________________ आकाराग ...प्रथम स्कन्धभूत :: .. मत्यागी बनने के कारण और परिणाम--सूत्र 183 के उत्तरार्ध में उस साधक के सच्चे अर्थ में त्यागी और धूतवादी न बनने के कारणों का संपरिणाम उल्लेख किया गया है 'वयं परिग्गहं अवितिष्णा घे ते' वृत्तिकार इसका प्राशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-करोड़ों भवों में दुष्प्राप्य मनुष्य जन्म को पाकर, पूर्व में उपलब्ध, संसार सागर को पार करने में समर्थ बोधि-नौका को अपनाकर, मोक्ष-तरु के बीज रूप सर्वविरति-चारित्र को अंगीकार करके, काम की दुनिवारता, मन की चंचलता, इन्द्रिय-विषयों की लोलुपता और अनेक जन्मों के कुसंस्कारवश वे परिणाम और कार्याकार्य का विचार न करके, अदूरदर्शिता पूर्वक महादुःख रूप सागर को अपनाकर एवं वंशपरम्परागत साध्वाचार से पतित होकर कई व्यक्ति मुनि-धर्म (धूतबाद) को छोड़ बैठते हैं। उनमें से कई तो वस्त्र, पात्र प्रादि धर्मोपकरणों को निरपेक्ष होकर छोड़ देते हैं और देशविरति अंगीकार कर लेते हैं, कुछ केवल सम्यक्त्व' का पालम्बन लेते हैं, कई इससे भी भ्रष्ट हो जाते हैं।' मुनि-धर्म को छोड़कर ऐसे अत्यागी बनने के तीन मुख्य कारण यहाँ शास्त्रकार ने बताये हैं--- (1) असहिष्णुता-धीरे-धोरे क्रमशः दुःसह परीषहों को सहन न करना / . .. (2) काम-आसक्ति-विविध काम-भोगों का उत्कट लालसावश स्वीकार / (3) अतृप्ति—अनेक विघ्नों, विरोधों (द्वन्द्वों) एवं अपूर्णताओं से भरे कामों से अतृप्ति / इसके साथ ही इनका परिणाम भी यहाँ बता दिया गया है कि वह दीक्षात्यागी दुर्गति को न्यौता दे देता है, प्रवज्या त्याग के बाद तत्काल, मुहूर्तभर में या लम्बी अवधि में भी शरीर छूट सकता है और भावों में अतृप्ति बनी रहती है। . निष्कर्ष यह है कि भोग्ध पदार्थों और भोगों के संग का परित्याग न कर सकना हो सर्वविरतिचारित्र से भ्रष्ट होने का मुख्य कारण है / / विषय-विरतिरूप उत्तरवार ... .. 184. अहेगे धम्ममावाय आवाणप्पमिति सुप्पणिहिए चरे' अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गेहि परिण्णाय / एस पणते महामुणी अतियच्च सवओ संगं ‘ण महं अस्थि' ति, इति एगो अहमंसि, 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 218 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 218 / 3. 'चर' क्रिया, यहाँ उपदेश अर्थ में है, 'चर इति उवदेसो', धम्म चर 'धर्म का प्राचरण कर'-चूणि / 4. 'अप्पलीयमाणे' का अर्थ चूणि में इस प्रकार है-- 'अप परिवर्जने लीणो विसंय-कसायादि'-विषय कषायादि से दूर रहते हुए। 5. 'सम्वं गंथं परिष्णाय' का चूणि में अर्थ-'सव्वं निरवसेस गथो गेही' समस्त ममत्व की गांठ-गद्धि को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग कर....। 6. किसी प्रति में ‘एगो महमति' पाठ है, अर्थ है "तुम एक और महान हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org