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________________ बल अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 184-185 2397 जयमाणे, एत्य विरते अपगारे सव्वतो मुडे रोयंते जे अचेले परिसिते संचिक्सति ओमोयरियाए / से अकुट्ट व हते व लूसिते वा पलियं पगंथं अदुवा पगंथं अतहेहि सद्दफासेहिं ति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिभ्यए जे य हिरी जे य अहिरोमणा / '. 185. चेच्चा सम्वं विसोत्तियं फासे फासे समितदंसणे। .. .. : एते भो णगिणा वुत्ता में लोगसि अणागमणधम्मिणो / ..... . . आणाए मामगं धम्मं / एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिते। . ___एत्योवरते तं शोसमाणे आयाणिज्जं परिणाय परियारण विगिचति / . 1.84.. यहाँ. कई लोग (श्रत-चारित्ररूप) धर्म (मुनि-धर्म) को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं।' ... बह (माता-पिता आदि लोक में या काम-भोगों में) अलिप्त/अनासक्त और (तप, संयम आदि में सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) 1 ___ . समग्र प्रासक्ति. (गद्धि) को (ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत-समर्पित महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धनने में प्रवृत्त होता है / ... ..... . ...... - .... (फिर वह महामुनि) सर्वथा संग (आसक्ति) का (त्याग) करके (यह भावना करे कि) 'मेरा कोई नहीं है, इसलिए 'मैं अकेला हूँ।' बह इस (तीर्थंकर के संघ) में स्थित, (साक्द्य प्रवृत्तियों से) विरत तथा (दविध समाचारी में) यतनाशील.अनगार सब प्रकार से मुण्डित होकर (संयम पालनार्थ) पैदल विहार करता है, जो अल्पवस्त्र या निर्वस्त्र (जिनकल्पी) है, वह अनियत१. इसके बदले चूर्णि में सचिक्खमाणे ओमोदरियाए' पाठ मानकर अर्थ किया गया है-“सम्मं चिट्ठ माणे संचिक्खमाणे"--अवमौदर्य (तप) को सम्यक् चेष्टा (प्रयत्न) करता हुप्रा / अथवा उसमें सम्यक .' रूप से स्थिर होकर 2. इसके बदले पाठान्तर है-'अदुवा पकत्थं, अदुवा पकल्प, अदुवा पग, पलियं पगथे / - अर्थ क्रमशः यों है-"पलियं णाम कम्म""अदुवेति अहवा अन्नेहि चेव जगार-सगारेहिं भिसं कथेमाणो पगंथमाणो।" —पलित का अर्थ कर्म है, (यहाँ उस साधक के पूर्व जीवन के करतब, धंधे या किसी दुष्कृत्य के अर्थ में कर्म शब्द है) अथवा दूसरों द्वारा 'तू ऐसा है, तू वैसा है,' इत्यादि रूप से बहुत भद्दी गालियों या अपशब्दों द्वारा निन्दित किया जाता हुमा..."। अथवा प्रकल्प - प्राचार-आचरण पर छींटाकशी करते हुए"...."अथवा पूर्वकृत दुष्कर्म को बढ़ा-चढ़ा कर नुक्ताचीनी करते हुए..." , 3. इसके बदले 'अहिरीमाणा' पाठ है, अर्थ होता है-- लज्जित न करने वाले / कहीं-कहीं 'हारीणा अहारीणा' पाठ भी मिलता है। अर्थ होता है---हारी= मन हरण करने वाले, प्रहारी= मन हरण न करने वाले। 4. इसके बदले चूर्णि में समोसमाणे' पाठ मानकर अर्थ किया गया है-तं जहोदिजें झोसेमाणे-उसे उद्देश्य या निर्दिष्ट के अनुसार सेवन-पालन करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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