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________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 566-600 271 पात्र प्रतिलेखन 566. सिया परो' णेत्ता पडिग्गहगं णिसिरेज्जा, से पुवामेव आलोएज्जा--आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिलेहिस्सामि / केवली बूया-आयाणमेयं, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बोयाणि वा हरियाणि वा, अह भिक्खूणं पुबोवदिट्ठा’ 4 जं पुवामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेण पडिलेहेज्जा। 600. सअंडादी सत्वे आलावगा जहा वत्थेसणाए, गाणत्तं तेल्लेण वा घएण वा गवणोएण वा वसाए वा सिणाणादि जाव अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा | जाव पयावेज्ज वा] / 566. कदाचित् कोई गहनायक पात्र को सुसंस्कृत आदि किये बिना ही लाकर साधु को देने लगे तो साधु विचारपूर्वक पहले ही उससे कहे- "आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! मैं तुम्हारे इस पात्र को अंदर-बाहर चारों ओर से भलीभाँति प्रतिलेखन करूंगा, क्योंकि प्रतिलेखन किये बिना पात्रग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया हैं / सम्भव है उस पात्र में जीवजन्तु हों, बीज हों या हरी (वनस्पति) आदि हो। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश किया हैं या ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु को पात्र ग्रहण करने से पूर्व ही उस पात्र को अंदर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। 600. अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र ग्रहण न करे इत्यादि सारे आलापक वस्त्रषणा के समान जान लेने चाहिए। विशेष बात इतनी ही हैं कि यदि वह तेल, घी, नवनीत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर या स्नानीय पदार्थों से रगड़कर पात्र को नया व सुन्दर बनाना चाहे, इत्यादि वर्णन ठेठ अन्य उस प्रकार की स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस पात्र को साफ करे यावत् धूप में सुखाए तक वस्त्रषणा अध्ययन की तरह ही समझ लेना चाहिए। विवेचन-पात्रग्रहण से पूर्व प्रतिलेखन आवश्यक-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रोषणा-अध्ययन की तरह यहाँ पात्र ग्रहण करने से पूर्व प्रतिलेखन को अनिवार्य बताया है / बिना प्रतिलेखन किये 1, 'परो णेत्ता' के बदले पाठान्तर है 'परो उवणेता', अर्थ है...--'पर- गहस्थ लाकर / 2. 'पडिग्गहग के बदले पाठान्तर है-पडिग्गहं / 3. यहाँ 'पुव्वोदिट्ठा' के आगे "4' का अंक सूत्र 357 के अनुसार 'एस उवएसों तक के पाठ __ का सूचक है। 4. सअंडादि सम्वे आलावगा जहा वत्थेसगाए' पाठ वस्त्र पणाध्ययन के सूत्र 569 मे 576 तक के समग्र वर्णन का सूचक समझें, 'पयावेज्ज वा' पाठ तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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