SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 723
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 270 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 567. कदाचित् कोई गृहनायक पात्रान्वेषी साधु को देखकर अपने परिवार के किसी पुरुष या स्त्री को बुलाकर यों कहे--''आयुष्मन् ! या बहन ! वह पात्र लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या बसा चुपड़कर साधु को देंगे"शेष सारा वर्णन, इसीप्रकार स्नानीय पदार्थ आदि से एक बार बार-बार घिसकर इत्यादि वर्णन, तथैव शीतल प्रासुकजल, उष्ण जल या एक बार या बार-बार धोकर "आदि अवशिष्ट समग्र वर्णन, इसीप्रकार कंदादि उसमें गे निकाल कर साफ करके "इत्यादि सारा वर्णन भी वस्त्रषणा अध्ययन में जिस प्रकार है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए। विशेषता सिर्फ यही है कि वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द कहना चाहिए। 568. कदाचित् कोई गहनायक साधु से इस प्रकार कहे-"आयुष्मन् श्रमण ! आप मुहूर्तपर्यन्त ठहरिए / जब तक हम अशन आदि चतुर्विध आहार जुटा लेंगे या तैयार कर लेंगे, तब हम आप आयुष्मान् को पानी और भोजन से भरकर पात्र देंगे, क्योंकि साधु को खाली पात्र देना अच्छा और उचित नही होता।" इस पर साधु मन में विचार कर पहले ही उस गृहस्थ से कह दे-"आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! मेरे लिए आधाकर्मी चतुर्विध आहार खाना या पीना कल्पनीय नहीं है / अतः तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो। यदि मुझे पात्र देना चाहते चाहती हो तो ऐसे (खाली) ही दे दो।" साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि कोई गृहस्थ अशनादि चतुर्विध आहार की सामग्री जुटाकर अथवा आहार तैयार करके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे, तो उस प्रकार के (भोजन-पानी सहित) पात्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन-अनेषणीय पात्र ग्रहण न करे-~-प्रस्तुत तीन सूत्रों में वस्त्रषणा-अध्ययन में वर्णित वस्त्र-ग्रहण निषेध की तरह अनेषणीय पात्र-ग्रहण-निषेध का वर्णन है / साधु के लिए पात्र अनेषणीय अग्राह्य कब हो जाता है ? इसकेलिए वस्त्रंषणा की तरह यहां भी संकेत किया गया है-(१) साधु को थोड़ी देर बाद में लेकर एक मास बाद आकर पात्र ले जाने का कहे। (2) पात्र के तेल, घी आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर देने को कहे, (3) पात्र पर स्नानीय सुगन्धित पदार्थ रगड़ कर या मलकर देने को कहे. (4) ठंडे या गर्म प्रासुक जल से धोकर देने को कहे, (5) पात्र में रखे कंद आदि निकाल कर उसे साफ कर देने को कहे, (6) पात्र में आहार-पानी तैयार करवाकर उनसे भरकर साधु को देने को कहे।" इन सब स्थितियों में साधु को पात्र को अनेषणीय एवं अग्राह्य बनाने के गृहस्थ के विचार सुनते ही सर्वप्रथम उसे सावधान कर देना चाहिए कि ऐसा अनेषणीय पात्र लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। यदि देना चाहते हो तो संस्कार या परिकर्म किये बिना अथवा सदोष आहार से भरे बिना, ऐसे ही दे दो।" 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 400 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy