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________________ 272 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पात्रग्रहण कर लेने में उन्हीं खतरों या दोषों की सम्भावना हैं, जिनका उल्लेख हम वस्त्रंषणा अध्ययन में कर आए हैं।' पात्र-ग्रहण-अग्रहण एवं संरक्षण-विवेक-वस्त्रं षणा-अध्ययन में उल्लिखित 'स अंड' से लेकर 'आयावेज्ज पयावेज्ज' तक के सभी सूत्रों का वर्णन इस एक ही सूत्र में समुच्चयरूप से दे दिया है / प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रषणा अध्ययन के 11 सूत्रों का निरूपण एवं एक अतिरिक्त सूत्रका समावेश कर दिया है—(१) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र को ग्रहण न करे, (2) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित होने पर भी वह पात्र अपर्याप्त (अभीष्ट कार्य के लिए असमर्थ) अस्थिर. अध्र व. अधारणीय एवं अकल्प्य हो तो ग्रहण न करे, (3) किन्तु वह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित पर्याप्त, स्थिर, ध्र व, धारणीय एवं रुचिकर हो तो ग्रहण करे, (4) अपने पात्र को नया सुन्दर बनाने के लिए उसे थोड़ा या बहुत स्नानीय सुगन्धित द्रव्य आदि से घिसे नहीं, (5) पात्र नया बनाने के उद्देश्य से थोड़ा बहुत ठंडे या गर्म जल से उसे धोए नहीं, (6) मेरा पात्र दुर्गन्धित है, यह सोच उसे सुगन्धित एवं उत्कृष्ट बनाने हेतु उस पर स्नानीय सुगन्धित द्रव्य थोड़े बहुत न रगड़े, न ही उसे शीतल या गर्म जल से धोए (7) पात्र को सचित्त, स्निग्ध, सचित्त प्रतिष्ठित पृथ्वी पर न सुखाए, (रखे) (8) पात्र को दूंठ, देहली, ऊखल या स्नानपीठ पर न सुखाए, न ही ऊँचे चल-विचल स्थान पर सुखाए, (6) दीवार, भीत, शिला रोड़े या ऐसे ही अन्य ऊंचे हिलने-डुलने वाले स्थानों पर पात्र न सुखाए / (10) खंभे, मचान, ऊपर की मंजिल या महल पर या तलघर में या अन्य कम्पित उच्चस्थानों पर पा न सुखाए / (11) किन्तु पात्र को एकान्त में ले जाकर अचित्त निर्दोष स्थण्डिलभूमि पर धूल आदि पोंछकर यतनापूर्वक सखाए। इसमें नौ सूत्र निषेधात्मक हैं, और दो सूत्र विधानात्मक हैं। शास्त्रकार ने इसमें एक सूत्र और बढ़ा देने का संकेत किया है कि पात्र को सुन्दर व चमकदार बनाने के लिए वह तेल, घी, नवनीत आदि उस पर न लगाए। ‘णाणत्त तेल्लेण वा धएण वा "पंक्ति के अर्थ में मतभेद--ऊपर जो अर्थ हमने दिया है, उसके अतिरिक्त एक अर्थ और मिलता है—“यदि वह पात्र तेल, घृत या अन्य किसी पदार्थ से स्निग्ध किया हुआ हो तो साधु स्थण्डिलभूमि में जाकर वहाँ भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करे, और तत्पश्चात् पात्र को धूलि आदि से प्रमार्जित कर मसल कर रूक्ष बना ले।" परन्तु यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता। 601. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवहि सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 400 के आधार पर 2. आचारांग मूलपाठ सू० 556 से 576 तक वृत्ति सहित पत्रांक 366 आचाराग; अर्थागम प्रथम खण्ड पृ० 137 4. 'एयं खलु तस्स भिक्खस्स' के बदले किसी-किमी प्रति में 'अहभिक्खुस्स' पाठान्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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