाभूमि गच्छंति पढते य चंदंताणि इहरहा य वाउलेंति, अहवा खुड्डा सीह वग्घ-सुणगा, पसु-गोणमहिसादि, व्रतभंगमादिदोसा, एतेसु, भत्तपाणाईच दह्र सेहाणं भुत्ताभुत्तदोसा / ' अर्थात-सागारिया-पाखण्डी गहस्थ पुरुष, उनके साथ, सागणियाए-अग्नि का संघद्रास्पर्श, सउदयाएमजलकाय विराधना नवदीक्षित-लानादिदोष, सइत्थिया=स्त्रियों के साथ, गृहस्थ की अपनी एवं दूसरे की स्त्रियाँ / सखड्ड क्षुद्र व्यक्ति, दास रूप, जो शौच स्थान आदि की ओर जाते तथा पढ़ते समय वंदना करते हैं, अन्यथा बड़बड़ाते हैं, अथवा खुड्डा-क्षुद्र प्राणी सिंह-व्याघ्रकुत्ता आदि, पसु सांड, भैंसा आदि / इत्यादि दोषों से व्रतभंग हो जाता है, इनके आहार-पानी को देख कर नवदीक्षित साधु को भुक्त-अभुक्त दोष लगने की सम्भावना है। 4. 'अलसगे' का अर्थ दृत्तिकार के शब्दों में-'हस्तपादादिस्तम्भः श्वयधुर्वा' अर्थात् 'अलसगे' का अर्थ है हाथ, पैर आदि का शून्य-जड़ हो जाना, या सूजन हो जाना। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 आचारांग सूत्र-द्वितीय मतका ज्ज वा, सिणाणेव वा कक्केण वा लोद्धण वा वण्णेण वा चण्णेण वा पउमेण वा आफंसेज वा पधंसेज्ज वा उव्वलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा, सीओवगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पहोएज्ज वा सिणावेज्ज वा सिचेन्ज वा दारुणा' वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकायं उज्जालेज्ज वा पम्जालेज्ज वा उज्जालेत्ता [पज्जालेता ?] कायं आतावेज्ज वा पयावेज्ज वा। अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा एस पतिण्णा 4 जं तहप्पमारे सागारिए उबस्सए णो ठाणं बा 3 चेतेजा। 422. आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवरसए संवसमाणरस / इह खलु गाहावती का जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा वहति वा रुंभंति वा उद्दति वा / अह भिक्खू गं उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा-एते खलु अण्णमणं अक्कोसंतु वा, मा वा अक्कोसंतु, जाव मा वा उद्दवतु। अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा 4 जं तहप्पगारे सागारिए उबस्सए णो ठाणं 3 चेतेज्जा। 423. आयाणमेयं भिक्खस्स गाहावतोहि सद्धि संवसमाणस्स / इह खलु गाहावती अप्पणो सअढाएअगणिकार्य उज्जालेज्ज वा पज्जालेन्ज वा विज्ञावेज्ज वा। अह भिण्डू 1. 'दारुणा वा दारुपरिणामं कट्ट' की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में--'परियट्टेति बार" अहवा उत्तरा धरा संजोएत्ता अगणि पाडित्ता उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता।..दारुण परिणामणं परियणं अभिणवजणणं वा / ' दारुणा लकड़ी से, वाहपरिणाम-लकड़ी का घर्षण-पर्यावर्तन करके अथवा ऊपर नीचे की लकड़ियों को जोड़कर आग सुलगाकर उज्ज्वलित-प्रज्ज्वलित करके। लकड़ियों का परिणामन परिवर्तन करना यानी बुझी हुई लकड़ियों की जगह नई लकड़ी जलाने के लिए रखना। 2. 'पतिण्णा' के बाद '4' का अंक सू० 357 के अनुसार 'एस हेतु एस कारणे एस उवएसे' का सूचक 3. उच्चावयं का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-अलेगप्पगारं-अनेक प्रकार का। 4. 'सअट्ठाए' की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में--'स्वार्थमग्निसमारम्भ क्रियमाणे अपने प्रयोजन के लिए अग्निसमारम्भ किये जाने पर। 'अगणिकायं उज्जालिज्जा' आदि पदों की व्याख्या चाणकार के शब्दों में--अगणिकायं उज्जालिज्जा ससणिद्ध एवं एत्थ उज्जालिज्जा / उज्जलते चोरा सावयं वा ण एहि त्ति / अहवा सुठ्ठ विज्झवितो, मा एयं पेच्छितु तेणगा एहि ति / एवं कस्सइ उज्जोओ पि तो, कस्सति अंधगारो।' अर्थात्--'अगणि कायं उज्जालिन्ना' इस पाठ का तात्पर्य यह है कि कोई श्रद्धालु गृहस्थ स्नेहवश अग्नि को इसलिए उज्ज्वलित करता है कि अग्नि के प्रज्वलित होने पर मोर या श्वापद (सिंह आदि हिल प्राणी) नहीं आएंगे। अथवा (आग को) अच्छी तरह बुझा दो, ताकि इसे (अन्धकार) देखकर चोर नहीं आएंगे, अत: किसी को प्रकाश प्रिय होता है, किसी को अन्धकार। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 422-25 127 उच्चाषयं मणं णियच्छेज्जा-एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतु वा मा वा, उज्जालेंतु, पज्जालेतु बा, मा वा पज्जालेंतु, विज्झातु वा, मा वा विज्झायेंतु / अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 424. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतोहिं सद्धि संवसमाणस्स / इह खसु गाहावतिस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मोत्तिए वा हिरणे वा सुवण्णे वा कडगाणि बा तुडियाणि वा तिसरगाणि या पालंमाणि वा हारे वा अखहारे वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा तरुणियं' वा कुमारि अलंकियविभूसियं पेहाए अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, एरिसिया बाऽऽसी ण वा एरिसिया इति वा गं बूया, इति वा गं मणं साएज्जा। अह भिक्खूणं पुन्योधविट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 425. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतीहि सद्धि संवसमाणस्स / इह खलु गाहावतिणोओ वा गाहावतिधूयाओ वा गाहावतिसुग्णाओ वा गाहावतिधातीओ वा गाहावतिबासीओ वा गाहावतिकम्मकरीमो वा, तासि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति–जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उबरता मेहुणातो धम्मातो णो खलु एतेसि कप्पति मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टित्तए, जाय खलु एतेसि सद्धि मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टेज्जा पुत्तं खलु सा लभेज्जा ओस्सि तेयास्स बच्चस्सि जसस्सि संपराधियं आलोयवरिसणिज्ज / एयप्पगारं णिग्धोसं सोच्चा णिसम्मा तासि च णं अण्णतरी सड्ढी तं तस्सि भिक्खं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टावेज्जा / मह भिक्खणं पुव्योवदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए पो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 1. चूर्णिकार 'तरुणियं वा कुमारि' का तात्पर्य बताते हैं—'तरुणिम कुमारि मज्झिमवयं वा' अर्थात् युवती, तरुण कुमारी, अथवा मध्यमवयस्का / 2. 'एरिसिया वाऽसी ण वा' के बदले पाठान्तर है-—'एरिसिगा वा सा, णो वा' / अर्थ समान है। इस पंक्ति की व्याख्या चूर्णिकार यों करते हैं—एरिसिगा मम भोतिगा मासि, ण वा एरिसिगा, भणिज्ज वा गं मए समाणे संचिक्खाहि / मणं माएज्जा कहं मम एताए सदि मेलतो होज्जा, अहवा सा कण्णा ताहे चितेति-एस पम पड़प्पज्जेज्जा।' अर्थात-मेरी भार्या ऐसी थी, अथवा ऐसी नहीं थी, अथवा उसे कहे कि तू मेरे साथ रहा / मन में आकांक्षा करे कि मेरा इसके साथ कैसे मेल हो; अथवा वह कन्या उसके लिए मन में विचार करे कि 'यह (साधु) मुझे स्वीकार कर ले। 3. यहाँ ,जाव' शब्द से 'भगवंसो' से लेकर 'उवरता' तक का समग्र पाठ सू० 360 के अनुसार समझे। 4. 'जा य बलु एतेसि' आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार यों करते हैं----जा एतेहि सदि मेहगं भपुत्ता पसयति, धूयवियाइणी पूत्तं पुत्तवियाइणी, ओस्सि-ओरालसरीरं, तपस्सी-सुरः वचसिम् दीप्तिवान्, जसंसी-लोकपसंस, संपराइयं पराक्रमः, आलोगदरिसणिज्ज- दरिसणादेव मणप्रीतिजणणं / अर्थात--जो नारी इनके साथ मैथुन क्रीड़ा करती है, वह अपुत्रा संतान प्रसव करती है, पुत्राभिलाविधी पुत्रवती हो जाती है। वह पुत्र ओस्सि-विशाल शरीर वाला, तेवस्ति-शूरवीर, वच्चंतिदीप्तिमान्, जसंसी-लोक प्रशंसित या प्रसिद्ध, संपराइयं-पराक्रमी, भालोगवरिसनि -देखते ही मन में प्रीति पैदा करने वाला। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 आचारांग सूत्र-द्वितीय भ तस्कन्ध 420. वह भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को स्त्रियों से, बालकों से, क्षुद्र प्राणियों से या पशुओं से युक्त जाने तथा पशुओं या गृहस्थ के खाने-पीने योग्य पदाचों से जो भरा हो तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। 421. साधु का गृहपतिकुल के साथ (एक ही मकान में) निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है / गृहस्थ परिवार के साथ निवास करते हुए हाथ पैर आदि का कदाचित् स्तम्भन (शून्यता या जड़ता) हो जाए अथवा सूजन हो जाए, विशूचिका (अतिसार) या वमन की व्याधि उत्पन्न हो जाए, अथवा अन्य कोई ज्वर, शूल, पीड़ा, दुःख या रोगातंक पैदा हो जाए, ऐसी स्थिति में वह गृहस्थ करुणाभाव से प्रेरित होकर उस भिक्षु के शरीर पर तेल, घी नवनीत, अथवा वसा में मालिश करेगा या चुपड़ेगा। फिर उसे प्रासुक शीतल जल या उष्ण जल से स्नान कराएगा, अथवा कल्क, लोध, वर्णक, चूर्ण या पद्म से एक बार घिसेगा, बार-बार जोर से घिसंगा, शरीर पर लेप करेगा, अथवा शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन करेगा। तदन्तर प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से एक बार धोएगा या बार-बार धोएगा मल-मलकर नहलाएगा, अथवा मस्तक पर पानी छोंटेगा, तथा अरणी की लकड़ी को परस्पर रगड़ कर अग्नि उज्ज्वलित-प्रज्वलित करेगा। अग्नि को सुलगाकर और अधिक प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा अधिक तपायेगा।। इस तरह गृहस्थकुल के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक दोषों की संभावना देखकर तीर्थंकर प्रभु ने भिक्षु के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह ऐसे गृहस्थकुलसंसक्त मकान में न ठहरे, न ही कायोत्सर्गादि क्रियाएं करे। 422. साधु के लिए गृहस्थ-संसर्गयुक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, दास-दासियाँ- नौकर-नौकरानियाँ आदि रहती हैं / कदाचित् वे परस्पर एक-दूसरे को कटु वचन कहें, मारें-पीटें, बंद करें या उपद्रव करें। उन्हें ऐसा करते देख भिक्षु के मन में ऊंचे-नीचे भाव आ सकते हैं / कि ये परस्पर एक दूसरे को भला-बुरा कहें, मार-पीटें या उपद्रव आदि करें या परस्पर लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, उपद्रव आदि न करें। इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, हेतु, कारण या उपदेश दिया है कि वह गृहस्थसंसर्गयुक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि करे। 423. गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इसलिए भी कर्मबन्ध का कारण है कि उसमें गृहस्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा। वहां रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊंचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्वलित करे, अथवा उज्वलित न करें, तया ये अग्नि को प्रज्वलित करें अथवा प्रज्वलित न करें, अग्नि को बुझा दें या न बुझाएं। इसीलिए तीर्थकरों ने पहले से साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 424-25 126 उपदेश दिया है कि वह उस प्रकार के (गृहस्थसंसक्त) उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे। 424. गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है / उसमें निम्नोक्त कारणों से राग-द्वेष के भावों का उत्पन्न होना सम्भव है-जैसे कि उस मकान में गृहस्थ के कुण्डल, करधनी, मणि, मुक्ता, चांदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीनलड़ाहार, फूलमाला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मुक्तावली हार या कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा वस्त्राभूषण आदि से अलंकृत और विभूषित युवती या कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु अपने मन में ऊंच नीच संकल्प-विकल्प कर सकता है कि ये (पूर्वोक्त) आभूषण आदि मेरे घर में भी थे, एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी, या ऐसी नहीं थी। वह इस प्रकार के उद्गार भी निकाल सकता हैं, अथवा मन ही मन उनका अनुमोदन भी कर सकता है / इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश दिया है, ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु ऐसे (गृहस्थ-संसक्त) उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रियाएँ करे। 425. और फिर यह सबसे बड़े दोष का कारण है-गृहस्थों के साथ एक स्थान में निवास करने वाले साधु के लिए कि उसमें गृहपत्नियाँ, गृहस्थ की पुत्रियाँ, पुत्रवधुएं, उसकी धायमाताएं, दासियाँ या नौकरानियां भी रहेंगी। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि "ये जो श्रमण भगवान होते हैं, वे शीलवान्, वयस्क, गुणवान्, संयमी, शान्त, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं। अतः मैथुन-सेवन इनके लिए कल्पनीय नहीं है / परन्तु जो स्त्री इनके साथ मैथुन-क्रीड़ा में प्रवृत्त होती है, उसे ओजस्वी, तेजस्वी, प्रभावशाली, रूपवान् और यशस्वी तथा संग्राम में शूरवीर, चमक दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है / " इस प्रकार की बातें सुनकर, मन में विचार करके उनमें से पुत्र-प्राप्ति की इच्छुक कोई स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मथुन-सेवन के लिए अभिमुख कर ले, ऐसा सम्भव है। इसीलिए तीर्थकरों ने साधुओं के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, उनका हेतु, कारण या उपदेश ऐसा है कि साधु उस प्रकार के गृहस्थों से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करें। विवेचन-गृहस्थ-संसक्त स्थान में निवास के खतरे और सावधानी-सू० 420 से 425 तक गृहस्थादि-संसक्त स्थान में साधु का निवास निषिद्ध बताकर उसमें निवास से उत्पन्न होने वाले भय स्थलों से सावधान किया गया है। सामान्यतः ब्रह्मचारी और संयमी साधुओं के लिए ब्रह्मचर्यरक्षा की दृष्टि से तीन प्रकार के निवास स्थान (उपाश्रय या मकान) वर्जित Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध बताए गए हैं-(१) स्त्री-संसक्त स्थान, (2) पशु-संसक्त स्थान और (3) नपुंसक-संसक्त स्थान। प्रस्तुत प्रसंग में ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा अपरिग्रह तीनों दृष्टियों मे 6 प्रकार के निवासस्थानक वर्जित बताए है—(१) स्त्रियों से संसक्त, (2) पशुओं से संसक्त, (3) नपुसक संसक्त, (4) क्षुद्र मनुष्यों से या नन्हे शिशुओं से संसक्त, (5) हिंस्र एवं क्षुद्र प्राणियों से संसक्त एवं (6) सागारिक-गहस्थ तथा उसके परिवार से संसक्त उपाश्रय / पशुओं से संसक्त धर्मस्थान में रहने से ब्रह्मचर्य हानि के अतिरिक्त अविवेकी गहस्थ यदि पशुओं को भूखे-प्यासे रखता है, समय पर चारा-दाना नहीं देता, पानी नहीं पिलाता, या अकस्मात् आग लग गई, ऐसी स्थिति में बंधनबद्ध पशुओं का आर्तनाद साधु से देखा नहीं जाएगा गृहस्थ की अनुपस्थिति में उसे करुणावश पशुओं के लिए यथायोग्य करना या कहना पड़ सकता है / नपुसक संसक्त स्थान तो ब्रह्मचर्य हानि की दृष्टि से वर्जित है ही। क्ष द्र मनुष्यों से संसक्त मकान में रहने से वे छिद्रान्वेषी, द्वेषी एवं प्रतिकूल होकर बराबर साधु को हैरान और बदनाम करते रहेंगे। शिशुओं से युक्त स्थान में रहने से साधु को उन नन्हें बच्चों को देख कर मोह उत्पन्न हो सकता है। उनकी माताएँ साधुओं के पास उन्हें लाएँगी, छोड़ देंगी, तब स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओं में बाधा उत्पन्न होगी। सिंह, सर्प, बाघ आदि हिंस्र प्राणियों से युक्त स्थान में रहने से साधु के मन में भय पैदा होगा, निद्रा नहीं आएगी। स्त्रियों से संसक्त स्थान में रहने से ब्रह्मचर्य-हानि की संभावना तो है ही। अन्यतीर्थिक साधुओं एवं भिक्षाजीवी परिव्राजकों आदि के साथ रहने में भी अपने संयम को खतरा है, अपरिपक्व साधक उनकी बातों से बहक भी सकता है, गृहस्थ और उसके परिवार से संसक्त मकान में निवास भी अनेक खतरों से भरा है। कुछ खतरों का संकेत यहाँ शास्त्रकार ने किया है-(१) भिक्षु के अकस्मात दुःसाध्य-रोग हो जाने पर गृहस्थ द्वारा उसके उपचार करने में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय की विराधना की सम्भावना, (2) परस्पर लड़ाई-झगड़ों से साध के चित्त में संक्लेश, (3) गृहस्थ अपने लिए खाने-पकाने के साथ-साथ साधु के लिए भी अग्नि समारम्भ करके भोजन बनाएगा। (4) गृहस्थ के घर में विविध आभूषणों तथा सुन्दर युवतियों को देखकर पूर्वाश्रम स्मरण से मोहोत्पत्ति तथा कामोत्तेजना की सम्भावना। (5) अधिक स्त्री संसर्ग से पुत्राभिलाषिणी स्त्री के साथ सहवास की सम्भावना। इन सब संभावनाओं को ध्यान में रखकर शास्त्रकार ने तीर्थंकर भगवान द्वारा साधु के लिए उपदिष्ट प्रतिज्ञा, हेतु कारण और उपदेश को बार-बार दुहराकर खतरों से सावधान किया है। 1. (क) स्थानांग सूत्र स्था. 6 उ०१ (ख) उत्त राध्ययन सुत्र अ. 16.1 2. (क) आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 361,362 के आधार पर (ख) आचाराँग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण 50 147 (मुनि जम्बूदिजयजी) Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 426-27 131 “विसूइया' आदि पदों के अर्थ---विसूइया=विसूचिका-हैजा, छड्डो-वमनरोग, उत्बाहेम्जा=पीडित करें, कक्केण-चन्दनादि के उबटन द्रव्य से ! वृत्तिकार के अनुसारकाषायरंग के द्रब्य के काढे से, वण्णेण=कम्पिल्लक आदि द्रव्यों से बने हुए लेपसे, उच्चावचं मणंनियच्छेज्जा-मन ऊंचा-नीचा करेगा, उच्च मन-ऐसा न करें, अवच मन =ऐसा करें। चूर्णिकार के मत से अनेक प्रकार का मन / सअट्ठाए अपने प्रयोजन से, गुणे-करधनी. कडगाणिकड़े, तुडियाणि-बाजूबन्द, पालबाणिः-- लम्बी पुष्पमाला, सड्ढी = पुत्रोत्पत्ति में श्रद्धा रखने वाली स्त्री, पडियारणाए -मैथुन-सेवन करने के लिए आउट्टावेज्जा प्रवृत्त करे, अभिमुख करे / साएज्जा आकांक्षा करे।' 426. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 426 यही (शय्यषणा-विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञानादि आचार की) समग्रता है। // शय्यषणा-अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त॥ बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक गृहस्थ संसक्त उपाश्रय-निषेध 427. गाहावती नामेगे सुइसमायारा भवंति, भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से सेगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवति, जं पुवकम्मं तं पच्छाकम्मं, जं पच्छाकम्मं तं पुव्यकम्म, ते भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करेज्ज वा णो वा करेज्जा। 1. (क) पाइअ सह महण्णवो (ख) आचाराँग वृत्ति पत्रांक 362.363 (ग) आचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 146 2. से मंधे दुग्गंधे' का तात्पर्य चूर्णिकार के शब्दों में—'तेग तेसिं सो गंधो पडिकूलो' इस कारण उन (गृहस्थों) को वह गन्ध प्रतिकूल लगता है। 3. जं पुख्वकम्मं आदि पंक्ति का तात्पर्य चर्णिकार के शब्दों में-"जं पुग्यकम्मं ति गिहत्थाणं पुब्वकम्म उच्छोलणं, तं च पच्छा पव्वज्जाए वि कुज्जा, मा उड्डाहो होहिति, तत्थ बाउसदोसा, अह ण करेति तो उड्डाहो। अहवा ताई पुटबपए जामेता ईओ पच्छा संजयउवरोहा, सुत्तत्थाणं उसूरे वा, पच्छिमाए पोरिसीए जेमेताइओ ताहं संजयाणं पाढवाधातो त्ति पदे व जिमिताई। उवक्खडणा वि एवं प्रत्यागते उस्सक्कणं, उस्सक्कणदोसा भिक्षुभावो भिक्खुपडियाए बट्टमाणा करेज्ज वा ण वा / ' "अर्थात्गृहस्थों का जो पूर्व कर्म-शरीर प्रक्षालन आदि का, उसे अब प्रवज्या लेने के पश्चात् भी करेगा, इसलिए कि निन्दा न हो। ऐसा करने से बकुश (विभूषादि से चरित्र को मलिन करने वाले) दोष होते Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा' 4 जं तहप्पगारे उबस्सए ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 428. आयाणमेतं भिक्खुस्स गाहावतीहिं सद्धि संवसमाणस्स / इह खलु गाहावतिस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाते उवक्खडिते सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा 4 उवक्खडेज्ज वा उवकरेज्ज वा, तं च भिक्खू अभिकखेज्जा भोत्तए वा पातए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खूणं पुचोवदिट्ठा 4 जंणो तहप्पगारे उवस्सए ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 426. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतिणा सद्धि संबसमाणस्स / इह खलु गाहावतिस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूबरूवाई दारुयाई भिण्णपुवाई भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिदेज्ज वा किणेज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कटु अगणिकायं उज्जालेज्ज वा पज्जालेज्ज वा, तत्थ भिक्खू अभिकखेज्जा आतावेत्तए वा पयावेत्तए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खूणं पुन्वोवदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 430. से भिक्खू वा 2 उच्चारपासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे रातो वा वियाले वा गाहावतिकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणेज्जा, तेणो य तस्संधिचारी अणुपविसेज्जा, तस्स भिक्खुस्स को कप्पति एवं वदित्तए-अयं तेणे पविसति वा णो वा पविसति, उवल्लियति वा णो वा उव हैं। यदि ऐसा नहीं करता है तो बदनामी होती है। अथवा साधुओं के लिहाज से भोजनादि जो पूर्व कर्म हैं, उन्हें गृहस्थ बाद में करता है। सूत्रार्थ पौरसी के बाद सूर्यास्त होने पर / अन्तिम पौरसी में भोजन इत्यादि करने पर साधुओं के स्वाध्याय में विघ्न पड़ता है, यह सोचकर गृहस्थ भोजनादि कार्य पहले कर लेता है। भोजन बनाने का कार्य भी साधुओं के अनुरोध से इस प्रकार के विघ्न के कारण स्थगित कर देता हैं। साधु अपनी चर्या आगे-पीछे करता है या स्थगित कर देता है। गृहस्थ भिक्षु के अनुरोध से कई नित्यकार्य करते हैं, नहीं भी करते / / 1. 'पुब्बोवदिटठा' के बाद '4' का अंक यहाँ 'एस उवएसो' तक के पाठ का सूचक है। 2. 'ठाणं वा' के बाद '3' का अंक सेज्ज वा निसोहियं वा' पाठ का सूचक है। चर्णिकार 'अतेणं तेणगमिति संकति' इस वाक्य की व्याख्या यों करते हैं-"अयं उवचरए, उवचरओ णाम चारिओ, ताणि वा साहं चैव भणंति-अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं एत्थ अकासी चोरचारियं, आसी वा एत्थ / एत्थ सम्भावे कहिए चोरातो भयं, तुहिक्के पच्चंगिरा। अतेणं तेणगमिति संकति / सागारिए भवे दोसा।' __ --साधु अगर चोरों के विषय में सच्ची बात कहता है, किन्तु चोरों का पता न लगने पर वे गृहस्थ उसी (साधु) को यों कहते हैं कि---यह चोर है, यह उपचरक गुप्तचर है। इसी ने यहां चोरी (चारी-भेद बताने का कार्य) की है यही यहाँ था। ऐसी स्थिति में अगर वह साधु सच्ची बात कह देता है तो चोरों से भय है, यदि मौन रहता है तो उसके प्रति अप्रतीति होती है, जो साधु चोर नहीं है, उसके प्रति चोर की शंका होती है। अत: गृहस्थ-संसक्त स्थान में यह दोष सम्भव है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 427-30 ल्लियति, आपतति वा णो वा आपतति, वदति' वा णो वा वदति, तेण हडं, अण्णेण हडं, तस्स हडं, अण्णस्स हडं, अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं हंता, अयं एत्थमकासी / तं तवस्सि भिक्खु अतेणं तेणमिति संकति / अह भिक्खणं पुव्वोवदिट्ठा 4 जाब णो चेतेज्जा। 427. कोई गृहस्थ शौचाचार-परायण होते हैं और भिक्षुओं के स्नान न करने के कारण तथा मोकाचारी होने के कारण उनके मोकलिप्त शरीर और वस्त्रों से आने वाली वह दुर्गन्ध उस गृहस्थ के लिए दुर्गन्ध-प्रतिकूल और अप्रिय भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त वे गृहस्थ (स्नानादि) जो कार्य पहले करते थे, अब भिक्षुओं की अपेक्षा (लिहाज) से बाद में करेंगे और जो कार्य वाद में करते थे, वे पहले करने लगेंगे अथवा भिक्षुओं के कारण वे असमय में भोजनादि क्रियाएं करेंगे या नहीं भी करेंगे। अथवा वे साध उक्त गहस्थ के लिहाज से प्रतिलेखनादि क्रियाएं समय पर नहीं करेंगे, बाद में करेंगे, या नहीं भी करेंगे / इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ-संसक्त) उपाश्रय में कायोत्सर्ग ध्यान आदि क्रियाए न करें। 428. गृहस्थों के साथ (एक मकान में) निवास करने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है क्योंकि वहाँ (उस मकान में) गृहस्थ अपने निज के लिए नाना प्रकार के भोजन तैयार किये होंगे, उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अशनादि चतुर्विध आहार तैयार करेगा, उसकी सामग्री जुटाएगा / उस आहार को साध भी खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। इसलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों ने पहले से यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ संसक्त) उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे / 426. गृहस्थ के साथ (एक मकान में) ठहरने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है; क्योंकि वहीं (उस मकान में ही) गृहस्थ अपने स्वयं के लिए पहले नाना प्रकार के काष्ठ-इन्धन को काटेगा, उसके पश्चात वह साध के लिए भी विभिन्न प्रकार के इन्धन को काटेगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ (अरणि) से काष्ठ का घर्षण करके अग्निकाय को उज्ज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा। ऐसी स्थिति में सम्भव है, वह साधु भी गृहस्थ की तरह शीत निवारणार्थ अग्नि का आताप और प्रताप लेना चाहेगा, तथा उसमें आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। 1. वदति के स्थान पर बयइ पाठान्तर मानकर चूर्णिकार ने अर्य किया है---'वजति'- अर्थात् जाता है। 2. पुब्बोवविठ्ठा के बाद '4' का चिन्ह सूत्र 357 के अनुसार यहाँ से 'उबएसे' तक के पाठ का सूचक Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय भुतस्कन्ध इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही भिक्षु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ संसक्त) उपाश्रय में स्थान आदि कार्य न करे। 430. (गृहस्थ संसक्त मकान में ठहरने पर) वह भिक्षु या भिक्षुणी, रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा (हाजत) होने पर गृहस्थ के घर का द्वारभाग खोलेगा, उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर में प्रविष्ट हो जाएगा तो उस समय साधु को मौन रखना होगा। ऐसी स्थिति में साधु के लिए ऐसे कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर प्रवेश कर रहा है, या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है, या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है, बोल रहा है या नहीं बोल रहा है, इसने चुराया है, या किसी दूसरे ने चुराया है, उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन चुराया है; यही चोर है, यह उसका उपचारक (साथी) है, यह घातक है, इसी ने यहाँ यह (चोरी का) कार्य किया है। और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है, उस तपस्वी साधु पर (गृहस्थ को) चोर होने की शंका हो जाएगी। इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही साधु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे। विवेचन-गृहस्थ संसक्त उपाश्रय : अनेक अनों का आश्रय--पूर्व उद्देशक में भी शास्त्रकार ने गृहस्थ संसक्त उपाश्रय में निवास को अनेक अनर्थों की जड़ बताया था। इस उद्देशक के प्रारम्भ में फिर उसी गृहस्थ संसक्त उपाश्रय के दोषों को विविध पहलुओं से शास्त्रकार समझाना चाहते हैं / सूत्र 427 से 430 तक इसी की चर्चा है। इन सूत्रों में चार पहलुओं से गृहस्थ संसक्त उपाश्रय निवास के दोष बताए गए हैं (1) साफ-सुथरा रहने वाले व्यक्ति के मकान में साधु के ठहरने पर परस्पर एक-दूसरे के प्रति शंका-कुशंका में खिचे-खिचे रहेंगे, दोनों के कार्य का समयचक्र उलट-पुलट हो जाएगा। (2) गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने के बाद साधुओं के लिए खासतौर से भोजन बनाएगा, साधु स्वादलोलुप एवं आचार भ्रष्ट हो जाएगा। (3) साधु के लिए गृहस्थ ईंधन खरीदेगा या किसी तरह जुटाएगा, अग्नि में जलाएगा, साधु भी वहां रहकर आग में हाथ सेंकने लगेगा। (4) मकान में चोर घुस जाने पर साधु धर्म-संकट में पड़ जाएगा कि गृहस्थ को कहे कि न कहे। दोनों में ही दोष है। ये और इस प्रकार के अन्य खतरे गृहस्थ ससक्त मकान में रहते हैं। इसलिए यहाँ भी शास्त्रकार ने तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट प्रतिज्ञा और उपदेश को बारम्बार दुहराकर साधु को Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 431 चेतावनी दी है / चूर्णिकार ने इन सूत्रों का रहस्य अच्छे ढंग से समझाया ___ 'सुईसमाचारा' आदि पदों के अर्थ -सुईसमाचारा-शौचाचारपरायण भागवतादि भक्त या बनठन कर (इत्र-तेल, फुलेल आदि लगाए) रहने वाले सफेदपोश, पडिलोमे-विद्वेषी, दुवारबाहं == द्वारभाग को, अवंगुणेज्जा खोलेगा, उल्लियति-छिपता है, आपतति =नीचे कूद रहा है। उपाश्रय-एषणा : विधि-निषेध 431. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, तं [जहा - ] तणयुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव संताणए / तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज वा णिसोहियं वा चेतेज्जा / से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण उवस्मयं जाणेज्जा तगपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडे जाव चेतेज्जा। 431. जो साधु या साध्वी उपाश्रय के सम्बन्ध में यह जाने कि उसमें (रखे हुए) घास के ढेर या पुआल के ढेर, अंडे, बीज, हरियाली, ओस, सचित्त जल, कोड़ी नगर, काई, लीलणफूलण, गीली मिट्टी, या मकड़ी के जालों से युक्त है तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान, शयन आदि कार्य न करे / यदि वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि उसमें (रखे हुए) घास के ढेर या पुआल के ढेर, अंडों, बीजों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त नहीं है तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान-शयनादि कार्य करे।। विवेचन—जीव जन्तु संहक्त उपाश्रय वजित, जीव-रहित नही-साधु अपने निमित्त में किसी भी जीव को हानि पहुंचाना नहीं चाहता। उसकी अहिंसा की पराकाष्ठा है–समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान समझना / ऐसी स्थिति में वह अपने निवास के लिए जो स्थान 1. टीका पत्र 364 के आधार पर। 2. आचारांग चूणि, देखिए मूल पाठ टिप्पण / 3. टीका पत्र 364 / 4. तणपुंजेसु पलालपु जेसु की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में तणपुजा गिहाणं उरि तणा कया, पलाल वा मंडपस्स उरि हेट्ठा भूमी रमणिज्जा, सअंहिं णो ठाणं चेतिज्जा, अप्पंडेहि चेतिज्जा। अर्थात् -तृण का देर तृणपुज कहलाता है, जो कि घरों पर किया जाता है, अथवा मंडप पर पराल बिछाई जाती है। अत: नीचे की भूमि रमणीय है, किन्तु वह अंडों या जीवजन्तु से युक्त है तो स्थान (निवास) न करे / जो अंडे आदि से रहित स्थान हो, वहीं निवास करे। 5. सअंडे के बाद जाव शब्द सअंडे से लेकर संताणए तक का पाठ सत्र 356 के अनसार समा 6. अप्पंडे के बाद 'जाव' शब्द चैतेज्जा नक के पाठ का सूचक है, सू० 324 के अनुसार / Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध चुनेगा, उसमें अगर जीवों के अंडे हों, बीज हों, अन्न हों, हरियाली उगी हुई हो, ओस या कच्चा पानी हो, गीली मिट्टी हो, काई या लीलण-फूलण हो अथवा चींटियों का बिल आदि हो तो ऐसे मकान में या स्थान में निवास करने से उन सब जीवों को पीड़ा होगी, वे साधु की जरा-सी असावधानी से दब या मर सकते हैं, यहाँ तक कि उन्हें स्पर्श करने से भी उन्हें दुःख हो सकता है। वनस्पति सजीव है, पानी में भी जीव हैं, यह बात वर्तमान जीव वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके सिद्ध कर दी है। इसी कारण साधु को ऐसे उपाश्रय में रहकर कोई भी किया करना निषिद्ध बताया है। साथ ही जीवों से रहित, शुद्ध, निर्दोष स्थान हो तो वहां निवास करने का विधान किया है।' 'पलालपुजेसु'-चावलों की घास को पराल या पुआल कहते हैं, उसके ढेर को पलालपुंज कहते हैं। नव विध शय्या-विवेक 432. से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं 2 साहम्मिएहिं ओवयमार्गाह णो ओवतेज्जा। 433. से आगंतारेसु वा 4 जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणित्ता तत्थेव भुज्जो संबसंति अयमाउसो कालातिक्कंतकिरिया वि भवति / 434. से आगंतारेसु वा 4 जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा दुगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संबसंति अयमाउसो उवट्ठाणकिरिया यावि भवति। 435. इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया सड्ढा भवंति, तंजहा-गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति, तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमार्णोह तं रोयमाणेहि बहवे समण-माण-अतिहिकिवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाणि वा पवाणि 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 365 के आधार पर। 2. णो ओवतेज्जा के स्थान पर पाठान्तर है-'णो वएज्जा, णो य वतेज्जा / वृत्तिकार अर्थ करते हैं--- 'नावपतेत्'-वहाँ मासकल्पादि निवास न करे / 3. आगंतारेसु वा के बाद 'x' का चिन्ह 'आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा' तक के पाठ का सूचक है, सूत्र 432 के अनुसार। 4. पाईणं वा के बाद '4' का अर्थ शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 5. चूणिकार के शब्दों में आएसणाणि' आदि पदों की व्याख्या आएसणाणि--छरण सिझं ति वणि बुज्झंति, अहवा लोहारसालमादी। आयतणं-पासंडाणं अवच्छत्तिया कडडरस पासे / देवउलं-वाणमंतर रहितं, देउलं सवाण मंतरं सपडिम इत्यर्थः / समा Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 436 वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुधाकम्मंताणि' वा दब्भकम्मंताणि वा वब्भकम्मंताणि वा वव्वकम्मंताणि' वा इंगालकम्मंताणि वा कटुकम्मताणि वा' सुसाणकम्मंताणि वा गिरिकम्मंताणि वा कंदरकम्मंताणि वा संतिकम्मंताणि वा सेलोवट्ठाणकम्मंताणि वा भवगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा तेहि ओवतमाणेहि ओवतंति' अयमाउसो ! अभिक्कंतकिरिया या वि भवति। 436. इह खलु पाईणं वा जाव 4 तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारीहि अगाराइं चेतिताई भवंति, तं जहा—आएसणाणि वा मंडबो वलभी वा सवाण मंतरा इतरा बा / पवा= जत्थ पाणित दिज्जइ / पणितगिह-आवणो सकडुडओ / पणियसाला=आवणो चेत्र अकुड्डओ, जाणगिह-रहादीण वासकुड्ड, साला-एएसि चेव अकुड्डा / छुहा (सुधा) कडा; छुहा जत्थ कोहाविज्जति बा, दम्भा=दखभा बलिज्जति छिज्जति वा / ववओ विप्पि (छि) ज्जति) वलिज्जति य / बब्भा=वरत्ताजा गदीण (गड्डीण) दलिज्जंति / इंगालकटकम्म एतेसि सालातो भवति / सुसाणे गिहाई। गिरि - जहा खहणागिरिम्मि लेणमादी। कंदरागिरिगुहा / संति-संतीए घराई। सेल पाहाणघ राई / उवट्ठाणगिह जत्थ गावीओ उट्ठावित्तु दुखभनि / सोभणं ति भवणं भा दीप्तौ ।---अर्थात्--आएसणाणिजहाँ क्षार पकाया जाता है, अग्नि ब्रझाई जाती है, अथवा लुहारकी शालादि / आयतणं-पाखण्डियों के ठहरने का स्थान, जो मन्दिर की दीवार के पास होते हैं / देवउलं =वाणव्यन्तर देव से रहित या सहित, प्रतिमा सहित देवालय / सभा =-मंडप या छत्र वाणव्यन्तर देव सहित या रहित / पदाप्रपा प्याऊ जहाँ पानी पिलाया जाता है, पणितगिह-आपण (दुकान) दीवार सहित, पणियसाला--बिना दीवार की खुली दुकान, जाणगिह = रथादि रखने का स्थान / साला- रथ आदि का खुला स्थान बिना दीवार का। छुहा खड़ी या मकान पोतने का चूना जहाँ पकाया जाता है। दमा-दर्भ जहाँ काटे या मोड़ें जाते है, वध्यओ= घास की चटाइयाँ टोरियां आदि जहाँ बनाई जाती हैं, दन्मा= जहाँ चमड़े के बरत-रस्से आदि बनते हैं : इंगालकट्ठकम्म कोयला तथा काष्ठकर्म बनाने की शालाएं, सुसाणे गिहाई =श्मशान में बने घर, गिरि-गिरिगह, जैसे खहणागिरि पर मकान बने हैं। कंदरा-पर्वत की गुफा में काट-छील कर बनाया हुआ घर, संति - शान्ति कर्म के लिए बनाए गए गृह, सेल-पाषाणगह, उवट्ठाणगिह -जहाँ गायें आदि खडी करके ही जाती हैं. उपस्थानगह / भवणं = शोभनगह-सुन्दर भवन / 1. 'सुधा' के बदले पाठान्तर है- 'छुहा' / अर्थ समान है। 2. वब्वकम्मंताणि के बदले पाठान्तर है--'वक्ककम्मताणि' अर्थ होता है-वल्कल---छाल से चटाई कपड़े आदि बनाने के कारखाने / 3. कहीं कहीं सुसाणकम्मंताणि के बदले सुसाणगिह' या 'सुसाणघर' पाठान्तर है / अर्थात् श्मशान में बना हुआ घर / 4. 'ओवतंति' के बदले पाठान्तर है—उवयंति / 5. पाइणं वा के बाद '4' का अंक शेष तीन दिशाओं का सूचक है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा' जाब भवणमिहाणि वा तेहि अणोवतमाणेहि ओवयंति अयमाउसो ! अणभिक्कतकिरिया या वि भवति / 437. इह खलु पाईणं वा, 4 संतेगइया सड्ढा भवंति, तंजहा--गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा तसि च णं एवं वुत्तपुब्वं भवति-ज इमे भवंति समणा भगवंतो सोलमंता जाव उवरता मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एतेसि भयंताराणं कप्पति आधाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से ज्जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सयट्ठाए' चेतियाइं भवंति, तं जहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा वऽप्पणो सयट्ठाए चेतेस्सामो, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा। ____एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इतरातितरेहि पाहुडेहि वटुंति, अयमाउसो! वज्जकिरिया यावि भवति / 438. इह खलु पाईणं वा 45 संगतिया सड्ढा भवंति, तेसि च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाहि बहवे समण-माहण जाव पगणिय 2 समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहि अगाराइं चेति१. 'आएसणाणि' वा से लेकर 'गिहाणि वा तक का पाठ सू० 435 के अनुसार 'जाव' शब्द से सूचित किया है। अप्पणो सयठाए की चूणिकृत व्याख्या-''साहू सीलमंत त्ति काऊण एते आहाकम्पम्मि ण वदति अप्पणो सयट्ठाए एतेसि देमो अप्पणो अपणाई करेमो ।'---अर्थात् ये साधु शीलवान साधु-धर्म-मर्यादा में स्थित है, इसलिए ये आधाकर्मादि दोष युक्त स्थान में नहीं रहते, अतः अपने निजी प्रयोजन के लिए मकान बनवा कर इन्हें देंगे, और अपने लिए दूसरा बनवा लेंगे।' 3. इतरातितरेहि के बदले पाठान्तर मिलते हैं--इतराइतरेहि इयरंतरेहि, इतरातिरेहि।" चूर्णिकार इसका भावार्थ करते हैं-'कालातिक्कता अणभिक्कंता इमा बज्जा इतरा, एवं सेसा वि, इतरा इतरा अपसत्थतरा इत्यर्थः / ' अर्थात्-कालातिकान्ता, अनभिक्कता और यह बा इतरा है, इसी प्रकार शेष शय्या उत्तरोत्तर इतना समझ लेना चाहिए / अर्थात् वे एक दूसरे से इतरा इतरा :- अप्रशस्ततरा है। पाहुहिं की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में--पाहुडेहि--पाहुडंति वा पहेणगं ति बा एगट्ठ / कस्य ? कर्मबन्धस्य / निरतस्य पाहुडाई दुग्गतिपाहुडाई च अप्पसत्था सेवणाए। एसा वज्जकिरिया।" अर्थात्पाहुडं और पहेणगं (वस्तु की भेंट) ये दोनों एकार्थक हैं, यानी एक ही अर्थ-प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। किस अर्थ को? कर्मबन्ध के अर्थ को / सावध कर्म से विरत साधु के लिए (साधु के निमित्त बने हए मकानों की भेंट) दुर्गति को भेंट है, क्योंकि इसके पीछे अप्रशस्तभावों का सेवन होता है। यह बर्य क्रिया है। 5. पाईण वा के आगे '4' का अंक शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द सू० 435 के अनुसार 'आयारगोयरे' से लेकर 'त रोयमाणेहि' तक का समग्र पाठ समझना चाहिए। 'समण-माहण' के आगे 'जाव' शब्द सूत्र 435 के अनुसार 'पगणिय' तक समग्र पाठ का सूचक है। 8. पमणिय आदि के बाद '2' का अंक सर्वत्र उसी शब्द की पुनरावृत्ति का सूचक हैं। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन :द्वितीय उद्देशक : सूत्र 438-41 याई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा' जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इयराइयरेहिं पाहुडेहिं [वटुंति, ?] अयमाउसो! महावज्जकिरिया यावि भवति / ___ 438. इह खलु पाईणं वा 4 जाव त रोयमाहि बहवे समणजाते समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, जे + भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इतरातितरेहि पाहुडेहि विट्ठति, ? | अयमाउसो ! सावज्जकिरिया यावि भवति / ___ 440. इह खलु पाईणं वा 4 जाव तं रोयमाणेहि एगं समणजातं समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहि अगाराइं चेतिताइं भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा महता पुढविकायसमारंभणं' जाव महता तसकायसमारंभेणं महता संरंभेणं महता समारंभेणं महता आरंभेणं महता विस्वरूबेहिं पावकम्मकिच्चेहि, तंजहा-छावणतो लेवणतो संथार-दुवार-पिहणतो, सोतोदगए' वा परिवियपुब्वे भवति, अगणिकाए वा उज्जालियपुब्वे भवति, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इतराइतरेहिं पाहु.ह दुपक्वं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवति / 441. इह खलु पाईणं वा 4 जाव तं रोयमाणेहि अप्पणो सयट्ठाए तत्थ 2 अगारोहिं अगाराइं चेतियाइं भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा महता पुढविकायसमा 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'आएसणाणि वा' मे लेकर 'गिहाणि वा' तक का समग्र पाठ सूत्र 435 के अनुसार समझें। + इस चिन्ह के अन्तर्गत जो पाठ है, वह किसी किसी प्रति में नहीं है। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से पाईणं वा से लेकर 'तं रोयमाहि' तक का समग्र पाठ सू० 435 के अनुसार समझें। इन पंक्तियों के स्थान पर पाठान्तर है--..."समारंभेणं एवं आउ-तेउ-बाउ-वणस्सइ, महया तस। महया संरभेण महया आरंभेण, महया आरंभ-समार भणं, महासरंभेणं महया आरंभेणं महया समा रंभेणं / ' 4. यहां जाव शब्द से 'आउकाय .....तेउकाय .....वाउकाय....."वणस्स इकाय समारंभेणं" आदि पाठ समझना चाहिए। सोतोदगए के स्थान पर पाठान्तर है--'सीतोदगए', 'सौतोदगघडे', 'सीओबएण बा। चूणिकार इसका तात्पर्य समझाते हैं—'सोतोदगघडे---अभंतरतो संग्णिक्खित्तो, अगणिकायं वा उज्जालेंति, पाउया वा'---- --अर्थात ठंडे सचित्त पानी के घड़े अन्दर रख दिए हैं, अग्नि जलाता है या प्रकाश करता है। 6. पाईणं वा के बाद '4' का चिन्ह शेष तीन दिशाओं का सूचक है। 9. 'आएसणाणि' से लेकर 'गिहाणि' तक का पाठ सूत्र 435 के अनुसार 'जाव' शब्द से समझें। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध रंभेणं जाव अगणिकाये वा उज्जालिययुग्वे भवति, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इतराइतरेहि पाहुहं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवति / 432. पथिक शालाओं में उद्यान में निर्मित विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में, या तापसों के मठों आदि में जहाँ (---अन्य सम्प्रदाय के) साधु बार-बार आते-जाते (ठहरते) हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए। 433. हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदि में साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मासकल्प --(शेषकाल) या वर्षावास कल्प (चातुर्मास) बिताया है, उन्हीं स्थानों में अगर वे विना कारण पुनः-पुनः निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या (वसति-स्थान) कालातिकान्त क्रिया -- दोष से युक्त हो जाती है। 434 ह आयुष्मन् ! जिन पथिक शालाओं आदि में, जिन साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावासकल्प बिताया है, उससे दुगुना-दुगुना काल (मासादिकल्प का समय) अन्यत्र बिताये बिना पुनः उन्ही (पथिकशालाओं आदि) में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या (निवास स्थान) उपस्थान-क्रिया दोष से युक्त हो जाती है। 435. आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु (भावुक भक्त) होते हैं, जैसे कि गृहस्वामी गृहपत्नी, उसकी पुत्र-पुत्रियां, पुत्रवधुएँ, धायमाताएं, दास-दासियाँ या नौकर-नौकरानियां आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सुना है, किन्तु उन्होंने यह सुन रखा है कि साधुमहात्माओं को निवास के लिए स्थान आदि का दान देने से स्वर्गादि फल मिलता है। इस बात पर श्रद्धा. प्रतीति एवं अभिरुचि रखते हुए उन गृहस्थों ने (अपने-अपने ग्राम या नगर में) बहुत-से शाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि-दरिद्रों और भिखारियों आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवा दिये हैं / जैसे कि लुहार आदि की शालाएं, देवालय की पार्श्ववर्ती धर्मशालाएँ, सभाएँ. प्रपाएँ (प्याऊ), दूकानें, मालगोदाम, यानगृह, रथादि बनाने के कारखाने, चूने के कारखाने, दर्भ, चर्म एवं वल्कल छाल) के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ-कर्मशाला, श्ममान भूमि में बने हुए घर, पर्वत पर बने हुए मकान, पर्वत की गुफा से निर्मित आवासगृह शान्ति कर्म गृह, पाषाण मण्डल (या भूमिगृह आदि) उस प्रकार के लुहारशाला से लेकर भमिगृह आदि तक के गृहस्थ निर्मित आवास स्थानों में, (जहां कि शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि पहले ठहरे हुए है, (उन्हीं में। बाद में) निर्ग्रन्थ आकर ठहरते हैं, तो वह शय्या अभिक्रान्त क्रिया से युक्त हो जाती है। 436. हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु (भक्त) होते हैं जैसेकि गृहपति यावत उसके नौकर-नौकरानियाँ आदि / निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार विचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 437-40 141 आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि / ऐसे लोहकार शाला यावत् भूमि गृहों में चरकादि परिव्राजक, शाक्यादि श्रमण इत्यादि पहले नहीं ठहरे हैं, (वे बनने के बाद से अब तक खाली पड़े रहे हैं, ऐसे मकानों में अगर निर्ग्रन्थ श्रमण आकर पहले-पहल ठहरते हैं, तो वह शय्या अनभिक्रान्त क्रिया से युक्त हो जाती है। अकल्पनीय है। 437. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धा भक्ति से युक्त जन है, जैसे कि गहपति यावत उसकी नौकरानियाँ / उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है, कि ये श्रमण भगवन्त शीलवान् यावत् मैथुन सेवन से ऊपरत होते हैं, इन भगवन्तों के लिए आधाकर्मदोष से युक्त उपाश्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है / अत: हमने अपने प्रयोजन के लिए जो ये लोहकारशाला यावत् भूमि गृह आदि मकान वनवाए हैं, वे सब मकान हम इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने प्रयोजन के लिए बाद में दूसरे लोहकारशाला आदि मकान बना लेंगे। गृहस्थों का इस प्रकार का वार्तालाप सुनकर तथा समझकर भी जो निर्ग्रन्थ श्रमण गृहस्थों द्वारा (भेंट रूप में) प्रदत्त उक्त प्रकार के लोहकारशाला आदि मकानों में आकर ठहरते हैं, वहाँ ठहर कर वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप घरों का उपयोग करते हैं, तो आयुष्मान् शिष्य ! उनकी वह शय्या (वसतिस्थान) वय॑क्रिया से युक्त हो जाती है। 438. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धालुजन होते हैं, जैसे कि-गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्री, पुत्र, पुत्रवधू, धायमाता, दास-दासियां आदि / वे उनके आचार-व्यवहार से तो अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिक्षाचरों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य म जहाँ-तहाँ लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि विशाल भवन वनवाते हैं। जो निर्ग्रन्थ साधु उस प्रकार के (गृहस्थों द्वारा श्रमणादि की गिनती करके बनवाये हुए) लोहकारशाला आदि भवनों में आकर रहते हैं, वहां रहकर वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप में प्रदत्त घरों का उपयोग करते हैं तो वह शय्या उनके लिए महावय॑ क्रिया से युक्त हो जाती है। 436. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धाल व्यक्ति होते हैं, जैसे कि----गृहपति, उसकी पत्नी यावत् नौकरानियां आदि / वे उनके आचार-व्यवहार से तो अज्ञात होते हैं, लेकिन श्रमणों के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि गे युक्त होकर सब प्रकार के श्रमणों के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह बनवाते हैं। सभी श्रमणों के उद्देश्य से निर्मित उस प्रकार के (लोहकारशाला अदि) मकानों में जो निर्ग्रन्थ श्रमण आकर ठहरते हैं, तथा गृहस्थों द्वारा उपहार रूप में प्रदत्त अन्यान्य ग्रहों को उपयोग करते हैं, उनके लिए वह शय्या सावधक्रिया दोष से युक्त हो जाती है। 440. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में गृहपति, उनकी पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू आदि कई श्रद्धा-भक्ति ओतप्रोत व्यक्ति में, उन्होंने साधुओं के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु सस्कन्ध जाना-सुना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर, उन्होंने किसी एक ही प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि मकान जहाँ-तहाँ बनवाए हैं। उन मकानों का निर्माण पृथ्वीकाय के महान् समारम्भ से यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ और आरम्भ से तथा नाना प्रकार के महान् पाप कर्मजनक कृत्यों से हुआ है जैसे कि साधु वर्ग के लिए मकान पर छत आदि डाली गई है, उसे लीपा गया है, संस्तारक कक्ष को सम बनाया गया है, द्वार के ढक्कन लगाया गया है, इन कार्यों में शीतल सचित्त पानी पहले ही डाला गया है, (शीतनिवारणार्थ-) अग्नि भी पहले प्रज्वलित की गयी है / जो निम्रन्थ श्रमण उस प्रकार के आरम्भ-निमित लोहकारशाला आदि मकानों में आकर रहते हैं, भेंट रूप में प्रदत्त छोटे-बड़े गृहों में ठहरते हैं, वे द्विपक्ष (द्रव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का सेवन करते हैं। आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए) यह शय्या महासावधक्रिया दोष से युक्त होती है। 441. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कतिपय गृहपति यावत् नौकरानियों श्रद्धालु व्यक्ति हैं। वे साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में सुन चुके हैं, वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित भी हैं, किन्तु उन्होंने अपने निजी प्रयोजन के लिए यत्र-तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि / उनका निर्माण पृथ्वीकाय के यावत् त्रसकाय के महान संरम्भ-समारम्भ एवं आरम्भ से तथा नानाप्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है। जैसे कि-छत डालने-लीपने, संस्तारक कक्ष सम करने तथा द्वार का ढक्कन बनाने में पहले सचित्त पानी डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जो पुज्य निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा अपने लिए निर्मित) लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वास स्थानों में आकर रहते हैं, अन्यान्य प्रशस्त उपहाररूप पदार्थों का उपयोग करते है वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते हैं। हे आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए) यह शय्या अल्पसावधक्रिया (निर्दोष) रूप होती हैं। विवेचन-नौ प्रकार की शय्याएं : कौन-सी अग्राह्य कौनसी ग्राह्य ? सूत्र 432 से लेकर 441 तक नौ प्रकार की शय्याओं का प्रतिपादन करके शास्त्रकार ने प्रत्येक प्रकार की शय्या के गुण-दोषों का विवेक भी बता दिया है। बृहत्कल्प भाष्य में भी शय्याविधिद्वार में इन्हीं नौ प्रकार की शय्याओं का विस्तार से निरूपण किया है--- कालातिक्कतोवठ्ठाण-अभिकत-अणभिकता या वज्जा य महावज्जा सावज्ज महऽप्पकिरिया य॥ __ अर्थात्--शय्या नौ प्रकार की होती है, जैसेकि-(१) कालातिक्रान्ता, (2) उपस्थाना, (3) अभिक्रान्ता, (4) अनभिक्रान्ता, (5) वा, (6) महावा , (7) सावद्या, (8) महासावद्या और (8) अल्पक्रिया। ___ भाष्यकार एवं वृत्तिकार ने वहाँ प्रत्येक का लक्षण देकर विस्तृत वर्णन दिया है जो इस प्रकार है Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 432-41 143 (1) कालातिकान्ता-वह शय्या है, जहां साधु ऋतुबद्ध (मासकल्प-शेष) काल और वर्षा काल (चौमासे) में रहे हों, ये दोनों काल पूर्ण होने पर भी जहां ठहरा जाए। (2) उपस्थाना-ऋतुबद्धवास और वर्षावास का जो काल नियत है, उससे दुगुना काल अन्यत्र बिताए बिना ही अगर पुनः उसी उपाश्रय में आकर साधु ठहरते हैं तो वह उपस्थानाशय्या कहलाती है। (3) अभिक्रान्ता-जो शय्या (धर्मशाला) सार्वजनिक और सार्वकालिक (यावन्तिकी) है, उसमें पहले से चरक, पाषण्ड, गृहस्थ आदि ठहरे हुए हैं. बाद में निर्ग्रन्थ साधु भी आकर ठहर जाते हैं तो वह अभिक्रान्ता-शय्या कहलाती है। (4) अनभिक्रान्ता-वैसी ही सार्वजनिक-सार्वकालिक (यावन्तिकी) शय्या (धर्मशाला) में चरकादि अभी तक ठहरे नहीं हैं, उसमें यदि निग्रंन्थ साधु ठहर जाते हैं, तो वह अनभिक्रान्ता कहलाती है। (5) वा-वसति (शय्या) वह कहलाती है, जो अपने लिए गृहस्थ ने बनवाई थी, लेकिन बाद में उसे साधुओं को रहने के लिए दे दी, और स्वयं ने दूसरी वसति अपने लिए बनवा ली। वह वजित होने के कारण साधु के लिए वा-त्याज्य है। (6) महावा--जो वसति (मकान) बहुत-से श्रमणों, भिक्षाचरों, ब्राह्मणों आदि के ठहरने के लिए गृहस्थ नये सिरे से आरम्भ करके बनवाता है, वह महावा कहलाती है। वह अकल्पनीय है। (7) सावद्या--जो वसति पांचों ही प्रकार के श्रमणों (निग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवक) के लिए गृहस्थ बनाता है, वह सावद्या-शय्या कहलाती है। (8) महासावधा--जो सिर्फ जैन-श्रमणों के निमित्त ही गृहस्थ द्वारा बनवाई जाती है, वह महासावद्या-शय्या कहलाती है। 1. चर्णिकार के शब्दों में उपस्थाना की व्याख्या—'उवट्ठाणा-एते चेव करेता दुगणं अपरिहरेता पुणो करेति ।--अर्थात-उपस्थाना दोषयुक्त शय्या वह है, जहाँ ऋतुबद्धवास या वर्षावास-ये दोनों नियतकाल तक बिताकर उनसे दुगुना-दुगुना काल बिताए बिना ही पुनः ऋतुबद्धवास या वर्षावास किया जाए।" उदाहरण के लिए एक मासकल्प ठहरकर दो मास बाहर बिताना तथा एक वर्षावास करके दो वर्षावास अन्यत्र बिताना यह विधि है, इसका उल्लंघन करने पर उपस्थानाक्रिया लगती है। 2. चूणिकार महावा और सावद्या-शय्या का अन्तर बताते हुए कहते हैं "महावज्जा पासंडाणं अट्ठाए, एसा चेव वत्तध्वया, सावज्जा पंचण्हं समणाणं पगणित 2, एसा चेब क्त्तव्चया"--अर्थात --महावा पाषण्डों-- साधुवेषधारियों के लिए होती है, यह वक्तव्यता (गुरु-परम्परा) है, तथा सावद्या पाँच प्रकार के श्रमणों के लिए वनवाई जाती है, यह वक्तव्यता है। 3. 'महासावद्या' के सम्बन्ध में चूर्णिकारकृत व्याख्या—“महासावज्जा एगं समणजातं, समुद्दिस जाव भवणगिहाणि वा महता छज्जीवनिकाय-समारंभेणं महता आरंभसमारंभेणं अणंगपगारेहिच आरंभेहि संजयठाए छाविति, लिप्पंति संथारगा ओयटगा कुणति, वारं कति, पिधति वाडो।' Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (8) अल्पसावधक्रिया जो शय्या पूर्वोक्त (कालातिक्रान्तादि) दोषों से रहित गृहस्थ के द्वारा केवल अपने ही लिए, अपने ही प्रयोजन से बनाई जाती है, और उसमें विचरण करते हुए साधु अनायास ही ठहर जाते है, वह अल्प सावधक्रिया कहलाती है।' 'अल्प' शब्द यहाँ अभाव का वाचक है / अतएव ऐसी वसति सावधक्रिया रहित अर्थात् निर्दोष है / 2 / कालातिक्रान्ता आदि के सूत्रों से पूर्व अन्य मतानुयायी साधुओं के बारबार आवागमन वाले आवास स्थानों में निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए ऋतुबद्ध मासकल्प या चातुर्मासकल्प करने का निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि ऊपरा-ऊपरी किसी एक ही स्थान में मासकल्प या चातुर्मासकल्प करने से दूसरे स्थानों को लाभ नहीं मिलता, साधुओं के दर्शन-श्रवण के प्रति अरुचि एवं अश्रद्धा पैदा हो जाती है / 'अतिपरचयादवज्ञा' वाली कहावत भी चरितार्थ हो सकती है / मूल में यहाँ 'साहम्मिएहि ओवयमाहि' पद हैं, जिनका शब्दश: अर्थ होता है—यदि सार्मिक साधु बराबर आते-जाते हों तो / इन नौ प्रकार की शय्याओं में पहले-पहले की 8 शय्याएं दोष युक्त होने से साधुओं के लिए अविहित मालूम होती हैं, अन्तिम 'अल्पसावधक्रिया' या 'अल्पक्रिया' शय्या विहित है। वास्तव में देखा जाए तो प्रथम दो प्रकार की शय्या (वसतिस्थान या मकान) अपने आप में दोषयुक्त नहीं है, वे दोनों साधु के अविवेक के कारण दोषयुक्त बनती है। अभिक्रान्ता और अनभिक्रान्ता शय्या को वृत्तिकार क्रमश: अल्पदोषा और अकल्पनीया बताते है / अभिक्रान्ता में उक्त आवास स्थानों के निर्माण में भावुक गृहस्थ का उद्देश्य सभी प्रकार के भिक्षाचरों को ठहराने का होता है, उनमें 'निर्ग्रन्थ-श्रमण' भी उसके निर्माण-उद्देश्य के अन्तर्गत आ जाते हैं। --अर्थात्- एक प्रकार के सार्मिक श्रमण-वर्ग के उद्देश्य से गृहस्थ जो लोहकारशाला यावत् भवनगृह आदि बनवाता है, षट्जीबनिकाय के महान् सम्मारम्भ से, महान आरम्भ-समारम्भ से। साथ ही अनेक प्रकार के आरम्भों से संयमी साधु के लिए मकान पर छप्पर छाता है, लीपता है, संस्तारकों को अदल-बदल करता है, द्वार बनवाता है, बाड़ा बन्द करता है। वृत्तिकार किसी एक सामिक के उद्देश्य से बनाई हुई शय्या को महासाबद्या कहते हैं। चूणिकार ने अल्पसावद्या की व्याख्या इस प्रकार की है-"अप्पसावज्जाए--अप्पणो सयट्ठाए चंवेति, इतराइतरहिं, इह अप्पसत्थाणि वज्जिता पसहि पाहुडेहि व्याणस्स सग्गस्स वा एगपक्लं कम्म सेवति / एगपक्ख इरियावहिय। एसा अध्पसावज्जा।"—अल्पसावद्या शय्या---गृहस्थ अपनेनिजी प्रयोजन के लिए वनवाता है। इतराइतरोहिपाहुहं ...... इसमें अप्रशस्त प्राभृत (साधु के लिए सावधक्रिया से युक्त मकान की भेंट) छोड़कर साधु प्रशस्त प्राभतों (तप, संयम, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि निरवद्य क्रियाओं के उपहारों) से निर्वाण का या स्वर्ग के एकपक्षीय कर्म का सेवन करता है। एकपक्ष= ईर्यापथिक / यह अल्पसावद्याशय्या का स्वरूप है। 2. वृहत्कल्पभाष्य मलय० वृत्ति गा० 593 से 569 तक। 3. एक मत के अनुसार-8 में से--अभिक्रान्ता एवं अल्पसावधक्रिया दो को छोड़कर शेष 7 अग्राह्य Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 440 145 और अनभिकान्ता में तो वे आवासगृह अभी पुरुषान्तरकृत, परिभुक्त एवं आसेवित न होने से अकल्पनीय हैं ही--निर्ग्रन्थ साधुओं के आवास के लिए। ___ वा और महावा दोनों प्रकार की शय्या अकल्पनीय हैं, क्योंकि वा में साधुसमाचारी से अनभिज्ञ गृहस्थ साधु को उपाश्रय देने हेतु पहले अपने लिए बनाने का बहाना बनाता है ; महावा में गृहस्थ उक्त आवासस्थान को श्रमणादि की गणना करके उनके निमित्त से ही उक्त आवासगृह बनवाता है, इसलिए वह निर्ग्रन्थ साधओं के लिए कल्पनीय नहीं हो सकता / अब रही सावद्या और महासावद्या शय्या / जब गृहस्थ सभी प्रकार के श्रमणों के लिए आवासगृह बनवाता है, उसमें ठहरने पर निम्रन्थ साधु के लिए वह सावद्या शय्या हो जाती है, क्योंकि सावद्या में तो उपाश्रय-निर्माण में षट्कायिक-जीवों का संरभ, समारम्भ और आरम्भ होता है / वही शय्या जब खासतौर से सिर्फ निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ही गृहस्थ बनवाता है, और उसमें निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी ठहरते हैं तो वह उनके लिए 'महासावद्या' हो जाती है / वृत्तिकार ने दोनों प्रकार की शय्याओं को अकल्पनीय, अप्रासुक एवं अनेषणीय बताई हैं / महासावद्याशय्या का सेवन करने से साध द्विपक्ष-दोष का भागी होता है। पाँच प्रकार के श्रमण ये हैं—निग्गंथ-सक्क-तावस-गेरुअ-आजोव पंचहा समणा' (1) निर्ग्रन्थ, (2) शाक्य (बौद्ध), (3) तापस, (4) गैरिक और (5) आजीवक ये पांच प्रकार के श्रमण हैं। जहाँ गृहस्थ केवल अपने निमित्त अपने ही विशिष्ट प्रयोजन के लिए विभिन्न मकानों का निर्माण कराता है, उसमें आरम्भजनित क्रिया उस गृहस्थ को लगती है, साधु तो उसमें विहार करता हुआ आकर अनायास-सहज रूप में ही ठहर जाता है, मासकल्प या चातुर्मास कल्प बिताता है तो उसके लिए वह अल्पक्रिया-शय्या निर्दोष है, कल्पनीय है। यहाँ वृत्तिकार 'अल्प' शब्द को अभाववाचक मानते हैं / तात्पर्य यह है कि जिस आवासस्थान के निर्माण में साधु को आधाकर्मादि कोई दोष नहीं लगता. कोई क्रिया नहीं लगती, वह परिकर्मादि से मुक्त सावधक्रियारहित शय्या है / उस उपाश्रय में निरवद्य क्रियाएँ साधु करता है, इसलिए शास्त्रकार ने मूल में इसका नाम 'अल्पक्रिया' न रखकर 'अल्पसावधक्रिया' रखा है। 'उडुबद्धियं' आदि पदों के अर्थ ---उडुबद्धियं ऋतुबद्धकाल-शेषकाल यानी चातुर्मास छोड़कर आठ मास, मासकल्प, वासावासियं -- वर्षावास सम्बन्धी काल-चातुर्मास काल या चातुर्मास कल्प / उवातिणित्ता - व्यतीत करके, अपरिहरित्ता-परिहार न करके, यानी अन्यत्र न बिताकर / सड्ढा = श्राद्ध-श्रावक गण या श्रद्धालु भक्तजन / आएसणाणि= लुहार, सुनार आदि की शालाएँ, आयतणाणि=-देवालयों के पास बनी हुई धर्मशालाएं या कमरे / सभा- वैदिक आदि लोगों की शालाएँ, पणियगिहाणि-दूकानें, पणियसालाओ--विक्रय वस्तुओं को रखने के गोदाम, कम्मंताणि कारखाने, दम्भ-दर्भ, बब्भ वधं =चमड़े की बरत-रस्सा, वव्व या वक्क = वल्कल-छाल / सेलोवट्ठाण=पाषाणमण्डप, भवणगिहाणि भूमिगृह, तलघर / पाहुडेहि = Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध उपहार रूप में प्राप्त, भेंट दिये हुए गृह, वट्टति = उपयोग में लाते हैं / वहवे समणजाते अनेक प्रकार के श्रमणों-पंचविध श्रमणों को, एमं समणजातं सिर्फ एक प्रकार के निर्गन्थ श्रमणवर्ग को, उवागच्छति आकर रहते हैं, ठहरते हैं। 'छावणतो' का तात्पर्य है--संयमी साधु के लिए गृहस्थ मकान पर छप्पर छाता है, या मकान पर छत डालता है। संथार-दुवारपिहणतो- का तात्पर्य है--साधु के लिए ऊबड़-खाबड़ संस्तारक भूमि-सोने की जगह को समतल करवाता है, तथा द्वार को बन्द करने या ढकने के लिए कपाट आदि बनवाता है। या द्वार को बन्द करवाता है। दुपक्खं ते कम्म सेवंति-वृत्तिकार ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है "द्रव्य स वे साधुओषी हैं, किन्तु साधु जीवन में आधाकर्म-दोष युक्त उपाश्रय (वसति) के सेवन के कारण भाव से गृहस्थ हैं। एक ओर राग और एक ओर द्वेष है, एक ओर ईर्यापथ है तो दूसरी ओर साम्परायिक है, इस प्रकार द्रव्य से साधु के और भाव से गृहस्थ के कर्मों का सेवन करने के कारण वे 'द्विपक्षकर्म' का सेवन करते हैं। एगपषख ते कम्म सेवंति-वे (साधु) एक पक्षीय यानी साध-जीवन के लिए कल्पनीय, उचित, उपयुक्त कर्म (कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, शयनासनादि क्रियाएँ) करते हैं। 442. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / सूत्र 442. यह (शय्यषणाविवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए (ज्ञानादि आचारयुक्त भिक्षुभाव की) समग्रता है। / बीओ उद्देसओ समत्तो॥ तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक उपाश्रय-छलना-विवेक 443. से य गो सुलभे' फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो य खलु सुद्ध इमेहि पाहु.हि, तंजहा -छावणतो लेवणतो संथार-दुवार पिहाणतो पिंडयातेसणाओ। से य भिक्खू चरियारते ठाण 1. से य जो सुलभे० आदि पंक्तियों का रहस्यार्थ चूर्णिकार के शब्दों में संबंधो अफासुगाणं विवेगो, फासुगाणं गहणं वसहीणं / से य णो सुलभे फासुए उबस्सए / आहारो सुहं सोहिज्जति, वसही दुक्खं उछ अण्णातं अण्णातेण, कतरे उछ ? अहेसणिज्जे जहा एसणिज्जे / सड्ढो पुच्छति उज्जुगं साहुं--किमत्य साहुणो ण अच्छंति ? भणति-पडिस्सतो पत्थि Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 443 147 रते णिसीहियारते सज्जा-संथार-पिंडवातेसणारते, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुकडा' णियागपडिवण्णा अमायं कुब्वमाणा वियाहिता। संतेगतिया पाहुडिया उक्खित्तपुया भवति, एवं णिविखत्तपुवा भवति, परिभाइयपुव्वा भवति, परिभुत्तपुब्वा भवति, परिद्ववियपुन्या भवति, एवं वियागरेमाणे समिया वियागरेइ ? हंता भवति / 443. वह प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है। और न ही इन सावद्यकर्मों (पापयुक्त क्रियाओं) के कारण उपाश्रय शुद्ध (निर्दोष) मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने-पोतने मे, कही संस्तारक भूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर-गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार बनाकर देने से एषणादोष लगाने के कारण। कदाचित उक्त दोषों से रहित उपाश्रय मिल भी जाए, फिर भी साधु की आवश्यक अप्पणो व गाउपडिस्सयं करेउ (इ?), एवं नो सुलभे फासुए उछे। ण य सुद्ध इमेहि पाहुडेहि ति कारणेहि, काणि वा ताणि? छावणं गलमाणीते कुड्डमाणीते, भूमीते वा लेवणं, संथारओ उयट्टगो दुवारा खुड्डगा महल्लगा करेंति, पिहणं धाडस्स दारस्स बा, पिंडवातं वा मम गिण्ह. ण दोसा।" अर्थात् यहाँ प्रसंग अप्रासुक उपाश्रयों का विवेक और प्रासुकों का ग्रहण करना है। वही प्रासुक उपाश्रय सुलभ नहीं है / आहार की शोध सुखपूर्वक हो सकती है, यसति की दुःखपूर्वक / कोई श्रावक भद्र साधु से पूछता है साधु इस गाँव में क्यों नहीं टिकते ? वह कहता है---उपाश्रय नहीं है / साधु के लिए श्रावक उपाश्रय बनवाते हैं। इस कारण प्रासुक और उंछ उपाश्रय सुलभ नहीं हैं। इन सावध युक्त कारणों (प्राभूतों) से उपाश्रय शूद्ध (निर्दोष) नही रहता-वे कौन से कारण हैं? वे ये हैं--साधु के लिए मकान के गले (ऊपर के सिरे) से लेकर या दीवार से लेकर उस पर छप्पर छा देना, या छन डाल देना, जमीन फस) पर लोपना, रास्तारक भूमि का कूट-पीट कर चूर-चूर कर डालना, छोटे दरवाजों को बड़े बनाना, बाड़े या दरवाजे को ढकना या किवाड़ बनाना, फिर शय्या नर गृहस्थ की ओर आहार लेने का आग्रह, न लो तो द्वषभाव / ये सब सावद्यकम रूप कारण हैं। 1. 'उज्जुकडा' के स्थान पर पाठान्तर है- उज्जुयकडा, उज्जयडा, उजुअडा, उज्जया आदि। 2. णियागपडिवण्णा का अर्थ चर्णिकार ने किया है-चरित्तपडिवण्णा चारित्रप्रतिपन्न-मोक्षार्थो। 3. उक्खित्तपुव्वा आदि पदों की व्याख्या चणिकार के शब्दों में देखिए-“सो गिहत्थो मज्झ अस्सिं भत्ति, एकेषां एगता उक्खित्तपुच्या पढमं साहूण उक्खिवति अग्रे भिक्खं हिंडताणं........."उक्खित्तपुवा, मा एतं चरगादीणं देह / परिभुत्तपुरवा तं अपणा भुंजंति साहूण य देति, परिवियपुवा अच्चणियं करेंति / " -"अर्थात् वह गृहस्थ यों सोचकर कि मेरी इन पर भक्ति है. कई साधुओं के लिए पहले से उस मकान को अलग स्थापित कर (रख) देता है; भिक्षा के लिए घमते हुए साधुओं को देखकर कहता है"यह मकान चरकादि परिव्राजकों को मत देना, ऐसी शय्या उत्क्षिप्तपूर्वा है। परिभुत्तपुल्वा-- जिसका पहले स्वयं उपभोग कर लेता है, किर साधुओं को देता है। परिवियपुवा–साधुओं के लिए खाली कराकर उस मकान को अर्चनीय-सुन्दर बना देता है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--- द्वितीय श्रुतस्कन्ध क्रियाओं के योग्य उपाश्रय मिलना कठिन है, क्योंकि) कई साधु बिहार चर्या-परायण हैं, कई कायोत्सर्ग करने वाले हैं, कई स्वाध्यायरत हैं, कई साधु (वृद्ध, रोगी, अशक्त आदि के लिए) शय्या-संस्तारक एवं पिण्डपात (आहार-पानी) की गवेषणा में रत रहते है। इस प्रकार संयम या मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए कितने ही सरल एवं निष्कपट साधु माया न करते हुए उपाश्रय के यथावस्थित गुण-दोष (गृहस्थों को) बतला देते हैं। कई गृहस्थ (इस प्रकार की छलना करते हैं), वे पहले से साधु को दान देने के लिए उपाश्रय बनवा कर रख लेते हैं, फिर छलपूर्वक कहते हैं.--'यह मकान हमने चरक आदि परिबाजकों के लिए रखें छोड़ा है, या यह मकान हमने पहले से अपने लिए बना कर रख छोड़ा है, अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीजों को देने के लिए रखा है, दूसरों ने भी पहले इस मकान का उपयोग कर लिया है, नापसन्द होने के कारण बहुत पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है। पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस मकान (उपाश्रय) का उपयोग कर सकते हैं।" विचक्षण साधु इस प्रकार के छल को सम्यक्तया जानकर दोषयुक्त मालूम होने पर उस उपाश्रय में न ठहरे। (शिष्य पूछता है....) “गृहस्थों के पूछने पर जो साध इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता है, क्या वह सम्यक् कहता है ?" (शास्त्रकार उत्तर देते हैं--) 'हां, वह सम्यक् कथन करता है।' विवेचन--उपाश्रय-गवेषणा में छला न जाए-इस सूत्र में सरलप्रकृति भद्र साधु को उपाश्रय गवेषणा के सम्बन्ध में होने वाली छलना से सावधान रहने का निर्देश किया है। वृत्तिकार ने इस सूत्र की भूमिका के रूप में साधु और गृहस्थ का संवाद योजित किया है-कदाचित ग्राम में भिक्षा के लिए या उपाश्रय के अन्वेषणार्थ किसी साधु को गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते देख कोई श्रद्धालु भद्र गृहस्थ यह कहे कि "भगवन् ! यहाँ आहार-पानी की सुलभता है, अत आप किसी उपाश्रय की याचना करके यहीं रहने की कृपा करें। इसके उत्तर में साधु यह कहता है-.."यहां प्रासुक आहार पानी मिलना तो दुर्लभ नहीं है, किन्तु जहाँ आहार पानी का उपयोग किया जाए ऐसा प्रासुक (आधाकर्म आदि दोषों से रहित) उंछ (छादन-लेपनादि उत्तरगुण-दोष रहित) तथा एषणीय (मूलोत्तर-गुण-दोष रहित) उपाश्रय मिलना दुर्लभ है।" मूलोत्तर-गुण-विशुय उपाश्रय (शय्या)--वृत्तिकार ने (1) मूलगुण-विशुद्ध, (2) उत्तरगुणविशुद्ध एवं (3) मूलोत्तरगुण-विशुद्ध, यों तीनों प्रकार की वसति (उपाश्रय) की व्याख्या इस प्रकार की है पट्ठी वंसो दो धारणाओ चतारि मूलवेलीओ। मूलगुणेहिं विसुद्धा एसा आहागडा वसही // 1 // Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 443 146 वंस कडणोपण-छायण-लेवण-दुवारभूमीओ। परिकम्मविष्पमुक्का एसा मूलुत्तरगणेस // 2 // दुमिअ-धूपिअ-वासिअ-उज्जोविअ बलिकडा अ वत्ता य। सित्ता सम्मट्ठा वि अ बिसोहि-कोडोगया वसही / / 3 // मूलुत्तरगुणसुद्ध घी-पसु-पंडग-विवज्जियं बसहि / सेवेज्ज सम्वकालं, विवज्जऐ हुति दोसा उ // 4 // -पुट्ठी, बांस, दो धारण और चार मूल वल्लियां, इस सामग्री से स्वाभाविक रूप से गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनायी हुई यह वसति (वासस्थान) मूल गुणों से विशुद्ध है। -तथा बांस चटाई, काष्ठ का हाता, छादन-लेपन, द्वार निर्माण, भूमि सम करना आदि परिकम्र्मों से विमुक्त जो वसति है, वह भी मूलोत्तरगुण-विशुद्ध है। गृहस्थ द्वारा अपने लिए सफेद की हुई, धुएं से काली, धूप से सुवासित, प्रकाश की हुई बलि की हुई, उपयोग में ली हुई, सींची हुई, घिस कर चिकनी की हुई वसति भी विशुद्धि की कोटि के अन्तर्गत है। साधु को सदा मूल और उत्तर गुणों से शुद्ध तथा स्त्री-पशु-नपुसक रहित वसति का सेवन (उपयोग) करना चाहिए, इससे विपरीत होने पर वह दोष युक्त हो जाती है।' शुद्ध-निर्दोष बसति के लिए सर्व प्रथम तीन बातें अपेक्षित हैं—१. प्रासुक 2. उंछ और 3. एषणीय / अर्थात-क्रमशः (1) आधाकर्मादिदोष से रहित, (2) छादनादि उत्तरगण-दोष से रहित और (3) मूलोत्तरगुण-रहित होनी चाहिए। इन तीनों के अतिरिक्त वह साधु की आवश्यक क्रियाओं के लिए उपयुक्त भी होनी चाहिए। इसीलिए निर्दोष एवं उपयुक्त वसति का मिलना दुर्लभ बताया है।' मुनि अन्धभक्ति के चक्कर में न आए-किसी सरल निष्कपट मुनि से उपाश्रय के दोषों को जानकर कोई अन्धभक्त (अति श्रद्धालु) गृहस्थ मुनि को उपाश्रय बनाकर भेंट देने के लिए चालाकी से अनेक प्रकार से उसकी निर्दोषता सिद्ध कर देता है यथा--(१) पहले हमने परिव्राजकों के लिए बनाया था, (उत्क्षिप्तपूर्वा) (2) या पहले हमने अपने लिए बनाया था, (निक्षिप्तपूर्वा) (3) पहले हमने अपने भाई-भतीजों को देने के लिए रखा था (परिभाइयपुव्वा) (4} हमने या दूसरों ने इसका उपयोग भी पहले कर लिया है, (परिभुत्तपुवा) (5) नापसंद होने के कारण बहुत पहले से हमने इसे छोड़ दिया है (परिट्ठवियपुवा)।"3 विचक्षण मुनि गृहस्थ के इस प्रकार के वाग्जाल में न फंसे, वह सम्यक् रूप से छानबीन करे, यही शास्त्रकार का आशय है। पिंडवातेसणाओ का तात्पर्य वृत्तिकार बताते हैं किसी गृहस्थ से आज्ञा लेकर उसके उपाश्रय में निवास करने पर वह (शय्यातर) साधु के लिए भक्तिवश आहार बनवाकर मुनि 1. आचारांगवृत्ति, पत्रांक 368 2. वही, पत्रांक 368 3. वही, पत्रांक 366 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध में लेने का आग्रह करता है, लेन पर मुनि को शय्यातरपिण्ड-ग्रहण नामक दोष लगता है, न लेने पर मुनि के प्रति उसके मन में रोष, द्वष, अवज्ञा आदि होना संभव है। वियागरमाणे समिया विधागरेइ ?' इस पंक्ति का आशय चूर्णिकार यों बताते है-उयाश्रय के गुण-दोष बताने वाला निष्कट भद्र साधु सम्यक् कथन करता है ? अर्थात् कर्म बन्धन से लिप्त तो नहीं होता ? इसके उत्तर में कहते हैं, हां वह ठीक ही कहता है," अर्थात् कर्मबन्ध से लिप्त नहीं होता।' निष्कर्ष यह है कि भावुक गृहस्थ साधु के कथन पर से उपाश्रय निर्माण के लिए जो भी आरम्भ-समारम्भ करता है, उस पापकर्म का भागी उपाश्रय के दोष बताने वाला साधु नहीं होता। उपाश्रय में यतना के लिए प्रेरणा - 444. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा-खुड्डियाओ खुड्डदुवारियाओ णितियाओ संणिरुद्धाओ भवंति, तहप्पगारे उवस्सए राओ वा वियाले वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा पुराहत्थेण पच्छापाएण ततो संजयामेव णिक्खमेज्ज वा पक्सेिज्ज वा। केवलो बूया आयाणमेतं / जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए वा डंडए 1. आचारांग चूणि में देखिये- म एवं साहू अक्वायमाणो सम्यक् अक्वाति. ण लिपति कम्मबंधेण ? अस्स गाहा (1) वागरण-हता ! सम्यक भणति, ण लिप्पति कम्मबंधेण इत्यर्थः / 2. खुड्डियाओ आदि पदों की व्याख्या चूणि में इस प्रकार है-खुड़ि खुड्डि एव दुवार संनिरुद्ध खुङलग वा / णिच्चिताओ, ग उच्चाओ। संनिरुद्धा साधुहिं अग्नेहि वा भरितिया, अहवा खुड्डलिया चैव भण्णं ति संणिरुद्धया। एतास दिवा विण कम्पति. कारणठियाणं, जयणा। राति--विगाला भणिता। पुराहत्थेण रयहरणेण, हत्योपचारं कृत्वा / पच्छा पादं करेज्जा।" अर्थात्-खुड्डि:छोटा दुबारं:-द्वार है. संनिरुद्ध-बंद है, अथवा क्षुद्रक है। णिच्चिताओ==ॐ'चा नहीं है। संनिरुद्धा--दूसरे साधुओं से भरा पड़ा है. अथवा छोटे-से मकान को ही संनिरुद्यक-चारों ओर से बंद कहते हैं। ऐसे मकानों में दिन में भी रहना नहीं कल्पता। कारणवश रहने वाले साधुओं के लिए यह यतना रात्रि और विकाला (सन्ध्या) के लिए बताई है। पुराहत्येण रजोहरण से हाथ का उपचार करके पहले टटोले, पच्छापाएण-फिर पैर उठाए। 3. "जे तत्थ समणाण वा-, आदि पदों की व्याख्या चणि में इस प्रकार की है-के च दोसा? समणा पंच, माहणा धीयारा अहवा सावगा, छत छत्तमेव, मत्तए उच्चारादि, भण्डए वा पादणिज्जोगो सम्वं वा उवगरणं, लट्ठी आयप्पमाणा, भिसित्ता कट्ठमयी, मिसिगाभिसिगा चेव, चेलग्गहणा वत्थं, च (छि) लिमणी दोरो. चम्मए मिगचम्म उवाहणाओवा, चम्मकोसओ खल्लओ अंगुटठकोसए वर, चम्मच्छेदणयं-- बम्भो।"-- ---- अर्थात्-वे दोप कौन-से ? समणा-५ प्रकार के श्रमण , माहणा- ब्राह्मण या श्रावक, छत्त= छत्रक (छाता), मत्तए= उच्चारादि के लिए तीन भाजन, भंडए - पात्र-निर्योग (पात्र व इससे सम्बन्धित सामान) या समस्त उपकरण, लट्ठी-अपनी ऊंचाई के बराबर, भिसिता-काष्ठमय आसन अथवा ऋमि-आमन (वृषिका), चेल =वस्त्र, निलमिरी--रस्सा या मछरदानी, यवनिका / Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 404 151 वा लट्ठिया वा भिसिया वा णालिया वा चेले वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मच्छेदणए वा दुबद्ध दुणिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले, भिक्खू य रातो वा वियाले वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव इंदियजातं वा लूसेज्ज वा पाणाणि वा 4 अभिहणेज्ज वा जाव ववरोवेज्ज वा। अह भिक्खूणं पुवोदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए पुराहत्येण पच्छापादेण ततो संजयामेव णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा / 444. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा है, या छोटे द्वारों वाला है, तथा नीचा है, या नित्य जिसके द्वार बन्द रहते हैं, तथा चरक आदि परिबाजकों से भरा हआ है। इस प्रकार के उपाश्रय में (कदाचित् किसी कारणवश साधु को ठहरना पड़े तो) वह रात्रि में या विकाल में भीतर से बाहर निकलता हुआ या बाहर से भीतर प्रवेश करता हआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैरो संयम (यतना) पूर्वक निकले या प्रवेश करे। केवली भगवान् कहते हैं—(अन्यथा) यह कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वहाँ पर शाक्य आदि श्रमणों के या ब्राह्मणों के जो छत्र, पात्र, दंड, लाठी, ऋषि-आसन (वृषिका), नालिका (एक प्रकार की लम्बी लाठी या घटिका), वस्त्र, चिलिमिली (यवनिका, पर्दा या मच्छरदानी) मृगचर्म, चर्मकोश, (चमड़े की थैली) या चर्म-छेदनक (चमड़े का पट्टा) हैं, वे अच्छी तरह से बंधे हुए नहीं हैं, अस्त-व्यस्त रखे हुए हैं, अस्थिर (हिलने वाले हैं, कुछ अधिक चंचल है, (उनकी हानि होने का डर है)। रात्रि में या विकाल में अन्दर से बाहर या बाहर गे अन्दर (अयतना से) निकलता-घुसता हुआ साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े (तो उनके उक्त उपकरण टूट जाएंगे) अथवा उस साधु को फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ, पैर सिर या अन्य इन्द्रियों (अंगोंपांगो) के चोट लग सकती है या वे टूट सकते हैं, अथवा प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को आघात लगेगा, वे दब जाएंगे यावत् वे प्राण रहित हो जाएंगे। इसलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले ये ग्रह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि इस प्रकार के (संकड़े छोटे और अन्धकारयुक्त) उपाश्रय में रात को या विकाल में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए, तथा यतनापूर्वक भीतर से बाहर या बाहर से भीतर गमनागमन करना चाहिए / चम्मए मृगचर्म अथवा चमड़े के जते / चम्मकोसओ-चमड़े का थैला, खनीता या चमडे का मौजा, चम्मच्छेदणए चमड़े का वस्त्र/पट्टा / / 1. चमच्छेदनक-एक प्रकार का चर्म डोरा, जो दो वस्त्र खण्ड को जोड़ने के काम में आता था। देखें--चम्मपरिच्छेयणग-वधं नद विछिन्नसंधानार्थ अथवा द्विखण्ड-संधानहों घ्रियते—व्यवहार सूत्र उ० = वृत्ति (अभिः भाग 3. पृ० 1123) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 आचारांग सूत्र---द्वितीय अ तस्कन्ध विवेचन--उपाश्रयनिबास के समय विवेक और सावधानी—इस सूत्र में निर्दोष उपाश्रय मिलने पर भी तीन बातों की ओर साधु का ध्यान खींच गया है-(१) छोटे संकीर्ण, नीचे दरवाजों वाले या नीची छत के या अंधेरे वाले उपाश्रय में बिना कारण न ठहरे, (2) जहाँ पहले से ही अनेक अन्यमतीय श्रमणों या माहनों की भीड़ हो, वहाँ भी बिना कारण न ठहरे, (3) कारण वश ऐसे मकान में ठहरना पड़े तो रात में या सन्ध्याकाल में जाते-आते समय किसी वस्तु या व्यक्ति के जरा-सी भी ठेस न लगाते हुए हाथ या रजोहरण से टटोल कर चले, अन्यथा वस्तु को या दूसरों को अथवा स्वयं को हानि पहुंचाने की सम्भावना है। इस प्रकार के विवेक और सावधानी बताने के पीछे शास्त्रकार का आशय अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा से है / अन्य श्रमणों या भिक्षाचरों को भी निर्ग्रन्थ साधुओं के व्यवहार से जरा सा भी मनोदुःख न हो, न घृणा हो, साथ ही अपना भी अंग-भंग आदि होने से आर्तध्यान न हो, इसी दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र में विवेक और सावधानी का निर्देश है।' उपाश्रय-याचना विधि 445. से आगंतारेसु वा 4 अणुवीयो उवस्सयं जाएज्जा / जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाधिट्ठाए' ते उवस्मयं अणुण्णवेज्जा--कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो, जाव आउसंतो, जाव आउसंतस्स उवस्सए, जाव साहम्मिया, एत्ताव ता उवस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। 446. से भिक्खू वा 2 जस्सुवस्सए संवसेज्जा तस्स पुटयामेव णामगोतं जाणेज्जा, तओ 1. आचरांग बृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर, 2. 'आगंतारेसु वा' के बाद '4' का चिन्ह सूत्र 432 के 'आगंतारेसु वा' से 'परियावसहेसु' तक के पाठ का सूचक है। 3. जाएज्जा के स्थान पर जाणेज्जा पाठ किसी-किसो प्रति में मिलता है। 4. समाधिहाए के स्थान पर समाहिठाए पाठ मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं—समाहिहाए = पभुसंदिट्ठो-स्वामी के द्वारा आदिष्ट नियुक्त। 5. जाब साहम्मिया आदि पंक्ति की व्याख्या करते हुए चूणिकार कहते हैं---"जत्तिया तुम इच्छसि जे वा तुम भणसि णामेणं असुओ गोलणं विसेसितो, कारणे एवं, णिक्कारणे ण ठायंति, तेण पर जति तुम उविट्टिज्जिहिसि ण वा तव रोइहिहि उवस्सओ वा भज्जिहिति परेण विहरिस्सामो।" -जब तक तुम चाहते हो, या जिन साधुओं का नाम लेकर अथवा जिस गौत्र से विशिष्ट बताया है. वे कारणवश उतने ही, उसी (उतने ही) स्थान में ठहरेंगे, बिना कारण नहीं रहेंगे। उस अवधि के पश्चात् यदि तुम इसे खाली कराओगे, या तुम्हें पसन्द न होगा या उपाश्रय का दूसरे कोई उपयोग करेंगे, तो हम विहार कर देंगे।" णामगोत्त' जाणेज्जा का आशय चूणिकार बताते हैं---णामगोत जाणेत्ता-----भत्तपाणं ण गिहिति।" साधु (शय्यातर का) नाम-गोत्र जान कर-उसके घर का आहार-पानी नहीं लेता है। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 446 पच्छा तस्स गिहे णिमंतेमाणस्स वा अणिमंतेमाणस्स वा असणं वा 4 अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा / __445. वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिवाजकों के मठों आदि को देख-जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? आदि बातों का विचार करके फिर (इनमें से किसी) उपाश्रय की याचना करे / जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, (या स्वामी द्वारा नियुक्त) समधिष्ठाता है. उसमे आज्ञा मांगे और कहे---'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार जितने काल तक और (इस उपाश्रय का) जितना भाग (स्थान) आप (ठहरने के लिए) देना चाहें, उतने काल तक, उतने भाग में हम रहेंगे।" गृहस्थ यह पूछे कि "आप कितने समय तक यहाँ रहेंगे ?" इस पर मुनि उत्तर दे-- "आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! [वेसे तो कारण विशेष के बिना हम ऋतुबद्ध (शेष) काल में एक मास तक और वर्षाकाल में चार मास तक एक जगह रह सकते हैं; किन्तु] आप जितने समय तक और उपाश्रय के जितने भाग में ठहरने की अनुज्ञा देंगे, उतने समय और स्थान तक में रहकर फिर हम विहार कर जाएगे। इसके अतिरिक्त जितने भी सार्मिक साधु (पठन-पाठनादि कार्य के लिए) आए गे, वे भी आपकी अनुमति के अनुसार उतने समय और उतने भाग में रहकर फिर विहार कर जाएंगे।" 446. साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय में निवास करें, उसका नाम और गोत्र पहले से जान लें। उसके पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने (बुलाने) या न करने (न बुलाने) पर भी उसके घर का अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक-अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। विवेचन-उपाश्रय-याचना और निवास के पश्चात्-सूत्र 445 में उपाश्रय-याचना के पूर्व और पश्चात् की व्यावहारिक विधि बताई गई है। उपाश्रय-याचना से पूर्व साधु उसकी प्रासुकता, एषणीयता, निर्दोषता तथा उपयोगिता की भलीभाँति जांच-परख कर लें, साथ ही उसके स्वामी तथा स्वामी द्वारा नियुक्त अधिकारी की जानकारी कर लें; सम्भव है, वह नास्तिक हो, साधु-द्वेषी हो, अन्य सम्प्रदायानुरागी हो, देना न चाहता हो। इतनी बातें अनुकूल हो, तब साधु उस मकान के स्वामी या अधिकारी से उपाश्रय की याचना करे। एक बात का विशेष ध्यान रखे कि वह मुनियों की निश्चित संख्या न बताए।' (क्योंकि दूसरे साधुओं का आवागमन होता रह सकता है-कभी कम, कभी अधिक भी हो सकते हैं।) उपाश्रय याचना के बाद स्वीकृति मिलते ही उस उपाश्रय स्थान के दाता (शय्यातर) का नाम-गोत्र तथा घर भी जान ले ताकि उसके घर का आहार-पानी न लेने का ध्यान रखा जा सके / यही सूत्र 446 का आशय है / -- -- - 1. आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 370 के आधार पर। 2. वही, पत्रांक 370 / Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निषिद्ध उपाश्रय 447. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उक्स्सयं जाणेज्जा सागारियं सागणियं सउदयं, जो पण्णस्स' णिक्खमण-पवेसाए णो पण्णस्स वायण जाव' चिताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा३चेतेज्जा। 448. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा गाहावतिकुलस्स मशंमज्झणं गंतुं वत्थए पडिबद्धवा, णो पण्णस्स णिक्खमण जाध+ चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा / 446. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण उवस्सयं जाणेज्जा--इह खलु गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा जाव 'उद्दवेंति वा, णो पण्णस्स जाव' चिताए। से एवं णच्चा तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा / 450. से भिक्खू वा से ज्ज पुण उवस्सयं जाणेज्जा-इह खलु गाहावतो वा जाव कम्मकरोओ वा अण्णमण्णस्स गातं तेल्लेण वा घएण वा गवणीएण वा वसाए वा अन्भंगे [गें] ति वा मक्खे [क्खें] ति वा, णो पण्णस्स जाव' चिताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 451. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा--इह खलु गाहावतो वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्त गायं सिणाणेण वा कक्केण वा लोद्ध ण वा वण्णेण वा चुण्णण वा पउमेण वा आघसंति वा पघंसंति वा उव्वलेंति वा उन्वर्टेति वा, णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसे जाव णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 452. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा-इह खलु गाहावती वा जाव 1. 'णो पण्णस्स' आदि पाठ की व्याख्या चर्णिकार यों करते हैं-'पण्णो आरिओ अहवा वि जाणओ, तस्स पण्णस्स ण भवति निष्क्रमण-प्रवेश-संकट इत्यर्थः। वायण-पुच्छण-परियट्टण-धम्माणुओगचिताए सागारिए ण ताणि सक्कंति करेउ', तम्हा अणादीणि ण कुज्जा / ' -अर्थात् पण्ण का अर्थ है, आचार्य (प्रज्ञ) अथवा विद्वान्, ज्ञायक, उस प्राज्ञ का निष्क्रमण और प्रवेश उचित नहीं है। वाचना, प्रच्छना, पर्यटना, धर्मानुयोगचिन्ता आदि गृहस्थ परिवारयुक्त उपाश्रय में नहीं किए जा सकते, इसलिए स्थानादि कार्य वहाँ न करे। 2. पवेसाए के स्थान पर पविस्साए, पविताए और पबिसणाए पाठान्नर हैं। + इस चिन्ह से जाब शब्द से निक्खमण से लेकर धम्माणओगचिताए तक का पाठ सूत्र 348 के अनुसार। 3. अक्कोसंति के बाद जाव शब्द अक्कोसंति से लेकर उद्दवेंलि तक के सारे पाठ का सूचक है, सूत्र 422 के अनुसार। 4. किसी-किसी प्रति में 'वसाए वा' पाठ नहीं है। 5. यहाँ जाव शब्द से 'पबेसे' से लेकर णो ठाणं वा तक का पूर्ण पाठ समझें / Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 447-54 कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेंति वा पधोति' वा सिंचंति वा सिणाति वा, णो पण्णस्स जाव णो ठाणं वा 2 चेतेज्जा। 453. इह खलु गाहावतो वा जाव कम्मकरीओ वा णिगिणा ठिता णिगिणा उवल्लीणा मेहुणधम्म विण्णवेति रहस्सियं वा मंतं मंतेति, णो पण्णस्स जाव' णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 454. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा आइण्णं सलेक्ख, णो पण्णस्स जाव' णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 447. वह साधु या साध्वी यदि ऐस उपाश्रय को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो, सचित्त जल से युक्त हो, तो उसमें प्राज्ञ साधु-साध्वी को निर्गमन-प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही एसा उपाश्रय वाचना, (पृच्छा, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग-) चिन्तन के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, (शयन-आसन तथा स्वाध्याय) आदि कार्य न करे / 448. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसमें निवास के लिए गहस्थ के घर में से होकर जाना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध (सटा हुआ। निकट) है, वहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना उचित नहीं है, और न ही ऐसा उपाश्रय वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे / 446. यदि साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय-बस्ती में गह-स्वामी, उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधूए, दास-दासियाँ आदि परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं—झिड़कती हैं, मारती-पीटती, यावत् उपद्रव करती है, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न तो निर्गमन-प्रवेश ही करना योग्य है, और न ही वाचनादि स्वाध्याय करना उचित है / यह जानकर साधु उस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे। __ 450. साधु या साध्वी अगर ऐसे उपाश्रय को जाने, कि इस उपाश्रय-बस्ती में गृहस्थ, उसकी पत्नी, पुत्री यावत् नौकरानियां एक-दूसरे के शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मर्दन करती हैं या चुपड़ती; (लगाती) हैं, तो प्राज्ञ साधु का वहाँ जाना-आना ठीक नहीं है और न ही वहाँ वाचनादि स्वाध्याय करना उचित है। साधु उस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे। 1. पधोवंति के स्थान पर पाठान्तर है-- पहोपंति, पहोति / अर्थ वही है। + इस चिन्ह से 'निक्खमण' से धम्माणुओचिंताए, तक का समग्र पाठ सूत्र 348 वत् / 2. इसके स्थान पर पाठान्तर हैं-आइण्ण संलेक्खे, आइन्न संलेख, आतेष्ण सलेक्खं, आइण्णसलेक्खं / अर्थ समान है। 3. तुलना कीजिए :- चित्तभिति न निज्झाए, नारि वा सुअलंकियं / भक्खरं पिव दणं दिट्रि पडिसमाहरे / / -दशव०८/५४ 4. यहाँ जाव शब्द से पण्णस्स से लेकर णो ठाणं वा तक का पाठ समझें। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 451. साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, कि इस उपाश्रय में गृहस्वामी यावत् नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे के शरीर को स्नान करने योग्य पानी से, कर्क से, लोध से, वर्णद्रव्य से, चूर्ण से, पद्म से मलती हैं, रगड़ती हैं, मैल उतारती हैं, उबटन करती हैं; वहाँ प्राज्ञ साधु का निकलना या प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही वह स्थान वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है / ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे। 452. वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय --बस्ती में गृहस्वामी, गृहस्थ पत्नी, पुत्री, यावत् नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे के शरीर पर प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से छींटे मारती हैं, धोती हैं, सींचती हैं, या स्नान कराती हैं, ऐसा स्थान प्राज्ञ के जाने-आने या स्वाध्याय के लिए उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थानादि क्रिया न करे / 453. साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसकी बस्ती में गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्रियां यावन् नौकरानियाँ आदि नग्न खड़ी रहती हैं या नग्न बैठी रहती है, और नग्न होकर गुप्त रूप से मैथुन-धर्म विषयक परस्पर वार्तालाप करती हैं, अथवा किसी रहस्यमय अकार्य के सम्बन्ध में गुप्त-मंत्रणा करती हैं, तो वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन-प्रवेश या वाचनादि स्वाध्याय करना उचित नहीं हैं। इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्गादि क्रिया न करे। 454. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने जो गृहस्थ स्त्री-पुरुषों आदि के चित्रों से सुसज्जित है, तो ऐसे उपाश्रय में प्राज्ञ साधु को निर्गमन-प्रवेश करना या वाचना आदि पंचविध स्वाध्याय करना उचित नहीं है। इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे। विवेचन—निषिद्ध उपाश्रय-सूत्र 447 से 454 तक आठ सूत्रों में आठ प्रकार के उपाश्रयों के उपयोग का निषेध किया गया है (1) वह उपाश्रय, जो गृहस्थ, अग्नि और जल से युक्त हो। (2) जिसमें प्रवेश के लिए गृहस्थ के घर के बीचोबीच होकर जाना पड़ता हो, या जो गृहस्थ के घर से बिलकुल लगा हो। (3) जिस उपाश्रय-बस्ती में गृहस्थ तथा उससे सम्बन्धित पुरुष स्त्रियाँ परम्पर एक दूसरे को कोसती, लड़तीं, उपद्रव आदि करती हों। (4) जिस उपाश्रय-बस्ती में गृहस्थ पुरुष-स्त्रियाँ एक दूसरे के तेल आदि की मालिश करती हों, चुपड़ती हों। (5) जिस उपाश्रय-बस्ती में पुरुष-स्त्रियाँ एक दूसरे के शरीर पर लोध, चूर्ण, पद्म द्रव्य आदि मलती, रगड़तीं, उबटन आदि करती हों। (6) जिस उपाश्रय के पड़ोस में पुरुष-स्त्री परस्पर एक दूसरे को नहलाते-धुलाते हों। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 847-54 157 (7) जिस उपाश्रय के पड़ोस में पुरुष-स्त्रियाँ नंगी खड़ी-बैठी रहती हों, परस्पर मैथुन विषयक वार्तालाप करती हों, गप्त मंत्रणा करती हों। (8) जिसकी दीवारों पर पुरुष-स्त्रियों के, विशेषतः स्त्रियों के चित्र हो।' ...."मसंमज्झेण गंतु वत्थए पडिबद्ध' इस पंक्ति में 'वत्थए' के बदले ‘पंथए' पाठ मानकर वृत्तिकार इसकी ब्याख्या करते है--जिस उपाश्रय का मार्ग गृहस्थ के घर के मध्य में से होकर है, वहाँ बहुत-से अनर्थों की सम्भावना के कारण नहीं रहना चाहिए। किन्तु बृहत्कल्पसूत्र में इससे सम्बद्ध दो पाठ हैं, उनमें 'वत्थए' पद हैं। 'नो कप्पइ निगंथाण पडिबद्धसेज्जाए क्त्थए', नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्शेण गंतु वत्यए / ' प्रथम सूत्र में है जिस उपाश्रय में गृहस्थ का घर अत्यन्त निकट हो, दीवाले आदि लगी हुई हों उस उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता", दूसरे में है—"गृहस्थों के घर में से होकर जिस उपाश्रय में निर्गमन-प्रवेश किया जाता हो, उसमें रहना नहीं कल्पता / 'बृहत्कल्प सूत्र के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में भी ये दोनों अर्थ प्रतिफलित होते हैं / 'इह,खलु पदों का सूत्र 444 से 453 तक प्रयोग किया गया है। इनका तात्पर्य वृत्तिकार ने इस प्रकार बताया है-यत्रप्रतिवेशिका:' जहाँ पड़ौसी स्त्री पुरुष ..... / आचारांग—अर्थागम में इसका अर्थ किया गया--'जिस उपाश्रय-बस्ती में...।' यही अर्थ उचित भी प्रतीत होता है। जहाँ उपाश्रय के निकट ये कार्य होते हों, वहाँ से साधु का जाना-आना या वहाँ स्वाध्याय करना चित्त-विक्षेप या कामोतजना होने से कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता / और न ही ऐसे मकानों के पड़ोस में निवास किया जा सकता है। "णिगिणाठिता....' इत्यादि वाक्य का भावार्थ चणिकार तथा वृत्तिकार के अनुसार यों हैं-- 'स्त्रियाँ और पुरुष नग्न खड़े रहते हैं, स्त्रियाँ नग्न ही प्रच्छन्न खड़ी रहती हैं, मैथुन-धर्म के सम्बन्ध में अविरति गृहस्थ या साधु को कहती हैं, रहस्यमयी मैथुन सम्बन्धी या मैथुन धर्म विषयक रात्रि-सम्भोग के विषय में परस्पर कुछ बातें करती हैं, अथवा अन्य गुप्त अकार्य सम्बद्ध रहस्य को मंत्रणा करती हैं। इस प्रकार के पड़ोस वाले उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि कार्य नहीं करने चाहिए।" 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 370-371 के आधार पर 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 371 (ख) वृहत्कल्पसूत्र मूल तथा वृत्ति 1 / 30, 1 / 32 पृष्ठ 737, 738 (ग) कप्पसुत्त (विवेचन) मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' 1/32-34 पृष्ठ 18-16 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 371 (ख) अर्थागम भाग 1 पृ० 112 / 5. (क) आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० १५४--"णिगिणा णग्गाओ ट्ठियाओ अच्छंति, णिगिणा तो उवलिज्जति, मेहणधम्म विन्नेति ओभासंति अविरतगं साहुं वा, रधस्सितं-मेहुणपत्तियं चेव अन्न वा किंचि गुहं / ' (ख) आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 371 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध 'आइष्णं संलेषखं' का तात्पर्य चूर्णिकार के अनुसार यों है- आइण्ण का अर्थ है-सागारिक गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) आदि से व्याप्त, सलेक्स का अर्थ है-~-चित्र कर्म से युक्त उपाश्रय / ' संस्तारक ग्रहणा-ग्रहण विवेक 455. [1] से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा संथारग एसित्तए / से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [2] से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं गरुयं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [3] से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं अप्पडिहारियं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [4] से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं पडिहारियं, णो अहाबद्ध, तहप्पगारं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। {5] से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पडं जाव संताणगं लहुयं पडिहारियं अहाबद्ध, तहप्पगारं संथारगं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा। 455. (1) कोई साधु या साध्वी संस्तारक की गवेषणा करना चाहे और वह जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो मे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। (2) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु भारी है, वैसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (3) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, किन्तु अप्रातिहारिक (दाता जिसे वापस लेना न चाहे) है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (4) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, प्रातिहारिक (दाता जिसे वापस लेना स्वीकार करे) भी है, किन्तु ठीक से बंधा हुआ नहीं है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (5) वह साधु या साध्वी, संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका है, प्रातिहारिक है और सुदृढ़ बंधा हुआ भी है, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर ग्रहण करे। विवेचन-संस्तारक ग्रहण का निषेध-विधान-इस एक ही सूत्र के पाँच विभाग करके 1. (क) 'आदिग्णो णाम सागारियमादिणा, सलेक्खो सचित्तधम्म / ' –आचा० चूणि मूलपाठ पृ०-१६४ (ख) तुलना करें--(विहार में) स्त्री, पुरुष के चित्र नहीं बनवाना चाहिए / जो बनवाए उसे दुक्कटट का दोष हो। --विनयपिटक-चुल्लवग, पृ० 455 (राहुल सां०) Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 456 156 शास्त्रकार ने स्पष्ट रूप में समझा दिया है कि जो संस्तारक जीव-जन्तु आदि से युक्त हो, भारी हो, अप्रातिहारिक हो और ठीक से बंधा हुआ न हो: उसे ग्रहण न करे, इसके विपरीत जो जीव-जन्तु आदि से रहित हो, हलका हो, प्रातिहारिक हो और ठीक से बंधा हुआ हो, उसे ग्रहण करे। वृत्तिकार अण्डे आदि से युक्त संस्तारक के ग्रहण के निषेध करने का कारण बताते हैं कि जीव-जन्तु युक्त संस्तारक ग्रहण करने में संयम-विराधना दोष होगा, भारी भरकम संस्तारक ग्रहण से आत्म-विराधनादि दोष होंगे, अप्रातिहारिक के ग्रहण से उसके परित्याग आदि दोष होंगे, ठीक से बंधा हुआ नहीं होगा तो उठाते-रखते ही वह टूट या बिखर जायगा, उसको संभालना या उसका ठीक से प्रतिलेखन करना भी सम्भव न होगा। अत: बन्धनादि पलिमन्थ दोष होंगे। लहुयं के दो अर्थ फलित होते हैं-वजन में हलका और आकार में छोटा। संथारम का संस्कृत रूप संस्तारक होता है / संस्तारक मे तात्पर्य उन सभी उपकरणों से है, जो साधु के सोने, बैठने, लेटने आदि के काम में आते हैं। प्राकृत शब्द कोष में संस्तारक के ये अर्थ मिलते हैं---शय्या, बिछौना (दर्भ, घास, कुश, पराल आदि का), पाट, चौकी, फलक, अपवरक, कमरा या पत्थर की शिला या ईट चूने से बनी हुई शय्या; साधु का वासकक्ष / संस्तारक एषणा की चार प्रतिमा 456. इच्चेताई आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा इमाहि चहि पडिमाहि संथारगं एसित्तए-- 1. [क आचारांग वृत्ति पत्रांक 371 ख संस्तारक-विवेक की पंचसूत्री का निष्कर्ष चणिकार ने इस प्रकार दिया है .--'पढमं सअंड संथारगं ण गेण्हेज्जा, बितियं अप्पंडं गल्यं तं पिण गेण्हति, ततियं अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं न गिहति, चउत्थं अप्पंडं लहुयं पाडिहारियं णो अहाबद्ध ण मेण्हेज्जा, पंचमं अप्पंड लहुगं पाडिहारियं अहाबद्ध पडिगाहिज्ज।" --अर्थात् [1] पहला सअण्ड [जीवजन्तु-सहित] संस्तारक ग्रहण न करे। [2] द्वितीय संस्तारक अण्डे रहित है, किन्तु भारी है, उसे भी ग्रहण न करे, [3] तीसरा संस्तारक अंडे से रहित है, हलका है, किन्तु अप्रातिहारिक हैं, उसे भी ग्रहण न करे। [4] चौथा संस्तारक अंडे से रहित, हलका और प्रातिहारिक भी है लेकिन ठीक से बंधा नहीं है, तो भी ग्रहण न करे / [5] पाँचवा संस्तारक अण्डों आदि से राहत, वजन में हलका, प्रानिहारिक और सुदृढ़ रूप से बंधा हुआ है, अत: उसे ग्रहण करे। 2. पाइल-सद्द-महष्णवो पृ० 841 आयतणाई के पाठान्तर हैं-आययणाई', आतताई। चर्णिकार आयपणाई पाठ स्वीकार करके व्याख्या करते हैं...--आयतणाणि वा संसारस्स अप्पसस्थाई पस्सयाई, मोक्खस्त / अर्थात-संसार के आयतन अप्रशस्त और मोक्ष के आयतन प्रशस्त होते हैं। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध [1] तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा से भिक्खूवा भिक्खुणी वा उद्दिसिय 2 संथारगं जाएज्जा, तंजहा-इक्कडं वा कढिपं वा जंतुयं वा परगं वा मोरगं वा तणगं वा कुसं वा वव्वर्ग' वा पलालगं वा / से पुवामेव आलोएज्जा--आउसो ति वा भगिणी ति वा वाहिसि मे एत्तो अण्णतरं संथारगं ? तहप्पगारं संथारगं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं एसणिज्जं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा / पढमा पडिमा। [2] अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 पेहाए संथारगं जाएज्जा, तंजहा.गाहाति वा जाव कम्मकार वा / से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भगिणी ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं संथारगं ? तहप्पगारं संथारगं सयं वा गं जाएज्जा' जाव पडिगाहेज्जा / दोच्चा पडिमा। [3] अहावरा तच्चा पडिमा से भिक्खु वा 2 जस्सुवस्सए संवसेज्जा जे तत्थ अहासमण्णागते, तंजहा--इक्कडे वा जाव पलाले वा, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा सज्जिए वा विहरेज्जा / तच्चा पडिमा। [4] अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खू वा 2 अहासंथडमेव संथारगं जाएज्जा / तंजहा-पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा सज्जिए वा विहरेज्जा / चउत्था पडिमा / 457. इच्चेताणं चउण्हं पडिमाणं अण्णतरं पडिमं पडिवज्जमाणे जाव' अण्णोण्णसमाहोए एवं च णं विहरति / सू. 456. इन दोषों (वसतिगत एवं संस्तारकगत) के आयतनों (स्थानों) को छोड़कर साधु इन चार प्रतिमाओं (प्रतिज्ञाओं) गे संस्तारक की एषणा करना जान ले (1) इन चारों में से पहली प्रतिमा यह है--साधु या साध्वी अपने संस्तरण के लिए आवश्यक और योग्य वस्तुओं का नामोल्लेख कर-कर के संस्तारक की याचना करे, जैसे इक्कड नामक तृण विशेष, कढिणक नामक तृण विशेष, जंतुक नामक तृण, परक (मुडंक) नामक घास, मोरंग नामक घास (या मोर की पांखों से बना हुआ), सभी प्रकार का तृण, कुश, कुर्चक, वर्वक नामक तण विशेष, या पराल आदि / साधु पहले से ही इक्कड आदि किसी भी प्रकार 1. वम्वगं के स्थान पर पाठान्तर हैं-पप्पलगं, पिप्पलगं पप्पगं आदि / अर्थ समान है। 2. यहाँ जाव शब्द एसणिज्जं से लाभे संते के बीच में मण्णमाणे पाठ का सूचक है। 3. यहाँ जाव शब्द से जाएज्जा से लेकर पडिग्गाहेज्जा तक समग्न पाठ सू० 336 के अनुसार समझ / 4. तस्स अलाभे के पाठान्तर हैं = तस्सालाभे, तस्स अलाभे / अर्थ समान हैं। 5. यहाँ जाव शब्द से पडिवज्जमाणे से लेकर अण्णोण्णसमाहीए तक का समग्र पाठ सूत्र 410 के अनुसार Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 456-57 161 की घास या बना हुआ संस्तारक देखकर गृहस्थ से नामोल्लेख पूर्वक कहे--आयुष्मान् सद्गृहस्थ (भाई), या बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारक (योग्य पदार्थों) में से अमुक संस्तारक (योग्य पदार्थ) को दोगे | दोगी? इस प्रकार के प्रासुक एवं निर्दोष संस्तारक की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना याचना किए दे तो साधु उसे ग्रहण करले। यह प्रथम प्रतिमा है। (2) इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यह है- साधु या साध्वी गृहस्थ के मकान में रखे हुए संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को दोगे | दोगी? इस प्रकार के निर्दोष एवं प्रासुक संस्तारक की स्वयं याचना करे, यदि दाता (गृहस्थ) बिना याचना किए ही दे तो प्रासुक एवं एषणीय जानकर उसे ग्रहण करे / यह द्वितीय प्रतिमा है।। (3) इसके अनन्तर तीसरी प्रतिमा यह है-वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय में रहना चाहता है, यदि उसी उपाश्रय में इक्कड यावत् पराल तक के संस्तारक विद्यमान हों तो गृहस्वामी की आज्ञा लेकर उस संस्तारक को प्राप्त करके वह साधना में संलग्न रहे। यदि उस उपाश्रय में संस्तारक न मिले तो बह उत्कटुक आसन, पद्मासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे / यह तीसरी प्रतिमा है। (4) इसके बाद चौथी प्रतिमा यह है-वह साधु या साध्वी उपाश्रय में पहले से ही संस्तारक बिछा हुआ हो. जैसे कि वहां तृणशय्या, पत्थर की शिला, या लकड़ी का तख्त आदि बिछा हुआ रखा हो तो उस संस्तारक की गृहस्वामी से याचना करे, उसके प्राप्त होने पर वह उस पर शयन आदि क्रिया कर सकता है। यदि वहां कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो वह उत्कटुक आसन तथा पद्मासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे / यह चौथी प्रतिमा है। 457. इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरण करने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा या अवहेलना करता हुआ यों न कहे-ये सब साधु मिथ्या रूप से प्रतिमा धारण किये हुए हैं, मैं ही अकेला सम्यक्रूप से प्रतिमा स्वीकार किये हुए हूँ। ये जो साधु भगवान् इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक को स्वीकार करके विचरण करते हैं, और मैं जिस (एक) प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ; ये सब जिनाज्ञा में उपस्थित हैं। इस प्रकार पारस्परिक समाधिपूर्वक विचरण करे। विवेचन--संस्तारक सम्बन्धी चार प्रतिज्ञाएं इस सूत्र के चार विभाग करके शास्त्रकार ने संस्तारक की चार प्रतिज्ञाए बताई हैं-(१) उद्दिष्टा, (2) प्रेक्ष्या, (3) विद्यमाना और (4) यथासंस्तृतरूपा। प्रतिज्ञा के चार रूप इस प्रकार बनते हैं--(१) उद्दिष्टा-फलक आदि में से जिस किसी एक संस्तारक का नामोल्लेख किया है, उसी को मिलने पर ग्रहण करूगा, दूसरे को Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध नहीं, (2) प्रेक्ष्या--जिसका पहले नामोल्लेख किया था, उसी को देखूगा, तब ग्रहण करूंगा, दूसरे को नहीं, (3) विद्यमाना--यदि उद्दिष्ट और दृष्ट संस्तारक शय्यातर के घर में मिलेगा तो ग्रहण करूगा, अन्य स्थान से लाकर उस पर शयन नहीं करूंगा, और (4) यथासंस्ततरूपायदि उपाश्रय में सहज रूप से रखा या बिछा हुआ पाट आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं।" साधु चारों में से कोई भी एक प्रतिज्ञा ग्रहण कर सकता है।' ___इक्कड आदि पदों के अर्थ इक्कडं =इक्कड़ नामक तण विशेष, या इस घास से निर्मित चटाई आदि, कढिणं बांस, छाल आदि से बना हुआ कठोर तृण, या कढिणक नामक घास, कंधिम आदि का बिछाने का तृण, जंतुयं-जंतुक नामक घास, परगं-मुण्डक-पुष्पादि के गूंथने में काम आने वाला तृण, मोरगं मोर पिच्छ से निष्पन्न या मोरंगा नाम की तृण की जाति, तणगं सभी प्रकार के घास (तृण), कुसं-कुश या दर्भ, कुच्चगं कूर्चक, जिससे कूची आदि बनाई जाती है, उसका बना हुआ / वव्वगं पिप्पलक या वर्वक नामक तुण विशेष, पलालगं= धान का पराल। अहासंथडा की व्याख्या चूर्णिकार ने यों की है-अहासंथडा=यथासंस्तृत संस्तारक 1. [क] आचारांग वृत्ति पत्रांक 372 (ख) इन चारों प्रतिमाओं की व्याख्या चूणिकार ने इस प्रकार की है-- प्रथम और द्वितीय प्रतिमा की व्याख्या--"उढेि कताइ छिदित्त आणेज्ज तेण पेहा विसुद्धतरा, पेहा णाम पिक्खित्त 'एरिसगं देहि बितिया पडिमा।"-उद्दिष्टा में कदाचित् उस वस्तु को काट कर ले आए, इसलिए प्रेक्षा उससे विशुद्धतर है। प्रेक्षा कहते हैं-किसी संस्तारक योग्य वस्तु को देखकर 'मुझे ऐसी ही वस्तु दो'--यह दूसरी प्रतिमा है। तीसरी प्रतिमा की व्याख्या--."ततिया अधासमण्णागता णाम जति बाहि बसति बाहिं चेव इक्कडादि, णो अंतो साहीओ णो बेसणीओ आणेयव्य, अह अंतो वसति अंतो चेव, इक्कड़ादि वा पत्थि तो उक्कुडगणेसज्जिओ विहरेज्जा / " तीसरी 'अहासमण्णागता' यथासमत्वागता) प्रतिमा इस प्रकार है-यदि वसति (शय्या) गाँव से बाहर है तो इक्कड़ आदि घास बाहर ही मिलेगा तो लेगा, अंदर से बनाया हुआ या एषणीय घास नहीं लाएगा, या नहीं मंगाएगा / यदि उपाश्रय गाँव के अन्दर है तो वह इक्कड़ आदि अंदर से ही लेगा, बाहर से लाया हआ, एषणीय भी नहीं लेगा। यदि इक्कडादि घास अन्दर नहीं मिलता है तो वह उत्कटक आसन या पद्मासन आदि से बैठकर सारी रात बिताएगा। चौथी अहासंथडा प्रतिमा की व्याख्या--"तत्थत्या अहासंबडा पुढविसिला ओयट्टओ, पासाणसिला, कट्ठसिला वा / सिलाए-गहणा गरूयं, अहासंथडगहणा भूमीए लग्मगं चैव ।"-चौथी संस्तारक प्रतिमा यों है-जो जैसा संस्तारक है, वैसा ही स्वाभाविक रूप से रहे, यही यथासंस्तृत संस्तारकप्रतिमा का आशय है। जैसे पथ्वीशिला-मिट्टी की कठोर बनी हयी शिला, पाषाणशिला या काष्ठ की बनी हुयी शिला / यहाँ शिलापट के ग्रहण करने के कारण 'भारी' भी ग्राह्य है, तथा 'अहासंथड' पद के ग्रहण करने से जो संस्तारक भूमि से लगा हो, वह भी ग्राह्य है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 458 163 प्रतिमा वह है, जिसमें पृथ्वीशिला, पाषाणशिला, काष्ठशिला, ये शिलाएं भारी होने से भूमि से लगी हुई होनी चाहिए।' सज्जिए-का अर्थ वृत्तिकार ने किया है--निषद्यापूर्वक यानी पद्मासन आदि आसन से बैठकर। इन सब संस्तारकों को ग्रहण करने की आज्ञा अधिक सजल प्रदेशों के लिए है।' संस्तारक प्रत्यर्पण-विवेक 458. [1J से भिक्ख वा 2 अभिकं खेज्जा संथारगं ६च्चप्पिणित्तए / से ज्ज पुण संथारगं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं णो पच्चप्पिणेज्जा। [2] से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए / से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 आताविय 2 विणिद्धणिय 2 ततो संजतामेव पच्चप्पिणेज्जा। 458. [1] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि (लाया हुआ) संस्तारक (दाता को) वापस लौटाना चाहे, उस समय यदि उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त जाने तो उस प्रकार का संस्तारक (उस समय) वापस न लौटाए। [2] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि (लाया हुआ) संस्तारक (दाता को) वापस सोपना चाहे, उस समय उस संस्तारक को अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित जाने तो, उस प्रकार के संस्तारक को बार-बार प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके, सूर्य की धूप देकर एवं यतनापूर्वक झाड़कर, तब गृहस्थ (दाता) को संयत्नपूर्वक वापस सोंपे। विवेचन-संस्तारक को वापस लोटाने में विवेक-इस सूत्र में संस्तारक-प्रत्यर्पण के समय साधु का ध्यान तीन बातों की ओर खींचा है [1] यदि प्रातिहारिक संस्तारक जीव-जन्तु, अण्डों आदि से युक्त है तो उस समय उसे न लौटाए। 1. [क] आचारांग वृत्ति पत्रांक 372 {ख आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पणी पृ० 165 [म आचारांग, अत्थागमे प्रथम खण्ड, पृ० 113 [4] पाहअसद्दमहण्णवो 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 के अनुसार 3. पच्चाप्पिणित्तए के स्थान पर पाठान्तर है-पच्चाप्पिणियत्तए, पच्चपिणिपत्तए, पच्चणियत्तए / अर्थ समान हैं। 4. विणिणिय के स्थान पर पाठान्तर है-विहुणिय। चूर्णिकार ने "विणिबुणिय' पद का भावार्थ दिया है--विणिणिय....चलिय---पच्चाप्पिणेज्जा।' अर्थात--उसे हिलाकर या झाड़कर वापस सौंपे या लौटाए। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [2] यदि वह जीवजन्तु आदि से रहित है, तो भी बिना देखे-भाले न लौटाए। [3] लौटाने से पहले अच्छी तरह देख-भाल करके, झाड़-पोंछकर, सूर्य की धूप देकर साफ करके ठीक हालत में लौटाए।' इन तीनों प्रकार के विवेक के पीछे अहिंसा, संयम और साधु के प्रति श्रद्धा-स्थायित्व का दृष्टिकोण है। पच्चप्पिणित्तए आदि पदों का अर्थ--पच्चप्पिणित्तए-प्रत्यर्पण करना, वापस सोंपना, लौटाना / आताविय= सूर्य के आतप में आतापित [गर्म] करके, विणिझुणिय -- झाड़कर, यतनापूर्वक हिलाकर। . उच्चार-प्रस्त्रवण-प्रतिलेखना 456. से भिक्खू वा 2 समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे वा पुत्वामेव पण्णस्स उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेज्जा / केवली बूया-आयाणमेयं / / अपडिलेहियाए उच्चार-पासवणभूमीए, भिक्खू वा 2 रातो वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज्जा पाणाणि वा 4 जाव ववरोएज्जा। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा 4 जं पुवामेव पण्णस्स उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेज्जा। 456. जो साधु या साध्वी जंघादिबल क्षीण होने के कारण स्थिरवास कर रहा हो, या उपाश्रय में मासकल्पादि से रहा हुआ हो, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ उपाश्रय में आकर ठहरा हो, उस प्रज्ञावान् साधु को चाहिए कि वह पहले ही उसके परिपार्श्व में उच्चारप्रस्रवण-विसर्जन (मल-मूत्र त्याग) की भूमि को अच्छी तरह देखभाल ले / केवली भगवान् ने कहा है--यह अप्रतिलेखित [बिना देखी भाली] उच्चार-प्रस्रवणभूमि कर्मबन्ध का कारण है। __ कारण यह है कि वैसी (अप्रतिलेखित) भूमि में कोई भी साधु या साध्वी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्रादि का परिष्ठापन करता (परठता) हुआ फिसल सकता है या गिर सकता है। उसके पैर फिसलने या गिरने पर हाथ, पैर, सिर या शरीर के किसी अवयव को गहरी चोट लग सकती है, अथवा उसके गिर पड़ने से वहाँ स्थित प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व को चोट लग सकती है, ये दब सकते हैं, यहाँ तक कि मर सकते हैं। इसी [महाहानि की सम्भावना के कारण तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले से ही भिक्षुओं के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है, कि साधु को उपाश्रय में ठहरने से पहले मल-मूत्र-परिष्ठापन करने हेतु भूमि की आवश्यक प्रति लेखना कर लेनी चाहिए। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 460 165 विवेचन-मल-मूत्र-विसर्जनार्थ भूमि प्रतिलेखन-प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय में ठहरने से पूर्व साधु को विसर्जन भूमि को देख-भाल लेने पर जोर दिया है। जो साधु ऐसा नहीं करता, उसे स्व-परविराधना की महाहानि का दुष्परिणाम देखना पड़ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसी चेतन स्थण्डिल भूमि में 10 विशेषताएँ होनी अनिवार्य बताई हैं--(१) जहाँ जनता का आवागमन न हो, न किसी की दृष्टि पड़ती हो, (२)--जिस स्थान का उपयोग करने से दूसरे को किसी प्रकार का कष्ट या नुकसान न हो, (3) जो स्थान सम हो, (4) जहाँ घास या पत्ते न हों, (5) चींटी कुथु आदि जीवजन्तु से रहित हो, (6) वह स्थान बहुत ही संकीर्ण न हो, (7) जिसके नीचे की भमि अचित्त हो, (8) अपने निवास स्थान-गाँव से दूर हो, (8) जहाँ चू हे आदि के बिल न हो, (10) जहाँ प्राणी या बीज फैले हुए न हो। विकाल में उच्चार-प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना करना, साधु की समाचारी का महत्त्वपूर्ण अंग है, इसकी उपेक्षा करने से जीव हिंसा का दोष लगने की संभावना है। शय्या-शयनादि विवेक 460. [1] से भिक्खू वा 2 अभिकंखेज्जा सेज्जासंथारगभूमि पडिलेहित्तए, अण्णत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेइएण' वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा णिवातेण वा पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथरेज्जा। 2] से भिक्खू वा 2 बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथरित्ता अभिकखेज्जा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहित्तए / से भिक्खू बा 2 बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहमाणे पुन्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय 2 ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहेज्जा, दुरुहित्ता ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा / [3] से भिक्खू वा 2 बहुफासुए सेज्जासंथारए सयमाणे णो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पादेण पादं कारण कार्य आसाएज्जा / से अणासायमाणे ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा। 461. से भिक्खू वा 2 ऊससमाणे वा गोससमाणे वा कासमाणे वा छोयमाणे वा 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 373 2. उत्तराध्यन सूत्र अ० 24, गा. 16,17,18 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 4. यहाँ जाव शब्द से उवज्झाएण वा से लेकर गणावच्छेइएण वा तक का पाठ सूत्र 366 के अनुसार समझें। 5. गणावच्छेइएण के स्थान पर गणावच्छेएण पाठान्तर प्राप्त है 6. आसाएज्जा का अर्थ चर्णिकार ने यों किया है- आसादेति-संघटेति / ' अर्थात-आसावेति (आसाएति) का अर्थ है-संघट्टा (स्पर्श) करता है। 7. ऊससमाणे वा णीससमाणे वा के स्थान पर पाठान्तर है-'सासमाणे वा नीसासमाणे वा।' Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासंग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध जभायमाणे वा उड्डोए वा वातणिसग्गे वा करेमाणे पुधामेव आसयं' वा पोसयं वा पाणिणा परिपिहेत्ता ततो संजयामेव ऊससेज्ज वा जाव वायणिसग्गं वा करेज्जा। 460. [1] साधु या साध्वी शय्या-संस्तारकभूमिकी प्रतिलेखना करना चाहे, वह आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक, बालक, वृद्ध, शैक्ष (नवदीक्षित), ग्लान एवं अतिथि साधु के द्वारा स्वीकृत भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्य स्थान में या सम और विषम स्थान में, अथवा वात युक्त और निर्वातस्थान में भूमि का बारबार प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके तब (अपने लिए) अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को यतना पूर्वक बिछाए। [2] साधु या साध्वी अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक (पूर्वोक्त विधि से) बिछा कर उस अतिप्रासुक शय्या-संस्तारक पर चढ़ना चाहें तो उस अति प्रासुक शय्या-संस्तारक पर चढ़ने से पूर्व मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भली भांति प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर आरूढ हों / उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर आरूढ़ हो कर तब यतनापूर्वक उस पर शयन करे। [3] साधु या साध्वी उस अतिप्रासुक शय्यासँस्तारक पर शयन करते हुए परस्पर एक दूसरे को, अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, अपने पैर से दूसरे के पैर की, और अपने शरीर से दूसरे के शरीर की आशातना नहीं करनी चाहिए। अपितु एक-दूसरे की आशातना न करते हुए यत्नापूर्वक अतिप्रासुक शय्या-संस्तारक पर सोना चाहिए। 461. वह साधु या साध्वी (शय्या-संस्तारक पर सोते-बैठते हुए) उच्छ्वास या निश्वास लेते हुए, खांसते हुए, छींकते हुए, या उबासी लेते हुए, डकार लेते हुए अथवा अपानवायु छोड़ते हुए पहले ही मुंह या गुदा को हाथ से अच्छी तरह ढांक कर यतना से उच्छ्वास आदि ले यावत् अपानवायु को छोड़े। विवेचन- शय्या-संस्थारक-उपयोग के सम्बन्ध में विवेक-इन दो सूत्रों में शय्या-संस्तारक के उपयोग के सम्बन्ध में 5 विवेक सूत्र शास्त्रकार ने बताए हैं (1) आचार्यादि ग्यारह विशिष्ट साधुओं के लिए शय्यासंस्तारक भूमि छोड़कर शेषभूमि में यतना पूर्वक बहु प्रासुक शय्या संस्तारक बिछाए। (2) शय्या-संस्तारक पर स्थित होते समय भी सिर से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। (3) यातनापूर्वक शय्या संस्तारक पर सोए। (4) शयन करते हुए अपने हाथ, पैर और शरीर, दूसरे के हाथ, पैर और शरीर से आपस में टकराएं नहीं, इसका ध्यान रखे, और / 1. 'आसयं पोसयं' पदों का अर्थ जूणि में इस प्रकार है-आसतं मुहं पोसयं अहिट्ठाण---आसयं== मुख, पोसयं =गुदा। 2. जाव शब्द यहाँ इसी सूत्र में पठित ऊससमाणे आदि पाठक्रम का सूचक है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 462 (5) शयनकाल या शय्या पर उठते-बैठते श्वासोच्छ्वास, खांसी, छीक, उबासी, डकार, अपानवायुनिसर्ग आदि करने से पूर्व हाथ से उस स्थान को ढक कर रखे। वृत्तिकार कहते हैं--एक साधु को दूसरे साधु से एक हाथ दूर सोना चाहिए।' 'आएसेण' आदि पदों का अर्थ-आएसेण = पाहुना, अभ्यागत अतिथि, साधु / आसाएज्जा= संघट्टा करे, स्पर्श करे या टकराए / जंभायमाणे-उबासी-जम्हाई लेते हुए, उड्डोएडकार लेते समय, बाणिसग्गे-अधोवायु छोड़ते समय , आसयं =आस्य-मुख, पोसयं =अधिष्ठान मलद्वार-गुदा / शय्या-समभाव 462. से भिक्खू वा 2 समा वेगया सेज्जा भवेज्जा, विसमा वेगया सेज्जा भवेज्जा, पवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, णिवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, ससरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अप्पसरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा, सवंस-मसगा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अप्पदंस-मसगा वेगदा सेज्जा भवेज्जा, सपरिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अपरिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, सउवसग्गा वेगया सेज्जा भवेज्जा, णिस्वसग्गा वेगया सेज्जा भवेज्जा, तहप्पगाराई सेज्जाहि संविज्जमाणाहि पम्महिततरागं विहारं विहरेज्जा / णो किंचि वि गिलाएज्जा। 1. इस सूत्र का भावार्थ चणि में इस प्रकार है----"सेज्जासंथारम-भूमिए गिज्झतीए इमे आयरियगादि एक्कारस मुतित्त सेसाणं जहाराइणिया गणी अण्णगणाओ आयरिओ, गणधरो अज्जाणं वावारवाहत, एतेसि विसेसो कप्पे, बालादीण य ठाणा तत्थेव सम-विसम-पवाय-निवायाण य तन व अंतो मज्झे वा। -अर्थात् शय्यासंस्तारक भूमि ग्रहण करते समय, बिछाते समय, आचार्य आदि इन 11 विशिष्ट साधुओं को छोड़कर, शेष मुनियों के लिए यथारत्नाधिककम से बिछाना चाहिए। गणी अन्यगण से आया हुआ आचार्य, गणधर-आर्यों-साधओं का प्रवृत्तिवाहक / इनका विशेष कल्प होता है। बाल आदि साधुओं के लिए सँस्तारक स्थान वहीं सम, विषम प्रवात, निवात स्थान के अन्दर या बीच में होना चाहिए। 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 373 / 3. (क) टीका सूत्र 373 / (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पणी पृ० 168 / (ग) पाइअ-सद्द-महष्णवो / 4. 'वेगदा' पाठान्तर है। चणिकार ने एगहियतरं पाठान्तर मानकर उसका भावार्थ इस प्रकार किया है—प्रवात-णिवायमादिसु पसत्थासु सइ गाला अप्पसस्थासु सधूमा।"--प्रवात-निर्वात आदि का प्रशस्त शय्याओं पर राग होने से अंगारदोष से युक्त, अथा अप्रशस्तशय्याओं पर द्वष या घृणा होने से वे धमदोष से युक्त बन जाती हैं। 6. इसके स्थान पर वृत्तिकार एवं चूर्णिकार ने "णो किंचि बलाएज्जा' पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है-''वलादि गाम मातं करेति, कहँ ? विसमदंस-मसगादिसु बाहिं अच्छति, अण्णत्थ वा।" बलादि का अर्थ है-माया करता है, कैसे ? विषम-दंश, मच्छर आदि होने पर वह बाहर चला जाता है। वृत्तिकार अर्थ करते हैं-"म तत्र व्यलोकादिकं कुर्यात् !"- इस विषय में मन में बुरा चिन्तन न करे। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध 462. संयमशील साधु या साध्वी को किसी समय सम शय्या मिले, किसी समय विषम मिले, कभी हवादार निवास स्थान प्राप्त हो, कभी निर्वात (बंद हवा वाला) प्राप्त हो, किसी दिन धूल से भरा उपाश्रय मिले, किसी दिन धूल से रहित स्वच्छ मिले, किसी समय डांसमच्छरों से युक्त मिले, किसी समय डांस-मच्छरों से रहित मिले, इसी तरह कभी जीर्ण-शीर्ण, टुटा-फूटा, गिरा हुआ मकान मिले, या कभी नया सुदृढ़ मकान मिले, कदाचित् उपसर्गयुक्त शय्या मिले, कदाचित् उपसर्ग-रहित मिले / इन सब प्रकार की शय्याओं के प्राप्त होने पर जैसी भी सम-विषम आदि शय्या मिली, उसमें समचित्त होकर रहे, मन में जरा भी खेद या ग्लानि का अनुभव न करे। ____ विवेचन-शय्या के सम्बन्ध में यथालाभ-सन्तोष करे-साधुजीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी सुन्दर, सुहावना, हवादार, स्वच्छ, नया, रंग-रोगन किया हुआ मच्छर आदि उपद्रवों से रहित, शान्त, एकान्त स्थान रहने को मिलता है तो कभी किसी गाँव में बिल्कुल रद्दी, टूटा-फूटा, या शर्दी मौसम में चारों ओर से खुला अथवा गर्मी में चारों ओर से बंद, गंदा डांस-मच्छरों से परिपूर्ण, जीर्ण-शीर्ण मकान भी कठिनता से ठहरने को मिल पाता है। ऐसे समय में साधु के धैर्य और समभाव की, कष्ट-सहिष्णुता और तितिक्षा की परीक्षा होती है। वह अच्छे या खराब स्थान के मिलने पर हर्ष या शोक न करे, बल्कि शान्ति और समतापूर्वक निवास करे / यही समभाव की शिक्षा, शय्यैषणा अध्ययन के उपसंहार में है। 'वेगया' आदि पदों के अर्थ-वेगया= किसी दिन या कभी, ससरक्खा धूल से युक्त। सपरिसाडा-जीर्णता से युक्त, गली-सड़ी शय्या / संविज्जमाणाहि=इन तथा प्रकार की शय्या के विद्यमान होने पर भी। पग्गहिततरागं विहारं विहरेज्जा=जैसा भी जो भी कोई निवास स्थान मिल गया है-अच्छा-बुरा, उसी में समचित्त होकर रहे। गिलाएज्जा या वलाएज्जा ? मूल प्रति में गिलाएज्जा पाठ है, जिसका अर्थ होता है--खिन्न या उदास हो / 'वलाएज्जा' पाठ वृत्ति और चणि में है, उसका अर्थ है कुछ भी भला-बुरा न कहे। प्रशस्त शय्या पर राग होने से अंगारदोष और अप्रशस्त पर द्वेष होने से धूमदोष लगता है। 463. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव?हि सहिते सदा जतेज्जासि त्ति बेमि। 463. यही (शय्यैषणा-विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी का सम्पूर्ण भिक्षुभाव है, कि वह सब प्रकार से ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप के आचार से युक्त होकर सदा समाहित होकर विचरण करने का प्रयत्न करता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। // शय्यैषणा-अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त // // द्वितीय शैय्या-अध्ययन सम्पूर्ण / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 के आधार पर. 2. आचारांग चूर्णि मू० पा० 166, Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईर्या : तृतीय अध्ययन प्राथमिक - आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के तृतीय अध्ययन का नाम 'ई' है / 5 ईर्या का अर्थ यहां केवल गमन करना नहीं है। अपनेलिए भोजनादि की तलाश में तो प्रायः सभी प्राणी गमन करते हैं, उसे यहाँ 'ईर्या' नहीं कहा गया है / यहाँ तो साधु के द्वारा किसी विशेष उद्देश्य से कल्प-नियमानुसार संयम भावपूर्वक यतना, एवं विवेक से चर्या (गमनादि) करना ईर्या है।' 4 इस दृष्टि से यहाँ 'नाम-ईर्या', 'स्थापना-ईर्या' तथा 'अचित्त-मिश्र-द्रव्य-ईर्या' को छोड़ साधु के द्वारा 'सचित्त-द्रव्य-ईर्या', क्षेत्र-ईर्या, तथा काल-ईर्या से सम्बद्ध भाव-ईर्या विवक्षित है। चरण ईर्या और संयम-ईर्या के भेद से भाव-ईर्या, दो प्रकार की होती है। अतः-स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चारों का समावेश 'ईर्या' में हो जाता है। - साधु का गमन किस प्रकार से शुद्ध हो? इस प्रकार के भाव रूप गमन (चर्या) का जिस अध्ययन में वर्णन हो, वह ईर्या-अध्ययन है। * इसी के अन्तर्गत किस द्रव्य के सहारे से, किस क्षेत्र में (कहाँ) और किस समय में (कब), कैसे एवं किस भाव मे गमन हो? यह सब प्रतिपादन भी ईर्या-अध्ययन के अन्तर्गत है। 2 धर्म और संयम के लिए आधारभूत शरीर की सुरक्षा के लिए पिण्ड और शय्या की तरह ईर्या की भी नितान्त आवश्यकता होती है। इसी कारण जैसे पिछले दो अध्ययनों में क्रमशः पिण्ड-विशुद्धि एवं शय्या-विशुद्धि का तथा पिण्ड और शय्या के गुण-दोषों का वर्णन किया गया है, वैसे ही इस अध्ययन में 'ई-विशुद्धि का वर्णन किया गया 1. (क) आचा० टीका पत्र 374 के आधार पर / (ख) भाचारांग नियुक्ति गा० 605, 306 / 2. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 307 / (ख) माचा टीका यत्र 374 / 3. आचा. टीका पत्र 374 / Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध है, जो (1) आलम्बन, (2) काल, (3) मार्ग, (4) यतना---इन चारों के विचारपूर्वक गमन से होती है / यही ईर्या-अध्ययन का उद्देश्य है।' + ईर्या-अध्ययन के तीन उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में वर्षा काल में एक स्थान में निवास, तथा ऋतुबद्धकाल में विहार के गुण-दोषों का निरूपण है। - द्वितीय उद्देशक में नौकारोहण-यतना, थोड़े पानी में चलने की यतना तथा अन्य ईर्या से सम्बन्धित वर्णन है। 1 तृतीय उद्देशक में मार्ग में गमन के समय घटित होने वाली समस्याओं के सम्बन्ध में उचित मार्ग-दर्शन प्रतिपादित है। - सूत्र 464 से प्रारम्भ होकर सूत्र 516 पर तृतीय ईर्याध्ययन समाप्त होता है / 1. (क) आचा. टीका पत्र 374 / (ख) उत्तराध्ययन अ० 24, गा० 4, 5, 6, 7, 8 / 2. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 311, 312 / (ख) टीका पत्र 375 / Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईयं अज्झयणं 'इरिया' पढमो उद्देसओ ईर्या : तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक वर्षावास-विहारचर्या 464. अम्भुवगते' खलु वासावासे अभिपवुटु, बहवे पाणा अभिसंभूया, बहवे बोया' अहुणुभिण्णा, अंतरा' से मग्गा बहुपाणा बहुबोया जाव संताणगा, अणण्णोकंता पंथा, जो विण्णाया मग्गा, सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, ततो संजयामेव वासावास उवल्लिएज्जा / 465. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा णो महती विहारभूमी', णो महती वियारभूमी, णो सुलभे निशीथ चणि के दशवे उद्देशक पृ० 122 में इसी विधि का वर्णन चूर्णिकार ने किया है"आचारांगस्य बितियसुयक्खंधे---जो विधी भणितो, सो य इमो-अन्भुवगते खलु वासवासे "वासावासं उविलिइज्जा।" इसका अर्थ मूल पाठ के अनुसार है। 2. चूणिकार ने 'बीया अहणुन्भिाण्णा' का अर्थ किया है-'अंकुरिता--इत्यर्थः- अर्थात् बीज अंकुरित हो जाते हैं। 3. अंतरा से मग्गा---आदि का भावार्थ चूणि में यों है—अन्तर ति वरिसारत्तो जहा 'अंतरघणसामलो ___ भगवं,' अन्तरालं वा अंतो। अन्तरा का अर्थ-वर्षाऋतु में जैसे अन्तर धन-श्यामल भगवान् मेघ छाये रहते हैं, अथवा अन्तराल में-बीच में, अन्दर, में। 4. यहाँ जाव शब्द से 'बहुबीया' से लेकर 'संताणगा' तक का पाठ है। 5. अणण्णोकंता की व्याख्या चुणिकार ने इस प्रकार की है-अणण्णोकता लोएणं चरगावोहि वा अक्कंता वि अणक्कंतसरिसा / अर्थात्--'अनन्याक्रान्त' का भावार्थ है-जनता से, वा चरक आदि परिवाजक द्वारा आक्रान्त मार्ग भी अनन्या क्रान्त सदृश प्रतीत होते हैं। णो महतो बिहारभूमि---आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार---- "वियारभूमी काइयाभूमी पत्थि, विहारभूमि-सज्ज्ञायभूमी पत्थि। पीढ़ा कट्ठमया, इहरहा वरिसारित णिसिज्जा कुच्छति, फलगं संथारओ सेज्जा-उवस्सओ, संथारओ-कविणादी, जहन्नेण चउग्गणं खेत्त वियार-विहारवसही-आहारे।" विचारभूमिकायिकाभूमि-मलमूत्रोत्सर्ग भूमि नहीं है। विहार भूमि-स्वाध्यायभूमि नहीं है। पीढाकाष्ठनिर्मित चौकी या बाजोट, वर्षा ऋतु में बैठने की जगह में वनस्पति, लीलण-फूलण उग आती है अत: इन पर बैठे। फलग-पट्टा, पाटिया, तख्त, (संस्तारक), सेज्वा= उपाश्रय, संयारओ-कढ़िणक आदि तृण, घास आदि / साधु को नीहार, स्वाध्याय, आवासस्थान एवं आहार के लिए कम से कम चार गुना क्षेत्र अपेक्षित है। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए, णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, बहवे जत्थ समण-माहण-अतिहि -किवण-वणीमगा उवागता उवागमिस्संति च, अच्चाइण्णा वित्ती, णो पण्णस्स णिक्खमण जाव' चिताए / सेवं गच्चा तहप्पगारं गाम वा णगरं वा जाव रायहाणि वा जो वासावासं उवल्लिएज्जा / 466. से भिवख वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्णा गाम वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा महती विहारभूमी, महतो वियारभूमी, सुलभे जत्थ पीढ-फलगसेज्जा-संथारए, सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य, अप्पाइण्णा वित्ती' जाव रायहाणि वा ततो संजयामेव वासावासं उल्लिएज्जा। 467. अह पुणे जाणेज्जा--चत्तारि मासा वासाणं वोतिक्कता, हेमंताण य पंच-इसरायकप्पे परिवुसिते, अंतरा से मग्गा बहुपाणा जावसंताणगा, जो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य, सेवं णच्चा णो गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 468. अह पुणेवं जाणेज्जा--चत्तारि मासा वासाणं बोतिक्कता, हेमंताण य पंच-दसरायकप्पे परिवुसते अंतरा से मग्गा अप्पंडा जाव संताणगा, बहवे जत्थ समण जाव' उवागमिस्संति य / सेवं गच्चा ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 464. वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहुत-से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत-से बीज अंकुरित हो जाते हैं, (पृथ्वी, घास आदि से हरी हो जाती है) मार्गों में बहुत-से प्राणी, बहुत-से बीज उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत हरियाली हो जाती है, ओस और पानी बहुत स्थानों में भर जाते हैं, पाँच वर्ण की काई लीलण-फूलण आदि स्थान-स्थान पर हा जाती है, बहुत-से स्थानों में कीचड़ या पानी से मिट्टी गीली हो जाती है, कई जगह मकड़ी के जाले हो 1. जाव शब्द से निक्खमण से लेकर चिताए तक का पाठ है। 2. 'णगरं का' से लेकर 'रायहाणि वा' तक का पाठ सूत्र 318 के अनुसार है। 3. 'उवल्लिएज्जा' के स्थान पर पाठान्तर है-'उवल्लीएज्जा, उवलितेज्जा / ' चुणिकार इसका भर्थ इस प्रकार करते हैं---'उल्लिएज्जा -आगच्छेज्जा'=आकर रहे। 4. जाव शब्द से यहाँ 'समण' से लेकर 'उवागामिस्संति' तक का पूर्ण पाठ सूत्र 465 के अनुसार समझें। 5. 'वित्ती' से लेकर 'रायहाणि' तक का सम्पूर्ण पाठ सूत्र 465 के अनुसार समझने के लिए यहाँ जाय शब्द है। 6. 'पंच-दसरायकप्पे'-.-के स्थान पर चुणिमान्य पाठान्तर है---'दसरायकप्पे' / 7. जाव शब्द से यहाँ 'बहुपाणा' पद से लेकर 'संताणगा' पद तक का समग्र पाठ सू० 464 के अनुसार समझें। 8. 'वीतिक्कंता' के स्थान पर पाठान्तर है-बीतिकता, वियिकता / अर्थ समान है। 6. यहाँ जाव शब्द से समण से लेकर 'उवागमिस्संति' तक का समग्र पाठ सुत्र 465 के अनुसार समझें / Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 464.68 173 जाते हैं। वर्षा के कारण मार्ग रुक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जा सकता, क्योंकि (हरी घास छा जाने से) मार्ग का पता नहीं चलता। इस स्थिति को जानकर साधु को (वर्षाकाल में) एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए / अपितु वर्षाकाल में ययावसर प्राप्त वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करना चाहिए। 465. वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी को उस ग्राम, नगर खेड़, कर्बट, मडंब, पट्टण, द्रोणमुख, आकर (खान), निगम, आश्रम, सन्निवेश या राजधानी की स्थिति भलीभांति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम नगर यावत् राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि न हो, (ग्राम आदि के बाहर) मल-मूत्रत्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ (चौकी), फलक (पट्ट), शय्या, एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, और न प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार-पानी ही सुलभ हो, जहाँ बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग (पहले-से) आए हुए हों, और भी दूसरे आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भीड़ हो, साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों से अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम, नगर आदि में वर्षाकाल प्रारंभ हो जाने पर भी साधु-साध्वी वर्षावास व्यतीत न करे। 466. वर्षावास करने वाला साधु या साध्वी यदि ग्राम यावत राजधानी के सम्बन्ध में यह जाने कि इस ग्राम यावत् राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल भूमि है, मल-मूत्र विसर्जन के लिए विशाल स्थण्डिल भूमि है, यहाँ पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ है, साथ ही प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है, यहां बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आए हुए नहीं है और न आएंगे, यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी इतनी नहीं है, जिससे कि साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों के लिए अपने स्थान से निकलना और प्रवेश करना कठिन हो, स्वाध्यायादि क्रिया भी निरूपद्रव हो सके, तो ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में साधु या साध्वी संयमपूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। 467. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो चुके हैं, अतः वृष्टि न हो तो (उत्सर्ग-मार्गानुसार) चातुर्मासिक काल समाप्त होते. ही दूसरे दिन अन्यत्र विहार कर देना चाहिए। यदि कार्तिक मास में वृष्टि हो जाने से मार्ग-आवागमन के योग्य न रहे तो हेमन्त ऋतु के पांच या दस दिन व्यतीत हो जाने पर वहाँ से विहार करना चाहिए। (इतने पर भी) यदि मार्ग बीच-बीच में अंडे, बीज, हरियाली, यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हों, अथवा वहां बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आए हुए न हों, न ही आने वाले हों, तो यह जानकर (सारे मार्गशीर्ष मास तक) साधु ग्रामानुग्राम विहार न करे। ___ 468. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो चुके हैं, और वृष्टि हो जाने से मुनि को हेमंत ऋतु के 15 दिन तक वहीं (चातुर्मास स्थल पर) रहने के Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध पश्चात् अब मार्ग ठीक हो गए हैं, बीच-बीच में अब अंडे यावत् मकड़ी के जाले,आदि नहीं हैं, बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि भी उन मार्गों पर आने-जाने लगे हैं, या आने वाले भी है, तो यह जानकर साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। विवेचन–वर्षावास में कहाँ, कैसे क्षेत्र में, कब तक रहे ?–प्रस्तुत पांच सूत्रों में साधु-साध्वी के लिए वर्षावास से सम्बन्धित ईर्या के नियम बताए हैं / इन नियमों का निर्देश करने के पीछे बहुत दीर्घ-दशिता, संयम-पालन, अहिंसा, एवं अपरिग्रह की साधना तथा साधु वर्ग के प्रति लोक श्रद्धा का दृष्टिकोण रहा है / एक ओर यह भी स्पष्ट बताया है कि वर्षाकाल के चार मास तक एक ही क्षेत्र में स्थिर क्यों रहे ? जब कि दूसरी ओर वर्षावास समाप्ति के बाद कोई कारण न हो तो नियमानुसार वह बिहार कर दे, ताकि वहाँ की जनता, क्षेत्र आदि से मोह-बन्धन न हो, जनता की भी साधु वर्ग ने प्रति अश्रद्धा व अवज्ञा न बढे / वृद्धावस्था, अशक्ति, रुग्णता आदि कारण हों तो वह उस क्षेत्र में रह भी सकता है। ये कारण तो न हो, किन्तु वर्षा के कारण मार्ग अवरुद्ध हो गए हों, कीचड़, हरियाली एवं जीव-जन्तुओं से मार्ग भरे हों, तो ऐसी स्थिति में पांच, दस, पन्द्रह दिन या अधिक से अधिक मार्गशीर्ष मास तक वहां रुक कर फिर बिहार करने का विधान किया है / यदि वे मार्ग खुले हों, साधु लोग उन पर जाने-आने लगे हों, जीव-जन्तुओं ने भरे न हों, तो वह एक दिन का भी विलम्ब किये बिना वहाँ से विहार कर दे। पंच-वसरायकप्पे-इस पद के सम्बन्ध में आचार्यों में तीन मतभेद हैं / (1) चूर्णिकार ने 'दसरायकप्पे' पाठ ही माना है, और इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-निर्गम (चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् विहार) तीन प्रकार का है-आर से, पुण्य से और पार से। दुर्भिक्ष, महामारी आदि उपद्रवों के कारण, या आचार्य श्री विहार करने में असमर्थ हों तो बिहार का स्थगित हो जाना, आर से निर्गम है कोई भी विघ्न-बाधा न हो, मार्ग सुख-पूर्वक चलने योग्य हो गए हों, तो कार्तिक पूर्णिमा के दूसरे दिन विहार हो जाना—पुण्य से निर्मम हैं, और दस रात्रि व्यतीत होने पर यत्नापूर्वक विहार कर देना-यह पार से निर्गम है / इस आलापक का भावार्थ यह है कि दस रात्रि व्यतीत हो जाने पर भी मार्ग अब भी बहुतसे जीव-जन्तुओं से अवरुद्ध है, श्रमणादि उस मार्ग पर अभी तक नहीं गए हैं, तो साधु विहार न करें अन्यथा बिहार करदें।' / (2) वृत्तिकार ने 'पंचदसरायकप्पे' पाठ मान कर व्याख्या की है कि हेमंत के पांच या दस दिन व्यतीत होने पर विहार कर देना चाहिए। इसमें भी बीच में मार्ग अण्डों यावत मकड़ी के जालों से युक्त हों तो सारे मार्गशीर्ष तक वहीं रुक जाना चाहिए।' 1. णिग्गमो तिविहो—आरेण, पुण्णे, परेण ।चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 171 2. आचारांग वृति 376 पत्रांक के आधार पर ".""हेमन्तस्य पंचसु दशसु वा दिनेसु." Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 469-71 175 (3) कई आचार्य पांच और दस दोनों मिला कर 15 दिन व्यतीत होने पर 'ऐसा अर्थ करते हैं। विहारचर्या में दस्यु-अटवी आदि उपद्रव 466. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ जुगमायं पेहमाणे दट्टण तसे पाणे उद्घट्ट पादं रोएज्जा, साहट्ट, पादं रीएज्जा', वितिरिच्छं वा कट्ट, पादं रोएज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 470. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाणं दूइज्जमाणे, अंतरा से पाणाणि वा बोयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिया वा अविद्वत्था, सति परक्कमे जाव णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा / 471. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे, अंतरा से विरूबरूवाणि पच्चंतिकाणि वसुगायतणाणि मिलक्खूणि अणारियाणि दुस्सण्णप्पाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहोणि अकालपरिभोईणि, सति लाढे विहाराए संथरमार्णोहि जणवएहि णो विहारवत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए। केवली बूया-आयाणमेयं / ते गं बाला 'अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं ततो आगते' त्ति कट्ट तं भिक्खं अक्कोसेज्ज वा जाव उववेज्ज वा, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं अच्छिदेज्ज वा भिदेज्ज वा अवहरेज्ज वा परिवेज्ज वा / जह भिक्खूणं पुग्योवदिट्ठा 4 जं तहप्पगाराणि विरूवरूवाणि पच्चंतियाणि दसुगायतणाणि जाव विहारवत्तियाए णो पवज्जेज्जा गमणाए। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा / 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पणी पृ० 171 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 376. (ग) आचाररांग अर्थागम (हिन्दी) पृ० 116 2. इसके स्थान पर पाठान्तर है--साहट पायं रीएज्जा, उक्खिप्पपायं रीएज्जा। 3. अकोसेज्ज वा' से लेकर उवव्दवेज्ज वा तक का पाठ सूत्र 422 के अनुसार सूचित करने के लिए जाव शब्द है। 4. 'अच्छिदेज्ज वा भिदेज्ज वा' के स्थान पर पाठान्तर है...-'अच्छिदेज्जा अभिदेज्जा आच्छिदेज्जा आभि देज्जा।' अर्थ सपान है। 5. परिवेज्ज वा के स्थान पर परिमवेज्जवा पाठ है, अर्थ होता है-नीचा दिखाए, दबाए। 6. 'जाब' शब्द से यहां वसुगायतणाणि से लेकर विहारबत्तियाए तक का पाठ इसी सूत्र के पूर्व पाठ के अनुसार समझें। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 472. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अंतरा से अरायाणि वा जुवरायाणि या दोरज्जाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि बा, सति लाढे विहाराए संथरमाणेहि जणवह जो विहारवत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए / केवली बूया-आयाणमेतं / ते गं बाला अयं तेणे तं चेव जाव' गमणाए / ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 473. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से विहं सिया, से ज्जं पुण विहं जाणेज्जा-एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा पाउणज्जा वा णो' वा पाउणेज्जा। तहप्पगारं विहं अणेगाहगणिज्जं सति लाढे जाव' गमणाए / केवलो बूया-- आयाणमेतं / अंतरा से वासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा बीएसु वा हरिएसु वा उदएसु वा मट्टियाए वा अविद्धत्थाए / अह भिक्खूणं पुन्वोवदिट्ठा 4 जं तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिज्जं जाव णो गमणाए / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 466. साधु या साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार करते हुए अपने सामने की यगमात्र (गाड़ी के जुए के बराबर चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए चले, और मार्ग में प्रसजीवों को देखें तो पैर के अग्रभाग को उठा कर चले / यदि दोनों ओर जीव हों तो पैरों को सिकोड़ कर चले अथवा पैरों को तिरछे-टेढे रखकर चले। (यह विधि अन्य मार्ग के अभाव में बताई गई है) यदि दूसरा कोई साफ मार्ग हो, तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु जीवजन्तुओं से युक्त सरल (सीधे) मार्ग से न जाए। (निष्कर्ष यह है कि) उसी (जीव-जन्तु रहित) मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए। 470. साधु या साध्वी प्रामानुग्राम विचरण करते हुए यह जानें कि मार्ग में बहुत से त्रस प्राणी हैं, बीज बिखरे हैं, हरियाली है, सचित्त पानी है या सचित्त मिट्टी है, जिसकी योनि विध्वस्त नहीं हुई हैं, ऐसी स्थिति में दूसरा निर्दोष मार्ग हो तो साधु साध्वी उसी मार्ग ने यतनापूर्वक जाएँ, किन्तु उस (जीवजन्तु आदि से युक्त) सरल (सीधे) मार्ग से न जाए / (निष्कर्ष यह है कि) उसी (जीवजन्तु आदि से रहित) मार्ग से साधु साध्वी को ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए। 471. प्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में विभिन्न देशों की सीमा पर रहने वाले दस्युओं के, म्लेच्छों के या अनार्यों के स्थान मिलें, तथा जिन्हें बड़ी कठि 1. यहाँ जाव शब्द से अयं तेने से लेकर गमणाए तक का पाठ सूत्र 471 के अनुसार समझें। 2. गोवा पाउणेज्जा के स्थान पर पाठान्तर है-- नो पाउणज्ज वा, नो वा पाउणेज्ज वा। 3. यहाँ जाव शब्द से लाढ़े से लेकर गमणाए तक का पाठ सू० 472 के अनुसार समझें। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 469-73 177 नता से आर्यों का आचार समझाया जा सकता है, जिन्हें दुःख से धर्म-बोध देकर अनार्यकर्मों से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल (कुसमय) में जागनेवाले, कुसमय में खाने-पीनेवाले मनुष्यों के स्थान मिलें तो अन्य ग्राम आदि में बिहार हो सकता हो या अन्य आर्यजनपद विद्यमान हों तो प्रासुक-भोजी साधु उन म्लेच्छादि के स्थानों में विहार करने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे। केवली भगवान् कहते हैं-वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वे म्लेच्छ अज्ञानी लोग साधु को देखकर-'यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गाँव से आया है', यों कह कर वे उस भिक्षु को गाली-गलौज करेंगे, कोसेंगे रस्सों से बाँधेगे, कोठरी में बंद कर देंगे, डंडों से पीटेंगे, अंगभंग करेंगे, हैरान करेंगे यहां तक कि प्राणों से रहित भी कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त वे दुष्ट उसके वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद पोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे, (क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब सम्भव है / ) इसीलिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा, हेतु कारण और उपदेश है कि भिक्षु उन सीमा प्रदेशवर्ती दस्यु स्थानों तथा म्लेच्छ, अनार्य, दुर्बोध्य आदि लोगों के स्थानों में; अन्य आर्यजनपदों तथा आर्य ग्रामों के होते विहार को दृष्टि से जाने का संकल्प भी न करे। अतः इन स्थानों को छोड़ कर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे / 452. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यह जानें कि ये अराजक (राजा से रहित) प्रदेश हैं, या यहाँ केवल युवराज का शासन है, जो कि अभी राजा नही बना है, अथवा दो राजाओं का शासन है, या परस्पर शत्रु दो राजाओं का राज्याधिकार है, या धर्मादि-विरोधी राजा का शासन है, ऐसी स्थिति में विहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते, इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में विहार करने की दृष्टि से गमन करने का विचार न करे। केवली भगवान् ने कहा है--ऐसे अराजक आदि प्रदेशों में जाना कर्मबन्ध का कारण है। क्योंकि वे अज्ञानीजन साधु के प्रति शंका कर सकते हैं कि “यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु राजा के देश से आया है," तथा इस प्रकार की कुशंका से ग्रस्त होकर वे साधु को अपशब्द कह सकते हैं, मार-पीट सकते हैं, उसे हैरान कर सकते हैं, यहां तक कि उसे जान से भी मार सकते हैं। इसके अतिरिक्त उसके वस्त्र, पात्र, कंबल पाद-प्रोंछन आदि उपकरणों को तोड़फोड़ सकते हैं, लूट सकते हैं, और दूर फेंक सकते हैं। इन सब आपत्तियों की सम्भावना से तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा साधुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश निर्दिष्ट हैं कि साधु इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में बिहार की दृष्टि से जाने का संकल्प न करे।" अतः साधु को इन अराजक आदि प्रदेशों को छोड़कर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए / Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध 473. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि आगे लम्बा अटवीमार्ग है / यदि उस अटवी मार्ग के विषय में वह यह जाने कि यह एक दिन में, दो दिन में, तीन दिनों में, चार दिनों में या पांच दिनों में पार किया जा सकता है, अथवा पार नहीं किया जा सकता, तो विहार के योग्य अन्य मार्ग होते, उस अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर अटवी मार्ग से विहार करके जाने का विचार न करे। केवली भगवान कहते हैंऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाने पर, मार्ग में काई. लीलन-फूलन, बीज, हरियाली, सचित्त पानी और अविध्वस्त मिट्टी आदि के होने से संयम की विराधना होनी सम्भव है। इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थकरादि ने पहले से इस प्रतिज्ञा हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि वह साधु अन्य साफ और एकाध दिन में ही पार किया जा सके ऐसे मार्ग के रहते इस प्रकार के अनेक दिनों में पार किये जासकनेवाले भयंकर अटवी-मार्ग से विहार करके जाने का संकल्प न करे। अतः साधु को परिचित और साफ मार्ग से ही यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। विवेचन--ग्रामानुग्राम-विहार : विधि ; खतरे और सावधानी-वर्षावास के सिवाय शेषकाल में साधु साध्वियों के लिए ग्रामानुग्रामविहार करने की भगवदाज्ञा है / सूत्र 466 से ग्रामानुग्राम विहार करने की यह भगवदाज्ञा प्रत्येक सूत्र में दोहराई गई है, साथ ही खतरे बता कर उनसे सावधान रहने का भी निर्देश किया है, परन्तु ग्रामानुग्रामविहार में आने वाले खतरों से डर कर या परीषहों एवं उपसर्गों से घबरा कर साधु वर्ग निराश-खिन्न और उदास होकर एक ही स्थान में न जम जाए, स्थिरवास न करले, इस दृष्टि से से बार-बार ग्रामानुग्राम-विचरण करने के लिए प्रेरित किया है। हाँ, अविधिपूर्वक विहार करने से या जानबूझ कर सूत्रोक्त खतरों में पड़ने से साधु की संयम-विराधना एवं आत्म-विराधना होने की सम्भावना है। विहार की सामान्य विधि यह है कि साधु-साध्वी अपने शरीर के सामने की लगभग चार हाथ (गाड़ी के जुए के बराबर) भूमि के देखते हुए (दिन में ही) चलें / जहाँ तक हो सके वह ऐसे मार्ग से गमन करे, जो साफ, सम, और जीव-जन्तुओं, कीचड़, हरियाली, पानी आदि से रहित हो / इतना होने पर भी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पांच प्रकार के विघ्नों-खतरों से बचने के उपाय शास्त्रकार ने व्यक्त किये हैं - (1) स जीवों से मार्ग भरा हो, (2) त्रस प्राणी, बीज, हरित, उदक और सचित्त मिट्टी आदि मार्ग में हो, (3) अनेक देशों के सीमावर्ती दस्युओं, म्लेच्छों, अनार्यों, दुर्बोध्य एवं अधार्मिक लोगों के स्थान उस मार्ग में पड़ते हों, (4) अराजक, दुःशासक, या विरोधी शासक वाले देश आदि मार्ग में पड़ते हों, (5) अनेक दिनों में पार किया जा सके, ऐसा लम्बा भयंकर अटवी मार्ग रास्ते में पड़ता हो। प्रथम दो प्रकार के मार्ग-विघ्नों के अनायास आ पड़ने पर उन पर यतना पूर्वक चलने Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 466-73 176 की विधि भी बताई है / अन्त के तीन खतरों वाले मार्गों को छोड़कर दूसरे सरल, साफ, खतरों से रहित मार्ग से विहार करने का निर्देश किया है। यतना चार प्रकार की होती है—(१) जीव-जन्तुओं को देखकर चलना, द्रव्य यतना है, (2) युग मात्र भूमि को देखकर चलना, क्षेत्र-यतना है। (3) अमुक काल में ( वर्षा काल को छोडकर चलना. काल-यतना है और (4) संयम और साधना के भाव से उपयोगपर्वक चलना भाव-यतना है।' युग का अर्थ गाड़ी का जुआ होता है, जो आगे से संकड़ा व पीछे से चौड़ा लगभग साढ़े तीन हाथ का होता है। ईर्या-समितिपूर्वक चलने पर दृष्टि का आकार भी लगभग इसी प्रकार का बनता है। शरीर भी अपने हाथ से लगभग इतना ही होता है, इसलिए चूर्णिकार जिनदासमहत्तर ने युग का अर्थ शरीर भी किया है। 'उखट्ट' आदि पदों के अर्थ---'उखट्ट' =पैर को उठाकर, पैर के अगले तल से पैर के रखने के प्रदेश को लांघकर / साहटु =सिकोड़कर, पैरों को शरीर की और खींचकर या आगे के भाग को उठाकर एड़ी से चले / वितिरिच्छं कटु-पैर को तिरछा करके चले। जीव-जन्तु को देखकर, उसे लांघकर चले, या दूसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से नही। दसुगायतणाणि दस्युओं-लुटेरों या डाकुओं के स्थान, पच्चंतिकाणि-प्रत्यन्त सीमान्तवर्ती। मिलक्खूणि ==बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि मलेच्छप्रधान स्थान, दुस्सण्णप्पाणि =जिन्हें कठिनता से आर्य-आचार समझाया जा सकें, ऐसे लोगों के स्थान, चुप्पण्णवणि उजाणिं =दुःख से धर्मबोध दिया जा सके और अनार्य-आचार छुड़ाया जा सके, ऐसे लोगों के स्थान, अकालपडि. मोहीणि =कुसमय में जागने वाले लोगों के स्थान / / 'ला' शब्द की व्याख्या-शीलांकाचार्य ने इस प्रकार की है-"येन, केनचित् प्रासुकाहारोप करणाणि---गतेन विधिनात्मानं यापयति तालयतीति लाढाः।" अर्थात् जिस किसी प्रकार से प्रासुक आहार, उपकरण आदि की विधि से जो अपना जीवन-यापन करता है, आत्मरक्षा करता है, वह लाढ है। यहां पर 'लाढ' विहार योग्य आर्यदेश का विशेषण प्रतीत होता है। अरामाणि आदि पदों की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार इस प्रकार है-अरायाणि =जहाँ का राजा मर गया है, कोई राजा नहीं है। जुवरायाणिजब तक राज्याभिषेक न किया जाए, 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 377 के आधार पर / 2. (क) उत्तराध्ययन सुत्र अ० 24 गा०६, 7 बृहद्वति / (ख) "तावमेत्तपुरमओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धि संठिताए दिछौए / - दशवकालिक जिन० चणि प० 168-05 / 113 3. (क) 'उद्धटु त्ति उक्खिवित्तु अतिक्कमित्तु वा, साहट्ट परिसाहरति निवर्तयतीत्यर्थः / वितिरिच्छं= पस्सेणं अतिक्कमति सति विद्यमाने अन्यत्र गच्छेत् ण उज्जुगं / ' -आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृष्ठ 172 / 4. (क) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति 101113 (ख) निशीथ सूत्र उद्दे० 16 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 आचारांग सूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध तब तक वह युवराज कहलाता है / दोरज्जाणि =जहां एक राज्य के अभिलाषी दो दाबेदार हैं, दोनों कटिबद्ध होकर लड़ते हैं, वह द्विराज्य कहलाता है, वेरज्जाणि =शत्रु राजा ने आकर जिस राज्य को हड़प लिया है, वह वैर-राज्य है / विरुवरज्जाणि =जहां का राजा धर्म और साधुओं आदि के प्रति विरोधी है, उसका राज्य विरुद्ध-राज्य कहलाता है, अथवा जिस राज्य में साधु म्रान्ति से विरुद्ध (विपरीत) गमन कर रहा है, वह भी विरुद्ध राज्य है।' विहं कई दिनों में पार हो सके, ऐसा अटवीमार्ग। नौकारोहण-विधि 474. से भिक्खू वा 2 गामाणुगार्म दूइज्जेज्जा, अंतरा से णावासंतारिमे उदए सिया, से ज्जं पुण गावं जाणेज्जा-असंजते भिक्खुपडियाए किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा, णावाए वा णावपरिणाम कट्ट, थलातो वा णावं जलंसि ओगाहेज्जा, जलातो वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा पुण्णं वा गावं उस्सिचेज्जा, सणं वा णावं उप्पोलावेज्जा, तहप्पगारं णावं उड्ढगाििण वा अहेगामिणि वा तिरियगाििण वा परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए वा अप्पतरे वा भुज्जतरे वा णो दुरुहेज्जा गमणाए। 1. (क) "अणरायं--राया मतो, जुगरायं---जुगराया अत्यि कता वा दावं अभिसिचति / दोरज्ज---दो दाइता भंडंति, वैरज्ज---जत्थ वेरं अण्णण रज्जैण राएण वा सद्धि विरुद्ध गमण यस्मिन राज्ये साधुस्स तं विरुद्धरज्ज।" | -आचारांग चूणि (ख) 'मए रायाणे जाव मूलराया जुवराया य दो वि एए अणभिसित्ता ताब अणरायं भवति / " / -निशीथ चुणि उ०१२ में अन्य भी इसी प्रकार के अर्थ मिलते हैं। (ग) वृहत्कल्प भाष्य 1.2764-65 में वैराज्य-प्रकरण विस्तारपूर्वक बताया गया है। (घ) उत्तराध्ययन 2, टीका पत्र 47 में बताया है--एकल विहारी श्रावती के राजकुमार भद्र को वैराज्य में गुप्तचर समझकर पकड़ लिया था। उसे अनार्यों से बंधवाकर शरीर में तीक्ष्ण दो का प्रवेश कर असह्य वेदना पहुँचाई। 2. 'पाइअ सहमहण्णवों' पृ. ८०८-'विह' शब्द देखें। 3. "किणेज्ज वा" आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है-किणेज्ज- केति (खरीदता है), सड्ढो=श्रद्धी (श्रद्धालु या श्राद्ध = श्रावक) 'दुक्खं दिणे दिणे माग्गिज्जति णावा' = कठिनता से दिनदिन के लिए नाव मांगता है। "पामिच्चं'=उच्छिदति, उधार लेता है। परिणामो णावं परियति, इमा साहण जोग्ग त्ति बडिडया खुड्डिया वा सुदरीति कट'-नौका की अदला-बदली करता है, यह साधु के लिए योग्य है, बढ़िया है, छोटी-सी सुन्दर नौका है, यह सोचकर बदल लेता है / पुण्णा=जल से परिपूर्ण -(भरितिया), सण्णा खुत्तिया चिक्खल्ले कीचड़ में फंसी हुयी :-उड्ढगामिणी व ति अणुसोय ऊर्ध्वगामिनी अनुस्रोतगामिनी, तिरिच्छे तिरियगामिणी-तिरछी चलने वाली। अढजोयणा दूरतरं वा ण गग्छिज्जा अस्पतरो अवजोयण आरेण, भज्जयरो जोयणा परेणं अर्ध योजन से दूर नहीं जाने वाली नौका अप्पतरा (अल्पतरा) है, जो केवल इस पार से उस पार तक जाती है, भुज्जतर-वह हैं, जो योजन से पार जाती है / अहवा एक्कसि अप्पतरो, बहुसो भुज्जयरो-अथवा एक बार जो उपयोग में ली जाती है, वह अल्पतरा है, जो बारम्बार उपयोग में ली जाती है, वह भूयस्तरा है। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 474-82 475. से भिक्खू वा 2 पुन्वामेव तिरिच्छसंपातिमं णावं जाणेज्जा, जाणित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, 2 (त्ता] भंडगं पडिलेहेज्जा, 2 [त्ता] एगाभोयं भंडगं करेज्जा, 2 (त्ता] ससोसोवरियं कायं पाए (य) पमज्जेज्जा, 2 [त्ता] सागारं भत्तं पच्चक्खाएज्जा, 2 [त्ता) एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा ततो संजयामेव णावं दुरुहेज्जा / 476. से भिक्खू वा 2 णावं दुरुहमाणे णो णावातो पुरतो दुरुहेज्जा, णो णावाओ' मग्गतो दुरुहेज्जा, णो णावातो मतो दुरुहेज्जा, णो बाहाओ पगिझिय 2 अंगुलियाए उद्दिसिय 2 ओणमिय 2 उष्णमिय 2 णिज्झाए ज्जा। 477. से गं परो गावागतो णावागयं वदेज्जा–आउसंतो समणा ! एतं ता तुमं णावं उक्कसाहि वा वोक्कसाहि वा खिवाहि वा रज्जए वा गहाय आकसाहि। णो से तं परिण' परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उवेहेज्जा। 478. से गं परो गावागतो णावागतं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! णो संचाएसि तुम णावं उपकसित्तए वा वोक्कसित्तए वा खिवित्तए वा रज्जुए वा गहाय आकसित्तए. आहर एयं णावाए रज्जुयं, सयं चेवं गं वयं णावं उक्कसिस्सामो वा जाव रज्जूए वा गहाय आकसिस्सामो। णो से तं परिणं परिजाणेज्जा, तुसिणीओ उबेहेज्जा। 476. से गं परो णावागतो णावागयं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! एतं ता तुम णावं भलितण वा पिट्टेण वा वंसेण वा वलएण वा अवल्लएण वा वाहेहि / णो से तं परिणं जाव उवेहेज्जा। __ 480. से णं परो णावागतो णावागयं वदेज्जा–आउसंतो समणा! एतं ता तुमं णावाए उदयं हत्येण वा पाएण वा मत्तेण वा पडिग्गहएण वा णावास्सिचणएण वा उस्सिचाहि। णो से तं परिणं परिजाणेज्जा [0] / ___ 481. से णं परो णावागतो णावागयं वएज्जा--आउसंतो समणा ! एतं ता तुम 1. 'णावातों के स्थान पर 'णावाएं पाठान्तर है। अर्थ है-नाव पर। 2. चणिकार.-'णो से तं परिणं परिजाणेज्जा'--का तात्पर्य समझाते हैं.--'ण तस्स तत्प्रतिज्ञ' 'परिया ज्जा' आढाएज्जा करिज्ज वा / तुसिणीओ 'उबेहेज्जा अच्छिज्जा ।'-उसकी उस प्रतिज्ञा-प्रार्थना को आदर न दे, न माने न करे। मौन रहे. उपेक्षाभाव रखे। 3. यहाँ जाब शब्द सूत्र 477 के अनुसार उक्कसिस्सासो से लेकर रज्जूए तक के पाठ का सूचक है। तुलना कीजिए---'जे भिक्खू णावं अलित्तण वा पिछेण (पप्फिडएण) वा वसेण वा वलएण वा वाहेइ, वाहतं वा सातिज्जति.......।' ---निशीथ चूणि 18/17. 5. [0]ऐसा चिम्ह जहाँ-जहाँ है, वहाँ-वहाँ उसका अवशिष्ट सारा पाठ समझ लेना चाहिए / Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 आचारांग सूत्र----द्वितीय श्रतस्कन्ध णावाए उत्तिगं हत्थेण वा पाएण या बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सोसेण वा काएण वा णावास्सिचणएण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविदेण वा पिहेहि / णो से तं परिणं परिजाणेज्जा ?] / 482. से भिक्खू वा 2 णावाए उत्तिगेण उदयं आसवमाणं पेहाए, उवरूवरि णावं कज्जलावेमाणं पेहाए, णो परं उवसंकमित्तु एवं बूया---आउसंतो गाहावति ! एतं ते णावाए उदयं उत्तिगेण आसवति, उवरूवरि वा णावा कज्जलावेति / एतप्पगारं मणं वा वायं वा णो पुरतो कटु विहरेज्जा / अप्पुस्सुए' अबहिलेस्से एगत्तिगएणं अप्पाणं वियोसेज्ज समाधोए / ततो संजतामेव णावासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा। 474. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि मार्ग में नौका द्वारा पार कर सकने योग्य जल (जलमार्ग) है; (तो वह नौका द्वारा उस जलमार्ग को पार कर सकता है।) परन्तु यदि वह यह जाने कि वह नौका असंयत-गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देकर (किराये से) खरीद रहा है, या उधार ले रहा है, या अपनी नौका से उसकी नौका की अदलाबदली कर रहा है, या नाविक नौका को स्थल से जल में लाता है, अथवा जल से उसे स्थल में खींच ले जाता है, पानी से भरी हुई नौका से पानी उलीचकर खाली करता है, अथवा कीचड़ में फंसी हुई नौका को बाहर निकालकर साधु के लिए तैयार करके साधु को उस पर चढ़ने की प्रार्थना करता है तो इस प्रकार की नौका (पर साधु न चढे / ) चाहे वह ऊर्ध्वगामिनी हो, अधोगामिनी हो या तिर्यग्गामिनी, जो उत्कृष्ट एक योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, या अर्द्ध योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, एक बार या बहुत वार गमन करने के लिए उस नौका पर साधु सवार न हो / अर्थात्-ऐसी नौका में बैठकर नदी (जलमार्ग) को पार न करे। 475. [कारणवश नौका में बैठना पड़े तो] साधु या साध्वी सर्वप्रथम तिर्यग्गामिनी नौका को जान-देख ले। यह जान कर वह गृहस्थ की आज्ञा को लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर भण्डोपकरण का प्रतिलेखन करे. तत्पश्चात सभी उपकरणों को इकट्ठे करके बांध ले। फिर सिर से लेकर पैर तक शरीर का प्रमार्जन करे / तदनन्तर आगारसहित आहार का अप्पुस्सुए आदि पदों का अर्थ चणिकार के अनुसार--"अप्पृस्सओम जीविय-मरणे हरिसं ण गच्छति / अवहिलेस्से-कहादि तिण्णि बाहिरा, अहवा उवमरणे अज्झोववष्णो बहिलेसो, ण बहिलेसो अबहिलेस्सो / एमतिगतो- 'एगो मे सासभो अप्पा' अहवा उबगरणं मुतित्ता एगभूतो। वोसज्ज== उवगरण सरीरादि / समाहाणं-समाधी। संजतगं, ण चडफडतो उदगसंघट करेति एवं अधारिया जहा रिया इत्यर्थः।" अप्पुस्सुओ=जिसे जीने-मरने का हर्ष-शोक नहीं है। अबहिलेस्से =कृष्णादि तीन लेश्याएं बाह्य हैं। अथवा उपकरण में आसक्त बाह्यलेश्या वाला है। एगत्तिगतो- मेरा शाश्वत आत्मा अकेला है, इस भावना से ओत-प्रोत अथवा उपकरणों का त्याग करके एकीभूत / वोसज्जम्-उपकरण, शरीर आदि का व्युत्सर्ग करके, समाधी-समाधान, चित्त की स्वस्थता। यानी यथार्थ-आर्योपदिष्ट रीति के अनुसार। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 474-82 183 प्रत्याख्यान (त्याग) करे। यह सब करके एक पैर जल में और एक स्थल में रख कर यतनापूर्वक उस नौका पर चढ़े। 476. साधु या साध्वी नौका पर चढ़ते हुए न नौका के अगले भाग में बैठे, न पिछले भाग में बैठे और न मध्यभाग में। तथा नौका के बाजुओं को पकड़ पकड़ कर, या अंगुली से बता-बताकर (संकेत करके) या उसे ऊंची या नीची करके एकटक जल को न देखे। 477. यदि नाविक नौका में चढ़े हुए साधु से कहे कि "आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस नौका को ऊपर की ओर खींचो, अथवा अमुक वस्तु को नौका में रखकर नौका को नीचे की ओर खींचो, या रस्सी को पकड़कर नौका को अच्छी तरह से बांध दो, अथवा रस्सी से इसे जोर से कस दो।" नाविक के इस प्रकार के (सावधप्रवृत्यात्मक) वचनों को स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण कर बैठा रहे / 478. यदि नौकारूढ़ साधु को नाविक यह कहे कि-आयुष्मन् श्रमण ! यदि तुम नौका को ऊपर या नीचे की ओर खींच नहीं सकते, या रस्सी पकड़ कर नौका को भलीभांति बांध नहीं सकते या जोर से कस नहीं सकते, तो नाव पर रखी हुई रस्सी को लाकर दो। हम स्वयं नौका को ऊपर या नीचे की ओर खींच लेंगे, रस्सी से इसे अच्छी तरह बाँध देंगे और फिर रस्सी से इसे जोर से कस देगें।" इस पर भी साध नाविक के इस वचन को स्वीकार न करे, चुपचाप उपेक्षाभाव से बैठा रहे। 476. यदि नौका में बैठे हुए साधु से नाविक यह कहे कि-आयुष्मन् श्रमण ! जरा इस नौका को तुम डांड (चप्पू) से, पीठ से, बड़े बाँस मे, बल्ली से और अबलुक (बांसविशेष) से तो चलाओ।" नाविक के इस प्रकार के वचन को मुनि स्वीकार न करे, बल्कि उदासीनभाव ये मौन होकर बैठा रहे। 480. नौका में बैठे हुए साधु से अगर नाविक यह कहे कि --आयुष्मन् श्रमण ! इस नौका में भरे हुए पानी को तुम हाथ से, पैर मे, भाजन से या पात्र से, नौका से उलीच कर पानी को बाहर निकाल दो।" परन्तु साधु नाविक के इस वचन को स्वीकार न करे, वह मौन होकर बैठा रहे। 481. यदि नाविक नौकारूढ़ साधु से यह कहे कि-आयुष्मन् श्रमण ! नाव में हुए इस छिद्र को तो तुम अपने हाथ से, पैर से, भुजा से, जंघा से, पेट से, सिर से या शरीर से, अथवा नौका के जल निकालने वाले उपकरणों से, वस्त्र में, मिट्टी मे, कुशपत्र से, कुरुविंद नामक तृण विशेष से बन्द कर दो, रोक दो।" साधु नाविक के इस कथन का स्वीकार न करके मौन धारण करके बैठा रहे। 482. वह साधु या साध्वी नौका में छिद्र से पानी आता हुआ देखकर, नौका को उत्तरोत्तर जल से परिपूर्ण होती देखकर, नाविक के पास जाकर यों न कहे कि "आयुष्मन् गृहपते ! तुम्हारी इस नौका में छिद्र के द्वारा पानी आ रहा है, उत्तरोत्तर नौका जल से परि Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध पूर्ण हो रही है।" इस प्रकार से मन एवं वचन को आगे-पीछे न करके साधु-विचरण करे। वह शरीर और उपकरणादि पर मूर्छा न करके तथा अपनी लेश्या को संयमबाह्य प्रवृत्ति में न लगाता हुआ अपनी आत्मा को एकत्व भाव में लीन करके समाधि में स्थित अपने शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करे। इस प्रकार नौका के द्वारा पार करने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थकरों ने विधि बताई है. उस विधि का विशिष्ट अध्यवसायपूर्वक पालन करता हुआ विचरण करे। . विवेचन-नौकारोहण : विघ्न-बाधाएं और समाधान-जहाँ इतना जल हो कि पैरों से चल कर मार्ग पार नहीं किया जा सकता, वहां साधु को जलयान में बैठकर उस मार्ग को पार करने का शास्त्रकार ने विधान किया है। साथ ही यह भी बताया है कि साधु किस प्रकार की नौका में, किस विधि से चढ़े ? नौका में बैठने के बाद नाविक द्वारा नौका को रस्सी से बांधने, डांड आदि से चलाने, नौका में भरे हुए पानी को बाहर निकालने, छिद्र बंद करने आदि सावध कार्यों के करने का कहे जाने पर साधु न उन्हें स्वीकार करे, और न ही तेजी से प्रविष्ट होते हुए जल से डूबती-उत्तराती नौका को देखकर नाविक को सावधान करे। निष्कर्ष यह है कि शास्त्रकार ने नौकारोहण के सम्बन्ध में साधु को इन 6 सूत्रों द्वारा विशेषतया 4 बातों का विवेक बताया है- (1) नौका में चढ़ने से पूर्व, (2) नौका में चढ़ते समय, (3) नौका में बैठने के बाद और (4) नदी पार करके नौका से उतरने के बाद।' सूत्र 482 द्वारा एक बात स्पष्ट ध्वनित होती है, जिसका संकेत 'एतप्पगारं मणं वा... वियोसेज्ज समाधीए' इन दो पंक्तियों द्वारा शास्त्रकार ने कर दिया है / जिस समय नौका में अत्यधिक पानी बढ़ जाए और वह डूबने लगे, उस समय साधु क्या करे ? वह मन में आर्त्तध्यान का भाव न लाए, न ही शरीर और उपकरणादि के प्रति आसक्ति रखे। एक मात्र आत्मकत्वभाव में लीन होकर शुद्ध आत्मा का स्मरण करता हुआ समाधिभाव में अचल रहे। जल-समाधि लेने का अवसर आए तो शरीरादि का विसर्जन करने में तनिक भी न घबराए। और यदि शुभयोग में नौका डूबती बच जाए, और सुरक्षितरूप से साधु नौका से जलमार्ग पार कर ले तो वह तीर्थकरोक्त विधि का पालन करके फिर आगे बढ़े। 'उस्सिनेज्जा' आदि पदों के अर्थ-उस्सिंचज्जा–नाव में भरे हुए पानी को उलीच कर बाहर निकाले, सण्णं-कीचड़ में फंसी हुई: उप्पोलावेज्जा-बाहर निकाले / उड्ढगामिणी = ऊर्ध्वगामिनी= अनुस्रोतगामिनी, अहेगामिगि अधोगामिनी--प्रतिस्रोतगामिनी, तिरि यगामिणि तिरछी (आडी) गमन करने वाली, नदी के इस पार से उस पार तक जाने वाली। 1. टीका पत्र 378 के आधार पर। 2. आचारांग चूणि, मूल पाठ टिप्पणी पृ० 178 3. आचारांग चूणि , मूल पाठ टिप्पणी पृ० 174 / Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 482 185 एगाभोयं भंडगं करेज्जा का भावार्थ है-पात्रों को इकट्ठे बाँध कर उन पर उपधि को अच्छी तरह जमा देता है। इस प्रकार सब उपकरणों को इकट्ठा करले। निशीथर्णि में इस प्रकार उपकरणों को एकत्रित करके बाँधने का कारण बताया है कि "कदाचित कोई द्वेषी या विरोधी नौकारूढ़ साधु को जल में फेंक दे तो वह मगरमच्छ के भय से एकत्रित किए हुए पात्रों पर चढ़ सकता है, पात्र एकत्रित होंगे तो उनको छाती से बांधकर वह तर भी सकता है / नौका विनष्ट हो जाने पर भी साधु एकत्रित किए हुए पात्रादि से पानी पर तैर सकता है।" ‘णो णावातो पुरतो दुरुहेज्जा' आदि पवों की व्याख्या नौका के अग्रभाग में नहीं चढना (बैठना) चाहिए, अग्रभाग में नौका का सिर है, वहां नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह देवता का स्थान माना जाता है, तथा निर्यामकों के द्वारा उपद्रव की भी सम्भावना है, वहाँ बैठने से, एवं नौकारोहियों के आगे बैठने से प्रवृत्ति का झगड़ा बढ़ने की सम्भावना है। नौका के पृष्ठ भाग में भी नहीं बैठना चाहिए, वहाँ तेजी से बहते हुए जल को देखकर गिर पड़ने का भय रहता है। पृष्ठ भाग में निर्यामक तोरण का स्थान माना जाता है। और मध्य में भी बैठने का निषेध है, क्योंकि वहाँ कूपकस्थान माना जाता है। वहां आने-जाने का मार्ग रहता है। बृहत्कल्पसूत्र वृत्ति में बताया गया है कि मध्य में-कूपकस्थान को छोड़कर बैठना 1. (क) बृहकल्प सूत्र वृत्ति पृ० 1468 (ख) एगाभोगो उबही कज्जो, कि कारणं? कयाइ पडिणीएहि उदगे छुन्भेज्ज, तत्थ मगरभया एगा भोगकएसु पादेसु आरुभइ, एगाभोगकएस् वा बुज्झइ, तरतीत्यर्थः। नावाए वा विणहाए एगाओगकते दगं तरतीत्यर्थः ....भायणे य एमाभोंगे बंधित्ता तेसि उरि उवहिं सुनियमित करेइ, भायणमुवहि च एगट्ठा करोतीत्यर्थः।-निशीथ चूणि उद्दे० 12 पृ० 374 (ग) आचारांग चूणि में इसकी व्याख्या यों की गई है-"एगायतं भंडग, तिन्नि हेट्ठामुहे भातरो करेति, उवरि भडंगए पडिग्गहं एग जुयगं करेति -." एकत्रित भंडोपकरण को एकायत कहते हैं। तीन भाजन अधोमुख रस्ते, ऊपर भंडक, उस पर एक पात्र, उसके साथ एकजुट करे। 2. णो णावातो पुरतो"आदि पदों की व्याख्या निशीथचूणि में इस प्रकार की गई है-"ठाणतियं मोत्तूण ठाति तत्थशाबाहे....॥१६॥ देवताट्राणं कूयट्ठाणं निज्जामगट्टाणं / अहवा पुरतो मज्झ पिट्ठओ, पुरओ देवयट्ठाणं, मज्झे सिवट्ठाण, पच्छा तोरणहाणं, एते वज्जिय तत्थ णावाए अणाबाहे ट्ठाणे टायति / उवउत्तो त्ति णमोक्कारपरायणो सागारपच्चक्खाणं य द्वाति ।"-अर्थात् नौकारोहण की विधि बताते हुए कहते हैं कि तीन स्थान छोड़ कर अनाबाध स्थान में बैठना चाहिए। तीन स्थान ये हैं-१. देवता स्थान, 2. कूप स्थान और 3. निर्यामकस्थान / अर्थात् सबसे आगे-सिर पर देवता स्थान हैं, वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मध्य में कपकस्थान है, वहाँ आने-जाने का मार्ग रहता है, वहाँ भी न ठहरना चाहिए। और सबसे अन्त में (पीछे) तोरणस्थान है, वहाँ निर्यामक बैठता है। इन तीनों स्थानों को छोड़कर मध्य में किसी स्थान पर-निराबाध रूप से बैठे। उपयुक्त का अर्थ है-नमस्कार मंत्र-परायण होकर सागारी अनशन का प्रत्याख्यान करके बैठना / -निशीथ चणि पृ०७३-७४ तथा उ० 12 प०३७३ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध चाहिए। तथा नमस्कार मंत्र का-पारायण करके सागारी अनशन का प्रत्याख्यान ग्रहण करके बैठे। ___'उकसाहि' आदि पदों के अर्थ-चूर्णिकार इस प्रकार अर्थ करते हैं-उवक्कसाहि=समुद्री हवा के कारण ऊपर की ओर खींचो, वोपकसाहिनीचे की ओर खींचो, वस्तु या भंड के साथ खिबाही नौका को रस्सी से बांधो, लंगर डालो। गो परिणं परिजाणेज्जा उस (नाविक) की उस प्रतिज्ञा (बात) को न माने, आदर न दे, न ही क्रियान्वित करे / मौन रहे / अलित गडांड अथवा चप्पू से, पिट्टग-पृष्ठ भाग से, बलुएग-बल्ली से, वाहेहि = नौका को चलाओ। उत्तिर्ग = छिद्र, सूराख / कुविरेण-मिट्टी के साथ मोदती (गुलवंजणी) पीपल, बड़ आदि की छाल कूट कर बनाए हुए मसाले से। कज्जलावेमा=पानी से भरती हुयी, (प्लाव्यमानां) डूबती हुयी। अप्पुस्सुए जिसको जीवित और मरण में हर्ष शोक न हो। अबहिलेसे = कृष्णादि तीन लेश्याएं बाह्य हैं, अथवा उपकरण में आसक्ति बहिर्लेश्या है, जिसके बहिर्लेश्या न हो, वह अबहिर्लेश्य है। एगत्तिगए गं=एगो मे सासमो अप्पान्यों आत्मकत्वभाव में लीन, वियोसेज्न उपकरण, शरीर आदि का व्युत्सर्ग करे। 483. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव?हिं [समिए] साहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि / ___483. यही (ईर्याविषयक विशुद्धि ही) उस भिक्षु और भिक्षुणी की समग्रता है / जिसके लिए समस्त अर्थों में समित, ज्ञानादि सहित होकर वह सदैव प्रयत्न करता रहे। --ऐसा मैं कहता हूं। // पढमो उद्देसओ समत्तो // 1. नावः शिरसि न स्यातव्यं...'मातोपि न स्थातव्यं ...... मध्येऽपि यत्र कूपस्थानं तत्र न स्थातव्यं ....."साकारं भक्तं प्रत्याख्याय नमस्कारपरिस्तिष्ठति। --बृहत्कल्प सूत्र वृत्ति पृ० 1468 / 2. 'उत्तिगेण आसवति'-आदि पदों का भावार्थ णिकार ने यों दिया है-"उत्तिगेणं आसवति, उरि गंडुसे गेण्हति, कज्जलति ति पाणितेणं भरिजति"--अर्थात् छिद्र से पानी आ रहा है, ऊपर मुंह में उसे ग्रहण करता है, लेता है / कज्जलति --पानी से नौका भर रही है, या डूब रही है। -आचाराग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 177 3. निशीथचूणि में कुविद आदि पदों के अर्थ- मोदती, बड़, पीपल / “आसत्यमादियाण वक्को मट्टियाए सह कुट्टिजति सो कुविदो भणति / " गुलवंजणी, बड़, पीपल, अश्वत्थ आदि की छाल को मिट्टी के साथ कूटा जाता है, उसको ही कुविन्द कहते हैं / "फिह-अवल्लाणं तणुयतरं दीहं, अलितगित्ती अलितं / आसोत्थो पिप्पलो तस्स पत्तस्स रु दो फिहो भवति ।"-फिह और-अवल के पतले, लम्बे अलिप्ताकार सा लगता है, वह अलित्तक है। अश्वत्थ, पीपल और उनके पत्तों को कूटकर पिण्ड बनाया जाता है, उसे फिह कहते हैं। अथवा कपड़े के साथ मिट्टी कुटी जाती है, उसे चेलमट्रिया कहते हैं। इत्यादि मसालों से नौका के सूराख को बंद किया जाता है। -निशीथ पूणि उ०१८ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 484-6.1 187 - बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक नौकारोहण में उपसर्ग आने पर : जल-तरण 484. से णं परो गावागतो गावागयं वदेज्जा आउसंतो समणा ! एतं ता तुम छत्तगं वा जाव चम्मछेदणगं वा गेण्हाहि, एताणि ता तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि, एवं ता तुमं दारगं वा दारिगं वा पज्जेहि,' णो से तं परिणं परिजाणेज्जा, तुसिणोओ उवेहेज्जा 485. से णं परो णावागते गावागतं वदेज्जा-आउसंतो! एस णं समणे णावाए भंडभारिए भवति, से गं बाहाए गहाय गावाओ उदगंसि पक्खिवेज्जा। एतप्पगारं निग्धोसं सोच्चा णिसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चोवराणि उव्वेढेज्ज वा णिवेढेज्ज वा, उप्फेसं वा करेज्जा। ___486. अह पुणेवं जाणेज्जा-अभिकंतकूरकम्मा खलु बाला बाहाहि गहाय गावाओ उदगंसि पक्खिवेज्जा / से पुदामेव वदेज्जा-आउसंतो गाहावती ! मा मेत्तो बाहाए गहाय णावातो उदगंसि पक्खिवह, सयं चेव णं अहं णावातो उदगंसि ओगाहिस्सामि / __ से णेवं ववंतं परो सहसा बलसा बाहाहि गहाय णावातो उदगंसि पक्खिवेज्जा, तं णो मुमणे सिया', णो दुम्मणे सिया, णो उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, णो तेसि बालाणं घाताए 1. 'पज्जेहि' का तात्पर्य चूणिकार के शब्दों में "दारगं वा दारिगं वा पजहि त्ति, भुंजावेहि धरेहि वा ज्जा, अम्हे णावाए कम्मंकरे।' अर्थात बालक या बालिका को पानी पिलायो. खिलाओ. , पकड़े रखो, ले जाओ, हम नौका पर काम करेंगे। 2. 'परो णावागते गावागतं वदेज्जा' का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में--"नौगतस्तत्स्थं साधुमुद्दिश्यापरमेवं ब्र यात।" अर्थात-"मौका में बैठा हआ व्यक्ति नौका में स्थित साधु को उद्देश्य करके दूसरे नौकारोही से ऐसा कहे....."" 3. भंडभारिए' के स्थान पर 'भंडभारिते' पाठान्तर मानकर चूर्णिकार ने व्याख्या को है- "भडभारिते जहा भंडभारियं ण वा किंचि करेति / " अर्थात्-माण्ड-वस्तुएँ निर्जीव-निश्चेष्ट होने के कारण केवल भारभूत होती हैं, वे कुछ करती नहीं, वैसे ही यह (साधु) है। 4. उन्वेढेज्जा या णिग्वेज्ज वा के स्थान पर पाठान्तर है-"उबेहेज्जवा णिवेज्ज वा', उवट्टे वा निविटिज था।" अर्थ क्रमशः यों है- (1) उपेक्षा करे, निःस्पृह हो जाए, (2) उलट दे, निकाल दे। इन पदों का आशय चूणिकार के शब्दों में देखिए -"थेरा उब्वेति, जिणकप्पितो उप्फैसि करेति / उप्फेसो नाम कुडियंडी सीसकरणं / " अर्थात् स्थविरकल्पिक मुनि कपड़े लपेट लेते है, जिनकल्पिक मुनि उम्फेसीकरण करते हैं। उप्फेस कहते हैं- बोने की तरह सिर को सिकोड़ लेना। 5. 'गो सुमणे सिया' का भावार्थ चूकिार ने दिया है---'मुक्कोमि पंतोबहिस्स'-उस समय मन में अप्रसन्न न हो, इसका आशय यह है कि "साधु मन में यह न सोचे कि चलो, खराब उपधि से छुटकारा मिला, (अब नयी उपधि भक्तों से मिलेगी।") Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वहाए समुट्ठज्जा / अप्पुस्सुए जाव समाहीए / ततो संजयामेव ,उदगंसि पवजे (पवे) ज्जा। 487. से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे णो हत्थेण हत्थं पादेण पादं काएण कार्य आसादेज्जा / से अणासादए अणासायमाणे ततो संजयामेव उदगंसि पवेज्जर। 488 से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे णो उम्मुग्ग-णिमुग्गियं करेज्जा, मा मेयं उदयं करणेसु वा अच्छोसु वा णक्कंसि वा मुहंसि वा परियावज्जेज्जा, ततो संजयामेव उदगंसि पवेज्जा। 486. से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे' बोधलियं पाउणेज्जा, खिप्पामेव उवधि विगिचेज्ज वा विसोहेज्ज बा, णो चेव णं सातिज्जेज्जा / 460. अह पुणेवं जाणेज्जा-पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए / ततो संजयामेव उदउल्लेण वा ससणिण वा काएण दगतीरए चिट्ठज्जा। 461. से भिक्खू वा 2 उदउल्लं वा ससणिद्ध वा कार्य णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा संलिहेज्ज वा णिल्लिहेज्ज वा उव्वलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा आतावेज्ज वा पयावेज्ज वा। अह पुणेवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए छिण्णसिणेहे / तहप्पगारं कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 484. नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि यदि नौकारूढ़ मुनि से यह कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम जरा हमारे छत्र, भाजन वर्तन, दण्ड, लाठी, योगासन, नलिका, वस्त्र, यवनिका मृगचर्म, चमड़े की थैली, अथवा चर्म-छेदनक शस्त्र को तो पकड़े रखो; इन विविध शस्त्रों को तो धारण करो, अथवा इस बालक या बालिका को पानी पिला दो; तो वह साधु उसके उक्त वचन को सुनकर स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। 485. यदि कोई नौकारूढ़ व्यक्ति नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ से इस प्रकार कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! यह श्रमण जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत है, (न यह कुछ सुनता है, न कोई काम ही करता है !) अतः इसकी बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दो।' इस प्रकार की बात सुनकर और हृदय में धारण करके यदि वह मुनि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही फटे-पुराने वस्त्रों को खोल कर अलग कर दे और अच्छे वस्त्रों को अपने शरीर पर अच्छी तरह बाँध कर लपेट ले, तथा कुछ वस्त्र अपने सिर के चारों ओर लपेट ले। 486. यदि वह साधु यह जाने कि ये अत्यन्त ऋ रकर्मा अज्ञानी जन अवश्य हो मुझे बांहें पकड़ नाव से बाहर पानी में फेंकेंगे / तब वह फेंके जाने से पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बो 1. पवमाणे के स्थान पर पाठान्तर है-पवदमाणे। अर्थ है-गिरता हुआ। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 484-61 186 धित करके कहे...-"आयुष्मन् गृहस्थो ! आप लोग मुझे बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में मत फेंको; मैं स्वयं ही इस नौका से बाहर होकर जल में प्रवेश कर जाऊँगा।" साधु के द्वारा यों कहते-कहते कोई अज्ञानी नाविक सहसा बलपूर्वक साधु को बांहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दे तो (जल में गिरा हुआ) साधु मन को न तो हर्ष से युक्त करे और न शोक से ग्रस्त / वह मन में किसी प्रकार का ऊँचा-नीचा संकल्प-विकल्प न करे, और न ही उन अज्ञानी जनों को मारने-पीटने के लिए उद्यत हो / वह उनसे किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने का विचार भी न कर / इस प्रकार वह जलप्लावित होता हुआ मुनि जीवन-मरण में हर्षशोक से रहित होकर, अपनी चित्तवृत्ति को शरीरादि बाह्य वस्तुओं के मोह से समेटकर, अपने आपको आत्मैकत्वभाव में लीन कर ले, और शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करके आत्म-समाधि में स्थिर हो जाए। फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए / 487. जल में डूबते समय साधु या साध्वी (अप्काय के जीवों की रक्षा की दृष्टि से) अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पैर से दूसरे पैर का, तथा शरीर के अन्य अंगोंपांगों का भी परस्पर स्पर्श न करे / वह (जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुंचाने की दृष्टि से) परस्पर स्पर्श न करता हुआ इसी तरह यतनापूर्वक जल में बहता हुआ चला जाए। 488. साधु या साध्वी जल में बहते समय उन्मज्जन-निमज्जन (डुबकी लगाना और बाहर निकलना) भी न करे; और न इस बात का विचार करे कि यह पानी मेरे कानों में आंखों में, नाक में या मुह में न प्रवेश कर जाए। बल्कि वह यतनापूर्वक जल में (समभाव के साथ) बहता जाए। 486. यदि साधु या साध्वी जल में बहते हुए दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि (उपकरण) का त्याग कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे। 460. यदि वह यह जाने कि मैं उपधि सहित ही इस जल से पार होकर किनारे पहुँच जाऊँगा, तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे। ___461. साधु या साध्वी जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे न उसे एक या अधिक बार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मैल उतारे / वह भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे।। जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंद या जल का लेप भी नहीं रहा है, तभी अपने हाथ से उस (प्रकार के सूखे हुए) शरीर का स्पर्श करे, उसे सहलाए, उसे रगड़े, मर्दन करे यावत् धूप में खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक गर्म भी करे। तदनन्तर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे / Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध विवेचन-नौकारोहण : धर्मसंकट और सहिष्णुता-पिछले आठ सूत्रों में नौकारोहण करने पश्चात् आने वाले धर्मसंकट और उससे पार होने की विधि का वर्णन किया गया है। नौकारूढ़ मुनि पर आने वाले धर्मसंकट इस प्रकार के हो सकते हैं--(१) नौकारूढ़ मुनि को मुनिधर्मोचित मर्यादा से विरुद्ध कार्य के लिए कहें, (2) मौन रहने पर वे उसे भला-बुरा कह कर पानी में फेंक देने का विचार करें, (3) मुनि उन्हें वैसा न करने को कुछ कहे-समझाए उससे पहले ही वे उसे जबरन पकड़ कर जल में फेंक दें। इन संकटों के समय मुनि को क्या करना चाहिए इसका विवेक शास्त्रकार ने इस प्रकार दिया है--(१) मुनि, धर्म-विरुद्ध कार्यों को स्वीकार न करे, चुपचाप बैठा रहे, (2) जल में फेंक देने की बात कानों में पड़ते ही मुनि अपने सारे शरीर पर वस्त्र लपेटने की क्रिया करे (3) मुनि के मना करने और समझाने पर भी जबर्दस्ती उसे जल में फेंक दें तो वह मन में जल-समाधि लेकर शीघ्र ही इस कष्ट से छुटकारा पाने का न तो हर्ष करे, न ही डूबने का दुःख करे, न ही फेंकने वालों के प्रति मन में दुर्भावना लाए, न मारने-पीटने के लिए उद्यत हो। समाधिपूर्वक जल में प्रवेश करे। जल प्रवेश के बाद मुनि क्या करे. क्या न करे? इसकी विधि सूत्र 487 से 461 तक पाँच सूत्रों में भली भांति बता दी है। अहिंसा, संयम, ईर्यापथप्रतिक्रमण और आत्मसाधना की दृष्टि से ये विधि-विधान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।' 'पज्जेहि' आदि पदों के अर्थ---पज्जेहि पानी पिलाओ, परिणं परिज्ञा (निवेदन) या प्रार्थना 'भण्डभारिए = निर्जीव वस्तुओं की तरह निश्चेष्ट होने से भारभूत है। उब्वेढेज्ज= निरुपयोगी वस्त्रों को खोलकर निकाल दे, णिग्वेढेज्ज-उपयोगी वस्त्रों को शरीर पर अच्छी तरह बाँध कर लपेट ले, उपस वा करेज्जा=सिर पर कपड़े लपेट ले। (यह विधि स्थविरकल्पी के लिए हैं, जिनकल्पी के लिए उप्फेसीकरण का विधान है, यानी वह सिर आदि को बोने की तरह सिकोड़ कर नाटा कर ले / अभिक्कतकरफम्मा-ऋ र कर्म के लिए उद्यत, बलसाबलपूर्वक, विसोहेज-त्याग दे, संलिहेज्ज णिलिहेज्ज =न थोड़ा-सा घिसे, न अधिक घिसे / ईया-समिति विवेक 462. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो परेहि सद्धि परिजविय 2 गामाणगामं दूइज्जेज्जा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 376 के आधार पर 2. (क) वही, पत्रांक 376-380 (ख) आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 178-176-180 (ग) पाइअसद्दमहण्णवो 3. 'परेहि सदि परिजविय' का आशय चर्णिकार ने इस प्रकार व्यक्त किया-परे-मिहत्था अण्ण उत्थिता वा, परिजविय करतो, जातिधम्मं कहेंतो, संजम-आयविराहणा तेणएहि वा धेप्पेज्जा।" अर्थात्--पर यानी गृहस्थ या अन्यतीथिक / उनके साथ बकवास करने से अथवा जाति-धर्म कहने से। ऐसा करने से संयम और आत्मा की विराधना होती है, चोरों के द्वारा भी पकड़ लिया जा सकता है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 463-67 462. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए गृहस्थों के साथ बहुत अधिक वार्तालाप करते न चलें, किन्तु ईयर्यासमिति का यथाविधि पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करें। विवेचन-विहार के समय ईर्यासमिति का ध्यान रहे इस सूत्र में मुनि को विहार करते हुए गृहस्थों के साथ लम्बी-चौड़ी गप्पें मारते हुए चलने का निषेध किया है, क्योंकि बातें करने में ध्यान ईर्या से हट जाता है, ईर्याशुद्धि ठीक तरह से नहीं हो सकती, जीवहिंसा की संभावना है। 'परिजविय' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-अत्यधिक वार्तालाप करता-करता।' गंधाप्रमाण-जल-संतरण-विधि 463. से भिक्ख वा 2 गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुवामेव ससोसोवरियं कार्य पाए य पमज्जेज्जा, से पुवामेव सिसोसोवरियं कायं पाए य] पमज्जेता एगं पादं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा ततो संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रोएज्जा। 464. से भिक्खू वा 2 जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीयमाणे गो हत्थेण हत्थं जाव' अणासायमाणे ततो संजयामेव जंघासंतारिमै उवगे अहारियं रीएज्जा। 465. से भिक्खू वा 2 जंघासंतारिमे उदए अहारियं रोयमाणे णो सायपडियाए' गो परिदाहपडियाए महतिमहालयंति उदगंसि कायं विओसेज्जा / ततो संजयामेव जंघासंतारिमेव उदए अहारियं रोएज्जा। 496. अह पुणवं जाणेज्जा-पारए सिया उदगाओ तीरं पाणित्तए। ततो संजयामेव उदउल्लेण वा ससणिद्ध ण वा काएण दगतीरए चिट्ठज्जा। 467. से भिक्खू वा 2 उदउल्लं वा कायं ससणिद्ध वा कायं णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा [.] 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 380 'अहारियं रोएज्जा' का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में यों है.---'अहारियं रीएज्जा' ति यथा ऋजु भवति तथा गच्छेत नादवितर्द विकारं वा कुर्वन् गच्छेत् / अर्थात्-अहारियं का भावार्थ है जैसे ऋजु (सरल) हो, वैसे चले, आड़ा टेड़ा विकृत करता हुआ न चले।। 3. यहाँ जाव शब्द सू० 487 अनुसार हत्यं से लेकर आणासायमाणे तक के पाठ का सूचक है। 4. इसके स्थान पर पाठान्तर हैं---आहारीयं, अहारीयं अहारीयमाणे / 5. सायपडियाए के स्थान पर सायवडियाए पाठान्तर है। 6. बियोसेज्जा के स्थान पर वितोसेज्जा का पाठान्तर है। 7. [0] इस चिन्ह से 'पम्मज्जेज्ज वा से लेकर 'दुईज्जेज्जा' तक का समग्र पाठ समझें। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अह पुणेवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए छिण्णसिणेहे / तहप्पगारं कायं आमज्जज्ज वा' जाव पयावेज्ज वा। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 463. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में जंघा-प्रमाण (जंघा से पार करने योग्य) जल (जलाशय या नदी) पड़ता हो तो उसे पार करने के लिए वह पहले सिर-सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे / इस प्रकार सिर से पैर तक का प्रमार्जन करके वह एक पैर को जल में और एक पैर को स्थल में रखकर यतनापूर्वक जंघा से तरणीय जल को, भगवान् के द्वारा कथित ईर्या समिति की विधि के अनुसार पार करे / 464. साधु या साध्वी जंघा से तरणीय जल को शास्त्रोक्तविधि के अनुसार पार करते हुए हाथ से हाथ का, पैर से पैर का तथा शरीर के विविध अवयवों का परस्पर स्पर्श न करे / इस प्रकार वह शरीर के विविध अंगों का परस्पर स्पर्श न करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित ईर्यासमिति की विधि के अनुसार यतनापूर्वक उस जंघातरणीय जल को पार करे। 465. साधु या साध्वी जंघा-प्रमाण जल में शास्त्रोक्तविधि के अनुसार चलते हुए शारीरिक सुख-शान्ति की अपेक्षा से या दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश न करे और जब उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपकरणादि-सहित जल से पार नहीं हो सकता, तो वह उनका त्याग कर दे, शरीर-उपकरण आदि के ऊपर से ममता का विसर्जन कर दे। उसके पश्चात् वह यतनापूर्वक शास्त्रोक्तविधि से उस जंधा-प्रमाण जल को पार करे। 466. यदि वह यह जाने कि मैं उपधि-सहित ही जल से पार हो सकता हूँ तो वह उपकरण सहित पार हो जाए। परन्तु किनारे पर आने के बाद जब तक उसके शरीर से पानी की बूंद टपकती हो, जब तक उसका शरीर जरा-सा भी भीगा है, तब तक वह जल (नदी) के किनारे ही खड़ा रहे। 467. वह साधु या साध्वी जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे, और न ही उबटन की तरह उस शरीर से मैल उतारे। वह भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे। जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंद या जल का लेप भी नहीं रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे, उसे सहलाए, रगड़े, मर्दन करे यावत् धूप में खड़ा रह कर उसे थोड़ा या अधिक गर्म करे। तत्पश्चात् वह संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे / 1. जाव शब्द यहाँ आमज्जेज्ज वा से लेकर 'पयावेज्जा तक का पाठ ग्रहण सूचित किया है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 498-502 163 विवेचन--जंघाप्रमाण जल-संतरण विधि-विगत पांच सूत्रों में शास्त्रकार ने उस जल को पैरों से ही पार करने की आज्ञा दी है, जो जंघा-बल से चलकर पार किया जा सके। इसका तात्पर्य यह है कि जो पानी साधक के वक्षस्थल तक गहरा हो, वह जंघा-बल से पार किया जा सकता है, जिस पानी में मस्तक भी डूब जाए, वह पानी जंघाबल से संतरणीय नहीं होता, क्योंकि उतने गहरे पानी में जंघा-बल स्थिर नहीं रहता। इन पांच सूत्रों में 6 विधियाँ प्रतिपादित की हैं--(१) सिर से पैर तक प्रमार्जन करे, फिर एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर सावधानी मे चले, (2) उस समय शरीर के अंगोपांगों का परस्पर स्पर्श न करे, (3) शरीर की गर्मी शान्त करने या सुखसाता के उद्देश्य से गहरे जल में प्रविष्ट न हो, (4) उपकरण-सहित पार करने की क्षमता न रहे तो उपकरणों का त्याग कर दे, क्षमता हो तो उपकरण सहित पार कर ले। (5) शरीर पर जब तक पानी का जरा-सा भी अंश रहे, तब तक वह नदी के किनारे ही ठहरे। (6) शरीर पर से पानी जब तक बिलकुल सूख न जाए, तब तक उसके हाथ न लगाए, न घिसे, न मालिश करे, न धूप से गर्म करे; जब पानी बिलकुल सूख जाए, तब ईर्यापथ-प्रतिक्रमण करके ये सभी उपचार करे।' आहारियं की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार कहते हैं वह भिक्षु यथाोक्तविधि से जल में चलते समय विशाल जलवाला जलस्रोत हो, जो कि वक्षःस्थलादि प्रमाण हो, जंघा से संतरणीय नदी, हृद आदि हो तो पूर्व विधि से ही उसमें शरीर को प्रवेश कराए। ___ सायपडियाए णो परिवाहपडियाए का अर्थ है-शारीरिक सुखसाता की दृष्टि से या शरीर की जलन को शान्त करने के उद्देश्य से नहीं।' विषम-मार्गावि से गमन-निषेध 468. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो मट्टियागतेहि पाहि हरियाणि छिदिय 2 विकुज्जिय 2 विफालिय 2 उम्मग्गेण हरियवधाए गच्छेज्जा 'जहेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु' / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / से पुब्बामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहेज्जा, 2 [त्ता] ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 466. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणिं वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा / केवली बूया----आयाणमेयं / 1. आचारांग वत्ति पत्रांक 380 के आधार पर / 2. वही, पत्रांक 380 / 3. बही, पत्रांक 380 / 4. छिदिय आदि पदों के आगे जहाँ-जहाँ 2' का चिन्ह है, वहाँ वह सर्वत्र उसी पद की पुनरावृत्ति का सूचक है। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 आचारांग सत्र- द्वितीय श्र तस्कन्ध से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लोओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय 2 उत्तरेज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया' उवागच्छंति ते पाणी जाएज्जा, 2 [सा] ततो संजयामेव अवलंबिय 2 उत्तरेज्जा / ततो संजयामेव गामाणु गामं दूइज्जेज्जा। 500. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काणि वा परचक्काणि वा सेणं वा विरूवरूवं संणिविट्ठ पेहाए सति परक्कमे संजयामेव परवकमेज्जा], णो उज्जुयं गच्छेज्जा। 501. से णं से परो सेणागओ वदेज्जा-आउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिचारियं करेइ, से गं बाहाए गहाय आगसह / से णं परो बाहाहि गहाय आगसेज्जा, तं णो सुमणे सिया जाव समाहीए। ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 402. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइजमाणे, अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! केवतिए एस गामे वा जाव रायहाणी वा, केवतिया एत्थ आसा हत्यी गापिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ? से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजवसे ? से अप्पभत्ते अपुदए अप्पजणे अप्पजवसे ? एतप्पगाराणि पसिणाणि पुट्ठो गो आइक्खेज्जा, एयप्पगाराणि पसिणाणि णो पुच्छेज्जा। 468. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी गीली मिट्टी एवं कीचड़ से भरे हुए अपने पैरों से हरितकाय (हरे घास आदि) का बार-बार छेदन करके तथा हरे पत्तों को बहुत मोड़-तोड़ कर या दबा कर एवं उन्हें चीर-चीर कर मसलता हुआ मिट्टी न उतारे और न हरितकाय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में इस अभिप्राय से जाए कि 'पैरों पर लगी हुई इस कीचड़ और गीली मिट्टी को यह हरियाली अपने आप हटा देगी'; ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। वह पहले ही हरियाली से रहित मार्ग का प्रतिलेखन करे (देखे), और तब उसी मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। 1. पाडिपहिया के स्थान पर पाठान्तर है 'पाडिवाहिया' / चुणिकार इस पंक्ति का आशय यो व्यक्त करते हैं-'जिणकप्पितो पाडिपहियहत्थं जाइत्तु उत्तरति, थेरा रुक्खादीणि वि।' 'जिनकरिषक मुनि प्रातिपथिक (राहगीर) से हाथ की याचना करके उसका हाथ पकड़ कर उतरते-चलते हैं। स्थविरकल्पी मुनि तो वृक्ष आदि का सहारा लेकर भी उतरते चलते हैं। 2, 'संणिविट्ठ' के स्थान पर पाठान्तर है-'संणिसठ्ठ, सणिठें।' 3. ....... णो पुच्छेज्जा' के आगे किसी-किसी प्रति में ऐसा पाठ मिलता है- 'एतप्पगाराणि पसिणाणि पद्धो वा अपद्रो वा णो वागरेज्जा।'-अर्थात---उन गुप्तचरों द्वारा इस प्रकार के प्रश्न पूछने पर या न पूछने पर साधु उत्तर न दे / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 467-502 165 __ 466. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में यदि टेकरे (उन्नत भू भाग) हों, खाइयाँ, या नगर के चारों ओर नहरें हो, किले हों, या नगर के मुख्य द्वार हों, अर्गलाएँ (आगल) हों, आगल दिये जानेवाले स्थान (अर्गलापाशक हों, गड्ढे हों, गुफाएं हों या भूगर्भ-मार्ग हों तो अन्य मार्ग के होने पर उसी अन्य मार्ग से यतनापूर्वक गमन करे, लेकिन ऐसे सीधे- किन्तु विषम मार्ग से गमन न करे / केवली भगवान् कहते हैं हैं-यह मार्ग (निरापद न होने से) कम-बन्ध का कारण है। ऐसे विषममार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पैर आदि फिसल सकता है. वह गिर सकता है। [पैर आदि के फिसलने या गिर पड़ने से शरीर के किसी अंग-उपांग को चोट लग सकती है, वहां जो भी सजीव हों तो, उनकी भी विराधना हो सकती है, कदाचित् सचित्त वृक्ष आदि का अवलम्बन ले तो भी अनुचित है। यदि स्थविरकल्पी साधु को कारणवश उसी मार्ग से जाना पड़े और कदाचित् उसका पैर आदि फिसलने लगे या वह गिरने लगे तो वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ (पत्तों का समूह या फलों का गुच्छा), झाड़ियां, लताएं (यष्टि के आकार की बेलें), बेलें, तृण अथवा गहन (वृक्षों के कोटर या वृक्षलताओं का झुड) आदि हो, उनका हरितकाय को सहारा ले ले कर चले या उतरे अथवा वहाँ (सामने से) जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ (हाथ का सहारा) मांगे (याचना करे) उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़ कर यतनापूर्वक चले या उतरे / इस प्रकार साधु या साध्वी को संयमपूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। 500. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों, मार्ग में यदि जौ, गेहूं आदि धान्यों के ढेर हों, बेलगाड़ियां या रथ पड़े हों, स्वदेश-शासक या परदेश-शासक की सेना के नाना प्रकार के पड़ाव (छावनी के रूप में) पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दूसरा (निरापद) मार्ग हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु उस सीधे, (किन्तु दोषापत्तियुक्त) मार्ग से न जाए। 501. [यदि साधु सेना के पड़ाव वाले मार्ग से जाएगा, तो सम्भव है, उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से कहे-"आयुष्मान् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है, अतः इस की बाहें पकड़ कर खींचो / अथवा उसे घसीटो।" इस पर वह सैनिक साधु को बाहें पकड़ कर खींचने या घसीटने लगे, उस समय साधु को अपने मन में न हर्षित होना चाहिए, न रुष्ट; बल्कि उसे समभाव एवं समाधिपूर्वक सह लेना चाहिए। इस प्रकार उसे यतनापूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते रहना चाहिए। 502. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में सामने से आते हुए पथिक मिलें और वे साध से यों पूछे-"आयुष्मान् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है ? यहाँ पर कितने घोड़े, हाथी तथा भिखारी है, कितने मनुष्य निवास करते हैं ? क्या इस गांव यावत् राजधानी में प्रचुर आहार, पानो, मनुष्य एवं धान्य हैं, अथवा थोड़े ही आहार, पानी मनुष्य एवं धान्य है ? इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध साधु उनका उत्तर न दें। उन प्रातिपथिकों से भी इस प्रकार के प्रश्न न पूछे। उनके द्वारा न पूछे जाने पर भी वह ऐसी बातें न करे / अपितु संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करता रहे / विवेचन--विविध विषम मार्ग और साधु का कर्तव्य--इन पाँच सूत्रों में साधु के विहार में आने वाले गमन और व्यवहार दोनों दृष्टियों से विषम मार्ग से सावधान करने के लिए सूचनाएं दी गई हैं, साथ ही साधु को ऐसे ही विषम एवं संकटापन्न मार्ग से जाना ही पड़ जाए और सम्भाव्य संकट आ ही पड़े तो क्या करना चाहिए? तो उसका समाधान भी बता दिया है / अन्य निरापद मार्ग मिल जाए तो वैसे संकटास्पद मार्ग से जाने का निषेध किया है। ऐसे निषेध्य मार्ग मुख्यतया दो प्रकार के है--(१) ऊंचे नीचे, टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ मार्ग, (2) ऐसे मार्ग, जहाँ सेनाओं के पड़ाव हों, रथ और गाड़ियाँ पड़ी हों, धान्य के ढेर भी पड़े हों प्रथम मार्ग से अनिवार्य कारणवश जाना पड़े तो वनस्पति का अथवा किसी पथिक के हाथ का सहारा लेने का विधान किया है / चूर्णिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं कि जिनकल्पिक मुनि प्रातिपथिक के हाथ की याचना करके उतरते हैं, जब कि स्थविरकल्पी वृक्षादि का सहारा लेकर। दूसरे मार्ग से जाने में सैनिकों द्वारा कुशंका-वश मारपीट की संभावना है, उसे समभावनापूर्वक सहने के सिवाय कोई चारा नहीं। यद्यपि साधु उन्हें भी पहले समझाने और उनका समाधान करने का प्रयत्न करेगा ही। अन्त में सूत्र 502 में साधु से साधु धर्म से असम्बद्ध प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर न देने का विधान किया गया है / यद्यपि साधु से कोई जिज्ञासु व्यक्ति धार्मिक या आध्यात्मिक प्रश्न पूछे तो उसका उत्तर देना उसका कर्त्तव्य है, किन्तु निरर्थक प्रश्नों के उत्तर देना आवश्यक नहीं / वे अनर्थकारी भी हो सकते हैं / अतः वह व्यर्थ की बातों का न तो उत्तर दे न ही वह स्वयं किसी से पूछे / ऐसी प्रश्नोत्तरी विकथा, वितण्डा, निन्दा और कलह का रूप भी ले सकती है। इसके अतिरिक्त कई पथिक साधुओं से अपना, देश का तथा वर्ष का भविष्य भी पूछा करते हैं, साधु को न तो ज्ञानी होने का प्रदर्शन करना चाहिए, न ही भविष्य बताना चाहिए। 'वप्पाणि' आदि पदों का प्रासंगिक अर्थबप्पाणि उन्नत भू भाग, टेकरे। फलिहाणि= परिखाएं--खाइयां या नगर के चारों ओर बनी हुई नहरें पागाराणि-दुर्ग या किले / तोरणाणि--- नगर के मुख्य द्वार, अग्गलाणि -अर्गलाएं-आगल, अग्गलणसगाणि-आगल फंसाने के स्थान / गड्ढाओ-गर्त-गड्ढे / दरोओ=गुफाए या भू गर्भ मार्ग ! गुच्छाणि=पत्तों का समूह, या फलों के गुच्छे, गुम्माणि =झाड़ियां. गहणाणि=वृक्ष-लताओं के झुन्ड या वृक्षों के कोटर / पाडिपहियासामने से आनेवाले पथिक, अभिचारियं-गुप्तचर का कार्य, जासूसी, आगसह खींचो या 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 381 के आधार पर, (ख) आचा० चूणि मूल पाठ टिप्पणी पृ० 182 / 2. व्यवहार सूत्र 4, में 'अभिनिचारिय' शब्द है। वृत्तिकार मलयगिरिसूरि ने 'अभिनिचारिका' का अर्थ किया है-सूत्रानुसार सामुदानिक भिक्षा चारिका करना। -व्यव० उ०४ वृति पत्र 60-62 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 504-5 167 घसीटो, जवसाणि-जौ, गेहूं आदि धान्य / संणिविट्ठ =पड़ाव डालकर पड़ा हुआ। गापिंडोलगा---ग्राम से भीख मांग कर जीविका चलाने वाले ; पसिणाणि==प्रश्न, आसा=अश्व / ' 503. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सबट्ठीहि [समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि / 503. यही (संयम पूर्वक विहारचर्या) उस भिक्षु या भिक्षुणी की साधुता की सर्वांगपूर्णता है; जिसके लिए सभी ज्ञानादि आचाररूप अर्थों से समित और ज्ञानादि सहित होकर साधु सदा प्रयत्नशील रहे। __ --ऐसा मैं कहता हूँ। // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक मार्ग में वप्र आदि अवलोकन-निषेध 504. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा' जाव दरीओ वा कूडागाराणि वा पासादाणि वा णूमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा पन्वतगिहाणि वा रुक्खं वा चेतियकडं थूभं वा चेतियकडं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा णो बाहाओ पगिज्झिय 2 अंगुलियाए उद्दिसिय 2 ओणमिय 2 उण्णमिय 2 णिज्झाएजा / ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 505. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे, अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि 1. (ख) पाइअ सद्दमहष्णवो (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 381 2. अंतरा से वप्पाणि वा.....' आदि कुछ पदों का विशेष अर्थ चर्णिकार के शब्दों में-'बप्पाणि ते चेव, कुडामारं-रहसंठितं, पासाता=सोलसविहा, णमगिहा-भूमिगिहा, भूमीघरा, रुक्खगिहंजालीसंछन्न', पव्वयगिहा=दरीलेणं वा, रुक्खं वा चेइयकडं-वाणमंतरठवियगं पेढबा चिते, एवं थूभं वि / ....' -अर्थात् वप्र= का अर्थ पूर्ववत् समझें। कूडागारं=एकान्त रहस्य संस्थान, पासाता=सोलह प्रकार के प्रासाद, णूमगिहा=भूमिगृह, रुक्खगिह =जाली से ढका हुआ वृक्षगृह, पन्चयगिह-गुफा या पर्वतालय, रुवं वा चेइयकडं-चैत्यकृत वृक्ष, जिसमें कि वाणव्यन्तर देव की स्थापना की होती है। इसी प्रकार चैत्यकृत स्तूप भी समझ लेना चाहिए। 3. यहाँ जाव शब्द में पागाराणि वा से लेकर दरीओ वा तक का पाठ है। 4, 'कच्छाणि वा' आदि पदों का चणिकारकृत अर्थ---'कन्छाणि वा-जहा णदीकच्छा, दवियं =सुवण्णा रावणो वीयं वा, वलयं णदिकोप्परो, णमं=भूमिघरं, गहणं-गंभीर, जत्थ चक्कमंतस्स कंटगा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वा णूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वताणि वा पवितविदुग्गाणि वा अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा णदीओ वा वावीओ वा पोक्खरणीओ वा दोहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा ; सरसरपंतियाणि वा णो बाहाओ पगिज्झिय 2 जाव णिज्झाएज्जा / केवलो बूया--आयाणमेयं / जे तत्थ मिगा वा पसुया' वा पक्खी वा सरीसिवा वा सोहा वा जलचरा वा थलचरा वा खहचरा वा सत्ता ते उत्तसेज्ज वा, वित्तसेज्ज वा, वाडं वा सरणं वा कंखेज्जा, चारे ति में अयं समणे / ___अह भिक्खूणं पुन्बोदिट्ठा 4 जं णो बाहाओ पगिझिय 2 जाव णिज्झाएज्जा। ततो संजयामेव आयरिय-उवज्झाहि सद्धि गामाणु गामं दूइज्जेज्जा / 504. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी मार्ग में आने वाले उन्नत भू साहातो य लगति, वणं =एगरुक्खजाइयं वा, वण्णदुग्गं नामाजातीहि रुक्खेहि, पव्वतो-एव पव्वतो पन्वयाणि वा (मागधभासाए णपुंसगवतणय )पुन्वयदुग्गाई-बहू पव्वता, अगड-तलाग-दहा अणेगसंठिता, णदी--पउरपाणिया, वावी-बदा मल्लगमूला व, पुक्खरिणी-चउरसा, सरपंतिया-पतियाए ठिता. सरसरपंतिया-पाणियस्स इमम्मि भरिते इमा वि भरिज्जति, परिवाडीए पाणियं गच्छति / --- अर्थात् कच्छाणि= जैसे नदी के नीचे भाग कच्छ होते हैं, दवियं-स्वर्ण के चक्रों से युक्त गृह, वलयं =नदी से वेष्टित नगर, म = भूमिगृह, गहणं - गंभीर-गहरा जिसमें चक्रवर्ती की सेना ऊपर तक समा जाए। वर्ग:= जिसमें एक जाति के वृक्ष हों, वणदुग्गं वह, जिसमें नाना जाति के वृक्ष हों, पब्वयाणि वा-- पर्वत शब्द का बहुवचन, (मागधी भाषा में नपुंसकलिंग हो जाता है)पन्वयम्गाइ=बहुत से पर्वतों के कारण दुर्गम, अगड-तलाग-दहा -- कुंआ, तालाब झील-ये विभिन्न आकार वाले जलाशय हैं। नदी--- जिसमें प्रचुर पानी हो, वावी- गोलाकार वापी अथवा सकोरे का आकार जिसके मूल में हो, पुक्खरिणी चौकोन बावड़ी, सरपंतिया=पंक्तिबद्ध सरोवर, सरसरपंतिया--एक के बाद एक, अनेक सरोबरों की पंक्तियां, एक के भर जाने पर दूसरा भी भर जाता है, अनक्रम से पानी क के बाद दूसरे में जाता है। 1. 'पसुया वा' के स्थान पर पाठान्तर है-'परवा', 'पसयाणि वा' / अर्थ एक-सा है। 2. 'खहचरा' के स्थान पर पाठान्तर है-खचरा' अर्थ समान है। 3. उत्तसेज्ज वा वित्तसेज्ज वा आदि पदों का भावार्थ चणिकार ने इस प्रकार दिया है--'उत्तसणं ईषत, वित्तसणं अणेगप्रकार, वार्ड नस्सति, सरणं मातापितिमुलं गच्छति जवा जस्स सरणं, जहा मियाणं गहणं दिसा ब सरणं, पक्खीणं आगास सिरिसवाणं बिलं / अंतराइयं अधिगरणादयो दोसा।'- अर्थात्-उत्तसणं थोड़ा त्रास. वित्तसणं =अनेक प्रकार का त्रास, वार्ड-बाड नष्ट कर देते हैं। सरणं-माता-पिता का मूल शरण होता है, अथवा जिसमें जिसका जन्म होता है, वही उसका शरण होता है। उसी की शरण में वह जाता है। जैसे-हरिणों का शरण महन बन या दिशाएँ है। पक्षियों का आकाश है, साँपों का शरण बिल है। अंतराइयं जो अधिकरण आदि दोष के कारण होता है। 4. यहाँ जाव शब्द सू० 504 के अनसार पगिज्सिय' से लेकर णिसाएज्जा' तक के पाठ का सूचक Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 504-5 भाग या टेकरे, खाइयां, नगर को चारों ओर मे वेष्टित करनेवाली नहरें, किले, नगर के मुख्य द्वार, अर्गला, अर्गलापाशक, गढ्डे, गुफाएँ या भूगर्भ मार्ग, तथा कूटागार (पर्वत पर बने घर), प्रासाद, भूमिगृह, वृक्षों को काटछांट कर बनाए हुए गृह, पर्वतीय गुफा, वृक्ष के नीचे बना हुआ व्यन्तरादि चैत्यस्थल, चैत्यमय स्तूप, लोहकार आदि की शाला, आयतन, देवालय, सभा, प्याऊ, दूकान, गोदाम, यानगृह, यानशाला, चूने का, दर्भकर्म का, घास की चटाइयों आदि का, चर्मकर्म का, कोयले बनाने का और काष्ठकर्म का कारखाना, तथा श्मशान, पर्वत, गुफा आदि में बने हुए गृह, शान्तिकर्म गृह, पाषाणमण्डप एवं भवनगृह आदि को बांहें बारबार ऊपर उठाकर, अंगुलियों से निर्देश करके, शरीर को ऊंचा-नीचा करके ताक-ताक कर न देखे, किन्तु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे। 505. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वियों के मार्ग में यदि कच्छ (नदी के निकटवर्ती नीचे प्रदेश), घास के संग्रहार्थ राजकीय त्यक्त भूमि, भूमिगृह, नदी आदि से वेष्टित भूभाग, गम्भीर, निर्जल प्रदेश का अरण्य, गहन दुर्गम बन, गहन दुर्गम पर्वत, पर्वत पर भी दुर्गम स्थान, कूप, तालाब, द्रह (झीलें) नदियाँ, बावडियाँ, पुष्करिणियां, दीपिकाएँ (लम्बी बावडियाँ) गहरे और टेढ़-मेढ़े जलाशय, बिना खोदे तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियाँ और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो अपनी भुजाएँ ऊंची उठाकर, अंगुलियों से संकेत करके तथा शरीर को ऊँचा-नीचा करके ताक-ताक कर न देखे। केवली भगवान कहते हैं- यह कर्मबन्ध का कारण है; (क्योंकि ऐसा करने से जो इन स्थानों में मृग, पशु, पक्षी, सांप, सिंह, जलचर, स्थलचर, खेचर, जीव रहते हैं, वे साधु की इन असंयम मूलक चेष्टाओं को देखकर त्रास पायेंगे, वित्रस्त होंगे, किसी वाड़ की शरण चाहेंगे, वहां रहने वालों को साधु के विषय में शंका होगी। यह साधु हमें हटा रहा है, इस प्रकार का विचार करेंगे। इसीलिए तीर्थंकरादि आप्तपुरुषों ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि बांहें ऊंची उठा कर या अंगुलियों से निर्देश करके या शरीर को ऊंचा-नीचा करके साधु ताक-ताककर न देखे / अपितु यतनापूर्वक आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ संयम का पालन करे / विवेचन---विहारचर्या और संयम-इन दो सूत्रों में साधु की विहारचर्या में संयम के विषय में निर्देश किया गया है / साधु-जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे प्रेक्षा-संयम, इन्द्रिय-संयम एवं अंगोपांग संयम की बात को बराबर दुहराया गया है। प्रस्तुत सूत्रद्वय में भी साधु को विहार करते समय अपनी आँखों पर, अपनी अंगुलियों पर, अपने हाथ-पैरों पर एवं अपने सारे शरीर पर नियंत्रण रखने की प्रेरणा दी है, साधु का ध्यान केवल अपने विहार या मार्ग की ओर हो। साधु के द्वारा उसके असंयम से होने वाली हानियों की सम्भावना प्रगट करते हुए वृत्तिकार कहते हैं- इस प्रकार के असंयम में साधु के सम्बन्ध में वहाँ के निवासी लोगों को शंका-कुशंका पैदा हो सकती है, कि यह चोर है, गुप्तचर है। यह साधु वेश में अजितेन्द्रिय है। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 आचारांग सूत्र-द्वितीय तस्कन्ध इसके अतिरिक्त मूलपाठ में भी यह बताया गया है कि वहां रहने वाले पशु पक्षी डरेंगे, एक या अनेक प्रकार से त्रस्त होकर इधर-उधर भागेंगे. शरण ढूँढेंगे। भागते हुए पशु पक्षियों को कोई पकड़ कर मार भी सकता है। चूर्णिकार कहते हैं 'चक्षु-लोलुपता के कारण साधु के ईर्यापथ-संयम में विघ्न पड़ेगा। वहाँ चरते हुए पशु-पक्षियों के चरने में भी अन्तराय पड़ेगा। निशीथचूणि में भी बताया गया है दो प्रकार के सरीसृप और तीन प्रकार के जलचर, स्थलचर, खेचर जीव अपने-अपने योग्य शरण ढूंढेंगे, जैसे जलचर जल में, स्थलचर बिल पर्वत आदि में, साधु उन्हें अपनी भुजा, अंगुली आदि से डरा देता है जिससे वे अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र भागते हैं, उनके चारा दाना आदि में अन्तराय पड़ती है।' कूडागाराणि आदि पदों के अर्थ.----कूडागाराणि = रहस्यमय गुप्तस्थान, अथवा पर्वत के कूट (शिखर) पर बने हुए गृह, दवियाणि=अटवी में घास के संग्रह के लिए बने हुए मकान, गूमाणि= भूमिगृह, वणयागि=नदी आदि से वेष्टित भूभाग, गहणाणि=निर्जल प्रदेश, रन / गहणविदुग्गाणि-रन में सेना के छिपने के स्थान के कारण दुर्गम, वर्णावदुग्गाणि-नाना जाति के वृक्षों के कारण दुर्गम स्थल, पन्वयनुग्गाणि =अनेक पर्वतों के कारण दुर्गम प्रदेश, सरसरपंतियाणि =एक के बाद एक, यों अनेक सरोवरों की पंक्तियां / गुजालियाओ-लम्बी गम्भीर टेढ़ीमेढ़ी जल की वापिकाएँ। णिज्झाएज्जा-बार-बार या लगातार ताक-ताककर देखे। उत्तसेज्ज वित्तसेज्ज थोडा त्रास दे, अनेक बार त्रास दे। आचार्यादि के साथ विहार में विनयविधि 506. से भिक्खू वा 2 आयरिय-उवज्झाएहि सद्धि गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो आय 1. (क) आचा० टीका पत्र 382 (ख) निशीथ चूणि में एक गाथा इस सम्बन्ध में मिलती है दुविधा तिविधा य तसा भीता बाडसरणाणि कंखेज्जा। णोलेज्ज व तं वाणं, अन्तराए य जं चऽपणं // 4123 // -निशीथ चूणि उ०१२ पृ० 345 // - त्रस दो या तीन प्रकार के होते हैं। वे भयभीत होकर वाड या शरण चाहेंगे / साधु उन्हें अन्य दिशा में प्रेरित न करे / ऐसा करके साधु चरते हुए पशु-पक्षियों के चारा-दाना खाने में अन्तराय डालता है। इसके अतिरिक्त वे भागते हुए जो कुछ करते हैं, इसका कोई ठिकाना नही है। 2. आचा• टीका पत्र 382 3. चूणि में इस सूत्र का भावार्थ यों दिया है-'से भिक्खू वा 2 आरिय-उवज्झाएहि समगं गच्छं नो हत्यादि संघति / ' अर्थात-साधु आचार्य-उपाध्यायों के साथ विहार करते हुए उनके हाथ आदि का स्पर्श न करे। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 506.6 201 रिय-उवज्झायस्स हत्थेण हत्य' जाव अणासायमाणे ततो संजयामेव आयरिय-उवज्झाएहि सद्धि जाव दूइज्जेज्जा। 507. से भिक्खू वा 2 आयरिय-उवज्झाएहि सद्धि दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! के तुब्भे, कओ वा एह, कहि वा गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासेज्ज वा वियागरेज्ज वा आयरिय-उवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा णो अंतरा भासं करेज्जा, ततो संजयामेव आहारातिणियाए दूइज्जेज्जा। 508. से भिक्खू बा 2 आहारातिणियं गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो राइणियस्स हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणे ततो संजयामेव आहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 506. से भिक्खू वा 2 आहाराइणियं [गामाणुगाम] दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! के तुबभे? जे तत्थ सवरातिणिए से भासेज्ज वा वियागरेज्ज वा, रातिणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा गो अंतरा भासं भासेज्जा / ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 506. आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु अपने हाथ से उनके हाथ का, पैर से उनके पैर का तथा अपने शरीर से उनके शरीर का (अविनय अविवेकपूर्ण रीति से) स्पर्श न करे / उनकी आशातना न करता हुआ साधु ईर्यासमिति पूर्वक उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार करे। 507. आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करनेवाले साधु को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ यात्री मिलें, और वे पूछे कि-"आयुष्मन् श्रमण ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? कहाँ जाएंगे?" (इस प्रश्न पर) जो आचार्य या उपाध्याय साथ में हैं, वे उन्हें सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। आचार्य या उपाध्याय सामान्य या विशेष रूप से उनके प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों, तब वह साधु बीच में न बोले। किन्तु मौन रह कर ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ रत्नाधिक क्रम से उनके साथ ग्रामान्ग्राम विचरण करे। 508. रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े) साधु के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ मुनि अपने हाथ से रत्नाधिक साधु के हाथ को, अपने पैर से उनके पैर को तथा अपने 1. यहां जाव शब्द 'हत्थं' से लेकर 'अणासायमाणे तक के पाठ का सूचक है सूत्र 487 के अनुसार। 2. यहाँ जाव शब्द से 'साँद' से लेकर दूइज्जेज्जा तक का पाठ सू० 505 के अनुसार समझें / 3. आहारातिणियाए के स्थान पर पाठान्तर है--आहाराइणिए, अहारायणिए; अहारायइणियाए, आधा राईणियाए आदि। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध शरीर से उनके शरीर का (अविधिपूर्वक) स्पर्श न करे / उनकी आशातना न करता हुआ साधु ईर्यासमिति पूर्वक उनके साथ ग्रामानग्राम विहार करे। 506. रत्नाधिक साधुओं के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ प्रातिपथिक (यात्री) मिलें और वे यों पूछे कि "आयुष्मन श्रमण ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? और कहां जाएंगे?" (ऐसा पूछने पर) जो उन साधुओं में सबसे रत्नाधिक (दीक्षा में बड़ा) है, वे उनको सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। जब रत्नाधिक सामान्य या विशेष रूप से उन्हें उत्तर दे रहे हों, तब वह साधु बीच में न बोले / किन्तु मौन रहकर ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार करे। विवेचन-दीक्षा-ज्येष्ठ साधुओं के साथ विहार करने में संयम--साधु-जीवन विनय-मूल धर्म से ओतप्रोत होना चाहिए। इसलिए आचार्य, उपाध्याय या रत्नाधिक साधु के साथ विहार करते समय उनकी किसी भी प्रकार से अविनय-आशातना, अभक्ति, आदि न हो, व्यवहार में उनका सम्मान व आदर रहें इसका ध्यान रखना आवश्यक है। यही बात इन चार सूत्रों में स्पष्ट व्यक्त की गई है।' हिंसा-जनक प्रश्नों में मौन एवं भाषा-विवेक 510. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया आगच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! अवियाई एत्तो पडिपहे' पासह मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसु वा पक्ति वा सरीसवं वा जलचरं वा, से तं मे आइपसह, सेह / तं णो आइक्खेज्जा, णो दंसेज्जा, जो तस्स तं परिजाणेज्जा, तुसिणीए उवेहेज्जा, जाणं वा जो जाणं ति वदेज्जा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 511. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं [दूइज्जमाणे] अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा! अवियाई एत्तो पडिपहे पासह उदगपसूताणि 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 383 / 2. 'पडिपहे पासह..' आदि पंक्ति का सारांश चुणिकार ने यों दिया है-पडिपहे गोणमादी आइक्खध= दूरगतं, सेह-अब्भासत्थं ।'–प्रतिपथ में---मार्ग में वृषभ आदि देखा है ? आइक्खह (ध)=दूरगत वस्तु के विषय में और सेहनिकटस्थ वस्तु के विषय में प्रयुक्त हुआ है। दोनों का अर्थ है- बतलाओ, कहो-दिखाओ। 3. 'परिजाणेज्जा के स्थान पर परिजाणेज्ज' पाठ मानकर चणिकार अर्थ करते हैं- परिजाणेज्ज 'कहिज्ज' 1 परिजाणेज्ज का अर्थ है--कहे। 4. 'उगदगपसूयाणि पाठान्तर मानकर चूर्णिकार प्रश्नकर्ता का आशय बताते हैं-'पुच्छति छुहाइतो तिसिओ उदगं पिविउकामो रंधेउकामो, सीयाइतो वा अग्गी।' अर्थात भूखा कंद आदि के विषय में पूछता है, जो पानी पीना चाहता है, वह प्यासा पानी के विषय में पूछता है, जो भोजन पकाना चाहता है, वह आग के विषय में पूछता है। / अर्थात् भूला कद आदि के विषय में Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 506-14 203 कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि' वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरिताणि वा उदयं वा संणिहियं अगणि वा संणिक्खितं, से आइक्खहरे जाव दूइज्जेज्जा। 512. से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! अबियाई एत्तो पडिपहे पासह जवसाणि वा' जाव सेणं वा विरूवरूवं संणिविट्ठ, से आइक्खह जाव दूइज्जेज्जा। 513. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया जाव आउसंतो समणा ! केवतिए एत्तो गामे वा जाव रायहाणि (णी) वा ?—से आइक्खह जाब दूइज्जेज्जा। 514. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपहिया जाव आउसंतो समणा ! केवइए एत्तो गामस्स वा नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे ? से आइक्खह तहेव जाव दूइज्जेज्जा। 510. संयमशील साधु या साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए रास्ते में सामने से कुछ पथिक निकट आ जाएं और वे यों पूछे-आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में किसी मनुष्य को, मृग को, भैंसे को, पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जन्तु को जाते हुए देखा है ? यदि देखा हो तो हमें बतलाओ कि वे किस ओर गए हैं, हमें दिखाओ।" ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें कुछ बतलाए, न मार्गदर्शन करे, न ही उनकी बात को स्वीकार करे, बल्कि कोई उत्तर न देकर उदासीनतापूर्वक मौन रहे। अथवा जानता हुआ भी (उपेक्षा भाव से) मैं नहीं जानता. ऐसा कहे। फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। 511. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु को मार्ग में सामने से कुछ पथिक निकट आ जाएं और वे साधु से यों पूछे-आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जल में पैदा होने वाले कन्द, या मूल, अथवा छाल, पत्ते, फूल, फल, बीज, हरित अथवा संग्रह किया हुआ पेय जल या निकटवर्ती जल का स्थान, अथवा एक जगह रखी हुई अग्नि देखी है ? अगर देखी हो तो हमें बताओ, दिखाओ, कहाँ है ?" ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें कुछ बताए, (न दिखाए, और न ही वह उनकी बात स्वीकार करे, अपितु मौन रहे। अथवा जानता हुआ भी (उपेक्षा भाव से) नहीं जानता, ऐसा कहे / ) तत्पश्चात् यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। 512. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वी को मार्ग में सामने से आते हुए 1. तया, पत्ता, पुप्फा, फला, बीया, हरिया-ये पाठान्तर भी है। 2. 'जाव' शब्द से यहाँ 'आइक्लह' से लेकर 'वूइज्जेज्जा' तक का सारा पाठ। सूत्र 510 के अनुसार समझें। 3. जाव शब्द से यहाँ जबसाणिवा से लेकर सेणं वा तक का सारा पाठ सूत्र 500 के अनुसार समझे। 4. वैकल्पिक अर्थ---जानता हुआ भी 'जानता हूं' ऐसा न कहे / Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध पथिक निकट आकर पूछे कि) आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जौ, गेहूं आदि धान्यों का ढेर,) रथ, बैलगाड़ियाँ, या स्वचक्र या परचक्र के शासक के (सैन्य के नाना प्रकार के पड़ाव देखे हैं ? इस पर साधु उन्हें कुछ भी न बताए, (न ही दिशा बताए, वह उनकी बात को स्वीकार न करे, मौन धारण करके रहे / अथवा जानता हुआ भी 'मैं नहीं जानता' यों (उपेक्षा भाव से जवाब दे दे / ) तदनन्तर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। 513. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु साध्वी को यदि मार्ग में कहीं प्रातिपथिक मिल जाएं और वे उससे पूछे कि यह गांव कैसा है, या कितना बड़ा है ? यावत् राजधानी कैसी है या कितनी बड़ी है ? यहाँ कितने मनुष्य यावत् ग्रामयाचक रहते हैं ? आदि प्रश्न पूछे तो उनकी बात को स्वीकार न करे, न ही कुछ बताए / मौन धारण करके रहे / (अथवा जानता हुआ भी मैं नहीं जानता, यों उपेक्षाभाव से उत्तर दे दे / ) फिर संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। 514. ग्रामानुग्राम विचरण करते समय साधु-साध्वी को मार्ग में सम्मुख आते हुए कुछ पथिक मिल जाय और वे उससे पूछे--"आयुष्मन् श्रमण ! यहाँ से ग्राम यावत् राजधानी कितनी दूर है ? तथा यहां से ग्राम यावत् राजधानी का मार्ग अब कितना शेष रहा है ?" साधु इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ भी न कहे, न ही कुछ बताए, वह उनकी बात को स्वीकार न करे, बल्कि मौन धारण करके रहे / (अथवा जानता हुआ भी, मैं नहीं जानता, ऐसा उत्तर दे / ) और फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। विवेचन-विहारचर्या और धर्मसंकट-सूत्र 510-511 इन दो सूत्रों में प्रातिपथिकों द्वारा पशु-पक्षियों और वनस्पति, जल एवं अग्नि के विषय में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने का निषेध है। उसके पीछे शास्त्रकार का आशय बहुत गम्भीर है, मनुष्य एवं पशु-पक्षी आदि के विषय में प्रश्न करने वाला या तो शिकारी हो सकता है, या वधिक, वहेलिया, कसाई या लुटेरा आदि में से कोई हो सकता है, साधु से पूछने पर, उसके द्वारा बता देने पर उसी दिशा में भाग कर उस जीव को पकड़ सकता है या उसकी हत्या कर सकता है। इस हत्या में परम अहिंसामहावती साधु निमित्त बन जाएगा। दूसरे सूत्र में ऐसे असंयमी, भूखे-प्यासे, शीत-पीड़ित, लोगों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न हैं, जो साधु के बता देने पर उन जीवों की विराधना व आरम्भ-समारम्भ कर सकते हैं / अतः दोनों प्रकार के प्रश्नों में सर्वप्रथम साधु को मौन-धारण का शास्त्रीय आदेश है, किन्तु कई बार मौन रहने पर भी समस्या विकट रूप धारण कर सकती है, साधु के प्राणों पर भी नौबत आ जाती है, पूछनेवाला साधु के द्वारा कुछ भी न बताने पर क्रूर होकर प्राण-हरण करने को उद्यत हो जाता है, ऐसी स्थिति में जिनकल्पिक मुनि तो मौन रहकर अपने प्राणों को न्यौछावर करने में तनिक भी नहीं हिचकते, लेकिन स्थविरकल्पी अभी इतनी उच्चभूमिका पर नहीं पहुंचा है, इसलिए शास्त्रकार ऐसी धर्मसंकटापन्न परिस्थिति में उसके लिए दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हैं Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 515-16 जाणं वा णो जाणं ति वएज्जा--"जानता हुमा भी मैं नहीं जानता।" इस प्रकार (उपेक्षाभाव) मे कहे / साधु को सत्यमहाबत भी रखना है और अहिंसा-महाबत भी; परन्तु अहिंसा से विरहित सत्य, सत्य नहीं होता, किन्तु अहिंसा से युक्त सत्य ही सद्भ्योहितं सत्यम्-प्राणिमात्र के लिए हितकर सत्य वास्तविक सत्य कहलाता है। इसलिए साधु जानता हुआ भी उन विशिष्ट पशुओं का नाम लेकर न कहे, बल्कि सामान्य रूप से और उपेक्षाभाव से कहे कि "मैं नहीं जानता।" वास्तव में साधु सब प्राणियों के विषय में जानता भी नहीं, इसलिए सामान्य रूप से "मैं नहीं जानता।” कहने में उसका सत्य भी भंग नहीं होता और अहिंसाबत भी सुरक्षित रहेगा।' जाणं वा णो....'--इसका एक वैकल्पिक अर्थ यह भी है कि जानता हुआ भी यह न कहे कि "मैं जानता हूं।" 'जानता हुआ भी ऐसा कहे कि मैं नहीं जानता' यह अपवाद मार्ग है, 'जानता हुआ भी मैं, जानता हूँ ऐसा न कहें यह उत्सर्ग मार्ग है। अथवा अन्य प्रकार से कोई ऐसा उत्तर दे कि-प्रश्नकर्ता क्रुद्ध भी न हो एवं मुनि का सत्य एवं अहिंसा महाव्रत भी खण्डित न हो। प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार ऐसा उत्तर दिया जाता है--"जो (मन) जानता है, वह देखता नहीं, जो (चक्षु) देखता है, वह बोलता नहीं, जो (जिह्वा) बोलता है, वह न जानता है, न देखता है / फिर क्या कहा जाय?" ऐसे उत्तर से सम्भव है प्रश्नकर्ता उकताकर मुनि को विक्षिप्त आदि समझकर आगे चला जाय, और वह समस्या हल हो जाय। सू० 512, 513 एवं 514 की बातें पहले सूत्र 500 एवं 502 में आ चुकी हैं, उन्हीं बातों को पुनः ईर्या और भाषा के सन्दर्भ में यहाँ दोहराया गया है / साधु को यहाँ मौन रहने से काम न चलता हो तो जानने पर भी नहीं जानने का कथन करने का निर्देश किया है। उसका कारण भी पहले बताया जा चुका है।' 515. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से गोणं वियालं पडिपहे पेहाए जाव' चित्ताचेल्लडयं वियालं पडिपहे पेहाए णो तेसि भीतो उम्मग्गेणं गच्छेज्जा, गो मग्गातो भग्गं संकज्जा , गो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसेज्जा, णो रुक्खंसि दुरुहेज्जा, गो 1. (अ) टीका पत्र 383 के आधार पर (आ) आचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 185-186 / 2. आचारांग चूणि मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 383 के आधार पर 3. यहाँ जाव शब्द से 'गोणं क्यिालं पडिपह पेहाए' से लेकर 'चित्ताचेल्लड्यं' तक का समग्र पाठ सूत्र 354 के अनुसार संकेतित है। 4. 'चित्ताचेल्लाय' के स्थान पर पाठान्तर हैं-"चिताचिल्लडयं चित्ताचिल्लडं, आदि। वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं--- चित्रकं तदपत्यं वा व्यालं रं-दृष्टवा"..-चीता या उसका बच्चा जो ऋर (व्याल) है, उसे देखकर / Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 आचारांग सूत्र-द्वितीय तस्कन्ध महतिमहालयंसि उदयंसि कायं विओसेज्जा, णो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्थं वा कंखेज्जा, अप्पुस्सुए' जाव समाहीए, ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। 516. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जेज्जा, अंतरा से विहं सिया, से ज्जं पुण विहं जाणेज्जा, इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा उवकरणपडियाए संपडिया (ss) गच्छेज्जा, णो तेसि भीओ उम्मग्गं चेव गच्छेज्जा जाव समाहीए। ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। __ 517. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से आमोसगा संपडिया-(s) गच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! आहर एवं वत्थं वा 4, देहि, णिक्खिवाहि, तं णो देज्जा, णिक्खिवेज्जा, णो वंदिय जाएज्जा, गो अंजलि कटु जाएज्जा, णो कलुणपडियाए जाएज्जा, धम्मियाए जायणाएं जाएज्जा, तुसिणीयभावेण वा (उवेहेज्जा)। 518. ते णं आमोसगा सयं करणिज्ज' ति कटु अक्कोसंति वा जाव उद्दति वा, वत्थं वा 4 अच्छिदेज्ज वा जाव परिठ्ठवेज्ज वा, तं गो गामसंसारियं कुज्जा, णो रायसंसारियं कुज्जा, णो परं उवसंकमित्तु बूया--आउसंतो गाहावती ! एते खलु आमोसगा उवकरणपडियाए सयं करणिज्जं ति कटु अक्कोसंति वा जाव परिट्ठति वा। एतप्पगारं मणं वा वई वा णो पुरतो कटु विहरेज्जा। अप्पुस्सुए जाव समाहोए ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 516. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव्वठेहि समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि / 1. यहाँ 'जाव' से 'अप्पुस्सुए' से 'समाहीए' तक का समग्र पाठ 482 सूत्रवत् समझें / 2. जाव शब्द से यहाँ 'गच्छेज्जा' से लेकर 'समाहीए' तक का समग्र पाठ सू० 515 के अनुसार समझें। 3. 'वत्थं वा' के आगे '4' का चिन्ह सूत्र 471 के अनुसार शेष तीन उपकरणों (पडिम्गहं वा, कंबलं बा, पादपुछणं वा) का सूचक है। 'धम्मियाए जायणाए' की व्याख्या चणिकार के शब्दों में-'धम्मियजायणा थेराशं तुब्भविहेहि चेव दिण्णाइं, जिणकप्पिओ तुसिणीओ चेव / ' अर्थात्-धार्मिक याचना स्थविरकल्पिक मुनियों की ऐसी हो---'तुम जैसों ने ही हमें (ये उपकरण) दिए हैं। जिनकल्पिक तो मौन ही रहें। 5. 'सयं करणिज्ज' का अर्थ चर्णिकार ने किया है-सयं करणिज्जति जण्ह रुच्चति, तं करेंति, अक्को सादी।' स्वयं करणीयं का भावार्थ है-जो उन्हें अच्छा लगता है, वह वे करते हैं, आक्रोश, वध आदि / 6. जाव शब्द से यहाँ 'अच्छिवेज्ज वा' से लेकर परिवेज वा' तक का समग्र पाठ सूत्र 471 के अनुसार समझें। 7. जाब शब्द से यहाँ 'अक्कोसंति' से लेकर 'उद्दति' तक का सारा पाठ सू० 422 के अनुसार समझें / Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 516 207 515. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी को यदि मार्ग में मदोन्मत्त सांड, विषेला सांप, यावत् चीते, आदि हिंसक पशुओं को सम्मुख-पथ से आते देखकर उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से नहीं जाना चाहिए, और न ही एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर संक्रमण करना चाहिए, न तो गहन, वन एवं दुर्गम स्थान में प्रवेश करना चाहिए, न ही वृक्ष पर चढ़ना चाहिए, और न ही उसे गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश करना चाहिए। वह ऐसे अवसर पर सुरक्षा के लिए किसी बाड़ की, शरण की, सेना की या शस्त्र की आकांक्षा न करे; अपितु शरीर और उपकरणों के प्रति राग-द्वेषरहित होकर काया का व्यत्सर्ग करे, आत्मैकत्वभाव में लीन हो जाए और समाधिभाव में स्थिर रहे / तत्पश्चात् वह यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। 516. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वी जाने कि मार्ग में अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी-मार्ग है। यदि उस अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी मार्ग के विषय में वह यह जाने कि इस अटवी-मार्ग में अनेक चोर (लुटेरे) इकट्ठे होकर साधु के उपकरण छीनने की दृष्टि से आ जाते हैं, यदि सचमुच उस अटवीमार्ग में वे चोर इकट्ठे होकर आ जाएं तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग में न जाए, न एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर संक्रमण करे, न गहन वन, या किसी दुर्गम स्थान में प्रवेश करे, न वृक्ष पर चढ़े, न गहरे एवं विस्तृत जल में प्रवेश करे। ऐसे विकट अवसर पर सुरक्षा के लिए वह किसी बाड़ की, शरण की, सेना या शस्त्र की आकांक्षा न करे, बल्कि निर्भय, निर्द्वन्द्व और शरीर के प्रति अनासक्त होकर, शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग करे और एकात्मभाव में लीन एवं राग-द्वेष से रहित होकर समाधि भाव में स्थिर रहे / तत्पश्चात् यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। 517. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु के पास यदि मार्ग में चोर (लुटेरे) संगठित होकर आ जाएं और वे उससे कहें कि 'आयुष्मन् श्रमण ! ये वस्त्र, पात्र, कंबल, और पादप्रोंछन आदि लाओ, हमें दे दो, या यहाँ पर रख दो।' इस प्रकार कहने पर साधु उन्हें वे (उपकरण) न दे, और न निकाल कर भूमि पर रखे। अगर वे बलपूर्वक लेने लगें तो उन्हें पुन: लेने के लिए उनकी स्तुति (प्रशंसा) करके हाथ जोड़कर या दीन-वचन कह (गिड़गिड़ा) कर याचना न करे / अर्थात् उन्हें इस प्रकार से वापस देने का न कहें / यदि मांगना हो तो उन्हें धर्म-वचन कहकर-समझा कर मांगे, अथवा मौनभाव धारण करके उपेक्षाभाव से रहे। __518. यदि वे चोर अपना कर्त्तव्य (जो करना है) जानकर साधु को गाली-गलौज करें, अपशब्द कहें, मारें-पीटें, हैरान करें, यहाँ तक कि उसका बध करने का प्रयत्न करें, और उसके वस्त्रादि को फाड़ डालें, तोड़फोड़ कर दूर फेंक दें, तो भी वह साधु ग्राम में जाकर लोगों से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि 'आयुष्मान् गृहस्थ' इन चोरों (लुटेरों) ने हमारे उपकरण छीनने के लिए अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें कोसा है, मारा-पीटा है, हमें हैरान किया है, हमारे उपकरणादि नष्ट करके दूर फेंक दिये हैं / ' ऐसे कुविचारों को साधु मन में भी न लाए और न Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध वचन से व्यक्त करे। किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और अनासक्त होकर आत्म-भाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे। 516. यही उस साधु या साध्वी के भिक्षु जीवन की समग्रता-सर्वांगपूर्णता है, कि वह सभी अर्थों में सम्यक् प्रवृत्तियुक्त, ज्ञानादिसहित होकर संयम पालन में सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-विहारचर्या में साधु की निर्भयता और अनासक्ति की कसौटी---पिछले 6 सूत्रों में साधु की साधुता की अग्निपरीक्षा का निर्देश किया गया है / वास्तव में प्राचीनकाल में यातायात के साधन सुलभ न होने से अनुयायी लोगों को साधु के विहार की कुछ भी जानकारी नहीं मिल पाती थी। उस समय के विहार बड़े कष्टप्रद होते थे, रास्ते में हिंस्र पशुओं का और चोर-डाकुओं का बड़ा डर रहता था, बड़ी भयानक अटवियाँ होती थी, लंबी-लंबो / रास्ते में कहीं भी पडाव करना खतरे से खाली नहीं था। ऐसी विकट परिस्थिति में शास्त्रकार ने साधु वर्ग को उनकी साधुता के अनुरूप निर्भयता, निईन्द्वता, अनासक्ति और शरीर तथा उपकरणों के व्युत्सर्ग का आदेश दिया है / इन अवसरों पर साधु की निर्भयता और अनासक्ति की पूरी कसौटी हो जाती थी। न कोई सेना उसे रक्षा के लिए अपेक्षित थी, न वह शस्त्रास्त्र, साथी सुरक्षा के लिए कहीं आश्रय ढूँढ़ता था। चोर उसके वस्त्रादि छीन लेते या उसे मारते-पीटते तो भी न तो चोरों के प्रति प्रतिशोध की भावना रखता था, न उनसे दीनतापूर्वक वापस देने की याचना करता था, और न कहीं उसकी फरियाद करता था / शान्ति से, समाधिपूर्वक उस उपसर्ग को सह लेता था।' 'गामसंसारियं' आदि पदों का अर्थ-गामसंसारियं-ग्राम में जाकर लोगों में उस बात का प्रचार करना, रायसंसारियं-राजा आदि से जाकर उसकी फरियाद करना। र्या-अध्ययन समाप्त / / 1. बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य तथा निशीथ चूणिकार आदि के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि उस युग में श्रमणों को इस प्रकार के उपद्रवों का काफी सामना करना पड़ता था। कभी बोटिक चोर (म्लेच्छ) किसी आचार्य या गच्छ का वध कर डालते, संयतियों का अपहरण कर ले जाते तथा उनकी सामग्री नष्ट कर डालते-(निशीथ चूणि पीठिका 286) इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होने पर अपने आचार्य की रक्षा के लिए कोइ वयोवृद्ध साधु गण का नेता बन जाता और गण का आचार्य सामान्य भिक्षु का वेष धारण कर लेता-(बृहत्कल्प भाव्य 1,3005-6 तथा निशीथभाष्य पीठिका 321) कभी ऐसा भी होता कि आक्रान्तिक चोर चुराये हुए वस्त्र को दिन में ही साधुओं को वापिस कर जाते किंतु अनाक्रान्तिक चोर रात्रि के समय उपाश्रय के बाहर प्रस्रवणभूमि में डालकर भाग जाते / -(वह भाष्य 1.3011) यदि कभी कोई चोर सेनापति उपधि के लोभ के कारण आचार्य की हत्या करने के लिए उद्यत होता तो धनुर्वेद का अभ्यासी कोई साधु अपने भुजावल से, अथवा धर्मोपदेश देकर या मन्त्र, विद्या, चूण और निमित्त आदि का प्रयोग कर उसे शान्त करता ! -(वहीं 1.3014) / -अंन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृष्ठ 357 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 384 के आधार पर (ख) आचारांग चूणि, मू० पा० टिप्पणी पृ० 187 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाजात : चतुर्थ अध्ययन प्राथमिक - आचारांग सूत्र (द्वि० श्रु तस्कन्ध) के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'भाषाजात' है। न भाषा का लक्षण है--जिसके द्वारा दूसरे को अपना अभिप्राय समझाया जाए, जिसके माध्यम से अपने मन में उद्भूत विचार दूसरों के समक्ष प्रकट किया जाए, तथा दूसरे के दृष्टिकोण, मनोभाव या अभिप्राय को समझा जाए। - 'जात' शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते हैं, जैसे---उत्पन्न, जन्म, उत्पत्ति, समूह, संघात, प्रकार, भेद, प्रवृत्त / यात प्राप्त, गमन, गति, गीतार्थ-विद्वान् साधु आदि / ' - इस दृष्टि से भाषाजात के अर्थ हुए-भाषा की उत्पत्ति, भाषा का जन्म, भाषा जो उत्पन्न हुई है वह, भाषा का समूह, भाषा के प्रकार, भाषा की प्रवृत्तियाँ, प्रयोग, भाषा को प्राप्ति-(ग्रहण), भाषा-प्रयोग में गीतार्थ साधु आदि / 4 इन सभी अर्थों के सन्दर्भ में वृत्तिकार ने 'भाषाजात' के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये 6 निक्षेप करके प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य-भाषाजात का प्रतिपादन अभीष्ट माना है। , 'जात' शब्द के पूर्वोक्त अर्थों को दृष्टिगत रखकर द्रव्य-भाषाजात के चार प्रकार बताए हैं-१. उत्पत्तिजात, 2. पर्यवजात, 3. अन्तर्जात और 4. ग्रहणजात। 5 (1) काययोग द्वारा गृहीत भाषावर्गणान्तर्गत द्रव्य जो वाग्योग से निकल कर भाषा रूप में उत्पन्न होते हैं, वे उत्पत्तिजात है। 27 (2) उन्हीं वाग्योग-निःसृत भाषा द्रव्यों के साथ विश्रोणि में स्थित भाषावर्गणा के अन्तर्गत द्रव्य टकरा कर भाषापर्याय के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे पर्यवजात हैं। 5 (3) जो अन्तराल में, समश्रेणि में स्थित भाषा-वर्गणा के पुद्गल,वर्गणा द्वारा छोड़े गये भाषा द्रव्यों के संसर्ग से भाषा रूप में परिणमत हो जाते हैं, वे अन्तरजात हैं। 1 (4) जो समणि-विश्रोणिस्थ द्रव्य भाषा रूप में परिणत तथा अनन्त-प्रदेशिक कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट होकर ग्रहण किये जाते हैं, वे ग्रहणजात कहलाते हैं। 1. पाइअ-सद्दमहण्णवा पृ० 354 / Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध * भावतः 'भाषाजात' तब होता है, जब पूर्वोक्त उत्पत्ति आदि चतुर्विध द्रव्य भाषाजात कान में पड़कर 'यह शब्द है' इस प्रकार की बुद्धि पैदा करते हैं।' र साधु-साध्वियों के लिए पूर्वोक्त भाषाजात का निरूपण होने से इस अध्ययन का नाम 'भाषाजात अध्ययन' रखा गया है / 4 इसके दो उद्देशक हैं। यद्यपि दोनों का उद्देश्य साधु वर्ग को वचन-शुद्धि का विवेक बताना है; तथापि दोनों में से प्रथम उद्देशक में 16 प्रकार की वचन-विभक्ति बताकर भाषा-प्रयोग के सम्बन्ध में विधि-निषेध बताया गया है। - दुसरे उद्देशक में भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में क्रोधादि समुत्पन्न भाषा को छोड़कर निर्दोष-बचन बोलने का विधान किया गया है। 2. यह अध्ययन सूत्र 520 से प्रारम्भ होकर 552 पर समाप्त होता है। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 385 / (ख) पाइअ-सद्दमहण्णवो पृ० 354 / 2. (क) आचारांग नियुक्ति गाथा 314 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 385 / Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं 'भासज्जाया' पढमो उद्देसओ भाषाजात : चतथं अध्ययन : प्रथम उद्देशक भाषागत आचार-अनाचार विवेक 520. से भिक्खू वा 2 इमाई वइि-आयाराई सोच्चा णिसम्म इमाइं अणायाराई अणायरियपुवाई जाणेज्जा–जे कोहा वा वायं विउंजंति, जे माणा वा वायं विउंजंति, जे मायाए वा वायं विउंजंति, जे लोभा वा वायं विउंजंति, जाणतो वा फरसं वदंति, अजाणतो वा फरसं वयंति / सव्वं चेयं सावज्ज वज्जेज्जा विवेगमायाए–धुवं चेयं जाणेज्जा, अधुवं चेयं जाणेज्जा, असणं वा 4 लभिय, णो लभिय, भुंजिय, णो भुंजिय, अदुवा आगतो अदुवा णो आगतो, अदुवा एति, अदुवा णो एति, अदुवा एहिति, अदुवा णो एहिति, एत्थ वि आगते,' एत्थ वि णो आगते एत्थ वि एति, एत्थ वि णो एति, एत्थ वि एहिति, एत्थ वि णो एहिति। 520. संयमशील साधु या साध्वी इन वचन (भाषा) के आचारों को सुनकर, हृदयंगम करके, पूर्व-मुनियों द्वारा अनाचरित भाषा-सम्बन्धी अनाचारों को जाने / (जैसे कि) जो क्रोध से वाणी का प्रयोग करते हैं, जो अभिमानपूर्वक वाणी का प्रयोग करते हैं, जो छल-कपट सहित भाषा बोलते हैं, अथवा जो लोभ से प्रेरित होकर वाणी का प्रयोग करते हैं, जानबूझ कर कठोर बोलते हैं, या अनजाने में कठोर वचन कह देते हैं-ये सब भाषाएं सावध (स-पाप,) हैं, 1. 'वइ-आयाराई" के बदले पाठान्तर हैं-वयिआयाराइ, वइयायाराइ, वययाराई आदि / अर्थ समान है। 2. 'जे माणा वा वायं विउ जति आदि पाठ के बदले पाठान्तर हैं.---'जे माणा वा. वएज्जा, जे मायाए वा,""""माया था, जंमाणा वा जे मायाए वा अर्थ समान हैं। 3. माया आदि का तात्पर्य चणिकार के शब्दों में माया-'गिलाणो हं', लोभा-वाणिज्ज करेमाणे / अर्थात्-माया से बोलना-जैसे—'मैं बीमार है।' लोभ से बोलना-वाणिज्य (सौदेबाजी, अदला बदली) करता हुआ। 4. धुवं चेयं जाणेज्जा—का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में-'ध्रुवमेतद् निश्चितं' दृष्ट्यादिकं भविष्यतीत्येवं जानीयात् / ' अर्थात्-यह निश्चित है कि वृष्टि आदि होगी ही; इस प्रकार जाने या शर्त लगाए / 5. 'एत्थ वि आगते का तात्पर्य चूर्णिकार के शब्दों में--'अस्मिन् एत्य ग्रामे संखडीए वा' इस गांव में या इस संखडी (प्रीतिभोज) में। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 आचारांग सूत्र--द्वितीय भु तस्कन्ध साधु के लिए वर्जनीय हैं। विवेक अपनाकर साधु इसप्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे। वह साधु या साध्वी ध्रव (भविष्यत्कालीन वृष्टि आदि के विषय में निश्चयात्मक) भाषा को जान कर उसका त्याग करे, अध्रव (अनिश्चयात्मक) भाषा को भी जान कर उसका त्याग करे / 'वह अशनादि चतुर्विध आहार लेकर ही आएगा, या आहार लिए बिना ही आएगा, वह आहार करके ही आएगा, या आहार किये बिना ही आ जाएगा, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, वह आता है, अथवा नहीं आता है, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा; वह यहां भी आया था, अथवा वह यहाँ नहीं आया था वह यहाँ अवश्य आता है, अथवा कभी नहीं आता, अथवा वह यहाँ अवश्य आएगा या कभी नहीं आएगा, (इस प्रकार की एकान्त निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग साधु-साध्वी न करे)। विवेचन-भाषागत आचार-अनाचार का विवेक-प्रस्तुत सूत्र में भाषा के विहित एवं निषिद्ध प्रयोगों का रूप बताया है। इसमें मुख्यतया 6 प्रकार की सावद्यभाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया है-(१) क्रोध से, (2) अभिमान से, (3) माया-कपट से, (4) लोभ से, (5) जानते-अजानते कठोरतापूर्वक, और (6) सर्वकाल सम्बन्धी, तथा सर्वक्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक रूप मे। उदाहरणार्थ--क्रोध के वश में होकर किसी को कह देना--तू चोर है, बदमाश है, अथवा धमकी दे देना, झिड़क देना, मिथ्यारोप लगा देना आदि / अभिमानवश-किसी से कहना-- मैं उच्च जाति का हूं, तू तो नीची जाति का है, मैं विद्वान् हूँ, तू मूर्ख है, आदि। मायावश-मैं बीमार हूँ, मैं इस समय संकट में हूँ, इसप्रकार कपट करके कार्य से या मिलने आदि से किनाराकसी करना / लोभवश-किसी से अच्छा खान-पान, सम्मान या वस्त्रादि पाने के लोभ से उसकी मिथ्या-प्रशंसा करना या सौदेबाजी करना आदि / कठोरतावश-जानते-अजानते किसी को मर्मस्पर्शी वचन बोलना, किसी की गुप्त बात को प्रकट करना आदि। इसीप्रकार सर्वकाल क्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक भाषा-प्रयोग के कुछ उदाहरण सूत्र में दे दिये हैं। विउंजंति की व्याख्या-विविध प्रकार से भाषा प्रयोग करते हैं।' षोडष बचन एवं संयत भाषा-प्रयोग 521. अणुवीयि णिट्ठाभासी समिताए संजते भासं भासेज्जा, तंजहाएगवयणं 1, दुवयणं 2, बहुवयणं 3, इत्थीवयणं 4, पुरिसवयणं 5, नपुंसगवयणं 6, 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 / 2. " णिठ्ठाभासी' के बदले चूर्णिकार-निमासी' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-"निश्चितभाषी निदृभासी, सम्यक संजते भाषेत, संकित: मण्णे त्ति, ण वा जाणामि।" निभासी-निश्चितभाषी, यानी निश्चित हो जाने पर ही कहने वाला / संयमी साधु सम्यक कहे। शंकित व्यक्ति निष्ठाभाषी नहीं होता। शंकित-अर्थात जानता हैं या नहीं जानता। इस प्रकार की शंका से ग्रस्त / Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 521 अज्झत्थवयणं 7, उवणीयधयणं 8, अवणीयवयणं 6, उवणीतअवणीतवयणं 10, अवणीतउवणीतवयणं 11, तीयवयणं 12, पड़प्पण्णवयणं 13, अणागयवयणं 14, पच्चक्खवयणं 15, परोक्खवयणं 16 // से एगवयणं वदिस्सामीति एगवयणं वदेज्जा, जाव परोक्खवयणं वदिस्सामोति परोक्खवयणं वदेज्जा / इत्थी' वेस, पुमं बेस, णपुंसगं वेस, एवं वा चेयं, अण्णं वा चेयं, अणुवोयि गिट्ठाभासी समियाए संजते भास भासेज्जा। 521. संयमी साधु या साध्वी विचारपूर्वक भाषा समिति से युक्त निश्चितभाषी एवं संयत होकर भाषा का प्रयोग करे। जैसे कि (ये 16 प्रकार के वचन है-) (1) एकवचन, (2) द्विवचन, (3) बहुवचन, (4) स्त्रीलिंग-कथन, (5) पुल्लिग-कथन, (6) नपुंसकलिंग कथन, (7) अध्यात्म-कथन, (8) उपनीत-(प्रशंसात्मक) कथन, (8) अपनोत-(निन्दात्मक) कथन, (10) उपनीताऽपनीत—(प्रशंसा-पूर्वक निन्दा-वचन) कथन, (11) अपनीतोपनीत-(निन्दापूर्वक प्रशंसा) कथन, (12) अतीतवचन, (13) वर्तमानवचन, (14) अनागत-(भविष्यत्) वचन, (15) प्रत्यक्षवचन और (16) परोक्षवचन / यदि उसे 'एकवचन' बोलना हो तो वह एकवचन ही बोले, यावत् परोक्षवचन पर्यन्त जिस किसी वचन को बोलना हो, तो उसी वचन का प्रयोग करें। जैसे—यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह नपुंसक है, यह वही है या यह कोई अन्य है, इस प्रकार जब विचारपूर्वक निश्चय हो जाए, तभी निश्चयभाषी हो तथा भाषा-समिति से युक्त हो कर संयत भाषा में बोले। विवेचन-भाषाप्रयोग के समय सोलह वचनों का विवेक-प्रस्तुत सूत्र में 16 प्रकार के वचनों का उल्लेख करके उनके प्रयोग का विवेक बताया है, साधु को जिस किसी प्रकार का कथन करना हो, पहले उस विषय में तदनुरूप सम्यक् छानबीन करले कि मैं जिस वचन का वास्तव में प्रयोग करना चाहता हूं, वह उस प्रकार का है या नहीं ? यह निश्चित हो जाने के बाद ही भाषा-समिति का ध्यान रखता हुआ, संयत होकर स्पष्ट वचन कहे। इन 16 वचनों के प्रयोग में 4 बातों का विवेक बताया गया है--(१) भलीभांति छानबीन करना, (2) स्पष्ट निश्चय करना, (3) भाषा-समिति का ध्यान रखना, और (4) यतनापूर्वक स्पष्ट कहना। इस सूत्र से ये 8 प्रकार के वचन निषिद्ध फलित होते हैं--(१) अस्पष्ट, (2) संदिग्ध, (3) केवल अनुमित, (4) केवल सुनी-सुनाई बात, (5) प्रत्यक्ष देखी, परन्तु छानबीन न की हुई, 1. 'इत्थीवेस पुमं वेस णपुसग वेस' के बदले पाठान्तर है-इत्थी वेस पूर्ण वेस णपसगं वेस', 'इत्थीवेसा पुरिसे नपुंसगं वेस' एवं इत्थीवेसं पुरिसवेसं गपुसमवेसं / ' चूर्णिकार सम्मत पाठ अन्तिम है। चणि. कृत व्याख्या इस प्रकार है-इत्थि पुरिसणेवच्छितं ण वदिज्जा-एसो पुरिसो गच्छति एषोऽप्येवं / Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (6) स्पष्ट, किन्तु प्राणघातक, मर्मस्पर्शी, आघात-जनक, (7) व्यर्थक, (दोहरे अर्थ वाली) (8) निरपेक्ष व एकान्त कथन / ' 'निट्ठाभासो' आदि शब्दों की व्याख्या--निहाभासो—निश्चित करने के बाद भाषण करने वाला, स्पष्ट-भाषी (संदिग्ध, अस्पष्ट, द्वयर्थक, केवल श्रुत या अनुमित भाषा प्रयोग नहीं करने वाला) / अणुवीय पहले बुद्धि से निरीक्षण-परीक्षण करके छानबीन करके / अज्झत्थवयण = आध्यात्मिक कथन, जो शास्त्रीय प्रमाण, अनुभव, युक्ति या प्रत्यक्ष से निश्चित हो, अथवा आत्मा-हृदय में स्पष्ट समुद्भूत, स्फुरित या अन्तःकरण प्रेरित वचन / उवणीयवयणं प्रशंसात्मक वचन, जैसे—यह रूपवान है। अवणीयवयणं-अप्रशंसात्मक वचन, जैसे—यह रूपहीन है, उवणीतअवणीतवयणं = किसी का कोई गुण प्रशंसनीय है, कोई अवगुण निन्द्य है, उसके विषय में कथन करना, जैसे—यह व्यक्ति रूपवान् है किन्तु चरित्रहीन है / अवणीत-उपणोतवयणं-किसी के अप्रशस्तगुण के साथ प्रशस्तगुण का कथन करना जैसे-यह कुरूप है, किन्तु है सदाचारी। ___ इत्थीवेस आदि पदों की व्याख्या-चूर्णिकार ने इत्थीवेस, पुणपुसगवेसं पाठ मानकर इस प्रकार व्याख्या की है-कोई स्त्री के वेष में जा रही हो तो उसे देखकर यों न कहे कि यह पुरुष जा रहा है। इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में समझ लेना चाहिए।' दशवकालिक 7 / 15 में भी इसी प्रकार का उल्लेख है कि सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर कथन करना भी असत्य-दोष है। इस पर दोनों चूणियों तथा हारिभद्रीय टीका में काफी चर्चा की गई है। चूर्णिकार का मत है कि पुरुषवेषधारी स्त्री को देखकर यह कहना कि पुरुष गा रहा है, नाच रहा है, जा रहा है-स-दोष है। जब कि टीकाकार आचार्य हरिभद्र का मत है—पुरुषवेषधारी स्त्री को स्त्री कहना स-दोष है। इसका आशय यह लगता है कि जब तक उस विषय में संदेह हो, उसके स्त्री या पुरुष होने का निश्चय न हो, तब तक उसे निश्चित रूप में स्त्री या पुरुष; नपुंसक नहीं कहना चाहिए यह शंकितभाषा की कोटि में आ जाती है। किंतु रूप-सत्य भी सत्यभाषा का एक प्रकार माना गया है, जिसके अनुसार वर्तमान रूप में जो है, उसे उसी नाम से पुकारना 'रूपसत्य' सत्य-भाषा है। इस समग्न चर्चा का सार यह लगता है कि पुरुषवेषधारी स्त्री को पुरुष न 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्र 386 (ख) दशवे० अ०७ गा० 5-11 2. (अ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 (आ) आचारांग चूणि मू० पा० पृ० 186 3. आचारांग चूणि मू. पा. पृ. 160 4. देखें (क) अगस्यसिह चूणि पृष्ठ 165 (ख) जिनदासचूर्णि, पृष्ठ 246 (ग) हारिभद्रीय टीका पत्र २१४-दसवेआलियं पृष्ठ 346 5. पन्नवणा पद 11 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 522-26 215 कहकर 'पुरुष-वेषधारी' कहना चाहिए इसी प्रकार स्त्री वेषधारी को स्त्री न कहकर 'स्त्रीवेषधारी' कहना चाहिए ; ताकि शंकित व असत्य-दोष से भाषा दूषित न हो। एवौं वा चेयं, अण्णं वा चेयं का तात्पर्य वृत्तिकार के अनुसार है-यह ऐसा है, या यह दूसरे प्रकार का है। किन्तु चूर्णिकार इसका तात्पर्य निषेधात्मक बताते हैं यह ऐसा ही हैं, इस प्रकार संदिग्ध अथवा यह अन्यथा (दूसरी तरह का) है, इसप्रकार का असंदिग्धवचन नहीं बोलना चाहिए।' चार प्रकार की भाषा : विहित-अविहित ___ 522. इच्चेयाई आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तंजहा-सच्चमेगं पढमं भासजातं, बीयं मोसं, ततियं सच्चामोसं, जं व सच्चं व मोसं व सच्चामोसं णाम तं चउत्थं भासज्जातं / से बेमि-जे य अतीता जे प पडुप्पण्णा जे य अणागया अरहंता भगवंतो सव्वे ते एताणि चेव चत्तारि भासज्जाताई भासिसु वा भासिंति वा भासिस्संति वा, पण्णविसु वा 3 / सव्वाइं च णं एयाणि अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चयोवचइयाई विप्परिणामधम्माइं भवंति त्ति अक्खाताई। 523. से भिक्खू वा 2 [से ज्जं पुण जाणेज्जा-] पुव्वं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयवीइकंतं च णं भासिता भासा अभासा। 524. से भिक्खू बा 2 जा य भासा सच्चा, जा य भासा मोसा, जा य भासा सच्चामोसा 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 386, (ख) आचा. चूणि मू. पा. पृ० 160 2. 'सच्चमेगं' के बदले पाठान्तर हैं-सच्चमेतं, सच्चमेयं, सच्चमेमं / 3. 'पण्णविसु वा' के आगे 3 का अंक शेष (पण्णवेति वा पण्णविस्संति वा) पाठ का सूचक है। 4. 'रसमंताणि फासमंताणि' के बदले पाठान्तर हैं.---'रसवंताणि फासवंताणि / 'चयोवचइयाइ' के बदले चर्णिकार 'चयोवचयाइ' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं-चयोवचयाई अनित्यो (शब्द)---वैशेषिकाः, वैदिका:-नित्यः शब्द:---यथा वायुर्वीजनादिभिरभिव्यज्यते, एवं शब्द:, ण च एवमारहतानां, यथा पट: चीयते अवचीयते च, एवं विष्परिणामसभावाणि, 'ते चेव णं-ते भंते ! सुब्भिसहा पोग्गला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुग्भिसदा वि पोग्गला सुन्भिसत्ताए परिणमति / ' अर्थात्-वैशेषिक कहते हैं-शब्द अनित्य है, वैदिक कहते हैं-शब्द नित्य है, जैसे वायु पंखे आदि के द्वारा अभिव्यक्त होती है, वैसे ही शब्द है / आर्हतमतानुसार ऐसा नहीं है, यहाँ शब्द आदि पुद्गल है, जो परिणामी हैं। जैसे वस्त्र का चय-अपचय होता है, इसीप्रकार सभी पुद्गल परिणमनस्वभाव वाले होते हैं। जैसे कि शास्त्र में कहा है-"ते चेव भंते !" ये सुशब्द के पुद्गल दुःशब्द के रूप में परिणत होते हैं, दुःशब्द के पुद्गल भी सुशब्द के रूप में परिणत होते हैं। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 आधारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध जा य भासा असच्चामोसा तहप्पगारं भासं सावज सकिरियं कक्कसं कडयं णिरं फरसं अण्हयकरि छयणरि भेयणकरि परितावणार उद्दवणकरि भूतोवघातियं अभिकख णो भासेज्जा। ___525. से भिक्खू वा 2 जा य भासा सच्चा सुहमा जा य भासा असच्चामोसा तहप्पगारं भासं असावज्ज अकिरियं जाव अभूतोवघातिय अभिकंख भासेज्जा। 526. से भिक्खू वा 2 पुमं आमंतेमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे गो एवं वदेज्जाहोले ति वा, गोले ति वा, वसुले ति वा कुपक्खे ति वा, घडदासे ति वा, साणे ति वा तेणे ति वा, चारिए ति वा मायो ति वा, मुसावादी ति वा, इतियाई तुम, इतियाइं ते जगगा वा। एतप्पगारं भासं सावज्ज सकिरियं जाव' अभिकंख णो भासेज्जा। ___ 527. से भिक्खू वा 2 पुमं आमंतमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे एवं वदेज्जाअमुगे ति वा, आउसो ति वा, आउसंतारो ति वा, सावके ति वा, उवासगे ति वा। धम्मिए ति वा, धम्मप्पिए ति वा। एतप्पगारं भासं असावज्जं जाव' अभूतोवघातियं अभिकंख भासेज्जा। ___ 528. से भिक्खू वा 2 इत्थी आमंतेमाणे आमंतिते य अपडिसुणेमाणी णो एवं वदेज्जा--होली ति वा, गोली ति वा, इत्थिगमेणं तब्वं / 526. से भिक्खू वा 2 इत्थी आमंतेमाणे आमंतिते य अपडिसुणेमाणी एवं वदेज्जाआउसो ति वा, भगिणी ति वा, भोई ति वा, भगवती ति वा, साविगे ति वा, उवासिए ति वा, धम्मिए ति या, धम्मप्पिए ति वा / एतप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासेज्जा। 1. कक्कसं का अर्थ चूर्णिकार करते हैं.--'कक्कसा किलेसं करेति'-कर्कशा भाषा क्लेश कराती है। 2. 'णिठरं करुसं' दोनों एकार्थक होने से किसी-किसी प्रति में 'गिट्र र' पद नहीं है। 3. 'णो भासेज्जा' के बदले पाठान्तर हैं—भासं न भासेज्जा', णो भासं भासेज्जा'। 4. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अकिरियं' से लेकर 'अभिकख' तक का समग्र पाठ सूत्र 524 के अनुसार समझें। 5. तुलना कीजिए- "तहेब फरुसा भासा गुरुभूओवघाइणी / / सच्चा वि सान बत्तम्या, जओ पावस्स आगमो।।"-दशव० अ०६ मा० 11 6. तुलना कीजिए- तहेव होले गोले त्ति, साणे वा वसुलेत्ति य / ___ दमए दुहए वा वि, नेवं भासेज्ज पन्नवं // -दशव 0 अ०७/गा० 14 7. तुलना कीजिए-दशकालिक अ० ७/गा० 10 ......"तेणं चोरे त्ति नो वए।' 8. यहाँ जाव शब्द से 'सकिरिय' से 'अभिकंख' तक का सारा पाठ सू० 524 के अनुसार समझें। 6. 'धम्मप्पिए' के बदले पाठान्तर है—'धम्मपीए धम्मियपितिए, धम्मपिय त्ति धम्मपितिए ति' आदि। 10. 'जाव' शब्द से यहाँ 'असावज्ज' से 'अभतोवधातियं' तक का पाठ सु० 524 के अनुसार समझें। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 522-26 217 522. इन पूर्वोक्त भाषागत दोष-स्थानों का अतिक्रमण (त्याग) करके (भाषा का प्रयोग करना चाहिए)। साधु को भाषा के चार प्रकारों को जान लेना चाहिए। वे इस प्रकार हैं--- 1. सत्या 2. मृषा, 3. सत्यामृषा और जो न सत्या है, न असत्या है और न ही सत्याभूषा है यह 4. असत्यामषा-(व्यवहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है। जो मैं यह कहता हूँ उसे भूतकाल में जितने भी तीर्थकर भगवान हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर भगवान् हैं और भविष्य में जो भी तीर्थकर भगवान् होंगे, उन सबने इन्हीं चार प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया है, प्रतिपादन करते हैं और प्रतिपादन करेंगे अथवा उन्होंने प्ररूपण किया है, प्ररूपण करते हैं और प्ररूपण करेंगे। तथा यह भी उन्होंने प्रतिपादन किया है कि ये सब भाषाद्रव्य (भाषा के पुद्गल) अचित्त हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले हैं, तथा चय-उपचय (वृद्धि-ह्रास अथवा मिलने-बिछड़ने) वाले एवं विविध प्रकार के परिणमन धर्मवाले हैं। 523. संयमशील साधु-साध्वी को भाषा के सम्बन्ध में यह भी जान लेना चाहिए कि बोलने में पूर्व भाषा (भाषावर्गणा के पुद्गल) अभाषा होती है, बोलते (भाषण करते) समय भाषा भाषा कहलाती है बोलने के पश्चात् (बोलने का समय बीत जाने पर) बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है। 524. जो भाषा सत्या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा सत्यामृषा है, अथवा जो भाषा असत्यामृषा है, इन चारों भाषाओं में से (जो मृषा-असत्या और मिश्रभाषा है, उसका व्यवहार साधु-साध्वी के लिए सर्वथा वर्जित है। केवल सत्या और असत्यामृषा-(व्यवहारभाषा का प्रयोग ही उसके लिए आचरणीय है।) उसमें भी यदि सत्यभाषा सावध, अनर्थदण्डक्रिया युक्त, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, कठोर, कर्मों की आस्रवकारिणी तथा छेदनकारी, भेदनकारी, परितापकारिणी, उपद्रवकारिणी एवं प्राणियों का विघात करने वाली हो तो विचारशील साधु को मन से विचार करके ऐसी सत्यभाषा का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। 525. जो भाषा सूक्ष्म (कुशाग्रबुद्धि से पर्यालोचित होने पर) सत्य सिद्ध हो. तथा जो असत्यामृषा भाषा हो, साथ ही ऐसी दोनों भाषाएं असावद्य, अक्रिय यावत् जीवों के लिए अघातक हों तो संयमशील साधु मन से पहले पर्यालोचन करके इन्हीं दोनों भाषाओं का प्रयोग करे। __ 526. साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित (सम्बोधित कर रहे हों, और आमत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार न कहे - "अरे होल (मूर्ख) रे गोले ! या हे गोल अय वृषल (शूद्र) ! हेकुपक्ष (दास, या निन्द्यकुलीन) अरे घटदास (दासीपुत्र) ! या ओ कुत्ते ! ओ चोर ! अरे गुप्तचर ! अरे झूठे ! ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही तुम हो, ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही तुम्हारे माता-पिता हैं।" विचारशील साधु इस प्रकार की सावद्य, सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध 527. संयमशील साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हो, और आमंत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे--हे अमुक भाई ! हे आयुष्मन् ! हे आयुष्मानो ! ओ श्रावकजी ! हे उपासक ! धार्मिक ! या हे धर्मप्रिय ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् भूतोपघातरहित भाषा विचारपूर्वक बोले ! 528. साधु या साध्वी किसी महिला को बुला रहे हों, बहुत आवाज देने पर भी वह न सुने तो उसे ऐसे नीच सम्बोधनों से सम्बोधित न करे--अरी होली (मूर्खे) ! अरी गोली ! अरी वृषली (शूद्र) ! हे कुपक्षे (नीन्द्यजातीये) ! अरी घटदासी ! कुत्ती ! अरी चोरटी ! हे गुप्तचरी ! अरी मायाविनी (धूर्ते) ! अरी झूठी ! ऐसी ही तू है और ऐसे ही तेरे माता-पिता हैं !'' विचारशील साधु-साध्वी इस प्रकार की सावध, सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोलें। 526. साधु या साध्वी किसी महिला को आमंत्रित कर रह हों, बहुत बुलाने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे-आयुष्मतो ! बहन (भगिनी) ! भवती (अजी, आप या मुखियाइन), भगवति ! श्राविके ! उपासिके ! धार्मिके ! धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा विचारपूर्वक बोले / विवेचन--भाषा चतुष्टय उसके विधि-निषेध और प्रयोग-पिछले आठ सूत्रों में भाषा के चार प्रकार, उनके प्ररूपक, उनका स्वरूप, उनकी उत्पत्ति, चारों में से भाषणीय भाषा-द्वय किन्तु इन दोनों के भी सावध, सक्रिय, कर्कश, निष्ठुर, कठोर, कटु, छेदन-भेदन-परिताप-उपद्रवकारी, आस्रवजनक, जीवोपघातक होने पर प्रयोग का निषेध और इनसे विपरीत असावद्य यावत् जीवों के लिए अविघातक भाषा के प्रयोग का विधान तथा नर-नारी को सम्बोधित करने में निषिद्ध और विहित भाषा का निरुपण किया गया है। संक्षेप में, शास्त्रकार ने इन 7 सूत्रों में अनाचारणीय आचरणीय भाषा का समग्र विवेक बता दिया है।' भाषा अभाषा ? 'पुष्वं भासा अभासा'"इत्यादि पाठ की व्याख्या वृत्तिकार इसप्रकार करते हैं-भाषावर्गणा के पुद्गल (द्रव्य) वाग्योग से निकलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाते, बल्कि अभाषा रूप ही होते हैं, वाग्योग से भाषावर्गणा के पुद्गल जब निकल रहे हों, तभी वह भाषा बनती है, और कहलाती है। किन्तु भाषणोत्तरकाल में यानी भाषा (बोलने) का समय व्यतीत हो जाने पर शब्दों का प्रध्वंश हो जाने से बोली गई भाषा अभाषा हो जाती है।-'भाषा-जो उत्पन्न हुई है,"---भाषाजात शब्द का ऐसा अर्थ मानने पर ही इस सूत्र की संगति बैठती है। इस सूत्र से शब्द के प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव सूचित किए गये हैं, तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जब भाषा बोली जाएगी, यानी जब भी भाषा उत्पन्न होगी, तभी वह भाषा कहलाएगी। जो भाषा अभी उत्पन्न नहीं हुई है, या उत्पन्न होकर नष्ट हो चुकी है, वह भाषा नहीं 1. (क) आचारांग वत्ति पत्रांक 387, 388 के आधार पर (ख) तुलना के लिए देखें-दशवकालिक अ०७, गा.१, 2, 3 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 522-26 216 कहलाती। अतः साधक द्वारा जो बोली नहीं गई है, या बोली जाने पर भी नष्ट हो चुकी, वह भाषा की संज्ञा प्राप्त नही करेगी, वर्तमान में प्रयुक्त भाषा ही 'भाषा संज्ञा' प्राप्त करती है।' चार भाषाएँ-१. सत्या (जो भाव, करण, योग तीनों से यथार्थ हो, जैसा देखा, सुना, सोचा, समझा, अनुमान किया, वैसा ही दूसरों के प्रति प्रगट करना), 2. मृषा (झूठी), 3. सत्यामृषा (जिसमें कुछ सच हो, कुछ झूठ हो) और 4. असत्यामृषा (जो न सत्य है, न असत्य, ऐसी व्यवहारभाषा) ! इनमें से मृषा और सत्यामृषा त्याज्य हैं। 'अभिकख' का अर्थ पहले बुद्धि से पर्यालोचन करके फिर बोले।' सत्याभाषा भी 12 दोषों से युक्त हो तो अभाषणीय-सूत्र 524 में यह स्पष्ट कर दिया है कि 'सत्य' कही जाने वाली भाषा भी 12 दोषों से युक्त हो तो असत्य और अवाच्य हो जाती है। 12 दोष ये हैं--(१) सावद्या (पापसहित), 2. सक्रिया (अनर्थदण्डप्रवृत्तिरूप क्रिया से युक्त) (3) कर्कशा (क्लेशकारिणी, दर्पित अक्षरवाली), (4) निष्ठुरा (हक्काप्रधान, जकार-सकारयुक्त, निर्दयतापूर्वक डांट-डपट)(५) परुषा (कठोर, स्नेहरहित, मर्मोद्घाटनपरकवचन),(६) कटुका (कड़वी, चित्त में उद्वेग पैदा करनेवाली) (7) आस्रवजनक, (8) छेदकारिणी (प्रीतिछेद करने वाली), () भेदकारिणी (फूट डालनेवाली, स्वजनों में भेद पैदा करनेवाली), (10) परितापकरी, (11) उपद्रवकरी (तूफान दंगे या उपद्रव करनेवाली, भयभीत करनेवाली), (12) भूतोपघातिनी (जिससे प्राणियों का घात हो)। वस्तुतः अहिंसात्मक वाणी ही भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। सम्बोधन में भाषा-विवेक–४ सूत्रों (526 से 526) द्वारा शास्त्रकार ने स्त्री-पुरुषों को सम्बोधन में निषिद्ध और विहित भाषा-प्रयोग का विवेक बताया है। होलेत्ति वा गोलेत्ति वा-होल-गोल आदि शब्द प्राचीन समय में निष्ठुरवचन के रूप में प्रयुक्त होते थे। इसप्रकार के शब्द सुननेवाले का हृदय दुखी व क्षुब्ध हो जाता था अतः शास्त्रों में अनेक स्थानों पर इसप्रकार के सम्बोधनों का निषेध है। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पणी 175 पृ. (ग) देखिये दशव० अ० 7 गा० 3 की व्याख्या 3. (अ) आचारांग वृत्ति 387 पत्रांक (आ) पुन्वं बुद्धीइ पेहित्ता पच्छावयमुदाहरे अचक्खु ओ व नेतारं बुद्धिमन्नउ ते गिरा // दशवै० नियुक्ति गा० 262 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 5. (क) आचारांग वृत्ति 387 (ख) दशवै० अ०७ गा०५१ से 20 तक तुलना के लिए देखें 6. होलादिशब्दास्तत्तदेश-प्रसिद्धितो नैष्ठादि वाचकाः / दशबै० हारि० टीका पत्र 215 7. दशव० 7/14 में, तथा सूत्रकृतांग (1/6/27) में- 'होलावायं सहीवाय गोयावायं च नो वदे' आदि सूत्रों द्वारा सूचित किया गया है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्राचीन चूणियों के अनुसार ऐसा लगता है कि ये सम्बोधन पुरुष के लिए जहां निष्ठुर वचन थे, वहाँ स्त्री के लिए 'होले' 'गोले' 'वसुले'--मधुर व प्रिय आमंत्रण भी माने जाते थे। गोल देश में ये आमंत्रण प्रसिद्ध थे।' संभवतः ये निम्न वर्ग में 'प्रणय-आमंत्रण' हों, इसलिए भी इनका प्रयोग निषिद्ध किया गया। प्राकृतिक दृश्यों में कथन-अकथन 530. से भिक्खू वा 2 णो एवं वदेज्जा-"णभंदेवे ति वा, गज्जदेवे ति वा, विज्जुदेवे ति वा, पटुदेवे ति बा, णिवुद्रुदेवे ति वा, पडतु वा वासं मा वा पडतु, णिप्पज्जतु वा सासं मा वा णिप्पज्जतु, विभातु वा रयणी मा वा विभातु, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयतु।" णो एयप्पयारं भासं भासेज्जा पण्णवं / 531. से भिक्खू वा 2 अंतलिक्खे ति वा, गुज्माणुचरिते ति वा, समुच्छिते वा, णिवइए वा पओए वदेज्ज वा बुटबलाहगे त्ति। 530. संयमशील साधु या साध्वी इस प्रकार न कहें कि “नभोदेव (आकाशदेव) है, गर्ज (मेघ) देव हैं, वा विद्य तदेव हैं, प्रवृष्ट (बरसता रहनेवाला) देव है, या निवृष्ट (निरंतर बरसने वाला) देव है, वर्षा बरसे तो अच्छा या न बरसे, तो अच्छा, धान्य उत्पन्न हों या न हों, रात्रि सुशोभित (व्यतिक्रान्त) हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, वह राजा जीते या न जीते।" प्रज्ञावान साधु इस प्रकार की भाषा न बोले। 531. साधु या साध्वी को कहने का प्रसंग उपस्थित हो तो आकाश को गुह्यानुचरितअन्तरिक्ष (आकाश) कहे या देवों के गमनागमन करने का मार्ग कहे। यह पयोधर (मेघ) जल देने वाला हे, संमूच्छिम जल बरसता है, या यह मेघ बरसता है, या बादल बरस चुका है, इस प्रकार की भाषा बोले। विवेचन--प्राकृतिक तत्त्वों को देव कहने को धारणा और साधु की भाषा-वैदिक युग में सूर्य, चन्द्र रात्रि, अग्नि, जल, समुद्र, मेघ, विद्युत्, आकाश, पृथ्वी, वायु, आदि प्रकृति की देनों को आम जनता देव कहती थी, आज भी कुछ लोग इन्हें देव मानते और कहते हैं, किन्तु 1. (क) होले, गोले वसुलेत्ति देसीए लालणगत्थाणीयाणि प्रियवयणामंतणाणि'--अगस्यसिंह चूर्णि पृ० 168 (ख) आचार्य जिनदास के अनुसार हलें आमंत्रण का प्रयोग वरदा-तट में, और 'हला' का प्रयोग लाटदेश (मध्य और दक्षिण गुजरात) में होता था। 'भट्टे' शब्द का प्रयोग लाटदेश में नणद के लिए किया जाता था। __-दशव० जिन चणि पु०२५० 2. 'विभातु के बदले 'विभावतु' पाठान्तर है / देखिए प्रश्नोपनिषद् में आचार्य पिप्पलाद का कथन-"तस्मै सहोदाचाकाशो हवा एष देवो वायुरग्निरापः पृथिवी वाङमनश्चक्षुश्रोत्र च। ते प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद् बाणमवष्टभ्य विधारयामः।" -प्रश्न उपनिषद् प्रश्न 2/2 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 532 221 जैन शास्त्रानुसार ये देव नहीं, पुद्गलादि द्रव्य हैं या प्राकृतिक उपहार हैं / सचित्त अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी, वायु आदि में जीव है।' निरवद्य और यथातथ्य भाषा का प्रयोग करनेवाले जैन साधु को इस मिथ्यावाद से बचने-बचाने के लिए यह विवेक बताया है, वह आकाश, मेघ, विद्यत आदि प्राकृतिक पदार्थों को देव न कहकर उनके वास्तविक नाम से ही उनका कथन करें; अन्यथा लोगों में मिथ्या धारणा फैलेगी। इसी सूत्र के उत्तरार्द्ध में वर्षा-वर्णन, धान्योत्पादन, रात्रि का आगमन, सूर्य का उदय, राजा की जय हो या न हो, इस विषय में साधु को तटस्थ रहना चाहिए; क्योंकि वर्षावर्षण आदि के कहने में सचित्त जीव विराधना का दोष लगेगा, अथवा वर्षा आदि के सम्बन्ध में भविष्य कथन करने से असत्य का दोष लगने की संभावना है, अमुक राजा की जय हो, अमुक की नहीं या अमुक की जय होगी, अमुक की पराजय, ऐसा कहने से युद्ध का अनुमोदनदोष तथा साधु के प्रति एक को मोह, दूसरे को द्वेष पैदा होगा। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में वायु, वृष्टि, शर्दी गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष, शिव आदि कब होंगे, या न हों, इस प्रकार की भाषा बोलने का तथा मेघ, आकाश और मानव के लिए देव शब्द का प्रयोग करने का निषेध किया है, इनके सम्बन्ध में क्या कहा जाए यह भी स्पष्ट निर्देश किया गया है। _ 'समुच्छिते' आदि पदों के अर्थ-समुच्छिते समुच्छ्रित हो रहा है---उमड़ रहा है, अथवा उन्नत हो रहा है, णिवइए==झुक रहा है, या बरस रहा है / बुट्ठ बलाहगे मेघ बरस पड़ा है। 532. एयं खलु भिक्ख स्म वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव?हिं सहिएहि [सया जए] ज्जासि त्ति बेमि। 532. यही (भाषाजात को सम्यक् जान कर भाषाद्वय का सम्यक् आचार ही) उस साधु और साध्वी की साधुता की समग्रता है कि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अर्थों से तथा पांच समितियों से युक्त होकर सदा इसमें प्रयत्न करे। ---ऐसा मैं कहता हूँ। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. (क) 'पृथिव्यम्बुवनस्पतय. स्थावराः', धर्माधर्माकाशकालपुद्गल, द्रव्याणि' / ' -तत्त्वार्थ अ०५ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र अ० 36, गा० 8, 7 2. (क) दशवै० अ० 7 गा० 52. हारि० टीका.--'मिथ्यावादलाघवादिप्रसंगात्। (ख) आचारांग बत्ति पत्रांक 388 / 3. धर्मरत्न प्रकरण टीका (6/गुण 4) में वारत्त मुनि का उदाहरण दिया गया है कि चंडप्रद्योत के आक्रमण के समय उन्होंने निमित्त कथन किया, जिससे बहत अनर्थ हो गया। 4. (अ) तुलना के लिए देखिए-दशवै० अ०७ गा० 50, 51, 52, 53 तथा टिप्पण पृ० 364-65 (आ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 388 / 5. (क) आचारांग वृत्ति पृ० 388 / (ख) दशव० (मुनिथमलजी) अ० 7/52 विवेचन पृ० 364 / Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रतस्कन्ध बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक सावध-निरवद्य भाषा-विवेक 533. से भिक्खू वा 2 जहा वेगतियाई रूवाइं पासेज्जा तहा वि ताइं गो एवं वदेज्जा, तंजहा-गंडी गंडी ति वा, कुट्ठी कुट्ठी ति वा, जाव महुमेहणी ति वा, हच्छिण्णं' हत्थच्छिण्णे ति वा, एवं पादच्छिण्णे ति वा, कण्णच्छिण्णे ति वा, नक्कच्छिण्णे ति वा, उच्छिण्णे ति वा। जे यावऽण्णे तहप्पंगारा' एतप्पगाराहि भासाहि बुइया 22 कुष्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा तहप्पगाराहि भासाहि अभिकंख णो भासेज्जा। 534. से भिक्खू वा 2 जहा वेगतियाई रुवाई पासेज्जा तहा वि ताई एवं वदेज्जा, तंजहा-ओयंसी ओयंसी ति वा, तेयंसी तेयंसी ति वा, वच्चंसी वच्चंसी ति वा, जसंसी जसंसी ति वा, अभिरूवं अभिरूवे ति बा, पडिरूवं पडिरूवे ति वा, पासादियं पासादिए ति वा, दरिसणिज्ज दरिसणीए ति वा। जे यावऽण्णे तहप्पगारा एयप्पगाराहि भासाहि बुइया 2 णो कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एतप्पगाराहि भासाहि अभिकंख भासेज्जा। 535. से भिक्खू वा 2 जहा वेगतियाई रूवाइं पासेज्जा, तंजहा-वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहा वि ताई णो एवं वदेज्जा, तं [जहा]-सुकडे ति वा, सुठुकडे ति वा साहुकडे इ वा, कल्लाणं ति वा, करणिज्जे इ वा। एयप्पगारं भासं सावज्ज जाव णो भासेज्जा। 536. से भिक्खू वा 2 जहा वेगइयाई रूवाई पासेज्जा, तं [जहा-] वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहा वि ताई एवं वदेज्जा, तंजहा-आरंभकडे ति वा, सावज्जकडे ति वा, पयत्तकडे ति वा, पासादियं पासादिए ति वा, दरिसणीयं दरिसणीए ति वा, अभिरूवं अभिलवे ति वा, पडिरूवं पडिरूवे ति वा / एतप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासेज्जा / 1. किसी प्रति में हत्थच्छिण्णं हच्छिणेति' इत्यादि पाठ के बदले 'हच्छिणं हत्यच्छिणेति' के बाद 'एवं पाद-नक्क-कण्ण-उट्ठा' पाठ मिलता है। निशीथसूत्र के चतुर्दश अध्ययन में भी 'हत्यच्छिण्णस्स पायच्छिण्णस्स, नासच्छिण्णस्स करणछिन्नस्स ओट्ठच्छिण्णस्स असक्कस्स न दे।।' पाठ मिलता है, तदनुसार यही क्रम संगत प्रतीत होता है, तथा सम्पूर्ण पाठ ही ठीक लगता है। 2. 'यावि तहप्पगारा' का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में---'तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काण-कुण्टादयस्तद्विशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरुक्ताः कुप्यन्ति मानवाः / ' अर्थात्-तथा दूसरे भी इस प्रकार के काने, कूबड़े, लले, लंगड़े आदि मानवों उन-उन विशेषणों से युक्त वचनों से कहने पर वे रुष्ट होते हैं / 3. यहां जाव शब्द से 'सावज्ज' से 'जो भासेज्जा' तक का सारा पाठ सू० 524 के अनुसार समझें / 4. यहाँ जाक शब्द से 'असावज्ज से लेकर 'भासेज्जा' तक का सारा पाठ सू० 525 के अनुसार समझें। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 533-42 223 537. से भिक्खू वा 2 असणं वा 4 उवक्खडियं पेहाए तहा वि तं णो एवं ववेज्जा, तंजहा-सुकडे ति वा, सुटुकडे ति वा, साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा, करणिज्जे ति वा। एतप्पगारं भासं सावज्ज जाव' जो भासेज्जा। 538. से भिक्खू वा 2 असणं वा 4 उवक्खडियं पेहाए एवं वदेज्जा, तंजहा-आरंभकडे ति वा, सावज्जकडे ति वा, पयत्तकडे ति वा, भद्दयं भद्दए ति वा, ऊसडं ऊसडे ति वा, रसियं रसिए ति वा, मणुण्णं मणुण्णे ति वा, एतप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासेज्जा। 536. से भिक्खू वा 2 मणस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खि वा सरीसिव वा जलयरं वा सत्तं परिवूढकायं पेहाए णो एवं वदेज्जा थुल्ले ति वा, पमेतिले ति वा, व? ति वा, वो ति वा, पादिमे ति वा। एतप्पगारं भासं सावज्ज जाव णो भासेज्जा। 540. से भिक्खू वा 2 मणुस्सं वा जाव जलयरं वा सत्तं परिवूहकार्य पेहाए एवं वदेज्जा–परिवूढकाए ति वा, उवचितकाए ति वा, थिरसंघयणे ति वा, चितमंस-सोणिते ति वा, बहुपडिपुण्णइदिए ति वा / एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासेज्जा। 541. से भिक्खू वा 2 विरूवरूवाओ गाओ पेहाए णो एवं क्देज्जा, तंजहा-गाओ दोज्झा ति वा, दम्मा ति वा गोरहगा, वाहिमा ति वा, रहजोग्गाति वा / एतप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। 542. से भिक्खू वा 2 विरूवरूवाओ गाओ" पहाए एवं वदेज्जा, तंजहा-जुवंगवे ति 1. 'कल्लाणे' के बदले पाठान्तर है-'कल्लाणकडे' अर्थ होता है-कल्याण के लिए किया है। 2. जाम मन्द मे यहाँ 'सावज्ज' से लेकर 'णो भासेज्जा' तक का पाठ 524 के अनुसार समझें। 3. भद्दयं आदि का अर्थ चूणि में-भद्दगं-पहाणं, ऊसडं-उत्कृष्ट, रसाल-रसियं 4. 'जाव' शब्द से यहाँ असावज्जं से लेकर भासेज्जा तक का पाठ सूत्र 525 के अनुसार समझें / 5. 'सिरीसिवा सम्पादयो'-दशव०७/२१ चूणि में। सरीसृप-सांप। 6. पमेतिले आदि पदों के चणिकृत अर्थ—पमेदिलो-पगाढमेतो; अत्थूलोवि सुक्कमेदभरितो त्तिभण्णति। वज्झो- बधारिहो पायिमो-पाकारिहो। 7, गाओ दोज्झाओं आदि पाठों की दशवकालिक चूणि (पृ० 170-171) में इस प्रकार व्याख्या मिलती है-गाओ दोज्झाओ त्ति, 'आदि' सद्दलोवो एत्थ, तेण महिसीमातीओ दोज्झाओ दुहणपत्तकालाओ! दम्मा दमणपत्तकाला / ते य अस्सादयो वि / गोजोग्या रहा, गोरहजोगत्तणण गच्छंति गोरहगा, पंडुमधुरादीसु किसोरसरिसा गोपोतलगा, अण्णत्थ वा तरुणतरूणारोहा जे रहम्मि वाहिज्जंति, अमदप्पत्ता खुल्लगवसभा वा ते वि / वाहिमा मंगलादिसव्व समत्था / सिग्घगतयो जुग्गादिवधा रहजोगा।____— 'गाओ दोज्झाओ' में आदि शब्द का लोप है। अत: भैंस आदि दुहने योग्य, दूहने का समय हो गया है। दम्मा=दमन (बधिया) करने का समय आ गया है। वृषभ के अतिरिक्त यहां अश्व आदि को समझ लेना चाहिए। बल के योग्य रथ-गोरह, गोरथ में जुआ उठा कर चलता है, वह गोरयग है। पाण्डु मथुरा में किशोरसदृश गाय के बछड़े होते हैं या अन्यत्र तरुण जवान कंधों वाले Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 आचारांग सूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा, धेणू ति वा, रसवती ति वा, महव्वए' ति वा, संवहणे ति वा / एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव अभिकंख भासेज्जा। 543. से भिक्खू वा 2 तहेव गंतुमुज्जाणाई पन्बयाई वणाणि वा रुक्खा महल्ला पेहाए णो एवं वदेज्जा, तंजहा-पासा ग्रजोग्गा ति वा, तोरणजोग्गा ति वा, गिहजोग्गा ति वा, फलिहजोग्गा ति वा, अग्गलजोग्गा ति वा, णावाजोग्गा ति वा, उदगदोणिजोग्गा ति वा, पीढचंगबेर-णंगल-कुलिय-जंतलट्ठी-णाभि-गंडी-आसणजोग्गा ति बा, सयण-जाण-उवस्सयजोग्गा ति वा / एतप्पगारं भासं [सावज्ज जाव णो भासेज्जा। 544. से भिक्खू वा 2 तहेव गंतुमुज्जाणाई पन्वताणि वणाणि य रुक्खा महल्ल पेहाए एवं वदेज्जा, तंजहा-जातिमंता ति वा, दीहवट्टा ति वा, महालया ति वा, पयातसाला ति वा, विडिमसाला ति वा, पासादिया ति वा 4 / एतप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकख भासेज्जा। 545. से भिक्खू वा 2 बहुसंभूता वणफला पेहाए तहा वि ते णो एवं वदेज्जा, तंजहापक्काई वा, पायखज्जाई वा, वेलोतियाई वा, टालाई वा, वेहियाई वा / एतप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। शीघ्रगामी जुआ आदि वहन करने वाले भी रथ-योग्य होते हैं, वे मदको प्राप्त नहीं हुए छोटे-छोटे वृषभ भी हो सकते हैं। वाहिमा हल चलान आदि सब कार्यों में समर्थ / ..-अग० चूणि पृ० 170-71 1. 'महन्वए' के बदले पाठान्तर है--- 'महल्लए', कहीं कहीं.. -'हस्सेति वा महल्लए ति या' हस्सेवा महल्लए वा महब्बए ति वा / 'हस्से' का अर्थ है-छाटा; महल्लए -- बड़ा। 'गंतुमुज्जाणाई" आदि पदों की व्याख्या दशवकालिक णि में.-'क्रीड़ानिमित्तं वावियों रुक्खसमुदायो उज्जाणं / उस्सितो सिलासमुदायो पम्वतो / अडवीसु सयं जातं रुक्खगहणं वर्ण / एताणि उज्जाणादीणि जातिच्छ्या पयोयणतो वा गंतूर्ण तत्थ य रुक्खे अज्जुणादयो महल्ले पहाए-पक्खिऊण..." --"क्रीड़ा या मनोरंजन के लिए लगाये हुए वृक्षों का समूह उद्यान है। ऊंचा शिला--समूह पर्वत है, जंगलों में स्वयं पैदा हुए वृक्षों से जो गहन हो, वह वन है / इन उद्यान आदि में सहजभाव से या किसी प्रयोजनवश जा कर, वहाँ अर्जुन आदि विशाल वृक्षों को देखकर....। 3. 'पासायजोग्गा' आदि क्रम में किसी-किसी प्रति में 'गिहजोग्गा पाठ नहीं है। और किसी प्रति में 'अगला-नावा-उदगदोणि-पीढ' आदि समस्त पद है, तथा आगे 'आसण-सयण-जाण-उवस्सयजोग्या ति' भी समस्त पद है। 4. दशवकालिक सूत्र अ०७ गा० 26, 27, 28, 30, 31 से तुलना कीजिए। 5. यासादीया ति बा के आगे 'x' का अंक दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा' पाठ का सचक है वेहियाइ का संस्कृत रूपान्तर 'धिकानी' करके वृत्तिकार अर्थ करते हैं---पेशीसम्पादनेन द्वधीभावकरणयोग्यानि :-- इसकी फांके बनाकर दो टुकड़े करने योग्य हैं / आम आदि का अचार डालने के लिए कच्चे आम आदि के टकड़े चीरकर उसमें मसाला भरा जाता है। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 533-48 225 546. से भिक्खू वा 2 बहुसंभूया' वणफला पहाए एवं वदेज्जा, तंजहा असंथडा' ति वा, बहुणिन्वट्टिमफला ति वा, बहूसंभूया ति वा, भूतरूवा ति वा / एतप्पगारं भासं असावज्ज जाव भासेज्जा। 547. से भिक्खू वा 2 बहुसंभूताओ ओसधीओ पहाए तहा वि ताओ णो एवं वदेज्जा, तंजहा--पक्का ति घा, णोलिया ति वा, छवीया ति वा, लाइमा ति वा, भज्जिमाति वा, बहुखज्जा ति वा / एतप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा। 548. से भिक्खू वा 2 बहुसंभूताओ ओसहीओ पेहाए तहा वि एवं वदेज्जा, तंजहारूढा ति वा बहुसंभूयाति वा, थिरा ति वा, ऊसढा ति वा, गम्भिया ति वा, पसूया ति वा, ससारा ति वा / एतप्पगारं [भासं] असावज्जं जाव भासेज्जा। 533. संयमशील साधु या साध्वी यद्यपि अनेक रूपों को देखते हैं तथापि उन्हें देखकर इस प्रकार (ज्यों के त्यों) न कहे। जैसे कि गण्डी (गण्ड (कण्ठ) माला रोग से ग्रस्त या जिसका पैर सूज गया हो,) को गण्डी, कुष्ठ रोग से पीड़ित को कोढ़िया, यावत् मधुमेह से पीड़ित रोगी को मधुमेही कहकर पुकारना, अथवा जिसका हाथ कटा हुआ है, उसे हाथकटा, परकटे को पैरकटा, नाक कटा हुआ हो, उसे नकटा, कान कट गया हो. उसे कनकटा और ओठ कटा हुआ हो, उसे ओठकटा कहना। ये और अन्य जितने भी इसप्रकार के हों, उन्हें इस प्रकार की (आघातजनक) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे व्यक्ति दुखी या कुपित हो जाते हैं / अतः ऐसा विचार करके उसप्रकार के उन लोगों को उन्हीं (जैसे हों वैसी) भाषा से सम्बोधित न करे। 534. साधु या साध्वी यद्यपि कितने हो रूपों को देखते हैं तथापि वे उनके विषय में (संयमी भाषा में) इस प्रकार कहें / जैसेकि-ओजस्वी को ओजस्वी, तेजस् युक्त को तेजस्वी, वर्चस्वी--दीप्तिमान, उपादेयवचनी या लब्धियुक्त हो, उसे वर्चस्वी कहें। जिसकी यशः-कीर्ति फैली हुई हो, उसे यशस्वी, जो रूपवान् हो, उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो, उसे प्रतिरूप, प्रासाद--(प्रसन्नता) गुण से युक्त हो, उसे प्रासादीय, जो दर्शनीय हो, उसे दर्शनीय कहकर 1. 'बहुसंभ या वणफला पेहाए' के बदले पाठान्तर है—बहुसंभू यफला अंबा (अंब) पेहाए- अर्थात् जिसमें बहुत-से फल आए है, ऐसे आम के पेड़ों को देखकर / 2. 'असंथडा' का वृत्तिकार 'असमर्थाः' संस्कृत रूपान्तर मानकर अर्थ करते हैं 'अतिभरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः ।'—अत्यन्त भार के कारण अब फल-धारण करने में समर्थ नहीं है, अर्थात फल टूट पड़ने वाले हैं। वृत्तिकार दशवकालिक की तरह आचारांग में भी इस सूत्र के अन्तर्गत सामान्य फलवान् वृक्ष न मानकर आम्रवृक्षपरक मानते हैं / 'आम्रग्रहणं प्रधानोपलक्षणं'-प्रधानरूप से यहाँ आम्रग्रहण किया है, वह उपलक्षणं से सभी वृक्षों का सूचक है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध सम्बोधित करे / ये और जितने भी इसप्रकार के अन्य व्यक्ति हों, उन्हें इसप्रकार की (सौम्य) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे कुपित नहीं होते। अतः इसप्रकार की निरवद्यसौम्य भाषाओं का विचार करके साधु-साध्वी निर्दोष भाषा बोले / 535. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि उन्नतस्थान या खेतों की क्यारियाँ, खाइयां या नगर के चारों ओर बनी नहरें, प्राकार (कोट), नगर के मुख्य द्वार, (तोरण), अर्गलाएं, आगल फंसाने के स्थान, गड्ढे, गुफाएं, कूटागार, प्रासाद, भूमिगृह (तहखाने), वृक्षागार, पर्वतगृह, चैत्ययुक्त वृक्ष, चैत्ययुक्त स्तूप, लोहा आदि के कारखाने, आयतन, देवालय, सभाएं, प्याऊ, दूकानें, मालगोदाम, यानगृह, धर्मशालाएं, चूने, दर्भ, बल्क के कारखाने, वन कर्मालय, कोयले, काष्ठ आदि के कारखाने, श्मशान-गृह, शान्तिकर्मगृह, गिरिगृह, गुहागह, पर्वत शिखर पर बने भवन आदि; इनके विषय में ऐसा न कहें; जैसे कि यह अच्छा बना है, भलीभांति तैयार किया गया है, सुन्दर बना है, यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है; इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातक भाषा न बोलें। 536. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि खेतों की क्यारियां यावत् भवनगृह; तथापि (कहने का प्रयोजन हो तो) इस प्रकार कहें-जैसे कि यह आरम्भ गे बना है सावद्यकृत है, या यह प्रयत्न-साध्य है, इसीप्रकार जो प्रसादगुण से युक्त हो, उसे प्रासादीय, जो देखने योग्य हो, उसे दर्शनीय, जो रूपवान हो उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो, उसे प्रतिरूप कहे / इस प्रकार विचारपूर्वक असावद्य यावत् जीवोपधात से रहित भाषा का प्रयोग करे। 537. साधु या साध्वी अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर भी इस प्रकार न कहे जैसे कि यह आहारादि पदार्थ अच्छा बना है, या सुन्दर बना है, अच्छी तरह तैयार किया गया है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने योग्य है। इसप्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावद्य यावत् जीवोपघातक जानकर न बोले / 538. साधु या साध्वी मसालों आदि से तैयार किये हुए सुसंस्कृत आहार को देखकर इसप्रकार कह सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि पदार्थ आरम्भ से बना है, सावद्यकृत है, प्रयत्नसाध्य है या भद्र अर्थात् आहार में प्रधान है, उत्कृष्ट है, रसिक (सरस) है, या मनोज्ञ है। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का प्रयोग करे। __ 536. वह साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, सांड, भंस, मृग, या पशु पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को देखकर ऐसा न कहे कि यह स्थूल (मोटा) है, इसके शरीर में बहुत चर्बी--मेद है, यह गोलमटोल है, यह वध या वहन करने (बोझा ढोने) योग्य है, यह पकाने योग्य है / इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवघातक भाषा का प्रयोग न करे / 540. संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, बैल, यावत् किसी भी विशालकाय प्राणी को देखकर ऐसे कह सकता है कि यह पुष्ट शरीरवाला है, उपचितकाय Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 513-48 227 है, दृढ़ संहननवाला है, या इसके शरीर में रक्त-मांस संचित हो गया है, इसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं / इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा बोले / 541. साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गोजाति के पशुओं को देखकर ऐसा न कहे, कि ये गायें दूहने योग्य हैं अथवा इनको दूहने का समय हो रहा है, तथा यह बैल दमन करने योग्य है, यह वृषभ छोटा है, या यह वहन करने योग्य है, यह रथ में जोतने योग्य है, इस प्रकार की सोवद्य यावत् जीवोपधातक भाषा का प्रयोग न करे / 542. वह साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गोजाति के पशुओं को देखकर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि-यह वृषभ जवान है, यह गाय प्रौढ़ है, दुधारू है, यह बैल बड़ा है, यह संवहन योग्य है। इसप्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। __543. संयमी साधु या साध्वी किसी प्रयोजनवश किन्हीं बगीचों में, पर्वतों पर या वनों में जाकर वहां बड़े-बड़े वृक्षों को देखकर ऐसे न कहे, कि-यह वृक्ष (काटकर) मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण नगर का मुख्य द्वार बनाने योग्य है, यह घर बनाने योग्य है, यह फलक (तख्त) बनाने योग्य है, इसकी अर्गला बन सकती है, या नाव बन सकती है, पानी की बड़ी कुडी अथवा छोटी नौका बन सकती है, अथवा यह वृक्ष चौकी (पीठ) काष्टमयी पात्री, हल, कुलिक, यंत्रयष्टी (कोल्हू) नाभि काष्ठमय अहरन, काष्ठ का आसन आदि बनाने के योग्य है अथवा काष्ठशय्या (पलंग) रथ आदि यान उपाश्रय आदि के निर्माण के योग्य है। इसप्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा साधु न बोले / 544. संयमी साधु-साध्वी किसी प्रयोजनवश उद्यानों, पर्वतों या वनों में जाएं, वहाँ विशाल वृक्षों को देखकर इस प्रकार कह सकते हैं--कि ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, दीर्घ (लम्बे) है, वृत्त [गोल] हैं, ये महालय हैं, इनके शाखाएँ फट गई हैं, इनकी प्रशाखाएं दूर तक फैली हुई हैं, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं / इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। 545. साधु या साध्वी प्रचुर मात्रा में लगे हुए वन फलों को देखकर इस प्रकार न कहे जैसे कि--ये फल पक गए हैं, या पराल आदि में पकाकर खाने योग्य हैं, ये पक जाने से ग्रहण कालोचित फल हैं, अभी ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है, ये फल तोड़ने योग्य या दो टुकड़े करने योग्य हैं। इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। 546. साधु या साध्वी अतिमात्रा में लगे हुए वनफलों को देखकर इसप्रकार कह सकता है, जैसे कि ये फलवाले वृक्ष असंतृत-फलों के भार से नम्र या धारण करने में असमर्थ हैं, इनके फल प्राय: निष्पन्न हो चुके हैं, ये वृक्ष एक साथ बहुत-सी फलोत्पत्ति वाले हैं, या ये Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भूतरूप-कोमल फल हैं। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात-रहित, भाषा विचारपूर्वक बोले। 547. साधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों (गेहूं, चावल आदि के लहलहाते पौधों) को देखकर यों न कहे, कि ये पक गई हैं, या ये अभी कच्ची या हरी हैं, ये छवि (फली) वाली हैं, ये अब काटने योग्य हैं, ये भूनने या सेंकने योग्य हैं, इनमें बहुत-सी खाने योग्य हैं, या चिबड़ा बना कर खाने योग्य हैं / इसप्रकार की सावध यावत् जीवोपधातिनी भाषा साधु न बोले। 548. साधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों को देखकर (प्रयोजनवश) इस प्रकार कह सकता है, कि इनमें बीज अंकुरित हो गए हैं, ये अब जम गई हैं, सुविकसित या निष्पन्न प्रायः हो गई है, या अब ये स्थिर (उपघातादि से मुक्त) हो गई हैं, ये ऊपर उठ गई हैं, ये भुट्टों, सिरों या बालियों से रहित हैं, अब ये भुट्टों आदि से युक्त हैं, या धान्य कणयुक्त हैं / साधु या साध्वी इसप्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा विचारपूर्वक बोले। विवेचन-दश्यमान वस्तुओं को देखकर निरवद्य भाषा बोले, सावद्य नहीं-सू० 533 से 548 तक में आंखों से दृश्यमान वस्तुओं के विविध रूपों को देखकर बोलने का विवेक बताया है / साधु-साध्वी संयमी हैं, पूर्ण अहिंसाव्रती हैं और भाषा-समिति-पालक हैं, उन्हें सांसारिक लोगों की तरह ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए, जिससे दूसरे व्यक्ति हिंसादि पाप में प्रवृत्त हों, जीवों को पीड़ा, भीति एवं मृत्यु का दुःख प्राप्त हो, छेदन-भेदन करने की प्रेरणा मिले तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु को देखकर बोलने से पहले उसके भावी परिणाम को तौलना चाहिए। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव की विराधना उसके बोलने से होती हो तो वैसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन सोलह सूत्रों में निम्नोक्त दृश्यमान वस्तुओं को देखकर सावध आदि भाषा बोलने का निषेध और निरवद्य भाषा-प्रयोग का विधान है। (1) गण्डी, कुष्ठी आदि को देखकर गण्डी, कुष्ठी आदि चित्तोपघातक शब्दों का प्रयोग न करे, किन्तु सभ्य, मधुर गुणसूचक भाषा का प्रयोग करे। (2) क्यारियाँ, खाइयां आदि देखकर 'अच्छी बनी हैं', आदि सावध भाषा का प्रयोग न करे, किन्तु निरवद्य, गुणसूचक भाषा-प्रयोग करे। (3) मसालों आदि से सुसंस्कृत भोजन को देखकर बहुत बढ़िया बना है, आदि सावध व स्वाद-लोलुपता सूचक भाषा का प्रयोग न करे, किन्तु आरम्भजनित है, आदि निरवद्य-यथार्थ भाषका प्रयोग करे। (4) परिपुष्ट शरीर वाले पशु-पक्षियों या मनुष्यों को देखकर यह स्थूल है, वध्य है, Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 533-48 226 चर्बी वाला है या पकाने योग्य है आदि असभ्य सावधभाषा का प्रयोग न करे, किन्तु सौम्य, निरवद्य, गुणसूचक-शब्द प्रयोग करे / (5) गायों, बैलों आदि को देखकर यह गाय दूहने योग्य है, यह बैल बधिया करने योग्य है आदि सावध भाषा न बोलके निरवद्य गुणसूचक भाषा-प्रयोग करे / / (6) विशाल वृक्षों को देखकर ये काटने योग्य हैं या इनकी अमुक वस्तु बनाई जा सकती है आदि हिंसा-प्रेरक सावध भाषा का प्रयोग न करे। (7) वनफलों को देखकर ये खाने योग्य, तोड़ने योग्य या टुकड़े करने योग्य आदि हैं, ऐसी सावध भाषा न बोले। (5) खेतों में लहलहाते धान्य के पौधे को देखकर ये पकगए हैं, हरे हैं काटने, भुनने योग्य हैं आदि सावद्यभाषा का प्रयोग न करे, किन्तु अंकुरित, विकसित, स्थिर हैं आदि निरवद्य गुणसूचक भाषा-प्रयोग करना चाहिए।' ___इन आठ प्रकार की दृश्यमान वस्तुओं पर से शास्त्रकार ने ध्वनित कर दिया है कि सारे संसार की जो भी वस्तुएँ साधु के दृष्टिपथ में आए उनके विषय में कुछ कहते या अपना अभिप्राय सूचित करते समय बहुत ही सावधानी तथा विवेक के साथ परिणाम का विचार करके निरवद्य निर्दोष, गुणसूचक, जीवोपघात से रहित, हृदय को आघात न पहुंचाने वाली भाषा का प्रयोग करे, किन्तु कभी किसी भी स्थिति में सावध, सदोष, चित्तविघातक, जीवोपघातक आदि भाषा का प्रयोग न करे। 'गंडी' आदि पदों के अर्थ --.'गंडी' के दो अर्थ बताए गए हैं--गण्ड (कण्ठ) माला के रोग से ग्रस्त अथवा जिसके पैर और पिण्डलियों में शून्यता आ गई हो, तेयंसी -शौर्यवान। वच्चंसो= दीप्तिमान / पडिरूवं गुण में प्रतिरूप--तुल्य / पासादियं प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। उबक्खडियं =मसाले आदि देकर संस्कारयुक्त पकाया हुआ भोजन / भदंग-प्रधान-मुख्य / ऊसढं =उत्कृष्ट या उच्छृित-वर्ण-गन्धादि से युक्त / परिवूढकाय =पुष्ट शरीरवाले / पमेतिले–गाढ़ी चर्बी (मेद) वाला। वज्न-वध्य या वहने योग्य / पादिम पकाने योग्य या देवता आदि को चढ़ाने योग्य / वोमा दूहने योग्य। दम्मा = दमन (बधिया) करने योग्य / गोरहगा=हल में जोतने योग्य, वाहिमा हल, धुरा आदि वहन करने में समर्थ / जुवं गवेति-युवा बैल / 'महम्बए' या 'महल्लए' =बड़ा। उदगदोणिजोग्या=जल का कुण्ड बनाने योग्य, चंगवेर काष्ठमयी पात्री। गंगल-हल। कुलिय खेत में घास काटने का छोटा काष्ठ का उपकरण / जंतलट्ठी कोल्हू या कोल्हू का लट्ठ / णाभि गाड़ी के पहिए का मध्य भाग / गंडी-गंडिक अहरन या काष्ठफलक, महालया = अत्यन्त विस्तृत वृक्ष / पयातसाला (हा) =जिनके शाखाएँ फूट गई हैं, विडिमसाला (हा) -जिनमें प्रशाखाएं फूट गई हैं / पायखज्जाई-पराल आदि में कृत्रिम ढंग से पका कर खाने 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 386, 360 के आधार पर 2. वही, पत्रांक 386 के आधार पर, [ख] दशवै० 3117, 50, 55 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध योग्य / वेलोतियाइ अत्यन्त पकने से तोड़ लेने योग्य / टालाई कोमल फल, जिनमें गुठली न आई हो, / वेहियाई दो टुकड़े करने योग्य, वेध्य / नीलियाओ-हरी, कच्ची या अपक्य / असंथडा - फलों का अतिभार धारण करने में असमर्थ / भूतरूवा=पूर्वरूप-कोमल / छवीयाफलियां, छीमियाँ / लाइमा = लाई या मुडी आदि बनाने योग्य अथवा काटने योग्य / भन्जिमा =भंजने-से कने योग्य, बहुखज्जा (पहुखज्जा) =चिउड़ा बनाकर खाने योग्य / ' वनस्पति की रूढ आदि सात अवस्याएं भाषणीय-औषधियों के विषय में साधु को प्रयोजन वश कुछ कहना हो तो वनस्पति की इन सात अवस्थाओं में से किसी भी एक अवस्था के रूप में कह सकता है। (1) रूढ़ा-बीज बोने के बाद अंकुर फूटना, (2) बहुसं भूताबीजपत्र का हरा और विकसित पत्ती के रूप में हो जाना, (3) स्थिरा–उपघात से मुक्त होकर बीजांकुर का स्थिर हो जाना, (4) उत्सृता-संवधित स्तम्भ के रूप में आगे बढ़ना, (5) गर्मिता----आरोह पूर्ण होकर भट्टा, सिरा या बाली न निकलने तक की अवस्था, (6) प्रसूता-भुट्टा निकलने पर, (7) ससारा--दाने पड़ जाने पर। शब्दादि-विषयक-भाषा-विवेक 546. से भिक्खू वा 2 जहा बेतियाइं सद्दाइं सुणेज्जा तहा वि ताई गो एवं वदेज्जा, तंजहा-सुसद्दे ति का, दुसद्दे ति वा / एतप्पगारं [भासं| सावज्जं जाव णो भासेज्जा। 550. [से भिक्खू वा 2 जहा वेगतियाई सद्दाई सुणेज्जा तहा वि ताई एवं वदेज्जा, तंजहा-सुसई सुसद्दे ति वा, दुसई दुसद्दे ति वा / एतप्पगारं [भासं असावज्जं जाव भासेज्जा। एवं रूवाई किण्हे ति वा 5, गंधाई सुन्भिगंधे ति वा 2, रसाइं तिताणि वा 5, फासाई कक्खडाणि वा। 1. [क] आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पणी पृष्ठ 165 [ख] आचारांग वृत्ति पत्रांक 386, 160, 361 [ग] पाइअ-सदमहण्णवो [घ देखिए--दशवकालिक सूत्र अ० 7, गा० 11, 41, 42, तथा 22 से 35 तक [अ] अगस्त्य० चूर्णि पृ० 170 से 172, [ब जिन चणि पृ० 253 से 256 [स] हारि० टीका पत्र 217 से 216 तक / 2. (क) दशव० अ० 7, गा० 35 जिन० चुणि पृ० 257, (ब) अग० चूणि पृ० 173 / 3. से भिक्ख....."आदि पंक्ति का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में-सभिक्षुः यद्यप्येतान् शब्दान शणुयात तथापि नैवं वदेत् / ' अर्थात् वह भिक्ष यद्यपि इन शब्दों को सुने तथापि इस प्रकार न बोले। 4. 'सुसई सुसद्देति' आदि का तात्पर्य बत्तिकार के शब्दों में-..- 'सुसह ति शोभनं शब्दं शोभनमेव ब्र यात अशोभनं त्वशोभनमिति / एवं रूपादिसूत्रमपि नेयम् / '- शोभनीय शब्द को शोभन और अशोभनीय को अशोभन कहे / इसी प्रकार रूपादि विषयक सूत्रों के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। 5. इस सूत्र में 5, 2, 5, 8 के अंक सम्बन्धित भेद-प्रभेद के सूचक है। विवेचन देखें पृष्ठ 231 पर। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 546-50 231 546. साधु या साध्वी यद्यपि कई शब्दों को सुनते हैं, तथापि उनके विषय में राग-द्वेष युक्त भाव से) यों न कहे, जैसे कि--यह मांगलिक शब्द है, या यह अमांगलिक शब्द है। इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातक भाषा साधु या साध्वी न बोले। 550. यद्यपि साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, तथापि उनके सम्बन्ध में कभी बोलना हो तो (राग-द्वेष से रहित होकर) सुशब्द को 'यह सुशब्द है' और दुःशब्द को 'यह दुःशब्द है' इस प्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघातरहित भाषा बोले। इसी प्रकार रूपों के विषय में-- कृष्ण को कृष्ण, यावत् श्वेत को श्वेत कहे, गन्धों के विषय में (कहने का प्रसंग आए तो) सुगन्ध को सुगन्ध, और दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे, रसों के विषय में भी (तटस्थ होकर) तिक्त को तिक्त, यावत् मधुर को मधुर कहें, इसी प्रकार स्पर्शों के विषय में कहना हो तो कर्कश को कर्कश यावत् उष्ण को उष्ण कहे / विवेचन-पंचेन्द्रिय विषयों के सम्बन्ध में भाषा-विवेक--इन दो सूत्रों में शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, इन पञ्चेन्द्रिय विषयों को अपनी-अपनी इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष होने पर साधु को उनके सम्बन्ध में क्या और कैसे शब्द बोलना चाहिए? यह विवेक बताया है। स्थानांगसूत्र में पांचों इन्द्रियों के 23 विषय और 240 विकार बताए गए हैं, वे इस प्रकार हैं'.... 1. श्रोत्रेन्द्रिय के 3 विषय--जीव शब्द, अजीव शब्द, मिश्र शब्द / 2. चक्षुरिन्द्रिय के 5 विषय-काला, नीला, लाल, पीला, सफेद वर्ण / 3. घ्राणेन्द्रिय के दो विषय...सुगन्ध 4. रसनेन्द्रिय के 5 विषय-तिक्त, कटु, करेला, खट्टा और मधुर रस / 5. स्पर्शन्द्रिय के आठ विषय-कर्कश (खुर्दरा), मृदु, लघु, गुरु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उठण स्पर्श। श्रोत्रेन्द्रिय के 12 विकार-तीन प्रकार के शब्द, शुभ और अशुभ, (3426) इन पर राग और द्वेष [642 = 12] / चक्षुरिन्द्रिय के 60 विकार--काला आदि 5 विषयों के सचित्त, अचित्त, मिश्र ये तीनतीन प्रकार, इन 15 के शुभ और अशुभ दो-दो प्रकार, और इन 30 पर राग और द्वेष, यों कुल मिलाकर साठ। घ्राणेन्द्रिय के 12 विकार--दो विषयों के सचित्त-अचित्त-मिश्र ये तीन-तीन प्रकार, फिर 6 पर राग-द्वेष होने से 12 हुए। रसनेन्द्रिय के 60 विकार-चक्षुरिन्द्रिय की तरह उसके पांचों विषयों के समझें। स्पर्शेन्द्रिय के 66 विकार-८ विषय, सचित्त-अचित्त-मिश्र तीन-तीन प्रकार के होने से 24 इनके शुभ-अशुभ दो-दो भेद होने से 48 पर राग और द्वेष होने से 66 हुए।' 1. [क] आचारांग वृत्ति पत्रांक 361 [ख] स्थानांग 1 सू• 47, [ग] स्था० 5 सू० 360, [5] स्था० 8 सू० 566 च] प्रज्ञापनासूत्र पद 23 उद्दे० 2 2. कुल सब मिलाकर-१२+६०+१२+६+६६%= २४०-इस प्रकार समझना चाहिए। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___ साधु को पंचेन्द्रिय के विषयों में जो जैसा है, वैसा तटस्थ भावपूर्वक कहना चाहिए, भाषा का प्रयोग करते समय राग या द्वेष को मन एवं वाणी में नहीं मिलने देना चाहिए / यही मत चूर्णिकार का है। भाषण-विवेक 551. से भिक्खू वा 2 वंता' कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीयि गिट्ठाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा। 551. साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन (परित्याग) करके विचारपूर्वक निष्ठाभाषी हो, सुन-समझ कर बोले, अत्वरितभाषी, एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो, और भाषा समिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे। विवेचन- सारांश--- इस सूत्र में समग्र अध्ययन का निष्कर्ष दे दिया गया है। इसमें शास्त्रकार ने साधु को भाषा प्रयोग करने से पूर्व आठ विवेक सूत्र बताए है : (1) क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके बोले। (2) प्रासंगिक विषय और व्यक्ति के अनुरूप विचार (अवलोकन) चिन्तन करके बोले। (3) पहले उस विषय को पूरा निश्चयात्मक ज्ञान कर ले, तब बोले। (4) विचारपूर्वक या पूर्णतया सुन-समझ कर बोले। (5) जल्दी-जल्दी या अस्पष्ट शब्दों में न बोले। (6) विवेकपूर्वक बोले।। (7) भाषा-समिति का ध्यान रखकर बोले। (8) संयत-परिमित शब्दों में बोले। 552. एयं खलु तस्स भिक्षुस्स वा भिक्खुणीए का सामग्गियं जं सव्वट्ठोहिं सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि। 552. यही (भाषा के प्रयोग का विवेक ही) वास्तव में साधु-साध्वी के आचार का सामर्थ्य है, जिसमें वह सभी ज्ञानादि अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ। // "भासज्जाया" चतुर्थमध्ययन समाप्त // 1. आचारांग चूणि मूलपाठ टि०पृ० 200 'सुभिसद्दे रागो, इतरे दोसो' 2. बंता का भावार्थ वृत्तिकार करते हैं- 'स भिक्ष: क्रोधादिक वारवा एवं भूतो भवेत् ।'-वह भिक्षु क्रोधादि का वमन (त्याग) करके इस प्रकार का हो। 3. 'विवेगभासी' का अर्थ पूर्णिकार करते हैं-विविध्यते येन कर्म तं भाषेत--जिस भाषा-प्रयोग से कर्म आत्मा से पृथक हो, वैसी भाषा बोले। 4. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 361 / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रैषणा : पंचम अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र (द्वितीय श्रु तस्कन्ध) के पंचम अध्ययन का नाम 'वस्त्रैषणा' है। * जब तक वस्त्र-रहित (अचेलक) साधना की भूमिका पर साधक नहीं पहुंच जाता, तब तक वह अपने संयम के निर्वाह एवं लज्जा-निवारण' के लिये वस्त्र-ग्रहण या धारण करता है, किन्तु वह जो भी वस्त्र-धारण करता है, उस पर उसकी ममता- मूर्छा नहीं होनी चाहिए। 2- चूर्णिकार के मतानुसार भाव-वस्त्र (अष्टादशसहस्रशीलांग = संयम) के रक्षणार्थ तथा शीत-दंश-मशक आदि से परित्राण के लिए द्रव्यवस्त्र रखने का प्रतिपादन किया गया है। अतः वस्त्र ग्रहण-धारण जिस साधु को अभीष्ट हो, उसे विविध एषणा (गवेषणा; ग्रह]षणा; परिभोगैषणा) का ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा वस्त्र का ग्रहण एवं धारण भी अनेक दोषों से लिप्त हो जाएगा। र इन्हीं उद्देश्यों के विशद स्पष्टीकरण के लिए 'वस्त्रैषणा अध्ययन' प्रतिपादित किया गया है। - वस्त्र दो प्रकार के होते हैं-भाव-वस्त्र और द्रव्य-वस्त्र / भाव-वस्त्र अठारह हजार शीलांक हैं अथवा दिशाएं या आकाश भाव-वस्त्र हैं। 25 द्रक्ष्य-वस्त्र तीन प्रकार का होता है-१. एकेन्द्रियनिष्पन्न (कपास. अर्कतूल, तिरीड़ वृक्ष की छाल, अलसी, सन (पटसन) आदि से निर्मित), 2. विकलेन्द्रिय निष्पन्न (चीनांशुक, रेशमीवस्त्र आदि), और 3. पंचेन्द्रियनिष्पन्न (ऊनीवस्त्र, कंबल आदि)। " इस अध्ययन में वस्त्र किस प्रकार के, कैसे, कितने-कितने प्रमाण में, कितने मूल्य तक 1. 'तं पि संजम-लज्जट्ठा धारंति परिहरंति य।' –दशवै० अ०६ मा० 20 2. भाववत्थ संरक्षणार्थ दब्ववत्थेसणाहिगारो। सीद-दंस-मसगादीणं च परित्राणार्थ / --आ० चू० मू० पा० टि० 201 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 / 4. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 / (ख) आचारांम नियुक्ति गा० 315 / Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 आचारांग सूत्र -द्वितीय शु तस्कन्ध के, किसविधि से निष्पन्न वस्त्र ग्रहण एवं धारण किये जाएं, इसकी त्रिविध एषणा विधि बताई गई है। अत: इसे 'वस्त्रैषणा-अध्ययन' कहा गया है। " इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में वस्त्र-ग्रहण विधि का प्रतिपादन किया गया है, जबकि द्वितीय उद्देशक में वस्त्र-धारण विधि का प्रतिपादन है।' * सूत्र संख्या 553 से प्रारम्भ होकर 587 पर समाप्त होती है। 1. (अ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 / (आ) 'पढमे गहणं बीए धरणं, पगयं तु दव्ववत्थेणं' ---आचा० नियुक्ति गा० 315 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं 'वत्थेसणा' [पढमो उद्देसओ] बस्त्रं षणा : पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक प्राह्य-वस्त्रों का प्रकार व परिमाण 553. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं एसित्तए / से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा-जंगियं' वा भंगियं वा साणयं वा पोसगं वा खोमियं वा तूलकडं बा, तहप्पगारं वत्थं जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा, णो बितियं / जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा-एणं दूहत्यवित्थारं, दो तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं। तहप्पगारेहि वत्येहि असंविज्जमाणेहि अह पच्छा एगमेगं संसीवेज्जा। 553. साधु या साध्वी वस्त्र की गवेषणा करना चाहते हैं, तो उहें जिन वस्त्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) जांगमिक, (2) भांगिक, (3) सानिक, (4) पोत्रक (5) लोमिक और (6) तूलकृत। इन छह प्रकार के तथा इसी प्रकार के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है / जो निम्रन्थ मुनि तरुण है. समय के उपद्रव से रहित है, बलवान, रोग-रहित और स्थिर संहनन (दृढशरीर) वाला है, वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा नहीं / (परन्तु) जो साध्वी है, वह चार संघाटिका-चादर धारण करे-उसमें एक दो हाथ प्रमाण विस्तृत, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण लम्बी होनी चाहिए। इस प्रकार के वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सी ले। विवेचन–साधु के लिए ग्राह्य वस्त्रों के प्रकार और धारण की सीमा--प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र के उन प्रकारों का तथा अलग-अलग कोटि के साधु साध्वियों के लिए उन वस्त्रों को धारण करने 1. 'जंगिय' आदि की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में जंगमाज्जातं जंगियं, अमिलं == उट्ठीणं, भंगियं "अयसीमादी, सणवं-सणवागादि, स्थग (पत्तग?) तालसरिसं संघातिज्जति तालसूति वा, खोमियं थूलकडं कप्पति, सण्हं ण कप्पति / तूलकडं वा उण्णिय ओट्टियादि !" इसका भावार्थ विवेचन में दे दिया गया। चूणिकार के मतानुसार क्षौमिक (सूती) वस्त्र मोटा बुना हो तो कल्पता है, बारीक बुना हो तो नहीं / तूलकडं वा का अर्थ-अर्कतूलनिष्पन्न न करके ऊन, ऊँट के बाल आदि से बना कपड़ा किया गया है। 2. 'तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंविज्जमाणेहि' के बदले पाठान्तर है-एएहि अविज्जमाणेहिं / Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध के प्रमाण का भी उल्लेख कर दिया गया है।' स्थानांग, बृहत्कल्प आदि सूत्र में भी साधु द्वारा ग्रहणीय वस्त्र के प्रकारों का नामोल्लेख किया गया है / स्थानांग सूत्र में जिन 5 प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है, उनमें क्षौमिक और तूलकृत का नामोल्लेख नहीं है, इनके बदले 'तिरीदुपट्ट' का उल्लेख है, इन छह प्रकार के वस्त्रों की व्याख्या इस प्रकार है ___ जांगमिक = (जांगिक) जंगम (अस) जोवों से निष्पन्न / वह दो प्रकार का है--विकलेन्द्रियज और पंचेन्द्रियज / विकलेन्द्रियज पांच प्रकार का है 1. पट्टज 2. सुवर्णज (मटका) 3. मलयज 4. अंशक और 5. चीनांशुक / ये सब कीटों (शहतूत के कीड़े वगैरह) के मुंह से निकले तार (लार) मे बनते हैं।' पंचेन्द्रिय-निष्पन्न वस्त्र अनेक प्रकार के होते हैं जैसे 1. औणिक-(भेड़ बकरी आदि की ऊन से बना हुआ) 2. औष्ट्रिक--(ऊंट के बालों से बना) 3. मृगरोमज-शशक या मूषक के रोम या बालमृग के रोएं से बना, 4. किट्ट-(अश्व आदि के रोंए मे बना वस्त्र) और कुतप(चर्म-निष्पन्न या बाल मृग, चूहे आदि के रोंए से बना वस्त्र) 1. बौद्ध श्रमणों में लिये तीन वस्त्रों का विधान है-१. अन्तरवासक लुगी) 2. उत्तरासंग (चादर) 3. संघाटी (दोहरी चादर) तीन से अधिक वस्त्र रखने वाले भिक्षुको निस्सग्गिय पाचित्तिय (नैसर्गिकप्रायश्चित्त) आता है। देखें विनयपिटक भिक्खु पातिमोक्ख (20) भिक्षुणी के लिए पांच चीवर रखने का विधान है-भिक्खुणी पातिमोक्ख (25) तीन वस्त्र की मर्यादा के पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण का घटना के रूप में उल्लेख किया गया है, जो मननीय है। एक बार तथागत राजगह से वैशाली की ओर विहार कर रहे थे। मार्ग में भिक्षओं को चीवर से लदे देखा। सिर पर भी चीवर की पोटली, कंधे पर भी चीवर की पोटली, कमर में भो चीवर की पोटली बांधकर जा रहे थे। यह देखकर भगवान को लगा, यह मोघ-पुरुष (मूर्ख) बहुत जल्दी चीवर बटोरु बनने लगे, अच्छा हो मैं चीवर की सीमा बांध दू, मर्यादा स्थापित कर दू।... उस समय भगवान हेमन्त में अन्तराष्टक (माघकी अंतिम चार व फागुन की आरम्भिक चार रातें) की रातों में हिम-पात के समय रात को खली जगह में एक चीवर ले बैठे। भगवान को सर्दी न मालूम हुई। प्रथम याम (पहर) के समाप्त होने पर भगवान को सर्दी मालूम हुई, भगवान ने दूसरा चीवर और लिया और भगवान को सर्दी न मालूम हुई। बिचले याम के बीत जाने पर भगवान को सर्दी मालुम हुई तब भगवान ने तीसरे चीवर को पहन लिया और सर्दी न मालम हई। अंतिम याम के बीत जाने पर (पौ फटने के वक्त) सर्दी मालुस हई। तब भगवान ने चौथा चीवर ओढ लिया। तब भगवान को सर्दी न मालूम हई। तब भगवान को यह हा 'जो कोई शीताल (जिसको सर्दी ज्यादा लगती हो) सर्दी से डरने वाला कुलपुत्र इस धर्म में प्रवजित हुए हैं, वह भी तीन चीवर से गुजारा कर सकते हैं। अच्छा हो मैं भिक्षुओं के लिए चीवर की सीमा बांध, मर्यादा स्थापित करूं', तीन चीवरों की अनुमति हूँ।... - विनयपिटक, महावग्ग 8,4,3, पृ० 276-80 (राहुल) 2. विस्तार के लिए देखें (क) बृहत्कल्पभाष्य गाथा 3661-62 (ख) ठाणं (मुनि नथमल जी) पृ० 642 3. विस्तार के लिए देखें-(क) निशीथभाष्य चूर्णि गाथा 760 (ख) स्थानांग वृत्ति, पत्र 321 (ग) वृहत्कल्प भाष्य गा. 3661 की वृत्ति व चूर्णि (घ) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 878 वृत्ति (मूषिकलोमनिष्पन्नं = कौतवम्) Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 554 भांगिक = इसके दो अर्थ हैं--(१) अलसीसे निष्पन्नवस्त्र, (2) वंशकरील के मध्य भाग को कूट कर बनाया जानेवाला वस्त्र। सानज - पटसन (पाट), लोध की छाल, तिरोडवृक्ष की छाल के तन्तु से बना हुआ वस्त्र / पोत्रक = ताड़ आदि के पत्रों के समूह से निष्पन्न वस्त्र / खोमिय = कपास (रूई) से बना हुआ वस्त्र। तूलकडं = आक आदि को रूई से बना हुआ वस्त्र / वर्तमान में साधु-साध्वीगण प्रायः सूती और ऊनीवस्त्र ही धारण करते हैं। किन्तु तरुण साधु के लिए एक ही वस्त्र धारण करने की परम्परा आज तो समाप्तप्रायः है। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार स्पष्टीकरण करते हैं कि 'दृढ़बाली तरुण साधु आचार्यादि के लिए जो अन्य वस्त्र रखता है, उसका स्वयं उपयोग नहीं करता। जो साधु बालक है, वृद्ध, या दुर्बल है, या हीन-संहनन है वह यथासमाधि दो, तीन आदि वस्त्र भी धारण कर सकता है। जिनकल्पिक अपनी प्रतिज्ञानसार वस्त्र धारण करता है,वहां अपवाद नहीं है। __ साध्वी के लिए चार चादर धारण करने का विधान किया है, उनमें से दो हाथवाली चादर उपाश्रय में ओढे, तोन हाथवाली भिक्षा काल में तथा स्थंडिलभूमि के लिए जाते समय ओढे, तथा चार हाथवाली चादर धर्म-सभा आदि में बैठते समय ओढे / 'जुगवं' का अर्थ प्राकृत कोष के अनुसार है--समय के उपद्रव मे रहित / ' बौद्ध श्रमणों के लिए 6 प्रकार के वस्त्र विहित है—कौशेय, कंबल, कार्यासिक, क्षौम (अलसी की छाल से बना) शाणज (सन से बना) भंगज (भंग की छाल से बना हुआ) वस्त्र / / ब्राह्मणों (द्विजों) के लिए निम्नोक्त 6 प्रकार के वस्त्र मनुस्मृति में अनुमत है-कृष्ण, मृगचर्म, रुरु (मृग विशेष) चर्म, एवं छाग-चर्म, सन का वस्त्र, क्षुपा (अलसी) एवं मेष (भेड़) के लोम से बना वस्त्र। वस्त्र-ग्रहण की क्षेत्र-सीमा 554. से भिक्खू वा 2 परं अद्धजोयणमेराए वत्थपडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 1. मूल सर्वास्तिवाद के बिनयवस्तु पृ० 62 में भी 'भांगेय' वस्त्र का उल्लेख है। यह वस्त्र भांग वृक्ष के तंतुओं से बनाया जाता था। अभी भी कुमायू (उ० प्र०) में इसका प्रचार है, वहाँ 'भागेला' नाम से जानते हैं। -डा. मोतीचंद, भारती विद्या० 121141 2. (क) आचारांग चूणि मू. पाठ-टिप्पणी पृ० 210 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 (ग) 'ठाणं'---विवेचन (मनि नथमलजी) स्था०५ 10 160 पृ० 642, 683 (घ) वृहत्कल्पभाष्य गा० 3661, 3662, 3663 वृत्ति (3) निशीथ 6/10,12 को चूर्णि में (च) तिरोडपट्ट की व्याख्या [लोध वृक्ष की छाल से बना] आचारांग टीका पत्र 382 3. पाइय-सहमहगणवो पृ० 356 4. विनयपिटक महाधम 8/0/5 पृ. 275 राहुलसांकत्यायन) 5. मनुस्मति अ० 2 प्रलो० 40-41 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 आचारांग सूत्र--- द्वितीय श्रु तस्कन्ध 554. साधु-साध्वी को वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आधे योजन से आगे जाने का विचार नहीं करना चाहिए। विवेचन-इस सूत्र में साधु-साध्वी के लिए बस्त्र याचना में क्षेत्र-सीमा बताई गई है। योजन चार कोस का माना जाता है / आधे योजन का मतलब है--दो कोस / आशय यह है कि साधु जहां अभी अपने सार्मिकों के साथ ठहरा हुआ है, उस गाँव से दो कोस जाकर वस्त्र आदि याचना करके वापस आने में संभवतः उसे रात्रि हो जाए, या रुग्णता आदि के कारण चक्कर आदि आने लगें, इन सब दोषों की संभावना के कारण तथा कुछ दिनों के लिए वस्त्रप्राप्ति का लोभ संवरण करने हेतु ऐसी मर्यादा बताई है। [शेष काल के बाद विहार करके उस ग्राम में जाकर वह वस्त्र की गवेषणा कर सकता है। औद्देशिक आदि दोष युक्त वस्त्रंषणा का निषेध 555. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई जहा पिंडेसणाए भाणियवं, एवं बहवे साहम्मिया, एग साहम्मिणि, बहवे साहम्मिणीओ, बहवे समण-माहण तहेव पुरिसंतरकडं जधा पिडेसणाए। 556. से भिक्खू बा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अस्संजते भिक्खुपडियाए कोतं वा धोयं वा रत्तं वा घट्ट वा मट्ठ वा संमढ़वा संपधूवितं वा, तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव णो पडिगाहेज्जा / अह पुणेवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव पडिगाहेज्जा।' 555. साधु या साध्वी को यदि वस्त्र के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाए कि कोई भावुक गृहस्थ धन के ममत्व से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा करके किसी एक साधर्मिक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके (तैयार कराया हुआ) औद्देशिक, या खरीद कर, उधार लेकर, जबरन छीन कर, दूसरे के स्वामित्व का, सामने उपाश्रय में लाकर दे रहा है, तो उसप्रकार का वस्त्र पुरुषान्तरकृत हो या न हो, बाहर निकाल कर अलग से साधु के लिए रखा हो या न हो, दाता के अपने अधिकार में हो या न हो, दाता द्वारा परिभुक्त (उपयोग में लाया हुआ) हो या अपरिभुक्त हो, आसेवित (पहना-ओढ़ा) हो या अनासेवित, उस वस्त्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी न ले। जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में एक सार्मिकगत आहार-विषयक वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार यहाँ वस्त्र-विषयक वर्णन कहना चाहिए। तथा पिण्डषणा अध्ययन में जैसे 1. चणिकार ने 'परिसंतरकडं जाव पडिग्गाहेज्जा'का तात्पर्य बताया है-'विसोधिकोडी सव्वा संजयट्ठा ण कप्पति अपुरिसंतरकडादी, पुरिसंतरकडा कप्पति / ' अर्थात्-सर्वविशुद्ध नवकोटि से सभी साधुओं को अपुरु षान्तरकृत आदि विशेषणयुक्त वस्त्र नहीं कल्पता, पुरुषान्तरकृत आदि कल्पता है। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 555-56 236 बहुत-से सार्मिक साधु एक साधर्मिणी साध्वी, बहुत-सी सार्मिणी साध्वियां, एवं बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर तथा बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मणादि का उद्देश्य रखकर जैसे औद्देशिक, क्रीत आदि तथा पुरुषान्तरकृत आदि विशेषणों से युक्त आहार-ग्रहण का निषेध किया गया है, उसीप्रकार यहाँ शेष पांचों आलापकों में बताए हुए बहुत-से साधर्मिक आदि का उद्देश्य रखकर समारम्भ से निर्मित, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तर कृत आदि विशेषणों से युक्त ऐसे वस्त्र ग्रहण के निषेध का तथा पुरुषान्तरकृत आदि होने पर ग्रहण करने को सारा वर्णन उसी प्रकार समझ लेना चाहिए / 536. साधु या साध्वी यदि किसी वस्त्र के विषय में यह जान जाए कि असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से उसे खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिस कर साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया है, धूप, इत्र आदि से सुवासित किया है, और ऐसा वह वस्त्र अभी पुरुषान्तरकृत यावत् दाता द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, तो ऐसे अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासे वित वस्त्र को अप्रासुक व अनेषणीय मान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / यदि साधु या साध्वी यह जान जाए कि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो मिलने पर प्रासुक व एषणीय समझ कर उसे ग्रहण कर सकता है। विवेचन-एषणादोष से युक्त और मुक्त वस्त्रग्रहण : निषेध-विधान---प्रस्तुत दो सूत्रों में आधाकर्म आदि 16 उद्गम दोषों से युक्त वस्त्र ग्रहण का निषेध किया है / साथ ही यदि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसे वित हो वह साधु के निमित्त या साधु के लिए ही अलग से खासतौर से तैयार करा कर न रखाया हुआ हो, तथा आधाकर्म, औद्देशिक आदि दोषों की शंका नहीं रह जाती हो तो ऐसी स्थिति में साधु उस वस्त्र को प्रासुक एवं एषणीय समझ कर ग्रहण कर सकता है।' 'रत्त' के विषय में समाधान-रंगीन वस्त्र भगवान् महावीर के शासन के साधु-साध्वी ग्रहण नहीं करते, इसलिए यह पाठ सभी तीर्थकरों के साधु वर्ग को दृष्टि में रखकर अंकित नहीं प्रतीत होता है। क्योंकि भ० अजितनाथ (द्वितीय तीर्थकर) से भ० पार्श्वनाथ (23 वें तीर्थकर) तक के शासन के साधु-साध्वी पांचों रंगों के वस्त्र धारण कर सकते थे। अथवा 'रत्त' का अर्थ यह भी सम्भव है कि तुरंत उड़ने वाले रंगीन इत्र या चन्दन के चूर्ण, या केसर आदि किसी पदार्थ से सुगन्धित करते समय जल्दी छूट जाने वाले रंग से स्वाभाविक रूप से रंगा हुआ वस्त्र। ___ वस्त्रषणा में वोष प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम में प्रतिपादित वस्त्रग्रहण में आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, स्थापन, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, एवं अभिहृत आदि दोष लगने की सम्भावना बताई है। जबकि दूसरे सूत्र में उल्लिखित वस्त्र 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 363 के आधार पर 2. अर्थागम प्रथम खण्ड, आचा० द्वि-श्रत० पृ० 130 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध को ग्रहण करने में क्रीत. आधाकर्म, औशिक, स्थापना, अनिसृष्ट आदि दोषों के विषय में कहा है। इन दोषों से युक्त वस्त्र ग्रहण का निषेध है। बहमल्य-बहआरंभ-निष्पन्न वस्त्र-निषेध 557. से भिक्खू वा 2 से ज्जाइं पुण वत्थाई जाणेज्जा विरूवरूवाइं महद्धणमोल्लाई, तंजहा-आईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि बा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पत्तण्णाणि वा अंसुयाणि वा चीणंसुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गज्जलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावाराणि वा, अण्णतराणि वा तहप्पगाराई वत्थाई महद्धणमोल्लाई लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 558. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण आईणपाउरणाणि वत्थाणि जाणेज्जा, तंजहा-उद्दाणि वा पेसाणि वा पेसलेसाणि वा किण्हमिगाईणगाणि वा णोलमिगाईणगाणि वा गोरमिगाईणगाणि वा कणगाणि वा कणगकताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखइयाणि वा कणगफुसियाणि वा वग्घाणि वा विवग्घाणि वा आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा अण्णतराणि वा तहप्पगाराइं आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते गो पडिगाहेज्जा। 557. संयमशील साधु-साध्वी यदि ऐसे नानाप्रकार के वस्त्रों को जान, जो कि महाधन से प्राप्त होने वाले (बहुमूल्य) वस्त्र हैं, जैसे कि-आजिनक (हे आदि के चर्म से बने हुए) श्लक्ष्ण-(सहिण) वर्ण और छवि आदि के कारण बहुत सूक्ष्म या मुलायम, श्लक्ष्णकल्याण-सूक्ष्म और मंगलयम चिन्हों से अंकित, आजक-किसी देश की सूक्ष्म रोएँ वाली बकरी के रोम से निष्पन्न 1. जैनसिद्धान्त बोल संग्रह भाग 5 बोल 865 10 161-162 2. 'क्षौमिक' का अर्थ वृत्तिकार ने सामान्य कपास से बना हुआ बस्त्र किया है, लेकिन यहाँ महँगे वस्त्रों की सूची में उसे दिया है, इसका रहस्य यह है कि जो सुती वस्त्र हो. लेकिन बहुत ही बारीक हो, उस पर सोने-चाँदी आदि के किनारी गोटे लगे हए हों तो वह बहुमूल्य हो जाएगा। निशीथचूणि उ०७ में तो उसका अर्थ ही दूसरा किया है- 'पोंडमया खोम्मा, अण्णे भण्णंति रुक्खेहितों निग्गोच्छंति, जहा ब.हिंतो पादगा सहा ।'-पुष्यों के रेशे से बना या वृक्षों से निकलने वाले रस से बना हुआ वस्त्र / 3. 'कणगकंताणि' के बदले पाठान्तर है---कणगंताणि / अर्थ है-जिसकी किनारी सुनहरी है, सोने की है। 4. 'कणगपट्टाणि' के बदले पाठान्तर है---कणगपठ्ठाणि / अर्थ है--जिसके पृष्ठभाग सोने के हैं। 5. 'कणगखचितं' का अर्थ निशीथ चणि में किया गया है.-कणगसुत्तेण जस्स फुल्लिया पाडिता तं 'कणगखचितं' सोने के सूत्र (धागे) से जिस पर फूल अंकित किये हैं, वह है--कनक-खचित / 'आमरणा आभरणविचित्ता' इन दोनों का अर्थ निशीपचणि में यों दिया है---"एकाभरणेन मंडिता आभरणा। छपत्रिक-चंदलेहिक-स्वस्तिक-घंटिक-मोत्तिकमादीहि मंडिता आभरणविचित्ता' / अर्थात् --एक आभूषण से मंडितवस्त्र आभरणवस्त्र, और छपत्रिक (पत्र, चन्द्रलेखा, स्वास्तिक धुटिका आदि नमूनों से निष्पन्न) वस्त्र को आभरणविचित्र कहते हैं। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 557-558 241 कायक----इन्द्रनीलवर्ण कपास से निर्मित, क्षौमिक दुकूल-गौड़देश में उत्पन्न विशिष्ट कपास से बने हुए वस्त्र, परेशम के वस्त्र, मलयज (चन्दन) के सूते से बने या मलयदेश में बने वस्त्र, वल्कलतन्तुओं से निर्मित वस्त्र अंशक-बारीक वस्त्र, चीनांशुक-चीन देश के बने अत्यन्त सूक्ष्म एवं कोमल वस्त्र, देशराग-एक प्रदेश से रंगे हुए, अमिल-रोमदेश में निर्मित, गर्जल-पहनते समय बिजली के समान कड़कड़ शब्द करने वाले वस्त्र, स्फटिक- स्फटिक के समान स्वच्छ पारसी कंबल, या मोटा कंबल तथा अन्य इसीप्रकार के बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होने पर भी विचारशील साधु उन्हें ग्रहण न करे। 558. साधु या साध्वी यदि चर्म से निष्पन्न ओढने के वस्त्र जाने जैसे कि औद्र–सिन्धु देश के मत्स्य के चर्म और सूक्ष्म रोम से निष्पन्न, वस्त्र पेष-सिन्धुदेश के सूक्ष्म चर्मवाले जानवरों से निष्पन्न, पेयलेश-उसी के चर्म पर स्थित सूक्ष्म रोमों से बने हुए, कृष्ण, नील और गौरवर्ण के मृगों के चमडों से निर्मित वस्त्र, स्वर्णरस में लिपटे वस्त्र, सोने की कान्ति वाले वस्त्र, सोने के रस पट्टियाँ दिये हुए वस्त्र, सोने के पुष्प गुच्छों से अंकित सोने के तारों से जटित, और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म, आभरणों से मण्डित, आभरणों से चित्रित ये तथा अन्य इसीप्रकार के चर्म-निष्पन्न प्रावरण = वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन-बहुमूल्य एवं चर्म-निष्पन्न वस्त्र ग्रहण-निषेध-प्रस्तुत सूत्रद्वय में उस युग में प्रचलित कतिपय बहुमूल्य एवं चर्मनिर्मित वस्त्रों के ग्रहण का निषेध किया गया है। इस निषेध के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं (1) ये अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ (प्राणि-हिंसा) से तैयार होते हैं / (2) इनके चुराये जाने या लूटे-छीने जाने का डर रहता है / (3) साधुओं के द्वारा ऐसे वस्त्रों की अधिक मांग होने पर ऐसे वस्त्रों के लिए उन-उन पशुओं को मारा जाएगा, भयंकर पंचेन्द्रियवध होगा। (4) साधुओं को इन बहुमूल्य वस्त्रों पर मोह, मूर्छा पैदा होगी, संचित करके रखने की वृत्ति पैदा होगी। (5) साधुओं का जीवन सुकुमार बन जाएगा। (6) इतने बहुमूल्य वस्त्र साधारण गृहस्थ के यहाँ मिल नहीं सकेंगे। (7) विशिष्ट धनाढ्य गृहस्थ भक्तिभाववाला नहीं होगा, तो वह साधुओं को ऐसे कीमती वस्त्र नहीं देगा, साधु उन्हें परेशान भी करेंगे। (8) भक्तिमान धनाढ्य गृहस्थ मोल लाकर या विशेष रूप से बुनकरों से बनवाकर देगा। (E) एषणादोष लगने की संभावना अधिक है।' 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 364 के आधार पर Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 आचारांग सूत्र-द्वितीय भु तस्कन्ध (10) चमड़े के बस्त्र घृणाजनक, अपवित्र और अमंगल होने से इनका उपयोग साधुओं के लिए उचित एवं शोभास्पद नहीं / 'महामूल्य' किसे कहते हैं इस विषय में अभयदेवसूरि ने बताया है- 'पाटली पुत्र के सिक्के से जिसका मूल्य अठारह मुद्रा (सिक्का-रुपया) से लेकर एक लाख मुद्रा (रुपया) तक हो वह महामूल्य वस्त्र होता है।' अण्णतराणि वा तहप्पमाराई-बहुमूल्य एवं चर्म-निर्मित वस्त्रों के ये कतिपय नाम शास्त्रकार ने गिनाए हैं। इनके अतिरिक्त प्रत्येक युग में जो भी बहुमूल्य, सूक्ष्म, चर्म एवं रोमों से निर्मित, दुर्लभ तथा महाआरम्भ से निष्पन्न होने वाले वस्त्र प्रतीत हों, उन्हें साधु ग्रहण न करे सूत्रकार का यह आशय है। ___'माइणगाणि' आदि पदों के विशेष अर्थ-आचारांगचूर्णि, निशीथचूणि आदि में इन पदों के विशिष्ट अर्थ दिये गए हैं / आइणगाणि =अजिन-चर्म में निर्मित / आयाणि - तोसलिदेश में अत्यन्त शर्दी पड़ने पर बकरियों के खुरों में सेवाल जैसी मस्तु लग जाती है, उसे उखाड़कर उससे बनाये जाने वाले वस्त्र। कायाणि = काक देश में कौए की जांध की मणि जिस तालाब में पड़ जाती है, उस मणि की जैसी प्रभा होती है, वैसी ही वस्त्र की हो जाती है, उन काकमणि रंजित वस्त्रों को काकवस्त्र कहते हैं / खोमियाणि = क्षोम कहते हैं पौंड-पुष्पमय वस्त्र को, अथवा जैसे वट वृक्ष से शाखाएँ निकलती हैं, वैसे ही वृक्षों से लंबे-लंबे रेशे निकलते हैं, उनसे बने हुए वस्त्र दुगुल्लाणि = दुकूल एक वृक्ष का नाम है, उसकी छाल लेकर ऊखल में कूटी जाती है, जब वह भुस्से जैसी हो जाती है तब उसे पानी में भिगोकर रेसे बनाकर वस्त्र निर्माण किया जाता है / पट्टाणि == तिरीड़ वृक्ष की छाल के तन्तु पट्टसदृश होते हैं उनसे निर्मितवस्त्र तिरीड़पट्ट वस्त्र अथवा रेशम के कीड़ों के मुह से निकलने वाले तारों से बने वस्त्र। मलयाणि = मलयदेश (मैसूर आदि) में चन्दन के पत्तों को सडाया जाता है, फिर उनके रेशों से बने वस्त्र, पत्त ण्णाणि-वल्कल से बने हुए बारीक वस्त्र' देसरागा=जिस देश में रंगने की जो विधि है, उस देश में रंगे हुए वस्त्र, गज्जलाणि = जिनके पहनने पर विद्युत्गर्जन-सा कड़कड़ शब्द होता है, वे गर्जल वस्त्र / कणगो- सोने को पिघला कर उससे सूत रंगा जाता है, और वस्त्र बनाये जाते हैं। कणगकताणि = जिनके सोने की किनारी हो, ऐसे वस्त्र। विवग्धाणि = चीते का चमड़ा। कौतप आदि के ग्रहण का निषेध क्यों ? कौतप, कंबल (फारस देश के बने गलीचे) तथा 1. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र 322 (ख) विनयपिटक (महावग्ग) 8181210 26- में शिविदेश में बने 'सिवेय्यकवस्त्र' का उल्लेख है, जो एक लाख मुद्रा में मिलता था। 2. अनुयोगद्वार सूत्र (37) की टीका के अनुसार-किसी जंगल में संचित किये हुए मांस के चारों ओर एकत्रित कीड़ों से 'पट्ट' वस्त्र बनाये जाते थे / 3. 'पत्रोर्ण' का उल्लेख महाभारत 2178154 में भी है। -जैन सा० मा० 10 207 / 4. (क) आचारांग चूणि मू० पा० दि० पृ० 203,203 (ख) निशीथ चूणि उ. 7 पृ० 366,400 (ग) पाइअ-सद्द महण्णवो (घ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 364 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 556-560 243 प्रावारक महंगे होने के अतिरिक्त ये बीच-बीच में छूछे, छिद्रवाले या पोले होते हैं, जिनमें जीव घुस जाते हैं, जिनके मरने की आशंका रहती है तथा प्रतिलेखन भी ठीक से नहीं हो सकता, इन सब दोषों के कारण ये वस्त्र अग्राह्य कोटि में गिनाये हैं।' वस्त्रंषणा की चार प्रतिमाएं __ 556. इच्चेयाइं आययणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा चहि पडिमाहि' वत्थं एसित्तए। [1] तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा 2 उद्दिसिय 2 वत्थं जाएज्जा, तंजहाजंगियं वा भंगियं वा साणयं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं एसणिज्जं लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा। [2] अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 पेहाए 2 वत्थं जाएज्जा, तंजहा-गाहावती वा जाव कम्मकरी वा, से पुग्वामेव आलोएज्जा–आउसो ति वा भइणी ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं वत्थं ? तहप्पगारं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं एसणिज्जं लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा। दोच्चा पडिमा। [3] अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 सेज्ज पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा-अंतरिज्जगं वा उत्तरिज्जगं वा, तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा जाव पडिगाहेज्जा / तच्चा पडिमा। [4] अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खू वा 2 उझियधम्मियं वत्थं जाएज्जा जं घऽण्णे बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणोमगा णावकखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से वेज्जा, फासुर्य जाब पडिगाहेज्जा / चउत्था पडिमा। 560. इच्चेताणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए। 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 202 कोयव-कबलपावारावीणि सुसि दोसाय ण गुण्हीयात् / चणि (आचा) में इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार मिलती है...--'चउरो पडिभा-उद्दिसिय जंगियमादी / बितियं पेहाए पुच्छिते भणति-एरिसं / अहवा पेहाए उक्खेव निक्खेव निद्देसं बीयाण उवरि / ततियाए अंतरिज्जगं साडतो, उत्त रिज्जगं पंगुरणं / अहवा अंतरिज्जग हेट्टियपत्थरणं, उत्तरिज्जगं पन्छाओ। उज्झियम्मियं चउम्विधं दव्वादि आलावगसिद्ध ।'–अर्थात्-चार प्रतिमाएँ हैं-(१) जंगीय आदि चारों में से किसी भी एक प्रकार के वस्त्र को उद्देश्य करके ग्रहण करने का संकल्प / (2) दूसरी प्रतिमा-प्रेक्षापूर्वक निश्चित करना, पूछने पर कहना-ऐसा वस्त्र / बीजों पर उत्क्षेप या निक्षेप का निर्देश भी इसके साथ है। (3) तृतीय प्रतिमा में अन्तरीयक वस्त्र, चादर और उत्तरीयक ऊपर लपेटने का, अथवा अन्तरीयक तीचे बिछाने का, उत्तरीयक प्रच्छादन पट / (4) उज्झितधार्मिक के द्रव्यादि चतुर्विध आलापक हैं। (वृहत्कल्प सूत्र वृत्ति पृ० 180 और निशीथ चूर्णि उ० 5 (पृ० 568) में भी इसका उल्लेख है।) 3. 'जाव' शब्द से यहाँ 'लामे संते से लेकर 'पडिमाहेज्जा' तक का पाठ सू० 406 के अनुसार है। 4. जाव शब्द से यहां इसी सूत्र के [2] विभाग में उल्लिखित समझना चाहिए। 5. यहाँ 'जाव' शब्द से 'फासुस' से लेकर 'पडिगाहेज्जा' तक का पाठ सू० 406 के अनुसार समझें। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 556. इन (पूर्वोक्त) दोषों के आयतनों (स्थानों) को छोड़कर चार प्रतिमाओं (अभिग्रहविशेषों) से वस्त्रैषणा करनी चाहिए / / [1] पहली प्रतिमा-वह साधु या साध्वी मन में पहले संकल्प किये हुए वस्त्र की याचना करे, जैसे कि--जांगमिक, भांगिक, सानज, पोत्रक, क्षौमिक या तूलनिर्मित वस्त्र (इन वस्त्र प्रकारों में से एक प्रकार के वस्त्र ग्रहण का मन में निश्चय करे) उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक और एषणीय होने पर ग्रहण करे। [2] दूसरी प्रतिमा-वह साधु या साध्वी (गृहस्थ के यहां) वस्त्र को पहले देखकर गृहस्वामी यावत् नौकरानी आदि से उसकी याचना करे देखकर इस प्रकार कहे-आयुष्मन् गृहस्थ भाई ! अथवा बहन ! क्या तुम इन वस्त्रों में से किसी एक वस्त्र को मुझे दोगे ? दोगी? इस प्रकार साधु या साध्वी पहले स्वयं वस्त्र की याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो प्रासुक एवं एषणीय होने पर ग्रहण करे / यह दूसरी प्रतिमा हुई। [3] तीसरी प्रतिमा-साधु या साध्वी (गृहस्थ द्वारा परिभुक्त प्रायः) वस्त्र के सम्बन्ध में जाने, जैसे कि-अन्दर पहनने के योग्य या ऊपर पहनने के योग्य चादर आदि अन्तरीय / तदनन्तर उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे या गृहस्थ उसे स्वयं दे तो उस वस्त्र को प्रासक एवं एषणीय होने पर मिलने पर ग्रहण करे / यह तीसरी प्रतिमा हुई। [4] चौधी प्रतिमा-वह साधु या साध्वी उज्झितधामिक (गृहस्थ के द्वारा पहनने के बाद फेंके हुए) वस्त्र की याचना करे। जिस वस्त्र को बहुत से अन्य शाक्यादि भिक्षु यावत् भिखारी लोग भी लेना न चाहें ऐसे उज्झित-धार्मिक (फेंकने योग्य) वस्त्र को स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ स्वयं ही साधु को दे तो उस वस्तु को प्रासुक और एषणीय जानकर ग्रहण कर ले / यह चौथी प्रतिमा हुई। 560. इन चारों प्रतिमाओं के विषय में जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए। विवेचन-वस्त्र षणा से सम्बन्धित चार प्रतिज्ञाएँ-पिण्डैषणा-अध्ययन में जैसे पिण्डैषणा की 4 प्रतिज्ञाएँ बताई गई हैं, वैसे ही यहाँ वस्त्रैषणा से सम्बन्धित 4 प्रतिज्ञाएँ बताई गई हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-१. उद्दिष्टा, 2. प्रेक्षिता, 3. परिभुक्त पूर्वा और 4. उज्झित धार्मिका। चारों प्रतिज्ञाओं का स्वरूप इस प्रकार है(१) मैं पहले से संकल्प या नामोल्लेख करके वस्त्र की याचना करूंगा। (2) मैं वस्त्र को स्वयं देखकर ही याचना करूंगा। (3) अन्दर पहनने के या बाहर ओढ़ने के जिस वस्त्र को दाता ने पहले उपयोग कर लिया है, उसो को ग्रहण करूंगा। (4) जो वस्त्र अब काम का नहीं रहा, फेंकने योग्य है, उसी वस्त्र को ग्रहण करूंगा। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 561-67 245 जो साधु जिस प्रकार की प्रतिज्ञा करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वस्त्र मिले, तो ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं / / परन्तु पिण्डैषणा अध्ययन में उक्त प्रतिज्ञापालन से प्रादुर्भूत अहंकार के विसर्जन की बात यहाँ भी शास्त्रकार ने सूत्र 560 के द्वारा अभिव्यक्त की है। वस्त्रैषणा-प्रतिमापालक साधु स्वयं को उत्कृष्ट और दूसरे साधुओं का निकृष्ट न माने। वह सभी प्रकार के प्रतिमापालक साधुओं को जिनाज्ञानुवर्ती तथा समान माने / समाधिभाव में रहे।' अनेषणीय वस्त्र-ग्रहण-निषेध ___561. सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! एज्जाहि तुमं मासेण वा दसरातेण वा पंचरातेण वा सुते' वा सुततरे वा, तो ते वयं आउसो ! अण्णतरं वत्थं दासामो / एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा निसम्म से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भगिणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति एतप्पगारे संगारे पडिसुणेत्तए, अभिकंखसि मे दाउं इदाणिमेव दलयाहि। 562. से णेवं वदंतं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा! अणुगच्छाहि, तो ते वयं अण्णतरं वत्थं दासामो / से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति एयप्पगारे संगारवयणे पडिसुणेत्तए, अभिकखसि मे दाउं इयाणिमेव दलयाहि / 563. से सेवं वदंतं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति वा, भगिणी ! ति वा, आहरेतं वत्थं समणस्स दासामो', अवियाई वयं पच्छा वि अप्पणो सयट्ठाए पाणाई भूताई जीवाई सत्ताइ समारंभ समुद्दिस्स जाव चेतेस्सामो / एतप्पगारं निग्धोसं सोच्चा निसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 564. सिया णं परो णेत्ता वदेज्जा--आउसो ! ति वा, भइणी ! ति बा, आहर एवं वत्थं सिणाणेण वा जाव आसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स णं दासामो। एतप्पगारं 1. क] आचारांग बत्ति पत्रांक 165 के आधार पर ख आचा० चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 204 2. 'सुते वा सुततरे वा' के बदले 'सुत्तेण वा सुत्ततरे वा', सुए वा सुततराए वा, सुतेण वा सुतततेण वा' ___आदि पाठान्तर है। 3. 'संगारे' के बदले 'संगारवयणे' पाठ है। 4. 'अणुमच्छाहि' के बदले पाठान्तर है-'अहणा गच्छाहि / अर्थात् -'इस समय तो जाओ' वृत्तिकार ने भावार्थ दिया है-'अनुगच्छ तावत पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामि।' अभी तो जाओ। फिर थोड़ी देर में लौटने पर दूंगी/दंगा। 5. 'दासामो' के बदले 'चयामो' एवं वाहामो पाठान्तर हैं / अर्थ समान है। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निघोसं सोच्चा निसम्म से पुम्बामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, मा एतं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा, अभिकखसि मे दातुं एमेव वलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो सिणाणेण वा जाव पचंसित्ता [वा?] दलएज्जा / तहप्पगारं वत्थं अफासुर्य जाव' गो पडिगाहेज्जा। 565. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, आहर एयं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेता' वापधोवेत्ता वा समणस्स णं दासामो। एयप्पगारं निग्घोस, तहेव, नवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण दा उच्छोलेहि वा पधोवेहि वा / अभिकखसि मे दातुं सेसं तहेव जाव णो पडिगाहेज्जा। 566. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति, वा भइणी ! ति वा, आहरेतं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोधेत्ता समणस्स णं दासामो। एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा निसम्म जाव' भइणी ! ति वा, मा एताणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि. णो खलु मे कम्पति एयप्पगारे वत्थे पडिगाहित्तए। 567. से सेवं वदंतस्स परो कंदाणि वा जाव विसोहेता दलएज्जा। तहप्पगारं वत्थ अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 561. कदाचित् इन (पूर्वोक्त) वस्त्र-एषणाओं से वस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ कहे कि--आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ, एक मास, या दस या पांच रात के बाद अथवा कल या परसों आना, तब हम तुम्हें एक वस्त्र देंगे।' इस प्रकार का कथन सुनकर हृदय में धारण करके वह साधु विचार कर पहले ही कह दे---"आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! मेरे लिए इस प्रकार का संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है। अगर मुझे वस्त्र देना चाहते हो (दे सकते हो) तो अभी दे दो।" 562. उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ यों कहे कि--आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ। थोड़ी देर बाद आना, हम तुम्हें एक वस्त्र दे देंगे। इस पर वह 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अफासयं' से लेकर पडिग्याहेज्जा' तक का सारा पाठ सूत्र 324 के अनुसार समझना चाहिए। 2. 'उच्छोलेसा पधोवेत्ता' के बदले पाठान्तर हैं- उच्छालेत्ता पच्छालेता, उच्छुलेज्ज वा पहोएज्ज वा / 3. यहाँ 'जाव' शब्द से सू० 564 के अनुसार शेष पाठ समझें। 4. विसोधेत्ता का तात्पर्य वत्तिकार लिखते हैं----'कंदादीनि वस्त्रादपनीय'-अर्थात- कंद आदि जो वस्त्र में रखें हैं, उन्हें निकालकर साफ करके। 5. यहाँ जाव शब्द से 'निसम्म' से 'भइणी' तक का पाठ सू० 564 के अनुसार समझें। 6. जाव शब्द से यहाँ 'कंदाणि' से 'हरियाणि' तक का सारा पाठ सू० 417 के अनुसार समझें। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 561-67 247 पहल मन में विचार करके उस गृहस्थ से कहे-~-'आयुष्मन् गृहस्थ अथवा बहन ! मेरे लिए इस प्रकार से संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है। अगर मुझे देना चाहते/चाहती हो तो इसी समय दे दो।' 563 साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह गृहस्थ धर के किसी सदस्य (बहन आदि) को (बुलाकर) यों कहे कि "आयुष्मन् या बहन ! वह वस्त्र लाओ, हम उसे श्रमण को देंगे। हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके और उद्देश्य करके यावत् और वस्त्र बनवा लेंगे।” इस प्रकार का वार्तालाप सुन कर उस पर विचार करके उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। 564. कदाचित् गृहस्वामी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि "आयुष्मन् अथवा बहन ! वह वस्त्र लाओ, तो हम उसे स्नानीय पदार्थ से, चन्दन आदि उद्वर्तन द्रव्य से लोध से, वर्ण से, चूर्ण से या पद्म आदि सुगन्धित पदार्थों से, एक बार या बार-बार घिसकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार का कथन सुनकर एवं उस पर विचार करके वह साधु पहले से ही कह दे-आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन! तुम इस वस्त्र को स्नानीय पदार्थ से यावत् पद्म आदि सुगन्धित द्रव्यों से आघर्षण या प्रघर्षण मत करो। यदि मुझे वह वस्त्र देना चाहते चाहती हो तो ऐसे ही दे दो। साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ स्नानीय सुगन्धित द्रव्यों से एकबार या बार-बार घिसकर उस वस्त्र को देने लगे तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 565. कदाचित् गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि “आयुष्मन् ! या वहन ! उस वस्त्र को लाओ, हम उसे प्रासुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार धोकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार की बात सुनकर एवं उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दे---"आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) ! या बहन ! इस वस्त्र को तुम प्रासक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार मत धोओ। यदि मुझे इसे देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ उस वस्त्र को ठंडे या गर्म जल से एक बार या कई बार धोकर साधु को देने लगे तो वह उस प्रकार के वस्त्र को अप्रामुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे / 566. यदि वह गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहें कि आयुष्मन् ! या बहन! उस वस्त्र को लाओ, हम उससे में कन्द यावत् हरी (वनस्पति) निकालकर (विशुद्ध करके) साधु को देंगे। इस प्रकार की बात सुनकर, उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दें-"आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस वस्त्र में से कन्द यावत् हरी मत निकालो (विशुद्ध मत करो)। "मेरेलिए इस प्रकार का वस्त्र ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है / 567. साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ कंद यावत् हरी वस्तु को Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध निकालकर (विशुद्ध करके) देने लगे तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं, अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन--विविध अनेषणीय वस्त्रों के ग्रहण का निषेध-सू० 561 से 567 तक सात सूत्रों में निम्नलिखित परिस्थितियों में वस्त्र ग्रहण करने का निषेध किया गया है-- (1) एक दो दिन से लेकर एक मास तक के बाद ले जाने के लिए साधु को वचनबद्ध करके देना चाहे। (2) थोड़ी देर बाद आकर ले जाने के लिए वचनबद्ध करके देना चाहे / (3) या वह वस्त्र साधु को देकर अपने लिए दूसरा वस्त्र बना लेने का विचार प्रकट करे। (4) सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित करके (पुरुषान्तरकृत, परिभुक्त या आसेबित बताने की अपेक्षा से) देने का विचार प्रकट करे तो। (5) ठडे या गर्म प्रासक जल से धोकर देने के विचार प्रगट कर। (6) उसमें पड़े हुए कंद या हरी आदि सचित्त पदार्थों को निकाल कर साफ करके देने का विचार प्रकट करे। (7) तथा वैसा करके देने लगे तो। ऐसे अनेषणीय वस्त्र के लेने से हिंसा, पश्चात्कर्म आदि दोषों की सम्भावना है। 'संगारे पडिसुणेत्तए' आदि पदों का अर्थ संगारे-वादा करना, या संकेत करना, वचनबद्ध होना / संगारवयणे =सकेतवचन, वादे की बात, किसी खास वचन में बंध जाना। पडिसुणेत्तए --स्वीकार करना / वस्त्र-ग्रहण-पूर्व प्रतिलेखना विधान 568. सिया से परो णेत्ता वत्थं निसिरेज्जा, से पुवामेव आलोएज्जा आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, तुमं चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि / केबलो व्याआयाणमेयं / वत्थंते ओबद्ध सिया कुंडले वा गुणे वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रतणावली वा पाणे वा बोए वा हरिते वा। अह भिक्खूणं पुग्योवदिट्ठा 4 जं पुटवामेव वत्थं अंतोअंतेण पहिलेहेज्जा। 1. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 365 के आधार पर 2. (क) आचा० (अर्थागम खण्ड 1) पृ० 131 (ख) पाइअ सह महण्णवो पृ० 834 3. 'वत्थंते ओबद्ध" के बदले पाठान्तर हैं--'वस्थेण ओबद्ध', 'वत्थं तेण उबद्ध', 'बस्थं तेण बद्ध'. 'वत्थंते बखें। अर्थ है-वहाँ वस्त्र के अन्त--किनारे या पल्ले में कोई वस्तु बँधी हो। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 566-71 246 568. कदाचित् वह गृहस्वामी (साधु के द्वारा याचना करने पर) वस्त्र (घर से लाकर) साधु को दे, तो वह पहले ही विचार करके उससे कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम्हारे ही इस वस्त्र को मैं अन्दर-बाहर चारों ओर ले (खोलकर) भलीभाँति देखूगा, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं- वस्त्र को प्रतिलेखना किये बिना लेना कर्मबन्धन का कारण है। कदाचित उस वस्त्र के सिरे पर कुछ बंधा हो, कोई कुण्डल बंधा हो, या धागा, चांदी, सोना, मणिरत्न, यावत् रत्नों की माला बंधी हो, या कोई प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बंधी हो / इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही इस प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि साधु वस्त्र ग्रहण से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे / विवेचन-वस्त्र लेने से पूर्व भलीभाँति देखभाल लें-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने से पूर्व एक विशेष सावधानी की ओर संकेत किया है, वह है वस्त्र को पहले अन्दर-बाहर सभी कोनों से अच्छी तरह देख-भाल कर लें।' बिना प्रतिलेखन किये वस्त्र ले लेने से निम्नलिखित खतरों की सम्भावना है—(१) वस्त्र के पल्ले में कोई कीमती चीज बंधी हो, साधु को उसे रखने से परिग्रह दोष लगेगा; (2) गृहस्थ की वह चीज गुम हो जाने से उसे साधु पर शंका होगी, (3) वस्त्र बीच में से फटा हो तो फिर साधु का उस वस्त्र के ग्रहण करने का प्रयोजन सिद्ध न होगा, (4) वस्त्र को गृहस्थ ने साधु के लिए विविध द्रव्यों से सुवासित कर रखा हो, या उसमें बीच में फूलपत्ती आदि या चांदी सोने के बेलबूटे आदि किये हों। (5) उस वस्त्र में दीमक, खटमल, जूं, चींटी आदि कोई जीव लगा हो, बीज बंधे हों या हरी वनस्पति बंधी हो तो जीव-हिंसा की संभावना है। (6) किसी ने द्वेषवश उस वस्त्र पर विष लगा दिया हो. जिसे पहनते ही प्राण वियोग की संभावना हो / (7) उस वस्त्र की अपेक्षित लम्बाई-चौड़ाई न हो। इसीलिए साधु को उक्त वस्त्र अपनी निश्राय में लेने से पूर्व गृहस्थ से कहना चाहिए"तुमं चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि ।'-अर्थात् मैं प्रतिलेखन करता हूं तब तक यह वस्त्र तुम्हारे स्वामित्व का या तुम्हारा है..।' ग्राह्य-अग्राह्य-वस्त्र-विवेक 566. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणं तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 570. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जतं ण रुच्चति', तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 1. आचारांग मूल पाठ एवं वृत्ति पत्रांक 365 / 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 365 / 3. 'ण रुञ्चति' के बदले पाठान्तर है-'नो रोइज्ज, नो रोचद।' अर्थ समान है। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रूतस्कन्ध 571. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणयं अलं थिरं धुवं धारणिज्ज रोइज्जतं रुच्चति, तहप्पगारं वत्थं फासुयं जाव पडिगाहेजा। 566. साधु या साध्वी यदि ऐसे वस्त्र को जाने जो कि अण्डों में यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय मान कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 570. साधु या साध्वी यदि जाने कि यह वस्त्र अण्डों में यावत् मकड़ी के जालों में तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ है, अस्थिर (टिकाऊ नहीं) है, या जीर्ण है, अध्र व (थोड़े समय के लिए दिया जाने वाला) है, धारण करने के योग्य नहीं है, रुचि होने पर भी दाता और साध की उसमें रुचि न हो, तो उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 571. साधु या साध्वी यदि ऐसा वस्त्र जाने, जो कि अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, साथ ही वह वस्त्र अभीष्ट कार्य करने में समर्थ, स्थिर, ध्र व, धारण करने योग्य है, दाता की रुचि को देखकर साधु के लिए भी कल्पनीय हो तो उसप्रकार के वस्त्र को प्रासुक और एषणीय समझ कर प्राप्त होने पर साधु ग्रहण कर सकता है। विवेचन-वस्त्र ग्रहण-अग्रहण-विवेक--प्रस्तुत तीन सूत्रों में यह विवेक बताया गया है कि कौन-सा वस्त्र साधु को ग्रहण न करना चाहिए, और कौन-सा करना चाहिए ? ___ अग्राह्य वस्त्र--१. जो अंडे आदि जीव-जन्तुओं से युक्त हो, 2. अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ हो, 3. अस्थिर हो, 4. अल्पकाल के लिए देय होने में अध्रुव हो, 5. धारण करने योग्य नहीं हो, 6. दाता की रुचि न हो, तो साधु के लिए वह कल्पनीय नहीं है। इसके विपरीत जीवादि से रहित, अभीष्ट-कार्य करने में समर्थ आदि कल्पनीय, प्रासुक और एषणीय वस्त्र को साधु ग्रहण कर सकता है।' वस्त्र ग्रहण-अग्रहण के 16 विकल्प-वृत्तिकार ने बताया है कि अणलं, अथिरं, अधुवं आधारणिज्ज इन चारों पदों के सोलह भग (विकल्प) होते हैं, इनमें प्रारम्भ के 15 भंग अशुद्ध हैं, सोलहवाँ भंग 'अलं, स्थिर, वं, धारणीयं' शुद्ध है / तात्पर्य यह है कि जो वस्त्र इन चारों विशेषणों से युक्त होगा, वही ग्राह्य होगा, अन्यथा, इन चारों में से यदि एक विशेषण से भी युक्त न होगा तो वह अशुद्ध और अग्राह्य माना जायेगा। 'अणलं' आदि पदों के अर्थ-- 'अणलं' =जो वस्त्र अभीष्ट (पहनने ओढ़ने वगैरह) कार्य के लिए अपर्याप्त-असमर्थ हो, यानी जिसकी लम्बाई-चौड़ाई कम हो। अथिर जो मजबूत और टिकाऊ न हो, जीर्ण हो, जल्दी ही फट जानेवाला हो। अधुवं जो प्रातिहारिक 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर / 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 / Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 572-74 251 (पाडिहारिय)--थोड़े समय के उपयोग के लिए दिया गया हो / अधारणिज्ज =जो अप्रशस्त हो, खंजन आदि के चिन्ह (धब्बे) जिस पर अंकित हो, अतः जो वस्त्र लक्षणहीन हो / रोइज्ज त ण रुच्चति इस प्रकार चारों विशेषताओं से युक्त प्रशस्त वस्त्र रुचिकर एवं देय होने पर भी दाता की रुचि न हो, अथवा साधु को लेना पसंद या कल्पनीय न हो तो वैसा वस्त्र भी अग्राह्य है। वस्त्र-प्रक्षालन निषेध 572. से भिक्खू वा 2 णो णवए मे वत्थे ति कट्ट, जो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पघंसेज्ज वा। 573. से भिक्खू वा 2 'णो णवए मे वत्थे' ति कट्ट, णो बहुदेसिएण सीओदगवियडेण वा उसीणोदगवियडेण वा जाव पधोएज्ज वा। 574. से भिक्खू वा 2 'दुभिगंधे मे वत्थे ति कट्ट, णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा तहेव सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा आलावओ। 572. 'मेरा वस्त्र नया नहीं है', ऐसा सोच कर साधु या साध्वी उसे [पुराने वस्त्र को] थोड़े या बहुत सुगन्धित द्रव्य से यावत् पद्मराग मे आधर्षित-प्रधर्षित न करे। 573. 'मेरा वस्त्र नूतन नहीं है' इस अभिप्राय से साधु या साध्वी उस मलिन वस्त्र को बहुत बार थोड़े-बहुत शीतल या उष्ण प्रासुक जल से एक बार या बार-बार प्रक्षालन न करे। 574. 'मेरा वस्त्र दुर्गन्धित है', यों सोचकर उसे [विभूषा की दृष्टि से] बहुत बार थोड़े-बहुत सुगन्धित द्रव्य आदि से आधर्षित-प्रघर्षित न करे, न ही शीतल या उष्ण प्रासुक जल से उसे एक बार या बार बार धोए। यह आलापक भी पूर्ववत् है। विवेचन-वस्त्र को सुन्दर बनाने का प्रयत्न : निषिद्ध प्रस्तुत तीन सूत्रों में सुन्दर एवं 1. क] आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 / खि आचारांग चूणि मू पा० टिप्पण पृ० 207 में अणलं == अपज्जत्तगं, अथिर - दुब्बलगं, अधुर्व-पाडिहारियं, अधारणिज्ज = अलक्खणं, एतं / चेव न रुच्चति / " ग निशीथ भाप्य गा० 4626 में देखें-. 'अगलं अपज्जत्त खलु, अथिरं अददं तु होति णायब्वं / अधुवं तु पाडिहारियमलक्षणमधारणिज्जं तु॥ यहाँ 'जाव' शब्द' से 'सिणाणेण वा' से 'पघंसेज्ज वा' तक का पाठ सू०४२१ के अनसार समझें। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'उसिणोदगवियडेण वा' से 'पधोएज्ज वा' तक का पाठ सू० 421 के अनुसार समझें। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध शोभनीय दिखाने की दृष्टि से वस्त्र को सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित करने तथा शीतल या उष्ण जल से धोकर उज्ज्वल बनाने का निषेध है। ऐसा करने से फैशन, साजसज्जा, विलास और सौकुमार्य आदि का साधु-जीवन में प्रवेश हो जाने की संभावना है, विभूषावृत्ति से साधु के चिकने कर्म बंधते हैं। 'बहुदेसिएण' या 'बहुदेवसितेण' की व्याख्या-वृत्तिकार ने इसका संस्कृत में 'वहूदेश्येन' रूपान्तर करके अर्थ किया है -बहुद्देश्येन = ईषद्बहुना अर्थात्-थोड़े-बहुत रूप में या बहुत बार थोड़ा-थोड़ा। / चूर्णिकार इसका 'बहुदिवसितं' रूपान्तर मानकर व्याख्या करते हैं-"बहुदिवसपिडित बहुदिवसितं, बहुदिवसितं, बहुगं वा बहुदिवसितं, लोद्धादिणा सीतोदएण वा"-अर्थात् लगातार बहुत दिनों तक का नाम बहुदिवसित है ! अथवा 'बहुदिवसितं' का अर्थ है-बहुत बार दिनों तक / निशीथचूणि में दोनों ही पाठों को मानकर व्याख्या की है---"देसोनामं पसती / एक्का पसती दो वा तिण्णि वा पसतीतो देसो भण्णति, तिण्हं परेण बहुदेसो भण्णति / अणाहारादिकक्केण वा संवासितेण, एत्थ एगारातिसंवासितं पि बहुदेवसियं भन्नति / " अर्थात्-देश का अर्थ है-'प्रसृति'-अंश, किनारी / एक दो या तीन किनारी तक देश कहलाता है / तीन से उपरान्त बहुदेश कहलाता है। कल्क आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित करके एक रात्रि तक रखना भी यहाँ बहुदेवसिक कहलाता है / वस्त्र-सुखाने का विधि-निषेध 575. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा क्त्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं णो अणंतरहिताए पुढवीए णो ससणिद्धाए जाव संताणए आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 576. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं थूणंसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अण्णयरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते दुब्बद्ध दुणिक्खित्ते अणिकपे चलाचले णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर (ख) “विभूसायत्तियं भिक्खु कम्म बंधई चिक्कणं / " संसारसायरे घोरे जेण पडइ दुरुत्तरे / / -दशवकालिक सूत्र अ. 5 गा. 66 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 208 (ग) निशीथचणि उद्देशक 14, 10 465 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'ससणिद्वाए' से 'संतागए' तक का पाठ सू० 353 के अनुसार समझें। 4. संताणए' के बदले पाठान्तर हैं-ससंताणाय ससंताणाए / 5. निशीथभाष्य गाथा 4268 में देखिए 'थूणा' आदि पदों के अर्थ "थूणा उ होति वियली, गिहेलुओ उंबरो उ गायब्वो। उदूखलं उसुयाल, सिणाणपीढ तु कामजलं // " Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 575-76 577. से भिक्खू वा 2 अभिकंखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं कुलियंसि' वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुंसी वा अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते जाव णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा / 578. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते जाव णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा / 576. से तमादाए एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता] अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव वत्थं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 575. संयमशील साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में कम या अधिक सुखाना चाहे तो वह वैसे वस्त्र को सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध पृथ्वी पर, तथा ऊपर से सचित्त मिट्टी गिरती हो, ऐसी पृथ्वी पर सचित्त शिला पर सचित्त मिट्टी के ढेले पर, जिस में घुन या दीमक का निवास हो ऐसी जीवाधिष्ठित लकड़ी पर, प्राणी, अंडे, बीज, मकड़ी के जाले आदि जीव-जन्तु हों, ऐसे स्थान में थोड़ा अथवा अधिक न सुखाए / 576. संयमशील साधु या साध्वी बस्त्र को धूप में कम या अधिक सुखाना चाहे तो वह उसप्रकार के वस्त्र को ठूठ पर, दरवाजे की देहली पर, ऊखल पर स्नान करने की चौकी पर, इस प्रकार के और भी अन्तरिक्ष-भूमि से ऊंचे स्थान पर जो भलीभाँति बंधा हुआ नहीं है, ठीक तरह से भूमि पर गाड़ा हुआ या रखा हुआ नहीं है, निश्चल नहीं है, हवा से इधर-उधर चलविचल हो रहा है, (वहां, वस्त्र को) आताप या प्रताप न दे (न सुखाए)। 577. साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में थोड़ा या बहुत सुखाना चाहते हों तो घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला पर, रोड़े-पत्थर पर, या अन्य किसी उसप्रकार के 1. (क) 'कुलियं' आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार के अनुसार-'कलियं-कूडो दिग्धो लिसो घरे जि दिग्घातो कुडडा / जे अंतिमपच्छिमा ताओ भित्तीओ। सिला-सिला एव / लेल लेटठओ।' अर्थात्-कूलियं का अर्थ लम्बी पतली-सी दीवार, घर में जो लम्बी दीवार होती है, वह कुलिक या कुड्या कहलाती है। जो अन्तिम या पीछे की दीवारें होती हैं, वे भित्तियाँ या भीतें कहलानी हैं / सिला-शिला, चदान / लेल - पत्थर के टुकड़े, रोड़े। (ख) निशीथ चूणि (उ०१३ 10 376 में एवं भाष्य गा० 4273) में बताया है-कुलियं कुडं तं जतो ब्वमवतरति / इयरा सह करभएप भित्ती, नईणं वा तडी भित्ती ।'-कुलियं कहते हैं, ऐसी कुड्या (दीवार) को, जिससे उतरा न जा सके। दूसरी भित्ति होती है, जो कर के भय (कर-भीति) से बनाई जाती है, इसलिए उमे भित्ती कहते है, अथवा नदी का तट भी भित्ती कहलाता है। 2. 'जाव' शब्द से यहाँ 'अंतलिक्खजाते' से 'णो आतावेज्ज' तक का पाठ सू० 576 के अनुसार है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'झामयंडिल्लंसि वा' से 'अण्णतरेंसि तक का पाठ स० 328 के अनसार समझें। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध अन्तरिक्ष (उच्च) स्थान पर जो कि भलीभांति बंधा हुआ, या जमीन पर गड़ा हुआ नहीं है, चंचल आदि है, यावत् थोडा या अधिक न सुखाए। 578. यदि साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में थोड़ा या अधिक सुखाना चाहते हों तो उस वस्त्र को स्तम्भ पर, मंच पर, ऊपर की मंजिल पर, महल पर भवन के भूमिगृह में, अथवा इसीप्रकार के अन्य अन्तरिक्षजात-ऊँचे स्थानों पर जो कि दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, कंपित, एवं चलाचल हो, (वहाँ, वस्त्र) थोड़ा या बहुत न सुखाए।' 576. साधु उस वस्त्र को लेकर एकान्त में जाए, वहां जाकर (देखे कि) जो भूमि अग्नि से दग्ध हो, यावत् वहाँ अन्य कोई उस प्रकार की निरवद्य अचित्त भूमि हो, उस निर्दोष स्थंडिलभूमि का भलीभाँति प्रतिलेखन एवं रजोहरणादि से प्रमार्जन करके तत्पश्चात यतनापूर्वक उस वस्त्र को थोड़ा या अधिक धूप में सुखाए। विवेचन-पिछले चार सूत्रों में ऐसे स्थानों या आधारों पर वस्त्र को सुखाने का निषेध किया है-(१) जो सचित्त हो, (2) सचित्त जीव से अधिष्ठित हो, (3) सचित्त पर रखी हुई हो, (4) ढूंठ, ऊखल, स्नानपीठ या देहली आदि जो चल-विचल हो, उस पर, (5) दीवार, नदी तट, शिला, पत्थर आदि पर, (6) खंभे, मचान, छत, महल आदि किसी ऊँचे स्थान पर जोकि चंचल हो, उस पर या तहखाने में / इन पर वस्त्र न सुखाने का जो निर्देश है, वह हिंसा एवं आत्म-विराधना की दृष्टि से तथा कपड़े उड़कर कहीं अन्यत्र चले जाने या अयतनापूर्वक गिर जाने, हवा में फरफट करने से अयतना होने की दृष्टि से है, यही कारण है कि अन्त में, सूत्र 576 में अचित, निर्दोष, स्थण्डिलभूमि पर प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक सुखाने का विधान भी किया गया है। गिहेलुगंसि आदि पदों के अर्थ-गिहेलुगं = घर के द्वार की देहली, उंबरा। उसुयाल = ऊखल। कामजलं-स्नानपीठ 580. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा 2 सामग्गियं जं सव्वट्ठोहि सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि। 580. यही (वस्त्रों के ग्रहण-धारण-परिरक्षण-सम्बन्धी एषणाविवेक ही, उस साधु या साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, जिसमें) सभी अर्थों एवं ज्ञानादि आचार से सहित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। // "वत्थेसणाए" पढमो उद्देसओ समत्तो। 1. बौद्ध श्रमण पहले जमीन पर चीवर सुखा देते थे, उनमें धल लग जाती, अतः बाद में तथागत ने तण संथरी की, तृणसंथरी को कीड़े खा जाते थे इसलिए पश्चात् बाँस पर रस्सी बाँधकर सुखाने की अनुमति दी। -विनयपिटक पु० 278 आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 3. (क) निशीथभाप्य मा० 4268, (ख) आचारांग चणि मू० पा० टि० पृ० 208 / Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 581 255 / बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक वस्त्र-धारण की सहज विधि 581. से भिक्खू वा 2 अहेसणिज्जाई वत्थाइ जाएज्जा, अहापरिग्गहियाइ वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, गो रएज्जा, णो धोतरत्ताई वत्थाइ धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामतरेसु, ओमचेलिए / एतं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं / 581. साधु या साध्वी वस्त्रैषणा समिति के अनुसार एषणीय वस्त्रों की याचना करे, और जैसे भी वस्त्र मिले और लिए हों, वैसे ही वस्त्रों को धारण करे, परन्तु (विभूषा के लिए) न उन्हें धोए, न रंगे, और न ही धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्रों को पहने। उन (बिना उजले धोए या रंगे) साधारण-से वस्त्रों को न छिपाते हुए ग्राम-नामान्तर में समतापूर्वक विचरण करे / यही वस्त्रधारी साधु का समग्र आचार सर्वस्व है / विवेचन---वस्त्र-धारण का सहज-विधान-~-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र-धारण के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने 5 बातों की ओर साधु-साध्वी का ध्यान खींचा है-- (1) सादे एवं साधारण अल्पमूल्यवाले एषणीय वस्त्र की याचना करे, (2) जैसे भी सादे एवं साधारण-से वस्त्र मिले या ग्रहण करे, वैसे ही स्वाभाविक वस्त्रों को सहजभाव से वह पहने-ओढ़े। (3) उन्हें रंग-धोकर या उज्ज्वल एवं चमकीले-भड़कीले बनाकर न पहने।' (4) ग्राम-नगर आदि में विचरण करते समय भी उन्हीं साधारण-से वस्त्रों में रहे / (5) उन्हें छिपाए नहीं। ‘अपलिउंचमाणे' आदि पदों के अर्थ-- अपलिउंचमाणे = नहीं छिपाते हुए। ओमचेलिए = स्वल्प तथा तुच्छ (साधारण) वस्त्रधारी। णो धोएज्जा णो रएज्जा, णो धोतरत्ताइ वत्थाई धारेज्जा यह निषेधसूत्र साज-सज्जा, विभूषा, शृंगार तथा छल-छबीला बनने की दृष्टि से है। प्रदर्शन या अच्छा दिखने की दृष्टि ये वस्त्रों को विशेष उज्ज्वल करना निषिद्ध है, श्वेत वस्त्रधारी के लिए वस्त्र रंगना भी निषिद्ध है, किन्तु कई वस्त्र का रंग स्वाभाविक मटमैला या हलका-पीला-सा होता है, उन्हें धारण करने में कोई दोष नहीं है। वृत्तिकार शोलाचार्य का मत है - यह सूत्र जिनकल्पिक के उद्देश्य में उल्लिखित समझना चाहिए, वस्त्रधारी विशेषण होने मे स्थविरकल्पी के भी अनुरूप है। 1. बौद्ध श्रमण पहले गोबर व पीली मिट्टी से वस्त्र रंगते थे। वे दुर्वर्ण हो जाते, तब बुद्ध ने छाल का रंग, पत्ते का रंग व पुष्प-रंग से वस्त्र रॅगने की अनुमति दी। —विनयपिटक प० 277-78 2. 'गतच्च सूत्र जिनकल्पिकोद्देशन, द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धम् / ----आचारांग वृत्ति पत्रांक 367 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध समस्त वस्त्रों सहित विहारादि-विधि-निषेध 582. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए निक्समेज्ज वा पविसेज्ज वा, एवं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा गामाणुगाम वा दूइज्जेज्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा तिव्वदेसियं वा वास वासमाणं पेहाए, जहा पिंडेसणाए', णवरं सव्वं चीवरमायाए। 582. वह साधु या साध्वी, यदि गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए जाना चाहे तो समस्त कपड़े (चीवर) साथ में लेकर उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे। इसीप्रकार बस्ती से बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थंडिलभूमि में जाते समय एवं ग्रामानुग्राम विहार करते समय सभी वस्त्रों को साथ लेकर विचरण करे / यदि वह यह जाने कि दूर-दूर तक तीब्र वर्षा होती दिखाई दे रही है यावत् तिरछे उड़ने वाले सप्राणी एकत्रित होकर गिर रहे हैं, तो यह सब देखकर साधु वैसा ही आचरण करे, जैसा कि पिण्डैषणा-अध्ययन में बताया गया है। अन्तर इतना ही है कि वहां समस्त उपधि साथ में लेकर जाने का विधि-निषेध है, जबकि यहाँ केवल सभी वस्त्रों को लेकर जाने का विधि-निषेध है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र द्वय में से प्रथम सूत्र में भिक्षा, स्वाध्याय, शौच एवं ग्रामानुग्राम विहार के लिए जाते-आते समय सभी वस्त्र साथ में लेकर जाने का विधान है, जबकि द्वितीय सूत्र में अत्यन्त वर्षा हो रही हो, कोहरा तेजी से पड़ रहा हो, आंधी या तूफान के कारण तेज 1. 'तिब्बदेसियं' से सम्बन्धित अपवाद के सम्बन्ध में चणिकार का मत-तिरुववेसितगादिसु ण कप्पति' वर्षा, आँधी, कोहरा, तूफान आदि में साधु को सब कपड़े लेकर विहारादि करना तो दूर रहा. स्थान से बाहर निकलना भी नहीं कल्पता। 2. संपूर्ण वस्त्र साथ में लेकर जाने के संदर्भ में तत्कालीन बौद्ध साहित्य का एक उल्लेख पठनीय है। एक भिक्ष अँधवन में चीवर छोड़कर गाँव में भिक्षा के लिये गया। चोर पीछे से चीवर को चुराकर ले गया / भिक्षु मैले चीवर वाला हो गया। तब तथागत के समक्ष यह प्रसंग आया तो तथागत ने कहा-एक ही बचे चीवर से गाँव में नहीं जाना चाहिए। आगे इसी प्रसंग में 5 कारणों से चीवर छोड़कर गाँव में जाने का विधान है-१. रोगी होता है, 2. वर्षा का लक्षण मालूम होता है, 3. या नदी पार गया होता है, 4. किवाड से रक्षित विहार होता है, 5. या कठिन आस्थित हो गया होता है। -विनयपिटक (महावग्ग 86 / 1-10287-88) 3. 'जहा पिंडेसणाए' का तात्पर्य है-जैसे पिडषणाऽध्ययन सूत्र 345 में वर्णन है, वह सब पाठ यहाँ से आगे समझ लेना चाहिए। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 583 257 हवा चल रही हो, तिरछे उड़नेवाले अस प्राणी गिर रहे हों तो उस समय वस्त्र साथ में लेकर जाने का ही नहीं, उपाश्रय से बाहर निकलने या भिक्षा आदि स्थलों में प्रवेश करने का भी निषेध है / यह विधान और निषेध परस्पर विरुद्ध नही, अपितु प्राणि-विराधना एवं आत्म-विराधना होने की सम्भावना से निषेध है और अपहरण किये जाने, द्वेषवश फेंक दिये जाने या शस्त्रादि रखकर दोषारोप लगाने या भक्तिवश गृहस्थ द्वारा धोकर, रंगकर या सुवासित करके देने की आशंका से विधान है। अधिक उपधि का निषेध करना भी इस विधान का आशय हो सकता है। प्रातिहारिक वस्त्र ग्रहण-प्रत्यर्पण-विधि 583. से एगतिओ मुहत्तगं 2 पाडिहारियं' वत्थं जाएज्जा जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय 2 उवागच्छेज्जा, तहपगारं वत्थं णो अप्पणा गेण्हेज्जा, नो अन्नमन्नस्स देज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, णो वत्थेण वत्थं परिणामं करेज्जा, णो परं उवसंकमित्ता एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! अभिकखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा णं संतं णो पलिछिदिय 2 परिद्ववेज्जा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं तस्स चेव निसिरेज्जा, नो णं सातिज्जेज्जा / से एगतिओ एयप्पगारं निग्धोसं सोच्चा निसम्म 'जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तगं 2 जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा लियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय 2 उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि नो अप्पणा गिव्हंति, नो अन्नमन्नस्स दलयंति, तं चेव जाव नो साइज्जंति, बहुवयण भाणियव्वं / से हंता अहमवि मुहत्तं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विष्पवसिय 2 उवागच्छिस्सानि, अवियाई एतं ममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेज्जा। 583. कोई साधु मुहूर्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक 1. 'पाडिहारिय वत्यं' के बदले कहीं-कहीं पाठान्तर हैं- 'पाडिहारियं बीयं वत्थं .....अर्थात्-प्राति हारिक दूसरा वस्त्र माँगे / 2. 'दुयाहेण' के बदले पाठान्तर है-वाहेन / अर्थ समान है। 3. पणो अपणा गेण्हेज्जा' के बाद अतिरिक्त पाठ है-'नो पर गिण्हाविज्जा / ' अर्थात दुसरे को लेने 4. 'से एगतिओ' पाठ किसी-किसी प्रति में नही है। 5. 'ससंधियाणि' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं है। 6. 'बहुबयणेण भाणियन्वं' के बदले पाठान्तर हैं:-'बहुवयणेण भासियवं', 'बहुमाणेण भासियध्वं' इनका क्रमश: अर्थ है---बहवचन से आलापक कहना चाहिए / / बहुमानपूर्वक बोलना चाहिए। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन. दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पांच दिन तक निवास करके वापस आता है। इस बीच वह वस्त्र उपहत (खराब या विनष्ट) हो जाता है / (तो,) लौटाने पर वस्त्र का (असली) स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे लेकर दूसरे साधु को नहीं देवे, किसी को उधार भी नहीं देवे, उस वस्त्र के बदले दूसरा वस्त्र भी नहीं लेवे, दुसरे के पास जाकर ऐसा भी नहीं कहें किआयुष्मन् श्रमण ! आप इस वस्त्र को धारण करना चाहते हैं, इसका उपभोग करना चाहते हैं ? उस दृढ़ वस्त्र के टुकड़े-टुकड़े करके परिष्ठापन भी नहीं करें-फैके भी नहीं। किंतु उस उपहत वस्त्र को वस्त्र का स्वामी उसी उपहत करने वाले साधु को दे; परन्तु स्वयं उसका उपभोग नहीं करें।' वह एकाकी (ग्रामान्तर जाने वाला) साधु इस प्रकार की (उपर्युक्त) बात सुनकर उस पर मन में यह विचार करे कि ये सबका कल्याण चाहने वाले एवं भय का अन्त करने वाले ये पूज्य श्रमण उस प्रकार के उपहत (दुषित) बस्त्रों को उन साधुओं ने, जो कि इनगे मुहूर्त भर आदि काल का उद्देश्य करके प्रातिहारिक ले जाते हैं और एक दिन स लेकर पाँच दिन तक किसी ग्राम आदि में निवास करके आते हैं, (तब वे उस वस्त्र को) न स्वयं (वापस) ग्रहण करते हैं, न परस्पर एक दूसरे को देते हैं, यावत् न वे स्वयं उन वस्त्रों का उपयोग करते हैं। अर्थात् वे वस्त्र उसी/उन्हीं को दे देते हैं। इसप्रकार बहुवचन का आलापक कहना चाहिए। अतः मैं भी मुहूर्त आदि का उद्देश (नाम ले)करके इनसे प्रातिहारिक वस्त्र मांगकर एक दिन से लेकर पांच दिन तक ग्रामान्तर में ठहरकर वापस लौट आऊ, (इन्हें वह उपहत वस्त्र वापस देने लगूंगा तो ये लेंगे नहीं, ये मुझे ही दे देंगे, जिससे यह वस्त्र (फिर) मेरा ही हो जाएगा। एसा विचार करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है, अतः ऐसा विचार न करे। विवेचन–प्रातिहारिक वस्त्र का ग्रहण, और प्रत्यर्पण-एक साधु दूसरे साधु से निर्धारित समय के बाद वापस लौटा देने की दृष्टि से वस्त्र (प्रातिहारिक) लेता है, किन्तु अकस्मात् आचार्य आदि के द्वारा उसे कहीं दूसरे गांव भेजे जाने पर वह एकाकी जाता है। वहाँ चारपांच दिन अकेला रह जाता है, ऐसी स्थिति में उस वस्त्र पर सोने या ओढ़ने आदि मे वह वस्त्र खराब हो जाता है / वह वापस आकर उस वस्त्र को जब वस्त्रस्वामी साधु को देने लगे तो वह (वस्त्रस्वामी) उसे न तो स्वयं ग्रहण करे, न दूसरे को दे, न उधार दे, न ही अदल-बदल करे न ही उस मजबूत वस्त्र के टुकड़े कर डाले, किंतु उस उपहत वस्त्र को उसी साधु को दे 1. वृत्तिकार का स्पष्टीकरण--"तथाप्रकारं वस्त्र ससंधियं' ति उपहतं स्वतो वस्त्रस्वामी न परिभुजीत अपितु तस्यवोपहन्तुः समर्पयेत् / अन्यस्मै वैकाकिनो गंतुः समर्पयेत् / -पत्र 367 2. मूत्र के प्रथमार्ध में जो बात एक साधु के लिए कही है, वही बात यहाँ बहुवचन में बहुत साधुओं के लिए कह लेनी चाहिए। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 584-86 दे। यह सब देख कर अन्य कोई साधु यदि जान-बूझकर (वस्त्र को हड़पने की नीयत से) वस्त्र की याचना करके दूसरे गांव जाकर उस वस्त्र को खराब करता है और सोचता है कि इस तरकीब मे वस्त्र मुझे मिल जाएगा तो ऐसा करनेवाला साधु मायाचार का सेवन करता है। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए / यही प्रस्तुत सूत्रद्वय का आशय है।' बस्त्र के लोभ तथा अपहरण-भय से मुक्ति 584. से भिक्खू वा 2 णो वण्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करेज्जा, विवण्णाई वण्णमंताई ण करेज्जा, अण्णं वा वत्थं लभिस्सामि त्ति कट्ट नो अण्णमण्णस्स देज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वस्थेण वत्थपरिणामं करेज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा! अभिकंससि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा णं संतं णो पलिछिदिय 2 परिवेज्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मण्णइ, परं च णं अदत्तहारो पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स गिदाणाय णो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा जाव अप्पुस्सुए' जाव ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 585. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से ज्जं पुण विहं जाणेज्जा-इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपडिया' [ss] गच्छेज्जा, गो तेसि भीओ उम्मग्गेण गच्छेज्जा जाव गामाणुगामं दूइज्जज्जा। 586. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा संपडिया [s] गच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा आउसंतो समणा ! आहरेतं वत्थं, देहि, णिक्खिवाहि, जहा रियाए, णाणत्तं वत्थपडियाए। 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टिप० 210 (ख) आचारांग वत्ति पत्रांक 36. .. यहाँ 'अभिकखसि वत्थं ....' के बदले 'अभिकखसि मे वत्थं' तथा 'समभिकखसि बत्थं .......' पाठान्तर है। अर्थ प्राय: समान है। 3. 'जहा मेयं वत्यं' के बदले 'जहा वय वत्थं' पाठान्तर है। 4. चूणिकार के मतानुसार अदत्तहारी के आलापक ईर्याऽध्ययन की तरह हैं ---(अदत्तहारी आलाबगा जहा रियाए) यहीं वस्त्रषणाऽध्ययन समाप्त हो जाता है--(इति वस्त्रषणा परिसमाप्ता)। 5. अप्पुस्सुए के आगे ‘जाद' शब्द 'अप्पुस्सुए' से 'ततो संजयामेव' तक के पाठ का सूचक है, सू० 4-2 के अनुसार। 'संपडियाऽऽगच्छेज्जा' के बदले पाठान्तर हैं----संपिडि आगन्छेज्जा, संपिडियागच्छेज्जा / अर्थ एक समान है। 7. यहाँ 'जाव' शब्द से 'गच्छेज्जा' से 'गामाणुगाम' तक का समग्र पाठ सू० 515 के अनुसार समझें। 8. 'जहारियाए' शब्द 'णिक्खिवाहि के आगे समन पाठ का सूचक है, ईअिध्ययन के सू० 517 के अनुसार समझें। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध 584. साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण (असुन्दर) न करे, तथा विवर्ण (असुन्दर) वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे / 'मैं दूसरा नया (सुन्दर) वस्त्र प्राप्त कर लूंगा,' इस अभिप्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार बस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे / दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे -- "आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना या पहनना चाहते हो? इसके अति रिक्त उस सुदृढ़ वस्त्र को टुकड़े-टुकड़े करके फैके भी नहीं, साधु उसीप्रकार का वस्त्र धारण करे, जिगे गृहस्थ या अन्य व्यक्ति अमनोज्ञ (असुन्दर) समझे। (वह साधु) मार्ग में सामने से आते हुए चोरों को देखकर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से भयभीत होकर साधु उन्मार्ग से न जाए अपितु जीवन-मरण के प्रति हर्ष-शोक-रहित, बाह्य लेश्या से मुक्त, एकत्वभाव में लीन होकर देह और वस्त्रादि का व्युत्सर्ग करके समाधिभाव में स्थिर रहे / इस प्रकार सँयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे।। 585. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग के बीच में अटवीवाला लम्बा मार्ग हो, और वह जाने कि इस अटवीबहुल मार्ग में बहुत-से चोर वस्त्र छीनने के लिए इकट्ठे होकर आते हैं, तो साधु उन' भयभीत होकर उन्मार्ग में न जाए, किन्तु देह और वस्त्रादि के प्रति अनासक्त यावत् समाधिभाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। ___586. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में चोर इकट्ठे होकर वस्त्रहरण करने के लिए आ जाएं और कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! यह वस्त्र लाओ, हमारे हाथ में दे दो, या हमारे सामने रख दो, तो जैसे ईयाऽध्ययन में वर्णन किया है, उसी प्रकार करे। इतना विशेष है कि यहाँ वस्त्र का अधिकार है। विवेचन-नये वस्त्र के लोभ और वस्त्रहरण के भय के मुक्त हो-प्रस्तुत तीन सूत्रों में ने प्रथम सूत्र में साधु को नये वस्त्र पाने के लोभ में पुराने वस्त्र को मलिन, विकृत एवं फाड़कर फेंकने, उधार दे देने, विनिमय करने या दूसरे साधु को दे देने का निषेध किया है, इसके उत्तराद्ध में तथा आगे के दो सूत्रों में चोरों से डरकर विहारमार्ग बदलने, चोरों द्वारा वस्त्र लूटे जाने पर उनमें दीनतापूर्वक पुनः लेने की याचना करने का निषेध है, उस समय देहादि के प्रति अनासक्ति और समाधिभाव में स्थिरता रखने का भी निर्देश किया है। सभी स्थितियों में वस्त्र का उपयोग ममत्व, राग-द्वेष, लोभ और मोह ने रहित होकर करने का शास्त्रकार का स्पष्ट आदेश है।' ___बण्णमंताई विवण्णाई करेज्जा का तात्पर्य है-जो वस्त्र अच्छा है, अधिक पुराना नही है, उसे भद्दा बना देता है।' 1. आचारांग वृत्ति पृ. 368 के आधार पर 2. आचारांग वृत्ति प० 368 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 587 'पावर्ग' का अर्थ चूर्णिकार के अनुसार है---पापक, जिसे लोग आँखों से देखना पसन्द नहीं करते, देखने में असुन्दर हो / ' बृहत्कल्प सूत्र (1/45) तथा भाष्य में हृताहृतप्रकरण के अन्तर्गत साधुओं के वस्त्र चोरों आदि द्वारा छीने जाने के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विवेचन है / 587. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा 2 सामग्गियं जं सव्व?हि सहिएहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि। 264. यही (वस्त्रैषणा-विशेषत: वस्त्रपरिभोगषणा-विवेक हो) वस्तुतः साधु-साध्वी का सम्पूर्ण ज्ञानादि आचार है। जिसमें सभी अर्थों में ज्ञानादि से सहित होकर सदा प्रयत्नशील --ऐसा मैं कहता हूं। // द्वितीय उद्देशक समाप्त // // 'वस्त्रैषणा' पंचममध्ययनं समाप्तं // 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० 10 212 में--..'पावगं गाम अचोक्खं मण्णति / ' Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषणा: षष्ठ अध्ययन प्राथमिक * आचारांगसूत्र (द्विश्रत०) के छठे अध्ययन का नाम पात्रषणा है। - जब तक साधक अभिग्रहपूर्वक दढ़मनोबल के साथ 'कर-पात्र' की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक निर्ग्रन्थ साधु के लिए निर्दोष आहार-पानी ग्रहण एवं सेवन करने के लिए पात्र की आवश्यकता रहती है। किन्तु सोधु किस प्रकार के, कैस, कितनेकितने मूल्य के पात्र रखे ? जिससे उसकी उन पर ममता-मूर्छा न जागे / नही पात्रग्रहण में उद्गमादि एषणादोष लगे, और न ही पात्रों का उपयोग करने में रागादि से युक्त अंगार, धूम आदि दोष लगें; इन सब दृष्टियों से पात्रषणा अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है।" - 'पात्र' शब्द के दो भेद हैं-द्रव्यपात्र और भावपात्र। भावपात्र तो साधु आदि हैं। उनकी आत्मरक्षा या उनकी संयम-परिपालना के लिए द्रव्यपात्र का विधान है। र द्रव्यपात्र हैं-एकेन्द्रियादि शरीर से काष्ट आदि से निष्पन्न पात्र। इस अध्ययन में द्रव्य-पात्र का वर्णन ही अभीष्ट है। - इस अध्ययन में पात्र की गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगैषणा इन-तीनों पात्रषणाओं __ की दृष्टि से वर्णन है इसलिए इसका सार्थक नाम-'पात्रैषणा' रखा गया है। इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं-प्रथम उद्देशक में पात्रग्रहणविधि का निरूपण है, जबकि द्वितीय उद्देशक में मुख्यतया पात्र धारणविधि का प्रतिपादन हैं। 2 इस अध्ययन में पात्रषणा सम्बन्धी वर्णन प्रायः 'वस्त्रैषणा' -अध्ययन के क्रमानुसार किया गया है। - यह अध्ययन सूत्र 588 से प्रारंभ होकर 606 पर समाप्त होता है। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर 2. (क) आचासंग नियुक्ति गा० 315 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठें अज्झयणं 'पाएसणा' [पढमो उद्देसओ] पात्रं वणा : षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक पात्र के प्रकार एवं मर्यादा 588. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा पायं एसित्तए, से ज्जं पुण पायं जाणेज्जा, तंजहालाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे णिग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारेज्जा, णो रितियं / 588. संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो वह जिन पात्रों को जाने (स्वीकार करे) वे इस प्रकार हैं-तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है / जो निग्रन्थ निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए जहां भगवान महावीर ने लकड़ी के, तुम्बे के और मिट्टी के पात्र रखने का विधान किया है, वहां शाक्य-श्रमणों के लिए तथागतबुद्ध ने लकड़ी के पात्र का निषेध कर, लोहे का और मिट्टी का पात्र रखने का विधान किया है। विनयपिटक की घटना से ज्ञात होता है कि बौद्ध भिक्षु पहले मिट्टी का पात्र भी रखते थे, किन्तु एक घटना के पश्चात् बुद्ध ने लकड़ी के पात्र का निषेध कर दिया; वह घटना संक्षेप में इस प्रकार है एक बार राजगृह के किसी श्रेष्ठी ने चंदन का एक सुन्दर, मूल्यवान् पात्र बनवाकर बांस के सिरे पर ऊंचा टांग कर यह घोषणा करवा दी कि- "जो श्रमण, ब्राह्मण अर्हत ऋद्धिमान हो, वह इस पात्र को उतार ले।" उस समय मौद्गत्यायन और पिंडोल भारद्वाज पात्र-चीवर लेकर राजगह में भिक्षार्थ आये। पिंडोल भारद्वाज ने आकाश में उड़कर वह पात्र उतार लिया, और राजगृह के तीन चक्कर किये। इस प्रकार चमत्कार से प्रभावित बहत-से लोग हल्ला करते हए तथागत के पास पहुंचे। तथागत बुद्ध ने पूरी घटना सुनी तो उन्हें बहुत खेद हुआ। भारद्वाज को बुलाकर भिक्षु-संघ के सामने फटकारते हुए कहा--'भारद्वाज ! यह अनुचित है, श्रमण के अयोग्य है। एक तुच्छ लकड़ी के वर्तन के लिए कैसे तू गृहस्थों को अपना ऋद्धि, प्रातिहार्य दिखायेगा? फिर बुद्ध ने भिक्षुसंघ को आज्ञा दी, उस पात्र को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर भिक्षुओं को अंजन पीसने के लिये दे दो। इसी संदर्भ में भिक्षुसंघ को सम्बोधित करते हुए कहा—भिक्षु को सुवर्णमय, रोप्य, मणि, कांस्य, स्फटिक, कांच, तांबा, सीसा आदि का पात्र नहीं रखना चाहिए / भिक्षुओ ! लोहे के और मिटटी के दो पात्रों की अनुज्ञा देता है। - विनयपिटक, चुल्लवग्ग खुद्दक वत्थुखंध (5/1/10 पृ० 422-23) इसीप्रकरण में एक जगह लकड़ी के पात्र का निषेध करके लकड़ी के भांडों की अनुमति दी है। —पृष्ठ 446 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिरसंहननवाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं। 586. से भिवखू वा 2 परं अद्धजोयणमेराए पायपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 586. वह साधु, साध्वी अद्ध योजन के उपरान्त पात्र लेने के लिए जाने का मन में विचार न करे। विवेचन---इन दोनों सूत्रों में साधु के लिए ग्राह्य पात्र के कितने प्रकार हैं, किस साधु को कितने पात्र रखने चाहिए? एवं पात्र के लिए कितनी दूर तक जा सकता है ? ये सब विधिनिषेध बता दिये हैं वृत्तिकार एक पात्र रखने के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं कि "जो साधु तरुण बलिष्ठ तथा स्थिर संहनन वाला हो, वह एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं वह जिनकल्पिक या विशिष्ट अभिग्रह धारक आदि हो सकता है। इनके अतिरिक्त साधु तो मात्रक (भाजन) सहित दूसरा पात्र रख सकता है / संघाड़े के साथ रहने पर वह दो पात्र रखें-एक भोजन के लिए दूसरे पानी के लिए और मात्रक का आचार्यादि के लिये पंचम समिति के हेतु उपयोग को / ' निशीथ और वृहत्कल्पसूत्र में भी एक पात्र रखने का विधान / एषणा दोषयुक्त पात्र ग्रहण-निषेध 560. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण पायं जाणेज्जा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई 4 जहा पिडेषणाए चत्तारि आलावगा। पंचमो बहवे' समण-माहण पगणिय 2 तहेव। 561. से भिक्खू वा 2 अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे समण-माहण वत्थेसणाऽऽलावओ। 560. साधु या साध्वी को यदि पात्र के सम्बन्ध में यह ज्ञात हो जाए कि किसी भावुक गृहस्थ ने धन के सम्बन्ध से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा (विचार) करके किसी 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 66 2. (क) जे णिग्गंथे तरुणे बलवं जुवाणे से एग पायं धारेज्जा, णो बितियं / ' -निशीथ सूत्र उ० 13 पृ. 441 (ख) “जे भिक्खू तरुणे जुगवं बलव से एग पायं धारेज्जा।" --वृहत्कल्प सूत्र पृ० 1106 3. 'बहवे समण-माहण......' इत्यादि शब्दों से पिण्डषणाऽध्ययन के अन्तर्गत (सूत्र 33212) छठा आलापक पहले दे दिया है, उसके बाद 'अस्संजए भिक्खपडियाए......इस पाठ से वस्त्रषणाऽध्ययन के अन्तर्गत ५५६वां सूत्र यहाँ विविक्षित है। वस्त्रषणा-अध्ययन में भी यही क्रम है, वैसा ही सूत्रपाठ है, किन्तु यहाँ भिन्न श्रम रखा है, यह विचारणीय है। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 562-63 एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके पात्र बनवाया है, और वह उसे औद्देशिक, क्रीत, पामित्य, अच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत आदि दोषों से युक्त पात्र ला कर देता है, वह अपुरुषान्तरकृत हो या पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो या अनासेवित उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी न ले। जैसे यह सूत्र एक साधर्मिक साध के लिए है, वैसे ही अनेक सार्मिक साधुओं, एक साधमिणी साध्वी एवं अनेक साधर्मिणी साध्वियों के सम्बन्ध में भी शेष तीन आलापक समझ लेने चाहिए / जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में चारों आलापकों का वर्णन है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए / और पांचवां आलापक (पिण्डषणा अध्ययन में) जैसे बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर देने के सम्बन्ध में है, वैसे ही यहां भी समझ लेना चाहिए। 561. यदि साधु-साध्वी यह जाने कि असंयमी गृहस्थ ने भिक्षुओं को देने की प्रतिज्ञा करके बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से पात्र बनाया है, और वह औद्देशिक, क्रीत आदि दोषों से युक्त है तो.........."उसका भी शेष वर्णन वस्त्रैषणा के आलापक के समान समझ लेना चाहिए। विवेचन--एषणादोषों से युक्त तथा मुक्त पात्र ग्रहण का निषेध-विधान प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्रषणा में बताये हुए विवेक की तरह पात्र-ग्रहणषणा विवेक बताया गया है। सारा वर्णन वस्त्रषणा की तरह ही है: सिर्फ वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द समझना चाहिए / बहुमूल्य पात्र-ग्रहण निषेध 562. से भिक्खू वा 2 से ज्जाइं पुण पायाई जाणेज्जा विरूवरूवाई महद्धणमोल्लाई, तंजहा अयपायाणि वा तउपायाणि वा तंबपायाणि वा सीसगपायाणि वाहिरण्णपायाणि वा सुबष्णपायाणि वा रोरियपायाणि वा हारपुडपायाणि वा मणि-काय-कंसपायाणि वा संखसिंगपायाणि वा दंतपायाणि वा चेलपायाणि वा सेलपायाणि वा चम्मपायाणि वा, अण्णयराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई महद्धणमोल्लाई पायाई अफासुयाई जाव नो पडिगाहेज्जा। 563. से भिक्खू वा 2 से ज्जाईपुण पायाईजाणेज्जा विरूवरूवाई महद्धणबंधणाई तंजहा-अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अण्णयराइ वा तहप्पगाराइ महद्धणबंधणाइ अफासुयाइ' जाव णो पडिगाहेज्जा। 1. "सोसगपायाणि वा हिरण्णपायाणि वा" अलग-अलग पदों के बदले किसी-किसी प्रति में--'सीसम हिरम्न-सुबन्न-रोरियाहारपुड-मणि-काय-कंस-संख-सिंग-दंत-चेल-सेलपायाणि वा चम्मपायाणि वा' एसा समस्त पद मिलता है। 2. निशीथचणि 11/1 में "हारपुडपात्र' का अर्थ किया गया है-हारपुडं णाम अयमाद्याः पात्रविशेषा मौक्तिकलताभिरुपशोभिताः ।"---अर्थात् हारपुट लोहादिविशिष्ट पात्र है और जो मोतियों की बेला से सुशोभित हो। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अफासुयाइ" से लेकर णो पडिगाहेज्जा' तक का पाठ सू० 325 के अनुसार समझें / Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध 562. साधु या साध्वी यदि यह जाने कि नानाप्रकार के महामूल्यवान पात्र हैं, जैसे कि लोहे के पात्र, रांगे के पात्र, तांबे के पात्र, सीमे के पात्र, चांदी के पात्र, सोने पात्र, पीतल के पात्र, हारपुट (त्रिलोहा) धातु के पात्र, मणि, काँच और कांसे के पात्र, शंख और सोंग के पात्र, दांत के पात्र, वस्त्र के पात्र, पत्थर के पात्र, या चमड़े के पात्र, दूसरे भी इसी तरह के नानाप्रकार के महा-मूल्यवान् पात्रों को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / 563. साधु या साध्वी फिर उन पात्रों को जाने, जो नानाप्रकार के महामूल्यवान् बन्धन बाले हैं, जैसे कि वे लोह के बन्धन है, यावत् चर्म बन्धनवाले हैं, अथवा अन्य इसी प्रकार के महामूल्यवान् बन्धनवाले हैं, तो उन्हें अप्रासुक और अनषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। विवेचन-महामूल्यवान् एवं बहुमूल्य बन्धनवाले पात्रों का ग्रहण-निषेध-प्रस्तुत दो सूत्रों में उन पात्रों के ग्रहण करने का निषेध किया है, जो या तो धातु के हैं, या शंख, मणि, कांच, चर्म दांत और सींग आदि बहुमूल्य वस्तुओं से बने हुए हैं, या उनके बन्धन भी इन बहुमूल्य वस्तुओं के बने हुए हैं। इन बहुमूल्य पात्रों को ग्रहण करने के निषेध के पीछे निम्नोक्त कारण हो सकते हैं (1) चुराये जाने या छीने जाने का भय, (2) संग्रह करके रखने की संभावना, (3) क्रय-विक्रय या अदला-बदली करने की संभावना, (4) इन बहुमूल्य पात्रों के लिए धनिक की प्रशंसा, चाटुकारी आदि की संभावना (5) इन पर आसक्ति या ममता-मूर्छा और खराब पात्रों पर घृणा आने की संभावना (6) कीमती पात्र ही लेने की आदत, (7) इन पात्रों के बनाने तथा टूटने-फूटने पर जोड़ने में बहुत आरम्भ होता है (8) शंख दांत, चर्म, आदि के पात्रों के लिए उन-उन जीवों की हिंसा की संभावना; (8) सार्मिकों के साथ प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या एवं दूसरों को उपभोग के लिए न देने की भावना / ' इसीलिए निशीथ सूत्र में इस प्रकार के पात्र बनाने, बनवाने और बनाने का अनुमोदन करने वाले साधु-साध्वी के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। चम्मपायाणि' का अर्थ है-चमड़े की कुप्पी आदि चेलपायाणि = कपड़े का खलीता, डब्बा या थैलीनुमा पात्र / / पात्रषणा को चार प्रतिमाएं 564. इच्चेताई आयतणाइउवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा चउहि पडिमाहिं पायं एसित्तए। 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर 2. निशीथ सूत्र 11/1 में देखिये वह पाठ-"जे भिक्खु अयपायाणि वा तउय-नंब-सौस-हिरण-सुवण्ण-रीरि. या-हारउड-मणि-काय कंस-अंक-संख-सिंग-दंत-सेलचेल-चम्मपायाणि वा अण्णतगणि वा तहप्पगाराड पाताई करेति............" 3. आचारांगचूणिचम्मपाद-चम्मकुतुओ, :" मू.प. टि. पृ. 214 4. निशीथचूणि 11/1 में 'चेलमयं पसेको खलियं वा पडियाकारं कज्जइ / ' Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 564-65 267 (1) तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा--से भिक्खू व 2 उद्दिसिय 2 पायं जाएज्जा, तंजहा -लाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाएज्जा जाव' पडिगाहेज्जा। पढमा पडिमा। (2) अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 पेहाए पायं जाएज्जा, तंजहा-गाहावई वा जाव' कम्मकरी वा, से पुवामेव आलोएज्जा, आउसो [ ति वा, भगिणी ! ति वा, दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं पायं, तंजहा-लाउयपायं वा 3, तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाएज्जा जाव पडिगाहेज्जा / दाच्चा पडिमा। (3) अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 से ज्नं पुण पायं जाणेज्जा संगतियं वा वेजयंतियं वा, तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाव पडिगाहेज्जा / तच्चा पडिमा।। (4) अहावरा चउत्था पडिमा--से भिक्खू वा 2 उज्झियधम्मियं पादं जाएज्जा जं चऽण्णे बढे समण-माण जाव' वणीमगा णावखंति, तहप्पगारं पायं सयं वा गं जाएज्जा' जाव पडिगाहेज्जा / चउत्था पडिमा। 565. इच्चेताणं चउण्हं पडिमाणं अण्णतरं पडिमं जहा पिंडेसणाए। 564 इन (पूर्वोक्त) दोषों के आयतनों (स्थानों) का परित्याग करके पात्र ग्रहण करना चाहिए, साधु को चार प्रतिमा पूर्वक पात्रषणा करनी चाहिए। [1] उन चार प्रतिमाओं में से पहली प्रतिमा यह है कि साधु या साध्वी कल्पनीय पात्र का नामोल्लेख करके उसकी याचना करे, जैसे कि तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र या मिट्टी का पात्र; उस प्रकार के पात्र को (गृहस्थ से) स्वयं याचना करे, या फिर वह स्वयं दे और वह प्रासुक और एषणीय हो तो प्राप्त होने पर उसे ग्रहण करे। यह पहली प्रतिमा है। 1. यहाँ जाव शब्द से 'जाएज्जा' से पडिगाहेज्जा तक का पाठ सू०४०६/३ के अनुसार समझें। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से 'गाहावई' से 'कम्मकरी' तक का पाठ सू० 350 के अनुसार समझें। 3. यहाँ लाउयपायं के आगे 3 का अंक 'दारुपायं वा मट्टियापायं वा' पाठ का सूचक है। 4. (क) चर्णिकार के शब्दों में-"संगतियं मत्तओ, वेजयंतियं पडिग्गहओ / अहवा संगतियं बे पादा बारा वारएणं बा तत्थेग देति जत्थ पवयणदोसो नत्थि ! वेजयंतियं णाम जत्थ अन्भरहियस्स-रायादिणी उस्सवे कालकिच्चे वा भज्जिया हुडं वा छोढ णिज्जति / / (ख) वत्तिकार के शब्दों में.-"संगइयं ति दातुः स्वांगिकं परिभुक्तप्रायम् वेजयंतियं ति द्वित्रषु पात्रेषु पर्यायेणोपभुज्यमानं पात्र याचेत।" इनका अर्थ विवेचन में देखें। 5. यहाँ ‘जाव' शब्द से 'सयं 'वा' गं' से पडिग्गाहेज्जा तक का पाठ सूत्र.-४०६/३ के अनुसार समझे। 6. यहाँ 'जाव' शब्द से 'समण-माहम से 'वणीमगा' तक का पाठ का सूत्र--४०६/७ के अनुसार समझें। 7. यहाँ 'जाब' शब्द सूत्र 406/3 के अनुसार 'जाएज्जा' से 'पडिग्गाहेज्जा' तक के पाठ का सूचक है। 8. 'जहापिडेसणाए' से यहां शेष समग्र पाठ पिण्डैधणाध्ययन के 406 सत्र के अनुसार समझें। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध [2] इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यों है-वह साधु या साध्वी पात्रों को देखकर उनकी याचना करे / जैमेकि गृहपति यावत् कर्मचारिणी से। वह पात्र देखकर पहले ही उससे कहेआयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! क्या मुझे इनमें से एक पात्र दोगी दोगे? जैसे कि तम्बा, काष्ठ या मिट्टी का पात्र। इस प्रकार के पात्र की स्वयं याचना करे, या गहस्थ स्वयं दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे। यह दूसरी प्रतिमा है। [3] इसके अनन्तर तीसरी प्रतिमा इस प्रकार है-वह साधु या साध्वी यदि ऐसा पात्र जाने कि वह गृहस्थ के द्वारा उपभुक्त है अथवा उसमें भोजन किया जा रहा है, इस प्रकार के पात्र की पूर्ववत् स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ स्वयं दे दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे / यह तीसरी प्रतिमा है। 4] इसके पश्चात् चौथी प्रतिमा यह है वह साधु या साध्वी (गृहस्थ के यहाँ से) किसी उज्झितधार्मिक (फेंक देने योग्य पात्र की याचना करे, जिसे अन्य बहुत-से शाक्यभिक्षु, ब्राह्मण यावत भिखारी तक भी नहीं चाहते. उस प्रकार के पात्र की पूर्ववत् स्वयं याचना करे, अथवा वह गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे / यह चौथी प्रतिमा है। 565. इन (पूर्वोक्त) चार प्रतिमाओं (विशिष्ट अभिग्रहों) में से किसी एक प्रतिमा का ग्रहण....."जैसे पिण्डैषणा-अध्ययन में वर्णन है, उसी प्रकार शेष वर्णन जाने। विवेचन--पात्र षणा के सम्बन्ध में चार प्रतिज्ञाएं-प्रस्तुत सूत्रद्वय में पाषणा की चार प्रतिमाओं का वर्णन पिण्डैषणाऽध्ययन की तरह है। पात्र के प्रसंग को लेकर कहीं-कहीं वर्णन में थोड़ा-सा अन्तर है, बाकी चारों प्रतिमाओं का नाम एवं विधि उसो तरह है--१. उद्दिष्टा, 2. प्रेक्षा, 3. परिभुक्तपूर्वा और 4. उज्झित-धार्मिका / निर्ग्रन्थ साधु इन चार प्रतिमाओं में से किसी भी एक, दो या तीन प्रतिमाओं को ग्रहण करके तदनुसार दृढ़ रहकर उसका पालन कर सकता है / परन्तु वह चारों में से किसी एक प्रतिमा के धारक दूसरे मुनि को अपने मे निकृष्ट और स्वयं को उत्कृष्ट न माने, अपितु प्रतिमाओं के स्वीकार करनेवाले सभी साधुओं को जिनाज्ञा में उपस्थित एवं परस्पर समाधिकारक, एवं सहायक माने, यही संकेत सूत्र 565 में 'जहा पिंडेसणाए' पदों ने दिया गया है। ___ 'संगइयं' आदि पदों की व्याख्या-चूर्णिकार के मतानुसार यों है--संगइयं = दो या तीन पात्रों का गृहस्थ बारी-बारी से उपयोग करता है, साधु के द्वारा याचना करने पर उनमें एक देता है तो ऐसे (स्वांगिक) पात्र के लेने में प्रवचन-दोष नहीं है। वेजयंतियं = जिस पात्र में भोजन करके राजा आदि के उत्सव या मृत्युकृत्य पर खाद्य को भूनकर या वैसे ही रखकर छोड़ दिया जाता है, वह पात्र / वृत्तिकार के अनुसार 'संगइय' का अर्थ है--दाता द्वारा उस 1. (क) आचागंग वृत्ति पांक 366 के आधार पर (ख) आचारांग मुल (आयारचला, मुनि नथमलजी) 10576,557 Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 166-18 पात्र में प्रायः स्वयं भोजन किया गया हो, वह स्वांगिक पात्र, वेजयंतिय का अर्थ है--दो-तीन पात्रों में बारी-बारी में भोजन किया जा रहा हो, वह पात्र / ' अनेवणीय पात्र-ग्रहण निषेध 566. से णं एताए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! एज्जासि तुमं मासेण वा जहा वत्थेसणाए।' 567. से णं परो णेत्ता वदेज्जा आउसो भइणी ! आहरेयं पायं, तेल्लेण वा घएण वा णवणोएण वा वसाए वा अभंगेत्ता वा तहेव सिणाणादि तहेब. सोतोदगादि कंदादि तहेव / 568. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसंतो समणा ! मुहुत्तगं 2 अच्छाहि जाव ताव अम्हे असणं वा 4 उवकरेमु व उवक्खडेमु वा, तो ते वयं आउसो ! सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं वासामो, तुच्छए पडिग्गहए दिण्णे समणस णो सु? जो साहु भवति / से पुवामेव अलोएज्जा -आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति आधाकम्मिए असणे वा 4 भोत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडेहि', अभिकखसि मे दाउं एमेव दलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो असणं वा 4 उवकरेत्ता उवक्खडेत्ता सपाणं पडिग्गहगं दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 566. साधु को इसके (पात्रैषणा के) द्वारा पात्र-गवेषणा करते देखकर यदि कोई गृहस्थ कहे कि "आयुष्मन् श्रमण ! अभी तो तुम जाओ, तुम एकमास यावत् कल या परसों तक आना शेष सारा वर्णन वस्त्रंषणा अध्ययन में जिसप्रकार है, उसी प्रकार जानना / इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ कहे-आयुष्मन् श्रमण ! अभी तो तुम जाओ, थोड़ी देर बाद आना, हम तुम्हें एक पात्र देंगे, आदि शेष वर्णन भी वस्त्रषणा अध्ययन की तरह समझ लेना चाहिए। 1. (क) आचारांग चूणि मृ० पा० टि० पृ० 215 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 2. 'एसमाणं पासित्ता परो वदेज्जा' के बदले 'एसमाणं पास णेत्ता वदेज्जा' 'एसमाणं परो पासित्ता वदेज्जा' आदि पाठान्तर हैं। 3. 'जहावत्थेसणाए' से यहाँ शेष समग्र पाठ वस्त्रं षणा-अध्ययन के सूत्र 561-562 के अनुसार समझे। 4. तुलना कीजिए.-"जे भिक्ख' नो नवा में परिग्गहे लद्धत्ति कटु तेल्लेण घरण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्वेज्ज वा भिलिगेज्ज वा।" -निशीयसूत्र 1412 5. जहाँ-जहाँ तहेव' पाठ है, वहाँ वहाँ सर्वत्र वस्त्र पणाअध्ययन के सूत्र–५६४, 565, 566, 56, के अनुसार वर्णन समझें। 6. 'पडिगहए' के बदले पाठान्तर हैं.... "पडिग्गह, पडिग्गहे, पडिग्गए।" 5. किसी-किसी ति में 'मा उवक्खडेहि' पाठ नहीं है। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 567. कदाचित् कोई गृहनायक पात्रान्वेषी साधु को देखकर अपने परिवार के किसी पुरुष या स्त्री को बुलाकर यों कहे--''आयुष्मन् ! या बहन ! वह पात्र लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या बसा चुपड़कर साधु को देंगे"शेष सारा वर्णन, इसीप्रकार स्नानीय पदार्थ आदि से एक बार बार-बार घिसकर इत्यादि वर्णन, तथैव शीतल प्रासुकजल, उष्ण जल या एक बार या बार-बार धोकर "आदि अवशिष्ट समग्र वर्णन, इसीप्रकार कंदादि उसमें गे निकाल कर साफ करके "इत्यादि सारा वर्णन भी वस्त्रषणा अध्ययन में जिस प्रकार है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए। विशेषता सिर्फ यही है कि वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द कहना चाहिए। 568. कदाचित् कोई गहनायक साधु से इस प्रकार कहे-"आयुष्मन् श्रमण ! आप मुहूर्तपर्यन्त ठहरिए / जब तक हम अशन आदि चतुर्विध आहार जुटा लेंगे या तैयार कर लेंगे, तब हम आप आयुष्मान् को पानी और भोजन से भरकर पात्र देंगे, क्योंकि साधु को खाली पात्र देना अच्छा और उचित नही होता।" इस पर साधु मन में विचार कर पहले ही उस गृहस्थ से कह दे-"आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! मेरे लिए आधाकर्मी चतुर्विध आहार खाना या पीना कल्पनीय नहीं है / अतः तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो। यदि मुझे पात्र देना चाहते चाहती हो तो ऐसे (खाली) ही दे दो।" साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि कोई गृहस्थ अशनादि चतुर्विध आहार की सामग्री जुटाकर अथवा आहार तैयार करके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे, तो उस प्रकार के (भोजन-पानी सहित) पात्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन-अनेषणीय पात्र ग्रहण न करे-~-प्रस्तुत तीन सूत्रों में वस्त्रषणा-अध्ययन में वर्णित वस्त्र-ग्रहण निषेध की तरह अनेषणीय पात्र-ग्रहण-निषेध का वर्णन है / साधु के लिए पात्र अनेषणीय अग्राह्य कब हो जाता है ? इसकेलिए वस्त्रंषणा की तरह यहां भी संकेत किया गया है-(१) साधु को थोड़ी देर बाद में लेकर एक मास बाद आकर पात्र ले जाने का कहे। (2) पात्र के तेल, घी आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर देने को कहे, (3) पात्र पर स्नानीय सुगन्धित पदार्थ रगड़ कर या मलकर देने को कहे. (4) ठंडे या गर्म प्रासुक जल से धोकर देने को कहे, (5) पात्र में रखे कंद आदि निकाल कर उसे साफ कर देने को कहे, (6) पात्र में आहार-पानी तैयार करवाकर उनसे भरकर साधु को देने को कहे।" इन सब स्थितियों में साधु को पात्र को अनेषणीय एवं अग्राह्य बनाने के गृहस्थ के विचार सुनते ही सर्वप्रथम उसे सावधान कर देना चाहिए कि ऐसा अनेषणीय पात्र लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। यदि देना चाहते हो तो संस्कार या परिकर्म किये बिना अथवा सदोष आहार से भरे बिना, ऐसे ही दे दो।" 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 400 के आधार पर Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 566-600 271 पात्र प्रतिलेखन 566. सिया परो' णेत्ता पडिग्गहगं णिसिरेज्जा, से पुवामेव आलोएज्जा--आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिलेहिस्सामि / केवली बूया-आयाणमेयं, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बोयाणि वा हरियाणि वा, अह भिक्खूणं पुबोवदिट्ठा’ 4 जं पुवामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेण पडिलेहेज्जा। 600. सअंडादी सत्वे आलावगा जहा वत्थेसणाए, गाणत्तं तेल्लेण वा घएण वा गवणोएण वा वसाए वा सिणाणादि जाव अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा | जाव पयावेज्ज वा] / 566. कदाचित् कोई गहनायक पात्र को सुसंस्कृत आदि किये बिना ही लाकर साधु को देने लगे तो साधु विचारपूर्वक पहले ही उससे कहे- "आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! मैं तुम्हारे इस पात्र को अंदर-बाहर चारों ओर से भलीभाँति प्रतिलेखन करूंगा, क्योंकि प्रतिलेखन किये बिना पात्रग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया हैं / सम्भव है उस पात्र में जीवजन्तु हों, बीज हों या हरी (वनस्पति) आदि हो। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश किया हैं या ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु को पात्र ग्रहण करने से पूर्व ही उस पात्र को अंदर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। 600. अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र ग्रहण न करे इत्यादि सारे आलापक वस्त्रषणा के समान जान लेने चाहिए। विशेष बात इतनी ही हैं कि यदि वह तेल, घी, नवनीत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर या स्नानीय पदार्थों से रगड़कर पात्र को नया व सुन्दर बनाना चाहे, इत्यादि वर्णन ठेठ अन्य उस प्रकार की स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस पात्र को साफ करे यावत् धूप में सुखाए तक वस्त्रषणा अध्ययन की तरह ही समझ लेना चाहिए। विवेचन-पात्रग्रहण से पूर्व प्रतिलेखन आवश्यक-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रोषणा-अध्ययन की तरह यहाँ पात्र ग्रहण करने से पूर्व प्रतिलेखन को अनिवार्य बताया है / बिना प्रतिलेखन किये 1, 'परो णेत्ता' के बदले पाठान्तर है 'परो उवणेता', अर्थ है...--'पर- गहस्थ लाकर / 2. 'पडिग्गहग के बदले पाठान्तर है-पडिग्गहं / 3. यहाँ 'पुव्वोदिट्ठा' के आगे "4' का अंक सूत्र 357 के अनुसार 'एस उवएसों तक के पाठ __ का सूचक है। 4. सअंडादि सम्वे आलावगा जहा वत्थेसगाए' पाठ वस्त्र पणाध्ययन के सूत्र 569 मे 576 तक के समग्र वर्णन का सूचक समझें, 'पयावेज्ज वा' पाठ तक / Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पात्रग्रहण कर लेने में उन्हीं खतरों या दोषों की सम्भावना हैं, जिनका उल्लेख हम वस्त्रंषणा अध्ययन में कर आए हैं।' पात्र-ग्रहण-अग्रहण एवं संरक्षण-विवेक-वस्त्रं षणा-अध्ययन में उल्लिखित 'स अंड' से लेकर 'आयावेज्ज पयावेज्ज' तक के सभी सूत्रों का वर्णन इस एक ही सूत्र में समुच्चयरूप से दे दिया है / प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रषणा अध्ययन के 11 सूत्रों का निरूपण एवं एक अतिरिक्त सूत्रका समावेश कर दिया है—(१) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र को ग्रहण न करे, (2) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित होने पर भी वह पात्र अपर्याप्त (अभीष्ट कार्य के लिए असमर्थ) अस्थिर. अध्र व. अधारणीय एवं अकल्प्य हो तो ग्रहण न करे, (3) किन्तु वह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित पर्याप्त, स्थिर, ध्र व, धारणीय एवं रुचिकर हो तो ग्रहण करे, (4) अपने पात्र को नया सुन्दर बनाने के लिए उसे थोड़ा या बहुत स्नानीय सुगन्धित द्रव्य आदि से घिसे नहीं, (5) पात्र नया बनाने के उद्देश्य से थोड़ा बहुत ठंडे या गर्म जल से उसे धोए नहीं, (6) मेरा पात्र दुर्गन्धित है, यह सोच उसे सुगन्धित एवं उत्कृष्ट बनाने हेतु उस पर स्नानीय सुगन्धित द्रव्य थोड़े बहुत न रगड़े, न ही उसे शीतल या गर्म जल से धोए (7) पात्र को सचित्त, स्निग्ध, सचित्त प्रतिष्ठित पृथ्वी पर न सुखाए, (रखे) (8) पात्र को दूंठ, देहली, ऊखल या स्नानपीठ पर न सुखाए, न ही ऊँचे चल-विचल स्थान पर सुखाए, (6) दीवार, भीत, शिला रोड़े या ऐसे ही अन्य ऊंचे हिलने-डुलने वाले स्थानों पर पात्र न सुखाए / (10) खंभे, मचान, ऊपर की मंजिल या महल पर या तलघर में या अन्य कम्पित उच्चस्थानों पर पा न सुखाए / (11) किन्तु पात्र को एकान्त में ले जाकर अचित्त निर्दोष स्थण्डिलभूमि पर धूल आदि पोंछकर यतनापूर्वक सखाए। इसमें नौ सूत्र निषेधात्मक हैं, और दो सूत्र विधानात्मक हैं। शास्त्रकार ने इसमें एक सूत्र और बढ़ा देने का संकेत किया है कि पात्र को सुन्दर व चमकदार बनाने के लिए वह तेल, घी, नवनीत आदि उस पर न लगाए। ‘णाणत्त तेल्लेण वा धएण वा "पंक्ति के अर्थ में मतभेद--ऊपर जो अर्थ हमने दिया है, उसके अतिरिक्त एक अर्थ और मिलता है—“यदि वह पात्र तेल, घृत या अन्य किसी पदार्थ से स्निग्ध किया हुआ हो तो साधु स्थण्डिलभूमि में जाकर वहाँ भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करे, और तत्पश्चात् पात्र को धूलि आदि से प्रमार्जित कर मसल कर रूक्ष बना ले।" परन्तु यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता। 601. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवहि सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 400 के आधार पर 2. आचारांग मूलपाठ सू० 556 से 576 तक वृत्ति सहित पत्रांक 366 आचाराग; अर्थागम प्रथम खण्ड पृ० 137 4. 'एयं खलु तस्स भिक्खस्स' के बदले किसी-किमी प्रति में 'अहभिक्खुस्स' पाठान्तर है। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 602 601. यही (पात्रषणा विवेक ही) वस्तुत: उस साधु या साध्वी का समग्र आचार है, जिसमें वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि सर्व अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूं। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बीओ उदेसओ द्वितीय उद्देशक पान बोजादियुक्त होने पर ग्रहण-विधि 602. से भिक्खू वा 2 गाहावइकुलं पिंडवातपडियाए पविसमाणे' पुवामेव पेहाए पडिग्गहगं, अवहट्ट. पाणे, पमज्जिय रयं, ततो संजयामेव गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा / केवली बूया-आयाणमेयं / अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा रए' वा परियावज्जेज्जा, अह भिक्खूणं पुथ्वोवदिट्टा 4 जं पुवामेव पेहाए पडिग्गहं, अवहट्ट, पाणे, पमज्जिय रयं, ततो संजयामेव गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा। 602. गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए प्रवेश करने से पूर्व ही साधु या साध्वी अपने पात्र को भलीभांति देखें, उसमें कोई प्राणी हों तो उन्हें निकालकर एकान्त में छोड़ दे और धूल को पोंछकर झाड़ दे / तत्पश्चात् साधु अथवा साध्वी आहार-पानी के लिए उपाश्रय से बाहर निकले या गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। केवली भगवान् कहते हैं—ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है. क्योंकि पात्र के अंदर द्वीन्द्रिय आदि प्राणी, बीज या रज आदि रह सकते हैं, पात्रों का प्रतिलेखन-प्रमार्जन किये बिना उन जीवों की विराधना हो सकती है। इसीलिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने साधुओं के लिए पहले से ही इसप्रकार की प्रतिज्ञा, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि आहार-पानी के लिए जाने से पूर्व साधु पात्र का सम्यक् निरीक्षण करके कोई प्राणी हो तो उसे निकाल कर एकान्त में छोड़ दे, रज आदि को पोंछकर झाड़ दे और तब आहार के लिए यतनापूर्वक उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। विवेचन---प्रस्तुत सूत्र में भिक्षाटन से पूर्व पात्र को अच्छी तरह देखभाल और झाड़ पोंछ लेना आवश्यक बताया है, ऐसा न करने से आत्म-विराधना और जीव-विराधना के होने 1. 'पविसमाणे' के बदले 'पविठे समाणे पाठान्तर है। 2. किसी किसी प्रति में 'रएवा' पाठ नहीं है, उसके बदले 'हरिए वा' पाठ है। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध का तो भूलपाठ में स्पष्ट उल्लेख है, इन दोषों के अतिरिक्त और भी इन दोषों की संभावना रहती है--- (1) कदाचित् पात्र किसी कारण से फट गया हो, तो वह आहार-पानी लाने लायक नहीं रहेगा, (2) किसी धर्मद्वेषी ने साधुओं को बदनाम करने के लिए कोई शस्त्र, विष, या अन्य अकल्प्य, अग्राह्य वस्तु चुपके से रख दी हो, (3) कोई बिच्छ या सांप पात्र में घुस कर बैठ गया हो तो आहार लेते समय हठात् काट खाएगा, अथवा उसे देखे-भाले बिना अंधाधु धी में गर्म आहार या पानी लेने से वह आहार पानी भी विषाक्त हो जाएगा, जीव की विराधना तो होगी ही। (4) पात्र में कोई खट्टी चीज लगी रह गई तो दुध आदि पदार्थ लेते ही फट जाएगा। अतः साधु को उपाश्रय से निकलते समय, गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करते समय और भोजन करना प्रारम्भ करने में पूर्व पात्र-प्रतिलेखन प्रमार्जन करना आवश्यक है।" सचित्त संसृष्ट पात्र को सुखाने की विधि 603. से भिक्खू वा 2 गाहावति जाव समाणे सिया से परो आहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाएत्ता गोहट्ट, दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा / से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया, खिप्पामेव उदगंसि साहरेज्जा, सपडिग्गहमायाए व णं परिवेज्जा, ससणिद्धाए व णं भूमीए नियमेज्जा। 604. से भिक्खू वा 3 उदउल्लं वा ससणिद्ध वा पडिम्गहं णो आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा / अह पुणेवं जाणेज्जा विगदोदए मे पडिग्गहए छिण्ण-सिणेहे, तहप्पगारं पडिग्गहं ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा। 1. आचारांग वृत्ति, मूलपाठ पत्रांक 400 2. इसके बदले पाठान्तर है-'सिया से खिप्पामेव उदगंसि आहरेज्जा'। अर्थ होता है---कदाचित् बह गृहस्थ शीघ्र ही अपने जल पात्र में उसे वापस डाल दे। 3. चूर्णिकार 'उद उल्लं वा ससणिद्धं वा' इस पाठ के बदले कोई दूसरा पाठ मानकर पात्रं षणाध्ययन की यही समाप्ति मानते हैं। वह पाठ इस प्रकार है-"उदउल्ल-ससणिद्ध पडिग्गहगं आमज्ज पमज्ज अंतो संलिहति, बाहिं गिल्लिहति, उव्वलेति, उव्वटेति, पत्ताविज्ज / इति पात्रं षणा समाप्ता।" ___ अर्थात्- जल से आई और सस्निग्ध पात्र को थोड़ा या बहुत प्रमार्जन करके अंदर से लेपरहित करता है, फिर बाहर से लेपरहित करता है, उपलेपन करता है, उद्वर्तन करता है, (जलरहित करता है) फिर थोड़ा या अधिक धूप में सूखाता है। इस प्रकार पात्र षणा समाप्त हुई। इस पाठ को देखते हुए किसी किसी प्रति में 'आमज्जेज्ज वा' के बाद पमज्जेज्ज वा' का पाठ माना है। 'आमज्जज्ज वा से 'पयावेज्ज वा' तक के पाठ को सूत्र 353 के अनुसार सूचित करने के लिए 'जाव' शब्द है। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 603-4 275 603. साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहार-पानी के लिए गये हों और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में सचित्त (शीतल) जल ला कर उसमें से निकाल कर साधु को देने लगे, तो साधु उसप्रकार के पर हस्तगत एवं पर-पात्रगत शोतल, (सचित्त) जल को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर अपने पात्र में ग्रहण न करे / कदाचित् असावधानी से वह जल (अपने पात्र में) ले लिया हो तो शीघ्र दाता के जल पात्र में उड़ेल दे। यदि गृहस्थ उस पानी को वापस न ले तो फिर वह जलयुक्त पात्र को लेकर किसी स्निग्ध भूमि में या अन्य किसी योग्य स्थान में उस जल का विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। उस जल से स्निग्ध पात्र को एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे। 604. वह साधु या साध्वी जल मे आद्र और स्निग्ध पात्र को जब तक उसमें से बूंदें टपकती रहें, और वह गीला रहे, तब तक न तो पोंछे और न ही धूप में सुखाए / जब वह यह जान ले कि मेरा पात्र अब निर्गतजल (जल-रहित) और स्नेह-रहित हो गया है, तब वह उस प्रकार के पात्र को यतनापूर्वक पोंछ सकता है और धूप में सूखा सकता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सर्वप्रथम गृहस्थ के हाथ और बर्तन से अपने पात्र में सचित्त जल ग्रहण करने का निषेध है, तत्पश्चात् असावधानी से सचित्त जल पात्र में ले लिया गया हो तो उस पात्र को पोंछने और सुखाने आदि की विधि बताई गई है।' चूर्णिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं-... "सचित्त जल हिलाकर निकाल कर देने लगे तो वैसा...."पर-हस्तगत पात्र ग्रहण न करे / भूल से वैसा सचित्त जल संसृष्ट पात्र ग्रहण कर लेने पर यदि वहो गहस्थ उस जल को स्वयं वापस ले लेता है तो सबसे अच्छा: अन्यथा वह उस उदक को दूसरी जगह अन्य भाजन में डाल दे। 'परिभाएत्ता' आदि पदों का अर्थ :-परिभाएत्ता = विभाग करके, चूर्णिकार के अनुसारहिलाकर / 'पोह१ = निकाल कर। जलग्रहण-परक या पात्र ग्रहण-परक-चूर्णिकार इस सूत्र को पात्र षणा-अध्ययन होने से पात्र-ग्रहण विषयक मानते हैं, किन्तु वृत्तिकार इस की पानक-ग्रहण विषयक व्याख्या करते हैंगृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु प्रासुक पानी की याचना करे इस पर कदाचित् वह गृहस्थ असावधानी से, भ्रान्ति से या धर्म-द्वेषवश (प्रतिकूलता वश) अथवा अनुकम्पावश विचार करके घर के भीतर पड़ा हुआ दूसरा अपना बर्तन ला कर, उसमें से कुछ हिस्सा रख कर, पानी निकाल कर देने लगे तो साधु उस प्रकार के पर-हस्तगत, पर-पात्रगत सचित्त जल को अप्रासुक 1. आचारांग मूल पाठ एवं वत्ति पत्रांक 400 के आधार पर 2. आचारांग चूणि मू. पा. ठि. पृ. २१६-"परियाभाएत्त ति छुभित्तु पडिगह परहत्थगयं ण मेण्हेज्जा। आहृच्च गहिते गिहत्थो एस चेव उदए जति परिसाहरति, लठ्ठ / अण्णत्थ वा उदए (उएझइ?) अन्ने हिं भायणे पक्खिवति' 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 400. (ख) आचारांग चूणि मू. पा. ठि. पृ. 21. Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध मान कर न ले।........"किन्तु यहाँ चूर्णिकार का आशय भिन्न है, उनके अनुसार यों अर्थ होता है--"साधु पात्र के लिए गृहस्थ के यहाँ जाए तब गृहस्थ पात्र खाली न होने के कारण घर में से उस पात्र को लाकर उसमें से सचित्त जल (अधिकांशतः) निकाल कर उस पात्र को देने लगे तो वह उस पर-हस्तगत सचित्तजल संस्कृष्ट पात्र को अप्रासुक जान कर ग्रहण न करे।" यह अर्थ प्रकरण संगत प्रतीत होता है।' विहार-समय पान विषयक विधि-निषेध 605. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं पविसित्तुकामे सपडिग्गहमायाए गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा, एवं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा गामाणुगामं [वा] दूइज्जेज्जा, तिब्बदेसियादि जहा बितियाए' वत्थेसणाए णवरं एत्थ पडिग्गहो। 605. साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहारादि लेने के लिए प्रवेश करना चाहे तो अपने पात्र साथ लेकर वहां आहारादि के लिए प्रवेश करे या उपाश्रय से निकले। इसीप्रकार स्व-पात्र लेकर बस्ती से बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थण्डिलभूमि को जाए, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करे। तीब्र वर्षा दूर-दूर तक हो रही हो यावत् तिरछे उड़ने वाले त्रसप्राणी एकत्रित हो कर गिर रहे हों, इत्यादि परिस्थितियों में जैसे वस्त्रषणा के द्वितीय उद्देशक में निषेधादेश है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए / विशेष इतना ही है कि वहाँ सभी वस्त्रों को साथ में लेकर जाने का निषेध है, जबकि यहां अपने सब पात्र लेकर जाने का निषेध है। 606. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गिय ज सव्वठेहि सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि। 606. यही (पात्रषणा विवेक अवश्य ही) साधु-साध्वी का समग्र आचार है जिसके परिपालन के लिए प्रत्येक साधु-साध्वी को ज्ञानादि सभी अर्थों से प्रयत्नशील रहना चाहिए। -ऐसा मैं कहता हूं। द्वितीय उद्देशक समाप्त। // पाएसणा' षष्ठमध्ययनम् समाप्तं / / 1. (क) आचारांग बृत्ति पत्रांक 400-601 (ख) आचारांग चूणि मू. पा. ठि. पृ. 217 के आधार पर 2. 'बितियाए' के बदले पाठान्तर हैं-'बीतीयाए' 'बीयाए' / अर्थ एक-सा है। 3. 'जहा बितियाए वत्थेसणाए' का तात्पर्य है-जैसे वस्त्रं षणा के द्वितीय उद्देशक सूत्र 582 में वर्णन है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए / 4. 'एयं' के बदले कहीं कहीं 'एवं' या 'एतं' पाठान्तर मिलता है। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह-प्रतिमा : सप्तम अध्ययन प्राथमिक 24 आचारांग सूत्र (द्वि० श्रत.) के सातवें अध्ययन का नाम 'अवग्रह-प्रतिमा' है। 5 'अवग्रह' जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है। यों सामान्यतया इसका अर्थ-'ग्रहण करना होता है। * प्राकृत शब्द कोष में 'अवग्रह' शब्द के ग्रहण करना, अवधारण, लाभ, इन्द्रियद्वारा होने वाला ज्ञान विशेष, ग्रहण करनेयोग्य वस्तु, आश्रय, आवास, स्वस्वामित्व की या स्वाधीनस्थ वस्तु, देव (सौधर्मेन्द्र) तथा गुरु आदि से आवश्यकतानुसार याचित मर्यादित भूभाग या स्थान; परोसने योग्य भोजन, एवं अनुज्ञापूर्वक ग्रहण करना आदि अर्थ मिलते हैं।' 5. प्रस्तुत सूत्र में मुख्यतया चार अर्थों में अवग्रह शब्द प्रयुक्त हुआ है (1) अनुज्ञापूर्वक ग्रहण करना, (2) ग्रहण करने योग्य वस्तु, (3) जिसके अधीनस्थ जो-जो वस्तु है, आवश्यकता पड़ने पर उससे उस वस्तु के उपयोग करने की आज्ञा मांगना; तथा (4) स्थान या आवासगृह, अथवा मर्यादित भभाग। 2 'अवग्रह' चार प्रकार का है-१. द्रव्यावग्रह, 2. क्षेत्रावग्रह, 3. कालावग्रह और 4. भावावग्रह / 25 द्रव्यावग्रह के तीन प्रकार (सचित्त, अचित्त, मिश्र) हैं। * क्षेत्रावग्रह के भी सचित्तादि तीन भेद हैं, अथवा ग्राम, नगर, राष्ट्र, अरण्य आदि अनेक भेद हैं। कालावग्रह के ऋतुबद्ध और वर्षाकाल ये दो भेद हैं। 22 भावावग्रह-मतिज्ञान के अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह आदि भेद हैं। र प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्यादि तीन अवग्रह विवक्षित हैं, भावावग्रह नहीं / र अपरिग्रही साधु को जब कभी आहार, वसति (आवास), वस्त्र, पात्र या अन्य 1. 'पाइअ-सद्दमहण्णवो' पृ० 197, 143 / 2. आचारांग मूलपाठ तथा वृत्ति पत्रांक 402 / Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध धर्मोपकरण आदि के ग्रहण का परिणाम( विचार) होता है, तब वह ग्रहण-भावाव ग्रह होता है। * उक्त पदार्थ मुख्यतया पांच कोटि के व्यक्तियों के अधीन होते हैं, जैसे कि 1. देवेन्द्र, 2. राजा (शासक), 3. गृहपति, 4. शय्यातर एवं 5. सार्मिक साधु वर्ग; अतः अवग्रह के अधिकारी होने से ये भी पंचविध अवग्रह कहलाते हैं। स्थण्डिलभूमि, वसति आदि ग्रहण करने से पूर्व यथावसर इनकी आज्ञा लेना आवश्यक है।' र अवग्रह से सम्बन्धित विविध प्रतिज्ञाएँ (संकल्प या अभिग्रह) करना अवग्रह-प्रतिमा है / विविध प्रकार के अवग्रहों तथा उनसे सम्बन्धित प्रतिमाओं का वर्णन होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'अवग्रह-प्रतिमा' रखा गया है। र अवग्रह-प्रतिमा-अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता एवं अवग्रह के प्रकार एवं याचनाविधि बताई है, द्वितीय उद्देशक में मुख्यतः विविध अवग्रहों की याचनाविधि का प्रतिपादन है। - यह अध्ययन सूत्र 607 से प्रारम्भ होकर मूत्र 636 पर समाप्त होता है। 1. (क) आचासंग नियुक्ति गा० 316 से 16 तक / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 402 / 2. आचासंग मूल पाठ एवं वृत्ति के आधार पर, पत्रांक 402 // Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं 'ओग्गहपडिमा' [पढमो उद्देसओ] अवग्रह-प्रतिमा : सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता 607. समणे भविस्सामि अणगारे अकिंवणे अशुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं जो करिस्सामि त्ति समुट्ठाए सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि / ___ से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणि वा णेव सयं अदिग्गं गेण्हेज्जा, जेवण्गेणं अदिण्णं गेण्हावेज्जा, णेवऽण्णं अदिष्णं गेण्हतं पि समणुजाणेज्जा। जेहि वि सद्धि संपव्वइए तेसिऽपियाई छत्तयं वा' डंडगं वा मत्त वा जाव चम्मच्छेयणगं वा तेसि पुवामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो गिण्हेज्ज वा, पगिण्हेज्ज वा, तेसि पुयामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयामेव ओगिण्हेज्ज वा पगिण्हेज्ज था। 607. मुनिदीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है-"अब मैं श्रमण बन जाऊँगा। अनगार (घरबार रहित), अकिंचन (अपरिग्रही), अपुत्र (पुत्रांदि सम्बन्धों से मुक्त), अपशु (द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं के स्वामित्व मे मुक्त) एवं परदत्तभोजी (दूसरे-गृहस्थ द्वारा प्रदत्त-भिक्षा प्राप्त आहारादि का सेवन करने वाला) होकर मैं अब कोई भी हिंसादि पापकर्म नहीं करूंगा।” इस प्रकार संयम-पालन के लिए उत्थित-समुद्यत होकर (कहता है-) 'भते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। (इस प्रकार की (तृतीय महाव्रत की) प्रतिज्ञा लेने के बाद-) वह साधु ग्राम यावत् 1. छत्र-दण्ड आदि उपकरण बिना दिये लेने का प्रसंग-णिकार के शब्दों में-'तं कहि गामे नगरे वा लोइयं गतं / लोउत्तरं डंडगादि, छत्रगं; देसं पडुच्च जहा कोंकणेसु, णिवंता सत्ता पाउल्लिति इंडाण सन्नाभूमी गच्छतो अप्पणो अदिसतो अपनवेत्ता णेति, संघारामादिसू वा अणनवेति।" उदाहरणार्थ-साधु किसी ग्राम या नगर में शौचादि के लिए स्थण्डिलभूमि में गया, शौचनिवृत्ति के अनन्तर वर्षा हो गई। चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ हो गया। अगर साधु उस समय चलता है तो भीग जायेगा, कीचड़ में फंस जायेगा। इसलिए वहाँ अपना दंड न देखकर दूसरे का दंड उतावली में बिना आज्ञा लिए ही ले लेता है। कोंकण आदि देश की अपेक्षा से छाता भी लगाना पड़ता है, वर्षा में, छाता भी दूसरे बौद्ध आदि भिक्षु से बिना आज्ञा के उस समय ले लेता है, फिर संघाराम आदि में आकर उस भिक्ष से उसकी आज्ञा लेता है। 2. 'जाव' शब्द यहां सू. 448 के अनुसार 'मत्तयं' से 'चम्मच्छेयणगं' तक के पाठ का सूचन है। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध राजधानी में प्रविष्ट होकर स्वयं विना दिये हुए (किसी भी) पदार्थ को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन-समर्थन करे। जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रव्रजित हुआ है, या विचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी छत्रक, दंड, मात्रक(भाजन)यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरणों की पहले उनसे अवग्रह-अनुज्ञा लिये बिना तथा प्रतिलेखन-प्रमार्जन किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे / अपितु उनसे पहले अवग्रह-अनुज्ञा (ग्रहण करने की आज्ञा) लेकर, तत्पश्चात् उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु का एक या अनेक बार ग्रहण करे। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह की उपयोगिता और अनिवार्यता बताई है, उसका कारण प्रस्तुत किया गया है-साधु का अकिंचन, परदत्तभोजी एवं अदतादान विरमण महाव्रती जीवन / साधु कहीं भी जाए, कहीं भी किसी भी साधु के साथ रहे, या विचरण करे, या किसी भी स्थान, अचित्त पदार्थ आहार पानी, औषध, मकान, वस्त्र पात्रादि उपकरण की आवश्यकता हो, नया उपकरण लेना हो, किन्हीं साधुओं के निश्रय के पुराने उपकरणादि का उपयोग करना हो तो सर्वप्रथम उस वस्तु के स्वामी या अधिकारी से अवग्रह-अनुज्ञा लेना आवश्यक है, तत्पश्चात् प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके उसका एक या अधिक बार ग्रहण या उपयोग करना हैं।' ___'अपुत्ते अपसू' आदि पदों का तात्पर्य एवं रहस्य--अपुत्त-का शब्दशः अर्थ तो अपुत्र-पुत्ररहित होता है, किन्तु वहां उपलक्षण से पुत्र आदि जितने भी गृहस्थपक्षीय सम्बन्धी हैं, उनके उक्त सम्बन्ध से मुक्त अर्थ समझना चाहिए। इसी प्रकार 'अपसू' का तात्पर्य भी होता है-समस्त द्विपद-चतुष्पद आदि पशु-पक्षी आदि हैं, उन सबके प्रति स्वामित्व या ममत्व से रहित / इन दोनों पदों को प्रस्तुत करने के पीछे शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि साधु का पुत्रादि या पशु आदि के प्रति ममत्व एवं स्वामित्व समाप्त हो चुका है, तब यदि कोई पुत्र आदि शिष्य बनना चाहे तो उसके अभिभावक या संरक्षक की अनुज्ञा के बिना शिष्य रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकता / पशु भी साथ में रख नहीं सकता। सर्वत्र अवग्रहानुझा आवश्यकः बिहार, शौचादि, भिक्षाटन आदि प्रत्येक क्रिया में प्रवृत्त होने से पूर्व आचार्य या दीक्षास्थविर या दीक्षाज्येष्ठ मुनि का गुरु की अनुज्ञा ग्रहण करना आवश्यक है। प्रतिक्रमण, शयन, प्रवचन, स्वाध्याय, तप, वैयावृत्य आदि प्रवृत्ति की भी अनुज्ञा ग्रहण करना आवश्यक बताया है / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 402 के आधार पर 2. तुलना करें--पूच्छिज्जा पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इह / इच्छं निओइउं भंते ! बेयावच्चे व सज्झाए।" --उत्तरा० अ० 26/1 "इच्छामिणं भंते ! तुब्भेहि अब्भण्णुश्णाए समाणे देवसिय पडिक्कमणं ठाइउ' -आवश्यक सूत्र 'अणजाणह मे मिउग्गह-आवश्यक गुरुवन्दन सूत्र Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 608-11 281 छत्रक आदि उपकरणों का उल्लेख क्यों ? प्रस्तुत सूत्रपाठ में छाता (छत्रक) चर्मच्छेदनक आदि उपकरण का उल्लेख है। जबकि दशवकालिक में छत्तस्स धारणाए' कह कर इस अनाचीर्ण में बताया है, तब इनका उल्लेख शास्त्रकार ने यहां क्यों किया? वृत्तिकार एवं चूर्णिकार इसका समाधान करते हैं-छत्र वर्षाकल्पादि के समय किसी देश विशेष में कारणवश साधु रखता है। कहीं कोंकण आदि देश में अत्यन्त वृष्टि होने के कारण छत्र भी रख सकता है / उसे अभिमानवृद्धि एवं राजसी ठाटबाट का सूचक नहीं बनाना चाहिए। चर्मछदेनक भी प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ से किसी कार्य के लिये साध लाता है; उपकरण के रुप में नहीं रखता। 'समणा भविस्सामो' आदि प्रतिज्ञा का पाठ सूत्रकृतांग में भी इसी क्रमपूर्वक मिलता है। इस प्रतिज्ञा को दोहरा कर साधु को अपनी अदत्तादान-विरमण की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रह कर सर्वत्र अवग्रहग्रहण करने की बात पर जो दिया है। 'अकिंचन' का तात्पर्य-चूर्णिकार ने अकिंचन का स्पष्टीकरण यों किया है-साधु द्रव्य से अपुत्र, एवं धन-धान्यादि रहित है, भाव से क्रोधादि से रहित है, इसलिए वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अकिंचन- अपरिग्रही है। 'ओगिण्हेज्ज पगिण्हेज्ज' दोनों शब्दों के अर्थ में चूर्णिकार अन्तर बताते हैं एक बार ग्रहण करना अवग्रहण है, बार-बार ग्रहण करना प्रग्रहण है। अवग्रह-याचना: विविध रूप 608. से आगंतारेसु वा 4 अणुवीइ उग्गहं जाएज्जा, जे तत्व ईसरे जे तत्थ समाहिद्वाए ते उग्गहं अणुण्णवेज्जा—काम खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसो; जाव आउसंतस्स उग्गहे, जाव साहम्मिया, एत्ताव ताव उग्गहं ओगिहिस्सामो, तेण पर विहरिस्सामो। 1. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक 402, (ख) आचा, चणि मू. पा. टि. 1. 216 2. तुलना कीजिए --समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्म नो करिस्सामी समुहाए।"—सूत्रकृतांग 2/1/2 3. अकिंचणा-दव्वे अपुत्ता अपसू. भावे अकोहा--आचा-णि म.पा. टि. पु. 216 4. "ओगिण्हति एक्कासि, पगिण्हति पुणो पूणो ।"-आचा० चणि म. वा. टि. पू. 216 5. 'आगंतारेसु वा' के आगे '8' का अंक सूत्र 432 के अनुसार "आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा" पाठ का सूचक है। 6. पूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर हैं.-"इस्सरो, समाधिठाए।' अर्थ किया गया है-इस्सरो-राया भोइओ जाव सामाइओ। समाधिट्ठाए- प्रभुसं दिट्ठो गहबतिमादी ।'---ईश्वर का अर्थ है—राजा, ग्रामाध्यक्ष, ग्रामाध्यापक स्वामी या मालिक आदि / समाधिष्ठाता का अर्थ है-स्वामी के द्वारा आदिष्ट या नियुक्त अधिकारी, गहपति आदि / Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 माचारांग सूत्र-द्वितीय अतस्कन्ध 606. से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोगहियंसि ? जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा' उवागच्छेज्जा जे तेण सपमेसित्तए असणे वा 4 तेण ते साहम्मिया संभोइया समणुग्णा उवणिमंतेज्जा, णो चेव णं परपडियाए ओगिज्झिय 2 उवणिमंतेज्जा। 610. से आगंतारेसु वा जाव से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुग्णा उवागच्छेज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सेज्जासंथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुष्णे उणिमंतेज्जा, णो चेव गं परपडियाए ओगिहिय 2 उवणिमंतेज्जा। 611. से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एयोग्गहियं सि ? जे तत्थ गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा सई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा पहच्छेदणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स देज्ज वा अणुपवेज्ज वा, सयं करणिज्जं ति कट्ट, से तमादाए तत्थ गच्छेज्जा, 2 [त्ता] पुवामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट, भूमीए वा ठवेत्ता इमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा, णो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिसि पच्चपिज्जा। 608. साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहस्थ के घरों और परिवाजकों के आवासों (मठों) में जाकर पहले साधुओं के आवास योग्य क्षेत्र को भलीभांति देख-सोचकर फिर अवग्रह (वसति आदि) की याचना करे। उस क्षेत्र या स्थान का जो स्वामी हो, या जो वहाँ का अधिष्ठाता नियुक्त अधिकारी हो उससे इसप्रकार अवग्रह की अनुज्ञा मांगे--'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार---जितने समय तक रहने की तथा जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे, उतने समय तक, उतने क्षेत्र में हम निवास करेंगे। यहां जितने समय तक आप 1. समणण्णोका अर्थ चणिकार के शब्दों में -"समणण्णो. ण केण समं असंखणं, ण वा एगल्ल विहारी।"--समनुज्ञ अर्थात् जो न तो अनियंत्रित अथवा किसी के साथ कलहकारी है, और न ही एकल विहारी है, अर्थात् जो मिलनसार है। 2. 'परपडियाए' का अर्थ चणिकार करते हैं - परवेयावडिया पर संतिएण।".-दूसरे साधु की सेवा के लिए दूसरे के अधिकार का / 3. 'सय मेसित्तए' के बदले पाठान्तर हैं-'सयमेसिय' 'सयमेसितात' 'सयमेसितए'। 4. चर्णिकार के अनुसार तात्पर्य है. 'अण्णसंभोइए पीढएण वा फलएण वा मज्जासंथारण बा उवणिमतेज्ज.---..अर्थात---अन्यसांभोगिक साधु को पीठ, फलक और शय्यासंस्तारक का उपनिमंत्रण (मनुहार) करना चाहिए। 5. 'परपडियाए' के बदले पाठान्तर है-'परवेयावडियाते'। 'ओगिव्हिय ओगिण्हिय' के बदले पाठान्तर हैं-'उगिज्झिय' उगिणिय उनिमज्जा , उगिरिह्य णिमंतेज्जा उगिहिय-२ निमंतेज्जा / ' भावार्थ समान है। 6. Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 608-11 283 मान् की अवग्रह-अनुज्ञा है, उतनी अवधि तक जितने भी अन्य सार्मिक साधु आएंगे, उनके लिए भी जितने क्षेत्र-काल की अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करेंगे वे भी उतने ही समय तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे, उसके पश्चात् वे और हम विहार कर देंगे। 606. अवग्रह के अनुज्ञापूर्वक ग्रहण कर लेने पर फिर वह साधु क्या करे ? वहाँ (निवासित साधु के पास) कोई सार्मिक, साम्भोगिक एवं समनोज्ञ साधु अतिथि के रूप में आ जाएं तो वह साधु स्वयं अपने द्वारा गवेषणा करके लाये हुए अशनादि चतुर्विध आहार को उन सार्मिक, सांभोगिक एवं समनोज्ञ साधुओं को उपनिमंत्रित करे, किन्तु अन्य साधु द्वारा या अन्य रुग्णादि साधु के लिए लाए हुए आहारादि को लेकर उन्हें उपनिमंत्रित न करे। 610. पथिकशाला आदि अवग्रह को अनुज्ञापूर्वक ग्रहण कर लेने पर फिर वह साधु क्या करे ? यदि वहाँ (निवासित साधु के पास) कुछ अन्य साम्भोगिक, सार्मिक एवं समनोज्ञ साधु अतिथि रूप में आ जाएं तो जो स्वयं गवेषणा करके लाए हुए पीठ (चौकी), फलक (पट्टा) शय्यासंस्तारक (घास आदि) आदि हो, उन्हें (अन्य साम्भोगिक सार्मिक समनोज्ञ साधुओं को) उन वस्तुओं के लिए आमंत्रित करे, किन्तु जो दूसरे के द्वारा या रुग्णादि अन्य साधु के लिए लाये हुए पीठ, फलक या शय्यासंस्तारक हों, उनको लेने के लिए आमंत्रित न करे / 611. उस धर्मशाला आदि को अवग्रहपूर्वक ग्रहण कर लेने के बाद साधु क्या करे ? जो वहां आसपास में गृहस्थ या गृहस्थ के पुत्र आदि हैं, उनसे कार्यवश सूई, कैंची, कानकुरेदनी नहरनी- आदि अपने स्वयं के लिए कोई साधु प्रातिहारिक रूप से याचना करके लाया हो तो वह उन चीजों को परस्पर एक-दूसरे साधु को न दे-ले / अथवा वह दूसरे साधु को वे चीजें न सौंपे। उन वस्तुओं का यथायोग्य कार्य हो जाने पर वह उन प्रातिहारिक चीजों को लेकर उस गृहस्थ के यहां जाए और लम्बा हाथ करके उन चीजों को भूमि पर रख कर गृहस्थ से कहे-यह तुम्हारा अमुक पदार्थ है, यह अमुक है, इसे संभाल लो, देख लो। परन्तु उन सूई आदि वस्तुओं को साधु अपने हाथ से गृहस्थ के हाथ पर रख कर न सोपे। विवेचन---अवग्रहयाचना विधि और याचना के पश्चात्-सूत्र 608 से 611 तक में अवग्रहयाचना के पूर्व और पश्चात् की कर्तव्य-विधि बताई गई है। इसमें निम्नोक्त पहलुओं पर कर्तव्य निर्देश किया गया है (1) आवासीय स्थान के क्षेत्र और निवासकाल की सीमा, अवग्रह की याचना विधि। (2) अवग्रह-गृहीत स्थान में सार्मिक, सम्भोगिक, समनोज्ञ साधु आजाएं तो उन्हें स्वयाचित आहारादि में से लेने की मनुहार करे, पर-याचित में से नहीं / स्व-याचित आहार भी यदि रुग्णादि साधु के लिए याचना करके लाया हो तो उसके लिए भी नहीं। (3) अवग्रह-गृहीत स्थान में अन्य साम्भोगिक सार्मिक समनोज्ञ साधु आजाएँ तो उन्हें Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्व-याचित पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि में में लेने की मनुहार करे, पर-याचित पीठादि में से अथवा रुग्णादि के लिए याचित में से नहीं। (4) गृहस्थ के घर से स्वयाचित सूई, कैंची, कानकुरेदनी, नहरनी आदि चीजें लाया हो तो उन चीजों को स्वयं जाकर उस गृहस्थ को विधिपूर्वक सोपे, अन्य किसी को नहीं। तात्पर्य इन चारों सूत्रों में स्थान, आहार, पीठ-फलकादि या सूई, कैंची आदि, जितनी भी वस्तुओं का साधु उपयोग या उपभोग करता है, उनके स्वामी या अधिकारी से अनुज्ञापूर्वक ग्रहण (अवग्रह) की विधि से उन सबकी याचना करना आवश्यक बताया है, और स्वयाचित वस्तुओं में से ही यथायोग्य सार्मिकों को मनुहार करके दिया जा सकता है। प्रातिहारिक रूप से स्वयाचित वस्तु (सूई आदि) को स्वयं जाकर वापस सोंपने की विधि बताई है। इन विधानों के पीछे कारण ये हैं---बिना अवग्रहयाचना किये ही किसी के स्थान का उपयोग करने से उस स्थान का स्वामी या अधिकारी ऋद्ध होगा, अपमानित करेगा, साधु को अदत्तादान दोष भी लगेगा / परयाचित या परार्थ-दूसरे किसी साधु के लिए याचित वस्तु को लेने की किसी साधर्मी साधु को मनुहार करने से उस साधु को बुरा लग सकता है, वह रुग्ण हो तो उसके अन्तराय लग सकता है। तथा प्रातिहारिकरूप से स्वयाचित वस्तुएँ दूसरे साधु को सौंप देने से वह वापस लौटाना भूल जाए या उससे वह चीज खो जाए तो दाता को साधुओं के प्रति अश्रद्धा पैदा हो जाएगी, वचन-भंग होगा, असत्य का दोष लगेगा। साधर्मिक, साम्भोगिक और समनोज में अन्तर-एक धर्म, एक देव और प्रायः एक सरीख वेश वाले सार्मिक साधु कहलाते हैं / साम्भोगिक वे कहलाते हैं, जिनके आचार-विचार और समाचारी एक हों, और समनोज्ञ वे होते है, जो उद्युक्त विहारी-आचार-विचार में अशिथिल हों / इसका समनुज्ञ रूपान्तर भी होता है, जिसका अर्थ होता है एक आचार्य या एक गुरु की अनुज्ञा मे विचरण करने वाले। शास्त्रीय विधान के अनुसार जो साधार्मिक होते हुए साम्भोगिक (बारह प्रकार के परस्पर सहोपभोग व्यवहारबाले) और समनोज्ञ साधु होते हैं, उनके साथ आहारादि या वन्दन व्यवहारादि का लेन-देन होता है, किन्तु अन्य साम्भोगिक के साथ शयनीय उपकरणों आदि का लेन-देन खला होता है। इसी अन्तर को स्पष्ट करने हेतु शास्त्रकार ने ये तीन विशेषण प्रयुक्त किये हैं। अवग्रह-वजित स्थान 612. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा अणंतरहिताए पुढवीए ससणिद्वाए पुढवीए' जाव संताणए, तहप्पगारं उग्गहं णो ओगिण्हेज्ज वा 2 / 1. यहाँ 'जाब' शब्द से 'पुढवीए' से संताणए तक का पाठ सूत्र-३५३ के अनुसार समझें। 2. 'णो ओगिण्हेज्ज वा' के बदले पाठान्तर है-'णो गिण्हेज्ज'। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 612-16 613. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं' जाणेज्जा थूर्णसि वा 4 जाव तहप्पगारे अंतलिक्खजाते दुम्बद्ध जाव णो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा। 614. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण उग्गहं जाणेज्जा कुलियंसि वा 4 जाव णो [उग्गह ओगिण्हेज्ज बा२। 615. से भिक्खू वा 2 [से ज्ज पुण उग्गहं जाणेज्जा] खंधसि वा 66, अण्णतरे वा तहप्पगारे जाव णो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा 2 / 616. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा सागारियं सागणियं सउदयं सइत्थि सखुड्डं सपसुभत्तपाणं णो पण्णस्स णिक्खम-पवेस जाव धम्माणुओगचिताए, सेवं णच्चा तहप्पगारे उवस्सए सागारिए जाव सखुड्ड-पसु-भतपाणे नो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा 2 / 617. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा गाहावतिकुलस्स मज्झमझेणं गंतुं पंथे (वत्थए) पडिबद्ध वा, णो पण्णस्स जाव", से एवं णच्चा तहप्पगारे उवस्सए णो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा 2 / 618. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा-इह खलु गाहावतो वा जाब कम्मफरीओ वा अन्नमन अक्कोसंति वा तहेव१२ तेल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि णिगिणा ठिता जहा सेज्जाए आलावगा, णवरं उग्गहवत्तव्वता / 1. 'से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं है / 2. 'थर्णसि वा' के आगे '4' का अंक सू० 576 के अनुसार शेष तीन पदों का सूचक है। 3. यहां जाव' शब्द सू० 576 के अनुसार 'दुवढे' से 'जो उग्गहं तक के पाठ का सूचक है। 4. 'ओगिण्हेज्ज बा' के आगे '2' का अंक पगिण्हेज्ज वा' पाठ का सूचक है। 5. 'कुलियंसि वा' के आगे 4 का अंक सूत्र-५७७ के अनुसार भित्तिसि वा' आदि शेष तीन पदों का सूचक है। 6. "खंधसि वा' के आगे 6 का अंक सत्र. 578 के अनसार 'मंचंसिवा' आदि अवशिष्ट 5 पदों का सूचक है। 7. 'सागारियं' के बदले 'ससागारियं' पाठान्तर है। 8. यहां 'जाव' शब्द सूत्र-३४८ के अनुसार 'निक्खम-पवेस' से 'धम्माणुओगचिताए' पाठ तक का सूचक है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द इसी सूत्र के अनुसार 'सागारिए' से लेकर 'सखुड्ड' पाठ तक का सूचक है। 10. 'गंतु पंथे पडिबद्धं' के बदले 'गंतु वत्थए' 'गंतु पंथपडिबद्ध' पाठान्तर है। 11. यहाँ 'जाव' शब्द 'पण्णस्स' से लेकर 'सेवं गच्चा' तक का पाठ सूत्र 348 के अनसार समझें। 12. 'तहेब' शब्द से सू०-.४४६, 550, 451, 452, 853 सूत्रों में वर्णित पाठ का समुरुचय में 'जहा सेज्जाए आलावग' कह कर सूचित किये गये हैं। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 616. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा आइण्णं सलेक्वं' णो पण्णस्स णिक्खम-पवेसाउ (ए) जाव' चिताए, तहप्पगारे उवस्सए णो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा 2 / / 612. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो सचित्त, स्निग्ध पृथ्वी यावत् जीव-जन्तु आदि से युक्त हो, तो इस प्रकार के स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा एक बार या अनेक बार ग्रहण न करे।। 613. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो भूमि से बहुत ऊंचा हो, ठूठ, देहली, खूटी, ऊखल, मूसल आदि पर टिकाया हुआ एवं ठीक तरह से बंधा हुआ या गड़ा या रखा हुआ न हो, अस्थिर और चल-विचल हो, तो ऐसे स्थान की भी अवग्रह-अनुज्ञा एक या अनेक बार ग्रहण न करे / 614. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह (स्थान) को जाने, जो घर की कच्ची पतली दीवार पर, या नदी के तट या बाहर की भींत, शिला, या पत्थर के टुकड़ों पर या अन्य किसी ऊँचे व विषम स्थान पर निर्मित हो, तथा दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, अस्थिर और चल-विचल हो तो ऐमे स्थान की भी अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण न करे। 615. साधु-साध्वी ऐसे अवग्रह को जाने जो स्तम्भ, मचान, ऊपर की मंजिल, प्रासाद पर या तलघर में स्थित हो या उस प्रकार के किसी उच्च स्थान पर हो तो ऐसे दुर्बट यावत् चल-विचल स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण न करे। 616. साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, जिसमें स्त्रियां, छोटे बच्चे अथवा क्षुद्र (नपुंसक) रहते हों, जो पशुओं और उनके योग्य खाद्य सामग्री से भरा हो, प्रज्ञावान् साधु के लिए ऐसा आवास स्थान निर्गमन-प्रवेश, वाचना यावत् धर्मानुयोग-चिन्तन के योग्य नहीं है। ऐसा जानकर उस प्रकार के गृहस्थ यावत् स्त्री, क्षुद्र तथा पशुओं तथा उनकी खाद्य-सामग्री से परिपूर्ण उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। 617. साधु या साध्वी जिस अवग्रह स्थान को जाने कि उसमें जाने का मार्ग गहस्थ के घर के बीचोंबीच से है या गृहस्थ के घर से बिल्कुल सटा हुआ है तो प्रज्ञावान् साधु का ऐसे स्थान में निकलना और प्रवेश करना तथा वाचना यावत् धर्मानुयोग-चिन्तन करना उचित नहीं है, ऐसा जानकर उस प्रकार के गृहपतिगृह-प्रतिबद्ध उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। 1. 'आइण्णं सलेक्ख' पाठ के बदले पाठान्तर हैं-"आइधणस्सलेवखं, आइण्णसंलेक्ख, आइन्नलेखं, आइण्ण सलेक्वं, आइन्नं सलेक्खं" आदि / 2. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र-३८८ के अनुसार निक्खमम-पवेसाउ' से लेकर 'धम्मचिताए' तक के पाठ का सूचक है। 3. ओगिण्हेज्ज वा के आगे "2' के अंक 'पगिण्हेज्ज वा' का सूचक है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 620 287 618. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह स्थान को जाने, जिसमें गृहस्वामी यावत् उसकी नौकरानियां परस्पर एक दूसरे पर आक्रोश करती हों, लड़ती-झगड़ती हों, तथा परस्पर एक दूसरे के शरीर पर तेल, घी आदि लगाते हों, इसीप्रकार स्नानादि, शीतल सचित्त या उष्ण जल मे गासिंचन आदि करते हों या नग्नस्थित हो इत्यादि वर्णन शय्याऽध्ययन के आलापकों की तरह यहाँ समझ लेना चाहिए / इतना ही विशेष है कि वहाँ वह वर्णन शय्या के विषय में है, यहाँ अवग्रह के विषय में है / अर्थात् -इस प्रकार के किसी भी स्थान को अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। 616. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह-स्थान को जाने जिस में अश्लील चित्र आदि अंकित या आकीर्ण हों, ऐसा उपाश्रय प्रज्ञावान् साधु के निर्गमन-प्रवेश तथा वाचना से धर्मानुयोग चिन्तन तक (स्वाध्याय) के योग्य नहीं है / ऐसे उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण नहीं करनी चाहिए। विवेचन-अन्याह-ग्रहण के अयोग्य स्थान--सूत्र 612 से 616 तक आठ सूत्रों से अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के लिए अयोग्य, अनुचित, अकल्पनीय, अशान्तिजनक एवं कर्मबन्धजनक स्थानों का शय्याऽध्ययन में उल्लिखित क्रम से उल्लेख किया है एवं उन स्थानों के अवग्रहयाचन का निषेध किया है।' इन सूत्रों का वक्तव्य एवं आशय स्पष्ट है / पहले वस्त्रषणापिण्डषणा-शय्या आदि अध्ययनों के सूत्र 353, 576, 577, 578, 420, 448, 446, 450, 451, 453, 453, 454 आदि सूत्रों में इसी प्रकार का वर्णन आ चुका है, और वहां उनका विवेचन भी किया जा चुका है। 620. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवट्ठोहि [समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि] / 620. यही (अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहण विवेक ही) वास्तव में साधु या साध्वी का समग्र आचार सर्वस्व है, जिसे सभी प्रयोजनों एवं ज्ञानादि से युक्त, एवं समितियों से समित होकर पालन करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहे / ' ---ऐसा मैं कहता हूँ। // प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 404 के आधार पर / 2. आवारांग (मूलपाठ टिप्पणी सहित) पृ० 221, 222 3. इसका विवेचन सु० 334 में किया जा नुका है। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध बीओ उदेसओ द्वितीय उद्देशक आम्रवन आदि में अवग्रह विधि-निषेध 621. से आगंतारेसु वा 4 अणुवीई उग्गहं जाएज्जा / जे तत्थ ईसरे जे समाधिट्ठाए ते उग्गहं अणुण्णवित्ता (ज्जा)-कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिणातं वसामो, जाव आउसो, जाव आउसंतस्स उग्गहे, जाव साहम्मिया, एताव उग्गहं ओगिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। 622. से किं पुण' तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा दंडए वा छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा तं णो अंतोहितो बाहि णोणेज्जा, बहियाओ वा णो अंतो पवेसेज्मा, सुत्तं वा ण पडिबोहेज्जा, णो तेसि किंचि वि अप्पत्तियं पडिणीयं करेज्जा। 623. से भिक्खू बा 2 अभिकखेज्जा अंबवणं उवाईच्छत्तए / जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिट्ठाएते उम्गहं अणुजाणावेज्जा-कामं खलु जाब विहरिस्सामो। से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? अह भिक्खू इच्छेज्जा अंबं भोत्तए वा [पायए वा / से ज्जं पुण अंबं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं तहप्पगारं अंबं अफासुयं जाब णो पडिगाहेज्जा। 624. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण अंबं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छछिण्ण अव्वोच्छिण्णं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 625. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण अंबं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं तिरिच्छछिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। 1. 'आगंतारेसु वा के आगे 8' का अंक शेष तीन पदों-आरामागारेसु वा गाहाबइकुलेसु वा परिया__क्सहेसु वा' का सूचक है / 2. 'से कि पुण' के बदले पाठान्तर है--'से यं पुण सेयं पडिणीयं करेज्जा। वह साधु जिस अवग्रह की ...."वह साधु प्रतिकूल व्यवहार करेगा तो उस अवग्रह (स्थान) की अनुज्ञा ग्रहण करने से क्या मतलब? 3. यहाँ 'जाब' शब्द सू०-४४४ के अनुसार छत्तए वा' से ' चम्मछेदणए' पाठ तक का सूचक है। 4. 'अपत्तियं पडिणीयं' के बदले पाठान्तर हैं----'अपत्तियं पडिणीय' अपत्तियं पडनीयं / अर्थ दोनों का वृत्ति कार के अनुसार इस प्रकार है- अप्पत्तियंति मनसः पीडाम्, तथा पडिणीयं = प्रत्यनीकता प्रतिकूलतां न विदध्यात् / अर्थात्- अप्पत्ति यं का अर्थ है - मन को पोड़ा न दे, पडिणीयं अर्थात् प्रत्यनी कता, प्रतिकूलता धारण न करे / 5. समाहिठाए के बदले पाठान्तर है-समहिट्ठिए = समधिष्ठित है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द से सूत्र 608 के अनुसार काम खलु से विहरिस्सामो तक का सारा पाठ समझें। 7. यहाँ 'जाव' शब्द अफासुयं से जो पडिगाहेज्जा तक के पाठ का सूत्र 325 के अनुसार समझें। 8. यहाँ जाव शब्द म० 325 के अनुसार फासुयं से पङिगाहेज्जा तक के पाठ का सूचक है। Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 626-32 289 626. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा अंबभित्तगं वा' अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंबसालगं वा अंबदालगं वा भोत्तए वा पायए वा, से ज्जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा जाव अंबदालगं वा सअंडं जाव संताणगं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 627. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा [जाव अंबदालगं वा] अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छच्छिण्णं [अव्वोच्छिण्णं | अफासुयं जाव नो पडिगाहेज्जा। 628. से ज्जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा [जाव अंबदालगं वा अप्पडं जाव संताणगं तिरिच्छच्छिष्णं वोच्छिष्णं फासुयं जाव पडिगाहज्जा। 626. से भिक्खू वा 2 अभिकंखेज्जा उच्छवणं उवागच्छित्तए / जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहियंसि [एवोग्गहियंसि ?] अह भिक्खू इच्छेज्जा उच्छं भोत्तए वा पायए वा. से ज्जं उच्छु जाणेज्जा सअंडं जाय णो पडिगाहज्जा अतिरिच्छच्छिण्णं तह व तिरिच्छच्छिाणे वि तहेव। 630. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा अंतरुच्छ्यं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयर्ग वा उच्छुसालगं वा भोत्तए वा पातए वा। से ज्जं पुण जाणेज्जा अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा सअंडं जाव णो पडिगाहज्जा। 631. से भिक्खू वा 2 से ज्नं पुण जाणेज्जा अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा अप्पंडं जाव नो पडिगाहेज्जा, अतिरिच्छच्छिणं तिरिच्छच्छिष्णं तहेव। 632. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा ल्हुसणवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिणि वि आलावगा, नवरं ल्हसुणं। 1. निशीथचूणि में अन्य आचार्य के अभिप्राय की माथा इस प्रकार है ____ अंबं केणति ऊणं, डगल, भित्तगं बऊम्भागो। चोयं सयाओ भणिता साल पुण अक्खयं जाण / / 4700 / इसका भावार्थ विवेचन में दिया गया है। -निशीथ बूणि उ०१५ पृ० 481/482 2. अंबदालग के बदले पाठान्तर है-अंबडालगं, अंबडगलं 3. यहाँ जाव शब्द से ईसरे से उपाहियंसि तक का पाठ सूत्र 606 के अनुसार समझें / 4. जहाँ जहाँ तहेव पाठ है, वहाँ उसी सन्दर्भ में पूर्व बणित पाठ के अनुसार पाठ समझ लेना चाहिए / 5. निशीथ चणि उद्देशक 16 में इक्ष-अवयवसूत्रान्तर्गत शब्दों का अर्थ इस प्रकार दिया है पन्वसहितं तु खंडं, तद्वज्जियं अंतरच्छुयं होइ। डगलं चक्कलिछेदो. मोयं पुण 'ल्लिपरिहीणं // 4411 // चोयं तु होति होरो सगलं पुण तस्स वाहिरा छल्ली। डालं पुण मुक्कं (सुक्क) वा इतरजुतं तप्पइठं तु / / 4412 / / भावार्थ विवेचन में आ चुका है। देखें। -निशीथ चूणि उ० 16 पृ० 66 6. किसी प्रति में 'उच्छुचोयगं' पाठ नहीं है, तो किसी में 'उच्छुडालगं' पाठ नहीं है, कहीं 'अंतरुच्छुयं' पाठ नहीं है, कहीं 'तिरिच्छच्छिण्णं' पाठ नहीं है। 1. 'तहेब' शब्द से यहाँ अंबवणं सूत्र 623, 24, 25 के अनुसार सारा पाठ समझें / Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कंध से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा ल्हसुगं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणणालगं' वा भोराए वा पायए वा / से ज्जं पुण जाणेज्जा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणबीजं वा सअंडं जाव णो पडि गाहे ज्जा / एवं अतिरिच्छच्छिण्णे वि / तिरिच्छच्छिष्णे जाव' पडिगाहे ज्जा। 621. साधु धर्मशाला आदि स्थानों में जाकर, ठहरने के स्थान को देखभालकर विचार पूर्वक अवग्रह की याचना करे / वह अवग्रह की अनुज्ञा मांगते हुए उक्त स्थान के स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) मे कहे कि -आयुष्मन् गृहस्थ ! आपको इच्छानुसार - जितने समय तक और जितने क्षेत्र में निवास करने की आप हमें अनुज्ञा देंगे, उतने समय तक और उतने ही क्षेत्र में हम ठहरेंगे। हमारे जितने भी सार्मिक साधु यहाँ आयेंगे, उनके निवास के लिए भी काल और क्षेत्र की सीमा की अनुज्ञा मांगने पर जितने काल और जितने क्षेत्र तक इस स्थान में ठहरने की आपकी अनुज्ञा होगी. उतने काल और क्षेत्र में वे ठहरेंगे / नियत अवधि के पश्चात् वे और हम यहां से विहार कर देंगे। 622. उक्त स्थान के अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या करे ? वह यह ध्यान रखे कि-वहाँ (पहले से ठहरे हुए) शाक्यादि श्रमणों या ब्राह्मणों के दण्ड, छत्र, यावत् चमच्छेदनक आदि उपकरण पड़े हों, उन्हें वह भीतर से बाहर न निकाले और न ही बाहर से अंदर रखे, तथा किसी सोए हुए श्रमण या ब्राह्मण को न जगाए / उनके साथ किंचित् मात्र भी अप्रीतिजनक या प्रतिकूल व्यवहार न करे, जिससे उनके हृदय को आघात पहुंचे। 623. वह साधु या साध्वी आम के वन (बगीचे) में ठहरना चाहे तो सर्वप्रथम वहाँ उस आम्रवन का जो स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) हो, उससे वे पूर्वोक्त विधि से अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करे कि आयुष्मन् ! आपकी इच्छा होगी उतने समय तक, उतने नियत क्षेत्र में हम आपके आम्रवन में ठहरेंगे, इसी बीच हमारे समागत सामिक भी इसी नियम का अनुसरण करेंगे / अवधि पूर्ण होने के पश्चात् हम लोग यहाँ से विहार कर जाएंगे। उस आम्रवन में अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके ठहरने पर क्या करे ? यदि साधु आम खाना या उसका रस पीना चाहता है, तो वहाँ के आम यदि अंडों यावत मकड़ी के जालों से युक्त देखे-जाने तो उस प्रकार के आम्रफलों को अप्रासक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे / 624. यदि साधु या साध्वी उस आम्रवन के आमों को ऐसे जाने कि वे ह तो अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित, किन्तु वे तिरछ कटे हुए नहीं हैं, न खण्डित है तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 625. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि आम अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित 1. 'णालगं' के बदले कहीं कहीं 'नाल' पाठ है। 2. यहां जान मब्द 'तिरिच्छछिणे' से पडिगाहेज्जा' तक के पाठ का नत्र 625 के अनुसार सूचक है। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 621-32 हैं, साथ ही वे तिरछे कटे हुए हैं और खण्डित हैं, तो उन्हें प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे। 626, यदि साधु या साध्वी आम का आधा भाग, आम की पेशी (फाडी-चौथाई भाग), आम की छाल, या आम की गिरी, आम का रस, या आम के बारीक टुकड़े खाना-पीना चाहे, किन्तु वह यह जानें कि वह आम का अर्ध भाग यावत् आम के बारीक टुकड़े अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 627. यदि साधु या साध्वी यह जानें कि आम का आधा भाग (फांक) यावत् आम के छोटे बारीक टुकड़े अंडों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित हैं, किन्तु वे तिरछे कटे हुए नहीं हैं. और न हीं खण्डित हैं तो उन्हें भी अप्रासुक एवं अनैषणीय जान कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 628. यदि साधु या साध्वी यह जान ले कि आम की आधी फांक से लेकर आम के छोटे बारीक टुकड़े तक अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं, तिरछे कटे हुए भी हैं और खण्डित भी हैं तो उस प्रकार के आम्र-अवयव को प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। 626. वह साधु या साध्वी यदि इक्षुवन में ठहरना चाहें तो जो वहाँ का स्वामी या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी हो, उसमें पूर्वोक्त विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा खोलकर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके वहां निवास करे। उस इक्षुवन की अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करने से क्या प्रयोजन ? (शास्त्रकार कहते हैं---) यदि वहाँ रहते हुए साधु कदाचित् ईख खाना या उसका रस पीना चाहे तो पहले यह जान ले कि वे ईख अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त तो नहीं है ? यदि वैसे हों तो साधु उन्हें अप्रासुक अनेषणीय जानकर छोड़ दे। यदि वे अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त तो नहीं हैं, किन्तु तिरछे कटे हुए या टुकड़े-टुकड़े किये हुए नहीं है. तब भी उन्हें पूर्ववत् जानकर न ले / यदि साधु को यह प्रतीति हो जाए कि वे ईख अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं, तिरछे कटे हुए तथा टुकड़े-टुकड़े किये हुए हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर प्राप्त होने पर वह ले सकता है / यह सारा वर्णन आम्रवन में ठहरने तथा आम्रफल ग्रहण करने--न करने की तरह समझना चाहिए। 630. यदि साधु या साध्वी ईख के पर्व का मध्यभाग, ईख की गँडेरी, ईख का छिलका या ईख का अन्दर का गर्भ, ईख की छाल या रस, ईख के छोटे-छोटे बारीक टुकड़े, खाना या पीना चाहे तो यदि पहले वह जान जाए कि वह ईख के पर्व का मध्यभाग यावत् ईख के छोटे-छोटे बारीक टकड़े अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उसप्रकार के उन इक्षअवयवों को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे। 631. साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वह ईख के पर्व का मध्यभाग यावत् ईख के Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध छोटे-छोटे कोमल टुकड़े अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित हैं, किन्तु तिरछे कटे हुए नहीं हैं, तो उन्हें पूर्ववत् जानकर ग्रहण न करे, यदि वह यह जान ले कि वे इक्षु-अवयव अंडों यावत् मकड़ी के जालों मे रहित हैं तथा तिरछे कटे हुए भी हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर वह ग्रहण कर सकता है / 632. यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन के वन (खेत) पर ठहरना चाहें तो पूर्वोक्त विधि में उसके स्वामी या नियुक्त अधिकारी से क्षेत्र-काल की सोमा खोलकर अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके रहे / अवग्रह ग्रहण करके वहाँ रहते हुए किसी कारणवश लहसुन खाना चाहे तो पूर्व सूत्रवत् दो बातें-अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त तथा तिरछे न कटे हुए हों तो न ले, यदि ये दोनों बातें न हों, और वह तिरछा कटा हुआ हो तो पूर्वोक्त विधिवत् ग्रहण कर सकता है। इसके तीनों आलापक पूर्वसूत्रवत् समझ लेने चाहिए। विशेष इतना ही है कि यहाँ 'लहसुन' का प्रकरण है। यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन, लहसुन का कंद, लहसुन की छाल या छिलका या रस अथवा लहसुन के गर्भ का आवरण (लहसुन का बीज) खाना-पीना चाहे और उसे ज्ञात हो जाए कि यह लहसुन यावत् लहसुन का बीज अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो पूर्ववत् जानकर ग्रह्ण न करे, यदि वह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, किन्तु तिरछा कटा हुआ नहीं तो भी उसे न ले, यदि तिरछा कटा हुआ हो तो पूर्ववत् प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ले सकता है। विवेचन-विभिन्न अवग्रहों को ग्रहण-विधि और कर्तव्य --सूत्र 621 से 632 तक 12 सूत्रों में अवग्रह-ग्रहण के विभिन्न मुद्दों पर विविध पहलुओं से विचार प्रस्तुत किये गए हैं। इनमें विशेष रूप से 4 बातों का निर्देश है-- (1) किसी स्थान रूप अवग्रह की अनुज्ञा लेने की विधि, (2) अवग्रह-ग्रहण करने के बाद वहां निवास करते समय साधु का कर्तव्य, (3) आम्रवन, इक्षवन एवं लहसुन के बन में अवग्रह-ग्रहण करके ठहरने पर ये तीनों वस्तुएं यदि अप्रासुक और अनेषणीय हों, तो सेबन करने का निषेध और (4) यदि ये वस्तुएं प्रासुक और एषणीय हो, और उस-उस क्षेत्र के स्वामी या अधिकारी मे यथाविधि प्राप्त हों तो साधु के लिए ग्रहण करने का विधान / ' आवासस्थानरूप अवग्रह-ग्रहण में सीमावद्धता क्यों ?--अगर स्थान रूप अवग्रह-ग्रहण में इतना स्पष्टीकरण अवग्रहदाता ने न किया जाए तो मुख्य रूप गे चार खतरों की सम्भावना है--(१) साधु वहाँ सदा के लिए या चिरकाल तक जम जाएँगे, ऐसी स्थिति में कदाचित् शय्यातर रुष्ट होकर अपमानित करके साधुओं को वहां से निकाल दे, (2) भविष्य में कभी 1. आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ पत्रांक 404-405 के आधार पर Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 621-32 अपना स्थान साधुओं को निवास के लिए देने में उत्साह न रहेगा; (3) साधुओं द्वारा अधिक क्षेत्र रोक लेने पर गृहस्थ को अपने अन्य कार्य करने में दिक्कतें होंगी और (4) इससे साधुओं के प्रति उपर्युक्त कारणों से अश्रद्धा पैदा हो जाएगी। स्थान रूप अवग्रह की अनुज्ञा लेते समय काल और क्षेत्र की सीमा बांधना अनिवार्य बताया है और अवग्रहदाता को पूर्ण आश्वस्त एवं विश्वस्त करने हेतु साधु को स्वयं वचनबद्ध होना पड़ता है / हां, यदि अवग्रहदाता उदारतापूर्वक यह कह दे कि आप जब तक और जितने क्षेत्र में रहना चाहें. खुशी से रह सकते हैं, तब साधु अपनी कल्पमर्यादा का विवेक करके रहे। अवग्रह-गहीत स्थान में निवास और कर्तव्य - प्रस्तुत सूत्र में से स्थान के विषय में कर्तव्य-निर्देश किया है, जहाँ पहले से शाक्य भिक्षु आदि श्रमण या ब्राह्मण अथवा गृहस्थ ठहरे हुए हैं। ऐसी स्थिति में साधु उनके सामान को न तो बाहर फेंके और न ही एक कमरे से निकाल कर दूसरे में रखे; अगर वे सोये हों या आराम कर रहे हों तो हल्ला गुल्ला करके उन्हें न उठाए, और न ऐसा कोई व्यवहार करे जिससे उन्हें कष्ट हो या उसके प्रति अप्रीति हो। यह तो सामान्य नैतिक कर्तव्य है। इसमे भी आगे बढ़कर साधु को अपने क्षमा, मैत्री, अहिंसा, मुदिता (प्रमोद), मृदुता, ऋजुता, संयम, तप, त्याग आदि धर्मों का अपने व्यवहार से परिचय देना चाहिए। यदि जरा-सी भी कोई अनुचित बात या कठोर व्यवहार अथवा अनुदारता अपने या अपने साथियों से हो गई हो तो उन पूर्व निवासी व्यक्तियों से उसके लिए क्षमा मांगनी चाहिए, वाणी में मृदुता और व्यवहार में सरलता इन दोनों श्रमण-गुणों का त्याग तो कथमपि नहीं करना चाहिए / प्रथम तो साधु को ऐसी सार्वजनिक सर्वजन संसक्त धर्मशाला आदि में अन्य एकान्त एवं सर्वजन विविक्त स्थान के रहते ठहरना ही नहीं चाहिए, यदि वैसा स्थान न मिले और कारणवश ऐसे स्थान में ठहरना पड़े तो अपने नैतिक कर्तव्यों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।' इसके साथ कुछ नैतिक कर्तव्य और भी है जिनका स्पष्टतः उल्लेख तो मूलपाठ में नहीं है, किन्तु णो तेसि किचि वि अप्पत्तियं पडिणीयं करेज्जा' पाठ से ध्वनित अवश्य होते हैं वे इस प्रकार हैं -(1) आवासीय स्थान को गंदा न करे, न ही कूडा-कर्कट जहां तहां डाले (2) मल-मूत्र आदि के परिष्ठापन में भी अत्यन्त विवेक से काम ले, (3) मकान या स्वच्छ रखे, (4) मकान को तोड़े-फोडे नहीं, (5) जोर-जोर चिल्ला कर, या आराम के समय शोर मचा कर शान्ति भंग न करे / (6) अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आगन्तुकों के साथ भी साधु का व्यवहार उदार एवं मृदु हो / यद्यपि इन नैतिक कर्तव्यों का समावेश साधु के द्वारा आचरणीय पांच समिति, तीन गुप्ति एवं अहिंसा महाव्रत में हो जाता है तथापि साधु को ....... - ....1. (क) आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ 804-405 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 आचारांग सूत्र--द्वितीय अतस्कन्ध इनका विशेष ध्यान रखना वर्तमानयुग में अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए यहाँ सूत्र में संक्षेप में उल्लेख कर दिया है।' आम्रवन निवास आदि से सम्बन्धित सूत्र-यपि तीन सूत्रों में इन तीनों वनों से सम्बन्धित अवग्रह-विवेक का समावेश हो जाता, तथापि विशेष स्पष्ट करने की दृष्टि से 10 सूत्रों में इनका वर्णन किया है। इन तीनों वनों (क्षेत्र) में निवास करने के सूत्र प्रणयन का रहस्य वृत्तिकार एवं चूर्णिकार दोनों ने संक्षेप में खोला है। चूर्णिकार के अनुसार आम्रवन में दारुक-दोष या अस्थिदोष नहीं होते, इसलिए किसी रोगादि कारणवश औषध के कार्य हेतु (वैद्यादि के निर्देश पर) श्रद्धालु श्रावक से गवेषणा करने पर वह प्रार्थना करता है, भगवन् ! मेरे आम्रवन में निवास करें। किसी वस्तु के गंध से भी व्याधि नष्ट होती है। जैसे रसोई की गंध से ग्लान को तृप्ति-सी होने लगती है, हर्डे की गंध से कई व्यक्तियों को विरेचन होने लगता है, स्वर्ण से व्याकुलता दूर होती है / ... "व्याधिनिवारण के निमित्त इक्षुवन में निवास करना उचित है / ... "लहशुन के वन में भी व्याधि के कारण रहा जा सकता है, इसलिए लहशुन का विकल्प भी प्रतिपादित किया गया है / वृत्तिकार का कथन है-कारण उपस्थित होने पर कोई साधु आम खाना चाहे........... प्रासुक आम कारण होने पर ले सकता है। यहां आम्रादि सूत्रों के अवकाश के सम्बन्ध में निशीथ सूत्र के 16 वें उद्देशक से जान लेना चाहिए। __ 'अंबभित्तग' आदि पदों का अर्थ---भित्तगं (भत्तगं)=आधाभाग या चतुर्थभाग पेसी = चौथाई भाग आम की लंबी फाडी चोयगं त्वचा या छाल (किसी के मत से) मोयगं - अंदर का गर्भ या गिरी सलागं = नखादि से अक्षुण्ण बाहर की छाल, अथवा रस / डालगं=छोटे-छोटे मुलायम टुकड़े अथवा डलगं (रूपान्तर) =जो लम्बे और सम न हों, ऐसे चक्रिकाकार खण्ड अथवा आधा भाग / अंतरुच्छुयं = पर्वरहित या पर्व का मध्य-भाग खंड == पर्व सहित भाग; गंडिका = गंडेरी 4 1. (क) दशवै० अ०८/४८ गा० 'अपसिय जेण सिया आसु कुष्येज्ज वा परो।" (ख) आचारांग मूलपाठ, वृत्ति पत्रांक 408-405 2. आचारांग चणि मू. पा. ठि. प्र. 023-24 में—'अंबवणे ण बदति, दारुय अटिठमादि दोसा, कारणे ओसहकज्जे सड्ढो मग्गिओ भणति--भगवं अंबवणे हाह / कस्सवि गंधेण चेव गस्सति वाही, जहा रसवईए गिलाणो, जहा वा हरीडईए गंधेण विरिच्चनि, हेमयाए कलं / ....."वाधिणिमित्त उक्खुबणेवि वाहिकारणे लसुणं विभासियव्वं / " 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक ८०५......."तत्रस्थश्च सति कारणे आन भोक्तुमिच्छेत् / ....""व्यवच्छिन्नं वत्प्रासुकं कारणे सति गम्हीयात ।....."आम्रादिस त्राणामवकाशो तिशीथषोडशकादवगन्तव्यः / " 4. (क) आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. 23 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 405 (ग) निशीथ चूणि उद्दे० 15, पृ. 481, 88. Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र 633-34 अवग्रह-ग्रहण में सप्त-प्रतिमा 633. से भिक्खू वा 2 आगंतारेसु वा 4 जावोग्गहियंसि' जे तत्थ गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा इच्चेयाइं आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा इमाहि सत्तहिं पडि - माहिं उग्गह ओगिहित्तए |1] तत्थ खलु इमा पढमा पढिमा--से आगंतारेसु वा' 4 अणुवीयि उग्गह जाएज्जा जाव विहरिस्सामो। पढमा पडिमा। [2] अहावरा दोच्चा पडिमा–जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं अट्ठाए उम्गह ओगिहिस्सामि, अण्णेसि भिक्खूणं उग्गह उग्गहिते उल्लिस्सामि / दोच्चा पडिमा। 3j अहावरा तच्चा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-'अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं अट्ठाए उग्गह ओगिहिस्सामि, असि च उग्गहें उग्गहिते णो उल्लिस्सामि'। तच्चा पडिमा। [4] अहावरा चउत्था पडिमा-जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति-'अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहणो ओगिहिस्सामि, अण्णेसि च उग्गह उग्गाहते उवल्लिस्सामि'। चउत्था पडिमा। [5] अहावरा पंचमा पडिमा–जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति 'अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए उग्गह ओगि हिस्सासि, जो बोह, णो तिह, णो चउण्ह, णो पंचण्ह' / पंचमा पडिमा। [6] अहावरा छट्ठा पडिमा-से भिक्खू वा 2 जस्सेव उग्गह उवल्लिएज्जा, जे तत्थ अहासमण्णागते तंजहा-इक्कडे वा जाव पलाले वा, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उपकुडुए वा सज्जिओ वा विहरेज्जा। छट्ठा पडिमा। . यहाँ 'जाव' शब्द 'आगंतारेस वा' से 'ओग्गहियंसि' तक के पाठ को मू० 621, 622 के अनुसार सूचित करता है। 2. आयतणाई के बदले पाठान्तर है--आयाणाई, आपणाई। 3. आगंतारेसु वा के आगे 4 का अंक स. 132 के अनुसार शेष तीनों स्थानों का सूचक है। 4. 'जाएज्जा' के बदले पाठान्तर है--'जाणे ज्जा' / अर्थ होता है जाने। 5. 'जाव' शब्द से यहाँ 'जाएज्जा' से 'बिहरिस्तामो' तक का पाठ सूत्र 608 के अनुसार समझें। 'उल्लिस्सामि' के बदले पाठान्तर है— “उल्लिसाभि', 'उवलिइस्सामि', उलिस्सामि / अर्थ समान 7. यहां जाव शब्द सू० 556 के अनुसार 'इक्कडे वा' से 'पलाले वा' पाठ तक का मूचन है / 8. 'तस्स अलाभे के बदले पाठान्तर हैं--तस्सालाभे, तस्सऽला। 6. 'णेसज्जिओ के बदले पाठान्तर हैं-'णेसज्जिए' Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [7] अहावरा सत्तमा पडिमा से भिक्खू वा 2 अहासंथडमेव, उग्गहं जाएज्जा, तंजहा–पुढविसिलं वा कसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा सज्जिओ वा विहरेज्जा / सत्तमा पडिमा। 634. इच्चेतासि' सत्तण्हं पडिमाणं अण्णतरि जहा पिडेसणाए। 633. साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे / अवग्रह-गृहीत स्थान में पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे। तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे / इसके अतिरिक्त अवगृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित (पूर्वोक्त) स्थानदोषों का परित्याग करके निवास करे। भिक्षु इन सात प्रतिमाओं के माध्यम से अवग्रह ग्रहण करना जाने-- (1) उनमें से पहली प्रतिमा यह है--वह साधु पथिकशाला आदि स्थानों की परिस्थिति का सम्यक् विचार करके अवग्रह की पूर्ववत् विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा के स्पष्टीकरण सहित याचना करे / इसका वर्णन स्थान की परिस्थिति का विचार करने से नियत अवधि पूर्ण होने के पश्चात् विहार कर देंगे तक समझना चाहिए। यह प्रथम प्रतिमा है। (2) इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प) होता है कि मैं अन्य भिक्षओं के प्रयोजनार्थ अवग्रह की याचना करूंगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह-स्थान (उपाश्रय) में निवास करूंगा / यह द्वितीय प्रतिमा है। (3) इसके अनन्तर ततीय प्रतिमा यों है—जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह याचना करूंगा, परन्तु दूसरे भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह स्थानों में नहीं ठहरूंगा। यह तृतीय प्रतिमा है। (4) इसके पश्चात् चौथी प्रतिमा यह है --जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा, किन्तु दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह स्थान में निवास करूंगा। यह चौथी प्रतिमा है। (5) इसके बाद पांचवीं प्रतिमा इस प्रकार है-जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि 1. चणिकार इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हैं---"अंतरादीवगं सुयं मे आउसंतेण भगवता, पंचविहे उग्गहे परवेयव्वे / एवं पिंडेसाणं सबज्झयणाण य / इत्यक्ग्रहप्रतिमा समाप्ता / अर्थात्-बीच में और आदि में 'सुयं मे आउसंतेण भगवता' इस प्रकार से कहकर शास्त्रकार को पंचविध अवग्रह की प्ररूपणा करनी चाहिए थी। (चणिकार के मतानुसार) इस प्रकार पिण्डैषणा की तथा समस्त अध्ययनों की अवग्रह प्रतिमा समाप्त हुई।" इस दृष्टि से सूत्र 636 से पहले ही यह अध्ययन समाप्त हो जाता है। यह सूत्र अतिरिक्त है। 2. 'जहा पिडेसणाए' शब्द से यहाँ पिण्डेपणा अध्ययन के सूत्र 410 के अनुसार वर्णन जान लेने का संकेत किया है। Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सत्र 633-34 267 मैं अपने प्रयोजन के लिए ही अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु दूसरे दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए नहीं। यह पांचवीं प्रतिमा है।। (E) इसके पश्चात छठी प्रतिमा यों है-जो साध जिसके अवग्रह (आवासस्थान) की याचना करता है उसी अवगृहीत स्थान में पहले से ही रखा हुआ शय्या-संस्तारक (बिछाने के लिए घास आदि) मिल जाए, जैसे कि इक्कड़ नामक तृणविशेष यावत् पराल आदि; तभी निवास करता है। वैसे अनायास प्राप्त शय्या-संस्तारक न मिले तो वह उत्कटुक अथवा निषद्या-आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करता है। यह छठी प्रतिमा है। (7) इसके पश्चात् सातवी प्रतिमा इस प्रकार है–साधु या साध्वी ने जिस स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा ली हो, यदि उसी स्थान पर पृथ्वीशिला, काष्ठशिला तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज संस्तृत पृथ्वीशिला आदि न मिले तो वह उत्कटुक या निषद्या-आसन पूर्वक बैठकर रात्रि व्यतीत कर देता है / यह सातवी प्रतिमा है। 634. इन सात प्रतिमाओं में से जो साधु किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करता है, वह इस प्रकार न कहे- मैं उग्राचारी हूँ, दूसरे शिथिलाचारी हैं, इत्यादि शेष समस्त वर्णन पिण्डषणा अध्ययन में किये गए वर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए। विवेचन-अवग्रह सम्बन्धी सप्त प्रतिमाएं-सूत्र 633 और 634 में अवग्रह-याचना सम्बन्धी सात प्रतिज्ञाएँ (अभिग्रह) और उनका स्वरूप बताने के अतिरिक्त प्रतिमा-प्रतिपन्न साध का जीवन कि ना सहिष्ण, समभावी एवं नम्र होना चाहिए, यह भी उपसंहार में बता दिया है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इन सातों प्रतिमाओं का स्वरूप क्रमश: इस प्रकार होगा —“सात प्रतिमाएं हैं। जितनी भी अवग्रह याचनाएं हैं, वे सब इन सातों प्रतिमाओं के अन्दर आ जाती हैं (1) प्रथम प्रतिमा-सांभोगिकों की सामान्य है। धर्मशाला आदि के सम्बन्ध में पहले से विचार करके प्रतिज्ञा करता है कि 'पसा ही उपाश्रय मुझे अवग्रह के रूप में ग्रहण करना है, अन्यथाभूत नहीं।' (2) दूसरी प्रतिमा-गच्छान्तर्गत साम्भोगिक साधुओं की तथा असाम्भोगिक उद्य क्तविहारी साधुओं की होती है। जैस--"मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह-याचना करूँगा, दूसरों के गृहीत अवग्रह में रहूंगा।" (3) तीसरी प्रतिमा-आहालदिक साधुओं और आचार्यों की होती है, कारण विशेष में अन्य साम्भोगिक साधुओं की भी होती है। जैसे—मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु दूसरों के अवगृहीत अवग्रह में नहीं ठहरू गा। (4) चौथी प्रतिमा-गच्छ में स्थित अभ्युद्यतविहारियों तथा जिनकल्पादि के लिए परिकर्म करने वालों की होती है। जैसे—“मैं दूसरों के लिए अवग्रह-याचना नहीं करूंगा, दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह में रहूँगा।" Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध (5) पांचवीं प्रतिमा-जिनकल्पिक की या प्रतिमाधारक साधु की होती है। यथा"मैं अपने लिए अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु अन्य दो, तीन, चार, पांच साधुओं के लिए नहीं।" (6) छठी प्रतिमा--यह भी जिनकल्पिक आदि मुनियों की या जिनभगवान् (वीतराग) की होती है / जैसे-मैं जिस अवग्रह (स्थानरूप अवग्रह) को ग्रहण करूंगा, उसी में अगर शय्यासंस्तारक (घास आदि) होगा तो ग्रहण करूगा (बाहर से अन्दर ले जाने या अन्दर से बाहर घास आदि संस्तारक निकालने का इसमें पूर्ण निषेध है) अन्यथा, उत्कटुक या निषद्याआसन से बैठकर रात्रि बिता दूंगा।" (7) सातवी प्रतिमा--यह भी जिनकल्पिक आदि मुनियों की या वीतरागों की होती है / जैसे--मैं जिस अवग्रह को ग्रहण करूगा, वहाँ यदि पहले से ही स्वाभाविक रूप से पृथ्वीशिला या काष्ठशिला आदि बिछाई हुई होगी तो ग्रहण करूगा, अन्यथा उत्कटुक या निषद्याआसन में बैठकर रात बिता दूंगा। सातों प्रतिमाओं में से किसी भी एक प्रतिमा का धारक साधु पिण्डैषणा-प्रतिमा-प्रतिपन्न की तरह आत्मोत्कर्ष, अभिमान आदि से रहित, समभाव में स्थित होकर रहे / ' "उल्लिस्सामि" आदि पदों का अर्थ---उल्लिस्सामि = आश्रय लूँगा, निवास करूगा / अहासमण्णागते = यथागत, पहले से जैसा है, वैसा ही / अहासंथङ = जैसा बिछा हुआ हो, जो भी संस्तारक हो, स्वाभाविक रूप से बिछा हो / ' पंचविध अवग्रह 635. सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-देविदोग्गहे 1, राओग्गहे 2, गाहावतिउग्गहे 3, सागारियउग्गहे 4, साधम्मियउग्गहे 5 / 635. हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान् से इस प्रकार कहते हुए सुना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने पांच प्रकार का अवग्रह बताया है, जैसे कि-(१) देवेन्द्रअवग्रह, (2) राजावग्रह, (3) गृहपति-अवग्रह, (4) सागारिक-अवग्रह, और (5) सार्मिकअवग्रह। 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 225 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 3. 'राओग्गहें' के बदले पाठान्तर हैं—रायाउग्गहे, रायोउग्गहे, राय-उग्गहे, राउग्गहे, राउउग्गहे, रायो ग्गहे आदि / अर्थ एक-सा है। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 636 296 विवेचन--(पांच प्रकार के अक्ग्रह)-प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के अवग्रह, अवग्रहदाताओं की दृष्टि से बताए हैं / अर्थात् देवेन्द्र सम्बन्धी अवग्रह राजा सम्बन्धी अवग्रह आदि / अथवा देवेन्द्र का अवग्रह, राजा का अवग्रह आदि पांच प्रकार के अवग्रहों की याचना साधु के लिए जिनशासन में विहित है। 636. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 636. यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों सहित सदा प्रयत्नशील रहे / // सत्तमज्झयणं उग्गहपडिमा समत्ता॥ // प्रथम चूला सम्पूर्ण // Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त सप्तिका : द्वितीय चूला स्थान-सप्तिका : अष्टम अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र (द्वि० श्रत०) के आठवें अध्ययन का नाम स्थान-सप्तिका है। - यहाँ से सप्त-सप्तिका नाम की द्वितीय चूला प्रारम्भ होती है। - साधु को रहने तथा अन्य धार्मिक क्रियाएँ करने के लिए स्थान की आवश्यकता अनि वार्य है। स्थान के बिना वह स्थिर नहीं हो सकता। साधु जीवन में केवल चलना, खड़े रहना या थोड़ी देर बैठना ही नहीं है यथासमय उसे शयन, प्रतिलेखन, प्रवचन, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करने के लिए स्थिर भी होना पड़ता है। किन्तु साधु कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, आहार, उच्चार-प्रस्रवणादि के लिए किस प्रकार के स्थान में, कितनी भूमि में, कब तक, किस प्रकार से स्थित हो? इसका विवेक करना अनिवार्य है। साथ ही कायोत्सर्ग के समय स्थान से सम्बन्धित प्रतिज्ञाएँ भी होनी आवश्यक है, ताकि स्थान के सम्बन्ध में जागृति रहे / इसी उद्देश्य से 'स्थान-सप्तिका' अध्ययन का प्रति पादन किया गया है।' - जहाँ ठहरा जाए, उसे स्थान कहते हैं। यहाँ द्रव्यस्थान-ग्राम, नगर यावत् राजधानी में ठहरने योग्य स्थान विवक्षित है / औपशमिकभाव आदि या स्वभाव में स्थिति करना आदि भाव स्थान विवक्षित नहीं है। - साधु को कैसे स्थान का आश्रय लेना चाहिए? ऊर्ध्व (प्रशस्त) या उक्त भाव स्थान आदि प्राप्त करने के लिए द्रव्य-स्थान के सम्बन्ध में प्रतिपादन है ? र स्थान (ठाणं) एक विशेष पारिभाषिक शब्द भी है, शय्याऽध्ययन में जगह-जगह इस शब्द का प्रयोग किया गया है-कायोत्सर्ग अर्थ में / वहाँ 'ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा' वाक्य-प्रयोग यत्र-तत्र किया है। यही कारण है कि स्थान (कायोत्सर्ग) सम्बन्धी चार प्रतिमाएं इस अध्ययन के उत्तरार्द्ध में दी गई हैं / अतः द्रव्यस्थान एवं कायोत्सर्ग रूप स्थान के सात विवेक सूत्रों का वर्णन इस अध्ययन में है। 5 यद्यपि सात अध्ययनों में सातों ही सप्तिकाएँ एक-से-एक बढ़कर हैं, सातों ही उद्देशक रहित हैं, तथापि सर्वप्रथम स्थान के सम्बन्ध में कहा जाना अभीष्ट है, इसलिए सर्वप्रथम स्थान-सप्ततिका' नामक अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है।' 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 के आधार पर 2. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 320 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 / 3. आचारांग मूल पाठ सु० 410 से 423 तक वृत्ति सहित पत्रांक 4. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 806 / Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // वीआ चूला // अट्ठमं अज्झयणं 'ठाणसत्तिक्कयं' स्थान-सप्तिका : अष्टम अध्ययन : अण्डादि युक्त-स्थान ग्रहण-निषेध 637. से भिक्खू वा 2 अभिकखेति' ठाणं ठाइत्तए / से अणुपविसेज्जा गामं वा नगर वा जाव' संणिवेसं वा / से अणुपविसित्ता गाम वा जाव संणिवेसं वा से ज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा सअंडं जाव मक्कडासंताणयं, तं तहप्पगारं ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / एवं सेज्जागमेण नेयव्वं जाव उदयपसूयाई ति। 637. साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुंचे। वहां पहुंच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। इसीप्रकार इस आगे का यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी वर्णन शय्यैषणा अध्ययन में निरूपित वर्णन के समान जान लेना चाहिए। विवेचन --कैसे स्थान में न ठहरे, कैसे में ठहरे ?–प्रस्तुत सूत्र में शय्यैषणा अध्ययन की तरह स्थान सम्बन्धी गवेषणा में विवेक बताया गया है। शय्या के बदले यहाँ स्थान समझना चाहिए। एक सूत्र तो यहाँ दे दिया है, शेष सूत्रों का रूप संक्षेप में इस प्रकार समझ लेना चाहिए-... (1) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त स्थान न हो तो उसमें ठहरे / (2) एक साधार्मिक यावत् बहुत-सी सार्मिणियों के उद्देश्य से समारम्भपूर्वक निर्मित, क्रीत, पामित्य आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत स्थान पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो अथवा अनासेवित, उसमें न ठहरे / 1. 'अभिकखेति' के बदले 'अभिकं खति', 'अभिकखेज्जा' पाठान्तर है, अर्थ एक-सा है। 2. यहाँ 'जाव' शब्द सु० 224 के अनुसार 'गामं वा' से 'संणिवेसं वा' तक के पाठ का सूचक है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द सू० 324 के अनसार 'सअंड' से 'मक्कडासंताणयं' तक के पाठ का सूचक है। 4. यहाँ 'जाव' शब्द से शय्याऽध्ययन के सू० 412 से 17 तक उदकपमताणि कंदाणि.......चेतेज्जा ' तक का समग्र वर्णन समझें। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (3) बहुत-से श्रमणादि को गिन-गिनकर औद्देशिक यावत् अभिहृत दोषयुक्त स्थान हो, तो न ठहरे। (4) बहुत-से श्रमणादि के उद्देश्य से निर्मित, क्रीतादि दोषयुक्त तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासे वित स्थान में न ठहरे / (5) ऐसे पुरुषान्तरकृत स्थान में ठहरे। (6) साधु के लिए संस्कारित-परिकर्मित और अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित स्थान में न ठहरे। (7) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित स्थान में ठहरे। (8) साधु के लिए द्वार छोटे या बड़े बनवाए, यावत् भारी चीजों को इधर-उधर हटाए, बाहर निकाले, ऐसे अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासवित स्थान में न ठहरे। (9) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित स्थान में ठहरे। (10) साधु को ठहराने के लिए उसमें पानी से उगे हुए कंदमूल यावत् हरी को वहाँ से हटाए, उखाड़े, निकाले, फिर वह अपुरुषान्तर कृत यावत् अनासेवित स्थान हो तो उसमें न ठहरे। (11) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उसमें ठहरे।' इन 11 आलापकों के अतिरिक्त चूर्णिकार के मतानुसार और भी बहुत से आलापक हैं, जैसे कि-जो स्थान अनन्तरहित (सचेतन) पृथ्वी यावत् जीवों से युक्त हो, जहाँ दुष्ट मनुष्य सांड, सिंह, सर्प आदि का निवास हो या खतरा हो, जो ऊँचा हो और जिस पर चढ़ने में फिसल जाने का भय हो, जो विषम ऊबड़-खाबड़ या बहुत नीचा या बहुत ऊँचा स्थान हो, जिस स्थान पर गृहस्थ द्वारा पश्चात्कर्म करने की सम्भावना हो, जो स्थान सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि से युक्त या प्रतिष्ठित हो, जिस स्थान में स्त्री, पशु, क्षुद्र प्राणी तथा नपुंसक का निवास हो, जहाँ गृहस्थ का परिवार अग्नि जलाना, स्नानादि करना आदि सावद्यकर्म करता हो, जहाँ गृहस्थ का परिवार व पारिवारिक महिलाएं रहती हों, जिस स्थान में से बार-बार गृहस्थ के घर में जाने-आने का मार्ग हो, जहाँ गृहस्थ के पारिवारिक जन परस्पर लड़ते-झगड़ते हों, हैरान करते हों। जहाँ परस्पर तेल आदि का मर्दन किया जाता हो, जहाँ पड़ोस में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के शरीर पर पानी छींटते यावत् स्नान कराते हों, जहाँ बस्ती में नग्न या अर्धनग्न स्त्री-पुरुष परस्पर मैथुन सेवन की प्रार्थना करते हों, रहस्यमंत्रणा करते हों, जहाँ नग्न या अश्लील चित्र अंकित हों इत्यादि स्थानों में साधु निवास न करे / ____ इसके अतिरिक्त गांव आदि में जिस स्थान में दो, तीन, चार या पांच साधु समूह रूप से ठहरें, वहाँ एक दूसरे के शरीर से आलिंगन आदि मोहोत्पादक दुष्क्रियाओं से दूर रहे / इन 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 360-361; सूत्र 412 से 418 तक / Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र 638-39 दोषों की सम्भावना के कारण एक साधु दूसरे साधु से कुछ अन्तर (दूर)-कोई विशेष कारण न हो तो दो हाथ के फासले पर-सोए 11 निष्कर्ष यह है "स्थानेषणा के सन्बन्ध में चूर्णिकार सम्मत बहुत-से सूत्रपाठ हैं, जो वर्तमान में आचारांग सूत्र में उपलब्ध नहीं हैं।' चार स्थान प्रतिमा 638. इच्चेताई आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू इच्छेज्जा चहि पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए। [1] तत्थिमा पढमा पडिमा---अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा, अवलंबेज्जा, कारण विप्परिकम्मादी, सवियारं ठाणं ठाइस्सामि / पढमा पडिमा। [2] अहावरा दोच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा, अवलंबेज्जा, णो कारण विप्परिकम्मावो, णो सविधारं ठाणं ठाइस्सामि ति दोच्चा पडिमा / [3] अहावरा तच्चा पडिमा अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा, अवलंबेज्जा, णो कारण विष्परिकम्मादी, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि त्ति तच्चा पडिमा / 14} अहावरा चउत्था पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा, णो अवलंबेज्जा, णो कारण विप्परिकम्मादी, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, वोसटकाए वोस?केस-मंसु-लोम-णहे संणिरुद्ध वा ठाणं ठाइस्सामि त्ति चउत्था पडिमा। 636. इच्चेयासि चउण्हं पडिमाण जाव पग्गहियतरायं विहरेज्जा, णेव किंचि वि वदेज्जा। (क) आचारांग सूत्र मूलपाठ सू० 416 से 441, तथा 443 से 454 तक वृत्ति सहित / (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 228 / "इदाोण सम्वीस सुत्तालावगा-से भिक्खू वा भिक्खूणीवा अभिकखेज्ज ठाणं ठाइत्तए स अंडादिसू ण ठाएज्जा / अणतरहियाए पढवादी जाव आइण्णसलेक्ख आलावगसिद्धा / गामादिसु एगो वा 2, 3, 4, 5 तेहि सद्धि एगततो ठाणं ठाएमाणे आलिंगणा बज्जेज्ज / जम्हा एते दोसा तम्हा अंतरा सुवंति, दो हत्था अणाबाधा / " 2. आचारांग मूलपाठ टिप्पण–सम्पादक का मत-- "इत आरभ्य बहुषु सूत्रषु चूणिकृतां सम्मतो भूयात् सूत्रपाठः सम्प्रति आचारांगमूत्र नोपलभ्यत इति ध्येयम् / " पृ० 228 / 3. विष्परिकम्मादी' के बदले पाठान्तर हैं -'विप्परकम्मादी', 'विपरिकम्मादी', विप्परक्कम्मादी' / अर्थ समान है। 6. चूणिकार के अनुसार 'त्ति चउत्था पडिमा' (सू० 638/4) के बाद ही 'स्थानसस्तिका' अध्ययन ___ समाप्त हो जाता है। आगे के दो सूत्र उनके मतानसार नहीं है पढमं ठाण सत्तिकयं समाप्तम् / पृ० 226 5. यहाँ 'इच्चेयासि' के बदले पाठान्तर है--'इच्चेयाणं' / 6. यहाँ 'जाव' शब्द से 'पडिमाणं' से 'पगगहियतरायं' तक का ममग्र पाठ सू० 410 के अनसार समझें / Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 638. इन पूर्वोक्त तथा वक्ष्यमाण कर्मोपादानरूप दोष स्थानों को छोड़कर साधु इन (आगे कही जाने वाली) चार प्रतिमाओं का आश्रय लेकर किसी स्थान में ठहरने की इच्छा करे। [1] इन चारों में से प्रथम प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार है-मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में निवास करूगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर में सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूंगा, तथा वहीं (मर्यादित भूमि में ही) थोड़ा-सा सविचार पैर आदि से विचरण करूगा / यह पहली प्रतिमा हुई। [2] इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा का रूप इस प्रकार है-मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा और अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूंगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूंगा; किन्तु पैर आदि से मर्यादित भूमि में थोड़ा-सा भी विचरण नहीं करूगा। [3] इसके अनन्तर तृतीय प्रतिमा में कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहंगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूंगा, किन्तु हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण एवं पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण नहीं करूंगा। [4] इसके बाद चौथी प्रतिमा यों है --मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्तस्थान में स्थित रहंगा / उस समय न तो शरीर से दीवार आदि का सहारा लूगा, न हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण करूंगा, और न ही पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण करूंगा। मैं कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ। केश, दाढ़ी, मुंछ, रोम और नख आदि के प्रति भी ममत्व-विसर्जन करता हूं। और कायोत्सर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके इस स्थान में स्थित रहूंगा। 636. साधु इन (पूर्वोक्त) चार प्रतिमाओं से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके विचरण करे। परन्तु प्रतिमा ग्रहण न करने वाले अन्य मुनि की निन्दा न करे, न अपनी उत्कृष्टता की डींग हांके / इस प्रकार की कोई भी बात न कहे। विवेचन-स्थान सम्बन्धी चार प्रतिज्ञाएँ-प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए स्थान में स्थित होने पर स्वेच्छा से ग्राह्य 4 प्रतिज्ञाएं (अभिग्रह विशेष) बताई गई है। वे चार प्रतिज्ञाएं संक्षेप में ये हैं (1) अचित्त स्थानोपाश्रया, (2) अचित्तावलम्बना, (3) हस्तपादादि परिक्रमणा, (4) स्तोक पादविहरणा। प्रथम में ये चारों ही होती है, फिर उत्तरोत्तर एक-एक अन्तिम कम होती जाती है। इन चारों की व्याख्या चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है (1) प्रथम प्रतिमा का स्वरूप-चार प्रकार से कायोत्सर्ग में स्थित हो--अचित्त (स्थान) का (कायोत्सर्ग में) आश्रय लेकर रहता है, दीवार, खभ आदि अचित्त वस्तुओं का पीठ से, Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र 640 या पीठ एवं छाती से सहारा लेता है / हाथ लम्बा रखने से थक जाने पर आगल आदि का सहारा लेता है। अपने स्थान की मर्यादित भूमि में ही काय-परिक्रमण—परिस्पन्दन करता है, यानी हाथ, पैर आदि का संकोचन-प्रसारणादि करता है और थोड़ा-सा पैरों से चंक्रमण करता है। (सवियार का अर्थ है-चंक्रमण, अर्थात्-पैरों से थोड़ा-थोड़ा विचरण विहरण करना, चहलकदमी करना) यानी वह विहरणरूप स्थान में ही स्थित रहता है / तात्पर्य यह है कि पैरों से उतना ही चंक्रमण करता है, जिससे मल-मूत्र विसर्जन सखपूर्वक हो सके।' दूसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त आलम्बन एवं परिस्पदन (आकुञ्चनप्रसारणादि क्रिया वाणी एवं काया से) करता है, पैरों आदि से चंक्रमण नहीं करता। तीसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त केवल आलम्बन ही लेता है, परिस्पन्दन और परिक्रमण (चंक्रमण) नहीं करता और चौथी प्रतिमा में तो इन तीनों का परित्याग कर देता है / चतुर्थ प्रतिमा के धारक का स्वरूप यह है कि वह परिमित काल तक अपनी काया का व्युत्सर्ग कर देता है, तथा अपने केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम-नख आदि पर से भी ममत्व विसर्जन कर देता है, इसप्रकार शरीरादि के प्रति ममत्व एवं आसक्तिरहित होकर वह सम्यक् निरुद्ध स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग करता है, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके सुमेरु की तरह निष्कम्प रहता है / यदि कोई उसके केश आदि को उखाड़े तो भी वह अपने स्थान कायोत्सर्ग से विचलित नहीं होता। ___'संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि' पाठ मानकर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं सन्निरुद्ध कैसे होता है ? समस्त प्रवृत्तियों का त्याग करके, इधर-इधर तिरछा निरीक्षण छोड़कर एक ही पुद्गल पर दृष्टि टिकाए हुए अनिमिष (अपलक) नेत्र होकर रहना सन्निरुद्ध होना कहलाता है। इसमें साधक को अपने केश, रोम, नख, मूंछ आदि उखाड़ने पर भी विचलितता नहीं होती। 640. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा जाव जएज्जासि त्ति बेमि। 640. यही (स्थानेषणा विवेक ही) उस भिक्षु या भिक्षुणी का आचार-सर्वस्व है। जिसमें सभी ज्ञानादि आचारों से युक्त एवं समित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे। // अष्टम अध्ययन ; प्रथम सप्तिका समाप्त // 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 228 पर--'चहि ठणहि ठाएज्जा, अचित्तं अवसज्जिस्सामि, अवसज्जणं अवत्थंभणं, कुड्डे खंभादिसु वा पट्टीए बा, पट्टीए उरेण वा अवलंबणं, हत्थेण संबंता परिस्संता अग्मलादिसु अवलंबति / ठाण-परिच्चातो कायविपरिक्कमणं / सवियारं चंक्रमणमित्यर्थः; उच्चार पासवणादि सुहं भवति ते जाणेज्जा।" 2. "संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि-कहं सन्निरुद्ध ? अप्पजसमि (य) ति (?) अप्पतिरियं एगपोग्गल दिट्री अणि मिसणयणे विभासियवं परूढणहकेसमंसू....."।" 3. 'जाव' शब्द से यहाँ सू० 334 के अनुसार 'मिक्खुणोए वा' से 'जएज्जासि' तक का समग्र पाठ समझें। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषोधिका : नवम अध्ययन प्राथमिक म आचारांग सूत्र (द्वि० श्र त०) के नौवें अध्ययन का नाम 'निषीधिका' है। र 'निषीधिका' शब्द भी जैन शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द है। यों तो निषीधिका का सामान्य रूप से अर्थ होता है-बैठने की जगह / - प्राकृत शब्द कोष में निषीधिका के निशीथिका, नषेधिकी आदि रूपान्तर तथा श्मशान भूमि, शवपरिष्ठापनभूमि, बैठने की जगह, पापक्रिया के त्याग की प्रवृत्ति, स्वाध्याय भूमि, अध्ययन स्थान आदि अर्थ मिलते हैं।' 5 प्रस्तुत प्रसंग में निषीधिका या निशीथिका दोनों का स्वाध्यायभूमि अर्थ ही अभीष्ट है। स्वाध्याय के लिए ऐसा ही स्थान अभीष्ट होता है, जहाँ अन्य सावध व्यापारों, जनता की भीड़, कलह, कोलाहल, कर्कशस्वर, रुदन आदि अशान्तिकारक बातों, गंदगी, मल-मूत्र, कड़ा डालने आदि निषिद्ध ब्यापारों का निषेध हो। जहाँ चिन्ता, शोक, आर्तध्यान रौद्रध्यान मोहोत्पादक रागरंग आदि कुविचारों का जाल न हो, जो सुविचारों की भूमि हो, स्वस्थ चिन्तनस्थली हो / दिगम्बर आम्नाय में प्रचलित 'नसीया' नाम इसी 'निसीहिया' का अपभ्रष्ट रूप है।' . - वह निषीधिका ('स्वाध्यायभूमि') कैसी हो? वहाँ स्वाध्याय करने हेतु कैसे बैठा जाए? कहाँ बैठा जाए? कौन-सी क्रियाएँ वहां न की जाएं ? कौन-सी की जाएं ? इत्यादि स्वाध्यायभूमि से सम्बन्धित क्रियाओं का निरूपण होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'निषोधिका' या 'निशीथिका' रखा गया है। अथवा निशीथ एकान्त या प्रच्छन्न को भी कहते हैं / निशीथ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चार प्रकार का है / द्रव्य-निशीथ यहाँ जनता के जमघट का अभाव है, क्षेत्र-निशोथ -एकान्त, शान्त, प्रच्छन्न एवं जनसमुदाय के आवागमन से रहित क्षेत्र है, काल-निशीथ --जिस काल में स्वाध्याय किया जा सके / और भाव-निशीथ-नो आगमतः, यह अध्ययन है। जिस अध्ययन में द्रव्य क्षेत्रादि चारों प्रकार से निषीथिका का प्रतिपादन हो, वह निशीथिका अध्ययन है। इसे निषीधिका-सप्तिका भी कहते हैं। यह दूसरी सप्तिका है। 1. 'पाइअ-सहमहयण बो' 10 414 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 408 के आधार पर Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं 'मिसीहिया' सत्तिक्कयं निषोधिका : नवम अध्ययन : द्वितीय सप्तिका निषोधिका-विवेक 641. से भिक्खू वा 2 अभिकखति' णिसोहियं गमणाए / से [ज्ज] पुण णिसोहियं जाणेज्जा सअंडं सपाणं जाव मक्कडासंताणय, तहप्पगारं णिसीहियं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो चेतिस्सामि। 642. से भिक्खू वा 2 अभिकखति णिसीहियं गमणाए, से ज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा अप्पपाणं अप्पबीयं जाव मक्कडासंताणयं तहप्पगारं णिसोहियं फासुयं एसणिज्जं लाभे संते चेतिस्सामि। एवं सेज्जागमेण तव्वं जाव उदयपसूयाणि ति। 641. जो साधु या साध्वी प्रासुक-निर्दोष स्वाध्यायभूमि में जाना चाहे, वह यदि ऐसी स्वाध्यायभूमि (निषीधिका) को जाने, जो अंडों, जीव जन्तुओं यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो तो उस प्रकार की निषीधिका को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर मिलने पर कहे कि में इसका उपयोग नहीं करूंगा। 642. जो साधु या साध्वी प्रासुक-निर्दोष स्वाध्यायभूमि में जाना चाहे, वह यदि ऐसी स्वाध्यायभूमि को जाने, जो अंडों, प्राणियों, बीजों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त न हो, तो उस प्रकार की निषीधिका को प्रासुक एवं एषणीय समझ कर प्राप्त होने पर कहे कि मैं इसका उपयोग करूंगा। निषीधिका के सम्बन्ध में यहां से लेकर उदक-प्रसूत कंदादि तक का समग्र वर्णन शय्या (द्वितीय) अध्ययन के अनुसार जान लेना चाहिए / विवेचन-निषोधिका कैसो न हो, कैसी हो?-प्रस्तुत सूत्र द्वय में निषाधिका से सम्बन्धित 1. इसके बदले पाठान्तर हैं--'खसि', 'कखेज्ज' 2. "णिसोहियं गमणाए' के बदले कहीं-कहीं पाठ है-"णिसीहियं फासुयं गमणाए" अर्थात्-प्रासुक निषीधिका प्राप्त करने के लिए। 3. 'गमणाए' के बदले पाठान्तर है- 'उवाच्छित्तए' / अर्थ होता है-निकट जाना या प्राप्त करना। 4. निषोधिका में गमन करने का उद्देश्य वृत्तिकार के शब्दों में-'स भावभिक्षुर्यदि वसतेरुपहताया अन्यत्र निषीथिका स्वाध्यायभूमि गन्तुमभिकांक्षेत्...' वह भावभिक्षु वसति दूषित होने से यदि अन्यत्र निषीधिका में जाना चाहता है......। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध निषेध एवं विधान किया गया है। इसमें शय्या-अध्ययन (द्वितीय) के सू०.४१२ से 417 तक के समस्त सूत्रों का वर्णन समुच्चय-रूप में कर दिया गया। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने स्वयं कहा है-'एवं सेज्जागमेण तव्वं जाव उदयपसूयाणि / ' प्रस्तुत सूत्र द्वय में शय्या-अध्ययन के 412 सूत्र का मन्तव्य दे दिया है। अब 413 सू० से 417 तक के सूत्रों का संक्षेप में निषीधिका संगत रूप इस प्रकार होगा'-- (1) निर्ग्रन्थ को देने की प्रतिज्ञा से एक सार्मिक साधु के निमित्त से आरम्भपूर्वक बनायी हुई, क्रीत, पामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत निषीधिका, और वह भी पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, यावत् आसेवित हो या अनासेवित, तो ऐसी निषीधिका का उपयोग न करे। (2) इसी प्रकार की निषीधिका बहुत-से सार्मिकों के उद्देश्य से निर्मित हो, तथैव एक सार्मिणी या बहुत-सी सार्मिणियों के उद्देश्य से निर्मित तथा प्रकार की हो तो उसका भी उपयोग न करे। (3) इसीप्रकार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिनकर बनाई हुई तथाप्रकार की निषीधिका हो तो उसका भी उपयोग न करे। (4) बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि के निमित्त से निर्मित, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तोउसका उपयोग न करे / (5) वैसी निषोधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे / (6) गृहस्थ द्वारा काष्ठादि द्वारा संस्कृत यावत् संप्रधूपित (धूप दी हुई) तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित निषीधिका हो, तो उसका उपयोग न करे। (7) वैसी निषीधिका यदि पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे। (8) गृहस्थ द्वारा साधु के उद्देश्य से उसके छोटे द्वार बड़े बनवाए गए हों, बड़े द्वार छोटे, यावत् उसमें से भारी सामान निकाल कर खाली किया गया हो, ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करे। (9) यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उपयोग करे / (10) वहाँ जल में उत्पन्न कंद आदि यावत् हरी आदि साधु के निमित्त उखाड़ कर साफ करके गृहस्थ निकाले तथा ऐसी निषीधिका अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो उसका उपयोग न करें। (11) यदि वैसी निषीधिका पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गई हो तो उसका उपयोग कर सकता है। वास्तव में निषीधिका की अन्वेषणा तभी की जाती है, जब आवासस्थान संकीर्ण छोटा, खराब या स्वाध्याय-ध्यान के योग्य न हो। 1. आचारांग सुत्र 412 से 417 तक की वत्ति पत्रांक 360 पर से। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : सूत्र 643-44 306 प्रस्तुत में उदकप्रसूत-कंदादि तक 2+11 = 13 विकल्प होते हैं, शय्यैषणा-अध्ययन के अनुसार आगे और भी विकल्प हो सकते हैं।' निवोधिका में अकरणीय कार्य 643. जे तत्थ दुवग्गा वा तिवग्गा वा चउवग्गा वा पंचवग्गा वा अभिसंधारेति णिसीहियं गमणाए ते णो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगेज्ज वा, विलिंगेज्ज वा, चुंबेज्ज वा, दंतेहि वा नहेहि वा अच्छिदेज्ज वा। 643. यदि स्वाध्यायभूमि में दो-दो, तीन-तीन, चार-चार या पांच-पांच के समूह में एकत्रित होकर साधु जाना चाहते हों तो वे वहां जाकर एक दूसरे के शरीर का परस्पर आलिंगन न करें, न ही विविध प्रकार से एक दसरे से चिपटें, न वे परस्पर चम्बन करें, न दांतों और नखों से एक दुसरे का छेदन करें। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में निषीधिका में न करने योग्य परस्पर आलिंगन, चुम्बन आदि कामविकारोत्पादक मोहवर्द्धक प्रवृत्तियों का निषेध किया है। ये निषिद्ध प्रवृत्तियाँ और भी अनेकप्रकार की हो सकती है, जैसे निषोधिका में कलह, कोलाहल, तथा पचन-पाचनादि अन्य सावध प्रवृत्तियाँ करना इत्यादि / 644. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सबटुहि' सहिए समिए सदा जएज्जा, सेयमिणं मण्णेज्जासि त्ति बेमि / 644. यही (निषीधिका के उपयोग का विवेक ही) उस भिक्षु या भिक्षुणी के साधु जीवन का आचार सर्वस्व है। जिसके लिए वह सभी प्रयोजनों और ज्ञानादि आचारों से तथा समितियों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे और इसी को अपने लिए श्रेयस्कर माने। -ऐसा मैं कहता हूं। // नवम अध्ययन, द्वितीय सप्तिका समाप्त // 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक, 360 / 2. इनके बदले पाठान्तर है-'चउग्गा वा पंचमा वा'। 3. सर्वार्थे का भावार्थ वृत्तिकार के शब्दों में ~-अशेषप्रयोजनरामुष्मिकः सहितः समन्वितः।"-पारलौकिक समस्त प्रयोजनों से युक्त। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चार-प्रस्रवणसप्तक: दशम अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र (द्वि० श्र त०) के दसवें अध्ययन का नाम उच्चार-प्रस्रवण सप्तक है। र उच्चार और प्रस्रवण ये दोनों शारीरिक संज्ञाएं (क्रियाएं) है, इनका विसर्जन करना अनिवार्य है / अगर हाजत होने पर इनका विसर्जन न किया जाए तो अनेक भयंकर व्याधियां उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।' र मल और मूत्र दोनों दुर्गन्धयुक्त चीजें हैं, इन्हें जहाँ-तहाँ डालने से जनता के स्वास्थ्य को हानि पहुंचेगी, जीव-जन्तुओं की विराधना होगी, लोगों को साधुओं के प्रति घृणा होगी। इसलिए मल मूत्र विसर्जन या परिष्ठापन कहाँ, कैसे और किसविधि से किया जाए, कहाँ और कैसे न किया जाए ? इन सब बातों का सम्यक् विवेक साधु को होना चाहिए / यह विवेक नहीं रखा जाएगा तो जनता के स्वास्थ्य की हानि, कष्ट एवं व्यथा होगी, अन्य प्राणियों को पीड़ा एवं जीवहिंसा होगी। तथा साधुओं के प्रति अवज्ञा की भावना पैदा होगी, इनसे बचने के लिए ज्ञानी एवं अनुभवी अध्यात्मपुरुषों ने इस अध्ययन की योजना र 'उच्चार' का शाब्दिक अर्थ है-शरीर से जो प्रबल वेग के साथ च्युत होता-निकलता है / मल या विष्ठा का नाम उच्चार है / प्रस्रवण का शब्दार्थ है-प्रकर्षरूप से जो शरीर से बहता है, झरता है / प्रस्रवण (पेशाब) मूत्र या लघु शंका को कहते हैं। 5 इन दोनों का कहाँ और कैसे विसर्जन या परिष्ठापन करना चाहिए? इसका किस प्रकार आचरण करने वाले षड्जीवनिकाय-रक्षक साधु की शुद्धि होती हैं, महाब्रतों एवं समितियों में अतिचार-दोष नहीं लगता, उसका विधि निषेध-सात मुख्य विवेक सूत्रों द्वारा बताने के कारण इस अध्ययन का नाम रखा गया है—उच्चार-प्रस्रवणसप्तक ! 4 इस अध्ययन में उन सभी विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया गया है, जो साधु के मल___ मूत्र-विसर्जन एवं परिष्ठापन से सम्बन्धित हैं। 1. (क) दशव हारि० टीका 'वच्च मुत्त न धारए'-जओ मुत्तनिरोहे चक्खुबाधाओ भवति, बच्चनिरोहे जीविओपघाओ, असोहणा य आविराहणा।' -अ०८/गा०२६ (ख) मुत्तनिरोहे चक्खु वच्चनिरोहे य जीवियं चयति / उड्डनिरोहे कोढ, सुक्कनिरोहे भवे अपुमं // -~ओघनियुक्ति गा०१५७ 2. जं. सा० का वृहत् इतिहास (पं० बेचरदासजी) भा० १--अंगनन्थो का अन्तरंग परिचय, पृ० 116 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 / (ख) आचारांग नियुक्ति गा० 321, 322 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसम अज्झयणं 'उच्चार-पसावण' सत्तिक्कओ उच्चार-प्रस्रवण सप्तक : दशम अध्ययन : ततीय सप्तिका उच्चार-प्रस्रवण-विवेक 645. से भिक्खू वा 2 उच्चार-पासवणकिरियाए उम्बाहिज्जमाणे' सयस्स पादपुंछणस्स असतीए ततो पच्छा साहम्मियं जाएज्जा। 645. साधु या साध्वी को मल-मूत्र की प्रबल बाधा होने पर अपने पादपुञ्छनक के अभाव में सार्मिक साधु से उसकी याचना करे, [और मल-मूत्र विसर्जन क्रिया से निवृत्त हो / ___ विवेचन- मल-मूत्र के आवेग को रोकने का निषेध-प्रस्तुत सूत्र में मल-मूत्र की हाजत हो जाने पर उसे रोकने के निषेध का संकेत किया है। हाजत होते ही वह तुरंत अपना मात्रक-पात्र ले, यदि मात्रक न हो तो अपना पात्रप्रोम्छन या पादपोंछन वस्त्र लेकर उस क्रिया से निवृत्त हो, यदि वह भी न हो, खो गया हो, कहीं भुला गया हो, नष्ट हो गया हो तो यथाशीघ्र सार्मिक साधु से मांगे और उक्त क्रिया से शीघ्र निवृत्त होवें। वृत्तिकार इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हैं-मल-मूत्र के आवेग को रोकना नहीं चाहिए / मल के आवेग को रोकने से व्यक्ति जीवन से हाथ धो बैठता है, और मूत्र बाधा रोकने में चक्षुपीड़ा हो जाती है। उबाहिज्जमाणे आदि पदों का अर्थ उचाहिज्जमाणे = प्रबल बाधा हो जाने पर / सयस्स = अपने / असतीए = न होने पर, अविद्यमानता में, अभाव में। 1. सू०६४५ में उच्चार-प्रस्रवण की बाधा प्रबल हो जाने पर जो विसर्जन विधि बताई हैं, उसका स्पष्टी करण चूणिकार करते हैं--(जोर की बाधा होने पर) सअण्ड हो या अल्पाण्ड स्थण्डिल, वह झटपट वहाँ पहुँच जाए, और अपना पादप्रोञ्छन, रजोहरण या जीर्ण वस्त्रखण्ड जो शरीर पर हो, अगर अपना न हो, नष्ट हो गया हो, खो गया हो या कहीं भूला गया हो या गीला हो तो दूसरे साधु से मांग कर मलादि विसर्जन करे, मलादि त्याग करे, जल लेकर मलद्वार को शुद्ध और निलंप कर ले। --आचा० चणि म० पा० टि० 5231 2. (क) देखिये दशवै० अ०५, उ०१ गा०११ की जिनदासचूणि पृ०१७५ पर--'......"मुत्तनिरोधे चक्खुबाधाओ भवति, वच्चनिरोहे य जीवियमविरुधेज्जा / तम्हा वच्चमुत्तनिरोधो न कायव्वो।' (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० 231 में बताया है-'खुड्डागसन्निरुवं पवडणादि दोसा'.शंकाओं को रोकने से प्रपतनादि दोष-गिर जाने आदिका खतरा होते हैं। (ग) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 (घ) देखें पृष्ठ 310 (प्राथमिक का टिप्पण 1) 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 आचारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध 646. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा सअंडं सपाणं जाव' मक्कडासंताणयंसि' (ग) तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 647. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा अप्पपाणं अप्पबीयं जाव मक्कडासंताणयं सि (णयं) तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 648. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, अस्सिपडियाए बहवे साहम्मिया समुहिस्स, अस्सिपडियाए एगं साहम्मिणि समुद्दिस्स, अस्सिपडियाए बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स, अस्सिपडियाए बहवे समण-माहण-[अतिहिकिवण, वणीमगे पगणिय 2 समुद्दिस्स, पाणाई 4 जाव उद्देसियं चेतेति, तहप्पगारं पंडिलं पुरिसंतरगडं वा अपुरिसंतरगडं वा जाव बहिया णीहडं वा अणीहडं वा, अण्णतरंसि वा तहरपगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 646. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-बहवे समण-माहण-किवण-वणीमग-अतिही समुद्दिस्स पाणाई भूय-जीव-सत्ताई जाव उद्देसियं चेतेति, तहप्पगार थंडिलं अपुरिसंतरकडं जाव बहिया अणीहडं, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। __ अह पुणेवं जाणे [ज्जा] पुरिसंतरकडे जाव बहिया णीहडं, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 650. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा अस्सिपडियाए कयं वा कारियं वा 1. यहाँ 'जाव' शब्द से सू० 324 के अनुसार 'अपनीयं वा सपाण' से लेकर 'मक्कडासंताणयं' तक का समग्र पाठ समझें। 2. 'संताणयं' के बदले सभी प्रतियों में 'संताणयंसि' पाठ मिलता है, किन्तु 'संताणयं' पाठ ही शुद्ध प्रतीत होता है। 3. 'साहम्मिणीओ के बदले पाठान्तर है----'साहम्मिणियाओ'। 4. 'पाणाई' के बाद '4' का अंक 'भूयाइ जीवाई सत्ताई' इन तीनों अवशिष्ट शब्दों का सूचक है। तथा यहाँ 'जाव शब्द से सू० 135 के अनुसार पाणाई 4' से 'उद्देसियं' तक का पूर्ण पाठ समझें। 5. यहाँ 'अपुरिसंतरगड' के बाद "जाव 'बहिया णीहडं वा अणीहडं' पाठ भूल से अंकित लगता है, होना चाहिए.-'जाव आसेवियं वा अणासेवियं वा क्योंकि 'बहिया णीहडं वा अणीहडं वा' पाठ तो अपुरिसंतरगडं के तुरन्त बाद में ही है। वह सारा पाठ इस प्रकार है-..-'पुरिसतरगडं वा अपुरिसंतरगडं वा, बहिया णीहडं वा अणीहडं वा, अत्तट्टियं वा अणशठ्ठियं वा, भत्तं वा अपरिभक्त वा, आसेवियं वा अणासेवियं वा-देखें सूत्र 331 / 6. 'वणीमम-अतिहीं' के बदले पाठान्तर हैं-चणीमगातिही, वणीमगा अतिही।। 7. यहाँ 'जाव' से 'सत्ताइं से उद्देसियं' तक का पाठ सू० 335 के अनुसार समझें। 8. यहाँ भी भूल से अपूरिसंतरकडं के बाद जाव बहिया अणीहडं पाठ है, होना चाहिए था--अपुरिसंतर कडं जाव अणासेवियं / कारण पूर्वसूत्र के टिप्पण (5) में बताया जा चुका है। यहाँ पुरिसंतरकडं के बाद 'जाव बहिया णीहडं' भूल से अंकित है, होना चाहिए-~पुरिसांतरकडं नाव आसेवियं / कारण पहले स्पष्ट किया जा चुका है। 'आयारो तह आयार चला' के सम्पादक ने भी यह पाठ नहीं दिया है। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 पामिच्चियं वा छन्न वा घट्टवा मट्ठ वा लित्तं वा समढ़वा संपधूवितं वा, अण्णतरंसि [वा] तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 651. से भिक्ख वा 2 से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा इह खलु गाहावती वा गाहावतिपुत्ता वा कंदाणि वा मूलाणि वा जावं हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं णीहरंति, बाहीतो वा अंतो साहरंति, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 652. से भिक्ख वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा खंधसि वा पीढ़सि बा मंचंसि वा मालंसि वा अट्टसि वा पासादसि वा, अण्णतरंसि वा [तहप्पगारंसि] थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। 653. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा अणंतरहिताए पुढवीए, ससणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए पुढवीए, मट्टियाकडाए, चित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलुए, कोलावासंसि वा, दारुयंसि वा जीवपतिद्वितंसि जाव मक्कडासंताणयंसि, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलसि पो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 654. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा इह खलु गाहावती वा गाहावतिपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बोयाणि वा परिसाउँसु वा परिसार्डेति वा परिसाडिस्संति वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि [थंडिलंसि jणो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 655. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा इह खलु गाहावती वा गाहावतिपुत्ता वा सालोणि वा वोहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा परिसुवा पइरति वा परिस्संति वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 656. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-आमोयाणि वा घसाणि वा भिलु 1. 'छन्न" आदि पदों की व्याख्या सू० 415 के अनुसार समझें। 2. कंदाणि से हरियाणि' तक का पाठ सूचित करने के लिए 'जाव' शब्द है। सू० 417 के अनुसार। 3. 'वाहीतो' के बदले पाठान्तर हैं-'बहीतो, बहियाओ, बाहिणी।' अर्थ एक-सा है। 4. 'मट्टियाकडाए' के बदले पाठान्तर है-'मट्टियाकम्मकडाए, मट्टियामक्कडाए।' निशीथ सूत्र उ०१३ भाष्य या चूणि में 'मट्रियाकडाए' पाठ की ब्याख्या उपलब्ध नहीं होती, इसलिए सम्भव है-"ससरक्खाए पुढवीए मट्टियाकडाए" यह एक ही सूत्र वाक्य हो। 'लेलए, कोलावासंसि' के बदले पाठान्तर हैं-'लेल्याए कोलावासंसि, लेलुयाए चित्तमंताए कोलावासंसि, लेलुए चित्तमंताए कोलावासंसि / ' अर्थ है-सचित्त पत्थर के टुकड़े पर, घण के आवास वाले काष्ठ पर। 6. यहाँ जाव शब्द से 'कंदाणि वा' से 'बीयाणि वा' तक का पाठ सूत्र 417 के अनुसार समझें। 7. इस पाठ के बदले पाठान्तर है:-'पतिरिसुवा पतिरिति वा पतिरिस्संति वा', 'पइरसुवा पतिरतिबा पतिरिस्संति वा', 'परंस वा परिस्संति वा' Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध याणि वा विज्जलाणि वा खाणुयाणि वा कडवाणि' वा पगत्ताणि वा दरोणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा विसमाणि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि [थंडिलंसि] णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 657. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा माणुस रंधणाणि' या महिसकरणाणि वा वसभकरणाणि वा अस्सकरणाणि वा कुक्कुडकरणाणि वा मक्कडकरणाणि वा लावयकरणाणि या वट्टयकरणाणि वा तित्ति रकरणाणि वा कवोतकरणाणि वा कपिजलकर. णाणि वा अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि [थंडिलंसि ] णो उच्चार-पासवणं वोसि रेज्जा। 658. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा वेहाणसटाणेसु वा गद्धपट्ठट्ठाणेसु वा तरुपवडणट्ठाणेसु वा मेरुपवडणट्ठाणेसु वा विसभक्खणट्ठाणेसु वा अगणिफंडय (पक्खंदण ?)हाणेसु वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलं सि] गो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा / 656. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि [थंडिलंसि | णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 660. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा" अट्टालयाणिवा चरियाणि वा 1. 'कडवाणि वा पगत्ताणि या' के बदले पाठान्तर हैं--कडवाणि वा पगड्डाणिवा, कडयाणि वा पगडाणि __ वा।' अथं समान है। 2. 'दरीणि' के बदले पाठान्तर हैं-दरिणि; दरियाणि / अर्थ समान है। 3. तुलना कीजिए-निशीथ सूत्र उ०१२ सू०२२ 4. 'कुक्कुडकरणाणि' के बदले पाठान्तर है---'कुक्कुरकरणाणि' अर्थ होता है-'कुत्तों के लिए बना आश्रय स्थान / ' किसी किसी प्रति में 'मक्कडकरणाणि' पाठ नहीं है। 6. 'तरुपवडणट्ठाणेसु' के बदले पाठान्तर है-'तरुपडणट्ठाणेसु'। 7. 'मेरुपवडणठाणेसु' किसी किसी प्रति में नहीं है, किसी प्रति में उसके बदले पाठान्तर है--मरुपव डणट्ठाणेसु / अर्थ समान है। 8. 'विसभक्खणट्ठाणेसु के बदले पाठान्तर है-विसभक्खयट्ठाणेसु / ' है. किसी किसी प्रति में सभाणि' पाठ नहीं है।। 10. तुलना कीजिए-निशीथ सत्र के उ० 15 णि पृ० 556 सू०६८-७४ से / 11. निशीथ उ. 3 चूणि में व्याख्या का उपसंहार करते हुए कहा है-'विभासा विस्तारण कर्तव्या जहा त्ते आयारबित्तिय सुत्तखंधे थंडिलसत्ति कए।'--व्याख्या विस्तृत रूप से करनी चाहिए, जिस प्रकार आचारांग सूत्र के द्वितीय श्र तस्कन्ध में स्थण्डिलसप्तिका में वर्णन है।' 'अट्टालयाणि वा' इत्यादि पाठ विस्तृत रूप में 'जे अद्रसि वा अदालगंमि वा पागारसि वा चरियसि दारंसि वा गोपुरंसि वा..."महाकुलेसु वा महागिहेस् वा..."' निशीथ मत्र अष्टम उद्देशक में मिलता है / देखें इसकी चूणि--(संपादन : उपाध्याय अमरमुनि) पृ० 431-438 Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 दाराणि वा गोपुराणि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा / 661. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-तिगाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउमुहाणि' वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि [थंडिलंसि] जो उच्चार-पासवर्ष वोसिरेज्जा / 662. 'से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण थंडिलं जाणेज्जा-इंगालडाहेसु वा खारडाहेसु वा मडयडाहेसु वा मडयथूभियासु वा मड यचेतिएसु वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 663. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्ज, विआयतणेसु वा पंकायतणेसु वा ओघायतणेसु वा सेयणपहंसि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। 664. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा णवियासु वा मट्टियखाणियासु णवियासु वा गोप्पलेहियासु गवाणीसु वा खाणीसु वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि वा थंडि. लंसि णो उच्चार-पासवणं वोसि रेज्जा। 665. से भिक्खू वा 2 से उजं पुण थंडिलं जाणेज्जा डागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा हत्थंकरवच्चंसि वा, अण्णय रंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरज्जा / 666. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा असणवणंसि वा सणवणंसि वा धातइवणंसि वा केयइवणंसि वा अंबवणंसि वा असोगवणंसि वा णागवणंसि, वा पुन्नागवणंसि 1. 'चउमुहाणि' के बदले पाठान्तर है- 'चउम्मुहाणि / सू० 662 का पाठ विस्तृत रूप से मानकर व्याख्या की गई है-मडग- मृतकमेब, वच्चं जत्थ छंड्डिज्जति डज्झति जत्थ तं छारियं / मडगलेणं-मतगिह, जहा दीवे जोगविसए वा / “गात डाहंसि-गावीसु मरतीसु गाई सरीराइं उवसमणत्थं डझंति अढिगाणि वा। 3. 'इगालडाहेस' का अर्थ चणि कार ने किया है-ई गालडाहंसि वा जत्थ इंगाला डझंति / 4. किसी किसी प्रति में 'खारडास् वा मडगडाहेस वा पाठ नहीं है। 5. तुलना कीजिए ---'जे भिक्खू सेयायणंसि वा पंकाययणंसि वा पणगाययणसि वा उच्चार-पासवणं परि ट्ठवेइ ।'—निशीथ उ० 3 चूर्णि पृ० 225-226 / / 6. 'णविआयतणेसु' के बदले पाठान्तर हैं---णदिआययणेसु नदियायणेसु णदिआततणेसु / अर्थ समान है। 7. सेयणपहंसि के बदले पाठान्तर है--सेयणपधंसि सेयणवंधेसु सेयणवधेसु / अर्थ एक-सा है / 8. 'गोप्पलेहियास' पाठ के बदले पाठान्तर हैं-गोवलेहियासु गोप्पलेहियासु / पिछले पाठान्तर का अर्थ होता है-गायें जहाँ विशेष रूप से चरती हैं. ऐसी गोचरभूमियों में / 6. डागवाचं सि के बदले 'डालागवच्चंसि वा' पाठान्तर हैं। 10. निशीथ सूत्र उ०३ के पाठ से तुलना कीजिए।...इक्खवणसि, सालिवणं सि वा असोगवणंसि वा, कम्पासवणंसि वाचूयवणसि वा अण्ण यरेसु वा "परिटुवेइ ।'-पृ०२२६ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु पत्तोवएसु' वा पुप्फोवएसु वा फलोवएसु वा बोओवएसु वा हरितोवएसु वा णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 667. से भिक्खू वा 2 सपाततं वा परपाततं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्कमे, अणावाहंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उक्स्सयंसि ततो संजयामेव उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा, उच्चार-पासवणं वोसिरित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमे, अणावाहंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिलं सि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि अचित्तंसि ततो संजयामेव उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा / 646. साधु या साध्वी ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो कि अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। 647. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो प्राणी, बीज, यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन कर सकता है। 648. साधु या साध्वी यह जाने कि किसी भावुक गृहस्थ ने निम्रन्थ निष्परिग्रही साधुओं को देने की प्रतिज्ञा से एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से, या बहुत से सार्मिक साधुओं के उद्देश्य से आरम्भ-समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है, अथवा एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से या बहुत-सी सार्धामणी साध्वियों के उद्देश्य से स्थण्डिल बनाया है, अथवा बहुत-से श्रमण ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र या भिखारियों को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है तो इस प्रकार का स्थण्डिल पुरुषान्तर ...... उदिते मूरिद 1. 'पत्तोयएस' आदि के बदले चर्णिकार ने 'पत्तोबग' इत्यादि पाठ मानकर अर्थ किया है-पत्तोवगा तम्बोली, पुष्फोवगा-जहा पुन्नागा, फलोवगा--जहा कविट्ठादीणि, छाओवग हैं-वंजुल-दिस्क्खादि, उवयोगं गच्छतीति उवगा।' जिसके पत्ते उपयोग में आते हैं। इसी प्रकार पुष्प, फल, छाया आदि उपयोगी हो वह पत्रोवग आदि कहलाता है। निशीथ चूणि उ०३ में इसका स्पष्टीकरण किया गया है-राओ त्ति संझा वियालो त्ति संझावगमो। उत् प्राबल्येन बाधा उब्बाहा / अप्पणिज्जो सम्णामत्ताओ सगपायं भषणति, अप्पणिज्जस्स, अभावे परपाते वा जाइत्ता वोसिरइ।.... उदिते सूरिए परिवेति / ' --10 227-228 3. से त्तमायाए के बदले पाठान्तर है--से तमादाय' आदि वह उसे लेकर / 4. 'अणाबाहंसि' के बदले पाठान्तर है-अणावायंसि असंलोयंसि / किसी-किसी प्रति में अणावाहंसि पाठ नहीं है। "अणावाहंसि अनाबाधे इत्यर्थः / " अनाबाध स्थण्डिल में, अणावायंसि का अर्थ होता है-. अनापात, जहाँ किसी का आवागमन न हो / असंलोयंसि का अर्थ है जहाँ किसी की दृष्टि न पड़ती हो, कोई देखता न ही। 5. यहाँ 'वोसिरेज्ज' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-'उच्चारं प्रसवणं वा कुर्यात् प्रतिष्ठापयेदिति वा।' मल-मूत्र विसर्जन करे या उसे परठे / वह उसे लेकर प्रति में अण Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 317 कृत हो या अपुरुषान्तरकृत, यावत् बाहर निकाला हुआ हो, अथवा अन्य किसी उस प्रकार के दोष से युक्त स्थण्डिल हो तो वहां पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। 646. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो किसी भावुक गृहस्थने बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, भिखारी या अतिथियों के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का समारम्भ करके औद्देशिक दोषयुक्त बनाया है, तो उस प्रकार के अपुरुषान्तरकृत यावत् काम में नहीं लिया गया हो तो उस अपरिभुक्त स्थण्डिल में या अन्य उस प्रकार के किसी एषणादि दोष से युक्त स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे / यदि वह यह जान ले कि पूर्वोक्त स्थण्डिल पुरुषान्तरकृत यावत् अन्य लोगों द्वारा उपभुक्त है, और अन्य उस प्रकार के दोषों से रहित स्थण्डिल है तो साधु या साध्वी उस पर मलमुत्र विसर्जन कर सकते हैं। 650 साधु या साध्वी यदि इस प्रकार का स्थण्डिल जाने, जो कि निग्रन्थ-निष्परिग्रही साधुओं को देने की प्रतिज्ञा से किसी गृहस्थ ने बनाया है, बनवाया है, या उधार लिया है, उस पर छप्पर छाया है या छत डाली है, उने घिसकर सम किया है, कोमल या चिकना बना दिया है, उसे लीपापोता है, संवारा है, धूप आदि से सुगन्धित किया है, अथवा अन्य भी इस प्रकार के आरम्भ-समारम्भ करके उसे तैयार किया है तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर वह मल-मूत्र विसर्जन न करे / 651. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने कि गृहपति या उसके पुत्र कन्द, मूल यावत् हरी जिसके अन्दर से बाहर ले जा रहे हैं, या बाहर से भीतर ले जा रहे हैं, अथवा उसप्रकार की किन्ही सचित्त वस्तुओं को इधर-उधर कर रहे हैं, तो उस प्रकार के स्थण्डिल में साधु-साध्वी मल-मूत्र विसर्जन न करे। 652. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि स्कन्ध (दीवार या पेड़ के स्कन्ध पर, चौको (पीठ) पर, मचान पर, ऊपर की मंजिल पर, अटारी पर या महल पर या अन्य किसी विषम या ऊंचे स्थान पर, बना हुआ है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर वह मलमूत्र विसर्जन न करे। 653. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध (गीली) पृथ्वी परः सचित्त रज से लिप्त या संसृष्ट पृथ्वी पर सचित्त मिट्टी से बनाई हुई जगह पर सचित्त शिला पर, सचित्त पत्थर के टुकड़ों पर, घुन लगे हुए काष्ठ पर या दीमक आदि द्वीन्द्रियादि जीवों से अधिष्ठित काष्ठ पर या मकड़ी के जालों से युक्त स्थण्डिल पर मलमूत्र विसर्जन न करे। 654. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल के सम्बन्ध में जाने कि यहां पर गृहस्थ या गृहस्थ के पुत्रों ने कंद, मूल यावत् बीज आदि इधर-उधर फेंके हैं, या फेंक रहे हैं, अथवा फेंकेगे, तो ऐसे अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी दोषयुक्त स्थण्डिल में मल-मूत्रादि का त्याग न करे। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय अ तस्कन्ध 655. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल के सम्बन्ध में जाने कि यहाँ पर गृहस्थ या गृहस्थ के पुत्रों ने शाली, ब्रीहि (धान), मूंग, उड़द, तिल, कुलत्थ, जो और ज्वार आदि बोए हुए हैं, बो रहे हैं या बोएंगे, ऐसे अथवा अन्य इसी प्रकार के बीज बोए हुए स्थण्डिल में मलमूत्रादि का विसर्जन न करे। ___656. साधु या साध्वी यदि ऐसे किसी स्थण्डिल को जाने, जहां कचरे (कूड़े-कर्कट) के ढेर हों, भूमि फटी हुई या पोली हो, भूमि पर रेखाएं (दरारें) पड़ी हुई हों, कीचड़ हो, ठूठ अथवा खीले गाड़े हुए हों, किले की दीवार या प्राकार आदि हो, सम-विषम स्थान हों, ऐसे अथवा अन्य इसीप्रकार के ऊबड़-खाबड़ स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन न करे / 657. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहां मनुष्यों के भोजन पकाने के चूल्हे आदि सामान रखे हों, तथा भैस, बैल, घोड़ा, मुर्गा या कुत्ता, लावक पक्षी, बत्तक, तीतर कबूतर, कपिजल (पक्षी विशेष) आदि के आश्रय स्थान हों, ऐसे तथा अन्य इसीप्रकार के किसी पशु-पक्षी के आश्रय स्थान हों, तो इस प्रकार के स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे। 658. साधु या साध्वी यदि ऐमे स्थण्डिल को जाने, जहाँ फाँसी पर लटकाने के स्थान हों; गद्धपृष्ठमरण के .- गीध के सामने पड़कर मरने के स्थान हों, वृक्ष पर से गिरकर मरने के स्थान हों, पर्वत से झंपापात करके मरने के स्थान हों, विषभक्षण करने के स्थान हों, या दौड़कर आग में गिरने के स्थान हों, ऐसे और अन्य इसी प्रकार के मृत्युदण्ड देने या आत्महत्या करने के स्थान वाले स्थण्डिल हों तो वैसे स्थण्डिलों में मल-मूत्र त्याग न करे। 656. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जैसे कि बगीचा (उपवन), उद्यान, वन, वनखण्ड, देवकुल, सभा या प्याऊ, हो अथवा अन्य इसी प्रकार का कोई पवित्र या रमणीय स्थान हो, तो उस प्रकार के स्थण्डिल में वह मल-मूत्र विसर्जन न करे। 660. साधु या साध्वी ऐसे किसी स्थण्डिल को जाने, जैसे-कोट की अटारी हों, किले और नगर के बीच के मार्ग हों; द्वार हों, नगर के मुख्य द्वार हों, ऐसे तथा अन्य इसी प्रकार के सार्वजनिक आवागमन के स्थल हों, तो ऐसे स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे / 661. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ तिराहे (तीन मार्ग मिलते) हों, चौक हों, चौहट्टे या चौराहे (चार मार्ग मिलते) हों, चतुर्मुख (चारों ओर द्वार वाले बंगला आदि) स्थान हों, ऐसे तथा अन्य इसी प्रकार के सार्वजनिक जनपथ हों. ऐसे स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे। 662. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ लकड़ियां जलाकर कोयले बनाए जाते हों; जो काष्ठादि जलाकर राख बनाने के स्थान हों, मुर्दे जलाने के स्थान हों. मृतक के स्तूप हों, मृतक के चैत्य हों, ऐसा तथा इसी प्रकार का कोई स्थण्डिल हो, तो वहाँ पर मल-मूत्रविसर्जन न करे। 663. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि नदी तट पर बने तीर्थस्थान Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 316 हों, पंकबहुल आयतन हों, पवित्र जलप्रवाह वाले स्थान हों, जलसिंचन करने के मार्ग हों, ऐसे तथा इसी प्रकार के जो स्थण्डिल हों, उन पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। 664. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि मिट्टी की नई खाने हों, नई गोचर भूमि हो, सामान्य गायों के चरागाह हों, खाने हों, अथवा अन्य उसी प्रकार का कोई स्थ ण्डिल हो तो उसमें उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन न करे , 665. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ डालप्रधान शाक के खेत हैं, पत्रप्रधान शाक के खेत हैं, मूली, गाजर आदि के खेत है, हस्तंकुर बनस्पति विशेष के क्षेत्र हैं, उनमें तथा अन्य उसी प्रकार के स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे / 666. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ बीजक वृक्ष का वन है, पटसन का बन है, धातकी (आंवला) वृक्ष का वन है, केवड़े का उपवन है, आम्रवन है, अशोकवन है, नागवन है, या पुन्नागवृक्षों का वन है, ऐसे तथा अन्य उस प्रकार के स्थण्डिल, जो पत्रों, पुष्पों, फलों, बीजों या हरियाली से युक्त हों, उनमें मल-मूत्र विसर्जन न करे / / 667. संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्रक (स्वभाजन) लेकर एकान्त स्थान में चला जाए, जहाँ पर न कोई आता-जाता हो और न कोई देखता हो, या जहाँ कोई रोक-टोक न हो, तथा जहाँ द्वीन्द्रिय आदि जीव-जन्तु, यावत् मकड़ी के जाले भी न हों, ऐसे बगीचे या उपाश्रय में अचित्त भूमि पर बैठकर साधु या साध्वी यतनापूर्वक मल-मूत्रविसर्जन करे / उसके पश्चात् वह उस (भरे हुए मात्रक) को लेकर एकान्त स्थान में जाए, जहाँ कोई न देखता हो और न ही आता-जाता हो, जहाँ पर किसी जीवजन्तु की विराधना की सम्भावना न हो, यावत् मकड़ी के जाले न हों, ऐसे बगीचे में या दग्धभूमि वाले स्थण्डिल में या उस प्रकार के किसी अचित्त निर्दोष पूर्वोक्त निषिद्ध स्थण्डिलों के अतिरिक्त स्थण्डिल में साधु यतनापूर्वक मल-मूत्र-परिष्ठापन (विसर्जन) करे। विवेचन–मल-मूत्र-विसर्जन : कैसे स्थण्डिल पर करे, कैसे पर नहीं ? --सूत्र 646 से 667 तक 22 सूत्रों में मल-मूत्र विसर्जन के लिए निषिद्ध और विहित स्थण्डिल का निर्देश किया गया है / इनमें से तीन सूत्र विधानात्मक है, शेष सभी निषेधात्मक हैं। निषेधात्मक स्थण्डिल सूत्र संक्षेप में इस प्रकार हैं (1) जो अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो। (2) जो स्थण्डिल एक या अनेक सार्मिक साध या सामिणी साध्वी के उद्देश्य से, अथवा श्रमणादि की गणना करके उनके उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो। (3) जो बहुत से शाक्यादि श्रमण ब्राह्मण यावत् अतिथियों के उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो / Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध (4) जो निष्परिग्रही साधुओं के निमित्त बनाया, बनवाया, उधार लिया या संस्कारित परिकर्मित किया गया हो। (5) जहाँ गृहस्थ कंद, मूल आदि को बाहर-भीतर ले जाता हो। (6) जो चौकी मचान आदि किसी विषम एवं उच्च स्थान पर बना हो। (7) जो सचित्त पृथ्वी, जीवयुक्त काष्ठ आदि पर बना हो। (8) जहाँ गृहस्थ द्वारा कंद, मूल आदि अस्त-व्यस्त फैके हुए हों। (6) शाली, जौ, उड़द आदि धान्य जहां बोया जाता हो। (10) जहाँ कूड़े के ढेर हों, भूमि फटी हुई हो, कीचड़ हो, ईख के डंडे, ढूंठ, खीले आदि पड़े हों, गहरे बड़े-बड़े गड्ढे आदि विषम स्थान हों। (11) जहां रसोई बनाने के चूल्हे आदि रखे हों, तथा जहाँ भैस, बैल आदि पशु-पक्षी गण का आश्रय स्थान हो। (12) जहां मृत्यु दण्ड देने के या मृतक के स्थान हों। (13) जहाँ उपवन, उद्यान वन, देवालय, सभा, प्रपा आदि स्थान हों। (14) जहाँ सर्वसाधारण जनता के गमनागमन के मार्ग, द्वार आदि हों। (15) जहाँ तिराहा, चौराहा आदि हों। (16) जहां कोयले, राख (क्षार) बनाने या मुर्दे जलाने आदि के स्थान हों, मृतक के स्तूप व चैत्य हों। (17) जहाँ नदी तट, तीर्थस्थान हो, जलाशय या सिंचाई की नहर आदि हो। (18) जहाँ नई मिट्टी की खान, चारागाह आदि हों। (16) जहाँ साग-भाजी, मूली आदि के खेत हों। (20) जहाँ विविध वृक्ष के वन हों। तीन विधानात्मक स्थण्डिल सूत्र इस प्रकार हैं(१) जो स्थण्डिल प्राणी, बीज यावत् मकड़ी के जाड़ों आदि से रहित हों। (2) जो श्रमणादि के उद्देश्य से बनाया गया न हो तथा पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो। (3) एकान्त स्थान में, जहाँ लोगों का आवागमन एवं अवलोकन न हो, जहाँ कोई रोकटोक न हो, द्वीन्द्रियादि जीव-जन्तु यावत् मकड़ी के जाले न हों, ऐसे बगीचे, उपाश्रय आदि में दग्धभूमि आदि पर जीव-जन्तु की विराधना न हो, इस प्रकार मे यतनापूर्वक मलमूत्र का विसर्जन करे।' निषिद्ध स्थण्डिलों में मल-मूत्र विसर्जन से हानियाँ-(१) जीव-जन्तुओं की विराधना होती है, वे दब जाते हैं, कुचल जाते हैं, पीड़ा पाते हैं। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 408, 406, 410 के आधार पर Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-68 321 (2) साधु को एषणादि दोष लगता है, जैसे-औद्देशिक, क्रीत, पामित्य, स्थापित आदि, (3) ऊंचे एवं विषमस्थानों से गिर जाने एवं चोट लगने तथा अयतना की सम्भावना रहती है। (4) कूड़े के ढेर पर मलोत्सर्ग करने से जीवोत्पत्ति होने की सम्भावना है। (5) फटी हुई, ऊबड़-खाबड़ या कीचड़ व गड्ढे वाली भूमि पर परठते समय पैर फिसलने से आत्म-विराधना की भी सम्भावना है। (6) पशु-पक्षियों के आश्रयस्थानों में तथा उद्यान, देवालय आदि रमणीय एवं पवित्र स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग करने से लोगों के मन में साधुओं के प्रति ग्लानि पैदा होती है। (7) सार्वजनिक आवागमन के मार्ग, द्वार या स्थानों पर मल-मूत्र विसर्जन करने से लोगों को कष्ट होता है, स्वास्थ्य बिगड़ता है, साधुओं के प्रति घृणा उत्पन्न होती है। (8) कोयले, राख आदि बनाने तथा मृतकों को जलाने आदि स्थानों में मल-मूत्र विसजन करने में अग्निकाय की विराधना होती है। कोयला, राख आदि वाली भूमि पर जीवजन्तु न दिखाई देने मे अन्य जीव-विराधना भी संभव है। (6) मृतक स्तूप, मृतक चैत्य आदि पर वृक्षादि के नीचे तथा वनों में मल-मूत्र विसर्जन से देव-दोष की आशंका है। (10) जलाशयों, नदी तट या नहर के मार्ग में मलोत्सर्ग से अप्कायकी विराधना होती है, लोक दृष्टि में पवित्र माने जाने वाले स्थानों में मल-मत्र विसर्जन मे घृणा वा प्रवचन-निन्दा होती है। (11) शाक-भाजी के खेतों में मल-मूत्र विसर्जन से वनस्पतिकाय-विराधना होती हैं। इन सब दोषों से बचकर निरवद्य, निर्दोष स्थण्डिल में पंच समिति से विधिपूर्वक मल-मूत्र विसर्जन करने का विवेक बताया है।" 'मट्टियाकडाए' आदि पदों की व्याख्या-वृत्तिकार एवं चूर्णिकार की दृष्टि से इस प्रकार है-मट्टियाकडाए = मिट्टी आदि के बर्तन पकाने का कर्म किया जाता हो, उस पर / परिसा.सु = बीज आदि खलिहान वगैरह में इधर-उधर फेंके गए हैं अथवा कहीं बीजों से अर्चना की हो। आमोयानि - कचरे के पुज। घसाणि = पोलीभूमि, फटी हुई भूमि / भिलुयाणि = दरारयुक्त भूमि / विज्जलाणि = कीचड़ वाली जगह / कडवाणि= ईख के डंडे / पगत्ताणि = बड़े-बड़े गहरे गड्ढे / पदुग्गाणि कोट की दुर्गम्य दीवार आदि ऐसे विषम स्थानों में मल-मूत्रादि विसर्जन से संयम-हानि और आत्म-विराधना संभव है। माणुसरंधानि चूल्हे आदि / महिसकरणाणि आदि= जहाँ भैस आदि के उद्देश्य से कुछ बनाया जाता है या स्थापित किया जाता है, अथवा करण 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 408 से 410, (ख) आचा० णिचू मू० पा० टि० पृ. 231 से 236 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अर्थ है आश्रय / ऐन स्थानों में लोकविरोध तथा प्रवचन-विधात के भय से मलोत्सर्ग आदि नहीं करना चाहिए।' निशीथचूणि में 'आसकरण' आदि पाठ है, वहां अर्थ किया गया है अश्व-शिक्षा देने का स्थान- अश्वकरण है, आदि / बेहाणसठाणेसु मनुष्यों को फांसी आदि पर लटकाने के स्थानों में, गिढपइहाणेसु-जहाँ आत्महत्या करने वाले गिद्ध आदि के भक्षणार्थ रुधिरादि से लिपटे हुए शरीर को उनके सामने डाल कर बैठते हैं / तरु-पगडणटठाणेसु-जहां मरणाभिलाषी लोग अनशन करके तरुवत् पड़े रहते हैं। अथवा पीपल, बड़ आदि वृक्षों से जो मरने का निश्चय करके अपने आपको ऊपर में गिराता है। उसे भी तरुप्रपतन स्थान कहते हैं। मेरुपवडणट्ठाणेसुमेरु का अर्थ है पर्वत / पर्वत से गिरने के स्थानों में। निशीथचणि में 'गिरि' और 'मरु' काअन्तर बताया है, 'जिस पर्वत पर चढ़ने पर प्रपातस्थान दिखाई देता है, वह गिरि, और नहीं दिखाई देता हो, वह मरु / अगणिपक्खंदणट्ठाणेसु = जहाँ व्यक्ति निकट से दौड़कर अग्नि में गिरता है उन स्थानों में। निशीथचूणि में भी 'गिरिपवडण' आदि पाठ मिलता है। आरामाणि उज्जाणाणि = आराम का अर्थ बगीचा, उपवन होता है, परन्तु यहाँ उपलक्षण से आरामागार अर्थ अभीष्ट है, उज्जाण का अर्थ है-'उद्यान' / निशीथचणि में 'उज्जाण' और 'निजाण' (जहां शस्त्र या शास्त्र रखे जाते हों) दोनों प्रकार के स्थलों में, बल्कि उद्यानगृह, उद्यानशाला, निर्याणगृह और निर्याणशाला में भी उच्चार-प्रस्रवण-विसर्जन का दण्ड--- प्रायश्चित्त बताया है। नगर के समीप ऋषियों के ठहरने के स्थान को उद्यान और नगर से निर्गमन का जो स्थान हो, उसे निर्याण कहते हैं। चरियाणि-प्राकार के अन्दर 8 हाथ चौड़ी 1. (क) आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 233 पर / -'बीयाणि पडिसारेंस वा पडिसारेति वा पडि साडिस्सं ति वा खलमादिसू, काहिंचि वा अच्चणिया कया बीएहि / ' (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१०–आमोकानि = कचवरपुजा, घसा = वृहत्यो भूमिराजयः, भिलुगानि = श्लक्षणभूमिराजयः, विज्जलं == पिच्छल , कडवाणि-- इक्षुजो नलिकादिदण्डकः, प्रगर्ता-महामर्ताः, प्रदुर्गाणि =कुड्यप्रकारादीनि / एतानि च समानि वा विषमाणि भवेयुः, तेष्वात्मसंयम-विराधनासम्भवात् नोच्चारादि कुर्यात् ।'..."मानुषरन्धनादीनि चुल्ल्यादीनि, तथा महिण्यादीनुद्दिश्य यत्र किञ्चित् क्रियते, ते वा यत्र स्थाप्यन्ते, तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातभयान्नोच्चारादि कुर्यात् / 2. 'आससिक्खाणं आसकरणं, ऐवं सेसाण वि।' –निशीथ चूणि उ०१२, पृ 348 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 410 (ख) 'जे भिक्खू गिरिपवडणाणि वा'......"इत्यादि पाठ निशीथ उ०११ / गिरिभरूणं विसेसो, जत्थ पव्वते आरुढे हि पवायट्ठाणं दीसति सो गिरी भन्नति, अदिस्समाणे मरु / "पिप्पलवडमादी तरु, एते हिंतो जो अप्पाणं मुचति मरणववसितो तं सवडणं भण्णति / पवडण-पक्खंदणाण इमो भेदो--... थाणत्थो उड्ढे उप्प इत्ता जो पडति वस्त्रडेवणे डिंडकवत् एतं पवडणं, जं पुण अदूरतो आधावित्ता पडइ, तं पक्खंदणं / जलजलणपक्खंदणा चउत्थो मरणभेदो। सेसा विसभक्खणादिया अट्रपत्तेयभेदा / --निशीथ चूणि उ०११ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 जगह-चर्या, द्वार, गोपुर, प्राकार आदि स्थानों में मल-मूत्र-विसर्जन करने गे लोग या राज कर्मचारी ताड़न आदि करते हैं।' चूणिसम्मत अतिरिक्त पाठ और उसकी व्याख्या-सूत्र 660 का चूर्णिकार सम्मत पाठ बहुत अधिक है, जो यहां मूल में उपलब्ध नहीं है / उसकी चूर्णिकार-कृत व्याख्या इस प्रकार हैदगमग्गो = नाली या जल बहने का मार्ग / दगपहो =पनिहारिनों के पानी लेने जाने-आने का मार्ग / सुन्न गार-सूना घर / भिन्नागारं = टूटा जीर्ण-शीर्ण मकान, खण्डहर / कूडागार मंत्रणागृह / कोट्ठागारं अनाज का कोठार, गोदाम / जाणसाला-गाड़ी, रथ आदि रखने की शाला। वाहणसाला-बैल, घोड़े आदि के बाँधने का स्थान / तृणसालाघास-चारा रखने का स्थान / तुससाला=कुम्भार आदि जहाँ तुस (जौ, गेहूँ आदि ) रखते हैं / भुससाला पराल आदि धास से भरी शाला / गोमयसाला= गोबर, कंडे आदि का स्थान / महाकुलं राजा का महल / महागिहरावल आदि अथवा अधिकारियों का घर, अथवा स्त्रियों के लिए बना हुआ विशाल शौचालय / गिहं = घर के अन्दर / गिहमुहं = घर की देहली। गिहदुवार = घर का दरवाजा। गिहंगणं = घर का आंगन / गिहवच्छ पुरोहडं = घर की देहली के बाद सामने स्थित स्थान / निशीथ सूत्र में भी इसी तरह का पाठ मिलता। बल्कि वहां इसके अतिरिक्त पाठ भी है-"..."पणियसालसि वा, पणिगिहंसि वा, परिआयगिहंसि वा, परिआयसालसि वा, कुवियसालसि वा, कुवियगिहंसि वा, गोणसालासु वा गोणगिहेसु वा...।' इसका अर्थ स्पष्ट है। ‘णविआयतणेसु' इत्यादि पदों के अर्थ-दि आयतणेसु = नद्यायतन-तीर्थस्थान, जहां लोग पुण्यार्थ स्नानादिक करते हैं पंकायतणेसु - जहाँ पंकिलप्रदेश में लोग धर्म-पुण्य की इच्छा से लोटने आदि की क्रिया करते हैं / भोपायतणेसु =जो जलप्रवाह या तालाब के जल में प्रवेश का स्थान पूज्य माना जाता है, उनमें / सेयणपथे = जल-सिंचाई का मार्ग-नहर या नाली में / निशीथ चूर्णि में भी इस प्रकार का पाठ मिलता है / वच्चं पत्ते, फूल, फल आदि वृक्ष से गिरने पर जहाँ 1. (क) 'आगंतारेसु वा आरामामारेसु वा 4 उज्जाणंसि वा, णिज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालसि वा, णिज्जाणगिहंसि वा णिज्जाथसालंसि वा / उच्चारपासवणं परिवेति...।' ___ --निशीथ उ०१५ आ० चूणि पृ० 234 (ख) उज्जाणं जत्थ उज्जाणियाए गम्मति, णिज्जाणं जत्थ सत्थो आवासेति जंवा ईसिणगरस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाण / गगरणिग्गमे वा जं ठिय तं णिज्जाणं / --निशीथ चूणि उ०८, पृ०४३१, 434 -आचा० चू० 234 (ग) चरिया अंतो पगारस्स अट्टहत्या, दार-गोपुर-पामारा, तत्थ छड्डणे पंतावणादी। __-~आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 235 2. एतदनुसारेण चूर्णिकृता सम्मतोऽत्र भूयान् सूत्रपाठो नेदानोमुपलभ्यते, इति ध्येयम् / ' .-आचा० मूल पाठ टिप्पणी सहित जम्बूविजय सम्पादित पृ० 235 3. तुलना, निशीथ सूत्र उ०१५, पृ०५५६ सू०६८-७४ / उ०८ में भी देखें "जे भिक्ख गिहसि वा गिहमुहंसि वा मिहदुवारिमंसि वा गिहेलूयंसि वा गिहंगणंसि वा गिहवच्च सि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्रवेति। -निशीथ उ०३ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध सड़ाये या सूखाए जाते हैं, उस स्थान को 'वर्च' कहते हैं। इसलिए डागवृच्चंसि, सागवच्चंसि आदि पदों का यथार्थ अर्थ होता है-डाल-प्रधान या पत्र-प्रधान साग को सुखाने या सड़ाने के स्थान में। निशीथ सूत्र में अनेक वृक्षों के वर्चस् वाले स्थान में मल-मूत्र परिष्ठापन का प्रायश्चित्त विहित है / असणवणंसि = अशन यानी बीजक वृक्ष के वन में / पत्तोवएसु = पत्रों से युक्त पान (ताम्बूल नागबिल) आदि बनस्पति वाले स्थान में / इसी तरह पुष्फोदएस आदि पाठों का अर्थ समझ लेना चाहिए / निशीथ सूत्र में इस सत्र के समान पाठ मिलता है।' अणावाहंसि के दो अर्थ मिलते हैं--(१) अनापात और अनाबाध / अनापात का अर्थ है --जहाँ लोगों का आवागमन न हो / अनाबाध का अर्थ है- जहाँ किसी प्रकार की रोकटोक न हो, सरकारी प्रतिबन्ध न हो / इ गालदाहेसु = काष्ठ जला कर जहाँ कोयले बनाये जाते हों, उन पर / खारडाहेसु = जहाँ जंगल और खेतों में घास, पत्ती आदि जला कर राख बनाई जाती है। मडयडाहे सु = मृतक के शव की जहाँ दहन क्रिया की जाती है, वैसी श्मशान भूमि में / मडगथूभि यासु =चिता स्थान के ऊपर जहां स्तूप बनाया जाता है, उन स्थानों में / मडयचेतिएसु = चिता स्थान पर जहाँ चैत्य--स्थान (स्मारक) बनाया जाता है, उनमें / निशीथ चूणि में मूत्र 662 के समान पाठ के अतिरिक्त "मडगगिहंसि वा, मडगछारियसि वा मडगथूभियं सि. मडगासयंसि वा मडगलेणंसि' मडगयंडिलंलि वा मडगवच्चसि वा उच्चारपालवणं परिठ्ठ बेई...।' इत्यादि पाठ मिलता है। इनका अर्थ स्पष्ट है। तात्पर्य यह है कि मृतक से सम्बन्धित गृह, राख, स्तूप, आश्रय, लयन (देवकुल), स्थण्डिल, वर्चस् इत्यादि पर मल-मूत्र विसर्जन निषिद्ध है। ___गोप्पहेलियासु = जहाँ नई गायों को बांटा (गवार खली आदि) चटाया जाता है, उन स्थानों में / गवाणी = गोचरभूमियों में। सपाततं = स्वपात्रक, इसका अपभ्रश पाठ मिलता है सवारकं = वारक का अर्थ उच्चारार्थ मात्रक-भाजन / ' 1. (क) आचाराग वृत्ति पत्रांक 410 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि• पृ० 237 (ग) निशीथ सुत्र उ०३ के पाठ से तुलना---'जे भिक्ख नई आवयसि वा पकाययणसि वा य... (ओघा ? पणगा?) य यणंसि बा, सेयणपहसि वा।' सेयणपहो तु णिक्का, सूक्कंति फला जहि वच्च / / --भाष्य गा० 1536 पृ० 225-226 (घ) वच्चं नाम जत्थ पत्ता पुप्पा फला वा सुक्काविज्जति'-आचाल चूणि मू० पा० ठि० पृ० 238 (च) निशीथसूत्र तृतीय उद्देशक में उक्त पाठ की तुलना करें-'जे भिक्खू उंबरवच्चसि"डागवच्वंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा कोत्थु भरिवच्चंसि वा''इक्खुवर्णसि वा चंपकवणं सि वा चूयवणं सि वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु पत्तोवएस पुप्फोवएसु फलोवएसु बीओवएसु उच्चारपासवणे परिठ्ठवेई... पृ० 226 / "उंबरस्स फला जत्य गिरितडे उपविज्जति त उंबरवच्च भण्णति / (छ) 'वच्च' शब्द पुरीष (उच्चार)अर्थ में भी आगमों में प्रयुक्त हआ है। विनयपिटक में भी वच्चकूटी (संडास) शोचस्थान के अर्थ में अनेक बार प्रयुक्त हआ है। 2. णविआ गोलहिया जत्थ गावीओ लिहंति / एतेसिं चेव ठाणाणि दोसा / 3. (क) निशीथ सूत्र उ०-३ से तुलना करें चूणि पृ० 225 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 410 तुलना करें. निशीथ--उ०३ चूणि 226 पृ. Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : सूत्र 668 325 निशीथ सूत्र में साधुओं को रात्रि या विकाल में शौच की प्रबल बाधा हो जाने पर उसके विसर्जन की विधि बताई है, कि स्वपात्रक लेकर या वह न हो तो दूसरे साधु से मांग कर उसमें विसर्जन करे किन्तु उसका परिष्ठापन वह सूर्योदय होने पर एकान्त अनाबाध, आवागमनरहित निरवद्य, अचित्त स्थान में करे / प्रस्तुत सूत्र में देवसिक-रात्रिक सामान्य विधि बताई है कि अपना या दूसरे साधु का पात्रक लेकर वैसे एकान्त निर्दोष स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन करे या उसका परिष्ठापन करे।' 668. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवहिं जाव' जाएज्जासि त्ति बेमि॥ 668. यही (उच्चार-प्रस्रवण व्युत्सर्गार्थ स्थण्डिल विवेक) उस भिक्षु या भिक्षणी का आचार सर्वस्व है, जिसके आचरण के लिए उसे समस्त प्रयोजनों में ज्ञानादि सहित एवं पांच समितियों से समित होकर सदैव सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए / // दसम अज्झयणं समत्तं / / 1. (क) आचारांग चूणि० मू० पा० टि० पृ० 238-236 (ख) आचा० वृत्ति पत्रांक 410 (ग) तुलना करें-निशीथ उ० 3, निशीथचूणि पृ० 227-128 2. किसी-किसी प्रति में 'सव्वठेहि' पाठ नहीं है / 3. यहाँ 'जाब' शब्द से सू० 334 के अनसार 'सव्वठठेहि' से 'जएज्जासि' तक का पाठ समझें। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सप्तक. एकादश अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'शब्द-सप्तक' है। 25 कर्णेन्द्रिय का लाभ शब्द श्रवण के लिए है / भिक्षु अपनी संयम साधना को-ज्ञान दर्शन-चारित्र को तेजस्वी एवं उन्नत बनाने हेतु कानों से शास्त्र-श्रवण करे, गुरुदेव के प्रशस्त हित-शिक्षा पूर्ण वचन सुने, दीन-दुःखी व्यक्तियों की पुकार सुने, किसी के द्वारा भी कर्तव्य प्रेरणा से कहे हुए वचन सुने, वीतराग प्रभु के, मुनिवरों के प्रशस्त स्तुतिपरक शब्द, स्तोत्र एवं भक्तिकाव्य सुने, अहिंसादि लक्षण प्रधान गुण वर्णन सुने, यह तो अभीष्ट शब्द-श्रवण है।' * संसार में अनेक प्रकार के शब्द हैं, कर्णप्रिय और कर्णकटु भी। परन्तु अपनी प्रशंसा और कीर्ति के शब्द सुनकर हर्ष से उछल पड़े और निन्दा, गाली आदि के शब्द सुन रोष से उबल पड़े, इसी प्रकार वाद्य, संगीत आदि के कर्णप्रिय स्वर सुनकर आसक्ति या मोह पैदा हो और कर्कश, कर्णकटु और कठोर शब्द सुन कर द्वेष, घृणा या अरुचि पैदा हो, यह अभीष्ट नहीं है। * कोई भी प्रिय या अप्रिय शब्द अनायास कानों में पड़ जाए तो साधु उसे सुन भर ले किन्तु उसके साथ मन को न जोड़े। न ही कर्णप्रिय मधुर लगने वाले शब्दों को सुनने की मन में उत्कण्ठा करे / वह समभाव में रहे। - इस अध्ययन में कर्ण-सुखकर मधुर शब्द सुनने की इच्छा से गमन करने, प्रेरणा या उत्कण्ठा का निषेध किया गया है। - चूंकि राग और द्वेष दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं, किन्तु राग का त्याग करना बहुत कठिन होने से राग-त्याग पर पर जोर दिया है। शब्द सप्तक अध्ययन में किसी भी मनोज्ञ दृष्ट, प्रिय, कर्ण सुखकर शब्द के प्रति मन में 1. इच्छा, 2. लालसा, 3. आसक्ति, 1. आचारांग नियुक्ति गा० 323, आचारांग वृत्ति पत्रांक 411 2. (क) कण्णसोक्खेहि सद्देहि पेमं नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं कायेण अहियासये // --दश अ०८ गा० 26 (ख) उत्तराध्ययन सूत्र अ० 32, गा० 30 ते 87 तक Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन : प्राथमिक 327 4. राग, 5. गृद्धि, 6. मोह ओर 7. मूर्छा; / इन सातों से दूर रहने का निर्देश होने मे (शब्द सप्तक) नाम सार्थक है।' + भाषावर्गणा के पुद्गल द्रव्य जब शब्द रूप में परिणत होते हैं, तो वे नो आगमतः द्रव्य शब्द कहलाते हैं। शब्द अर्थ के में जो उपयुक्त है-उपयोग वाला है वह आगम से भाव शब्द है / नो आगम से भाव शब्द आगम के पन्नों पर अंकित अहिंसादि तत्त्वों के वर्णन रूप हैं, या जिनदेवों की स्तुति रूप स्तोत्र हैं। * द्रव्य शब्द के तीन भेद हैं---१. जीव शब्द, 2. अजीव शब्द और 3. मिश्र शब्द / इसके फिर सार्थक-निरर्थक आदि अनेक भेद हैं। 2- इस अध्ययन में शब्द-श्रवण के साथ राग-द्वेषादि से दूर रहकर समत्व एवं माध्यस्थ्य में लीन रहने की प्रेरणा दो गई है। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 441 (ख) जैन साहित्य का बुहत् इतिहास (अंगों का अंतरंग परिचय) पृ० 112 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 411 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमं अज्झयणं 'सद्दसत्तिक्कओ'' शब्द सप्तक : एकादश अध्ययन : चतुर्थ सप्तिका वाद्यादि शब्द श्रवण-उत्कण्ठा-निषेध 669. से भिक्खू वा 2 मुइंगसहाणि वा नंदीसहाणि वा झल्लरीसद्दाणि वा अण्णतराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई वितताई सहाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 670. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाई सुणेति, तंजहा-वीणासद्दाणि वा विवंचिसहाणि वा बद्धीसगसद्दाणि वा तुणयसद्दाणि वा पणवसद्दाणि वा तुंबवीणियसद्दाणि वा ढकुसद्दाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाणि सद्दाणि तताई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 671. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाइं सुति, तंजहा--तालसद्दाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसहाणि वा गोहियसहाणि वा किरिकिरिसद्दाणि वा अण्णतराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई तालसद्दाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 672. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाइं सुणेति, तंजहा-संखसहाणि वा वेणु चणिकार ने 'रूपसप्तककः' नामक पंचम अध्ययन को चतुर्थ माना है और 'शब्दसप्तकक:' को पंचम / अतः शब्दसप्तकक में चूर्णिकार सम्मत पाठ इतना ही है-एवं सद्दाई पि संखादीणि / तताणि, वीणा ववीसमुग्धोसादीणि वितताणि बंभादि / धणाई उज्जउललक्कुडा। सुसिराई बंसपब्वगादि पव्वादीणि / सई सुणेत्ताणं जितो जाति पिक्खतो वणिज्जतेसु वा रामादीणि जाति / पंचम सत्तिक्कगं समत्तं / ' अर्थात्-इसी प्रकार शब्दों के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए / शंखादि शब्द तत हैं, वीणा, ववीस, उद्घोष आदि के शब्द वितत हैं, भंभा आदि घन, उज्ज्वकुल आदि ताल शब्द। शुधिर बाँस, पर्वकपर्वादि के शब्द / किसी शब्द को सुनकर रागादि को प्राप्त करता है, अथवा रूप आदि को देख कर उसका वर्णन करने से राग-द्वेष आदि होते हैं / इस प्रकार पंचम सप्तकक समाप्त / 2. सू० 666 का संक्षेप में अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में----‘स पूर्वाधिकृतो भिक्षुर्यदि वितत-तत-घन-शूषिर रूपांश्चतुर्विधानातोद्यशब्दान शणुयात् ततस्तच्छ्वणप्रतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनाय, न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यादित्यर्थ:।' इसका भावार्थ विवेचन में दिया जा चुका है। 3. 'अहावेगतियाई के बदले पाठान्तर है-अहावेगयाइ। 4. ढकुणसद्धाणि के बदले पाठान्तर है-'ढकुलसद्दाणि, ढकुणसदाणि / 5. तत का अर्थ वृत्तिकार ने किया है--ततं वीणा-विपंची-बब्बीसकादि तंत्रीवायम् / Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन : सूत्र 666-72 326 सदाणि वा वंससदाणि वा खरमुहिसद्दाणि' वा पिरिपिरियसद्दाणि वा अण्णयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइं सद्दाई झुसिराई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। ___666. संयमशील साधु या साध्वी मृदंगशब्द, नंदीशब्द या झलरी (झालर या छैने) के शब्द तथा इसीप्रकार के अन्य वितत शब्दों को कानों से सुनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। 670. साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, अर्थात् अनायास कानों में पड़ जाते हैं, जैसे कि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तूनक के शब्द या ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, ढेकुण (वाद्य विशेष) के शब्द, या इसीप्रकार के विविध तत-शब्द किन्तु उन्हें कानों से सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में विचार न करे / 671. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि ताल के शब्द, कंसताल के शब्द, लत्तिका (कांसी) के शब्द, गोधिका (भांड लोगों द्वारा कांख और हाथ में रखकर बजाए जाने वाले वाद्य) के शब्द या बांस की छड़ी से बजने वाले शब्द, इसीप्रकार के अन्य अनेक तरह के तालशब्दों को कानों से सुनने की दृष्टि से किसी स्थान में जाने का मन में संकल्प न करे। 672. साधु-साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि शंख के शब्द, वेणु के शब्द, बांस के शब्द, खरमुही के शब्द, बांस आदि की नली के शब्द या इसीप्रकार के अन्य नाना शुषिर (छिद्रगत) शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के प्रयोजन से किसी स्थान में जाने का संकल्प न करे। विवेचन-विविध वाद्य-स्वर श्रवणार्थ उत्सुकता निषेध-इन 4 सूत्रों (सू 666 से 672 तक) में विविध प्रकार के वाद्यों के स्वर सुनने के लिए लालायित होने का स्पष्ट निषेध है। इस निषेध के पीछे कारण ये हैं—(१) साधु वाद्यश्रवण में मस्त हो कर अपनी साधना को भूल जाएगा, (2) वाद्य-श्रवण रसिक साधु अहर्निश संगीत और वाद्य की महफिले ढूँढ़ेगा, (3) वाद्य श्रवण की लालसा से राग और मोह, तथा श्रवणेन्द्रिय विषयासक्ति और तत्पश्चात् कर्मबन्ध खरमही का अर्थ निशीथति में किया गया है-..-"खरमुखी काहला, तस्स मुहत्थाणे खरमुहाकार कट्ठमय मुहं कज्जति ।'-खरमुखी उसे कहते हैं, जिसके मुख के स्थान में गर्दभमुखाकार काष्ठमय मुख बनाया जाता है। 2. 'परिपिरिया' का अर्थ निशीथ चूणि में किया गया है—'परिपिरिया तततोण सलागातो सुसिराओ जमलाओ संधाडिज्जति मुहमले एममुहा सा संखागारेण वाइज्जमाणी जुगवं तिणि सद्दे परिपिरिती करेति / ' -परिपरिया विस्तृत तण शलाकासे पोला पोला समणि में इकट्ठी की जाती है / मुख के मूल में एकमुखी करके उसे शंखाकृति रूप में बजाई जाने पर एक साथ तीन शब्द परिपिरिया करती है। –निशीथ चणि उ०१७ 10201 17 इसके बदले पाठान्तर है-पिरिपिरिसहाणि / 3. सहाई के आगे 'झसिराइ' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं है। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध होगा, (4) वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा के कारण नाना वादकों की चाटुकारी करेगा। इसलिए वाद्य शब्द अनायास ही कान में पड़ें, यह वात दूसरी है, किन्तु चलाकर श्रवण करने के लिए उत्कण्ठित हो, यह साधु के लिए उचित नहीं।" __प्रस्तुतचतु:सूत्री में मुख्यतया चार कोटि के वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा का निषेध है(१) वितत शब्द, (2) ततशब्द, (3) ताल शब्द और (4) शुषिर शब्द / वाद्य चार प्रकार के होने से तज्जन्य शब्दों के भी चार प्रकार हो जाते हैं। इन चारों के लक्षण इस प्रकार हैं(१) वितत–तार रहित बाजों से होने वाला शब्द, जैसे मृदंग, नंदी और झालर आदि के स्वर / (2) तत-तार वाले बाजे-वीणा, सारंगी, तुनतुना, तानपूरा, तम्बूरा आदि से होने वाले शब्द। (3) ताल-ताली बजने से होने वाला या कांसी, झांझ, ताल आदि के शब्द / (4) शुषिर-पोल या छिद्र में से निकलने वाले बांसुरी, तुरही. खरमुही, विगुल आदि के शब्द / स्थानांगसूत्र में शब्द के भेद-प्रभेद -जीव के वाक् प्रयत्न से होने वाला--भाषा शब्द तथा वाक्-प्रयत्न से भिन्न शब्द / इनके भी दो भेद किये हैं-अक्षर-सम्बद्ध, नो-अक्षर-सम्बद्ध / नो अक्षर-सम्बद्ध के दो भेद-आतोद्य (बाजे आदि का) शब्द, नो आतोद्य (बांस आदि के फटने से होने वाला) शब्द / आतोद्य के दो भेद-तत और वितत, तत के दो भेद-ततघन और ततशषिर, तथा वितत के दो भेद-विततधन, वितत-शुषिर। नो आतोद्य के दो भेद-भूषण, नोभूषण / नो भूषण के दो भेद-ताल और लतिका / प्रस्तुत में आतोद्य के सभी प्रकारों का समावेश-तत, वितत, धन और शुषिर इन चारों में कर दिया गया है / वृत्तिकार ने ताल को एक प्रकार से घनवाद्य का ही रूप माना है। परन्तु स्थानांग सूत्र में ताल और लतिका (लात मारने से होनेवाला या बांस का शब्द) को नो आतोद्य के अन्तर्गत नो-भूषण के प्रकारों में गिनाया है। भगवती सूत्र में वाद्य के तत, वितत, धन और शुषिर इन चारों प्रकारों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार निशीथसूत्र में वितत तत, धन और शुषिर इन चार प्रकार के शब्दों का प्रस्तुत चतु:सूत्रीक्रम से उल्लेख किया है। 'बद्धीसगसद्दाणि' आदि पदों के अर्थ---'बद्धीसग* का अर्थ प्राकृत कोष में नहीं मिलता, 'बद्धग' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ तूण वाद्य विशेष किया गया है। तुणयसद्दाणि = तुनतुने के शब्द, पणवसद्दाणि = ढोल की आवाज, तुम्नवीवियसद्दाणि = तुम्बे के साथ संयुक्त वीणा के शब्द या तम्बूरे के शब्द, ढंकुणसहाणि =एक वाद्य विशेष के शब्द, कंसतालसद्दाणि = कांसे का शब्द, लत्तियसदाशि = कांसा, कंसिका के शब्द / गोहियसद्दाणि = भांडों द्वारा कांख और हाथ में रखकर 1. (क) आचारांग चणि मू० पा० टि० पृ० 240 (ख) आचा० वृत्ति पत्रांक 412 (ग) दशव० अ०८ गा० 26 (घ) उत्तराध्ययन अ० 32 गा० 38, 36, 40, 81 का भावार्थ 2. (क) आचागंग वृत्ति पत्रांक 412 (ख) स्थानांग० स्थान-२, उ० 3 सू०–२११ से 216 3. (क) आचा०वृत्ति० पत्रांक 412 (ख) निशीथ सू० उ० 17 पृ० 200-201 Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन : सूत्र 673-76 बजाया जाने वाले वाद्य के शब्द / किरकिरिसहाणि -बांस आदि की छड़ी में बजाये जाने वाले वाद्य के शब्द / पिरपिरियसहाणि = बांस आदि की नाली से बजने वाले वाद्य शब्द, अथवा देशी भाषा में पिपुड़ी। विविध स्थानों में शब्देन्द्रिय-संयम 673. से भिक्खू वा 2 अहावेगइयाइं सहाई सुणेति, तंजहा-वप्पाणि' वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सहाई कण्णसोयपडियाए गो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 674. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाई सुणेइ, तंजहा--कच्छाणि वा णूमाणि वा गहणाणि वा वणाणि वा वणदुग्गाणि वा पव्ययाणि वा पन्वयदुग्गाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 675. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाई सुर्णेति, तंजहा-गामाणि' वा नगराणि वा निगमाणि वा रायधाणाणि वा आसम-पट्टण-सण्णिवेसाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई सद्दाइं णो अभिसंधारेज्जा गमणाए , 676. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाइं सद्दाइं सुति, तंजहा आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि बा पवाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई सद्दाइं णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 677. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सदाई सुणेति, तंजहा-अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अण्णतराणि वा तहप्पगाराई सद्दाई णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 412 (ख) आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 241 (ग) पाइअपद्माणबो (घ) निशीथ चूणि उ० 1. पृ० 201 / / 2. 'वप्पाणि वा' आदि का अर्थ वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है-वप्रः केदारस्तटादिर्वा, तद्वर्णकाः शब्दा वप्रा एवोक्ताः वप्र-कहते हैं—क्यारी को, अथवा तट आदि को, उसका वर्णन करने वाले शब्द भी वप्र कहलाते हैं। 3. 'सराणि वा सरपंतियाणि वा' के बदले पाठान्तर है-सागराणि वा सरपंतियाणि वा, सागराणि वा सरसरपंतियाणि है। बणदुग्गाणि या के बाद पन्वयाणि वा किसी-किसी प्रति में नहीं है। निशीथणि में उ०१२ पृ०३४४-३४६, 347 में इन सबकी विशेष व्याख्या की गई है.-- "कररादियाण गम्मो गामो। ण करा जत्थ तं णगरं / खेड नाम धुलीपागारपरिक्खित्त। नगर कब्बडं / जोयणमंतरे जस्स गामादि नत्थि तं मडंबं। सुग्णादि आगरो। पट्टणं दुविहं जलपट्टणं थलपट्टणं च, जलेण जस्स भंडमागच्छति तं जलपट्टणं, इतरं थलपट्टणं / दोणि मुहा जस्स तं दोणपहं जलेण वि थले वि भंडमागन्छति / आसमं नाम तावसमादीणं / सत्थावासणणं सन्निवेस। मामो वा पट्टितो सन्निविट्ठो जत्तागतो वा लोगो सन्निविट्टो तं सन्निवेसं भण्णति / अन्नस्थ किसि करेत्ता अन्नत्य वोढ़ वसंति तं संवाहं भन्नति / घोसं गोउलं। वणियवग्गो जत्थ वसति तं नेगम। अंसिया गामवतियभागादी। भंडग्गाहणा जत्थ भिज्जंति तं पूडाभेदं / जत्थ राया वसति सा राजधाणी। 6. 'रायहाणि'–पाठान्तर है। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कंध 678. से भिक्खू वा 2 अहावेगलियाई सद्दाइं सुणेति, तंजहा-तियाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउमुहाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई सद्दाई णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 676. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सद्दाइं सुणेति, तंजहा-महिसकरणढाणाणि वा वसभकरणट्ठाणाणि वा अस्सकरणट्ठाणाणि' वा हस्थिकरणट्ठाणाणि वा जाव कविजलकरणठाणाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई सद्दाइनो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 673. वह साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे कि-खेत की क्यारियों में तथा खाइयों में होने वाले शब्द यावत् सरोवरों में. समुद्रों में, सरोवर की पंक्तियों या सरोवर के बाद सरोवर की पंक्तियों के शब्द अन्य इसी प्रकार के विविध शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे। 674. साधु या साध्वी कतिपय शब्दों को सुनते हैं, जैसे कि नदी तटीय जलबहुल प्रदेशों, (कच्छों) में, भूमिगृहों या प्रच्छन्न स्थानों में, वृक्षों से सघन एवं गहन प्रदेशों में, वनों में, वन के दुर्गम प्रदेशों में, पर्वतों पर, या पर्वतीय दुर्गों में तथा इसीप्रकार के अन्य प्रदेशों में, किन्तु उन शब्दों को कानों से श्रवण करने के उद्देश्य से गमन करने का संकल्प न करे / 675. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे-गांवों में, नगरों में, निगमों में, राजधानी में, आश्रम, पत्तन और सन्निवेशों में या अन्य इसीप्रकार के नाना रूपों में होने वाले शब्द हैं. किन्त साध-साध्वी उन्हें सनने की लालसा से न जाए। 676. साधु या साध्वी के कानों में कई प्रकार के शब्द पड़ते हैं, जैसे कि-आरामगारों में, उद्यानों में, वनों में, वनखण्डों में, देवकुलों में, सभाओं में, प्याऊओं में या अन्य इसीप्रकार के विविध स्थानों में, किन्तु इन कर्णप्रिय शब्दों को सुनने की उत्सुकता से जाने का संकल्प न करे। 677. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि-अटारियों में, प्राकार से सम्बद्ध अट्टालयों में, नगर के मध्य में स्थित राजमार्गों में; द्वारों या नगर-द्वारों तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में, किन्तु इन शब्दों को सुनने हेतु किसी भी स्थान में जाने का संकल्प न करे। 678. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि-तिराहों पर, चौकों में, चौराहों पर, चतुर्मुख मार्गों में तथा इसीप्रकार के अन्य स्थानों में, परन्तु इन शब्दों को श्रवण करने के लिए कहीं भी जाने का संकल्प न करे। 676. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द श्रवण करते है, जैसे कि-भेंसों के स्थान, आसकरणं का अर्थ निशीथ चणि में किया गया है-आससिक्खावणं आसकरणं एवं सेसाणि वि। अश्वकरण कहते हैं---अश्वशिक्षा देने को। इसी प्रकार शेष करणों के सम्बन्ध में जान लें। 2. यहाँ जाव शब्द से हथिकरणट्ठाणाणि से कविजलकरणहाणाणि तक का पाठ सू०६५७ के अनुसार है। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन : सूत्र 680-86 वृषभशाला, घड़साल, हस्तिशाला यावत् कपिजल पक्षी आदि के रहने के स्थानों में होने वाले शब्दों या इसी प्रकार के अन्य शब्दों को, किन्तु उन्हें श्रवण करने हेतु कहीं जाने का मन में विचार न करे। विवेचन-विविध स्थानों में विभिन्न शब्दों की श्रवणोत्कण्ठानिषेध-प्रस्तुत सात सूत्रों (673 से 676) में विभिन्न स्थानों में उन स्थानों से सम्बन्धित आवाजों या उन स्थानों में होने वाले श्रव्य गेय आदि स्वरों को श्रवण करने की उत्सुकतावश जाने का निषेध किया गया है। ये स्वर कर्णप्रिय लगते हैं, किन्तु साधु उसे चला कर सुनने न जाए, न ही सुनने की उत्कण्ठा करे।' अनायास शब्द कान में पड़ ही जाते हैं, मगर इन शब्दों को मात्र शब्द ही माने, इनमें मनोज्ञता या अमनोज्ञता का मन के द्वारा आरोप न करे / राग-द्वेष का भाव न उत्पन्न होने दे। निशीथ सूत्र के 17 वें उद्देशक में इन स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने का मन में संकल्प करने वाले साधु या साध्वी के लिए इन शब्दों को सुनने में प्रायश्चित बताया है-जे भिक्खू वप्पाणि वा... कणसवणपडियाए अभिसंधारेइ....' चर्णिकार इनके सम्बन्ध में बताते हैं कि जैसे 12 वें उद्देशक में ये 14 (रूप-दर्शन-सम्बद्ध) सूत्र प्रतिपादित किये हैं, वैसे यहां (शब्द-श्रवण-सम्बद्ध सूत्र 17 वें उद्देशक में भी प्रतिपादित समझ लेना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वहाँ चक्षु से रूप दर्शन की प्रतिज्ञा से गमन का प्रायश्चित्त है, जबकि यहां कानों से शब्द श्रवण प्रतिज्ञा से गमन करने का प्रायश्चित है। वप्र आदि स्थानों में जो शब्द होते हैं, उन्हें ग्रहण करने के लिए जो साधु जाता है, वह प्रायश्चित का भागी होता है। मनोरंजन स्थलों में शब्दश्रवणोत्सुकता निषेध 680. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाइ सद्दाई सणेइ, तंजहा-महिसजुद्धाणि वा वसभजुद्धाणि वा अस्सजुद्धाणि वा जाव कविजलजुद्धाणि वा अण्णतराइ वा तहप्पगाराई सद्दाई नो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 681. से भिक्खू वा 2 अहावेगतियाई सहाइ सुति, तंजहा-जूहियट्ठाणाणि वा हयजहियट्ठाणाणि वा गयजूहियट्ठाणाणि वा अण्णतराइ वा तहप्पगाराइ सद्दाईको अभिसंधारेज्जा गमणाए। 682. से भिक्खू वा 25 जाव सुणेति, तंजहा-अक्खाइयट्ठाणाणि वा माणुम्माणिय 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 412 2. निशीथ सूत्र उ० 17, चूणि प० 201-203 3. सूत्र 680 का आशय वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है- "कलहादिवर्णन तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेत् / " अर्थात-कलह आदि का वर्णन या उस स्थान में होने वाले कलह का श्रवण करने के लिए न जाए। 4. सू० 681 में उल्लिखित पाठ से अतिरिक्त अनेक पाठ निशीथ सूत्र १२वें उद्देशक में है। 5. यहाँ जाव शब्द से भिक्षुणी बा से सुणेति तक का पाठ सूत्र 681 के अनुसार समझें / Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ट्ठाणाणि वा महयाहतनट्ट-गीत-वाइत-तंति-तलताल-तुडिय-पडुप्प-वाइयट्ठाणाणि वा अण्णतराइ' वा तहप्पगाराई सदाइ णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 63. से भिक्खू वा 2 जाव सुणेति, तंजहा-कलहाणि वा डिबाणि वा डमराणि वा दोरज्जाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा अण्णतराइ वा तहप्पगाराई सद्दाइ णो अभिसंधारेज्ज गमणाए। 684. से भिक्खू वा 2 जाव सद्दाई सुणेति, [तंजहा] -खुड्डियं दारियं परिवुतं मंडितालंकितं निवुज्झमाणि पेहाए, एगपुरिसं वा वहाए णोणिज्जमाणं पेहाए, अण्णतराई वा अभिसंधारेज्ज गमणाए। 685. से भिक्खू वा 2 अण्णतराई विरूवरूवाई महासवाई एवं जाणेज्जा, तंजहाबहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपच्चंताणि वा अण्णतराईवा तहप्पगाराइविरूवरूवाइ महासवाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए। 686. से भिक्खू वा 2 अण्णतराइविरूवरूवाइ महुस्सवाइ" एवं जाणेज्जा तंजहाइत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वा मज्झिमाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा णच्चंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभायंताणि वा विछड्डयमाणाणि वा विग्गोवयमाणाणि वा अण्णय राई वा तहप्पगाराइविरूवरूवाइ महुस्सवाई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए। 680. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि-जहाँ भंसों के युद्ध, सांडों के युद्ध, अश्व-युद्ध, हस्ति-युद्ध यावत् कपिजल-युद्ध होते हैं तथा अन्य इसी प्रकार के पशु-पक्षियों के लड़ने से या लड़ने के स्थानों में होने वाले शब्द, उनको सुनने हेतु जाने का संकल्प न करे / 1. अण्णतराई के बदले पाठ है-अण्णतराणि / अर्थ समान है। 2. किसी-किसी प्रति में वेरज्जाणि वा पाठ नहीं है। 3. निवुज्झमाणि' के बदले पाठान्तर है णिबुज्झामणि, णिन्वुज्झमाणि / वृत्तिकारकृत अर्थ है--- अश्वादिना नीयमानाम् / –घोड़े आदि पर ले जाते हुए। 4. महासवाई का अर्थ वृत्ति कार ने किया है-महान्येतान्याश्रवस्थानानि पापोपादानस्थानानि वर्तन्ते / -ये महान् आश्रय स्थान-पापोपादान के स्थान हैं / 5. जाणेज्जा के बदले पाठान्तर हैं--जाणे 6. तुलना कीजिए-जे भिक्खू विरूवरूवाणि महामहाणि तंजहा-बहुरयाणि......"बहुमिलवाणि / (चणि).."अव्वत्तभासिणो जस्थ महेमिलन्ति सो बहमिलक्खोमहो, मिडादि / --निशीथ उ० 12 चूणि पृ० 350 7. तुलना कीजिए--जे भिक्खू विरूवस्वेसु महुस्सवेसू इत्थीणि वा..."डहराणि वागायंताणि वा....... मोहंताणि वा'"विउलं."परिभुजंताणि वा। ____-निशीथ उ० 12 10 350 8. विभूसियाणि के बदले पाठान्तर है--विभूसाणि / आभूषणों की साज-सज्जा से युक्त / 6. किसी-किसी प्रति में मोहताणि वा पाठ नहीं है, कहीं पाठान्तर है-भोगताणि Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन : सूत्र 680-86 335 681. साध या साध्वी के कानों में कई प्रकार के शब्द पड़ते हैं, जैसे कि-वर-वधू युगल आदि के मिलने के स्थानों (विवाह-मण्डपों) में या जहां वरवधू-वर्णन किया जाता है, ऐसे स्थानों में, अश्वयुगल स्थानों में, हस्तियुगल स्थानों में तथा इसीप्रकार के अन्य कुतूहल एवं मनोरंजक स्थानों में, किन्तु ऐसे श्रव्य-गेयादि शब्द सुनने की उत्सुकता से जाने का संकल्प न करे। 682. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द-श्रवण करते हैं, जैसे कि कथा करने के स्थानों में, तोल-माप करने के स्थानों में या घुड़दौड़, कुश्ती प्रतियोगिता आदि के स्थानों में, महोत्सव स्थलों में, या जहाँ बड़े-बड़े नृत्य, नाट्य, गीत, वाद्य, तंत्री, तल (कांसी का वाद्य), ताल, टित वादित्र, ढोल बजाने आदि के आयोजन होते हैं, ऐसे स्थानों में तथा इसीप्रकार के अन्य मनोरंजन स्थलों में होने वाले शब्द, मगर ऐसे शब्दों को सुनने के लिए जाने का संकल्प न करे। 683. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि जहाँ कलह होते हों, शत्रु सैन्य का भय हो, राष्ट्र का भीतरी या बाहरी विप्लव हो, दो राज्यों के परस्पर विरोधी स्थान हों, वैर के स्थान हों, विरोधी राजाओं के राज्य हों, तथा इसीप्रकार के अन्य विरोधी वातावरण के शब्द, किन्तु उन शब्दों को सुनने की दृष्टि में गमन करने का संकल्प न करे। 684. साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, जैसे कि वस्त्राभूषणों से मण्डित और अलंकृत तथा बहुत-से लोगों से घिरी हुई किसी छोटी बालिका को घोड़े आदि पर बिठाकर ले जाया जा रहा हो, अथवा किसी अपराधी व्यक्ति को वध के लिए बधस्थान में ले जाया जा रहा हो, तथा अन्य किसी ऐसे व्यक्ति की शोभायात्रा निकाली जा रही हो, उस समय होने वाले (जय, धिक्कार, तथा मानापमानसूचक नारों आदि) शब्दों को सुनने की उत्सुकता से वहां जाने का संकल्प न करे। 685. साधु या साध्वी अन्य नानाप्रकार के महास्रवस्थानों को इस प्रकार जाने, जैसे कि जहाँ बहुत से शकट, बहुत से रथ, बहुत से म्लेच्छ, बहुत से सीमाप्रान्तीय लोग एकत्रित हुए हों, अथवा उस प्रकार के नाना महासव के स्थान हों, वहाँ कानों से शब्द-श्रवण के उद्देश्य से जाने का मन में संकल्प न करे। 686. साधु या साध्वी किन्हीं नाना प्रकार के महोत्सवों को यों जाने कि जहाँ स्त्रियां, पुरुष, वृद्ध, बालक और युवक आभूषणों से विभूषित होकर गीत गाते हों, बाजे बजाते हों, नाचते हों, हंसते हो, आपस में खेलते हो, रतिक्रीड़ा करते हो, तथा विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों का उपभोग करते हों, परस्पर बांटते हों, या परोसते हों, त्याग करते हों, परस्पर तिरस्कार करते हों, उनके शब्दों को तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से महोत्सवों में होने वाले शब्दों की कान से सुनने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे / विवेचन--मनोरंजन स्थलों में शब्दश्रवणोत्कण्ठा वर्जित--सूत्र 680 से 686 तक सप्तसूत्री Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध में प्रायः मनोरंजन स्थलों में होने वाले शब्दों के उत्सुकतापूर्वक श्रवण का निषेध किया गया है। संक्षेप में इन सातों में सभी मुख्य-मुख्य मनोरंजन एवं कुतुहलवर्द्धक स्थलों में विविध कर्ण प्रिय स्वरों के श्रवण की उत्कण्ठा से साधु को दूर रहने की आज्ञा दी है-(१) भैसों, सांडों आदि के लड़ने के स्थानों में, (2) वर-वधू युगलमिलन स्थलों या अश्वादि युगल स्थानों में, (3) घुड़दौड़ कुश्ती आदि के स्थानों में तथा नृत्य-गीत-वाद्य आदि की महफिलवाले स्थानों में, (4) कलह, शत्र-सैन्य के साथ युद्ध, संघर्ष , विलम्ब आदि विरोधी वातावरण के शब्दों का (5) किसी की शोभायात्रा में किये जाने वाले जय-जयकार या धिक्कार सूचक नारे या हर्ष-शोक सूचक शब्दों का, (6) महान् आस्रव स्थलों में, (7) बड़े-बड़े महोत्सवों में होने वाले शब्द / / ___ इन्हों पाठों से मिलते-जुलते पाठ-इन सातों सूत्रों में प्रायः मिलते-जुलते स्वरों की श्रवणोत्सुकता का निषेध स्पष्ट है; निशीथ (चूणि सहित) उद्देशक बारहवें में कई सूत्र और कई पद अविकल रूप में मिलते हैं कुछ सूत्रों में अधिक पाठ भी है। जूहियट्ठाणाणि आदि पदों के अर्थ-आचारांगवृत्ति, चूणि आदि में तथा निशीथ सूत्र चूणि आदि में प्रतिपादित अर्थ इस प्रकार हैं-जूहियट्ठाणाणिजहाँ वर और वधू आदि जोड़ों के मिलन या पाणिग्रहण का जो स्थान (वेदिका, विवाहमण्डप आदि) हैं, वे स्थान। अक्खाइयट्ठाणाणि = कथा कहने के स्थान, या कथक द्वारा पुस्तक वाचन / माणुम्मणियट्ठाणाणिमान-प्रस्थ आदि का उन्मान-नाराच (गज) आदि के स्थान, अथवा मानोन्मान का अर्थ हैघोड़े आदि के वेग इत्यादि की परीक्षा करना / अथवा एक के बल का माप दूसरे के बल से अनुमानित किया जाए, अथवा माप का अर्थ वस्त्र मानोन्मानित है उनके स्थान / 'निवुज्ममाणि' =अश्व आदि ले जाती हुई / महयाहतजोर-जोर से बाजे को पीटना, अथवा महा कथानक / वाहता = तंत्री / ताल-करतल ध्वनि / महासवाई जो भारी आस्रवों-पाप कर्मों के आगमन के स्थान हों। बहुमिलक्खूणि= जिस उत्सव में बहुत-से अव्यक्तभाषी मिलते हैं, वह बहुम्लेच्छ उत्सव। अथवा जो आभाषक है, उन्हें पूछता नहीं है, वह / महुस्सवाई महोत्सव / 'मोहंताणि' =मोहोत्पत्ति करने वाली क्रिया, मोहना--मैथुनसेवन, विछड्डयमाणाणि =अलग करते हुए, त्याग करते हुए। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 412 2. तुलना करिये—'जे भिक्खू उज्जूहियाठाणाणि वा णिज्जूहियाठाणाणि वा मिहोजूहियाठाणाणि वा, हयजूहियाठाणाणि वा गयजूहियाठाणाणि वा।'-निशोथ उ०-१२"एमपुरिसं वा बज्नं णिज्जमाणं / 'जे भिक्खू आधापाणि वा माणम्माणिय णम्माणि बा बुग्गहाणि वा'"डिबाणि वा डमराणि बा खाराणि वा, वेराणि वा महाजद्धाणि वा महासंगामाणि, कलहाणि वा। अभिसेमठाणाणि वा अक्खाइयाट्ठाणाणि वा माणुम्माणियाट्ठाणाणि वा मयायणट्टगीयवादिमतंतीतलतालतुडिय घणमुइंगपडप्पवाइयाणाणि वा। जे भिक्खू विरुवरुवाणि महामहाणि गच्छति / जे भिक्खू विरुव रूवेसु महुस्सवेसु परिभुजति। निशीथ उ०-१२ चणि 10 348-350 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 412 (ख) आचारांगचूणि टि० पृ. 245, 246, 247 निशीथचूर्णि पृ० 348-50 Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश : अध्ययन : सूत्र 687-88 337 687. से भिक्खू वा 2 णो इहलोइएहि सद्देहिं णो परलोइएहि सद्देहि, णो सुतेहिं सद्देहि नो असुतेहि सद्देहि, णो' दिठेहि सद्देहि नो अदिहिं सहि, नो इहिं सद्देहि, नो कंतेहिं सहि सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, णो गिज्ञज्जा, णो मुज्जेज्जा, णो अज्झोववज्जेज्जा। 688. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए बा सामग्गियं जएज्जासि त्ति बेमि // 687. साधु या साध्वी इहलौकिक एवं पारलौकिक शब्दों में, श्रुत = (सुने हुए) या अश्रुत = (बिना सुने) शब्दों में, देखे हुए या बिना देखे हुए शब्दों में, इष्ट और कान्त शब्दों में न तो आसक्त हो, न रक्त(रागभाव से लिप्त) हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो और न ही मूच्छित या अत्यासक्त हो। 688. यही (शब्द श्रवण-विवेक ही) उस साधु या साध्वी का आचार-सर्वस्व है, जिसमें सभी अर्थों-प्रयोजनों सहित समित होकर सदा वह प्रयत्नशील रहे। विवेचन---शब्द श्रवण में आसक्ति आदि का निषेध-प्रस्तुतसूत्र में इहलौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार के इष्ट आदि (पूर्वोक्त) शब्दों के श्रवण में आसक्ति, रागभाव, गृद्धि, मोह और मूर्जा का निषेध किया गया है। इसके निषेध के पीछे मुख्यतया ये कारण हो सकते हैं-(१) शब्दों में आसक्ति से मृग या सर्प की भांति जीवन विनाश सम्भव है, (2) इष्ट शब्द-वियोग और अनिष्ट संयोग से मन में तीव्र पीड़ा होती है / (3) आसक्ति से अतुष्टि दोष, दुःख प्राप्ति, हिंसादि दोष उत्पन्न होते हैं। ___दिठ आदि पदों के अर्थ-विट्ठ-पहले प्रत्यक्ष देखे-स्पर्श किये हुए शब्द, अदिट्ठ= जो शब्द प्रत्यक्ष न हो, जैसे-देवादि का शब्द / यद्यपि 'सज्जेज्जा' (आसक्त हो) आदि पद एकार्थक लगते हैं, किन्तु गहराई से सोचने पर इनका पृथक् अर्थ प्रतीत होता है जैसे आसेवना भाव आसक्ति है, मन में प्रीति होना रक्तता अनुराग है, दोष जान लेने (उपलब्ध होने) पर भी निरन्तर आसक्ति गृद्धि है और अगम्यगमन का आसेवन करना अध्युपपन्न होना है। इहलोइयं = मनुष्यादिकृत, पारलोइयं =जैसे--हय, गज आदि। // एकादश अध्ययन, चतुर्थ सप्तिका सम्पूर्ण // 1. किसी-किसी प्रति में नो दिद्रुहि सद्देहि णो अदिहिं सद्देहि पाठ नहीं है। 2. किसी-किसी प्रति में नो इठेहि सद्देहि नो कहि सद्दे हि नहीं है। 3 अज्मोववज्जेज्जा के बदले पाठान्तर है-अज्जोवज्जेज्जा। 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 413 5. उत्तराध्ययन अ० 32 गा० 37, 38, 36 6. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 413 (ख) आचाराँग चूंणि मू० पा० टि० पृ० 248, (ग) निशीथचूणि उ-१२ 1 350 में "सज्जणादी पद-एगठ्ठिया, अहवा आसेवणभावे सज्जणता, मणसा पीतिगमणं रज्जणता, सदोसुवल वि अविरमोगेधी, अगम्ममणासेवणे अज्ञववातो।" (घ) तुलना कीजिए-जेभिक्खू इहलोइएसु"परलोइएसु"दिट्ठसुसज्जई वा रज्जई वा गिज्झइ वा अज्झोववज्जइ वा।-निशीथ उ०-१२ पु० 350 Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप सप्तक : द्वादश अध्ययन प्राथमिक 27 आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के बारहवें अध्ययन का नाम 'रूप-सप्तक' है। - चक्षुरिन्द्रिय का कार्य रूप देखना है। संसार में अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय, इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप हैं, दृश्य है, दिखाई देनेवाले पदार्थ हैं। ये सब यथाप्रसंग आँखों से दिखाई देते हैं, परन्तु इन दृश्यमान पदार्थों का रूप देखकर साधु साध्वी को अपना आपा नहीं खोना चाहिए / न मनोज्ञ रूप पर आसक्ति, मोह, राग, गृद्धि, मूर्छा उत्पन्न होना चाहिए। और न ही अमनोज्ञ रूप देखकर उनके प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि करना चाहिए। अनायास ही कोई दृश्य या रूप दृष्टिगोचर हो जाए तो उसके साथ मन को नहीं जोड़ना चाहिए / समभाव रखना चाहिए, किन्तु उन रूपों को देखने की कामना, लालसा, उत्कण्ठा, उत्सुकता या इच्छा से कहीं जाना नहीं चाहिए।' 4 राग और द्वेष दोनों ही कर्मबन्धन के कारण हैं, किन्तु राग का त्याग करना अत्यन्त कठिन होने से शास्त्रकार ने राग-त्याग पर जोर दिया है / इसी कारण 'शब्द सप्तक' अध्ययनवत इस अध्ययन में भी किसी मनोज्ञ, प्रिय, कान्त, मनोहर रूप के प्रति मन में इच्छा, मूर्छा, लालसा, आसक्ति, राग, गृद्धि या मोह से बचने का निर्देश किया है। अतएव इसका नाम 'रूप सप्तक' रखा गया है / रूप के यद्यपि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चार निक्षेप बताए गए हैं, किन्तु नाम और स्थापना निक्षेप सुबोध होने से उन्हें छोड कर यहाँ द्रव्यरूप और भावरूप का निरूपण किया है। द्रव्य रूप नो आगमत: परिमण्डल आदि पाँच संस्थान हैं, और भाव रूप दो प्रकार है-१. वर्णतः, 2. स्वभावतः / वर्णतः काला आदि पांचों रंग है / स्वभावतः रूप है ...अन्तरंग क्रोधादि वश भौंहें तानना, आँखें चढ़ाना, नेत्र लाल होना, शरीर कांपना, कठोर बोलना आदि / र रूप सप्तक अध्ययन में कुछ दृश्यमान वस्तुओं के रूपों को गिना कर अन्त में यह निर्देश कर दिया है कि जैसे शब्द सप्तक में वाद्य को छोड़कर शेष सभी सूत्रों का वर्णन है, तदनुसार, इस रूप सप्तक में भी वर्णन समझना चाहिए। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 414 (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २४०-से भिक्खू वा 2 जहोवगयाई रुवाई, ण सक्का चक्खु विसयमागयं ण दट्ठ, जं तणिमित्तं गमणं तं वज्जेयव्वं / / 2. (क) आचा० वृत्ति पत्रांक 414 (ख) आचा० नियुक्ति गा० 220 3. "एवं नेयव्वं जहा सहपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमा वि।--आचा० मू० पा० पृ०-२८६ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं अज्झयणं 'रूव' सत्तिक्कयं रूप सप्तक : बारहवाँ अध्ययन : पंचम सप्तिका रूप-दर्शन-उत्सकता निषेध 686. से भिक्खू वा 2 अहावेगइयाई रूवाइपासति, तंजहा---गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघातिमाणि वा कटकमाणि' वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा मणिकम्माणि वा दंतकम्माणि वा पत्तच्छेज्जकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अण्णतराई वा] तहप्पगाराइविरूवरूवाइ चक्खुदंसणवडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए। एवं नेयव्वं जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमा वि। 686. साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे-गूंथे हुए पुष्पों से निष्पन्न स्वस्तिक आदि को, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से पुरुषाकृति बन जाती हो, उन्हें, अनेक वर्षों के संघात से निर्मित चोलकादिको, काष्ठ कर्म मे निर्मित रथादि पदार्थों को, पुस्तकर्म से निर्मित पुस्तकादि को, दीवार आदि पर चित्रकर्म से निर्मित चित्रादि को, विविध मणिकर्म से निर्मित स्वस्तिकादि को, दंतकर्म में निर्मित दन्तपुत्तलिका आदि को, पत्रछेदन कम से निर्मित विविध पत्र आदि को, अथवा अन्य विविध प्रकार के वेष्टनों से निष्पन्न हुए पदार्थों को, तथा इसीप्रकार के अन्य नाना पदार्थों के रूपों को, किन्तु इनमें से किसी को आँखों से देखने की इच्छा से साधु या साध्वी उस ओर जाने का मन में विचार न करे। इस प्रकार जैस शब्द सम्बन्धी प्रतिमा का (11 वें अध्ययन में) वर्णन किया गया है, वैसे ही यहां चतुर्विध आतोद्यवाद्य को छोड़कर रूपप्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए। विवेचन-एक ही सूत्र द्वारा शास्त्रकार ने कतिपय पदार्थों के रूपों के तथा अन्य उस प्रकार के विभिन्न रूपों के उत्सुकता पूर्वक प्रेक्षण का निषेध किया है। सूत्र के उत्तरार्द्ध में एक पंक्ति द्वारा शास्त्रकार ने उन सब पदार्थों के रूपों को उत्कण्ठापूर्वक देखने का निषेध किया 1. 'कट्ठकम्माणि वा' के बदले पाठान्तर हैं-"कट्ठाणि वा, 'कठकम्माणि वा मालकम्माणि वा।" अर्थात् काष्ठकर्म द्वारा निर्मित पदार्थों के, तथा माल्यकर्म द्वारा निष्पन्न माल्यादि पदार्थों के / 2. 'पत्तच्छेज्जकम्माणि' के बदले पाठान्तर है-'पत्तच्छेयककम्माणि' 3. वृत्तिकार इस पंक्ति का स्पष्टीकरण करते हैं-"एवं शब्द सप्तककसूत्राणि चतुर्विधातोद्यरहितानि सर्वाण्यपीहाऽयोज्यानि / " अर्थात् इस प्रकार शब्दसप्तक अध्ययन के चतुर्विध आतोध (वाद्य) रहित सूत्रों को छोड़ कर शेष सभी सुत्रों का आयोजन यहाँ कर लेना चाहिये। Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध है, जो ग्यारहवें शब्द सप्तक अध्ययन में शब्द श्रवण-निषेध के रूप में वर्णित है। सिर्फ वाद्य शब्दों को छोड़ा गया है। संक्षेप में, उत्कण्ठापूर्वक रूप-दर्शन-निषेध सूत्र इस प्रकार फलित होते हैं--(१) केतकी क्यारियों, खाइयों आदि के रूप को देखने का, (2) नदी तटीय कच्छ, गहन, बन आदि पदार्थों के रूप को देखने का, (3) ग्राम, नगर. राजधानी आदि के रूपों को देखने का, (4) आराम, उद्यान, वनखण्ड, देवालय आदि पदार्थों के रूप देखने का, (5) अटारी, प्राकार, द्वार, राजमार्ग आदि स्थानों के रूप देखने का, (6) नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ आदि के रूप देखने का, (7) महिषशाला, वृषभशाला आदि विविध स्थानों के रूप देखने का, (8) विविध युद्ध क्षेत्रों के दृश्य देखने का, (E) आख्यायिकस्थानों, घुड़दौड, कुश्ती आदि द्वन्द्व स्थानों के दृश्य देखने का, (10) वर-वधू मिलन स्थान, अश्वयुगल स्थान आदि विविध स्थानों के दृश्य देखने का, (11) कलहस्थान, शत्रु राज्य, राष्ट्र विरोधी स्थान आदि के रूपों को देखने का, (12) किसी वस्त्र भूषण सज्जित बालिका के, तथा मृत्युदण्ड वेष में अपराधी पुरुष के जुलूस आदि को देखने का, (13) अनेक महास्रव के स्थानों को देखने का, (14) महोत्सव स्थलों एवं वहाँ होने वाले नृत्य आदि देखने का, मन से जरा भी विचार न करे। यद्यपि चूर्णिकार ने रूप सप्तक अध्ययन को 12 वें अध्ययन में न मानकर 11 वें अध्ययन में माना है। इन विविध पाठों की चूणि में इस बात के प्रबल संकेत मिलते हैं / अत: वहाँ सर्वत्र 'कण्णसवणपडियाए' के बदले 'चक्खु दंसणपडियाए' पाठ मिलता है। निशीथ सूत्र के बारहवें उद्देशक में भी ये सब पाठ देकर 'चक्खुवंसणपडियाए' अन्त में दिया गया है / साथ ही अन्तिम 681 सूत्र के अनुसार यहां भी रूपदर्शन निषेध का उपसंहार समझना चाहिए। 1. आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 414 के आधार पर। 2. (क) देखें आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पण (ख) निशीथचूणि उद्देशक 12 पृ० 201, 203, 348. 345, 346, 347, 348, 646, 350 1. जे वप्पाणि वा... पवाओ"सुहाकम्मतानि "कट्ठकम्मंतानि वा भवणगिहाणि वा.... ___ कच्छाणि वा 'सरसरपंतीओ वा चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / जे भिक्ख गामाणि वा "रायधाणीमहाणि वा "चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / 3. जे आसकरणाणि वा 'सूकरकरणाणि वा, 'हयजुद्धाणि वा णिउद्घाणि वा उट्ठायुद्धाणि वा चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / 4. जे भिक्खू विरूवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा पुरिसाणि वा मोहंताणि वा परिभुजंताणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ। 5. जे भिक्खू इहलोइएसु वा रूवेसु, परलोइएसु वा रूवेसु दिठेसु वा रूवेसु अमणुण्णेसु वा रूवेसु सज्जइ वा रज्जइ वा गिज्झइ वा अज्झोवबज्जइ वा। Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्ययन : सूत्र 686 341 उत्कण्ठापूर्वक रूप दर्शन से हानियां(१) रूप एवं दृश्य देखने की लालसा तीन हो जाती है, (2) मनोज्ञ रूप पर राग और अमनोज्ञ पर द्वेष पैदा होता है, (3) साधक में अजितेन्द्रियता बढ़ती है, (4) स्वाध्याय, ध्यान आदि से मन हट जाता है, (5) पतंगे की तरह रूप लालसा ग्रस्त व्यक्ति अपनी साधना को चौपट कर देता है, (6) नैतिक एवं आध्यात्मिक पतन हो जाता है। (7) रूपवती सुन्दरियों एवं सुन्दर सुरूप वस्तुओं को प्राप्त करने की लालसा जागती गंथिमाणि आदि शब्दों को व्याख्या-गंथिमाणि--गंथे हुए फूल आदि से बने हुए स्वस्तिक आदि / वेढिमाणि = वस्त्रादि से बनी हुई पुतली आदि वस्तुएं। पूरिमाणि - जिनके अन्दर कुछ भरने से पुरुषाकार बन जाते हैं, ऐसे पदार्थ / संघाइमाणि =अनेक एकत्रित वर्षों से निर्मित चोलक आदि, चंक्खुदंसणपडियाए' = आँखों से देखने की इच्छा से। // बारहवाँ अध्ययन, रूप सप्तक समाप्त / / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 415 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर-क्रिया सप्तक : त्रयोदश अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र (द्वि० श्र०) के इस अध्ययन का नाम 'पर-क्रिया सप्तक' है / * साधक जितना स्व-क्रिया करने में, अथवा स्वकीय आवश्यक शरीरादि सम्बन्धित क्रिया करने में स्वतन्त्र, स्वावलम्बी और स्वाश्रयी होता है, उतनी ही उसकी साधना तेजस्वी बनती है और शनैः-शनैः साधना की सीढ़ियां चढ़ता-चढ़ता एकदिन वह अक्रियक्रिया से रहित, निश्चल-निःस्पन्द शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है।' साधक जितना अधिक दूसरों का सहारा, दूसरों का मुंह ताकेगा, दूसरों से अपना कार्य कराने के लिए दीनता प्रकट करेग, वह उतना ही अधिक पराधीन, पराश्रयी, परमुखापेक्षी, दीन-हीन, मलिन बनता जाएगा। एकदिन वह पूर्ण रूपेण उन व्यक्तियों या वस्तुओं का दास बन जाएगा। इसी निकृष्ट अवस्था से साधक को हटाने और उत्कृष्टता के सोपान पर आरूढ़ करने हेतु पर-क्रिया का निषेध तन-वचन में ही नहीं, मन से भी किया गया है। साधु के लिए की जानेवाली इस प्रकार की परक्रिया को कर्म बन्धन की जननी कहा गया है। - 'पर' का अर्थ यहाँ साधु से इतर-गृहस्थ किया गया है। * वैसे 'पर' के नाम-स्थापना आदि 6 निक्षेप वृत्तिकार ने किये हैं, उनमें से यहाँ प्रसंगवश 'आदेश-पर' अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है / 'आदेश पर' का अर्थ होता है जो किसी क्रिया में नियुक्त किया जाता है, वह कर्मकर, भृत्य या अधीनस्थ व्यक्ति सम झना चाहिए। * 'पर' के द्वारा' साधु के शरीर, पैर, आँख, कान आदि अवयवों पर की जाने वाली परिकर्म-क्रिया या परिचर्या 'परक्रिया' कहलाती है। ऐसी पर-क्रिया कराना साधु के लिए मन, बचन, काया से निषिद्ध है। 1. (क) सवणे नाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे / अणण्हए तवे चेव वादाणे अकिरिया सिद्धी / (ख) उत्तरा० अ० 26, बोल ३६-सहायपच्चक्खाणेणं भंते। 2. आचारांग मूलपाठ वृत्ति पत्रांक 436 भगवती सूत्र 2/5 Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदश अध्ययन : प्राथमिक 343 र ऐसी परक्रिया विविध रूपों में गृहस्थादि से लेना साधु के लिए वर्जित है / वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि गच्छ-निर्गत जिनकल्पी या, प्रतिमाप्रतिपन्न साधु के लिए परक्रिया का सर्वथा निषेध है, किन्तु गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी के लिए कारणवश यतना करने का निर्देश है / ' - इस अध्ययन में परक्रिया की परिभाषा, परिणाम, पाद-काय-त्रण-गंडादि-परिकर्म-रूप परक्रिया निषेध, मलनिष्कासन, केश-रोमकर्तन, जूं-लीख-निष्कासन, अंक-पर्यंक पादकाय-व्रणादि परिकर्म, आभूषण-परिधान, चिकित्सा आदि के रूप में परिचर्या का निषेध है। अन्त में, कृत-कर्म फलस्वरूप प्राप्त वेदना को समभावपूर्वक सहने का उपदेश भी है। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 415; 416 (ख) आचारांग नियुक्ति 326 गा० 2. आचा० मूलपाठ वृत्ति 416 Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं 'परकिरिया' सत्तिक्कओ पर-क्रिया सप्तक : त्रयोदश अध्ययन : षष्ठ सप्तिका पर-क्रिया-स्वरूप 690. परकिरियं अत्थियं संसेइयं णो तं सातिए णो तं णियमे / 690. पर अर्थात् गृहस्थ के द्वारा आध्यात्मिकी अर्थात् मुनि के शरीर पर की जाने वाली कायव्यापाररूपी क्रिया (सांश्लेषिणी) कर्मबन्धन जननी है, (अत:) मुनि उगे मन से भी न चाहे, न उसके लिए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए। विवेचन-परक्रिया और उसका परिणाम-प्रस्तुत सूत्र में परक्रिया क्या है, वह क्यों निषिद्ध है ? वह आचरणीय क्यों नहीं है ? इसका निर्देश किया गया है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार-पर अर्थात् गृहस्थ के द्वारा की जाने वाली क्रिया-चेष्टा, व्यापार या कर्म, परक्रिया हैं, वह परक्रिया (पर द्वारा की जाने वाली क्रिया) तभी है, जब वह आध्यात्मिकी (अपने आप पर-साधु के शरीर पर की जा रही हो) ऐसी परक्रिया, जो अपने आप पर होती हो, वह कर्म संश्लेषिको कर्मबन्ध का कारण तब होती है, जब दूसरे (गृहस्थ) द्वारा की जाते समय मन से उसमें स्वाद या रुचि ले, मन से चाहे या कहकर करा ले या कायिक संकेत द्वारा करावे। अतः साधु इसे न तो मन से चाहे, न वचन और काया से कराए। इस सूत्र में तीन बातें फलित होती है---१. परक्रिया की परिभाषा, 2. साधु के लिए उससे हानि, और 3. मन-वचन-काया से उसे अपने आप पर कराने का निषेध / अन्मत्थियं-आदि पदों की व्याख्या-अज्यत्थियं = आत्मा-अपने (मुनि के) शरीर पर की जाने वाली। संसेइयं = कर्म-संश्लेषकारिणी / णो सातिए = स्वाद/रुचि न ले, मन से न चाहे / णो णियमे = वचन-काया से प्रेरणा न करे, अर्थात्--न कराए।' पाद परिकर्म-परक्रिया निषेध : 661. से से परो पावाई आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णोतं णियमे। 692. से से परो पादाई संबाधेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, [णो तं सातिए णो तं णियमे / 663. से से परो पावाई फुमेज्ज वा रएज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 1. परकिरिया परेण कीरमाणं कम्म भवति-आचा० चूर्णि 2. (क) आचारांग वृत्ति मू० पा० टि० पृष्ठ 250 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 4. इसके बदले 'से सियाई परो' 'से सिते परो' 'से सिया परोपाठान्तर हैं। अर्थ समान हैं। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र 691-700 345 664. से से परो पादाई तेल्लेण वा धतेण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिगेज्ज' वा णो तं सातिए जो तं णियमे। 695. से से परो लोद्धण वा कक्केण वा चुणेण वा वण्णेण वा उल्लोढेज्ज वा उब्वलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 666. से से परो पादाइं सीओदगवियडेण वा उसिणोदवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज बा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 697. से से परो पादाइं अण्णतरेण विलेवणजातेण आलियेज्ज वा विलिपेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे। 698. से से परो पादाई अण्णतरेण धूवणजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 666. से से परो पादाओ खाणुयं वा कंटयं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 700. से से परो पादाओ पूर्व वा सोणियं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे। 661. कदाचित् कोई गृहस्थ धर्म-श्रद्धावश मुनि के चरणों को वस्त्रादि से थोड़ा-सा पोंछे, अथवा बार-बार अच्छी तरह पोंछ कर साफ करे, साधु उस परक्रिया को मन से न चाहे तथा वचन और काया से भी न कराए। 662. कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को सम्मर्दन करे या दबाए तथा बारबार मर्दन करे या दबाए, साधु उस परक्रिया की मन से भी इच्छा न करे, न वचन और काया मे कराए। 663. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को फूंक मारने हेतु स्पर्श करे, तथा रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से कराए। 1. इसके बदले पाठान्तर हैं----भिलंगेज्ज बा, हिलंगेज्ज वा अभिंगेज्ज वा। 2. निशीष चणि उ०१३, में--..'कबकेण' आदि का अर्थ-"कक्को सो दब्बसंजोगेण वा असंजोगेण बा भवति / लोद्धो रुक्खो, तस्स छल्ली लोद्ध' भन्नति / वन्नो पुण हिंगुलुगादी तेल्लमोइओ / चुन्नो पुण गम्भुणिगादि फला चुन्नी कता।" कल्क वह है, जो द्रव्यों के संयोग या असंयोग से होता है। लोद्ध वृक्ष होता है, उसकी छाल को भी लोद्ध कहते हैं। तेल में स्निग्ध हिंगलू आदि को वर्ण कहते हैं / सुगन्धित फल को चूर्ण करने पर चूर्ण कहते हैं / 3. 'उल्लोढेज्ज वा' के बदले में पठान्तर हैं---उल्लोडेज्ज वा 'उल्लोलेज्ज वा' 4. 'उच्छोलेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं-'उज्जोलेज्ज,' उज्जलेज्ज उल्लोलेज्ज अर्थ है शरीर को उज्ज्वल करना साफ करना / इसके बदले पाठान्तर है-'से सिया परो पादाई" 6. धूयं वा धूवेज्ज, धूयं सोहेज्ज वा, 'धूएज्ज वा पधूएज्ज वा' ये तीन पाठान्तर इसके मिलते हैं। 7. इसके स्थान पर सर्वत्र से सिया परो' पाठान्तर मिलता है। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 664. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को तेल, घी या चर्बी से चुपड़े, मसले तथा मालिश करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए। 695 कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु मन से भी उसमें रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए। 666. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को प्रासक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे, अथवा अच्छी तरह से धोए तो मुनि उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए। 667. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों का इसीप्रकार के किन्हीं विलेपन द्रव्यों से एक बार या बार-बार आलेपन-विलेपन करे तो साधु उसमें मन से भी रुचि न ले, न ही वचन और शरीर से उसे कराए। 668. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को किसी प्रकार के विशिष्ट धूप से धूपित और प्रधूपित करे तो उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से उसे कराए। 666. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे हुए खूटे या कांटे आदि को निकाले या उसे शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। 700. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे रक्त और मवाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो साधु उसे मन में भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। विवेचन-चरण परिकर्म रूप परक्रिया का सर्वथा निषेध-सूत्र 691 मे 700 तक दस सूत्रों में चरण-परिकर्म से सम्बन्धित विविध परक्रिया मन-वचन-काया से कराने का निषेध किया गया है। संक्षेप में, गृहस्थ द्वारा पाद-परिकर्मरूप परक्रिया निषेध इस प्रकार है-(१) एक बार या बार-बार चरणों को पोंछ कर साफ करे, (2) एक बार या बार-बार सम्मर्दन करे, (3) फंक मारने के लिए स्पर्श करे या रंगे, (4) तेल, घी आदि चपडे, मसले अथवा मालिश करे, (5) लोध आदि सगन्धित द्रव्यों से उबटन करे, लेप करे, (6) ठंडे या गर्म पानी में साधू के पैरों को एक बार या बार-बार धोए, (7) विलेपन-द्रव्यों से आलेपन-विलेपन करे, (8) साधु के चरणों के एक बार या बार-बार धूप दे, (6) साधु के पैरों में लगे हुए कांटे आदि को निकाले, और (10) साधु के पैरों में लगे घाव से रक्त, मवाद आदि को निकालकर साफ करे / साधु के लिए गृहस्थ द्वारा की जाने वाली ऐसी परिचर्या लेने का मन, वचन, काया से निषेध है / निशीथ सूत्र में इसीसे मिलता पाठ है।' गृहस्थ ऐसी चरण-परिचर्या लेने में हानि-(१) गृहस्थ द्वारा आरम्भ-समारम्भ किया जाएगा, (2) स्वावलम्बन वृत्ति छूट जाएगी, (3) परतंत्रता, परमुखापेक्षिता, चाटुकारिता और दीनता आने की सम्भावना है, (4) कदाचित् गृहस्थ परिचर्या का मूल्य चाहे जो अकिंचन 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 के आधार पर (ख) निशीथ सूत्र—उद्देशक 3 चूणि पृ० 212-213 Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्ययन : सूत्र 701-7 साधु दे नहीं सकेगा, (5) परिचर्या योग्य वस्तुओं का भी मूल्य चाहे, (6) अपरिग्रही साधु को उसके प्रबन्ध के लिए गृहस्थ से याचना करनी पड़ेगी, (7) अग्निकाय, वायुकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय आदि के जीवों की विराधना सम्भव है / (8) साधु के प्रति अवज्ञा और अश्रद्धा पैदा होना सम्भव है।' _आमज्जेज्ज, पमज्जेज्ज आदि पदों का अर्थ- एक बार पोंछे बार-बार पोंछकर साफ करे / संबाधेज्ज = दबाए, पगचंपी करे, मसले / पलिमद्देज्ज = विशेष रूप से पैर दबाए। फमेज्ज = फंक मारे, इसके बदले फुसेज्ज पाठान्तर होने में अर्थ होता है-स्पर्श करे / रएज्ज - रंगे। मखेज्ज = चुपड़े, भिलिगेज्ज =मालिश-मर्दन करे। उल्लोढेज्ज = उबटन करे, उव्वलेज्ज = लेपन करे / काय-परिकर्म-परक्रिया-निषेध 701. से से परो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 702. से से परो कार्य संबाधेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, जो तं सातिए णो तं णियमे / 703. से से परो कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा अब्भंगेज्ज वा, जो तं सातिए जो तं नियमे। 704. से से परो कायं लोद्धण वा कक्केण वा चुण्णण वा वणेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वलेज्ज वा, णो त सातिए णो तं नियमे। 705. से से परो कार्य सीतोदवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, जो तं सातिए णो तं णियमे / 706. से से परो कार्य अण्णतरेणं विलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे। 707. से से परो] कार्य अण्णतरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे। (से से परो कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 701. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को एक बार या बार-बार पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से कराए। 702. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को एक बार या बार-बार दबाए तथा विशेष रूप में मर्दन करे, तो साधु उसे मन में भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 के आधार पर 2. (क) वही, पत्रांक 416 (ख) आचारांग चणि मू० पा० टिप्पण प० 250.051 3. लोण के बदले पाठान्तर हैं-लोट्ठण, लोह्रण, लोण, लोहेण आदि / 4. 'पधोवेज्ज' के बदले 'पहोएज्ज' पाठान्तर है / 5. धूवेज्ज पधूवेज' के बदले 'धुवेज्ज पधूवेज्ज' पाठान्तर है। Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध 703. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर तेल, घी आदि चुपड़े, मसले या मालिश करे तो साधु न तो उसे मन से ही चाहे न वचन और काया से कराए। 704. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर लोध, कर्क, चूर्ण या वणं का उबटन करे, लेपन करे तो साधु न तो उसे मन से ही चाहे और न वचन और काया से कराए। 705. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर को प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे या अच्छी तरह धोए तो साधु न तो उसे मन से चाहे, और न वचन और काया से कराए। 706. कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर किसी प्रकार के विशिष्ट विलेपन का एक बार लेप करे या बार-बार लेप करे तो साधु न तो उसे मन से चाहे और न उसे वचन और काया से कराए। 707. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को किसी प्रकार के धूप से धपित करे या प्रधपित करे तो साधु न तो उसे मन से चाहे और न वचन और काया में कराए। __ [यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर फूंक मारकर स्पर्श करे या रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से उसे कराए। विवेचन--काय-परिकर्मरूप परक्रिया का सर्वथा निषेध--सू. 701 से 707 तक 7 सूत्रों में गृहस्थ द्वारा विविध काय-परिकर्म रूप परिचर्या लेने का निषेध किया गया है। सारा ही विवेचन पाद-परिकमंरूप परक्रिया के समान है। गृहस्थ से ऐसी काय-परिकर्म रूप परिचर्या कराने में पूर्ववत् दोषों की सम्भावनाएं हैं। सण-परिकर्म रूप परक्रिया निषेध : 708 से से परो कायंसि वणं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज बा, णो तं सातिए णो तं नियमे। 706. से से परो कार्यसि वणं संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, जो तं सातिए णो तं नियमे। 710. से से परो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज' वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 711 से से परो कायंसि वणं लोग वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोढेज्ज वा उवलेज्ज' वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 712. से से परो कार्यसि वणं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 1. 'भिलिगेज्ज' के बदले 'भिलं गेज्ज' पाठान्तर है। 2. इसके बदले 'लोहेण' पाठान्तर है। 3. 'उल्लो ज्ज' के बदले 'उल्लोटेज्ज' पाठान्तर है। 4. 'पधोवेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं-पहोएज्ज, 'पधोएज्ज' Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र 715-20 346 713. से से परो कार्यसि वणं अण्णतरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 714. से से परो [कायंसि वणं] अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा जोहरेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 705. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण (धाव) को एक बार पोंछे या बार-बार अच्छी तरह से पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न वचन और काया से उसे कराए। 706. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए ब्रण को दबाए या अच्छी तरह मर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए / 710. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए व्रण के ऊपर तेल, घी या वसा चुपड़े, मसले, लगाए या मर्दन करे तो साधु उभे मन से भी न चाहे और न कराए। 711. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर हुए व्रण के लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण आदि विलेपन द्रव्यों का आलेपन-विलेपन करे तो साध उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। 712 कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को प्रासुक शीतल या उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। 713. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी प्रकार के शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से छेदन करे तो साध उसे मन से भी न चाहे, न ही उसे वचन और काया से कराए। 714. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी विशेष शस्त्र से थोडा-सा या विशेष रूप से छेदन करके उसमें से मवाद या रक्त निकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। विवेचन-सू. 708 से 714 तक सात सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को शरीर पर हुए घाव के परिकर्म कराने का मन-वचन-काया से निषेध किया गया है। इस सप्तसूत्री में पहले के 5 सूत्र चरण और शरीरगत परिकर्म निषेधक सूत्रों की तरह है, अन्तिम दो सूत्रों में गृहस्थ से शस्त्र द्वारा ब्रणच्छेदन कराने तथा ब्रणच्छेद करके उसका रक्त एवं मवाद निकाल कर उसे साफ कराने का निषेध है। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि गृहस्थ द्वारा चिकित्सा कराने का निषेध अहिंसा व अपरिग्रह की साधना को अखंड रखने की दृष्टि से ही किया गया है। इस चिकित्सानिषेध का मूल आशय प्रथम श्रु तस्कन्ध सूत्र 64 में द्रष्टव्य है। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध ग्रन्थी अर्श-भगंदर आदि पर परक्रिया-निषेध 715. से से परो कार्यसि गंडं वा अरइयं' वा पुलयं वा भगंदलं वा आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियम। 716. से से परो कार्यसि गंडं वा अरइयं वा पुलयं वा भगंदलं वा संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे 717. से से परो कार्यसि गंडं वा जाव भगंदलं वा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिगेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे। 718. से से परो कार्यसि गंड वा जाव भगंदलं वा लोद्धण वा कक्केण वा चुण्णण वा वण्णण वा उल्लोढेज्ज' वा उव्वलेज्ज वा, जो तं सातिए जो तं नियमे / 716. से से परो कार्यसि गंडं वा जाव भगंदलं वा सोतोदगवियडेण वा उसिणोदगविय डेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे। 720. से से परो कार्यसि गंडं वा अरइयं वा जाव भगंदलं वा अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदेज वा, विच्छिदेज्ज वा अन्नतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा यूयं वा सोणियं वाणीहरेज्ज वा बिसोहेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियम। 715. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को एक बार या बार-बार पपोल कर साफ करे तो साध उसे मन से भी न चाहे, नहीं वचन और शरीर से कराए। 716. यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को दबाए या परिमर्दन को तो साधु उसे मन से भी न चाहे न ही वचन और काया से कराए। 717. यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर तेल, घी, वसा चुपड़े, मले या मालिश करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। 718. यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण का थोड़ा या अधिक विलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। 1. अरइयं' के बदले 'अरइग' 'अरइगं दल' पाठान्तर मिलते हैं। 2. 'पुलयं' के बदले 'पुलइयं' पाठान्तर है। 3. 'उल्लोज' के बदले 'उल्लोडेज्ज' पाठान्तर मिलता है। 'आलेप' के तीन अर्थ निशीथ चणि पृ. 215-217 पर मिलते हैं। आलेवो विविधो-वेदणपसमकारी, पाककारी, पुतादिणीहरणकारी / अर्थात्-आलेपं तीन प्रकार का है-१. वेदना शान्त करने वाला 2. फोड़ा पकाने वाला 3. मवाद निकालने वाला। 5. 'से से परों के बदले पाठान्तर हैं-'से सिया परो' से सिते परो'। 6. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अरइयं' से 'भगंदलं' तक का पाठ सू० 715 के अनुसार समझें / Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र 711-24 716. यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को प्रासुक शीतल और उष्ण जल से थोड़ा या बहुत बार धोए तो साधु उने मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। 720. यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से छेदन करे, अथवा किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा या विशेष रूप में छेदन करके मवाद या रक्त निकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन मे भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। विवेचन—सू० 715 से 720 तक 6 सूत्रों में गृहस्थ से गंडादि से सम्बन्धित परिकर्म रूप परक्रिया कराने का निषेध है / सभी विवेचन पूर्ववत् समझना चाहिए। इस परक्रिया से होने वाली हानियाँ भी पूर्ववत् हैं / निशीथ सूत्र में भी इससे मिलता-जुलता पाठ मिलता है।' गंडे' आदि शब्दों के अर्थ-प्राकृतकोश के अनुसार गंड शब्द के गालगंड-मालारोग, गांठ, ग्रन्थी, फोड़ा, स्फोटक आदि अर्थ होते हैं। यहाँ प्रसंगवश गंड शब्द के अर्थ गाँठ, ग्रन्थो, फोड़ा, या कंठमाला रोग है। 'अरइयं' (अरइ) के प्राकृतकोश में अर, अर्श, मस्सा, बबासीर आदि अर्थ मिलते हैं। 'पुलयं' (पुल) का अर्थ छोटा फोड़ा या फुसी होता है / भगदलं का अर्थ---- भगंदर है। अच्छिणं =एक बार या थोड़ा-सा छेदन, विच्छिदणं =बहुत बार या बार-बार अथवा अच्छी तरह छेदन करना / अंगपरिकर्म रूप परक्रिया निषेध 721. से से परो कायातो सेयं वा जल्लं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज बा, णो तं सातिए जो तं नियम। 722. से से परो अच्छिमलं वा कण्ण मलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 / (ख) निशीथ सूत्र उ. 3 चूणि 10 215-217 मे---''जे भिक्ख अपणो कार्यसि गड वा अरतिय वा असि वा पिलग वा भगंदलं वा अनतरेणं तिखेण सत्यजाएणं अच्छिदति वा विच्छिदति वा,.."पूयं वा सोणिय वा णीहरेति वा विमोहेति वा"..' सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेति वा पधोवेति वा...."आलेवणजाएणं आलिपइ वा विलिपद बा..... तेल्लेण वा घएण वा......"णवणीएण वा अभंगेति वा भक्खेति वा..... धूवणजाएणं धूवेति वा पधूवेति वा / " 2. क) पाइअ-मद्दमहण्णवो / (ख) निशोथ सूत्र उ० 3 चूणि पृ० २१५-२१७---गंड-गंडमाला, जं च अण्णं सुपायगं तं गंडं / अरतियं-अरतिओ ज ण पच्चति ।...."एक्कसि ईषद् वा अच्छिदणं, वहुवारं सुट्ठ वा छिदणं विच्छिदणं / " (ग) ते फोडा भिज्जंति, तत्थ पुला संमच्छनि, ते पूला भिज्जति / -----स्थानांग० स्थान 10 3. 'कायातो' के बदले 'कायंसि' पाठान्तर है। Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 723. से से परो दोहाई वालाइ दोहाइं रोमाई दोहाई भमुहाई दोहाइकक्खरोमाई दोहाई वत्थिरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 724. से से परो सीसातो लिक्खं वा जूयं वा णीहरेज्ज' वा विसोहेज्ज वा, गो तं सातिए णो तं णियमे। 721, यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर से पसीना, या मैल से युक्त पसीने को मिटाए (पोंछे) या साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे. और न ही वचन एवं काया से कराए। 722. यदि कोई गृहस्थ, साधु के आँख का मैल, कान का मैल. दाँत का मैल, या नख का मैल निकाले या उसे साफ करे, तो साध उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। 723. यदि कोई गृहस्थ साध के सिर के लंबे केशों, लंबे रोमों, भौहों एवं कांख के लंबे रोमों, लंबे गुह्य रोमों को काटे, अथवा संवारे, तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए। 724. यदि कोई गृहस्थ, साधु के सिर से जूं या लीख निकाले, या सिर साफ करे, तो साधु मन से भी न चाहे, और न ही वचन और काया से ऐसा कराए। विवेचन--सू० 721 से 724 तक चतु:सूत्री में उस परक्रिया का निषेध किया गया है, जो शरीर के विविध अंगों के परिकर्म से सम्बन्धित है। वस्तुतः इस प्रकार की शारीरिक परिचर्या गृहस्थ से लेने में पूर्वोक्त अनेक दोषों की सम्भावना है। इन सभी सूत्रों से मिलतेजुलते सूत्र निशीथ सूत्र में भी हैं। सेयं' आदि पदों के अर्थ-सेओ-स्वेद, पसीना। जल्लो=शरीर का मैल कप्पेज काटे / संठवेज्ज-संवारे / 1. निशीथचणि उ०-१३ में बताया गया है--"जे भिक्खू दीहाओ अप्पणो णहा इत्यादि जाव अप्पणो दीकेसे कप्पई, इत्यादि तेरस सुत्ता उच्चारेयव्वा।"-जे भिक्खू से लेकर अप्पणो दोहे केसे कप्पई 13 सूत्रों का उच्चारण करना चाहिए। जोहरति आदि का अर्थ निशीथचणि में है-“णीहरतिणाम णिग्गलेति। अवससेसावयफडण विसोहणं सभावन्थ सोणियं भण्णति / 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 के आधार पर / निशीथ सूत्र उ० 3 चूणि 10 २१६-२२१--"जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसिहाओ कप्पेति संठवेति वा", दीहाई जंघरोमाई, दीहाई वत्थिरोमाई..."दीहाई कक्खाणरोमाई.. मंसूई कप्पेति वा संठवेति बादंते आमज्जति वा पमज्जति वा उत्तरोठरोमाई..."दीहरोमाई... भम्हारोमाई..."दीहे केसे कप्पेइ वा संठवेइ वा / जे भिक्खू अप्पणो कार्य सि सेयं वा, जल्लं वा पंकं वा मलं वा उव्वति वा पवति बा....."अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णखमलं वाणीहरति वा विसोधेति बा।" 4. आचारांग चूणि मू. पा० टि० पृष्ठ २२५--कप्पेति-छिदेति, संठवेति == समारेति, सेओ=प्रस्वेदो जल्लो= कमढो; मल थिग्गलं / तथा निशीथ भाष्य गा० 1521 Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्ययन : सूत्र 725-28 353 परिचर्यारूप परक्रिया-निषेध 725. से से परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता पायाइं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, [णो तं सातिए णो तं णियमे।] एवं हेट्ठिमो गमो पादादि भाणितव्यो। 726. से से परो अंकंसि वा पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता हारं वा अड्ढहारं वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउड वा पालंबं वा सुवष्णसुत्तं वा आविधेज' वा पिणिधेज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 727. से से परो आरामंसि बा उज्जाणंसि वा णीहरित्ता वा विसोहिता वा पायाई आमज्जेज्ज वा, पमज्जज्ज वा जो तं सातिए णो तं णियमें एवं यन्वा अण्णमण्णकिरिया वि। 728. से से परो सुद्धणं वा बइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो असुद्धणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो गिलाणस्स सचित्ताई कंदाणि बा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु वा कड्ढेत्तु वा कड्ढावेत्तु वा तेइच्छं आउट्टेज्जा, णोतं सातिए णो तं नियमे / कडवेयणा कटु वेयणा पाण-भूत-जीव-सत्ता वेवणं वेति / 725. यदि कोई गृहस्थ, साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसके चरणों को वस्त्रादि से एकबार या बार-बार भलीभांति पोंछकर साफ करे; साध इसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। इसके बाद चरणों से सम्बन्धित नीचे के पूर्वोक्त 6 सूत्रों में जो पाठ कहा गया है, वह सब पाठ यहाँ भी कहना चाहिए। . 726. यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटा कर या करवट बदलवाकर उसको हार अठारह लड़ीवाला), अर्धहार (ह लड़ी का), वक्षस्थल पर पहनने योग्य आभूषण, गले का आभूषण, मुकुट, लम्बी माला, सुवर्णसूत्र बांधे या पहनाए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से उससे ऐसा कराए। 727. यदि कोई गृहस्थ साधु को आराम या उद्यान में ले जाकर या प्रवेश कराकर उसके चरणों को एक बार पोंछे, बार-बार अच्छी तरह पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन मे भी न चाहे, और न वचन व काया से कराए। इसी प्रकार साधुओं की अन्योन्यक्रिया-पारस्परिक क्रियाओं के विषय में भी ये सब सूत्र पाठ समझ लेने चाहिए। 1. 'आविधेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं...-आविहेज्ज, आविधेज्ज, आवंधेज्ज हाविहेज्ज। 2. 'विसोहिता' के बदले 'परिभेत्ता वा पायाइ" पाठान्तर हैं। 3. तयाणि' के बदले पाठान्तर है-'बीयाणि' 4. आउटेज्जा' के बदले पाठान्तर है-'आउट्टावेज्ज' 5. 'वेदणं वेति' आदि पाठ के आगे चणि कार ने 'छटठं सत्तिक्कयं समाप्तमिति' पाठ दिया है, इससे प्रतीत होता है कि सूत्र 726 का 'एयं खलु तस्सा,.........'आदि पाठ चूर्णिकार के मतानुसार नहीं है। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ____ 728. यदि कोई गृहस्थ, शुद्ध वाग्बल (मंत्रबल) से साधु की चिकित्सा करनी चाहे, अथवा वह गृहस्थ अशुद्ध मंत्रबल से साधु की व्याधि उपशान्त करना चाहे, अथवा वह गृहस्थ किसी रोगी साधु की चिकित्सा सचित्त कंद, मूल, छाल, या हरी को खोदकर या खींचकर बाहर निकाल कर या निकलवा कर चिकित्सा करना चाहे, तो साधु उसे मन से भी पसंद न करे, और न ही वचन से कहकर या काया से चेष्टा करके कराए। यदि साधु के शरीर में कठोर वेदना हो तो (यह विचार कर उसे समभाव से सहन करे कि) समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व अपने किये हुए अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक वेदना का अनुभव करते हैं। विवेचन-विविध परिचर्यारूप परक्रिया का निषेध-सू० 725 से 728 तक गृहस्थ द्वारा साधु की विविध प्रकार से की जाने वाली परिचयां के मन, वचन, काया से परित्याग का निरूपण है / इन सूत्रों में मुख्यतया निम्नोक्त परिचर्या के निषेध का वर्णन है-(१) साधु को अपने अंक या पर्यंक में बिठा या लिटा कर उसके चरणों का आमाजन-परिमार्जन करे, (2) आभूषण पहना कर साधु को सुसज्जित करे, (3) उद्यानादि में ले जा कर पैर दबाने आदि के रूप में परिचर्या करे, (4) शुद्ध या अशुद्ध मंत्रबल से रोगी साधु की चिकित्सा करे, (5) सचित्त कंद, मूल आदि उखाड़ कर या खोद कर चिकित्सा करे।। ___ अंक-पर्यंक का विशेष अर्थ-चुर्णिकार के अनुसार अंक का अर्थ उत्संग या गोद है जो एक घटने पर रखा जाता है, किन्तु पर्यक वह है जो दोनों घुटनों पर रखा जाता है। मथुन की इच्छा से अंक-पर्यक शयन -- अंक या पर्यंक पर साधु को गृहस्थ स्त्री द्वारा लिटाया या बिठाया जाता है, उसके पीछे रति-सहवास की निकृष्ट भावना भी रहती है, अंक या पर्यक पर बिठाकर साधु को भोजन भी कराया जाता है, उसकी चिकित्सा भी सचित्त समारम्भादि करके की जाती है / निशीथ सूत्र उ० 7 एवं उसकी चूणि में इस प्रकार का निरूपण मिलता है / अगर इस प्रकार की कुत्सित भावना से गृहस्थ स्त्री या पुरुष द्वारा साधु की परिचर्या की जाती है, तो वह परिचर्या साधु के सर्वस्व स्वरूप संयम-धन का अपहरण करने वाली है / साधु को इस प्रकार के धोखे में डालने वाले मोहक, कामोत्तेजक एवं प्रलोभन कारक जाल से बचना चाहिए। पर-क्रिया के समान ही सूत्र 727 में अन्योन्यक्रिया (साधुओं की पारस्परिक क्रिया) का भी निषेध किया है। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 2. (क) आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. २५६-अंको उच्छंगो एगम्मि जणुगे उक्खित्ते; पलियंको दोसु वि / (ख) निशीथणि प. 400/406 एगेण उहएणं अंको, दोहिं वि उरुएहि पलियंको।" / 3. देखिए निशीथ सप्तम उद्देशक चूणि पृ० 408 --'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलिअंकसि वा णिसीयावेता वा सुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं बा अणुग्धासेज्ज वा अणुपाएज्ज था।"---एस्थ जो मेहणठाए णिसीयावेति तुयट्टादेति वा ते चेव दोसा, Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्ययन : सूत्र 726 355 'तुयट्टावेत्ता' आदि पदों के अर्थ--तुपट्टावेत्ता =करवट बदलवा कर, लिटाकर या बिठाकर उरत्थं = वक्षस्थल पर पहने जाने वाले आभूषण / आविधेज्ज = पहनाए या बाँधे / पिणीधेज्ज = पहनाए या बाँधे / आउट्टे = करना चाहे / वइबलेण = वाणी (मन्त्रविद्या आदि) के बल से। खणित्तु = खोदकर, उखाड़ कर / कड्ढेत्त - निकाल कर / ' 'कडवेयणा'...."वेदंति' सूत्र का तात्पर्य-चूर्णिकार के शब्दों में---इसलिए साधु को शरीर परिकर्म से रहित होना चाहिए। क्योंकि चिकित्सा की जाने पर भी मानव पचते हैं। वे पचते हैं पूर्वकृत-कर्म के कारण। इसप्रकार पचते हुए वे दूसरों को भी संताप-दुःख देते हैं / जो इस समय पचते हैं, वे भविष्य में पचेंगे / कर्म अपने अनन्त गुने कटु विपाक (फल) को लेकर आता है। किसमें आता है ? कर्ता के पीछे-पीछे कर्म आते हैं / अर्थात् - कर्ता कर्म करके या किये हुए कर्मों का वेदन करता है / वेदन का वेत्ता ही इस वेदन के द्वारा कर्म वेदन को विदारित करता है / सभी कर्म से विमुक्त होता है / अथवा कर्म करके दुःख होता है या दुःख स्पर्श करता है इसलिए इस समय दुःख नहीं करना चाहिए। वेदना के समय साधु का चिन्तन-इस संसार में जीव अपने पूर्वकृत कर्म फल के विषय में स्वाधीन है। कर्म फल को कटु वेदना मानकर कर्मविपाक, शारीरिक एवं मानसिक वेदनाएं संसार के सभी जीव स्वतः ही भोगते हैं। ___ 726. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्व? [हिं सहिते समिते सदा जते, सेयमिणं मण्णज्जासि त्ति बेमि / / 726. यही (परक्रिया से विरति ही) उस साधु या साध्वी का समग्र आचार सर्वस्व है, जिसके लिए समस्त इहलौकिक-पारलौकिक प्रयोजनों से युक्त तथा ज्ञानादि-सहित एवं समितियों से समन्वित होकर सदा प्रयत्नशील रहे। और इसी को अपने लिए श्रेयस्कर समझे। ---ऐसा मैं कहता हूँ। // तेरहवां अध्ययन, छठी सप्तिका सम्पूर्ण // 1. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक 416 (ख) आचा. चूणि मूल पाठ टि. प. २५६---वाग्बलेन मंत्रादिसामर्थेन चिकित्सा व्याध्युपशमं आउट्टे सि कर्तुमभिलषेत् / 2. (क) "तम्हा अपडिकम्मसरीरेण होयवं, कि कारण ? जेण तिगिच्छाए कीरमाणीए पच्चंति पयंति माणवा, पच्चंति पूर्वकृतेन कर्मणा, ते पच्चभागा अ [भ्याj न्यपि संतापयंति य, दुक्खापयतीत्यर्थः / अहवा कृत्वा दुक्खं भवति फुसति च तम्हा संपयं न करेमि दुक्ख / --आचा. पूणि पृ. 157. (ख) आचा०' दीत्त पत्रांक 416, जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां वेदनाः स्वतः प्राणि-भत-जीव सत्वाः तत्कर्मविपाकजां वेदनामनभवन्तीति / ... Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्योन्यक्रिया सप्तक : चतुर्दश अध्ययन प्राथमिक x आचारांग सूत्र (द्वि० श्रु०) के चौदहवें अध्ययन का नाम 'अन्योन्यक्रिया सप्तक' है। - साधु जीवन में उत्कृष्टता और तेजस्विता, स्वावलम्बिता एवं स्वाश्रयिता लाने के लिए _ 'सहाय-प्रत्याख्यान' और 'संभोग-प्रत्याख्यान' अत्यन्त आवश्यक है। सहाय-प्रत्याख्यान से अल्पशब्द', अल्पकलह, अल्पप्रपंच, अल्पकषाय, अल्पाहंकार होकर साधक संयम और संवर से बहुल बन जाता है। संभोग-प्रत्याख्यान से साधक आलम्बनों का त्याग करके निरालम्बी होकर मन-वचनकाय को आत्मस्थित कर लेता है, स्वयं के लाभ में संतुष्ट रहता है, पर द्वारा होने वाले लाभ की इच्छा नहीं करता, न पर-लाभ को ताकता है, उसके लिए न प्रार्थना करता है, न इसकी अभिलाषा करता है वह द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त कर लेता है। इस दृष्टि से साधु को अपने स्वधर्मी साधु से तथा साध्वी को अपनी साधर्मिणी साध्वी से किसी प्रकार की शरीर एवं शरीर के अवयव सम्बन्धी परिचर्या लेने का मन-वचन-काया से निषेध किया गया है। र साधुओं या साध्वियों की परस्पर एक दुसरे से (त्रयोदश अध्ययन में वर्णित पाद-काय व्रणादि परिकर्म सम्बन्धी परक्रिया) परिचर्या लेना, अन्योन्यक्रिया कहलाती है। इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया का इस अध्ययन में निषेध होने के कारण इसका नाम अन्योन्यक्रिया रखा गया है। - अन्योन्यक्रिया की वृत्ति साधक में जितनी अधिक होगी, उतना ही वह परावलम्बी, पराश्रयी, परमुखापेक्षी और दीन हीन बनता जाएगा। इसलिए इस अध्ययन की योजना की गई है। * चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के मत में इस अध्ययन में निरूपित 'अन्योन्यक्रिया' का निषेध 5. आगम शैली में-'अल्प' शब्द यहाँ अभाव वाचक है। 2. उत्तराध्ययन अ० 26 बोल 40 33 / 3. उत्त० 26, वोल 34 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 417 / 5. (क) आचा० वृत्ति पत्रांक 417 / (ख) आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 250-251 // 6. उत्तरा अ० 26 बोल. 24 के आधार पर। चारांग रिबोल 40 नाव वाचक Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 चौदहवां अध्ययन : प्राथमिक (जिनकल्पी, जिन) एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधओं के उद्देश्य से किया गया है। वास्तव में, गच्छनिर्गत साधुओं का जीवन स्वभावतः निष्प्रतिकर्म एवं अन्योन्यक्रिया-निषेध में से अभ्यस्त होता है। * गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधुओं के लिए यतनापूर्वक अन्योन्यक्रिया कारणवश उपादेय हो सकती है। * इस अध्ययन में, तेरहवें अध्ययन में वर्णित पाद-काय-व्रण आदि के परिकर्म से सम्बन्धित परक्रिया निषेध की तरह उन सब परिकर्मों से सम्बन्धित क्रियाओं का निषेध किया गया है। 7. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 417. आचारांग नियुक्ति गा० 326 / (ख) चर्णिकार के अनुसार--"अण्णमण्णकिरिया दो सहिता अण्णमणस्स पगरंति,ण कप्पति एवं चेब एवं पुण पडिमा पडिवण्णाणं जिणाणं च ण कप्पति / थेराणं कि पि कप्पेज्ज कारणजाए / बुद्ध या विभासियध्वं ।"--आचारांग चुणि मू. पा. टि. पृ. 258 8. आचारांग मूलपाठ वत्ति पत्रांक 417 / Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउदसमं अज्झयणं 'अण्णमण्णकिरिया' सत्तिक्कओ अन्योन्यक्रिया सप्तक : चतुर्दश अध्ययन : सप्तम सप्तकिका अन्योन्यक्रिया-निषेध 730. से भिक्खू वा 2 अणमष्णकिरियं अज्झस्थिय संसेइयं णो तं सातिए णो तं नियम। 731. से अण्णमण्णे पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे, सेसं तं चेव। 732. एयं खलु सस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव?हिं जावं जएज्जासि ति बेमि। 730. साधु या साध्वी की अन्योन्यक्रिया- परस्पर पाद-प्रमार्जनादि समस्त क्रिया, जो कि परस्पर में सम्बन्धित है, कर्मसंश्लेषजननी है, इसलिए साधु या साध्वी इसको मन से भी न चाहे, और न वचन एवं काया से करने के लिए प्रेरित करे। 731. साधु या साध्वी (बिना कारण) परस्पर एक दूसरे के चरणों को पोंछ कर एक बार या बार-बार अच्छी तरह साफ करे तो मन से भी इसे न चाहे, न वचन और काया से करने की प्रेरणा करे। इस अध्ययन का शेष वर्णन तेरहवें अध्ययन में प्रतिपादित पाठों के समान जानना चाहिए। 732. यही (अन्योन्यक्रिया निषेध में स्थिरता ही) उस साधु या साध्वी का समग्न आचार है। जिसके लिए वह समस्त प्रयोजनों, ज्ञानादि एवं पंचसमितियों से युक्त होकर सदैव अहर्निश उसके पालन में प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–अन्योन्यक्रिया-निषेध-इन तीन सूत्रों में शास्त्रकार ने पिछले (तेरहवें) अध्ययन के समान ही समस्त वर्णन करके उन्हीं पाठों को यहाँ समझने का निर्देश किया है। विशेषता इतनी-सी है कि वहाँ 'परक्रिया' शब्द है जबकि इस अध्ययन में 'अन्योन्यक्रिया है। यह अन्योन्यक्रिया परस्पर दो साधुओं या दो साध्वियों को लेकर होती है। जहाँ दो साधु परस्पर एक दूसरे की परिचर्या करें, या दो साध्वियां परस्पर एक दूसरे की परिचर्या करें, 1. 'संसेइयं' के बदले पाठान्तर हैं-संसेतियं, संसतियं संसइयं / " 2. यहाँ 'जाव' शब्द से सव्वळेहिं से 'जएज्जासि' तक का पाठ सूत्र 334 के अनुसार समझें। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्ययन : सूत्र 730-32 356 वहीं अन्योन्यक्रिया होती है। इसप्रकार की अन्योन्यक्रिया अकल्पनीय या अनाचरणीय गच्छ-निर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न साधुओं और जिन (वीतराग) केवली साधुओं के लिए है। इसलिए यह अन्योन्यक्रिया गच्छनिर्गत साधुओं के उद्देश्य से निषिद्ध है। गच्छगत-स्थविरों को कारण होने पर कल्पनीय है। फिर भी उन्हें इस विषय में यतना करनी चाहिए।' गच्छनिर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न, जिनकल्पी साधुओं के लिए इससे कोई प्रयोजन नहीं है। स्थविरकल्पी साधुओं के लिए विभूषा की दृष्टि से, अथवा वृद्धत्व, अशक्ति, रुग्णता आदि कारणों के अभाव में, शौक से या बड़प्पन-प्रर्शन की दृष्टि से चरण-सम्मार्जनादि सभी का नियमतः निषेध है, कारणवश अपनी बुद्धि में यतनापूर्वक विचार कर लेना चाहिए। निशीथ उ० 4 की चणि में स्पष्ट उल्लेख है कि 'जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जइ वा पमज्जइ वा' इत्यादि 41 सूत्रों का परक्रिया सप्तक अध्ययनवत् उच्चारण करना चाहिए। निशीथ (15) में विभूसावडियाए' पाठ है, अतः सर्वत्र विभूषा की दृष्टि से इन सबका निषेध समझना चाहिए। इन 41 सूत्रों को संक्षेप में इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है-(१) पाद-परिकर्मरूप, (2) काय-परिकर्मरूप, (3) वण-परिकर्मरूप, (4) गंडादिपरिकर्मरूप, (5) मलनिष्कासनरूप, (6) केश-रोमपरिकर्मरूप, (7) लीख-यूकानिष्कासनरूप, (8) अंक-पर्यकस्थित पादपरिकर्मरूप. (6) अंक-पर्यंक स्थित-कायपरिकर्मरूप, (10) अंक-पर्यक स्थित व्रण परिकर्मरूप, (11) अंक-पर्यंक स्थित गंडादि परिकर्मरूप, (12) अंक-पर्यक स्थित मलनिष्कासन रूप, (13) अंक-पर्यकस्थित केश-रोमकतनादिपरिकर्मरूप, (14) अंक-पर्यकस्थित लीख-यूकानिष्कासनरूप, (15) अंक-पर्यकस्थित आभरणपरिधानरूप, (16) आराम, उद्यानादि में ले जाकर पादपरिकर्मरूप, (17) शुद्ध या अशुद्ध मंत्रादि बल से, सचित्त कंद आदि उखड़वा कर उनके द्वारा चिकित्सा रूप अन्योन्य परिचर्या रूप। ॥अन्योन्यक्रिया चौदहवां अध्ययन, सप्तम सप्तिका समाप्त / // द्वितीय चूला सम्पूर्ण // 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 817, आचा० चूणि मू. पा. टि. पु० 258 / देखें पृष्ठ 357 का टिप्पण संख्या 7 (ब)। 2. (क) वही पत्रांक 47 के आधार पर / (ख) निशीथ उ० चूणि 4, पृ० 262-267 / (ग) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 258 - "विभूसा वडियाए विनियमा गमो सो चेव / 3. निशीथ उ० 15 चूर्णि। 4. आयार चूला (मुनिश्री नथमलजी द्वारा सम्पादित) पृ० 224 से 230 / Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // तृतीय चूला // भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन प्राथमिक र आचारांग सूत्र (द्वि० श्र०) के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम भावना है—यह तीसरी चूला र भावना साधु जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण और सशक्त नौका है। उसके द्वारा मुक्ति मार्ग का पथिक साधक मोक्ष यात्रा की मंजिल निर्विघ्नता से पार कर सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि के साथ भावना जुड़ जाने से साधक उत्साह, श्रद्धा और संवेग के साथ साधना के राजमार्ग पर गति-प्रगति कर सकता है, अन्यथा विध्नबाधाओं, परीषहोपसों या कष्टों के समय ज्ञानादि की साधना से घबराकर भय और प्रलोभन के उत्पथ पर उसके मुड़ जाने की साम्भावना है। भावनाध्ययन के पीछे यही उद्देश्य निहित है। * भावना के मुख्य दो भेद हैं-द्रव्य-भावना और भाव-भावना। 4 द्रव्यभावना का अर्थ दिखावटी-बनावटी भावना, अथवा जाई के फूल आदि द्रव्यों से तिल तेल आदि की या रासायनिक द्रव्यों से भावना देना-द्रव्य-भावना है। * भाव-भावना प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार की है। प्राणिवध; मृषावाद आदि की अशुभ या क्रोधादि कषायों में कलुषित विचार अशुभ भावना, अप्रशस्त भावना है। प्रशस्त भावना दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि की लीनता में होती है। तीर्थकरों के पंचकल्याणकों, उनके गणों तथा उनके प्रवचनों द्वादशांग गणिपिटकों, युगप्रधान प्रावनिक आचार्यो, तथा अतिशय ऋद्धिमान एवं लब्धिमान, चतुर्दश पूर्वधर, केवलज्ञान-अवधि-मन पर्यायज्ञान सम्पन्न मुनिवरों के दर्शन, उपदेश-श्रवण, गुणोत्कीर्तन, स्तवन आदि दर्शन-भावना के रूप हैं। इनसे दर्शन-विशुद्धि होती है। - जीव, अजीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, बन्धन-मुक्ति, बन्ध, बन्ध-हेतु, बन्धफल, निर्जरा, तत्त्वों का ज्ञान स्वयं करना, गुरुकुलवास करके आगम का स्वाध्याय करना, दूसरों को वाचना देना, जिनेन्द्र प्रवचन आदि पर अनुशीलन करना ज्ञान-भावना के अन्तर्गत है। मेरा ज्ञान विशिष्टतर हो, इस आशय से प्रसंगोपात्त ज्ञान का अभ्यास निरन्तर करे, इस प्रकार ज्ञानवृद्धि के लिए प्रयत्न करना भी ज्ञान भावना है। 1. भावणा जोगसुद्धप्पा जले नावा व आहिया / ---सूत्रकृतांग 1/15/5 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : प्राथमिक 4 अहिंसादि पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, आचार. नियमोपनियम आदि की भावना करना चारित्रभावना है। - "मैं किस निविगई आदि तप के आचरण से अपने दिवस को सफल बनाऊँ, कौन-सा तप करने में मैं समर्थ हैं ?" तथा तप के लिए द्रव्य क्षेत्रादि का विचार करना तपोभावना है। 35 सांसारिक सुख के प्रति विरक्तिरूप भावना वैराग्य भावना है। 4 कर्मबन्धजनक मद्यादि अष्टविध प्रमाद का आचरण न करना अप्रमादभावना है। - एकाग्रभावना-एकमात्र आत्म-स्वभाव में ही लीन होना। इसीतरह अनित्यादि 12 भावनाएं भी हैं। यों अनेक भावनाओं का अभ्यास करना 'भावना' के अन्तर्गत है। न भावना अध्ययन के पूर्वार्द्ध में दर्शनभावना के सन्दर्भ में आचार-प्रवचनकर्ता आसन्नोपकारी भगवान् महावीर का जीवन निरूपित है। उत्तरार्द्ध में चारित्र भावना के सन्दर्भ में पांच महाव्रत एवं उनके परिपालन-परिशोधनार्थ 25 भावनाओं का वर्णन है। 1. (क) आचारांम नियुक्ति गा० 327 से 341 तक / (ख) आचा० वृत्ति पत्रांक 418-416 / Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // तइया चूला // पण्णरसमं अज्झयणं 'भावणा' भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन भगवान् के पंच कल्याणक नक्षत्र 733. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि होत्था--- हत्युत्तराहि चुते' चइत्ता गम्भ वक्कते, हत्युत्तराहिं गब्भातो गम्भं साहरिते, हत्थुत्तराहिं जाते, हत्थुत्तराहिं सव्वतो' सन्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वइते, हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुण्णे अन्वाघाते निरावरणे अणते अणुत्तरे केवलवरणाण-दंसणे समुप्पण्णे सातिणा भगवं परिणिन्ते / 733. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए। जैसे कि-भगवान् का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन हुआ, च्यव कर वे गर्भ में उत्पन्न हुए / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किये गए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का जन्म हुआ। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही सब ओर से सर्वथा (परिपूर्ण रूप से) मुण्डित होकर आगार (गृह) त्याग कर अनगार-धर्म में प्रवजित हुए / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् को सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, निर्व्याघात, निरावरण, अनन्त और अनुत्तर प्रवर (श्रेष्ठ) केवलज्ञान केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ। स्वाति नक्षत्र में भगवान् परिनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त हुए। विवेचन--भगवान् महावीर के गर्भ में आने से निर्वाण तक के नक्षत्र- प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर के गर्भागमन से परिनिर्वाण तक के नक्षत्रों का निरूपण किया गया है / इस सम्बन्ध में आचार्यों के दो मत हैं- कुछ आचार्य गर्भसंहरण को कल्याणक में नहीं मानते, तदनुसार पंचकल्याणक इस प्रकार बनते हैं--१. गर्भ, 2. जन्म, 3. दीक्षा, 4. केवल ज्ञान, और 5. निर्वाण / किन्तु कुछ आचार्य गर्भसंहरण क्रिया को कल्याणक में मान कर प्रभु के 6 कल्याणक की कल्पना करते हैं।" 1. 'चुतें' के बदले 'चुओ', चुतो, चुए आदि का पाठान्तर हैं। 2. 'सव्वओ सम्वत्ताए' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं हैं। 3. 'अणंते' किसी-किसी प्रति में नहीं है। 4. कल्पसूत्र खरतरगच्छीय मान्य टीका / Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 646-67 तेणं कालेणं तेण समएणे- उस दुषम-सुषमादि काल (चतुर्थ आरा) तथा उस विवक्षित विशिष्ट समय (चतुर्थ आरे का अंतिम चरण) में, जिस समय में जन्मादि अमुक कल्याणक हुआ था। ___पंच हत्थुत्तरे-हस्त (नक्षत्र) से उत्तर हस्तोत्तर है, अर्थात्-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र / नक्षत्रों की गणना करने से हस्तनक्षत्र जिसके उत्तर में (बाद में) आता है, वह नक्षत्र हस्तोत्तर कहलाता है / यहाँ 'पंच-हत्युत्तरे' महावीर का विशेषण है, जिनके गर्भाधान-संहरण-जन्म-दीक्षा केवलज्ञानोत्पत्ति रूप पाँच कल्याणक हस्तोत्तर में हुए है, इसलिए भगवान् ‘पंच हस्तोत्तर' हुए हैं।' 'समणे भगवं महावीरे' की व्याख्या-भगवान् महावीर के ये तीन विशेषण मननीय है। 'समण' के तीन रूप होते है-श्रमण, शमन और समन-'सुमनस्' / श्रमण का अर्थ क्रमश: काय, आत्म-साधना के लिए स्वयंश्रमी और तपस्या से खिन्नतपस्वी श्रमण कहलाता है। कषायों को शमन करनेवाला शमन, तथा सबको आत्मौपम्यदृष्टि से देखने वाला समन और राग-द्वेष रहित मध्यस्थवृत्ति वाला सुमनस् या समनस् कहलाता है, जिसका चित्त सदा कल्याणकारी चिन्तन में लगा रहता हो, वह भी समनस् या सुमनस् कहलाता है। भगवान् का अर्थ है- जिसमें समग्र ऐश्वर्य, रूप, धर्म, यश, श्री, और प्रयत्न ये 6 भग हों। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति यों है--जिसके राग, द्वेष, मोह एवं आश्रव भग्न-नष्ट हो गए हैं, वह भगवान् है। ___ महावीर—यश और गुणों में महान् वीर होने से भगवान् महावीर कहलाए / कषायादि शत्रुओं को जीतने के कारण भगवान् महाविक्रान्त महावीर कहलाए। भयंकर भय-भैरव सथा अचेलकता आदि कठोर तथा घोरातिघोर परीषहों को दृढ़तापूर्वक सहने के कारण देवों ने उनका नाम महावीर रखा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 425 / 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 425 / (ख) कल्पसूत्र आ० पृथ्वीचन्द्र टिप्पण स० 2 10 1 / 3. (क) दशवकालिक नियुक्ति गा० 154, 155, 156 'समण' शब्द की व्याख्या। (ख) अनुयोग द्वार 126-131 / (ग) “सह मनसा शोभनेन, निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन चेतसा वर्तते इति सुमनसः / --स्थानांग 4/4/363 टीका (घ) "श्राम्यते तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमण:।" -सूत्र कृ० 1/16/1 टीका (ङ) "श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः / " ..--दशव० हारि० टीका पत्र 68 4. (अ) ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस:श्रियः......" -दशवै० चूणि (आ) भग्गरागो भग्गदोसो भग्गमोहो अनासवो। भग्गासपापको धम्मो भगवा तेन वुच्चति // -विसुद्धिमग्गो 7/56 5. (क) 'महतो बसोगुणेहि वीरोत्ति महावीरो।' - दशवं० जिनदास चूणि पृ० 132 Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भगवान् का गर्भावतरण 734. समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वोतिकताए, सुसमाए समाए वोतिकताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिकंताए, दुसमसुसमाए समाए बहुवोतिकताए, पण्णत्तरीए वासेहि मासेहिं य अद्धणवम सेसेहि, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहि णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं', महाविजयसिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुंडरीयविसासोबत्थियवद्धमाणातो महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं चुते, चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं वीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे दाहिण माहणकुंडपुरसंणिवेसंसि उसभवत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए सीहन्भवभूतेणं अप्पाणं कुच्छिसि गम्भं वक्कते। समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगते यावि होत्था, चइस्सामि त्ति जाणति, चुए मि त्ति जाणइ, चयमाणे ण जाणति, सुहुमे णं से काले पण्णते / 734. श्रमण भगवान् महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम, नामक आरक, सुषम आरक और सुषम-दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम-सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल 75 वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब; ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर महाविजयसिद्धार्थ, पुष्पोत्तरवर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक, वर्द्धमान महाविमान से बीस सागरोपम की आयु पूर्ण करके देवायु, देवभव और देवस्थिति को समाप्त करके वहां से च्यवन किया / च्यवन करके इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष (ख) शूरवीर विक्रान्तो इति कषायादि शत्रु जयान्महाविक्रान्तो महावीरः / / ----दशवै हारि० टीका प० 137 (ग) “सहसंम्मुइए समणे भीमं भयभैरवं उरालं अचेलयं परीसहे सहत्ति कट् देवेहि से नाम कयं समणं भगव महावीरे ," ___--आचा० 2/3/400 पत्र 386 (सूत्र 743) ख) तुलनार्थ देखें-आव० चूणि पृ० 245 1. 'जोगोवगतेणं' के बदले पाठ है--'जोगमुवागएण' 2. इसके बदले पाठान्तर है-चयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे। 3. 'आउयं' के बदले पाठान्तर है-अहाउयं / अर्थ है-जितना आयुष्य था, उतना पाल कर / 4. 'तिण्णाणोबगते' के बदले पाठान्तर हैं-'तिणाणोवगते / अर्थ समान है। 'चयमाणे ण जाणति' इसका विश्लेषण करते हए चर्णिकार कहते हैं-'तिन्ति ताणा, एकसमइ उवजोगो णत्यि, तेण ण याणई चयमाणो / ' (पृ० 260) अर्थात् भगवान् में तीन ज्ञान थे, एक समय (च्यवन काल के समय) में उपयोग नहीं लगता, इसलिए च्यवन करते हुए वे नहीं जानते थे। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 734 365 के दक्षिणार्द्ध भारत के दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में कुडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंधर मोत्रीया देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ में अवतरित श्रमण भगवान् महावीर (उस समय) तीन ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान) से युक्त थे। वे यह जानते थे कि मैं स्वर्ग से च्यव कर मनुष्यलोक में जाऊंगा। मैं वहाँ से च्यव कर गर्भ में आया हूँ, परन्तु वे च्यवनसमय को नहीं जानते थे, क्योंकि वह काल अत्यन्त सूक्ष्म होता है। विवेचन देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में भगवान का अवतरण---इस सूत्र में शास्त्रकार ने माता के गर्भ में प्रभु महावीर के अवतरण का वर्णन किया है। इसमें भ० महावीर के द्वारा गर्भ में अवतरित होने के समय की चार स्थितियों का विशेषतः उल्लेख किया गया है(१) उस समय के काल, वर्ष, मास, पक्ष, ऋतु नक्षत्र तिथि आदि का निरूपण, (2) किस विमान से, किस वैमानिक देवलोक से च्यव कर गर्भ में आए ? (3) किस ब्राह्मण की पत्नी, किस नाम गोत्रवाली माता के गर्भ में अवतरित हुए ? (4) गर्भ में अवतरित होने से पूर्व, पश्चात् एवं अवतरित होते समय की ज्ञात दशा का वर्णन / "इमाए ओसप्पिणोएबहुवोतिकताए..." जैन शास्त्रों में कालचक्र का वर्णन आता है। प्रत्येक कालचक्र बीस (20) कोटाकोटी सागरोपम परिमित होता है। इसके दो विभाग हैअवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध में 10 कोटाकोटी सागरोपम तक समस्त पदार्थों के वर्णादि एवं सुख का उत्तरोत्तर क्रमशः ह्रास होता जाता है। अतः यह ह्रासकाल माना जाता है। इसी तरह उत्सर्पिणी काल-चक्रार्ध में 10 कोटाकोटी सागरोपम तक समस्त पदार्थों के वर्णादि एवं सुख की उत्तरोत्तर क्रमशः वृद्धि होती जाती है / अतः यह उत्क्रान्ति काल माना जाता है। प्रत्येक कालचक्राद्ध में 6-6 आरक (आरे) होते हैं। अवसर्पिणीकाल के 6 आरक इस प्रकार हैं-(१) सुषम-सुषम, (2) सुषम, (3) सुषम-दुषम, (4) दुषम-सुषम, (5) दुषम और (6) दुषम-दुषम। यह क्रमश: (1) चार कोटाकोटी सागरोपम, (2) तीन कोटा०, (3) दो कोटा०, (4) 42 हजार वर्ष कम एक कोटाकोटी, (5) 21 हजार वर्ष, और (6) 21 हजार वर्ष, परिमित काल का होता है। अवसर्पिणी काल का छठा आरा समाप्त होते ही उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ हो जाता है। इसके 6 आरे इस प्रकार हैं-१. दुषम-दुषम, 2. दुषम, 3. दुषम-सुषम, 3. सुषम-दुषम, 5. सुषम और 6. सुषम-सुषम। प्रस्तुत में अवसर्पिणी काल के क्रमशः३ आरे समाप्त होने पर, चतुर्थ आरक का प्रायः भाग समाप्त हो चुका था, उसमें सिर्फ 75 वर्ष, 8 // महीने शेष रह गए थे, तभी भगवान् ....“गर्भ में अवतरित हुए थे। 1. आचा वृत्ति पत्रांक 425 के आधार पर / 2. कल्पसूत्र (पं0 देवेन्द्र मुनि सम्पादित) 10 24, 25, 26 / Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध देवानन्दा का गर्भ-साहरण 735. ततो गं समणे भगवं महावीरें अणुकंपएणं देवेणं 'जोयमेयं' ति कट्ट जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयमहुलस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहि नक्खत्तेणं जोगोवगतेणं बासीतीहि रातिदिएहि वोतिकतेहि तेसीतिमस्स रातिदियस्स परियाए वट्टमाणे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसातो उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवसंसि गाताणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगोत्तस्स तिसलाए' खत्तियाणीए वासिद्धसगोत्ताए असुभाणं पोग्गलाणं अवहारं करेता सभाणं पोग्गलाणं पक्खेवं करेत्ता कुच्छिसि गमं साहरति, जे वि य तिस लाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भे तं पि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उसभदत्तस्स माह णस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए कुच्छिसि साहरति / ___ समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगते यावि होत्था, साहरिज्जिस्सामि ति जाणति, साहरिते मि ति जाणति, साहरिज्जमाणे वि जाणति समणाउसो ! 735. देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आने के बाद श्रमण भगवान महावीर के हित और अनुकम्पा से प्रेरित होकर 'यह जीत आचार है', यह कहकर वर्षाकाल के तीसरे मास, पंचम पक्ष अर्थात-आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, 82 वीं रात्रिदिन के व्यतीत होने और 83 वें दिन की रात को दक्षिण ब्राह्मण 1. इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र में विस्तृतपाठ है--- 'जं रर्याण च समणे भगवं महावीरे गब्भत्ताए वक्कते तं रयणि च णं सा देवाणंदा चोद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा // 8 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे"हियाणुकंपएणं देवेण हरिणे गमेसिणा तिसलाए खत्तियाणीए... अव्वाबाह अव्वाबाहेणं कुच्छिसि साहरिए॥ 30 // -~-कल्पसूत्र सूत्र 8 से 30 तक मूल (देवेन्द्रमुनि) 10 41 से 76 2. 'अणुकंपएणं' के बदले 'हियाअणुकंपएणं'। इसकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं—हिताणु कंपितं अप्पणो सक्कस्स य, अणुकंपओ तित्थगरस्स अदुवित्तए ति / " हिताणुकंपित्त ---शक्रन्द्र का अपना हित, अथवा तीर्थकर के प्रति अनुकम्पा से प्रेरित : / 3. 'आसोयबहुले' के बदले पाठान्तर है--"अस्सोयबहुले।" अर्थ समान है। 4. 'तेसोतिमस्स' के बदले पाठान्तर हैं-'तेसीति राई", 'तेसीराई" 'तेसीयमस्स' / 5. "तिसलाए' के बदले पाठान्तर हैं-'तिसिलाए'। 6. 'साहरितेमि ति जाणति, साहरिज्जमाणे वि जाणति' के बदले पाठान्तर है-'साहरिज्जमाणे न जाणति, साहरिएमि ति जाणइ।' कल्पसत्र में भी ऐसा ही पाठ मिलता है-'साहरिज्जमाणे नो जाणइ साहरिएमि त्ति जाणइ। इसके टीकाकार आचार्य पृथ्वीचन्द्र ने 'तित्राणोवगए साहरिज्जिस्सामि' इत्यादि च्यवनवद् ज्ञेयम्" लिखा है. परन्तु व्यवन और संहरण में बहुत अन्तर है। च्यवन स्वतः होता है, और संहरण पर-कृत। च्यवन एक समय में हो सकता है, किन्तु संहरण में असंख्यात समय लगते हैं। इस दृष्टि से भी आचारांग का पाठ ही अधिक तर्कसंगत और आगमसिद्ध है, क्योंकि गंहरण में असंख्यात समय लगते हैं, अतः अवधिज्ञानी उसे जान सकता है। प्रस्तुत सूत्र में यह भूल कब और कैसे हुई ? यह विद्वानों के लिए अन्वेषण का विषय है।-सं० Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 735 367 कुण्डपुर सन्निवेश से उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश में (आकर वहां देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से गर्भ को लेकर) ज्ञातवंशीय क्षत्रियों में प्रसिद्ध काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ राजा की वाशिष्ठगोत्रीय पत्नी त्रिशला (क्षत्रियाणी) महारानी के अशुभ पुद्गलों को हटा कर उनके स्थान पर शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण करके उसकी कुक्षि में उस गर्भ को स्थापित किया / और जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में जो गर्भ था, उसे लेकर दक्षिण ब्राह्मण कुण्डपुर सन्निवेश में कुडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालन्धर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में स्थापित किया। आयुष्मन् श्रमणो ! श्रमण भगवान् महावीर गर्भावास में तीन ज्ञान (मति-श्रु त-अवधि) से युक्त थे / 'मैं इस स्थान से संहरण किया जाऊँगा', यह वे जानते थे, 'मैं संहृत किया जा चुका हूँ', यह भी वे जानते थे और यह भी वे जानते थे कि 'मेरा संहरण हो रहा है।' विवेचन.... गर्म की अदला-बदली--प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से निकाल कर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में रखने और त्रिशला महारानी के कुक्षिस्थ गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में स्थापित करने का वर्णन है / कल्पसूत्र में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन है:-देवानन्दा के स्वप्नदर्शन, स्वप्न-फल-श्रवण, हर्षाविष्करण, इधर शकेन्द्र का चिन्तन, भगवान् की स्तुति, इस आश्चर्यजनक घटना पर पुनः चिन्तन एवं कर्तव्यविचार, हरिणगमेषीदेव का आह्वान, इन्द्र द्वारा आदेश, हरिणगमेषी देव द्वारा गर्भ की अदलाबदली तक का वर्णन विस्तार के साथ है, यहाँ उभे अति संक्षेप में दिया गया है।' ___ गर्मापहरण की घटना : शंका-समाधान-तीर्थकरों के गर्भ का अपहरण नहीं होता, इस दृष्टि से दिगम्बर परम्परा इस घटना को मान्य नहीं करती, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसे एक आश्चर्यभूत एवं सम्भावित घटना मानती है। आचारांग में ही नहीं, स्थानांग, समवायांग, आवश्यकनियुक्ति एवं कल्पसूत्र प्रभृति में स्पष्ट वर्णन है कि श्रमण भगवान् महावीर 82 रात्रि व्यतीत हो जाने पर एक गर्भ से दूसरे गर्भ में ले जाए गये। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने गणधर गौतम स्वामी से देवानन्दा ब्राह्मणी के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया है"गौतम ! देवानन्दा ब्राह्मणी मेरी माता है / "2 वैदिक परम्परा के मूर्धन्य पुराण श्रीमद् भागवत में भी गर्भ-परिवर्तन विधि का उल्लेख है कि कंस जब वसुदेव की सन्तानों को समाप्त कर देता था, तब विश्वात्मा योगमाया को आदेश देता है कि देवकी का गर्भ रोहिणी के उदर में रखे / विश्वात्मा के आदेश-निर्देश में 1. देखें कल्पसूत्र मूल (सं० देवेन्द्र मुनि) 2. (क) समवायांग 83, पत्र 832 (ख) स्थानांग स्था० 5, पत्र 307 (ग) आवश्यक नियुक्ति पृ० 80-83 (घ) 'गोयमा ! देवाणंदां माहणी मम अम्मगा'- भगवती शतक 5 उ० 33 पृ० 256 Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध योगमाया देवकी का गर्भ रोहिणी के गर्भ में रख देती है। तब पुरवासी लोग अत्यन्त दुःख के साथ कहने लगे-'हाय ! बेचारी देवकी का गर्भ नष्ट हो गया / "1 ___वैज्ञानिकों ने भी परीक्षण करके गर्भ-परिवर्तन को सम्भव माना है। गुजरात ववियूलर सोसाइटी द्वारा प्रकाशित जीव विज्ञान (पृ० 43) में इस घटना को प्रमाणित करने वाला एक वर्णन दिया गया है-एक अमेरिकन डॉक्टर को एक गर्भवती भाटिया महिला का ऑपरेशन करना था। डॉक्टर ने एक गर्भिणी बकरी का पेट चीर कर उसके पेट का बच्चा एक विद्युत संचालित डिब्बे में रखा, और उस स्त्री के पेट का बच्चा बकरी के पेट में / ऑपरेशन कर चुकने के बाद डॉक्टर ने स्त्री का बच्चा स्त्री के पेट में और बकरी का बच्चा बकरी के पेट में रख दिया / कालान्तर में स्त्री और बकरी ने जिन बच्चों को जन्म दिया, वे स्वस्थ एवं स्वाभाविक रहे / भगवान महावीर का जन्म 736. तेणं कालेणं तेणं समएणं तिसिला खतियाणी अह अण्णदा कदायो णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं बीतिकंताण जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेतसुद्ध तस्स णं चेत्तसुद्धस्स तेरसीपवखणं हत्थुत्तराहि णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूता। 737. जणं राति तिसिला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूता तं णं राइ भवणवति-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिदेवेहि य देवोहि य ओवयंतेहि य उप्पयंतेहि य संपयंतेहि य एगे महं दिध्वे देवुज्जोते देवसं णिवाते देवकहक्कहए उप्पिजलगभूते यावि होत्था / 738. जंणं रणि तिसिला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूता तं णं रणि बर्वे देवा य देवोओ य एगं महं अमयवासं च गंधवासं च चुण्णवासं च पुष्फवासं च हिरण्णवासं च रयणवासं च वासिसु / 736. जं गं रणि तिसिला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोगा अरोगं पसूता तं णं रणि भवणवति-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य समणस्स भगवती महावीरस्स कोतुगभूइकम्माईतित्थगराभिसेयं च करिसु। 1. गर्भ प्रणीते देवक्या रोहिणी योगनिद्रया। अहो विस्र सितो गर्भ इति पोरा विजुक्र श॥ 15 // -भागवत स्कंध 10 10 122-123 2. कल्पसूत्र (देवेन्द्र मुनि सम्पदित) में वणित घटना। 3. तुलना करिए-सा गं रयणी बहहिं देवेहि या देवीहिय उपयंतेहि य उप्पयते हि य उपिजलमाणभूया कहकहभूया यावि होत्था। --कल्पसूत्र सूत्र 64 / 4. 'देवसंणिवाते' के बदले पाठ है देवसंणिवातेण, 'देसंणिवातेण ते देव।' 5. 'पसता' के बदले 'पसुता' और 'पसत्ता' पाठान्तर हैं। Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 736-36 736. उस काल और उस समय में त्रिशला क्षत्रियाणी ने अन्यदा किसी समय नौ मास साढ़े सात अहोरात्र प्रायः पूर्ण व्यतीत होने पर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के द्वितीय पक्ष में अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर सुखपूर्वक (श्रमण भगवान महावीर को) जन्म दिया / 737. जिस रात्रि को त्रिशला क्षत्रियाणी ने सुखपूर्वक (श्रमण भगवान् महावीर को) जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों के स्वर्ग से आने और मेरुपर्वत पर जाने–यों ऊपर-नीचे आवागमन से एक महान् दिव्य देवोद्योत हो गया, देवों के एकत्र होने से लोक में एक हलचल मच गई, देवों के परस्पर हास-परिहास (कहकहों) के कारण सर्वत्र कलकलनाद व्याप्त हो गया। 738. जिस रात्रि त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वस्थ श्रमण भगवान महावीर को सुखपूर्वक जन्म दिया, उस रात्रि में बहुत-से देवों और देवियों ने एक बड़ी भारी अमृतवर्षा सुगन्धित पदार्थों की वृष्टि और सुवासित चूर्ण, पुष्प, चांदी और सोने की वृष्टि की। 736. जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने आरोग्यसम्पन्न श्रमण भगवान महावीर को सुखपूर्वक जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों ने श्रमण भगवान महावीर का कौतुकमंगल, शुचिकर्म तथा तीर्थकराभिषेक किया। विवेचन-भगवान् महावीर का जन्म--सूत्र 736 से 736 तक चार सूत्रों में भगवान् महावीर का जन्म, जन्म के प्रभाव से सर्वत्र महाप्रकाश एवं आनन्द का संचार, देवों द्वारा विविध पदार्थों की वृष्टि, देवों द्वारा जन्माभिषेक आदि वर्णन है। भगवान महावीर के जन्म के समय केवल क्षत्रियकुण्डपुर ही नहीं, परन्तु क्षण भर के लिए सारे जगत् में प्रकाश फैल गया। बाद में उनके उपदेश और ज्ञान से केवल मनुष्य लोक ही नहीं, तीनों लोक प्रकाशमान हो गए हैं। स्थानांगसूत्र में बताया है कि तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञानोत्पत्ति के समय में तीनों लोकों में अपूर्व उद्योत होता है। वस्तुत. तीर्थकर भगवान् का इस भूमण्डल पर जन्म धारण करना धर्म, ज्ञान और अध्यात्म के महाप्रकाश का साक्षात् अवतरण है। सारा ही संसार, यहाँ तक कि नारकीय जीव भी क्षण भर के लिए अनिर्वचनीय आनन्द व उल्लास का अनुभव करते हैं / जन्म से पूर्व त्रिशला महारानी के स्वप्नों का, तथा गर्भ-परिपालन, गर्भ का संचालन बन्द हो जाने से आर्तध्यान, भ० महावीर द्वारा मातृभक्ति सूचक प्रतिज्ञा, जृम्भक देवों द्वारा 1. (क) 'लोगस्स उज्जोयगरे धम्मतित्थयरे जिणे / ' -चतुर्वितिस्तव पाठ आवश्यक सूत्र (ख) "तिहि ठाणेहि लोगज्जोए सिया, तंजहा--अरहतेहिं जायमाणेहि, अरहतेसु पब्वयमाणेसु, अरहंताणं णाणूप्पायमहिमासु / ' --स्थानांग स्था०३ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध निधानों का सिद्धार्थ राजा के भवन में संग्रह, हिरण्यादि में वृद्धि के कारण माता-पिता द्वारा वर्द्धमान नाम रखने का विचार, सिद्धार्थ द्वारा हर्षवश पारितोषिक, प्रीतिभोज आदि विस्तृत वर्णन कल्पसूत्र में देखना चाहिए / यहाँ संक्षेप में मुख्य बातें कह दी गई हैं।' भगवान का नामकरण 740. जतो णं पभिति भगवं महावीरे तिसिलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भं आहूते ततो गं पभिति तं कुलं विपुलेणं हिरण्णणं' सुवण्णेणं धणेणं धण्णणं माणिक्केणं मोतिएणं संखसिल-प्पवालेणं अतीव अतीव परिवड्ढति / ततो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयम?जाणित्ता णिवत्तवसाहसि वोक्कतसि सुचिभूतसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेति / विपुलं असण-पाणखाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-णाति-सयण-संबंधिवग्गं उवनिमंतेत्ता बहवे समण-माहणकिवण-वणीमग-भिन्छुडगः-पंडरगाईण विच्छड्ढेति', विग्गोवेति, विस्साणेति, दायारेसु णं दाणं पज्जाभाएंति / विच्छढित्ता, विग्गोवित्ता, विस्साणित्ता वायारेसु णं दाणं पज्जाभाइत्ता मित्त-णाइ-सयण-संबंधिवग्गं भुजावेति / मित्त-जाति-सयण-संबंधिवग्गं भुंजावित्ता, मित्तजाति-सयण-संबंधिवग्गेण इमेयाख्यं णामधेज्ज कारवेंति-जतो णं पभिति' इमे कुमार तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भे आहूते ततो गं पभिति इमं कुलं विपुलेणं हिरण्णणं सुवण्णणं 1. कल्पसू त्र मूलपाठ पृ० 80 से 138 तक / 2. यहाँ किसी-किसी प्रति में 'हिरण्णणं' पाठ नहीं है। 3. 'धणेणं' के बदले पाठान्तर है ---'धण्णेणं' / 'धान्य से / ' 4. 'जाणित्ता' के बदले 'जाणिया' पाठान्तर है। 5. 'णिम्वत्तदसाहसि' के बदले कल्पसूत्र में पाठ है-'एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते निव्वतिए अमूतिजात ककम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे...' ग्यारहवां दिन व्यतीत होने पर असति (अशुचि) जातककर्म से निवृत्त होने पर बारहवां दिन आने पर। 'भिच्छंडग---पंडरगाईण' से मिलता-जुलता ज्ञाताधर्मकथांग के पन्द्रहवें अध्ययन में समागत पाठचरए वा मिच्छडे वा पंडरंगे वा-है। उसकी टीका में अभयदेवसरि ने अर्थ किया है-'चरको धाटिभिक्षाचरः / "भिक्षाण्डो भिक्षाभोजी सुगतशासनस्य इत्यन्ये, पाण्डुरागः शैव.।' अर्थात्चरक संन्यासियों का झुडविशेष, यूथबंध घूमकर भिक्षाटन करने वाले भिक्षुओं की एक जाति / भिक्षाण्ड = भिक्षाभोजी, कई आचार्य कहते हैं -.-"बौद्ध शासन के भिक्षु हैं। पाण्डराग = शैवभिक्षु / ' 7. 'विच्छड्ढेति' के बदले पाठान्तर हैं-'विच्छति, 'विच्छडेइ' / 8. 'दायारेसु णं पज्जाभाएंति' का समानार्थक पाठ कल्पसूत्र में मिलता है—'वाणं दायारेहि परिभाएत्ता' 8. विस्साणित्ता' के बदले पाठान्तर है.---"विस्साणिया' / 10. 'णं दाणं पजामाइत्ता' के बदले पाठान्तर हैं—'णं पज्जाभाइत्ता, णं दाणं पज्जाभाइता' णं दायं पज्जाभाइत्ता'। 11. 'कारवेंति के बदले पाठान्तर हैं-कारवेति, करेंति / Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 740 371 धणेणं धणेणं माणिक्केणं मोत्तिएणं संख-सिल-प्पवालेणं अतीब अतीव परिवड्ढति, तो होउ णं कुमारे बद्धमाणे, ___74.. जब गे श्रमण भगवान् महावीर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरूप में आए, तभी से उस कुल में प्रचुर मात्रा में चांदी, सोना, धन, धान्य, माणिक्य, मोती, शंख, शिला और प्रवाल (मूंगा) आदि की अत्यन्त अभिवृद्धि होने लगी। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के माता-पिता ने यह बात जानकर भगवान् महावीर के जन्म के दस दिन व्यतीत हो जाने के बाद ग्यारहवें दिन अशुचि निवारण करके शुचीभूत होकर, प्रचुर मात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ बनवाए। चतुर्विध आहार तैयार हो जाने पर उन्होंने अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धि वर्ग को आमंत्रित किया। इसके पश्चात् उन्होंने बहुत शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मणों, दरिद्रों, भिक्षाचरों, भिक्षाभोजी, शरीर पर भस्म रमाकर भिक्षा मांगने वालों आदि को भी भोजन कराया, उनके लिए भोजन सुरक्षित रखाया, कई लोगों को भोजन दिया, याचकों में दान बांटा। इस प्रकार शाक्यादि भिक्षाजीवियों को भोजनादि का वितरण करवा कर अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धिजन आदि को भोजन कराया। उन्हें भोजन कराने के पश्चात् उनके समक्ष नामकरण के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा-जिस दिन से यह बालक त्रिशलादेवी की कुक्षि में गर्भरूप से आया, उसी दिन मे हमारे कुल में प्रचुर मात्रा में चांदी, सोना, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंख, शिला, प्रवाल (मंगा) आदि पदार्थों की अतीव अभिवृद्धि हो रही है / अत: इस कुमार का गुण सम्पन्न नाम-'वर्द्धमान' हो, अर्थात् इसका नाम वर्द्ध मान रक्खा जाता है। विवेचन-भगवान् का गुण-निष्पन्न नामकरण-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् का 'वर्द्धमान' नाम रखने का कारण बताया है। राजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला दोनों अपने सभी इष्टस्वजन-परिजन-मित्रों तथा श्वसुर पक्ष के सभी सगे-सम्बन्धियों को भोजन के लिए आमंत्रित करते हैं, साथ ही समस्त प्रकार के भिक्षाजीवियों को भी भोजन देते हैं। उसके पश्चात् सबके समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट करते हैं और 'वर्द्ध नाम' नाम रखने का प्रबल कारण भी बताते हैं। __ इन सबसे प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में प्रायः सभी सम्पन्न वर्ग के लोग अपने शिशु का नामकरण समारोहपूर्वक करते थे, और प्रायः उसके किसी न किसी गुण को सूचित करने वाला नाम रखते थे। भगवान का संवर्तन 741. ततो पं समणे भगवं महावीरे पंचधातिपरिवडे, तंजहा-खीरधातीए, मज्जण 1. 'तो होउणं कुमारे वढमाणे' का समानार्थक पाठ कल्पसूत्र में इस प्रकार है-'तं होउ गं कुमारे ___ वडमाणे 2 नामेणं / ' 2. आचारांग सूत्र मूलपाठ, वृत्ति पत्रांक 425 / Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 आचारांग सूत्र----द्वितीय श्रु तस्कन्ध धातीए, मंडावणधातीए, खेल्लावणधातीए', अंधातीए, अंकातो अंकं साहरिज्जमाणे रम्मे मणिकोट्टिमतले गिरिकंदरसमल्लीणे व चंपयपायवे अहाणुपुव्वीए संवड्ढति / 741. जन्म के बाद श्रमण भगवान महावीर का लालन-पालन पांच धाय माताओं द्वारा होने लगा। जैसे कि -1. क्षीर धात्री-दूध पिलानेवाली धाय, 2. मज्जन धात्री-स्नान कराने वाली धाय, 3. मंडन धात्री वस्त्राभूषण पहनानेवाली धाय, 4. क्रीड़ा धात्री क्रीड़ा कराने वाली धाय और 5. अंधात्री-गोद में खिलाने वाली धाय / वे इस प्रकार एक गोद से दूसरी गोद में संहृत होते हुए एवं मणिमण्डित रमणीय आंगन में (खेलते हुए), पर्वतीय गुफा में स्थित (आलीन) चम्पक वृक्ष की तरह कुमार वर्द्धमान क्रमशः सुखपूर्वक बढ़ने लगे। यौवन एवं पाणिग्रहण 742. ततो गं समणे भगवं महावीरे विण्णायपरिणयए- विणियत्तबालभा अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाई पंचलक्खणाई कामभोगाइ सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाई परियारेमाणे एवं चाए विहरति / __742. उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर बाल्यावस्था को पार कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए / उनका परिणय (विवाह) सम्पन्न हुआ और वे मनुष्य सम्बन्धी उदार शब्द,, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त पांच प्रकार के कामभोगों का उदासीनभाव में उपभोग करते हुए त्यागभावपूर्वक विचरण करने लगे। विवेचन- यौवन और विवाह प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर की युवावस्था के जीवन का चित्रण है / यहाँ तीन बातों की ओर मुख्यतया संकेत किया गया है-(१) यौवन में प्रवेश, 1. 'खेल्लावणा' के बदले पाठान्तर है--खेलावण, खेड्डणण, खेडण / 2. 'गिरिकंदरसमल्लीणे' के वदले पाठान्तर है-गिरिकंदरसलीण, गिरिकंदरस्समन्लीणे / ज्ञाताधर्मकथाग में इसी प्रकार का पाठ मिलता है-'गरिकंदरमल्लीणे व चंपगपायवे' वृत्तिकार ने अर्थ किया है - गिरिक दरेत्ति गिरिनि कूज्जे आलीन इव चम्पकपादपः सूखंसूखेन वर्धते स्मति / ' अर्थात--गिरिकंदर यानी गिरिनिकूज में आलीन–आश्रित चंपकवृक्ष की तरह सुखपूर्वक बढ़ रहे थे। विण्णाय परिणय के बदले कल्पसत्र -54-76 में इसी से मिलता जलता पाठ है-से वियण दारए उम्मुक्कबालभावे 'विण्णायपरिणयमिते।' अर्थात-वह बालक बाल्यभाव से उन्मुक्त होकर परिणय (प्रणय) का विशेष रूप से ज्ञाता हो गया था। अथवा---परिणय (विवाह) विज्ञात-समाप्त सम्पन्न हो चुका था। 4. 'विणियत्त' के बदले पाठान्तर है—'विणियित्त' / अर्थ होता है--विनिवृत्त / 5. 'अप्पुसुयाइ" के बदले पाठान्तर हैं--अप्पुसुग्गाई, अप्पुसत्ताई, अप्पुस्सुताई।' अर्थ प्रायः समान है। 6. 'एवं चाए' के बदले पाठान्तर हैं-'उमंचाए', 'उमंचाते' 'उमच्चाए'। अर्थ समान होता है-त्याग भाव से। Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 743 (2) विवाह, (3) त्यागभाव और उदासीनता-पूर्वक पंचेन्द्रिय-काम-भोगों का उपभोग एवं उनका त्याग। दिगम्बर परम्परा भ० महावीर को अविवाहित मानती है। दिगम्बर ग्रन्थों में उनके लिए 'कुमार' शब्द का प्रयोग हुआ है, श्वेताम्बर परम्परा में भी उनके लिए कुमार शब्द प्रयुक्त हुआ है / वही संभवतः उन्हें अविवाहित मानने की धारणा का पोषक बना हो।' वस्तुत: 'कुमार' का अर्थ 'कुआरा' ----अविवाहित ही नहीं होता, उसका अर्थ राजकुमार, युवराज आदि भी होता है, इसी अर्थ को व्यक्त करने के लिए 'कुमारवासम्मि पम्वइया' कहकर 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया गया है। भगवान् महावीर के विवाह के सम्बन्ध में आचारांग में ही नहीं, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, भाष्य एवं चणि आदि प्राचीन साहित्य में पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। भगवान के प्रचलित तीन नाम 743. समणे भगवं महावीरे कासवगोत्तेणं, तस्स णं इमे तिन्नि नामधेज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-अम्मापिउसंतिए बद्धमाणे, सहसम्मुइए समणे, भीम भयभेरवं उरालं अचेलयं परीसहे सहति ति कट्ट, देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे। 743. काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर के ये तीन नाम इस प्रकार कहे गए है-- (1) माता-पिता का दिया हुआ नाम-वर्द्धमान, (2) समभाव में स्वाभाविक सन्मति होने के कारण श्रमण, और (3) किसी प्रकार का भयंकर भय-भैरव उत्पन्न होने पर भी अविचल रहने तथा अचेलक रहकर विभिन्न परीषहों को समभावपूर्वक (उदार होकर) सहने के कारण देवों ने उनका नाम रखा---'श्रमण भगवान् महावीर' / 1. (क) पद्मपुराण 30/67 / (ख) हरिवंश पुराण F0/218 भा०२॥ 2. (क) 'कुमारो युवराजेश्ववाहके'-शब्दरत्न ममन्वय कोष 10 268 / (ख) 'पाइअ-सद्दमहण्णवो' पृ० 253 / (ग) अमरकोष काण्ड 1, नाट्यवर्ग श्लोक 12 / (घ) आप्टे कुत संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृ. 363 / 3. (क) आवश्यक नियुक्ति पृ० 36 गा. 222 / 8. कल्पसूत्र में "भीमं भयभेरव" आदि पाठ विस्तृत रूप में है। देखिये कल्पसूत्र--१०४... 'अयले भयभे रवाणं परिसहोवसम्गाणं-खंतिखमे पडिमाणं पालए धीम अरति रतिसहे दविए वीरियसंपन्ने देवेहि से णाम कयं समणे भगवं महावीरे 3 / " 5. 'अचेलयं' के बदले पाठान्तर अचेले. 'अचले' मान कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है-'अचले परिसहो वसग्गेहि / अर्थ होता है-परिसहोपसर्गों के समय अचल / Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन---तीन प्रचलित गुणनिष्पन्न नाम-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के तीन प्रचलित नाम किस कारण से पड़े ? इसका उल्लेख है। वर्द्धमान नाम तो माता-पिता के यहां धन-धान्य आदि में वृद्धि होने के कारण माता-पिता ने रखा था।' 'श्रमण' नाम प्रचलित होने का कारण यहां बताया है.-'सहसम्मुइए'। चूर्णिकार सहसम्मुदियाए' पाठ मानकर अर्थ करते हैं—'सोभणामतिःसन्मतिः, सन्मस्या सहगतः'-अच्छी बद्धि या सहज स्वाभाविक सन्मति के कारण। इसका अर्थ स्वाभाविक स्मरण-शक्ति के भी होता है। तात्पर्य यह है कि सहज शारीरिक एवं बौद्धिक स्फूर्ति एवं शक्ति रा उन्होंने तप आदि आध्यात्मिक साधना के मार्ग में कठोर श्रम किया, एतदथं वे श्रमण' कहलाए। तीसरा प्रचलित नाम 'महावीर' था, जो देवों के द्वारा रखा गया था। तीनों नाम गुणनिष्पन्न थे।' भगवान के परिवारजनों के नाम 744. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स पिता कासवगोत्तेणं / तस्स णं तिणि गामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा-सिद्धत्थे ति वा सेज्जसे ति वा जसंसे ति वा। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अम्मा वासिद्रसगोता। तीसे णं तिष्णि णामधेज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-तिसला इ वा विदेहदिग्णा इ वा पियकारिणी ति वा। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तियए सुपासे कासवगोत्तणं / समणस्स णं भगवतो महावीरस्स जेट्ठ भाया णंदिवद्धणे कासवगोत्रोणं / समणस्स णं भगवतो महावीरस्स जेट्टा भइणी सुदंसणा कासवगोत्रोणं / समणस्स णं भगवतो महावीरस्स भज्जा जसोया गोत्तेणं कोडिण्णा"। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स धूता कासवगोत्तेणं / तोसे गं दो नामधेज्जा एवमाहिज्जति; तंजहा-अणोज्जा ति वा पियदसणा ति वा। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णाई कोसियगोत्तेणं / तीसे गं दो णामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा--सेसवती ति वा जसवती ति वा। 1. कल्पसूत्र मूल (देवेन्द्र मुनि सम्पादित) पृ० 140 / 2. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि• पृष्ठ 264 / (ख) कल्पसूत्र (देवेन्द्र मुनि सम्पादित) पृ० 141 / 3. सूत्र-७४४ की तुलना कीजिए कल्पसूत्र सूत्र--१०५ से 106 तक / आवश्यक चूणि पृ०-२४४ / 4. 'पित्तियए' के बदले पाठान्तर है-पित्तिज्जे 5. किसी-किसी प्रति में 'जेठा भइणी' के बदले 'कणिठा भइणी' पाठ है। 6. 'कासव' के बदले यहाँ 'कासवी' पाठान्तर मिलता हैं। 7. 'गोतण कोडिण्णा' के बदले पाठान्तर हैं--कोडिन्ना मोत्तेण, गोयमा गोतेणं, से गोयमा गोत्तेणं / अर्थ अर्थ क्रमशः यों है-कौडिन्यागोत्र से थी, गोत्र से गौतमीया थी, वह गोतमगोत्रीया थी। Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 744 744. श्रमण भगवान् महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम इस प्रकार कहे जाते थे, जैसे कि-१. सिद्धार्थ 2. श्रेयांस और 3. यशस्वी / श्रमण भगवान् महावीर की माता वाशिष्ठ गोत्रीया थी। उनके तीन नाम इस प्रकार कहे जाते हैं, जैसेकि--१. त्रिशला, 2. विदेहदत्ता और इ. प्रियकारिणी। श्रमण भ० महावीर के चाचा 'सुपार्श्व' थे, जो काश्यप गोत्र के थे। श्रमण भ० महावीर के ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन थे, जो काश्यप गोत्रीय थे। श्रमण भ० महावीर की बड़ी बहन सुदर्शना थी, जो काश्यप गोत्र की थी। श्रमण भ० महावीर की पत्नी 'यशोदा' थी, जो कौण्डिन्य गोत्र की थी। श्रमण भ. महावीर की पुत्री काश्यप गोत्र की थी। उसके दो नाम इस प्रकार कहे जाते हैं, जैसेकि--१. अनोज्जा, (अनवद्या) और 2. प्रियदर्शना। श्रमण भ० महावीर की दौहित्री कौशिक गोत्र की थी। उसके दो नाम इस प्रकार कहे जाते हैं, जैसे कि-१. शेषवती तथा 2. यशोमती या यशस्वती। विवेचन- भगवान महावीर के परिवार का संक्षिप्त परिचय---प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के पिता, माता, चाचा, भाई, बहन, पत्नी, पुत्री और दौहित्री के नाम और गोत्र का परिचय दिया गया है। भगवान महावीर के पिता का नाम श्रेयांस क्यों पड़ा? इस सम्बन्ध में चूर्णिकार कहते है-श्रयांसि धयन्ति अस्मिन्निति श्रेयांसः / ' अर्थात्---जिसमें श्रेयों----कल्याणों का आश्रय स्थान हो, वह श्रेयांस है / माता का एक नाम 'विदेहदिन्ना' इसलिए पड़ा कि वे 'विदेहेन दिना'-विदेह (विदेहराज) द्वारा प्रदत्त थीं। भगवान की भगिनी सुदर्शना उनसे बड़ी थी या छोटी थी ? यह चिन्तनीय है। इस सम्बन्ध में कल्पसूत्रकार मौन हैं। आचारांग में प्रस्तुत पाठ में किसी प्रति में 'कणिवा' पाठ था, उसे काट कर किसी संशोधक ने 'जेट्ठा' संशोधन किया है। विशेषावश्यक भाष्य में महावीर की पुत्री के नाम ज्येष्ठा, सुदर्शना एवं अनवद्यांगी' बताए हैं, जबकि यहां भ• महावीर की बहन का नाम सुदर्शना एवं पुत्री का नाम 'अनवद्या' व प्रियदर्शना बताया गया है। अतः ज्येष्ठभगिनी एवं पुत्री के नामों में कुछ भ्रान्ति-सी मालूम होती है / ' यद्यपि 'अणोज्जा' का संस्कृत रूपान्तर 'अनवद्या' होता है, किन्तु चूर्णिकार ने 'अनोजा' रूपान्तर करके अर्थ किया है- 'नास्य ओजं अणोज्जा / ' अर्थात्--- जिसमें ओज (बल) न हो वह 'अनोजा' है - अर्थात् जो बहुत ही कोमलांगी, नाजुक हो। 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 264-265 / 2. (क) आचारांग मूलपाठ सटिप्पण (मुनि जम्बुविजयजी सम्पादित) पृ. 264 / (ख) कल्पसूत्र मूलपाठ में 'भगिणी सुदसणा' बतना ही पाठ है---पृ० 145 (देवेन्द्र मुनि) / 3. (क) विशेषावश्यक भाष्य गा० 2307 // "जिट्ठा सुदंसण जमालिणीज्ज सावपि तिगुज्जाणे..." —मू० भा० 126 / 4. आचारांग चणि मू पा० टि० पृ० 265 / Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय श्र तस्कन्ध भगवान के माता-पिता की धर्म साधना 745. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अम्मापियरो पासाच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था / ते णं बहूई वासाइ समणोवासगपरियागं पालयित्ता छण्हं जीवणिकायाणं सारक्खणणिमित्रा आलोइत्ता णिदित्ता गरहिता पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छिताइ" पडिवज्जित्ता कुससंथार दुरु हित्ता भत्तं पच्चक्खायंति, भत्तं पच्चक्खाइता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीरसंलेहणाए झूसियसरीरा कालमासेणं कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुते कप्पे देवत्ताए उववन्ना। ततो णं आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं चुते(ता) चइत्ता महाविदेहे वासे चरिमेणं उस्सासेण सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चित्संति, परिणिव्वाइस्संति, सम्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति। 745. श्रमण भगवान् महावीर के माता-पिता पापित्य-पार्श्वनाथभगवान् के अनुयायी थे, दोनों श्रावक-धर्म का पालन करने वाले श्रमणोपासक श्रमणोपासिका थे। उन्होंने बहत वर्षों तक श्रावक-धर्म का पालन करके (अन्तिम समय में) षडजीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप), आत्मगहरे एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित स्वीकार करके, कुश के संस्तारक पर आरूढ़ होकर भक्तप्रत्याख्यान नामक अनशन (संथारा) स्वीकार किया। चारों प्रकार के आहार-पानी का प्रत्याख्यान-त्याग करके अन्तिम मारणान्तिक संलेखना से शरीर को सुखा दिया। फिर कालधर्म का अवसर आने पर आयुष्यपूर्ण करके उस (भौतिक) शरीर को छोड़कर अच्युतकल्प नामक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए। तदनन्तर देव सम्बन्धी आयु, भव (जन्म) और स्थिति का क्षय होने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत होंगे और वे सब दुःखों का अन्त करेंगे। विवेचन प्रस्तुत सत्र में भगवान महावीर के माता-पिता के धार्मिक जीवन की झाकी बताई गई है। साथ ही उस जीवन की फलश्रति भी अंकित कर दी है। इसके द्वारा शास्त्रकार ने एक आदर्श श्रमणोपासक का जीवन चित्र प्रस्तुत कर दिया है। भगवान् के माता-पिता राजा-रानी होते हुए भी सांसारिक भोगों में ही नहीं फंसे रहे, किन्तु उन्होंने एक श्रमणोपासक का धर्म-मर्यादित जीवन स्वीकार किया। त्याग, सेवा व अनासक्ति भाव से जीवन जीया और अन्तिम समय निकट आने पर समस्त भोगों, यहाँ तक कि आहार, शरीर और 1. 'पायच्छित्ताई" के बदले पाठान्तर है---'पायच्छित्त' / 2. 'पच्चक्खायति' के बदले पाठान्तर हैं-पच्चक्खिति, पच्चाइक्खंति, पच्चक्खाइंति / अर्थ एका-सा है। 3. "उस्सासेणं' के बदले पाठान्तर है--उसासेणं / 4. 'परिणिब्वाइस्संति' के बदले पाठान्तर है----'परिण्णेवाइस्संति मुच्चिस्संति / Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 746 समस्त साधनों का सर्वथा परित्याग करके आत्मशुद्धिपूर्वक शरीर छोड़ा, और 12 वाँ देवलोक प्राप्त किया, जहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनेंगे। दीक्षा-ग्रहण का संकल्प 746. तेणं कालेणं तेणं समएणं समण भगवं महावीरे जाते णातपुत्ते णायकुलविणिन्वते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाइ विदेहे त्ति कट्ट, अगारमझे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगतेहिं देवलोगमणुप्पत्तेहि समत्तपइण्णे चेच्चा हिरण्णं, चेच्चा सुवण्णं चेच्चा बलं. चेच्चा वाहणं, चेच्चा धण-कणग-रयण-संतसारसावतेज्जं, विच्छड्डित्ता विग्गोवित्ता, विस्साणित्ता, दायारेसु णं वायं पज्जाभाइत्ता, संवच्छरं दलइत्ता, जे से हेमंताणं पढमे मासे, पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मम्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहि णक्खतेणं जोगोवगतेणं अभिनिक्खमणाभिप्पाए यावि होत्था। 746. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम मे प्रसिद्ध हो चुके थे, ज्ञातकुल (के उत्तरदायित्व) से विनिवृत्त थे, अथवा ज्ञातकुलोत्पन्न थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय पूजनीय थे, विदेहदत्ता (माता) के पुत्र थे, विशिष्ट शरीर-वज्रऋषभ-नाराच-संहनन एवं समचतुरस्र संस्थान से युक्त होते हुए भी शरीर से सुकुमार थे। (इस प्रकार की योग्यता से सम्पन्न) भगवान् महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता-पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से, हिरण्य. स्वर्ण, सेना (बल), वाहन (सवारी), धन, धान्य, रत्न आदि सारभूत, सत्वयुक्त पदार्थों का त्याग करके, याचकों को यथेष्ट दान देकर, अपने द्वारा दानशाला पर नियुक्त जनों के समक्ष सारा धन खुला करके, उसे दान रूप में देने का विचार प्रगट करके, अपने सम्बन्धियों में सम्पूर्ण पदार्थों का यथायोग्य (दाय) विभाजन करके, संवत्सर (वर्षी) दान देकर (निश्चिन्त हो चुके, तब) हेमन्तऋतु के प्रथम मास एवं प्रथम मार्गशीर्ष 1. 'णातपुत्त' के बदले पाठान्तर है --'णातिपुत्ते'। 2. कल्पसूत्र में भगवान के द्वारा दीक्षा की पूरी तैयारी का वर्णन इस प्रकार मिलता है----'समणे भगवं महावीर दक्खे दक्खपतिन्ने, पडिरूवे आलीणे भद्दए विणीए नाए नायपुत्ते नायकुलचंदे विदेह विदेहदिन्ने विबेहजच्चे विदेहसमाले तीसं वासई विदेहसि कट्ट अम्मापिई हि देवत्तमएहिं गुरुमहत्तगरहि अब्भणुन्नाए"" कल्पसून सूत्र-११० 3. 'गायकुल-विणिव्वते' के बदले पाठान्तर है--णायकुलविणिवत्ते, णायकुलनिव्वते, णायकुलणिवत्ते ति विदेहे। 4. इसके बदले किसी-किसी प्रति 'विदेहित्ति' 'विदेहत्ति' पाठान्तर हैं। कल्पसूत्र में 'विदेहसि कट्ट 5. 'धणकणग' के बदले पाठान्तर है—धणधण्णक / अर्थ है-धन और धान्य / Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध कृष्ण पक्ष में, मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान् ने अभिनिष्क्रमण (दीक्षाग्रहण) करने का अभिप्राय किया / विवेचन –अभिनिष्क्रमण की पूर्व तैयारी-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर ने मुनि दीक्षा के लिए अपनी योग्यता और क्षमता कितनी बढ़ा ली थी, अपना जीवन कितना अलिप्त, अना. सक्त, विरक्त और अप्रमत्त बना लिया था, यह उनके विशेषणों से शास्त्रकार ने प्रकट कर दिया है। यद्यपि वृत्तिकार ने इन शब्दों की कोई व्याख्या नहीं की है, तथापि चूर्णिकार ने कल्पसूत्र में दिये गए विशेषणों के अनुसार व्याख्या की है, दक्खे = क्रियाओं में दक्ष / पतिपणे = विशेषज्ञाता / पडिरूवे = रूप और गुण के प्रतिरूप, भद्र स्वभाववाले, भद्रक या मध्यस्थ / विणोते = दक्षतादि गुणयुक्त होने पर भी अभिमान नहीं करने वाले / गाते पुले विणिय? =ज्ञातकुल में उत्पन्न, विदेहदिन्ने = विदेहा-- त्रिशला माता के अंगजात / जच्चे = जात्य-कुलीन, श्रेष्ठ / अथवा विदेहवच्चे = विदेह का वर्चस्वी पुरुष / विदेहे = देह के प्रति अनासक्त / __ आचारांग (अर्थागम) में एवं कल्पसूत्र में इनका अर्थ यों किया गया है-- णाए-प्रसिद्धज्ञात, अथवा वे ज्ञातवंश के थे। णायकुलविणिवते =ज्ञातकुल में चन्द्रमा के समान / विदेहे - उनका देह दूसरों के देह की अपेक्षा विलक्षण था या विशिष्ट शरीर (विशिष्ट संहनन-संस्थान) वाले / विवेहदिण्णे = त्रिशला माता के पुत्र / विदेहजच्चे - त्रिशला माता के शरीर में जन्म ग्रहण किये हुए विदेहवासियों में श्रेष्ठ / विदेहसूमाले =अत्यन्त सुकुमाल या घर में सुकुमाल अवस्था में रहने वाला। साथ ही उनको प्रतिज्ञा (माता-पिता के जीवित रहते दीक्षा न लेने की) पूर्ण हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त घर में रहते हुए उन्होंने सोना, चांदी, सैन्य, वाहन, धान्य, रत्न आदि सारभूत पदार्थों का त्याग करके जिनको जो देना, बाँटना या सौंपना था, वह सब वे दे, बाँट या सौंप कर निश्चिन्त हो चुके थे। वार्षिकदान भी देना प्रारम्भ कर चुके थे। इस प्रकार भगवान् महावीर ने दीक्षा की पूर्ण तैयारी करने के पश्चात् ही मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को दीक्षा ग्रहण करने का अपना अभिप्राय किया था।' सांवत्सरिक दान 747. संघच्छरेण होहिती अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स। तो अत्थसंपदाणं पवत्तती पुटवसूरातो / / 111 // 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण पृ० 265, 166 2. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि. पृ० 265 (ख) कल्पसूत्र (देवेन्द्र मुनि सम्पादित) 10 147 (ग) आचारांग (अर्थागम खण्ड-१) (पुप्फभिक्खू-सम्पादित) पृ. 154 3. आचारांग मूल पाठ पृ० 266 4. 'होहिति' के बदले पाठान्तर है.-'होहित्ति / ' 5. वरिदस्स' के बदले पाठान्तर है-'वरिंदाणं' / Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 747-52 376 748. एगा हिरण्णकोडी अट्ठव अणूणया सयसहस्सा। सूरोदयमादीयं दिज्जइ जा पायरासो त्ति // 112 // 746. तिष्णेव य कोडिसता अट्ठासीति च होंति कोडीओ। असीति च सतसहस्सा एतं संवच्छरे दिण्णं // 113 / / लोकांतिक देवों द्वारा उद्बोध 750 वेसमणकुंडलधरा देवा लोगतिया महिड्ढीया। __ बोहिंति य तित्थकरं पण्णरससु कम्मभूमीसु // 114 // 751. बंभम्मि य कप्पम्मि बोद्धव्वा कण्हराइणो मज्जे / लोगंतिया विमाणा अट्ठसु वत्था असंखेज्जा // 11 // 752. एते देवनिकाया भगवं बोहिति जिणवरं वीरं / / सव्वजगज्जीवहियं अरहं ! तित्थं पवत्तेहि // 116 // 747. श्री जिनवरेन्द्र तीर्थकर भगवान् का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक-वर्षी दान देना प्रारम्भ कर देते हैं / प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का सम्प्रदान (दान) होता है / 111 748. प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर पर्यन्त, जब तक कि वे प्रातराश (नाश्ता) नहीं कर लेते, तब तक एक करोड़ आठ लाख से अन्यून (कम नही) स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है // 112 // 746. इस प्रकार वर्ष में कुल तीन अरब, 88 करोड 80 लाख स्वर्णमुद्राओं का दान भगवान् ने दिया / / 113 / / 'असु बत्था' के बदले पाठान्तर है-असु वच्छा। तत्वार्थसूत्र 4/25 के अनुसार भी 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' लोकान्तिक देवों का ब्रह्मलोक में निवास है। अन्य कल्पों में नहीं। ब्रह्मलोक को धेर कर आठ दिशाओं में आठ प्रकार के लोकान्तिक देव रहते हैं। तत्वार्थसत्र में 8 लोकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं-१ 'सारस्वता। दित्य-३ वन्हयरुण-४ गर्दतोय-५ तुषिता 6 व्याबाध- 7 मरुतोऽ-रिष्टाश्च / ' यदि वन्हि और अरुण को अलग-अलग मानें तो इनकी संख्या हो जाती है। 8 कृष्णराजियाँ हैं, दो-दो कृष्णराजियों के मध्यभाग में ये रहते हैं। मध्य में अरिष्ट रहते हैं। इस प्रकार ये 6 भेद होते हैं / तत्वार्थ-भाग्यकार ने आठ भेद ही बताये हैं। लोकान्तवर्ती ये 8 भेद ही होते हैं, जिन्हें आचार्य श्री ने बताए हैं, नौवां भेद रिष्ट विमान प्रस्तारवर्ती होने से होता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। अन्य आगमों में ह भेद ही बताए हैं। यहाँ जो आठ भेद बताए हैं, वे भी इसी अपेक्षा से समझे / ---तत्वार्थ सूत्र सिखसेनगणि टीका 4 पृ०-३०७ 2. देखिये कल्पसूत्र 110 से 113 तक का पाठ-"बुज्झाहि भगवं लोगनाहा ! पवत्तेहि धम्मतित्थं हियसुहनिस्सेयकर..."पून्विपि य "नाणदंसणे होत्था / तएणं समणे भगवंतेणेव उवागच्छद।" Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 750 कुण्डलधारी वैश्रमण देव और महान ऋद्धि सम्पन्न लोकान्तिक देव 15 कर्मभूमियों में होने वाले) तीर्थकर भगवान् को प्रतिबोधित करते हैं // 114 // 751. ब्रह्म (लोक) कल्प में आठ कृष्णराजियों के मध्य में आठ प्रकार के लोकान्तिक विमान असंख्यात विस्तार वाले समझने चाहिए / / 115 / / 752. ये सब देव निकाय (आकर) भगवान् वीर-जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं-हे अर्हन् देव ! सर्वजगत् के जीवों के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन (स्थापना) करें / / 116 // विवेचन-सांवत्सरिकदान और लोकान्तिक देवों द्वारा उद्बोध-प्रस्तुत सूत्र 7491 से 752 तक 6 गाथाओं में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख है, जो प्रत्येक तीर्थकर भगवान् द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का अभिप्राय व्यक्त करने के बाद निश्चित रूप से होती हैं--(१) प्रत्येक तीर्थंकर दीक्षा ग्रहण से पूर्व एक वर्ष तक दान करते हैं / वे प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर तक 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करते हैं, इस प्रकार वार्षिक दान की राशि 3 अरब 88 करोड़ 80 लाख स्वर्णमुद्राएं हो जाती हैं। (2) ब्रह्मलोकवासी लोकान्तिक देव तीर्थकर ये विनम्र विज्ञप्ति (बोध) करते हैं तीर्थ स्थापना करने हेतु / बोध का अर्थ यहाँ नम्रविज्ञप्ति या सविनय निवेदन करना है। जिन तो स्वयंबुद्ध होते हैं। उन्हें बोध देने की अपेक्षा नहीं रहती / लोकान्तिक देव एक प्रकार मे भगवान् के वैराग्य की सराहना, अनुमोदना करते हैं / यह उनका परम्परागत आचार है / अभिनिष्क्रमण महोत्सव के लिए देवों का आगमन 753. ततो णं समणस्स भगवतो महावीरस्स अभिनिक्खमणाभिप्पायं जाणित्ता भवणवति-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि 2 रूवेहि, सहि 2 णेवत्यहि, सहि 2 चिहि, सब्बिड्ढीए सव्वजुतीए' सव्वबलसमुदएणं सयाई 2 जाणविमाणाई दुरुहंति / सयाई 2 जाणविमाणाई दुरुहित्ता अहाबादराइपोग्गलाई परिसाउँति / अहाबादराई पोग्गलाई परिसाडेत्ता अहासुहुमाइपोग्गलाइ परियाइति / अहासुहमाइपोग्गलाइ परिया इत्ता उड्ढे उप्पयंति / उड्ढे उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिवाए देवगतीए अहेणं ओवतमाणा 2 तिरिएणं असंखेज्जाई दीव समुद्दाई वीतिक्कममाणा 2 जेणेव जंबुद्दीवे तेणेव उवागच्छंति , तेणेव उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसाभागे तेणेव झ त्ति वेगेण ओवतिया। 1. 'जुतीए' के बदले पाठान्तर है- 'जुत्तीए' / अर्थ समान है / कल्पसूत्र में सदिवड्ढीए सव्वजुईए पाठ है। 2. 'सयाई सयाई' के बदले 'साई साइ" पाठ है। 3. 'पच्चोतरित' के बदले 'पच्चोयरति' पाठ है। कहीं 'पच्चोठवई' पाठ भी है। 4. 'ओवतिया' के बदले 'उत्तिया' पाठान्तर है। Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 753 381 753. तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियां अपने-अपने रूप में, अपनेअपने वस्त्रों में और अपने-अपने चिन्हों से युक्त होकर तथा अपनी-अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति, और समस्त बल-समुदाय सहित अपने-अपने यान-विमानों पर चढ़ते हैं। फिर सब अपनेअपने यान-विमानों में बैठकर जो भी बादर (स्थूल) पुद्गल हैं, उन्हें पृथक् करते हैं। बादर पुद्गलों को पृथक् करके सूक्ष्म पुद्गलों को चारों ओर से ग्रहण करके वे ऊंचे उड़ते हैं। ऊंचे उड़कर अपनी उस उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देव गति से नीचे उतरते-उतरते क्रमशः तिर्यक्लोक में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर जहाँ उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश है, उसके निकट आ जाते हैं। वहाँ आकर उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के ईशानकोण दिशा भाग में शीघ्रता से उतर जाते हैं। विवेचन–चारों प्रकार के देव-देवियों का आगमन प्रस्तुत सूत्र में भगवान् के दोक्षा ग्रहण के अभिप्राय को जानकर चारों प्रकार के देव-देवियों के आगमन का वर्णन है। साथ ही यह भी बताया है कि वे कैमे रूप, परिधान एवं चिन्ह से युक्त होकर तथा कैसी ऋद्धि, द्यु ति व दलबल सहित, किस वाहन में, किस गति एवं स्फूर्ति मे इस मनुष्य लोक में, तीर्थकर भगवान् के सन्निवेश में आते हैं ? प्रश्न होता है तीर्थकर के दीक्षा समारोह में भाग लेने के लिए देवता क्यों भागे आते हैं ? उत्तर का अनुमोदन यह है कि संसार में जो भी धर्मात्मा एवं धर्मनिष्ठ पुरुष होते हैं, उनके धर्म कार्य के लिए देवता आते ही हैं / वे अपना अहोभाग्य समझते हैं कि हमें धर्मात्मा पुरुषों के धर्म कार्य को अनुमोदन करने का अवसर मिला / दशवैकालिक सूत्र में कहा है 'देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो।' 'जिसका मन सदा धर्म में ओत-प्रोत रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' यद्यपि देवता भौतिक समृद्धि व ऐश्वर्य में सबसे आगे हैं, किन्तु उनके जीवन में संयम का अभाव है, इसलिए वे आध्यात्मिकता के धनी संयमी पुरुषों की सेवा में उनके संयम की सराहना करने हेतु आते हैं। शास्त्रकार ने देवों के आगमन की गति का भी वर्णन किया है कि वे उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित दिव्यगति से आते हैं, क्योंकि उनके मन में धर्मनिष्ठ तीर्थकर की दीक्षा में सम्मिलित होने की स्फूर्ति, श्रद्धा एवं उमंग होती है। 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण (जम्बूविजय जी) पृ० 265 2. (क) दशवकालिक अ० 1 गा०१ (ख) आचारांग मूल पाठ टिप्पण पृ० 268 Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 आचारांग सूत्र-द्वितीय तस्कन्ध शिविका-निर्माण 754. ततो णं सक्के देविदे देवराया सणियं 2 जाणविमाणं ठवेति / सणियं 2 [जाण] विमाणं ठवेत्ता सणियं 2 जाणविमाणातो पच्चोतरति, सणियं 2 जाणविमाणाओ पच्चोत्तरिता एगंतमवक्कमति / एगंतमवषकमित्ता महता वेउस्विएणं समुग्धातेणं समोहणति / महता वेउन्विएणं समुन्धातेणं समोहणित्ता एगं महं गाणामणि-कणग-रयणभत्तिचित्तं सुभं चारुकतरूवं देवच्छंदयं विउव्वंति / तस्स णं देवच्छंदयस्स बहुमज्झदेसभागे एगं महं सपादपीठं सोहासणं गाणामणि-कणग रयणभत्तिचित्तं सुभं चारुकंतरूवं विउव्यति, 2 [त्ता] जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेय उवागच्छति, 2 [त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो' आयाहिण-पयाहिणं करेति / समणं भगवं महावीरं तिखुत्तोआयाहिणपयाहिणं करेत्ता, समणं भगवं महावीरं वंदति, णमंसति / वंदित्ता गमंसित्ता समणं भगवं महावीरं गहाय, जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति / तेणेव उवागच्छित्ता सणियं 2 पुरस्थाभिमुहं सीहासणे णिसीयावेति / सणियं 2 पुरत्थाभिमुहं णिसीयावेत्ता, सयपागसहस्सपागेहि तेल्लेहि अभंगेति / सयपाग-सहस्सपागेहि तेहि अभंगेत्ता गंधकासाएहि उल्लोलति / सयपागसहस्सपाहि तेहि उल्लोलेत्ता सुद्धोवएणं मज्जावेति, २[त्ता] जस्स जंतबल, सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तएणं साहिएण' सरसीएण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिपति, 2 ता] ईसिणिस्सासवातवोज्झं वरणगर-पट्टणुग्गतं कुसलणरपसंसितं अस्सलालपेलयं छेयायरियकणगखचितंतकम्मं हंसलक्षणं पट्टजुयलं णियंसाति, 2 [ता] हारं अद्धहारं उरत्थं एगावलि पालंबसुत्त-पट्ट-मउड-रयणमालाई आविधावेति / आविधावेत्ता गंथिम-वेढिमपूरिम-संघातिमेणं मल्लेणं कप्परक्खमिव समालंकेति / समालंकेत्ता दोच्चं सि महता वेउब्वियसमुग्धातेणं समोहणति, २[त्ता] एग महं चंदप्पभं सिधियं सहस्सवाहिणियं विउधति, तंजहा-ईहामिय-उसभ-तुरग-णर-मकर-विहग-वाणर-कुंजर" 1. किसी-किसी प्रति में 'तिक्खुत्तों शब्द नहीं है। 2. 'पुरत्याभिमुहं' के बदले 'पुरत्थाभिमुहे' पाठान्तर है / 3. 'कासाएहि' के बदले 'कसाहि' पाठ है। 4. 'सुद्धोदएणं मज्जावेति' के बदले 'उल्लोलिति स सुद्धोदएण' उल्लोलिति 2 सुसुद्धोदएणं" पाठान्तर हैं। 5. 'जंतबलं सयसहस्सेणं' के बदले 'जंतपलं सयसहस्सेणं 'जस्स य मुल्लं सयसाहस्सेणं' पाठान्तर है। 6. इसके बदले पाठान्तर हैं—'साहीएणं गोसीस', 'साहिएण सीतएण गोसीसदूसरे का अर्थ है सिद्ध किये हुये शीतल गोशीर्ष रक्त चन्दन से / 7. 'कुसलणरयसंसितं' के बदले 'कुसलनरपइसंसितं', कुसलनरपरिनिम्मियं' ये पाठान्तर मिलते हैं मर्थ है-कुशल नरपति द्वारा प्रशंसित, कुशल मनुष्यों द्वारा परिनिर्मित / 8. 'अस्सलालपेलयं' के बदले पाठान्तर है---'अस्सलालापेलयं / ' 6. 'समाल केत्ता' के बदले 'समलंकेत्ता' और 'समलंकित्ता' पाठान्तर हैं। 10. कंजर-हरु......"वणलयचित्त' के बदले कल्पसूत्र 45 में पाठ है- कजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं" Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 754 383 रुरु-सरभ-चमर-सदूल-सोह-वणलयचित्तविज्जाहर-मिहणजुगलजंतजोगजुत्त' अच्चीसहस्स मालिणीयं सुणिरूवितमिसमिसेतरूवमसहस्सकलित' भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लो यणलेस्स मुत्ताहडमुत्तजालंतरोयित तवणीयपवरलंबूस-पलबंमुत्तदाम हारहारभूसणसमो णत अधियपेच्छणिज्जं पउमलयभत्तिचित्त असोगलय-भत्तिचित्त कुंदलयभत्तिचित्त णाणालयभत्तिविरइयं सुभ' चारुकंतरूवं णाणामणिपंचवण्ण-घण्टापडायपरिमंडितग्गसिहरं सुभं चारुकंतरूवं पासादोयं दरिसणीयं सुरुवं / 754. तत्पश्चात् देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शन:-शनैः अपने धान विमान को वहाँ ठहराया। फिर वह धीरे-धीरे विमान में उतरा। विमान में उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला गया। वहां जाकर उसने एक महान् वैक्रिय समुद्धात किया / उक्त महान् वैक्रिय समुद्घात करके इन्द्र ने अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि मे जटित-चित्रित, शुभ, सुन्दर मनोहर कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक (जिनेन्द्र भगवान के लिए विशिष्ट स्थान) का विक्रिया द्वारा निर्माण किया / उस देवच्छंदक के ठीक मध्य-भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विक्रिया की, जो नाना मणि-स्वर्ण-रत्न आदि की रचना से चित्र-विचित्र, शुभ, सुन्दर और रम्य रूपवाला था। उस भव्य सिंहासन का निर्माण करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वह आया। आते ही उसने भगवान् की तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर उन्हें वन्दन-नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर को लेकर वह देवच्छन्दक के पास आया। तत्पश्चात् भगवान् को धीरे-धीरे उस देवच्छन्दक में स्थित सिंहासन पर बिठाया और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रखा। यह सब करने के बाद इन्द्र ने भगवान् के शरीर पर शतपाक, सहस्र-पाक तेलों य मालिश की, तत्पश्चात् सुगन्धित काषाय द्रव्यों से उनके शरीर पर उबटन किया फिर शतपाक, सहस्रपाक तेलों के साथ उबटन करके शुद्ध स्वच्छ जल से भगवान् को स्नान कराया / स्नान कराने के बाद उनके शरीर पर एक लाख के मूल्य वाले तीन पट को लपेट कर साधे हुए सरस गोशीर्ष रक्त चन्दन का लेपन किया। फिर भगवान् को नाक से निकलने वाली जरा-सी श्वास 1. 'जंतजोगजस्तं' के पाठान्तर है --'जंतजोगचित्तं'। 2. 'असहस्सकलित' के बदले पाठान्तर है--'असहस्सकलिगं / ' अर्थात् --उस पर हजार से कम चिन्ह बनाये हुए थे। 3. 'भिसमाण के बदले पाठान्तर हैं---'ईसिभिसमाणं', 'भिसमीणं'। अर्थ होता है-थोड़ा-सा चमकता हुआ। 4. 'चक्खल्लोयणलेस्सं' के बदले 'चखलोयणलेस्स, चक्खुल्लेयणलिस्सं / 5. 'रोयितं' के बदले रोइयं' 'रोयियं पाठान्तर हैं। 6. 'लंबूमपलंबत' के बदले पाठान्तर हैं-लंबूसतो लंबतं,--लंबूसए संबंतं / 7. 'भित्तिचित्तं' के बदले पाठान्तर है --भित्तचित्तं / ..-- भींत पर चित्रित / 8. सुभ चारुकंतरूवं' के बदले पाठान्तर है-'सभकंतचारुकंतरूवं', सभ'चारू चारू। किसी-किसी प्रति में दूसरी बार आया हुआ 'सुभ चारुकंतरूव' पाठ नहीं है। यहाँ दो बार इन शब्दों का प्रयोग क्रमश:--'अग्रशिखर का और 'शिविका' का विशेषण बताने के लिए किया गया लगता है। Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध वायु से उड़ने वाला, श्रेष्ठ नगर के व्यावसायिक पत्तन में बना हुआ, कुशल मनुष्यों द्वारा प्रशंसित, अश्व के मुह की लार के समान सफेद और मनोहर चतुर शिल्पाचार्यों कारीगरों) द्वारा सोने के तार से विभूषित और हंस के समान श्वेत वस्त्रयुगल पहनाया / तदनन्तर उन्हें हार, अर्द्ध हार, वक्षस्थल का सुन्दर आभूषण, एकावली, लटकती हुई मालाएं, कटिसूत्र, मुकुट और रत्नों की मालाएं पहनाई / तत्पश्चात् भगवान् को ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संधातिम-इन चारों प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष की तरह मुसज्जित किया / उसके बाद इन्द्र ने दुबारा पुनः वैक्रियसमुद्घात किया और उससे तत्काल चन्द्रप्रभा नाम की एक विराट् सहस्रवाहिनी शिविका का निर्माण किया / वह शिविका ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षिगण, बन्दर, हाथी, रुरु, सरभ, चमरी गाय, शार्दूलसिंह आदि जीवों तथा वनलताओं से चित्रित थी। उस पर अनेक विद्याधरों के जोड़े यन्त्रयोग से अंकित थे। इसके अतिरिक्त वह शिविका (पालखी) सहस्र किरणों से सुशोभित सूर्य-ज्योति के समान देदीप्यमान थी, उसका चमचमाता हुआ रूप भलीभांति वर्णनीय था, सहस्र रूपों में भी उसका आकलन नहीं किया जा सकता था, उसका तेज नेत्रों को चकाचौंध कर देने वाला था। उस शिविका में मोती और मुक्ताजाल पिरोये हुए थे। सोने के बने हुए श्रेष्ठ कन्दुकाकार आभूषण से युक्त लटकती हुई मोतियों की माला उस पर शोभायमान हो रही थी। हार, अर्द्ध हार आदि आभूषणों से सुशोभित थी। अत्यन्त दर्शनीय थी, उस पर पद्मलता, अशोकलता, कुन्दलता आदि तथा अन्य अनेक प्रकार की बनलताएँ चित्रित थीं / शुभ, मनोहर, कमनीय रूप वाली पंचरंगी अनेक मणियों, घण्टा एवं पताकाओं में उसका अग्रशिखर परिमण्डित था। इस प्रकार वह शिविका अपने आप में शुभ, सुन्दर और कमनीय रूप वाली, मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय और अति सुन्दर थी।। विवेचन--शिविकानिर्माण और दीक्षा की तैयारी--प्रस्तुत सूत्र में विस्तार से वर्णन है कि इन्द्र ने भगवान के अभिनिष्क्रमण के लिए वैक्रिय समुदघात करके देवच्छन्दक एवं शिविका आदि का निर्माण किया, साथ ही देवछंद में निर्मित पादपीठ सहित सिंहासन पर विराजमान करके उनके शरीर पर शतपाक-सहस्रपाक तैलमर्दन, सुगन्धित द्रव्यों से उबटन और बहुमूल्य गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, उन्हें स्नान कराया, बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनाए / शक्रेन्द्र यह सब कार्य भक्तिवश करता है, क्योंकि वह जानता है कि मुझे जिस धर्मपालन आदि के प्रताप से इन्द्रपद मिला है, उस परमधर्म तीर्थ के ये प्रवर्तक बनने जा रहे हैं, ये धर्म-बोध के दाता, उपदेशक, निष्ठापूर्वक पालक होंगे, इसलिए इनके द्वारा मुझ जैसे अनेक लोगों का कल्याण होगा / इन्द्र सोचता है-से महान् उपकारी महापुरुष की जितनी भक्ति की जाए, उतनी थोड़ी है।' 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 268-266 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहयाँ अध्ययन : सूत्र 754 ___ 'देवच्छंदयं' आदि पदों की व्याख्या---'देवच्छंदय' का अर्थ प्राकृतशब्दकोष में मिलता है—देवच्छंदक= जिन देव का आसन स्थान / जानविमाणं = सवारी या यात्रावाला विमान / 'वेउम्विएणं समुग्धाएण समोहणति = वैक्रियसमुद्घात करता है / समुद्घात एक प्रकार की विशिष्ट शक्ति है, जिसके द्वारा आत्म-प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया जाता है / वैक्रिय शरीर जिसे मिला हो अथवा वैक्रियलब्धि जिसे प्राप्त हो, वह जीव वैक्रिय करते समय अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्येय योजनपरिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरोर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है / वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय के प्रारम्भ करने पर होता है। णिसोयाति =बिठाता है। अन्भंगेति = तेलमर्दन करता है। उल्लोलेति = उद्वर्तन-उबटन करता है। मज्जावेति = स्नान कराता है / जस्स जतबलं सहस्सेणं = जिसका यंत्रबल (शरीर को शीतल करने की नियंत्रण शक्ति) लाख गुनी अधिक हो। इसके बदले पाठान्तर मिलता है'जस्स य मुल्लं सय-साहस्सेग' इसका अर्थ होता है जिसका मूल्य एक लाख स्वर्णमुद्रा हो। 'तिपडोलतितएणं साहिएणं' = तीन पट लपेट कर सिद्ध किया बनाया हुआ / अणुलिपति = शरीर में यथा स्थानलेप करता है / ईसिणिस्सासवातवोज्झं =थोड़े-से निःश्वासवायु से उड़जाने योग्य वरणगरपट्टणुग्गतं =-श्रेष्ठनगर और व्यावसायिक केन्द्र (पत्तन) में बना हुआ। अस्सलालपेलयं = अश्व की लार के समान श्वेत, या कोमल / छयायरियकणगचितंतकम्म = कुशल शिल्पाचार्यों द्वारा सोने के तार से जिसकी किनारी बांधी हई है। 'णियंसावेति'--पहनाता है। पालंब-सुतपट्ट-मउडरयणमालाइ = लम्बा गले का आभूषण, रेशमी धागे से बना हुआ पट्ट-पहनने का वस्त्र, मुकुट और रत्नों की मालाएँ / 'आविधावेति' = पहनाता है / गंथिम-वेढिम-पूरिम संघातिमेणं मल्लेणं = गूंथी हुई, लपेटकर (वेष्टन से) बनाई हुई, संघातरूप (इकट्ठी करके) बनी हुई माला मे। ईहामिग-भेड़िया / रूरू = मृगविशेष / सरम-शिकारी जाति का एक पशु, सिंह, अष्टापद या वानर विशेष / ' 'जंतजोगजुतं - यंत्रयोग (पुत्तलिकायंत्र) से युक्त। अच्चीसहस्समालिणीयं = सहस्रकिरणों से सूर्यसम सुशोभित। सुणिरूवितमिसमिसेतरूवं उसका चमचमाता हुआ रूप भलीभांति वर्णनीय था। असहस्सकलितं = सहस्ररूपों में भी उसका आकलन नहीं हो सकता था। 'भिसमाणं भिब्भिसमाणं = चमकती हुई, विशेषप्रकार से चमकतो हुई। चक्खुल्लोयणलेस्सं -- चक्षुओं से लेशमात्र ही अवलोकनीय-अर्थात् नेत्रों को चकाचौंध कर देनेवाला। मुत्ताहडमुत्तजालतरोयितं = उसका सिरा (किनारा) मोती और मोतियों की जाली से सुशोभित था। तवणीय-पवर-लंबूस-पलंबत मुत्तवाम = सोने के बने हुए कन्दुकाकार आभूषणों से युक्त मोतियों की मालाएं उसमें लटक रही थीं। 1. (क) पाइअ-सहमहणवो पृ० 478, 867, 388, 123, 562, 880, 720 (ख) जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह भा०२ पृ० 288 (ग) आचारांगचूणि मू० पा० टि० पृ० 268, 266 (घ) आचारांग (अर्थागम भा० 1) पृ० 155 Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध शिविकारोहण 755. सोया' उवणीया जिणवरस्स जर-मरणविप्पमुक्कस्स / ओसत्तमल्लदामा जल-थलदिव्यकुसुमेहिं // 117 // 756. सिबियाए मज्झयारे दिव्वं वररयणरूबचेंचइयं / सोहासणं महरिहं सपादपीठं जिणवरस्स / / 118 // 757. आलइयमालमउडो भासुरबोंदी वराभरणधारी। खोमयवत्थणियत्थो जस्स य मोल्लं सयसहस्सं // 11 // 758. छ?ण भत्तेणं अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो। लेस्साहि विसुज्झंतो आरुहई उत्तमं सीयं // 120 // 756. सीहासणे णिविट्ठो सक्कीसाणा य दोहिं पासेहि / वीयंति चामराहिं मणि-रयणविचित्तदंडाहिं // 121 // प्रब्रज्यार्थ प्रस्थान 760. पुदिव उक्खिता माणुसेहि साहटुरोमकूवेहि / पच्छा वहति देवा सुर-असुरा गरुल-णागिंदा / / 122 // 761. पुरतो सुरा वहंती असुरा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। अवरे वहति गरुला णागा पुण उत्तरे पासे // 123 // 762. वणसंडं व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले / सोभति कुसुमभरेणं इय गगणतलं सुरगणेहिं // 124 // 763. सिद्धत्थवणं व जहा कणियारवणं व चंपगवणं वा / सोभति कुसुमभरेणं इय गगणतलं सुरगणेहिं // 125 / / 764. वरपडह-भेरि-झल्लरि-संखसतसहस्सिएहि तूरेहि। गगणयले धरणितले तूरणिणाओ परमरम्मो // 126 // 1. तुलना कीजिए चन्दप्पभा य सीया उवणीया जम्ममरणमुक्कस्स। आसत्तमल्लदामा जल थलयं दिव्य कुसुमेहि / / 2 / -'आवश्यकभाष्य गाथा (62 से 104 तक देखिए) 'ओसत्तमल्लदामा' के बदले पाठान्तर हैं-उसंतमल्लदाम' उवसंतमल्लदाम। 3. 'भासरबोंदी' भी पाठान्तर मिलता है किंतु -भासुरबोंदी पाठ यत्र-तत्र आगमों में अधिक प्रचलित है। 'छठेणं भतणं' के बदले पाठान्तर है-'छठेण उ भत्तणं' / 5. 'साहट्ठरोमकूहि' के बदले पाठान्तर हैं--साहट्ठरोमपुलएहि, साहटुरोमकूवेहि / पहला पाठ अधिक संगत लगता है। 6. 'तूरणिणाओं' के बदले पाठान्तर है—"तुडियणिणादो, तुरियनिनाओ।" Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 755-65 387 765. तत-विततं घण-असिरं आतोजं चउविहं' बहुविहीयं / वाएंति तत्थ देवा बहूहि आणट्टगसएहिं // 127 // 755. जरा-मरण से विमुक्त जिनवर महावीर के लिए शिविका लाई गई, जो जल और स्थल पर उत्पन्न होने वाले दिव्यपुष्पों और देव वैक्रियलब्धि से निर्मित पुष्पमालाओं से युक्त थी // 117 // 756. उस शिविका के मध्य में दिव्य तथा जिनवर के लिए श्रेष्ठ रत्नों की रूपराशि से चर्चित (सुसज्जित) तथा पादपीठ से युक्त महाल्यवान् सिंहासन बनाया गया था // 118 / / 757. उस समय भगवान महावीर श्रेष्ठ आभूषण धारण किये हुए थे, यथास्थान दिव्य माला और मुकुट पहने हुए थे, उन्हें क्षौम (कपास से निर्मित) वस्त्र पहनाए हुए थे, जिसका मूल्य एक लक्ष स्वर्णमुद्रा था। इन सबसे भगवान् का शरीर देदीप्यमान हो रहा था / / 116 // 758. उस समय प्रशस्त अध्यवसाय से, षष्ठ भक्त प्रत्याख्यान (बेले की) तपश्चर्या से युक्त शुभ लेश्याओं से विशुद्ध भगवान् उत्तम शिविका (पालकी) में विराजमान हुए // 120 // 756. जब भगवान् सिंहासन(शिविका में स्थापित) पर विराजमान हो गए, तब शकेन्द्र और ईशानेन्द्र उसके दोनों ओर खड़े होकर मणि-रत्नादि से चित्र-विचित्र हत्थे-डंडे वाले चामर भगवान् पर ढुलाने लगे // 121 // ___760. पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिविका उठाई, जिनके रोमकूप हर्ष से विकसित हो रहे थे। तत्पश्चात् सुर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देव उसे उठाकर ले चलने लगे // 122 / / 761. उस शिविका को पूर्वदिशा की ओर से सुर (वैमानिक देव) उठाकर ले चलते हैं, जबकि असुर दक्षिणदिशा की ओर से, गरुड़देव पश्चिम दिशा की ओर से और नागकुमार देव उत्तर दिशा की ओर से उठाकर ले चलते है // 123 / / 762. उस समय देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड (उद्यान), या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्भ सरोवर सुशोभित होता है / / 124 / / ____763. उस समय देवों के आगमन से गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुड से सुहावना प्रतीत होता है / / 12 / / 764. उस समय उत्तम ढोल, भेरी, झांझ (झालर), शंख आदि लाखों वाद्यों का का स्वर-निनाद गगनतल और भूतल पर परम रमणीय प्रतीत हो रहा था // 126 // 1. 'चउविहं बहुविहियं के पाठान्तर है—'चउब्विहं बहुविहियं / ' अर्थ होता है --चार प्रकार के वाद्य ___ जो कि अनेक तरह से (बजाये)। 2. 'वाएंति' के बदले पाठान्तर हैं-वाइंति, बातेंति, वायति / Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 765. वहीं पर देवगण बहुत-से शताधिक नृत्यों और नाटयों के साथ अनेक तरह के तत, वितत, धन और शुषिर, यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे // 127 // विवेचन--देवों द्वारा दीक्षामहोत्सव का भव्य आयोजन --सू० 755 मे 765 तक की गाथाओं में देवों द्वारा भगवान के दीक्षा-महोत्सव के आयोजन का संक्षेप में वर्णन किया गया हैं / इसमें 8 बातों का मुख्यतया उल्लेख है -- (1) शिविका का लाना, (2) शिविका स्थित सिंहासन का वर्णन, (3) भगवान् के वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित देदीप्यमान शरीर का वर्णन, (4) प्रशस्त अध्यवसाय- लेश्या-तपश्चर्या से विशुद्ध (पवित्रात्मा) भगवान शिविका में विराजमान हुए। (5) दो इन्द्रों द्वारा चामर दुलाये जाने लगे। (6) भक्तिवश मानव और देव चारों दिशाओं से पालकी उठाकर ले चले / (7) गगनमंडल की शोभा का वर्णन, (8) वाद्यनिनादों से गगनतल और भूतल गंज रहा था। (6) देवगण अनेक प्रकार के नृत्य, नाट्य आयन और वादन से वातावरण को रमणीय बना रहे थे।' 'उवणीया' आदि पदों के अर्थ-उवणीया-समीप लाई गई / ओसत्तमल्लदामा पुष्पमालाएं उसमें अवसक्त-लगी हई थीं। मझयारे मध्य में। 'वररयणरूवचइयं = श्रेष्ठ रत्नों के सौन्दर्य से चर्चित-शोभित था / महरिहं = महाघ--महंगा, बहुमूल्य / आलइयमालमउडो = यथास्थान माला और मुकुट पहने हुए थे। भासुर बोंदो-देदीप्यमान शरीर वाले / खोमयवस्थाणियत्थो सूती (कपास से निर्मित) वस्त्र पहने हए थे। उक्खित्ता= उठाई। साहट्ठरोमकूर्वहि-हर्ष से जिनके रोमकूप विकसित हो रहे थे। वहंति = उठाकर ले चले / सिद्धत्थवणं = सरसों का वन (क्षेत्र) कणियारवणं = कनेर का या कचनार का वन / सतसहस्सिएहि = लाखों, तुरणिणाओवाद्यों का स्वर / आतोज्ज = वाद्य / वाएंति = बजाते हैं। आणगसहि = सैकड़ों नृत्यों नाट्यों के साथ। अन्यत्र भी ऐसा ही वर्णन --आवश्यक भाष्य गा०६२ से 104 तक में ठीक इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। सू० 760 की गाथा समवायांग सूत्र में भी मिलती है। सामायिक चारित्र ग्रहण 766. तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्प दसमीपक्खेणं, सुब्बतेणं दिवसेणं, विजएणं मुहत्तणं, हत्थुत्तरनक्ख 1. आचारांग मुलपाठ सटिप्पण पृ०२७०-२७१ 2. (क) पाइअ-सहमहण्णवो पृ० 176, 204, 668, 118, 3883 (ख) अर्थागम खण्ड --१--आचारांग पृ० 156 3. आवश्यक भाष्य गा० 62 से 104 तक 4. किसी किसी प्रति में 'मामसिरबहलस्स' के पूर्व 'तस्सणं' पाठ नहीं है। 5. 'महत्तणं, हत्थुत्तरनक्खत्तेणं' के बदले पाठान्तर है-'मूहत्ते णं हत्थत रानवखतेणं / ' Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 766-68 तणं जोगोवगतेणं पाईणगामिणोए छायाए, वियत्ताए पोरुसीए, छट्ठणं भत्तणं अपाणएणं, एगं साडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणीयाए' सदेव-मणुया-ऽसुराए परिसाए समणिज्जमाणे 2 उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स मज्झमझेणं निग्गच्छति, 2 [त्ता! जेणेब णातसंडें उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, 2 {त्ता) ईसि रतणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभागेणं सणियं 2 चंदप्पमं सिबियं सहस्सवाहिणि ठवेति, सणियं 2 जाव ठवेत्ता सणियं 2 चंदप्पभातो सिबियातो सहस्सवाहिणीओ पच्चोतरति, २[त्ता] सणियं 2 पुरस्थाभिमुहे सीहासणे जिसीदति, 2 त्तिा आभरणालंकारं ओमुयति / ततो णं वेसमणे देबे जन्न पायपडिते समणस्स भगवतो महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छति / ततो णं समण भगवं महावीरे दाहिण ण दाहिण वामेण वाम पंचमुट्टियं लोयं करेति / ततो णं सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवतो महावीरस्स जन्न षायपडिते वइरामएणं थालेणं केसाई पडिच्छति, 2 [त्ता'अणुजाणेसि भंते !' त्ति कट्ट, खीरोदं सागरं साहरति / ततो गं समणे भगवं महावीरे दाहिणेण दाहिणं वामेण वाम पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेति, 2 [ताj सव्वं मे अकरणिज्ज पावं कम्मं ति कट्ट. सामाइयं चरित्तं पडिवज्जइ, सामाइयं चरित्त पडिवज्जित्ता देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलेक्खचित्तभूतमिव ठवेति / 767. दिव्यो मणुस्सघोसो तुरियणिणाओ य सक्कवयणेण / खिप्पामेव णिलुक्को जाहे पडिवज्जति चरित्त // 128 / / 768. पडिवज्जित्त चरित अहोणिसं सव्वपाणभूतहितं / साहठ्ठलोमपुलया पयता देवा णिसामेति // 126 // 766 उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष था। उस मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत दिवस के विजय मुहूर्त में, हस्तोत्तर (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर, द्वितीय पौरुषी (प्रहर) के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्तप्रत्याख्यान (दो दिन के उपवासों) के साथ एकमात्र (देवदूष्य) वस्त्र को लेकर भगवान् महावीर चन्द्रप्रभा नाम की सहस्रवाहिनी शिविका में विराजमान हुए थे, जो देवों, मनुष्यों और असुरों की परिषद् द्वारा ले जाई जा रही थी। अतः उक्त परिषद् के साथ वे क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के बीचोंबीच-मध्यभाग में से होते हुए जहाँ ज्ञातखण्ड नामक उद्यान था, उसके निकट पहुंचे। वहाँ पहंच कर देव छोटे से (मुड) हाथ-प्रमाण ऊँचे (अस्पृष्ट) भूभाग पर धीरे-धीरे उस 5. 'सहस्सवाहिणीयाए' के बदले पाठान्तर है-'सहस्सवाहिणीए / ' 2. 'सदेव मणुया' के बदले पाठान्तर है--'सचमणुया' सदेवमणुया वा। 3. 'सिबियातो के बदले पाठान्तर है-'सीयाओ' / 4. 'सम्वं मे अकरणिज्ज के पाठान्तर है 'सव्वंकरणिज्जं, सव्वंकरणिज्ज सव्वं अकरणिज्जं / 1. 'साहलोमलया' के बदले पाठान्तर है.-माहटलोमलया।' Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध सहस्रवाहिनी चन्द्रप्रभा शिविका को रख देते हैं। तब भगवान् उसमें से शनैःशनैः नीचे उतरते हैं; और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर अलंकारों को उतारते हैं। तत्काल ही वैश्रमणदेव घटने टेककर श्रमण भगवान महावीर के चरणों में झुकता है और भक्तिपूर्वक उनके उन आभरणालंकारों को हंसलक्षण सदृश श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है। उसके पश्चात् भगवान् ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के, और बांए हाथ से बांई ओर के केशों का पञ्चमुष्ठिक लोच किया। तत्पश्चात् देवराज देवेन्द्र शक श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष घुटने टेककर चरणों में झुकता है और उन केशों को हीरे के (वनमय) थाल में ग्रहण करता है। तदनन्तर-भगवन् ! आपकी अनुमति है;' यों कहकर उन केशों को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देता है। इधर भगवान् दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के और बाए हाथ से बांई ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच पूर्ण करके सिद्धों को नमस्कार करते हैं; और 'आज से मेरे लिए सभी पापकर्म अकरणीय हैं', यो उच्चारण करके सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं / उस समय देवों और मनुष्यों दोनों की परिषद् चित्रलिखित-सी निश्चेष्ट-स्थिर हो गई थी। 767. जिस समय भगवान् चारित्र ग्रहण कर रहे थे, उस समय शकेन्द्र के आदेश (वचन) से शीघ्र ही देवों के दिव्य स्वर, वाद्य के निनाद और मनुष्यों के शब्द स्थगित कर दिये गए, (सब मौन हो गए) // 128 / / / 768. भगवान् चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गए। सभी देवों ने यह सुना तो हर्ष म पुलकित हो उठे। विवेचन-भगवान् का अभिनिष्क्रमण और सामायिक चारित्र ग्रहण -सू० 766 से 768 तक भगवान् के अभिनिष्क्रमण एवं सामायिक चारित्र-ग्रहण का रोचक वर्णन है। इनमें मुख्यतया 7 बातों का प्रतिपादन किया गया है--(१) मास, पक्ष, दिन, मुहूर्त. नक्षत्र, छाया एवं प्रहर सहित दीक्षाग्रहण-समय का उल्लेख, (2) षष्ठभक्तयुक्त भगवान् की शिविका ज्ञातखण्ड उद्यान में पहुंची, (3) शिविका से उतरकर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर भगवान् विराजे, (4) आभूषण उतारे, जिन्हें वैश्रमणदेव ने श्वेतवस्त्र में सुरक्षित रख लिए, (5) केशों का पंचमुष्ठिक लोच किया, जिन्हें शक्रेन्द्र ने वज्रमय थाल में ग्रहण करके भगवान् की अनुमति समझ कर क्षीरसागर में बहा दिया, (6) सिद्धों को नमस्कार करके सामायिक चारित्र अंगीकार किया। दीक्षा ग्रहण के समय देव और मनुष्य सभी चित्रलिखित-से हो गए / इन्द्र के आदेश से देवों, मनुष्यों और वाद्यों के शब्द बंद कर दिये गये, (7) भगवान् अहर्निश समस्त प्राणियों के लिए हितकर-क्षेमकर चारित्र में संलग्न हो गए / देवों ने जब यह सुना तो उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा।' 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 271 मे 273 / Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 766 361 'वियत्ताए' आदि पदों का अर्थ-विवत्ताए-द्वितीय / साडम' -शाटक-देवदूष्य वस्त्र / पाईणगामिणोए पूर्वगामिनी। ईसिस्तणिप्पमाणं =थोड़े-से बद्धमुष्टिहाथ (रत्नि) प्रमाण। अच्छोप्पेणं =अस्पृष्ट (ऊंची) रखकर / णिसीदति =बैठ जाते है। आमुयति = उतारते हैं। जन्नुपायडिते-घुटने टेक कर चरणों में गिरा। पडिच्छतिः-: ग्रहण कर लेता है। वइरामएण थालेणं वज्रमय थाल में / साहरति =डाल या बहा देता है। आलेक्वचित्तभू तमिव ठवेति = आलिखित चित्र की-तरह स्तब्ध रह गई। णिलुक्को तिरोहित हो गया, स्थगित हो गया। अहोणिसं . अहर्निश: दिन रात।' मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रह-ग्रहण 766. तत्तो णं समणस्स भगवतो महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्त पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं णाणे समुप्पण्णे / अड्ढाइज्जेहिं दोवेहि दोहि व समुद्दे हिं सण्णोणं पंचेंदियाणं पज्जताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाई जाणइ / जाणिता ततो णं समणे भगवं महावीरे पब्वइते समाणे मित-जाती-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति / पडिविसज्जित्ता इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगिहति-“बारस वासाई वोसट्ठकाए चतदेहे जे केति उवसग्गा समुप्पज्जति', तंजहा दिव्वा वा माणुसा वा तेरिच्छिया बा, ते सम्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे सम्म सहिस्सामि, खनिस्सामि, अधिपास इस्सामि / 766. तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ; जिसके द्वारा वे अढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपञ्चेन्द्रिय, व्यक्तमन वाले जीवों के मनोगत भावोंको स्पष्ट(प्रत्यक्ष) जानने लगे। इधर मनःपर्याय ज्ञान से मनोगत भावों को जानने लगे थे. उधर श्रमण भगवान् महावीर ने प्रबजित होते हो अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन-सम्बन्धिवर्ग को प्रतिविजित (विदा) किया। विदा करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि 'मैं आज से बारह वर्ष तक अपने शरीर का व्युत्सर्ग करता हूँ-देह के प्रति ममत्व का त्याग करता हूं।' इस अवधि में 1. (क) पाइअ-सहमहण्णवो पृ० 887, 706, 408 / (ख) अर्थागम खण्ड-१ (आचारांग) पृ० 157 / 2. 'अड्ढा इज्जेहि' के बदले पाठान्तर है-अड्ढाइएहि, अतिज्जेहि / 3. 'सण्णीण पंचेंदियाणं' के बदले पाठान्तर है-- 'सण्णीपंचेंदियाणं' / 4. 'जाणित्ता' के बदले 'जाणेत्ता' पाठान्तर है। 5. 'वोसटुकाए' के बदले पाठान्तर है—वोसट्ठकाए, वोसट्ठकाते / 'केति' के बदले पाठान्तर है.---'केवि। 7. 'समुप्पजनि' के बदले पाठान्तर हैं ---समुप्पज्जसु, समुप्पज्जेिस्सति / समुप्पज्जति दिव्या।' 8. 'तेरिच्छिया म' के तेरिच्छा वा' पाठान्तर है। अर्थ समान हैं। 8. 'अधियासइस्सामि' के बदले पाठान्तर है---अहियास इस्सामि / Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कंध दैविक, मानुषिक या तिथंच सम्बन्धी जो कोई भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सब समुत्पन्न उपसर्गों को मैं सम्यक् प्रकार से या समभाव में सहूंगा, क्षमाभाव रखूगा, शान्ति से झेलूंगा।" विवेचन- मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रहधारण प्रस्तुत सूत्र में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया है-भगवान् को दीक्षा लेते ही मन:पर्यायज्ञान की उपलब्धि और 12 वर्ष तक अपने शरीर के प्रति ममत्वविसर्जन का अभिग्रह / दीक्षा अंगीकार करते ही भगवान् एकाकी पर-सहाय मुक्त होकर सामायिक साधना की दृष्टि से अपने आपको कसना चाहते थे, इसलिए उन्होंने गृहस्थपक्ष के सभी स्वजनों को तुरंत विदाकर दिया। स्वयं एकाकी, निःस्पृह, पाणिपात्र, एवं निरपेक्ष होकर विचरण करने हेतु देह के प्रति ममत्वत्याग और उपसर्गों को समभाव से सहने का संकल्प कर लिया।' 'बोसठकाए' एवं 'बत्तदेहे' पद में अन्तर-यहाँ शास्त्रकार ने समानार्थक-से दो पदों का प्रयोग किया है, परन्तु गहराई से देखा जाए तो इन दोनों के अर्थ में अन्तर है। वोसट्ठकाए, का संस्कृतरूपान्तर होता है-व्युत्सृष्टकाय = इसके प्राकृत शब्दकोश में मुख्य तीन अर्थ मिलते हैं१. देह को परित्यक्त कर देना, 2. परिष्कार रहित रखना या 3. कायोत्सर्ग में स्थित रखना / पहला अर्थ यहाँ ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि चत्तदेहे (त्यक्तदेहः) का भी वही अर्थ होता है / अतः वोसट्टकाए' के पिछले दो अर्थ ही यहाँ सार्थक प्रतीत होते है। शरीर को परिष्कार करने का अर्थ है-शरीर को साफ करना, नहलाना-धुलाना, तैलादिमर्दन करना या चंदनादि लेप करना, वस्त्राभूषण से सुसज्जित करना या सरस स्वादिष्ट आहार आदि से शरीर को पुष्ट करना, औषधि आदि लेकर शरीर को स्वस्थ रखने का उपाय करना आदि / इस प्रकार शरीर का परिकर्म-परिष्कार न करना, शरीर को परिष्कार रहित रखना है, तथा शरीर का भान भूलकर, काया का मन से उत्सर्ग करके एकमात्र आत्मागुणों में लीन रहना ही कायोत्सर्गस्थित रहना है। 'चतदेहे' का जो अर्थ किया गया है, उसका भावार्थ है-शरीर के प्रति ममत्व या आसक्ति का त्याग करना। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर को उपसर्गादि से बचाने, उसे पुष्ट व स्वस्थ रखने के लिए जो ममत्व है, या 'मेरा शरीर' यह जो देहाध्यास है, उसका त्याग करना, शरीर का मोह बिलकुल छोड़ देना, शरीर के लिए अच्छा आहार-पानी या अन्य आवश्यकताओं वस्त्र, मकान आदि प्राप्त करने की चेष्टा न करना / सहजभाव मे जैसा जो कुछ मिल गया, उसी में निर्वाह करना। शरीर का भान ही न हो, केवल आत्मभान हो / सम्म सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि' इन तीनों पदों के अर्थ में अन्तर -वैसे तो तीनों क्रियाओं का एक ही अर्थ प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर तीनों में अर्थ अन्तर स्पष्ट होगा। सहिस्सामि का अर्थ होता है-सहन करू गा; उपसर्ग आने पर 1. आचारांग मुलपाठ सटिप्पण पृ० 273. 2. (क) सामायिक पाठ श्लोक-२ (अमितगति आचार्य) (ख) पाइअ-सद्द महण्णवो / पृ० 825, 318 Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 770-71 हायतोबा नहीं मचाऊंगा, न ही निमित्तों को कोसँगा, न रोऊगा-चिल्लाऊंगा या किसी के सामने गिड़गिड़ाऊंगा, न विलाप करूंगा, न आत्त ध्ययन करूगा / बल्कि उसे अपने ही कृतकर्मों का फल मानकर उसे सम्यक् प्रकार से या समभावपूर्वक सहन कर लूँगा।" खमिस्सामि का अर्थ है- जो कोई भी मुझ पर उपसर्ग करने आएगा, उसके प्रति क्षमाभाव रखूगा, न तो किसी प्रकार द्वेष या वैर रखूगा, न ही द्वेषवश बदला लेने का प्रयत्न या संकल्प करूंगा, न कष्ट देने वाले को मारूगा-पीटूंगा या उसे हानि, पहुँचाने का प्रयत्न करूंगा। उसे क्षमा कर दूंगा। अथवा उसे तपश्चरण समझ कर कर्म-क्षय करूंगा / अथवा उपसर्ग सहने में समर्थ बनगा। 'अधियास इस्सामि' का अर्थ होता है शान्ति से, धैर्य से झेलूंगा। खेद-रहित होकर सहूंगा।' भगवान का विहार एवं उपसर्ग 770. ततो गं समणे भगवं महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हिता वोसट्ठकाए चत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कम्मारगाम समणुपत्त / ततो णं समणे भगवं महावीरे वोसट्ठकाए चत्तवेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं, एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतोए मुत्तीए तुट्ठीए समितीए गुत्तोए ठाणेणं कम्मेणं सुचरितफलणेन्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। 5771. एवं चात विहरमाणस्स जे केइ उवसम्गा समुप्पज्जति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहित अद्दोणमाणसे तिविहमण-वयण-कायगुत्त सम्मं सहति खमति तितिक्खति अहियासेति / 1 (क) 'पाइअसहमहण्णवो 885, 27, 8 (ख) आयारो (प्रथम श्रुत) 6 / 2 / 13-16 (ग) अर्थागम भा०१ (आचारांग) पृ०१५७-१५८ 2. 'इमंयएतारूबं' के बदले पाठान्तर हैं--'इमेयारूवं, इमेयारूवे / 3. 'वोसठुकाए चत्तदेहे' के बदले पाठान्तर है--'वोसठ्ठचत्तदेहे / ' 4. 'कम्मारगाम समणुपत्ते' के बदले पाठान्तर है--'कम्मारं गाम समणुपत्ते' 'कुमारगामं समशुपत्ते दोसठ्ठकाए / ' 5. भगवान् महावीर स्वामी के विशेषणों और उपमाओं वाला विस्तृत पाठ यहाँ सूत्र 770 में होना चाहिए था क्योंकि स्थानांगसुत्रह एवं जम्बू-द्वीपप्रजस्ति (वक्षस्कार (0) ऋषभदेव वर्णन) में विस्तार से 'जहाँ भावणार' इस प्रकार आचारांग सुत्र भावनाऽऽध्ययन के अन्तर्गत जो पाठ है, उसका निर्देश किया गया है, परन्तु वह वर्तमान में इस भावनाऽध्ययन में उपलब्ध नहीं है। यह विचारणीय है। 6. 'एवं चाते' के बदले पाठान्तर हैं—‘एवं गत विहरमाणस्स,' 'एवं विहरमाणस्स' ‘एवं वा विहर माणस्स / ' अर्थात- इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके विहार करते हुए""1 7. 'समुपज्जति' के बदले पाठान्तर हैं—'समुपजिति,' 'समुप्पज्जंसू' समुप्पज्जति, समुत्तिसु।' अर्थ प्रायः समान-सा है। 8. 'अणाइले' के बदले पाठान्तर है--'अणाउले'–अर्थ होता है-अनाकुल। 6. कुछ प्रतियों में 'सहति' के बाद ही तितिक्खति' पाठ है। Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ___ 770. इस प्रकार का अभिग्रह धारण करने के पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं काया के प्रति ममत्व का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर दिन का मुहूर्त (48 मिनट) शेष रहते कर्मार (कुमार) ग्राम पहुंच गए। उसके पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं देहाध्यास का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर अनुत्तर (अनुषम) वसति के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि (प्रसन्नता), समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान, तथा अनुपम क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति-मार्ग---ज्ञान-दर्शनचारित्र-के मेवन से युक्त हो कर आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे। 771. इस प्रकार विहार करते हुए त्यागो श्रमण भगवान महावीर को दिव्य, मानवीय और तिर्य चसम्बन्धी जो कोई उपसर्ग प्राप्त होते, वे उन सब उपसर्गों के आने पर उन्हें अकलुषित (निमल), अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन-काया की त्रिविध प्रकार की गप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार से समभावपूर्वक सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णभाव धारण करते तथा शान्ति और धैर्य से झेलते थे। विवेचन—आत्मभाव में रमणपूर्वक विहार एवं उपसर्ग सहन --प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान् महावीर तथा उनकी साधना एवं सहिष्णुता की झाँकी प्रस्तुत की गई है / आत्मभावों में बिहार करने का उनका मुख्य लक्ष्य था, आत्मभाव-रमण को केन्द्र में रखकर ही उनका विहार, आहार. तप, संयम, उपकरण, संवर, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, धर्मक्रिया, कायोत्सर्ग तथा रत्नत्रय की साधना चलती थी। इसी कारण वह तेजस्वी, प्राणवान एवं अनुत्तर हो सकी थी। आत्मभावों में रमण की साधना के कारण ही वे देवकृत, मानवकृत या तियञ्चकृत किसी भी उपसर्ग का सामना करने में व्यथित, राग-द्वेष से कलुषित या दीनमनस्क नहीं होते थे। मन-वचन-काया, तीनों योगों का संगोपन करके रखते थे। वे उन उपसर्गों को समभाव से सहते, उपसर्गकर्ताओं को क्षमा कर देते एवं तितिक्षाभाव धारण कर लेते। प्रत्येक उपसर्ग को धैर्य एवं शाति से झेल लेते थे।" स्थानांग सुत्र के स्थान नौवें में इसी से मिलता-जुलता उपसर्ग सहन का पाठ मिलता है। चूणि के आधार से विस्तृत पाठ का अनुमान प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान महावीर की साधना 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण प.० 273 2. (क) "तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाइं दुबालसवासाई.."बोसठ्ठकाए चियत्त देहे जे केड उवसग्गा... .."सम्म सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिरसइ अहियासिस्सइ।" --स्थान०६ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 371-74 और उपलब्धियों की बहुत ही संक्षिप्त झाँकी दी गई है। चूर्णिकार के समक्ष इस सूत्र का पाठ विस्तृत रूप में उपलब्ध रहा होगा जिसके अनुसार उन्होंने उसकी चूणि प्रस्तुत की है। हम यहाँ चूणि सम्मत पाठ संक्षेप में दे रहे हैं छिन्नसोति, कंसपादीय मक्कतोये, संखो इव निरजणे, जीवो इव अपडिहयगई, गगणमिव णिरालंबणे, वायुरिय अपडिबसे सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्त व निरुवलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए, खरगविसाणं व एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारंडपक्खी इव अप्पमत्त, कुंजरो इव सोंडोरे..... जच्चकणगं व जायसवे, वसुंधरा इव सब्वफासविसहे ........" "नत्थिणं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधो भवति / से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तंजहादब्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दम्वओ णं सचित्ताचित मीसिएस दम्बेसु. खेसओ णं गामे वा नगरे वा अरण्णे वा। कालओ गं समए वा आबलियाए बा" भावओ गं कोहे माणे वा......"मिच्छावंसणसल्ले वा।"१ उनके समस्त स्रोत (आस्रब) नष्ट हो गये। कांस्य-पात्र की तरह निर्लेप हुए। शंख की रह रंग (राम-द्वेष रूप रंग) से रहित / जीव की तरह अप्रतिहतगति, गमन की तरह आलम्बन (पर-सहाय) रहित, वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी, शरद् ऋतु के पानी की तरह जिनका हृदय निर्मल था, कमल पत्र की तरह निलंग, कूर्म (कछुआ) की तरह गुप्तेन्द्रिय, वराह (गेंडा) के सींग की तरह एकाकी पक्षी की भांति सर्वथा उन्मुक्तचारी, भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त, कुंजर (हस्ती) की तरह शूरवीर, स्वर्ण की भांति कान्तिमान, पृथ्वी की भाँति क्षमाशील, .."उन भगवान को कहीं पर भी प्रतिबन्ध नहीं था। प्रतिबंध चार प्रकार का होता है-जैसे, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से / द्रव्य से—सचित्त, अचित्त मिश्रद्रव्यों में, क्षेत्र से-ग्राम, नगर, अरण्य आदि काल से--समय आवलिका आदि| भाव से-क्रोध, मान आदि मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त ... इसीप्रकार का पाठ कल्पसूत्र में है, तथा स्थानांग के 8 वें स्थान में भी इसी आशय का विस्तृत पाठ मिलता है। सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण", औपपातिक' एवं राजप्रश्नीयसूत्र में भी सामान्य अनगारके सम्बन्ध में पूर्वोक्त उपमावाले पाठ मिलते हैं। निष्कर्ष यह है कि भगवान् में वे सब गुण विद्यमान थे, जो एक आदर्श अनगार में होने चाहिए / भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति ___772. ततो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एलेणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वोतिक्कता, तेरस मस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे उत्थे पक्खे वेसाहसुद्ध तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुम्वतेणं दिवसेणं विजएणं महत्तणं हत्थुत्तराहि नक्खत्तणं जोगोवगतेणं पाईणगामिणोए छायाए वियत्ताए पोरुसोए जंभिय 1. आचारांग चूणि म० पा० टि• पृ० 274, 2. कल्पसूत्र सू० 117 से 121, 3. से जहा नामए अणगारा भगवंतो अप्पाणं भावेमाणा विहरति / - सूत्रकृ० 21 4. ...संजते इरियासमिते छिन्नगन्थे "मुक्कतोए चरेज्ज धम्म / ----प्रश्नव्या०५ संवरद्वार 5. समणस्स णं'"महावीरस्स अंतेवासी कत्थइ पडिबंधे भवेति !"एव तेसि ण भवइ। ----औपपातिक सूत्र Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध गामस्स गरस्स बहिया णदीए उज्जुवालियाए उत्तरे कूले सामागस्स गाहावतिस्स कट्ठकरणसि वियावत्तस्स चेतियस्स उत्तरपुरथिमे दिसाभागे सालरुक्खस्स अदूरयामते उक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आतावेदाणस छठेणं भतेणं अपाणएणं उड्ढं जाणु अहो सिरस धम्मज्झाणोवगतस्स झाणकोट्ठोवगतम्स सुक्कज्झातरियाए वट्टमाणस्स व्वाणे कसिणे पडिपुण्णे अवाहते णिरावरणे अणते अणु तरे केवलवरणाण-दसणे समुप्पण। 773. से भगवं अरहा जिणे जाणए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी सदेव-मणुया-ऽसुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणतो, तंजहा-आगती गती ठिती चयणं उववायं भुत्त पीयं कडं पडिसेवितं आविकम्म रहोकम्म लवियं कथितं मणोमाणसियं सव्वलोए सबजीवाणं सवभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं चाते विहरति / 774. ज णं दिवसं समणस्स भगवतो महावीरस्स व्वाण कसिणे जाव समुप्पन्न तं गं दिवसं भवणवइ-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिदेवेहि य देवोहि य ओवयंतेहि य जाव उपिजलगभूते यावि होत्था। 772 उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार से विचरण करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास और चौथे पक्ष में अर्थात् वैशाख सुदी में, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, सुव्रत नामक दिवस में, विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर- दिन के दूसरे (पिछले) पहर में जृम्भकग्नाम नामक नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाक गृहपति के काष्ठकरण नामक क्षेत्र, में वैयावृत्य नामक चैत्य (उद्यान) के ईशानकोण में शालवृक्ष मे न अति दूर, न अति निकट, उत्कटक (उकडू) होकर गोदोहासन में सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल षष्ठभक्त (प्रत्याख्यान) तप से युक्त, ऊपर घुटने और नीचा सिर करके धर्म-ध्यान में युक्त, ध्यान कोष्ठ में प्रविष्ट हुए भगवान् जब शुक्लध्यानान्तरिका में अर्थात् लगातार शुक्लध्यान के मध्य में प्रवर्तमान थे, तभी उन्हें अज्ञान दुःख से निवृत्ति दिलाने वाला, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण अनन्त अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए। 773. वे अब भगवान, अर्हत्, जिन, ज्ञायक, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हो गए। अब वे देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समस्त लोक के पर्यायों को जानने लगे। जैसे कि जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, उनके भुक्त (खाए हुए) और पीत (पीए हुए) सभी पदार्थों को, तथा उनके द्वारा कृत (किये हुए), प्रतिसेवित, प्रकट एवं गुप्त सभी कर्मों (कामों) को, तथा उनके द्वारा बोले हुए, कहे हुए, तथा मन के भावों को जानते, देखते थे। वे सम्पूर्ण 1. 'ओवयंतेहि' के बदले ‘उवतंतेहि', 'उवयंतेहि' पाठान्तर है। Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 778 लोक में स्थित सब जीवों के समस्त भावों को तथा समस्त परमाणु पुद्गलों को जानते-देखते हुए विचरण करने लगे। 7.4. जिस दिन श्रमण भगवान महावीर को अज्ञान-दुःख-निवृत्तिदायक सम्पूर्ण यावत् अनुत्तर केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ, उस दिन भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं विमानवासी देव और देवियों के आने-जाने से एक महान् दिव्य देवोद्योत हुआ, देवों का मेलासा लग गया, देवों का कल-कल नाद होने लगा, वहाँ का सारा आकाशमंडल हलचल से व्याप्त हो गया। विवेचन ---भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति और उसका महत्त्व- प्रस्तुत सूत्रत्रय में भगवान् को प्राप्त हुए केवलज्ञान का वर्णन है। इन तीनों सूत्रों में मुख्यतया तीन बातों उल्लेख का किया गया है (1) केवलज्ञान कब, कहाँ, कैसी स्थिति में, किस प्रकार का प्राप्त हुआ ? (2) केवलज्ञान होने के बाद भगवान् किसरूप में रहे, किन गुणों से और किन उपलब्धियों से युक्त बने। (3) भगवान् के केवलज्ञान केवलदर्शन का सभीप्रकार के देवों पर क्या प्रभाव पड़ा ?' राजप्रश्नीय सूत्र के अन्तिम सूत्र में इसी तरह का पाठ मिलता है / कल्पसूत्र में भी हूबहू इसी प्रकार का पाठ उपलब्ध है। केवलज्ञान साधक-जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। केवलज्ञान होने पर अन्दरबाहर सर्वत्र उसके प्रकाश से भूमण्डल जगमगा उठता है। आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है, आत्मा विशुद्ध निर्मल और निष्कलुष बन जाता है। चार घाती कर्म तो सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं / साधक अब स्वयं पूर्ण ज्ञानी, सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् बन जाता है / 'कट्ठकरणसि' आदि पदों का अर्थ--'कट्ठकरणं = काष्टकरण नामक एक क्षेत्र / भुत्तं-पोतं = खाया हुआ, पीया हुआ / आवीकम्मं = प्रकट में किया हुआ कर्म / रहोकम्म = गुप्त कार्य, एकान्त में किया हुआ कर्म / मणोमाणसियं = मन के मानसिक भाव। णेष्वाणे = निर्वाण या अज्ञानदुःख-निवृत्ति / 1. आचारांग मूलपाठ के टिप्पण 10 277 / 2. "नएणं से भगवं अरहा जिणे "जाणिहिइ "तक कई मणोमाणसियं खइमं भत्तं पडिसेवियं आवीकम्म रहोकम्म अरहा अरहस्सजोगे तंतं मणवायकायजोगे बद्रमाणाणं सव्वलोए सम्बजीवाणं सब्वभाए जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सह।" राजप्रश्नीय अन्तिम सत्र पाठ, (ख) कल्पसूत्र पाठ मू० 12 3. (क) पाइअ-सद्दमहण्णवो पृ० 215 / (ख) अर्थागम खण्ड-१ (आचारांग) पृ० 158-156 / Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भगवान की धर्म देशना 775. ततो गं' समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खती, ततो पच्छा माणुसाणं / 775. तदनन्तर अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान द्वारा अपनी आत्मा और लोक को सम्यक्प्रकार से जानकर पहले देवों को, तत्पश्चान् मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया। विवेचन... भगवान् द्वारा धर्माख्यान-प्रस्तुत सूत्र में तीन बातों का विशेषतः उल्लेख किया है-(१-२) केवलज्ञान-केवलदर्शन होने के पश्चात् स्वयं लोक को जानकर भगवान् ने धर्मोपदेश दिया है, (3) पहले देवों और फिर मनुष्यों को धर्म व्याख्यान दिया। (2) अभिसमिक्ख =जानकर, धम्ममाइक्खंती-धर्म का आख्यान-कथन-उपदेश किया। पंचमहाव्रत एवं षड्जीव निकाय की प्ररुपणा 776. ततो णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाणसणधरे गोतमादोणं समणाणं णिग्गथाणं पंच महब्बयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई आइक्खति भासति परवेति, तंजहा-पुढवीकाए जाव तसकाए। 776. तत्पश्चात् केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को (लक्ष्य करके) भावना सहित पंच-महाव्रतों और पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक-षड्जीवनिकायों के स्वरूप का व्याख्यान किया। सामान्य-विशेष रूप से प्ररूपण किया। विवेचन-भावना सहित पंचमहाव्रत एवं षड्जीवनिकाय का उपदेश-प्रस्तुत सूत्र में तीन बातों का मुख्यतया उल्लेख किया गया है--(१) भ० महावीर द्वारा किनको लक्ष्य करके उपदेश दिया गया ? अर्थात्-श्रोता कौन थे? (2) उनके धर्माख्यान के विषय क्या-क्या थे? (3) उपदेश की शैली तथा क्रम क्या था ? 1. 'ततो पच्छा माणसाणं' के बदले पाठान्तर है तो पच्छा मणुसाण / 2. आचा० मू० पा० टि० पू० 278 / 3. आचा. चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 278 / 4. महब्वयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई के बदले पाठान्तर है ---महत्वयाई छज्जीवणिकायाई सभावणाई। 4. (क) आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 278 / (ख) तुलना कीजिए --'तएणं से भगवं तेण अत्तरेणं केवलवरणाणं दसणेणं सदेवमणुआसुरलोग अभिसमिच्चा समणाणं णिश्राण पंचमहब्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकाए धम्म देसमा विहरिस्सइ / " -स्थानांग सूत्र स्था०६ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 777 363 ‘आइक्खति, भासेति, परूवेति' इन तीन क्रिया पदों में अन्तर---यों तो तीनों क्रियापद समानार्थक प्रतीत होते हैं, परन्तु प्राकृत शब्दकोष के अनुसार इनके अर्थ में अन्तर है आइति' का अर्थ है--सामान्यरूप से कथन करता है, 'भासेति' का अर्थ है-विशेषरूप से व्याख्या करता है और 'परूवैति' का अर्थ है-सिद्धान्त और तद्व्यतिरिक्त वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करता है / ये तीनों क्रिया पद भगवान द्वारा दिये गए उपदेश की शैली एवं क्रम को सुचित करते हैं।' प्रथम महाव्रत 777. पढम भंते ! महब्वयं पच्चक्खामि सवं पाणातिवातं / से सुहम वा बायरं वा तसं वा थावरं वा णेव सयं पाणातिवातं करेज्जा 3' जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा / तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि / / 777. भंते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात (हिंसा) का प्रत्याख्यान ---- त्याग करता हूँ। मैं सूक्ष्म-स्थूल (बादर) और त्रस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात (हिंसा) करूगा, न दूसरों से कराऊंगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनमोदन समर्थन करूगा; इस प्रकार मैं यावज्जीवन तीन करण से एवं मन-वचन काया मे--तीन योगों से इस पाप से निवृत्त होता हूँ। हे भगवन ! मैं उस पूर्वकृत पाप (हिंसा) का प्रतिक्रमण करता, (पीछे हटता) हूँ,(आत्म-साक्षी से--) निन्दा करता हूं, और(गुरु साक्षी से—) गर्दा करता हूं; अपनी आत्मा से पाप का व्युत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूं।" विवेचन--प्रथम महावत को प्रतिज्ञा का रूप-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् द्वारा उपदिष्ट प्रथम महाबत---प्राणातिपात-विरमण (अहिंसा) की प्रतिज्ञा का रूप दिया गया है। इसमें मुख्यतया 3 बातों का उल्लेख है--(१) हिस्य जीवों के मुख्य प्रकार का (2) प्राणातिपात का जीवनभर तक, तीन करण-(कृत-कारित-अनुमोदन) से तथा तीन योग (मन-वचन-काया) से सर्वथा त्याग का, और (3) पूर्वकाल में किये हुए प्राणातिपात आदि के पाप का प्रतिक्रमण, आत्म-निन्दा, गर्दा और व्युत्सर्ग का / 1. (क) पाइअसहमण को पृ० 101, 650, 668 // (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 278 / / 2. पढम भते ! महव्वयं के बदले पाठान्तर है.-पढमे भते ! मह स्व ए। 3. '3' का अंक अवशिष्ट दो कारणों-कारित और अनुमोदित का सूचक है। जैसे-'नेवऽअण्णं पाणातिवातं कारवेज्जा, अण्ण पि पाणातिवात करत ण समण जाणेज्जा।' इतना पाठ यहाँ समझना चाहिए। देखें 1. 'क्यसा' के बदले पाठान्तर है--'वायसा' / 5. गरहामि' के बदले पाठान्तर है.-'गरिहामि / ' (क) आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ. 276 (ख) तुलना कीजिए-दशवकालिक अ० 8 सू० 11 Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध प्राणातिपात आदि शब्दों की व्याख्या-हिंसा से स्थूल दृष्टिवाले लोग केवल हनन अथवा करना अर्थ ही समझते हैं, इसीलिए तो शास्त्रकार ने यहाँ 'प्राणातिपात' शब्द मूलपाठ में रखा है / प्राणातिपात का अर्थ है प्राणों का अतिपात--नाश करना। प्राण का अर्थ (यहाँ केवल श्वासोच्छ्वास या प्राण-अपानादि पंचप्राण नहीं है, अपितु 5 इन्द्रिय, 3 मन-वचन-कायाबल, श्वासोच्छ्वास और आयुबल, यों दस प्राणों में से किसी भी एक या अधिक प्राणों का नाश करना प्राणातिपात हो जाता है। वर्तमान लोकभाषा में इसे हिंसा कहते हैं। स्थूलदष्टि वाले अन्यधर्मीय लोग स्थूल आंखों से दिखाई देने वाले (अस) चलते-फिरते जीवों को ही जीवमानते हैं, एकेन्द्रिय जीवों को नहीं, इसलिए यहाँ मुख्य 4 प्रकार के जीवों-सूक्ष्म, बादर, स्थावर और अस का उल्लेख किया है / पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय के एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं और द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को अस कहते हैं / सूक्ष्म और बादर-ये दोनों विशेषण एकेन्द्रिय जीवों के हैं। जावज्जीवाए आजीवन कृत कारित और अनुमोदन-ये तीन करण और मन-वचन और काया का व्यापार ये तीन योग कहलाते हैं।' सव्वंपाणातिपातं = सर्वथा सभी प्रकार के प्राणातिपात का त्यागअहिंसा महानत है / प्रथम महाव्रत और उसकी पांच भावना 778. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति' [1] तत्थिमा पढमा भावणा-रियासमिते से णिग्गंथे, णो अणरियासमिते ति / केवली बूया-इरियाअसमिते से णिग्गंथे पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणेज्ज वा वत्तेज्ज वा परियावेज्ज वा लेसेज्ज वा उद्दवेज्ज वा / इरियासमिते से णिग्गंथे, णो इरियाअसमिते त्ति पढमा भावणा। 1. (क) दशवै० अ० 4, सू० 11 जि. चू० पृ० 146, अग० चू० पृ० 80 हारि० टी० पृ० 144 (ख) दशवै० जि. चू० 146, हारि० टीका पृ० 144, 145, अग० चू० 80-81 2. (क) देखिये, अहिंसा महाव्रत का लक्षण- योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य) प्रकाश 1120 (ख) प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिसा-तत्त्वार्थ सूत्र अ० 713 सू० (ग) जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाबतम्- योग-दर्शन, पाद २/सू० 311 महाबत जाति देश काल और समय (कुलावार) के बंधन से रहित सार्वभौम मर्वविषयक होते हैं। 3. 'भवंति' के आगे पाठ हे--'भवंति, तं जहा' 4. महाव्रत की पच्चीस भावनाओं के सम्बन्ध में चर्णिकार सम्मन पाठ प्रस्तुन पाठ से भिन्न है। तथा इस प्रकार का पाठ आवश्यक चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन 10 143-147 में भी मिलता है। देखें आचाल मू० पा० टिप्पण पृ० 275-80-81 5, 'रियासमिते' के बदले पाठान्तर है-'इरियासमिए' 'इरियासमिते' 6. 'इरिया असमिते' के बदले पाठान्तर हैं-.-'अइरियासमिते', 'अणहरियासमिते।' 7. 'इसके बदले 'इरियाअसमिते' पाठान्तर है। Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 778-76 401 [2] अहावरा दोच्चा भावणा-पणं परिजाणति से णिग्गंथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेदरे भेदकरे अधिकरणिए पादोसिए पारिताविए पाणातिवाइए' भूतोवघातिए तहप्पगारं मणं णो पधारेज्जा। मणं परिजाणति से णिग्गंथे, जे य मणे अपावए त्ति दोच्चा भावणा। [3] अहावरा तच्चा भावणा-वई परिजाणति से णिग्गंथे, जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूतोवघातिया तहप्पगारं वई णो उच्चारेज्जा / जे वइं परिजाणति से णिग्गंथे जा य वह अपाविय त्ति तच्चा भावणा। [4] अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिते से णिग्गंथे, जो अणादाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिते / केवली बूया-आदाणभंडनिक्खेवणाअसमिते से णिग्गंथे पाणाई भताई जीवाई सत्ताई अभिहणेज्ज वा जाव उद्दवेज्ज वा। तम्हा आयाणभंडणिक्खेवणासमिते से णिग्गंथे, जो अणादाणभंडणिक्खेवणासमिते त्ति चउत्था भावणा। [5] अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, जो अणालोइयपाण भोयणभोई / केवली बूया-अणालोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे पाणाणि' या भूताणि वा जीवाणि वा सत्ताणि वा अभिहणेज्ज वा जाव उद्दवेज्ज वा / तम्हा आलोइयपाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, णो अणालोइयपाण-भोयणभोई त्ति पंचमा भावणा। 776. एताव ताव महत्वयं (ए) सम्म काएण फासिते पालिते तोरिए किट्टिते अवट्ठिते आणाए आराहिते यावि भवति / पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवातातो वेरमणं / 778. उस प्रथम महावत की पांच भावनाएं होती हैं (1) उसमें से पहली भावना यह है निर्ग्रन्थ ईर्थासमिति से युक्त होता है, ईर्यासमिति से रहित नहीं। केवली भगवान् कहते हैं-ईर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव, और सत्त्व का हनन करता है, धूल आदि से ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या पीड़ित करता है / इसलिए निम्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे, ईर्यासमिति से रहित हो कर नहीं / यह प्रथम भावना है। (2) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है -मनको जो अच्छी तरह जानकर पापों से 1. 'पाणातिवाइए' के बदले पाठान्तर है.- 'पाणातिवाते', 'पाणातिवातं / ' 2. 'पधारेज्जा' के बदले पाठान्तर है--'पहारेज्जा / ' 3. 'अपाविय' के बदले पाठान्तर है-'पाविय' 'अपाविय।' 4. 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिते' के बदले पाठान्तर है—आयाणभडनिक्खवणासमिए।' अणादाणभडमत्तनिक्खेवणासमिते' के बदले पाठान्तर है--'नो आयाणभड निक्खेवणाअसमिए।" 6. 'पाणाणि' के बाद भूयाणि आदि के बदले इस प्रकार के पाठान्तर मिलते हैं—'पाणाणि वा सत्ताणि वा अभि / पाणाइ वा जीवाणि वा अभिहणेज्ज"। 7. 'एत्ताव ताव महब्वयं' के बदले पाठान्तर है—'एताव ताव महब्वए' 'एत्तावता महव्वतं / ' Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध से हटाता है / जो मन पापकर्ता, सावद्य (पाप ने युक्त) है, क्रियाओं से युक्त है कर्मों का आस्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी है, क्लेश-द्वेषकारी है परितापकारक है। प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। इसप्रकार के मन (मानसिक विचारों) को धारण (ग्रहण) न करे। मन को जो भलीभांति जान कर पापमय विचारों से दूर रखता है, वही निर्ग्रन्थ है। जिसका मन पापों (पापमय विचारों) से रहित है,' (वह निर्ग्रन्थ है।) यह द्वितीय भावना है। (4) इसके अनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक वचन का स्वरूप भलीभांति जान कर सदोषवचनों का परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, कर्मों का-आस्रवजनक, छेदन भेदनकर्ता, क्लेश द्वेषकारी है, परितापकारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है; साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को भलीभांति जानकर सदोष वाणी का परित्याग करता है, वही निग्रन्थ है / उसकी वाणी पापदोष रहित हो, यह तृतीय भावना है। (4) तदनन्तर चौथी भावना यह है- जो आदानभाण्डमात्र निक्षेपण समिति से युक्त है, वह निर्गन्थ है। केवली भगवान् कहते है - जो निम्रन्थ आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणसमिति से रहित है. वह प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का अभिघात करता है, उन्हें आच्छादित कर देता है—दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है या पीड़ा पहुंचाता है। इसलिए जो आदान-भाण्ड (मात्र) निक्षेपणा समिति से युक्त है, वही निग्रंथ है, जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणा समिति से रहित है, वह नहीं। यह चतुर्थ भावना है। (5) इसके पश्चात् पाँचवी भावना यह है-जो साधक आलोकित पान-भोजन-भोजी होता है, वह निम्रन्थ होता है, अनालोकित-पान-भोजन-भोजी नहीं / केवली भगवान् कहते हैं--जो बिना देखे-भाले ही आहार-पानी गवन करता है, वह निग्रंथ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुंचाता है। अत: जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखे-भाले. आहार पानी करने वाला नहीं। यह पंचम भावना' है। 776. इस प्रकार पंचभावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया में स्पर्श करने पर, उसका पालन करने पर, गृहीत महाबत को भलीभांति पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर, उसमें अवस्थित रहने पर, भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। हे भगवन् ! यह प्राणातिपातविरमणरूप प्रथम महाबत है। विवेचन-प्रथम महाव्रत को पांच भावनाएं--प्रस्तुत सूत्र 778 में प्रथम महाव्रत की पांच भावनाओं का सांगोपांग निरूपण है। तथा सू० 776 में पांच भावनाओं से समन्वित प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना कैसे हो सकती है ? इसके लिए 5 क्रम बताए हैं-(१) स्पर्शना, Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 778-76 403 (2) पालना, (3) तीर्णता, (4) कीर्तना और (5) अवस्थितता। सर्वप्रथम सम्यक् श्रद्धा-प्रतीति पूर्वक महाव्रत का ग्रहण करना स्पर्शना है, ग्रहण के बाद उसका शक्तिभर पालन करना उसका सुरक्षण करना पालना है। उसके पश्चात् जो महाबत स्वीकार कर लिया है, उसे अन्त तक पार लगाना, चाहे उसमें कितनी ही विघ्न-बाधाएं, रुकावटें आएं, कितने ही भय या प्रलोभन आएं, परन्तु कृत निश्चय से पीछे न हटना, जीवन के अन्तिमश्वास तक उसका पालन करनातीर्ण होना है। साथ ही स्वीकृत महाब्रत का महत्त्व समझ कर उसकी प्रशंसा करना, दूसरों को उसकी विशेषता समझाना-कीर्तन करना है। कितने ही झंझावात आएँ, भय या प्रलोभन आएं गृहीत महाब्रत में डटा रहे, विचलित न हो-यह अवस्थितता है। भावना क्या और किसलिए-चूर्णिकार ने विवेचन करते हुए कहा है-आत्मा को उन प्रशस्त भावों से भावित करना भावना है। जैसे शिलाजीत के साथ लोहरसायन की भावना दी जाती है, कोद्रव की विष के साथ भावना दी जाती है, इसीप्रकार ये भावनाएँ हैं। ये चारित्र भावनाएं हैं / महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु ये भावनाएं बताई गई है। प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं प्रस्तुत में संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) ईर्यासमिति से युक्त होना, (3) मन को सम्यक् दिशा में प्रयुक्त करना, (3) भाषा समिति या वचनगुप्ति का पालन करना, (4) आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेपणासमिति का पालन करना और (5) अवलोकन करके आहार-पानी करना / समवायांग सूत्र में इसी क्रम से प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएँ बताई गई हैं-"पुरिमपच्छिममाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीस भावणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-'इरियासमिई, मणगुत्ती, वयगुत्ती, आलोयभायणभोयणं, आदाणमंडमत्तनिवखेवणासमिई।" आवश्यक सूत्र चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन में पांच भाववाओं का इस प्रकार का क्रम मिलता है- "इरियासमिए' सया जते, उवेह भुजज्ज य पाणभोयणं / ___ आदाणनिक्खेव दुगुछ संजते, समाधिते संजमती मणो-वयी // 1 // आचारांगचूर्णिकार ने पांचों महाव्रतों में से प्रत्येक की क्रमशः पांच-पांच भावनाएँ बताई हैं। वह पाठ वृत्तिकार शीलाचार्य सम्मत पाठ से कुछ भिन्नता रखता है। चूर्णिकार सम्मत क्रम इस प्रकार है-(१) ईयसमिति युक्त हो, (2) आलोकित पान-भोजन-भोजी, 1. चूर्णिकार सम्मत पाठ में प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना के लिए कुछ अतिरिक्त पाठ भी है-- 'इच्चताहि पचहि भावणाहिं पढम महन्वतं अहासतं अहाकल्प अहामग्ग अहातच्च सम्म काएण फासितं पालितं सोभितं तीरितं किट्टित आराहित आणाए अणुपालितं भवति / "- इन पांच भावनाओं से प्रथम महाव्रत यथासूत्र यथाकल्प यथामार्ग यथातथ्य रूप में काया से सम्यक् स्पशित, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित अनुपालित होने पर आज्ञा से आराधित हो जाता है।-सं० / 'आचारांग चूणि मू० पा० टि 10 २७८'-तम्हा वुत्ते पढममहत्वए। तस्य उपबू धनार्थ. भावनादर्शना / भावनाचोक्ता। चारित्रस्य भावनेयमुपदिष्ट्यते। भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो: आयसं भावनं, विषस्य कोद्र वा / सिद्धार्थ गाहा / एवं इमाभावना।' 4. समवायांग सूत्र 5. आवश्यक चणि प्रतिक्रमणाध्ययन पृ०-१४३ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध (3) आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेपणासमिति से युक्त हो, (4; मनःसमिति से युक्त हो, (5) वचन समिति से युक्त हो। तत्त्वार्थ सूत्र में अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है-१. वचनगुप्ति, 2. मनोगुप्ति, 3. ईर्यासमिति, 4. आदान निक्षेपण समिति और 5. आलोकित पानभोजन / द्वितीय महाव्रत और उसको पाँच भावना 780. अहावरं दोच्चं भंते !] महव्ययं पच्चक्खामि सव्वं मुसाबायं वदोस / से कोहा वा लोभा वा भया वा हासा वा णेव सयं मुसं भासेज्जा, णेवण्णणं मुसं भासावेज्जा अण्णपि मसं भासंतं ण समणुजाणेज्जा तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा। तस्स भंते ! पडिक्कमामि जाव बोसिरामि। 781. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति - [1] तत्थिमा पढमा भावणा अणुवीय भासी से जिग्गंथे, णो अणणुवीय भासी / केवली बूया-अणणुवोयि भासी से णिग्गंथे समावज्जेज्ज मोसं वयणाए / अणुवीयि भासी से निग्गंथे, जो अणणुवीयि भासि ति पढमा भावणा। [2] अहावरा दोच्चा भावणा कोधं परिजाणति से निग्गंथे, णो कोधणे सिया। केवली बूया-कोधपत्ते कोही समावदेज्जा मोसं वयणाए। कोधं परिजाणति से निम्नथे, णो य कोहपाए सि [य] त्ति दोच्चा भावणा। [3] अहावरा तच्चा भावणा -लोभं परिजाणति से णिग्गंथे, णो य लोभणाए" सिया। केवली बूया-लोभपत्त लोभी समाववेज्जा मोसं वयणाए / लोभं परिजाणति से णिग्गंथे, णो य लोभणाए सि [य] त्ति तच्चा भावणा / [4] अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणति से निग्गंथे, णो य भयभीरुए सिया। 1. आवारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० २७६...."ईरियासमिए से निग्गथे..", आलोइय पाण भोयणभोयी से निग्गंथे."आदाण-भंडमत्त-निक्खेवणासमिए से निम्गथे..", मणसमिए से निग्गथे...व इसमिए से निर्मथे...।' 2. वाङ मनोगुप्तोर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकित-पान-भोजनानि पंच। तत्वार्थ० अ०७/८ म. आ० 337 3. दशवकालिक सूत्र 3-4 के पाठ से तुलना कीजिए। 4. 'पच्चक्खामि' के बदले पाठान्तर है-'पच्चाइक्खामि / ' 5. 'समाजाणेज्जा' के बदले पाठान्तर है---'समणुमन्ने / ' 6. 'तिविहेण' के बदले 'तिविह' पाठान्तर है। 7. 'वयसा के बदले पाठान्तर है—'बायसा' 8. 'अणवीयि के बदले पाठान्तर है-'अणवीयो।' अर्थ समान है। 6. 'कोधपत्ते के बदले पाठान्तर है--'कोधपत्ते' 10. 'कोहणाहे के बदले पाठान्तर है-कोहणए' 11. 'लोभणाएं' के बदले पाठान्तर है-लोभणए / ' Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 780-82 केवलो बूया-भयपत्ते भीरू समावदेज्जा मोसं वयणाए / भयं परिजाणति से निग्गंथे, णो य भयभीरुए सिया, चउत्था भावणा। 5) अहावरा पंचमा भावणा-हासं परिजाणति से निग्गंथे, णो' य हासणाए सिया। केवली बूया-हासपत्ते हासी समावदेज्जा मोसं वयणाए / हासं परिजाणति से णिग्गथे, णो य हासणाए सिय त्ति पंचमा भावणा / 782 एताव ताव दोच्चे| महब्बए सम्म काएणं फासिते जाव आणाए आराहिते यावि भवति। दोच्चं भंते ! महब्वयं [मुसावायातो बेरमणं। 780. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं सब प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। (इस सत्य महावत के पालन के लिए) साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा (असत्य) बोले, न हो अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण कराए और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे / इस प्रकार तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मुषावाद का सर्वथा त्याग करे। इस प्रकार मुषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ. आलोचना करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूं, गरुसाक्षी से गर्दा करता हूं, और अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। 781. उस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं [1] उन पांचों में से पहली भावना इस प्रकार है-वक्तव्य के अनुरूप चिन्तन करके बोलता है, वह निम्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निर्गन्थ नहीं / केवली भगवान् कहते हैं—बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अतः वक्तव्य विषय के अनुरूप चिन्तन करके बोलनेवाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं / यह प्रथम भावना है। [2] इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का कटुफल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए / केवली भगवान् कहते हैं---क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं। यही द्वितीय भावना है। 1. 'णो य हासणाए' के बदले पाठान्तर है-'यो य भासणाए', 'णो भासणाए।' 2. एताव ताव (दोच्चे) महम्वए के बदले पाठान्तर हैं-'एतावत्ताव महत्वए', 'एतावता महन्वए' 'एताव महव्यए" एलाव ताव महस्वए, अर्थ प्रायः समान है। Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध [3] तदनन्तर तृतीय भावना यह है---जो साधक लोभ का दुष्परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है; अतः साधु लोभग्रस्त न हो। केवली भगवान् का कथन है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभावेशवश असत्य बोल देता है। अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्गन्थ हैं, लोभाविष्ट नहीं। यह है --तीसरी भावना। [4] इसके बाद चौथी भावना यह है-जो साधक भय का दुष्फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए / केवली भगवान का कहना है-भय-प्राप्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है। अतः जो साधक भय का यथार्थ अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग देता है, वही निम्रन्थ है, न कि भयभीत / यह चौथी भावना है। (5) इसके अनन्तर पांचवीं भावना यह है जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अतएव निर्ग्रन्थ को हंसोड़ नहीं होना चाहिए अर्थात् हंसी-मजाक करने वाला न हो। केवली भगवान् का कथन है-- हास्यवश हंसी करनेवाला व्यक्ति असत्य भी बोल देता है। इसलिए जो मुनि हास्य का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका त्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि हंसी-मजाक करने वाला ! यह पांचवीं भावना है। 782. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत मृषावादविरमणरूप द्वितीय सत्यमहाव्रत का काया से सम्यक्स्पर्श (आचरण) करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने एवं उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। भगवन् ! मृषावादविरमणरूप द्वितीय महावत है। विवेचन--द्वितीय महाव्रत की प्रतिज्ञा तथा उसको पंच भावनाएं प्रस्तुत सूत्रत्रय में तीन बातों का मुख्यतया उल्लेख किया गया है---(१) पहले सूत्र में द्वितीय महाव्रत की प्रतिज्ञा का स्वरूप, (2) दूसरे में पांच विभाग करके उसकी पांच भावनाओं का क्रमशः वर्णन, और (3) तीसरे में-उसकी सम्यक् आराधना का उपाय / प्रतिज्ञा का स्वरूप और उसकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए / पांच-भावनाओं का महत्त्व भी पूर्ववत् हृदयंगम कर लेना चाहिए। सत्य-महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं-(१) वक्तव्यानुरूप चिन्तनपूर्वक बोले, (2) क्रोध का परित्याग करे, (3) लोभ का परित्याग करे, (4) भय का परित्याग करे, और (5) हास्य का परित्याग करे। चूर्णिकार ने प्राचीन पाठ परम्परा का कुछ भिन्न एवं भिन्नक्रम का, किन्तु इसी आशय का पाठ प्रस्तुत किया है। तदनुसार संक्षेप में पंच भावनाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं--(१) हास्य 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 284 / Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 780-82 407 का परित्याग, (2) अनुरूप चिन्तनपूर्वक भाषण, (3) क्रोध का परित्याग, (4) लोभ का परित्याग, और (5) भय का परित्याग / ' आवश्यक चूर्णि में भावनाओं का क्रम इस प्रकार है---२ _ 'अहस्ससच्चे अणुवीय भासए, जे कोह-लोह-भय-मेव वज्जए / से दोहरायं समुपेहिया सिया, मुणो हु मोसं परिवज्जए सिया // 2 // तत्वार्थ सूत्र में सत्य महाव्रत की पंच भावनाएं यों हैं---क्रोध, लोभ, भीरुत्व एवं हास्य का प्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण / इसीप्रकार समवायांगसूत्र में इसी आशय की 5 भावनाएं निर्दिष्ट है। 'अणुवीयिभासो' आदि पदों की व्याख्या-अणुवीयिभासी का अर्थ वृत्तिकार न किया हैजो कुछ बोलना है या जिसके सम्बन्ध में कुछ कहना है, पहले उसके सन्दर्भ में उसके अनुरूप विचार करके बोलना / बिना सोचे विचारे यों ही सहसा कुछ बोल देने या किसी विषय में कुछ कह देने से अनेक अनर्थों की सम्भावना है / बोलने से पूर्व उसके इष्टानिष्ट, हानि-लाभ, हिताहित परिणाम का भलीभाँति विचार करना आवश्यक है। चूणिकार 'अणुवीयिभासी' का अर्थ करते हैं - 'पुरवं बुद्धीए पासित्ता' अर्थात्-पहले अपनी निर्मल व तटस्थ बुद्धि से निरीक्षण करके, फिर बोलने वाला। अनवीचीभाषण का अर्थ तत्त्वार्थसूत्रकार करते हैं-निरवद्यनिर्दोष भाषण। इसीप्रकार क्रोधान्ध, लोभान्ध और भयभीत व्यक्ति भी आवेश में आकर कुछ का कुछ अथवा लक्ष्य से विपरीत कह देता है। अत: ऐसा करने से असत्य-दोष की सम्भावना है / हंसी-मजाक में मनुष्य प्रायः असत्य बोल जाया करता है। वैसे भी किसी की हंसी उड़ाना, कलह, परिताप, असत्य, क्लेश आदि अनेक अनर्थों का कारण हो जाता है / चुर्णिकार कहते हैं क्रोध में व्यक्ति पुत्र को अपुत्र कह देता है, लोभी भी कार्य-अकार्य का अनभिज्ञ होकर मिथ्या बोल देता है, भयशील भी भयवश अचोर को चोर कह देता है। द्वितीय महाव्रत की सम्यक् आराधना के लिए भी वही पूर्वोक्त चूणिसम्मत पाठ और उसका आशय पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 2. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि०१० 280--- "हास परियाणति से निग्गंथे."अणुवीइभासए से निग्गथे कोधं परियाणति से निग्गंथे..., लोभं परियाणति में निग्गथे... भयं परियाणति से निग्गथे / ' 2. आवश्यक चणि, प्रतिक्रमणाऽध्ययन प० 183-147 / 3. "क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीची भाषणं च पंच।" -तत्वार्थ० 7.5 अनुवीति भासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे / -समवायांग सूत्र (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 825 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ. 283 (ग) तत्वार्थ सर्वार्थसिद्धि टीका ७/४-अनुवीचीभाषण-निरवद्यानु भाषणमित्यर्थः / 6. चूर्णिकार सम्मत सम्यगाराधना के उपाय के सम्बन्ध में पाट देखिये -आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. 280-81 Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध तृतीय महावत और उसकी पाँच भावना 783. अहावरं तच्चं [भंते !] महब्वयं पच्चाइक्खामि' सव्वं अदिण्णादाणं / से गामे वा नगरे वा अरण्णे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंत वा अचित्तमंतं वा णेव सयं अविष्णं गेण्हेज्जा, णेवऽण्णं अदिण्णं गेण्हावेज्जा, अण्णं पि अदिण्णं गेण्हतं ण समणुजाणेज्जा जावज्जोवाए जाव वोसिरामि।। 764. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति [1] तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीयि मितोग्गहजाई' से निग्गंथे, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाई से णिग्गंथे / केवली बूया-अणणुवोयि मितोग्गहजाई से णिग्गंथे अदिण्णं गेण्हेज्जा / अणुवोयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे, जो अणणुबीयि मितोग्गहजाइ त्ति पढमा भावणा। [2] अहावरा दोच्चा भावणा-अणुण्णविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, णो अणणुण्णविय पाण-भोयणभोई / केवली बूया -अणणुण्णविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे अदिण्णं भजे. ज्जा। तम्हा अणुण्ण विय पाण-भोयणभोई से गिरगंथे, णो अणणुण्ण विय पाण-भोयणभोई ति दोच्चा भावणा। (3] अहावरा तच्चा भावणा-णिग्गथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि एताव ताव उग्गहणसीलए सिया। केवली बूया निग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि एत्ताव ताव अणोरगहणसीलो अदिण्णं ओगिण्हेज्जा, निग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि एताव ताव उग्गहणसोलए सिय त्ति तच्चा भावणा। [4] अहावरा चउत्था भावणा-निग्गथे णं उग्गहंसि उमाहितंसि अभिक्खणं 2 उग्गहणसीलए सिया। 1. 'पच्चक्खामि' के बदले पाठान्तर है--- ‘पच्चक्खाइस्सामि' अर्थ होता है.---"प्रत्याख्यान (त्याग) करूंगा। 2. 'चित्तमंतं बा अचित्तमंतं या' के बदले पाठान्तर है-चित्तमंतमचित वा।"-दशवकालिक सूत्र में भी 'चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा पाठ है, अ-४ में देखें। 3. 'णेवणं' के बदले पाठान्तर है-णेवण्णेहि / / 4. 'जावज्जीवाए जाव वोसिरामि' के बदले किसी-किसी प्रति में.--'जावज्जीवाए' तिविहं तिविहेणं मणण वायाए कारण वोसिरामि" पाठ है।' 5. 'अणुवीयि मितोम्गहजाई' के बदले पाठान्तर है---अणुवोति मितोग्गहजाई, अणुवीयिमिउग्गहजाई, अणुवीयिमित्तोग्महजाती।' 6. 'अणणुवीयि' के बदले—'अणणुवीयो' अणणुबीयि मित्तो "पाठान्तर है। 7. 'केवली बूया' के बदले पाठान्तर है-'केवली बया-आयाणमेयं' 8. 'उग्गहसि' के बदले पाठान्तर है 'उम्गहंसित्ता'---अवग्रह ग्रहण करके / 9. किसी-किसी प्रति में 'उग्गहियंसि' पाठ नहीं है। 10. 'एस्ताव ताव' के बदले पाठान्तर है--.'एस्ता (ता) बता।' 11. 'उग्गहणसीलए सिया' के बदले पाठान्तर है-उग्गहणसीलए जाव सिया उग्गहणसोले सिया' Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 785 406 केवली बूया-णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं 2 अणोग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हेज्जा, निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं 2 उग्गहणसीलए' सिय त्ति चउत्था भावणा। [5] अहावरा पंचमा भावणा-अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाई / केवली बूया-अणणुवीइ मितोम्गहजाई से निग्गथे साहम्मिएसु अदिण्णं ओगिण्हेज्जा / से अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाइ त्ति पंचमा भावणा। 785. एत्ताव' ताव [तच्चे] महन्वते सम्म जाव आणाए आराहिए यावि भवति / तच्च भंते ! महत्वयं [अदिण्णादाणातो वेरमण] / 783. "भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूं, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। वह इस प्रकार-- वह (ग्राह्य पदार्थ) चाहे गाँव में हो, नगर में हो, अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल (छोटा हो या बड़ा), सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण करूगा. न दूसरे से (बिना दिये पदार्थ) ग्रहण कराऊंगा, और न ही अदत्तग्रहण करनेवाले का अनुमोदन-समर्थन करूंगा, यावज्जीवन तक, तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूँ। साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूं, गुरु की साक्षी से उसकी 'गहीं' करता हूँ और अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूं। 784. उस तीसरे महाब्रत की ये 5 भावनाएँ हैं (1) उन पांचों में से प्रथम भावना इसप्रकार है--जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्गन्य है, किन्तु विना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करनेवाला नहीं। केवली भगवान् कहते हैं जो बिना विचार किये मितावग्रह की याचना करता है, वह निर्गन्थ अदत्त ग्रहण करता है / अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करनेवाला साधु निम्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचार किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला। इस प्रकार यह प्रथम भावना है। (2) इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है--गुरुजनों की अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि सेवन करनेवाला निग्रन्थ होता है, अनुज्ञा लिये बिना आहार-पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं / केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त किये 1. 'उग्गहणसीलए सियस्ति' के बदले पाठान्तर है—'उग्गहणसीलए यत्ति, उग्गणसीलए अस्ति, उग्गह सोलए सिस्ति / ' 2. 'एल्ताव ताव' महावते, के बदले पाठान्तर हैं----'एस्ताव महव्यते', एस्तावया महब्बते' 3. 'सम्म के बदले पाठान्तर है-'संजमं' Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का सेवन करता है। इसलिए जो साधक गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त करके आहार-पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अनुशाग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह हैदूसरी भावना। (3) अब तृतीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है--निर्ग्रन्थ साधु को क्षेत्र और काल के (इतना-इतना इस प्रकार के) प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करना चाहिए / केवली भगवान् कहते हैं-जो निम्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा (याचना) ग्रहण नहीं करता, वह अदत्त का ग्रहण करता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र काल की मर्यादा खोल कर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं। यह तृतीय भावना है। (4) इसके अनन्तर चौथी भावना यह है -निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् वार-वार अवग्रह अनुज्ञा-ग्रहणशील होना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान् कहते हैंजो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान दोष का भागी होता है / अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः पुन: अवग्रहानुज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए। यह चौथी भावना है / (5) इसके पश्चात् पांचवीं भावना इसप्रकार है---जो साधक सार्मिकों से भी विचार करके मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्गन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं / केवली भगवान् का कथन है-बिना विचार किये जो सार्मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे साधार्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है। अतः जो साधक सार्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वही निर्ग्रन्थ कहलाता है, बिना विचारे सार्मिकों से मर्यादित अवग्रहयाचक नही। इसप्रकार की पंचम भावना है। 785. इस प्रकार पंच भावनाओं में विशिष्ट एवं स्वीकृत अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने, गृहीत महाबत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। भगवन् ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महावत है। विवेचन-तृतीय महाव्रत की प्रतिज्ञा और उसको पाँच भावनाएं प्रस्तुत सूत्रत्रय में पूर्ववत् उन्हीं तीन बातों का उल्लेख तृतीय महाबत के सम्बन्ध में किया गया है—(१) तृतीय महाव्रत की प्रतिज्ञा का रूप, (2) तृतीय महाव्रत को पांच भावनाएँ और (3) उसके सम्यक् आराधन का उपाय / इन तीनों का विवेचन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।' 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 284-285-286 Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 785 411 अन्य शास्त्रों में भी पांच भावनाओं का उल्लेख-समवायांग सूत्र में इस महाव्रत की पंच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है-(१) अवग्रह की बारबार याचना करना, (2) अवग्रह की सीमा जानना, (3) स्वयं अवग्रह की बार-बार याचना करना, (4) सार्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञाग्रहण पूर्वक परिभोग करना, और (5) सर्वसाधारण आहार-पानी का गुरुजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना / / आचारांग चूणि सम्मत पाठ के अनुसार पंच भावनाएं इस प्रकार हैं-(१) यथायोग्य विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करे, (2) अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहणशील हो, (3) अवग्रह की क्षेत्र काल सम्बन्धी जो भी मर्यादा ग्रहण की हो, उसका उल्लंघन न करे, (4) गुरुजनों की अनुज्ञा ग्रहण करके आहारपानी आदि का उपभोग करे, (5) सार्मिकों से भी विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करे। __ आवश्यक चूणि सम्मत पंच भावना का क्रम यों है—(१) स्वयं बारबार अवग्रह याचना करे, (2) विचार-पूर्वक मर्यादित अवग्रह-याचना करे, (3) अवग्रह की गृहीत सीमा का उल्लंघन न करे (4) गुरु आदि से अनुज्ञा ग्रहण करके आहार-पानी का सेवन करे, (5) सार्मिकों से अवग्रह की याचना करे / / तत्त्वार्थसूत्र में भी इस महाव्रत की पंचभावनाएं इस प्रकार बताई गई हैं--(१) शून्यागारावास, (2) विमोचितावास, (3) परोपरोधकरण, (4) भैक्षशुद्धि और (5) सधर्माविसंवाद / पर्वत की गुफा और वृक्ष का कोटर आदि शून्यागार हैं, इनमें रहना शून्यागारावास है / दूसरों द्वारा छोड़े हुए मकान आदि में रहना विमोचितावास है। दूसरों को ठहरने से नही रोकना परोपरोधाकरण है। आचारशास्त्र में बतलाई हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना भैक्षशुद्धि है। 'यह मेरा है, यह तेरा हैं, इस प्रकार सार्मिकों से विसंवाद न करना सधर्माविसंवाद है / ये अदत्तादानविरमणब्रत की पांच भावनाएं हैं। अदत्तादान-विरमगवत को पंच भावनाओं को उपयोगिता-चूणिकार के अनुसार-अदत्तादान विरमणमहाव्रत की सुरक्षा के लिए एवं अदत्तादानग्रहण न करने के उद्देश्य से ये भावनाएं 1. समवायांग (सम. 25) का पाठ-१. 'उग्गहअणुण्णण बया, 2. उग्गहसीमजाणणया, 3. सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया 4. साहम्मिय उग्गहं अणण्णविय परिभंजणया, 5. साहारणभत्तपाणं अणुण्ण विय परिभंजणया। "आगंतारेसु 8 अणुवीई उम्गहं जाएज्जा से निग्गंथे, ..."उग्गहणसीलए से निग्गंथे... णो निग्गथे एत्ताव ताव उग्गहे, एत्ताव ताव आत्तमणसंकप्पे "अणुण्ण विय पाणभोयणभोई से निग्गंधे.. से आगंतारेस व 4 ओग्गहजायी से निग्गंथे साधम्मिएस.) --आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 280 3. सयमेव अ उग्गहजायण घड़े, मतियं णिसम्म सतिभिक्खु ओग्गह। अणुणविय भुजिज्ज पाणभोयणं, जाइत्ता साहिम्मियाण उन्महं / / 3 / / -आवश्यक चणि प्रतिक्रमणाध्ययन 143-147 5. "शुन्यागारविमोचितावास-परोपरोधाकरण-भक्षशुद्धि-सधर्माविसंवादा: पंच।" तत्त्वार्थ सवार्थसिद्धि 76 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निरूपित की गई हैं। यात्रीशालाओं आदि में ठहरते समय क्षेत्र-काल की 'मर्यादा का विचार करके उनके स्वासी या स्वामी द्वारा नियुक्त अधिकारी से अवग्रह की याचना करे, सदा अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहणशील साधक धास, ढेला, राख, सकोरा, उच्चार के स्थान आदि अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके प्राप्त करता है / जितने अवग्रह की अनुज्ञा ली हो, उतना ही कल्पनीय होता है / संघाड़े के साधुओं आदि से अनुज्ञा लेकर वस्तुओं का रत्नाधिक (छोटे-बड़े) क्रम के अनुसार उपभोग करे, गमनादि करे / सार्मिकों से अवग्रह-याचना करके वहाँ ठहरे, शयनादि करे।' चतुर्थ महाव्रत और उसको पांच भावनाएं 786. अहावरं चउत्थं (भंते !) महत्वयं 'पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं / से दिवं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा णेव सयं मेहुणं गच्छे (ज्जा), तं चेव, अदिण्णादाणवत्तवया भाणितव्वा जाव वोसिरामि'। 787. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति– (1) तत्थिमा पढमा भावणा-णो णिग्गंथे अभिक्खणं 2 इत्थीणं' कहं कहइत्तए सिया। केवली बूया-निग्गंथे णं अभिक्खणं 2 इत्थोणं कहं कहेमाणे संतिभेदा संतिविभंगा सतिकेवलिपण्णत्तातो धम्मातो भंसेज्जा। णो निग्गंथे अभिक्खणं 2 इत्थीणं कहं कहेइ (त्तए) सिय त्ति पढमा भावणा। (2) अहावरा दोच्चा भावणा--णो जिग्गंथे इत्थीणं मणोहराइं२° इंदियाइं आलोइत्तए णिज्झाइत्तए सिया। केवली बूया-निग्गंथे णं (इत्थीणं) मणोहराई 2 इंदियाई आलोएमाणे णिज्झाएमाणे संतिभेदा संतिविभंगा जाव धम्मातो भंसेज्जा, णो णिग्गंथे इत्थोणं मणोहराई 2 इंदियाई आलोइत्तए णिज्झाइत्तए सिय त्ति दोच्चा भावणा / (3) अहावरा तच्चा भावणा—णो णिग्गथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुग्वकोलियाई सुमरित्तए सिया / केवली बूया-निग्गंथे णं इत्थीणं पुवरयाई पुव्वकोलियाई सरमाणे संतिभेदा जाव विभंगा जावं भंसेज्जा / णो णिग्गंथे इत्थीणं पुज्वरयाई पुवकोलियाइं सरित्तए सिय ति तच्चा भावणा। 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ. 285 2. 'पच्चक्खामि' के बदले पाठान्तर है---"पच्चाइक्खामि' / " 3. 'इथोणं कहकह इत्तए' के बदले पाठान्तर है- "इत्थीकधकह इत्तए, इत्थीणं कहकहत्तिए। 4. किसी-किसी प्रति में 'अभिक्खणं' पद नहीं है। 5 णो जिग्गंथे....... सियत्ति' पाठ के स्थान पर पाठान्तर है. तम्हा णो निग्गंथे इत्थिोणं कहं कहेज्जा।" 6. 'कहइ(त्तए) सियति' के बदले पाठान्तर है-कहे सिय...'कहेइ सिय ति बेमि पढमा / " 7. मणोहराई के आगे 2 का अंक मणोरमाइपद का सूचक है। 8. जाव भंसेज्जा के बदले पाठान्तर हैं—'जाद भासेज्जा, 'जाव आभंसेज्ज जा भंसेज्जा।" Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-87 413 (4) अहावरा चउत्था भावणा-णातिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे, णो पणोयरसभोयणभोइ / केवली बूया--अतिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे पणीयरसभोयणभोइ त्ति संतिभेदा जाव भंसेज्जा / णातिमत्तपाण'-भोयणभोई से निग्गंथे, जो पणोतरस भोयणभोइ त्ति चउत्था भावणा। (5) अहावरा पंचमा भावणा—णो णिग्गंथे इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाई सेवित्तए सिया / केवली बूया--निगंथे णं इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाई सेवेमाणे संतिभेटा जाव भंसेज्जा। णो णिग्गंथे इत्थी-पस-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाड सेवित्तए सिय त्ति पंचमा भावणा। 788. एत्ताव ताव महव्वए सम्म काएण जाव आराधिते यावि भवति / चउत्थं भंते ! महत्वयं (मेहुणातो वेरमणं)। 786. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में समस्त प्रकार के मैथुन-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूंगा, न दूसरे से एतत् सम्बन्धी मैथुनसेवन कराऊंगा, और न ही मैथुन सेवन करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान-विरमण महावत विषयक प्रकरण के–'आत्मा से अदत्तादान-पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ, तक के पाठ के अनुसार समझ लेना चाहिए। 787. उस चतुर्थ महाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं [1] उन पांचों भावनाओं में पहली भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा (बातचीत) न कहे। केवली भगवान् कहते हैं बार-बार स्त्रियों की कथा कहनेवाला निर्ग्रन्थ साधु शान्तिरूप चारित्र का और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करनेवाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की कथा बार-बार नहीं करनी चाहिए। यह प्रथम भावना है। [2] इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है निम्रन्थ साधु काम राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेष रूप से न देखे / केवली भगवान् कहते हैं—स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को कामराग-पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामरागपूर्वक सामान्य अथवा विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए / यह दूसरी भावना है। 1. 'णातिमत्तपाण...' के बदले पाठान्तर है, .-'णो अतिमत्तपाण...' जो अतिमत्तपाणभोयणभोती। 2. सेवेमाणे के बदले पाठान्तर है-सेवमाणे Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [3] इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति (पूर्वाश्रम में की हुई) एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे / केवली भगवान् कहते हैं—स्त्रियों के साथ में की हुई पूर्वरति एवं पूर्वकृत-कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है। तथा शान्तिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हई पूर्वरति एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे। यह तीसरी भावना है। [4] इसके बाद चौथी भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपभोग करे / केवली भगवान् कहते है जो निग्रन्थ प्रमाण से अधिक (अतिमात्रा में) आहार-पानी का सेवन करता है, तथा स्निग्ध-सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, वह शान्ति रूप चारित्र का नाश करने वाला, शान्तिरूप ब्रह्मचर्य को भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो सकता है / इसलिए निग्रन्थ को अति मात्रा में आहार-पानी का सेवन या सरस स्निग्ध भोजन का उपभोग नहीं करना चाहिए। यह चौथी भावना है। [5] इसके अनन्तर पंचम भावना का स्वरूप इस प्रकार है--निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या (वसति) और आसन आदि का सेवन न करे। केवली भगवान् कहते हैं---जो निन्थ स्त्री-पशु-नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन करता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर देता है, शान्तिरूप ब्रह्मचर्य भंग कर देता है और शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / इसलिए निम्रन्थ को स्त्री-पशु-नपुंसक संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। यह पंचम भावना है। 788. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत मैथुन-विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। भगवन् ! यह मैथुन विरमणरूप चतुर्थ महाव्रत है। विवेचन-चतुर्थ महावत की प्रतिज्ञा और उसको पाँच भावनाएं--प्रस्तुत सूत्रत्रय में पूर्ववत् उन्हीं तीन बातों का उल्लेख चतुर्थ महावत के विषय में किया गया है-(१) चतुर्थ महाव्रत की प्रतिज्ञा का रूप, (2) चतुर्थं महाव्रत की पाँच भावनाएं, (3) उसके सम्यक् आराधन का उपाय / इन तीनों का विवेचन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।' अन्य शास्त्रों में पंच भावनाओं का उल्लेख-समवायांग सूत्र में इस क्रम से पंच भावनाओं का उल्लेख है-(१) स्त्री-पशु नपुसक-संसक्त शय्या और आसन का वर्जन, (2) स्त्री कथा विवर्जन, (3) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना, (4) पूर्वरत एवं पूर्वक्रीड़ित का स्मरण न करना, (5) प्रणीत (स्निग्ध-सरस) आहार न करना। 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण प० 287-288 / Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 786-61 415 आचारांग चूणि सम्मत पाठ के अनुसार 5 भावनाएं-(१) निर्ग्रन्थ प्रणीत पान-भोजन तथा अति मात्रा में आहार न करे, (2) निर्ग्रन्थ विभुषावर्ती न हो, (3) निर्ग्रन्थ स्त्रियों के मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को न निहारे, (4) निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन न करे, (5) स्त्रियों की (कामजनक) कथा न करे। ___आवश्यकचूणि में 5 भावनाओं का उल्लेख इसप्रकार है-(१) आहारगुप्ति, (2) विभूषावर्जन, (3) स्त्रियों की ओर न ताके (4) स्त्रियों का संस्तव-परिचय न करे, (5) प्रबुद्धमुनि क्षुद्र (काम) कथा न करे / तत्त्वार्थ सूत्र में भी 5 भावनाएं इस क्रम से बताई गई हैं—(१) स्त्रियों के प्रति रागोत्पादक कथा-श्रवण का त्याग, (2) स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, (3) पूर्वभुक्त-भोगों के स्मरण का त्याग, (4) गरिष्ठ और इष्ट-रस का त्याग तथा (5) शरीर संस्कार त्याग। इसी प्रकार स्थानांग सूत्र (हवें स्थान) में समवायांग सूत्र (6 वां समवाय) में तथा उत्तराध्ययन सूत्र (16 वां अध्ययन) में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का वर्णन में भी इन पाँच भावनाओं का समावेश हो जाता है।' 'पणियं' आदि शब्दों के अर्थ चूणिकार के अनुसार-पणियं = स्निग्ध / रुक्खमपि णातिबई == रूखा सूखा आहार भी अति मात्रा में सेवन न करे। संतिभेदा =चारित्र में भेद हो जाता है / संतिविभंगा = विविध भंग-विभंग चित्तविभ्रम हो जाता है। पंचम महाव्रत और उसको पांच भावनाएं 786. अहावरं पंचमं भंते ! महत्वयं 'सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खामि। से अप्पं वा (क) 1. "इत्यो-पसु-पंडग-संसत्तसयणासणवज्जया, 2. इत्थीकह विवज्जणया, 3. इत्थीणं इंदियाण मालोयणवज्जणया 4. पुन्वरयपुव्वकीलियाणं अणणुसरणया 5. पणीताहार विवज्जणया / " -समवायांग सूत्र--समवाय 25 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि• पृ० 280-"1. “णो पणीयं पाण-भोयणं अतिमायाए आहारेत्ता भवति से निग्गथे 2. ..."अविभूसाणवाई से निग्गंथे 3. ...'णो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइं निज्झाइत्ता भवति से निग्गंथे 4. णो इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणाऽऽसणाई सेवेत्ता भवइ से निग्गंथे 5. "जो इत्थीग कह कहेता भवति से निग्गंथे." (ग) आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थि ण णिज्झाई, न संथवेज्जा। बुद्ध मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं // 4 // -आवश्यक चणि, प्रतिक्रमणाऽऽध्ययन 10 143-147 (ध) "स्त्रीराग-कथा-श्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस--स्वशरीर-संस्कारत्यागा: पञ्च / " -तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि अ० 7/7 2. आचा० चुणि मू० पा० टि० पृष्ठ 286 -पणियं सिद्ध रुक्खमपि णातिबहं। संति विद्यते, भेद चरित्ताओ। विविधो भग विमंगः चित्तविभ्रम इत्यर्थः / धम्माओ भंस:--पतनमित्यर्थः अइणिद्ध ण। . Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध बहुं वा अणुं वा थुलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा व सयं परिगहं गेण्हेज्जा, वऽण्णणं परिग्गहं गेण्हावेज्जा, अण्णं वि परिग्गहं गेण्हतं ण समणुजाणेज्जा जाव वोसिरामि' / 760. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति-- (1) तत्थिमा पढमा भावणा-सोततो णं जीवे मणुण्णामणुण्णाई सदाइं सुणेति, मणुण्णामणुणेहि सद्देहि णो सज्जेज्जा णो रज्जेज्जा को गिज्झेज्जा जो मुझज्जा णो अज्झोववज्जेज्जा। केवली बूया- निग्गंथे णं मणुण्णामणुहि सद्देहि सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिधायमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवलिपणत्तातो धम्मातो भंसेज्जा। ण सक्का ण सोउं सद्दा सोत्तविसयमागया। राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 130 // सोततो जीवो मणुण्णामणुण्णाई सद्दाई सुति, पढमा भावणा / (2) अहावरा दोच्चा भावणा-चक्खूतो जीवो मणुण्णामणुण्णाई रुवाइं पासति, मणुण्णामणुणेहि रूवेहि (णो सज्जेज्जा णो रज्जेज्जा जाव णो विणिघातमावज्जेज्जा। केवली बूया-निग्गंथे गं मणुण्णामणुहिं रूहि) सज्जमाणे रज्जमाणे जाव संघा (विणिघा) यमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा जाव भंसेज्जा। ण सक्का रूवमट्ट चक्खूविसयमागतं / राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 131 // चक्खूतो जोवो मणुण्णामणुग्णाई रूवाई पासति त्ति दोच्चा भावणा। (3) अहावरा तच्चा भावणा-धाणतो जीवो मणुण्णामणुण्णाई गंधाइं अग्घायति, मषुण्णामणुपणेहि गंधेहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिधायमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा जाव भंसेज्जा। ण सक्का ण गंधमग्घाउं णासाविसयमागयं / राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥ 132 // घाणतो जीवो मणुण्णामणुण्णाई गंधाइं अग्घायति त्ति तच्चा भावणा / [4] अहावरा चउत्था भावणा-जिन्भातो जीवो मणुण्णामणुण्णाई रसाइं अस्सा 1. मण्णुण्णामण्णु ण्णइ सद्दाई के बदले पाठान्तर है-'मणुण्णामणुण्णसद्दाइ, मणुण्णाइ२ सद्दाइ, मणुण्णाईमणुण्ण सद्दाइ' मणुण्णाई सद्दाइ।" अज्झोववज्जेज्जा' के बदले पाठान्तर हैं-अज्झोवज्जेज्जा, अज्झोवदेज्जा 3. सोत विसय के बदले पाठान्तर हैं-.---'सोयविसय"..'सोत्तविसय।" 4. "भसेज्जा' के बदले 'भासेज्जा' पाठान्तर है 5. मद' के बदले पाठान्तर है-महठ्ठ।" 6. अग्घायति' के बदले 'अग्याति' पाठान्तर है। 7. जाब विणिग्याय ..... के बदले पाठान्तर हैं----'जाव णिग्धाय'...! 8. 'जिग्भातो' के बदले पाठान्तर है-'जीभातो', 'रसणतो / Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-61 417 देति, मणुणामणुहि रसेहि णो सज्जेज्जा णो रज्जेज्जा जाव णो विणिग्यातमावज्जेज्जा केवली बूया- निगथे णं मणुण्णामणुप्णेहि रसेहि सज्जमाणे जाव विणिग्यायमावज्जमाणे संतिभेदा जाव भंसेज्जा। ण सक्का रसमणासातु जीहाविसयमागतं / रोग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 133 // जोहातो जीवो मणुण्णामणुण्णाइं रसाइं अस्सादेति त्ति चउत्था भावणा। [5] अहावरा पंचमा भावणा-फासातो' जीवो मणुष्णामणुण्णाई फासाई पडिसंवेदेति, मणुण्णामणुग्णेहि फासेहि णो सज्जेजा, णो रज्जेजा, णो गिज्झज्जा, णो मुज्झेज्जा, णो अज्झो ववज्जेज्जा, गो विणिघातमावज्जेज्जा। केवली बूया-निग्गंथे गं मणुण्णामणुणेहि फासेहि सज्जमाणे जाव विणिघातमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेलिपण्णत्तातो धम्मातो भंसेज्जा। ण सक्का ण संवेदेतुं फासं विसयमागतं / राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 134 // फासातो जीवो मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेदेति त्ति पंचमा भावणा। 761. एत्ताव ताव महन्वते सम्म काएण फासिते पालिते तीरिते किट्टिते अवट्टिते आणाए आराधिते यावि भवति / / पंचमं भंते ! महव्व यं परिग्गहातो बेरमणं / 786. इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के सन्दर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा, और न परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूगा। इसके आगे का-'आत्मा से भूतकाल में परिगृहीत परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ', तक का सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 760. उस पंचम महाव्रत की पांच भावनाएं ये हैं (1) उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है-श्रोत्र (कान) से यह जीव मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्दों को सुनता है, परन्तु वह उनमें आसक्त न हो, रागभाव न करे, गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे, न राग-द्वेष करे। केवली भगवान् कहते हैं जो साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है, रागभाव करता है, गृद्ध हो जाता है, मोहित हो जाता है, अत्यधिक आसक्त हो जाता है, राग-द्वेष करता है वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करता है, शान्ति को भंग करता है, शान्तिरूप केवलि प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / 1. किसी-किसी प्रति में 'फासातो जीवो' पाठ नहीं है। कहीं पाठान्तर है--फासाओ जीवो, फासातो मणुण्णामणुण्णाई Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ___ कर्ण-प्रदेश में आए हुए शब्द श्रवण न करना शक्य नहीं है, किन्तु उनके सुनने पर उनमें जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, भिक्षु उसका परित्याग करे // 130 // अत: श्रोत्र ने जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनकर उनमें आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित, मूच्छित एवं अत्यासक्त न हो और न राग-द्वेष द्वारा अपने आत्मभाव को नष्ट करे / यह प्रथम भावना है। (2) इसके अनन्तर द्वितीय भावना इस प्रकार है--चक्षु से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रूपों को देखता है, किन्तु साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में न आसक्त हो, न आरक्त हो. न गृद्ध हो, न मोहित-मूच्छित हो, और न अत्यधिक आसक्त हो; न राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव को नष्ट करे / केवली भगवान् कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों को देखकर आसक्त, आरक्त, गद्ध, मोहित-मूच्छित और अत्यासक्त हो जाता है, या राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को विनष्ट करता है, शान्तिभंग कर देता है. तथा शान्तिरूप-केवली-प्ररूपित धर्म में भ्रष्ट हो जाता है। नेत्रों के विषय बने हुए रूप को न देखना तो शक्य नहीं है, वे दिख हो जाते है, किन्तु उसके देखने पर जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग कर अर्थात् उनमें रागद्वेष का भाव उत्पन्न न होने दे / / 13 / / ___अत: नेत्रों मे जीव मनोज्ञ रूपों को देखता है, किन्तु निम्रन्थ भिक्ष उनमें आसक्त, आरक्त, गद्ध, मोहित-मूच्छित और अत्यासक्त न हो, न राग-द्वेष में फंसकर अपने आत्मभाव का विघात करे। यह दूसरी भावना है। (3) इसके बाद तीसरी भावना इस प्रकार है-नासिका से जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों को संघता है, किन्तु भिक्ष मनोज्ञ या अमनोज्ञ गन्ध पाकर न आसक्त हो न अनुरक्त, न गद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो, वह उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात न करे / केवली भगवान् कहते हैं जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर आसक्त. आरक्त, गृद्ध, मोहित-मच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, तथा राग-द्वेष से ग्रस्त होकर अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है, और शान्तिरूप केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / 'ऐसा नही हो सकता कि नासिका-प्रदेश के सान्निध्य में आए हुए गन्ध के परमाणु पुद्गल सूंघे न जाएं, किन्तु उनको सूंघने पर उनमें जो राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिक्ष उनका परित्याग करें।। 132 / / अतः नासिका से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के गन्धों को सूंघता है, किन्तु प्रबुद्ध भिक्ष को उन पर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, न एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करके अपने आत्मभाव का विनाश करना चाहिए। यह तीसरी भावना है। Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-61 416 ___ (4) इसके अनन्तर चौथी भावना यह हैं-जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्ष को चाहिए कि वह मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में न आसक्त हो, न रागभावाविष्ट हो, न गृद्ध. मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो, और न उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का घात करें। केवली भगवान् का कथन है, कि जो निम्रन्थ मनोज्ञअमनोज्ञ रसों में आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित, मूच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, या रागद्वेष करके अपना आपा (आत्मभान) खो बैठता है, वह शान्ति नष्ट कर देता है, शान्ति भंग करता है तथा शान्तिमय केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि रस जिह्वाप्रदेश में आए और वह उसको चखे नहीं; किन्तु उन रसों के प्रति जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्ष उसका परित्याग करे / / 133 / अतः जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को उनमें आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए. न उनके प्रति राग द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए / यह चौथी भावना है। (5) इसके पश्चात् पंचम भावना यों है-स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन (अनुभव) करता है, किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो, न आरक्त, हो, न गृद्ध हो, न मोहित-मूच्छित और अत्यासक्त हो, और नही इष्टानिष्टस्पर्शो में राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश करे / केवली भगवान् कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, या रागद्वेषग्रस्त होकर आत्मभाव का विघात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है, शान्तिभंग करता है, तथा स्वयं केवलीप्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। __ स्पर्शेन्द्रिय-विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर उनमें उत्पन्न होने वाले राग या द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है // 134 // अतः स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक प्रकार के स्पर्शों का संवेदन करता है; किन्तु भिक्षु को उन पर आसक्त, आरक्त, गद्ध. मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, और न ही इष्टानिष्ट स्पर्श के प्रति राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए। यह है पांचवीं भावना / 761. इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाबत का काया से सम्यक् स्पर्श करने, उसका पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है। भगवन् ! यह है—परिग्रह-विरमणरूप पंचम महाव्रत ! विवेचन—पंचम महाव्रत की प्रतिज्ञा और उसको पांच भावनाएँ-प्रस्तुत सूत्रत्रयी में भी पूर्ववत् Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तीन बातों का मुख्यतया उल्लेख है--(१) पंचम महावत की प्रतिज्ञा का रूप, (2) पंचम महाव्रत की पांच भावनाएं, (3) पंचम महावत के सम्यक् आराधन का उपाय / इन तीनों पहलुओं पर विवेचन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। अन्य शास्त्रों में भी पंच भावनाओं का उल्लेख - समवायांग सूत्र में पंचम महाव्रत की पांच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है-(१) श्रोत्रन्द्रिय-रागोपरति, (2) चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति, (3) घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति, (4) जिह्वन्द्रिय-रागोपरति और (5) स्पर्शेन्द्रिय-रागोपरति / / आचारांगचूर्णिसम्मत पाठ के अनुसार 5 भावनाएं इस प्रकार हैं--.. (1) श्रोत्रेन्द्रिय से मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द सुनकर मनोज्ञ पर आसक्ति आदि न करे, न उन पर राग-द्वेष करके आत्मभाव का विघात करे, अमनोज्ञ शब्द सुनकर न तिरस्कार करे. न निन्दा करे, न उस पर क्रोध करे, न गर्दा करे, न ताड़न-तर्जन करे, न उसका परिभव करे, न उसका वध करे। (2) चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप देखकर न तो मनोज्ञ पर आसक्ति, रागादि करे, और न अमनोज्ञ पर द्वेष, घृणा आदि करे। (3) घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंध पा कर उनके प्रति भी पूर्ववत् आसक्ति, राग आदि या द्वेष, घृणा आदि न करे। (4) जिह्वन्द्रिय से प्रिय-अप्रिय रस पाकर उनके प्रति भी पूर्ववत् आसक्ति, राग आदि या द्वेष, घृणा आदि न करे। (5) स्पर्शेन्द्रिय से मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति राग-द्वेष आदि न करे / ' आवश्यक चणि में इस प्रकार पाँच भावनाएँ प्रतिपादित है—“पंडित मुनि मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द, रूप रस, गन्ध और स्पर्श पाकर एक के प्रति राग-गृद्धि आदि तथा दूसरे के प्रति प्रद्वेष-घृणा आदि न करे / तत्वार्थसूत्र में भी इन पंच भावनाओं का उल्लेख है- मनोज्ञ और अमनोज्ञ पांच इन्द्रिय-विषयों में क्रमशः राग और द्वेष का त्याग करना ये अपरिग्रहमहाव्रत की पांच भावनाएँ हैं / 1. समवायांगसूत्र में-'सोइदियरागोवरई, चक्खिदियरागोवरई, घाणिदियरागोवरई, जिभिदियरागोवरई, फासिदियरागोवरई।" -समवाय 25 2. सोइ दिएण मणुणाऽमणुग्णाइ सदाइ सुणेत्ता भवति, से निग्गथे तेसु मणुण्णाऽमणुण्णेसु सद्देसु णो सज्जेज वा रज्जेज वा गिज्झज्ज वा मूच्छेज्ज वा अज्झोववज्जेज्ज वा विणिघातमावज्जेज्ज वा, अह हीलेज्ज वा निदेज्ज वा खिसेज्ज वा गरहेज्ज वा तज्जेज्ज वा तालेज्ज वा परिभवेज्ज वा, पब्बहेज्ज वा ।"चक्खिदिएण मणण्णामणण्णाई रूवाई"जधा सद्दाइ एमेब ।''एवं घाणिदिएण अग्घाइत्ता..जिभिदिएण आसाएत्ता""फासिदिएमा पडिसंवेदेता। --आचारांग चूर्णिसम्मत विशेष पाठ टि०१० 201 Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 792 421 उपसंहार 762. इच्चेतेहि महन्वतेहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आराहिता यावि भवति। 762. इन (पूर्वोक्त) पांच महाब्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रत, यथाकल्प, और यथामार्ग इनका काया से सम्यक प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान् की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है। __ -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--पंचमहावतों का सम्यक् आराधक अनगार : कब और कैसे ? प्रस्तुत सूत्र में साधक भगवान् की आज्ञा के अनुसार पंच महाव्रतों का आराधक कब और कैसे बन सकता है ? इसका संक्षेप में संकेत दिया है। आराधक बनने का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-(१) पच्चीस भावनाओं से युक्त पंच महाव्रत हों, (2) शास्त्रानुसार चले, (3) कल्प (आचार-मर्यादा) के अनुसार चले, (4) मोक्ष-मार्गानुसार चले, (5) काया में सम्यक् स्पर्श (आचरण) करे, (6) किसी भी मूल्य पर महाब्रतों का पालन-रक्षण करे, (7) स्वीकृत ब्रत को पार लगाए (8) इनके महत्व का श्रद्धा पूर्वक कीर्तन करे / निष्कर्षः प्रस्तुत पन्द्रहवें अध्ययन में सर्वप्रथम प्रभु महावीर की पावन जीवन गाथाएं संक्षेप में दी गई हैं / पश्चात् प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण-धर्म का स्वरूप बताने वाले पाँच महाव्रत तथा उनकी पचीस भावनाओं का वर्णन है। पांच महाव्रतों का वर्णन इसी क्रम से दशवैकालिक अध्ययन 4 में, तथा प्रश्नव्याकरण संवर द्वार में भी है। पचीस भावनाओं के क्रम तथा वर्णन में अन्य सूत्रों से इसमें कुछ अन्तर है। यह टिप्पणों में यथास्थान सूचित कर दिया गया है / वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भावनाओं का जो क्रम निर्दिष्ट किया है, वह वर्तमान में हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध है, किंतु लगता है आचारांग चूर्णिकार के समक्ष कुछ प्राचीन पाठ-परम्परा रही है, और वह कुछ विस्तृत भी है / चूर्णिकार सम्मत पाठ वर्तमान में आचारांग को प्रतियों में नहीं मिलता, कितु आवश्यक चूणि में उसके समान बहुलांश पाठ मिलता है, जो टिप्पण में यथास्थान दिये हैं। सार यही है कि श्रमण पांच महाव्रतों का सम्यक्, निर्दोष और उत्कृष्ट भावनाओं के साथ पालन करें। इसी में उसके श्रमण-धर्म की कृतकृत्यता है / // पंचदशमध्ययनं समाप्तम् / / // तृतीय चूला संपूर्ण // 3. जे सद्द-रूव रस-गंध-मागते, फासे य स पप्प भणुण्णपावए / गेधि पदोसन करेति पँडिते, से होति दंते विरते अकिंचणे // 5 // --आव० 0 प्रति० पृ० 147 4. मनोज्ञामनोज्ञन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि च / " -तरवार्थ सर्वार्थसिद्धि अ०७१ सू० 8 Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // चतुर्थ चूला॥ विमुक्ति : सोलहवाँ अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के सोलहवें अध्ययन का नाम विमुक्ति' है / विमुक्ति का सामान्यतया अर्थ होता है-बन्धनों से विशेष प्रकार मुक्ति/मोक्ष या छुटकारा / व्यक्ति जिस द्रव्य से बंधा हुआ है, उससे विमुक्त हो जाए; जैसे बेड़ियों से विमुक्त होना, यह द्रव्य-विमुक्ति है / किन्तु प्रस्तुत में वन्धन द्रव्य रूप नहीं, अपितु भाव रूप ही समझना अभीष्ट है / इसी प्रकार मुक्ति भी यहाँ द्रव्यरूपा नहीं, कर्मक्षय रूपा भाव विमुक्ति ही अभीष्ट है।' - भावमुक्ति-यहाँ अष्टविध कर्मों के बन्धनों को तोड़ने के अर्थ में है। और वह अनित्यत्व आदि भावना से युक्त होने पर ही संभव होती है। 4 कर्म बन्धन के मूल स्रोत है—राग, द्वेष, मोह, कषाय और ममत्व आदि / अतः प्रस्तुत अध्ययन में इनसे मुक्त होने की विशेष प्रेरणा दी गई है। ममत्वमूलक आरम्भ और परिग्रह से दूर रहने की तथा पर्वत की भाँति संयम, समता एवं वीतरागता पर दृढ़ एवं निश्चल दहकर, सर्प की केंचली की भांति ममत्वजाल को उतार फेंकने की मर्मस्पर्शी प्रेरणा इस अध्ययन में हैं। र इस प्रकार की भावमुक्ति साधुओं की भूमिका के अनुसार दो प्रकार की है-(१) देशतः और (2) सर्वतः / देशतःविमुक्ति सामान्य साधु से लेकर भवस्थकेवली तक के साधुओं की होती है, और सर्वतःविमुक्ति सिद्ध भगवान की होती है। * विमुक्ति अध्ययन में पाँच अधिकार भावना के रूप में प्रतिपादित हैं.-- (1) अनित्यत्व, (2) पर्वत, (3) रूप्य, (4) भुजंग एवं (5) समुद्र / * पाँचों अधिकारों में विविध उपमाओं, रूपकों एवं युक्तियों द्वारा राग-द्वेष, मोह, ममत्व एवं कषाय आदि से विमुक्ति की साधना पर जोर दिया गया है। इनसे विमुक्ति होने पर ही साधक को सदा के लिए जन्म-मरणादि से रहित मुक्ति प्राप्त हो सकती है। 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 264 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 426 के आधार पर 2. (क) आचा• चूर्णि मू० पा. टि. पृ० 264 (ख) आचारांग नियुक्ति गा० ३४३–देस विमुक्का साहू सम्वविमुक्का भवसिद्धा। (ग) आचारांग वृत्ति पत्रांक 426 (घ) जैन साहित्य का इतिहास भा० 1, (आचा० का अन्तरंग परिचय पृ० 123) 3. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 342 (ख) आचा० वत्ति पत्रांक 426 Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // चउत्था चूला // सोलस अज्झयणं 'विमुत्ती' विमुक्ति : सोलहवां अध्ययन अनित्य भावना-बोध 763. अणिच्चमावासमुति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं / विओसिरे' विष्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए // 135 // 763. संसार के समस्त प्राणी मनुष्यादि जिन योनियो में जन्म लेते है, अथवा जिन शरीर आदि में आत्माएँ आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं / सर्वश्रेष्ठ (अनुत्तर) मौनीन्द्र प्रवचन मे कथित यह वचन सुनकर उस पर अन्तर की गहराई से पर्यालोचन करे / तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक (घरबार के) बन्धनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ (सावध कार्य) और परिग्रह का त्याग कर दे। विवेचन:--अनित्यत्व भावनाः आरम्भ परिग्रहादि त्याग प्रेरक प्रस्तुत सूत्र में संसार या प्राणियों के आवासरूप शरीरादि स्थानों को अनित्य जानकर विविध बन्धनों और आरम्भपरिग्रह का त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। "अणिच्चमावासमुति जंतवो' को व्याख्या--मनुष्य आदि भव (जन्म) में वास, या उस-उस शरीर में वास अनित्य है अथवा सारा ही संसारवास अनित्य है, जिसे सांसारिक जीव प्राप्त करते हैं / तात्पर्य यह है कि चारों गतियों में जिन-जिन योनियों में जोव उत्पन्न होते हैं, वे सब अनित्य है।" इस अनुत्तर जिनवाणी को सुनकर विवेकशील पुरुष उस पर पूर्णतया पर्यालोचन करे, कि भगवान् का कथन यथार्थ है। __अनित्यता क्यों है ? इसका समाधान दिया गया है—देवों की जैसी चिरकालस्थिति है, बैसी मनुष्यों की नहीं है। मनुष्यायु अल्पकालीन स्थिति वाली है। संसार को केले के गर्भ की तरह निःसार जानकर विद्वान अगार-बन्धन=पुत्र-कलत्र धन-धान्य-गृहादिरूप गृहपाश अथवा चूर्णिकार के अनुसार स्त्री और गृहरूप आगारबन्धन का त्याग करे।' "अभीरु आरंभ-परिग्गहं चए" : व्याख्या--इसके अतिरिक्त निर्भीक सप्तत्रिधभत्र रहित एवं परीषहों और उपसर्गों से नहीं घबराने वाला साधु आरम्भ - सावध कार्य और परिग्रह-बाह्य 1. विओसिरे के बदले पाठान्तर है--वियोसिरे। 2. परिग्गहचए के बदले पाठान्तर है-परिग्गहं चये, परिग्गहं वा / 3. (क) आचांराग चूणि मू० पा० टि० पृ० 264 (ख) आचारोग वृत्ति पत्रांक 426 Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध आभ्यन्तर परिग्रह अथवा परिग्रह के निमित्त किया जाने वाला आरंभ छोड़े-परित्याग करे / आरम्भ और परिग्रह का त्याग अहिंसा और अपरिग्रह महाव्रत का सूचक है, अगारबन्धनव्युत्सर्ग शेष समस्त महाब्रतों को सूचित करता है।' पर्वत को उपमा तथा परीषहोपसर्ग सहन-प्रेरणा 794. तहागयं भिक्खुमणंतसंजतं, अणेलिसं विष्णु चरंतमेसणं / तुदंति वायाहिं अभिद्दवं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं // 136 / / 765. तहप्पगारेहि जणेहि हीलिते, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए णाणि अदुट्ठचेतसा, गिरि व्व वातेण ण संपवेवए // 137 // 764. उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान् अनुपमसंयमी आगमज्ञ विद्वान एव आगमानुसार आहारादि की एषणा करनेवाले भिक्षु को देखकर मिथ्या दृष्टि अनार्य मनुष्य उस पर असभ्य वचनों के तथा पत्थर आदि प्रहार से उसी तरह व्यथित कर देते हैं जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्र के हाथी को वाणों की वर्षा से व्यथित कर देता है। 765. असंस्कारी एवं असभ्य (तथाप्रकार के) जनों द्वारा कथित आक्रोशयुक्त शब्दों तथाप्रेरित शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्ष प्रशान्तचित्त से (उन्हें) सहन करे / जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि भी इन परीषहोपसर्गों से विचलित न हो। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र द्वय में पर्वत की उपमा देकर साधु को परीषहों एवं उपसर्गों के समय विचलित न होने की प्रेरणा दी गई है। 'तहागयं भिक्खु' की व्याख्या-वृत्तिकार के अनुसार तथाभूत-अनित्यत्वादि भावना से गृहबन्धन से मुक्त, आरम्भ-परिग्रहत्यागी तथा अनन्त-एकेन्द्रियादि प्राणियों पर सम्यक् प्रकार से संयमशील, अद्वितीय जिनागम रहस्यवेत्ता विद्वान् एवं एषणा से युक्त विशुद्ध आहारादि से जीवन निर्वाह करने वाले ऐसे भिक्षु को। चूर्णिकार के अनुसार-जैसे (जिस मार्ग से) जिस गति से तीर्थकर, गणधर आदि गए हैं, उसीप्रकार जो गमन करता है, वह तथागत कहलाता है। अनन्त चारित्र-पर्यायों से युक्त एवं संयत-यावज्जीव संयमी-ज्ञानादि में असदृश-अद्वितीय, अथवा जो अन्यतीथिक आदि के तुल्य न हो, विद्वान एषणा से युक्त होकर अथवा मोक्षमार्ग का या संयम का अन्वेषण करते हुए विचरणशील तथागत साधु को ... / ' 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 426 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 264 2. "चरतमेसणं" के बदले पाठान्तर है-चरित एसणं, चरंत एसणं / 3. आचा० चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 264 / Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र 763-800 425 'तहप्पमारेहि जहिं होलिते'' को व्याख्या-वृत्तिकार एवं चूर्णिकार के अनुसार---जैसे कोली, चमार, असंस्कारी, दिल के काले, दरिद्र अनार्यप्रायः तथाप्रकार के बालजनों के द्वारा निन्दित या व्यथित होने पर। 'ससद्दफासा फरुसा उदोरिता' = उन बालजनों द्वारा अत्यन्त प्रबलता से किये गए या प्रेरित कठोर या तीव्र, अथवा अमनोज्ञ सशब्द-प्रहारों के स्पों या आक्रोशसहित शीतोष्णादि दुःखोत्पादक कठोरता से किये गए, या प्रेरित प्रहारों के स्पर्शों को। तितिक्खए णाणि-अबुट्ठचेतसा-उन प्रहारों को आत्मज्ञानी मुनि मन को द्वेषभाव आदि से दूषित किये बिना अकलुषित अन्तःकरण से सहन करे, / क्योंकि वह ज्ञानी है, "यह मेरे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है," यह मानकर अथवा संयम के दर्शन मे, या वैराग्य भावना से या इस तत्त्वार्थ के विचार मे वह सहन करे कि "आक्रष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं कः कोप: स्यादनृतं किं नु कोपेन ? // " बुद्धिमान पुरुष को आक्रोश का प्रसंग आने पर तत्त्वार्थ विचार में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए / “यदि किसी का कथन सत्य है तो उसके लिए कैसा कोप? और यदि बात असत्य है तो क्रोध से क्या मतलब ?" इस प्रकार ज्ञानी साधक मन से भी उन अनार्यों पर द्वष न करे, वचन और कर्म से तो करने का प्रश्न ही नहीं है। ___गिरिव्व बातेण ण संपवेवए-- जिस प्रकार प्रबल झंझावात से पर्वत कम्पायमान नहीं होता, उसी प्रकार विचारशील साधक इन परीषहोपसर्गों से बिलकुल विचलित न हो।' रजत-शुद्धि का दृष्टान्त व कर्ममल शुद्धि की प्रेरणा 766. उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंतदुक्खा तस-यावरा दुही। __ अल्सए सम्बसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिते // 138 // 797. विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीततोहस्स मुणिस्स झायतो। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढती // 139 / / 798. दिसोदिसिंऽणंतजिणेण ताइणा, महब्वता खेमपदा पवेदिता। महागुरु निस्सयरा उदीरिता, तमं व तेऊ तिदिसं' पगासगा // 140 // 766. सिहि भिक्खू असिते परिवए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूयणं / अणिस्सिए लोगमिणं तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहि पंडिते // 141 // 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 466 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 265 2. अकंतदुक्खा के बदले पाठान्तर है अतदुक्खी, अक्कंतदुक्खी। 3. वड्ढतो के बदले बट्टती पाठान्तर है। 4. तेऊ तिदिसं के बदले पाठान्तर है-तेऊ ति; तेजो ति। Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___800, तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो, धितोमतो दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झती जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा // 142 / / 766. परिषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा माध्यस्थ्यभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि अहिंसादि प्रयोग में कुशल-गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है। अतः उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत्स्वभाववेत्ता होता है / इसी कारण उसे सुश्रमण कहा गया है। 767. क्षमा-मार्दव आदि दशविध अनुत्तर (श्रेष्ठ) श्रमणधर्मपद में प्रवृत्ति करने वाला जो विद्वान - कालज्ञ एवं विनीत मुनि होता है, उस तृष्णारहित, धर्मध्यान में संलग्न, समाहित -चारित्र पालन में सावधान मुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भांति निरंतर बढ़ते रहते हैं। 768. षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग-द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान ने सभी एकेन्द्रियादि भावदिशाओं में रहनेवाले जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान महाव्रत प्रतिपादित किये हैं। अनादिकाल से आबद्ध कर्म-बन्धन से दूर करने में समर्थ महान गुरुमहाब्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनोंदिशाओं (ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक्) के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकाररूप कर्मसमूह को नष्ट करके (ज्ञानवान आत्मा तीनों लोकों में) प्रकाशक बन जाता है। 766. भिक्षु कर्म या रागादि निबन्धनजनक गृहपाश से बंधे हुए गृहस्थों या अन्य तीथिकों के साथ आबद्ध–संसर्गरहित होकर संयम में विचरण करे। तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा-सत्कार आदि लालसा छोड़े। साथ हो वह इहलोक तथा परलोक में अनिश्रित-निस्पृह होकर रहे / कामभोगों के कटुविपाक का देखने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञशब्दादि काम-गुणों को स्वीकार न करे। 800 तथा (मूलोत्तर-गृणधारी होने से) सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा (ज्ञानपूर्वक-) आचरण करने वाले, धृतिमान्–दुःखों को सम्यक्प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध (क्षय) हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है। विवेचन—सूत्र 766 से 800 तक पांच गाथाओं में शास्त्रकार ने कर्ममल से विमुक्त होने की दिशा में साधु को क्या-क्या करना चाहिए? इसकी सुन्दर प्रेरणा रजतमल-शुद्धि आदि दृष्टान्त प्रस्तुत करके दी है। इसके लिए पांच कर्तव्य निर्देश इस प्रकार किये गए हैं (1) पृथ्वी की तरह सब कुछ सहने वाला मुनि दुःखाक्रान्त त्रसस्थावर जीवों की हिंसा से दूर रहे, Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र 766-800 (2) क्षमादि दस धर्मों का पालक वितृष्ण एवं धर्मध्यानी मुनि की तपस्या, प्रज्ञा एवं कीति अग्निशिखा के तेज की तरह बढ़ती है, वही कर्ममुक्ति दिलाने में समर्थ है / (3) महाव्रतरूपी सूर्य कर्मसमूह रूप अन्धकार को नष्ट करके आत्मा को त्रिलोकप्रकाशक बना देते हैं। (4) कर्मपाशबद्ध लोगों-गृहस्थों के संसग से तथा स्त्रीजन एवं इह-पर-लोक सम्बन्धी कामना से भिक्ष दुर रहे। (5) सर्वसंगमुक्त, परिज्ञा (विवेक) चारी, धृतिमान, दुःखसहिष्णु भिक्षु के कर्ममल उसी तरह साफ हो जाते हैं, जिस तरह अग्नि से चांदी का मैल साफ हो जाता है।' 'उवेहमाणे "अकतवुक्खा...' उन बालजनों के प्रति या उन कठोर शब्द-स्पर्शों के प्रति उपेक्षा करता हुआ साधु / कुसलेहि----अहिंसादि में प्रवृत्त साधकों के साथ अहिंसा का आचरण करता रहे। क्योंकि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है , त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के संसारवर्ती प्राणी दुःखी हैं, यह जानकर समस्त जीवों की हिंसा न करे। 'सब सहें' के बदले पाठान्तर 'सन्वेषया' चूर्णिकार को मान्य प्रतीत होता है / अणं त जिणेण--चूर्णिकार के अनुसार अर्थ--.."मनुष्य, तिर्यच आदि रूप अनन्त संसार है, वह जिसने जीत लिया, वह अनन्तजित होता है। महत्वता खेमपदा पवेदिता भावदिशाओं (षट्जीवनिकायों) का पालन करने के लिए क्षेमपद वाले (कल्याणकारी) महाव्रत प्रतिपादित किये हैं; (उन अनन्त जिन, त्राता ने) / 'महागुरू निस्सयरा उदोरिता'चूर्णिकार के अनुसार-महाव्रत बड़ी कठिनता से ग्रहण किये जाते हैं, तथा गुरुतम--भारी होने के कारण ये महागुरु कहलाते हैं / निस्सयरा-का अर्थ है --णिस्सा करेंति खवंति = तीक्ष्ण करते या क्षय करते है / महाव्रत कैसे क्षपणकर कहे गए हैं ? जैसे तीनों दिशाओं के अन्धकार को सूर्य मिटा कर प्रकाश कर देता है, वैसे ही महावत त्रिजगत के कर्म रूप अन्धकार को मिटा कर आत्मज्ञान का प्रकाश कर देता है। सितेहि भिक्खू असिते परिवए' की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार –'जो अष्टविध कर्म से बद्ध हैं, अथवा गृहपाशों से बद्ध हैं, उनमें अनासक्त होकर असितगृहपाश से निर्गत कर्मक्षय = करने में उद्यत मुनि सम्यक् रूप से विचरण करे। 'असज्जमित्थीसु चएज्ज पूयणं-स्त्रियों में असक्त रहे और पूजा-सत्कार की आकांक्षा छोड़े। प्रथम में मूलगण की और दूसरे में उत्तरगुण की सुरक्षा का प्रतिपादन है। अणिस्सिए लोगमिण तहा परं-इहलोक और परलोक के प्रति अनाश्रित रहे / तात्पर्य यह है कि मूल-उत्तरगुणावस्थित साधु इहलोक और परलोक के निमित्त तप न करे / जैस धम्मिल ने इहलोक के निमित्त तप किया था, और ब्रह्मदत्त ने परलोक के निमित्त / ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिते– कामगुण के कटु विपाक का द्रष्टा पण्डित साधु काम-गुणों 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 30 के आधार पर / Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ने युक्त होकर कामगुण प्रत्ययिक कर्म मे पूर्ण नहीं होता, अथवा उसमें मलित नहीं होता। अथवा 'विज्जते' पाठान्तर मानने से अर्थ होता है-काम-गुणों में विद्यमान नहीं रहता / जो जहाँ प्रवृत्त होता है, वह वहीं विद्यमान कहलाता है। विसज्झती समीरियं रुपमलं व जोतिणा'--सम्यक् प्रेरित चांदी का मैल--किट्ट-अग्नि में तपाने से साफ हो जाता है। वैसे ही एमे भिक्षु द्वारा असंयमवश पुराकृत कर्ममल भी तपस्या की अग्नि से विशुद्ध (साफ) हो जाता है।' भुजंग-दृष्टान्त द्वारा बंधन मुक्ति की प्रेरणा 801. से हु परिण्णासमम्मि बट्टतो, णिराससे उवरय मेहुणे चरे। भुजंगमे जुष्णतयं जहा चए, विमुच्चती से दुहसेज्ज माहणे // 143 // 801. जैसे सर्प अपनी जीणं त्वचा--कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मूलोत्तरगुणधारी माहन-भिक्षु परिज्ञा---परिज्ञान के समय--सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, इहलोक-परलोक सम्बन्धी-आशंसा से रहित है, मैथुनसेवन से उपरत (विरत) है, तथा संयम में विचरण करता है, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है / विवेचनप्रस्तुत सूत्र में सर्प का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि सपं जैसे अपनी पुरानी कैंचुली छोड़कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मुनि ज्ञान-सिद्धान्त-परायण, निरपेक्ष, मैथुनोपरत एवं संयमाचारी है, वह पापकर्म या पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली नरकादि रूप--दुःखशय्या से मुक्त हो जाता है। परिण्णा समयम्मि' आदि पदों के अर्थ-परिण्णा समयंमि-परिज्ञा में =परिज्ञान में या ज्ञान-समय में या ज्ञानोपदेश में। 'निराससे' आशा/प्रार्थना से रहित, इहलौकिकी या पारलौकिकी, प्रार्थना-अभिलाषा जो नहीं करता। उवरय मेहुणे' =मैथुन से सर्वथा विरत। चतुर्थ महाव्रती के अतिरिक्त उपलक्षण से यहाँ शेष महावतधारी का ग्रहण होता है। इस प्रकार विचरण करता हुआ सर्वकर्मों मे विमुक्त हो जाता है / ] दुहसेज्ज विमुच्चती-दुःखशय्या से दुखःमय नरकादि भवो से विमुक्त हो जाता है। अथवा दुःख-क्लेशमय संसार से मुक्त हो जाता है। महासमुद्र का दृष्टान्तः कर्म अन्त करने की प्रेरणा 802. जमाह ओहं सलिलं अपारगं, महासमुह व भुयाहि दुत्तरं / अहे व णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चती // 144 // 1. (क) आचारांग चूणि मु० पा० टि० १ष्ठ 295, 266 / (ख आचारांग वृत्ति पत्रांक 860 / (ग) अंतिम दो पद की तुलना करें-दशव० 862 2. आचारांग बत्ति, पत्रांक 430 के आधार पर। 3. (क) आचारांग चूर्णि मू. पा० टि० पृष्ठ 267 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 830 / (ग) चार द:ख शय्याओं का वर्णन देखें --ठाणं स्था० 4 स०६५० Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र 802-804 803. जहा य बद्ध इह माणवेहि' या, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिते / अहा तहा बंधविमोक्स जे विद्, से ह मुणी अंतकडे ति वुच्चई // 14 // 804. इमम्मि लोए परए य दोसु वो, ण विज्जती बंधणं जस्स किचि वि। से हू णिरालंबणयप्पतिद्वितो, कलंकलोभावपवंच विमुच्चति // 146 // ॥ति बेमि // 802. तीर्थ कर, गणधर आदि ने कहा है-अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है. वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को (ज्ञ-परिज्ञा से) जानकर (प्रत्याख्यान-परिज्ञा मे) उसका परित्याग कर दे। इसप्रकार का त्याग करनेवाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। 803. मनुष्यों ने इस संसार में मिथ्यात्व आदि के द्वारा जिसरूप से--प्रकृति-स्थिति आदि रूप में कर्म बांधे है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि द्वारा उन कर्मों का विमोक्ष होता है. यह भी बताया गया है। इस प्रकार जो विज्ञाता मुनि बन्ध और विमोक्ष का स्वरूप यथातथ्य रूप में जानता है, वह मुनि अवश्य ही संसार का या कर्मों का अन्त करने वाला कहा गया है। 804. इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचित्मात्र भी रागादि बन्धन नहीं है, तथा जो साधक निरालम्ब-इहलौकिक-पारलौकिक स्पृहाओं से रहित है, एवं जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं है, वह साधु निश्चय ही संसार में गर्भादि के पर्यटन के प्रपंच से विमुक्त हो जाता है। —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--प्रस्तुत तीनों सूत्रों द्वारा संसार को महासमुद्र की उपमा देकर कर्मास्रवरूप विशाल जलप्रवाह को रोक कर संसार का अन्त करने या कर्मों से विमुक्त होने का उपाय बताया गया है। वह क्रमशः इस प्रकार है-(१) संसार-समुद्र को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्याग करे, (2) कर्मबन्ध कैसे हुआ है, इससे विमोक्ष कैसे हो सकता है, इस प्रकार बन्ध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप जाने, (3) इहलौकिक-पारलौकिक रागादि बन्धन एवं स्पृहा से रहित, प्रतिबद्धता रहित हो।' संसार महासमुद्र-सूत्रकृतांग प्र० श्र० में भी 'जमाहु ओहं सलिल अपारगं' पाठ है। इससे मालूम होता है--संसार को महासमुद्र की उपमा बहुत यथार्थ है। चूर्णिकार ने सू०८०२ की 1. माणवेहि या के बदले पाठान्तर है -माणवेहि य, माणवेहि जहा 2. जस्स के बदले पाठान्तर है-तस्स--उसका / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 431 के आधार पर। Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्र तस्कन्ध पंक्ति का एक अर्थ और सूचित किया है--भुजाओं से महासमुद्र की तरह संसार समुद्र पार करना दुस्तर है / अथवा जो संसार को दो प्रकार की परिज्ञा से भलीभांति जानता है एवं त्यागता है, अर्थात् जिस उपाय से संसार पार किया जा सकता है, उसे जान कर जो उस उपाय के अनुसार अनुष्ठान करता है, वह पण्डित मुनि है। वह ओघान्तर-संसार समुद्र के ओघ--प्रवाह का अन्त करने वाला, या तैरने वाला कहलाता है। 'जहा य बद्धं..' चूर्णिकार के अनुसार इसकी व्याख्या यों है- इस मनुष्य लोक में किससे बंधे हैं ? कर्म से, कौन बंधे हैं ? जीव / जहा य ....."विमोक्ख—जिस उपाय से कर्मबन्धनबद्ध जीवों का विमोक्ष हो, प्राणातिपातविरमण आदि ब्रतों से, तप-संयम से या अन्य सम्यग्दर्शनादि यथातथ्य उपाय से, फिर बन्धमोक्ष जान कर तदनुसार उपाय करके वह मुनि अन्तकृत् कहलाता है।' "इमम्मि लोए......ण विज्जती बंधणं" का भावार्थ ---इस लोक, परलोक या उभयलोक में जिसका कर्मत: किंचित् भी बन्धन नहीं है, बाद में जब वह समस्त बन्धनों को काट देता है, तब वह बंधन-मुक्त एवं निरालम्बन हो जाता है। आलम्बन का अर्थ शरीर है, निरालम्बन अर्थात् 'अशरीर हो, तथा कोई भी कर्म उसमें प्रतिष्ठित नहीं रहता। इसके पश्चात् वह 'कलंकली भाव प्रपंच' से सर्वथा विमुक्त हो जाता है। कलंकली कहते है--संकलित भवसंतति या आयुष्य कर्म की परम्परा को। प्रपंच तीन प्रकार का है-हीन, मध्य, उत्तम-भृत्य-स्त्री-पिता-पुत्रत्व आदि रूप / अथवा कलकलोभाव ही प्रपंच है। वह साधक कलंकली भाव प्रपंच से---संसार में जन्म-मरण की परम्परा से-विमुक्त हो जाता है। // सोलहवाँ बिमुक्ति अध्ययन समाप्त / / // आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध (आचार चूला) समाप्त // 1. (क) सूत्रकृतांग प्रथम श्र तस्कन्ध ब० 12 गा० 12 / (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि पृष्ठ 267 / (ग) आचारांग वृत्ति पत्रांक 431 / 2. आचारांग चणि मू० पा० पृ० २६८-कलंकली संकलिय भवसंतति: आउगकम्मसंतती वा" Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-चला परिशिष्ट र विशिष्ट शब्द सूची - गाथाओं को अनुक्रमणिका 2 'जाव' शब्द पूरक सूत्र-निर्देश सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 विशिष्ट शब्द-सूची [यहाँ विशिष्ट शब्द-सूची में प्रायः वे संज्ञाएं तथा विशेष शब्द लिये गये हैं, जिनके आधार पर पाठक सरलतापूर्वक मूल विषय की आधारभत अन्वेषणा कर सकें। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कंध (आचार चूला) के सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध के साथ क्रमशः रखने के कारण यहां पर सूत्र संख्या 324 से प्रारम्भ होती है। -सम्पादक] 568, 566 623-625 626, 627, 628 377 373 626-627, 628 शब्द अंककरेलुय 382 अंतोअंतण अंकधाती 741 अंब अंगारिग 385 अंबचोयम अंगुलियाए 360, 476, 504 अंबदालम अंजण 360 अंबपलंब अंजलि 517 अंबपाणम अंड 324, 348, 353, 404,412, 431, अंबपेसिय 455, 458, 468, 566, 570, 571, अंबभित्तग 600, 612, 623-628, 626, 631, अंबवण 632, 637, 636, 641, 642, 646 अंबसालग अंत (अन्त) 460, 745 अंबाडगपलंब अंतकड 802, 803 अंबाडगपाणग अंतकम्म 754 अंबिल अंतरा 348, 353, 355, 408, 464, अंसुय 467, 468, 470, 471, 472, अकंतदुक्खा 473, 474, 463, 496, 500, अकरणिज्ज 502, 504, 505, 507, 506, अकसिण 517, 585, 586, 605 अकालपडिबोहीणि अंतरिज्जग 556 अकालपरिभोईणि अंतरियाए 772 अकिंचण अंतरुच्छ्य 402, 630, 631 अकिरिय अंतलिस्वजाय (त) 365. 416, 576- अक्कंतपुव्वे 578, 613 अक्खाइयट्ठाण अंतलिखे 531 अक्खाय(त) 377 373 366, 407, 550 557 766 340, 766 08 6 525 342 682 338, 522, 635 Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र 652, 677 660, 673 748, 751 734 135 746 324 733, 772, 764, 768 353, 371, 575, 612, 653 607, 762 शब्द सूत्र शब्द अगड 505 अट्ट अगडमह 337 अट्टालय अगढिए 357 अटु (अष्टन्) अगणि 363, 447, 511 अट्टम अगणिकाय 421, 423, 426, 440, 441 अटुमिपोसहिएसु अगणिफंडणाण 658 अट्ठासोति अगरहित 336 अट्ठि अगार 435, 436, 438, 436, 440, अद्विय 445, 733, 746, अहिरासि अगारबंधण 763 अड्ढाइज्ज अगारि 435, 436, 438-441 अणंत अगिद्ध 357 अणंतरहिता(या)ए अम्ग 751 अग्गजाय 384 अणंबिल अग्गपिंड 333, 352, 356 अणगार अग्गबीय 3-4 अणगारियं अग्गल 353, 466, 504, 535. 543 अणज्झोववण्ण अग्गलपासग 353, 466 अणणुण्णविय अग्गि 767 अणणुवीइ(यि) अग्घाउं 760 अणणुवीयिभासि अग्घाय 374 अणण्णोकंत अचित्त 638, 667 अणत्तद्विय अचित्तमंत 522, 783, 789 अणभिक्कतकिरिया अचेलयं 743 अणरियासमित अच्चा इण्णा 348, 465 अणल अच्चि 754 अणह अच्चुत 745 अणाइल अच्चुसिण अणागय अच्छ 354 अणागयवयण अच्छि 416, 488 अयामंतिया अच्छिमल 716, 722 अणायरिययुबाई अच्छियं 387 अणायाराई अच्छोप्प 766 अणारियाणि अज्झत्थवयण 521 अणालोइय(या) अज्झत्थिय 660 अणावाय अज्झवसाण 158 अभिकंप मज्झोववण्ण 374 अणिच्च 356,07, 784 784 781 864 331, 332 778 404 771 522 521 366 520 520 471 366, 778 346, 357, 361, 667 444, 576 763 Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] सूत्र अणिसट्ट शब्द सूत्र शब्द 331, 332, 338, 413 अण्णतरी 425 अणिसिट्ट 397 अण्णत्थ (णण्णत्थ) 384, 363, 416, 460 अणु 783, 786 अण्णदा 736 अणुकंपएणं 735 अण्णमण्ण 340, 422, 446-452, 460, अणुण्णव--- 35.6, 445, 607, 608, 621, 583, 584, 611, 618, 643 784 अण्णसंभोइय अणुत्तर 733, 770, 772, 763, 797 अण्णोण्णसमाहीए 410, 457 अणुपत्त 746 अण्हयकर 778 अणुष्पदातव्व 405 अण्हयकरी 524 अणुप्पसूय 381 अतिरिच्छछिन्न 325, 624, 627, 626 अणुप्पेहा 348 अतिथि(हि) 332, 335, 337, 348, 352, अणुलिप 754 357, 414, 435, 436, 438, अणुवीयि (यी) 445, 521, 551, 633, 436, 465, 468, 556, 564, 784 648, 646 अणुवीयिभासी 781 अतीत 522 अणणया 748 अतुरियभासी 551 अणेगाहगमणिज्ज 473 अतेणं अगेलिस 764 अत्तट्ठिय 331, 332 अणेसणिज्ज 324-326, 332, 335, 342, अत्थसंपदाणं 747 360, 363, 368, 366, 377, अधिर 570 378, 381, 386,387, 360, अदत्तहारी 584 403, 404, 405, 627, 641 अदिट्ठ 687 अणोरगहणसील 784 अदिण्ण 607, 783, 784 अणोज्जा 744 अदिण्णादाण 607, 783 अण्ण 342, 374, 430, 521, 533, अदुगुछिएसु 556, 584, 564, 607, 633, अदुटु 795 780 अदुवा 520 अण्णउत्थि 327-330 अदूरगय 366, 405 अण्णतर 324, 337, 340, 341, 353, अदूरसामंत 772 360, 365, 366, 370, 373, अद्दीणमाणस 771 375-380, 382-388, 364, अद्धजोयणमेराए 338, 474, 554, 586 365, 401, 406, 410, 416, अट्ठम 421, 456, 457, 557, 558, अद्धणवम 734 556, 561, 576, 562-565, अद्धमासिएसु 335 600, 634, 666-686, 666, अद्वहार 424, 726, 754 697, 668, 706, 707, 712- अधारणिज्ज 714, 716, 720 अधिकरणिए 778 336 Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध सूत्र 324, 325, 326, 331, 332, 335, 360, 261, 366 745 366, 371, 373, 375381, 386, 387, 360, 362, 367, 802-405, 446. 563, 564, 567, 566, 570, 562,563. 568, 603. 623, 624, 626, 627. 637, 681. 332 482. 516 421, 703 523 524. 525, 526, 527, 526, 534, 542, 544 शब्द सूत्र शब्द अधियपेच्छणिज्ज 754 अफासुय अधुणाधोत अधुव 520, 570 अपच्छिम अपडिलेहियाए 456 अपमज्जिय 356, 607 अपरिसाडा अपलि उंचमाण अपसू 607 अपाणय 766, 772 अपारग 802 अबहिया अपावए 778 अबहिलेस्स अपाविया 778 अभंगेज्ज अपियाई 342 अभासा अपुत्ता 607 अभिकख अपुरिसंतरकड 331, 332, 335, 337, 413-418, 556, 646 अभिक्कतकिरिया अप्प (अल्प) 324, 360, 402, 403, अभिक्खण 406, 412, 431, 455, 458, अभिग्गह 462, 468, 468, 502, 553, अभिचारियं 570, 571, 588, 624, 625, अभिणिक्खमण 627, 626, 630, 642, 647, अभिद्दवं 667, 783, 786 अभिपबुद्ध अप्प (आत्मन्) 357, 360,423, 428, अभिप्पाय 426, 437, 482, 563, अभिमुह 583, 611, 633, 734, अभिरूब 770, 775 अभिसेय अप्पतिट्टित 804 अभिहट्ट अप्पजूहिय 346 अभिहड अप्पडिहारिय 455 अभीरु अप्पतर 474 अभूतोवघातिया अप्पत्तिय 622 अमणण्ण अप्पसावज्जकिरिया 441 अमयवास अप्पाइण्ण 348, 466 अमायं अप्पाण 341, 343, 482 अमिल अप्पुस्सुए 4-2, 486, 515, 516 अमुग 518, 584, 742 अमुच्छ्यि 432, 781, 784 770 501 746, 747, 753 764 464 746, 753 754, 766 534, 536, 544 404-405 331, 332, 338, 413 763 525, 527 760 738 / 527 357 Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] शब्द 770,771 366 751, 753 अम्मा अम्मापिउ अम्मापिउसंतिय अम्मापियर अम्ह अयपाय अयबंधण अरइय अरण्ण अरहा अरह अरहंत अराय अरोय(ग) सूत्र शब्द 744 अन्वहित 786 अब्वाघात 743 अव्वोक्कत 780,745 असई 360 असंखेज्ज 562 असंघड़ 563 असंलोय 715, 716 असं सट्ठ 783 असच्चामोसा 773 असज्ज 752 असण 522 472 736, 737, 738, 36 346, 357, 361, 667 360, 406 522, 524, 525 324, 330, 331, 332, 335. 337, 343, 346, 346, 357, 360, 363, 365-368, 360, 362, 366,367, 406, 428. 446, 520, 537, 538, 568, 606, 686, 740 अलं 571 अलंकार अलकिय(त) 424,684 असणवण अलसग 421 असत्थपरिणय अलाभ अलित्त 476 असमणुण्णात अलू सए 766 असमाहड अल्लीण 741 असमिय अवढभाय 333 असावज्ज अवणीतउवणीतवयण 521 अवणीतवयण 521 अवयव 416 असासिय अवर 761 असिणाइ अवलंब 360, 466, 638 असिणाणय अवल्लएण 476 अमित अवस्टु 365, 602 असुद्ध अवहर 471, 468, 518, 586 असुभ अवहार 735 असुय अवहारादि 352 असुर अविदल 325 असोगलया अविद्धत्थ 366, 381, 470, 473, असोगवण अवियाई 350, 357, 360, 366, 437, अस्संजए(ते) 510, 512, 563, 583 375-376, 382, 384 388 367 343 778 525, 527, 526, 536, 538, 540, 542, 544, 546, 548, 550 325 352 427 725 732 687 760, 761, 764, 773 754 338, 361, 362, 363, 365. 366, 367, 368, Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध शब्द सूत्र सूत्र शब्द 371, 373, 415, 416, आईणपाउरण 558 417, 418, 421, 474, आउकाय 556 आउक्खय 734, 745 अस्सकरण 657 आउट्ट 340, 425, 728 अस्सजुद्ध 680 आउय अस्सट्ठाणकरण 676 आएस 363, 460 अस्सपडिया (अस्व-प्रतिज्ञा) 413, 555, 560, आएसण 435-401, 504 648, 650 आगंतार 374, 432, 433, 434, 445, अस्सलालपेलयं 608, 610, 611, 621, 633 अह(अहन्) 740 आगत 471, 520, 760 महाकप्प 762 आगति 773 अहाणुपुवी 741 आगर अहापज्जत 366 आगरमह 337 अहापरिग्गहिय 581 आगाढागाढ 416 अहापरिष्णात 445, 608,621 आजिणग अहाबद्ध 455 आणट्टगसहि अहाबादर 756 आणा 410, 776, 782, 785, 76?, अहामग्म 762 अहाराम 667 आताव 353, 421, 426, 458, 461, अहा(धा)रियं 482, 463-465 575-576, 772 अहारिह 745 आतोज्ज अहालंद 445, 608, 621 आतंक 340, 421 अहासंथड 456, 633 आदाए 324, 384, 345, 346, 353, अहासमण्णागत 456, 633 (आदाय) '357, 361, 366, 366, 400, अहासुत्त 762 (आयाए)/ 475, 520, 576, 603, 605, अहासुहुम 611, 667, 766 अहि(धि)यास 766, 771 आदिए 400 अहुणुभिण्ण 464 आदीयं ७४अहे (अधस्) 324, 340, 353, 404, आभरण 558, 686, 754, 766 576, 753, 802 आभरणविचित्त अहेगामिणी 474 आम 384-388 अहेसणिज्ज 433, 465, 466, 581 आमंतित 526 अहो (अधस्) 772 आमंतेमाण अहो गंधो 374 आमग 375-376, 382 अहोणिसं 768 आमज्ज 353, 363, 461, 467, 604, आइण्णं सलेक्वं 454, 616 661, 701, 708, 715, 725, आइण्णोमाण 342 727 526 Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] शब्द सूत्र शब्द 300 740 आमडाग 381 आसम 338,675 आमय 380 आसय आमलगपाणग 373 आसाढसुद्ध 378 आमोय 656 आसायपडियाए 734 आमोसग 516, 17, 518, 585, 506 आमोत्थपवाल आयंक 553 आसोन्थमंथ आय (वस्त्र) 557 आसोयबहुल 735 आयतण 408, 435, 456, 522, 556, आहड 362 564, 633, 638 आहत 682 आयरिय 396, 400, 460, 505-507 आहार- 401, 407, 408, 478, 517, आयाण 338, 340, 342, 353, 357, 563, 564-566, 586, 567 363, 365, 367, 368, 361, आहाकम्मिय 338, 360, 362, 437, 416, 421-425, 444, 456, 568 471, 472, 473, 866,505, आहार 341, 350, 361, 366 568, 566, 602 आहारातिणिय 507, 506 आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा 778 आहित 803 आयाम 370 आहुत आयार 835, 436,438-841, 520 आहेण 348 आयावणाए 772 इंगालकम्मत 435 आयाहिण-पयाहिणं 754 इंगालडाह आरंभ 440, 763 इंदमह 337 आरंभकड 536, 538 इंदिय 540, 787 आराम 324, 340, 404, 656, 676, इंदियजाय(त) 365, 416, 444 727 इक्कड़ 456, 633 आरामागार 374, 432, 445, 608, इक्खागकुल 621, 633 इट्ठ आराहित 776, 782, 85, 786, 761, इढि 762 इतराइतर आरुहई 758 (इतरातितर) 341, 350, 437-441 आलइयमालमउडो 757 (इतरातियर) आलएणं 770 इत्थ आलेक्खचित्तभूत 366 इथिविग्गह 340 आवास 793 इत्थी 521, 528, 526, 686, 787, आवीकम्म 773 766 आवीलियाण 373 इत्थीवयण 521 आस 354, 502 इरिया 778 आसण 543, 787 इहलोइय . 687 m 687 . , Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध उक्किट्ठ 505 शब्द सूत्र शब्द 445, 608, 621, 623, 628 उड्डोए ईसाण 756 उड्ढ 753, 772 ईसि (सि) 754, 766 उड्ढगामिणी 474 ईहामिय 754 उण्ण मिय 360, 476, 504 335 उत्तम 758 उंछ 443, 465, 466 उत्तर 761,772 उंबरमंथ 380 उत्तरखत्तियकुडपुर उक्कंबिय 415 उत्तरगुण 745 उक्कस४७४, 477, 478 उत्तरपुरस्थिम 753, 772 753 उत्तरिज्जग 556 उक्कुज्जिय 366 उत्तरेज्जा 466 उक्कुडुय 456, 633, 772 उत्तसेज्ज उक्खा 335, 337 उत्ताणए उक्खुलंपिय 360 उत्तिंग 324, 348, 481, 482 उक्खित्त 443, 757 उदउल्ल 360, 371, 460, 461, 466, उविखपमाण 467,604 उग्गकुल 336 उदक(ग)पसत 417, 511 उग्गह 356 उदग 324, 348, 447, 470, 473, उच्चार 353, 416 474, 480, 482, 485-460, उच्चारपासवण 430, 456, 645-667 463-466, 502, 511, 515, उच्चावय 423, 424, 486 516, 603, 616 उच्छु 385, 626 उदगदोणि उच्छुगंडिय 402, 630 उदय 748 उच्छुचोयग 402, 630 उदर 365, 481 उच्छुडालग 402, 630 उदाहु 405 उच्छुमेरग 382, 402 उदीण 338, 360, 406, 435-441 उच्छवण 626 उदीरिय 765, 768 उच्छुसालग 402, 630 उदूहल उजुवालिया 772 उदेतु 530 उज्जाण 543, 544, 656, 676, 727, उद्दवणकरी 524 766 उद्दिसिय 338, 360, 456, 476, उज्जुय 353, 354, 355, 356, 443, 504, 556, 564 466, 470, 466, 500 उद्धट्ट 371, 466 उज्जोत 737 उपासग 527 उज्झिय 402, 403 उप्पज्जति उज्झियधम्मिय 556, 564 उप्पण्ण 775, 776 उडुबद्धिय 433, 434 उप्पल 770 383 Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 441 485 সু 404 357, 406, 456, 522, 559, 564, 633, 638 433, 434 529 353, 421, 451, 461 754 734, 735 550 360, 416, 421, 452, 666, 705, 712, 716 365 745 शब्द सूत्र शब्द उप्पलणाल 383 उवहित उपिजलगभूत 737, 774 उवातिक्कम्म उप्फेस उब्भव 734 उवातिणावित्ता उब्भिण्ण 464 उवासिए उम्मम्ग 488, 468, 515, 516, 584 उध्वट्ट उम्मिस्स 324 उसभ उयत्तमाण 363 उसभदत्त उरत्थ 726, 754 उसिण उराल 742, 743 उसिणोदग उल्लोढ(ल) 665, 704, 711, 718, 754 उसुयाल उवएस 357, 363, 421, 444, 456 उस्सविय उवकर 361, 428, 598 उस्सास उवखड---- 346, 361-363, 428, उस्सेइम 537, 538, 568, 740 रु उवमय(त) 734, 735, 736, ऊसढ 746, 766, 772 ऊससमाण उवगरणपडिया 516, 518 ऊससेज्ज उवचरए 430, 471 एज्जासि उवचितकाए 540 एग उवज्झाय 366, 460, 505-507 एगंत उवट्ठाण 434 उठ्ठिय 410, 753 एगझं उवणीतअवणीतवयण 521 एगति (इ)य उवणीयवयण 521 उवधि 486 उवरय 390, 425, 437, 801 उवरुवार 482 उवल्लीणा 453 उववन्न 745 एगत्तिगएण उववाय 773 एगदा उवसग्ग 462, 770, 771 एगवयण उवस्सय 324, 338, 340, 404, 412- एगाभोय 425, 427-431, 437, 444- एगावली 454,'456, 543, 616, 617, एगाह 616, 667 एताए 366 365, 481 357, 416, 538, 548 461 461 566 331, 745 324, 346, 353, 357, 361, 404, 475, 576, 667, 754 340 340, 350, 357, 360, 361, 366, 400, 401, 405, 406, 435-441, 443, 533-535, 546, 550, 583, 670-681, 656 482 521 475 424, 751 473,583 561, 566 Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध शब्द एताणि एत्थ(त्थं) एयारूव एरिसिया एसणा एसणिज्ज एसमाण एसियकुल ओगाहओग्गह ओग्गहणसीलए ओग्गहिय सूत्र शब्द 566 कंत 687, 754 430, 502, 520 कंद 417, 511, 566, 651, 654, 728 770 कंदर 41 424 कंदरकम्मत 435 561, 566, 764 कंबल 325, 326, 332, 336, कंबलग 557 343, 406, 456, 556, कंसपाय 641 कंसतालसद्द 671 561,566 कक्क 421, 451, 662, 704, 711. 718 474, 486 कक्कस 524 607--616, 621-623, कक्खड 633, 635, 784 कक्खरोम 784 कच्छ 505, 674 606,610, 611, 622 कट्ठ 353 623. 626, 633, 784 कट्ठकम्म 686 663 कठकम्मत 435 533 कट्ठकरण 772 360, 476, 504 कटसिल 581 कडग 342 कडव 656 534 कडिए 415 370 कड्य 407, 524 425 कडुयाए 407 367 कडवेयणा 355 कढिण 755 कण 734 कणकुडग 325, 547, 548, कणग 558, 746, 758 324, 342 कणगकंत 558 802 कणगखइय 336, 368 कणगपट्ट 507, 506 कणगफुसिय 505, 515, 516 कणगावलि 360 कणपूलि 356 कणियारवण 355, 403, 404, 696 कष्ण ओघायतण ओछिन्न ओणमिय ओमचेलिय ओमाण ओयंसो ओयत्तियाणं ओस्सि ओलित्त ओवाय ओसत्त ओसप्पिणी ओसहि ओसित्त 424 856 ओह ओहरिय कओ KG AN ACMCN 6 x xxx bur U ..sss.om. कंखेज्जा कंचि कंटकगबोंदिय कंटय (ग) Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :1 [विशिष्ट शन्द सूची] 443 शब्द कषणमल कण्णसोयपडिया कण्णसोहणाए कण्ह कण्हराइ कथित कदलिऊसुगं कदायी कपिंजलकरण कप्प कप्परुक्ख कप्पेज्ज कब्बड कम्म कम्मकर(री) सूत्र शब्द 722 कहक्कह 737 666-674, 685,686 कहमाण 787 611 कहा 787 550 कहि 507, 506 751 काणम 385 773 काम 366, 405, 445, 608, 621, 385 736 कामगुण 766 657 कामजल 576 433, 434, 745, 751 कामभोग 742 754 काय 342, 353, 365, 416, 421, 723 460, 475, 481, 487, 460, 461, 463-467,515, 516 440, 441,607, 770 536, 540, 638, 643, 702. 337, 350, 360, 360, 721, 770, 771, 777, 776 361, 401, 422, 425, 780, 782, 788, 761, 762 435-446, 441-453, काय (पात्र) 502 456, 556, 564, 618 काय (वस्त्र) 557 750 कायब्ध 405 770 कारण 357, 363, 416,421, 444, 650, 743 456 373 काल 341, 350, 733, 734, 737, 745, 747, 762 683 कालगत 746 754 कालमास 421, 517 कालातिक्कंतकिरिया 535, 537 कासमाणे 461 342 कासवगोत्त 735, 743, 744 680 कासवणालिय 387 676 किंचि 365, 400 373 किच्चेंहिं 440 376 किट्टरासि 324 657 किण्हमिगाईणम 558 365, 404, 550 किरिकिरियसद्द 671 325, 730, 772 करिया 433, 434, 645 382 किलामेज्ज 365 787 किलीब 340 804 745 कम्मभूमि कम्मारगाम कय करीरपाणग कलंकलीभावपवंच कलह कलिय कलुणपडिया कल्लाण कवाल कविजलजुद्ध कविजलवाणकरण कविटपाणग कविसरड्य कवोयकरण कसाय कसिंण कसेरुग कहइत्तए Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध 338, 340, 342, 353, 357, 363, 365, 367, 368, 361, 416, 444, 456, 471, 472, 473, 466, 505, 568, 596, 602, 773, 778, 781, 784, उ८७, 760 कुभी 724, 735 706, 743 784 781 557 कुच्छि कुट्ठी शब्द सूत्र शब्द किवण 332, 335, 337, 348, 352, केवली 406, 414, 435, 436, 438, 436, 465, 468, 556, 564, 646, 140 कीत 331, 332, 413, 556 कीयगड कुजर 754, 764 केस कुडल 424, 568, 750 कोकतिय कुदलयभत्तिचित्तं 754 कोट्टागकुल कुभिपक्क 387 कोट्टिमतल 335 कोडालसगोत्त कुंभीमुह 335 कोडी कुक्कुडकरण 657 कोडिण्णा कुक्कुडजातिय 356 कोतुगभूइकम्म कुच्चग 456 कोधणे 734, 735, 740 कोयवाणि 533 कोलेज्जातो कुपक्ख 526 कोलपाणग कुमार 740 कोलसुणय कुमारी 424 कोलावास कुराईण 346 कोसग कुल 341, 346, 350, 361, 740 कोसियगोत्त कुलत्थ 655 कोह(ध) कुलिय 543, 577, 614 कोहणाए कुविंद 481 कोही 456, 745 खंति कुसपत्त 481 खंदमह कुसल 754, 766 खंध 745 खंधजाय 755, 762, 763 खंधबीय कुसुमिय 762 खचितंतकम्म कूडागार 504 खजूरपाणग 486 खजूरिमत्थय 772 खत्तिय केयइवण 666 खत्तियकुल केवतिय 502, 513, 514 खत्तियाणी केबलवरणाणदमण 733, 772 खद्ध 373 353,653 744 520, 551, 780, 81 781 781 कुस कुससंधार कुसुम 770 337 365, 416, 578, 615,652 384 384 754 373 384 346, 735 कूरकम्म कूल 735-737 352, 357, 363, 366 Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] सूत्र शब्द खुय खरमुहिसद्दाणि 466 378 756, 760 खलु खहचर खाइम 361, 400, 460 733, 734, 735, 740 548 681 455 सुत्र शब्द 734 गड्डा 672 मढिए 334 गण 505 गणधर 324, 360, 406, 428, गणावच्छे इय 446, 518, 686, 740 गणि 766 गति 664 गब्भ 355, 666 गभिय 156 गयजहियट्ठाण 662 गरुय 350 गरुल 741 गवाणी 346 महण 346 गहणविदुग्ग 346 गात(य) 766 गाम 420, 444, 616 350 338, 416, 444, 684 गामंतर 338 गामधम्म 768 गापिडोलग 353, 416 गामरक्खकुल 741 गामसंसारिय 757 गामाणुगाम 553, 557, 556 खाओवसमिय खाणी खाणु खाणुय खारडाह खीर खीरधाती खीरिज्जमाणी खीरिणी खोरिया खीरोद सागरं खुड्ड खुड्डाए खुड्डिया खेड खमपद खेल खेल्लावणधाती खोमयवत्थणियत्थो खोमिय खोल 757, 750 664 466, 505, 515, 516, 674 421, 450, 451, 452 338, 342, 350, 361, 412, 465, 466, 502, 513, 514, 607, 637, 675, 770, 773 581 340 357, 502 गंड 712, 717 533, 543 326, 344, 345, 350, 361, 407, 408, 456, 464, 467-474, 461, 462, 463,497-501, 504, 505, 506, 506. 518, 584, 585, 586 327-330 गंडी गंथिम गंध गंधकसाय गंधमंत गंधवास गगणत(योल गज्जदेव गज्जल 374, 55.0, 736, 787 गारत्थिय 751 गावी 522 गाहावति 735 762, 763, 764 530 324, 325, 327, 333, 335, 337, 340, 344, 345, 346, 350, 356, 360, 360, 361, 406, 421, 424, 425, 427, Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध गाहावतिणी गिद्ध गिद्धपिठाण गिम्ह गिरि 4WU मिरिकम्मत गिरिमह गिलाण मिह गिहेलुग गीत गुजालिया गुच्छ गुज्झाणुचरित सूत्र शब्द -430, 432, 435, 437, गोरहग 541 448-453, 456, 482, गोल 526, 528 456, 518, 556, 582, गोसीसरत्तचंदणेणं 754 602, 603, 605, 608, गोहियसद्द 671 611, 617, 618, 621, घडदास 633, 635, 651, 654, घट्ट 655 घण 765 340, 350, 425 घण्टा 758 374 घय 350, 421, 450, 567, 664, 703, 710, 717 701, 733, 766 घसी 738, 762 वाण 435 घात 486 337 धासेसणा 363, 407, 460, 728 घोस 446, 543 चर 335, 456, 457 576 चउक्क 662 चउत्थ 406, 456, 522, 556, 564, 633, 638, 734, 772, 778, 469 781, 787,786, 760 531 चउम्पय 406 424, 568 चउमुह 661, 678 360 चउयाह 473, 583 771 चउवग्म 643 770 763 464 चंगबेर 350 चंदण 754 370, 445, 484, 583, चंदणिउयए 607, 783, 784, 710 चंदप्पभा 754, 766 726 चंपगवण 354, 510, 536 चंपयपायवे 741 772 चक्क 500 660, 677 चक्ख 754, 760 664 चक्खुदंसणपडिया 686 324 चक्खुल्लोयणलेस्सं 754 435, 436, 438-441 चच्चर 661, 678 558 चत्तदेहे 770 गुण गुणमंत गुत्त गुत्ति गुम्म गे(गि)ह गेवेय गोण गोदोहिया गोपुर गोप्पलेहिया गोमयरासि गोयर गोरमिगाईणग Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 विशिष्ट शन्द सूची] 447 शब्द चमर चम्म चम्मकोस चम्मछेदण चम्मपाय चम्मबंधण चयण चयमाणे चरित्त चरिम चरियारते चरियाणि चलाचल चवलाए चाउमासिय चाउल चाउलपलंब चाउलपिठ चाउलोदग चामर मल सूत्र शब्द सूत्र 754 चीवरधारि 485 444 चु बेज्ज 444 चुण्ण 421, 451, 565, 704, 711, 718 444, 484, 07, 622 चुण्णवास 738 562 चेत 321, 332, 360 563 चेतसा 773 चेतिय 772 764 चेतियकड 504 766, 767, 768, 766 चेतियमह 745 चेत्तसुद्ध 483 चेल 368, 444, 481 660, 677 चेल (पाय) 562 488, 576 चेलकण्ण 753 चेंचतिय 756 335 छज्जीवणिकाय 776 326, 388 छट्ठ 406, 633, 758, 766, 772 326, 361, 406 छट्ठी 734 388 छड्डी 421 366 छण्हं 745 756 छत्तग 484, 484, 607, 622 505 छन्न 415, 650 526 छमासिय 335 754 छवीया 547 360 छन्व 373 छाया 766, 772 753 छावणतो 440, 443 746 छिदिय 540 छिण्ण 325, 467,604 754 झिवाडि 325 689 छीयमाणे 461 353, 361, 362, 653, छेदकर 778 783, 786 छेयणकरि 524 354, 515 छयायरिय 754 366 जंगिय 553, 556 444 जंघासंतारिम 463-465 557 जंत 485 जंतपल 751 चारिय चारु चालिय चिचापाणग चिध चिच्चा चितमंससोणिते चित्त चित्तकम्म चित्तमत चित्ताचेल्लड चिराधोत चिलिमिली चोणंसुय चीवर Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रू तस्कन्ध शब्द जंतलट्ठी सूत्र 752, 755, 758 747 जंतु सूत्र शब्द 543 जिणवर 793 जिणवरिद 456 जिब्भा 734, 753 जीय 772 जीव 760 जंतुय जंबुद्दीव जभियगाम जक्खमह जग 331, 332, 353, 365, 413, 752 जण जणग जणवय जन्नुवायपडिते जरमरण जल जलचर जलथलमंदिव्बकुसुमेहि जल्ल जव जवजव जबस जवोदग जस 681 जससे 728, 745, 752, 773, 774. 357, 502, 765 778, 790 526, 528 जीवणिकाय 745 471, 472 जीहा 760 766 जुगमायं 466 755 जुगल 754 474, 475, 463 जुगव 505, 510, 536, 540 जुण्णतयं 801 755 जुति 753 721 जुत्त 758 655 जुवंगव 655 जुवराय 472 500, 502, 512 ज्य 724 370 जूहियाण 797 जेठ 744 744 जोग 734-737, 746, 754,766, 772 534 जोग्गे 541, 543 425 जोतिणा 800 744 जोतिसिय 737, 736, 753, 774 744 जोयण 470 407 झत्ति 753 543, 753, 754 झल्लरि 764 435 झल्लरीसद्द 666 435 झाणकोट्ठोवगत 772 772 झामथंडिल 324, 253, 404, 576, 667 381,733, 773 झिज्झिरिपलब 377 544 झुसिर 672, 765 517 टाल 734, 735 ठितिक्खय 734, 745 777, 780,783 डमर 683 410, 773, 768 डहर जसंसी जसस्सि जसवती जसोया जहाठित जाणा-यान) जाणगिह जाणसाला जाणु 545 जात जातिमंत जायणा जालंधरायणसगोत जावज्जीव जिण Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची 446 सूत्र णट्ट शब्द सूत्र शब्द डागवच्च 665 णात 735, 746 डाय 357 णातपुत्त 746 डिडिम 406 णातसंड डिब 683 णाति 737 ढकुणसद्द ও সামি जंगल 543 णाम 743, 766 णदिवद्धण 741 णामगोय 446 णक्कंसि 488 णामधेज्ज 740, 743, 744 णक्खत्त 734, 735-736, 746, 766, 772 गामेगे 350, 407, 408, 427 णगर 338, 514, 637, 675, गायकलविणिवत्ते 746 754, 772, 780 णालिएरपाणग 373 गग्गोहपवाल 378 णालिएरिमत्थय 388 गग्गोहमंथु 380 गालिया 444 णच्चत 686 गावा 474-482, 485, 486 682 गावागत 447-481,484,485 णत 767 णासा 760 छत्तुई 744 णिकाय 752 णदिआयतण 663 णिक्खमण 348, 351, 616 गदी 505, 772 णिगम 338, 675 णसग 521 णिमिण णपुसगवयण 521 णिमहेज्जा 400 गभदेव 530 णिग्गंथ 342, 553; 776, 778, णमोक्कार 781, 784, 787, 760 णर 754, 764 णिग्गंथी णवए 572, 573 णिग्धोस 360, 404, 425,437, 485, णवणीत 350, 421, 450, 567 561,563, 564-566, 583 णवण्हं 736 मिट्ठाभासी 521, 551 णविया 664 णिद्वितं 360 638, 643 मिट्ठर 524 महच्छेदणए 611 णिणाओ 764, 767 महमल 722 णिण्णक्खु 416-418 माग 761 णितिय 333, 444 णागमह 337 णितिउमाण णागवण 666 णिदाण 584 णागिद 760 णिद्ध 357, 550 माण 766, 775, 778 णिमित्त 745 गाणि 756 णिमुग्गिय 488 जह Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 050 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध शब्द सूत्र णियाग :54 553, 108 325, 424 658 762-764 682 x 770,767 754 425, 430 345, 466, 771, 766 367, 440 430 682 सूत्र शब्द णियंठ 338, 340 तरच्छ णियत्थ 754 तरुण णियम 660, 728 तरुणिय 443 तरूपडणट्ठाण भिरालंबण 801 तल णिरावरण 772 तलताल गिरासस 801 तलाग णिरुवसग्ग 462 नव पिलुस्क 767 तवणीय णिवात (य) 338, 460, 462 तवस्सि णि कुटुदेव 530 तस णिव्यत्तदसाहसि 740 तसकाय णिव्वाण 770, 774 तस्संधिचारि णिसम्मभासी 551 तहागय गिसिट्ट 267 ताइणा णिसिर 360, 366, 405. 437,568, ताल 583, 566 तालसद्द णिस्सास 754 तालपलंब गिस्सेणि 365, 418 तालमत्थय णीपूरपवाल 378 तालियंट णील 550 तावइय(तित, तिय) णीलमिगाईणग 558 तिक्खुत्तो णीलिया 547 तिगुण णम 505, 674 तित्तयाह णमगिह 504 तित्तय तउपाय 562 तित्तिरकरण तति 682 तित्थ तंबपाय 562 तित्थगर तक्कलिमत्थ। तिण्णाणोवगत 384 तक्कलिसीस तिपडोलतित्त एण तग्गंध 427 तिमासिय तज्जिय 360 तियम तडागमह 337 तियाह तण 353, 456, 466 तिरिक्खजोणिय तणज 431 तिरिय ततिय 522 तिरियगामिणि 718 तिल 377 384 366, 366, 404 326,754 434 407, 758 65 746 736, 750 754 873, 583 786 753 474 388, 655 Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 451 सूत्र 474, 475, 463, 755 406, 766 402 777, 766 540, 548, 553, 571, 583, 584, 588 576, 613 504 536, 783, 786 342, 444, 607, 756 562 शब्द सत्र शब्द तिलपम्पड 388 थंभ तिलपि 388 थल तिलोदग 370 थलचर तिव्वदेसिय 345 थाल तिसरग 424 थालिग तिसिला 735-740, 744 थावर तीर 460, 466 थिग्गल तेंदुग 387 थिर तुबबीणियसद्द 670 तुच्छय 568 थूण तुट्टि 770 थूभ तुडिय 424 थूभमह तुडियपडुप्पवाइयट्टाण 682 थूल तुणयमद 67. थेर तुरग 758 दंड(डंडग) तरियषिणाओ 767 दंत तुरियाए 753 दतपाय तुसरासि 324 दंतकम्म तुसिणीय 357, 362, 477-478, दंतमल 484, 510, 517 दस-मसग 370 दंसण 764 दगतीर तूलकड 553, 556 दगछड्डणमत्त तेइच्छ 728 दगभवण 36. दगमष्ट्रिय 387 दगलेव तेज 798 दधि 767 दब्भकम्मत तेस्सि 425 दम्म तेयंसी 534 दरिमह तेरसम 772 दरिसी तेरसीपक्खेणं 735, 736 दरी तेरिच्छिय 770, 771 दविय तेल्ल 350, 421, 450, 567, 664, दवि 703, 710, 717, 754 दसमी तेल्लयूयं 363 दसराय तोरण 353, 468,583 दसाह 732 462 775, 776 466 तुसोदग तेंदुग 324, 348 406 350 तेय 541 773 466, 504, 656 505 746, 766, 772 740 Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र दाणं WKAM सूत्र शब्द दस्सुगायतण 471 दुत्तर 505 दुपय 406 दहमह 33.7 दुप्पण्णवणिज्ज दाडिमपाणग 373 दुब्बद्ध दाडिमसरड्य 376 दुब्भि 364 740 दुब्भिगंध 550, 574 दार 77 दुम्मण 486 दारग 484 दुयाह दारिंग(य) 484, 688 दुरुक्क 380 दारुपाय 588, 564 दुबग्ग 643 दारुय 353, 421, 426, 653 दुवयण 521 दालिय 338 दुवार (40, 443 दास दुवारबाह दासी 337, 350, 456 म दुवारसाहा 360 दाहिण 338, 360, 406, 435-441, दुवारिया 338,816, 444 761, 766 दुसद्द 546, 550 दाहिणड्ढभरह 734 दुसमसुसमा दाहिणमाहणकुडपुर 734,735 दृस्सण्णप्प 471 दिवस 766, 770, 772, 774 दुहसेज्ज दिव्व 753, 755, 756, 767, 770, दुही 771, 784 दुस दिसाभाग 753, 772 देव 735, 736-736, 743, 750 दिसासोबत्थिय 752, 753, 760, 765, 566, 734, 753, 766 768, 373, 774, 775 दीविय 354 देवकुल 435, 656, 676 723 देवगतीए 544 देवच्छंदय 505 देवत्ताए 345 दृपक्ख 440 देवपरिसा 766 दुक्ख 340, 421, 745 देवराय दुक्खखम 803 देवलोग 746 दुक्खा 766 देवाणंदा दुक्खुत्तो 326 देविंद 754, 766 दुगुण .434 देविंदोग्गह दृगुल्ल 557 देवी 737-736, 753, 774 515, 516 देसभाग 754 दुग्गं 427 देसराम दुण्णक्खित्त 444, 516 देह 77. दीव दीह दीहट्ट m xx दीहिया दुग्ग 557 Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] भ दोणमुह 561 सत्र शब्द दोज्झ 581 पंच 338 पंचदसरायकप्प 467, 468 दोन्बलिय 486 पंचम 406, 633, 735, 778, दोमासिय 335 781, 784, 87, 760 दोरज्ज 472, 683 पंचमासिय दोस 780, 760 पंचमुट्ठिय 766 धण 740, 746 पंचरातेण धषण 740, 746 पंचवग्ग धम्म 360, 425,437, 787, 760 पंचविह 635 धम्मज्झाण 772 पंचाह 473, 583 धम्मपय 767 पंचेंदिय 766 धम्मपिय 527, 526 पंडग 787 धम्माणुओर्गाचता 348, 465, 616 पंडरग 780 धम्मिय 402, 403, 406,517, पंडित 766, 802 527, 526 पंत 400 धर 750, 766, 777 पंथ 440, 464, 617 धरणितल ___ 764 पक्क 545, 547 धाती 337, 350, 425, 741 पक्ख 734-736, 746, 766, 772 धातइवण 666 पक्खि 505, 510, 536 धारी 757 पक्खिबह 485, 486 धितीमतो 800 पक्खेवं 735 341, 520, 5.71 पगणिय 332, 414, 438 331, 350, 825, 784 पगत्ताणि 656 ध्रुवण जाय 698, 07 पगासगा 768 542 पग्गहेणं 770 धोतरत 581 परहिततराग धोय 556 पघंस 421, 451, 564, 572 नंदीसहाणि 666 पच्चंत 685 नक्कच्छिण्ण 533 पच्चंतिक 471 न(ण)क्खत्त 334.-736, 746 पच्चक्खवयण 521 नि(णि)रावरण 733, 772 पच्चावाय 340 निस्ययरा 768 पच्छाकम्म 367,6406, 427 पउम 421, 451 पच्छापादे(ए)ण 444 पउमलयभत्तिचित्तं 754 पच्छासंथुय 350,6361, 361 पउमसर 762 पहित पओर 531 पज्जत्त 766 पंकायतण 663 पज्जवजात 406 ध्रुव / धूया(ता) धेणू 346 Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 आचारांग सत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प सूत्र 435 435 787 348, 447-454, 456, पड शब्द सूत्र शब्द पज्जाए 773 पणियगिह 754 पणियसाला पट्टण 338,675,754 पणीय 766 पण्ण पडह 764 पड़ायपरिमंडितग्गसिहरं 754 पष्णरस पडिकल 427 पण्णवं पडिग्गह(ग) 350, 370, 400, 404, पण्णहतरी 405, 406, 471, 472, पण्णा 480, 568, 596, 602 पतिण्णा مع .. الله .. 734 767 357, 363, 416, 421, 444, 456, 566, 602 353, 368, 417, 511 686 360, 416, 452, 565, 573, 666, 705, 712, 713 536, 538 544 754 660 406, 456 पडिमाहधारि 406 पत्त (पत्र) पडिणीय 622 पत्तच्छेज्जकम्म पडिपह 354. 510-512, 515, 584 पत्तोवएसु पडिपिहित 356 पदुग्ग पडिपुण्ण 540, 733, 736, 772 पधोवपडिरूव 448, 617 पडिमा 410, 456, 457, 556, 560, पमाण 564, 595, 633,634, 638, पयत्तकड 636 पयत पडिरूव 534, 566, 544 पयातसाला पहिलोम 427 पयाहिण पडिवण्ण(न) 410, 443, 766 परकिरिया पडिविसज्जेति। परग पडिविसज्जेत्ता 770 परदत्तभोई पडीण 338, 360, 406,435 परपडिया ----441 परम पडुप्पण्ण 522 परलोय पडुप्पग्णवयण 521 परय पडुप्पबाइयट्ठाण 682 परिग्गह पडोल 754 परिघासिय पढ़म 406, 456, 522, 556, 568, परिजविय 633, 638, 736, 746, 766, परिणय 777, 778, 776, 781, 784, परिणाम 787,760 परिणचारि पणग(य) 324, 348, 473 परिणा पणवसद्द 606, 610 764 687 804 786, 793 328 462 366, 742 421, 426, 474, 583, 584 800 477-481, 484, 510, 512-514, 801 Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शन्द सूची] शब्द परिण्णात परितावणकरि परिदाहपडिया परिभाइयपुवा परिभुत्तपुव्वा परिमंडिय परियट्ट परियट्टण परियाग(य) परिभाएह परियारणा परियावरण परियावसह 504 505 674 502 420, 510, 536, 616, 87 548, 736-736 348 338, 360, 406, 435-441 766, 772 सूत्र शब्द 608, 621 पब्बतगिह 524 पब्बतविदुग्ग 465 पव्वयदुग्ग 443 पसिण 331,332, 382,443 पसु 754 पसूया 335 पहेणं 348 पाईण '735, 745, 772 पाईणगामिणीए 357, 405 पाउं 340 पागार 366, 405, 406 पाडिपहिय 3.78, 432-834, 845, 608, 621, 633 पाडिहारिय 741 पाण(पान) 536, 540 पाण(प्राण) 354 पाणग 766 पाणगजाय 462 पाणातिवाइय 743 पाणातिवात 521 पाणि 754 पासणा 3.77 पादपीठ 856, 633 पादपुछण 856 पादिस 431 पादोसिए 725, 726 पाय(पाद) 804 परिवुद्ध परिबूढ परिसर परिसा परिसाड परीसह परोक्वक्यण पलबंत पलबजात पलाल पलालग पलालपूज पलियंक पवंच पवत्ती पवर पवा पवात पवाल पवालजात पविटु पवुटुदेव पव्वत 466, 504 466, 502, 507, 506 -512, 513, 514 455, 583, 611 324,330 इत्यादि 324, 331 इत्यादि 568 366-371, 373, 365 778 ওওও, ওও 406, 461, 466, 611 406,410 667, 754, 756 471, 518, 645 536 778 324, 342, 365, 406 416, 444, 456, 460, 466, 475, 480, 481, 487, 463, 464, 468, 663-700, 725 342, 404, 405, 517, 518, 585-560, 562 -564, 597, 600, 603 360, 362, 405, 428, 598, 626, 626, 630, 632 734, 754 835, 659, 676 338, 460, 462 पाय (पात्र) 740 378 565 पाय(त)ए 105, 543, 544, 674 Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र 378 380 440 476 443 15 365, 418, 865, 466, 543 610, 652 773 734 S 367, 368, 440, 441, 776 शब्द सूत्र शब्द पायखज्ज 545 पिलखुपवाल पायच्छित्त 745 पिलक्खुमंथु पायरास 748 पिहण पायव 741 पिय पारए 460, 466 पिहाण पारिताविए 778 पिहुण पालंब 424, 726 पिहुणहत्थ पालंबसुत्त 758 पिहुय पाव 607 पीढ पावकम्म पावग(ए) 584, 778 पीयं पावार 557 पुडरीय पाविया 778 पुग्गल पास(पाव) 756, 761 पुच्छण पासवण 353, 416, 430, 456, 645 पुट्ठो -~647, 646-667 पुढवि(वी)काय पासाद 504, 652 पासादिय 534, 536, 544 पुढविसिला पासादीय 754 पुढवी पासाय 543, 578 पुण्ण पासावच्चिज्जा 745 पुन्नागवण पाहुड 437---441 पुत्त पाहुडिय 443 पिंड 333, 350, 407 पुष्फ पिंडणियर 337 युप्फुत्तर पिंडवायपडिया 324, 325, 333 इत्यादि पुप्फोबय पिडेसणा 406, 410 पुमं पिढरग 406 पुरत्थाभिमुह पिता 744 पुरा 353, 416 पुराणग पित्तिय पुरिस पिप्पलिग(य) 611 पुरिसंतरकड पिप्पलि पुरिसवयण पिप्पलिचुष्ण पियकारिणी 744 पुरेकड पियदसणा 744 पुरेकम्मकय पिरिपिरियसहाणि 672 पुरेसंथुय 353, 371, 575, 612, 653 474 337, 350, 425, 456, 611, 633, 651, 654, 655 365, 417, 511 734 526, 527 754, 766 346, 352, 357, 361,444 पित्त 321 744 522, 684, 686 331, 332, 335 इत्यादि पुरे 338, 340, 348 800 360 350, 361, 366 Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 457 शब्द पुलय पुब्व 557 550, 760 522 पुवकम्म पुवामेव पुम्बकीलियो पुव्वरय पुव्वं पूति पूर्तिआलुग प्रतिपिण्णाग पूय पूयण सूत्र शब्द 715, 716, 760, 768 फालिय 342, 357, 363 इत्यादि फास 427 फाममंत 337, 350, 353 इत्यादि फासविसय कासित 787 फासुय 760 बंध 416 बंधण 382 बंभ 381 बंभचेरवास 350, 363, 700, 714 बब्बीसगसद्द 766 बल 686, 754 बलवं 350 बलसा 754 बलाहग बहुओस 55. बहुखज्जा 325, 335, 337 इत्यादि बहुणिवट्टिम 673 बहुदेसिय 505 बहुमज्झ 383 बहुरज (य) 383 बहुल 404, 753 बहुसंभूत 553, 556 बायर 686 बाल 384 बालभाव 384 बाहा 776, 782,788, 761 325, 326, 332 इत्यादि 803 804 751 770 760 746, 753 553, 588 486 531 348 547 546 572-574 754 पूरिम पेच्चा पेलव पेस / पेसलेस पेहाए पोक्खर पोक्खरणी पोक्खल पोक्खलथिभग पोमाल पोत्तग पोत्थकम्म पोरजाय पोरबीय पोरसीए पोसय पोसहिय फरिस फस फल फलग फलिह फलोवय फाणित 735, 746, 766 545---588 777 460, 471, 472, 486 472 360, 476, 485, 486, 501, 504, 505 622, 651 350 365, 481 354 362, 405 461 बाहिं 335 बाहिरग 742 बाहु 360, 520, 524, 765 बिराल 417, 511, 545, 546, 770 बिल 365, 418, 465, 466, 610 बिल्लसरड्य 543, 673 बीओवय 666 बीय(बीज) 350 बीय(द्वितीय) 324, 348 इत्यादि 522, 588 Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध 350 . 734 337, 456, 464 517, 742, 766, 773 778, 781,784, 787, 760, 522 757 507, 506, 521, 123-- 530, 533-551 350, 407,408 324, 325, 326 इत्यादि 324, 325, 326 इत्यादि 373 415-418, 427 426, 474, 556 शब्द सूत्र शब्द बीयग 373 भायण बुइय 533, 534 भायणजात बोदि 757 भारह भग 368 भारिया भंगिय 553, 556 भाव भंडग 344, 475 भावणा भंडभारिए 485 भगंदलं 715-720 भासजात भगवं 338, 360, 425, 437, 522, भासज्जात 635, 733, 734-746, भासरबोंदी 752.754, 766-770, भासा 772-776 भगवती 526 भिक्खाग भगि(इ)णी 337, 360,368, 310, 362, भिक्खायरिया 404, 405, 456, 526, 556, भिक्खु 561-566, 568, 564, भिक्खुणी 567-596, 744 भिक्खुपडिया भज्जा 744 भज्जिमा 547 भिच्छू डग भज्जिय 325, 326 भित्ति भत्त 333, 361, 420, 475, 502 भिन्नपुब्ब 616, 745, 758, 763, 772 भिलुग(य) भत्तिचित्तं 751 भिसमुणाल भद्दय 401, 538 भिसिय भमुह 723 भीम भय 780, 781 भीय भयभीरुए 771 भीर भयभेरवं 643 भीरुया भयंत 350, 410, 433----441, 583, भुजंगम 762, 763 भुज्जतर भवक्खएणं 734, 745, भुज्जिय भवणगिह ___435- 441. 504, 535, 536 भुया भवणवति 73.7, 736, 753, 774 भूइकम्म भाए 333 भूतोवघाइए भाया 744 भूतोवघाइया 577 426 355, 656 383 444 & 743 515, 516, 584 0 भर 736 778 524 Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची 454 सूत्र भूमी भूत 404 348 350, 381 741 686 भेद 367, 470, 473, 481, 468 653 भोई 588, 564 415, 556, 650 338 662 शब्द सूत्र शब्द भूमिभाग 766 मच्छम 603,611 मच्छादिय 331 इत्यादि मज्ज भूतमह 337 मज्जणधाती भूसण 754 मज्झिम 787, 760 मट्रियखाणिया भेदकर 778 मट्टिया भयणकरी 524 मट्टियाकड भेरव 743 मट्टियागतेहिं भेरि 764 मट्टियापाय 778, 784, 787 मट्ठ भोगकुल 336 मडंब भोयण 400, 568, 778, 784,787 मडयचेतिएस भोयणजात(य) 337, 360, 364, 366, मडयडाहेसु 400-403, 407, 408, मडयथभियासु 406, 828 मण मउड़ 726, 754, 757 365, 416, 578, 652 मणपज्जवणाण मंडावणधाती 741 मणि मंडितालकित 684 मणिपाय 326 मणिकम्म मंथजात 380 मणुष्ण मंस 350, 393, 403, 404, 540 मसखल 348 मणुय मंसग 404 मणुयपरिसा मंसादिय 348 मणुस्स 638 मकर 754 मणोगय मक्कडासंताणम(य) 324, 348 इत्यादि मणोमाणसिय मक्ख 421, 450, 664, 703, मनोहर 710, 717 मत्त मन्ग 348, 464, 467, 468, 468, 514-516, 770 मांगतो 476 मरण मग्गसिरबहुल 746, 766 मल मच्छ 363, 403 मलय(वस्त्र) मच्छखल 388 मल्ल 423, 424,482, 486, 518, 770, 777, 778, 780 766 424, 568, 741, 754, 756 मंच मथु 686 357, 800, 407, 408, 538, 760 766, 773 354, 502,510, 536, 540, 767, 775 मंसु 773 787 340, 360, 371, 406, 444, 607 754 Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध मह महती सूत्र शब्द मल्लदाम 755 महिसद्वाणकरण 676 मसग 462 महु 350,381 737, 738, 754 महुमेहुणी 533 महता 440, 441 महुर 407 महतिमहालयंसि 515 महुस्सव 465, 466, 465 मा 357, 360 महद्धणबंधण 563 माइट्ठाण 341, 350, 352, 357, 3.2 महधणमोल्ल 557, 562 264-366, 396-401, महरिह 407, 468, 583 महल्ल 543--544 माण 520, 551 महल्लिय 338, 416 माणव 533, 534,803 महन्वय (महावया:) 542 माणिक्क 740 महव्वय (महाव्रत) 776, 777, 776, माणुम्माणियहाण 682 780, 782, 783, माणुस 760, 770, 771, 786 785, 786, 788 माणुसरंधण 786, 761, 762, माणुस्सग 798 मातुलिगपाणग 373 महागुरु 768 माया 520, 551 महामह 337 मायी महामुणि 796 मारणंतिय 785 महालय 350, 465, 515, 516, 544 माल 365, 416, 578, 652 महावज्जकिरिया 438 माला 577 महावाय 345 मालिणीय 754 महाविजय 734 मालोहड महाविदेह 745 मास (मास) 463, 468, 561, 166 महाविमाण 734 731-733, 786, 766 महावीर 733-746, 753, 754, मास (माष) 766, 766, 770, 772, मासिय 774-776 माहण 332, 335, 337 इत्यादि महासमुद्द 802 माहणी 734, 735 महासव 685 मितोग्गह 784 महासावज्जकिरिया 440 मिग महिडि ढय 750 मिच्छापडिवण्णा 410 महिय 345 मित्त 740, 70 महिस 354, 510,536 मिरियचुण्ण महिसकरण 657 मिरिया 376 महिसजुद्ध 60 मिलक्खू 376 Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 461 सूत्र 741, 764 324, 342, 345, 602 746, 756, 756 754 मुगा 738 424, 568 738, 736 मुद्धि mr w 550, 742, 787, 522 542 357, 538 500, 685 541 340, 453 773 सूत्र शब्द मिसिमिसित 754 रत्त मिहुण 754 रम्म मीसज्जाय 318 रय (रजस) मुइंगसद्द 666 रयण मुड 733 रयणमाला मुगुदमह 337 रयणवास 655 रयणावली 342 रयणि मुणि 767, 802, 803 रयणी मुत्ताजलतरोयितं 754 रस मुत्तदाम 754 रसमंत मुत्तावली 424 रसवती मुत्ताहड 754 रसिय मुत्तीए 770 रह मुहियापाणग 373 रहजोग मुसं 780 रहस्सिय मुसावादी 526 रहोकम्म मुसावाय 780 राइण्णकुल्ल मुह 367, 416, 488 राईण मुहुत्त 766, 770,772 राओ मुहुत्तग 583, 568 राग मूल 417, 511, 651, 725 रातिणिय 384 राय (राजन्) 384 राय (रात्र) 665 रायधाणाणि मेरा 338, 474, 554, 586 रायपेसिय मे(म)रुपवडणट्ठाण 658 रायवंसट्टिय मेहुण 360, 425, 437, 786, 801 रायसंसारिय मेहणधम्म 340, 453 रायहाणी मोत्तिय 824, 740 मोय मोरग 456 रीरियपाय मोल्ल 753 रुक्ख मोसा 522, 524, 781 686 रुक्खगिह रज्जया 877,478 रक्खमह रतणिप्पमाणं 766 रुद्द मह 340, 430, 444, 456 760 508, 506 मूल जाय मूलबीय मूलगवच्च 338, 342, 361, 412, 465, 466, 502, 513, 514, 607, (टि०) 675 562 466, 504, 515, 516,543, 544, 772 504 मोहंत 337 Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध शब्द रुप्प रूव 781 350, 407 632 mM0 0.06 सूत्र शब्द सूत्र 800 लोद्ध 421, 451, 665, 704, रुरु 754 711, 718 548 लोभ 520, 551, 781 533-536, 546, 550, 686 लोभणाए 781 रूवगसहस्सकलियं 754 लोभी रोग 340, 421 लोभी 638, 768 रोम 723, 760 लोय रोयमाण 435, 436, 438-441 लोय(लोच) लंबूसपलंबंतमुत्तदाम 754 लोह 780 লগ 742, 754, 766 सहसूण-लहसुणवण लट्ठिया 444 वह 518,520, 778, लत्तियसह 671 वइमिय 385 लया 466, 754 वइबल 728 लविय 773 वंस लसुण वंससद्द लसुणकंद वग्ग 740, 770 लसुणचोयग वग्ध 354,558 लसुगणाल बच्च 360 लसुणपत्त बच्चसि लहुय 455 वच्चस्सि 425 लाइमा 547 वज्जकिरिया 437 लाउयपाय 564 वट्टयकरण लाढ 471-473 वण 505, 515, 5.16. 543, 544 इत्यादि লাম 324, 325, 326 इत्यादि वणकम्मत लालपेलयं 754 वणदुग्ग 674 लावयकरण 657 वणलयचित्त 754 लिक्ख 724 बणविदुग्ग 505 लुक्ख 357 वणसंड 656, 676, 762 342, 577 वणस्सति लेलुय 353, 653 वणस्सति काय लेवण 440, 443 वणीमग 332, 335, 337, 740 इत्यादि लेसा 758 वण्ण 421, 451 इत्यादि लेस्सा 343, 754 वश मंत 522, 584 773, 804 बतिमिस्स लोग 775, 761 वत्य 437, 871, 517, 553-556, लोगतिय 750, 751 561-576,581,583,584, लोण 362, 405 586 लेलु लोए Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 463 सूत्र शब्द वत्थपडिया वत्थंत वत्थधारि वत्थिरोम वद्धमाण बप्प वय (वचस्) वयण वयमत वयरामय वर वरग वलय वल्ली व व्वग वसभकरण वसभजुद्ध वसभठ्ठाणकरण सत्र शब्द 555, 585 वालग 568 वासावास 464-466 581 वासावासिय 723 वासिटुसगोत्त 335, 744 734, 740, 743 वाहण 746 353. 866, 504, 535, वाहिमा 536, 673 विग 777, 780 विगतो(डो)दए 861, 467.604 767, 770, 771, 71 विग्गोवयमाण 367 विजएणं 766 विज्जती 804 15.8, 756, 757, 764 विज्जाहर (मिहणजुगलजंतजोगजत्त) 354 406 विज्जुदेव 476, 505 विडिमसाला 544 466 विणीततण्ह 767 450 विष्णु 793, 764 657 वितत 666, 765 680 वितिगिछसमावण्ण 343 676 वित्ति 348, 465, 466 421. 450, 567, 694, वित्थार 553 703, 710,717 विदलकड 325 526 विदू 767, 803 486, 868, 684 विदेह 682 विदेहजच्च 746 367 विदेहदिण्ण 505, 515, 516 विदेहदिग्णा 744 737, 736, 753, 774 विदेहसूमाल 754 विद्धत्थ 754 विपंचीसह 461 विपुल 686, 740 766 विप्परिकम्मादी 630 482, 520 विप्परिणामधम्म 522 765 विप्पवसिय 583 348, 447 विफालिय 468 356 विभंग 787, 760 764 विमाण 751, 753, 754 723 विमाणवासि 737, 736, 753,774 वसा वसुल वह वाइयाणाणि वाउ वाड वाणमंतर वाणर वात वातणिसग्ग 746 366 वाम बाय (वाच) वाय (वात) वायण वायस वाया वाल Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रू तस्कन्ध 672 385 776 387 शब्द सूत्र शब्द विमोक्ख 803 वीर 752 बियड 360, 416, 421, 452, 565, बीस 734 573, 666, 705, 712, 716 वीहि 655 वियत्ताए पोरुसीए 766, 772 वेउध्विय 754 वियत्त मणसाणं 769 वेग वियारभूमि 328, 344, 345, 465, 466 वेजयंतिय 564 वियाल 340, 354, 430, 444, वेढिम 686, 754 456, 515 वेणुसद्द वियावत्तस्स 772 वेत्तम्गग विरस 401 वेयणा 728 विराल 354 वेरज्ज 472, 683 विरुद्धरज्ज 472, 683 वेरमण विरूवरूव 337, 406, 428, 426, बेलुग 440, 471, 484,500, वेलोतिय 545 512, 541, 542, 557, वेसभण 750, 766 562. 563, 666-674 वेसमणकुंडलधरा 750 685, 686, 686 वेसाहसुद्ध 772 विलेवणजा(त)य 667, 706 वेसिय 341 विल्लसरडुय 376 देसियकुल 336 विवग्ध 558 बेहाणसट्ठाण 658 विवण्ण 401, 584 वेहिय 545 विवेग 520 वोज्झ 754 विवेगभासी 551 बोसट्ठकाए 638, 770 विसभक्खणदाण 658 संकम 365, 515, 516 विसम 338, 355, 460, 462, 656 संकुलि विसय 760 संख 562, 740, 764 विसूइया 421 संखडि 368, 640, 341, 342,348 विह 473, 516, 585, 689 संखडिपडिया 338, 340, 342, 348 विहग 754 संखसद्द विहार 462, 471, 472, 770, 772 संखाए 340 विहारभूमि 328, 344, 345, 465, संखोभितपुव्व 342 466 संगतिय 564 विहारवत्तिया 471-473 संगामगय 764 विहीय 765 संघट्ट 342, 365 विहुवण 368 संघयण 540, 553 वीणासह 670 संघस वीतिक्क (क)त 468, 523, 772 संघातिम 686,754 672 Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द-सूची] सूत्र शब्द सूत्र 402 366, 405, 606 385, 415, 556, 650 348 440 745 351, 360 746, 747, 746 421-425, 428, 426, 433, 434, 446, 456, 633, 766 542 360 शब्द संघाडी 553 संबलि संजम 770 . संभोइय संजय 324, 338, 340 इत्यादि संमट्ट संणिक्खित्त 511 संमेल संगिचय 335, 337 संरंभ संणिवात 737 संलेहणा संणिवेस 338, 675, 734, 735, संलोय 753, 766 संवच्छर संणिहिय 511 संवर संणिहिसंणिचय 335, 337 संवस संताणय(ग) 324, 348, 353, 412, 431, 455, 458, 464, 467, 468, 566-571, संवहण 575, 623-628, 667, संवुड 641, 642, 646, 647, संवेदेउं 653, 667 संसत्त संतारिम 474, 482,463-465 संसेइम संति 787, 760 संसेसिय संतिकम्मत 435 सकसाय संतिय 568, 596 सकिरिय संथड 345, 356 सक्क (शक) संथर 338, 416, 460, 471. सक्क (शक्य) 472 सक्कर संथार 440, 443 सगड संथारग 338, 416, 455, 456, सचक्क 460, 465, 466, 610 सचित्त संधि 360 सच्चा संपधूविय 415, 556, 650 सच्चामोसा संपदा 747 सड्ढा संपन्न 792 सड्ढी संपराइय 425 सणवण संपातिम 345, 475 सणिय संपिडिय 516, 517, 585, 586 सण्ण संफास 341, 350, 352, 357, 362, सणि 364-366, 396-401, 407, सत्त (सत्व) 498,583 संबंधिवम्ग 740, 770 324, 787 366 660 371 524, 526, 778 756, 766,767 760 353 500, 685 500 728 522, 524, 525 522, 524 360, 406, 435-441 425 754, 766 766 331, 332, 365, 413, 414, 416, 444, 505, 563, 728, 778 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सूत्र शब्द सूत्र शब्द सत्त (सप्त) 406, 633 सय (स्व) 563, 645, 753 सत्थ 515, 516 सय (शत) 746, 765 सत्थजात 484,713, 714, 720 सयं 337, 370, 400, 406, 456, सद्द 546, 550, 666-684,742, 760, 765 478, 486, 518, 556, 564, सद्दल 607, 606, 610, 611, 777, सपडिबार 357, 360 780, 783, 786, 786 सप्पि 381 सयण (शयन) 543, 767 सभाणि 656, 676 सयण (स्वजन) 740, 770. समगजात 440 सयपाग 754 समणुण्ण 366, 405, 606, 610 सयमाण 460 समणोवासग 745 सय(त)सहस्स 748,746, 757, 764 समत्तपइण्ण 746 सया 334, 636 इत्यादि समय 523, 733, 736, 746, 766, 801 सर (सरस्) 505, 673 समवाय 337 सर (शर) समा 734 सरग समाण 324, 325 इत्यादि सरडुयजाय 376 समाधि ( हिट्ठाए 445, 608, 621, सरण 505, 515, 516 623 सरपंतिय 505, 673 समायार 427 सरभ 754 समारंभ 440, 441 सरमह समाहि 410, 457, 482, 486, 501, सरमाण 787 515, 516, 518 सरयकाल 762 समाहिय(समाख्यात) 766 सरसरपंतिय समाहिय (समाहित) 767 सरसीएण 754 समिति 770 सराव 806 समित ____334, 336, 364 इत्यादि सरित्तए 787 समिया 443, 521, 551 सरीर 416, 745 समीरिय 800 सरीसिव 505, 510, 536 समुग्धाय 754 सलिल 802 समुच्छित 531 सल्लइपलंब 377 समुदय 753 सल्लइपवाल समुद्द 753, 766 सवियार समोणत 754 सव्वतो सम्म 340, 367, 410, 770, सब्बठ्ठ 771, 776, 782,785, सवण्ण 788, 761, 762 सव्वसह सम्मिस्सीभाव 340 ससंधिय 583 x im ayu0G60 8 WKWS 766 Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :1 [विशिष्ट शब्द सूची] 467 526 m , शब्द सूत्र शब्द सूत्र ससरक्त 353, 462, 653 सारक्खणिमित्तं 745 ससार 548 सालरुक्ख 772 ससिणिद्ध 353, 360, 460, 461, 466, सालि 655 - 467, 603, 604, 653 सालुय 375 ससीसोवरिय 460, 475, 463 सावग 527 सस्स 530 सावज्ज 520, 524, 526, 528, 535, सहसम्मुइय 537,536, 541, 543, 545, सहसा 486 547, 546, 778 सहस्सकलित 754 सावज्जकड 536, 538 सहस्सपाग 754 सावज्जकिरिया 436 सहस्समालिणीय 754 सावतेज्ज 746 सहस्सवाहिणी (णीय, णिय) 754, 766 साविगा सहाणि 435 सासवणालिय 375 सहिणकल्लाण 557 सासियाओ सहिणाणि 557 साह सहिय 334, 336 इत्यादि साह? 466 साइम 324, 330 इत्यादि साहट्ठरोमकूवेहि 760 साएज्जा 424 साहठ्ठलोमपुलया 768 सागणिय 447, 616 साहम्मिणी सागर 673 साहम्मिय 331, 366, 366, 405, 413, सागरमह 432, 445, 555, 560, ६०८सागरोवम 610, 621, 645, 648, 784 सागारिय 420-422, 425, 447, 616 साहम्मियउम्गह सागारियउम्गह 435 साहर 417, 418, 603, 651, सागवच्च 665 731, 735, 741, 766 साडग 766 साहा 368 साण 526 साहाभंग 368 साणय 553, 556 साहारण 366 साणुबीय 380 साहिए 754 सातिए 660-728 साहु 568 सातिणा 733 साहुकड 535, 537 सामग्मिय 334, 336 इत्यादि सिंगपाद (पान) 562 सामाइय 766, 766 सिंगबेर सामाग 772 सिंगबेरचुग्ण 376 सामुदाणिय 341, 350, 361 सिधाण 353, 416 सायपडिया 465 सिंघाडग सार 746 सिग्ध m Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 635, 687 सिद्ध 122 744 443, 728, 734, 736, 772 370, 406 754 784 364 486, 501 760-766 374 3.77 शब्द सूत्र शब्द सिज्जा 338 सुतीय) सिणाण 360, 421, 451, 564, सुत(श्व:) 572, 574 सुततर सिह 461, 467, 604 सुत्त 766 सुदंसणा सिद्धत्थ 734, 735, 744 सुधाकम्मत सिबत्थवण सिबिया 754, 756, 766 सुद्धवियड सिया 781,784, 787 सुद्धोदएणं सियाल 354 सुपास सिरसा 772 सुब्भि सिला 353, 361, 362, 577, सुन्भिगंध 633, 653, 740 सुभ सिहर 754 सुमण सिहरिणी सिहा 367 सुरभि सीओदय (सीतोदग) 324, 342, 360, 371, सुरभिपलंब 416, 421, 440, 452, सुरूव 565, 573, 630 सुलभ सीतोदगवियड 666, 705, 712, 716 सुवण्ण सीया 755, 758 सुवण्णपाय सीलमंत 360, 437 सुवष्णसुत्त सीस 342, 365, 416, 481 सुन्वत सीसगयाय 562 सुसद्द 354, 505, 754 सुसमदुसमा मीहब्भवभूतेण 734 सुसमसुसमा सीहासण 758, 756, 756, 766 सुसमा सुइसमायारा 427 सुसाणकम्मत सुदर 758 सुस्समण सुकड 535, 537 सुहुम 353 सूई सुक्कज्झाण 772 सूयरजातिय सुचिभूत 740 सूर सठ्ठ 568 सूरिए सुठ्ठकड 535, 537 सूरोदय सुणिसंत 435, 436, 438.441 सूव (शूर्प) सुण्हा 337, 350, 425, 456 सेज्जंस 754 443, 465, 466 424,740, 786 562 546, 550 सीह 734 7 38 525, 734, 777 611 सुक्क 356 747,748 530 748 368 344 Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 1 [विशिष्ट शब्द सूची] 466 733-736, 746, 766, 772 365, 416, 518 324, 348, 413, 470, 473, 468, 466, 511, 566, 568, 651, 728 468 मेस सेह सूत्र शब्द मेज्जा 338, 422-- 425, 431, हथिट्ठाणकरण 843, 847-855, 460, 462, हत्थुत्तर 465, 866, 610 सेज्जासंथारग 460 हम्मियतल सेणा 5.01, 512, 515, 526 ह्यजहियट्ठाण सेणागओ 501 हरितोवएस् सेय (श्रेय:) 644, 726 हरिय सेय (स्वेदः) 1 मेयणपह सेल (पात्र) 562 हरियवध मेलोवठाणकम्मत 435 हरिवंसकुल 734, 770 हसंत सेसवती 244 हार 460 हारपुडपाय मोडं 340 हास सोचं 763 हासयत्त सोणिय 353, 416, 540, 700, हासी 714 हिंगोल सोत 760 हित सोभति 762, 763 हिय सोवीर 370, 406 हिरण हदह 407, 408 हिरण्णपाय हंसलक्खण 754, 766 हिरण्णवास 430 हीरमाण 328, 342, 360, 365, 368, हीलित 400, 404, 405, 406, 416, हुरत्था 844, 460,480,481,487, हेतू 464, 506, 508, 553, 603, हेट्टिम 611 हेमंत हत्थच्छिण्ण 533 होल हत्थि 354,502 होली हत्थिजुद्ध 680 424, 726, 754 562 780, 21 781 781 348 ___ S 752 424,740, 746, 747 562 348, 352 340 357, 363, 421, 444, 456 725 467, 468, 746, 766 Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 2 आचारांगसूत्रान्तर्गत गाथाओं को अकारादि सूची माथा सूत्र 746 our a ur ur x 762 अणिच्चमावासमुति जंतुणो आलइयमालमउडो इमम्मि लोए पर ए य दोसु बी उवेहमाणे कुसलेहि संबसे एगा हिरण्णकोडी एते देवनिकाया छद्रण भत्तेणं अज्झवसाणेण जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जहा य बद्ध इह माणवेहिं या ण सक्का ण गंधमग्घाउं ण सक्का ण सोउं सहा ण सक्का ण संवेदेतु ण सक्का रसमणासातु ण सक्का सूवमट्ठ ततविततं घणझुसिरं तहप्पगारेहि जणेहि हीलिते तहागयं भिक्खुमणंतसंजतं तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो सूत्र गाया 763 तिक्ष्णेव य कोडिसता 757 दिव्वो मणुस्सघोसो 804 दिसोदिसिंऽणजिणेण ताइणा 766 पडिवज्जित्तु चरित्तं 748 पुरतो सुरा बहती 752 पुब्बि उविखत्ता माणुसेहि 758 बंभम्मि य कप्पम्मि 802 वणसंडं व कुसुमियं 803 वरपडहभरिझल्लरी 760 विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं 760 वेसमणकुडलधरा 760 संवच्छरेण होहिति 760 सितेहि भिक्खू असिते परिव्वए 760 सिद्धत्थवणं व जहा 765 सिवियाए मज्झयारे 765 सीया उवणीया जिणवरस्स 764 सीहासणे णिविट्ठो 800 से हु परिण्णासमयम्मि वट्टती 767 750 747 766 756 755 756 801 Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 3 'जाव' शब्द संकेतित सूत्र सूचना प्राचीनकाल में आगम तथा श्र तज्ञान प्रायः कण्ठस्थ रखने की परिपाटी थी। कालान्तर में स्मृति-दौर्बल्य के कारण आगम-ज्ञान लुप्त होता देखकर वीर निर्वाण संवत 100 के लगभग श्री देवद्धिगण क्षमाश्रमण के निर्देशन में आगम लिखने की परम्परा प्रारम्भ हई।' स्मृति की दुर्वलता, लिपि की सुविधा, तथा कम लिखने की वृत्ति—इन तीन कारणों से सूत्रों में आये बहुत-से समानपद जो बार-बार आते थे, उन्हें संकेतों द्वारा संक्षिप्त कर देने की परम्परा चल पड़ी। इससे पाठ लिखने में बहुत सी पुनरावृत्तियों से बचा गया / इस प्रकार के संक्षिप्त संकेत आगमों में अधिकतर तीन प्रकार के मिलते हैं। 1. वण्णओ-(अमुक के अनुसार इसका वर्णन समझें) भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा आदि अंग व उववाई आदि उपांग आगमों में इस संकेत का काफी प्रयोग हुआ है। उववाई सूत्र में बहुत-से वर्ण हैं जिनका संकेत अन्य सूत्रों में मिलता है। 2, जाव-~-(यावत्) एक पद से दूसरे पद के बीच के दो, तीन, चार आदि अनेक पद बार-बार न दुहराकर 'जाव' शब्द द्वारा सूचित करने की परिपाटी आचारांग, उववाई आदि सूत्रों में मिलती है। आचारांग में जैसे—सूत्र 324 में पूर्ण पाठ है 'अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए, अप्पहरिए, अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए' आगे जहाँ इसी भाव को स्पष्ट करना है, वहाँ सूत्र 412, 455, 570 आदि में 'अप्पडे जाव' के द्वारा संक्षिप्त कर संकेत मात्र कर दिया गया है। इसीप्रकार 'जाव' पद से अन्यत्र भी समझना चाहिए। हमने प्रायः टिप्पण में 'जाव' पद से अभीष्ट सूत्र की संख्या सूचित करने का ध्यान रखा है। कहीं विस्तृत पाठ का बोध भी 'जाव' शब्द से किया गया है। जैसे सूत्र 217 में "अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव" यहाँ मूत्र 214 के 'अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्महियाई वत्थाई धारेज्जा, णो राज्जा, णो धोत-रत्ताई वत्थाई धारेज्जा अपलिउंचमाणे गामंतरेस ओमवेलिए।' इस समग्र पाठ का 'जाव' शब्द द्वारा बोध करा दिया है। इसी प्रकार उववाइ आदि सूत्रों में जो वर्णन एक बार आगया है, दुबारा आने पर वहां 'जाव' शब्द का उपयोग किया गया है। जैसे-तेणं कालेणं.......जाव परिसा सिणग्गया।" यहां 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' आदि बहत लम्बे पाठ को 'जाव' में समाहित कर लिया है। 3. अंक संकेत-संक्षिप्तीकरण को यह भी एक शैली है। जहाँ दो, तीन, चार या अधिक समान पदों का बोध कराना हो, वहाँ अंक 2, 3, 4, 6 आदि अंकों द्वारा संकेत किया गया है / जैसे (क) सूत्र 324 में-से भिक्खू वा भिक्खूणी वा Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (ख) सूत्र 166 में-असणं वा, पाणं वा, खाइम वा साइमं बा आदि। , 'से भिक्खु वा 2' संक्षिप्त कर दिया गया है। इसी प्रकार 'असणं वा 4 जाव' या 'असणं वा 4' संक्षिप्त करके आगे के सूत्रों में संकेत किये गये हैं। (ग) पुनरावृत्ति-कहीं-कहीं '2' का चिन्ह द्विरुक्ति का सूचक भी हुआ है—जैसे सूत्र 360 में 'पगिज्झिय 2' उद्दिसिय 2' इसका संकेत है---पगिज्झिय पगिज्झिय 'उद्दिसिय उद्दिसिय'। अन्यत्र भी यथोचित ऐसा समझें। क्रियापद के आगे '2' का चिन्ह कहीं क्रियाकाल के परिवर्तन का भी सूचन करता है, जैसे स्त्र 357 में—'एगंतमवक्कमेज्जा 2' यहाँ 'एगंतमबक्कमेज्जा. 'एगंतमक्क्कमेत्ता' पूर्वकालिक क्रिया का सूचक है। क्रियापद के आगे '3' का चिन्ह तीनों काल के क्रियापद के पाठ का सूचन करता है, जैसे सूत्र 362 में 'हचिसु वा 3' यह संकेत--रुचिसु वा रुचंति वा रुचिस्संति वा' इस कालिक क्रियापद का सूचक है। ऐसा अन्यत्र भी समझना चाहिए' इसके अतिरिक्त 'तहेव'-(अक्कोसंति वा तहेव:-सूत्र 618) (अतिरिच्छछिण्णं तहेव;---सत्र 626) एवं-(एवं यन्वं जहा सद्दपडिमा;-सूत्र 686) जहा—(पाणाई जहा पिडेसणाए--सूत्र 554) तं चैव-तं चेव जाव अण्णोण्णसमाहीए-सूत्र 457) आदि संकेत पद भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं। इन सबको यथास्थान शुद्ध अन्वेषण करके समझ लेना चाहिए। -सम्पादक संक्षिप्त संकेतित सूत्र 577, 578 525 . 446, 51% 471 371, 575, 612 332, 335, 360 377, 378, 360, 404, 405 556 414-418 335, 337 जाव पद ग्राह्य पाठ अंतलिक्खजाते जाव अकिरियं जाव अक्कोसंति वा जाव अक्कोसेज्ज वा जाव अणंतरहिताए पुढवीए"जाव असणिज्ज.."जाव समग्र पाठ युक्त मूल सूत्र-संख्या 576 524 422 422 353 332 23 अपुरिसंतरकडे जाब अपुरिसंतरकडं वा जाव अपुरिसंतरगडं वा जाव अप्पंडा जाव अप्पंडे जाव 348, 468 404 Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 3 'जाव' शब्द संकेतित सूत्र-सूचना 473 समग्न पाठ युक्त मूल सूत्र-संख्या जाव-पद ग्राह्य पाठ अप्पंडं जाव 324 संक्षिप्त संकेतित सूत्र 412, 455, 270 571, 624, 625. 627, 631 667 324 अप्पपाणसि जाव अप्पबीयं जाव अपाइण्णा वित्ती जाव अपुस्सुए जाब 325 अफासुयाई जाव अफासुयं. "जाव 486, 515, 518, 584 592, 563 326, 331, 360, 361, 362, 368, 366, 376, 380, 367, 402, 446, 563, 564, 560, 566, 570, 568, 603, 623, 624, 626, 627 778 416, 444 357 778 अभिहणेज्ज वा जाव अभिहणेज्ज वा जाव अमुच्छिए 4 अयबंधणाणि वा जाव असणं वा 4 असणं वा 4 जाव असत्यपरिणयं जाव असावज्ज जाव 365 357 562 166, 324 325 330 इत्यादि 367 382, 384-388 525, 527, 536, 538, 540, 542, 544, 546, 548, 375 524 510 511--514 435-441, 504 435 आइक्खह जाव आएसणाणि वा जाव आगंतारेसु वा 4 आगंतारेसु वा जाव 432 600-606, 621 610, 611, 633 353, 461, 467 600, 604, 400 366 आमज्जेज्ज वा"जाव आयरिए वा जाव इक्कड़े वा जाव ईसरे जाव 456, 633 608, 621 Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध संक्षिप्त संकेतित सूत्र समग्र पाठ युक्त मूल सूत्र-संख्या 521 121 325 325, 326, 406, 456 612-617 774 607 737 176 6.0G. NO 566, 651, 654, 774 457 772 जाव-पद ग्राह्य पाठ उवज्झाएण वा जाव उसिणोदवियडेण वा जाव एगवयणं वदेज्जा जाव एसणिज्ज""जाव ओगिण्हेज्जा वा 2 ओवयंतेहि य जात्र कक्खडाणि वा 8 कंदाणि वा 'जाव कसिणे जाव कामं खलु जाव काएण जाब किण्हे ति वा 5 कुट्ठी ति वा जाव कुलियसि वा 8 जाव खंधसि वा 6 गंड वा जाव गच्छेज्जा जाब मामे वा जाव गामं वा..."जाव 788 776 533 176 176 577 715-716 224, 336 717-720 584, 585 502, 513 342, 361, 412, 465, 637 342, 361, 465 गामंसि वा जाव गामस्स वा.."जाव गाहावती वा जाव 360, 361, 422. 435, 446, 556, 564, 618 327 325, 346 484, 622 444 513 गाहावति वा जाव गाहावतिकुल जाव पविसित्त(तु)कामे गाहावति जाव छत्तए(ग) जाव जवसाणि जाव जाव अण्णोष्णसमाहीए जाव उदयपसूयाई जाव गमणाए जाव दूइज्जेज्जा जाव पडिगाहेज्जा जाव मक्कडासंताण 417 637, 641 472, 473 471 505 335, 406 326, 406, 556, 564 637, 641, 642, 646 647, 653, 667 653 जाब मक्कडासताण Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट: 3 'जाय' शब्द संकेतित सूत्र-सूचना 475 संक्षिप्त संकेतित सूत्र 323, 633 780, 783, 786. 789 जाव-पद ग्राह्य पाठ जाव विहरिस्सामो जाव वोसिरामि समग्र पाठ युक्त मूल सूत्र संख्या 608, 621 338 जाव संधारगं जाव समाहीए झामथंडिलंसि वा जाव ठाणं वा 3 Army 353, 404, 576 412-425, 427426, 447-451, 453, 454 383 382 576 176 xxxr orx mr9 628 576 471 335 504 447-454, 465 348 406, 435-441 504 तहप्पगार"जाव तहप्पगारे जाव तित्ताणि बा 5 तिरिच्छछिण्णे जाव यूर्णसि वा 4 जाव दसुगायतणाणि जाव दुब्बद्ध जाव दोहि जाव पगिज्झिय 2 जाव पण्णस्स"जाव परक्कमे जाव पाईणं वा 4 पागाराणि वा जाव पाडिपहिया जाव पाणाई 4 पाणाई४ जाव पाणाणि वा 4 जाव पायं वा जाव पातादिया ति बा 4 पिहयं वा जाव पुढविकाए जाव पुरिसंतरकर्ड जाव पुरिसतरकडे जाव पुब्वोपदिट्ठा 4 466 510-512 204 413 365 414 456 448, 456 544 536 326 332 776 335, 556, 650 414-415 816, 421-425, 428-430, 456, 471, 505, 566,602 357 14. 430 427 515 504, 673 782 पुवोवदिट्ठा 4 जाव पुव्वोवदिट्ठा जाव पेहाए जाब फलिहाणि वा."जाव फासिते जाव . 776 Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध जाव-पद ग्राह्य पाठ फासुयं "जाव समग्र पाठ युक्त मूल सूत्र-संख्या 325 संक्षिप्त संकेतित सूत्र 335, 337, 360, 366, 367, 406, 556, 571, 625, 628 301, 304 388 425, 437 बहुपाणा ""जाव बहुरयं वा जाव भगवंतो"जाव भिक्खुणीए' जाव भिक्खू वा "जाव ammmmm 325-327, 330-332, 336, 337, 343, 348, 52-355, 357, 356363, 365-371, 273388, 361, 363-365, 404, 405, 406 682-684 568 607 444 417 760 भिक्खू बा 2 जाब मणी वा जाव मत्तयं वा जाव मुलाणि वा जाव रज्जमाणे जाव रज्जेज्जा जाव ला जाव वत्थं वा 4 वप्पाणि वा जाव स अंडं..."जाव 760 473 4.71 166 324 412, 455, 566, 623, 626, 630, 787,760 455 760 466-468 348,564 787 325 760 865 / 785 528 535 564, 572 सअंडे'"जाव संतिभेदा""जाव संथारमं जाव लाभे सज्जमाणे "जाव समण जाव समणमाण जाव सम्म जाव आणाए सावज्ज जाव सिणाणेण वा जाव सिलाए जाव सीलमंता जाव सूभिमंधे ति वा 2 हत्थं जाव हत्थं वा "जाव हत्थिकरणद्वाणाणि वा हत्थिजुदाणि वा जाव 421 437 176 460.-487 416,444, 456 676 Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : 4 आचारांग द्वि० श्र० सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थसूची आगम एवं व्याख्या ग्रन्थ आयारंग सुत्त (प्रकाशन वर्ष ई० 1677) सम्पादक : मुनि श्री जम्बूविजयजी प्रकाशक : महावीर जैन विद्यालय, अगस्त क्रान्ति मार्ग, बम्बई 400036 आचारांग सूत्र टीकाकार : श्री शीलांकाचार्य प्रकाशक : आगमोदय समिति आचारांग नियुक्ति (आचार्य भद्रबाहु) प्रकाशक : आगमोदयसमिति आव प्रकाशक : ऋषभदेवजी केसरीमलजी, रतलाम आयारो तह आयारचूला सम्पादक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता (प्र०व० 1667) आचारांग सूत्रसूत्रकृतांग सूत्रच' (नियुक्ति टीका सहित) (श्री भद्रबाहु स्वामिविरचित नियुक्ति --श्री शीलांकाचार्य विरचित टीका) सम्पादक-संशोधक : मुनि जम्बूविजयजी प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलोजिक ट्रस्ट, बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ अंगसुत्ताणि (भाग 1, 2, 3) सम्पादक : आचार्य श्री तुलसी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) अर्थागम (हिन्दी अनुवाद) सम्पादक : जैन धर्मोपदेष्टा पं० श्री फूलचन्द जी महाराज 'पुष्फभिक्खू प्रकाशक : श्री सुत्रागम प्रकाशक समिति, 'अनेकान्त विहार' सूत्रागम स्ट्रीट, एस. एस. जैन बाजार, गुड़गाव केंट (हरियाणा) आयरिदसा सम्पादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : गम अनुयोग प्रकाशन; सांडेराव (राजस्थान) Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्ध उत्तराध्ययन सूत्र सम्पादक : दर्शनाचार्य साध्वी श्री चन्दना जी प्रकाशक , वीरायतन प्रकाशन, आगरा कल्पसूत्र (व्याख्या सहित) सम्पादक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक : आगम शोध संस्थान, गढ़सिवाना (राजस्थान) कप्पसुत्तं सम्पादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (राजस्थान) ज्ञातासूत्र (वृत्ति-आचार्य अभयदेवसूरिकृत) प्रकाशक : आगमोदय समिति ज्ञातासूत्र सम्पादक : पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल प्रकाशक : स्थानक. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (अहमदनगर) ठाणं (विवेचन युक्त) सम्पादक-विवेचक : मूनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) निशीथ सूत्र (निशीथ चूणि एवं भाष्य) प्रकाशक : सन्मतिज्ञान पीठ; आगरा दसवेआलियं (विवेचन युक्त) सम्पादक-विवेचक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) दसवैकालिक—आगस्त्यसिंह चूणि ---जिनदास चूणि हारिभद्रीय टीका युक्त (उपयुक्त) प्रकाशक : जन विश्वभारती लाडनू (राज.) प्रज्ञापना सूत्र संपादक : (पूज्य अमोलक ऋषिजी) भगवती सूत्र सम्पादक : (पं० वेचरदास जी दोशी) मूल सुत्ताणि सम्पादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : शान्तिलाल बी० सेठ, गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर (राजस्थान) सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्याकार : पं० मुनि श्री हेमचन्द्र जी महाराज सम्पादक : अमर मुनि, मुनि नेमिचन्द्र जी प्रकाशक : आत्म ज्ञानपीठ, मानसामण्डी (पंजाब) समवायांग सूत्र सम्पादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (रास्थान) स्थानांग सूत्र सम्पादक : पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव (राजस्थान) Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 परिशिष्ट : 4 सम्पादन-विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थसूची पिण्डनियुक्ति (श्रुतकेवली श्री भद्र बाहु स्वामी विरचित) अनुवादक : पू० गणिवयं श्री हंससागर जी महाराज प्रकाशक : शासन कण्टकोद्धारक ज्ञान-मन्दिर मु० टलीया (जि. भावनगर) (सौराष्ट्र) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि (आ० पूज्यपाद-व्याख्याकार) हिन्दी अनुवादक : पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, दर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी तत्त्वार्थसूत्र (आचार्य श्री उमास्वाति विरचित) विवेचक : पं० सुखलाल जी सिंघवी प्रकाशक : भारत जैन महामंडल, बम्बई बृहत्कल्प सूत्र एवं बृहत्कल्पभाष्यम् (मलयगिरि वृत्ति) प्रकाशक : जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर शब्दकोष व अन्य ग्रन्थ अभिधान राजेन्द्र कोश (भाग 1 से 7 तक) सम्पादक : आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि प्रकाशक : समस्त जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, श्री अभिवानराजेन्द्र कार्यालय रतलाम (म.प्र.) जैनेन्द्र सिद्धान्त-कोश (भाग 1 से 4 तक) सम्पादक : क्षल्लक जिनेन्द्र वर्णी प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, बी० 45-47 कनॉट प्लेस, नई दिल्ली-१ नालन्दा विशाल शब्द सागर सम्पादक : श्री नवल जी प्रकाशक : आदीश बुक डिपो, 38, यू० ए० जवाहर नगर बंगलो रोड दिल्ली-७ पाइअ-सद्द-महण्णवो (द्वि० सं०) सम्पादक : पं. हरगोविंददास टी० शेठ, डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, और पं० दलसुखभाई मालवणिया प्रकाशक : प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५ ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर लेखक : आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज प्रकाशक : जैन इतिहास समिति, आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार लालभवन चौड़ा रास्ता, जयपुर-३ (राजस्थान) श्रमण महावीर लेखक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : जैन विश्वभारती लाडनूं (राजस्थान) महावीर को साधमा का रहस्य लेखक : मुनि नथमल जी प्रकाशक : आदर्श साहित्य संघ, चुरु (राजस्थान) Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध तीर्थकर महावीर लेखकगण : श्री मधुकर मुनि, श्री रतन मुनि, श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, आदि जैन साहित्य का बृहद इतिहास (भाग 1) लेखक : 50 बेचरदास दोशी, न्यायतीर्थ प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम हिन्दू यूनिवर्सिटो, वाराणसी-५ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज लेखक : डा जगदीशचन्द्र जैन प्रकाशक : चोखम्बा विद्याभवन वाराणसी चार तीर्थकर लेखक : पं० सुखलालजी प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम हिन्दु युनिवर्सिटी, वाराणसी-५ विनयपिटक (राहुल सांकृत्यायन) प्रकाशक : महाबोधि सभा सारनाथ (वाराणसी) (प्रकाशन वर्ष ई. 1635) भगवद्गीता प्रकाशक : गीता प्रेस, गोरखपुर (उ० प्र०) ईशावाष्योपनिषद् कौशीतकी उपनिषद् छान्दोग्य उपनिषद् प्रकाशक : गीताप्रेस, गोरखपुर (उ० प्र०) विसुद्धिमग्गो प्रकाशक : भारतीय विद्याभवन, मुम्बई समयसार - नियमसार रचयिता : आचार्य श्री कुन्दकुन्द प्रवचनसार - Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर सहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली जोधपुर महास्तम्भ 5. श्री रतनचन्द्रजी उत्तमचन्दजी, मोदी ब्यावर 1. सेठ श्री मोहनमल जी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री पन्नालाल जी भागचन्द्रजी बोथरा, चाँगाटोला 2. सेठ श्री खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री मिश्रीलाल धनराजजी विनायकिया, ब्यावर 3. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया बैगलौर 8. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता. मेड़ता 4. श्री एस. किशनचन्द्रजी चोरड़िया मद्रास 6. श्री जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, बागलकोट 5. श्री गुमानमलजी चोरड़िया मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा, जाड़न, 6. श्री कंवरलाल जी बेताला मोहाटी (K. G. F.) 7. श्री पुखराजजी शीशोदिया ब्यावर 11. श्री केशरीमलजी जैवरीलाल जी तालेरा, पाली 8. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजो श्रीश्रीमाल दुर्ग 12. श्री नेमीचन्दजी मोहनलालजी ललवाणी, चांगाटोला है. श्री गुलाबचन्द्रजी मांगीलालजी सुराना सिकन्दाराबाद 13. श्री बिरदीचन्दजी प्रकाशचन्दजी तलेसरा पाली स्तम्भ 14. श्री सिरेक वरबाई स्व० श्री सुगनचन्दजी झामड़, 1. श्री जसराजजो गणेशमलजी संचेती, मदुरान्तकम 2. श्री अगरचन्दजी फतेहचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर 3. श्री पूसालालजी किस्तूरचन्दजी सुराना, बालाघटा 16. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 4. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 17. श्री लालचन्दजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 5. श्री तिलोकचन्दजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 18 श्री भैरुदानजी लाभचन्दजी सुराणा, (धोबड़ी नागौर 6. श्री जे० दुलीचन्दजी चोरडिया मद्रास 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, बालाघाट 7. श्री हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 20. श्री सागरमलजी नौरतमलजी पींचा मद्रास 8. श्री एस० रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 21. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा 6. श्री बर्द्धमान इंडस्ट्रीज कानपुर 22. श्री मोहनराजजी बालिया, अहमदाबाद 10. श्री एस० सायरचन्दजो चोरडिया मद्रास 23. श्री चेनमलजी सुराणा, मद्रास 11. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया मद्रास 24. श्री गणोशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया नागौर 12. श्री एस० रिखबचन्दजी चोरडिया मद्रास 25. श्री बादलचन्दजी महता, इन्दौर 13. श्री आर० परसनचन्दजी चोरडिया मद्रास 26. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 14. श्री अन्नराजजी चोरडिया मद्रास 27. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 15. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया मद्रास 28, श्री इन्दरचन्दजी बंद राजनांदगाँव 16. श्री मिश्रीलालजी तिलोकचन्दजी संचेती दुर्ग 26. श्री माँगीलालजी धर्मीचन्दजी चोरड़िया चांगाटोला संरक्षक 30. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढा, चांगाटोला 1. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपडा व्यावर 31, श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, मद्रास 2. श्री दीपचन्दजी चन्दनमलजी चोरडिया मद्रास 32. श्री सिद्धकरण जी शिखरचन्दजी बैद चांगाटोला 3. श्री ज्ञानराजजी मूथा पाली 33. श्री जालमचन्दजी रिखबचन्दजी बाफणा आगरा 4. श्री खूबचन्दजी गादिया ब्यावर 34. श्री भंवरीलालजी चोरडिया, मद्रास Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर 35. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, अजमेर 27. श्री हरकचन्दजी महता, जोधपुर 36. श्री घेवरचन्दजी पुखराजजी, गौहाटी 28. श्री सुमेरमल जी मेड़तिया, 37. श्री मांगीलालजी चोरडिया आगरा 26. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टाटिया, 38. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 30. श्री गणशमलजी नेमीचन्दजी टाटिया, जोधपुर 36. श्रा गुणचन्दजी दलीचन्दजी, कटारिया बेल्लारी 31. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 40. श्री अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 32. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, 41. श्री छोगमलजी हेमराजजी, लोढा डोंडीलोहरा 33. श्री जसराजजी जॅवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया बैंगलोर 34. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 43. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 35. श्री आसूमल एन्ड कम्पनी, 44. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 36. श्री देवराजजी लालचन्दजी मेड़तिया, जोधपुर 45. श्री जबरचन्दजी मेलड़ा, मद्रास 37. श्री घेवरचन्दजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 46. श्री सुरजमलजी सज्जनराजजी महता, कोप्पल 38. श्री पुखराजजी बोहरा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 36. श्री बछराजजी सुराणा, 1. श्री पूनमचन्दजो नाहटा, जोधपुर 40. श्री लालचन्दजी सिरेमलजी बाला, जोधपुर 2. श्री अमरचन्दजी बालचन्दजी मोदी, व्यावर 41. श्री ताराचन्दजी केबलचन्दजी कर्णावट, जोधपुर 3. श्री चम्पालाल जी मीठालालजी सकलेचा, जालना 42. श्री मिश्रीमल जी लखमीचन्दजी सांड, जोधपुर 4. श्री छगनीबाई विनायकिया, व्यावर 43. श्री उत्तमचन्दजी मांगीलालजी 5. श्री भंवरलालजी चोपड़ा, ब्यावर 44. श्री मांगीलालजी रेखचन्दजी पारख, श्री रतनलालजी चतर, ब्यावर 45. श्री उदयराजजी पुखराजजी, संचेती 7. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 46. श्री सरदारमल एन्ड कम्पनी जोधपुर 8. श्री बादरमलजी पुखराजी बंट, कानपुर 47. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 6. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, व्यावर 48. श्री नेमीचन्दजी डाकलिया, 10. श्री के० पुखराजजी वाफणा, मद्रास 46. श्री धेवरचन्दजी रूपराजजी, 11. श्री पुखराजजी बुधराजजी बोहरा, पीपलियाँ 50. श्री मुन्नीलालजी मूलचन्दजी पुखराजजी गुलेच्छा, 12. श्री चम्पालालजी बुधराजजी बाफणा, व्यावर जोधपुर 13. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणीया, चण्डावल 51. श्री सुन्दरबाई गोठी, महामन्दिर, जोधपुर 14. श्री मांगीललालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल बर 52. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा 15. श्री मोहनलालजी मंगलवन्द्रजी पगारिया, रायपुर 53. श्री पुखराजजी लोढ़ा महामन्दिर, जोधपुर 16. श्री भवरललजी मौतमचन्दजी पगारिया, कुशालपुरा 54. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 17. श्री दुलेराजजी भवरलालजी कोठारी, कुशालपुरा 55. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 18. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी काठेड़, पाली 56. श्री जेठमलजी मोदी इन्दौर 16. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, पाली 57. श्री भीकमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, धूलिया 20. श्री पन्नालालजी, मोजीलालजी सुराणा, पाली 58. श्री सुगनचन्दजी संचेती राजनादगाँव 21. श्री देवकरणजी, श्रीचन्द्रजी डोसी, मेड़तासीटी 56. श्री बिजयलालजी प्रेमचन्दजी गोलेच्छा राजनांदगाँव 22. श्री माणकराजजी किशनराजजी, मेड़तासोटी 60. श्री घीसूलालजी लालचन्दजी पारख, दुर्ग 23. श्री अमतराजजी जसवंतराजजी महता, मेड़तासीटी 61. श्री आशकरण जी जसराजजी पारख, 24. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 62. श्री ओखचन्द्र जी हेमराज जी पारख दुर्ग 25. श्री भवरलालजी विजयराजी कांकरिया, बिल्लीपुरम 63. श्री भंवरलालजी मूथा जयपुर 26. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया जोधपुर 64. श्री सरदारमलजी सुराणा भिलाई जोधपुर जोधपुर Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 483 ) 65. श्री भंवरलालजी इंगरमलजी काकरिया भिलाई 63. श्री भंवरलालजी रिखबचन्दजी नाहटा, नागौर 66. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी भिलाई 34. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी गोठन 67. श्री रावतमलजी छाजेड़ भिलाई 15. श्री पारसमलजी महाबीरचन्दजी बाफणा, गोठन 68. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी भिलाई 66. श्री घीसूलालजी पारसमलजी जंवरीलालजी कोठारी, 66. श्री पुखराजजी छल्लानी करण गुड्डी गोठन 70. श्री प्रेमराजजी मिठालालजी कामदार चांवड़िया 67. श्री मोहनलालजी धारीवाल, व्यावर 71. श्री भंवरलालजी माणकचन्दजी सुराणा, मद्रास 18. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया 72. श्री भंवरलालजी नवरतनमलजी सांखला, मेट्रपालियम 96. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, दल्लीराजहरा 73. श्री सूरज करणजी सुराणा, लाम्बा 100. श्री जवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, बुलारम 74. श्री रतनलालजी लखपतराजजी जोधपुर 101. श्री फतेहराजजी नेमीचन्दजी कर्णावट, कलकत्ता 75. श्री हरकचन्दजी जुमराजजी बाफणा बैंगलोर 102. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 76. श्री लाल वन्दजी मोतीलालजी गादिया, बंगलोर 103. श्री जुगराजजी बरमेचा, मद्रास 77. श्री सम्पतराजजी कटारिया जोधपुर 104. श्री कुशालचन्दजी रिखबचन्दजी सुराणा, बुलारम 78. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 105. श्री माणकचन्दजी रतनलालजी मूणोत, नागौर 76. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, व्यावर 106. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास 80. श्री अखेचन्दजी भण्डारी, कलकत्ता 107. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भण्डारी, बेंगलोर 81. श्री बालचन्दजी थानमलजी भुरट कुचेरा, कलकत्ता 108. श्री रामप्रसन्नज्ञान प्रसारकेन्द्र, चन्द्रपुर 82. श्री चन्दनमलजी प्रेमचन्दजी मोदी, भिलाई 106 श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 83. श्री तिलोकचन्दजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 110. श्री अमरचन्दजी चम्पालालजी छाजेड़, पाद्र बड़ी 84. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, हरसोलाव 85. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, भैरुन्दा 112. श्री कमलाकॅवर ललवाणी 86, श्री मांगीलालजी मदनलालजी, भैरुन्दा स्व० पारसमलजी ललवाणी, गोठन 7. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी मेडतासीटी 113. श्री लक्ष्मीचन्दजी अशोककुमारजी श्री श्रीमाल, कचेरा 88. श्री भीवराजजी बागमार, कचेरा 114. श्री भंवरलाल जी मांगीलालजी बेताला 86. श्री गंगारामजी इन्द्रचन्दजी बोहरा, कचेरा 115. श्री कंचनदेवी एवं निर्मलादेवी, मद्रास 60. श्री फकीरचन्दजी कमलवन्द जी श्रीश्रीमाल, कचेरा 116. श्री पुखराजजी नाहरमल जी ललवाणी मद्रास 61. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराना, कचेरा 117. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी अजमेर 12. श्री प्रकाशचन्दजी जैन नागौर 118 श्री मांगीलालजी बाणा बैंगलोर Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारी समिति) अध्यक्ष: पद्मश्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास कार्यवाहक अध्यक्ष : सेठ श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर उपाध्यक्ष: श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी श्री दौलतराजजी पारख, जोधपुर श्री रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग महामन्त्री : श्री जतनराजजी मेहता, मेड़ता मन्त्री: श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली श्री चांदमलजी विनायकिया, ब्यावर कोषाध्यक्ष: (राजस्थान) श्री रतनचन्दजी मोदी, ब्यावर (मद्रास) श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास सलाहकार: श्री प्रकाशचन्दजी जैन, नागौर Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग (प्रथम श्रुतस्कंध) पर मनीषी विद्वानों के अभिप्राय ....आचारांग सूत्र मिला / सम्पादक श्रीचन्द सुराना धन्यवादाह हैं, कि इतने कम समय में उन्होंने आचारांग का अनुवाद-विवेचन प्रस्तुत कर दिया / इसकी विशेषता जो देखी गई, वह यह है कि उन्होंने चूर्णि और टीका का पूरा उपयोग करके ही नहीं, किन्तु आकयक निर्देश देकर विवेचन को समृद्ध बनाया है। पूज्य देवेन्द्रमुनि जी की प्रस्तावना मैंने शब्दशः पढ़ी। इनका विशाल अध्ययन और विवेचन-शक्ति पूरी तरह से प्रस्तावना में स्पष्ट दिखाई देती है। आशा करता हूं कि आचारांग का यह संस्करण केवल स्थानकवासी समाज में ही नहीं, किन्तु समय जैन-जेनेतर जिज्ञासुओं की श्रद्धा का भाजन बनेगा। पूज्य युवाचार्य जी महाराज ने अपने संयोजकत्व में आप (भारिल्ल जी) सबका सहयोग लेकर एक उत्तम कार्य किया है उसके लिए उन्हें जितना धन्यवाद दें, कम है। -दलसुख भाई मानर्वाणया, महमदाबाद o आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध का विवेचन देखा, प्रथम पृष्ठ उलट-पुलट कर जैसे ही आगे बढ़ा, मन उसी में रम गया / विवेचन हॉली बड़ी सुन्दर, सारपूर्ण और रोचक हैं / चूणि के आधार पर अनेक नये अर्थों का उद्घाटन, पाठान्तरों से ध्वनित होते भिन्नार्थ और उनका मूल के साथ हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत करने की अभिनव योजना वस्तुतः श्रीचन्द जी सुराना की प्रतिभा व सम्पादन-कौशल का चमत्कार हैं। मनीषी प्रवर युवाचार्य श्री जी महाराज के प्रधान सम्पादकत्व में आगमों का सम्पादन, विवेचन, प्रकाशन स्थानकवासी जैन समाज के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण प्राच्य विद्याप्रेमी तत्वजिज्ञासुओं के लिए प्रसन्नता का विषय है।.... -उपाध्याय पुष्करमुनि (उदयपुर) 0....आचारांग सूत्र के अभी तक जितने भी संस्करण दृष्टिगोचर हुए हैं उन सब की अपेक्षा प्रस्तुत सम्पादन (श्रीचन्द जी सुराना-कृत) अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। भाव, भाषा, शैली की दृष्टि से यह अत्यन्त प्रभावशाली है, किन्तु इसकी सर्वाधिक विशेषता है आचार-शास्त्र की गुरु-ग्रन्थियों को सुलझाने में विट्वान सम्पादक ने इसके प्राचीनतम व्याख्या ग्रंथों का आधार लेकर महत्वपूर्ण टिप्पण स्थान-स्थान पर अंकित किये हैं। प्रस्तुत संस्करण साधारणजन से लेकर विद्वज्जन तक ग्राह्य एवं संग्रहणीय है। इस सुन्दर सम्पादन के लिए इसके सम्पादक एवं विवेचक लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक श्रीचन्द जी सुराना को मैं धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने विशद दृष्टिकोण के साथ अपने गुरुतर दायित्व को पूरा करके आगम-प्रकाशन की परम्परा में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी उनकी लेखनी से प्रसूत-सम्पादित आगम साधकों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे। -विजयमुनि शास्त्री, 23-6-80 0श्री आगम प्रकाशन समिति (व्यावर) द्वारा प्रकाशित आचारांग सूत के प्रथम श्रुतस्कंध को उलट-पुलट कर देखा, मुझे उसमें आँचन्द जी सुराना 'सरस' कं बॉद्धिक परिश्रम के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। आचारांग (प्रथमश्रुतस्कंध) का स्थ जैन आगमों में बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी भाषा अन्य आगमों की भाषा से कुछ भिन्न हैं, वर्णन हॉली भी कुछ है। छोटे-छोटे वाक्यों में गुम्फित अर्थ गाम्भीयं वस्तुतः विस्मय कर देने वाला है। पाठानुसारी अनुवाद तथा नाति-संक्षिप्त, नाति-विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है। पाठक को दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विवेचन की दुरूहता का सामना भी नहीं करना पड़ता / वह आगम के सामान्य अर्थ का सहज सुधा-पान करता हुआ आगे बढ़ सकता है 'सरस' जी का यह अम जन-मानस को आगम ज्ञान की ओर उन्मुख करेगा, ऐसा विश्वास है। -कुनि बुद्धमल्ल 4-7-80 JBIRECIEationinteri आवरण पृष्ठ के मुद्रक : शैल प्रिन्टर्स, १८/२०३-ए, (निकट बसन्त सिनेमा) माईथान, आगरा-२८२००३ melbrary ore