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________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 166-18 पात्र में प्रायः स्वयं भोजन किया गया हो, वह स्वांगिक पात्र, वेजयंतिय का अर्थ है--दो-तीन पात्रों में बारी-बारी में भोजन किया जा रहा हो, वह पात्र / ' अनेवणीय पात्र-ग्रहण निषेध 566. से णं एताए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! एज्जासि तुमं मासेण वा जहा वत्थेसणाए।' 567. से णं परो णेत्ता वदेज्जा आउसो भइणी ! आहरेयं पायं, तेल्लेण वा घएण वा णवणोएण वा वसाए वा अभंगेत्ता वा तहेव सिणाणादि तहेब. सोतोदगादि कंदादि तहेव / 568. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसंतो समणा ! मुहुत्तगं 2 अच्छाहि जाव ताव अम्हे असणं वा 4 उवकरेमु व उवक्खडेमु वा, तो ते वयं आउसो ! सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं वासामो, तुच्छए पडिग्गहए दिण्णे समणस णो सु? जो साहु भवति / से पुवामेव अलोएज्जा -आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति आधाकम्मिए असणे वा 4 भोत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडेहि', अभिकखसि मे दाउं एमेव दलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो असणं वा 4 उवकरेत्ता उवक्खडेत्ता सपाणं पडिग्गहगं दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 566. साधु को इसके (पात्रैषणा के) द्वारा पात्र-गवेषणा करते देखकर यदि कोई गृहस्थ कहे कि "आयुष्मन् श्रमण ! अभी तो तुम जाओ, तुम एकमास यावत् कल या परसों तक आना शेष सारा वर्णन वस्त्रंषणा अध्ययन में जिसप्रकार है, उसी प्रकार जानना / इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ कहे-आयुष्मन् श्रमण ! अभी तो तुम जाओ, थोड़ी देर बाद आना, हम तुम्हें एक पात्र देंगे, आदि शेष वर्णन भी वस्त्रषणा अध्ययन की तरह समझ लेना चाहिए। 1. (क) आचारांग चूणि मृ० पा० टि० पृ० 215 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 2. 'एसमाणं पासित्ता परो वदेज्जा' के बदले 'एसमाणं पास णेत्ता वदेज्जा' 'एसमाणं परो पासित्ता वदेज्जा' आदि पाठान्तर हैं। 3. 'जहावत्थेसणाए' से यहाँ शेष समग्र पाठ वस्त्रं षणा-अध्ययन के सूत्र 561-562 के अनुसार समझे। 4. तुलना कीजिए.-"जे भिक्ख' नो नवा में परिग्गहे लद्धत्ति कटु तेल्लेण घरण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्वेज्ज वा भिलिगेज्ज वा।" -निशीयसूत्र 1412 5. जहाँ-जहाँ तहेव' पाठ है, वहाँ वहाँ सर्वत्र वस्त्र पणाअध्ययन के सूत्र–५६४, 565, 566, 56, के अनुसार वर्णन समझें। 6. 'पडिगहए' के बदले पाठान्तर हैं.... "पडिग्गह, पडिग्गहे, पडिग्गए।" 5. किसी-किसी ति में 'मा उवक्खडेहि' पाठ नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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