________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 183 205 'वसु वा अणुवसु वा'- ये दोनों पारिभाषिक शब्द दो कोटि के साधकों के लिए प्रयुक्त हुए हैं / वृत्तिकार ने वसु और अनुवसु के दो-दो अर्थ किए। वैसे, वसु द्रव्य (धन) को कहते हैं / यहाँ साधक का धन है—वीतरागत्व, क्योंकि उसमें कषाय, राग-द्वेष मोहादि की. कालिमा बिलकुल नहीं रहती.। यहाँ वसु का अर्थ वीतराग (द्रव्यभूत) और अनुवसु का अर्थ है सराग / वह वसु (वीतराग) के अनुरूप दिखता है, उसका अनुसरण करता है, किन्तु सराग होता है, इसलिए संयमी साधु अर्थ फलित होता है अथवा वसु का अर्थ महाव्रती साधु और अनुवसु का अर्थ-अणुव्रती श्रावक-ऐसा भी हो सकता है। ___ 'अहेगे तमचा कुसोला'- शास्त्रकार ने उन साधकों के प्रति खेद व्यक्त किया है, जो सभी पदार्थों का संयोग छोड़कर, उपशम प्राप्त करके, गुरुकुलवास करके अथवा प्रात्मा में विचरण करके धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी मोहोदयवश धर्म-पालन में अशक्त बन जाते हैं / धर्म-पालन में अशक्त होने के कारण ही वे कुशील (कुचारित्री) होते हैं। चूर्णिकार ने भी 'अच्चाई' शब्द मानकर उसका अर्थ 'प्रशक्तिमान' किया है। यद्यपि 'अच्चाई' का संस्कृत रूपान्तर 'अत्यागी' होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने बाहर से पदार्थों को छोड़ दिया, कषायों का उपशम भी किया, ब्रह्मचर्य भी पालन किया, शास्त्र पढ़कर धर्मज्ञाता भी बन गया, परन्तु अन्दर से यह सब नहीं हुआ। अन्तर् में पदार्थों को पाने की ललक है, निमित्त मिलते ही कषाय भड़क उठते हैं, ब्रह्मचर्य भी केवल शारीरिक है या गुरुकुलवास भी औपचारिक है, धर्म के अन्तरंग को स्पर्श नहीं किया, इसलिए बाहर से धूतवादी एवं त्यागी प्रतीत होने पर भी अन्तर् से अधूतवादी एवं अत्यागी ‘अचाई' है / / दशवैकालिकसूत्र में निर्दिष्ट अत्यागी और त्यागी का लक्षण इसो कथन का समर्थन करता है-'जो साधक वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियां, शय्या, ग्रासन आदि का उपभोग अपने अधीन न होने से नहीं कर पाता, (मन में उन पदार्थों को पाने की लालसा बनी हुई है) तो वह त्यागी नहीं कहलाता। इसके विपरीत जो साधक कमनीय-प्रिय भोग्य पदार्थ स्वाधीन एवं उपलब्ध होने या हो सकने पर भी उनकी ओर पीठ कर देता है , ( मन में उन वस्तुओं की कामना नहीं करता), उन भोगों का हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है।' निष्कर्ष यह है कि बाह्यरूप से धूतवाद को अपनाकर भी संग-परित्याग रूप धूत को नहीं अपनाया, इसलिए वह संग-प्रत्यागी ही बना रहा / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217 / 2. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217, (ख) प्राचारांग चूणि-प्राचा० मूल पृ० 61 / 3. देखें, दशवकालिकसूत्र अ० 2, गा० 2-3-- वत्थगन्धमलकार, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुजति न से चाइत्ति बुच्चइ // 2 // जे य कंते पिए मोए, लढे वि पिट्ठीकुम्वइ / साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति बुच्चइ // 3... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org